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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : इस भूखी दुनिया में खाने की बर्बादी रोकना जरूरी
24-Jul-2021 5:17 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : इस भूखी दुनिया में खाने की बर्बादी रोकना जरूरी

दुनिया के बहुत से देशों में कारोबार कर रही अमेरिका की स्टारबक्स नाम की कॉफ़ी कंपनी ने घोषणा की है कि वह अमेरिका के अपने फास्ट फूड और कॉफ़ी के आउटलेट में न बिका हुआ खाने-पीने का सामान उस इलाके के जरूरतमंद और भूखे लोगों के लिए ऐसे समाजसेवी संगठनों को देगी जो उसे बांट सकें। इस कंपनी ने अगले 10 बरस में 100 मिलियन डॉलर की ऐसी मदद करने की घोषणा की है। अभी हम इस रकम को लेकर यह अंदाज नहीं लगा पा रहे हैं कि यह कंपनी कितनी बड़ी है और अमेरिकी हालात में यह मदद कितनी बड़ी रहेगी। लेकिन हम इसे इस मुद्दे के रूप में देख रहे हैं कि दुनिया के बहुत से ऐसे खाने-पीने के कारोबार हैं जिनमें बहुत सा सामान बचता है जो फेंकने में जाता है या बर्बाद हो जाता है. दूसरी तरफ हर शहरी इलाके में बहुत से गरीब लोग भूखे रहते हैं या कम खा कर जीते हैं. कारोबार की सामाजिक जिम्मेदारी के हिसाब से देखें तो ऐसा लगता है कि इन दोनों का एक मेल हो सकता है. और दुनिया के बहुत से ऐसे बड़े दुकानदार भी हैं जो सामान फेंकने के बजाय उन्हें निकालकर दुकान के बाहर रख देते हैं और जरूरतमंद लोग उन्हें उठाकर ले जाते हैं. दुनिया में भूख बहुत बुरी तरह फैलती और बढ़ती जा रही है, दूसरी तरफ खाने-पीने की बर्बादी इतनी अधिक होती है कि अमेरिका जैसे दुनिया के कई देश बहुत बुरी तरह के मोटापे के शिकार हैं। मोटापे का मतलब जरूरत से अधिक खाना ही होता है। तकरीबन तमाम अधिक मोटे लोग खाने की बर्बादी बदन के बाहर करने के बजाय बदन के भीतर करते हैं. नतीजा यह होता है कि वह महंगे अस्पतालों के लिए एकदम फिट मरीज हो जाते हैं। इस हिसाब से भी यह सोचने की जरूरत है कि जो लोग जरूरत से अधिक खा रहे हैं, यानी जिनके पास जरूरत से अधिक खाना है, उन लोगों से भी कुछ खाना गरीबों तक कैसे पहुंचाया जा सकता है।

इस मुद्दे पर पढ़ते हुए भारत की एक प्रमुख पर्यावरण पत्रिका डाउन टू अर्थ में छपा हुआ एक लेख दिख रहा है जिसमें फीडिंग इंडिया नाम के एक संगठन के बारे में बताया गया है। इस संगठन की एक संस्थापक सृष्टि जैन ने कहा कि हर शादी में औसतन 15-20 फ़ीसदी खाना बर्बाद होता है और जो कि 25-50 किलो से लेकर 800 किलो तक रहता है इतने खाने से 100-200 लोगों से लेकर 2-4 हजार लोगों तक का पेट भरा जा सकता है। उन्होंने कहा कि इस बारे में सुप्रीम कोर्ट भी मेहमानों की संख्या सीमित करने के बारे में सोच रहा था, लेकिन तब तक अधिक व्यावहारिक बात यह है कि अधिक बने हुए खाने को किस तरह भूखे लोगों तक पहुंचाया जाए, और उनका संगठन यह काम करने में लगा हुआ है। डाउन टू अर्थ पत्रिका ने एक बड़े कैटरर से बात की जो शादियों की पार्टियों में खाने का इंतजाम करते हैं. उनका तजुर्बा यह रहा कि छोटी पार्टियों में करीब 40 फ़ीसदी खाना बर्बाद होता है और बड़ी पार्टियों में यह 60 फ़ीसदी तक हो सकता है क्योंकि लोग जितने मेहमानों को बुलाते हैं उतने आते नहीं, और वे जितने किस्म की चीजें बनाते हैं उतनी चीजों की खपत नहीं होती। उनका कहना यह है कि 500 लोगों की दावतों में 700 लोगों के खाने लायक खाना बना लिया जाता है, और ऐसी दावत तो में कई बार 300 लोग ही पहुंचते हैं.

यह कोई बहुत मौलिक और नई सोच की बात नहीं है हिंदुस्तान में आज से कई दशक पहले मुंबई में एक कोई समाजसेवी संगठन ऐसा था जो शादी-ब्याह के बाद बचा हुआ बिना जूठा खाना ले जाकर अपनी गाड़ियों में गरीब बस्तियों में जरूरतमंद गरीबों को खिलाता था। हर दावत में खाना जरूरत से ज्यादा बनता है और बर्बाद होने के बजाय ऐसा खाना दूसरों तक पहुंचाना एक बड़ा भला काम है. मुंबई के अलावा कुछ और शहरों में भी अलग-अलग स्तर पर यह काम हुआ है और कुछ जगहों पर तो लोगों ने दावतों में खाने की बर्बादी रोकने के लिए खाने की टेबलों पर यह तख्ती लगानी शुरू कर दी है कि कृपया उतना ही खाना लें जितना आप खा सकते हैं। कुछ संपन्न और सवर्ण तबकों में ऐसी दावतों के वीडियो भी सामने आए हैं जिनमें कोई एक जिम्मेदार व्यक्ति खड़े होकर प्लेट रखने वाले लोगों को वापिस भेज रहे हैं कि प्लेट का पूरा खाना खाकर खाली प्लेट लेकर आएं।

ऐसी जागरूकता और इसी तरह तरह की पहल जरूरी है क्योंकि आज दुनिया में एक तरफ खाने की बर्बादी जारी है और दूसरी तरफ भूख से लोगों की जिंदगी बर्बाद हो रही है। इन दोनों बातों को जब भी एक साथ रखकर देखें, तो लगता है कि यह संपन्न तबके की और समाज की एक किस्म की हिंसा है जो कि गरीब और भूखे लोगों को अनदेखा करके खाना-पीना इतना बर्बाद करती है। लोग इस बात को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बना लेते हैं कि वे कितने अधिक किस्म के खाने परोसते हैं, और कितना जबरदस्ती लोगों को खिला सकते हैं, फिर भले ऐसा खिलाना उनके मेहमानों की सेहत के लिए बहुत नुकसानदेह ही क्यों ना हो। इसलिए समाज में ऐसी जागरूकता की जरूरत है जो लोगों को सीमित किस्म के खाने परोसने के सामाजिक प्रतिबंध भी लगाए। कुछ शहरों में कुछ समाज के लोगों ने ऐसा किया हुआ भी है। दूसरी तरफ दावतों के बाद बचे हुए खाने को जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने के लिए सामाजिक संगठनों को आगे आना चाहिए। हमने अलग-अलग किस्म के बहुत से समाजसेवी संगठनों के काम देखे हैं जो कि बड़ी मेहनत करते हैं लाशों को घर पहुंचाने का काम करते हैं, कफन-दफन का काम करते हैं, अंतिम संस्कार करते हैं। इसलिए खाने की बर्बादी रोकने के लिए भी ऐसे संगठन जरूर बन सकते हैं, या मौजूदा संगठन इस काम को भी कर सकते हैं.  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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