संपादकीय
इस मुद्दे पर लिखने को इसलिए सूझता है कि जब-जब सेना की भर्ती की तस्वीरें सामने आती हैं, खुले बदन दौड़ते हुए नौजवान, सीना नपवाते हुए नौजवान दिखते हैं और लगता है कि इनमें से पता नहीं कितने सेना तक पहुंच पाएंगे। उनका अपना भला तो इस नौकरी के मिलने से जितना भी हो, इस प्रदेश या इलाके का भला भी होता है क्योंकि ऐसे एक-एक सैनिक अपने आसपास के लोगों के लिए एक मिसाल भी बनते हैं और सेना को लेकर इलाके में जागरूकता भी आती है। हमारा मोटे तौर पर यह भी मानना रहता है कि सैनिक, बाकी लोगों के मुकाबले नियम-कायदों को कुछ अधिक मानने वाले भी रहते हैं और इनसे उनके आसपास की दुनिया में थोड़ा सा अनुशासन भी आता है। इस बात को गलत करार देने के लिए कुछ लोग सेना के भ्रष्टाचार को गिना सकते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार सभी जगह है और सेना में बाकी जगहों से अधिक है ऐसा हम नहीं मानते।
लेकिन आगे की बात सेना तक सीमित रखने का हमारा कोई इरादा नहीं है, हम छत्तीसगढ़ के बेरोजगार नौजवानों की बात करना चाहते हैं जो कि हर कुछ महीनों में सेना की भर्ती में दौड़ते दिखते हैं और दौड़ से परे भी उनके कई किस्म के इम्तिहान होते होंगे। यह हमारा एक पसंदीदा मुद्दा है कि किसी भी प्रदेश को अपनी युवा पीढ़ी को किस तरह नौकरी के लिए, आगे की पढ़ाई के मुकाबले के लिए, रोजगार की संभावनाओं के लिए और पेट की जरूरतों से परे भी समाज के बाकी मुकाबलों के लिए कैसे तैयार करना चाहिए। सेना भर्ती की तस्वीरें हमें इस मुद्दे पर कुछ हफ्तों के भीतर एक बार फिर लिखने की बात सुझा रही है। ऐसी दौड़ की तैयारी कितने नौजवान कर पाते होंगे? कितने नौजवान सामान्य ज्ञान, या अंग्रेजी, या कम्प्यूटर, इंटरनेट, व्यक्तित्व जैसी बातों को लेकर मुकाबले के लिए तैयार रहते होंगे? और फिर मुकाबलों से परे भी अपनी-अपनी जिंदगी में पिछले दिन के खुद के मुकाबले आज कितने लोग बेहतर होते होंगे? यह बात बार-बार कचोटती है। हमें लगता है कि जिस तरह छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में कुदरत की दी हुई खदानों, जमीनों और यहां के जल-जंगल से कमाई करने की एक दौड़ लगी हुई है, उसी तरह की दौड़ इस प्रदेश के नौजवान इंसानों की ताकत और उनकी संभावनाओं को लेकर क्यों नहीं लगती? इस प्रदेश को प्रकृति ने जितना कुछ दिया है वह तो है ही, लेकिन धरती की संतानें अगर अपनी पूरी क्षमता से धरती की दी गई दौलत में कुछ जोड़ न सकें तो इसे कामयाबी कैसे कहेंगे?
छत्तीसगढ़ बहुत से मोर्चों पर तरक्की कर-करके देश भर में चर्चा में आया हुआ है। लेकिन हमें इस राज्य में ऐसी कोई बात भी सुनाई नहीं देती कि देश और दुनिया के अलग-अलग मुकाबलों के लिए यहां के लोगों को कैसे तैयार किया जाए और उसके लिए मुकाबले की नौबत आने के पहले, किसी मुकाबले को ध्यान में रखे बिना, लोगों में उत्कृष्टता को कैसे बढ़ाया जाए? हम पहले कई बार यहां पर सलाह दे चुके हैं कि राज्य में सरकारी स्कूलों और कॉलेजों की इमारतों में सुबह-शाम या रात के खाली वक्त में उस इलाके के स्कूल-कॉलेज के बच्चों और बेरोजगार नौजवानों के लिए तरह-तरह का शिक्षण-प्रशिक्षण चलाना चाहिए और इसके लिए सरकार पहल करके, कुछ मदद करके बाकी का काम उस इलाके के लोगों के जनसहयोग से भी कर सकती है। छत्तीसगढ़ की मौजूदा संपन्नता से संतुष्ट होकर सरकार या जनता अगर मोटे तौर पर चुप बैठे रहेंगे, तो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संभावनाओं के लिए निरंतर चलने वाले मुकाबलों में छत्तिसगढिय़ा सबसे बढिय़ा साबित नहीं हो पाएंगे। एक पहल बिना देर किए शुरू करने की जरूरत है और अंग्रेजी भाषा से लेकर बोलचाल के सलीके तक, सामान्य ज्ञान से लेकर कम्प्यूटर-इंटरनेट तक, इंटरव्यू का सामना करने से लेकर आवेदन लिखने तक, अनगिनत ऐसी बातें हैं जो छत्तीसगढ़ के दसियों लाख लोगों को सिखाने की जरूरत है। जब ज्ञान फैलता है तो वह इसे पाने वाले लोगों तक सीमित नहीं रहता, वह उनसे उनके इर्द-गिर्द के दूसरे लोगों तक भी पहुंचता है और पूरा का पूरा समाज धीरे-धीरे बेहतर होने लगता है, अधिक काबिल और अधिक कामयाब होने लगता है।
आज छत्तीसगढ़ में बहुत छोटी-छोटी सी, बहुत छोटी तनख्वाह वाली नौकरियों के लिए गलाकाट मुकाबला होता है। लेकिन राज्य के बाहर या देश के बाहर जाकर काम करने वाले लोगों को देखें तो इस राज्य से गिने-चुने लोग ही नजर आते हैं। देश के केरल या पंजाब जैसे राज्यों को देखें तो वहां से बाहर जाकर काम करने वाले और अपने घर-शहर कमाई लाने वाले लोगों के मुकाबले छत्तीसगढ़ कहीं भी नहीं टिकता और जो लोग यहां से बाहर जाकर कमाते हैं वे लगभग सारे के सारे मजदूर दर्जे के लोग हैं। इसलिए सरकार और समाज दोनों को हमारी सलाह है कि इस तस्वीर को बदलने के लिए कोशिश करनी चाहिए, इसके बिना यह राज्य सिर्फ धरती के दिए हुए को ही खाते रह जाएगा।
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हिंदुस्तान के सोशल मीडिया पर अभी किसी इमारत में लिफ्ट के बगल में लगाए गए एक नोटिस की तस्वीर घूम रही है जो कि जाहिर तौर पर किसी हिंदी इलाके का है। अगर वह गैर हिंदी इलाके का होता तो अंग्रेजी के साथ किसी क्षेत्रीय भाषा में लिखा हुआ होता, लेकिन इसमें हिंदी में लिखा हुआ है कि खाना पहुंचाने के लिए आने वाले लोग लिफ्ट से ऊपर नहीं जा सकते उन्हें सीढिय़ों से जाना है। अब आज भारत के महानगरों में रिहायशी इमारतें भी 25-50 मंजिला होने लगी हैं। यह इमारत कितने मंजिल की है यह तो साफ नहीं है लेकिन बंधुआ मजदूर की तरह काम करने वाले, खाना पहुंचाने वाले लोग क्या खाने का बैग टांगकर हर जगह कई मंजिल पैदल चढक़र जा सकते हैं? और फिर एक सवाल यह भी है कि यह किस किस्म का सामंती मिजाज है जो उसी इमारत में लोगों के लिए खाना लेकर आने वाले लोगों को लिफ्ट की बुनियादी सहूलियत देने से मना कर रहा है? यह ठीक वैसा ही हो गया जैसे बड़ी कारों के पार्किंग के अहाते में किसी कोने में भी मोटरसाइकिल को जाने से रोक दिया जाए, या जैसा कि हिंदुस्तान के बहुत से पांच सितारा होटलों में होता है, ऑटो रिक्शा में पहुंचने वाले लोगों को सडक़ पर उतरना पड़ता है, क्योंकि होटल के दरबान ऑटो रिक्शा को होटल के भीतर पोर्च तक जाने नहीं देते।
जिंदगी में बुनियादी सहूलियत क्या है और ऐशो-आराम की चीजें क्या हैं, इनमें फर्क करना हिंदुस्तान का संपन्न तबका कई बार नहीं कर पाता, या शायद अक्सर नहीं करता। अगर किसी इमारत में वहां बसे हुए लोगों के लिए कोई स्विमिंग पूल बना है, तब तो यह बात हो सकती है कि इमारत में काम करने वाले कर्मचारी उसका इस्तेमाल ना करें। लेकिन वे कर्मचारी लिफ्ट का इस्तेमाल ना करें, कई महानगरों में कई रिहायशी इमारतों में ऐसे नोटिस भी लगे रहते हैं कि काम करने वाले लोग लिफ्ट से ना आए-जाएं। यह सिलसिला समाज के भीतर कमाई के आधार पर एक बहुत ही घटिया किस्म के भेदभाव का है जिसमें इंसानों को इंसान नहीं माना जाता, और जिन लोगों को चर्बी हटाने की जरूरत है वे लोग सीढ़ी से आने-जाने के बजाय लिफ्ट से आते जाते हैं, और जो गरीब मजदूर काम करके वैसे भी थके हुए रहते हैं, उन्हें लिफ्ट में चढऩे को मना कर दिया जाता है। यह बात बताती है कि हिंदुस्तान में किसी छोटे तबके में अतिसंपन्नता तो आ गई है, लेकिन सभ्यता उन्हें छू भी नहीं गई है। दुनिया में जो सभ्य समाज हैं वहां पर इस किस्म का कोई भेदभाव नहीं रहता। कुछ बरस पहले जब बराक ओबामा राष्ट्रपति थे, तो उनकी एक तस्वीर आई थी जिसमें वे राष्ट्रपति भवन के गलियारे में चलते हुए एक सफाई कर्मचारी से हाथ टकराते हुए और उसका अभिवादन करते हुए दिखते हैं। हिंदुस्तान में राष्ट्रपति अगर निकलने को हों तो सफाई कर्मचारी उनके सामने भी शायद नहीं पड़ सकेंगे। कई जगहों पर तो कम तनख्वाह वाले कर्मचारियों को दीवार की तरफ मुंह करके खड़ा रहने के लिए कह दिया जाता है, जब उनके मालिक या कोई ताकतवर व्यक्ति गलियारे से निकलते हैं।
हिंदुस्तान में मुगल खत्म हो गए, अंग्रेज आकर चले गए, देश में लोकतंत्र आए पौन सदी का वक्त हो गया, लेकिन लोगों का मिजाज अभी तक सामंती बना हुआ है। हर हफ्ते-पखवाड़े में देश में कहीं ना कहीं से किसी नेता की बिगड़ैल औलाद का या खुद नेता का ऐसा वीडियो सामने आता है जिसमें वे कहीं टोल टैक्स कर्मचारी को पीट रहे हैं तो कहीं पेट्रोल पंप कर्मचारी को कहीं ट्रैफिक पुलिस से मारपीट कर रहे हैं तो कहीं किसी और सरकारी कर्मचारी को धमका रहे हैं कि जानते नहीं हो कि मैं कौन हूँ? देश तो आजाद हो गया है लेकिन लोगों के दिमाग में अपनी ताकत और दूसरों की गुलामी की बात इतने गहरे बैठी हुई है कि वह निकलने को तैयार नहीं है। फिर इस देश में जो प्रचलित धर्म है उनमें से अधिकतर में लोगों की बराबरी की कोई गुंजाइश नहीं है। जाति व्यवस्था कायम रहती है, धर्म का अपना ढांचा हावी रहता है। और मजे की बात यह है कि अभी पंजाब में एक दलित सिख को कांग्रेस ने मुख्यमंत्री बनाया है, उस पंजाब में दलित आबादी 30 फ़ीसदी है, इस तरफ भी लोगों का ध्यान नहीं था, उस पंजाब में यह पहला दलित मुख्यमंत्री बना है, यह बात भी लोगों को हैरान कर रही है। यह पूरा सिलसिला लोगों को पहली बार यह जानकारी दे रहा है कि सिखों के बीच भी एक जाति व्यवस्था कायम है वरना गुरुद्वारे में एक साथ बैठकर खाने की परंपरा को देखते हुए पंजाब के बाहर के गैर सिख लोग यह मान बैठे थे कि सिखों में कोई जाति व्यवस्था है ही नहीं।
भारत में अब जाति व्यवस्था बड़े शहरों में कुछ हद तक घट रही है, तो वहां पर गरीब कामगार और अमीर मालिक के बीच की एक नई व्यवस्था कायम हो रही है जिसमें कुछ लोग खाना पहुंचाने वाले लोगों से मारपीट भी करते दिखते हैं, और जैसा कि यह नोटिस कई इमारतों में लगा हुआ है, उससे भी जाहिर है कि उनकी सेवा करने वाले लोगों को भी लोग इंसान का दर्जा देने से इनकार करते हैं। अगर सफाई कर्मचारी कूड़े का या गंदगी का कोई डिब्बा लेकर लिफ्ट में साथ में जाए, तो भी हो सकता है कि एक बार लोगों को वह खटके, लेकिन बैग में बंद खाना लेकर अगर कोई कर्मचारी लिफ्ट से जा रहा है, तो उसमें भी लोगों को आपत्ति है, जो कि जाहिर तौर पर उस व्यक्ति के गरीब होने को लेकर है कि इतना गरीब कामगार कैसे उसी लिफ्ट में सवार होकर जा सकता है, जिसमें कि महंगे फ्लैट के मालिक ऊपर-नीचे आते-जाते हैं। हमारा ख्याल है कि चाहे ये रिहायशी इमारतें निजी क्यों न हों, ऐसे नोटिस के खिलाफ उन प्रदेशों के मानवाधिकार आयोग को नोटिस जारी करना चाहिए, और ऐसे प्रतिबंध को गैरकानूनी करार देना चाहिए क्योंकि किसी से ऐसी मेहनत करवाना जिसकी कि कोई जरूरत नहीं है, और जो बिल्डिंग में कानूनी रूप से लगाई जाने वाली अनिवार्य सहूलियत हैं, उनके इस्तेमाल से लोगों को रोकने के खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए।
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अभी एक ब्रिटिश टेनिस खिलाड़ी एमा राडुकानू ने यूएस ओपन टूर्नामेंट जीता तो वह लंबे अरसे के बाद दुनिया का कोई ग्रैंड स्लैम टाइटल जीतने वाली ब्रिटिश महिला खिलाड़ी बनी। इसके पहले ग्रैंड स्लैम सिंगल्स टाइटल 1977 में ब्रिटेन की वर्जीनिया वेड ने विंबलडन जीतकर हासिल किया था और उसके बाद का यह लंबा फासला ब्रिटेन की महिला टेनिस खिलाडिय़ों के लिए बड़े इंतजार का था। लेकिन एमा की जीत की खुशी कई जगह मनाई जा सकती है, वह टोरंटो में पैदा हुई थी तो वह जन्म से कनाडा की नागरिक है। उसके पिता रोमानिया से आकर कनाडा में बसे थे, और उसकी मां चीन से आकर वहां बसी थी, और वहीं उसके पिता से मिली थी। वह जन्म के बाद जल्द ही ब्रिटेन आकर बस गई थी और उसकी पढ़ाई-लिखाई यहीं पर हुई। इस तरह उसके पास इन दोनों देशों की नागरिकता है। वह अपनी मां के जन्म के देश चीन की मंडारिन भाषा बखूबी बोलती है। अब कोई अगर यह सोचे कि वह कहां की है, तो यह सोचना मुश्किल है। उसकी इस जीत के बाद वह जिस तरह खबरों में आई, तो उससे कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर यह भी लिखा कि उसे लाखों चीनी अपना आदर्श मान रहे हैं, और रोमानिया में भी उसकी जीत की खुशियां मनाई जा रही हैं, कनाडा और ब्रिटेन तो खुश हैं ही।
लेकिन इस एक खिलाड़ी की जीत से यूरोप के कई लोगों के बीच में यह चर्चा शुरू हो रही है कि देशों की सरहदें किसके काम आती हैं, और किसका आगे बढऩा उससे रुकता है? मां किसी देश की, बाप किसी देश का, पैदा किसी देश में हुए, और पढ़े किसी और देश में। आज दुनिया के जिन देशों में लोग धर्म को लेकर, जाति को लेकर लड़े पड़े हैं, जहां पर नफरत का बोलबाला है, ऐसे हिंदुस्तान जैसे देश क्या अगली सदी में भी इस किस्म की उदारता के बारे में सोच पाएंगे? आज एक धर्म की लडक़ी दूसरे धर्म के लडक़े से किसी रेस्तरां में मिल रही है तो उसे उत्तर प्रदेश में खुलेआम पीटा जा रहा है, अगर लडक़ी ने दूसरी जाति में शादी कर ली तो लडक़ी के घरवाले जाकर लडक़े को मार डाल रहे हैं, और जरूरत रहे तो अपनी लडक़ी को भी मार रहे हैं। कहीं लडक़ी के प्रेमी को घर पर बुलाकर उसे पेट्रोल डालकर जिंदा जला दिया जा रहा है और छत से नीचे फेंक दिया जा रहा है। आज दुनिया के दो अलग-अलग हिस्से दो अलग-अलग युगों में जी रहे हैं। यह फर्क महज एक सदी का हो ऐसा भी नहीं है, कई सदियों का फर्क है, और एक जगह नफरत का बोलबाला है, और दूसरी जगह कामयाबी का।
आज जिन देशों में लोगों के सिर पर धर्म की नफरत, राष्ट्रीयता की नफरत, रंग की नफरत नहीं रहती, उन देशों में लोग अपनी पूरी क्षमता के आसमान पर पहुंच सकते हैं और अपनी संभावनाओं का पूरा फायदा उस देश को दे सकते हैं। अमेरिका इसकी एक सबसे बड़ी मिसाल है क्योंकि वहां नौजवान पीढ़ी को तकरीबन तमाम बातों में एक बराबरी का मौका मिलता है, और हिंदुस्तान में जिन बातों को लेकर वैलेंटाइन डे पर लोगों को मारा जाता है, जबरदस्ती राखी बंधवाई जाती है, ऐसे कोई सामाजिक तनाव वहां की नौजवान पीढ़ी पर नहीं रहते, और वह अपनी पूरी संभावनाओं का इस्तेमाल कर पाती है। जब समाज में एक समानता और सद्भावना का माहौल रहता है तो वहां आगे बढ़ते हुए लोग अलग दिखते हैं। शायद कई दूसरी वजहों के साथ-साथ हिंदुस्तान के खेल में पिछडऩे की, कारोबार या दूसरी प्रतिभाओं में पिछडऩे की एक बड़ी वजह यह भी है कि यहां नौजवान पीढ़ी के दिमाग से तनाव कम नहीं होता, और कुंठा बढ़ती चली जाती है। वे न अपनी मर्जी से शादी कर सकते, न अपनी अपनी मर्जी से किसी के साथ उठ बैठ सकते, न मर्जी का खा सकते, न मर्जी का पहन सकते। ऐसे में तनाव और कुंठा से भरी हुई नौजवान पीढ़ी के आगे बढऩे की संभावनाएं बड़ी सीमित रहती हैं। और अब तो इस देश में विज्ञान के नाम पर जो ‘वैदिक’ अवैज्ञानिक बातें पढ़ाई जा रही हैं, बढ़ाई जा रही हैं, वे सब नौजवान पीढ़ी को एक ऐसी अंधेरी सुरंग में धकेल रही हैं, जहां से बाहर निकलने का रास्ता जल्द मिलने वाला नहीं है।
जो हिंदुस्तानी नौजवान दुनिया के दूसरे देशों में जाते हैं और अपनी क्षमताओं को साबित करते हैं, दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों के मुखिया हो जाते हैं और कामयाब रहते हैं, उनकी कामयाबी का हिंदुस्तान से लेना-देना कम रहता है, यहां के पढ़े-लिखे से लेना-देना कम रहता है, उसका अधिक लेना-देना उन देशों में काम करने की परिस्थितियों और रहने-जीने की परिस्थितियों से अधिक रहता है। वहां पर जिस तरह भ्रष्टाचार और राजनीतिक दखल के बिना वे कारोबार कर सकते हैं, वहां वे जिस तरह बिना किसी डर के अपनी राजनीतिक पसंद के पक्ष में काम कर सकते हैं, हिंदुस्तान में वैसा करने का सोच भी नहीं सकते। इसलिए जब लोगों की राजनीतिक और लोकतांत्रिक भावनाओं को डरा कर रखा जाता है, दहशत में रखा जाता है, तो उससे उनका व्यक्तित्व भी प्रभावित होता है और वे अपनी संभावनाओं को कहीं छू नहीं पाते। दुनिया में राष्ट्रीयता, रंग, नस्ल, सेक्स, इन सबसे परे जिस तरह लोग आगे बढ़ते हैं, हिंदुस्तान शायद अगली सदी में भी उस तरह की कामयाबी नहीं पा सकेगा क्योंकि हमारी सोच बड़ी तेजी से कुछ सदी पीछे ले जाई जा रही है। आज के मुद्दों से, आज की दिक्कतों से निपटने और कल की संभावनाओं के लिए ठोस काम करना एक बड़ा मुश्किल काम है, एक नामौजूद काल्पनिक इतिहास को लेकर कीर्तन करना एक अधिक आसान काम है, और वैसे कीर्तन में हिलने के लिए हिंदुस्तान में सिरों की कोई कमी तो है नहीं।
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पूरे हिंदुस्तान में कल से कांग्रेस पार्टी एक नए मखौल का सामान बन गई है। पंजाब में मुख्यमंत्री को जिस अंदाज में, अपमान के साथ हटाया गया है, और अभी कल ही भाजपा से आए हुए नवजोत सिंह सिद्धू को पहले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया, और फिर जिस तरह उनके हमलावर बयान आए कि उनके मर्जी से सब कुछ नहीं किया जाएगा तो वह सब कुछ तबाह कर देंगे, और मानो उनकी ही मर्जी से कांग्रेस के एक सबसे सीनियर नेता और मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को अपमानित करके कुर्सी से हटने के लिए मजबूर किया गया, उसने कांग्रेस पार्टी की पूरे देश में थू थू कर दी। खासकर तब, जब पिछले कुछ महीनों में एक के बाद दूसरे भाजपा मुख्यमंत्री बिना किसी हंगामे के, बिना किसी विरोध के हटा दिए गए, और मनचाहे मुख्यमंत्री बना दिए गए, पार्टी के बाहर किसी को कानों-कान कोई खबर नहीं हुई, ऐसे माहौल में कांग्रेस की यह हालत उसकी रही-सही साख को चौपट करने वाली है। यह बात इसलिए भी कांग्रेस के लिए अधिक फिक्र की है कि देश में उसके पास गिने-चुने राज्य रह गए हैं, और पंजाब के अलावा कम से कम दो और ऐसे राज्य हैं जहां कांग्रेस में मुख्यमंत्री को लेकर एक गंभीर स्थानीय चुनौती खड़ी हुई है। राजस्थान में पिछले एक दो बरस से सचिन पायलट की अगुवाई में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ एक अभियान चल ही रहा है। बीच में तो ऐसी नौबत थी कि राजस्थान के कांग्रेस विधायकों का एक हिस्सा कई दिन तक हरियाणा के किसी रिसॉर्ट में पड़े रहा, देश में ऐसी भी अफवाह रही कि कांग्रेस खुद ही अपने विधायकों को खरीदकर वापस ले गई और किसी तरह सरकार को बचाया। अब पंजाब की इस उथल-पुथल को देखें तो छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और उन्हें बेदखल करके मुख्यमंत्री बनने का दावा करने वाले टीएस सिंहदेव के बीच चले आ रहे तनाव को पंजाब के इस हालात से बढ़ावा ही मिलेगा। कांग्रेस के पास इन राज्यों को अगले चुनाव में खोने के बाद देश में कुछ भी नहीं बचेगा और उसके बाद हो सकता है कि यह पार्टी बिना किसी अध्यक्ष के भी जिंदा रह सके।
कांग्रेस की दिक्कतें कम नहीं है। पिछला लोकसभा चुनाव हारने के बाद राहुल गांधी ने जिस तरह पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ा और जिस तरह वे एक सार्वजनिक जिद पर अड़े रहे कि अगला अध्यक्ष सोनिया परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति को बनाया जाए, उन्होंने अपने-आपको अध्यक्ष पद से अलग कर दिया, लेकिन हालत यह है कि पार्टी के सारे मामले घूम-फिर कर उनके पास ही पहुंचते हैं। वे बंद कमरों में पार्टी के सबसे महत्वपूर्ण मामलों पर बैठक करते हैं। उनके बिना पार्टी का गुजारा नहीं है, लेकिन वे किसी ओहदे पर नहीं है और वे पार्टी संगठन के भीतर एक संविधानेतर सत्ता बने हुए हैं। जिम्मेदारी कुछ नहीं, अधिकार पूरे के पूरे। कांग्रेस और भाजपा के साथ यह एक बात दिलचस्प है कि भाजपा के फैसलों को लेकर कई बार यह चर्चा होती है कि यह संघ परिवार ने तय किया, और संघ परिवार ने करवाया, और संघ प्रमुख की मर्जी से ऐसा हुआ। जबकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने आप को एक गैरराजनीतिक संगठन कहता है, और यह भी कहता है कि उसका भाजपा से कोई लेना देना नहीं है। ठीक वैसे ही राहुल गांधी का कांग्रेस अध्यक्ष पद से कोई लेना देना नहीं है, लेकिन कांग्रेस में जो कुछ और होता है वह उनकी मर्जी से होता है। अब इन दो संस्थाओं की संविधानेतर सत्ता की और तो कोई तुलना नहीं है सिवाय इसके कि ये दो पार्टियां मोटे तौर पर इनके फैसलों के मुताबिक ही चलती हैं, वरना एक सांस्कृतिक संगठन से एक राजनीतिक संगठन के संगठन मंत्री अनिवार्य रूप से क्यों इंपोर्ट किए जाते हैं?
कांग्रेस पार्टी के दिक्कत महज पंजाब को लेकर या राजस्थान और छत्तीसगढ़ को लेकर नहीं है, यह दिक्कत एक पार्टी संगठन की दिक्कत है जिसमें जो अध्यक्ष बनना नहीं चाहते उन्हीं को पार्टी के अधिकतर लोग अध्यक्ष बनाने पर आमादा हैं, ऐसे में पार्टी में जिम्मेदारी किसकी है, और अधिकार किसके पास हैं, इस पर धुंध छाई हुई है। कल पंजाब के मुख्यमंत्री रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह ने कहा कि राहुल गांधी से पिछले 2 साल में उनकी मुलाकात नहीं हुई। अब सवाल यह है कि जिसकी मर्जी के बिना कांग्रेस में पत्ता नहीं हिल सकता, वह अपने पिता के वक्त से कांग्रेस का एक बड़ा नेता रहे हुए एक बुजुर्ग कांग्रेस मुख्यमंत्री से दो 2 बरस तक मिलना न चाहे, तो ऐसे में पार्टी का क्या हाल होगा? हमारा किसी प्रदेश के किसी एक नेता से कोई लेना देना नहीं है लेकिन अगर उनके प्रदेशों में कांग्रेस की सरकार है, तो यह तो होना चाहिए कि वहां के जलते-सुलगते मुद्दों को लेकर कांग्रेस पार्टी वक्त पर सोच-विचार कर ले और वक्त रहते फैसला कर ले।
कल हिंदुस्तान के राजनीतिक विश्लेषकों ने इस बात पर कांग्रेस की समझ पर बड़ा अफसोस जाहिर किया कि अब जब पंजाब में चुनाव को कुछ ही महीने बाकी रह गए हैं, तब जाकर मुख्यमंत्री को हटाया गया है। अगर हटाना ही था तो पहले हटा देना था। दूसरी बात जो कैप्टन अमरिंदर सिंह के मामले में तो सामने नहीं आई, लेकिन भाजपा के कुछ मुख्यमंत्रियों को हटाने के मामले में जरूर सामने आई कि वे अपने-अपने प्रदेशों में कुछ अधिक ताकतवर हो रहे थे, इसलिए भाजपा हाईकमान ने उन्हें हटाकर ऐसे लोगों को बिठाया जो कि हाईकमान के कहे, बनाए ही नेता बने हैं, जिनका अपना जनाधार कम है। कांग्रेस पार्टी दशकों से इस बात के लिए बदनाम रहते आई है कि वह अपने किसी क्षेत्रीय नेता को कभी इतना मजबूत नहीं होने देती कि वह हाईकमान के सामने रीढ़ की हड्डी सीधी करके खड़े हो सकें। कमोबेश वैसा ही हाल अब भाजपा में हो चला है क्योंकि भाजपा के ढेर सारे नेता कांग्रेस से वहां पहुंचे हैं और भाजपा को यह समझ आ गया है कि कांग्रेस को हराने के लिए कांग्रेस की संस्कृति को अपनाना, और कांग्रेस के लोगों को अपनाना, दोनों ही जरूरी है। इसलिए एक वक्त के नरेंद्र मोदी सरीखे मजबूत मुख्यमंत्री आज भाजपा में नहीं रहने दिए जा रहे हैं, क्योंकि पार्टी की केंद्रीय सत्ता ऐसे मजबूत मुख्यमंत्रियों को राजधर्म नहीं सिखा पाएगी। अब लोगों का अंदाज भी है कि भाजपा का निशाना उसके अपने किस अगले मुख्यमंत्री पर होगा।
कांग्रेस की बात पर लौटें, पार्टी अपनी बुनियाद होते जा रही है और नेहरू-गांधी की विरासत का नाम लेकर वह अब किसी वार्ड का चुनाव भी नहीं जीत सकती। देश में नरेंद्र मोदी ने एक नए दर्जे की राजनीति, और राजनीति में नई ऊंचाई की मेहनत को पेश कर दिया है। एक ओवरटाइम करने वाले प्रधानमंत्री के मुकाबले एक पार्ट टाइम पार्टी अध्यक्ष की कोई गुंजाइश भारत की चुनावी राजनीति में नहीं है। कांग्रेस जब अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष के स्तर का विवाद नहीं सुलझा पा रही है, राज्यों के मुख्यमंत्रियों का विवाद क्या सुलझा सकेगी। इसलिए कांग्रेस की यह शर्मनाक नौबत उसके केंद्रीय नेतृत्व की घोर असफलता से उपजी हुई है, उसके लिए तसल्ली की यही बात हो सकती है कि अब खोने को कुल दो-तीन प्रदेश ही बचे हैं। कांग्रेस के लोगों को यही राहत हो सकती है कि पार्टी लीडरशिप का यही हाल जारी रहा तो भी उसे दो तीन राज्यों से अधिक का नुकसान नहीं होगा। अब कांग्रेस का जो भी बदहाल हो वह भाजपा के राज्य तो खो नहीं सकती, और अपने राज्य उसके घरेलू कलह और हाईकमान की अनदेखी के शिकार हैं।
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बिहार से बड़ी दिलचस्प खबर आ रही है कि रामविलास पासवान की पहली बरसी निपटते ही उनके बेटे चिराग पासवान ने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को चि_ी लिखकर अनुरोध किया है कि वे केंद्र सरकार से सिफारिश करें कि रामविलास पासवान को भारत रत्न दिया जाए। इसके अलावा उन्होंने यह भी अपील की है कि रामविलास पासवान की जयंती को राजकीय अवकाश घोषित किया जाए। जैसा कि होता है, चिराग पासवान ने अपने पिता को महिमामंडित करते हुए बहुत सी बातें लिखी हैं, और साथ-साथ बहुत सी मांगें भी रखी हैं कि पटना में और हर जिला मुख्यालय में रामविलास पासवान की प्रतिमा स्थापित की जाए। इसके पहले दिल्ली में रामविलास पासवान के जीते जी जो सरकारी बंगला उनके पास था, उसमें चिराग पासवान ने उनकी एक प्रतिमा स्थापित कर ही दी है, और उसके साथ ही उनकी यह हसरत भी दिखती है कि वह बंगला रामविलास पासवान की स्मृति में चिराग पासवान के पास रहने दिया जाए।
यह एक बड़ी ही तकलीफदेह नौबत है जब रामविलास पासवान के गुजरने के बाद उनके नाम का झंडा लेकर अकेले उनके बेटे चल रहे हैं। जिंदगी भर जिसने राजनीति में समय लगाया, उसने अपने जीते-जी अपनी पार्टी की अपनी सारी विरासत अपने बेटे को ही देकर जाना तय किया, और शायद उसी वजह से भी यह नौबत आई है कि किसी और को यह नहीं लग रहा कि उन्हें भी पासवान की स्मृति में कुछ करना चाहिए। ऐसी नौबत किसी की जिंदगी में ना आए वही बेहतर है, कि उनकी स्मृतियों को लेकर उनकी संतानें ही कार्यक्रम करें, उनके नाम पर स्मृति ग्रंथ निकालें, परिवार ही उनकी स्मृति में व्याख्यानमाला रखें, पुरस्कार और सम्मान स्थापित करे। और यह तो एक अलग दर्जे का मामला है जिसमें रामविलास पासवान का बेटा उनके लिए भारत रत्न की मांग कर रहा है। जिंदगी में जो व्यक्ति सचमुच महान होते हैं या कोई महत्वपूर्ण काम छोड़ कर जाते हैं, वे कम से कम अपने समर्थकों, प्रशंसकों, अनुयायियों, और भक्तों का इतना तबका तो छोडक़र जाते हैं कि उनके जाने के बाद परिवार से परे बाहर के कुछ लोग उनके नाम को जप सकें। लेकिन वे लोग सहानुभूति के हकदार रहते हैं, हमदर्दी के हकदार रहते हैं, जिनके नामलेवा उनके कुनबे के लोग ही रह जाते हैं उसके बाहर कोई नहीं रह जाते।
वैसे भी हम तो राजकीय सम्मानों के खिलाफ लिखते आए हैं, और किसी को भी सरकार सम्मानित करे, उसके खिलाफ हम लोगों को समझाते हैं। फिर भारत रत्न जैसी उपाधि तो हमेशा विवादों से घिरी रही है क्योंकि रात-दिन कारोबारी इश्तहार करने वाले सचिन तेंदुलकर जैसे कम उम्र को भारत रत्न मिल गया है, और हॉकी के जादूगर कहे जाने वाले ओलिंपिक मेडल लेकर आने वाले ध्यानचंद के नाम पर यह सोचा भी नहीं गया। इसलिए जिन लोगों को भारत रत्न सम्मान की बात लगती है, वे अपने मन में किसी हीन भावना के शिकार रहने वाले लोग हैं ताकि उन्हें सरकारी सम्मान अच्छा लगता है। वोटों को पाकर सरकार में आने वाले, और सरकार में रहते हुए आगे वोट पाने की कोशिश करने वाले लोग भला किस तरह से किसी सम्मान का ईमानदार फैसला कर सकते हैं? दुनिया में सम्मान देने का हक सरकारों से परे, राजनीतिक दलों से परे, ऐसे निर्विवाद संगठनों और संस्थाओं का काम होना चाहिए, जो बहुत ही भरोसेमंद निर्णायक मंडल के साथ, बहुत ही पारदर्शी तरीके से इसका फैसला कर सकें। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो नोबेल पुरस्कार को ऐसा ही सम्मानजनक माना जा सकता है जिसे कोई किसी दबाव से हासिल कर ले ऐसा सुना नहीं गया है। फिर एक बात यह भी है कि जब-जब रामविलास पासवान को अधिक महान साबित करने की कोशिश होगी, लोगों को यह भी याद आते रहेगा कि उनको मजाक में भारतीय राजनीति का मौसम वैज्ञानिक कहा जाता था, जो कि यह अंदाज लगा लेते थे कि अगली सरकार कौन सी आने वाली है और वे विचारधाराविहीन अंदाज में किसी भी सत्तारूढ़ हो संगठन का हिस्सा बनने के लिए तैयार रहते थे, और तकरीबन तमाम सरकारें उनके साथ ही बनती थीं। किसी के बारे में अगर अप्रिय बातों को शुरू करवाना हो, तो उसके सम्मान की चर्चा छेड़ देनी चाहिए ,और लोग तुरंत इस बात को उधेडऩे लगते हैं कि कौन-कौन सी बातों की वजह से वे व्यक्ति ऐसे सम्मान के हकदार नहीं हैं।
हमारा ख्याल है कि चिराग पासवान, रामविलास पासवान की रही-सही स्मृतियों को बर्बाद कर रहे हैं। वे जिस बिहार के एक सबसे बड़े नेता रहे हैं, उस बिहार में जिला मुख्यालयों में पासवान की प्रतिमा स्थापित करने के लिए अगर सरकार से अपील करने की नौबत आ गई है तो इसका मतलब है कि पासवान ने अपनी कोई विरासत नहीं छोड़ी है, उनके कोई समर्थक नहीं हैं, और उनके अपने गृह राज्य में भी उनकी कोई जमीन नहीं है। इसी तरह सरकारी बंगले में कब्जा करने की नीयत से पासवान की प्रतिमा स्थापित करना एक खराब नीयत की बात है और चिराग पासवान इससे अपनी भी इज्जत खराब कर रहे हैं। यह भी है कि पिछले चुनाव में जिस नीतीश कुमार के खिलाफ चिराग पासवान ने बहुत ही निचले दर्जे की आग उगली थी। उसी नीतीश कुमार से आज अपने पिता की स्मृति को आगे बढ़ाने की अपील करना राजनीतिक रूप से एक नाजायज बात है। कम से कम इतना तो सोचना चाहिए था कि अभी-अभी रामविलास पासवान की बरसी पर नीतीश कुमार को बुलाने के लिए जब चिराग पासवान कोशिश करते रहे तो उनको मुख्यमंत्री से मिलने का समय भी नहीं दिया गया और मुख्यमंत्री इस बरसी पर आए भी नहीं। ऐसे रुख के बाद ऐसी अपील, चिराग पासवान की नासमझी साबित करती है, और यह पूरा सिलसिला बहुत ही बदमजा है।
किसी व्यक्ति के गुजरने पर उसका परिवार ही उसकी महानता साबित करने में लगा रहे यह शर्मनाक नौबत है, इससे और चाहे कुछ भी साबित हो जाए, कम से कम यह तो साबित तो हो ही जाता है कि गुजरने वाले व्यक्ति महान नहीं थे, इसीलिए उनकी स्मृतियों को चार कंधा देने के लिए घर के चार लोगों के अलावा और कोई नहीं मिल रहे हैं। ऐसी नौबत से सभी इज्जतदार लोगों को बचना चाहिए लेकिन इज्जतदार हैं कौन यह तो लोग खुद ही साबित करते हैं।
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दुनिया की एक सबसे बड़ी कंप्यूटर और मोबाइल फोन कंपनी, एप्पल ने 2 दिन पहले बाजार में अपने फोन के कुछ नए मॉडल उतारे तो सोशल मीडिया पर फिर यह मजाक चल गया कि शरीर का कौन सा अंग बेचने पर इसका कौन सा मॉडल लिया जा सकता है। जो संपन्न पश्चिमी देश हैं वहां पर फोन की महंगी कीमत के बावजूद लोग कुछ बरस पहले तक तो एप्पल स्टोर के बाहर फुटपाथ पर दो-दो दिन लाइन में सोए रहते थे, अब पता नहीं वहां क्या हालत है। लेकिन दुनिया में और भी कुछ सामान हैं जो इसी किस्म के महंगे हैं, कुछ दूसरी कंपनियों के कुछ फोन भी करीब-करीब ऐसे ही दाम के हैं, और इसलिए यह मजाक उनके साथ भी बनाया जा सकता है, लेकिन ऐसे लतीफे बनते एप्पल के ही हैं।
यह सोचने की जरूरत है कि क्या सचमुच ही रोजाना इस्तेमाल की टेक्नोलॉजी पर इतना खर्च करने की जरूरत है? लेकिन यह कोई नई बात तो है नहीं, एक वक्त जब टीवी आया तो उस वक्त भी बड़ी स्क्रीन के दाम ऐसे ही अंधाधुंध अधिक थे, टीवी पर फिल्म देखने के लिए जो वीसीपी या वीसीआर आते थे, उनके भी दाम ऐसे ही थे। हर टेक्नोलॉजी शुरू में बहुत महंगी रहती है बाद में धीरे-धीरे सस्ती होती जाती है। और अब तो घर-दफ्तर में टीवी पर फिल्म देखने के लिए किसी मशीन को चलाने की जरूरत ही नहीं पड़ती है। इसी तरह जिनको यह लगता है कि मोबाइल फोन बहुत महंगे होते जा रहे हैं उन्हें यह भी ध्यान देने की जरूरत है कि मोबाइल फोन की खूबियां इतनी बढ़ाई जा रही हैं कि वे अधिक महंगे हो रहे हैं। हर किसी को इतने महंगे मोबाइल फोन की जरूरत नहीं है, और बाजार में लोगों के काम चलाने लायक मोबाइल 10-12 हजार में भी आराम से मिल जाते हैं। अधिक खर्च वही लोग करते हैं जिन्हें शान-शौकत की आदत है और जो केसर खरीदते हुए भी सबसे महंगी वाली केसर खरीदते हैं, बादाम लेते हुए भी सबसे महंगा बादाम और कुर्ते के लिए सिल्क का कपड़ा लेते हुए सबसे महंगा सिल्क। इसलिए आज बाजार में जो सबसे महंगे सामान आ रहे हैं उन्हें लोगों की जरूरत मानना गलत होगा, और जिन लोगों को अपनी जरूरत के काम के लिए मोबाइल या कंप्यूटर चाहिए, उन्हें तो यह भी देखना चाहिए कि कुछ बरस पहले के दाम पर भी आज उससे बहुत अधिक खूबियों वाले फोन और कंप्यूटर आने लगे हैं।
दरअसल बाजार में सबसे महंगा सामान लेने के शौकीन लोगों को बिना जरूरत ऊंची तकनीक वाले सामान लेने की आदत रहती है। जिन्हें कभी कोई वीडियो एडिटिंग नहीं करनी है वे भी फोन ऐसा चाहते हैं कि उसका प्रोसेसर और उसका रैम सबसे ऊंचा हो। अधिकतर लोगों को यह समझना चाहिए कि उनके पास के मौजूदा फोन या कंप्यूटर पूरी तरह खराब ना हो जाने तक उन्हें नए उपकरणों की जरूरत नहीं रहती है। इसलिए अपने पास के फोन का नया मॉडल आते ही उस पर जाने की कोशिश एक निहायत फिजूल की बात रहती है, और बहुत महंगा शौक भी। जिनको लगता है कि एक किडनी बेचकर भी आईफोन खरीदना चाहिए, उन लोगों को किडनी संभालकर रखनी चाहिए और बाजार के सस्ते फोन से काम चलाना चाहिए, जिससे तकरीबन तमाम काम निपट सकते हैं। बस समाज में उठते-बैठते लोगों को दिखाने के लिए चकाचौंध वाला महंगा ब्रांड उनके पास नहीं रहेगा लेकिन ऐसा ब्रांड दिखाकर किसी को खुश करना जरूरत नहीं रहती है, यह महज घमंड रहता है। इसलिए लोगों को अपनी जरूरत के मुताबिक ही खर्च करना चाहिए क्योंकि एक बार जिस तरह के सामान का इस्तेमाल शुरू किया जाए, बाद में फिर उससे नीचे का सामान लेना जंचता नहीं है। बच्चों को भी उतने ही महंगे सामान दिलवाने चाहिए जिनके खराब होने पर उतने ही महंगे सामान दोबारा दिलाए जा सकें।
दरअसल खुशी सामान बदलने से नहीं आती है, खुशी आती है अपने पास के सामान से संतुष्ट रहने पर। जब तक जरूरत ना हो तब तक और अधिक महंगे, और नए, और बड़े, सामानों पर जाकर और अधिक खूबी पाने के फेर में खुशी खत्म होती है, और जो हासिल है उससे अगर काम चल रहा है, उससे अधिक की जरूरत नहीं है, तो हसरतों को काबू में रखना ठीक है क्योंकि ना तो बाजार में उपकरणों के आने पर काबू रखा जा सकता, और ना ही खूबियां बढ़ते चले जाने को रोका जा सकता है। लोगों को याद रखना चाहिए कि हिंदुस्तान की कुछ सबसे बड़ी कंप्यूटर सॉफ्टवेयर कंपनियों को बनाने वाले और उनके आज के मालिक, अज़ीम प्रेमजी, नारायण मूर्ति, अरबपति-खरबपति होने के बाद भी प्लेन में इकोनॉमी क्लास में सफर करते हैं। वे अगर चाहें तो वह अपनी कंपनी के लिए प्लेन खरीदकर उसका इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन वे आम मुसाफिर विमान में भी महंगी टिकट नहीं खरीदते, साधारण टिकट खरीदते हैं। इसके बाद ये कारोबारी अपनी दौलत से हजारों करोड़ रुपये समाजसेवा पर खर्च करते हैं। ऐसे ही बहुत से ऐसे लोग हैं, दुनिया का एक सबसे बड़ा फुटबॉल खिलाड़ी, सादिओ माने ऐसा है जो अपने घिसे-पिटे पुराने मोबाइल फोन का इस्तेमाल करता है, उसके हाथ में एक पुराना फोन दिखा जिसकी स्क्रीन भी क्रैक हो चुकी थी। वह अपनी कमाई का एक बहुत बड़ा हिस्सा समाज सेवा पर खर्च करता है। वह अपने फोन को बदलने पर भी जरा सा खर्च करना नहीं चाहता क्योंकि उतने पैसों से किसी और एक की मदद हो सकती है। फुटबॉल से ही उसकी सालाना फीस 75 करोड़ रुपये से अधिक है।
इसलिए लोगों को अपने बच्चों के सामने भी ऐसी मिसाल पेश करने की जरूरत है कि जरूरत जितने ही सामान लिए जाएं, और जरूरत पूरी न होने पर ही उन्हें बदलकर दूसरा सामान लिया जाए। जो अतिसंपन्न लोग हैं उनको छोडक़र बाकी सब लोगों की जिंदगी की प्राथमिकताएं महंगे सामान बदल देते हैं, और सामानों को, ब्रांड को, नए मॉडल को जरूरत से अधिक महत्व देने के बजाय जिंदगी की दूसरी बातों को महत्व देना सीखना चाहिए, जो कि न पैसे से मिल सकती हैं, और न ही पैसे न रहने पर वे कहीं चली जाती हैं। जिंदगी की बुनियादी सोच ऐसी रहनी चाहिए कि जो बाजार में रोज आने वाले नए सामानों से अधिक खूबी रखने वाली हो।
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वामपंथी राज वाले केरल के कन्नूर विश्वविद्यालय में अभी एक नया बवाल चल रहा है कि वहां पर एमए, शासन एवं राजनीति, के पाठ्यक्रम में हिंदुत्व के बड़े-बड़े नामों की लिखी हुई किताबों को शामिल किया गया है। विनायक दामोदर सावरकर, एमएस गोलवलकर, और दीनदयाल उपाध्याय की किताबों को कोर्स में शामिल करने पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग उबल पड़े हैं, और उन्होंने इसे शिक्षा के भगवाकरण का एक काम बताया है। दूसरी तरफ विश्वविद्यालय के कुलपति का यह कहना है कि पोस्ट ग्रेजुएट छात्र-छात्राओं को सभी विचारधाराओं को पढऩे की जरूरत है ताकि वे बाकी विचारधाराओं के साथ तुलना करके एक आलोचनात्मक विश्लेषण कर सकें। कुलपति का कहना है कि पोस्ट ग्रेजुएट नौजवान छोटे बच्चे नहीं होते हैं कि वे किसी के लिखे हुए को पढक़र उससे सीधे प्रभावित हो जाएं बल्कि अलग-अलग विचारधाराओं को पढऩे के बाद विश्लेषण की उनकी क्षमता बढ़ती है। कन्नूर विश्वविद्यालय के कुलपति ने देश के दूसरे प्रमुख विश्वविद्यालयों का नाम भी गिनाये हैं जहां पर सावरकर और गोलवलकर का लिखा हुआ पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है।
दूसरी तरफ केरल के उच्च शिक्षा मंत्री ने पाठ्यक्रम में इस जोड़-घटाने को अति संवेदनशील मामला बतलाया है और कहा है कि विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में सांप्रदायिक सोच को जोडऩा एक खतरनाक काम है, अगर जरूरत रही तो पाठ्यक्रम से इन चीजों को हटाया जाएगा। इस मुद्दे को लेकर केरल, और केरल के बाहर के भी अलग-अलग तबकों का अलग-अलग कहना है। एक दिलचस्प फेसबुक पोस्ट कांग्रेस के सांसद और कांग्रेस के भूतपूर्व केंद्रीय मंत्री रहे हुए शशि थरूर की है। थरूर एक सुपरिचित लेखक भी हैं और वे केरल से निर्वाचित लोकसभा सदस्य भी हैं। उन्होंने लिखा है कि कुछ दोस्तों ने शैक्षणिक आजादी की हिमायत करते हुए मेरे कथन को खारिज किया है, मेरा यह मानना है कि हमें हर नजरिए को पढऩे की जरूरत रहती है, उस नजरिए को भी जिससे कि हम असहमत रहते हैं। अगर हम सावरकर और गोलवलकर को नहीं पढ़ेंगे तो किस आधार पर उनकी सोच का विरोध करेंगे? उन्होंने कहा कि कन्नूर विश्वविद्यालय तो गांधी और टैगोर को भी पढ़ाता है। थरूर का कहना है कि किसी समाज में दलगत राजनीति से कहीं अधिक महत्वपूर्ण बौद्धिक आजादी रहती है। उन्होंने लिखा कि यह सोचना बेवकूफी की बात होगी कि किसी की विचारधारा से अपरिचित रहने से उस विचारधारा को परास्त करने में मदद मिलेगी। उन्होंने लिखा-मैंने अपनी किताबों में सावरकर, गोलवलकर को काफी खुलासे से लिखा है, और उनका विरोध किया है।
हिंदुस्तान में उच्च शिक्षा ही नहीं प्राथमिक और बाकी स्कूल शिक्षा भी राजनीतिक और धार्मिक सोच से समय-समय पर प्रभावित होती रही हैं। जैसी राज्य सरकार रहती है वैसी सोच में किताबें ढल जाती हैं. पाठ्यक्रम को तय करने में किसी तरह की कोई आजादी नहीं रहती, न ही स्कूलों को, न विश्वविद्यालयों को। आज हरियाणा और गुजरात जैसे राज्यों में स्कूलों में कई किस्म की सांप्रदायिक बातें पढ़ाई जा रही हैं, जिन्हें लेकर लोगों की बड़ी आपत्ति है, लेकिन क्योंकि सरकार चलाने वाली पार्टी की सोच वैसी है, इसलिए वहां पर अब किताबें उस सोच को पढ़ा रही हैं। इस विवाद को हम कुछ दूर से बैठकर देख रहे हैं, अभी हमने कन्नूर विश्वविद्यालय के पूरे पाठ्यक्रम को नहीं देखा है कि वहां पर इनकी किताबें इनकी विचारधारा को बताने की हैं, या उस विचारधारा का प्रोपेगेंडा है? फिर भी है कि यही पैमाना गांधी या दूसरे धर्मनिरपेक्ष सोच रखने वाले लोगों पर भी लागू होगा कि उनकी किताबें या उनके लिखे हुए का कौन सा हिस्सा पढ़ाया जा रहा है? क्या वह हिस्सा उनकी विचारधारा से परिचय कराने वाला है, या इस परिचय से कहीं आगे बढक़र, कहीं अलग जाकर उनकी विचारधारा का प्रचार करने वाला है? यह बहुत नाजुक पक्की बात है, लेकिन यह बहुत महत्वपूर्ण बात भी है। केरल के इस विश्वविद्यालय का पाठ्यक्रम तय करने वाली कमेटी ने क्या सोचकर इन चीजों को पाठ्यक्रम में जोड़ा है, यह तो उसकी बैठकों की कार्रवाई में अगर दर्ज हुआ होगा तो उससे समझा जा सकता है, लेकिन हम इस बात को इतना आसान भी नहीं मान रहे हैं जितना इसे शशि थरूर कह रहे हैं। पहली बात तो यह है कि कौन सी विचारधारा कितनी महत्वपूर्ण है इसका मूल्यांकन करना भी पाठ्यक्रम कमेटी का काम होना चाहिए। अब अगर विचारधारा के नाम पर आसाराम या राम रहीम की विचारधारा को भी पढ़ाया जाए और कहा जाए कि जिसे खारिज करना है उसकी विचारधारा को पढऩा जरूरी है तो फिर अलग-अलग किस्मों से कई लोगों की विचारधाराओं को पढ़ाना चाहिए, जिसमें नक्सलियों की विचारधारा भी हो सकती है, जिसमें दूसरे किस्म के कई और अपराधियों की विचारधारा भी हो सकती है, हिटलर की विचारधारा भी हो सकती है, और फूलन देवी की विचारधारा भी हो सकती है। किस विचारधारा का कौन सा हिस्सा किस अनुपात में पढ़ाया जाए, उसे किस संदर्भ और परिप्रेक्ष्य में पढ़ाया जाए, उसके साथ किस हिसाब से एक तुलनात्मक विश्लेषण किया जाए, यह एक बहुत जटिल और नाजुक मामला है।
दूसरी बात यह कि पोस्ट ग्रेजुएट छात्र-छात्राओं को बहुत अधिक परिपच् को मान लेना भी ज्यादती होगी। इस देश में नौजवान पीढ़ी की परिपच्ता ऐसी बहुत अधिक दिख नहीं रही है। अगर नौजवान वोटर जो पहली बार या दूसरी बार वोट डाल रहे हैं, वे अगर इतने ही परिपच् रहते, इतने ही जिम्मेदार रहते, उनकी राजनीतिक समझ इतनी मजबूत हो चुकी रहती, तो देश-प्रदेश में कई जगह कई किस्म के लोग, और कई किस्म की पार्टियां भला कैसे जीत जाते? इसलिए पाठ्यक्रम को तय करने वाले लोगों की अपनी सोच और विश्वविद्यालय को चलाने वाली विद्या परिषद और कार्यपरिषद जैसे फोरम को भी अपनी सोच का इस्तेमाल करना चाहिए, और अभिव्यक्ति की, विचारों की सारी स्वतंत्रता के साथ-साथ एक बड़ी बात यह भी है कि नौजवानों के दिल-दिमाग में भारतीय संविधान के मूल तत्व, भारतीय लोकतंत्र की बुनियादी बातों को बैठाना जरूरी है, जो कि किसी भी दलगत राजनीति से परे की निर्विवाद बातें हैं। अगर देश की कोई सोच है इन बातों को कमजोर करने वाली है, इनके खिलाफ लोगों को सांप्रदायिक बनाती हैं, धर्मांध बनाती हैं, कट्टर बनाती हैं, वैज्ञानिकता से दूर ले जाती हैं, तो उन बातों का एक ऐसा विश्लेषण ही कोर्स में शामिल करना चाहिए जिससे उन बातों को महिमामंडित ना किया जाए, बल्कि उनकी उनका आलोचनात्मक विश्लेषण किया जाए। इस देश में कुछ किस्म की सोच ने लोकतंत्र की बुनियाद को हिलाकर रख दिया है और लोकतंत्र के साथ-साथ इस देश में लोकतंत्र के आने के पहले से जो धार्मिक सहिष्णुता चली आ रही थी, उसे भी हिलाकर रख दिया है। इसलिए वैचारिक उदारता के नाम पर, विचारधारा की विविधता के नाम पर, छात्र-छात्राओं के सामने एक जिम्मेदार विश्लेषण पेश होना चाहिए और किसी भी तरह से विध्वंसक विचारधारा को बढ़ावा देना इस देश के लिए ठीक नहीं होगा। वैसे भी यह देश सामाजिक समरसता की तबाही की कगार पर पहुंचा हुआ है, इसे और धक्का देने की गुंजाइश नहीं है।
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संयुक्त राष्ट्र संघ की एजेंसियों ने अभी दुनिया में खेती पर दी जाने वाली सरकारी सब्सिडी को लेकर एक रिपोर्ट जारी की है। यह रिपोर्ट इस मायने में दिलचस्प है कि इसका अंदाज कहता है कि 80 फीसदी से ज्यादा सरकारी अनुदान या तो फसल की कीमतों को प्रभावित करते हैं, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं, या दुनिया में किसानों के बीच गैर बराबरी को बढ़ाते हैं। यह अंदाज कम खतरनाक नहीं है क्योंकि वैसे भी दुनिया के गैर किसान लोगों के बीच में, टैक्स देने वाले संपन्न लोगों के बीच में, खेती पर दी जाने वाली सब्सिडी को लेकर हमेशा से एक नाराजगी चली आती है कि इस सब्सिडी की वजह से किसान मेहनत करने के बजाए बैठे हुए सरकारी मदद पा जाते हैं। लेकिन इस रिपोर्ट की एक बात यह भी है कि यह सब्सिडी को बंद करने के लिए नहीं कह रही है, यह रिपोर्ट कह रही है कि सब्सिडी किन लोगों को किस तरह से दी जा रही है, इसे सरकारों को दोबारा तय करना चाहिए।
आज मोटे तौर पर दुनिया में जगह-जगह किसानों को उनकी उपज अधिक दाम पर खरीदकर सरकारें सब्सिडी देती हैं या उन्हें खाद रियायती दर पर देती हैं, या उन्हें खेती के लिए कर्ज बाजार के भाव से कम ब्याज पर देती है. कई जगहों पर जिनमें हिंदुस्तान के छत्तीसगढ़ जैसे राज्य भी शामिल हैं वहां किसानों के खेती के कर्ज माफ कर दिए गए हैं, यह भी अलग-अलग राज्यों में कुछ जगहों पर कुछ मौकों पर हुआ है, और जाहिर है कि यह पूरा का पूरा खर्च सरकार के उसी खजाने से होता है जिससे विकास के दूसरे काम होते हैं, जिससे समाज के दूसरे तबकों को किसी तरह की सब्सिडी दी जाती है. तो यह पैसा कहीं अलग से नहीं आता है, किसान को किसी भी तरह से मिलने वाली सब्सिडी या कर्जमाफी सरकार की एक ही जेब से निकलती है, जिस जेब से दूसरे विकास काम होते हैं। तो यह बात ठीक है कि सरकारों को इस बारे में सोचना चाहिए कि उस सब्सिडी की वजह से समाज में कोई गैरबराबरी तो नहीं बढ़ रही है, एक दूसरी बात यह कि उस से पर्यावरण को कोई नुकसान तो नहीं पहुंच रहा है।
अब हम बातचीत की शुरुआत छत्तीसगढ़ में धान की खेती पर राज्य सरकार द्वारा दी जाने वाली सब्सिडी से करते हैं क्योंकि इस राज्य में धान की कीमत पूरे देश में सबसे अधिक दी जा रही है। जाहिर है कि इससे धान उगाने वाला यह इलाका और अधिक धान उगाने की तरफ बढ़ता है, और सरकार की और अधिक रकम इस अनुदान पर खर्च होती है। अब इस सब्सिडी को सरकार अलग-अलग न्याय योजना, या किसी और नाम से लोगों तक देती है, और मौजूदा कांग्रेस सरकार ने अपने घोषणापत्र में कर्ज माफी की बात कही थी और सरकार बनने के बाद पहले ही दिन कर्ज माफी का यह फैसला लिया था और कुछ दिनों में ही बैंकों तक किसानों के कर्ज का पैसा पहुंच गया था जिसके लिए राज्य सरकार ने हजारों करोड़ रुपए का कर्ज लिया था। ऐसी बात नहीं है कि छत्तीसगढ़ में पहले से इस बात पर चर्चा न हुई हो कि इस अनुदान की वजह से, अधिक दाम पर धान की खरीदी की वजह से, धान की वह फसल अधिक से अधिक उगाई जा रही है जो अधिक से अधिक पानी भी मांगती है। जबसे यह राज्य बना तबसे एक दूसरा मुद्दा जो चर्चा में था वह था फसल चक्र परिवर्तन का। इसमें यह कोशिश हो रही थी कि धान के बजाय कुछ दूसरी फसलों को कैसे लिया जा सकता है जिससे किसान को उसकी बुनियादी लागत तो थोड़ी सी अधिक लगेगी, मेहनत थोड़ी अधिक करनी पड़ेगी, कुछ नए बीज और नई तकनीक का इस्तेमाल करना पड़ेगा, लेकिन उसे फसल का धान के मुकाबले अधिक दाम मिलेगा। परंपरागत धान की फसल के साथ जुड़ी हुई किसान की सहूलियत ने उसे किसी दूसरी फसल की तरफ मुडक़र देखने नहीं दिया। और नमूने के तौर पर किसी एक जिले में किसी एक दूसरी फसल की बात को अगर छोड़ दें, तो मोटे तौर पर प्रदेश के तकरीबन तमाम किसान धान पर ही आश्रित हो गए हैं, और उसकी सरकारी खरीद के ही मोहताज हैं। अब इसका पर्यावरण पर असर यह पड़ रहा है कि खूब पानी लग रहा है और जो विविधता होनी चाहिए वह फसलों से खत्म होती चली गई है। फिर छत्तीसगढ़ सरकार ने किसानों के लिए 5 हॉर्स पॉवर तक के पंप के लिए मुफ्त बिजली देना तय किया था, जो कि जारी है, और ऐसे पंप तमाम भूजल खींचकर खेतों में डाल देते हैं, और छत्तीसगढ़ में जमीन के नीचे पानी का स्तर हर बरस गिरते चले जा रहा है। पूरी दुनिया में अब किसी भी नई फसल को लेकर पहली चर्चा यह होती है कि उसमें पानी कितना लगेगा। तो धान उगाने वाले इलाके हमेशा अधिक पानी की खपत करते हैं, और धान का अंधाधुंध रकबा बढ़ते चले जाना पर्यावरण पर एक दबाव भी डालता है। लेकिन यह हमने केवल छत्तीसगढ़ की, हमारे सामने की खड़ी हुई बातों का जिक्र किया है, अलग-अलग राज्यों में ऐसे अलग-अलग बहुत से मामले हैं जिन पर स्थानीय स्तर पर भी विचार होना चाहिए और राष्ट्रीय स्तर पर भी, जिस पर कोई नीति या कार्यक्रम बनना चाहिए।
लगे हाथों हम यहां पर एक दूसरी योजना की बात करना चाहते हैं जो भारत सरकार ने अभी-अभी घोषित की है। स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री ने भारत में पाम ऑयल की खेती बढ़ाने के लिए एक बहुत बड़ी योजना की घोषणा की है जिसके तहत उत्तर-पूर्व के राज्यों और अंडमान जैसे राज्य में दूसरी खेती की बजाए, दूसरे पेड़ों के जंगल के बजाय, पाम ऑयल के बीज वाले पेड़ लगाने के लिए बहुत बड़ा अनुदान देना तय किया है, जिसके तहत शुरू के कुछ सालों में किसानों की आर्थिक मदद भी की जाएगी, जब तक उसकी फसल ना आने लगे, और किसानों को उसके लिए एक न्यूनतम समर्थन मूल्य देना भी तय किया गया है ताकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में उतार-चढ़ाव होने से भारत के जो किसान पाम ऑयल की खेती करेंगे वह एकदम से नुकसान में ना चले जाएं। इसके कई मायने हैं, एक तो यह यह सब्सिडी क्या भारत में तेल के दूसरे बीज उगाने वाले परंपरागत किसानों को भी हासिल है, या एक विदेशी फसल को हिंदुस्तान में बढ़ावा देने की सरकार की इस योजना के लिए केवल पाम ऑयल के पेड़ लगाने वाले लोगों को ही इसका फायदा मिलेगा? एक दूसरा मामला यह है कि परंपरागत दूसरे तेल बीज की फसल के लिए चल रहे उद्योगों का क्या हाल होगा? ऐसे बहुत से मुद्दे हैं लेकिन इसके साथ-साथ एक मुद्दा यह भी जुड़ा हुआ है कि भारी सरकारी अनुदान के साथ शुरू होने वाली इस फसल में बहुत सारा पानी भी लगेगा जो कि पर्यावरण को प्रभावित करेगा, और एक बड़ी बात यह है कि बड़े पैमाने पर पाम ऑयल के पौधे लगाए जाने पर जैव विविधता खत्म होगी जिससे जंगलों और खेतों दोनों का एक बहुत बड़ा नुकसान हो सकता है। पेड़ों के साथ-साथ बहुत से पशु-पक्षियों और कीट-पतंगों की जिंदगी भी जुड़ी रहती है, वह किस तरह से नुकसान झेलेगी इसका भी कोई अंदाजा नहीं है। लेकिन यह बात सबको समझ आ रही है कि सरकार की यह अतिमहत्वाकांक्षी योजना पर्यावरण के लिए, अर्थव्यवस्था के लिए, कई किस्म की दिक्कतें खड़ी कर सकती है, और किसी एक खास फसल के लिए केंद्र सरकार की इतनी बड़ी अनुदान योजना क्या देश की बाकी मौजूदा फसलों के साथ एक संतुलन नहीं बिगाड़ेगी? ऐसे कई सवाल हैं।
हम विचारों के इस कॉलम में आज उन पर बहुत विस्तार से टिप्पणी नहीं कर सकते क्योंकि वह तकनीकी जानकारी के साथ और उनके विश्लेषण के साथ लिखे जाने वाले लंबे लेख के लायक मुद्दे हैं। लेकिन हम छत्तीसगढ़ में धान की जरूरत से अधिक फसल से लेकर उत्तर पूर्व में दूसरी फसलों और दूसरे पेड़ों के जंगलों की जगह लगाए जाने वाले पाम ऑयल के पेड़ों तक बहुत से मुद्दों के बारे में चर्चा करना चाहते हैं कि सरकारी अनुदान पर आधारित खेती के साथ पर्यावरण के जो मुद्दे जुड़े हुए हैं उन पर जरूर ध्यान देना चाहिए, जैव विविधता से जुड़े हुए जो मुद्दे हैं उनके बारे में भी सोचना चाहिए क्योंकि सरकारी अनुदान लोगों को उसका फायदा लेने उसका फायदा पाने की हकदार फसलों की तरफ बढ़ाता है और उस पर फिर सरकार का भी काबू नहीं रह जाता। सरकारें क्योंकि निर्वाचित रहती हैं इसलिए वे अनुदान को चुनावी फायदे से जोडक़र भी चलती हैं, इसलिए एक बार जब ऐसे अनुदान शुरू हो जाते हैं तो उनका खत्म होना मुश्किल या नामुमकिन हो जाता है। हम किसी भी अनुदान को बंद करने की सिफारिश नहीं कर रहे हैं लेकिन किसी भी अनुदान को शुरू करने के पहले केंद्र या राज्य सरकार को उस अनुदान के शुरू होने के बाद होने वाले पर्यावरण के फेरबदल के बारे में अध्ययन करने के लिए हम जरूर कह रहे हैं। यह जनता का पैसा है इसे जिन लोगों को मदद के लिए देना जरूरी लग रहा है उन्हें देना सरकार का हक है, लेकिन यह धरती का नुकसान करने की कीमत पर नहीं होना चाहिए। पर्यावरण का जो नुकसान सरकारों की नीतियां करती हैं उनमें धरती, पेड़, पानी, जंगल, जानवर, इनकी कोई आवाज इसलिए नहीं सुनी जाती कि इनके हाथ में कोई वोट नहीं होता है। लेकिन आने वाली पीढिय़ों को बहुत बुरी तरह नफा या नुकसान पहुंचाने वाली आज की चुनावी नीतियों के बारे में सरकारों को गंभीरता से सोचना चाहिए। सरकारें शायद कोई कड़वे फैसले ले नहीं सकतीं और लुभावने फैसले लेने के लिए बेताब रहती हैं, इसलिए पर्यावरण के जानकार लोगों को, समाज के जागरूक लोगों को, इन मुद्दों को लगातार उठाना चाहिए और लोगों के सामने रखना चाहिए कि चुनावी घोषणा पत्र के लोकप्रिय मुद्दे या कि लाल किले से की गई घोषणाएं इन 5 वर्षों के बाद अगले सौ-पचास बरस तक इस धरती के पर्यावरण को कैसे प्रभावित करेंगी।
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आज के दिन हिंदी दिवस मनाया जाता है। लोग इस भाषा के बारे में कई तरह की बातें लिखते हैं और सालाना श्रद्धांजलि के अंदाज में इस भाषा के महत्व को याद किया जाता है। ऐसे मौकों पर बहुत से लोग भावुक होने लगते हैं और राष्ट्रभाषा की उपेक्षा गिनाते हुए वे हिंदी सेवा की जरूरत पर बोलने और लिखने लगते हैं। हिंदी सेवा, हिंदी सेवक जैसे शब्द पूरे वक्त कहीं न कहीं हवा में तैरते रहते हैं। बहुत से लोग इसी नाम से बनाए गए संगठनों की कुर्सियों पर काबिज रहते हैं, कुछ लोग इसे एक पूर्णकालिक पेशे की तरह भी बना लेते हैं और वे हिंदी सेवक का दर्जा पाकर एक किस्म की शहादत की कोशिश में लग जाते हैं। यह माहौल कुछ उसी तरह का लगता है जैसे घूरों पर पलती गायों के देश में लोग पूर्णकालिक गौसेवक हो जाते हैं। गाय को सिर्फ पॉलिथीन वाला घूरा नसीब होता है और गौसेवक गाय के हिस्से की रोटी खाने लगते हैं।
हिंदी भाषा की सेवा बड़ा मजेदार शब्द है। हिंदी को कम पढऩे वाले कोई विदेशी अगर सुनेंगे तो वे हिंदी को मां समझेंगे और उन्हें लगेगा कि ऐसे सेवक मां के पैर दबाने में लगे रहते हैं। हम अपनी साधारण समझ से जब यह सोचते हैं कि इस बड़े देश में सबसे बड़ा हिस्सा जब हिंदी बोलने वालों का है, तो फिर हिंदी इस्तेमाल करने वालों का बुरा हाल क्यों है? कुछ लोग इस बात को मुगल राज तक ले जाएंगे जब भारत में उर्दू का प्रचलन शुरू हुआ और सरकारी कामकाज उसमें होने लगा। फिर अगर देखें तो ईस्ट इंडिया कंपनी आई और देश का सरकारी काम, अदालती काम उर्दू के साथ-साथ अंग्रेजी में भी होने लगा। फिर जब भारत के आजाद होने का वक्त आया, देश के संविधान को बनाने की बात आई, तो दुनिया के बहुत से संविधानों की मिसालें अंग्रेजी में थीं, और भारत का उस वक्त का सत्ता का तबका अंग्रेजी जानने-समझने वाला था, तो कानून अंग्रेजी में बना। सरकार का कामकाज भी आजादी के बाद अंग्रेजी में शुरू हुआ, इसलिए देश के बीच के एक बड़े हिस्से को छोडक़र बाकी राज्यों में हिंदी बोलचाल की भाषा भी नहीं थी, बोली भी नहीं थी।
भारत के नक्शे को अगर देखें तो दिल्ली से शुरू होकर हरियाणा, हिमाचल, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान इतने राज्य ही अपने थोड़े या अधिक हिस्से में हिंदी बोलने वाले थे, बाकी के तमाम राज्य हिंदी से परे की दूसरी जुबानों वाले थे। और जिन राज्यों को यहां हम गिना रहे हैं, इनके भीतर भी क्षेत्रीय बोलियां बहुत ताकतवर थीं, जैसे छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढ़ी, और दो-तीन और बोलियां, ऐसा हाल हिंदी भाषी इन प्रदेशों का भी था। जैसे भोजपुरी में, राजस्थानी में, हरियाणवी और गढ़वाली में कितने ही किस्म की फिल्में बनती हैं, संगीत रिकॉर्ड होता है, साहित्य लिखा जाता है, लोकगीत चले आ रहे हैं। इनकी लिपि देवनागरी होने से इनको हिंदी भाषी मान लिया गया और वह गिनती हकीकत से थोड़ी दूर रही।
लेकिन यह भी बहुत बड़ा मुद्दा नहीं था, और हिंदी से सत्ताहीन तबके, कमजोर तबके, उद्योग-बाजार और आयात-निर्यात से परे के तबके, तकनीकी शिक्षा और उच्च शिक्षा से परे के तबके अपना काम चलाते रहे और कमजोर बने भी रहे। चूंकि कामयाबी का एक रिश्ता अंग्रेजी से एक सदी से अधिक से बना हुआ था, इसलिए वह चलते रहा, और देश के बाहर हिंदुस्तान का अधिकतर लेना-देना अंग्रेजी भाषी देशों से था इसलिए भी वह चलते रहा। जो लोग अंग्रेजी नहीं जानते-समझते थे, और जिनके लिए हिंदी में ऊंची पढ़ाई करना मुश्किल था, बाहरी दुनिया से संपर्क मुश्किल था, कम्प्यूटर से लेकर टेक्नोलॉजी तक का काम मुश्किल था, वे पीछे रहते चले गए। और जिस तरह पीछे रह गई एक पीढ़ी की अगली पीढ़ी के पीछे रहने का खतरा अधिक रहता है, उसी तरह का हाल हिंदी बोलने वालों का हुआ। दूसरी तरफ हिंदी को एक भावनात्मक मुद्दा मानने वाले लोग उसकी सेवा के नाम पर अंग्रेजी के विरोध को आक्रामक तरीके से बढ़ाते रहे, और हिंदी इलाकों में एक के बाद दूसरी पीढ़ी अंग्रेजी की जानकारी के बिना, अंग्रेजी में काम करने वाले राज्यों के लोगों से पीछे रहती चली गईं।
भाषा को लेकर आज इस जगह इस चर्चा में अपने विचार लिखने के लिए हमारे पास दो छोटी-छोटी बातें हैं। एक तो यह कि हिंदुस्तान में जो लोग हिंदी को राष्ट्रभाषा मानते हैं उनको यह भी समझना होगा कि जिस शुद्ध हिंदी को वे राष्ट्रभाषा करार देना चाहते हैं, वह हिंदी यहां की राष्ट्रभाषा नहीं रही, नहीं है, और नहीं रहेगी। मुगलों की उर्दू और अंग्रेजों की अंग्रेजी आने के पहले भी हिंदुस्तान के आज के कुछ हद तक के हिंदी भाषी राज्यों में स्थानीय और क्षेत्रीय बोलियों की इतनी जबर्दस्त पकड़ थी, और आज भी है कि आज की खड़ी बोली जैसी हिंदी, शुद्ध कही जाने वाली हिंदी, मोटे तौर पर बहुत सीमित थी। जिस तरह हिंदी को अलग, और हिंदुस्तानी को अलग मान लिया जाता है, उससे हिंदी का बहुत बड़ा नुकसान हुआ। आज की हिंदी के साथ उर्दू, अंग्रेजी, और हिंदुस्तान की दर्जनों दूसरी भाषाओं और बोलियों ने मिलकर जो हिंदुस्तानी जुबान बनाई है, उसमें से फेंटकर सिर्फ खालिस हिंदी को जब अलग कर लिया जाता है, और उसे एक सेवा की तरह की भावना से जोड़ दिया जाता है तो वह बाकी हिंदुस्तानियों के काम की नहीं रह जाती। जिस तरह किसी मिली-जुली हिंदू-मुस्लिम समाधि या दरगाह पर जब इनमें से किसी एक ही धर्म के रीति-रिवाज, उसी धर्म के रंगों को लेकर हावी हो जाते हैं, तो दूसरे धर्म वहां से हटना बेहतर समझते हैं। इसी तरह का हाल हिंदी का हुआ, और हिंदी इलाकों को यह ठीक से पढऩे-समझने भी नहीं मिला कि गैरहिंदी राज्यों में, खासकर दक्षिण के राज्यों में हिंदी किस हद तक बेकाम की जुबान है। उसका न कोई अस्तित्व है, न उसकी वहां कोई जरूरत है। वहां हिंदी जानने, समझने और बोलने वाले लोग ऐसे कामगार हैं जिनका कि भारत के हिंदी भाषी राज्यों से कामकाज का वास्ता पड़ता है। इससे परे वे अपनी क्षेत्रीय भाषा में खुश हैं और आगे बढऩे की संभावनाएं देने वाली अंगे्रजी जुबान के साथ खुश हैं।
हिंदुस्तानी से अपने-आपको अलग करने के फेर में शुद्धतावादी हिंदी ने अपने दायरे को बहुत सीमित कर लिया। वरना एक वक्त था जब प्रेमचंद जैसे लेखक उर्दू को भी समझते थे, उर्दू में भी लिखते थे, और जब वे हिंदी लिखते थे, तो वह गरिष्ठतावादी, शुद्धतावादी हिंदी से परे की हिंदुस्तानी जुबान होती थी, यही वजह है कि वह आसानी से लोगों के समझ आती थी, और आज पौन सदी बाद भी वह आज के बहुत से हिंदी लेखन के मुकाबले समझने में अधिक आसान है। हिंदी की सेवा या शुद्धता के नाम पर जो लोग लगे रहते हैं, उन्हीं से इस भाषा की संभावनाओं को नुकसान हुआ। किसी भाषा का असरदार होना, उसकी संवाद-क्षमता का अधिक होना जरूरी होता है, न कि उसका शुद्ध होना। हिंदी को जब लगातार शुद्ध बनाए रखने की ऐसी कोशिशें हुईं कि वह अधिक से अधिक लोगों की समझ से परे होती चली गई, तो वह अपना असर और खोती चली गई, क्योंकि वह कम लोगों के इस्तेमाल की रह गई। हिंदी के साथ एक दिक्कत और यह हो गई है कि अंग्रेजी से नापसंदगी के चलते हिंदी के जो लोग अंग्रेजी से परहेज करने लगे, उनका ज्ञान-संसार भी सीमित रहने लगा, और ज्ञान के विकल्प की तरह उन्होंने भावनाओं और विशेषणों का इस्तेमाल अधिक किया।
भाषा इस्तेमाल के लिए होती है, उसका मकसद किसी से अपने पैर दबवाना नहीं है, उसका मकसद किसी एक की बात को दूसरे तक पहुंचाना है। भाषा एक औजार की तरह है जो अगर अच्छी तरह अपना काम करे, हुनरमंद कारीगर के काम में उससे मदद मिले, तो ही उस औजार की इज्जत है। जिस घन से अच्छा वार हो सके, वह लोहे का भी अच्छा। और जिसके वार से चोट न पहुंचे, वह सोने का घन भी किसी काम का नहीं। इसलिए भाषा को बांहें फैलाकर दूसरी भाषाओं और बोलियों से मिलकर चलना चाहिए, उन्हें गले मिलाकर चलना चाहिए। भाषा से बिल्कुल परे की एक मिसाल हम यहां देना चाहेंगे जो कि हमें अपने किस्म की बेमिसाल बात लगती है। सिखों के सबसे महान ग्रंथ गुरूग्रंथ साहिब को देखें तो गुरूनानक देव ने उस वक्त के मुस्लिम, हिंदू, दलित, सभी तबकों के संतों की बातों को सिखों के इस ग्रंथ में उनके नाम सहित जोड़ा। गुरूनानक चाहते तो उन्हें सिर्फ अपनी बातों से ही यह ग्रंथ पूरा कर देने से कौन रोक सकता था? दुनिया के अधिकांश धार्मिक गं्रथ सिर्फ अपनी ही बातों के होते हैं। लेकिन धर्मों की ऐसी दुनिया में जब गुरूनानक देव ने बेझिझक दूसरे धर्मों को इतना महत्व दिया, तो उनकी उस दरियादिली से भी यह ग्रंथ इतना महत्वपूर्ण बन पाया। इसी तरह का हाल जुबान के मामले में अंग्रेजी का रहा, जिसने दुनिया की दर्जन भाषाओं से सैकड़ों शब्दों को हर बरस अपने में शामिल करने का सिलसिला चला रखा है और अंग्रेजी के शब्दकोषों में ऐसी लिस्ट हर साल जुड़ती भी है।
विचार के इस कॉलम में इस बड़े मुद्दे पर पूरा लिखना मुमकिन नहीं है इसलिए हम आधी-अधूरी बात को ही यहां छोड़ रहे हैं, यहां उठाए गए कुछ पहलुओं पर कुछ सोच-विचार की उम्मीद के साथ।
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भारत के ठीक पड़ोस का एक देश श्रीलंका इन दिनों आर्थिक इमरजेंसी से गुजर रहा है। देश की हालत यह हो गई है कि लोग दाने-दाने को मोहताज हो रहे हैं, दुकानों में सामान खाली हो चुका है, लोग खाली झोले लिए हुए दुकानों के सामने लंबी कतारों में हैं, सामानों के दाम आसमान पर पहुंच रहे हैं. जो सामान आयात किया जाता है उसके कारोबारी भी बुरी दिक्कतें झेल रहे हैं क्योंकि श्रीलंका के रुपए का दाम डॉलर के मुकाबले 200 तक पहुंच गया है, और सरकार ने चीजों के आयात या विदेशी मुद्रा के इस्तेमाल पर कई तरह की बहुत ही कड़ी रोक लगा दी है। देश में हालत कितनी खराब है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वहां की फौज के एक मेजर जनरल को खाने-पीने के सामानों के इंतजाम में लगाया गया है कि वह व्यापारियों की जमाखोरी पर नजर रखे जहां नियमों के खिलाफ सामान इक_े किए गए हैं उन्हें जप्त करे, और सरकारी ढांचे के तहत उन्हें उचित दामों पर ग्राहकों को बेचने का इंतजाम करें। श्रीलंका की सेना अब इस काम को देख रही है। लेकिन यह देखना बहुत दिलचस्प होगा कि श्रीलंका की इस नौबत के लिए कौन सी बातें जिम्मेदार हैं?
इस सिलसिले की शुरुआत कुछ जानकार लोगों के मुताबिक अप्रैल के महीने से होती है जब वहां के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने यह फैसला लिया कि पूरे देश में रासायनिक खाद का इस्तेमाल पूरी तरह बंद किया जा रहा है। क्योंकि रासायनिक खाद पूरे का पूरा आयात होता था, इसलिए यह सरकार के हाथ में था कि खाद का आयात, और इस्तेमाल पूरी तरह बंद कर दिया जाए और देश को पूरी तरह जैविक खाद की तरफ ले जाया जाए। खबरें बताती हैं कि राष्ट्रपति राजपक्षे ने संयुक्त राष्ट्र में भाषण देते हुए अपने इस फैसले को ऐतिहासिक फैसला बताया था और दुनिया के भविष्य को बदलने वाला भी। राजपक्षे ने दुनिया के दूसरे देशों को भी यह नसीहत दी थी कि वे भी पूरी तरह रासायनिक खाद को बंद करके पूरी तरह जैविक खाद की तरफ जाएं। अब दिक्कत ये हुई है कि श्रीलंका की खेती जिसमें कई किस्म की फसल देशों से निर्यात होती थी, उनमें चाय पत्ती की फसल इस बार आधी ही रह जाने की आशंका चाय उगाने वाले संगठनों को है. कुछ ऐसा ही किसान संगठनों का मानना है कि देश में चावल की उपज इस साल आधी रह जाएगी। राष्ट्रपति के इस अतिमहत्वाकांक्षी या उन्मादी किस्म के फैसले का नतीजा यह निकला है कि देश में जैविक खाद का उत्पादन तो रातों-रात नहीं बढ़ पाया, लेकिन रासायनिक खाद आना बंद हो गया। श्रीलंका के बाहर के भी बहुत से कृषि वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इस किस्म का फैसला एक रसायन-विरोधी सोच या पसंद को बताने वाला तो हो सकता है, लेकिन इसका व्यावहारिकता से कोई लेना-देना नहीं है। वैज्ञानिक मानते, और जानते हैं कि दुनिया के किसी देश ने इस तरह रातों-रात रासायनिक खाद को छोडऩे में कामयाबी नहीं पाई, और न ही कोई देश पूरी तरह से जैविक खाद पर जा पाया है। यूरोप के जो सबसे संपन्न देश हैं, जिनकी अर्थव्यवस्था सबसे मजबूत है, वे देश भी पूरी तरह जैविक खाद पर नहीं जा पाए हैं।
दुनिया के वैज्ञानिक और अर्थशास्त्रियों का यह अंदाज है कि श्रीलंका के राष्ट्रपति का यह सनकी, मनमाना, और बिना किसी वैज्ञानिक आधार के लिया गया यह फैसला देश को तबाह करने जा रहा है, क्योंकि इसके पीछे न किसानी की समझ है, न अर्थशास्त्र की समझ है। यह केवल एक ऐसे शासक के तानाशाह दिमाग से निकला हुआ फैसला है, जो यह सोचता है कि वह कुछ भी कर सकता है। क्योंकि श्रीलंका की सरकार पूरी तरह से राजपक्षे कुनबे तले दबी हुई है, इसलिए कुनबे से भरा हुआ मंत्रिमंडल राष्ट्रपति के साथ है, और कोई वहां पर विरोध कर नहीं पा रहा है। राजपक्षे के छोटे भाई महिंदा राजपक्षे प्रधानमंत्री हैं, तीन और मंत्री घर के हैं. कहने के लिए तो देश में आज सिर्फ आर्थिक आपातकाल लगाया गया है लेकिन वहां के कानून के जानकार लोगों का कहना है कि यह पूरी तरह से पूरा-आपातकाल ही है, और इसमें नागरिकों पर वे सारे प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं, जो इसके पहले के आपातकाल में लगाए गए हैं। इसका मतलब यह है कि लोग वहां सरकार की किसी बात का विरोध नहीं कर पाएंगे, सरकार उन्हें बिना लंबी सुनवाई जेलों में बंद रख सकेगी, और देश की फसल गिरने की जो खतरनाक नौबत वहां आई हुई है, उसे छुपाए रखने के लिए, दबाए रखने के लिए मीडिया और आम लोगों को कुचला भी जा सकता है। श्रीलंका जो कि अभी कुछ अरसा पहले तक इस इलाके की एक अच्छी अर्थव्यवस्था माना जाता था, उसने अपने शासन प्रमुख के इस एक मनमाने फैसले के चलते दम तोड़ दिया है, और लोगों को खाने-पीने तक के सामान नसीब नहीं हो रहे हैं। यह किसी भी देश के लिए एक भयानक नौबत है कि वहां की सेना राशन का इंतजाम देख रही है।
जब कोई देश इस किस्म की भयानक हालत का शिकार रहता है, तो वह अंतरराष्ट्रीय शिकारियों के लिए एक शिकार भी बन जाता है। भारत के बहुत से लोग पिछले वर्षों की श्रीलंका की चीन नीति देखते हुए कुछ परेशान भी चल रहे थे कि श्रीलंका धीरे-धीरे चीन पर अधिक से अधिक निर्भर होते चल रहा है। अब आज हालत यह है कि श्रीलंका के इस आर्थिक आपातकाल के पहले के एक साल में चीन ने उसे बहुत बड़ा कर्ज दिया हुआ है। श्रीलंका की कोरोना की पहली लहर से जूझने की कई जगहों पर तारीफ हो रही है और इसके साथ ही यह याद रखना जरूरी है कि श्रीलंका को चीन से कोरोना की वैक्सीन मिली, भारत से नहीं मिली। श्रीलंका को चीन से कर्ज मिला, भारत से नहीं मिला। भारत के पिछले कर्ज की वापिसी के लिए श्रीलंका ने कुछ और समय मांगा है, उस पर भी भारत ने अब तक कोई फैसला नहीं लिया है। इसलिए आज चीन आज श्रीलंका के आड़े वक्त पर उसके साथ में खड़ा हुआ देश है, और भारत को यह सोचना चाहिए कि एक तरफ पाकिस्तान, कुछ दूरी पर अफगानिस्तान, और इधर श्रीलंका, क्या यह सब मिलकर भारत की एक चीनी घेराबंदी नहीं बन रहे हैं? दूसरी तरफ आज श्रीलंका जैसी मुसीबत से गुजर रहा है और उसे मदद की जितनी जरूरत है, उसमें हिंदुस्तान को अपनी विदेश नीति के तहत श्रीलंका के किस हद तक काम आना है, इसे तय किया जाना चाहिए। अगर सरकार यह तय करती है कि उसे कुछ भी नहीं करना है, तो यह एक फैसले के तहत होना चाहिए, न की कोई फैसला न लेने से ऐसी नौबत आनी चाहिए।
श्रीलंका दुनिया के तमाम देशों के लिए मनमाने आत्मघाती तानाशाह फैसले का शिकार एक देश बनकर बुरी हालत में सामने खड़ा है, देखें आगे से कौन-कौन से देश और कौन-कौन से शासन प्रमुख क्या-क्या सबक लेते हैं। श्रीलंका की नौबत से दुनिया के दूसरे देशों को चाहे जो सबक लेना हो वे लेते रहें, और शायद यह सबक सबको लेना चाहिए कि कोई शासन प्रमुख अपने बेबुनियाद और मनमाने फैसलों से देश को किस तरह गड्ढे में डाल सकते हैं, और किस तरह लोकतांत्रिक देशों को ऐसे फैसलों, और ऐसे शासकों से बचना चाहिए। श्रीलंका की भुखमरी की नौबत की तरफ जाने के खतरे को देखते हुए भारत सहित दूसरे देशों को मनमाने सरकारी फैसलों के बारे में दोबारा सोचना चाहिए। यह सोचना चाहिए कि वैज्ञानिकों और अर्थशास्त्रियों के हिस्से का काम मामूली पढ़े-लिखे नेताओं को नहीं करना चाहिए।
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ऑस्ट्रेलिया में अभी वहां की सबसे बड़ी अदालत ने एक फैसला दिया है जिसमें उसने मीडिया कंपनियों को सोशल मीडिया पर उनकी पोस्ट के नीचे लोगों के किए गए कमेंट के लिए भी जिम्मेदार माना है. मानहानि के एक मामले में निचली अदालत से चलते हुए यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा था, और मीडिया कंपनियों का यह कहना था कि ये टिप्पणियां सोशल मीडिया पर दूसरे लोग करते हैं जिसके लिए उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन अदालत ने यह माना है कि जब मीडिया कंपनियां अपने समाचार या दूसरी सामग्री सोशल मीडिया पर पोस्ट करती हैं, तो उसका मतलब यही होता है कि वह लोगों को वहां पर टिप्पणी करने के लिए आमंत्रित कर रही हैं, या उनका उत्साह बढ़ा रही हैं। इसलिए उनकी टिप्पणियां मीडिया कंपनियों की जिम्मेदारी रहती है। मीडिया और सोशल मीडिया के संगम को लेकर यह एक दिलचस्प फैसला है और दिलचस्प इसलिए भी है कि ऑस्ट्रेलिया एक परिपच् लोकतांत्रिक देश है, और वहां की अदालत का यह फैसला मिसाल के तौर पर दुनिया के दूसरे कई देशों में भी इस्तेमाल किया जा सकेगा जहां की अदालतों के सामने मीडिया कंपनियों के लिए यह एक चुनौती रहेगी कि वे ऐसे तर्क को खारिज करने के लिए कोई दूसरे तर्क दें। फिलहाल ऑस्ट्रेलिया के सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया कंपनियों के इस तर्क को पूरी तरह से खारिज कर दिया है, और इस पर अंतिम फैसला दे दिया है कि एक सार्वजनिक फेसबुक पेज बनाने और उस पर समाचार सामग्री साझा करने से मीडिया कंपनियां प्रकाशक हो जाती हैं, क्योंकि उन्होंने पाठकों को टिप्पणियां करने के लिए मंच उपलब्ध कराया, और उन्हें टिप्पणियां करने के लिए प्रोत्साहित किया।
अब हिंदुस्तान में इससे मिलती-जुलती नौबत के बारे में अगर देखें तो सोशल मीडिया और इंटरनेट के आने के पहले से अखबारों में पाठकों के पत्र नाम का एक कॉलम बड़ा लोकप्रिय हुआ करता था और अखबार अपने पाठकों का उत्साह बढ़ाते थे कि वे चि_ियां लिखें, और उनमें से चुनिंदा चि_ियां प्रकाशित की जाती थीं। धीरे-धीरे जब लोगों में कानूनी जागरूकता बढ़ी और कुछ मामले मुकदमे होने लगे तो अखबार उसके नीचे यह लाइन लिखने लगे कि पाठकों की राय से संपादक की सहमति अनिवार्य नहीं है। हालांकि उस बात का कोई कानूनी वजन नहीं था, क्योंकि विचार से सहमति हो या असहमति, जब अखबार में छपा है तो उसे तो उसके छपने का फैसला तो संपादक ने ही लिया है. पाठकों के विचारों से संपादक असहमत हो सकते हैं, लेकिन जब छपा है तो संपादक की सहमति छपने में तो थी ही। किसी मामले-मुकदमे में ऐसी नौबत आई या नहीं, ऐसा तो अभी याद नहीं पड़ता है, लेकिन हाल के वर्षों में हिंदुस्तानी मीडिया में एक चलन और बढ़ गया है। अखबारों में या पत्रिकाओं में, या फिर इंटरनेट पर वेब साइटों में भी, लोगों के लिखे गए लेख के नीचे छापा या पोस्ट किया जाता है कि यह लेखक की निजी राय है। यह लाइन अपने आपमें बड़ी हास्यास्पद इसलिए है कि लेखक की अगर निजी राय नहीं होती और वह किसी और की राय को लिखते, तो जाहिर है कि उसे दूसरे के नाम के साथ लिखते। यह फिर अखबार या दूसरे किस्म का मीडिया अपनी जिम्मेदारी से कतराने की कोशिश करते हुए दिख रहा है ताकि किसी कानूनी बखेड़े के खड़े होने पर यह कहा जा सके कि हमने तो पहले ही लिख दिया था कि यह विचार लेखक के अपने हैं। लेखक का तो जो होना है वो होगा, लेकिन मीडिया के प्रकाशक अपनी जिम्मेदारी से कहीं बरी नहीं हो सकते।
ऑस्ट्रेलिया के इस मामले को लेकर यह समझने की जरूरत है कि सोशल मीडिया या वेबसाइटों पर किसी मीडिया कंपनी की सामग्री के नीचे लोग जब अपनी प्रतिक्रिया लिखते हैं, तो उस पेज के प्रबंधक को यह अधिकार रहता है कि वे अवांछित या नाजायज टिप्पणियों को हटा सकें। जो कंपनियां कुछ पोस्ट करती हैं, उन कंपनियों पर यह जिम्मेदारी सही है कि अगर वहां मानहानि या भडक़ाने की बातें लिखी जा रही हैं, तो उन्हें हटाना भी इन कंपनियों की जिम्मेदारी है, और वे अगर इसे नहीं हटाती हैं तो इसे उनकी सहमति या अनुमति माना जाना चाहिए। सोशल मीडिया का तो कहना मुश्किल होगा लेकिन बहुत सी वेबसाइटों पर लोगों की लिखी गई टिप्पणियां तुरंत ही पोस्ट नहीं हो जाती उन्हें वेबसाइट संचालक या उसके मालिक जब देख लेते हैं, और उससे सहमत रहते हैं तभी वे पोस्ट होती हैं।
ऑस्ट्रेलिया के सुप्रीम कोर्ट का फैसला चाहे हिंदुस्तान पर लागू न होता हो लेकिन आगे-पीछे क्योंकि इंटरनेट और सोशल मीडिया की विश्वव्यापी मौजूदगी है, इसलिए दुनिया की अदालतों में एक दूसरे की मिसालें दी जाती रहेंगी। इसलिए इस बात से हम सहमत हैं कि पेशेवर मीडिया कंपनियों की पोस्ट की हुई सोशल मीडिया सामग्री पर जो टिप्पणियां होती हैं उनकी जिम्मेदारी से वे कंपनियां बरी नहीं हो सकतीं। कुछ ऐसा ही मामला राजनीतिक दलों के सोशल मीडिया पेज पर भी होना चाहिए जिन पर लोग हिंदुस्तान में तो तरह-तरह की धमकियां देते हैं, और चरित्र हनन करते हुए लांछन लगाते हैं. ऐसे लोगों की लिखी गई बातों को अनदेखा करने के लिए इन राजनीतिक दलों को जिम्मेदार ठहराना चाहिए जिनके वेबपेज हैं। या तो वे ऐसी तरकीब निकालें कि उन पर पोस्ट होने के पहले उसे देख लें, या उसे पोस्ट होने के बाद हटाने के लिए एक नियमित इंतजाम करके रखें। मीडिया कंपनियों और राजनीतिक दलों को ऐसी रियायत नहीं दी जा सकती कि वे किसी मकान के मालिक की तरह दीवार बनाकर भीतर रहे लेकिन बाहर दीवार पर अगर कोई गालियां लिख जाए तो वे उसके लिए जिम्मेदार करार नहीं दिए जाएं। कारोबारी कंपनियों और पेशेवर राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी आम लोगों के मुकाबले अधिक होनी चाहिए क्योंकि वे अपने धंधे के नफे के लिए ऐसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करते हैं।
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अमेरिका में 20 बरस पहले दुनिया के इतिहास का सबसे बड़ा आतंकी हमला हुआ था, और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की दो इमारतों को ओसामा बिन लादेन के विमानों ने जाकर ध्वस्त कर दिया था, जिसमें 3000 से अधिक लोग मारे गए थे, तब से लेकर अब तक इन 20 वर्षों में अमेरिका ने अफगानिस्तान, इराक के कई जगहों पर आतंक को खत्म करने के नाम पर लाखों लोगों को मारा लेकिन आतंकी हमले खत्म नहीं हुए। दुनिया के अलग-अलग बहुत से इलाकों में आतंकियों ने अमरीकियों पर हमले किए, कहीं उन होटलों को बम का निशाना बनाया जहां पर अमेरिकी ठहरे हुए थे, तो कहीं ऐसे नाइट क्लब में धमाका किया जहां दर्जनों अमेरिकी मारे गए। लेकिन दुनिया का हिंसा का हर बड़ा मामला आतंकवाद से जुड़ा हुआ हो यह भी जरूरी नहीं है, और वह धार्मिक आतंकवाद से जुड़ा हुआ हो यह भी जरूरी नहीं है। लोग जहां जिनके हाथ में जितने गैरजरूरी और जरूरत से अधिक ताकतवर हथियार आ जाते हैं वहां उनके दिमाग में हिंसा शुरू हो जाने का एक खतरा रहता ही है। आज जब चारों तरफ तालिबान की खबरें फैली हुई हैं और हिंदुस्तान जैसा देश इस बात को लेकर फिक्रमंद है कि क्या कश्मीर में तालिबान की अगुवाई में, या उसकी मदद से बाहर से आतंकी आ सकते हैं, तो भारत अमेरिका और रूस जैसे दूसरे देशों से इस बारे में बात भी कर रहा है। उसने तालिबान से भी कहा है कि अफगानिस्तान को आतंकियों की पनाहगाह नहीं बनना चाहिए। यह एक और बात है कि तालिबान खुद ही दुनिया के सबसे बड़े आतंकी माने जाते हैं, और वे क्या करेंगे इसके बारे में किसी को कोई अंदाज है नहीं।
अब सोचने और समझने की बात यह है कि क्या हर हमला रोकने लायक होता है? न सिर्फ पाकिस्तान या हिंदुस्तान में, बल्कि दुनिया के सबसे अधिक चौकस और तैयार देशों में भी हमले होते हैं, और अमरीका जैसे सबसे अधिक तैयार देश में तो बिना किसी मजहबी आतंक वाले हमले भी हर बरस दर्जन भर तो हो ही जाते हैं, और कोई एक अकेला बंदूकबाज ही जाकर स्कूल-कॉलेज के बहुत से बच्चों को मार डालता है। इसलिए इस दुनिया में कोई अगर यह सोचे कि पुलिस और फौज की बंदूकों से हर जगह पर महफूज किया जा सकता है, तो वह निहायत ही नासमझी की बात होगी। दुनिया का बड़े से बड़ा इंतजाम भी किसी देश को आत्मघाती हमलों से नहीं बचा सकता। जब कोई आतंकी या किसी दूसरी किस्म का हमलावर यह तय कर ले कि उसे अपने-आपको उड़ाकर भी दूसरों को मारना है, तो भीड़ भरी जगहों पर कहीं पर भी लोगों को बड़ी संख्या में मारा जा सकता है। जब हम अपनी साधारण समझ-बूझ से ऐसे हमलों की गुंजाइश के बारे में सोचते हैं, तो लगता है कि दुनिया की आबादी के अधिकतर लोग आज इसीलिए जिंदा हैं, कि किसी ने उनको मारना अब तक तय नहीं किया है। अगर सरकारी इंतजाम से किसी के जिंदा रहने की बात करें, तो हिंदुस्तान जैसे सवा करोड़ से अधिक आबादी के देश में दो-चार करोड़ से अधिक लोगों को बचा पाना मुमकिन नहीं होगा।
इसलिए आज न सिर्फ पाकिस्तान या भारत, बल्कि दुनिया के तमाम देशों को यह सोचना होगा कि किस तरह इंसान और इंसान के बीच गैरबराबरी खत्म की जाए, किसी गरीब के हक छीनना कैसे खत्म किया जाए, किसी जाति या धर्म, किसी नस्ल या नागरिकता के लोगों को मारना किस तरह रोका जाए, ताकि बदले में जवाबी हमले में दूसरे लोग न मारे जाएं। कुल मिलाकर बात यह है कि जब तक दुनिया में आर्थिक और सामाजिक, धार्मिक और नस्लवादी भेदभाव खत्म नहीं होंगे, जब तक सामाजिक न्याय का सम्मान नहीं होगा, तब तक आतंक और हिंसा को खत्म करना मुमकिन भी नहीं होगा। और कल भी हमने इसी जगह भारत के उन लोगों को सावधान किया था जो कि आज यहां धार्मिक और सामाजिक उन्माद खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं, जो कि लोकतंत्र से ऊपर जाकर इस देश में कुछ तबकों के धार्मिक अधिकार खत्म करने की बात कर रहे हैं, कुछ लोग जो कि लोकतंत्र को खत्म करके एक धार्मिक-राज लाने की कोशिश कर रहे हैं। उनको यह समझ लेना चाहिए कि जब हिंसा और बेइंसाफी बढ़ते हैं, तो फिर बेकाबू मौतें भी होती हैं। और अगर हिंदुस्तान या किसी दूसरे देश को जिंदा रहना है तो उन्हें सामाजिक न्याय की तरफ बढऩा होगा।
धर्म से परे भी समाज में आर्थिक न्याय जहां-जहां नहीं हुआ, भारत ऐसे तमाम इलाकों में आज नक्सल हिंसा से जूझ रहा है। इन इलाकों में सरकार के भ्रष्ट लोगों में गरीब आदिवासियों का जितना हक खाया होगा, आज सरकार नक्सल मोर्चे पर उससे हजार गुना गंवा रही है। हमारा हमेशा से यह मानना है कि सामाजिक न्याय देना, आतंक से जूझने के मुकाबले सस्ता पड़ता है, आसान रहता है, और जिंदगियां भी इसी तरह से बच सकती हैं। आज भारत में जिस तरह से एक सामाजिक अन्याय का माहौल खड़ा किया जा रहा है, उस बारे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अपने सांसदों को महज सुझाव देना काफी नहीं है। देश में एक न्यायपूर्ण वातावरण लाने की जरूरत है वरना सरहद पार एक मिसाल सामने है कि लोकतंत्र कमजोर और खत्म होने पर क्या हाल करता है। अफग़़ानिस्तान में अमरीका की बीस बरस की ज्यादती का नतीजा है कि वहां तालिबान कामयाब हुए हैं। हिंदुस्तान के भी देश-प्रदेश की सरकारों को ज्यादती से बचना चाहिए।
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छोटी-छोटी झूठी या नामौजूद चीजों से खुशियां हासिल, जैसे रफाल से अब चीन और पाकिस्तान घुटनों पर आ गए हैं, या थाली पीटने से कोरोना भाग जाएगा, और डॉक्टर का हौसला बढ़ जाएगा। जब लोग फरेब से खुश होने लगते हैं, तो कुछ असली कामयाबी जरूरी नहीं रह जाती। हिन्दुस्तान में पिछले कई बरसों में लोगों को ऐसी कामयाबी का अहसास कराया गया है जो जमीन पर चाहे हो न हो, लोगों के मन में गुदगुदी करती है, और उनके अहंकार की अच्छी तरह मालिश कर देती है। उनमें देशप्रेम का एक ऐसा अहसास करा देती है जो हकीकत नहीं होता, और जिसकी कोई जरूरत भी नहीं होती। ऐसे देशप्रेम से उस देश का भी कोई भला नहीं होता जिसके लिए वह प्रेम दिखाया जा रहा है। ऐसे अहसास किसी देश की सरकार के कराए हुए ही हों, या किसी देश-प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी के करवाए हुए ही होते हों, ऐसा भी नहीं है। किसी अखबार के मालक-चालक, यानी प्रकाशक-संपादक भी अपने आपके भीतर ऐसी खुशफहमी का शिकार हो सकते हैं। अगर वे लिखने में बहुत अच्छे हैं जिससे कि वाहवाही भी होती है, तो प्रकाशक की अपनी जिम्मेदारी में वे नाकामयाब भी हो सकते हैं। अपनी हसरतों को हकीकत मान लेने की यह चूक हर किस्म के लोगों में हो सकती है, इसके लिए किसी का सत्ता पर रहना जरूरी नहीं होता, और अपने मानने वालों की भीड़ को धोखा देना भी जरूरी नहीं होता। अमूमन भीड़ खुद ही धोखा खाने को तैयार रहती है, और अलग-अलग दौर में वह अलग-अलग किस्म के लोगों के लिए दीवानगी दिखाने को एक पैर पर खड़ी रहती है।
नामौजूद चीजों से फख्र और खुशी हासिल करना महज आज की किसी बात से हो, ऐसा भी जरूरी नहीं है। इतिहास इतना लंबा रहता है, और उसके भी पहले की पुराण कथाएं, बाइबिल की कहानियां, या कुछ दूसरे पुराने धर्मों की कहानियां इतनी पुरानी रहती हैं कि उन्हें सच मानकर लोग अपने स्वाभिमान नाम के अहंकार को पुष्पक पर चढ़ाकर हवाई सफर के लिए भी भेज सकते हैं। विज्ञान की हर खोज पर अपना दावा कर सकते हैं, वे गणेश के धड़ पर हाथी के सिर को प्लास्टिक सर्जरी की तकनीक मौजूद होने के सुबूत की तरह पेश कर सकते हैं, और कीर्तन में ढोल-मंजीरों की ताल के साथ सिर हिलाते हुए लोग उस सुबूत पर नासा का ठप्पा भी लगा देख लेते हैं। जब गर्व करने के लिए महज ऐसे अहसास काफी होते हैं, तो फिर जिंदगी में कुछ हासिल करना जरूरी कहां रह जाता है? जिस तरह टीवी के सामने बैठकर क्रिकेट में अपने देश की टीम को जीतते देखकर जिन लोगों को अपने खेलप्रेमी होने का अहसास रहता है, और वह बढ़ते-बढ़ते उन्हें खेल में अपनी दिलचस्पी लगने लगता है, और धीरे-धीरे वे अपने को खिलाड़ी भी महसूस करने लगते हैं, तो फिर खेलने की जरूरत कहां रह जाती है? इंसान का मिजाज ही कुछ ऐसा होता है कि वे अपने भीतर पहले से तय कर ली गईं धारणा को मजबूत करने के लिए कतरा-कतरा सुबूत जुटाने लगता है। उसकी पसंद और नापसंद इस पर आ टिकती है कि उसके निष्कर्ष को मजबूत बनाने के लिए कौन सी बातें काम आएंगी, तो फिर सुबूतों की वैज्ञानिक प्रक्रिया से गुजरने की जरूरत कहां रह जाती है?
सडक़ किनारे फुटपाथ पर तेल या ताबीज बेचने वाले लोग एक बड़े माहिर हुनर के साथ लोगों को पहले तो उस सामान की जरूरत का अहसास कराते हैं, और एक बार यह अहसास हो जाता है, तो फिर वे उसके इलाज की तरह एक सामान पेश कर देते हैं। कुछ-कुछ ऐसा ही राष्ट्रवाद के मामले में भी होता है। एक आक्रामक राष्ट्रवाद पहले तो एक नामौजूद दुश्मन का पुतला पेश करता है जो कि मुमकिन कद-काठी से अधिक बड़ा भी दिखता है। इसके साथ ही दुश्मन से खतरे का एक अहसास खड़ा किया जाता है, और इसके बाद फिर दुश्मनी के बीज बो देना, उसकी फसल को खाद दे देना बड़ा आसान हो जाता है। हिन्दुस्तान इन दिनों लगातार ऐसे अहसास का शिकार है। ऐसा अहसास कि पिछले 70 बरस में कुछ भी अच्छा नहीं हुआ था, और देश को जो कुछ हासिल हुआ है, यह महज पिछले 5-6 बरस की बात है। जब लोग एक नामौजूद नाकामयाबी पर भरोसा करने उतारू हों, तब उन्हें आज की नामौजूद कामयाबी पर भी भरोसा करवाना आसान हो जाता है। 70 बरस की ‘नाकामयाबी’ पर हीनभावना, और अफसोस पैदा कर दिए जाएं, तो फिर उस जमीन पर आज की ‘कामयाबी’ का बरगद तेजी से खड़ा किया जा सकता है। यह सिलसिला नेता की कामयाबी, और जनता की कमजोरी का सुबूत भी होता है कि उसके सामने कब्ज की दवा, जमालघोटा, को भरकर भी एक कटोरा पेश किया जाए, और वह इस बात को हकीकत मान चुकी हो कि यह पेट भरने का अच्छा सामान है, तो लोगों को कब्ज से छुटकारे के लिए काफी एक बीज की जगह एक कटोरा जमालघोटा भी खिलाया जा सकता है।
दुनिया के इतिहास में बहुत से ऐसे लोग रहे हैं जिनका पेशा कुछ और रहा है, जिसमें वे नाकामयाब रहे हैं, लेकिन वे अपने किसी दूसरे हुनर की वजह से अहमियत पाते रहते हैं। मिसाल के लिए किसी शहर में कोई ऐसे डॉक्टर या इंजीनियर हो सकते हैं, या वकील हो सकते हैं जो अपने पेशे में खासे कमजोर हों, लेकिन जिनका समाजसेवा का बहुत ही बड़ा और सच्चा इतिहास रहा हो। आम लोग ऐसे में उन्हें एक अच्छा इंसान और मामूली पेशेवर मानने के बजाय अच्छा पेशेवर भी मानने लगते हैं। सार्वजनिक जिंदगी में बहुत से ऐसे लोग रहते हैं जो कि अपनी ऐसी अप्रासंगिक और महत्वहीन खूबियों की वजह से महान मान लिए जाते हैं। जब लोगों को खालिस और जरूरी सच से परे की गैरजरूरी और अप्रासंगिक बातों के आर-पार देखने की ताकत हासिल न हो, या उनकी आंखों पर एक ऐसा चश्मा चढ़ा दिया जाए जिससे कि वे उसके रंग के अलावा और किसी रंग में दुनिया को देख ही न सकें, तो फिर उन्हें एक खास रंग में रंगी हुई दुनिया को ही सच मनवा देना आसान हो जाता है। लोकतंत्र में लोगों को हकीकत और अहसास में फर्क करना आना चाहिए। लोकतंत्र में लोगों को धर्म और राजनीति के दायरों को अलग-अलग देखना आना चाहिए। लोगों को किसी की निजी ईमानदारी से परे उसकी सार्वजनिक जवाबदेही में बेईमानी को भी अलग पहचानना आना चाहिए। लोगों को किसी धर्म के कपड़ों में लिपटे लोगों की हरकतों को उन धर्मों से अलग करके देखना भी आना चाहिए, वरना हिन्दुस्तान में सैकड़ों-हजारों ऐसे मां-बाप हैं जो कि अपने बच्चों को ले जाकर खुद ही बापू-बाबाओं को समर्पित करते आए हैं, क्योंकि वे उनके धर्म-आध्यात्म के चोगों से परे उनकी हरकतों का अंदाज नहीं लगा पाते हैं, उनकी आंखें बाबाओं के दिव्यप्रकाश से चौंधिया जाती हैं, और उन्हें हकीकत नहीं दिख पाती।
आज जब दुनिया चांद के बाद दूसरे ग्रहों पर पहुंच चुकी है, समंदर के अंदर तलहटी को तलाश रही है, उस वक्त लोग अगर फरेब से गुरेज नहीं करेंगे, और किसी की पेश की गई हसरतों को हकीकत मान लेंगे, तो ऐसे देश या ऐसे लोग कम से कम कुछ सदी पीछे तो पहुंच ही जाएंगे। जिस देश को आगे बढऩा है, वह किसी तस्वीर पर बनाई गई सुहानी सडक़ पर सफर करके उसका आनंद लेते हुए आगे नहीं बढ़ सकता। लोगों को कड़ी और खुरदरी सडक़ पर मेहनत से सफर करके ही आगे बढऩा होता है। सबको मालूम है पुष्पक की हकीकत लेकिन...
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सुप्रीम कोर्ट की कुछ किस्म की रोक के बावजूद हिंदुस्तान में केंद्र सरकार जिस अंदाज में आधार कार्ड से हर चीज को जोड़ती चल रही है, उसे लेकर लोगों में एक बेचैनी है। अब आधार कार्ड से जमीन की खरीदी-बिक्री को भी जोड़ा जा रहा है, उससे पैन कार्ड को भी जोड़ा जा रहा है, और कोरोना वैक्सीन तो उससे जुड़ा हुआ है ही। धीरे-धीरे करके सरकार के पास इतनी डिजिटल जानकारी आ गई है कि उससे पेगासस जैसे मंहगे खुफिया घुसपैठिया हथियार का इस्तेमाल आम लोगों पर करने की जरूरत नहीं है, और आम लोगों पर निगरानी के लिए तो उनका आधार कार्ड अकेला ही उनके खिलाफ सबसे बड़ा मुखबिर बन ही चुका है। आज बैंक, क्रेडिट कार्ड, रेल और प्लेन के रिजर्वेशन, कोरोना टीकाकरण और कई किस्म की खरीदी बिक्री, इन सबको जिस तरह से आधार कार्ड से जोड़ दिया गया है, तो उससे सरकारी कंप्यूटरों पर बैठे हुए लोग, लोगों के बारे में इतनी जानकारियां निकाल सकते हैं, जितनी कल्पना भी लोग नहीं कर सकते। यह सवाल बहुत से लोगों के जेहन में पहले से तैर रहा है। और लोगों को यह भी याद होगा कि आधार कार्ड को जिस तरह से हर चीज में अनिवार्य किया जा रहा है, उससे भी यह नौबत आ रही है कि लोगों की निजी जिंदगी की हर बात सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज होती जाएगी, और यह तो जाहिर है ही कि सरकारें, न सिर्फ हिन्दुस्तान की, बल्कि सभी जगहों की, अपने हाथ आई जानकारी का बेजा इस्तेमाल करती ही हैं। जब दूसरों की जिंदगी, कारोबार, खरीददारी, इन सबमें ताकझांक करने का मौका सरकारों को मिलता है, तो वह अपने लालच पर काबू नहीं पा सकतीं।
दस-पन्द्रह बरस पहले अमरीका की एक फिल्म आई थी, एनेमी ऑफ द स्टेट। इस फिल्म में सरकार एक नौजवान वकील के पीछे पड़ जाती है, क्योंकि उसके हाथ सरकार के एक बड़े ताकतवर नेता के कुछ सुबूत लग जाते हैं। अब इन सुबूतों को उससे छीनने के लिए सरकार जिस तरह से टेलीफोन, इंटरनेट, खरीदी के रिकॉर्ड, रिश्तेदारियों के रिकॉर्ड, और उपग्रह से निगरानी रखने की ताकत, जासूस और अफसर, टेलीफोन पर बातचीत और घर के भीतर खुफिया कैमरों से निगरानी रखकर जिस तरह इस नौजवान को चूहेदानी में बंद चूहे की तरह घेरने की कोशिश करती है, वह अपने आपमें दिल दहला देने वाली घुटन पैदा करती है। भारत में जो लोग आधार कार्ड को हर जगह जरूरी करने के कानून के खिलाफ हैं, उनका भी मानना है कि इससे निजता खत्म होगी। भारत में आज जिस तरह आधार कार्ड को जरूरी कर दिया गया है, उससे सरकार हर नागरिक की आवाजाही, सरकारी कामकाज, भुगतान और बैंक खाते, खरीददारी, सभी तरह की बातों पर पल भर में नजर रख सकती है।
और फिर जो बातें बैंकों और निजी कंपनियों के रिकॉर्ड में आती जाती हैं, उनका इस्तेमाल तो बाजार की ताकतें भी करती ही हैं। यह एक भयानक तस्वीर बनने जा रही है जिसमें भारत की सरकार लोगों से यह उम्मीद करती है कि वे अपनी हर खरीद-बिक्री, हर टिकट, हर रिजर्वेशन को कम्प्यूटरों पर दर्ज होने दें। आने वाले दिनों में किसी एक राजनीतिक कार्यक्रम के लिए किसी शहर में पहुंचने वाले लोगों की लिस्ट रेलवे से पल भर में निकल आएगी, और सत्तारूढ़ पार्टी के कम्प्यूटर यह निकाल लेंगे कि ऐसे राजनीतिक कार्यक्रमों में पहुंचने वाले लोग पहले भी क्या ऐसे ही कार्यक्रमों में जाते रहे हैं, और फिर उनकी निगरानी, उनकी परेशानी एक बड़ी आसान बात होगी।
आज जो दुनिया के सबसे विकसित और संपन्न देश हैं, वहां भी नगद भुगतान उतना ही प्रचलन में है जितना कि क्रेडिट या डेबिट कार्ड से भुगतान करना। भुगतान के तरीके की आजादी एक बुनियादी अधिकार है, और भारत सरकार आज कैशलेस और डिजिटल के नारों के साथ जिस तरह इस अधिकार को खत्म करने पर आमादा है, उसके खतरों को समझना जरूरी है। अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को भी यह याद रखना चाहिए कि उनकी पार्टी के लोग भी आपातकाल में बड़ी संख्या में जेल भेजे गए थे। उस वक्त अगर संजय गांधी के हाथ यह जानकारी होती कि किन-किन लोगों ने क्या-क्या सामान खरीदे हैं, तो उस जानकारी का भी बेजा इस्तेमाल हुआ होता। ठीक उसी तरह जिस तरह जगजीवन राम के अधेड़ बेटे सुरेश राम की अपनी महिला मित्र के साथ अंतरंग तस्वीरों का उस वक़्त मेनका गाँधी ने किया था. आज भारत में निजी जिंदगी की प्राइवेसी या निजता पर चर्चा अधिक नहीं हो रही है, और यह अनदेखी अपने आपमें बहुत खतरनाक है। हिंदुस्तान के लोगों को अभी तक निजता के खत्म होने के खतरों का ठीक से एहसास नहीं है, लोग इसे गंभीरता से ले नहीं रहे हैं। जिस दिन कारोबार के मुकाबले में लोग कारोबारी राज खोने लगेंगे, जिस दिन चुराई गई जानकारी के आधार पर लोगों के परिवार खत्म करवा दिए जाएंगे, रिश्ते टूटने लगेंगे,, लोगों का एक दूसरे से अविश्वास होने लगेगा, उस दिन लोगों को समझ में आएगा कि निजता खत्म होने के खतरे क्या रहते हैं, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी रहेगी।
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अफगानिस्तान में तालिबान सरकार बन गई है और उसके चेहरों को देखकर अमेरिका सहित बहुत से देश तनाव में होंगे क्योंकि कुछ चेहरे अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित अंतरराष्ट्रीय आतंकी हैं। यह भी एक बड़ी अजीब बात है कि जिस 11 सितंबर की बरसी अमेरिका में बड़ी तकलीफ के साथ हर बरस मनाई जाती है, उसके ठीक पहले अफगानिस्तान में ऐसी सरकार बन रही है। न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की दो आसमान छूती इमारतों को बिन लादेन के विमानों ने 11 सितंबर को ही ध्वस्त किया था, अमेरिकी मीडिया इस बरस उसे कुछ अधिक याद कर रहा है क्योंकि अमेरिकी फौजें अफगानिस्तान को 20 बरस बाद उसी हालत में छोडक़र एक शर्मनाक हार झेलकर लौटी हैं और थकान उतार रही हैं। ऐसे में अमेरिकी मीडिया 2001 के 11 सितंबर के उस हमले को हर किस्म से याद करने की कोशिश कर रहा है, और उसमें कुछ ऐसे परिवार हैं जिन्हें वह हर बरस खबरों में लाता है, क्योंकि उनमें ऐसे बच्चे हैं जो उस हमले के तुरंत बाद पैदा हुए थे। अमेरिका में ऐसे बच्चों का एक पूरा समुदाय है जिन्होंने वल्र्ड ट्रेड सेंटर के उस हमले में अपने मां-बाप को खोया था। ऐसे करीब 3000 बच्चों की एक फेहरिस्त है जिनके पास उस भयानक हमले की याद है, और जख्म हैं। ऐसे ही पश्चिमी मीडिया को देखते हुए आज लंदन के अखबार गार्डियन के पॉडकास्ट में दो पॉडकास्ट ऊपर-नीचे देखने मिले, और इस वजह से उन दोनों पर एक साथ कुछ सोचने का मौका भी मिला। एक पॉडकास्ट 11 सितंबर के उस हमले के बाद बचे बच्चों के बारे में है, और दूसरा फिलिस्तीन के गाजा में इस्राएली हमले के तुरंत पहले 1 घंटे में इमारत छोडक़र निकलने वाले लोगों के बारे में है, जिनमें बच्चे चाहे कम रहे हों लेकिन फिलिस्तीनी बच्चों के मां-बाप तो वहां थे, और कुछ महीने पहले के इस इजरायली हमले में सैकड़ों मौतें भी फिलीस्तीन ने झेली हैं।
पश्चिमी मीडिया को देखें, और क्योंकि हिंदुस्तान जैसे देश में अधिकतर वही मीडिया हासिल है, इसलिए उस पर आई हुई तस्वीरें, खबरें, और वीडियो देखें तो लगता है कि 11 सितंबर से अधिक बड़ी त्रासदी इस दुनिया में और कोई नहीं हुई। यह सही है कि दुनिया की सबसे बड़ी ताकत के लिए उससे बड़ी शर्मिंदगी और कोई नहीं हुई, किसी आतंकी का किया उससे बड़ा आतंकी हमला और कोई नहीं हुआ, लेकिन जब हम अमेरिका पर हुए इस हमले के तुरंत बाद अफगानिस्तान और इराक जैसे देशों पर अमेरिकी फौजियों के अंधाधुंध हमलों को देखें, और उनमें लाखों मौतों को देखें जिनमें मरने वाले अधिकतर बेकसूर नागरिक थे, जिनमें बराबरी से औरत और बच्चे थे, आबादी में बसे हुए लोग थे, शादी के जलसे में इकट्ठा एक साथ मारे जाने वाले दर्जनों लोग थे, तो फिर यह लगता है कि क्या पश्चिम का दर्द दर्द है, और इराक अफगानिस्तान जैसे देशों का दर्द दर्द नहीं है? आज जब न्यूयॉर्क के हमले में मां-बाप खोने वाले बच्चों से एक-एक करके बात की जा रही है, तो क्या उसी वक्त अमेरिका यह सोचने की जहमत भी उठाएगा कि उसकी फौज ने इराक और अफगानिस्तान में कितने बच्चों को मारा है, वे कितने लाख थे, उनके मां-बाप कितने लाख थे? क्या बमों को बरसाने के पहले यह देखा गया था कि उसमें कितने बेकसूर लोगों के मारे जाने का खतरा था? जिस तरह बिन लादेन के कहे जाने वाले विमानों ने जाकर वल्र्ड ट्रेड सेंटर की दो इमारतों को खत्म कर दिया था, और कुछ हजार लोगों को मार दिया था, उतनी-उतनी मौतों वाले कितने हफ्ते इन 20 वर्षों में इराक और अफगानिस्तान ने झेले हैं?
और वह तो फिर एक धर्मांध और कट्टर आतंकी बिन लादेन था, लेकिन यह तो दुनिया का सबसे ताकतवर और बड़ा लोकतंत्र होने का दंभ भरने वाला अमेरिका था जिसकी फौज ने संसद में मुनादी के बाद, राष्ट्रपति के दस्तखत के बाद जाकर यह हमले किए थे ! आज जब अमेरिकी फौजों के सीधे हमलों के अलावा इजराइल जैसी ताकतें अमरीकी शह पर फिलिस्तीन की जमीन पर अवैध कब्जा करते हुए, फिलिस्तीनियों को बेदखल करते हुए, उन पर बम भी बरसाती हैं, और उन्हें अमेरिकी फौजियों का सहारा रहता है, अमेरिकी राष्ट्रपति के वीटो का सहारा रहता है, संयुक्त राष्ट्र के सारे प्रतिबंध और आदेश अमेरिकी बुलडोजर कुचल देते हैं, और इजराइल को खुला हाथ देते हैं। इजराइली बमबारी में गिरने वाली फिलिस्तीनी इमारतें, और उनमें मारे जाने वाले हजारों लोग, और खंडहर में तब्दील कर दिया गया एक देश, यह सब मिलकर भी 11 सितंबर के इस मौके पर सवाल बनकर खड़े होते हैं, कि बिन लादेन तो घोषित आतंकी था, लेकिन फिलिस्तीन पर बम बरसाने वाले इजराइली और उसकी पीठ पर हाथ धरकर खड़े हुए अमेरिकी तो अपने आपको लोकतांत्रिक देश करार देते हैं, फिर लादेन और अमेरिका-इजराइल के तौर-तरीकों में कोई फर्क क्यों नहीं है?
अफगानिस्तान में तालिबान सरकार का बनना और 11 सितंबर की बरसी का आना, अमेरिकी फौजों की वापिसी और फिलिस्तीन पर जारी इजरायली हमलों को मिलाकर अगर देखें तो लगता है कि दुनिया में कुछ देश बिन लादेन से भी बड़े आतंकी हैं, जिनमें अमेरिका और इजरायल ऐसे हैं जो कि संयुक्त संयुक्त राष्ट्र संघ के काबू से भी बाहर हैं, और जिन्हें इंसानियत छू भी नहीं गई है, फिर भी उन्हें संयुक्त राष्ट्र आतंकी करार नहीं दे सकता। अमेरिकी सरगनाई में दूसरे पश्चिमी देशों की फौजों ने जिस तरह इराक और अफगानिस्तान पर हमले किए और जितने लाख बेकसूर नागरिकों को वहां पर मारा, और जिस तरह ब्रिटिश फौजी इस दौर में अफगानिस्तान में बेकसूर नागरिकों को मार-मारकर अपनी फौजी प्रैक्टिस करते रहे, अपने मारे हुए लोगों की उंगलियां काटकर उन्हें इकट्ठा करते रहे, ऐसी तमाम बातों का एक ऐतिहासिक दस्तावेजीकरण होना चाहिए। तालिबान अपने किस्म के अलग दकियानूसी और कट्टर, धर्मांध और अमानवीय हो सकते हैं, लेकिन अमेरिका और इजराइल ने पिछले दशकों में फिलिस्तीन, इराक, अफगानिस्तान जैसी कई जगहों पर जो किया है, उसे अनदेखा कैसे किया जा सकता है?
गार्डियन के पॉडकास्ट की लिस्ट में इन दो विषयों को ऊपर नीचे देखकर ऐसा लगता है कि दुनिया के ताजा इतिहास को अलग से लिखने की जरूरत भी है। तालिबान का इतिहास तो लिखा जाता रहेगा, लेकिन अभी जरूरत इस बात की है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी कब्जा खत्म होने के बाद कब्जे के इन दो दशकों पर लिखा जाए। चूँकि लिखने वाले अधिकतर लोग पश्चिम के हैं, इसलिए अभी देखा जाए कि हमलावरों के चारण और भाट के जिम्मे यह काम न लगा दिया जाए। दुनिया का यह ताजा इतिहास लिखना जरूरी इसलिए भी है कि बिन लादेन को तो खलनायक साबित करने वाला बहुत बड़ा मीडिया मौजूद था, 20 बरस तक अफगानिस्तान को कुचलने वाला अमेरिका भी खुलासे से दर्ज होता है या नहीं यह देखने की बात है।
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हिंदुस्तान के केंद्रीय खेल मंत्री अनुराग ठाकुर ने अभी देश के खेल संघों से यह कहा है कि वे 2024 और 2028 के ओलंपिक खेलों को ध्यान में रखते हुए उनमें भारत की स्थिति बेहतर बनाने के लिए बड़ी योजनाएं बनाएं, बड़े प्रोजेक्ट बनाएं। वे बेंगलुरु में एक खेल कार्यक्रम में बोल रहे थे और उन्होंने कहा कि लोगों के बीच खेल को लेकर धारणा बदल चुकी है क्योंकि सरकार एथलेटिक्स को अलग से बढ़ावा दे रही है. पहले टोक्यो ओलंपिक में और उसके बाद अभी पैरालंपिक में भारत का प्रदर्शन पहले के मुकाबले बहुत अच्छा रहा है, उन्होंने कहा कि लोगों का रुख खेलों के लिए बदल गया है, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद खिलाडिय़ों की हौसला अफजाई कर रहे हैं।
यह बात सही है कि क्रिकेट के अंतरराष्ट्रीय मुकाबले हों, ओलंपिक हो, राष्ट्रमंडल खेल हों, या एशियाई खेल हों, इन सबमें खिलाडिय़ों की हिस्सेदारी पहले के मुकाबले अब अधिक खबरें बनने लगी हैं। टीवी पर जीवंत प्रसारण चलते रहता है, और बड़ी-बड़ी कंपनियां भी ऐसे अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में गए हुए खिलाडिय़ों को बढ़ावा देती हैं। ऐसे में देश में यह उम्मीद जागना जायज है कि हिंदुस्तान इस बार अधिक मेडल पाने के बाद अब अगली बार ओलंपिक और दूसरे अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों पर निशाना लगाकर तैयारी करेगा तो बहुत आगे बढ़ेगा। यह एक जनधारणा है जिसका सरकार भी समर्थन कर रही है और जिसे आगे बढ़ा रही है। लेकिन एक सवाल यह उठता है कि क्या भावनाओं से परे यह जनधारणा व्यावहारिक रूप से मुमकिन भी है? क्या अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में मैडल पाने की तैयारी से सचमुच हिंदुस्तान खेलों में बहुत आगे बढ़ सकेगा? हिंदुस्तान 140 करोड़ आबादी का देश है और अगर आबादी के अनुपात में मैडल देखें तो हिंदुस्तान दुनिया में कहीं भी नहीं टिकता। और अगर एक देश के रूप में देखें तो जहां 1-2 करोड़ आबादी वाले देश हैं, वह भी हिंदुस्तान से अधिक ओलंपिक मेडल पाते हुए दिखते हैं, इसलिए हिंदुस्तान का मुकाबला ऐसे देशों से मान लेना भी ज्यादती की बात होगी। रियो के 2016 ओलिंपिक से एक लाख आबादी वाला देश ग्रेनाडा भी एक मैडल लेकर लौटा था, ढाई लाख से कम आबादी वाला जमैका 11 मैडल लेकर लौटा। हिंदुस्तान दुनिया में आबादी के अनुपात में सबसे कमजोर देश था, वह कुल दो मैडल लेकर लौटा था। टोक्यो ओलंपिक में हिंदुस्तान को 20 करोड़ आबादी पर एक मैडल मिला है, दूसरी तरफ इसी ओलंपिक को देखें तो नीदरलैंड्स को चार लाख 84 हजार आबादी पर एक मैडल मिला है, ग्रेनाडा को 1 लाख 12 हजार आबादी पर एक मैडल मिला है, और सान मारीनो को 11 हजार 313 आबादी पर एक मैडल मिला है।
खेल को अगर सिर्फ अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों पर केंद्रित रखकर उनकी तैयारी की जाएगी तो हिंदुस्तान कहीं नहीं पहुंच पाएगा, जिस तरह आज वह आबादी के अनुपात में मैडल में दुनिया में शायद सबसे पीछे है ऐसा ही सबसे पीछे बने रहेगा और हम छोटी-छोटी कामयाबी पर एक झूठा गौरव करने के शिकार बने रहेंगे। इसलिए यह समझने की जरूरत है कि हिंदुस्तान को किस किस्म की तैयारी करनी चाहिए जिसमें इस देश की विशाल आबादी की अधिक भागीदारी हो सके।
पहली बात तो यह कि हिंदुस्तानी समाज की सेहत की तरफ जब तक ध्यान नहीं दिया जाएगा जब तक बच्चों को कुपोषण से नहीं बचाया जाएगा जब तक उन्हें पेट भर खाना नसीब नहीं होगा तब तक उनकी पूरी फिक्र खाने पर ही लगी रहेगी, वह गांव की धूल भरी सडक़ों पर, या बिना अहाते के मैदानों में भी दौड़ भी नहीं सकेंगे क्योंकि उनके बदन में इतनी जान ही नहीं रहेगी। आज हिंदुस्तान में कुछ समझदार राज्य लगातार इस बात की तैयारी कर रहे हैं कि स्कूलों में दोपहर के भोजन के अलावा सुबह का नाश्ता भी दिया जाना चाहिए क्योंकि बहुत से बच्चे ऐसे रहते हैं, जिन्होंने पिछली शाम घर में खाना खाया रहता है, और अगला खाना उन्हें स्कूल में दोपहर को मिलता है। 15-16 या 17 घंटे की यह भूख किसी बच्चे को न तो कुछ सीखने के लायक, पढऩे के लायक छोड़ती है, और न ही कुछ खेलने के लायक। दूसरी बात यह भी है कि न तो स्कूलों में मैदान हैं, न मैदानों को समतल बनाकर रखने की गुंजाइश है. गांव-गांव के सरकारी स्कूल तो बिना अहातों के हैं, और वहां मैदानों में कहीं जानवर बैठे रहते हैं, कहीं सरकारी सामान पड़े रहता है, इसलिए आम बच्चों को खेलने के लिए टाइम टेबल में एक पीरियड जरूर मिल जाता है, खेलने की सहूलियत कुछ नहीं मिलती। जो शहरी और महंगे स्कूलों के बच्चे हैं, उनको तो जरूर कहीं-कहीं पर खेलकूद की सहूलियत मिल जाती है लेकिन गांव-कस्बों के बच्चों के लिए मोटे तौर पर यह सहूलियत पहुंच से बाहर रहती हैं। ऐसे में एक अंदाज यह है कि 140 करोड़ की आबादी में से 130 करोड़ तो ऐसी है जिसे खेलना नसीब ही नहीं होता। तो ऐसे बच्चों का कोई ओलंपिक मैडल पाने की तैयारियों में, क्षमता में, क्या योगदान हो सकता है?
बच्चों का खानपान ठीक हो, बच्चे पढऩे और खेलने के वक्त पर भरे पेट रहें, या कम से कम भूख से परेशान न हों, और उन्हें कागज पर लिखे हुए खेल पीरियड से परे भी कुछ खेलना मिल सके तो हो सकता है कि हिंदुस्तान की तस्वीर एकदम से बदल जाए। कोई भी देश अंतरराष्ट्रीय खेलों में इस आधार पर आगे नहीं बढ़ सकता कि उसके कुछ दर्जन खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय पैमानों तक पहुंच पा रहे हैं, और ओलंपिक जैसे मुकाबले में उन्हें जगह मिल रही है। इस देश में जिन प्रदेशों में भुखमरी कम है, कुपोषण कम है, जहां सरकार ने स्कूल के स्तर पर सुविधाएं दी हैं, ऐसे प्रदेशों से, पंजाब, हरियाणा और केरल से, अधिक खिलाड़ी बाहर निकलते हैं क्योंकि वहां अधिक बच्चों के बीच ऐसी खेल प्रतिभाओं को तलाशने का मौका रहता है, गुंजाइश रहती है। इसलिए सिर्फ ओलंपिक मैडल को ध्यान में रखते हुए अगर खेल तैयारी की जाएगी तो उसे हिंदुस्तान खेलों में बहुत आगे कभी नहीं बढ़ पाएगा। पूरे के पूरे समाज का खानपान, सेहत के प्रति उसका चौकन्नापन, फिटनेस के प्रति उसकी एक से अधिक पीढिय़ों की जागरूकता और खेलों की बुनियादी सहूलियतें, इन सबके ऊपर अगर ध्यान दिया जाएगा तो कहीं जाकर ओलंपिक में या दूसरे अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में हिंदुस्तान आगे बढ़ सकता है।
आबादी बहुत है देश में जमीन भी बहुत है, बच्चे भी खूब हैं, वह इतनी बड़ी संख्या में पैदा होते हैं कि आबादी बढऩे पर रोक लगाने की कोशिशें चलते हुए आधी सदी से अधिक वक्त हो गया है। इसलिए इन सबके बीच में यह भी देखने की जरूरत है कि पिरामिड में सबसे नीचे का हिस्सा सबसे अधिक भागीदारी का हो और करोड़ों बच्चों को किसी न किसी तरह खेलों से जुडऩे का मौका मिले, वे खेलने की हालत में रहे और ऊपर के खेल मुकाबलों की तैयारी के लिए देश भर के तमाम बच्चों के बीच से बेहतर खिलाडिय़ों को छांटने की एक नौबत सरकार के पास रहे। यह सब किए बिना सिर्फ मैडल की तैयारी पर निशाना लगाना हिंदुस्तान को बहुत ही औसत दर्जे का देश बनाकर चलेगा जिसमें दो-चार मैडल पाकर ही यह देश फूले नहीं समाएगा। ओलंपिक मैडल लाने वाले खिलाडिय़ों पर देश भर से 10-10, 20-20 करोड़ रुपए की बारिश हो रही है, लेकिन छोटे-छोटे गांव के स्कूलों में बच्चों को एक फुटबॉल भी नसीब नहीं होता, उनके दौडऩे कि अगर कोई क्षमता है तो उसकी उसका कोई मूल्यांकन नहीं हो पाता। हिंदुस्तान के लोगों को चीन जैसे सबसे बड़े मैडल विजेता एक देश की तैयारियों को भी देखना चाहिए जहां चार-पांच साल की उम्र से ही प्रतिभा खोजने वाले लोग देशभर में घूम-घूमकर जिम्नास्टिक्स जैसे खेलों के लिए प्रतिभाएं ढूंढते हैं, और बच्चों को लाकर उसकी तैयारी शुरू करवा देते हैं। हिंदुस्तान को सबसे नीचे के स्तर से बच्चों को आगे बढऩे का एक रास्ता बनाना पड़ेगा तो ही हमारे प्रदेश और देश के स्तर की प्रतिभाएं अधिक बेहतर आ सकेंगी।
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छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक अजय यादव को कल देर रात जिस तरह तबादला करके पुलिस मुख्यालय भेजा गया है, उससे भी कल दिन में एक सांप्रदायिक तनाव की घटना की गंभीरता साबित होती है। रायपुर के एक इलाके में कल इतवार को एक ईसाई परिवार में प्रार्थना सभा चल रही थी, और आसपास के कुछ हिंदू संगठनों के लोगों ने इस पर आपत्ति की। तनाव बढ़ा और दोनों पक्षों को पुलिस ने थाने बुला लिया। वहां पर थानेदार के कमरे में ईसाई प्रार्थना सभा वाले पास्टर पर हिंदू संगठनों के लोगों ने जिस तरह से हमला किया और उसे जिस तरह जूतों से पीटा, उसके वीडियो हक्का-बक्का करते हैं। पुलिस थाने में मौजूद थी, और उसकी मौजूदगी में एक अल्पसंख्यक तबके के गिनती के मौजूद लोगों पर वहां बहुसंख्यक समुदाय के हमलावर लोगों ने जिस तरह का हमला किया है, उसकी कोई मिसाल छत्तीसगढ़ में याद नहीं पड़ती है। इसके पहले भी कभी किसी चर्च पर छोटा-मोटा हमला हुआ या कहीं किसी पादरी को पीटा गया, ऐसा तो हुआ था लेकिन थाने में पुलिस की मौजूदगी में ऐसा हो, और वह भी इसलिए साबित हो पा रहा है कि उसके वीडियो मौजूद हैं, तो यह बहुत ही गंभीर बात थी, और मुख्यमंत्री ने भारी नाराजगी के साथ जिले के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को तुरंत हटाया है।
प्रदेश में भाजपा ने पिछले कुछ महीनों से धर्मांतरण में बढ़ोतरी का आरोप लगाते हुए इसके खिलाफ प्रदर्शन करना शुरू किया है। भाजपा के बाकी मंत्रियों और नेताओं के मुकाबले इस बार भूतपूर्व मंत्री और राजधानी के एक भाजपा विधायक बृजमोहन अग्रवाल इस मोर्चे पर आगे हैं, वे लगातार बयान दे रहे हैं, और अभी एक प्रदर्शन में भी राजधानी में उन्हें सबसे आगे देखा गया था। भाजपा के भीतर बहुत से लोगों की दिक्कत यह है कि उन्हें अभी पार्टी के भीतर राज्य की अगुवाई के लिए अपने अस्तित्व की लड़ाई लडऩी पड़ रही है। ऐसे में जाहिर है कि कुछ मुद्दे अधिक प्रमुखता पा रहे हैं क्योंकि उन मुद्दों को उठाकर कुछ लोग अधिक प्रमुखता पा सकते हैं। लेकिन यह बड़ी हैरानी की बात है कि राजधानी में इतनी पुलिस मौजूदगी के बावजूद, पूरे शासन-प्रशासन की यहीं पर मौजूदगी के बावजूद, घंटों तक एक इलाके में यह सांप्रदायिक हमला चलते रहा और थानेदार के कमरे में उसकी मौजूदगी में पास्टर को जूतों से पीटा गया। यह बात बिल्कुल भी बर्दाश्त करने लायक नहीं है कि पुलिस का इंतजाम और प्रशासन इस तरह चौपट हो जाएं। सांप्रदायिक घटनाएं गहरे जख्म दे जाती हैं, जो कि लंबे समय तक रहते हैं। फिर यह भी है कि एक जगह सांप्रदायिक लोग जब ऐसी वारदात करते हैं तो वह दूसरी जगहों पर सक्रिय सांप्रदायिक लोगों के लिए एक चुनौती भी रहती है, कि वे भी कुछ कर दिखाएँ। फिर यह भी है कि आज जो लोग अल्पसंख्यक हैं, वे कल अगर आक्रामक होकर कोई जवाब देने लगे तो हिंदुस्तान में कई प्रदेशों में वैसे टकराव भी देखने मिलते हैं। यह सिलसिला बिल्कुल भी आगे नहीं बढऩे देना चाहिए।
कल ही एक दूसरी और महत्वपूर्ण घटना हुई है कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के पिता नंद कुमार बघेल के खिलाफ पुलिस ने एक जुर्म दर्ज किया है। नंद कुमार बघेल लगातार ब्राह्मणों के खिलाफ अपनी सामाजिक नाराजगी निकालते रहते हैं और वे दलित आदिवासी और ओबीसी तबकों के और अधिक अधिकारों के लिए लगातार संघर्ष करते हैं। नंद कुमार बघेल ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया है, और वह हिंदू धर्म के ब्राह्मणवाद के खिलाफ उस वक्त से सामाजिक आंदोलन करते आए हैं, जब भूपेश बघेल राजनीति में कुछ भी नहीं थे। पिता की बहुत सी बातें और उनके बहुत से मुद्दे भूपेश बघेल के लिए राजनीति असुविधा की बात पहले भी रहे हैं, और जब जोगी सरकार में भूपेश बघेल मंत्री थे उस वक्त भी नंद कुमार बघेल को उनकी एक विवादास्पद किताब के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। अभी फिर उनके खिलाफ जुर्म दर्ज हुआ है, उसे लेकर भूपेश बघेल ने एक सार्वजनिक बयान भी दिया और कहा कि वे उनके पिता जरूर हैं लेकिन अगर उनके बयानों से सामाजिक समरसता खराब होती है, तो कानून अपना काम करेगा और मुख्यमंत्री के बयान के साथ ही उनके पिता के खिलाफ जुर्म कायम हुआ है।
छत्तीसगढ़ देश के दूसरे बहुत से राज्यों के मुकाबले सांप्रदायिक शांति और सद्भाव का केंद्र रहा हुआ है। यहां पर हालात बिगडऩे नहीं देना चाहिए। चाहे जाति को लेकर आक्रामक बातें हों या फिर धर्म को लेकर सांप्रदायिक हमले हों, इन दोनों को कड़ाई से रोकने की जरूरत है। कल एक दिन में ही भूपेश बघेल ने इन दोनों मामलों में कड़ा रुख दिखाया है। कल सुबह जब उन्होंने अपने पिता के खिलाफ एक बयान जारी किया और पुलिस ने शायद उनके निर्देश पर ही यह जुर्म दर्ज किया, तब राजधानी के एक मोहल्ले में ईसाई प्रार्थना सभा पर हमले की बात सामने भी नहीं आई थी। बाद में यह बात सामने आई और इस पर पुलिस को कड़ी कार्यवाही इसलिए करना चाहिए कि अगर सांप्रदायिक हिंसा का यह संक्रमण छत्तीसगढ़ में दूसरी जगहों पर फैला तो ईसाई तो बहुत गिनी-चुनी संख्या में प्रदेश के हजारों गांवों में हैं। इसलिए अगर कुछ उत्साही सांप्रदायिक संगठन रायपुर की घटना को एक इशारा मानकर दूसरी जगहों पर जुट जाएंगे तो राज्य की पुलिस इस नौबत पर काबू पाने में कम साबित होगी।
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इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बुधवार को एक निर्णय में कहा कि वैज्ञानिक मानते हैं कि गाय ही एकमात्र पशु है जो ऑक्सीजन लेती और छोड़ती है, तथा गाय के दूध, उससे तैयार दही तथा घी, उसके मूत्र और गोबर से तैयार पंचगव्य कई असाध्य रोगों में लाभकारी है। हिंदी में लिखे अपने आदेश में जस्टिस शेखर कुमार यादव ने दावा किया है, ‘भारत में यह परंपरा है कि गाय के दूध से बना हुआ घी यज्ञ में इस्तेमाल किया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इससे सूर्य की किरणों को विशेष ऊर्जा मिलती है जो अंतत: बारिश का कारण बनती है।’ कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा, ‘‘हिंदू धर्म के अनुसार, गाय में 33 कोटि देवी देवताओं का वास है। ऋगवेद में गाय को अघन्या, यजुर्वेद में गौर अनुपमेय और अथर्वेद में संपत्तियों का घर कहा गया है। भगवान कृष्ण को सारा ज्ञान गौचरणों से ही प्राप्त हुआ।’’ फैसले में लिखा गया है कि गाय को सरकार राष्ट्रीय पशु घोषित करे और हर हिन्दू को उसकी रक्षा का अधिकार रहे।
हिंदुस्तान बड़ी दिलचस्प जगह बनते जा रहा है। यहां पर बड़ी-बड़ी अदालतें अवैज्ञानिक बातों को विज्ञान कहकर उसे लगातार बढ़ावा दे रही हैं, और संविधान की मूल भावना में अच्छी तरह साफ-साफ लिखी गई इस बात के खिलाफ काम कर रही हैं कि देश में एक वैज्ञानिक सोच विकसित की जानी है। भारतीय संविधान की धारा 51-ए यह कहती है कि हर नागरिक की यह बुनियादी जिम्मेदारी है कि वे वैज्ञानिक सोच विकसित करें। संविधान कहता है कि वैज्ञानिक सोच लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद, और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना विकसित करते हैं।
देश के सबसे बड़े इस हाई कोर्ट के इस जज ने तमाम किस्म की अवैज्ञानिक बातों को लिखकर यह लिख दिया है कि वैज्ञानिक ऐसा मानते हैं। अब इस फैसले के खिलाफ जब तक सुप्रीम कोर्ट से कोई आदेश नहीं आता है, तब तक इस देश में गाय के नाम पर पाखंड फैलाने वाले धर्मांध लोगों के हाथ एक बड़ा हथियार लग गया है। गाय के ऑक्सीजन छोडऩे को भाजपा के एक मुख्यमंत्री और ढेर सारे दूसरे मंत्रियों और नेताओं के साथ-साथ अब एक हाई कोर्ट जज ने भी सर्टिफिकेट दे दिया है। लोगों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले एक-दूसरे हाई कोर्ट, राजस्थान के जज महेश चंद्र शर्मा ने यह कहा था कि मोर सेक्स नहीं करते और मोर के आंसुओं को पीकर मोरनी गर्भवती हो जाती है। कुछ साल हुए हैं जब एक हाईकोर्ट जज ने यह लिखा था कि गीता को भारत का राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित करना चाहिए। लोगों को राजस्थान से निकलकर आने वाले एक हाई कोर्ट जज का वह फैसला याद है जिसमें उन्होंने सती प्रथा का समर्थन किया था। अलग-अलग समय पर इस केस में के फैसले लिखने वाले लोग जब हाईकोर्ट में बैठे हुए दिखते हैं तो लगता है कि बाकी मामलों में इनका राजनीतिक रुझान इनकी धार्मिक मान्यताएं इनके सांस्कृतिक पूर्वाग्रह इनके फैसलों को किस तरह प्रभावित करते होंगे। जो साधारण जानकारी है उसके मुताबिक सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के किसी जज को हटाने के लिए संसद की एक लंबी कार्रवाई की जरूरत पड़ती है और वह आसान नहीं होती है। जज को हटाने के लिए एक महाभियोग चलाना पड़ता है जिसके लिए बहुत सारे सांसदों की जरूरत पड़ती है। और आज तो यह सारे जज जिस भाषा को बोल रहे हैं, जैसे विचार सामने रख रहे हैं, वह तो संसद में सबसे बड़े गठबंधन की भाषा है, तो फिर वहां पर इनके खिलाफ क्या हो सकता है? लेकिन सोशल मीडिया पर, सार्वजनिक जीवन में जजों के ऐसे पूर्वाग्रहों के खिलाफ लगातार लिखे जाने की जरूरत है, और उन्हें संविधान की वैज्ञानिक जिम्मेदारी याद दिलाने की जरूरत है, ताकि अगली बार कोई दूसरा जज इस तरह का कुछ लिखते हुए चार बार सोच तो ले।
अभी-अभी हमने अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट के बारे में लिखा था कि किस तरह एक बहुत ही दकियानूसी कानून को बनाने वाले राज्य में उसे रोकने से सुप्रीम कोर्ट ने मना कर दिया क्योंकि जजों का बहुमत बहुत ही संकीर्णतावादी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बनाए हुए लोगों का था। भारत में जिस तरह सामाजिक हकीकत को अनदेखा करके, सर्वधर्म समभाव को अनदेखा करके कुछ जज जिस तरह कट्टरता की बात को बढ़ावा देते हैं, जिस तरह वे वैज्ञानिकता और पाखंड को बढ़ाते हैं, वह बहुत भयानक है। जाहिर है कि ऐसे जज बहुत से मामलों में अपनी इसी विचारधारा के चलते हुए किसी नेता, या किसी सरकार, या किसी नीति के पक्ष में अनुपातहीन ढंग से झुके हुए भी रहेंगे। भारत में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने अपने आपको अवमानना का एक कानून बनाकर जिस तरह एक फौलादी कवच के भीतर सुरक्षित रखा हुआ है, उस गैरजरूरी हिफाजत को भी खत्म करने की जरूरत है। अवमानना के कानून के चलते अगर किसी जज या उसके फैसले की कोई आलोचना होती है, तो छुईमुई के पत्तों की तरह संवेदनशील न्यायपालिका तुरंत ही उसके खिलाफ कार्रवाई शुरू कर देती है। इस बारे में भी देश के जागरूक तबके ने लगातार इस मुद्दे को उठाया है कि अवमानना का यह कानून खत्म किया जाना चाहिए ताकि अदालत के फैसले, उसकी सोच के बारे में जनता के बीच एक खुली चर्चा हो सके।
अदालत का अपने आपको जनचर्चा से इस तरह ऊपर रखना अलोकतांत्रिक रवैया है। अब तो सोशल मीडिया की मेहरबानी से बहुत से लोग बिना डरे-सहमे और शायद अवमानना के कानून से अनजान रहते हुए कई बातें लिख भी देते हैं। और यह लोकतांत्रिक सिलसिला आगे बढऩा चाहिए क्योंकि हो सकता है कि किसी दिन ऐसे किसी मामले को अवमानना के तहत कटघरे में खड़ा किया जाए तो उस पर होने वाली बहस इस कानून की संवैधानिकता को खत्म करने के काम आ जाए। फिलहाल हमारा ख्याल है कि सुप्रीम कोर्ट को खुद होकर किसी हाईकोर्ट के ऐसे फैसले का नोटिस लेना चाहिए, और उसे खारिज करने के लिए किसी अपील का इंतजार नहीं करना चाहिए, खुद होकर यह काम करना चाहिए। देश में सरकार से लेकर न्यायपालिका तक और सांसदों तक पर वैज्ञानिक सोच को विकसित करने की संवैधानिक जिम्मेदारी है, लेकिन यह तीनों ही संस्थाएं लगातार अवैज्ञानिक बातों को बढ़ावा देने में लगी हुई हैं। इन तीनों को संवैधानिक जिम्मा याद दिलाते हुए लोगों के बीच बहस छिडऩी चाहिए और इन पर खुलकर लिखा जाना चाहिए।
हिंदुस्तान के सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के बीच इन दिनों कई किस्म की लिस्ट घूम रही हैं। सुप्रीम कोर्ट में कितने जज बनाना है, या देश के बहुत से हाईकोर्ट में खाली पड़ी हुई कुर्सियों में निचली अदालतों के किन जजों को, या हाई कोर्ट के किन वकीलों को जज बनाना है, इस पर केंद्र सरकार के साथ सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम की बनाई लिस्ट पर चर्चा चल रही है, और सरकार की पसंद-नापसंद पर सुप्रीम कोर्ट अपनी असहमति भी जता रहा है। दरअसल किसी भी लोकतंत्र में जब सरकार के पास यह अधिकार रहता है कि वह किसी को जज बना सके या किसी का जज बनना रोक सके तो फिर हिंदुस्तान की तरह का सुप्रीम कोर्ट का कॉलेजियम रहने पर भी केंद्र सरकार कुछ लोगों के नाम तो रोक ही सकती है। और दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट से जुड़े हुए बहुत से लोगों का यह मानना है कि केंद्र सरकार अपने प्रभाव और दबाव का इस्तेमाल करके सुप्रीम कोर्ट के सर्वशक्तिमान कॉलेजियम से भी अपनी पसंद के लोगों के नाम आगे बढ़वा लेती है और फिर उन्हें तुरंत मंजूरी भी दे देती है। इससे दो बातें होती हैं एक तो केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी की जो विचारधारा है, उस पर जब अदालतों में किसी मामले में बहस होती है, तो ऐसे मनोनीत जज उसमें सरकार के काम आते हैं। सरकार की विचारधारा के काम आते हैं और कई मामलों में तो सरकार के फैसलों को भी सही ठहराने में उनकी भूमिका बहुत से लोगों को समझ आ जाती है। सुप्रीम कोर्ट के जजों में तो कई बार ऐसा साफ दिखने लगता है कि कौन-कौन से जज सरकार समर्थक हैं, और कौन-कौन से जज जनता के हितों की बात करते हैं। तो कहने के लिए तो हिंदुस्तान जैसे लोकतंत्र में कार्यपालिका और न्यायपालिका की बिल्कुल अलग-अलग भूमिका है और न्यायपालिका का एक किस्म से कार्यपालिका पर काबू भी रहता है, लेकिन जजों को बनाने के मामले में सरकार अपनी ताकत और प्रभाव का इस्तेमाल करके अपनी पसंद के लोगों को बिठा लेती है। ये लोग सरकार के बड़े लोगों को बड़े-बड़े जुर्म के बाद भी बचाने में काम आते हैं।
लेकिन यह बात महज हिंदुस्तान में हो ऐसा भी नहीं है। अमेरिका में तो सुप्रीम कोर्ट के जज रिटायर होते नहीं हैं, और उनके मरने पर ही कोई कुर्सी खाली होती है। ऐसे में किसी राष्ट्रपति को 4 बरस के अपने कार्यकाल में कितने जजों को मनोनीत करने का मौका मिला है, इस बात को बड़ा ही महत्वपूर्ण माना जाता है। पिछले रिपब्लिकन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को ऐसे कई मनोनयन का मौका मिला, और उन्होंने अपनी पार्टी की सोच के मुताबिक संकीर्णतावादी जजों को तैनात करवाया, जिससे उनके सामने किसी मामले के जाने पर वह रिपब्लिकन पार्टी की सोच, संकीर्ण सोच के मुताबिक सोचे सकें, और फैसला दें। इसका एक बड़ा सुबूत अभी 3 दिन पहले सामने आया जब अमेरिका के सुप्रीम कोर्ट ने वहां के एक राज्य टेक्सास के बनाए हुए एक नए कानून पर अमल रोकने से बहुमत से इंकार कर दिया। जितने जज इस फैसले में शामिल थे, उनमें अधिक ऐसे थे जिन्होंने तुरंत कोई दखल देने से मना कर दिया, और नतीजा यह हुआ कि आधी रात तक चले इस मामले में, तारीख बदलते ही टेक्सास में यह विवादास्पद कानून लागू हो गया।
रिपब्लिकन पार्टी के बहुमत वाले इस राज्य ने एक कानून बनाया है जिसके तहत 6 हफ्ते से अधिक की गर्भवती महिला का गर्भपात नहीं किया जा सकेगा। चिकित्सा विज्ञान बताता है कि अधिकतर गर्भवती महिलाओं को 6 हफ्ते में तो यह पता भी नहीं चलता है कि वे गर्भवती हैं। ऐसी महिलाओं की जांच में भी 6 हफ्ते के बाद ही पेट के बच्चे की धडक़न का पता लगता है। इस राज्य ने जो कानून बनाया है उसके मुताबिक अब तकरीबन कोई भी महिला गर्भपात नहीं करा सकेगी क्योंकि अधिकतर गर्भपात तो इन छह हफ्तों के बाद ही होते हैं। इस राज्य की सरकार ने इस कानून को लिखते हुए इस धूर्तता के साथ इसे बनाया कि इसमें सुप्रीम कोर्ट भी कोई दखल ना दे सके। अदालत में किसी मामले को, किसी कानून को चुनौती देते हुए ऐसे लोगों को नोटिस देना होता है जिन पर उस कानून को लागू करने की जिम्मेदारी रहती है। सरकार के बनाए हुए कानून के खिलाफ अदालतों में पहुंचे हुए लोग आमतौर पर सरकार के नुमाइंदों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करते हैं। लेकिन इस कानून को लिखते हुए टेक्सास की सरकार ने यह होशियारी दिखाई कि इसे लागू करने का जिम्मा उसने जनता पर डाल दिया। जनता में से कोई भी व्यक्ति अगर अदालत में यह साबित कर सके कि किसी महिला ने 6 हफ्तों के बाद गर्भपात करवाया है तो उस महिला सहित उसके सारे मददगार, डॉक्टर क्लीनिक, नर्स, और तो और उसे क्लीनिक तक ले जाने वाले टैक्सी ड्राइवर तक के खिलाफ मुकदमा दर्ज हो सकता है, और अगर यह मुकदमा साबित हो गया, तो इन तमाम लोगों पर दस-दस हजार डॉलर का जुर्माना हो सकता है, और मुकदमा करने वाले व्यक्ति को दस हजार डॉलर मिलेंगे और वकील का खर्च भी मिलेगा। इस तरह टैक्सास की सरकार ने इस कानून को लागू करवाने का जिम्मा आम जनता को दे दिया है कि वही शिकायत करके इसे लागू करवा सकती है, वहीं अदालत में जाकर किसी के खिलाफ केस कर सकती है।
अमेरिका के कानून के विश्लेषक यह मान रहे हैं कि बहुत ही धूर्तता के साथ ऐसा कानून बनाया गया है कि जिस पर अदालत का कोई बस ना चले और अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट भी अपने पुराने फैसलों के रहते हुए भी इस कानून पर रोक न लगा सके। नतीजा यह हुआ है कि अमेरिकी संविधान में और सुप्रीम कोर्ट के कई दशक पहले के फैसलों में पूरी तरह से स्थापित यह बात धरी रह गई कि गर्भपात महिला का अधिकार है, महिला का शरीर उसका अधिकार है। अब दूसरा खतरा यह आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट के संकीर्णतावादी जजों के बहुमत ने जब इस कानून में दखल देने से मना कर दिया है, किसी तरह का स्थगन देने से मना कर दिया है, तो अब रिपब्लिकन सरकारों वाले एक दर्जन दूसरे राज्य भी ठीक ऐसा ही कानून बना सकते हैं, और उससे उनका बहुत पुराना राजनीतिक मुद्दा लागू हो सकता है कि किसी भी तरह के गर्भपात पर पूरी तरह रोक लगाई जाए।
यह समझने की जरूरत है कि जब सुप्रीम कोर्ट में जज अपनी विचारधारा के बना दिए जाएं, और सरकार कानून ऐसा बना दे कि उसमें कोर्ट का दखल नामुमकिन सा हो जाए तो फिर सरकार अदालत के काबू से बाहर अपनी मनमानी कर सकती है। अमेरिका में आज यही हो रहा है और असहमति दर्ज कराने वाले जज संख्या में कम पड़ रहे हैं, और वे एक राज्य सरकार की इस हरकत पर अपना आक्रोश, अपनी निराशा दर्ज भी कर रहे हैं कि एक सरकार ने एक ऐसा कानून बना दिया है कि जिसमें अदालत दखल ना दे सके, और अदालत के कुछ जज या जजों का बहुमत उस कानून को स्थगित करने का काम भी नहीं कर रहा है। जजों के बीच बहुत गहरे मतभेद इसे लेकर हुए हैं, और आज हालत यह है कि टेक्सास में किसी महिला का अपने बदन पर कोई अधिकार नहीं बच गया है। बाकी देश में भी जहां-जहां रिपब्लिकन पार्टी की सरकारें हैं, इसी की कार्बन कॉपी लागू होने का खतरा हो गया है। दुनिया के बाकी लोकतंत्रों को भी इस बात से सबक लेना चाहिए कि अगर जजों की नियुक्ति सत्तारूढ़ लोग अपनी मर्जी से कर सकते हैं तो फिर वह अपनी मर्जी से कुछ भी कर सकते हैं और अदालतें मूक दर्शक बनी बैठी रह सकती हैं।
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जिन लोगों की अफगानिस्तान के ताजा हाल में दिलचस्पी है, और जो अंतरराष्ट्रीय मामलों में विदेश नीति में दिलचस्पी रखते हैं, वे लोग भारत को लेकर हमारी तरह कुछ फिक्रमंद भी हैं कि आज पाकिस्तान और चीन, अफगानिस्तान के तालिबान के एकदम करीब हैं, और हिंदुस्तान अलग-थलग पड़ गया है, क्योंकि यह पिछली अफगान सरकार के साथ इतना अधिक जुड़ा हुआ था कि वह तालिबान से दूर चला गया था। जब पिछले बरस अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तालिबान के साथ एक लिखित समझौता किया था और अमेरिका की फौज को अफगानिस्तान से वापस बुला लेना तय किया था, उस वक्त भी भारत पीछे रह गया। उसने मौके को समझा नहीं और अफगानिस्तान के साथ अपने रिश्तों को उसने वहां की मौजूदा सरकार के साथ रिश्तों तक सीमित रखा। उसे यह सूझा ही नहीं कि बाकी कई देश तालिबान को सम्भावना मानकर उसके साथ भी रिश्ते बना रहे थे। खैर जो हो गया सो हो गया, अब भारत सरकार ने अफगानिस्तान से बाहर तालिबान से बातचीत शुरू की है। हमारे पाठकों को याद होगा कि हमने करीब 10 दिन पहले ही इसी जगह इस बात को लिखा था कि भारत को तालिबान के साथ बात शुरू करनी चाहिए, क्योंकि और कोई रास्ता नहीं है।
जिन लोगों को यह लग रहा है कि पाकिस्तान आज तालिबान के करीब है और इस नाते भारत, पाकिस्तान, चीन के इस तनावपूर्ण त्रिकोण में वह भारत के मुकाबले बेहतर हालत में है, उन्हें तस्वीर के बाकी पहलुओं को भी देखना चाहिए। पाकिस्तान की जमीन पर बरसों से 14 लाख से अधिक अफगान शरणार्थी चले आ रहे हैं। और इसके भी पहले से अमेरिका की मदद के तलबगार पाकिस्तान को अपनी जमीन पर अफगान शरणार्थियों के बीच मदरसों का जाल बिछाने की इजाजत देनी पड़ी थी, और पाकिस्तान की जमीन पर ही अफगानिस्तान में मौजूद रूसी फौजियों से लडऩे के लिए हथियारबंद दस्ते तैयार हो रहे थे। पाकिस्तान की जमीन पर धर्मांध और कट्टर लड़ाके तैयार करने वाले मदरसों का नुकसान खुद पाकिस्तान को अपनी जमीन पर अपने लोगों के बीच कम नहीं हुआ है। पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरता और धर्मांधता फैलने के पीछे जो वजहें हैं उनमें से एक यह भी है कि उसकी जमीन पर अफगान शरणार्थियों के बीच अफगान लड़ाके तैयार किए जा रहे थे। इसलिए आज अगर अफगानिस्तान में इस्लामी कट्टरता के साथ अगर कोई सरकार बन रही है और उसका पाकिस्तान से बड़ा गहरा रिश्ता रहा है, तो यह रिश्ता कोई दौलत नहीं है, यह रिश्ता एक किस्म से एक बोझ भी है।
आज अफगानिस्तान के पास अड़ोस-पड़ोस के देशों को देने के लिए कुछ नहीं है, और उनसे मदद लेने के लिए उसकी जरूरतें अंतहीन हैं। ऐसे में पाकिस्तान और चीन के अलावा ईरान और रूस से भी अफगानिस्तान की तालिबान सरकार की बड़ी उम्मीदें रहेंगी। यह भी समझने की जरूरत है कि संयुक्त राष्ट्र का अंदाज यह है कि अफगानिस्तान में दसियों लाख लोगों के भूखे रहने का एक बहुत बड़ा खतरा आ खड़ा हुआ है। खबरें बताती हैं कि किस तरह आज अफगानिस्तान के लोग वहां की बेरोजगारी, भुखमरी और वहां पर हिंसा के खतरे को देखते हुए पाकिस्तानी सरहद पर इक_ा हैं, और पाकिस्तान के भीतर जाना चाहते हैं, क्योंकि इस जमीन पर पहले के आए हुए अफगान शरणार्थी बसे हुए हैं, और उन्हें धर्म के नाम पर, जुबान के नाम पर, पाकिस्तान में हमदर्दी और सिर छुपाने की जगह मिलने की उम्मीद है। यह नौबत किसी भी देश के लिए एक बहुत बड़ा बोझ रहती है और पाकिस्तान पहले से यह बात कहते आया है कि वह और अधिक अफगान शरणार्थियों का बोझ नहीं उठा सकता, उसकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है। फिर एक बात यह भी है कि आज अफगानिस्तान से जो लोग देश छोडक़र पाकिस्तान आ रहे हैं, ऐसे लोगों के बारे में तालिबान सरकार का क्या रुख रहेगा यह भी अभी साफ नहीं है। अमेरिकी सरकार वहां के अपने मददगार रहे जिन लोगों को अफगानिस्तान से ले जाना चाहती थी, उन्हें भी नहीं ले जा पाई है क्योंकि समझौते के तहत 31 अगस्त तक ही अमेरिका को वहां से हट जाना था। एक अंदाज यह है कि पिछले 20 वर्षों में अफगानिस्तान में अमेरिका की मदद करने वाले करीब 3 लाख अफगान ऐसे हैं जिन्हें अमेरिका खतरे में छोडक़र चले गया है, क्योंकि उसके पास भी और कोई चारा नहीं बचा था। इसलिए पाकिस्तान के आज अफगानिस्तान के साथ बहुत ही करीबी रिश्ते से उसे हासिल कम होना है, इन रिश्तों का बोझ ही उस पर अधिक रहेगा। आज पाकिस्तान की अपनी आर्थिक हालत ऐसी नहीं है कि वह अफगानिस्तान की किसी तरह से मदद कर सके। चीन और रूस जैसे दो बड़े और सक्षम देशों को अफगानिस्तान की जो मदद करनी होगी वह वहां की तालिबान सरकार को वे सीधे देना चाहेंगे, उसमें पाकिस्तान कहीं तस्वीर में नहीं आता है। इसलिए 15 लाख शरणार्थियों की संख्या और अगर बढ़ती चली जाती है तो यह पाकिस्तान पर बड़ी तकलीफ की बात रहेगी।
इसलिए अफगानिस्तान से जुड़े हुए अलग-अलग देशों के बारे में आज जो खबरें आ रही हैं, वे उन्हें अफगानिस्तान की नई तालिबान सरकार के साथ बड़े गहरे रिश्ते वाली बतला रही हैं, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि इन तमाम देशों के साथ अपनी घरेलू दिक्कतें ऐसी हैं कि जिनके चलते हुए तालिबान के साथ बेहतर रिश्ते रखना इनकी मजबूरी भी है। चीन के भीतर उईगर मुस्लिमों की एक बड़ी आबादी ऐसी है जो कि चीन की सरकार से बहुत बुरी तरह प्रताडि़त है। चीन पर यह आरोप लगते रहे हैं कि वह इन मुस्लिम समुदायों के लोगों को बहुत बुरी हालत में रखता है, उनके मानवाधिकार कुचलता है। ऐसे में इस्लामी राज कायम करने वाले तालिबान पर यह नैतिक बोझ भी रहेगा कि वह चीन में मौजूद बड़ी संख्या में ऐसे मुस्लिम क़ैदियों के बारे में क्या करता है, क्या रुख रखता है। इसलिए भी चीन तालिबान के साथ अपने रिश्ते ठीक रखना चाहता है कि कहीं अफगान जमीन से चीन के खिलाफ ऐसी बगावत खड़ी ना होने लगे जो कि चीन में मौजूद उईगर मुस्लिमों को आतंकी बनाने का काम करे। दूसरी तरफ रूस में 50 लाख से अधिक मुस्लिम रहते हैं और उसकी दिक्कत यह है कि वह अपनी इस बड़ी मुस्लिम आबादी के बीच किसी किस्म की राजनीतिक बेचैनी या बगावत देखना नहीं चाहता। अगर पड़ोस के अफगानिस्तान के मुस्लिम हथियारबंद लोगों के हाथों अमेरिका के हार जाने का कोई असर रूस में बसे हुए मुस्लिम समुदाय पर होगा, तो उनके भीतर एक अलग राजनीतिक चेतना आ सकती है, उनमें से कुछ बागी तेवरों वाले भी हो सकते हैं। इसलिए रूस की अपनी जरूरत यह है कि अफगानिस्तान की जमीन से कोई ऐसे हथियारबंद भडक़ाऊ या उकसाऊ काम न हों जो कि रूस में मुस्लिम लोगों को भडक़ायें।
खुद पाकिस्तान आज ऐसी नौबत में खड़ा हुआ है कि अफगान जमीन से पाकिस्तान के कई आतंकी समूहों को मदद मिल रही है, और इस बात को पाकिस्तान ने अभी-अभी औपचारिक रूप से तालिबान के सामने रखा भी है। पाकिस्तान में मौजूद तालिबान समूहों को लेकर अभी अफगान-तालिबान ने यह साफ भी कर दिया है कि उनसे अफगान-तालिबान का कोई लेना देना नहीं है। इसलिए रूस, पाकिस्तान और चीन, इनके बारे में सीधे-सीधे ऐसा मान लेना ठीक नहीं होगा कि इन तीनों ने अमेरिका का विरोध करने के लिए अफगान-तालिबान का साथ दिया है, और आगे देते रहेंगे। इन सबकी घरेलू मजबूरियां भी हैं, जिनके चलते ये तालिबान के साथ अपने रिश्ते ठीक रखना चाहते हैं। भारत की जो सरकार तालिबान को आतंकी मानती थी उसने रातों-रात एक तीसरे देश में तालिबान से औपचारिक राजनयिक बैठक की है, और संयुक्त राष्ट्र संघ में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए तालिबान को आतंकियों की एक सूची से बाहर भी करवाया है। ऐसा इसलिए भी है कि भारत पर एक खतरा यह है कि कश्मीर में तालिबान समर्थित समूह आतंकी वारदात कर सकते हैं और भारत तालिबान को कश्मीर को महज एक मुस्लिम मुद्दा मानकर उसमें दखल देने से दूर रखना चाहता है। आज हिंदुस्तान में भारत सरकार के तालिबान से बैठक करने के बारे में व्यंग्य से काफी कुछ लिखा जा रहा है। ऐसा लिखा हुआ पढक़र ही हम इस मुद्दे पर लिखने की सोच रहे थे कि विदेश नीति के मामलों को और देश के राष्ट्रीय हित के मामलों का अतिसरलीकरण, नहीं करना चाहिए। एशिया के इस पूरे हिस्से के जो मिले-जुले हित हैं या जो मिले-जुले खतरे हैं, उनको भी देखते हुए बाकी देश तालिबान के साथ तालमेल बिठाने में लगे हुए हैं, और बदले हुए इस हालात में खुद तालिबान ने यह कहा है कि वह अमेरिका सहित तमाम यूरोपीय देशों के साथ अपने रिश्ते ठीक रखना चाहता है। वह चाहता है कि अमेरिकी फौजों की वापसी के बाद, अमेरिका और यूरोप के देश लौटें, और तालिबान को अफगानिस्तान बेहतर बनाने में मदद करें। लोगों को यह बात भी कुछ अटपटी लग सकती है, लेकिन जमीनी हकीकत यही रहती है कि तालिबान का राज्य अफगानिस्तान में एक आतंकी राज्य न बन सके, और वह लोकतंत्र के जितने करीब लाया जा सके, उसके लिए दुनिया के देशों को तालिबान से अपना पुराना परहेज छोडक़र उससे बातचीत करनी ही होगी, जो कि भारत ने भी शुरू कर दी है। भारत के इस बातचीत शुरू करने के 10 दिन पहले हमने इस बात का सुझाव दिया भी था। आगे-आगे देखना है कि क्या होता है।
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सुप्रीम कोर्ट ने सोशल मीडिया, वेब पोर्टल और निजी टीवी चैनलों के एक वर्ग में झूठी ख़बरों को चलाने, और उन्हें सांप्रदायिक लहज़े में पेश करने को लेकर चिंता जताते हुए कहा है कि इससे देश का नाम खऱाब हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने जमीयत उलेमा-ए-हिंद की ओर से दायर याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए ये कहा। इस पीठ की अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना कर रहे थे। इन याचिकाओं में पिछले वर्ष निज़ामुद्दीन मरकज़ में हुई एक धार्मिक सभा को लेकर ‘फेक न्यूज’ के प्रसारण पर रोक लगाने के लिए केंद्र को निर्देश देने और इसके जि़म्मेदार लोगों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करने की माँग की गई है। सुनवाई करते हुए अदालत ने पूछा, ‘निजी समाचार चैनलों के एक वर्ग में जो भी दिखाया जा रहा है उसका लहजा सांप्रदायिक है। आखऱिकार इससे देश का नाम खराब होगा। आपने कभी इन निजी चैनलों के नियमन की कोशिश की है?’ उन्होंने कहा, ‘फेक न्यूज और वेब पोर्टल तथा यूट्यूब चैनलों पर लांछन लगाने को लेकर कोई नियंत्रण नहीं है। अगर आप यूट्यूब पर जाएँ तो वहाँ देखेंगे कि किसी आसानी से फेक न्यूज को चलाया जा रहा है और कोई भी यूट्यूब पर चैनल शुरू कर सकता है।’
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का कोई लिखित आदेश या फैसला नहीं आया है लेकिन भरोसेमंद मीडिया में जो खबरें आई हैं उनमें सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और दो और जजों की जुबानी टिप्पणियां लिखी गई हैं। अगर उन्होंने केवल इतना कहा है तो हमें इससे थोड़ी सी निराशा भी हो रही है क्योंकि सोशल मीडिया, वेबसाइट, और निजी टीवी चैनलों में जिस तरह से सांप्रदायिकता को भडक़ाया जा रहा है, उससे खतरा केवल दुनिया में देश का नाम खराब होने का नहीं है, इससे देश के भीतर लोगों के बीच माहौल खराब हो रहा है, बहुत हद तक हो चुका है। यह खतरा हिंदुस्तान की बदनामी का नहीं है, यह खतरा यहां की आबादी के बीच नफरत की एक खाई खुद जाने का है।
यह बात सही है कि आज बिना किसी काबू के इंटरनेट और सोशल मीडिया पर कोई भी व्यक्ति कुछ भी पोस्ट कर सकते हैं, फेक न्यूज़ फैला सकते हैं, यूट्यूब चैनल पर जो चाहे वह पोस्ट कर सकते हैं, और बाकी सोशल मीडिया का भी ऐसा ही इस्तेमाल चल रहा है। लेकिन आज जितना खतरा इससे है, उतने का उतना खतरा इस बात से भी है कि फेक न्यूज या नफरत को रोकने के नाम पर केंद्र सरकार उसे नापसंद सभी चीजों को रोकने का काम कर सकती है, और झूठ को रोकना तो नाम रह जाएगा, असल में कड़वे सच को रोकने का काम भी होने लगेगा। इसलिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कभी-कभी झूठ फैलाने के भी काम आती है, कभी कभी नफरत फैलाने के भी काम आती है, लेकिन इन वजहों से उस स्वतंत्रता को कम करना कोई इलाज नहीं है। और जहां तक सरकारों का बस चले, तो वे अपने को नापसंद तमाम चीजों को रोकने के लिए सोशल मीडिया, इंटरनेट, मैसेंजर सर्विसों, सभी पर एक कड़ा काबू बनाने की कोशिश में लगी ही रहती हैं। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की यह बात सही है कि निजी समाचार चैनलों के एक तबके में जो भी दिखाया जा रहा है उसका लहजा सांप्रदायिक है और यह बात भी सच है कि केंद्र सरकार ने इन चैनलों को काबू में रखने के लिए, इनकी नफरत पर इनके खिलाफ कार्रवाई करने के लिए, कुछ भी नहीं किया है। इसलिए महज टेक्नोलॉजी या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिर पर तोहमत का घड़ा फोड़ देना ठीक नहीं होगा। जहां सरकार को कार्रवाई करनी चाहिए वहां कार्रवाई न करके कानून को नाकाफी बताना, संचार कंपनियों पर काबू को बढ़ाने की बात करना, सोशल मीडिया और मैसेंजर सर्विसों पर अधिक पकड़ बनाने की बात करना, यह जायज नहीं है। देश में पहले से मौजूद कानूनों का इस्तेमाल न करके नए-नए कानून बनाना या नई-नई ताकत हासिल करना जरा भी न्याय संगत नहीं है।
हर युग में टेक्नोलॉजी आजादी की नई संभावनाएं लेकर आती है। जिस वक्त छपाई चालू हुई उस वक्त भी मौजूदा शासकों को अखबार नापसंद होने लगे क्योंकि उनके तेवर सरकार के हिमायती नहीं रहते थे, और उन में सत्तारूढ़ लोगों की आलोचना भी रहती थी। सरकार को यह लगता था कि यह टेक्नोलॉजी अराजक है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का बेजा इस्तेमाल हो रहा है। दुनिया के वे देश जहां लोकतंत्र परिपच् था, और जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अधिक महत्व दिया जाता था, वहां तो काम चल गया था क्योंकि वहां सत्तारूढ़ लोगों को मालूम था कि इस स्वतंत्रता को अधिक कुचलना नामुमकिन नहीं है। लेकिन कई देशों में सरकारें ऐसी कोशिश कर रही हैं कि उसे नापसंद छापने या दिखाने वाले लोगों के खिलाफ तरह-तरह की कार्यवाही की जाए। यह सिलसिला लोकतंत्र को कमजोर और बेअसर बनाने की नीयत वाला है, और राजनीतिक ताकतें जब तक सत्ता पर नहीं पहुंचती हैं, तब तक तो वे आजादी की हिमायती रहती हैं, और सत्ता पर आते ही उन्हें वह आजादी अराजक लगने लगती है। सुप्रीम कोर्ट अब इस मामले की सुनवाई कर रहा है और कई राज्यों की हाईकोर्ट में इससे जुड़े हुए जो मामले चल रहे हैं, उन्हें भी एक साथ जोड़ रहा है। ऐसी उम्मीद की जा सकती है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने जहां-जहां अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं कर रही हैं, वह भी अदालत के सामने आएगा, और अदालत के मार्फत देश के सामने साफ होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान के जिन लोगों के सिर से अब पेगासस की दहशत हट चुकी है और लोग मान चुके हैं कि अब उन्हें सरकार या किसी गैर सरकारी एजेंसी की जासूसी का खतरा नहीं है, उनके लिए एक खबर है जिससे उनकी सारी तसल्ली धरी रह जाएगी। एप्पल कंपनी ने अभी एक ऐसी टेक्नोलॉजी विकसित करने की घोषणा की है जिससे वह अमेरिका के अपने तमाम आईफोन में तस्वीरों, वीडियो, और टाइप किए हुए संदेशों में झांक सकती है। उसने यह काम बच्चों की पॉर्नोग्राफी को रोकने की अमेरिकी सरकार की मुहिम के तहत अपनी जिम्मेदारी पूरी करने के लिए किया है. इस टेक्नोलॉजी से एप्पल अमेरिका के अपने हर आईफोन, और आईफोन से जुड़े हुए आईक्लाउड अकाउंट में अपने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वाले कंप्यूटरों से झांक सकेगी, झांकेगी, और देख सकेगी कि वहां चाइल्ड पॉर्नोग्राफी का कुछ सामान तो नहीं है। अगर उसे किसी एक फोन पर ऐसे 30 से अधिक फोटो या वीडियो मिलेंगे तो एप्पल का आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस उसके कर्मचारियों को सतर्क करेगा। उसके बाद वे कर्मचारी खुद इन तस्वीरों को देखेंगे, और अगर उन्हें चाइल्ड पॉर्नोग्राफी देखेगी तो वे ऐसा फोन इस्तेमाल करने वाले की जानकारी सबूत सहित अमरीकी जांच अधिकारियों को दे देंगे। इसमें कंपनी द्वारा की गई घोषणा में ही बतलाया गया है कि 13 साल से कम उम्र के जो बच्चे एप्पल आईफोन इस्तेमाल करते हैं, उनके फोन की अलग से जांच होगी, और उनमें से कोई बच्चे अगर अपनी खुद की या किसी और बच्चे की नंगी तस्वीर किसी को भेज रहे हैं, या किसी से पा रहे हैं, तो इसकी जानकारी एप्पल के कंप्यूटर तुरंत ही कंपनी के कर्मचारियों को देंगे, और नाबालिग बच्चों के मां-बाप को इसकी खबर की जाएगी। अगर कोई व्यक्ति बच्चों से ऐसी फोटो मांगने के संदेश भी भेजेंगे तो वैसे संदेश भी यह कंपनी पढ़ सकेगी। एप्पल के पहले फेसबुक और गूगल जैसी कंपनियों ने यह तकनीक विकसित की है, जिससे फेसबुक पर आने जाने वाली तस्वीरों में बच्चों की नंगी तस्वीरें को रोकने का इंतजाम है, और गूगल ने अपने यूट्यूब जैसे चैनल पर चाइल्ड पॉर्नोग्राफी को रोकने के कई इंतजाम किए हुए हैं। एप्पल इस मुहिम में पीछे था, लेकिन अभी उसने जो घोषणा की है, उसमें वह खासी बड़ी कार्यवाही करने जा रहा है।
लेकिन अमेरिका में निजता के हिमायती लोग इस बात को लेकर बड़े फिक्रमंद हैं कि कंपनी ने एक ऐसी तकनीक विकसित कर ली है जिससे वह लोगों के फोन में घुसपैठ कर सकती है, वहां पर फोटो, वीडियो और संदेश, सबको अपने कंप्यूटरों के मार्फत पढ़ सकती हैं, और शक होने पर उसके कर्मचारी भी इन तस्वीरों और वीडियो को देख सकते हैं। आजादी के हिमायती संगठनों का यह कहना है कि कुछ बरस पहले जब अमेरिका में एक आतंकी के आईफोन का लॉक खोलना अमेरिकी खुफिया एजेंसियों से भी नहीं हुआ तो अमेरिकी सरकार ने एप्पल से अनुरोध किया था कि वह इसका लॉक खोल दे ताकि आतंक के खतरे की जानकारी मिल सके। इसके बाद अमेरिका की बड़ी अदालत ने भी एप्पल को इसका हुक्म दिया था और कंपनी ने अदालत में यह कहा था कि उसके पास ऐसी तकनीक ही नहीं है कि वह बिना पासवर्ड के अपने फोन को खोल सके। उसने कहा था कि ऐसी तकनीक विकसित करना कैंसर विकसित करने जैसा खतरनाक काम होगा और कंपनी ऐसा नहीं करने वाली है। अदालत के आदेश के बाद भी एप्पल ने ऐसा नहीं किया था।
अब चाइल्ड पॉर्नोग्राफी को रोकने के लिए इस कंपनी ने काफी दूर तक घुसपैठ करने वाली ऐसी तकनीक के इस्तेमाल की घोषणा कर दी है तो लोग चौकन्ने हो गए हैं। मानवाधिकार संगठनों और निजता के समर्थकों का यह मानना है कि अब एप्पल के पास अमेरिकी सरकार या अमेरिकी अदालत में यह तर्क देने की गुंजाइश खत्म हो चुकी है कि उसके पास ऐसी तकनीक ही नहीं है. अब जब वह तकनीक बना चुकी है, तो यह महज वक्त की बात है कि चाइल्ड पॉर्नोग्राफी के बाद सरकार और किस अपराध को रोकने के लिए इस कंपनी पर घुसपैठ का दबाव डालेगी, और धीरे-धीरे सरकार निजता को पूरी तरह से खत्म कर सकेगी क्योंकि कंपनी ने ऐसी तकनीक विकसित कर ली है। अमेरिकी निजता संगठनों का यह भी कहना है कि दुनिया के बहुत से दूसरे देश भी कंप्यूटर और टेलीफोन कंपनियों पर लगातार दबाव डाल रहे हैं कि वे सरकार को घुसपैठ का रास्ता बनाकर दे। एप्पल के मामले में ही अमेरिका में जो बहस चल रही है उसमें यह गिनाया जा रहा है कि चीन में वहां की सरकार ने इस कंपनी पर दबाव डालकर यह इंतजाम कर लिया है कि इसके ग्राहकों की सारी जानकारी चीन में ही इसके सरवर पर रहेगी। लोगों का मानना है कि इससे चीन में आईफोन इस्तेमाल करने वाले लोगों पर सरकार की एक पकड़ बन गई है। अमेरिका में इस पर चल रही बहस के दौरान हिंदुस्तान की सरकार का जिक्र भी किया जा रहा है कि किस तरह वह व्हाट्सएप के पीछे लगी हुई है कि उसे घुसपैठ की इजाजत दी जाए, किस तरह व ट्विटर या फेसबुक पर अपने को नापसंद सामग्री को मिटाने का इंतजाम कर रही है. डिजिटल घुसपैठ के लिए पेगासस जैसे खुफिया हैकिंग सॉफ्टवेयर का भारत में भी इस्तेमाल किए जाने की खबरें तो पिछले कुछ महीनों से चल ही रही हैं, जो कि सुप्रीम कोर्ट में एक गंभीर कगार तक आ पहुंची हैं।
लोग इस बात को लेकर फिक्रमंद हैं कि मोबाइल फोन जैसा निजी सामान अगर किसी कंपनी की बिल्कुल ही आम इस्तेमाल की तकनीक से घुसपैठ के लायक रह जाएगा तो लोगों की व्यक्तिगत जिंदगी कुछ भी नहीं बचेगी, उसमें व्यक्तिगत कुछ भी नहीं रह पाएगा। आज बात एप्पल के कंप्यूटरों की है, और कल हो सकता है कि एप्पल के कोई कर्मचारी कंपनी की नीतियों से बगावत करके इसमें घुसपैठ करें, और वहां की जानकारी को लेकर बाहर निकल जाएं। एप्पल को खुद भी अंदाज है कि उसकी इस मुहिम से उसके ग्राहक बिदक सकते हैं, तो उसने अपने बिक्री करने वाले कर्मचारियों की एक अलग से ट्रेनिंग शुरू की है कि ग्राहकों की तमाम फिक्र को किस तरह सुलझाया जाए और उनका भरोसा किस तरह कायम रखा जाए। लेकिन कुल मिलाकर हकीकत यह है कि एप्पल ने ऐसी तकनीक ना केवल विकसित कर ली है बल्कि उसका इस्तेमाल शुरू करने की घोषणा की है और किसी भी सरकार की इस ताकत पर लार टपक सकती है कि वह लोगों के मोबाइल पर कुछ किस्म की फोटो कुछ किस्मों के वीडियो या कोई भी संदेश ढूंढ सकती हैं। इसके लिए कंपनी पर कब से कितना दबाव पड़ेगा या कंपनी के कंप्यूटरों में घुसपैठ करके सरकार या दूसरी हैकिंग एजेंसियां ऐसा कर पाएंगे, यह खतरा सामने खड़ा ही रहेगा। एप्पल तो दुनिया की एक सबसे बड़ी कंपनी है और इसने अभी कुछ वर्ष पहले तक अमेरिकी सरकार और अमेरिकी अदालत की, आतंक के एक मामले में भी कोई मदद करने से साफ मना कर दिया था। दूसरी तरफ मोबाइल फोन और कंप्यूटर बनाने वाली बहुत सी ऐसी चीनी कंपनियां हैं जिनके बारे में दुनिया भर में यह शक है कि वे चीन की सरकार या खुफिया एजेंसियों को तमाम जानकारियां पहुंचाती हैं। पश्चिम के कई देशों में चीन की ऐसी बदनाम कंपनियों के टेलीफोन एक्सचेंज से लेकर उनके मोबाइल फोन तक इस्तेमाल नहीं किए जा रहे हैं। भारत में भी शायद सरकार, फौज, और खुफिया एजेंसियां ऐसी कंपनियों के सामान इस्तेमाल करने से बचती हैं। अब सवाल यह है कि अगर चाइल्ड पॉर्नोग्राफी को रोकने के नाम पर भी, या शक का फायदा दिया जाए तो यह कह सकते हैं कि चाइल्ड पॉर्नोग्राफी को रोकने के लिए, अगर ऐसी तकनीक विकसित की जा रही है तो वह बेजा इस्तेमाल के लिए भी मौजूद रहेगी। सरकारी खुफिया एजेंसियां और हैकिंग कंपनियां ये सब इस नए रास्ते के कानूनी या गैर कानूनी इस्तेमाल की संभावनाएं ढूंढने में लग चुके होंगे। आज एक कंपनी ने ऐसा किया है, आगे चलकर दूसरी कंपनियां ऐसा करेंगी, और बात मोबाइल से कंप्यूटरों तक चली जाएगी और दुनिया में कुछ भी गोपनीय या निजी नहीं रह जाएगा।
हम शायद ऐसी नौबत को ध्यान में रखते हुए हमेशा से इस बात को लिखते हैं कि लोगों का अपना चाल-चलन ठीक रखना, गैर कानूनी काम से बचना ही अकेला रास्ता है। धीरे-धीरे ऐसी तकनीक भी बन सकती है कि लोगों के मन में कोई बात आए और कंप्यूटर या फोन उसको रिकॉर्ड कर ले, इसलिए लोगों को अपना मन भी साफ-सुथरा रखना सीख लेना चाहिए। आज लोगों के मन में कोई बात आए और कल वह पोस्टर की तरह छपकर सरकारों के पास पहुंच जाए, यह बहुत खतरनाक नौबत होगी। फिलहाल मुजरिमों को पकडऩे और निजी जिंदगी की निजता को खतरे में डालने के बीच एप्पल की यह नई तकनीक आई है, और देखना है कि इसके बेजा इस्तेमाल कबसे सामने आते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
मीडिया में कुछ अलग-अलग खबरें हैं, और कुछ अपने आसपास सडक़ों पर बदलती हुई तस्वीर दिख रही है, इन दोनों को मिलाकर देखें तो लगता है कि आने वाला वक्त बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों का होने वाला है। और हो सकता है कि जिस शहरी प्रदूषण को लोग कभी कम ना होने वाला मानकर चल रहे थे, वह कम होने लगे और धीरे-धीरे हवा साफ होने लगे। आज की एक खबर यह है कि हिंदुस्तान की ही एक ऑटोमोबाइल कंपनी ने अभी अपनी एक दमदार इलेक्ट्रिक कार बाजार में उतारी है जो सिंगल चार्ज में 300 किलोमीटर से अधिक चलेगी। दूसरी खबर देश की राजधानी के पास के एक औद्योगिक क्षेत्र की है कि वहां किस तरह बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों को बनाने के बहुत सारे उद्योग लग रहे हैं और वह एक इलेक्ट्रिक सिटी कहला रही है। फिर हम अपने आसपास देख रहे हैं तो पिछले दो-तीन वर्षों में लगातार शहरों में बैटरी से चलने वाले ऑटो रिक्शा बढ़ते दिख रहे हैं और अभी डीजल से चलने वाले ऑटो रिक्शा जितना प्रदूषण फैलाते हुए चलते थे धुएं के साथ-साथ जितना शोर करते हुए चलते थे, वह पूरे का पूरा सिलसिला बैटरी वाले ऑटो रिक्शा में खत्म हो गया है, और बगल से गाड़ी निकलने पर आवाज तक नहीं आती है। दिल्ली की एक खबर यह है कि वहां की सरकार ने बैटरी से चलने वाली सैकड़ों बसें खरीदी हैं।
कुल मिलाकर मतलब यह है कि मौजूदा गाडिय़ां धीरे-धीरे कम होने वाली हैं क्योंकि 15 बरस के बाद किसी गाड़ी का दोबारा रजिस्ट्रेशन कराना बहुत महंगा पडऩे वाला है, और उसे बेचना सस्ता पडऩे वाला है। दूसरी तरफ ऐसे शहर बढ़ते चल रहे हैं जहां पर डीजल ऑटो रिक्शा के बजाय बैटरी ऑटो रिक्शा को केंद्र और राज्य सरकार बढ़ावा दे रही हैं उन पर सब्सिडी दे रही हैं। यह नई गाडिय़ां इतनी सहूलियत की हैं कि इन्हें बड़ी संख्या में महिलाएं भी चला रही हैं। परंपरागत मुसाफिर और सामान ढोने के अलावा बैटरी वाले ऑटो रिक्शा में फल और सब्जियां बेचने के लिए सैकड़ों लोग एक-एक शहर में रिहायशी इलाकों में घूम रहे हैं और वहां बिना शोर किए बिना धुआं फैलाए कारोबार कर रहे हैं।
लेकिन सडक़ों पर गाडिय़ां कई किस्म की रहती हैं। ऑटो रिक्शा से परे निजी कारें और निजी दुपहिया ऐसे हैं जिनमें खूब पेट्रोल लगता है और जो कि अब सौ रुपये लीटर से अधिक महंगा हो चुका है। ऐसे में हिंदुस्तान में बाजार में उतरने वाला एक नया दुपहिया जब बहुत मामूली बिजली खर्च पर चलने का वादा कर रहा है, और एक-एक करके कई कंपनियां बिजली से चार्ज होने वाली बैटरी से चलने वाली गाडिय़ां उतारते जा रही हैं, तो आने वाला वक्त एक बदली हुई तस्वीर रहना तय है। लेकिन बैटरी से चलने वाली गाडिय़ां कुछ किस्म की नई चुनौतियां लेकर आने वाली हैं। एक तो यह कि आज जिस तरह गाडिय़ों के निकले हुए, घिसे हुए टायर पहाड़ की तरह इकट्ठे होते जा रहे हैं, क्या गाडिय़ों की बैटरी उसी किस्म के नए पहाड़ बनेंगीं, या हिंदुस्तान की जुगाड़ तकनीक उन बैटरी के दोबारा इस्तेमाल जैसा कोई रास्ता निकाल सकेगी? बैटरी की जिंदगी बढ़ाना और बैटरी की उत्पादकता बढ़ाना इन दोनों पर पूरी दुनिया में खूब काम चल रहा है, और बैटरियों का बेहतर होना केवल वक्त की बात है इसलिए इनके पहाड़ बनने का खतरा धीरे-धीरे कम भी हो सकता है। अब दूसरी बात यह है कि जब लोगों को अपनी दुपहिया या चौपहिया को घर और दफ्तर से परे चार्ज करने की सहूलियत जब तक नहीं रहेगी, तब तक बैटरी से चलने वाली गाडिय़ों का आगे बढऩा कुछ धीमा भी हो सकता है। केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर या अलग-अलग अपने चुनिंदा बड़े शहरों में बैटरी चार्ज करने के सेंटर बनाने चाहिए जो कि पेट्रोल और डीजल के पंपों की तरह जगह-जगह हों और उनके साथ कुछ घंटे लोगों के बैठने खाने-पीने आराम करने या नहाने जैसी सहूलियत भी जोडऩी चाहिए ताकि इस कारोबार के जिंदा रहने की गुंजाइश भी बढ़े और लोगों को एक जगह गाड़ी चार्ज होने तक इंटरनेट या मनोरंजन के साथ-साथ खाने-पीने, लेटने की सुविधा भी मिल सके। दरअसल बैटरी की गाडिय़ां अगर बढ़ जाएंगी और तब तक उनकी चार्जिंग का ढांचा विकसित नहीं होगा, तो इससे लोगों का उत्साह कम भी हो सकता है। इसलिए मौजूदा पेट्रोल पंप उनके ढांचे को भी बैटरी चार्जिंग स्टेशन की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है क्योंकि उनके आसपास खाने-पीने की कोई न कोई जगह रहती है। दूसरी तरफ स्थानीय संस्थाएं या राज्य सरकार ऐसे नए कारोबार भी विकसित कर सकती है जिनमें चार्जिंग स्टेशन एक बड़ा आकर्षक कारोबार हो सकता है।
हिंदुस्तान के बाजार और हिंदुस्तान की सरकार इन दोनों को मिलकर इस मौके का कई तरह का इस्तेमाल करना चाहिए। अभी हम बहुत तकनीकी जानकारी में नहीं जा रहे हैं, लेकिन यह संभावना भी देखनी चाहिए कि क्या सोलर पैनलों से भी बैटरी चार्ज हो सकती हैं? क्या चार्जिंग खो चुकी बैटरी की जगह तुरंत ही दूसरी बैटरी दी जा सकती है ताकि लोगों को चार्जिंग की राह देखते हुए अधिक वक्त तक रुकना ना पड़े? दुनिया के कई देशों में बैटरी की अदला-बदली एक बड़ा संगठित कारोबार बन गया है। छोटे से ताईवान में लाखों लोग बैटरी बदलकर चार्ज की हुई बैटरी देने वाली कंपनी के ग्राहक हैं। केंद्र सरकार और राज्य सरकार के शहरी विकास से जुड़े हुए विभागों को तुरंत ही अगले 10-20 बरस की ऐसी संभावनाओं को देखकर उसके हिसाब से क्षमता विकसित करनी चाहिए ताकि नया कारोबार भी पनपे, और लोगों को बैटरी की गाडिय़ां लेते हुए कोई आशंका भी ना रहे कि वह कहीं भी खड़ी हो जाएगी तो क्या होगा। आज जिस तरह कई कंपनियों की गाडिय़ों को खराब होने पर उठाकर ले जाने की सहूलियत उनकी कंपनियां देती हैं कुछ उसी तरह की बैटरी पहुंचाने की सुविधा भी रहनी चाहिए कि एक टेलीफोन करते ही कोई तकनीशियन आकर बैटरी बदल कर चले जाए। राज्य सरकारों को अपने स्तर पर भी कल्पनाशील होना चाहिए और आने वाले वक्त का अंदाज लगाकर सरकार की नीतियां बनाकर जमीन देनी चाहिए, सहूलियत देनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हरियाणा के एक शांतिपूर्ण किसान प्रदर्शन पर पुलिस की लाठियों से एक बुजुर्ग किसान का सिर फोड़ दिया गया और लहूलुहान कपड़ों में उसकी तस्वीरें देश के लोगों को दहला रही हैं। इस बुजुर्ग ने अपने कुर्ते पर सामने भगत सिंह का एक बिल्ला लगा रखा था, और लिखने वाले उसे भी देखकर उसका भी जिक्र कर रहे हैं। पुलिस के तो बहुत से ऐसे मामलों में लोग जख्मी होते हैं, उनकी तस्वीरें भी आती हैं, लेकिन यह मामला थोड़ा सा अलग इसलिए है कि हरियाणा के उस इलाके में एक नौजवान आईएएस अफसर एसडीएम था और उसने पुलिस को प्रदर्शनकारियों का सिर तोडऩे का निर्देश दिया था। इसके बाद भी अगर वीडियो कैमरे से इस अफसर की हिंसक बकवास रिकॉर्ड नहीं हुई होती तो भी यह मुद्दा नहीं बनता, क्योंकि पुलिस लाठियों से तो जख्मी होना और कभी-कभी मरना भी होते ही रहता है। लेकिन एक खासे पढ़े-लिखे और आईएएस अधिकारी की ऐसी जुबान को लेकर लोग बहुत विचलित हैं और उसकी बर्खास्तगी की मांग कर रहे हैं। इस सिलसिले में सबसे गंभीर बात तृणमूल कांग्रेस की लोकसभा सांसद महुआ मोइत्रा ने लिखी है उन्होंने कहां है कि जूते चाटने वाले ऐसे अफसर का नाम लेकर उन्हें धिक्कारना चाहिए क्योंकि ये लोग अगर ड्यूटी की बात कर रहे हैं, तो यह याद रखने की जरूरत है कि हिटलर के यहूदी जनसंहार शिविर पर जो नाज़ी सुरक्षा गार्ड तैनात थे, वे भी यह दावा करते थे कि वे अपनी ड्यूटी कर रहे हैं। देश में बहुत से अफसरों ने, राजनीतिक दलों के नेताओं ने, और खुद हरियाणा के डिप्टी सीएम दुष्यंत चौटाला ने इस अफसर की ऐसी हिंसक बात की निंदा की है, और चौटाला ने इसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने की घोषणा की है। अफसर ने वीडियो रिकॉर्डिंग में यह साफ-साफ कहा है कि अगर प्रदर्शनकारी आएं तो उनका सिर फूटा हुआ होना चाहिए, पुलिस को इसकी छूट है।
देश में सरकारी अफसरों की सोच का जो हाल है उसे लेकर हम बार-बार लिखते हैं लेकिन जिस दिन लिखते हैं उसके अगले ही दिन फिर ऐसी कोई बात सामने आती है, और दिल दहला जाती है। अदालतों तक ऐसे मामले जब पहुंचते हैं तो यह समझ पड़ता है कि इस देश की अदालत, इस देश की सरकार से ही लड़ रही है, या प्रदेश के हाई कोर्ट उस प्रदेश की सरकार से ही लड़ते रह जाते हैं। सरकारें कानून तोड़ते चलती है कानून कुचलते चलती हैं, तरह-तरह की हिंसा और बदमाशी करते चलती हैं, और अदालतों का शायद आधा वक्त सरकार की ज्यादतियों से जूझने में ही निकल जाता है। हर दिन हर एक राज्य के हाई कोर्ट से वहां की सरकारों के खिलाफ ढेर सारे नोटिस निकलते हैं, ढेर सारे आदेश निकलते हैं, और हर कुछ दिनों में कोई न कोई कड़ा फैसला सरकार के खिलाफ आता है। कुछ ऐसा ही सुप्रीम कोर्ट में अगर जज ईमानदार हैं, जैसा कि आज दिखाई पड़ता है, तो आए दिन सरकार कटघरे में खड़ी दिखती है, सरकार से जवाब देते नहीं बनता है। यह पूरा सिलसिला सरकार में बैठे हुए अफसरों और मंत्रियों की मनमानी की वजह से है जिनमें से भी जुल्मों के ऐसे सैकड़ों मामलों में से कोई एक-दो ही अदालत तक पहुंच पाते हैं, और निजी कार्रवाई तो शायद ही किसी मंत्री या अफसर पर होती हो।
हमें ऐसा लगता है कि आज देश में किसान आंदोलन जिस तरह खबरों में हैं और जिस तरह एक अफसर की वीडियो रिकॉर्डिंग सामने आई है तो यह मामला पंजाब हरियाणा हाई कोर्ट के लिए एक माकूल मामला है जिसमें हरियाणा सरकार को कटघरे में खड़ा किया जाए कि इस अफसर को बर्खास्त क्यों न किया जाए? जिस अफसर की सोच इस तरह हिंसक है कि लोगों का सिर तोड़ दिया जाए और जिसके उकसावे पर पुलिस ने सचमुच ही एक बूढ़े किसान का सिर तोड़ दिया, तो ऐसे अफसर को बर्खास्त से कम कुछ नहीं करना चाहिए। हिंदुस्तान में बेरोजगारी बहुत है पढ़े-लिखे लोग भी बहुत हैं, और ऐसे अफसरों की बर्खास्तगी एक बार शुरू होगी तो उनकी जगह तो दूसरे लोग मिल जाएंगे, लेकिन तमाम लोगों को हिंसा से दूर रहने की नसीहत भी मिल जाएगी। बड़ी अदालतों को अपने इलाकों में होने वाली ऐसी हिंसा को अनदेखा नहीं करना चाहिए। किसी राज्य के हाईकोर्ट की यह संवैधानिक जिम्मेदारी होती है कि उसके सामने अगर ऐसा कोई मामला कोई लेकर ना भी आए, तो भी उसे खुद होकर जनहित में उसकी जानकारी में आये ऐसे मामले दर्ज करना चाहिए और सरकार को नोटिस देना चाहिए।
सरकार में बैठे हुए लोग अपनी राजनीतिक पसंद और नापसंद के मुताबिक प्रशासन और पुलिस का लगातार बेजा इस्तेमाल करते हैं, और उनकी चापलूसी करने वाले अफसर उन्हें खुश करने के लिए इस तरह की हिंसा करते हैं, कहीं बेकसूरों को फंसाते हैं, तो कहीं मुजरिमों को छोड़ते हैं। कल ही हमने इसी पेज पर इस बात को लिखा था कि सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस और सत्ता के बीच के गठजोड़ को लेकर किस तरह की फिक्र जाहिर की है। जिस वक्त हम इस बात को लिख रहे थे, उसी वक्त यह बुजुर्ग किसान अपने जख्मों को लेकर लहूलुहान बैठा हुआ था। यह खून बेकार नहीं जाना चाहिए और जिस बुजुर्ग किसान का सिर फोडक़र उसका खून बहाया गया है, और जो बहते हुए भगत सिंह की तस्वीर वाले बिल्ले पर भी गया है, तो इस मामले को एक नमूना मानकर, एक मिसाल मानकर, अदालत से इस अफसर की बर्खास्तगी करवानी चाहिए ताकि बाकी अफसरों को भी एक सबक मिल सके। आमतौर पर अखिल भारतीय सेवाओं से आए हुए अफसरों को कोई छूने की भी जुर्रत नहीं करते हैं लेकिन यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। इसी मामले से शुरुआत हो जाए। इसे बर्खास्त करके जेल भेजना चाहिए।
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अफगानिस्तान के ताजा हालात देखें तो अमेरिका पर तरस आता है। बीस बरस जिन तालिबान पर अमेरिका बम बरसाते रहा, जिनके खिलाफ उसने अपने सहयोगी देशों की भी फौज लेकर अफगानिस्तान पर कब्जा करके रखा, अपनी पिट्ठू सरकारों को वहां लाद कर रखा, आज उन्हीं तालिबान के रहमोकरम पर अमेरिका काबुल में जिंदा है। हालत यह है कि काबुल एयरपोर्ट के भीतर तालिबानी इजाजत से अमेरिकी फौजों का काबू है, और 31 अगस्त तक है। लेकिन इसी एयरपोर्ट के पास हुए बम धमाके में अभी 4 दिन पहले 1 दर्जन से अधिक अमेरिकी फौजियों सहित करीब डेढ़ सौ मौतें हुई हैं, और उसके बाद अमेरिकी फौज तालिबान की हिफाजत में वहां से लोगों को निकालने का काम कर रही है। एयरपोर्ट का नियंत्रण अमेरिका के हाथ है लेकिन एयरपोर्ट के बाहर सुरक्षा घेरा तालिबान का है।
किसने ऐसे दिन की कल्पना की होगी कि दुनिया का सबसे ताकतवर देश होने का दावा करने वाला अमेरिका आज अपनी फौज को अफगानिस्तान से निकालने के लिए तालिबान का मोहताज है। आज अमेरिका के सामने यह बहुत बड़ा खतरा है कि अगले तीन-चार दिनों में वह जैसे-जैसे अपनी फौज वहां से रवाना करेगा, वैसे-वैसे एयरपोर्ट पर मौजूद घटती चली जाने वाली अमेरिकी फौज पर खतरा बढ़ते चले जाएगा, क्योंकि किसी हमले से जूझने के लिए वहां अमेरिकी फौज कम संख्या में रह जाएगी। इस बारे में हमने इसी जगह लिखा भी था कि जिस तरह महाभारत में अभिमन्यु को चक्रव्यूह में घुसना तो मां के पेट से सीखने मिल गया था, लेकिन चक्रव्यूह को तोडक़र निकलना वह नहीं सीख पाया था, कुछ वैसी ही हालत काबुल में अमेरिका की हो रही है। दुनिया के बड़े-बड़े देश इस बात को लेकर अमेरिका से खफा हैं कि उसने 20 बरस के फौजी कब्जे में तो अगुवाई की, लेकिन आज अफगानिस्तान छोडऩे की नौबत आने पर दसियों हजार अफगान सहयोगियों को छोडक़र वहां से निकल रहा है, जिन्होंने इतने बरस राज्य चलाने के लिए अमेरिका के लिए काम किया था। अमेरिका इस नौबत को लेकर इस कदर हिला हुआ है कि पिछले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के तालिबान के साथ किए गए समझौते पर अमल करते हुए भी मौजूदा राष्ट्रपति जो बाईडन के काबू में नौबत नहीं रह गई है, और अपने फौजियों के मरे जाने के बाद वे मीडिया से बात करते हुए थम गए थे। लंबे समय के बाद अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की इस तरह एक हमले में मौत हुई है, और इतनी बड़ी संख्या में हुई है।
अगले दो-तीन दिन अफगानिस्तान से किस तरह अमेरिकी फौज और अमेरिकी नागरिक खुद निकल पाते हैं इस पर दुनिया की नजरें हैं। दुनिया की नजरें इस पर भी हैं कि जितना अमरीकी फौजी सामान अफगानिस्तान में आज है, उसमें से कितना वह निकाल सकेगा। काबुल की जो खबरें हैं वे ये हैं कि एयरपोर्ट पर अमेरिका और तालिबान के बीच बातचीत भी चल रही है, अमेरिका मदद भी मांग रहा है, तालिबान बेरुखी से कुछ मदद कर भी रहा है, और उसी के तहत आईएस के आतंकी हमले के बाद अब ताजा हिफाजत तालिबान मुहैया करा रहा है जिसने कि एयरपोर्ट के पूरे इलाके को घेरकर रखा है, अपने कब्जे में रखा है। आज अमेरिकी फौजियों की हिफाजत उस एयरपोर्ट पर तालिबानियों की वजह से है और तालिबान के हाथ है।
अमेरिका और उसके सहयोगी देश अफगानिस्तान को जैसी बदहाली में छोडक़र निकल रहे हैं उसका ब्यौरा संयुक्त राष्ट्र के पास है जिसने कहा है कि अफगानिस्तान की जनता एक बहुत विशाल और विकराल मानवीय त्रासदी पेश कर रही है और दुनिया को इसके बारे में तुरंत सोचना पड़ेगा। लगे हुए पाकिस्तान और ईरान में लाखों की संख्या में अफगान शरणार्थी सरहद खटखटाते खड़े हैं, और उनके पास न खाना है इलाज का ठिकाना है। पाकिस्तान पहले ही अपने हाथ खड़े कर चुका है कि उसकी जमीन पर पहले से जो 15 लाख अफगान शरणार्थी मौजूद हैं, वह उनका ख्याल रखने की ताकत भी नहीं रखता है, और जो नया सैलाब अफगानिस्तान से अब पाकिस्तान सरहद पर पहुंचा हुआ है उसे जगह देने की ताकत पाकिस्तान में नहीं बची है। अब हैरानी इस बात को लेकर भी होती है कि दुनिया की सबसे ताकतवर अमेरिकी सरकार और उसकी फौज अफगानिस्तान में 20 बरस की अपनी मौजूदगी के बावजूद इस दिन की कल्पना नहीं कर पाई थी कि उसके बाहर निकलने पर अफगान जनता का क्या होगा। खैर, जिसे खुद के निकलने का तरीका नहीं पता, उससे अफग़़ान जनता का अंदाज लगाने की उम्मीद कैसे की जा सकती है।
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