संपादकीय
छत्तीसगढ़ में एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब सडक़ों पर दुपहियों के एक्सीडेंट में किसी की मौत ना होती हो। और ऐसा करीब-करीब बाहर राज्य में होता होगा, बहुत छोटे राज्यों में शायद हर दिन मौत न होती हो, लेकिन देश के छत्तीसगढ़ जितने बड़े किसी भी राज्य में रोजाना सडक़ों पर कई मौतें होती हैं, और यहां इस राज्य में तो लगातार दुपहियों पर मौत दिखती है। पुलिस की जानकारी बतलाती है कि इनमें से शायद ही कोई हेलमेट पहने रहते हैं, और किसी भी हादसे में सिर पर लगने वाली चोट के बाद बचने की गुंजाइश कम रहती है, जो कि हेलमेट से बच सकती थी। देशभर में सडक़ों के लिए यह नियम तो लागू है कि बिना हेलमेट लोगों पर जुर्माना लगाया जाए, दुपहिया पर तीन लोग दिखें तो जुर्माना लगाया जाए, या कारों और बड़ी गाडिय़ों में लोग बिना सीट बेल्ट दिखें तो जुर्माना लगाया जाए, या किसी भी तरह की गाड़ी चलाते हुए लोग अगर मोबाइल फोन पर बात कर रहे हैं तो उन पर जुर्माना लगाया जाए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। छत्तीसगढ़ की राजधानी में बैठकर हम देखते हैं जहां पर पुलिस की कोई कमी भी नहीं है वहां पर भी चौराहों पर से इन तमाम नियमों को तोड़ते हुए लोग निकलते हैं, लेकिन उनका चालान होते नहीं दिखता। नतीजा यह होता है कि बड़ों को देखकर बच्चे भी कम उम्र से ही इन तमाम नियमों को तोडऩा सीख जाते हैं, और उनके मिजाज में नियमों का सम्मान करना कभी आ भी नहीं पाता।
दिक्कत यह है कि जो लोग ऐसे नियम तोड़ते हैं वे न सिर्फ खुद खतरे में पड़ते हैं बल्कि सडक़ों पर दूसरे तमाम लोगों को भी बड़े खतरे में डालते हैं। कुछ लोगों की लापरवाही का दाम दूसरे लोग अपनी जिंदगी देकर चुकाते हैं। इसलिए भ्रष्टाचार की वजह से या लापरवाही की वजह से, या ताकतवर लोगों से किसी टकराव से बचने के लिए, जब कभी पुलिस सडक़ों पर अपनी जिम्मेदारी से मुकरती है, वह बहुत सी जिंदगियों को खतरे में डालती है। इसी छत्तीसगढ़ में आज से 20-25 बरस पहले हमने एक जिले के एसपी को कड़ाई से हेलमेट लागू करवाते देखा था, और उस पूरे जिले में कोई दुपहिया बिना हेलमेट नहीं दिखता था। अगर लोगों पर हजार-पांच सौ रुपये जुर्माना होने लगे तो तुरंत ही सारे लोग नियमों को मानने लगेंगे। लगातार जुर्माना करके नियम लागू करवाने में पुलिस का कुछ भी नहीं जाता, लेकिन जैसे-जैसे सत्तारूढ़ दल, दूसरी राजनीतिक पार्टियां, मीडिया के लोग अपनी ताकत का इस्तेमाल करके ट्रैफिक पुलिस की कार्यवाही को रोकते हैं, वैसे-वैसे पुलिस का हौसला पस्त होते जाता है, और सडक़ों पर तमाम लोगों के लिए खतरा बढ़ जाता है।
हिंदुस्तान में कई ऐसे प्रदेश हैं जहां कई शहरों में हेलमेट लागू है और 100 फ़ीसदी लोग उसका इस्तेमाल करते हैं या फिर जुर्माना पटाते हैं। इन शहरों में बिना हेलमेट लोग 2-4 चौराहे भी पार नहीं कर पाते। हेलमेट जैसे नियम को लागू करना सत्तारूढ़ लोगों के लिए चुनाव के ठीक पहले तो एक परेशानी की वजह हो सकती है क्योंकि जिन लोगों की जिंदगी बचाने के लिए यह किया जा रहा है, वैसे वोटर भी इस बात को लेकर तात्कालिक रूप से नाराज हो सकते हैं, और अगर चुनाव कुछ महीनों के भीतर हों, तो उसमें सत्तारूढ़ पार्टी को इस नियम को लागू करवाने का नुकसान हो सकता है। लेकिन जब कोई चुनाव सामने नहीं रहता, वह वक्त किसी भी सरकार के लिए या स्थानीय संस्थाओं के लिए नियमों को कड़ाई से लागू करवाने का मौका रहता है, जिससे नियम भी लागू हो जाए और वोटरों की नाराजगी चुनाव तक शांत भी हो जाए. लोगों को यह समझ भी आ जाए कि हेलमेट सरकार की जिंदगी बचाने के लिए नहीं है, दुपहिया चलाने वालों की जिंदगी बचाने के लिए है। हमने इस अखबार में वर्षों तक हेलमेट की जरूरत को लेकर जन जागरण अभियान चलाया। लेकिन जब सरकार की नीयत ही इसे लागू करने की नहीं रहती, तो कोई अखबार इसमें क्या कर ले।
छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश की हालत यह है कि जब भाजपा में सरकार रहती है तो विपक्षी कांग्रेस पार्टी सरकार के फैसले को ‘हेलमेट के दलाल का फैसला’ करार देती है। और जब कांग्रेस सत्ता में आती है तो विपक्षी भाजपा हेलमेट के खिलाफ हो जाती है। राजनीति इतनी सस्ती और घटिया हो चुकी है कि नेता लोगों की जिंदगी की कीमत पर उन्हें जागरूकता से दूर रखना चाहते हैं, गैर जिम्मेदारी सिखाते हैं, और उनकी जिंदगी खतरे में डालते हैं। जो नेता हेलमेट के खिलाफ सडक़ों पर आते हैं वे खुद तो जाने कहां से की गई कमाई से खरीदी गई बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में चलते हैं खुद महफूज रहते हैं, और दुपहिया वालों की जिंदगी खतरे में डालकर अपनी नेतागिरी चलाते हैं। हम ऐसी किसी भी सरकार को गैर जिम्मेदार मानते हैं जो लोगों की जिंदगी बचाने की पूरी-पूरी संभावना रखने वाले नियमों को लागू करने की अपनी जिम्मेदारी से कतराती हैं, और लोगों को गैर जिम्मेदार बनाती हैं। छत्तीसगढ़ में अभी अगला चुनाव 2 बरस बाद है । अगर सरकार अभी से ट्रैफिक नियम कड़ाई से लागू करे तो अगले चुनाव तक लोगों का गैरजिम्मेदारी छोडऩे का दर्द जाता रहेगा, और वे हेलमेट लगाना सीख जाएंगे, सीट बेल्ट लगाना सीख जाएंगे, मोबाइल पर बात करते हुए गाड़ी चलाना छोड़ देंगे। लेकिन इसके लिए सरकार में जिम्मेदारी की जरूरत है। देश में नियम-कानून पर्याप्त बने हुए हैं, और उनका इस्तेमाल करना सरकार की एक बुनियादी जिम्मेदारी है।
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उत्तर प्रदेश के सोनभद्र की खबर है कि वहां ट्रैफिक जाम की वजह से एक एंबुलेंस उसमें फंसी रही उसमें एक गर्भवती महिला दर्द से छटपटाते रही। अस्पताल जाने का कोई रास्ता नहीं मिला, और एंबुलेंस में ही उस महिला और उसके गर्भस्थ बच्चे की मौत हो गई। यह बताया जा रहा है कि इस इलाके में अक्सर ऐसा ट्रैफिक जाम रहता है। दो दिन पहले ही छत्तीसगढ़ के रायपुर का एक वीडियो किसी ने व्हाट्सएप पर भेजा था कि राजधानी में दुर्गा विसर्जन के जुलूस में किस तरह एक एंबुलेंस फंसी हुई थी, और वह अपना सायरन बजाते खड़ी थी किसी को उसे जगह देने की फुर्सत नहीं थी। छत्तीसगढ़ में ही जशपुर जिले में एक जगह दुर्गा विसर्जन के जुलूस पर गांजा तस्करों ने गाड़ी चढ़ा दी और एक मौत हुई, बहुत से जख्मी हुए। इसके बाद मानो यह काफी नहीं था, तो मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में दुर्गा विसर्जन के जुलूस में किसी ने कार चढ़ा दी और कई लोग घायल हो गए। हालांकि जिस बात से हमने यह चर्चा शुरू की है सोनभद्र का वह ट्रैफिक जाम किसी धार्मिक वजह से नहीं था, लेकिन हिंदुस्तान में आमतौर पर ट्रैफिक जाम की एक बड़ी वजह धार्मिक आयोजन रहते हैं। तरह-तरह के जुलूस निकलते हैं, और सडक़ों पर बेकाबू धार्मिक कब्जा हो जाता है, जिसे रोकने की ताकत पुलिस में भी नहीं रहती। इसके अलावा भी दूसरे किस्म की दिक्कतें लोगों को होती हैं और लाउडस्पीकरों के शोरगुल से लोगों का जीना हराम होते रहता है, लेकिन हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के आदेश थानों में धूल खाते पड़े रहते हैं, जिलों के अफसरों के लिए जब तक कोई निजी अवमानना नोटिस अदालत से ना आ जाए तब तक उनकी सेहत पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि धार्मिक गुंडागर्दी कितनी बढ़ रही है। और यह बात महज किसी एक धर्म की नहीं है, तकरीबन सभी धर्मों का यही हाल है, और हिंदुस्तान में तो स्थानीय शासन या राज्य शासन की लापरवाही और ढीलेपन के चलते हुए सरकारी या सार्वजनिक जमीन पर अवैध कब्जे, हर किस्म के अवैध निर्माण, और नियमों के खिलाफ शोरगुल, नियमों के खिलाफ ट्रैफिक जाम, यह इतनी आम बात हो गई है कि एक धर्म की अराजकता को देखकर दूसरे धर्म के लोग हौसला पाते हैं, और जब तक वह भी इससे अधिक ऊंचे दर्जे की अराजकता खड़ी ना कर दें वे मानो हीनभावना के शिकार रहते हैं।
यह सिलसिला बढ़ते ही चल रहा है, या कम होते नहीं दिखता। किसी भी धर्म स्थल को सडक़ तक कब्जा करते देखा जा सकता है, और वहां आने वाले लोगों के लिए कोई जगह न छोडक़र सब कुछ सडक़ों पर किया जाता है। धर्म स्थलों के अवैध कब्जे और अवैध निर्माण पूरी-पूरी रात जागकर होते हैं, और ऐसी साजिश के साथ होते हैं कि जिन दिनों पर अदालतें बंद हैं, सरकारी दफ्तर बंद है, उन्हीं दिनों पर इन्हें किया जाए ताकि कोई रोकने वाले लोग न रहे। सरकारें चलाने वाले राजनीतिक दल वोटरों के किसी भी तबके को नाराज करने से इस कदर डरे-सहमे रहते हैं कि धर्म या जाति के आधार पर बने हुए संगठनों की किसी भी किस्म की अराजकता पर कोई कार्यवाही नहीं की जाती है। नतीजा यह होता है कि धर्म से जुड़े हुए लोग अब तक की जा चुकी अराजकता से आगे बढक़र और अधिक अराजकता की तरफ आगे बढ़ते रहते हैं। हिंदुस्तान की अदालतों के, और खासी बड़ी-बड़ी अदालतों के बड़े-बड़े जज जिस तरह से खुलेआम अपनी धार्मिक आस्था का प्रदर्शन करते हैं, उसके चलते भी लोगों को यह लगता है कि वे भी अपनी धार्मिक आस्था के प्रदर्शन को किसी भी दूसरे धर्म के मुकाबले अधिक बढ़-चढक़र दिखा सकते हैं, और इसके लिए जब तक सडक़ें बंद ना हो जाएं, जब तक शोरगुल से लोगों के कान न फट जाएं, तब तक धर्मांध लोगों को चैन नहीं पड़ता।
अब सवाल यह उठता है कि जब धर्मों के बीच आपसी मुकाबला बढ़ रहा है और यह मुकाबला किसी रहमदिली के लिए नहीं, अराजकता के लिए बढ़ रहा है, गलत कामों के लिए बढ़ रहा है, सडक़ों पर लोगों का जीना हराम करने के लिए बढ़ रहा है, उस वक्त जो लोग अमन-चैन से जीना चाहते हैं, जो लोग धर्म को निजी आस्था का बनाए रखना चाहते हैं, वे लोग क्या करें ? क्या उनको बचाने के लिए कोई है? कोई अदालत, कोई कानून, कोई सरकार कोई है? अभी तक का हमारा जो देखा हुआ है वह यही कहता है कि धर्म की अराजकता को कोई रोकना नहीं चाहते हैं, बल्कि लोग उसे बढ़ाते चले जाना चाहते हैं। राजनीति में धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा देने से लोगों को वोटों की शक्ल में फायदा होता है क्योंकि नफरत और हिंसा लोगों को आपस में तुरंत बांध लेते हैं, तुरंत जोड़ लेते हैं, और राजनीति ऐसा ही फेविकोल के समान मजबूत जोड़ चाहती है ताकि वोटरों को आपस में बांधा जा सके, उन्हें दूसरे धर्म का नाम लेकर डराया जा सके, अपने धर्म की रक्षा की जरूरत बताई जा सके, और यह साबित किया जा सके कि जिस नेता के नाम पर उनसे वोट मांगा जा रहा है वही एक नेता उनके धर्म को बचा सकता है। यह सिलसिला इस देश में बढ़ते चल रहा है और हर चुनाव धर्मांधता को सांप्रदायिकता को कट्टरता को कुछ और आगे तक बढ़ा देता है। ऐसे में सडक़ों पर बेकसूर लोग तकलीफ पाते रहेंगे, और पुलिस इस पूरी अराजकता को अनदेखा करने के लिए बेबस रहेगी क्योंकि उसे वैसा ही कहा गया है।
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पिछले दो-तीन दिनों में दुनिया के अलग-अलग देशों में जो वारदातें हुई हैं, उन्हें अगर देखें, तो धर्म और लोकतंत्र को लेकर एक बुनियादी टकराव खड़ा होते दिखता है। यूरोप के नार्वे में दो दिन पहले तीर-धनुष लेकर एक मुस्लिम नौजवान ने 5 लोगों को मार डाला। पुलिस का मानना है कि इस हमलावर ने इस्लाम अपनाया था, और ऐसा लग रहा है कि वह कट्टरपंथ के असर में था। पुलिस इसे एक आतंकी हमला मान रही है। दूसरी तरफ कल की ताजा खबर यह है कि ब्रिटेन में वहां के एक कंजरवेटिव सांसद सर डेविड अमेस को एक नौजवान ने चाकू के कई वार करके मार डाला। वे अपने चुनाव क्षेत्र के एक चर्च में आम लोगों से मुलाकात कर रहे थे, और यह गिरफ्तार किया गया नौजवान 25 साल का ब्रिटिश नागरिक बताया जाता है, जो कि सोमालिया से वहां आकर बसा था, और पुलिस का कहना है कि यह इस्लामिक अतिवाद से जुड़ा हुआ हो सकता है। एक तीसरी वारदात हिंदुस्तान में दिल्ली-हरियाणा के सिंघु बॉर्डर पर हुई है, जहां एक दलित नौजवान को सिक्ख निहंगों ने तलवार से काटकर उसके शरीर के हिस्से, और उसके धड़ को टांग दिया और सार्वजनिक जगह पर उसकी नुमाइश की। इस हत्या की जिम्मेदारी लेते हुए निहंगों ने यह कहा कि उसने एक धार्मिक ग्रंथ का अपमान किया था और इसकी सजा देने के लिए हत्यारे निहंग का बाकी निहंगों ने सम्मान करते हुए पुलिस के सामने समर्पण के लिए भेजा। यह ग्रंथ सिखों के सबसे पवित्र माने जाने वाले गुरु ग्रंथ साहिब से अलग एक ग्रंथ है जिसके कुछ हिस्सों को सिख मानते हैं, और कुछ हिस्सों को वे नहीं मानते। फिर मानो यह मामला काफी न हो, हाल के चार-छह दिनों में ही बांग्लादेश में दुर्गा पूजा के दौरान हिंसक मुस्लिम भीड़ ने इस्कॉन मंदिर और दुर्गा पूजा पंडालों पर हमला किया, कई प्रतिमाओं को तोड़ा, और कई हिंदुओं को मार डाला। अभी तक वहां आधा दर्जन हिंदू मारे जा चुके हैं।
इस पूरे सिलसिले को देखें तो दुनिया भर में अलग-अलग जगहों पर धर्म से जुड़े हुए लोग तरह तरह से लोगों की हत्या कर रहे हैं। खासकर दिल्ली-हरियाणा सीमा पर निहंगों ने जिस तरह एक दलित के टुकड़े-टुकड़े करके टांगे हैं, उसकी तो कोई मिसाल भी हिंदुस्तान में याद नहीं पड़ती है। और इस बात पर बाकी निहंगों को फख्र है. क्योंकि यह क़त्ल किसान आंदोलन के पास हुआ है, इसलिए बदनामी आज किसानों पर भी आ रही है। इनसे परे अभी-अभी अफगानिस्तान में काबिज हुए तालिबान के राज को देखें तो वहां पर इस्लामी आतंकी संगठन आई एस के हमले जारी हैं, और वह शिया मुस्लिमों की मस्जिदों पर, उनके जनाजे पर लगातार हमले कर रहे हैं, और एक-एक हमले में दर्जनों लोगों को मार रहे हैं। अफगानिस्तान के यह सारे के सारे लोग एक ही खुदा को मानने वाले लोग हैं, उनके रिवाजों और तौर-तरीकों में थोड़ा सा फर्क है, लेकिन सभी मुसलमान हैं, और एक-दूसरे को इतनी बड़ी संख्या में बिना किसी उकसावे के, बिना किसी वजह के, आतंक से मार रहे हैं।
अफगानिस्तान तो अभी किसी लोकतंत्र से कोसों दूर है, लेकिन जो लोग ब्रिटेन या नार्वे या हिंदुस्तान जैसे लोकतंत्र में जीते हुए यहां की सारी लोकतांत्रिक सहूलियतों का मजा लेते हैं, सारे अधिकार पाते हैं, वे भी धर्म की बारी आने पर किसी भी किस्म की हिंसा करने पर उतारू हो जाते हैं। एक दूसरी घटना अभी कुछ ही दिन पहले न्यूजीलैंड में सामने आई थी जहां पर श्रीलंका से गए हुए एक मुस्लिम छात्र ने चाकू से हमला करके आधा दर्जन लोगों को घायल कर दिया था। सितंबर के पहले हफ्ते में हुई इस वारदात में न्यूजीलैंड गया हुआ यह छात्र 2011 से वहां पढ़ रहा था, लेकिन उसकी शिनाख्त चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट के समर्थक की थी। इसने जब कई लोगों को चाकू के हमले से घायल कर दिया, तो पुलिस ने मौके पर ही उसे मार डाला।
अब सवाल यह उठता है कि लोकतंत्र में जहां सभी देशों से आए हुए, या सभी धर्मों के लोगों को बराबरी से मौका मिलता है, वहां पर अगर कुछ धर्मों के लोग लगातार हिंसा करते हैं, तो उससे सबसे बड़ा नुकसान उन्हीं के धर्मों के बाकी लोगों को होता है जो शक के घेरे में आ जाते हैं, और जिनकी विश्वसनीयता खत्म हो जाती है। हिंदुस्तान में भी जब पंजाब में आतंकवाद फैला हुआ था और भिंडरावाले के आतंकी स्वर्ण मंदिर से बाहर निकल लगातार आतंकी वारदातें करते थे छंाट-छांटकर गैरसिक्खों को मारते थे, तब भी पूरे हिंदुस्तान में सिखों के खिलाफ एक सामाजिक तनाव बना हुआ था। आज भी जब पाकिस्तान में हिंदू मंदिरों पर हमले होते हैं, तो हिंदुस्तान में हिंदुओं की एक नाराजगी मुस्लिमों के खिलाफ होती है। ठीक वैसी ही नाराजगी आज बांग्लादेश को लेकर हिंदुस्तान में है। और ठीक ऐसी ही नाराजगी यूरोप के देशों में या न्यूजीलैंड में मुस्लिम समुदाय के लोगों को लेकर खड़ी हुई है, या दूसरे देशों से वहां आए हुए शरणार्थियों को लेकर स्थानीय लोगों के भीतर एक तनाव खड़ा हुआ है।
दुनिया का इतिहास इस बात को बताता है कि धार्मिक कट्टरता और लोकतंत्र का कोई सहअस्तित्व नहीं है। वे एक साथ नहीं चल सकते। लोग जब धर्म को लेकर कट्टर हो जाते हैं तो उनके लिए किसी देश का संविधान, या वहां की शासन व्यवस्था जरा भी मायने नहीं रखते। यह हिंदुस्तान में बहुत से धर्मों को लेकर बहुत से मामलों में सामने आ चुकी बात है, और पूरी दुनिया ऐसी धर्मांधता को भुगतते रहती है। दुनिया के जिस-जिस लोकतंत्र में राजनीतिक दल या सामाजिक संगठन धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा दे रहे हैं उन्हें यह बात समझ लेना चाहिए कि आज तो धार्मिक आतंकी लोग दूसरे धर्म के लोगों पर हमला कर रहे हैं, कल वे अफगानिस्तान की तरह अपने धर्म के ही दूसरी पद्धति से पूजा करने वाले लोगों पर हमला करेंगे और अधिक समय नहीं लगेगा जब वह लोकतंत्र पर हमला करने लगेंगे, और अपनी धार्मिक मान्यताओं को लोकतंत्र और संविधान से बहुत ऊपर मानने लगेंगे। लोगों को याद होगा हिंदुस्तान में बहुत बरस तक चले राम मंदिर आंदोलन का नारा ही यही था कि मंदिर वहीं बनाएंगे। अब जो मामला अदालत में चल रहा था वहां अदालत का फैसला आने के दशकों पहले से अगर लोग मंदिर वही बनाने को लेकर एक उग्र और हिंसक आंदोलन चला रहे थे और भीड़ की शक्ल में जाकर उन्होंने बाबरी मस्जिद को गिरा दिया था, तो यह समझने की जरूरत है कि धर्मांध और कट्टर भीड़ किसी कानून को नहीं मानती। दुनिया के अलग-अलग देशों की इन वारदातों को लेकर लोगों को यह सोचना चाहिए कि क्या वे लोकतंत्र खत्म करने की कीमत पर भी अपने धर्म को हिंसक और हमलावर बनाना चाहते हैं?
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एक योगी कहे जाने वाले आदमी की चलाई जा रही उत्तर प्रदेश सरकार के तहत इस राज्य का हाल ऐसा हो गया है कि देखकर हैरानी होती है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कुछ महीने बाद के चुनाव की तैयारी में आज हिंदुस्तान के अधिकतर समाचार चैनलों पर कई-कई मिनट का इश्तहार लेकर मौजूद हैं और यह साबित करने में लगे हुए हैं कि वहां एक रामराज्य चल रहा है। लेकिन हालत यह है कि उत्तर प्रदेश सांप्रदायिक घटनाओं से भरा हुआ है, बलात्कारों से भरा हुआ है, सत्तारूढ़ भाजपा के लोगों की गाडिय़ों से कुचले हुए किसानों की लाशें अभी आंखों के सामने ही हैं. खुद मुख्यमंत्री के गोरखपुर शहर में योगीराज का विकास देखने बाहर से आकर ठहरे हुए एक शरीफ इंसान को पुलिस आधी रात होटल के कमरे से निकालकर पीट-पीटकर मार डाल रही है, और सरकार को उसकी पत्नी को सरकारी नौकरी देनी पड़ रही है। खबरों की किसी भी वेबसाइट को खोलें तो उत्तर प्रदेश के तरह-तरह के जुर्म भरे पड़े रहते हैं। और जुर्म केवल सत्तारूढ़ लोग कर रहे हैं ऐसा भी नहीं है, अयोध्या की खबर सामने है कि दुर्गा पूजा के दौरान फायरिंग, एक मौत, दो बच्चियां गंभीर, एक दूसरी खबर है कि रामलीला के मंच पर अश्लीलता रोकने गए दारोगा, सिपाहियों को भीड़ ने दौड़ाया, इस तरह की खबरें उत्तर प्रदेश से हर दिन दर्जनों की संख्या में आ रही हैं। मतलब यही है कि वहां राजकाज बदहाल है और राम का नाम लेकर जैसे रामराज को गिनाया जा रहा है उसे सुनकर अगर राम कहीं हैं तो वह भी बेहद शर्मिंदा होंगे। अब कहने के लिए यह कहा जा सकता है उत्तर प्रदेश तो हमेशा से ऐसे जुर्म से भरा हुआ राज रहा है, कोई यह भी कह सकते हैं कि मुलायम सिंह और अखिलेश यादव के राज में और ज्यादा जुर्म होते थे, कोई यह भी कह सकते हैं कि बसपा की मायावती मुख्यमंत्री थी तब भी जुर्म बहुत होते थे। लेकिन राम का नाम लेकर काम करने वाले, बिना परिवार वाले, अपने-आपको योगी और सन्यासी बताने वाले एक मुख्यमंत्री के राज में भी अगर यही हाल होना है तो फिर क्या बदला है? और यह तो इस राज्य का पांचवां साल चल रहा है, पांचवें साल के आखिरी महीने चल रहे हैं। उत्तर प्रदेश की पुलिस की हरकतें पूरी तरह से सांप्रदायिक भी दिखती हैं, जातिवादी दिखती हैं, और अपार हिंसा वहां की पुलिस के कामकाज में सामने आ रही है। बलात्कार की शिकार कोई लडक़ी या महिला थाने पहुंचे तो उसके साथ और बलात्कार हो जाए, इस किस्म की बातें वहां से आती हैं।
यह उत्तर प्रदेश हिंदुस्तान को सबसे अधिक प्रधानमंत्री देने वाला प्रदेश रहा है, और महज कांग्रेस के प्रधानमंत्री नहीं, कई पार्टियों के प्रधानमंत्री यहां से दिल्ली पहुंचे हैं। ऐसे में यह प्रदेश न केवल पिछड़ा रह गया, न केवल अनपढ़ रह गया, न केवल आबादी अंधाधुंध बढ़ाने वाला रह गया, बल्कि यह प्रदेश देश की सबसे हिंसक पुलिसवाला प्रदेश बन गया है, और देश में सांप्रदायिकता शायद सत्ता की मर्जी से इस हद तक तो किसी और प्रदेश में चलती नहीं दिखती है। रही सही कसर किसान आंदोलन पर केंद्रीय मंत्री के बेटे का कार चढ़ा देना था, तो वह भी हो गया है और उत्तर प्रदेश सरकार से लेकर भारत सरकार तक के लिए एक शर्मिंदगी की बात खड़ी हुई है।
ऐसे उत्तर प्रदेश में इस चुनाव में भाजपा के सामने आज कम से कम तीन पार्टियां तो दिख रही हैं जिनमें समाजवादी पार्टी की संभावनाएं सबसे अधिक बताई जा रही हैं, उसके बाद बसपा की, और उसके बाद कुछ लोगों का कहना है कि कांग्रेस को भी कुछ सीटें मिल सकती हैं। अभी-अभी एक चुनावी सर्वे सामने आया जो कांग्रेस को शायद दो-चार सीटें दे रहा है। चुनावी नतीजे आने के बाद कांग्रेस को कितनी सीटें मिलती हैं, और कितने वोट मिलते हैं, यह साफ होगा। लेकिन आज जब उत्तर प्रदेश में सरकार का इतना खराब हाल है तो कुछ लोगों का यह भी मानना है कि भाजपा के खिलाफ समाजवादी पार्टी की संभावनाएं बहुत बड़ी हैं। और इसी के साथ-साथ कुछ लोगों का यह भी मानना है कि कांग्रेस वहां पर वोट काटने वाली एक पार्टी बनकर रह गई है, और प्रियंका गांधी को जितनी शोहरत मिलेगी, उतना ही नुकसान समाजवादी पार्टी का होगा। अब इस बात को बंगाल की मिसाल से समझना बेहतर होगा कि जिस बंगाल में भाजपा की संभावनाएं अंधाधुंध देखी जा रही थीं, और ममता को लोग डावांडोल मान रहे थे वहां पर कांग्रेस और वामपंथी जब शून्य पर चले गए, और ममता बनर्जी आसमान पर चली गईं, और भाजपा को बुरी तरह पीछे छोड़ा। अब अगर उत्तर प्रदेश में वैसी ही एक नौबत आनी है, तो यह जाहिर है कि कांग्रेस वहां पर भाजपा के परंपरागत वोटों में तो कोई सेंध लगा पाने से रही, वह समाजवादी पार्टी या बसपा को मिलने जा रहे ऐसे ही कुछ वोटों को कम करके अपनी थोड़ी सी गुंजाइश निकाल सकती है। ऐसे माहौल में लोग अगर भाजपा को हराने की सोच रहे हैं, तो लोगों को यह भी सोचना पड़ेगा कि क्या गैरभाजपा पार्टियां एक दूसरे के मुकाबले उम्मीदवार खड़े करके सचमुच ही भाजपा को हरा पाएंगी?
पिछला विधानसभा चुनाव गैरभाजपा दलों ने सीटों का बंटवारा करके लड़ा था और सबका तजुर्बा एक दूसरे से खराब था। चुनाव के तुरंत बाद ही सपा, बसपा, और कांग्रेस सभी ने यह कह दिया था कि अब साथ में मिलकर कोई चुनाव नहीं लड़ा जाएगा। ऐसे में यह भाजपा के लिए बड़ी सहूलियत की बात है कि उसके मुकाबले कोई एक अकेला ताकतवर उम्मीदवार नहीं रहने वाला है, और दो-तीन उम्मीदवार गैर भाजपा वोटों को बाटेंगे। फिर मानो यह तीन पार्टियां काफी नहीं हैं इसलिए हैदराबाद शहर के एक हिस्से के राष्ट्रीय नेता असदुद्दीन ओवैसी भी मैदान में आ गए हैं, और वे लगातार मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण की एक ऐसी हमलावर कोशिश कर रहे हैं कि जिससे मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण हो या ना हो, हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण भाजपा के पक्ष में जरूर हो जाए। और उनका मकसद भी शायद यही है. ओवैसी चुनाव के पहले से जिस तरह से भाजपा को फायदा पहुंचाने वाला माहौल बनाने लगते हैं, उससे ऐसा लगता है कि वे भाजपा की एडवांस पार्टी हैं जो कि चुनावी राज्य में पहुंचकर भाजपा के लिए शामियाना बांधने का काम करते हैं। इसलिए आज उत्तर प्रदेश चाहे कितना ही बदहाल क्यों ना हो, जुर्म से कितना ही लदा हुआ क्यों ना हो, इस प्रदेश में चुनाव में विपक्ष जिस हद तक बिखरा हुआ है, और एक दूसरे के खिलाफ है, उससे योगीराज को खतरा कम ही दिखाई पड़ता है। आने वाले महीने बताएंगे कि भाजपा उत्तर प्रदेश में कितनी कामयाबी पाती है, लेकिन यह बात है कि अगर विपक्ष टुकड़ा-टुकड़ा रहे, तो फिर सरकार को अधिक मेहनत करने की जरूरत भी नहीं रहती, और सरकार के सारे कुकर्म धरे रह जाते हैं, उसे कोई सजा नहीं मिल पाती।
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छत्तीसगढ़ के आदिवासी मुद्दे धीरे-धीरे, और अलग-अलग, सुलग रहे हैं, और शायद राजनीतिक दलों और सरकारों को इसका एहसास नहीं हो रहा है, इनके बारे में जानते हुए भी उन्हें इसकी कोई फिक्र नहीं है। एक अजीब बात यह है कि कांग्रेस और भाजपा इन दोनों की सरकारों में आदिवासियों के नाम पर सरकारी रुख में कोई बड़ा फर्क नहीं दिख रहा है। आज इस मौके पर लिखना इसलिए भी जरूरी लग रहा है कि छत्तीसगढ़ के एक हिस्से से हसदेव के जंगलों को कोयला खदानों से बचाने के लिए सैकड़ों आदिवासी, रायपुर पहुंच रहे हैं। दूसरी तरफ एक अलग मुद्दे को लेकर बस्तर के आदिवासी 300 किलोमीटर चलकर, भारत के संविधान को थामे हुए राजधानी पहुंचे हैं, उनकी मांग है कि उनके अधिसूचित क्षेत्रों में राज्य सरकार ने जिस तरह पंचायतों को नगर पंचायत में तब्दील कर दिया है, उस असंवैधानिक फैसले को रद्द किया जाए और उन्हें वापस ग्राम पंचायत बनाया जाए। यह मामला थोड़ा सा जटिल है, लेकिन आदिवासियों के अधिसूचित क्षेत्रों में उनकी मर्जी के खिलाफ राज्य सरकार को ऐसा करने का कोई हक नहीं है. यह एक और बात है कि भाजपा की पिछली रमन सिंह सरकार ने भी ऐसा किया था, और उस वक्त के राज्यपाल शेखर दत्त ने उसके खिलाफ सरकार को लिखा भी था। आज कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार ने भी ऐसा ही किया है और राज्यपाल अनुसुइया उइके ने भी इसके खिलाफ राज्य शासन को चिट्ठियां लिखी हैं। इन चिट्ठियों का कोई जवाब न तो उस समय राजभवन को मिला, और न ही शायद अभी की राज्यपाल को ही इसका कोई जवाब मिला है। दूसरी तरफ बस्तर के आदिवासी जिस तरह संविधान को एक पवित्र ग्रंथ मानते हुए उसे लेकर 300 किलोमीटर पैदल राजधानी पहुंचे हैं, वह नजारा पहली बार देखने मिल रहा है। और कुछ बरस पहले जब झारखंड के आदिवासी इलाकों में गांव के लोगों ने अपने इलाके में एक पत्थर डालकर वहां अपनी सरकार और अपना अधिकार कायम करने का पत्थलगड़ी आंदोलन शुरू किया था, उसमें भी आदिवासी संविधान की किताब को सामने रखकर बात करते थे, और सिर्फ यही बात करते थे कि वह इस संविधान को लागू करने की मांग कर रहे हैं। आज बरसों बाद छत्तीसगढ़ के बस्तर के आदिवासी शायद पहली ही बार संविधान को उस तरह थाम कर राजधानी पहुंचे हैं, और सरकार का दरवाजा खटखटा रहे हैं।
कोयला खदानों से अपने जंगलों को बचाने के लिए हसदेव के इलाके से जो आदिवासी राजधानी पहुंचे हैं, उन्हें अब तक शायद मुख्यमंत्री से मिलने का वक्त नहीं मिला है। दूसरी बात यह है कि छत्तीसगढ़ के उत्तर और दक्षिण से अलग-अलग मुद्दों को लेकर पहुंचे हुए इन आदिवासियों के साथ किसी राजनीतिक दल के लोग भी नहीं हैं। इन्हें सामाजिक आंदोलनकारियों का साथ मिला है, मीडिया का कुछ तबका उनके साथ है, और सरकार का रुख अब तक सामने आया नहीं है। हमने शुरुआत में ही अलग-अलग आदिवासी मुद्दों की जो बात की है, उनमें से एक और मुद्दा बस्तर का है जहां पर केंद्रीय सुरक्षा बलों का एक कैंप बनाने का विरोध करते हुए ग्रामीण आदिवासियों पर सुरक्षाबलों की गोलियां चली थी और उन में कुछ लोग मारे गए थे। वह आंदोलन भी खत्म नहीं हुआ है, सिलगेर का वह आंदोलन चल ही रहा है, और उसकी चर्चा पूरे देश में चल रही है। ठीक उसी हसदेव के जंगल बचाओ आंदोलन की चर्चा अब पूरी दुनिया में होने जा रही है क्योंकि दुनिया की सबसे बड़ी पर्यावरण आंदोलनकारी युवती ग्रेटा थनबर्ग ने कल ही छत्तीसगढ़ के हसदेव के जंगल बचाओ आंदोलनकारियों के एक वीडियो को रीट्वीट किया है।
ऐसा भी नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा होने से भारत सरकार या भारत के किसी राज्य की सरकार की सेहत पर कोई फर्क पड़ता है। आज की राजनीतिक व्यवस्था ऐसी संवेदनशीलता से बहुत ऊपर उठ चुकी है, और अब राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंच पर जो कुछ कहा जाता है, उससे पूरी तरह अछूता रहना एक राजनीतिक हुनर हो चुका है। लेकिन छत्तीसगढ़ में इस किस्म के आदिवासी मुद्दों को बिना सुलझाए छोड़ देना राज्य के लिए शायद आज कोई खतरा न भी हो, लेकिन यह तय है कि लंबे वक्त में ऐसी अनसुलझी बातें बड़ा खतरा बन सकती हैं। बस्तर में पिछले कुछ दशक से जो नक्सल हिंसा चल रही है, वह अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा रहते हुए बस्तर की अनदेखी का नतीजा है। आज छत्तीसगढ़ सरकार को इन मुद्दों को राजभवन से आने वाली चिट्ठी, या सडक़ों पर निकल रहे जुलूस तक सीमित मानकर इनकी तरफ से लापरवाह नहीं होना चाहिए। एक तो बस्तर में नक्सल हिंसा अब तक जारी है और उसे बातचीत से सुलझाने की कोशिश मौजूदा सरकार में भी शुरू भी नहीं हो पाई है, ऐसे में नए-नए मुद्दे और खड़े हो जाना एक सबसे खतरनाक बात है। अभी-अभी बस्तर-सरगुजा के कुछ चयनित शिक्षकों ने भर्ती की मांग को लेकर ऐसे बैनर को लेकर फोटो खिंचवाई है कि अगर उनकी मांग पूरी नहीं होगी तो वे नक्सली बन सकते हैं। ऐसा माहौल ठीक नहीं है जिसमें कि लोग नक्सली बनने की बात सोचने लगें, करने लगें, और उसके बैनर छपवा कर तस्वीरें खिंचवाने लगें। सरकार को आदिवासियों के सभी तबकों से बात करनी चाहिए, हसदेव के आंदोलनकारियों के आ रहे जत्थे से भी बात करनी चाहिए क्योंकि बातचीत से अगर कोई रास्ता नहीं निकलता है तो हो सकता है कि लोग अदालत जाएं और अदालत में सरकार की शिकस्त हो। लोकतांत्रिक निर्वाचित सरकार को अपनी जनता से बातचीत के दरवाजे हमेशा खुले रखने चाहिए और मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को इन दोनों इलाकों से आ रहे अलग-अलग आदिवासी जत्थों से लंबी बातचीत करने का समय निकालना चाहिए और मुद्दों को सुलझाने की कोशिश करनी चाहिए।
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ब्रिटेन के ग्लासगो में इसी महीने के आखिर में दुनिया भर से पर्यावरण के विशेषज्ञ इकट्ठे होने वाले हैं जिनमें अधिकतर देशों की सरकारों के प्रतिनिधि भी रहेंगे। पर्यावरण आंदोलनकारियों से लेकर पर्यावरण पत्रकारों तक सबने वहां पहुंचने की तैयारी कर ली है और ऐसा माना जा रहा है कि आने वाले कुछ वर्षों में यह धरती बचाई जाए या ना बचाई जाए इसका फैसला ग्लासगो में होने जा रहा है। लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले जब अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति थे उस वक्त पेरिस में एक क्लाइमेट समिट हुई और अमेरिका ने उससे बाहर निकलने की घोषणा कर दी थी। ऐसे पर्यावरण सम्मेलनों का एक मकसद यह होता है कि दुनिया के विकसित देश पर्यावरण बहुत अधिक तबाह कर रहे हैं, वे दुनिया के विकासशील और गरीब देशों में पर्यावरण को बचाने के लिए आर्थिक योगदान दें ताकि धरती का औसत पर्यावरण बेहतर हो सके, लेकिन बहुत से देशों ने इस जिम्मेदारी से हाथ खींच लिया था। अब ग्लासगो में एक बार फिर यह सामने आएगा कि किस देश का कैसा रुख है।
कुछ समय पहले हमने इसी जगह पर इस मुद्दे पर लिखा था, लेकिन कल ब्रिटिश अखबार गार्डियन ने यह कहा है कि आगे जाकर जब कभी 2021 का इतिहास लिखा जाएगा तो इस दौर को अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी, या कोरोना की वजह से याद नहीं किया जाएगा, बल्कि इस बात के लिए याद किया जाएगा कि दुनिया के देशों ने पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाना तय किया, या उससे मुंह चुराया। यह बात कुछ हफ्ते बाद होने जा रही इस ग्लासगो सम्मेलन को लेकर कहीं गई है, और इसके साथ-साथ दुनिया भर में यह चर्चा हो रही है कि मौसम की जो अभूतपूर्व बुरी मार दुनिया के देशों पर पड़ रही है, सौ-पचास बरसों में जैसी बाढ़ नहीं आई थी, वैसी बाढ़ आ रही है, जैसी बारिश नहीं हुई थी, वैसी बारिश हो रही है, जैसा सूखा नहीं पड़ा था, वैसा सूखा पड़ रहा है, और अमेरिका से लेकर रूस तक के जंगलों में जैसी आग लग रही है, वैसी किसी ने देखी नहीं थी। ऑस्ट्रेलिया के जंगलों की भयानक आग की तस्वीरें और भयानक हैं, जिनमें कंगारू खड़े-खड़े अपनी जगह पर ही जल गए और अब उनका ठूंठ वहां खड़ा हुआ है।
इस बीच अमेरिका के कैलिफोर्निया से खबर आ रही है कि वहां पर ऐसा भयानक सूखा पड़ा है कि लोगों ने अपने घरों में हवा से पानी बनाने वाली मशीनें लगाई हैं। हवा से नमी को इक_ा करके या हवा से ऑक्सीजन और हाइड्रोजन को लेकर पानी बनाने की तकनीक तो पहले से है, लेकिन आज लोगों को अपने खुद के लिए, अपने घरों की सफाई के लिए, अपने पेड़-पौधों और पालतू जानवरों के लिए पानी की जिस तरह कमी पड़ रही है, वह किसी ने कभी देखी-सुनी नहीं थी। लोगों ने यह जरूर सुना था कि कुछ दूरदर्शी लोग यह कहते थे कि दुनिया का तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए होगा। तब भी बात उन लोगों को समझ नहीं आती है जिनके घरों पर जमीन के नीचे से पानी निकालने के लिए पंप लगे हुए हैं और जिन्हें खुद पानी की कोई कमी नहीं है। लेकिन अब लोगों को यह समझ आने लगा है कि पंप हैं भी तो उन्हें सौ-सो दो-दो सौ फीट और गहरे उतरना पड़ रहा है, तब जाकर पानी मिल रहा है। हिंदुस्तान के भीतर ही महाराष्ट्र के कुछ इलाकों की ऐसी भयानक तस्वीरें आती हैं जिनमें महिलाएं जान पर खेलकर गहरे कुएं में उतरकर वहां से किसी तरह रिसते हुए पानी को घड़ों में इकठ्ठा करके लंबी रस्सी से ऊपर पहुंचाती हैं, और उन्हें कई किलोमीटर दूर घरों तक ले जाया जाता है। कहने के लिए तो हिंदुस्तान ने स्वच्छ भारत मिशन के नाम पर जगह-जगह फ्लश से चलने वाले शौचालय बना लिए हैं। लेकिन हर घर में शौचालय बनाने कि यह सोच कुल मिलाकर महिला की कमर ही तोड़ रही है। कई जगहों पर तो कई किलोमीटर दूर से पानी लाना पड़ता है, और तब कहीं जाकर उन शौचालयों का इस्तेमाल हो सकता है, क्योंकि वहां फ्लश करने के लिए अधिक पानी लगता है।
हिंदुस्तान में पानी की दिक्कत एक बात है लेकिन पूरी दुनिया में पर्यावरण पर छाया हुआ खतरा एक अलग मुद्दा है जो कि पानी से अधिक व्यापक है। पानी की बात तो अमेरिका के सबसे विकसित प्रदेश में पानी की कमी को देखकर याद पड़ रहा है जहां लाखों रुपए की मशीन लगाकर ढेरों बिजली जलाकर एक-एक घर के लिए पानी बनाया जा रहा है हिंदुस्तान में ना तो किसी के पास पानी के लिए ऐसी मशीनें खरीदने को पैसा है और ना ही इतनी बिजली ही है। लोगों को यह भी समझने की जरूरत है कि खुद हिंदुस्तान के भीतर ही पानी की कमी अकेला पर्यावरण मुद्दा नहीं है, हिंदुस्तान में हवा में इतना जहर घुला हुआ है कि शहरों में जीना मुश्किल है, लोग अधिक बीमार होने पर दिल्ली के बाहर जाकर बसने की सोचने लगते हैं, और हवा के प्रदूषण से हिंदुस्तान में हर बरस लाखों लोगों के बेमौत मरने का एक अंदाज है। ऐसे में पर्यावरण को केवल पानी तक सीमित मानना ठीक नहीं होगा, आज तो जिस तरह से कोयले से चल रहे बिजलीघर हैं, और कोयले से बिजली के वायु प्रदूषण पर पूरी दुनिया में फि़क्र जाहिर की जा रही है, तो वह भी एक बात है। हिंदुस्तान में जहां पर गरीब अधिक हैं, और जहां पर डीजल-पेट्रोल दुनिया में सबसे महंगा है, वहां पर भी न तो केंद्र सरकार ने, न किसी राज्य सरकार ने निजी गाडिय़ों को घटाने के लिए सार्वजनिक परिवहन को पर्याप्त बढ़ावा दिया है। आज भी देश के महानगरों से लेकर देश के छोटे शहरों तक कहीं भी इस बात की पर्याप्त योजना नहीं बनाई गई है कि कैसे मेट्रो, बस या कोई और तरीका निकालकर निजी गाडिय़ों को घटाया जाए। इससे पर्यावरण का नुकसान बढ़ते चल रहा है क्योंकि हर दिन हिंदुस्तान में दसियों हजार गाडिय़ां सडक़ों पर बढ़ जाती हैं।
पर्यावरण को लेकर मुद्दे इतने अधिक हैं कि जिसके हाथ जो मुद्दा लगता है, जिसकी समझ जहां तक जाती है, वे उसे ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण मान लेते हैं। लेकिन हिंदुस्तान के सामने गांधी की एक मिसाल है जिन्होंने किफायत से जिंदगी जीने की बात कही थी, कम से कम सामानों के इस्तेमाल की बात कही थी, और जो एक लंगोटी जैसी आधी धोती में पूरी जिंदगी गुजार रहे थे, और अपनी जिंदगी को एक मिसाल की तरह लोगों के सामने रख रहे थे। ऐसे गांधी के देश में किफायत नाम का शब्द ही आज कहीं सुनाई नहीं पड़ता है। गांधी की मेहरबानी से देश आजाद हुआ यहां लोकतंत्र आया, लेकिन इस लोकतंत्र का उपभोग करने वाले सत्तारूढ़ लोग जिस बेदर्दी के साथ एक-एक घर-दफ्तर में दर्जनों एसी चलाते हैं, गाडिय़ों का काफिला लेकर चलते हैं, सामानों की अंधाधुंध खपत करते हैं, और इन सबका बोझ पर्यावरण पर पड़ता है। आज गरीब जनता के पैसों से सरकारें अपने लिए बड़ी-बड़ी इमारतें बनाती हैं, और सरकार चला रहे लोग अपने लिए बड़े-बड़े बंगले बनाते हैं। जब जनता के पैसों से सत्ता को कुछ लेना रहता है या बनाना रहता है तो वह सब कुछ बहुत बड़ा-बड़ा बनाती है बहुत बड़ी-बड़ी गाडिय़ां लेती है।
ग्लासगो में दुनिया भर के मुद्दों पर जो भी चर्चा हो, हिंदुस्तान को तो अपने भीतर के बारे में भी देखना चाहिए। इसके भीतर पर्यावरण को बचाने की अभी अपार संभावनाएं हैं। और इतने वर्षों में जितना हमने देखा है, उसके मुताबिक सत्ता पर बैठे हुए लोग, और अति संपन्न तबके पर्यावरण को बर्बाद करने के सबसे बड़े गुनहगार हैं। इस बारे में भी जनता को सार्वजनिक बात करना चाहिए।
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नेताओं में जो सत्ता पर सवार हो जाते हैं वे अपने-आपको दुनिया के हर विषय में माहिर, जानकार, और विशेषज्ञ मान लेते हैं। वे बड़े से बड़े तकनीकी फैसले खुद करने लगते हैं उनके सामने इंजीनियरिंग की कोई कीमत नहीं होती है, उनके सामने किसी योजना या विज्ञान की किसी दूसरी ब्रांच की कोई जरूरत नहीं होती है, और वे लड़ाकू विमानों से लेकर अंतरिक्ष यान तक को रास्ता बता सकते हैं। नतीजा यह होता है कि सत्ता सिर चढक़र बोलने लगती है और ऐसे में तानाशाही, मूर्खता, धर्मांधता, और कट्टरता की बातें खुलकर सामने आती हैं। अभी कर्नाटक के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. के सुधाकर ने विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस पर बेंगलुरु में देश के सबसे बड़े मानसिक स्वास्थ्य केंद्र निमहंस में भाषण देते हुए कहा कि भारत की आधुनिक महिलाएं अकेले रहना चाहती हैं, और अगर वे शादी करती भी हैं तो भी वे बच्चे पैदा करना नहीं चाहतीं, और वे सरोगेसी से बच्चे चाहती हैं। उन्होंने अपनी सोच के पीछे के किसी अध्ययन की बात नहीं कही कि उन्होंने यह निष्कर्ष कैसे निकाला है, लेकिन हिंदुस्तानी समाज की साधारण जानकारी रखने वाले लोग भी आसानी से यह बात कह सकते हैं कि मंत्री की कही हुई ये बातें बिल्कुल ही बेबुनियाद और फिजूल की हैं, बेहूदी भी हैं।
आज हिंदुस्तानी समाज में कुछ फ़ीसदी लड़कियां और महिलाएं ही बिना शादी के रहती हैं, और तीन-चौथाई से अधिक आधुनिक महिलाएं भी शादी करती ही हैं. इनमें से भी तकरीबन तमाम महिलाएं बच्चे चाहती हैं, और बच्चे पाने के लिए कोशिश करती हैं। इनका एक बहुत छोटा सा हिस्सा ऐसा हो सकता है जो स्वाभाविक रूप से अपने बच्चे न होने पर सरोगेसी से बच्चे पैदा करने के बारे में सोचें, लेकिन भारत के सरोगेसी कानून के चलते हुए अब यह काम भी आसान नहीं रह गया है। नियम कानून से बचते हुए अघोषित रूप से किराए की कोख जुटाकर, डॉक्टरों का, अस्पताल का, लाखों रुपए का खर्च करके अगर कोई जोड़ा सरोगेसी से बच्चे पाता भी है तो उस पर बहुत आसानी से 15-20 लाख रुपए खर्च होते हैं। कर्नाटक के स्वास्थ्य मंत्री को यह अंदाज ही नहीं है हिंदुस्तान में कितने लोग एक बच्चा पाने के लिए इतनी रकम खर्च कर सकते हैं। ऐसी बेबुनियाद बात किसी महिला के बारे में लापरवाही से कहना बहुत से मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की आदत में शुमार हो चुका है. यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल जैसे लोग महिलाओं के बारे में ओछी बातें करने का एक मुकाबला चलाते रहते हैं, और उसकी दौड़ में खुद सबसे आगे रहते हैं. कर्नाटक के स्वास्थ्य मंत्री की यह बात उसी दर्जे की है। इस बात का जमकर जवाब देना चाहिए और मीडिया को उनसे पूछना चाहिए कि उन्होंने किस सर्वे या किस अध्ययन के आधार पर भारत की महिलाओं के बारे में या भारत की आधुनिक महिलाओं के बारे में ऐसी अच्छी बात कही है।
आज हालत यह है कि मंच, माइक, माला, और महत्व मिलने पर किसी भी सत्तारूढ़ मुंह से ऊटपटांग बात निकलना शुरू हो जाती है। लेकिन मीडिया इन बातों का तर्कसंगत जवाब हासिल करने के बजाए इन बातों को ज्यों का त्यों परोसकर अपना जिम्मा पूरा कर लेता है। जितने भी अखबारों और समाचार माध्यमों में हमने इस खबर को देखा है, किसी में भी मंत्री से कोई सवाल नहीं किया गया है, न तो कार्यक्रम के अंत में, और न बाद में। इसलिए जिस तरह सामाजिक और धार्मिक नेता मनमाने फतवे जारी करते हैं, उसी तरह सत्तारूढ़ मंत्री मनमानी बातें करने लगते हैं, और एक पूरे तबके का अपमान करने पर उतारू रहते हैं। यह मंत्री एक आदमी है और उसे अगर किसी तबके को पहले सुधारना चाहिए तो वह आदमियों के तबके को सुधारना चाहिए, लेकिन वैसी कोई कोशिश करने के बजाय वह जब महिलाओं का अपमान करने पर उतारू दिखता है तो महिला संगठनों को भी नोटिस भेजकर उससे पूछना चाहिए कि उसने यह बात किस आधार पर की है। वैसे तो अगर देश के महिला आयोग, मानवाधिकार आयोग, या प्रदेशों के भी ऐसे आयोग राजनीतिक मनोनयन से नहीं भरे गए होते, तो हो सकता है कि कोई महिला आयोग कर्नाटक के इस मंत्री को नोटिस भेजकर उससे जवाब मांगते।
हिंदुस्तान में धार्मिक पाखंडियों और उनकी मदद से सत्ता पर पहुंचे हुए लोगों ने यह आदत बना ली है कि वह आए दिन किसी न किसी बहाने भारत की लड़कियों और महिलाओं को नीचा दिखाने की कोशिश करें, उनको सीमाओं में बांधने की कोशिश करें, उनसे मोबाइल फोन छीनने की कोशिश करें, और उनके जींस के ऊपर सलवार-कुर्ता पहनाने की कोशिश करें। यह सब करने के साथ-साथ जब इन्हें गर्व करने की जरूरत लगती है तो इन्हें हिंदुस्तान की उन लड़कियों का ही मोहताज होना पड़ता है जो ओलंपिक तक जाकर मेडल लेकर आती हैं। इन्हें अपनी धार्मिक हसरत पूरी करने के लिए देवियों की प्रतिमाएं लगती हैं, और नवरात्रि पर उपवास करना जरूरी लगता है। लेकिन जब जिंदा लड़कियों और महिलाओं के सम्मान की बारी आती है तो इन्हें वह लड़कियां पैदा होने से पहले ही मार डालने के लायक लगती हैं, या नाबालिग रहते हुए शादी के लायक लगती हैं, या शादी के बाद पति के घर से अर्थी उठने तक बंधुआ मजदूर की तरह काम करने लायक लगती हैं। यह तो बात हिंदुस्तान की आम महिलाओं की है, लेकिन इससे परे जो कामकाजी महिलाएं हैं, जो शहरी या आधुनिक महिलाएं हैं, उनका अपमान करने का एक नया रास्ता कर्नाटक के इस मंत्री ने निकाला है, जिसे लोगों को जमकर धिक्कारना चाहिए।
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हिंदुस्तान के शहरों में आए दिन विपक्षी पार्टियां सत्तारूढ़ मुख्यमंत्री या किसी दूसरे मंत्री के पुतले जलाते दिखती हैं। ऐसे मौके पर पुलिस का यह जिम्मा हो जाता है कि सत्ता का पुतला न जलने दे। कई बार तो ऐसा होता है कि किसी थानेदार के इलाके में मंत्री या मुख्यमंत्री का पुतला जल गया तो नाराज होकर उसका तबादला कर दिया जाता है। इसलिए पहले तो पुतले को लेकर पुलिस छीना-झपटी करती है, उसके बाद भी अगर आंदोलन करने वाले लोग पुतले को बचा ले जाते हैं, या कहीं से दूसरा पुतला ले आते हैं, और जला देते हैं, तो पुलिस जवान और अफसर अपने जूतों से उस आग को बुझाने की कोशिश करते हैं कि सत्ता कहीं जल ना जाए। यह देखना दिलचस्प रहता है कि पुतला जलाने वाले लोग तो हाथों में, या सिर पर लादकर पुतला लाते हैं, लेकिन आग बुझाने के लिए पुलिस जूते मार-मारकर सत्ता की आग बुझाती है। पता नहीं इन दोनों में से कौन सी बात अधिक अपमानजनक है, प्रतीक के रूप में पुतले को जलाने की, या ऐसे जलते हुए पुतले को जूते मार-मारकर आग बुझाने की। लेकिन यह पुलिस का जिम्मा रहता है कि सत्ता का पुतला जल न पाए और इसके लिए जरूरत पड़ती है तो पुलिस आसपास की दुकानों से पानी की बोतल खरीद कर लाती है, और उनसे आग बुझाती है।
यह सिलसिला बड़ा बेहूदा है, और जिस पुलिस के मत्थे सैकड़ों-हजारों मामले बाकी रहते हैं, उसे इस तरह पुतले बचाने के लिए लगा दिया जाता है मानो पुतले कोई जादू-टोने वाले हैं, और उनसे उस नेता का सचमुच ही कोई बड़ा नुकसान होने वाला हो जिसका नाम बतलाकर पुतला जलाया जा रहा है। यह पूरा सिलसिला पुतले जलाने की हद तक तो लोकतांत्रिक है, लेकिन उसे जलने से रोकने के लिए पुलिस झोंक देने के मामले में अलोकतांत्रिक है। बिना किसी हिंसा के अगर किसी का पुतला जलाकर लोगों को तसल्ली मिलती है, तो वह सबसे कम नुकसानदेह विरोध प्रदर्शन है, और इसे होने देना चाहिए। बल्कि होना तो यह चाहिए कि हर शहर में जहां पर धरना-प्रदर्शन या आंदोलन के लिए जगह तय की गई है, वहां पर भट्टी वाली ईंटों से एक चबूतरा बना देना चाहिए, जहां पर पुतले जलाए जा सकें, और वे प्रदर्शनकारी चाहें तो वे अगले दिन वहां से पुतले का अस्थि संचय करके उसका विसर्जन भी कर सकें। लोकतंत्र में तो धरनास्थल पर ऐसे फंदे का इंतजाम भी कर देना चाहिए जिसमें लोगों को चाहिए तो किसी का पुतला बनाकर उसे फांसी दे सके। लोगों के मन की भड़ास और उनकी नाराजगी निकलने का कोई जरिया देना चाहिए। ऐसे तरीकों से अगर लोगों की नाराजगी निकल जाएगी तो हो सकता है कि वे दूसरों पर किसी हिंसा से बचें।
जापान में एक बड़ी दिलचस्प परंपरा है। वहां शहरी जिंदगी में इतनी कुंठा है, इतने किस्म के तनाव लोगों में हैं कि उससे आजाद होने के लिए लोग तरह-तरह के तरीके आजमाते हैं। वहां पर ऐसे पार्लर बने हुए हैं जहां पर लोग जा सकते हैं, और वहां जाकर अपनी मर्जी के सामान खरीद सकते हैं, और फिर भीतर बने हुए कमरों में उन सामानों को फेंककर, तोडक़र अपनी भड़ास निकाल सकते हैं, वहां वे चीख-चिल्ला भी सकते हैं, और अपनी क्षमता के मुताबिक खरीदा सामान तोड़ सकते हैं। इसके बाद वे भड़ासमुक्त होकर घर जा सकते हैं, ताकि वहां किसी का सिर ना तोड़ें, और घर के दूसरे सामान ना तोड़ें।
हिंदुस्तानी लोकतंत्र में प्रदर्शन एक आम बात है, और ऐसे में लोगों को अपनी भड़ास निकालने के लिए कई तरह की अहिंसक आजादी मिलनी चाहिए। अभी हमने देखा देशभर में जगह-जगह लोग बहुत हिंसक प्रदर्शन करते हैं, और हिंसा करते हैं। ऐसा भी हो सकता है कि लोगों को जब प्रतीकों में भी हिंसा करने ना मिले तो उनकी हिंसा की हसरत बची रह जाती होगी, और वे धीरे-धीरे जाकर असली हिंसा की शक्ल में निकलती होगी। अब यह बात तो सामाजिक मनोवैज्ञानिक जानकार बता सकते हैं कि आंदोलनकारियों और प्रदर्शनकारियों की मानसिक उत्तेजना को शांत करने के लिए कौन-कौन से लोकतांत्रिक तरीके मुहैया कराए जाने चाहिए।
किसान आंदोलन के तहत कल ही यह घोषणा की गई है कि लखीमपुर खीरी में किसानों से हुई हिंसा के खिलाफ 18 तारीख को देशभर में रेल रोको आंदोलन किया जाएगा। हम किसानों के मुद्दों से सहमत हैं, लेकिन रेलगाडिय़ां सरकार को नहीं ढोतीं जनता को ढोती हैं। आंदोलनकारियों के लिए यह मुमकिन नहीं होगा कि वे केंद्र सरकार के किसी भी विमान का उडऩा रोक सकें, इसलिए वे ट्रेन रोक रहे हैं। लेकिन इससे क्या होना है, बड़े नेता, बड़े अफसर ट्रेन में न सफर करते, न उनकी सेहत पर आम मुसाफिरों के घंटों लेट होने से भी कोई फर्क पड़ता। आंदोलन प्रतीकात्मक रूप से केंद्र सरकार का ध्यान खींचने वाला कहा जाएगा लेकिन प्रतीक से परे इसका असली असर आम जनता पर पड़ेगा जो वक्त पर इलाज के लिए नहीं पहुंच पाएगी, या किसी इम्तिहान या इंटरव्यू के लिए लोग नहीं पहुंच पाएंगे। इसलिए देश में आंदोलन के ऐसे तरीकों के बजाय तो पुतला जलाना बेहतर है जिससे बहुत मामूली सा प्रदूषण होता है, लेकिन और कोई नुकसान नहीं होता। इस 18 तारीख को देश में सैकड़ों-हजारों जगहों पर रेलगाडिय़ों को रोकने से मुसाफिरों को जो दिक्कत होगी, उसकी तुलना में पुतला जलाना एक बेहतर रास्ता है।
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छत्तीसगढ़ में सांप्रदायिक तनाव बहुत आम बात नहीं है। कहीं-कहीं पर किसी चर्च के पादरी पर, या प्रार्थना सभा करवा रहे पास्टर पर हमला जरूर होते रहा है, लेकिन सांप्रदायिक तनाव की वजह से कफ्र्यू लगाने की नौबत आ जाए ऐसा इसी हफ्ते शायद बरसों बाद हुआ है। भाजपा के भूतपूर्व मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह के अपने शहर और कबीरधाम जिला मुख्यालय कवर्धा में हिंदू-मुस्लिम तनाव के चलते हुए कई दिनों से कफ्र्यू लगा हुआ है। पुलिस ने हालात पर तेजी से काबू पाया इसलिए हिंसा अधिक नहीं बढ़ पाई, लेकिन दोनों समुदाय एक-दूसरे के सामने खड़े हुए हैं। इस झगड़े की शुरुआत कैसे हुई इस बारे में लोगों का अलग-अलग कहना हो सकता है, लेकिन एक बार जब बवाल खड़ा हो गया तो उसके बाद भाजपा और विश्व हिंदू परिषद के लोग दूसरे जिलों से भी वहां पहुंचे और तनाव बढ़ते चले गया। इस इलाके के आईजी का कहना है कि भाजपा और दूसरे संगठनों के लोगों ने दूसरे जिलों से लोगों को बुलाया और उसकी वजह से तनाव बढ़ा। भाजपा ने पुलिस अफसर की इस बात को अपमानजनक माना है और इस आरोप के खिलाफ पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराने भाजपा थाने भी पहुंची है। झगड़े की शुरुआत के जो वीडियो सामने आए हैं उनके मुताबिक एक चौराहे पर सरकारी खंभे पर किसी एक धर्म का झंडा लगा था, जिसे दूसरे धर्म के लोगों ने निकाल फेंका, और वहां से बात बढ़ती चली गई।
अभी कवर्धा से कई तरह के वीडियो सामने आ रहे हैं और उनकी हकीकत की जांच तो पुलिस या कोई दूसरी जांच एजेंसी ही करवा सकती हैं। लेकिन जिस तरह देश की राजधानी दिल्ली के इलाके में कुछ महीने पहले प्रशासन की मंजूरी न मिलने पर भी भाजपा के एक पदाधिकारी ने एक सभा की थी, और उस सभा में मौजूद कई लोगों के वीडियो तैरे जिनमें वे लोग मुस्लिमों के लिए एक सबसे अपमानजनक गाली का इस्तेमाल करते हुए नारे लगा रहे थे कि जब ———- काटे जायेंगे तो राम-राम चिल्लाएंगे। वह मामला अभी अदालत में चल रहा है, और लोग गिरफ्तार हो चुके हैं। ठीक वैसा ही एक वीडियो कवर्धा से निकलकर आया है जिसमें डॉ. रमन सिंह के बेटे, और इस इलाके के भूतपूर्व सांसद अभिषेक सिंह की अगुवाई में एक जुलूस निकल रहा है, और इसमें लाउडस्पीकर पर वही हिंसक नारा लगाया जा रहा है कि जब ———- काटे जायेंगे तो राम-राम चिल्लाएंगे। यह वीडियो 5 दिनों से घूम रहा है, और अभिषेक सिंह या भाजपा के किसी और नेता ने इसका कोई खंडन नहीं किया है। इसलिए यह मानने की कोई वजह नहीं दिख रही यह फर्जी है। फिर फिर भी आगे मामले-मुकदमे के लिए तो पुलिस को इसकी जांच करवानी ही होगी, और देश में समय-समय पर बहुत से ऐसे वीडियो फर्जी भी निकले हैं जिनमें सबसे चर्चित वीडियो कन्हैया कुमार के खिलाफ गढ़ा गया था।
कवर्धा शहर के इस सांप्रदायिक तनाव को बिना गहराई में गए सिर्फ झंडा निकालकर फेंक देने की एक घटना से अगर जोडक़र बैठ जाएंगे, तो वहां की समस्या का कोई समाधान नहीं निकलेगा। वहां के जानकार लोग बतलाते हैं कि किस तरह पिछले कई महीनों से वहां पर कई मुजरिम लगातार गुंडागर्दी, हिंसा, और जुर्म कर रहे थे, जिनके खिलाफ आदिवासी समाज ने आंदोलन भी किया, सरकार को शिकायत भी दी, कलेक्ट्रेट भी पहुंचे, लेकिन राजधानी की राजनीतिक ताकतों के दबाव में इन मुजरिमों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हुई। और तो और जब इनके जुर्म बहुत बढ़ गए, और कवर्धा पुलिस से राजधानी को इसकी मौखिक जानकारी दी गई, तो इसकी सजा के बतौर कुछ महीने पहले ही वहां पहुंचे पुलिस अधीक्षक का तबादला कर दिया गया। कई महीनों से कवर्धा के कई ऑडियो और वीडियो घूम रहे थे जिनसे यह साफ होता था कि किस तरह राजनीतिक ताकतों के दबाव में पुलिस मुजरिमों को छूने से भी बच रही थी, और आदिवासियों पर हिंसा करने के बाद भी इनका कुछ नहीं बिगड़ रहा था। राज्य सरकार अगर कवर्धा के सांप्रदायिक तनाव का कोई स्थाई इलाज चाहती है तो उसे हिंसा की ताजा घटनाओं के पहले के माहौल को भी देखना होगा, वरना पुलिस की तैनाती करके, अगर आज हालात काबू करके, उसे काफी मान लिया जाता है, तो हो सकता है कि आगे फिर यह बात भडक़े। आदिवासियों का जो संगठन कवर्धा में आदिवासियों पर हिंसा की शिकायत लेकर घूम रहा है, उसे सरकार फर्जी आदिवासी संगठन मानती है। अपने को नापसंद किसी संगठन की कही हुई सही बात को भी अनसुना करना किसी भी सरकार के लिए नुकसानदेह हो सकता है।
छत्तीसगढ़ में भाजपा ने पिछले कुछ महीनों में हिंदुओं के धर्मांतरण का मामला जोर-शोर से उठाया है, और राजधानी रायपुर में भाजपा के कुछ लोगों ने पुलिस थाने में एक ईसाई पास्टर पर हमला भी किया था, जो मामला अभी चल ही रहा है। ऐसे में प्रदेश में कोई भी दूसरा सांप्रदायिक तनाव धर्म की राजनीति करने वाले संगठनों को आगे बढऩे का एक मौका देता है। जिस किसी धर्म के संगठन इस काम में लगे हुए हैं, उन पर सरकार को कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए, लेकिन सरकार को यह आत्मविश्लेषण भी करना चाहिए कि कवर्धा में ऐसे तनाव के पीछे उसकी खुद की कौन सी गलतियां रही हैं। आज तो अभिषेक सिंह की अगुवाई का जुलूस हिंसक और सांप्रदायिक नारे लगाते कैमरे पर कैद हुआ दिख रहा है, लेकिन इसे ही सारे तनाव की जड़ मान लेना गलत होगा। ऐसे नारों के लिए कानून है और खासा कड़ा कानून है, लेकिन कुछ लोगों पर कार्रवाई से सरकार का काम नहीं चलता, प्रदेश का काम नहीं चलता। प्रदेश में अमन चैन बनाए रखने के लिए सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए सरकार को बड़ी गंभीरता से किसी भी धर्म के मुजरिमों के साथ पर कड़ी कार्रवाई करनी होगी, और किसी भी तरह की ढील प्रदेश में एक सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की जमीन तैयार करेगी, जो कि आज की सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी को भारी पड़ेगी।
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अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अभी पाकिस्तान की एक बड़ी आलोचना इस बात को लेकर हो रही है कि संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर दूसरे देशों के बीच वह अपनी फिक्र करने के बजाए अफगानिस्तान के तालिबान की फिक्र कर रहा है, और लोगों को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा है कि वे तालिबान का साथ दें। इस बात को वहां के प्रधानमंत्री इमरान खान भी आगे बढ़ा रहे हैं, और पाक विदेश मंत्री, या पाकिस्तानी राजदूत भी अंतरराष्ट्रीय बातचीत में तालिबान का झंडा लेकर चलते दिख रहे हैं। पाकिस्तान के मामलों के राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि इमरान खान को यह एजेंडा पाकिस्तान के फौजी जनरलों ने दिया हुआ है जो कि तालिबान की सरकार को अपने लिए बेहतर मान रहे हैं। ऐसा इसलिए भी है कि अफगानिस्तान की पिछली गनी सरकार भारत को अधिक महत्व दे रही थी, और पाकिस्तान के साथ उसके तनातनी के रिश्ते चल रहे थे। इसलिए वहां पर गनी सरकार के चलते हुए ही पाकिस्तान के संबंधों उससे बहुत खराब थे और उस वक्त से ही पाकिस्तान वहां पर तालिबान के आने की राह देख रहा था। लेकिन पाकिस्तान की आज की निर्वाचित सरकार की दिक्कत यह है कि वह अपनी घरेलू दिक्कतों को किनारे रखकर तालिबान की अफगान दिक्कतों की वकालत करते घूम रही है। यह बात अजीब इसलिए है कि दुनिया के देशों के बीच में जहां अपने बचे हुए असर का इस्तेमाल करके पाकिस्तान अपने लिए कोई राहत जुटाता, उसके बजाय वह तालिबान का काम कर रहा है। यह कुछ उसी किस्म का लग रहा है जैसे अपनी कंपनी को डूबते छोडक़र कोई सेल्स एजेंट किसी दूसरी कंपनी के सामान को बेचने की कोशिश करे।
तालिबान को लेकर उसके आने के पहले हफ्ते में लोगों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश की गई थी कि वे पिछली बार के, 20 वर्ष पहले के, तालिबान के मुकाबले अलग हैं। वह अब तजुर्बेकार हो चुके हैं, और वह दुनिया की मीडिया से बात करने वाले अधिक रहमदिल, और महिलाओं को कुछ हक देने वाले लोग हैं। तालिबान ने खुद होकर यह दावा भी किया था कि उनकी सरकार अफगानिस्तान में सभी तबकों को मिलाकर बनी सरकार होगी, लेकिन पहले मंत्रिमंडल बनने से लेकर अब तक इस तरह की तमाम खुशफहमियां खत्म हो गई हैं। अब कोई भी यह मानकर नहीं चल रहे कि ये तालिबान पिछली बार के तालिबान के मुकाबले अलग हैं. यह भी है कि इस बार पाकिस्तान और चीन अधिक मजबूती से तालिबान के साथ खड़े हुए हैं और उनकी यह मजबूरी भी है क्योंकि उनकी लंबी सरहदें अफगानिस्तान के साथ लगी हुई हैं, और क्योंकि तालिबान की अमेरिका से दुश्मनी रही है इसलिए भी चीन और चीन के साथ-साथ पाकिस्तान उन्हें महत्व दे रहा है। और ठीक इसी वजह से ईरान भी उन्हें महत्व दे रहा है। इन सबकी एक मजबूरी यह भी है कि ये देश अफग़़ानिस्तान से अपने देश में नशे का कारोबार नहीं चाहते हैं।
आज दुनिया के सामने अफगान लोगों को लेकर यह बात साफ हो रही है कि अगर अंतरराष्ट्रीय समुदाय की तरफ से आम अफगान नागरिकों को मदद नहीं मिल पाएगी तो वहां लाखों लोगों के भूखे मरने का एक खतरा खड़ा हुआ है। वहां न खाने को है, न काम है, न इलाज है, न कोई अर्थव्यवस्था बाकी है। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को तालिबान से सबसे पहले तो अपनी खुद की हिफाजत की गारंटी चाहिए, जो कि देने की हालत में तालिबान नहीं है. आज तो आईएस नाम के आतंकी संगठन के अफगानिस्तान में हमले जारी हैं, और तालिबान उन्हें रोकने की हालत में नहीं दिख रहा है। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय सहायता एजेंसियों के लोगों को देश भर में काम करने देने की हिफाजत तालिबान सरकार कैसे मुहैया करा सकेगी यह सोचना आसान नहीं है फिर अंतरराष्ट्रीय समुदाय का यह शक अपनी जगह कायम है कि तालिबान अपने नागरिकों के प्रति अपनी बुनियादी जिम्मेदारी को अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर डालकर खुद अपनी फौजी तैयारी में अपनी रकम खर्च करेगा या पड़ोसी देशों के साथ मिलकर दूसरे देशों के खिलाफ किसी तरह की साजिश करेगा। इसलिए अब अफगान तालिबान सरकार को अंतरराष्ट्रीय समुदाय से न तो अभी तक कोई मान्यता मिल रही है, और न ही कोई मदद उसे मिलने के आसार हैं। अंतरराष्ट्रीय मूल्यों के हिसाब से आम नागरिकों को जिंदा रहने के लिए, और इलाज के लिए जो मदद दी जानी चाहिए, उसी मदद की उम्मीद अभी तालिबान सरकार कर रही है, और वह भी आसानी से पूरी होते नहीं दिख रही है।
अंतरराष्ट्रीय समुदाय का यह भी मानना है कि मदद की यह शर्त एक ऐसा मौका है जिसे इस्तेमाल करके दूसरे देश और अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं तालिबान से अफगान महिलाओं के अधिकारों के बारे में बात कर सकती हैं, और वहां के नागरिक अधिकारों के बारे में बात कर सकती हैं। आज तो हालत यह है कि अब अफगान तालिबान लगातार कहीं मुजरिमों के हाथ-पैर काटने की बात कह रहे हैं, तो कहीं महिलाओं को घर तक सीमित करने का उनका अभियान चल ही रहा है। ऐसे में उस देश के भीतर महिलाओं और आम नागरिकों के मानवाधिकारों की हिफाजत करने के लिए अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं एक शर्त रख सकती हैं, और उस शर्त पर ही कोई मदद वहां के लोगों तक पहुंचाने की बात कर सकती हैं। यह मौका सभी के बारीकी से देखने का है कि तालिबान ऐसी अंतरराष्ट्रीय शर्तों को किस हद तक मानते हैं, अपने को कितना लचीला और उदार बनाते हैं या फिर क्या वे अपने नागरिकों को भूखा मरने के लिए छोड़ भी सकते हैं? पड़ोस का पाकिस्तान जो कि लगातार तालिबान का वकील बन कर दुनिया में उस की हिमायत करते घूम रहा है, उसकी खुद की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वह अफगानिस्तान की कोई भी मदद कर सके। दूसरी तरफ चीन के पास इतनी ताकत तो है कि वह अफगानिस्तान की मदद कर सके लेकिन सवाल यह है यह मदद शुरू तो हो सकती है, लेकिन अफगान अर्थव्यवस्था अपने पैरों पर कब खड़ी हो सकेगी इसका कोई अंदाज नहीं लग सकता, और यह मदद कब तक जारी रहेगी इसका भी कोई अंदाज नहीं है, इसलिए चीन भी अफगानिस्तान का जिम्मा अपने ऊपर लेने के पहले सौ बार इस बात को सोचेगा कि वह मदद को बंद कब कर सकेगा। अभी पूरी दुनिया ने यह देखा हुआ है कि अफगानिस्तान पर फौजी कब्जा करने के बाद अमेरिका को वहां से शिकस्त झेलते हुए निकलने में कितनी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी है। इसलिए अफगानिस्तान को लेकर लंबे वक्त के लिए कोई जिम्मेदारी चीन भी उठाने को तैयार नहीं होगा।
यह सही वक्त है जब तालिबान सरकार को मान्यता देने के पहले दुनिया उसके सामने इंसानियत की शर्तें रखे, लोकतंत्र की शर्तें रखे, महिलाओं के अधिकारों की शर्त रखे, और उसके बाद ही उसे मान्यता दे, और कोई सहायता दे। आने वाला वक्त यह बताएगा कि तालिबान के साथ ऐसी बातचीत और ऐसे मोल-भाव में दुनिया कहां तक पहुंच सकती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान के कश्मीर से कुछ परेशान करने वाली खबरें आ रही हैं। पिछले एक हफ्ते में आधा दर्जन से अधिक आम नागरिकों को मारा गया है, और ऐसा कहा जा रहा है कि आतंकियों ने चुन-चुन कर यह हत्याएं की हैं, जिनमें अधिकतर गैर-मुस्लिम हिंदू और सिख लोग थे, इनमें मुस्लिम नागरिक भी हैं, जिन्हें भी निशाना बनाकर मारा गया है. पुलिस का यह कहना है कि यह स्थानीय मुस्लिमों को बदनाम करने के लिए की गई साजिश है। वहां के पुलिस प्रमुख ने कहा कि यह कश्मीर के सांप्रदायिक सद्भाव को खत्म करने के लिए किया जा रहा है, और चुन-चुन कर लोगों को मारा जा रहा है, ताकि ऐसा लगे कि गैर-मुस्लिमों की हत्या हो रही है।
कश्मीर से जुड़ा हुआ कोई भी मामला बड़ा ही मुश्किल और उलझा हुआ रहता है। वहां की बहुत सी वारदातें ऐसी रहती हैं जिनमें किसी एक तबके को बदनाम करने की साजिश जुड़ी रहती है। फिर ऐसी साजिश हिंदुस्तान की जमीन से भी कुछ ताकतें कर सकती हैं, और कश्मीर की सरहद से लगे हुए पाकिस्तान के इलाके से भी ऐसा हो सकता है। यह मामला इतना उलझा हुआ है कि यहां पर सामने दिख रही वजहों से परे छुपी हुई वजह कौन सी हैं, यह सोचना कुछ मुश्किल रहता है। और जांच में तो पिछले बरसों में कश्मीर में हुए बहुत से बड़े-बड़े आतंकी हमलों के मुजरिम भी पकड़ में नहीं आए हैं। इस बार तो खबरें बताती हैं कि छोटी पिस्तौल से भी हत्या हुई है, और अगर हत्यारे ऐसे छोटे हथियार लेकर चलेंगे तो उनको पकडऩा तो सरकार के लिए, सुरक्षाबलों के लिए और मुश्किल बात होगी।
कश्मीर अलगाववाद और आतंक के लंबे दौर से गुजरा हुआ राज्य है, शायद गुजर ही रहा है। जबसे वहां केंद्र सरकार ने 370 खत्म करके और राज्य का दर्जा खत्म करके बहुत बड़ी संख्या में सुरक्षा बलों को तैनात किया है, तबसे वहां हिंसा थमी हुई थी, पत्थर चलने बंद हुए थे, और आतंक की घटनाएं भी कम हुई थीं। लेकिन अब जिस तरह छांट-छांटकर लोगों को मारा जा रहा है तो इससे पंजाब के आतंक के दिन याद पड़ रहे हैं जहां पर भिंडरावाले के आतंकियों ने स्वर्ण मंदिर से बाहर निकलकर बसों से मुसाफिरों को निकालकर छांट-छांटकर हिंदुओं की हत्या की थी। अभी जिन लोगों को मारा गया है उनमें कश्मीरी पंडित हैं, सिक्ख हैं, और दूसरे हिंदू हैं। जाहिर है कि इससे एक तनाव खड़ा होगा और पूरे कश्मीर में जगह-जगह बसे हुए गैर मुस्लिमों की हिफाजत करना भी बड़ा मुश्किल काम हो सकता है।
क्या यह किसी विदेशी साजिश के तहत हो रहा है या कश्मीर में ही बसी हुई कुछ हिंदुस्तानी आतंकी ताकतें ऐसा कर रही हैं, इस बारे में कुछ तय करना जल्दबाजी होगी। लेकिन यह तो तय है कि अगर कोई ताकतें ऐसा तय कर लेती हैं तो ऐसी आतंकी वारदातें बहुत मुश्किल भी नहीं रहेंगी और यह तनाव तो बढ़ते चलेगा। कश्मीर शायद दुनिया का सबसे अधिक फौजी मौजूदगी वाला इलाका है। इसके बहुत बड़े दाम हिंदुस्तान को चुकाने पड़ते हैं, और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यह माना जाता है कि कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच के विवाद जब तक नहीं निपटेंगे तब तक महज दूसरे मुद्दों पर इन दोनों देशों की बातचीत का बहुत अधिक मतलब नहीं रहेगा। अभी इस बात को याद दिलाने का यह मतलब कहीं नहीं है कि हम इन हमलों के पीछे पाकिस्तान को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। हिंदुस्तान के दूसरे हिस्सों में नक्सल हिंसा से लेकर उत्तर-पूर्व की हिंसा तक कई ऐसे मामले हैं जो पाकिस्तान के बिना भी हो रहे हैं, और जो पूरी तरह हिंदुस्तानी ताकतें कर रही हैं। इसलिए कश्मीर के हमलों को लेकर पाकिस्तान के खिलाफ बयानबाजी तो हो सकती है लेकिन पाकिस्तान से रिश्ते को और अधिक खराब करना समझदारी की बात नहीं होगी। जब तक ऐसे कोई सुबूत नहीं जुटते हैं कि इन हमलों के पीछे पाकिस्तान हैं तब तक जांच एजेंसियों को खुले दिमाग से मुजरिमों को तलाशना चाहिए वरना पाकिस्तान पर तोहमत लगाना तो आसान है और उसके बाद हिंदुस्तान में इसी जमीन के मुजरिमों को ढूंढने की जरूरत भी नहीं रह जाती है. सरकार को ऐसी चूक से बचना चाहिए। हो सकता है कि पाकिस्तान की मदद के बिना भी हिंदुस्तान के कुछ लोग ऐसा कर रहे हों। कश्मीर के ये ताजा हमले बहुत फि़क्र खड़ी करते हैं, और सरकार को जल्द ही मुजरिमों तक पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
फ्रांस के कैथोलिक चर्च के पादरियों ने 1950 से लेकर अब तक इन 70 वर्षों में कम से कम सवा दो लाख नाबालिग बच्चों का का सेक्स शोषण किया। वहां पर चर्च ने इसके लिए एक जांच आयोग बनाया था जिसने ढाई साल तक जांच करने के बाद 25 सौ पेज की रिपोर्ट में इस पूरे भयानक सिलसिले का ब्यौरा दिया है। अब वहां पर सवाल यह खड़ा हो गया है कि इनमें से अधिकांश पादरी या तो मर चुके हैं, या मरने के करीब कब्र में पैर लटकाए हुए हैं, तो क्या उन्हें अदालत में खींचने से कुछ साबित हो पाएगा? लेकिन इसके साथ-साथ एक दूसरी बड़ी चीज है कि पादरियों से परे चर्च के दूसरे कर्मचारियों, चर्च के स्कूलों के शिक्षकों ने बच्चों का जो देह शोषण किया होगा, उनके बारे में एक अंदाज लगाया जा रहा है कि ऐसे बच्चों की गिनती 10 लाख से अधिक पहुंच सकती है। कहने के लिए कैथोलिक चर्च के मुखिया पोप फ्रांसिस ने जांच के नतीजों पर गहरी तकलीफ जाहिर की है और इन नतीजों को भयानक बताया है। यह सिलसिला दुनिया भर के उन तमाम चर्चों में चलते ही आया है जहां पर पादरियों को शादी से दूर रहने को कहा जाता है और चर्च ने अपनी पूरी कोशिश करके ऐसे मामलों को दबाने का काम किया है। धर्म से जुड़े हुए लोगों के हाथों बच्चों का, महिलाओं का, और आदमियों का भी शोषण, कोई नई बात नहीं है। हिंदुस्तान में भी ऐसा देखने में बहुत आता है। आसाराम जैसे लोग और उसके साथ ही उसका बेटा भी, भक्तों और अनुयायियों का सेक्स शोषण करते आए हैं, और बाबा राम रहीम नाम का एक नौटंकीबाज भी बलात्कार में जेल की सजा काट रहा है। लेकिन यह सिलसिला नया नहीं है और इसे दुनिया के ऐसे कुछ एक और मामलों से जोडक़र देखना चाहिए, जिनमें कुछ बरस पहले का हिंदुस्तान का एक केरल का मामला ऐसा था जहां कई मुस्लिम लोग ऐसे पाए गए थे जो अपने बच्चों से 4 वर्ष की उम्र तक बलात्कार करने को जायज मानते थे।
केरल में तीन चार बरस पहले पुलिस ने लोगों के एक ऐसे समूह को पकड़ा था जो कि आपस में अपने बच्चों के अश्लील वीडियो बनाकर, उनकी नग्न तस्वीरें खींचकर शेयर करते थे, और इस समूह को चलाने वाले ने ऐसे पांच हजार लोगों को जुटा लिया था। यह सरगना मुस्लिम नौजवान इस बात की वकालत करता था कि जब तक बच्चियां चार बरस की रहें, उनसे बलात्कार करने में कोई हर्ज नहीं है क्योंकि इस उम्र की बातें उनको याद नहीं रहती। यह आदमी अपनी ही बच्चियों से बलात्कार करते उनके भी वीडियो पोस्ट करता था। केरल पुलिस ने इन पांच हजार लोगों को पकडऩे की पूरी कोशिश की है, लेकिन ये लोग मोबाइल फोन के एक ऐसे मैसेंजर, सिग्नल, का इस्तेमाल करते हुए जहां किसी को पकड़ा नहीं जा सक रहा है। इन लोगों ने अपने सरीखे हजारों लोगों के साथ ऐसे वीडियो शेयर करने का काम कर रखा था और इसमें गिरफ्तारियां हुई थीं।
बच्चों के साथ बलात्कार के मामले तो सामने आते रहते हैं, लेकिन जब उनके मां-बाप ही उनसे बलात्कार करने लगें, और उसकी फोटो या वीडियो दूसरों में बांटने लगें, तो यह एक बहुत ही गंभीर जुर्म भी है, और शायद मानसिक बीमारी भी है। भारत में अधिकतर लोगों का यह मानना रहता है कि बच्चों के साथ आसपास के लोग, परिवार के लोग ऐसा सुलूक नहीं कर सकते और महज अनजान लोग ही उनका यौन शोषण कर सकते हैं। अधिकतर परिवारों में अगर बच्चे किसी पारिवारिक सदस्य या करीबी के बारे में कोई शिकायत भी करते हैं, तो मां-बाप उन्हें डांटकर चुप कर देते हैं। ऐसे में बच्चों के पास कहीं और जाकर शिकायत करने की कोई गुंजाइश बचती नहीं है। लेकिन पूरी दुनिया की तरह भारत में भी चाईल्ड पोर्नोग्राफी का खतरा है जो कि मौजूद है, और बच्चों का यौन शोषण एक हकीकत है। दुनिया के किसी भी दूसरे गरीब देश की तरह भारत में भी गरीब बच्चे इसके शिकार अधिक होते हैं, लेकिन केरल से यह जो मामला सामने आया है, इसमें वहां तो ऐसी गरीबी भी नहीं है, वहां तो लोग पढ़े-लिखे भी हैं, और अगर ऐसे गिरोह में मुस्लिम लोग ही सरगना हैं, तो फिर उनके धर्म की रोक-टोक भी उनके गलत कामों को नहीं रोक पाई। इसलिए बच्चों का यौन शोषण संपन्नता से परे, शिक्षा से परे, धर्म से परे एक अलग किस्म का खतरा है जिससे कोई भी बच्चा सुरक्षित नहीं है।
बच्चों को ऐसे शोषण से बचाने के लिए उनको जागरूक बनाना, उनके आसपास के माहौल को तरह-तरह की निगरानी से सुरक्षित रखना, और बच्चों के मां-बाप को भी जागरूक करना एक समाधान हो सकता है। इस बारे में सरकारों को पहल करनी चाहिए, समाज को शामिल करना चाहिए, और फिर अलग-अलग किस्म के संगठन अपने-अपने सदस्यों को इस खतरे की तरफ से जागरूक करते चलें, इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है। श्रीलंका या बैंकाक की तरह ही भारत में भी गोवा में पर्यटकों की बड़ी मौजूदगी के बीच बच्चों के यौन शोषण की बड़ी घटनाएं सामने आ चुकी हैं। अब एक दूसरा बड़ा पर्यटक-राज्य केरल ऐसी भयानक खबर लेकर आया है। पूरे देश को इससे चौकन्ना होने की जरूरत है, ऐसी खबरों को अनदेखा करना कोई इलाज नहीं होगा, लोगों को अपने आसपास के लोगों से इस खतरे के बारे में खुलकर बात करनी होगी, और हर किसी को अपने आसपास के बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए कोशिश करनी होगी। हर राज्य सरकार को अपने नागरिक संगठनों को साथ लेकर तुरंत ही ऐसी जागरूकता का अभियान चलाना चाहिए। दूसरी बात यह कि देश में आईटी एक्ट तो बहुत मजबूत है, लेकिन वह अदालत में किसी को सजा नहीं दिला पा रहा है। ऐसे में इंटरनेट या सोशल मीडिया पर, या कि किसी मैसेंजर सर्विस पर इस तरह के वीडियो आगे बढ़ाकर जो लोग समाज को एक खतरनाक जगह बना रहे हैं, उन्हें अपने बच्चों के बारे में भी सोचना चाहिए। कुल मिलाकर यह दुनिया एक भयानक जगह है, और लोगों को अपने बच्चों को बचाने के लिए इस पूरी दुनिया को सुरक्षित बनाना पड़ेगा, महज अपने घर को सुरक्षित रखकर, महज अपने बच्चों को सुरक्षित रखकर कुछ भी नहीं हो सकेगा।
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बीती शाम से रात तक कुछ घंटों के लिए दुनिया का सबसे लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म फेसबुक बंद रहा, और इसी कंपनी के दो और कारोबार, व्हाट्सएप मैसेंजर और इंस्टाग्राम नाम का एक फोटो-वीडियो प्लेटफार्म भी बंद रहे। कंपनी के लोग कंप्यूटर पर कुछ फेरबदल कर रहे थे और उनकी किसी गलती से यह हुआ। कोई स्थाई नुकसान नहीं हुआ, लेकिन कुछ घंटों की इस गड़बड़ी से इस कंपनी के शेयर 5 फीसदी गिर गए और इसके मालिक के अरबों रूपये डूब गए। इन सबसे परे, बचे हुए एक सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर पर लोगों ने इन घंटों में खूब लिखा, अपनी तकलीफ भी बताई, और मजा भी लिया। मैसेंजर और सोशल मीडिया के बिना कुछ घंटों जिंदगी भी किस तरह थम गई यह कल सामने आया। जबकि लोगों के पास दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म भी थे, और दूसरी बहुत सी मैसेंजर सर्विस भी थीं जो कि बंद नहीं हुई थीं।
अब इस छोटे से हादसे से यह समझने की जरूरत है कि लोगों की जिंदगी किस तरह इन सहूलियत ऊपर टिक गई है, उनकी मोहताज हो गई है। इनके बिना होना तो यह चाहिए था कि लोग कुछ देर अपने आसपास के दायरे में जी लेते, कुछ देर परिवार और दोस्तों का सीधा मजा ले लेते, लेकिन उनकी दिमागी बेचैनी ने उन्हें ऐसा कुछ नहीं करने दिया। लोग लगातार कभी अपने फोन को चेक करते, तो कभी इंटरनेट को, और कभी इन्हें बंद करके फिर शुरू कर देखते कि क्या उनके सिरे पर कोई गड़बड़ी है? इस बात को लेकर लोगों को यह सोचना चाहिए कि क्या इंटरनेट और फोन-कंप्यूटर से परे कुछ देर रह लेना उनकी अपनी सेहत, और रिश्तों के लिए ठीक नहीं है? यह भी सोचना चाहिए कि क्या एक हठयोग की तरह कुछ देर वह ऑफलाइन भी रह सकते हैं? आप बिना इंटरनेट के और टेलीफोन के रह सकते हैं? लोगों को यह बड़ा मुश्किल काम लग सकता है क्योंकि दिल और दिमाग हर कुछ मिनटों में किसी मैसेज की उम्मीद करते हैं, या किसी कॉल की, ये दोनों न आएं तो लोग खुद कोई मैसेज करने लगते हैं। लोगों के हाथ हर थोड़ी देर में अपने फोन को ढूंढने और टटोलने लगते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि सिगरेट पीने वालों के हाथ सिगरेट के पैकेट और माचिस या लाइटर को टटोलकर, अपने पास पाकर एक तसल्ली पाते हैं, और फिर चाहे उनका अगली सिगरेट का वक्त हुआ हो या ना हुआ हो, उन्हें यह भरोसा तो रहता है कि जब जरूरत रहेगी, यह पास में है। ठीक इसी तरह लोगों को इंटरनेट, फोन और कंप्यूटर, इन पर बैटरी चार्जिंग की तसल्ली इतनी ही जरूरी हो गई है जितनी कि किसी नशे या लत के सामान की रहती है।
इन सबसे परे अगर कुछ देर के लिए लोग अपने परिवार में बैठ जाएं या दोस्तों के साथ बैठ जाएं और तमाम लोग यह तय कर लें कि कोई इतनी देर न फोन देखेंगे, न कंप्यूटर देखेंगे, और शायद टीवी भी देखने से परहेज करेंगे, तो लोगों को घर के भीतर ही एक-दूसरे के बारे में कई नई बातें पता लग सकती हैं। लोग अगर फोन पर बात किए बिना सुबह शाम की सैर पर जा सकते हैं, तो उन्हें कुदरत के बारे में कई नई बातें पता लग सकती हैं, पेड़ों और पंछियों के बारे में कुछ पता लग सकता है, और जिंदगी की रोज की चीजों से परे वे कुछ नई कल्पनाएं भी कर सकते हैं। कई लोग बातचीत में आउट ऑफ बॉक्स थिंकिंग की बात करते हैं, यानी बंधे बंधाए ढर्रे से परे कुछ नया सोचना, कुछ नए तरह से सोचना, लीक से हटकर कुछ सोचना। लेकिन जब जिंदगी का अधिकतर जागा हुआ वक्त फोन और कंप्यूटर से ही बंधा हुआ है, इन्हीं चीजों के भीतर कैद है तो फिर आउट ऑफ बॉक्स थिंकिंग आ कहां से सकती है?
हमारी अधिकतर सोच उन बातों से जुड़ गई है जो बातें दूसरे लोग हमें भेजते हैं, या जो सोशल मीडिया हमें अपने पेज पर दूसरों का लिखा हुआ दिखाता है। ऐसे में अपनी मौलिक सोच के लिए वक्त और गुंजाइश यह दोनों बचते ही कहां हैं? अपनी खुद की फिक्र के लिए, अपनों की फिक्र के लिए कहां जगह निकलती है? इसलिए कल जब कुछ घंटों के लिए लोगों के हाथ से व्हाट्सएप और फेसबुक निकल गया, तो लोगों को लगा कि उनके हाथ-पैर कट गए, और अब उनका दिल-दिमाग कैसे काम करेगा? लोगों को यह याद रखना चाहिए कि जब उनके सोचने की शुरुआत दूसरों के लिखे हुए, दूसरों के पोस्ट किए हुए और दूसरों के भेजे हुए संदेशों से होती है, तो वह मौलिक कहां से हो सकती है? अब इस जगह इस मुद्दे पर और अधिक लिखकर हम एक बक्सा बनाना नहीं चाहते जिसके बाहर लोगों का सोचना मुश्किल हो, हम सिर्फ इस मुद्दे को छोडक़र बात को खत्म करना चाहते हैं ताकि लोग अपने-अपने हिसाब से इस बारे में सोचें।
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देश में लंबे समय से चले आ रहे किसान आंदोलन में कल एक दर्दनाक मोड़ तब आया जब उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले में वहां पहुंच रहे केंद्र और राज्य के भाजपा मंत्रियों का विरोध करने के लिए इक_ा किसानों पर एक केंद्रीय मंत्री के बेटे की गाड़ी चढ़ा दी गई जिसमें 4 किसान कुचलकर मर गए। ऐसी खबर है कि इसके जवाब में कुछ किसानों ने भी हिंसा की और इस पूरे घटनाक्रम के बाद भाजपा के दो कार्यकर्ताओं और दो ड्राइवरों के भी मरने की खबर है। उत्तर प्रदेश में कुछ महीने बाद चुनाव होने जा रहा है और किसान आंदोलन तो पूरे देश में चल ही रहा है। ऐसे में उत्तर प्रदेश की कांग्रेस प्रभारी प्रियंका गांधी तुरंत लखीमपुर के लिए रवाना हुईं, जिन्हें रास्ते में ही रोककर गिरफ्तार कर लिया गया, कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के कुछ दूसरे नेताओं को भी गिरफ्तार किया गया और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को लखनऊ में विमान उतारने की भी इजाजत नहीं दी गई और वह रायपुर में रवानगी का इंतजार करते रहे. भूपेश बघेल ने यह सवाल उठाया है कि क्या अब उन्हें उत्तर प्रदेश जाने के लिए कोई वीजा लेना पड़ेगा? यह बात इसलिए है कि उनके या पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत चन्नी के लखनऊ पहुंचने के बाद भी उन्हें आगे बढऩे से रोका जा सकता था, लेकिन एक प्रदेश के मुख्यमंत्री को दुसरे प्रदेश की राजधानी तक पहुंचने की इजाजत भी न मिलना उन्हें एक अलोकतांत्रिक मामला लग रहा है, और जाहिर तौर पर ऐसा दिख भी रहा है। लखीमपुर जिले में जहां पर कि यह घटना हुई है वह नेपाल की सरहद पर बसा हुआ एक गांव है और वहां से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर लखनऊ तक किसी को न उतरने दिया जाए, यह बात थोड़ी अटपटी लगती है। स्थानीय शासन प्रशासन का तो यह अधिकार रहता है कि वे तनावग्रस्त से इलाके में किसी को जाने से रोकें, और वह काम इस डेढ़ सौ किलोमीटर में कहीं भी हो सकता था।
लेकिन यह मुद्दा कांग्रेस के दो मुख्यमंत्रियों के उत्तर प्रदेश पहुंचने से रोके जाने का नहीं है, वह तो इस पूरी घटना का एक छोटा हिस्सा है, बड़ा हिस्सा तो यह है कि देश के कई राज्यों में चल रहे किसान आंदोलन के प्रति देशभर में अधिकांश हिस्सों में चल रही भाजपा की सरकारों का क्या रुख है। केंद्र सरकार के सामने डेरा डाले हुए किसानों को सैकड़ों दिन हो चुके हैं, लेकिन अपने किसान कानूनों को लेकर केंद्र सरकार टस से मस नहीं हो रही। दूसरी तरफ पिछले महीनों में कहीं हरियाणा के किसी मंत्री ने, तो कहीं भाजपा के किसी बड़े नेता-पदाधिकारी ने किसान आंदोलन को नक्सलियों से जुड़ा बताया, किसी ने देशद्रोहियों से जुड़ा हुआ बताया, किसी ने उसका संबंध पाकिस्तान और खालिस्तान से जोड़ा। अभी दो दिन पहले हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने किसान आंदोलन से लाठियों से निपटने की बात लोगों से की, और कुछ वैसी ही बातें उत्तर प्रदेश में भी किसानों के बारे में केंद्र और राज्य के भाजपा-मंत्री करते आए थे। माहौल ऐसा बन गया है कि भाजपा सरकारों के मंत्री और भाजपा के बड़े पदाधिकारी किसान विरोधी दिखने लगे हैं। यह जनधारणा हर लापरवाह बयान के साथ अधिक मजबूत होते चल रही है, और रास्ता रोके आंदोलनकारियों को सत्तारूढ़ गाड़ी से कुचलकर मारने का यह देश का शायद पहला ही मौका है। पता नहीं भाजपा किस तरह देश के पूरे के पूरे किसान तबके को इस हद तक नाराज करने का एक अभियान सा चलाते दिख रही है।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को जब उत्तर प्रदेश जाने की इजाजत राज्य सरकार ने नहीं दी तो उन्होंने दिल्ली में पार्टी दफ्तर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा, जिनके बेटे की कार ने किसानों को कुचल कर मारा है, उन्हें बर्खास्त किया जाना चाहिए। भूपेश ने इस बात पर भी अफसोस जाहिर किया कि इस तरह की मौतों पर प्रधानमंत्री की तरफ से कोई प्रतिक्रिया तक नहीं आई जो कि बहुत दुर्भाग्यपूर्ण बात है. उन्होंने कहा कि यह साधारण घटना नहीं है यह हत्या का मामला है। उन्होंने कहा कि ये लोग अंग्रेजों की राह पर चलने वाले लोग हैं, ये किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। भूपेश बघेल ने आरोप लगाया कि भाजपा को किसान पसंद नहीं है और भाजपा किसानों की आवाज को दबा देना चाहती है, रौंद देना चाहती है। आज प्रियंका गांधी के उत्तर प्रदेश में हिरासत में रहने के बाद भूपेश बघेल वहां जाने की कोशिश कर रहे सबसे बड़े नेता हैं, और कांग्रेस पार्टी ने उन्हें दो दिन पहले ही उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर वरिष्ठ पर्यवेक्षक नियुक्त किया है।
यह बात सच है कि उत्तर प्रदेश के कुछ महीने बाद के चुनावों को लेकर राजनीतिक दल अधिक सक्रिय हुए होंगे, लेकिन पिछले साल भर में भाजपा की केंद्र सरकार, उसकी हरियाणा और उत्तर प्रदेश सरकार ने किसान आंदोलन पर जो रुख दिखाया है, वह एक आम नजरिए से देखने पर किसान विरोधी दिखता है। ऐसा लगता है कि राज्यों और केंद्र के चुनाव जीतने में एक महारत हासिल कर लेने के बाद भाजपा को देश के बहुत से तबकों की परवाह नहीं रह गई है। उसे लगता है कि मोदी के नाम और चेहरे पर वह देश में कहीं भी जीत सकती है। यह सिलसिला चुनावी राजनीति के हिसाब से तो ठीक है, लेकिन हिंदुस्तान में लोकतंत्र की परंपराओं को देखें, तो बातचीत के सिलसिले को खत्म करना कोई अच्छी बात नहीं है। और संसद से लेकर सडक़ तक, मोदी सरकार और भाजपा, बातचीत के सिलसिले को गैरजरूरी साबित करते चल रही हैं। बहुमत की वजह से उनका काम चल सकता है, लेकिन यह उनका काम ही चल रहा है, देश की लोकतांत्रिक परंपराएं नहीं चल रहीं। उत्तर प्रदेश में किसानों की ये मौतें आने वाले चुनाव पर चाहे जो असर करें, हम उसके असर को चुनावों से परे भी देश के किसान आंदोलन और देश के किसान मुद्दों पर देखना चाहेंगे, क्योंकि अभी 2 अक्टूबर को ही तो लाल बहादुर शास्त्री की जयंती पर लोगों ने जय जवान, जय किसान की बात कही, और जिन लोगों को गांधी के मुकाबले भी शास्त्री अधिक पसंद आते हैं, उन्हें भी शास्त्री के जय किसान पसंद नहीं आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में आने वाले दिन देश के किसान आंदोलन की रफ्तार भी तय करेंगे, और इस बारे में कुछ दिन बाद फिर लिखने का मौका आएगा।
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हिंदुस्तान में रोज बहुत से प्रदेशों में ऐसे मामले पुलिस में दर्ज होते हैं जिनमें किसी लडक़ी या महिला से शादी का वादा करके देह संबंध बनाने और बाद में शादी न करने की शिकायत रहती है। कानून कुछ ऐसा है कि ऐसे मामलों को शादी का झांसा देकर रेप करने के तहत दर्ज किया जाता है, और इनमें खासी लंबी सजा का भी इंतजाम है। बहुत से ऐसे मामले रहते हैं जिनमें ऐसी शिकायतकर्ता लडक़ी या महिला, ऐसे लडक़े या आदमी के साथ वर्षों तक लिव इन रिलेशनशिप में भी रहती है, लेकिन शादी न होने पर वे रिपोर्ट लिखवाती हैं, और कानून में उसकी गुंजाइश है इसलिए ऐसे लडक़े या आदमी की गिरफ्तारी में अधिक समय भी नहीं लगता। इस बारे में कुछ प्रदेशों के हाईकोर्ट ने समय-समय पर शक जाहिर किया है कि क्या सचमुच ऐसे मामलों को बलात्कार मानना चाहिए, या फिर यह बलात्कार के दायरे से बाहर रखना चाहिए। हमने इस अखबार में ऐसे मामलों को लेकर साफ-साफ लिखा है कि इन्हें बलात्कार मानना गलत होगा और ऐसा लिखने पर बहुत सी महिला आंदोलनकारियों ने हमारी आलोचना भी की है कि यह महिला विरोधी नजरिया है। ताजा मामला दिल्ली का है जिसमें एक नाबालिग को शादी का झांसा देकर उसके साथ बलात्कार किया गया था, और उसकी रिपोर्ट पर मामला दर्ज हो गया है।
भारत में महिला को कानून में खास हिफाजत मुहैया कराई गई है, और इसलिए इन मामलों में महिला के बयान को ही सुबूत मान लिया जाता है, और इनमें बलात्कार या सेक्स शोषण जैसे मामले रहते हैं। जिस समाज में महिला सदियों से कुचली चली आ रही है, वहां पर उसे बराबरी का दर्जा देने या सुरक्षा देने के लिए ऐसा कानून जरूरी भी था। लेकिन अब सवाल यह है कि क्या समाज के किसी एक कमजोर तबके को उसका जायज हक दिलाने के लिए कानून ऐसा बनाया जाए जिसका एक बड़ा बेजा इस्तेमाल भी हो सकता हो? दिल्ली की जिस घटना को लेकर आज इस मुद्दे पर यहां लिखा जा रहा है उसमें तो शिकायत करने वाली लडक़ी नाबालिग है और इसलिए उसके साथ किसी बालिग का देह संबंध, अनुमति से बनाना भी जायज नहीं है, और कानूनन जुर्म है। इसलिए जो कुछ हम लिखने जा रहे हैं वह इस मामले पर लागू नहीं होता है लेकिन दूसरे बहुत से ऐसे मामले हैं जिनके बारे में एक मानवीय और सामाजिक नजरिए से सोचने की जरूरत है।
यह कोई नई बात नहीं है कि शादी के पहले लोगों के सेक्स संबंध बनें, हिंदुस्तान जैसे दकियानूसी समाज में भी लंबे समय से ऐसा चले आ रहा है और इसके पीछे दो वजहें हैं। एक तो किसी लडक़ी या महिला की अपनी शारीरिक जरूरतें रहती हैं जिन्हें पूरा करने के लिए वह किसी से संबंध बना सकती है। दूसरी बात यह कि शादी हो जाने की एक उम्मीद से भी वह किसी आदमी के सामने समर्पण कर सकती है कि शायद इसके बाद शादी हो जाए। यह दूसरी वजह ऐसी है जो कि भारत की सामाजिक व्यवस्था से पैदा हुई है जहां पर किसी भी लडक़े या लडक़ी के बालिग हो जाने पर उसके शादी कर लेने की सामाजिक उम्मीद एक बहुत बड़ा पारिवारिक दबाव बना देती है। 20-25 बरस के होते ही परिवार से लेकर पड़ोस तक, और रिश्तेदारों तक के दबाव पडऩे लगते हैं कि कब हाथ पीले हो रहे हैं, कब शादी हो रही है। और चूँकि लडक़ी की शादी उसके परिवार पर एक बड़ा आर्थिक बोझ भी रहती है, इसलिए भी लडक़ी पर यह मानसिक दबाव रहता है कि वह किस तरह अपने परिवार का बोझ कम कर सकती है। इसके अलावा पारिवारिक स्तर पर तय हुई शादी में लडक़ी की कोई मर्जी तो रहती नहीं है, और जो लडक़ी अपनी मर्जी से शादी करना चाहती है, वह भी ऐसी शादी अपने बूते पर करने के लिए कई बार किसी लडक़े के सामने उसके सुझाये अपने बदन को खड़ा कर देती है। कुल मिलाकर यह कि हिंदुस्तान में जब शादी की उम्मीद में किसी लडक़ी या महिला को किसी के सामने एक समझौता करना पड़ता है, तो वह निजी जरूरत का कम रहता है पारिवारिक और सामाजिक जरूरत का अधिक रहता है। इसलिए इस बात को समझने की जरूरत है कि इस देश में शादी को जितना जरूरी करार दिया जाता है, उसकी वजह से भी लड़कियों पर शादी का रास्ता निकालने का एक दबाव बनता है।
दूसरी बात को भी समझने की जरूरत है कि लडक़े-लड़कियों के बीच या औरत-मर्द के बीच बिना शादी के भी प्रेम संबंध बनते हैं, जो देह संबंध तक पहुंचते हैं, जो पूरी तरह से दोनों की सहमति के रहते हैं। हो सकता है कि इस बीच किसी एक ने दूसरे से शादी का वायदा किया हो, और यह भी हो सकता है कि ऐसा वायदा करते समय सच में ही उसकी नीयत आगे चलकर शादी करने की रही हो, लेकिन बाद में किसी वजह से शादी ना हो पाना, या बाद में मन का बदल जाना या साथी का शादी के लायक न लगने लगना भी हो सकता है। और ऐसे इसे देह संबंध बनाने के लिए दिया गया झांसा मान लेना ज्यादती की बात होगी। बहुत से मामलों में तो सगाई होने के बाद भी शादी टूट जाती है और इस दौर में अमूमन न तो कोई देह संबंध बनता है न कुछ और। तो इसे क्या कहा जाए? लोगों के विचार समय के साथ-साथ सचमुच बदल भी सकते हैं। इसलिए अगर प्रेम संबंध और देह संबंध को अनिवार्य रूप से शादी में बदलने की शर्त रख दी जाए, तो ऐसी शर्त की गारंटी इन संबंधों की शुरुआत में ही कौन दे सकते हैं? इसलिए यह सिलसिला कुछ ज्यादती का लगता है. दो बालिग लोगों के बीच आपसी सहमति से प्रेम हो, आपसी सहमति से देह संबंध बने, और उसके बाद उन दोनों के बीच शादी को लेकर अगर कभी कोई बात हुई थी तो उसे पूरा न होने की नौबत आने पर इस संबंध को बलात्कार करार दे देना, यह इंसाफ की बात तो नहीं लगती।
महिलाओं के अधिकारों को लेकर लडऩे वाले लोगों को यह बात खटक सकती है लेकिन अखबार में लगातार महिलाओं के अधिकारों के लिए लिखते हैं, और बहुत से मुद्दे ऐसे भी उठाते हैं जो कहीं चर्चा में नहीं रहते, फिर भी यह बात लगती है कि इंसाफ को किसी एक तबके के अधिकारों से भी ऊपर मानना चाहिए, और किसी तबके के हक इंसाफ के नजरिए से ही तय होने चाहिए। अगर लोग प्रेम संबंध और देह संबंध बनाते हुए इसी तनाव और फिक्र में रहेंगे कि उनके साथी आगे चलकर उन्हें बलात्कार में जेल भेज सकते हैं, तो इससे लोगों के संबंधों में शुरू से ही एक अविश्वास पैदा हो सकता है, जो कि प्रेम और सेक्स दोनों को खराब कर सकता है। इस बारे में अधिक विचार-विमर्श की जरूरत है, लोगों के बीच सार्वजनिक बहस होनी चाहिए कि क्या शादी के वायदे के बिना कोई संबंध बन ही नहीं सकते या शादी का वायदा करने के बाद लोगों का अपना इरादा बदलने का हक़ खत्म हो जाता है? और अगर लोग अपना इरादा बदल लें, तो क्या पहले का वह आपसी सहमति का बालिग रिश्ता बलात्कार करार दिया जाए?
इस बारे में सार्वजनिक चर्चा होनी चाहिए
वैसे तो कांग्रेस पार्टी कुछ अच्छी और कुछ बुरी बातों के लिए लगातार खबरों में बनी हुई है, और पंजाब से लेकर राजस्थान, छत्तीसगढ़ तक पार्टी के भीतर अलग-अलग किस्म के मुद्दों को लेकर बेचैनी भी बनी हुई है, लेकिन उसकी खबरें दिल्ली से बन रही हैं। राज्यों को लेकर फैसले भी क्योंकि परंपरागत रूप से इस पार्टी में, और सच तो यह है कि बाकी तमाम पार्टियों में भी, दिल्ली से होते हैं, इसलिए राज्यों की खबरें भी दिल्ली से निकल रही हैं. लेकिन कुछ दूसरी दिलचस्प बातें भी हो रही हैं। देश की नौजवान पीढ़ी में एक सबसे चर्चित नौजवान चेहरा, जेएनयू का छात्र नेता रहा हुआ कन्हैया कुमार, अपने सीपीआई से राजनीतिक संबंधों का एक लंबा दौर छोडक़र कांग्रेस में शामिल हुआ। उसी के साथ जिग्नेश मेवाणी नाम का गुजरात का एक दलित राजनीतिक कार्यकर्ता, और मौजूदा निर्दलीय विधायक भी कांग्रेस में आया। जिग्नेश मेवाणी वकील और अखबारनवीस भी रह चुका है और बाद में एक दलित कार्यकर्ता की हैसियत से निर्दलीय विधायक बना है। इन दोनों के कांग्रेस में आने की चर्चा कई दिनों से चल रही थी, और राहुल गांधी से मिलकर शायद एक से अधिक मुलाकातें करके ये कांग्रेस में आए हैं. इनके पहले गुजरात में एक और नौजवान सामाजिक कार्यकर्ता हार्दिक पटेल भी कांग्रेस में लाया गया था और उसे हैरान कर देने वाले तरीके से गुजरात प्रदेश कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाया गया। हार्दिक ने पिछले कुछ वर्षों में गुजरात में लगातार सामाजिक और आरक्षण आंदोलनों में बड़ी अगुवाई की थी, और वहीं से हार्दिक का नाम लगातार खबरों में आया, बने रहा, और इतनी कम उम्र का कोई नौजवान इतने बड़े आंदोलन का अगुआ बने ऐसा कम ही होता है। तो हार्दिक पटेल गुजरात के पाटीदार-ओबीसी समुदाय का एक बड़ा असरदार चेहरा है और जिग्नेश मेवानी गुजरात का एक दलित चेहरा है, इन दोनों का कांग्रेस से कोई पुराना इतिहास नहीं रहा बल्कि इन दोनों का कोई चुनावी राजनीतिक इतिहास नहीं रहा है। पाटीदार आंदोलन से हार्दिक पटेल खबरों में आए क्योंकि वे अपने समाज को ओबीसी आरक्षण में शामिल करवाना चाहते थे। और गुजरात के दलितों की तकलीफ तो बहुत बुरी तरह खबरों में बनी हुई रहती ही हैं।
अब यह सिलसिला थोड़ा सा अटपटा लगता है कि कांग्रेस में एक तरफ तो अपने जमे-जमाए पुराने नेताओं से बातचीत का सिलसिला भी टूटते जा रहा है। कांग्रेस के मौजूदा तौर तरीकों से बेचैन, लेकिन कांग्रेस में ही अब तक बने हुए, करीब दो दर्जन बड़े नेताओं से ऐसा लगता है कि राहुल गांधी, या कांग्रेस हाईकमान, या सोनिया परिवार ने सीधे बातचीत बंद ही कर रखी है। और दूसरी तरफ प्रशांत किशोर नाम के एक चुनावी राजनीतिक रणनीतिकार से जिस तरह कांग्रेस सलाह-मशविरा कर रही है, उसे ऐसा लगता है कि कांग्रेस अपने भीतर की जड़ हो चुकी, फॉसिल बन चुकी, भूतपूर्व प्रतिभाओं को छोडक़र, कुछ नई नौजवान प्रतिभाओं की तरफ जा रही है। यह भी हो सकता है कि कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी को कांग्रेस में लाने के पीछे प्रशांत किशोर जैसे किसी गैरकांग्रेसी की राय रही हो। जो भी हो कांग्रेस को आज एक नए खून की जरूरत है, और बहुत बड़ी जरूरत है. जरूरत तो उसे कांग्रेस की लीडरशिप के स्तर पर भी है कि वहां पर भी कुछ नया होना चाहिए, लेकिन जब तक वह नहीं हो सकता, जब तक वह नहीं होता है, तब तक कम से कम कन्हैया कुमार और जिग्नेश मेवाणी जैसे लोग पार्टी में लाए जाएं, तो इसे कारोबारी दुनिया में एक नए कामयाब स्टार्टअप को किसी पुरानी बड़ी कंपनी द्वारा अधिग्रहित कर लेने जैसा मानना चाहिए। कारोबार से भी राजनीति कुछ सीख सकती है, और उसमें यह है कि अपने पुराने लोग अगर एसेट के बजाय लायबिलिटी अधिक हो चुके हैं, तो बाहर से कम से कम कुछ नई नई प्रतिभाओं को लाकर पार्टी की एसेट बढ़ाई जाए।
यह बात हम कन्हैया कुमार के आज कांग्रेस में लाए जाने को लेकर नहीं कह रहे हैं, जिस दिन कन्हैया कुमार जेल से छूटकर जेएनयू पहुंचे थे और वहां पर करीब पौन घंटे का उनका भाषण टीवी चैनलों पर बिना किसी काट-छांट के पूरा दिखाया गया था, उस दिन से ही हम यह मानकर चल रहे हैं कि देश को ऐसे नौजवानों की जरूरत है। हमारे नियमित पाठकों ने इसी जगह पर उसी दौर में कई बरस पहले हमारा लिखा हुआ पढ़ा होगा कि देश की संसद में अगर किसी एक व्यक्ति को लाया जाना चाहिए तो वह कन्हैया कुमार है। सार्वजनिक जीवन में और चुनावी राजनीति में निजी ईमानदारी के साथ जब मजबूत विचारधारा को ओजस्वी तरीके से बोलने का हुनर किसी में होता है, तो उसका बड़ा असर भी होता है. यह बात फुटपाथ पर चूरन या तेल बेचने वाले के बोलने के हुनर से अलग रहती है। और जनसंघ के जमाने से भाजपा के इतिहास के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेई अपनी साफगोई और बोलने की अपनी खूबी के चलते हुए ही इतने लोकप्रिय रहते आए थे। इसलिए कन्हैया कुमार का कांग्रेस में आना और खासकर ऐसे वक्त आना जब उसका वर्तमान ही अंधेरे में दिख रहा है, और उसका भविष्य एक लंबी अंधेरी सुरंग के आखिर में टिमटिमाती रोशनी जैसा दिख रहा है, तब यह कांग्रेस के लिए एक हासिल है।
अब इसे एक दूसरे पहलू से भी देखने की जरूरत है। जिन चार नामों की हमने यहां चर्चा की है, हार्दिक पटेल, कन्हैया कुमार, जिग्नेश मेवाणी, और प्रशांत किशोर, इन सबके साथ एक बात एक सरीखी है कि ये कांग्रेस की राजनीति में अगर रहते हैं, तो भी ये राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी कोई पकड़ नहीं रखते कि ये राहुल गांधी या प्रियंका गांधी के लिए कई बरस बाद जाकर भी किसी तरह की कोई चुनौती बन सकें। जबकि कांग्रेस पार्टी के भीतर के जिन दर्जनों नेताओं को धीरे-धीरे अलग-अलग वजहों से किनारे होना पड़ा है, उनमें से कई ऐसे हो सकते थे जिन्हें कांग्रेस की मौजूदा लीडरशिप के लिए एक किस्म की चुनौती माना जा सकता था। अभी भी यह संभावना या आशंका खत्म नहीं हुई है कि जब कभी कांग्रेस के संगठन चुनाव होंगे तो 23 बेचैन नेताओं में से कोई पार्टी अध्यक्ष का चुनाव भी लडऩे के लिए तैयार हो जाए. इसलिए राहुल गांधी या उनके परिवार ने देश के कुछ चर्चित और दमखम वाले नौजवानों को पार्टी में लाकर पार्टी को समृद्धि तो किया है, लेकिन शायद अपनी हिफाजत का भी पूरा ध्यान रखा है। राजनीति किसी किस्म के त्याग और आध्यात्म का कारोबार नहीं है और इसमें लोग अगर अपने प्रतिद्वंद्वियों को कम करते हैं, कमजोर करते हैं, तो उसमें कोई अटपटी बात नहीं है। ऐसे में कांग्रेस ने अपने बड़े कमजोर राज्यों में, गुजरात और बिहार में इन नौजवानों को पार्टी में लाकर अपनी संभावनाओं को बेहतर बनाने की कोशिश की है, जो कि एक अच्छी बात है।
हो सकता है कि कांग्रेस संगठन के पुराने जमे जमाए मठाधीशों को यह बात अच्छी न लगे, लेकिन वह अधिक काम के रह नहीं गए हैं। वे भाजपा में होते तो घोषित या अघोषित मार्गदर्शक मंडल में भेजे जा चुके रहते। लेकिन कांग्रेस की संस्कृति कुछ अलग है, और इसने अभी एक बरस पहले तक देश के सबसे बुजुर्ग कांग्रेस नेता मोतीलाल वोरा को राहुल और सोनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलते देखा हुआ है। इसलिए बिना रिटायर किए या बिना घर भेजे भी कांग्रेस अपने पुराने बोझ को किनारे करना जानती है, और अब उसने जिन नए होनहार लोगों को पार्टी में लाने का काम किया है, वह उसके लिए एक अच्छी बात है। हम यहां पर किनारे किए गए पुराने लोगों के साथ इन नए लोगों को जोडक़र कोई नतीजा निकालना नहीं चाहते क्योंकि संगठन के भीतर की राजनीति का इतना सरलीकरण करना मुमकिन नहीं है। लेकिन देश में तेजस्वी और होनहार नौजवानों को आगे लाना किसी भी पार्टी के लिए एक अच्छी बात है और कांग्रेस ने इस हफ्ते कुछ हासिल ही किया है। हो सकता है कि इसी संदर्भ में पंजाब में भारी अलोकप्रिय हो चुके बुजुर्ग मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को किनारे करना, और एक दलित, तकरीबन नौजवान को मुख्यमंत्री बनाना भी गिना जा सकता है। देखें आगे-आगे होता है क्या।
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उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय में वहीं की एक महिला शिक्षिका ने छात्राओं के नहाते और कपड़े बदलते हुए वीडियो बना लिए और अब उन लड़कियों को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा है क्योंकि वे इस बात से डरी-सहमी हैं कि कहीं वह टीचर यह वीडियो और फोटो वायरल ना कर दे। पुलिस उस महिला शिक्षिका को तलाश रही है जो कि फरार हो गई है। यह मामला छत्तीसगढ़ के जशपुर में विकलांग बच्चों के एक प्रशिक्षण केंद्र और छात्रावास में अभी कुछ दिन पहले हुए बलात्कार और सामूहिक सेक्स शोषण जितना गंभीर नहीं है, लेकिन अपने आप में गंभीर तो है ही। हिंदुस्तान में एक तो लोग लड़कियों को बाहर पढऩे भेजना नहीं चाहते, ऐसे में जब किसी हॉस्टल में लड़कियों को रखकर गरीब मां-बाप उनके बेहतर भविष्य की कोशिश करते हैं, तो जशपुर के प्रशिक्षण केंद्र में वही के केयरटेकर कर्मचारियों ने बलात्कार किया, और देशभर में जगह-जगह ऐसी घटनाएं होती रहती हैं।
इस मामले से जुड़े हुए दो अलग-अलग पहलू हैं. एक तो यह कि बच्चों से जुड़ी हुई शिक्षण या प्रशिक्षण संस्थान या फिर उनके खेलकूद के संस्थान ऐसे रहते हैं जहां पर बच्चों से सेक्स की हसरत रखने वाले लोग नजर रखते हैं, और मौका मिलते ही वहां यह जुर्म करने में लग जाते हैं। फिर हिंदुस्तान में तो कानून भी लचर है और सरकारी इंतजाम उससे भी अधिक लचर है, लेकिन जिस अमेरिका में कानून मजबूत है, और सरकारी इंतजाम भी खासे मजबूत हैं, वहां भी अभी ओलंपिक में पहुंची हुई बहुत सी जिमनास्ट की शिकायतें जांच में सही पाई गईं कि उनके एक प्रशिक्षक ने अनगिनत लड़कियों का सेक्स शोषण किया। टोक्यो ओलंपिक में अमेरिकी जिमनास्ट टीम की जो सबसे होनहार खिलाड़ी थी उसने आखिरी वक्त में अपना नाम वापस ले लिया और कहा कि वह मानसिक रूप से इतनी फिट नहीं है कि वह मुकाबले में हिस्सा ले सके। बाद में यह जाहिर हुआ कि वह भी ऐसे शोषण की शिकार लड़कियों में से एक थी, और अमेरिका में ओलंपिक में पहुंचने वाली बच्चियां तक का शोषण करने वाला यह प्रशिक्षक लंबे समय तक किसी कार्रवाई से बचे रहा, शिकायतें अनसुनी होती रही, और जाने कितने दर्जन लड़कियों को इस यातना से गुजरना पड़ा जो कि जिंदगी भर उनका पीछा नहीं छोड़ेगी। हिंदुस्तान में पढ़ाई, खेलकूद, और सभी किस्म की दूसरी जगहों पर लड़कियों और महिलाओं के देह शोषण की कोशिश चलती ही रहती है, और इस देश का इंतजाम इतना घटिया है कि वह मुजरिम की शिनाख्त तो हो जाने पर भी उसे 10-20 बरस तक तो कानूनी लुकाछिपी का मौका देते रहता है। छत्तीसगढ़ में ही ऐसे बहुत से मामले हैं जिनमें सारे सबूतों के बावजूद 5 से 10 बरस तक ना तो पिछली रमन सरकार ने अपने अफसरों पर कार्यवाही की, और ना ही पिछले ढाई साल की भूपेश सरकार ने ऐसे मामलों को एक इंच भी आगे बढ़ाया। ऐसे में किसकी हिम्मत हो सकती है कि वे शिकायत लेकर जाएं और सारी कार्रवाई के बावजूद, सारे सबूतों के बावजूद, केवल अदालतों में वकील खड़े करते रहें, लड़ते रहें, और कोई इंसाफ ना पाएं।
दूसरी तरफ हिंदुस्तानी समाज के बारे में भी यह सोचने की जरूरत है कि संस्थागत शोषण से परे जब परिवारों के भीतर बच्चों का देह शोषण होता है तो ऐसे अधिकतर मामलों के पीछे परिवार के लोग, रिश्तेदार, या घर में आने-जाने वाले लोग, घरेलू कामगार ही रहते हैं। लेकिन जब बच्चे शिकायत करते हैं तो आमतौर पर मां-बाप ही अपने बच्चों की शिकायतों को अनसुना कर देते हैं, उस पर भरोसा नहीं करते क्योंकि उससे परिवार या सामाजिक संबंधों का बना-बनाया ढांचा चौपट हो जाने का खतरा उन्हें अधिक गंभीर लगता है। जो अपने बच्चों की हिफाजत से अधिक महत्वपूर्ण अपने पारिवारिक और सामाजिक ढांचे को मानते हैं, ऐसे मां-बाप को क्या कहा जाए। लेकिन हिंदुस्तान में बच्चों के यौन शोषण में अधिकतर मामले इसी किस्म के हैं। बच्चे और बच्चियां न तो घर-परिवार में सुरक्षित हैं, और न ही किसी संस्थान में। ऐसी ही वजह रहती हैं जिनके चलते हुए गरीब मजदूरों के परिवार अपनी बच्चियों का बाल विवाह कर देते हैं कि किसी हादसे के पहले अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली जाए, और बच्ची के हाथ पीले कर दिए जाएं। उसके बाद उसकी हिफाजत उसके ससुराल की जिम्मेदारी रहेगी। जिन गरीब घरों में मां-बाप दोनों काम करने बाहर जाते हैं, वहां पर अक्सर ही बच्ची की शादी जल्दी कर दी जाती है। यह पूरे का पूरा सिलसिला हिंदुस्तान में लड़कियों पर जुल्म का है, और क्योंकि इस देश का कानून इस कदर कमजोर है कि वह कागज पर तो अपना बाहुबल दिखाता है लेकिन जब उसके इस्तेमाल की बात आती है तो अदालतों का पूरा ढांचा आखिरी दम तक मुजरिम का साथ देता है और शिकायत करने वाले लोग वहां अपराधी की तरह देखे जाते हैं। अभी जशपुर में जो हुआ है उसके बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने प्रदेश के बाकी सभी छात्रावासों और रिहायशी संस्थानों में बच्चे-बच्चियों की हिफाजत की जांच करने के लिए कहा है, देखते हैं कि जिलों के बड़े-बड़े अफसर कितनी गंभीरता से ऐसी जांच करते हैं।
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कांग्रेस पार्टी ने हो सकता है कि अपने इतिहास में इससे अधिक चुनौतियों वाले दिन देखे हों जब उसे इमरजेंसी लगानी पड़ी, जब वह इमरजेंसी के बाद हार गई। लेकिन इन मौकों पर इंदिरा गांधी मौजूद थीं। आज कांग्रेस अपने सबसे बुरे दिनों को देख रही है, और लोग यह देख रहे हैं कि कांग्रेस को अभी और क्या-क्या देखना बाकी है। इस बात की चर्चा पंजाब को लेकर करनी पड़ रही है जहां कांग्रेस ने हटाने लायक मुख्यमंत्री को हटाने में बरसों लगा दिए, और अध्यक्ष न बनाने लायक नवजोत सिंह सिद्धू को पल भर में अध्यक्ष बना दिया, जो कि कुछ महीनों में ही उस कुर्सी को लात मारकर पूरी कांग्रेस पार्टी के लिए एक चुनौती बनकर खड़ा हो गया है। इस बीच राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस से जो 23 असंतुष्ट नेता सवाल लेकर खड़े हुए हैं, उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह सवाल किया है कि आज जब पार्टी के पास कोई अध्यक्ष नहीं है, तो इन सब फैसलों को कर कौन रहे हैं? बात सही भी है सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष हैं, लेकिन तमाम फैसले लेते राहुल गांधी दिख रहे हैं जो कि पार्टी के अध्यक्ष नहीं रह गए हैं, और जिन्होंने पार्टी का अध्यक्ष न बनने की खुली मुनादी की हुई है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि पार्टी में अधिकार किसके पास हैं, और जवाबदेही किस पर है? अभी कुछ दिन पहले ही हमने इसी मुद्दे पर कुछ बातों को लिखा था लेकिन अब पंजाब की ताजा घटनाओं को देखते हुए और असंतुष्ट नेताओं के ताजा बयान देखते हुए यह लगता है कि कांग्रेस की बची-खुची सरकारों के बजाय कांग्रेस संगठन के बारे में बात करना चाहिए, कांग्रेस के उस तथाकथित हाईकमान के बारे में बात करना चाहिए जो कि दिखता नहीं है, लेकिन एक अदृश्य ताकत की तरह पार्टी पर अपनी फौलादी जकड़ बनाए हुए है।
बहुत सारे राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि राहुल गांधी और सोनिया गांधी भी वक्त रहते कोई फैसले नहीं ले पा रहे हैं और जब पानी सिर से गुजर चुका रहता है तब वे पंजाब जैसे फैसले लेते हैं, जिनमें चुनाव के कुछ महीने पहले मुख्यमंत्री को बदल रहे हैं, और उसके कुछ महीने पहले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को बदल रहे हैं और अब वह अध्यक्ष भी पार्टी की कुर्सी पर नहीं रहा। विश्लेषकों का यह भी मानना है कि नया मुख्यमंत्री तय करते हुए कांग्रेस ने किसी गैरसिक्ख को मुख्यमंत्री बनाना तय किया जिससे सिखों के बीच कुछ नाराजगी होना जायज है। इसके बाद उन्होंने एक दलित को मुख्यमंत्री बनाया तो गैर दलितों के बीच नाराजगी जायज है। कांग्रेस की एक नेता अम्बिका सोनी आग में घी डालते हुए यह बताती हैं कि उन्हें सीएम बनने कहा गया था, लेकिन वे तो नहीं बनेंगी, किसी सिख को ही सीएम बनाना चाहिए। कांग्रेस के पंजाब प्रभारी हरीश रावत एक दलित के सीएम घोषित हो जाने के बाद कहते हैं कि अगला चुनाव सिद्धू के चेहरे पर लड़ा जायेगा। एक दलित का सम्मान कुछ घंटे भी नहीं रहने दिया कांग्रेस ने। चुनाव में अधिक से अधिक तबकों के अधिक से अधिक वोटों की जरूरत रहती है तो कांग्रेस पार्टी, एक-एक करके हर तबके तो नाराज कर रही है, चुकी है। कुछ बदनाम अफसरों और मंत्रियों को पंजाब की सरकार में स्थापित कर रही है, कर चुकी है, और अपने करिश्मेबाज होने का दावा करने वाले नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर और गवा कर बैठी है। नतीजा यह है कि आज किसी को यह समझ नहीं पड़ रहा है कि चुनाव तो बाद में लड़ा जाएगा आज कांग्रेस पार्टी के भीतर कौन किससे लड़ेंगे ? यह उस वक्त हो रहा है जब कैप्टन अमरिंदर सिंह दिल्ली में घूम घूम कर अमित शाह से मिल रहे हैं, और अजीत दोवाल से मिल रहे हैं।
कांग्रेस को प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों या दूसरे नेताओं को सुधारने के बजाय अपने-आपको सुधारने के बारे में पहले सोचना चाहिए। इस किस्म की अदृश्य, अनौपचारिक, और सर्वशक्तिमान हाईकमान पार्टी में किसके भीतर भरोसा पैदा कर सकती है? पंजाब के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के वक्त कैप्टन अमरिंदर सिंह ने औपचारिक रूप से यह कहा कि उनकी राहुल गांधी से 2 बरस से मुलाकात नहीं हुई है। यह किसी पार्टी की किस तरह की नौबत है कि उसके बचे-खुचे 3-4 मुख्यमंत्रियों में से किसी एक से, पार्टी के सर्वेसर्वा राहुल गांधी की 2 बरस तक मुलाकात ही ना हो? यह पूरा सिलसिला बड़ा ही अजीब सा है, बहुत अटपटा है और इसके चलते हुए कोई राजनीतिक दल किसी भविष्य की उम्मीद नहीं कर सकता। यह इंदिरा गांधी के करिश्मे वाले दौर की कांग्रेस पार्टी नहीं है। यह तो आज मोदी के करिश्मे वाले वाली भाजपा के मुकाबले हाशिये के भी एक किनारे पर पहुंच चुकी कांग्रेस है, जिस पर रात-दिन मेहनत करने की जरूरत है। कांग्रेस पार्टी पर किसी जागीरदार की तरह काबिज सोनिया गांधी का परिवार आज अपने ही संगठन के लिए एक बहुत ही कमजोर मिसाल बन चुके हैं कि ऐसी लीडरशिप से कोई पार्टी कैसे चल सकती है। जिन दो दर्जन बड़े नेताओं ने हाईकमान के ऐसे हाल पर सवाल उठाए हैं, उन्हें पार्टी का गद्दार करार देना, उन्हें भाजपा का दलाल बतलाना, यह सब कुछ हो चुका है। लेकिन इन दो दर्जन बड़े नेताओं में से कोई एक भी तो बीजेपी में नहीं गया! तो इसका मतलब है कि कांग्रेस में चापलूस जिस अंदाज में अपने नेता को खुश करने के लिए, सवाल उठाने वालों पर टूट पड़े थे, उनके सारे हमले नाजायज थे।
वक्त आ गया है कि कांग्रेस पार्टी बिना देर किए चुनाव करवाए और जैसा कि राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि इस परिवार से परे कांग्रेस अपना अध्यक्ष देखे। यह मानकर चलना कि इस परिवार के बिना कांग्रेस टूट जाएगी, यह मानकर चलना कि सिर्फ यही परिवार कांग्रेस को बांधकर रख सकता है, यह इस परिवार के साथ भी पार्टी के चापलूस नेताओं की नाइंसाफी है। इस परिवार को भी सांस लेने का मौका देना चाहिए, और पार्टी को कोई नया नेता तय करके आगे बढऩा चाहिए। पार्टी के चुनाव करवाने का रास्ता निकालना चाहिए क्योंकि अब तो कोरोना भी खत्म हो चुका है, और तकरीबन तमाम राज्यों में सारी राजनीतिक गतिविधियां भी शुरू हो चुकी हैं। ऐसे में चुनाव न करवाने का केवल एक ही मतलब निकाला जा सकता है कि पार्टी की लीडरशिप को छोडऩे की नीयत नहीं है। ऐसा तस्वीर को मिटाने के लिए चुनाव से कम किसी में काम नहीं चलेगा, और 2-3 राज्य कांग्रेस के पास बचे हैं, उनके और डूब जाने के पहले अगर यह चुनाव हो जाए, तो हो सकता है किसी काम भी आए।
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इटली के मिलान शहर में अभी क्लाइमेट चेंज पर नौजवान पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने एक सम्मेलन रखा जिसमें स्वीडन की चर्चित पर्यावरण आंदोलनकारी युवती ग्रेटा थनबर्ग भी पहुंची। उसने एक जबरदस्त भाषण में दुनिया के देशों की जुबानी जमाखर्च को लताड़ा, और उसका भाषण चारों तरफ तैर रहा है। दुनिया के 190 देशों से करीब 400 जवान इस शहर में इकट्ठा हुए हैं, और उन्होंने दुनिया के राष्ट्रीय प्रमुख शासन प्रमुखों की धोखाधड़ी को उजागर करने का काम किया है। नौजवानों का यह विरोध उस वक्त सामने आया है जब महीने भर बाद ही ग्लासगो में संयुक्त राष्ट्र के बैनर तले एक बड़ा पर्यावरण सम्मेलन होने जा रहा है जिसमें इन नौजवानों के उठाए हुए मुद्दे छाए रहना तय है।
दूसरी तरफ वैज्ञानिकों ने मौसम के बदलाव को लेकर जो हिसाब लगाया है वह भी बहुत डरावना है। एक बड़ी प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका ‘साइंस’ जर्नल में जलवायु परिवर्तन के बारे में छपा है कि आज के जो बच्चे हैं वे अपने जीवन में अपने दादा-दादी, या नाना-नानी के मुकाबले मौसम के सबसे बुरे मामलों (एक्सट्रीम वेदर इवेंट्स) दो-तीन गुना अधिक देखेंगे। इसमें भी एक बात यह है कि जो संपन्न या विकसित देश हैं, वहां के बच्चों को ऐसे हालात अपनी दो पीढ़ी पहले के मुकाबले 2 गुना अधिक देखने होंगे, लेकिन गरीब देशों के बच्चों को ऐसे हालात 3 गुना अधिक देखने होंगे। मतलब यह कि आने वाली पीढिय़ों की किस्मत में तकलीफ तो पिछली पीढिय़ों के मुकाबले बहुत अधिक लिखी हुई है ही, उसमें भी जो गरीब हैं उनके हिस्से ज्यादा तकलीफ लिखी हुई है, चाहे वह गरीब देश हों, चाहे वह गरीब बच्चे हों।
मौसम की मार और तरह-तरह की प्राकृतिक विपदाओं ने इस बुरी तरह लोगों पर वार किया है कि गरीब लोगों के लिए तो खाना जुटाना मुश्किल हो गया है। अगर देखें कि मौसम का यह बदलाव, यह जलवायु परिवर्तन किनकी वजह से हो रहा है तो बड़ा साफ समझ में आता है कि संपन्न और विकसित देशों के लोग सामानों की जितनी खपत कर रहे हैं, और जितना प्रदूषण पैदा कर रहे हैं, सुविधाओं को जितना भोग रहे हैं, उनकी वजह से यह परिवर्तन अधिक हो रहा है. दूसरी तरफ उनसे कई गुना अधिक आबादी वाले जो गरीब देश हैं वे ऐसे जलवायु परिवर्तन के लिए बहुत थोड़े हद तक जिम्मेदार हैं। मतलब यह कि जलवायु परिवर्तन की औसत जिम्मेदारी अगर डाली जाए तो दुनिया की 20 फीसदी रईस आबादी पर उसकी 80 फीसदी जिम्मेदारी आ सकती है, और दुनिया की 80 फीसदी गरीब आबादी पर कुल मिलाकर भी पर्यावरण बर्बादी की 20 फीसदी से अधिक जिम्मेदारी नहीं आती। फिर यह भी है कि पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप जैसे लोगों की वजह से संपन्न और विकसित, और प्रदूषण फैलाने वाले धरती पर बोझ बने हुए देशों ने गरीब देशों में पर्यावरण के बचाव के लिए जिस मदद का वायदा किया था उसे उन्होंने पूरा नहीं किया है। नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने जरूर अपने देश के योगदान के वायदे को अब बढ़ाकर दोगुना किया है, लेकिन फिर भी गरीब देशों की पर्यावरण बचाने की जरूरत पूरी होने के करीब कहीं भी नहीं पहुंच पा रही हैं, क्योंकि संपन्न देश पर्यावरण बिगाडऩे की अपनी जिम्मेदारी के एवज में कोई हर्जाना देना नहीं चाहते हैं।
यह सिलसिला धरती पर देशों के बीच, और देश के भीतर लोगों के बीच, एक बहुत बड़े भेदभाव का मामला है। दुनिया में बहुत से लोग अधिक आबादी को पर्यावरण पर या धरती पर एक बोझ बोझ मानकर चलते हैं। हकीकत यह है कि गरीब आबादी धरती को जितना इस्तेमाल करती है, उससे ज्यादा दुनिया के लिए पैदा करके देती है। गरीबों की उत्पादकता उनकी खपत के मुकाबले बहुत अधिक है। दूसरी तरफ हर अमीर इंसान की खपत गरीब के मुकाबले आसमान छूती हुई है। ऐसे बहुत से भेदभाव लगातार खबरों में रहते हैं, बहसों में रहते हैं, लेकिन जब दुनिया के देश किसी एक मंच पर जुटते हैं तो सबसे विकसित, सबसे ताकतवर, और सबसे संपन्न देश अपनी जिम्मेदारी से कतराने की कोशिश करते हैं। इस बारे में अधिक से अधिक चर्चा होनी चाहिए, हर प्रदेश में, और हर देश में चर्चा होनी चाहिए, और दुनिया के छात्र-छात्राओं, नौजवानों ने जिस तरह पर्यावरण के लिए आंदोलन करने का एक मोर्चा खोला है, उससे बाकी दुनिया के बाकी नौजवानों को भी कुछ सीखना चाहिए, और धरती के प्रति, अपनी आने वाली जिंदगी के प्रति एक फिक्र करनी चाहिए। सबको सोचना चाहिए कि मौसम की मार से इंसानों को बचाने के मोर्चे पर आप कहीं खड़े हैं?
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अभी दो दिन पहले कनाडा के कैथोलिक बिशप ने एक बयान जारी करके देश के आदिवासी मूल निवासियों से उन जुल्मों के लिए माफी मांगी है जिन्हें चर्च के चलाए जा रहे आश्रम स्कूलों में एक सदी से अधिक समय तक किया गया था। यह बयान कनाडा में दो ईसाई स्कूलों के अहातों में हजार से अधिक बच्चों की कब्र मिलने के बाद चल रहे हंगामे को लेकर सामने आया है। हालांकि बिशप ने सीधे-सीधे इन कब्रों का जिक्र नहीं किया है, लेकिन कुछ महीने पहले कनाडा की सरकार ने चर्च से इन कब्रों को मिलने के बाद माफी मांगने की अपील की थी। ऐसे रिहायशी स्कूलों को कनाडा में एक जांच आयोग ने कुछ बरस पहले एक सांस्कृतिक जनसंहार कहा था। आने वाले दिसंबर के महीने में पोप फ्रांसिस कनाडा के आदिवासियों के प्रतिनिधिमंडल से मिलने वाले हैं।
लोगों को याद होगा कि पहले ऑस्ट्रेलिया में भी मूल निवासियों को उनके गांवों से, उनके परिवार और संस्कृति से छीनकर शहरों में लाकर, चर्च की स्कूलों में पढ़ाकर, और शहरी गोरे परिवारों के साथ रखकर, उन्हें सांस्कृतिक रूप से तथाकथित आधुनिक बनाने का काम होते आया है। इसके लिए आस्ट्रेलिया ने अपनी संसद के बीच आदिवासी समुदाय को आमंत्रित करके, तमाम सांसदों ने खड़े होकर उनसे माफी मांगी थी। हम इस बात को हिंदुस्तान से भी जोडक़र देख चुके हैं, लिख चुके हैं कि किस तरह यहां कुछ हिंदू संगठन उत्तर पूर्वी राज्यों से आदिवासी परिवारों की लड़कियों को लाकर, उन्हें हिंदी भाषी इलाकों में शबरी आश्रम बनाकर वहां रखते आए हैं, जिसमें वे अपनी आदिवासी संस्कृति से कट जाती हैं, अपनी भाषा से, अपने परिवार, अपनी जमीन से कट जाती हैं। किसी दिन हिंदुस्तान भी सभ्य देश बनेगा तो यहाँ की संसद भी इन आदिवासी बच्चियों के समुदायों से माफी मांगेगा।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान कोरिया की लाखों महिलाओं को सेक्स-गुलाम बनाकर रखने वाले जापान ने तय किया था कि अपने इस ऐतिहासिक अपराध के लिए वह कोरिया से माफी मांगेगा। युद्ध के दौरान सैनिकों के सुख के लिए न सिर्फ जापान में, बल्कि दुनिया के कुछ और देशों ने भी ऐसे जुर्म सरकारी फैसलों के तहत किए हुए हैं। अब अगर ऐसी माफी मांगी जाती है, तो उससे इतिहास में दर्ज एक जख्म का दर्द कुछ हल्का हो सकता है। हिटलर ने जो यहूदियों के साथ किया, अमरीका ने जो जापान पर बम गिराकर किया, वियतनाम में पूरी एक पीढ़ी को खत्म करके किया, और अफगानिस्तान से लेकर इराक तक जो किया, अमरीका के माफीनामे की लिस्ट दुनिया की सबसे लंबी हो सकती है। लेकिन बात सिर्फ एक देश की दूसरे देश पर हिंसा की नहीं है। देश के भीतर भी ऐतिहासिक जुर्म होते हैं, और उनके लिए लोगों को, पार्टियों को, संगठनों को, जातियों और धर्मों को माफी मांगने की दरियादिली दिखानी चाहिए। ऑस्ट्रेलिया की एक मिसाल सामने है जहां पर शहरी गोरे ईसाइयों ने वहां के जंगलों के मूल निवासियों के बच्चों को सभ्य और शिक्षित बनाने के नाम पर उनसे छीनकर शहरों में लाकर रखा था, और अभी कुछ बरस पहले आदिवासियों के प्रतिनिधियों को संसद में बुलाकर पूरी संसद में उनसे ऐसी चुराई-हुई-पीढ़ी के लिए माफी मांगी।
अब हम भारत के भीतर अगर देखें, तो गांधी की हत्या के लिए कुछ संगठनों को माफी मांगनी चाहिए, जिनके लोग जाहिर तौर पर हत्यारे थे, और हत्या के समर्थक थे। इसके बाद आपातकाल के लिए कांग्रेस को खुलकर माफी मांगनी चाहिए, 1984 के दंगों के लिए फिर कांग्रेस को माफी मांगनी चाहिए, इंदिरा गांधी की हत्या के लिए खालिस्तान-समर्थक संगठनों को बढ़ावा देने वाले लोगों को माफी मांगनी चाहिए, बाबरी मस्जिद गिराने के लिए भाजपा को और संघ परिवार के बाकी संगठनों को माफी मांगनी चाहिए, गोधरा में ट्रेन जलाने के लिए मुस्लिम समाज को माफी मांगनी चाहिए, और उसके बाद के दंगों के लिए नरेन्द्र मोदी और विश्व हिन्दू परिषद जैसे लोगों और संगठनों को माफी मांगनी चाहिए। इस देश के दलितों से सवर्ण जातियों को माफी मांगनी चाहिए कि हजारों बरस से वे किस तरह एक जाति व्यवस्था को लादकर हिंसा करते चले आ रहे हैं। और मुस्लिम समाज के मर्दों को औरतों से माफी मांगनी चाहिए कि किस तरह एक शाहबानो के हक छीनने का काम उन्होंने किया। इसी तरह शाहबानो को कुचलने के लिए कांग्रेस पार्टी को भी माफी मांगनी चाहिए जिसने कि संसद में कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटा।
दरअसल सभ्य लोग ही माफी मांग सकते हैं। माफी मंागना अपनी बेइज्जती नहीं होती है, बल्कि अपने अपराधबोध से उबरकर, दूसरों के जख्मों पर मरहम रखने का काम होता है। दुनिया के कई धर्मों में क्षमायाचना करने, या जुर्म करने वालों को माफ करने की सोच होती है, लेकिन ऐसे धर्मों को मानने वाले लोग भी रीति-रिवाज तक तो इसमें भरोसा रखते हैं, असल जिंदगी में इससे परे रहते हैं। इसमें आज की हमारी यह चर्चा भी जुड़ सकती है क्योंकि बीती जिंदगी की गलतियों और गलत कामों से अगर उबरना है, एक बेहतर इंसान बनना है, तो उन गलत कामों को मानकर, उनके लिए माफी मांगे बिना दूसरा कोई रास्ता नहीं है। आने वाला वक़्त छत्तीसगढ़ के नक्सलग्रस्त इलाकों में दशकों से चली आ रही पुलिस ज्यादती के लिए भी माफी मांगने का रहेगा। देखेंगे कि इस राज्य की विधानसभा के भीतर आदिवासियों से माफी मांगने की नैतिक हिम्मत राजनीतिक दलों में जुट पाती है या नहीं।
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ब्रिटेन में एक भारतवंशी वैज्ञानिक सर शंकर बालासुब्रमण्यम ने इंसानों के जींस से जुड़ी हुई एक नई खोज की है जिससे उनकी बीमारियों को शुरुआती दौर में ही पकड़ा जा सकेगा और उनके लिए अलग से दवाइयां बनाकर उनका इलाज भी किया जा सकेगा। ऐसा माना जा रहा है कि बीमारियों की ऐसी शिनाख्त और उसके इलाज से औसत उम्र भी काफी बढ़ सकती है और 120 बरस तक उम्र बढऩे की एक अटकल लगाई जा रही है। यूनिवर्सिटी आफ कैंब्रिज के विशेषज्ञ सुब्रमण्यम ने अपनी इस कामयाबी का खुलासा किया है और दिलचस्प बात यह भी है कि अब इंसानी जींस कि यह जांच बहुत मामूली खर्च से हो सकती है, जबकि कई बरस पहले जब पहली बार इस किस्म की एक जांच शुरू हुई थी तो उस पर सैकड़ों करोड़ों रुपए खर्च हुए थे।
यह अकेला विश्वविद्यालय या अकेली प्रयोगशाला नहीं है जहां पर इस तरह की खोज चल रही थी, या अभी चल रही है। इंसान की जिंदगी को कैसे बढ़ाया जाए यह एक बड़ी चुनौती है और इसका एक बड़ा बाजार भी है. जिस तरह लोग अमर हो जाना चाहते हैं, जिस तरह लोग अपने हमशक्ल और अपने किस्म के क्लोन बनवाना चाहते हैं, लोग उम्र को अधिक से अधिक लंबा और सेहतमंद भी करवाना चाहते हैं, तो उन सबको देखते हुए इस किस्म की तमाम रिसर्च पर खासा खर्च भी हो रहा है क्योंकि अतिसंपन्न लोगों के बीच ऐसी खोज का एक बड़ा महंगा बाजार भी रहेगा। लेकिन चिकित्सा विज्ञान की कामयाबी और लोगों की बढ़ी हुई उम्र से परे कुछ और चीजों पर भी सोचने की जरूरत है कि अगर इंसान की उम्र 25-50 बरस बढ़ जाती है, तो उसके क्या-क्या असर होंगे? यह महज चिकित्सा विज्ञान के सामने बड़ी चुनौती नहीं रहेगी कि वह इतनी अधिक उम्र के लोगों की सेहत की दिक्कतों के बारे में अंदाज लगाए और उनका इलाज ढूंढ कर रखे बल्कि यह दुनिया के लिए बड़ी सामाजिक और आर्थिक चुनौती भी रहेगी।
सामाजिक चुनौती से हिसाब से संपन्न तबकों के लोग जिनके अस्सी-सौ बरस होकर गुजर जाने का अब तक सिलसिला चल रहा है, वे अगर अपनी अगली पीढ़ी की छाती पर सवा सौ बरस की उम्र तक मूंग दलते बैठे रहेंगे, तो उनकी औलाद कब काम संभाल सकेगी, और कब परिवार और कारोबार की मुखिया हो सकेगी? फिर यह भी रहेगा कि सामाजिक लीडरशिप, राजनीतिक लीडरशिप, इन सब में लोगों का रहना और 20-25 वर्ष बढ़ जाएगा, और फिर नई सोच के ऊपर छाए हुए ऐसे वटवृक्ष किसी को पनपने का मौका भी नहीं देंगे। आज जिस तरह भारतीय जनता पार्टी में 75 बरस की उम्र के बाद लोगों को मार्गदर्शक मंडल में भेजने की एक घोषित या अघोषित नीति चली आ रही है, वह मान लें कि सौ बरस की उम्र तक बढ़ा दी जाएगी, तो नई लीडरशिप को तो आने का मौका ही नहीं मिलेगा। और ऐसा ही हाल उन पार्टियों में भी होगा जिन पार्टियों में एक कुनबे की लीडरशिप चलती है, वहां की औसत लीडरशिप और 25-30 बरस लंबी खिंच जाएगी।
फिर यह भी होगा कि सरकारी नौकरी से जो 58 या 60 बरस में रिटायर होते हैं, उनके सामने अगले 58 या 60 बरस और बचे रहेंगे, और पता नहीं वे उसे कैसे गुजारेंगे। उनकी यह भी उम्मीद हो सकती है कि रिटायरमेंट की उम्र को बढ़ाकर 70 वर्ष या 75 वर्ष कर दिया जाए, और उस हालत में आज की बेरोजगार भीड़ कहां जाएगी? परिवार के भीतर आज तो दादा-दादी ही नजर आते हैं, लेकिन उनके भी ऊपर एक पीढ़ी और बढ़ जाएगी, तो फिर परिवार के अंदरूनी सांस्कृतिक टकराव का क्या होगा? चार या पांच पीढिय़ों के बीच पोशाक का फर्क, खानपान का फर्क, रहन-सहन का फर्क, क्या सचमुच ही परिवार को खुशहाल रख सकेगा या फिर टकराव बढ़ते चलेगा? या फिर ऐसे में नई पीढ़ी यह चाहेगी कि पुरानी पीढ़ी के लिए वृद्धाश्रम बढ़ते चलें और वृद्धाश्रम में लोगों का रहना 25-50 बरस तक का होने लगेगा!
दरअसल चिकित्सा विज्ञान की अपनी सोच रहती है जो वैज्ञानिक कामयाबी तक सीमित रहती है। उसे इस बात से लेना-देना नहीं रहता कि इससे समाज पर क्या फर्क पड़ेगा, मानवीय रिश्तों पर क्या फर्क पड़ेगा। एक अंधाधुंध सीमा तक जीने वाली बूढ़ी आबादी, हो सकता है कि चिकित्सा सुविधाओं के ढांचे पर इतना बड़ा बोझ बन जाए कि दूसरे जरूरी और गरीब मरीजों को इलाज मिलना मुश्किल हो जाए। लेकिन एक दूसरी संभावना भी हो सकती है कि इतना लंबा जीने वाली एक आबादी दुनिया का बड़ा ग्राहक भी बन सकती है जिसे इलाज की जरूरत हो, सहायक कर्मचारियों की जरूरत हो, जिसके लिए एक पूरे बुजुर्ग-केंद्रित कारोबार का ढांचा खड़ा करने की जरूरत हो. इसलिए यह सोचना भी कुछ तंग नजरिए की बात होगी कि यह दुनिया के लिए अनिवार्य रूप से एक समस्या ही रहेगी। हो सकता है कि संपन्नता के साथ अगर आबादी के एक हिस्से की उम्र ऐसी बढ़ती है, तो हो सकता है उससे बहुत लोगों को रोजगार और बहुत लोगों को कारोबार भी मिले।
लेकिन खुद चिकित्सा विज्ञान के नजरिए से देखें तो उम्र के लंबे होने का मतलब उस लंबी उम्र के सेहतमंद होने जैसा नहीं है। हो सकता है कि इंसानी जिस्म के बहुत से ऐसे हिस्से रहें जिन्हें जवान रखने का कोई तरीका ढूंढा न जा सके। वैज्ञानिक एक जेलीफिश की मिसाल को बड़ा महत्वपूर्ण मान रहे हैं जिसमें वह जब चाहे अपने पुराने हो रहे अंगों को छोडक़र अपने पूरे बदन को अपने कम उम्र की हालत में ले जा सकती है. इसे इस तरह समझा जाए, कि 60 बरस के इंसान जब चाहें वे फिर से 16 बरस के हो जाएं। जेलीफिश में उसकी एक प्रजाति ऐसी क्षमता रखती है, और ऐसा करती भी रहती है। अब वैज्ञानिकों को उसकी इस खूबी से बड़ी उम्मीदें हैं, और उन्हें लगता है कि जीव विज्ञान के हिसाब से ऐसा होना अगर उसमें मुमकिन है, तो हो सकता है कि कुछ हद तक दूसरे जीवों में भी यह हो सके। अब देखना होगा कि इंसानों के लिए क्या क्या खोजा जा सकता है।
हम जेनेटिक्स की ऐसी खोज की किसी भी किस्म से आलोचना करना नहीं चाहते क्योंकि यह हो सकता है कि जींस में फेरबदल करने की एक वैज्ञानिक क्षमता से आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा कई किस्म की ऐसी बीमारियों से छुटकारा पा जाए, जिनके साथ पूरी जिंदगी गुजारना उसकी मजबूरी रहती है। अस्थमा हो या डायबिटीज, या फिर कैंसर हो, ऐसी बहुत सी बीमारियां रहती हैं जिनसे पूरी जिंदगी लदी हुई रहती है, और अगर इनसे छुटकारा मिल सके तो हो सकता है कि अस्पतालों के मौजूदा ढांचे पर से बोझ कम भी हो जाए। फिलहाल अमर बनने की चाह रखने वाले लोग ऐसी किसी भी खोजे से बड़ी उम्मीद पाल लेते हैं जो कि बहुत गलत भी नहीं है। लेकिन बढ़ी हुई उम्र के साथ-साथ दुनिया का नक्शा कैसा होगा, समाज और अर्थव्यवस्था पर, परिवार के ढांचे पर इसका क्या फर्क पड़ेगा, इस बारे में भी लोगों को सोचना चाहिए। यह पूरा सिलसिला रातों-रात में हो जाने वाला नहीं है, ऐसी कोई कामयाबी मिलने पर भी उसका असर दिखने में दो-चार पीढिय़ां निकल सकती हैं, लेकिन जब भविष्य की कल्पना करके किसी योजना को बनाया जाए तो अगले सौ-पचास बरस की बात भी सोच लेना बेहतर होता है।
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कांग्रेस पार्टी ने उसके कुछ नेताओं के मातहत चलने वाले जवाहर बाल मंच को कल पार्टी के एक विभाग की मान्यता दी है। और इसके लिए दक्षिण भारत के एक पार्टी नेता डॉ जीबी हरि को पहला राष्ट्रीय चेयरमैन नियुक्त किया है, जो कि केरल में इस मंच को कई बरस से चलाते आ रहे थे। कांग्रेस की खबर के मुताबिक यह संगठन 7 से 17 वर्ष के बच्चों के बीच काम करेगा और जाहिर है कि यह कांग्रेस की विचारधारा को फैलाने का भी काम करेगा। इस पार्टी का वर्तमान बड़ा खराब चल रहा है, भविष्य अनिश्चित है, लेकिन इसके पास इतिहास सबसे बुलंद है। हिंदुस्तान में अगर किसी पार्टी के पास सबसे गौरवशाली इतिहास है तो वह कांग्रेस पार्टी ही है जो कि गांधी के वक्त से चली आ रही है। जो गांधी की निगरानी में चलती रही, और गांधी के पसंदीदा नेहरू ने जिसे आजादी के आंदोलन से जोडक़र देश के इतिहास की सबसे अधिक शहादत देने वाली पार्टी बनाकर रखा। ऐसे में देश के छोटे बच्चों को अगर सांप्रदायिकता से परे, और धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक सद्भाव, और समानता की नसीहत देनी है तो उसके लिए कांग्रेस के पास अपना सबसे संपन्न इतिहास है। और शायद आज उसे जिंदा रहने के लिए अपने इतिहास के नगदीकरण की जरूरत भी है क्योंकि इसके अलावा उसके पास और बहुत कुछ बचा नहीं है।
लेकिन जैसा कि कांग्रेस के बहुत से दूसरे संगठनों या मोर्चों के साथ हो होता है, उनमें राष्ट्रीय स्तर से लेकर राज्य तक ऐसे लोगों को मनोनीत किया जाता है जिनका उस दायरे से बहुत कम लेना-देना रहता है। कांग्रेस के मजदूर संगठनों के मुखिया की जगह करोड़पति, अरबपति संपन्न कांग्रेसी काबिज हो जाते हैं। मजदूरों के बाच ऐसे संगठनों का काम धरा रह जाता है, और लोगों के बीच कांग्रेस पार्टी की विश्वसनीयता भी खत्म होती है। दूसरी तरफ पिछले बरस कोरोना और लॉकडाउन से जूझने में कांग्रेस के नौजवान संगठन युवक कांग्रेस ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष के मातहत दिल्ली में जितना काम किया था, उससे पार्टी को बड़ी वाहवाही भी मिली थी। अब देखने की बात यह है कि कल बनाया गया यह नया विभाग बच्चों के बीच कितना काम कर सकता है।
बच्चों का मामला कुछ अधिक नाजुक इसलिए है कि जब कांग्रेस पार्टी के बैनर तले बच्चों के लिए कोई काम संगठित रूप से करने की नीयत पार्टी की है तो उसे पूरी की पूरी पार्टी को एक आदर्श के रूप में भी बच्चों के सामने रखना होगा। ऐसा नहीं हो सकता कि पार्टी के बहुत से नेता आज गंदी जुबान में बात करें, बहुत से नेता सार्वजनिक रूप से सरकारी कर्मचारियों को पीटें और उसके बाद पार्टी बच्चों को शहादत और महानता का इतिहास पढ़ाए। बच्चों को पढ़ाने के लिए इतिहास तो ठीक है लेकिन बच्चों को आज की मिसाल भी देनी होगी और अगर वह अखबारों के पन्नों पर, या अपने परिवार के लोगों से, या टीवी की खबरों पर कांग्रेस के लोगों की गुंडागर्दी पढ़ते रहेंगे, तो गांधी और नेहरू कहां से आकर कांग्रेस को बचा पाएंगे? इसलिए हम कांग्रेस के मजदूर संगठन, या उसके महिला मोर्चा, या युवक कांग्रेस इन सबसे परे बच्चों के लिए बनाए गए इस विभाग को लेकर उलझन में हैं कि क्या कांग्रेस सचमुच बच्चों के बीच काम करने लायक, और बच्चों को प्रभावित करने लायक पार्टी अपने आपको बना पाएगी?
इतने छोटे बच्चों के लिए काम करने वाले संगठनों को देखें तो सबसे पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ याद पड़ता है जो मुहल्लों के मैदानों पर या स्कूलों के अहातों में कहीं-कहीं पर सुबह से शाखा लगाता है, बच्चों और बड़ों को राष्ट्रप्रेम की बात सुनाता है, और कहीं पर परेड करवाता है, कहीं उन्हें खेल खेल पाता है। दूसरी तरफ बस्तर जैसे इलाकों में नक्सल संगठन भी छोटे-छोटे बच्चों के बीच काम करते हुए दिखते हैं। इस तरह कम उम्र के बच्चों को प्रभावित करना कोई नई बात नहीं है और दुनिया के इतिहास में कई जगहों पर राजनीतिक संगठन या दूसरे अपने-आपको सांस्कृतिक कहने वाले संगठन ऐसा करते ही आए हैं। इनका मोटा मकसद अपने बड़े संगठन की तरफ बच्चों को मोडऩे का रहता है, और क्योंकि कांग्रेस पार्टी ने पिछले 10-15 बरस से चले आ रहे इस संगठन को अब कांग्रेस के राष्ट्रीय संगठन के एक विभाग की तरह दर्जा दिया है, तो जाहिर है कि अब यह एक राजनीतिक पार्टी का एक मोर्चा है, जो कि सबसे कम उम्र के लोगों के लिए है। ऐसे संगठन का काम करना बड़ा नाजुक हो सकता है क्योंकि पार्टी संगठन यह उम्मीद कर सकता है कि इसमें उसके नेताओं को प्रमुखता से पेश किया जाए, और बच्चों के बीच उन्हें लोकप्रियता मिले। दूसरी तरफ ऐसे संगठन को एक व्यापक लोकतांत्रिक के हित में काम करना चाहिए और किसी व्यक्ति को बढ़ावा देने के बजाय लोकतांत्रिक मूल्यों और मानवीय मूल्यों की समझ बच्चों के बीच मजबूत करनी चाहिए। कांग्रेस के भीतर रहते हुए यह संगठन पता नहीं कितना कुछ कर पाएगा, लेकिन बच्चों के बीच इसे अगर पार्टी की प्रोपेगेंडा मशीन का एक हिस्सा ही बनाकर रखा जाएगा तो इससे लोग शायद ही जुड़ेंगे। इसे पार्टी के चुनावी मकसद से परे रखा जाएगा तो हो सकता है कि यह बच्चों के भी अधिक काम आए और खुद कांग्रेस के भी।
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छत्तीसगढ़ के आदिवासी जिले जशपुर में एक दिव्यांग छात्रावास और प्रशिक्षण केंद्र में तीन दिन पहले वहीं के दो कर्मचारियों ने शराब के नशे में एक मूक-बधिर बच्ची से बलात्कार किया और आधा दर्जन दूसरी लड़कियों के कपड़े फाड़े, उनका सेक्स शोषण किया, और बहुत से दूसरे बच्चों से मारपीट की। यह पूरा सिलसिला भयानक है। वहां की महिला सफाई कर्मचारी को कमरे में बंद करने के बाद इन दो पुरुष कर्मचारियों ने जिस तरह बच्चियों के कपड़े फाड़े, उन्हें दौड़ा-दौड़ा कर मारा, उनका देह शोषण किया, और एक बच्ची से बलात्कार किया, उनकी आवाजें सुनते हुए यह सफाई कर्मचारी दरवाजा तोडऩे की कोशिश कर रही थी लेकिन उसे नहीं तोड़ पाई। मूक बधिर बच्चों की बिना शब्दों की चीख पुकार उस रात वहां गूंजती रही, और जब सफाई कर्मचारी ने इस प्रशिक्षण केंद्र के प्रभारी अफसर को फोन पर बताया तो उन्होंने वहां पहुंचकर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश की। बाद में मीडिया के रास्ते यह मामला खुला और अब नाबालिग बच्ची से बलात्कार के अलावा, बाकी लड़कियों का सेक्स शोषण करने का मामला दर्ज हुआ है, और ये दोनों कर्मचारी गिरफ्तार हुए हैं, जिनमें से एक को इस प्रशिक्षण केंद्र, छात्रावास का केयरटेकर बनाया गया था। सरकार के नियम यह कहते हैं कि जहां लड़कियों को रखा जाता है वहां पर किसी पुरुष को केयरटेकर न रखा जाए, लेकिन नियमों से परे साधारण समझबूझ की भी इस बात को भी अनदेखा करते हुए ऐसी बेबस बच्चियों और उन्हीं के जैसे मूकबधिर लडक़ों के इस छात्रावास को चलाया जा रहा था। जानकार लोगों का कहना है कि यह बात भी नियमों के खिलाफ है कि लडक़े और लड़कियों को एक ही साथ रखा जाए।
जिन्हें ईश्वर या कुदरत ने बोलने और सुनने की ताकत नहीं दी है ऐसी बच्चियों के साथ सरकार भी क्यों मेहरबान रहे? इसलिए सरकार ने इन लडक़े-लड़कियों के लिए ऐसा भयानक इंतजाम करके रखा है। दिक्कत यह है कि इस प्रदेश में एक मानवाधिकार आयोग और एक राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग बैठे हुए हैं, और इस घटना के बाद इनमें से किसी ने कोई नोटिस जारी किया हो ऐसा सुनाई नहीं पड़ता है। राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष पद पर राज्य सरकार ने एक ऐसी महिला को मनोनीत किया है जिसकी शैक्षणिक योग्यता, उम्र, और उसका तजुर्बा उस उस पद के लायक नहीं बताया जा रहा है, और इस नियुक्ति के खिलाफ हाईकोर्ट में एक याचिका पर सुनवाई चल रही है, सरकार को नोटिस जारी हो चुका है। जब राजनीतिक संतुष्टि के लिए या मेहरबानी करने के लिए अपात्र लोगों को ऐसे नाजुक पदों पर बिठा दिया जाता है तो उसका यही नतीजा होता है। छत्तीसगढ़ राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों के लिए सरकार की वेबसाइट पर जो शर्ते रखी गई है, उनमें ग्रेजुएट होना जरूरी है, और यह शर्त रखी गई है कि आवेदक को बाल कल्याण, बाल सुरक्षा, किशोर न्याय, निशक्त बच्चों, बाल मनोविज्ञान, या समाजशास्त्र में कम से कम 5 वर्ष का अनुभव होना चाहिए। यह भी शर्त रखी गई है कि आवेदक की आयु 65 साल से अधिक नहीं होनी चाहिए। इसके अलावा भी कई शर्ते हैं। इस पद पर राज्य सरकार ने कुछ महीने पहले भूतपूर्व विधायक तेजकुंवर नेताम को नियुक्त किया है जिसे हाईकोर्ट में चुनौती देते हुए वहां कहा गया है कि वह केवल आठवीं पास हैं और उनकी उम्र 65 वर्ष हो चुकी है। यह सरकार की तय की गई शर्तों के पूरी तरह खिलाफ है।
सरकार की राजनीतिक पसंद से होने वाली नियुक्तियों से लेकर सरकारी विभागों के आम कामकाज तक एक ही किस्म का संवेदनाशून्य माहौल रहता है। जिस छात्रावास में बच्चियों से बलात्कार और सेक्स शोषण कि यह भयानक हरकत हुई है, उसमें काम करने वाले कर्मचारियों को हाथ के इशारों से बात करने की भाषा का भी कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया है। खबर की जानकारी यह भी है एक पुरुष को वहां का अधीक्षक बना दिया गया था, जो खुद वहां कभी रहता नहीं है। जांच में और बातें भी सामने आएंगी लेकिन नीचे से ऊपर तक सरकार का जो हाल दिख रहा है वह सबसे कमजोर तबके की सबसे अधिक उपेक्षा का है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को चाहिए कि आज ही वे अपने अफसरों को आदेश दें कि प्रदेश भर में जहां-जहां बच्चों के ऐसे छात्रावास हैं या दूसरे किस्म के आश्रम या प्रशिक्षण केंद्र हैं उन सबमें उनकी सुरक्षा के इंतजाम को तुरंत परखा जाए, और जहां कहीं नियमों के तहत काम नहीं हो रहा है वहां कड़ी कार्यवाही की जाए।
मूक-बधिर बच्चियों से सरकारी संस्थान में इस किस्म का सामूहिक बलात्कार को, और उस पर भी प्रदेश विचलित न हो, तो ऐसे प्रदेश को भी धिक्कार है।
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देश की राजधानी दिल्ली के रोहिणी कोर्ट में पेशी पर लाए गए एक गैंगस्टर को दो हमलावरों ने वकील की पोशाक में आकर जज के सामने ही गोलियां मार दीं, उस गैंगस्टर को लेकर आने वाले हथियारबंद पुलिस वालों ने गोलियां चलाईं, और दोनों हमलावर वहीं मारे गए। बाद में आने वाली खबरें बतलाती हैं कि जब भी इस बड़े गैंगस्टर को पेशी पर लाया जाता था तो उस पर हमले की आशंका रहती थी और पुलिस को पहले से इत्तला की जाती थी कि अतिरिक्त सुरक्षा का इंतजाम किया जाए। इसके बाद भी ये दो हमलावर अदालत के भीतर आकर बैठे थे, और उन्होंने जज के सामने ही, जज के कुछ फीट दूर ही खड़े रहकर इसे गोलियां मार दीं। ऐसी घटनाएं उत्तर प्रदेश और बिहार में समय-समय पर सुनाई पड़ती रही हैं जहां मुजरिमों के गिरोह एक-दूसरे को निपटाने के लिए अदालत में पेशी के दिन और वक्त जानकारी रखते हैं और वहां हिसाब चुकता करते हैं। लेकिन जैसा कि जाहिर है दिल्ली की पुलिस केंद्र सरकार के मातहत काम करती है, और राज्य सरकार का उससे कुछ भी लेना देना नहीं है, ऐसे में केंद्र सरकार की ही जवाबदेही इस वारदात पर बनती है। पर आज महज इसी एक वारदात को लेकर हम यहां पर नहीं लिख रहे हैं, दिल्ली पुलिस को लेकर सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के कुछ और मामले हाल के महीनों में सामने आए हैं, जिन पर बात की जानी चाहिए, और एक बात दिल्ली से बहुत दूर असम की भी है।
अभी दिल्ली के दंगों को लेकर और कुछ दूसरे मामलों को लेकर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने यह पाया है कि पुलिस ने बेबुनियाद मामले दर्ज किए, बेकसूर लोगों को पकडक़र जेलों में ठूंस दिया, शायद इसलिए कि वे मुस्लिम थे और देश की राजनीतिक ताकतों को पसंद नहीं थे। कुछ मामलों में तो अदालत ने पाया कि दिल्ली पुलिस को यह भी नहीं मालूम था कि वह किस मामले की जांच कर रही है। अदालत ने बड़ी सख्ती और तल्खी से पुलिस की ऐसी नालायकी, निकम्मेपन और उसकी बदनीयत इन सब पर काफी नाराजगी जाहिर करते हुए खिंचाई की है। यह बात नई नहीं है और केजरीवाल की सरकार आने के पहले से दिल्ली की सरकारें यह मांग करते आई हैं कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए और दिल्ली पुलिस राज्य शासन के अधीन की जाए। सुप्रीम कोर्ट तक यह मामला जाने के बाद भी वहां से दिल्ली सरकार को कोई अधिकार नहीं मिले और दिल्ली के उपराज्यपाल के मार्फत दिल्ली सरकार के गैर पुलिसिया कामकाज पर भी केंद्र सरकार की पकड़ बनी हुई है। ऐसे में क्योंकि सारे अधिकार केंद्र सरकार के पास हैं इसलिए जिम्मेदारी भी उसी की बनती है। यह एक बड़ा बुरा मौका है जब आज-कल में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका में लोगों से मिल रहे हैं, और उसी वक्त भाजपा के शासन वाले असम में गरीब मुस्लिम परिवारों को पुलिस सरकारी जमीन से बेदखल कर रही है, और पुलिस गोलियों से लोग मारे गए हैं, और वैसे में पुलिस के साथ गया हुआ एक फोटोग्राफर दम तोड़ते हुए एक लहूलुहान आदमी के सीने पर कूद-कूद कर खुशी मना रहा है। ऐसे वीडियो भारतीय मीडिया के उस हिस्से में भी छाए रहे जो मोटे तौर पर केंद्र सरकार या भाजपा की राज्य सरकारों के बारे में कोई आलोचना करते दिखता नहीं है। असम का वह वीडियो अभी तक टीवी की खबरों से हटा नहीं था, और आज दिल्ली की एक अदालत में इस किस्म की गोलीबारी खबरों पर छा गई है। जिस मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अमेरिका में लोगों से मेल-मुलाकात को हिंदुस्तानी टीवी पर एकाधिकार करते देखना चाहते होंगे, उस मौके को असम की भाजपा सरकार की पुलिस ने, और दिल्ली की केंद्र सरकार की पुलिस ने तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। अब टीवी दर्शकों की बात तो छोड़ ही दें, टीवी समाचार चैनलों की दिलचस्पी भी इन दो गोलीबारी में अधिक हो गई है।
लेकिन हम दिल्ली की अदालत में जज के सामने किए गए इस कत्ल को ही आज का मुद्दा बनाना नहीं चाहते, असम में जो हुआ है उस पर पूरे देश में चर्चा की जरूरत है क्योंकि वहां पर बहुत ही गरीब मुस्लिम लोगों का जिस तरह पुलिस के हाथों मरना हुआ है, और उस पर जिस तरह पुलिस के साथ जड़े हुए फोटोग्राफर ने जख्मी पर कूद-कूद कर खुशी मनाई है, लाठी लिए हुए एक अकेले बेदखल हो रहे गरीब पर जिस तरह दर्जनों पुलिस टूट पड़ी और जाने कितनी ही गोलियां उसे मारी गईं, और मरते हुए या मर चुके कुछ इंसान पर और हमला किया गया, वह सब कुछ वीडियो में बड़ा साफ-साफ दिखता है। देश के राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने इसे आदिवासी नस्ल को खत्म करने की एक साजिश करार दिया है। हालांकि असम सरकार ने इस मामले की न्यायिक जांच की घोषणा जरूर की है, लेकिन वह वीडियो लोगों का दिल दहला रहा है कि किस तरह पुलिस के ही साथ घूमने वाला, और शायद पुलिस के लिए ही काम करने वाला फोटोग्राफर, एक जख्मी या मुर्दा गरीब के बदन पर चढक़र कूदता है, हो सकता है कि उसमें उस वक़्त जान बाकी रही हो, और उस पर कूदने से उसकी मौत हुई हो। असम का यह मामला दिल्ली के रोहिणी कोर्ट के मामले के मुकाबले अधिक अमानवीय है, अधिक हिंसक है, और दिल्ली की गोलीबारी की आवाज में असम के गरीबों की आवाज दब नहीं जानी चाहिए। इन दोनों मामलों पर आगे बात तो होगी, लेकिन असम में मुस्लिमों के साथ, आदिवासियों के साथ भेदभाव का सिलसिला पिछले कुछ वर्षों से लगातार चले आ रहा है, और इस ताजा वीडियो के बाद उस भेदभाव की तरफ भी दुनिया का ध्यान जाना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत की मोदी सरकार द्वारा पेगासस खुफिया हैकिंग सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल देश के कुछ प्रमुख और प्रतिष्ठित नागरिकों, पत्रकारों, और नेताओं के खिलाफ किया गया है या नहीं, इसकी जांच अब शुरू होते दिख रही है। राहुल गांधी से लेकर कुछ दूसरे नेताओं तक, चुनाव आयोग के भूतपूर्व सदस्य अशोक लवासा, चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के अलावा केंद्र सरकार की बहुत सी नीतियों से असहमत प्रमुख पत्रकारों के फोन पर पेगासस की घुसपैठ की खबरें अंतरराष्ट्रीय मीडिया की एक जांच में सामने आई हैं। इस बारे में संसद के पिछले सत्र में भी दिल्ली में लगातार विपक्ष ने मांग की थी कि सरकार इस बात पर जवाब दें कि उसने पेगासस का इस्तेमाल किया है या नहीं, लेकिन सरकार ने इस बारे में कोई साफ जवाब नहीं दिया, और वह सीधे शब्दों में जवाब देने से कतराती रही। इसके बाद बहुत से प्रमुख पत्रकार और पत्रकारों के संगठन सुप्रीम कोर्ट पहुंचे जहां उन्होंने अदालत से यह मांग की कि ऐसी घुसपैठ भारत के कानून के भी खिलाफ है, और नागरिकों के मौलिक अधिकारों के भी खिलाफ है, इसलिए इसकी जांच करवाई जाए। इस पर सरकार सुप्रीम कोर्ट में भी साफ-साफ कुछ कहने से बचती रही, और कई बार टालने के बाद आखिर में जाकर उसने कहा कि क्योंकि यह राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा हुआ मामला है इसलिए वह इस बारे में कोई हलफनामा भी दायर करना नहीं चाहती। हलफनामा अदालत में एक किस्म से पुख्ता बयान देने जैसा हो जाता और उससे बचकर केंद्र सरकार ने बिना कहे हुए ऐसा माहौल बना दिया है कि उसने यह इजराइली घुसपैठिया सॉफ्टवेयर इस्तेमाल किया है।
भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख वकील पी चिदंबरम ने सरकार के अदालत में दिए गए कुछ बयानों को लेकर उनका एक मतलब निकालकर सामने रखा है कि सरकार यह मान चुकी है कि उसने पेगासस का इस्तेमाल किया है। अब सुप्रीम कोर्ट ने आज इस मामले में पिटीशन दायर करने वाले वकीलों में से एक ने कहा है कि अदालत अगले हफ्ते इस मामले की जांच के लिए एक विशेषज्ञ तकनीकी कमेटी बना देगी। इस बारे में सरकार के खिलाफ वकील कहते आये थे कि केंद्र सरकार यह कह जरूर रही है कि वह इस मामले की जांच के लिए एक कमेटी बनाएगी लेकिन केंद्र सरकार की बनाई कमेटी पर किसी का भरोसा नहीं रहेगा। शायद इसलिए अदालत अब खुद यह कमेटी बनाने जा रही है।
दुनिया भर के प्रमुख प्रकाशनों और उनके पत्रकारों की एक मिली-जुली टीम ने पेगासस की घुसपैठ की जांच की, और उनकी जांच रिपोर्ट के मुताबिक हिंदुस्तान में 300 से अधिक लोगों के नाम एक ऐसी संदिग्ध लिस्ट में मिले थे जिनके बारे में ऐसा अंदाज है कि उन्हें जांच के निशाने पर रखा गया, घुसपैठ के निशाने पर रखा गया था। इस बात का जिक्र जरूरी है कि एक फौजी हथियार माने जा रहे इस घुसपैठिया सॉफ्टवेयर को बनाने वाली इजराइली कंपनी ने बार-बार यह साफ कहा है कि वह इसे सिर्फ देशों की सरकारों और उनकी जांच एजेंसियों को बेचती है, वह भी इजराइल की सरकार से इजाजत मिलने के बाद। इस कंपनी ने बार-बार यह कहा है कि वह सरकारी एजेंसियों के अलावा किसी को यह सॉफ्टवेयर नहीं बेचती है और इसे बेचते हुए इन शर्तों पर दस्तखत करवाए जाते हैं कि इनका इस्तेमाल केवल आतंकवाद और गंभीर अपराधों की रोकथाम के लिए ही किया जाएगा। इस कंपनी के दावे चाहे जो भी हो, दुनिया भर में जगह-जगह जांच के नतीजे यह बताते हैं कि इस हैकिंग सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल पत्रकारों के खिलाफ, वकीलों के खिलाफ, और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ, कहीं-कहीं किसी देश के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के खिलाफ भी किया गया है। खरीददार देशों की लिस्ट में भारत का नाम भी बताया जा रहा है, लेकिन न कंपनी ने इसकी पुष्टि की है, और न भारत सरकार।
इस मामले ने खासा वक्त ले लिया। एक तो संसद में सरकार जवाब देने से साफ-साफ कतराते रही, जबकि जब देश के लोगों के मौलिक अधिकारों को कुचलने का आरोप लग रहा था, जब विपक्ष के एक सबसे बड़े नेता राहुल गांधी के फोन में घुसपैठ करने का आरोप लग रहा था, और यह घुसपैठ सरकार के पास पहले से मौजूद टेलीफोन टैप और निगरानी करने के मौजूदा कानूनों से परे, गैरकानूनी तरीकों से करने का आरोप लग रहा था, तब तो सरकार को साफ होकर सामने आने की कोशिश करनी थी, अगर वह सचमुच साफ है तो। ऐसे में चिदंबरम का यह निष्कर्ष सही लगता है कि बार-बार सरकार इस बात का खंडन करने से बचती रही कि उसने इस हैकिंग सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया है या नहीं, जिससे यही साबित होता है कि उसने इसका इस्तेमाल किया है। और जहां तक टेलीफोन को हैक करने की बात है तो देश का संचार निगरानी वाला कानून इसकी इजाजत नहीं देता है, और इसे एक जुर्म करार देता है। ऐसे में यह बात केंद्र सरकार के लिए एक परेशानी की हो सकती है, अगर यह साबित होता है कि उसने कानून के खिलाफ जाकर देश के गैरमुजरिम लोगों के खिलाफ ऐसी घुसपैठ की है, जो कि उनकी निजी जिंदगी में सबसे बड़ी घुसपैठ थी। इस पूरे सिलसिले में सुप्रीम कोर्ट के भी मुख्य न्यायाधीश रहे एक व्यक्ति का नाम आया था कि उसके फोन भी हैक किए गए थे, और उस पर जिस मातहत कर्मचारी ने सेक्स शोषण का आरोप लगाया था, उसके परिवार के कई फोन हैक किए गए थे। यह सारे आरोप बताते हैं कि सांसदों से लेकर जजों तक, और पत्रकारों से लेकर दूसरे संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोगों तक के फोन हैक करने का एक शक है। सुप्रीम कोर्ट की कमेटी हो सकता है कि इस मामले में किसी किनारे तक पहुंच सके।
आज सुप्रीम कोर्ट से जो खबर आई है, और यह मुख्य न्यायाधीश की जुबानी टिप्पणी से बनी हुई खबर है कि अदालत इस मामले में एक तकनीकी विशेषज्ञ कमेटी बना रही है। लेकिन यह कमेटी किस हद तक जांच करेगी, जांच करेगी या नहीं करेगी, और सरकार कहां पर राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ लेकर इस कमेटी से बचने की कोशिश कर सकेगी, ऐसी कई चीजें अभी साफ नहीं हैं। फिर भी सुप्रीम कोर्ट का रुख आज सकारात्मक है, और वह सरकार लुकाछिपी को और अधिक जारी नहीं रहने दे रहा है। सुप्रीम कोर्ट से जनता के बुनियादी हक के लिए जैसी उम्मीद की जानी चाहिए थी, वह उसे पूरी कर रहा है। अगला हफ्ता बहुत दूर नहीं है, और इस कमेटी के बनने के बाद यह उम्मीद की जा सकती है कि कुछ महीनों के भीतर यह साफ हो जाएगा कि केंद्र सरकार ने अपने नागरिकों के खिलाफ पेगासस का इस्तेमाल किया था या नहीं। वैसे अभी केंद्र सरकार के पास इस मामले को अदालत में और लंबा खींचने के कुछ तरीके शायद ढूंढे जा रहे होंगे और अदालत की बनाई हुई कमेटी को राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए एक खतरा साबित करने की कोशिश भी हो सकता है कि की जाए। लेकिन जब संसद में सरकार किसी जवाबदेही से बचती है, जब सुप्रीम कोर्ट को भी जवाब देना नहीं चाहती है, तो फिर सुप्रीम कोर्ट की बनाई जांच कमेटी ही अकेला जरिया हो सकता था। यह कमेटी केंद्र सरकार की बनाई जा रही किसी जांच कमेटी के मुकाबले तो अधिक विश्वसनीय रहेगी ही।
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