संपादकीय
भारत के नए संसद भवन का शिलान्यास उस वक्त किया गया है जब सुप्रीम कोर्ट ने इसके निर्माण पर रोक लगाकर रखी है। खींचतान कर अदालत से सरकार ने इस भूमिपूजन और शिलान्यस की इजाजत ली थी, और आज देश की बदहाली के बीच हजार करोड़ के बजट वाली यह इमारत बनाने पर सरकार आमादा है। मौजूदा संसद भवन एक सदी पुराना भी नहीं है, और इसे छोटा बताया जा रहा है। देश का मीडिया लिख रहा है कि दुनिया के बहुत से देशों में संसद की इमारतें सदियों पुरानी हैं। हालैंड की संसद की इमारत13वीं सदी में बनी है, अमरीका की संसद भवन सन् 1800 में बनी है, और उसे दो सदी से अधिक हो गए हैं। ब्रिटिश संसद की इमारत 1840 और 1870 में बनी है। इटली की संसद की इमारत 16वीं सदी में बनी है। फ्रांस की संसद 1615 से 1645 के बीच बने भवन में लगती है। भारत का संसद भवन 1927 में बनकर तैयार हुआ था, और अब इसे छोटा बताकर एक नया ही भवन बनाया जा रहा है।
अभी जब सुप्रीम कोर्ट ने इस भवन निर्माण पर रोक लगाई हुई है, तो जाहिर है कि शिलान्यास और भूमिपूजन करके निर्माण करने की कोई हड़बड़ी तो थी नहीं। ऐसे में जब किसान इसी दिल्ली के किनारे सडक़ों पर धरना दिए हुए एक पखवाड़े से खुली ठंड में पड़े हैं, वहां कुछ मौतें भी हो गई हैं। आज देश में राजनीतिक बकवासों से परे सिर्फ एक ही मुद्दे पर चर्चा चल रही है, और वह किसानों का मुद्दा है। इस बीच नए संसद भवन को बनाने के लिए समारोहपूर्वक पूजा का मौका कुछ अटपटा है, और ऐसा लगता है कि किसी भी संवेदनशील लोकतंत्र को आज इससे बचना चाहिए था, क्योंकि निर्माण पर तो सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाई हुई ही है। अब कहने के लिए यह कहा जा सकता है कि संसद भवन के लिए शिलान्यास का फैसला लोकसभा अध्यक्ष का है जो कि संसद परिसर के मुखिया माने जाते हैं, लेकिन उन्हें अध्यक्ष बनाने वाली भाजपा और उसके प्रधानमंत्री की औपचारिक या अनौपचारिक सहमति के बिना तो ऐसा कोई कार्यक्रम लोकसभा अध्यक्ष ने तय किया नहीं होगा।
भारत का मौजूदा संसद भवन भारी भव्यता वाला है, और यह भी अपने आपमें एक फिजूलखर्ची वाली शाही फितरत की इमारत रही। लेकिन वह वक्त अंग्रेज राज का था जो कि राजसी मिजाज वाला ही था, और जिसने अपने खुद के देश और गुलाम देशों में पश्चिमी वास्तुशिल्पियों से ऐसी ही शाही इमारतें बनवाई थीं। आज अंग्रेजों के वक्त के बनाए गए सडक़ और रेल के पुल तो सौ बरस बाद भी मजबूती के साथ काम कर रहे हैं, इसलिए संसद भवन की मजबूती को लेकर कोई शक नहीं हो सकता। पिछले कई दशकों में ऐसा भी सुनाई नहीं पड़ा कि संसद भवन का कोई हिस्सा जर्जर होकर गिर गया हो, और वह लोगों के लिए खतरा बन गया हो। इसलिए नए संसद भवन की सोच पहली नजर में हम एक बहुत बड़ी फिजूलखर्ची लगती है। अगर संसद का काम पिछली पौन सदी में बढ़ते-बढ़ते इतना बढ़ गया है कि उसके दफ्तर के लिए जगह कम पडऩे लगी हैं, तो दफ्तर की कोई इमारत आसपास की लगी हुई जगह पर बनाकर उससे संसद भवन को जोड़ा जाना चाहिए था, न कि संसद के लिए ही नई इमारत बनाना।
हम लोकसभा और राज्यसभा दोनों की कार्रवाई टीवी पर देखते हैं, और सेंट्रल हॉल में दोनों सदनों के संयुक्त सत्रों को भी देखते हैं, इनमें से किसी में भी जगह कम नहीं पड़ती। इससे परे लोगों को बीबीसी टीवी पर ब्रिटिश संसद की कार्रवाई देखनी चाहिए जहां भारतीय लोकसभा की तरह निम्न सदन, हाऊस ऑफ कॉमन्स के दरवाजे पर सांसद खड़े रहते हैं, और सीट खाली होने का इंतजार करते हैं। वहां संसदीय सीटों की संख्या बढ़ गई लेकिन ब्रिटिश संसद ने अपने सदन में सीटें नहीं बढ़ाईं, इसलिए वहां सारे सदस्य एक साथ नहीं बैठ सकते। कुछ न कुछ सांसद दरवाजे पर खड़े रहते हैं, और सीट खाली होने पर जाकर बैठते हैं। दूसरी तरफ उसी ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था पर बनी हुई भारतीय संसद में तो अभी 6 बरस पहले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहली बार पांव धरते हुए वहां माथा टिकाया था, और इन 6 बरसों में ही वह संसद भवन नाकाफी लगने लगा!
हजार करोड़ की लागत से यह नया संसद भवन बनाया जा रहा है। लोकसभा और राज्यसभा के सांसदों की गिनती करें तो प्रति सांसद इस भवन की लागत करीब एक-सवा करोड़ रूपए आएगी। आज जब देश में फटेहाली है, गरीबी और बेरोजगारी है, जब अन्नदाता किसान सडक़ों पर मर रहा है, तब देश की संसद का अपने ऊपर यह निहायत गैरजरूरी और नाजायज है। होना तो यह चाहिए कि सांसद किफायत और सादगी में जीकर अपने विचार-विमर्श, बहस और तर्क-वितर्क बेहतर बनाते, लेकिन वह तो हो नहीं रहा। संसद अप्रासंगिक हो चुकी है, और एक संवैधानिक जरूरत की तरह वहां ध्वनिमत से काम चल रहा है। ऐसी संसद जिसने अपनी बुनियादी भूमिका खो दी है, उस संसद को इतनी फिजूलखर्ची का कौन सा नैतिक हक हो सकता है? और फिर सरकार में खर्च के न्यायोचित रहने का एक सिलसिला होता है। जब कोई भी सरकारी निर्माण अपनी उम्र खो बैठता है, जब वह खतरनाक हो जाता है, तब उसकी जगह नई इमारत बनाई जाती है। आज तो संसद की इमारत का कोई खतरा सुनाई नहीं पड़ा था, और अब जब पूरी दुनिया में कागजों का काम घट रहा है, और वह कम्प्यूटरों पर आ रहा है, तब तो संसद के लिए जगह कम लगनी चाहिए थी। सुप्रीम कोर्ट में नए संसद भवन के खिलाफ यह तर्क भी सामने आया है कि संसद भवन और आसपास की इमारतों का विकल्प तैयार करने के लिए सरकार उस इलाके पर 20 हजार करोड़ रूपए खर्च करने जा रही है। अभी भूमिपूजन के मौके पर प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा जारी सूचना में सरकार ने यह कहा है कि नया संसद भवन आत्मनिर्भर भारत के दृष्टिकोण का एक हिस्सा रहेगा। इसी बयान में बताया गया है कि लोकसभा अपने मौजूदा आकार से तीन गुना बड़ी रहेगी, और राज्यसभा भी पर्याप्त बड़ी रहेगी। यह भी कहा गया है कि सदस्यों के लिए बैठने का और अधिक आरामदेह इंतजाम रहेगा।
अब सवाल यह है कि सांसदों को और कितने आराम की जरूरत है? जब देश में आराम-हराम हो की नौबत है, जब हर हिस्से में तरह-तरह की नकारात्मक बातें हो रही हैं, तो उनकी चर्चा करने के लिए सांसदों को और कितना आराम चाहिए? दिल्ली में जानकार विशेषज्ञों ने सुप्रीम कोर्ट में इस बात पर आपत्ति की है कि नया भवन 900 से 1000 लोकसभा सदस्यों का अनुमान लगाकर बनाया जा रहा है जो आज से करीब दोगुने का है। अदालत में यह कहा गया है कि लोकसभा सीटों के पुनर्गठन की अगली बैठक ही 2031 में होनी है, और उसमें आज की 543 सीटों को बढ़ाने पर विचार होगा। उस पुनर्गठन आयोग से परे सीटें बढ़ाने का फैसला और कोई नहीं ले सकते। ऐसे में आज सरकार एक अनुमान लगाकर लोकसभा के आकार को तीन गुना और सीटों को करीब दो गुना करने जा रही है जो कि बेवक्त की बात है।
हमारा बहुत साफ मानना है कि हिन्दुस्तान के सारे राष्ट्रीय आर्थिक आंकड़ों से परे हकीकत यह है कि यह एक बहुत गरीब देश है। इसमें एक फीसदी ऐसे रईस हैं जिनके पास देश की 58 फीसदी दौलत है। उनसे परे भी गरीबों और मध्यमवर्गीयों के बीच बहुत बड़ा फासला है। इसलिए इस देश को किफायत की जरूरत है न कि ऐसी आत्मनिर्भरता की जिसका इस्तेमाल अगले सौ-दो सौ बरस भी शायद न हो सके। जब देश की जनता पूरी जिंदगी रेलगाडिय़ों में फर्श पर बैठकर या पखाने में घुसकर सफर करने को मजबूर है, तब लोकसभा में जरूरत पडऩे पर मौजूदा भवन की ही क्षमता कुछ बढ़ाई जा सकती है। गरीब देश की अमीर संसद का यह प्रदर्शन हिंसक और अश्लील है। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट में एक बार फिर इस बात पर बहस छिड़ी है कि क्या देश के आरक्षित तबकों में, खासकर अनुसूचित जाति, और अनुसूचित जनजाति में किसी तरह की क्रीमीलेयर लागू करनी चाहिए ताकि उन समुदायों के बीच आरक्षण के फायदे उन लोगों तक भी पहुंच सकें जो कि समान अवसरों को पाने की तैयारी में बहुत अधिक पिछड़े हुए हैं। इनमें से पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए तो क्रीमीलेयर लागू है ताकि उनमें सबसे संपन्न लोग, उन्हीं के बच्चे ओबीसी आरक्षण के फायदों के अकेले हकदार न रह जाएं, और उन समुदायों के कमजोर तबकों के लोगों को इस आरक्षण का अधिक फायदा मिले। दूसरी तरफ जब एसटी-एससी तबकों के लिए आरक्षण की बात आती है, तो इन्हीं तबकों के हिमायती नेता एक बवाल खड़ा करते हैं कि दलितों और आदिवासियों में सामाजिक परिस्थितियां इतनी अलग हैं कि एक पीढ़ी को आरक्षण का फायदा देकर उसके बाद उसे फायदे से बाहर कर देने से वह सामाजिक बराबरी की नौबत में नहीं पहुंच जाती। एक प्रमुख दलित-आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता का यह मानना है कि आरक्षण का यह फायदा कम से कम तीन पीढ़ी तक जारी रहना चाहिए तब कोई दलित-आदिवासी परिवार सदियों के सामाजिक अन्याय से बाहर आ सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने जो सवाल उठाया है उसके 10-20 बरस पहले से मैं दलित-आदिवासी तबकों के भीतर से क्रीमीलेयर को पढ़ाई और नौकरी के आरक्षण से बाहर करने की वकालत करते आया हूं। इसके पीछे सरल और सहज तर्क यह है कि इन दोनों किस्म के आरक्षणों में इन तबकों के एक फीसदी लोगों को भी मिलने जितने मौके नहीं रहते हैं। अगर किसी दलित के लिए एक सीट है, तो शायद कई सौ या कई हजार दलित उम्मीदवार उसके लिए रहते हैं। ऐसे में एक परिवार जिसे एक बार नौकरी का फायदा मिल चुका है, जो एक दर्जे से ऊपर के सार्वजनिक, सरकारी, अदालती, या किसी और किस्म के जनसेवक के ओहदे पर पहुंच चुके हैं, उनके बच्चों को आरक्षण के फायदे से बाहर करना चाहिए। वे ऐसी हालत में पहुंच चुके रहते हैं कि वे अपने बच्चों को आगे की पढ़ाई और नौकरी के मुकाबलों के लिए बेहतर तैयार कर सकते हैं। अब अगर हम यहां पर तीन पीढ़ी के तर्क को लागू करें, तो क्रीमीलेयर में पहुंच चुके और ताकतवर हो चुके दलित या आदिवासी की अगली दो पीढिय़ां भी आरक्षण का फायदा पाने की हकदार रहेंगी। हकदार रहने के साथ-साथ वे ताकतवर भी होती जाएंगी ताकि वे अपनी बिरादरी के बाकी लोगों के साथ होने वाले मुकाबले में बेहतर तैयार रहें, अधिक मजबूत रहें। करोड़पति हो चुके एक दलित या आदिवासी के बच्चों को आगे भी ऐसे मौके देना उनके साथ तो इंसाफ हो सकता है, लेकिन यह उन्हीं आरक्षित तबकों के तीन चौथाई, या उससे भी अधिक 90 फीसदी कमजोर लोगों के साथ बेइंसाफी ही रहेगी जो कि समान मौकों के मुकाबले के लिए तैयार ही नहीं हो पाते हैं। इस तरह आज आरक्षित तबकों के भीतर संपन्न, ताकतवर, और बेहतर शिक्षित लोगों का एक ऐसा आभिजात्य वर्ग तैयार हो गया है जो कि एक फौलादी मलाई की शक्ल में मौकों और तबके के लोगों के बीच जमकर बिछ गया है। इस फौलादी मलाई को चीरकर नीचे के कमजोर और विपन्न लोग, पहली पीढ़ी के शिक्षित लोग, किसी भी मुकाबले में बराबरी की तैयारी नहीं कर पाते।
जो लोग यह सोचते हैं कि तीन पीढ़ी तक आरक्षण का फायदा मिले बिना किसी परिवार का सामाजिक पिछड़ेपन से, सामाजिक शोषण से उबर पाना मुमकिन नहीं है, वे लोग महज क्रीमीलेयर के लिए फिक्रमंद शहरी, शिक्षित, संपन्न, और ताकतवर लोगों के हिमायती लोग हैं। आरक्षण की पूरी सोच जिस सामाजिक और आर्थिक शोषण से तबकों को उबारने के लिए है, उन तबकों के भीतर ही लोग सामाजिक और आर्थिक रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी पिछड़ते चले जाएं, यह सामाजिक न्याय नहीं होगा, यह आर्थिक न्याय नहीं होगा, यह किसी भी किस्म का न्याय होगा।
दिक्कत वहां खड़ी होती है जहां आरक्षित तबकों के बाहर के लोग (जिनमें यह लेखक भी शामिल है) इस बात को उठाते हैं, उस वक्त गैरगंभीर बहस में तो कुछ लोग इसे ऐसा भावनात्मक नारा भी बनाने की कोशिश करते हैं कि मानो आरक्षण को खत्म करने की कोई बात हो रही है। इसलिए इस बहस के बीच भी इस बात का खुलासा जरूरी है कि यह तमाम तर्क आरक्षण को किसी भी तरह से घटाने की बात नहीं कर रहा है, यह महज आरक्षित तबकों के भीतर एक अधिक तर्कसंगत और न्यायसंगत बंटवारे की बात कर रहा है।
आज दिक्कत यह है कि जब कभी संसद में दलित-आदिवासी तबकों में से क्रीमीलेयर को आरक्षण के फायदों से बाहर करने की बात होगी, संसद में कानून बनाने वाले सांसदों के अपने बच्चे ऐसे किसी प्रतिबंध से फायदे से बाहर हो जाएंगे। जिन अफसरों को सरकार में बैठकर प्रस्ताव तैयार करने होते हैं, उनके बच्चे भी क्रीमीलेयर में गिनाकर फायदे से बाहर हो जाएंगे। इसलिए दलित-आदिवासी तबकों की क्रीमीलेयर के वर्गहित में यह नहीं है कि उस क्रीमीलेयर पर किसी तरह की रोक लगे, उसे आरक्षण के फायदों से किसी तरह बाहर किया जाए। यह सीधे-सीधे हितों के टकराव का एक मामला है जिसमें क्रीमीलेयर यह तर्क देने लगती है कि आरक्षण का फायदा कम से कम तीन पीढ़ी जारी रहना चाहिए।
जिस सामाजिक-आर्थिक अन्याय के खिलाफ आरक्षण की व्यवस्था बनाई गई थी, उसी अन्याय को अब आरक्षित तबकों के भीतर बढ़ावा दिया जा रहा है, और समाज के नेता बने हुए लोग, समाज के ताकतवर लोग यह काम कर रहे हैं। अन्याय के शिकार आरक्षित तबकों के तीन चौथाई लोग तो कभी भी ऐसी फौलादी क्रीमीलेयर में छेद करके अवसरों के आसमान तक नहीं पहुंच पाएंगे, वे महज सतह के नीचे रह जाएंगे।
सुप्रीम कोर्ट में भी आज जो बहस चल रही है, वह इन आरक्षित तबकों के भीतर के कमजोर वर्गों के बारे में बात कर रही है। लेकिन हम जातियों के आधार पर आरक्षित तबकों के भीतर बंटवारा करने के बजाय आर्थिक और ताकतवर ओहदों के आधार पर अवसरों के बंटवारे की वकालत बेहतर समझते हैं। जाति के आधार पर आरक्षण तो हो चुका है, अब ओबीसी की तरह जाति के भीतर अधिक पिछड़ी जाति जैसी बात दलित और आदिवासी तबकों पर अगर लागू की जाती है, तो वह एक बहुत जटिल चुनौती रहेगी। शायद आरक्षित तबकों के भीतर यह तरीका अकेला मुमकिन और कारगर तरीका रहेगा कि संपन्नता और सरकारी-सार्वजनिक ओहदों को क्रीमीलेयर का पैमाना बनाया जाए, आरक्षण पाई हुई एक पीढ़ी अगर ऐसे ओहदों तक पहुंच गई है, ऐसी संपन्नता तक पहुंच गई है कि वह अपने बच्चों को बेहतर तैयार करने की हालत में हैं, तो उसे नौकरी और पढ़ाई के आरक्षण से बाहर करना चाहिए। तभी एक सामाजिक न्याय की बात हो सकेगी। और अगर, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही है, आरक्षित जातियों के भीतर अधिक पिछड़ी और अधिक कमजोर जातियों के आधार पर इन तबकों के आरक्षण-ढांचे में फेरबदल किया जाता है, तो उस फेरबदल के साथ भी क्रीमीलेयर की शर्त जोड़ी जानी चाहिए। हम गिने-चुने परिवारों को बार-बार आरक्षण का फायदा देकर आरक्षित जातियों के भीतर एक अनारक्षित जैसी ताकत के हिमायती नहीं हैं। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मोबाइल फोन पर एक गेम खेलते हुए एक छोटे बच्चे की खुदकुशी सामने आई है। यह बात दिल को दहलाने वाली है, और यह हादसा अपने आपमें अकेला नहीं है, हर कुछ हफ्तों में कोई बच्चा इसी तरह कुछ खेलते हुए जान दे रहा है। मोबाइल पर किसी एक गेम पर प्रदेश की सरकारें या देश की सरकार रोक लगाती हैं, और या तो उससे बचकर लोग यह खेलते रहते हैं, या फिर कोई नया कातिल-वीडियो खेल सामने आ जाता है। आज हालत यह है कि मोबाइल फोन के भयानक इस्तेमाल के चलते छोटे-छोटे दुधमुंहे बच्चे भी बड़ों को देख-देखकर उस पर वीडियो देखे बिना खाने-पीने से मना कर देते हैं, और उनको कुछ खिलाने के चक्कर में मां-बाप तुरंत समझौता कर लेते हैं।
अब चौथाई सदी पहले तक हिन्दुस्तान में जो फोन किसी ने देखा-सुना नहीं था, उसने इस भयानक रफ्तार से, और इस भयानक हद तक घुसपैठ कर ली है कि पति-पत्नी में फोन के बुरी तरह इस्तेमाल को लेकर तलाक की नौबत आ रही है, अपनी मर्जी का फोन पाने के लिए जिद करते हुए बच्चे मांग पूरी न होने पर खुदकुशी कर रहे हैं। फोन पर तरह-तरह के एप्लीकेशन के चलते लोग लापरवाही में अपनी फोटो या वीडियो बांट रहे हैं, और उसके फैल जाने पर जान ले रहे हैं, या जान दे रहे हैं। कुल मिलाकर टेक्नालॉजी और उसके इस्तेमाल को लेकर लोगों में समझ की कमी खूनी हुई जा रही है। डिजिटल नशा सिर चढक़र बोल रहा है, और दुनिया के दूसरे कई देशों की तरह इसके नशे से नशामुक्ति करवाने के लिए हिन्दुस्तान में भी अभियान चलाने की जरूरत आ खड़ी हुई है।
दुनिया के बाल मनोचिकित्सकों का मानना है कि छोटे बच्चों के सामने फोन, कम्प्यूटर, या टीवी, किसी भी तरह की स्क्रीन एक दिन में तीस मिनट से अधिक नहीं रहनी चाहिए, वरना उनकी दिमागी सेहत पर, उनकी आंखों पर इसका बुरा असर पड़ता है। लेकिन बच्चों के इर्द-गिर्द रहने पर भी परिवार के बड़े लोग अपनी जरूरत, अपने शौक, या अपनी लत के चलते हुए ऐसे तमाम डिजिटल उपकरणों का घंटों इस्तेमाल करते हैं, और उनके चाहे-अनचाहे छोटे बच्चे भी इसका शिकार हो रहे हैं। सरकारें तो किसी खूनी खेल पर कानूनी रोक लगाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर रही हैं, लेकिन घर के भीतर ऐसे प्रतिबंधित खेलों से परे परिवार के लोग कितनी देर तक किस स्क्रीन पर क्या देखते हैं, इस पर तो न कोई सरकार निगरानी रख सकती, न इसे रोकने का कोई कानून बन सकता। लोगों को खुद ही अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी, और अपने न सही, अपने बच्चों के भले के लिए तमाम किस्म के डिजिटल उपकरणों का रोजाना का एक ऐसा कोटा तय करना होगा जिससे कि बच्चों के सामने ये सामान कम से कम शुरू हों।
यह भी समझने की जरूरत है कि बच्चों के दिमाग विकसित होने के जो शुरूआती बरस रहते हैं, उसमें उनके सामने कल्पनाएं अधिक महत्वपूर्ण रहती हैं, बजाय रेडीमेड फिल्मों के, या कि गढ़े हुए संगीत के। जब वे खुद कुछ लकीरें बनाते हैं, या चीजों को ठोक-बजाकर आवाज पैदा करते हैं, तो वही उनके मानसिक विकास के लिए बेहतर होता है, फिर चाहे वह कार्टून फिल्मों की तरह अधिक चटख रंगों वाला न हो, या स्टूडियो में बनाए गए गीत-संगीत जितना मधुर न हो। इसलिए छोटे बच्चों को बड़ा करते हुए आज के वक्त यह सावधानी इसलिए भी अधिक जरूरी है क्योंकि हर आम परिवार में एक से अधिक ऐसे फोन या दूसरे उपकरण हो गए हैं जिन पर लगभग मुफ्त मिलने वाले इंटरनेट से ऐसी तमाम फिल्में बच्चों को दिखाई जा सकती हैं। ऐसा करना परिवार के बड़े लोगों को अपने दूसरे काम करने के लिए वक्त तो दिला देता है, लेकिन छोटे बच्चों को बहुत बुरी तरह ऐसे वीडियो, और फिर आगे जाकर ऐसे गेम का नशेड़ी भी बना देता है। परिवार के बड़े लोगों के एक सामाजिक-शिक्षण की जरूरत है ताकि वे उपकरणों के बीच रहते हुए भी अपने बच्चों को एक सेहतमंद माहौल में बड़ा कर सकें। इस बात की गंभीरता जिनको नहीं लग रही है, वे कल मोबाइल-गेम खेलते हुए इस तरह खुदकुशी करने वाले बच्चे की खबर कुछ बार जरूर पढ़ लें। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका के निर्वाचित-राष्ट्रपति जो बाइडन ने आज अमरीकी फौज के एक रिटायर्ड जनरल लॉयर्ड ऑस्टिन को अपना रक्षामंत्री चुना है। उनका कार्यकाल शुरू होने में अभी समय है, लेकिन अमरीका में निर्वाचित-राष्ट्रपति अपनी सरकार के तमाम ओहदों पर पहले से लोगों को मनोनीत करने की परंपरा पर चलते आए हैं। जनरल ऑस्टिन सैकड़ों बरस के अमरीकी लोकतंत्र में पहले अफ्रीकी-अमरीकी रक्षामंत्री होंगे। हालांकि एक अफ्रीकी-अमरीकी बराक ओबामा अमरीका के राष्ट्रपति भी हो चुके हैं, और इस बार उपराष्ट्रपति चुनी गई कमला हैरिस भी काली महिला हैं। अमरीका में दो ही पार्टियों का राज चलता है, उनमें से इस बार जीते राष्ट्रपति जो बाइडन डेमोक्रेटिक पार्टी के हैं जो कि इन दोनों पार्टियों में अधिक उदार मानी जाती है, जो अप्रवासियों, यौन-विविधताओं वाले लोगों, महिलाओं, गरीबों, बेरोजगारों, बेघरों के प्रति अधिक हमदर्दी रखती है।
आज यहां इस मुद्दे पर लिखने का मकसद यह है कि निर्वाचित-राष्ट्रपति ने अभी कुछ दिन पहले ही यह घोषणा की है कि उनकी सरकार सर्वाधिक विविधता से भरी हुई होगी। आज हिन्दुस्तान जैसे दकियानूसी देश को छोड़ दें, तो पश्चिम के बहुत से विकसित लोकतंत्र ऐसे हैं जिनमें अब एक-एक करके बहुत से नेता अपनी लीक से हटकर यौन-प्राथमिकता घोषित भी करने लगे हैं। बहुत से ऐसे मंत्री होने लगे हैं जो कि समलैंगिक हैं। बहुत से ऐसे प्रधानमंत्री हो गए हैं जो कि शादी के बिना मां-बाप बने हैं, और जिन्हें शादी की कोई जरूरत नहीं लगती है। लोग अब पहले के मुकाबले बहुत खुलकर अपने निजी जीवन को लोगों के सामने रखने लगे हैं, और हिन्दुस्तान में यहां के नेताओं के बारे में अभी ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती।
दुनिया भर में जो संकीर्णतावादी राजनीतिक दल होते हैं, वे अपने उम्मीदवार चुनते हुए, या अपने ओहदों पर लोगों को मनोनीत करते हुए बहुत तंगदिली और तंगनजरिए से काम लेते हैं। वे धर्म के आधार पर, नस्ल और रंग के आधार पर, जाति के आधार पर अपने बहुमत से मेल खाते हुए लोगों को ही बढ़ावा देते हैं। नतीजा यह होता है कि किसी जनकल्याणकारी सरकार के भीतर विचार-विमर्श के वक्त जो विविधता रहनी चाहिए, वह नहीं रह पाती। लोग अपने आपको दलितों और आदिवासियों का मसीहा ही क्यों न मान लें, अपने आपको अल्पसंख्यकों का बहुत बड़ा मददगार क्यों न मान लें, हकीकत यह रहती है कि उन तबकों की बुनियादी दिक्कतों को समझने के लिए उन्हीं के बीच से आए हुए ऐसे प्रतिनिधि ही मददगार होते हैं जो कि सचमुच ही उन तबकों की चुनौतियों और महत्वाकांक्षाओं से वाकिफ होते हैं। हिन्दुस्तान में भी देश-प्रदेश के मंत्रिमंडलों में अगर सत्तारूढ़ पार्टी उदारवादी है, तो सभी धर्म, जाति, और तबकों को जगह देने की कोशिश होती है। यह एक अलग बात है कि इन तबकों से अक्सर ही ऐसे लोग आ जाते हैं जो कि राजनीति में बने रहकर अपने तबकों की जड़ों से दूर हो चुके रहते हैं, और वे सत्ता की ताकत से ताकतवर हो चुके रहते हैं। नतीजा यह होता है कि वे अपने डीएनए की वजह से सत्ता में अपने तबके के प्रतिनिधि मान लिए जाते हैं, और वे तबके से ऊपर उठ चुके रहते हैं।
अमरीका ने पिछले चार बरस में डोनल्ड ट्रंप नाम के बेदिमाग और बददिमाग कट्टरपंथी राष्ट्रपति को देखा है, और अपनी तमाम ताकत के बावजूद वह दूसरा कार्यकाल नहीं पा सका, और राष्ट्रपति भवन से अब चल बसने का वक्त आ गया है। अमरीका जिन सस्ते मैक्सिकन मजदूरों पर चलता है, उनको रोकने के लिए बंदूक की नोंक पर सरहदी दीवार बनाने की मुनादी टं्रप ने तानाशाह के अंदाज में की थी, और यह भी कहा था कि इसका खर्च मैक्सिको को देना पड़ेगा। ट्रंप के इस कार्यकाल के साथ ही भेदभाव की ऐसी नीतियां खत्म होने का समय आ गया है, ऐसा बददिमाग राष्ट्रपति भी ऐसी कोई दीवार नहीं बनवा सका। ट्रंप के दिमाग में अमरीकी ताकत और उसकी श्रेष्ठता ऐसे बैठी हुई थी कि वह हिन्दुस्तान जैसे दोस्त देशों को भी जब चाहे तब धिक्कारता रहता था, और अपने स्वागत में पलकें बिछाने वाले हिन्दुस्तान को एक गंदा देश करार देता था। उससे छुटकारा मिलने के बाद अब अमरीका एक बेहतर कल की तरफ बढ़ेगा लेकिन एक पिछले राष्ट्रपति बराक ओबामा ने यह कहा कि ट्रंप ने देश को जिस हद तक बांट दिया है, उस हालत को सुधारना शायद अगले चार बरस में नए राष्ट्रपति के लिए भी मुमकिन नहीं होगा।
दुनिया के लोगों को यह समझना चाहिए कि सत्ता पर बैठे हुए लोग बर्बादी महज अपने कार्यकाल के रहते हुए नहीं करते हैं, वे कई किस्म की ऐसी बर्बादी कर जाते हैं जिन्हें कि आने वाली सरकार अपने कार्यकाल में भी पूरी तरह सुधार नहीं पाती। नफरत और अलगाव को अपने कार्यकाल में बढ़ावा देकर फिर उसे बंद नहीं किया जा सकता। नफरती-सरकारें चली जाती हैं, लेकिन नफरत और हिंसा का सिलसिला छोड़ जाती हैं, जो कि बाद में बरसों तक चलते रहता है। ट्रंप ने अमरीकी विविधता को खत्म करने की जितनी कोशिश की थी, शायद अमरीकी उसी से दहल गए, और उन्होंने ट्रंप से छुटकारा पा लिया। ट्रंप की सोच और उसके फैसले अमरीकी संस्कृति और चरित्र के खिलाफ थे। ऐसा रहते हुए भी उसने एक चुनाव तो जीत लिया था, और दूसरे चुनाव में उसे पूरी तरह खारिज नहीं समझा जा रहा था। लेकिन लोगों ने एक उदारवादी और विविधतावादी जो बाइडन को, डेमोक्रेटिक पार्टी को चुन लिया। आज इस मुद्दे पर लिखना इसलिए जरूरी लग रहा है कि न सिर्फ सरकारों में बल्कि अखबारों और टीवी चैनलों में भी काम करने वाले लोगों की अगर विविधता नहीं रहेगी, तो उनके फैसले कभी जनकल्याणकारी नहीं रहेंगे। अमरीका के कुछ प्रतिष्ठित प्रकाशनों में यह घोषित नीति है कि उनके समाचार-विचार के विभागों में देश की आबादी के हर तबके के लोगों का अनुपातिक प्रतिनिधित्व होना चाहिए। जब कभी किसी कुर्सी को भरना होता है, तो देखा जाता है कि किस तबके के लोग कम हैं, या नहीं हैं, और फिर उन तबकों के लोगों को छांटा जाता है।
हिन्दुस्तान के माहौल में ऐसी विविधता की बात करना कुछ अटपटा लगेगा, लेकिन किसी विकसित और सभ्य लोकतंत्र की बात अलग होती है। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दिल्ली को घेरे हुए चल रहे किसान आंदोलन के समर्थन में कल हिन्दुस्तान बंद का आव्हान किया गया है। बहुत से लोगों को यह लग रहा है कि यह पंजाब का किसान आंदोलन है, और बाकी देश का इससे क्या लेना-देना है? इसी वजह से आंदोलन के विरोधी इसके किसी एक लापरवाह बकवासी के असली या नकली वीडियो को लेकर आंदोलन को खालिस्तानी साबित कर रहे हैं। सोशल मीडिया इन तोहमतों से भी भरा है कि इस आंदोलन को मुसलमानों का साथ है। जवाब में सोशल मीडिया पर दूसरे लोग यह भी गिना रहे हैं कि तोहमत लगाने वालों के तो बहनोई ही मुस्लिम हैं, तो वे किसान आंदोलन को मुस्लिमों के समर्थन को बुरा कैसे कह सकते हैं? हरियाणा के कृषि मंत्री का औपचारिक बयान और अधिक दिलचस्प और सनसनीखेज था कि किसानों का यह आंदोलन चीन और पाकिस्तान की साजिश का नतीजा है। अब तक हिन्दुस्तान में सबसे विख्यात विदेशी हाथ वाली तोहमत इमरजेंसी लगाने के लिए इंदिरा गांधी के तर्क की थी, अब किसान आंदोलन पर दो दुश्मन देशों की साजिश होने की तोहमत लग रही है। दूसरी तरफ कनाडा के प्रधानमंत्री से लेकर संयुक्त राष्ट्र महासचिव तक, और ब्रिटेन के दर्जनों सांसदों तक ने किसान आंदोलन पर भारत सरकार के रूख का विरोध किया है। कुल मिलाकर तस्वीर ऐसी बनी है कि दुनिया की कई सरकारें तो भारत के किसान आंदोलन के साथ हैं, और इस देश की सरकार, इसके हरियाणा जैसे प्रदेशों की सरकारें, इस देश की साइबर-फौज इस आंदोलन को विदेशी साजिश करार देने पर आमादा हैं।
देश के एक बड़े सीनियर और मोदी के विरोधी न समझे जाने वाले पत्रकार ने लिखा है कि मोदी सरकार और भाजपा इस आंदोलन से सीधे जुड़े हुए पंजाब के सिक्ख किसानों की फितरत नहीं समझ पाए, और उनसे एक गैरजरूरी लड़ाई मोल ले बैठे हैं। उन्हें यह भी समझ नहीं पड़ रहा कि सिक्ख ऐसी लड़ाई लाद दिए जाने पर उससे पीछे नहीं हटते क्योंकि वे लड़ाकू मिजाज के रहते हैं। बात सही है। मुगलों के समय से लेकर अंग्रेजों के समय तक, और पाकिस्तान से लेकर चीन के समय तक सिक्खों ने लड़ाईयों में सबसे बड़ी शिरकत की है, और सबसे बड़ी शहादत भी दी है। पंजाब के हर कुछ एकड़ के खेतों से एक सैनिक निकलता है, और घर में खेती की संपन्नता होने के बाद भी पंजाबी किसान इस बात पर गर्व महसूस करता है कि उसकी औलाद मुल्क की हिफाजत के लिए सरहद पर डटी है। दरअसल सिक्ख गुरूओं ने अपने बच्चों की जितनी शहादतें दी हैं, वे मिसालें सिक्खों के दिमाग से कभी हटती नहीं हंै, इसीलिए वे न फौज में जाने से पीछे हटते, न ही किसी आंदोलन से। और तो और इस धर्म ने उनमें सेवाभाव इतना कूट-कूटकर भरा है कि वे किसी भी मुसीबतजदा के साथ खड़े हो जाते हैं, बात की बात में लंगर खोल लेते हैं, और अपनी नजरों की जद में किसी को भूखा नहीं रहने देते। ऐसा सब करते हुए इस लड़ाकू कौम के किसानों को रोकने के लिए केन्द्र सरकार की पानी की तोपें एक हास्यास्पद हथियार रही।
अब देश के करीब एक दर्जन राजनीतिक दल किसानों के साथ खड़े हो गए हैं, और केन्द्र सरकार के कृषि कानूनों का खुलकर विरोध कर रहे हैं। यहां पर भारत के संसदीय लोकतंत्र को कुछ समझने की जरूरत है। जिस वक्त संसद में ये किसान कानून आए, और विपक्ष के तकरीबन तमाम हिस्से ने इसका विरोध किया तो सरकार ने इन्हें ध्वनिमत से पारित करा लिया। ध्वनिमत से किसी विधेयक को कानून बनाना एक सबसे आखिरी हथियार होना चाहिए। ऐसा हथियार संसद में सर्वानुमति या आमसहमति की संभावना को खत्म करने के बाद ही इस्तेमाल किया जाता है। लेकिन भारत की आधी आबादी को प्रभावित करने वाली कृषि के पूरे ढांचे को बदलने वाले इन कानूनों को बनाते हुए केन्द्र सरकार ने विपक्ष को अपनी बात रखने का मौका ही नहीं दिया। नतीजा यह हुआ कि आज वह बात सडक़ों पर नारों की शक्ल में गूंज रही है, और संसद में जितनी फजीहत होती, उससे बहुत अधिक फजीहत सरकार आज सडक़ पर करवा रही है। सडक़ के काम संसद में करना या संसद के काम सडक़ पर करना कोई समझदारी नहीं है। आज अगर दिल्ली के इर्द-गिर्द केन्द्र सरकार को यह आंदोलन महज पंजाब के सिक्ख किसानों का आंदोलन दिख रहा है, तो यह उसके तंगनजरिए से पैदा नुकसान है। देश के बाकी हिस्सों के अधिकतर किसानों की माली हालत इतनी अच्छी नहीं है कि वे अपने खेत-खलिहान छोडक़र, मंडी में उपज बेचने की कतार छोडक़र दिल्ली जाकर डेरा डालें। वे अपने जिंदा रहने की लड़ाई में इस कदर फंसे हुए हैं कि वे पंजाब के अपेक्षाकृत संपन्न किसानों की तरह दिल्ली में डेरा डालो-घेरा डालो जैसी मजबूती नहीं दिखा पा रहे हैं। लेकिन इसका कहीं भी यह मतलब नहीं है कि वे केन्द्र के कृषि कानूनों से खुश हैं। देश के मीडिया का जो हिस्सा मोदी सरकार, हिन्दुत्व, और भाजपा के प्रति समर्पित और पूरी तरह प्रतिबद्ध नहीं है, वह पूरे का पूरा मीडिया किसान कानूनों की आलोचना कर रहा है, किसानों के साथ है। अब यह एक अलग बात है कि देश के मीडिया का कितना हिस्सा इन दो तबकों में किस अनुपात में बंटा हुआ है। प्रतिबद्ध मीडिया, और प्रतिबद्ध समर्थकों की फौज केन्द्र सरकार को जमीनी हकीकत का एहसास नहीं होने दे पा रही है, और लोगों को याद रखना चाहिए कि आपातकाल के बाद ऐसा प्रतिबद्ध मीडिया और प्रतिबद्ध खुफिया एजेंसियों ने ही इंदिरा गांधी को यह भरोसा दिलाया था कि 1977 के चुनाव में वे बहुमत से जीतकर आएंगी।
खैर, किसी चुनाव और किसी की हार-जीत से आज की इस चर्चा का कोई लेना-देना नहीं है। बात महज इतनी है कि अगर देश के किसानों पर खतरा रहेगा, तो वह खतरा खेतिहर मजदूरों तक अनिवार्य रूप से पहुंचेगा, और खेती से जुड़े दूसरे कारोबारों तक पर वह मंडराएगा। हिन्दुस्तान में कल 8 दिसंबर को किसानों के समर्थन में भारत बंद रखा गया है। हो सकता है कि जिस बाजार के बंद होने की उम्मीद किसानों के हिमायती कर रहे होंगे वे बाजार अपने-आपको किसानों से अछूते मानकर चल रहे होंगे, और उन्हें लगेगा कि उनका भला किसानों से क्या लेना-देना? लेकिन इतिहास गवाह है कि हिन्दुस्तान में किसी बरस की खुशहाली इस बात से जुड़ी रहती है कि उस बरस मानसून कैसा आया, फसल कैसी हुई। बम्पर पैदावार, ये दो शब्द ही बाजार के लिए भी बम्पर कारोबार बनकर आते हैं। कल यह देखना है कि इस देश का बाजार अपने कारोबार की बुनियाद के साथ है कि राष्ट्रवाद के खोखले नारों पर बैठकर धंधा कर रहा है।
यह भारत बंद देश भर के किसान संगठनों और एक दर्जन राजनीतिक दलों का मिलाजुला कदम है। एक घायल सिक्ख-किसान चेतना ऐसे एक आक्रोश के लिए मजबूर हुई है। जब 80 बरस की दोहरी हो चुकी काया के साथ लाठी टेककर चलती एक बुजुर्ग सिक्ख किसान महिला को सौ-सौ रूपए में चलने वाली शाहीन बाग की आंदोलनकारी मुस्लिम महिला करार देकर उसे एक गाली की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश की गई, तो जाहिर है कि कोई भी बिरादरी उससे जख्मी होगी। जब किसी को देशद्रोही, पाकिस्तानी, खालिस्तानी, राष्ट्रविरोधी, और चीनी साजिश का हिस्सा करार दिया जा रहा है, तो जाहिर है कि एक वफादार कौम इससे घायल होगी। इन सबका मिलाजुला नतीजा देश में यह नौबत है। आगे-आगे देखें, होता है क्या। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जब किसी बात को एक जिम्मेदार तबका सोच-समझकर योजना के साथ लोगों पर असर डालने के लिए कहता है, और अच्छी नीयत से कहता है तो उस बात के शब्द बड़ी बारीकी से चुने जाने चाहिए। कुछ बरस पहले मोदी सरकार ने देश में नोटबंदी की। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुद ही पहले अपने इस ऐतिहासिक फैसले की सूचना केन्द्रीय मंत्रिमंडल को दी, और मिनटों के भीतर वे राष्ट्र के नाम संदेश देकर नोटबंदी के फायदे गिना रहे थे। इस बात को बरसों हो गए हैं लेकिन सच तो यह है कि अटपटे शब्द की तरफ किसी ने भी ध्यान नहीं खींचा। वह नोटबंदी नहीं थी, नोटबदली थी। नोट बंद नहीं हो रहे थे, उन्हें बदला जाना था। जिनके पास कानूनी नोट थे जो कि कालाधन नहीं थे, उनके तो बंद होने का सवाल नहीं उठता था, और उन्हें बैंकों से बदलाया जा सकता था, और बदलाया गया था। यह एक अलग बात है कि बंदी, या बदली, जो कुछ भी हुआ वह इस देश के ऊपर एक ऐतिहासिक यातना को थोपने का फैसला भी था जिससे देश का भयानक आर्थिक नुकसान हुआ, कालेधन का एक धेला भी उजागर नहीं हुआ, और निहायत गैरजरूरी और नाजायज इस मशक्कत से देश के दसियों करोड़ गरीब लोगों की जिंदगी महीनों तक बर्बाद हुई क्योंकि काम-धंधे ठप्प हो गए, लोगों को रोजी-मजदूरी छोडक़र बैंकों की कतार में लगना पड़ा। लेकिन बहुत ही सोच-समझकर बनाई गई बहुत ही नासमझी की इस अहंकारी योजना का नाम ही गलत रखा गया, और उसने सरकार के अपने मकसद का नुकसान किया कि मानो यह नोट बंद हो रहे थे, जबकि नोट महज बदले जाने थे।
इसी तरह अभी कोरोना को लेकर कुछ शब्द इस्तेमाल हो रहे हैं जिनका मनोवैज्ञानिक असर पड़ रहा है, और जिन्हें अधिक सावधानी से गढऩे की जरूरत थी। जब प्रधानमंत्री के स्तर से राष्ट्र के नाम संदेश में कहा गया कि कोरोना के खतरे को देखते हुए लोग सामाजिक दूरी बरतें, तो उसका मतलब सामाजिक छोड़ भला और क्या हो सकता था? लेकिन सच तो यह है कि आज लोगों की दुनिया जितनी शरीर की है उतनी की उतनी वह सोशल मीडिया और इंटरनेट के रास्ते, टेलीफोन और कम्प्यूटरों के रास्ते आभासी भी है। वर्चुअल वल्र्ड आज किसी भी तरह भौतिक दुनिया से छोटा अस्तित्व नहीं रखता, और लोग एक-दूसरे से शारीरिक रूप से तो कम मिलते हैं, अधिक मुलाकातें तो वैसे भी संचार माध्यमों से होती हैं, सोशल मीडिया पर होती हैं। इस तरह आज समाज शरीर से परे की एक दुनिया भी बन गया है जो कि शरीर के संपर्क के बिना भी एक-दूसरे के लिए मायने रखते हुए इंसानों की जगह है। ऐसे में कई हफ्तों की तैयारी के बाद गढ़े गए प्रधानमंत्री के शब्द अगर शारीरिक दूरी जैसे शब्द की जगह सामाजिक दूरी बनाए रखने की बात कहते हैं, तो जाहिर है कि इन शब्दों को या तो गढऩे वाली समझ कमजोर थी, या फिर लापरवाही से इन्हें गढ़ दिया गया था। जो बात चिकित्सा विज्ञान की सलाह के मुताबिक शारीरिक दूरी की होनी चाहिए थी, उसे सामाजिक दूरी बनाए रखने की बात बना दिया गया।
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होतीं, आज टेलीफोन उठाते ही अमिताभ बच्चन की आवाज में लोगों के लिए कोरोना-बीमारी के खतरे बताते हुए सावधानी बरतने की नसीहत सुनाई पड़ती है। ऐसा भी सुनाई पड़ा है कि जया बच्चन ने तंग आकर टेलीफोन का इस्तेमाल ही बंद कर दिया है कि निजी जिंदगी में घर पर जो आवाज सुनना पड़ता है, वही आवाज कोई कॉल लगाते ही फोन से भी सुनाई पड़ती है। इतनी बार दुहराई जाने वाली बात के शब्द तो जाहिर तौर पर बहुत चुनकर लिखे जाने चाहिए थे। लेकिन टेलीफोन की घोषणा से लेकर ईश्तहारों तक अमिताभ बच्चन सरकारी संदेश बोलते दिखते हैं कि जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं। अब सच तो यह है कि कोरोना की कोई दवाई तो तलाशी भी नहीं जा रही है, उसकी तो वैक्सीन ढूंढी जा रही है, टीका बनाया जा रहा है। और वैक्सीन किसी बीमारी का इलाज नहीं है, वह तो बीमारी होने से बचाने के लिए लगाया जाने वाला टीका है, ठीक उसी तरह जिस तरह का ईश्तहार अमिताभ बच्चन दशकों से करते आ रहे हैं- दो बूंद जिंदगी की। पोलियो से बच्चों को बचाने के लिए जिस वैक्सीन की दो बूंदें पिलाई जाती हैं, वह पोलियो की दवाई नहीं है, वह महज पोलियो से बचाने का टीका है। अब अमिताभ बच्चन रात-दिन एक अवैज्ञानिक बात दोहरा रहे हैं- जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं।
इसका एक मतलब तो यह भी हुआ कि दवाई (या वैक्सीन) बन जाने के बाद ढिलाई करने में कोई बुराई नहीं रहेगी। जिस बात को अमिताभ बच्चन की आवाज में दिन में कई-कई बार सुनना पड़ रहा है, उसका एक मनोवैज्ञानिक असर होता है, और वह यह है कि कोरोना की एक दवाई बन रही है, और दूसरा असर यह है कि इस दवाई के बन जाने के बाद ढिलाई करने में कोई बुराई नहीं रहेगी। ये दोनों ही बातें अवैज्ञानिक सोच को स्थापित करती हैं। कोरोना की दवा न तो आज है, और न ही बनाई जा रही है। फिर यह है कि कोरोना का जो टीका बन रहा है, वह भी सबको मिलने वाला नहीं है, सौ फीसदी असर वाला नहीं है, और उसकी एक खुराक के बाद भी हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री पखवाड़े बाद कोरोनाग्रस्त हो चुके हैं। इसलिए जिस सावधानी को बाकी तमाम जिंदगी के लिए सुझाना चाहिए, ढिलाई से हमेशा के लिए बचने को कहना चाहिए, उसे महज दवाई (वैक्सीन) आ जाने तक के लिए सुझाना, बिना कहे एक लापरवाही को बढ़ाने सरीखा है। राजनीति के चुनावी नारों में तो हर किस्म की लापरवाही खप जाती है क्योंकि उन्हें चुनावी या राजनीतिक उत्तेजना में कही गई बात कहा जाता है, और आमसभाओं में कई बार ऐसा होता भी है। किसी को मौत का सौदागर कह दिया जाता है, और किसी की सौ करोड़ की गर्लफ्रेंड पर तंज कस दिया जाता है। राजनीति में तो लापरवाही कई बार योजनाबद्ध तैयारी से भी की जाती है, और कई बार हो जाती है। लेकिन राष्ट्रीय महत्व के, जनहित के, जनशिक्षण के जो मुद्दे हैं, उनमें एक-एक शब्द को समाज पर व्यापक असर वाला मानकर सावधानी से छांटना चाहिए। अगर स्कूल की कोई किताब अमर घर चल, कमला जल भर जैसे मासूम लगने वाले शब्दों से अक्षर और भाषा ज्ञान करवा रही है, तो वह बिना कहे हुए भी बच्चों के दिमाग में यह भर रही है कि अमर, यानी लडक़ा, पानी भरने का काम नहीं करेगा, और यह काम कमला, यानी लडक़ी का है। जो देश जितना सभ्य और लोकतांत्रिक होता है, वह उतना ही अधिक सावधान भी होता है। जब भाषा की लापरवाही लोगों को वैज्ञानिक सोच या सामाजिक न्याय, या लैंगिक समानता से दूर ले जाती है, तो उसके खिलाफ जमकर आवाज उठनी चाहिए। अगर यह किसी मासूम गलती से हुई है, तो वह सुधार ली जाए, और अगर यह किसी लापरवाही से हुई है, तो उसका जिम्मा भी किसी न किसी सर पर मढ़ा जाए। फिलहाल भारत सरकार और प्रदेश सरकारों को, और इनकी भाषा दुहराने वाले मीडिया को भी अपनी भाषा में सुधार करना चाहिए। संक्रमण से बचने की सावधानी वैक्सीन आ जाने के बाद भी जारी रहनी चाहिए क्योंकि कुंभ के मेले में खोया हुआ कोरोना का कोई भाई साल-दो साल में आकर अगला हमला नहीं करेगा, ऐसी कोई गारंटी तो है नहीं। दूसरी बात यह कि आज जिस वैक्सीन से चमत्कार की उम्मीद की जा रही है, उस वैक्सीन को चखकर मौजूदा कोरोना ही अपने हथियार बदल न डाले इसकी कोई गारंटी तो है नहीं। इसलिए अमिताभ बच्चन को पढऩे के लिए जो संदेश दिया गया है, उसमें सुधार की जरूरत है, और दुनिया को महज शारीरिक दूरी की जरूरत है, सामाजिक संबंधों में शरीर से परे और किसी दूरी की जरूरत नहीं है। हिन्दुस्तान में वैसे भी पिछले बरसों में लोग लगातार एक-दूसरे से दूर, और दूर होते गए हैं, अब उन्हें और कितना दूर करना चाहते हैं? क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान में जो लोग मीडिया पर अपना खासा समय लगाते हैं, वे उसमें से खासा समय गंवाते भी हैं। ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर पहली खबर से लेकर अखबारों के गंभीरता ओढ़े हुए संपादकीय पेज तक दर्शक और पाठक को जो हासिल होता है, वह वक्त के अनुपात में खासा कम होता है। टीवी के घंटे भर के समाचार-बुलेटिन में जितनी जानकारी रहती है उसे अखबार के पन्ने पर पांच मिनट में पढ़ा जा सकता है, और वह भी अगर काम का न रहे, तो एक खबर से दूसरी खबर पर मेंढक की तरह कूदा जा सकता है, जो कि टीवी पर किसी एक चैनल में मुमकिन नहीं रहता क्योंकि वहां खबरें रेलगाड़ी के डिब्बों की तरह कतार में लगी रहती हैं। यह जरूर होता है कि एक चैनल से दूसरे चैनल पर कूदा जा सकता है, लेकिन फिर भी मनचाही खबर तक नहीं पहुंचा जा सकता। डिजिटल मीडिया ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की यह दिक्कत भी दूर कर दी है, और लोग इंटरनेट पर सीधे अपने मतलब की बात तक पहुंच सकते हैं।
अब सवाल यह है कि अखबारनवीसी का गंभीर हिस्सा जो गिने-चुने लोग गंभीरता से लेते हैं, गंभीरता से पढ़ते हैं, वे बहुत सा गैरजरूरी पाते हैं। हमारे इस अखबार के इस कॉलम सहित, जिसे कि हम बहुत गंभीरता से लेते हैं, तमाम विचार-लेखन अमूमन अलाल किस्म के दिमाग लिखते हैं। दुनिया में मुद्दे रोज नए नहीं रहते, उनमें से अधिकतर ऐसे रहते हैं जो पहले सामने आ चुके किसी मुद्दे की तरह के रहते हैं। नतीजा यह रहता है कि समकालीन और सामयिक मुद्दों पर विचार लिखने वाले लोगों को घटनाएं नई होने के बावजूद मिलते-जुलते मुद्दों पर ही लिखना होता है, जो पहले लिखा जा चुका है उसमें किसी ताजा घटना का जिक्र करके पूरे का पूरा बाकी हिस्सा फिर से दिया जा सकता है। नतीजा यह होता है कि लिखने वाले लोग अलाल होने लगते हैं। लेकिन इससे भी परे एक और दिलचस्प बात होती है। लोग अपने कुछ पसंदीदा निशाने बना लेते हैं, और वक्त-बेवक्त उन पर लिखते रहते हैं। इससे एक बड़ी सहूलियत यह होती है कि नई जानकारी कम पढऩी होती है, नया विश्लेषण बहुत कम करना पड़ता है, और नए तर्क तो गढऩे ही नहीं पड़ते क्योंकि बार-बार उन्हीं मुद्दों पर लिखते हुए दिमाग की ताजा याददाश्त में उनसे जुड़े जुमले बैठ जाते हैं। खुद का लिखा हुआ तुरंत याद आ जाता है, पुराना विश्लेषण, पुराने तर्क, पुराने जुमले, और इनके इस्तेमाल से एक बार फिर लिख देना। यह कुछ उसी किस्म का आत्मविश्वास देने वाला काम रहता है जैसा कि पहले से पढ़े हुए पसंदीदा उपन्यास को दुबारा पढ़ लेना जिससे कि कोई निराशा होने का खतरा न हो।
इन बातों को नतीजा यह निकलता है कि न सिर्फ विचार-लेखन, बल्कि समाचार-लेखन में लगे हुए लोग भी हर बरस-दो बरस में अपनी ही किसी पुरानी रिपोर्ट को ताजा आंकड़ों के साथ अपडेट करके नई रिपोर्ट बना लेते हैं, और दिमाग को अधिक कसरत करने से बचाते हैं। कम लोग ऐसे होते हैं जो कि नए-नए विषय सोचते हैं, नए-नए मुद्दों पर नए तर्क सोचते हैं, और एक ताजा विश्लेषण करके लिखते हैं। आमतौर पर तो यह होता है कि लिखने वाले लोग अपने विषय से जुड़े हुए दूसरों के लिखे हुए को भी बहुत कम पढ़ते हैं। क्योंकि दूसरों का लिखा हुआ पढऩे से अपने पूर्वस्थापित और जमे हुए तर्कों का फौलादी ढांचा चरमराने लगता है, लोगों को यह लगता है कि दूसरों के लिखे तर्क, उनके विचार एक चुनौती दे रहे हैं, और फिर अपना अब तक का सोचा हुआ तो अधिक काम का रह नहीं जा रहा, अपने पुराने और पसंदीदा जुमले काम नहीं आ रहे। यह सिलसिला अपनी मान्यताओं और अपने जुमलों को झकझोरने वाला रहता है, यह जिम में जाकर चर्बी को चुनौती देने वाली कसरतों सरीखा रहता है, लोग उसके बजाय अपने दीवानखाने में आरामदेह सोफा पर लदे, पसंदीदा खाते हुए ऐसा पसंदीदा टीवी चैनल देखते हैं जो कि दिल-दिमाग को कोई चुनौती नहीं देता, उस पर कोई बोझ नहीं बनता।
अब अलाल लोगों के लिखे गए समाचार-विचार देखने, सुनने, और पढऩे वालों को कितना झकझोर सकते हैं? और एक सवाल यह भी उठता है कि लोग क्या सचमुच झकझोरा जाना पसंद भी करते हैं? या फिर अपनी पसंदीदा यथास्थिति की ठंडी छांह में लेटना बेहतर समझते हैं? अब वक्त छपे अखबार के एकाधिकार से आगे बढ़ गया है जिसे पढऩे वाले लोगों का अंदाज मुश्किल रहता था, और फिर पढऩे वालों में भी उस अखबार के किस समाचार या किस विचार को कितने लोग पढ़ रहे हैं, इसका अंदाज नहीं लगता था। अखबारों की बिक्री के आंकड़े, किसी अखबार की एकप्रति को पढऩे वाले लोगों की औसत गिनती के तमाम आंकड़े फर्जी रहते आए हैं, और यह फर्जीवाड़ा प्रिंट मीडिया का एक बड़ा कारोबार था, और है। दूसरी तरफ हाल के महीनों में हिन्दुस्तान के सबसे अधिक बड़बोले और बकवासी टीवी समाचार-चैनल ने दर्शकसंख्या का टीआरपी जुटाने के लिए जिस तरह का फर्जीवाड़ा किया था, वह अभी पुलिस की जांच और गिरफ्तारी के साथ आगे बढ़ रहा है। कमोबेश ऐसा ही हाल इंटरनेट पर डिजिटल मीडिया में फर्जी हिट्स और फर्जी लाईक्स के सहारे चल रहा है, और हकीकत में किसके कितने दर्शक हैं, किसके कितने पाठक हैं, यह खरीदे गए झूठ पर उसी तरह टिका है जिस तरह किसी चुनाव में वोटरों को दारू और नगदी देकर उनसे बहुमत पाने का मामला रहता है।
जिस तरह दुनिया में एक पुरानी पहेली चली आ रही है कि पहले मुर्गी आई, या पहले अंडा आया? कुछ उसी किस्म का मामला मीडिया के दर्शक-पाठक का भी है कि मीडिया ने उसके टेस्ट को पहले बिगाड़ा, या उसने मीडिया को मजबूर किया कि वह अधिक सनसनीखेज, अधिक गैरजिम्मेदार समाचार-विचार परोसे? लेकिन नतीजा यह है कि आज मीडिया के पूरे हिन्दुस्तानी कारोबार में गंभीर और ईमानदार समाचार-विचार का बाजार खत्म सा हो चला है। जो गंभीर और ईमानदार हैं वे भूखे हैं, और इस धंधे से तकरीबन बाहर हैं। जो देह परोस सकते हैं, जो सनसनी परोस सकते हैं, जो ईमानदारी छोडक़र बेईमानी और बदनीयत से किसी कोलड्रिंक की बोतल की तरह झागदार सनसनी पेश कर सकते हैं, वही जिंदा हैं, और उनमें से जो इस काम में अव्वल हैं, वे कामयाब हैं।
अनंतकाल से चली आ रही पहली मुर्गी या पहले अंडे वाली बहस धरती के रहने तक चल सकती है, और इसी तरह मीडिया की गैरजिम्मेदारी या पाठक की गैरजिम्मेदारी की बहस भी। आज का यह लिखना उन लोगों के लिए है जो मीडिया को गंभीरता से लेते हैं। उन लोगों को यह सोचना चाहिए कि वे अपना जितना वक्त जिन लोगों के लिखे, और कहे पर लगाते हैं, वे कितने ईमानदार हैं, या कितने जुमलेबाज हैं। लोगों को अगर सचमुच ही अपने वक्त का बेहतर इस्तेमाल करना है, तो उन्हें एक प्रचलित मुहावरे की तरह का हॅंस बनना पड़ेगा जो कि मोती-मोती चुनकर खा लेता है। हालांकि हकीकत यह है कि हॅंस और मोती का शायद कोई रिश्ता नहीं होता, लेकिन लिखने वाले लोगों को एक बात साबित करने के लिए यह जुमला आसान पड़ता है और सुहाता है, इसलिए यह किस्सा भी कामयाब हो गया है। फिलहाल लोगों को अगर अपनी जिंदगी में कामयाब होना है तो उन्हें जुमलों से परे बेहतर पढऩा चाहिए, बेहतर देखना और सुनना चाहिए। जिंदगी में रोजाना का बाकी वक्त तो बहुत से रोज के कामों में लगता ही है जिनमें कोई फर्क नहीं किया जा सकता, बस मीडिया को देखना, सुनना, और पढऩा ही ऐसा है जिसमें पसंद काम कर सकती है। हॅंस के किस्से को सही मानें, और मोती चुनना सीखें। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट ने कोरोना पर एक सुनवाई करते हुए कहा कि जो लोग सार्वजनिक जगहों पर मास्क नहीं पहन रहे हैं, वे हर किसी के जीने के अधिकार का उल्लंघन कर रहे हैं। अदालत ने सभी राज्यों को लोगों को मास्क पहनाने और सामाजिक दूरी बनाने के निर्देश दिए हैं। अदालत ने अफसोस जाहिर किया कि लोग मास्क नहीं पहन रहे हैं, सामाजिक दूरी नहीं रख रहे हैं, और प्रशासन भी इससे जुड़े नियमों को लागू करने के प्रति उदासीन हैं।
हिन्दुस्तान में अपनी मनमर्जी से गलत काम करके दूसरों की जिंदगी खतरे में डालने का यह कोई नया मामला नहीं है। कोरोना का खतरा तो नया है, लेकिन लोग तो पुराने हैं। ये वही लोग हैं जो दारू पीकर गाड़ी चलाते हैं, जो बिना हेडलाईट और बैकलाईट के गाड़ी चलाते हैं, जिनकी गाडिय़ों की फिटनेस सही नहीं रहती, बस और ट्रक चलवाने वाले मालिक अपने ड्राइवरों की आंखों की जांच नहीं करवाते। लोग दोपहियों पर चार-चार लोग सवार होकर और सामान भी लादकर चलते हैं जिससे कि सडक़ दुर्घटनाओं का खतरा बने रहता है। लोग दुपहिया चलाते हुए भी एक हाथ से मोबाइल थामे रहते हैं, बात करते रहते हैं, और स्क्रीन पर सर्च भी करते रहते हैं, ये लोग खुद तो खतरे में रहते ही हैं, औरों के लिए भी ये खतरा रहते हैं। लेकिन शायद ही किसी पुलिस, प्रशासन की दिलचस्पी इन पर कार्रवाई करने में हो।
हम अपने आसपास देखते हैं तो लोग बिना हेलमेट लापरवाही से गाड़ी चलाते हैं, बड़ी मोटरसाइकिलों के साइलेंसर फाडक़र रखते हैं, और लोगों का जीना हराम करते हैं। गाडिय़ों के ऊपर अंधाधुंध लाईट लगा लेते हैं, और सायरन भी लगा लेते हैं, इनसे भी सडक़ पर दूसरों की जिंदगी खतरे में पड़ती है। बड़ी-बड़ी गाडिय़ां इतनी ओवरलोड चलती हैं कि खुद सरकारी सडक़ निर्माण विभाग सडक़ों के जल्द खत्म हो जाने पर ऐसी ओवरलोड गाडिय़ों को जिम्मेदार बताते हैं। इन सबसे लोग अपनी कमाई बढ़ाते हैं, लापरवाही से काम करते हैं, और दूसरों की जिंदगी खतरे में डालते हैं।
दुनिया में जो सभ्य और विकसित लोकतंत्र हैं वे दूसरों के अधिकार और अपनी जिम्मेदारी का ख्याल रखने वाले नागरिकों वाले देश रहते हैं। हिन्दुस्तान में लोग अपने बेजा हक को बर्दाश्त करने और ढोने की दूसरों की जिम्मेदारी के सिद्धांत पर काम करते हैं, और दूसरों की जिंदगी खतरे में डालते हैं। आज सडक़ों पर लगातार सरकारी विभागों और म्युनिसिपलों की महिला कर्मचारी बिना मास्क वाले लोगों को रोक-रोककर हिदायत देते दिखती हैं। लापरवाह लोगों से सौ रूपए का जुर्माना लेकर उन्हें छोड़ दिया जाता है। अगर लोगों को जिम्मेदारी सिखानी है तो हिन्दुस्तान ऐसी सौ रूपए जुर्माने की पेनेसिलिन के असर से ऊपर उठ चुका है। अब यहां नई पीढ़ी की एंटीबायोटिक की शक्ल में ऐसा जुर्माना लगाना पड़ेगा कि बिना मास्क वाले लोगों पर बिना हेलमेट का जुर्माना भी लगे, उनकी गाड़ी की फिटनेस की जांच भी हो जाए, नंबर प्लेट गलत हो तो उसका जुर्माना भी हो जाए, प्रदूषण सर्टिफिकेट न हो तो उसका जुर्माना भी हो जाए। जब तक एक-एक बिना मास्क वाले पर कुछ हजार रूपए का जुर्माना नहीं होगा, तब तक नालायक लोग अपने अलावा दूसरों की जिंदगी भी खतरे में डालते ही रहेंगे। बेअसर कार्रवाई की औपचारिकता पूरी करने के लिए सडक़ों पर जूनियर सरकारी कर्मचारी महिलाओं को खतरे में डालना बेकार है। जब लोगों को सौ रूपए जुर्माने से तकलीफ नहीं हो रही है, तो जुर्माना इतना बढ़ाया जाए कि दो-चार दिन उसकी खबरें पढक़र ही बाकी लोग मास्क लगाने को सस्ता मानकर चलें। जब तक मास्क लगाना सस्ता नहीं पड़ेगा, तब तक लोग मास्क नहीं लगाएंगे। जब मास्क न लगाना हजारों रूपए का जुर्माना लगवा देगा, तभी लोग दूसरों की जिंदगी की फिक्र करेंगे। हिन्दुस्तान जैसा गैरजिम्मेदार देश कम ही होगा जहां लोग अपनी लापरवाही से दूसरों की मौत की परवाह भी नहीं करते।
किसी देश को आर्थिक रूप से विकसित होने में हो सकता है कि एक सदी लगे, लेकिन उस देश को सभ्य होने में कई सदियां लग सकती हैं, और हो सकता है कि कई सदियों के बाद भी हिन्दुस्तान जैसा असभ्य देश सभ्यता न सीख पाए। आज कोरोना जैसी महामारी से देश में लाखों बेकसूरों की मौत हो रही है, और सरकारों पर अंधाधुंध खर्च का बोझ पड़ रहा है जिससे कि कुल मिलाकर जनकल्याण की योजनाओं में ही कटौती होगी। लेकिन हिन्दुस्तानी हैं कि आज भी चारों तरफ थूकते घूम रहे हैं, मानो इस देश में थूक ही राष्ट्रीय पदार्थ हो। इससे कोरोना जैसी महामारी के फैलने का बड़ा खतरा है, और आज देश में यह बीमारी जितनी फैली है उसमें भारत के इस राष्ट्रीय पदार्थ का भी योगदान जरूर होगा। अब सवाल यह है कि जब लोग जुर्म के दर्जे के लापरवाह हों, गैरजिम्मेदार हों, दूसरों की जिंदगी के प्रति बेपरवाह हों, तो सरकारी या अदालती आदेश किस हद तक लागू किया जा सकता है? दिक्कत यह है कि हादसे हों, या महामारी, इनसे होने वाला नुकसान दूसरों को अधिक होता है, गैरजिम्मेदारों को कम। एक-एक गैरजिम्मेदार कई बेकसूर लोगों को बीमारी भी कर सकते हैं, और सडक़ हादसों में मार भी सकते हैं।
हमारा साफ मानना है कि जनता से इस किस्म की रियायत करने वाले प्रशासन को इस रियायत को देने का कोई हक नहीं है। महामारी कानून के तहत जो कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए वह अगर हर शहर में दस-बीस लोगों पर हो जाए, उनकी गिरफ्तारी हो जाए, उन पर मोटा जुर्माना हो जाए, और उनके मामले खबरों में प्रमुखता से आ जाएं, तो बाकी हिन्दुस्तानियों पर ऐसी मार का असर हो सकता है। कुछ लोगों पर यह बोझ अधिक बड़ा होगा, लेकिन वे बेकसूर तो होंगे नहीं, वे भी बिना मास्क के लापरवाह लोग होंगे जिनकी और तमाम किस्म की जांच करके गाड़ी सहित अधिक से अधिक जुर्माना ठोकना चाहिए। इससे कम में इस देश के लोग नहीं सुधरेंगे। इनका बस चलेगा तो तम्बाकू खाकर सोने की चिडिय़ा पर भी इतना थूक देंगे कि वह पीक के रंग की हो जाए। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश में आयुर्वेदिक दवाईयां बनाने वाली कंपनियों के अलावा दर्जनों दूसरी कंपनियां शहद बेचती हैं। शहद कारखाने में तो बन नहीं सकता इसलिए वह गांव-जंगल में बसे हुए असंगठित लोगों से होकर इन कंपनियों तक पहुंचता है या मधुमक्खी पालकों के माध्यम से आता है। देश की सबसे बड़ी पर्यावरण-संस्था सीएसई ने अभी एक बड़ी वैज्ञानिक-पड़ताल की तो पता लगा कि देश के अधिकतर ब्रांड अपने शहद में एक ऐसा चीनी प्रोडक्ट मिला रहे हैं जो कि भारत में शहद की जांच को धोखा देता है। चीन से आए हुए इस घोल को शहद में मिलाकर उसकी जांच की जाए तो वह उसे खालिस शहद ही बताता है। नतीजा यह हुआ है कि देश के मधुमक्खी पालक लोग इस धंधे को छोडऩे की कगार पर हैं क्योंकि उनके तैयार किए हुए शहद से आधे से भी कम दाम पर यह चीनी सिरप आ रहा है, और खबर ऐसी भी है कि चीन की कंपनियों ने यह सिरप तैयार करने के कारखाने भारत में भी बनाए हैं। ऐसा सिरप गैरकानूनी नहीं है क्योंकि पिपरमेंट बनाने में भी इसका इस्तेमाल होता है, लेकिन इसने हिन्दुस्तान के शहद-उत्पादन और बिक्री को पूरी तरह मिलावटी बनाकर छोड़ा है।
सेंटर फॉर साईंस एंड एनवायरामेंट की यह जांच बताती है कि जैसे-जैसे इस सिरप का इस्तेमाल भारत के शहद कारोबार में बढ़ते गया, मधुमक्खी पालकों को उनके शहद का मिलने वाला बाजार भाव गिरते चले गया। अब हिन्दुस्तान में आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, या घरेलू नुस्खों में शहद के फायदे ही फायदे गिनाए गए हैं। लोग तरह-तरह से इसका इस्तेमाल करते हैं लेकिन दिलचस्प बात यह है कि 2018 में भारत सरकार ने शहद में मिलावट की जांच के कुछ पैमानों को रहस्यमय तरीकों से कमजोर कर दिया जिससे मिलावटी शहद की शिनाख्त मुश्किल हो गई। अब भारत सरकार के फैसलों को कोई गांव के शहद उत्पादक तो बदलवा नहीं सकते, इसलिए ऐसी रहस्यमय रियायत के पीछे देश की बड़ी कंपनियां ही रही होंगी। जो देश हजारों बरस पहले के आयुर्वेद का गौरवगान करते हुए थकता नहीं है, वह आयुर्वेद में व्यापक इस्तेमाल होने वाले इस सामान में मिलावट का रास्ता भारत सरकार के स्तर पर खोलता है तो इसे क्या समझा जाए? ऐसे में तब हैरानी नहीं होनी चाहिए जब पश्चिम के कई विकसित देश भारत की आयुर्वेदिक दवाईयों को जोखिम के पैमाने पर ऊपर पाकर उन पर रोक लगाते हैं। एक तरफ जहां दुनिया खानपान की चीजों की जांच के पैमाने कड़े बनाती चल रही है, वहीं पर भारत सरकार ने 2018 में यह जानते हुए अपने पैमानों को लचर और कमजोर बनाया कि चीन से आयात होने वाले ऐसे सिरप का इस्तेमाल लोग शहद बनाने में कर रहे हैं क्योंकि इससे लागत घट जाती है, और ये सिरप कारखानों से आसानी से हासिल है।
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आज सवाल यह है कि सीमित साधन-सुविधाओं वाला एक पर्यावरण-संगठन जिस बात की जांच करके इस मिलावट का भांडाफोड़ कर रहा है, वह काम भारत सरकार अपनी जांच एजेंसियों, निगरानी एजेंसियों के रहते हुए भी नहीं कर पा रही, या शायद यह कहना अधिक सही होगा कि नहीं कर रही। जिस चीन के साथ भारत सरकार सरहद पर जीत और हार के बीच डांवाडोल चल रही है, उसी चीन से खुलेआम भारत में आने वाले ऐसे सिरप से हिन्दुस्तान के दसियों लाख मधुमक्खी पालकों के बेरोजगार होने की नौबत आ गई है। चीन के सामानों के बहिष्कार को एक नारे की तरह इस्तेमाल करके भारत के राजनीतिक दल भी कल सार्वजनिक हुए इस भांडाफोड़ पर अब तक चुप हैं। हिन्दुस्तान के मिलावटखोर कारोबारी धड़ल्ले से चीनी उत्पाद बुला रहे हैं, और वह कानूनी रास्ते से आकर गैरकानूनी मिलावट में 50 से 80 फीसदी तक मिलाया जा रहा है, और सरकार की जांच में वह खालिस शहद साबित हो रहा है।
आज दुनिया के देशों में कोई कारोबार उसी हालत में चल सकते हैं जबकि वे देश-विदेश की ऐसी साजिश के शिकार न हों। आज देश का कोई ईमानदार शहद उत्पादक ब्रांड क्या खाकर मिलावटी शहद का मुकाबला कर सकता है, अगर मिलावटी शहद को शुद्ध होने का सरकारी सर्टिफिकेट आसानी से हासिल हो सकता है। सरकार की निगरानी एजेंसियां अगर ऐसे व्यापक और संगठित कारोबार को रोकने का काम नहीं कर सकतीं, तो ऐसी विदेशी मिलावट किसी भी देसी कारोबार को सडक़ पर ला सकती है। एक तरफ तो चीन के बने हुए सामानों के खिलाफ राष्ट्रवादी फतवे दीवाली की झालरों की बिक्री बंद करवा देते हैं, दूसरी तरफ चीन के ऐसे विवादास्पद सामान हिन्दुस्तान के एक सबसे पुराने और परंपरागत दवा-सामान को कानूनी धंधे से बाहर ही कर दे रहे हैं।
यह पूरा सिलसिला एक निराशा पैदा करता है क्योंकि यह देश में कुटीर उद्योगों को खत्म करने का मामला तो है ही, यह देश में आयुर्वेद और प्राकृतिक चिकित्सा की साख को खत्म करने का मामला भी है। आज देश भर में कहीं खादी ग्रामोद्योग के तहत, तो कहीं प्रदेश शासन के वनविभाग के मातहत वनवासियों के लिए शुरू किए गए मधुमक्खी पालन की अर्थव्यवस्था को ऐसी मिलावट खत्म कर रही है। जब शहद उत्पादकों को कुछ बरस पहले के दाम से आधा दाम भी आज नहीं मिल रहा है, तो जाहिर है कि उनकी रोजी-रोटी चीनी कंपनियों के मिलावट के कच्चे माल की शक्ल में आ रहे हैं, और हिन्दुस्तानी मधुमक्खियों को भी बेरोजगार कर रहे हैं।
सीएसई ने एक वैज्ञानिक-पड़ताल की रिपोर्ट सार्वजनिक की है, और जाहिर है कि वह भारत सरकार की नजरों में तो आ ही चुकी है। भारत में लोगों को रोजगार देने का जो सरकारी दावा है, उस दावे को कुचल-कुचलकर मारने का काम यह मिलावटी-कारोबार कर रहा है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। आज सरकार के पास तमाम सुबूतों के साथ यह मामला तश्तरी पर पेश किया गया है। इस पर भी अगर कार्रवाई नहीं होती तो देश के लोग शहद के फायदों की बात को आयुर्वेद का इतिहास मानकर उसका चिकित्सकीय उपयोग भी बंद कर देंगे। केन्द्र सरकार न सिर्फ जांच करे, बल्कि मिलावट करने वालों को तेजी से जेल भेजे, कड़ी से कड़ी कार्रवाई करे, और चाहे जितनी बड़ी कंपनी हो, ऐसी कंपनियों को बंद करवाने की कानूनी पहल करे। अगर यह सरकार ऐसा नहीं करती है, तो फिर यह बात साफ रहेगी कि 2018 में मिलावट पकडऩे वाले जांच के कड़े पैमाने क्यों ढीले किए गए थे। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ईरान में एक परमाणु वैज्ञानिक की सडक़ पर हत्या के तरीके से दुनिया की हिफाजत पर एक बड़ा सवाल उठ खड़ा हुआ है। टेक्नालॉजी ने लोगों की जिंदगी पर एक अभूतपूर्व खतरा खड़ा कर दिया है। एक तरफ तो फौजों में हत्यारे मशीन मानव इस्तेमाल करने के खिलाफ दुनिया भर एक जागरूकता अभियान चल रहा है कि फौजी इंसानों को मारने के लिए मशीनों की तैनाती न की जाए। दूसरी तरफ ईरान की राजधानी तेहरान में इस वैज्ञानिक को जिस तकनीक से मारा गया है, वह बहुत भयानक है।
खबरों में मिली जानकारी के मुताबिक यह हत्या इजराईल की बनाई हुई एक ऐसी ऑटोमेटिक गन से हुई है जिसे एक ट्रक पर तैनात करके रखा गया था, और इसे चलाने वाले कोई भी नहीं थे। यह गन अंतरिक्ष के एक उपग्रह से नियंत्रित थी, और उस उपग्रह को धरती से ही काबू किया गया था। इस तरह दुनिया के किसी भी हिस्से में बैठकर हत्यारे ने इस गन के साथ लगी दूरबीन से निशाने को देखा, और गोलियां चला दीं। इसके तुरंत बाद उस ट्रक को विस्फोटक से उड़ा दिया जिस पर यह गन लगाई गई थी। ऐसा माना जा रहा है कि कत्ल के बहुत ही पेशेवर अंदाज से, सारे सुबूत खत्म करने के हिसाब से यह काम किया गया। हालांकि ईरान ने इस कत्ल को इजराईल का काम बताया है, और इसका बदला लेने की घोषणा की है। सुबूतों से परे जनधारणा यह है कि ईरान की खुफिया एजेंसी मोसाद दुनिया में सबसे पेशेवर अंदाज से कत्ल करती है, और अमरीका की सीआईए भी इससे पीछे है।
अभी दो दिन पहले बस्तर में नक्सलियों के बिछाए गए एक विस्फोटक की वजह से सीआरपीएफ का एक अफसर मारा गया, और कई लोग जख्मी हो गए। उस पर भी यह बात उठी कि दुनिया में जमीन के नीचे विस्फोटकों को लगाना बंद होना चाहिए। दुनिया के कई ऐसे देश हैं जहां पर जमीनी सुरंग लगाकर दुश्मन को नुकसान पहुंचाने का जाल बिछाया जाता है, लेकिन फौजों और आतंकियों से परे नागरिक उनके शिकार हो जाते हैं। जमीनी सुरंग, या लैंडमाईन, का इस्तेमाल पूरी दुनिया में बंद करने के लिए एक अलग अभियान चल रहा है, क्योंकि कुछ देशों में हजारों बेकसूर लोग अपने पैर खो बैठे हैं, और हजारों लोग जान खो बैठे हैं।
जो टेक्नालॉजी परमाणु बमों जितनी खतरनाक नहीं है, उनसे भी नुकसान इतना हो रहा है कि वह इंसानी ताकत से रोकना मुमकिन नहीं है। टेक्नालॉजी और मशीनें जानलेवा होते चल रहे हैं, और ये हथियार व्यापक जनसंहार के हथियार भी नहीं है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि अगर तेहरान के इस ताजा कत्ल की तरह रिमोट कंट्रोल से मशीनगन चलाकर लोगों को ऐसे मारा जा सकता है, तो फिर मौके पर किसी कातिल का जाना भी जरूरी नहीं है, और उपग्रह के रास्ते किए गए ऐसे हमले के सुबूत भी ढूंढना आसान नहीं है। कत्ल करने और बर्बाद करने, तबाही लाने के औजार और हथियार बनाए तो इंसान ने हैं, लेकिन उनसे बचाव इंसान की क्षमता से बाहर हो चला है। अमरीकी राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी के कत्ल के बाद कातिल की शिनाख्त का सिलसिला चला, और फिर संदिग्ध कातिल को भी मार डाला गया था। उस वक्त तो केनेडी की राह पर किनारे की एक इमारत से गोली चलाई गई थी, और कातिल उस बंदूक के पीछे था ही। अब अगर दूर बैठे ऐसी बंदूकें चलने लगेंगी, तो किसकी हिफाजत हो सकेगी?
दुनिया को इजराईल के बारे में फिलीस्तीन के साथ उसके किए जा रहे युद्ध-अपराधों के अलावा भी कई बातों के लिए सोचना चाहिए। लोगों के टेलीफोन और कम्प्यूटर पर घुसपैठ करने की जो टेक्नालॉजी इजराईल ने विकसित की है, और जिसकी वह पूरी दुनिया में बिक्री भी कर रहा है, उससे भी इंसानी जिंदगी में भारी तबाही आ रही है। जो सरकारें अपने विरोधियों और आलोचकों पर नजर रखना चाहती हैं, वे इजराईल की ऐसी तकनीक खरीदकर अपने नागरिकों के बुनियादी अधिकारों को कुचल रही हैं, और उनकी जासूसी कर रही हैं। अब इजराईल ऐसे-ऐसे हथियार बना रहा है जिससे गैरफौजी नागरिकों को भी युद्धकाल से परे भी इतनी आसानी से मारा जा रहा है। इजराईल एक परले दर्जे का घटिया कारोबारी देश है, और पूरी दुनिया में वहां के कारोबारी बदनाम हैं। ऐसे में उसकी कौन सी तकनीक, उसके कौन से हथियार सरकारों के अलावा मुजरिमों के हाथों में जा रहे होंगे इसका अंदाज लगाना मुश्किल है।
हिन्दुस्तान जैसे देश के सुरक्षा अधिकारियों को अपने इंतजाम को इस कसौटी पर कस लेना चाहिए कि अगर तेहरान के ताजा कत्ल की तरह का कत्ल हिन्दुस्तान में किसी का किया जाएगा, तो सुरक्षा एजेंसियां उसे किस तरह रोक लेंगी? आज दुनिया में उपग्रह सिर्फ सरकारों के नहीं हैं, उपग्रह कारोबारियों के भी हैं। इनमें से कौन सा उपग्रह आतंकियों के काबू में आ जाए, और वे बंदूकों से परे भी कौन से दूसरे विस्फोटकों और हथियारों को रिमोट कंट्रोल से चला सकें, यह अंदाज लगाना अभी नामुमकिन है। लेकिन दुनिया की सरकारों को इजराईल के ऐसे विध्वंसकारी तकनीकी विकास के खतरों को समझना चाहिए। यह बेकाबू और मुजरिम देश अमरीकी शह पर संयुक्त राष्ट्र के खिलाफ जाकर भी फिलीस्तीन में ज्यादती जारी रखे हुए है, और अब ऐसी कातिल टेक्नालॉजी का इस्तेमाल भी करते दिख रहा है। इन खतरों को सभी को समझना चाहिए। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
असल जिंदगी में कहावत और मुहावरों के मुताबिक भेड़ की खाल ओढ़े हुए भेडिय़े छुप जाते हैं, लेकिन जब से यह जिंदगी इंटरनेट जैसी सार्वजनिक जगह बन गई है, और इस पर किसी तस्वीर या वाक्य को ढूंढना पलक झपकने जितनी देर का काम हो गया है, तो ऐसे में यह खाल उजागर होने लगी है। कुछ लोगों ने इसे भुगतान वाला, या मुफ्त का पेशा बना लिया है कि झूठ को फैलाया जाए, गंदी और हिंसक बातें लिखी जाएं, और दुनिया का भला चाहने के लिए काम करने वाले लोगों को इतना परेशान किया जाए कि उनकी नींद हराम हो जाए, और वे भला चाहना, भला करना बंद करके चुप घर बैठें। अगर सोशल मीडिया पर तैरता शक सही है, तो ऐसे लोगों को परेशान करने के लिए पेशेवर लोगों की एक साइबर फौज बनाई गई है जो कि प्रशिक्षित शिकारी पशुओं की तरह किसी पर भी छोड़ दी जाती है, और वे लोग नेकनीयत लोगों की जिंदगी खराब करके छोड़ते हैं।
दो दिनों से ट्विटर पर एक ट्वीट तैर रही है जिसमें देश की सबसे चर्चित अभिनेत्री और इतिहास के पन्नों से निकलकर वर्तमान में आ गई रानी लक्ष्मीबाई यानी कंगना रनौत, ने शाहीन बाग आंदोलन की सबसे बुजुर्ग महिला की तस्वीर, और अभी चल रहे किसान आंदोलन में झंडा लेकर सडक़ पर चल रही एक बहुत बुजुर्ग महिला को एक ही बताते हुए यह लिखा है कि टाईम मैग्जीन ने जिसे हिन्दुस्तान की सबसे ताकतवर महिला चुना है, वह सौ रूपए में उपलब्ध है। कंगना ने इसके साथ एक किसी व्यक्ति की पोस्ट की हुई एक ट्वीट भी जोड़ी है जिसमें उसने इन दोनों महिलाओं को एक बताया है।
कंगना के ठहाकों को एक झूठ पर आधारित बताते हुए बहुत से लोगों ने इसे किसान आंदोलन में शामिल बुजुर्ग महिला, और शाहीन बाग आंदोलन की बुजुर्ग दादी इन दोनों का अपमान बताया है। कंगना रनौत ने अपनी ट्वीट डिलीट तो कर दी है, लेकिन अपनी बात पर अड़े रहने का दावा किया है, और उनकी ट्वीट को झूठा बताने वालों को जयचंद (गद्दार) कहा है। यह बहस आज चल ही रही है, और अब देश के कुछ साखदार मीडिया वेबसाईटों ने कंगना के दावे को झूठा करार दिया है, और खुलकर सच को लिखा है। वेबसाईटों ने दोनों तस्वीरों की साइबर जांच करके लिखा है कि ये दोनों अलग-अलग महिलाओं की फोटो है। लोगों ने शाहीन बाग की बिल्किस बानो को इंटरव्यू भी किया है जिसमें उसने कहा है कि यह उसकी फोटो नहीं है। दोनों तस्वीरों की डिजिटल जांच भी यही साबित करती है।
अब सवाल यह है कि कुछ लोग शाहीन बाग के लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण आंदोलन के विरोधी हो सकते हैं, हकीकत यह है कि बहुत से लोग विरोधी हैं, दूसरी तरफ किसान आंदोलन की आलोचना करने वाले लोगों के बारे में कल ही हमने इसी जगह लिखा है। इन दोनों बातों को मिलाकर देखें, और फिर कंगना रनौत जैसी चर्चित और ताकतवर अभिनेत्री की सोशल मीडिया पर सक्रियता देखें, तो यह बात साफ है कि इस हमलावर तलवारबाज महिला के पास अपने दावे की जांच-परख के लिए देश की कुछ सबसे बड़ी ताकतें हैं। ऐसे में दो बुजुर्ग महिलाओं, दो संघर्षशील महिलाओं को झूठा, षडय़ंत्रकारी, बिकाऊ साबित करने की साजिश करके यह अभिनेत्री क्या साबित कर रही है? क्या इस देश में किसी गरीब को आंदोलन का हक नहीं है? क्या इस देश में गरीब, बुजुर्ग, महिला को बेइज्जत करने का हक एक अरबपति, चर्चित, और अभूतपूर्व ताकत-हासिल महिला को इस हद तक है? क्या मानहानि के सारे मुकदमों का हक महज कंगना जैसे संपन्न लोगों को है, और गरीबों की कोई इज्जत ही नहीं है? अगर इन गरीब बुजुर्ग महिलाओं की जगह कंगना की तस्वीरों को जोडक़र कोई सौ रूपए में बिकने वाली लिखते, तो अब तक देश की दो-चार सबसे बड़ी अदालतें महज कंगना का ही मानहानि मुकदमा सुनती रहतीं। इसलिए आज सवाल यह है कि किसी गरीब और बेकसूर को इस देश की ताजा-ताजा तस्वीर में आईं कंगनाओं के मुकाबले जिंदा रहने का कोई हक है या नहीं?
जिस तरह टाईम पत्रिका ने हिन्दुस्तान की एक सबसे असरदार महिला के रूप में शाहीन बाग आंदोलन की बिल्किस बानो का नाम छांटा है, उसी तरह इस पत्रिका ने उसी लिस्ट में भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का भी नाम छांटा है। अगर यह लिस्ट खिल्ली उड़ाने लायक है, तो लगे हाथों कंगना को नरेन्द्र मोदी के बारे में भी कह देना चाहिए कि इस पत्रिका की इस पसंद पर वे क्या सोचती हैं? क्या दिल्ली में कुछ ऐसे सामाजिक सरोकारी वकील हैं जो कि इन दो बुजुर्ग महिलाओं की ऐसी बेइज्जती करने वाली कंगनाओं के खिलाफ मुकदमा दायर करे, और कंगना से इन्हें सौ-सौ करोड़ रूपए दिलवाए? आज इस देश में इस बात का फैशन चला हुआ है कि सबसे संपन्न और सबसे ताकतवर लोग 5-5 सौ करोड़ रूपए के मानहानि दावे के मुकदमे कर रहे हैं। इन दो बुजुर्ग महिला आंदोलनकारियों के पास चाहे मुकदमे के लिए पैसे न हों, चाहे वे दौलतमंद न हों, लेकिन महान आंदोलनकारी होने का उनका जो मान है, उसकी हानि करने का हर्जाना कंगनाओं से क्यों वसूल न किया जाए? और अभी तो कंगना रनौत को कुछ और पैसे मिलने ही वाले हैं क्योंकि अदालत ने उसके दफ्तर में तोडफ़ोड़ का हर्जाना देने का हुक्म मुंबई महानगरपालिका को दिया है। अब यह देखना है कि ईमानदार और बेकसूर बुजुर्ग आंदोलनकारी महिलाओं की खिल्ली उड़ाने, उन्हें सौ रूपए में उपलब्ध बताने और उनकी एक संगठित और सुनियोजित बेइज्जती करने से उनकी इज्जत की जो तोडफ़ोड़ कंगना और उसके हमख्यालों ने की है, उसका क्या हर्जाना देश की अदालतें दिलाती हैं। हमारा ख्याल है कि सुप्रीम कोर्ट में कोई न कोई ऐसे सरोकारी वकील होंगे जो कि इस मुद्दे को लेकर भारतीय सोशल मीडिया की गंदगी को उजागर करने की कोशिश करेंगे, और हिन्दुस्तान की कंगानाओं को यह सबक भी सिखाएंगे कि इज्जत महज पैसेवालों का एकाधिकार नहीं है, और तोडफ़ोड़ महज किसी दफ्तर की नहीं होती है, किसी की इज्जत की भी हो सकती है। देखें हमारी यहां लिखी गई बात किसी वकील को भी सूझती और सुहाती है कि नहीं। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान के लोगों का कम से कम एक तबका अपनी राजनीतिक पसंद और नफरत के मुताबिक किसी पर ओछे हमले करने में बहुत से दूसरे देशों के लोगों को मात देते दिखते हैं। अभी जिन लोगों को किसानों के आंदोलन से नफरत है, और जो इसे गैरजरूरी या मोदी-विरोधी समझ रहे हैं, वे इसका मखौल उड़ाते हुए यह भूल जा रहे हैं कि दिन में तीन बार वे किसानों का उगाया हुआ ही खा रहे हैं। जब बाजार में सोना-चांदी आसमान पर पहुंच जाते हैं, तब फसल के दाम में पसीने के दाम जोडऩे में भी लोगों को तकलीफ होती है, किसी को किसानों की कार खटकती है, तो किसी को किसानों के ट्रैक्टर पर लगी गद्दी। इनमें से हर बात किसानों के खिलाफ इस्तेमाल की जा रही है मानो उनका हक नंगा और भूखा रहना ही है, उससे अधिक कुछ भी मांग करना देश के साथ गद्दारी है।
ऐसे में किसानों के आंदोलन को बदनाम करने के लिए एक वीडियो इस्तेमाल किया जा रहा है जिसमें कुछ सिक्ख (किसानों) के बीच बैठा एक आदमी केन्द्र सरकार के खिलाफ नाराजगी जाहिर कर रहा है, और बीच में वह खालिस्तान के बारे में भी कुछ बोलते सुनाई पड़ता है। हमने कम से कम एक दर्जन अलग-अलग जगहों पर इस वीडियो को देखने-सुनने के बाद पाया जहां पर वह कोई उत्तेजक बात कह रहा है, वहां आवाज अचानक बदलती सुनाई पड़ती है, और ऐसा लगता है कि रिकॉर्डिंग में छेड़छाड़ की गई है। लेकिन इसकी जांच करने के लिए देश में भारत सरकार और प्रदेशों के पास साइबर-सहूलियतें हैं, और इसकी जांच की जा सकती है कि क्या आंदोलन के बीच अचानक सामने आया ऐसा एक वीडियो आंदोलन को बदनाम करने के लिए गढ़ा गया है या आंदोलन से जुड़े किसी एक व्यक्ति ने कोई उत्तेजक बात सचमुच ही कही है। जब पंजाब की अधिकतर आबादी किसानी से जुड़ी हुई है, और अधिकतर आबादी केन्द्र सरकार के कृषि कानूनों के खिलाफ है, तो उनमें से कोई एक व्यक्ति हो सकता है कि मन से खालिस्तान-समर्थक भी हो, लेकिन उससे बाकी तमाम आंदोलन का क्या लेना-देना? किसी पार्टी के कुछ नेता अगर बलात्कारी को माला पहनाते हैं तो क्या पूरी की पूरी पार्टी को बलात्कारी कहा जाएगा, जैसा कि आज किसानों को लेकर सोशल मीडिया पर सुनियोजित तरीके से खालिस्तानी लिखना शुरू किया गया है। लोगों को एक ताजा मामला भूलना नहीं चाहिए कि कन्हैया कुमार के बताए गए जेएनयू के एक वीडियो को लेकर अदालत ने बाद में यह पाया कि देश के टुकड़े-टुकड़े करने का कोई नारा नहीं लगाया गया था, और उस वीडियो को गढ़ा गया था। लेकिन उस झूठ को इतनी बार दुहराया गया था कि आज भी बड़े-बड़े नेता अपने भाषणों में टुकड़े-टुकड़े गैंग जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं।
कन्हैया कुमार तो फिर भी वामपंथी विचारधारा का और सीपीआई का कार्यकर्ता था, और जेएनयू तो वामपंथ-विरोधियों की आंखों की किरकिरी रहता ही है इसलिए उसके खिलाफ एक वीडियो-ऑडियो गढक़र टुकड़े-टुकड़े गैंग विशेषण को उछालना एक राजनीतिक हरकत थी। लेकिन आज पंजाब के किसानों को अगर खालिस्तानी कहा जा रहा है, तो देश के बहुत से लोगों ने इस पर ऐतराज करते हुए यह लिखना शुरू किया है कि देश के मुस्लिम पाकिस्तानी करार दिए जा रहे हैं, देश के सिक्ख किसान खालिस्तानी करार दिए जा रहे हैं, तो फिर हिन्दुस्तानी है कौन? यह सवाल जायज है, और किसी तबके को बदनाम करने की यह साजिश नाजायज है। कल तक इसी पंजाब में भाजपा और अकाली दल की सरकार थी। भाजपा का एक सबसे पुराना भागीदार, अकाली दल तो धर्म पर आधारित सिक्ख समाज की ही राजनीति करता है। आज अकाली दल भाजपा और एनडीए से अलग है, तो क्या सिक्ख समाज को खालिस्तानी कहना किसी भी कोने से जायज है? यह सिलसिला खतरनाक है, देश के दलित-आदिवासियों को कहीं चमार, तो कहीं सरकारी दामाद कहा जाता है, दलितों को अछूत तो समझा ही जाता है, और उन्हें प्रताडि़त करने की जितनी पुरातनी प्रथाएं हैं, उनको नई-नई शक्लों में आज भी इस्तेमाल किया जा रहा है। यह देश आखिर है किसका? मुसलमानों को पाकिस्तान भेजने पर आमादा है, दलित-आदिवासियों से मांस छुड़वाना चाहता है, ईसाईयों को धर्मांतरण के आरोप में जिंदा जलाया जाता है, सिक्खों को किसान मानने से इंकार किया जा रहा है, और उन्हें खालिस्तानी करार दिया जा रहा है। यह सिलसिला कहां जाकर थमेगा? राजनीति इतनी ओछी नहीं हो जानी चाहिए कि वह लोगों को सम्प्रदायों में बांटकर एक-दूसरे के खिलाफ खड़े कर दे, वह लोगों को देश के प्रति गद्दार और किसी दुश्मन देश के प्रति वफादार करार दे, राजनीति इतनी ओछी भी नहीं होनी चाहिए कि वह बेकसूरों पर देश के टुकड़े करने की तोहमत थोपे। राजनीति इतनी ओछी भी नहीं हो जानी चाहिए कि वह इस मुल्क की फौज में काम करते हुए जिंदगी गुजारने वालों को यहां का नागरिक मानने से इंकार कर दे, और देश के भीतर ही शरणार्थी शिविरों में डाल दे। पंजाब बिल्कुल दिल्ली के करीब है, और पंजाब के लोगों की इज्जत को इस तरह मिट्टी में मिलाना, उन्हें गद्दार करार देना उन लोगों को बहुत भारी पड़ेगा जिनके प्रशंसक और समर्थक ऐसा अभियान चला रहे हैं। आज हिन्दुस्तानी फौज में किसी एक राज्य से सबसे अधिक लोग हैं, तो वह पंजाब है। पंजाब के जो किसान आज सरकार के कृषि कानून के खिलाफ सडक़ पर हैं, उनके बच्चे फौजी वर्दियों में सरहदों पर तैनात हैं। आज जब वे फौजी अपने परिवार के लिए खालिस्तानी नाम की गाली सुन रहे होंगे, तब उनके दिल पर क्या गुजर रहा होगा? कुदरत ने मुंह में जुबान दी है इसलिए लोकतंत्र ने किसी को भी गद्दार करार देने का हक दे दिया है ऐसा भी नहीं है। यह सिलसिला अलोकतांत्रिक है, और जिन लोगों के समर्थन में यह चलाया जा रहा है उनकी जिम्मेदारी है कि वे इसे धिक्कारें। हालांकि हमारी इस नसीहत का किसी पर कोई असर होगा ऐसी उम्मीद नहीं है क्योंकि हरियाणा के भाजपा-मुख्यमंत्री किसानों के आंदोलन को खालिस्तानी समर्थकों का समर्थन जैसी बातें कहकर माहौल को और बिगाड़ ही चुके हैं। सिक्खों की कौम ऐसी तोहमतों को सुनने की आदी नहीं है क्योंकि वह मुल्क के लिए बढ़-चढक़र शहादत देने को आगे रहते आई है। केन्द्र सरकार को यह सोचना चाहिए कि एक किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिए एक पूरी कौम को जिस तरह बदनाम किया जा रहा है, वह एक बड़ा जुर्म है, और केन्द्र सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह इसके खिलाफ कार्रवाई करे।
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तमाम लोकतांत्रिक दुनिया में आज लोग सोशल मीडिया पर अपनी सोच सामने रखते हैं, और वह बहुतों के लिए बहुत मायने भी रखती है। पहले किसी औपचारिक समारोह में लोगों को सुनना-देखना हो पाता था, या बहुत करीबी 5-10 लोगों से रूबरू मुलाकात होने पर उनसे कोई बहस हो जाती थी, तर्क-वितर्क चलता था। लेकिन अब सोशल मीडिया की मेहरबानी से लोग अनजाने लोगों की बातें भी देख-सुन लेते हैं, और उनके साथ किसी बहस में भी शामिल हो जाते हैं। सोशल मीडिया का मिजाज इस हद तक लोकतांत्रिक है कि बहुत से लोग उसे अराजक भी मानते हैं कि उस पर न तो किसी देश का कानून लागू होता है, और न ही किसी समाज के सांस्कृतिक नियम। लोग इन सबसे परे जाकर किसी की तारीफ लिखते हैं, तो किसी को धमकियां।
ऐसे सोशल मीडिया की वजह से आज सुबह एक राजनीतिक व्यक्ति ने अपने फेसबुक पेज पर लिखा कि अनजाने लोग उनके पेज पर अपनी राय पोस्ट न करें। सोशल मीडिया को एक मेला है जिसमें जो जैसे नियम चाहें वे अपने पेज के लिए लागू कर सकते हैं। और इन नियमों को तोडऩे वाले लोगों को ब्लॉक कर सकते हैं, उनका लिखा मिटा सकते हैं, या निजी मैसेज बॉक्स में उनके भेजे संदेश की फोटो अपने पेज पर सभी लोगों के देखने के लिए पोस्ट कर सकते हैं। अमूमन महिलाओं को निजी मैसेज बॉक्स में बहुत से लोग प्यार का इजहार करने लगते हैं, और पकडऩे को जब उंगली नहीं मिलती तो कंधे तक को कोसने लगते हैं। कभी गिड़गिड़ाने लगते हैं, तो कभी धमकाने लगते हैं। अब महिलाएं हिम्मत करके ऐसे संदेश भेजने वालों का भांडाफोड़ भी करने लगी हैं, और उनकी शिनाख्त के साथ उनके प्रेम-प्रदर्शन या सेक्स-प्रदर्शन को पोस्ट भी करने लगी हैं। इसलिए सोशल मीडिया ने महिलाओं को एक नया हक दिया है जो कि इसके आने के पहले तक हासिल नहीं सरीखा था। जैसे किसी मनचले ने नोटों पर एक लडक़ी का नाम लिखकर यह लिखना शुरू कर दिया कि फलां-फलां बेवफा है, जिस तरह लोग सार्वजनिक शौचालयों के दरवाजों के भीतर या पर्यटन केन्द्रों की दीवारों और पेड़ों पर किसी लडक़ी का नाम लिखकर भद्दी बातें लिख दिया करते थे, वह गुमनाम हरकत अब सोशल मीडिया पर मुमकिन नहीं है, और अब यहां शिनाख्त उजागर हो सकती है, और अगर झूठी शिनाख्त से किसी ने खाता खोला है, तो पुलिस बड़ी आसानी से उसका भांडाफोड़ कर सकती है।
ऐसे सोशल मीडिया पर कल एक सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता ने लिखा- ‘विद्वान से विमर्श कीजिए, बराबर वाले से बहस, और मूर्ख से हाथ जोडक़र क्षमा मांग लीजिए।’ बात एकदम सही है और लोगों की अपनी मानसिक तरक्की के लिए जरूरी भी है। किसी को भी किसी बेवकूफ के साथ बहस करके अपना वक्त जाया नहीं करना चाहिए। मूर्खों के बारे में किसी ने बहुत पहले यह लिखा था कि वे आपको बहस में खींचकर एक तर्कहीन बात करने लगते हैं, आपको अपने स्तर तक ले आते हैं, और फिर आसानी से परास्त कर देते हैं क्योंकि वे उस स्तर की बहस के आदी हैं, उसमें उन्हें महारथ हासिल है। आज जिस तरह सोशल मीडिया पर लोगों का रोज खासा वक्त गुजरता है, उससे समझदारों का फायदा होता है क्योंकि वे अपने से अधिक समझदार को पढ़ते-सुनते हैं, और उनसे विचार-विमर्श करते हैं। लेकिन बहुत से लोग नफरती बातों में उलझे रहते हैं, और वे हर दिन अधिक हिंसक, और अधिक घटिया होते जाते हैं क्योंकि अपने से बेहतर सोच और समझ रखने वाले से किसी बहस में उलझने से मेहनत करनी पड़ती है, और अपनी बेवकूफी तुरंत उजागर भी हो जाती है। इसलिए बहुत से लोग अपनी किस्म की सोच रखने वाले लोगों के साथ नफरत और हिंसा का कीर्तन करते हुए सक्रिय रहते हैं जिसमें महज सिर हिलाना पड़ता है, और सिर के भीतर के दिमाग का कोई इस्तेमाल नहीं करना पड़ता।
सोशल मीडिया की इन्हीं खूबियों, और मजबूरियों की वजह से लोग वहां पर सावधानी से दोस्त बनाते हैं, और सावधानी से ही उनसे बात करते हैं। लेकिन यह रवैया उन्हीं लोगों का रहता है जो जिम्मेदार रहते हैं, जो गैरजिम्मेदार रहते हैं वे सोशल मीडिया पर किसी एक व्यक्ति, पार्टी, संगठन, या सोच के पक्ष में, या किसी के खिलाफ जिंदाबाद-मुर्दाबाद किस्म की नारेबाजी में लगे रहते हैं। जो लोग सोचे-विचारे बिना, दिमाग पर जोर डाले बिना किसी जुलूस में या भीड़ में नारे लगाते चलते हैं, उनके लिए भी सोशल मीडिया पर काफी जगह है, और उन्हीं के गुरूभाई, उन्हीं की गुरूबहनें वहां पर्याप्त संख्या में मौजूद हैं।
इस बारे में आज यहां लिखने का मकसद यह है कि लोग सोशल मीडिया पर रोज अपने पढऩे-लिखने, सोचने-विचारने में खासा वक्त खर्च करते हैं। अगर रोज के चौबीस घंटों में से एक घंटा भी लोग सोशल मीडिया पर लगाते हैं, तो वह जिंदगी का करीब चार फीसदी वक्त हो जाता है, और कामकाजी जिंदगी में इस एक घंटे का अनुपात और अधिक बढ़ जाता है क्योंकि दिन के सोलह घंटे तो लोग सोने और काम करने में खर्च करते हैं, और उनके पास खुद के लिए आठ घंटे से ज्यादा अमूमन नहीं बचते। इस नजरिए से देखें तो यह एक घंटा उनकी सोचने-विचारने वाली जिंदगी का पन्द्रह फीसदी से ज्यादा हो जाता है। यह ध्यान में रखते हुए लोगों को अपने को बेहतर बनाने, या अपने को बदतर बनाने, दोनों किस्म की संभावनाओं वाले सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना चाहिए। वैचारिक हुआ-हुआ, या वैचारिक कीर्तन से किसी का कुछ भला नहीं होता, और न ही बेवकूफों से दिमागी कुश्ती करने का। इसलिए लोगों को सोशल मीडिया का इस्तेमाल अपनी जानकारी और समझ बढ़ाने के लिए करना चाहिए, और ऐसा करने की अपार संभावना इस पीढ़ी से ही शुरू हुए इस सोशल मीडिया में है। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पंजाब से दिल्ली पहुंच रहे किसानों की जो तस्वीरें सामने आ रही हैं, और जो वीडियो मीडिया में तैर रहे हैं उन्हें लेकर सामाजिक जिम्मेदारी की एक नई शक्ल दिख रही है। आंदोलन कर रहे और पुलिस की रोक को पार करके दिल्ली पहुंचने की कोशिश कर रहे किसानों को पानी की धार की मार से रोका गया, पुलिस ने सडक़ों को कहीं खोद दिया, तो कहीं चट्टानों से सडक़ पाट दी गई। लेकिन ऐसे किसी भी मौके पर पुलिस का जो आम हाल होता है, वह यहां भी था, और किसानों ने अपने खाने के इंतजाम में से पुलिस को खाना खिलाया, उन्हें पानी पिलाया। कुछ किसान नेताओं के ऐसे भाषण के वीडियो भी सामने आए हैं जिनमें वे कह रहे हैं कि पुलिस अगर लाठी से पीटे, गोली चलाए, तो भी पुलिस के खिलाफ कुछ नहीं करना है, उसे हाथ भी नहीं लगाना है।
हिन्दुस्तान के इस आंदोलन में ही नहीं, पूरी दुनिया में हर किस्म की अच्छी और बुरी नौबत पर सिक्ख समुदाय लोगों की मदद में जुट जाता है। म्यांमार से मारकर निकाले गए रोहिंग्या शरणार्थी हों, या अमरीकी लॉकडाउन की वजह से वहां भूखे रहने वाले लोग हों, सिक्ख समुदाय आनन-फानन लंगर शुरू कर देता है, और लोगों को खाना खिलाना धर्म का काम मानकर उसे बढ़ाते चलता है। अभी दो-चार दिन पहले ही अमरीका के न्यूयॉर्क में एक सडक़ का नाम बदलकर पंजाब रखा गया है क्योंकि उस सडक़ पर मौजूद एक गुरूद्वारे में लॉकडाउन के पूरे दौर में हर दिन 10 हजार से अधिक लोगों को खाना खिलाया। हिन्दुस्तान के भीतर भी किसी भी शहर में गुरुद्वारा ऐसी जगह होता है जहां लोगों का धर्म पूछे बिना उन्हें खाना खिलाया जाता है, किसी को मना नहीं किया जाता। जो लोग जरूरतमंद नहीं होते हैं, वैसे लोग भी हिमाचल के मणिकरण जैसे पर्यटनस्थल पर जाने पर खाने के लिए गुरूद्वारे पहुंच जाते हैं। इसलिए आज जब पानी की तोप से मार करती, या लाठी चलाती पुलिस को भी जब बिठाकर सिक्ख समुदाय, किसान खाना खिला रहे हैं, तो यह बाकी लोगों के लिए बहुत कुछ सीखने की मिसाल भी है।
देश के अधिकतर दूसरे धर्मस्थलों पर लोगों के खाने का इंतजाम महज अपने धर्म के लोगों के लिए रहता है। कुछ जगहों पर तो लोगों को कुछ धार्मिक बातें बोलकर इसका सुबूत भी देना पड़ता है, तब उन्हें वहां खाना नसीब होता है, फिर चाहे वे भुगतान करके ही क्यों न खा रहे हों। अधिक धर्मों में इतने संगठित रूप से लोगों की मदद के लिए टूट पडऩे वाले लोग नहीं रहते। ऐसा भी अधिक धर्मों में नहीं होता कि धर्मस्थल पर जो सबसे छोटा काम होता है, उसमें भी उस धर्म के सबसे संपन्न लोग जुट जाते हैं। लोगों का तजुर्बा है कि देश-विदेश से आने वाले अरबपति सिक्ख भी अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में रसोई घर में काम करने लगते हैं, सफाई करने लगते हैं, और तो और वहां आने वाले दर्शनार्थियों के जूते-चप्पल साफ करते फर्श पर बैठे रहते हैं।
एक बार फिर शुरू की बात पर लौटें तो हिन्दुस्तान में किसी भी प्रदर्शन में पुलिस के साथ होने वाले आम टकराव से परे यहां पर लोग जिस तरह पुलिस को खाना परोसकर खिला रहे हैं, उससे उनकी समझदारी भी झलकती है। मौके पर तैनात पुलिस महज प्यादा रहती है, उसे वहां तैनात करने वाली ताकतें दूर बड़े दफ्तरों में बैठी रहती हैं। इसलिए किसी प्रदर्शन को रोकने का फैसला लेना जिस पुलिस के हाथ नहीं रहता, और जो महज ऊपर के हुक्म को मानकर हर किस्म का तनाव झेलती है, उससे टकराना कोई समझदारी नहीं है। यह बात और जगहों पर भी प्रदर्शन करने वालों को समझनी चाहिए कि पुलिस शतरंज की बिसात पर सिर्फ प्यादे सरीखी रहती है जो सबसे पहले नाराजगी झेलती है, लोगों की मार झेलती है, और ऊपर के हुक्म से हिंसा भी करती है। दुनिया में जगह-जगह फौज और पुलिस के सामने प्रदर्शन करने वाले लोग दिखते हैं जो कि सिपाहियों और सैनिकों को फूल भेंट करते हैं। ये तमाम बातें लिखने का मकसद यह है कि सडक़ों पर एक गैरजरूरी टकराव टालना चाहिए, पुलिस को भी हिंसा से बचना चाहिए, और प्रदर्शनकारियों को भी पुलिस को दुश्मन नहीं मानना चाहिए। सिक्खों से सीखने को बहुत कुछ रहता है, दूसरों की मदद करना उनमें सबसे ऊपर है। जो सिपाही या सैनिक उनको रोकने को तैनात हैं, उन्हें भी बिठाकर खिलाना एक बहुत बड़ी सोच है, और इससे सभी को दरियादिली सीखनी चाहिए। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दिल्ली के आसपास ही कई प्रदेशों से किसान देश की राजधानी पहुंच रहे हैं। वे केन्द्र सरकार के बनाए हुए किसान कानूनों के खिलाफ लंबा डेरा डालने की तैयारी से दिल्ली आ रहे हैं। लेकिन पिछले डेढ़-दो दिनों से उन्हें हरियाणा और यूपी में वहां की भाजपा सरकारों द्वारा जिस तरह से रोकने की खबरें आ रही हैं, वे हैरान करने वाली हैं। एक तरफ तो उत्तर भारत अभूतपूर्व ठंड की चपेट में हैं, दूसरी तरफ किसानों को रोकने के लिए पानी की तोप से धार मारकर उन्हें पीछे किया जा रहा है। कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर यह भी पोस्ट किया है कि इसके लिए टैंकरों में भरकर नालों का पानी लाया गया है ताकि उससे भीगे हुए किसान और न ठहर सकें। लेकिन पंजाब के किसानों के साथ महिलाएं भी आई हैं, और लंगर का लंबा इंतजाम रखा गया है। किसानों की भीड़ अब तक सरकारी जुल्म के सामने भी शांत बनी हुई है, और बहुत से ऐसे फोटो-वीडियो तैर रहे हैं जिनमें वहां तैनात पुलिसवालों को भी खाना-पानी किसान ही बांट रहे हैं। कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर दशकों पहले की वे तस्वीरें पोस्ट की हैं जब किसानों के एक सबसे बड़े नेता टिकैत ने दिल्ली में किसानों की सभा की थी, उसमें पांच लाख लोग जुटे थे, और उस वक्त की केन्द्र सरकार ने उस सभा को रोकने की कोई कोशिश नहीं की थी। आज लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि जय किसान को रोकने के लिए जय जवान तैनात करके मोदी सरकार क्या साबित कर रही है? यह बात इसलिए भी उठ रही है कि राज्यों की पुलिस के साथ-साथ केन्द्रीय सुरक्षाबलों के जवान भी किसानों को रोकने के लिए तैनात किए गए हैं।
केन्द्र सरकार ने किसानों से तीन दिसंबर को बात करने की बात कही है। लेकिन बहुत से लोगों ने यह सवाल उठाया है कि किसानों को जितने खराब तरीके से, और पुलिसिया हिंसा से रोका जा रहा है, यह बातचीत करने वाली सरकार का रूख नहीं है। लोग यह भी कह रहे हैं कि अगर केन्द्र सरकार को तीन दिसंबर को बात करनी ही है, तो अभी क्यों नहीं कर सकती? ऐसे बहुत से सवाल हैं जिनके आसान जवाब नहीं हैं।
यह भी बड़ी अजीब सी नौबत है कि पंजाब में भाजपा को छोड़ बाकी तमाम पार्टियां किसानों के आंदोलन के साथ हैं। भाजपा के एक सबसे पुराने गठबंधन-साथी अकाली दल, ने किसान कानूनों का ही विरोध करते हुए एनडीए गठबंधन से रिश्ता तोड़ा था, आज अकाली दल पूरी तरह किसानों के साथ खड़ा है, और पंजाब में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी भी किसानों से बातचीत करने के लिए केन्द्र सरकार से बार-बार कह रही है। पंजाब में चुनावी जीत न पाने वाली आम आदमी पार्टी भी किसानों के साथ दिख रही है क्योंकि दिल्ली में उसकी सरकार ने पुलिस को स्टेडियम देने से मना कर दिया है जहां वह खुली जेल बनाना चाहती है। मोदी सरकार के छह बरसों में भाजपा के दो सबसे पुराने साथी-दल अलग हो गए हैं, महाराष्ट्र में शिवसेना भाजपा से खासी दूर चली गई है, और किसानों के मुद्दे पर अकाली दल अलग हो गया है। किसानों के बारे में केन्द्र सरकार के बनाए गए तीन कानूनों पर सत्तारूढ़ लोगों को छोडक़र किसी का भरोसा नहीं दिख रहा है, और लोगों के बीच यह आम धारणा है कि इनसे किसान बड़ी कंपनियों के हाथों का खेतिहर-मजदूर बनकर रह जाएगा, और हिन्दुस्तान की खेती कार्पोरेट सेक्टर के हाथों चली जाएगी। कुल मिलाकर केन्द्र के इन कानूनों के खिलाफ पूरे देश से इतने अधिक दल एकजुट हो गए हैं कि कई परस्पर विरोधी दल भी इस मुद्दे पर किसानों के साथ हैं।
कहां तो एक तरफ मोदी सरकार किसानों की कमाई को दोगुना करने का दावा कर रही थी, और कहां आज देश भर में किसानों का रहा-सहा भरोसा भी मोदी सरकार से उठ गया दिखता है। आज जिस तरह महीनों के रेल रोको आंदोलन के बाद पंजाब के किसान दिल्ली पहुंच रहे हैं, बाकी देश भर में जगह-जगह किसान संगठन अपने-अपने तरीके से आंदोलन कर रहे हैं, वह किसी भी केन्द्र सरकार के लिए बड़ी फिक्र की बात होनी थी। लेकिन दो चीजें हैं जो मोदी सरकार को किसी भी फिक्र से अछूता रख रही हैं। एक तो यह कि संसद में उसके पास किसी भी कानून को बनाने के लिए अपार बाहुबल है, और तमाम गैरएनडीए पार्टियां मिलकर एक भी हो जाएं, तो भी वे केन्द्र सरकार का कोई प्रस्ताव नहीं रोक सकतीं, अब तो बिना बहस महज ध्वनिमत से ही संसद में कानून बन जा रहे हैं। दूसरी बात यह कि तमाम नकारात्मक चर्चाओं के बीच भी, सरकार की बड़ी आलोचना के बीच भी देश में जब चुनाव होते हैं, तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में या तो भाजपा और उसके गठबंधन-साथी वोटरों के वोट से चुनाव जीत जाते हैं, या फिर वे दूसरी पार्टियों के विधायकों के वोट से सरकार बना लेते हैं। ऐसे सिलसिले के चलते हुए भला किसको किसानों, या किसी दूसरे तबके की फिक्र हो सकती है? लोकतंत्र में इतनी बेफिक्री किसी भी सत्तारूढ़ पार्टी, गठबंधन, या नेता को तानाशाह बना सकती है, उसे लोगों को अनसुना करने की आदत हो सकती है, और किसानों के मामले में, कई दूसरे मामलों में, केन्द्र सरकार का ऐसा ही रूख दिख भी रहा है। अपने दूसरे कार्यकाल में केन्द्र सरकार का ऐसा रूख देश के अलावा सत्तारूढ़ गठबंधन के भी खिलाफ है क्योंकि सरकार को जनता के मुद्दों पर गौर करना अब जरूरी नहीं रह गया है। भारत जैसे निर्वाचित लोकतंत्र में सत्तारूढ़ पार्टी की बड़ी फिक्र सत्ता पर दुबारा जीतकर आना रहती है। लेकिन यहां ऐसी कोई फिक्र चुनावों को लेकर नहीं हैं क्योंकि पिछले छह बरस में देश ने केन्द्र सरकार के बहुत से ऐसे फैसले देखे जिनकी वजह से एनडीए को आम चुनाव या प्रदेशों का चुनाव हारने का खतरा हो सकता था, लेकिन केन्द्र के फैसलों से आहत लोग भी जब मोदी के नाम पर वोट देने को टूट पड़ते हैं, तो फिर केन्द्र सरकार किसी मुद्दे की परवाह क्यों करे? इसकी ताजी मिसाल अभी बिहार में सामने आई जहां पूरे देश से तकलीफ में बिहार पैदल लौटने वाले मजदूरों ने भी कुछ इस अंदाज में दौड़-दौडक़र मोदी के नाम पर वोट दिया कि वे लॉकडाऊन की वजह से घर नहीं लौट रहे थे, वे चुनाव के पहले लौटकर मोदी को वोट देने पोलिंग बूथ पर कतार में लगने की हड़बड़ी में थे। यह एक बहुत रहस्यमय करिश्मा है, और इसके चलते हुए ही केन्द्र सरकार किसी भी मुद्दे की अनदेखी करने की हालत में है। फिलहाल किसानों का मुद्दा दिल्ली के इर्द-गिर्द के राज्यों से आगे बढक़र बाकी देश में कितना चल सकता है यह देखने की बात है। किसानों के साथ भाजपा-राज्यों की पुलिस जो बर्ताव कर रही है, वह बहुत ही खराब है, और उसे लोकतंत्र में बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
लंबे समय से कांग्रेस अध्यक्ष के राजनीतिक सलाहकार रहे, और अभी हाल ही में पार्टी के कोषाध्यक्ष बनाए गए अहमद पटेल के गुजरने पर कुछ लोगों ने यह भी लिखा कि अब पार्टी लीडरशिप और नेताओं-कार्यकर्ताओं के बीच की आखिरी कड़ी खत्म हो गई। अहमद पटेल प्रधानमंत्री राजीव गांधी के वक्त से उनके परिवार के सबसे भरोसेमंद लोगों में से एक थे, और बाद के बरसों में आतंकी हमले में राजीव की शहादत के बाद सोनिया परिवार उन पर और अधिक निर्भर हो गया था। अहमद पटेल की कई खूबियां गिनाई जा रही हैं जिनमें सबसे अधिक जोर पार्टी और मुखिया-परिवार के प्रति वफादारी पर दिया जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि वे नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा मौजूद रहते थे, वे सोनिया गांधी के लिए आंख-कान की तरह काम करते थे।
अहमद पटेल पर यहां लिखना बिल्कुल भी मकसद नहीं है क्योंकि हम श्रद्धांजलि लेखन पर भरोसा नहीं करते। लेकिन एक बड़े संगठन की लीडरशिप के आंख-कान की तरह काम करने वाले एक आदमी की गिनाई जा रहीं तमाम खूबियों के बावजूद यह नौबत क्यों आ रही है कि ऐसा कहा जा रहा है कि यह परिवार जमीन से कट गया है? हम कांग्रेस के भीतर की उस गुटबाजी पर भी जाना नहीं चाहते जिसके तहत सोनिया के पसंदीदा अहमद पटेल को राहुल-प्रियंका द्वारा नापसंद करने की चर्चा होती है। हर लीडर की अपनी पसंद-नापसंद होती है लेकिन अगर अहमद पटेल इतने ही काबिल नेता थे तो उन्होंने इतने बरसों में सोनिया गांधी की लीडरशिप के किसी काबिल विकल्प के लिए कोशिश क्यों नहीं की थी? आज वे इसका जवाब देने के लिए तो नहीं हैं, और हो सकता है कि उन्होंने अपने बस चलते ऐसी कोशिश की भी हो, और नाकामयाब रहे हों। सवाल यह उठता है कि दशकों से कांग्रेस पार्टी में एक सबसे महत्वपूर्ण नेता बने हुए, और दस बरस से अधिक से सोनिया गांधी के सबसे करीबी पार्टी पदाधिकारी रहते हुए भी वे पार्टी को इस तरह तैयार नहीं कर पाए कि वह इस कुनबे के बिना खड़ी हो सके। तो फिर उनकी यह वफादारी पार्टी के लिए थी, या कुनबे के लिए?
इस परिवार को ही पार्टी मान लेना ठीक उसी तरह गलत होगा जिस तरह आज की मोदी सरकार को ही देश मान लेने की गलती की जा रही है। मोदी सरकार से असहमत लोगों को देशद्रोही और गद्दार करार दिया जा रहा है। एक सरकार से असहमत रहते हुए भी देश के प्रति वफादार रहा जा सकता है, लेकिन भक्तिभाव के बीच ऐसी असहमति की गुंजाइश नहीं छोड़ी जाती। कुछ वैसा ही आज कांग्रेस पार्टी के साथ हो रहा है, कांग्रेस में मुद्दों पर चर्चा करने पर उसे पार्टी से गद्दारी करार दिया जा रहा है। और बीमारी के इस आखिरी महीने के पहले तक तो अहमद पटेल पार्टी के बहुत से मामले तय करने वाले रहते थे। ऐसे में यह कैसे माना जाए कि उन्होंने हमेशा कांग्रेस के ही भले का सोचा। जब एक नौबत ऐसी आ रही है कि कांग्रेस पार्टी का सोचना, और सोनिया परिवार का सोचना दो अलग-अलग मुद्दे बन गए हैं, और इस मामले में हितों का टकराव साफ दिख रहा है, तो ऐसे में अहमद पटेल सरीखी जगह पर बैठे हुए लोगों ने अगर पार्टी को वक्त पर सम्हालने का काम नहीं किया, तो फिर उनकी कामयाबी क्या रही?
जिस तरह मोतीलाल वोरा की बढ़ती उम्र के बाद कोषाध्यक्ष का जिम्मा अहमद पटेल को दिया गया, वह तो एक जायज बात थी। लेकिन इस बात को पिछले डेढ़ दिन में दर्जनों लोगों ने लिखा है कि किस तरह अहमद पटेल के देश के प्रमुख कारोबारी घरानों से अच्छे निजी तालुकात थे। ऐसे में जाहिर है कि इन कारोबारी घरानों से अहमद पटेल के संबंध चुनावी चंदे से जुड़े हुए थे, और कोषाध्यक्ष न रहते हुए भी वे कोष के इंतजाम में लगे रहते थे। ऐसी जनचर्चा भी रहती थी कि महज छोटा चंदा ही मोतीलाल वोरा के बहीखाते तक जाता था, और तमाम बड़े चंदे अहमद पटेल देखते थे। यह पूरा सिलसिला पार्टी के भीतर उनकी ताकत का एक सुबूत था, लेकिन इस ताकत के चलते हुए भी कांग्रेस हाईकमान और पार्टी के ही बड़े-बड़े नेताओं के बीच जो संवादहीनता, और जो संपर्कहीनता बनी थी, उसकी जिम्मेदारी भी तो अहमद पटेल सरीखे ताकतवर लोगों पर आती थी। और लगातार इतने बरस सोनिया गांधी के इर्द-गिर्द सबसे ताकतवर रहने वाले पार्टी नेता ने भी अगर संपर्क और संवाद बनाए रखने का जिम्मा पूरा नहीं किया, तो फिर क्या किया?
अहमद पटेल का मामला यह मिसाल सामने रखता है कि पार्टी की लीडरशिप को अपने-आपको गिने-चुने लोगों से होते हुए ही उपलब्ध रहने की गलती नहीं करनी चाहिए। और यह बात सिर्फ कांग्रेस लीडरशिप को लेकर नहीं है, दूसरी बहुत सी पार्टियों के साथ ऐसी ही दिक्कत हो सकती है, और पार्टियों से परे सरकारों के साथ भी ऐसी दिक्कत हो सकती है, अगर उनके मुखिया बाकी लोगों से संपर्क के लिए अपने कुछ सहयोगियों पर पूरी तरह निर्भर हो जाते हैं। भारत के देश-प्रदेश के इतिहास में ऐसे बहुत से शासनप्रमुख हुए हैं जो कि सत्ता में आने के बाद जड़ों से कट गए। कुछ उन्होंने खुद अपने आसपास के गिने-चुने लोगों को पूरा जिम्मा दे दिया, और फिर यह जिम्मा पाकर उन लोगों ने मुखिया को अपने घेरे में इस तरह समेट लिया कि मुखिया का बाकी सहयोगियों से भी जीवंत संपर्क खत्म हो गया। यह कुछ उसी किस्म का रहा जिस तरह जमीन के भीतर दबाई जाने वाली बिजली की केबल किसी खुदाई के दौरान कुदाली की मार से कट न जाए इसलिए बिजली के तारों के ऊपर मैटल का एक जाल गूंथकर उसे आर्मर्ड केबल बना दिया जाता है। सत्ता चाहे वह पार्टी की हो, या सरकार की, मुखिया के इर्द-गिर्द जब इनसुलेशन बढ़ते-बढ़ते फौलादी हो जाता है, एक आर्मर्ड केबल की तरह हो जाता है, तो मुखिया की उंगलियां अपनी ही सरकार या अपने ही संगठन की नब्ज पर से हट जाती हैं। आज अगर कांग्रेस हाईकमान लोगों की पहुंच के बाहर माना जाता है, ऐसा माना जाता है कि उनसे वे ही लोग मिल सकते हैं जिनसे वे लोग मिलना चाहते हैं, तो यह एक मुखिया की हिफाजत नहीं है, यह एक मुखिया को जड़़ों से दूर कर देना है।
अहमद पटेल की सज्जनता और उनके अच्छे बर्ताव की बड़ी तारीफ हो रही है, लेकिन जिस तरह वे बाकी तमाम पार्टी के लिए इतने बरस तक जैसे एक बैरियर बने हुए थे, आज उनके हटने से लोगों का यह लिखना जायज है कि कांग्रेस हाईकमान की पार्टी नेताओं-कार्यकर्ताओं से संपर्क की आखिरी कड़ी टूट गई।
लीडरशिप के साथ एक दिक्कत यह रहती है कि पहाड़ की चोटी पर जगह बहुत कम रहती है, और लीडर अपने इर्द-गिर्द के बहुत छोटे दायरे के बहुत गिने-चुने लोगों पर निर्भर हो जाने की चूक करते हैं। यह चूक लीडरशिप की जरूरत वाली किसी भी जगह पर हो सकती है, अमूमन हो जाती है। कांग्रेस के कामकाज में ऐसी एक कड़ी का खत्म हो जाना इस संगठन के एक व्यक्ति पर इस बुरी तरह आश्रित रहने का एक सुबूत भी है। किसी भी समझदार और दूरदर्शी संगठन, या सरकार को अपने लीडर को आर्मर्ड केबल की तरह घेरकर नहीं रखना चाहिए, उसे अधिक लोगों की राय सुनने का मौका देना चाहिए ताकि संभावनाएं अनसुनी न रह जाएं, और सहयोगियों और सलाहकारों की नापसंदगी और उनके पूर्वाग्रह अपने लीडर को घेरकर न रख लें। आज यहां लिखने का मकसद कांग्रेस के संगठन की फिक्र करना नहीं है, उसके लिए उसके पास बहुत से ऐसे लोग हैं जिनकी आज अपनी ही पार्टी की लीडरशिप तक कोई पहुंच नहीं है, हमारे लिखने का मकसद बाकी लोगों को अपने-अपने घर ठीक रखने के लिए सचेत करना है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज जब हिन्दुस्तान में भाजपाशासित कई प्रदेश तथाकथित लव-जेहाद के खिलाफ कानून बनाने की घोषणा कर चुके हैं, और उत्तरप्रदेश जैसे राज्य में इसे लेकर मुख्यमंत्री एक बैठक ले चुके हैं, तो उसी उत्तरप्रदेश के हाईकोर्ट का एक फैसला लोकतंत्र को मजबूती देने वाला भी आया है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के सामने एक मुद्दा यह था कि प्रियंका नाम की एक हिन्दू बालिग युवती ने अपनी मर्जी से सलामत अंसारी नाम के नौजवान से शादी की, और शादी के वक्त उसने इस्लाम मंजूर कर लिया। इस पर लडक़ी के परिवार ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई कि यह शादी अपहरण करके जबर्दस्ती की गई है। अब हाईकोर्ट ने अपने फैसले में इन दोनों को हिन्दू और मुस्लिम की तरह देखने से इंकार कर दिया, और कहा कि ये दोनों बालिग नागरिक हैं, और अपनी मर्जी से शादी करना उनका मूल अधिकार है। उनके इस अधिकार को किसी तरह कम नहीं किया जा सकता। यह फैसला देते हुए अदालत ने अपने ही कुछ पिछले फैसलों को गलत बताया जिनमें कहा गया था कि विवाह के लिए धर्मांतरण प्रतिबंधित है, और ऐसे विवाह अवैध हैं।
आज देश में उछाले गए एक नारे से भडक़ी भावनाओं के बीच यह फैसला एक बड़ी राहत की तरह आया है और इससे भारतीय संविधान की यह सोच भी साफ होती है कि दो धर्मों के लोगों के बीच किसी बालिग शादी को लेकर लव-जेहाद विरोधी कानून सरीखा कुछ नहीं किया जा सकता। अब संविधान की इस बुनियादी सोच के खिलाफ जाकर अगर कोई राज्य ऐसा कोई कानून बनाते हैं तो शायद सुप्रीम कोर्ट के रहते हुए वह कानून लागू करने के लिए नहीं बनेगा, बल्कि भावनाओं को भडक़ाने के लिए बनेगा।
हिन्दुस्तान में ऐसी अनगिनत मिसालें हैं जिनमें भाजपा के ही बहुत से मुस्लिम नेताओं ने हिन्दू लड़कियों से शादी की है। घनघोर हिन्दुत्व की बात करने वाले भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने खुद एक गैरहिन्दू महिला से शादी की है, उनकी बेटी ने एक मुस्लिम से शादी की है, और सोशल मीडिया पर तैर रही बाकी चर्चा अगर सही है तो परिवार में एक-दो और लोग, एक-दो और धर्मों में शादी करने वाले हैं। किसी व्यक्ति के नाम की चर्चा ऐसे संदर्भ में ठीक नहीं है, लेकिन इस लोकतांत्रिक देश में संवैधानिक व्यवस्था के बीच काम करने वाली, और सत्ता तक पहुंचने वाली पार्टियों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिस संविधान की शपथ लेकर वे सरकारें चला रही हैं, उस संविधान के मूलभूत अधिकारों को बदलना किसी राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र से बाहर है। इसलिए दो धर्मों के लोगों के बीच किसी शादी के खिलाफ जिस तरह के कानून का फतवा दिया जा रहा है, वह कानून चुनावी राजनीति के ईंधन की तरह तो बन सकता है, लेकिन वह सुप्रीम कोर्ट में बिना कलफ के पजामे की तरह फर्श पर गिर पड़ेगा। हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में ही नहीं, अमरीका जैसे अधिक पढ़े-लिखे देश में भी लोग इतने कमसमझ रहते हैं कि उन्हें फर्जी मुद्दों के आधार पर भडक़ाना आसान रहता है। मौजूदा राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप पिछले चार बरस से यही करते आए हैं। हिन्दुस्तान में भी अलग-अलग कई सरकारें कभी गाय के नाम पर तो कभी पाकिस्तान के नाम पर इसी तरह का काम करते आई हैं। अब सरकारी रिकॉर्ड से परे रहते आए एक शब्द, लव-जेहाद, को लेकर एक कानून बनाने की बात हो रही है। और यह कानून मानो इस देश के प्रति प्रेम, और इसके खिलाफ गद्दारी के बीच एक जनमतसंग्रह होने जा रहा है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला बड़ी राहत देने वाला है, ऐसा नहीं कि उसने संविधान का कोई अनोखा विश्लेषण कर दिया है, और कोई अविश्वसनीय सा निष्कर्ष निकाल दिया है। उसने महज इतना किया है कि लोगों को दो दर्जन शब्दोंं में बतला दिया है कि अपने मर्जी से शादी करना अलग-अलग धर्मों के लोगों के बालिगों का बुनियादी अधिकार है, उस पर न कोई सरकार रोक लगा सकती, और न ही कोई अदालत। अब देखना यह है कि जिस इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यह साफ-साफ पारदर्शी आदेश दिया है उस इलाहाबाद हाईकोर्ट के अधिकार क्षेत्र के भीतर लखनऊ में बैठी यूपी सरकार किस तरह इसके खिलाफ एक कानून बनाती है।
कुछ हफ्ते पहले जब करीब दो दर्जन बड़े कांग्रेस नेताओं ने कांग्रेस पार्टी के तौर-तरीकों पर सवाल उठाए थे, और पार्टी के अनमने मुखिया राहुल गांधी की लीडरशिप का नाम लिए बिना यह बुनियादी सवाल उठाया था कि पार्टी इस तरह कैसे चल सकती है, तो उसके तुरंत बाद कांग्रेस संगठन की सबसे बड़ी कमेटी, कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक थी, और उसमें कुछ नहीं किया गया। इतना जरूर हुआ कि सवालिया नेताओं को बागी मानते हुए उनमें से कुछ के पर कतरे गए। लेकिन लोग चुप रहे क्योंकि पार्टी में सुधार की बात करने को बगावत मान लिया गया, और भाजपा के हाथ मजबूत करना करार दिया गया। लेकिन आग दबी भर थी, बुझी तो नहीं थी, इसलिए अभी कपिल सिब्बल ने फिर से यह सवाल उठाया है कि देश की सबसे पुरानी और इतनी बड़ी पार्टी डेढ़ बरस से बिना अध्यक्ष किस तरह रह सकती है? एक सवाल गुलाम नबी आजाद ने भी उठाया है कि फाईव स्टार होटलों से बैठकर चुनाव नहीं लड़े जा सकते।
कुल मिलाकर कांग्रेस में आज पार्टी के तौर-तरीकों को लेकर तीखे सवाल उठ खड़े हो रहे हैं, और जो लोग इन 23 लोगों की चि_ी में दस्तखत करने वाले नहीं थे, उनके मन में भी सवाल उठ रहे हैं। ये सवाल हर उस कांग्रेसी के मन में उठ रहे हैं जिसे कांग्रेस की फिक्र है, और कांग्रेस की हालत आज बहुत बड़ी फिक्र के लायक ही रह गई है। इस पार्टी से देश में सत्तारूढ़ गठबंधन के खिलाफ एक गठबंधन बनाने की उम्मीद की जाती है क्योंकि एनडीए के अलावा पूरे देश में मौजूदगी वाली यही एक पार्टी है। जिस यूपीए गठबंधन के तहत पिछला आम चुनाव लड़ा गया था, उसमें सिर्फ कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है जिसकी मौजूदगी पूरे देश में है। और एनडीए और यूपीए से परे भी कोई ऐसी पार्टी नहीं है जो नरेन्द्र मोदी की अगुवाई वाले एनडीए के सामने खड़ी हो सके, और कुछ राज्यों में जिसका अस्तित्व हो। अधिकतर पार्टियां एक या दो राज्यों में मौजूदगी वाली हैं, और उन राज्यों से परे किसी और का भरोसा बैठना नहीं है।
दूसरी तरफ एक और बात को समझने की जरूरत है कि यह चर्चा हिन्दुस्तान के इस ऐसे दौर में हो रही है जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा के मातहत एनडीए चुनाव जीतने वाली एक ऐसी मशीन बन चुकी है जो या तो मतदान केन्द्र में जीत जाती है, या फिर राजभवन और विधानसभा में। देश में यह तस्वीर अभूतपूर्व है, हिन्दुस्तान के चुनावी इतिहास के 10 बरस पहले तक के दौर में किसी ने ऐसे चुनावी माहौल की कल्पना भी नहीं की थी, जब एक-एक करके तमाम पार्टियां किनारे कर दी जाएंगी, और देश में सिर्फ कमल ही खिलने का माहौल रह जाएगा। आज एनडीए की दूसरी पार्टियां भी देश में जगह-जगह भाजपा की पीठ पर सवार होकर सत्ता तक पहुंच रही हैं, और पूरे देश की चुनावी राजनीति न सिर्फ भाजपा-केन्द्रित हो गई है, बल्कि मोदी-केन्द्रित हो गई है। ऐसे दौर में यूपीए नाम के गठबंधन की मुखिया कांग्रेस पार्टी की लीडरशिप अगर चुनावी मैदान से और देश की राजनीति से गायब सरीखी हो गई है, रोजाना एक या दो ट्वीट तक सीमित हो गई है, तो यह न सिर्फ गैरएनडीए विपक्ष के लिए खतरे की बात है, बल्कि भारतीय लोकतंत्र के लिए भी खतरे की बात है। किसी भी मजबूत लोकतंत्र में सत्ता जितनी जरूरी होती है उतनी ही जरूरी मजबूत विपक्षी पार्टियां भी होती हैं।
अब मुद्दे की बात पर आएं तो कांग्रेस पार्टी को जिस एडहॉक तरीके से हांका जा रहा है, उससे वह किसी मंजिल तक नहीं पहुंच रही है। जब मोदी की लीडरशिप में भाजपा ने इस देश के चुनाव प्रचार, राजनीतिक और सामाजिक एजेंडे, धार्मिक मुद्दे, और चुनाव प्रचार के तरीके, इन सबके नए पैमाने गढ़ दिए हैं, जब जनधारणा को चिकनी गीली मिट्टी की तरह मोडक़र मनचाहा आकार देना मोदी के बाएं हाथ का खेल हो चुका है, तब कांग्रेस पार्टी इस तरह अपने एक हाथ पर दूसरा हाथ धरे बैठी रहे, तो वह हाशिए के सिरे पर पहुंच जाने से बस दो ही कदम तो दूर है। कांग्रेस पार्टी आज एक बहुत ही अजीब से मुहाने पर पहुंची हुई है, वह सोनिया-परिवार की लीडरशिप को बचाए रखे, या कि कांग्रेस पार्टी को बचाए रखे, यह मुद्दा तय करना है। हम लंबे समय से चली आ रही कुनबापरस्ती की तोहमतों के इतिहास में जाना नहीं चाहते, लेकिन आज हकीकत यह है कि अगर कांग्रेस पार्टी अपने अनमने और अघोषित मुखिया राहुल गांधी से परे कुछ नहीं सोच पाती है, तो उसके पास बहुत जल्द खोने को कुछ नहीं बचेगा।
हम जिस छत्तीसगढ़ में बैठकर यह बात लिख रहे हैं यहां पर हमने पिछले 15 बरसों के भाजपा शासन के दौरान कांग्रेस को संघर्ष करते देखा है। और खासकर आखिरी के शायद 5 बरसों में भूपेश बघेल की अगुवाई में प्रदेश कांग्रेस ने यहां जितनी धारदार और हमलावर विपक्षी लड़ाई की थी, वह देखने लायक थी। और ये हमारे विशेषणों की बात नहीं है, पिछले विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ में जिस तरह कांग्रेस ने भाजपा को अपना रोड रोलर चलाकर चपटा कर दिया था, उसे 15 सीटों पर लाकर खड़ा कर दिया था, वह कांग्रेस की एक दमदार मेहनत के बिना नहीं हुआ था। हिन्दुस्तान बहुत बड़ा देश है, इसलिए यह कल्पना करना आसान या जायज नहीं होगा कि कांग्रेस पार्टी को राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में ऐसी लड़ाई लडऩे वाला दमदार मुखिया चाहिए जैसा पिछले विधानसभा चुनाव के पहले छत्तीसगढ़ कांग्रेस को हासिल था। यह बात भूपेश बघेल के खिलाफ इस्तेमाल भी की जा सकती है कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष की काबिलीयत के पैमानों में भूपेश बघेल के विपक्ष के कार्यकाल का जिक्र किया जा रहा है। कांग्रेस देश भर में से जिसे चाहे उसको अध्यक्ष बनाए, लेकिन उस व्यक्ति को चौबीसों घंटे राजनीतिक-सामाजिक मुद्दों पर चौकन्ना रहना होगा। कांग्रेस पार्टी, और उसके अगुवाई वाला गठबंधन आज देश में ऐसी हालत में नहीं हैं कि एक गैरगंभीर मुखिया के तहत वे जिंदा भी रह सकें। बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस लीडरशिप के तौर-तरीकों पर गठबंधन के भागीदार दूसरे नेताओं ने सार्वजनिक रूप से सवाल उठाए हैं। उन्हें सार्वजनिक रूप से उठाना जायज था या नहीं, उस पर हम नहीं जाते, लेकिन वह सवाल तो जायज था। इसलिए इसके पहले कि यूपीए के बाकी साथी ऐसे सवाल उठाएं, वे इधर-उधर तितिर-बितिर हो जाएं, उसके पहले कांग्रेस को अपना घर सम्हालना चाहिए और पार्टी को सोनिया परिवार से बाहर का एक अध्यक्ष देना चाहिए। ऐसा करना राहुल गांधी के साथ भी इंसाफ होगा जिन्होंने पिछले डेढ़ बरस में अपने आपको पार्टी की औपचारिक लीडरशिप से अलग कर रखा है, और रोजाना एक ट्वीट, और बिहार चुनाव में तीन दिन प्रचार तक सीमित रखा है। कांग्रेस को एक पूर्णकालिक, महत्वाकांक्षी, मेहनती, और लीडरशिप की बाकी खूबियों वाला नेता चाहिए। जब पूरा देश नरेन्द्र मोदी और अमित शाह के कदमोंतले रौंदा जा रहा था, उस वक्त भी छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने यह साबित किया था कि 15 बरसों की विपक्षी कंगाली के बावजूद वह सत्तारूढ़ भाजपा को, मोदीछाप पार्टी को नेस्तनाबूत कर सकती है। आज देश भर में कांग्रेस को इसी किस्म की मेहनत की जरूरत है, एक विश्वसनीय नेता की जरूरत है जिस पर लोगों को यह भरोसा हो सके कि वे हर वक्त मोर्चे पर डटे रहेंगे, पार्टी के लोगों को हासिल रहेंगे। कांग्रेस पार्टी के मुसाहिबों को यह बात खल सकती है, खलेगी ही, लेकिन सच तो यह है कि पार्टी को एक जीवाश्म (फॉसिल) बनाकर सोनिया परिवार को उसका लीडर बनाए रखना समझदारी नहीं होगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट कोरोना-मृतकों के अंतिम संस्कार को सम्मानपूर्ण तरीके से करने के मुद्दे पर खुद होकर सुनवाई कर रहा है। बहुत सी जगहों से खबरें आती हैं कि कोरोना से मरने वाले लोगों का अंतिम संस्कार या उनका कफन-दफन ठीक से नहीं हो रहा है, या परिवार के लोगों को आखिरी बार चेहरा देखने नहीं मिल रहा है। यह लोगों का, और मरने वालों का भी एक बुनियादी हक है, और इसलिए अदालत ने इस पर खुद सुनवाई शुरू की है।
लेकिन कोरोना-मृतकों के अंतिम संस्कार से बहुत से मानवीय पहलू सामने आ रहे हैं। बहुत से मामलों में घरवाले अंतिम संस्कार से इंकार कर दे रहे हैं, और सरकार के इंतजाम में मृतक के धार्मिक रिवाज के मुताबिक अंतिम संस्कार हो रहा है। कई जगहों पर तो सरकार के जो अफसर इस काम में लगे हैं, वे दर्जनों लाशों का अंतिम संस्कार करवाते हुए खुद भी कोरोनाग्रस्त हो रहे हैं। अभी एक वीडियो सोशल मीडिया पर आया है जिसमें जाहिर तौर पर मुस्लिम दिख रहे कई सामाजिक कार्यकर्ता शव वाहन से हिन्दू शव उतार रहे हैं, और हिन्दू विधि से अंतिम संस्कार कर रहे हैं, परिवार के लोग दूर खड़े देख रहे हैं। महामारी ऐसी भयानक है कि परिवार का डरना भी नाजायज नहीं है, और अपनी जिंदगी खतरे में डालकर सरकार या समाज के जो लोग यह काम कर रहे हैं, उनकी बेबसी को भी समझना चाहिए कि वे मृतक का चेहरा दिखाने जैसा अतिरिक्त खतरा उठाने की हालत में नहीं हैं।
फिर भी आज यहां हम मृतकों के बारे में नहीं लिख रहे हैं, जो अब तक मृतक नहीं बने हैं उनके बारे में लिख रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसी सुनवाई के दौरान दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, और असम की राज्य सरकारों से जवाब मांगा है कि वे इस महामारी की रोकथाम के लिए क्या कर रही हैं। वे अदालत ने कहा है कि गुजरात में हालात बेकाबू होते जा रहे हैं। अदालत की इस फिक्र से परे भी पिछले कई हफ्तों से हमारा यह अंदाज था कि आने वाले महीनों में हिन्दुस्तान में कोरोना की एक दूसरी लहर आएगी। दरअसल दुर्गा पूजा से लेकर दीवाली तक, और छठ से लेकर कुछ और त्यौहारों तक लोगों ने जिस तरह जमकर लापरवाही दिखाई है, भीड़ में धक्का-मुक्की की है, बाजार पर टूट पड़े हैं, और फिर दीवाली मिलन से लेकर छठ के घाट तक जितनी बेफिक्री दिखाई गई है, उससे कोरोना भी शायद हक्का-बक्का हो गया होगा कि उसकी इज्जत जरा भी नहीं बची है। कल की ही मध्यप्रदेश की तस्वीरें हैं, सत्तारूढ़ भाजपा का एक छोटे से जिले में दीवाली मिलन हो रहा है, और शासन के कोरोना नियमों के मुताबिक दो सौ से अधिक लोग किसी आयोजन में नहीं जुट सकते, लेकिन भाजपा के इस कार्यक्रम में हजार से अधिक लोग थे। और वहां के लोगों ने इसे दीवाली मिलन के बजाय कोरोना मिलन करार दिया है, और अब तस्वीरों के सुबूत के साथ उम्मीद कर रहे हैं कि प्रशासन कार्रवाई करेगा। लोगों को याद होगा कि छत्तीसगढ़ में भी मुख्यमंत्री ने अपने सरकारी निवास पर पोला-तीजा की पूजा की थी, और सैकड़ों महिलाओं की भीड़ वहां जुटी थी। बात किसी एक राजनीतिक दल की नहीं है या किसी एक प्रदेश की नहीं है, जब सरकारी नियमों से हिकारत दिखाने की बात आती है तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत में एक असाधारण एकता दिखने लगती है। यह देश वैसे तो क्षेत्रवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, जैसी कई सरहदों से बंटा हुआ है, लेकिन जब सरकारी नियम तोडऩे की बात आती है तो हर तबके के लोग, राजा और प्रजा, तकरीबन सारे ही लोग हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, आपस में सब भाई-भाई बन जाते हैं। (हम इस प्रचलित वाक्य को इस असहमति के साथ लिख रहे हैं कि इसमें बहनों की कोई जगह नहीं रखी गई है)।
ठंड के मौसम को लेकर पहले से यह आशंका थी कि कोरोना इस मौसम में अधिक आक्रामक हो सकता है। दिल्ली की एक अलग दिक्कत यह है कि वहां पर ठंड और प्रदूषण दोनों मिलकर लोगों का जीना हराम कर देते हैं, और बहुत से मरीजों को तो दिल्ली छोड़ देने की सलाह दी जाती है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को डॉक्टरी सलाह पर दिल्ली से बाहर चले जाना पड़ा है। अब दिल्ली से बाकी पूरे देश का सरकारी और कारोबारी रिश्ता ऐसा जुड़ा हुआ है कि वहां अगर महामारी की नौबत खतरनाक होती है, तो वहां से बाकी पूरे देश तक उसके जाने का खतरा रहता है। और बाकी देश वैसे भी आज कोई कोरोनामुक्त है नहीं। पिछले एक महीने में अगर कोरोना पॉजिटिव की गिनती कुछ कम बढ़ी थी, तो इसकी एक वजह त्यौहार भी थे। लोग त्यौहारों की खरीदी और बिक्री में लगे थे, ऐसे में वे जांच कराना नहीं चाहते थे, और कोरोना के आंकड़े थोड़े से टले थे, कहीं गए नहीं थे। इस दौरान एक खतरनाक बात यह जरूर हुई कि बिना जांच के कोरोनाग्रस्त लोग घूमते रहे, बाजारों में, मंदिरों और दूसरे धर्मस्थलों में धक्का-मुक्की की नौबत रही, और इन सबका असर अब देखने मिल रहा है, और दिल्ली शहर में लगातार तीन दिन से सौ से अधिक लोग रोज कोरोना से मर रहे हैं।
हिन्दुस्तान में कोरोना को लेकर जो वैज्ञानिक चेतना लोगों में आनी चाहिए थी, जो सावधानी रहनी चाहिए थी, वह कहीं नजर नहीं आ रही। ताली-थाली, दिया-मोमबत्ती जैसे अवैज्ञानिक तरीकों को लोगों ने कोरोना से निपटने का जरिया मान लिया, और महामारी के खतरे की तरफ से बेफिक्र हो गए। धर्म वैसे भी अपने हथियार पर धार करने के बाद सबसे पहले अपने पैदाइशी दुश्मन, विज्ञान को मारने निकलता है। इन दोनों का अस्तित्व साथ-साथ रहना खासा मुश्किल होता है, और हिन्दुस्तान में लोगों की समझ आज विज्ञान से इतनी दूर कर दी गई है, धर्म के रंग में इतनी रंग दी गई है कि लोगों को महामारी के खतरे दिखना बंद हो गया है। कुछ हफ्ते पहले मुस्लिम समाज का एक बड़ा त्यौहार पड़ा तो ट्रकों पर सवार होकर हजारों लोगों का ऐसा जुलूस निकला जिसमें दो-चार फीसदी लोग भी मास्क लगाए नहीं दिख रहे थे। धर्म ने वैज्ञानिक समझ का कीमा बनाकर रख दिया था।
आज जब दुनिया के बहुत सारे देश, हिन्दुस्तान के मुकाबले बेहतर इलाज वाले देश कोरोना की दूसरी, और शायद तीसरी, लहर झेल रहे हैं, तब हिन्दुस्तान एक बड़े खतरे के मुहाने पर पहुंच गया है। बिहार में तो पूरे प्रदेश में चुनाव थे, लेकिन देश के कई प्रदेशों में उपचुनाव थे, और वहां जमकर लापरवाही बरती गई। भारत में महामारी के नियमों को लागू करने का रोजाना का जिम्मा राज्यों का है, इनमें केन्द्र की दखल कम रहती है। और आने वाले महीनों में देश के कई प्रदेश कोरोना की बहुत बुरी मार झेलते दिख रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट राज्यों से जवाब मांगकर एक सैद्धांतिक बहस करे, उससे बेहतर यह है कि पूरे देश से मीडिया में आ रही तस्वीरों और वीडियो बुलवाकर सीधे कुछ हजार लोगों को जेल भिजवाए, ताकि बाकी लोग कुछ सावधान भी हो सकें। वोटों से बनने वाली, और वोटरों की दहशत में चलने वाली सरकारों से किसी कड़े अमल की उम्मीद नहीं की जा सकती। चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने खुद होकर यह सुनवाई शुरू की है, इसलिए उसे सरकारों के हलफनामों पर अधिक भरोसा नहीं करना चाहिए। उसे पुरानी कई मिसालों के मुताबिक ऐसे जांच कमिश्नर बनाने चाहिए जो सरकार से परे सीधे सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट करे। कुल मिलाकर देश की जनता अगर अपने स्तर पर सावधान नहीं रहेगी, तो शायद चिकित्सा विज्ञान, सरकार, और अदालतें सब मिलाकर भी उसे कोरोना-मौत से नहीं बचा पाएंगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हाल के बरसों में हिन्दुस्तानी की सबसे बड़ी अदालत, सुप्रीम कोर्ट ने अनगिनत मामलों में एक ऐसा रूख दिखाया है जो कि देश की सत्ता सम्हाल रहे लोगों की पसंद की फिक्र करते दिखता है। सरकारी एजेंसियों या सरकार के तर्क मानने के लिए अदालत कुछ उत्साही दिखती है, और अदालत की अवमानना का खतरा खड़ा हो जाएगा अगर यह लिखा जाए कि बहुत से मामलों में अदालतें सरकार की असली पसंद के लिए लीक से हटकर भी सुनवाई करने को एक पैर पर खड़ी दिखीं, और एक गाना सा दिल्ली की अदालती हवा में गूंजता सुनाई देता रहा- हो तुमको जो पसंद, वही बात करेंगे।
बहुत से चर्चित मामलों को लेकर जब देश की जनता यह उम्मीद कर रही थी कि सुप्रीम कोर्ट सरकार के अधिकारों के बेजा दिखते इस्तेमाल को रोकने के लिए, उस पर सवाल खड़े करने के लिए तनकर खड़ी रहेगी, सुप्रीम कोर्ट के जजों का रूख, फैसलों का अंदाज इस बेजा का हिमायती दिखा। लोकतंत्र में संसद, सरकार, और अदालत, इन तीनों के बीच जो शक्ति संतुलन बनाया गया है, वह खोने में हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी अदालत ने खासा योगदान दिया दिखता है। सरकार की मनमानी पर काबू की जिम्मेदारी संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को दी थी, लेकिन एक के बाद दूसरे, और दूसरे के बाद तीसरे मामले में सुप्रीम कोर्ट सरकार को मानो अपनी पहुंच से ऊपर का मान बैठी है। इस बारे में देश के बहुत से लोग बहुत कुछ बोल चुके हैं, और लिख भी चुके हैं, हम आज यहां जो लिख रहे हैं, वह पूरी तरह मौलिक और पहली बार नहीं है, लेकिन यह लिखना जरूरी इसलिए है कि लोगों को लोकतंत्र की इस जन्नत की हकीकत समझ पडऩा चाहिए।
हुआ यह है कि हिन्दुस्तान में कोई 45 बरस पहले आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने एक प्रतिबद्ध न्यायपालिका का फतवा दिया था। उस वक्त इंदिरा के झंडाबरदार इस नारे की गूंज को आगे बढ़ाते रहे। उसकी ठोस वजह भी थी, इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज ने इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित कर दिया था, और सत्ता पर बने रहने के लिए इंदिरा को इमरजेंसी लगानी पड़ी थी, और उस वक्त इंदिरा सरकार की आत्मरक्षा के लिए उसे यह लगना स्वाभाविक था कि न्यायपालिका सरकार के प्रति प्रतिबद्ध रहनी चाहिए। उस वक्त तो बहुत अधिक जज इंदिरा की मनमानी के खिलाफ अपना हौसला नहीं दिखा पाए थे, लेकिन फिर भी सुप्रीम कोर्ट के एक-दो जज तो थे ही जो कि इंदिरा की मनमानी के खिलाफ खुलकर फैसला दे रहे थे। आज जब अर्नब गोस्वामी जैसे तथाकथित पत्रकार की जमानत अर्जी पर सुनवाई की बात आती है, या अर्नब के दूसरे मामले पर अर्जी लगती है, तो सुप्रीम कोर्ट के कोई जज आधी रात घर से सुनवाई को तैयार हो जाते हैं, तो किसी और जज को लगता है कि अर्नब के मामले में सुनवाई में एक दिन की भी देर से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी। दूसरी तरफ इस देश में सैकड़ों पत्रकार अलग-अलग राज्यों में महीनों से जेलों में सड़ रहे हैं, सामाजिक आंदोलनकारी मौत की कगार पर पहुंच हुए भी जमानत नहीं पा रहे हैं, और इस देश के अर्नबों को रातोंरात जमानत मिल जाती है। हो सकता है कि जज उनके मामले को लेकर सचमुच ही संतुष्ट हों कि उन्हें जमानत का हक है, लेकिन जाहिर तौर पर देश यह देख रहा है कि दूसरे पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और शिक्षक किस तरह महीनों और बरसों तक जेलों में बंद रखे जा रहे हैं, और उनके खिलाफ आखिर में चाहे सरकार की हार क्यों न हो जाए, इतने बरस कैद की सजा तो वे भुगत ही चुके रहेंगे। इसलिए देश के लोगों के बीच आजादी का हक जिस हद तक जजों की मर्जी, सत्ता की पसंद-नापसंद, और सबसे महंगे वकीलों को रखने की ताकत पर टिक गया है, वह हक्का-बक्का करता है। लोगों ने अभी यह भी लिखा है कि देश के सबसे महंगे वकील को रखने की ताकत किस तरह जमानत की संभावना को बढ़ा देती है। लोगों ने सुप्रीम कोर्ट को ही सीधे खुलकर अपने नाम से यह लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट को पसंद लोगों को आनन-फानन सुनवाई का मौका देकर अदालत बाकी आम लोगों के हक का मजाक उड़ा रही है। जिस तरह एक वक्त ताजमहल को लेकर एक शायर ने लिखा था कि इक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल, हम गरीबों की मोहब्बत का उड़ाया है मजाक..., उसी तरह आज सुप्रीम कोर्ट में महंगे वकीलों को रखने वाले शहंशाहों को बिजली की रफ्तार से मिलने वाले उनके पसंदीदा इंसाफ को देखकर यही लगता है कि यह उन बाकी तमाम गरीबों का मजाक है।
दुनिया में हमेशा से यह माना जाता रहा है कि इंसाफ न सिर्फ होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। आज लगता है कि सुप्रीम कोर्ट देश के सबसे महंगे वकीलों के क्लाइंट, सत्ता की असली पसंद, और खुद सुप्रीम कोर्ट के जजों के प्रति इंसाफ को फिक्रमंद रह गया है। अपनी अवमानना को लेकर सुप्रीम कोर्ट जितना संवेदनशील हो गया है, उसे ट्विटर पर अपना अपमान देखते हुए उसके ऊपर-नीचे के ऐसे ट्वीट दिखाई नहीं पड़ते जिनमें इसी देश की महिलाओं को अलग-अलग विधियों से बलात्कार करने की धमकियां दी जाती हैं। क्या सुप्रीम कोर्ट इस देश में इज्जत का हकदार एक ऐसा टापू बन गया है जिसके इर्द-गिर्द समंदर में डूबकर मर जाने के लिए बाकी तमाम नागरिक आजाद हैं? ट्वीट पढऩे के शौकीन सुप्रीम कोर्ट को देश की महिला आंदोलनकारियों, पत्रकारों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ बलात्कार की खुली धमकियों को अनदेखा करने की जो आदत है, वह आदत बताती है कि सुप्रीम कोर्ट की असली पसंद क्या है।
देश की सबसे बड़ी अदालत में खास और आम के बीच ऐसी गहरी और चौड़ी खाई पहले शायद कभी नहीं रही, और जिसे सत्ता नापसंद करती हो, जो देश के सबसे महंगे वकील रखने की औकात न रखते हों, उनके प्रति न्यायपालिका की अनदेखी इतिहास में अच्छी तरह दर्ज हो गई है, लेकिन अदालत को इतिहास से अधिक अपने भविष्य की फिक्र है जो कि लोगों को दिख रही है, समझ पड़ रही है, लेकिन अदालत इसकी तरफ से बेफिक्र है।
कर्नाटक सरकार का एक फैसला सामने आया है कि वहां समाज कल्याण विभाग उन गांवों में सरकारी सैलून चालू करेगा जहां दलितों को सैलून में जाने से रोक दिया जाता है। देश भर के गांव-गांव में नाई की दुकान में भेदभाव की शिकायतें आती हैं, और उसका यह आसान इलाज कर्नाटक की भाजपा सरकार ने निकाल लिया है कि ऐसे सरकारी दलित-सैलून में सिर्फ दलितों के बाल काटे जाएंगे और उनकी हजामत की जाएगी। खबर बताती है कि उत्तर और मध्य कर्नाटक के कई जिलों में ऐसे मामले सामने आए हैं जब दलितों के बाल काटने से मना कर दिया गया। सरकार का कहना है कि जातिगत भेदभाव खत्म करने के लिए यह किया जा रहा है। यह फैसला मुख्यमंत्री बी.एस.येदियुरप्पा की अगुवाई में एसटीएससी अत्याचार अधिनियम समीक्षा बैठक में लिया गया है।
पहली नजर में यह फैसला दलितों के साथ इंसाफ और उन्हें एक सहूलियत देने वाला दिखता है। लेकिन दूसरी तरफ यह फैसला अपने पर अमल के पहले भी एक प्रस्ताव की शक्ल में जब सामने आया, तभी इसने यह साबित कर दिया कि भारतीय लोकतंत्र में दलितों को इंसाफ मिलना मुमकिन नहीं है। उनके बाल तभी कट सकते हैं जब सरकार उनके लिए अलग से दलित-नाई की दुकान खोले। यह फैसला सरकार का अपनी जिम्मेदारी से मुंह चुराना भी है क्योंकि ऐसा भेदभाव करने वालों को गिरफ्तार करके उन्हें सजा दिलाना सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी है, और उसे किनारे धकेलकर यह जातिवादी, छुआछूत से भरा सरकारी फैसला लिया जा रहा है। इस फैसले का मतलब तो यही है कि जिन गांवों में दलितों को कुएं से पानी भरने नहीं मिलता, वहां दलितों के लिए अलग कुआं खुदवाने को एक इलाज मान लिया जाए। तो धीरे-धीरे दलितों के लिए अलग थाना, अलग कलेक्ट्रेट, अलग अदालत, और अलग मुख्यमंत्री क्यों न हो? अगर सरकार ही जातिवादी छुआछूत को कुचलने के बजाय उसे मान्यता देकर नीची समझी जाने वाली जातियों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर उनके लिए अलग दलित-सैलून खोले, तो इसका मतलब है कि कानून ने अराजकता के सामने हथियार डाल दिए, हथियार तो क्या हाथ भी डाल दिए।
जो सरकार इस तरह का फैसला ले रही है, उसकी समझ कहीं भी दलितों के साथ इंसाफ की नहीं है। उसकी समझ अपने संवैधानिक दायित्व की भी नहीं है जिसकी कि शपथ लेकर वह सत्ता में आई है। हम कर्नाटक के मुख्यमंत्री या संबंधित मंत्रियों-अफसरों की जाति नहीं जानते, लेकिन यह बात साफ है कि इन लोगों को भारतीय समाज में जाति आधारित छुआछूत की समझ नहीं है, और इस छुआछूत को खत्म करने की इनकी नीयत भी नहीं है। सरकारों के साथ यह आम दिक्कत रहती है कि किसी जटिल समस्या वे एक लुभावना समाधान ढूंढकर उसका अतिसरलीकरण कर देते हैं, और ऐसे में सामाजिक गुनहगार बच जाते हैं। इस सिलसिले का कोई अंत नहीं होगा। आगे चलकर स्कूली बच्चों को दोपहर के भोजन में दलित बच्चों का खाना अलग बनने लगेगा, दलितों के हाथ का पका खाना दूसरी जाति के बच्चे नहीं खाएंगे, कहीं पर कोई सरकार या प्रशासन दलित बच्चों के लिए अलग आकार की थाली का इंतजाम कर देंगे। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में सरकारी जमीन पर सरकार ने दलितों के लिए एक सभागृह बनवाया है, लेकिन चूंकि उसके बगल के सरकारी बंगले में 20 बरस से मंत्री रहते आए हैं, इसलिए दलितों की शादी तो इस भवन में हो सकती है, उसमें संगीत नहीं बज सकता। इस तरह एक समुदाय के सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की एक जगह को इस आधार पर संगीत से वंचित कर दिया गया।
सरकार की जिम्मेदारी भेदभाव को कड़ाई से खत्म करने की है क्योंकि संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने बहुत से ऐसे फैसले दिए हैं जिनमें दलित-आदिवासी तबकों की विशेष सुरक्षा और उनके विशेष अधिकारों की बात की गई है। मध्यप्रदेश में जहां दलित दूल्हों को घोड़ी पर चढऩे नहीं मिलता वहां पर सरकार इसका एक आसान इलाज ढूंढ सकती है। वह दलित बारातियों के लिए सौ-दो सौ हेलमेट का इंतजाम कर सकती है, और दलित दूल्हे के लिए पुलिस लाईन से घोड़ी का इंतजाम कर सकती है, इसके बाद पुलिस के घेरे में बारात निकाली जा सकती है। लेकिन क्या यह हिफाजत लोकतंत्र की नाकामयाबी का सुबूत नहीं रहेगी? कर्नाटक सरकार का यह फैसला भारी शर्मिंदगी का एक कलंक है, सरकारों को जुर्म के सामने इस तरह घुटने टेकते देखना इस लोकतंत्र में शर्मनाक नौबत है। आने वाले दिनों में हमें उम्मीद है कि भारत में दलितों की हकीकत को समझने वाले कुछ सामाजिक कार्यकर्ता जरूर इस मुद्दे को उठाएंगे, और अगर इसे कोई अदालत तक ले जाए तो यह सरकारी फैसला खारिज होना तय है क्योंकि यह भेदभाव को मान्यता देता है, और उस पर कार्रवाई के बजाय उसके रास्ते से हटकर छुपकर आगे निकल जाने वाला है। यह देखना भी दिलचस्प हो सकता है कि यह फैसला लेने वाली कर्नाटक की कमेटी ने किस दर्जे के कितने दलित थे, और उन्होंने बैठक में क्या राय रखी थी?
मध्यप्रदेश में उपचुनाव में दो तिहाई सीटें जीतकर अपनी सरकार बचाने के बाद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने आधा दर्जन मंत्रालयों को मिलाकर एक गाय-मंत्रिमंडल बनाया है। पशुपालन, वन, पंचायत, ग्रामीण विकास, गृह, और किसान कल्याण विभागों का गाय के मुद्दे से कुछ न कुछ लेना-देना रहता है, इसलिए इनको मिलाकर एक काऊ-कैबिनेट बना दी गई है ताकि मध्यप्रदेश में गायों की रक्षा हो सके।
पिछले बरसों में देश के अलग-अलग राज्यों ने गोवंश को बचाने की लुभावनी नीति बनाते हुए ऐसे कड़े कानून बनाए कि लोगों के लिए जानवर खरीदकर लाना-ले-जाना, बूढ़े और अनुत्पादक हो चुके जानवरों को बेचना नामुमकिन सा हो गया है। अगर सरकारी विभागों की निगरानी से किसी तरह लोग बच भी निकलते हैं, तो सडक़ों पर गौरक्षक नाम के हिंसक और हथियारबंद जत्थे मौके पर ही भीड़त्या के लिए तैयार रहते हैं। कुल मिलाकर भारत के किसानों से, दूध उत्पादकों से जानवरों का जो रिश्ता था उसे खतरे का एक सामान बना दिया गया है। अब मध्यप्रदेश की सरकार दूसरे राज्यों से गौरक्षा के मामले में आगे बढ़ते हुए एक गाय-मंत्रिमंडल बना रही है। इस प्रदेश में लड़कियों और दलितों को अगर हिफाजत से जीना है, तो उन्हें भी ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि वह उन्हें गाय बना दे।
हिन्दुस्तान चुनाव जीतने में मदद करने वाले भावनात्मक और लुभावने मुद्दों से घिरते चल रहा है। अभी 20 बरस पहले तक मध्यप्रदेश का हिस्सा रहे छत्तीसगढ़ में भी गाय से जुड़े कुछ फैसले किए गए हैं, लेकिन वे ग्रामीण विकास और रोजगार से जुड़े हुए अधिक हैं, यह एक अलग बात है कि आरएसएस ने जाकर मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की तारीफ की है कि गाय की रक्षा के लिए उन्होंने जो फैसले लिए हैं, उनके लिए संघ आभार और अभिनंदन करता है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार ने अपनी परंपरागत लीक से हटकर धर्म और हिन्दुओं से जुड़ी हुई गाय को लेकर काफी कुछ किया है। राम के वनवास के दौरान उनके छत्तीसगढ़ से भी गुजरने की जो प्रचलित कहानी है, उसके मुताबिक भूपेश सरकार राम वन गमन पथ को पर्यटन के मुताबिक विकसित कर रही है। गाय का गोबर खरीद रही है, गाय और दूसरे दुधारू पशुओं को गांवों में गौठान बनाकर रखने की एक मौलिक और महत्वाकांक्षी योजना पर काम बहुत बढ़ चुका है। अब देखना यह है कि हिन्दुओं के इन भावनात्मक मुद्दों पर सरकार की जो रकम खर्च हो रही है, क्या उसका कोई उत्पादक इस्तेमाल भी हो रहा है, या यह सरकारी खर्च पर चलने वाली एक लुभावनी योजना ही रह जाएगी?
आज हिन्दुस्तान में हिन्दू-मुस्लिम प्रेमियों के बीच गिनी-चुनी शादियां होती हैं। अगर परिवार और समाज बवाल न करें, राजनीतिक दल मुद्दा न बनाएं, तो ऐसे कोई सुबूत नहीं हैं कि अंतरधार्मिक शादियों से किसी एक धर्म का नुकसान हो रहा है, या किसी दूसरे धर्म की आबादी बढ़ रही है। लेकिन इसे लवजेहाद का जुबानी तमगा देकर एक के बाद दूसरा भाजपाशासित राज्य इसके खिलाफ कानून बनाने की बात कर रहा है। अभी हमें ऐसे किसी कानून की संवैधानिकता समझ नहीं पड़ी है क्योंकि भारत का संविधान बालिग लोगों को मर्जी से शादी की छूट देता है, और उन्हें कानूनी संरक्षण देता है। ऐसे में अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच किसी शादी को लेकर कैसे कोई कानून बन सकता है, यह समझ से थोड़ा परे है। और फिर यह भी हो सकता है कि सरकारें ऐसे किसी कानून की संवैधानिकता की कमजोरी जानते हुए इस पर आगे बढ़ रही है क्योंकि यह बहुसंख्यक समुदाय को खतरा बताकर हिफाजत देने का एक लुभावना काम हो सकता है। जो भाजपा-सरकारें अपने प्रदेशों की हिन्दू लड़कियों को मुस्लिम लडक़ों से शादी करने से रोकना और बचाना चाहती हैं, वे सरकारें अपने प्रदेशों में हिन्दुओं के हाथों हिन्दू लड़कियों, और दूसरे धर्मों की लड़कियों पर बलात्कार रोकने के लिए पर्याप्त कार्रवाई नहीं कर रही हैं। बहुत से मामलों में तो भाजपा के सांसद और विधायक बलात्कारियों का साथ देते खड़े दिखते हैं। अब सवाल यह है कि लड़कियों को बलात्कार से बचाना प्राथमिकता नहीं है, बल्कि लड़कियों को अपनी मर्जी से शादी करने देने से रोकना राज्य सरकारों की बड़ी प्राथमिकता बन गई है। खुद भाजपा के बड़े-बड़े नेता ऐसे हैं जिन्होंने खुद ने, या परिवार के लोगों ने दूसरे धर्मों में शादियां की हैं, बहुत सी शादियां मुस्लिम युवकों से हिन्दू युवतियों की भी हुई हैं। लेकिन एक सामाजिक खतरा बताते हुए, एक धार्मिक मुद्दा बनाते हुए लवजेहाद नाम के एक शब्द को गढक़र हिन्दू वोटरों के बीच अपनी पैठ बढ़ाई जा रही है। जब कभी किसी अदालत में कुछ कहने की बात आती है, या इन्हीं सरकारों से कोई सूचना के अधिकार में पूछते हैं, तो सरकार का जवाब होता है कि उसके रिकॉर्ड में लवजेहाद नाम का कोई शब्द नहीं है। लेकिन अब कानून बनाकर इसके खिलाफ कुछ करने की मुनादी बहुत से भाजपा राज्यों ने कर दी है।
हम इन दो मुद्दों को एक साथ इसलिए उठा रहे हैं कि गाय का मामला, और हिन्दू लड़कियों का मुस्लिमों से शादी का मामला, ये दोनों ही मामले सरकारों के लोक-लुभावने धार्मिक मुद्दों को कानूनी जामा पहनाने की एक कोशिश अधिक दिख रही है, अपने प्रदेशों में जलते-सुलगते असल मुद्दों से निपटने की कोशिश नहीं दिख रही है। लेकिन जब तक हिन्दुस्तान के वोटरों का एक बड़ा तबका ऐसे ही भावनात्मक मुद्दों पर सरकारें बना रहा है, चतुर पार्टियों को इसी एजेंडा को आगे बढ़ाने में समझदारी दिख रही है।
फिलहाल मध्यप्रदेश में गाय-मंत्रिमंडल बनने के बाद यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वहां के घूरों पर जिंदा गाय को अब बेहतर क्वालिटी का पॉलीथीन खाने मिलेगा ताकि उसके पेट में जमा होने वाले पॉलीथीन की घटिया क्वालिटी से उसे नुकसान होना बंद हो सके।
उत्तरप्रदेश से बच्चों के सेक्स-शोषण का एक भयानक मामला सामने आया है जिसमें सिंचाई विभाग का एक इंजीनियर, रामभवन सिंह, बच्चों को इधर-उधर से जुटाकर उनका यौन शोषण करता था, और उनके वीडियो बनाकर इंटरनेट पर बेचता था। दस साल से वह यह काम करते आ रहा था, लेकिन उसके रिश्तेदारों को भी इसकी भनक नहीं लगी थी। अब जब किसी सुराग से पुलिस ने उसे गिरफ्तार किया है, तो उसके पास बच्चों के पोर्नो का जखीरा मिला है। अब तक की जांच से पता लगा है कि वह गरीब परिवारों के 5 से 16 बरस तक की उम्र के बच्चों को अपना निशाना बनाता था। उसके पास से इतने डिजिटल सुबूत बरामद हो चुके हैं कि इस मामले में शक की कोई गुंजाइश नहीं है। इसकी जांच सीबीआई कर रही है, और यह अफसर बच्चों को मोबाइल पर वीडियो गेम खेलने के बहाने बुलाता था और उनका सेक्स-शोषण करता था।
किसी का नाम भगवान के नाम पर रख देने का उस पर कोई असर होता हो ऐसा रामभवन नाम के इस अफसर की हरकतें देखकर नहीं लगता। लेकिन इतने बड़े मामले का भांडाफोड़ होने से इसकी गिरफ्तारी के साथ-साथ अब आगे उन लोगों की गिरफ्तारी भी होनी चाहिए जो कि बच्चों के पोर्नो खरीदते हैं। इंटरनेट के जानकार लोग यह जानते हैं कि इंटरनेट पर आसानी से पकड़ में न आने वाला एक डार्क वेब होता है जिस पर तरह-तरह के मुजरिम काम करते हैं और वहां ऐसे वीडियो की खरीद-बिक्री भी होती है। हिन्दुस्तान में सीबीआई को तलाशते हुए योरप की किसी पोर्नो वेबसाईट पर एक हिन्दुस्तानी बच्चे का ऐसा पोर्नो मिला और वहां से ढूंढते हुए जांच एजेंसी रामभवन तक पहुंची।
इस मामले का भांडाफोड़ होने से हिन्दुस्तान के लोगों की आंखें खुलनी चाहिए कि बच्चों का यौन-शोषण कोई विदेशी सोच नहीं है, यह देशों की सरहदों से परे इंसानों के बीच एक आम बात है, और ऐसे अधिकतर लोग बच्चों का सेक्स-शोषण करने के बाद भी बच निकलते हैं क्योंकि बच्चे अपने घर या स्कूल में अपने शोषण की बात बताते भी हैं तो भी उनके ही लोग उस पर भरोसा नहीं करते। धीरे-धीरे बच्चों में बताने का हौसला खत्म होने लगता है। अब अगर एक अफसर 50 से अधिक बच्चों का शोषण कर चुका है, उसके कब्जे से दर्जनों वीडियो और सैकड़ों तस्वीरें मिली हैं, वह इंटरनेट पर पोर्न साईट्स को ये वीडियो बेच देता था, और बच्चों से सेक्स भी करते रहता था, 10 बरस तक उसका कोई भांडाफोड़ नहीं हो सका, तो यह नौबत भारतीय समाज के एक खतरनाक हाल को बताती है।
दुनिया के बाकी तमाम देशों के साथ-साथ हिन्दुस्तान के समाज को जागरूक होने की जरूरत है क्योंकि गरीब और बेघर बच्चे, रिश्तेदारों, पड़ोसियों, शिक्षकों और खेल प्रशिक्षकों की पहुंच के भीतर के बच्चे हमेशा ही खतरे में रहते हैं। हिन्दुस्तान में मां-बाप अपने बच्चों की शिकायतों को इसलिए भी सुनना नहीं चाहते क्योंकि ये शिकायतें कई तरह की असुविधा खड़ी करने वाली रहती हैं, रिश्तेदारों या पहचान वालों से रिश्ते बिगड़ते हैं, पुलिस थाने और कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगते हैं, और जैसे कि आम हिन्दुस्तानी सोच है, सेक्स-हमले के शिकार लोगों के लिए ही यह मान लिया जाता है कि उनकी इज्जत लुट गई है। इस देश में बलात्कार की इज्जत नहीं लुटती, बलात्कार के शिकार की इज्जत लुटती है। ऐसे देश में शिकायत लेकर किसी बच्चे का सामने आना नामुमकिन सा रहता है।
हिन्दुस्तान अपने डिजिटल विकास पर बड़ा गर्व करता है। लेकिन यहां चारों तरफ साइबर-ठगी चलती रहती है, साइबर-जालसाजी, और साइबर-जुर्म एक बड़ा कारोबार बन चुका है। ये तमाम जुर्म सरकार के काबू के बाहर दिखते हैं। इसी तरह चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर सरकार की पकड़ बहुत कम दिख रही है जबकि कई अंतरराष्ट्रीय जांच एजेंसियां और दूसरे संगठन लगातार चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर नजर रखकर संबंधित सरकारों को सावधान करने का काम करते हैं। हिन्दुस्तान सरकार को ऐसे डिजिटल औजार विकसित करने चाहिए जो कि चाइल्ड पोर्नोग्राफी का किसी भी शक्ल में इस्तेमाल करने वाले लोगों को पकड़े। हाल के महीनों में छत्तीसगढ़ जैसे छोटे राज्य में भी बहुत से लोग दिल्ली से मिली सूचना के आधार पर गिरफ्तार किए गए हैं, लेकिन वॉट्सऐप जैसे तकनीक के चलते लोग दूसरे किस्म के सेक्स-पोर्नो के साथ-साथ बच्चों के सेक्स-पोर्नो भी एक-दूसरे को भेजते रहते हैं। ऐसे लोगों पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए ताकि उनकी खबरें पढक़र बाकी लोगों को एक सबक मिल सके।
लेकिन बच्चों के सेक्स-शोषण का मुद्दा एक अलग पहलू भी रखता है। छोटे-छोटे सामानों का लालच, कई बार तो बेघर बच्चों के लिए एक रात सिर छुपाने की जगह या कंबल मिल जाना भी उन्हें अपने बदन का समझौता करने पर मजबूर कर देता है। इस देश में जब तक बच्चों की आम हालत नहीं सुधरेगी, जब तक वे बेघर और अनाथ बने रहेंगे, तब तक मोटेतौर पर उनका शोषण नहीं थम सकेगा। इसलिए चाइल्ड पोर्नोग्राफी का यह मामला बच्चों से बलात्कार के अनगिनत मामलों का एक पुख्ता सुबूत भी है। और सरकार को इस जुर्म का व्यापक प्रचार करके देश के बाकी मां-बाप, समाज के लोगों को सावधान भी करना चाहिए कि उनके इर्द-गिर्द ऐसी कोई हरकत दिखे तो वे तुरंत पुलिस को खबर करें। एक अफसर 10 बरस तक दर्जनों बच्चों का सेक्स-शोषण करते रहा, उसकी रिकॉर्डिंग करते रहा, उसे दुनिया भर में बेचते रहा, और किसी को उसकी खबर नहीं लगी, यह बात भी हैरान करने वाली है।
यह मामला सरकार और समाज दोनों के सावधान और चौकन्ने होने का है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया को पिछली एक सदी में सबसे अधिक तहस-नहस करने वाले कोरोना और उससे जुड़े लॉकडाउन ने न सिर्फ जिंदगी खत्म की है, जीने के तरीके खत्म किए हैं, बल्कि लोगों पर एक बहुत बड़ा सांस्कृतिक हमला भी किया है। आज दुनिया के बहुत से देशों में लड़कियां और महिलाएं देह बेचने को मजबूर हुई हैं। इसके अलावा बच्चों की तस्करी बढऩे की भी खबरें हैं जिनमें से अधिकतर का इस्तेमाल सेक्स-ट्रेड में होता है। यह तो पूरे वक्त बदन बेचने के धंधे की बात है। लेकिन एक सामाजिक हकीकत को एक सहज समझ से देखें, तो जब-जब कोई बहुत बुरा अकाल पड़ता है, कोई ऐसी प्राकृतिक विपदा आती है जिससे अर्थव्यवस्था और रोजगार तहस-नहस हो जाते हैं, तो वैसे में घर चलाने की बुनियादी जिम्मेदारी ढोने वाली महिलाओं और लड़कियों के बदन पर पहला बोझ पड़ता है, और उनमें से बहुत सी घर के बाकी लोगों का भी पेट भरने के लिए अपना बदन बेचने पर मजबूर होती हैं। आज अफ्रीका के एक देश इथोपिया की एक ऐसी ही रिपोर्ट है कि वहां नाबालिग बच्चियां भी किस तरह मजबूरी में बदन बेच रही हैं क्योंकि उनके जिंदा रहने का और कोई जरिया नहीं बचा है।
लोगों को याद होगा कि हमने पिछले महीनों में एक से अधिक बार इसी जगह पर अमरीका में 1930 के दशक में आई भयानक मंदी के बारे में लिखा था कि उस दौर में अमरीकी समाज में अनगिनत घरेलू लड़कियों और महिलाओं को देह के धंधे में उतरते देखा था। जब जिंदा रहने के लिए, खाने के लिए और कोई भी जरिया न रह जाए, तो दुनिया में तकरीबन तमाम जगहों पर औरतों और लड़कियों पर देह बेचने का दबाव बनने लगता है। बात कहने में बहुत कड़वी लगेगी, लेकिन हकीकत यह है कि परिवार के बाकी लोग भी बुझे हुए चूल्हे को देखते हुए परिवार की शर्मिंदगी की ओर से आंखें बंद कर लेते हैं, और यह देखना बंद कर लेते हैं कि चूल्हा सुलग कैसे रहा है। जब बदन में भूख सुलगती है, तो वह तमाम नाजायज काम करने को मजबूर कर देती है। अमरीका की सदी की सबसे बड़ी मंदी में नए लोगों को देह बेचने के धंधे में उतरते देखा था जिन्होंने कभी खुद के बारे में भी ऐसा नहीं सोचा होगा।
हिन्दुस्तान में चूंकि वर्जित संबंधों से लेकर वेश्यावृत्ति तक ऐसे मामले माने जाते हैं जिन पर चर्चा न करने से ही यह देश गौरवशाली बने रह सकता है। यही वजह है कि दिल्ली और मुम्बई सहित तमाम महानगरों में संगठित रूप से जाने-पहचाने इलाकों में लाखों महिलाएं देह बेचती हैं, और स्थानीय शासन-प्रशासन, कानून और अदालत सब यह मानकर चलते हैं कि हिन्दुस्तान में इनका कोई अस्तित्व नहीं है। आज यह पहला मौका आया है जब हिन्दुस्तानी सुप्रीम कोर्ट ने खुलकर यह आदेश दिया कि सेक्स-कर्मियों को राज्य सरकारें कोरोना के इस दौर के चलते भूखों मरने से बचाने के लिए मुफ्त अनाज दे। एक किस्म से अदालत ने न सिर्फ इन लोगों का अस्तित्व माना, बल्कि सेक्स का धंधा ठप्प होने की वजह से उनके जीने में खड़ी हुई मुश्किल को भी माना, और जिंदा रहने के लिए अनाज पाने के बुनियादी हक को भी माना। लेकिन आज की यह बात पहले से चले आ रहे सेक्स-ट्रेड के बारे में नहीं है। हम आज उन लड़कियों और महिलाओं, और बच्चों, के बारे में चर्चा करना चाहते हैं जो कि बेरोजगारी और गरीबी के इस दौर में मजबूरी में यह धंधा करने के लिए दुनिया भर में बेबस हुए हैं। ऐसा भी नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने ऐसी नौबत का अंदाज नहीं लगाया था। जब-जब ऐसी ऐतिहासिक मंदी आती है, जिंदा रहने के लिए लोगों को अपने बदन, और अपने परिवार के दूसरे बदन बेचने के लिए भी मजबूर होना पड़ता है। जो लोग संगठित रूप से किसी चकलाघर में जाकर नहीं बैठते, वे भी अपने काम की जगहों पर, अपने अड़ोस-पड़ोस में, रिश्तेदारी और जान-पहचान में समझौता करके अपने बदन के एवज में जिंदा रहने का जरिया जुटाते हैं। इनमें तकरीबन तमाम मजबूर लड़कियां और महिलाएं ही रहती हैं, और बच्चों को सेक्स-ट्रेड में धकेलने के लिए पूरे वक्त साजिश करते हुए गिरोह रहते हैं।
जिन देशों से अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं या दूसरे जिम्मेदार अखबारनवीस रिपोर्ट बना रहे हैं, वैसे हालात हिन्दुस्तान में न हों, उसकी कोई वजह नहीं है। लेकिन यह जरूर है कि इस देश के लोग इस देश में देह के धंधे को मानने से बचते हैं, और अपने आत्मगौरव को कायम रखने के लिए ऐसा जाहिर करते हैं कि सेक्स-ट्रेड कोई पश्चिमी संस्कृति है जिससे कि हिन्दुस्तान अछूता है। यह एक अलग बात है कि वात्सायन के भी पहले से इस देश में शहर-कस्बों में नगरवधुओं का चलन रहा है, मंदिरों में देवदासियां रही हैं, और भी तरह-तरह के परंपरागत तबकों को औपचारिक मान्यता देकर इस देश ने वेश्यावृत्ति को चकलों से परे भी एक पर्दा ढांककर जिंदा रखा था, और आज भी रखा हुआ है।
आज की यह भयानक आर्थिक मंदी, और बेरोजगारी हिन्दुस्तान में दसियों लाख लड़कियों और महिलाओं को अब तक कुछ मौकों पर, या पूरी तरह से देह बेचने को मजबूर कर चुकी होगी। ऐसी कोई वजह नहीं है कि ऐसी बदहाली में आत्महत्याओं के बीच लोग ऐसे समझौते न कर रहे हों। सरकार और समाज चूंकि इस नौबत को ही मानने से बचते हैं, बच रहे हैं, इसलिए इस समस्या के किसी समाधान की कोई संभावना नहीं है। लेकिन फिर भी जिन लोगों में थोड़ा-बहुत भी सरोकार है उन्हें इस बारे में सोचना चाहिए, और यह भी सोचना चाहिए कि खुदकुशी से लेकर वेश्यावृत्ति तक पर जो तबका आज मजबूर नहीं है, वह दूसरों को इस नौबत से बचाने के लिए क्या कर सकता है? समाज में ऐसी मजबूरी शुरू कुछ लोगों से हो सकती है, लेकिन वह आसपास के और गैरमजबूर लोगों को भी लपेटे में ले सकती है, और ग्राहक तो कभी मजबूर होते नहीं हैं। इसलिए किसी देश को अपने समाज को ऐसी नौबत से अगर बचाना है, तो उन्हें लोगों की मदद करने के लिए संगठित कोशिशें करनी होंगी। महज सरकार की तरफ देखना कोई हल नहीं होगा क्योंकि सरकारें इस मजबूरी को ही अनदेखा करके अपनी जिम्मेदारी से बचने का लंबा तजुर्बा रखती हैं। लोगों को समाज के कमजोर तबकों की महिलाओं, लड़कियों, और बच्चों को बचाने के लिए गंभीर और ईमानदार कोशिश करनी चाहिए, यह मानकर, यह सोचकर कि उनका खुद का परिवार ऐसी नौबत में रहता, तो वे क्या करते? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कांग्रेस पार्टी के सामने बिहार के चुनावी नतीजों से परे भी एक चुनौती है। बिहार में वह सत्तारूढ़ नहीं थी, सत्तारूढ़ गठबंधन में भी नहीं थी, और वह साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर समान सोच रखने वाली आरजेडी और वामपंथी दलों के साथ एक गठबंधन में भी जो कि सत्ता से दस कदम ही दूर रह गया। और यह बात आंकड़ों से लेकर तर्कों तक से साबित होती है कि कांग्रेस की बिहार विधानसभा चुनाव में बुरी शिकस्त के चलते ही महागठबंधन की सरकार नहीं बन पाई। कांग्रेस ने 70 सीटें हासिल करके उम्मीदवार खड़े किए थे, और उनमें से कुल 19 जीत पाए। जबकि कुल 29 सीटों पर लडऩे वाले वामपंथी उम्मीदवारों ने 16 सीटें हासिल की। महागठबंधन की अगुवा पार्टी, आरजेडी के एक नेता शिवानंद तिवारी ने कांग्रेस को महागठबंधन पर बोझ बताते हुए कहा कि उसने प्रत्याशी तो 70 उतारे थे, लेकिन इतनी भी रैलियां चुनाव प्रचार के दौरान नहीं कीं। राहुल गांधी महज तीन दिनों के लिए प्रचार में आए, और प्रियंका गांधी नहीं आईं। शिवानंद तिवारी ने कहा कि जब चुनाव प्रचार अपने चरम पर था तब राहुल गांधी शिमला में प्रियंका के घर पर पिकनिक कर रहे थे, पार्टी को क्या ऐसे चलाया जाता है?
यह बात सही है कि बिहार चुनाव प्रचार की खबरों के बीच जब यह खबर आई थी कि राहुल गांधी शिमला में छुट्टी मना रहे हैं, तो वह बड़ी हैरानी की बात थी। बिहार में उसके 70 उम्मीदवार लड़ रहे थे, और बाकी देश में जगह-जगह उपचुनावों में कांग्रेस उम्मीदवार थे, लेकिन राहुल किसी और प्रदेश में नहीं गए थे। वे महज बिहार प्रचार में शामिल हुए थे, और जैसा कि शिवानंद तिवारी ने कहा है कि वे तीन दिनों के प्रचार पर पहुंचे थे। बिहार के नतीजे आए ही थे कि खबरों में बने हुए अमरीका से राहुल गांधी के बारे में एक खबर आई। पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा की एक किताब छपकर आ रही है जिसमें उन्होंने राहुल से अपनी मुलाकात और अपने तजुर्बे के बारे में लिखा है- राहुल गांधी में एक तरह की घबराहट और अपरिपक्वता नजर आते हैं, जैसे किसी छात्र ने अपने शिक्षक को प्रभावित करने के लिए खूब पढ़ाई तो की हो लेकिन उस विषय की पूरी योग्यता उसके पास न हो। ओबामा ने राहुल गांधी को नर्वस बताया था और जुनून की कमी बताई थी।
ओबामा की ऐसी कोई निजी वजह नहीं है कि वे भारत की कांग्रेस पार्टी या उसके भविष्य के नेता राहुल गांधी पर कोई अवांछित हमला करें। उन्होंने बस अपने विचार सामने रख दिए। लेकिन ओबामा से परे खुद राहुल की पार्टी के एक बड़े नेता, यूपीए सरकार में पूरे दस बरस मंत्री रहने वाले कपिल सिब्बल ने कल एक अंग्रेजी अखबार, इंडियन एक्सप्रेस, को दिए गए इंटरव्यू में बिहार के चुनावी नतीजों के साथ-साथ देश भर में हुए उपचुनावों के नतीजों की बात की, और कांग्रेस पार्टी में इस पर आत्मविश्लेषण की जरूरत बताई। लोगों को याद है कि सिब्बल उन 23 कांग्रेस नेताओं में थे जिन्होंने अगस्त में पार्टी लीडरशिप को पार्टी के तौर-तरीके बदलने के लिए एक चिट्ठी लिखी थी। उस चिट्ठी को भी गिनाते हुए सिब्बल ने कहा कि पार्टी के पास अब आत्मचिंतन का भी समय खत्म हो गया है। उन्होंने कहा कि जिन राज्यों में कांग्रेस सत्तारूढ़ पार्टी का विकल्प है, वहां भी जनता ने कांग्रेस के प्रति विश्वास नहीं जताया। उन्होंने कहा कि कांग्रेस में इतना साहस और इच्छा होने चाहिए कि सच्चाई को स्वीकार करें। उन्होंने यह भी कहा कि इतने लोगों ने जो चिट्ठी लिखी थी, पार्टी के भीतर तब से अब तक उस पर कोई चर्चा नहीं हुई और पार्टी लीडरशिप की ओर से किसी चर्चा की कोशिश होते भी नहीं दिख रही है।
हम शिवानंद तिवारी या बराक ओबामा की कही बातों को अनदेखा करते हुए भी यह लिखना चाहेंगे कि बिहार चुनाव प्रचार के बीच जब राहुल के शिमला जाने की बात आई, तो हमें हैरानी हुई थी कि कुल 14 दिन चलने वाले चुनाव प्रचार में भी अगर राहुल गांधी अपने उम्मीदवारों पर मेहनत नहीं कर रहे हैं, तो वे जाहिर तौर पर और निश्चित रूप से गठबंधन के साथ भी ज्यादती कर रहे हैं जिसने कांग्रेस को अनुपातहीन ढंग से अधिक, 70 सीटें दी थीं। सीटें पाने के लिए कांग्रेस ने दबाव डाला था, लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान जिन भरोसेमंद अखबारनवीसों ने मैदानी रिपोर्टिंग की थी, उनका यह मानना था कि कई सीटों पर तो कांग्रेस चुनाव लड़ते ही नहीं लग रही थी। कपिल सिब्बल की यह बात ध्यान देने लायक है कि एक वक्त जिस उत्तरप्रदेश पर कांग्रेस ने राज किया था, जहां से एक के बाद दूसरे प्रधानमंत्री भेजे थे, उस उत्तरप्रदेश में आज कांग्रेस कुछ सीटों पर दो फीसदी वोट भी नहीं पा सकी।
कांग्रेस पार्टी चुनावी राजनीति से परे किसी देश सेवा या समाज सेवा में लगी हुई संस्था नहीं है। उसकी नीयत चाहे देश सेवा और समाज सेवा की हो, हालांकि उसके नेताओं को देखें तो ऐसा भी नहीं लगता है, कांग्रेस का अस्तित्व चुनाव लडऩे और जीतने पर टिका हुआ है। और कांग्रेस पार्टी ने पिछले छह बरस में लगातार संसद में मौजूदगी खोई है, और एक-एक करके अधिकतर राज्य खोए हैं। शिवानंद तिवारी, ओबामा, और कपिल सिब्बल सहित 23 कांग्रेस नेता, इन सबकी जरूरत भी नहीं है यह समझने के लिए कि कांग्रेस लीडरशिप किस तरह एक मकसद खो चुकी, जुनून खो चुकी, जवाबदेही खो चुकी लीडरशिप हो गई है जिससे इतने बड़े देश और उसके दो दर्जन से अधिक प्रदेश के मोर्चों को सम्हालने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। हकीकत तो यह है कि कांग्रेस आज अपना संगठन भी नहीं सम्हाल पा रही है क्योंकि जैसा कि कपिल सिब्बल ने याद दिलाया है, कांग्रेस कार्यसमिति एक मनोनीत मंच है जिससे कि मनोनयन करने वाले के खिलाफ सोचने की भी उम्मीद नहीं की जा सकती, किसी आलोचनात्मक नजरिये की भी नहीं।
लेकिन यह कहना ठीक नहीं होगा कि कांग्रेस के पास खोने को बचा ही क्या है। एकबारगी ही हमें तीन ऐसे राज्य याद पड़ते हैं जहां पर कांग्रेस की सरकार है, और कम से कम एक ऐसा राज्य याद पड़ता है जहां वह गठबंधन में है। इसलिए कांग्रेस के पास आज भी खोने के लिए तीन-चार राज्य तो बचे हैं ही, लेकिन क्या कांग्रेस इसी में खुश है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)