संपादकीय
टेक्नोलॉजी किस तरह जिंदगी बदलती है इसे देखना हो तो इन दिनों हिंदुस्तान के छोटे-छोटे शहर-कस्बों तक पहुंच चुके बैटरी से चलने वाले ऑटो रिक्शा देखने चाहिए। लॉकडाउन में जब बाजार बंद थे और फेरी वालों को सभी इलाकों में जाकर सब्जी और दूसरे सामान बेचने की छूट थी, तो उस दौरान ऐसे बैटरी ऑटो रिक्शा सब्जियों और फलों से लदे हुए घर-घर पहुंचते थे और बिना किसी शोर के, बिना किसी धुएं के आना-जाना करते थे। डीजल से चलने वाले ऑटो रिक्शा इस बुरी तरह आवाज करते हैं कि उन पर चलने वाली सवारियां तो इस शोर से थक ही जाती हैं, उनके ड्राइवर तो सुनने की ताकत धीरे-धीरे खोने लगते हैं, क्योंकि उन्हें पूरे वक्त ऑटो के उसी शोर में रहना पड़ता है। अब अगर इन दोनों किस्म के ऑटो के खर्च का फर्क देखें तो बैटरी का ऑटो रिक्शा हर बरस बदली जाने वाली बैटरी और रोजाना बिजली से उसकी चार्जिंग के बाद भी हर दिन सौ रुपये में 80 किलोमीटर चल जाते हैं, मतलब करीब-करीब एक रुपए में एक किलोमीटर। धुआं गायब, शोर गायब, ऑटो रिक्शा पर चलने वाले लोग इंसान की तरह चैन से बैठ सकते हैं। जिन लोगों को अभी तक बैटरी से चलने वाले ऑटो रिक्शा की अर्थव्यवस्था समझ नहीं आई है, उन्हें कुछ ऑटो चालकों से इस बात को समझना चाहिए और चौराहे पर जब रुकना पड़ता है तब इस फर्क को महसूस करना चाहिए कि आसपास अगर डीजल से चलने वाले आधा दर्जन ऑटो हैं तो क्या हालत होती है, और अगर आधा दर्जन बैटरी वाले ऑटो हैं तो कितनी कम दिक्कत होती है।
टेक्नोलॉजी ने दुनिया में बर्बादी भी कम नहीं लाई है लेकिन यही टेक्नोलॉजी इस बर्बादी को घटाने की ताकत भी रखती है। दुनिया के विकसित देशों में बड़ी-बड़ी गाडिय़ां रोजाना सैकड़ों किलोमीटर का सफर बैटरी से कर रही हैं, और बाकी देशों तक भी ऐसी गाडिय़ां पहुंच रही हैं। एक तरफ तो गाडिय़ों में बैटरी से चलने की टेक्नोलॉजी लगातार सुधर रही है और दूसरी तरफ बैटरी की क्षमता में सुधार भी लगातार किया जा रहा है। इससे जुड़ी हुई एक और बात बाकी है कि बैटरी को बिजली से चार्ज करने के बजाए सौर ऊर्जा से चार्ज करने की तकनीक भी विकसित होते चल रही है, और हो सकता है कि वह किसी दिन बिजली से चार्ज होने के बजाय सौर ऊर्जा से चार्ज होना अधिक सस्ता और आसान होने लगे। आज भी दुनिया के कई देशों में यह इंतजाम चल रहा है कि बैटरी से चलने वाली गाडिय़ां चार्जिंग स्टेशन पर जाकर सीधे बैटरी या बदल लेती हैं, चार्ज करने के लिए इंतजार नहीं करना पड़ता। इस तरह यह नए सेंटर चार्जिंग स्टेशन के बजाय बैटरी बदलने के सेंटर बन गए हैं।
अब हिंदुस्तान में यह बात अधिक फैली तो नहीं है, लेकिन हो सकता है कि चुनिंदा शहरों से इसकी शुरुआत हो सके वहां जगह-जगह चार्जिंग स्टेशन लग सके, और बैटरी बदलने के सेंटर भी बदल सकें। जिस तरह गाडिय़ों में बैटरी डीजल और पेट्रोल के एक बेहतर रूप में सामने आई है उसी तरह जिंदगी के और बहुत से दायरों को भी देखने की जरूरत है कि वहां के परंपरागत सामानों से बेहतर और कम ऊर्जा खपत वाले दूसरे कौन से सामान आ सकते हैं जिन्हें बनाने में और इस्तेमाल करने में कार्बन फुटप्रिंट कम बढ़ता हो। जिस रफ्तार से इंसान ने धरती को बर्बाद करना शुरू किया, पहले तो ऐसी वैकल्पिक तकनीक से बर्बादी बढऩे की रफ्तार कम हो सकती है, और फिर धीरे-धीरे बर्बादी ही कम हो सकती है।
पर्यावरण दिवस तो निकल गया है लेकिन ऐसी तो कोई बात नहीं है कि उसके बाद पर्यावरण की फिक्र न की जाए, हम तो लॉकडाउन के इस पूरे दौर में आसपास जिस तरह बैटरी के ऑटो रिक्शा का चलन बढ़ते देख रहे हैं और गली मोहल्लों तक जाकर उनको बिक्री करते देख रहे हैं उसे इस मुद्दे पर लिखना सूझा और यह एक अलग बात है कि इससे पर्यावरण का बचाव होगा और ऐसी गाडिय़ां चलाने वाले लोग एक बेहतर जिंदगी भी पा सकेंगे। इसके साथ-साथ यह भी है कि डीजल-पेट्रोल का बैटरी-विकल्प आज भी सस्ता है और जैसे-जैसे बैटरी सस्ती होती जाएगी, वैसे-वैसे और सस्ता होते जाएगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तर प्रदेश से सांसद रहे और यूपीए सरकार में मंत्री रहे जतिन प्रसाद आज कांग्रेस छोडक़र भाजपा में चले गए। यह दलबदल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के खासे पहले हुआ है, इसलिए इसे चुनाव के समय लिया गया फैसला नहीं कहा जा सकता, और न ही यह बंगाल, असम, केरल के चुनावों के ठीक पहले लिया गया है जिसे कि पार्टी, चुनाव में नुकसान पहुंचाने की बात कहे। अब दलबदल कोई बड़ा मुद्दा नहीं रहा और खासकर दूसरी पार्टियां छोडक़र भाजपा में जाने वाले इतने अधिक हो गए हैं कि बहुत से लोग मजाक में कहते हैं कि देश तो कांग्रेसमुक्त होते चल रहा है लेकिन भाजपा उसी रफ्तार से कांग्रेसयुक्त होते चल रही है। भाजपा में दूसरी पार्टियों से इतने अधिक लोग शामिल हुए हैं कि उनके प्रभाव क्षेत्र में भाजपा के पुराने परंपरागत नेता और कार्यकर्ता निराश होकर किनारे भी बैठने लगे हैं।
लेकिन दलबदल का एक दूसरा नजारा बंगाल में देखने मिल रहा है, जहां पर तृणमूल कांग्रेस छोडक़र भाजपा में जाने वाले लोग अब सत्ता पर लौटने वाली ममता बनर्जी के बिना जीना मुश्किल है कहते हुए घरवापिसी की कतार में लगे हुए हैं। कुछ नेताओं के तो ऐसे बयान आए हैं कि वे ममता बनर्जी बिना जिंदा नहीं रह सकेंगे। आज अगर ममता पार्टी के दरवाजे खोल दे तो भाजपा विधायक दल का एक बड़ा हिस्सा तृणमूल कांग्रेस में लौट सकता है। लेकिन अभी अगले बरस उत्तर प्रदेश सहित दूसरे कई राज्यों में चुनाव होने हैं और उन चुनावों को लोकसभा के अगले चुनावों के पहले का रुझान भी माना जाएगा इसलिए ऐसी उम्मीद है कि चुनावी प्रदेशों में बड़ी संख्या में दलबदल होगा। और फिर जिस उत्तर प्रदेश के लिए आज दलबदल हुआ है, उस उत्तर प्रदेश में तो मायावती ने बसपा से इतने लोगों को पार्टी से निकाल दिया है कि भाजपा उनका भी शिकार कर सकती है।
कांग्रेस के लोग तो अपनी पार्टी से थक-हारकर और निराश होकर अगर भाजपा या किसी दूसरी पार्टी में जाते हैं, तो वह कोई हैरान करने वाली बात नहीं होगी। इस पार्टी ने अपने जो तौर तरीके बना लिए हैं, उनके चलते हुए बहुत से लोग इसे छोड़ सकते हैं फिर चाहे उन्हें भाजपा या किसी और पार्टी से कुछ मिलने की उम्मीद हो या ना हो। आज मुद्दा भाजपा के करवाए हुए दलबदल का नहीं है, आज मुद्दा है कि कांग्रेस पार्टी अपने लोगों को संभाल कर रखने लायक क्यों नहीं रह गई है? पार्टी के दो दर्जन बड़े नेताओं ने पिछले बरस पार्टी के नियमित अध्यक्ष बनाने की मांग के साथ-साथ पार्टी के तौर-तरीके सुधारने की मांग भी की थी, लेकिन पार्टी ने उसके बाद वक्त गँवाने, लोग और सीट-वोट खोने के अलावा कुछ नहीं किया। बंगाल विधानसभा में आज कांग्रेस का चुनाव चिन्ह हाथ भी सिर्फ दूसरे विधायकों के बदन के हिस्से की तरह रह गया है, एक भी पंजा छाप विधायक उस राज्य में नहीं रह गया जहां किसी वक्त कांग्रेस का राज हुआ करता था।
कांग्रेस की बेहतरी चाहने वाले नेताओं की चिट्ठी को भी शायद साल भर होने आ रहा होगा या कुछ समय में साल पूरा हो जाएगा। पार्टी कितने विधानसभा चुनाव बिना किसी अध्यक्ष के, महज़ कार्यकारी अध्यक्ष के तहत लडक़र हार चुकी है। अभी भी पार्टी के अगले अध्यक्ष को चुनने का कोई ठिकाना नहीं दिख रहा है। पिछले महीने ऐसी खबर आई कि जून के अंत में पार्टी अध्यक्ष का चुनाव होगा और कुछ मिनटों में ही यह खबर आ गई कि कोरोना के चलते यह चुनाव नहीं होगा। यह पूरा सिलसिला कांग्रेस के बहुत से लोगों को निराश कर रहा है क्योंकि अगर पार्टी की लीडरशिप वाला परिवार ही देश के ऐसे नाजुक मौके पर अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी से कतरा रहा है, न खुद अध्यक्ष बन रहा है न किसी और को निर्वाचित होने दे रहा है, तो ऐसे में कांग्रेस के बहुत से नेता देश के हित में और अपने हित में अपनी राजनीति को तय करने पर मजबूर तो होंगे ही।
दरअसल राजनीति में एक बार आने के बाद उससे संन्यास लेना शायद ही किसी से हो पाता है। इसलिए कांग्रेस अगर आज अपनी लीडरशिप का सवाल हल नहीं कर पा रही है, तो उसके बहुत से नेताओं को अपने भविष्य का सवाल हल करना पड़ेगा। जतिन प्रसाद अगले बरस के विधानसभा चुनावों के पहले के एक संकेत की तरह हैं। कांग्रेस पार्टी को अपने घर को सुधारना चाहिए क्योंकि आज उसकी जो हालत है उसमें उस पार्टी में बने रहने वाले लोगों को लेकर यह हैरानी हो सकती है कि वे अब भी किस उम्मीद से वहां पर हैं? आज सवाल भाजपा का किसी का शिकार करके ले जाने का नहीं है, आज तो सवाल यह है कि कांग्रेस में बचे हुए लोग किस उम्मीद से वहाँ बचे हुए हैं? और देश के लोकतंत्र की आज की इस नौबत में देश की यह ऐतिहासिक पार्टी अपनी जिम्मेदारी से क्यों कतरा रही है? कांग्रेस के अध्यक्ष रहे हुए राहुल गांधी के ही दोबारा अध्यक्ष बनने की चर्चा उनके इस्तीफे के समय से लगातार चल रही है, लेकिन राहुल अपना इरादा साफ ही नहीं कर रहे हैं। इस परिवार में तीन लोग हैं और अगर परिवार से ही लीडरशिप तय होनी है तो उसे घर बैठकर तय कर लेना चाहिए। इतने बड़े देश में इतने चुनावों के आते-जाते हुए भी अगर कांग्रेस पार्टी और यह परिवार इस तरह जिम्मेदारी से कतरा रहे हैं तो इससे लोकतंत्र का नुकसान अधिक बड़ा है, कांग्रेस के पास तो शायद अब नुकसान के लायक कुछ बचा नहीं है। देखें आगे क्या होता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया में लोग किसी के बारे में राय तय करते हुए उसके परिवार को बड़ा वजन देते हैं कि वे किस परिवार के हैं। अब ऐसे में आज की एक खबर दिल को थोड़ी सी तकलीफ देती है कि दक्षिण अफ्रीका में एक अदालत ने महात्मा गांधी की पड़पोती को एक कारोबारी धोखाधड़ी के मामले में 7 साल की कैद सुनाई है। गांधी के किसी वंशज को किसी जुर्म में सजा सुनाई जाए, यह बात गांधी का सम्मान करने वाले लोगों को तकलीफ तो पहुंचाती है, लेकिन गांधी की आत्मा भी अपने बाद की तीसरी-चौथी पीढ़ी तक लोगों की नीयत और उनके कामकाज पर काबू तो नहीं रख सकती। फिर यह भी है कि गांधी का डीएनए होने से लोगों के ऊपर वैसे भी उम्मीदों का बहुत बोझ रहता है, जिन्हें ढोते हुए जीना मुश्किल रहता है, ऐसे में अगर वंशज थक-हारकर उसकी फिक्र करना छोड़ दें, गांधी की विरासत की साख की फिक्र करना छोड़ दें, और आम इंसान जिस तरह रहते हैं, उस तरह जीने लगें, तो उसमें भी कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। बहुत से लोग बड़ी ऊंची साख वाली विरासत से परे कुछ ऐसे काम कर बैठते हैं जो यह बात साबित करते हैं कि डीएनए कुछ भी नहीं होता। लोग अपनी मर्जी से काम करते हैं, और देखने वाले उन्हें उनके पुरखों की साख से जोडक़र देखने की कोशिश करते हैं, जो कोशिश हर बार कोई नतीजा पेश नहीं कर पाती।
दुनिया के तमाम लोकतंत्रों में कानून तकरीबन सभी लोगों के लिए एक सरीखे रहते हैं। महात्मा गांधी बहुत महान थे लेकिन उनके नाम की कोई रियायत उनके वंशजों को उनके काम के लिए देना भी नाजायज और अलोकतांत्रिक होगा। खुद गांधी ऐसी किसी रियायत के खिलाफ अनशन पर बैठ जाएंगे। इसलिए लोगों को साख का वारिस मानना सिरे से ही गलत बात है। लोग दौलत के वारिस हो सकते हैं, डॉक्टर और वकील जैसे पेशे में आने वाली पीढ़ी अपने मां-बाप के पेशेवर कामकाज की वारिस भी हो सकती है, लेकिन साख की वारिस नहीं हो सकती। गांधी के बहुत से वंशज दक्षिण अफ्रीका में बसे हुए हैं जहां पर गांधी का एक वकील से महात्मा बनने का सफर शुरू हुआ था, जब उन्हें एक ट्रेन सफर से लात मारकर उतार दिया गया था। उस देश में गांधी के कई वंशज उसी वक्त से अभी तक चले आ रहे हैं, और जैसा कि जाहिर है गांधी विरासत में कोई कारोबार तो छोड़ नहीं गए थे कि जिस पर वंशज जिंदा रह सकें, इसलिए वंशजों ने अपने-अपने हिसाब से सामाजिक काम किए, और कारोबारी काम भी।
साख की विरासत बड़ा मुश्किल काम है। देश के एक सबसे बड़े लोकतांत्रिक नेता जवाहरलाल नेहरू के नाती संजय गांधी जवाहर की पार्टी के ही सर्वेसर्वा थे, और जवाहर की बेटी के राजनीतिक वारिस भी थे। लेकिन इंदिरा गांधी का भावनात्मक दोहन करके संजय गांधी ने हिंदुस्तानी इतिहास की सबसे अधिक लोकतांत्रिक बात इमरजेंसी लागू करवाई थी, और फिर उस पूरे दौर में जो कुछ किया था, वह इंदिरा को अपने नाम पर कलंक लगा हो या ना लगा हो, वह कांग्रेस पार्टी और नेहरू के नाम पर बहुत बड़ा कलंक था क्योंकि परिवार तो नेहरू का ही गिना जाता था। और नतीजा यह निकला कि नेहरू के नाती की बददिमागी ने नेहरू की बेटी का राजनीतिक भविष्य चौपट कर दिया, इंदिरा गांधी पूरे देश में अपनी पार्टी और सरकार की संभावनाओं को खो बैठीं। संजय गांधी की मौत एक हवाई हादसे में हुई थी और उसका नतीजा यह निकला कि उनके बड़े भाई राजीव गांधी को पायलट की नौकरी छोडक़र राजनीति में आना पड़ा। अब यह कल्पना करना कुछ मुश्किल है कि अगर वह हवाई हादसा नहीं हुआ होता, तो आज कांग्रेस पार्टी का, और इस देश का क्या हुआ होता?
जिन लोगों को आपातकाल लगाने का फैसला याद है और आपातकाल की ज्यादतियां याद हैं, उस दौर में संजय गांधी के गिरोह की तानाशाही और मनमानी याद है, वे भी आसानी से यह कल्पना नहीं कर सकते कि अगर संजय गांधी एक हादसे के शिकार होकर भारतीय राजनीति से मिट न गए होते तो क्या हुआ होता? और यह बात सोचना जरूरी इसलिए है कि संजय के रहते-रहते भी इंदिरा गांधी 1980 में सत्ता में आ गई थीं। आपातकाल के बाद इंदिरा को शिकस्त देने वाली जनता पार्टी की सरकार कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाई थी। और यह भी याद रखने की जरूरत है कि जब कांग्रेस की यह वापसी हुई, उस वक्त संजय गांधी कांग्रेस के एक सबसे बड़े और सबसे ताकतवर नेता तो थे ही, वे इंदिरा गांधी के राजनीतिक वारिस भी समझे जा रहे थे। लेकिन एक वारिस की हरकतें और करतूतें ऐसी थीं कि हादसे का शिकार होने वाले संजय गांधी को भी आज कांग्रेस पार्टी याद करने की हिम्मत नहीं करती। कांग्रेस के कार्यक्रमों में और बहुत से लोगों के लिए तो श्रद्धांजलि के कार्यक्रम हो जाते हैं, लेकिन हम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में देखते हैं कि नालियों के बीच में एक बहुत खराब जगह पर बिठा दी गई संजय गांधी की आधी प्रतिमा को खुद कांग्रेसी देखने नहीं जाते।
इसलिए साख की कोई ऐसी विरासत नहीं होती कि आने वाली पीढिय़ां उस साख की हकदार बनाई जा सकें, जिसे उनके पुरखों ने मेहनत से हासिल किया था। चुनावी राजनीति में जरूर कुछ लोग अपने पुरखों की साख दुहने की कोशिश कर लेते हैं, लेकिन पुरखों की साख किसी के जुर्म में रियायत पाने का सामान नहीं बन पाती, बल्कि समाज ऐसे लोगों की सजा तय करते हुए कुछ अधिक ही कडक़ बन जाता है कि इन्होंने पुरखों का नाम डुबा दिया। इसलिए गांधी की पड़पोती को एक कारोबारी जालसाजी के लिए 7 वर्ष की कैद होना गांधी को हॅंसी का सामान नहीं बनाता। नाथूराम गोडसे के पिता को यह मालूम नहीं था कि उनका बेटा देश का सबसे बड़ा हत्यारा बन जाएगा, अगर ऐसा एहसास रहता तो शायद वे औलाद पैदा करने से परहेज ही करते। इसलिए गांधी का नाम डुबाने वाले दिखते हुए उनके वंशज असल में उनका नाम नहीं डुबा रहे, अपना खुद का नाम डूबा रहे हैं। पुरखों का नाम तो बनाने और बिगडऩे से परे हो जाता है। तीसरी-चौथी पीढ़ी में किसी के किए हुए काम से ना तो पुरखों का नाम रोशन होता और ना पुरखों के नाम पर कालिख पुतती।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मशहूर फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार अस्पताल में भर्ती हैं और पिछले बरसों में भी हर कुछ महीनों में अस्पताल जाते हैं, और ठीक होकर घर लौटते हैं। उम्र भी इतनी हो गई है कि बीमारी पीछा ही नहीं छोड़ती है। और उन्हें चाहने वाले इतने हैं कि वे भी पीछा नहीं छोड़ते हैं। एक से अधिक बार उनके गुजर जाने की अफवाहें फैलीं। लोगों ने सोशल मीडिया की मेहरबानी से एक की पोस्ट को आगे बढ़ाते हुए दिलीप कुमार के गुजरने के पोस्टर तक बना लिए, और उन्हें लोगों ने सोशल मीडिया और व्हाट्सएप जैसे मैसेंजर की मेहरबानी से खूब आगे बढ़ा दिया। अब उनके परिवार की तरफ से लोगों से अपील की गई है कि उनकी तबीयत के बारे में ट्विटर पर पोस्ट किया जाएगा, और लोग अपने मन से गलत जानकारी आगे न बढ़ाएं।
यह बात महज़ दिलीप कुमार के साथ हो रही हो ऐसा नहीं है, सोशल मीडिया ने लोगों को यह ताकत दे दी है कि वे पल भर में ही किसी का पोस्ट किया हुआ सच या झूठ अपने एक भी शब्द को जोडऩे की जहमत उठाए बिना आगे बढ़ा सकते हैं, और फिर मजे से बैठकर यह देख सकते हैं कि कितने लोग उन्हें रीपोस्ट कर रहे हैं, कितने लोग उनके पोस्ट पर कुछ लिख रहे हैं। लोग आज वैसे भी कारोबार और काम के बिना पिछले एक बरस से थके हुए से घर बैठे हैं, या बहुत कम काम कर रहे हैं, और ऐसे में सोशल मीडिया उनके लिए बड़ा सहारा है। फिर बहुत से ऐसे लोग हैं जो कि कुछ मौलिक नहीं लिख पाते, 2 वाक्य भी सही नहीं लिख पाते, ऐसे में उन्हें दूसरों के पोस्ट किए हुए को आगे बढ़ाकर अपने सोशल मीडिया पेज पर कुछ न कुछ पेश करना एक अलग किस्म की उपलब्धि लगती है। ऐसे लोग बड़ी तेजी से झूठी खबर, सनसनीखेज बातें, गढ़ी गई तस्वीर या गढ़े गए वीडियो आगे बढ़ाते हैं। मनोविज्ञान की मामूली समझ कहती है कि घर में जिनकी कोई नहीं सुनते होंगे, वे सोशल मीडिया पर अधिक सुनाते होंगे।
सोशल मीडिया ने हर किसी को ऐसा लोकतांत्रिक अधिकार दिया है कि वे मनचाही बातों को तब तक पोस्ट कर सकते हैं जब तक कि देश का कानून उन्हें जुर्म के लेबल के साथ ब्लॉक करवाने की कार्यवाही शुरु ना करें, इसके पहले आमतौर पर उन्हें कोई ब्लॉक नहीं करते। हाल के महीनों में फेसबुक ने जरूर कुछ किस्म की बातों को ब्लॉक करना शुरू किया है, लेकिन शायद उसकी हिंदी भाषा की समझ कम है, या उसका कंप्यूटर हिंदी के शब्दों के गलत मतलब समझता है, और बहुत सी मासूम बातें भी ब्लॉक कर दी जा रही हैं। लेकिन इनके मुकाबले गलत और झूठ को आगे बढ़ाने वाले लोग लाख गुना हैं। बहुत से जानकार लोग बतलाते हैं कि कुछ राजनीतिक दल अपने भाड़े पर रखे गए साइबर सैनिकों से रात-दिन मनचाही पोस्ट करवाते हैं, किसी को धमकियों से कुचलवा देते हैं, तो किसी को भगवान बना देते हैं। अब किसी को भगवान बनाने पर न तो कानूनी रोक है, और न ही सोशल मीडिया के कंप्यूटरों को उससे कोई दिक्कत होती है। लेकिन जिम्मेदार लोगों को सोशल मीडिया पर न सिर्फ अपने स्तर पर सावधानी बरतनी चाहिए बल्कि जहां कहीं किसी झूठी बात को, गलत जानकारी को देखें, उसका सार्वजनिक रूप से विरोध भी करना चाहिए।
हो सकता है कि कुछ लोग बिना सही जानकारी के और बिना किसी बदनीयत के भी गलत बातें पोस्ट करते हों, लेकिन उनको भी चौकन्ना करना इसलिए जरूरी है कि किस दिन वे ऐसी बेवकूफी या मासूमियत के साथ भी जेल चले जाएं, इसका कोई ठिकाना नहीं है। अखबारों में छपने का जमाना लद गया, मानहानि के कानून बहुत धीमी रफ्तार से चलने वाली अदालतों में बरसों चलते थे, और सजा के ठीक पहले आमतौर पर समझौता भी हो जाता था, लेकिन सूचना तकनीक जितनी तेज रफ्तार है, उसके लिए कानून भी उतना ही कड़ा बना है। बात की बात में किसी के खिलाफ जुर्म दर्ज हो जाता है, और इन दिनों तो लोगों की धार्मिक भावनाएं, राजनीतिक भावनाएं, सामाजिक भावनाएं, सब बहुत तेजी से भडक़ रही हैं। ये सब भावनाएं पेट्रोल बन चुकी हैं और उनमें तेजी से आग लग जाती है। इसलिए आज लोगों को न केवल खुद सावधान रहना चाहिए बल्कि अपने शुभचिंतकों को सावधान करना भी चाहिए कि वे लापरवाही से कुछ भी पोस्ट न करें क्योंकि अदालत ऐसी किसी मासूमियत पर कोई भरोसा नहीं करती, अदालत में तो लोग अपने लिखे और पोस्ट किए हुए के लिए पूरी तरह से जवाबदेह रहते हैं।
लोगों को सोशल मीडिया पर कुछ न कुछ पोस्ट करने की हड़बड़ी से बचना चाहिए। ऐसी कोई बंदिश किसी पर नहीं रहती कि अगर वे हर दिन दो-चार चीजें पोस्ट नहीं करेंगे तो उनका अकाउंट बंद हो जाएगा। इसलिए लोगों को बहुत सावधानी से सोशल मीडिया का इस्तेमाल करना चाहिए, वहां वे ना सिर्फ जुर्म के शिकार हो सकते हैं बल्कि अपनी बेवकूफी में किसी जुर्म के भागीदार भी हो सकते हैं। किसी और ने कोई गलत बात पोस्ट की है, इसलिए आप भी उसे आगे बढ़ा सकते हैं, कानून ऐसा बिल्कुल नहीं है। इसलिए सोशल मीडिया के इस्तेमाल जितना ही यह भी सीख लेना चाहिए कि किसी बात को इंटरनेट पर ही कैसे ढूंढ लिया जाए कि वह सच है या नहीं। हम हर दिन ऐसे दर्जनों बड़े जानकार और समझदार लोगों को देखते हैं जो किसी झूठ को सच समझकर उसे आगे बढ़ाते रहते हैं। लोग कुछ वक्त लगाकर सीखें कि कैसे हर बात को परखा जा सकता है कि वह सच है या झूठ। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दिल्ली के एक प्रमुख सरकारी अस्पताल गोविंद बल्लभ पंत इंस्टीट्यूट आफ पोस्टग्रेजुएट मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च ने अभी एक नया विवाद खड़ा कर दिया, जब उसके नर्सिंग सुपरिटेंडेंट की तरफ से नर्सों के लिए एक आदेश जारी हुआ कि वे ड्यूटी पर रहते हुए सिर्फ हिंदी या अंग्रेजी में बात करें. उनके खिलाफ किसी मरीज ने शिकायत की थी कि वे आपस में मलयालम में बात करती हैं और इससे दूसरे सहकर्मियों को और मरीजों को असुविधा महसूस होती है और वह अपने को असहाय महसूस करते हैं क्योंकि वह इस भाषा को नहीं जानते। क्योंकि नर्सों में बड़ी संख्या मलयालम बोलने वाली नर्सों की है, इसलिए यह नौबत आती है, और दिल्ली में अधिकतर मरीज और बहुत से दूसरे अस्पताल कर्मचारी इस भाषा को नहीं जानते। इस पर तुरंत ही केरल से लोकसभा सदस्य बने राहुल गांधी ने विरोध किया और केरल की राजधानी के लोकसभा सदस्य शशि थरूर ने भी ट्विटर पर इस चिट्ठी को डालकर इसके खिलाफ लिखा। यह नाराजगी देखते हुए अस्पताल प्रशासन ने इस आदेश को वापस ले लिया और यह भी साफ किया कि यह आदेश नीचे के स्तर पर निकाल दिया गया था, और अस्पताल के प्रमुख प्रशासन को इसकी जानकारी भी नहीं थी।
अब यह मामला एक किस्म से खत्म हो चुका है क्योंकि यह आदेश वापस लिया जा चुका है, लेकिन एक दूसरे हिसाब से इस पर चर्चा होनी चाहिए कि अस्पताल में मरीजों के बीच डॉक्टरों और कर्मचारियों को किस जुबान में बात करनी चाहिए। दिल्ली क्योंकि देश की राजधानी है इसलिए वहां पर तो देश के हर हिस्से से आए हुए लोग रहते हैं और जरूरत होने पर अस्पताल में भर्ती भी होते हैं, इसलिए हर मरीज की समझ में आने वाली जुबान में बात करना तो मुमकिन नहीं है, लेकिन दिल्ली वह जगह है जहां पर अस्पतालों के बहुत से दूसरे कर्मचारी और बहुत से दूसरे डॉक्टर हिंदी या अंग्रेजी में बात करते होंगे, उनमें से कुछ लोग दिल्ली की अपनी स्थानीय जुबान पंजाबी में भी बात करते होंगे। यह बात सही है कि अस्पताल के बहुत से कर्मचारियों और अधिकतर मरीजों के लिए मलयालम को जरा भी समझ पाना मुमकिन नहीं है। इसलिए अगर किसी स्तर पर यह तय किया गया कि ड्यूटी पर रहते हुए नर्सें हिंदी या अंग्रेजी में ही बात करें, तो उसके पीछे के तर्क को भी समझने की कोशिश करनी चाहिए।
अस्पताल में जब मरीज भर्ती रहते हैं तो वह एक अलग किस्म की दहशत में रहते हैं, और पिछले डेढ़ बरस से तो कोरोना से न सिर्फ मरीज, बल्कि घर बैठे हुए सेहतमंद लोग भी दहशत में हैं और बड़ी खराब मानसिक हालत से गुजर रहे हैं। ऐसे में अगर अस्पताल के बिस्तर पर मरीज को आसपास नर्सों को एक ऐसी जुबान में बात करते देखना सुनना पड़े जिसे कि वे ना समझ सके, तो इससे उनकी बेचैनी बढऩा बहुत स्वाभाविक है। फिर यह भी है कि अस्पताल में ड्यूटी पर मौजूद नर्सों को उस दौरान एक-दूसरे से जो बात करनी है वह अधिकतर तो मरीजों के बारे में या अस्पताल की दूसरी बातों के बारे में ही रहेंगी, निजी बातें तो बहुत ही कम होंगी। इसलिए अगर किसी इलाके में आम प्रचलित भाषा में बात करने की उम्मीद अगर किसी से की जाती है तो उसे उनकी अपनी मातृभाषा के अपमान के रूप में देखना गलत होगा। अगर केरल के किसी अस्पताल में पंजाब की आधा दर्जन नर्सें हों, और वे वहां पंजाबी में बात करने लगें, तो वहां भर्ती सिर्फ मलयालम या अंग्रेजी जानने वाले मरीजों का मन बेचैनी और आशंका से भर जाएगा कि वह जाने क्या बात कर रही हैं. अस्पताल में भर्ती मरीजों के लिए सिर्फ दवाइयां ही इलाज नहीं होतीं, डॉक्टर और नर्सों का व्यवहार भी इलाज होता है. मेडिकल साइंस में यह सिखाया भी जाता है कि मरीजों की बेचैनी कम करना किस तरह डॉक्टरों और नर्सों की जिम्मेदारी है।
यह भी समझने की जरूरत है कि जब लोगों को ना समझने वाली किसी भाषा के बीच अधिक समय तक रहना पड़ता है, तो इससे उनके बीच, उनके मन में एक थकान आने लगती है। जब चीनी भाषा ना समझने वाले लोग चीन के दौरे पर रहते हैं और वहां सार्वजनिक जगहों पर दूसरे लोगों को सिर्फ चीनी भाषा में बात करते देखते हैं तो पर्यटकों के बीच एक, लैंग्वेज फटीग, थकान आने लगती है। और फिर पर्यटक तो एक दिलचस्प और मजेदार मकसद से गए हुए लोग रहते हैं, इसलिए वे एकदम से किसी आशंका से नहीं भर जाते, लेकिन अस्पताल में भर्ती मरीज तो अपनी खुद की सेहत के लिए भर्ती रहते हैं और जब आसपास नर्सेज मलयालम में बात करें तो उस भाषा को ना समझने वाले मरीज यही समझते रहेंगे कि उनके बारे में जाने क्या बात हो रही है।
हम किसी एक भाषा के हिमायती नहीं हैं, और अगर हिंदुस्तान में अपने प्रदेशों से बाहर गए हुए लोग टूटी-फूटी भाषा में भी कोई दूसरी भाषा या बोली बोलते हैं तो भी वह काफी है, उनसे लोग बहुत शुद्ध व्याकरण की उम्मीद भी नहीं करते। इतना जरूर है कि जिस जगह पर काम करना है, उस जगह की प्रचलन की भाषा को सीख लेना एक अतिरिक्त फायदे का काम होता है। क्योंकि मलयालम बोलने वाली नर्सें अंग्रेजी बोल सकती हैं, इसलिए अगर अस्पताल ने उनसे अंग्रेजी या हिंदी में बात करने की उम्मीद की है, तो यह मरीजों के हित में देखने की जरूरत है, न कि इसे मलयालम के विरोध के रूप में देखने की. हम तो हिंदुस्तान के किसी भी कोने में दूसरे प्रदेशों से गए हुए डॉक्टरों और गई हुई नर्सों के बारे में इसी तर्क को सही मानेंगे कि वह मरीजों और दूसरे जुबान वाले सहकर्मियों के बीच ऐसी आम भाषा में बोले जिसे सब जानते हैं या अधिकतर लोग जानते हैं।
इसकी एक दूसरी मिसाल यह भी है कि बहुत से परिवारों में कुछ लोग एक अलग किस्म की जुबान विकसित कर लेते हैं और वे हर शब्द के आगे-पीछे कुछ अक्षर लगाकर बोलते हैं जिन्हें समझने वाले ही समझ पाते हैं। ऐसे परिवारों में जो लोग ऐसी अनोखी जुबान नहीं समझते वे अपने-आपको उपेक्षित और अपमानित पाते हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उनकी मौजूदगी में लोग ऐसी बातें कर रहे हैं जो उन्हें बताना नहीं चाहते हैं। यह सिलसिला किसी का विश्वास जीतने में मदद नहीं कर सकता, यह सिलसिला लोगों के विश्वास को खोने का है, दिल्ली के अस्पताल ने चाहे जो समझ कर अपना फैसला वापस लिया हो, हम किसी भी प्रदेश में बाहर से आकर काम करने वाले दूसरी जुबान के लोगों से यह उम्मीद करेंगे कि वे लंबे समय तक अगर काम कर रहे हैं तो वह आपस में भी स्थानीय जुबान को समझने और बोलने की कोशिश करें और अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो हिंदुस्तान के किसी भी प्रदेश में आम प्रचलन की हिंदी और अंग्रेजी से काम चलाएं। जहां लोगों को अपने काम के दौरान दूसरों से मिलना रहता है, उनके बीच रहना है, वहां उनका विश्वास जीतने में कोई बुराई नहीं है, और जो लोग थोड़ी-बहुत अंग्रेजी या हिंदी बोल सकते हैं, उन्हें मरीजों, या सहकर्मियों की मौजूदगी में आपस में ऐसी भाषा नहीं बोलनी चाहिए जिसे दूसरे न समझ सके। मलयालम भाषा बोलने वाले लोगों का पूरे देश में भरपूर सम्मान होता है, और इस व्यावहारिक उम्मीद को उस भाषा के आत्मगौरव से जोडऩा सही नहीं है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज पर्यावरण दिवस पर पूरे देश में जगह-जगह पर्यावरण को बचाने की चर्चा की जाएगी। पर्यावरण को बचाने की यह सोच बुनियादी रूप से गलत बात है क्योंकि बचाना तो इंसानों को खुद को है, पर्यावरण का क्या है। इंसान खत्म हो जाएंगे तो हजार-दो हजार साल में पर्यावरण अपने-आप बेहतर हो जाएगा। इंसानों को धरती को बचाने के लिए पर्यावरण नहीं बचाना है, उनको अपने-आपको बचाने के लिए पर्यावरण बचाना है, वरना धरती बचे रहेगी, इंसान ही चल बसेंगे। आज पर्यावरण के साथ दिक्कत सबसे बड़ी यह हो गई है कि इसे बचाने की तकरीबन पूरी ही जिम्मेदारी सरकारों ने अपने पर ओढ़ ली है। सरकारें अपने देश के कारोबार पर काबू तय करती हैं या ढील तय करती हैं, और जिस तरह के भ्रष्टाचार से नेता सत्ता पर आते हैं, उससे जाहिर है कि उनका काम महज ढील तय करना रहता है, किसी तरह का काबू उनकी प्राथमिकता में नहीं रहता। और यह बात हम अमेरिका से लेकर हिंदुस्तान की सरकार तक जगह-जगह देख रहे हैं कि पर्यावरण बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट से अलग हिंदुस्तान में जिस तरह ग्रीन ट्रिब्यूनल बनाया गया है, तो वैसी जगह पर ऐसे ही लोगों को भेजा जाता है जो कि ढील की बात कर सकें।
खैर ऐसे माहौल में आज पर्यावरण दिवस मनाया जा रहा है और तमाम बड़े लोग इस मौके पर कई जगहों पर कुछ बोलेंगे और क्योंकि कोरोना की दहशत अभी जारी ही है इसलिए अधिक लोग वेबीनार पर बयान देंगे कि पर्यावरण को बचाना कितना जरूरी है और उसके तुरंत बाद से अपने बड़े-बड़े काफिले इस्तेमाल करना शुरू कर देंगे, बड़े-बड़े बंगले, बड़े-बड़े दफ्तर, और उनमें लगे हुए अनगिनत एयर कंडीशनर। धरती पर अगर इंसानों को अपने-आपको बचाना है तो उसका अकेला जरिया अब यह रह गया है कि सरकारों से परे लोग अपने ऐसे समूह तैयार करें जो कि हर लोकतांत्रिक औजार और हथियार का इस्तेमाल करके सरकारों और अदालतों को बेबस करें कि वे धरती को बर्बाद करने की कारोबारी कोशिशों को, सरकारी कोशिशों को खत्म करें।
आज इस मौके पर यह भी याद करने की जरूरत है कि जिन लोगों को धरती की बढ़ती हुई आबादी धरती पर बोझ लगती है और यह लगता है कि यह आबादी पर्यावरण को बर्बाद करके ही छोड़ेगी, उन लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि आबादी का सबसे गरीब हिस्सा वह है जो कि गिनती में तो ज्यादा है, लेकिन जिसकी प्रति व्यक्ति खपत सबसे ही कम है। हिंदुस्तान में भी सबसे गरीब की प्रति व्यक्ति अनाज की खपत, बिजली की खपत, पेट्रोलियम की खपत, या कांक्रीट की खपत सबसे ही कम है। वह सबसे ही कम प्लास्टिक का कचरा पैदा करते हैं, और वह जितना खाते हैं खर्च करते हैं, उससे कहीं अधिक वे अपने बदन की ऊर्जा से धरती पर काम करते हैं। आज अगर मजदूरों की, ठेले और रिक्शे वालों की, किसी भी किस्म का मेहनत का रोजगार करने वालों की दिन भर की ऊर्जा को देखें, तो यह बात साफ है कि वे जितनी चीजों का इस्तेमाल करते हैं उससे अधिक ऊर्जा के लायक काम रोज करते हैं। इसलिए आज के दिन लोगों को अपनी इस गलतफहमी को दूर कर लेना चाहिए कि धरती पर बढ़ती हुई आबादी धरती पर बोझ है। एक हजार सबसे गरीब लोग मिलकर जितनी खपत नहीं करते हैं, उससे कहीं अधिक खपत 10 रईस लोग करते हैं। इसलिए यह बिल्कुल नहीं सोचना चाहिए कि पर्यावरण की बर्बादी का बढ़ती आबादी से कोई रिश्ता है। दूसरी बात यह यह कि बढ़ती हुई आबादी मेहनत और मजदूरी की संभावनाएं लेकर पैदा होती है। इन संभावनाओं को खत्म करने के लिए सरकार और कारोबार मिलकर जितने किस्म का मशीनीकरण कर रही हैं, उस मशीनीकरण से पर्यावरण की अधिक बर्बादी हो रही है, न कि बढ़ती हुई आबादी की वजह से।
दूसरी बात जो हिंदुस्तान के आम शहरों से देखने मिल रही है कि सफाई के नाम पर स्थानीय म्युनिसिपल जिस अंधाधुंध रफ्तार से खर्च करती हैं, और अपने नागरिकों को खुश रखने के लिए उन्हें मनमाना कचरा पैदा करने देती हैं, और उन पर सफाई का कोई जिम्मा नहीं डालती, यह शहरी पर्यावरण की बर्बादी का एक बड़ा कारण है. दक्षिण भारत के कुछ एक छोटे शहरों ने यह मिसाल कायम की है कि किस तरह म्युनिसिपल सफाई पर एक धेला भी खर्च किए बिना, लोगों को जिम्मेदार बनाकर कचरे से कमाई कर सकती हैं। लेकिन जब स्थानीय संस्थाओं के निर्वाचित नेता वोटरों की चापलूसी में लगे रहते हैं तो वे उन्हें किसी तरह की जिम्मेदारी सिखाने का कड़वा काम नहीं करते। जिन स्थानीय संस्थाओं को नागरिकों को सिखाना चाहिए कि वे अपने घर पर ही कचरे को किस तरह से अलग करें ताकि बाद में उसकी छंटाई में खर्च ना हो और वह कचरा काम आ सके। म्युनिसिपल खर्च बढ़ाकर, गाडिय़ां बढ़ाकर, कर्मचारी बढ़ाकर अपनी शान दिखाने में लगे रहती हैं। हिंदुस्तान में लोग दूसरे प्रदेशों से सीखना तो दूर रहा। अपने प्रदेश से भी नहीं सीखते। छत्तीसगढ़ में ही अंबिकापुर में एक कलेक्टर और म्युनिसिपल कमिश्नर ने जिस तरह महिलाओं से समूह बनाकर कचरे को छंटवाकर उसकी बिक्री से कमाई शुरू करवाई थी, उसमें कमाई महत्वपूर्ण नहीं थी, कचरे की रीसाइकिलिंग महत्वपूर्ण थी, लेकिन इस राज्य के बाकी शहरों ने इससे भी कुछ नहीं सीखा।
दुनिया भर में कारखानों को तो पर्यावरण तबाह करने के लिए कोसा ही जाता है, लेकिन सम्पन्न शहरी लोग जऱा खुद भी आइना देख लें इसलिए इन पहलुओं पर हम लिख रहे हैं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तानी सडक़ों पर देखें तो लोग जब तक किसी पुलिस वाले को ना देखें, तब तक सीट बेल्ट लगाना उन्हें जरूरी नहीं लगता, न ही हेलमेट लगाना। हेलमेट लगा भी लें तो उसके नीचे का बेल्ट लगाना लोगों को अपनी तौहीन लगती है। किसी हादसे की नौबत आने पर बिना बेल्ट लगा ऐसा सिर पर महज धरा गया हेलमेट सबसे पहले उडक़र दूर जाकर गिरेगा। जो लोग सीट बेल्ट वाली महंगी गाडिय़ां खरीदते हैं, और जिनकी गाडिय़ों में हादसे की हालत में बचाने के लिए एयरबैग्स भी लगे रहते हैं, वे भी अधिक दाम तो दे देते हैं, लेकिन यह सीट बेल्ट लगाने की जहमत यह जानकर भी नहीं उठाते कि अगर सीट बेल्ट नहीं लगाया तो शायद हादसे की हालत में एयर बैग भी नहीं खुलेगा। यह सिलसिला हिंदुस्तान में इतना आम है कि किसी को हेलमेट या सीटबेल्ट की याद दिलाई जाए तो वे हैरान होकर पूछते हैं कि क्या पुलिस यहां जांच करती है? यमराज की जांच की किसी को परवाह नहीं रहती, मौत की किसी को परवाह नहीं रहती, बस पुलिस से चालान ना हो जाए, बाकी तो सब ठीक है। जब लोग अपने खुद के शरीर के जिंदा रखने के लिए इस हद तक गैरजिम्मेदार हैं, तो उनसे यह उम्मीद करना कुछ ज्यादा ही बड़ी बात होगी कि वे दूसरों के अधिकारों का सम्मान करेंगे। नतीजा यह होता है कि जो लोग सार्वजनिक जीवन में जिम्मेदार बने रहते हैं, वे लगातार एक भड़ास में भी जीते हैं, और कई ऐसे मौके आते हैं जब उन्हें लगता है कि क्या सारी सार्वजनिक जिम्मेदारी सिर्फ उन्हीं की है ?
जिस तरह अभी कोरोना के मामले में हुआ कि दुनिया के कई देशों में लोगों को हाइजीन फटीक होने लगी, कि साफ-सफाई और सावधान रहने का सिलसिला कब तक चलेगा, और थककर लोग लापरवाह होने लगे, ठीक वैसा ही उन शहरों में होता है जहां सार्वजनिक जगहों पर सिगरेट या शराब पीने पर कोई रोकने वाले नहीं रहते, बिना सीट बेल्ट और हेलमेट चलने वालों का चालान नहीं होता, और जहां पर नशा करके गाड़ी चलाने पर कभी कोई कार्यवाही नहीं होती। चारों तरफ ऐसी अराजकता देख-देखकर नियम कायदे मानने वाले लोग भी थक जाते हैं और धीरे-धीरे वे भी गैर जिम्मेदार होने लगते हैं। यह सिलसिला कुछ वैसा ही रहता है जैसा कि बैठकों में हमेशा वक्त पर पहुंचने वालों को हमेशा ही देर तक लापरवाह और लेट-लतीफ लोगों का इंतजार करना पड़ता है, और धीरे-धीरे लोगों को लगता है कि बैठक में वक्त पर पहुंचना अपने-आपको तकलीफ देने के अलावा और कुछ नहीं है, और थके हुए पाबंद लोग धीरे धीरे खुद भी लेट पहुंचने लगते हैं।
आज चारों तरफ फैले हुए कोरोना की वजह से लोगों को संक्रामक रोग शब्द से बार-बार वास्ता पड़ रहा है। लेकिन अच्छी और बुरी दोनों किस्म की बातें और आदतें भी संक्रामक होती हैं, अच्छी बातों का संक्रमण बहुत कम और बहुत देर से होता है। नियम-कानून मानकर चलने वाले लोगों की देखा-देखी, जल्दी संक्रमण नहीं होता, दूसरी तरफ जो लोग नियमों को तोडक़र चलते हैं उनका संक्रमण जल्दी होता है। जिम्मेदार लोग अधिक वक्त तक असुविधा झेलते हुए जिम्मेदार नहीं रह पाते। इसलिए किसी भी सभ्य समाज को यह भी सोचना चाहिए कि उसके अराजक लोग ना सिर्फ दूसरों के लिए खतरा रहते हैं, ना सिर्फ दूसरों की जिंदगी को खराब करते हैं, बल्कि अपनी खराब आदतों का संक्रमण दूसरों तक फैलाने का एक खतरा भी रखते हैं और ऐसा संक्रमण फैलता ही है। यही वजह है कि बहुत से लोग यह मनाते हैं कि अगला जन्म किसी सभ्य देश में मिले। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
फिनलैंड की प्रधानमंत्री सना मरीन के खिलाफ पुलिस ने जांच शुरू की है कि क्या उन्होंने अपने सरकारी निवास पर बाहर की एक कैटरिंग कंपनी द्वारा परोसे गए नाश्ते के हर महीने का भुगतान पाने के लिए कहीं नियमों को तोड़ा है? यह डेढ़ बरस के नाश्ते के बिल का मामला है, जो कि कुल मिलाकर प्रधानमंत्री के एक महीने के वेतन से काम का है। और प्रधानमंत्री ने अपनी ओर से यह घोषणा भी कर दी है कि उनके पहले के प्रधानमंत्रियों द्वारा लिया जाता रहा यह भत्ता उन्होंने भी अपने अफसरों की राय पर लिया था, लेकिन इस भत्ते को तय करने में उनका कोई हाथ नहीं था, और ना उन्होंने इसे मांगा था, फिर भी उन्होंने अपनी तरफ से यह घोषणा कर दी है कि प्रधानमंत्री के जिम्मे और भी बहुत से काम रहते हैं, इसलिए वे इस विवाद की रकम का भुगतान अपने निजी खाते से कर रही हैं, और जांच के बाद अगर यह पता लगता है कि उन्हें पात्रता थी भी, तो भी वे इसका इस्तेमाल नहीं करेंगी। फिनलैंड एक ऐसा देश माना जाता है यहां पर सत्ता और जनता के बीच फासला दुनिया में सबसे कम है, और वहां पर जनता अपने नेताओं के इस किस्म के किसी भी गैरबराबरी के हक़ के बेजा इस्तेमाल के सख्त खिलाफ रहती है। फिनलैंड के जीवन स्तर के मुताबिक यह रकम बहुत बड़ी नहीं है, लेकिन एक अखबार की रिपोर्ट के आधार पर पुलिस ने यह जांच शुरू कर दी है और प्रधानमंत्री कार्यालय के अफसरों से पूछताछ चल रही है कि यह खर्च किसने मंजूर किया था।
हिंदुस्तान में लोग इस बात को लेकर हैरान हो सकते हैं कि क्या किसी देश की प्रधानमंत्री के नाश्ते के ऐसे खर्च को लेकर इस किस्म की जांच की जा सकती है, क्योंकि दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा करने वाले देश का हाल यह है कि सरकारी रेस्ट हाउस और सर्किट हाउस या दूसरे किस्म के विभागीय विश्राम गृह बनते ही इसीलिए हैं कि वहां पर नेता और अफसर जाकर मुफ्तखोरी कर सकें, और उनके मुफ्त खाने-पीने का इंतजाम विभागीय अधिकारी करें। जब-जब मंत्रियों या उनसे बड़े लोगों के दौरे किसी शहर में होते हैं, तो विश्राम गृह या सर्किट हाउस में चरने वाले लोगों की संख्या कई गुना बढ़ जाती है, और उनके पास आने वाले उनके परिचित, रिश्तेदार, मीडिया के लोग, पार्टी के लोग वहां मुफ्त में खाते-पीते हैं और शायद ही किसी मामले में इसका कोई बिल किसी नेता या अफसर को दिया जाता है। यह मान लिया जाता है कि यह शिष्टाचार कुछ कुर्सियों पर तैनात अफसरों का अघोषित जिम्मा है। आमतौर पर सर्किट हाउस में मंत्रियों के खर्चे का सरकारी भुगतान के लिए छोटा सा बिल बनता है, या नहीं भी बनता है, लेकिन उससे 25-50 गुना अधिक खाने वाले लोगों का कोई भुगतान सरकार की तरफ से नहीं किया जाता, न मंत्री की तरफ से किया जाता, और भुगतान का जिम्मा तहसीलदार का मान लिया जाता है। इसी तरह वन विभाग के खासे अतिथि सत्कार दिखाने वाले रेस्ट हाउस में स्थानीय रेंज ऑफिसर के मत्थे खर्च पड़ता है, और इसके एवज में उसे यह रियायत मिलती है कि उसे अपनी काली कमाई का कुछ हिस्सा ऊपर तक नहीं पहुंचाना पड़ता और उसे मेहमाननवाजी के खाते में मान लिया जाता है। बहुत से मंत्री और अफसर तो इस बात के लिए जाने जाते हैं कि उनके पहुंचने पर खाने की मेज पर और कमरे में बड़े-बड़े मर्तबान मेवा भरकर रखे जाते हैं और वे अपने जाने के पहले अपनी गाड़ी में साथ लेकर चल रहे बड़े पीपों में उनको खाली करवाते चलते हैं।
हिंदुस्तान में कभी इस बात की कल्पना नहीं की जा सकती कि किसी मंत्री, या मुख्यमंत्री, या प्रधानमंत्री के सरकारी निवास पर होने वाले सरकारी खर्च का कोई ऐसा बारीक हिसाब रखा जाता होगा। लेकिन फिर भी कम से कम दुनिया में कहीं ईमानदारी जिंदा है इसका एहसास करने के लिए किस्से कहानी की तरह ऐसे कुछ देशों के असल हाल को जान लेना भी अच्छा है ताकि अपने छोटे बच्चों को यह बतलाया जा सके कि दुनिया भी में ऐसे भी देश हैं। आज विश्व साइकिल दिवस भी है और यूरोप के कुछ देश ऐसे भी हैं जहां के प्रधानमंत्री साइकिलों पर चलते हैं। अधिक दूर क्यों जाएं भारत के बगल में भूटान के प्रधानमंत्री लगातार साइकिल पर चलते थे और राह चलते रुक कर कभी मजदूरों के साथ मिट्टी खोदने लगते थे, तो कभी खेतों में काम करने लगते थे। उनका फेसबुक पेज उनकी साइकिल सवारी से यूरोप के कुछ देशों के प्रधानमंत्रियों की तस्वीरों की तरह भरा रहता था।
हिंदुस्तान जैसे देश में जहां जरूरत ना रहने पर भी गाडिय़ों का बड़ा काफिला नेताओं के साथ चलता है, वहां पर किसी सादगी की कल्पना असंभव सी है। लेकिन जो सच में ही विकसित देश हैं, और जहां पर लोकतंत्र परिपक्व है, ऐसे बहुत से देशों में इस तरह की सादगी लगातार दिखती हैं, जो किसी अपवाद के रूप में नहीं है, जो सचमुच ही वहां पर एक परंपरा है। अब क्या आज हिंदुस्तान में कोई ऐसी कल्पना कर सकते हैं कि यहां प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री या किसी मंत्री के नाश्ते के बिल के भुगतान को लेकर पुलिस की जांच शुरू हो सके? ऐसे पदों पर बैठे हुए लोगों के खाने-पीने के बिल का भुगतान करने की अगर कहीं नौबत आती भी होगी तो आसपास खड़े हुए पुलिस अफसर खुशी-खुशी उस भुगतान के लिए तैयार रहते होंगे। इसलिए फिलहाल फिनलैंड की इस सच्ची घटना को एक कहानी की तरह अपने बच्चों को जरूर सुनाएं कि दुनिया में ऐसे भी देश हैं जहां प्रधानमंत्री और आम लोगों के बीच अधिकारों को लेकर किसी तरह का कोई फासला नहीं है, और मामूली सी चूक होने पर भी उन्हें अपनी जेब से ना केवल भरपाई करनी पड़ती है, बल्कि उसकी पुलिस जांच भी चल रही है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
किसी एक से मिलते-जुलते मुद्दे पर लगातार लिखना ठीक नहीं रहता लेकिन इन दिनों हिंदुस्तान में कोरोना और कोर्ट का हाल कुछ ऐसा है कि उन पर लिखने के मौके तकरीबन रोज खड़े रहते हैं। कल ही हमने यह बात लिखी कि मद्रास हाई कोर्ट के जज ने समलैंगिकता के एक मुद्दे पर अपनी समझ को नाकाफी बताते हुए कहा कि वे मनोचिकित्सक से समय लेकर उनसे इस मुद्दे को बेहतर समझना चाहते हैं, ताकि जब वे इस पर फैसला दें तो वह दिमाग से निकला हुआ न रहे, दिल से निकला हुआ भी रहे। उसमें हमने यह लिखा था कि सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के बड़े-बड़े जजों को मुद्दों की समझ के लिए प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए, उन्हें जानकार लोगों को बुलाकर खुद छात्र-छात्रा बनकर क्लास में बैठना चाहिए, और अपनी सारी जिज्ञासाओं को शांत करना चाहिए, इससे वे बेहतर जज बन पाएंगे।
अब कल जब हमने यह लिखा होगा, उसी समय दिल्ली हाईकोर्ट में एक जज जस्टिस विपिन सांघी कोरोना वैक्सीन मामले की सुनवाई करते हुए अपनी एक निजी राय भी वकीलों के सामने रख रहे थे। जज की जुबानी राय की वैसे तो कोई कीमत नहीं होती, और जो अदालत के लिखित आदेश में आखिर में सामने आता है, वही मायने रखता है, लेकिन ऐसी जुबानी राय से कम से कम जज की सोच के बारे में भी कुछ पता लगता है। कई बार होता यह है कि सबूतों और गवाहों की बुनियाद पर जो फैसले आते हैं, उनमें जो बातें जज नहीं लिख पाते, उन बातों को भी सुनवाई के दौरान कह सकते हैं। जस्टिस सांघी ने केंद्र सरकार की वैक्सीन तैयारी और वैक्सीन नीति को लेकर तो उसकी जमकर खिंचाई की ही है, लेकिन यह कोई नई बात नहीं रही। जिस-जिस अदालत ने भारत में वैक्सीन के इंतजाम को लेकर बात की, उन सबने केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा किया ही है, लेकिन इन्होंने एक दूसरी बात कही जो कि सोचने लायक है, और इस मुद्दे पर भी कुछ हफ्ते पहले हम लिख भी चुके हैं।
जस्टिस सांघी ने कहा कि वे अपनी खुद की राय रख रहे हैं कि जब केंद्र सरकार ने 18 से 44 बरस के लोगों को वैक्सीन लगाने की घोषणा की और सरकार के पास वैक्सीन थी नहीं, तो ऐसी घोषणा क्यों की? उन्होंने कहा कि भारत में 60 वर्ष से ऊपर के लोगों को कोरोना वैक्सीन लगाने में प्राथमिकता दी गई जबकि नौजवानों को वैक्सीन लगाने में प्राथमिकता देनी चाहिए थी, क्योंकि 60 वर्ष के ऊपर के लोग तो अपनी जिंदगी जी चुके हैं, और यह नौजवान पीढ़ी है जो कि देश का भविष्य है। उन्होंने अपने आपको 60 वर्ष से ऊपर के बुजुर्ग तबके में गिनते हुए यह कहा कि हम तो अब जिंदगी की ढलान पर हैं, लेकिन नौजवान पीढ़ी से इस देश का भविष्य बनना है। उन्होंने कहा कि 80 बरस के लोग तो अपनी उम्र जी चुके हैं, और अब वह देश को कहीं आगे नहीं ले जा सकते, ऐसे में अगर वैक्सीन सीमित संख्या में थी तो नौजवान पीढ़ी को प्राथमिकता देनी चाहिए थी। उन्होंने कहा कि आदर्श स्थिति तो यह होती कि हर किसी को टीका मिलता, लेकिन जब हर किसी के लिए है नहीं, तो कम से कम नौजवान पीढ़ी को पहले मिलना चाहिए था। उन्होंने भारत सरकार के वकील से कहा कि आप ऐसे फैसले से शर्मा क्यों रहे हैं, यह तो सरकार की जिम्मेदारी है कि वह आगे का रास्ता तय करे, दूसरे देशों ने ऐसा किया है, इटली ने अपने बुजुर्ग लोगों से माफी मांग ली थी कि हमारे पास अस्पतालों में आपके लिए पर्याप्त बिस्तर नहीं हैं।
पाठकों को याद होगा कि हमने कुछ दिन पहले ही इसी पन्ने पर लिखा था कि किस तरह जापान में अकाल पडऩे पर जब लोगों के पास खाने को नहीं रहता था तो वे अपने परिवार के बुजुर्गों को एक पहाड़ी पर ईश्वर के दर्शन कराने के नाम पर ले जाते थे और वहां से नीचे फेंक देते थे। यह फिल्म इसी पर केंद्रित थी। लेकिन 1-2 सदी पहले की यह कहानी कल दिल्ली हाईकोर्ट में फिर दोहराई जाएगी इसका अंदाज हमें नहीं था। 21वीं सदी के 21वें बरस की देश की राजधानी की एक सबसे बड़ी अदालत जज की इस राय की गवाह बनी कि बुजुर्गों के जिंदा रहने का हक जवानों के मुकाबले कम माना जाना चाहिए। यह खबर पढ़ते ही पल भर को ऐसा लगा कि इस अदालत की दुनिया 1-2 सदी पहले चली गई है। अब सवाल यह उठता है कि जज की बात से मन पर पड़ती हुई लात के दर्द को कुछ देर के लिए अलग कर दें, तो यह एक कड़वी हकीकत है कि धरती के लिए बुजुर्गों के मुकाबले जवान अधिक उत्पादक हैं। लेकिन एक सवाल यह भी उठता है कि सभ्यता का विकास पिछले हजारों वर्षों में क्या हमें इस मोड़ पर ले आया है कि जहां पर किसी इंसान की उत्पादकता ही उसके जिंदा रहने के हक का सबसे बड़ा सुबूत हो? यह तो जंगल की सोच रहती है, जंगली जानवरों की सोच रहती है जो कि सबसे ताकतवर के सबसे आखिर तक जिंदा रहने की हिमायती रहती है। जंगल में जिसकी उत्पादकता नहीं रह जाती, उसे जिंदा रहने का हक भी नहीं रह जाता। उसी प्रजाति के जानवर भी अपने ही बीमार या जख्मी साथी को खा जाते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह कि एक बर्फीली पहाड़ी पर गिरे हुए विमान के मुसाफिरों ने आखिर में अपने बीच के मरने वाले लोगों को खाना शुरू कर दिया था। कल जस्टिस सांघी की बातें कुछ उसी किस्म की लगने लगीं कि क्या हम एक बार फिर सबसे ताकतवर के जीने की सबसे अधिक संभावना वाली नौबत में पहुंचे हुए हैं या ऐसी नौबत इन हजारों-लाखों बरसों में कहीं गई ही नहीं थी, और वह, सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट, हमारे ही बीच अनबोले बिनलिखे शब्दों में दिल-दिमाग में चली ही आ रही थी?
यह सोचना बड़ा तकलीफदेह होता है, और हमने खुद इसी सवाल को कुछ वक्त पहले उठाया था कि जब लोगों के सामने तय करने का यह बहुत बड़ा संकट आकर खड़ा हो जाएगा कि वे अपने को जन्म देने वाले मां-बाप को बचाएं, या अपने पैदा किए हुए अपने बच्चों को बचाएं, या अपनी पीढ़ी के लोगों को बचाएं, तो उस वक्त समझ पड़ेगा कि लोगों की प्राथमिकता क्या है? कल दिल्ली हाईकोर्ट के जज ने जो सवाल उठाया है, उस सवाल को पहली नजर में खारिज कर देना तो बहुत आसान है, लेकिन उसके बारे में जितना ज्यादा सोचें उतना ही ज्यादा मन दुविधा से बाहर निकलने लगता है, और दिल के किसी एक कोने से यह आवाज उठने लगती है कि वे गलत क्या कह रहे हैं? यह बात उस वक्त तो अधिक गलत लग सकती है जब देश की सरकार की जिम्मेदारी हर किसी को वैक्सीन जुटाकर देना थी, लेकिन उस जिम्मेदारी का वक्त तो चले गया, अब वैक्सीन कहीं है नहीं, सरकार का कोई इंतजाम है नहीं, तो ऐसे में जो है उससे किसकी जिंदगी बचाई जाए ? जवान जिंदगी बचाई जाए या बुजुर्ग जिंदगी बचाई जाए? इस बारे में अपने आसपास अपने परिवार के लोगों की कल्पना करके असल नाम भरकर, असल चेहरे भरकर, अगर इस पहेली को सुलझाने की कोशिश करें, तो लगता है कि हमारे भीतर भी एक जस्टिस सांघी दिखने लगेगा!(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मद्रास हाईकोर्ट के एक जज ने कुछ हफ्ते पहले यह घोषणा की कि वे समलैंगिकता से जुड़े एक मामले पर कोई फैसला या आदेश देने के पहले खुद मनोचिकित्सक से मिलेंगे ताकि वे समलैंगिकता को बेहतर तरीके से समझ सके। उन्होंने अदालत में खुलकर यह बात कही और उन्होंने यह साफ किया कि वे अभी अपने पूर्वाग्रहों से मुक्त नहीं है और इस विषय की उन्हें अच्छी समझ नहीं है, ऐसे में अगर वे कोई फैसला देंगे तो वह उनके दिमाग से निकला हुआ होगा, और वे चाहते हैं कि फैसला उनके दिल से निकला हुआ हो। उन्होंने खुद होकर कहा कि वह एक मनोवैज्ञानिक शिक्षा पाना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि वे अपने खुद के पूर्वाग्रहों को तोडऩे की कोशिश कर रहे हैं और खुद की सोच के विकास की कोशिश भी कर रहे हैं। तमिलनाडु का यह मामला दो युवतियों का है जो कि पूरी जिंदगी जीवनसाथी बनकर एक दूसरे के साथ रहना चाहती हैं लेकिन दोनों के परिवार इसका विरोध कर रहे हैं। जज ने इन दोनों युवतियों के अलावा इन दोनों के परिवारों को भी एक ऐसे परामर्शदाता के पास भेजा, जो कि समलैंगिक मुद्दों को जानने समझने की समझबूझ रखते हैं। परामर्शदाता ने इन दोनों युवतियों और इनके परिवारों से बातचीत करके अदालत को सीलबंद रिपोर्ट दी जिसमें इन सबकी इस मुद्दे पर समझ के बारे में उसका निष्कर्ष था।
इस मामले पर कुछ हफ्ते बाद भी लिखने की जरूरत अभी इसलिए पड़ रही है कि गोवा की एक अदालत ने एक बहुत चर्चित सेक्स शोषण मामले पर अपना फैसला देते हुए आरोप लगाने वाली युवती के खिलाफ जितने किस्म की टिप्पणियां की हैं, वे दिल दहलाने वाली हैं। इस जज के अलावा पहले भी कुछ दूसरे प्रदेशों में कुछ ऐसे जज रहे हैं जिन्होंने देह शोषण के मामलों में महिलाओं के खिलाफ बहुत ही अवांछित और नाजायज टिप्पणियां की हैं जिनसे यह पता लगता है कि उनकी महिलाओं की मानसिकता की समझ शून्य से भी गई गुजरी है, वे महिलाविरोधी पूर्वाग्रहों से लदे हैं। इस अखबार से जुड़े हुए एक फेसबुक पेज पर आजकल में ही लिखा गया है कि हिंदुस्तान में किसी को जज बनाने के पहले बलात्कार की शिकार महिलाओं के बारे में उनसे खुलकर बातचीत करके उनकी समझ का अंदाज लगाना चाहिए, और इस मुद्दे के अलावा भी सामाजिक न्याय से जुड़े दूसरे मुद्दों पर उनकी सोच पर उनसे बात करनी चाहिए, इसके बाद ही उनकी नियुक्ति होनी चाहिए।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि इस अखबार में हम अपने इस कॉलम में ऐसी चर्चा में पहले भी कई बार लिख चुके हैं कि जिस तरह अमेरिका में किसी को जज बनाने के पहले उससे लंबी चौड़ी पूछताछ होती है, और सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने के पहले अमेरिकी संसद की एक कमेटी वैसे संभावित जजों से लंबी-लंबी बैठकें करती हैं और देश में जलते-सुलगते तमाम मुद्दों पर उनकी सोच का पता लगाती है. ऐसी संसदीय सुनवाई वहां की संवैधानिक अनिवार्यता रहती है। ऐसी सुनवाई का मतलब ही यह होता है कि उनके पूर्वाग्रहों का अंदाज लगा लेना और उसके बाद यह तय करना कि ऐसे पूर्वाग्रहों वाले लोगों को जज बनाना ठीक होगा या नहीं। हिंदुस्तान में भी न सिर्फ महिलाओं से जुड़े हुए मुद्दे बल्कि दलित और आदिवासी लोगों से जुड़े हुए मुद्दे, गरीब और मजदूरों से जुड़े हुए मुद्दे, ऐसे हैं जिनकी समझ बहुत से जजों में बहुत कम दिखाई पड़ती है। पिछले बरस जब कोरोना के बाद देश भर में एक साथ लॉकडाउन लगाया गया उस वक्त हजार-हजार मील पैदल चलकर जिंदा या मुर्दा घर लौटने वाले मजदूरों के हक में जब कुछ लोग अदालत पहुंचे, तो जजों ने इस मुद्दे को समझने से ही इंकार कर दिया। हमारा मानना है कि मजदूरों को इंसाफ नहीं मिला जबकि वे करोड़ों की संख्या में थे, और जाहिर तौर पर तकलीफ में थे, और सरकार के पास उस नौबत का कोई जवाब नहीं था, उन लोगों की तकलीफ का कोई समाधान नहीं था, लेकिन अदालत के पास भी वह नजर नहीं थी जो कि सबसे गरीब लोगों की इस सबसे बड़ी त्रासदी को देखकर समझ सकती। इसलिए आज जब मद्रास हाईकोर्ट के एक जज खुलकर इस बात को मंजूर कर रहे हैं कि अपने पूर्वाग्रहों से उबरने के लिए और इस मुद्दे को बेहतर समझने के लिए वे अपने मनोवैज्ञानिक शिक्षण के लिए जा रहे हैं, ताकि यह फैसला देते समय कानूनी नुक़्तों के आधार पर दिमाग से फैसला निकलने के बजाय वह दिल से निकल सके, तो उनकी बात से और जजों को भी कुछ सीखना चाहिए। हिंदुस्तान की बहुत सी दूसरी अदालतों के बहुत से दूसरे बड़े-बड़े जजों को ऐसी समझ की जरूरत है। आज अधिक से अधिक होता है यह है कि बड़े जज अपनी अदालतों में काम करने वाले अच्छे वकीलों में से किसी को छांटकर उन्हें न्याय मित्र बना कर किसी मामले में नियुक्त करते हैं ताकि वे उस मामले की बारीकियां जजों को समझा सकें। लेकिन ऐसे में एक खतरा यह भी रहता है कि यह न्याय मित्र जजों को समझाते हुए खुद ही अपने पूर्वाग्रह से मुक्त ना हो सके, और इसलिए जजों का ऐसा समझना पूरी तरह से खतरे से खाली भी नहीं है। मद्रास हाई कोर्ट के जज ने एक बेहतर राह दिखाई है जिसमें वह ऐसे मामलों के जानकार किसी मनोचिकित्सक या किसी परामर्शदाता से समझ लेने वाले हैं।
हाल के वर्षों में छोटी और बड़ी बहुत सी अदालतों के जजों ने सामाजिक न्याय की अपनी कमजोर समझ का आक्रामक प्रदर्शन किया है। उन्होंने अपने महिला विरोधी नजरिए को सिर पर मुकुट की तरह सजा कर फैसले सुनाए हैं, उन्होंने बहुत सी अवांछित और नाजायज बातें फैसलों में लिखी हैं, कुछ मामले तो ऐसे भी रहे जिनमें जजों की टिप्पणियों के खिलाफ अदालती अपील होने के पहले ही लोगों को सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ा और ऐसी टिप्पणियों को रुकवाना पड़ा। हिंदुस्तान एक बहुत ही दकियानूसी और पाखंडी देश है जहां पर मिट्टी और पत्थर की बनी देवियों की तो पूजा की जाती है, लेकिन जीती जागती महिला को जलाकर मारना, उससे बलात्कार करना, उसे अपमानित करना, उसे सोशल मीडिया पर हजार-हजार अकाउंट्स से बलात्कार की धमकी दिलवाना, उसके बच्चों को बलात्कार की धमकी दिलवाना। यह देश कुछ इस किस्म का देश है, इसलिए जज भी इसी समाज से निकल कर आते हैं, इसी समाज में जीते हैं, और महिलाओं को लेकर उनकी समझ अगर पूरी तरह बेइंसाफी से भरी हुई है, तो उसमें हमें जरा भी हैरानी नहीं होती। ऐसा करने वाले केवल पुरुष जज नहीं होते, ऐसे फैसले देने वाली महिला जज भी होती हैं, जिनकी खुद की मानसिक परिपक्वता पुरुषप्रधान समाज में दबे कुचले तरीके से हुई रहती है। यह उसी किस्म की महिलाओं जैसी रहती हैं जो किसी अफसर को या नेता को कमजोर कायर दब्बू नाकामयाब साबित करने के लिए उसे चूडिय़ां भेंट करने जाती हैं मानो चूडिय़ां किसी कमजोरी का सुबूत हैं। इसलिए इस देश में महिलाओं जैसे तमाम कमजोर तबकों, जिनमें सेक्स की अलग पसंद वाले समूह भी शामिल हैं, उन्हें लेकर जजों की एक क्लास लगनी चाहिए, जिसमें वे खुलकर अपने अज्ञान को उजागर करते हुए सवाल करें, और उनके अज्ञान को दूर करने का रास्ता अलग-अलग विषयों के विशेषज्ञ निकालें। सुप्रीम कोर्ट तक के बहुत से जजों ने समय-समय पर समाज के कमजोर तबकों के अधिकारों को समझने से इसलिए नाकामयाबी दिखाई है क्योंकि उन तबकों की उन्हें समझ नहीं रह गई। हमारा तो यह मानना है कि किसी मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक या परामर्शदाता से मुद्दों को समझने की तरह ही सामाजिक हक़ीक़त के बहुत से मुद्दों को समझने के लिए जजों को समाज के कमजोर तबकों की गहरी समझ रखने वाले विशेषज्ञ जानकार लोगों को आमंत्रित करके उनकी क्लास अटेंड करनी चाहिए।
केंद्र सरकार की वैक्सीन पॉलिसी पर चल रही सुनवाई के दौरान आज सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार के लिए असुविधाजनक कई सवाल खड़े किए और सरकार से पूछा कि अलग-अलग राज्यों को विदेशी वैक्सीन खरीदने के लिए अलग-अलग ग्लोबल टेंडर निकालने पड़ रहे हैं, क्या यह केंद्र सरकार की नीति है? और सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने यह भी पूछा कि जब केंद्र सरकार के पास मौजूदा कानून के तहत देश के भीतर बनने वाली वैक्सीन के रेट तय करने के लिए व्यापक शक्तियां हैं, तो अलग-अलग कीमत तय करने का काम वैक्सीन निर्माताओं पर क्यों छोड़ दिया गया? सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल इसलिए भी पूछा कि केंद्र सरकार ने 45 वर्ष से अधिक के लोगों के लिए वैक्सीन मुफ्त देने का कार्यक्रम चलाया हुआ है, और उससे नीचे उम्र के लोगों से इसकी कीमत वसूली जा रही है, यह कीमत या तो राज्य सरकार दे रही हैं, या निजी अस्पतालों में लोग खुद ही दे रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी सवाल किया कि यदि केंद्र सरकार 45 वर्ष से अधिक के लोगों के लिए टीके खरीद रही है तो 45 वर्ष से कम के लोगों के लिए टीके क्यों नहीं खरीद रही क्यों राज्य सरकार के ऊपर यह जिम्मेदारी डाली जा रही है?
यह पूरा सिलसिला बड़ा दिलचस्प है इसलिए है कि हमारे पाठकों को याद होगा कि मोदी सरकार ने जब से 45 बरस से नीचे के लोगों के लिए वैक्सीन की अपनी नीति घोषित की है, तबसे हम लगातार इस पर सवाल उठाते आ रहे हैं। लेकिन हमारे सवाल सुप्रीम कोर्ट की अभी सुनवाई से आगे बढक़र भी रहे हैं, जिसमें उम्र की सीमा तय करना, राज्यों के हिस्से के फैसले खुद लेना, और राज्यों पर वैक्सीन खरीदने का जिम्मा छोडऩा, जैसे बहुत से पहलू हैं। सुप्रीम कोर्ट की आज की सुनवाई वैक्सीन के रेट को लेकर थी और केंद्र सरकार की जिम्मेदारियों को लेकर थी कि वैक्सीन के ग्लोबल टेंडर की जरूरत अलग-अलग राज्यों को क्यों पड़ रही है, और केंद्र सरकार ने यह काम क्यों नहीं किया ? देश की वैक्सीन कंपनियों के उत्पादन का दाम केंद्र सरकार ने क्यों तय नहीं किया जबकि उसके पास ऐसा करने के लिए पर्याप्त अधिकार हैं? सुप्रीम कोर्ट ने एक बुनियादी सवाल भी उठाया है जिसे हमने इसके पहले नहीं लिखा था कि जब वह 45 वर्ष से अधिक के लोगों को वैक्सीन मुफ्त दे रही है, तो 45 वर्ष से नीचे के लोगों के लिए वैक्सीन का खर्चा लोगों को या राज्य सरकारों को क्यों उठाना पड़ रहा है?
सुप्रीम कोर्ट के सवाल बहुत पीछे हैं और हमारा मानना यह है कि ये सारे सवाल जायज हैं. अब देखना यह है कि केंद्र सरकार इसका क्या जवाब दे सकती है क्योंकि केंद्र राज्य संबंधों में केंद्र सरकार को अगर कुछ फैसले लेने का अधिकार भी है, और मनमाने फैसले लेने का भी अधिकार है, तो भी उन मनमाने फैसलों को अदालत में कोई चुनौती मिलने पर अदालत के सामने सरकार को उन्हें न्यायोचित तो ठहराना ही होगा और आज सरकारी वकील से सुप्रीम कोर्ट के जजों ने जो सवाल किए हैं, वे जनहित के सवाल हैं और वे राज्यों के अधिकार के सवाल हैं। दिक्कत एक छोटी सी यह है कि राज्यों ने अपने अधिकारों को लेकर केंद्र सरकार से पर्याप्त सवाल नहीं किए उर्मिला इसके पीछे की वजह शायद यह भी हो सकती है कि कोई राज्य सरकार कोरोना के खतरे के बीच, गिरती हुई लाशों के बीच, ऐसी दिखना नहीं चाहती है कि वह केंद्र सरकार के लिए कोई असुविधा खड़ी कर रही है. शायद इसलिए देश के तकरीबन तमाम राज्यों ने केंद्र सरकार के मनमानी हुक्म और फैसले ज्यों के त्यों मान लिए और वैक्सीन को लेकर तमाम किस्म की दिक्कतें खुद झेली हैं और झेलते चले जा रहे हैं।
केंद्र सरकार की टीकाकरण नीति और राज्यों के ऊपर उसके मनमाने फैसलों को थोपने का सिलसिला शुरू से ही बड़ा नाजायज चले आ रहा था। हमने इसी जगह यह लिखा था कि जब केंद्र सरकार अपने और राज्य सरकारों की खरीदी के लिए देश के छोटे-छोटे से सामान, स्कूटर, मोटरसाइकिल, फ्रिज और पंखे-एसी तक के रेट पूरे देश की कंपनियों से तय करके उन्हें घोषित करती है, और राज्य सरकारें उन्हें दोबारा टेंडर बुलाए बिना उस रेट पर खरीद सकती हैं, तो वैक्सीन के लिए ऐसा क्यों नहीं किया गया जो कि एक जीवनरक्षक सामान भी है, और जिसके लिए पूरे देश की जनता जनता बेचैन भी है। यह सवाल पूरी तरह अनसुना रहा क्योंकि केंद्र सरकार ने देश में किसी के सवालों का जवाब देना अपना जिम्मा मानना छोड़ ही दिया है। हमने यह सवाल भी उठाया था कि केंद्र सरकार ने खुद तो कम रेट पर वैक्सीन खरीदी और इसके बाद वैक्सीन कंपनियों को यह खुली छूट दे दी कि वे राज्य सरकारों से मोलभाव करें और राज्य सरकारें अपने हिसाब से उन्हें लें। यह फैसला केंद्र सरकार ने उस दिन किया जिस दिन इस देश में कुल 2 वैक्सीन कंपनियां काम कर रही थीं, बाहर से कोई वैक्सीन आयी भी नहीं थी और राज्य सरकारों की यह मजबूरी थी कि इन दो कंपनियों के एकाधिकारवादी इंतजाम के बीच इन्हीं से मोलभाव करें और खरीदें।
लोगों को याद होगा कि दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री मनीष सिसोदिया ने कैमरे के सामने दिए एक बयान में इस बात को लेकर केंद्र सरकार को घेरा था कि उसने दुनिया की मंडी में भारत के राज्यों को धकेल दिया है कि वे वहां एक दूसरे से मुकाबला करके अधिक बोली लगाकर वैक्सीन हासिल करें, और अपने प्रदेश के लोगों को लगाएं। मनीष सिसोदिया ने केंद्र सरकार से यह मांग की थी कि वह देश की जनता से इस नौबत के लिए माफी मांगे क्योंकि आज भारत की राज्य सरकारें दुनिया के बाजार में खड़े होकर एक दूसरे से अधिक बोली लगाकर पहले वैक्सीन पाने की कोशिश कर रही है जबकि यह काम केंद्र सरकार को करना चाहिए था। और दुनिया की कंपनियों ने ही यह साफ कर दिया कि वह हिंदुस्तान के किसी राज्य के साथ कोई सौदा नहीं करेंगी और वह सिर्फ केंद्र सरकार के साथ सौदा करेंगी क्योंकि अंतरराष्ट्रीय सौदों में कई किस्म की राष्ट्रीय गारंटी की जरूरत पड़ती है जिसे देने का अधिकार किसी राज्य सरकार का नहीं है और सिर्फ केंद्र सरकार ही ऐसा कर सकती है। कुल मिलाकर यह एक बहुत ही बुरी नौबत देश के सामने है जब लोग वैक्सीन लगवाने के लिए तरस रहे हैं, जब देश के बड़े-बड़े होटल वैक्सीन पैकेज के इश्तहार छपवा रहे हैं कि कितने हजार रुपए देकर उनके होटल में आकर रुकें, तीन वक्त खाना खाएं, और वैक्सीन लगवाएं। ऐसे में देश के गरीब लोग कहां जाएं, जिनके लिए न केंद्र सरकार वैक्सीन भेज रही है ना उनकी राज्य सरकारों को बाजार में वैक्सीन मिल रही है ?उनकी राज्य सरकारें दुनिया से कहीं से आयात नहीं कर पा रही हैं और लोगों के सिर पर खतरा बना हुआ है.
भारत सरकार की वैक्सीन नीति से गरीब और अमीर के बीच इस जीवनरक्षक वैक्सीन को लेकर इतनी बड़ी खाई खोद दी गई है कि पैसे वाले तो बड़े अस्पतालों में जाकर, होटलों में जाकर, यह वैक्सीन लगवा सकते हैं, लेकिन गरीबों में जो तबका बहुत अधिक खतरा झेल रहा है, वह तबका भी इस वैक्सीन को पहले नहीं पा सकता, क्योंकि ना केंद्र भेज रही है, न उनका राज्य खरीद पा रहा है। अब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के बारे में इस किस्म का जुबानी कड़ा रुख पिछले वर्षों में कई बार, कई मामलों में दिखाया है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला जब आता है तब लोगों को लगता है कि वह रुख और अदालत की जुबानी टिप्पणी उनमें से नदारद रहती हैं। ऐसे में लोग इंतजार करेंगे कि सुप्रीम कोर्ट के जज आज इतनी कड़ी जुबान बोल रहे हैं, आज जितने इंसाफ की बात कर रहे हैं, जब केंद्र सरकार की टीकाकरण नीति और कार्यक्रम पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आएगा, तो उस फैसले में भी अदालत का यह रुख झलकेगा। अदालत का फैसला महज फैसला नहीं रहना चाहिए वह इंसाफ भी होना चाहिए और अगर यह इंसाफ होगा तो पिछले महीनों में हमारी लिखी हुई तमाम बातें सही साबित होंगी और केंद्र और राज्य सरकार के संबंधों को लेकर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बहुत सारी नई परिभाषाएं गढ़ सकता है जो कि मौजूदा केंद्र सरकार के लिए दिक्कत की हो सकती हैं। अभी अदालत की सुनवाई की जितनी खबरें हम देख रहे हैं, उनमें राज्य सरकारों की कोई दखल नहीं दिख रही है, जबकि यह राज्यों को सीधे प्रभावित करने वाले मुद्दे पर चल रही सुनवाई है. आगे देखते हैं कि राज्य अपने अधिकारों के लिए सुप्रीम कोर्ट के इस मामले में दखल देते हैं या नहीं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जब लिखने को कोई महत्वपूर्ण मुद्दा ना सूझे तो महिलाओं के मुद्दों पर एक नजर डालने से एक से अधिक महत्वपूर्ण बातें लिखने लायक सामने आ जाती हैं। सोशल मीडिया पर बहुत सी ऐसी महिलाएं सक्रिय रहती हैं, जो उनकी जिंदगी के असल मुद्दों पर लिखती हैं, और मर्दों की भीड़ उन्हें खुलकर गालियां देने में जुटी रहती हैं। औरतों के खिलाफ गालियां बनाना आसान भी रहता है। उनके बदन के कुछ हिस्सों के नाम लेकर, मर्दों की कुछ अधूरी हसरतों को मिला दिया जाए, तो महिलाओं को देने के लिए गालियां ही गालियां बन जाती हैं। सोशल मीडिया पर महिलाओं के हक की, या किसी भी गंभीर मुद्दे पर समझदारी की, जरा सी बात करने वाली महिला को भी उसके बदन के ढंके हुए अंगों के लिए हजार-हजार गालियां आसानी से मिल जाती हैं। कुछ महिलाएं डरकर और/या थककर सोशल मीडिया पर लिखना छोड़ देती हैं और कुछ महिलाएं उन पर फेंके गए इन पत्थरों को चबूतरे की तरह जमाकर, उन पर खड़े रहकर, और जोरों से बोलती हैं। कुल मिलाकर सोशल मीडिया ने जिस तरह दुनिया के हर कमजोर तबके को बोलने का मौका दिया है, एक नई जुबान दी है, एक नया लोकतांत्रिक हक दिया है, उसी तरह का हक महिलाओं को भी यहां पर मिला है और वे बहुत से नए पहलुओं पर लिख रही हैं जिनके बारे में आदमियों ने शायद कभी सोचा नहीं होगा। मर्दों में जो लोग अपने को औरत-मर्द की बराबरी के बड़े हिमायती मानते हैं, उन्हें भी महिलाओं की लिखी बातों को पढक़र कई बार एक नई सोच का पता लगता है जिसे कि उन्होंने कभी खुद होकर सोचा नहीं था।
ऐसा ही मुद्दा अभी सामने आया कि किसी एक आदमी को किडनी की जरूरत पड़ी। डॉक्टरों ने जवाब दे दिया कि अब मौजूदा किडनी और अधिक साथ नहीं देगी, और ट्रांसप्लांट तो करना ही पड़ेगा, अगर और जिंदा रहना है। जैसा कि आमतौर पर होता है, आदमी लौटकर घर पहुंचा, और बीवी को तैयार करने लगा कि वह उसे किडनी दे। यह बात बोलने की भी जरूरत नहीं रहती है क्योंकि हिंदुस्तान जैसे देश में कोई भी महिला अपने सुहाग के लिए कुछ भी करने को तैयार रहती है, और अपने पति को जिंदा रखने के लिए महिलाएं जाने क्या-क्या करती हैं। और पति को जिंदा रखने की बात ही नहीं है, पति की जिंदगी में बने रहने के लिए भी बहुत सी महिलाएं पूरी-पूरी जिंदगी को एक बोझ की तरह ढोते चलती हैं, और कभी उफ नहीं करतीं। लेकिन यह महिला जानती थी कि उसके पति की जिंदगी में और भी बहुत सी महिलाएं हैं, और ऐसे नाजुक मौके पर जब वह लौटकर सिर्फ बीवी का मोहताज रह गया है, क्योंकि बाहर की कोई प्रेमिका तो किडनी देने से रही, तो इस महिला ने भी अकेले जाकर डॉक्टर से मिलकर यह साफ कर दिया कि वह किडनी देना नहीं चाहती है। डॉक्टर भी मददगार निकला और उसने जांच में ही कुछ इस तरह की जटिलता बता दी कि इस महिला की किडनी काम नहीं आएगी। यह कहानी सच भी हो सकती है और किसी की गढ़ी हुई भी हो सकती है, लेकिन सच तो यह है कि असल जिंदगी में ऐसे मामलों की गुंजाइश कम नहीं है।
इसी तरह एक दूसरी नौबत बहुत सारे मामलों में सामने आती है जिनमें हिंदुस्तान से लेकर पश्चिम के बड़े-बड़े देशों के आधुनिक परिवार भी एक सरीखे दिखते हैं। जब किसी आदमी पर बलात्कार या किसी के देह शोषण का आरोप लगता है, या कि बिल क्लिंटन की तरह, अपनी एक मातहत प्रशिक्षणार्थी के शोषण का आरोप लगता है तो ऐसे तमाम मामलों में ऐसे लोगों की बीवियां सार्वजनिक जगहों पर, अदालत के भीतर और अदालत की सीढिय़ों पर, उनके साथ चट्टान की तरह खड़ी दिखती हैं, क्योंकि ऐसे नाजुक मौके पर अगर वे अपने बदचलन पति का साथ छोड़ें तो वह पल भर में डूब ही जाएगा। इसलिए हिंदुस्तान की दुखी-हारी बीवियों से लेकर, अमेरिका और ब्रिटेन की बीवियां तक अधिकतर मामलों में अपने बलात्कारी पति के साथ खड़े रहकर उसे संदेह का कुछ लाभ दिलाने की कोशिश करती हैं। एक बार अदालती मामला पूरा हो जाये, तो फिर चाहे उसे छोड़ दें, लेकिन मुसीबत के बीच नहीं छोड़तीं।
सोशल मीडिया ने महिलाओं को बोलने और सोचने का जो हक दिया है वह अभूतपूर्व है। इसके पहले तक महिला आंदोलनों के कुछ सार्वजनिक मंचों पर ही कुछ प्रमुख महिलाओं को यह मौका मिलता था और कुछ पत्रिकाओं में लिखने की क्षमता रखने वाली अच्छी लेखिकाओं को अपनी बात कहने का मौका मिलता था। लेकिन आज सोशल मीडिया की मेहरबानी से ना तो भाषा पर किसी काबू की जरूरत है, न ही नामी-गिरामी होने की जरूरत है, और बहुत आम महिलाएं भी अपनी जिंदगी के कुछ बहुत जटिल मुद्दों पर खुलकर लिख रही हैं, जिन पर खुलकर चर्चा हो रही है, और उन महिलाओं को खुलकर, जमकर गालियां दी जा रही हैं। हमारा तो यह मानना है कि ऐसी गालियां देने वाले उन महिलाओं का कोई अपमान नहीं कर पाते हैं, बल्कि वे अपने-आपके चाल-चलन का, अपने संस्कारों का, भंडाफोड़ करते हैं, और खुद अपने-आपको बेइज्जत करके लोगों के बीच उजागर कर देते हैं। यह पूरा सिलसिला समाज के भीतर महिलाओं को बोलने का हक मिलने का एक बिल्कुल ही अभूतपूर्व नजारा है जो कि अभी 10.15 बरस पहले तक कहीं नजर नहीं आता था।
आज इससे एक दूसरा फायदा भी हो रहा है। आदमियों में से वे लोग जो कि सचमुच ही महिलाओं के मुद्दों को समझने के लिए एक खुला दिल-दिमाग रखते हैं, उनके सामने भी महिलाओं से जुड़े हुए मुद्दे इतनी बारीकी से खुलकर सामने आ रहे हैं, उन मुद्दों पर इतने किस्म के लोगों की प्रतिक्रिया भी पढऩे मिल रही है, बहस इतनी आगे भी बढ़ रही है कि सोचने को तैयार लोगों को सोचने का बहुत सा सामान भी मिल रहा है। इसके पहले तक महिलाओं के मुद्दे महिलाओं की पत्रिकाओं तक सीमित थे जिनमें आदमियों की दिलचस्पी लिखे और छपे शब्दों में नहीं रहती थी, महिलाओं की उघड़ी तस्वीरों में रहती थी। आज धीरे-धीरे आदमियों का एक तबका ऐसा बढ़ भी रहा है जो महिलाओं के मुद्दों को, उनकी देह में अपनी दिलचस्पी के अलावा, सोच के स्तर पर भी समझने की कोशिश कर रहा है। सोशल मीडिया को बहुत किस्म की गंदगी के लिए और बुरे असर के लिए रात-दिन कोसा जाता है, लेकिन यह हकीकत अपनी जगह कायम है कि इस सोशल मीडिया ने ही समाज के सबसे कमजोर तबकों को एक जुबान दी है, और उनकी बातों को दूसरों की नजरों के सामने रखने का एक मौका भी जुटा कर दिया है। सोशल मीडिया पर जो लोग हैं उन्हें महज त्योहारों की शुभकामनाएं और जन्मदिन की बधाई तक फंसकर नहीं रहना चाहिए, और अपने से असहमत लोगों की बात भी देखना चाहिए, जिसके बिना कोई भी विचारधारा न विकसित हो सकती न जिंदा रह सकती। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले करीब 12 हजार बरस से इंसान पशुओं को पालतू बनाकर अपने साथ रखते आए हैं। इंसानों का इतिहास यही बताता है कि उसके पहले वे जंगली जानवरों का शिकार करते थे लेकिन धीरे-धीरे वे उनमें से कुछ काम के जानवरों को खेती के लिए या चौकीदारी के लिए, या शिकार में मदद करने के लिए, अपने साथ रखने लगे। इंसान इन पशुओं को गोश्त के लिए, दूध के लिए, और उनकी खाल से अपने लिए गर्म कपड़े बनाने के लिए भी, पालने लगे थे। अब आधुनिक दुनिया में ऐसी किसी जरूरत के बिना भी लोग अपने शौक से अधिकतर कुत्ते-बिल्लियां पालते हैं, बहुत से लोग तरह-तरह के पंछी और मछलियां पालते हैं, और जिन देशों में कुछ और नस्लों के जंगली जानवरों को पालने की इजाजत है वहां पर लोग और खतरनाक समझे जाने वाले जानवरों को भी पालते हैं। अब चीन से जब कोरोना फैलना शुरू हुआ तो ऐसा माना गया कि वहां के एक शहर का जो पशु बाजार है जहां बड़ी संख्या में अलग-अलग बहुत सी प्रजातियां के पशु-पक्षी बेचे जाते हैं वहां से यह बीमारी फैली और एक मान्यता यह है कि वह चमगादड़ों से इंसानों में आई। अब यह भी जांच का मुद्दा है, और यह बात पूरी तरह से साबित नहीं हुई है, लेकिन पशु-पक्षियों को लेकर इंसान थोड़े से चौकन्ने तो हुए हैं। ऐसे में जब एक खबर एक पुरानी जांच रिपोर्ट पर अभी आती है कि मलेशिया में बहुत से ऐसे इंसान ऐसे भी मिले थे जिन्हें कोरोना वायरस कुत्तों से मिला था, तो यह लोगों को चौंकाने और हड़बड़वाने वाली बात है। हालाँकि ये मामले तीन चार बरस पहले के हैं और उसके बाद से ऐसे मामले कहीं सामने नहीं आए और ना ही यह साबित हुआ कि इंसानों में कुत्तों से आने वाले कोरोना वायरस की वजह से ही किसी की मौत हुई। लेकिन आज जब चारों तरफ सावधानी बरतने की बात हो रही है, जब लोग यह देख रहे हैं कि कोरोना वायरस के कितने और दौर आ सकते हैं और उनके लिए क्या-क्या सावधानी बरती जानी चाहिए, तब यह बात महत्वपूर्ण हो जाती है कि क्या किसी दिन ऐसी नौबत आ सकती है कि पालतू या कारोबारी जानवरों से इंसानों में कोई दूसरा वायरस आने लगे, और वैसे में क्या होगा?
हर कुछ वर्षों में यह देखने मिलता है कि कहीं गायों में, तो कहीं मुर्गियों में, और कहीं पालतू सूअर में कोई संक्रामक बीमारी फैल जाती है, और किसी देश-प्रदेश में या किसी शहर में उन्हें बड़ी संख्या में मारना पड़ता है, और मारकर एक साथ जलाना भी पड़ता है ताकि उनसे संक्रमण दूसरे जानवरों तक ना पहुंचे, और इंसानों तक ना पहुंचे। अब ऐसी नौबत की कल्पना आज थोड़ी सी मुश्किल हो सकती है कि अगर हिंदुस्तान जैसे देश में करोड़ों गाय हैं, इसमें ऐसी कोई बीमारी फैल जाए तो क्या होगा? क्योंकि बहुत सी जगहों पर लोग घरों में ही 1-2 गाय भैंस पाल लेते हैं जिनसे उनकी रोजी-रोटी भी चलती है और बच्चों को दूध भी मिलता है। अब अगर इनके बीच कोई बड़ी बीमारी फैल जाए तो क्या होगा? हिंदुस्तान जैसे देश में आज मुर्गीपालन एक बड़ा संगठित कारोबार हो गया है और अगर बीच-बीच में जिस तरह के संक्रामक रोग पोल्ट्री उद्योग झेलता है वह अगर अधिक भयानक हो गया तो क्या होगा? सूअर और भेड़-बकरियां भी अलग-अलग इलाकों में पाले जाते हैं और इंसान इनके गोश्त का कारोबार के लिए भी इस्तेमाल करते हैं और अपने घर के लिए भी, इनके बारे में भी ऐसी सावधानी की बात तो सोचने की जरूरत है।
लेकिन इन सबसे परे जो सच में घरेलू जानवर माने जाते हैं, और कुत्ते-बिल्लियों को जिस तरह लोग अपने घर में, अपने कमरों के भीतर रखते हैं, उनके बारे में यह सोचने की जरूरत है कि अगर उनके बीच कोई बीमारी फैली और उनसे इंसानों तक बीमारी फैलने का खतरा हो, तो इंसान क्या करेंगे? और क्या ऐसी किसी नौबत के खतरे की तैयारी के हिसाब से लोगों को अब पालतू जानवर रखना कम कर देना चाहिए? हम यह बात अच्छी तरह जानते हैं कि बहुत से लोगों के लिए यह सवाल भी बहुत तकलीफदेह रहेगा और लोग हैरान होंगे कि कोई ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं। लेकिन जब कोरोना से संक्रामक रोग के चलते आज हिंदुस्तान में जगह-जगह यह नौबत आई है कि लोगों ने अपने परिवार के लोगों की लाशों को जलाने और दफनाने से मना कर दिया क्योंकि उन्हें खुद को संक्रमण का खतरा था, और समाज सेवकों या सरकारी कर्मचारियों ने बड़ी संख्या में अंतिम संस्कार किए हैं, जब अपने मां-बाप, अपने भाई-बहन के अंतिम संस्कार, उन्हें आखिरी बार देखने से भी लोग कतराने लगे हैं, तो ऐसे में किसी जानवर से संक्रमण होने पर उस जानवर का क्या किया जाएगा? और दुनिया में आज कोरोना कहां से आया, कैसे फैला, किस पशु-पक्षी से आया, इनमें से किसी बात के पुख्ता सुबूत वैज्ञानिकों को नहीं मिल पाए हैं, ऐसे में यह एक खुला खतरा है कि वायरस कहीं से भी आया हुआ हो सकता है। बहुत से लोगों का यह मानना है कि यह किसी प्रयोगशाला में वैज्ञानिकों का बनाया हुआ वायरस भी हो सकता है जो कि किसी प्रयोग की तरह या किसी हमले की शक्ल में, या दवाओं, चिकित्सा उपकरणों, और वैक्सीन के बाजार को दुहने के लिए फैलाया गया हो। अभी क्योंकि कोरोना वायरस की कुछ भी जानकारी नहीं है कि वह कहां से शुरू हुआ, इसलिए अगले ऐसे किसी खतरे के बारे में सोचना भी मुमकिन नहीं है जो कि कारोबारी या फालतू या घरेलू जानवरों के बीच फैल सकते हैं, फैलाये जा सकते हैं, और वहां से इंसानों के बीच आ सकते हैं। लेकिन कुछ विज्ञान कथाओं को पढक़र लोगों को भविष्य में झांकने का एक मौका मिलता है और आज वर्तमान की तमाम चीजें ऐसी हैं जिनको भूतकाल में किसी न किसी विज्ञान लेखक ने किसी शक्ल में सोचा हुआ था। इसलिए आज यह जरूरी है कि लोग जानवरों से इंसानों में ऐसी बीमारी फैलने के खतरे के बारे में सोचें और यह भी सोचें कि ऐसी नौबत आने पर वह क्या करेंगे?
आज जिन लोगों को पालतू जानवर परिवार के सदस्यों की तरह लगते हैं वह यह भी देख लें कि इंसानी परिवारों के सदस्यों को आखिरी के कई दिन केवल डॉक्टर-नर्स को देखते हुए गुजारने पड़े और उसके बाद सीधे पुलिस के कर्मचारियों ने या समाज सेवकों ने उनका अंतिम संस्कार किया, घरवाले बहुत से मामलों में तो आखरी के कई दिन भी अपने सदस्य को नहीं देख पाए, आखरी बार चेहरा भी नहीं देख पाए, और खुद अंतिम संस्कार भी नहीं कर पाए। ऐसी इंसानी बेबसी के बारे में सोचते हुए लोगों को पालतू जानवरों का भी सोचना चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
एक विश्वसनीय अंतरराष्ट्रीय संगठन की लिविंग प्लेनेट-2020 रिपोर्ट में यह कहा गया था कि दुनिया में 68 फीसदी जैव विविधता पिछले महज 50 वर्षों में खत्म हुई है। दुनिया ने ऐसी बर्बादी इतिहास में इसके पहले कभी नहीं देखी थी। जो जैव विविधता खत्म हुई है उसमें से 70 फीसदी, जमीन को खेती के लायक बनाने के चक्कर में हुई है, जहां से दूसरे पेड़-पौधे, वनस्पति, और जीव-जंतु खत्म दिए गए। जंगलों की पेड़ों वाली जमीनों को खेत बनाने के लिए जिस तरह से पेड़ गिराए गए उससे यह नुकसान हुआ है। और इस नुकसान में से 19 लाख वर्ग किलोमीटर जंगली और अविकसित भूमि ऐसी है जिसे वर्ष 2000 के बाद ही खेती की जमीन में तब्दील किया गया है। जैव विविधता को इंसान जिस रफ्तार से खत्म कर रहे हैं वह भयानक है। विश्व वन्य कोष ने लिविंग प्लैनेट-2020 रिपोर्ट में यह लिखा था कि 1970 से 2016 के बीच 68 फीसदी स्तनधारी, जानवर, पंछी, मछलियां, पौधे, और कीड़े मकोड़े खत्म हो चुके हैं। इंसान जिस रफ्तार से कुदरत को खत्म करने पर आमादा है, और उसमें कामयाब भी है, वह अभूतपूर्व है। इसके पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था इस रिपोर्ट में कहा गया है कि धरती का जो हिस्सा बर्फ से लदा हुआ नहीं है, उसके 75 फीसदी हिस्से में तब्दीली लाई जा चुकी है, और अधिकतर समंदर बुरी तरह से प्रदूषित किए जा चुके हैं, धरती की 85 फीसदी से अधिक गीली जमीन खत्म की जा चुकी है। और जिस रफ्तार से इंसान खाने और ईंधन की अपनी जरूरतों को पूरा करने में लगे हैं, उससे कुदरत पर पडऩे वाला तनाव अंधाधुंध बढ़ चुका है।
इस मुद्दे पर लिखना आज इसलिए जरूरी लग रहा है कि मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र से ऐसी खबर है कि वहां के जंगलों में 20-25 साल पुराने पेड़ों में रसायन के ऐसे इंजेक्शन लगाए जा रहे हैं जिनसे उन पेड़ों से मिलने वाले गोंद में बढ़ोत्तरी हो जाए। कुछ नस्लों के पेड़ों में गोंद पैदा होता है और उन इलाकों के आदिवासी उन्हें इक_ा करके, बेचकर कुछ कमाई करते आए हैं। लेकिन परंपरागत आदिवासी समुदाय ने कभी पेड़ों को ऐसा नुकसान नहीं पहुंचाया था, जैसा कि अभी शहरी कारोबारियों के झांसे में आकर वे भी कर रहे हैं। एक रिपोर्ट में अभी यह पता लगा है कि मध्यप्रदेश के जंगलों में एक समय 18 प्रजाति के पेड़ों से गोंद मिलता था जो अब घटकर कुल 7 प्रजाति के पेड़ों तक रह गया है क्योंकि बाकी प्रजातियों में रसायनों के इंजेक्शन लगा-लगा कर उन्हें दुहकर उन्हें खत्म कर दिया गया है और उन पेड़ों से अब कुछ नहीं मिलता।
लोगों को अच्छी तरह मालूम है कि किस तरह डेयरी के जानवरों में, गाय और भैंसों में, हार्मोन के इंजेक्शन लगाकर उनका दूध बढ़ाया जाता है। और इस दूध के चक्कर में गांव-गांव के अनपढ़ मवेशी पालक भी इनका इस्तेमाल सीख लेते हैं, और यह हार्मोन दूध के साथ लोगों के पेट तक भी पहुंच रहा है, उन्हें बर्बाद कर रहा है। मध्यप्रदेश की अभी की रिपोर्ट बताती है कि इस तरह के गोंद से लोगों को किस किस्म का नुकसान पहुंच रहा है क्योंकि रसायनों के इंजेक्शनों से गोंद तो दो-तीन गुना अधिक मिलने लगता है, लेकिन उस गोंद का इस्तेमाल गर्भवती महिलाओं के लड्डू में करने पर वह इसका नुकसान झेलती हैं। खेती में फसलों से लेकर सब्जियों तक लगातार जिस किस्म से कीटनाशकों का उपयोग बढ़ रहा है, फसल बढ़ाने वाली दूसरी दवाइयों का इस्तेमाल बढ़ रहा है, वह अपने आप में भयानक है, और वह पंजाब जैसे राज्य में कुछ इलाकों में कैंसर में कई गुना बढ़ोत्तरी की शक्ल में सामने आ भी चुका है। बहुत सी ऐसी रिपोर्ट आई हैं जिनमें पंजाब के एक इलाके से राजस्थान के किसी कैंसर अस्पताल में जाने वाले मरीजों की भीड़ की वजह से उस ट्रेन को ही कैंसर एक्सप्रेस कहा जाने लगा है।
अगर धरती के और मानव जाति के इतिहास को देखें तो हाल ही में बहुत चर्चा में आई कुछ बड़ी जानकार किताबें बतलाती हैं कि किस तरह पिछले 100 बरस में ही धरती की इतनी अधिक तबाही की गई है जितनी कि उसके पहले के 5-10 लाख बरस में भी नहीं हुई थी। और दुनिया की सरकारें आज इस पर बात भी करना नहीं चाहतीं, खासकर जो सबसे ताकतवर, सबसे विकसित, सबसे संपन्न, और सबसे अधिक भौतिक संसाधनों वाले देश हैं, वह तो इस बारे में बिल्कुल भी बात करना नहीं चाहते। पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने तो पेरिस क्लाइमेट समिट से अमेरिका को बाहर ही कर दिया था। मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति ने थोड़ा सा नरम रुख दिखाया है लेकिन सवाल यह उठता है कि दुनिया में सामानों की प्रति व्यक्ति खपत में जो अमरीका सबसे अधिक आगे है, क्या उस देश में कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति खपत को घटाकर एक गांधीवादी किफायत की बात भी कर सकता है? कैसी अजीब बात है कि गांधी को गांधी और महात्मा बने हुए अभी कोई सौ-डेढ़ सौ बरस ही हुए हैं। और इन्हीं सौ-डेढ़ सौ बरसों में गांधी की किफायत की, कमखर्च की, सादगी की, और स्थानीय तकनीक, ग्रामीण रोजगार, कुटीर उद्योग जैसी तमाम नसीहतों को अनसुना करके दुनिया जिस रफ्तार से शहरीकरण और चीजों की खपत की तरफ बढ़ी है उसने धरती को इस हद तक तबाह किया है। सच तो यह है कि गांधी ने जब से किफायत की बात शुरू की है उसके बाद की तबाही ही सबसे बड़ी तबाही है, गांधी को अनसुना करना ही तबाही की शुरुआत रही। अभी तक गांधी को सालाना जलसों में तो याद किया जाता है, लेकिन इन सालाना जलसों से परे गांधीवाद की कोई जगह नहीं रह गई है।
सरकारें और समाज, व्यक्ति और परिवार, इनमें से किसी में भी अपनी खपत को कम करने की कोई चाह नहीं है, खपत को कम करने की बात के लिए कोई बर्दाश्त भी नहीं है। लोग ऐसी हड़बड़ी में हैं कि जरा सी कमाई बढ़ाने के लिए वे धरती के उन पेड़ों को खत्म कर दे रहे हैं, जिन पेड़ों ने इंसानों को जिंदा रखा हुआ है। और अमेरिका से लेकर हिंदुस्तान तक, और हिंदुस्तान के प्रदेशों तक, अधिकतर सरकारों का हाल यह है कि उन्हें 5 साल के या 4 साल के अपने कार्यकाल से अधिक की कोई फिक्र नहीं है, उन्हें अगर यह लगता है कि जैव विविधता, धरती, पर्यावरण, या कुदरत की तबाही से अगले चुनाव के पहले कोई फर्क नहीं पडऩे वाला है तो भला उन्हें इसकी फिक्र क्यों करना? दूध का जहर अब पेड़ों तक चले गया, गोंद के साथ वह गर्भवती महिलाओं तक आ रहा है, और जैव विविधता इस रफ्तार से खत्म हो रही है कि वह धरती पर दोबारा लौटने वाली नहीं है। लोगों को अपने बच्चों को तरह-तरह के कीट पतंग भी दिखा देना चाहिए क्योंकि हो सकता है कि उनके बड़े होने तक वे नस्लें खत्म ही हो जाएं और महज तस्वीरों में रह जाएं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी देश के कुछ राज्य चक्रवाती तूफान का सामना कर ही रहे हैं, और जिस वक्त हम यह लिख रहे हैं, उस वक्त भी बंगाल, उड़ीसा जैसी जगहों पर लोगों को बचाने का काम चल रहा है। लेकिन पिछले 2 बरस से तूफानों का सामना करने वाले बंगाल की त्रासदी यह भी है कि उसके इन 2 वर्षों के बजट का 25 फीसदी हिस्सा चक्रवाती तूफानों से हुए नुकसान में निकल गया। ऐसा भी नहीं कि इनका अंदाज लगाकर कोई राज्य इनके लिए पर्याप्त इंतजाम बजट में कर सकता है. बंगाल ने प्राकृतिक विपदाओं के लिए 12 सौ करोड़ से अधिक बजट में रखा भी था, लेकिन 2 वर्षों में इन तूफानों से बंगाल में 58 हजार करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ है जो कि बजट प्रावधान के करीब 50 गुना है। अब सवाल यह उठता है कि देश का कौन सा राज्य ऐसा है जो अपने एक चौथाई बजट को ऐसे तूफानों के लिए या ऐसी प्राकृतिक विपदाओं के लिए रख सके? और ऐसे ही मौकों पर यह केंद्र सरकार की जिम्मेदारी आती है कि वह प्राकृतिक विपदा से प्रभावित राज्यों को उबरने में मदद करें। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अभी तूफान प्रभावित गुजरात के हवाई दौरे पर गए भी थे और उन्होंने गुजरात के लिए 1000 करोड़ रुपए मंजूर भी किए थे। इसी वक्त देश के कुछ और प्रदेश भी तूफानों का सामना कर रहे हैं, उसका नुकसान झेल रहे हैं और यह नुकसान इतना बड़ा है कि उसमें अगर केंद्र सरकार से गुजरात की तरह हजार करोड़ रुपए की कोई मदद मिलती भी है, तो भी वह मदद बिल्कुल ही नाकाफी रहेगी।
ना सिर्फ बंगाल और उड़ीसा, बल्कि कुछ और राज्य इस तूफान से प्रभावित हैं, और हर बरस कुछ राज्य बाढ़ से भी प्रभावित होते हैं। उनका नुकसान छोटा नहीं होता है। ऐसे में देश में केंद्र सरकार की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है क्योंकि अकाल, बाढ़, भूकंप, या तूफान, यह सब राष्ट्रीय स्तर की प्राकृतिक आपदाएं हैं, जिन पर किसी राज्य सरकार का कोई बस नहीं चलता और इनसे अगर बड़ा नुकसान होता है, तो किसी राज्य सरकार के हाथ में इतनी ताकत भी नहीं रहती कि वह अपने लोगों की भरपाई कर सकें। ऐसे में केंद्र सरकार को ही अपने बड़े संसाधनों में से ऐसे राज्य सरकारों को नुकसान से उबरने की मदद करनी चाहिए और भारत में या लंबी परंपरा रही भी है। अब आज केंद्र सरकार कोरोना के वैक्सीन को लेकर राज्य सरकारों के साथ जिस तरह का बर्ताव कर रही है उसे देखते हुए प्राकृतिक विपदा में उससे बड़ी मदद की उम्मीद करना पता नहीं सही होगा या नहीं। यह भी जरूरी नहीं है कि आने वाले वर्षों में मोदी सरकार या कोई और केंद्र सरकार राज्यों की मुसीबत के वक्त उनके साथ खड़े रहे। इसलिए जब तक भारत के संघीय ढांचे में केंद्र के ऊपर अधिक निर्भर रहने की गारंटी ना लगे, राज्यों को अपने साधनों को बचा कर रखना चाहिए। ना अकाल पर किसी का बस रहेगा, ना जरूरत से अधिक बारिश में फसल के डूब जाने पर, और ना ही बाढ़ या तूफान पर।
हम राज्यों को पहले भी यह सुझाव देते आये हैं कि उन्हें अपने खर्चे घटाने चाहिए और अधिक किफायत बरतनी चाहिए। अब पश्चिम बंगाल की है ताजा मिसाल सामने हैं कि किस तरह 2 बरस के बजट का एक चौथाई हिस्सा केवल तूफान के नुकसान में निकल गया। बाकी राज्यों को भी यह सोचना चाहिए कि कोई ऐसी प्राकृतिक विपदा आए तो क्या होगा? और प्राकृतिक विपदा की ही बात नहीं है, सेहत की जो मुसीबत आज आई हुई है और कोरोना ने जिस तरह राज्यों की कमर तोड़ी है, तो अभी तो राज्य सरकारें सिर्फ मौतों को रोकने में लगी हुई हैं, लाशों को जलाने के इंतजाम में लगी हुई हैं, वैक्सीन के इंतजाम में लगी हुई है। उनके पास अभी अपने राज्य के बजट में क्या बचा है, क्या डूबा है, यह देखने का समय भी नहीं है। लेकिन बंद कमरों में बैठकर जो फाइनेंस विभाग काम करते हैं, उनकी रातों की नींद हराम हुई होगी कि जब लॉकडाउन से कारोबार बंद है टेक्स आ नहीं रहा है और उसी वक्त इलाज, बचाव और दीगर चीजों पर जितना खर्च हो रहा है, वह आएगा कहां से?
इसलिए लोगों को सबक लेना चाहिए कि राज्य सरकारों के पास जो बजट है उसमें अप्रत्याशित खर्चों के लिए इंतजाम बढ़ाएं। आज कोरोना वायरस है, कल हो सकता है कोई कंप्यूटर वायरस आए, और फिर किसी और किस्म की संक्रामक बीमारी फैले, या फसलों में कोई बीमारी लग जाए, या सूखा पड़ जाए। बहुत किस्म से मुसीबत आ सकती हैं। बंगाल में तो पहले चुनाव की मुसीबत आई, उसके बाद कोरोनावायरस, और उस बीच ही आज तूफान की यह मुसीबत आई है। तमाम राज्य सरकारों को अपने बलबूते मुसीबतों को झेलने की तैयारी के हिसाब से अगला बजट बनाना चाहिए और उसमें शायद एक चौथाई हिस्सा अप्रत्याशित मद में रखना समझदारी होगी।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान की इन दिनों की खबरों में रामदेव अचानक धूमकेतु की तरह आया और छा गया। पिछले महीनों में कभी-कभी रामदेव के उटपटांग दावे, फर्जी बातें, और अपनी दवाओं के बाजार बढ़ाने की दिखती हुई हरकतें ऐसी थीं, जिन्होंने कई दिनों तक खबरों पर कब्जा करके रखा। लेकिन अब बात उससे आगे बढ़ गई। अब रामदेव ने आयुर्वेद और एलोपैथी के बीच बहस छिड़वा दी है। यह शास्त्रार्थ कुछ अधिक बड़ा हो गया है, और इसमें एलोपैथी डॉक्टरों का देश का सबसे बड़ा संगठन इंडियन मेडिकल एसोसिएशन भी सामने आया है जिसके डॉक्टर आए दिन देश में कहीं ना कहीं कोरोना मरीजों का इलाज करते हुए मारे जा रहे हैं।
खबरें जो कि ऑक्सीजन की कमी, वैक्सीन की कमी, इंजेक्शनों की कमी, तमाम चीजों की कालाबाजारी, दुनिया के छोटे-छोटे कमजोर और गरीब देशों से भारत को आ रही मदद से भरी हुई थीं, और गंगा तट पर रेत में दफनाए गए हजारों लोगों की तस्वीरें दिल दहला रही थीं। ऐसे में खबरों को एक रामदेव ने पूरी तरह अपनी तरफ मोड़ लिया और देश के लोगों के बीच हिंदूवादी, राष्ट्रवादी, भगवावादी लोग आयुर्वेद के रामदेव ब्रांड के साथ एकजुट हो गए हैं। रामदेव की कंपनी का मालिक बालकृष्ण इसे रामदेव की नहीं, बल्कि आयुर्वेद की आलोचना करार देते हुए देश में एलोपैथी के रास्ते ईसाईकरण का आरोप लगाने लगा। तो अब यह एक नया विवाद जुड़ गया है कि क्या एलोपैथी हिंदुस्तानियों को ईसाई बनाने का षडय़ंत्र है? इसके हिसाब से तो एलोपैथी के कैंसर सर्जन प्रवीण तोगडिय़ा को भी विश्व हिंदू परिषद का काम करने के बजाए किसी ईसाई मिशनरी का काम करना था क्योंकि वे तो पेशेवर एलोपैथिक सर्जन रहे, और उन्होंने भी कभी यह आरोप नहीं लगाया कि एलोपैथी लोगों को ईसाई बना रही है। फिर देश के तकरीबन हर बच्चे ने पोलियो ड्रॉप लिए हुए हैं जो कि एलोपैथी के मार्फत बनी हुई वैक्सीन है, और उस हिसाब से तो हिंदुस्तान में कोई हिंदू आबादी बचना ही नहीं था और हर बच्चे को ईसाई हो जाना था, लेकिन वह भी नहीं हुआ। अब सवाल यह है कि खबरों का सैलाब जिन मुद्दों को लेकर चल रहा था उन मुद्दों को एकदम से मटियामेट करते हुए जो नया एजेंडा मीडिया को थमा दिया गया है और टीवी की तमाम बहसों में पर्दे का आधा हिस्सा भगवा हो गया है और बाकी आधे हिस्से में दूसरे डॉक्टर आ गए हैं। हिंदुस्तान की हजारों बरस पहले की आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति आज रामदेव के हाथों में थमा दी गई है, कि मानो रामदेव ने ही पतंजलि के कारखाने में इस चिकित्सा पद्धति का आविष्कार किया है। चिकित्सा पद्धति को धर्म से जोड़ देना धर्म को राष्ट्रीयता से जोड़ देना राष्ट्रीयता को एक रंग दे देना और कुल मिलाकर यह साबित करने का एक सिलसिला चल रहा है कि जो-जो रामदेव को पसंद नहीं कर रहे हैं वह सब गद्दार देश को ईसाई बनाने पर आमादा हैं, वे हिंदुस्तान की संस्कृति, इतिहास, और गौरव का अपमान करने में लगे हुए लोग हैं।
सोशल मीडिया पर कुछ लोगों ने इस बात को लिखा है कि यह सब कुछ बहुत अनायास नहीं हो रहा है, इसे सोच-समझ कर किया जा रहा है और देश के बुनियादी मुद्दों की तरफ से ध्यान को भटकाने के लिए, चर्चा को दूसरी तरफ मोडऩे के लिए किया जा रहा है। अब अगर देखें तो हकीकत में कुछ ऐसा ही होते दिख रहा है, आज देश भर के टीकाकरण केंद्र सूख गए हैं, किसी के लिए कोई टीके बचे नहीं हैं, न सरकारों के पास, न बाजार में, न कारखानों में। और जिन विदेशी वैक्सीन कंपनियों की तरफ केंद्र सरकार ने हिंदुस्तानी प्रदेशों को धकेल दिया है, उन्होंने राज्य सरकारों से सौदा करने से मना कर दिया है। ऐसी भी बात नहीं कि केंद्र सरकार के जानकार अफसरों को पहले से इस बात की जानकारी नहीं थी, लेकिन ग्लोबल टेंडर बुलाकर, कंपनियों से बात करके, इस जानकारी को उन कंपनियों से पाने में राज्य सरकारों का एक-दो महीने का वक्त तो निकल ही गया, जो बात पहले से केंद्र सरकार की फाइलों में दर्ज थी । बात महज वक्त की रहती है, जब लोगों की भावनाएं भडक़ी हुई हैं, लोग उत्तेजित हैं, लोगों के मन में सरकार के खिलाफ आक्रोश है, उस वक्त लोगों को कभी कंगना थमा दिया जाए, तो कभी रामदेव की बूटी से राष्ट्रवाद का आत्मगौरव खड़ा कर दिया जाए, और अब तो सबसे चार कदम आगे बढक़र तथाकथित आचार्य बालकृष्ण ने एक नया आविष्कार किया है कि एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति हिंदुस्तानियों को ईसाई बनाने की साजिश है। अभी इतनी बड़ी साजिश को देखते हुए जो धर्मालु हिंदू लोग हैं, उनको तो इस महामारी के बीच भी एलोपैथी का इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए, क्योंकि इससे तो उनका धर्म ही खतरे में पड़ जाएगा। और यह बात भी बड़ी अजीब है कि आजादी के बाद के इन 70-75 वर्षों में यह पहला ही मौका है जब हिंदू इतने अधिक खतरे में हैं। जब ईसाई महिला से शादी करने वाले राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, और ईसाई महिला को बहू मंजूर करने वाली इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं, तब भी देश के हिंदू इतने खतरे में नहीं थे कि तकरीबन पूरी आबादी के ईसाई हो जाने का एक खतरा रहा हो। लेकिन आज तो हालात बहुत भयानक हैं, आज तो देश की पूरी हिंदू आबादी खतरे में हैं क्योंकि पूरी हिंदू आबादी को कोरोना वैक्सीन लगाने की बात की जा रही है, जो कि एलोपैथी ने बनाई है, कोरोना का इलाज जो चल रहा है वह भी एलोपैथी से ही हो रहा है, केंद्र सरकार के तमाम अस्पताल, राज्य सरकारों के सारे अस्पताल केवल एलोपैथी का इस्तेमाल कर रहे हैं। तो बकौल तथाकथित आचार्य बालकृष्ण इस देश और इसके प्रदेशों की सारी सरकारें लोगों के ईसाईकरण की साजिशों में लग गई हैं ! इतने खतरे में तो हिंदू इसके पहले कभी नहीं थे।
आज इस किस्म की जो चर्चाएं खबरों और सोशल मीडिया के ऊपर खूब सारे भगवा पतंजलि गोबर की तरह फ़ैलकर बिखर गई हैं कि नीचे न वैक्सीन की कमी के आंकड़े दिख रहे, न रेत में दबी लाशें दिख रहीं। यह पूरा सिलसिला जनधारणा को बुनियादी मुद्दों से हटाकर पाखंडी मुद्दों की ओर ले जा रहा है, उन्हीं में उलझाकर रख रहा है और उसके अलावा किसी और को बात पर सोचने के लिए लोगों को मजबूर करना इसे बंद ही कर दिया है। अब यह लोगों को सोचना है कि सरकार की हर परेशानी के वक्त पर ऐसे मुद्दे निकलकर क्यों आते हैं? क्यों टूलकिट जैसा मुद्दा आता है? क्यों देश भर में यह संदेश फैलता है कि यह टूलकिट मोदी सरकार के खिलाफ कांग्रेस की बनाई हुई है, या कांग्रेस को बदनाम करने के लिए मोदी सरकार के मंत्रियों की यह साजिश है? हर दो-चार दिन के भीतर कोई ना कोई ऐसा एक मुद्दा आ रहा है जो दो-चार दिन छा रहा है. कल से सोशल मीडियाजीवी लोग दहशत में हैं कि क्या ट्विटर, फेसबुक हिंदुस्तान में बंद हो रहे हैं! अब यह लोगों को सोचना है कि उनकी बुनियादी जरूरत क्या है उन पर कौन से बुनियादी खतरे छाए हुए हैं, यह उन्हें सोचना है।
यह बात तय है कि रामदेव के खड़े किए हुए विवादों की और उसके खड़े किए हुए दावों की जिंदगी आसमान से गिरते धूमकेतु से अधिक नहीं होती। रामदेव के दावे शीघ्रपतन के शिकार रहते हैं, और इसका इलाज वह अपनी तमाम दवाओं से भी नहीं कर पाया है. यह वही आदमी है जो 35 रुपये लीटर में पेट्रोल दिलवाने वाला था, 35 रुपये में डॉलर दिलवाने वाला था, हर खाते में विदेश से लाए गए काले धन से 15 लाख रुपए दिलवाने वाला था, और यह तमाम बातें इसने रजत शर्मा की अदालत में हलफनामे पर कही थी, जिसके वीडियो अभी भी चारों तरफ फैले हुए हैं। तो ऐसा व्यक्ति आज आयुर्वेद को लेकर दावे कर रहा है, ऐसा व्यक्ति बिना किसी भी पद्धति का चिकित्सक रहे हुए हिंदुस्तान की सबसे अधिक प्रचलित, इस्तेमाल में आ रही, और जान बचाने वाली एलोपैथिक पद्धति के ऊपर सवाल खड़े कर रहा है। लोगों को यह सोचना है कि क्या एक पाखंडी कारोबारी अपने दम पर इतना कुछ कर रहा है या इस मौके पर उसकी इस बकवास के पीछे कोई और ताकतें हैं और इस बकवास से वह कुछ लोगों की मदद कर रहा है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी छत्तीसगढ़ में एक आईएएस अफसर ने लॉकडाउन लागू करवाने के दौरान एक बेकसूर राह चलते नौजवान को पीटा और पिटवाया, इसे लेकर जब बवाल बहुत अधिक हुआ तो इस राज्य के आईएएस अफसरों के संगठन ने इस अफसर को समझाईश दी, इसे उसे युवक का तोड़ा गया मोबाइल बदल कर देने और उसके परिवार से बात करने के लिए कहा। लेकिन अफसरों के इस बड़े एसोसिएशन के पास इसके आगे कुछ नहीं था। अपने सदस्य की इस आपराधिक हरकत पर एसोसिएशन चुप रहा, उसने उस आम नौजवान के कानूनी अधिकारों के बारे में कुछ नहीं कहा। और महज एक समझाईश देकर अपनी जिम्मेदारी खत्म कर ली। नतीजा यह निकला कि एक जुर्म अपने सहकर्मियों के एसोसिएशन में एक चुप्पी के रास्ते माफी पा गया। एसोसिएशन ने जुर्म पर चुप्पी ली।
लेकिन यह संगठन ऐसा अकेला संगठन नहीं है। हिंदुस्तान में कोई राजनीतिक दल हो, कोई धार्मिक संगठन हो, किसी जाति का कोई संगठन हो, या किसी भी दूसरे पेशे का कोई संगठन हो, उनका हाल तकरीबन इसी किस्म का रहता है। वे अपने सदस्य को बचाने का काम करते हैं, और उनका मकसद यहीं पर पूरा हो जाता है। व्यापारियों के संगठन अपने मेंबरों के नकली सामान बेचने पर कुछ नहीं कहते, टैक्स चोरी पर कुछ नहीं कहते, मिलावटी सामान बेचने पर कुछ नहीं कहते। पत्रकारों के संगठन अपने बीच के ब्लैकमेलर उजागर हो जाने के बाद भी उनके बारे में कुछ नहीं कहते, मीडिया के कारोबार के बेजा इस्तेमाल के बारे में कुछ नहीं कहते, लेकिन अपने किसी सदस्य के खिलाफ सरकार या किसी मुजरिम की तरफ से कोई कार्यवाही हो जाए, तो वे अपने सदस्य को बचाने के लिए लग जाते हैं। कुछ ऐसा ही काम डॉक्टरों के संगठन करते हैं, ऐसा ही काम नर्सिंग होम एसोसिएशन करता है, और जहां कहीं कोई संगठन या संघ है, उसकी प्राथमिक बुनियादी और अकेली जिम्मेदारी अपने लोगों के हर सही और गलत काम को बचाना रह जाती है। नतीजा यह होता है कि किसी संगठन की कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं रह जाती, पेशे के लिए कोई ईमानदारी नहीं रह जाती, और हर संगठन एक बाहुबली के अंदाज में काम करने लगता है, और आमतौर पर बेइंसाफी का मददगार हो जाता है।
सच तो यह है कि अगर लोग सही काम करें तो उन्हें किसी संगठन की ऐसी जरूरत भी नहीं रहती है। लेकिन जब काम गलत रहते हैं उस वक्त अपने इर्द-गिर्द अपने तबके के लोगों की भीड़ जुटा लेना एक किस्म की आत्मरक्षा है और इसकी बहुत ही खराब मिसालें हिंदुस्तान में जगह-जगह देखने मिलती हैं. जम्मू में एक छोटी सी खानाबदोश बच्ची के साथ एक मंदिर में पुजारी समेत आधा दर्जन से अधिक लोगों ने बार-बार सामूहिक बलात्कार किया, और उस दौरान वह बच्ची मर गई, उसे मार डाला, और जब यह पूरा मामला सबूतों सहित उजागर हो गया, तो जम्मू के हिंदुओं की फौज इन बलात्कारियों को बचाने के लिए तिरंगे झंडे लेकर जुलूस निकालने लगी। उस भीड़ की फिक्र यह थी कि एक गरीब मुस्लिम और खानाबदोश बच्ची के बलात्कार और कत्ल में ऐसा क्या है कि उसमें इतने हिंदुओं को सजा दिलाने की बात की जाए? इस बच्ची की तरफ से जो हिंदू महिला वकील केस लड़ रही थी उसे तरह-तरह से हिंसक धमकियां दी गई, उसके खिलाफ अनर्गल बातें की गई, लेकिन वह डटी रही और पुजारी सहित तमाम बलात्कारियों को सजा हुई। बलात्कारियों के हिंदू होने की वजह से हिंदू एकजुट हो गए, और उन्होंने देश के तिरंगे झंडे की आड़ में बलात्कारियों को बचाने की कोशिश भी की। लोगों को याद होगा कि इन्हीं बलात्कारियों को बचाते हुए उस वक्त के जम्मू-कश्मीर मंत्रिमंडल के एक या दो हिंदू मंत्रियों को भी इस्तीफा देने की नौबत आई थी और वहां पर भाजपा भी इनको बचाने के लिए जुट गई थी।
देश में जगह-जगह ऐसा देखने को मिलता है, कहीं पर जाति के आधार पर, कहीं धर्म के आधार पर मुजरिम को बचाने की कोशिश होती है। मुजरिमों से उनकी जाति और उनके धर्म के लोगों को इतनी मोहब्बत होती है कि बहुत से राजनीतिक दल अपने इलाके में दबदबा रखने वाले मुजरिमों को टिकट देते हैं, चुनाव लड़वाते हैं और संसद या विधानसभा में ले जाते हैं, मानो लाखों वोटरों की उस सीट पर उस पार्टी को कोई एक भी शरीफ ना दिख रहा हो। ऐसा ही काम कर्मचारी संगठन करते हैं जिनके बीच का कोई कामचोर या भ्रष्ट कर्मचारी कभी कोई नोटिस पा जाए, तो उस नोटिस के खिलाफ, सरकार या संस्था के खिलाफ, कर्मचारी संघ झंडा-डंडा लेकर टूट पड़ते हैं। लेकिन क्या किसी ने कोई ऐसा कर्मचारी संघ देखा है जिसने अपने सदस्यों के गलत काम पर उन्हें नोटिस दिया हो कि उनकी संस्था का सदस्य रहते हुए इस तरह का काम बर्दाश्त नहीं किया जाएगा ?
हिंदुस्तान में बहुत से कर्मचारी संघ राजनीतिक दलों से जुड़े हुए हैं, उनकी प्रतिबद्धता और अधिक रहती है और अपनी पार्टी की सरकार रहने पर वह मुंह बंद करके बैठे रहते हैं। सरकार के खिलाफ कुछ नहीं बोलते, ठीक उसी तरह जिस तरह कि वे अपने सदस्य के खिलाफ कुछ नहीं बोलते। अब सवाल यह है कि किसी तबके के लोग अपने तबके के दूसरे लोगों के गलत कामों पर भी अगर मुंह नहीं खोलेंगे, महज उन्हें बचाने का काम करेंगे, तो फिर ऐसे तबकों की कोई इज्जत क्यों की जाए चाहे वे आईएएस अफसरों के संगठन हों, चाहे पत्रकारों के संगठन हों, या फिर डॉक्टरों के संगठन हों ? और तो और कड़वी हकीकत यह है कि इस देश में अपने लोगों के जुर्म को अनदेखा करने वाले संगठनों से मीडिया के लोग भी यह सवाल नहीं करते कि वे इसे अनदेखा कैसे कर सकते हैं? और क्या किसी संगठन की जिम्मेदारी सिर्फ अपने सदस्य को बचाना है या कि अपने सदस्य से देश को भी बचाना है?
आज देश भर में बहुत से संगठन ऐसे हैं जिनके लोग दवाइयों की कालाबाजारी करते अभी पकड़ाए हैं, नकली दवाइयां बनाकर बेचते हुए पकड़ाए हैं, लेकिन उनकी जाति के संगठनों ने, उनके धर्म के संगठनों ने, उनके कारोबार के संगठनों ने, उनके खिलाफ कुछ नहीं किया, बल्कि उन्हें बचाने के लिए आगे आए। ऐसा लगता है कि देश के अधिकतर संगठन समाज के प्रति जवाबदेह संस्था के बजाय एक गिरोह की तरह काम करते हैं जो कि अपने सदस्य के हर गलत काम को हिफाजत देकर अपने अस्तित्व को बचा कर रखते हैं, ताकि बाकी सदस्यों को यह पता रहे कि उनकी मुसीबत के वक्त उनका संगठन सही-गलत को नहीं तौलेगा बल्कि उनके साथ खड़ा रहेगा। यह सिलसिला बहुत ही खराब है और समाज के भीतर न सिर्फ लोगों की व्यक्तिगत जवाबदेही को लेकर सवाल होने चाहिए, बल्कि संस्थाओं और संगठनों की जवाबदेही को लेकर भी सवाल होने चाहिए। वरना एक मुजरिम अकेले जितना ताकतवर हो सकता है, एक संगठन के सदस्य के रूप में वह उससे बहुत अधिक ताकतवर होता है। जिस दिन देश के सबसे बड़े मुजरिमों को धर्म के आधार पर, जाति के आधार पर बचाने का काम होने लगता है, उस दिन इंसाफ के जिंदा रहने की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती क्योंकि संगठनों की ताकत अपने सदस्य मुजरिमों की ताकत के साथ मिलकर किसी को भी कुचलने का बाहुबल रखती हैं, इस सिलसिले के खिलाफ सार्वजनिक चर्चा होनी चाहिए और यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
इस मुद्दे पर लिखने की आज जरूरत इसलिए लग रही है कि पिछले कई हफ़्तों से देश का एक सबसे बड़ा पाखंडी, बाबा कहलाने वाला रामदेव, जिस तरह से देश में विज्ञान के खिलाफ अविश्वास फैलाने में लगा हुआ है, जिस तरह चिकित्सा विज्ञान की आधुनिक पद्धति पर लोगों का विश्वास खत्म करने में लगा हुआ है, और उसके खिलाफ कोई आयुर्वेदिक डॉक्टर कुछ बोलने को तैयार नहीं हैं, जबकि वह आयुर्वेद की साख चौपट कर रहा है। यह रामदेव ना तो आयुर्वेदिक डॉक्टर है, ना आयुर्वेद का ज्ञाता है, वह केवल एक कारोबारी-कारखानेदार है और आयुर्वेद का नाम लेकर, उग्र राष्ट्रवाद भडक़ाकर, देशभक्ति का फतवा देकर, लोगों को खतरे में धकेल रहा है। इस महामारी के बीच में लोगों को महामारी से मरने के लिए तैयार कर रहा है, और उसके खिलाफ न तो कोई योग वाले संगठन कुछ बोल रहे, न आयुर्वेद चिकित्सक उसके खिलाफ कुछ बोल रहे, और न ही वह भाजपा-शासित केंद्र सरकार कुछ बोल रही जिसे इस रामदेव से हर चुनाव के वक्त समर्थन मिलता ही है। ऐसा हिन्दू क्या महामारी एक्ट के तहत जुर्म करने के बाद भी बचाने के लायक है कि वह हिन्दू है? अरे उसके झांसे में बिना वैक्सीन, बिना एलोपैथिक दवाओं के जो लोग मरेंगे, उनमें अधिकतर बचने लायक हिन्दू ही होंगे जो झांसे में मारे जायेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर हाईकोर्ट ने आज राज्य सरकार को एक आदेश दिया है जिसमें आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं द्वारा दायर की गई एक याचिका पर दो महीने के भीतर निपटारा करने कहा है। दरअसल छत्तीसगढ़ की आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को सरकार ने यह निर्देश दिए हैं कि वे अपने मोबाइल पर सरकार के कुछ एप्लीकेशन डाउनलोड करके रखें और उसके मार्फत डाटा भेजें। ऐसा न करने पर उनका मानदेय रोक भी दिया जाएगा। बहुत कम मानदेय पाने वाली आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और उनकी सहायिकाओं का कहना है कि न तो उनके लिए नया मोबाइल स्मार्टफोन खरीद नामुमकिन है, और न ही इंटरनेट के लिए मोबाइल का रिचार्ज कराना संभव है. उनका यह भी कहना है कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ता बहुत दूर-दूर के गांवों में जाकर भी काम करती हैं, जहां पर नेटवर्क की समस्या रहती है। उन्होंने सरकार के इस आदेश को महिला विरोधी और अव्यवहारिक बताया है।
सरकार का यह अकेला आदेश या फैसला ऐसा नहीं है जो कि डिजिटल तकनीक पर जरूरत से अधिक भरोसा करने वाला, और अपने कर्मचारियों, छात्र-छात्राओं, और आम लोगों को डिजिटल तकनीक पर आश्रित करने वाला है। आज जब लॉकडाउन होता है, तो देश के बहुत सारे राज्य एक जिले से दूसरे जिले तक जाने के लिए ई-पास लागू कर रहे हैं, जिसके लिए स्मार्टफोन पर ही आवेदन करना है, अर्जी भेजना है, और स्मार्टफोन पर ही ई-पास आता है जिसे जिले की सरहद पर दिखाना है। अगर किसी को कोरोना हुआ है और उसे घर पर आइसोलेट किया जा रहा है तो उसे स्मार्टफोन के एक एप्लीकेशन पर अपने को रजिस्टर करना है, उसमें दिन में 4 बार अपना तापमान भेजना है, अपनी ऑक्सीजन की रीडिंग भेजनी है, और जब आइसोलेशन और क्वॉरंटीन पूरा होता है तब उन्हें डिजिटल सर्टिफिकेट भी स्मार्ट फोन पर आता है। आज लोगों को छोटे-छोटे से काम के लिए निजी डिजिटल उपकरणों पर निर्भर कर दिया गया है, उनके पास ऐसे उपकरण भी होना चाहिए, और इंटरनेट वाला कनेक्शन भी होना चाहिए। जब किसी प्रदेश में एक महीने तक लगातार लॉकडाउन चल रहा है, तो लोग कहां से ऐसे फोन खरीद सकते हैं, कैसे उन फोन को चार्ज करवा सकते हैं, और कैसे इंटरनेट पैकेज खरीद सकते हैं यह सोचने की बात है? आज तो हालत यह है कि अगर आपके पास स्मार्टफोन और इंटरनेट नहीं है, तो आप कोरोना वैक्सीन की कतार में भी नहीं लग सकते।
परिवारों में अगर एक स्मार्टफोन है, तो घर के कामकाजी व्यक्ति से उसका दफ्तर, या उसका मालिक, उम्मीद करता है कि वह व्हाट्सएप पर भेजे गए हुकुम देखे हैं और मानते चले। घर में अगर एक से अधिक बच्चे पढऩे वाले हैं तो उनकी ऑनलाइन क्लास चलती है, और अब तो ऑनलाइन पढ़ाई के साथ-साथ ऑनलाइन डांट-फटकार भी चलने लगी है। मामूली परिवारों के बच्चे इन सारी तकनीक की कमी से वैसे भी हीनभावना से घिरकर चल रहे हैं, और परिवार के भीतर एक तनाव भी खड़ा हो रहा है कि फोन कब किसके पास रहे। गरीब परिवारों के भीतर भी मोबाइल फोन को लेकर अलग-अलग सदस्यों के बीच एक निजता बनाए रखने की कोशिश होती है लेकिन वह भी फोन के ऐसे पारिवारिक या सामुदायिक इस्तेमाल से खत्म हुई जा रही है। अब विश्वविद्यालयों से लेकर कई परीक्षा बोर्ड तक इस चक्कर में लगे हैं कि कैसे ऑनलाइन परीक्षा ली जाए। जाहिर है कि ऐसे में जिन बच्चों के पास तेज रफ्तार इंटरनेट कनेक्शन नहीं है, जिनके पास खुद का कम्प्यूटर नहीं है, जिनके पास अपने लिखे हुए स्कैन करने की सहूलियत नहीं है, उनका बहुत अधिक समय बर्बाद होगा। और जिनके पास ये सारी सहूलियत हैं, उनका काम बेहतर होगा, जल्दी होगा।
यह एक डिजिटल खाई इस देश में पहले से चले आ रहे संपन्न और विपन्न के बीच, संचित और वंचित के बीच, और बढ़ा दी गई है, स्मार्टफोन वाले लोग स्मार्ट साबित होंगे और जिनके पास स्मार्टफोन नहीं हैं वे शायद भोंदू गिने जाएंगे। जिनके पास तेज रफ्तार इंटरनेट कनेक्शन है वे बेहतर नंबर लाने की अधिक काबिलियत रखेंगे, जैसे कि राजस्थान के कोटा में जाकर दाखिला इम्तिहान की तैयारी करने वाले लोग हो गए हैं। सरकारों ने संक्रमण से बचने के लिए और लॉकडाउन के वक्त का इस्तेमाल करने के लिए पढ़ाई से लेकर जनता के दूसरे कामकाज तक और अपने खुद के अमले के भीतर के कामकाज तक स्मार्टफोन कम्प्यूटर और इंटरनेट का इस्तेमाल तो बढ़ा दिया है, लेकिन आज देश की आधी आबादी के पास न यह सहूलियत है, और न ही वह फटेहाली और भुखमरी के इस दौर में यह नई सहूलियत जुटा सकती।
इसलिए आज सरकार में बैठे हुए बड़े-बड़े अफसर अपने मंत्रियों को यह समझाने में कामयाब हो जाते हैं कि डिजिटल तकनीक ऐसे बहुत से लोगों का भला होगा और उनका वक्त बर्बाद होने से बचेगा, तो जनता से जुड़े हुए मंत्रियों को कम से कम यह भी समझना चाहिए कि इससे आबादी के एक हिस्से का तो वक्त बचेगा, लेकिन आबादी के एक बड़े हिस्से का उससे इतना नुकसान होगा कि वह दूसरों के मुकाबले पिछड़ जाएगा। यह डिजिटल डिवाइड ऐसे देश में एक बड़ी चौड़ी और गहरी खाई पैदा कर रही है और सरकारें जब कभी स्कूल-कॉलेज के बच्चों को, आम लोगों को, और अपने छोटे कर्मचारियों को ऐसी डिजिटल तकनीक पर जाने को मजबूर करते हैं तो उनके पास की सहूलियतों के बारे में भी सोचना चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के एक सरहदी जिले सूरजपुर में कल जब कलेक्टर ने सड़क पर दवा लेने जाते हुए पर्ची सहित मास्क लगाए एक नौजवान को खुद पीटा, उसका फोन उठाकर तोड़ दिया, और अपने पुलिस सिपाहियों से उसे पिटवाया, उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने को कहा, तो यह एक कलेक्टर की एक बहुत ही स्वाभाविक हरकत थी। हिंदुस्तान में आईएएस अफसर अधिकतर इसी ख़ुशफ़हमी में जीते हैं कि देश में ताकत तीन ही हाथों में होती है, पीएम, सीएम, और डीएम। डीएम यानी डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट। अंग्रेजों के वक्त के ढाले गए इस ओहदे के हाथ में दो अधिकार होते हैं, एक तो मामूली सरकारी अफसर के अघोषित गैरमामूली अधिकार और दूसरे मजिस्ट्रेट के अधिकार। इन दोनों को जब मिलाकर देखा जाए तो अधिकतर अफसर इन जगहों पर रहते हुए नीम पर चढ़े हुए करेले की तरह बर्ताव करते हैं. हालांकि यह बात नीम और करेले दोनों के लिए अपमानजनक है और हम इसे महज एक कहावत या मुहावरे की तरह बेजा इस्तेमाल कर रहे हैं।
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यह तो किसी के मोबाइल फोन के वीडियो कैमरे की मेहरबानी थी कि कई अलग-अलग एंगल से ना सिर्फ इस कलेक्टर को इस बेकसूर नौजवान को पीटते हुए रिकॉर्ड कर लिया गया बल्कि पिटवाते हुए भी रिकॉर्ड किया और उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के लिए कहते हुए भी रिकॉर्ड कर लिया। अगर इतने सुबूत नहीं होते तो इस कलेक्टर के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं हो सकती थी। और यह कार्रवाई भी कल से सोशल मीडिया पर इस वीडियो के साथ लगातार चल रही लोगों की प्रतिक्रिया के बाद आज सुबह हुई है, जब यह मामला ठंडा ही होते नहीं दिखा। इस पर देश की आईएएस एसोसिएशन ने कलेक्टर के बर्ताव की भर्त्सना कड़ी भर्त्सना की है, और अफसोस जाहिर किया है। छत्तीसगढ़ के आईएएस एसोसिएशन ने भी इसे गलत बर्ताव बताया है और कलेक्टर से कहा है कि वह अपने निजी खर्चे से इस मोबाइल को सुधरवाए और उस बेकसूर नौजवान के मां-बाप से बात भी करे। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सुबह-सुबह ही इस घटना पर कड़ी नाराजगी जाहिर करते हुए परिवार से अफ़सोस जाहिर किया, सोशल मीडिया पर ही इस अफसर को हटाने की घोषणा की और मिनटों में ही एक नए अफसर को कलेक्टर बना दिया गया। लेकिन जो नहीं हुआ वह यह कि इस हिंसक कलेक्टर के खिलाफ जुर्म कायम करने, उसे गिरफ्तार करने का हुक्म नहीं हुआ। क्या इस मुल्क का कानून आईएएस पर लागू नहीं होता? इससे कम में कोई इन्साफ नहीं सकता।
अब सवाल यह उठता है कि अफसरों की यह बददिमागी लोकतंत्र में निर्वाचित नेता क्यों और किस हद तक जारी रखते हैं? हम मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों, और बाकी तकरीबन पूरे देश में भी, लंबे समय से देखते आए हैं कि चाहे किसी पार्टी के कोई मुख्यमंत्री रहें, वे राज्य का प्रशासन सीधे कलेक्टरों पर नियंत्रण करके उनके मार्फत चलाते हैं और कलेक्टरी का यह ओहदा मानो नियम-कायदे से पर एक असंवैधानिक सत्ताकेंद्र रहता है. जो लोग कानूनी भाषा समझते हैं वे इस बात को समझेंगे कि इस ओहदे के साथ बहुत से और अलिखित असंवैधानिक अधिकार परंपरागत रूप से जुड़े चले आ रहे हैं जो कि कलेक्टरों को बहुत ही अधिक बददिमाग बना कर रख देते हैं। हमारे पाठकों को याद होगा कि हमने हर कुछ वर्षों में इस मुद्दे पर लिखा है कि इस ओहदे के नाम को बदलने की जरूरत है। कलेक्टर का ओहदा आमतौर पर हिंदी में जिलाधीश या जिलाधिकारी लिखा जाता है और अलग-अलग राज्यों में इसमें थोड़ा बहुत फेरबदल भी होता है। फिर भी अफसरों के बीच इस ओहदे को सबसे महत्वपूर्ण भी माना जाता है और यह माना जाता है कि यह मुख्यमंत्री के एकदम विश्वस्त लोगों को ही हासिल होता है। जब ऐसी नौबत है तो ऐसे लोगों के बर्ताव के लिए मुख्यमंत्री खुद ही सीधे जवाबदेह रहते हैं, जैसा कि आज सुबह भूपेश बघेल ने साबित किया है। लेकिन ऐसे वीडियो बनने के बाद अगर ऐसी कार्रवाई हो सकती है तो ऐसे वीडियो के बिना भला ऐसी कोई कार्यवाही कैसे हो सकती थी और आज जब सोशल मीडिया का एक दबाव सरकार पर बना हुआ है, और मुख्यधारा के मीडिया पर भी बना हुआ है, उस वक्त ही ऐसी कार्रवाई हो पाई है, वरना इसकी गुंजाइश नहीं रहती कि किसी कलेक्टर पर किसी राह चलते की शिकायत पर कोई कार्यवाही हो सके। छत्तीसगढ़ के जिन अखबारनवीसों ने इस हिंसक कलेक्टर से बीती शाम बात की और इसके बारे में जानना चाहा, उन सबसे इस कलेक्टर ने कहा कि वीडियो में वे नहीं हैं, उनका तहसीलदार पीट रहा है, किसी से कुछ कहा, किसी से कुछ। यह तो एक टेक्नोलॉजी है जो लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों को कुछ हद तक जिंदा रहने में मदद कर रही है।
हम फिर अपनी पुरानी सलाह को दुहराना चाहेंगे कि जिलाधीश, कलेक्टर, या जिलाधिकारी पदनाम को बदलकर जिला जनसेवक करना चाहिए, ताकि इस पर बैठे लोगों को रात-दिन उनका असली काम याद रहे, अपनी औक़ात याद रहे। लोकतंत्र में तंत्र को इतना तानाशाह नहीं होने देना चाहिए कि वह जन को कुचलकर रख दे। किसी डीएम ने ही यह बददिमाग बात शुरू की होगी की देश में ताकत तीन ही हाथों में रहती है, पीएम, सीएम, और डीएम !
हिंदुस्तान में कोरोना वैक्सीन बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनी सिरम इंस्टीट्यूट आफ इंडिया ने केंद्र सरकार पर सीधे-सीधे यह तोहमत लगाई है कि उसने वैक्सीन की उपलब्धता देखे बिना अधिक आबादी को वैक्सीन लगाने की एकतरफा घोषणा कर दी। सिरम इंस्टीट्यूट के एक वरिष्ठ डायरेक्टर ने सार्वजनिक रूप से यह कहा कि केंद्र सरकार ने ना तो वैक्सीन के स्टॉक के बारे में जाना, न ही विश्व स्वास्थ्य संगठन की गाइडलाइन पर विचार किया, और इसके बिना ही कई आयु वर्ग के लोगों के टीकाकरण की घोषणा कर दी। इस अधिकारी ने स्वास्थ्य से संबंधित एक ऑनलाइन सम्मेलन में यह बात कही और कहा कि शुरुआत में हिंदुस्तान में 30 करोड़ लोगों को टीका लगाना था जिसके लिए 60 करोड़ खुराक की जरूरत थी, लेकिन इस लक्ष्य तक पहुंचने के पहले ही केंद्र सरकार ने पहले 45 साल से ऊपर के लोगों के लिए, और फिर 18 साल से ऊपर के सभी लोगों के लिए टीका लगाने की घोषणा कर दी।
हिंदुस्तान की जमीन पर काम कर रही एक निजी कंपनी की तरफ से अधिकृत रूप से इतनी बड़ी बात कहना केंद्र सरकार पर राज्य सरकारों की तरफ से लगाए जा रहे आरोपों को सही ठहराने वाली बात है। उल्लेखनीय है कि 19 अप्रैल को मोदी सरकार की तरफ से 18 वर्ष से ऊपर के हर किसी को वैक्सीन लगाने की घोषणा की गई थी। साथ ही यह घोषणा भी की गई थी राज्य अपने बूते इन वैक्सीन को खरीदने का काम करेंगे और इसका भुगतान भी करेंगे। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हमने 20 अप्रेल को ही केंद्र सरकार की इस नीति के खिलाफ एक कड़ा संपादकीय लिखा था कि केंद्र सरकार जिस चीज का भुगतान नहीं कर रही है, जिस चीज की सप्लाई को सुनिश्चित नहीं कर रही है, जिसका सारा इंतजाम राज्यों को खुद अपने दम पर करना है, और जो बाजार में उपलब्ध भी नहीं है, उसके लिए 60 करोड़ आबादी को कतर में लगाने का केंद्र को क्या हक़ है? उसके लिए केंद्र सरकार ने जिस तरह से एक साथ 18 से 44 बरस की देश की करीब 60 करोड़ आबादी के लिए टीकाकरण खोल दिया था उससे मचने वाली बदअमनी का कौन जिम्मेदार होगा? हमने कई तरह से इस बात को उठाया था कि केंद्र सरकार को ऐसा करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं था और इस बात को राज्यों के ऊपर ही छोड़ा जाना चाहिए था कि वे धीरे-धीरे किस आयुवर्ग, आयवर्ग, या पेशे के लोगों को प्राथमिकता से टीका लगाने की अपनी क्षमता का इस्तेमाल कर सकते हैं और कितने टीके खरीद सकते हैं, कितने टीके उसे बाजार में मिल सकते हैं। हमने केंद्र सरकार की घोषणा के अगले ही दिन इस बात की आलोचना की थी कि केंद्र सरकार ने राज्यों के अधिकार क्षेत्र में दखल देकर उनके किए जाने वाले इंतजाम के लिए अपनी तरफ से शर्तें तय कर दीं, जब देशभर में इतनी बड़ी आबादी वैक्सीन लगवाने के लिए टीकाकरण केंद्रों पर इक_ा हो जाएगी तो उस दिन बदइंतजामी के लिए कौन जिम्मेदार रहेंगे?
आज सिरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया, जो कि हिंदुस्तान में वैक्सीन बनाने वाली सबसे बड़ी कंपनी है, ने देश में वैक्सीन को लेकर मचे हाहाकार के लिए खुलकर केंद्र सरकार को जिम्मेदार बताते हुए तोहमत का घड़ा मोदी सरकार के सिर पर फोड़ा है। और इस बात को समझने के लिए किसी रॉकेट साइंस का जानकार होने की जरूरत नहीं थी हमारे जैसी मामूली समझ रखने वाले लोग भी इस बात को समझ सकते थे कि 18 से 44 बरस की सारी आबादी को एक साथ टीके के लिए कतार में लगा देने के क्या खतरे हो सकते हैं? और यह बात तो हिंदुस्तान के संघीय ढांचे में केंद्र-राज्य संबंधों में बहुत साफ है कि राज्यों के हिस्से के फैसले केंद्र सरकार को नहीं लेना चाहिए। कोरोना बीमारी के संक्रमण को रोकने के लिए केंद्र सरकार ने महामारी एक्ट के तहत राज्यों के ऊपर अपने तमाम फैसले लादे और राज्यों ने बिना किसी विवाद के उन फैसलों को मान भी लिया। लेकिन अब जब टीकाकरण का काम इस महामारी एक्ट से परे, राज्यों को अपने बूते, अपने दम पर, अपने खर्चे से पूरा करना है, तो ऐसी कोई वजह नहीं थी कि मोदी सरकार राज्यों के ऊपर एक बदइंतजामी लादकर उनकी दिक्कत और बदनामी का सामान खड़ा करती। यह मामला कुछ उसी किस्म का था कि राज्यों के घर बारात लगनी थी और राज्यों के इंतजाम के बारे में किसी तरह की जानकारी के बिना, केंद्र सरकार ने अपनी पसंद के 60 करोड़ मेहमानों को न्योता बांट दिया। यही वजह थी कि जब देश में आज कहीं वैक्सीन नहीं बची है, लोगों की नाराजगी अपनी राज्य सरकारों पर बुरी तरह से उतर रही है, एक के बाद एक राज्य सरकारें केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहरा रही हैं, तब सोशल मीडिया पर केंद्र सरकार को लेकर ये लतीफे बन रहे हैं कि अगर मोदी सरकार को भंडारा लगाने का इतना ही शौक था तो पहले रसोई की रसद को तो देख लेते और रसोइए को देख लेते जो कि लंदन जाकर बैठा है।
आज सिरम इंस्टीट्यूट ने जो बात कही है, वह बात उसके कहे बिना भी हमारे जैसे लोगों को पहले से समझ में आ रही थी, और इस देश में एक कारोबारी पर टीके सप्लाई के लिए दबाव इतना बढ़ते चले गया कि उसने फिलहाल हिंदुस्तान छोडक़र लंदन में जाकर रहने का फैसला लिया है। सिरम इंस्टीट्यूट आफ इंडिया के मुखिया अदर पूनावाला ने सार्वजनिक रूप से यह कहा है कि उन पर इतने ताकतवर लोगों के इतने दबाव थे और उनकी जिंदगी को खतरा सरीखा था इसलिए वे देश छोडक़र बाहर आ गए। परिवार सहित कोई कारोबारी देश छोडक़र जा रहा है और उस देश में वैक्सीन बनाने का नया कारखाना शुरू करने की तैयारी कर रहा है, उसकी मुनादी कर रहा है, तो इस बारे में भारत सरकार को यह सोचना चाहिए कि उसने कौन-कौन से गलत काम किए जिसकी वजह से यह नौबत आई। लोगों को अच्छी तरह याद होगा कि जब तक भारत सरकार ने राज्यों को वैक्सीन भेजने की जिम्मेदारी खुद अपने हाथ में रखी थी तब तक कोई बदअमनी नहीं फैली थी और राज्यों ने केंद्र से कोई नाजायज मांग भी नहीं की थी। जिस दिन केंद्र सरकार ने इस सप्लाई से अपना हाथ खींचा और देश के 60 करोड़ लोगों का बोझ रातों-रात राज्यों पर डाल दिया, और इसके साथ है ही वैक्सीन खरीदने, उसका भुगतान करने, मोलभाव करने जैसी तमाम जिम्मेदारियों के काम राज्य सरकारों पर डाल दिए, उस दिन यह समझ पड़ गया था कि केंद्र सरकार ने एक बहुत गलत काम किया है। कल की खबरें बताती हैं कि भारत के जिन राज्यों ने वैक्सीन खरीदने के लिए ग्लोबल टेंडर किये हैं उन्हें मनमाने रेट आ रहे हैं, जो कि वैक्सीन के हिंदुस्तानी बाजार भाव से कई गुना ज्यादा हैं। दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री मनीष सिसोदिया ने मोदी सरकार के बारे में कहा कि उसे देश के लोगों से माफी मांगनी चाहिए कि उसने हिंदुस्तान की राज्य सरकारों को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में एक दूसरे के खिलाफ बोली लगाते खड़ा कर दिया है।
जब एक अकेली भारत सरकार दो कंपनियों से मोलभाव करके, आज के बाजार भाव से काफी कम रेट पर वैक्सीन पा रही थी, और राज्य केंद्र सरकार से उसे पाकर अपने लोगों को लगा रहे थे, उस अच्छे-भले चलते हुए इंतजाम से अपना हाथ खींचने के लिए मोदी सरकार ने यह बहुत ही नाजायज काम किया था कि पल भर में उसने जिम्मा तो राज्यों के सिर पर डाल दिया और उसके बारीक फैसले खुद लेकर देश के लोगों के सामने घोषित कर दिए. इस एक अकेले फैसले का नुकसान हिंदुस्तान की जनता कब तक झेलेगी इसका कोई ठिकाना नहीं है, और राज्य मोदी सरकार के इस फैसले का कितना बड़ा दाम चुकाएंगे, इसका भी कोई ठिकाना नहीं है। जिस दिन हिंदुस्तान के किसी भी मुख्यमंत्री ने मोदी सरकार के 18 वर्ष से ऊपर के लोगों को टीकाकरण की एक साथ की गई घोषणा का विरोध नहीं किया था, उस दिन भी हमने इस बात को जोर से लिखा था कि यह फैसला गलत है। और अब उस दिन से लेकर आज तक राज्यों के जिम्मे डाले गए टीकाकरण की जितनी जानकारी सामने आ रही हैं, वे सब बता रही हैं कि इस फैसले ने महामारी से मौतों के बीच देश में टीकाकरण में तबाही खड़ी कर दी है।
19 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बैठक ली और उस बैठक के तुरंत बाद 18 वर्ष से ऊपर के तमाम लोगों के लिए 1 मई से टीकाकरण शुरू करने की घोषणा कर दी गई। अब इस दिलचस्प बात को समझने की जरूरत है कि उस वक्त देशभर में कोरोना मोर्चे पर केंद्र सरकार की नाकामयाबी को लेकर खबरें आना शुरू हो गई थी। दूसरी तरफ बंगाल में इस तारीख के बाद तीन अलग-अलग दिनों के मतदान बाकी थे, 22 अप्रैल 26 अप्रैल और 29 अप्रैल को, 38 फीसदी सीटों पर मतदान होने थे। और मतदान की 18 बरस की उम्र से जोडक़र अगर इसे देखा जाए तो ऐसा लगता है कि नौजवान मतदाताओं के एक बड़े तबके को प्रभावित करने के लिए यह फैसला आनन-फानन घोषित किया गया। इसे आनन-फानन कहना इसलिए ठीक है कि भारत में टीकाकरण पर केंद्र सरकार की बनाई गई सर्वोच्च कमिटी, नेशनल टेक्निकल एडवाइजरी ग्रुप के अध्यक्ष एन के अरोरा ने अभी इकनॉमिक टाईम्स को यह कहा कि उनके ग्रुप ने ऐसी कोई सिफारिश नहीं की थी, और उनकी सिफारिशें केवल 45 वर्ष से ऊपर के लोगों के टीकाकरण की थी। उनका कहना है कि कोरोना की वजह से 45+ उम्र के लोगों को अस्पताल में अधिक भर्ती करना पड़ रहा था और इसी उम्र में सबसे अधिक मौतें भी हो रही थी। उन्होंने कहा कि 45 से नीचे के लोग प्राथमिकता सूची में आते ही नहीं थे। उन्होंने यह भी कहा कि देश में अभी भी टीकाकरण की प्राथमिकता 45 वर्ष से ऊपर के लोग होना चाहिए और उनके ग्रुप ने यही सलाह भी दी थी। इस ग्रुप के करीबी सूत्रों का यह कहना है कि 18 से 44 बरस के आयु वर्ग के लिए टीके खोल देने का फैसला किसी तकनीकी राय पर आधारित नहीं था, बल्कि राजनीतिक था. अब यह समझने की जरूरत है कि जिस 19 अप्रैल के सामने पश्चिम बंगाल के तीन अलग-अलग मतदान दिन खड़े हुए थे उस दिन यह फैसला क्यों घोषित किया गया। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज हिंदुस्तान एक अभूतपूर्व संकट और खतरे से गुजर रहा है, और केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों तक, और स्थानीय संस्थाओं तक को बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। कोरोना से बचाव, उसके इलाज, और इलाज कारगर न रहने पर मौत के बाद के इंतजाम के लिए सरकारों की क्षमता खत्म होते दिख रही है। अभी कोई भी सरकार लोगों की जिंदगियां बचाते हुए खर्च की सीमा की बात नहीं कर रही हैं, तमाम सरकारें वैक्सीन खरीदने या इलाज करने के इंतजाम में अपने-आपको झोंककर चल रही हैं। ऐसे में जब देश-प्रदेश की सरकारों का बजट पूरा ही चौपट हो चुका है, और अंधाधुंध खर्च किया जा रहा है, दूसरे मद का पैसा कोरोना के मद में खर्च किया जा रहा है, तब सरकारों को इस खर्च की जवाबदेही का भी एक इंतजाम करना चाहिए। इसके साथ-साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अभी कोरोना की कोई तीसरी लहर भी आना बताया जा रहा है, तो अगर ऐसी कोई नौबत आती है, तो आज सरकार के खर्च किए हुए इलाज के ढांचे का इतना रखरखाव और इंतजाम होना चाहिए कि वह आगे भी काम आ सके। आज इस देश और इसके प्रदेशों में यह भी समझ पड़ रहा है कि सरकारों की कमियां क्या हैं और उनकी खामियां क्या हैं। ऐसे में अगर कोई जिम्मेदार और समझदार सरकार रहे तो वह अपने ढांचे के बाहर के विशेषज्ञ जानकार नियुक्त करके इन कमियों और खामियों को दूर करने की कोशिश कर सकती हैं क्योंकि ऐसी कोई गारंटी तो है नहीं कि कोरोना का कोई और हमला नहीं होगा। हिंदुस्तान में आज तकरीबन तमाम राज्य सरकारों को कोरोना के मोर्चे पर ठोकर तो लगी है, लेकिन इस चोट से अगर सबक नहीं लिया जाएगा, तो ऐसे राज्य और इस देश की सरकारें अगली ठोकर के लिए अपने-आपको फिर पेश करती दिखेंगी।
आज देश भर में यह दिख रहा है कि अस्पताल के ढांचे, डॉक्टरों और स्वास्थ्य कर्मचारियों के ढांचे, एंबुलेंस और शव वाहन के ढांचे, श्मशान और कब्रिस्तान के ढांचे में क्या क्या कमी है। यह एक मौका हो सकता है जब बिजली या गैस से चलने वाले श्मशान बनाए जा सकते हैं ताकि अगली बार लाशों की ऐसी कतार लगने पर लोगों को कई-कई दिन उन कतारों पर ना रहना पड़े। इसी तरह दवाइयों का ढांचा, वैक्सीन का ढांचा, ऐसा लचर साबित हुआ कि जीवन रक्षक दवाइयां न सिर्फ ब्लैक हो रही थीं, बल्कि उनको नकली बना-बनाकर भी उनकी कालाबाजारी की जा रही थी। हिंदुस्तान का इतना बड़ा दवा उद्योग और इतना बड़ा वैक्सीन उद्योग भी इसलिए आज वक्त की जरूरत को पूरा नहीं कर पा रहा है कि देश की सरकार ने समय रहते खतरे का अंदाज नहीं लगाया था और उसकी तैयारी नहीं की थी, जबकि दुनिया की तमाम जिम्मेदार सरकारें साल भर पहले से इस तैयारी में लग चुकी थी।
हिंदुस्तान चम्मच से थाली बजाने, शंख बजाने, और दिया-मोमबत्ती जलाने के भरोसे इतनी तसल्ली से बैठा हुआ था कि जब कोरोना लौटकर आया तो मानो उसे कतार लगाकर बैठे हुए लोग मिले और उसे दो शिकारों के बीच दो कदम भी नहीं चलना पड़ा। हिंदुस्तान में महज सरकारों की बात नहीं है, सरकारों से परे भी आम जनता ने यह साबित किया है कि वह कोरोना के दौर के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है, और बिल्कुल भी जिम्मेदार नहीं है। अब सरकार और समाज मिलकर किस तरह लोगों को सावधान और चौकन्ना कर सकते हैं यह भी एक बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि ऐसी सावधानी को बाजार में किसी रेट पर खरीदा नहीं जा सकता, इसे लोगों के बीच पैदा करना वेंटिलेटर खरीदने से अधिक मुश्किल काम है। यह साबित हुआ है कि लोगों ने जो लापरवाही दिखाई उसकी वजह से भी कोरोना को इस बार फैलने में मदद मिली और अगली बार फिर कोरोना या किसी दूसरे संक्रमण को फैलने में मदद मिलेगी। हिंदुस्तान और उसके प्रदेशों को ऐसे तीसरे और चौथे दौर के लिए भी तैयार रहना चाहिए और किसी दूसरे किस्म के संक्रमण के लिए भी तैयार रहना चाहिए क्योंकि वायरस का हमला दुनिया के लिए एक बेकाबू हमला साबित हुआ है।
इसके साथ-साथ यह भी देखने की जरूरत है कि ऐसी नौबत अगर अगली बार आएगी तो उसमें लोगों के कामकाज किस तरह से चलाए जा सकते हैं, किस तरह से डॉक्टरी नसीहत को मानते हुए भी लोग रोजी-रोटी चला सकते हैं। आज तो हिंदुस्तान के नेताओं और अफसरों ने यह साबित किया है कि उनकी जमीनी समझ कमजोर हो चुकी है। आज देश भर में कई प्रदेशों में जहां कारोबार को थोड़ा सा शुरू करने की इजाजत मिली है वहां पर बड़े कारोबार को छूट मिल गई है और छोटे कारोबार को बंद रखा गया है। छत्तीसगढ़ में ही तमाम शहरों में बड़े रेस्तरां और बड़े ब्रांड को तो खाना पैक करके बेचने या लोगों के घरों तक पहुंचाने की छूट दी गई है, लेकिन सडक़ किनारे ठेलों पर खाने के सामान बनाने और बेचने वालों को यह छूट नहीं दी गई है कि वे भी अपने सामान पैक कर के बेच सकें। यह समझने की जरूरत है कि बड़े ब्रांड और बड़े-बड़े रेस्तरां के लिए कारोबार जितना जरूरी है, उतना ही फुटपाथ के छोटे कारोबारियों के लिए भी है, दूसरी तरफ यह बात भी है कि बड़े ब्रांड के खरीदने वाले सीमित लोग रहते हैं, और अधिकतर आबादी छोटे फुटपाथी सामान ही खरीद सकती हैं। इस समाज के लिए भी हमको लगता है कि सरकार के बाहर के कुछ लोगों की जरूरत है क्योंकि सरकार ऐसी बारीकियों पर जा नहीं रही है और वह अंधाधुंध प्रतिबंध की अफसरी सलाह पर चलती है जिनकी नजरों में छोटे और गरीब कारोबारियों की कोई अधिक अहमियत नहीं है। किसी भी जगह के निर्वाचित नेताओं को भी ऐसे फर्क को समझना चाहिए क्योंकि वे तो गरीब वोटों की बहुतायत से ही जीत कर आते हैं, फुटपाथ के एक ठेले वाले के घर पर भी 4 वोट होते हैं और एक रेस्त्रां मालिक के घर पर भी 4 वोट ही होते हैं।
कुल मिलाकर हम आज योजना बनाने से लेकर तैयारी तक की बहुत सी बातों के बारे में सरकारों का ध्यान खींचना चाहते हैं कि इस बार जैसी हड़बड़ी मची है और जैसी भगदड़ फैली है, ऐसी नौबत दोबारा ना आए। और आज सरकार का जो अंधाधुंध खर्च हुआ है, उसकी उत्पादकता सुनिश्चित की जाए और उसे लंबे समय तक संभाल कर रखने की तैयारी की जाए। आज पूरी दुनिया में अर्थव्यवस्था कारोबार और रोजगार को लेकर एक नई सोच और नई तैयारी की जरूरत है क्योंकि पिछले एक बरस में गरीब और मंझले लोगों का जो हाल हुआ है, वह दोबारा ना हो यह तमाम सरकारों की जिम्मेदारी है। इसके लिए रोजगार-कारोबार पर बिल्कुल मौलिक और नई सोच से तैयारी की जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज दुनिया के एक सबसे कामयाब और लोकप्रिय लेखक युवाल नोआह हरारी को सुनना भी उतना ही दिलचस्प रहता है, जितना कि उनकी किसी किताब को पढऩा। अभी एक अमेरिकी प्रकाशन फाइनेंशियल टाइम्स को एक ऑनलाइन इंटरव्यू में उन्होंने एक दिलचस्प बात कही कि 2020 के बरस को राजनीति या देशों की सरकारों की नाकामयाबी की शक्ल में देखा जाएगा और वैज्ञानिकों की कामयाबी की शक्ल में। उन्होंने कोरोना के इस दौर से जुड़े हुए बहुत से सवालों के जवाब दिए, लेकिन उसमें जो एक बात हमें यहां पर आगे बढ़ाने लायक लगती है वह यह है कि वैज्ञानिकों ने पिछले एक बरस में निराश नहीं किया है और सरकारों ने निराश ही निराश किया है, कुछ ने कम, कुछ ने अधिक। कुछ ने महज अपनी सरहदों के भीतर निराश किया है तो कुछ ने दुनिया की अपनी सामूहिक जिम्मेदारी से मुंह मोड़ कर निराश किया है।
आज दिक्कत यह हो गई है कि इस नौबत में वैज्ञानिक कामयाबी, सरकारी नाकामयाबी के साथ चलते हुए जब इलाज और टीके लिए हुए लोगों तक पहुंच रही है तो वह एक दूसरे की साख का भुगतान भी कर रही हैं। सरकारों के नेता हैं जो कि वैज्ञानिकों की कामयाबी और उनकी साख को भुनाने में लगे हुए हैं, और कुछ ऐसा माहौल पैदा कर रहे हैं कि मानो टीके बनाने में उनका भी योगदान रहा है। दूसरी तरफ सरकारों ने, और खासकर हिंदुस्तान जैसे देश में सरकारों ने जिस तरह की नाकामयाबी साबित की है, उनकी खराब साख का असर भी वैक्सीन की साख पर पड़ते दिखता है। आमतौर पर वैज्ञानिकों और डॉक्टरों की सलाह पर आंख मूंदकर वैक्सीन या दवा लेने वाले लोग भी आज उनसे बिदक रहे हैं। इन बातों को कहने वाले नेताओं की लोगों के बीच में जो खराब तस्वीर है, वह विज्ञान की विश्वसनीयता के आडे भी आ रही है। यह साल एक बहुत ही अनोखा और अटपटा साल है जब दो बिल्कुल ही अलग-अलग तबकों के लोग एक दूसरे की साख को बढ़ा या घटा रहे हैं। और लोगों का हाल यह है कि वे भारत जैसे लोकतंत्र के बीच इस बात पर भी असमंजस में चल रहे हैं कि आज की उनकी दिक्कतें, आज उनके ऊपर मंडराता हुआ खतरा, केंद्र सरकार का लाया हुआ है या राज्य सरकारों का, और क्या निजी अस्पताल उन्हें अधिक लूट रहे हैं, या सरकारों ने उन्हें सडक़ों पर छोड़ दिया है, खुद इलाज करवाने, मरने, और खुद जलने, या बह जाने के लिए? इसलिए यह एक बहुत ही मिली-जुली साख का बाजार बन गया है, यहां किसी एक की साख से दूसरों की साख जुड़ गई है।
लोगों के बीच चीजों को अलग-अलग करके देखने की क्षमता बड़ी सीमित रहती है। लोग जब किसी सांसद से बात करते हैं तो भी वे उससे उसके इलाके में पडऩे वाले किसी विधानसभा क्षेत्र की छोटी-छोटी दिक्कतों की बात करते हैं, और अगर सांसद से बात करने की अधिक आजादी मिल गई तो वे अपने वार्ड के पार्षद के जिम्मेदारी की बातें भी सांसद से करने लगते हैं कि कहां पर काम ठीक नहीं हो रहा है और कहां पर नाली में कचरा फंसा हुआ है। लोगों के बीच इस बात की बारीक समझ आज खत्म हो गई है कि सांसद और विधायक और पार्षद की जिम्मेदारियां अलग-अलग बंटी हुई रहती हैं, और हर जिम्मेदारी को कहीं न कहीं जाकर रोकना पड़ता है, वरना तो फिर इस देश में राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री ही हर बात के लिए जिम्मेदार ठहराए जा सकते हैं। लेकिन जनता का राजनीतिक शिक्षण सोच समझकर कमजोर किया गया है और हिंदुस्तान जैसे देश में पिछले वर्षों में हमने देखा है कि उसकी लोकतांत्रिक समझ को मानो एक हथोड़ा मार-मारकर टीन के एक डिब्बे की तरह चपटा कर दिया गया है कि वह किसी काम की ना रह जाए। उसकी वैज्ञानिक समझ को पीट-पीटकर चपटा कर दिया गया है कि वह भी कहीं राह का रोड़ा ना बने। नतीजा यह होता है कि बिना लोकतांत्रिक समझ और बिना विज्ञान वैज्ञानिक समझ के लोग बातों का विश्लेषण नहीं कर पाते, और वे किसी रॉकेट के अंतरिक्ष में जाने की वाहवाही किसी नेता को देने लगते हैं, और कोई दूसरे नेता आकर वैक्सीन विकसित करने की वाहवाही खुद अपने सीने पर तमगे की तरह टांग लेते हैं।
जब लोगों की राजनीति की समझ बूझ कमजोर हो जाती है, तो लोकतंत्र इसी तरह कमजोर होता है। लोगों को 5 वर्ष तो दूर 5 बरस पुरानी बातें भी याद नहीं रहती और जब टीवी के स्क्रीन पर झांसा देने की तस्वीरें आती हैं, तो लोगों को यह भी याद नहीं रह जाता कि 5 दिन पहले उन्होंने इससे ठीक अलग कौन सी चीजें देखी थीं। कमजोर याददाश्त झांसा देने के लिए एक सहूलियत की बात रहती है, वरना बैंक के खातों को लेकर आने वाले फर्जी टेलीफोन से लोग आज भी ठगी के शिकार नहीं होते, जबकि वे तकरीबन हर दिन ऐसी ठगी की खबरें पढ़ते हैं। लोगों की याददाश्त बहुत ही कम रहती है, लोगों को यह भी याद नहीं रह गया है कि आज उनके बच्चों को चेचक का खतरा अगर नहीं है तो वह किसी नेता की वजह से कम नहीं हुआ है, वह वैज्ञानिकों के बनाए हुए टीके की वजह से कम हुआ है, अगर आज उनके बच्चों को पोलियो का खतरा नहीं है तो यह किसी सरकार की वजह से कम नहीं हुआ है यह वैज्ञानिकों के बनाए हुए टीके की वजह से कम हुआ है या तकरीबन खत्म हुआ है। और अगर जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर एक बम को गिरा कर लाखों जिंदगियों को खत्म किया गया था, तो उस तकनीक को तो वैज्ञानिकों ने बनाया था लेकिन उसको बम बनाकर उसे इंसानों पर गिराने का फैसला नेताओं का था। इसलिए लोकतंत्र में जब जनता की समझ कम रह जाती है तो वह वैज्ञानिक कामयाबी की वाहवाही सरकार या नेता को दे देते हैं और सरकार की खामी और कमजोरी की नाकामयाबी की तोहमत डॉक्टरों या वैज्ञानिकों को दे देते हैं। ऐसे में समाज के जिम्मेदार तबके की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे जहां कहीं मौका सोशल मीडिया पर या असल जिंदगी में लोगों को सिखाने और समझाने का काम करें, उन्हें हकीकत बताएं।
जिस केरल में सत्तारूढ़ वाम मोर्चे का चुनाव जीतकर वापस आना एक हैरान करने वाली बात थी, क्योंकि वहां 5 बरस बाद सत्ता पलट देने का मिजाज लोगों का रहा है। लोगों का नतीजों को देखकर यह अंदाजा था कि पिछले 1 बरस में वहां की स्वास्थ्य मंत्री शैलजा टीचर ने जिस खूबी और मेहनत के साथ कोरोना के मोर्चे पर इंतजाम किए थे और महामारी से निपटने में जुटी हुई थी, वह एक बड़ी वजह थी कि सत्तारूढ़ गठबंधन जीतकर, लौटकर आया। लेकिन नए मंत्रिमंडल के नाम आए तो लोग यह देखकर हैरान रह गए कि उसी स्वास्थ्य मंत्री शैलजा टीचर का नाम लिस्ट में नहीं था। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने इस मुद्दे से अपना हाथ धो लिया है और अधिकृत बयान जारी किया है कि मंत्रियों के नाम राज्य के पार्टी संगठन ने तय किए हैं, और उसे ही यह अधिकार था। राष्ट्रीय संगठन ने यह साफ कह दिया है कि इस बारे में जो सवाल करने हैं वे प्रदेश संगठन से किए जाएं। इस बयान के रुख से ऐसा लगता है कि सीपीएम का राष्ट्रीय संगठन भी प्रदेश के इस फैसले से इत्तेफाक नहीं रखता है कि दुनिया भर में जिस स्वास्थ्य मंत्री के काम को वाहवाही मिली, उसे महामारी के इस दौर में हटा दिया जाए या कि दोबारा न लिया जाए। दूसरी बात यह कि अगर तमाम मंत्रियों को हटा देने की बात थी, तो फिर मुख्यमंत्री बने क्यों रह गए? इस पैमाने पर तो मुख्यमंत्री को भी बदल दिया जाना चाहिए था। पार्टी ने अपने अखबार में यह लिखा था यह जीत किसी एक व्यक्ति की जीत नहीं है यह व्यक्तिगत और सामूहिक सभी किस्म की मेहनत की मिली जुली जीत है। ऐसा लगता है कि पार्टी के राष्ट्रीय संगठन और उसके केरल के स्थानीय संगठन के बीच तालमेल की कोई कमी है या कोई वैचारिक असहमति है।
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लेकिन सीपीएम के आंतरिक फैसले को लेकर भी उसके मित्र संगठनों के बीच और हमख्याल पार्टियों के बीच एक नाराजगी खड़ी हुई है और आम लोगों के बीच भी एक निराशा पैदा हुई है कि आज 21वीं सदी में आकर भी अगर कोई पार्टी अपनी सरकार में सबसे अच्छा काम करने वाली महिला मंत्री को जारी नहीं रख सकती है, तो वह महिलाओं को क्या बढ़ावा दे सकेगी? और यह बात उस वक्त और बड़ी निराशा की हो जाती है जब मुख्यमंत्री अपने दामाद को मंत्रिमंडल में शामिल करते हैं और सीपीएम के राज्य सचिव अपनी बीवी को। इस किस्म की घरेलू कैबिनेट बनाकर और प्रदेश की एक सबसे काबिल साबित हुई मंत्री को हटाकर केरल की वाममोर्चा सरकार जाने कौन सा पैमाना साबित कर रही है। हमें केरल की अंदरूनी राजनीति से अधिक लेना-देना नहीं है, और न ही सीपीएम अपना घर कैसे चलाता है इससे हमें कोई फर्क पड़ता, लेकिन आज देश के सामने कोरोना के लेकर जो चुनौती है, उसके बीच में अगर किसी एक महिला मंत्री ने लाजवाब काम किया था, तो उसे हटाकर मुख्यमंत्री या वहां का सत्तारूढ़ संगठन एक अहंकार साबित कर रहा है, और एक ऐसे पैमाने को थोपने की कोशिश कर रहा है जो सिवाय एक बड़ी बेइंसाफी के और कुछ नहीं है। अगर केरल में मंत्रिमंडल के लिए कोई पैमाना बनना था तो पहला पैमाना तो यही बनना था कि वहां के बड़े नेताओं के घरों के लोग कैबिनेट में ना लिए जाएं।
यह चर्चा करते हुए छत्तीसगढ़ का पिछला लोकसभा चुनाव याद पड़ता है। विधानसभा चुनाव में जब छत्तीसगढ़ में भाजपा मटियामेट हो गई थी, और सत्तारूढ़ पार्टी के 15 बरस के बाद वह 15 सीटों पर सिमट गई थी, तब उस वक्त के भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने भरी नाराजगी के साथ एक पैमाना तय किया था कि छत्तीसगढ़ की 11 लोकसभा सीटों में से किसी पर भी किसी पुराने व्यक्ति को दोबारा खड़ा नहीं किया जाएगा, न पहले के जीते हुए को, न पहले के हारे हुए को, और न ही किसी भी नेता के रिश्तेदार को टिकट दी जाएगी। और इसका नतीजा यह निकला था कि 11 में से 9 सीटें भाजपा ने जीती थी। तो पैमाने तो इस तरह के होते हैं, ना कि इस तरह के कि प्रदेश की सबसे काबिल मंत्री को निकाल दिया जाए, और दो रिश्तेदारों को मंत्री बना दिया जाए। केरल का यह मुद्दा है तो सीपीएम के अपने घर का मामला, लेकिन वामपंथियों के साथ एक बात है कि वे अपने साथी संगठनों के घरेलू मामलों पर भी सार्वजनिक रूप से अपनी राय रखते हैं। सीपीआईएमएल के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य और सीपीआईएमएल की पोलित ब्यूरो मेंबर कविता कृष्णन ने केरल के इस फैसले पर असहमति और हैरानी दोनों जाहिर की हैं, और सार्वजनिक रूप से इस पर लिखा है।
यह भी याद रखने की जरूरत है कि पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजों में जब वाममोर्चा बंगाल के नक्शे से ही साफ हो गया, उस वक्त भी नतीजों के बाद दीपंकर और कविता कृष्णन ने बयान जारी करके बंगाल के चुनाव की स्थितियों का खुलासा किया था और यह लिखा था कि बहुत से प्रगतिशील संगठनों ने वहां पर मतदाताओं का यह आव्हान किया था कि जो कोई भी भाजपा को हराने की हालत में है उसे वोट देकर जिताएं। यह मामला वामपंथी पार्टियों का एक दूसरे के साथ साथ ना देने जैसा था, लेकिन वामपंथी विचारधारा के व्यापक हित में सीपीआईएमएल ने बंगाल में यह किया और उसने वहां के वाममोर्चा की बाकी पार्टियों की एक किस्म से आलोचना भी की। बंगाल में पूरी तरह खत्म हो जाने के बाद भी जो वाममोर्चा केरल की सत्ता में दोबारा जीत कर आया है उसकी ऐसी मनमानी बहुत निराश करने वाली है, और यह भारत की राजनीति में महिला के हक को मारने वाली भी है। एक सबसे काबिल महिला को इस महामारी के बीच में भी उसके काम से हटाकर मुख्यमंत्री ने या कि पार्टी संगठन ने एक बददिमागी दिखाई है। सीपीएम को यह समझ लेना चाहिए कि आज उसके पास सिर्फ एक ही राज्य की सत्ता में भागीदारी बची है, और नेता, या विचारधारा या संगठन का ऐसा अहंकार उसे यहां से भी खत्म कर देगा तो कोई हैरानी नहीं होगी। सीपीएम के राज्य संगठन की नजरों में शैलजा टीचर का कोई महत्व हो या ना हो, पूरी-पूरी दुनिया में उनके काम के महत्व को सराहा गया है, और सीपीएम अपनी बददिमागी के चलते एक नुकसान झेलेगी।
करोना वैसे तो एक वायरस है, लेकिन यह भारत में कई चीजों को परखने के लिए एक बड़ी कसौटी की तरह भी सामने आया है, और इनमें से एक बात है केंद्र और राज्य के संबंध। बहुत से मामलों में केंद्र और राज्य के संबंध कोरोना ऐसे एक बार फिर चर्चा में आ रहे हैं और उनकी बारीकियों पर लोग बात कर रहे हैं। अभी जब यह खबर आई कि सिंगापुर में कोरोना का एक कोई नया वेरिएंट आ गया है और वहां की स्कूलों को उसकी वजह से बंद किया जा रहा है, तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट करके कहा कि 'सिंगापुर में आया कोरोना का नया रूप बच्चों के लिए बेहद ख़तरनाक बताया जा रहा है, भारत में ये तीसरी लहर के रूप में आ सकता है। सिंगापुर से हिंदुस्तान की हवाई सेवा बंद कर देनी चाहिए', इस बात को लेकर भारत के विदेश मंत्री केजरीवाल पर भड़क गए हैं और भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने यह कहा कि सिंगापुर सरकार ने वहां पर भारतीय उच्चायुक्त को बुलाकर दिल्ली के मुख्यमंत्री के ट्वीट पर नाराजगी जाहिर की है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा है कि उन्होंने सिंगापुर सरकार को बताया कि अरविंद केजरीवाल कोरोना के वेरिएंट और सिविल एविएशन नीति पर बोलने का अधिकार नहीं रखते। यह बात विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने ट्विटर पर सार्वजनिक रूप से लिखी और सिंगापुर सरकार को अपनी कही हुई बात भी लिखी। प्रवक्ता के ट्वीट को विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी रीट्वीट किया यानी वे भी इस बात से सहमत हैं. उन्होंने यह भी लिखा कि सिंगापुर और भारत कोरोना के खिलाफ लड़ाई में मजबूत साझेदार हैं और कोरोना के भारत को सामान की आवाजाही में मदद मिल रही है और सिंगापुर में अपने फौजी विमान भी भारत भेजे हैं जिससे पता चलता है कि हमारे संबंध कितने खास हैं। जयशंकर ने यह भी लिखा है कि गैर जिम्मेदार बयान देने वालों को पता होना चाहिए कि उनकी इस तरह की टिप्पणी से लंबे समय की साझेदारी वाली दोस्ती को नुकसान पहुंच सकता है। उन्होंने कहा कि वे यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि दिल्ली के मुख्यमंत्री का बयान भारत का बयान नहीं है।
आज कोरोना ने ही यह नौबत ला दी है कि भारत में केंद्र और राज्य के संबंध इस तरह से सोशल मीडिया पर खुलासे कर रहे हैं और विदेश मंत्रालय का एक प्रवक्ता भारत के एक निर्वाचित मुख्यमंत्री की इस तरह से खुली आलोचना कर रहा है। यह आलोचना उसी सरकार का प्रवक्ता कर रहा है जिस सरकार ने अभी कुछ हफ्ते पहले प्रधानमंत्री के साथ एक बैठक में केजरीवाल द्वारा प्रोटोकॉल तोड़ने की तोहमत लगाते हुए उनकी जमकर आलोचना की थी. सरकारों के बीच के प्रोटोकॉल में यह बात भी शामिल है कि एक निर्वाचित प्रतिनिधि के खिलाफ किसी सरकार का एक अफसर या प्रवक्ता इस तरह का कोई बयान ना दे।
अब हम मुद्दे की बात पर आएं क्योंकि प्रोटोकॉल तो दूसरे दर्जे की बात है, और उसे निभाना या न निभाना लोगों की अपनी सभ्यता, या शिष्टाचार की उनकी समझ पर भी निर्भर करता है। आज बात जरूरी यह है कि देश की राजधानी का मुख्यमंत्री इस तरह का कोई बयान देने का अधिकार रखता है, या नहीं रखता है? यह बात बहुत साफ है कि विदेशों से आने वाले लोगों से हिंदुस्तान में कोरोना की मार उन शहरों या प्रदेशों पर अधिक हुई जहां पर अंतरराष्ट्रीय उड़ानें आती हैं। दिल्ली में कोरोना की हालत पर केंद्र सरकार की सत्तारूढ़ पार्टी और केंद्र सरकार के मंत्री लगातार केजरीवाल सरकार पर हमले करते हैं। कांग्रेस पार्टी भी केजरीवाल पर कोरोना की बदइंतजामी की तोहमत लगाती है। ऐसे में क्या एक राज्य के मुख्यमंत्री को अपने राज्य को किसी देश से आने वाले खतरे के बारे में चर्चा करने का अधिकार भी नहीं है? केजरीवाल ने सिंगापुर के साथ संबंध तोड़ने की बात नहीं कही है, केजरीवाल ने महज सिंगापुर से उड़ानों का आना रोकने के लिए कहा है, जो कि किसी भी एक राज्य के मुख्यमंत्री का अपना अधिकार है। इस बात को सिंगापुर के खिलाफ मानकर और एक मित्र राष्ट्र से संबंध खराब होने का खतरा मानकर जिस तरह से केंद्र सरकार का विदेश मंत्रालय केजरीवाल पर झपटा है वह पूरी तरह नाजायज बात है। आज पूरी दुनिया के देश जिन देशों से आने वाले लोगों को लेकर उन्हें खतरा लगता है, उनकी उड़ानें रोक रहे हैं. खुद हिंदुस्तान से आज बहुत से देशों देशों के लिए उड़ानें नहीं जा सकतीं। ऐसे में अगर भारत का एक निर्वाचित मुख्यमंत्री केंद्र सरकार से यह मांग कर रहा है तो यह मांग पूरी तरह से घरेलू मांग है, और उसे सार्वजनिक रूप से भी इस बात को कहने का हक है। केजरीवाल ने यह बात सिंगापुर सरकार से नहीं कही है कि यह विदेश नीति में दखल मानी जाए. यह बात एक राज्य ने केंद्र सरकार से कही है जिसे कि उसका पूरा हक है।
इसके पहले भी तमिलनाडु के बहुत से मुख्यमंत्री श्रीलंका के तमिलों को लेकर भारत सरकार से कई किस्मों की पहल करने की मांग करते रहे हैं जो कि इसके मुकाबले कई गुना अधिक गंभीर दखल थी, लेकिन भारत के किसी राज्य को केंद्र सरकार के सामने अपनी सोच रखने का हक है। कश्मीर और पंजाब के कितने ही मुख्यमंत्री समय-समय पर भारत सरकार से पाकिस्तान को लेकर तरह-तरह की बात रखते आए हैं। आज केंद्र में जिस एनडीए की सरकार है, उसी एनडीए की सरकार जब कश्मीर में भी थी, तब उस सरकार की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने कई बार पाकिस्तान से बातचीत करने की सलाह भारत सरकार को दी थी । वह तो सीधे-सीधे भारत सरकार की विदेश नीति को लेकर एक सलाह थी वह तो किसी महामारी के खतरे को घटाने के लिए नहीं थी। आज तो केजरीवाल की यह राय महामारी के खतरे को देखते हुए है. दिल्ली आज हिंदुस्तान में सबसे खतरनाक जगह बनी हुई है, ऐसे में अगर केजरीवाल ने एक बहुत जायज सी वजह से यह मांग की है तो भारत सरकार को इतनी समझ होनी चाहिए कि वह सिंगापुर को यह समझा सके कि भारत के संघीय ढांचे में अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग विचारधाराओं की सरकारें हैं, और वहां के मुख्यमंत्रियों को, वहां की निर्वाचित सरकारों को, अपनी-अपनी राय सामने रखने का अधिकार है, लेकिन उस पर अंतिम फैसला लेने और विदेश नीति के हिसाब से देश की प्रतिरक्षा नीति के हिसाब से कुछ तय करने का अधिकार भारत सरकार को ही है। यह पूरी तरह से भारत का एक घरेलू मामला है और सिंगापुर भी इस बात को अच्छी तरह जानता है कि भारत का एक प्रदेश किसी देश से आने वाली उड़ानों को नहीं रोक सकता। ऐसे में उसकी प्रतिक्रिया भी भारत सरकार से बंद कमरे की प्रतिक्रिया होनी चाहिए थी और उस बात को खुद भारत सरकार का विदेश मंत्रालय जिस तरह खुलासे के साथ, जिस अंदाज़ में लोगों के सामने रख रहा है, और सरकार का एक नौकरीपेशा प्रवक्ता एक निर्वाचित मुख्यमंत्री के लिए अपमानजनक बात कह रहा है, वह अधिक खराब बात है।
हमारा मानना है कि केजरीवाल को अपने प्रदेश को महामारी से बचाने के लिए ऐसी राय अपने देश की सरकार को देने का पूरा हक है। अगर केजरीवाल ने यह बात सिंगापुर को लिखी होती तो उस पर कोई आपत्ति हो सकती थी। केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन का अगर केजरीवाल सरकार से कोई राजनीतिक हिसाब चुकता करना है, तो वह विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता के मार्फत नहीं होना चाहिए, सिंगापुर के रास्ते नहीं होना चाहिए। भारत की सत्तारूढ़ भाजपा ही केजरीवाल की मांग का जवाब दे सकती थी। केंद्र सरकार के विदेश मंत्रालय का ऐसा रुख भारत की मौजूदा केंद्र सरकार के मन में राज्यों के लिए हिकारत का एक सुबूत है। किसी भी जिम्मेदार केंद्र सरकार को इससे बचना चाहिए।
-सुनील कुमार
आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने भी सिवाय इसके कोई चारा नहीं रह गया है कि वे देश में कोरोना के भयानक खतरे को मंजूर करें। उन्होंने आज गांव तक कोरोना वायरस पहुँचने पर फिक्र जाहिर करते हुए कलेक्टरों का नाम लिया है कि वही इसे रोक सकते हैं। भारत की प्रशासनिक व्यवस्था में जिलों की सारी कमान कलेक्टरों के हाथ में देने का रिवाज अंग्रेजों के वक्त से चले आ रहा है, और वहीं पर सारे अधिकार केंद्रित रहते हैं, इसलिए मोदी ने अगर ऐसा कहा है तो उसमें हैरानी की कोई बात नहीं है। लेकिन सवाल यह है कि क्या कलेक्टर देश की आम जनता के बीच में छाए हुए अंधविश्वास को अपने दम पर खत्म कर सकते हैं, या उसमें प्रधानमंत्री से लेकर उनके केंद्रीय मंत्रियों तक, उनके मुख्यमंत्रियों और उनके सांसदों-विधायकों तक को हाथ नहीं बंटाना चाहिए ? यह बात करना जरूरी इसलिए लग रहा है कि एक तरफ तो प्रधानमंत्री यह मान रहे हैं कि गांवों तक कोरोना के फैलने का खतरा बहुत बड़ा है, और वह सामने खड़ा भी है। और ऐसे में उनकी पार्टी की नाथूराम गोडसेप्रेमी सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर सार्वजनिक मंच और माइक पर बोल रही हैं कि उन्हें कोरोना नहीं होने वाला क्योंकि वह हर दिन गोमूत्र पीती हैं। उनकी पार्टी के बहुत से लोग इस तरह के बयान देते आए हैं और सार्वजनिक रूप से गोमूत्र पीने का प्रदर्शन भी करते आए हैं। उनकी पार्टी के बड़े-बड़े पदों पर बैठे हुए लोग लगातार ऐसी बातें कहते आए हैं कि गाय ऑक्सीजन छोड़ती है। नरेंद्र मोदी जिस गुजरात के मुख्यमंत्री थे, और जहां आज भी उनकी पार्टी की सरकार चल रही है, वहां पर कोरोना मरीजों के इलाज के लिए गोबर और गोमूत्र से एक हॉस्पिटल चल रहा है, जहां की डरावनी तस्वीरें सामने आ रही हैं, और लोगों के जत्थे एक साथ अपने बदन पर गोबर पोत रहे हैं और शायद गोमूत्र पी भी रहे हैं। इसे कोरोना का पर्याप्त है इलाज मान लिया गया है। आज जब हिंदुस्तान ब्लैक फंगस नाम की एक अलग ही भयानक बीमारी का शिकार हो रहा है, उस वक्त फंगल इन्फेक्शन का खतरा बढ़ाने वाली यह गोबर चिकित्सा बाकी समाज के लिए भी जानलेवा साबित हो सकती है।
इससे परे उनके केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री से लेकर केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री तक लगातार रामदेव की फर्जी दावों वाली दवाइयों के मॉडल बने घूम रहे हैं। अभी जब कल प्रतिरक्षा मंत्रालय के तहत डीआरडीओ ने कोरोना के मरीजों के लिए एक वैज्ञानिक दवाई पेश की, तो उस मौके पर प्रतिरक्षा मंत्री के अलावा स्वास्थ्य मंत्री की मौजूदगी ने उस दवाई की साख को घटा दिया, क्योंकि यही स्वास्थ्य मंत्री फर्जी दावों वाली रामदेवीय दवाइयों को भी इसी तरह मंच पर पेश करते आए हैं। बेहतर यही होता कि इसे प्रतिरक्षा मंत्रालय के मातहत संस्थान के वैज्ञानिकों की मौजूदगी में पेश किया जाता ताकि जनता के बीच इसका कोई भरोसा भी बैठता। अभी कल ही एक खबर आई है कि किस तरह केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री रमेश पोखरियाल ने अपने चुनाव क्षेत्र के लोगों के बीच रामदेव की तथाकथित कोरोना दवा बांटने के लिए पतंजलि से अपील की है, और लोगों से कहा है कि वे जो दवा ले रहे हैं, उसके साथ-साथ इसे भी लें। जब भारत के चिकित्सा वैज्ञानिक रामदेव की दवाई का कोई परीक्षण नहीं कर पा रहे, कोई जांच नहीं कर पा रहे, तो उस वक्त इस ब्रांड को इस तरह सर्वोच्च स्तर पर बढ़ावा देने का क्या मतलब है?
आज हिंदुस्तान में जिस तरह गोबर और गोमूत्र से कोरोना के इलाज के दावे किए जा रहे हैं और उसके लिए कैंप या अस्पताल बनाकर लोगों की जिंदगी को वहां खतरे में डाला जा रहा है, क्या ऐसे लोगों पर महामारी एक्ट लागू नहीं होता कि वे पूरी की पूरी आबादी को कोरोना के बाद खतरे में डाल रहे हैं। भारत की पारंपरिक चिकित्सा पद्धति कहकर किसी भी बात को गैरवैज्ञानिक तरीके से इस महामारी के दौर में इस तरह से बढ़ावा देना न केवल उन कमअक्ल लोगों की जिंदगी को खतरे में डालना है जो इस झांसे में आ रहे हैं बल्कि बाकी तमाम लोगों की जिंदगी को भी खतरे में डालना है जिनके बीच में यह लोग लौटेंगे और जिन्हें मौत की तरफ धकेल लेंगे। हमारा ख्याल है कि बिना राजनीतिक प्रतिबद्धता की फिक्र किए हुए प्रधानमंत्री के स्तर से ही इस देश में वैज्ञानिक बातें करने की जरूरत है। यह जरूरत इसलिए भी है कि उनकी पार्टी के बड़े-बड़े नेता अवैज्ञानिक बातें कर रहे हैं तो ऐसे में उनके स्तर से वैज्ञानिक बातें करने के अलावा और दूसरी बातों का कोई असर होते दिखता नहीं है। आज इस देश में कोरोना के लिए या आने वाली किसी भी और महामारी से बचाव के लिए लोगों के बीच एक वैज्ञानिक समझ विकसित करने की जरूरत है, वरना प्रधानमंत्री के स्तर से मुख्यमंत्रियों से चाहे जितने बार वीडियो पर बात कर ली जाए, चाहे जितने बार जिलों के कलेक्टरों से बात कर ली जाए उसका कोई फायदा नहीं होना है।
जब देश में हिंदू धर्म, हिंदू संस्कृति, भारतीय चिकित्सा पद्धति, प्राकृतिक चिकित्सा और आयुर्वेदिक चिकित्सा का नाम लेकर तमाम किस्म की फर्जी बातें प्रचलित की जा रही हैं, और आज की वैज्ञानिक जरूरत के खिलाफ लोगों को भडक़ाया जा रहा है, लोगों को उकसाया जा रहा है, तो उस वक्त महामारी एक्ट के तहत ऐसी बकवास करने वाले तमाम लोगों के खिलाफ कड़ी कार्यवाही करने की जरूरत है और अगर राजनीतिक दलों की प्रतिबद्धता के चलते हुए ऐसा नहीं किया जा रहा है, तो कुछ राज्य जहां पर ऐसी प्रतिबद्धता से जुड़ी हुई सरकारें नहीं है वे राज्य अपने स्तर पर भी कार्रवाई कर सकते हैं क्योंकि महामारी एक्ट के तहत ऐसी कार्यवाही करना उनका अधिकार ही नहीं है उनकी जिम्मेदारी भी है। आज जब कोरोना के फैलाव को रोकने की सारी जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डाल दी गई है, और देश भर में फैलाए गए अंधविश्वास के चलते बहुत से लोग टीके लगवाने से भी कतरा रहे हैं, ऐसे में अंधविश्वास फैलाने वालों के खिलाफ महामारी एक्ट के तहत कड़ी कार्यवाही की जानी चाहिए। अब गाय खुद तो उसे लेकर किये जा रहे फर्जी दावों के खिलाफ केस कर नहीं सकती। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)