बीजापुर

81 साल के रिटायर्ड वनकर्मी के बगीचे के मीठे आम दूर-दूर तक चर्चित
01-Jun-2025 10:10 PM
81 साल के रिटायर्ड वनकर्मी के बगीचे के मीठे आम दूर-दूर तक चर्चित

 2000 में उगाया, सालाना आमदनी डेढ़ लाख

मो. इमरान खान

भोपालपटनम, 1 जून (‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता)। चापा कन्हैया और उनकी पत्नी सुभद्रा चापा की कहानी वाकई प्रेरणादायक है। 81 साल की उम्र में भी वे इतने सक्रिय हैं और अपने आमों से इतनी अच्छी कमाई कर रहे हैं। मेहनत और लगन की कोई उम्र नहीं होती। उनके मीठे आमों की प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैलना भी उनकी कड़ी मेहनत का ही नतीजा है।

केसईगुड़ा के चापा कन्हैया सेवानिवृत्त वनपाल है, अपने मीठे आमों के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने 2000 में अपने बगीचे में आम के पेड़ लगाए थे, जिससे उन्हें सालाना डेढ़ लाख रुपये की आय होती है। उनकी 78 वर्षीय पत्नी सुभद्रा चापा भी इस काम में अपने पति का हाथ बंटाती हैं।

वर्ष 2000 में चापा कन्हैया ने अपने बगीचे में आम के पेड़ लगाए थे, जिनसे उन्हें अब सालाना डेढ़ लाख रुपये की आय होती है। शुरुआती निवेश और निरंतर मेहनत से लंबे समय में अच्छा प्रतिफल मिल सकता है।

 वह 1962 में नौकरी में लगे थे और सन 2004 में सेवानिवृत्त हुए है। चापा कन्हैया ने 2006-07 से अपने बगीचे के आम बेचना शुरू किए और 2010 के बाद तो उनकी फसल में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई। उनकी मेहनत और सही देखरेख का नतीजा उन्हें कुछ ही सालों में मिलने लगा। उन्होंने पमालवाया से 150 आम के पेड़ लाकर अपने बगीचे की शुरुआत कि थी।

चापा कन्हैया के बगीचे में विविध प्रकार की आम की किस्में हैं। उनके पास तोतापल्ली, बैगनपल्ली, और दशहरी आम हैं। ये सभी भारत में आम की कुछ सबसे लोकप्रिय और स्वादिष्ट किस्में हैं, जिनकी अपनी अलग-अलग खासियतें हैं। चापा कन्हैया  ने इतनी बेहतरीन किस्मों को अपने बगीचे में उगाया है। जिससे उनके आमों की दूर-दूर तक प्रसिद्धि है।

पहले उगाते थे सब्जियां, अब

आम के पेड़ घने हो गए

चापा कन्हैया के बगीचे में पहले जो पपीता, केला और सब्जियाँ उगती थीं, उनके लिए अब जगह और धूप की कमी हो गई है। आम के पेड़ों की सघनता के कारण अब वहाँ सब्जियाँ उगाना वाकई मुश्किल हो गया है। आम के पेड़ों की वृद्धि ने बगीचे के स्वरूप को बदल दिया है।

तबीयत खराब होने के बावजूद चापा कन्हैया का कहना कि कोई दिक्कत नहीं आती है, मेहनत करता हूं छोटी-मोटी स्वास्थ्य संबंधी बाधाएं उनके काम करने के जज्बे को कम नहीं कर पाई हैं। यह उनकी कड़ी मेहनत और अपनी ज़मीन से जुड़ाव का ही परिणाम है कि वह आज भी इतने सक्रिय और सफल हैं।


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