बलौदा बाजार

बलौदाबाजार में राजस्थान से पहुंचे बहरूपिया
30-Sep-2025 4:29 PM
बलौदाबाजार में राजस्थान से पहुंचे बहरूपिया

‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
 बलौदाबाजार, 30 सितम्बर।
बहरूपिए जो भारतीय लोक संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा हुआ करते थे। आज धीरे-धीरे विलुप्त की ओर बढ़ रहे हैं। खासकर दिवाली के पहले नवरात्र के समय शहर के गली मोहल्ले में अलग-अलग रूप धारण कर मनोरंजक भंगिमा के साथ घूमते दिखाई देते थे, मगर अब ऐसा नजारा बहुत कम देखने को मिलता हैं। 

बहरूपियों के लिए यह पेशा पहले गांव और छोटे कस्बो में मनोरंजन और संस्कृत शिक्षा का एक प्रमुख साधन था। पहले बहरूपियों का गांव में प्रवेश होते ही बच्चों का झुंड पीछे उनके पीछे दौड़ता था। उनके विभिन्न रूपों और परिधानों से प्रभावित होकर लोग उन्हें सम्मान और भेंट देते थे। गांव के लोग उन्हें श्रद्धा भाव से देखते थे। और उनकी कला की सराहना करते थे।

जब हम इस पर परंपरा को किसी बहरूपिए से उसकी राय पूछते हैं तो अक्सर निराशा और हताशा उनके शब्दों में झलकती हैं। बस पुराना पेशा है, इसलिए कर रहे हैं। इससे पता चलता है कि उनके लिए यह मात्र आजीविका का साधन मात्र हैं। पहले जिस सम्मान और प्रतिष्ठा के साथ लोग इस कला को देखते थे, वह दौर कहीं खो गया है।

 रावण का भेस धारण कर अपनी कला का प्रदर्शन करने राजस्थान से आए बहरूपिए श्रवण कुमार का कहना है कि अब मन से इस काम को करने की उत्सुकता नहीं रही और इसका प्रमुख कारण है कि समाज का बदलता दृष्टिकोण, आधुनिक मनोरंजन के साधनों जैसे टेलीविजन इंटरनेट और सिनेमा ने लोगों का ध्यान खींच लिया है और बहरूपियों की कला का आकर्षण कम होता जा रहा हैं।
 

 

 उदयपुर से आए बहरूपिया भैरव सिंह का कहना है कि बच्चों का वह उत्स ह जो कभी बहरूपियों के प्रति था अब नदारत हो चुका हैं। अब उन्हें पहले जैसा सम्मान और आदर सत्कार नहीं मिलता। पहले जहां लोग उन्हें भोजन और पैसे भेंट करते थे अब उन्हें नजर अंदाज किया जाता हैं।
शहर के पुरानी बस्ती निवासी बुजुर्ग मनहरण कनोजे का कहना है कि यह स्थिति न केवल बहरूपियों के लिए चिंताजनक है, बल्कि हमारी समृद्ध लोक संस्कृति के लिए भी एक खतरा हैं। यदि समाज में बहरूपियों और अन्य लोक कलाकारों की स्थिति को सुधारने के प्रयास नहीं किए गए तो यह अनमोल कला और संस्कृति धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी। इसके लिए जरूरी है कि सरकार और समाज मिलकर इन कलाकारों की संरक्षण के लिए कदम उठाए ताकि वे अपनी कला को जीवित रख सके और अगली पीढ़ी को इस सोप सकें। 
बहरूपिया कला को मोबाइल और सोशल मीडिया ने प्रभावित किया 
मां मावली मंदिर समिति के अध्यक्ष देवेंद्र वैष्णव का कहना है कि समय के साथ तकनीकी प्रगति टेलीविजन मोबाइल फोन और सोशल मीडिया के आगमन ने बहरूपियों के पारंपरिक पेशे को बुरी तरह प्रभावित किया हैं। आज की युवा पीढ़ी जो डिजिटल मनोरंजन की विभिन्न साधनों से घिरे हुए हैं लोक कलाकारों की ओर ज्यादा ध्यान नहीं देती। आज के युवाओं की रुचि तेजी से बढ़ गई हैं। वे आधुनिक तकनीकी और अंतरराष्ट्रीय संस्कृति प्रभावों के बीच जी रहे हैं जिससे पारंपरिक लोक कलाओं की और उनका ध्यान कम होता जा रहा हैं। इसके साथ ही गांव का शहरीकरण शिक्षा का प्रसार और रोजगार की तलाश में हो रहे पलायन ने भी बहरूपियों के लिए स्थिति को और कठिन बना दिया हैं। 
मनोरंजन तक सीमित नहीं थे सामाजिक सरोकार भी था 
वरिष्ठ नागरिक व दशहरा उत्सव समिति के अध्यक्ष रमेश सोनी का कहना है कि बहुरूपियों का काम केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं था बल्कि वे सामाजिक और धार्मिक संदेश भी प्रसारित करते थे। रामकृष्ण, शिव, महात्मा गांधी, वीर योद्धा जैसे ऐतिहासिक और धार्मिक पत्रों का रूप धारण करके वे लोगों को सीख देते थे। इन चित्रों के माध्यम से हुए सामाजिक समाज में व्यक्त कुर्तियां और अज्ञानता को दूर करने का प्रयास करते थे। महापुरुषों का रूप धारण हुए लोगों को प्रेरित करते थे। खासकर ग्रामीण इलाकों में जहां लोगों की जानकारी सीमित होती थी बहरूपियों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती थी। उनके माध्यम से लोग ऐतिहासिक घटनाओं धार्मिक कथाओं और सामाजिक मुद्दों से रूबरू होते थे।


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