संपादकीय
हिंदुस्तान में पैगासस नाम के जासूसी सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल की खबरों पर देश के दो प्रमुख पत्रकारों ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका लगाई थी, जिसे अगले हफ्ते सुनने के लिए मुख्य न्यायाधीश एन वी रमना ने मंजूर किया है। कांग्रेस पार्टी से जुड़े और सुप्रीम कोर्ट के एक बड़े वकील कपिल सिब्बल ने इस मामले को मुख्य न्यायाधीश के सामने उठाया था और उन्होंने इस याचिका का जिक्र किया था जो कि हिंदू नाम के अखबार के पूर्व मुख्य संपादक एन राम और एशियानेट नामक मीडिया समूह के संस्थापक शशि कुमार की ओर से लगाई गई है। इस याचिका में अपील की गई है कि पैगासस को लेकर जितने तरह के तथ्य दुनिया के मीडिया में सामने आ रहे हैं, उनमें हिंदुस्तान के भी करीब डेढ़ सौ लोगों के फोन नंबर संभावित निशाने के रूप में पहचाने गए हैं, इसलिए देश में इसकी जांच सर्वोच्च स्तर पर होनी चाहिए, और सुप्रीम कोर्ट के एक मौजूदा या रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में इस मामले की जांच की जाए, और सरकार से यह भी पूछा जाए कि क्या उसने इस जासूसी सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल का लाइसेंस लिया है, या इसका इस्तेमाल प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी तरह की निगरानी के लिए किया है?
यह मुद्दा पिछले एक पखवाड़े से लगातार खबरों में बना हुआ है और संसद में भी विपक्ष ने इसे जोर-शोर से उठाया है. विपक्ष के एक सबसे बड़े नेता राहुल गांधी का नाम भी ऐसे संभावित निशाने के रूप में खबरों में आया है कि उनका और उनके सहयोगियों का फोन पेगासस नाम के जासूसी सॉफ्टवेयर से घुसपैठ करने की लिस्ट में मिला है। अब तक सरकार की तरफ से साफ-साफ कुछ नहीं कहा गया है, और संसद के बाहर, संसद के भीतर, कहीं पर भी सरकार ने न तो यह बात मानी है कि उसने इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया है और ना ही उसने यह ही कहा है कि उसने यह सॉफ्टवेयर नहीं लिया है, और उसने ऐसी जासूसी नहीं करवाई है. इसी सिलसिले में यह भी याद रखने की जरूरत है कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पेगासस जासूसी की जांच के लिए एक न्यायिक आयोग की घोषणा की है जिसमें दो रिटायर्ड जजों को मनोनीत किया गया है. इसके साथ ही यह एक दिलचस्प बहस भी शुरू हो गई है कि केंद्र सरकार पर इस जासूसी सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल की तोहमत लग रही है तो उसकी जांच देश का कोई एक राज्य कैसे करवा सकता है? लेकिन अगर बंगाल के लोगों के नंबर ऐसे जासूसी कांड में सामने आ रहे हैं जिनमें ममता बनर्जी के रणनीति के सलाहकार रहे प्रशांत किशोर का नाम भी आया है, और ममता बनर्जी के साथ राजनीति में काम करने वाले उनके भतीजे का नाम भी आया है, तो हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट की किसी बहस में पश्चिम बंगाल सरकार का यह अधिकार साबित हो कि वह इस मामले की जांच करवा सकती है, और भारत सरकार से भी जवाब मांग सकती है। ऐसे ही जटिल मामलों पर जब अदालतों में बहस होती है, तब यह बात भी तय होती है कि केंद्र और राज्य के संबंधों में किसके क्या अधिकार रहते हैं, और दोनों एक दूसरे के प्रति किस हद तक जवाबदेह रहते हैं। ममता की शुरू करवाई जांच से यह सवाल भी उठता है कि अगर भारत सरकार से परे किसी और ने हिन्दुस्तानियों की ऐसी साईबर सेंधमारी की है, जासूसी की है, तो उसकी जांच करवाने की जिम्मेदारी तो भारत सरकार की ही होनी चाहिए! केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ऐसी जांच क्यों नहीं करवा रही है?
पेगासस के मार्फत जासूसी को लेकर यह सॉफ्टवेयर को बनाने वाली कंपनी चाहे कितने ही दावे कर ले कि वह इजराइल की डिफेंस मिनिस्ट्री की इजाजत के बाद ही किसी देश की सरकार को यह सॉफ्टवेयर बेचती है, दुनिया का तजुर्बा यह है कि कारोबारियों का बहुत से मामलों में कोई ईमान नहीं होता है और कारोबार किसी नैतिकता की बंदिशों से बंधे भी नहीं रहता। इसलिए इस इजराइली कंपनी के इस दावे पर भी हमको अधिक भरोसा नहीं है कि वह सिर्फ सरकारों को यह सॉफ्टवेयर बेचती है। लेकिन दूसरी तरफ यह कहते हुए हम भारत सरकार को साफ-साफ जवाब देने की जिम्मेदारी से बरी भी नहीं करते कि उसे खुलकर यह बताना चाहिए कि उसने यह जासूसी सॉफ्टवेयर खरीदा था या नहीं और इसका इस्तेमाल किया था या नहीं। यहां पर इस बात की चर्चा भी प्रासंगिक होगी कि देश में आईटी मंत्रालय की सलाहकार समिति के मुखिया शशि थरूर ने पिछले दिनों यह कहा था कि भारत का कानून हैकिंग की इजाजत नहीं देता है, और इस कानून के तहत हैकिंग करने वालों को कई बरस की कैद देने का प्रावधान है। दूसरी तरफ देश के लोगों के डेटा सुरक्षा के लिए एक कानून की तैयारी चल रही है, लेकिन जब तक वह बनता नहीं है और लागू नहीं होता है तब तक भी देश के लोगों का मौलिक अधिकार तो अपनी जगह है ही जिसमें उन्हें उनको अपनी जिंदगी की निजता का अधिकार भी हासिल है। इसलिए केंद्र सरकार पर यह जिम्मेदारी बनती है कि जब दुनिया के बहुत से प्रतिष्ठित अखबार मिलकर कोई रिपोर्ट बना रहे हैं और सबूतों के आधार पर बना रहे हैं, फॉरेंसिक जांच के आधार पर बना रहे हैं, तो सरकार को भी उस पर अपना जवाब देना ही चाहिए।
आज हिंदुस्तान के जिस तरह के पत्रकारों और मानव अधिकार सामाजिक कार्यकर्ताओं, सुप्रीम कोर्ट के कम से कम एक भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश, और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ देश शोषण की शिकायत करने वाली महिला के पूरे परिवार, कुछ केंद्रीय मंत्री, कई विपक्षी नेताओं की जासूसी के जैसे आरोप हवा में तैर रहे हैं वैसे में सरकार की यह जवाबदेही बनती है कि उसे सामने आकर पाक-साफ होकर दिखाना चाहिए। सरकार की चुप्पी उसे ऐसी जासूसी का जिम्मेदार ही ठहराएगी। जनाधारणा लोकतंत्र में बड़ी चीज होती है और आज जनधारणा यह मांग करती है कि सरकार सार्वजनिक रूप से और अधिकृत रूप से इस बात को कहे कि उसने ऐसी जासूसी की है या नहीं की है। लोगों को ऐसे में याद पड़ रहा है कि किस तरह कर्नाटक में एक वक्त रामकृष्ण हेगड़े की एक सरकार जासूसी के एक मामले में गिरी थी। लोगों को यह भी याद पड़ रहा है कि केंद्र में चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री रहते हुए उनकी सरकार एक अलग किस्म की जासूसी के मामले में गिरी थी। हिंदुस्तान का कानून और यहां के राजनीतिक मूल्य इस तरह की जासूसी को बर्दाश्त नहीं करते हैं, और अगले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट इस जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए इस मामले को पूरी गंभीरता से लेगा ऐसी हमें उम्मीद है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी चार दिन पहले हिंदुस्तान में बड़ी अहमियत वाली एक बात हुई लेकिन उसे खबरों में ठीक से जगह भी नहीं मिल पाई क्योंकि वह सनसनीखेज नहीं थी, वह राजनीति या क्रिकेट नहीं थी, जुर्म नहीं थी, सेक्स नहीं थी, उससे अधिक जगह राज कुंद्रा की पॉर्नोग्राफी को मिलती रही, उससे अधिक जगह राजनीति के ओछे आरोपों को मिलती रही। लेकिन यह मुद्दा ऐसा है जिस पर लिखना सोचना और अमल करना जरूरी है। देश में जो एक पिछड़ा हुआ राज्य माना जाता है, उस ओडिशा के पुरी को यह फख्र हासिल हुआ है कि वह हिंदुस्तान का ऐसा पहला शहर बना है जहां नल के पानी को पिया जा सकता है। भारत के शुद्ध और साफ पानी के जो पैमाने हैं, उन पर जगन्नाथपुरी शहर के नलों का पानी खरा उतरा है। और ऐसा भी नहीं कि नल से साफ पानी कुछ गिने-चुने घंटे आता है कि लोग उन्हें घरों में भर लें। चौबीसों घंटे पुरी के नलों से ऐसा साफ पानी आ रहा है कि जिसे पूरी तरह भरोसे के साथ पिया जा सकता है। वहां के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की पहल पर पूरे प्रदेश में इस सुजल योजना का विस्तार किया जा रहा है। और ओडिशा राज्य सरकार का यह कहना है कि पुरी की ढाई लाख आबादी और साल भर में वहां पहुंचने वाले दो करोड़ पर्यटकों को यह शुद्ध पानी पूरे वक्त हासिल रहेगा जिसे पूरे भरोसे के साथ पिया जा सकेगा। सरकार का यह अंदाज है कि इससे हर बरस करीब तीन करोड़ प्लास्टिक बोतलें बचेंगी जिनमें भरा हुआ पानी साल भर में यहां खर्च होता है। सरकार का यह भी अंदाज है कि इससे करीब 400 टन प्लास्टिक कचरा बचेगा।
आज हिंदुस्तान की किसी भी किस्म की सरकारी तस्वीरों को देखें, जिनमें कोई कार्यक्रम हो रहा हो या मंच पर कुछ चल रहा हो, या कोई सरकारी बैठक हो रही हो, तो उनमें से हर मेज पर प्लास्टिक की बोतल में पानी लोगों के सामने दिखता है। सरकारी दफ्तरों में बड़े अफसरों के लिए, या नेताओं के बंगलों में अधिकतर लोगों के लिए, ऐसी बोतलों के बक्से भरे रहते हैं। और लोग अब आदी हो गए हैं कि कौन खतरा उठाएं, उसके बजाय बाजार का बोतल बंद महंगा ब्रांड पानी खरीद कर अपनी हिफाजत का ख्याल रखा जाए। नतीजा यह हो रहा है कि प्लास्टिक की बोतलों का अंबार बढ़ते ही चल रहा है. प्लास्टिक प्रदूषण का एक तरफ पहाड़ बन रहा है और दूसरी तरफ समंदर के पानी में ऐसी खाली बोतलें पहुंचकर किनारों को इतना प्रदूषित कर रही है कि वहां जल जीवन खत्म होते जा रहा है क्योंकि इन बोतलों को पार करके सांस लेना पानी के जानवरों के लिए मुमकिन नहीं रह गया है। फिर जैसा कि प्लास्टिक का विज्ञान बतलाता है ये बोतलें धरती पर हजारों बरस तक खत्म नहीं होनी हैं। और आज प्लास्टिक के प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण बोतलबंद पानी हो गया है जो कि पूरी तरह से गैरजरूरी था। अगर स्थानीय सरकारें साफ पानी उपलब्ध करा सकतीं तो इन बोतलों की किसी को जरूरत ही नहीं पड़ती।
यूरोप के देशों में आमतौर पर यह दिखता है कि सार्वजनिक जगहों पर नल लगे हुए हैं जिनसे लोग पानी पीते ही रहते हैं और अपनी बोतलों में भरते रहते हैं। बहुत से विकसित देश ऐसे हैं जहां होटलों के बाथरूम में यह तख्ती लगी रहती है कि बाथरूम के नल से पीने के लिए पानी लिया जा सकता है, पानी एकदम साफ और सुरक्षित है। दूसरी तरफ आज हिंदुस्तान में अतिसंपन्न तबका ऐसा भी है जो अपने घर के भीतर फिल्टर का पानी भी नहीं पीता है, और घर के भीतर भी कारखाने की बोतलों का महंगा पानी पीता है। एक तरफ सचिन तेंदुलकर और हेमा मालिनी जैसे लोग संसद में एक-एक कुर्सी पर कब्जा करके बरसों तक बैठे रहते हैं, और पीने के पानी के ब्रांड का इश्तिहार करते हैं, वाटर फिल्टर का इश्तिहार करते हैं, दूसरी तरफ इन लोगों ने संसद के इतने बरसों में देश के गरीब लोगों को साफ पानी मिलने के हक के बारे में कभी एक शब्द नहीं कहा, ना संसद के भीतर कहा, ना संसद के बाहर का है। देश के लोगों को साफ़ पानी मिलने लगेगा तो इनके इश्तिहार ख़त्म न हो जायेंगे?
इस देश की तकलीफ यह है कि जिन लोगों के कंधों पर सरकारी योजनाएं बनाने और उन पर अमल करने का जिम्मा है, ऐसे नेता और अफसर अपने खुद के लिए जनता के पैसों पर महंगा पानी खरीद लेते हैं, और फिर जनता को गंदे पानी के हवाले कर देते हैं। अगर जनता के दबाव में ऐसा होने लगे कि सरकारी और राजनीतिक बैठकों में, और सार्वजनिक कार्यक्रमों में तमाम नेताओं और अफसरों को वहीं मौजूद नल का पानी ही परोसा जाएगा, तो हो सकता है कि बड़ी रफ्तार से नलों का पानी साफ होने लगे। यह कुछ उसी किस्म का है कि अगर सरकारी दफ्तरों में नेताओं और बड़े अफसरों को भी आम शौचालयों में जाना पड़े, आम पेशाबघरों में जाना पड़े, तो वे शौचालय और पेशाब घर साफ रहने लगेंगे। इसलिए देश की किसी हौसलामंद सरकार को सबसे पहले तो यह करना चाहिए कि वह एक तारीख की मुनादी कर दे किस तारीख के बाद किसी के लिए बोतलबंद पानी का इंतजाम नहीं किया जाएगा, और मंत्री, अफसर और दूसरे लोग सरकारी इमारतों में या सार्वजनिक कार्यक्रमों में आम नलों का ही पानी पिएंगे।
ओडिशा का जगन्नाथपुरी इस देश के ही एक पिछड़े राज्य का एक हिंदू तीर्थ स्थान है जहां कि अंधाधुंध पर्यटक भीड़ रहती है, और जहां बहुत साफ-सफाई की उम्मीद नहीं की जा सकती। ऐसे में ओडिशा सरकार ने पूरे देश में एक पहल करके दिखाई है, और ओडिशा तो अपने बाकी शहरों के लिए इस इंतजाम को बढ़ा रहा है, लेकिन बाकी प्रदेशों को अपने बारे में सोचना चाहिए। हिंदुस्तान के उन बड़े शहरों को भी अपने बारे में सोचना चाहिए जो कि स्मार्ट सिटी नाम के केंद्र सरकार के पाखंड के तहत हजारों करोड़ों रुपए पा चुके हैं, और इनमें से अधिकांश हिस्सा मनमानी के दिखावे में बर्बाद भी कर चुके हैं। जबकि किसी भी स्मार्ट सिटी को सबसे पहले अपनी सिटी के ढांचे में आम जनता के लिए पीने का साफ पानी, सडक़ और नाली की सफाई, और रोशनी का इंतजाम, इन दो-तीन बुनियादी चीजों का इंतजाम सबसे पहले करना था। लेकिन जिन कामों में भ्रष्टाचार सबसे अधिक अनुपात में हो सकता है, स्मार्ट सिटी वैसे ही कामों में लग गईं और जनता का पैसा बर्बाद होते चले गया। जिन शहरों में लोग जागरूक हैं वहां लोगों को अपनी स्थानीय संस्था को पुरी की यह मिसाल देते हुए सार्वजनिक रूप से उन्हें चुनौती देनी चाहिए कि वे ओडिशा के इस शहर की कामयाबी का मुकाबला करके दिखाएं तब अपने आपको स्मार्ट कहें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
धर्म की विज्ञान से दुश्मनी कुछ अधिक ही गहरी दिखती है। कई धर्मों के सबसे लापरवाह फतवे देने वाले नेता अपने-अपने धर्म के लोगों से अधिक से अधिक बच्चे पैदा करने के लिए बोलते हैं. यह एक अलग बात है कि ऐसे गैरगंभीर लोगों की बात को उनके समाज के लोग भी ठीक से नहीं सुनते, और इसीलिए हिंदुस्तान की आबादी आसमान तक पहुंचने के बजाय धरती पर ही सिमटती जा रही है। लेकिन एक खबर केरल से आई है जहां पर एक कैथोलिक चर्च ने अपने सदस्यों के लिए एक नई योजना की घोषणा की है जिसमें 5 से अधिक बच्चे वाले परिवारों को चर्च की तरफ से आर्थिक मदद दी जाएगी। यह भी कहा गया है कि जो महिला चौथे, या उसके बाद के बच्चे को जन्म देगी तो उसके लिए चर्च के अस्पताल में कोई फीस नहीं ली जाएगी। इसे लोग इस बात से जोडक़र देख रहे हैं कि केरल में ईसाइयों की आबादी का अनुपात गिर रहा है और आबादी में अपना अनुपात बनाए रखने के लिए भी शायद किसी चर्च ने ऐसी योजना बनाई हो. जो भी हो, कुल मिलाकर धर्म लोगों के पारिवारिक जीवन में इस तरह दखल दे रहा है कि वह आज लोगों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए बढ़ावा दे रहा है। यह कोई बहुत नई बात भी नहीं है क्योंकि ईसाई चर्च हमेशा से गर्भपात का भी विरोधी रहा है, और गर्भनिरोधकों के इस्तेमाल का भी विरोधी रहा है।
तकरीबन तमाम धर्म बच्चों के जन्म को ईश्वर की मर्जी से जोडक़र देखते हैं, और धर्म का नजरिया यह रहता है कि जो पेट देता है, मुंह देता है, वह हाथ भी देता है। इसलिए धर्म को यह लगता ही नहीं कि ईश्वर किसी को भूखे मरने देगा। यह अलग बात है कि ईश्वर के ऊपर ऐसा अंधविश्वास किसी काम का नहीं रहता, और लोग कुपोषण के शिकार होकर भूखे मरते ही हैं. ईश्वर किसी को बचाने नहीं आता, ईश्वर किसी का पेट नहीं भरता। और यह एक अलग बात है कि ईश्वर के नाम पर सभी धर्म स्थानों के पुजारी, पादरी, ग्रंथी, मुल्ला, सभी अपने-अपने पेट भर लेते हैं। अब केरल में एक चर्च की की हुई ऐसी घोषणा के बारे में उसका खुद का कहना है कि महामारी के वक्त जो आर्थिक मुसीबतें लोगों के ऊपर आई हैं उसमें राहत देने के लिए बड़े परिवारों को कुछ आर्थिक मदद की जा रही है जो कि बहुत बड़ी नहीं है, 5 से अधिक बच्चों के परिवारों को 15 सौ रुपए महीने की सहायता दी जाएगी। चर्च का कहना है कि यह बच्चे अधिक पैदा करने के लिए कोई बढ़ावा नहीं है, यह हो चुके बच्चों को पालने के लिए एक बहुत मामूली सी आर्थिक सहायता है।
अब यह जो भी हो, जिस वजह से भी यह आर्थिक सहायता दी जा रही हो, कुल मिलाकर बात यह है कि अधिक बच्चे पैदा करने को चर्च के बढ़ावे के रूप में ही इसे देखा जाएगा और अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच में इसकी प्रतिक्रिया होगी। लोग मानकर चलेंगे कि यह आबादी बढ़ाने की वेटिकन की साजिश है, ठीक उसी तरह जिस तरह मुस्लिमों का विरोधी एक तबका यह मानकर चलता है कि हर मुस्लिम चार शादी करते हैं और 16 बच्चे पैदा करते हैं। यह एक अलग बात है कि मुस्लिमों की आबादी के भीतर शायद 1 फीसदी भी ऐसे लोग नहीं होंगे जिन्होंने चार शादियां की होंगी, और शायद ही कोई मुस्लिम हिंदुस्तान में ऐसा होगा जिसने 16 बच्चे पैदा किए होंगे, लेकिन एक नारे के रूप में लोगों के बीच में नफरत और हिकारत पैदा करने के लिए यह मुद्दा उछाला जाता रहा है।
अब अगर यह बात चर्च की तरफ से नहीं आई होती और किसी जनकल्याणकारी सरकार की तरफ से आई होती तो भी उसके पीछे एक तर्क हो सकता था। रूस की तरह के ऐसे कई देश हैं जहां पर अधिक बच्चों पर अधिक सुविधा देने की सरकारी नीति ही है। लेकिन हिंदुस्तान में सरकार की आर्थिक मदद कम मौजूद है, और उसे पाने की कोशिश करने वाली आबादी बहुत बड़ी है, इसलिए यह बात समझने की जरूरत है कि सरकार की या समाज की कोई भी योजना ऐसी नहीं होनी चाहिए जिसका प्रत्यक्ष या परोक्ष असर आबादी को बढ़ाने वाला हो। हम जबरदस्ती किसी आबादी को काबू करने के हिमायती नहीं हैं, लेकिन पिछले दिनों जब उत्तर प्रदेश सरकार ने एक ऐसी जनसंख्या नीति की घोषणा की जिसमें दो से अधिक बच्चे होने पर लोग स्थानीय संस्थाओं के कोई चुनाव नहीं लड़ सकेंगे, सरकारी नौकरी के लिए अर्जी नहीं दे सकेंगे, और उन्हें 2 बच्चों से अधिक पर किसी तरह की सरकारी रियायती योजनाओं का फायदा नहीं मिलेगा, तो हमने कुछ शर्तों के साथ उस नीति का समर्थन किया था। हमारा यह मानना है कि जो लोग ऐसी योजना को मुस्लिम समाज पर हमला मान रहे हैं उन्हें यह भी देखना चाहिए कि अधिकतर मुस्लिम परिवार अपने बच्चों को पढ़ा-लिखाकर क्या बना पा रहे हैं? क्या वे उन्हें मजदूर, ड्राइवर, और मामूली कारीगर से ऊपर कुछ बना पा रहे हैं? तो फिर उस समाज में अधिक बच्चों को बढ़ावा देने की क्या जरूरत है? और बात सिर्फ मुस्लिमों की नहीं है उन तमाम जातियों और धर्मों की है जिनके लोगों पर यह जनसंख्या नीति बराबरी से लागू होगी। वहां भी दो बच्चों से अधिक जिन्हें पैदा करना हो उन्हें सरकार कोई भी रियायती योजना का फायदा क्यों दे? और आबादी को घटाने के लिए सभी धर्मों पर अगर एक साथ, एक जैसी नीति लागू की जा रही है, तो इसे सिर्फ स्थानीय संस्था के चुनाव के बजाय विधानसभा और संसद के लिए भी लागू करना चाहिए कि 2 से अधिक बच्चे होने पर कोई सांसद या विधायक भी ना बन सके।
वैसे तो चर्च हो या मंदिर, मस्जिद, यह सब अपने हिसाब से अपने लोगों को बढ़ावा देने के लिए आजाद हैं, और लोगों को याद होगा कि देश में सबसे ज्यादा रफ्तार से गिरने वाली पारसी आबादी से फिक्रमंद पारसी समाज ने यह योजना घोषित की थी कि जो पारसी जोड़ा दो या अधिक बच्चे पैदा करेगा उसे समाज की तरफ से एक फ्लैट दिया जाएगा। लेकिन यह बात भी समझने की जरूरत है कि पारसी समाज इतना संपन्न है कि उसमें बेरोजगारी सुनाई नहीं पड़ती है, और लोग बड़े-बड़े कारोबार चलाते हैं, इसलिए वहां तो अगर लोगों के बच्चे कुछ अधिक हैं तो भी वे उन बच्चों का खर्च उठा सकते है लेकिन जिन समाजों में लोग गरीब अधिक हैं वहां पर इस समझदारी को दिखाने की जरूरत है कि वह कम बच्चे पैदा करें उन्हें अधिक पढ़ा-लिखाकर बेहतर रोजगार में लगाएं, और उनकी जिंदगी बेहतर बनाएं।
यूपी में जिन लोगों को मुस्लिम समाज पर आबादी की रोक का हमला दिख रहा है, उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि क्या हर समाज के बच्चे सीमित होने पर सबसे अधिक फायदा उस समाज का नहीं होगा जिस समाज में आर्थिक स्थिति आज सबसे आगे सबसे अधिक खराब है? अभी केरल की सरकार और दूसरे धर्म के लोगों की प्रतिक्रिया, वहां के चर्च के ऐसे फैसले पर आनी बाकी है, और यह भी हो सकता है कि 15 सौ रुपए महीने की रकम आबादी बढ़ाने के काम ना आए, केवल मदद के लिए काम आए, क्योंकि पढ़ाई-लिखाई वाले केरल में 15 सौ रुपए महीने में भला कितने बच्चों को पाला जा सकता है? खैर उत्तर प्रदेश हो या असम की जनसंख्या नीति हो, या केरल के चर्च की यह घोषणा हो, हमारा मानना है कि जनसंख्या पर सभी लोगों को खुलकर बात करनी चाहिए और बहस बहुत हड़बड़ी में खत्म नहीं करनी चाहिए। जो समाज जितना जिम्मेदार होगा अपने सदस्यों का जितना भला चाहेगा वह जनसंख्या पर एक सीमा का हिमायती भी होगा। जनसंख्या की सीमा किसी पर जबरदस्ती नहीं लादी जा रही है और अगर आज के बाद बनने वाले जनप्रतिनिधियों पर ऐसी कोई सीमा लागू होती है, तो वह हमारे हिसाब से ठीक ही रहेगी क्योंकि वह इस कानून के लागू होने के बाद पैदा होने वाले बच्चों पर लागू होगी, न कि आज के बच्चों पर। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट में अभी एक याचिका लगाई गई है जिसमें कहा गया है कि कोरोना के खतरे को देखते हुए सडक़ों पर से भिखारियों को हटाया जाए, उनका टीकाकरण किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने इस अपील को मानने से साफ-साफ इनकार कर दिया और कहां कि अदालत कोई आभिजात्य दृष्टिकोण नहीं लेगी, और अदालत ने यह भी कहा कि कोई भी अपनी मर्जी से भीख नहीं मांगते, लोग शिक्षा और रोजगार के अभाव में मजबूरी में भीख मांगते हैं क्योंकि उनके पास कोई और विकल्प नहीं रहता। अदालत ने साफ-साफ यह कहा कि वे लोगों को सडक़ों से हटाने के लिए बिल्कुल नहीं कहेंगे, भिखारियों को सार्वजनिक जगहों से हटाने के लिए बिल्कुल नहीं कहेंगे, लेकिन वे सरकार से यह जरूर पूछेंगे कि इन लोगों को टीके कैसे लगाए जा सकते हैं, और कैसे इन्हें बुनियादी सुविधाएं दी जा सकती हैं। अदालत ने साफ-साफ कहा यह एक सामाजिक-आर्थिक समस्या है और भिखारियों को सार्वजनिक जगहों से हटाकर इसका समाधान नहीं किया जा सकता।
इन दिनों सुप्रीम कोर्ट के कुछ जजों का नजरिया सच में ही इंसानियत से भरा हुआ दिख रहा है। यह मामला जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस एम आर शाह की अदालत का है, जहां पर दिल्ली के एक व्यक्ति ने एक जनहित याचिका लगाई है जिसमें देशभर से भिखारियों, आवारा, या बेघर लोगों को चौराहों से, बाजारों और सार्वजनिक जगहों से भीख मांगने से हटाकर उनके पुनर्वास की मांग की गई है।
भिखारियों का पुनर्वास दुनिया के किसी भी विकसित या विकासशील देश में एक बड़ा जनकल्याणकारी कार्य माना जा सकता है। लेकिन हिंदुस्तान में हमने देखा है कि सरकारी निराश्रित गृह में भिखारियों को ले जाकर छोड़ दिया जाता है, जहां उन्हें दो वक्त का खाना तो मिलता है, सोने की जगह मिल जाती है लेकिन उनकी जिंदगी वहीं खत्म हो जाती है। मानो सरकार ने यह मान लिया हो कि उन्हें अब मरने तक इसी तरह जीना है। और चूँकि वे इंसान हैं, इसलिए मुर्गीखाने की मुर्गियों की तरह उनसे अंडे की उम्मीद भी नहीं की जाती, और बस उन्हें दाना दिया जाता है ताकि वे जिंदा रह जाएं। जो लोग इस किस्म के पुनर्वास को भिखारियों के लिए पुनर्वास मानते हैं, उनकी इंसानियत की समझ बड़ी सीमित है। उन्हें लगता है कि सडक़ों पर भीख मांगने वाले लोगों को वहां से हटाकर किसी एक निराश्रित गृह में रख दिया जाए तो उनका बड़ा भला हो जाएगा। हकीकत तो यह है की भिखारी चौराहे या बाजार, या मोहल्ले की गलियों में अपनी मर्जी से घूमते हैं, अलग-अलग किस्म का खाना पाते हैं, कुछ नगदी भी पाते हैं, कुछ अपने पर खर्च करते हैं, और कुछ बचाते हैं।
बहुत से भिखारी ऐसे भी रहते हैं जो अपने परिवार के किसी तरह के संपर्क में रहते हैं और किसी मौके पर अपने परिवार के लोगों की मदद करने के लिए भी अपनी कमाई और बचत में से कुछ पैसे देते हैं। भीख मांगने का यह पूरा सिलसिला चाहे कितना ही अमानवीय लगे, लेकिन यह इस मायने में मानवीय रहता है कि इसमें भिखारी अपनी मर्जी के मालिक रहते हैं, इन्हें जब मंदिर के सामने बैठना रहता है तो वह गुरुवार को साईं बाबा का मंदिर देख लेते हैं, सावन सोमवार को शंकर का मंदिर, शुक्रवार को किसी मस्जिद के सामने, और इतवार को चर्च के सामने। उन्हें पता रहता है कि किस गुरुद्वारे के लंगर से उन्हें कुछ मिल सकता है, या सडक़ किनारे जब शामियाना लगते दिखता है तो भी उन्हें पता रहता है कि कहां भंडारा लगने वाला है। उन्हें यह भी मालूम रहता है कि उनके शहर में किन जगहों पर रोज गरीबों या भिखारियों को खाना बांटा जाता है। वे अपनी आजादी से रोजगार की अपनी जगह तय करते हैं, तरह-तरह की चीजें खाते हैं, और किसी को बददुआ देना, किसी को दुआ देना भी उनके हाथ में रहता है। वे सडक़ों पर आवाजाही देखते हैं, लोगों को हंसते-खेलते देखते हैं, लोगों के मनोविज्ञान का अध्ययन करते हैं, और अपने तजुर्बे का यह इस्तेमाल करते हैं कि कौन लोग उन्हें भीख दे सकते हैं, और कौन नहीं दे सकते हैं। ऐसे में अगर किसी सरकारी निराश्रित गृह में उन्हें किसी जानवर की तरह बांध दिया जाए और कहा जाए कि यही उन्हें दो वक्त का खाना मिलेगा और यही सोने की, सिर छुपाने की जगह मिलेगी, तो उसका मतलब यह है कि एक इंसान के रूप में विविधता के साथ जीने की उनकी सारी संभावनाएं खत्म हो जाती हैं। इन विविधताओं के बारे में सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका लगाने वाले संपन्न तबके के लोग जो कि जाहिर तौर पर भिखारियों की फिक्र कर रहे हैं, लेकिन शायद जिनका मकसद सडक़ों पर से गंदे और बीमार दिखने वाले, फटे कपड़ों में ऐसे बूढ़े और विकलांग लोगों को हटाना है, तो ऐसे लोगों की जनहित याचिका के पीछे की जो सोच है, उसे सुप्रीम कोर्ट के कम से कम इन दो जजों ने बिल्कुल सही संदर्भ में समझा है, और सार्वजनिक जगहों से भिखारियों को हटाने से बिल्कुल मना कर दिया है, और यह कहा है कि अगर वे कोई नोटिस जारी करेंगे तो उससे ऐसा लगेगा कि वे लोगों को हटाने के हिमायती हैं, जो कि वे नहीं हैं।
दरअसल संपन्न समाज बहुत सी चीजों को अपनी नजरों के सामने से हटाना चाहता है। इसमें गरीब, बीमार, विकलांग, बेघर लोग भी हैं क्योंकि उन पर नजर पडऩे के बाद संपन्न समाज अपनी संपन्नता का बिना अपराध बोध के उस हद तक मजा नहीं ले पाता, जितना मजा लेना वह चाहता है। चौराहों पर एसी कारों के भीतर कुछ खाते-पीते लोगों को शीशा खटखटाते भिखारी खटकते हैं। इसलिए मंदिरों और धर्म स्थलों के वैराग्य से परे जिंदगी की सुख की जगहों पर ऐसे दुखी लोगों को देखना कोई नहीं चाहते। और तो और हमें पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार याद है जब बुद्धदेव भट्टाचार्य मुख्यमंत्री थे और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री जॉन मेजर कोलकाता आए थे। कोलकाता शहर के फुटपाथ और सडक़ों से सारे के सारे भिखारियों और बेघर लोगों को शहर के बाहर ले जाया गया था। यह पूरी तरह से वामपंथी सोच के खिलाफ और गोरे शासकों के प्रति गुलामी वाली एक सोच थी कि ऐसे मेहमान के आने पर हमें अपनी जिंदगी की हकीकत भी छुपा लेना है। यह वामपंथी सरकार का एक पाखंड था कि एक अंग्रेज प्रधानमंत्री को यह दिखाए कि उसके शहर में गोरी आंखों को तकलीफ देने वाले कोई भी फटेहाल बेघर लोग नहीं है। लोगों को याद होगा कि इसी सोच के चलते हुए अभी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के ठीक पहले जब डॉनल्ड ट्रंप अहमदाबाद आए थे तो सडक़ों के किनारे की झोपड़पट्टियों को छुपाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपनी ही पार्टी की गुजरात सरकार ने उन बस्तियों के सामने पूरी दीवार खड़ी कर दी थी ताकि वहां से तेज रफ्तार बुलेटप्रूफ गाड़ी में गुजरते हुए भी ट्रंप को कोई झोपड़पट्टी न दिखे।
यह सोच नई नहीं है लेकिन यह किसी विकसित और सभ्य लोकतंत्र की सोच भी नहीं है। दुनिया में अमेरिका जैसे लोकतंत्र हैं जहां बहुत से प्रदेशों में, बहुत से शहरों में, सार्वजनिक बाग-बगीचों में बेघर लोगों ने कब्जा कर लिया है, और उनमें रहते हैं। वहां पर भी इतनी बड़ी संख्या में रहते हैं कि वहां और लोगों का घूमने जाना नामुमकिन सरीखा रहता है। लेकिन फिर भी वहां जागरूक नागरिकों का एक तबका ऐसा है जो यह मानता है कि किसी भी सार्वजनिक जगह पर पहला हक बेघर लोगों का है, उसके बाद ही कोई हक वहां घरबार वाले लोगों का हो सकता है। क्या आज हिंदुस्तान में शहरी संपन्न लोगों के बीच कोई इस सोच से बात भी कर सकते हैं कि सार्वजनिक जगहों पर पहला हक बेघर गरीब और भिखारियों का है? संपन्न तबका ऐसा तर्क देने वालों को नोंच खाएगा। लेकिन हमें बहुत खुशी है कि सुप्रीम कोर्ट के इन दो जजों ने एक ऐसी राय सामने रखी है जो कि आदेश की शक्ल में सामने आने के बाद देश के दर्जनों हाईकोर्ट के सैकड़ों जजों के लिए भी एक मार्गदर्शक की तरह रहेगी कि भिखारियों को नजरों से हटा देना कोई आर्थिक सामाजिक समाधान नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
राजस्थान के भीलवाड़ा की एक खबर है कि वहां दहेज प्रताडऩा के बाद एक बहू ने आत्महत्या कर ली, और इसके पहले उसने एक वीडियो बनाकर यह बयान सबके सामने रखा कि उसके पति सहित ससुराल के लोगों ने उसके साथ कई बार मारपीट की, एक बार उसे बहुत बुरी तरह पीटते हुए उसके ससुर के सामने ही सारे कपड़े फाडक़र उसे नंगा कर दिया। इस मानसिक प्रताडऩा से विचलित होकर उसने इस बारे में बयान वीडियो रिकॉर्ड किया और फिर जहर खा लिया। इस अकेली घटना पर लिखना आज शायद जरूरी नहीं लगता लेकिन एक दूसरी घटना और हुई है। वह घटना अलग किस्म की है, और एक अलग इलाके की भी है। लेकिन जिस तरह की सामाजिक प्रताडऩा का शिकार राजस्थान रहता है, उसी तरह की सामाजिक प्रताडऩा का शिकार रहने वाले एक और प्रदेश हरियाणा के हिसार में एक महिला ने पुलिस में ब्लैकमेलिंग की रिपोर्ट लिखाई है और उसने अपने बेटे पर ही ब्लैकमेल करने का आरोप लगाया है। महिला ने कहा कि उसका पति बीमार रहता है, घर की आर्थिक हालत खराब है, और बेटा शराबी है। ऐसे में वह घर चलाने के लिए खुद पड़ोसी के खेत में मजदूरी करती है। वहां एक दिन उसके बेटे ने खेत मालिक के साथ उसका आपत्तिजनक हालत में मोबाइल पर वीडियो रिकॉर्ड कर लिया और फिर वीडियो वायरल करने की धमकी देकर नशे के लिए पैसे ऐंठने लगा। पिछले कुछ महीनों में दो लाख रुपये बेटा वसूल चुका है, और जब उसने और पैसे देने से मना कर दिया तो बेटे ने यह अश्लील वीडियो व्हाट्सएप के कई ग्रुप में भेज दिया।
अब इन दो घटनाओं को देखें तो लगता है कि और क्या सुनना और देखना बचा है? ससुर और बहू के बीच में जिस तरह के वर्जित संबंध रहते हैं, उसका ख्याल रखते हुए पुराने वक्त में जब ससुर घर के भीतर आते थे तो कोई भी दोहा-चौपाई या राम का नाम बोलते हुए भीतर घुसते थे, ताकि बहू पर्दा कर ले। ऐसा माना जाता था कि बहू और ससुर-जेठ के बीच रिश्तों का एक फासला रहना चाहिए, और सामाजिक प्रतिबंध इसे कड़ाई से लागू भी करते थे। अब अगर दहेज के लिए एक पूरा परिवार बहू को इस हद तक प्रताडि़त करे कि वह खुदकुशी कर ले, तो ऐसी खुदकुशी के पहले की उसकी बातों को सच के अलावा और क्या माना जा सकता है? इसलिए अगर पूरा परिवार बहू को पीट-पीटकर उसे सबके सामने नंगा कर दे, तो ऐसे परिवार का अदालत में नंगा होना जरूरी भी है। दूसरी तरफ एक महिला जो कि बीमार पति और शराबी बेटे को पालने के लिए मजबूरी और मजदूरी कर रही है, उसके ही किसी संबंध को लेकर बेटा उसे ब्लैकमेल करने के लिए वीडियो बना रहा है, तो फिर अब इससे घटिया और हरकत बची क्या है?अभी-अभी छत्तीसगढ़ में एक गिरफ्तारी हुई है जिसमें एक शराबी बाप ने अपनी ही बेटी से बलात्कार किया था। लेकिन वह तो फिर भी नशे में था, हरियाणा का यह बेटा तो सोच-समझकर वीडियो बनाकर अपनी मां को ब्लैकमेल कर रहा था और आखिर में वसूली बंद हो जाने पर उसने वह वीडियो जगह-जगह पोस्ट कर दिया।
इंसानी रिश्तों का यह सिलसिला हैरान करता है और सदमा भी देता है। लोग बात-बात पर इंसान की घटिया हरकतों के लिए जानवरों की मिसालें देने लगते हैं। और हम भी इंसानों की इस बेइंसाफी के बारे में कई बार लिखते रहते हैं। लेकिन इंसान हैं कि वे सदमा देना बंद ही नहीं करते। कई बार तो यह भी लगता है कि इस तरह की भयानक खबरों को छापने से क्या समाज में परिवार के भीतर भी लोगों का एक दूसरे के ऊपर से भरोसा नहीं उठ जाएगा? क्या ऐसी खबरों के बाद लोगों का एक-दूसरे के साथ जीना मुश्किल नहीं हो जाएगा? लेकिन फिर यह भी लगता है कि ऐसी खबरों की जानकारी लोगों को इसलिए भी रहना चाहिए कि वे बाकी जिंदगी अपने आसपास के दायरे से सावधान रहें और याद रखें कि आसपास के लोग भी किसी भी हद तक गिर सकते हैं, किसी भी हद तक हिंसक हो सकते हैं, इसलिए जितना भरोसा करना जरूरी हो उतना तो ठीक है लेकिन उसके बाद एक सावधानी रखना जरूरी है। परिवारों के भीतर भी लोगों को ऐसी सावधानी बरतनी चाहिए कि किसी कमजोर घड़ी में ऐसी कोई हरकत ना हो जाए जो बाद में जिंदगी भर जीना मुहाल कर दे, और किसी लडक़ी की अगर ससुराल में लगातार हिंसक प्रताडऩा चल रही है, तो उसके मां-बाप को भी उस लडक़ी को वापस वहां नहीं भेजना चाहिए, बाद में लाश पर रोने से वह लडक़ी जिंदा तो नहीं हो जाएगी।
आज की दोनों खबरें एक दूसरे से बिल्कुल ही अलग किस्म की हैं, इन दोनों को लेकर कोई एक निष्कर्ष निकालना भी बहुत आसान या मुमकिन नहीं है, लेकिन इन दोनों के साथ एक बात जरूर है कि दोनों परिवार के भीतर की हिंसा की बात हैं। इन दो मामलों से बिल्कुल अलग किस्म की एक बात यह भी है कि जितने बच्चे सेक्स शोषण के शिकार होते हैं उनमें से अधिकांश बच्चों के साथ ऐसी हिंसा परिवार के भीतर, परिवार के लोग करते हैं, या परिवार के बहुत करीबी लोग करते हैं जिनका बड़े हक और भरोसे के साथ उस घर में आना जाना होता है। इनके अलावा बच्चों का सेक्स शोषण वे लोग करते हैं जो शिक्षक होते हैं, या उनके खेल प्रशिक्षक होते हैं, या उन्हें स्कूल लाने ले जाने वाले घरेलू कामगार होते हैं। इसलिए हर परिवार को अपने भीतर जुर्म और हिंसा के ऐसे खतरों के बारे में जरूर सोचना चाहिए और इन्हें लेकर सावधान भी रहना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
नोट देकर वोट खरीदने की बात हिंदुस्तानी चुनावों में इतनी आम है कि कांटे की टक्कर वाले, और मुनाफे की सीट वाले कई चुनावों में तो आखिरी के वोटों के लिए पांच-पाँच हज़ार तक देने की चर्चा सुनाई पड़ती है। अब असली रेट क्या रहता है यह तो देने और लेने वाले जानें, लेकिन संपन्न सीटों के अति संपन्न उम्मीदवार मतदान के पहले की रात को नोट बांटने के लिए उतावले रहते हैं। ऐसे में तेलंगाना में एक सांसद को वोट पाने के लिए नोट बांटने का मुजरिम ठहराते हुए एक विशेष अदालत ने 6 महीने की कैद सुनाई है। यह महिला सांसद मलोत कविता नाम की टीआरएस नेता हैं। हालांकि हिंदुस्तान में चुनावी वोट पाने के लिए वोटरों को रिश्वत देने का सिलसिला कोई नया नहीं है, और लोगों को याद होगा कि इस देश में इमरजेंसी का इतिहास इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक फैसले से चालू होता है, जिसमें इंदिरा गांधी के चुनाव को नाजायज ठहराया गया था, क्योंकि उनके एक सहयोगी सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा मंजूर हुए बिना इंदिरा का चुनावी एजेंट बन गए थे। इंदिरा पर वोटरों को कम्बल बांटने का भी आरोप था, जो कि अदालत में साबित नहीं हो पाया था। कुर्सी न छोड़नी पड़े इसलिए उस वक्त इंदिरा और संजय गांधी ने इमरजेंसी लगाना तय किया था, और आगे की कहानी इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है जिस पर अधिक चर्चा आज का मकसद नहीं है।
लेकिन तेलंगाना के इस ताजा फैसले को लेकर इस बात पर चर्चा की इच्छा जरूर होती है कि क्या भारतीय चुनावों में वोटरों को रिश्वत और भ्रष्टाचार को सचमुच ही काबू में किया जा सकता है, या यह निचली अदालत का एक ऐसा फैसला है जिसे देश की आखिरी अदालत तक पहुंचने में एक पीढ़ी का वक्त लग जाएगा और सांसद का कार्यकाल पूरा भी हो चुका रहेगा? दरअसल देश भर में चुनाव के वक्त पैसों का जो नंगा नाच देखने मिलता है वह इतना डरावना हो गया है कि ऐसा लगता है कि संसद में वे लोग पहुंचते हैं जिन्हें अपनी चुनावी सीट के वोटरों को सबसे अधिक दाम पर खरीदने की ताकत हासिल रहती है। दक्षिण भारत में वोटों का रेट उत्तर भारत के मुकाबले कुछ अधिक माना जाता है और चुनाव के वक्त वहां गहनों से लेकर दूसरे किस्म के सामान बांटने का रिवाज अधिक है। इसकी एक वजह शायद यह हो सकती है कि उत्तर भारत की एक-एक सीट पर वोटर अधिक हो गए हैं, और दक्षिण भारत की सीटों पर आबादी काबू में रहने की वजह से वोटर भी कम हैं।
जो भी हो हिंदुस्तानी आम चुनाव सबसे अधिक भ्रष्ट व्यवस्था है और किसी लहर में जीतने वाली पार्टी या उम्मीदवार की बात छोड़ दें तो कांटे की टक्कर वाली जितनी सीटें रहती हैं, वहां पर तो वोटों को खरीदने से चुनावी नतीजों का सीधा रिश्ता रहता है। अब ऐसे में मन में एक सवाल यह भी उठता है कि जहां पर वोटों को खरीदने की इतनी बड़ी गुंजाइश रहती है क्या वहां के चुनावों को सचमुच ही जनता की राय मांग लेना ठीक होगा, सचमुच ही उसे एक जनतांत्रिक पसंद माना जाना चाहिए? या फिर यह वोटों की एक ऐसी मंडी है जहां पर सबसे अधिक बोली बोलने वाला नेता या उसकी पार्टी वोट पा जाते हैं, और देश भर में सबसे ऊंची बोली लगाने वाले लोग संसद और विधानसभा में पहुंचने की सबसे अधिक संभावना भी रखते हैं? हम तो मध्य भारत के इस इलाके छत्तीसगढ़ में चुनावों को रूबरू देखते हुए यह जानते हैं कि एक बड़े शहर के एक वार्ड के चुनाव में किस तरह बड़े उम्मीदवार एक-एक करोड़ रुपए तक खर्च करने के लिए तैयार रहते हैं, उतारू रहते हैं। यहां तक सुनाई पड़ता है कि सबसे भ्रष्ट किसी वार्ड उम्मीदवार को किसी एक जगह से ही एक साथ 25 लाख का चुनावी चंदा मिल जाता है। इससे भी अंदाज लग सकता है कि कुछ हजार वोट वाले वार्ड किस तरह महंगी जीत वाले रहते हैं और जाहिर है कि इसके बाद अगले 5 बरस निर्वाचित लोग इस पूंजी निवेश की वापिसी के लिए, कमाई करने के लिए कैसे-कैसे काम करते होंगे।
हिंदुस्तान का चुनाव आयोग इसी फर्जी बात पर फख्र हासिल करते रहता है कि चुनाव में गुंडागर्दी खत्म हो गई है, और अब चुनाव भी बिना किसी हिंसा के हो जाते हैं। लेकिन आज भारतीय चुनाव की जो सबसे बड़ी समस्या है, रुपयों का वह बोलबाला खत्म करने में यह चुनाव आयोग कुछ भी नहीं कर पाया है। बल्कि हाल के चुनावों में देखा गया है कि यह चुनाव आयोग लोगों के हिंसक भाषणों को भी नहीं रोक पाया, भडक़ाऊ और सांप्रदायिक नेताओं और तबकों को भी नहीं रोक पाया, यह चुनाव आयोग हिंसक जातिवाद को भी नहीं रोक पाया। यह चुनाव आयोग मतदान करवाने की एक काबिल मशीन से परे और किसी काम का नहीं रह गया है, और यह चुनाव को निष्पक्ष और ईमानदार करवाने के लिए तो कुछ भी करने के लायक नहीं रह गया है। इसलिए अगर सुप्रीम कोर्ट को यहां पर दखल देने की कोई गुंजाइश दिखती है तो उसे संसद और चुनाव आयोग इन दोनों के सामने इस बात को रखना चाहिए क्योंकि संसद के भीतर बाहुबल चुनाव आयोग को ऐसा ही बनाए रखने का हिमायती हो सकता है। इसलिए तेलंगाना के इस अदालती फैसले से हमें इस मुद्दे पर चर्चा करने की सूझ रही है कि हिंदुस्तान के चुनाव की इस मंडी में खरीदने-बेचने का सिलसिला कैसे खत्म हो सकता है? इस बारे में जो देश के जिम्मेदार तबकों को सोचना चाहिए, यहां की अदालत को भी सोचना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
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सम्पादकीय में एक तथ्य गलत
'छत्तीसगढ़' अखबार में 25 जुलाई को प्रकाशित संपादकीय जिसमें वोट के बदले नोट देने के जुर्म में तेलंगाना की एक महिला सांसद को कैद की सजा सुनाई गई है, उसमें इंदिरा गांधी के मामले की चर्चा भी की गई थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जिस फैसले ने इंदिरा गांधी के चुनाव को नाजायज ठहराया था, उसके बारे में संपादकीय में लिखा गया था कि उनके एक सहयोगी को वोटरों को कंबल बांटने का दोषी पाया गया था। यह बात सही नहीं थी।
हमारे एक नियमित पाठक डॉ. परिवेश मिश्रा और कुछ दूसरे पाठकों ने इस गलती के बारे में ध्यान दिलाया था। उस पुराने फैसले को देखने पर तथ्य यह मिला कि इंदिरा गांधी के सहयोगियों पर वोटरों को कंबल बांटने का आरोप लगाया गया था, लेकिन वह हाईकोर्ट में साबित नहीं हो पाया था। और इंदिरा गांधी के चुनाव को नाजायज ठहराने की एक बड़ी वजह यह थी कि उनके एक सहयोगी का सरकारी नौकरी से इस्तीफा उस समय तक मंजूर नहीं हुआ था, जो कि उनका चुनावी एजेंट भी बना दिया गया था। इसके अलावा रायबरेली के इस लोकसभा चुनाव में कलेक्टर और दूसरे अफसरों का बेजा इस्तेमाल चुनावी मंच बनाने जैसे चुनावी कामों के लिए किया गया था।
ऐसे नाजायज तरीकों के इस्तेमाल की वजह से इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित करार दिया गया था। संपादकीय में लिखा गया यह तथ्य सुधारना जरूरी है कि कंबल बांटने की वजह से चुनाव अवैध हुआ था। अखबार के छपे हुए अंकों में तो कोई सुधार नहीं हो सकता, लेकिन वेबसाइट और ऑनलाइन जहां-जहां यह सम्पादकीय है वहां इसमें सुधार किया जा रहा है। इस चूक के लिए हमें खेद है, संपादक, सुनील कुमार।
दुनिया के बहुत से देशों में कारोबार कर रही अमेरिका की स्टारबक्स नाम की कॉफ़ी कंपनी ने घोषणा की है कि वह अमेरिका के अपने फास्ट फूड और कॉफ़ी के आउटलेट में न बिका हुआ खाने-पीने का सामान उस इलाके के जरूरतमंद और भूखे लोगों के लिए ऐसे समाजसेवी संगठनों को देगी जो उसे बांट सकें। इस कंपनी ने अगले 10 बरस में 100 मिलियन डॉलर की ऐसी मदद करने की घोषणा की है। अभी हम इस रकम को लेकर यह अंदाज नहीं लगा पा रहे हैं कि यह कंपनी कितनी बड़ी है और अमेरिकी हालात में यह मदद कितनी बड़ी रहेगी। लेकिन हम इसे इस मुद्दे के रूप में देख रहे हैं कि दुनिया के बहुत से ऐसे खाने-पीने के कारोबार हैं जिनमें बहुत सा सामान बचता है जो फेंकने में जाता है या बर्बाद हो जाता है. दूसरी तरफ हर शहरी इलाके में बहुत से गरीब लोग भूखे रहते हैं या कम खा कर जीते हैं. कारोबार की सामाजिक जिम्मेदारी के हिसाब से देखें तो ऐसा लगता है कि इन दोनों का एक मेल हो सकता है. और दुनिया के बहुत से ऐसे बड़े दुकानदार भी हैं जो सामान फेंकने के बजाय उन्हें निकालकर दुकान के बाहर रख देते हैं और जरूरतमंद लोग उन्हें उठाकर ले जाते हैं. दुनिया में भूख बहुत बुरी तरह फैलती और बढ़ती जा रही है, दूसरी तरफ खाने-पीने की बर्बादी इतनी अधिक होती है कि अमेरिका जैसे दुनिया के कई देश बहुत बुरी तरह के मोटापे के शिकार हैं। मोटापे का मतलब जरूरत से अधिक खाना ही होता है। तकरीबन तमाम अधिक मोटे लोग खाने की बर्बादी बदन के बाहर करने के बजाय बदन के भीतर करते हैं. नतीजा यह होता है कि वह महंगे अस्पतालों के लिए एकदम फिट मरीज हो जाते हैं। इस हिसाब से भी यह सोचने की जरूरत है कि जो लोग जरूरत से अधिक खा रहे हैं, यानी जिनके पास जरूरत से अधिक खाना है, उन लोगों से भी कुछ खाना गरीबों तक कैसे पहुंचाया जा सकता है।
इस मुद्दे पर पढ़ते हुए भारत की एक प्रमुख पर्यावरण पत्रिका डाउन टू अर्थ में छपा हुआ एक लेख दिख रहा है जिसमें फीडिंग इंडिया नाम के एक संगठन के बारे में बताया गया है। इस संगठन की एक संस्थापक सृष्टि जैन ने कहा कि हर शादी में औसतन 15-20 फ़ीसदी खाना बर्बाद होता है और जो कि 25-50 किलो से लेकर 800 किलो तक रहता है इतने खाने से 100-200 लोगों से लेकर 2-4 हजार लोगों तक का पेट भरा जा सकता है। उन्होंने कहा कि इस बारे में सुप्रीम कोर्ट भी मेहमानों की संख्या सीमित करने के बारे में सोच रहा था, लेकिन तब तक अधिक व्यावहारिक बात यह है कि अधिक बने हुए खाने को किस तरह भूखे लोगों तक पहुंचाया जाए, और उनका संगठन यह काम करने में लगा हुआ है। डाउन टू अर्थ पत्रिका ने एक बड़े कैटरर से बात की जो शादियों की पार्टियों में खाने का इंतजाम करते हैं. उनका तजुर्बा यह रहा कि छोटी पार्टियों में करीब 40 फ़ीसदी खाना बर्बाद होता है और बड़ी पार्टियों में यह 60 फ़ीसदी तक हो सकता है क्योंकि लोग जितने मेहमानों को बुलाते हैं उतने आते नहीं, और वे जितने किस्म की चीजें बनाते हैं उतनी चीजों की खपत नहीं होती। उनका कहना यह है कि 500 लोगों की दावतों में 700 लोगों के खाने लायक खाना बना लिया जाता है, और ऐसी दावत तो में कई बार 300 लोग ही पहुंचते हैं.
यह कोई बहुत मौलिक और नई सोच की बात नहीं है हिंदुस्तान में आज से कई दशक पहले मुंबई में एक कोई समाजसेवी संगठन ऐसा था जो शादी-ब्याह के बाद बचा हुआ बिना जूठा खाना ले जाकर अपनी गाड़ियों में गरीब बस्तियों में जरूरतमंद गरीबों को खिलाता था। हर दावत में खाना जरूरत से ज्यादा बनता है और बर्बाद होने के बजाय ऐसा खाना दूसरों तक पहुंचाना एक बड़ा भला काम है. मुंबई के अलावा कुछ और शहरों में भी अलग-अलग स्तर पर यह काम हुआ है और कुछ जगहों पर तो लोगों ने दावतों में खाने की बर्बादी रोकने के लिए खाने की टेबलों पर यह तख्ती लगानी शुरू कर दी है कि कृपया उतना ही खाना लें जितना आप खा सकते हैं। कुछ संपन्न और सवर्ण तबकों में ऐसी दावतों के वीडियो भी सामने आए हैं जिनमें कोई एक जिम्मेदार व्यक्ति खड़े होकर प्लेट रखने वाले लोगों को वापिस भेज रहे हैं कि प्लेट का पूरा खाना खाकर खाली प्लेट लेकर आएं।
ऐसी जागरूकता और इसी तरह तरह की पहल जरूरी है क्योंकि आज दुनिया में एक तरफ खाने की बर्बादी जारी है और दूसरी तरफ भूख से लोगों की जिंदगी बर्बाद हो रही है। इन दोनों बातों को जब भी एक साथ रखकर देखें, तो लगता है कि यह संपन्न तबके की और समाज की एक किस्म की हिंसा है जो कि गरीब और भूखे लोगों को अनदेखा करके खाना-पीना इतना बर्बाद करती है। लोग इस बात को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा बना लेते हैं कि वे कितने अधिक किस्म के खाने परोसते हैं, और कितना जबरदस्ती लोगों को खिला सकते हैं, फिर भले ऐसा खिलाना उनके मेहमानों की सेहत के लिए बहुत नुकसानदेह ही क्यों ना हो। इसलिए समाज में ऐसी जागरूकता की जरूरत है जो लोगों को सीमित किस्म के खाने परोसने के सामाजिक प्रतिबंध भी लगाए। कुछ शहरों में कुछ समाज के लोगों ने ऐसा किया हुआ भी है। दूसरी तरफ दावतों के बाद बचे हुए खाने को जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने के लिए सामाजिक संगठनों को आगे आना चाहिए। हमने अलग-अलग किस्म के बहुत से समाजसेवी संगठनों के काम देखे हैं जो कि बड़ी मेहनत करते हैं लाशों को घर पहुंचाने का काम करते हैं, कफन-दफन का काम करते हैं, अंतिम संस्कार करते हैं। इसलिए खाने की बर्बादी रोकने के लिए भी ऐसे संगठन जरूर बन सकते हैं, या मौजूदा संगठन इस काम को भी कर सकते हैं. (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केंद्रीय विदेश राज्य मंत्री मीनाक्षी लेखी कल भाजपा कार्यालय में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में किसानों के प्रदर्शन पर एक सवाल का जवाब दे रही थीं, और उन्होंने काफी आक्रामक तरीके से कहा- फिर किसान आप उन लोगों को बोल रहे हैं, मवाली हैं वो। इसका वीडियो मौजूद है जो उनके शब्दों को बड़ा साफ-साफ बतला रहा है। लेकिन जैसा कि बाद में होता है, उन्होंने एक और बयान में कहा कि उनके शब्दों को तोड़ा-मरोड़ा गया है, फिर भी अगर उनके शब्दों से कोई किसान आहत हुआ है, तो वह उन्हें वापस लेती हैं। इन दोनों बातों के वीडियो हमने देखे हैं और इन दोनों बातों में कहीं गलतफहमी की कोई गुंजाइश नहीं है।
मीनाक्षी लेखी केंद्रीय राज्य मंत्री बनने के पहले सुप्रीम कोर्ट सहित बहुत सी अदालतों में वकालत कर चुकी हैं, और पार्टी की राष्ट्रीय प्रवक्ता रह चुकी हैं। वे हिंदी भाषी इलाके से हैं इसलिए किसी गैर हिंदी भाषी प्रवक्ता या नेता के मुंह से निकले अटपटे शब्दों के लिए उन्हें संदेह का लाभ देने की कोई गुंजाइश भी मीनाक्षी लेखी के साथ नहीं है। वे लंबे समय से भाजपा के कई पदों पर दिल्ली में ही काम करती रही हैं जो कि मोटे तौर पर हिंदी भाषी प्रदेश है और वह खुद भी वकील रहते हुए वे मवाली शब्द का मतलब न समझें ऐसा हो नहीं सकता। इसलिए अपने शब्दों के बचाव में बाद में उनका चाहे जो बयान नुकसान को घटाने के लिए आया हो, किसानों की जो बेइज्जती होनी थी, वह तो हो ही चुकी है। राजनीति में सत्ता पर रहते हुए बहुत से लोग इस तरह बड़े हमलावर शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, वह अगर ज्यादा आक्रामक रहते हैं तो वह पूरे के पूरे वाक्यों और मिसालों को बहुत ही हमलावर बनाकर बोलते हैं, गाड़ी के नीचे आ जाने वाले पिल्ले जैसी मिसाल । यह जानते हुए भी बोलते हैं कि इन दिनों किसी शहर स्तर के नेता की कही हुई बात को भी कई कई कैमरे रिकॉर्ड करते ही रहते हैं. इसलिए यह समझना मुश्किल होता है कि कौन सी बात किसके मुंह से चूक से निकली है, और कौन सी बात सोच-समझकर किसी हथियार की तरह चलाई गई है। फिर भी किसानों के व्यापक तबके के बारे में पूछे गए सवालों के जवाब में उन्हें मवाली करना कुछ अधिक ही हमलावर और अपमानजनक बात है इसलिए पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने बिना वक्त गवाएं तुरंत ही मीनाक्षी लेखी के इस्तीफे की मांग की है, और उन्होंने यह भी याद दिलाया है कि दिल्ली की सरहद पर आंदोलन शुरू होने के बाद से किसानों के खिलाफ कई भाजपा नेताओं ने समय-समय पर अपमानजनक बातें कही हैं, उनके आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश की है।
यह बात बहुत हद तक सही है क्योंकि केंद्र सरकार सहित हरियाणा के भी कई भाजपा नेताओं, और मंत्रियों ने किसानों के बारे में समय-समय पर बहुत ओछी बातें कही हैं। और हैरानी यह होती है कि किसानों पर ऐसे हमलों के बीच ही असम, बंगाल, और केरल जैसे चुनाव भी निपट गए, अब तो उस पंजाब का चुनाव सामने खड़ा हुआ है जहां से इस आंदोलन में शुरू से किसान आए हुए हैं, इससे जुड़े हुए हैं। देश में कोई एक प्रदेश किसानों के मुद्दों से सबसे अधिक जुड़ा हुआ है तो वह पंजाब है. आज देश में जितने किस्म के अलग-अलग पेशेवर तबके हैं उनमें शायद किसान ही अकेले ऐसे हैं जो भ्रष्टाचार से सबसे कम जुड़े हुए हैं, जो कोई भी गुंडागर्दी नहीं करते हैं, और जो कुदरत और सरकार इन दोनों के रहमो करम पर जीते हुए मेहनत करते हैं, और राजनीतिक दलों और सरकारों के किए हुए वायदों के पूरे होने की उम्मीद रखे हुए जिंदगी गुजार लेते हैं। किसानों ने अपने आंदोलन में कभी किसी को मारा नहीं है, देश का इतिहास गवाह है कि हर बरस हजारों किसान आत्महत्या कर लेते हैं, लेकिन ऐसा कोई भी साल नहीं है जब किसानों ने कुछ दर्जन भी हत्याएं की हों। और एक तबके के रूप में तो किसानों ने कभी भी कोई हिंसा नहीं की है। दिल्ली में भी स्वतंत्रता दिवस के दौरान जिन लोगों ने वहां आकर हिंसा की वे लोग भाजपा से जुड़े हुए थे, चर्चित और नामी-गिरामी थे जिनकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री के साथ हैं, और जिनके खिलाफ सुबूत भी मिले और मुकदमे भी चल रहे हैं. लेकिन किसानों ने एक तबके के रूप में, एक आंदोलन के रूप में कोई हिंसा नहीं की।
इसलिए हमारा ख्याल है कि किसानों को मवाली कहना न सिर्फ किसानों का अपमान है, बल्कि इस देश के हर उस इंसान का अपमान है जिसका पेट किसानों के उगाए हुए अनाज से भरता है. और किसानों से परे भी लोगों को ऐसी जुबान का विरोध करना चाहिए और भाजपा के लिए बेहतर यह होगा कि एक मंत्री की कही हुई बात और फिर वापस लिए गए शब्दों से ऊपर जाकर, वह एक पार्टी के रूप में किसानों से माफी मांगे, और अपनी पार्टी के बाकी नेताओं के लिए भी यह चेतावनी जारी करे कि किसानों के बारे में अभद्र और अपमानजनक भाषा इस्तेमाल करने से बाज आएं. ऐसा नहीं है कि बंगाल और केरल के चुनावों में भाजपा के नेताओं का किसानों के खिलाफ कहा हुआ कमल छाप के खिलाफ न गया हो। देश के हर प्रदेश में किसान हैं और कम से कम आम नागरिकों में तो बहुत से ऐसे लोग हैं जो कि किसानों से हमदर्दी रखते हैं, किसानों के लिए सम्मान रखते हैं. इसलिए भाजपा को पंजाब चुनाव में इस मवाली-शब्दावली का नुकसान हो उसके पहले उसे खुले दिल से, और साफ शब्दों में, बिना किंतु परंतु किए हुए किसानों से माफी मांगनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया के कई देशों में लोगों के मोबाइल फोन पर घुसपैठ करके जासूसी करने वाले इजराइली सॉफ्टवेयर पेगासस का मामला जल्दी ठंडा होते नहीं दिख रहा है क्योंकि कई विकसित और सभ्य लोकतंत्र इसके शिकार हुए हैं। फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देशों ने इसकी औपचारिक जांच की घोषणा की है। हिंदुस्तान में लोकतंत्र तो पुराना है और हिंदुस्तान दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दंभ भी भरता है, लेकिन यहां पर सरकार अभी तक इस बात पर साफ-साफ जवाब देने से भी कतरा रही है कि उसने पेगासस सॉफ्टवेयर खरीदा था या नहीं, और इससे देश के लोगों पर हुई जासूसी की खबर उसे है या नहीं। यहां पर समझने की बात यह है कि हिंदुस्तान में डाटा प्राइवेसी कानून देश के हर नागरिक और संस्थान को उसके डेटा की सुरक्षा देने के लिए बनाया गया है और जब लोगों के टेलीफोन पर घुसपैठ करके इस तरह से डाटा चोरी किया गया, तो उसकी जांच और उस पर कार्रवाई भी केंद्र सरकार की जिम्मेदारी बनती है। लेकिन केंद्र सरकार ने अभी तक इस मामले की जांच के बारे में कुछ भी नहीं कहा है। सरकार का संसद के भीतर और संसद के बाहर बयान बहुत ही अमूर्त किस्म का, गोलमाल शब्दों का बयान है, जिसमें सरकार न तो इस सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल की बात मंजूर कर रही है और ना इसे इस्तेमाल करने का खंडन कर रही है।
निजता पर आए ऐसे गंभीर खतरे के बीच सुप्रीम कोर्ट में एक पिटीशन लगाई गई है कि सुप्रीम कोर्ट इस जासूसी सॉफ्टवेयर की खरीदी पर रोक लगाए। जैसा कि यह कंपनी कहती है वह इसे केवल सरकारों को बेचती है, ऐसे में हिंदुस्तान में सिर्फ सरकार ही इसे कानूनी रूप से खरीद सकती है, तो सुप्रीम कोर्ट से इस पर रोक लगाने की मांग सीधे-सीधे सरकार पर यह रोक लगाने की मांग है कि वह इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल न करे। अभी इस याचिका पर अदालत में कोई सुनवाई नहीं हुई है लेकिन देश के लोगों को इस जासूसी घुसपैठ के मामले से खत्म होने वाली निजता का मामला बहुत ही भयानक लग रहा है, और हो सकता है कि इसकी गंभीरता को देखकर सुप्रीम कोर्ट इस पर कोई आदेश भी करें। सुप्रीम कोर्ट शायद याचिका को इस नाते भी गंभीरता से देखेगा कि सुप्रीम कोर्ट के एक पिछले मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ उनकी मातहत कर्मचारी द्वारा लगाए गए सेक्स शोषण के आरोपों की जांच के चलते समय बताया जा रहा है कि उस जज का फोन भी पेगासस के रास्ते हैक किया गया था, और शिकायतकर्ता महिला के परिवार के तो 8 मोबाइल फोन नंबर हैक किए गए थे, अब इनमें से कोई बात अभी तक साबित इसलिए नहीं हो रही है कि यदि सरकार ही हर बात की मनाही कर रही है।
फिलहाल हम यह देख रहे हैं कि दुनिया के कई देशों में इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल करके इतने तरह के काम किए गए कि उससे लोगों के बुनियादी अधिकार बुरी तरह कुचले गए। मेक्सिको में एक ऐसे पत्रकार की हत्या कर दी गई जिस पर पेगासस के माध्यम से नजर रखी जा रही थी, और यह सॉफ्टवेयर जिस फोन में घुसपैठ कर लेता है उसका लोकेशन भी बतला देता है, और उसके कैमरे और माइक्रोफोन से आसपास की बातों को सुन भी लेता है, आसपास की तस्वीरें भी देख लेता है। इसलिए एक बड़ा शक हो रहा है कि मेक्सिको में इस पत्रकार की हत्या के पीछे इस सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल का हाथ रहा है। ऐसा ही दुनिया के कुछ दूसरे देशों में कुछ पत्रकारों की गिरफ्तारी के लिए तो किसी के बेडरूम में घुसकर अनैतिक संबंधों की तोहमत लगाने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया गया है। पूरी दुनिया में पेगासस के ग्राहकों ने अपनी दिलचस्पी के जो टेलीफोन नंबर इस कंपनी में दर्ज करवाए थे, ऐसे करीब 50 हज़ार नंबर बताए जा रहे हैं, और हिंदुस्तान में ही ऐसे 300 से अधिक नंबर बताए जा रहे हैं, जिनकी निगरानी करना बताया जा रहा है।
एक दिलचस्प बात यह है कि खुद इजराइल की सरकार ने अपने देश की इस कंपनी के इस सॉफ्टवेयर के रास्ते दुनिया भर में हुई जासूसी की जांच करवाने की घोषणा की है। लोगों को यह भी याद रखने की जरूरत है कि सऊदी अरब ने दुसरे देश में अपने दूतावास में बुलाकर एक वरिष्ठ पत्रकार की हत्या की थी, उस पत्रकार और उसके आसपास के लोगों के फोन भी इसी पेगासस सॉफ्टवेयर से निगरानी में रखे गए थे, उनमें घुसपैठ की गई थी।
अब दुनिया भर के साइबर विशेषज्ञ यह मान कर रहे हैं कि दुनिया की सरकारों के बीच इस बात को लेकर एक आम सहमति बनना चाहिए की जासूसी के नाम पर किस-किस तरह के अनैतिक काम न किए जाएं। इस तरह की सहमति कुछ दूसरे मामलों में सरकारों के बीच बनी हुई है जैसे मानव क्लोनिंग को लेकर दुनिया की सरकारों के बीच यह सहमति बनी हुई है कि इस पर काम नहीं होना चाहिए। यहां तक कि चीन जैसा दुस्साहसी प्रयोग करने वाला देश अभी कुछ समय पहले अपने देश के तीन वैज्ञानिकों को कैद सुना चुका है जिन्होंने एक बच्चे के जन्म के पहले उसके डीएनए में एडिटिंग करके उसे एचआईवी जैसी बीमारी के खिलाफ एक प्रतिरोधक शक्ति देने का काम किया था। चीन में ऐसी जेनेटिक एडिटिंग के बाद 3 बच्चे पैदा हुए और ऐसा प्रयोग करने वाले तीन वैज्ञानिकों को चीनी अदालत ने अभी कैद सुनाई है।
दुनिया में लोकतंत्र के हिमायती साइबर विशेषज्ञ यह मान कर रहे हैं कि पेगासस जैसे घुसपैठ करने वाले सॉफ्टवेयर बनाने और उसके इस्तेमाल पर रोक के लिए पूरी दुनिया में एक सहमति बननी चाहिए क्योंकि यह कंपनी चाहे जैसे दावे करती रहे कि यह सॉफ्टवेयर सिर्फ आतंक रोकने के लिए और ड्रग माफिया को रोकने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, यह जाहिर है कि इसका इस्तेमाल सरकारों ने अपने विरोधियों के खिलाफ किया है, और ऐसी ताकत रखने वाला घुसपैठिया सॉफ्टवेयर दुनिया के लोकतंत्र को खत्म करके रख सकता है। इसलिए हिंदुस्तान की सरकार को तो इस बारे में बिना देर किए एक जांच की घोषणा करनी चाहिए जिससे वह अपनी खुद की साख भी बचा सकती है, और दुनिया के सभी जिम्मेदार लोकतंत्रों को एक पहल करनी चाहिए कि इस किस्म के घुसपैठिए सॉफ्टवेयर पर रोक लगाई जाए जो कि लोगों की आजादी, लोगों की निजता को इस हद तक खत्म कर सकते हैं। सरकार नहीं करेगी तो सुप्रीम कोर्ट अपनी निगरानी में जांच का हुक्म दे सकता है जिसमें सरकार को हलफनामे पर सब कुछ बताना होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
केंद्र सरकार ने लंबे समय बाद हो रहे संसद के सत्र में एक सवाल के जवाब में कहा कि कोरोना के दौर में देश में ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई। इसे लेकर देश हक्का-बक्का रह गया और संसद में कई विपक्षी दलों के लोगों ने इसे लेकर खासी नाराजगी जाहिर की क्योंकि इस पूरे दौर में लोग ऑक्सीजन की कमी से कोरोना मरीजों को मरते देख रहे थे, परिवार के लोगों को बिलखते देख रहे थे, अस्पतालों ने नोटिस लगा दिए थे कि ऑक्सीजन उनके पास नहीं है, और मरीजों को कहीं और ले जाएं। ऐसे में केंद्र सरकार का यह कहना कि ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत नहीं हुई है, एक बड़ी ही अटपटी बात लग रही है। लेकिन इससे भी अधिक दिलचस्प और तकलीफदेह बात यह है कि किसी राज्य सरकार ने अपने भेजे गए आंकड़ों में केंद्र सरकार को यह नहीं कहा कि उनके राज्य में ऑक्सीजन की कमी से कोई मौत हुई है। केंद्र सरकार की इस बात में दम है कि वह तो महज राज्यों से मिले हुए आंकड़ों को जोडक़र संसद को बतला देती है। यह एक अलग बात है कि केंद्र सरकार लगातार यह देख रही थी कि ऑक्सीजन की कमी से देश में मौतें हो रही हैं और देश में ऑक्सीजन की बहुत बुरी कमी चल रही है, लेकिन जब तक अस्पतालों के इंचार्ज राज्य के अधिकारी यह बात मानेंगे नहीं कि ऑक्सीजन की कमी से मौतें हुई हैं, तब तक केंद्र सरकार अपनी तरफ से कैसे कह सकती है कि कुछ मौतें ऑक्सीजन की कमी से भी हुई हैं ?
भारत में केंद्र और राज्य सरकारों का यह मिला-जुला पाखंड नया नहीं है। इस देश में पिछली करीब पौन सदी से यह देखने में आ रहा है कि जब कभी भूख से कोई मौत होती है, तो वहां की राज्य सरकार बड़ी तेजी से ऐसी पोस्टमार्टम रिपोर्ट पेश कर देती है जिसमें लाश के पेट से पचा हुआ खाना निकला बताया जाता है। मरने वाले के घर पर कुछ किलो अनाज दिखा दिया जाता है। उस इलाके की राशन दुकान के रिकॉर्ड बताने लगते हैं कि मरने वाले को कुछ दिन पहले ही अनाज दिया गया था। कुल मिलाकर कोई भी राज्य सरकार हिंदुस्तान में आज तक इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हुई है कि उनके यहां भूख से कोई मौत हुई है। और तो और, कुपोषण के जो आंकड़े बतलाते हैं कि बहुत से बच्चे कुपोषण की वजह से बहुत गंभीर रूप से कमजोर हैं, उनकी मौत पर भी उनकी मौत को कुपोषण से मौत दर्ज करने में सरकारें कतराती हैं, और उन्हें भी किसी बीमारी से मौत बतला दिया जाता है। बात यहीं तक सीमित नहीं है, कई ऐसे राज्य हैं जिन्होंने पिछले डेढ़ बरस में कोरोना से होने वाली मौतों को कोरोना के साथ दर्ज नहीं किया है और महज किसी और बीमारी से मौत दर्ज कर लिया है। नतीजा यह निकला कि केंद्र सरकार या राज्य सरकार जब कोरोना मौतों पर कोई मुआवजा देने की तैयारी कर रही हैं, तो उस लिस्ट में भी इन मरने वालों के घर वालों का नाम नहीं आ पा रहा क्योंकि उनकी मौतों को ही कोरोना मौत दर्ज नहीं किया गया है।
सरकारों का गजब का करिश्मा तो तब देखने मिलता है जब उनके राज्य में कोई किसान आत्महत्या करते हैं। किसानों की आत्महत्या क्योंकि एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा भी बनता है, और सरकार को जवाब देने में मुश्किल होती है, इसलिए देश के कई राज्यों ने किसान की आत्महत्या को कुछ दूसरी वजहों के साथ दर्ज करना शुरू कर दिया है। आत्महत्या करने वाले के पेशे या रोजगार के कॉलम में किसान दर्ज ही नहीं किया जाता। और आत्महत्या की वजह में नशे की आदत, कर्ज में डूबना, या कहीं अवैध प्रेम और सेक्स संबंध जैसी बातें दर्ज कर ली जाती हैं, लेकिन किसानी के नुकसान से, किसानों के कर्ज से आत्महत्या हुई हो, ऐसा रिकॉर्ड में नहीं आने दिया जाता। नतीजा यह होता है कि सत्तारूढ़ पार्टी और सरकार किसान की आत्महत्या पर उठने वाले असुविधाजनक सवालों से बच जाती हैं।
हिंदुस्तान में केंद्र सरकार और राज्य सरकारें अपनी सार्वजनिक छवि को बचाने के लिए सरकारी आंकड़ों को किसी भी हद तक दबाने-कुचलने, तोडऩे-मरोडऩे के लिए एक पैर पर खड़ी रहती हैं। जनधारणा का प्रबंधन पूरी तरह आंकड़ों और इमेज को लेकर चलता है। एक वक्त कुछ होशियार लोग यह कहते थे कि भारतीय लोकतंत्र में चुनाव 5 साल काम करके नहीं, चुनाव का मैनेजमेंट करके जीते जाते हैं। अब एक बात लग रही है कि चुनाव जनधारणा प्रबंधन से जीते जाते हैं, और लोगों के सामने सरकार की कैसी छवि पेश की जाती है, इससे भी जीते जाते हैं। भारतीय चुनावों में और भी कई मुद्दे रहते हैं जिनमें धर्म और जाति के आधार पर ध्रुवीकरण, लोगों के बहुसंख्यक तबके को खुश करने वाले कई किस्म के मुद्दे रहते हैं जिनमें अल्पसंख्यकों को प्रताडि़त करने के मुद्दे भी शामिल रहते हैं। जब सरकारें झूठे और फरेबी आंकड़ों से अपने को बेहतर दिखाने की कोशिश करती हैं तो राज्यों के भेजे गए झूठे आंकड़ों पर भी केंद्र सरकार ने कोई आपत्ति नहीं की क्योंकि अलग-अलग पार्टियों की राज्य सरकारें जो भेज रही है उनसे केंद्र सरकार की एक देश के रूप में बेहतर छवि बनाने की कोशिश बिना खुद की मेहनत के पूरी हो रही है।
ऐसे में संसद में एक विपक्षी सांसद के दिए गए इस बयान को देखने की जरूरत है जिसने सोशल मीडिया पर लोगों को हिला कर रख दिया है। राज्यसभा में कोरोना पर बहस के दौरान आरजेडी सांसद मनोज कुमार झा ने कहा कि पूरे सदन को उन लोगों से माफी मांगनी चाहिए जिनकी लाशें गंगा में तैर रही थीं, पर उन्हें कभी स्वीकार नहीं किया गया। झा ने कोरोना संकट के दौरान ऑक्सीजन की कमी का मुद्दा उठाते हुए कहा कि सांसद होने के बावजूद वे लोगों की मदद नहीं कर पाए। मनोज झा ने कहा कि कोरोना के प्रकोप में देश के तमाम परिवारों ने किसी अपने को खोया है। उन्होंने कहा, ‘हम सबको एक साझा माफीनामा उन लोगों को भेजना चाहिए जिनकी लाशें गंगा में तैर रही थीं।’ उन्होंने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा कि हमने इस कोरोना महामारी में ऑक्सीजन की कमी के कारण कई मौतें देखी है। उन्होंने कहा कि हम आंकड़ों की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि सच्चाई से रूबरू होकर यह कहना चाहते हैं कि ये जो लोग हमारे बीच से आज चले गए, वो एक जिंदा दस्तावेज छोडक़र गए हैं, हमारी नाकामी का, उन्होंने कहा कि यह कलेक्टिव फेल्योर है 1947 से लेकर अब तक की सभी सरकारों का। मुफ्त वैक्सीन पर भी तंज कसते हुए झा ने कहा कि यह मुफ्त राशन, मुक्त वैक्सीन की बात जो हो रही है, यह कुछ मुफ्त नहीं है, इस वेलफेयर स्टेट का एक कमिटमेंट है, उसको सरकार कम ना करे, उसे बौना ना बनाए। उन्होंने कहा ‘मैं चाहता हूं, जगाना चाहता हूं आपको भी और सभी को भी, क्योंकि हमने असम्मानजनक मौत को देखा है, और अगर हमने इसे दुरुस्त नहीं किया तो आने वाली पीढ़ी आप हमें माफ नहीं करेगी।’ (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया भर में इजराइल की एक कंपनी के बनाए हुए पेगासस नाम के एक सॉफ्टवेयर को लेकर हंगामा मचा हुआ है कि दर्जनों देशों की सरकारों ने इसका इस्तेमाल करके अपने देश के विरोधी नेताओं और मीडिया के लोगों, सामाजिक कार्यकर्ताओं की जासूसी की, उनके फोन में घुसपैठ की, वहां से जानकारी चुराई, उनकी लोकेशन देखी कि वह किस वक्त कहां पर थे, उनके फोन की लॉग बुक देखी कि उन्होंने कब किसको फोन किया। और जैसा कि इस सॉफ्टवेयर को बनाने वालों का कहना है, जिस फोन में इसकी घुसपैठ हो गई, उसके कैमरा और माइक्रोफोन का इस्तेमाल करके बिना किसी को पता लगे इस सॉफ्टवेयर ने आसपास की तस्वीरें, वीडियो भेजने का काम किया, और वहां की आवाजों को बाहर ट्रांसमिट किया। कुल मिलाकर दुनिया के सभ्य लोकतंत्रों ने अपने नागरिकों की निजता के लिए जितने किस्म के कानूनी इंतजाम किए हैं, जितने तरह से उनकी हिफाजत के दावे किए हैं उसके ठीक खिलाफ जाकर इस कंपनी के ऐसा सॉफ्टवेयर बनाया और बेचा जिसने सबके बदन पर से तौलिया खींच दिया। कहने के लिए इस कंपनी का दावा यह है कि वह इजराइल की डिफेंस मिनिस्ट्री की इजाजत से ही दुनिया की चुनिंदा सरकारों को यह सॉफ्टवेयर बेचती है, और इससे आतंकी हमलों पर काबू पाने की सोच बताई गई है, और इसके अलावा नशे की तस्करी, बच्चों की तस्करी, महिलाओं की तस्करी को रोकने के लिए भी इसके इस्तेमाल का दावा किया गया है। कंपनी ने बढ़-चढक़र यह भी कहा है कि वह सरकारों और सरकारी एजेंसियों के अलावा किसी को यह सॉफ्टवेयर नहीं बेचती है। लेकिन दुनिया की बाजार व्यवस्था बताती है कि बाजार में कमाई के लिए काम करने वाले लोग लोकतंत्र या सभ्यता का कितना सम्मान करते हैं, उनको मानवाधिकार की कितनी फिक्र रहती है, यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है। इसलिए जब ऐसा कोई सॉफ्टवेयर बना है तो यह जाहिर है कि उस तक किसी की भी पहुंच हो सकती है जिसके पास इसको खरीदने की ताकत हो। कहने के लिए तो आज दुनिया के बहुत से जंग के मोर्चों पर इस्तेमाल होने वाले खतरनाक फौजी हथियारों को भी उन्हें बनाने वाले कारखाने, किसी न किसी देश की सरकार को ही बेचते हैं, लेकिन दुनिया का इतिहास बताता है कि गृहयुद्ध में लगे हुए हथियारबंद समूहों तक ये सारे हथियार कहीं न कहीं से पहुंचते ही हैं। दिलचस्प बात यह है कि इजरायल की इस कंपनी ने यह खुलासा भी किया है कि उसका सॉफ्टवेयर अमेरिका के किसी टेलीफोन नंबर पर काम नहीं कर सकता। उसे ऐसा बनाया गया है कि उसका अमेरिका में या अमेरिका के फोन नंबरों पर कोई इस्तेमाल ना हो सके। अब सवाल यह है कि अमेरिकी सरकार का ऐसा कितना काबू इजराइल की इस कंपनी पर है कि वह अमेरिका में जासूसी के लायक सॉफ्टवेयर ही ना बनाएं और यह बात जासूसी की शौकीन अमेरिकी सरकार की मर्जी से हुई है, या उसकी मर्जी के खिलाफ यह भी अभी साफ नहीं है।
खैर, जिन देशों की बात इसमें आ रही है और दुनिया के करीब एक दर्जन सबसे प्रतिष्ठित मीडिया संस्थानों ने मिलकर इस मामले की तहकीकात की है जिसमें दुनिया का सबसे बड़ा मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल भी शामिल था और दुनिया की कुछ सबसे बड़ी और साख वाली साइबर लैब ने इस मामले की जांच करके अपने नतीजे सामने रखे हैं। कुल मिलाकर जो तस्वीर सामने आ रही है उसमें यह है कि भारत में भी बहुत से ऐसे मीडिया कर्मी जिनका रुख सरकार के खिलाफ आलोचना का रहते आया है उनके फोन में भी पेगासस से घुसपैठ हुई है, दूसरी तरफ शुरुआती खबरें यह कहती हैं कि हिंदुस्तान के सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे हुए एक जज के खिलाफ भी इस सॉफ्टवेयर से घुसपैठ हुई और इस जज पर सेक्स शोषण का आरोप जिस मातहत महिला कर्मचारी ने लगाया था, उसकी शिकायत के बाद उसके परिवार के 8 लोगों के टेलीफोन में इस सॉफ्टवेयर से हमले किए गए और वहां से जानकारी चुराने की कोशिश की गई। यह भी बात सामने आई है कि भारत में विपक्ष के सबसे बड़े नेता राहुल गांधी और उनके सहयोगियों के फोन भी इस हमले के शिकार हुए हैं।
पिछले कुछ महीनों में ऐसी जानकारियां दूसरी बार सामने आई हैं और पिछली बार भी सरकार की तरफ से साफ-साफ शब्दों में ना तो पेगासस के इस्तेमाल की बात मानी गई थी न इसका खंडन किया गया था, और सिर्फ इतना कहा गया था कि निगरानी के लिए बने हुए कानून के मुताबिक ही काम किया जाता है। अभी भी जब दोबारा यह मामला उठा है और संसद का सत्र चल रहा है तब भी सरकार का रुख यही है कि मीडिया में सरकार पर पेगासस के इस्तेमाल को लेकर जो आरोप लग रहे हैं उन आरोपों में कोई दम नहीं है और वे किसी ठोस बुनियाद पर नहीं खड़े हैं। लेकिन सरकार की बात को ध्यान से पढ़ा जाए तो उसमें सरकार सीधे-सीधे इस बात पर कुछ कहने से बचते हुए दिख रही है कि इस सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल भारत में हुआ है या नहीं। सरकार इस बारे में कुछ भी नहीं कह रही है वह इस बात का खंडन तक नहीं कर रही है।
इस दौरान मीडिया में जो रिपोर्ट आई हैं उनमें जानकार कानूनी विशेषज्ञों का यह कहना है कि सॉफ्टवेयर बनाने वाली विदेशी कंपनी अपने हिसाब से कुछ भी बना सकती है लेकिन हिंदुस्तान का कानून इस बारे में बहुत साफ है कि यहां के कानून के मुताबिक तय किए गए तरीकों से ही लोगों के टेलीफोन या ई-मेल की निगरानी की जा सकती है, लेकिन उनमें किसी तरह की हैकिंग नहीं की जा सकती। हैकिंग अगर सरकार भी इस देश में करती है तो भी वह गैरकानूनी होगी ऐसा जानकर लोगों का कहना है। वैसे तो अभी संसद का सत्र चल रहा है और सरकार जवाबदेही के सबसे बड़े मंच पर विपक्ष के सवालों का जवाब देने के लिए एक किस्म से मजबूर है, लेकिन सच तो यह है कि चतुर और चालबाज सरकारें कुछ गोलमोल शब्दों का सहारा लेकर साफ-साफ जवाब देने से बचती हैं, और इससे अधिक कोई जवाबदेही इस देश में किसी सरकार की रह नहीं गई है। फिलहाल हम इस किस्म की सारी हैकिंग और घुसपैठ को बहुत ही अलोकतांत्रिक, बहुत ही परले दर्जे का जुर्म, और बहुत ही असभ्य बात मानते हैं। यह बात मानवाधिकार के भी खिलाफ है और लोकतांत्रिक देश के नागरिकों के निजता के अधिकार के खिलाफ तो है ही। ऐसे ही आरोपों को लेकर अमेरिका में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की सरकार चली गई थी क्योंकि उन्होंने अपने विरोधियों की बातचीत को रिकॉर्ड करवाने की कोशिश की थी, और एक अख़बार ने उसका भंडाफोड़ कर दिया था।
हिंदुस्तान में भी इस मामले को एक तर्कसंगत अंत तक पहुंचाने की जरूरत है क्योंकि यहां केंद्र और राज्य सरकारों को लोगों की जासूसी करवाने में बहुत मजा आता है, और यह बात लोकतंत्र को खत्म करने वाली हो सकती है। जब अपने विरोधियों को, अपने से सहमत लोगों को, ऐसी जासूसी का शिकार बनाया जाए, तो इसके पीछे जो कोई है उसकी जांच होनी चाहिए। हमारा ख्याल है कि अगर यह मामला कोई सुप्रीम कोर्ट में ले जाए तो वहां आज की हालत में इसकी सुनवाई की उम्मीद बंधती है, और हो सकता है कि अदालत सरकार से यह हलफनामा दायर करने को कहे कि उसने इस सॉफ्टवेयर से देश के लोगों की जासूसी करवाई है या नहीं। यह भी बहुत भयानक नौबत होगी कि कोई बाहरी एजेंसी हिंदुस्तान के लोगों की, किसी के भी कहने पर, ऐसी जासूसी करें। उस हालत में भी यह सरकार की ही जिम्मेदारी होगी कि वह इसकी जांच करवाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने राज्य के एक प्रमुख तीर्थ स्थान हरिद्वार नाम के शहर को कसाईखाना मुक्त बना दिया है, वहां कसाईखानों को जो सरकारी इजाजत मिली हुई थी वह मार्च के महीने में राज्य सरकार ने खारिज कर दी। इस तरह वहां पर मांस की बिक्री भी रोक दी गई है। कुछ लोगों ने इसके खिलाफ उत्तराखंड हाई कोर्ट में याचिकाएं दायर की हैं। इसकी सुनवाई के दौरान मुख्य न्यायाधीश जस्टिस आर एस चौहान ने राज्य सरकार से कुछ सवाल किए और यह पूछा कि क्या राज्य सरकार लोगों की पसंद तय करेगी? उनका मतलब जाहिर तौर पर लोगों की खानपान की पसंद से था। अब हरिद्वार में बसे हुए मांसाहारी लोग न तो आसानी से शहर छोडक़र कहीं जा सकते और न ही जिंदगी भर की अपनी खानपान की आदतों को रातों-रात सरकारी आदेश की वजह से खारिज कर सकते हैं। ऐसे में यह सवाल देश में थोपी जा रही एक ऐसी संस्कृति के सामने खड़ा किया गया सवाल है जो कि सत्तारूढ़ कुछ चुनिंदा लोगों की पसंद पर देश के बाकी लोगों को चलने पर मजबूर करने की राजनीति से जुड़ा हुआ है।
हरिद्वार शहर को मांसमुक्त शहर बनाने का जो सरकारी अभियान चल रहा है उसके चलते हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की कि लोकतंत्र का अर्थ केवल बहुसंख्यकों का शासन ही नहीं बल्कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करना भी होता है, उन्होंने कहा- किसी भी सभ्यता की महानता का पैमाना यही होता है कि वह अल्पसंख्यक आबादी के साथ कैसा बर्ताव करती है, हरिद्वार में जिस तरह के प्रतिबंध की बात की गई है उसे यही सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या नागरिकों की पसंद राज्य तय करेगा।
यह मामला अकेले उत्तराखंड का नहीं है क्योंकि भाजपा के राज वाले कई राज्यों ने एक-एक करके ऐसे कई फैसले लिए जिसमें गाय या गोवंश को मारने के खिलाफ, या गाय-भैंस के मांस के इस्तेमाल के खिलाफ तरह-तरह के आदेश निकाले गए। जहां पर ऐसे आदेश थे वहां भी, और जहां पर ऐसे आदेश नहीं थे वहां भी, हमलावर हिंदू जत्थों ने जगह-जगह लोगों को शक के बिना पर पीटा, कई जगह भीड़त्या हुई, और कई जगह सांप्रदायिक तनाव भी खड़ा हुआ। लेकिन दिलचस्प बात यह भी है कि गोवा या केरल जैसे कई राज्य ऐसे भी रहे जहां पर चुनाव लडऩे की वजह से भाजपा ने लोगों से बीफ उपलब्ध कराने का वायदा किया और उत्तर-पूर्व के राज्यों में तो भाजपा के राज में गौ मांस या बीफ उपलब्ध है है ही। इसलिए खाने की जिस संस्कृति को कुछ राज्यों पर थोपा जा रहा है, वहीं कुछ दूसरे राज्यों में अपने एजेंडा को किनारे भी रखा जा रहा है, क्योंकि वहां की बहुतायत आबादी गौ मांस या बीफ खाती ही है। हिंदुस्तान में खानपान के रिवाज को लेकर, कहीं पर शराब पीने के रिवाज को लेकर, तो कहीं पर अंतरजातीय या अंतरधर्मीय शादियों को लेकर तरह-तरह से विभाजन खड़े किए जा रहे हैं। पहनावे को लेकर विभाजन, खानपान को लेकर विभाजन, और लडक़े-लड़कियों के साथ उठने-बैठने या साथ रहने को लेकर विभाजन, यह पूरा तनाव देश पर भारी भी पड़ रहा है।
लेकिन एक बात यह भी है कि जिन लोगों पर ऐसे भावनात्मक मुद्दों का बड़ा असर होता है और जो इसे अपनी एक पुरातन संस्कृति की निरंतरता मान लेते हैं, वे फिर आज की सरकारों की नाकामयाबी को पूरी तरह अनदेखा भी कर लेते हैं, और उन्हें अपने इस काल्पनिक इतिहास में दोबारा जीने के मौके के अलावा किसी और चीज की जरूरत नहीं लगती है। यह पूरा सिलसिला लोगों को आज की जमीनी हकीकत से काट रहा है, और लोगों को गैर मुद्दों में उलझा कर रख रहा है। पूरे हिंदुस्तान के अलग-अलग अनगिनत शहरों को देखें तो वहां पर शहर के पहले थाने कोतवाली के आसपास सराफे की दुकानें रहती थीं, जो कि मोटे तौर पर सवर्ण हिंदुओं या जैन समाज के लोगों की रहती थीं। आज भी सराफा बाजार कोतवाली के आसपास अधिकतर शहरों में दिखता है। लेकिन इसके साथ-साथ इन्हीं इलाकों में बंदूक और कारतूस की दुकानें भी दिखती हैं जिन्हें अधिकतर मुस्लिम चलाते हैं, और उनकी वजह से उन इलाकों में मस्जिदें भी रहती हैं। सैकड़ों बरस से हिंदुस्तान के शहरों का ऐसा ही ढांचा चलते आ रहा है कि हिंदू-मुस्लिम, मंदिर-मस्जिद ये मिले-जुले इलाकों में रहते आए हैं। अब इलाकों के नाम बदलना, शहरों के नाम बदलना, खानपान बदलना, इन सबका जो सिलसिला चल रहा है, उसकी असली नीयत लोगों का ध्यान असली दिक्कतों की तरफ से हटाना है। यह तो अच्छा है कि उत्तराखंड हाईकोर्ट ने बहुसंख्यक तबके के राज्य में अल्पसंख्यकों की फिक्र को लेकर सवाल उठाए हैं, और इस पर बहस भी उत्तराखंड से बाहर भी देशभर में होनी चाहिए। लोकतंत्र महज बहुमत का नाम नहीं होता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमणा ने यह राय जाहिर की है कि अब न्याय व्यवस्था को जनता के लिए रहस्यमुक्त करने का वक़्त आ गया है, उन्होंने यह बात गुजरात उच्च न्यायालय में अदालती कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग, यानी इंटरनेट पर जीवंत प्रसारण, के मौके पर कही। गुजरात ने अपने हाई कोर्ट की कार्रवाई को लाइव दिखाने का काम शुरू किया है और देश के मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट भी इस तरफ काम कर रहा है कि कैसे कम से कम कुछ अदालतों की कार्रवाई को लाइव दिखाया जा सके। न्यायाधीश ने कहा कि आजादी की पौन सदी बाद भी न्याय व्यवस्था को लेकर जनता के मन में अभी कई तरह की गलत धारणाएं हैं, इनको दूर करने की जरूरत है। लेकिन अदालती कार्यवाही के जीवन पर प्रसारण के साथ जुड़े हुए खतरे का भी उन्होंने जिक्र किया और कहा कि इससे कभी-कभी जज को सार्वजनिक जांच का दबाव महसूस हो सकता है जिससे एक तनावपूर्ण स्थिति हो सकती है। लेकिन जज को यह याद रखना चाहिए कि भले ही इंसाफ लोकप्रिय धारणा के खिलाफ हो, उसे संविधान के प्रति प्रतिबद्धता के साथ ऐसा करना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश ने कहां कि एक जज को लोकप्रिय राय से प्रभावित नहीं किया जा सकता।
यह बात लंबे समय से हवा में चली आ रही थी कि अदालती कार्यवाही का जीवंत प्रसारण होना चाहिए, लेकिन लोगों को यह खतरा भी लगता था कि इससे जनता में होने वाली प्रतिक्रिया का अदालती फैसले पर क्या कोई असर होगा? लोगों को यह भी याद रखना चाहिए कि जब संसद की कार्यवाही का जीवंत प्रसारण शुरू हुआ उस वक्त भी यह बात लगती थी कि इससे सांसदों को अपने चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं को दिखाने के लिए कई बातें कहने को सूझेगा, लेकिन अब इतने बरस बाद भी आज तक कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी सांसद के भाषण को लेकर यह तोहमत लगी हो कि वह सदन के बाहर के लोगों को सुनाने के लिए यह बात बोल रहे थे, सदन के भीतर के लोगों के लिए नहीं। इसलिए जनता की नजरों के सामने किसी बात को लाने का यह मतलब कहीं नहीं होता कि वह जनता को लुभाने की कोशिश होने लगेगी। जब लोकसभा, राज्यसभा में, और राज्यों की विधानसभाओं में कार्रवाई का जीवंत प्रसारण होने लगा है, और उन सांसदों-विधायकों की बहसों का जीवंत प्रसारण होने लगा है जिन्हें जनता के बीच वोटों के लिए दोबारा जाना भी पड़ता है, तो ऐसे लोगों के मुकाबले जजों को भला कौन सी लुभावनी बात कहने की मजबूरी रहेगी? जजों को तो किसी चुनाव से आना नहीं रहता और न ही दोबारा किसी चुनाव में जाना रहता है। वह तो जितना चाहे उतना अलोकप्रिय फैसला भी दे सकते हैं। हिंदुस्तान की राजनीति में तो होता यह है कि सरकारें बहुत किस्म के कड़वे और लोकप्रिय फैसले खुद लेने के बजाय एक ऐसी स्थिति पैदा करती हैं कि ये फैसले अदालतों से निकलकर आएं, और सरकार केवल उन पर मजबूरी में अमल करती हुई दिखें। इसलिए हमें ऐसी कोई आशंका नहीं लगती कि जनता का कोई दबाव जजों के ऊपर रहेगा। और कुछ दबाव तो वैसे आज भी है जब अदालतों से जीवंत प्रसारण नहीं है तब भी अखबारों के रास्ते या टीवी की खबरों के रास्ते, मुकदमे के चलते हुए भी अधिकतर बातें जनता के बीच में आ ही जाती हैं। यह एक अलग बात रहती है कि मीडिया अपने पूर्वाग्रह या अपनी पसंद-नापसंद या अपनी किसी साजिश के तहत, चुनिंदा बातों को अदालत की पूरी कार्रवाई की शक्ल में सामने रखता है। जब प्रसारण होने लगेगा तो दिलचस्पी रखने वाले लोग अपनी पसंद के मामले के पूरी की पूरी बहस को देख लेंगे और उसे बेहतर समझ सकेंगे। अदालत में कार्यवाही कैसे होती है, कौन से वकील क्या कह रहे हैं, कौन से जज क्या कह रहे हैं, इन बातों को लेकर अदालत के बाहर एक रहस्य बने रहता है। बहुत से मामलों में तो यह होता है कि वादी-प्रतिवादी के वकील तैयारी से नहीं जाते और अगली तारीख ले लेते हैं, अगर ऐसा भी कुछ होगा तो लोग यह देख सकेंगे कि उनके वकील अदालत के भीतर कितनी मेहनत कर रहे हैं, या मुफ्त की फीस ले रहे हैं।
इस मौके पर हम यह भी कहना चाहेंगे कि बड़ी अदालतों में जजों की नियुक्ति जब होती है, तो उसके लिए भी एक संसदीय सुनवाई होनी चाहिए। हिंदुस्तान में यह बड़ी अजीब अदालती व्यवस्था बना दी गई है कि सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ही सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों के नाम तय करके केंद्र सरकार को भेजता है और वहां से कुछेक नामों पर आपत्ति के अलावा अधिकतर नाम ज्यों के त्यों मंजूर हो जाते हैं। केंद्र सरकार के हाथ में किसी अदालत के जज को हटाने के लिए संसद में महाभियोग लाने जैसा मुश्किल काम ही अकेला रास्ता बचता है। यह व्यवस्था वैसे भी देश में लंबे समय से आलोचना झेल रही है कि अदालत को इतनी अधिक शक्तियां अपने हाथ में नहीं लेना चाहिए कि वही जज नियुक्त करे और उस जज को हटाना सरकारों के लिए एक बहुत कठिन पहाड़ी चढ़ाई की तरह रहे। हम कहीं से भी यह सुझाना नहीं चाह रहे हैं कि सरकार की दखल जजों की नियुक्ति में होनी चाहिए, लेकिन हम यह जरूर चाहते हैं कि संसद की एक भूमिका इसमें होनी। जिस तरह अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के पहले संसदीय समिति उनकी लंबी सुनवाई करती है और उसका जीवंत प्रसारण भी होता है, उन्हें संभावित जजों से 100 किस्म के सवाल किए जाते हैं, जिनमें उनकी निजी जिंदगी से जुड़े सवाल भी रहते हैं, और उनकी पसंद-नापसंद, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक विचारधारा के बारे में भी सवाल किए जाते हैं। हमारा मानना है कि हिंदुस्तान में भी कॉलेजियम के तय करने के पहले या कॉलेजियम के तय करने के बाद ऐसी एक संसदीय सुनवाई होनी चाहिए और जजों को सवालों की एक अग्निपरीक्षा से गुजरना चाहिए ताकि उनके पूर्वाग्रह, उनके संबंध पहले से उजागर हो सकें, और उसके बाद यह तय हो सके कि उन्हें जज बनाना ठीक रहेगा या नहीं। फिलहाल नए मुख्य न्यायाधीश अब तक तो कुछ ना कुछ सकारात्मक और सुधारात्मक बात कर रहे हैं उनके फैसले का आदेश भी किसी सरकारी विभाग के आदेश की तरह नहीं दिख रहे हैं, इसलिए उनका यह कहना जनभावना के अनुरूप ही है कि अदालती कार्यवाही के प्रसारण को अब शुरू कर देना ताकि लोग अदालत को किसी वकील की नजरों से देखने के बजाय खुद भी देख सकें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
एक अंतरराष्ट्रीय न्यूज एजेंसी के लिए फोटोग्राफर की हैसियत से काम करने वाले एक हिंदुस्तानी नौजवान दानिश सिद्दीकी की मौत दिल हिला देने वाली है। वे पिछले कुछ वर्षों से लगातार कई देशों में मुश्किल हालातों के बीच जाकर संवेदनशील फोटोग्राफी करने के लिए मशहूर हो चुके थे, और उन्होंने कई देशों में तरह तरह के संकटों की फोटोग्राफी की थी। हाल ही में उनका नाम खबरों में जमकर आया था जब उन्होंने भारत के कई श्मशान घाटों पर कदम-कदम पर जल रही चिताओं की तस्वीरें लीं, और ड्रोन कैमरे से भी तस्वीरें लेकर श्मशान का हाल लोगों के सामने रखा। जिन लोगों को ऐसे हालात में भी किसी सरकार की आलोचना करना ठीक नहीं लगता है, उन लोगों ने इस फोटोग्राफर को ही कोसा था कि यह पूरी दुनिया में हिंदुस्तान को बदनाम करने का काम कर रहा है। इसमें कोई नई बात नहीं है, मीडिया पर ऐसी तोहमतें लगती ही रहती हैं, और जिस वक्त मीडिया केवल एक आईने की तरह लोगों के सामने खड़ा हो जाता है, और उन्हें सच का चेहरा दिखाने लगता है, तो भी अपना वैसा चेहरा देखने से दहशत में आने वाले लोग उस आईने को तोडऩे के लिए पत्थर चलाते ही हैं। इसलिए दानिश सिद्दीकी को सोशल मीडिया पर गद्दार कहा गया देश को बदनाम करने वाला कहा गया और अभी जब अफगानिस्तान में अफगानी फौजी और तालिबान लड़ाकों के बीच चल रहे संघर्ष की फोटोग्राफी करते हुए उनकी मौत हुई, इस पर हिंदुस्तान में नफरतजीवियों ने भारी खुशी जाहिर की। सोशल मीडिया पर जमकर उनके खिलाफ लिखा गया और माना गया कि एक देशद्रोही को, एक गद्दार को ऐसी ही मौत मिलनी चाहिए थी। एक अंतरराष्ट्रीय न्यूज एजेंसी के लिए फोटोग्राफर की हैसियत से काम करने वाले एक हिंदुस्तानी नौजवान दानिश सिद्दीकी की मौत दिल हिला देने वाली है।
जिस देश में नफरतजीवी इतने मुखर होने के साथ-साथ गिनती में अधिक भी होने लगते हैं, उस देश में लोकतंत्र गड्ढे में जाने लगता है। किसी भी लोकतंत्र में सच को जानने और मानने वाले लोग गिनती में ज्यादा रहते हुए भी मुंह कम खोलते हैं, लेकिन जो लोग सच को जानकर भी झूठ को बढ़ावा देना चाहते हैं, ऐसे नफरतजीवी लोग खूब जमकर एक हो जाते हैं, और नफरत पूरी दुनिया में फेविकोल के मजबूत जोड़ से कहीं अधिक मजबूत जोड़ की तरह काम आता है। हिंदुस्तान में आज सरकार की आलोचना को नफरत का सामना करना पड़ रहा है, नफरत का शिकार होना पड़ रहा है। लोग लोकतंत्र की इस बुनियादी बात को भूल चुके हैं कि सरकार की यह जिम्मेदारी होती है कि वह अपने कामों के लिए और अपनी नाकामी के लिए भी लोगों की आलोचना को झेले, उससे सबक ले, और अपने आप को बेहतर बनाएं। यह सिलसिला जहां टूटता है वहां पर सरकार और अधिक नाकाम होना शुरू हो जाती है। हिंदुस्तान में कुछ महीने पहले कोरोना से होने वाली मौतों से श्मशानों पर, और कब्रिस्तान पर बढऩे वाली भीड़ की तस्वीरें देखने के लिए बड़े हौसले की जरूरत थी। लेकिन इन तस्वीरों का सामने आना भी जरूरी था। जब तक आज के हालात की हकीकत लोगों की नजरों के सामने ना आए उन्हें अपने घरों में महफूज बैठे हुए कुछ भी खराब नहीं दिखता है, खुद का पेट भरा रहे तो मुल्क में भूख भी नहीं दिखती है, खुद के घर में जनरेटर से रोशनी होती रहे, तो मोहल्ले का पावरकट भी नहीं दिखता है। इसलिए मीडिया की तो यह जिम्मेदारी ही है कि चाहे कितना ही कड़ा और कड़वा दिखे, सच को लोगों के सामने रखना है, और दानिश सिद्दीकी ने यही काम किया था।
यह काम हिंदुस्तान में पहली बार नहीं हुआ, एमपी में कांग्रेस के राज में अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री थे और भोपाल गैस त्रासदी हुई तो पूरे देश के, और दुनिया के फोटोग्राफर भोपाल पहुंचे, और भोपाल की ऐतिहासिक तस्वीरें दर्ज की। वह तो पूरी त्रासदी ही सरकारी लापरवाही से उपजे भोपाल गैस कांड का नतीजा थी, और उस मौके पर सरकार की आलोचना कम नहीं हुई थी, लेकिन क्योंकि उस वक्त सोशल मीडिया नहीं था और सोशल मीडिया पर पेशेवर अंदाज में पीछा करने के लिए लोग छोड़े नहीं गए थे, इसलिए किसी ने भोपाल पहुंचे फोटोग्राफरों की कोई आलोचना नहीं की थी। इसके अलावा भी बहुत से ऐसे मौके थे, 1984 का सिख विरोधी दंगा था, 1992 में बाबरी मस्जिद को गिराया गया था, और 2002 के गुजरात के मुस्लिम विरोधी दंगे थे, इन सबकी तस्वीरें सामने आई थीं, लेकिन उस वक्त सोशल मीडिया नहीं था, और लोगों के पीछे अपने भाड़े के लोगों को छोडऩे की सहूलियत नहीं थी। अब एक कामयाब और समर्पित पेशेवर प्रेस फोटोग्राफर की ऐसी मौत पर भी लोग जश्न मना रहे हैं और खुशियां मना रहे हैं, और उसकी जिंदगी को कोस रहे हैं। इससे दानिश सिद्दीकी के पत्रकारिता में योगदान को कोई चोट नहीं पहुंचाई जा सकती, लेकिन लोग इस बात का सबूत सामने जरूर रख रहे हैं कि वे इंसान की शक्ल में दिख जरूर रहे हैं, उनके भीतर हैवान पूरी तरह से काबिज है।
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सुप्रीम कोर्ट ने आज उत्तर प्रदेश सरकार से यह कहा है कि राज्य शासन कांवर यात्रा को इजाजत देने के अपने फैसले पर आगे नहीं बढ़ सकता और सरकार अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करके सुप्रीम कोर्ट को सोमवार तक अपना रुख बताए, वरना अदालत इस मुद्दे पर अपना फैसला देगी। कुल मिलाकर अदालत का रुख ऐसा दिख रहा है कि वह कोरोना के खतरे के बीच कांवर यात्रा जैसे एक खतरनाक धार्मिक कार्यक्रम की छूट देने के उत्तर प्रदेश सरकार के फैसले से पूरी तरह असहमत है और राज्य सरकार को एक मौका देना चाह रही है कि वह खुद होकर अपनी इजाजत को वापस ले ले, जैसा कि पड़ोसी राज्य उत्तराखंड ने किया है, या कि जैसा आज केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपना रुख बताया है कि वह कांवर यात्रा को इजाजत देने के खिलाफ है। अदालत के जजों का रुख बड़ा साफ था, उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार के वकील को कहा कि वह राज्य सरकार को अपने फैसले पर पुनर्विचार का एक और मौका दे रही है, और इसके बाद वह सीधे आदेश पारित करेगी।
हिंदुस्तान एक बड़ा अजीब सा लोकतंत्र बन गया है जहां पर एक ही पार्टी के पीएम और सीएम का रुख कांवर यात्रा को लेकर एक दूसरे के खिलाफ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की केंद्र सरकार अदालत को यह कहती है कि वह कांवर यात्रा को इजाजत के खिलाफ है, और अभी कल ही प्रधानमंत्री अपने जिस मुख्य मंत्री की तारीफ करते थक नहीं रहे थे उस मुख्यमंत्री का रुख इसके ठीक उलट है। हिंदुस्तान ने तरह-तरह की धार्मिक और राजनीतिक भीड़ के चलते हुए फैले हुए कोरोना के खतरे को भुगता है, सिर्फ देखा नहीं है भुगता है। यह वही उत्तर प्रदेश है जहां पर गंगा पर तैरती हुई लाशों ने पूरी दुनिया का ध्यान खींचा था और लोगों ने ऐसा भयानक नजारा कभी देखा नहीं था, यह कुछ महीने पहले की ही बात है। अब भारत सरकार के वैज्ञानिक, सरकार के अफसर, यह बार-बार कह रहे हैं कि कोरोना की तीसरी लहर का खतरा सामने हैं और लोगों को बहुत सावधान रहना चाहिए। प्रधानमंत्री के स्तर पर अभी यह कहा गया है कि देश के पर्यटन स्थलों पर लोगों की भीड़ से खतरा बढ़ते दिख रहा है और लोग इससे बचें। लेकिन कांवर यात्रा जो कि लोगों की भीड़ के चलने, उठने-बैठने, साथ नहाने-खाने का मौका रहता है, जहां लाखों हाथ एक ही जगह पर पानी लेते हैं, या एक ही जगह पर पानी डालते हैं, वैसे धार्मिक आयोजन को उत्तर प्रदेश रोकने के खिलाफ है। जबकि भाजपा के ही राज वाले बगल के उत्तराखंड ने अपने तजुर्बे के आधार पर यह फैसला लिया है कि वहां किसी कांवर यात्रा की इजाजत नहीं दी जाएगी। दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस में आज छपी खबर का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कहा कि वह इससे मिलने वाली जानकारी को लेकर परेशान हैं और भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार से इस बारे में अदालत ने हलफनामा माँगा।
धर्म को लेकर राजनीति का यह पूरा सिलसिला बहुत ही भयानक है। हिंदुस्तान के लोगों को याद होगा कि पिछले बरस जब मार्च के महीने में लॉक डाउन की नौबत आई थी और देश में कोरोना आते दिख रहा था, उस वक्त दिल्ली की तबलीगी जमात में इक_ा कुछ हजार मुस्लिमों के बारे में यह माना गया था कि वहां से कोरोना फैलना शुरू हुआ और देश भर में जहां-जहां इस जमात से लोग गए, वहां-वहां कोरोना गया। लेकिन अभी कुछ महीने पहले जब उत्तराखंड के हरिद्वार में कुंभ हुआ तो लाखों लोगों को वहां जुटने की इजाजत दी गई और शाही स्नान वाले दिन तो एक दिन में दसियों लाख लोग वहां पहुंचे। अब कुछ महीने बाद यह बात सामने आ रही है कि उस दौरान उस प्रदेश में कोरोना की जितनी जांच हुई थी, वह फर्जी थी, और बिना किसी सही जांच के सर्टिफिकेट बेचे गए थे। वहां से निकलकर लोग पूरे देश में अपने अपने गांव शहर लौटे थे और यह मालूम करने का कोई जरिया नहीं है कि कुंभ की उस भीड़ की वजह से कोरोना कितना फैला।
आज जब हिंदुस्तान में लगाने के लिए टीके नहीं हैं, और कोरोना के नए नए वेरिएंट आते जा रहे हैं जिनके बारे में कहा जा रहा है कि उन पर मौजूदा टीकों का असर पता नहीं कितना है, ऐसे में सावधानी बरतने के बजाय चुनाव के पहले के इस साल में उत्तर प्रदेश के हिंदू मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जिस तरह से कांवर यात्रा की इजाजत दे चुके हैं, वह एक बहुत ही अवैज्ञानिक फैसला है, और बहुत ही कमअक़्ली का फैसला भी है। चूँकि सुप्रीम कोर्ट 2 दिन बाद सोमवार को इस मामले में आदेश देने वाला है इसलिए आज हमारा अंदाज यही है कि सोमवार को इस कांवर यात्रा पर रोक लग जाएगी, और यह भी हो सकता है कि उत्तर प्रदेश सरकार हिंदू धर्मालु लोगों के बीच अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए खुद होकर अपनी दी गई इजाजत को वापस ना ले, और इसे रद्द करने की तोहमत अदालत के जजों पर जाने दे। जो भी होता है, कांवर यात्रा की इजाजत देने का योगी सरकार का फैसला बहुत ही बेदिमाग था, और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के पहले भी इस बात को हम दर्ज कर देना चाहते हैं।
आज जब देश भर में चारों तरफ से महिलाओं पर जुल्म की खबरें आती हैं, छोटी-छोटी बच्चियों से सामूहिक बलात्कार की खबरों से अखबार पटे रहते हैं, सोशल मीडिया पर अफसोस जाहिर करते हुए लोग यह नहीं समझ पाते कि यह सिलसिला कहां जाकर थमेगा, तो ऐसे में महिलाओं से जुड़ी हुई कोई भी अच्छी खबर मन को बहुत खुश करती है। राजस्थान के जोधपुर में सडक़ों पर सफाई करने वाली एक म्युनिसिपल कर्मचारी आशा कंडारा ने बिल्कुल ही विपरीत परिस्थितियों में पढ़ाई की, और राजस्थान प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में शामिल होकर उसके लिए कामयाबी पाई है। यह महिला अपने दो बच्चों के साथ पिछले 8 बरस से पति से अलग रह रही है और सडक़ों पर झाड़ू लगाकर अपना घर चलाती है। आशा कंडारा को अभी 12 दिन पहले ही म्युनिसिपल में सफाई कर्मी की पक्की नौकरी मिली थी, इसके पहले वह अस्थाई सफाई कर्मचारी थी, और साथ-साथ पढ़ भी रही थी। अब म्युनिसिपल में झाड़ू लगाने की नौकरी मिलते ही, एक पखवाड़े के भीतर ही उसे राजस्थान लोक सेवा आयोग की राजस्थान प्रशासनिक परीक्षा में कामयाबी मिली है।
ऐसे मामले कलेजे को एकदम ठंडा कर देते हैं। एक तरफ तो मध्य प्रदेश जैसे राज्य में पिछले कई बरस से व्यापम घोटाले का भूत हवा में टंगा ही हुआ है और उसके आरोपी बनते बनते रह गए एक राज्यपाल गुजर भी चुके हैं, उस मामले के जाने कितने ही गवाह बेमौत मारे गए हैं, कितने ही लोग गिरफ्तार हुए हैं, और दाखिलों में बेईमानी, सरकारी नौकरी पाने में बेईमानी का सिलसिला देशभर के अधिकतर राज्यों में चलते ही रहता है। ऐसे में एक गरीब और मेहनतकश महिला ने दो बच्चों के साथ जीते हुए ऐसी विपरीत परिस्थिति में भी एक परीक्षा में कामयाबी पाई है, तो इससे देश के उन तमाम लोगों को नसीहत लेनी चाहिए जो मां-बाप की छाती पर मूंग दलते रहते हैं।
इससे एक बात यह भी सूझती है कि विपरीत पारिवारिक और सामाजिक परिस्थितियों वाली एक महिला किस तरह अपने दमखम पर एक तैयारी कर सकती है, और अपने बच्चों के साथ घर चलाते हुए भी वह एक ऐसे मुकाबले में कामयाब होकर दिखाती है जिसकी कोचिंग के लिए लोग लाखों रुपए की फीस भी देते होंगे। इससे यह भी साबित होता है कि बिना कोचिंग के भी बहुत से लोग इस तरह कामयाब हो सकते हैं, और समाज में ऐसी संभावनाओं वाले लोगों को थोड़ा सा और बढ़ावा देने के लिए सरकार और समाज दोनों को सोचना भी चाहिए। एक बात जो इससे लगी यह भी सूझती है कि एक महिला अपनी आत्मनिर्भरता की वजह से पारिवारिक परिस्थितियों से बाहर निकल कर अपने बच्चों के साथ अकेले जीने का हौसला जुटा सकती है। और इसके लिए उसके पास कोई बड़ी नौकरी भी नहीं थी वह झाड़ू लगाने का सबसे ही तिरस्कृत समझा जाने वाला काम कर रही थी, लेकिन उतनी आत्मनिर्भरता भी बच्चों के साथ जिंदगी के लिए काफी थी, और जो कमी थी वह उसका हौसला पूरा कर रहा था। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी उसने इस मुकाबले की तैयारी की और कामयाबी पाई। यह कामयाबी तैयारी करने की सहूलियत वाले लोगों के आईएएस बनने के मुकाबले भी कहीं अधिक मायने रखती है क्योंकि यह बिल्कुल ही वंचित तबके और विपरीत परिस्थिति की कामयाबी है।
आज इस मुद्दे पर लिखते हुए दरअसल सूझ रहा है कि समाज को वंचित तबके को बराबर की संभावनाएं जुटाकर देने के लिए क्या-क्या करना चाहिए। अब यह महिला तो असाधारण रूप से प्रतिभाशाली और कामयाब दोनों ही निकली, लेकिन बहुत से और युवक-युवतियां रहते हैं जो तैयारी की कमी से बराबरी तक नहीं पहुंच पाते। जिस तरह बिहार में एक आनंद कुमार आईआईटी में दाखिले के लिए गरीब बच्चों को तैयारी करवाते हैं, वैसा काम देशभर में बहुत से लोग कर सकते हैं, और हम ऐसी पहल और ऐसी कोशिशों को सिर्फ दाखिला इम्तिहानों तक सीमित रखना नहीं चाहते, बल्कि कई तरह के ऐसे हुनर सिखाने के बारे में भी हम सोच रहे हैं जिनसे लोग अपने-अपने दायरे में ही तरक्की कर सकें। आज हिंदुस्तान में करोड़ों लोग घरेलू सहायक के रूप में काम करते हैं, लेकिन उनमें से अधिकतर ऐसे रहते हैं जो कि जो कि घरेलू कामकाज में भी बहुत सी चीजें नहीं जानते। ऐसे लोगों को दूसरी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी का मौका दिलवाने के बाद अगर वहां उन्हें कामयाबी नहीं मिलती है तो उनके हुनर में कुछ खूबियां जोडऩे की कोशिश करनी चाहिए ताकि वे जहां हैं, वहां बेहतर काम कर सकें और बेहतर तनख्वाह पा सके। सरकार से कुछ तबके तो बढ़ावे की उम्मीद कर सकते हैं, जैसे कि कई राज्यों में दलित और आदिवासी बच्चों के लिए दाखिला परीक्षाओं के प्रशिक्षण केंद्र चलते हैं, लेकिन तमाम गरीब और जरूरतमंद बच्चों के लिए ऐसी मदद की गुंजाइश बाकी ही है, और समाज को इस बारे में सोचना चाहिए। सरकारों को यह भी सोचना चाहिए कि सरकारी स्कूल-कॉलेज का जो ढांचा शाम और रात के घंटों में खाली रहता है, छुट्टियों के दिनों में खाली रहता है, उसका इस्तेमाल ऐसी तैयारियों के लिए करने देना चाहिए और आसपास के कुछ उत्साही लोग पढ़ाने के लिए शिक्षक भी ढूंढ सकते हैं। राजस्थान की इस एक महिला ने संभावनाओं की एक नई राह दिखाई है, समाज की यह जिम्मेदारी है कि वह इसे आगे बढ़ाएं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कई राज्यों में कांग्रेस के भीतर असंतोष की खबरों से अधिक अहमियत कांग्रेस की एक दूसरी खबर को मिल रही है कि किस तरह प्रशांत किशोर ने दिल्ली में सोनिया, राहुल, और प्रियंका, तीनों से मुलाकात की है. जिन लोगों से मिलने के लिए उनकी खुद की पार्टी के मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को हफ्तों और महीनों लग जाते हैं, उन लोगों से प्रशांत किशोर जैसा एक बाहरी व्यक्ति आकर एक दिन में तीनों से मुलाकात कर लेता है, तो इसका खबर बनना जायज भी है। फिर यह खबर बनना जायज इस नाते भी है कि अभी-अभी प्रशांत किशोर ने अपनी पूरी साख दांव पर लगाकर ममता बनर्जी के चुनाव अभियान की जैसी तैयारी करवाई थी, और जिस अंदाज में ममता बनर्जी ने देश के दो सबसे बड़े और सबसे ताकतवर नेताओं, नरेंद्र मोदी और अमित शाह को शिकस्त दी, उस ऐतिहासिक लड़ाई के परदे के पीछे सेनापति प्रशांत किशोर ही थे। इसलिए अब जब कांग्रेस पार्टी अगले बरस उत्तर प्रदेश में और पंजाब में होने वाले चुनावों को लेकर एक बहुत नाजुक मोड़ पर पहुंच रही है, तो प्रशांत किशोर का इन लोगों से मिलना कई हिसाब से बहुत अहमियत का है। लेकिन इसके पहले कि दिल्ली की अटकलें यह सुझाएँ कि प्रशांत किशोर कांग्रेस के रणनीतिकार बनने जा रहे हैं, यह भी याद रखने की जरूरत है कि अभी-अभी, कुछ दिन पहले ही उन्होंने मुंबई में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के मुखिया शरद पवार से भी मुलाकात की है, और कल शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत ने यह सार्वजनिक बयान दिया है कि मोदी के मुकाबले प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में शरद पवार सबसे काबिल हैं। ममता बनर्जी ने जिस अंदाज में बंगाल में मोदी और शाह को निजी शिकस्त दी है उससे कई लोगों के मन में यह बात भी उठ रही है कि क्या ममता बनर्जी मोदी के मुकाबले किसी एक मोर्चे की बड़ी नेता या सर्वमान्य नेता हो सकती हैं? इसलिए प्रशांत किशोर की कांग्रेस के राज परिवार से यह मुलाकात सिर्फ कांग्रेस के रणनीतिकार बनने की संभावनाओं से जुड़ी हों, ऐसा जरूरी भी नहीं है, यह भी हो सकता है कि वे ममता के साथ रहने के बाद, ममता से बिना किसी कटुता के, अलग हुए बिना, शरद पवार से मिलने के बाद, अब कांग्रेस से मिल रहे हैं, और क्या वे मोदी के मुकाबले किसी एक गठबंधन की संभावनाओं को टटोल रहे हैं?
यहां पर प्रशांत किशोर के बारे में थोड़ी सी बात कर लेना ठीक होगा प्रशांत किशोर संयुक्त राष्ट्र संघ में काम करके लौटे हुए एक राजनीतिक और चुनावी रणनीतिकार हैं। उन्होंने मोदी के मुख्यमंत्री के दो कार्यकाल के बाद, तीसरे कार्यकाल के लिए उन्हें जिताने के लिए काम किया था, और उसके बाद उससे भी अधिक महत्वपूर्ण काम था 2014 के आम चुनाव में मोदी को प्रधानमंत्री तक पहुंचाने की रणनीति में हिस्सेदारी का। प्रशांत किशोर चुनावी रणनीति बनाने वाले एक कामयाब व्यक्ति माने जाते हैं जिन्होंने अब तक भाजपा, कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, वाईएसआर कांग्रेस, द्रमुक, और तृणमूल कांग्रेस, ऐसी तमाम पार्टियों के लिए काम किया है, और यह जाहिर है कि वह अपनी किसी राजनीतिक सोच के बिना एक पेशेवर की तरह पार्टी चलाने और चुनाव जीतने के लिए सलाहकार की तरह, रणनीतिकार की तरह, काम करते हैं। आज प्रशांत किशोर पर यहां लिखने का मकसद कांग्रेस पार्टी में उनके जुडऩे या कांग्रेस की संभावनाएं बढ़ाने तक सीमित नहीं है। हम यह भी लिख कर बात खत्म करना नहीं चाहते कि प्रशांत किशोर मोदी के मुकाबले एक विपक्षी गठबंधन खड़ा करने में मददगार हो सकते हैं, हो सकता है कि वह इसमें काबिल हों, और हो सकता है कि सच ही उनका ऐसा एजेंडा हो, लेकिन हम फिर भी यह कहना चाहेंगे कि जो सक्रिय राजनीति में हिस्सेदार नहीं है, और जो थोड़े से वक्त तक नीतीश कुमार की पार्टी का सदस्य जरूर रहा हो, लेकिन जिसकी अपनी कोई राजनीतिक सोच और फिलासफी नहीं दिखती है, क्या उसके हाथों में भारतीय लोकतंत्र की इतनी सारी चुनौतियां रहना जायज है?
हमारी फिक्र भारतीय लोकतंत्र को लेकर अलग है और वही सबसे ऊपर है, न तो कांग्रेस की हमें ज्यादा फिक्र है और न ही मोदी की। ममता का चुनाव निपट गया है और यूपी का चुनाव भी किसी की तैयारी से, और किसी की बिना तैयारी के भी, निपट ही जाएगा। उत्तर प्रदेश ने जितना कट्टरपंथी और जितना सांप्रदायिक राज अभी देख लिया है, अब इसके बाद और कुछ बहुत ज्यादा देखने को बचता नहीं है। लेकिन देखने को जो बचता है वह यह है कि एक गैरराजनीतिक चुनावी रणनीतिकार अगर एक पेशेवर की तरह भारतीय लोकतंत्र को इस तरह मोड़ सकता है, इस तरह उसे किसी तरफ झुका सकता है, तो यह सोचने की जरूरत है कि क्या यह लोकतंत्र सचमुच ही इतनी इज्जत का सामान रह गया है? क्या हिंदुस्तानी चुनाव और आम चुनाव क्या सचमुच ही इतने महत्वपूर्ण और जनता की सोच के इतने बड़े प्रतिनिधि रह गए हैं कि उन्हें लोकतंत्र का एक फैसला मान लिया जाए? क्या यह अपने आप में भारतीय लोकतांत्रिक राजनीति की एक घोर नाकामयाबी नहीं है कि बाहर से आए हुए पेशेवर लोग इस तरह, इस हद तक भारतीय लोकतंत्र को प्रभावित कर सकते हैं, और अपनी पसंद की, अपनी छांटी हुई पार्टी को जिता सकते हैं? यह सिलसिला कुछ अजीब है लेकिन लोगों को यह सोचना है कि जिस राजनीति में हिंदुस्तान के नेताओं ने पौन-पौन सदी गुजार दी है, लेकिन वे अपने पूरे राजनीतिक जीवन के किसी भी मोड़ पर क्या सचमुच ही इतने प्रभावशाली रहे हैं जितना कि आज एक अकेले प्रशांत किशोर को मान लिया जा रहा है? और क्या देश की जनता के लिए देश के बड़े-बड़े नेताओं के मुकाबले प्रशांत किशोर की राय इतनी अधिक मायने रखती है कि उनके सुझाए नेता को या उनकी सुझाई पार्टी को लोग सत्ता पर बिठा दें?
यहां पर बात प्रशांत किशोर की खूबी की नहीं है, यहां पर बात भारतीय लोकतंत्र की खामी की है, क्या भारतीय लोकतंत्र अपने-आप में इतना कमजोर हो गया है कि वह बाहर से आए हुए किसी व्यक्ति की आंधी के झोंके में उसकी बताई दिशा में झुक जाता है? राजनीतिक दलों को यह सोचना चाहिए कि क्या वे सत्ता की लड़ाई लड़ते हुए जनता और जमीन से इस हद तक कट गए हैं कि राजनीति से परे रहने वाला एक व्यक्ति जनता के रुख को अधिक समझ रहा है, वह जनता के दिल को जीतने की अधिकतर की पहचान रहा है? अगर किसी पेशेवर की ऐसी खूबी से भारतीय लोकतंत्र की दशा और दिशा तय हो सकती है, तो भारतीय लोकतंत्र को अपने बारे में सोचना चाहिए। किशोर सौ बरस से चली आ रही पार्टियों और तीन-तीन पीढिय़ों से काम कर रहे नेता, और तमाम धार्मिक समर्थन पाकर मजबूत बनने वाले राजनीतिक दल, क्या इन सबसे ऊपर एक अकेला कोई व्यक्ति हो सकता है? तो अगर ऐसा एक व्यक्ति इतना ताकतवर हो सकता है, तो क्या उसकी मनमानी इस देश पर कोई गलत नेता भी थोप सकती है? क्या वह इस देश पर कोई सांप्रदायिक, भ्रष्ट, तानाशाह नेता भी थोप सकता है? हमारे पास प्रशांत किशोर के खिलाफ कुछ नहीं है, और ना ही उनके खिलाफ लिखने की नीयत है, लेकिन हमारे पास भारतीय लोकतंत्र के बाकी हिस्से से सवाल जरूर है कि प्रशांत किशोर नाम की एक शख्सियत को देखकर उन्हें अपने दल को, अपने आपको, और अपने पूरे राजनीतिक जीवन को तौलना जरूर चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान में विज्ञान के साथ एक दूसरी दिक्कत आ खड़ी हुई है, एक तरफ तो उसे कोरोना जैसे जानलेवा संक्रमण की महामारी से जूझना पड़ रहा है, और दूसरी तरफ धर्म और राजनीति के एक जानलेवा घालमेल से भी। कई दिनों से लगातार खबरें आ रही हैं कि किस तरह पहले तो उत्तराखंड में इस बरस की कांवर यात्रा को इजाजत न देना तय हुआ था, और सरकार की घोषणा हो जाने के बाद जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कांवड़ यात्रा पर रोक लगाने से इनकार कर दिया और भाजपा के इन दो राज्यों के बीच सरहदी टकराव की नौबत का खतरा दिखा, तो पहले समझदारी का फैसला लेने वाला उत्तराखंड पीछे हट गया, और कांवड़ यात्रा के बारे में दोबारा सोच-विचार करने लगा। गुजरात की कुछ डरावनी तस्वीरें आज आई हैं कि किस तरह वहां पावागढ़ के मंदिर में एक दिन में 1 लाख लोग जुटे। हो सकता है कि देश में दूसरी जगहों पर दूसरे धर्म स्थलों पर भी ऐसी भीड़ जुटी होगी, और जाहिल फैसले और अवैज्ञानिक मनमानी पर हिंदू धर्म का एकाधिकार तो है नहीं, इसलिए हो सकता है कि दूसरे धर्मों के भी ऐसे जमघट लगे हों। हम फिलहाल किसी एक धर्म के मामले गिनाने के बजाय विज्ञान के साथ धर्म के टकराव की बात कर रहे हैं जिसे कि राजनीति बढ़ावा दे रही है।
पिछले डेढ़ बरस के लॉकडाउन के दौरान लोगों ने यह देखा था कि जब चुनावों से परे सिर्फ सरकारी समझदारी को फैसले लेने थे, तो उसने देश भर में धर्मस्थलों को बंद करवाया था। लेकिन जब चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों को फैसले लेने थे तो उन्होंने इस महामारी के खतरे को पूरी तरह अनदेखा करके परले दर्जे की एक लापरवाही दिखाई थी। लाखों लोगों की भीड़ वाली चुनावी सभाओं पर भी रोक नहीं लगाई थी। अब ऐसी ही लापरवाही चुनाव के मुहाने पर खड़े हुए उत्तर प्रदेश में दिख रही है, जहां पर कांवड़ यात्रा को राज्य सरकार बढ़ावा दे रही है। लोगों को याद होगा कि उत्तराखंड में जब कुंभ मेला भीड़ जुटा रहा था, कुंभ मेले में पहुंचे हुए भाजपा के एक विधायक ने कैमरों के सामने दावे के साथ ही यह कहा था कि वह कोरोना पॉजिटिव हैं और उसके बाद भी वे वहां आए हैं। कायदे की बात तो यह होती कि ऐसे व्यक्ति को तुरंत गिरफ्तार किया जाता जिसने कोरोना संक्रमित होने के बाद भी ऐसी भीड़ की जगह पर पहुंचकर लोगों के लिए खतरा खड़ा किया, लेकिन यह पूरे हिंदुस्तान में आम हाल है कि देश-प्रदेश का कानून वहां की सरकार की मर्जी के मुताबिक चलता है। पुराने जमाने में एक कहावत कही जाती थी कि जिसकी लाठी उसकी भैंस, तो हिंदुस्तान का संविधान आज भी एक भैंस से अधिक मायने नहीं रखता है और सत्ता उसे अपने हिसाब से लागू करती है, और अपने हिसाब से उसकी अनदेखी करती है। इसलिए दूसरी लहर खत्म होने के पहले और तीसरी लहर आने की आशंका के बीच आज जब हिंदुस्तान में प्रधानमंत्री टीवी पर जब यह नसीहत बांटते हैं कि लोगों को तीसरी लहर रोकनी है, इसकी जिम्मेदारी लोगों पर है, तो उस वक्त लोगों को गैरजिम्मेदार बनाते हुए कुछ सरकारें ऐसे फैसले ले रही हैं।
लोगों को अभी कुछ ही दिन पहले का वह वीडियो भी याद होगा जिसमें लगातार हिमाचल के पर्यटन केंद्रों में पर्यटकों की भीड़ अंधाधुंध इकट्ठा है, और रेले की तरह घूम रही है, बिना मास्क के घूम रही है. एक छोटा सा दिलचस्प वीडियो भी सामने आया था जिसमें एक छोटा सा बच्चा प्लास्टिक का एक डंडा लिए हुए चलती हुई भीड़ के बीच बिना मास्क वाले लोगों को अकेले ही रोक रहा है कि उनका मास्क कहां है? इस देश में विज्ञान के सामने कोरोना की दिक्कत छोटी है उसके सामने बड़ी दिक्कत और बड़ी चुनौती धर्म पर सवार राजनीति, और राजनीति पर सवार धर्म है। इन दोनों से मुकाबला करने के बाद अगर विज्ञान की कोई ताकत बचेगी तो हो सकता है कि वह कोरोना से भी लड़ ले। फिलहाल इस देश का संविधान बिना वेंटिलेटर के छटपटा रहा है, और उसे जिंदा रखने में किसी की अधिक दिलचस्पी भी नहीं दिख रही है क्योंकि वह लोगों को मनमानी करने से रोकता है। पिछले कई दिनों में देखें तो हिंदुस्तान के एक पर्यटन केंद्र में प्लास्टिक के छोटे से डंडे को लेकर लोगों को जिम्मेदारी सिखाता हुआ यह बच्चा ही अकेला देख रहा है जिसे संविधान की कोई फिक्र है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले कई वर्षों में दुनिया के बहुत से प्रमुख विश्वविद्यालयों ने सोशल मीडिया के लोगों पर असर को लेकर कई तरह के शोध किए हैं। उनमें से अधिक ऐसे हैं जिनका निष्कर्ष है कि लोगों पर सोशल मीडिया का सकारात्मक असर पड़ता है। लेकिन इस तरह की शोध के साथ इस बात को जोडक़र ही देखा जाना चाहिए कि इसे किन विश्वविद्यालयों ने किया है, किन देशों के लोगों पर किया है, और वहां पर सोशल मीडिया का क्या हाल है।
हम अगर हिंदुस्तान के बारे में बिना किसी शोध प्रक्रिया के, सिर्फ अपनी मामूली समझ से देखने की कोशिश करें, तो यह बात दिखती है कि इसने भारत के संकीर्ण समाज के बहुत से लोगों को एक-दूसरे के साथ जान-पहचान बढ़ाने में मदद की है। हिंदुस्तान में अधिकतर इलाकों में लडक़े-लड़कियों के साथ उठने-बैठने पर भी पिछली कई पीढिय़ों से रोक चली आ रही थी, और कम ही लोगों को एक दूसरे से बात करने का ऐसा मौका मिलता था, जो कि इस नई पीढ़ी को तो फिर भी हासिल है। इस नए सोशल मीडिया ने यह मुमकिन कर दिया है। इसके अलावा अलग-अलग शहरों के, अलग-अलग देशों के, अलग-अलग जाति और धर्म के लोगों से जान पहचान भी ऐसी आसान नहीं रहती थी कि उनकी सोच को जानने का मौका मिले। लेकिन इन दिनों सोशल मीडिया की मेहरबानी से लोगों को स्थापित लेखकों की लिखी और छपी हुई बातों से परे भी, अनगिनत अनजाने लोगों की लिखी गई तरह-तरह की बातों को पढऩे का मौका मिलता है। बिल्कुल ही असंगठित क्षेत्र के गैर पेशेवर लेखक अपनी मौलिक सोच को सोशल मीडिया पर आसानी से लिख पाते हैं और लोग न सिर्फ उन्हें पढ़ पाते हैं, बल्कि उसे आगे भी बढा पाते हैं।
इसलिए सोशल मीडिया ने लोगों के लिए एक नई दुनिया खोल दी है और इस नए संसार में वे अपनी पसंद की चीजों में खो सकते हैं। बहुत से लोग यह भी मान सकते हैं कि सोशल मीडिया लोगों का वक्त बर्बाद करता है और लोग वहां पर महज नफरत फैलाने में लगे रहते हैं। यह बात तो असल जिंदगी में भी लागू होती है। लोग जिस तरह के लोगों के साथ उठना-बैठना चाहते हैं, वैसे लोगों के साथ उठते-बैठते हैं और उनका असर उन पर कम या अधिक होता ही है। इसलिए सोशल मीडिया ने गलत लोगों के साथ संगत का कोई नया खतरा पैदा नहीं किया है, यह खतरा तो असल जिंदगी वाले जमीनी समाज में पहले से चले ही आ रहा था। अब तो बल्कि शारीरिक और सामाजिक दायरे से बाहर जाकर एक अनदेखे दायरे तक के लोगों को दोस्त बनाना मुमकिन हो गया है जो कि पहले नहीं रहता था। हिंदुस्तान में ही 25-30 बरस पहले तक कुछ लोग दूर-दूर बसे हुए लोगों को अपने पत्र-मित्र बनाते थे, और उन्हें चिट्ठियां लिखते थे, उनकी चि_ी का इंतजार करते थे। वह दौर भी गजब का था जब ऐसे लोगों की चिट्ठियों पर लगी डाक टिकटों को इकट्ठा करने वाले लोग मांगते फिरते थे। खैर हर युग का अपना एक तरीका रहता है और यह 21वीं सदी तो सोशल मीडिया की एक किस्म से आंधी लेकर आई है, और आज जो पीढ़ी इसी सदी में पैदा हुई है, उसे तो यह बात समझ भी नहीं आएगी कि फेसबुक और ट्विटर के बिना पहले के लोग रहते कैसे थे।
अब इस मुद्दे पर चर्चा की वजह यह है कि सोशल मीडिया पर लोग अपना रोज का खासा वक्त लगाते हैं, वहां पर जिन लोगों से दोस्ती होती है या मोहब्बत होती है उन पर उनकी भावनाएं भी खासी खर्च होती हैं, वक्त भी और भावनाएं भी। लेकिन भावनाओं के ऐसे संबंध उन लोगों के बहुत काम के रहते हैं जिनकी अपनी जिंदगी में उनके पास इस तरह के संबंध नहीं हैं, और सोशल मीडिया पर ही उन्हें ऐसे लोग मिले हैं। ऐसी ही कमी का फायदा उठाकर बहुत से जालसाज सोशल मीडिया पर लोगों को धोखा दे रहे हैं, उन्हें ठग रहे हैं। लेकिन ऐसा तो असल जिंदगी में भी होते ही रहता है, इसलिए सोशल मीडिया ने ऐसी ठगी को शुरू किया हो ऐसी बात भी नहीं है। पहले से बहुत से ऐसे लोग चले आ रहे हैं जिन्होंने 10-10, 20-20 लड़कियों और महिलाओं को शादी का झांसा देकर उन्हें ठगा, और उसके बाद किसी की शिकायत पर भी गिरफ्तार हुए हैं। इसलिए आज सोशल मीडिया की वजह से ऐसे हादसों की गिनती थोड़ी सी बढ़ी हुई हो सकती है, लेकिन यह कोई नई बात नहीं है।
आज की बात का मकसद यह है कि लोग क्योंकि सोशल मीडिया पर अब वक्त गुजार रहे हैं और वहां से उनकी भावनाएं जुड़ी हुई हैं इसलिए उन्हें अपनी असल जिंदगी के लिए काम की बातों को भी सोशल मीडिया पर देखना चाहिए, और यहां पर सिर्फ जन्मदिन की बधाई, और किसी तीज के त्यौहार की बधाई जैसी बातों के बजाय अपने सामान्य ज्ञान को बढ़ाने वाली, अपनी समझ को बढ़ाने वाली बातों के लिए लोगों से पहचान बढ़ानी चाहिए। सोशल मीडिया लोगों को समझदार बनाने का भी एक बड़ा माध्यम हो सकता है और लोगों को बेवकूफी में डुबाने का भी। ठीक उसी तरह जैसे कि असल जिंदगी में मोहल्ले के किसी एक कोने में 4 लोफर लडक़े आवारगी सिखाने के लिए तैयार खड़े रहते हैं, और दूसरी तरफ उसी मोहल्ले के किसी मैदान में कुछ अच्छे खिलाड़ी खेल में और खूबी पाने में लगे रहते हैं। ऐसा ही सोशल मीडिया पर लगातार चलता है और लोगों को इसका भरपूर इस्तेमाल भी करना चाहिए। उतने ही वक्त सोशल मीडिया पर रहना चाहिए जितना वक्त उनकी जिंदगी में सोशल मीडिया के लिए हो, लेकिन इतने वक्त में भी उन्हें यहां पर अपने से बेहतर लोगों से जुडऩे की कोशिश करना चाहिए उनकी बेहतर बातों को पढऩा चाहिए और बिना किसी नफरत के, बिना गालियों के, लोगों से समझ की बात करनी चाहिए। असल जिंदगी में अगर वे देखेंगे तो इतनी समझ की बात करने के लिए उन्हें लोग मुश्किल से भी नसीब नहीं होते, लेकिन सोशल मीडिया पर आसानी से होते हैं। अगर लोग यही मानकर चलें कि सोशल मीडिया पर वे अपने से अधिक समझदार लोगों को देखेंगे, ढूंढेंगे, उन्हें पढ़ेंगे और उनसे कुछ जानने-समझने की कोशिश करेंगे, तो उनके लिए सोशल मीडिया एक बहुत ही सकारात्मक औजार बनकर सामने आ सकता है।
पिछले एक-डेढ़ बरस से लॉकडाउन की वजह से लोगों को घरों से काम करना पड़ा, स्कूल और कॉलेज के बच्चों को घरों में पढ़ना पड़ा, और घरों से ही इम्तिहान भी देना पड़ रहा है। इन सबको अगर देखें तो यह लगता है कि हिंदुस्तान जैसे देश में भी जहां एक बड़ा गरीब तबका डिजिटल टेक्नोलॉजी, इंटरनेट, और स्मार्टफोन के बिना था, उसके बीच भी इन सबकी घुसपैठ बड़ी तेजी से हुई है। हम अभी भी यह मानते हैं कि हिंदुस्तान में लॉकडाउन ने, और तमाम ऑनलाइन काम ने, गरीबों और अमीरों के बीच एक बड़ी डिजिटल खाई को और गहरा और चौड़ा किया है। लेकिन यह बात भी समझना चाहिए कि कुछ वर्षों के अमीर-गरीब मुकाबले के नुकसान के बावजूद, आज हिंदुस्तान में डिजिटल काम जिस तरह से बढा है और कागज का काम जिस तरह से कम हुआ है, क्या उससे दुनिया में कागज पर दबाव घटा है?
यह बात सिर्फ हिंदुस्तान में नहीं रही कि अधिक लोगों को घरों से ऑनलाइन काम करना पड़ा, बाकी दुनिया में भी ऐसा हुआ। विकसित देशों में और अधिक हद तक हुआ, भारत से कम विकसित देशों में भी कुछ सीमा तक तो यह हुआ ही है। कुल मिलाकर हुआ यह है जिंदगी में कंप्यूटर और स्मार्टफोन का जो काम था वह एकदम से बढ़ गया। और इसके साथ ही कागज का काम घटा भी है। बहुत से ऐसे लोग हैं जिन्होंने कोरोना लॉकडाउन के दौरान संक्रमण के खतरे से बचने के लिए गैरजरूरी कागजों को छूना बंद कर दिया जिनमें अखबार और पत्रिकाएं भी शामिल थे। उनकी जगह इनको ऑनलाइन पढ़ना शुरू किया और धीरे-धीरे ऑनलाइन उन्हें बेहतर लगने लगा। अब एक बुनियादी सवाल यह उठता है कि क्या लॉकडाउन के इस लंबे दौर ने लोगों को इस बात के लिए तैयार किया है कि वे कागज का कम इस्तेमाल करें और कंप्यूटर या स्मार्टफोन का अधिक इस्तेमाल करें?
इसके अलावा सरकारों के ऊपर भी यह जिम्मेदारी आती है कि क्या वे कागज के विकल्प के रूप में स्क्रीन को बढ़ावा देने के काम को और योजनाबद्ध, और व्यवस्थित तरीके से आगे बढ़ा सकते हैं? यह मामला थोड़ा मुश्किल है क्योंकि अभी तो एक बड़ी आपदा के रूप में सरकारों ने किसी भी तरह सब कुछ ऑनलाइन करने की कोशिश की और जैसे ही साल-छह महीने में संक्रमण का खतरा घटेगा, हो सकता है सरकार फिर से अपने परंपरागत तौर-तरीकों पर लौट आएं। लेकिन इस मौके को एक सबक के रूप में भी लेना चाहिए कि कागज के काम को कैसे-कैसे कम किया जा सकता है, खासकर सरकार को अपनी कागजी खानापूरी घटाने की बात सीखने का यह एक बड़ा सही मौका आया है।
अब हम इस मुद्दे पर लिखने के पीछे की आज की अपनी वजह पर आते हैं कि क्या डिजिटल तकनीक और डिजिटल उपकरणों से धरती के पेड़ों पर दबाव घट सकता है? अगर कागज की खपत घटेगी तो हो सकता है कि धरती पर पेड़ भी कम कटने लगें और कागजों की वजह से कटने वाले पेड़ बच जाएं। इसलिए आज जब धरती पर डिजिटल उपकरणों का कचरा बढ़ने का एक खतरा दिख रहा है वहां यह भी समझने की जरूरत है कि क्या धरती पर पहले से मौजूद पेड़ों के कटने का जो खतरा था क्या उसके घटने की संभावना भी साथ-साथ नहीं दिख रही है? राज्य सरकारों को और सरकार के बाहर के संस्थानों को भी यह सोचने की जरूरत है कि लॉकडाउन के दौरान बिना कागजों के जो काम हो सका है उनके लिए आगे फिर कागजों की एक शर्त क्यों लागू की जाए?
राज्य सरकारें चाहें तो अपने आपको पूरी तरह कागजमुक्त बनाने के लिए एक योजना बना सकती हैं और इसके लिए सरकारी ढांचे के बाहर के कल्पनाशील और जानकार विशेषज्ञों को रखना जरूरी होगा क्योंकि सरकारी अधिकारी और कर्मचारी उनके सामने पेश किए जाने वाले कागजों पर ही अपनी सत्ता चलाने के आदी रहते हैं। अगर सामने कागज नहीं रहेंगे तो उन्हें लगेगा कि उनका साम्राज्य खत्म हो रहा है, उनका अधिकार खत्म हो रहा है। इसलिए जरूरत यह है कि सरकार बाहर के लोगों को लेकर आएं और उनसे अपने कामकाज में इस तरह की मरम्मत करवाएं कि बिना कागजों के क्या-क्या काम किए जा सकते हैं। पिछले डेढ़ बरस की डिजिटल तकनीक इस्तेमाल ने यह संभावना दिखाई है कि लोग बिना कागजों के या काफी कम कागजों के साथ जी सकते हैं। इस संभावना को आगे बढ़ाने की जरूरत है और एक-एक कागज की जरूरत को घटाने का मतलब एक-एक पेड़ को बचाना भी होगा, यह भी याद रखना चाहिए।
किसी भी लोकतंत्र में बड़ी अदालतों के कई आदेश और फैसले दोनों ही बड़े दिलचस्प तो होते हैं, और उनसे देश में सरकारी कामकाज या सार्वजनिक जीवन को लेकर बहुत से नए पैमाने भी तय होते हैं। अभी सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की एक बेंच ने उत्तर प्रदेश हाई कोर्ट के एक आदेश को खारिज किया और अदालत को एक समझाइश दी है। बड़े कड़े शब्दों में अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अदालतों को अफसरों को व्यक्तिगत रूप से कोर्ट में पेश होने के लिए कहने का सिलसिला अच्छा नहीं नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के जजों से कहा कि सरकारी अधिकारियों के जिम्मे भी बहुत तरह के काम रहते हैं, और उन्हें बात-बात पर मनमाने ढंग से अदालत में व्यक्तिगत रूप से मौजूद रहने के लिए कहना, जनता के कामकाज का नुकसान है। इन जजों ने कहा कि जजों को सम्राट की तरह बर्ताव नहीं करना चाहिए और उन्हें अपनी सीमाएं मालूम होना चाहिए। उनके बर्ताव में शालीनता और विनम्रता रहनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने साफ साफ कहा कि किसी अधिकारी को अदालत में बुलाने से अदालत की गरिमा और महिमा नहीं बढ़ती है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी माना कि बहुत से जज अधिकारियों को अपनी अदालत में बुलाकर और उन पर दबाव बनाकर अपनी इच्छा के अनुसार काम करवाने का आदेश पारित करवाने की कोशिश भी करते हैं। अदालत ने यह भी कहा कि अधिकारियों को बार-बार अदालत में बुलाने की कड़े शब्दों में निंदा करनी चाहिए।
अब यह मामला दिलचस्प है इसलिए है कि जनहित के कुछ बड़े मुद्दों पर जिनमें कि सरकार लापरवाही बरतती हैं उनमें हम भी अदालतों को ऐसे सुझाव देते आए हैं कि अफसरों को बुलाकर कटघरे में खड़ा करना चाहिए और दिन भर वहां खड़ा रखा जाए तो सरकार का कामकाज ठीक होने लगेगा। यह हमारी अपनी सोच है लेकिन सुप्रीम कोर्ट का यह ताजा आदेश इस सोच के खिलाफ है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने किसी अफसर को अदालत में बुलाने के खिलाफ कोई आदेश नहीं दिया है लेकिन अफसरों को बार-बार बुलाने के मिजाज के खिलाफ बात कही है। ऐसे में देश के अलग-अलग हाईकोर्ट के सामने यह ताजा फैसला तब तक एक मिसाल रहेगा जब तक कि सुप्रीम कोर्ट की इससे बड़ी कोई बेंच इसके खिलाफ कोई बात ना करे। किसी किसी बड़े जनहित के मुद्दे पर और सरकारी अफसरों की सोची समझी अनदेखी पर हमें भी ऐसा लगता है कि उन्हें अदालत में बुलाकर फटकार लगानी चाहिए। अब सुप्रीम कोर्ट ने बाकी जजों को यह याद दिलाया है कि उन्हें जो कहना है वे अपने लिखित आदेश या फैसले में कह सकते हैं, उसके लिए अफसरों को वहां बुलाकर खड़ा रखना जरूरी नहीं है, और उनके अदालतों तक आने-जाने से जनता के प्रति उनकी जो जिम्मेदारी है उसकी भी अनदेखी होती है।
सुप्रीम कोर्ट ने जजों को सम्राटों की तरह बर्ताव ना करने की जो नसीहत दी है उसकी एक ताजा मिसाल अभी बंगाल में सामने आई। वहां एक हाई कोर्ट के जज के पास ममता बनर्जी का एक मामला पहुंचा और ममता बनर्जी ने यह संदेह जाहिर किया कि इस जज से उन्हें इंसाफ नहीं मिल सकेगा क्योंकि वे पहले भाजपा के सदस्य रह चुके हैं। इस बात पर जज ने ममता बनर्जी पर पांच लाख रुपये का एक जुर्माना ठोक दिया। इस अकेले मुद्दे पर लिखने से हम बच रहे थे लेकिन अभी सुप्रीम कोर्ट का यह नया फैसला जो कहता है उसकी रोशनी में जब बंगाल के इस जज के इस आदेश को देखते हैं, तो लगता है कि सम्राट की तरह बर्ताव बंगाल के इस जज के मिजाज में भी है। अगर कोई जज किसी एक राजनीतिक दल का सदस्य रहा हुआ है तो उसे उसके विरोधी रहे हुए राजनीतिक दल के नेता के बारे में मामले को सुनने से वैसे भी बचना चाहिए था। बहुत से जज तो खुद होकर भी बहुत से मामले छोड़ देते हैं लेकिन इस जज ने ममता बनर्जी पर जुर्माना लगा दिया। अब ममता बनर्जी इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने जा रही हैं और हमारा अंदाज यह है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला ममता के पक्ष में होगा और कोलकाता हाई कोर्ट के जज का लगाया हुआ यह जुर्माना रद्द हो जाएगा। लोगों को इस बात का पूरा हक है कि वे किसी वजह से उन्हें इंसाफ न मिलने की अपनी आशंका जाहिर कर सकें और किसी दूसरे जज के पास अपने मामले को भेजने की अपील कर सकें। जब संविधान में ही ऐसा प्रावधान किया गया है तो फिर इसे अपमानजनक कैसे कहा जा सकता है। पश्चिम बंगाल की राजनीति में ममता बनर्जी और भाजपा के बीच जितने हिंसक और तनावपूर्ण संबंध हाल के वर्षों में रहे हैं, वे सबके सामने हैं। भाजपा से जुड़े रहे एक जज से अपने मामले की सुनवाई में अगर उन्हें इंसाफ की गुंजाइश नहीं दिखती है, तो इसमें कोई अटपटी बात नहीं है। ऐसे में ऐसे जज को कोई जुर्माना सुनाकर अपनी व्यक्तिगत नापसंदगी को इस तरह से उजागर भी नहीं करना था।
इसी सिलसिले में यह भी समझने की जरूरत है कि देश में बहुत से हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जज मामलों की सुनवाई के दौरान कई केस में जुबानी बातें कहते हैं जो कि बाद में उनके आदेश या फैसले का हिस्सा नहीं रहतीं, लेकिन चूंकि वे सुनवाई के दौरान इन बातों को कहते हैं, इससे उनका रुख भी उजागर होता है और इससे बाकी लोगों को भी एक संदेश मिलता है। हमारे हिसाब से ऐसा जुबानी जमाखर्च चाहे कितना ही लुभावना क्यों न हो, उससे जजों को बचना चाहिए क्योंकि इनके खिलाफ कोई अपील भी नहीं हो सकती। यह आदेश और फैसले से अलग ऐसी टिप्पणियां रहती हैं जिनके खिलाफ ना कोई मानहानि का मुकदमा किया जा सकता है कमा और ना ही इनके खिलाफ ऊपर की बड़ी अदालत में कोई पुनर्विचार याचिका लगाई जा सकती। हमारा ऐसा मानना है कि बहुत से बड़े जज बहुत किस्म की अप्रासंगिक बातें भी करने पर उतारू हो जाते हैं, उससे लोगों के ऊपर एक गैरकानूनी और नाजायज हमला हो जाता है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट को किसी फैसले में यह जिक्र भी करना चाहिए कि हाईकोर्ट के जज सुनवाई के दौरान अपनी निजी राय को जुबानी बहुत अधिक सामने ना रखें, क्योंकि वे जो चाहते हैं उसके लिए औपचारिक आदेश जारी कर सकते हैं, और उनके वैसे आदेश को चुनौती भी दी जा सकती है, लेकिन उनकी जुबानी बातों को कोई चुनौती भी नहीं दी जा सकती। इसलिए जजों को सम्राटों की तरह मनमानी बातें कहने का हक भी नहीं रहना चाहिए और इस बारे में भी बड़ी अदालतों को फैसले में लिखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
विज्ञान और जिंदगी की हकीकत कई बार साथ-साथ चलते हुए दिखती हैं, लेकिन कई बार वे साथ-साथ नहीं भी चलतीं। विज्ञान की हकीकत यह है कि वह एटॉमिक बम बना सकता था और उसने बनाया, लेकिन जिंदगी की हकीकत यह थी कि अमेरिका ने उस बम को जापान पर गिरा दिया, लाखों लोग मारे गए और दसियों लाख लोग उसकी वजह से तरह-तरह के प्रदूषण की बीमारी के शिकार हुए। यहां पर विज्ञान की कामयाबी को इंसान ने नाकामयाब कर दिया और उसका बुरा इस्तेमाल किया। वह ताकत किसी काम नहीं आई और लोगों का नुकसान कर गई। लेकिन उस बम को बनाने के पहले की टेक्नोलॉजी में कामयाबी, और बम को बनाने में कामयाबी, यह तो वैज्ञानिकों के नाम दर्ज हुई है। इसी तरह आज दुनिया भर में तरह-तरह की बीमारियों से बचाव के लिए बचपन से ही लोगों को दर्जनों वैक्सीन लगते हैं, बाद में तरह-तरह की ऐसी जांच होती है जिससे बीमारियों का बहुत शुरुआती दौर में ही पता लग जाता है। दुनिया की गरीबी कम से कम एक तबके के लिए तो घट ही रही है, और इस तबके को बेहतर खानपान, बेहतर और साफ-सुथरी जिंदगी हासिल है। नतीजा होता है कि उसकी औसत उम्र बढ़ती जा रही है। वैसे तो सबसे गरीब और सबसे कमजोर तबके को जोडक़र भी धरती के लोगों की औसत उम्र लगातार बढ़ रही है। ऐसे में लोगों के बीच जो संपन्न तबका है उसकी औसत उम्र हो सकता है कि और तेजी से आगे बढ़ रही हो, और अधिक आगे बढ़ रही हो।
अब वैज्ञानिकों ने रिसर्च करके यह निष्कर्ष निकाला है कि इस सदी के अंत तक इंसान हो सकता है कि 130 बरस की उम्र तक जिंदा रह सकें। अमेरिका की वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने दुनिया के दूसरे देशों के विज्ञान के आंकड़ों को लिया और अपना नतीजा निकाला है। उनका मानना है कि आने वाले वर्षों में इंसान की औसत उम्र बढ़ते चलेगी। आज दुनिया में 10 लाख से अधिक लोग ऐसे हैं जो 100 बरस की उम्र पार करके भी जिंदा है, इनमें से 600 से अधिक लोग ऐसे हैं जो 110 या 120 बरस भी पार कर चुके हैं। इसलिए इंसान अमर होने की दिशा में एक-एक इंच आगे बढ़ रहे हैं, और इस सैद्धांतिक संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि लोग काफी लंबा जीने लगेंगे।
एक तरफ तो यह चिकित्सा विज्ञान की एक कामयाबी रहेगी कि वह लोगों को अधिक उम्र तक जिंदा रख पाएगा, और लोगों को बीमारियों से बचा कर भी रखेगा, बीमार होने पर ठीक भी कर सकेगा, और मौत को हम से दूर रखेगा, लेकिन दूसरी तरफ परिवार और समाज के नजरिए से देखें तो यह लगता है कि हर कुछ बरस में लोगों की औसत उम्र कुछ-कुछ बरस अगर बढ़ती चली जाएगी तो क्या समाज उनके उसके हिसाब से तैयार हो सकेगा, परिवार उसके हिसाब से तैयार हो सकेंगे? यह बात किसी झटके के साथ नहीं आने जा रही क्योंकि अगले बरस लोग 10-20 बरस अधिक जीने वाले नहीं होने वाले हैं, वह अपनी जिंदगी की लंबाई को धीरे-धीरे ही बढ़ते देखेंगे, और हो सकता है कि इस सदी की बची हुई करीब 4 पीढिय़ों की औसत उम्र में लोग हर पीढ़ी में 10-10 बरस और अधिक जीने वाले हों। इसलिए यह रातों-रात नहीं होने जा रहा है कि लोगों ने अपने माता पिता को तो 80 बरस में मरते देखा था और अब वे खुद सीधे 100 बरस में मरेंगे। उम्र का यह बढऩा धीरे-धीरे होगा, कुछ चुनिंदा लोगों में होगा, और आबादी का बहुतायत तो इतना लंबा फिर भी नहीं जी सकेगा। इसलिए यह एक बड़ा सामाजिक मुद्दा नहीं बनने जा रहा है कि एक समाज का एक बड़ा हिस्सा सवा सौ बरस का हो जाए। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि समाज में अगर कुछ फीसदी लोग भी 100 बरस पार करके इतना लंबा जीने वाले हैं तो उस समाज की जरूरतें क्या होंगी? क्या उनके परिवार सचमुच ही इतने लंबे समय तक अपने बुजुर्गों का जरूरत की हद तक साथ दे पाएंगे? या फिर समाज और सरकार को आज के वृद्धाश्रमों की तरह, अति वृद्ध लोगों के आश्रम के बारे में भी सोचना पड़ेगा, जिनकी जिंदा रहने की जरूरतें आज के वृद्ध लोगों के मुकाबले भी अलग होंगी, उनकी इलाज की जरूरतें भी अलग होंगी। यह भी समझना पड़ेगा कि इतने बुजुर्ग लोगों के इलाज के लिए, उनकी मदद के लिए किस किस्म का ढांचा लगेगा। अच्छी बात यही है कि आज समाज के पास इसकी तैयारी करने का वक्त है, और इंसानों में लंबी उम्र रातों-रात पहुंचने वाले कोरोना वायरस की तरह रातों-रात नहीं आने वाली है, बल्कि वह धीमी रफ्तार से आएगी। हमने हिरोशिमा-नागासाकी पर अमेरिकी बम गिरने की जो बात शुरू में कही है, यह बुढ़ापा उस तरह रातों-रात सिर पर नहीं गिरने वाला है, फिर भी एक जो बड़ी बात रहेगी वह कि समाज में बुजुर्ग अधिक संख्या में रहेंगे और उनके अधिक वक्त तक जिंदा रहने की संभावना रहेगी, या कि कुछ परिवारों पर बोझ के हिसाब से देखें तो, आशंका रहेगी।
चिकित्सा विज्ञान को भी अपनी एक अलग शाखा विकसित करनी होगी जो वृद्ध और अति वृद्ध लोगों की जरूरतों को देख सके, सरकारों को भी अति वृद्ध आश्रम को कम से कम सैद्धांतिक रूप से तो सोच-विचार में लाना पड़ेगा और उसकी तैयारी करनी पड़ेगी। इसके अलावा सरकारें यह भी सोच सकती हैं कि लोग अपने अति बुढ़ापे के वक्त के लिए किस किस किस्म के बीमे का इंतजाम कर सकते हैं और अभी से कर सकते हैं। बीमा कंपनियां खुद भी लोगों के सामने अभी से ऐसी संभावनाओं को लेकर तरह-तरह की पॉलिसी रख सकती हैं कि वे किस-किस किस्म के बुढ़ापे के लिए रहने खाने, और इलाज, तमाम किस्म का बीमा कर रही हैं। आज लोगों को भी यह समझ आना चाहिए कि आज तो वे जवान हैं, लेकिन 50 वर्ष बाद अगर उन्हें यह समझ आएगा कि अभी 20 बरस की जिंदगी और बाकी है, तो उस 20 बरस का इंतजाम क्या होगा?
आज भी बहुत से जवान, कामयाब, और खाते-पीते लोगों ने अपने मां-बाप को वृद्ध आश्रम में भेज ही दिया है, और हो सकता है यह सिलसिला बढ़ते चले। शहरों में जहां मकान छोटे हैं, और पति-पत्नी दोनों काम करने वाले हैं, वहां हो सकता है कि उनकी जिंदगी में बुजुर्ग मां-बाप को साथ में रखने में दिक्कत हो, इसलिए आने वाला वक्त अगर लोगों को अमर करने वाला नहीं है, तो कम से कम देर से मारने वाला जरूर है। इसलिए समाज और सरकार को, बीमा कंपनियों को, समाजसेवी संगठनों को इस दिन के हिसाब से तैयारी रखनी चाहिए कि आने वाली हर पीढ़ी दस-दस बरस अधिक जिंदा रह सकती है, और सदी के अंत तक हो सकता है कि कुछ फ़ीसदी लोग सवा सौ बरस उम्र तक के रहें। आज जो लोग खा-कमा रहे हैं और जिनके पास भविष्य में झांकने के लिए कुछ इंतजाम है, उन्हें अपने-आपको सवा सौ बरस का देखते हुए एक कल्पना करनी चाहिए और उसका इंतजाम करना चाहिए लेकिन ऐसा इंतजाम कोई व्यक्ति अपने अकेले के स्तर पर शायद नहीं कर सकेंगे, जब तक उन्हें बैंक, बीमा कंपनियां, सरकार, और सामाजिक संगठन सभी मिलकर तरह-तरह के विकल्प न दें।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदी की एक जानी-मानी लेखिका मैत्रेयी पुष्पा हाल के महीनों में अपने कई सोशल मीडिया बयानों को लेकर बहस का सामान बनी हैं। बहुत से लोगों का यह मानना है कि उन पर उम्र का असर हो रहा है और वह बहुत ही रद्दी किस्म की बातें लिख रही हैं। हम पुरानी बातों को तो नहीं देख पाए लेकिन अभी उन्होंने एक ताजा फेसबुक पोस्ट में कह दिया है कि जो खुद तलाकशुदा हैं या पति से अलग हैं वे किसी दूसरे के तलाक के उचित अनुचित (होने) पर बहस कर रही हैं, और इसके साथ उन्होंने हैरानी जाहिर करने वाला निशान भी पोस्ट किया है। बहुत से लेखकों के साथ ऐसा होता है कि वे लिखते-लिखते थक जाते हैं, और उसके बाद सोशल मीडिया पर जब वे अपनी रचनाओं से परे कुछ लिखते हैं तो उनके असली रंग सामने आते हैं जो कि उनके पहले के लेखन में नहीं दिखे रहते। टाइम्स ऑफ इंडिया जैसे बड़े अखबार में प्रधान संपादक रहे हुए गिरिलाल जैन के वहां काम करते हुए लोगों को यह एहसास नहीं हुआ था कि वे संघ की विचारधारा के हैं, लेकिन जब वहां से रिटायर होने के बाद उन्होंने बाहर लिखना शुरू किया, तो वे संघ परिवार के एक पसंदीदा लेखक बन गए थे, और संघ के प्रकाशनों में छपने लगे थे। साहित्यकार तो पत्रकारों से कुछ अलग होते हैं और वे कल्पनाशील बातें अधिक लिखते हैं और उसमें उनकी विचारधारा कई बार तो सामने आती है और कई बार सामने नहीं भी आ पाती है। मैत्रेयी पुष्पा हिंदी की जानी मानी लेखिका है और इतने परिचय के साथ ही हम इस बात को आगे बढ़ाना चाहते हैं।
यह पहला यह अनोखा मौका नहीं है जब किसी ने यह लिखा हो कि कौन लोग किन मुद्दों पर लिखने के हकदार होते हैं। लोगों को याद होगा कि साहित्य में एक ऐसे आंदोलन का दौर आया था जब दलित लेखकों ने यह मुद्दा उठाया था कि गैरदलित लोग दलित साहित्य क्यों लिख रहे हैं? उनका यह मानना था कि जो लोग उसी तकलीफ से नहीं जूझ रहे हैं, जिन्होंने वह सामाजिक प्रताडऩा नहीं झेली, वे लोग भला कैसे दलितों के मुद्दों पर लिख सकते हैं? हो सकता है यह यह बात कुछ या काफी हद तक सही भी हो और यह भी हो सकता है कि दलितों के बीच के लेखक दलित मुद्दों पर जितनी तल्खी के साथ लिख सकते हैं, उतनी तल्खी के साथ गैरदलित लेखक उन मुद्दों पर शायद ना भी लिख पाएं। फिर भी यह सवाल हमेशा बने रहेगा कि क्या गैरदलितों का दलित साहित्य लिखना नाजायज है और क्या दलित साहित्य में लेखक का अनिवार्य रूप से दलित होना जरूरी है? कुछ ऐसा ही एक मुद्दा तलाकशुदा महिला को लेकर है मैत्रेयी पुष्पा ने उठाया है कि जो महिलाएं खुद तलाकशुदा हैं, या पति से अलग हैं, वे किसी दूसरे के तलाक के उचित या अनुचित होने पर बहस कर रही कर रही हैं? वे एक किस्म से इस पर हैरानी भी जाहिर कर रही हैं, लेकिन दूसरी तरफ उन्हें इस बात पर आपत्ति भी दिखाई पड़ती है। अब सवाल यह उठता है कि अगर यातना के किसी दौर से गुजरने के बाद ही किसी का उस पर लिखने का हक हो, या जो तलाकशुदा हूं उनको तलाक सही या गलत होने के किसी के मामले पर लिखना चाहिए या नहीं, तो ऐसी सीमाओं में लोगों और मुद्दों को बांधना है शायद ज्यादती होगी। ऐसे में तो देह के धंधे में फंसी हुई कोई महिला वेश्याओं के मुद्दों पर लिखे या ना लिखें? मैत्रेयी पुष्पा के उठाए सवाल, उनकी उठाई आपत्ति, का एक बड़ा आसान सा जवाब यह है कि जो महिलाएं ऐसे दौर से गुजरी हैं वे महिलाएं शायद इस मुद्दे पर लिखने की अधिक क्षमता रखती हैं, वे शायद तलाक के मुद्दे पर लिखने की एक बेहतर समझ रखती हैं। मैत्रेयी की बात पर एक सवाल यह भी उठ सकता है कि गैर तलाकशुदा महिलाएं भला क्या खाकर तलाक के मामले में लिख सकती हैं? जिन्होंने तलाक को भोगा नहीं है, या तलाक का मजा नहीं पाया है वे भला तलाक को क्या जानें? तो यह सिलसिला कुछ अटपटा है जो कि किसी लेखक के ऐसे किसी मुद्दे से अछूते रहने की उम्मीद करता है।
इस तर्क के विस्तार को देखें तो जो लोग मजदूर नहीं हैं वे मजदूर संगठनों के नेता कैसे हो सकते हैं? और जो आदिवासी नहीं है वे आदिवासियों के बीच नक्सली संगठनों के नेता कैसे हो सकते हैं? ऐसी बहुत सी बातें हैं कि किसी व्यक्ति का यातना के उस दौर से गुजरना या तजुर्बे के उस दौर से गुजरना उन्हें लिखने का अधिक हकदार बना दे या कि उनसे लिखने का हक छीन ले, यह कुछ तंगदिली और तंग नजरिए की बात लगती है। ऐसे में तो अनाथ रह गए बच्चों के बारे में लिखने के लिए किसी के अनाथ होने को जरूरी मान लिया जाए या फिर यह कह दिया जाए कि वह तो खुद ही अनाथ थे और वह भला अनाथों के बारे में क्या लिख सकते हैं? यह सिलसिला कुछ कुतर्क का लग रहा है। और हम फिलहाल उस सबसे ताजा मिसाल को लेकर बात करें जिसे लेकर आज का यह मुद्दा शुरू हुआ है, तो तलाक के मामले में कुछ लिखने के लिए एक तलाकशुदा या अकेली महिला तो गैरतलाकशुदा महिला के मुकाबले कुछ अधिक और बेहतर ही समझ रखती होगी।
अभी तक हमने जगह-जगह विचारधारा की शुद्धता, या धर्म और जाति की शुद्धता के आग्रह और दुराग्रह तो देखे थे, लेकिन अब तलाक के मुद्दे पर लिखने के लिए तलाकशुदा ना होने की शुद्धता का आग्रह बड़ा ही अजीब है ! और यह भी बताता है कि अच्छे-भले लिखने वाले लोग भी एक वक्त के बाद किस तरह चुक जाते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के हुक्म से भी इस कदर बेपरवाह सरकारें
हिंदुस्तान एक बड़ा अजीब सा लोकतंत्र हो गया है जहां पर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दिए हुए आदेश भी अमल में लाने से सरकारें लंबे समय तक कतराती हैं। अभी दो-चार दिन पहले ही उत्तर प्रदेश सरकार के बारे में वहां के हाईकोर्ट ने यह कहा कि हम यह समझ नहीं पा रहे हैं कि सरकार हमारे आदेश पर अमल करने से कतराती क्यों हैं? और कल सुप्रीम कोर्ट के सामने यह मुद्दा आया कि सूचना तकनीक कानून की जिस विवादास्पद धारा 66-ए को उसने 2015 में ही निरस्त कर दिया था, उसी धारा के तहत देश भर में आज भी मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं। एक जनहित याचिका पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने आईटी एक्ट के सेक्शन 66-ए को असंवैधानिक घोषित किया था, और तबसे अब तक पूरे देश में हजारों मामले इसी धारा के तहत दर्ज होते आ रहे हैं, अब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस देकर इस पर जवाब मांगा है। किसी लोकतंत्र में यह कल्पना आसान नहीं है कि देश की सबसे बड़ी अदालत किसी कानून की किसी धारा को असंवैधानिक घोषित कर दे और 6 साल बाद तक पूरे देश भर की पुलिस उसके तहत मुकदमे दर्ज करती रहे।
लोगों को यह मामला याद होगा कि आईटी एक्ट के तहत बहुत से लोगों पर इस बात को लेकर राज्यों की पुलिस कार्रवाई कर रही थी कि उन्होंने सोशल मीडिया पर या किसी को भेजे गए संदेश में किसी के लिए अपमानजनक मानी जाने वाली बात लिखी, या कोई आपत्तिजनक बात लिखी, या कोई झूठी सूचना भेज दी, या अपनी पहचान छुपाकर कुछ भेज दिया। ऐसे में पुलिस अंधाधुंध मामले दर्ज कर रही थी, और थाने के स्तर पर ही यह तय होने लगा था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहां लागू नहीं होती है। ऐसे में कानून की एक छात्रा ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी और उस छात्रा की व्याख्या के मुताबिक अदालत ने इस धारा को असंवैधानिक माना और खारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कोई सामग्री या संदेश किसी एक के लिए आपत्तिजनक हो सकता है, और दूसरे के लिए नहीं। उस वक्त के जज जस्टिस जे चेलमेश्वर और जस्टिस रोहिंटन नरीमन की बेंच ने यह कहा था कि यह प्रावधान संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को प्रभावित करता है क्योंकि 66ए का दायरा बहुत बड़ा है और ऐसे में कोई भी व्यक्ति इंटरनेट पर कुछ भी पोस्ट करने से डरेंगे, इस तरह या धारा फ्रीडम आफ स्पीच के खिलाफ है, यह विचार अभिव्यक्ति के अधिकार को चुनौती देती है। ऐसा कहते हुए अदालत ने इस एक सेक्शन को असंवैधानिक करार दे दिया था।
अब सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर हैरानी जाहिर की है कि जब इस कानून के मूल ड्राफ्ट में भी 66ए के नीचे लिखा गया है कि सुप्रीम कोर्ट इसे निरस्त कर चुका है, तो पुलिस इसे क्यों नहीं देख पा रही है। अदालत ने हैरानी जाहिर करते हुए 2 हफ्ते में केंद्र सरकार से जवाब मांगा है और कहा है कि अदालत इस पर कुछ करेगी। इस बार की यह नई जनहित याचिका पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज पीयूसीएल ने लगाई थी और केंद्र सरकार को यह निर्देश देने की मांग की थी कि देश के तमाम थानों को एडवाइजरी जारी करें कि आईटी एक्ट की धारा 66ए में केस दर्ज न किया जाए। पीयूसीएल के वकील ने अदालत को बताया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के 6 बरस बाद भी देश में अभी हजारों केस इसी धारा के तहत दर्ज किए गए हैं।
दरअसल हिंदुस्तानी लोकतंत्र का मिजाज कुछ इस तरह का हो गया है कि सत्ता को जो बात नापसंद हो, उस बात को लेकर लगातार पुलिस का इस्तेमाल एक औजार और एक हथियार की शक्ल में किया जाता है और लोगों को परेशान करने की नीयत से उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज किए जाते हैं। हमारे हिसाब से तो सुप्रीम कोर्ट के 6 बरस पहले के बहुत साफ-साफ फैसले का जितना प्रचार-प्रसार हुआ था, उससे भी राज्यों के महाधिवक्ताओं की यह जिम्मेदारी हो गई थी कि वे अपनी सरकारों को इसकी जानकारी ठीक से दें और राज्य के सभी पुलिस अधिकारियों की यह जिम्मेदारी हो गई थी कि इस धारा के तहत कोई जुर्म दर्ज न किया जाए। ऐसे में यह देखने की जरूरत है कि जिन सरकारों की अदालत की तौहीन करते हुए ऐसी हिमाकत करने की सोच रही है, उन्हें कटघरे में क्यों न खड़ा किया जाए? इस बात में क्या बुराई है अगर जिम्मेदार आला अफसरों को सुप्रीम कोर्ट व्यक्तिगत रूप से कटघरे में दिनभर खड़ा रखें और उसके बाद इनको जो सजा देना ठीक लगे वह दे। कटघरे में गुजारा गया एक दिन राज्यों के बड़े बड़े अफसरों को, और केंद्र सरकार की भी पुलिस को, अपनी याददाश्त बेहतर बनाने में मदद करेगा।
अभी कुछ महीने पहले ही एक और मामला सामने आया था जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने याद दिलाया था कि राजद्रोह के नाम पर जो मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं उनके खिलाफ तो सुप्रीम कोर्ट का कई दशक पहले का एक फैसला ऐसा आया हुआ है जो बतलाता है कि किस तरह के मामलों में राजद्रोह का जुर्म नहीं बन सकता, लेकिन उसके दशकों बाद भी आज तक इस देश में बात-बात पर टुटपुँजिया मुद्दों को लेकर नौजवानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं पर, बूढ़े लोगों और विचारकों पर, लगातार राज्य द्रोह के मुकदमे दर्ज होते जा रहे हैं। कुछ महीने पहले जब सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया और उसमें यह बात लिखी तो उस वक्त भी हमें हैरानी हुई कि यह फैसला केंद्र और राज्य सरकारों को संबोधित करते हुए एक स्पष्ट आदेश क्यों नहीं दे रहा है, और क्यों यह कई दशक पहले के एक आदेश का हवाला भर देकर वहां रुक जा रहा है? अदालतों को केंद्र और राज्य सरकारों से निपटते हुए लोकतांत्रिक रुख अख्तियार करना होगा जिसके तहत सरकारों की जवाबदेही बढ़ानी होगी और अफसरों की या नेताओं की मनमानी को खत्म करना होगा। देश में लोकतंत्र की बुनियादी समझ तो हर किसी को रहना चाहिए और उसे बुरी तरह से कुचलते हुए जब लोग इस तरह कानून का बेजा इस्तेमाल करते हुए लोकतांत्रिक अधिकारों को खत्म कर रहे हैं तो सुप्रीम कोर्ट को लोगों को बचाने के लिए सामने आना चाहिए।
अभी 2 दिन पहले देश के एक सबसे बुजुर्ग सामाजिक कार्यकर्ता फादर स्टेन स्वामी के गुजरने पर एक बार फिर यह बात तल्खी के साथ याद आई कि कुछ महीने पहले जब उनकी तरफ से अदालत में यह अर्जी दी गयी कि 84 बरस की उम्र में गंभीर बीमारियों के शिकार रहते हुए उनके हाथ कांपते हैं और गिलास से पानी उन पर गिर जाता है, तो उन्हें पानी पीने का प्लास्टिक का पाइप दिया जाए, और किस तरह जांच एजेंसी ने इसका विरोध किया था और किस तरह अदालत ने उनकी इस मांग को जरूरी, या सही नहीं माना था। अदालतें सरकारों और जांच एजेंसियों की मनमानी के आगे बहुत नरमी बरत रही हैं, और जनता के अधिकारों को बचाने वाली और कोई संस्था तो देश में है नहीं। मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग, या बाल कल्याण आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएं सत्ता के मनोनीत और पसंदीदा लोगों से भरी रहती हैं, इसलिए वे भी जनता के अधिकारों को बचाने के लिए कुछ भी नहीं करतीं। जब पीयूसीएल जैसी संस्था बार-बार तरह-तरह की जनहित याचिकाएं लेकर अदालत में जाती है तब जनता के मुद्दों की सुनवाई होती है। सरकारों के खिलाफ जनहित याचिकाओं का यह सिलसिला एक जागरूक समाज की लोकतांत्रिक संस्थाओं का सबूत तो है, लेकिन यह उससे बड़ा सुबूत सरकारों के अलोकतांत्रिक हो जाने का भी है।
उत्तर प्रदेश में अगले बरस होने जा रहे विधानसभा चुनाव के पहले एक बार फिर राज्य में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण बहुत रफ्तार से शुरू हुआ है। राज्य सरकार ने अभी ऐसे मामले पकडऩे का दावा किया है जिनमें सैकड़ों हिंदुओं को मुसलमान बनाने की बात कही गई है। पुलिस के रोजाना आते हुए बयान यह बताते हैं कि ऐसे धर्मांतरण के लिए लोगों को बाहर से पैसा भी मिला है। इससे परे देश की कुछ जगहों पर इक्का-दुक्का ऐसी शादियां भी हो रही हैं जिन्हें लव जिहाद कहा जा रहा है। आमतौर पर यह भाषा उन शादियों के लिए इस्तेमाल हो रही है जहां एक हिंदू लडक़ी एक मुस्लिम लडक़े से शादी करती है। ऐसे में इतवार को दिल्ली से लगे हुए हरियाणा के गुडग़ांव में एक महापंचायत हुई जिसमें हिंदू समाज के बहुत से लोगों ने बड़े हमलावर भाषण दिए और मुस्लिमों के खिलाफ कई किस्म की बातें कही गई। इनमें से एक तो राज्य भाजपा का एक प्रवक्ता है जो कि करणी सेना का भी प्रमुख है, सूरजपाल अमू नाम के इस नेता ने मंच और माइक से मुस्लिम समुदाय के खिलाफ एक बार फिर भडक़ाऊ भाषण दिया। कुछ समय पहले भी यह आदमी किसी और जगह पर इस किस्म का भडक़ाऊ भाषण दे चुका है। यहां पर इसने कहा कि लोग ‘इन लोगों’ के खिलाफ एक प्रस्ताव पास करें ताकि उन्हें देश से बाहर फेंक दिया जाए और सभी समस्याएं अपने आप समाप्त हो जाएं। इस भाजपा प्रवक्ता ने नौजवानों के लिए फतवा दिया कि उन सभी बगीचों से उन सारे पत्थरों को उखाड़ फेंकें जहां पर एक खास समुदाय के लोगों के नाम लिखे हैं। उसने एक गांव के लोगों की तारीफ की जिन्होंने अपने गांव में एक भी मस्जिद नहीं बनने दी और उसने भीड़ से अपील की कि ऐसी इमारत की बुनियाद को खोदकर फेंक दो। उसने कहा कि इतना काफी नहीं है कि इन लोगों को घर किराए पर ना दिया जाए बल्कि इनको देश है उसे बाहर फेंकने का प्रस्ताव अपनाना चाहिए।
पुलिस से जैसी की उम्मीद की जाती है उसने ऐसी कोई बात नहीं सुनी, उसके पास ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं है, उसने किसी भी शिकायत मिलने से इनकार किया है और कहा है कि कोई शिकायत मिलेगी तो वह जांच करेगी। जहां मीडिया के लोगों को, इलाके के बच्चे-बच्चे को ऐसे वीडियो मिल गए हैं, हजारों लोगों ने ऐसी भडक़ाऊ बातें सुनी हैं, वहां पर पुलिस ऐसा मासूम चेहरा बना लेती है कि यह किस बारे में बात की जा रही है। दूसरी तरफ इसी महापंचायत में एक ऐसा नौजवान पहुंचा जिस पर पिछले बरस दिल्ली में जामिया मिलिया इस्लामिया में नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे लोगों पर गोली चलाने और उन्हें राष्ट्रवादी धमकी देने का जुर्म दर्ज हुआ था, लेकिन उसके नाबालिग होने से उसे महज सुधारगृह भेज दिया गया था, जहां से कुछ महीनों में वह निकलकर बाहर आ गया था। उसने भी इस महापंचायत में पहुंचकर मंच और माइक से भारी भडक़ाऊ बातें कहीं, और मुसलमानों पर हमला करने का आव्हान किया यह भी कहा कि जब उन पर हमला किया जाएगा तो मुसलमान राम-राम चिल्लाएंगे। उसने यह भी कहा कि अगर मुस्लिम हिंदू लड़कियों को ले जाते हैं, तो उसके जवाब में मुस्लिम महिलाओं को अगवा किया जाए। और यह तो जाहिर है ही कि राजधानी से लगे हुए गुडग़ांव की पुलिस ने इस भाषण को भी नहीं सुना है जबकि इसका वीडियो चारों तरफ घूम रहा है।
कोई अगर यह सोचे कि यह सब कुछ अनायास हो रहा है तो ऐसी बात नहीं है। उत्तर प्रदेश से लगे हुए हरियाणा के इस हिस्से का भी दिल्ली के राजधानी क्षेत्र से वैसा ही गहरा संबंध है, और यहां से निकली हुई बात देश की राजधानी से उठी हुई बात ही मानी जाती है। ऐसे में एक तरफ असम में आबादी नियंत्रित करने के लिए बच्चों की सीमा तय करने की बात की जा रही है, उत्तर प्रदेश में धर्मांतरण के मामले पकडऩे का दावा करते हुए लोगों की गिरफ्तारियां हो रही है, उधर कश्मीर में 2 सिख लड़कियों के मुस्लिम लडक़ों से शादी करने के खिलाफ वहां सिख समुदाय आज उबला हुआ है। इसके साथ साथ जब यह देखें कि किस तरह हैदराबाद में केंद्रित मुस्लिम राजनीति करने वाले ओवैसी लखनऊ जाकर अभी से चुनावी ताल ठोकने लगे हैं, तो यह समझ पड़ता है कि इस पूरी तैयारी का मकसद क्या है। हाल के वर्षों में असदुद्दीन ओवैसी ने अलग-अलग प्रदेशों में जाकर बिना किसी जमीन के जब मुस्लिम वोटरों के बीच अपने उम्मीदवार खड़े किए, तो उन्होंने मानो भाजपा की जीत के लिए ओवैसी शामियाना वाले जैसा काम किया। भाजपा की चुनावी सभाओं के पहले हरे रंग का एक ऐसा शामियाना बांधा कि जिसे देख-देखकर भाजपा के लिए भीड़ अधिक जुटती रहे। कुछ वैसा ही अभी यह महापंचायत कर रही हैं और जिस जुबान में वहां पर मुसलमानों के बारे में बातें हो रही हैं क्या वहां की पुलिस को इसकी कोई उम्मीद नहीं थी और क्या पुलिस ने वहां रिकॉर्डिंग का इंतजाम नहीं रखा था और क्या राज्य सरकार का किसी कार्यवाही का जिम्मा नहीं बनता है ? ऐसे बहुत से सवाल उठ खड़े होते हैं और लोगों को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इसी मौके पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने एक बार फिर जिस तरह हिंदू और मुस्लिम का डीएनए एक ही होने जैसी बहुत सी बातें कहीं हैं, और जिस तरह से कुछ बातें मुसलमानों को हिंदू साबित करने वाली कहीं हैं, और कुछ बातें मुसलमानों को हिंदुस्तानी बने रहने के हक की हैं, उन सबसे भी तरह-तरह के मिले-जुले संकेत उठते हैं और एक भ्रम फैलने के अलावा और कुछ नहीं हो रहा है।
भाजपा की सरकारों वाले हरियाणा और उत्तर प्रदेश से जिस तरह की खबरें उठ रही हैं, वहां संघर्ष से लेकर ओवैसी तक की जिस तरह की तैयारियां दिख रही हैं, जिस तरह से चुनाव के महीनों पहले से योगी और ओवैसी एक दूसरे के सामने मोर्चा संभालने के अंदाज में बयान देते दिख रहे हैं, वह सब कुछ ऐसा लगता है कि मानो किसी एक बड़ी चित्र पहेली के अलग-अलग टुकड़े हैं जिन्हें जोडक़र देखा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश की विधानसभा सीटों का नक्शा उस राज्य के नक्शे पर कैसा दिखता है। जिन लोगों को यह लगता है कि भडक़ाऊ बयान की राज्य सरकार को फिक्र भी नहीं करना चाहिए, वे लोग देश पर मंडराते हुए इस खतरे को नहीं देख रहे हैं जिसमें एक धार्मिक ध्रुवीकरण को सोच समझ कर लाया जा रहा है। जिस दिन हिंदुस्तान के लोकतांत्रिक चुनावों के नाम पर देश में धार्मिक आधार पर जनमत संग्रह कराया जाएगा, उस दिन लोकतंत्र की रही सही उम्मीद और खत्म हो जाएगी लेकिन लोगों को यह मानकर चलना चाहिए कि हम उसी तरफ बढ़ रहे हैं।