संपादकीय
आज देश में केन्द्र की मोदी सरकार के कामकाज के मीडिया कवरेज में सबसे खास दर्जा पाई हुई समाचार एजेंसी एएनआई ने जम्मू-कश्मीर से तस्वीरों सहित एक खबर पोस्ट की है। उधमपुर की इस खबर में बताया गया है कि किस तरह एक मुस्लिम परिवार पिछले 25 बरसों से हर त्यौहार पर फूल बेचते आ रहा है। तस्वीरों में दिखाया गया है कि यह परिवार दीवाली पर भी फूल बेच रहा है, और इस पर एक दुकानदार ने कहा है कि इनकी त्यौहार मनाने की भावना साम्प्रदायिक सद्भाव का संदेश देती है।
ऐसी खबरें बहुत से बड़े और प्रमुख अखबारों या टीवी चैनलों पर भी अजब-गजब जैसी हैरानी के साथ दिखती हैं। कभी कोई रिक्शेवाला किसी सवारी का छूटा हुआ बैग लौटाने की मशक्कत करता है, तो उसे लेकर भी ईमानदारी अभी जिंदा है किस्म की सुर्खियां अखबारों में देखने मिलती हैं। ऐसी हैडिंग से लगता है कि ईमानदारी अमूमन मर चुकी है, और गिने-चुने लोगों में ही यह जिंदा है। हकीकत यह है कि आमतौर पर सुर्खियां बटोरने वाले नेताओं, अफसरों, कारोबारियों में जरूर ईमानदार लोगों का अनुपात घट गया है, लेकिन मेहनतकश आम लोगों में तो लोग ईमानदार ही हैं। इसलिए जब कोई गरीब किसी पाए हुए सामान को पहुंचाने की कोशिश करते हुए थाने पहुंचते हैं, या सडक़ किनारे राह देखते खड़े रहते हैं, तो वे अपने बुनियादी चरित्र के मुताबिक काम करते हैं।
अब जिस खबर को लेकर आज की बात लिखी जा रही है, वह खबर हैरान नहीं करती, उसे खबर बनाया गया है, यह हैरान करता है। लोग दूसरे धर्म के त्यौहारों या जलसों पर अपने सामान बेचते हैं, या अपनी सेवाएं बेचते हैं, तो यह साम्प्रदायिक सद्भाव से भी पहले अपने खुद के जिंदा रहने की एक कोशिश होती है। हिन्दुस्तान में हिन्दुओं की शादियों में मेहंदी लगाने वाली से लेकर दुल्हन के कपड़ों को सिलने, उनमें जरी-गोटा लगाने, उसके लिए लाख की चूडिय़ां बनाने जैसे दर्जनों काम आमतौर पर मुस्लिम ही करते दिखते हैं। शादी की घोड़ी मुस्लिम लेकर आते हैं, बैंडपार्टी में बड़ी संख्या में मुस्लिम होते हैं, आतिशबाजी, लाउडस्पीकर, और जनरेटर से लगाने वाले सेट मुस्लिम ही होते हैं। यह तो हुई शादी-ब्याह की बात, लेकिन लोगों ने रूबरू देखा हुआ है कि अमरनाथ यात्रा से लेकर दूसरी अनगिनत तीर्थयात्राओं तक कांवर ढोने के काम में मुस्लिम लगे रहते हैं, और तीर्थयात्री तो जिंदगी में दो-चार बार अमरनाथ जाते होंगे, ऐसे कांवर उठाने वाले, घोड़े वाले मुस्लिम तो तीर्थयात्रा के दिनों में रोजाना ही यात्रियों को ले जाते हैं। अभी दो दिनों से दिल्ली के बहुत से लोगों ने हजरत निजामुद्दीन दरगाह की तस्वीरें पोस्ट की हैं जहां दीवाली पर खास साज-सज्जा की गई है, और वहां के लोग बताते हैं कि दीवाली मना रहे हिन्दू भी साल के इस खास दिन दरगाह पर भी प्रार्थना करने आते हैं। पूरा देश हाल के बरसों तक अलग-अलग धर्मों के तानों-बानों से बुना हुआ एक कपड़ा रहा है जिसे अब तार-तार करने की बहुत सी कोशिशें हो रही हैं।
लोगों को एक मुस्लिम फूल वाले को हिन्दू त्यौहार पर फूल बेचते देखने के लिए जम्मू-कश्मीर जाने की जरूरत नहीं है, अपने ही शहर में देख लें, जैन-मारवाड़ी, या गुजराती मेवे वाले रमजान और ईद के वक्त क्या खजूर सामने सजाकर नहीं रखते, या मुस्लिम मेवे वाले हिन्दू त्यौहारों के समय मेवे की खास पैकिंग बनाकर नहीं सजाते? यह तो बिना किसी साम्प्रदायिक सद्भाव के भी कारोबारी समझदारी है कि ग्राहक किसी भी धर्म के हों, उनके नोट का तो एक ही धर्म होता है। ऐसा कौन सा शहर होगा जहां फूल बेचने वाले अलग-अलग धर्मों के लिए अलग-अलग होंगे? एक कारोबारी समझदारी को जब मीडिया एक साम्प्रदायिक सद्भाव समझ ले, तो यह जाहिर है कि देश की हवा दिल्ली के बाहर भी बहुत खराब हो चुकी है, और दिमाग पर भी असर कर चुकी है।
हिन्दुस्तान गंगा-जमुनी तहजीब का देश रहा है, और बीच के इन कुछ बरसों को छोड़ दें, तो शायद आगे भी रहेगा। दिक्कत यह है कि जिन पेशों में लोगों से समझदारी और जिम्मेदारी की उम्मीद की जाती है, उनकी अपनी कमसमझी उनकी खबरों में सिर चढक़र बोलती है। और यह तो दिखने वाली खबरों में बोलती है, न दिखने वाली खबरों में, न लिखी जाने वाली खबरों में असली सद्भाव की जाने कितनी ही बातें दब जाती होंगी। इसलिए मीडिया के कारोबार में लगे लोगों में, समाचार और विचार लिखने वाले लोगों में, व्याकरण चाहे कमजोर हो, लोकतंत्र और इंसानियत की बुनियादी समझ मजबूत रहना चाहिए। इस देश में हिन्दुओं का कोई त्यौहार मुस्लिमों के बनाए सामानों, और उनके किए गए कामों के बिना पूरा नहीं होता है, और तो और हिन्दुओं के उपवास में आम नमक से परे जिस सेंधे नमक का इस्तेमाल होता है, वह भी पाकिस्तान के सिंध के इलाके से निकलकर आता है, और उसके बिना तो यहां हिन्दुओं का उपवास न हो सके।
इसलिए मीडिया के लोगों को साम्प्रदायिक सद्भाव नाम के शब्दों को एकदम हल्का भी नहीं बना लेना चाहिए कि दीवाली पर हिन्दुओं को फूल बेचना मुस्लिम कारोबारी का कोई साम्प्रदायिक सद्भाव है। साम्प्रदायिक सद्भाव की असली मिसालें हमारी जिंदगी में कदम-कदम पर भरी हुई हैं, और मीडिया में आमतौर पर सुर्खियों पर काबिज नेताओं को छोड़ दें, तो साम्प्रदायिक सद्भाव तो इस देश की बुनियादी समझ है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपने मंत्रिमंडल के साथ कल दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर में लक्ष्मी पूजा करने जा रहे हैं। पूरा मंत्रिमंडल लक्ष्मी पूजा करे ऐसा देश का यह पहला मौका रहेगा, और वे किसी निजी प्रार्थना के साथ नहीं, बल्कि दिल्ली के कल्याण की सार्वजनिक प्रार्थना के साथ यह पूजा करेंगे। भारत का संविधान हर मुख्यमंत्री को इस किस्म की लचीली आजादी देता है कि वे अपने धर्म का सार्वजनिक रूप से भी प्रदर्शन कर सकें। वे पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने मंत्रिमंडल जैसी एक औपचारिक संवैधानिक शक्ति को लेकर एक धार्मिक अनुष्ठान करना तय किया है। फिर भी दीवाली की लक्ष्मी पूजा को हम धार्मिक परंपरा के साथ-साथ एक सांस्कृतिक परंपरा भी मानते हैं, और इसमें हम कोई बुराई नहीं देखते। नेहरू के वक्त भी भारत के सरकारी दफ्तरों और सरकारी कारखानों में लक्ष्मी पूजा होती थी जो कि धार्मिक होने से अधिक सांस्कृतिक होती थी, और अनगिनत मामलों में सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्रों के मुस्लिम या ईसाई, या किसी और धर्म के गैरहिन्दू भी पूजा में बैठते थे। कभी किसी धर्म को इस पर कोई आपत्ति नहीं हुई थी। इसलिए हम भारत की एक मजबूत सांस्कृतिक परंपरा की एक कड़ी के रूप में ही केजरीवाल की इस पहल को ले रहे हैं, और इसमें बुनियादी रूप से आलोचना के लायक कुछ नहीं है।
लेकिन एक दूसरा सवाल यहां उठ खड़ा होता है, अक्षरधाम मंदिर में इस पूजा को करने का। दिल्ली में मंदिरों की कोई कमी तो है नहीं, और लक्ष्मी पूजा मंदिरों में होती भी नहीं है, लोग अपने घर-दफ्तर, दुकान-कारोबार में ऐसी पूजा करते हैं। इसलिए केजरीवाल यह पूजा कहीं भी कर सकते थे, इसके लिए अक्षरधाम मंदिर की जरूरत नहीं थी। अब अक्षरधाम मंदिर के साथ कुछ दिक्कतें हैं जिनको समझना जरूरी है। स्वामीनारायण सम्प्रदाय का यह मंदिर दिल्ली में एक दर्शनीय ढांचा तो है, लेकिन बहुत लोगों को यह बात नहीं मालूम है कि पूरे का पूरा स्वामीनारायण सम्प्रदाय महिलाओं से परले दर्जे का भेदभाव करता है। इससे सन्यासी या स्वामी किसी महिला को देख भी नहीं सकते, सुन भी नहीं सकते। इसके प्रमुख स्वामी जिस सभागार में बैठते हैं, उसके खुले दरवाजे के सामने से किसी महिला को भी निकलने की इजाजत नहीं होती है। लंदन में बसे एक लेखक ने इंटरनेट पर लिखा है कि उसकी चार बरस उम्र की बेटी लंदन में स्वामीनारायण स्कूल में पढ़ती है। स्कूल के सभागार में सम्प्रदाय के एक संत का कार्यक्रम था। तमाम लड़कियों को हॉल के पीछे बिठाया गया था। जब बच्चों से कहा गया कि वे कोई सवाल कर सकते हैं, तो इस बच्ची ने कुछ पूछने के लिए हाथ उठाया। उसे अनदेखा कर दिया गया, और उसे बिठा दिया गया। बाद में एक लडक़े के पूछे गए सवाल का जवाब संत ने दिया, लेकिन इस बच्ची की तरफ देखा भी नहीं। एक और मौके पर जब यही लेखक स्वामीनारायण मंदिर में अपनी छह महीने की बेटी को गोद में लेकर गया तो उसे वहां सभागार में भीतर जाने नहीं मिला क्योंकि उसकी गोद में लडक़ी थी, फिर चाहे वह छह महीने की थी। इस सम्प्रदाय के कार्यक्रमों में जाने के बाद भी इस लेखक ने लिखा कि शुरूआत से सम्प्रदाय के स्कूलों में और कार्यक्रमों में यह सीख मिल जाती है कि लड़कियां और महिलाओं का दर्जा नीचा है।
स्वामीनारायण सम्प्रदाय को लेकर यह विवाद कोई नया नहीं है, बहुत बार महिलाओं के साथ इस सम्प्रदाय के भेदभाव सामने आते रहते हैं, लेकिन जैसे कि कोई भी सम्प्रदाय अपनी कट्टर बातों पर ही जिंदा रहता है, यह सम्प्रदाय भी महिलाओं के खिलाफ परले दर्जे का भेदभाव करते हुए अपनी शुद्धता को इस तरह साबित करते रहता है जिससे बिना कहे यह बात साबित होती है कि महिलाएं नीचे दर्जे की हैं। अगर इसके पीछे सम्प्रदाय के संत-सन्यासी का ब्रम्हचर्य कायम रखने की कोई नीयत है, तो इस सवाल का क्या जवाब हो सकता है कि चार बरस या छह महीने की बच्ची की ओर देखने से भी अगर इसके स्वामी और सन्यासी का ब्रम्हचर्य खतरे में पड़ता है, तो इनको अपने इलाज की जरूरत है, न कि किसी अनुशासन की।
ऐसा भी नहीं है कि केजरीवाल सरकार किसी दूसरे देश से आकर दिल्ली के इस मंदिर में पूजा कर रही है, और उसे इस सम्प्रदाय से जुड़े ऐसे विवादों की खबर नहीं है। हिन्दुस्तान में किसी भी जागरूक व्यक्ति को इसके बारे में मालूम है, और राजनीति में देश की राजधानी की मुख्यमंत्री को इसकी खबर न हो, ऐसा तो हो नहीं सकता। ऐसे में एक देवी, लक्ष्मी, की पूजा के लिए ऐसे मंदिर को छांटना जहां महिलाओं के साथ भेदभाव होता है, उन्हें हिकारत और नीची नजर से देखा जाता है, यह एक बहुत खराब फैसला है। ऐसे भेदभाव वाले सम्प्रदाय का सरकार को सरकारी स्तर पर बहिष्कार करना चाहिए, केजरीवाल चाहें तो निजी स्तर पर वे किसी भी साधू, सन्यासी, या तथाकथित संत के भक्त हो सकते हैं। इस देश में इंदिरा गांधी ने जाकर मचान पर लटके बैठने वाले देवरहा बाबा के लटके हुए पैर के नीचे अपना सिर टिकाकर आशीर्वाद लिया था, इस देश में बलात्कारी आसाराम के भक्तों में नरेन्द्र मोदी से लेकर दिग्विजय सिंह तक हजारों नेता थे। निजी स्तर पर केजरीवाल किन पैरों पर अपना सिर टिकाते हैं, यह उनका निजी हक हो सकता है, हालांकि इस देश के एक सबसे महान नेता जवाहरलाल नेहरू ने पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के धार्मिक कर्मकांडों के सार्वजनिक प्रदर्शन पर असहमति और नाराजगी जाहिर की थी, लेकिन नेहरू के वक्त की समझदारी नेहरू के साथ खत्म हो गई, उनकी ही अगली पीढ़ी ने, उनकी ही पार्टी ने उस समझदारी को नेहरू की पहली बरसी के पहले ही कबाड़ी को बेच दिया था। इसलिए अब तमाम लोग, वामपंथियों को छोडक़र, एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। हैरानी यह है कि सोशल मीडिया, और बाकी मीडिया पर केजरीवाल की लक्ष्मी पूजा की घोषणा के बाद से अभी तक ऐसे कोई सवाल हमको तो नहीं दिखे हैं जो कि उनके पूजास्थल की पसंद को गलत बता रहे हों। हो सकता है आगे जाकर कुछ लोग इस पर लिखें, लेकिन हम इस मंदिर में जाकर पूरे मंत्रिमंडल द्वारा पूजा करने के सख्त खिलाफ हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश की अर्थव्यवस्था कितनी ही खराब क्यों न हों, महीनों बाद ठीक से खुले बाजार, और दीवाली जैसा बड़ा त्यौहार, इन दोनों के चलते कुछ खरीददारी होते दिख रही है। और इसके साथ ही लोगों के घरों में तरह-तरह से पैकिंग पहुंच रही है। संपन्न तबका ऑनलाईन खरीदी कर रहा है क्योंकि बाजार जाने से बचना हो जाता है, समय बचता है, और बहुत से सामान बाजार के मुकाबले ऑनलाईन सस्ते मिलते हैं। ये सारे सामान खासी पैकिंग सहित आते हैं। संपन्न तबकों में दीवाली पर तोहफों का लेन-देन भी होता है, और तोहफे ऐसी पैकिंग में ही रखे जाते हैं कि वे खासे बड़े लगें, उनमें माल कम होता है, पैकिंग अधिक होती है। कुल मिलाकर यह वक्त लोगों के घरों में उनकी खरीदी, और तोहफे पाने की क्षमता के अनुपात में कागज, पुट्ठे, और पॉलीथीन के इकट्ठा होने का है।
घरों के बाहर डाल दिए गए कचरे को देखें, या म्युनिसिपल की कचरा गाडिय़ों को देखें, इनमें फ्रिज-टीवी जैसे बड़े सामानों के बड़े बक्से भी दिखते हैं, और कई दूसरे किस्म की पैकिंग भी। जो राज्य सभ्य और समझदार हैं, या जिन शहरों की म्युनिसिपल जागरूक और जिम्मेदार है, वहां पर घरों में ही कचरे की छंटनी लागू की गई है, और अलग-अलग किस्म का कचरा सीधे री-साइकिलिंग तक चले जाता है, दुबारा इस्तेमाल हो जाता है।
त्यौहार के इस मौके पर लोगों को कचरे की चर्चा बुरी लग सकती है क्योंकि अभी तो घर को सजाने, रौशन करने, पूजा की तैयारी करने, और मिठाई बनाने का मौका है। यह भी भला कोई वक्त है कचरे की चर्चा करने का? लेकिन हमारे हिसाब से यही वक्त कचरे की चर्चा का है क्योंकि इसी वक्त घर पर पैकिंग जैसा कचरा खूब सा निकल रहा है, या निकल सकता है, घरों की सफाई में भी सूखा कचरा निकल सकता है, और इन सबको अगर कचरा बीनने वालों को सीधे ही बुलाकर दे दिया जाए, तो धरती पर कचरे का निपटारा भी अच्छे से हो सकता है, और कचरा बीनकर धरती को जिंदा रहने लायक रखने वाले लोगों की दीवाली भी हो सकती है। जब ये लोग घूरे पर मिले-जुले कचरे में से बीन-बीनकर कागज और पु_े के सामान अपने बोरों में भरते हैं, पॉलीथीन और प्लास्टिक दूसरे बोरे में भरते हैं, तो इन्हें अगर घूरे से परे लोगों के घरों से सीधे ही यह कचरा मिल जाए, तो उनकी भी जिंदगी बदल सकती है, और धरती की भी। जिन लोगों को यह लगता है कि धरती की जिंदगी अनदेखी की जा सकती है, उन्हें यह समझना चाहिए कि धरती की जिंदगी से बेहतर जिंदगी इंसानों की कभी भी नहीं हो सकती। धरती जितनी बर्बाद रहेगी, इंसानों की जिंदगी उससे कुछ अधिक ही बर्बाद रहेगी।
दीवाली पर जो भयानक कबाड़-कचरा घूरों पर पहुंचता है, कचरा ले जाने वाली गाडिय़ों पर लदता है, उसे देखकर समझ आता है कि जो कंपनियां भारी-भरकम पैकिंग में सामान बेचती हैं, उन पर पैकिंग का एक गार्बेज-टैक्स (कचरा-टैक्स) क्यों नहीं लगाना चाहिए? हर प्रदेश को चाहिए कि अपने प्रदेश में आने वाले सामानों में से इस्तेमाल होने वाले सामान, और पैकिंग के सामान का अलग-अलग वजन लिखना अनिवार्य करे, और पैकिंग के सारे सामान पर एक निपटारा-टैक्स लगाए कि धरती पर लादे जा रहे इस प्रदूषण से निपटना भी सामान बनाने और बेचने वालों की जिम्मेदारी है। एक इत्र की शीशी 50 एमएल इत्र की होती है, लेकिन उसकी बोतल का कांच, उसका ढक्कन, उसका पु_े का डिब्बा 200 ग्राम से अधिक का होता है। बहुत सी चीजों में इसी तरह गैरजरूरी पैकिंग रहती है, और कारोबार की गैरजिम्मेदारी तोडऩे के लिए राज्यों को इस तरह का कचरा-निपटारा-टैक्स लागू करना चाहिए। समझदार राज्य यह नहीं देखेंगे कि शुरूआत में कारोबार को दिक्कत होगी, टैक्स बहुत कम मिलेगा, और मेहनत अधिक करनी पड़ेगी। समझदार राज्य यह देखेंगे कि धरती पर इस किस्म की पहल करने वाले वे पहले राज्य की तरह दर्ज हो सकते हैं, और ऐसा रिकॉर्ड बनाने से परे वे अपने प्रदेश में कचरे के बोझ को घटा भी सकते हैं।
लेकिन यह तो हुई सरकार की बात, हम त्यौहार के मौके पर जनता की बात कर रहे हैं, और धरती को साफ रखने वाले, खतरा उठाकर मेहनत करने वाले लोगों की बात कर रहे हैं। लोगों को चाहिए कि अपनी बाकी जिंदगी, और अपनी अगली पीढ़ी की पूरी जिंदगी के लिए एक जिम्मेदार नागरिक बनकर रहें। इंसान की कोई औकात नहीं है कि वह धरती को खत्म कर सके, लेकिन कुछ सौ बरस में वे धरती को इतना बर्बाद जरूर कर सकते हैं कि धरती उनके खुद के रहने लायक न रह जाए। लोगों को दीवाली की साफ-सफाई में घर के गैरजरूरी सामानों को निकालकर आसपास के उन लोगों को देना चाहिए जिन्हें कि उनकी जरूरत है, और जो पुराने सामानों को इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करेंगे। इसके अलावा किसी भी किस्म के घूरे को बढ़ाना अपने खुद के लिए आत्मग्लानि का काम होना चाहिए क्योंकि फिजूल के सामान और कचरे को अलग-अलग करके आसपास से निकलने वाले कचरा बीनने वालों को देकर सबका भला किया जा सकता है। घर के एक कोने में कागज-पु_े, प्लास्टिक, पॉलीथीन जैसे सामानों को इक_ा करके रखना चाहिए, और कचरा बीनने वालों को बुलाकर दे देना चाहिए। उन्हें अगर एक बार बता देंगे कि हर महीने-पन्द्रह दिन में आते-जाते वे कचरे का पूछ लिया करें, तो आपका खुद का, कचरे वालों का, और धरती का, सबका भला हो सकता है, होगा।
दीवाली का मौका मरम्मत का रहता है, सुधार का रहता है, और लोगों के घर-दुकान से बहुत सारा बिल्डिंग-मलबा भी निकलता है। आमतौर पर लोग गैरजिम्मेदार रहते हैं, और ऐसे मलबे को भी घूरे पर डाल देते हैं जो कि म्युनिसिपल पर बहुत बड़ा बोझ रहता है। ऐसे कचरे को अलग से निपटाना चाहिए, और कोई कल्पनाशील और जिम्मेदार म्युनिसिपल हो तो वह शहरों में कई जगहों पर ऐसे छोटे क्रशर लगा सकती हैं जो कि मलबे को फिर से रेत-गिट्टी जैसा बारीक बनाकर पाटने या भवन निर्माण के किसी काम के लायक बना दे।
देश में ही कई प्रदेशों में जिम्मेदार म्युनिसिपल कार्पोरेशनों ने ऐसा किया है। एक तरफ तो इंदौर जैसा शहर सैकड़ों करोड़ रूपए सालाना खर्च करके सबसे साफ शहर का तमगा हासिल करता है, दूसरी तरफ दक्षिण भारत के कुछ म्युनिसिपल ऐसे हैं जिन्होंने कचरे को छांटना और उसे म्युनिसिपल की तय जगह तक पहुंचाना नागरिकों की ही जिम्मेदारी बना दिया है। वे कचरे पर खर्च करने के बजाय उससे सिर्फ कमाई कर रहे हैं, और वहां के नागरिक जिम्मेदार बनने के बाद अब अगली पीढ़ी को भी जिम्मेदारी सिखा रहे हैं। लेकिन देश के बाकी अधिकतर प्रदेशों में राज्य सरकारों से लेकर म्युनिसिपलों तक लोग लुभावने और फिजूल के कामों में लगे हैं, और बुनियादी काम किनारे खिसका दिए गए हैं।
एक बार फिर आखिर में हम लोगों से कहना चाहते हैं कि किसी गैरजिम्मेदार सरकार और म्युनिसिपल के तहत जीते हुए भी जिम्मेदार नागरिक बना जा सकता है। जो गरीब लोग कचरा बीनकर जिंदा रहते हैं, उनकी मदद भी की जा सकती है, और यह सब करते हुए इस धरती को भी अपनी अगली पीढ़ी के जिंदा रहने लायक छोड़ा जा सकता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बिहार के इस बार के चुनावी नतीजे बीती रात आधी रात के बाद तक आते रहे, और आज सुबह अलग-अलग पार्टियों की सीटों और उनके वोटों की तस्वीर साफ हुई। वैसे तो भाजपा ने अपने राष्ट्रीय नेता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दम पर यह चुनाव लड़ा था, और एक किस्म से मोदी ही चुनाव मैदान में थे, इसलिए जीत के हकदार मोदी ही हैं। उनकी पार्टी ने कई किस्म से कई मोर्चों पर शानदार प्रदर्शन किया और सत्ता पर अपने गठबंधन की वापिसी सुनिश्चित की। दूसरी तरफ बिहार में सरकार बनाने का मोदी से भी अधिक श्रेय कांग्रेस को जाता है जिसने गठबंधन में 70 सीटें हासिल कीं, और उनमें से 51 सीटें हार गई। मोटेतौर पर यही 51 सीटें तेजस्वी को सत्ता से दूर रखने वाली रहीं। अगर कांग्रेस कम सीटों पर लड़ी होती, और उन सीटों पर वामपंथियों को मौका दिया गया होता, तो आज तेजस्वी मुख्यमंत्री होता। वामपंथियों को 28 सीटें दी गईं जिनमें से 16 सीटें उन्होंने जीतकर गठबंधन को दीं। ऐसा अनुपात अगर कांग्रेस की जीत का होता तो फिर बात ही क्या थी।
सीटों के आंकड़े कई मायनों में बहुत दिलचस्प हैं। भाजपा ने अपनी 21 सीटें बढ़ा लीं, और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सीएम घोषित किया था, लेकिन नीतीश की पार्टी जेडीयू की सीटें 28 घट गईं। अब रामविलास पासवान के गुजरने के बाद उनके बेटे चिराग ने नीतीश के खिलाफ खुली बगावत करते हुए एनडीए छोड़ दिया था, और सिर्फ एक मुद्दे पर पूरा चुनाव लड़ा कि वे अगली सरकार बनाकर नीतीश कुमार को जेल भेजेंगे। अब चिराग पासवान ने 135 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए थे, और उनका एक उम्मीदवार जीता भी है। लेकिन जिस दम-खम के साथ उन्होंने अपना सीना चीरकर मोदी की छवि दिखाने का दावा किया, और मोदी के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार की पार्टी को जमकर हराया भी, वह देखने लायक था। आंकड़े बताते हैं कि करीब डेढ़ दर्जन सीटों पर नीतीश की पार्टी की हार चिराग पासवान की पार्टी की वजह से हुई है। अब मोदी का नाम जपने वाले चिराग ने अपने समर्थकों से भाजपा के पक्ष में वोट डालने कहा होगा, और नीतीश के खिलाफ वोट डालने कहा होगा। यह भी एक वजह है कि भाजपा को फायदा हुआ, और जेडीयू को नुकसान हुआ। ऐसी चर्चा चारों तरफ हर राजनीतिक विश्लेषक की कलम से कुछ हफ्तों से आ रही थी कि भाजपा नीतीश कुमार का कद काटकर छोटा करने जा रही है, भाजपा की ऐसी कोई साजिश अगर थी, तो वहां तक तो हमारी पहुंच नहीं थी, लेकिन चुनावी नतीजे आज यह सवाल भी खड़ा कर रहे हैं कि क्या अब भी भाजपा को नीतीश को सीएम बनाना चाहिए? और यह सवाल भी कि क्या नैतिकता के नाते नीतीश को खुद ही पीछे नहीं हट जाना चाहिए? कुल मिलाकर आज नीतीश की हालत यह है कि सुबह से एक दर्जन कार्टूनिस्ट नीतीश को मोदी की जेब में, मोदी के कंधे पर सवार, मोदी की उंगली पकडक़र चलते हुए बना चुके हैं। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बन भी जाते हैं तो भी यह हार रहेगी, और तेजस्वी यादव मुख्यमंत्री नहीं भी बनते हैं तो भी वे जीते हुए हैं क्योंकि वे विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी बन चुके हैं। इस मौके पर बेमौके की एक बात यह है कि खुद तेजस्वी यादव के लिए नेता प्रतिपक्ष का एक कार्यकाल, जिसमें वामपंथी उनके करीबी सहयोगी रहेंगे, वह उनके लिए निजी रूप से मुख्यमंत्री के कार्यकाल के मुकाबले बेहतर होगा।
बिहार चुनाव के विश्लेषण में वहां के अधिक जानकार लोगों ने दो बातें लिखी हैं जिन पर गौर करना चाहिए। पहली बात तो यह कि दलितों के वोट वाली पार्टी को जब तेजस्वी के गठबंधन से निराशा हुई, तो वे छोडक़र निकल गए, और एनडीए जाकर मोदी से कुछ सीटें पाईं, कई सीटें जीतकर दीं, और जाहिर है कि बहुत सी दूसरी सीटों पर उन्होंने एनडीए को अपने समुदाय के वोट भी दिलवाए होंगे। बिहार के जानकार लोगों का यह भी मानना है कि मुस्लिम समाज की राजनीति करने वाले ओवैसी ने तेजस्वी यादव के गठबंधन को मिलने वाले मुस्लिम वोटों में खूब घुसपैठ की, और खुद भी 5 सीटें पाईं, और कुछ दर्जन सीटों पर वोट पाकर गठबंधन की संभावनाएं खत्म कीं। ओवैसी से राजनीतिक विश्लेषकों को यही उम्मीद थी, और उन्होंने उसे पूरा किया। लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने आज सुबह ही ओवैसी को वोटकटवा कहकर उन्हीं अटकलों और आरोपों को आगे बढ़ाया है कि ओवैसी गालियां तो बीजेपी को देते हैं, लेकिन उनकी हरकतों से फायदा भी बीजेपी को ही मिलता है।
कुल मिलाकर बिहार का यह चुनाव वामपंथियों के शानदार प्रदर्शन का रहा, उन्होंने अपनी सीटें बढ़ाईं, अपने वोट बढ़ाए, उन्हें मिली सीटों पर जीत का प्रतिशत शानदार रहा। तेजस्वी यादव ने हाशिए पर से जीत से दस कदम पीछे तक का यह सफर शानदार तरीके से तय किया। मोदी के करिश्मे और चुनाव जीतने की उनकी तकनीक के बारे में हम कल भी इसी जगह लिख चुके हैं।
बिहार के ये चुनाव खासे जटिल थे, एनडीए में बड़ी फूट थी, गठबंधन को छोडक़र लोग निकले थे, ओवैसी ने भारतीय राजनीति में अपनी एक चर्चित उपयोगिता जमकर साबित की, और आखिर में कांग्रेस के बारे में यह कहना होगा कि उसने इतना बड़ा कौर मुंह में भर लिया था कि जो उसकी चबाने की क्षमता से अधिक बड़ा था। जिन 70 सीटों पर कांग्रेस ने उम्मीदवार खड़े किए, उतनी जगह चुनाव लडऩे की उसकी तैयारी भी नहीं थी, ऐसा भी एक वरिष्ठ पत्रकार ने लिखा है, और चुनावी नतीजे भी साबित करते हैं कि यह अंदाज हो सकता है सच हो। अधिक सीटें हासिल करने में तो कांग्रेस गठबंधन के भीतर जीत गई, लेकिन मतदाताओं के सामने इनमें से बड़ी संख्या में सीटें भी हार गई, और तेजस्वी की मुख्यमंत्री बनने की मजबूत संभावना को भी हरा दिया। फिर भी एक बात है, भाजपा के लोग नाशुकरे नहीं हैं, बहुत से भाजपा नेता खुलकर इस बात को मंजूर कर रहे हैं कि कांग्रेस ने एक बार फिर भाजपा को सरकार में आने में पूरी मदद की। अब यह बात कांग्रेस की नीयत में तो नहीं होगी, लेकिन यह उसकी नियति जरूर बन गई है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
नाम में चाणक्य होने से, या किसी के लिए चाणक्य का विशेषण इस्तेमाल करने से चाणक्य की कहानियां सच नहीं होने लगतीं। टुडेज चाणक्य नाम की एक चुनावी सर्वे या ओपिनियन पोल करने वाली एजेंसी ने बिहार के आखिरी मतदान के बाद तेजस्वी यादव की लीडरशिप वाले महागठबंधन को एनडीए गठबंधन से तीन गुना अधिक सीटें मिलने का अनुमान घोषित किया था। और एनडीए जिस दम-खम से, स्पष्ट बहुमत से बिहार पर काबिज होते दिख रहा है, उससे एग्जिट पोल नाम की सर्वे-तकनीक अधकचरी साबित हो रही है। बहुत सारे एग्जिट पोल तेजस्वी-गठबंधन के पक्ष में दिखने से पिछले तीन दिनों में देश के मीडिया और सोशल मीडिया में तेजस्वी यादव को अगला मुख्यमंत्री घोषित कर दिया गया था, लेकिन क्रिकेट में आखिरी रन और चुनाव में आखिरी वोट की गिनती के पहले हड़बड़ी में कोई नतीजे निकालने से साख चौपट होती है।
बिहार में वोटों की गिनती अभी चल ही रही है लेकिन तमाम सीटों पर गिनती जारी है, और भाजपा की अगुवाई वाले गठबंधन की लीड 129 सीटों पर दिख रही है, और तेजस्वी यादव की लीडरशिप वाले गठबंधन की लीड 104 सीटों पर दिख रही है। सीटों का यह फासला पिछले कई घंटों से बना हुआ है, और यह इतना बड़ा है कि इसे पाटकर महागठबंधन का फिर से आगे आना अब नामुमकिन सा लग रहा है। एक बार फिर एनडीए बिहार की सत्ता पर दिख रहा है, जो कि पिछले चुनाव में नहीं जीता था, लेकिन नीतीश कुमार के गठबंधनबदल की वजह से सत्ता पर आ गया था। उस हिसाब से एनडीए वहां दुबारा नहीं जीता है, वह सत्ता पर काबिज जरूर रहते दिख रहा है।
बिहार के नतीजों ने बहुत सारी बंधी-बंधाई राजनीतिक जुमलेबाजी को फ्लॉप कर दिया है। लेकिन लोगों को आज रात तक पूरे नतीजे आ जाने के बाद यह सोचना पड़ेगा कि एनडीए के भीतर मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कद और कितना छोटा हो गया है क्योंकि उनकी पार्टी की सीटें न सिर्फ अपने गठबंधन के भीतर भाजपा से काफी कम है, बल्कि तेजस्वी की आरजेडी से भी कम हैं। ऐसी नौबत में भाजपा अपने चुनाव पूर्व के वायदे और घोषणा के मुताबिक नीतीश कुमार को दुबारा मुख्यमंत्री बनाए तो यह भाजपा का नीतीश पर एक किस्म का अहसान होगा जिसके चलते सरकार के भीतर नीतीश मौजूदा कार्यकाल के मुकाबले कमजोर रहेंगे, और नैतिक रूप से दबे रहेंगे।
बिहार के चुनावों में एनडीए और भाजपा की अगर हार हुई रहती, तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को नाकामयाब करार देने की तैयारी में बहुत सारे लोग बैठे थे। और लोगों को यह भी लग रहा था कि यह लालू यादव को तीखे साम्प्रदायिकता-विरोधी तेवरों को जनसमर्थन की वापिसी दिख रही है, तकलीफ के साथ हजारों किलोमीटर पैदल चलकर बिहार लौटने को मजबूर मजदूरों की बद्द्ुआ एनडीए को लगी है, बिहार के नौजवान बेरोजगारों की नाउम्मीदी ने एनडीए को हराया है। ऐसी बहुत सी बातें लोगों ने पिछले चार दिनों में ट्वीट भी की थीं, बयानों में भी कही थीं, और आज टीवी चैनलों के विश्लेषणों के लिए राजनीति के तथाकथित विशेषज्ञों ने ऐसे जुमलों की तैयारी भी कर रखी होगी, लेकिन उनमें से किसी को इस्तेमाल करने की नौबत नहीं आई।
बिहार विधानसभा चुनाव के साथ-साथ देश के बहुत से राज्यों में विधानसभा और लोकसभा के उपचुनाव भी हुए, जहां पर बिहार से परे के मुद्दे थे, लेकिन जहां-जहां के नतीजे सामने दिख रहे हैं, वे सारे के सारे एनडीए या भाजपा के पक्ष में दिख रहे हैं। चूंकि बिहार का घड़ा मोदी के सिर पर फोडऩे की तैयारी थी, इसलिए सेहरा भी उन्हीं के सिर बंधना चाहिए क्योंकि बिहार में भी नीतीश तो डूब चुके हैं, वे कमल के फूल को थामकर किसी तरह सतह पर बने हुए हैं, और उसी की मेहरबानी से एक बार और मुख्यमंत्री बन सकते हैं।
बहुत से लोगों ने अमरीका के मौजूदा राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के साथ मोदी के गहरे सार्वजनिक रिश्तों को लेकर ट्रंप के चुनावी नतीजों से बिहार के नतीजों को जोडक़र अटकलें लगाई थीं। लेकिन यह जाहिर है कि ट्रंप तो भारतवंशी वोटों के लिए मोदी के मोहताज थे, मोदी बिहार के वोटों के लिए किसी तरह अमरीका पर आश्रित नहीं थे। आज बिहार के अलावा देश भर में बिखरे हुए उपचुनावों में जिस तरह भाजपा आगे रही है, उन सबके पीछे अगर कोई एक अकेली वजह हो सकती है, तो वह सिर्फ मोदी है।
मतलब यह कि भारत के चुनावी फैसले तय करने में आज अगर कोई ब्रांड सबसे अधिक असर रख रहा है, तो वह मोदी का है। फिर चाहे मोदी कार्टूनिस्टों के पसंदीदा निशाना क्यों न हों, चाहे उनकी दाढ़ी से लेकर उनके कपड़ों के रंग तक का मजाक क्यों न बनाया जा रहा हो, नाम तो चुनावों में एक ही नेता का चल रहा है, और वह मोदी का है। आज बिहार चुनाव और बाकी प्रदेशों के उपचुनावों में मोदी के मुकाबले जो भी पार्टियां और जो भी नेता थे, उन सबके लिए यह आत्मविश्लेषण और आत्ममंथन का एक समय है कि क्या मोदी ब्रांड के चुनावी-मुकाबले के लिए कोई हथियार और औजार अभी बाकी हैं, या फिर बाकी पार्टियां बिल्ली की तरह छींका टूटने के इंतजार में बैठी रहेंगी कि एक दिन मोदी अपने करमों से ही डूबेंगे, और उस दिन उनकी बारी आएगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत के नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल ने दिल्ली समेत पूरे राजधानी क्षेत्र में आज आधी रात से 30 नवंबर तक के लिए पटाखों की बिक्री और इस्तेमाल पर पूरी रोक लगा दी है। यह आदेश देश के और दर्जनों शहरों-कस्बों पर भी लागू हो रहा है जहां पिछले बरस नवंबर में वायु प्रदूषण से जीना मुश्किल हो रहा था। इसके लिए वैज्ञानिक पैमाने तय किए गए हैं जिन पर अधिक चर्चा यहां जरूरी नहीं है।
हमने दो दिन पहले इसी जगह इस बात पर लिखा है कि पटाखों पर रोक को हिन्दू धर्म पर हमला मानने वाले नेता अपनी बकवास से हिन्दुओं का ही अधिक नुकसान कर रहे हैं क्योंकि बारूदी धुएं का पहला हमला तो अमूमन हिन्दू फेंफड़ों पर ही होता है। आज भी कुछ प्रदेशों में दीवाली पर पटाखों पर रोक लगाई है, और कई प्रदेशों में लोग इसका विरोध भी कर रहे हैं। दिक्कत यह है कि बारूद के धुएं का जहर किसी धार्मिक परंपरा को नहीं देखता, और अपने दायरे में आने वाले तमाम फेंफड़ों पर हमला करता है।
अब सवाल यह है कि जिस प्रदेश में जो पार्टी विपक्ष में रहती है, आमतौर पर उसे ही सरकार के किसी भी तरह के प्रतिबंध नाजायज लगते हैं। और बात सिर्फ पटाखों पर रोक की नहीं है, कभी लोगों को हेलमेट पहनाने की कोशिश हो, तो भी ऐसा ही होता है। विपक्ष की पार्टी तुरंत ही सडक़ों पर उतर आती है, और पुलिस की कार्रवाई के लिए तानाशाही, लोगों पर जुल्म जैसे नारे लगने लगते हैं। उस वक्त नेतागिरी करती पार्टियां और उसके नेता यह नहीं देखते कि हेलमेट पहनने से नुकसान किसी का नहीं होता, लेकिन किसी सडक़ हादसे की नौबत आने पर सिर पर चोट लगने से मौत या स्थाई विकलांगता का खतरा घट जाता है, तकरीबन मिट ही जाता है। लेकिन लोगों की जिंदगी और मौत की फिक्र किए बिना यह नेतागिरी चलती रहती है।
ऐसी नेतागिरी धार्मिक विसर्जन पर भी अड़ी रहती है, फिर चाहे उससे नदी और तालाब प्रदूषण से खत्म ही क्यों न हो जाएं। ऐसी नेतागिरी शहरों की खासी चौड़ी सडक़ों को किनारे की दुकानों के बाहर फैले सामानों से पटवाने में लगी रहती है, फिर चाहे उसकी वजह से रात-दिन ट्रैफिक जाम क्यों न होता रहे, और थमी हुई गाडिय़ों की वजह से प्रदूषण ही क्यों न बढ़ जाए।
विपक्ष से सत्ता में आने के लिए कुछ नेता तो ऐसी नेतागिरी में लगे रहेंगे, लेकिन सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार में बैठे लोगों को यह भी देखना चाहिए कि उनका कार्यकाल पूरा होने तक प्रदेश में अराजकता को और कितना बढ़ाया जाएगा? प्रदेश सरकारों के सामने एक बड़ी चुनौती यह रहती है कि जनता पर नियम-कायदों का अनुशासन लागू करने से कुछ तो लोग नाराज होते हैं, और बाकी लोगों को विपक्ष अपने भडक़ावे से नाराज कर देता है। ऐसे में सत्ता इस बात से हड़बड़ा जाती है कि आने वाले चुनाव में नाराज वोटर कहीं सत्तारूढ़ पार्टी को न निपटा दें। अब छत्तीसगढ़ जैसा राज्य जिसमें विधानसभा चुनाव के बाद बनने वाली राज्य सरकार अगले करीब एक बरस में लोकसभा चुनाव और स्थानीय संस्थाओं के चुनाव, दोनों से फारिग हो जाती है। इसके बाद साढ़े तीन बरस का एक लंबा कार्यकाल ऐसा मिलता है जिसमें सरकार जनता की भलाई के लिए जनजीवन पर कड़ाई लागू कर सकती है, और अपने प्रदेश को बेहतर बना सकती है। ऐसे चुनावों का कैलेंडर हर प्रदेश में अपना-अपना रहता है, लेकिन चुनावों के बीच के वक्त को हर किसी को नियम-कायदे लागू करके जनता का व्यापक भला करने की कोशिश करनी चाहिए। इसमें ट्रैफिक के नियम भी लागू होते हैं, शहरों में अवैध कब्जे और अवैध निर्माण पर कार्रवाई भी लागू होती है, और छोटे-छोटे दूसरे सार्वजनिक नियम भी लागू होते हैं। अगर कोई सरकार पूरे पांच बरस लोकलुभावन-मोड पर ही काम करती रहेगी तो वह अपने को मिले प्रदेश को बर्बाद करके अगली सरकार को देगी। चुनावी-राजनीति की यह मजबूरी तो हो सकती है कि सत्तारूढ़ पार्टी चुनावों के कुछ महीने पहले से जनता पर सरकार की कड़ाई को रूकवा दे, लेकिन हिन्दुस्तान के बहुत से प्रदेशों का यह तजुर्बा रहा है कि जब व्यापक जनकल्याण के लिए बिना भेदभाव नियम-कायदे लागू किए जाते हैं, तो लोग उनका बुरा नहीं मानते।
छत्तीसगढ़ से लगे हुए महाराष्ट्र के नागपुर में बहुत बरस पहले एक म्युनिसिपल कमिश्नर तैनात किए गए थे। चन्द्रशेखर नाम के इस अफसर की साख कड़ाई बरतने वाले की थी। राज्य सरकार ने शहर को सुधारने के लिए उसे खुली छूट भी दी थी। कुछ महीनों में चन्द्रशेखर ने शहर की तमाम बड़ी सडक़ों के किनारे के अवैध निर्माण और अवैध कब्जे हटाकर शहर को एक बिल्कुल नई शक्ल दे दी थी। जनता की सहूलियत स्थाई रूप से हमेशा के लिए बढ़ गई थी जो कि आज कुछ दशक गुजर जाने पर भी बेहतर बनी हुई है।
महाराष्ट्र के नागपुर में इस अफसर की तैनाती के पहले भी म्युनिसिपल और शासन के नियम वही थे जिनका इस्तेमाल करके इसने शहर को एकदम सुधार दिया था। आज हालत यह है कि जिन राज्यों में कोई चुनाव नहीं है, वहां भी सरकारें हेलमेट, या मास्क, या गाड़ी चलाते मोबाइल के इस्तेमाल जैसे नियम-कायदे लागू नहीं कर पा रही हैं, लागू नहीं करना चाहती हैं। वोटरों को इस तरह गुदगुदाते हुए रहना ठीक नहीं है, खुद उनके लिए ठीक नहीं है क्योंकि मजबूत हो चुकी बदइंतजामी वोटरों की ही अगली पीढ़ी को एक बुरी जिंदगी देकर जाएगी। इसलिए राज्य सरकारों को चुनावों के बीच के वक्त का इस्तेमाल करके बिना भेदभाव की कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए ताकि अगले चुनाव आने के पहले वोटरों को उसका फायदा भी दिख सके। देश के जिन प्रदेशों या शहरों में हेलमेट अनिवार्य रूप से लागू है, वहां सिर की चोट से सडक़ों पर मौतें बहुत घट जाती हैं। सरकारों को अपनी इस कानूनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटना चाहिए क्योंकि लोगों को अगर लापरवाह और गैरजिम्मेदार बनाया जाता है, तो वह लापरवाही और गैरजिम्मेदारी महज हेलमेट के मामले में नहीं रहती, वह कोरोना और मास्क जैसे मामलों में भी हावी हो जाती है। वोटरों को खुश रखने के दो तरीके हो सकते हैं, एक तो यह कि उन्हें तमाम नियम तोडऩे की छूट देकर खुश रखा जाए, और दूसरा यह कि उनके भले के नियमों को लागू करके उनकी जिंदगी पीढिय़ों के लिए महफूज और बेहतर बनाई जाए। सरकारों को जनता की समझ पर इतना बड़ा शक नहीं करना चाहिए कि वह अपनी भलाई के लिए सरकार की कड़ाई के फायदे भी नहीं देख पाएगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका का राष्ट्रपति चुनाव वैसे तो हर बार ही दुनिया की सबसे बड़ी चुनावी-खबरें गढ़ता है क्योंकि बाकी दुनिया की जिंदगी में अमरीका का जितना अहम किरदार है, उतना किसी और देश का नहीं। फिर हकीकत हो, या फसाना, यह माना जाता है कि अमरीकी राष्ट्रपति दुनिया का सबसे ताकतवर इंसान होता है। इसलिए इस बार जब इस कुर्सी पर काबिज मौजूदा इंसान अपने तमाम बावलेपन, अपनी बदचलनी, अपनी बदमिजाजी, अपनी बदतमीजी, अपने झूठ, और अपने घटियापन के बावजूद चुनाव मैदान में था, तो लोगों की धडक़नें बढ़ी हुई तो थीं ही। पिछली बार भी डोनल्ड ट्रंप ने पहली नजर में अपने मुकाबले अधिक समझदार दिखने वाली हिलेरी क्लिंटन को हरा ही दिया था, और इस बार भी अगर अमरीकी वोटरों का एक हिस्सा फिर वैसी ही चूक कर बैठता, तो किया ही क्या जा सकता था। लेकिन बेहतर समझ काम आई, और ट्रंप का विसर्जन कर दिया गया। वैसे तो ट्रंप अब तक बावलों की तरह बकवास करते हुए अदालतों के चक्कर लगा रहा है कि जो बाइडन की हासिल की चुकी जीत में कुछ कानूनी अड़ंगा लगाया जाए, लेकिन वैसे कोई आसार अब बचे नहीं हैं।
इस चुनाव में हिन्दुस्तानियों की अधिक दिलचस्पी इसलिए थी कि जब भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अमरीका गए, तो वहां उनके एक प्रायोजित भीड़भरे जलसे में पहुंचकर डोनल्ड ट्रंप ने अपने चुनाव प्रचार का काम किया था। इसके बाद कोरोना के चलते हुए भी हिन्दुस्तान के अहमदाबाद में मोदी ने डोनल्ड ट्रंप को प्रवासी भारतीय वोटरों और भारतवंशियों को लुभाने का एक और मौका दिया, और बेमौके का नमस्ते-ट्रंप करने का खतरा उठाया जिसके बाद ट्रंप को वोट चाहे जितने मिले हों, अहमदाबाद को कोरोना भरपूर मिला था। लोगों ने कल से तंज कसते हुए मोदी का वह वीडियो पोस्ट करना शुरू कर दिया है जिसमें वे अबकी बार ट्रंप सरकार का नारा लगाते दिख रहे हैं। पिछले हफ्ते भर से लगातार यह विश्लेषण भी हो रहे हैं कि ट्रंप के चुनाव में मोदी की वैसी जाहिर और घोषित मदद के बाद अब राष्ट्रपति जो बाइडन का हिन्दुस्तान के लिए, मोदी सरकार के लिए क्या रूख रहेगा? इस विषय के अधिक जानकार लोग इस पर बहुत सारा लिख रहे हैं, इसलिए हमें इस पर अपनी सीमित समझ को झोंकने की जरूरत नहीं है।
लेकिन कल शाम से रात तक की दो बातों को देखने की जरूरत है। शाम हुई और बिहार में वोटों का आखिरी दौर निपटा। इसके तुरंत बाद टीवी चैनलों ने अपने-अपने एक्जिट पोल दिखाने शुरू कर दिए। इन एक्जिट पोल्स को मिलाकर जो नतीजा निकल रहा है, वह बिहार से एनडीए के सफाए का है, और तेजस्वी यादव के सत्ता में आने का है। हालांकि देश के एक सबसे बड़े अखबार, भास्कर, का एक्जिट पोल अगर सच निकलता है, तो तेजस्वी यादव का सफाया हो रहा है, और एनडीए भारी बहुमत से बिहार की सत्ता पर लौट रही है। लेकिन दूसरे किसी सर्वे का ऐसा कहना नहीं है, बल्कि चाणक्य नाम के एक नामी-गिरामी सर्वे ने तो एनडीए के मुकाबले तेजस्वी-गठबंधन को तीन गुना सीटें दी हैं। कुल मिलाकर कल शाम से माहौल यह बना है कि बिहार से नीतीश-भाजपा का सफाया हो रहा है, और तेजस्वी की ताजपोशी हो रही है। अब वैसे तो कोई वजह नहीं है कि बिहार के नतीजों को अमरीका के नतीजों से जोडक़र देखा जाए, लेकिन चूंकि घंटों के भीतर ही ये दोनों नतीजे आए हैं, इसलिए स्वाभाविक ही है कि इन्हें एक साथ तो देखा ही जा सकता है। बिहार में जो हार होते दिख रही है, और अमरीका में जो हार हुई है, इन दोनों के पीछे महत्वोन्मादी आत्ममुग्धता जिम्मेदार दिख रही है, इन दोनों के पीछे सार्वजनिक जीवन की सद्भावना के प्रति भारी हिकारत दिख रही है, इन दोनों के पीछे वोटरों को बंधुआ समझकर मनमानी करने की बददिमागी दिख रही है। किन्हीं दो मिसालों की तुलना करना बड़ा खतरनाक होता है, और उनमें कौन-कौन सी चीजें एक जैसी नहीं है, उसकी लंबी फेहरिस्त बन सकती है। लेकिन दुनिया में उदारता, सद्भावना, सज्जनता, और बेहतर मूल्यों पर भरोसा रखने वाले जो लोग बिहार और अमरीका दोनों को जानते हैं, उनके बीच ये कुछ घंटे एक बड़ी राहत के थे। 2020 का यह साल लॉकडाऊन और कोरोना से लदा हुआ चले आ रहा था, और लोग 2021 का इंतजार कर रहे थे, बहुत बेसब्री से। ऐसे में बिहार और अमरीका के लोगों के लिए कल शाम से रात के बीच के कुछ घंटे बहुत राहत लेकर आए हैं। बिहार और अमरीका इन दोनों ही जगहों पर बहुत ईमानदार चुनावी मुद्दों, जमीनी हकीकत से जुड़े मुद्दों ने चुनावी रूख तय किया, और समझदार लोगों का बहुतायत इससे बहुत राहत में हैं कि धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता, विदेशी खतरा, विधर्मी दुश्मन, सरहद पर शहादत जैसे फर्जी चुनावी मुद्दों से राहत मिली। उधर अमरीका को देखें तो डोनल्ड ट्रंप ने अपने पहले राष्ट्रपति चुनाव अभियान से ही सरहद से लगे हुए मैक्सिको के खिलाफ जिस भयानक हिंसक तरीके से एक नफरती हमला बोला था, जिस तरह वहां दीवार बनाने और उसकी लागत मैक्सिको से वसूलने की बात कही थी, वह न केवल चार बरस के कार्यकाल में फ्लॉप शो साबित हुई, बल्कि इस चुनाव में तो ट्रंप के मुंह से दीवार का नाम तक नहीं निकला। इसलिए बिहार और अमरीका इन दोनों में इस बार चुनावी मुद्दे असली रहे, और दोनों के नतीजों का रूख मतगणना से और मतदान-बाद के एक्जिट पोल से एक सरीखा दिख रहा है।
अमरीका के राजनीतिक विश्लेषकों का शुरूआती घंटों का यह मानना है कि मोदी-ट्रंप की तमाम गलबहियों, और संग-संग चुनाव प्रचार के बावजूद अमरीका के भारतवंशी वोटरों की पसंद जो बाइडन और उनकी उपराष्ट्रपति-प्रत्याशी कमला हैरिस रहे। इसके पीछे कमला का भारतवंशी होना ही वजह नहीं रही, और भारतवंशियों ने बड़ी संख्या में, बहुतायत में जो बाइडन को भी पसंद किया।
कुछ लोगों को जो बात पसंद नहीं आएगी, उसे भी कमला हैरिस के संदर्भ में कह देना ठीक है। कमला के नाना नेहरू सरकार में अफसर थे, उन्होंने अपनी बेटी श्यामला को पढऩे के लिए अमरीका के बर्कले विश्वविद्यालय भेजा था जो कि अपने कट्टर वामपंथी रूझान की वजह से जेएनयू की याद दिलाता है। श्यामला की बेटी कमला अपने नाना की महिला-अधिकारवादी सोच से बहुत प्रभावित थी, और हर कुछ बरस में हिन्दुस्तान उनके पास रहने आती थी। महिला अधिकार, और वामपंथी रूझान से मिलकर कमला हैरिस बनी है। और इधर सुनते हैं कि बिहार के चुनाव में भी वामपंथियों वाले तेजस्वी-गठबंधन को लीड मिल रही है, और वामपंथियों की सीटें बढ़ रही हैं। अमरीका और बिहार, इन दो जगहों के नतीजे और रूख से अगर लोगों को कुछ समझ पड़ता है, तो वे समझ लें।
अमरीका में तो अब चार बरस कोई चुनाव नहीं होने हैं, लेकिन हिन्दुस्तान में इस दौरान कई चुनाव होंगे, और अगला आम चुनाव भी होगा।
भारत की राजधानी दिल्ली एक बार फिर बुरे प्रदूषण से घिर गई है। और ऐसे में दिल्ली सरकार ने पटाखों पर प्रतिबंध लगा दिया है। आज 7 नवंबर से 30 नवंबर तक लगाए गए इस प्रतिबंध के खिलाफ दिल्ली के एक चर्चित और विवादास्पद भाजपा नेता कपिल मिश्रा ने सरकार पर हमला बोला है, और कहा है कि हर साल दीवाली पर पटाखों पर प्रतिबंध क्या जायज है? सरकार को हिन्दू धर्म के त्यौहारों पर तो बैन लगाना आता है, लेकिन क्या सरकार कभी यह हुक्म दे सकती है कि ईद और क्रिसमस कैसे मनाए जाएंगे?
यह सवाल बेवकूफों और साम्प्रदायिक लोगों के लिए तो जायज हो सकता है जिन्हें दीवाली और क्रिसमस-ईद में सरकार का प्रतिबंध का फर्क साम्प्रदायिक दिखेगा, और हिन्दुओं पर आसानी से मार करने की बात समझ आएगी। यह सवाल उठाने वाले कपिल मिश्रा पहले भी घोर भडक़ाऊ और साम्प्रदायिक बयान देते आए हैं, और केन्द्र सरकार के मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस की मेहरबानी से बचते आए हैं। अब एक बार फिर उन्होंने अलग-अलग धर्मों को लेकर यह सवाल उठाया है और केजरीवाल सरकार के साथ-साथ ईद और क्रिसमस पर भी हमला बोला है।
लेकिन जो तथ्य देश की सतह पर तैर रहे हैं, उनको न छूकर केवल ऐसा बयान देना एक बहुत ही गैरजिम्मेदारी की बात है जिसके लिए कपिल मिश्रा को भारी शोहरत हासिल है। आज देश में कम से कम दो भाजपा सरकारें, कर्नाटक और हरियाणा में दीवाली पर पटाखों पर रोक लगाई है। तो क्या ये दोनों सरकारें ईद और क्रिसमस पर कोई और रोक लगा रही हैं? दोनों ही राज्यों में खासे वक्त से भाजपा की सरकारें हैं, और कई ईद, कई क्रिसमस निकल चुकी हैं, अब तक तो ईद और क्रिसमस पर कोई रोक सुनाई नहीं पड़ी है, तो कपिल मिश्रा के पैमाने पर इन सरकारों को दीवाली के पटाखों पर रोक का कोई नैतिक अधिकार तो होना नहीं चाहिए। लेकिन दिल्ली की बात करते हुए कपिल मिश्रा भाजपा के इन राज्यों के लगाए प्रतिबंध को अनदेखा कर रहे हैं, और भेदभाव फैलाने वाले बयानों की यही खूबी होती है।
अब पल भर तो कपिल मिश्रा से अलग होकर बात करें, तो दीवाली के पटाखे किन बस्तियों और इलाकों में अधिक जलेंगे? कौन लोग उन्हें अधिक जलाएंगे? किनकी सांसों में बारूद का जहरीला धुआं सबसे पहले जाएगा? ये तमाम लोग हिन्दू समाज के होंगे, या कम से कम पटाखे जलाने वालों में हिन्दुओं की बहुतायत होगी। जो साम्प्रदायिक लोग दीवाली को एक हिन्दू त्यौहार मानते हैं, और इस हकीकत को अनदेखा करते हैं कि भारत में इसका एक बहुत बड़ा सांस्कृतिक पहलू भी है, और सभी धर्मों के लोग इसमें शामिल होते हैं, हम उन्हीं के तर्क का इस्तेमाल करके पटाखों से होने वाले सीधे नुकसान से हिन्दुओं की बहुतायत को जोड़ रहे हैं। अभी कोरोना के खतरे के बीच जिस धर्म के भी त्यौहार अराजकता के साथ मनाए गए, कोरोना का संक्रमण और खतरा उन्हीं धर्मों के लोगों पर अधिक आया। अब ऐसी रोक को अगर किसी धर्म पर नाजायज प्रतिबंध माना जाए, तो अराजकता को बढ़ाने वाले लोग उन्हीं धर्मों के लोगों का नुकसान कर रहे हैं, उन्हीं की जिंदगी खतरे में डाल रहे हैं। अगर किसी प्रतिबंध का विरोध अपने लोगों को खतरे से बचाने के लिए होता है, उनको नुकसान से बचाने के लिए होता है, तो वह जायज होगा। लेकिन जो दिल्ली प्रदूषण से जूझने के सौ किस्म के उपाय कर रही है, जो आसपास के प्रदेशों में खेतों में फसल के बचे हुए ठूंठ, पराली, को जलाने पर भी कानूनी कार्रवाई करने की अपील कर रही है, उस दिल्ली में अगर प्रदूषण घटाने के लिए पटाखों पर रोक लगाई जा रही है तो उसे एक धर्म से जोडक़र उसका विरोध करना अराजकता को बढ़ाना और साम्प्रदायिकता को भडक़ाना है।
जो लोग पटाखों को हिन्दू धर्म से जोडक़र देखते हैं, उन्हें यह भी देखना चाहिए कि रावण को मारकर जिस दिन राम अयोध्या लौटे थे, उस दिन अयोध्या में रौशनी करके लोगों ने दीवाली मनाई थी। क्या उस दिन हिन्दुस्तान में बारूद था? क्या उस दिन, उस युग में बारूद का आविष्कार भी हुआ था? क्या तुलसीदास से लेकर वाल्मीकि तक किसी ने पटाखों का जिक्र किया है? जो बात दीवाली की बुनियाद की असली पौराणिक कथा में नहीं है, आज उसे उस धर्म का अनिवार्य हिस्सा क्यों बना देना? मस्जिदों पर लगे हुए लाउडस्पीकरों पर अजान दी जाती है, और उसे लेकर भी यह सवाल उठाया जाता है कि जिस दिन कुरान लिखी गई थी, जब इस्लाम और अजान शुरू हुए, उस दिन क्या लाउडस्पीकर थे? और यह सवाल जायज है, सभी धर्मस्थलों से लाउडस्पीकर हटने चाहिए क्योंकि आमतौर पर धर्मस्थलों के इर्द-गिर्द उन्हीं धर्मों को मानने वाले अधिक रहते हैं, और किसी भी किस्म के धार्मिक शोरगुल से उन्हीं का नुकसान अधिक होता है। दीवाली के पटाखे वैसे तो आसपास के सौ-दो सौ किलोमीटर तक प्रदूषण बढ़ाते हैं, लेकिन सबसे अधिक प्रदूषण तो उन्हें जलाने वाले लोगों को ही शिकार बनाएगा।
आज देश में बहुत से लोगों को धर्मान्धता बढ़ाने और साम्प्रदायिकता खड़ी करने के लिए ऐसे बखेड़े खड़े करने की आदत है, यह उनका पेशा है, और यह अपने संगठनों के बीच अपनी जगह मजबूत करने की उनकी स्थाई और लगातार कोशिश बनी रहती है। लेकिन देश की सरकारों को सख्ती से यह रोक लगानी चाहिए। आज कोरोना से उबरे हुए लोगों को भी सांस की कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। कोरोना के बाद की यह पहली दीवाली है, और हर शहर में ऐसे दसियों हजार लोग हैं जो कोरोना से तो बच गए हैं, लेकिन सांस की दिक्कतों को झेल रहे हैं। जिन लोगों को भी यह लगता है कि लोगों की सांसों से अधिक अहमियत हिन्दू त्यौहार पर पटाखों की है, उन्हें बारूद के धुएं वाले गैस चेम्बर में कुछ घंटे बंद रखना चाहिए, और उसके बाद उनसे दुबारा राय लेनी चाहिए। कपिल मिश्रा जैसे लोग ऐसे कुछ घंटों के बाद कलपते मिश्रा बनकर निकलेंगे, और हिन्दू-मुस्लिम भडक़ाऊ बातें बोलना भूल जाएंगे। लोकतंत्र का मतलब लोगों को खतरे में डालने का हक नहीं होना चाहिए। कपिल मिश्रा कल तक अरविंद केजरीवाल की पार्टी में थे, आज वे एक राष्ट्रीय पार्टी भाजपा में हैं, उनकी पार्टी को भी यह सोचना चाहिए कि जब खुद की दो राज्य सरकारों ने पटाखों पर रोक लगाई है, तो उसके बाद देश की राजधानी के अपने नेता को भडक़ाऊ बातें करने से रोके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
स्वीडन की एक नाबालिग लडक़ी पिछले कुछ बरस से पर्यावरण की फिक्र करते हुए लगातार खबरों में है। ग्रेटा थनबर्ग का नाम कुछ लोग पिछले बरस नोबल पुरस्कार के लायक भी मान रहे थे जब उसने लोगों का ध्यान खींचने के लिए अपने स्कूल के बाहर सडक़ किनारे धरना दिया था, और पूरी दुनिया के स्कूली बच्चों में पर्यावरण के प्रति जागरूकता पैदा की थी। पाकिस्तान में आतंकियों की गोली से बुरी तरह जख्मी होकर देश छोडऩे को मजबूर हुई मलाला यूसफजाई को नोबल पुरस्कार मिला, और वह तालिबानी हमला झेलने वाली लड़कियों की शिक्षा के लिए लगातार कोशिश करती हुई एक पाकिस्तानी लडक़ी थी। जब उस पर उसके काम की वजह से हमला हुआ तब वह कुल 15 बरस की थी। और इसी के आसपास उम्र में ग्रेटा ने समंदर पर बोट में अकेले सफर करके पर्यावरण की तरफ ध्यान खींचा था, और पर्यावरण के पक्के दुश्मन अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के साथ सोशल मीडिया पर खुली बहस में उलझी। आज इस मुद्दे पर लिखना इसलिए सूझा कि सोशल मीडिया पर अपनी हार के माहौल के बीच अपनी जीत के दावे कर रहे डोनल्ड ट्रंप पर तंज कसते हुए ग्रेटा ने लिखा है- डोनल्ड, चैन से बैठो।
अमरीकी राष्ट्रपति के साथ सार्वजनिक रूप से लगातार इस तरह उलझने वाली यह पहली और अकेली लडक़ी है। इसी तरह लड़कियों के हक के लिए काम करते हुए तालिबानी गोली खाने वाली मलाला भी पहली लडक़ी थी। दुनिया के बाकी लोगों को यह समझने की जरूरत है कि उनके 15 बरस के बच्चे क्या करते हैं, क्या कर रहे हैं, क्या पढ़ते हैं, उनके सामाजिक सरोकार क्या हैं? जिन दो मिसालों को लेकर हम यहां लिख रहे हैं वे एक-दूसरे से बिल्कुल ही अलग हैं। एक तरफ ग्रेटा एक विकसित और संपन्न, परिपक्व लोकतंत्र स्वीडन के, शायद, खाते-पीते परिवार की लडक़ी है जिसे एक उदार लोकतंत्र में पैदा होने और किशोरावस्था तक पहुंचने का मौका मिला। दूसरी तरफ पाकिस्तान जैसे कमजोर और नाकामयाब लोकतंत्र में महिलाओं से भेदभाव के धर्मान्ध और आतंकी माहौल के बीच मलाला ने अपने बूते अकेले संघर्ष किया था, और जान गंवाने के खतरे तक पहुंची। बाकी दुनिया इन दोनों के बीच के किसी माहौल में होगी, इनसे अधिक कमजोर और खतरनाक कुछ देश होंगे, और इनसे अधिक बड़े भी कुछ देश होंगे। इसलिए हम इस उम्र के बच्चों के बारे में सोच रहे हैं कि उनकी सोच, उनकी समझ, और उनके सामाजिक सरोकार उन्हें कहां तक पहुंचाते हैं, उनसे क्या करवाते हैं?
इस उम्र, इससे कम, और इससे अधिक उम्र के बच्चों वाले तमाम मां-बाप को कुछ देर बैठकर यह सोचना चाहिए कि उनके बच्चे मोबाइल और मोबाइक, जेब खर्च, और इंटरनेट के डेटा पैकेज के अलावा किस किस्म के सरोकार रखते हैं? वे औरों के लिए क्या करते हैं इस बारे में सोचें, आसपास की जरूरतें क्या हैं, और उनके लिए उनके मन में फिक्र क्या है यह भी सोचें। और सोचते हुए इन दो लड़कियों से अपने बच्चों की तुलना करें। महंगे ब्रांड के सबसे महंगे मोबाइल से किसी बच्चे का भविष्य नहीं बनता। महंगी मोबाइक से हासिल कुछ नहीं होता सिवाय जिंदगी पर खतरे के। और दुनिया का इतिहास महंगे सामानों वाले बच्चों से नहीं लिखाता, दुनिया का इतिहास महान काम करने वाले लोगों से लिखाता है।
हिन्दुस्तान के इतिहास में एक नौजवान हुआ था, भगत सिंह। हिन्दुस्तान की आजादी के लिए उसने बरसों अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी, हथियारबंद लड़ाई लड़ी, और 23 बरस की उम्र में फांसी पर चढ़ गया। इस दौरान और इस उम्र के पहले भगत सिंह ने दुनिया के साम्राज्यवाद, हिन्दुस्तान की आजादी के हक, धर्म के नुकसान जैसे मुद्दों पर जितना लिखा, उतना आज के हिन्दुस्तान के 23 बरस के नौजवान औसतन पढ़े भी नहीं रहते हैं। नौजवान पीढ़ी में शायद दो-चार फीसदी ही ऐसे होंगे जो कि भगत सिंह के शहीद हो जाने की उम्र तक उतना पढ़ पाएं जितना भगत सिंह लिख गया था।
लोग आज अपने उस उम्र के बच्चों को बात करके देख सकते हैं कि दुनिया की राजनीति, कारोबार, आजादी, क्रांति, और समाजवाद जैसे मुद्दों पर उनका क्या सोचना है? धर्म और उसके नुकसान के बारे में उनकी कोई समझ है या नहीं है? लोग इस तरह से अपने बच्चों के बारे में इसलिए नहीं सोच पाते क्योंकि वे खुद अपने वक्त, और आज भी, इस तरह से नहीं सोच पाते हैं। उनकी खुद की समझ कमजोर रहती है इसलिए अपने बच्चों से उनकी उम्मीदें भी कमजोर ही रहती हैं। हर किसी को मलाला या ग्रेटा की तरह, या भगत सिंह की तरह इतिहास रचना जरूरी नहीं है, लेकिन अपने आसपास के सरोकारों की समझ रखना तो जरूरी है। आज हिन्दुस्तान में औसत बच्चे और नौजवान अपनी महंगी निजी जरूरतों के लिए अपने मां-बाप से संघर्ष करने में इतने जुटे हुए रहते हैं कि उन्हें अपनी दुनिया के, अपने करीब के लोगों के संघर्ष के बारे में सोचने और समझने का न वक्त होता, और न ही उन्हें ऐसी जहमत उठाने की जरूरत लगती। ऐसी आत्मकेन्द्रित और ऐसी मतलबपरस्त पीढ़ी पैदा होती है, बड़ी होती है, खाती-पीती है, और खत्म हो जाती है, वह इस धरती पर कुछ भी जोडक़र नहीं जाती।
दुनिया के सबसे विकसित, संपन्न, और साफ-सुथरे देशों में से एक स्वीडन में इस लडक़ी को पर्यावरण से खुद कोई तकलीफ नहीं थी, लेकिन उसका हौसला था कि उसने न्यूयार्क के पर्यावरण के सम्मेलन तक पहुंचने के लिए वह 60 फीट लंबी एक बोट पर अकेले समंदर का सफर करके पहुंची थी। पन्द्रह दिनों का यह सफर उसने 15 बरस की उम्र में अकेले तय किया था, और आज दुनिया पर मंडराए हुए एक बड़े पर्यावरण-खतरे को मुद्दा बनाने की अपील पूरी दुनिया से की थी।
ये तीन अलग-अलग लोग थे, इन तीनों ने अपने वक्त से आगे बढक़र, अपनी उम्र से आगे बढक़र, अपनी जिम्मेदारियों से बहुत आगे बढक़र ये काम किए। बाकी लोग भी सोचें कि वे अपने आसपास कौन से सरोकार से जुड़ सकते हैं? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केन्द्र सरकार के नए कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब के किसान कई हफ्तों से पटरियों पर बैठे हैं, और रेलगाडिय़ां बंद हैं। कुछ हफ्ते गुजरे और अब राजस्थान में गुर्जर आरक्षण आंदोलनकारियों ने पिछले बरसों की तरह पटरियों पर डेरा डाल दिया है, और रेलगाडिय़ां राह बदल-बदलकर चल रही हैं। हिन्दुस्तान अभी लॉकडाऊन के असर से उबर नहीं पाया है, कोरोना का खतरा टला नहीं है, 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस पर लाई जाने वाली कोरोना-वैक्सीन का 26 जनवरी गणतंत्र दिवस तक भी कोई आसार नहीं है, और देश के दो बड़े राज्यों में रेलगाडिय़ों की आवाजाही इस तरह बंद है। दिल्ली की एक सडक़ के किनारे चल रहे शाहीन बाग आंदोलन को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने एक कड़ा रूख दिखाया था कि सार्वजनिक जगहों को इस तरह रोका नहीं जा सकता, और प्रशासन अपनी कार्रवाई करे। दूसरी तरफ कुछ राज्यों में तकरीबन आदतन रेलगाडिय़ों को रोककर देश का ध्यान खींचने की संस्कृति विकसित हो गई है जिनमें राजस्थान शायद सबसे आगे है।
आज पूरे देश में किसान जगह-जगह चक्काजाम कर रहे हैं क्योंकि मोदी सरकार के नए किसान-कानूनों से वे दहशत में हैं। लेकिन ये चक्काजाम कुछ घंटों तक चलेंगे, और उसके बाद गाडिय़ां अपने रास्ते चलने लगेंगी। लोकतंत्र में प्रदर्शनों का प्रतीकात्मक महत्व भी होता है, और सार्वजनिक जगहों पर जब जनजीवन अस्त-व्यस्त होता है, तो ऐसे प्रतीकों का आकार छोटा भी रहना चाहिए। किसी राज्य से गुजरने वाली रेलगाडिय़ों को रोक देना बिल्कुल भी मंजूर नहीं किया जाना चाहिए। बहुत से लोग उन रेलगाडिय़ों में इलाज के लिए जाने वाले रहते हैं, बहुत से लोग घर लौटने वाले रहते हैं, और बहुत से लोग नौकरी के इंटरव्यू के लिए, किसी दाखिला-इम्तिहान के लिए जाते रहते हैं। ऐसे तमाम लोगों की जिंदगी को तबाह करके उनके सीमित मौकों को खत्म करने का हक किसी आंदोलनकारी को नहीं होना चाहिए। जो राजनीतिक दल या जो सामाजिक संगठन किसी आंदोलन के लिए रेलगाडिय़ों को प्रतीकों से अधिक देर तक रोकते हैं, वे समाज के व्यापक हितों के खिलाफ काम करते हैं। अगर लोगों को रोकना ही है तो उन्हें नेताओं और मंत्रियों की लालबत्ती लगी हुई मुसाफिर कारों को रोकना चाहिए क्योंकि किसी भी किस्म के फैसले तो उन्हीं के हाथों होने हैं। रोकना ही है तो बड़ी अदालतों के जजों की कारें रोकना चाहिए क्योंकि फैसले तो उन्हीं अदालतों से होने हैं। इनके बदले आम जनता की आवाजाही से अदावत निकालना निहायत नाजायज बात है। किसी को यह अंदाज नहीं है कि कई-कई हफ्तों तक या महीनों तक जब रेलगाडिय़ां बंद रहती हैं, तो उनसे गरीबों की जिंदगी पर कैसा बुरा असर पड़ता है। पूरे इलाकों और आगे के राज्यों की अर्थव्यवस्था चौपट होती है, बना हुआ सामान निकल नहीं पाता, कच्चा माल आ नहीं पाता, सडक़ों से आवाजाही महंगी पड़ती है, कारखाने बंद होने की नौबत आ जाती है, और बड़े पैमाने पर कारोबार तबाह होते हैं। लोगों को याद होगा कि उत्तर-पूर्व में कुछ जगहों पर महीनों तक आर्थिक नाकाबंदी की जाती थी। उससे किसी की मांग जल्दी पूरी नहीं होती थी, बल्कि पूरे इलाकों का इतना नुकसान होता था कि जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती। उत्तर-पूर्व घूमने जाने वाले सैलानी तक वहां के आंदोलनों से कतराने लगे थे, कोई वहां व्यापार करना नहीं चाहते थे। अगर केन्द्र सरकार की कई किस्म की रियायतें उत्तर-पूर्वी राज्यों को नहीं मिलती रहतीं, तो वहां की आर्थिक नाकेबंदी की वजह से पनपी और बढ़ी बदहाली सिर चढक़र बोलती।
जिन राज्यों में ऐसे अराजक आंदोलनों की संस्कृति विकसित हो जाती है, उनका नुकसान जल्द खत्म नहीं होता, उनकी साख जल्द नहीं लौटती। पंजाब और राजस्थान के इन दो अलग-अलग आंदोलनों के पीछे जो भी राजनीतिक ताकतें हैं, या इन मुद्दों से सरकार की फजीहत होते देखते जो लोग खुश हो रहे हैं, उन्हें अपनी ऐसी राजनीतिक मतलबपरस्ती से उबरना चाहिए। इस देश की संसद में जब भी बहस हो, तमाम राजनीतिक दलों को इस बात पर एकमत होना चाहिए कि देश में कहीं भी ट्रेन नहीं रोकी जाएगी। इसी तरह सडक़ों पर होने वाले आंदोलनों में एम्बुलेंस-फायरब्रिगेड को रास्ता देने पर सहमति होनी चाहिए।
सरकारों के खिलाफ हो, या किसी और किस्म के मुद्दों को लेकर आंदोलन हो, इन आंदोलनों को लंबे समय तक अराजक बने रहने की छूट नहीं दी जानी चाहिए। अगर कुछ लोगों को आंदोलन का हक है, तो बाकी लोगों को भी सार्वजनिक जगहों पर अपनी आवाजाही का एक बुनियादी हक है। इसलिए आज चल रहे इन दो रेल रोको आंदोलनों को खत्म होना ही चाहिए। इन दोनों जगहों पर कांग्रेस पार्टी की राज्य सरकारें हैं, पंजाब में तो कांग्रेस पार्टी और राज्य सरकार घोषित रूप से केन्द्र के कृषि कानूनों के खिलाफ हैं, और जाहिर है कि इस वजह से राज्य सरकार का रूख किसानों के आंदोलन के साथ ही होगा। लेकिन राजस्थान में गुर्जर आरक्षण आंदोलन राज्य सरकार की फजीहत भी कर रहा है। इन दोनों प्रदेशों में रेल रोको आंदोलन की वजहें अलग-अलग हैं, कुछ और राज्यों में अलग-अलग समय पर दूसरी वजहों से ऐसे आंदोलन हुए हैं, लेकिन हम इन सभी को एक साथ गिनते हुए इस सिलसिले को खत्म करने की जरूरत महसूस करते हैं। पटरियों पर प्रतिरोध रेलगाडिय़ों को तो रोक देता है, लेकिन देश को गड्डे में ले जाता है, और ऐसी किसी भी नौबत की सबसे बुरी मार सबसे गरीब और सबसे असंगठित पर सबसे अधिक पड़ती है। इसलिए यह सिलसिला खत्म किया जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मुम्बई में आज सुबह से हडक़म्प मचा हुआ है क्योंकि रिपब्लिक टीवी के मालिक अर्नब गोस्वामी को पुलिस ने आत्महत्या के लिए प्रेरित करने की एक शिकायत पर गिरफ्तार किया है। अर्नब गोस्वामी का मामला इसलिए कुछ अधिक तूल पकड़ रहा है कि वे देश में सत्तारूढ़ भाजपा के भक्त हैं, रात-दिन सोनिया गांधी और कांग्रेस से नफरत पर जिंदा रहते हैं, वे पड़ोस के पाकिस्तान से जंग की भरसक कोशिश करते हैं, हिन्दुस्तान के भीतर साम्प्रदायिकता को बढ़ाने के लिए रात-रात जागते हैं, और खुद को नापसंद लोगों के बारे में आमतौर पर ऐसी जुबान में अपने टीवी पर रात-दिन चीखते हैं जिस जुबान को लोग सडक़छाप कहकर बदनाम करते हैं। हमने तो सडक़ पर किसी आम इंसान को कभी इतनी नफरत फैलाते नहीं देखा है। अर्नब की गिरफ्तारी इस वजह से भी अधिक तूल पकड़ रही है कि पिछले महीनों में उनका महाराष्ट्र की शिवसेना की अगुवाई वाली राज्य सरकार से बहुत बुरा टकराव चल रहा है, मुम्बई पुलिस के साथ उनका कुकुरहाव चल रहा है। ऐसे में उनकी गिरफ्तारी के कुछ मिनटों के भीतर यह जायज ही था कि केन्द्र सरकार के बड़े-बड़े कई मंत्री उन्हें बचाने के लिए ट्विटर पर टूट पड़े।
अब सवाल यह है कि आपातकाल में मीडिया पर हुए हमले से इसकी तुलना करना जो शुरू हो गया है, क्या वह तुलना सचमुच जायज है? आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का यह मामला एक इंटीरियर डेकोरेटर के भुगतान का है। उसकी आत्महत्या की चिट्ठी में लिखा मिला था कि अर्नब गोस्वामी ने उसके कई करोड़ रूपए का भुगतान नहीं किया, और उसी तकलीफ में वह आत्महत्या कर रहा है। खुदकुशी करने वाले की मां ने भी आत्महत्या कर ली थी। इंटीरियर डेकोरेटर की पत्नी ने पुलिस में 2018 में रिपोर्ट दर्ज कराई थी और मृतक की चिट्ठी भी लगाई थी जिसमें अर्नब और दो दूसरे लोगों द्वारा 5.04 करोड़ रूपए का बकाया भुगतान न करने की बात लिखी थी, और आर्थिक तंगी की वजह से आत्महत्या करने की।
अब सवाल यह उठता है कि क्या अर्नब गोस्वामी के हक आत्महत्या करने को मजबूर हुए मां-बेटे के, या उनके बाद रह गए लोगों के हक से अधिक हो सकते हैं? क्या एक टीवी चैनल के मालिक और उसकी जोर-जोर से चीखकर बोलने की ताकत के मुकाबले दो मुर्दों की जुबान, और उनके पीछे जिंदा बाकी परिवार की जुबान बंद कर देना जायज होगा? क्या देनदारी के विवाद के बाद हुई आत्महत्या पर इसलिए कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए कि देनदार एक टीवी चैनल का मालिक है, जो अपने को जर्नलिस्ट भी बताता है? आज हिन्दुस्तान में श्रमजीवी पत्रकार आंदोलन खत्म हो चुका है जो कि आजादी के बाद से अपने मरने तक इस देश में पत्रकारिता के नीति-सिद्धांत और पैमाने तय करता था। अब उसकी जगह जगह-जगह प्रेस क्लब बने हैं, या एडिटर्स गिल्ड जैसे दूसरे संगठन। एडिटर्स गिल्ड ने भी आज एक बयान जारी करके इस गिरफ्तारी का विरोध किया है।
हम अभी इस मामले में अपनी कोई राय इस पहलू पर देना नहीं चाहते कि देनदारी का झगड़ा जायज था या नाजायज। लेकिन इतना तो है कि दो आत्महत्याओं के बाद मिली ऐसी चिट्ठी के बाद कोई कानूनी कार्रवाई तो होनी थी, और किसी को कानूनी कार्रवाई से इस वजह से तो छूट मिल नहीं सकती कि वह अपने को पत्रकार बता रहा है, या टीवी चैनल का मालिक है, या उसका सरकार के साथ कोई झगड़ा चल रहा है। देश में अगर अखबार या बाकी मीडिया के लोग ईमानदारी से अपना काम करते हैं, तो राज्य या केन्द्र की सरकारों के साथ उनका कोई न कोई झगड़ा तो हो ही सकता है। लेकिन क्या ऐसे में उनके खिलाफ दूसरी किसी भी शिकायत पर कोई कार्रवाई करना नाजायज होगा?
यह बात महज महाराष्ट्र की नहीं है, देश के बहुत से प्रदेशों में पत्रकारों पर तरह-तरह की कार्रवाई चल रही है। छत्तीसगढ़ में भी बहुत से पत्रकारों पर एफआईआर दर्ज हुई है। ऐसे मामलों में यह समझने की जरूरत है कि किसी पत्रकार पर कार्रवाई पत्रकारिता की वजह से हुई है, या पत्रकारिता से परे की किसी वजह से हुई है? इस देश में श्रमजीवी पत्रकारों में शुमार के लिए यह जरूरी होता था कि उसकी आय का कोई और जरिया न हो। केन्द्र और बहुत से राज्यों में ऐसे कई नियम हैं जो कि अखबारों के मैनेजमेंट देखने वाले लोगों को मान्यता प्राप्त पत्रकार बनने से रोकते हैं। जाहिर है कि अखबार और बाकी मीडिया के कारोबार में लगे लोगों में भी उनके पत्रकार होने, और गैरपत्रकार मीडिया कर्मचारी होने पर फर्क किया जाता है। ऐसे में मीडिया के मालिक, या मैनेजमेंट में दखल रखने वाले और साथ-साथ समाचार-विचार का काम भी देखने वाले लोग पत्रकारिता से परे के अपने सौदों के लिए कितनी सुरक्षा के हकदार माने जा सकते हैं? आज देश भर में बहुत सी जगहों पर ईमानदार और मेहनतकश, पेशेवर पत्रकारों के खिलाफ भी ज्यादती हो रही है, लेकिन बहुत सी जगहों पर पत्रकारों या दूसरे मीडियाकर्मियों के गैरपत्रकारीय कामकाज की वजह से उन पर जुर्म दर्ज हो रहे हैं, और उनके वैसे कामकाज को अगर मीडिया अपने ऊपर ढोने का शौक पालेगा, तो मीडिया की रही-सही जरा सी बाकी इज्जत भी मिट्टी में मिल जाएगी। अर्नब गोस्वामी के केस की सच्चाई जो होगी उसमें उनको अपना पक्ष रखने में सुप्रीम कोर्ट तक बड़े-बड़े वकील हासिल हैं, और ऐसे जज भी जो कि आधी रात उनका केस सुनने तैयार हो जाते हैं। इसलिए कानूनी बचाव उनके सामने कोई समस्या नहीं है। उनकी देनदारी के किसी झगड़े की कोई समस्या है, तो उससे एडिटर्स गिल्ड अपने आपको किस तरह जोड़ रहा है, उसे वह जाने।
जिस तरह किसानों की आत्महत्या के मामले में बहुत सी सरकारें हाथ झाड़ लेती हैं कि वह गैरकिसानी वजहों से की गई आत्महत्याएं हैं। अब किसी किसान का पड़ोस की किसी दूसरी शादीशुदा महिला से प्रेम या देहसंबंध रहा हो, और उसका विवाद होने के बाद वह आत्महत्या कर ले, तो इसे किसानी-कर्ज की आत्महत्या से अलग गिनना ठीक होगा। इसी तरह मीडिया के कर्मचारी या मालिक के गैरमीडिया कामकाज पर हुई कार्रवाई को कानूनी नजरिए से ही देखना ठीक होगा, वरना मीडिया से जुड़े संगठन अपने से जुड़े एक इंसान के हिमायती होकर उसके कथित शिकार मृतक के साथ ज्यादती ही करेंगे।
अभी तक इस मामले में जो जानकारी सामने आई है, वह किसी समाचार या टेलीकास्ट को लेकर की गई कानूनी कार्रवाई नहीं बता रही, और यही बता रही है कि यह आत्महत्या के मामले से जुड़ी हुई गिरफ्तारी है। मीडिया के संगठनों को, और मीडियाकर्मियों को यह तय करना होगा कि वे अपने पेशे और कारोबार के मालिकों और कर्मियों के कितने और कैसे-कैसे गैरमीडिया कामकाज के साथ खड़े रहेंगे। और जब इस मामले पर बात चल ही रही है, तो यह भी बात हो जानी चाहिए कि एडिटर्स गिल्ड इस देश में मीडिया के नाम पर फैलाई जा रही नफरत और गंदगी के बारे में क्या सोचता है? क्या जिन लोगों को बचाने के लिए वह आज आगे आया है, क्या महज उन्हें बचाना ही एक पेशेवर संगठन के रूप में उसकी जिम्मेदारी है, या मीडिया के नाम पर जो हिंसा, बेइंसाफी, नफरत और गंदगी फैलाई जा रही है, उस पर भी उसे मुंह खोलना चाहिए? देश का कोई भी हिस्सा हो, अखबारनवीस या दूसरे किस्म के मीडियाकर्मी, उनके कामकाज की जिम्मेदारी और जवाबदेही एक सीमा तक ही उनके हिमायती पेशेवर संगठनों को लेनी चाहिए, उनकी दीगर गतिविधियों पर उन्हें बचाते हुए ऐसे पेशेवर संगठन अपनी साख खो बैठने का खतरा उठाएंगे, उठा रहे हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले एक-दो महीने में दुनिया के तमाम देशों से, अंतरराष्ट्रीय संगठनों से, भारत के भी देश-प्रदेश से आर्थिक आंकड़े सामने आए हैं। उनसे एक सुनहरी सी तस्वीर सामने आ रही है। छत्तीसगढ़ में आज के एक आंकड़े से पता लगता है कि जमीन की रजिस्ट्री में पिछले बरस के अक्टूबर महीने के मुकाबले इस महीने कितना अधिक टैक्स मिला है। भारत सरकार के बहुत तरह के आंकड़े बतलाते हैं कि पिछले कुछ महीनों के मुकाबले जीएसटी कलेक्शन कितना बढ़ा है, या औद्योगिक उत्पादन कितना बढ़ा है। बहुत सी खबरों में तो लापरवाही से इस बात को भी छोड़ दिया जाता है कि यह तुलना कब से हो रही है, पिछले बरस के इन्हीं महीनों से हो रही है, या अभी पिछले कुछ महीनों से हो रही है। केन्द्र और राज्य सरकारें अपने-अपने हिसाब से इन आंकड़ों को पेश कर रही हैं, और अपनी मनचाही तस्वीर दिखा रही हैं।
आंकड़ों का विश्लेषण आसान नहीं होता है। उनके साथ कोई विशेषण नहीं होते हैं, उनकी अपनी कोई समझ नहीं होती है। वे ईंट की तरह होते हैं जिनसे मंदिर भी बन सकता है, मजार भी, और शौचालय भी। लोग, और आम लोग नहीं, मीडिया के लोग या अर्थशास्त्री, सरकारें और दूसरे आर्थिक संगठन आंकड़ों का विश्लेषण करके जब एक तस्वीर पेश करते हैं, तो उससे कुछ सही नतीजा मालूम होने की उम्मीद होती है, लेकिन वैसा कई बार हो नहीं पाता है।
अब आज छत्तीसगढ़ में ऑटोमोबाइल की जमकर बिक्री के आंकड़ों से सरकार भी खुश है कि उसे टैक्स मिल रहा है। इन आंकड़ों को कई तरह से समझने की जरूरत है। पहली बात तो यह समझनी चाहिए कि पिछले कई महीनों से बंद चल रहे बाजार के बाद अब अगर त्यौहार के वक्त पर, नवरात्रि से लेकर दशहरे और दीवाली तक दुपहिया और चौपहिया अधिक बिक रहे हैं, तो यह पिछले महीनों की बकाया खरीदी भी है। इस खरीदी को पिछले बरस के त्यौहारी सीजन या इन महीनों की खरीदी से तुलना करना ठीक नहीं होगा क्योंकि पिछले बरस तो त्यौहारी सीजन के पहले के महीनों में भी बिक्री हुई थी जो कि इस बरस नहीं हो पाई थी, और लोगों की बकाया खरीदी अब हो रही है। इसलिए आज अगर बिक्री को लेकर लोग यह सोच रहे हैं कि अर्थव्यवस्था सुधर गई है, तो इस महीने के आंकड़े ऐसी गलत तस्वीर दिखा रहे हैं। लॉकडाऊन और कोरोना के चलते, आर्थिक मंदी और बेरोजगारी के चलते, ठप्प कारोबार की वजह से यह मुमकिन ही नहीं है कि लोगों की खरीदी इतने जल्दी पटरी पर आ सके, उनके पास खरीदी की ताकत लौट सके। इसे पिछले महीनों के बकाया के साथ जोडक़र ही सही नतीजा निकाला जा सकता है।
आंकड़ों की ईंटों से मनचाही इमारत बनाई जा सकती है। हिन्दुस्तान में आज हकीकत यह है कि खोई हुई नौकरियां लौट नहीं रही हैं, क्योंकि गया हुआ कारोबार ही नहीं लौट रहा है। और यह हाल सिर्फ हिन्दुस्तान का हो ऐसा भी नहीं है, दुनिया के सबसे संपन्न और विकसित देशों में भी आर्थिक संकट छाया हुआ है, और लोगों के जिंदा रहने में मुश्किल आ रही है। महाराष्ट्र के एक बड़े अखबार समूह ने बहुत से लोगों को नौकरी से निकाल दिया, और ऐसा करने वाला यह अकेला मीडिया हाऊस नहीं है, चारों तरफ ऐसा ही हुआ है। कुछ रहमदिल मालिकों ने कर्मचारियों को निकाला नहीं, तो उनकी तनख्वाह आधी तक कर दी है, उनके काम के घंटे बढ़ा दिए हैं। महाराष्ट्र के जिस अखबार की यहां चर्चा की जा रही है, उसकी छंटनी के बारे में दिल्ली की एक समाचार वेबसाईट ने खबर पोस्ट की तो उसे अखबार ने 65 करोड़ रूपए का मानहानि का नोटिस भेजा है। अब यह एक नोटिस तो ठीक है, लेकिन देश भर में बड़ी अदालतों से लेकर छोटी अदालतों तक के जूनियर वकीलों ने अदालत और सरकार के सामने अपील की है कि उनके भूखों मरने की नौबत आ गई है, इसलिए उनकी आर्थिक मदद की जाए। हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ऐसी याचिकाओं पर सुनवाई भी हुई है, लेकिन सवाल यह है कि वकीलों के किसी संगठन के पास जमा रकम से इनकी मदद चाहे हो जाए, लेकिन देश में तो कोई दूसरे पेशेवर संगठन ऐसे नहीं हैं जो अपने सदस्यों की मदद करने की हालत में हों। आज जब कोर्ट-कचहरी नहीं चल रहे हैं, आम दिनों के मुकाबले एक चौथाई मामले वीडियो सुनवाई से हो रहे हैं, तो लोगों की कमाई तो गिर ही गई है। और तो और रावण बनाने वाले तक भूखों मर रहे हैं कि दर्जन भर की जगह अब एक-दो रावण ही बने हैं, यही हाल गणेश और दुर्गा की प्रतिमाओं का रहा, और यही हाल तकरीबन तमाम कारोबार का है।
ऐसे में हिन्दुस्तान के लोगों को बिक्री के या निर्यात के, या औद्योगिक उत्पादन के आंकड़ों को देखकर किसी सरकारी झांसे में नहीं आना चाहिए क्योंकि यह हकीकत नहीं है, और आम लोगों के साथ दिक्कत यह है कि वे खबरों के भीतर की बारीक जानकारी तक भी पहुंचना नहीं चाहते, और अब वे टीवी स्क्रीन पर नीचे चलती हुई पट्टी को ही पूरा सच मानने की हड़बड़ी में रहते हैं। ऐसे में बहुत से लोगों को यह धोखा हो सकता है कि हालात सुधर रहे हैं, जबकि सच यह है कि अभी न कोरोना का खतरा टला है, न लॉकडाऊन के घाटे से लोग उबर पाए हैं, और ऐसे कोई संकेत नहीं है कि लोग मार्च के पहले की अपनी हालत तक भी पहुंच पाएंगे। सच तो यह है कि मार्च में जब लॉकडाऊन शुरू हुआ तब तक भी हिन्दुस्तानी आर्थिक मंदी ऊंचाई पर थी, और लोगों को उसके असर का पूरा अहसास हो नहीं पाया था। इन महीनों में अंधाधुंध तबाही हुई है, और ऐसी कोई वजह नहीं है कि रोजगार लौटे बिना, कारोबार लौटे बिना, नौकरियां लौटे बिना बाजार में जमकर खरीदी होने लगे। आज की बिक्री पिछले महीनों की बकाया बिक्री भी है, त्यौहारी बिक्री भी है, इस बात को भूलना अपने आपको धोखा देना होगा। सरकार, और हो सकता है बाजार भी, अंकों की बाजीगरी करके लोगों को एक खुशफहमी में बनाए रखना अपनी खुद की हस्ती बचाए रखने के लिए जरूरी समझ रहे हों। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मथुरा के एक मंदिर में दो मुस्लिम नौजवानों ने भीतर जाकर वहां के आंगन में नमाज पढ़ी, और उनकी तस्वीरों को एक मुस्लिम-मामले के वकील ने फेसबुक पर पोस्ट किया। कुछ हिन्दुओं और मंदिर में इसके खिलाफ पुलिस रिपोर्ट की और अब इस पर जुर्म दर्ज किया गया है। यह पूरा सिलसिला मासूमियत से परे का लग रहा है। नमाज पढऩे वाले मुस्लिम तो फुटपाथ पर, रेलवे प्लेटफॉर्म पर नमाज पढ़ लेते हैं, किसी बाग-बगीचे में पढ़ लेते हैं, लेकिन किसी धर्मनगरी के मंदिर में जाकर इस तरह नमाज पढ़ें, यह बात कुछ अटपटी है। खासकर आज के तनाव में जहां उत्तरप्रदेश में ही कई मंदिर-मस्जिद विवाद अदालत में चल रहे हैं, और बाबरी मस्जिद पर अदालत के फैसले के बाद एक अलग किस्म का तनाव भरा सन्नाटा भी चल रहा है।
आज हिन्दुस्तान में अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच रिश्ते वैसे तो बहुत अच्छे हैं, लेकिन अधिकतर धर्मों में कुछ ऐसे बवाली नेता भी हैं जो ऐसी किसी भी बात को लेकर बखेड़ा खड़ा करने की ताक में रहते हैं। उत्तरप्रदेश में पिछले दो-चार दिनों से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की यह धमकी भी चल रही है कि ‘लव जेहाद’ के मामले में न थमे तो ऐसा करने वाले लोगों का राम नाम सत्य कर दिया जाएगा। कई लोग इसे एक संवैधानिक शपथ लेकर ओहदे पर आए व्यक्ति की गैरकानूनी धमकी भी बतला रहे हैं क्योंकि भारत की जुबान में राम नाम सत्य के मायने एकदम साफ हैं। ऐसे प्रदेश में इस तरह का बवाल न तो मुस्लिमों के साम्प्रदायिक सद्भाव की तरह देखा जाएगा, और न उसके खिलाफ रिपोर्ट लिखाना हिन्दू संगठनों की ज्यादती कहलाएगी।
जिन्हें साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए काम करना होता है, उनके तेवर अलग होते हैं। हिन्दुस्तान में सैकड़ों बरस से ऐसे सैकड़ों मुस्लिम संत और कवि हुए हैं जिन्होंने राम और कृष्ण की आराधना में जाने कितना लिखा है। दर्जनों ऐसे मशहूर कव्वाल हैं जो कृष्ण की कहानियां गाते हैं। हिन्दुस्तान में खुदा की इबादत गाने वाले हिन्दुओं का कोई नाम शायद याद भी नहीं आएगा, लेकिन हिन्दू देवी-देवताओं को गाने वाले, उन पर लिखने वाले मुस्लिम शायर, कवियों, संतों, और कव्वालों की कोई कमी नहीं है। लेकिन वे लोग हवा में तैरते हुए तनाव के बीच इस तरह की कोई नाटकीय हरकत नहीं करते हैं।
आज जब फ्रांस की एक कार्टून पत्रिका से शुरू हुआ धार्मिक तनाव पूरी दुनिया में मुस्लिमों को प्रभावित कर रहा है, उत्तेजित कर रहा है, जिस वक्त हिन्दुस्तान का एक मशहूर शायर खुलेआम यह कह रहा है कि फ्रांस में वह होता तो वह वही करता जो वहां पर एक मुस्लिम ने कार्टून का विरोध करते हुए एक का सिर धड़ से अलग कर दिया था। यह वक्त एक अजीब से तनाव का है, यह वक्त हिन्दुस्तान के एक हमलावर तबके के बीच मुस्लिमों को पाकिस्तान के साथ जोडक़र देखता है, आज यहां के तनाव में बात-बात में लोगों को पाकिस्तान भेजने की बात की जाती है, मानो पाकिस्तान का वीजा देना वहां के उच्चायोग का काम न होकर इस देश के धर्मान्ध और साम्प्रदायिक संगठनों के हाथ आ गया है। यह वक्त बहुत सम्हलकर चलने का है, और यहां एक-एक शब्द लोगों के देशप्रेम और उनकी गद्दारी तय करने के लिए इस्तेमाल हो रहे हैं। ऐसे सामाजिक और राजनीतिक माहौल में किसी को भी गैरजिम्मेदारी का कोई काम नहीं करना चाहिए।
फ्रांस में एक इस्लामी आतंकी ने जितने खूंखार तरीके से कार्टून का विरोध करते हुए एक बेकसूर का गला काट डाला, और उसके बाद फिर हमले हुए, उन पर भारत सरकार ने बहुत ही रफ्तार से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करते हुए फ्रांस की सरकार के साथ खड़े रहने की घोषणा की है। भारत सरकार की यह घोषणा लोगों को चौंकाने वाली रही क्योंकि देश के भीतर ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का साथ देने का ऐसा कोई रूख इन बरसों में केन्द्र सरकार का दिखा नहीं है। भारत के कुछ शहरों में फ्रांस के कार्टूनों के खिलाफ प्रदर्शन भी हुए हैं, फ्रांस सरकार के खिलाफ भी प्रदर्शन हुए हैं, और शायर मुनव्वर राणा का ताजा बयान तो इन तमाम प्रदर्शनों से आगे बढक़र आतंकी की वकालत करने वाला है जो कि हिन्दुस्तान के मुस्लिमों की एक खराब तस्वीर पेश कर रहा है। यह पूरा माहौल बहुत तनाव का चल रहा है, और दूसरे देशों में कुछ गिने-चुने मुस्लिम आतंकी भी जैसी हिंसा कर रहे हैं, उनसे भी हिन्दुस्तान में मुस्लिम-विरोधी लोगों को इस धर्म और इस बिरादरी के खिलाफ कहने को तर्क मिल रहे हैं। इसलिए आज लोगों को दूसरे धर्मों के प्रति अपना कोई प्रेम है, तो उसे बड़ी सावधानी से ही इस्तेमाल करना चाहिए। आज कोई मंदिर में जाकर नमाज पढ़े, कल कोई मस्जिद में जाकर हवन करने लगे, और परसों किसी गुरूद्वारे में जाकर कोई बपतिस्मा करने लगे, तो यह साम्प्रदायिक सद्भाव कम रहेगा, यह एक नया तनाव, एक नया बखेड़ा खड़े करने की हरकत अधिक रहेगी।
हम इसे एक बड़ी गैरजिम्मेदारी की हरकत मानते हैं, और मंदिर में जाकर नमाज पढऩे के पीछे चाहे जो भी नीयत रही हो, उससे इन दोनों धर्मों के बीच सद्भाव खत्म करने की नीयत रखने वाले लोगों के हाथ एक ताजा ईंधन लग गया है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जेम्स बांड की फिल्मों में इस किरदार को अलग-अलग वक्त पर अलग-अलग बहुत से लोगों ने निभाया, लेकिन उनमें से एक शॉन कॉनरी अधिक शोहरत पाने वाले अभिनेता थे। कल वे गुजरे तो इनकी फिल्मों का मजा लेने वाले लोगों के बीच अफसोस का दौर शुरू हो गया। लेकिन सोशल मीडिया पर कुछ महिलाओं ने उन्हें श्रद्धांजलि देने से मना कर दिया, और लिखा कि इसी आदमी ने महिलाओं के बारे में घोर अपमानजनक बातें भी कही थीं। इंटरनेट पर कुछ भी ढूंढना आसान हो जाता है, और 1965 में शॉन कॉनरी का प्लेबॉय पत्रिका को दिया गया एक इंटरव्यू पल भर में सामने आ गया जिसमें उसने कहा था- मैं नहीं समझता कि किसी महिला को पीटने में कोई खास बुराई है, हालांकि मैं ऐसा करते हुए यह सलाह दूंगा कि वैसे नहीं पीटना चाहिए जैसे किसी मर्द को पीटा जाता है। खुले हाथ का एक झापड़ उस वक्त सही होगा जब बहुत सी चेतावनियों के बावजूद कोई महिला न समझे। एक तो यह इंटरव्यू 1965 के उस वक्त का है जब महिलाओं की इज्जत करना अधिक चलन में नहीं था। फिर जेम्स बांड के किरदार का एक अनिवार्य हिस्सा खूबसूरत और ग्लैमरस महिलाओं से सेक्स रहता था, और ऐसी फिल्में कर-करके किसी का भी दिमाग थोड़ा सा खराब होना स्वाभाविक था। फिर यह इंटरव्यू अमरीका की एक मर्दाना ग्लैमरस नग्न पत्रिका प्लेबॉय को दिया गया था, और जाहिर है कि उसके सवाल और उससे बात करने वाले के जवाब मर्दाना तो रहने ही थे।
लेकिन हम जिन बातों के आधार पर यह विश्लेषण कर रहे हैं उनसे ठीक परे का एक इंटरव्यू अभी हिन्दुस्तान में भी सामने आया है। एक वीडियो इंटरव्यू में मुकेश खन्ना नाम के एक औसत दर्जे के चर्चित अभिनेता ने महिलाओं के अपमान की ढेर सारी बातें कही हैं। यह अभिनेता महाभारत में भीष्म पितामह बना था, और बच्चों के टीवी सीरियल शक्तिमान में यह एक सुपरमैन की तरह का किरदार, शक्तिमान, बनता है। अब इन दोनों ही किरदारों में किसी किस्म के सेक्स की कोई गुंजाइश तो थी नहीं, लेकिन इसने अभी वीडियो पर दर्ज इस इंटरव्यू में फिल्म उद्योग में सेक्स-शोषण के खिलाफ शुरू हुए मी-टू (मेरे साथ भी) अभियान को लेकर परले दर्जे की घटिया बातें कही हैं। उसका कहना है- औरत का काम है घर सम्हालना, प्रॉब्लम कहां से शुरू हुई है मी-टू की, जब औरत ने भी काम करना शुरू कर दिया। आज औरत मर्द के साथ कंधे से कंधा मिलाने की बात करती है। लोग महिलाओं की आजादी की बात करेंगे, लेकिन मैं आपको बता दूं औरत के बाहर काम करने से सबसे पहले घर के बच्चों का नुकसान होता है जिनको मां नहीं मिलती। जब से शुरूआत हुई (महिला के बाहर काम करने की) तब से यह भी शुरूआत हुई कि मैं भी वही करूंगी जो मर्द करता है। नहीं, मर्द मर्द है, और औरत औरत है।
अब अगर जेम्स बांड का सेक्सभरा किरदार करने से, और 1965 के वक्त में, और प्लेबॉय पत्रिका से बात करने से शॉन कॉनरी की वैसी सोच हो गई थी, तो फिर भीष्म पितामह और बच्चों का शक्तिमान बनने वाले की सोच तो ऐसी नहीं होनी चाहिए थी? लेकिन अपनी ही बात को काटते हुए हम यह भी सोच रहे हैं कि महाभारत में जिस तरह भीष्म पितामह ने बेकसूर महिला पर जुर्म को अनदेखा किया था, हो सकता है कि भीष्म पितामह का किरदार करते-करते इस बहुत ही साधारण अभिनेता की सोच उस कहानी के जमाने की हो गई हो, जिस वक्त महिलाओं के लिए हिकारत ही रहती थी।
लेकिन इस मुद्दे पर आज लिखना इसलिए तय किया था कि किसी वक्त लापरवाही में कही गई कोई बात किस तरह लोगों की याददाश्त में भी दर्ज हो जाती है, और इतिहास में भी। आधी सदी के भी पहले 1965 में न तो इंटरनेट था, और न ही सोशल मीडिया। लेकिन लोग उस वक्त के इंटरव्यू में उस अमरीकी अभिनेता की कही हुई बातों को आज भी भूले नहीं हैं, और घटिया-हिंसक बातों की वजह से आज भी उसे श्रद्धांजलि देने से इंकार कर रहे हैं। अब तो वक्त बदल गया है, लोगों के वीडियो पल भर में ट्वीट हो जाते हैं, और बाद में मुकरना नामुमकिन भी हो जाता है। आज किसी को उसकी हिंसक और गलत बातों के लिए धिक्कारना आसान हो गया है। यही मुकेश खन्ना छत्तीसगढ़ में स्कूलों के एक फर्जीवाड़े में ब्रांड एम्बेसडर था, जालसाजों से उसकी यारी थी, और उसके नाम और चेहरे, और मौजूदगी का सहारा लेकर इस प्रदेश के हजारों बच्चों के मां-बाप को धोखा दिया गया था। ऐसा आदमी आज महिलाओं के सेक्स-शोषण के मुद्दे पर अगर यह कह रहा है कि चूंकि वे काम करने बाहर निकलती हैं, इसलिए उनके साथ ऐसा होता है, तो इस आदमी को महाभारत के भीतर ही दफन कर देना चाहिए। ऐसा बयान देने वाला महाभारत काल के बाद कम से कम लोकतंत्र में तो रहने का हकदार नहीं है। यह तो अच्छा है कि इनके मन की गंदगी ऐसे इंटरव्यू में सामने आती है, और लोगों को इन्हें धिक्कारने का मौका मिलता है।
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एक वक्त हिन्दुस्तान की जनता में राजनीतिक चेतना का यह हाल था कि क्यूबा से चे गुएरा का भारत आना हुआ था, और गांवों में किसानों के बीच जाना हुआ था, तो लोगों को क्यूबा का महत्व मालूम था। उसके भी और पहले आजादी के पहले से खान अब्दुल गफ्फार खान को भारत में गांधी के दोस्त होने के नाते जो इज्जत मिली, वह दुनिया के इतिहास में कम ही लोगों को मिलती है, और इसी इज्जत के तहत उन्हें सीमांत गांधी का नाम दिया गया। हिन्दुस्तान ने ऐसा दौर देखा है जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू दुनिया के सभी बड़े मुद्दों पर अपनी राय रखते थे, और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत के हितों से परे भी उनका दखल रहता था। जहां भारत का कोई लेना-देना नहीं रहता था, वहां भी विश्वकल्याण के लिए, विश्वशांति के लिए नेहरू खुलकर बोलते थे, खुलकर लिखते थे, और दुनिया के बारे में उनकी सोच किताबों की शक्ल में दर्ज है जो कि समकालीन इतिहास की अहमियत रखने वाली किताबें मानी जाती हैं। वह वक्त था जब नेहरू हिन्दुस्तान के तमाम मुख्यमंत्रियों को चि_ी लिखते थे और देश और दुनिया के मामलात पर उन्हें अपनी राय बताते थे।
आज हिन्दुस्तान कंगना रनौत से जान और समझ रहा है कि गांधी ने क्या गलतियां की थीं, और किस तरह नेहरू प्रधानमंत्री बनने के लायक नहीं थे। यह हैरानी की बात है कि गांधी को मारने वालों से लेकर आज नेहरू के खिलाफ झूठ फैलाकर नफरत पैदा करने वाले लोगों तक के बीच बहुत से लोगों के पढ़े-लिखे होने का भी दावा किया जाता था। ऐसे में एक फिल्म अभिनेत्री जिसकी तमाम शिक्षा-दीक्षा नफरत और साम्प्रदायिकता की हुई दिखती है, उसको नेहरू और गांधी को निपटाने के लिए तैनात कर दिया गया है! क्या नेहरू और गांधी से नफरत करने वाले लोग, उनकी स्मृतियों की हत्या करने में लगे लोग कंगना से अधिक गंभीर कोई और आलोचक नहीं ढूंढ पाए? यह सवाल छोटा इसलिए नहीं है कि कल के दिन इस देश की अर्थव्यवस्था के गंभीर विश्लेषण करने का जिम्मा कॉमेडियन कपिल शर्मा पर आ जाए, इस देश की संस्कृति-नीति को तय करने का जिम्मा शक्ति कपूर पर आ जाए, तो क्या वह राजनीतिक और सामाजिक नेतागिरी में आधी-आधी सदी गुजार चुके लोगों का दीवाला निकल जाना नहीं होगा?
आज सोशल मीडिया की मेहरबानी से चर्चित और नामी या बदनाम किसी भी किस्म के लोग अपनी अच्छी और बुरी बातों से दसियों लाख लोगों तक पहुंच जाते हैं। ऐसे लोगों में अमिताभ बच्चन जैसे लोग भी हैं जो कि अपनी बेमिसाल लोकप्रियता के बावजूद जलते हुए हिन्दुस्तान के बीच अपने पिता की कोई कविता पोस्ट करते हुए पूरी चौथाई सदी गुजार सकते हैं, और किसी आत्मग्लानि में भी नहीं पड़ते। कुछ लोग सोनू सूद सरीखे हैं जो कि सोशल मीडिया को समाज सेवा की जगह बनाकर चल रहे हैं, और रात-दिन लोगों की मदद जाने कहां से करते चले जा रहे हैं। बहुत से लोग देश की साम्प्रदायिक हिंसा, देश में बढ़ती असहिष्णुता, देश में बेइंसाफी के खिलाफ खुलकर लिखने के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हैं। वहीं धूमकेतु की तरह पिछले कुछ महीनों में महाराष्ट्र और फिर देश की राजनीति में वन वूमैन आर्मी की तरह उतरी हुई कंगना रनौत अब गांधी की गलतियां गिना रही हैं।
देश की राजनीतिक ताकतों, और देश के विख्यात सांस्कृतिक संगठनों में पूरी जिंदगी गुजारने वाले लोग क्या पूरी तरह दीवालिया हो चुके हैं कि उन्हें विवादों पर जिंदा रहने वाली एक बकवासी और खालिस हिंसक अभिनेत्री की जरूरत हिन्दुस्तान की आजादी की लड़ाई और आजाद हिन्दुस्तान की व्याख्या करने के लिए पड़ रही है? गांधी को कोसना, नेहरू को गालियां देना जिनका पसंदीदा शगल है, उन्हें कम से कम अपनी इज्जत का तो ख्याल रखना चाहिए कि अगर उनके यह काम भी कंगना कर लेगी, तो वे क्या करेंगे? सिर्फ नफरती जहर को फैलाकर अगर किसी विचारधारा को इतिहास में इज्जत मिलने वाली है, तब तो उसे इस देश में कंगनाओं को शहीद का दर्जा भी दे देना चाहिए, जो कि आज उनके हाथ में हैं।
टीवी के स्टूडियो में बैठकर दूसरे लोगों की जान ले लेने की हद तक नफरत और हिंसा जो लोग फैला रहे हैं, उनकी नौकरी खतरे में दिख रही है। अगर कंगनाएं उनकी जगह बिठा दी गईं, तो आज के नफरतियों के मुकाबले उनके दर्शक अधिक होंगे, वे अधिक हिंसक बातों को अधिक दर्शनीय मौजूदगी के साथ सामने रख सकेंगी, और नेहरू-गांधी की क्या औकात कि वे अपनी इज्जत बचा सकें। खैर, यह देश इतिहास के एक दिलचस्प मोड़ पर आ खड़ा हुआ है जहां इस देश के इतिहास की सबसे बड़े नायकों की चरित्र-हत्या, उन्हें घटिया और बेवकूफ साबित करने का जिम्मा अब ऐसे नाजुक कंधों पर आ टिका है, और गांधी-नेहरू के तमाम वैचारिक विरोधी आज बेअसर साबित किए जा रहे हैं। अब इस देश की जनता को भी सोचना है कि जिसके नजरिए को एक दिन गांधी और नेहरू ने बड़ी मेहनत और ईमानदारी से वैश्विक बनाया था, आज उसे कहां ले जाकर पटका गया है। गांधी के संपादित किए गए अखबारों के पुराने अंक देखें, तो देश के किसी गांव के सरपंच का पोस्टकार्ड पर पूछा सवाल मिलता है जिसमें वह फिलीस्तीन और इजराईल के तनाव को समझना चाहता है, और उसके सवाल के साथ गांधी खुलासे से इस अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर अपनी सोच लिखते थे। आज इस देश की जनता को चकाचौंधी सनसनी के नशे में उतारकर पूरी तरह गैरजिम्मेदार बना दिया गया है।
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हिन्दुस्तान में बढ़ती हुई राजनीतिक कटुता के चलते हुए अलग-अलग पार्टियों के राज वाले प्रदेशों में अलग-अलग विचारधाराओं को लेकर, अलग-अलग लोगों को लेकर जिस तरह एफआईआर हो रही है, उस पर सुप्रीम कोर्ट को सोचने की जरूरत है। अनगिनत मामलों में राज्यों की हाईकोर्ट एफआईआर को कहीं खारिज कर रही हैं, कहीं उन पर रोक लगा रही हैं, लेकिन यह काफी नहीं है। किसी मामले में एफआईआर करना है, या नहीं करना है, इसके बीच का फासला उस प्रदेश या उस शहर की राजनीतिक ताकतों के हाथ में रहता है। मामला अगर राजनीति और नेताओं से जुड़ा हुआ नहीं है, और किसी नेता या सत्ता की उसमें दिलचस्पी नहीं है, तो पुलिस अपने स्तर पर आमतौर पर उसमें कमाई की गुंजाइश देखती है। जब इनमें से कोई भी बात नहीं रहती, तब जाकर कोई-कोई एफआईआर सच्ची वजहों से भी दर्ज हो जाती है। हालांकि ऐसी नौबत कम आती है क्योंकि आमतौर पर पुलिस निचुड़े हुए गन्ने जैसी हालत में पहुंचे लोगों का भी रस निकालने की काबिलीयत रखती है।
अब सुप्रीम कोर्ट को यह सोचना चाहिए कि एफआईआर दर्ज हो या न हो, इसमें अगर विवेक से तय करने का हाथी सरीखा विशाल और विकराल हक अगर राजनीति, सत्ता, और पुलिस के हाथ दिया जाता है, तो बेकसूरों कापिस जाना आम से भी आम बात होना तय ही है। जिसे नेता, सत्ता, और रिश्वत लेने के लिए पुलिस, इनकी मेहरबानी, और सरपरस्ती हासिल हो, उसके खिलाफ एफआईआर के लिए लोगों को अदालत तक जाना पड़ता है, और अदालतों में फिर सत्ता, नेता, और रिश्वत की ताकत से लड़ते हुए एफआईआर हो सकती है। इसके बाद भी सिलसिला थमता नहीं है, कल ही सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड हाईकोर्ट के एक आदेश पर रोक लगा दी है जिसमें हाईकोर्ट ने उत्तराखंड सीएम के खिलाफ एफआईआर करने, और जांच करने का हुक्म सीबीआई को दिया था। अब पल भर को यह सोचने की जरूरत है कि जहां हाईकोर्ट एफआईआर दर्ज करने का हुक्म दे रहा है, वहां पर सुप्रीम कोर्ट हाईकोर्ट के हुक्म को गलत पा रहा है, उसकी आलोचना कर रहा है। यहां पर अभी इसी हफ्ते ही सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट द्वारा यूपी पुलिस को लगाई गई फटकार पर भी गौर करने की जरूरत है जिसमें अदालत ने कहा है कि आईटी एक्ट की जिस धारा को सुप्रीम कोर्ट पिछले बरस असंवैधानिक करार दे चुका है, उस धारा के तहत यूपी पुलिस अब तक एफआईआर दर्ज कर रही है, जुर्म कायम कर रही है।
कुल मिलाकर नौबत यह है कि राज्यों की राजनीतिक ताकतों, या रिश्वतखोर पुलिस-अफसरों की जिसके खिलाफ मर्जी हो, उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज होने से कोई रोक नहीं सकते। एफआईआर के बाद आगे की कार्रवाई में पुलिस तब तक ईश्वर जैसी ताकत रखती है जब तक कोई अदालती दखल न हो। और इसी ईश्वरीय ताकत का इस्तेमाल वे राजनीतिक ताकतें करती हैं जो पुलिस की ताकतवर कुर्सियों पर पसंदीदा या भुगतानशुदा लोगों को बिठाती हैं। ऐसे में किसी बेकसूर की गुंजाइश कहां बचती है? इसकी एक सबसे जलती-सुलगती मिसाल पिछली भाजपा सरकार के दौरान छत्तीसगढ़ के आईजी कल्लुरी के स्वायत्तशासी बस्तर में सामने आई थी। देश के कुछ प्रमुख प्राध्यापकों, और छत्तीसगढ़ के ईमानदार और संघर्षशील वामपंथी नेताओं के खिलाफ हत्या के लिए उकसाने का जुर्म कायम कर दिया गया था जिसे अभी राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा खारिज करके नाजायज करार दिया गया, और नंदिनी सुंदर, अर्चना प्रसाद, संजय पराते, इन तमाम लोगों को मुआवजा भी दिलवाया गया है। लेकिन क्या एफआईआर करने और करवाने वाले पुलिस अफसरों पर कुछ हुआ? कुछ भी नहीं। इस देश में हर दिन दसियों हजार बेईमान और नाजायज एफआईआर होती हैं, जिनमें से सैकड़ों आगे जाकर किसी न किसी अदालत में गलत साबित होती हैं, लेकिन एफआईआर करने वाले भ्रष्ट या बदनीयत, या दोनों, अफसरों पर भूले-भटके ही कोई कार्रवाई हो पाती है। यह सिलसिला लोकतंत्र के हिसाब से बहुत ही भयानक है क्योंकि हिन्दुस्तान में पुलिस को आज भी अंग्रेजीराज की तरह के मनमाने हक हासिल हैं जिनके सामने किसी गरीब या कमजोर, या सत्ता का नापसंद इंसान के बचने की कोई गुंजाइश नहीं रहती है।
मोदी सरकार ने पिछले बरसों में देश के ऐसे हजार-दो हजार कानूनों को खारिज किया है जो एक-डेढ़ सदी पहले किसी तानाशाह मकसद से बनाए गए थे, जो मनमाने और अलोकतांत्रिक थे, और जो अब किसी काम के नहीं रह गए थे, या लोकतंत्र विरोधी साबित हो रहे थे। लेकिन भारत की न्यायव्यवस्था का सिलसिला जिस पुलिस थाने से शुरू होता है, वहां थानेदार की कुर्सी को अब तक एक अंग्रेज बहादुर की कुर्सी जैसी ताकत हासिल है, एफआईआर के मामले में। यह थोड़ी सी हैरानी की बात है कि सुप्रीम कोर्ट के सामने पुलिस, या दूसरी जांच एजेंसियों के एफआईआर करने के मनमाने अधिकारों के खिलाफ कोई मामला क्यों नहीं चल रहा है। आज देश भर में किसी प्रदेश में पत्रकारों के खिलाफ, किसी प्रदेश में सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ, किसी प्रदेश में राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का अंतहीन सिलसिला चला हुआ है। और तो और जो हिन्दुस्तान आज फ्रांस में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करते हुए खड़ा है, अपने देश में दुनिया की सबसे अधिक मुस्लिम आबादी की हकीकत के बाद भी फ्रांस के साथ खड़ा है, उस देश में खुद केन्द्र सरकार चला रही पार्टी की राज्य सरकारों में जगह-जगह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ पुलिस रिपोर्ट दर्ज हो रही है। फ्रांस में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत, और अपने देश में अपनी सत्ता के प्रदेशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जेल! लेकिन यह महज भाजपा की सोच नहीं है, अभी कल ही सुप्रीम कोर्ट ने एक प्रदेश की मालकिन ममता बैनर्जी को हडक़ाया है कि वहां लोकतंत्र कायम रहने दें। मामला सोशल मीडिया पोस्ट पर ममता बैनर्जी की आलोचना करने पर दर्ज एफआईआर का था। सोशल मीडिया पर दिल्ली के एक महिला ने बंगाल सरकार की आलोचना की थी, तो इस पर बंगाल पुलिस ने एफआईआर दर्ज करके उसे पूछताछ के लिए कोलकाता बुलवाया था। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने बंगाल सरकार को जमकर फटकार लगाई और कहा कि उसे दिल्ली से कोलकाता बुलवाना उस पर जुल्म के अलावा कुछ नहीं है, कल चार अलग-अलग राज्यों से पुलिस किसी को कुछ लिखने पर बुलावा भेजेगी, और उसका एक ही संदेश होगा, कि अगर तुम कुछ लिखोगे तो हम तुम्हें सबक सिखाएंगे।
लेकिन ममता बैनर्जी की बर्दाश्त की कमी, और पुलिस के बेजा इस्तेमाल का यह अकेला मामला नहीं था, ऐसे कई मामले पहले भी दर्ज हुए हैं, और कम से कम एक मामले में तो जाधवपुर विश्वविद्यालय के एक प्राध्यापक के खिलाफ एफआईआर करके उसे गिरफ्तार भी किया गया।
सुप्रीम कोर्ट को जनता के सबसे कमजोर तबके के हक के लिए एफआईआर की मनमानी, गिरफ्तारी की मनमानी के साथ जोडक़र यह भी देखना चाहिए कि निचली अदालतें अपने भ्रष्टाचार के लिए कितनी बदनाम हैं, और उन अदालतों के पास भी नाजायज एफआईआर, नाजायज गिरफ्तारी के मामलों में जमानत न देने का कितना भयानक विवेकाधिकार है, मनमर्जी है। सुप्रीम कोर्ट को यह भी देखना चाहिए कि पुलिस की एफआईआर आगे जाकर अगर नाजायज साबित होती है तो ऐसे अफसरों पर क्या कार्रवाई होती है, अगर कोई कार्रवाई होती है तो। सुप्रीम कोर्ट यह भी देखना चाहिए कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जाकर नाजायज एफआईआर और गिरफ्तारी के जो मामले खारिज होते हैं, उनमें राज्य सरकारें अपने जवाबदेह-जिम्मेदार पुलिस अफसरों पर कोई कार्रवाई करती हैं या नहीं? इसके लिए एक बहुत आत्मनिर्भर मैकेनिज्म विकसित करने की जरूरत है कि फर्जीवाड़े के जिम्मेदार पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्रवाई ठीक उसी तरह हो जिस तरह हर हिरासत मौत के बाद मजिस्टीरियल जांच होती ही होती है, किसी नवविवाहिता के शादी के सात बरस के भीतर अस्वाभाविक मौत होने पर उसकी जांच होती ही होती है। कुछ ऐसा ही एफआईआर की मनमानी को लेकर भी करने की जरूरत है।
आज जब समाज के खास और आम, सभी किस्म के लोग सोशल मीडिया पर अपने मन की (असली) बात लिखने लगे हैं, और ताकतवर लोगों का बर्दाश्त खत्म हो चुका है, तो ऐसे में राजनीतिक दबावतले काम करने वाली अमूमन भ्रष्ट पुलिस के हाथ एफआईआर जैसा अंधाधुंध ताकत वाला हथियार कैसे दिया जा सकता है?
थोड़ी सी हैरानी की बात यह है कि अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग पार्टियों के लोग वहां की सत्ता की नाराजगी का ऐसा हमला झेल रहे हैं, लेकिन किसी पार्टी ने एफआईआर के सिलसिले को चुनौती देने का काम न संसद के भीतर किया, न ही सुप्रीम कोर्ट जाकर किया। चूंकि देश के सामाजिक कार्यकर्ता और मीडिया के लोग बड़े पैमाने पर ऐसी मनमानी के शिकार हैं, इसलिए कम से कम इस तबके के कुछ लोगों को एक जनहित याचिका लेकर सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए, और एफआईआर की जवाबदेही, और उसके अधिकार सीमित करने की मांग करनी चाहिए।
दो दिन पहले छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में दुर्गा विसर्जन के हंगामे को रोकती पुलिस पर पथराव हुआ, थाना घेरा गया, और पुलिस ने लोगों को लाठियों से खदेड़ा। प्रतिमाओं वाली गाडिय़ां खड़ी रह गईं, और देश के सबसे कुख्यात साम्प्रदायिक मीडिया ने इस घटना को इस तरह पेश किया कि थाने में तैनात एक मुस्लिम अफसर ने दुर्गा विसर्जन पर लाठियां चलवाईं। बिहार के मुंगेर में और दो-तीन दिन पहले विसर्जन की बेकाबू भीड़ पर पुलिस को गोलियां चलानी पड़ीं जिनमें एक मौत हुई, और शायद आधा दर्जन लोग जख्मी हुए। यह सब हंगामा उस वक्त हो रहा है जब देश के अधिकतर हिस्से में मंदिरों पर भी लॉकडाऊन के कम से कम कुछ नियम तो लागू किए ही गए हैं, कम से कम कागजों पर तो लागू किए ही गए हैं। ऐसे में महाराष्ट्र में राज्य सरकार ने यह समझदारी दिखाई कि कोई धर्मस्थल नहीं खोलने दिए जिसे लेकर वहां के राज्यपाल ने शिवसेना के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को धर्मनिरपेक्ष जैसी गंदी गाली भी दे दी। लेकिन उद्धव ठाकरे अपने फैसले पर अड़े रहे, और धर्मस्थल नहीं खोले गए।
आज कोरोना के खतरे के बीच जब देश को यह समझने की जरूरत है कि कोरोना की वजह से देश पर लादे गए लॉकडाऊन से करोड़ों लोगों के बेरोजगारी से मरने की नौबत आ गई है, और इस नौबत को दूर करने कोई ईश्वर सामने नहीं आए, तो आज जरूरत कोरोना के खतरे को घटाने की है, खत्म करने की है, ताकि लोगों का चूल्हा जल सके। लेकिन हिन्दुस्तान के लोग हैं कि ईश्वर के प्रसाद का चूल्हा पहले जलवाना चाहते हैं, चाहे फिर धार्मिक भीड़ से कोरोना और क्यों न फैल जाए, देश और बड़े आर्थिक संकट में क्यों न डूब जाए।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर ही नहीं, बाकी शहरों में भी जिस तरह डीजे और धुमाल पार्टियों के हंगामे के साथ बिना मास्क धक्का-मुक्की करते गैरजिम्मेदार लोगों की भीड़ अभी इस हफ्ते नाचती रही उसे देखकर कोरोना भी सोच रहा होगा कि ऐसे बेवकूफों को मारकर अपने हाथ गंदे करे, या न करे? और दिलचस्प बात यह है कि निर्वाचित विधायकों ने खुद होकर इस शोहरत का दावा किया कि विसर्जन के लिए डीजे बजाने की इजाजत जिला प्रशासन पर दबाव डालकर उन्होंने दिलवाई। जिस इलाके के नेता, जिस धर्म वाले नेता को अपने वोटरों को खतरे में धकेलना हो, वे ही ऐसा गैरजिम्मेदारी का काम कर सकते हैं जिसका नतीजा उधर बिहार के मुंगेर में निकला, इधर दो दिन पहले बिलासपुर में दिखा, और बाकी शहरों में यहां हिंसा नहीं हुई, वहां ऐसे विसर्जन-डांस से कोरोना कितना फैलेगा इसका हिसाब ऐसे गैरजिम्मेदार विधायक भी नहीं लगा पाएंगे।
लोग जब वोटों पर ंिजंदा रहते हैं, तो गैरजिम्मेदारी को बढ़ाने की कीमत पर भी, हिंसा का खतरा बढ़ाने की कीमत पर भी, अपने सबसे अराजक वोटरों की भीड़ को लुभाने की ऐसी आपराधिक हरकत करते हैं। नतीजा यह होता है कि एक धर्म के देखादेखी दूसरे धर्म के लोग भी उससे अधिक अराजकता का हक मांगते हैं। बिलासपुर में तो यह हुआ कि जिन दुर्गा समितियों को विसर्जन में डीजे की इजाजत नहीं मिली थी, और जिन्होंने बिना हो-हल्ले के विसर्जन किया था, उन्होंने बाकी कुछ समितियों के विसर्जन में डीजे की मौजूदगी पर आपत्ति की, और वहां से पुलिस की दखल शुरू हुई। देखादेखी अराजकता बढ़ाने के लिए दूसरे धर्म की जरूरत भी नहीं पड़ी, एक ही धर्म के लोगों ने इस बात पर आपत्ति की कि जब उन्हें अराजकता की इजाजत नहीं मिली, तो दूसरों को अराजकता की इजाजत क्यों दी गई?
एक तो धर्म वैसे भी पूरी तरह से अराजक मिजाज मामला रहता है, फिर उसमें जब सत्तारूढ़ नेता अपनी ताकत की हवन सामग्री और झोंक देते हैं, तो उसकी अराजकता और भभक पड़ती है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने अपना दमखम दिखाया, पक्का इरादा दिखाया, और धर्मस्थलों पर रोक जारी रखी। वरना वहां एक धर्म की हिंसा का मुकाबला करने के लिए दूसरा धर्म भी अपनी हिंसा, अपनी मनमानी, और अपनी अराजकता के हक का दावा करता।
इस देश में सुप्रीम कोर्ट से लेकर दर्जन भर से अधिक हाईकोर्ट सार्वजनिक जगहों पर लाउडस्पीकर और शोरगुल के खिलाफ कड़े फैसले दे चुके हैं, इसके बावजूद कमजोर शासन और कमजोर प्रशासन धर्म तो धर्म तो धर्म, किसी शादी-ब्याह के जुलूस में भी कानून तोडऩे के सामने तुरंत दंडवत हो जाते हैं, और लोगों का जीना हराम होते रहता है। छत्तीसगढ़ में हाईकोर्ट ने कई बार डीजे जैसे शोरगुल के खिलाफ निर्देश दिए हैं, लेकिन विसर्जन का यह हफ्ता पूरी राजधानी को, और भी शहरों को लाउडस्पीकरों में डुबाकर चले गया। अब जहां प्रशासन ऐसी अराजकता और धर्मान्धता के सामने बिछा हुआ है, वहां पर किस आम इंसान या जनसंगठन की यह ताकत है कि वह शासन-प्रशासन की गैरजिम्मेदारी के खिलाफ हाईकोर्ट जाए, और हाईकोर्ट को याद दिलाए कि उसके आदेश पर अफसर अपने जूते रखकर बैठते हैं।
जहां इंसानों का रोजगार शुरू नहीं हो पाया है, जहां कारोबारी हलचल मंदी पड़ी हुई है, लोग बेरोजगार बैठे हैं, लोगों की नौकरियां छूट गई हैं, तनख्वाह घटा दी गई है, काम के घंटे बढ़ा दिए गए हैं, तनख्वाहें रूकी पड़ी हैं, वहां पर उन लोगों को धर्म की फिक्र अधिक पड़ी है, जिन्हें अपने शहर, अपने प्रदेश, और अपने देश को कोरोना के सामने परोस देने में जरा भी हिचक नहीं है। ऐसी गैरजिम्मेदारी पर आज कोई कार्रवाई सिर्फ अदालत कर सकती है। सार्वजनिक जिंदगी को तबाह करके, आम लोगों को खतरे में डालकर नेता और अफसर जिस तरह धार्मिक कर्मकांडों को बढ़ावा दे रहे हैं, उसे अगर अदालत अनदेखा कर रही है, तो वह भी अपनी जिम्मेदारी से दूर भाग रही है।
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हिन्दुस्तान बड़ा गजब का देश है। यहां पर साल में एक दिन देश के तमाम सरकारी दफ्तरों में अफसर-कर्मचारी शपथ लेते हैं कि वे आतंकवाद का विरोध करेंगे। अब कल की खबर है कि देश में मनाए जा रहे सतर्कता सप्ताह के तहत फौज के सारे आला अफसरों ने शपथ ली है कि वे कानून के शासन का पालन करेंगे। उन्होंने ईमानदार और पारदर्शी तरीके से काम करने के लिए ईमानदारी का संकल्प लिया। सरकारी खबर में बताया गया है कि अभी भारतीय सेना की ईमानदारी और अखंडता के मूल मूल्यों को बनाए रखने के लिए सतर्कता जागरूकता सप्ताह चल रहा है। अब अगर मंगलवार की इस फौजी खबर के विशेषणों को छोड़ दें, तो क्या बचता है? क्या फौज इस शपथ के बिना कानून के शासन का पालन नहीं करती? क्या वह ईमानदारी और पारदर्शी तरीके से काम नहीं करती? क्या वह सतर्कता और जागरूकता से काम नहीं करती?
हिन्दुस्तान में एक नागरिक के रूप में जो बुनियादी जिम्मेदारी है, और जो सरकारी नौकरी में आने के बाद कुछ बढ़ भी जाती है, उस जिम्मेदारी को साल में एक बार या चार बार शपथ दिलाकर दुहराने का क्या मतलब है? सरकारी सेवा नियम सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों को कई ऐसे काम करने से रोकते हैं जो कि गैरसरकारी लोग कर सकते हैं। सरकारी सेवा खत्म करने के लिए लोगों का चाल-चलन गड़बड़ होना भी काफी वजह बन सकती है, जबकि गैरसरकारी लोगों पर ऐसा कुछ लागू नहीं होता है। ऐसे में लोगों की जिंदगी में जो बुनियादी बातें रहनी चाहिए, उन बातों के लिए इस तरह की शपथ दिलाना यही बताता है कि देश का कानून, सरकारी नियम, सेवा शर्तें, और लोगों में अनिवार्य जिम्मेदारी की भावना सब कमजोर हो चुकी हैं।
क्या परिवारों में लोग रोज सुबह उठने के बाद और रात सोने के पहले यह शपथ लेते हैं कि मुसीबत में पूरा परिवार एक साथ खड़े रहेगा? क्या रिक्शेवाले सवारी को बिठाने के बाद शपथ लेते हैं कि वे उन्हें हिफाजत से मंजिल तक पहुंचाकर रहेंगे? क्या मोची इस बात की शपथ लेते हैं कि वे ईमानदारी से जूते सिलेंगे, मजबूत टांके लगाएंगे? क्या अखबारनवीस साल में एक बार, प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर या किसी और मौके पर ऐसी शपथ लेते हैं कि वे सच्ची खबर ही बनाएंगे?
शपथ का यह पूरा सिलसिला ही इस समझ पर टिका हुआ है कि यह देश झूठा है, यहां के लोग मक्कार हैं, इन्हें कसम दिलाए बिना ये कोई काम सही नहीं करेंगे! और फिर कसम दिलाई भी किसकी जाती है? संविधान की। पन्नों का एक ऐसा पुलिंदा जिसे मानना किसी के लिए तब तक जरूरी नहीं है, जब तक उसमें देश के लिए जागरूकता न हो, ईमानदारी न हो, कानून का शासन पालन करने की इच्छा न हो। इसी संविधान की शपथ लेकर तो तमाम मंत्री काम करते हैं जिनमें से दर्जनों जेल भी जा चुके हैं। संविधान की शपथ का ही इतना वजन होता तो क्या शपथ लेने वाले कटघरे में खड़े होते? सजा पाते? जेल जाते?
एक परिपक्व लोकतंत्र को ऐसे पाखंड से उबर जाना चाहिए। असल जिंदगी में देखें तो बात-बात पर, और गैरजरूरी बातों पर भी, सबसे अधिक कसम वे लोग खाते हैं जो कि झूठ बोलने के लिए मशहूर होते हैं। वे मां-बाप की कसम खा लेते हैं, बच्चों की कसम खा लेते हैं, ईश्वर की कसम खा लेते हैं, और तो और जिससे झूठ बोल रहे हैं उसकी कसम खाकर भी झूठ बोल देते हैं। यहां का राष्ट्रीय चरित्र ऐसा हो गया है कि झूठ बोले बिना कई लोगों का खाना नहीं पचता। आज देश के जिन बड़े फौजी अफसरों को ईमानदारी की शपथ दिलाई गई है, उन्हीं की फौज के कई अफसर बड़े-बड़े भ्रष्टाचार में गिरफ्तार हो चुके हैं, और तो और अपने मातहत अफसरों की बीवियों का देह शोषण करने का मुकदमा भी उन पर चल चुका है, और उन्हें बर्खास्त किया गया है। कौन सी कसम ने उन्हें कुछ बुरा करने से रोका?
अब अदालतों में या मंत्री पद या जज के ओहदे की शपथ लेते हुए लोग संविधान, सत्य, या धर्म की शपथ ले सकते हैं। अपनी-अपनी पसंद से लोग शपथ लेते हैं। लेकिन जो लोग धर्म की शपथ लेते हैं, उनमें से बहुत से लोग अपने धर्म को संविधान से ऊपर मानकर चलते हैं। जब बाबरी मस्जिद गिरी तो कल्याण सिंह यूपी के मुख्यमंत्री थे, और शपथ लेकर ही बने थे। उन पर संविधान तो निभाने और लागू करने की जिम्मेदारी भी थी। लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में बाबरी मस्जिद को गिरने देने में उनका जो रूख इतिहास में दर्ज है, क्या वह संविधान की शपथ वाला रूख था? और अकेले कल्याण सिंह की बात नहीं है वह तो हमने एक मिसाल के रूप में कहा है, बात तो देश के पूरे ढांचे की है जिसमें लोगों को बिना जरूरत धर्म और सत्यनिष्ठा, संविधान और कई दूसरे किस्म की शपथ दिलाई जाती हैं। पाखंड का यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। देश के सबसे बड़े फौजी अफसर अगर ऐसी शपथ के बिना कानून के राज का पालन नहीं करेंगे, ईमानदारी से काम नहीं करेंगे, तो फिर क्या वे शपथ लेकर अपना हृदय परिवर्तन कर लेंगे?
जो समाज झूठ पर जीता है, वही सच की कसमें अधिक खाता है। दुनिया के इतिहास में जो सबसे बड़े सच्चे लोग दर्ज हैं, उनका लिखा और कहा हुआ देख लें, उनमें अपने कहे हुए के सर्टिफिकेट के रूप में कभी कोई कसम दर्ज नहीं होगी।
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चुनाव में हलकटपन बड़ी आम बात है। मध्यप्रदेश में कमलनाथ ने भाजपा की नेता इमरती देवी को आइटम कहा, और कहकर ऐसे अड़े कि अपने मालिक की नाराजगी के बाद भी अपने शब्द वापिस लेने से इंकार कर दिया। लेकिन दो-चार दिनों के भीतर ही कल के कांग्रेसी और आज के भाजपाई नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने एक चुनावी मंच से इमरती देवी को भरोसा दिलाते हुए बड़े दम-खम के साथ कहा- क्या सोचकर मेरी इमरती को डबरा में आकर आइटम कहने की हिम्मत की? अब इमरती देवी को भरोसा दिलाते हुए भी ऐसी भाषा बड़ी अटपटी है, और अपने से जरा ही छोटी एक महिला नेता के बारे में इस अंदाज में कहकर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने लोगों में इस पूरे विवाद को मजाक का सामान बना दिया।
अब बिहार के चुनाव प्रचार में नीतीश कुमार ने पिछले चुनाव के अपने भागीदार लालू यादव का नाम लिए बिना उनके बारे में एक बहुत घटिया बात कही- 8-8, 9-9 बच्चे पैदा करने वाले बिहार का विकास करने चले हैं। बेटे की चाह में कई बेटियां हो गईं, मतलब बेटियों पर भरोसा नहीं है। ऐसे लोग बिहार का क्या भला करेंगे?
अब लालू यादव के परिवार की तरफ से इसका जवाब तो आना था, और उनके बेटे के तेजस्वी ने नीतीश कुमार को याद दिलाया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी 6 भाई-बहन हैं, कहीं न कहीं नीतीश कुमार अपने बयान से पीएम मोदी पर भी निशाना साध रहे हैं। तेजस्वी ने कहा कि नीतीश कुमार ने एक महिला और मेरी मां की भावनाओं को आहत किया है, उन्होंने मेरे बारे में भी अपशब्द कहे हैं, वे शारीरिक और मानसिक रूप से थक गए हैं।
नीतीश कुमार आमतौर पर बकवास करने और गंदी बात बोलने के लिए नहीं जाने जाते, लेकिन चुनाव की गर्मी ऐसी है कि उन्होंने भी गंदगी में कूद जाने से परहेज नहीं किया, और लालू यादव पर एक ऐसी पारिवारिक बात को लेकर हमला किया जो बात शायद उन्होंने खुद भी लालू से चुनावी दोस्ती और दुश्मनी के चलते हुए कभी उठाई नहीं थी। उन्होंने ही क्या, लालू के बच्चों की गिनती को किसी दूसरी पार्टी या नेता ने कभी चुनावी मुद्दा बनाया हो, ऐसा हमें याद नहीं पड़ता। लेकिन आज अगर लालू राज के भ्रष्टाचार, उनकी कुनबापरस्ती, उनके 15 बरस के लंबे कार्यकाल की बदअमनी, बदइंतजामी जैसे मुद्दों को छोडक़र 15 बरस के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अगर एक घटिया और गंदी बात करना जरूरी लग रहा है, तो फिर वे चर्चाएं सही लगती हैं कि नीतीश इस बार परेशानी में हैं, और एक तरफ चिराग पासवान उन्हें परेशान कर रहे हैं, तो दूसरी ओर भाजपा के इश्तहारों में नीतीश का नाम तक नहीं है, जबकि भाजपा यह कहते आई है कि सीटें चाहे उसे ज्यादा मिले, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही बनाए जाएंगे। आज बिहार के चुनाव को लेकर बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों को यह गंभीर शक है कि भाजपा ने नीतीश कुमार को परेशान करने के लिए चिराग पासवान को उकसाए रखा है, और चुनाव के बाद के लिए भाजपा के दिमाग में कोई और बात भी हो सकती है। जो नीतीश कुमार पिछले चुनाव के अपने गठबंधन के भागीदार लालू यादव को लात मारकर भाजपा के साथ सरकार बनाने जैसा दलबदलू सरीखा काम कर चुके हैं, वे नीतीश कुमार अगर भाजपा से तिरस्कृत हुए तो फिर लालू यादव के कितने बच्चों को गोद में बिठाने तैयार होंगे?
अभी 5-7 बरस पहले की ही बात है जब नीतीश कुमार ने बिहार की एक आमसभा में मोदी के साथ उनकी तस्वीर के इश्तहारों पर आपत्ति की थी, और अपने आपको आरएसएस विरोधी साबित करने की कोशिश की थी। खैर, राजनीति में न कोई स्थाई दोस्त होते हैं, न कोई स्थाई दुश्मन होते हैं, और हमबिस्तर बदलते ही रहते हैं, इसलिए नीतीश कुमार आज जहां हैं, वहां क्यों हैं और कैसे हैं ये सवाल भारतीय लोकतंत्र में बेमानी हो चुके हैं। अब विधायकों और सांसदों को खरीदना, सरकारों को बारूदी धमाकों से उड़ाना, सत्तापलट करवाना इतना आम हो चुका है कि इनमें से कोई बात अब चौंकाती नहीं है। लेकिन लालू के बच्चों की संख्या को लेकर चुनावी मंच से उन पर तंज क्या हारने की घबराहट में कही हुई घटिया बात है?
जब लोग इतिहास की किसी बात को भुलाकर, उससे उबरकर किसी गठबंधन में भागीदार होते हैं, तो उससे पहले की बातों को कहने का उनका कोई नैतिक हक नहीं रहता। जो लोग 1984 के दंगों के बाद कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ चुके हैं, सरकार में रह चुके हैं, वे बाद में किस मुंह से कांग्रेस पर सिख विरोधी होने की तोहमत लगा सकते हैं? जो लोग 1992 में बाबरी मस्जिद गिरने के बाद भाजपा और शिवसेना के साथ मिलकर गठबंधन और सरकार बना चुके हैं, चुनाव लड़ चुके हैं, वे हमेशा के लिए मस्जिद गिराने में भाजपा-शिवसेना की हिस्सेदारी पर बोलने का हक खो बैठे हैं। ऐसा ही गुजरात दंगों को लेकर, या कश्मीर के कुछ मुद्दों को लेकर हो चुका है कि उनके बाद के भागीदार भागीदारी शुरू होने के दिन से ही इस इतिहास पर बोलने का हक खो बैठे हैं। इसीलिए आज कई बातें भाजपा को याद दिलाई जा रही है कि तिरंगा न उठाने की बात कहने वाली महबूबा को मुख्यमंत्री तो भाजपा ने ही बनाया था, और खुद महबूबा के मातहत अपने मंत्री बनाए थे। दूसरी तरफ मोदी सरकार ने कश्मीर में जो किया है उसे लेकर कश्मीर के भीतर महबूबा से भी सवाल उठ रहे हैं कि इन्हीं मोदी के साथ तो कश्मीर की सरकार बनाई थी।
खैर, आज के मुद्दे पर लौटें, नीतीश कुमार ने एक घटिया और अप्रासंगिक बात की है जिससे उनकी जैसी भी घिसीपिटी छवि राजनीति में रही हो, उसमें गहरी चोट लगी है। यह चुनाव तो चले जाएगा, और जीत-हार अलग रहेगी, लेकिन घटिया बात जिनके साथ दर्ज हो जा रही हैं, उन्हें अब मिटाना मुमकिन नहीं है।
अमरीकी विदेश मंत्री माइक पाम्पियो, और अमरीकी रक्षामंत्री मार्क एस्पर आज दोपहर बाद हिन्दुस्तान पहुंचे हैं, और वे यहां मंत्री स्तर की बातचीत करेंगे। हिन्दुस्तान अमरीका के बीच आपसी हितों के बहुत से दूसरे मुद्दे हो सकते हैं, और होंगे भी, लेकिन आज चीन के साथ भारत के जारी सरहदी तनाव के वक्त पर हिन्दुस्तान के लोगों की उम्मीद यह है कि अमरीका चीन के खिलाफ भारत का कैसे साथ देता है। चूंकि दोनों देशों के इन दोनों मंत्रालयों को सम्हालने वाले लोग बैठेंगे, तो जाहिर है कि चीन एक बड़ा मुद्दा रहेगा, और भारत की जनता की आम भावना आज चीन के खिलाफ भडक़ी हुई है, इसलिए भारतीय जनता अमरीका से चीन के खिलाफ कुछ ठोस वायदों की उम्मीद भी करेगी।
लेकिन इस बातचीत के वक्त पर भी ध्यान देना जरूरी है। अमरीका में आज डोनल्ड ट्रंप की सरकार अपने आखिरी कुछ हफ्ते गुजार रही है। वहां पर नए राष्ट्रपति को चुनने के लिए मतदान शुरू हो चुका है, और भारत से अलग अमरीका में यह मतदान कुछ हफ्ते चलता है, इसलिए भारतीय चुनाव की तरह यह दर्शनीय नहीं होता, यह अलग बात है कि 3 नवंबर के मतदान के बाद कुछ हफ्तों के भीतर अमरीकी राष्ट्रपति भवन ट्रंप से परे का कोई राष्ट्रपति काम सम्हाल सकता है, और जैसा कि वहां का चुनावी नजारा है, रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार ट्रंप के अलावा दूसरे उम्मीदवार डेमोक्रेटिक पार्टी के हैं, और अगर वे राष्ट्रपति बनते हैं, तो अमरीका की विदेश नीति, रक्षानीति में एक बुनियादी फेरबदल भी आ सकता है। ऐसे में अमरीकी विदेश मंत्री और रक्षामंत्री का यह भारत दौरा कुछ अटपटे वक्त पर हो रहा है क्योंकि हो सकता है कि ये अगली सरकार चुनने के लिए वोट डालकर यहां आए हों। अगली 21 जनवरी को अमरीकी राष्ट्रपति का शपथ ग्रहण होगा, और उसके साथ ही हो सकता है कि इसी राष्ट्रपति के रहते हुए भी सारे मंत्री बदल जाएं। ऐसे में भारत में जो लोग बहुत उम्मीद लगाए बैठे हैं, उन्हें सही संदर्भों में मंत्रियों की दो दिनों की इस बैठक को समझना चाहिए।
हिन्दुस्तान ने अमरीका से इन बरसों में हथियारों की बड़ी खरीदी की है। हिन्दुस्तान अमरीका के लिए एक बड़ा ग्राहक भी है, और चीन का पड़ोसी होने के नाते भारत का एक रणनीतिक महत्व भी अमरीका के लिए है। हिन्दुस्तान के जो लोग यह मानते हैं कि भारत और चीन के टकराव के बीच अमरीका भारत का साथ देने आ रहा है, उन्हें यह बात सुनना अच्छा नहीं लगेगा कि चीन के साथ अपने बड़े टकराव के चलते हुए हो सकता है कि अमरीका यहां भारत का साथ लेने आ रहा हो। भारत का चीन से सरहदी टकराव तो चल रहा है, लेकिन यह टकराव चीन-अमरीका के टकराव जितना बड़ा और गंभीर नहीं है। अमरीका ने संयुक्त राष्ट्र से लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन तक कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों पर पिछले महीनों में हमले किए हैं, और ये हमले एक बददिमाग और बेदिमाग राष्ट्रपति की बकवास से अधिक इसलिए रहे हैं कि इन्होंने डब्ल्यूएचओ की साख गिराने की कोशिश भी की है। ऐसे बहुत से अंतरराष्ट्रीय विदेशी मसलों पर अमरीका भारत से साथ की उम्मीद कर सकता है क्योंकि भारत का उन संस्थाओं से ऐसा कोई टकराव नहीं है।
इन सबसे ऊपर एक बात और समझने की जरूरत है कि भारत को इतना महत्व देते हुए इन दो मंत्रियों का प्रवास इस मौके पर इसलिए भी हो सकता है कि अभी अमरीका में जितने भारतवंशियों के वोट पडऩे हैं, उन पर इस प्रवास का एक असर पड़ जाए। ऐसे ही असर के लिए राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप इसी बरस अहमदाबाद आकर अपने प्रचार की शुरूआत कर गए थे, और आज मंत्रियों का यह दौरा उसी की एक अगली कड़ी भी हो सकती है। यह बात समझने की जरूरत है कि विदेश नीति और रक्षानीति ऐसी चीज नहीं है कि जिनसे अगले कुछ हफ्तों के अमरीकी सरकार के कार्यकाल में भारत कुछ हासिल कर पाए। इसलिए यह अमरीकी वोटरों में से भारतवंशियों की जनधारणा को प्रभावित करने की एक मशक्कत हो सकती है।
ऐसी बैठकों के महत्व का अखबारी सुर्खियों के लिए अतिसरलीकरण एक आम बात है। जिनसे हासिल कुछ भी नहीं होता, उन्हें भी बड़े जोर-शोर से शोहरत मिल जाती है। खुद अमरीकी राष्ट्रपति से भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को गले मिलते देखकर हिन्दुस्तानी जनता ऐसी खुश हो गई थी कि देश में ट्रंप की जीत के लिए दर्जनों जगह हवन हुए, और कहीं-कहीं मूर्ति बनाकर पूजा भी होने लगी, लेकिन तब से अब तक के इन महीनों में ट्रंप ने भारत की बेइज्जती करने वाली ढेर सारी बकवास भी की है, जिसमें से सबसे ताजा तो अभी यह है कि हिन्दुस्तान एक बहुत ही गंदा देश है, यहां की हवा भी बहुत गंदी है। हिन्दुस्तानी कार्टूनिस्टों ने ट्रंप के ऐसे घटिया बयान पर यह कार्टून भी बनाया कि अहमदाबाद में तो झोपड़पट्टियों को छुपाने के लिए मोदी सरकार ने खासी ऊंची दीवार बनवा दी थी, फिर ट्रंप को दीवार पार की गंदगी कैसे दिख गई?
आज भारत में बिहार में चुनाव हो रहा है, और बाकी पूरे देश में जगह-जगह उपचुनाव भी हो रहे हैं। हो सकता है कि यह ट्रंप के अमरीकी भारतवंशी वोटरों को प्रभावित करने की कोशिश के अलावा यह कोशिश भी हो कि भारत में जहां कहीं चुनाव हो रहे हैं, वहां मतदान के ठीक पहले अमरीका के साथ प्रतिरक्षा और विदेश नीति पर ऐसी बड़ी बैठक से प्रभाव डालना। हिन्दुस्तानी वोटर गोरी चमड़ी देखकर तेजी से प्रभावित होते हैं, और हो सकता है कि इन दो दिनों में सरकार अपना मुंह खोले बिना भी ऐसा माहौल बनाने में कामयाब हो जाए कि चीन के साथ किसी बड़े टकराव की नौबत में अमरीका भारत के साथ खड़े रहेगा।
यह बैठक अमरीकी ट्रंप-सरकार के कार्यकाल में इतनी लेट हो रही है कि इसका होना न होना एक बराबर है। ट्रंप की वापिसी से ही इस बैठक के किसी फायदे की उम्मीद की जा सकती है, लेकिन वह भी खासे दूर की बात है। तामझाम के साथ की जा रही दो दिनों की ऐसी बैठक कम से कम भारत को कुछ देकर जाने वाली नहीं है। यह जरूर हो सकता है कि अमरीकी मंत्री भारत के कुछ विदेशी हथियार-खरीद को प्रभावित कर सकें, और अमरीकी कारखानेदारों के लिए कमाई जुटा सकें। अमरीकी रक्षामंत्री अपनी किसी फौज की ताकत लेकर हिन्दुस्तान नहीं आ रहे हैं जैसा कि अमरीका अफगानिस्तान या इराक वगैरह में करते रहा है। अपने साथी देशों के लिए अमरीका के मन में कितनी इज्जत रहती है यह देखना हो तो लोगों को पाकिस्तान में घुसकर अमरीकी फौज द्वारा ओसामा-बिन-लादेन को मारने की घटना याद रखनी चाहिए जिसमें न इस हमले के पहले, और न इस हमले के बाद पाकिस्तान को भरोसे में लिया गया। किसी देश के अधिकारों के लिए ऐसी हिकारत वाले अमरीका से हिन्दुस्तान अगर कुछ पाने की उम्मीद कर रहा है, तो वह नासमझी की बात ही होगी। फिलहाल इस दौरे का सिर्फ एक महत्व हमें जाहिर तौर पर दिख रहा है, अमरीका में बसे हुए भारतवंशी वोटरों को प्रभावित करना, और हिन्दुस्तान में बिहार चुनाव-उपचुनावों में हिन्दुस्तानी वोटरों को गोरी चमड़ी दिखाना।
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भारत की आज की राजनीति में देश में पार्टियां इस कदर खेमों में बंट गई हैं, और इस हद तक कटुता इनके बीच हो गई है कि उससे परे कोई प्रतिक्रिया इनकी तरफ से आ नहीं सकती। न सिर्फ संसद और विधानसभाओं में, बल्कि सोशल मीडिया और मीडिया में भी इनके बीच बातचीत के रिश्ते खत्म हो गए हैं। नतीजा यह हुआ है कि एक अंधाधुंध हड़बड़ी में एक-दूसरे पर हमले हो रहे हैं, और अधिक वक्त नहीं गुजरता कि दूसरे खेमे के हमले का मौका मिल जाता है।
अभी कुछ हफ्ते पहले उत्तरप्रदेश के हाथरस में एक दलित युवती के साथ गैंगरेप के बाद जिस तरह उसका कत्ल हुआ, उससे देश के लोग सिहर गए थे। बड़ी-बड़ी अदालतों तक यह मामला गया, और बलात्कार के बाद अफसरों ने अपने बर्ताव और फैसलों से पीडि़त परिवार के साथ जिस तरह का दूसरा बलात्कार किया, उससे भी लोग सहम गए थे। खुद यूपी हाईकोर्ट ने शासन-प्रशासन के रूख पर भारी नाराजगी जाहिर की थी, और उस पर जमकर लताड़ लगाई थी। उस वक्त भाजपा के तमाम विरोधियों ने भाजपा पर जमकर हमले किए थे, और उत्तरप्रदेश में कानून का राज खत्म हो जाने की बात कही थी।
कुछ ही हफ्ते गुजरे कि कल पंजाब में 6 बरस की एक बच्ची से रेप का एक मामला सामने आया जिसमें एक घर में उस बच्ची से बलात्कार के बाद उसे मार भी डाला गया, और उसके शरीर को जलाने की कोशिश भी की गई। इस बात को लेकर भाजपा के एक केन्द्रीय मंत्री और प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने राहुल गांधी और प्रियंका गांधी से पूछा है कि वे हाथरस और दूसरी जगहों पर जाते हैं, लेकिन राजस्थान में 10 जगह बलात्कार हुए, वहां क्यों नहीं गए? पंजाब में जहां कांग्रेस की सरकार है वहां बिहार के दलित प्रवासी मजदूर की 6 बरस की बच्ची के साथ ऐसा हुआ, वहां क्यों नहीं गए? प्रकाश जावड़ेकर ने तेजस्वी यादव से भी पूछा है कि उनके बिहार की इस दलित बच्ची के साथ एक कांग्रेस राज में ऐसा हुआ है, और वे वहां क्यों नहीं गए?
यह सवाल जायज है, और आज सार्वजनिक जीवन में जब लोग एक-दूसरे से सवाल अधिक करते हैं, दूसरों के सवालों का जवाब कम देते हैं, तो प्रकाश जावड़ेकर और भाजपा का यह पूछने का हक भी बनता है। जो बात पूछना या कहना वे भूल गए, उस बात को भी हम यहां याद दिला देते हैं कि हाथरस की इस घटना के बाद छत्तीसगढ़ में भी बलात्कार की कई घटनाएं हुई हैं, पहले भी होती रही हैं, लेकिन राहुल गांधी तो छत्तीसगढ़ भी नहीं आए।
हम प्रकाश जावड़ेकर के सवालों और आरोपों को बिल्कुल जायज मानते हैं, और राहुल-प्रियंका को राजस्थान, छत्तीसगढ़ या पंजाब के बलात्कार पर फिक्र और हमदर्दी भी जाहिर करनी चाहिए, इसके अलावा बयान भी देना चाहिए। लेकिन जो बात हाथरस के बलात्कार को बाकी प्रदेशों के दूसरे बलात्कारों से अलग करती है, उस पर प्रकाश जावड़ेकर को अभी तक किसी ने जवाब दिया नहीं है। वह फर्क यह है कि अगर एक दलित युवती के साथ गैंगरेप और हत्या की शिकायत पर पुलिस और प्रशासन ने ठीक से जरूरी कार्रवाई कर दी होती, तो यह मामला इतना बुरा बनता ही नहीं। लेकिन पुलिस और प्रशासन ने बलात्कार की शिकायत आने के बाद से लेकर उस लडक़ी के अंतिम संस्कार तक एक ऐसे अपराधी गिरोह की तरह काम किया जिसकी नीयत बलात्कारियों को बचाने की, और बलात्कार के बाद मार दी गई लडक़ी को एक बार और बलात्कार करके एक बार और मारने की दिखती रही। यह बात हम ही नहीं कह रहे, उत्तरप्रदेश हाईकोर्ट की जजों ने भी हाथरस के अफसरों से लेकर लखनऊ के बड़े अफसरों तक की खूब खबर ली है, उन्हें खूब लताड़ा और फटकारा है। हाथरस का मामला महज एक बलात्कार और हत्या का मामला नहीं है, वहां पर मुजरिमों को बचाने के लिए, या रेप की शिकार मृत युवती के चाल-चलन से लेकर उसके परिवार तक पर शक के सवाल खड़े करने के लिए सरकारी नुमाइंदों की कोशिश का यह मामला है। आज बिहार चुनाव में फंसे हुए सभी नेताओं में से किसी ने इस नजरिए से प्रकाश जावड़ेकर के सवाल और आरोप का जवाब नहीं दिया है, लेकिन एक अखबार के रूप में हम इस सवाल के बिना, इस मुद्दे को उठाए बिना भाजपा के बयान को ज्यों का त्यों नहीं ले सकते। अभी तक राजस्थान, पंजाब, या छत्तीसगढ़ से ऐसी कोई खबर नहीं आई है कि राज्य सरकार या स्थानीय अधिकारी बलात्कार के मामलों को दबाकर पीडि़त परिवार की साख चौपट करने में लगे हुए हैं, अंतिम संस्कार के उनके बुनियादी हक को छीनने में लगे हुए हैं। बलात्कार और जख्मी करने के बाद की प्रशासन की भूमिका से लेकर राज्य स्तर के अफसरों तक की भूमिका में उत्तरप्रदेश को भाजपा विधायक सेंगर के बलात्कार मामले में भी अलग प्रदेश साबित कर दिया था, और हाथरस के इस मामले में भी।
हमारा स्पष्ट मानना है कि बलात्कारों को कोई भी सरकार पूरी तरह रोक नहीं सकतीं, क्योंकि हर लडक़ी या महिला के पीछे सुरक्षा दस्ता तैनात नहीं किया जा सकता, लेकिन दूसरी तरफ एक बार जानकारी आ जाने पर या शिकायत आ जाने पर शासन-प्रशासन का जो रूख रहता है, वही सरकार की नीयत और जनता की नियति साबित करता है। उत्तरप्रदेश का रिकॉर्ड इस मामले में लगातार बहुत खराब है, और वहां पर सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं, सरकार के बड़े-बड़े अफसरों ने जो संवेदनशून्यता दिखाई है, उसकी कोई मिसाल देश के दूसरे राज्यों में देखने नहीं मिलती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के कांग्रेस और भाजपा नेताओं में शराब को लेकर बहस चल रही है। भाजपा के एक बड़े नेता, विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक ने शराब के मिलावटी होने का आरोप लगाया, तो जवाब में कांग्रेस के लोग टूट पड़े कि कौशिक शराब पीते हैं। इस बयानबाजी के बीच पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ. रमन सिंह ने कांग्रेसियों के लगाए आरोपों को खराब बताया है कि नेता प्रतिपक्ष को जो शिकायतें मिलीं उनके आधार पर उन्होंने बयान दिया है, इसे इस तरह बताया जा रहा है कि मानो धरमलाल कौशिक शराब पीते हैं।
अब शराब हिन्दुस्तान में एक हकीकत भी है, और जनधारणा उसके खिलाफ इस तरह है कि खुद तो लोग शराब पीना चाहते हैं, लेकिन अपने नेताओं से उम्मीद करते हैं कि वे शराब न पिएं। यह भी हो सकता है कि उनकी नेताओं से ऐसी उम्मीद न हो, क्योंकि उनको हकीकत का अहसास हो, लेकिन नेता खुद ही अपनी ऐसी तस्वीर पेश करना चाहते हों कि वे शराब नहीं पीते हैं। यह देश शराब के मामले में असभ्य देश है, कोई पार्टी हो, या कहीं और मुफ्त की शराब हो, लोग गिरने-पडऩे तक पीने लगते हैं, कि मानो कोई अगला सबेरा होना ही नहीं है। दुनिया के बहुत से ऐसे देश हैं जहां शराब पीना रोजमर्रा की संस्कृति है, और लोग परिवार के साथ बैठकर शराब पीते हैं, लेकिन बहकने के पहले थम जाते हैं, और वहां रिहायशी इलाकों के बीच भी शराबखाने रहते हैं, सरकारी या सामाजिक संस्थाओं की पार्टियों में भी शराब रखी जाती है, लेकिन शराब वहां गंदी चीज नहीं बन पाई है, जैसी कि हिन्दुस्तान में है।
एक तरफ तो हिन्दुस्तान में इक्का-दुक्का नेताओं को छोडक़र कोई भी सार्वजनिक रूप से यह मंजूर नहीं करते कि वे शराब पीते हैं। कर्नाटक में रामकृष्ण हेगड़े मुख्यमंत्री रहे, और उन्होंने अपने शराब पीने की बात कभी नहीं छुपाई। शिवसेना के बाल ठाकरे बियर पीते थे, और उन्होंने वह बात नहीं छुपाई। बाल ठाकरे ने एक आमसभा में शरद पवार पर यह आरोप लगाया था कि वे रोज शाम अपने पूंजीपति दोस्तों के साथ बैठते हैं, और विदेशी शराब पीते हैं। अपने खुद के बारे में उन्होंने कहा- मैं राष्ट्रवादी हूं, और मैं सिर्फ हिन्दुस्तानी बियर पीता हूं, रोज दो बोतल बियर मेरा पेट ठीक रखती है।
लेकिन राष्ट्रीय स्तर के कोई और नेता एकबारगी याद नहीं पड़ते जिन्होंने अपने पीने के बारे में खुलकर मंजूर किया हो। हालत यह है कि लोग अपने विरोधियों की ऐसी तस्वीरें जुटाने में लगे रहते हैं जिनमें कांच के पारदर्शी ग्लास में वे दारू के रंग का कुछ पीते दिख रहे हैं, फिर चाहे वह काली या लाल चाय ही क्यों न हों। हिन्दुस्तान में दारू पीने की संस्कृति और सभ्यता न होने से यह नौबत आई है कि दारू इतनी बदनाम हो गई है। वरना जिन लोगों को ब्रिटिश संसद जाना नसीब हुआ है, वे अगर इसके बारे में पहले से पढ़े बिना जाते हैं, तो यह देखकर हक्का-बक्का रह जाते हैं कि वहां निम्न और उच्च सदन, दोनों के सदस्यों के लिए अलग-अलग शराबखाने संसद भवन के भीतर ही हैं। वहां मीडिया के लिए भी अलग से शराबखाना है, और शायद मंत्रियों के लिए या अधिकारियों के लिए भी अलग से बार है। हिन्दुस्तान में कोई ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते कि संसद भवन के अपने कमरे में भी कोई शराब पी ले, और वह बात उजागर हो जाए।
हिन्दुस्तान की राजनीति और सार्वजनिक जीवन में शराब ही अकेला पाखंड नहीं है, और भी बहुत सी चीजें यहां लोगों को बदचलन या बुरा साबित करने के लिए इस्तेमाल होती हैं। नेहरू के जो विरोधी राष्ट्रवादी होने के लिए मेहनत करते रहते हैं, उन्हें नेहरू की सिगरेट पीते हुए दो-तीन तस्वीरें इतनी पसंद हैं कि अपने माता-पिता की फोटो भी उन्हें उतनी पसंद नहीं होगी। वे सोते-जागते नेहरू की सिगरेट पीती तस्वीर को पोस्ट करके उन्हें बदचलन साबित करने की कोशिश में लगे रहते हैं। और नेहरू थे कि एक से अधिक मौकों पर उन्होंने बंद कमरे के बाहर भी सिगरेट पी थी और उनको आसपास कैमरे होने का भी अहसास था।
लेकिन राजनीति के साथ-साथ सामाजिक जीवन में भी आम लोगों की खास लोगों से कई उम्मीदें बंध जाती हैं। चाल-चलन को लेकर आम लोग यह उम्मीद करते हैं कि उनके नेता का चाल-चलन ठीक रहे, फिर चाहे आम से लेकर खास तक तमाम लोगों का चाल-चलन हकीकत में बिगड़ा हुआ ही क्यों न रहे। और यह बात महज हिन्दुस्तान में नहीं है, ब्रिटेन से लेकर अमरीका तक बहुत से ऐसे देश हैं जहां पर नेताओं को अपने विवाहेतर संबंधों को लेकर पद छोडऩा पड़ा हो, सार्वजनिक रूप से अफसोस जाहिर करना पड़ा हो, या अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन की तरह संसद में महाभियोग का सामना करना पड़ा हो। जिन पश्चिमी देशों को हिन्दुस्तानी लोग सेक्स-संबंधों के मामलों में बड़ा उदार और खुला हुआ मानते हैं, वहां पर एक-एक सेक्स-संबंध को लेकर लोगों को कुर्सियां छोडऩी पड़ जाती हैं, अगर उनका नाम डोनल्ड ट्रंप न हो। जहां तक ट्रंप का सवाल है, तो वे सार्वजनिक जीवन के किसी भी पैमाने से ऊपर हैं, और हर पैमाने के लिए उनके मन में भारी हिकारत है।
छत्तीसगढ़ में शराब को लेकर शुरू हुई बहस शराब के बहुत से दूसरे पहलुओं तक जा सकती थी, जहां तक जानी चाहिए थी, लेकिन पूरी बहस महज इस मुद्दे पर पटरी से उतर गई कि धरमलाल कौशिक शराब पीते हैं या नहीं। क्या कांग्रेस और भाजपा के लोग अपनी पार्टी के बारे में ऐसा दावा कर सकते हैं कि उनकी पार्टी के नेताओं में शराबी कम हैं? लोगों ने छत्तीसगढ़ में ही कांग्रेस के एक मंत्री के पैर विधानसभा के भीतर लंच के बाद लडख़ड़ाते हुए देखे हैं, हालांकि वे अब इस दुनिया में नहीं हैं, इसलिए यह बात विधायकों में अब मजाक के रूप में भी ठंडी पड़ गई है। प्रदेश के आबकारी मंत्री, और आज के कांग्रेस के एक बड़े आदिवासी नेता कवासी लखमा खुलकर इस बात को मंजूर करते हैं कि वे शराब पीते हैं, और यह आदिवासी संस्कृति का एक हिस्सा है। लेकिन बारीकी से समझें तो यह बात साफ है कि वे आदिवासी के रूप में इस बात को कहते हैं जिनकी जिंदगी में छुपाने को कुछ नहीं होता, और जिनके पास दारू पीने के लिए बंद कमरा भी नहीं होता। कवासी लखमा एक कांग्रेस नेता के रूप में इस बात को ठीक उसी तरह छुपा लेते जिस तरह भाजपा के तमाम लोग अपने इतिहास के एक सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में छुपा लेते हैं। हालांकि उनके करीबी लोगों का यह मानना है कि उन्होंने खुद कभी इस बात को नहीं छुपाया, यह एक अलग बात है कि इस बात को शब्दों में मंजूर भी नहीं किया।
हमारा ख्याल है कि सार्वजनिक जीवन में जो लोग हैं अगर वे शराब पीना चाहते हैं तो उन्हें नशे में धुत्त हुए बिना शराब का आनंद लेना आना चाहिए। और इसके साथ-साथ उनमें इतना नैतिक मनोबल भी होना चाहिए कि वे इस बात को मंजूर कर सकें। यह वैसे तो लोगों की निजी जिंदगी की बात है, लेकिन इसे सार्वजनिक मुद्दा बना ही दिया गया है, तो पाखंडी होने के बजाय हौसलेमंद होना बेहतर है। हमारा ख्याल है कि हिन्दुस्तान में जिस प्रदेशों में शराबबंदी नहीं हैं, वहां लोग अपने नेता को हौसलेमंद देखना चाहेंगे, बजाय पाखंडी देखने के।
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भाजपा ने बिहार चुनाव के अपने घोषणापत्र से एक ऐसे मुद्दे को छेड़ा है जो देश के किसी भी चुनाव में शायद पहली बार इस्तेमाल हो रहा है। इसमें संकल्प लिया गया है कि अगर बिहार में भाजपा सत्ता में आती है तो मुफ्त कोरोना-टीकाकरण किया जाएगा। चूंकि भाजपा केन्द्र में भी न सिर्फ सरकार में है, बल्कि सरकार की मुखिया भी है, प्रधानमंत्री भी भाजपा के हैं, इसलिए बिहार की भाजपा को देश से अलग काटकर नहीं देखा जा सकता, और भाजपा भी देश की या दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करते हुए अपने आपको बाकी दुनिया से काटकर नहीं देख सकती। इस नाते भाजपा ने यह घोषणा करके एक सवाल खड़ा किया है कि क्या केन्द्र में उसकी सरकार और उसके प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी बाकी देश के लिए उतनी नहीं है जितनी कि बिहार में भाजपा की सरकार बनने पर वहां की राज्य सरकार उठाने का दावा कर रही है?
चुनावों में लोगों को मुफ्त के तोहफे, कई किस्म की रियायतें, टैक्स की छूट, और जनकल्याणकारी या सार्वजनिक विकास के कार्यक्रमों का लुभावना घोषणापत्र तो अब तक मिलते ही आया है, अगर बिहार में भाजपा गठबंधन वाली सरकार बनती है, तो पूरे बिहार को मुफ्त में कोरोना का टीका भी मिलेगा। अब सवाल यह उठता है कि क्या बाकी देश ने ऐसा कोई कुसूर किया है कि वहां चुनाव की नौबत नहीं आ रही, और भाजपा को बाकी देश में भी कोरोना का टीका मुफ्त में देने का वायदा नहीं करना पड़ रहा? यह सवाल छोटा नहीं है, क्योंकि आज देश की नीति कोरोना के टीके को लेकर अभी बनी भी नहीं है, और केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री की घोषणा पर भरोसा किया जाए तो जुलाई 2021 तक देश में 20-25 करोड़ लोगों को कोरोना का टीका पहुंचाने की पूरी कोशिश केन्द्र सरकार करेगी। खुद मंत्री की कही बातों का सीधा-सीधा मतलब यह है कि जुलाई 2021 तक देश में सौ करोड़ से अधिक लोगों को कोरोना का टीका नहीं मिल पाएगा। अभी तक केन्द्र सरकार की यह नीति भी सामने नहीं आई है कि यह टीका किसी राष्ट्रीय कार्यक्रम के तहत लगाया जाएगा, या किसी तबके को खुद खरीदना होगा। अभी कुछ भी साफ नहीं है। और जहां तक इस महामारी का मामला है तो हमारी साधारण समझ से कोई भी केन्द्र सरकार किसी एक राज्य के साथ अलग बर्ताव नहीं कर सकती, और वह सभी राज्यों को बराबरी से ही देख सकेगी। आज जब कोरोना के टीके को लेकर कुछ भी साफ नहीं है, तब अगर भाजपा बिहार में चुनाव जीतने की हालत में लोगों से मुफ्त टीके का वायदा कर रही है, तो चुनाव हार जाने की हालत में उस पार्टी की केन्द्र सरकार क्या करेगी? भाजपा एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में क्या करेगी? बिहार की किसी भी पार्टी की सरकार अगर ऐसा करना भी चाहेगी तो क्या एक देश के भीतर ऐसा कोई कार्यक्रम किसी एक प्रदेश की सरकार अपने लोगों के लिए चला सकती है जहां पूरे देश की सरकार और पूरे देश की जिम्मेदारी देश के तमाम तबकों के लिए एक बराबर है? क्या बिहार या किसी भी दूसरी राज्य सरकार को ऐसा कोई हक रहेगा कि वे पूरे देश के लिए केन्द्र सरकार की बनाई गई नीति और कार्यक्रम से परे टीके खरीदकर अपने लोगों को लगा सकें? एक महामारी से देश की आबादी को बचाने के लिए जैसी खतरनाक नौबत आज देश के सामने खड़ी हुई है, उसे देखते हुए एक राज्य के चुनाव में ऐसी घोषणा लुभावनी चाहे जितनी हो, गैरजिम्मेदार बात है, और इसे लेकर पिछले कुछ घंटों में सोशल मीडिया पर बहुत कुछ लिखा भी जा रहा है।
चुनाव आते-जाते रहते हैं, लेकिन देश के प्रमुख राजनीतिक दलों को, केन्द्र और राज्य की सरकारों को, अपने आपको राष्ट्रीय मूलधारा और राष्ट्रीय भावना, राष्ट्रीय आपदा, और राष्ट्रीय जरूरत से काटकर अलग नहीं रखना चाहिए। अगर बिहार का कोई क्षेत्रीय दल ऐसी कोई घोषणा करता तो वह क्षेत्रीय दल का तंगनजरिया और उसकी तंगदिली का एक सुबूत रहता। लेकिन एक राष्ट्रीय दल जिसकी मौजूदगी आज देश के हर प्रदेश में है, वह बिहार को चुनाव के मौके पर अलग से ऐसे कौन से लुभावने वायदे दे सकता है जो कि बाकी देश की जिंदगियां बचाने के लिए जरूरी हैं, और जो पूरे देश को एक बराबरी से उपलब्ध कराना केन्द्र सरकार की जिम्मेदारी है।
हम बाकी चुनावी वायदों को लेकर कुछ नहीं कहते, कोई दस लाख नौकरी का वायदा कर रहा है, तो कोई और किसी दूसरी बात का। लेकिन महामारी से बचाव के लिए टीके को लेकर किया गया ऐसा वायदा सिवाय गैरजिम्मेदारी के और कुछ नहीं है। अभी यह समझना मुश्किल है कि जिस पार्टी की अगुवाई वाली केन्द्र सरकार के जिम्मे अपना विकसित किया हुआ, या दुनिया में कहीं से भी लाया हुआ टीका पूरे देश को एक नीति और एक कार्यक्रम के तहत बिना भेदभाव के उपलब्ध कराना है, उसकी पार्टी की सरकार बनने पर एक राज्य में किस तरह वह पूरी जनता को राज्य सरकार की तरफ से उपलब्ध कराया जाएगा? बात सिर्फ टीके के दाम की नहीं हैं, और यह दाम भी पूरे देश के लिए केन्द्र सरकार को ही देना चाहिए, क्योंकि एक महामारी से बचने का टीका महज पैसे वाले खरीदकर लगवा लें, और गरीब मर जाएं, ऐसा तो कोई सरकार कर नहीं सकती। अभी तो केन्द्र सरकार राज्य सरकारों से बात करके सीमित संख्या में आने वाले या बनने वाले कोरोना-टीकों को लगाने की प्राथमिकता तय करने वाली है। किस तरह यह काम होगा, वह तय होना भी अभी बाकी है। देश के लोग भी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि स्वास्थ्यकर्मियों, सुरक्षाकर्मियों, सफाईकर्मियों से होते हुए कब बाकी जनता तक यह टीका पहुंचेगा। कोरोना से बचाव का टीका चावल या दाल नहीं है जिसे कोई राज्य सरकार पहले खरीदकर, पहले आयात करके अपने लोगों में बांट दे। इसलिए बिहार चुनाव में मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए भाजपा के घोषणापत्र का यह मुद्दा जिम्मेदारी से तय नहीं किया गया है, इसलिए कि किसी राज्य सरकार की कोई भूमिका अभी तय ही नहीं है, कोरोना के टीके को लेकर कोई नीति या रणनीति ही अभी केन्द्र सरकार ने तय नहीं की है, ऐसे में कोई राज्य सरकार उसे लेकर क्या वायदा कर सकती है?
आज जब लॉकडाऊन और कोरोना के इलाज को लेकर, देश के स्कूल-कॉलेज में पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन वाले, और बिना स्मार्टफोन के लोगों के बीच तरह-तरह की खाईयां खुद चुकी हैं, तब ऐसे में बिहार और बाकी प्रदेशों के बीच एक और खाई खोदना निहायत ही गलत बात है। एक महामारी से कोई एक प्रदेश अपने-आपको एक टापू की तरह नहीं बचा सकता, और बिहार में भाजपा को एक टापू-पार्टी की तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए। आने वाले दिनों में बाकी देश में इस घोषणा पर और तबकों की प्रतिक्रियाएं सामने आएंगी, हो सकता है कि बिहार चुनाव में भाजपा को इसका फायदा मिल जाए, लेकिन यह हमेशा के लिए एक बहुत बुरी और नाजायज मिसाल की तरह दर्ज तो हो ही चुकी है।
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आंकड़े बड़े दिलचस्प होते हैं। अगर नीयत सही हो, हिसाब लगाने की काबिलीयत हो, तो उनसे भविष्य का अंदाज लगाया जा सकता है। लेकिन नीयत और काबिलीयत में से एक भी बात गड़बड़ हो, तो लोगों को एक नाजायज खुशी दी जा सकती है, या नाजायज दहशत में डाला जा सकता है। जिस तरह हिन्दुस्तान में एक गलत वैज्ञानिक हिसाब लगाया गया, और जुलाई के पहले-दूसरे हफ्ते में शुरू होने वाले कोरोना-वैक्सीन ट्रायल के बाद 15 अगस्त को वैक्सीन की घोषणा का हिसाब भी लगा लिया गया था। खैर, उस बात को छोड़ें, और एक नई दिलचस्प बात पर सोचें कि आने वाले बरसों में नौकरियों और काम के मामले में इंसानों और मशीनों का कैसा मुकाबला होगा।
विश्व आर्थिक मंच (वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम) की एक ताजा रिपोर्ट कहती है कि आने वाले बरसों में दुनिया में 8.7 करोड़ लोगों की नौकरियां खतरे में पड़ सकती हैं। उसका हिसाब है कि 2025 तक ही 8.7 करोड़ नौकरियां इंसानों से छिनकर मशीनों में चली जाएंगी, लेकिन 9.7 करोड़ नए काम पैदा भी होंगे। अब पहली नजर में देखने पर तो ये आंकड़े खुशी के लगते हैं कि जितने इंसानों की नौकरियां जाएंगी, उनसे अधिक नौकरियां खड़ी हो जाएंगी। लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि आज धरती की जो आबादी है वह पांच बरस बाद कितनी होगी? इतनी आबादी तो इन पांच बरसों में अकेले हिन्दुस्तान की बढ़ जाएगी। इसलिए बढ़ती हुई आबादी के मुकाबले बढ़ती हुई नौकरियां अगर अधिक नहीं होंगी, तो वे किसी काम की नहीं रहेंगी, और मशीनें तो रोज लोगों को बेरोजगार करेंगी ही।
अब जैसे आज की यह बात हम एक कम्प्यूटर पर टाईप कर रहे हैं जिसमें टाईपिंग के लिए एक ऑपरेटर की जरूरत पड़ रही है। लेकिन जैसा कि आज अंग्रेजी के साथ है, बिना की-बोर्ड छुए बोलकर टाईप करना चलन में आ चुका है, वैसा ही अगर बाकी भाषाओं में होते चलेगा, होने लग भी गया है, तो बोलकर टाईप करवाने के लिए एक कर्मचारी की जरूरत खत्म हो जाएगी। ऐसे अनगिनत काम हैं जिनमें से इंसानों को हटाया जा रहा है। एयरपोर्ट और विमानों में कर्मचारियों को घटाया जा रहा है, ऐसा भी नहीं कि उनमें से हर काम के लिए मशीन खड़ी हो रही हैं, दरअसल जब कंपनियां घाटे में चल रही हैं, तो वे अपने काम में सुधार करके कहीं बिजली बचा रही हैं, कहीं कर्मचारी घटा रही हैं, और कहीं सामानों की बर्बादी कम कर रही हैं। बुरा वक्त अच्छा सबक लेकर आता है, दुनिया के सारे उद्योग-धंधे आज अपने खर्च को घटाने में लगे हुए हैं, और जाहिर है कि इसकी पहली मार कर्मचारियों पर ही पड़ती है।
वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम की रिपोर्ट कहती है कि 2025 तक दुनिया में काम कर रहे लोगों में 9 फीसदी से लेकर 15.4 फीसदी तक की कमी आएगी, और इसी दौरान 7.8 फीसदी से लेकर 13.5 फीसदी की बढ़ोत्तरी होगी। इन आंकड़ों को बहस के लिए सही मान लें, तो भी यह है कि बढ़ती आबादी का हिसाब न लगाने पर भी नौकरियां घटने वाली हैं। अब जैसे आज के इसी एक घंटे की एक दूसरी खबर है कि हांगकांग की कैथे पैसेफिक एयरलाइंस ने साढ़े 8 हजार पदों को खत्म करने की घोषणा की है। इससे कुछ तो खाली पड़े पद खत्म हो जाएंगे, लेकिन करीब 6 हजार कर्मचारियों की नौकरी चली जाएगी। खुद हिन्दुस्तान में केन्द्र सरकार ने और कई राज्य सरकारों ने लॉकडाऊन से उबरने के लिए, और कारोबारों को पटरी पर लाने के लिए मजदूर कानूनों में भयानक बदलाव किया है, जिनसे मजदूरों के हक छिन गए हैं, मालिकों के लिए उन्हें नौकरी से निकालना आसान हो गया है, उनसे मुफ्त में ओवरटाईम करवाने का हक मिल गया है, और इसके खिलाफ कही और लिखी जा रही बातों का न केन्द्र सरकार पर असर है, न अलग-अलग राजनीतिक दलों की राज्य सरकारों पर। हुआ यह है कि जब केन्द्र और राज्य सरकारें पूंजीनिवेश पाने की कोशिश करती हैं, तो संभावित उद्योगपति उन्हें मजदूर कानून, जमीन कानून, पर्यावरण कानून की अड़चनों को गिनाना शुरू कर देते हैं कि किन वजहों से वे हिन्दुस्तान या इसके किसी प्रदेश में जाना नहीं चाहते। ऐसे में सरकारें खुलकर कानूनों को खत्म कर रही है, देश में हाल के कुछ बरसों में पर्यावरण कानून को बेअसर सा कर दिया गया है, मजदूर कानूनों का कोई मतलब नहीं रह गया है, और यह सिलसिला रूकते नहीं दिख रहा है।
आज घरेलू कामकाज से लेकर दफ्तर और दुकान-कारखानों के काम तक, मालिक यह सोचने लगे हैं कि कर्मचारी और मजदूर घटाकर कैसे मशीनों पर काम डाला जा सकता है जो कि न हड़ताल करतीं, न लेबर कोर्ट जातीं, और न कामचोरी करतीं। मशीनों को रात-दिन काम पर झोंका जा सकता है, और कई किस्म के कारखानों में किया भी जा रहा है। और तो और बिना ड्राइवर चलने वाली कार, बस, ट्रेन के प्रयोग बरसों से सडक़ और पटरियों पर हैं, और कुछ बरसों के भीतर कारें खुद अपने को चलाने लगेंगीं, वे ड्राइवरों की नौकरियां खा जाएंगी, और उनमें बैठे लोग पूरे सफर अपने कम्प्यूटर पर काम करते हुए कुछ और लोगों की नौकरियां घटाएंगे।
वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम का अंदाज चाहे जो हो, हमारा यह मानना है कि न सिर्फ मशीनों की वजह से, बल्कि दूसरी कई वजहों से भी नौकरियां घटती चलेंगी, खासकर इस लॉकडाऊन का तजुर्बा देखकर लोगों को खर्च घटाना होगा, और इसका पहला तरीका घटी हुई तनख्वाह रहेगी। आज हिन्दुस्तान में पिछले छह महीनों में बढ़ी हुई बेरोजगारी के आंकड़े देखें, और इन छह महीनों में बढ़ी हुई आबादी के साथ मिलाकर उसे देखें, तो कई करोड़ लोग बढ़ गए हैं, और कई करोड़ नौकरियां खत्म हो गई हैं।
आने वाला वक्त महज नौकरियों पर निर्भर दुनिया का वक्त नहीं रहेगा, लोगों को तरह-तरह से नए रोजगार सोचने पड़ेंगे, और हो सकता है कि नौकरी के बजाय स्वरोजगार का चलन बढ़े, और लोग अपनी मेहनत के अनुपात, अपने हुनर के अनुपात में कमाने लगें, जैसा कि आज ओला या उबेर नाम की टैक्सी कंपनियों के साथ जुडक़र कमा रहे हैं। हिन्दुस्तान में आज शहरी सडक़ों पर दसियों लाख लोग खाना पहुंचाने का काम कर रहे हैं, या कूरियर एजेंसियों के मार्फत आने वाले सामान को पहुंचाने का काम। ये काम 10-15 बरस पहले हिन्दुस्तान में नहीं थे, लेकिन अब हैं, और मोटरसाइकिल चलाने के मामूली से हुनर के साथ ऐसे लोग जितनी मेहनत करते हैं, उतना कमाते हैं।
इस पूरी तस्वीर से यह समझने की जरूरत है कि नौकरियों की किस्म बदल जाएंगी, नौकरियां स्वरोजगार में बदल जाएंगी, मशीनें लोगों को बेदखल करेंगी, लेकिन एक बात बनी रहेगी, कोई भी सेक्टर ऐसा नहीं रहेगा कि जिससे सौ फीसदी नौकरियां खत्म हो जाएं। नतीजा यह होगा कि जिस दुकान, दफ्तर-घर, कारखाने-कारोबार में जिन लोगों का काम सबसे अच्छा रहेगा, वे नौकरियों पर आखिरी तक बने रहेंगे। जो कम काबिल, कम मेहनती, कम हुनरमंद रहेंगे, वे सबसे पहले बेरोजगार होंगे। यह नौबत हर किसी को, हर कर्मचारी को अपने काम को बेहतर बनाने का एक मौका भी दे रही है। लोगों को नए हुनर सीखने चाहिए, या अपने मौजूदा हुनर में काम को बेहतर करने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा करने से कम से कम आज के कामगारों की पीढ़ी की जिंदगी तो निकल सकती है, अगली पीढ़ी अपने रोजगार और अपने स्वरोजगार के बारे में खुद सोचेगी। लेकिन अपने जीते जी, अपनी कामकाजी उम्र के चलते हुए बेरोजगार होने के खतरे से बचने के लिए लोगों को अधिक मेहनत तो करनी पड़ेगी, जब छंटाई होती है, तो सूखी डालें जिनसे कुछ हासिल नहीं होता, उन्हें सबसे पहले काटा जाता है।
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इन दिनों कोई फिल्म रिलीज होने वाली रहती है, या कोई टीवी सीरियल या रियलिटी शो शुरू होने वाला रहता है तो उससे जुड़े ढेर सारे समाचार एक साथ सैलाब की तरह टीवी और प्रिंट मीडिया की वेबसाईटों पर छा जाते हैं। मीडिया का जो हिस्सा सिर्फ डिजिटल है, वह शायद और तेज रहता है, और एक फिल्म या एक शो के अलग-अलग कलाकारों के बारे में अलग-अलग फिल्म इतने सुनियोजित ढंग से सब छापा जाता है कि किसी आर्केस्ट्रा पार्टी में कोई गाना बजाया जा रहा हो। पूरे का पूरा मीडिया मनोरंजन को लेकर, खेल को लेकर, या राजनीति को लेकर ओलंपिक में होने वाली सिंक्रोनाइज्ड स्वीमिंग की तरह बर्ताव करने लगता है। लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले महाराष्ट्र में अशोक चव्हाण के मुख्यमंत्री रहते हुए जब चुनाव हुआ, तो महाराष्ट्र के बड़े-बड़े अखबारों में सरकार की स्तुति में एक सरीखे परिशिष्ट निकाले, जिनमें कामयाबी की एक जैसी कहानियां थीं, और मजे की बात यह है कि सभी का शीर्षक अशोक पर्व था। अब मानो दीवाली-पर्व हो, या होली-पर्व हो, वैसा ही अशोक-पर्व मनाने में बड़े-बड़े कामयाब-कारोबार वाले अखबार टूट पड़े थे। बाद में प्रेस कौंसिल ने उस पर एक बड़ी सी रिपोर्ट भी बनवाई थी, जो कि सबकी सहूलियत के लिए बखूबी दफन कर दी गई, उस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई।
बहुत पहले जब मीडिया प्रिंट तक सीमित था, टीवी महज सरकारी दूरदर्शन था, और इंटरनेट था नहीं, तब गिने-चुने अखबारों को भी इस तरह से मैनेज नहीं किया जा सकता था जिस तरह आज मीडिया के एक बहुत बड़े हिस्से को खर्च करके मैनेज किया जा सकता है। वह एक वक्त था जब मीडिया में कोई भी जानकारी बिना हवाले के नहीं छपती थी कि वह कहां से मिली है, किसका कहना है, और अमूमन ऐसी जानकारी के साथ सवाल भी पूछे जाते थे। आज वह सब कुछ खत्म हो गया है। आज सरकार या नेता के स्तुति गान के बड़े-बड़े सप्लीमेंट बिना किसी हवाले के छपते हैं, खबरों की तरह छपते हैं, और उनका इश्तहारों की तरह सरकारी भुगतान भी हो जाता है। बीते दस-बीस बरसों में समाचार-विचार का इश्तहार से फासला खत्म कर दिया गया है, और अब इश्तहार समाचार के कपड़े पहनकर खड़े हो जाते हैं, मेहनताना भी पाते हैं।
लेकिन इस मुद्दे पर लिखने से क्या होगा? क्या यह तस्वीर कभी बदल सकती है? अब तो हाल के कुछ बरसों में देखने में यह आ रहा है कि कारोबार और सरकार का साथ देने के लिए मीडिया जिस अनैतिक तरीके को बढ़ाते चल रहा है, वह अनैतिक तरीका अब चरित्र-हत्या के लिए, साम्प्रदायिकता को बढ़ाने के लिए, जातियों के संघर्ष को बढ़ाने के लिए, किसी धर्म को बदनाम करने के लिए, और आज की कारोबारी जुबान में कहें तो परसेप्शन मैनेजमेंट के लिए बढ़ते चल रहा है। अब सरकारों या राजनीतिक दलों से परे, बड़े-बड़े कारोबार मीडिया के इतने हिस्से को अपनी गोद में या अपनी पैरों पर रखते हैं कि उनसे मनचाहा जनधारणा-प्रबंधन हो जाए। अभी लगातार बलात्कार और लगातार साम्प्रदायिक घटनाओं से जब उत्तरप्रदेश की बदनामी सिर चढक़र बोलने लगी, तो यूपी सरकार ने एक नामी-गिरामी जनसंपर्क एजेंसी को रखा है ताकि देश-विदेश में होती सरकार की बदनामी कम हो, उसे यह जिम्मा दिया गया है।
एक वक्त जिस तरह इश्तहार की एक ही डिजाइन हर अखबार में एक साथ दिखती थी, और अब अखबारों के अलावा टीवी चैनलों पर भी वीडियो-इश्तहार एक साथ दिखते हैं, कुछ उसी तरह का मामला खबरों को लेकर, कुछ चुनिंदा मुद्दों और विषयों पर एक साथ लेख को लेकर, कदमताल करते हुए इंटरव्यू को लेकर हो गया है। अब मीडिया का सत्ता या कारोबार के साथ ऐसा कदमताल इस हद तक बढ़ गया है कि वह जलते-सुलगते जमीनी मुद्दों की तरफ से ध्यान को भटकाने के लिए उसे किसी एक्ट्रेस के बदन पर ले जाता है, या किसी की की हुई बकवास पर बाकी लोगों की जवाबी बकवास को दिखाने में जुट जाता है। हम इस मुद्दे पर पिछले कुछ महीनों में कई बार लिख चुके हैं, लेकिन पांच-दस दिन गुजरते हुए इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया की सोची-समझी कदमताल फिर इतनी दिखने लगती है कि अपनी सलाह दोहराने को जी करता है कि अखबारों को मीडिया नाम के इस दायरे से बाहर निकलना चाहिए, और प्रेस नाम का अपना पुराना और अब तक थोड़ा सा इज्जतदार बना हुआ लेबल फिर से लगाना चाहिए।
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