संपादकीय
जिन लोगों की हिन्दुस्तानी राजनीति में अधिक दिलचस्पी है, और जो लोग कांग्रेस की हलचल को रोजाना देखते हैं, वे भी मध्यप्रदेश में इस बात पर हक्का-बक्का हैं कि ग्वालियर में गोडसे का मंदिर बनाने और पूजा करने को लेकर मुख्यमंत्री रहे कमलनाथ ने हिन्दू महासभा के जिस नेता, बाबूलाल चौरसिया पर एफआईआर दर्ज करने का निर्देश दिया था, उसे पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए अब कमलनाथ ने कांग्रेस में शामिल कर लिया है। गोडसे के भक्त और गांधी को गालियां देने वाले ऐसे लोगों को कांग्रेस में लाकर आज कमलनाथ को क्या हासिल होने जा रहा है? अपनी बनी हुई सरकार को जो बचा न सके, वे आज विपक्ष में रहते हुए एक गैरविधायक गोडसेप्रेमी का कांग्रेस प्रवेश करवा रहे हैं! शायद अभी मध्यप्रदेश में होने जा रहे निगम चुनाव में कमलनाथ को गांधी के हत्यारों के उपासक से फायदे की उम्मीद दिख रही है!
दूसरी और बहुत सी पार्टियों की तरह कांग्रेस का भी पर्याप्त नैतिक पतन हो चुका है, और यह पार्टी राजनीतिक अनैतिकता में भाजपा से कुछ ही कदम पीछे है। कमलनाथ के इस फैसले पर मध्यप्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अरूण यादव ने सार्वजनिक रूप से नाराजगी जाहिर की है। इस कांग्रेस प्रवेश पर अरूण यादव ने सोशल मीडिया पर ही महात्मा गांधी से माफी मांगी, और अपने इस संदेश को राहुल और प्रियंका गांधी को टैग किया। उन्होंने अगले ट्वीट में यह भी लिखा- महात्मा गांधी और उनकी विचारधारा के हत्यारे के खिलाफ मैं खामोश नहीं बैठ सकता। उन्होंने प्रेस को जारी बयान में उन्होंने कहा- देश के सारे बड़े नेता कहते हैं कि देश का पहला आतंकवादी नाथूराम गोडसे था। आज गोडसे की पूजा करने वाले के कांग्रेस प्रवेश पर वो सब नेता खामोश क्यों हैं? उन्होंने अपनी पार्टी से पूछा कि क्या प्रज्ञा ठाकुर को भी कांग्रेस स्वीकार कर लेगी?
कांग्रेस को बाहर से देखने वाले गैरराजनीतिक विश्लेषक इन सवालों को उठाते उसके पहले पार्टी के ही पूर्व प्रदेश अध्यक्ष ने सार्वजनिक रूप से पूरी पार्टी के सामने इन मुद्दों को उठाया है, और अब कांग्रेस के सामने यह अग्निपरीक्षा की घड़ी है कि अपने एक क्षेत्रीय नेता, कमलनाथ, की इस बददिमागी के खिलाफ वह कुछ कर पाती है या नहीं? अभी कांग्रेस के 23 बड़े नेताओं की बागी चि_ी से ही कांग्रेस नहीं उबर पाई है, और वैसे में इस गिनती को 24 करने का खतरा क्या कांग्रेस पार्टी उठा पाएगी? हैरानी की बात तो यह है कि अहमद पटेल और मोतीलाल वोरा के गुजरने के बाद दिल्ली में पार्टी संगठन को चलाने के लिए जिन लोगों के नाम लिए जाते हैं, उनमें कमलनाथ का भी नाम चर्चा में आता था कि देश के कारोबारियों से उनके गहरे ताल्लुकात हैं, और वे विपक्ष में बनी हुई पार्टी के लिए मददगार हो सकते हैं। अब ऐसा लगता है कि कमलनाथ की कारोबार की समझ तो अधिक है, लेकिन कांग्रेस के नैतिक मूल्यों, उसके इतिहास, और देश की आजादी के बाद के उसके इतिहास की समझ भी उन्हें कम है, और परवाह भी कम है। गोडसे के उपासक कांग्रेस के लिए धरती पर आखिरी इंसान होने चाहिए जिन्हें पार्टी दाखिला दे। नैतिकता की धेले भर की परवाह करने वाले लोग यह मानेंगे कि किसी दिन संसद में अगर एक वोट से भी कांग्रेस की सरकार बनते-बनते रह जा रही हो, तब भी उसके लिए गोडसे की उपासक प्रज्ञा ठाकुर को कांग्रेस में नहीं लाना चाहिए। अंग्रेजी का एक शब्द है, नॉननिगोशिएबल, यानी जिस मुद्दे पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। जिस कांग्रेस को गांधी ने खड़ा किया, और अपने लहू से सींचा, उसके हत्यारों को, उन हत्यारों के उपासकों को अगर इस पार्टी ने गांधी की तस्वीर के नीचे बैठने की जगह दी जा रही है, तो इस पार्टी की नैतिकता पूरी तरह दीवालिया हो गई है।
हैरानी इस बात की है कि संघ परिवार और गोडसे पर सबसे अधिक हमला करने वाले मध्यप्रदेश के ही कांग्रेस के एक सबसे बड़े नेता, और कमलनाथ-सरकार बनवाने वाले सांसद दिग्विजय सिंह अब तक इस पर चुप हैं। दिग्विजय सिंह अपने पर सबसे ओछे और सबसे घटिया हमले झेलते हुए भी कभी गोडसे और संघ परिवार पर हमले में पीछे नहीं रहे। बल्कि लोगों का यह मानना है कि उन्होंने जरूरत से अधिक दूरी तक जाकर संघ परिवार पर हमले किए हैं जो कि एक चूक रही है, और कांग्रेस को इससे हिन्दू वोटरों के एक तबके में नुकसान भी हुआ है। हम मध्यप्रदेश कांग्रेस के इस ताजा कलंक के बीच में उन बातों पर जगह खर्च करना नहीं चाहते, लेकिन इतना तो तय है कि कमलनाथ के इस फैसले पर आज मध्यप्रदेश और कांग्रेस पार्टी से जुड़े हुए जो लोग चुप रहेंगे, वे गोडसे से परहेज न करने के गुनहगार दर्ज होंगे।
कांग्रेस पार्टी, और वैसे तो भाजपा भी, हर कुछ दिनों में आत्मघाती बयान या हरकत के बिना रह नहीं पातीं। एक तरफ बैठा-ठाले राहुल गांधी उत्तर भारत और दक्षिण भारत की राजनीति में फर्क गिनाते हुए उत्तर भारत में कांग्रेस के प्रति हिकारत का खतरा खड़ा करते हैं, तो मानो उसी दिन राहुल और कांग्रेस को टक्कर देने के लिए अहमदाबाद के स्टेडियम का नाम सरदार पटेल की जगह नरेन्द्र मोदी पर रखा जाता है। स्टेडियम-विवाद के अगले ही दिन कांग्रेस ने अपने आपको बैठे-ठाले गोडसे के मुद्दे पर उलझा लिया है। यह पूरी तरह कांग्रेस का घरेलू मामला है, उसकी घरेलू गंदगी है, और यह गंदगी का इतना बड़ा ढेर है कि पार्टी की कोई सफाई इसे ढांक नहीं सकती। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत-इंग्लैंड की खबरों में चल रही टेस्ट क्रिकेट सिरीज के बीच अहमदाबाद के क्रिकेट स्टेडियम का नाम नरेन्द्र मोदी क्रिकेट स्टेडियम कर दिया गया। एक लाख दस हजार क्षमता वाला यह स्टेडियम सरदार पटेल स्पोटर््स एन्क्लेव के भीतर मौजूद है, और उस एन्क्लेव का यही सबसे बड़ा, प्रमुख, और चर्चित ढांचा है। इसे दुनिया का सबसे बड़ा क्रिकेट स्टेडियम होने का फख्र हासिल है, और यह दुनिया में किसी भी तरह के स्टेडियमों में दूसरे नंबर पर है। इसे 1983 में उस वक्त की कांग्रेस सरकार ने बनवाया था, और 2006 में भाजपा के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के शासन में इसे पूरी तरह तोडक़र 800 करोड़ की लागत से दुबारा बनाया गया था। इस स्टेडियम को पहले गुजरात स्टेडियम कहा जाता था, फिर इसका नाम सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम पर रखा गया। इसके लिए 1982 में गुजरात की कांग्रेस सरकार ने सौ एकड़ जमीन दी थी, और 9 महीने में सरदार पटेल स्टेडियम को पूरा किया गया था। अभी जब भारत और इंग्लैंड का यह टेस्ट मैच इस स्टेडियम में तय हुआ तब तक इसका नाम मोटेरा स्टेडियम था, और मैच के दिन ही इसका नाम बदलकर नरेन्द्र मोदी स्टेडियम किया गया।
कल जब यह नया नामकरण हुआ तो देश के बहुत से लोगों ने यह याद दिलाया कि स्टेडियम का नाम तो सरदार पटेल के नाम पर था, और उनका नाम हटाकर मोदी का नाम उन्हीं के सत्ता में रहते हुए ठीक नहीं है। और सोशल मीडिया पर लोगों ने इस पर जमकर लिखा। भाजपा के बहुत से नेता इस पर हक्का-बक्का थे, उनमें से एक नेता ने अनौपचारिक आपसी चर्चा में कहा कि भाजपा के लोग तो पूरे देश को मोदी का मानते थे, अब मोदी ने अपने आपको एक स्टेडियम तक सीमित कर लिया।
लेकिन हिन्दुस्तान में नामकरणों का इतिहास खासा पुराना है, और विवादों से भरा हुआ भी है। कल से ही मोदी समर्थकों ने यह याद दिलाना या लिखना शुरू किया है कि नेहरू ने अपने शासनकाल में ही अपने आपको भारतरत्न की उपाधि दे दी थी। हालांकि दूसरे जानकार लोगों का यह कहना है कि उस वक्त के राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने सार्वजनिक और औपचारिक रूप से यह बताया था कि यह फैसला उनका था, और इसका नेहरू से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन इतिहास की तारीखें तो यही बताती हैं कि नेहरू को भारतरत्न नेहरू के कार्यकाल में ही मिला था। और भारतरत्न देने का फैसला देश के राष्ट्रपति निजी हैसियत से नहीं करते, बल्कि केन्द्र सरकार इसे तय करती है। भारत रत्न की औपचारिक प्रक्रिया भी यही थी कि प्रधानमंत्री नाम का प्रस्ताव राष्ट्रपति को भेजते हैं, और वे उसे मंजूर कर लेते हैं। जब 1955 में नेहरू को भारतरत्न दिया गया तो इसकी घोषणा एक कामयाब विदेश यात्रा से लौटे नेहरू के स्वागत में राष्ट्रपति भवन में आयोजित स्वागत-समारोह में राजेन्द्र प्रसाद ने की थी, और इस फैसले को गोपनीय रखा था। राष्ट्रपति ने कहा था कि उन्होंने संवैधानिक व्यवस्था से परे जाकर, बिना किसी सिफारिश के, या प्रधानमंत्री या मंत्रिमंडल की सिफारिश के बिना खुद होकर यह तय किया था। इसकी खबर भी अगले दिन के प्रमुख अखबारों में छपी थी। नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद के बीच के वैचारिक मतभेद जगजाहिर थे, लेकिन नेहरू की अंतरराष्ट्रीय कामयाबी का सम्मान करने के लिए राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति के सारे प्रोटोकॉल तोडक़र नेहरू के स्वागत के लिए एयरपोर्ट गए थे। लेकिन तमाम बातें अलग रहीं, इतिहास तो यही दर्ज करता है कि नेहरू या उनके मंत्रिमंडल ने उन्हें भारतरत्न देने की सिफारिश चाहे न की हो, नेहरू ने उसे नामंजूर तो नहीं किया था, जिसका कि उन्हें पूरा हक था। और ऐसी चुप्पी इतिहास में बड़ी बुरी नजीर के रूप में दर्ज होना तय था। आज जब मोदी के अपने गुजरात में मोदी की अपनी पार्टी की सरकार स्टेडियम का नाम मोदी के नाम पर कर चुकी है, तब भारतरत्न की मिसाल नेहरू विरोधियों के हाथ एक हथियार तो है ही।
उत्तरप्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती ने जिस तरह से अंबेडकर, कांशीराम के साथ अपनी प्रतिमाएं लगवाकर और अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की चट्टानी प्रतिमाएं बनवाकर सरकार का शायद हजार करोड़ रूपए खर्च किया था वह मामला तो अदालत तक पहुंचा। लेकिन मायावती और उनकी पार्टी को उस पर कोई अफसोस नहीं हुआ। कुछ ऐसा ही काम दक्षिण भारत में जगह-जगह वहां के मुख्यमंत्रियों को लेकर होता है, और सरकारी खर्च पर उनका महिमामंडन किया जाता है। देश में ऐसी लंबी परंपराओं के चलते हुए आज नरेन्द्र मोदी को पहला पत्थर कौन मारे? कहने के लिए तो भाजपा के नेताओं के बीच भी इस बात को लेकर हैरानी है कि एक पूरे देश के नेता ने अपने आपको अपने जीते-जी एक स्टेडियम तक सीमित कर लिया। बात सही भी है कि जो लोग मोदी को पूरी 130 करोड़ आबादी का नेता मानकर चल रहे थे, उन्हें मोदी का अपने आपको एक करोड़ दस लाख आबादी के स्टेडियम तक सीमित कर लेना निराश कर रहा है। इस देश में नेताओं के गुजरने के बाद उनके सम्मान की भी लंबी परंपरा है। खुद मोदी ने इस परंपरा को अभूतपूर्व ऊंचाई तक पहुंचाया जब उन्होंने जिंदगी भर कांग्रेसी रहने वाले, और आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा को दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा बनाकर रिकॉर्ड कायम किया। इसलिए लोगों के जाने के बाद भी उनके सम्मान की परंपरा रही है।
अब कुछ दूसरी मिसालों को देखें तो छत्तीसगढ़ में ही 2004-05 में भाजपा सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में उस वक्त सरकारी खर्च पर दस हजार ग्राम पंचायतों में अटल चौक बनवाए थे। उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी ताजा-ताजा भूतपूर्व प्रधानमंत्री हुए थे, और जीवित थे। छत्तीसगढ़ का इतिहास बताता है कि 2009 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर से राज्य के करीब दस हजार गांवों में अटल चौक बनाने की घोषणा की गई थी, जबकि हकीकत यह थी कि अधिकतर जगहों पर अटल चौक बनाए जा चुके थे। कुल मिलाकर अटलजी के जीते-जी उनकी याद में गांव-गांव में अटल चौक सरकारी खर्च पर बनाए गए थे जो कि अब खंडहर भी हो चुके हैं।
नेहरू और गांधी परिवार के लोगों के नाम पर, इंदिरा और राजीव के नाम पर सडक़ों या सार्वजनिक जगहों और संस्थानों के नामकरण को लेकर इनके आलोचक हमेशा से तीखे सार्वजनिक हमले करते आए हैं। लेकिन नेहरू, इंदिरा, और राजीव के नाम पर उनके जीते-जी नामकरण एकबारगी तो याद नहीं पड़ते हैं। ऐसे में नरेन्द्र मोदी के नाम पर स्टेडियम का नामकरण, और ऐसे स्टेडियम का नामकरण जो कि एक वक्त सरदार पटेल स्टेडियम भी था, यह बात मोदी का सम्मान बढ़ाने वाली नहीं है, उन्हें लेकर एक ऐसा अप्रिय और अवांछित विवाद खड़ा करने वाली है जो दूर तक उनका पीछा करेगा। इस नामकरण से मोदी को विवाद से परे कुछ हासिल हुआ हो यह तो लगता नहीं है, और विवादों से मोदी का कोई नया नाता नहीं है। फिलहाल यह एक पहेली है कि 130 करोड़ आबादी के प्रधानमंत्री ने अपने आपको एक करोड़ दस लाख के स्टेडियम तक सीमित क्यों कर लिया? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तानी लोगों का सब्र बड़ा बड़ा रहता है। गैरजरूरी और नाजायज नोटबंदी की वजह से देश के एटीएम पर लगी कतार में लोगों को मरते देखकर भी लोगों का सब्र था कि यहां तो दो-तीन दिन ही कतार में लगना पड़ रहा है, कारगिल में तो हमारे फौजी छह-छह महीने बर्फ में चौकसी करते हैं। कोई और तकलीफ आई तो लोगों ने मन को बहलाने का कोई और बहाना ढूंढ निकाला। अब डीजल और पेट्रोल के दाम सरकार ने नाजायज तरीके से आसमान पर बनाए रखे हैं, तो भी केन्द्र सरकार के अनुयायी भक्तजन सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं कि शेर पालना महंगा पड़ता है तो क्या गधा पाल लिया जाए? ऐसा सब्र कम ही लोकतंत्रों में होता होगा कि मोदी सरकार के चलते अगर महंगाई आसमान पर है, तो भी उनके भक्तों का सब्र बना हुआ है। अब हिन्दुस्तान में शेर अपने आपमें एक बड़ी अजीब मिसाल है। वह शेर जो इंसानों के किसी सीधे काम नहीं आता, जो इंसानों के पालतू जानवरों को भी मारता है, और कभी-कभी इंसानों को भी, उसे हिन्दुस्तान अपना राजकीय पशु बनाकर चल रहा है। जो सीधे-साधे बैल पूरी जिंदगी हिन्दुस्तानी खेतों को जोतते रहे, अनाज उगाकर भुखमरी खत्म करते रहे, वे सरकार की किसी लिस्ट में ही नहीं है। राजकीय पशु होने का सौभाग्य तो उस गाय को भी नहीं मिला जिसे बचाने के लिए पूरी सरकार और कई राजनीतिक दल, कई हिन्दू संगठन अपना सब कुछ दांव पर लगाते हुए दिखते हैं, और जिसका दूध पीकर करोड़ों हिन्दुस्तानी बड़े होते हंै। इसलिए हिन्दुस्तानी सब्र बड़ा अजीब है, जिस शेर को न जोता जा सकता, न दुहा जा सकता, जो न चौकीदारी करता, वह राजकीय पशु बना दिया गया, फिर भले वह लोगों को महज मारने का काम ही क्यों न करे!
लोगों का सब्र लोकतंत्र को हाशिए पर कर दिए जाने पर भी बना हुआ है। एटीएम-मौतों पर लोगों को कारगिल दिखता था, और लोकतंत्र के औजार-बक्से को देश का गद्दार साबित करने के लिए लोगों के पास इमरजेंसी की मिसाल है ही। हिन्दुस्तानी लोकतंत्र का जितना नुकसान इमरजेंसी ने नहीं किया था, उससे अधिक नुकसान अलोकतांत्रिक बातों को जायज ठहराने के लिए बाद में उसकी मिसाल ने किया। आपातकाल के गुजरे जमाना हो गया, उसे लगाने वाली इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी ने चुनावों में उसका दाम चुकाया, और भरपाई के बाद फिर चुनाव में कामयाबी भी पाई, बार-बार जीत हासिल की, लेकिन इमरजेंसी की मिसाल तो बनी ही हुई है।
हिन्दुस्तान में किसान आंदोलन का साथ देते हुए उसके पक्ष में दुनिया के सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच समर्थन जुटाने की एक हिन्दुस्तानी युवती की कोशिश ने उसे जेल पहुंचा दिया। इस सामाजिक कार्यकर्ता को देश का गद्दार करार देने दिल्ली की पुलिस को पल भर नहीं लगा, और उसकी जमानत का विरोध करना तो पुलिस का जिम्मा ही था। लेकिन कल जब उसे जमानत दी गई, तो जज ने जो लिखा है, कहा है, वह आज के इस गद्दार-करार-देने-के-शौकीन-लोकतंत्र में पढऩे लायक है। जज ने कहा- मुझे नहीं लगता कि एक वॉट्सऐप ग्रुप बनाना, या किसी हानि न पहुंचाने वाले टूलकिट का एडिटर होना कोई जुर्म है। जज ने कहा- तथाकथित टूलकिट से पता चलता है कि इससे किसी भी तरह की हिंसा भडक़ाने की कोशिश नहीं की गई थी।
जज ने जमानत देते हुए कहा- ‘मेरे ख्याल से नागरिक एक लोकतांत्रिक देश में सरकार पर नजर रखते हैं। सिर्फ इसलिए कि वो राज्य की नीतियों से असहमत हैं, उन्हें जेल में नहीं रखा जा सकता। राजद्रोह का आरोप इसलिए नहीं लगाया जा सकता कि सरकार को उससे चोट पहुंची है। मतभेद, असहमति, अलग विचार, असंतोष, यहां तक कि अस्वीकृति भी राज्य की नीतियों में निष्पक्षता लाने के लिए जरूरी औजार हैं। एक जागरूक और मुखर नागरिकता एक उदासीन या विनम्र नागरिकता की तुलना में निर्विवाद रूप से एक स्वस्थ और जीवंत लोकतंत्र का संकेत है। संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत असंतोष का अधिकार मजबूती से दर्ज है। महज पुलिस के शक के आधार पर किसी नागरिक की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। मेरे विचार से बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में ग्लोबल ऑडियंस की तलाश का अधिकार शामिल है। संचार पर कोई भौगोलिक बाधाएं नहीं हैं। एक नागरिक के पास कानून के अनुरूप संचार प्राप्त करने के सर्वोत्तम साधनों का उपयोग करने का मौलिक अधिकार है। ये समझ से परे है कि प्रार्थी पर अलगाववादी तत्वों को वैश्विक प्लेटफॉर्म देने की तोहमत कैसे लगाई गई है? एक लोकतांत्रिक देश में नागरिक सरकार पर नजर रखते हैं, सिर्फ इसलिए कि वो सरकारी नीति से सहमत नहीं हैं, उन्हें जेल में नहीं रखा जा सकता। देशद्रोह के कानून का ऐसा इस्तेमाल नहीं हो सकता। सरकार के जख्मी गुरूर पर मरहम लगाने के लिए देशद्रोह के मुकदमे नहीं थोपे जा सकते। हमारी पांच हजार साल पुरानी सभ्यता अलग-अलग विचारों की कभी भी विरोधी नहीं रही। ऋग्वेद में भी अलग-अलग विचारों का सम्मान करने के हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का जिक्र है। ऋग्वेद का एक श्लोक कहता है- हमारे पास चारों ओर से ऐसे कल्याणकारी विचार आते रहें जो किसी से न दबें, उन्हें कहीं से भी रोका न जा सके, और जो अज्ञात विषयों को प्रकट करने वाले हों।’
कल के अदालत के इस आदेश के बाद सोशल मीडिया पर देश भर के लोग इसकी तारीफ कर रहे हैं, और यह लिख रहे हैं कि देश के आज के माहौल में लोकतंत्र को समझने के लिए इस आदेश को पढ़ा जाना चाहिए। जिन लोगों को हिन्दुस्तान में इमरजेंसी का इतिहास याद होगा, उन्हें यह भी याद होगा कि इंदिरा गांधी के चुनावी फैसलों से असहमत एक जज ने उनकी चुनावी जीत को खारिज कर दिया था, और उसके बाद विदेशी साजिश के हाथ की तोहमत लगाते हुए इंदिरा ने इमरजेंसी लगाई थी जिसने हिन्दुस्तान में गैरकांग्रेसवाद की एक जमीन तैयार की थी, और नेहरू की बेटी का नाम काले अक्षरों में लिखा था, और देश की पहली गैरकांग्रेसी, कांग्रेस-विरोधी सरकार को मौका दिया था। लोगों को याद होगा कि इमरजेंसी के दौर में भी सुप्रीम कोर्ट के कुछ ऐसे जज थे जिन्होंने उसके खिलाफ जमकर लिखा था, और अदालत की इज्जत को बचाया था, बढ़ाया था। यहां यह भी समझने की जरूरत है कि आज जब देश की सबसे बड़ी अदालत के बड़े-बड़े जज भारतीय न्यायपालिका की साख चौपट कर रहे हैं, तो दिल्ली की एक स्थानीय अदालत के एक एडिशनल सेशन जज धर्मेन्द्र राणा ने लोकतंत्र की एकदम खरी और खालिस व्याख्या करके इस सामाजिक कार्यकर्ता युवती को जमानत दी है, और सरकार के लापरवाही से दिए जा रहे देश के साथ गद्दारी के फतवों को खारिज किया है।
हिन्दुस्तान के लोगों का जो असाधारण सब्र तकलीफ झेलने के लिए बना हुआ है, उसे भी यह जमानत आदेश झंकझोरता है। लोकतंत्र को जिंदा रखने के नाम पर अगर लोकतंत्र को कुचला जा रहा है, और जनता को उसमें कुछ भी खराब या बुरा नहीं दिख रहा है, तो इस नौबत को बदला जाना चाहिए, और उसके लिए एक छोटी सी टूलकिट अदालत के इस जमानत-आदेश की शक्ल में सामने आई है। हिन्दुस्तान के अलग-अलग बहुत से धर्मों ने लोगों को सब्र रखना इस हद तक सिखा दिया है कि वे जुल्म, तानाशाही, और बेइंसाफी की नौबत में भी सब्र धरे बैठे रहते हैं। यह बात समझने की जरूरत है कि लोकतंत्र सब्र की भावना में फलने-फूलने वाला पेड़ नहीं है, उसके लिए जिम्मेदारी भी इंसाफपसंद भावना जरूरी होती है। देश के भक्तजनों को कल के इस अदालती आदेश को पढऩा चाहिए जो कि देश की किसी बहुत बड़ी अदालत का तो नहीं है, लेकिन आज के माहौल में देश की एक छोटी अदालत का बहुत बड़ा आदेश जरूर है। और चूंकि इस जज ने जमानत देते हुए भारत की पांच हजार साल पुरानी सभ्यता और ऋग्वेद का भी जिक्र किया है, इसलिए भारतीय संस्कृति के वकीलों को इसे खारिज करना कुछ मुश्किल भी पड़ेगा।
हिन्दुस्तान में चुनाव और राजनीति का सर्वे करने वाले एक गैरसरकारी संगठन की खबर हर प्रदेश या राष्ट्रीय चुनाव के समय आती है कि उम्मीदवारों की अपनी घोषणा के मुताबिक वे कितने करोड़ की दौलत के मालिक हैं। फिर जब चुनाव हो जाता है तब एक बार फिर विश्लेषण आता है कि संसद या किस विधानसभा में कितने अरबपति या कितने करोड़पति पहुंचे हैं। हिन्दुस्तान की तस्वीर अब ऐसी बन गई है कि हर चुनाव सदनों में और अधिक करोड़पति, और अधिक अरबपति पहुंचा देता है। नतीजा यह होता है कि देश के सबसे गरीब लोगों की तकलीफों को रूबरू देखने और समझने वाले लोग देश के सदनों में एकदम कम हो गए हैं। इस मुद्दे पर लिखना आज इसलिए सूझा कि पड़ोस के मध्यप्रदेश में बैतूल के कांग्रेस विधायक निलय डागा के घर से इंकम टैक्स छापे में साढ़े 7 करोड़ रूपए नगद मिले हैं। इनके पास से अब तक कुल 8.10 करोड़ रूपए नगद मिले हैं, और 5 बैंक लॉकर खुलना बाकी है।
लेकिन यह बात महज कांग्रेस के एक विधायक के साथ हो ऐसा भी नहीं है। अधिकतर पार्टियों के बहुत से नेताओं के पास काली कमाई बढ़ते चलती है, और जाहिर है कि राजनीतिक ताकत को दुहकर इस तरह कमाने वाले लोगों को जनता के प्रति जवाबदेह रहने की जरूरत भी नहीं रहती क्योंकि ऐसे लोग बहुत सारे मामलों में टिकट खरीद लेते हैं, या जीत खरीदने की संभावना साबित करके किसी बड़ी पार्टी की टिकट पा लेते हैं, बहुत लंबा कालाधन खर्च कर चुनाव जीत लेते हैं, और फिर अपने आपको बेचने की मंडी में पेश कर देते हैं।
क्या अब ऐसे चुनाव सुधार का वक्त आ गया है जब गैरकरोड़पति लोगों के लिए चुनाव टिकटों में एक आरक्षण लागू किया जाए? क्या गरीब आबादी की बहुतायत वाली सीटों को गरीब उम्मीदवारों के लिए ही आरक्षित रखा जाए? जिस तरह देश या कुछ राज्यों में गरीब अनारक्षित तबके के लिए भी पढ़ाई या नौकरी में आरक्षण लागू हो रहा है, उसी तरह गरीब अनारक्षित के लिए लोकसभा और विधानसभा की अनारक्षित सीटों में से कुछ को तय किया जाए?
अगर देश के गरीबों की तकलीफों की समझ संसद और विधानसभाओं से घटती चली जाएगी, तो वह बात बजट से लेकर दूसरे हर किस्म के विधेयक और कानून पर बहस पर भी असर डालेगी। लोग गरीबों के हित की न सोच पाएंगे, न बोल पाएंगे। इसकी एक छोटी सी मिसाल छत्तीसगढ़ की विधानसभा में पिछली भाजपा सरकार के पहले या दूसरे कार्यकाल में देखने मिली। सरकार ने विधानसभा में एक संशोधन पेश किया कि शहरी कॉलोनियों में गरीब तबके के लिए भूखंड छोडऩे की अनिवार्यता खत्म की जाती है, और उसके एवज में कॉलोनी बनाने वाले लोग सरकार को एक भुगतान कर सकेंगे जिससे सरकार शहर के आसपास अपनी किसी खाली जमीन पर छोटे आवास बनाकर बेघर लोगों को देगी। हर कॉलोनी में कमजोर तबके के लिए भूखंड रखने की शर्त के पीछे बड़ी व्यवहारिक सोच थी कि संपन्न लोगों के घरों में काम करने वाले लोगों को वहीं कॉलोनी में रहने मिल जाएगा जिससे दोनों तबकों को सहूलियत होगी। अब जब किसी कॉलोनी से कई किलोमीटर दूर गरीबों के घर बन रहे हैं, तो जाहिर है कि वहां से महिलाओं को काम पर आने में दिक्कत होती है, वे अपने घर के काम, अपने बच्चों को छोडक़र आसानी से नहीं आ पातीं, और उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता इस एक अनिवार्यता के खत्म होने से बहुत बुरी तरह प्रभावित हो रही है। लेकिन विधानसभा में उस वक्त विपक्ष के कांग्रेस विधायकों को भी ऐसी कोई सामाजिक दिक्कत समझ नहीं आई, और यह संशोधन पास हो गया।
जिस तरह विधायकों और सांसदों के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आधार पर सीटें आरक्षित रहती हैं, जिस तरह पंचायत और म्युनिसिपल चुनाव में अनुसूचित जाति और जनजाति के उम्मीदवार, महिला या ओबीसी उम्मीदवारों के लिए सीटें आरक्षित रहती हैं, उसी तरह गरीब आबादी वाली सीटों को गरीब उम्मीदवारों के लिए आरक्षित क्यों नहीं किया जा सकता? हो सकता है कि आज भाजपा और कांग्रेस जैसी जमी-जमाई और बड़ी पार्टियों के बीच यह सोचने में भी दिक्कत होगी कि वे किसी गरीब को कहां से ढूंढेंगे? लेकिन ऐसा ही सवाल तो उस वक्त भी हुआ था जब म्युनिसिपल और पंचायतों में महिला आरक्षण लागू किया गया था। उसके बावजूद हर गांव-कस्बे और शहर में महिला उम्मीदवार मिलती ही हैं।
यह भी हो सकता है कि ऐसी कोई व्यवस्था लागू हो, और अपने-आपको गरीब साबित करने के लिए लोग अपनी दौलत परिवार के दूसरे लोगों के नाम करके एक फर्जी सर्टिफिकेट जुटा लें, लेकिन ऐसे फर्जीवाड़े से बचने के लिए यह शर्त भी लागू की जा सकती है कि आश्रित परिवार या खुद के पास पिछले कितने बरसों में किस सीमा से अधिक संपत्ति न रही हो। जिन लोगों को आज का यह तर्क केवल खयाली पुलाव या जुबानी जमाखर्च लग रहा है, उन्हें देखना चाहिए कि देश की संसद और विधानसभाओं में रात-दिन गरीबों के हित किस तरह कुचले जा रहे हैं। जिस तरह आज सौ दिन पूरे करने जा रहे किसान आंदोलन की वजह से कुछ किसानी मुद्दे राजनीतिक दलों के बीच चर्चा का सामान बन पाए हैं, उसी तरह गरीबों के मुद्दे एक बार फिर चर्चा में लाने की जरूरत है। बड़ी और स्थापित पार्टियां ऐसा करना नहीं चाहेंगी, लेकिन गरीबों के हिमायती मुखर लोगों और संगठनों को ऐसी बहस छेडऩी चाहिए जो कि चाहे गरीब-आरक्षण तक न पहुंच पाए, लेकिन गरीब-मुद्दों तक तो पहुंच ही सके। जब अरबपतियों को लगेगा कि उनकी सीटें गरीब-मुद्दों की वजह से गरीब-आरक्षित हो सकती हैं, तो हो सकता है कि अरबपति भी भाड़े पे कुछ लोगों को रखकर गरीब मुद्दों को तलाशने, समझने, और उठाने का काम करें।
देश की तीन चौथाई आबादी गरीब है, और शायद दो-चार फीसदी सांसद-विधायक भी गरीब नहीं हैं। इस नौबत को बदलने की जरूरत है। आर्थिक आधार पर आरक्षण महज पढ़ाई और नौकरी तक सीमित न रहे, संसद और विधानसभा की सीटों का भी आर्थिक-आधार पर आरक्षण किया जाना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जैसे-जैसे दुनिया आगे बढ़ रही है हिन्दुस्तान जैसे दर्जे के देश भी सहूलियतों से भरते जा रहे हैं। पहले लोग ट्रेन या बसों से दूर के शहर जाते थे, आज अगर जेब में पैसे हों तो लोग प्लेन से निकल जाते हैं, या फिर अपनी कार से भी। कार अगर भरी हुई हो, तो वह बस या ट्रेन के मुकाबले सस्ती भी पड़ सकती है, लेकिन लोगों को अकेले भी जाना हो तो भी अपनी कार से जाना साफ-सुथरा लगता है, और सहूलियत का भी लगता है। बस अड्डे या स्टेशन पर गंदगी में औरों के साथ इंतजार नहीं करना पड़ता, और घर से घर तक का सफर अपनी कार में अधिक सुविधाजनक रहता है। शहरों में अब कई-कई मंजिल की पार्किंग बनती चली जा रही है, और लोग घूमने के लिए जिस बगीचे में साइकिल से जा सकते थे, उसके पास भी अब कई मंजिल की कार पार्किंग बन गई है जो कि एक बड़ी आधुनिक सहूलियत है। शहरों के भीतर लोग पहले पैडल-रिक्शा पर सवार होकर चले जाते थे, फिर ऑटोरिक्शा और सिटी बसों की बारी आई, लेकिन इस पूरे दौर में लोग निजी गाडिय़ों को बढ़ाते चले गए, खरीदी के लिए फाइनेंस कंपनियां लाल कालीन बिछाकर खड़ी थीं, और एक रूपया भी नगद भुगतान किए बिना गाड़ी मिल जा रही है। नतीजा यह है कि लोग पहली गाड़ी तो खरीदते ही हैं, उसके पुराने होने पर उसे बेचकर नई गाड़ी खरीदते भी अब उतना भी बोझ महसूस नहीं होता जितना कि कुछ बरस पहले नई पतलून खरीदते हुए होता था।
नतीजा यह है कि जैसे-जैसे सहूलियत बढ़ रही हैं, वैसे-वैसे लोगों की आदतें भी बदल और बिगड़ रही हैं, और लोगों के खर्च बढ़ रहे हैं, पर्यावरण पर बोझ बढ़ रहा है, सडक़ें और अधिक जाम हो रही हैं, धरती पर प्रदूषण इन गाडिय़ों को बनाते हुए भी बढ़ रहा है, और इनके चलने से भी। अब जैसे-जैसे किनारे के पेड़ काट-काटकर, मैदानों को छोटा करके सडक़ें अधिक चौड़ी की जा रही हैं, वैसे-वैसे गाडिय़ां बढ़ती जा रही हैं, पार्किंग बढ़ती जा रही है, और लोग बेझिझक गाडिय़ों का अधिक से अधिक इस्तेमाल करने लगे हैं।
यह भी देखने की जरूरत है कि दुनिया के सबसे संपन्न, सबसे विकसित, लेकिन साथ-साथ सबसे सभ्य यूरोपीय देशों में लोग साइकिल का चलन बढ़ाते जा रहे हैं, वहां पब्लिक ट्रांसपोर्ट मुफ्त किया जा रहा है ताकि लोग निजी गाडिय़ों न चलाएं। लंदन जैसे शहर में अधिकतर लोग पैदल या पैडल से चलते हैं, अधिक दूरी हो तो बस या सबवे (ट्रेन) से चलते हैं, और बहुत ही अधिक जरूरी हो तो ही कार लेकर निकलते हैं। पैडल और पैदल से लोगों और धरती, दोनों की ही सेहत बेहतर रहती है।
लेकिन गाडि़य़ों से परे की बात करें तो भी सहूलियतें लोगों को बर्बाद भी कर रही हैं। लोग कुछ सामान सस्ते मिलने की वजह से बड़े-बड़े सुपर बाजार तक जाते हैं, और वहां से उन सामानों को सस्ते में पाकर साथ में दर्जनों दूसरे लुभावने गैरजरूरी सामान लेकर लौटते हैं। खर्च भी अधिक हो जाता है जबकि नीयत बचत की रहती है। और लाया गया गैरजरूरी सामान आमतौर पर सेहत पर भी भारी पड़ता है। इन दिनों हिन्दुस्तान के छोटे-छोटे शहरों में भी मोटरसाइकिलें दौड़ाते हुए बड़े-बड़े बैग टांगे लोग दिखते हैं जो खाना पहुंचाते हैं। अब लोग घर बैठे अपने फोन पर मनचाहे रेस्त्रां का मनचाहा खाना बुला सकते हैं, जिसके 30 मिनट में पहुंच जाने की गारंटी सी रहती है। नतीजा यह है कि लोग घर का सादा और सेहतमंद खाना खाने के बजाय अधिक बार बाहर का खाना बुलाने लगे हैं। कुछ ऐसी ही आदत ऑनलाईन खरीदी की सहूलियत से बिगड़ी है। पहले लोग किसी सामान की जरूरत होने पर बाजार जाकर उसे देखते थे, परखते थे, और फिर ठीक लगने पर खरीदते थे। अब इंटरनेट पर किसी सामान को तलाशते ही उसके सौ-सौ विकल्प साथ में दिखने लगते हैं, और ऐसा होता ही नहीं कि लोगों को उसमें से कोई सामान पसंद न आए। खरीदी पहले बाजार खुले रहने पर वहां जाकर होती थी, अब वह खरीदी चौबीसों घंटे कभी भी, कहीं से भी, आनन-फानन हो जाती है। सहूलियत तो बढ़ी है, लेकिन गैरजरूरी खरीदी और फिजूलखर्ची इनमें भी खासी बढ़ोत्तरी हो गई है।
इन दिनों हर किसी के हाथ में दिखने वाले मोबाइल फोन को देखें तो लोग अपने फोन के तमाम फीचर जान भी नहीं पाते हैं कि उसके पहले उसका नया मॉडल आ जाता है जो कि कई नए फीचर के साथ लुभाना शुरू कर देता है। लोग बिना जरूरत नए फोन पर चले जाते हैं, और पुराना हैंडसेट आसपास के लोगों को दे देते हैं, या दुकान में एक्सचेंज में बेच देते हैं। जिन नए फीचरों की कोई जरूरत नहीं होती है, कैमरों के बढ़े हुए मेगापिक्सल का फर्क भी जिन्हें समझ नहीं पड़ता है वे भी नए मॉडल पर चले जाते हैं। पुराने हैंडसेट की जिंदगी खासी बाकी रहती है, लेकिन उससे मन भर जाता है क्योंकि सामने नया मॉडल रिझाते हुए खड़ा हो जाता है।
यह पूरा सिलसिला पूंजीवादी व्यवस्था और बाजार को बड़ा माकूल बैठता है। लेकिन लोगों की निजी जिंदगी गैरजरूरी खर्च के बोझ से लद जाती है। अब अपनी, परिवार की, और आसपास के दायरे की फिजूलखर्ची की हवा कुछ ऐसे झोंके लेकर आती है कि लोग खर्च न करने की हालत में एक मानसिक अवसाद, डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं। कुल मिलाकर आज की बात का मकसद यह है कि बढ़ी हुई सहूलियतें अगर समझदारी से इस्तेमाल न हों तो वे जेब और धरती, इंसान की सेहत और शहरी ढांचे सभी पर बोझ होती है। दुनिया के सबसे विकसित योरप में खासी तनख्वाह पाने वाले डॉक्टर और प्रोफेसर भी, बड़े अफसर और मंत्री भी साइकिल से आते-जाते दिखते हैं जिस कसरत से उनकी सेहत भी ठीक रहती है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में लोग बगीचे में पैदल घूमने के लिए भी कार से जाकर कई मंजिला पार्किंग में कार चढ़ा सकते हैं। लोग अब तय करें कि विकास कहां है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पर्यावरण के लिए लड़ते हुए बरसों से खबरों में बनी हुई योरप की किशोरी ग्रेटा थनबर्ग की ताजा आलोचना अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के मंगल मिशन पर केन्द्रित है, और ग्रेटा ने इसे अमीर देशों की पैसों की बर्बादी करार दिया है। उसने लिखा है कि आज जब धरती जलवायु परिवर्तन से जूझ रही है तब इसे अनदेखा करके दुनिया के अमीर देश दूसरे ग्रहों की यात्रा पर पैसा बर्बाद कर रहे हैं। ग्रेटा का यह बयान दुनिया में आज लोगों की आम सोच के ठीक खिलाफ है। आज दुनिया के देश न सिर्फ इस बात पर स्वाभिमान और अभिमान से लबालब हैं कि उनके अंतरिक्षयान किस-किस ग्रह तक पहुंच रहे हैं, बल्कि भारत जैसे देश तो इस बात को लेकर भी अभिमान करते हैं कि अमरीका की एक अंतरिक्ष यात्री एक भारतवंशी महिला भी थी। अंतरिक्ष तक पहुंचना धरती की गुरुत्वाकर्षण शक्ति को चुनौती देने वाला एक ऐसा काम है जो राष्ट्रीय गौरव का समझा जाता है, फिर चाहे उसका सीधा-सीधा कोई इस्तेमाल धरती के लिए न हो।
वैसे तो विज्ञान को लेकर दिए गए बहुत किस्म के खर्च को लेकर यह बात कही जा सकती है कि उसका कोई तुरंत उपयोग नहीं है, लेकिन कब दुनिया के किस शोधकार्य का इस्तेमाल कहां पर होने लगे, इसका कोई ठिकाना तो रहता नहीं है। वैज्ञानिक कुछ खोजते रहते हैं, और उनके हाथ कुछ और चीजें लग जाती हैं। इसलिए अंतरिक्ष अभियानों को हम फिजूलखर्ची तो नहीं मानेंगे, लेकिन फिर भी ग्रेटा थनबर्ग की बात से एक दूसरी चीज जो निकलती है, उस पर गौर करने की जरूरत है। अंतरिक्ष के किस ग्रह पर पानी है, किस पर हवा है, किस पर किसी किस्म के जीवन की संभावना है, यह खोज करते-करते वैज्ञानिक लगातार एक ऐसी संभावना भी खोज रहे हैं कि वक्त-जरूरत इंसानों को किस ग्रह पर बसाया जा सकता है। ऐसी जरूरत इसलिए भी लग रही है कि अमरीकी फिल्म, द डे ऑफ्टर, की तरह अगर दुनिया परमाणु युद्ध का शिकार हो जाती है, तो उसके बाद जीवन कैसा बचेगा, बचेगा या नहीं बचेगा, और बचा हुआ जीवन किस तरह की जटिलताओं से भर जाएगा, इसका आज कोई अंदाज नहीं है। इसलिए अगर मानव प्रजाति को बचाना है, तो इसके लिए दुनिया में कोई दूसरा ग्रह भी तलाशना फिजूल का काम नहीं है जहां कि इंसान जिंदा रह सकें। यह एक अलग बात है कि एक तरफ जो अमीर देश अंतरिक्ष में ऐसे लंबे-लंबे सफर कर रहे हैं, उन पर खासा खर्च कर रहे हैं, वे देश आज धरती को बचाने के लिए उतनी मेहनत नहीं कर रहे। अभी नए अमरीकी राष्ट्रपति के आने के पहले पिछले चार बरस तक तो डोनल्ड ट्रंप ने अमरीका को जलवायु के पेरिस समझौते से ही बाहर कर लिया था। अपनी अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों को निभाने से इंकार कर दिया था। और आज भी मंगल मिशन वाला यह अमरीका दुनिया में सामानों की सबसे अधिक फिजूलखर्ची करने वाला देश है। इसलिए ग्रेटा थनबर्ग की बात के इस पहलू में तो दम है कि इंसान, और खासकर अमीर देश, इस धरती को बचाने की आसान और मुमकिन कोशिशों पर तो गौर नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे इस धरती के विकल्प को खोजने की कोशिश में बरसों की दूरी पर बसे हुए ग्रहों पर हवा-पानी तलाश रहे हैं। ऐसा करना किसी कोरोना के हाथों धरती के तमाम जीवन के खत्म होने के मौके पर तो काम का साबित हो सकता है कि जब थोड़े से लोग ही धरती पर बचने हों, तो कुछ जोड़ों को दूसरे ग्रह पर भेजकर इस नस्ल को जिंदा रखा जाए। लेकिन आज अगर पर्यावरण और जलवायु की फिक्र करके इस धरती को पूरे का पूरा बचाना मुमकिन है, तो उसकी तरफ पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जा रहा।
लेकिन दूसरे ग्रहों तक का सफर और वहां पर बसाहट के पीछे अमीर देशों की नीयत महज इतने तंगनजरिए की नहीं हो सकती कि वह इंसानी नस्ल को जिंदा रखने के लिए हो। जाहिर तौर पर दूसरे ग्रहों की यह दौड़ उन ग्रहों पर भी अपने पहले हक या अपने एकाधिकार को कायम करने की एक बेताबी भी है कि दूसरे देश जब वहां पहुंचें तो पहले पहुंचे हुए देश उनसे लंैडिंग की फीस ले सकें। ग्रेटा थनबर्ग की कही हुई बात पर सोचने की जरूरत है कि आज जब इस धरती पर बदहाली और तंगहाली का यह आलम है, तब क्या दुनिया के संपन्न देशों को अपने सामाजिक सरोकार साबित करते हुए इस धरती को ही बचाने की बेहतर कोशिश नहीं करनी चाहिए? इंसानों ने खूबसूरत कुदरत वाली इस संपन्न धरती को पिछले कुछ हजार सालों में ही इस हद तक बर्बाद कर दिया है कि दूसरे किसी ग्रह के प्राणी यहां आकर बसने की सोचेंगे भी नहीं। जब लोगों की बातों में विरोधाभास रहता है तभी उनकी बातों की खामियों की तरफ ध्यान जाता है। आज इस धरती के जीवन को खत्म करने वाले अमीर देश जब दूसरे किसी ग्रह पर जीवन तलाशने की महंगी मुहिम चलाते हैं, तो उनकी नीयत का विरोधाभास खुलकर दिखता है। ग्रेटा थनबर्ग के ताजा बयान से लोगों को ऐसे विरोधाभास के बारे में सोचने का मौका मिल रहा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के पिछले आम चुनाव में न सिर्फ एनडीए गठबंधन को, बल्कि उसकी मुखिया भाजपा को अपने दम पर इतनी सीटें मिल गई थीं कि सरकार बनाने के लिए किसी बाहरी सांसद की जरूरत नहीं थी, वरना उस वक्त भी देश भर की पार्टियों से सांसद कूद-कूदकर भाजपा में चले गए होते। आज जब बंगाल में विधानसभा चुनाव होने हैं तो शायद ही कोई ऐसा दिन गुजरता हो जब सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के लोग भाजपा में न जा रहे हों। यह सिलसिला ऐसे दूसरे राज्यों में भी चलेगा जहां पर विधानसभा के चुनाव होने हैं। एक-एक करके देश के कई राज्यों में गैरभाजपाई सरकारें पलट दी गई हैं, और अब तो धीरे-धीरे बदनाम ईवीएम की चर्चा भी ठंडी पड़ गई है कि उसकी वजह से भाजपा की सरकार बन रही है। अब तो लोग वोट किसी भी पार्टी के निशान पर डालें, उसके विधायक, और सांसद भी, जाते भाजपा में ही हैं। भारतीय लोकतंत्र में भाजपा एकध्रुवीय ताकत बन गई है, और यह ताकत बढ़ती ही चल रही है।
लेकिन हम अपनी पहले की बात को यहां दुहराना चाहते हैं जिसका भाजपा की ताकत से कोई लेना-देना नहीं है। हमारी बात मोटेतौर पर लोकतंत्र में दलबदल की है, और खासकर चुनावी दलबदल की है। संसद और विधानसभाओं में दलबदल को रोकने के लिए एक कानून बनाया गया था जिसके हिसाब से दलबदल करने वाले की सदन की सदस्यता खत्म हो जाती थी। उससे पार पाने के लिए अब किसी पार्टी में एक तिहाई सदस्यों को अलग करके नई पार्टी बना दी जाती है, और दलबदल कानून से बच लिया जाता है। दूसरा तरीका यह होता है कि चुनाव के ठीक पहले किसी पार्टी के सांसदों और विधायकों से इस्तीफे दिलवाकर उन्हें दूसरी पार्टी अपने निशान पर चुनाव लड़वा लेती है, और पूरी जिंदगी किसी पार्टी को चूसकर चलने वाले लोग रातों-रात अगले पांच बरस चूसने के लिए एक नई देह ढूंढ लेते हैं।
हम बरसों से इस बारे में लिखते आ रहे हैं कि किसी एक पार्टी के निशान पर जीतकर संसद या विधानसभा पहुंचने वाले लोग अगर उस पार्टी से इस्तीफा देते हैं, या सदन से इस्तीफा देते हैं, तो उनके पांच बरस तक किसी भी पार्टी या निशान से चुनाव लडऩे पर रोक लगनी चाहिए। लोग अगर अपने कार्यकाल के आखिरी दौर में इस्तीफा देते हैं तो अगले चुनाव में भी उनके चुनाव लडऩे पर रोक लगनी चाहिए। कानून के बेहतर जानकार ऐसी रोक को लोगों के बुनियादी हक के खिलाफ मान सकते हैं, लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि लोगों के बुनियादी हकों से परे लोकतंत्र की एक बुनियादी जरूरत भी होती है। और अगर संसद या विधानसभाओं को नीलामी की किसी मंडी का चबूतरा बना दिया जाए, तो यह बात लोकतंत्र के बुनियादी हक के खिलाफ है। हिन्दुस्तान में राजनीति का इससे घटिया और कोई दौर कभी नहीं आया जब खरीदने और बेचने के धंधे में शर्म पूरी तरह से खत्म हो चुकी है। अब लोग वोट डालते हुए चाहे जो चेहरा, या चाहे जो निशान देखकर वोट डालते हों, उसका कोई मतलब नहीं रह गया है। कोई लोकतंत्र भला ऐसे कैसे चल सकता है कि जनता किसी को भी वोट दे, और सरकार किसी और की भी बनती चले, मंझधार में डूबती चले, और साथ-साथ जनमत को भी गहरे डुबाती चले? यह सिलसिला जनता के मन में संसदीय राजनीति, नेताओं, और पार्टियों के बीच एक ऐसी हिकारत भर चुका है कि जिसकी अनदेखी आज मुश्किल नहीं है क्योंकि राजनीति संवेदनाशून्य हो गई है, राजनीति के कोई मूल्य नहीं रह गए हैं, कोई नैतिकता नहीं रह गई है।
अब सवाल यह उठता है कि कानून बनाने का हक संसद के भीतर जिस बहुमत का रहता है, आज का वह बहुमत बहुत सक्रियता से जनमत को खारिज करने के शगल में लगा हुआ है। आज देश में सबसे अधिक दलबदल भाजपा के करवाए हो रहे हैं, सबसे अधिक सरकारें भाजपा गिरवा रही है, दूसरी पार्टियों से लोगों को लाकर अपनी टिकट पर संसद और विधानसभा में भाजपा पहुंचा रही है, तो ऐसे में दलबदल के खिलाफ नया कानून भाजपा की लीडरशिप वाला बाहुबल भला क्यों बनाएगा? अगर दलबदलुओं के चुनाव लडऩे पर अपात्रता का कोई कानून बनेगा तो उससे सबसे बड़ा नुकसान तो भाजपा की रणनीति को ही होगा। इसलिए हमारी लिखी हुई यह बात बिना संभावनाओं वाली एक नैतिक-सैद्धांतिक बात है जिसका कोई भविष्य नहीं है। लेकिन आगे अगर वक्त बदलेगा, संसद और विधानसभाओं में शक्ति संतुलन बदलेगा, तो देश के राजनीतिक दलों पर ऐसा दबाव जरूर डालना चाहिए कि वे खरीद-फरोख्त का, आत्मा को अचानक जगाने का यह धंधा बंद करें। एक वक्त था जब हरियाणा से दलबदल के लिए शुरू हुए आयाराम-गयाराम जैसे शब्द को खत्म करने के लिए दलबदल विरोधी कानून बनाया गया था। आज उस कानून को दशकों पहले की पेनिसिलिन की तरह बेअसर कर दिया गया है, और आज का भारतीय राजनीतिक परकाया प्रवेश इस कानून की सलाखों के आरपार रात-दिन हो रहा है। जो लोग हिन्दुस्तान में लोकतंत्र चाहते हैं उन्हें चाहिए कि इस बात को कम से कम बहस में जिंदा रखें, कम से कम उन पार्टियों के बीच इसे बढ़ाएं जो कि इस धंधे में नहीं लगी हैं, और आने वाले वक्त में संभावनाएं देखकर पार्टियों को मजबूर करें कि इस धंधे के खिलाफ एक नया कानून बने। कुछ दशकों के भीतर दलबदल कानून पूरी तरह से बेअसर हो चुका है, और भारतीय चुनावी लोकतंत्र मंडी में चबूतरे पर खड़े तन और मन नीलाम कर रहा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत के सरकारी क्षेत्र में काम करने वाले कम ही लोग इज्जत पाते हैं। यहां सरकारी से मतलब गैरकारोबारी है, ऐसे क्षेत्र जो कि सरकार से जुड़े सार्वजनिक उपक्रम हों, या कि सहकारी संस्थाएं हों। इनमें सबसे अधिक इज्जत के साथ वर्गीज कुरियन का लिया जाता है जिन्होंने गुजरात के आनंद में दूध का एक सहकारी आंदोलन खड़ा किया, और अमूल नाम का एक ब्रांड जो कि हिन्दुस्तान के सबसे भरोसेमंद ब्रांड में से एक है। इसी तरह ई श्रीधरन का नाम लिया जाता है जिन्होंने रिकॉर्ड समय में न सिर्फ दिल्ली मेट्रो शुरू की, बल्कि देश के कई और मेट्रो प्रोजेक्ट में उनका योगदान रहा। अब करीब 90 बरस की उम्र में अपने गृहराज्य केरल में बसे हुए श्रीधरन ने भागवत-प्रवचन के काम के साथ-साथ भाजपा की सदस्यता ली है और कल से वे खबरों में हैं। वे एक बड़े काबिल तकनीकी-अफसर माने जाते रहे हैं, और उन्हें पद्मविभूषण से सम्मानित भी किया गया था।
जिन लोगों को श्रीधरन के भाजपा में जाने से कुछ हैरानी हो रही है, उन्हें याद रखना चाहिए कि 2014 के आम चुनाव के पहले उन्होंने सार्वजनिक रूप से नरेन्द्र मोदी की प्रधानमंत्री के रूप में सिफारिश की थी, और गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में उनके तुरंत फैसले लेने की तारीफ की थी। इसके अलावा भी उन्होंने दिल्ली सरकार से लेकर केरल सरकार तक के कई फैसलों का सार्वजनिक-विरोध किया था। अब उन्होंने न सिर्फ भाजपा की सदस्यता ली है बल्कि टिकट मिलने पर आने वाला विधानसभा चुनाव लडऩे की घोषणा भी की है।
जिन लोगों को इस उम्र में श्रीधरन के भाजपा में जाने से हैरानी हो रही है उन्हें यह भी समझना चाहिए कि किसी के वैज्ञानिक होने, इंजीनियर होने, या अर्थशास्त्री होने से उसकी सोच किसी खास राजनीतिक विचारधारा में ढले, ऐसा जरूरी नहीं होता। लोग विज्ञान पढ़ते हुए भी, पढ़ाते हुए भी धार्मिक पाखंड और अंधविश्वास के साथ खड़े हो जाते हैं। विज्ञान किसी की राजनीतिक सोच को प्रभावित नहीं करता। बाबरी मस्जिद को गिरवाते हुए सामने मंच पर खड़े खुशियां मनाते हुए मुरली मनोहर जोशी तो विश्वविद्यालय में साईंस के प्रोफेसर थे, लेकिन राम मंदिर के मुद्दे पर विज्ञान उन्हें छू भी नहीं गया था। देश के बाहर बसे हुए अनगिनत कामयाब हिन्दुस्तानी वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को देखें, तो उनमें से बहुत से लोग धर्मान्धता के शिकार रहते हैं, और विज्ञान की उनकी पढ़ाई उनमें कोई समझ पैदा कर सकती हो, ऐसा जरूरी नहीं रहता। इसलिए जब धर्म की राजनीति पर केन्द्रित भाजपा जाने का फैसला श्रीधरन ने लिया, तो इसमें उनकी विज्ञान और तकनीक की समझ कहीं आड़े आई हो ऐसा नहीं है। दरअसल उनसे ठीक पहले की एक दूसरी मिसाल देखें, तो मिसाइल-मैन कहे जाने वाले डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम अपनी तकनीकी कामयाबी के बावजूद विचारधारा के स्तर पर भाजपा के करीब थे, भाजपा के पसंदीदा थे, और भाजपा के बनाए हुए राष्ट्रपति थे।
आज दुनिया के सबसे आधुनिक माने जाने वाले एक देश अमरीका में बसे हुए लाखों हिन्दुस्तानी विज्ञान और तकनीक की कमाई खा रहे हैं। लेकिन उनमें से बहुतायत भाजपा के समर्थकों की है, और ओवरसीज फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी वहां हिन्दुस्तानियों का सबसे बड़ा और मजबूत भारतवंशी संगठन है।
भाजपा में जाने की वजह से ई.श्रीधरन का मखौल उड़ाना ठीक नहीं है। भारतीय लोकतंत्र के भीतर भाजपा एक मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल है, और धर्म-आधारित उसका राजनीतिक रूझान संविधान की सरहदों के बाहर तकनीकी रूप से तो नहीं निकला है। फिर श्रीधरन तो रिटायर होने के बाद केरल में बसे हुए भागवत-प्रवचन का काम कर ही रहे थे, और उनकी धार्मिक सोच भी उन्हें भाजपा के करीब ले जाने वाली थी। सवाल यह उठता है कि आधुनिक तकनीक के एक महान कामयाब व्यक्ति के इतने बरस तक घर पर खाली रहते हुए भी केरल में अतिसक्रिय कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों को वे क्यों नहीं दिखे? ये पार्टियां भी कोशिश तो कर ही सकती थी कि वे श्रीधरन को अपने पाले में लाकर उनकी साख और शोहरत को भुना सकती थीं। लेकिन इन्होंने ऐसा नहीं किया, और भाजपा ने इस मौके का इस्तेमाल किया। कई दूसरे राज्यों में दूसरी पार्टियों के विधायकों को अपने पाले में लाने की जिस तरह की कोशिश जिन कीमतों पर भाजपा या कोई दूसरी पार्टी करती हैं, इतना तो जाहिर है कि श्रीधरन के लिए वैसी कोई कैश-कोशिश नहीं करनी पड़ी होगी।
दरअसल भाजपा को कोसने की हरकतें उस वक्त तो जायज हो सकती हैं जब दूसरी पार्टियां कोशिश करें, और उसके बाद भी भाजपा कामयाब हो जाए। आज देश की सबसे पुरानी कांग्रेस पार्टी का हाल यह है कि अपनी ही पार्टी के सबसे महान और लोकप्रिय प्रतीकों, सरदार पटेल से लेकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस तक किसी का भी वह सम्मान नहीं कर सकी, और ऐसे बड़े प्रतीकों को उसने भाजपा के इस्तेमाल के लिए फुटपाथ पर खुला छोड़ रखा था। देश के सबसे बड़े और महान वामपंथी शहीद भगत सिंह की स्मृतियों को भी धर्मनिरपेक्ष प्रतीक के रूप में कांग्रेस इस्तेमाल नहीं कर सकी, और भगत सिंह को भी संघ-भाजपा ने अपने मंचों पर टांग लिया। भाजपा की विरोधी पार्टियां भाजपा की तरह न मेहनत कर पा रही हैं, न कल्पनाशीलता दिखा पा रही हैं, और इनसे परे की अघोषित कोशिशों की हम बात नहीं करते। श्रीधरन के भाजपा में जाने का फैसला भाजपा विरोधियों के लिए चाहे जो मायने रखे, यह तो है कि राजनीतिक एक अच्छे व्यक्ति के आने से उसके कुछ बेहतर होने की संभावना बढ़ती है। जो लोग यह सोच रहे हैं कि श्रीधरन जैसे तकनीकी विशेषज्ञ और कामयाब अफसर कैसे भाजपा में चले गए, उन्हें यह समझना चाहिए कि किसी तकनीक का भाजपा की सोच से कोई टकराव नहीं होता। तकनीक की अपनी कोई सोच नहीं होती, और हाइड्रोजन बम बनाने वालों को इस बात का अहसास नहीं था कि अमरीका उसे जापान के हिरोशिमा-नागासाकी पर गिराकर लाख से अधिक लोगों को मार डालेगा। तकनीक हो, या तकनीकी विशेषज्ञ हो, वे सबको बराबरी से हासिल रहते हैं, देखने की बात यह रहती है कि किसे उनका कैसा इस्तेमाल सूझता है। आज इस काम में हिन्दुस्तान में भाजपा नंबर वन है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट और उसके एक रिटायर्ड मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई खबरों से हटने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। अब कल की ताजा खबर यह है कि रंजन गोगोई पर एक मातहत महिला कर्मचारी द्वारा लगाए गए यौन शोषण के आरोपों को लेकर सुप्रीम कोर्ट की खुद होकर शुरू की गई एक जांच अब बंद कर दी गई है। यह जांच रंजन गोगोई की इस आशंका को लेकर शुरू की गई थी कि इन आरोपों के पीछे ऐसी बड़ी साजिश थी जो कि मुख्य न्यायाधीश के ओहदे के कामकाज को ठप्प करना चाहती थी। सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की बेंच ने गोगोई की इस आशंका पर सुप्रीम कोर्ट के एक रिटायर्ड जज, ए.के.पटनायक को जांच का जिम्मा सौंपा था जिन्होंने अपनी रिपोर्ट में यह कहा था कि यौन शोषण के आरोपों के पीछे किसी साजिश को नकारा नहीं जा सकता। इस रिपोर्ट के आधार पर अदालत ने यह जांच अब बंद कर दी है। दूसरी तरफ रंजन गोगोई की मातहत जिस अदालती कर्मचारी ने उन पर यौन शोषण का आरोप लगाया था उसे जनवरी 2020 में ही उसके पद पर बहाल कर दिया गया था।
अब सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा फैसले से एक नया सवाल उठ खड़ा होता है। पहले भी रंजन गोगोई के खिलाफ आरोप लगने से लेकर अब तक इस मामले में लाजवाब सवाल लगते आ रहे हैं। जिस पर यौन शोषण के आरोप लगे, वह खुद मामले में जज बन बैठा। इसके बाद की अदालती कार्रवाई पर देश के तमाम लोगों को संदेह रहा और उसकी साख को शून्य माना गया। फिर जस्टिस पटनायक ने एक सदस्यीय जांच की और बिना किसी नतीजे के ‘आशंका को नकारा नहीं जा सकता’ पर बात खत्म कर दी, उसके साथ ही साजिश की आशंका और आरोप की जांच खत्म हो गई।
सवाल यह उठता है कि एक महिला के लगाए गए ऐसे आरोपों के बाद या तो किसी को सजा मिलनी थी, और अगर उसके आरोप सही नहीं थे, तो उसे नौकरी पर बहाली के बजाय खुद सजा मिलनी थी। लेकिन ये दोनों ही बातें नहीं हुईं। आरोपों से घिरे रंजन गोगोई ने जो आशंका जाहिर की, उसकी यौन शोषण कानून के मुताबिक तो कोई कीमत होनी नहीं चाहिए थी, लेकिन फिर भी उस पर इतनी ऊंची एक जांच कमेटी बैठा दी गई, और बेनतीजा जांच के बाद उस मामले को बंद कर दिया गया। तो सवाल यह उठता है कि इतने गंभीर आरोपों के बाद इतने बरस की कार्रवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने किसे इंसाफ दिया? उसने क्या कार्रवाई की? किसे सजा मिली?
यह पूरा मामला पहले दिन से ही बहुत ही खराब तरीके से चलते आ रहा है। सुप्रीम कोर्ट में देश के कानून और अदालत की परंपरा दोनों के खिलाफ जाकर रंजन गोगोई की अगुवाई में जजों की बेंच ने गोगोई पर यौन शोषण के आरोप सुने, इसे गलत करार देने वाले बड़े-बड़े वकीलों की एक न सुनी, और इस दलदल से रंजन गोगोई के कई फैसलों से गुजरते हुए राज्यसभा तक पहुंचने का रास्ता भी बनाया। यह एक मामला इस देश में ताकतवर लोगों और कमजोर-गरीबों के कानूनी हकों के बीच एक खाई खोद गया, और सुप्रीम कोर्ट की साख को भी चौपट कर गया। इससे एक यह नजीर भी कायम हुई कि यौन शोषण के आरोप लगने पर कोई भी व्यक्ति अपने काम को अस्थिर करने, ठप्प करने, की साजिश का आरोप लगा सकते हैं। जब किसी मंत्री या सांसद पर, किसी बड़े अफसर या अखबार के संपादक पर यौन शोषण के आरोप लगते हैं, तो वे भी अब यह आड़ ले सकते हैं कि उनके काम को ठप्प करने की साजिश के तहत ऐसे आरोप लगाए जा रहे हैं। अंग्रेजी अखबार टेलीग्राफ के संपादक रहते हुए एम.जे.अकबर पर दर्जन या दर्जनों महिलाओं ने यौन शोषण के जो आरोप लगाए हैं, उनसे बचाव के लिए अकबर का भी यह तर्क हो सकता है कि टेलीग्राफ अखबार को ठप्प करने के लिए उन पर ऐसे आरोप लगाए गए। ऐसे तर्क पर सुप्रीम कोर्ट का अब क्या रूख रहेगा? क्या देश के कानून में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का काम किसी एक दुकानदार के लिए उसकी दुकान के काम से अधिक महत्वपूर्ण है? किसी संपादक के लिए उसके अखबार के काम से अधिक महत्वपूर्ण है? कानून तो किसी एक ओहदे पर बैठे इंसान को दूसरे नागरिक के मुकाबले अधिक महत्व का ऐसा कोई दर्जा देता नहीं है, फिर ऐसे में रंजन गोगोई के बचाव की तमाम तरकीबों का इस्तेमाल यौन शोषण के दूसरे मामलों में दूसरे लोग अपने बचाव में क्यों नहीं करेंगे? सुप्रीम कोर्ट ने अपने मुखिया को यौन शोषण के आरोपों से बचाने के लिए जो-जो किया दिखता है, वह न सिर्फ अभूतपूर्व है, बल्कि अदालती साख को खत्म करने वाला भी है।
साख एक ऐसा शब्द है जिसका कोई ठोस पैमाना नहीं हो सकता। हमें सुप्रीम कोर्ट की साख जिस तरह सूझती है, हो सकता है आज खुद सुप्रीम कोर्ट को अपनी साख की उस तरह की फिक्र न रह गई हो। इस मामले में शुरू से लेकर अब तक सुप्रीम कोर्ट की हर कार्रवाई से हमें हिन्दुस्तानी न्यायपालिका की साख चौपट होते दिखी है, लेकिन हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट को अपने काम से अपना कोई नुकसान होते न दिख रहा हो। इसलिए हो सकता है कि आज हम सुप्रीम कोर्ट की साख की फिक्र उसके जजों के मुकाबले अधिक कर रहे हैं, और उसके जजों को हमारी इस फिक्र पर आपत्ति भी हो सकती है। ऐसा नहीं है कि किसी देश में सुप्रीम कोर्ट ही वहां के आखिरी फैसले लिखता है। किसी लोकतंत्र में अदालती सोच और कार्रवाई पर भी इतिहास दर्ज होता है। हिन्दुस्तान में रंजन गोगोई से जुड़े इस पूरे लंबे सिलसिले, यौन शोषण के आरोपों से लेकर राज्यसभा की सदस्यता तक का सफर इतिहास में बहुत ही रद्दी साख की शक्ल में दर्ज होना तय है। जब देश की सरकार और देश की अदालत, और संसद में विशाल बाहुबल का रूख ऐसे विवादों में बिल्कुल एक हो जाए, तो बाकी देश कर भी क्या सकता है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ब्रिटेन की खबर है कि वहां हिन्दुस्तानी उद्योगपति टाटा की एक कंपनी लैंड रोवर जगुआर ने घोषणा की है कि वह अब सिर्फ इलेक्ट्रिक कारें बनाएगी। अगले बारह महीनों में ऐसी कार सडक़ों पर आ जाएगी, और पेट्रोल-डीजल की कारें बनाना कंपनी बंद कर देगी। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान की राजधानी नई दिल्ली में राज्य की केजरीवाल सरकार ने घोषणा की है कि वह दिल्ली का प्रदूषण घटाने के लिए वहां बिजली, यानी बैटरी, से चलने वाली गाडिय़ों को बढ़ावा देगी। राज्य सरकार इन गाडिय़ों के रजिस्ट्रेशन में लाखों की रियायत भी दे रही है, और बैटरी-ऑटोरिक्शा पर अनुदान भी। राज्य सरकार ने 2024 तक राजधानी के एक चौथाई वाहनों के बैटरी से चलने वाले होने का एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य भी सामने रखा है। केन्द्रीय परिवहन मंत्री नितिन गडकरी से लेकर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तक बहुत से लोग अपने लिए बैटरी-कारें इस्तेमाल करने लगे हैं।
यह वक्त बाकी विकसित दुनिया के साथ-साथ हिन्दुस्तान जैसे देश के लिए भी जागने और सम्हलने का है कि कैसे यहां शहरों में बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों या दुपहियों की चार्जिंग का एक ढांचा तैयार हो सकता है ताकि लोग इनके इस्तेमाल की तरफ बढ़ें। गाडिय़ों में अधिकतर ऐसी रहती हैं जो कि एक बार चार्ज की गई बैटरी से पूरा दिन निकाल सकती हैं। लेकिन लोग लंबे सफर पर जाने पर भी गाडिय़ां तो बदल नहीं सकते, इसलिए लोगों की गाडिय़ों के हिसाब से शहरों के साथ-साथ प्रमुख हाईवे पर भी चार्जिंग का इंतजाम होने पर ही इनका इस्तेमाल बढ़ेगा।
इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए सार्वजनिक जगहों पर पेट्रोल-डीजल पंपों की तरह बिजली के चार्जिंग पॉईंट काफी संख्या में लगाने पड़ेंगे ताकि लोग बेधडक़ इन्हें लेकर निकल सकें। केन्द्र और राज्य सरकारों के बड़ी कंपनियों और स्कूल-कॉलेज जैसे भीड़ भरे संस्थानों को चार्जिंग के इंतजाम के लिए टैक्स में छूट या अनुदान देने की योजना भी बनानी चाहिए ताकि लोग अपने कर्मचारियों या छात्र-छात्राओं को चार्जिंग पॉईंट दे सकें। इसे सरकारी रियायत या अनुदान के बजाय पर्यावरण को बचाने और सुधारने के खर्च के रूप में देखना चाहिए।
लेकिन पर्यावरण को बचाना एक बड़ा जटिल मुद्दा है जिसका अतिसरलीकरण करके उसे नहीं समझा जा सकता। बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों में दो किस्म के प्रदूषण बढ़ेंगे, इनमें से एक तो बिजलीघरों का है, और दूसरा हर कुछ बरस बाद बेकार हो जाने वाली बैटरियों का। जिस तरह दुनिया के कई देशों में गाडिय़ों के टायर इस्तेमाल के बाद पहाड़ की तरह ढेर हो रहे हैं, उसी तरह एक नौबत बैटरियों को लेकर भी आ सकती है। इसलिए केन्द्र और राज्य सरकारों को बैटरी गाडिय़ों की बैटरियों की जिंदगी बढ़ाने, और उन्हें ठिकाने लगाने के बारे में भी साथ-साथ सोचना होगा।
हम हिन्दुस्तान के मामूली शहरों में भी अब बड़ी संख्या में बैटरी-ऑटोरिक्शा देख रहे हैं। ये गाडिय़ां दिन में अधिक से अधिक घंटे चलती हैं, और अधिक से अधिक किलोमीटर तय करती हैं। जब डीजल के बजाय ये बिजली-बैटरी से चलकर बिना धुएं काम करती हैं, तो शहर की हवा में जहर बढऩा थम जाता है। इसलिए ऐसी गाडिय़ों को बढ़ावा देने वाले बिजली के ढांचे को शहरी विकास के लिए जरूरी मानना चाहिए, और स्थानीय संस्थाओं को भी यह काम आगे बढ़ाना चाहिए। केन्द्र और राज्य के स्तर पर लंबे सर्वे के बाद ऐसी योजना बनानी चाहिए कि सभी तरह की बैटरी गाडिय़ां दिन और रात में जिन इलाकों में कई घंटे खड़ी रहती हैं, और उन जगहों पर चार्जिंग का कैसा इंतजाम हो सकता है। इस काम में हजारों लोगों को एक नया रोजगार मिल सकता है। और ऐसे चार्जिंग स्टेशन कारोबारियों के लिए एक नया व्यापार भी हो सकते हैं जहां वे मामूली लागत के बाद कुछ कर्मचारियों की मदद से पेट्रोल पंप की तरह बिजली पंप चला सकें। कुल मिलाकर बैटरी-गाडिय़ों के लिए सहूलियतों से परे टैक्स में छूट, बिजली के रेट में छूट, बैटरियों में रियायत का इंतजाम करना चाहिए ताकि अधिक से अधिक लोग आने वाले बरसों में पेट्रोल-डीजल से बिजली की तरफ मुड़ सकें। आज जितनी जरूरत लोगों में जागरूकता की है, उससे कहीं अधिक जरूरत सरकारों में कल्पनाशीलता की है कि शहरों को छांटकर उनमें ढांचा कैसे विकसित किया जाए, और जब पॉवरग्रिड में बिजली का इस्तेमाल कम रहता है, उन घंटों में गाडिय़ों की बैटरी री-चार्ज करने का इंतजाम कैसे हो सकता है। टेक्नालॉजी तो मौजूद हैं, उसके कल्पनाशील उपयोग की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी कुछ घंटे पहले मध्यप्रदेश के सीधी में एक मुसाफिर बस नहर में गिरी, और 42 लोग मारे गए। मरने वालों में अधिकतर छात्र थे जो कि क्रिकेट मैच और रेलवे की परीक्षा की वजह से सफर कर रहे थे। हिन्दुस्तान में हर कुछ दिनों में किसी न किसी प्रदेश में मुसाफिर बसों का हादसा सुनाई पड़ता है, या ट्रकों पर लादकर ले जाए जा रहे मजदूरों की मौत का। सवाल यह है कि जब गाडिय़ां बेहतर बन रही हैं, नई टेक्नालॉजी के चलते गाडिय़ों पर काबू बेहतर होना चाहिए, जब सडक़ें पहले के मुकाबले बेहतर बन चुकी हैं, तब फिर ऐसे हादसों से क्या साबित होता है?
हिन्दुस्तान के अधिकतर प्रदेशों में देखें तो मुसाफिर बसों से लेकर ट्रकों तक, और निजी गाडिय़ों से लेकर सडक़ों पर चलने वाली कारोबारी मशीनों तक से भारी भ्रष्टाचार जुड़ा हुआ है। तकरीबन हर प्रदेश में इन गाडिय़ों पर काबू करने वाले आरटीओ विभाग और पुलिस के ट्रैफिक विभाग को सत्ता अपनी उगाही का गिरोह बनाकर चलती है, नतीजा यह होता है कि जिन गाडिय़ों से दर्जनों मुसाफिरों की जिंदगी जुड़ी रहती है उन गाडिय़ों की मनमानी रफ्तार, और ड्राइवरों के नशे जैसे तमाम जुर्म को इन दो विभागों का अमला अनदेखा करते चलता है। हिन्दुस्तान के सडक़ हादसों में अधिकतर मौतों का जिम्मा ऐसी ही कारोबारी गाडिय़ों का होता है जिन्हें सरकारी भ्रष्टाचार की वजह से नाजायज हिफाजत हासिल होती है।
अब नौबत पहले के मुकाबले अधिक खतरनाक इसलिए होती जा रही है कि गाडिय़ां अधिक तेज रफ्तार बन रही हैं, और अधिक तेज रफ्तार से चल भी रही हैं। सडक़ें चौड़ी होती जा रही हैं, बीच के गांव-कस्बों की भीड़ के ऊपर से पुल निकल जाते हैं, और रफ्तार कम करने की जरूरत नहीं पड़ती। यह देखा हुआ है कि कारोबारी गाडिय़ों के मालिक ड्राइवरों को जायज घंटों से बहुत अधिक वक्त तक जोते रखते हैं, और ड्राइवरों की तेज रफ्तार, लापरवाही, यहां तक कि उनका नशा करना भी अनदेखा करते हैं। पुलिस और आरटीओ भी महीना पाकर इस सबसे संगठित सडक़-अपराध को अनदेखा करते हैं।
इन दो विभागों का भ्रष्टाचार ऐसा भी नहीं है कि वह सरकार की काली कमाई का एक बड़ा हिस्सा हो, सरकार की मोटी काली कमाई को बड़े कंस्ट्रक्शन, बड़ी सप्लाई, बड़ी खरीदी, बड़ी बिक्री और खदानों जैसे धंधों से होती है। ट्रैफिक और आरटीओ इनके मुकाबले छोटा भ्रष्टाचार हैं, लेकिन ये इतना संगठित हैं कि किसी भी प्रदेश में किसी भी पार्टी की सरकार में इसके कम होने की गुंजाइश दिखती नहीं है। नतीजा यह होता है कि सडक़ों पर बेकसूर लोग बड़ी संख्या में मारे जाते हैं।
छत्तीसगढ़ में हम देखते हैं कि कारों के सीट बेल्ट, दुपहियों के हेलमेट, गाड़ी चलाते मोबाइल पर बातचीत, नशे में ड्राइविंग, ओवरलोड से लेकर बसों की खूनी रफ्तार तक किसी पर भी कार्रवाई अवैध उगाही तक सीमित रहती है, उसकी उगाही का बहुत छोटा हिस्सा ही सरकारी खजाने में जाता है, और बाकी तमाम वसूली नेताओं और अफसरों में बंट जाती है। इसी वजह से कोई नियम सडक़ों पर लागू नहीं किए जाते क्योंकि इन विभागों का अमला तो सीमित है, और वह या तो नियम लागू करा ले, या अवैध वसूली कर ले।
किसी प्रदेश में अगर जनता में जागरूकता हो, तो वे अंधाधुंध रफ्तार वाली गाडिय़ों की रिकॉर्डिंग करके उसके खिलाफ अदालत तक जा सकते हैं, और अगर वहां के जज इन विभागों से उपकृत न हो रहे हों, तो इनके खिलाफ कोई कार्रवाई भी हो सकती है। सडक़ों पर खूनी रफ्तार या नशे की लापरवाही, या ओवरलोड गाडिय़ों के खिलाफ कार्रवाई की मांग जनता का हक है क्योंकि यह लापरवाही बेकसूर लोगों के लिए भी जानलेवा होती है। अब जब तक जनता के बीच से आवाज नहीं उठेगी, और अदालत तक नहीं पहुंचेगी, तब तक न सिर्फ यह भ्रष्टाचार जारी रहेगा, बल्कि इसी तरह मौतें भी जारी रहेंगी। राजनीतिक दलों से लेकर अफसरों तक किसी को ट्रांसपोर्ट और ट्रैफिक से काली कमाई नहीं खटकती है। यहां तक कि विपक्षी दल को भी जरूरत के वक्त इन्हीं विभागों से आमसभा में भीड़ लाने मुफ्त में गाडिय़ां मिल जाती हैं। लेकिन जनता को अपने मामूली लाइसेंस बनवाने के लिए भी रिश्वत देनी ही पड़ती है। हमारे कम लिखे को अधिक बांचें, और लोगों की जिंदगी की इस किस्म की बिक्री रोकने के लिए अदालत जाने लायक सुबूत जुटाएं, वरना हमारे-आपके बेकसूर बच्चे भी किसी दिन इसी तरह सडक़ों पर मारे जाएंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
लोकसभा में तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा द्वारा देश की न्यायपालिका की चौपट साख को लेकर किए हमले और मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के रिटायर होते ही राज्यसभा में मनोनयन को लेकर उठाए सवालों की गर्द अभी बैठी भी नहीं है कि रंजन गोगोई ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में उसका जवाब दिया। उन्होंने मोदी सरकार द्वारा उन्हें राज्यसभा भेजने के बारे में कहा- अगर मुझे सौदा ही करना होता तो क्या मैं एक राज्यसभा सीट से मानता? राज्यसभा अच्छा सौदा नहीं है। यदि सौदेबाजी भी करनी होती तो किसी बड़ी चीज की मांग की जाती, न कि राज्यसभा की। उन्होंने कहा कि वे पहले ही यह लिखकर दे चुके हैं कि अपने राज्यसभा-कार्यकाल के दौरान वेतन नहीं लेंगे।
रंजन गोगोई से पूछा गया था कि क्या वे महुआ मोइत्रा के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करेंगे क्योंकि उन्होंने कहा था कि गोगोई ने खुद पर लगे यौन उत्पीडऩ के आरोपों का फैसला करके न्यायपालिका को बदनाम कर दिया, इस पर गोगोई का कहना था- अगर आप अदालत जाते हैं तो आपको इंसाफ नहीं मिलेगा।
हिन्दुस्तान के मुख्य न्यायाधीश रहे रंजन गोगोई की ये दोनों बातें सदमा पहुंचाने वाली हैं, और लोकतंत्र के लिए भयानक अपमानजनक भी हैं। देश की संसद के उच्च सदन, राज्यसभा, को वे यह कहते हुए नीची नजर से ही देखते हैं कि अगर सौदा होता तो सिर्फ राज्यसभा सीट पर बात नहीं बनती, वे सिर्फ एक राज्यसभा सीट से क्यों मानते, सौदेबाजी होती तो किसी बड़ी चीज की मांग की जाती, न कि राज्यसभा सीट की। भारत के लोकतंत्र में सबसे ऊंचे सदन की सदस्यता को इस कदर नाकाफी करार देना लोकतंत्र के प्रति एक अपमान की बात है। इसी राज्यसभा सदस्यता से लोगों को ढेर सारी सहूलियतों के अलावा ऐसा विशेषाधिकार भी मिलता है जो उन्हें देश के बाकी नागरिकों के मुकाबले अधिक अधिकार देता है। यह भी अगर रंजन गोगोई को काफी नहीं लग रहा है, तो लोकतंत्र के लिए उनके मन में सम्मान नहीं है, हिकारत है। लेकिन बात यही पर नहीं रूकी, उन्होंने जिस तरह अदालत जाने के बारे में कहा कि अदालत जाने पर इंसाफ नहीं मिलता, यह बात भी उस संस्थान के लिए भारी बेइज्जती की है जहां से रंजन गोगोई ने बरसों तक रोटी और घी-मक्खन कमाया है। इसी संस्थान के विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए वे मातहत कर्मचारी के यौन शोषण के आरोपों पर रियायत पाते रहे, और पूरी दुनिया ऐसी कोशिशों को धिक्कार रही थी।
इसी जगह पर दो-तीन दिन पहले ही हमने यह लिखा है कि अफसरों और जजों के रिटायर होने के बाद उन्हें किसी किस्म का पुनर्वास नहीं मिलना चाहिए, और रंजन गोगोई की मिसाल उसमें भी दी थी कि सरकार को पसंद आने वाले लगातार कई फैसलों के बाद राज्यसभा की सदस्यता पाना उनकी खुद की नजर में कितनी ही सच्ची बात हो, जनता की नजर में यह एक बहुत बड़ा तोहफा है। लोकतंत्र की इज्जत के लिए और न्यायपालिका की साख के लिए सस्ते या महंगे तोहफों का यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। हिन्दुस्तान के ही बहुत से ऐसे जज रहे हैं जिन्होंने सरकार से अपनी दूरी बनाए रखी है, और जो किसी पुनर्वास के फेर में सरकार को खुश करने में नहीं लगे रहे।
वैसे तो आज देश में लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर अधिक फिक्र करना देश से गद्दारी में गिना जा रहा है, फिर भी जब कभी भारतीय संसद का इतिहास दर्ज होगा, उसमें यह अच्छी तरह दर्ज होगा कि देश का एक मुख्य न्यायाधीश देश के सर्वोच्च सदन को कितना सस्ता सामान समझते रहा है। अपने पुराने गलत फैसलों, और गलत चाल-चलन का बचाव करते हुए लोग किस तरह आगे और गलत काम करते चलते हैं, यह मिसाल देश के लोगों को भूलना नहीं चाहिए।
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आज प्रेम का त्यौहार वेलेंटाइन डे है, और इसके लिए प्रेमी दिलों ने फूलों और तोहफों की तैयारी कर रखी है, दूसरी तरफ प्रेम से नफरत करने वालों ने प्रेमियों को मारने के लिए लाठियों को तेल पिला रखा है। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में प्रशासन और पुलिस गुंडों को रोकने और जेल भेजने के बजाय बाग-बगीचों से लडक़े-लड़कियों को, दोस्तों और प्रेमी जोड़ों को बाहर रखने के लिए हथियार लेकर जवान तैनात कर रखेंगे। नतीजा यह है कि गुंडागर्दी रोकने के बजाय, नफरत और हिंसा रोकने के बजाय, सरकार की पूरी ताकत प्रेम को रोकने में झोंक दी जाएगी।
इस राज्य में कुछ बरस पहले, उस वक्त बापू कहलाने वाले, और अब आसाराम रह गए एक आदमी ने सरकार को सलाह दी थी कि वेलेंटाइन डे को मनाना बंद करके 14 फरवरी के इस अंग्रेजी तारीख वाले त्यौहार के दिन मातृ-पितृ दिवस मनाया जाए। चूंकि उस वक्त आसाराम, बापू भी कहलाता था इसलिए उस वक्त की भाजपा सरकार ने उसके पांव छूते हुए वह राय मान ली थी, और सरकारी स्तर पर, सरकारी खर्च पर, स्कूलों में यह नए मुखौटे वाला त्यौहार शुरू हो गया था। यह फेरबदल करते हुए सरकार ने किसी भी समाजशास्त्री या मनोवैज्ञानिक से यह सलाह नहीं ली थी कि नौजवान पीढ़ी को, लडक़े-लड़कियों को अगर स्वाभाविक प्रेम से रोका जाएगा, तो उनके मानसिक विकास पर क्या फर्क पड़ेगा।
यह देश इसी तरह के धर्मान्ध पाखंडियों की राय पर अपनी रीति-नीति बदलते रहता है, और यही वजह है कि नौजवान पीढ़ी से लेकर बच्चों तक को अंतहीन बलात्कारों का शिकार होना पड़ता है, कुंठाओं में जीना पड़ता है, और अपनी स्वाभाविक संभावनाओं से कोसों पीछे रहकर मन मारकर दूसरे सभ्य देशों को हसरत से देखना पड़ता है।
इस देश के इतिहास में इस किस्म की इतनी बड़ी मूर्खता कभी नहीं हुई थी कि नौजवान लडक़े-लड़कियों को प्रेम से रोका जाए। सैकड़ों बरस पहले का संस्कृत साहित्य प्रेम की कहानियों से, प्रेम की बातों से ऐसा लबालब है कि उसमें से मादक रस टपकते ही रहता है। एक तरफ तो अपनी जड़ों और अपनी संस्कृति, और अपनी संस्कृत भाषा की रक्षा के लिए भारतीय संस्कृति के ठेकेदार लाठियां लेकर चौबीसों घंटे तैनात रहते हैं, और दूसरी तरफ अपने ही देश के सांस्कृतिक इतिहास में प्रेम की जो लंबी परंपरा रही है, कृष्ण के गोपियों के साथ रास की जो कविताएं, जो तस्वीरें सैकड़ों बरस से चली आ रही हैं, उन सबको अनदेखा करके प्रेम को कुचलना भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म साबित किया जा रहा है। बंगाल से लेकर आज के बांग्लादेश तक जिस तरह प्रेम में भीगा हुआ वसंतोत्स्व मनाया जाता है, और जिस तरह भारत के इतिहास में प्रेम और सेक्स के पर्व, मदनोत्सव को मनाने की परंपरा पश्चिम के वेलेंटाइन डे से भी बहुत पुरानी है, उसे याद रखना चाहिए।
नौजवान दिलों की भावनाओं को कुचलकर उससे उनके मां-बाप के लिए सम्मान का प्रतीक चिन्ह नहीं गढ़ा जा सकता। इंसान की जिंदगी में मां-बाप की जरूरत भी होती है, बच्चों की जरूरत भी होती है, और प्रेम या/और सेक्स की जरूरत भी होती है। इनमें से कोई भी जरूरत एक-दूसरे का विकल्प नहीं होती, जिस तरह जिंदगी मौत का विकल्प नहीं होती, मौत जिंदगी का विकल्प नहीं होती, भजन भोजन का विकल्प नहीं होता, और भोजन भजन का विकल्प नहीं होता। जिंदगी में हर बात की अलग-अलग जगह और जरूरत होती हैं। इनको एक-दूसरे से गड्डमड्ड करके कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। जिस आसाराम ने वेलेंटाइन डे के खिलाफ, नौजवानों के प्रेम के खिलाफ बकवास की थी, वही आसाराम मन में कैसी हिंसक भावनाएं रखता था, यह उसके बलात्कार की शिकार नाबालिग बच्ची के बयान में खुलकर सामने आया है। प्रेम के ऐसे दिनों पर होने वाली गुंडागर्दी को भी खत्म करना चाहिए जो कि हिन्दू धर्म, हिन्दुत्व, और भारतीय संस्कृति, इन सबको बदनाम करती है। नौजवान अगर प्रेम नहीं कर पाएंगे, तो कुंठा और भड़ास में वे हिंसा की तरफ बढ़ेंगे। मां-बाप की इज्जत करने के लिए प्रेमी दिलों की इज्जत का कत्ल जरूरी नहीं है। और जहां तक एक लोकतांत्रिक सरकार की जिम्मेदारी की बात है, तो किसी भी दिन बाग-बगीचे में, तालाब के किनारे जाकर बैठने वाले प्रेमियों को रोकने के बजाय सरकार को अपनी बंदूकें उन गुंडे-मवालियों पर ताननी चाहिए जो कि धर्म और सांस्कृतिक इतिहास का नाम लेकर अपनी दुकानदारी चलाते हैं, और हिंसा करते हैं। सरकार को तो यह खुली मुनादी करनी चाहिए कि सार्वजनिक जगहों पर शिष्टता की सीमा में मिलने वाले सारे लोगों को सुरक्षा दी जाएगी। बलात्कारी आसाराम के भक्त और अनुयायी उसके जुर्म, उसके करतूत के बावजूद अपने परिवार और बच्चों को लेकर आसाराम के प्रति आस्था का सार्वजनिक जलसा करते हैं, और आज के दिन के लिए हफ्ते भर से उसके पोस्टर-होर्डिंग लगाए गए हैं कि 14 फरवरी को मातृ-पितृ दिवस मनाया जाए। एक बलात्कारी के गौरवगान के ऐसे होर्डिंग और पोस्टर को हटाना भी सरकार की जिम्मेदारी है, लेकिन छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार भी सजायाफ्ता कैदी आसाराम के फतवे को सार्वजनिक जगहों से नहीं हटा रही है, देश भर में आसाराम का साथ देने वाली भाजपा की सरकारें भला ये पोस्टर क्यों हटाएंगी? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज एक वेबसाईट पर जब एक खबर की हैडिंग दिखाई पड़ी कि पांच साल में पहली बार बिना किसी नियुक्ति के रिटायर हो सकते हैं जस्टिस बोबडे, तो इस हैडिंग से यह धोखा हुआ कि जस्टिस बोबडे की रिटायरमेंट के बाद की कोई पोस्ट अभी तय नहीं हुई है। समाचार आगे पढऩे पर समझ आया कि सुप्रीम कोर्ट का अगला मुख्य न्यायाधीश तय होने के पहले वर्तमान सीजेआई के रिटायर हो जाने की आशंका है, और ऐसा पांच बरस में पहली बार होगा। आमतौर पर अगला सीजेआई पहले तय हो जाता है।
अभी चार दिन पहले संसद में अपने एक धमाकेदार और शानदार भाषण में तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने हाल ही में न्यायपालिका की साख चौपट होने को लेकर जिस तरह का हमला बोला, उसके बाद आज की यह हैडिंग ऐसी गलतफहमी पैदा कर रही थी। उन्होंने सेक्स शोषण के आरोपों से घिरे पिछले एक सीजेआई पर हमला बोला था, और कहा था कि वे खुद अपने खिलाफ हुई शिकायत की सुनवाई के जज बनकर बैठे थे, और रिटायर होते ही राज्यसभा में चले गए। महुआ मोइत्रा की बात एकदम खालिस खरी थी, इस एक मुख्य न्यायाधीश के ऐसे फैसलों से, और ऐसी संसद सदस्यता लेने से अदालत की साख पूरी चौपट ही हो गई है। लेकिन सच तो यह है कि राज्यसभा न जाने पर भी सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने वाले जज देश के बहुत से आयोग या ट्रिब्यूनल के मुखिया बन जाते हैं, और देश में 50 से अधिक ऐसी कुर्सियां हैं जिनमें रिटायर्ड बड़े जज ही आ सकते हैं। नतीजा यह होता है कि दिल्ली में सबसे शाही बंगलों पर पांच बरस और कब्जा बनाए रखने के लिए, सहूलियतों और दबदबे के लिए लोग, जज और नौकरशाह, फौजी और नेता, रिटायर होने के पहले समझौते करते हैं ताकि रिटायरमेंट के बाद वे शाही दिल्ली से लेकर प्रदेशों के राजभवनों तक कहीं काबिज रह सकें।
लेकिन यह बात महज न्यायपालिका तक सीमित नहीं है। राज्यों में देखें तो बहुत से ऐसे मामले लगातार सामने आते हैं जिनमें रिटायर होने वाले अफसर अपने आखिरी बरसों में वर्तमान सरकार को खुश करने के काम में लगे रहते हैं, उनके विवेक के फैसले सत्ता की पसंद के होते हैं ताकि वे रिटायर होने के बाद राज्य में पांच बरस के लिए कोई और कुर्सी-बंगला पा सकें। यह सिलसिला लोकतंत्र में भ्रष्टाचार का एक बड़ा जरिया हो गया है, एक बड़ी वजह हो गई है। इस सिलसिले के खिलाफ किसी सामाजिक कार्यकर्ता को अदालत जाना चाहिए कि जज और अफसर जिस राज्य में काम करते हुए रिटायर हुए हैं, उस राज्य में उन्हें बाद में कोई नियुक्ति न मिले। ऐसी नियुक्तियां हितों के टकराव को बढ़ाती हैं, भ्रष्टाचार को बढ़ाती हैं।
हालांकि यह सुझाते हुए भी हमें अदालतों से बहुत उम्मीद नहीं है क्योंकि राज्यों के हाईकोर्ट के जज भी राज्य के मानवाधिकार आयोग जैसी कुर्सियों पर आते ही हैं, और जनता के बीच ऐसी धारणा बनी रहती है कि अदालती फैसले सरकार की मनमर्जी के होने से जजों को बाद में ऐसी कुर्सियां मिलती हैं। शासन हो या न्यायपालिका, इनको न सिर्फ अपनी निष्पक्षता बनाए रखनी चाहिए, बल्कि वह निष्पक्षता दिखनी भी चाहिए। अब देश भर में जनधारणा की कीमत बुझाकर फेंकी गई सिगरेट जितनी भी नहीं रह गई है। अब सुप्रीम कोर्ट की किसी संवैधानिक बेंच तक पहुंचने के बाद ही हो सकता है कि ऐसी किसी जनहित याचिका को इंसाफ मिल सके।
राज्यों के स्तर पर तो यह आसानी से मुमकिन है कि जिन कुर्सियों पर रिटायर्ड अफसर या रिटायर्ड जज को रखने की मजबूरी हो, वहां यह नियम लागू कर दिया जाए कि इसके लिए हर प्रदेश अपने प्रदेश से बाहर के लोगों में से लोगों को छांटे। इससे भ्रष्टाचार कुछ हद तक कम होगा, और पक्षपात का खतरा भी घटेगा। आज तो हालत यह है कि जज और अफसर रिटायर होने के पहले से ऐसी कुर्सियों पर निशाना लगाकर चलते हैं कि उन्हें अपना पुनर्वास कहां पर चाहिए। बहुत से मामले तो ऐसे हैं जिनमें एक-एक बरस पहले से अखबारों में यह छपने लगता है कि किस कुर्सी पर कौन काबिज होने वाले हैं, और होता भी वैसा ही है। यह पूरा सिलसिला पूरी तरह से अनैतिक, और हितों के टकराव के आधार पर असंवैधानिक भी है। आज जजों की निजी दिलचस्पी अगर ऐसे मनोनयन और नियुक्तियों में नहीं होती, तो शायद हितों के टकराव के खिलाफ जज बड़ी कड़ी बातें किसी फैसले में लिखते। आज भी इस सिलसिले को खत्म करने के लिए लोगों को ही अदालत जाना होगा, क्योंकि इस भ्रष्टाचार पर पहला पत्थर मारने का हक न सरकार में किसी को है, न अदालत में। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
चीन की बाढ़, अमरीका का सूखा, वहीं पर तूफान, जापान में एक साथ सुनामी और बाढ़, उत्तराखंड में ताजा आपदा, इस तरह के कुदरत के कहर का सिलसिला पिछले बरसों में लगातार बढ़ते चल रहा है, और मौसम के इन तीखे तेवरों को लेकर अब एक सवाल यह उठ रहा है कि कौन से देश, कौन से प्रदेश और कौन से शहर इससे निपटने के लिए कितना खर्च करें? ऐसी नौबत साल में शायद दस-बीस दिन ही किसी इलाके को झेलनी पड़ती है। कुछ जगहों पर हमेशा से ज्वालामुखी या भूकंप के खतरे बने रहते थे, लेकिन अब नई-नई जगहों पर नई-नई कुदरती मुसीबतें सामने आ रही हैं, और इनका दर्जा भी पहले से बहुत ऊंचा हो चुका है। जो नए ढांचे खड़े हो रहे हैं, उनके लिए तो इस दर्जे की तैयारियां काफी अधिक दाम पर भी की जा रही हैं, लेकिन जहां पहले ऐसी कोई आशंका नहीं थी, वहां पर तो कोई तैयारी भी नहीं थी। इसलिए दुनिया के मौजूदा ढांचे में किस तरह कोई फेरबदल करके इन नई मुसीबतों के लिए तैयारी कर सकते हैं? पिछले कुछ सालों में ही योरप में ज्वालामुखी से निकलने वाली राख ने कुछ हफ्तों के लिए वहां जिंदगी तहस-नहस कर दी थी। योरप में ही जिस तरह से हिमयुग की वापिसी दिख रही थी उससे भी लोग हैरान थे क्योंकि दुनिया भर में तो ग्लोबल वॉर्मिंग की बातें चल रही हैं। अमरीका में लोग लू से मारे जा सकते हैं, यह पहले किसने सोचा था? दूसरी तरफ रूस की बाढ़ में डेढ़-दो सौ लोग मारे गए और ब्रिटेन बेमौसम की बरसात की मार झेलता रहा।
हिंदुस्तान की एक सबसे बड़ी पर्यावरण-जानकार सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार सुनीता नारायण ने अपनी पत्रिका डाऊन टू अर्थ के संपादकीय में उन्होंने बदलते मौसम और जलवायु परिवर्तन में रिश्ता समझने का वक्त गिनाया था। उन्होंने लिखा था-सच बात तो यह है कि बदलाव हमारे वर्तमान और भविष्य में होंगे ही। चूंकि दुनिया ने बढ़ते तापमान का असर अभी देखना शुरू ही किया है, चरम मौसमी घटनाओं के कारण समझाने वाले पिछले कई सालों के आंकड़े अस्तित्व में ही नहीं हैं। इसलिए ज्यादा से ज्यादा यही किया जा सकता है कि एक मॉडल के आधार पर दुनिया भर में बढ़ रहे तापमान के असर की भविष्यवाणी की जाए।
हम बात वहां से कुछ अलग भी ले जाना चाहते हैं। इंसान जितने किस्म से कुदरत को कुचल रहे हैं, उसे देखते हुए यह माना जाना चाहिए कि कुदरत भी इसका हिसाब आगे-पीछे चुकता करेगी। और यह सब तो तब है जब आज धरती पर अमीरी और गरीबी के बीच का फासला एक सीमा तक ही पहुंचा है और यह आगे बढ़ते जाना तय है। जब यह फासला और अधिक भयानक हो जाएगा, तब अमीर तबके की खपत भी भयानक बढ़ जाएगी। और उससे धरती के गर्म होने, यहां पर प्रदूषण बढऩे की नौबत भी अधिक भयानक हो जाएगी। उनका एक नतीजा इस तरह के चरम मौसम की शक्ल में भी सामने आएगा। लेकिन इंसान के बनाए हुए इस खतरे से परे अगर दुनिया की इस आकाशगंगा में कुछ ऐसे फेरबदल हों जो इंसान काबू से परे हों तो क्या होगा?
आज तो यह धरती इंसानों के बिगाड़े हुए माहौल की मार को नहीं झेल पा रही है, इस पर उम्मीद से परे की कोई और मार पड़े तो क्या होगा?
हिंदुस्तान के मामले में देखें तो यह बात कई तरह के बहस के लायक लगती है कि देश के एक हिस्से में बाढ़ और दूसरी हिस्से में सूखे से निपटने के लिए नदी-जोड़ योजना का नफा क्या होगा, और नुकसान क्या होगा? यह मामला बहुत अधिक जानकार लोगों के बीच के तर्क -वितर्क का है इसलिए इस बारे में हमारी अपनी कोई विशेषज्ञ राय नहीं है। पहली नजर में यह ठीक लगता है कि पानी को सूखे इलाकों की तरफ मोड़ा जाए। लेकिन इससे इन इलाकों के पर्यावरण पर पडऩे वाले असर का ठीक-ठीक अंदाज लगाना क्या आज मुमकिन है? और यह भी कि क्या इतनी बड़ी योजना से कम कोई ऐसी योजना बन सकती है जिसका असर सीमित हो? यह कुछ उसी तरह की बात है जिस तरह कि बड़े बांधों के मुकाबले पर्यावरणवादी लोग छोटे बांधों की वकालत करते हैं। लेकिन यह जरूर है कि भारत के एक हिस्से में बाढ़ को कम करके, दूसरे हिस्से से सूखे को कम किया जा सके, और सारे सूखे हिस्से में जमीन के भीतर भी रिसकर जाने वाला पानी अधिक पहुंचे, तो उसके कई फायदे भी हो सकते हैं।
मौसम के कोड़े को आज दुनिया के बहुत से हिस्से बहुत बुरी तरह झेल रहे हैं। और अमरीका जैसा ताकतवर देश भी इस मार को हल्का करने का कोई तरीका नहीं निकाल पा रहा है। भारत को भी यह सोचना शुरू करना चाहिए कि वह कुदरत को पहुंचाए जा रहे नुकसान को कम कैसे करे। लेकिन इसके साथ-साथ एक दूसरी जरूरी बात यह भी रहेगी कि विकसित और संपन्न देशों की मतलबपरस्ती के चलते कुदरत को जो बड़ा नुकसान पहुंचाया जाता है, उसे रोकने के लिए ऐसे देशों पर दबाव कैसे बढ़ाया जाए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तराखंड और उत्तर भारत के कुछ और राज्यों में कुदरत के कहर को लेकर चल रही बहस में अधिक गंभीर लोग पर्यावरण को इंसानों द्वारा पहुंचाए गए नुकसान को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। यह नुकसान लंबे समय में पहुंचाया जाता है, और उससे बहुत लंबे समय के लिए कुदरती कहर झेलना भी पड़ता है, शायद हमेशा के लिए। लेकिन इस नजरिए को ही सब कुछ मान लेने से एक नुकसान यह होगा कि पर्यावरण को बचाने को एक पूरा इलाज मान लिया जाएगा, वह भी सही नहीं होगा।
यह भी समझने की जरूरत है कि धरती, या धरती से परे की बाकी दुनिया भी, एक चट्टान की तरह की स्थायी व्यवस्था नहीं है। धरती अपने आपमें इंसानों के आने के पहले से कई तरह के फेरबदल देखती आई है, और इस पर ज्वालामुखियों का, भूकंप का, बाढ़ का इतिहास इंसानों के और लाखों बरस पहले का रहा है। मतलब यह कि जब इंसान नहीं थे, जब उन्होंने धरती को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया था, उस वक्त भी धरती में ऐसे बदलाव आते थे कि उनके आसपास अगर उस वक्त भी इंसान बसे होते, तो वे थोक में मारे गए होते। आज की एक दिक्कत यह है कि किसी इलाके की सीमाओं को समझे बिना, या उनको अनदेखा करके, उन इलाकों की सरकारें वहां की संभावनाओं के नगदीकरण में जुट जाती हैं। नतीजा यह होता है कि कुदरत की सीमाएं इतनी लांघी जाती हैं, कि उसके खतरे इंसानों पर छाने लगते हैं। हर बार ऐसा भी नहीं होता कि कुदरत कोई बदला निकालती हो। लेकिन कुदरत किसी फौलाद का ढांचा नहीं है कि हावड़ा ब्रिज की तरह उस पर सैकड़ों बरस के लिए भरोसा किया जा सके। दुनिया के किसी हिस्से में ज्वालामुखी से, कहीं पर भूकंप से, कहीं पर बाढ़ से, कहीं पर सुनामी से, कहीं पर तूफान और चक्रवात से, कहीं पर आसमानी बिजली से, और कहीं पर सूखे से, तबाही आती है, और यह तबाही रूकने लायक नहीं होती। इंसानों के पहुंचाए नुकसान से यह तबाही बढ़ती है, लेकिन धरती और दुनिया का इतिहास ऐसे नुकसान के बिना भी आने वाली कुदरती तबाही को देखते आया है। इंसानों ने तो धरती को जितना भी नुकसान पहुंचाया हो, वह तो पिछले कुछ सौ बरस की ही बात है। लेकिन धरती का इतिहास तो लाखों-करोड़ों बरस पुराना है, और जमीन के नीचे जब चट्टानें खिसकती हैं तो बड़े-बड़े इलाके तबाह हो जाते हैं। आज इसलिए कि ऐसे इलाकों में लोग बसे हुए हैं, ढांचे खड़े हुए हैं, इसलिए तबाही अधिक दिखती है।
लोग कहीं पर मंदिर-मस्जिद बनाएं, या गुरुद्वारे और चर्च, कहीं पर सैर-सपाटे की जगहें बनाएं, या पहाड़ के ऊपर और समंदर के करीब रहने की जगह, उनको धरती की सीमाओं को भी समझना होगा कि उसमें फेरबदल कभी भी आ सकता है, इंसानों के पहुंचाए जख्मों से परे भी धरती कराह सकती है, आसमान का लहू बरस सकता है। प्रकृति की इन सीमाओं के खतरों को समझे बिना अगर किसी इलाके में लाखों तीर्थयात्री या सैलानी इस तरह जाएंगे, और वहां पर मौसम की कोई मार पड़ेगी, तो उसे न तो सिर्फ मानवनिर्मित विनाश कहना ठीक होगा, और न ही ऐसी किसी जगह की सरकारों को उसके लिए जिम्मेदार ठहराना ठीक होगा। ऐसी तबाही में उनका हिस्सा इसे बढ़ाने वाला तो हो सकता है, लेकिन इसे खड़ा करने वाला नहीं हो सकता। कुदरत के कहर की मार तो इंसानों के कुकर्मो से बढ़ सकती है, लेकिन कुदरत का अपना मिजाज ऐसे फेरबदल का है जो कि धरती, समंदर, आसमान और दूसरे ग्रहों पर होते चलता है, और वह इंसान को देखकर नहीं होता। कुदरत को जो लोग मां मान लेते हैं, वे यह समझने की चूक कर बैठते हैं कि जिस तरह कोई मां अपने बच्चों का ख्याल रखती है, उसी तरह कुदरत भी इंसानों का ख्याल रखती है। कुदरत का इंसानों से ऐसा कोई रिश्ता नहीं है, और उससे ऐसी उम्मीद एक ऐसी नाउम्मीदी और सदमे की गारंटी कर देगी जैसी कि आज उत्तराखंड में लोगों को हो रही है, या जैसी कि अमरीका में पिछले बरसों में तकरीबन हर महीने-दो महीने में लोगों को किसी तूफान या बवंडर से हो रही है।
इसलिए प्राकृतिक विपदाओं को सिर्फ इंसानों की खड़ी की हुई, या बढ़ाई हुई मान लेना गलत होगा। इंसानों के किए हुए से परे भी, कुदरत ने धरती के हर हिस्से को ऐसा नहीं बनाया है कि उन जगहों पर मनचाही गिनती में लोग बसें या पहुंचें, और मनचाहे काम करें। लोगों को धरती और आसमान के, समंदर और नदियों के, खतरों को समझते हुए ही उन जगहों पर रहना या आना-जाना तय करना पड़ेगा। आज इंसानों ने अपने सुख के लिए, शौक के लिए, या रोजगार के लिए ऐसी जगहों पर ऐसे-ऐसे काम शुरू किए हैं, जो कि कभी भी खतरों से खाली नहीं रहेंगे। और इसे कुदरत की मार कहना भी इसलिए गलत होगा कि कुदरत सोच-समझकर वार या मार करने वाली ताकत नहीं है। उसमें अपने आपमें जो तब्दीलियां आती हैं उन पर उसका अपना कोई बस नहीं रहता। आज उत्तराखंड के बहुत ही कमजोर, नाजुक, और अविश्वसनीय प्राकृतिक ढांचे पर इस कदर का भरोसा कर लिया गया है, कि उसका किसी भी दिन टूट जाना हैरानी की बात नहीं होता। और वही हुआ। जिस तरह लोग आग के करीब पेट्रोल नहीं रखते, बिजली के तारों के नीचे खुद नहीं बसते, उसी तरह धरती के खतरनाक हिस्सों के खतरों को समझकर उनसे दूर रहना, दूर बसना ही बेहतर होगा। आज उत्तराखंड में अनगिनत ऐसी शहरी इमारतें बह गई हैं, या गिर गई हैं, जो कि नदी के किनारे गैरकानूनी बनी हुई थीं। ऐसी सड़कें बह गई हैं, या गिर गई हैं, जो कि पहाड़ को चीरकर बनाई गई थीं। ऐसे खतरे खुद खड़े करके इंसान अगर उनके बीच जिएंगे, वहां घूमने जाएंगे, तो वह खतरे का काम तो रहेगा ही। आज का विज्ञान, आज का सरकारी इंतजाम, ऐसे कुदरती खतरों के बाद होने वाले नुकसान को कम करने का काम ही कर सकते हैं, उसे रोक नहीं सकते।
एक वक्त था जब ऐसे तीर्थों पर जाते हुए लोग यह मानकर चलते थे कि वहां से पता नहीं लौटें, या न लौटें। साल-छह महीने न लौटने वालों के श्राद्ध भी कर दिए जाते थे। तब से अब तक वहां की धरती की हालत पहले से खराब ही हुई है, पहले से अच्छी नहीं हुई, लेकिन वहां जाने वाले लोग अब शायद लाखों गुना अधिक बढ़ गए हैं। ऐसे में एक नाजुक इलाके में इतना ही ढांचा विकसित हो सकता है, जो कि कुदरत के किसी बड़े फेरबदल के पहले तक लोगों का साथ दे दे। लोग जिसे प्रकृति की विनाशलीला या कुदरत का कहर कहते हैं, वह कुदरत का एक मामूली और नियमित-अनियमित फेरबदल अधिक है, इंसानों का खरीदा हुआ कहर कम है। इसलिए लोगों को धरती और आसमान की सीमाओं को समझकर अपनी हिफाजत खुद करनी होगी। दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमरीका में ही बवंडर से आने वाली तबाही को रोकने का कोई जरिया नहीं है, तूफान से अपने लोगों को बचाने का कोई जरिया नहीं है। बचाव की सीमा है, कुदरत की सीमा है, इंसानों की हसरत असीमित है, इसलिए लोग अधिक खतरे झेल रहे हैं। यह लोगों को खुद समझना है कि वे कितने खतरे झेलकर अपने शौक, अपने सुख, या अपने आस्था को पूरा करना चाहते हैं।
हिन्दुस्तान में आमतौर पर मुस्लिमों के बीच न तो कन्या भ्रूण हत्या का चलन सुनाई पड़ता, न ही किसी की बलि देने जैसी धर्मान्धता सुनाई पड़ती। लेकिन पिछले चार दिनों में दो ऐसी दिल दहलाने वाली खबरें सामने आई हैं जिनकी वजह से न सिर्फ मुस्लिमों में, बल्कि भारत के बहुत से दूसरे सम्प्रदायों में ऐसी निजी हिंसा के बारे में लिखने की जरूरत महसूस हो रही है। पहली खबर इतवार के दिन केरल से आई जहां पर एक गर्भवती मदरसा-शिक्षिका ने अल्लाह को खुश करने के नाम पर अपने छह बरस के बेटे का गला काटकर उसे मार डाला। इसके बाद उसने खुद पुलिस को फोन करके खबर की कि उसने अपने बेटे को अल्लाह को कुर्बान कर दिया। केरल न सिर्फ हिन्दुस्तान का सबसे पढ़ा-लिखा राज्य है, बल्कि यह सेक्स अनुपात में देश में सर्वाधिक कन्या-आबादी वाला राज्य भी है। हालांकि मां के हाथों बेटे के इस कत्ल का लडक़े-लड़कियों से कोई लेना-देना नहीं है, और यह सिर्फ धार्मिक अंधविश्वास के चलते हुई पारिवारिक हिंसा है। जब इस महिला ने बेटे को मारा, तो बगल के कमरे में उसका पति उनके दो दूसरे बच्चों के साथ सोया हुआ था। इसके दो हफ्ते पहले आन्ध्रप्रदेश से अंधविश्वास से जुड़ी पारिवारिक हिंसा की एक दूसरी खबर आई थी जिसमें दो पढ़े-लिखे मां-बाप ने अपनी दो जवान पढ़-लिख रही बेटियों को मार डाला था कि वे मरने के बाद फिर जिंदा होकर लौट आएंगी। आज की ताजा खबर हरियाणा से है जहां एक महिला अभी दो महीने बाद गिरफ्तार हुई है। यह महिला हरियाणा की सबसे घनी मुस्लिम आबादी वाले इलाके मेवात की रहने वाली है, और उसे चार बेटियां हो चुकी थीं, लेकिन बेटा नहीं हुआ था। ऐसे में उसने पारिवारिक प्रताड़ऩा झेलते हुए तनाव में चारों बेटियों की गला काटकर हत्या कर दी थी, और खुद का भी गला काटने की कोशिश की थी। अस्पताल से अब छूटने पर उसे चार बेटियों की हत्या के जुर्म में गिरफ्तार किया गया है।
पारिवारिक हिंसा के ये तीनों मामले अंधविश्वास और सामाजिक-पारिवारिक प्रताड़ऩा से जुड़े हुए हैं। शुरू के दो मामले अंधविश्वास में अपने ही बच्चों को मार डालने के हैं, और हरियाणा का मामला लडक़े की चाह वाले परिवार के दबाव में तनाव से की गई हत्याओं का है। इन तीन घटनाओं से दो अलग-अलग मुद्दे जुड़े हुए हैं, लेकिन ऐसी पारिवारिक हिंसा को एक साथ भी देखने की जरूरत है। धार्मिक अंधविश्वास लोगों को किस हद तक हिंसक-आत्मघाती बना देता है, उसकी कोई सीमा नहीं दिखती है। लोग अपने बच्चों को मार डालते हैं, देवी-देवता को खुश करने के लिए अपने शरीर का कोई अंग काटकर चढ़ा देते हैं, या खुदकुशी कर लेते हैं। एक तरफ तो यह दुनिया 21वीं सदी में पहुंची हुई है जब यहां के इंसान जाकर चांद को रौंद आए हैं, दूसरे ग्रहों पर जाने के रास्ते पर हैं, विज्ञान ने लोगों की बीमारियों को दूर किया है, जगह-जगह विज्ञान की पढ़ाई हो रही है, और उस बीच अंधविश्वास में ऐसी हिंसा हो रही है! एक तरफ धर्मशिक्षा देने वाले मदरसे की शिक्षिका अपने बच्चे को अल्लाह को कुर्बान कर रही है, दूसरी तरफ आन्ध्र में उच्च शिक्षित मां-बाप अपनी उच्च शिक्षा पा रही जवान बेटियों को मार डाल रहे हैं कि वे जिंदा हो जाएंगी। ऐसी नौबत में सिर्फ धर्म की शिक्षा को क्या कोसा जाए? धर्म की शिक्षा से परे उच्च शिक्षा भी लोगों के दिमाग के अंधविश्वास खत्म नहीं कर पा रही है। आज हिन्दुस्तान का सारा माहौल ही वैज्ञानिक सोच के खिलाफ हो चुका है, और इसका असर भी समाज में जगह-जगह देखने मिल रहा है।
हरियाणा पहले भी कन्या भ्रूण हत्या के लिए बदनाम राज्य रहा है, और वहां आबादी में लड़कियों का अनुपात लडक़ों के मुकाबले खासा कम रहा है। वहां पर इस मुस्लिम परिवार में चार लड़कियों के बाद मां पर बेटा पैदा करने के लिए दबाव इतना बढ़ा कि उसने चारों लड़कियों के गले काटकर खुद का भी गला काटा, लेकिन वह जख्मी होकर रह गई, और बाकी जिंदगी का पता नहीं कितना हिस्सा जेल में जाएगा। हरियाणा एक ऐसा राज्य है जहां खाप पंचायतों से लेकर मौजूदा मुख्यमंत्री तक लगातार लड़कियों के खिलाफ तरह-तरह के फतवे देते आए हैं, और राज्य की आम सामाजिक सोच लड़कियों के लिए हिकारत की है। जबकि हिन्दुस्तान में ओलंपिक से भी मैडल लेकर आने वाली लड़कियां हरियाणा की भी रही हैं।
समाज के लोगों को ऐसी घटनाओं से महज सतह पर तैरते हुए लक्षण मानना चाहिए जिनकी बीमारी सतह के नीचे है, और मरने-मारने से कम दर्जे की हिंसा सामने नहीं आ पाती है। लोगों को यह समझना चाहिए कि हिंसा की पराकाष्ठा के कुछ मामले जब सामने आते हैं, तो उससे कम दर्जे की हिंसा के हजारों मामले और रहते हैं जो कि पुलिस और अखबार तक नहीं पहुंचते, घर की चारदीवारी के भीतर जिनका दम घुटकर रह जाता है। ऐसी आत्मघाती या पारिवारिक हिंसा से उबरने के लिए लोगों के बीच एक वैज्ञानिक सोच विकसित होना जरूरी है, और समाज के भीतर लड़कियों और महिलाओं के लिए सम्मान बढऩा भी जरूरी है। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में स्थित डॉ. दिनेश मिश्रा जैसे जीवट सामाजिक कार्यकर्ता लगातार अंधविश्वास के खिलाफ अपना वक्त और अपनी मेहनत लगाकर काम कर रहे हैं। अलग-अलग प्रदेशों में ऐसे और लोग भी हैं। लेकिन पुणे से लेकर बेंगलुरू तक अंधविश्वास और धर्मान्धता के खिलाफ काम करने वाले लोगों का साम्प्रदायिक कत्ल भी हो रहा है। ऐसे में अधिक संख्या में जागरूक लोगों को अधिक मेहनत करने की जरूरत है क्योंकि जब देश में कुछ ताकतें लगातार लोगों को धर्मान्ध और अंधविश्वासी बनाने के लुभावने काम में लगी हुई हैं, तब न्यायसंगत लोगों को जुटना होगा, वरना लोगों को अंधविश्वासी और धर्मान्ध बनाना तो एक अधिक आसान काम है ही।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राज्यसभा में देश में चल रहे आंदोलनों के संदर्भ में आंदोलनकारियों पर बड़ा हमला किया। उन्हें परजीवी भी कहा, यानी जो दूसरों पर पलते हैं, और यह भी कहा कि देश को ऐसे आंदोलनजीवी लोगों से बचाकर रखने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि जिस तरह पहले श्रमजीवी या बुद्धिजीवी शब्द सुनाई पड़ते थे, देश में अब एक नई बिरादरी खड़ी हो गई है आंदोलनजीवियों की। किसी का भी आंदोलन चलता रहे ये जाकर उसमें पर्दे के सामने से या पर्दे के पीछे से शामिल हो जाते हैं। उन्होंने आंदोलनों को समर्थन देने वाले ऐसे लोगों की जमकर खिल्ली उड़ाते हुए मोदी ने देश को इन लोगों से सावधान रहने को कहा, देश को इनसे बचाकर रखने कहा।
पहली नजर में ऐसा लगा कि मानो भरोसेमंद मीडिया ने भी मोदी की बात को तोड़़-मरोडक़र लिखा है, और भला किस लोकतंत्र में प्रधानमंत्री आंदोलनों को लेकर इतनी ओछी बात कर सकता है। लेकिन जल्द ही यह खुलासा हो गया, और राज्यसभा का वीडियो भी चारों तरफ फैल गया कि मोदी ने सचमुच ऐसा ही कहा था। यह बात किसी भी लोकतंत्र को सदमा पहुंचाने वाली है कि वहां के आंदोलनों के संदर्भ में उस लोकतंत्र का प्रधानमंत्री ऐसी सोच रखता है। खासकर आज जब देश में कुल एक, किसान आंदोलन की चर्चा है, और इन आंदोलनकारियों को खालिस्तानी, पाकिस्तानी, चीन समर्थक, और देश का गद्दार करार देने की भरपूर कोशिश चल ही रही है। इस बीच में प्रधानमंत्री का ऐसा कहना देश के तमाम लोकतंत्रवादियों का भयानक अपमान छोड़ और कुछ नहीं है।
देश में बहुत से ऐसे लोग हैं जो कि हर कुछ हफ्तों या महीनों में किसी आंदोलन को समर्थन देते हैं, उसकी हिमायत में बयान जारी करते हैं, या उसके समर्थन में किसी प्रदर्शन में शामिल होते हैं। ऐसा इसलिए नहीं होता कि ये लोग भाड़े पर ट्वीटने वाले लोगों सरीखे भाड़े के आंदोलनजीवी हैं। ये लोग लोकतंत्र पर भरोसा रखते हैं, और हिन्दुस्तान जैसे विशाल देश में, यहां के दर्जनों प्रदेशों में, यहां के लाखों शोषणकर्ताओं के राज में लोकतंत्र समर्थक आंदोलन तो चलते ही रहते हैं, और जिनका भरोसा लोकतंत्र पर है, उनका भरोसा ऐसे एक से अधिक बहुत से आंदोलनों पर हो सकता है, और रहता है। आज कोई जेएनयू के छात्रों के साथ हैं, तो हो सकता है कि यह उनका धंधा न रहते हुए भी वे शाहीन बाग के आंदोलन के साथ हो सकते हैं, वे यूपी और बिहार में बलात्कार के बाद जबरिया अंतिम संस्कार करने वाली पुलिस के खिलाफ आंदोलन के साथ भी हो सकते हैं, किसानों के आंदोलन के साथ भी हो सकते हैं, और किसी कॉमेडियन की गिरफ्तारी के खिलाफ आंदोलन के साथ भी हो सकते हैं। इसका मतलब यह कहीं भी नहीं रहता कि वे पेशेवर आंदोलनकारी हैं, या आंदोलन पर पलने वाले परजीवी धंधेबाज हैं।
लोकतंत्र में आंदोलनों और आंदोलनकारियों को इतनी हिकारत से देखना बहुत ही नाजायज बात है। अटल-अडवानी के वक्त से जनसंघ और भाजपा गौरक्षा के लिए आंदोलन करते आए हैं, या कुछ दूसरे हिन्दू संगठनों के चलाए जा रहे गौरक्षा आंदोलन का साथ देते आए हैं। जनसंघ और भाजपा कश्मीरी पंडितों के मुद्दे से लेकर कश्मीर से धारा 370 हटाने तक के मुद्दों पर आंदोलन भी करते आए हैं, और इन मुद्दों के दूसरे आंदोलनकारियों के साथ भी खड़े रहे हैं। जनसंघ के लोग आपातकाल के खिलाफ चले आंदोलन में समाजवादियों, और माक्र्सवादियों के साथ इंदिरा-विरोधी आंदोलन में शामिल रहे हैं, ये लोग कहीं हिन्दी भाषा के आंदोलन में शामिल रहे हैं, तो कहीं धर्मांतरण के बाद ऑपरेशन घरवापिसी के साथ खड़े रहे हैं। प्रधानमंत्री के बयान के जवाब में सोशल मीडिया ने उबलते हुए सैकड़ों ऐसी तस्वीरें पेश की हैं जिनमें नरेन्द्र मोदी से लेकर स्मृति ईरानी तक, और अरूण जेटली से लेकर सुषमा स्वराज तक तरह-तरह के आंदोलनों में हिस्सा लेते दिख रहे हैं। खुद मोदी धारा 370 के खिलाफ आंदोलन के मंच पर बैठे दिख रहे हैं, अटल बिहारी वाजपेयी पेट्रोल की महंगाई के खिलाफ बैलगाड़ी पर संसद जाते दिख रहे हैं, और स्मृति ईरानी तो गैस सिलेंडर की महंगाई के खिलाफ आंदोलन में सबसे आगे, लेकिन यूपीए सरकार तक, दिख रही हैं। जो पार्टी या जो नेता पूरी जिंदगी किसी न किसी लोकतांत्रिक आंदोलन से जुड़े रहे, उनका आज का मुखिया आंदोलनकारियों को अगर परजीवी कहे, तो यह उस नेता की अपनी पार्टी की विरासत का अपमान भी है।
कोई भी लोकतंत्र जब तक बेइंसाफी के खिलाफ, हक के लिए, लोकतांत्रिक मुद्दों के लिए आंदोलन नहीं देखता, तब तक वह एक मुर्दा लोकतंत्र रहता है, जिसका रहना न रहना एक बराबर होता है। आज हिन्दुस्तान के जो तथाकथित देशप्रेमी स्वीडन की एक किशोरी, ग्रेटा थनबर्ग पर उबल रहे हैं कि उसने हिन्दुस्तानी किसानों के पक्ष में ट्वीट करके हिन्दुस्तानी घरेलू मामलों में दखल दी है, उन्हें दुनिया के विकसित और सभ्य लोकतंत्रों के माहौल को भी समझना चाहिए जो कि आज भारत में नहीं रह गया है। स्वीडन की यही किशोरी ग्रेटा थनबर्ग 15 बरस की उम्र में अपने देश की संसद के बाहर पर्यावरण बचाने के मुद्दे पर धरने पर बैठी, और उसने पूरी दुनिया के लोगों का ध्यान खींचा, और अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप से गालियां खाईं। लेकिन उसने अपने देश में अकेले जो धरना और विरोध-प्रदर्शन शुरू किया उसने पूरी दुनिया को प्रभावित किया। दुनिया के देशों में जगह-जगह उसकी प्रेरणा से लोग पर्यावरण बचाने के लिए प्रदर्शन करने लगे। इस लडक़ी ने 2019 में 16 बरस की उम्र में एक समुद्री नौका से इंग्लैंड से न्यूयॉर्क तक सफर किया ताकि संयुक्त राष्ट्र पहुंचकर वह जलवायु पर खतरे के मुद्दे को उठा सके। पन्द्रह दिनों का यह सफर इसने सौर ऊर्जा से चलने वाली इस नौका से तय किया था और न्यूयॉर्क पहुंचकर उसने संयुक्त राष्ट्र के बैनरतले एक प्रेस कांफ्रेंस में दुनिया को प्रभावित किया। लोकतंत्र ऐसे ही आंदोलनों का नाम है, ये आंदोलन अपने देश की सरहद के भीतर हो सकते हैं, और अपने देश की सरहद के बाहर भी। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद के खिलाफ अपनी जिंदगी का पहला आंदोलन शुरू किया था, न तो वे वहां के नागरिक थे, और न ही वहां आंदोलन उनका हक था। आज हिन्दुस्तानी पुलिस ग्रेटा थनबर्ग को हिन्दुस्तान की दुश्मन करार देकर अपने देश के बावले लोगों को नारे लगाने का एक मौका जरूर दे रही है, लेकिन दुनिया में हिन्दुस्तान मखौल का सामान बन गया है।
देश के चुनावों में सबसे कामयाब नेता होने से भी नरेन्द्र मोदी को यह हक नहीं मिल जाता कि वे इस महान लोकतंत्र में आंदोलन नाम के लोकतांत्रिक हक को एक गाली की तरह इस्तेमाल करें। हो सकता है कि इसके बाद भी उनकी चुनावी संभावनाओं पर कोई फर्क न पड़े, या चुनावी संभावनाएं बढ़ भी जाएं, दुनिया के इतिहास में चुनावी आंकड़ों के मुकाबले लोकतांत्रिक फैसले अधिक मायने रखेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केदारनाथ में आई विनाशकारी बाढ़ की याद दिलाते हुए कल उत्तराखंड में एक बार फिर प्राकृतिक विपदा आई, लेकिन कुदरत इस बार मेहरबान रही, और शायद कुछ दर्जन मौतों पर ही बात रूक गई। फिर भी ऊपर पहाड़ पर किसी झील में बर्फ टूटी, या कुछ और हुआ जिससे कि पानी एकदम से नदी में आया, और बन रहे एक जल बिजलीघर को बहाते हुए आगे बढ़ गया। जैसा कि किसी भी बड़े हादसे में होता है, इसमें भी मरने वाले अधिकतर लोग गरीब मजदूर थे जो कि शायद इसी जल बिजलीघर की सुरंग में काम कर रहे थे, और ऊपर से बहकर आए मिट्टी के सैलाब में दर्जनों मजदूर दब गए। लाशों का मिलना और मौतों की गिनती अभी जारी है, लेकिन उनके कम-अधिक होने से बहुत फर्क नहीं पड़ता, फर्क की बात सिर्फ यह है कि कुदरत के साथ चल रहा यह खिलवाड़ इस ताजा हादसे के बाद भी लोगों की आंखें खोल सकेगा या नहीं?
उत्तराखंड में ऊपर हिमालय की जमी हुई झीलों की बर्फ धरती की बढ़ती हुई गर्मी से वैसे भी अधिक पिघल रही थी, और मौसम के बदलाव की वजह से वहां बर्फ जमना भी शायद कम हो रहा था। ऐसे में बादल फटने से, या धरती में कोई और फेरबदल होने से बर्फ का बड़ा टुकड़ा टूटकर नीचे आया और रास्ते के सब कुछ को बहाते हुए ले गया। यह तो अच्छी बात रही कि यह सुबह-सुबह हुआ, अगर यही हादसा देर रात हुआ होता, तो लोग बेखबर ही मारे जाते। लेकिन इससे सबक लेने की जरूरत यह है कि धरती के भीतर, धरती पर, या आसमान में आए किसी भयानक फेरबदल से उत्तराखंड जैसा पहाड़ी राज्य इतने बड़े खतरे में पड़ सकता है कि जिसके सामने केदारनाथ की बाढ़ की पांच हजार से अधिक मौतें भी फीकी पड़ जाएं। कुछ तो धरती की बनावट ऐसी है कि हर बात इंसान के काबू में नहीं है, और कुछ इंसान धरती को बर्बादी की तरफ धकेलने में लगे रहते हैं। इन दो बातों में से कम से कम इंसानी हरकतें तो काबू में लाई जा सकती हैं।
धरती के गर्म होने के लिए जिम्मेदार अनगिनत इंसानी हरकतों के व्यापक असर को पल भर के लिए अलग रखें, तो उत्तराखंड में इंसानों की लाई हुई तबाही को, और आगे आने वाले खतरे को देखा जा सकता है, और उसे आगे बढ़ाने से थमा भी जा सकता है। आज हिन्दुस्तान के गिने-चुने पहाड़ी राज्यों में बांध बनाकर सस्ती बिजली बनाने की कोशिशें कुछ जानकारों की नजरों में खतरे से खेलने के अलावा और कुछ नहीं है। लोग लंबे समय से उत्तराखंड जैसे राज्य में बांध में पानी अधिक इक_ा करने को धरती के लिए बड़ा खतरा मानकर चल रहे थे, और इसके खिलाफ आंदोलन भी कर रहे थे। इसी उत्तराखंड में सुंदरलाल बहुगुणा पेड़ों की कटाई का विरोध करते हुए पूरी जिंदगी चिपको आंदोलन चलाते रहे, और चाहे किसी पार्टी की सरकार रही हो, उसे कंस्ट्रक्शन के ठेकों के लिए पेड़ों को काटना सुहाता रहा। किसी भी पार्टी की सरकार का नजरिया धरती की तबाही को लेकर जरा भी अलग नहीं रहा, और उत्तराखंड ने कुछ बरस पहले केदारनाथ की बाढ़ ऐसी ही वजहों से झेली थी।
हिन्दुस्तान के ये पहाड़ी राज्य अपने स्थानीय शासन को अधिकारों के तहत पर्यटन को किसी भी सीमा तक बढ़ाने के लिए आजाद हैं, और इन राज्यों में कमाई का एक बड़ा जरिया पर्यटक हैं। लेकिन पड़ोस का हिमाचल प्रदेश अंधाधुंध बढ़ाए गए पर्यटन के बोझतले दम घुटते दिख रहा है। अब वैसा ही हाल उत्तराखंड का होने जा रहा है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि अंधाधुंध कमाई के लिए एवरेस्ट को कूड़े का ढेर बना दिया गया है। पहाड़ी रास्तों पर सडक़ें चौड़ी की जा रही हैं, उत्तराखंड को देवभूमि कहते हुए वहां अधिक से अधिक तीर्थयात्रियों का आना-जाना आसान करने के लिए ढेरों सडक़ें बनाई जा रही हैं, और उनमें से एक प्रोजेक्ट का नाम भी चारधाम महामार्ग रखा गया है। इस पहाड़ी प्रदेश में सात सौ किलोमीटर से अधिक लंबाई की यह टू-लेन नेशनल हाईवे बनाई जा रही है, और यह अंदाज लगाना अधिक मुश्किल नहीं है कि यहां आवाजाही बढऩे से वाहनों के धुएं का प्रदूषण बढ़ेगा, और उससे पर्यावरण के होने वाले नुकसान की भरपाई भी इंसानों को आगे चलकर करनी पड़ेगी। दरअसल कोई देश या प्रदेश अपनी तात्कालिक जरूरतों और संभावनाओं को देखते हुए धरती पर होने वाले दीर्घकालीन नुकसान को अनदेखा करने के आदी हो चुके हैं। उन्हें पांच साल के अपने कार्यकाल से परे की फिक्र खत्म हो गई है। केदारनाथ की बाढ़ के मुकाबले चूंकि इस बार मौतें बहुत कम हैं, इसलिए इस बार की कुदरत की चेतावनी को सरकारें तेजी से भुला देंगी। नतीजा आने वाली पीढिय़ां भुगतेंगी।
केन्द्र सरकार और उत्तराखंड सरकार पर इस बात को लेकर दबाव बनाना चाहिए कि विकास के नाम पर इस पहाड़ी राज्य, या दूसरे पहाड़ी राज्यों की कुदरती सीमाओं के साथ खिलवाड़ खत्म किया जाए। यह पूरे देश की जिम्मेदारी है कि पहाड़ी राज्यों पर कुदरती खतरा न बढ़ाने के एवज में उन राज्यों को केन्द्र से अतिरिक्त मदद दी जाए। हिन्दुस्तान में कई राज्यों को फौजी जरूरतों के मुताबिक या सरहदी रणनीति के चलते ऐसी मदद दी भी जाती रही है, और आज भी उत्तर-पूर्व जैसे राज्यों को कई तरह की रियायत मिलती है, और अनुदान मिलते हैं। भारत के पहाड़ी राज्यों को देश का फेंफड़ा बने रहने के एवज में इसकी भरपाई मिलनी चाहिए, और इसके साथ ही वहां पर धरती पर अधिक जुल्म भी खत्म होने चाहिए। अब हिन्दुस्तान की देश-प्रदेश की सरकारों में पर्यावरण के लिए आपराधिक लापरवाही दिखाई दे रही है, और ऐसे में धरती को बचाने की नसीहतों की जगह सरकारी दफ्तरों की कचरे की टोकरी के अलावा कुछ नहीं रहेगी। फिर भी लोगों को बोलने की अपनी जिम्मेदारी जारी रखनी चाहिए। ये पहाड़ी इलाके इंसानों का, आवाजाही का, बांधों का इतना बोझ ढोने के हिसाब से बने हुए नहीं हैं, और यहां की धरती अपने जंगलों के बिना हिफाजत से नहीं रह सकती। इन बातों को देखते हुए ऐसे पहाड़ी इलाकों की संभावनाओं की सीमाओं पर गौर करना जरूरी है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आज इस वक्त असम और पश्चिम बंगाल के दौरे पर हैं। इन दो चुनावी राज्यों में वे कई शिलान्यास और लोकार्पण करने वाले हैं। इस बार के केन्द्रीय बजट में देश के चुनावी राज्यों के लिए इतना खास इंतजाम किया गया है कि लोग सोशल मीडिया पर उसका मजाक भी बना रहे हैं। पश्चिम बंगाल का चुनाव सबसे अधिक उत्तेजना से भरा हुआ है, क्योंकि वहां पहले तो वामपंथियों और ममता बैनर्जी के समर्थकों के बीच हिंसक टकराव होते रहता था, अब वामपंथियों के किनारे हो जाने के बाद तृणमूल कांग्रेस का टकराव भाजपा से होता है जो कि राज्य में अगली सरकार बनाने का दावा कर रही है। इस मुद्दे पर आज लिखने की जरूरत इसलिए है कि बंगाल में प्रधानमंत्री के एक सरकारी कार्यक्रम में शामिल होने का न्यौता मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी को भी भेजा गया था, लेकिन वे उसमें शामिल नहीं हो रही हैं। पखवाड़े पहले नेताजी सुभाषचंद्र बोस की 125वीं जयंती के राष्ट्र स्तर के समारोह में बंगाल में प्रधानमंत्री के साथ ममता बैनर्जी भी मौजूद थीं, और उसमें जब ममता बोलने के लिए खड़ी हुईं, तो भाजपा के कार्यकर्ताओं ने उनका भाषण शुरू होते ही जयश्रीराम के नारे लगाने शुरू कर दिए थे। उस पर ममता ने अपनी बात खत्म कर दी, और सार्वजनिक रूप से इस बर्ताव पर विरोध जाहिर किया था। देश के मीडिया के एक बड़े हिस्से ने इस घटना पर भाजपा के नेताओं के इस बयान को खूब बढ़-चढक़र दिखाया और छापा कि जयश्रीराम सुनने पर ममता के तन-मन में आग लग जाती है, या वे भडक़ जाती हैं। जबकि जिम्मेदार मीडिया में यह तथ्य साफ-साफ छपा था कि ममता को बोलते एक मिनट ही हुआ था कि कार्यक्रम में बड़ी संख्या में मौजूद भाजपा के कार्यकर्ताओं में से जयश्रीराम के नारे लगने लगे थे।
यह घटना और इससे एक पखवाड़े बाद आज इस राज्य में केन्द्र सरकार के एक सरकारी कार्यक्रम में जाने से ममता के इंकार को समझने की जरूरत है। भारत के संघीय ढांचे में ऐसा होते ही रहेगा कि केन्द्र में किसी पार्टी या गठबंधन की सरकार रहेगी, और अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियों और गठबंधनों की। बहुत से ऐसे सार्वजनिक मौके रहेंगे जब एक सरकार के कार्यक्रम में दूसरी सरकार के लोगों को न्यौता दिया जाएगा, और सार्वजनिक जीवन के शिष्टाचार का यह तकाजा भी रहेगा कि दलगत पसंद-नापसंद से परे लोग ऐसे कार्यक्रमों में जाएं, और ऐसा आमतौर पर होता भी है। लेकिन बंगाल उन राज्यों में से है जहां पर सत्तारूढ़ पार्टी और उसकी मुखिया मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी के साथ केन्द्र के सत्तारूढ़ गठबंधन की मुखिया भाजपा का बहुत कड़वाहट भरा टकराव चल रहा है। ममता बैनर्जी भी अपना आपा जल्दी खोने के लिए जानी जाती हैं, और दूसरी तरफ भाजपा के मंत्री और दूसरे नेता बंगाल में ममता को भडक़ाने का कोई मौका चूकते नहीं हैं। देश की संघीय व्यवस्था का तकाजा यह था कि जब कलकत्ता में प्रधानमंत्री की मौजूदगी में केन्द्र सरकार का एक कार्यक्रम चल रहा था, तो उसमें आमंत्रित और मौजूद मुख्यमंत्री के भाषण के बीच उन्हें हूट करना बदतमीजी भी थी, और अतिथि सत्कार की परंपरा के खिलाफ बात भी थी। लेकिन अपनी आंखों के सामने ऐसा होते देखकर भी प्रधानमंत्री की खामोशी को हुड़दंगियों को मौन सहमति के अलावा और तो कुछ समझा भी नहीं जा सकता है। खासकर जब केन्द्र और राज्य के बीच राजनीतिक और सरकारी संबंध तनातनी के चल रहे हैं, तब अपने कार्यक्रम में बुलाकर ममता बैनर्जी को पहले तो हूट करना, और फिर इस बात को ममता बैनर्जी के हिन्दू-विरोधी होने की तरह प्रचारित करना कोई अच्छी बात नहीं थी।
भारत में केन्द्र और राज्य के बीच संबंधों में कई बातें पारंपरिक शिष्टाचार पर आधारित रहती हैं। यह कहीं लिखा हुआ नहीं है कि राज्य के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में जाना ही होगा, यह सिर्फ शिष्टाचार का मामला है। केन्द्र के कार्यक्रम में आमंत्रित मुख्यमंत्री के साथ प्रधानमंत्री की नजरों के सामने की गई एक बड़ी अशिष्टता के बाद शिष्टाचार की परंपरा का तकाजा नहीं दिया जा सकता। लोकतंत्र में असहमतियों के बीच परस्पर सम्मान की दरियादिली अगर खत्म हो जाती है, तो दिलों को जोडऩे के लिए किसी कानूनी बंदिश की मदद नहीं ली जा सकती। चुनाव तो आते-जाते रहते हैं, चुनावी भाषणों में कई किस्म की गंदगी भी उगली जाती है, लेकिन आमंत्रित अतिथियों के साथ बदसलूकी कोई इज्जत नहीं दिलाती, फिर चाहे यह बदसलूकी कोई भी क्यों न करे।
सत्ता पर बैठे लोग, समाज के ताकतवर लोग, सार्वजनिक संस्थाओं और ओहदों पर काबिज लोग अगर किसी बात पर सबसे अधिक विचलित होते हैं तो वह आरटीआई है, यानी सूचना का अधिकार। हाल के बरसों में इस कानून का जितना इस्तेमाल हुआ है, उसका एक बड़ा हिस्सा बेजा इस्तेमाल का है। लेकिन लोकतंत्र में कौन सा ऐसा कानून होता है जिसका बेजा इस्तेमाल न होता हो? इसलिए आरटीआई का इस्तेमाल करके ब्लैकमेलिंग की जाती है, और इसलिए आरटीआई कानून को कमजोर किया जाए, यह एक निहायत अलोकतांत्रिक सोच है। पार्षदों से लेकर सांसदों तक के चुनाव में लोग अमूमन कानून तोडक़र ही चुनाव जीतते हैं इसलिए क्या चुनाव व्यवस्था खत्म कर दी जाए? संसद और विधानसभाओं में अपराधी लगातार बढ़ते चले जा रहे हैं तो क्या इन सदनों को खत्म कर दिया जाए? सरकारें आमतौर पर भ्रष्ट रहती हैं, तो क्या निर्वाचित लोगों के मुकाबले फौज को सत्ता दे दी जाए? जब कभी लोग लोकतंत्र की छूट के बेजा इस्तेमाल से थकते हैं, वे तुरंत उस छूट को खत्म करने की बात करने लगते हैं। वे बेजा इस्तेमाल खत्म करने के बजाय छूट को खत्म करने की बात करते हैं। इसी तरह गुजरात में अभी राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त ने एक जिले के स्वास्थ्य विभाग के जनसूचना अधिकारियों को निर्देश दिया है कि बहुत अधिक आरटीआई लगाने वाले एक परिवार के तीन सदस्यों को अगले पांच बरस के लिए ब्लैकलिस्ट कर दिया जाए, और उनसे कोई आवेदन या अपील मंजूर न करें।
हर दिन हिन्दुस्तान में कोई न कोई ताकतवर व्यक्ति ऐसा आदेश देते हैं जो कि सुप्रीम कोर्ट में घंटे भर भी खड़ा न हो। बिहार सरकार ने पिछले पखवाड़े दो ऐसे आदेश दिए जो कि लोकतंत्र के खिलाफ थे। बिहार सरकार ने यह आदेश जारी किया कि अगर सोशल मीडिया पर कोई जनप्रतिनिधि या सरकारी अधिकारी पर अमर्यादित टिप्पणी करेंगे, तो उस पर पुलिस सख्ती से कार्रवाई करेगी। उसके बाद बिहार का यह नया फैसला सामने आया है कि अगर राज्य में किसी विरोध-प्रदर्शन या सडक़ जाम में कोई शामिल होते हैं, और पुलिस उनके खिलाफ मामला पेश करती है, तो उन्हें न कोई सरकारी नौकरी मिल पाएगी, न ही कोई सरकारी ठेका मिल पाएगा। इसके खिलाफ हमने दो दिन पहले लिखा ही था, और अब आज गुजरात का यह आदेश आया है जो कि सूचना आयोग की बुनियादी जिम्मेदारी के ठीक खिलाफ है। अगर कोई परिवार किसी एक विभाग में अपनी निजी वजहों से भी बहुत अधिक संख्या में अर्जियां लगाता है, तो भी उसे ब्लैकलिस्ट करने का कोई अधिकार सूचना आयोग के पास नहीं है।
अब जब कोरोना और लॉकडाऊन के पिछले करीब एक बरस में हिन्दुस्तान की तमाम सरकारों ने डिजिटल और ऑनलाईन कामकाज अधिक दूर तक सीख लिया है, तो सूचना के अधिकार की जरूरत घटनी चाहिए। सरकार के हर विभाग को अपनी फाईलों को ऑनलाईन करते जाना चाहिए ताकि लोगों को उसकी कॉपी मांगने के लिए धक्के न खाने पड़ें। सरकारी कामकाज में जिन फाईलों में सबसे अधिक भ्रष्टाचार होता है, उन फाईलों की कॉपियां देने में सबसे अधिक आनाकानी की जाती है। चूंकि सूचना आयोगों में ही भूतपूर्व सरकारी अफसरों को रखा जाता है, इसलिए उनकी एक प्राकृतिक सहानुभूति सरकारी अमले के साथ रहती है जो कि किसी को भी कोई कॉपी देना नहीं चाहते। बहुत सी जगहों पर परले दर्जे के भ्रष्ट रिटायर्ड अफसर सूचना आयोगों पर काबिज हो जाते हैं, और वे सरकार के संगठित भ्रष्टाचार को दबाए-छुपाए रखने की कोशिशों को बचाने का काम करते हैं, और सूचना मांगने वाले लोगों को तरह-तरह से परेशान करते हैं। हो सकता है कि गुजरात सूचना आयोग का यह अलोकतांत्रिक आदेश ऐसे ही सिलसिले का एक नतीजा हो।
अब डिजिटल कामकाज के चलते हुए सरकारों को सूचना मांगने की जहमत खत्म करनी चाहिए, और सूचना के अधिकार को सूचना की जिम्मेदारी में बदलना चाहिए। सरकारी कामकाज जब तक राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित कोई गोपनीय दस्तावेज न हो, सूचना के अधिकार के तहत खुले हुए हर कागज को विभागों की वेबसाईटों पर डालने की जिम्मेदारी उन विभागों की होनी चाहिए। एक वक्त था जब पुलिस विभाग कोई एफआईआर करता था, तो वह एक रहस्य की तरह छुपी हुई बात रहती थी। अब एफआईआर को इंटरनेट पर डालना सुप्रीम कोर्ट के आदेश से पुलिस की जिम्मेदारी हो गई है, इसलिए तकरीबन हर एफआईआर देखी जा सकती हैं। ऐसा ही हाल हर सरकारी दस्तावेज का होना चाहिए ताकि आम जनता को या आरटीआई एक्टिविस्ट को महीनों तक धक्के खिलाने के बाद अगली अपील की तरफ न धकेला जाए। हो सकता है कि आरटीआई का इस्तेमाल कुछ लोग ब्लैकमेलिंग के लिए भी करते हों। लेकिन कई लोग तो मीडिया का इस्तेमाल भी ब्लैकमेलिंग के लिए करते हैं, और दो दिन पहले ही छत्तीसगढ़ में एक न्यूज पोर्टल के पत्रकार को एक मंझले दर्जे के वन अफसर से एक करोड़ रूपए के आसपास उगाही के मामले में गिरफ्तार किया गया है। तो ब्लैकमेलिंग को देखते हुए क्या मीडिया को बंद कर दिया जाए? लोकतंत्र में हर कानून के बेजा इस्तेमाल का रास्ता लोग निकालते हैं, लेकिन इस वजह से कोई भी कानून कमजोर करना नाजायज बात होगी। सूचना के अधिकार ने सरकार के भीतर की गंदगी को उजागर करने, और कम करने की कोशिश की है। जब ऐसी कोशिशों के बाद भी न सरकारों को कोई शर्म रहे, और न ही अदालतों की अधिक दिलचस्पी भ्रष्टाचार घटाने में रहे, तो फिर सूचना का अधिकार अकेले कौन सा भाड़ फोड़ सकता है? लेकिन भ्रष्ट लोकतंत्र के भीतर अपनी सीमित संभावनाओं के साथ सूचना का अधिकार एक बड़ा सकारात्मक बदलाव लेकर आया है, और इस कानून को खोखला करने की तमाम कोशिशों के खिलाफ लडऩा चाहिए। यह एक अलग बात है कि सुप्रीम कोर्ट का एक आदेश भी सूचना के अधिकार को कमजोर करने वाला आया है, और उसने लोगों को बड़ा निराश भी किया है। कई बरस पहले, 2010 में, दिल्ली हाईकोर्ट ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट की इस दलील को खारिज कर दिया था कि मुख्य न्यायाधीश के दफ्तर को आरटीआई के दायरे में लाने से न्यायिक स्वतंत्रता में अड़चन आएगी। मामला दिलचस्प था कि जब हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई दफ्तर के तर्कों के खिलाफ फैसला दिया था। बाद में उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील हुई और वहां पर पांच जजों की बेंच ने एकमत होकर दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को सही कहा था, और सीजेआई दफ्तर के तर्कों को गलत माना था।
हमें पक्का भरोसा है कि गुजरात सूचना आयोग का यह आदेश अदालत में तुरंत खारिज हो जाएगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में इस बरस बोरों की दिक्कत के बीच भी 92 लाख टन धान की खरीदी हुई है जो कि इस राज्य के अस्तित्व के 20 बरसों में सबसे अधिक है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि इसका कुछ हिस्सा पड़ोसी राज्यों से तस्करी से लाए गए धान का भी है क्योंकि तमाम पड़ोसी राज्यों में धान का समर्थन मूल्य कम है, और छत्तीसगढ़ में सरकार बाद में किसानों को अतिरिक्त भुगतान करके देश का सबसे ऊंचा दाम देती है। पड़ोसी राज्यों से छत्तीसगढ़ में धान की तस्करी कोई नई बात नहीं है, और बीते बरसों में भाजपा के राज में भी यह सिलसिला चल रहा था, और उसी दौरान छत्तीसगढ़ को धान की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी का राष्ट्रीय सम्मान भी हासिल हुआ था।
अब जब इस राज्य के किसान संतुष्ट हैं, और उनका तकरीबन तमाम धान बिक चुका है, तब सरकार को कुछ बातों पर सोचना भी चाहिए। धान की फसल किसान के लिए सबसे आराम की फसल मानी जाती है जिसे बोने के बाद मेहनत दूसरी फसलों के मुकाबले बहुत कम लगती है। छत्तीसगढ़ में पानी कुदरत भरपूर देता है, और नहरों से भी कई इलाकों में पानी आता है, सरकार की मुफ्त, या तकरीबन मुफ्त बिजली के साथ-साथ सोलर पैनल से चलने वाले पंप भी धरती का पेट खाली करके धान की फसल को बढ़ाते हैं। लेकिन कुल मिलाकर छत्तीसगढ़ के किसान अपनी फसल बेचने के लिए, किसी भी किस्म की कमाई के लिए मोटे तौर पर राज्य सरकार के मोहताज रहते हैं। ऐसे में सवाल यह है कि किसान को सरकार-आश्रित बनाए रखने के बजाय कौन सा दूसरा काम किया जा सकता है, जो कि हो सकता है शुरू में कुछ अलोकप्रिय हो, लेकिन जो लंबे सफर में किसानों का अधिक मददगार हो।
छत्तीसगढ़ में जहां-जहां मिट्टी और हवा-पानी साथ दें, वहां-वहां किसानों को धान से परे भी देखने के लिए कहना चाहिए। आसान धान लोगों की कल्पना को कुचल चुका है। किसान और दूसरी फसलों की तरफ देखना भी भूल गए हैं। यह बात धरती के लिए भी ठीक नहीं है, और दूसरी फसलों के लिए भी ठीक नहीं है। छत्तीसगढ़ में भी कुछ हिस्सों में चने की फसल ली जाती थी जो कि किसानों को सरकार को मोहताज भी नहीं रखती थी, और किसी समर्थन मूल्य की फिक्र भी उसे नहीं रहती थी। इस प्रदेश के बनने के भी दशकों पहले तो यहां कृषि विश्वविद्यालय है, और अब तक इसने किसानों के बीच दूसरी फसलों को लोकप्रिय करने का काम कर देना था, लेकिन प्रयोगशाला से सरकार तक होते हुए खेतों तक पहुंचने का सफर, और फिर फसल के मंडी या बाजार तक पहुंचने का सफर बहुत से रोड़ों भरे रास्ते से गुजरता है। धान से परे लोगों ने सोचना बंद कर दिया, और सरकार भी एक लोकप्रिय चुनावी नारे और कार्यक्रम से परे कोई प्रयोग करने के बारे में नहीं सोचती।
लेकिन बात महज किसी और फसल की नहीं है, बात खेती और किसानी की अर्थव्यवस्था की व्यापक तस्वीर की है, और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की भी है जो कि बुनियादी रूप से किसानों पर ही टिकी हुई है। छत्तीसगढ़ में जहां-जहां लोगों ने फल-सब्जी के प्रयोग किए, मशरूम या शहद के प्रयोग किए, उन्हें धान की फसल के मुकाबले अधिक कमाई भी हुई है। यह एक अलग बात है कि ऐसे प्रयोगों में सरकार की भूमिका बड़ी सीमित रही है, और लोगों की उपज के लिए बाजार जुटाने का काम सरकार नहीं कर पाई। छत्तीसगढ़ में वन विभाग ने वनोपज के दाम शायद देश में सबसे अधिक दिए, लेकिन वनोपज इस प्रदेश से कच्चे माल की तरह ही बाहर जाती है, उसके लिए कोई प्रोसेसिंग यूनिट यहां नहीं लग पाई। यही हाल फल-सब्जी के साथ हुआ, यही हाल कुछ दूसरी फसलों का हुआ। आज छत्तीसगढ़ में जगह-जगह होने वाले कोदो-कुटकी का कोई स्थानीय संगठित बाजार नहीं है, दूसरी तरफ यह देशी-विदेशी ऑनलाईन बाजार में महंगे दामों पर बिकता है। यह एक फासला राज्य सरकार जैसी संगठित कोशिश के बिना पट नहीं सकता। किसान को सरकार-आश्रित रखने के बजाय उसे तरह-तरह की आर्थिक गतिविधियों से जोडऩा होगा ताकि वह सरकारी बजट पर भी कम बोझ रहे।
आज आखिर क्या वजह है कि गुजरात के एक सिरे पर बसे आनंद से अमूल का दूध और बाकी डेयरी प्रोडक्ट निकलकर 1100 किलोमीटर से अधिक का रास्ता तय करके छत्तीसगढ़ आते हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ की डेयरी संभावनाएं पूरी तरह टटोली नहीं जातीं। राज्य का दुग्ध महासंघ राजनीति और भ्रष्टाचार के लिए ही खबरों में अधिक आता है, राज्य में डेयरी और दूध का कलेक्शन और मार्केटिंग नेटवर्क बनाने में इसे कामयाबी मिली थी। अब कुछ निजी कारोबारियों ने बड़े-बड़े डेयरी उद्योग स्थापित किए हैं जो कि कामयाब भी बताए जा रहे हैं, और उनसे जुडक़र गांव-गांव में लोग दुधारू जानवर भी पाल रहे हैं।
राज्य सरकार को किसी कारोबार में पड़े बिना लोगों को तरह-तरह की प्रोसेसिंग यूनिट लगाने में मदद करनी चाहिए ताकि गांव के लोग धान और अनाज से परे भी कमाई कर सकें, जंगलों के लोग वनोपज और लघु वनोपज को कच्चे माल की शक्ल में बेचने को मजबूर न हों, और प्रदेश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था धान से परे भी धनवान हो। यह बात सुझाना आसान है, लेकिन ऐसा करना धान खरीदने के मुकाबले कई गुना अधिक मेहनत का काम है। छत्तीसगढ़ सरकार को ऐसी कोशिश करनी चाहिए कि किसान धान से परे भी सोच सकें, और गांव सरकारी योजनाओं से परे भी अपने पैरों पर खड़े हो सकें। राज्य सरकार को धान से इतर अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के बारे में भी सोचना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पश्चिम की एक पॉप गायिका रिहन्ना ने भारत के किसान आंदोलन के समर्थन में एक ट्वीट क्या कर दिया, बात की बात में हिन्दुस्तानी राष्ट्रभक्त रिहन्ना की कम से कम कपड़ों वाली तमाम तस्वीरें निकाल लाए जो वे खुद ही अपने सोशल मीडिया पन्नों पर पोस्ट करती हैं। और हाल के महीनों में भारत नहीं, भारत सरकार की निजी सुरक्षा के लिए तैनात देश के सबसे घातक परमाणु हथियार ने भी इस अंतरराष्ट्रीय गायिका पर खुला हमला बोल दिया। यह हथियार एंटी मिसाइल, और एंटी एयरअटैक डिफेंस सिस्टम की तरह भारत सरकार की आलोचना पर खुद होकर पल भर में सक्रिय हो जाता है, और ट्विटर पर जवाबी परमाणु हमला शुरू कर देता है। कुछ लोग इस डिफेंस सिस्टम को कंगना रनौत नाम से भी बुलाते हैं। अभी इस डिफेंस सिस्टम की तरफ से पश्चिम की इस गायिका की चुनिंदा तस्वीरें पोस्ट करने पर लोगों ने इस देशी डिफेंस सिस्टम की भी टक्कर की तस्वीरें पोस्ट करना शुरू किया है, और ट्विटर का कम्प्यूटर बदन की भरमार वाली तस्वीरों को नंगी करार देते हुए बावला हो गया है।
खैर, सोशल मीडिया के बकवासी हमलों पर लिखने जैसा कुछ है नहीं क्योंकि एक दशक पहले पखाने के दरवाजे के भीतर गालियां कुरेदते हुए लोग डरते भी थे, अब तो सोशल मीडिया पर अपने नाम, पहचान, और तस्वीर सहित बलात्कार की धमकियां भी लिख देते हैं, उनकी हम अब क्या आलोचना करें। लेकिन आज इस मुद्दे पर लिखने की बात इसलिए आन पड़ी है कि भारत सरकार ने खुलकर मशहूर विदेशियों के लिखे का विरोध किया है, और भारत के किसान आंदोलन को भारत का आंतरिक मामला बताया है। इस गायिका के अलावा दुनिया की सबसे मशहूर पर्यावरणवादी किशोरी ग्रेटा थनबर्ग सहित कई और चर्चित लोगों ने किसानों के शांतिपूर्ण आंदोलन का समर्थन किया है, और भारत सरकार ने इन सबकी बोलती बंद कर देने के अंदाज में अपनी प्रतिक्रिया ट्वीट की है।
यह बात बड़ी दिलचस्प है कि किसी देश की कौन सी बात उसकी आंतरिक बात रहती है, और बाहर के लोगों के दखल के लायक नहीं कही जाती है। हमारी मामूली समझ तो अभी पिछले ही महीने तकरीबन इन्हीं दिनों अमरीका के संसद भवन पर हुए हमले पर भारतीय प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया को देखते आई है जिसमें अमरीकियों द्वारा, मौजूदा अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के उकसावे और भडक़ावे पर देश की संसद पर हमला किया गया था, और वहां गिने जा रहे वोटों को नष्ट करने की कोशिश की गई थी। मारने वाले और पांच मरने वाले सभी अमरीकी थे, संसद भी अमरीका की थी, भडक़ाने वाला अमरीकी राष्ट्रपति था, लेकिन भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वहां लोगों को शांति की नसीहत दी थी। अब मोदी के ही मित्र रहे हुए डोनल्ड ट्रंप को अमरीकी जनता ने नमस्ते-ट्रंप कह दिया था, तो भडक़कर इस ट्रंप ने अपने लोगों को संसद पर हमला करने का फतवा देकर भेजा था। इस मामले में कुछ भी भारतीय नहीं था, लेकिन भारतीय प्रधानमंत्री ने शांति की नसीहत दी थी। अब सवाल यह है कि मोदी यह नसीहत देते हुए जितने अमरीकी थे, या अबकी बार ट्रंप सरकार का नारा देते हुए जितने अमरीकी थे, उतनी ही भारतीय रिहन्ना भी है। आज अगर उसने भारतीय किसान आंदोलन को लेकर कुछ अहिंसक बात कही है, तो यही बात तो ब्रिटेन, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, और अमरीका जैसे कई देशों से सांसद पहले बोल चुके हैं, इस आंदोलन का साथ दे चुके हैं। लेकिन चूंकि इस बार की यह ट्वीट अमरीकी मनोरंजन-दुनिया की एक सबसे चर्चित और कामयाब महिला की तरफ से आई थी, यह जायज था कि भारत की मनोरंजन-दुनिया की अपने को सबसे चर्चित और सबसे कामयाब मानने वाली महिला जवाबी हमला करती। इस तरह कंगना रनौत ने भारत (देश नहीं) सरकार को नापसंद किसान आंदोलन के समर्थन के खिलाफ तमाम परमाणु मिसाइलों को लेकर हमला शुरू कर दिया।
चूंकि भारत में आज सक्रिय कंगनाएं अपनी तमाम ऊर्जा मोदी के आलोचकों पर हमले में लगाती हैं, इसलिए उनके पास यह वक्त नहीं रहता कि यह भी पढ़ सकें कि मोदी क्या लिखते हैं। मोदी ने अमरीका के हिंसक हमलावरों को शांति की नसीहत देकर एकदम जायज काम किया था, उसके लिए उनका अमरीकी होना जरूरी नहीं था। लेकिन कंगनाओं के साथ-साथ मोदी सरकार के लोग भी हिंसक अमरीकियों को मोदी की नसीहत लगता है नहीं पढ़ पाए। इसलिए आज वे दुनिया के मशहूर लोगों की मामूली अहिंसक ट्वीट पर भी भारत सरकार की तरफ से हमला कर रहे हैं कि किसान आंदोलन भारत का आंतरिक मामला है इससे बाहर के लोग दूर रहें। अब भारत सरकार के लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इसी तर्क का इस्तेमाल करते हुए अमरीका के हिंसक ट्रंपवादी मोदी से सवाल कर सकते हैं कि कैपिटल हिल के अंगने में तुम्हारा क्या काम है?
जिनके दिमाग का दीवालिया निकल चुका है, महज वे ही लोग आज दुनिया को ऐसी सरहदों में बांटने की कल्पना कर सकते हैं जिनके आरपार लोग बयान भी न दें। अगर पश्चिम के देशों का दबाव न होता और वहां हिन्दुस्तानी बाल मजदूरों के बुने कालीनों का बहिष्कार न हुआ होता, तो क्या हिन्दुस्तान में कालीन उद्योग में बाल मजदूर घटे होते? ऐसे कितने ही मामले हैं जिनमें दूसरे देश या कोई अंतरराष्ट्रीय संगठन अपने दबाव से किसी देश में फेरबदल लाते हैं। बांग्लादेश में कपड़े बनाने वाले मजदूरों की बदहाली और उनकी बहुत ही कम मजदूरी के खिलाफ पश्चिम के देशों ने खुद अपने कारोबारियों का जमकर विरोध किया, और उन्हें मजबूर किया कि वे बांग्लादेश के कारखानेदारों से वहां के मजदूरों को अधिक मजदूरी दिलवाएं। यह तो आज की दुनिया में सभ्य और विकसित लोकतंत्रों की पहचान है कि वे अपने निजी स्वार्थों और अपनी तंग-सीमाओं से बाहर जाकर दूसरों के लिए कितना कुछ कर सकते हैं। और यह कोई नई बात भी नहीं है, हिन्दुस्तान जब आजाद हुआ उसके पहले से गांधी लगातार फिलीस्तीनियों के पक्ष में और इजराइल के खिलाफ लिखते थे। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद का गांधी का विरोध तो उस देश की आंतरिक व्यवस्था पर सीधा हमला था, लेकिन हिन्दुस्तान उस पर गर्व करता है। गांधी न तो दक्षिण अफ्रीकी थे, न ही वहां आंदोलन का उनका कोई कानूनी हक बनता था। लेकिन वे उस पिछली सदी में भी एक जागरूक विश्व नागरिक थे, और इस नाते वह हक न होते हुए भी उनकी जिम्मेदारी थी। आज हिन्दुस्तान के जो कमअक्ल और अधिक बदनीयत वाले लोग गैरहिन्दुस्तानियों की आलोचना पर हिंसक हमले कर रहे हैं, उन्हें यह समझने की जरूरत है कि ऐसा करते हुए वे गांधी की डाली हुई गौरवशाली परंपराओं को खारिज भी कर रहे हैं। जो लोग हिन्दुस्तान की सरकार की आलोचना को हिन्दुस्तानियों का देशद्रोह मानते हैं, और गैरहिन्दुस्तानियों की नाजायज दखल मानते हैं, वे गांधी के युग की दुनिया को भी नहीं समझते, आज की दुनिया तो दूर की बात है। दिक्कत यह है कि दुनिया को बचाने की फिक्र करने वालों की गिनी-चुनी ट्वीट के मुकाबले दुनिया को तबाह करने पर आमादा लोगों की ट्वीट लाखों गुना है। हिंसा की सुनामी के बीच भले लोगों के पांव जमीन पर टिके रहें, ऐसा खासा मुश्किल है। लेकिन फिर भी दुनिया का इतिहास है कि वह ऐसी ही नफरत और हिंसा के बीच से उबरकर एक बेहतर दुनिया बनी है। और इतिहास की मिसालों से परे इस दुनिया में ऐसी संभावनाएं हैं कि वह आज से बेहतर बन सकती है। आज दुनिया के किसी भी लोकतंत्र को यह भूल जाना चाहिए कि वे थ्यानमान चौक पर, हांगकांग में, सीरिया में या सिंघु बॉर्डर पर कुछ मनमानी करके बिना आलोचना, बिना प्रतिक्रिया रह सकते हैं। अंदरूनी मामला तो इतिहास के हर मामले को कहा जा सकता है, हिटलर अपने देश के भीतर दसियों लाख यहूदियों को मार रहा था, और वह भी उसका अंदरूनी मामला था। 21वीं सदी की दुनिया में इतना अंदरूनी कुछ भी नहीं रह गया है कि जिस पर सरहद के बाहर के लोग मुंह न खोलें। भारत सरकार के डिफेंस सिस्टम के दिमाग में यह बुनियादी बात बैठाने की जरूरत है।
एक पखवाड़े में बिहार सरकार का लोकतंत्र के खिलाफ एक दूसरा फैसला सामने आया है। कुछ दिन पहले ही राज्य सरकार ने यह आदेश जारी किया है कि अगर सोशल मीडिया पर कोई जनप्रतिनिधि या सरकारी अधिकारी पर अमर्यादित टिप्पणी करेंगे, तो उस पर पुलिस सख्ती से कार्रवाई करेगी। अब कल यह नया फैसला सामने आया है कि अगर बिहार में किसी विरोध-प्रदर्शन या सडक़ जाम में कोई शामिल होते हैं, और पुलिस उनके खिलाफ मामला पेश करती है, तो उन्हें न कोई सरकारी नौकरी मिल पाएगी, न ही कोई सरकारी ठेका मिल पाएगा। नीतीश सरकार के ये दोनों फैसले लोकतंत्र को कुचलने वाले कहे जा रहे हैं, और इनके खिलाफ लगातार राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रिया आ रही हैं।
बिहार भारत के लोकतंत्र में एक मजबूत स्तंभ रहा है। खुद नीतीश कुमार से लेकर लालू यादव तक बहुत से नेता आपातकाल का विरोध करते हुए छात्र राजनीति और राजनीति में आगे बढ़े, और बड़े नेता बने। आपातकाल के जॉर्ज फर्नांडीज जैसे बड़े नेता बिहार से चुनाव लडक़र संसद में बड़े नेता बने थे। ऐसे में अगर कोई राज्य लोकतंत्र को कुचलने का काम करता है, तो वह अदालत में भी नहीं टिक पाएगा, और जनता की अदालत में तो उसकी थुक्का-फजीहत शुरू हो ही चुकी है। दरअसल अपने चौथे कार्यकाल में नीतीश कुमार को शायद अब यह लग रहा है कि उनके पास खोने को कुछ नहीं है, और पाने को भी इससे अधिक कुछ नहीं है, और यह भी कब तक जारी रहता है, वह भी साफ नहीं है, इसलिए वे शायद लोकतंत्र पर आस्था खो चुके हैं। वैसे भी देश का माहौल कुल मिलाकर लोकतंत्र को एक निहायत ही अवांछित सामान मानकर चल रहा है कि वह सीढ़ी चढक़र सत्ता तक पहुंच गए, और अब उस सीढ़ी को लात मारकर गिरा देने में कोई हर्ज नहीं है।
आज जब दुनिया के तमाम सभ्य लोकतंत्र अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तमाम तरीकों का सम्मान बढ़ाते चल रहे हैं, तब हिन्दुस्तान का यह एक सबसे बड़ा राज्य अपनी सरहद में लोकतंत्र को इस तरह खत्म करने में जुटा है। जो नौजवान देश के तमाम राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों की रीढ़ की हड्डी रहते आए हैं, उनको ऐसे आंदोलनों में जाने से रोकने के लिए उनका नौकरी का हक छीनना एक ऐसी नाजायज बात है जो कि अदालत में नहीं टिक पाएगी। अगर आंदोलनों में सडक़ों पर उतरना ऐसा जुर्म है, तो फिर लालू यादव से लेकर नीतीश कुमार तक इन सबको मुख्यमंत्री बनने के लिए भी अपात्र कर देना चाहिए क्योंकि इनके ऊपर भी आंदोलनों के अपने दिनों में कई जुर्म कायम हुए होंगे। जो बात किसी को क्लर्क बनने के लिए भी अपात्र ठहराती है, वह बात सांसद और विधायक बनने की अपात्रता भी रहनी चाहिए। दरअसल नीतीश सरकार लोगों को धमकाने में लगी है। सोशल मीडिया पर लोग जनप्रतिनिधियों और अफसरों के बारे में नहीं लिखेंगे तो क्या वे जागरूक नागरिक रह जाएंगे? और अगर वे कोई गलत बात लिखते हैं तो उसके लिए सरकार के पास अलग से तरह-तरह के कानून हैं। इस पर पुलिस कार्रवाई के लिए अलग से आदेश निकालना अपने लोगों को धमकाने के अलावा कुछ नहीं है। पिछले बरसों में सुप्रीम कोर्ट बार-बार इस बात को कह चुका है कि सोशल मीडिया को लेकर सरकारों की की गई बहुत सी कार्रवाई नाजायज है और उसमें आईटी एक्ट की कुछ धाराओं को खारिज भी किया है। बिहार सरकार के ये दोनों ही मामले सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचकर खारिज होंगे, इनसे सरकार का कोई भला नहीं होना है, और धमकाने का यह तरीका अदालती फैसला आने तक का ही है। देश में आज लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलने का अभियान चल रहा है, और नीतीश कुमार उसी लहर पर सवार चल रहे हैं। वे अपने राजनीतिक जीवन की सबसे ऊंचाई पर पहुंच चुके हैं, और अब न सिर्फ राजनीति का, बल्कि उनकी नैतिकता का भी उतार चल रहा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सोशल मीडिया के एक तबके की बात छोड़ दें, तो भारत का किसान आंदोलन चल भी रहा है, इसकी खबर मीडिया के कम ही हिस्से में देखने मिलती है। कुछ तो देश का प्रमुख मीडिया सोशल मीडिया के दबाव में भी काम करता है कि वहां कौन सी बातें लिखी जा रही हैं। क्योंकि दोनों के ग्राहक तो एक ही हैं। लोग फेसबुक और ट्विटर पर किसान आंदोलन की दिल दहलाने वाली खबरें पढ़ लेंगे, और अगर उन्हें बड़े समाचार चैनलों और अखबारों से निराशा मिलेगी, तो ऐसे मीडिया के ग्राहक भी टूटेंगे। इस दबाव में भी किसानों की खबरें दिखाई जा रही हैं।
लेकिन मौजूदा किसान आंदोलन दिल्ली के इर्द-गिर्द, पंजाब और हरियाणा, और अब कुछ हद तक लगे हुए उत्तरप्रदेश के किसानों पर टिका हुआ है। कहने के लिए तो मुम्बई से चलकर शिवसेना के एक सबसे ताकतवर नेता संजय राऊत भी किसानों के समर्थन के लिए दिल्ली के पास किसान आंदोलन पहुंचे, लेकिन मोटेतौर पर बाकी देश में किसानों का समर्थन प्रतीकात्मक अधिक चल रहा है, जमीन पर कम। कांग्रेस के एक प्रमुख नेता दिग्विजय सिंह बार-बार सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से कह रहे हैं कि किसानों के समर्थन में सडक़ों पर निकलें, लेकिन महाराष्ट्र में शरद पवार, पंजाब में सुखबीर बादल, और बाकी प्रदेशों में वामपंथी पार्टियां, कार्यकर्ता किसानों के साथ सामने आए हैं। अगर दिल्ली को इस तरह घेरने की ताकत इस किसान आंदोलन में न होती, तो देश के किसी दूसरे हिस्से में ऐसा आंदोलन अब तक दम तोड़ चुका होता।
यह सोचने की जरूरत है कि जो किसान और जो किसानी देश के लोगों के जिंदा रहने के लिए सबसे जरूरी बातें कही जा रही हैं, वे खुद भी इस आंदोलन में पूरे देश में सामने क्यों नहीं हैं? हिन्दुस्तान में किसानी के काम में लगे हुए करोड़ों खेतिहर मजदूर किसानी पर जिंदा तो हैं, लेकिन वे खुद किसान नहीं हैं, महज मजदूर हैं। और फिर यह मजदूरी भी इतनी अनियमित, इतनी असंगठित, और अनिश्चित है कि ये ही खेतिहर मजदूर मनरेगा जैसी ग्रामीण मजदूरी योजना पर निर्भर रहते हैं। दूसरी बात किसानी करने वाले लोगों में भी बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो कि भूस्वामी से खेत ठेके पर या किसी और अनुबंध के तहत लेकर मजदूर की तरह उस पर काम करते हैं, और कमाई साझा करते हैं। नतीजा यह है कि किसानी कानून के जितने किस्म के फायदे हैं, या नुकसान हैं, उनके ऐसे अधिया किसान सीधे प्रभावित नहीं होते हैं क्योंकि जमीन उनके नाम पर नहीं है। जमीन का मालिकाना हक किसान को ताकतवर भी बनाता है, और ऐसे आंदोलन में उसे जोडक़र भी रखता है। लेकिन आज हिन्दुस्तान के बाकी हिस्सों में किसान आंदोलन अगर मजबूत नहीं है, जमीन पर नहीं है, तो इसकी एक वजह यह है कि जमीन के मालिकाना हक वाले किसान अपने इलाकों में जरा भी संगठित नहीं हैं, और किसी लंबे आंदोलन के लायक उनकी आर्थिक स्थिति भी नहीं है। अधिकतर किसान बहुत मामूली कमाई, या बिना कमाई की खेती बस करते ही आ रहे हैं, उनके पास किसी लंबे आंदोलन की ताकत भी नहीं है। वे मजबूत किसानों के आंदोलनों के फायदों की ओर तो नजर लगाए हुए हैं, लेकिन खुद अधिक ताकत के ऐसा कोई आंदोलन न शुरू कर सकते, न उसमें शामिल हो सकते।
गणतंत्र दिवस के पहले तक दिल्ली के राजधानी क्षेत्र की सरहद पर चल रहा यह आंदोलन सिक्ख किसानों पर केन्द्रित था, और आंदोलन को चलाने के लिए जो बड़ा समर्थन मिला हुआ था, वह भी सिक्ख संगठनों की तरफ से था। दिल्ली में गणतंत्र दिवस पर किसानों के नाम पर जो तोडफ़ोड़ हुई, और लाल किले पर प्रदर्शन हुआ, उसके बाद से सिक्ख किसानों को कुछ चुप देखा जा रहा है। और इसके बाद की तमाम खबरों में उत्तरप्रदेश के किसान नेता राकेश टिकैत की अगुवाई दिख रही है। यह एक बड़ा फर्क गणतंत्र दिवस के बाद से आया है, लेकिन यह आंदोलन को किसी तरफ ले जाएगा, उस पर क्या फर्क पड़ेगा, यह समझना अभी मुश्किल है।
आने वाले महीनों में देश में बंगाल सहित कुछ राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं, और इसे ध्यान में रखकर कल के केन्द्रीय बजट में इन राज्यों के लिए खास इंतजाम किया गया है। लेकिन दिग्विजय सिंह के कहने के बावजूद इन राज्यों के राजनीतिक दल भी किसान आंदोलन का साथ देने के लिए सडक़ों पर उतर रहे हों ऐसा दिख नहीं रहा है। शिवसेना के संजय राऊत का आंदोलन में आकर लौटना भी छोटी बात नहीं है, यह महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ गठबंधन की अगुवा पार्टी का नैतिक समर्थन है जिसके अपने राज्य के भीतर भी शिवसेना-गठबंधन सरकार किसानों के साथ जुड़ती है। आज केन्द्र सरकार की रणनीति के मुताबिक जिस तरह किसानों और दिल्ली के बीच कटीले तारों के समंदर फैलाए जा रहे हैं, जिस तरह सडक़ों पर भालों सरीखी नोंक लगाई जा रही है, उससे केन्द्र सरकार और किसान आंदोलन के बीच एक बड़ा फासला बढ़ते दिख रहा है। ऐसे मौके पर बाकी राजनीतिक दलों को भी अपनी प्रतिबद्धता खुलकर सामने रखनी चाहिए कि वे कटीलें तारों के किस तरफ हैं। किसान आंदोलन और आज की नौबत एक बड़ा व्यापक मुद्दा है, हम आज इसे यहां पर छू भर रहे हैं और लोगों के सोचने के लिए इन पहलुओं को सामने रख रहे हैं। राजनीतिक दलों से परे भी समाज के दूसरे तबकों को किसानों के साथ आकर खड़ा होना होगा, वरना भूखों मरने के लिए तैयार रहना होगा।