संपादकीय
इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने अभी एक फैसले में कहा है कि पुलिस में लोगों को दाढ़ी रखने का संवैधानिक अधिकार नहीं है अदालत का कहना है कि पुलिस की छवि सेक्युलर रहनी चाहिए और ऐसी छवि से राष्ट्रीय एकता को मजबूती मिलती है। एक मुस्लिम सिपाही को विभाग की इजाजत के बिना दाढ़ी रखने पर निलंबित किया गया था उसने इसके खिलाफ हाई कोर्ट में अपील की थी और वहां से फैसले में यह कहा गया है कि दाढ़ी रखने का धार्मिक स्वतंत्रता से कोई लेना देना नहीं है, और पुलिस में अनुशासन के लिए जो आदेश जारी किया गया है उसमें सिखों को छोडक़र किसी भी अन्य पुलिसकर्मी को बिना इजाजत दाढ़ी रखने की छूट नहीं है।
हाईकोर्ट के फैसले का यह हिस्सा बड़ा दिलचस्प है जिसमें जज पुलिस के लिए कह रहे हैं कि उनकी एक धर्मनिरपेक्ष छवि बनी रहनी चाहिए जिससे राष्ट्रीय एकता मजबूत होती है। आज लखनऊ हाई कोर्ट बेंच के ही इस प्रदेश, उत्तर प्रदेश में जिस तरह धर्मनिरपेक्षता खत्म की जा रही है, हो सकता है उसे लेकर जजों के दिमाग में फिक्र बैठी हुई हो और बाकी मामलों की चर्चा किए बिना उन्होंने इस मामले के बहाने इस जरूरत को गिनाया हो। उत्तर प्रदेश में शायद ही कोई हफ्ता ऐसा गुजर रहा है जब किसी शहर-मोहल्ले या किसी और जगह का नाम नहीं बदला जा रहा है। लगातार ऐसे फैसले हो रहे हैं, और उन पर अमल हो रहा है। और यह पूरा का पूरा सिलसिला एक किसी वक्त रखे गए मुस्लिम नामों को बदल कर उनके हिंदूकरण के बारे में है. ऐसा नहीं है कि किसी हिन्दू नाम को भी बदला गया है. उत्तर प्रदेश में सरकार जिस तरह एक धर्म राज्य कायम करने पर उतारू है, और जिस तरह वहां मुस्लिमों के खिलाफ तरह-तरह के केस दर्ज हो रहे हैं, और जिस तरह वहां के हज हाउस तक को भगवा रंग दिया गया था, तो ऐसी तमाम बातों को देखते हुए उत्तर प्रदेश हाईकोर्ट को जो सचमुच की फिक्र होनी चाहिए वह फिक्र घटते-घटते एक मुस्लिम सिपाही की दाढ़ी तक आ गई। इस बात पर हैरानी होती है कि संविधान की व्याख्या करने तक का अधिकार जिन हाईकोर्ट को रहता है वे अपने दायरे में इस तरह के सरकारी कामकाज देखते हुए भी चुप रहते हैं, और धर्मनिरपेक्षता का तकाजा उन्हें एक मुस्लिम सिपाही की दाढ़ी में दिख रहा है।
खैर इस बात को छोड़ दें तो हाल के बरसों में हिंदुस्तान में सरकारों पर धर्म का जैसा साया दिखा है, वह भयानक है। मध्यप्रदेश में जब उमा भारती मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने मुख्यमंत्री कार्यालय में अपनी इमेज के ऊपर एक मंदिर सा बनवा लिया, और वहां पर प्रतिमा, फूल मालाएं, वह नजारा देखने लायक था। फिर शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री निवास में मंदिर बनवा लिया। देश भर के बहुत से प्रदेशों में तकरीबन हर थाने में बजरंगबली के मंदिर रहते हैं। सरकारी गाडिय़ों को देखें तो उनके भीतर देवी-देवताओं की छोटी प्रतिमाएं लगी रहती हैं, सरकारी दफ्तरों में मंत्री और अफसर अपनी आस्था के मुताबिक देवी-देवता, किसी दूसरे ईश्वर, या किसी गुरु की तस्वीरें टांग कर रखते हैं, मेजों पर कांच के नीचे तस्वीरें सजाकर रखते हैं। और सरकार की जो धर्मनिरपेक्ष छवि होनी चाहिए उसका कहीं अता-पता नहीं रहता। लेकिन बात महज अपने धर्म और अपने किसी आध्यात्मिक गुरु के प्रति आस्था दिखाने तक रहती, तब तक भी ठीक था. आज तो संविधान की शपथ लेकर मंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले लोग, और सरकारी सेवा के तहत काम करने वाले अफसर और कर्मचारी जिस तरीके से सांप्रदायिकता को लादते हुए दिख रहे हैं, सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देते हुए दिख रहे हैं, भीड़त्या करने वाले लोगों के जेल से छूटने पर केंद्रीय मंत्री उनको माला पहनाते दिख रहे हैं, तो ऐसे में किसी एक मुस्लिम सिपाही की दाढ़ी पता नहीं इस देश में सांप्रदायिकता कितना बढ़ा देगी और धर्मनिरपेक्षता को कितना घटा देगी?
हम तो ऐसी आदर्श स्थिति के पक्ष में हैं कि तमाम धार्मिक प्रतीकों को सरकार से बाहर कर दिया जाए, लोगों की तमाम आस्था को उनके घरों तक सीमित कर दिया जाए, और इसे सरकारी सेवा शर्तों में जोड़ दिया जाए, या मंत्री और जज जैसों के साथ इसे जोड़ दिया जाए कि वह किसी किस्म की धार्मिक आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं करेंगे। लेकिन एक तरफ सत्ता पर बैठे हुए लोग सांप्रदायिक हिंसा पर उतारू हैं लगातार सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं इस देश की बड़ी बड़ी अदालतें ऐसे उकसाऊ और भडक़ाऊ सांप्रदायिक कामों को अनदेखा करते हुए बैठी हैं, और ऐसे में जब एक मुस्लिम सिपाही की दाढ़ी से देश की धर्मनिरपेक्षता पर खतरा दिखता है, तो लगता है कि क्या बड़ी-बड़ी अदालतें भी इतने तंग नजरिए से काम नहीं कर रही हैं कि उन्हें एक छोटा सा उल्लंघन तो दिख रहा है, लेकिन देश के लोकतंत्र की बुनियादी समझ, धर्मनिरपेक्ष ढाँचे धर्मनिरपेक्ष पर लगातार होते वार नहीं दिख रहे ? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
तमिलनाडु के हाई कोर्ट से एक दिलचस्प सवाल निकलकर सामने आया है। मद्रास हाईकोर्ट की मदुरई पीठ ने एक जनहित याचिका पर केंद्र सरकार और राजनीतिक दलों को एक नोटिस जारी किया है, और उनसे पूछा है कि 1965 के बाद से तमिलनाडु में आबादी घटने की वजह से 2 लोकसभा सीटें कम कर दी गई थी, अदालत ने कहा है कि राज्य को इसका आर्थिक मुआवजा क्यों न दिया जाए? अदालत ने यह बुनियादी बात उठाई है कि तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश ने क्योंकि अपनी आबादी काबू में रखी और बाकी देश के मुकाबले कम की, इसलिए आबादी के अनुपात में लोकसभा की सीटें तय करते हुए इन दो राज्यों में 1967 के चुनाव से सीटें घटा दी गई थी। हाईकोर्ट ने यह सवाल उठाया है कि किसी राज्य को परिवार नियोजन और आबादी नियंत्रण को कामयाबी से लागू करने की वजह से क्या इस तरह की सजा दी जा सकती है कि लोकसभा में उसकी सीटें कम हो जाए? अदालत ने इस बात को भी याद दिलाया है कि किस तरह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार एक वोट की वजह से गिर गई थी, तो ऐसे एक सांसद का महत्व कितना होता है यह उस समय सामने आ चुका है। अदालत ने कहा है कि एक सांसद का 5 वर्ष के कार्यकाल में राज्य के लिए 200 करोड़ का योगदान माना जाना चाहिए इस हिसाब से केंद्र सरकार तमिलनाडु को 14 चुनावों में 2-2 सांसद कम होने का मुआवजा 5600 करोड़ रुपए क्यों न दे?
यह बड़ा ही दिलचस्प मामला है और बहुत से लोगों को यह बात ठीक से याद भी नहीं होगी कि आबादी के अनुपात में लोकसभा क्षेत्र तय करने का मामला इमरजेंसी के दौरान एक संविधान संशोधन करके रोक दिया गया था क्योंकि उत्तर भारत के बड़े-बड़े राज्य लगातार अपनी आबादी बढ़ाते चल रहे थे, और केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश जैसे दक्षिण भारतीय राज्य अपनी अधिक जागरूकता की वजह से आबादी घटा रहे थे और इस नाते उनकी सीटें भी कम होने जा रही थी। यह बुनियादी सवाल मदुरई हाई कोर्ट से परे भी पहले उठाया जा चुका है कि क्या किसी राज्य को उसकी जिम्मेदारी और जागरूकता के लिए सजा दिया जाना जायज है? लोगों को यह ठीक से याद नहीं होगा कि हिंदुस्तान में हर जनगणना के बाद लोकसभा सीटों में फेरबदल की एक नीति थी लेकिन बाद में जब यह पाया गया कि उत्तर और दक्षिण का एक बड़ा विभाजन इन राज्यों की जागरूकता और जिम्मेदारी को लेकर हो रहा है और अधिक जिम्मेदार राज्य को सजा मिल रही है तो फिर आपातकाल के दौरान 1976 में 42 वें संविधान संशोधन से लोकसभा सीटों में घट बढ़ की इस नीति को रोक दिया गया, और इसे 2001 तक न छेडऩा तय किया गया। लेकिन 2001 में भी यह पाया गया कि अभी भी उत्तर भारत और दक्षिण भारत के बीच एक बड़ी विसंगति जारी है और अगर आबादी के अनुपात में सीटें तय होंगी तो संसद में दक्षिण का प्रतिनिधित्व घटते चले जाएगा और भीड़ भरे उत्तर भारत का प्रतिनिधित्व बढ़ते चले जाएगा इसलिए 2001 में इसे फिर 25 बरस के लिए टाल दिया गया और अब 2026 तक सीटों तक ऐसा फेरबदल नहीं होना है। यह एक अलग बात है कि उत्तर और दक्षिण में आबादी का फर्क, आबादी में बढ़ोतरी का फर्क, अभी तक जारी है और 2026 में भी ऐसे कोई आसार नहीं हैं कि आबादी के अनुपात में लोकसभा सीटें तय की जाएं। ऐसा होने पर जिम्मेदार राज्यों के साथ बड़ी बेइंसाफी होगी और गैरजिम्मेदार राज्यों को संसद में अधिक सांसद मिलने लगेंगे।
यह पूरा सिलसिला प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के भी खिलाफ है इसलिए कि किसी व्यक्ति किसी इलाके प्रदेश या लोकसभा सीट को अधिक जिम्मेदार होने की वजह से सजा देना किसी भी कोने से जायज नहीं है। दूसरी तरफ आबादी घटाने के राष्ट्रीय कार्यक्रम और सामाजिक जरूरत के खिलाफ जाकर लगातार आबादी बढ़ाने वाले राज्यों का आर्थिक पिछड़ापन जारी है, लेकिन वे पुराने कानून के हिसाब से देखें तो संसद में अधिक सदस्य भेजने के हकदार हो सकते थे, इसलिए इस सिलसिले को रोक देना ही ठीक था। 1976 के बाद से अभी तक सीटों को बढ़ाने या घटाने का सिलसिला तो थमा हुआ है, लेकिन तमिलनाडु के इस हाईकोर्ट ने एक नया सवाल उठाया है कि क्या राज्य से छीने गए 2 सांसदों के एवज में आर्थिक भरपाई नहीं की जानी चाहिए?
इस पर चर्चा होनी चाहिए क्योंकि आज तो यह मामला 2026 तक थमा हुआ है, लेकिन 2026 तक न तो राज्यों के बीच आबादी का अनुपात बहुत नाटकीय अंदाज से बदलने वाला है, और न ही 2026 में ऐसी नीति देश में लागू करना मुमकिन हो पाएगा। ऐसा करने पर उत्तर और दक्षिण के बीच एक बगावत जैसी नौबत आ जाएगी और देश टूटने की तरह हो जाएगा, जिसमें जिम्मेदार दक्षिण को लगेगा कि उसे उसकी जागरूकता की सजा दी जा रही है। इसलिए 2026 का वक्त आने के पहले देश में इस पर चर्चा होनी चाहिए, लोगों को बात करना चाहिए, दूसरे देशों की मिसालें भी देखनी चाहिए। अमरीका में काम कर रहे एक हिंदुस्तानी पत्रकार ने अभी लिखा है-‘अमरीकी संसद के उच्च सदन सेनेट (राज्यसभा) में सौ सदस्य होते हैं। अमेरिका में पचास राज्य हैं। हर राज्य से दो सदस्य सेनेट में चुनकर आते हैं। भारत में राज्यसभा सदस्य चुनने के लिए राज्यों के विधायक भी वोट डालते हैं, जबकि अमेरिकी सेनेट के सदस्य हर राज्य की पूरी जनता चुनती है। हर राज्य से दो सेनेटर होने का नियम बहुत ही जबरदस्त है। चार करोड़ की आबादी वाले कैलिफोर्निया के भी दो सेनेटर हैं और पौने छह लाख की आबादी वाले वायोमिंग राज्य के भी दो ही हैं। भारत में ऐसा होता तो राज्यसभा में मणिपुर और यूपी के बराबर सदस्य होते। इस तरह अमेरिकी सेनेट में कोई भी राज्य किसी से ऊपर या नीचे नहीं है।’
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अगले कुछ महीनों में हिंदुस्तान में घर से काम करने, ऑनलाइन क्लास लेने, और इंटरनेट के रास्ते सेमिनार में हिस्सा लेने के 2 बरस पूरे हो जाएंगे। इस डेढ़ बरस में बहुत से इम्तिहान नहीं लिए गए, और बच्चों को अगली क्लास में भेज दिया गया। जो स्कूल ऑनलाइन पढ़ा सकती थीं, वे इस कोशिश में लगी हुई हैं कि पढ़ाने वाले लोगों को दी जा रही पूरी या आधी तनख्वाह, कुछ हद तक बच्चों की फीस की शक्ल में वसूल हो सके। लेकिन यह मामला भी देशभर में बड़ा कमजोर सा चल रहा है और निजी स्कूलों को यह समझ नहीं आ रहा है कि वे कब तक इस तरह काम कर सकेंगी और अगर कोरोना महामारी की तीसरी लहर आएगी तो उसके बाद निजी स्कूलों और कॉलेजों का क्या होगा? सरकारों ने कोरोना से जूझने के तरीके तो कुछ या अधिक हद तक ढूंढ लिए हैं, लेकिन खुद सरकार का अपना काम जिस तरह वीडियो कांफे्रंस पर चल रहा है, और पढ़ाई-लिखाई जिस तरह कंप्यूटर या मोबाइल फोन पर चल रही है, उस बारे में काफी कुछ करने की जरूरत है। अब कोरोना का तीसरा दौर आता है या नहीं यह तो किसी के हाथ में नहीं है, लेकिन हो सकता है कि आने वाले वर्षों में कोई और महामारी आए या किसी और वजह से स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई को ऑनलाइन करना पड़े, सेमिनार और कान्फ्रेंस ऑनलाइन होने लगें, तो उस दिन के लिए राज्य सरकारों ने कोई बेहतर तैयारी की हो, ऐसी मिसालें भी सामने नहीं आ रही हैं।
हम अपने आसपास के जितने राज्यों के बारे में खबरें पढ़ते हैं, किसी राज्य से ऐसी खबर अभी तक नहीं आई है कि सरकार ने अपने प्रदेश के स्कूल-कॉलेज के ढांचे को डिजिटल कामकाज के लिए बेहतर तैयार करने पर मेहनत की हो। स्कूल-कॉलेज में काम करने वाले शिक्षक या प्राध्यापक कंप्यूटर और इंटरनेट पर अधिक का काम करने के आदी नहीं रहे हैं। पढ़ाने, इम्तिहान लेने का काम तो ऑनलाइन करने की किसी की आदत नहीं रही है, कोई तजुर्बा नहीं रहा है। ऐसे में सरकारों को चाहिए तो यह था कि वे मामूली तकनीकों के जानकार लोगों को लेकर प्रदेश के स्कूल-कॉलेज के शिक्षकों और छात्र-छात्राओं, सभी को एक डिजिटल तैयारी करवाते। आज मामूली निजी जानकारी से लोग किसी तरह काम चला रहे हैं, लेकिन एक तरफ तो पढ़ाई के ढांचे पर खर्च लगभग उतना ही हो रहा है, दूसरी तरफ छात्र-छात्राओं के एक के बाद एक बरस निकले चले जा रहे हैं। ऐसे में अगर काम को बेहतर बनाने पर मेहनत नहीं हो रही है, तो जाहिर है कि उत्पादकता और उत्कृष्टता दोनों ही कम और कमजोर रहेंगे। वही आज हो रहा है।
यह एक ऐसा मौका भारत जैसे देश के लिए सामने आया था, और आज भी खड़ा हुआ है कि अपने पढ़ाई के ढांचे का डिजिटलीकरण बेहतर तरीके से किया जाए, और कामचलाऊ अंदाज में औपचारिकता पूरी करने के बजाए अच्छी क्वालिटी का काम किया जाए। सरकार के स्कूल-कॉलेज के अधिकतर शिक्षक-शिक्षिकाओं की उम्र आसानी से सीखने की निकल चुकी है, अब अगर उनसे यह उम्मीद की जाए कि वे अपने घर-परिवार के बच्चों को पकडक़र उनसे कुछ सीख लें, तो इस उम्मीद से अधिक उम्मीद नहीं करनी चाहिए। सरकारों को अपने इतने संगठित ढांचे में योजनाबद्ध तरीके से अपने शिक्षक-शिक्षिकाओं को तकनीक के इस्तेमाल का प्रशिक्षण देना चाहिए था। इसके साथ ही स्कूल-कॉलेज के बच्चों को भी ऑनलाइन तकनीक का इस्तेमाल सिखाने पर मेहनत करनी थी।
यह तो सरकारों के हाथ में है कि वे एक और साल बिना इम्तिहान लिए बच्चों को अगली क्लास में भेज सकती हैं, लेकिन क्या इतना गुजरता जा रहा वक्त कभी लौटकर आएगा? क्योंकि सरकारों ने ऑनलाइन पढ़ाई जारी रखने का फैसला लिया है और स्कूल-कॉलेज में इसे लेकर खासा संघर्ष भी जारी है यह एक ऐसा मौका है जब राज्यों को अपनी कंप्यूटर से जुड़ी किसी एजेंसी को तुरंत ही ऐसे प्रशिक्षण की तैयारी करने कहना था और आज देश में जितनी बेरोजगारी है उसमें मामूली तकनीक सिखाने के लिए हुनरमंद लोग भी तुरंत मिल सकते थे। यह एक ऐसा मौका भी है जब स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालयों को तरह-तरह के लेक्चर तैयार करने के लिए कम से कम शहर के स्तर पर अच्छे स्टूडियो मुहैया कराए जा सकते थे जिनसे पढ़ाने की बेहतर सामग्री तैयार हो सकती थी। यह भी हो सकता था कि इस मौके के सही इस्तेमाल से कोरोना की दिक्कतें खत्म होने के बाद भी पढ़ाई को बेहतर करने की तैयारी हो चुकी रहती, लेकिन ऐसा कहीं होते दिख नहीं रहा है। इस महामारी ने लॉकडाउन और ऑनलाइन पढ़ाई ने यह मौका दिया है कि पढ़ाई का तेजी से कंप्यूटरीकरण हो सकता था, और दूर-दूर बसे हुए स्कूल-कॉलेज में पढ़ाने वालों की कमी भी ऐसी ऑनलाइन पढ़ाई से दूर हो सकती थी। लेकिन बजाए बेहतर तैयारी के, बजाए एक अच्छी योजना बनाने के, सरकार ने मोटे तौर पर अपने ढांचे को किसी तरह से इस नौबत से जूझने में लगा दिया।
सरकार का अपने पढ़ाई के ढांचे पर खासा खर्च होता है और उसका इस्तेमाल एक औपचारिकता निभाने के लिए, साल काटने के लिए नहीं करना चाहिए बल्कि उसकी उत्पादकता और उत्कृष्टता दोनों को लगातार बढ़ाते चलने की कोशिश करनी चाहिए। अभी भी वक्त है समझदार राज्य अपने स्तर पर एक अच्छी योजना बनाकर पढ़ाई के पूरे ढांचे के ऐसे प्रशिक्षण का काम कर सकते हैं जिससे सबका भला हो। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अफगानिस्तान लगातार खबरों में बना हुआ है, तकरीबन हर दिन वहां से हिंदुस्तानी लौट भी रहे हैं, और सैकड़ों हिंदुस्तानी वहां अभी भी बाकी है जिन्हें लाने की तैयारी चल रही है। इन बातों को देखें और अफगानिस्तान पर कुछ लिखने के पहले वहां के बारे में पढ़ें तो ऐसा लगता है कि अफग़़ानिस्तान का इतिहास उन इलाकों से परे भी दूसरे देशों को, दूसरे समुदायों को बहुत सी चीजें सिखा सकता है। अफगानिस्तान में एक वक्त, आज ऐसे करीब आज से करीब डेढ़ सौ बरस पहले, हिंदुस्तान पर काबिज अंग्रेज सरकार और कम्युनिस्ट सोवियत संघ के बीच अफगानिस्तान पर कब्जे की कोशिशें चलीं, और उसके बाद अभी इक्कीसवीं सदी में वहां अमेरिका ने यही काम किया। लेकिन अफगानिस्तान की स्थानीय जीवन शैली को समझे बिना जिस तरह इन विदेशी साम्राज्यवादी ताकतों ने वहां पर कब्जा करने की लंबी कोशिशें की और लंबी मुंह की खाई, उससे पूरी दुनिया को एक सबक लेना चाहिए कि जिस जगह जाकर कोई बड़ा काम करने का इरादा हो, उस जगह को पहले समझ लेना बेहतर होता है।
आज दुनिया के इतिहासकार और विश्लेषक लगातार इस बात को लिख रहे हैं कि अलग-अलग वक्त पर दुनिया की इन तीन बड़ी ताकतों ने अफग़़ानिस्तान पर कब्जे का सपना देखा, कोशिश की, और दशकों तक फौजी ताकत का इस्तेमाल किया, उनकी सबसे बड़ी चूक यह हुई कि वह वे वहां पर कब्जा करने के लिए आमादा तो हो गए लेकिन वहां से निकलना नहीं जाना। उन्हें यह समझ ही नहीं आया था कि कभी उन्हें अफगानिस्तान छोडक़र निकलना भी पड़ेगा। यह नौबत इन तीनों महाशक्तियों की शिकस्त की सबसे बड़ी वजह रही कि उन्होंने अफगानिस्तान जाने की योजना या साजिश तो बना ली थी। लेकिन वहां से निकलने के बारे में कुछ नहीं सोचा था। इसलिए आज अमेरिका के सबसे करीबी साथी भी अमेरिका को इस बात के लिए धिक्कार रहे हैं कि उसने न केवल अफगानिस्तान को मंझधार में छोडक़र चले जाना तय किया बल्कि अफगानिस्तान में मौजूद लाखों मददगारों और सहयोगियों को वहां छोडक़र अमेरिका निकल आया है और अब किसी तरह उनमें से कुछ लोगों को खतरे में निकालने की कोशिश कर रहा है।
हिंदुस्तान में देखें तो पौराणिक कहानियों में एक ऐसा जिक्र आता है कि महाभारत में अभिमन्यु ने युद्ध के घेरे में घुसना तो सीखा हुआ था मां के पेट से ही, लेकिन निकलना नहीं सीखा था और इसलिए वह चक्रव्यूह में फंस गया। अफगानिस्तान दुनिया की इन तीनों महाशक्तियों के लिए चक्रव्यूह ही साबित हुई जिसमें से कोई जिंदा या कामयाब बाहर नहीं निकल पाया। अफगानिस्तान के दसियों लाख लोगों को इन डेढ़ सौ बरसों में इन फौजी ताकतों ने मारा और खुद अपने भी लाखों सैनिक खोए। यह सिलसिला दुनिया को एक सबक दे जाता है। लेकिन अफगानिस्तान से दुनिया के लिए और भी बहुत से सबक निकल रहे हैं कि किस तरह वहां पर कट्टर, धर्मांध, और हिंसक तालिबान की बनाई हुई शरिया अदालतें पूरे अफगानिस्तान के लोगों के बीच लोकप्रिय थीं क्योंकि तथाकथित शहरी लोकतंत्र की बनाई हुई औपचारिक आधुनिक लोकतांत्रिक अदालतें इस कदर भ्रष्ट हो चुकी थी कि लोगों का उन पर से भरोसा उठ गया था, और किसी कमजोर और गरीब के लिए वहां इंसाफ पाना मुमकिन नहीं था। नतीजा यह था अफगान लोग शरिया अदालतों में जाने लगे थे वहां के इंसाफ पर उन्हें भरोसा भी था और उससे परे, वे अदालत ने भ्रष्टाचार से भी दूर थी।
अब आज दुनिया में तालिबान को जिस तरह से देखा जा रहा है, कौन इस बात को आसानी से मान सकते हैं कि उनकी बनाई हुई अदालतें शहरी लोकतंत्रों की अदालतों के मुकाबले बहुत अधिक ईमानदार थीं और भ्रष्टाचार से मुक्त थीं। अब यह बात हिंदुस्तान जैसे किसी देश के संदर्भ में सोचें तो जहां पर अदालतों को आमतौर पर भ्रष्ट मान लिया गया है, और लोगों को अदालतों पर कोई भरोसा नहीं है, तो लोकतंत्र की ऐसी असफलता क्या किसी किस्म के धार्मिक फतवों को बढ़ावा दे सकती है? क्या ऐसी नौबत आ सकती है जिसमें लोगों को अपने बाहुबल पर अधिक भरोसा हो या लोग मुंबई में किसी माफिया के पास, या उत्तर प्रदेश बिहार में किसी बड़े गुंडे के पास जाने लगें, कि वहां उनके झगड़ों का आसानी से ईमानदार निपटारा हो जाए? ऐसी तमाम बातें अफगानिस्तान से आज बाकी दुनिया के लिए सबक के रूप में निकल रही हैं।
अफगानिस्तान में 1980 के पहले जिस तरह से वहां स्थानीय कम्युनिस्ट पार्टी के जुल्म भरे राज को जारी रखने के लिए रूस ने दसियों हजार सैनिकों को वहां झोंक दिया था और अंधाधुंध कत्लेआम शुरू कर दिया था, वह भी एक वजह थी कि अफगान जनता कम्युनिज्म से नफरत करने लगी थी, फिर चाहे वह बराबरी के आर्थिक अधिकारों की बात करता था और महिलाओं के लिए बराबरी के अधिकार की बात भी करता था। लेकिन उसने जिस हद तक लोगों पर जुल्म ढहाना शुरू किया था उसी का नतीजा था कि कम्युनिस्टों को आखिर में जाकर अपने रूसी आकाओं के साथ सत्ता छोडऩी पड़ी थी, और रूस के आखिरी फौजी को भी अफगानिस्तान से जाना पड़ा था। लेकिन दूसरी तरफ बाहर से लाकर पश्चिमी अंदाज का लोकतंत्र लादने की अमेरिका की गुंडागर्दी की कोशिश ने जिस तरह के जुल्म किए थे और अमेरिकी सरगनाई में जिस तरह पश्चिमी फौजियों ने अफगान जनता पर जुल्म किए थे, उन्हीं का नतीजा था कि इन 20 वर्षों में धीरे-धीरे तालिबान को एक बार फिर जगह मिली और आज अमेरिका की वापिसी को तालिबान की जीत के जश्न के रूप में मनाया जा रहा है। फिर चाहे अमेरिका कहने के लिए एक संविधान से बंधा हुआ लोकतंत्र क्यों ना हो, उसने अफगानिस्तान में जितने जुल्म किये हैं, उन्हीं का नतीजा रहा कि तालिबान एक बार फिर लोगों की हमदर्दी पाकर सत्ता पर आ चुके हैं। हम ऐसी किसी भी बात का अतिसरलीकरण करना नहीं चाहते लेकिन मोटे तौर पर वहां की नौबत को समझाने के लिए इन बातों को कर रहे हैं कि किस तरह किसी के गलत काम दूसरे गलत लोगों के लिए एक जगह पैदा कर देते हैं। जैसे हिंदुस्तान में देश की सरकार हो या बिहार की सरकार हो, जब इन सरकारों ने खूब भ्रष्टाचार किया, तो इनकी धर्मनिरपेक्षता किनारे धरी रह गई और देश के सबसे सांप्रदायिक लोगों को भी जनता ने इनके ऊपर चुन लिया क्योंकि जनता भ्रष्टाचार से थक गई, और जनता शायद कुनबापरस्ती से भी थक गई थी। ऐसे में लोगों को लगा कि सांप्रदायिक होना इतनी बड़ी बुराई नहीं है जितनी बड़ी बुराई भ्रष्ट होना और कुनबापरस्त होना है।
अफगानिस्तान को आज देखें तो वहां 1840 के आसपास से अंग्रेजी फौजियों की जो दखल शुरू हुई थी वह 100 बरस बाद जाकर रूसी फौजियों की शक्ल में बदल गई और उसकी चौथाई सदी बाद वह अमेरिकी फौजों की शक्ल में बदल गई। इस दौरान अफगानिस्तान के भीतर स्थानीय तबकों में भी लोग अलग-अलग समय पर अलग-अलग किस्म की ताकतों को खारिज करते रहे, और अलग-अलग किस्म की ताकतों का साथ देते रहे। अफगानिस्तान का पूरा ताजा इतिहास बड़ा दिलचस्प है और यह बाकी दुनिया के लिए एक बड़ा सबक बन कर भी आया है कि सरकारों को क्या-क्या नहीं करना चाहिए देश के भीतर राज्य करने की हसरत रखने वाले राजनीतिक दलों और समुदायों को क्या-क्या नहीं करना चाहिए। फिर अफगानिस्तान इस बात का भी एक बहुत बड़ा सबूत है कि लोकतंत्र को अपने आपको इस हद तक नाकामयाब नहीं करना चाहिए कि कट्टरता और धर्मांधता भी बेहतर लगने लगे। हिंदुस्तान सहित बाकी दुनिया के लोकतंत्रों को भी अफगानिस्तान के बारे में पढक़र अपने खुद के बारे में भी सोचना चाहिए। यह भी सोचना चाहिए कि धर्मांधता और कट्टरता जब वह बढऩा शुरू होती हैं, तो वे इस हद तक बढ़ जाती हैं कि अमेरिका और तमाम पश्चिमी देशों के फौजी गठबंधन को भी नाकामयाब कर देती हैं। यह भी सोचना चाहिए कि जब देशों की सरकारें किसी एक धर्म की धर्मांधता को बढ़ावा देती हैं, तो पाकिस्तान, सऊदी अरब जैसे देश तालिबान को किस ऊंचाई तक पहुंचा सकते हैं, उसे कितनी ताकत दे सकते हैं। अफगानिस्तान का यह पूरा तजुर्बा दुनिया को बहुत कुछ सीखने का मौका दे रहा है और लोगों को अफगानिस्तान की फिक्र करने के बजाए अपने देश और अपने समाज की फिक्र करनी चाहिए, अपने धर्म की खामियों की फिक्र करनी चाहिए, हिंसा और कट्टरता की फिक्र करनी चाहिए और यह सोचना चाहिए कि कैसे-कैसे उनके साथ यह नौबत ना आए।
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सोनिया गांधी ने करीब डेढ़ दर्जन गैर-भाजपा, गैर-एनडीए पार्टियों से बात की और भाजपा के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा बनाने की चर्चा की। कोरोना के खतरे को देखते हुए यह पूरी चर्चा ऑनलाइन हुई लेकिन इसे महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि देश में आज यह चर्चा छिड़ चुकी है कि उत्तर प्रदेश, पंजाब जैसे राज्यों के चुनावों को देखते हुए और 2024 के आम चुनाव को देखते हुए जो कोई पार्टी मोदी से निपटना चाहती है, उसे दूसरे विपक्षी दलों के साथ एक तालमेल बैठाना ही पड़ेगा, उसके बिना मोदी से पार पाना मुमकिन नहीं है। एक वक्त हिंदुस्तान की राजनीति में कांग्रेस के खिलाफ बाकी सबको एक करने की जो मुहिम चलती थी, वह मुहिम अब मोदी के खिलाफ बाकी सब एक में बदल चुकी है क्योंकि आज वक्त की जरूरत वही है। आज यह आसान नहीं रह गया है कि मोदी से सिर्फ यूपीए अकेले पार पा सके।
ऐसे मौके पर मोदी विरोधियों के बीच जेल से छूटे हुए लालू यादव भी हैं, जिनके आने के बाद बिहार की राजनीति में बड़े फेरबदल होने की उम्मीद जताई जा रही थी। यह एक अलग बात है कि पिछले हफ्ते-दस दिन से लालू की पार्टी उनके बेटों के आपसी झगड़ों और पार्टी के भीतर चल रही टकराहट को लेकर खबरों में बनी हुई है। सोनिया गांधी ने कांग्रेस के अलावा डेढ़ दर्जन और पार्टियों को साथ लेकर जो एक संयुक्त बयान जारी किया है वह अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण तो है, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या सोनिया गांधी अगले चुनाव तक ऐसे किसी प्रस्तावित गठबंधन में उसके नेता के रूप में, या कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में सक्रिय रहेंगी, या फिर कांग्रेस पार्टी को कोई दूसरा अध्यक्ष मिलेगा? यह बात जरूरी इसलिए है कि विपक्ष की पार्टियों में कांग्रेस चाहे सबसे बड़ी पार्टी न भी रह गई हो, वह अकेली पार्टी है जिसकी पूरे हिंदुस्तान में मौजूदगी है। कांग्रेस के अलावा गैर-एनडीए पार्टियों में पूरे देश में पहुंचे रखने वाली कोई दूसरी पार्टी नहीं है। इसलिए कांग्रेस के जो घरेलू मामले हैं, उन मामलों में भी कांग्रेस के साथ जुडऩे वाली दूसरी पार्टियों की फिक्र जुड़ी हुई है, और उन्हें फिक्र करने का हक भी है। आज कोई भी पार्टी मोदी के मुकाबले एक किसी गठबंधन में कई किस्म की कुर्बानी देकर जुडऩे के लिए तैयार होती है तो उस गठबंधन की मुखिया पार्टी के बारे में उसके कुछ सवाल भी हो सकते हैं, और इनका जवाब दिए बिना बचा नहीं जा सकता।
आज मोदी के मुकाबले जो भी मोर्चा खड़ा होगा उसमें बिहार में लालू यादव की आरजेडी की भूमिका रहेगी ही रहेगी, और ऐसे में अगर आरजेडी के भीतर, लालू के जेल के बाहर रहते हुए भी गृहयुद्ध चल रहा है कि उनके दोनों बेटे मीडिया और सोशल मीडिया के रास्ते एक दूसरे पर हमले कर रहे हैं, तो इससे लालू यादव की किसी भी विपक्षी गठबंधन पर पकड़ कमजोर भी होती है। आज जिस तरह कांग्रेस के अगले अध्यक्ष को लेकर एक रहस्य, और रहस्य से भी बड़ा असमंजस फैला हुआ है, तो उससे भी किसी संभावित गठबंधन में कांग्रेस की बात का वजन घटता है। ऐसे किसी भाजपा विरोधी गठबंधन के बीच आज वैसे भी बहुत किस्म के विरोधाभास और विसंगतियां हैं, लेकिन जब बड़ी-बड़ी पार्टियों के भीतर का गृहयुद्ध या उनके भीतर का असंतोष इस तरह खुलकर सामने आएगा, तो ऐसे गठबंधन की संभावनाएं कमजोर ही होती हैं। एक तो भाजपा के मुकाबले दूसरी बहुत सी पार्टियों पर कुनबापरस्ती की जो तोहमत लगती है, उसका कोई आसान जवाब किसी के पास नहीं है। कांग्रेस पार्टी पर तो देश में राजनीति में कुनबापरस्ती को शुरू करने की ही तोहमत लगती है, लेकिन कांग्रेस से परे भी एनसीपी का पवार परिवार, शिवसेना का ठाकरे परिवार, टीएमसी का ममता परिवार, आरजेडी का लालू परिवार, समाजवादी पार्टी का मुलायम परिवार, कश्मीर की दोनों पार्टियों के अपने कुनबे, डीएमके का स्टालिन परिवार, और इस तरह के और कई पार्टियों के परिवारवाद के जलते-सुलगते मामले सामने हैं। इनके मुकाबले भाजपा एक अधिक वजन के साथ अपने-आपको कुनबापरस्ती से परे की पार्टी साबित करने में कामयाब होती है। मोदी तो अपने को परिवारमुक्त नेता साबित करके एक साख पा ही चुके हैं।
अब देखना यही है कि मोदी विरोधी यह नया मोर्चा अपने आंतरिक विरोधाभास और अपनी विसंगतियों से किस तरह उभरता है, और इसकी हिस्सेदार पार्टियां किस तरह अपने आपको जनता के बीच एक भरोसेमंद विकल्प की तरह पेश कर पाती हैं। आज तो जिस अंदाज में लालू यादव का कुनबा जिस तरह सडक़ पर लड़ रहा है और जिस तरह पार्टी पर उनका कुनबा हावी है, यह विपक्षी गठबंधन में लालू यादव की स्थिति को कमजोर बनाने वाली बात है। कांग्रेस को भी अपने भीतर के दो दर्जन असंतुष्ट नेताओं के बीच अपने घर को चलाना सीखना होगा, वरना उसकी बात का वजन भी कम रहेगा। आगे आगे देखें होता है क्या!
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एक के बाद दूसरे विकसित और संपन्न देशों ने अपने नागरिकों को कोरोना वैक्सीन के दो डोज के बाद तीसरा डोज लगाने की घोषणा की है और कुछ देशों ने यह शुरू भी कर दिया है। इजरायल जैसा छोटा देश जो कि अति संपन्न देशों में से है, उसने तीसरा डोज लोगों को लगा भी दिया है। अमेरिका और यूरोप के बहुत से देशों ने इसकी घोषणा कर दी है। इसे देखते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इन देशों को यह चेतावनी दी है कि जब दुनिया के गरीब देशों में लोगों को वैक्सीन की पहली खुराक भी नहीं लग पा रही है तब अगर कुछ देश अपनी संपन्नता की वजह से अपने नागरिकों को तीसरी खुराक लगा रहे हैं, तो इससे दुनिया के अमीर और गरीब देशों के बीच एक गहरी और चौड़ी खाई खुद रही है। एक अंतरराष्ट्रीय संगठन दुनिया में अपने आपको परिपच् लोकतंत्र करार देने वाले देशों को यह मामूली समझ की नसीहत दे रहा है, जो कि इन देशों को खुद ही समझ आनी चाहिए थी। वैसे भी दुनिया में विकसित और संपन्न देश अपनी कई किस्म की नीतियों को लादते हुए बाकी दुनिया को गरीब बनाए रखने की साजिश करते ही हैं। लेकिन एक महामारी जिसका असर दुनिया में कहीं से कहीं भी फैल रहा है, उसे काबू में करने के लिए भी विकसित देशों को यह बात समझ नहीं आ रही है कि उनके लोगों को तीसरी खुराक लगने के पहले गरीब देशों में स्वास्थ्य कर्मचारियों और दूसरे लोगों को पहली खुराक लग जाना अधिक जरूरी है, तभी यह दुनिया महामारी से बच सकेगी। संपन्नता लोगों को इस हद तक हिंसक बना देती है कि वे दुनिया को अलग-अलग टापुओं में बांटकर चलने लगते हैं और गरीब लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने संपन्न देशों की इस रणनीति पर तंज कसते हुए कहा है कि ये देश अपने लोगों को अतिरिक्त लाइफ जैकेट देने जा रहे हैं, जिनके पास पहले से लाइफ जैकेट हैं, जबकि बाकी लोगों को डूबने के लिए छोड़ दे रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय संगठनों के सामने हमेशा से ही यह बात चली आ रही है कि विकसित संपन्न और ताकतवर देश गरीब देशों की कोई फिक्र नहीं करते और गरीब देशों को अपना कबाड़ फेंकने के लिए, अपनी जरूरत के ऐसे सामान बनवाने के लिए इस्तेमाल करते हैं जिनसे उन गरीब देशों में चाहे जितना प्रदूषण हो जाए। गरीबों को मरने के लिए छोड़ देना अमीर समाज या अमीर देश की एक आम सोच हमेशा से चली आ रही है। दिलचस्प बात यह भी है कि कोरोना वैक्सीन की तीसरी डोज के बारे में अभी तक विश्व स्वास्थ्य संगठन को ऐसा कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं मिला है कि इस तीसरी डोज से लोगों पर खतरा कुछ घटेगा। फिर भी जो संपन्न देश वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों से मनमाना स्टॉक खरीद सकते हैं, वे अपने नागरिकों को 3-3 डोज लगाना शुरू कर चुके हैं।
आज दुनिया में देशों के बीच में ऐसा कोई तालमेल नहीं बचा है कि पूरी दुनिया की एक सामूहिक जिम्मेदारी अधिक ताकतवर और अधिक संपन्न देशों पर कुछ अधिक आए। दुनिया के देश अपनी सरहदों को अपनी जिम्मेदारी की सरहद भी मान लेते हैं, और सरहद के दूसरी तरफ के दूसरे देशों की कोई जिम्मेदारी भी अपने ऊपर नहीं मानते। तरह-तरह के फौजी झगड़ों के मौके पर संयुक्त राष्ट्र संघ किसी काम का नहीं रह गया है, उसी तरह तरह-तरह की महामारी और दूसरी बीमारियों से जूझने के लिए डब्ल्यूएचओ जैसे संगठनों के हाथ में कोई ताकत नहीं रह गई है, और ये संगठन संपन्न देशों से मिलने वाले आर्थिक अनुदान पर चल रहे हैं, उनको कुछ कहने की हालत में नहीं हैं। फिर यह भी है कि विकसित और संपन्न लोकतंत्रों के भीतर भी ऐसी कोई सामाजिक और सामूहिक चेतना नहीं रह गई है कि वहां के लोग अपनी सरकारों के ऐसे फैसलों के खिलाफ उठकर खड़े हों और एक जनमत तैयार करें कि पहले दुनिया के गरीब देशों को वैक्सीन का पहला डोज दिया जाए उसके बाद संपन्न देश अपने लोगों को तीसरा डोज देने की सोचें। यह सिलसिला बड़े-बड़े विकसित लोकतंत्र होने का दावा भरने वाले देशों की गैरजिम्मेदारी का एक बड़ा सबूत है, और यह बड़ी तकलीफदेह सच्चाई है कि दुनिया में स्वार्थ इस कदर हावी है कि लोग अपने से परे दूसरों की जरूरत, उनकी जिंदगी पर खतरे, के बारे में कुछ सोच भी नहीं रहे हैं। किसी लोकतंत्र, किसी राजनितिक चेतना, किसी धर्म का भी कोई दवाब नहीं दिखता कि गरीबों के भी जिन्दा रहने को एक बुनियादी हक माना जाये।
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हिंदुस्तान के भीतर नफरतजीवियों का एक तबका एक बार फिर बहुत सक्रिय हो गया है उसे अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी से एक बड़ा मुद्दा हाथ लगा है और हिंदुस्तान में ये लोग आज इस वक्त किसी भी वजह से अमेरिकी फौजों की वापिसी के बारे में कुछ कह रहे हैं या दुनिया भर में जाहिर की जा रही ऐसी संभावना पर चर्चा भी कर रहे हैं कि तालिबानियों का नया रुख देखना होगा कि क्या उनमें कोई फेरबदल आया है? ऐसे तमाम खुले दिमाग के लोगों के लिए नफरतजीवियों के पास एक ही फार्मूला है कि सेक्युलर लोग अफगानिस्तान चले जाएं वहां जाकर बसें। कुछ नफरतजीवियों जिन्होंने कुछ अधिक कल्पनाशीलता भी दिखाई है, और वे ऐसे इश्तहार बनाकर पोस्ट कर रहे हैं कि बहुत सस्ते में काबुल में एक बड़ा मकान किराए पर उपलब्ध है और लोग वहां जाकर उसमें रह सकते हैं। अगर अफगानिस्तान के बाद तालिबान से अधिक कट्टर कोई और इस्लामी संगठन दुनिया के किसी और देश में सक्रिय हो जाएगा तो हिंदुस्तान के ये नफरतजीवी यहां के अमनपसंद लोगों को ऐसे किसी देश भी भेज देंगे जहां अलकायदा का राज होगा, जहां तालिबानियों से अधिक कट्टर लोग होंगे।
दुनिया के जटिल मुद्दों की जब न समझ हो, न समझने की ताकत हो, और न समझने की इच्छा हो, तो कुछ इसी किस्म की बात की जाती है। अफगानिस्तान और तालिबान के मुद्दे पर आज दुनिया भर के विश्लेषकों को भी लिखने में दिक्कत जा रही है क्योंकि बहुत सी चीजें अभी भी लोगों की समझ से परे हैं बहुत अधिक जटिल हैं लेकिन जो लोग हिंदुस्तान के कुछ लोगों को अफगानिस्तान धकेलना चाहते हैं उनके लिए हालात का अतिसरलीकरण करना बड़ा आसान है, उसमें दिमाग के इस्तेमाल की जरूरत नहीं पड़ती। उसमें न जानकारी लगती, न कोई विश्लेषण लगता, उसमें सिर्फ एक नीयत लगती है कि कैसे अपने से असहमत लोगों को देश निकाला दिया जाए। यह लोग पहले पाकिस्तान भेजने की ट्रैवल एजेंसी चला रहे थे, अब उन्होंने अफगानिस्तान भेजने की ट्रैवल एजेंसी शुरू कर दी है। कुल मिलाकर हालत यह है कि हिंदुस्तान के जिन लोगों को और जितने लोगों को ये लोग पाकिस्तान भेज रहे थे, अब पाकिस्तान का पर्यटन उद्योग भूखा ही मर जाएगा, क्योंकि अब यह तमाम लोगों को अफगानिस्तान भेजने पर उतारू हैं।
हिंदुस्तान में अकल बिना, और नफरत से लबालब एक तबका ऐसा हो गया है जो दुनिया में कहीं भी होने वाली किसी धर्मांधता, कट्टरता, या सांप्रदायिकता को लेकर हिंदुस्तान के उदारवादी, धर्मनिरपेक्ष, और अमनपसंद लोगों पर हमला करना शुरू कर देता है। ऐसा इसलिए होता है कि जब हिंदुस्तान में धार्मिक कट्टरता और धार्मिक हिंसा सिर चढक़र बोलती है, तो तालिबान सऱीखों की मिसाल देते हुए समझदार लोग यह नसीहत देते हैं कि तालिबान बनने की कोशिश ना करें, क्योंकि उसके बाद मुल्क का जो हाल होता है वह सबका देखा हुआ है। इस नसीहत को समझने के बजाय, क्योंकि समझने से तो धार्मिक हिंसा छोडऩी भी पड़ेगी, ऐसे धर्मांध और हिंसक लोग, अपने ही मुल्क के लोगों को अफगानिस्तान रवाना करने पर उतारू हैं। उन्हें तालिबान से परहेज नहीं है क्योंकि तालिबान के बहुत से तौर-तरीके तो उन्हें हिंदुस्तान में इस्तेमाल करने में भी मजा आ रहा है। लेकिन उन्हें हिंदुस्तान में आईना दिखाने वाले लोगों से दिक्कत है, और वे ऐसे अमनपसंद लोगों को धकेलकर देश के बाहर करना चाहते हैं।
इसमें कोई नई बात भी नहीं है। आईना दिखाने वालों का हर युग में यही हाल होते आया है। यह तो सैकड़ों बरस पहले कबीर के वक्त पर धर्मांधता और धार्मिक हिंसा आज सरीखी हावी नहीं थी इसलिए कबीर धार्मिक पाखंड के खिलाफ सौ किस्म की नसीहतें देकर भी जिंदा रह गए। आज का वक्त होता तो कबीर के हाथकरघे को आग लगा दी गई होती और कबीर की सडकों पर भीड़त्या कर दी गई होती। हिंदुस्तान का सोशल मीडिया इस बात का गवाह है कि आबादी का कम से कम एक तबका किसी भी किस्म की समझ से ठीक उसी तरह परहेज करता है, जिस तरह किसी धार्मिक उपवास के दिन कई चुनिंदा चीजों से परहेज किया जाता है। यह तबका न तो इतिहास को देखना चाहता है, क्योंकि इतिहास का सच उसके लिए बड़ी असुविधा का है, न वह वर्तमान को देखना चाहता है क्योंकि वर्तमान में उसकी खुद की हरकतें शर्मनाक हैं, और न वह भविष्य को देखना चाहता है क्योंकि बेहतर भविष्य के लिए तो मेहनत करनी पड़ती है।
ऐसे लोगों को तालिबान की वजह से अफगानिस्तान में हुए नुकसान से सबक लेने के बजाय हिंदुस्तान में तालिबानी हरकतें करने में मजा आता है और वे यह मानकर चलते हैं कि उनके बावजूद हिंदुस्तान में कोई नुकसान उन्हें नहीं होगा। लोगों को याद रखना चाहिए कि सोशल मीडिया पर अभी कुछ लोगों ने एक तंज कसा है जो कि सच के बहुत करीब भी है कि संसद भवन की नई इमारत बना देने से संसदीय व्यवस्था मजबूत नहीं हो जाती है, संसदीय लोकतंत्र मजबूत नहीं हो जाता है। अफगानिस्तान का संसद भवन तो भारत ने बनाकर दिया लेकिन क्या नतीजा निकला? नए और मजबूत संसद-भवन से अफग़़ान लोकतंत्र मजबूत तो नहीं हो गया? धर्मान्धता ने एक देश को खा लिया। दुनिया के 3 सबसे बड़े साम्राज्यवादी देशों ने अफगानिस्तान की डेढ़ सदी से ज्यादा का वक्त खत्म कर दिया, उस देश का भविष्य खत्म कर दिया, और किस तरह कट्टर धर्मान्ध तालिबानियों ने अपने देश की सारी संभावनाओं को खत्म कर दिया, अमेरिका जैसे साम्राज्यवादी देश को यह मौका दिया कि वह अलकायदा को खत्म करने का बहाना बनाकर अफगानिस्तान पर हमला करे, उसे कुचल डाले। इसलिए जिन लोगों को तालिबानी कट्टरता सुहाती है उन्हें याद रखना चाहिए कि ऐसी धर्मांध कट्टरता, ऐसी धर्मांध हिंसा किसी देश की संभावनाओं को तो खत्म करती ही है, उस देश के लोकतंत्र को भी खतरे में डाल देती है, और उसे बाहरी हमलों के लायक तैयार निशाना बना देती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट में आज़ादी की सालगिरह के मौके पर देश के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन वी रमना ने संसद की कार्यवाही पर नाराजगी जताई। संसद में हुए हंगामों का जिक्र करते हुए उन्होंने संसदीय बहसों पर चिंता जताई और कहा कि संसद में अब बहस नहीं होती। उन्होंने कहा कि संसद से ऐसे कई कानून पास हुए हैं, जिनमें काफी कमियां थीं। पहले के समय से इसकी तुलना करते हुए चीफ जस्टिस ने कहा कि तब संसद के दोनों सदन वकीलों से भरे हुए थे, मगर अब मौजूदा स्थिति अलग है। उन्होंने कानूनी बिरादरी के लोगों से भी सार्वजनिक सेवा के लिए अपना समय देने के लिए कहा। सीजेआई ने कहा कि अब बिना उचित बहस के कानून पास हो रहे हैं। अगर आप उन दिनों सदनों में होने वाली बहसों को देखें, तो वे बहुत बौद्धिक, रचनात्मक हुआ करते थे और वे जो भी कानून बनाया करते थे, उस पर बहस करते थे...मगर अब खेदजनक स्थिति है। हम कानून देखते हैं तो पता चलता है कि कानून बनाने में कई खामियां हैं और बहुत अस्पष्टता है। उन्होंने आगे कहा कि अभी के कानूनों में कोई स्पष्टता नहीं है। हम नहीं जानते कि कानून किस उद्देश्य से बनाए गए हैं। इससे बहुत सारी मुकदमेबाजी हो रही है, साथ ही जनता को भी असुविधा और नुकसान हो रहा है। अगर सदनों में बुद्धिजीवी और वकील जैसे पेशेवर न हों, तो ऐसा ही होता है। उन्होंने कहा, ‘आज की स्थिति देख कर दुख होता है। क़ानूनों में बहुत अस्पष्टता है। हमें नहीं पता कि किस कारण से ये बने थे। लेकिन इसकी वजह से कोर्ट के सामने अधिक मामले हैं और लोगों और कोर्ट को असुविधा हो रही है।’ चीफ़ जस्टिस ने कहा ‘आज़ादी की लड़ाई में वकीलों ने अग्रणी भूमिका निभाई थी और स्वतंत्र भारत के पहले नेता भी बने थे। उन्होंने कहा कि आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व करने वाले महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे नेता वकील थे। उन्होंने न केवल अपने काम की आहुति दी बल्कि आज़ादी की लड़ाई में अपना परिवार और संपत्ति का भी त्याग किया। उस दौर में संसद में सकारात्मक बहस होती थी। क़ानूनों के बारे में विस्तार से चर्चा होती थी उन पर बहस होती थी। लेकिन वक्त के साथ आप देख सकते हैं कि संसद में क्या हो रहा है। बहस की गुणवत्ता खऱाब हुई है और कोर्ट अब नए क़ानूनों का मकसद और उद्देश्य समझ पाने में असमर्थ है।’ उन्होंने अपील की कि वकील अपने काम को अपने घर या कोर्ट तक सीमित की बजाय सार्वजनिक हितों के काम में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेकर संसद में बुद्धिजीवियों की कमी को पूरा कर सकते हैं।
देश के मुख्य न्यायाधीश के आजादी के सालगिरह पर दिए गए इस बयान को गंभीरता से लेने की जरूरत है क्योंकि अभी कुछ ही दिन पहले संसद के मानसून सत्र में जिस तरह सरकार ने अपने संसदीय बाहुबल से कानून बनवा लिए हैं, और विपक्ष केवल विरोध करते रह गया, वह नौबत मुख्य न्यायाधीश के इस बयान में खुलकर रखी गई है। इसके पहले भी यह देखा गया कि किसान कानूनों को बनवाते समय भी मोदी सरकार संसद में बहस से कतराती रही और नतीजा यह निकला है कि अपने ही बनवाए हुए कानून के खिलाफ महीनों से चले आ रहे आंदोलन में सरकार उलझी हुई है, और उसे कोई रास्ता समझ नहीं पड़ रहा है। यह सिलसिला ठीक नहीं है। लेकिन यह सिलसिला केवल मोदी सरकार के आने के बाद खराब हुआ हो ऐसा भी नहीं है। पिछली यूपीए सरकार के वक्त इस देश में सूचना के अधिकार का कानून बना और अटल सरकार के वक्त सूचना प्रौद्योगिकी कानून आईटी एक्ट बना। इन दोनों की गंभीरता को संसद में ना तो पार्टियां समझ पाई थीं, और ना ही सांसद समझ पाए थे। संसद के बाहर के लोगों ने मिलकर विधेयक तैयार किए थे, कानून की बारीकियां लिखी थीं, और उन पर न तो पर्याप्त चर्चा हुई थी, और न ही सांसदों ने उन्हें ठीक से समझा था, और उन्हें बहुमत से पारित कर दिया गया था। नतीजा यह निकला कि इन दोनों ही कानूनों में बार-बार कई तरह के फेरबदल की बात होती है, और इनसे कई तरह के खतरे भी सामने आ रहे हैं। अब तो संसद में मोदी सरकार का बहुमत इतना बड़ा है कि लोकसभा और राज्यसभा दोनों जगह अधिकतर कानूनों के लिए सरकार को विपक्ष की कोई जरूरत ही नहीं रह गई है, और सरकार अपनी उसी सोच के साथ वहां कानून बनवाते चल रही है।
भारतीय संसद में किसी प्रस्तावित कानून पर चर्चा को पिछली सरकार या इस सरकार जैसी बातों पर आंकना ठीक नहीं होगा। यह समझने की जरूरत है कि संसद में दलबदल विरोधी कानून के नाम पर वैचारिक विविधता को जिस तरह से खत्म कर दिया गया है, और किसी पार्टी के सचेतक अपनी पार्टी के सारे सांसदों को किसी एक वोट देने के मौके पर पूरी तरह से बेबस करके पार्टी की मर्जी का वोट डलवा सकते हैं। उसके भी पहले उस पर अगर कोई चर्चा होती है तो उस चर्चा में पार्टी की घोषित नीति से परे जाकर कोई सांसद कुछ नहीं बोल सकते, तो कुल मिलाकर जिस संसद में एक वक्त अलग-अलग बहुत से जागरूक और विद्वान वकीलों, और दूसरे बुद्धिजीवियों की चर्चा भारत के मुख्य न्यायाधीश ने अभी की है, उन सांसदों में जो वैचारिक विविधता बहस में सामने आती थी, और तरह-तरह की बातों पर विचार होता था, वह सिलसिला अब खत्म हो चुका है। अब कोई पार्टी या कोई गठबंधन एक गिरोह की तरह बर्ताव करते हैं, और किसी भी तरह की ईमानदार चर्चा की गुंजाइश अब खत्म सरीखी हो गई है। नतीजा यह है कि अलग-अलग सांसदों की निजी सोच, उनके निजी तजुर्बे के आधार पर प्रस्तावित कानूनों पर जो चर्चा होती थी, वह निजी हैसियत अब पूरी तरह खत्म हो गई है। अब तमाम लोग अपनी पार्टी की मशीन के पुर्जे की तरह बर्ताव करते हैं, पार्टियां ही अपने सांसदों को बताती हैं कि उन्हें किन-किन मुद्दों पर बोलना है, और क्या-क्या बोलना है। इसलिए आज भारतीय संसद किसी भी प्रस्तावित कानून पर चर्चा करते हुए वहां मौजूद प्रतिभाओं का पूरा इस्तेमाल करने की हालत में भी नहीं रह गई है, यह एक अलग बात है कि आज भारतीय संसद में प्रतिभाएं घटकर हाशिए पर चली गई हैं, और धर्म या जाति के नाम पर, क्षेत्रीयता के नाम पर, या गुटबाजी के नाम पर, वहां पर प्रतिभाहीन लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई है। भारत के मुख्य न्यायाधीश ने बड़े हौसले का काम किया है जो उन्होंने संसद में मौजूद लोगों और संसद में चल रही बहस, इन दोनों के बारे में बहुत खुलकर कड़ी आलोचना की है। इसके बारे में देश के दूसरे तबकों को भी बोलना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश अकेले ही पूरे देश का प्रवक्ता बन जाए यह भी ठीक नहीं है, लोकतंत्र में बाकी तबकों को अपनी जिम्मेदारी भूल नहीं जाना चाहिए।
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अफगानिस्तान में हालात जिस तेजी से बदल रहे हैं, उसे देखते हुए अफगान जनता जिस तरह के खतरे से घिरी है, और वहां की किसी भी सरहद को पार करके पड़ोस के किसी भी देश चले जाना चाह रही है, कुछ वैसा ही असमंजस भारत सरकार के सामने भी आ खड़ा हुआ है। भारत अफगानिस्तान में आज काबिज तालिबान से बात करे या ना करे, और बात करें तो कैसे करे? तालिबानियों की सरकार को लेकर पूरी दुनिया में आज यह आशंका है कि उसमें इस्लामी कानूनों के नाम पर एक बार फिर महिलाओं के खिलाफ जुल्म का दौर शुरू होगा, धार्मिक कट्टरता हावी होगी, और ऐसे तालिबानियों की सरकार को मान्यता देकर दुनिया के बहुत से देश क्या अपनी नीतियों और अपने सिद्धांतों के खिलाफ नहीं चले जाएंगे?
भारत के साथ यह एक दिक्कत है कि वह अपने देश से इतने करीब के अफगानिस्तान की नई सरकार के साथ रिश्ते कैसे रखे? खासकर तब जब तालिबानियों को पाकिस्तान, चीन, रूस, इन सबने खुलकर अपना समर्थन घोषित किया है। भारत को रूस से तो कोई दिक्कत नहीं है लेकिन पाकिस्तान और चीन के साथ भारत के दुश्मनी के रिश्ते चले आ रहे हैं, और भारत की तमाम फौज भी इन्हीं दोनों देशों को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई है। ऐसे में अगर पाकिस्तान और चीन तालिबान के सबसे बड़े हमदर्द बनकर उसे गले लगा रहे हैं, तो यह भारत के लिए विदेश नीति की एक चुनौती रहेगी। जानकार लोगों का यह कहना है कि भारत को तालिबानियों के आगे-पीछे बात तो करनी ही होगी क्योंकि उनकी घरेलू नीतियां चाहे जो रहें, दुनिया के अधिकतर देशों की नीतियां यह रहती हैं कि वे किसी देश में आज काबिज सरकार से बात करती ही हैं। भारत की सरकार एक वक्त इजराइल से परहेज करती थी क्योंकि उसका फिलिस्तीन पर ज्यादती का एक बड़ा लंबा इतिहास था। लेकिन वक्त बदला और कारोबारी दोस्तों ने भारत और इजरायल के रिश्ते बदल दिए।
जहां तक अफगानिस्तान में तालिबानियों की जोर-जबरदस्ती की बात है, तो कुछ उसी किस्म की जबरदस्ती सऊदी अरब में भी इस्लामी कानूनों के नाम पर महिलाओं के खिलाफ चलती आई है, और दुनिया भर के देशों ने सऊदी अरब से अपने रिश्ते रखे ही हैं। इसलिए अफगानिस्तान में आज तालिबानियों का राज एक ऐसी हकीकत है जिसे अनदेखा करके हिंदुस्तान चुप नहीं बैठे रह सकता, और उसे वक़्त आते ही इस ताकत से बातचीत का सिलसिला शुरू करना ही चाहिए। यह भी हो सकता है कि मानवाधिकार का जितना खात्मा तालिबान अफगानिस्तान में करने जा रहे हैं, बाहर के देश उससे संबंध रखके उसे एक बेहतर सरकार बनाने के लिए मजबूर भी कर सकते हैं। फिलहाल 20 वर्षों के अमेरिकी राज्य के बाद आज अफगानिस्तान अपने इतिहास के एक सबसे डांवाडोल दौर में पहुंचा हुआ है, और ऐसे में भारत उससे बातचीत न करके अपना ही नुकसान कर सकता है। यहां पर यह भी याद रखने की जरूरत है कि बीते दो दशक में भारत ने अफगानिस्तान की बहुत मदद की है और वहां की ढांचागत सुविधाओं को बनाने में भी अपना बहुत खर्च किया है। इसके अलावा भारत के फौजी हितों को देखते हुए भी उसे अफगानिस्तान की सरकार के साथ अच्छे रिश्ते रखने हैं क्योंकि चीन और पाकिस्तान दोनों अफगानिस्तान की आज की तालिबान सरकार के बड़े हिमायती होकर सामने आए हैं। लेकिन यह बात कहना आसान है और करना कुछ मुश्किल, क्योंकि इस्लामी कानूनों को लेकर तालिबान जिस किस्म की ज्यादतियां अफगानिस्तान में कर सकते हैं, उनके साथ अधिक दूरी तक चलना भारत की मौजूदा हिंदूवादी सरकार के लिए घरेलू दिक्कत का सामान भी हो सकता है। भारत में उदारवादी तबका भी तालिबानियों को लेकर खासे असमंजस में है कि वहां अमेरिका की पिट्ठू सरकार का खत्म होना जरूरी था, फिर तालिबानियों का वहां पर आना क्या उससे भी अधिक बड़ा खतरा रहेगा?
भारत के सामने ऐसी कई दिक्कतें हैं, और पिछले कुछ महीनों से ऐसी चर्चा चल भी रही थी कि अफगानिस्तान की निर्वाचित सरकार का साथ देते हुए भी भारत ने तालिबानियों से पर्दे के पीछे बातचीत का सिलसिला चला रखा था। यह भी याद रखने की जरूरत है कि पाकिस्तान ने कई महीनों से अफगानिस्तान की सरकार के खिलाफ भारी बगावती तेवर बना रखे थे और वह खुलकर तालिबानियों का साथ दे रही थी। यह बात भी याद रखने लायक है कि इसके बावजूद तालिबानियों ने कश्मीर को भारत का घरेलू मुद्दा माना था और दिल्ली सरकार के कश्मीर पर फैसलों के खिलाफ कुछ कहने से इंकार कर दिया था। आज जब अमेरिका अफगानिस्तान में अपना आखिरी पखवाड़ा गुजारते दिख रहा है, जिस तरह से वहां सरकार के नाम पर सिर्फ तालिबानी रह गए हैं, ऐसे में भारत सरकार को किसी न किसी स्तर पर तालिबानियों से बातचीत करनी होगी क्योंकि यह बिल्कुल पड़ोस का एक देश है. अमेरिका सहित पश्चिम के देशों ने तालिबानियों के राज को लेकर कई तरह के शक जाहिर किए हैं, और जाहिर है कि जो देश पिछले 20 बरस अफगानिस्तान में अमेरिकी कब्जे के हिमायती रहे हैं, एकाएक तालिबानियों से बातचीत भी शुरू नहीं कर सकते, लेकिन हिंदुस्तान की हालत उन देशों से अलग है और इस देश को अपने फौजी हितों को ध्यान में रखते हुए किसी न किसी स्तर पर तालिबान से बात करनी चाहिए। कम से कम रूस भारत का एक ऐसा दोस्त देश है जो कि इस मौके पर भारत के काम आ सकता है।
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20 बरस बाद अफगानिस्तान में एक बार फिर तालिबान का राज कायम हो गया है। अभी कुछ हफ्ते पहले की ही बात थी जब अमरीकी फौजियों की अफगानिस्तान से वापस ही शुरूआत हुई थी और नए अमेरिकी राष्ट्रपति डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बाइडन ने खुलकर पिछले रिपब्लिकन राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के इस फैसले पर अमल की बात कही थी कि अमेरिका 11 सितंबर 2021 तक अमेरिकी फौजियों को अफगानिस्तान से निकाल लेगा। अमेरिका और उसके फौजी-समुदाय में नाटो के बैनर तले अमेरिकी लीडरशिप में फौज अफग़़ानिस्तान में 20 बरस से काबिज थी, और उन्होंने वहां की सरकार को अपने कब्जे में कठपुतली की तरह चलाया हुआ था, क्योंकि असली काबू अमेरिकी फौजियों का था, वहां के बजट का 80 फीसदी हिस्सा विदेशी मदद से आ रहा था। लेकिन इस पूरे दौर में भी जब अमरीका ने यह पाया कि 20 बरस में भी तालिबान को कुचलना उसके लिए मुमकिन नहीं हो सका उसके लड़ाकू फौजी विमानों की बमबारी से भी तालिबान पूरी तरह खत्म नहीं हो रहे थे, तो पिछले 3 बरस में अमेरिका ने तालिबान से बातचीत का सिलसिला शुरू किया और अफगानिस्तान की जमीन से बाहर एक तीसरे देश में हुई बातचीत में यह तय हुआ कि अमेरिका एक तय समय में अफगानिस्तान छोडक़र निकल जाएगा, अब वहीं कुछ हफ्ते चल रहे हैं, जब अमेरिकी फौजी निकल रही हैं और तालिबान तकरीबन तमाम देश पर काबिज हो चुके हैं। अमेरिका की मदद से राष्ट्रपति बने हुए अशरफ़ गऩी देश छोडक़र दूसरे देश में शरण ले चुके हैं, और अफगानिस्तान में आज तालिबान का राज पूरी तरह से स्थापित हो चुका है।
अभी 2 दिन पहले की ही बात है कि अमेरिकी खुफिया विभाग की एक रिपोर्ट खबरों में आई कि अमेरिकी फौजों की अफगानिस्तान से वापसी पूरी तरह हो जाने के 6 महीनों के भीतर वहां की सरकार खतरे में आ सकती है, वहां तालिबान का राज लौट सकता है। लेकिन इस रिपोर्ट के आने के कुछ घंटों के भीतर ही 6 महीने तो दूर, अमेरिका की वापसी तो दूर, तालिबान का राज वैसे भी कायम हो चुका है। लेकिन आज का यह मौका तालिबान पर चर्चा का जितना है, उतना ही इस बात पर चर्चा का भी है कि तीसरे देश में जाकर 20 बरस पहले अमेरिका ने जिस तरह से वहां उस वक्त की सोवियत समर्थित सरकार को बेदखल करने का काम किया था, और उसके बाद वहां अपना राज एक बहुत महंगे दाम पर कायम रखा, उसके बारे में सोचने की जरूरत है।
अमेरिका के इतिहास को देखें तो उसने कुछ इसी अंदाज़ में, इतने ही वक्त 20-21 बरस तक वियतनाम के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी, और वियतनाम में अमेरिकी फौजियों को वहां की एक पूरी पीढ़ी को खत्म करने में झोंक दिया था। लेकिन उसके बाद बिना किसी नतीजे के अमेरिका को वियतनाम छोडऩा पड़ा था और अमेरिकी फौज की एक पूरी पीढ़ी वियतनाम युद्ध की त्रासदी को लेकर वहां आज तक मानसिक चिकित्सा करवाते हुए जी रही है। और कुछ उसी किस्म के 20 वर्ष का यह फौजी दौर अमेरिका ने अफगानिस्तान में चलाया है। यहां के हालात बिल्कुल अलग थे, यहां की वजह बिल्कुल अलग है, लेकिन 20 बरस के फौजी हमले जो वियतनाम पर चलते रहे, वैसे ही 20 बरस के फौजी हमले अफगानिस्तान पर चलते रहे। वियतनाम में अमेरिकी फौजियों ने अमेरिकी अंदाज के लोकतंत्र का जैसा नंगा नाच किया था, वैसा ही अफगानिस्तान में भी चलते रहा, और बेकसूरों को मारने का अमेरिकी फौज का अंदाज यह था कि वह वहां पर तालिबान होने के शक में अफगान नागरिकों की उंगलियां काट रही थी, उन्हें इकट्ठा करने का एक फौजी खेल खेला जाता था।
आज के वक्त की दिक्कत यह है कि आज अमेरिकी फौज की आलोचना करने का मतलब कई लोग धर्मांध, कट्टर और इस्लामिक राज्य कायम करने वाले तालिबान की तारीफ या तालिबान का समर्थन भी मान सकते हैं। लेकिन यह चर्चा आज जरूरी इसलिए है कि अमेरिका ने 20 वर्षों में अफगानिस्तान के पूरे ढांचे को अपने हिसाब से ढाला, अफगान नागरिकों को अपने हिसाब से जिंदगी जीने का एक मौका मुहैया कराया, उन्हें अमेरिका की मदद करने के काम में लगाया और आज रातों-रात अमेरिका उन तमाम लोगों को तालिबान के रहमोकरम पर छोडक़र जिस तरह से निकल जा रहा है, और जिस तरह से इन 20 वर्षों को मानो मिटाकर तालिबान के हवाले कर दिया जा रहा है वह एक अंतरराष्ट्रीय गैरजिम्मेदारी का ऐतिहासिक मामला है। इन 20 वर्षों में लाखों अफगान नागरिक अमेरिकी हमलों, तालिबानी हमलों, और इन दोनों तबकों के बीच की लड़ाई में मारे गए। आज की तारीख में भी लाखों अफगान औरत-बच्चे, आम नागरिक बेदखल हैं, शरण पाने के लिए दूसरे देशों की सरहदों पर जा रहे हैं, और आज अफगानिस्तान दुनिया का सबसे बड़ा बेदखल नागरिक समुदाय बन गया है, जिसकी कोई जिम्मेदारी अमेरिका आज उठाते नहीं दिख रहा है। अमेरिका की हालत यह है कि अफगानिस्तान पर कब्जा करने के वक्त ब्रिटिश फौज को उसने अपना सबसे बड़ा साथी बनाकर रखा हुआ था, वह ब्रिटिश सरकार भी आज अमेरिकी फौजियों की अफगान से वापिसी के खिलाफ है। लोगों को याद होगा कि चाहे इराक पर अमेरिकी हमला हो, चाहे अफगानिस्तान पर, इनमें ब्रिटिश सरकार उसकी सबसे बड़ी भागीदार रही है, और आज ब्रिटिश प्रतिरक्षामंत्री ने खुलकर अमेरिकी फौजियों की इस तरह से एकतरफा वापिसी के खिलाफ सार्वजनिक बयान दिया है।
यह पूरा सिलसिला एक विश्व समुदाय के रूप में दुनिया की नाकामयाबी का भी है कि आज संयुक्त राष्ट्र जैसे किसी अंतरराष्ट्रीय संगठन की बोलती ही अफगानिस्तान को लेकर बंद है, और वह महज एक शरणार्थी कार्यक्रम चलाकर अपनी जिम्मेदारी को पूरा मान रहा है। दूसरी तरफ पूरी दुनिया का सबसे बड़ा दादा बना घूम रहा अमेरिका किस तरह इराक पर हमले के बाद कुछ भी साबित नहीं कर सका कि इराक के पास जनसंहार के हथियार थे। अमेरिका ने इराक के उस वक्त के राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को जिस अंदाज में फांसी चढ़ाया और अमेरिकी सरकार के सारे दावे झूठे साबित हुए कि इराक के पास पूरी दुनिया को खत्म करने के हिसाब से जनसंहार के हथियारों का जखीरा मौजूद था। इराक के पास से ऐसा एक हथियार भी अमेरिका बरामद करके नहीं दिखा सका। अब उसके बाद अफगानिस्तान में अमेरिकी रणनीति की ऐसी शिकस्त और शरणार्थियों की अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी से मुंह मोडऩे के अमेरिकी तौर-तरीकों को देखने की जरूरत है। हम अफगानिस्तान को एक धार्मिक कट्टरता में डुबा देने वाले तालिबानों के जुर्म कहीं से भी कम आंकने के हिमायती नहीं हैं। लेकिन तालिबान तो दुनिया के किसी लोकतंत्र के प्रति जवाबदेह नहीं थे, उन्होंने कभी किसी लोकतंत्र में भरोसा नहीं दिखाया था। दूसरी तरफ अफगानिस्तान में लोकतंत्र कायम करने, बचाने, के नाम पर अमेरिका ने अपने आपको दुनिया का एक सबसे ताकतवर लोकतंत्र साबित करते हुए जिस तरह की फौजी कार्रवाई 20 बरस अफगानिस्तान पर की, वह जरूर अधिक फिक्र की बात है। यह अधिक क्षेत्र की बात है कि 20 बरस पहले अफगानिस्तान जिस हाल में था, उस हाल से अधिक बदहाल उसे छोडक़र, तालिबान के रहमोकरम पर छोडक़र अमेरिका जिस गैरजिम्मेदारी के साथ वहां से बाहर निकला है, उससे दुनिया को यह भी सबक लेने की जरूरत है कि क्या दुनिया के इस गुंडे देश को इस तरह 20-20 बरस किसी इलाके पर फौजी हुकूमत चलाकर उस इलाके को एक अंधड़ के बीच में छोडक़र निकल जाने की इजाजत दी जानी चाहिए?
लेकिन सवाल यह है कि अमेरिका को रोकेगा कौन? सद्दाम हुसैन पर हमले के वक्त संयुक्त राष्ट्र में कुछ देशों ने यह बात तो उठाई थी लेकिन अमेरिका ने उस वक्त भी किसी की कोई बात नहीं सुनी। लोगों को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सोवियत कब्जे के खिलाफ, सोवियत फौजियों की मौजूदगी के खिलाफ अफगानिस्तान में तालिबानों को अमेरिका ने ही बढ़ाया था और पाकिस्तान के रास्ते इन तालिबानियों को फौजी ट्रेनिंग और फौजी हथियार दे-देकर अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट फौजियों को छोडऩे के लिए मजबूर कर दिया गया था। तालिबानियों के खिलाफ अमेरिका उस वक्त अधिक हमलावर हुआ जब उसे लगा कि न्यूयॉर्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर में हमला करने वाले ओसामा बिन लादेन को तालिबानी बचाकर रख रहे हैं। लेकिन हकीकत यह निकली ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान में, पाकिस्तानी सरकार की जानकारी में, शहर के बीच छुपा बैठा था और वहां घुसकर अमेरिका को उसे मारना पड़ा था। लेकिन फिर भी अमेरिका की पाकिस्तान पर मेहरबानियां कम नहीं हुई थीं और हिंदुस्तान जैसा देश बार-बार अमेरिका को यह याद दिला रहा था कि पाकिस्तान आतंकियों की पैदावार की जगह हो गई है, और वहां से आतंक की उपज आसपास के देशों में जा रही है।
आज भी जब तालिबानी अफगानिस्तान पर चारों तरफ कब्जा कर चुके हैं, तब भी बार-बार यह बात आ रही है कि पाकिस्तान की जमीन से तालिबानियों को साथ दिया जा रहा है। इसलिए अमेरिका की साजिश किसी कोने से खत्म होते नहीं दिखती है, वह खुद एक मोर्चे पर अपनी फौजों को तालिबानियों के खिलाफ झोंककर रख रहा है, और दूसरी तरफ उसी के पैसों से पाकिस्तान जैसे देश तालिबानियों की मदद करते आ रहे हैं। अमेरिका दुनिया का एक सबसे गैरजिम्मेदार देश से साबित हुआ है जिसने बिना किसी जरूरत दूसरे देशों पर जंग थोपी है और फिर वहां के लोगों को एक आंधी-तूफान के बीच में छोडक़र अपनी फौज सहित भाग निकला है। आज दुनिया के बाकी देशों को देखें तो अमेरिका के मुकाबले यूरोप के अधिकतर देश अधिक जिम्मेदार साबित हो रहे हैं जिन्होंने इराक और सीरिया और दूसरी जगहों के शरणार्थियों को अपने देश में जगह दी है, आज देखने की बात यह रहेगी कि अमेरिका अपने देश के लाखों मील के बंजर इलाकों में अफगानिस्तान के शरणार्थियों के लिए कितनी जगह निकालता है, या फिर उसके लिए अफगानिस्तान महज रूस के फौजियों को शिकस्त देने का एक मैदान था, और उस काम को पूरा करने के बाद वह अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों से मुंह चुराकर भाग निकला है। अमेरिका ने आज ना महज अफगानिस्तान को बेसहारा नहीं छोड़ा है, हिंदुस्तान जैसे देशों को भी एक चौराहे पर लाकर छोड़ दिया है। उसने हिंदुस्तान जैसे बहुत से देशों को भी खतरे में डाल दिया है जो कि अफगानिस्तान में एक निर्वाचित सरकार को देखना चाहते थे, और वहां ऐसी सरकार की मदद कर रहे थे। अब तालिबानियों ने हिंदुस्तान जैसी फ़ौज से यह साफ कर दिया है कि हिंदुस्तान वहां ना आए, हिंदुस्तान तालिबानियों से टकराव न ले। और दूसरी तरफ हिंदुस्तान के कुछ नेताओं ने इस बात को लेकर आशंका जाहिर की है भारत-पाकिस्तान सरहद पर पाकिस्तान की तरफ से होने वाले आतंकी हमलों में तालिबान भारत के खिलाफ जा सकते हैं। अमेरिका दुनिया को अस्थिरता में हिंसक धार्मिक कट्टर लड़ाकों के भरोसे छोडक़र भाग निकला है। उसके बुरे नतीजे दुनिया के बहुत से देश भुगतने जा रहे हैं, सबसे अधिक तो अफगानिस्तान के लोग जिनके पास आज जाने के लिए कोई देश भी नहीं बचा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान में गर्व करने के मौके बड़ी आसानी से आ जाते हैं। एक मौका टलता नहीं कि दूसरा खड़ा रहता है। अब जैसे कल आजादी की सालगिरह। जाहिर है कि किसी भी मुल्क को जब सैकड़ों बरस की गुलामी से आजादी मिली, एक के बाद दूसरे विदेशी हमलावर के कब्जे से छुटकारा मिला, तो मुल्क का अपने पर गर्व करना एक जायज हक की बात थी। यह एक अलग बात है कि करीब पौन सदी पहले जो आजादी मिली उस आजादी को खत्म करने में आज कोई कसर नहीं रखी गई है, और उस दिन 15 अगस्त 1947 को गर्व इस बात का था कि मुल्क आजाद हो रहा था, आज गर्व इस बात का है इस मुल्क के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जा रहे हैं, धर्म के नाम पर टुकड़े, जाति के नाम पर टुकड़े, पैसे के नाम पर टुकड़े, खानपान और पहनावे के नाम पर टुकड़े। और मजे की बात यह है कि इस पर भी गर्व है। पौन सदी पहले जो एक धर्मनिरपेक्ष देश बनाया गया था, उस देश में आज गर्व से यह कहने के लिए कि कोई एक तबका हिंदू है, लोगों को यही राष्ट्रीय गौरव हासिल हो गया है। दूसरे लोगों को मार-मारकर, सडक़ों पर भीड़ की शक्ल में पीटकर और मार डालकर भी अगर उनसे अपने ईश्वर का नाम लिवाया जा रहा है, तो अपनी इस आजादी पर, और दूसरों की उस बेबसी पर लोगों को गर्व है। और गर्व का यह सिलसिला थम नहीं रहा है। गर्व से कहो हम हिंदू हैं का यह गर्व बढ़ते-बढ़ते इतना खूनी हो गया है कि जिस ईश्वर को इस हिंदू धर्म का प्रतीक बना लिया गया है वह खुद ही शर्म से डूब रहा है कि यह किन लोगों के बीच वह फंस गया है। फिर भी उसे फंसाकर भी लोग गर्व से फूले नहीं समा रहे हैं और अपनी इस आजादी पर उन्हें खूब गर्व है। गर्व का यह सिलसिला अपनी आजादी का कम है और दूसरों की गुलामी पर कुछ अधिक है।
आज ऐसा नहीं कि लोगों की अपनी खुद की जिंदगी में तकलीफ कम है, लेकिन जब लोग देखते हैं कि जिन्हें उनका दुश्मन बताया जाता है, जिन्हें विधर्मी और विदेशी खून से उपजा हुआ बताया जाता है, वे जब अधिक तकलीफ में दिखते हैं, तो अपनी तकलीफ जाते रहती है। गर्व कुछ तो उनकी तकलीफ अधिक देखने का अधिक है। और फिर कुछ गर्व इन बातों का भी है कि अपना ईश्वर आज सब पर हावी है, अपना झंडा सबसे बड़े डंडे में लगा हुआ है। लोग गर्व करने के लिए दूसरों के खिलाफ नफरत को भी जोडऩे की एक बड़ी ताकत की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं। नफरत ने लोगों को इतना जोड़ लिया है कि वह अपने इसी जोड़ पर फिदा है और दूसरों को सबक सिखाने पर आमादा है। यह कैसा गौरव है जिसे जिंदा रहने के लिए पड़ोस में कोई एक दुश्मन देश लगता है, क्योंकि दुश्मन के बिना यह गर्व जिंदा नहीं रह पाता। जिसे अपने देश के भीतर भी एक दुश्मन मजहब की जरूरत पड़ती है क्योंकि उसके बिना, उससे नफरत के बिना, अपना धर्म इतने बड़े गर्व का सामान नहीं बन पाता है, जितने बड़े गर्व की जरूरत लोगों को लग रही है। इसलिए एक दुश्मन देश और एक नापसंद धर्म, इन दो पर यह गर्व खड़े रह पाता है, लेकिन इनके बिना वह अदालत के कटघरे में एक मासूम गवाह की तरह फर्श पर बिछने लगता है।
यह सिलसिला देश के लोगों को अपनी तकलीफ भुलाने में मदद भी करता है। जब पेट्रोल-डीजल खरीदना अपने बस में नहीं रह गया, जब इलाज कराना और बच्चों को अच्छा पढ़ाना अपनी मर्जी में नहीं रह गया, अपने बस में नहीं रह गया, तो फिर वैसे में एक झूठा गर्व तमाम किस्म की तकलीफों पर मरहम की तरह लगाने के काम आता है। जब मन गर्व से भर जाता है तो उस फूलकर कुप्पा हुए जा रहे मन में किसी तकलीफ और मलाल की जगह ही नहीं रह जाती। गर्व ऐसे कई मौकों पर लोगों को तकलीफ भुलाने में मदद करता है, झूठी खुशी पाने में मदद करता है, दूसरों को नीचा दिखाने में मदद करता है, और अगर कोई दूसरी वजह ना रहे तो दूसरों के नीचे दिखने की वजह से अपने आपको ऊंचा पाने के एहसास में भी मदद करता है।
लोगों को आज हिंदुस्तान की हालत को देखते हुए बहुत सी बातें समझ में नहीं आ रही है, लेकिन फिर भी उन्हें यह लग रहा है क्यों उन्हें गर्व के साथ जीना है। यह सिलसिला किसी देश के इतिहास में रहा हो, या ना रहा हो, वैसे काल्पनिक इतिहास को याद कर-करके, उस पर गर्व करते हुए जीना बड़ा आसान काम रहता है। लोगों को याद होगा कि जब नोटबंदी हुई थी, और उसमें गर्व के लायक कुछ नहीं मिल रहा था, तो एटीएम पर लगी कतारों को कारगिल के बर्फ में 6 महीने ड्यूटी करने वाले सैनिकों से जोडक़र एक गर्व का सामान जुटा लिया गया था। आज हिंदुस्तान का भाला फेंकने वाला एक नौजवान ओलंपिक से गोल्ड मेडल लेकर लौटता है, उस पर गर्व करना तो जायज है, लेकिन उसकी मेहनत में जब देश के खेल संगठनों ने, और देश की सरकार ने हाथ नहीं जुटाया था, तो उस जिम्मेदारी को उठाना तो भारी-भरकम काम होगा, तुरंत ही उसके भाले को इतिहास के महाराणा प्रताप के भाले से जोड़ देना एक आसान काम रहता है। और महाराणा प्रताप के उस भाले की तारीफ में किसी कविता की चार लाइनें और ढूंढकर उस पर भी गर्व किया जा सकता है। यह एक और बात है कि इतिहास के इस दौर में हिंदुस्तान के राजाओं की कहां-कहां शिकस्त हुई थी, और कैसे-कैसे हिंदुस्तान के राजा मुगलों की शरण में जाकर बचे थे, या जिन्होंने अंग्रेजों के पिट्ठू बनकर रहना मंजूर किया था, उसे याद करेंगे तो आज के गर्व का दूध फट जाएगा। इसलिए खटास की वैसी बातों को याद करना बेकार रहता है, और इतिहास के टुकड़ों में से कुछ चुनिंदा कतरे छांटकर उन पर गर्व कर लेना ठीक रहता है। आज नीरज चोपड़ा की तैयारी में भारत सरकार ने खानपान तक की मदद नहीं की थी यह सोचने से देश को गर्व करने में कुछ दिक्कत हो सकती है। लेकिन राणा प्रताप के भाले पर लिखी गई कविता को याद करना बेहतर है क्योंकि राणा प्रताप भारत सरकार से कोई खानपान का भत्ता भी तो नहीं मानते !
इसलिए हिंदुस्तान में आज ताकत का मनमानी इस्तेमाल करने की इजाजत रखने वाले तमाम तबकों को गर्व करने की बहुत सी वजह हैं, और जिन लोगों को 1947 में मिली आजादी को आज खो देना पड़ा है, ऐसे तबकों को यह मान लेने की काफी वजह हैं कि उन्हें हिंदुस्तान में किसी बात पर गर्व करने का भी कोई हक हासिल नहीं है।
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अभी जब देश के सबसे बड़े खेल सम्मान का नाम राजीव गांधी के नाम से हटाकर मेजर ध्यानचंद के नाम पर किया गया तो सोशल मीडिया पर मोदी के आलोचकों ने काफी कुछ लिखा। अहमदाबाद के सरदार वल्लभभाई पटेल खेल कांप्लेक्स में जिस स्टेडियम का नाम पटेल के नाम पर चले आ रहा था, उसे पिछले बरस नरेंद्र मोदी के नाम पर किया गया, उस समय भी यह बात जमकर उठी थी लेकिन अभी तो लोगों ने और अधिक तल्खी से याद किया और कहा कि अगर मेजर ध्यानचंद के नाम पर कुछ रखना ही था तो उस स्टेडियम का नाम मोदी ने अपने नाम पर क्यों रखवाया जहां उनकी खुद की पार्टी की सरकार है, जहां का क्रिकेट एसोसिएशन उनके अपने कब्जे में हैं, उसी स्टेडियम का नाम मेजर ध्यानचंद के नाम पर रखवा दिया जाता। खैर, यह तो सरकार की अपनी मर्जी की बात होती है, लेकिन अब जब एक बार फिर ओलंपिक में भारतीय हॉकी खबरों में आई तो उस वक्त फिर मेजर ध्यानचंद का नाम चला। आधी सदी से यह मांग चली आ रही है कि मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न दिया जाए लेकिन इस मांग को किनारे रख दिया गया है। पिछले ही बरस की बात है, मेजर ध्यानचंद के जन्म की 115वीं सालगिरह थी और अनगिनत भूतपूर्व और मौजूदा हॉकी खिलाडिय़ों ने मिलकर यह मांग की थी कि उन्हें देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न दिया जाए, लेकिन मोदी सरकार चुप रही उसने ऐसा नहीं किया। और तोहमत के लिए तो कांग्रेस है ही, कि उसने इतने समय में मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न क्यों नहीं दिया था?
अधिक पुरानी बात न करें और हाल के बरसों को देखें जब एक गैरकांग्रेसी इंद्र कुमार गुजराल साल भर के लिए प्रधानमंत्री बने थे और उन्होंने इस एक साल में बहुत से लोगों को भारतरत्न दिया। इनमें गुलजारी लाल नंदा, अरूणा आसफ अली, एपीजे अब्दुल कलाम, एमएस सुब्बूलक्ष्मी, और चिदंबरम सुब्रमण्यम, इतने लोग थे। गुजराल के तुरंत बाद अटल बिहारी वाजपेई प्रधानमंत्री बने जो पूरी तरह से भाजपा के थे, और एनडीए सरकार के मुखिया थे, उन्होंने अपने कार्यकाल में जयप्रकाश नारायण, अमर्त्य सेन, गोपीनाथ बोर्दोलोई, रवि शंकर, लता मंगेशकर, और बिस्मिल्लाह खान को भारत रत्न से सम्मानित किया। इसके बाद एनडीए की दूसरी सरकार बनी, नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और इस कार्यकाल में मदन मोहन मालवीय, अटल बिहारी वाजपेई, प्रणब मुखर्जी, भूपेन हजारिका, और नानाजी देशमुख को भारत रत्न दिया गया। मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल भी आ गया, और यह सरकार तो बड़ी रफ्तार से बड़े-बड़े फैसले लेने को जानी जाती है, लेकिन ओलंपिक के दो वक्त में भी मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न देने की कोई चर्चा भी नहीं हुई बल्कि पिछले बरस खिलाडिय़ों की मांग पर भी सरकार का कोई रुख सामने नहीं आया। अब राजीव गांधी के नाम पर रखा गया खेल का सबसे बड़ा सम्मान उनके नाम से हटाकर मेजर ध्यानचंद के नाम पर कर दिया गया, लेकिन इसके बाद भी ऐसा नहीं हुआ कि इस मौके पर मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न की घोषणा हुई हो। कुल मिलकर देखें तो राजीव गाँधी का अपमान करने में मेजर ध्यानचंद को हथियार की तरह इस्तेमाल कर लिया गया।
हिंदुस्तान में जो नामकरण का सिलसिला अटपटा है और फिर नामों को बदलने का सिलसिला तो और भी बदमजा है। बहुत सी पार्टियों की सरकारें नाम बदलने का यह काम करती हैं और ऐसा इसलिए भी होता है कि नामकरण भी वैसी ही राजनीति दिखाते हुए किए जाते हैं, और बाद में उन्हें बदलना एक अलग किस्म की राजनीति रहती है। ऐसा भाजपा ने भी बहुत किया है, कांग्रेस ने भी बहुत किया है, इसलिए हर किसी की मिसालें बड़ी संख्या में मौजूद हैं। यह समझने की जरूरत है कि नाम रखते हुए भी सोचा जाना चाहिए और हटाते हुए भी सोचा जाना चाहिए। फिर भी हम आज यहां पर नामकरण और दोबारा नामकरण पर नहीं लिख रहे हैं, हम इस बात पर लिख रहे हैं कि राजीव गांधी का नाम हटाने की बात तो ठीक है लेकिन मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न क्यों नहीं दिया जा रहा है? यह तो मोदी सरकार के हाथ की बात थी और ओलंपिक में हॉकी के जिस खेल को मोदी ने रात-रात जागकर देखा है, टीवी के परदे के सामने खड़े रहकर देखा है, उस हॉकी के खेल के जादूगर कहे जाने वाले मेजर ध्यानचंद का सम्मान अगर इस सरकार को सचमुच ही करना है, तो राजीव गांधी का नाम मिटा कर क्यों किया गया? मोदी अपने नाम के स्टेडियम के नाम को ध्यानचंद के नाम पर रखते और उन्हें भारत रत्न देने की घोषणा करते? ऐसे में ही लोगों को याद पड़ता है कि अरुण जेटली के नाम पर भी दिल्ली के एक ऐतिहासिक स्टेडियम का नाम रख दिया गया। जैसा कि हमने हाल के बरसों में भारतरत्न पाने वालों के नाम गिनाए हैं कि अगर इच्छाशक्ति थी तो इंद्र कुमार गुजराल ने एक बरस के प्रधानमंत्री रहते हुए पांच भारतरत्न दे दिए, और अटल बिहारी वाजपेई ने 6 बरस प्रधानमंत्री रहते हुए पांच भारतरत्न दिए। देने के लिए तो मोदी ने भी पांच भारत रत्न अपने पिछले कार्यकाल में ही दे दिए हैं, लेकिन मेजर ध्यानचंद की बारी वहां पर नहीं आई। मेजर ध्यानचंद को मौका दिया गया तो राजीव गांधी की स्मृतियों को हटाकर उस कुर्सी को खाली करके ध्यानचंद को वहां बैठा दिया। क्या यह सचमुच यही मेजर ध्यानचंद का सम्मान हुआ है? जिस देश में सचिन तेंदुलकर जैसे कारोबारी खिलाड़ी को अभी कुछ ही बरस पहले, सबसे कम उम्र में भारत रत्न दे दिया गया, वहां पर मोदी के 6 वर्षों में भी भारतरत्न के लिए ध्यानचंद का नाम नहीं आया !
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गांधीवादी किफायती जिंदगी को अगर देखें तो यह लगेगा कि आज की अर्थव्यवस्था की बुनियाद उससे हिल जाएगी। लोग पैदल या साइकिल से चलने लगेंगे, छोटी-छोटी आवाजाही के लिए कारों का इस्तेमाल कम हो जाएगा, सडक़ों पर गाडिय़ों की भीड़ घटेगी, और पैदल चलने वाले या साइकिल चलाने वाले लोग प्रदूषण पैदा नहीं करेंगे तो हवा साफ करने वाली मशीनों की बिक्री घट जाएगी, गाडिय़ां कम चलेंगी तो ऑटोमोबाइल की कंपनियों का भट्टा बैठ जाएगा, पेट्रोलियम कम बिकेगा, और लोग सेहतमंद भी रहेंगे। सोशल मीडिया में पैदल और पैडल के फायदे गिनाते हुए लोग यह भी गिनाते हैं कि इससे नुकसान किस-किसका होगा। सेहतमंद लोग देश की अर्थव्यवस्था को चौपट करके रख देते हैं, न महँगे इलाज की जरूरत पड़ती, न बड़े अस्पतालों की, न कसरत की मशीनों की, और न उन्हें जिम जाना पड़ता। ऐसे लोग देश की अर्थव्यवस्था में कुछ भी नहीं जोड़ पाते, न किसी चीज की बर्बादी करते, ना खुद बर्बाद होते। दूसरी तरफ महज बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में चलने वाले लोग, रेस्तरां का फास्ट फूड खाने वाले लोग, कुल मिलाकर अस्पतालों को चलाते हैं, उनका खुद का आकार हर बरस बदल जाता है, तो उनकी वजह से फैशन उद्योग भी चलता है। और पैदल और पैडल में भी सबसे खतरनाक पैदल लोग रहते हैं क्योंकि वे तो साइकल तक नहीं खरीदते और साइकिल उद्योग भी नहीं चलता।
सोशल मीडिया पर हल्के फुल्के मिजाज में लिखी गई ऐसी गंभीर बातों के साथ-साथ एक दूसरी बात को भी समझने की जरूरत है। अभी दो दिन पहले ही यूरोप की सबसे चर्चित पर्यावरणवादी आंदोलनकारी किशोरी ग्रेटा थनबर्ग का एक बयान सामने आया है जिसमें उसने अंधाधुंध मार्केटिंग करने वाले फैशन उद्योग की आलोचना की है कि वह लोगों के बीच गैरजरूरी फैशन को बढ़ावा देता है। और ग्रेटा ने यह बात कहने के लिए एक फैशन मैगजीन वोग को दिए हुए एक इंटरव्यू का इस्तेमाल किया जिसमें उसने कहा कि पर्यावरण की बर्बादी के लिए और मौसम की तरह-तरह की इमरजेंसी आने के लिए फैशन उद्योग बहुत हद तक जिम्मेदार है। फैशन उद्योग हर कुछ महीनों में फैशन बदलकर लोगों को नए कपड़े और सामान खरीदने के लिए उकसाते रहता है। ग्रेट ने यह कहा कि वह कभी नए कपड़े नहीं खरीदती, अगर जरूरत भी रहती है तो पुराने कपड़ों के बाजार से इस्तेमाल होने के बाद बिकने वाले पुराने कपड़े ही खरीदती है, और जान-पहचान के करीबी लोगों से कपड़े उधार लेकर भी अपना काम चला लेती है 18 बरस की ग्रेटा थनबर्ग स्वीडन की एक किशोरी है और पर्यावरण को लेकर अपने आंदोलन की वजह से वह खबरों में भी रही। पिछले अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बावलेपन की हद तक जाकर ग्रेटा थनबर्ग पर हमला करते थे जिसका मजा लेते हुए ग्रेटा अमेरिका की पर्यावरण विरोधी नीतियों को उजागर करते रहती थी।
इन दो अलग-अलग बातों को अगर देखें तो इनका एक दूसरे से बहुत सीधा रिश्ता नहीं है, लेकिन दोनों ही बातें पर्यावरण को बचाने के लिए जरूरी हैं। एक तो यह कि लोग एक सेहतमंद जीवनशैली इस्तेमाल करें जिसमें वे पैदल और पैडल पर अधिक निर्भर करें। यह जरूरी है। इसके साथ ही यह भी समझने की जरूरत है कि हिंदुस्तान से हजारों मील दूर किस तरह एक संपन्न यूरोपियन देश स्वीडन में एक किशोरी उन्हीं जीवनमूल्यों को बढ़ावा दे रही है जिन्हें गांधी ने अपनी जिंदगी में इस गरीब हिंदुस्तान में बढ़ाया था. आज अगर यह सोचें कि क्या हिंदुस्तान में कोई लडक़ा या लडक़ी अपने किशोरावस्था में पर्यावरण को लेकर ऐसी जागरूकता की बात कर सकते हैं, तो गांधीवादी होने का दावा करने वाले परिवारों में भी ऐसे कोई बच्चे नहीं मिलेंगे। इसलिए गांधीवादी किफायत न सिर्फ धरती के पर्यावरण को बचाने के लिए जरूरी है, बल्कि गांधी के किस्म की आत्मनिर्भरता लोगों की सेहत के लिए भी जरूरी है। यह एक अलग बात है कि आज दुनिया की अर्थव्यवस्था जिस तरह से फिजूलखर्ची पर टिक गई है, वह अर्थव्यवस्था जरूर डांवाडोल होने लगेगी।
आज हिंदुस्तान में किसी संपन्न तबके के बच्चों को तो छोड़ ही दें, औसत दर्जे की कमाई वाले परिवारों में भी बच्चे धरती को बचाने के लिए बाजार से पुराने कपड़े खरीदें या यार दोस्तों से उधार में लेकर पहन लें ऐसा किसी ने देखा-सुना भी नहीं होगा। इसलिए ग्रेटा की बातों को ग्रेट मानना भी जरूरी है और उनको गांधी के नजरिए से देखना भी जरूरी है. यह भी समझना जरूरी है कि किस तरह आज का फैशन उद्योग लोगों को गैरजरूरी खरीदारी के तरफ धकेलता है और फैशन को बार-बार बदल कर लोगों को ग्राहक बनाए रखता है, समर्पित ग्राहक।
वैसे तो देश और दुनिया में चर्चित बहुत से फिल्मी और खिलाड़ी सितारों को देखें तो उनकी एक अपील भी गैरजरूरी फैशन खपत को घटा सकती है, लेकिन घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या? यही सारे फिल्म और क्रिकेट के सितारे ऐसे हैं, जो तमाम किस्म की फैशन के इश्तहार करते हैं, उनको बढ़ावा देते हैं। अब अगर अमिताभ बच्चन ही यह कहने लगें कि वे तो पिछले 15 वर्षों से एक ही पतलून पहन रहे हैं, या उन्होंने तो पिछले 5 बरस से कोई नया सूट सिलवाया नहीं है, तो उनके खुद के पेट पर लात पड़ेगी। इसलिए जो लोग मॉडलिंग और बिक्री को बढ़ावा देने के ऐसे धंधे की कमाई पर नहीं टिके हुए हैं, उन लोगों को खुलकर सादगी, और फैशन की बात करनी चाहिए। अब कनाडा का प्रधानमंत्री अगर किसी मौके पर अपने रंग-बिरंगे मोजों के रंग, या उन पर छपी हुई डिजाइन को लेकर अपने सामाजिक सरोकार के प्रदर्शन पर वाहवाही पाता है, तो दुनिया के और भी बहुत से नेता और दूसरे चर्चित व्यक्ति फैशन की बर्बादी घटाने के लिए इस तरह के बयान दे सकते हैं। बहुत छोटी-छोटी बातों को देखें तो फेसबुक कंपनी का नौजवान मालिक मार्क जुकरबर्ग अधिकतर वक्त सलेटी रंग की मामूली टी-शर्ट और जींस में ही दिखता है। उसे किसी मौके के लिए कपड़े छंाटने में भी अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ती क्योंकि उसने इन्हीं रंगों के, ऐसे ही डिजाइन के यही कपड़े 4-6 जोड़ी रखे हुए हैं। ऐसे चर्चित लोग भी अगर किफायत को लेकर कोई आंदोलन शुरू करेंगे तो उसका धरती पर बड़ा असर पड़ सकता है लेकिन सवाल यह है कि जिस फेसबुक पर रात-दिन फैशन के इश्तहार आते हैं, क्या वहां पर धंधा मार नहीं खायेगा? इसलिए बहुत से लोग जो सीधे-सीधे मॉडलिंग से जुड़े हुए नहीं है वे लोग भी इश्तहार की कमाई से तो जुड़े हुए हैं। देखें इन्हीं के बीच से कोई रास्ता ऐसा निकल सकता है क्या, जिसमें चर्चित लोग गांधी या ग्रेटर थनवर्ग की तरह किफायत और सादगी को बढ़ावा दे सकें। जिस वक्त चीन में अकाल की नौबत थी और लोगों के पास काम नहीं था, खाना नहीं था, उस वक्त वहां औरत-मर्द सभी के लिए एक ही किस्म की पतलून और वैसा ही कोट, और वह भी एक ही रंग के, लागू कर दिए गए थे ताकि लोग फैशन में बर्बाद ना हों। आज भी सरकार और समाज में जिम्मेदार लोगों को यह देखना चाहिए कि जिंदगी कैसे अधिक किफायती हो सकती है, और कैसे हम धरती पर अधिक बड़ा बोझ बनने से बचें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जाने कैसे खबरों में और सोशल मीडिया में पिछले 4 दिनों से एक मंदिर की ऐसी तस्वीरें लगातार घूम रही हैं जिनमें ईश्वर के लिए आया हुआ चढ़ावा गिना जा रहा है। दर्जनों लोग बैठकर नोटों को अलग कर रहे हैं, सिक्कों को अलग कर रहे हैं, उनके बंडल बनाते जा रहे हैं। कुछ खबरें ताजा हैं, कुछ तस्वीरें और आंकड़े पिछले सालों के भी हैं। कुल मिलाकर मध्यप्रदेश-राजस्थान की सरहद पर राजस्थान के हिस्से के इस मंदिर में हर महीने करोड़ों का चढ़ावा आने की खबरें पिछले वर्षों में लगातार आ रही हैं। देश का प्रमुख मीडिया, देश के प्रमुख अखबार, सभी जगहों पर आंकड़ों के साथ इस मंदिर की कमाई का जिक्र है, और उसकी तस्वीरें भी हैं। अब यह जगह कोई बहुत बड़ा तीर्थ स्थान नहीं है जहां पर तिरुपति या नाथद्वारा या स्वर्ण मंदिर या अजमेर शरीफ की तरह बड़ी संख्या में लोग पहुंचते हैं। लेकिन सांवलिया सेठ का यह मंदिर कई मायनों में बड़ा चर्चित है। और जैसा कि सांवले रंग से समझ में आ जाना चाहिए यह कृष्ण का एक मंदिर है। कृष्ण के अनगिनत रूपों में से एक रूप उनके सांवले रंग की वजह से सांवलिया सेठ के रूप में भी प्रसिद्ध है। अब इस मंदिर में इतने चढ़ावे की एक वजह यह भी है यह पूरा इलाका अफीम की गैरकानूनी खेती का इलाका माना जाता है और अफीम तस्कर परंपरागत रूप से इस मंदिर के भगवान को अपना भागीदार बनाकर चलते हैं। जब कभी वे अफीम की कोई बड़ी खेप बाहर भेजते हैं, तो हिस्सा देने पहुंचते हैं और चढ़ावे में नोटों के साथ-साथ अफीम भी डाली जाती है। हर महीने अमावस्या को दान पेटी खोली जाती है तो उसमें से करोड़ों रुपए निकलते हैं जो कि जाहिर तौर पर अफीम तस्करों के दिए गए दान की वजह से इतनी बड़ी रकम बन पाते हैं। इस बात को उस इलाके के तमाम लोग अच्छी तरह जानते हैं यह बात खबरों में आती रहती है, इसलिए यह हिंदू धर्म को बदनाम करने की कोई साजिश भी नहीं है। ये खबरें बड़े धर्मालु हिंदुओं के मालिकाना हक वाले अखबारों और मीडिया में आती हैं, और अफीम को चूंकि काला सोना कहा जाता है इसलिए सांवलिया सेठ को भी काले सोने का देवता कहते हैं।
लोगों को याद होगा कि दक्षिण भारत के विख्यात तीर्थस्थान तिरुपति में भी वहां के देवता को उनके मानने वाले लोग अपने व्यापार में भागीदार मानकर चलते हैं और फिर चाहे उनका व्यापार शराब का ही क्यों ना हो, वे अपने बही-खातों में ईश्वर के नाम का हिस्सा दिखाते हुए उतनी रकम को दान में तिरुपति ट्रस्ट को हर बरस भेजते रहते हैं. उनकी आस्था उन्हें यह भरोसा दिलाती है कि ईश्वर की भागीदारी की वजह से उनका कारोबार खूब पनपेगा। और यह बात बहुत गलत भी नहीं है क्योंकि ऐसे भागीदार लोगों के धंधे में बरकत से ईश्वर का खुद का भी फायदा बढ़ता है, और यही वजह है कि व्यापारी अधिक कामयाब होते हैं, मजदूर बमुश्किल मजदूरी कमा पाते हैं, और बीच के लोग जो कि अधिक चढ़ावा नहीं दे पाते जो कि मुफ्त का लड्डू प्रसाद के रूप में पाकर ही प्रसाद पा सकते हैं, प्रसाद को खरीद नहीं सकते हैं, उनकी जिंदगी भी जस की तस चलती रहती है वह आखिर ईश्वर को किस चीज में भागीदार बना सकते हैं?
जिन लोगों ने गॉडफादर फिल्म देखी होगी या मारियो पूजा की लिखी हुई कहानी पढ़ी होगी, उन्हें पता होगा कि किस तरह दुनिया के सबसे खूंखार मुजरिम और माफिया सरगना अपने दिल की गहराइयों से ईसाई धर्मावलंबी रहते हैं, सुख-दुख के तमाम मौकों पर चर्च जाते हैं, इतवार को चर्च जाते हैं, एक-दूसरे को कत्ल की साजिश चर्च और कब्रिस्तान में करते हैं। लेकिन किसी का ईश्वर उन्हें किसी जुर्म से नहीं रोकता, किसी जुर्म की कमाई से नहीं रोकता। ईश्वर ने अगर जुर्म की कमाई से किसी को रोका होता तो भला मुंबई का एक बड़ा माफिया सरगना और एक सबसे बड़ा तस्कर मस्तान कैसे हाजी बना होता? हाजी तो लोग एक तीर्थ करने के बाद, हज करने के बाद ही बन पाते हैं, और मस्तान जब हाजी बन गया तो जाहिर है कि उसके पीछे भी ईश्वर की मर्जी रही होगी।
ईश्वर और काले कारोबार का यह पूरा सिलसिला दुनिया में कहीं भी एक-दूसरे के साथ कोई टकराव नहीं रखता। हमने दुनिया के सैकड़ों धर्मस्थानों के बारे में पढ़ा है, दर्जनों को रूबरू देखा भी है। किसी एक में भी ऐसी कोई तख्ती नहीं लगी है कि जुर्म करने वाले और पापी यहां पर ना आएं, ईश्वर के सामने ना पड़ें, पाप की कमाई से यहां दान ना दें। सच तो यह है कि जब बड़े से बड़े चर्चित धर्मस्थान पर बड़े-बड़े चर्चित मुजरिम पहुंचते हैं, तो उनके स्वागत के लिए उस जगह के, उस धर्म के पुजारी खड़े रहते हैं। वह तमाम लोगों की भीड़ को चीरते हुए ऐसे मुजरिमों को लेकर ईश्वर तक जाते हैं और फिर जितनी देर ईश्वर और मुजरिम एक दूसरे को देखना चाहते हैं, उतनी देर ये पुजारी बाकी लोगों की भीड़ को रोककर रखते हैं। अलग-अलग धर्मों में रिवाज थोड़ा सा कम-अधिक फर्क वाला हो सकता है, लेकिन कुल मिलाकर बात यह है कि दुनिया का एक भी धर्म पाप की काली कमाई से कोई परहेज नहीं करता। धर्म स्थानों पर यह तो लिखा दिखता है कि यहां दलित भीतर ना आएं, महिलाएं भीतर ना आएं, गैरहिंदू भीतर ना आएं, लेकिन जिस मंदिर से यह चर्चा हमने शुरू की है, सांवलिया सेठ के उस मंदिर में भी ऐसी किसी तख्ती की चर्चा पिछले कई बरस की खबरों में हम न ढूंढ पाए कि क्या वहां पर अफीम तस्करों के लिए आने की कोई मनाही है? क्या वहां पर अफीम की कमाई दान में न देने या दान पेटी में अफीम न डालने की कोई अपील है? ऐसा कुछ भी नहीं है।
जो धर्म अपने भीतर के इंसानों को अछूत और सछूत तो जैसे तबकों में बांटकर चलता है, उस धर्म में भी कोई भी नोट, कोई भी सिक्का, कोई भी गहने, कुछ भी अछूत नहीं हैं. और तो और अफीम की डली और अफीम की पोटली भी अछूत नहीं है। ईश्वर का यह हैरान करने वाला दरबार रहता है जहां किसी मुजरिम के लिए कोई मनाही नहीं है जहां किसी जुर्म की कमाई से कोई परहेज नहीं है। और तो और यह भी याद पड़ता है कि मदर टेरेसा ने भी अपने अनाथ आश्रम के बच्चों के लिए दुनिया के कुछ ऐसे लोगों से दान लिया था जिन्हें मुजरिम माना जाता था। अब जब ईश्वर को ही परहेज नहीं है, तो ईश्वर का नाम लेकर अनाथ बच्चों को जिंदा रखने का काम करने वाली मदर टेरेसा कैसा परहेज निभा सकती है? इसलिए जिस पैसे को प्रवचनकर्ता हाथों का मैल करार देते हैं, उस पैसे के बारे में एक भ्रष्ट नेता, अधिक बेहतर तरीके से, अधिक सच्चाई के साथ बता सकता है कि पैसा खुदा तो नहीं है, लेकिन खुदा से कम भी नहीं है। बात एकदम सही है, किसी धर्मस्थल की ऐसी हिम्मत हमने आज देखी-सुनी तो दूर, कहानी में भी नहीं पढ़ी है जहां पर यह लिखा गया हो कि इस जगह पर मुजरिमों और पापियों के आने पर रोक है, और जुर्म की काली कमाई दान में डालने पर रोक है।
ईश्वर को तस्करों से लेकर तमाम किस्म के मुजरिमों तक की भागीदारी अच्छी लगती है. अफीम के धंधे में भागीदारी से भी उसे कोई परहेज नहीं है। धर्म में जिनकी दिलचस्पी है उन्हें धर्म की बारीकियों को जानना चाहिए। अगर ईश्वर सिर्फ नेक काम करने वाले, पुण्य करने वाले लोगों का दान मंजूर करने लगेगा तो उसे दिन में दो बार अपनी प्रतिमा से निकलकर पास के गुरुद्वारे में लंगर खाने के लिए जाना पड़ेगा। ईश्वर समझदार है, व्यावहारिक है इसलिए वह किसी किस्म की कमाई को बुरा नहीं मानता और दो नंबर के धंधे में भी अगर उसे भागीदार बनाकर रखा जाता है तो वह उनको भी बरकत देता है। मनरेगा के मजदूरों को जरूर अपनी मजदूरी बढ़वाने के लिए खुद मेहनत करनी पड़ती है क्योंकि उन्होंने किसी ईश्वर को अपनी मजदूरी की कमाई में भागीदार बनाया हुआ नहीं है। मजदूरों को भी अफीम तस्करों से दो नंबरियों से लेकर 10 नंबरियों तक से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है, क्योंकि वह सीख नहीं पाए हैं इसीलिए हाड़-मांस जलाते हुए रात-दिन मेहनत करते हैं, और आधा पेट खाकर सोते हैं। ईश्वर के तौर-तरीके अलग किस्म के हैं और वहां पर एक अलग ही भाषा चलती है, उस भाषा में पार्टनरशिप-डीड लिखवाना मजदूरों को आना चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कई बरस पहले अमरीका के एक स्कूल में एक सिरफिरे समझे जा रहे नौजवान ने गोलियों से दर्जनों बच्चों को भून दिया था। इस हत्यारे से जुड़ी हुई जो खबरें आई थीं उन पर भारत के लोगों के सोचने का भी एक पहलू है। इस अमरीकी नौजवान की मां को बंदूकों से बहुत मोहब्बत थी और वह अपने बेटों को पास की एक शूटिंग-रेंज पर ले जाया करती थी, जहां पर कि बंदूकों के शौकीन बहुत से लोग प्रैक्टिस के लिए आया करते थे। और वह बंदूकों के अपने संग्रह के बारे में भी लोगों से फख्र के साथ बात किया करती थी। दो दिन पहले जब वह अपने बेटों के हाथों मारी गई, तब उसी की बंदूक उसके खिलाफ इस्तेमाल हुई और इसके बाद वह बेटा इसी मां के स्कूल जाकर वहां छब्बीस और लोगों को मार बैठा। हर कुछ महीनों में अमरीका में ऐसी वारदात होती ही रहती हैं।
हिंदुस्तान में बड़े बुजुर्ग हमेशा से यह कहते हैं कि घर का वातावरण अच्छा रखना चाहिए। यहां की कहानियों में यह लिखा हुआ है कि किस तरह मां के पेट में रहते हुए अभिमन्यु ने चक्रव्यूह तोडऩा सीखा। इसी तरह इस देश में यह भी माना जाता है कि जब कोई महिला मां बनने वाली होती है, तो उसे अच्छा सुनना चाहिए, अच्छा देखना चाहिए। कुल मिलाकर बात यह है कि पैदा होने के पहले, या पैदा होने के बाद, लोगों को एक बेहतर माहौल की जरूरत होती है। जो लोग यह मानते हैं कि लोग पैदाइशी अच्छे या बुरे होते हैं, वे विज्ञान के कुछ आधे-अधूरे नतीजों को मान बैठते हैं, या फिर हमेशा से चली आ रही तर्कहीन कहावतों और मुहावरों को। दरअसल होता यह है कि किसी भी बच्चे की सोच बनने में उसके आसपास के माहौल का ही पूरा असर होता है। यह माहौल परिवार का भी हो सकता है, पड़ोस का भी हो सकता है, स्कूल या दोस्तों का भी हो सकता है। और आज के जमाने में इन सबसे परे, टीवी और इंटरनेट का भी हो सकता है। इसलिए जब कोई मां अपने बच्चे के सामने बंदूकों के अपने शौक को गर्व के साथ बखान करती है, और जब कोई बच्चा बचपन से ही इन बंदूकों के बीच सांस लेते बड़ा होता है, तो उसके इन बंदूकों के इस्तेमाल करने का खतरा भी बढ़ जाता है। दुनिया का इतिहास गवाह है कि बंदूकें किन्हीं मुजरिमों के मारने के, बुरे लोगों को मारने के काम नहीं आतीं, वे अधिकतर मामलों में सिर्फ बेकसूरों को मारने के काम आती हैं। कभी अपने को, कभी अपने जीवनसाथी को, और जैसा कि अमरीका के इस मामले में हुआ, अपनी मां को और उस मां की नौकरी वाले स्कूल के दर्जनों लोगों को।
इसलिए लोगों को यह सोचने और समझने की जरूरत है कि उनके, और उनके बनाए हुए माहौल का असर बच्चों पर बहुत दूर तक पड़ता है। जो मां-बाप बीड़ी-सिगरेट पीते हैं, उनके बच्चों के इस लत में पडऩे का खतरा अधिक होता है। ऐसा ही हाल बदजुबानी का है, जो लोग बातचीत में गालियां देते हैं, उनके बच्चे या उनके आसपास के बच्चे इन बातों को तेजी से सीखते हैं। जो बच्चा अपने पिता के हाथों अपनी मां से बदसलूकी देखते बड़ा होता है, वह आगे चलकर पिता से नफरत तो करता ही है, उसके खुद के हिंसक होने के खतरे बढ़ जाते हैं। हिंदुस्तान के आम परिवारों में लोग बच्चों के सामने बात करते हुए सामाजिक न्याय को भूल जाते हैं। कहीं कोई परिवार गरीबी को मूर्खता बताने लगता है, तो कहीं किसी आरक्षित तबके को सरकारी दामाद कहने लगता है। ऐसी सारी भाषा लोगों के मन में बचपन से ही बैठते चलती है और बड़े होने पर ऐसे बच्चों की सोच बदलने की गुंजाइश कम रहती है। आज इस पर लिखने का हमारा मकसद यह है कि भारत के मां-बाप इस पूरे हादसे को लेकर, और उसके पीछे इस हत्यारे नौजवान की मां की शौक और पसंद को देखते हुए, अपने खुद के बारे में सोचें-विचारें। यह देखें कि क्या उनकी कोई बात तो उनके बच्चों को गलत राह पर नहीं धकेल रही। अमरीका के इस हादसे से अगर हिंदुस्तान के मां-बाप, खुद बड़ी ठोकर खाने के पहले अपने को संभाल सकें, तो उसी में समझदारी है।
आज इस पुराने मामले पर लिखी हुई बात को दोहराने की जरूरत इसलिए पड़ रही है कि दो दिन पहले देश की राजधानी में चीख-चीख कर जो भीड़ मुसलमानों को काटने का फतवा जारी कर रही थी और इस बात को लेकर पागलपन के नारे लगा रही थी कि जब इन्हें काटा जाएगा तब वे राम-राम का नारा लगाएंगे। ऐसे लोगों को यह भी समझना चाहिए कि इस देश का नाकारा कानून और इस देश की सांप्रदायिक मुजरिमों से रियायत बरतने वाली सरकार मिलकर उन्हें सजा चाहे ना दिलवा सकें, लेकिन जब उनके परिवार के लोग, उनके आसपास के लोग सांप्रदायिक नफरत के ऐसे नारे लगाते उन्हें देखेंगे, तो वे या तो अपने परिवार के लोगों से नफरत करने लगेंगे, या इनके फतवे के झांसे में आकर खुद भी समाज के एक हिस्से से नफरत करने लगेंगे। कुल मिलाकर यह है कि उनकी जिंदगी नफरत से भरी हुई रहेगी। ये लोग मुसलमानों का कोई नुकसान नहीं कर सकेंगे, ये नुकसान सिर्फ हिंदुओं का करेंगे और अपने करीब के लोगों का सबसे अधिक नुकसान करेंगे, जिनकी जिंदगी में इंसानियत की एक जगह हो सकती थी, लेकिन उस जगह को यह नफरत से भर दे रहे हैं। इन लोगों को ध्यान रखना चाहिए कि जिस तरह अमेरिका में मां-बाप की जमा की हुई बंदूकों को लेकर छोटे-छोटे बच्चे अपने स्कूल और कॉलेज में अपने बेकसूर साथियों को थोक में मार रहे हैं, उसी तरह की नफरत का शिकार हिंदुस्तान में हिंदुस्तानी नफरतजीवियों के बच्चे होने जा रहे हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कल दिल्ली में भाजपा के एक नेता की अगुवाई में प्रतिबंधों को तोड़ते हुए प्रदर्शन हुआ, और इस प्रदर्शन में भीड़ ने खुलकर मुस्लिमों पर हिंसा करने के नारे लगाए, और उन नारों के साथ यह नारे भी लगाए कि जब इनको मारा जाएगा तो ये राम-राम चिल्लाएंगे। अपनी हिंसक और सांप्रदायिक सोच में राम को जिस तरह से लपेटा गया है, उससे लगता है कि तुलसी की कहानी से परे अगर सचमुच ही राम कहीं होते तो अपना नाम समेटकर भी यहां से चले गए होते। जिस राम के नाम पर देश के सबसे लंबे मुकदमे के बाद एक मंदिर बन रहा है, उस राम का नाम मुंह से निकलवाने के लिए मुस्लिमों को मारने और काटने के नारे संगठित तरीके से लगवाए जा रहे हैं। और मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक छाए हुए इन वीडियो को अगर किसी ने नहीं देखा है तो दिल्ली और उत्तर प्रदेश की पुलिस ने नहीं देखा है जिनकी प्राथमिकता में ऐसी सोच पर कोई कार्यवाही करना रह नहीं गया है। मीडिया के कुछ लोगों ने इस बात को लिखा भी है कि ऐसे नारे लगाने वालों को गिनती के फतवेबाज मान लेना गलत होगा क्योंकि यह उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले हर कुछ दिनों में आगे बढ़ाए जा रहे एजेंडे का एक हिस्सा है, जिसे समझ पाना अधिक मुश्किल बात नहीं है। ऐसा लगता है कि आने वाले महीनों में उत्तर प्रदेश चुनाव का मतदान उत्तर प्रदेश में हिंदू और मुस्लिम मतदाताओं के बीच एक जनगणना की तरह होकर रह जाएगा जो कि धर्म के आधार पर की जाएगी।
जिस तरह एक पत्रकार को जंतर मंतर पर इस सांप्रदायिक भीड़ ने घेर लिया और उससे जबरिया जय श्री राम कहलवाने की कोशिश की गई, और ना कहने पर उसे वहां से निकाल दिया गया, वे तमाम वीडियो देखने के बावजूद दिल्ली की पुलिस तो मौन है ही, अपने आपको भाजपा से अलग बताने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी ऐसी नौबत के खिलाफ कुछ नहीं बोल रहे जबकि वह आए दिन इस बात की आड़ लेते रहते हैं कि दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के मातहत काम करती है और दिल्ली का मुख्यमंत्री पुलिस को नियंत्रित नहीं करता। लेकिन दिल्ली का मुख्यमंत्री अपनी जुबान को तो नियंत्रित करता है, वह यह तो तय कर सकता है कि वह किस सांप्रदायिक हिंसा को देखते हुए अपना मुंह खोले? या फिर वह अपनी ही पार्टी के विधायकों की गुंडागर्दी को बचाने के लिए ही मुंह खुलेगा और फिर चाहे उसके राज्य के भीतर इतनी बड़ी-बड़ी सांप्रदायिक हिंसा होती चले उसका मुंह भी नहीं खुलेगा? यह हिंदुस्तान का किस किस्म का निर्वाचित मुख्यमंत्री है जिसका मुंह ही चुनिंदा मुद्दों पर खुलता है, ठीक उसी तरह जिस तरह कि उसके गुरु अन्ना हजारे का मुंह चुनिंदा मुद्दों पर, चुनिंदा लोगों के खिलाफ ही खुलता था, और पिछले 6 बरस से वह कुंभकरण की तरह सोया हुआ है यह कहकर कि कांग्रेस सरकार आएगी तो उठा देना।
यह सिलसिला बहुत ही शर्मनाक है लेकिन दिक्कत यह है कि दिल्ली की पुलिस और उत्तर प्रदेश की पुलिस इन दोनों की सांप्रदायिकता में कोई फर्क रह नहीं गया है। जो वीडियो बच्चे-बच्चे के हाथ में है, वह वीडियो भी पुलिस को हासिल नहीं हो रहा है। जिस प्रदर्शन की अर्जी खारिज की जा चुकी थी उसके बावजूद वह प्रदर्शन हुआ और इतने भयानक सांप्रदायिक तरीके से हुआ लेकिन फिर भी केंद्र सरकार की इतनी एजेंसियां जो कि लोगों के मोबाइल फोन पर झांकने के लिए इजराइल से अरबों का जासूसी स्पाइवेयर खरीदती हैं, उन्हें सडक़ पर नारे लगाती भीड़ के यह वीडियो भी नहीं मिल रहे जिन्हें पाने के लिए पेगासस की जरूरत नहीं है, महज आंख और कान खोलने की जरूरत है, वे सोशल मीडिया पर चारों तरफ हैं। ऐसी अनदेखी करके केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश की पुलिस देश को किस हालत में धकेल रही है, क्या इन दो पुलिस पर राष्ट्रीय सुरक्षा अध्यादेश के तहत मुक़दमा दजऱ् नहीं होना चाहिए?
और पूरे देश में पुलिस किस तरह एक अराजक ताकत बन चुकी है इसको देखना हो तो कल देश के मुख्य न्यायाधीश का दिया हुआ यह भाषण सुनना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा है कि देश में मानवाधिकार का सबसे बुरा हनन पुलिस हिरासत में होता है जहां ताकतवर लोगों को भी प्रताडऩा और अत्याचार झेलना पड़ता है। प्रधान न्यायाधीश एन वी रमना ने कहा कि मानवाधिकार और व्यक्ति की गरिमा को सबसे अधिक खतरा पुलिस थाने में होता है। उन्होंने पुलिस में पहुंचने के बाद लोगों के मानवाधिकार के मामले में अमीर और गरीब की ताकत के फर्क के बारे में भी काफी कुछ कहा है। उन्होंने कहा कि अगर हम कानून का राज बनाए रखना चाहते हैं तो न्याय तक पहुंच वाले, और बिना पहुंच वाले गरीब, के बीच का फर्क खत्म करना होगा।
पहुंच और बिना पहुंच वालों के बीच का यह फर्क हिंदुस्तान में आज ना सिर्फ पैसे वालों और गरीब के बीच में है, बल्कि बहुमत की आबादी और अल्पमत आबादी के बीच भी है। आज अल्पमत के लोग अगर बहुमत के खिलाफ इस तरह के नारे लगाते हुए मिलते तो अब तक उनके खिलाफ बड़ी-बड़ी एफआईआर दर्ज हो चुकी रहतीं। देश की सबसे बड़ी पार्टी के लोग उनके खिलाफ टीवी की बहसों में मुंह से झाग निकालने लगते, और सडक़ों पर राजनेता देश के ऐसे गद्दार तबके को पड़ोस के देश भेज देने की बात कहने लगते। मुख्य न्यायाधीश ने जो बात गरीब और अमीर के बारे में कही है वह दरअसल पैसों की ताकत से जुड़ी हुई बात है, उसे और अधिक बारीकी से देखें तो वह सिर्फ ताकत से जुड़ी हुई बात है जो कि सिर्फ पैसों की ताकत हो, ऐसा जरूरी नहीं है। आज देश में बहुमत की ताकत और अल्पमत की ताकत का जो फर्क है उसने लोगों की जिंदगी का बुनियादी हक छीन लिया है। आज अल्पमत की भीड़ पर निशाना लगाने के लिए बहुमत की सोच वाली सरकारों की पुलिस कहीं पैलेट गन चलाने तैयार है, तो कहीं बेकसूरों को चौथाई-चौथाई सदी तक जेलों में बंद रखने को तैयार है, तो कहीं उनके खिलाफ अंतहीन झूठे मुकदमे दायर करने को तैयार है।
पता नहीं क्यों मुख्य न्यायाधीश ने पुलिस तक संपन्न और विपन्न की पहुंच के फर्क को गिनाते हुए बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक की पहुंच के फर्क को नहीं गिनाया, जबकि कल जब वे यह भाषण दे रहे थे तकरीबन उसी समय के आसपास उन्हीं की दिल्ली में यह नारे लग रहे थे जिनमें मुस्लिमों को जब मारा जाएगा तो वे राम-राम चिल्लाएंगे के नारे वीडियो कैमरों के सामने लगाए जा रहे थे। या अलग बात है कि बिना इजाजत यह प्रदर्शन जिस भाजपा नेता के संगठन ने किया था वह इसे अपना भारत जोड़ो आंदोलन करार देता है यह किस तरह का भारत जोड़ो है? क्या इसे उसी दिल्ली में बैठे हुए देश के मुख्य न्यायाधीश को नहीं देखना चाहिए? क्योंकि देश में लोकतंत्र की अन्य संस्थाओं का दिवाला निकल चुका है, और अब थोड़ी बहुत उम्मीद इस नए मुख्य न्यायाधीश से इसलिए है कि इनकी कोई नीयत रिटायरमेंट के बाद किसी कुर्सी को पाने की दिख नहीं रही है। उनके अब तक के फैसले एक ईमानदार अदालत का रुख दिखा रहे हैं। मुख्य न्यायाधीश भी अगर बुलाकर यह नहीं पूछेगा कि राम का नाम लेने वालों की कमी हो गई है क्या जो कि मुस्लिमों को मार-मारकर राम का नाम लिवाया जाएगा? क्या मुख्य न्यायाधीश की जिम्मेदारी नहीं बनती कि एक मासूम नासमझ बच्चा बनी हुई दिल्ली पुलिस को बुलाकर पूछे कि उसके आंख और कान कुछ चुनिंदा मौकों पर काम करना क्यों बंद कर देते हैं? वह केंद्र सरकार की खुफिया एजेंसियों को यह नहीं पूछ सकती कि ऐसे नारों के पहले और इसके बाद क्या उन्हें देश की सुरक्षा के लिए कोई खतरा नहीं दिखता है? लोकतंत्र की बुनियादी समझ को ध्यान में रखते हुए कल की इस वारदात के बाद कोई नतीजा निकाला जाए तो उससे दिल्ली पुलिस के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत मामला दर्ज हो सकता है कि वह अपनी सरहद में इतनी बड़ी सांप्रदायिक हिंसा के फतवे हवा में गूंजने दे रही है, उसकी अनदेखी कर रही है, और पूरे देश में सांप्रदायिक हिंसा भडक़ने का खतरा खड़ा कर रही है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जिंदगी के बहुत से असल मुद्दों पर लगातार लिखने वाली एक महिला पत्रकार दोस्त ने एक वक्त लिखा था कि वह एक स्थानीय अखबार में पढ़ रही थी कि किस तरह हाथियों ने एक बस्ती में तोड़-फोड़ की। और साथ यह लिखा कि ऐसी खबरों के बाद उसे शाहरूख खान के डॉन-2 के बारे में पढऩे की क्या जरूरत है? यह बात रोज ही हमारे सामने आती है क्योंकि अखबार के कई पन्ने रोज तैयार करते हुए दिन की शुरुआत से लेकर रात काम खत्म होने तक दुविधा खत्म ही नहीं होती। अखबार पढऩे वालों की उम्मीदों के मुताबिक अखबार निकाला जाए, या उन्हें उनकी उम्मीदों के बारे में कुछ सलाह देता हुआ अखबार निकाला जाए? अखबार का मकसद कारोबार हो, या सरोकार हो? ऐसे बहुत से सवाल बहुत सी खबरों को लेकर और उन खबरों से छांटे गए किसी मुद्दे पर इस तरह का, इस जगह पर संपादकीय लिखते हुए सामने आकर खड़े हो जाते हैं। जब हम जिंदगी की तकलीफों और समाज में बेइंसाफी के बारे में लिखते हैं तो बहुत से लोगों को लगता है कि लिखने को कोई अच्छी बात बची ही नहीं है क्या? कुछ अखबारों ने अपनी यह नीति बना रखी है कि वे पहले पन्ने पर दुख-तकलीफ की कोई खबर नहीं छापते हैं, जब तक कि वह किसी बड़ी ताजा घटना की खबर न हो, और जिसे छोड़ देना लापरवाही लगे।
जो जुबान खबरों को छांटने के लिए इस्तेमाल होती है वह बहुत दिलचस्प है। हिंदुस्तान में हिंदी में अंग्रेजी के बहुत से शब्द घुल-मिल चुके हैं और ऐसा ही एक शब्द अखबारनवीसी में इस्तेमाल होता है-पब्लिक इंटरेस्ट। बारीकी से देखें तो हिंदी में इसके दो अलग-अलग मायने निकलते हैं, एक तो इसका मतलब जनहित होता है और दूसरा मतलब जनरुचि होता है। अखबार की खबरें तय करते हुए, विचारों के मुद्दे और विचारों को तय करते हुए, इन सबकी प्राथमिकताएं और इनका महत्व तय करते हुए, जब बात पब्लिक इंटरेस्ट की होती है तो कारोबारी अखबार (बिजनेस न्यूजपेपर नहीं, बिजनेस के लिए फिक्रमंद न्यूजपेपर) उसे जनरुचि मानकर एक ऐसा अखबार पाठकों के सामने रखता है जैसा कि दस-बीस बरस पहले एक तांत्रिक अंगूठी के इश्तहार में दावा किया जाता था-जो मांगोगे वही मिलेगा। और पब्लिक इंटरेस्ट का यह मतलब अखबार की रगों में दौडऩे वाले इश्तहार वाले फायदे की बात भी होती है। दूसरी तरफ जो लोग अखबार को कारोबार से कुछ अधिक, सरोकार से जुड़ा हुआ मानते हैं, वे पब्लिक इंटरेस्ट के जनहित वाले अर्थ को ढोकर चलते हैं, जो कि खासा भारी होता है और कमर भी तोड़ देता है। हम अभी बात मोटे तौर पर अखबारों की इसलिए कर रहे हैं कि देश का लंबा अनुभव इन्हीं के बारे में अधिक है और टीवी के समाचार चैनलों को आए अख़बारों के मुकाबले कम दिन हुए हैं और उनका सरोकारों से, जनहित से लेना-देना उसी वक्त जरा सी देर के लिए शुरू होता है जब कोई स्टिंग ऑपरेशन उनके हाथ ऐसा लग जाता है जो लोगों को टीवी के सामने कुछ देर बांध सके। भारत के समाचार चैनलों को हम आज के इस गंभीर विश्लेषण में जोडऩे की कोशिश करने पर भी नहीं जोड़ पाएंगे।
आज इस बात पर लिखने की कुछ जरूरत इसलिए भी लग रही है कि पाकिस्तान में एक कमजोर और खतरे में चल रहे लोकतंत्र के भीतर वहां के मीडिया को लेकर खुली बहस चलती है और लोग जिस तरह उसकी आलोचना भी करते हैं, वह बात हिंदुस्तान में शायद इसलिए कम है क्योंकि यहां मीडिया उस तरह के किसी फौजी, खुफिया, आतंकी और कट्टरपंथी हमलों का शिकार नहीं है। अधिक आजादी ने भारत के मीडिया को आत्ममंथन से परे कर दिया है और तरह-तरह के दबावों के तले पाकिस्तानी मीडिया चर्चा का सामान बनता है। अखबारों के पन्नों के लिए रोजाना धरती के अनगिनत पेड़ कटते हैं, ये पन्ने कम से कम ऐसे तो हों कि वे पेड़ों की कुर्बानी को सही ठहरा सकें! प्रेस काउंसिल के एक वक़्त के अध्यक्ष जस्टिस काटजू ने अपनी कुछ बातों को लेकर मीडिया के बीच एक हलचल खड़ी की थी, और एक नाराजगी भी। लेकिन ‘उनकी’ बातों को लेकर उन्हें भला-बुरा कहने के साथ-साथ, उनके नाम को अलग करके च्उनज् बातों पर चर्चा की जरूरत क्या आज नहीं है? न सिर्फ उनकी कई बातें खरी हैं, बल्कि मीडिया में आज जो खोट है उसे लेकर आपस में ही कुछ खरी-खोटी करने की जरूरत है ताकि अगर किसी किस्म की बेहतरी मुमकिन है तो वह तो हासिल हो सके।
अखबारों के बाजारू मुकाबले के चलते कुछ ऐसी हरकतें हो रही हैं जो कि हमारी इस फिक्र को जायज और जरूरी ठहराती हैं। किसी का नाम लेकर उसे बुरा कहने या बदनाम करने का आज कोई मौका नहीं है इसलिए बिना नाम दो अलग-अलग मामलों की चर्चा यहां करना हमें माकूल लग रहा है। एक शहर में एक बड़े अखबार का स्थानीय संस्करण शुरू होने को था। वहां पहले से निकल रहे एक अखबार को यह फिक्र खड़ी हो गई थी कि नए अखबार के आने से लोग उसकी तरफ ध्यान न दें। उसने नए अखबार के पहले ही दिन, अपने अखबार में शहर की एक इतनी सनसनीखेज खबर छापी कि जिस पर पूरा देश हिल उठा। और तीन हफ्ते बीतते न बीतते देश के एक तीसरे, बड़े और जिम्मेदार अखबार ने यह रिपोर्ट छापी कि वह सनसनीखेज रिपोर्ट पूरी की पूरी झूठी थी, और सोच-समझकर उसे सच से दूर महज सनसनीखेज बनाया गया था। एक दूसरा प्रदेश और दो दूसरे अखबारों के बीच का मुकाबला। वहां भी पुराने जमे हुए अखबार ने नए अखबार के पांव न जमने देने के लिए एक इतनी बड़ी खबर छापी, जिसे पढक़र लोग हिल जाएं। एक बेटे ने अपने मां को मारकर, काटकर, पकाकर खा लिया। इससे बड़ी खबर किसी इलाके के लिए और क्या हो सकती है? और फिर वहां शायद चौथाई या आधी सदी से निकलते अखबार में अगर यह सबसे बड़ी सुर्खी हो, तो फिर लोग और क्या पढऩा चाहेंगे? कम से कम इसके मुकाबले किसी नए अखबार को तो पढऩा नहीं ही चाहेंगे। नतीजा यह हुआ कि नया अखबार बुरी तरह से पिटा हुआ सा लगने लगा। लेकिन उस प्रदेश के पाठकों की हैरानी की कोई सीमा न रही जब नए अखबार ने उस औरत को लाकर पुलिस और पाठकों के सामने पेश कर दिया जिसे कि मार, काट, पकाकर खा चुका गया बताया गया था।
लेकिन मीडिया के ऐसे झूठ पर बात आमतौर पर तभी होती है जब बाजार में मुकाबले के लिए किसी को किसी दूसरे अखबार को नीचा दिखाना हो। पर जहां कोई बाजारू टकराव न हों, और जहां अखबारी परंपरागत जुबान के मुताबिक, कुत्ता, कुत्ते को न काट रहा हो, वहां पर लोगों को झूठ की ऐसी साजिशों का क्या पता लगेगा? हम उसी बात पर लौटें, जिस बात से हमने आज लिखना शुरू किया था। जनहित और जनरुचि के फर्क को लेकर मीडिया पर अगर बात नहीं होगी तो यह तो वैसे भी संसद की एक बहस के मुताबिक कार्पोरेट हाऊसों का एक कारोबार बन ही चुका है। कार्पोरेट कारोबार की जुबान में सरोकार सिर्फ हाथीदांत की तरह का होता है। यहां पर चलते-चलते हम एक और अखबार और उसकी खबर का जिक्र करना चाहेंगे। टाईम्स ऑफ इंडिया के दिल्ली के संस्करण में नोएडा इलाके के लिए निकलने वाले पन्नों पर एक बार एक खबर छपी थी जिसमें एक कार दुर्घटना में मारे गए एक युवक और एक युवती के बारे में कुछ आपत्तिजनक बातें थीं। इस पर अखबार ने अपनी कुछ जानकारियों का खंडन उसी बरस कर दिया था। लेकिन कुछ बरस बाद जाकर, शायद अदालत के बाहर समझौते के लिए, इस खबर को लेकर एक बड़ा सा माफीनामा अखबार ने एक रिपोर्ट की तरह छापा है कि उसकी खबर में कौन-कौन सी बातें झूठी थीं। एक मीडिया वेबसाईट ने हिसाब लगाया है कि करीब सवा दो सौ वर्ग सेंटीमीटर जगह में छपे इस माफीनामे का इस अखबार के विज्ञापन रेट से बिल बनता तो वह करीब आठ लाख रूपए का होता। हम अभी रूपयों पर नहीं जा रहे हैं, लेकिन हम मीडिया की गलतियों, उसके गलत कामों, और उनमें सुधार की ऐसी मिसालों को लेकर चर्चा को आगे बढ़ाना चाहते हैं।
इराक के प्रधानमंत्री अभी अमेरिका की सरकारी यात्रा पर पहुंचे तो लौटते हुए वे युद्ध के दौरान इराक से लूटी गई 17000 कलाकृतियों को वापस लेकर आए। ये कलाकृतियां एक संग्रहालय और एक प्रमुख अमेरिकी विश्वविद्यालय की तरफ से वापिस की गईं। अभी हाल ही में एक दूसरी खबर भी आई थी जिसके मुताबिक ऑस्ट्रेलिया ने भी भारत से जुड़ी हुई कुछ पुरानी कलाकृतियां लौटाने का फैसला लिया है। जो विकसित और सभ्य देश हैं वे अपने देश के कलाकृतियों के व्यापारियों और संग्रह कर्ताओं, दोनों पर कई तरह के नियम लागू करते हैं कि वे दूसरे देशों से चुराई गई या लूटी गई कलाकृतियों को न लें।
यहां पर यह भी देखने की जरूरत है कि ब्रिटेन के बड़े-बड़े संग्रहालयों में भारत की कलाकृतियां उस वक्त पहुंचीं जब भारत पर अंग्रेजों ने कब्जा कर रखा था। एक गुलाम देश की कलाकृतियों, पुरातत्व, और संस्कृति को इस तरह से ले जाना एक निहायत नाजायज बात थी, और एक सभ्य लोकतंत्र होने का दवा करने वाले ब्रिटेन को अपने गुलाम देशों से जबरिया ले जाई गईं तमाम चीजों को वापस करना चाहिए। किसी भी देश को यह हक नहीं कि वे खुद दूसरे देशों से लुटेरों की तरह कलाकृतियां ले जाएं या कि चोरों और लुटेरों से उन कलाकृतियों को खरीदें जिन पर किसी दूसरे देश का हक है। सभ्य लोकतंत्र की यह जिम्मेदारी होती है कि वह कोई अंतरराष्ट्रीय कानून लागू हुए बिना भी दुनिया के हर देश के अधिकारों का सम्मान करें। इसलिए अभी इराक की जो कलाकृतियां वहां की सरकार को लौटाई गईं वह एक अच्छी पहल है क्योंकि आज इराक ऐसी हालत में भी नहीं था कि वह अमेरिका पर कोई दबाव बना सके, और ऐसे में अमेरिकी संग्रहालय और एक विश्वविद्यालय ने अगर ऐसी पहल की है तो उससे दुनिया के बाकी लोगों को भी सबक लेना चाहिए। भारत का कलाकृतियों का और पुरातत्व का सैकड़ों बरस पुराना एक संपन्न इतिहास रहा है और अविभाजित भारत-पाकिस्तान के वक्त से मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की संस्कृति बहुत ही पुरानी रही है। जाहिर है कि पुरातत्व के ऐसे शोध कार्यों से उस वक्त जो चीजें निकली होंगी उनमें से बहुत सी इधर-उधर हो गई होंगी। जिन देशों में दूसरे देशों की ऐसी कलाकृतियां है उन्हें अपने विकसित और सभ्य लोकतंत्र होने का सबूत देते हुए और अंतरराष्ट्रीय अधिकारों का सम्मान करते हुए ऐसी तमाम चीजों को उनके मूल देश को वापिस करना चाहिए।
दिक्कत यह भी है कि ब्रिटेन जैसे हमलावर और नाजायज कब्जा करने वाले देश अपने गुलाम देशों से लूटी गई चीजों को यह कह कर न्यायोचित ठहराते हैं कि वहां के भूतपूर्व राजाओं ने यह सामान उन्हें तोहफे में दिए थे। ब्रिटेन की महारानी के ताज पर जो कोहिनूर जड़ा हुआ है उस कोहिनूर को लेकर भी यही तर्क दिया जाता है कि इसे भारत के एक शासक महाराज रंजीत सिंह ने युद्ध में अंग्रेजों द्वारा की गई मदद के एवज में तोहफे में दिया था, लेकिन ब्रिटेन के कई संग्रहालयों में भारत की अनगिनत कलाकृतियां सजी हुई हैं और अंग्रेजों की सरकार को इन्हें रखने का कोई भी हक नहीं है। पूरी दुनिया में कलाकृतियों को उनके मालिकों तक वापस पहुंचाने की एक मुहिम चलाने वाले लोगों का एक बड़ा आसान सा तर्क है उनका मानना है इतिहास भूगोल के आधार पर तय होगा, यानी जिस जगह का सामान है उसी जगह उसे भेजना न्याय उचित होगा। एक बात यह भी है कि ऐसे एक अभियान से जुड़े हुए लोगों ने ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के बहुत से संग्रहालयों में ऐसी कलाकृतियां ढूंढ निकाली हैं जो कि भारत के मंदिरों से 1947 के बाद चोरी की गई हैं। अभी-अभी, 2 बरस पहले जर्मनी ने भारत से चुराकर वहां ले जाई गई एक कलाकृति को भारत को वापिस भी किया है। लेकिन यह काम बहुत धीमे हो रहा है और अधिकतर देश इसमें खुलकर साथ नहीं दे रहे हैं।
एक वक्त आधी दुनिया पर कब्जा करने वाले अंग्रेजों की सोच आज भी ऐसी है कि ब्रिटेन के दो बड़े संग्रहालयों का यह कहना है कि वे अलग-अलग देशों की ऐसी ऐतिहासिक कलाकृतियों या पुरातत्व कृतियों को इसलिए नहीं लौटा सकते क्योंकि ब्रिटेन का म्यूजियम एक्ट इसकी इजाजत नहीं देता, या फिर इन कलाकृतियों का ब्रिटेन में बने रहना विश्व के हित में है। यह सोच आज भी एक सामंती और साम्राज्यवादी सोच बनी हुई है जो कि दूसरे देशों का भला अपने अधिकारों में अलग देख रही है। ऐसे चोर देशों के भीतर वहां के सांसदों को भी संसद में आवाज उठानी चाहिए कि क्या अपने को लोकतंत्र की जननी कहने वाले देश को ऐसी गुंडागर्दी का हक़ है?
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ईसाई धर्म से जुड़ी हुई संस्कृति में क्रिसमस के मौके पर एक काल्पनिक सांता क्लॉज रात में आकर बच्चों के लिए तोहफे छोड़ जाता है। शायद यह रिवाज इसलिए शुरू किया गया है कि ऐसे तोहफे अच्छे बच्चों को ही मिलने की बात उनके ध्यान में डाली जाती है और ऐसा बताया जाता है कि खराब काम करने वाले बच्चों को सांता क्लॉज कोई तोहफे नहीं देता। धर्म से जुड़ी हुई बहुत सी बातें इस किस्म की होती हैं जो लोगों को सपनों में जीने का मौका देती हैं। कहीं पर पूर्वजन्म के किए का फल इस जन्म में, और इस जन्म में किए का फल अगले जन्म में पाने की बात सिखाई जाती है तो कहीं यह सिखाया जाता है कि जिनको कम मिल रहा है, वह उनके कर्मों का फल है। सांता क्लॉज की धारणा तो कम नुकसानदेह है क्योंकि यह ईसाई संस्कृति में या पश्चिमी जीवन-शैली में समारोह को मनाने के एक तरीके के रूप में इस्तेमाल की जाती है और छोटे बच्चों को तोहफे देने का यह एक रास्ता होता है। लेकिन धर्म जब बहुत सी दूसरी बातों को कर्म से अलग करके स्थापित करने की कोशिश करता है तो वह कार्ल मार्क्स के शब्दों में अफीम की तरह लोगों को सुस्त और मंद करके सोचने और संघर्ष करने से दूर कर देता है।
हम किसी एक धर्म के त्यौहार के मौके पर इस चर्चा को नहीं छेड़ रहे हैं क्योंकि बहुत से धर्मों में, या शायद सभी धर्मों में, धर्म लोगों को कर्म से दूर रखने का एक जरिया रहता है, और इस कर्म में सामाजिक जागरूकता और अपने हक़ ले लिए संघर्ष भी शामिल रहते हैं। यह सिलसिला भारत सहित बहुत से देशों में बहुत खतरनाक हद तक लोगों को ऐसा भाग्यवादी और ऐसा निराश बना देता है कि लोग अपने साथ हो रहे किसी भी किस्म के अन्याय को अपनी किस्मत मान बैठते हैं और उसके लिए जो अच्छा-बुरा कहना रहता है वह ईश्वर को कहकर, उसके लिए असल जिम्मेदार इंसानों को बख्श देते हैं, जिससे कि समाज के भीतर अन्याय के खिलाफ संघर्ष की संभावना खत्म हो जाती है। धर्म को बनाया इसी हिसाब से गया है कि वह ताकतवर शोषक को कमजोर बहुसंख्यक तबके का निशाना कभी न बनने दे। इसलिए हम भारत में लगातार देखते हैं कि जनता को, देश को और धरती को लूटने वाले सबसे बड़े लोगों से किसी धर्मगुरु को कोई परहेज नहीं होता और उनके प्रवचनों में, धार्मिक अनुष्ठानों में हर किस्म के अपराधी ताकतवर लोग सबसे ऊपर, सबसे सामने जगह पाते हैं और एक किस्म से प्रवचन करने वाले गुरु ऐसे लोगों का सम्मान करते भी दिखते हैं, इन्हीं के डेरों में महीनों गुजारते हैं। यह पूरा सिलसिला माक्र्स की जुबान की अफीम की तरह लोगों को सामाजिक और आर्थिक शोषण और अन्याय को समझने से भी दूर रखता है और इस तरह धर्म, और उसकी एक दूसरी शक्ल आध्यात्म, में पूंजी निवेश करके ताकतवर, अत्याचारी और शोषक तबके उसी तरह एक बीमा पॉलिसी और चौकीदार खरीद लेते हैं जिस तरह वे अपने कारखानों और दुकानों के लिए खरीदते हैं।
ईश्वर को न मानने वाले हमारे किस्म के नास्तिक इतने कम हैं, और उनकी प्रचार की ताकत इतनी कम है कि वे ईश्वर की धारणा का भांडाफोड़ नहीं कर पाते। दूसरी बात यह कि ईश्वर की धारणा, धर्म की बातें दिमाग पर जोर नहीं डालतीं, वे चूंकि तर्कों से परे की होती हैं इसलिए वे लोगों को कीर्तन में सिर हिलाने की तरह का आसान काम लगती हंै। धर्म पर सवाल खड़े करना, उसकी वैज्ञानिकता और उसकी सामाजिक उपयोगिता के बारे में बात करना बहुत तकलीफ का काम होता है। और किसी भी जगह किसी भी आबादी या भीड़ में यह न तो लोकप्रिय काम होता और न ही लुभावना काम। लेकिन हम ऐसा काम करने से परहेज नहीं करते और लोगों को धर्म के बजाय कर्म की तरफ देखने को सलाह देते रहते हैं। धर्म का राज जब तक समाज के लोगों के दिल-दिमाग पर चलता रहेगा तब तक समाज के सबसे ताकतवर लोग सबसे कमजोर तबकों पर राज करते रहेंगे, उनके हक लूटते रहेंगे। कबीलों के जमाने से लेकर आज की 21वीं सदी तक धर्म ने कमजोर लोगों को लूटने का, लुटवाने का काम ही किया है, और जब हिटलर ने लाखों को मारा, तब भी पोप चुप ही रहा। कहने को यह बात कही जा सकती है कि ईश्वर, धर्म और धर्मगुरुओं में फर्क है। किसी तर्क से बचने के लिए, किसी बहस से बचने के लिए धर्म के झंडाबरदार अक्सर यह तर्क उठा लेते हैं कि धर्म का यह बिगड़ा हुआ चेहरा ईश्वर नहीं है। लेकिन समाज पर राज तो धर्म का बिगड़ा हुआ चेहरा ही करता है। यह चर्चा हमने छेड़ी तो आज है लेकिन इसका किसी एक धर्म से कोई लेना-देना नहीं है और हर धर्म के लोग अपने-अपने भीतर यह झांक सकते हैं कि वहां पर किस-किस किस्म का शोषण उनके ईश्वर और धर्म के बैनर तले चल रहा है, चलता रहेगा।
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दिल्ली में अभी एक दलित बच्ची से गैंग रेप के बाद उसका कत्ल कर दिया गया। 9 साल की बच्ची से बलात्कार के बाद हत्या में पुजारी सहित चार गिरफ्तार किये गए हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल फांसी की मांग की है। लेकिन बलात्कारी हत्यारा एक पुजारी दिख रहा है, और मरने वाली बच्ची एक दलित, तो उससे एक बड़े तबके की जुबान बंद हो गयी है। जो लोग इसी दिल्ली में निर्भया के बलात्कार के बाद कह रहे थे कि वोट डालते हुए निर्भया को यद् रखना, वे अभी चुप हैं। देश भर में ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता जब ऐसे दस-बीस मामले अस्पताल और पुलिस तक न पहुंचते हों। दिल्ली चूंकि कैमरों के घेरे में रहती है इसलिए वहां की छोटी-छोटी बात भी खबर बन जाती है। फिर दूसरी बात यह कि जब परिवार के लोग यह तय करते हैं कि ऐसे बलात्कार या देहशोषण के मामले पुलिस तक ले जाए जाएं, तभी वे मीडिया की नजर में भी आते हैं। लेकिन इससे कई गुना अधिक मामले सामाजिक शर्मिंदगी या पारिवारिक असुविधा की बात सोचकर घर में ही दबा दिए जाते हैं।
यह भी याद रखने की जरूरत है कि किस तरह कुछ बरस पहले जब जम्मू में एक खानाबदोश बच्ची से गैंगरेप में एक पुजारी सहित आधा दर्जन लोग गिरफ्तार हुए थे, तो किस तबके ने वहां पर देश का झंडा लेकर बलात्कारियों को बचाने के लिए जुलूस निकाला था और उस मुस्लिम खानाबदोश बच्ची की वकील के ऊपर अंधाधुंध दबाव डाला गया था कि वह मुजरिमों को सजा दिलाने की कोशिश ना करें। इसलिए जब इस देश में बलात्कारियों को धर्म और जाति के आधार पर बचाने की कोशिश होगी तो लोगों को यह याद रखना चाहिए कि ऐसी बचाने वाली जाति और ऐसे धर्म के लोगों के बच्चे भी खतरे में आएंगे, और उनको बचाते हुए ये जाति और धर्म किसी काम के नहीं रहेंगे।
अब बच्चों से बलात्का की ऐसी तरह-तरह की नौबत को देखते हुए पूरे देश में जिन बातों की जरूरत है, उनमें पहली तो यह है कि छोटे बच्चों को बिना हिफाजत न छोड़ा जाए। बेंगलुरू जैसे एक बड़े शहर में स्कूली बच्चियों से स्कूलोंं में ही लगातार बलात्कार के मामले सामने आते रहते हैं, और सबसे पढ़े-लिखे शहर का यह हाल है। गांवों में नौबत और खराब होगी, यह तय है। इसलिए पूरे देश में बच्चों की हिफाजत को लेकर न सिर्फ सरकार को बल्कि समाज और परिवार को भी एक नई जागरूकता के साथ और एक नई सावधानी के साथ सोचने की जरूरत है। दूसरी बात यह कि समाज को यह भी समझना पड़ेगा कि बच्चों का देहशोषण करने वाले लोग उसके अपने बीच के होते हैं, और बहुत से मामलों में उनकी परिवार तक, स्कूल तक पहुंच होती है। इसलिए अपने पारिवारिक परिचितों के बारे में ऐसा अंधविश्वास ठीक नहीं है कि वे भला ऐसा कैसे कर सकते हैं।
तीसरी बात यह कि बच्चे जब बड़े होने लगते हैं तो शायद किशोरावस्था से भी पहले, आठ-दस बरस की उम्र से उन्हें उनके बदन के बारे में, और सावधानी बरतने के बारे में सिखाना बहुत जरूरी है। भारत में दरअसल जब कभी बच्चों को सिखाने के मामले में सेक्स शब्द का इस्तेमाल भी होता है, तो संस्कृति के ठेकेदारों का एक ऐसा तबका उठकर खड़ा हो जाता है जो सोचता है कि यह बच्चों को सेक्स करना सिखाने की योजना है। बच्चों को उनके बदन की जानकारी देना, और सेक्स के प्रति सावधान करना भी एक जरूरी शिक्षा है, और देश का कट्टरपंथी माहौल इसकी इजाजत ही नहीं देता है। नतीजा यह होता है कि बच्चे किशोरावस्था से पार होने लगते हैं, और अपने बदन से लेकर देहसंबंधों तक की उनकी जानकारी पोर्नोग्राफी या अश्लील फिल्मों से मिली रहती है, उन्हें किसी तरह की वैज्ञानिक या मानसिक सीख नहीं मिल पाती।
देश भर में सेक्स-अपराध बहुत बढ़ रहे हैं, और बच्चों की जिंदगी में सक्रियता भी बढ़ती जा रही है। स्कूलें दूर-दूर हैं, वहां आना-जाना पड़ता है, खेलकूद में बच्चों को दूर तक जाना पड़ता है, और जब मां-बाप दोनों कामकाजी रहते हैं तो भी बच्चों को घंटों तक अकेले रहना पड़ता है। ऐसे में कम उम्र से भी उनको एक सावधानी सिखाने की जरूरत है। आज तो हालत यह है कि बच्चे परिवार से जुड़े किसी के बारे में मां-बाप को शिकायत करते हैं, तो मां-बाप उनको ही झिडक़कर चुप करा देते हैं। यह नौबत बदलनी चाहिए, क्योंकि सेक्स-अपराधी चारों तरफ फैले हुए हैं, और मौकों की तलाश में रहते हैं। पश्चिमी देशों में साइबर-पुलिस लगातार ऐसे मुजरिमों को इंटरनेट पर तलाशती रहती है, और पकडक़र सजा भी दिलवाती रहती है। लेकिन भारत अभी तक बच्चों के यौन शोषण के खतरों की तरफ से आंखें बंद किए बैठा है कि मानो यह कोई पश्चिमी समस्या है।
एक खबर के मुताबिक़ - ‘‘बिहार के मुंगेर में कल ही दूसरी कक्षा में पढने वाली 8 साल की बच्ची की रेप के बाद निर्मम तरीके से हत्या कर दी गई। मछली मारने वाले की बेटी का क्षत विक्षत शव बरामद हुआ। मृत बच्ची की बलात्कार के बाद साक्ष्य छिपाने को लेकर हत्या निर्मम तरीके से की गई थी। रेप के बाद हत्या की गई और फिर आंख निकाल ली।’’ जिस बात को आज अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए वह यह है कि हिंदुस्तान में सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर समझी जाने वाली जातियों और वैसे धर्मों के बच्चों और उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं ज्यादा होती हैं। भारत की जाति व्यवस्था को लेकर भी एक बार यह सोचने की जरूरत है कि बलात्कारियों में ऊंची कही जाने वाली जातियों के लोग अधिक क्यों हैं, और बलात्कार की शिकार लड़कियों और महिलाओं में नीची कहीं जाने वाली जातियों की लड़कियां और महिलाएं अधिक क्यों है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान के अलग-अलग प्रदेशों में राज्य सरकारों के फैसले से स्कूलें खुलना शुरू हो गया है। हर राज्य ने अपने-अपने हिसाब से तय किया है कि किसी एक दिन कितने फीसदी बच्चों को क्लास में बिठाया जाए, या कौन-कौन सी क्लास से शुरू की जाए, या क्लास रूम के बाहर खुले में बैठाया जाए। यह स्थानीय परिस्थितियों के हिसाब से प्रदेश की सरकार और शायद कहीं-कहीं पर जिले के अफसरों को भी आजादी से ऐसा तय करने का अधिकार दिया गया है। कुछ राज्यों ने यह भी तय किया है कि जिन जिलों में नए कोरोना केस एक फीसदी से भी कम सामने आ रहे हैं वहीं पर स्कूलें शुरू की जाएं। बच्चों के मां-बाप दहशत में हैं, और बच्चों के लगातार घर रहने से होने वाली तमाम किस्म की दिक्कतों के बावजूद उनको ठीक से भरोसा नहीं है कि छोटे-छोटे बच्चे शारीरिक दूरी रख पाएंगे, साफ-सफाई रख पाएंगे, और कोरोना से बच पाएंगे। इसीलिए सरकारों ने यह छूट भी दी है कि स्कूलों में कहीं भी हाजिरी जरूरी लागू नहीं की जाएगी, मतलब यह कि जो लोग अपने बच्चों को भेजना ना चाहें, वे ना भेजें, और कई राज्यों ने इसीलिए ऑनलाइन कक्षाएं जारी रखना भी तय किया है।
दूसरी तरफ निजी स्कूल चलाने वाले लोगों के सामने दिक्कत यह है कि उनके ढांचे का खर्च तो तकरीबन पूरा का पूरा हो ही रहा है। इमारत अगर बैंक कर्ज से बनी है तो उस पर किस्तें आ रही हैं, बसें अगर बैंक कर्ज से खरीदी हैं, तो उस पर किस्तें देना ही पड़ रहा है, और शिक्षक-शिक्षिकाओं और कर्मचारियों को कितना भी कम किया जाए, तनख्वाह का काफी बड़ा हिस्सा तो जा ही रहा है। फिर ऑनलाइन पढ़ाई के चलने से फीस भी पता नहीं पूरी मिल रही है या नहीं, लेकिन निजी स्कूलों को कई दूसरे तरह की कमाई भी होती है कहीं यूनिफार्म की अनिवार्यता से कमीशन मिलता है, तो कहीं निजी प्रकाशकों की किताबें अनिवार्य करके उससे कमीशन मिलता है, वह सब बंद सा हो गया है। इसलिए निजी स्कूलों को स्कूल शुरू करने की हड़बड़ी अधिक थी, और सारे प्रदेशों में ऐसे स्कूल संचालकों ने स्कूलें शुरू होने से राहत की सांस ली है। अब सवाल यह है कि क्या बच्चों को सावधानी के साथ बिठाया और लाया ले जाया जा सकेगा?
जहां कहीं भी स्कूलें शुरू हुई हैं या हो रही हैं, यह ध्यान रखने की जरूरत है कि इस फैसले के साथ ही स्कूल के किसी भी किस्म के कर्मचारी एक किस्म से फ्रंटलाइन वर्कर्स हो गए हैं, जो कि अभी तक अस्पताल या स्वास्थ्य कर्मचारी ही थे, और सफाई कर्मचारी ही थे। इनके बाद पुलिस और सरकार के सीधे मैदानी ड्यूटी करने वाले नुमाइंदे इस तबके में आते थे। अब जब रोजाना सैकड़ों बच्चों से सीधा वास्ता पड़ेगा तो स्कूल के हर दर्जे के कर्मचारी भी उसी तरह खतरे में आएंगे और उनके खतरे में आने से एकमुश्त सैकड़ों बच्चे भी खतरे में आ सकते हैं। इसलिए स्कूलों को खुद ही या वहां की सरकारों को, या स्थानीय निर्वाचित संस्थाओं को, स्कूलों में हर किसी कर्मचारी के लिए कोरोना टीकाकरण का इंतजाम करना चाहिए और उसके बाद ही उनका बच्चों से संपर्क होने देना चाहिए। एक सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या बच्चों की ऑनलाइन पढ़ाई काफी नहीं थी जो उन्हें इस तरह अब बसों में और क्लास रूम में भीड़ के बीच धक्का-मुक्की में लाया ले जाया जाएगा?
इस बारे में कुछ एक मनोवैज्ञानिकों और मनोचिकित्सकों से, परामर्शदाताओं से बात करने पर यह समझ में आता है कि पिछले डेढ़ बरस से अधिक वक्त से बच्चे घर बैठे हुए थे या आस-पड़ोस में भी बड़े सीमित संपर्क में आ जा रहे थे। एक सामाजिक व्यवस्था के तहत स्कूलों में अपने हमउम्र बच्चों के साथ जिस तरह का सामाजिक संपर्क उनका होता था, जो कि उनकी विकास प्रक्रिया में अहमियत रखता था, वह तकरीबन खत्म सा हो गया था। ऐसे में इन बच्चों को घर में रहते हुए क्या कोई बड़ा मानसिक नुकसान हो रहा था? इस बारे में जानकार लोगों का कहना है कि छोटे बच्चों के तो दिमाग इस तरह से तैयार रहते हैं, इतने लचीले रहते हैं, कि वह एक-दो बरस की ऐसी दिक्कतों से तेजी से उबर जाएंगे, लेकिन जो बच्चे किशोरावस्था में पहुंच रहे हैं, या अभी पहुंचे ही हैं, उनके लिए यह डेढ़ साल बड़ा भारी रहा है। इस दौरान वे शारीरिक और मानसिक फेरबदल के ऐसे दौर से गुजरते रहते हैं कि उन्हें अपने हमउम्र बच्चों के साथ मिलने-जुलने, उनके साथ बात करने, और उनसे कई मुद्दों को समझने का मौका मिलता है, जो कि घर रहते मुमकिन नहीं है। किशोरावस्था के बच्चे मां-बाप के काबू से बाहर भी निकलने के दौर में रहते हैं, लेकिन कोरोना वायरस के खतरे ने, और लॉकडाउन ने उन्हें घर में रख दिया, जो कि उनका अधिक बड़ा नुकसान हुआ, छोटे बच्चों के मुकाबले। इसलिए कुछ मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता यह मानते हैं कि किशोरावस्था के बच्चों के लिए स्कूलें शुरू होना अधिक जरूरी था और पढ़ाई के मुकाबले भी उनके व्यक्तित्व विकास के लिए उनकी उम्र की जरूरत के लिए यह अधिक जरूरी था।
जो भी हो, ऐसी बहुत सी बातें हैं जिनके बारे में जानकार लोगों के और भी विश्लेषण सामने आएंगे लेकिन फिलहाल स्कूलें शुरू होने के इस मौके पर हम इतना ही कहना चाहते हैं कि जरा सी लापरवाही भी स्कूलों को कोरोना के फैलने का एक बहुत बड़ा अड्डा बना सकती हैं, और बच्चों के मार्फत एक स्कूल भी एक दिन में सैकड़ों परिवारों तक कोरोना का खतरा पहुंचा सकती हैं। ऐसा खतरा पता लगने में कई हफ्ते लग सकते हैं और किसी शहर के आंकड़े कई हफ्ते बाद यह बतलाएंगे कि उस शहर में पॉजिटिविटी रेट बढ़ गया है, लेकिन तब तक मामला हाथ से निकल चुका रहेगा क्योंकि तब तक बच्चे आपस में एक दूसरे को कोरोना वायरस दे चुके रहेंगे, और उनके भीतर लक्षण भी आसानी से सामने नहीं आएंगे। इसलिए स्कूलों को सिर्फ पढ़ाई के लिए या बच्चों के मिलने-जुलने के लिए खोल देना काफी नहीं है, इन तमाम बच्चों के बीच कड़ी निगरानी रखना भी जरूरी है क्योंकि यह बच्चे खुद लक्षणमुक्त रहते हुए भी कोरोना को अपने परिवारों तक पहुंचा सकते हैं। अभी कोरोना की तीसरी लहर आना बाकी ही बताया जा रहा है, इसलिए भी स्कूलें बहुत खतरनाक साबित हो सकती हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मध्य प्रदेश के छतरपुर में अभी 2 दिन पहले 13 बरस के एक लडक़े ने खुदकुशी कर ली। उसने एक ऑनलाइन गेम खेलते हुए अपनी मां के खाते से 40 हजार रुपये गंवा दिए थे और जब मां को अपने फोन पर अकाउंट से पैसे कटने की खबर मिली तो उन्होंने बेटे को फोन पर डांटा, और खुदकुशी की एक चिट्ठी छोडक़र लडक़े ने आत्महत्या कर ली कि उसने इस खेल के चक्कर में 40 हजार रुपये बर्बाद कर दिए और उसी डिप्रेशन में वह आत्महत्या कर रहा है। इसके अलावा देश में कुछ और जगहों पर ऑनलाइन गेम में लंबी हार के बाद अलग-अलग बच्चों ने आत्महत्या की है, और दिल्ली के एक सामाजिक संगठन ने हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका भी लगाई है जिसमें ऐसे ऑनलाइन गेमों पर प्रतिबंध की मांग की गई है। हाई कोर्ट ने केंद्र सरकार को बच्चों को ऑनलाइन गेम की लत से बचाने के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनाने का नोटिस भी जारी किया है। उल्लेखनीय है कि अभी चार दिन पहले ही देश के दर्जनों प्रमुख अखबारों में पहले पूरे पन्ने का इश्तिहार ऐसे ही ऑनलाइन गेम का छपा था, जिसे लेकर सोशल मीडिया में लोगों ने फिक्र जाहिर की थी, और मध्यप्रदेश की यह आत्महत्या उसके बाद सामने आई है।
हिंदुस्तान में पिछले वर्षों में अर्थव्यवस्था, उदारवादी से अति उदारवादी की तरफ बढ़ चली है, और विदेशी पूंजी निवेश को तकरीबन हर दायरे में अंधाधुंध बढ़ाने की छूट दी गई है. नतीजा यह निकला है कि ऐसा पूंजी निवेश विदेश की कारोबारी-संस्कृति के साथ आ रहा है. ऑनलाइन खेल के नाम पर ऑनलाइन जुआ चल रहा है जिसमें किसी मौत तो खबरों में आ रही है, लेकिन लोगों के रात-दिन लुटने की कोई खबर खबरों में नहीं आ रही, क्योंकि इनमें हारे हुए लोग अपनी हार को अधिक उजागर भी नहीं करते हैं। लेकिन सवाल यह है कि एक वक्त हिंदुस्तान का एक बड़ा हिस्सा जिस तरह रोजाना खुलने वाली लॉटरी में सट्टे का एक विकल्प ढूंढ चुका था, क्या अब घर बैठे मोबाइल फोन पर या कंप्यूटर पर अपने मां-बाप के खातों से या अपने खुद के बैंक का अकाउंट से भुगतान करके इस तरह के ऑनलाइन गेम में बच्चे-बड़े सभी लोग पैसा लगाते चलेंगे, जिसके साथ उनके सपने तो जुड़े रहेंगे, उनकी हसरतें भी जुड़ी रहेंगी, लेकिन उनकी हार इसमें तय रहेगी। पूरी दुनिया का जुए का इतिहास है कि जुआ खिलाने वाले कैसीनो या जिन देशों में ऑनलाइन सट्टेबाजी कानूनी है, वहां पर सट्टेबाजों के अलावा और कोई नहीं कमाते, अधिकतर लोग वहां से रकम गंवाकर निकलते हैं, और इसकी लत बढ़ते चलती है।
इस बारे में एक समाचार के मुताबिक दिल्ली हाई कोर्ट में जनहित याचिका में कहा गया था कि इस एनजीओ को माता-पिता से कई शिकायतें मिल रही हैं, जो बच्चों के ऑनलाइन गेम खेलने की आदत से चिंतित हैं। इन गेम्स के ज़रिए बच्चों में मनोवैज्ञानिक समस्याएँ पैदा हो रही है। याचिका में यह भी कहा गया था कि बच्चों के आत्महत्या करने या अवसाद में जाने और ऑनलाइन गेम की लत के कारण चोरी जैसे अपराध करने की कुछ हालिया ख़बरों ने एनजीओ को याचिका दायर करने के लिए मजबूर किया। कोरोना महामारी के दौरान बच्चे पढ़ाई के लिए मोबाइल का बहुत इस्तेमाल कर रहे हैं और इसी कारण से गेम्स खेलने की आदत लग रही है। उनके मुताबिक़ समस्या उन बच्चों में ज़्यादा देखी जा रही है, जिनके माँ-बाप दोनों काम पर जाते हैं। 10 साल से 18 साल के बच्चे इसमें अधिक फँसते है और पैसे ख़र्च करते है।
यह समझना मुश्किल है कि हिंदुस्तान में ऐसी चीजों की इजाजत देने की क्या मजबूरी है एक तरफ तो यह सरकार अपने-आपको भारतीय संस्कृति की पहरेदार भी बताती है और लोगों के बीच अच्छे चाल-चलन को बढ़ावा देने का दावा भी करती है, दूसरी तरफ इस तरह की ऑनलाइन सट्टेबाजी या जुएबाजी में लोगों को डुबाने का इंतजाम करना, उसका खुला इश्तहार करना, उसे हर मोबाइल फोन और कंप्यूटर से खेलना मुमकिन बना देना, यह कहां की समझदारी है? खुदकुशी तो कम होंगी लेकिन अधिक लोग डिप्रेशन में रहेंगे, परिवारों के भीतर लोगों के संबंध खराब होंगे, और लोग अपनी जमा-पूंजी ऐसे ऑनलाइन जुए में खेल के नाम पर लुटा चुके रहेंगे। बिना देर किए हुए केंद्र सरकार को ऐसे तमाम ऑनलाइन खेल बंद करवाने चाहिए जिसकी जरूरत किसी को भी नहीं है। अगर ऐसे ऑनलाइन खेल की जरूरत लग रही है तो देशभर में जुए की फड़ में लोगों को क्यों गिरफ्तार करना हर की रफ़्तार भी काम रहती है? और सट्टे की पट्टी लिखने वाले लोगों को क्यों गिरफ्तार करना? देश में आज वैसे भी फटेहाली में लोगों का जिंदा रहना मुश्किल हो गया है लोग किसी तरह जी रहे हैं, ऐसे में अगर कोई परिवार किसी तरह बैंक में कुछ रकम बचाकर चल रहा है और घर का कोई भी एक व्यक्ति ऑनलाइन गेम के नाम पर युवाओं में उस रकम को लुटा देगा, तो हो सकता है पूरे परिवार के मरने की नौबत आ जाए, या पूरे परिवार के जिंदा रहने की, बेहतर जिंदगी पाने की संभावनाएं खत्म हो जाएं।
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केरल के एक ईसाई पादरी की जमानत अर्जी हाईकोर्ट से खारिज होते हुए सुप्रीम कोर्ट से भी खारिज हो गई है जिसमें उसकी अपील यह थी कि उसके बलात्कार की शिकार लडक़ी अब उससे शादी करना चाहती है, और इस शादी के लिए उसे कुछ वक्त के लिए जेल से रिहा किया जाए। अदालत से इस पादरी को 20 बरस की कैद सुनाई गई थी क्योंकि उसने एक नाबालिग लडक़ी से बलात्कार किया था, जिसमें वह लडक़ी गर्भवती भी हो गई थी। अब अदालत में इस पादरी और उस लडक़ी दोनों ने यह अर्जी लगाई है कि वे शादी करना चाहते हैं और इस औपचारिकता के लिए पादरी को कैद से कुछ दिनों के लिए मुक्त किया जाए। इन दोनों ने यह तर्क भी लिया है कि बलात्कार के बाद इस लडक़ी से जो संतान हुई है, उसके अब स्कूल जाने की उम्र हो गई है, और स्कूल में अगर पिता का नाम नहीं लिखाया जा सकेगा तो उससे सामाजिक अपमान होगा। पादरी के बलात्कार की शिकार नाबालिग लडक़ी अब बालिग हो चुकी है, और शादी की उम्र की हो गई है। बच्चे की उम्र भी अभी स्कूल जाने लायक हो चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने जब हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ इस अपील की सुनवाई की तो उसके पूछने पर पता लगा कि पादरी 45 बरस का है और यह लडक़ी अब 25 वर्ष की हो चुकी है। हाईकोर्ट ने जेल से छुट्टी कि यह अर्जी इस आधार पर खारिज कर दी थी कि सुप्रीम कोर्ट का कई मामलों का यह रुख रहा है कि बलात्कार की शिकार लडक़ी के साथ शादी करके बलात्कारी किसी तरह की रियायत नहीं पा सकते। ऐसा पहले भी देश के कई मामलों में हुआ है जहां दोनों परिवारों की सामाजिक प्रतिष्ठा की वजह से या लडक़ी पर नाजायज दबाव बनाकर या बलात्कार की वजह से होने वाली किसी संतान का ख्याल करके, इस तरह के प्रस्ताव रखे गए थे और यह सोचा गया था कि शादी हो जाने के बाद अदालत से फैसले में कोई रियायत मिल जाएगी।
छत्तीसगढ़ की एक अदालत में तो कई बरस पहले एक ऐसा दिलचस्प मामला आया था जिसमें बलात्कार का एक मुकदमा चल रहा था। और जिस लडक़ी ने बलात्कार की शिकायत की थी उसकी शादी बलात्कारी के साथ हो हो चुकी थी, लेकिन उसने मामला वापस लेने से मना कर दिया था, और गांव से पति-पत्नी दोनों एक साइकिल पर जिला अदालत आते थे और सुनवाई में आमने-सामने खड़े रहते थे। फिर उस मामले का क्या हुआ वह तो ठीक से याद नहीं है लेकिन भारत में जगह-जगह समाज की पंचायत में बैठकर इस किस्म के कई फैसले करवाती हैं। आज भी देश के अधिकतर राज्यों में जाति पंचायतें या समाज की पंचायतें बैठती हैं, और जो हो गया, सो हो गया, यह मानकर बलात्कारी से लडक़ी या महिला को एक मुआवजा दिलवाने का फैसला सुनाती हैं, और सामाजिक दंड के रूप में समाज को खाना खिलाने जैसा कोई और जुर्माना भी लगा देती हैं ताकि सभी लोग मजा करें। ऐसी खाप या जाति पंचायतों में लड़कियों के अधिकार की तो कोई बात ही नहीं होती, लड़कियों के परिवार की इज्जत मामले मुकदमे से और अधिक हद तक लुट जाएगी, बस यही बात होती है। यह भी बात बिल्कुल नहीं होती कि बलात्कारी की भी इज्जत ऐसे मामलों में खराब होनी चाहिए, और उसके परिवार को भी शर्मिंदगी झेलनी चाहिए। हिंदुस्तानी समाज ऐसा अजीब है कि दहेज प्रताडऩा करने वाला परिवार, दहेज हत्या करने वाला परिवार, और बलात्कार करने वाले का परिवार इन सबमें भी लोगों को रिश्ता करने में कोई परहेज नहीं दिखता है।
लेकिन केरल की इस बात पर लौटें, तो यह सोचने की जरूरत है कि एक पादरी ने एक नाबालिग बच्ची से बलात्कार करके उसे गर्भवती कर दिया, इसे लेकर चर्च के पूरे संगठन को जितनी शर्मिंदगी होनी चाहिए थी, वैसी तो कुछ भी कहीं सुनाई नहीं पड़ी। चर्च को तो अपना रुख इस मामले में भी साफ करना चाहिए कि क्या वह बलात्कार की शिकार लडक़ी से बलात्कारी की ऐसी शादी का हिमायती है? चर्च को बहुत सी बातें साफ करना चाहिए। लेकिन हम पहले कई बार लिखी गई एक बात को फिर दोहराते हैं कि धर्म को बलात्कार से कोई परहेज नहीं रहता। एक नाबालिग छात्रा से बलात्कार का आरोपी बूढ़ा आसाराम जेल में बंद है, सुप्रीम कोर्ट तक से उसे जमानत हासिल नहीं हो पाई है, अदालत से कैद पाकर वह सजा काट रहा है, लेकिन उसके भक्तजन देश भर के शहरों में उसकी तस्वीरें लगाकर झांकी निकालते हैं, उसके प्रवचन के पर्चे बांटते हैं, और अपने पूरे परिवार के बच्चों सहित ऐसी शोभायात्रा में शामिल होते हैं। धर्म के नाम पर अंधविश्वास का यह सिलसिला इतना खतरनाक है कि यह धर्म के सिम्हासनों पर बैठे हुए लोगों को भी बर्बाद कर देता है। अगर (बाबा) राम-रहीम के भक्त न होते, तो क्या किसी की मजाल थी कि राम रहीम इस तरह से बलात्कार कर पाता? अगर केरल के इस चर्च में आस्था नाम के अंधविश्वास के शिकार लोग न होते तो इस पादरी को एक नाबालिग लडक़ी के साथ इस तरह बलात्कार करने मिलता?
धर्म और अध्यात्म से जुड़े हुए लोगों को ऐसे बलात्कार का मौका इसीलिए मिलता है कि उन्हें मानने वाले लोग अंधविश्वास से भरे रहते हैं और उनकी कोई भी बात उन्हें गलत या खराब नहीं लगती है। लेकिन जिस तरह सरकारी और निजी सभी किस्म के दफ्तरों में और कामकाज की जगहों पर महिलाओं की सुरक्षा के लिए कमेटियां बनाने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू किया जाता है, उसी तरह का फैसला धार्मिक और आध्यात्मिक संगठनों में लागू किया जाना चाहिए क्योंकि किसी भी धर्म के संस्थान सेक्स शोषण जैसे आरोपों से परे रहते हों इसकी मिसालें बहुत ही कम हैं। सुप्रीम कोर्ट में यह मामला इस एक मामले में चाहे जैसा फैसला पाए, लेकिन इस मामले की चर्चा की वजह से लोगों में एक जागरूकता आएगी और धर्म स्थानों में धार्मिक और आध्यात्मिक संगठनों में धड़ल्ले से चलने वाले सेक्स शोषण के बारे में हो सकता है कि भक्तों और अनुयायियों में थोड़ी सी जागरूकता भी आ सके, और उनके बच्चे बर्बाद होने से बच सकें।
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सोशल मीडिया पर वैसे तो बहुत किस्म की बहसें दिलचस्प रहती हैं, लेकिन एक बहस उनमें बड़ी खास रहती है जो कि आस्थावान, धर्मालु लोगों, और नास्तिक लोगों के बीच चलती है। ये धर्मालु लोग उन लोगों से अलग हैं जिन्हें हिंदुस्तान में हाल के वर्षों में भक्त कहा जाने लगा है। एक वक्त हिंदुस्तान में भक्त या भगत का बहुत अलग मतलब होता था। भक्त सूरदास कहा जाता था, या भगत नाम से भी कई संतों को पहचाना जाता था। इन दिनों जो भक्त दर्जे के लोग हैं, आज की यह बात उनके बारे में बिल्कुल भी नहीं है। आज की बात आस्थावान, धर्मालु और धार्मिक लोगों के बारे में है, जिन्हें किसी एक समय भक्त कहा जाता था, अब भक्त नाम का विशेषण उनसे छीन लिया गया है। लेकिन नास्तिक तो कल भी नास्तिक थे, आज भी नास्तिक हैं, और आने वाले कल भी शायद उनका यही नाम जारी रहेगा क्योंकि इसे छीनने वाले कोई नहीं रहेंगे। अभी ट्विटर पर एक महिला ने ईश्वर के बारे में लिखा कि मैं उसकी आराधना करती हूं, और वह मेरा मार्गदर्शन करता है। कई बार वह मेरी कई प्रार्थना पर तुरंत ही जवाब देता है, जैसे कि मुझे एक बारीक धार वाले एक औजार की जरूरत थी, और मैंने उससे प्रार्थना की, और मैं एक विदेश में एक पहाड़ी और निर्जन इलाके में थी, लेकिन फिर भी 30 मिनट में मुझे वह औजार वहां मिल गया। इसके जवाब में एक जाहिर तौर पर नास्तिक दिखने वाले व्यक्ति ने लिखा कि यह ईश्वर बड़े-बड़े जनसंहार अनदेखा करता है और तुम्हें एक औजार पहुंचाता है!
आस्थावान लोगों की दुनिया ही कुछ अलग होती है। मोटे तौर पर आस्थावान और धर्मालु लोग किसी न किसी धर्म को मानने वाले ऐसे लोग रहते हैं जो धार्मिक रीति-रिवाज का भी पालन करते हैं, धर्मस्थलों पर आते-जाते हैं, धार्मिक त्यौहार मानते हैं, और ईश्वर की उपासना करते हैं। इनके बीच आपस में तौर-तरीकों को लेकर कुछ फर्क हो सकता है लेकिन इनके बीच मोटे तौर पर एक बात एक सी ही रहती है कि इन्हें कानून या विज्ञान, इन सबसे अधिक भरोसा ईश्वर पर रहता है। हिंदुस्तान में भी हम देख चुके हैं कि किस तरह बाबरी मस्जिद को गिराने के वक्त लगातार यह नारा हवा में कुछ बरस गूंजते रहा कि आस्था पर कानून का कोई बस नहीं चल सकता, आस्था कानून से ऊपर होती है, वैसी ही दिमागी हालत में लोगों को लाकर बाबरी मस्जिद को गिराया गया था। लेकिन ऐसा सिर्फ हिंदू धर्म और हिंदुस्तान में होता हो ऐसा भी नहीं है। सिखों के सबसे पवित्र कहे जाने वाले स्वर्ण मंदिर में संत कहे जाने वाला भिंडरावाले जिस तरह हथियारबंद आतंकी गिरोह चला रहा था और जिस तरह वे स्वर्ण मंदिर से बाहर जाकर थोक में हत्याएं करके वापस आकर वहीं रहते थे, उस पूरे खूनी सिलसिले पर धर्म का कोई बस नहीं चला था, और उस दौर में सिख धर्म को देश के कानून से ऊपर मान लिया गया था।
आज भी अफगानिस्तान में तालिबान यही काम कर रहे हैं वह शरीयत का नाम लेकर अपनी मर्जी के इस्लामी कानून लोगों पर लाद रहे हैं, और लोगों को थोक में मार रहे हैं। हिंदुस्तान के ठीक बगल के म्यांमार में बौद्ध धर्म के लोग सत्ता और ताकत में हैं, पिछले कुछ वर्षों से वहां से लगातार जिस तरह मुस्लिम रोहिंग्या लोगों को भगाया गया और जिस तरह उन्हें दुनिया के कई देशों में जाकर शरण लेनी पड़ी, वह एक मिसाल है कि बौद्ध धर्म के भगवाधारी लोगों के बीच भी हिंसा की कोई कमी नहीं है। इटली की माफिया फिल्म देखें या माफिया का इतिहास पढ़ें तो उनमें से कोई भी नास्तिक नहीं थे। वह बात-बात में सीने पर क्रॉस बनाने लगते थे, इतवार को चर्च जाते थे, और पूरी तरह धर्मालु लोग थे और पूरी तरह हिंसक भी थे। जिस अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा नागासाकी पर बम गिराकर लाखों लोगों को मार डाला था, उस अमेरिका के तमाम राष्ट्रपति बाईबिल पर हाथ रख कर ही शपथ लेते हैं, और जाहिर है कि उनमें से हर कोई धर्मालु ईसाई रहे हैं, लेकिन वैसे ही धर्मालु ने जापान पर बम गिराने का, वियतनाम में फौजियों को भेजने का, 20 बरस से अफगानिस्तान में अमेरिकी फौजियों को बनाए रखने का, इराक पर हमला करने का, सीरिया पर हमला करने का फैसला लिया। इसलिए कोई धर्म किसी को कोई गलत काम करने से कभी नहीं रोक पाया है।
दूसरी तरफ यह ईश्वर को धर्मालु लोग छोटी-छोटी बातों के लिए तमाम श्रेय देते हैं। उस ईश्वर को भी न तो कभी बलात्कार से बच्चियों को बचाना सूझता, न किसी फौजी तानाशाह के हाथों से लोगों को बचाना सूझता। यह तो आस्थावान लोग हैं जो कि हर बात को ईश्वर की मर्जी ठहरा देते हैं, लोगों का जब कुछ बुरा होता है तो उन्हें पिछले जन्म के पाप का फल भुगतना बतला देते हैं, लेकिन वह ईश्वर को न तो किसी अनदेखी का गुनहगार ठहराते, और न ही ईश्वर से सवाल करते कि जब दुनिया में इतने बड़े-बड़े जुर्म हो रहे थे तो वह क्या कर रहा था? जब जर्मनी में हिटलर 10 लाख से अधिक लोगों को मार रहा था तो ईश्वर क्या कर रहा था? और हिटलर के हाथों मारे जाने वाले यहूदियों के देश इजराइल का आज जब बेकसूर फिलिस्तीन पर रात-दिन हमला होता है तो वह ईश्वर क्या करता है ? ईश्वर का यह सिलसिला लाजवाब है, बेजवाब है, किसी को कोई जवाब इसलिए नहीं मिल सकता कि ईश्वर जिंदा तो है नहीं, और जो लोग उसके प्रतिनिधि बनकर लोगों और ईश्वर के बीच एक कड़ी बने रहते हैं, वे ईश्वर से किसी भी सवाल करने का हौसला पस्त ही करते रहते हैं। ईश्वर के लिए प्रतिनिधि ऐसे हैं कि इनके चर्च में बच्चों से पादरी सेक्स करते रहते हैं, और चर्च का ढांचा उसे बचाता रहता है। और क्योंकि ईश्वर के बारे में यह कहा जाता है कि वह सर्वत्र है, सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है, इसलिए हम यह मानते हैं कि बच्चों से बलात्कार करते हुए पादरियों को रोकने के लिए वह ईश्वर भी कुछ नहीं करता। वह महज दीवार पर टंगे रहता है। यह ईश्वर और जगह पर भी कुछ नहीं करता। हिंदुस्तान के हिंदू मंदिरों में जब देवदासी प्रथा चलाकर महिलाओं को सेक्स के लिए इस्तेमाल किया जाता था, तब भी ईश्वर ने कोई दखल नहीं दी। जब दक्षिण भारत में अभी एक सदी पहले तक महिलाओं को अपनी छाती ढंकने के लिए टैक्स देना पड़ता था, तब भी ऐसा टैक्स वसूलने वालों से ईश्वर ने कभी कोई सवाल नहीं किया था। लोगों को अपने आसपास की दुनिया देखनी चाहिए कि उनके पास उनके आसपास कैसे-कैसे जुर्म हो रहे हैं, कैसी कैसी ज्यादती हो रही है, और क्या उनके इलाके में हर 100-200 मीटर पर मौजूद मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और चर्च में बैठे ईश्वर क्या किसी बुरे काम को रोक रहे हैं? आस्थावान लोगों को खासकर अपने ईश्वर से ऐसे सवाल करने चाहिए।
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हिंदुस्तान के उत्तर पूर्व के 2 राज्यों असम और मिजोरम के बीच जैसा हिंसक संघर्ष शुरू हुआ है, वह भारत और चीन के बीच पिछले एक-डेढ़ बरस में कई बार हुई हिंसक मुठभेड़ के टक्कर का है। भारत और चीन के सीमा संघर्ष में कुछ दर्जन हिंदुस्तानी फौजियों के मारे जाने की बात भारत सरकार ने मंजूर की है, और हो सकता है कि चीन में भी कई सैनिक मारे गए हों, लेकिन हिंदुस्तान के भीतर के अगल-बगल के ये दो राज्य, असम और मिजोरम, दोनों भाजपा की, या गैरकांग्रेस सरकार के रहते हुए जिस तरह से हिंसक संघर्ष में असम पुलिस के 6 लोग मारे गए हैं और असम ने मिजोरम के कई सरकारी लोगों के खिलाफ जुर्म कायम किया है। यह पूरा सिलसिला भारत के 2 राज्यों के बीच है पिछले बहुत समय में तो कभी सुनाई नहीं पड़ा था। असम और मिजोरम का इतिहास बताता है कि अंग्रेजों के वक्त 1873 में जो सीमा तय की गई थी, मिजोरम उस सीमा को लागू करवाना चाहता है, और अंग्रेजों के ही वक्त 1933 में एक दूसरी सीमा तय हुई थी, जिसे कि असम मानता है। इन दोनों राज्यों के बीच झगड़े की एक दूसरी वजह यह भी है कि 1972 के पहले तक मिजोरम असम का हिस्सा था, उसके बाद मिजोरम को केंद्रशासित प्रदेश बनाया गया था, और 1987 में वहां लंबे समय से चली आ रही उग्रवादी हिंसा को खत्म करने के लिए मिजोरम समझौते के बाद उसे राज्य का दर्जा दिया गया, और 20 साल से चले आ रहा विद्रोह खत्म हो गया।
असम और मिजोरम के बीच कई किस्म के नक्शे और कई किस्म की सरहदों के चलते हुए दोनों राज्य एक-दूसरे पर अपनी जमीनों पर अवैध कब्जे की शिकायतें लंबे समय से करते आ रहे हैं लेकिन लोगों को यह उम्मीद थी कि पिछले 6 बरस से जिस तरह केंद्र में बहुत ही मजबूत माने जाने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अभी के गृह मंत्री अमित शाह देश पर अपनी मजबूत पकड़ रखते हैं और उन्हीं की पार्टी की राज्य सरकार असम में है, और मिजोरम में उनके समर्थन से है, तो ऐसे में इस तरह की कोई नौबत किसी के लिए भी अकल्पनीय है। इन प्रदेशों में गैरकांग्रेस मुख्यमंत्रियों के रहते हुए और दिल्ली की लगातार निगरानी के बीच ऐसी हिंसा जिसमें एक राज्य के पुलिस के लोग मारे जाएं इसकी देश में दूसरी कोई मिसाल याद नहीं पड़ती है।
अभी 24 जुलाई को ही उत्तर पूर्व के दौरे पर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह पहुंचे थे और उन्होंने कहा था कि नरेंद्र मोदी की सरकार इस इलाके के सीमा संबंधी सभी मामलों को सुलझाना चाहती है और इसके 2 दिन के भीतर ही इन दो राज्यों के बीच बीच इतना बुरा हिंसक संघर्ष छिड़ गया। अमित शाह ने एक किस्म से असम के बीजेपी मुख्यमंत्री को सारे उत्तर-पूर्वी राज्यों का मुखिया बनाकर रखा है। फिर भी आज हालत यह है कि असम सरकार ने मिजोरम आने-जाने वाले अपने लोगों और मिजोरम में गए हुए या रहने वाले अपने लोगों के लिए चेतावनी जारी की है कि वे बहुत ही सावधानी बरतें। जानकारों का मानना है कि देश में इसके पहले कभी किसी राज्य ने पडोसी के लिए ऐसी चेतावनी जारी नहीं की थी। दोनों ही राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच जुबानी जंग छिड़ी हुई है, दोनों सुप्रीम कोर्ट तक जमीनों पर अपने दावे लेकर कानूनी लड़ाई लडऩे के लिए तैयार हैं, और सरहद पर तो धमाकों के साथ ऑटोमैटिक हथियारों के साथ संघर्ष चल ही रहा है।
कांग्रेस ने ऐसी नौबत के लिए गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा की इन दोनों राज्य सरकारों पर तोहमत लगाई है। लेकिन भाजपा का यह कहना है कि यह सीमा विवाद नया नहीं है और लंबे समय तक कांग्रेस की सरकार के रहते हुए कांग्रेस ने इन विवादों को निपटाया नहीं, नतीजा यह निकला कि वे आज भडक़ रहे हैं। अभी हम ऐसे किसी इतिहास की तरफ जाना नहीं चाहते क्योंकि इतिहास में जितना पीछे जाएंगे, उतना तो सरहदी विवाद बढ़ा हुआ दिखेगा, लेकिन यह बात तो है की इन दो राज्यों के बीच हाल के वर्षों में ऐसा खूनी संघर्ष कभी हुआ नहीं था। और किसी एक पार्टी की सरकार देश पर भी हो और इन दोनों प्रदेशों में भी प्रत्यक्ष या परोक्ष उसी की सरकार हो और उसके बाद ऐसी नौबत आए तो वह अधिक फिक्र की बात है। अदालत से लेकर सरहद तक यह तनाव बना हुआ है और केंद्र सरकार को कुछ हजार हथियारबंद सिपाही केंद्रीय बलों से इस सरहद के लिए भेजने पड़े हैं। केंद्र सरकार अपने असर का इस्तेमाल करे, और भाजपा अपने असर का इस्तेमाल करे, और देश की आज की नौबत बताती है कि इन दोनों की सारी ताकतें कुल मिलाकर दो ही हाथों में केंद्रित है। इसलिए नरेंद्र मोदी और अमित शाह को इन दोनों प्रदेशों के भले के लिए, देश के भले के लिए, और अपनी पार्टी की सरकारों के भले के लिए इस टकराव पर तुरंत काबू पाना चाहिए। यह काम वह कैसे करेंगे यह बताना मछली के बच्चे को तैरना सिखाने जैसा होगा क्योंकि मोदी और शाह ऐसी नौबतों से जूझने की समझ रखते हैं, और ताकत भी रखते हैं। हैरानी तो इस बात की है इन दोनों के रहते हुए असम और मिजोरम के बीच इतना खून बह रहा है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)