संपादकीय
पश्चिम बंगाल में चुनाव के पहले से सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और सत्ता पर आने की महत्वाकांक्षी भाजपा के बीच हिंसक टकराव चल रहे थे। दस बरस से मुख्यमंत्री चली आ रहीं ममता बनर्जी सरकार के खिलाफ जनता के बीच स्वाभाविक रूप से पनपने वाले असंतोष की शिकार भी हो सकती थीं, और सत्ता से बाहर जा सकती थीं, और ऐसी ही उम्मीद में भाजपा ने वहां पर सरकार बनाने के दावे भी किए थे। इन दावों के बीच वहां चुनाव के पहले से लगातार जो हिंसा चल रही थी वह चुनाव के बाद भी जारी रही। अब इस हिंसा के लिए कौन सा राजनीतिक दल कितना जिम्मेदार था, राज्य की सरकार कितनी जिम्मेदार थी, उस वक्त चुनाव आचार संहिता लागू थी, और राज्य का सारा प्रशासन चुनाव आयोग के हाथों में था, इसलिए यह एक धुंधली तस्वीर है कि उस वक्त हालात काबू में करने में कौन नाकामयाब रहे, और कौन सी पार्टी कितनी हिंसक रही। राज्यपाल ने जाहिर तौर पर ममता बनर्जी की सरकार की खासी आलोचना की और भाजपा पर हुए लोगों के हमले पर फिक्र जाहिर की। वे केंद्र सरकार के नुमाइंदे हैं और उन्होंने अपनी जिम्मेदारी पूरी की। एक असामान्य बात मतगणना के बाद इस हिंसा के सिलसिले में यह हुई कि कोलकाता हाईकोर्ट ने खुद होकर हिंसा की सुनवाई शुरू की और पहले ही दिन से एक संविधान पीठ इसके लिए गठित कर दी। उसके सामने राज्य सरकार ने जब अपनी रिपोर्ट पेश की तो उसके बाद अदालत ने उसमें और कुछ करने जैसा शायद नहीं पाया है। लेकिन आज इस मुद्दे पर लिखने की एक जरूरत इसलिए हो रही है कि केंद्र सरकार ने यह तय किया है कि पश्चिम बंगाल के सभी 77 भाजपा विधायकों को केंद्रीय पैरामिलिट्री द्वारा सुरक्षा दी जाएगी। इन सबके साथ सीआईएसएफ की कमांडो यूनिट लगाई जाएगी और इस फैसले से यह जाहिर होता है कि राज्य के भाजपा विधायकों से कहीं अधिक केंद्र की भाजपा अगुवाई वाली मोदी सरकार का अविश्वास पश्चिम बंगाल सरकार पर है कि वह भाजपा विधायकों की सुरक्षा या तो कर नहीं पाएगी या उसकी ऐसी नीयत नहीं है। यह नौबत इस मायने में खराब है कि यह केंद्र और एक राज्य के संबंध में तनातनी का एक नया स्तर बताती है। आमतौर पर ऐसा कहीं भी देखा नहीं गया है कि केंद्र सरकार किसी एक राज्य की किसी एक पार्टी के सारे विधायकों को केंद्रीय सुरक्षा बल की सुरक्षा देना तय करे। शायद यह भारत के केंद्र-राज्य संबंधों में पहली ऐसी घटना है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के आलोचक इस मुद्दे को केंद्र और राज्य की तनातनी का एक बहुत बुरा पतन बतला रहे हैं और उनका मानना है कि केंद्र सरकार को कुछ और पहल करनी चाहिए थी, राज्य के ऊपर इतना अधिक अविश्वास ठीक नहीं है और भारत जैसे संघीय ढांचे में केंद्र और राज्य के संबंध इतने खराब होना ठीक नहीं है और जैसा कि किन्हीं भी दो पक्षों के बीच होता है, संबंधों में सुधार की अधिक जिम्मेदारी बड़े की होती है, जो कि इस मामले में केंद्र सरकार की होनी चाहिए थी। लेकिन एक दूसरा सवाल यह उठता है कि बंगाल में अगर लगातार हिंसा चल रही थी जिसमें भाजपा के लोगों पर अधिक हमले हुए उनकी अधिक मौतें हुई तो ऐसी नौबत में इन निर्वाचित विधायकों या दूसरे भाजपा नेताओं की सुरक्षा अधिक जरूरी है। फिर अगर राज्य सरकार पर केंद्र का भरोसा नहीं रह गया है तो केंद्र को यह अधिकार है कि वह ऐसे नेताओं की हिफाजत करवाएं। यह एक अलग बात है कि आगे इससे कई किस्म के टकराव की नौबत का खतरा बने रहेगा। लेकिन हम संबंधों में किसी टकराव के चलते हुए लोगों की जिंदगी खतरे में डालने के खिलाफ हैं, और जिस तरह भी हो सके लोगों की हिफाजत करनी चाहिए, और संबंधों में सुधार के लिए तो बंद कमरों में बाद में भी बातचीत हो सकती है। जो लोग मोदी के आलोचक हैं, और जिन्हें लग रहा है कि ममता सरकार के हक कुचले जा रहे हैं, उनकी याददाश्त को थोड़ा सा ताजा करना बेहतर होगा। जब ममता बनर्जी केंद्र में एनडीए सरकार के तहत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की रेल मंत्री थी तो उस पूरे दौर में जब भी बंगाल आती थीं, वे वाममोर्चा सरकार की पुलिस की हिफाजत नहीं लेती थीं, और वे आरपीएफ के जवानों के घेरे में चलती थी। रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स को पूरे देश में काम करने का एक विशेष अधिकार इसलिए दिया गया है कि रेलवे संपत्ति की चोरी या लूट होने पर उसके लिए राज्य कि पुलिस पर निर्भर रहने की जरूरत ना हो और आरपीएफ खुद भी जाकर कार्रवाई कर सके। पूरे देश में यही एक फ़ोर्स ऐसी है जो किसी भी राज्य में किसी भी जगह जाकर कार्रवाई कर सकती है और इसलिए ममता बनर्जी ने वाममोर्चा सरकार के राज्य में भी इसी फोर्स की हिफाजत पर भरोसा किया था. जबकि यह फ़ोर्स संपत्ति की सुरक्षा के लिए बनी थी और इसे वीआईपी सुरक्षा की कोई ट्रेनिंग नहीं थी। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती है इस बारे में जरा सी और तलाश की जाए तो बड़ी दिलचस्प खबरें निकलती हैं।
जब वाममोर्चा के 33 वर्षों की सरकार को हराकर ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनी थीं, तो उन्होंने एक असाधारण फैसला लिया था। उन्होंने अपनी यानी मुख्यमंत्री की सारी सुरक्षा व्यवस्था रेल मंत्री के दिनों की तरह आरपीएफ के ही हवाले रखी और यह बंगाल पुलिस की एक बहुत बड़ी बेइज्जती हुई थी कि उसकी अपनी मुख्यमंत्री अपनी हिफाजत के लिए उस पर भरोसा नहीं कर रही है. यह फैसला भी असाधारण था, देश के किसी मुख्यमंत्री ने ऐसा कभी नहीं किया था। ममता बनर्जी ने अपने कार्यकाल के 103 दिन के बाद जाकर आरपीएफ को वापस भेजा था और राज्य की पुलिस को मुख्यमंत्री की हिफाजत का जिम्मा लौटाया था। यह सिलसिला बहुत खराब था और यह एक मुख्यमंत्री का अपनी ही पुलिस पर अविश्वास का एक असाधारण सुबूत था। इसमें कहीं भी केंद्र और राज्य संबंधों की तनातनी नहीं थी, इसमें राज्य के मुख्यमंत्री और उसकी अपनी पुलिस के बीच की तनातनी थी. उस वक्त कुछ लोगों का यह भी कहना था कि 103 दिन के बाद ममता बनर्जी ने अनमने ढंग से आरपीएफ को लौटाया था क्योंकि आरपीएफ ने उन्हें लंबा चौड़ा बिल दे दिया था।
अब सवाल यह उठता है कि बंगाल में ऐसी तनातनी की एक परंपरा ममता बनर्जी ने ही शुरू की, मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने अपनी पुलिस पर भरोसा नहीं किया, इसलिए आज जब केंद्र सरकार भाजपा के विधायकों की हिफाजत को लेकर बंगाल की पुलिस पर भरोसा नहीं कर रही है तो ममता बनर्जी केंद्र राज्य संबंधों का कोई बड़ा हवाला देने का नैतिक अधिकार भी नहीं रखतीं। लेकिन एक दूसरा बड़ा सवाल जो यहां खड़ा होता है वह यह है कि चुनाव निकल जाने के बाद अगले 5 बरस तक इस राज्य में केंद्र और राज्य दोनों सरकारों की जरूरत है, राज्य इन दोनों की ही जिम्मेदारी है, और ऐसी तनातनी से इस राज्य का सबसे बड़ा नुकसान होगा। यह केंद्र के लिए भी अशोभनीय नौबत है कि एक राज्य के साथ उसके संबंध इतने खराब हो गए हैं कि बातचीत के भी संबंध नहीं बचे. अभी यह बात साफ नहीं है कि केंद्र सरकार ने भाजपा विधायकों की हिफाजत को लेकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से कोई चर्चा की थी या नहीं, या उसने खुद ही यह तय कर लिया कि उसके विधायकों की सुरक्षा केंद्रीय सुरक्षा बल करेंगे। जो भी हो यह नौबत इस नाते खराब है कि आज भी भारत में न्यायपालिका भी है, और राज्यपाल नाम की संस्था भी है जो कि केंद्र सरकार के अधीन काम करती है। पश्चिम बंगाल में राज्यपाल पर्याप्त सक्रिय हैं, ममता के पर्याप्त आलोचक हैं, और वे भाजपा विधायकों के पर्याप्त हमदर्द भी हैं। इन सबके रहते हुए केंद्र सरकार का सुरक्षा का यह एकतरफा फैसला दिल्ली के बंगाल से रिश्तों के खराब होने का एक बिल्कुल ही नया स्तर है, जो कि निराशा की बात है। अब इसके बाद केंद्र और बंगाल की तनातनी, मोदी-शाह और ममता की तनातनी और किस निचले स्तर पर जा सकती है? इसके बाद क्या दिल्ली पश्चिम बंगाल में अपना राजदूत तैनात करेगी?(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान में लोगों की सोच धर्म और जाति के दायरे में कैद रहती है। अधिकतर लोगों से बात करें तो धर्म और जाति के उनके पूर्वाग्रह, उनकी सोच और उनकी बातचीत पर, उनके फैसलों पर हावी रहते हैं। कहीं भी बैठकर लोग बातें करते रहते हैं तो अगर उस भीड़ में मौजूद किसी के हुलिए और उसके नाम से उसके धर्म, या खासकर उसकी जाति, का अंदाज ना लगे तो बहुत से लोग बड़ी असुविधा महसूस करते हैं कि उसे किस जाति का मान कर बात की जाए। और बातचीत इससे भी तय होती है कि वहां मौजूद लोगों में किन जातियों के लोग हैं और किन जातियों के लोग नहीं हैं। इसके अलावा धर्म तो है ही, कि अगर किसी धर्म के लोग मौजूद हैं, तो ही उसके खिलाफ ना बोला जाए और अगर किसी धर्म के लोग नहीं हैं तो उस धर्म की बुराइयां याद करके या गढक़र चर्चा में लाई जाए। ऐसे में अभी एक बड़ा दिलचस्प मामला सामने आया है। पहली पहली नजर में तो ऐसा लगा कि मानो किसी ने कुछ गलत जानकारियां जोड़-घटा कर व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी की एक पोस्ट तैयार की है, लेकिन फिर एक-एक नाम को परखा गया तो यह समझ आया कि यह तो बहुत ही दुर्लभ केस मामला है।
हिंदुस्तान में आज जिस वैक्सीन की सबसे अधिक मांग है, और जो सबसे अधिक चर्चा है, उस वैक्सीन को बनाने वाले के नाम की चर्चा तो कुछ अधिक ही हो चुकी है और लोगों को यह मालूम है कि कोवीशील्ड नाम की वैक्सीन बनाने वाली सिरम इंस्टीट्यूट नाम की कंपनी का मालिक एक पारसी नौजवान अदर पूनावाला है। अब इस वैक्सीन के लिए एक खास किस्म के कांच की शीशी भी लगती है और इस शीशी को बनाने वाली कंपनी का मालिक एक और पारसी है, ऋषभ दादाचानजी। पूनावाला भी पारसी और दादाचानजी भी पारसी। अब इसके बाद इन वैक्सीन का ट्रांसपोर्ट करने के लिए जो खास ट्रकें बनाई गई जो कि एक फ्रिज की तरह वैक्सीन को बहुत ही कम टेंपरेचर पर लेकर एक शहर से दूसरे शहर जा सकें वे ट्रकें देश और दुनिया के सबसे मशहूर पारसी, टाटा की बनाई हुई हैं। इन्हें कोल्ड स्टोरेज की तरह का बना कर टाटा ने आनन-फानन देश में उतार दिया। अब यह देखें कि वैक्सीन एक बार पहुंच गईं तो उन्हें कैसे और कहां रखा जाए, तो इसकी तैयारी इस देश में एक और मशहूर पारसी परिवार, गोदरेज की कंपनी गोदरेज अप्लायंसेज के बनाए हुए मेडिकल फ्रीजर वैक्सीन रखने के काम आ रहे हैं। अब बात यहीं पर खत्म नहीं होती है, इन वैक्सीन को सूखी बर्फ के जिन बक्सों में रखा जाता है वे बक्से किसने बनाएं? ये बक्से एक और पारसी फारुख दादाभाई की कंपनी के बनाए हुए हैं। और फिर इन वैक्सीन को कारखाने से लेकर अलग-अलग शहरों तक कौन सी कंपनी मुफ्त में लेकर जा रही है, यह अगर देखें तो गो एयर नाम की कंपनी एक और पारसी की कंपनी है, इसके मालिक वाडिया ने वैक्सीन के मुफ्त ट्रांसपोर्टेशन का काम शुरू किया और जारी रखा है। अब पारसियों में बहुत से लोग अपना नाम मराठी लोगों की तरह शहर के नाम पर रख लेते हैं जैसे अदर पूनावाला। इसी तरह पारसियों में बहुत से लोग अपना नाम अपने पेशे के साथ जोड़ लेते हैं जैसे जरीवाला, बैटरीवाला, बॉटलीवाला, दारूवाला या कोई और काम वाला। पारसियों के सरनेम का मजाक करने वाले, एक सरनेम अपनी कल्पना से बनाकर बीच-बीच में लिखते थे सोडावाटरबॉटलओपनरवाला। लेकिन अगर देखें कि पेशे के हिसाब से सरनेम बनाना है तो अभी जितने सरनेम हमने गिनाए हैं जो कि वैक्सीन बनाने से लेकर पहुंचाने और रखने तक का काम कर रहे हैं, उनकी आने वाली पीढिय़ां अपना सरनेम वैक्सीनवाला भी रख सकती हैं।
यह तो हो गई एक अच्छी बात लेकिन धर्म और जाति को लेकर चर्चा करें तो जरूरी नहीं है कि तमाम चर्चाएं अच्छी बातों के इर्द-गिर्द ही रहें। पिछले दिनों लगातार इस देश में जीवनरक्षक इंजेक्शनों की कालाबाजारी करते हुए लोग गिरफ्तार हुए। दिलचस्प बात यह है कि इस देश में तमाम किस्म के जुर्म करने के लिए जिस जाति को सबसे बदनाम करार देने की कोशिश होती है, उस धर्म या जाति के शायद कोई भी व्यक्ति जिंदगी की इस कालाबाजारी में शामिल नहीं थे, क्योंकि गिरफ्तार होने वाले तमाम लोगों के नाम भी सामने आ रहे थे इसलिए यह बात भी हक्का-बक्का करने वाली थी कि एक सवर्ण कारोबारी जाति के इतने लोग इंजेक्शनों की कालाबाजारी में लगे हुए थे! लेकिन बात यहीं पर नहीं टिकती, जब यह बात निकली कि उत्तर प्रदेश की पुलिस ने एक ऐसे गिरोह को गिरफ्तार किया है जो कि कोरोना मृतकों के शव पर से कपड़े और कफन चोरी करके उनको बाजार में बेचता था, तो उसमें भी ऐसी ही सवर्ण उच्च समझी जाने वाली जातियों के लोगों की भीड़ थी और शायद नमूने के लिए उसमें एक अल्पसंख्यक धर्म का व्यक्ति भी था। इसके बाद देखें तो दिल्ली के जिस खान चाचा नाम के रेस्तरां में सैकड़ों ऑक्सीजन कंसंट्रेटर पकड़ाए, और जिसे खबर में देखते ही देश का एक बड़ा हमलावर तबका खान चाचा की गिरफ्तारी के लिए टूट पड़ा, उसको मुंह की खानी पड़ी, जब पता लगा कि यह नाम केवल रेस्तरां का है, इसका मालिक तो एक पंजाबी है, और पंजाबियों में भी उच्च जाति का माना जाने वाला है, तो फिर खान चाचा नाम को छोड़ देना ही लोगों को ठीक लगा। लेकिन सवाल यह उठता है कि देश भर में जगह-जगह न सिर्फ इंजेक्शनों की कालाबाजारी बल्कि जीवन रक्षक इंजेक्शन नकली तैयार करके उनको बेचने का धंधा जिन लोगों ने किया था उनमें से कोई भी किसी नीची कही जाने वाली जाति के नहीं थे, वे सब के सब ऊंची कही जाने वाली कारोबारी जाति के लोग थे, और गुजरात से लेकर मध्यप्रदेश के इंदौर तक और दिल्ली से लेकर जाने कहां-कहां तक इस कालाबाजारी में लगे हुए थे। नकली इंजेक्शन बनाकर बेचना तो जिंदगी बेचने से कम कुछ नहीं है। अब हैरानी यह है कि जो जातियां अपने आप में बहुत संगठित हैं, जो जातियां अपने आपमें बहुत धर्मालु हैं उन जातियों के लोग जब ऐसे तमाम धंधों में शामिल दिखते हैं, तो फिर वैक्सीन के कारोबार में कदम-कदम पर जुड़े हुए पारसी लोग भी दिखते हैं। दिलचस्प बात यह है कि हिंदुस्तान में पारसियों की कुल आबादी 70 हजार से भी कम है, जिन पर आज 133 करोड़ हिन्दुस्तानियों के टीके टिके हुए हैं!(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के बहुत से प्रदेशों में वैक्सीन को लेकर हंगामा चल रहा है कि टीकाकरण केंद्रों पर टीके बचे नहीं हैं और लोग नाराजगी जाहिर करके वापिस जा रहे हैं। अब यह जाहिर है कि उनकी नजरों के सामने केंद्र सरकार तो सीधे-सीधे है नहीं, इसलिए वे राज्य सरकारों को कोस रहे हैं, जो कि खुद पैसे लेकर बाजार में खड़ी हैं लेकिन जिन्हें टीके देने के लिए किसी कंपनी की ताकत, या नीयत नहीं बची है। दूसरी तरफ आज की एक अलग खबर है कि 13 राज्यों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैक्सीन खरीदी के लिए ग्लोबल टेंडर जारी किए हैं. एक अलग खबर यह भी है कि केंद्र सरकार ने यह भरोसा दिलाया है कि इस वर्ष दिसंबर तक हिंदुस्तान की 18 बरस से अधिक की तमाम आबादी को टीके लग चुके होंगे, और केंद्र सरकार ने आंकड़े जारी किए हैं कि अगस्त के महीने तक 50 करोड़ वैक्सीन भारत आ जाएंगी। अब इनसे परे वैक्सीन के मोर्चे पर कुछ और खबरें भी आ रही हैं कि रूसी वैक्सीन जिसे कि भारत में इजाजत मिली है, वह कितने की मिलने वाली है, और दूसरी कौन-कौन सी और वैक्सीन हिंदुस्तान आ सकती हैं, कब तक आ सकती हैं। कल ही राजस्थान के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का यह बयान सामने आया था कि वैक्सीन की अंतरराष्ट्रीय स्तर की खरीदी का काम केंद्र सरकार को करना चाहिए था। अब जब मोदी सरकार ने यह तय कर ही लिया है कि 18 से 44 वर्ष उम्र के लोगों को टीके लगाने का खर्च राज्य सरकारों को करना है, तो राज्यों ने टीके खरीद कर लगाने भी शुरू कर दिए हैं, तो यह बात साफ है कि राज्य सरकारें अपनी जनता का खर्च खुद उठाने के लिए, चाहे कितनी ही मजबूरी में क्यों ना हो, तैयार हो चुकी हैं क्योंकि केंद्र सरकार ने ना सिर्फ राज्य सरकारों को बल्कि देश की जनता को भी एक ऐसी मँझधार में ले जाकर बिना चप्पू की नाँव में छोड़ दिया है, जहां कि धार में कोरोना का भँवर भी खतरनाक अंदाज में दिख रहा है।
तालाब जब गर्मियों में सूख जाते हैं तो उनके बीच में बच गई थोड़ी सी कीचड़ में बहुत से लोग उतरते हैं और हाथों से कीचड़ को टटोल-टटोलकर वे मछलियां पकडऩे की कोशिश करते हैं। उतने कीचड़ में मछलियां तैर कर भाग भी नहीं पाती हैं और पकडऩे वालों के हाथ आ जाती हैं। लेकिन इस कीचड़ में दिखता कुछ नहीं है, हाथ को हाथ नहीं सूझता, आंखों से तो कुछ भी नहीं दिखता, और जो होता है वह हाथों से टटोलकर होता है। हिंदुस्तान में आज वैक्सीन के मोर्चे पर हालत कुछ ऐसी ही है। केंद्र सरकार ने पूरे देश को रौंदे हुए कीचड़ में हाथों से मिला दिए गए मिट्टी-पानी की तरह का हाल बना दिया है जिसमें किसी को कुछ सूझ नहीं रहा है. राज्य सरकारें बिना कुछ दिखते हुए कीचड़ में हाथ धंसाए हुए वैक्सीन ढूंढ रही हैं कि कुछ मिल जाए तो अपने प्रदेश की जनता को लगा दिया जाए।
मीडिया के बहुत से लोग वैक्सीन के मोर्चे पर अंतहीन कतारों में लगे हुए लोगों की नाराजगी दिखा रहे हैं। यह नाराजगी जायज इसलिए है कि हर किसी के सिर पर कोरोना से मौत का खतरा मंडरा रहा है और लोगों को बेचैनी है कि उन्हें वैक्सीन कब लगेगी। लेकिन सवाल यह है कि हिंदुस्तान की राज्य सरकारें किसी सुपर बाजार में जाकर यह वैक्सीन नहीं खरीद सकतीं और न ही अमेजॉन जैसे किसी ऑनलाइन स्टोर पर इसे आर्डर कर सकती हैं। कुछ राज्यों ने और दर्जन भर से अधिक राज्यों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैक्सीन की खरीदी के लिए प्रक्रिया शुरू की है लेकिन वह कब कहां से कितने में मिलकर लोगों को लगना शुरू हो पाएगी यह अंदाज लगाना भी बड़ा मुश्किल है। दूसरी तरफ जब बाकी के राज्य इस तरह से विदेशों से वैक्सीन खरीदी की दौड़ में लगते, उसके पहले आज केंद्र सरकार के आज कहे गए आंकड़े यह बता रहे हैं कि अगस्त तक उसकी आर्डर की हुई 50 करोड़ वैक्सीन आ जाएंगी और दिसंबर तक पूरे देश की वयस्क आबादी को वैक्सीन लग जाएगी। उसने 95 करोड़ आबादी के लिए 216 करोड़ टीके खरीदने की अपनी तैयारी आज बताई है। केंद्र सरकार की पेश की गयी इस नई जानकारी के बाद राज्य सरकारें क्या करें? अगर वे महंगे दामों पर कहीं से वैक्सीन खरीद लें तो उन्हें इस तोहमत के लिए तैयार रहना होगा कि केंद्र सरकार की इस घोषणा के बाद भी उन्होंने इतनी वैक्सीन क्यों खरीदी? और भारत के दो वैक्सीन निर्माता कंपनियों में से एक ने आज यहां कहा है कि वह दूसरी दवा कंपनियों के साथ इस वैक्सीन का फार्मूला बांटने के लिए तैयार है ताकि वे भी इसे बना सकें। तो ऐसे में राज्य सरकारें क्या समझें ? जिस कंपनी ने यह घोषणा की है उसने यह वैक्सीन भारत सरकार के संगठन आईसीएमआर की मदद से विकसित की थी और जाहिर है कि सरकार की खर्च में भागीदारी थी और सरकार का इस पर कोई हक भी है। लेकिन यह सब केंद्र सरकार के रहस्य की बातें हैं जिस पर केंद्र सरकार आसमान से बिजली की तरह कडक़ कर अपनी बात कहती है लेकिन जिससे किसी राज्य को कुछ पूछने का हक हासिल नहीं है।
कुल मिलाकर पिछले 1 महीने में वैक्सीन को लेकर इस देश में जो धुंध छाई है वैसे तो सर्दियों में भी प्रदूषित दिल्ली में नहीं छाती। अब अपने-अपने प्रदेशों में जनता की नाराजगी झेलती हुई राज्य सरकारें क्या करें? केंद्र सरकार से वैक्सीन मांगने का कोई असर नहीं है, केंद्र सरकार को इंपोर्ट करने के लिए कहने का कोई हक नहीं है, और देश के भीतर कब और कंपनियां बनाने लगेंगी, किस रफ्तार से वैक्सीन मिलेगी, इसका कोई ठिकाना नहीं है. ऐसे में हजारों करोड़ खर्च के इस काम को राज्य सरकारें किस तरह आगे बढ़ाएं यह एक बहुत दुविधा का फैसला है। आज देश की जनता अपने को टीका लगने को लेकर जिस तरह अंधेरे में हैं, उसी तरह राज्य सरकारें भी अंधेरे में हैं कि केंद्र से क्या मिलेगा, बाजार से क्या मिलेगा. केंद्र जो घरेलू खरीद या इंपोर्ट करने की बात कह रहा है, क्या वह उसे राज्यों को बेचेगा या मुफ्त में मिलेगा? बारिश आने के पहले सूखते हुए तालाब, या डबरे में बच गए कीचड़ में मछली पकड़ते हुए लोगों की भीड़ जिस तरह मिट्टी और पानी को मता देती है, कुछ वैसा ही हाल आज देश में टीकाकरण को लेकर केंद्र सरकार ने कर रखा है। कीचड़ जितनी पारदर्शिता !(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
फ्रांस की एक विख्यात कार्टून और व्यंग्य की पत्रिका है चार्ली एब्दो, जिसने दुनिया के मुस्लिमों को नाराज करते हुए मोहम्मद पर कुछ कार्टून बनाए थे, और वह मामला बढ़ते -बढ़ते इतना बढ़ गया था कि फ्रांस में उस पत्रिका के दफ्तर पर आतंकी हमला हुआ और शायद दर्जन भर से अधिक लोग मारे गए थे। लेकिन उस वक्त फ्रांस की सरकार और इस पत्रिका के लोग इस बात पर डटे रहे कि वे अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किसी आतंक के सामने कमजोर नहीं होने देंगे। हालत यह है कि उन्हीं कार्टूनों को लेकर अभी कुछ हफ्ते पहले पाकिस्तान से फ्रांस के राजदूत को निकाल देना के बारे में एक प्रस्ताव पाकिस्तान की संसद में लाया गया, और इस तनाव के पीछे भी चार्ली एब्दो के वे कार्टून ही थे। उस वक्त हिंदुस्तान सहित दुनिया के मुस्लिम विरोधी लोगों ने खूब जश्न मनाया था और इस पत्रिका की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की हिमायत की थी। हिंदुस्तान में तो कई लोगों के बीच इस पत्रिका के लिए हमदर्दी देखकर लग रहा था कि वे बिना फ्रेंच सीखे भी इसे खरीदना शुरू कर देंग। आज उस पत्रिका का एक कार्टून सामने आया है जिसमें हिंदुस्तान में ऑक्सीजन की कमी से मरते हिंदुस्तानी दिख रहे हैं और यह सवाल किया गया है कि जिस देश में 33 करोड़ देवी देवता हैं क्या उनमें से एक भी ऑक्सीजन पैदा करने की ताकत नहीं रखते? कार्टूनिस्ट ने 33 करोड़ की जगह 33 मिलियन लिख दिया है लेकिन उससे मुद्दे की बात पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
इन दिनों हिंदुस्तान में कार्टूनिस्टों से लेकर कॉमेडियन तक केंद्र सरकार पर जिस तरह से बोल रहे हैं उससे लगता है कि लोगों की धडक़ थोड़ी खुल रही है। कुछ एक टीवी चैनल अपनी बहसों में सत्तारूढ़ गठबंधन के प्रवक्ताओं से कुछ सवाल करने का हौसला सा कुछ दिखा रहे हैं, और लोगों को यह समझ नहीं आ रहा है कि यह सचमुच वापिस आया हुआ हौसले का कोई टुकड़ा है या कि सरकार अपनी साख खत्म हो जाने के बाद कम से कम उस मीडिया की साख बचने देना चाहती है, जो मीडिया आगे चलकर सरकार की साख बचाने का असर बचाकर रख सके। सोशल मीडिया की मेहरबानी से देश के चर्चित और गिने-चुने राजनीतिक विश्लेषकों की बंधी-बंधाई सोच और राय तक सीमित नहीं रहना पड़ता और बहुत से नए नए लोग बिल्कुल ताजा तर्कों के साथ सोशल मीडिया पर नई राय सामने रखते हैं। जो कार्टूनिस्ट कहीं नहीं भी छपते हैं, वे भी दमदार काम करके सोशल मीडिया पर इन दिनों पोस्ट कर रहे हैं। ऐसे में जब एक घनघोर और कट्टर मोदीभक्त फिल्म कलाकार अनुपम खेर मोदी सरकार को देश की आज की नाकामी के लिए जिम्मेदार मानते हुए उससे सवाल करने को जायज मान रहे हैं, तो इससे उन्हीं का एक पुराना टीवी कार्यक्रम याद पड़ता है जिसमें वह बार-बार कहते हैं कि कुछ भी हो सकता है, कार्यक्रम का नाम भी शायद वही था। ऐसा लगता है कि वह ‘कुछ भी’ अभी हो गया है, क्योंकि अभी एक पखवाड़ा ही हुआ है जब एक पत्रकार शेखर गुप्ता के एक ट्वीट के जवाब में देश में गिरती लाशों की चर्चा में अनुपम खेर ने बेमौके की बेतुकी बात ट्विटर पर पोस्ट की थी कि जीतेगा तो मोदी ही। खैर उसके लिए सोशल मीडिया पर उन्हें इतनी धिक्कार मिली कि उन्होंने उसकी कल्पना भी नहीं की होगी। और जो लोग सोशल मीडिया पर हर नौबत में जीतेगा तो मोदी ही पोस्ट करने के लिए रखे गए हैं, वे लोग भी अनुपम खेर के कुछ काम नहीं आ सके थे। ऐसे में आज जब अनुपम खेर कड़े शब्दों में मोदी सरकार की आलोचना कर रहे हैं, और उसे जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, तो इस सरकार के लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि ऐसा समर्पित कार्यकर्ता भी आज साथ नहीं रह गया है।
दरअसल हिंदुस्तान में पिछले वर्षों में मोदी सरकार ने विपक्ष को सुनना, आलोचकों को सुनना, और मीडिया के जिम्मेदार तबके को सुनना, जिस हद तक बंद और खत्म कर दिया था, वही वजह थी कि देश में नौबत बिगड़ती चली गई, और सरकार के लोगों ने यह मान लिया था कि आलोचना का तेवर रखने वाले विपक्षी नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, मीडिया या दूसरे लेखक कलाकारों की कोई बात तो सुनना ही नहीं है, क्योंकि ये सारे ही लोग टुकड़ा-टुकड़ा गैंग हैं और देश के दुश्मन हैं, गद्दार हैं, पाकिस्तान भेज दिए जाने के लायक हैं। जब आप देश के इतने बड़े सोचने-विचारने वाले, जिम्मेदार, देशभक्त, और समाज में समरसता चाहने वाले तबके को गद्दार कहकर खारिज कर देते हैं और उसकी किसी भी बात को नहीं सुनते हैं, तो आपके सिर पर आसमान से जब बिजली गिरते रहती है तो भी इस तबके की कही गई सावधानी सुनाई नहीं पड़ती है।
दरअसल लोकतंत्र में तमाम लोगों को सुनना बंद कर देना अच्छी बात इसलिए नहीं है कि अगर संसदीय बाहुबल ऐसा करने की छूट भी देता है तो भी सरकार सबको अनसुना करके सिवाय गलतियां करने और सिवाय गड्ढे में गिरने के और कुछ नहीं कर पाती। इसी सरकार की यह बात नहीं है जो भी ऐसी सरकार हो जो कि आलोचना को बिल्कुल भी बर्दाश्त ना कर सके, वह अपनी मनमानी ताकत से मनमाने काम जरूर कर सकती है, लेकिन न मुसीबत से बच सकती है और न किसी खतरे से। भारत में आज नौबत यही है।
आज यही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि हिंदुस्तान में कोरोना के इस दूसरी लहर के पीछे इस देश में राजनीतिक और धार्मिक जमघट भी जिम्मेदार हैं जिनमें लोगों को बड़ी संख्या में संक्रमण फैला। अब देश का एक तबका ऐसा है जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की राय को भी एक विदेशी, भारत विरोधी संगठन करार देते हुए खारिज कर सकता है, लेकिन यह वही तबका होगा जो कल तक मोहम्मद पर बनाए गए कार्टूनों पर खुशी मना रहा था, और आज 33 करोड़ हिंदू देवी देवताओं की नाकामी पर बनाए गए इस कार्टून पर जिसके पास कहने को कुछ नहीं है। आज हम किसी एक मुद्दे पर बात नहीं कर रहे हैं बल्कि देश और दुनिया के अलग-अलग तबकों की कही हुई बातों को सुनने की सरकार की लोकतांत्रिक जिम्मेदारी पर बात करना चाहते हैं कि कितने भी बहुमत से चुनकर आई हुई कोई सरकार, लोगों के बहुत बड़े तबके की बातों को पूरी तरह अनसुना करके कहीं से लोकतांत्रिक काम नहीं कर सकती। उसे मनमाना सरकारी काम करने का जनादेश तो चुनाव में मिला है, लेकिन कोई चुनावी-जनादेश सरकार को लोकतंत्र के प्रति, जनता के प्रति, जवाबदेही खत्म करने का कोई अधिकार नहीं देता है। आज हिंदुस्तान में केंद्र सरकार को यह आत्ममंथन करना चाहिए कि आज जब उसके खुद के अनुपम खेर किस्म के घरेलू लोग हालात को इतना नकारात्मक बता रहे हैं, तो अब इस हालात को सकारात्मक दिखने की और कोशिश करना ठीक नहीं होगा। हम अनुपम खेर के शब्दों को ही दोहराना चाहेंगे जिसमें उन्होंने कहा है, सरकार के लिए अपनी छवि बचाने से ज्यादा जरूरी लोगों की जान बचाना होना चाहिए, उन्होंने कहा है कि इमेज बनाने के अलावा जिंदगी में और भी बहुत कुछ है, उन्होंने यह भी कहा है कि जिस काम के लिए चुना गया है वही काम करे सरकार। हम इन तीनों बातों को देश के तीन प्रमुख अखबारों की सुर्खियों से लेकर यहां लिख रहे हैं, भीतर की खबर में उन्होंने बहुत कुछ और कहा है, और क्योंकि यह एक टीवी इंटरव्यू में कहा है इसलिए इससे मुकरने का कोई खतरा हमें नहीं दिखता। अनुपम खेर की बात को सुनकर इस सरकार को अब वही करना चाहिए जो किसी एक घरेलू शुभचिंतक की कही हुई बात पर करना चाहिए। हमारे कम लिखे को सरकार अधिक पढ़े, और अनुपम खेर की कही बातों को बार-बार पढ़े।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया के विकसित देशों के कुछ वीडियो बीच-बीच में सोशल मीडिया पर चलते हैं जिनमें किसी रेस्तरां, फूड कॉर्नर, कॉफी शॉप में लोग जाते हैं, काउंटर पर भुगतान करते हैं और कहते हैं, दो कॉफी, एक सस्पेंडेड। ऐसे वीडियो बतलाते हैं कि कुछ देर बाद कोई गरीब, बेघर या जरूरतमंद दिखते हुए लोग वहां पहुंचते हैं, और काउंटर पर पूछते हैं कि क्या कोई सस्पेंडेड कॉफी है ? और काउंटर से उन्हें या तो कुछ देर इंतजार करने कहा जाता है, या तुरंत उन्हें कॉफी या कोई दूसरा नाश्ता दिया जाता है। यह पूरा सिलसिला बड़ा दिलचस्प है और यह यूरोप के कुछ देशों से शुरू हुआ है। वहां पर कई लोग जब खाने पीने का सामान लेने जाते हैं तो जरूरतमंदों की मदद करने के लिए अपने खरीदे सामान से अधिक का भुगतान करके आते हैं, और वहां आर्डर देते समय ही बता देते हैं कि कितना सामान उन्हें ले जाना है और कितने सस्पेंडेड सामान का भी भुगतान करके जा रहे हैं। इन रेस्त्रां के कारोबारी भी ऐसी समाजसेवा को बढ़ावा देते हैं क्योंकि इससे उनकी खुद की एक सामाजिक जिम्मेदारी पूरी होती है, वे गरीब जरूरतमंद की मदद में एक जरिया बन जाते हैं और फिर उनका खुद का कारोबार तो इससे बढ़ता ही है। लेकिन यह वीडियो सिर्फ पश्चिमी देशों का हो ऐसा भी नहीं है। हिंदुस्तान में ही मुंबई में मुस्लिम बस्तियों में निकलें तो फुटपाथ पर रेस्तरां के सामने बहुत से गरीब लोग एक कतार में एक उकडू बैठे हुए दिखते हैं। इन्हें रेस्तरां के काउंटर पर बैठा आदमी गिनती बताकर बुलाता है और भीतर बिठाकर खिलाता है। इस बारे में पता लगता है कि कोई रहमदिल दानदाता अपनी मर्जी की गिनती के लोगों के लायक खाने के पैसे जमा कर जाते हैं, और फिर रेस्त्रां मालिक किस्तों में ऐसे लोगों को बुलाकर, बिठाकर खिला देते हैं।
लोगों की मदद करने के बहुत से तरीके होते हैं, हिंदुस्तान में बहुत बड़े हिस्से में यह भी प्रचलन में हैं कि खाना बनना शुरू हो तो पहली रोटी गाय की बनती है और आखिरी रोटी कुत्ते की। इसके बाद ऐसा भी कहा जाता है कि कामयाब रसोई वही होती है जिसमें घर के लोगों के खाने के बाद भी अचानक आ गए मेहमान, या भूखे के लायक भी खाने के लिए बचा रहना चाहिए। बहुत से लोग अभी लॉकडाउन के बीच में अपने दुपहिए पर या अपनी कार में जानवरों के खाने की तरह-तरह की चीजें लेकर निकलते हैं, कहीं गाय-कुत्ते को रोटी डालते हैं, तो कहीं किसी और जानवर को किसी तरह की सब्जी खिलाते हैं। ऐसा इसलिए भी कर रहे हैं कि इन दिनों सभी तरह के होटल, ढाबे, रेस्तरां बंद हैं और वहां से इन जानवरों को खाने जो मिल जाता था वह अभी बंद हो चुका है। इसलिए लोग जरूरतमंदों की मदद के बहुत से तरीके सोचते हैं और काम करते हैं।
आज कोरोना की बीमारी के इस खतरे के बीच भी बहुत से ऐसे सामाजिक संगठन है जो बीमारों को अस्पताल पहुंचाने से लेकर अस्पताल से लाश घर पहुंचाने तक के काम में जुटे हुए हैं, और अगर किसी के पास भुगतान करने की ताकत है तो वह भुगतान कर दें, और ताकत नहीं है तो उसे मुफ्त भी पहुंचा कर आते हैं। कल ही सोशल मीडिया पर एक ऐसे डॉक्टर की तस्वीर आई है जिसकी बीपी की मशीन और स्टेथोस्कोप टेबल पर है, और उसने नोटिस लगा रखा है कि जब तक लॉकडाउन चल रहा है, दवा के दाम अपने हिसाब से दें। मतलब यही है कि जिसके पास भुगतान की ताकत नहीं है, वह भुगतान न करें। बहुत से शहरों में मामूली ऑटो रिक्शा वाले ऐसा ही कर रहे हैं और उन्होंने नोटिस लगा रखा है कि मरीज को अस्पताल ले जाने का कोई किराया नहीं लिया जाएगा। कुछ ऑटो रिक्शा महिलाओं से किराया नहीं ले रहे हैं, कुछ बुजुर्गों से किराया नहीं ले रहे हैं। यह पूरा सिलसिला बताता है कि बहुत आम लोगों के मन में भी दूसरों के लिए बहुत कुछ करने का जज्बा है। और जाहिर है कि बहुत से ताकतवर लोग ऐसे हैं जो कि कुछ भी नहीं कर रहे हैं या इतना कर रहे हैं जो कि उनकी छोटी उंगली के कटे हुए नाखून से भी कम है। अभी एक भरोसेमंद खबर आई थी कि किस तरह देश के एक कारोबारी अजीम प्रेमजी ने पिछले एक बरस में करीब 8 हजार करोड़ रुपए का दान दिया है, यानी हर दिन 22 करोड़ ! यह रकम छोटी नहीं होती है, खासकर तब जब इसे मुकेश अंबानी के 100 करोड़ के दान के साथ रखकर देखा जाए। यह वक्त ऐसा है जिसमें बहुत अनपढ़ और मजदूर सरीखे काम करने वाले दानदाता भी अपनी आज की बदहाली के बीच भी किसी के काम आ रहे हैं, और जिनके पास दौलत के पहाड़ हैं वे किस तरह उसमें से पत्थर का एक छोटा सा टुकड़ा उठाकर दुनिया पर एहसान करने के अंदाज में दे रहे हैं।
आज यहां पर इस मुद्दे पर लिखने का एक मकसद यह भी है कि लोगों को अपने-अपने दायरे के भीतर भी दूसरों की मदद के बारे में सोचना चाहिए। और इसकी शुरुआत लोगों को अपने खुद के दायरे से करनी चाहिए कि उनके साथ में काम करने वाले जिन लोगों को उन्हें लॉकडाउन के कारण या बीमारी के डर के कारण, या सचमुच बीमार हो जाने पर छुट्टी देनी पड़ी है, उन्हें वह कम से कम पूरी तनख्वाह तो दे सकते हैं। आज लोगों को अपने निजी काम करने वाले घरेलू कर्मचारियों की तनख्वाह काटने के पहले यह भी सोचना चाहिए कि वे किस तरह जी सकेंगे? अगर उन्होंने खुद होकर छुट्टी नहीं ली है और लॉक डाउन की वजह से वे काम पर नहीं आ सके हैं, या मालिक के घर पर किसी के कोरोनाग्रस्त होने से उन्हें रोका गया या उनके खुद के घर पर किसी के कोरोनाग्रस्त होने से उन्होंने काम पर आना बेहतर नहीं समझा, तो ऐसे में उन्हें तो जिंदा रहने के लिए मदद करना हर सक्षम व्यक्ति की जिम्मेदारी होनी चाहिए। जब इस दायरे में जिम्मेदारी लोग निभा लें, तो उसके बाद उन्हें दूर के लोगों के बारे में भी सोचना चाहिए कि वह किसके लिए क्या कर सकते हैं. बहुत से घरों में बीमारी के दौरान बहुत से ऐसे मेडिकल सामान इकट्ठा हो जाते हैं जो बात में काम के नहीं रहते, ऐसे वक्त पर किसी सामाजिक संस्था के माध्यम से उन्हें जरूरतमंद लोगों तक तुरंत पहुंचा देना चाहिए। आज हजार-पांच सौ का ऑक्सीमीटर लेना हर किसी के बस की बात नहीं है, और हर कोई तो थर्मामीटर भी नहीं ले पाते। इसलिए आज खाने-पीने के सामान से लेकर दवा और मेडिकल उपकरण तक, अस्पताल पहुंचाने या अंतिम संस्कार में मदद तक, कई किस्म से आप लोगों के काम आ सकते हैं। लोगों को न केवल खुद ऐसा करना चाहिए बल्कि आसपास के दूसरे लोगों को भी मददगार बनने की प्रेरणा देना चाहिए। आज की यह बहुत बड़ी जरूरत है और अगले साल-दो साल तक बीमारी और बेरोजगारी से देश और दुनिया का जो हाल रहना है उसमें यह जरूरत बने रहेगी, लोगों को दूसरों के काम आना सीखना चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
इन दिनों हिंदुस्तान में पार्टियों को चुनाव लडऩे के लिए दूसरे देशों में जाकर प्रचार करना भी समझ आने लगा है। कर्नाटक के चुनाव के वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेपाल के मंदिरों का दिनभर दौरा करके भारत के चुनाव आयोग के शिकंजे से बाहर भी थे, और हिंदुस्तान के हर टीवी चैनल पर भी दिनभर छाए हुए थे। अभी जब बंगाल में चुनाव चल रहा था तो मतदान के वक्त नरेंद्र मोदी बांग्लादेश के मंदिरों में घूम रहे थे और चुनाव आयोग का कोई शिकंजा उन पर नहीं था। नरेंद्र मोदी ने ही यह सिलसिला शुरू किया कि देश के बाहर बसे हुए प्रवासी भारतीयों के बीच चुनाव प्रचार या चंदा अभियान के लिए अमेरिका तक जाकर विशाल कार्यक्रम करना। जब देश में प्रशांत किशोर जैसे पेशेवर चुनावी रणनीतिकार लोकतांत्रिक चुनाव मैनेज करते हैं, और ममता बनर्जी को इतनी बड़ी जीत दिलाने में मददगार रहते हैं, पता नहीं चुनाव में क्या-क्या तरीके आजमाए जाने लगे हैं । ऐसे में चुनावों के बीच में भी कई किस्म के तरीकों का इस्तेमाल दिखता है, जो दिखता तो है लेकिन समझ में आसानी से नहीं आता है।
अब जब कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आलोचनाओं से कुछ अधिक घिरते दिखते हैं तो अचानक केंद्र सरकार के कोई मंत्री कोई ऐसा बयान जारी करते हैं कि हल्के-फुल्के मीडिया का खासा वक्त उसी की आलोचना में निकल जाए या उसकी चर्चा में निकल जाए। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन जो कि आज हिंदुस्तान पर छाए हुए सबसे बड़े खतरे और हिंदुस्तान को सबसे बड़ा नुकसान पहुंचा रहे कोरोना से जूझने के लिए अकेले जिम्मेदार मंत्री रहने चाहिए, आए दिन मसखरी की बातें करके खबरों को अपनी तरफ खींचते हैं, और कोरोना के असली खतरे की तरफ से, सरकार की असली नाकामयाबी की तरफ से ध्यान बंटवा लेते हैं। पिछली बार उन्होंने लॉकडाउन और कोरोना के बीच मटर छीलते हुए अपनी तस्वीर पोस्ट की थी, और तबसे लेकर अब तक बीमारी और बचाव को लेकर बहुत ऐसे गैरगंभीर बयान दिए हैं जिससे वह तो खबरों में बने रहे और लोगों का गुस्सा भी ऐसे स्वास्थ्य मंत्री पर निकलते रहा। कुछ ही हफ्ते हुए हैं कि उन्होंने देश के सबसे घाघ कारोबारी रामदेव के फज़ऱ्ी मेडिकल दावों के साथ लांच की गई फज़ऱ्ी दवाओं को सर्टिफिकेट देते हुए मंच से उनका प्रचार किया था। लेकिन क्या वह अनायास ऐसा करते हैं या यह किसी प्रशांत किशोर जैसे रणनीतिकार की सोची हुई हरकत रहती है कि प्रधानमंत्री को आलोचना से बचाने के लिए दूसरे लोगों को आलोचना के घेरे में लाया जाए और खबरों को उस तरफ मोड़ा जाए?
अभी इसी स्वास्थ्यमंत्री हर्षवर्धन का ताजा बयान है कि कोरोना संबंधित तनाव दूर करने के लिए लोगों को 70 फ़ीसदी कोको कंटेंट वाली डार्क चॉकलेट खाना चाहिए। आज जहां इस देश में लोगों के रोजगार छिन गए हैं, लोग बिना तनख्वाह, बिना मजदूरी घर पर बैठने को मजबूर हैं, जहां केंद्र और राज्य सरकार के दिए हुए बहुत सस्ते या मुफ्त अनाज की वजह से लोग भूखे मरने से बच रहे हैं, वैसे में इस देश का स्वास्थ्य मंत्री लोगों को डार्क चॉकलेट खाने के लिए कह रहा है, ताकि वे कोरोना के तनाव से बच जाएँ! इस देश की 90 फ़ीसदी आबादी ऐसी महंगी चीज खरीदने की ताकत से परे है, और इस देश की 99 फ़ीसदी आबादी ने कभी डार्क चॉकलेट का नाम भी नहीं सुना होगा। यह कुछ उसी किस्म की बात है कि लोगों को प्रदूषण से बचने के लिए घरों को एसी करवा लेने और महंगे एयर क्लीनर लगवा लेने, और एयरकंडीशंड कार में चलने की नसीहत दे दी जाए। कई बार यह भी लगता है कि क्या कोई केंद्रीय मंत्री सचमुच इतना बेवकूफ हो सकता है कि वह ऐसी संवेदनाशून्य बातें करे? या फिर उसे बेवकूफी की ऐसी स्क्रिप्ट तैयार करके दी जाती है कि लोगों का ध्यान उसी की तरफ चले जाए? यह समझ पाना हमारे लिए नामुमकिन है क्योंकि इन दिनों जिस तरह से कोई राजनीतिक दल लाखों लोगों को सोशल मीडिया पर अपने भाड़े के मजदूरों की तरह इस्तेमाल कर सकता है, कर रहा है, वैसी बातें 10 बरस पहले तक किसने सोची थीं ? इसलिए आज जब देश के मीडिया का अधिकतर हिस्सा सत्ता का गोदी मीडिया होने का सार्वजनिक का तमगा पाकर भी उस कामयाबी पर खुश है, गौरवान्वित है, तब फिर ऐसे मीडिया की मदद से किसी गढे हुए बयान को इस्तेमाल करके आलोचनाओं को दूसरी तरफ मोडऩा एक सोचा-समझा काम भी हो सकता है?
आज हम महज इसी एक मुद्दे पर शायद नहीं लिखते, लेकिन बिहार से एक दूसरा मामला सामने आया है जिसमें वहां के भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूडी खबरों के घेरे में हैं कि किस तरह उन्होंने अपनी सांसद निधि से खरीदी हुई दर्जनों एंबुलेंस बिना ड्राइवरों के खड़ी रखी हैं। बिहार के ही एक दूसरे बाहुबली यादव नेता पप्पू यादव ने इस मुद्दे को जोरों से उठाया, और आज बिहार सरकार ने कोरोना मरीजों के लिए दौड़-दौडक़र घूम-घूमकर काम करते हुए पप्पू यादव को गिरफ्तार कर लिया कि वे लॉकडाउन के नियम तोड़ रहे हैं। अब बिहार के कुछ लोगों का यह मानना है कि नीतीश कुमार ने ऐसा करके एक तरफ तो राज्य के सत्तारूढ़ गठबंधन एनडीए के एक भाजपाई नेता राजीव प्रताप रूडी को परेशानी में डाल दिया है क्योंकि पप्पू यादव का मामला जितना उठेगा उतना ही रूडी का निकम्मापन दिखेगा। दूसरी तरफ लालू यादव के जेल से बाहर आते ही उन्हें हीरो की तरह खड़े होने का मौका न देकर एक दूसरे यादव को गिरफ्तार करके उसे हीरो बनाया जा रहा है तो क्या यह भी नीतीश कुमार की एक और चाल है ? और क्या वे एक तीर से दो निशाने साध रहे हैं? बिहार के कुछ पत्रकारों ने इस किस्म की अटकल लिखी है जिसका कोई सुबूत तो हो नहीं सकता है लेकिन राजनीतिक अटकलें तो ऐसी ही लगती हैं। अब अगर नीतीश के इस काम को देखें जो कि जाहिर तौर पर अटपटा लग रहा है कि लॉकडाउन में रात-दिन लोगों की मदद करते पप्पू यादव को गिरफ्तार किया गया है, और दूसरी तरफ हर्षवर्धन इस बीमार देश की बेरोजगार और गरीब जनता को देश की सबसे महंगी आयातित डार्क चॉकलेट खाने का सुझाव देने की मसखरी कर रहे हैं । अब इसे क्या कहा जाए क्या नेता सचमुच इतने बेवकूफ हो सकते हैं कि घर में चावल ना हो तो बादाम खाकर पेट भरने की सलाह दे दे? यह देश की जनता पर भी है कि वह सोचे कि आज के हालात के जिम्मेदार कौन लोग हैं, कटघरे में किसे होना चाहिए, और उनकी तरफ नजरें ना जाएं इसलिए कुछ दूसरे लोग फुटपाथ पर खड़े होकर मदारी की तरह हरकतें कर रहे हैं, तिलिस्मी ताबीज बेचने जैसी हरकतें कर रहे हैं। यह सिलसिला मासूम लगता तो नहीं है, आगे प्रशांत किशोर जैसे किसी पेशेवर को हकीकत मालूम होगी।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज देश के बहुत से प्रदेशों में 18 वर्ष से ऊपर वालों को लग रहे टीकों का नजारा सामने आया है जिसे देखकर दिल दहल रहा है। यह समझ नहीं पड़ रहा है कि ये टीके कोरोना से बचाव के लिए लग रहे हैं, या इन टीकों को लगाने के नाम पर लोगों के बीच कोरोना और फैलाया जा रहा है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लेकर उत्तरप्रदेश और बिहार के बहुत से केंद्रों तक के वीडियो और फोटो सामने आ रहे हैं कि कैसे उनमें लोगों की कतारों में जमकर धक्का-मुक्की हो रही है। छत्तीसगढ़ में तो फिर भी आय वर्ग के हिसाब से तीन-चार अलग-अलग काउंटर बना दिए हैं, इसलिए यहां भीड़ थोड़ी सी बँटी है लेकिन उत्तरप्रदेश और बिहार में तो हाल भयानक है, और वहां मौजूद लोगों में मारपीट चल रही है, उसके वीडियो पोस्ट किए जा रहे हैं। लोग सोशल मीडिया पर लगातार लिख रहे हैं और मौके पर पहुंचे हुए समाचार एजेंसियों के लोगों को बता भी रहे हैं कि किसी तरह का कोई इंतजाम नहीं है, और पूरी की पूरी भीड़ एक दूसरे से धक्का-मुक्की में लगी हुई है।
लोगों को याद होगा कि 19 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बैठक की और उसके तुरंत बाद यह घोषणा कर दी गई कि 1 मई से पूरे देश में 18 से 44 वर्ष उम्र के लोगों को टीके लगाए जाएंगे, और इसका इंतजाम राज्य सरकार खुद करेंगी, वही इसकी खरीदी करेंगी, वही इसका भुगतान करेंगी, वही इसको लगाएंगी। केंद्र सरकार ने केवल इस आयु वर्ग की घोषणा कर दी और तारीख की घोषणा कर दी। आज नतीजा यह है कि देश की करीब आधी आबादी 18 से 44 बरस उम्र की है और वह टीके लगवाने के लिए एक साथ पहुंचने की हकदार हो गई हैं। कहने के लिए तो केंद्र सरकार ने एक मोबाइल एप्लीकेशन बना दिया है जिससे कि लोग अपना रजिस्ट्रेशन कर सकते हैं, लेकिन आबादी का एक बड़ा तबका ऐसा है जो न स्मार्टफोन रखता और ना रजिस्ट्रेशन करा सकता, इसलिए वह तबका तो मौके पर ही पहुंच रहा है। टीकाकरण केंद्रों पर जो अंधाधुंध भीड़ दिख रही है और जितनी धक्का-मुक्की चल रही उससे एक बात तो है कि कोरोना टीकों से थमे या नहीं, कोरोना का फैलना तो आज ही तय हो गया है। लोगों को याद होगा कि 20 अप्रैल को हमने इस मुद्दे पर इसी जगह सम्पादकीय लिखा था कि जब तमाम काम राज्यों को ही करने हैं तो केंद्र सरकार कौन होती है जो यह तय करे कि 18 से 44 बरस के लोगों को टीके लगना 1 मई से शुरू होगा? आज न बाजार में टीके हैं, और न ही कंपनियां राज्यों को देने की हालत में हैं। जब मोदी सरकार को खुद को टीके देने थे तो कई किस्म के दर्जे बना दिए गए थे, पहले 60 बरस के ऊपर के लोग, फिर दूसरा दर्जा बना स्वास्थ्य कर्मचारी और फ्रंटलाइन वर्कर, फिर तीसरा दर्जा बना 45 वर्ष से ऊपर के दूसरी बीमारियों के शिकार लोग, और यह दर्जे अभी चल ही रहे हैं। जनवरी से अब तक केंद्र सरकार इन्हीं के लिए राज्यों को पूरी तरह से टीके नहीं दे पाई है। ऐसे में देश की आधी आबादी को 1 मई की तारीख बताकर टीकाकरण के लिए झोंक देना एक बहुत बड़ी गैरजिम्मेदारी का काम था जो कि मोदी सरकार ने अपने पहले के कुछ दूसरे कामों की तरह ही किया। जिस तरह बिना तैयारी के नोटबंदी की गई, बिना तैयारी के जीएसटी लागू किया गया, बिना तैयारी के लॉकडाउन किया गया, उसी तरह बिना किसी तैयारी के 1 मई से इतनी बड़ी आबादी के टीकाकरण की घोषणा कर दी गई। जब राज्यों को सब कुछ अपने ही दम पर करना था तो इस बात को भी राज्यों पर छोडऩा था और राज्य अपने हिसाब से तय करते कि वे पांच-पांच बरस आयु वर्ग के अलग-अलग समूह बनाकर उन्हें अलग-अलग तारीखों पर बुलाते और इस तरह का मजमा लगने की नौबत नहीं आने देते।
इस काम के लिए तो केंद्र सरकार के बड़े-बड़े जानकारों की जरूरत ही नहीं थी यह तो गूगल करके पता लगाया जा सकता था कि इस आयु वर्ग में कितनी आबादी आएगी और क्या उतनी आबादी को एक किसी तारीख को एक साथ टीकाकरण शुरू करना मुमकिन काम है? केंद्र सरकार ने राज्यों को एक बहुत मुसीबत में और देश की आबादी को एक बहुत बड़े खतरे में धकेल दिया है। आज देश में टीका सप्लाई की जो हालत है उसके चलते हो सकता है कि एक-दो बरस तक भी तमाम आबादी को टीके ना लग सके और यह भी हो सकता है कि एक बरस में जितने लोगों को टीके लगें उनको एक बरस के बाद फिर से इसका डोज देने की नौबत आने लगे। ऐसी हालत में लोगों को धक्का-मुक्की के लिए टीकाकरण केंद्रों पर इस तरह छोड़ दिया गया है। इसके तमाम खतरे हमने 20 अप्रैल के संपादकीय में ही गिनाये थे। और आज जगह-जगह से वैसा नजारा देखने मिल रहा है। पता नहीं इससे कोरोना थमेगा अधिक या फैलेगा अधिक। कोई हैरानी नहीं कि सोशल मीडिया पर लोग लिख रहे हैं कि देश भर में भंडारा खोलने की मुनादी के पहले प्रधानमंत्री को यह तो देखना था कि आटा-तेल बाजार में है या नहीं, और हलवाई है या नहीं? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के अलग-अलग राज्यों में सरकारें कोरोना के खतरे को देखते हुए शादी जैसे पारिवारिक समारोह, या अंतिम संस्कार जैसे सामाजिक कार्यक्रमों पर भी अलग-अलग रोक लगा चुकी हैं। आज किसी भी राज्य में शादी में 10-20 लोगों से अधिक की मौजूदगी की इजाजत नहीं है और मौत होने पर भी ऐसे ही गिनती के लोगों को जाने की छूट है। लेकिन सोशल मीडिया पर बड़े दिलचस्प वीडियो सामने आ रहे हैं, किसी में बैंड पार्टी ना होने पर कोई दूल्हा खुद ही नगाड़ा बजाते दिख रहा है, किसी वीडियो में एक दूल्हा घोड़ी वाले के साथ घोड़ी पर सवार शादी के लिए अकेले ही चले जा रहा है। कल ऐसी खबर आई कि एक दूल्हा कार चलाकर खुद ही चले गया और शादी करके दुल्हन को ले आया। दूसरी तरफ उत्तर भारत की ऐसी कई खबरें हैं जिनमें 20 लोगों की इजाजत मिली और 200 लोगों की दावत चल रही थी जिस पर छापा मारकर लोगों को गिरफ्तार किया गया। एक कार्यक्रम तो खबर में ऐसा आया जिसमें शादी की दावत चल रही थी और खाने वालों में झगड़ा हुआ, गोली चली तो एक मेहमान की मौत हो गई, और बाकी वहां से भाग निकले।
पिछले बरस जब कोरोना मामूली फैला हुआ था और लॉकडाउन लगा हुआ था, उस वक्त हमने लोगों के लिए यह नसीहत इसी जगह पर लिखी थी कि लोगों को अभी बच्चे पैदा करने का सिलसिला शुरू नहीं करना चाहिए क्योंकि इस बात का कोई ठिकाना नहीं है कि आने वाला वक्त कैसा रहेगा और यह बीमारी कब तक चलेगी। उस वक्त भी हमने लोगों को शादी से बचने को भी कहा था लेकिन तब दुनिया इतनी बड़ी बर्बादी नहीं देख रही थी जैसी कि आज देख रही है। आज तो हालत यह है कि घर में किसी एक को कोरोना हो रहा है तो बाकी लोग भी उस संक्रमण के शिकार हो रहे हैं। ऐसे में शादी के लिए लडक़ी के घर जाना और फिर दुल्हन को ससुराल लेकर आना, इस फेर में दर्जनों लोगों का तो एक-दूसरे से सामना होता ही होगा, साथ में खाना या खिलाना होता होगा, और सबके लिए खतरा बढ़ता होगा। यह वक्त सिवाय अंतिम संस्कार के और किसी भी निजी कार्यक्रम का नहीं है। बिहार के कुछ जिम्मेदार पत्रकारों ने सोशल मीडिया पर अपने प्रदेश के लोगों से हाथ जोडक़र प्रार्थना की है कि वे मुंडन, जनेऊ संस्कार, और बाकी किसी भी किस्म के पारिवारिक समारोहों से बचें, जिनके लिए बाद में बहुत वक्त रहेगा। एक बार महामारी की मार कम हो तो उसके बाद ऐसे कार्यक्रम करते रहें। आज इन कार्यक्रमों में मौजूद लोगों, घर के लोगों, और रिश्तेदारों को खतरे में डालने के साथ-साथ सार्वजनिक स्तर पर भी बीमारी बढ़ाने का काम भी इससे हो रहा है।
लेकिन हिंदुस्तान की हकीकत यह है कि जब बड़े-बड़े नेता लाखों की भीड़ वाली आमसभा को देखकर खुश होते हैं और यह कहते हैं कि जहां तक नजर जा रही है वहां तक लोग ही लोग दिख रहे हैं, और जहां चुनावी रैली में, रोड शो में, लोगों के रेले में, धक्का-मुक्की होते रहती है, और कोई भी मास्क नहीं दिखता, वहां तो लोगों के सामने कोई ऐसी मिसाल पेश नहीं होती है कि देश खतरे में है, लोगों की जिंदगी खतरे में हैं, और लोगों को बचकर घर में रहना चाहिए, किसी कार्यक्रम से बचना चाहिए। जब चुनाव प्रचार जैसे गैरजरूरी कार्यक्रमों में और कुंभ जैसे निहायत जरूरी कार्यक्रम में दसियों लाख की भीड़ जुटती है तो आम लोगों को 100-200 लोगों की भीड़ से कैसे रोका जा सकता है ? नतीजा यह होता है कि देश के नेताओं के स्तर से जो पैमाने तय होते हैं, नीचे तक वे ही चलते जाते हैं और खतरा बढ़ता ही जाता है।
आज यहां पर इस बारे में लिखने का मकसद यह है कि हम लोगों को एक बार फिर याद दिलाना चाहते हैं कि यह बीमारी कब तक रहेगी इसका कोई ठिकाना नहीं है और लोगों को आज शादी-ब्याह को जहां तक टाल सकें टालना चाहिए, किसी सगाई वगैरह को भी टालना चाहिए क्योंकि जिंदगी का ठिकाना तो है नहीं और इस बार कोरोना जवान लोगों को भी शिकार बना रहा है, तो ऐसे में क्या फायदा कि जहां रिश्ता तय किया जाए वहां कोई मौत हो जाए और फिर लोगों के मन में एक संदेह बना रहे कि रिश्ता होने की वजह से ऐसा हुआ है। फिर जो शादीशुदा लोग हैं और जिनके बच्चे की गुंजाइश है जिनकी तैयारी है, उन्हें भी बहुत सावधान रहना चाहिए क्योंकि आज के समय में महिला को कोई सुरक्षित अस्पताल मिले या ना मिले, और वहां पर संक्रमण के खतरे के बिना इंतजाम हो सके या नहीं। ऐसी नौबत को देखते हुए आज लोगों को अपनी भावनाओं पर काबू पाना चाहिए और नए रिश्ते बनाने से, परिवार में नए लोगों को लाने से, खुद नए परिवारों में आने-जाने से, और बच्चे पैदा करने से अपने को रोकना चाहिए। आज जब जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं है तो इस बात का क्या मतलब है कैसी शादी की जाए जिसमें कुछ ही दिनों में किसी एक की मौत हो जाए और दूसरे के लिए पहाड़ सी बाकी जिंदगी अकेले के सामने खड़ी रहे। अभी कई ऐसी खबरें आई है कि शादी के दो-चार दिन के भीतर ही किसी एक को कोरोना हो गया, मौत हो गई। इसलिए आज का वक्त बहुत सावधानी से रहने का है, यह ना किसी समारोह का वक्त है, ना लापरवाही से खाना खिलाने का है, और जिंदगी भर के रिश्ते बनाने का वक्त तो बिल्कुल ही नहीं है, साथ ही अगले एक बरस तक लोगों को बच्चे पैदा करने के बारे में भी नहीं सोचना चाहिए।
बिहार में वहां के एक बाहुबली नेता पप्पू यादव ने अभी एक भंडाफोड़ किया कि आज जब कोरोना मरीजों को अस्पताल ले जाने के लिए और लाशों को वापस लाने के लिए कहीं एंबुलेंस नहीं मिल रही है, लोगों को बहुत मोटी रकम देनी पड़ रही है, वैसे में छपरा के किसी अहाते में 30 एंबुलेंस गाडिय़ां खड़ी हुई हैं, जिन्हें ढंककर रख दिया गया है और इन्हें भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूड़ी की सांसद निधि से लिया गया था ऐसा उन पर लिखा हुआ भी है। अब कल जब यह वीडियो चारों तरफ फैला और पप्पू यादव ने यह सवाल किया कि एंबुलेंस की जरूरत के समय एंबुलेंस ढंक कर रख दी गई हैं, और उनका कहना है कि ऐसी 100 गाडिय़ां हैं जिन्हें सांसद निधि से खरीदा गया जो कि जाहिर तौर पर जनता का ही पैसा होता है और वे एंबुलेंस इधर-उधर कर दी गई हैं, वे चल नहीं रही है। दूसरी तरफ केंद्रीय मंत्री रहे हुए आज के भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूड़ी का यह कहना है कि एंबुलेंस के लिए ड्राइवर नहीं मिले इसलिए इन्हें ढंककर रखा गया है। इस पर पप्पू यादव ने दिलचस्प जवाब दिया है कि 2016 में छपरा में केंद्रीय मंत्री की हैसियत से रूड़ी ने नितिन गडकरी और सुशील मोदी की मौजूदगी में प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के तहत ड्राइविंग प्रशिक्षण संस्था का उद्घाटन करवाया था। ऐसी संस्था जिस लोकसभा क्षेत्र में शुरू की गई, वहां पर आज सरकारी एंबुलेंस के लिए भी ड्राइवर नसीब नहीं हो रहे, इस पर अफसोस करते हुए पप्पू यादव ने अपनी तरफ से दर्जनों ड्राइवर खड़े कर दिए और कहा कि ये एंबुलेंस चलाएंगे।
यह बात जाहिर है कि पिछले एक महीने से अधिक वक्त हो चुका है जब देश में कोरोना उफान पर है, और चारों तरफ यह चर्चा पहले से चली आ रही थी कि दूसरी लहर पहले से अधिक खतरनाक रहने वाली है। ऐसे में केंद्र और बहुत से राज्यों की सरकारों ने जिस तरह लापरवाही दिखाई और कोई तैयारी नहीं की, यह उसकी एक मिसाल है। राजीव प्रताप रूड़ी केंद्र सरकार में वजन रखने वाले भाजपा सांसद हैं और बिहार में उनकी पार्टी सत्तारूढ़ गठबंधन में हैं। ऐसे में अगर जनता के पैसों से खरीदी गई एंबुलेंस चलाने के लिए ड्राइवर नसीब नहीं हो रहे हैं तो पप्पू यादव का यह सवाल तो जायज है कि ऐसे ड्राइविंग प्रशिक्षण संस्थान का क्या फायदा हुआ अगर बिहार जैसे बेरोजगारी से भरे हुए राज्य में कुछ ड्राइवर भी तैयार नहीं हो सके। लेकिन यह हाल अलग-अलग सरकारों में अलग-अलग प्रदेशों में कई जगह देखने मिल रहा है कि जब तक सिर पर से पानी निकल नहीं जाता तब तक सरकारें जागती नहीं हैं।
इस देश में लंबे समय से प्रधानमंत्री राहत कोष नाम से एक फंड चले आ रहा था जिसका ऑडिट सीएजी करता था जो पूरी तरह से पारदर्शी था, लेकिन पिछले बरस के कोरोना और लॉक डाउन के वक्त से एक नया फंड बनाया गया जिसे पीएम केयर्स फंड का नाम दिया गया और जिसे सीएजी के ऑडिट से बाहर रखा गया। इस फंड को मिलने वाले दान पर टैक्स की छूट तो वैसी ही रखी गई है जैसी कि किसी भी दूसरे सरकारी फंड की होती है, लेकिन इसे सीएजी की नजरों से बाहर रखने का रहस्य आज तक लोगों के समझ नहीं आया है, और ना ही इस फंड से क्या खर्च हो रहा है यह लोगों के सामने रखा गया है। इसलिए आज जब यह बात उठती है कि देशभर में इस फंड से ऑक्सीजन प्लांट मंजूर किए गए थे लेकिन वे लगे नहीं हैं, उनमें से बहुत गिने-चुने लगे हैं, तो सवाल यह उठता है कि एक पारदर्शी फंड रहता जिससे जुड़ी हुई तमाम बातें इसकी वेबसाइट पर मौजूद रहतीं तो लोग पहले से इसे लेकर सवाल करते कि इसके तहत दी गई मंजूरी से क्या काम हुआ है, कितनी रकम किस चीज पर खर्च हुई है। लेकिन लोकतंत्र में जहां किसी चीज को ढँककर रखा जाता है वहां उसमें सड़ांध आने लगती है।
लेकिन आज का हमारा मकसद पीएम केयर्स फंड को लेकर अधिक चर्चा करने का नहीं है, चर्चा की बात यह है कि इस फंड से देश भर में जहां-जहां वेंटिलेटर भेजे गए उनमें बड़ी संख्या में वेंटिलेटर खराब निकले, डॉक्टरों ने जगह-जगह उसके इस्तेमाल से मना कर दिया कि उससे मरीजों की जान को खतरा हो सकता है क्योंकि वह चलते चलते कभी भी रुक जाते हैं। आज सरकारी ढांचा इस किस्म का है कि खर्च करने की हड़बड़ी रहती है, उस खर्च से आए हुए सामान के रखरखाव की हड़बड़ी नहीं रहती, उसे चलाने के लिए कर्मचारियों को रखने की हड़बड़ी नहीं रहती। बिहार में जिस तरह एंबुलेंस खाली खड़ी हुई है, उसी तरह छत्तीसगढ़ सहित दूसरे बहुत से प्रदेशों में वेंटिलेटर जैसी जीवन रक्षक मशीनें खाली रखी हुई हैं और उन्हें चलाने का प्रशिक्षण किसी को नहीं दिया गया है। हजारों कर्मचारियों का सरकारी अमला है लेकिन ऐसी महंगी और जान बचाने वाली मशीनों को चलाने की ट्रेनिंग उन्हें नहीं दी गई। इसके पहले भी पिछली भाजपा सरकार के समय छत्तीसगढ़ में एक बहुत ही बदनाम स्वास्थ्य सचिव के रहते हुए सोनोग्राफी की ऐसी नकली मशीनें खरीद ली गई थीं जो कि किसी काम की नहीं थीं, और मंत्रालय में बैठे अफसरों ने सप्लायर के साथ मिलकर उन्हें प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों तक भिजवा भी दिया गया था जहां पर उन मशीनों को चलाने वाले कोई कर्मचारी नहीं थे। वे मशीनें चलने लायक नहीं थीं, उसकी रिपोर्ट को समझने वाले डॉक्टर वहां नहीं थे। सरकारी खरीदी में भारी गड़बड़ी की जाती है जैसे कि बिहार की इन एंबुलेंस की खरीदी में की गई होगी, लेकिन बाद में उनका इस्तेमाल हो रहा है या नहीं यह कैसी हालत में है इसकी फिक्र तो आज उस मुसीबत के समय भी नहीं की जा रही जब जब चारों तरफ तबाही फैली हुई है।
आज ही आंध्र के श्रीकाकुलम जिले का एक ऐसा वीडियो सामने आया है जिसमें कोरोना से मरी हुई मां को मोटरसाइकिल पर बीच में बिठाकर दो भाई शहर के अस्पताल से गांव ले जा रहे हैं। इनमें से कोई भी पीपीई सूट पहने हुए नहीं है क्योंकि शायद इन्हें नसीब भी नहीं रहा होगा, इन्हें एंबुलेंस नहीं मिली, इसलिए यह अपनी जान खतरे में डालकर माँ की लाश बीच में बिठाकर इस तरह से जा रहे हैं। और ऐसे वक्त पर बिहार में दर्जनों दर्जनों एंबुलेंस इस तरह से ढंककर रख दी गई हैं। लोकतंत्र में यह बात बिल्कुल साफ समझ लेनी चाहिए कि सरकारी खर्च की कोई भी जवाबदेही तभी हो सकती है जब सरकारी तंत्र खुद होकर इंटरनेट पर सार्वजनिक रूप से अपने खर्चों को डाले। उन्हें देखकर ही मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ता सवाल कर सकते हैं और ऐसे सवालों से ही सरकारी भ्रष्टाचार थम सकता है। हमने यहां पर राजीव प्रताप रूड़ी की लोकसभा सीट का यह एक हाल महज नमूने के तौर पर पेश किया है देशभर में जगह-जगह केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की ऐसी बर्बादी बिखरी हुई होगी और सामाजिक कार्यकर्ताओं को उनकी पड़ताल करके उन्हें उठाना चाहिए। दूसरी तरफ इस देश में सरकार द्वारा इकट्ठा किया गया कोई भी पैसा, सरकार द्वारा टैक्स पर छूट दिया गया कोई भी दान, जनता की नजरों से परे नहीं रहना चाहिए, सरकारी ऑडिट से परे नहीं रहना चाहिए। वह प्रधानमंत्री के स्तर पर हो या किसी और स्तर पर, वह बिना संदेह के नहीं रहता और लोकतंत्र में सरकार के तमाम काम संदेह से परे रहने चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान जैसे लोकतंत्र में किसी आम चुनाव के बाद बहुमत से आई हुई किसी पार्टी या गठबंधन की सरकार के सामने यह आजादी रहती है कि वह संसद में अपने बाहुबल के अनुपात में जो-जो फैसले लेना चाहे वे लेती रहे, और कमजोर हो चुके विपक्ष को जितना अनसुना करना है उतना करती रहे, लेकिन आजादी का ऐसा इस्तेमाल लोकतंत्र नहीं कहलाता। लोकतंत्र तो बाहुबल के बावजूद विपक्ष को सुनना, देश के मीडिया को सुनना, देश के मुखर तबके की बातों को सुनना, इसे लोकतंत्र कहते हैं। लेकिन मोदी सरकार के साथ दिक्कत यह है कि उसे पहले तो लोकसभा में जिस तरह का स्पष्ट बहुमत एनडीए गठबंधन के अलावा भी भारतीय जनता पार्टी के स्तर पर हासिल था, वह अभूतपूर्व था और उसने मानो मोदी सरकार को अपने मन का सब कुछ करने की एक आजादी दे दी थी। अब धीरे-धीरे एक-एक राज्य जीतते हुए एनडीए के पास राज्यसभा में भी इतना बहुमत हो गया है कि वह अपने अधिकतर कानूनों को वहां भी पास करवा सकती है। नतीजा यह निकला कि पिछले बरस तीन ऐसे किसान कानून ध्वनिमत से पास करा दिए गए जिन्हें लेकर विपक्ष का बहुत विरोध आखिरी तक जारी था। जिसे लेकर देश के इतिहास का एक सबसे मजबूत किसान आंदोलन चल रहा था और आज भी चल रहा है। ऐसे में कुछ एक खबरें हक्का-बक्का करती हैं।
पिछले बरस यह खबर आई कि साढ़े आठ हजार करोड़ रुपयों से एक ऐसा विमान खरीदा गया है जिससे प्रधानमंत्री का सफर अधिक असुरक्षित और अधिक आरामदेह हो जाएगा। इस खर्च में मौजूदा विमान को आधुनिक बनाना भी शामिल है। ऐसा भी नहीं कि प्रधानमंत्री को अभी किसी खराब विमान में चलना पड़ता है, या इतने महंगे विमान के बिना भारतीय प्रधानमंत्री का काम नहीं चल सकता था। इसके बाद अभी जब पूरे देश में ऑक्सीजन की कमी से, वैक्सीन की कमी से, दवाइयों की कमी से, अस्पतालों की कमी से, और हर किस्म की कमी से, बड़ी संख्या में लोग बेमौत मारे जा रहे हैं, उस बीच यह खबर आती है कि प्रधानमंत्री के लिए अगले बरस एक नया बंगला बनकर तैयार हो रहा है और केंद्र सरकार ने उसके लिए 2022 की समय सीमा तय कर दी है। जहां देश के लोगों को सांस नहीं मिल रही वहां प्रधानमंत्री के बंगले के लिए समय सीमा तय हो रही है और इसे घोषित किया जा रहा है! यह सब इस अंदाज में हो रहा है मानो प्रधानमंत्री का आज का बंगला असुविधा का था और उनके लिए या उनके मोर के लिए यह बंगला छोटा पड़ रहा था, या वहां हिफाजत की कोई कमी थी। यह खबर ऐसे वक्त पर आई है जब दिल्ली में सेंट्रल विस्ता नाम का 22 हजार करोड़ का एक ऐसा प्रोजेक्ट चल रहा है जिसमें संसद को नई इमारत मिलने जा रही है और प्रधानमंत्री को यह नया बंगला! अभी तो कुछ महीनों के लिए इस खाली जमीन पर निर्माण के बजाय इसे श्मशान बना देना था, ताकि लोग ठीक से जल तो सकें !
देश के बहुत सारे लोगों के साथ-साथ बंगाल में फिर से लौटकर आई आज की सबसे कामयाब नेता ममता बनर्जी ने चुनाव जीतने के तुरंत बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखकर कहा है कि आज जब पूरे देश में लोगों को वैक्सीन की सबसे ज्यादा जरूरत है, जब केंद्र सरकार को 30000 करोड़ रुपए वैक्सीन के लिए निकालने चाहिए, उस वक्त यह सरकार संसद की नई इमारत बनाने के लिए 20000 करोड़ रुपए खर्च कर रही है? आज देश बहुत ही तकलीफ में है, एक-एक करके कई मुख्यमंत्रियों ने ऐसे असुविधा के सवाल प्रधानमंत्री के सामने रखे हैं कि जब देश के लोगों को मुफ्त में वैक्सीन देनी चाहिए उस वक्त यह सरकार सेंट्रल विस्ता नाम के निहायत गैरजरूरी प्रोजेक्ट पर इतना बड़ा खर्च करने जा रही है। देश के लोगों ने सुप्रीम कोर्ट तक दौड़ लगाकर देख ली है और वहां से पिछले मुख्य न्यायाधीशों के कार्यकाल में ऐसी तमाम अपील खारिज कर दी गई हैं और केंद्र सरकार को सेंट्रल विस्ता प्रोजेक्ट को बनाने की छूट दी गई।
आज हालत यह है कि गरीब भूखे मर रहे हैं, लोगों के पास काम नहीं है, बाजार बंद हैं, कंस्ट्रक्शन बंद हैं, लेकिन इस सेंट्रल विस्ता प्रोजेक्ट को आवश्यक सेवा घोषित करते हुए उस पर काम जारी रखा गया है। जब पूरे देश में तमाम काम चल रहे थे उस वक्त भी संसद-सत्र को खारिज करवा दिया गया था कि कोरोना के खतरे को देखते हुए संसद का सत्र ठीक नहीं होगा। उस वक्त तो देश में छोटे-छोटे से काम भी चल रहे थे, लेकिन संसद को गैरजरूरी मान लिया गया था। संसद का सत्र गैरजरूरी है लेकिन संसद की अच्छी भली बिल्डिंग की जगह 20000 करोड़ रुपए की नई इमारत का प्रोजेक्ट जरूरी है, यह बात ही लोगों को हक्का-बक्का कर देती है। आज जब देश में ऑक्सीजन की कमी है, दवाई नहीं है, अस्पताल नहीं है, जब दुनिया के दर्जनों देश हिंदुस्तान की मदद के लिए सामान भेज रहे हैं, और तो और पाकिस्तान जैसे बदहाल देश भी अपनी तरफ से पूरी मेडिकल मदद करने का प्रस्ताव भारत को भेज चुके हैं, पाकिस्तान के आम लोग भारत के आम लोगों को शुभकामनाएं भेज रहे हैं, उस वक्त अगर सरकार प्रधानमंत्री के हवाई जहाज, प्रधानमंत्री के बंगले, प्रधानमंत्री के गृहप्रदेश में तीन हजार करोड़ रुपए से सरदार पटेल की प्रतिमा बनवाने के बाद, 20 हजार करोड़ रुपए से नया संसद भवन वगैरह बनाने में लगी है तो लोग हक्का-बक्का हैं कि केंद्र सरकार को इस देश की जनता ने सरकार चलाने के लिए वोट दिया है या ऐसी बेरहमी करने के लिए वोट दिया है?
यह सिलसिला पूरी तरह से संवेदना शून्य है, और इतिहास इसे बुरी तरह दर्ज करके रखेगा। वैसे भी लोग इस बात को खुलकर लिख रहे हैं और आपस में इसकी चर्चा कर रहे हैं कि सरदार पटेल की प्रतिमा की जगह कितने नए एम्स बन सकते थे, कितने वेंटिलेटर आ सकते थे, कितनी जिंदगियों को बचाया जा सकता था, ऐसी तमाम तुलना लोग कर रहे हैं और ऐसे तमाम हिसाब लोग लगा रहे हैं। वैसे तो भारतीय संसदीय लोकतंत्र में एक बार जिसे बहुमत देकर संसद में भेज दिया गया, उसका सब कुछ बर्दाश्त करना संवैधानिक मजबूरी है, लेकिन यह लोकतांत्रिक मजबूरी बिल्कुल नहीं है। लोकतंत्र तो चुनाव प्रणाली से या संसदीय व्यवस्था से बहुत ऊपर की एक चीज होती है जिसमें जनमत का सम्मान भी एक बात होती है, और आज जब यह देश दूसरे देशों से आ रही ऑक्सीजन से अपने लोगों की सांसें जारी रखने पर मजबूर हुआ है, उस वक्त यह देश 20000 करोड़ रुपए का यह शान-शौकत वाला प्रोजेक्ट जबरदस्ती जारी रखकर दानदाता देशों को क्या दिखाना चाह रहा है? अगर इस देश के पास सचमुच संसद की एक निहायत गैरजरूरी इमारत के लिए और उसके आसपास की दूसरी इमारतों के लिए 20000 करोड़ रुपए की फिजूल की रकम है, तो फिर उसे दूसरे छोटे-छोटे देशों से मदद क्यों लेनी चाहिए? मदद देने और लेने में कोई दिक्कत नहीं होना चाहिए लेकिन जो देश आज दूसरे देशों से मदद ले रहा है उसे अपनी फिजूलखर्ची पर तो काबू पाना चाहिए? आज जहां लाशों को जलने के लिए जगह नहीं मिल रही, जहां कब्रिस्तानों में दफन होने के लिए 2 गज जमीन नहीं मिल रही, वहां पर कई बंगलों के अहाते में अकेले रहने वाले प्रधानमंत्री, एक और अधिक शान शौकत वाले नए बंगले में रहने जाएं, इससे किसका कलेजा ठंडा होगा? अगर प्रधानमंत्री निवास के मोर से भी पूछा जाए वह भी इससे खुश नहीं होगा।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान भर में चल रहे कोरोना के खतरे के बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अफसरों को एक गौरक्षा हेल्पडेस्क बनाने का आदेश दिया है जिसमें सरकार की तरफ से नीचे तक यह आदेश चले गया है कि कोरोना वायरस की सक्रियता को देखते हुए सभी गौशालाओं में कोरोना प्रोटोकॉल का सख्ती से पालन कराया जाए, साथ ही मास्क लगाया जाए और बार-बार थर्मल स्क्रीनिंग की जाए। इस आदेश में यह सख्त हिदायत दी गई है कि गौशाला में गायों और अन्य जानवरों के लिए सभी चिकित्सा उपकरण हर समय उपलब्ध रहें ताकि उनकी सेहत का ख्याल रखा जा सके। योगी सरकार की यह बहुत अच्छी बात है कि उसने महामारी की मार के बीच गायों का इतना ख्याल रखा है। खासकर उस वक्त जब यूपी का हाईकोर्ट लगातार यूपी सरकार को कोरोना मोर्चे की बदइन्तजामी को लेकर लताड़ लगा रहा है। ऐसे वक्त गायों का इतना ख्याल रखना कोई छोटी बात नहीं है और हिंदुस्तान में यह रिवाज चले आ रहा है कि जिस किसी बच्चे को पिटाई पडऩे की नौबत आए तो वह माँ-माँ कर कर दौडऩे लगता है, ठीक उसी तरह हिंदुस्तान में कुछ पार्टियां, उनकी सरकारें, और उनके नेता कभी गाय की आड़ में जाकर अपने को बचाते हैं, कभी भारतमाता की आड़ लेते हैं उसके पल्लू के पीछे छुपते हैं, कभी वे देश के तिरंगे झंडे की आड़ लेते हैं, फिर पश्चिम बंगाल जैसा कोई चुनाव रहे तो वे जय श्री राम के पीछे से प्रचार करते हैं। इसलिए आज जब योगी ने गायों की फिक्र की है, तो वह बहुत अच्छी बात दो हिसाब से है कि जिन लोगों को उत्तर प्रदेश में ठीक से इलाज नहीं मिल रहा है उन्हें कम से कम इतनी दिमागी राहत तो रहेगी कि उन्हें ना सही गौमाता को अच्छी तरह इलाज मिल रहा है, और गौमाता के इलाज से बढक़र इंसान का अपना खुद का इलाज थोड़ी हो सकता है? बस यही है कि बाबा रामदेव से लेकर भाजपा के कई मंत्रियों और सांसदों-विधायकों तक की कही हुई बात आज थोड़ी सी अटपटी लगती है कि गाय ऑक्सीजन छोड़ती हैं, गोबर और गोमूत्र के बीच कोई रोग जिन्दा नहीं रह सकता, और गोबर और गोमूत्र लेप लेने से कोरोनावायरस नहीं आता। अब इसके बाद अगर योगी सरकार प्रदेशभर की गौशालाओं में सख्त आदेश निकालकर ऑक्सीजन परखने की मशीन और इलाज की मशीन, बुखार नापने के थर्मामीटर सबका इंतजाम कर रही है, तो भी कोई बात नहीं। वैसे तो गाय भाजपा नेताओं के मुताबिक पर्याप्त ऑक्सीजन पैदा करती है, फिर भी वह मां है इसलिए उसकी सेहत के लिए यह इंतजाम तो होना ही चाहिए।
हिंदुस्तान में दिक्कत यह है कि जब कभी देश की कोई वैज्ञानिक जरूरत रहती है जो कि सरकार पूरी नहीं कर पाती, तो उसके जवाब में इस तरह के धार्मिक, आध्यात्मिक, तथाकथित आयुर्वेदिक, और तथाकथित वैदिक इलाज लागू कर दिए जाते हैं, उन्हें बढ़ावा दिया जाता है। क्योंकि वैज्ञानिक इलाज का इंतजाम करना तो खासी तैयारी मांगता है, लंबी योजना मांगता है, और खर्च भी मांगता है। इसलिए उसकी जगह पर अगर जय श्री राम, भारतमाता, गौ माता, और तिरंगे झंडे से इलाज किया जा सकता है तो वह देसी जुगाड़ सबसे ही अच्छा है। जब लोगों के दिमाग से वैज्ञानिक सोच खत्म कर दी जाए, वे गोमूत्र में सोना देखने लगते हैं, गोबर में हर बीमारी का इलाज देखने लगते हैं और अगर हमारी याददाश्त ठीक साथ दे रही है, तो किसी एक नेता ने तो यह आविष्कार भी पिछले वर्षों में सामने रखा था कि अगर गोबर को बदन पर लेप लिया जाए तो कोई परमाणु प्रदूषण भी बदन को प्रभावित नहीं कर सकता ! अब यह एक अलग बात है कि जिस समय अमेरिकी फौज ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिराए थे जापानियों के पास उस वक्त गोबर था नहीं, और लाखों जापानी परमाणु विकिरण और प्रदूषण में ही मारे गए थे। इसलिए भारत में गोबर और गोमूत्र की यह तैयारी चीन और पाकिस्तान से किसी परमाणु युद्ध के खतरे की नौबत में भी काम आएगी। और हमारा ख्याल है कि उत्तर प्रदेश के हाई कोर्ट में जहां कल तक योगी सरकार को जजों की फटकार का जवाब देते नहीं बन रहा था, वहां आज सरकार के पास गौशालाओं के लिए की गई है तैयारी एक बहुत बड़ा कानूनी बचाव रहेगी।
इस देश का स्वास्थ्य मंत्री सार्वजनिक मंच पर आकर रामदेव नाम के एक पाखंडी की दवा की साख स्थापित करने का काम करता है जिसके मंच पर किए हुए दावों को ही 24 घंटों के भीतर अमेरिका से विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुख्यालय को झूठा करार देना पड़ता है। सरकार का पूरा नजरिया और भाजपा के बहुत सारे नेताओं और मंत्रियों, सांसदों और विधायकों का नजरिया, वैज्ञानिक जरूरत के जवाब में पाखंड को खड़ा करने का है, और दिलचस्प बात यह भी है कि इस पाखंड को हिंदुस्तान के इतिहास के एक अनदेखे और बिनलिखे अध्याय से भी जोड़ दिया जाता है, उसे गौरवशाली भी करार दे दिया जाता है और यह मान लिया जाता है हिंदुस्तान का विज्ञान पूरी दुनिया में सबसे आगे था और दुनिया यहीं से विज्ञान को लूट कर ले गई थी। जब अपने देश की जनता एक नामौजूद रहे इतिहास पर गर्व करने से अपना पेट भरने लगे, तो फिर सरकार को और चाहिए क्या। इसलिए जैस उत्तर प्रदेश में बिना ऑक्सीजन, बिना इलाज, बिना दवा लोग मर रहे हैं, और सुप्रीम कोर्ट से लेकर यूपी हाईकोर्ट तक के जज बौखलाए हुए हैं, वहां पर गायों को कोरोना से बचाने की यह फि़क्र कमाल की है, और योगी सरकार की इस कल्पनाशीलता की तारीफ करनी चाहिए जो कि इस देश की अदालत में वैधानिक बचाव के लिए फौलादी ढाल की तरह उसके काम आएगी। अदालत में भी जब जज सुनेंगे कि गौशाला की गायों के लिए इतना इंतजाम किया गया है, तो वे मान लेंगे कि इसके बाद ऐसी गौमाताओं की इंसानी औलादों की फिक्र करने और उनके लिए इंतजाम करने की जरूरत क्या है?
हिंदी भाषा जानने वालों के बीच कुछ ऐसे शब्द भी प्रचलित रहते हैं जिनका उन्हें मतलब ठीक से नहीं मालूम रहता, और ना ही वे उसकी तस्वीर की कल्पना कर पाते, जैसे भट्ठा बैठ गया। अब यह भट्ठा कैसा होता है जो कि बैठ जाता है, और क्या बाकी वक्त खड़े रहता है, यह कल्पना कुछ मुश्किल रहती है कि यह आखिर होता क्या है! लेकिन जिन लोगों ने ईंट के भट्ठे देखे हैं, वे कल्पना कर सकते हैं कि बड़ी मेहनत से कच्ची ईंटों को एक के ऊपर एक लगाकर जिस तरह से जमाया जाता है और फिर भीतर भट्टी सुलगाकर ईंट भट्ठा लगाया जाता है, वह अगर बैठ जाए, यानी ध्वस्त हो जाए, अंग्रेजी में कहें तो कोलैप्स हो जाए, तो कुछ ऐसा ही हाल पिछले एक पखवाड़े से सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट में केंद्र सरकार का दिख रहा है। ऐसा लगता है कि सरकार का भट्ठा बैठ चुका है। सुप्रीम कोर्ट अपने सवाल केंद्र सरकार को ठीक से समझा नहीं पा रही है क्योंकि केंद्र सरकार समझते हुए अनजान बनना चाहती है। और जो चाहकर अनजान बने, उसे कोई जानकार क्या बना सकते हैं, फिर चाहे वे सुप्रीम कोर्ट हो, या फिर दिल्ली हाईकोर्ट हो।
कुछ दिन पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने ऑक्सीजन की डिमांड और सप्लाई को लेकर जितने सवाल किये, और उनके जवाब हलफनामे पर मांगे, तो केंद्र सरकार के वकील ने अदालत से गुजारिश की इन जवाबों को हलफनामे पर ना मांगा जाए। यह बहुत हैरानी की बात है कि आंकड़ों और तथ्यों को अगर देश एक बड़ी अदालत जानना चाह रही है तो केंद्र सरकार उसे हलफनामे पर देने से कतरा रही है। कोई सरकार जब ऐसा करती है तो एक सामान्य समझ बूझ से भी हमें यह शंका होती है कि सच इतना असुविधाजनक है कि सरकार उसे अदालत को बताना नहीं चाहती है. वरना और कौन सी वजह हो सकती है कि केंद्र सरकार पीनाज मसानी की तरह यह गजल गाने लगे कि ऐसी बातें पूछते नहीं हैं जो बताने के काबिल नहीं हैं। केंद्र सरकार का यह रुख जरा भी हैरान नहीं करता है क्योंकि वह सच बताने की हालत में नहीं है। काफी देर से, मानो दिन निकलने के घंटों बाद दोपहर को सोकर अदालत उठी हो, और देर से नींद टूटने के बाद वह हड़बड़ाहट में केंद्र सरकार से सवाल-जवाब कर रही हो. वक्त बहुत बर्बाद हो चुका है लेकिन फिर भी अदालत तो अदालत है और सुप्रीम कोर्ट तो शाम को भी सो कर उठे तो भी वह उस मुल्क के लिए सुबह कहलाएगी और इसलिए अब रोज सरकार अदालत में जवाब तलब की जा रही है, और वहां जानकारियां देने के बजाय जानकारियां न देने में अधिक दिलचस्पी रख रही है। केंद्र सरकार का यह हाल कुछ नया नहीं है, वह एकतरफा काम करने की आदी रही है। उसे अधिक सवाल-जवाब पसंद नहीं है, मुख्यमंत्रियों या राज्यों की तरफ से किए गए सवाल ही उसे पसंद नहीं हैं, अपनी नजरों में वह इतनी काबिल है कि उसे कोई सलाह भी पसंद नहीं, लेकिन अब अदालतों का दुस्साहस है कि वे केंद्र सरकार से सवाल कर रही हैं ! वह भी इस केंद्र सरकार से!
आज इस तरह की जानकारी दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को लेनी पड़ रही है, उत्तर प्रदेश और मद्रास जैसे हाई कोर्ट को छोटे-छोटे मामलों में केंद्र और राज्य सरकार से जवाब मांगना पड़ रहा है, हुक्म देना पड़ रहा है और लॉक डाउन लगाने का फैसला भी खुद ही लेना पड़ रहा है, ऐसी नौबत देश के अलग-अलग राज्यों में कई जगहों पर है। और शायद यह पहला मौका है जब देशभर में आपस में जुड़ा हुआ कोरोनावायरस खतरा सभी राज्यों को कहीं ना कहीं जोडक़र चल रहा है, लेकिन फिर भी सुप्रीम कोर्ट यह मान रहा है कि इस मामले में अलग-अलग राज्य के हाई कोर्ट अगर अपने अपने प्रदेश के मामलों की सुनवाई कर रहे हैं तो सुप्रीम कोर्ट उनमें दखल देना नहीं चाहता है, क्योंकि वे हाईकोर्ट अपने राज्य को बेहतर समझते हैं। अब तक किसी राज्य के हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का कोई बड़ा टकराव नहीं हुआ है और उत्तर प्रदेश में लॉकडाउन का हुक्म देने वाले हाईकोर्ट के आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने रोक जरूर दिया है, लेकिन हाईकोर्ट की खुद होकर शुरू की गई सुनवाई को नहीं रोका है और फिर चाहे कितनी ही देर से क्यों ना सही सुप्रीम कोर्ट ने खुद होकर ऑक्सीजन के मामले में, वैक्सीन के मामले में, केंद्र सरकार से जवाब तलब शुरू किया है। और दिल्ली में तो हाल यह है कि हाईकोर्ट ऑक्सीजन सप्लायर के कारोबार को अपनी निगरानी में लेने की बात कर रहा है।
यह पूरा सिलसिला अभूतपूर्व है, और भारतीय लोकतंत्र की व्यवस्था में कार्यपालिका की इतनी छोटी-छोटी बातों को जब न्यायपालिका को देखना पड़ रहा है, तो उसके बारे में महज यही कहा जा सकता है कि कार्यपालिका यानी सरकार का भ_ा बैठ गया है। और यह बात हम अदालत के रुख को देखकर ही नहीं कर रहे हैं, हमारे नियमित पाठक यह देख रहे हैं कि हम लगातार किस तरह सरकार की नाकामी, सरकार की निष्क्रियता, सरकार की बदइंतजामी के बारे में लिखते आ रहे हैं, और सरकार की नीयत और उसकी क्षमता दोनों पर काफी शक हम जाहिर कर चुके हैं। यह सिलसिला आज देश में महज एक वजह से जारी है कि देश में निर्वाचित सरकार को वापस बुलाने का कोई संवैधानिक प्रावधान संविधान बनाते हुए रखा नहीं गया था। और फिर यह भी है कि आज की केंद्र सरकार लोगों की भावनात्मक लुभावनी लहरों पर सवार, शोहरत के आसमान पर है, उसे भला कौन हिला सकता है?
ऐसे में लोगों को अपनी सोच बनाते हुए सुप्रीम कोर्ट की कही बातों को भी देखना चाहिए जो कि वह सरकार के बारे में कह रहा है। हो सकता है कि इस मामले का फैसला आए और उस फैसले में सरकार के खिलाफ कुछ भी ना रहे जैसा कि पिछले वर्षों में सुप्रीम कोर्ट के बहुत से मामलों में दिखाई देता रहा है कि सरकार की आलोचना महज जजों की जुबानी जमाखर्च में दिखती है, फैसलों में वह नदारद रहती है। वैसा ही कुछ अभी भी हो सकता है। लेकिन देश की जनता को अपने राजनीतिक शिक्षण के लिए अपनी राजनीतिक जागरूकता के लिए अदालत में चल रही बहस को भी सुनना चाहिए, जजों की बात को भी सुनना चाहिए, और जिस वकील के अदालत में हार जाने का खतरा अधिक है, उसके तर्कों को भी सुनना चाहिए। हारे हुए के अधिक तर्क तो अदालत के फैसले में भी नहीं आते, इसलिए उसकी बात को अभी यहीं सुन लेना चाहिए। यह नहीं मानना चाहिए कि अदालत इंसाफ लिखने जा रही है, बहुत से मामलों में अदालत इंसाफ नहीं लिखती, महज एक फैसला लिखती है। इसलिए जिन लोगों की पहुंच अदालती कार्यवाही की खबरों तक है, उन्हें अदालत के सवाल-जवाब, अदालत की बहस, इन सबको पढऩा चाहिए और उसके बाद अदालत के फैसले से परे अपनी सामान्य समझबूझ से, प्राकृतिक न्याय की अपनी बुनियादी समझ से, फैसला करके देखना चाहिए कि क्या वह अदालत के फैसले से मेल खाता है?
जब देश में न्यायपालिका पर लोगों का पूरा पूरा भरोसा बच नहीं गया है और हमारे जैसे लोकतांत्रिक लोग भी जब अदालत के रुख, रवैये, और उसके निष्कर्षों पर हैरान होते रहते हैं, तो जनता को तो इसके बारे में सोचना ही चाहिए। लेकिन जनता को केंद्र सरकार के बारे में भी यह सोचना चाहिए कि आखिर इस सरकार को राज्यों की ऑक्सीजन की जरूरत, देश में ऑक्सीजन के उत्पादन और ऑक्सीजन के बंटवारे के बारे में पूछे गए आंकड़ों को हलफनामे पर देने में क्या दिक्कत हो रही है क्योंकि अदालत में किसी बात को हलफनामे पर कहने में दिक्कत केवल यह होती है कि वह अगर गलत निकल जाए तो हलफनामा देने वाले एक सजा के हकदार हो सकते हैं। आज केंद्र सरकार के सामने क्या इस तरह का कोई खतरा मंडरा रहा है ? क्या इस तरह का खतरा मंडरा रहा है कि उसने ऑक्सीजन पहुंचाने में चूक की है, राज्यों के साथ भेदभाव किया है, आखिर किस्सा क्या है? यह सवाल इसलिए भी उठता है कि इसी वक्त के आसपास जब सुप्रीम कोर्ट में कोरोना की वैक्सीन के मोल भाव को लेकर बहस चल रही थी, और वकीलों के बीच नहीं चल रही थी, सुप्रीम कोर्ट के जज और केंद्र सरकार के वकील के बीच चल रही थी, जब जज यह जानना चाहते थे कि वैक्सीन के इतने तरह के रेट क्यों रखे गए हैं? केंद्र सरकार पेटेंट कानून के तहत इस रेट पर काबू क्यों नहीं कर सकती है, तो यह सवाल भी ऑक्सीजन के सवाल के साथ मिलकर एक बड़ी तस्वीर पेश करता है कि भट्ठा किस तरह बैठ गया है। ईंट का भट्ठा पकने के पहले अगर बैठ जाए तो वह बहुत बड़ी तबाही होता है कबाड़ बन चुकी, ढेर बन चुकी, वैसे कच्ची ईंट न ईंट रह जाती, और ना ही मिट्टी रह जाती। आज देश में सरकारी इंतजाम का हाल कुछ इसी तरह का दिख रहा है जब वह मुर्दों से उम्मीद की जा रही है कि वे आत्मनिर्भर हो जाएं, और खुद इंतजाम कर लें अपने जलने का, जब बीमारों से उम्मीद की जा रही है कि वे कम ऑक्सीजन लें, और अधिक ऑक्सीजन लेकर देश पर बोझ न बनें, तो यह बैठ चुके भट्ठे की हालत दिखती है, किसी चलते हुए कारोबार का हाल नहीं दिखता।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कोरोना के मोर्चे पर हिंदुस्तान में अब एक नई बहस शुरू हो गई है कि क्या कोरोना वायरस उतार पर है और यह भी कि किन-किन राज्यों में हालत सुधर रही है। एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने एक वक्त कहा था कि दुनिया में झूठ 3 किस्म के होते हैं, झूठ, सफेद झूठ, और आंकड़े। हिंदुस्तान में यही आंकड़ों का खेल चल रहा है. हम सरकारों की नीयत को संदेह का लाभ देते हुए इसे झूठ नहीं कह रहे, लेकिन इसे अपने आपको धोखा देने के लिए दिया गया झांसा जरूर मानते हैं कि कोरोना उतार पर है। कल जब केंद्र सरकार ने यह गिनाया कि किन-किन प्रदेशों में कोरोना के आंकड़े कम हो रहे हैं, तो देश के विशेषज्ञों ने सरकार के ऐसे दावों को पूरी तरह से खारिज कर दिया। उन्होंने कहा कि अभी कोई गिरावट नहीं आ रही है, और कोरोना का पीक 15 जून तक आ सकता है, 15 जून यानी अभी से करीब 6 हफ्ते और !
जिस तरह आज कई दिनों के बाद देश में पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़े हैं, क्योंकि चुनावी मतगणना पूरी हो गई है, उसी तरह देश में अब धीरे-धीरे कुछ राज्यों में कोरोना की सच्ची जांच होने लगेगी, जांच के आंकड़े बढ़ेंगे, और उसके साथ ही यह हकीकत पता लगेगी कि वहां पर कोरोना की हालत कितनी खराब है, कितनी भयानक है. जिन राज्यों में चुनाव नहीं था और जिन राज्यों की छवि बचा कर रखने की एनडीए के पास कोई खास वजह नहीं थी, ऐसे कुछ राज्यों ने तो ईमानदारी से जांच की और महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में कोरोना के आंकड़े बहुत अंधाधुंध बढे हुए दिखाई पड़े। लेकिन क्या हिंदुस्तान में ऐसी कोई वजह हो सकती है कि बिहार और यूपी के चारों तरफ के राज्यों में कोरोना का भयानक प्रकोप हो और ये दोनों लापरवाह राज्य कोरोना से इतने बचे हुए रहें, जबकि उनकी आबादी छत्तीसगढ़ जैसे राज्य से 5-10 गुना अधिक है? इसलिए जब देश के बहुत से लोग यह कहते हैं कि कुछ राज्य सोच-समझ कर कोरोना जांच कम कर रहे हैं, कुछ राज्य गुजरात की तरह सोच-समझकर ऐसी किसी मौत को कोरोना मौत दर्ज नहीं कर रहे जिसमें मृतक को कोई भी और बीमारी रही हो, तो ऐसी नौबत में आंकड़े जो हैं, वे कहीं लोगों का अहंकार पूरा करने के काम आ रहे हैं, कहीं लोगों की इज्जत बचाने के काम आ रहे हैं, लेकिन ये हकीकत दिखाने के काम में नहीं आ रहे हैं. हिंदुस्तान के बाहर की बहुत सी एजेंसियों का, बहुत से विशेषज्ञों का, यह मानना है कि हिंदुस्तान में कोरोनाग्रस्त लोगों के जो आंकड़े बताए जा रहे हैं, हकीकत उनसे 10-20 गुना अधिक बुरी भी हो सकती है।
आज एक और किस्म की हकीकत है जिसे समझने की जरूरत है। पिछले 4 हफ्तों में देश के अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग किस्म के लॉकडाउन रहे, कहीं रात का कफ्र्यू रहा, कहीं दिन का, और जिंदगी की रफ्तार को धीमा किया गया. यह भी तब जबकि पिछले एक महीने के पहले साल-छह महीने से लगातार स्कूल-कॉलेज बंद चल रहे हैं, बीच के कुछ हफ्तों को छोडक़र सिनेमाघर बंद चल रहे हैं, मॉल बंद चल रहे हैं, बीच के कुछ महीनों को छोडक़र रेस्तरां बंद चल रहे हैं, और पिछले महीने भर से तो अधिकतर जगहों पर बाजार सीमित समय के लिए खुल रहे हैं. बहुत सारी चीजें बंद हैं, सरकारी दफ्तर बंद हैं, छत्तीसगढ़ में लॉकडाउन को 3 हफ्ते या उससे अधिक समय हो चुका है, तो इस तरह से जिंदगी की रफ्तार को नियंत्रित किया गया है. इसकी वजह से भी आज ऐसे सभी प्रदेशों में प्रतिबंधों के अनुपात में ही कोरोना संक्रमण कम होते दिख रहा है, कहीं-कहीं पर मौतें भी कम होते दिख रही हैं, लेकिन अगर कोई यह कहे कि इन प्रदेशों की सरकारों ने कोरोना को काबू में कर लिया है तो यह निहायत फिजूल की बात होगी। यह नियंत्रण आज किसी भी तरह से कोरोना पर नहीं, यह नियंत्रण आज अपने प्रदेश की जनता की जिंदगी पर हुआ है, उसकी आवाजाही, उसका कामकाज, उसका उठना-बैठना उसके सामाजिक अंतरसंबंध, इन पर नियंत्रण हुआ है. सरकार की कोई रोक-टोक, सरकार के कोई प्रतिबंध, जिलों के लगाए हुए कोई लॉकडाउन, कोरोना पर लागू नहीं हैं, इंसानों पर लागू हुए हैं, कारोबार पर लागू हुए हैं, सरकारी कामकाज पर लागू हुए हैं. इसलिए आज कोरोना में अगर कहीं पर बढ़ोतरी थमी हुई दिख रही है या गिरावट दिख रही है तो इस बात को अच्छी तरह से समझ लेने की जरूरत है कि किसी सरकार ने कोरोना पर काबू नहीं पाया है, सरकारों ने केवल अपने लोगों की जिंदगी पर काबू पाया है जिससे कि कोरोना और फैलने का खतरा था।
आज तो यह इंसान की जिंदगी को अस्थाई रूप से निलंबित करके कोरोना के संक्रमण को बढऩे से रोकने जितनी बात ही हुई है, आज अगर कोई यह सोचे कि किसी प्रदेश में कोरोना के आंकड़े 3 हफ्ते पहले के आंकड़ों तक आ गए हैं तो यह अपने को झांसा देना होगा। आज नियंत्रित जिंदगी में कोरोना, पहले की अनियंत्रित जिंदगी जितना घट भर गया है. आज फिर से लॉकडाउन खुलेगा तो शायद उसकी वजह से संक्रमण बढऩा फिर शुरू हो सकता है. आज देश में ना संक्रमण काबू में दिख रहा है, ना टीकाकरण बढ़ते हुए दिख रहा है, ना इलाज और अस्पताल की क्षमता में बढ़ोतरी दिख रही है, और न अस्पतालों में भीड़ में कोई कमी आ रही है।
आज भारत में कोरोना के आंकड़ों को घटता हुआ देखकर जिन लोगों को यह लग रहा है कि जिंदगी बहुत जल्दी अपने स्वाभाविक रफ्तार में आ जाएगी यह उनकी जरूरत से अधिक आशावादी सोच है. कोरोना इतनी जल्दी लोगों को इतना नहीं छोड़ रहा है कि जिंदगी पहले की तरह चलने लगे. हमने बंगाल में लाखों लोगों की चुनावी आमसभाओं की भीड़ को देखा है और उसकी वजह से कोरोना के आंकड़े अब वहां सामने आना शुरू होंगे, दूसरी तरफ उत्तराखंड जैसे राज्य में कुंभ के मेले में एक-एक दिन में 10-10, 20-20 लाख लोगों के गंगा में डुबकी लगाने की वजह से जो कोरोना प्रसाद की तरह बंटा है, वह देश भर में गांव-गांव और गली-गली तक पहुंचना शुरू हो चुका है इसलिए किसी को भी यह नहीं मानना चाहिए कि कोरोना का बढऩा एकदम से थम गया है. एकदम से थमी है बस जिंदगी।
यह सरकारों को देखना है कि जिन-जिन लोगों की रोजी-रोटी छिन रही है उसकी भरपाई कैसे हो सकेगी, लोग जिंदा कैसे रह सकेंगे। इसको केंद्र और राज्य सरकारों को सोचना पड़ेगा लेकिन लॉकडाउन एक कड़वी दवा है जिसे पिए बिना कोरोना से उबरना नामुमकिन नहीं हो पाएगा। आज हम तीनों से बहुत दूर हैं, इलाज की क्षमता से बहुत दूर हैं, दवा से बहुत दूर हैं, वैक्सीन से बहुत दूर हैं. आज हमारे देश के डॉक्टर, स्वास्थ्य कर्मचारी, और फ्रंटलाइन वर्कर मौत झेल रहे हैं और लोगों को ऐसे में अपने घरों में सुरक्षित रहना चाहिए और अगर सरकारों को लंबा लॉकडाउन लगाने की जरूरत पड़ती है तो उसके लिए तैयार भी रहना चाहिए। जिंदगी रहेगी, तो काम किसी ना किसी तरह से आगे चल निकलेगा, और आज तो हिंदुस्तान में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने मिलकर लोगों के लिए खाने का इतना इंतजाम किया हुआ है कि एक भी हिंदुस्तानी के भूखे मरने की नौबत नहीं आएगी। आज लोगों को इसी बात को बहुत मानकर चलना चाहिए कि वे भूखे नहीं मर रहे हैं। क्योंकि सरकारों की ताकत कोरोना से एकाएक जीतने की नहीं है, एकाएक टीके पैदा नहीं हो रहे हैं, जिस वक्त हिंदुस्तान में भारत सरकार को जागरूक रहकर इसका इंतजाम करना था, उसने कुछ किया नहीं और आज सारा ठीकरा राज्यों के सिर पर फोड़ दिया गया है। इसलिए लोगों को अपने-अपने राज्य की सरकारों का साथ देना चाहिए। उससे सवाल करने चाहिए, उसकी नाकामयाबी या गलतियों पर लिखना चाहिए, लेकिन उसका साथ भी देना चाहिए। सरकारों के लिए भी लॉकडाउन जनता के मुकाबले कोई कम तकलीफ का नहीं है, सरकारी खजाने में टैक्स का आना खत्म सा हो गया है. और ऐसे में प्रदेश को चलाना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल बात है, फिर मोदी सरकार की मेहरबानी से तो आज हर प्रदेश को अपने लोगों के लिए टीके भी खरीदना है, तो इन हालात में अपने-अपने प्रदेश की सरकार के तय किये लॉकडाउन के लिए लोग तैयार रहें।
आखिर में एक बात, इस देश के जिस एक नेता राहुल गाँधी की कोरोना के बारे में कही हर बात सही साबित हुई है, उसने अभी 3 घंटे पहले ट्वीट किया है कि अब लॉकडाउन ही अकेला रास्ता बचा है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश भर में आज चुनाव की चर्चा चल रही है कि किस राज्य के विधानसभा चुनाव में किस पार्टी का क्या हाल रहा। उस पर लिखना बड़ा आसान और पढऩा दिलचस्प हो सकता है, लेकिन एक अधिक बड़ा मुद्दा देश में कोरोना के मोर्चे पर काबू पाने को लेकर है जिसमें देश के तमाम प्रदेश शामिल हैं, उस पर चर्चा अधिक जरूरी है। ऐसे में आज छत्तीसगढ़ को लेकर एक चर्चा जरूरी है जो कि यहां पर सत्तारूढ़ भूपेश सरकार के खिलाफ जमकर चलाई जा रही है । छत्तीसगढ़ सरकार ने तय किया है कि राज्य में सरकार के खरीदे हुए कोरोना-टीके पहले अंत्योदय परिवारों को लगाए जाएंगे यानी जो परिवार सबसे गरीब हैं, गरीबी रेखा के नीचे हैं, उनको ये टीके सबसे पहले लगेंगे। जिस दिन यह फैसला सार्वजनिक किया गया उस दिन से भूपेश बघेल और कांग्रेस के बहुत से विरोधियों ने सोशल मीडिया पर अंधाधुंध यह लिखना शुरू किया कि अब टीकों का भी आरक्षण कर दिया गया है। और ऐसी बातों को पढक़र बिना फैसले के मतलब को जाने हुए, कई लोगों ने यह भी लिखना शुरू कर दिया कि यह पिछड़े वर्ग की राजनीति हो रही है या जातिगत आरक्षण हो रहा है। लेकिन राज्य सरकार का फैसला यह था कि जिन गरीब तबकों के पास, गरीबी रेखा के नीचे वाले राशन कार्ड हैं, वहां से टीकों की शुरुआत की जाए।
सरकार का हो सकता है कि यह भी सोचना हो कि अधिक आय वर्ग के लोग निजी अस्पतालों में भी जाकर, भुगतान करके टीके लगवा सकेंगे। लेकिन हमें सरकार की सोच का नहीं मालूम है, हमें केवल सरकार की घोषणा का मालूम है, और उसके विरोध का मालूम है, इसलिए हम अपनी आज की बात को वहीं तक सीमित रखते हैं। इस प्रदेश में राज्य सरकार को अपने खर्च पर एक करोड़ 34 लाख से अधिक आबादी को टीके लगवाने हैं। उसे अपने पैसों से खरीदने हैं, कंपनियों से बाजार भाव के मुताबिक भाव तय करके खरीदने हैं, और इस अखबार का एक मोटा अंदाज यह है कि इतनी आबादी को दो-दो टीके लगाने में राज्य सरकार के करीब 1000 करोड़ रुपए लगेंगे। लेकिन बात फिर भी रुपयों की नहीं है क्योंकि जिस राज्य की सरकार पांच-दस हजार करोड़ रुपए कर्ज लेकर भी किसानों की कर्ज माफी करती है, और धान खरीदी पर खर्च करती है उसके लिए लोगों की जान बचाने के लिए 1000 करोड़ रुपए बहुत बड़ी रकम नहीं है, लेकिन मुद्दा इससे परे का है।
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने जिस तरह टीके देने को लेकर अपना हाथ खींच लिया है और राज्यों के ऊपर यह जिम्मेदारी डाल दी है कि वे 18 से 44 वर्ष तक के लोगों को खुद टीके खरीदकर लगाएं, उससे यह स्थिति हो गई है कि राज्य आज टीका कंपनियों के सामने गिड़गिड़ाते हुए खड़े हैं, जो कि टीके सप्लाई करने की हालत में ही नहीं हैं, या निजी अस्पतालों को पहले महँगे में बेचना चाहती हैं। और केंद्र सरकार तो अपना हाथ खींच ही चुकी है। छत्तीसगढ़ की टीके खरीदने की कोशिश को देखें और उसका नतीजा देखें तो इस राज्य सरकार ने दोनों वैक्सीन कंपनियों को 25-25 लाख टीके सप्लाई करने का आर्डर भेजा है जिसमें से एक कंपनी ने मई के इस महीने में कुल 3 लाख टीके देने की क्षमता बतलाई है। नतीजा यह है कि एक करोड़ 34 लाख से अधिक की आबादी में से इस मई के महीने में कुल 3 लाख लोगों को टीके लग सकते हैं। और यह राज्य सरकार का तय किया हुआ नहीं है यह केंद्र सरकार का एकतरफा तय किया हुआ फैसला है कि 1 मई से 18 से 44 बरस के तमाम लोगों को टीके लगाए जाएंगे, और केंद्र सरकार ने ही अपना एक मोबाइल ऐप लॉन्च किया है जिसमें अब तक करोड़ों लोग रजिस्ट्रेशन करवा चुके हैं।
हम पहले एक से अधिक बार इस मुद्दे पर लिख चुके हैं कि जो टीके राज्य सरकार को खरीदने हैं, जो राज्य को लगाने हैं, वह कब और किस आयु वर्ग के लोगों को लगे इसके फैसले करने की केंद्र सरकार को क्या जरूरत थी ? हर राज्य अपनी-अपनी स्थिति के हिसाब से अपनी-अपनी क्षमता के हिसाब से यह तय करते कि उन्हें कहां से टीके लगाने की शुरुआत करनी है। छत्तीसगढ़ की हालत यह हो गई कि सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा। आज इस प्रदेश में मोदी सरकार ने एक करोड़ 34 लाख से अधिक लोगों को टीके की कतार में लगवा दिया और राज्य सरकार अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद मई में 3 लाख टीके पाने वाली है। अब सवाल यह है कि इन 3 लाख की शुरुआत इतने बड़े तबके में कहां से की जाए, समंदर में एक लोटा पानी कहां से निकाला जाए कि वह खाली किया जा सके, कहां से शुरुआत की जाए ? कहीं ना कहीं से शुरुआत तो करनी थी।
हमारी अपनी राय यह है कि राज्य सरकार को स्वास्थ्य कर्मचारियों और फ्रंटलाइन वर्करों के परिवारों को यह टीके पहले लगाने चाहिए क्योंकि उनके परिवार के लोग रोज अस्पताल जाते हैं, रोज सडक़ों पर पुलिस-ड्यूटी करते हैं, रोज एंबुलेंस चलाते हैं, रोज लाशों का अंतिम संस्कार कर रहे हैं, और रोज नालियां साफ कर रहे हैं। जब ऐसा खतरनाक काम करके वे घर लौटते हैं तो जाहिर तौर पर घरवालों के लिए एक अधिक बड़ा खतरा लेकर जाते हैं। इसलिए हमारी अपनी सोच तो यह है कि इस प्रदेश के ऐसे परिवारों के करीब 15-20 लाख लोगों को सबसे पहले टीके लगाने चाहिए। लेकिन हमने अपनी यह सोच लिखी उसके पहले राज्य सरकार यह फैसला कर चुकी थी कि वह अंत्योदय कार्ड रखने वाले लोगों से इसकी शुरुआत करेगी। अब इस प्रदेश में करोड़ों की आबादी में दसियों लाख ऐसे लोग हैं जो कि इस तबके में आते हैं, और केंद्र सरकार की तय की हुई उम्र सीमा में भी आते हैं। अब अगर तीन लाख टीकों की शुरुआत सबसे गरीब तबके से की जाए तो उसमें कौन सा जातिगत आरक्षण हो गया है ? उसमें विरोध का ऐसा कौन सा मुद्दा भाजपा को या दूसरे सवर्ण तबके को दिख रहा है? यह बात समझने की जरूरत है कि समाज में सबसे कम आय वाले लोग निजी अस्पतालों में जाकर खरीद कर टीका लगवाने की क्षमता सबसे कम रखते हैं इसलिए अधिक आय के लोगों को तो निजी अस्पतालों के भरोसे तब तक छोड़ा जा सकता है जब तक राज्य सरकार सबसे गरीब लोगों को टीका लगाने का अपना जिम्मा पूरा ना कर ले। राज्य सरकार ने तमाम एक करोड़ 34 लाख लोगों को टीका लगाने की बात कही है जिसमें इस प्रदेश के अरबपति भी आते हैं। लेकिन जब ऊंट के मुंह में जीरे सरीखी सप्लाई हो तो आखिर सरकार किसी न किसी तबके से तो शुरुआत करेगी। इसलिए छत्तीसगढ़ सरकार को इस बात की तोहमत देना कि वह कोई जातिगत आरक्षण कर रही है, या इसमें आरक्षण कर रही है यह निहायत फिजूल की बात है।
भाजपा के जो लोग छत्तीसगढ़ सरकार पर टीका-आरक्षण लगाने की बात कहकर उसका विरोध कर रहे हैं उनको यह देखने की जरूरत है कि टीके का पूरा कार्यक्रम तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तरह-तरह के आरक्षण के साथ ही शुरू किया। पहले 60 बरस के ऊपर के लोगों के लिए किया, फिर स्वास्थ्य कर्मचारियों और फ्रंटलाइन वॉरियर्स के लिए किया, उसके बाद 45 वर्ष से ऊपर के लिए किया, तो भाजपा के लोगों को यह भी समझने की जरूरत है कि क्या नरेंद्र मोदी की सरकार ने बिना आरक्षण के टीके लगा दिए? आज अगर छत्तीसगढ़ की सरकार सबसे गरीब को सबसे पहले टीके देने की बात कर रही है तो वह सही बात है, उसमें हमारी राय का एक संशोधन हो जाता तो बेहतर होता, लेकिन अगर उस पैमाने पर गए बिना अगर सरकार केवल अंत्योदय कार्ड के आधार पर एक आसान शिनाख्त करके यह टीके लगाने जा रही है तो इसमें गलत क्या है? इस बात को लेकर सरकार के ऊपर एक जातिवादी आरक्षण करने का आरोप लगाना तो यह एक नफरत फैलाने की बात अधिक है अगर गरीब कुछ खास कुछ खास जातियों के ही हैं तो विरोध करने वाले लोगों को यह देखना चाहिए कि कुछ खास जातियां इतनी गरीब क्यों है ? आर्थिक आधार पर तय किए गए अंत्योदय कार्ड तो उस आयवर्ग के सवर्ण लोगों के पास भी होंगे. जो लोग इसका विरोध कर रहे हैं उनसे हम उम्मीद करते हैं कि सोशल मीडिया पर वे कोई बेहतर फार्मूला बताएं। आज मई के महीने में छत्तीसगढ़ सरकार को जो टीके मिलने वाले हैं अगर यही रफ्तार जारी रहेगी तो 40 महीने में एक करोड़ 33 लाख टीके मिल सकेंगे और यह बात तब है जब यह राज्य कंपनियों के मांगे हुए मनमाने दाम देकर टीके लेने को तैयार है. फिलहाल छत्तीसगढ़ सरकार ने जो तय किया है उस पर हमने अपनी एक राय जोड़ी है, और सरकार अगर उस राय को नहीं भी सुनती है और वह अंत्योदय से शुरू करती है तो भी हम सरकार की इस नीति का समर्थन करते हैं।
वैसे तो आज की मतगणना में देश के 5 राज्यों की प्रदेश सरकारें तय हो रही हैं, लेकिन पूरे देश की नजरें एक प्रदेश पर टिकी हुई हैं जिसे देश के दो सबसे ताकतवर नेताओं, नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने, प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था। उस राज्य में बंगाल की शेरनी ममता बनर्जी अपनी पार्टी की शानदार जीत के साथ वापस लौट रही हैं। कांटे की टक्कर में खुद ममता बैनर्जी अभी कुछ मिनट पहले नंदीग्राम से चुनाव हार गई हैं। अभी इस पल तक के आंकड़े बतला रहे हैं कि तृणमूल कांग्रेस 210 सीटों पर बढ़त के साथ सरकार बनाने के करीब है, और भाजपा वहां पर अपने सारे शानदार प्रदर्शन के बावजूद 100 के भीतर सिमट कर रह गई है। अभी तक उसकी 78 सीटें ही बताई जा रही हैं। मगर उसके बड़े-बड़े दावे सरकार बनाने के नहीं रहते, और वहां की गली-गली तक प्रधानमंत्री से लेकर केंद्रीय मंत्रियों तक ने मेहनत नहीं की होती, ‘दो मई-दीदी गई’ जैसे नारे न लगाए होते, तो यह कामयाबी बुरी नहीं मानी जाती। भाजपा सबसे अधिक 75 सीटों के फायदे में हैं, 3 सीटों से 78 सीटों तक पहुंचना छोटी कामयाबी नहीं है। लेकिन जब खुद के दावे इतने बड़े रहे कि वे ही मुंह चिढ़ाने लगें तो फिर इतनी बड़ी जीत भी भाजपा के लिए आज महत्वहीन हो गई है। ममता बनर्जी के रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने यह दावा किया था कि अगर भाजपा 100 सीटों तक भी पहुंच जाएगी तो वे अपना काम छोड़ देंगे, और अभी तक के आंकड़े बताते हैं कि भाजपा 100 सीटों से करीब दो दर्जन पीछे है।
एक पल के लिए पश्चिम बंगाल से बाहर आकर देखें तो तमिलनाडु भी भाजपा के लिए बड़ी शिकस्त के नतीजे लेकर आया है भाजपा ने वहां पर सत्तारूढ़ एआईएडीएमके के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ा था और यह गठबंधन मीलों पीछे चल रहा है, वहां पर डीएमके और कांग्रेस पार्टी का गठबंधन सरकार बनाने के एकदम करीब है। हालांकि इस वक्त ये तमाम बातें रुझान के आधार पर की जा रही हैं, लेकिन ये रुझान बदलने वाले नहीं हैं। तीसरा प्रदेश केरल, वहां पर सत्तारूढ़ वाम मोर्चे ने पिछले 1 बरस में कोरोना के फ्रंट पर इतना शानदार काम किया था कि आज वह विपक्षी गठबंधन के मुकाबले दोगुनी अधिक सीटें लेकर सरकार में वापस लौट रहा है। लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट की 94 सीटें और यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट की 45 सीटें। राज्य में कांग्रेस और वामपंथियों की अगुवाई वाले इन दोनों परस्पर विरोधी गठबंधनों की यह बात भी दिलचस्प है कि ये दोनों ही राज्य की तकरीबन 100 फ़ीसदी सीटों पर काबिज हैं, और भाजपा को वहां कुल 1 सीट मिली है। लेकिन दूसरी तरफ पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वामपंथी मिलकर लड़ रहे थे और वहां इन दोनों को मिलकर करीब 0 फ़ीसदी सीटें मिल रही हैं। आपस में लडक़र ये केरल में सत्तारूढ़ भी हैं, और विपक्ष भी हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल में विधानसभा सदन में इन दोनों को पांव रखने भी मिल जाए ऐसे कोई आसार अभी दोपहर 2.00 बजे तक नहीं दिख रहे हैं।
अब एक और बड़ा राज्य असम बचता है जहां भाजपा की सरकार चली आ रही थी और वहां भाजपा भी पुरानी तमाम सीटों को कायम रखकर, दो सीटें और अधिक पाने की उम्मीद में दिख रही है, और कांग्रेस ने भी वहां पर 5 सीटें तो बढ़ा ली हैं, लेकिन उसकी अगुवाई वाले गठबंधन ने कई सीटें खो दी हैं। फिलहाल भाजपा की सरकार असम में कायम रहने जा रही है, कांग्रेस विपक्षी दर्जा कायम रहेगा। अब एक आखिरी राज्य बच जाता है जो छोटा है, पुदुचेरी। इस राज्य में भाजपा सरकार में आते दिख रही है और कांग्रेस, जिसकी कि सरकार वहां कुछ समय पहले तक थी, वह विपक्ष में जाते दिख रही है। पुदुचेरी से रुझान बड़े धीमे आ रहे हैं इसलिए इस पल वहां के बारे में और अधिक लिखना ठीक नहीं है सिवाय इसके कि भाजपा का गठबंधन कांग्रेस के गठबंधन से दोगुना सीटें पाकर अभी आगे है।
अब अगर इन तमाम नतीजों को एक साथ देखा जाए तो कांग्रेस और भाजपा ये दोनों मोटे तौर पर कुछ पाने वाली पार्टियां नहीं दिख रही हैं. भाजपा गठबंधन एक छोटा सा राज्य पुदुचेरी पाते दिख रहा है, लेकिन कांग्रेस एक खासे बड़े राज्य तमिलनाडु में सत्तारूढ़ गठबंधन में आते दिख रही है। केरल में बीजेपी के हाथ कुछ नहीं लगा है, और बंगाल में कांग्रेस और वामपंथियों ने अपने पास की तकरीबन हर सीट खो दी है, और भाजपा की तमाम सीटें कांग्रेस और वामपंथियों की मेहरबानी से आई हुई दिख रही हैं. बंगाल में कांग्रेस और वामपंथियों ने ममता बनर्जी को दुश्मन नंबर एक माना था और भाजपा को दुश्मन नंबर दो। लेकिन ऐसा लगता है कि बंगाल के कांग्रेस-लेफ्ट के भी मतदाताओं ने एक सामूहिक समझ से वोट दिया और भाजपा को हराने के लिए ममता बनर्जी को वोट दिए।
लेकिन प्रदेशों से परे देखें तो जिस तरह नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा ने बंगाल को अपने चुनावी इतिहास की एक सबसे बड़ी चुनौती खुद ही बना लिया था, उसमें अकेली ममता बनर्जी के सामने उनकी बड़ी शिकस्त हुई है। और फिर दूसरी बात यह भी है कि आज हिंदुस्तान में हर कोई नरेंद्र मोदी की सरकार को इस बात की तोहमत भी दे रहे हैं कि बंगाल के चुनाव प्रचार के लिए उन्होंने चुनाव आयोग की मेहरबानी से ऐसा चुनाव कार्यक्रम पाया कि वे हर इलाके में जाकर लाखों लोगों की सभाएं करते रहे लाखों लोगों की रैलियां निकालते रहे और कोरोना का संक्रमण भी बढ़ाते रहे। यह तोहमत महज बंगाल की हार या जीत से जाने वाली नहीं थी, लोगों ने यह साफ-साफ कहा था कि जिस वक्त दिल्ली में बैठकर कोरोना पर काबू पाने के लिए सरकारी फैसले लेने थे, उस वक्त मोदी सरकार के प्रधानमंत्री सहित तमाम मंत्री बंगाल में चुनाव प्रचार में लगे हुए थे क्योंकि उन्होंने उसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था. अब कोरोना का फैलना और उसमें पूरे देश का तबाह हो जाना एक ऐसी हकीकत है कि वह भाजपा के, मोदी-शाह के, बंगाल हारने के साथ जोडक़र देखी जाएगी, और अगर यह वहां जीतते, तो भी उसके साथ ही जोड़ कर देखी जाती। फिलहाल शाम तक, रात तक आंकड़ों के फेरबदल का इंतजार रहेगा लेकिन सच तो यह है कि रुझान बिल्कुल साफ-साफ सामने हैं, और जिस राज्य की जो चर्चा हमने ऊपर की है उन्हीं की सरकारें बनने से वहां कोई रोक नहीं सकता। आज कांग्रेस और भाजपा जैसे बड़े दलों को घर बैठकर यह सोचना चाहिए कि इन पांच राज्यों में उन्होंने कुल मिलाकर क्या पाया है और क्या खोया है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कई बार शब्दों और तस्वीरों से खिलवाड़ करने के पीछे नीयत कोई और रहती है लेकिन उसका असर उससे अलग भी हो सकता है। और कई बार ऐसा भी होता है कि लिखने की नीयत जो होती है असर भी वही होता है। दो दिन पहले छत्तीसगढ़ अखबार के पहले पन्ने पर टाइम मैगजीन के कवर पेज को लेकर एक पिक्सटून बनाया गया था जिसे लेकर एक पाठिका ने एक कड़ी शिकायत भेजी है। एक जिम्मेदार अखबार के नाते ऐसी आई शिकायत का हमें जवाब देना चाहिए। टाईम मैगजीन ने अपने ताजा अंक के कवर पेज पर भारत में आज कोरोना से हो रही मौतों की हालत पर कवर स्टोरी की है और उसकी तस्वीर यह बताती है कि एक श्मशान में किस तरह चारों तरफ लाशें जल रही हैं। भारत के आज के समाचारों की हालत की इससे बहुत अधिक भयानक तस्वीरें भी इन दिनों लगातार छप रही हैं, लेकिन इस प्रतिष्ठित पत्रिका ने इस तस्वीर को क्यों छांटा, इसे तो उसके संपादक ही बता सकते हैं, हम होते तो इससे अधिक भयानक तस्वीर छांटते। हमने अपने अखबार की एक खास शैली के, तस्वीरों वाले कार्टून, पिक्सटून, के लिए इस कवर पेज को क्यों चुना और उसके शब्दों के साथ खिलवाड़ करते हुए एक नई तस्वीर गढ़ी जो कहती हैं ‘सबका टाइम आएगा’। यह लाइन एक किसी लोकप्रिय गाने की भी है, और यह लाइन दार्शनिकों के लिखे हुए एक फलसफे की भी है कि सबका वक्त कभी न कभी आएगा ही। हमने इस पत्रिका के नाम के ऊपर और नीचे एक-एक शब्द जोडक़र यह पिक्सटून बनाया कि ‘सबका टाइम आएगा’। हमारी इस पाठिका ट्विंकल खन्ना ने एक लंबे ईमेल में लिखा है कि इस कार्टून को देखकर, या अखबार की सुर्खी की जगह इसे देखकर वे मानसिक रूप से विचलित हुई हैं। उन्होंने लिखा है कि यह बहुत ही तकलीफ का वक्त चल रहा है और सब लोग इस दौर से गुजर रहे हैं ऐसे में यह हैडिंग क्यों सोची गई? उन्होंने यह सवाल किया है कि अखबार की संपादकीय टीम ने इतनी विचलित करने वाली हैडिंग क्यों बनाई है जिसे पढक़र एक पाठक के रूप में उनके दिमाग में भी यही आ रहा है कि अपना टाइम आएगा। उनका कहना है कि वे इसके अलावा और कुछ भी नहीं सोच पा रही हैं। उन्होंने अखबार के सम्मान में लिखा है कि यह एक प्रतिष्ठित अखबार है और इसे ऐसे वक्त में उम्मीद की कोई किरण दिखाते हुए कोई बेहतर बयान एक हैडिंग के रूप में लेना था, कम से कम ऐसा लेना था जिससे कि लोगों की मदद होती और वह अधिक निराशा में नहीं डूबते। उन्होंने यह उम्मीद भी की है कि बेचैन करने वाली ऐसी कोई दूसरी हैडिंग बाद में उन्हें देखने ना मिले।
आज के वक्त में जब लोग अखबारों को लिखकर भेजना तकरीबन बंद कर चुके हैं और अधिक से अधिक प्रतिक्रिया यह होती है कि अखबार की कतरन के साथ अपनी टिप्पणी लिखकर उसे व्हाट्सएप पर दोस्तों को भेज दिया जाए या कि कुछ ग्रुप में डाल दिया जाए, ऐसे में एक पाठिका ने अगर यह लिखकर भेजा है तो यह सचमुच हमारे सोचने और इस पर हमारी सोच को लिखने का मुद्दा तो है ही। और ऐसा भी नहीं कि इस तस्वीर या इस कार्टून ने महज उन्हें ही विचलित किया हो, हो सकता है कि और भी बहुत से लोग इससे विचलित हुए हों, जिन्होंने विरोध दर्ज करने की जहमत नहीं उठाई हो। लेकिन हम ऐसे मौन लोगों के लिए भी अपनी सोच को सामने रखना चाहते हैं।
आज हिंदुस्तान में कोरोना महामारी के चलते हुए, कुछ तो कोरोना की हैवानियत की वजह से, और उससे भी बहुत अधिक भारत सरकार की लापरवाही की वजह से, कुछ हद तक भारत की गैरजिम्मेदार और लापरवाह जनता की वजह से, और कुछ हद तक राज्य सरकारों की लापरवाही और नाकामयाबी की वजह से, महामारी से यह हालत हुई है कि देश के लोगों की कोई हालत ही नहीं बची है। कल ही अमेरिकी समाचार चैनल सीएनएन के एक समाचार बुलेटिन का दिल्ली पर बनाया गया एक हिस्सा देखने मिला जो दिल दहला देता है जिसे देखकर लगता है कि लोग वहां किस तरह जिंदा हैं, और लोग आज अपने सामने खड़ी हुई बेबसी को बाकी की जिंदगी किस तरह भूल पाएंगे? कुछ मिनटों के इस समाचार बुलेटिन को देख पाना भी कमजोर कलेजे की बात नहीं है। ऐसे में जब देश में सब कुछ बेकाबू है, जब दिल्ली सहित देश के दर्जनभर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट अलग-अलग सुनवाई करते हुए केंद्र सरकार और अलग-अलग राज्य सरकारों को सरकार चलाना सिखा रहे हैं, हिंदुस्तान पूरी तरह से नाकामयाब साबित हो चुका है, और ऐसे में जब चारों तरफ लाशें ही लाशें दिख रही हैं, जब सडक़ों के किनारे सिख समाज की मेहरबानी से चल रहे ऑक्सीजन लंगरों में ही लोगों को ऑक्सीजन नसीब हो रही है, जब एक के बाद एक मुख्यमंत्री और राज्य गिड़गिड़ा रहे हैं कि उनके पास कोई ऑक्सीजन नहीं बची है, तो बहुत से दूसरे अखबारों की तस्वीरें, और हमारे अखबार का यह दिल दहलाने वाला कार्टून/पिक्सटून इस हिसाब से जायज है कि जिन लोगों ने इन मौतों को रूबरू नहीं देखा है, जिन लोगों ने सरकारी व्यवस्था को करीब से नहीं देखा है, उन्हें भी एक बार में यह समझ में आना चाहिए कि वक्त कितना खराब है। आज भारत में कोरोना के संक्रमण का हाल इतना खराब है कि अब चिकित्सा विज्ञान ऐसी चर्चा करने लगा है कि क्या देश में सामुदायिक संक्रमण हो रहा है? और देश में इलाज की कमी, ऑक्सीजन और दवा की कमी, वैक्सीन और सरकार की कमी, इन सबके चलते हुए ऐसे संक्रमण में हर किसी की जिंदगी खतरे में है। हम खुद जब यह लिख रहे हैं तो हम अपने एक रिपोर्टर को कोरोना में खो चुके हैं, संपादकीय विभाग के कुछ लोग घरों से काम कर रहे हैं, और इस बात का कोई ठिकाना नहीं है कि किसका टाइम कब आ जाएगा, और ऐसे में अखबार की जिम्मेदारी लोगों को इस बात का एहसास कराना भी है कि हालात कितने खराब हैं। आज अगर देश में ऐसा लग रहा है कि किसी का भी टाइम कभी भी आ जाएगा, और अगर हाल ऐसा ही चलता रहा तो सबका टाइम आएगा, तो हम इस बात के एहसास को पूरी तल्खी के साथ अपने पाठकों तक पहुंचाना चाहते हैं क्योंकि उन्हें अगर किसी अस्पताल या मरघट में खड़े होने की नौबत अभी तक नहीं आई है तो भी उन्हें यह एहसास रहना चाहिए कि उनके इर्द-गिर्द देश के बाकी लोग आज किस हाल में जी रहे हैं और किस हाल में मर रहे हैं। और जब अखबार जिम्मेदारी के साथ इस बात का एहसास कराना चाहते हैं, कराने की कोशिश करते हैं, तो पाठकों को, देश के नागरिकों को झकझोरने की, झिंझोडऩे की उनकी कोशिश कई लोगों को सदमा भी पहुंचा सकती है, कई लोगों को विचलित भी कर सकती है। लेकिन आज उन लोगों से जाकर, जिनके घर में मां-बाप आखिरी सांसें ले रहे हैं, और जो खुद ऑक्सीजन का सिलेंडर लेकर देश की राजधानी में 11-11 घंटे से कतार में लगे हैं, उनसे पूछें कि क्या उन्हें इस हालात में कोई शक है कि सबका टाइम आ ही रहा है, कब किसका टाइम आ जाएगा, क्या इसका कोई ठिकाना है, तो शायद उन्हें कोई शक नहीं होगा।
हिंदुस्तान में न सिर्फ कुछ पाठकों की ओर से, बल्कि सरकार समर्थक बहुत से लोगों की ओर से भी लगातार इस बात की वकालत की जा रही है कि खबरें अधिक से अधिक सकारात्मक दिखाई जाएं ताकि आज निराश और हताश हो चुके, डरे और सहमे लोगों के मन में दहशत और ना बैठे। यह तर्क अपने आपमें सही है लेकिन सवाल यह है कि आज हालात की नजाकत को अगर लोग समझ नहीं पाएंगे, तो न वे सावधान हो सकेंगे और न उनका यह राजनीतिक शिक्षण हो सकेगा कि उनकी निर्वाचित सरकारें किस तरह से काम कर रही हैं। एक अखबार के नाते हम इसे अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी मांगते हैं कि अपने पाठकों को लगातार हम देश के हालात से न सिर्फ वाकिफ कराते रहें बल्कि उन्हें यह तल्खी के साथ सोचने पर मजबूर भी करते रहें कि इन हालातों में उनकी क्या जिम्मेदारी बनती है। आज जब देश में महामारी फैली हुई है और हिंदुस्तानियों का एक तबका जब चुनाव प्रचार में लगा है, जब वह कुंभ के मेले में दसियों लाख एक-एक दिन में गंगा स्नान कर रहा है, और वहां से प्रसाद और संक्रमण दोनों को लेकर देश के हर शहर-गांव तक लौट रहा है, तो ऐसे तबके को झकझोरने के लिए यह बतलाना भी जरूरी है कि सबका समय आने में कोई खास कसर बाकी नहीं है। इस देश की सरकारों की यह ताकत और क्षमता भी नहीं है कि वह संक्रमण बढऩे पर लोगों को बचा सकें। हमने एक विदेशी पत्रिका के इस कवर पेज को अपनी बात को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया ताकि हमारे पाठक, हमारे आसपास के लोग, हमें पढऩे वाले लोग इस बात का एहसास कर सकें कि वक्त इतना खराब है कि कभी भी किसी का वक्त आ सकता है। और अपना टाइम आयेगा इसे लोगों को कोई असंभव बात नहीं मानना चाहिए। आज अस्पतालों में जो हाल है और देशभर में जगह-जगह अलग-अलग किस्म के लॉकडाउन और अलग-अलग किस्म के प्रतिबंध लगाने के बाद भी कोरोना का संक्रमण जिस तरह बढ़ रहा है उसे देखते हुए यह समझने की जरूरत है कि कभी भी किसी का वक्त आ सकता है। और ऐसा वक्त हमारे अखबार की तरह का मासूम वक्त नहीं रहेगा, वह सीएनएन की दिल्ली की रिपोर्ट जैसा बेरहम वक्त रहेगा जिसे देखकर हिंदुस्तान का दिल दहल जाना चाहिए कि यह हम लोकतंत्र की किस नौबत में आ गए हैं।
हमारा यह मानना रहता है कि लोगों को अहसास कराने के लिए जितनी बेरहमी जरूरी है, उतनी बेरहमी न अनैतिक होती है, और न ही वह अखबारनवीसी के किसी सिद्धांत के खिलाफ ही होती है। वह बेरहमी तकलीफ दे हो सकती है, लेकिन तकलीफ का एहसास कराना हमारा मकसद भी है। हम हर दिन शब्दों से, तस्वीरों से, कार्टून से, इस बात का एहसास कराते हैं कि यह दौर बहुत तकलीफ का है। ऐसे में हमारे इस कार्टून से लोग अगर विचलित हुए हैं, वे इसे देखकर और अधिक निराश हुए हैं, तो यह भी हमारा एक मकसद है कि लोगों को आज की पूरे देश की इस निराशा का एहसास होना चाहिए, आज के इस खतरे का अहसास होना चाहिए, और जब कभी लोकतंत्र में किसी बदलाव का मौका आएगा, उस वक्त तक यह एहसास खत्म नहीं होना चाहिए। लोकतंत्र का विकास, लोगों की लोकतांत्रिक समझ का विकास, हल्की-फुल्की बातों से नहीं होता है, वह तकलीफदेह और गंभीर बातों से ही होता है, और हम उसी कोशिश में लगे हुए हैं।
उत्तर प्रदेश में अभी पुलिस ने एक ऐसे युवक के खिलाफ जुर्म दर्ज किया है जिसने सोशल मीडिया पर अपने परिवार के किसी बुजुर्ग के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर की अपील की थी। आज पूरी दुनिया इस बात की गवाह है कि हिंदुस्तान का कोना-कोना ऑक्सीजन की कमी का शिकार है और अस्पतालों तक में बिना ऑक्सीजन मौतें लगातार हो रही हैं। आज अभी जब हम इस बात को लिख रहे हैं उस वक्त दिल्ली हाईकोर्ट में केंद्र सरकार से ऑक्सीजन संकट, और बदइंतजामी को लेकर जवाब-तलब जारी है। जब पूरे देश में यह बात साफ है कि ऑक्सीजन की कमी है और किसी परिवार में किसी मरीज के लिए अगर ऑक्सीजन लगनी है तो उसकी सार्वजनिक अपील सरकार को बदनाम करने की कोशिश मानकर जुर्म समझी जा रही है। अभी इसके खिलाफ देशभर के सोशल मीडिया पर और अखबारों में भी लगातार लिखा जा रहा है और इसके फेर में उत्तर प्रदेश सरकार की दूसरी नालायकी और नाकामयाबी सामने आते जा रही हैं। लोगों को यह समझ नहीं आ रहा है कि सरकार खुद इंतजाम नहीं कर पा रही है और दूसरी तरफ सोशल मीडिया पर अपील करने से अगर आज लोग आगे बढक़र दूसरों की मदद कर रहे हैं, तो उस मदद मांगने को भी जुर्म मान लिया जा रहा है। यह मामला अदालत में 2 मिनट भी नहीं टिकेगा और पुलिस को फटकार लगना तय है। दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश सरकार तो हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की फटकार खा-खा कर अब बेशर्म सी हो गई है कि उसे अब इससे अधिक बुरा और कोई क्या कह लेंगे।
लेकिन अफसरों और पुलिस की ऐसी बददिमागी महज उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में कल पुलिस में कई पत्रकारों के खिलाफ एक जुर्म दर्ज किया है। रायगढ़ जिले के एक एसडीएम और तहसीलदार की ओर से पुलिस को शिकायत की गई कि एक अखबार में अफसरों पर महुआ व्यापारियों से वसूली या उगाही की खबर छपी और फिर बाद में रायगढ़ के पत्रकारों के एक व्हाट्सऐप ग्रुप में उस खबर के संदर्भ में अफसरों के भ्रष्ट होने के बारे में एक सामान्य टिप्पणी की गई। अब अफसरों का हाल देखें कि उन्होंने पुलिस में यह शिकायत की कि वे रात-दिन कोरोना के मोर्चे पर डटे हुए हैं और महामारी से लडऩे की इस कोशिश में उनके मनोबल को तोडऩे के लिए उनके खिलाफ साजिशन ऐसा समाचार छापा गया है। मतलब यह कि जब तक महामारी, तब तक अगर अफसरों का कोई भ्रष्टाचार है, तो उसे अनदेखा करना चाहिए, उसके बारे में पत्रकारों को अपने ग्रुप में बात भी नहीं करनी चाहिए। यह महामारी से लड़ाई को एक अलग ऊंचाई तक ले जाने की कोशिश है मानो कि कोई पतंग को अंतरिक्ष तक ले जा रहे हों। अगर महामारी से अधिकारी और कर्मचारी लड़ रहे हैं तो क्या उनके बाकी कथित भ्रष्टाचार या सचमुच के भ्रष्टाचार को अनदेखा कर दिया जाए जाए? इस तर्क से तो मोदी सरकार भी कह सकती है कि वह कोरोना से लड़ रही है इसलिए उसकी किसी किस्म की आलोचना नहीं होनी चाहिए। मोदी सरकार भी राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी पर जुर्म कायम कर सकती है कि वे सरकार का मनोबल तोडऩे का काम कर रहे हैं। और यह बात किसी भी राज्य के सरकारी कर्मचारी अधिकारी कह सकते हैं, मंत्री-मुख्यमंत्री कह सकते हैं कि उनकी आलोचना जायज नहीं है क्योंकि वह अभी कोरोना के मोर्चे पर डटे हुए हैं। अब अगर इसी तर्क को देखें तो इस हिसाब से तो मीडिया के लोग भी कोरोना के मोर्चे पर डटे हुए हैं और छत्तीसगढ़ में पुलिस के जितने लोग कोरोनाग्रस्त हैं उतने ही लोग मीडिया के भी मारे गए हैं। तो फिर मीडिया के खिलाफ आज इस तरह का जुर्म दर्ज करना क्या कोरोनाग्रस्त मीडिया की लड़ाई को कमजोर करने की साजिश करार दे दिया जाए?
यह सिलसिला बहुत शर्मनाक है जब सरकारी अधिकारी अपनी ताकत का बेजा इस्तेमाल करके किसी आम नागरिक के खिलाफ या मीडिया के किसी तबके के खिलाफ इस तरह की हरकत करते हैं। हिंदुस्तान में यह देखने में आ रहा है कि राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी, राज्य की सरकार, या कि स्थानीय अफसर जब चाहे तब किसी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवा सकते हैं और फिर वैसी एफआईआर चाहे अदालत में जाकर खड़ी क्यों ना हो सके। छत्तीसगढ़ में पिछले वर्षों में जाने कितनी ही एफआईआर देश के पत्रकारों के खिलाफ, राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं के खिलाफ, राज्य के भीतर सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों के खिलाफ, अखबार या मीडिया वालों के खिलाफ दर्ज की गई हैं। लेकिन उनमें से कोई एफआईआर कभी अदालत में टिक नहीं पाती क्योंकि वे बदनीयत से दर्ज होती हैं। यह सिलसिला इसलिए अधिक खतरनाक है कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस पार्टी का शासन है और कांग्रेस पार्टी पूरे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ इस किस्म से दर्ज की जाने वाली फर्जी शिकायतों के खिलाफ बार-बार आवाज उठाती है। अब अगर महुआ व्यापारियों से रिश्वत लेने का आरोप लगा है, एक अखबार में ऐसी रिपोर्ट छपी है, और बाकी अखबारनवीस इस पर चर्चा कर रहे हैं तो इस खबर और चर्चा का प्रशासन का कोरोना मोर्चे का मनोबल तोडऩे से क्या लेना-देना हो सकता है? हम कानून की अपनी बहुत मामूली समझ के आधार पर यह कह सकते हैं कि रायगढ़ पुलिस में वहां के प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा दर्ज कराई कराई गई है एफआईआर हाईकोर्ट में आनन-फानन खारिज हो जाएगी जो कि ऐसी एफआईआर के पीछे की बदनीयत को पल भर में देख लेगा। यह सिलसिला अच्छा नहीं है, और यह राज्य की सरकार की साख खराब करता है, यहां पर सत्तारूढ़ पार्टी की साख को भी खराब करता है जो कि भाजपा के 15 वर्ष के कार्यकाल में इसी तरह की दर्ज की गई बहुत सी एफआईआर का विरोध करते आई है।
इस सरकार को अपने अफसरों पर इतना काबू रखना चाहिए कि वे मीडिया को परेशान करने के लिए इस तरह की फर्जी शिकायतें न दर्ज कराएं, न पुलिस ऐसी एफआईआर दर्ज करे। यह मामला अधिक से अधिक किसी अधिकारी की मानहानि का साधारण मामला हो सकता था जिसमें वह अधिकारी अदालत में एक केस दायर करने के लिए आजाद थे। लेकिन महामारी से लड़ाई की आड़ लेना एक शर्मनाक हरकत है और महामारी से अगर कोई लड़ रहे हैं तो उसका यह मतलब नहीं है कि उनके तमाम गलत कामों को अनदेखा कर दिया जाए। इस तर्क से तो आज पूरे देश में किसी अस्पताल, किसी सरकार, किसी अफसर, या किसी मंत्री के खिलाफ कुछ भी लिखना जुर्म होगा क्योंकि अधिकतर लोग किसी न किसी तरह से महामारी के खिलाफ लड़ाई में शामिल हैं। इसके पहले कि अदालत ऐसी रद्दी और तर्कहीन एफआईआर खारिज करे, सरकार को खुद होकर इसे खत्म करना चाहिए और अपने अमले को सावधान करना चाहिए कि महामारी की आड़ लेकर इस तरह की हरकतें ना की जाएं ।
आज तो देश भर का मीडिया ऐसी खबरों से भरा हुआ है कि किस प्रदेश में क्या भ्रष्टाचार चल रहा है, और जिस वक्त महामारी से लड़ाई जैसी आपाधापी चलती है उस वक्त तो भ्रष्टाचार और अधिक होता है। हिंदुस्तान के तमाम प्रदेशों का इतिहास गवाह है कि आपदा प्रबंधन सबसे अधिक भ्रष्टाचार से भरा हुआ मामला रहता है। ऐसे में मीडिया या पत्रकारों को कुचलना बहुत समझदारी का काम नहीं होगा। अगर राज्य सरकार इस एक जिले के अपने प्रशासनिक अफसरों पर काबू नहीं करेगी, तो प्रदेश के बहुत सारे जिलों में बहुत सारे दूसरे अफसर पत्रकारों के खिलाफ अपना कोई पुराना हिसाब चुकता करने के लिए उनके खिलाफ कोई ना कोई जुर्म दर्ज करवाते रहेंगे। हमारा तो ख्याल यह है कि भ्रष्टाचार के ऐसे आरोपों वाली खबर को कुचलने के लिए अगर प्रशासनिक अधिकारी महामोरी के मोर्चे की आड़ ले रहे हैं, तो इसे लेकर उनके खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में एक सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में तैनात 8 महीने की गर्भवती एक नर्स की कोरोना से मौत हो गई। उसने विभाग को लिखित अर्जी में अपने गर्भवती होने की सूचना दी थी और छुट्टी मांगी थी। उसे छुट्टी तो नहीं मिली लेकिन उसकी ड्यूटी कोरोना मरीजों के बीच लगा दी गई और कोरोना मरीजों को देखते-देखते वह खुद कोरोना की शिकार हो गई और चल बसी। वह 3 बरस की एक बच्ची की मां भी थी, और बीमार होने पर जिला अस्पताल में उसे दाखिल कराया गया, लेकिन एक चर्चित जीवनरक्षक दवाई उसे नहीं मिल पाई, उसके घरवाले बाजार से 15 गुना दाम देकर ब्लैक में वह दवा खरीद कर लेकर आए, लेकिन फिर भी वह उसके काम नहीं आ सकी। जिला अस्पताल में उसकी हालत बेकाबू होने पर उसे एम्स भेजा गया जहां 2 दिन बाद उसे वेंटिलेटर मिलने की बात खबर में आई है, और उसके कुछ घंटों के भीतर ही वह चल बसी। एक तरफ तो केंद्र सरकार और राज्य सरकार गर्भवती महिलाओं को मातृत्व अवकाश देने का कानून बनाती हैं, उसका दावा करती हैं, दूसरी तरफ 8 महीने की गर्भवती इस नर्स को न छुट्टी मिली और न ही उसके अफसरों ने यह देखा कि उसकी ड्यूटी कहां लगाई गई है। आखिर में कोरोना के बीच ड्यूटी करते हुए वह कोरोनाग्रस्त होकर चल बसी अपनी छोटी सी बच्ची को छोडक़र।
यह अकेली घटना नहीं है, अभी कुछ दिन पहले बस्तर में राज्य पुलिस सेवा की एक महिला अधिकारी भी इसी तरह गर्भवती रहते हुए सडक़ पर आकर लॉकडाउन का पालन करवाते हुए, लोगों को रोकते हुए दिख रही थी, और उसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर भी आईं, और अखबारों में भी। हमने पहले भी गर्भवती महिलाओं के नक्सल मोर्चे पर ड्यूटी पर जाने के खिलाफ लिखा था। हो सकता है कि वे महिलाएं खुद होकर ऐसी ड्यूटी करना चाहती हों, लेकिन ऐसा करना उनके दुस्साहस का सबूत तो है, यह उनके अफसरों की लापरवाही का सबूत भी है जो कि एक गर्भवती कर्मचारी या अधिकारी को खतरे की ड्यूटी पर तैनात करते हैं, या कि जाने की इजाजत देते हैं। ऐसी महिलाओं को लोगों की वाहवाही भी मिलने लगती है, लोग उनके त्याग की भावना की तारीफ करने लगते हैं, ऐसे काम को जन सेवा के लिए बलिदान कहने लगते हैं, लेकिन यह सिलसिला एक सामाजिक अन्याय की एक कड़ी है जिसे समझने की जरूरत है। यह समझना जरूरी है कि गर्भवती तो महिला कर्मचारी या महिला अधिकारी ही हो सकती हैं, किसी पुरुष अधिकारी के सामने तो ऐसी नौबत आती नहीं है, इसलिए सरकारी नौकरी में काम करने वाली महिलाओं के सामने यह चुनौती भी रहती है कि वह अपने-आपको पुरुषों से कम नहीं साबित करने के लिए ऐसे मुश्किल काम करें। लेकिन जब कुदरत ने ही महिलाओं को अलग बनाया है, उनकी जरूरतों को अलग बनाया है, तो उनकी गर्भावस्था का सम्मान करना चाहिए उनके अजन्मे बच्चों का सम्मान करना चाहिए, यह अधिकार किसी महिला को भी नहीं है कि वह अपने अजन्मे बच्चे को खतरे में डालने का कोई काम करे। और फिर ऐसे जितने भी मामले सामने आते हैं उनमें से 100 फीसदी मामले ऐसे रहते हैं कि उन महिलाओं के बिना भी वे काम चल सकते थे, एक किसी और नर्स को कोरोना मरीजों के बीच ड्यूटी पर लगाया जा सकता था, एक किसी और महिला अफसर को लॉकडाउन में लगाया जा सकता था, और एक किसी और हथियारबंद महिला अधिकारी को या पुरुष को नक्सल मोर्चे पर जंगल भेजा जा सकता था। लेकिन जब ऐसी कहानियां सामने आती हैं तो स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय कहे जाने वाले मीडिया तक के लोग बावले हो जाते हैं क्योंकि ऐसी खबरें, ऐसी तस्वीरें, लोगों का ध्यान खींचती हैं। बस अपने पाठक, और अपने दर्शक जुटाने के लिए मीडिया ऐसी लापरवाही को त्याग और बलिदान करार देने पर उतारू हो जाता है, और बड़े-बड़े लोग भी ऐसी महिलाओं को बधाई देने लगते हैं, बिना यह देखे हुए कि क्या यह काम उन महिलाओं के अजन्मे बच्चों को खतरे में डाले बिना नहीं चल सकता था?
यह बात इसलिए भी सोचने की जरूरत है कि अभी छत्तीसगढ़ में सरकार ने सभी कर्मचारियों से कोरोना के लिए 1 दिन का वेतन मांगा है। विभागों ने शायद अपने कर्मचारियों का 1 दिन का वेतन खुद ही काट लिया है, और जहां पर उनसे सहमति मांगी गई है, बहुत से पुलिस कर्मचारियों ने इस पर असहमति जताई है। उनका अपना तर्क है कि वे कोरोना मोर्चे पर रात दिन खतरा झेलते हुए अधिक घंटों की ड्यूटी कर रहे हैं, और ऐसे में उनसे और त्याग की उम्मीद क्यों करनी चाहिए? यह बात इस हिसाब से भी सही है कि बिहार में जहां पर कि पुलिस कर्मचारियों का संगठन है, वहां पर उस संगठन ने मांग की है कि कोरोनाग्रस्त होकर गुजरने पर पुलिस कर्मचारी का 50 लाख रुपए का बीमा करवाया जाए. छत्तीसगढ़ में कुछ बरस पहले पुलिस कर्मचारियों और उनके परिवारों की मांग को लेकर एक सुगबुगाहट हुई थी, बाद में पुलिस परिवारों के नाम पर जो आंदोलन होने जा रहा था उसे बुरी तरह कुचलने के लिए सरकार और पुलिस विभाग टूट पड़े थे। अभी एक पुलिस कर्मचारी ने कोरोना के लिए 1 दिन की तनख्वाह देने से मना कर दिया तो शायद उसका नक्सल इलाके में तबादला कर दिया गया. इसके बाद उसका बताया जा रहा एक वीडियो चारों तरफ फैल रहा है जिसमें वह यह खुलासा कर रहा है कि पुलिस के छोटे कर्मचारियों का किस तरह बेजा इस्तेमाल होता है और किस तरह बड़े अफसर अपने बंगलों पर दर्जन-दर्जनभर गाडिय़ां और दर्जनों कर्मचारी रखते हैं। बड़े अफसरों की तनख्वाह भी लाखों रुपए महीने होती है, और वे उससे भी कई गुना अधिक तनख्वाह के कर्मचारियों को बंगलों पर बंधुआ मजदूरों की तरह रखते हैं, उनसे अपमानजनक और अमानवीय काम करवाते हैं।
ये दो मामले अलग-अलग हैं, लेकिन दोनों ही मामले राज्य सरकार के हैं, और इनमें राज्य सरकार को तुरंत ही सुधार करना चाहिए। मुख्यमंत्री सहायता कोष या कोई और कोष, किसी कर्मचारी की तनख्वाह जबरदस्ती काटकर उसमें जमा नहीं करनी चाहिए। और अगर कोई ऐसा योगदान देने से मना करें तो उसका नक्सल इलाके में तबादला अगर किया गया है तो यह बहुत ही रद्दी किस्म का फैसला है, और यह नक्सल इलाके के साथ भी बेइंसाफी है कि वहां पर पुलिस को बतौर सजा भेजा जा रहा है। सजायाफ्ता पुलिस कर्मचारी वहां किस नैतिक मनोबल से जनकल्याण का काम कर सकते हैं? जो सरकार अपने प्रदेश के सबसे अधिक चुनौती भरे हुए इलाके में पुलिस को बतौर सजा भेजती हो, वह सरकार उस इलाके की चुनौती के साथ बेइंसाफी भी कर रही है।
राज्य सरकार को कोरोना के मोर्चे पर अपने कर्मचारियों के साथ एक तो मानवीय रुख रखना चाहिए, दूसरी बात यह कि अगर कोई योगदान सरकारी कर्मचारियों से जुटाना है, तो वह योगदान जबरदस्ती नहीं होना चाहिए। तीसरी बात यह कि ऐसी जबरदस्ती के साथ अगर किसी को सजा दी जा रही है, तो यह मामला अदालत में जाकर सरकार के लिए बड़ी शर्मिंदगी खड़ी कर सकता है, और सार्वजनिक रूप से तो यह शर्मिंदगी की बात है ही कि कोई सरकारी कोष में चंदा देने से मना करें, योगदान देने से मना करें, तो उसे सजा दी जाए। ये कई मुद्दे अलग-अलग हैं, लेकिन सारे ही राज्य सरकार से जुड़े हुए हैं, और जिस पुलिस कर्मचारी के बड़े अफसरों पर तोहमत लगाई गई है, तो उनके बारे में प्रदेश में हर कोई जानते हैं कि यह सही तोहमतें हैं। इसलिए सरकार को अगले किसी पुलिस परिवार आंदोलन के पहले यह अमानवीय सिलसिला भी खत्म करना चाहिए और सरकारी बर्बादी का सिलसिला भी खत्म करना चाहिए। जिन अफसरों को लाखों रुपए तनख्वाह मिलती है या लाख रुपए से अधिक पेंशन मिलती है उन अफसरों के, या रिटायर्ड अफसरों के घरों पर गाडिय़ों और सिपाहियों का रेला क्यों लगाया जाता है ? सरकारी खजाने की ऐसी खुली बर्बादी भी खत्म होनी चाहिए। जब पुलिस के छोटे कर्मचारी ऐसी बर्बादी रात-दिन देखते हैं, तब उनके मन में भी एक दिन का वेतन देने में तकलीफ होती है। राज्य सरकार को तुरंत इन बातों पर गौर करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदुस्तान में लोगों को कोरोना वैक्सीन लगाने का काम एकदम अधर में टंगा हुआ दिख रहा है, उसके पास पैर टिकाने को जमीन पर नहीं है। भारत सरकार ने आज राज्यों को यह बात दोहरा दी है कि 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को टीका लगाना उनकी अपनी जिम्मेदारी है और उसके लिए वैक्सीन खरीदना भी उसे खुद ही को करना है। इसके पहले से 45 वर्ष से अधिक के लोगों को, और फ्रंटलाइन वर्कर्स कहे जाने वाले, डॉक्टर, अस्पताल-एंबुलेंस कर्मचारी, पुलिस और सफाई कर्मचारियों को वैक्सीन देना भारत सरकार पहले की तरह जारी रखेगी जिनमें से 14 करोड़ से अधिक लोगों को अब तक वैक्सीन लग भी चुका है। यह जाहिर है कि 45 वर्ष से अधिक के, और फ्रंटलाइन वर्कर्स में से बहुत अधिक लोग अब वैक्सीन लगवाने को बचे नहीं हैं। ऐसे में देश की बाकी तमाम बालिग आबादी को टीके लगाना अब राज्यों की जिम्मेदारी हो गई है, यह एक अलग बात है कि राज्यों को ये टीके खरीदने के लिए देश में कुल 2 कंपनियां आज हासिल हैं, जो कि अगले कुछ हफ्तों तक सप्लाई शुरू भी ना करने की बात कर रही हैं।
हिंदुस्तान की सरकार ने अपने ही देश की प्रदेश-सरकारों को अपने मातहत नौकरों की तरह इस्तेमाल करते हुए वैक्सीन का यह बोझ है जिस तरह उनके सिर पर डाला है वह अकल्पनीय हैं। भारत के संघीय ढांचे में केंद्र और राज्य के बीच संबंधों का अधिकारों और जिम्मेदारियों का एक बंटवारा बनाया गया है। आज महामारी के कानून का इस्तेमाल करते हुए केंद्र सरकार साल भर से राज्य सरकारों पर कई तरह का काबू रखे हुए है। लेकिन अब जब केंद्र सरकार ने यह तय कर लिया था कि वह 18 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों के लिए वैक्सीन नहीं देगी और राज्यों को खुद उसका इंतजाम करना पड़ेगा, तो यहां पर केंद्र सरकार का नियंत्रण भी खत्म हो जाना चाहिए था, और यह राज्यों के ऊपर छोडऩा चाहिए था कि 18 वर्ष से अधिक के 45 वर्ष तक के लोगों को वह किस रफ्तार से, किन किस्तों में किस तरह वैक्सीन लगाएंगे। केंद्र सरकार ने अपनी तरफ से यह तारीख तय कर दी कि 1 मई से 18 वर्षों से ऊपर के सभी लोगों को वैक्सीन लगाई जाएगी। आज हालत यह है कि देश की आधी से अधिक आबादी इस आयु वर्ग में आ रही है, और जब 60 करोड़ लोग एक साथ वैक्सीन के हकदार मानकर टीकाकरण केंद्रों पर भीड़ लगाने के लिए छोड़ दिए जाएंगे तो क्या राज्यों के लिए इसका मैनेजमेंट आसान होगा? आज राज्यों को अपने पैसे से वैक्सीन खरीदने को भी कह दिया गया है, और वैक्सीन कंपनियों ने अब तक केंद्र सरकार को दिए जा रहे रेट के मुकाबले कई गुना अधिक रेट राज्य सरकारों के लिए रख दिए हैं। केंद्र सरकार ने, जब तक उसे खर्च करना था, वैक्सीन के दाम काबू में रखवाये, अब जब राज्यों के ऊपर इसका बोझ डाला जा रहा है तो वैक्सीन कंपनियों को अंधाधुंध मुनाफाखोरी करने की छूट दी जा रही है। इसके बारे में सुप्रीम कोर्ट में कल सुनवाई के दौरान एक जज ने सवाल किया कि केंद्र सरकार पेटेंट कानून के तहत वैक्सीन के दाम काबू में क्यों नहीं कर सकती? यह सवाल आम जनता के मन में भी उठ रहा है कि वैक्सीन निर्माताओं को ऐसी अंधाधुंध रेट बढ़ोतरी की छूट देकर भारत सरकार क्या कर रही है? क्या वह राज्यों को नाकामयाब दिखाना चाहती है या उनकी कमर तोड़ देना चाहती है, या यह दोनों ही काम एक साथ करना चाहती है? आज राज्यों को केंद्र सरकार से उसके फैसले का जिस तरह विरोध करना था वह राज्यों ने नहीं किया, क्योंकि आज ऐसा सैद्धांतिक विरोध शायद कोरोना मोर्चे पर केंद्र सरकार का विरोध गिन लिया जाता। लेकिन हम क्योंकि वोटरों की ऐसी किसी गलतफहमी के खतरे की फिक्र नहीं करते, इसलिए हम बार-बार इस बात को उठा रहे हैं कि केंद्र सरकार को जो टीकाकरण कार्यक्रम न करना है न जिसमें कोई मदद देनी है, उसे इतनी बुरी तरह बारीकी से डिजाइन करके राज्यों के ऊपर क्यों लाद दिया है? केंद्र सरकार ने जब तक खुद टीके दिए तब तक तो पहले 60 वर्ष की उम्र से अधिक के लोगों के लिए दिए, फिर फ्रंटलाइन वर्कर्स के लिए दिए, फिर 45 वर्ष से अधिक के दूसरी बीमारियों से परेशान लोगों के लिए दिए, और आखिर में जाकर तीसरी-चौथी किस्त में 45 वर्ष से ऊपर के सभी लोगों के लिए टीके दिए। यह देना अभी जारी ही है और 16 जनवरी से शुरू हुआ टीकाकरण कार्यक्रम अभी किसी किनारे पहुंचा नहीं है, देश की आबादी को देखें तो आबादी का 10 फीसदी ही अभी टीके पा सका है। ऐसे में एक छोटी आबादी को टीके देने के बाद केंद्र सरकार ने एकदम से करीब आधी आबादी के लिए दरवाजे खोल दिए और उन दरवाजों की चाबी राज्य सरकारों के हाथ थमा दी कि वे उस पर काबू करें वे टीके खरीदें और लगाएं। एक साधारण समझबूझ भी यह सुझाती है कि राज्यों को टीकाकरण के लिए आयु वर्ग तय करने का अधिकार खुद को देना चाहिए था क्योंकि किसी भी राज्य की क्षमता नहीं है कि वह अगले कई महीनों में भी अपनी आधी आबादी को टीका लगा सके। ऐसे में कुंभ की अराजक भीड़ की तरह, और बंगाल की चुनावी रैलियों में अनगिनत लोगों की भीड़ की तरह की भीड़, राज्यों के टीकाकरण केंद्र पर लगवाने का यह काम केंद्र सरकार ने किया है जो कि राज्यों के लिए बहुत बड़ा खतरा साबित हो सकता है। हमें तो यह बात बेहतर लगती अगर राज्यों के मुख्यमंत्री केंद्र सरकार के इस बिना वजह लादे हुए फैसले का विरोध करते और याद दिलाते कि जिस कार्यक्रम में केंद्र कोई सहयोग नहीं कर रही है उस कार्यक्रम की बारीक बातों को तय करना राज्यों का अधिकार होना चाहिए था, और केंद्र ने इसमें बिना वजह एक नाजायज दखल दी है।
आज बहुत से जानकार लोग यह मान रहे हैं कि जिस तरह पिछले बरस कोरोना का खतरा दिखते ही अमेरिका, और यूरोप के बहुत से देशों ने, भारत के टीका निर्माताओं से सौदे किए और उनसे करोड़ों टीके खरीदने का रेट तय किया, उन्हें भुगतान किया। उस वक्त भी पूरी दुनिया यह देख रही थी कि कोरोनावायरस की लहर बारी बारी से एक-एक देश में आते जा रही है, और भारत सरकार को भी वह दिख रहा था. लेकिन उसने अपने ही देश की कंपनियों से न सौदे किये, न टीकों की बुकिंग की। और आज तो हालत यह है कि उसने इस सौदेबाजी का बोझ रातों-रात राज्य सरकारों पर डाल दिया है जिनसे कि ये कंपनियां किसी मुनाफाखोर और सूदखोर की तरह मुसीबत के वक्त मनमाना सूद वसूल करने का मोलभाव कर रही हैं। भारत सरकार ने, जिस वक्त पूरे देश के लिए टीकों के जुगाड़ करने का मौका था, उस पर जिम्मेदारी थी, उस मौके को पूरी तरह चले जाने दिया, वक्त पर अपना काम नहीं किया, और आज जब राज्यों के पास कोई विकल्प नहीं है, तब उन्हें बाजारू कारोबारियों के पास भेजा जा रहा है कि वे जाकर खुद मोलभाव करें। यह पूरा सिलसिला मोदी सरकार की भारी गैरजिम्मेदारी का भी है, और यह केंद्र-राज्य संबंधों के मुताबिक बहुत नाजायज भी है। आज राज्य खुद होकर टीके खरीदने की कोशिश कर रहे हैं जो कि उन्हें केंद्र सरकार के मुकाबले कई गुना अधिक दाम पर मिलने का आसार दिख रहा है। दूसरी बात यह कि केंद्र सरकार ने अपनी मर्जी से यह तय किया कि वह किस उम्र से नीचे के लोगों का खर्च नहीं उठाएगी और यह राज्यों का जिम्मा रहेगा। देश में पीएम केयर्स फंड के नाम से जो हजारों करोड़ों रुपए इक_ा हुए हैं उस फंड से ही पूरे देश के लोगों के लिए टीके खरीदने थे। और इस कानून को भी टटोलना था कि किस तरह देश में बनने वाली वैक्सीन के दाम नियंत्रित किए जा सकते हैं। लेकिन जिस दिन प्रधानमंत्री ने टीका बनाने वाली कंपनियों और दवा कंपनियों के साथ बैठक की, उसी दिन यह फैसला ले लिया गया कि अब इस देश के राज्य इन कंपनियों के रहमोंकरम पर जिंदा रहेंगे।
आज जब हिंदुस्तान में कोरोना की लहर उफान पर है, एक सुनामी सा आया हुआ है, उस वक्त टीकों को पूरी रफ्तार से बाजार में रहना था, लोगों की पहुंच में रहना था, राज्य सरकारों के हाथ में रहना था। लेकिन इस नाजुक मौके पर, इस खतरनाक मोड़ पर, केंद्र सरकार ने राज्यों को बेसहारा छोड़ा है और देश की जनता को एक किस्म से मुनाफाखोर वैक्सीन कंपनियों के पास गिरवी रख दिया है। यह पूरा सिलसिला अलोकतांत्रिक है, भारत के संघीय ढांचे के खिलाफ है, और अमानवीय भी है। यह समझ लेने की जरूरत है कि अब अगर कोरोना का यह उफान काबू में नहीं आता है तो इसके पीछे पिछले 10 दिनों से वैक्सीन को लेकर केंद्र सरकार की खड़ी की हुई अनिश्चितता भी एक बड़ी जिम्मेदार वजह रहेगी। इस बात को देश में हर समझदार तबके को उठाना चाहिए कि केंद्र सरकार ने मंझधार में सिर्फ राज्यों को नहीं छोड़ा है, देश के नागरिकों की जिंदगी को भी कोरोना की इस तूफानी लहर के बीच मंझधार में छोड़ दिया है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बहुत अरसा पहले जब हिंदी फिल्में एक ढर्रे पर बनती थीं तो उनमें कोई गुंडा आकर हीरोइन का बटुआ छीनकर भागता था और हीरो आकर उस गुंडे को पीट-पीटकर वह बटुआ लाकर हीरोइन को देता था और उसका दिल जीत लेता था। फिर फिल्मों में ही इसे एक तरकीब की तरह इस्तेमाल किया जाने लगा और हीरो भाड़े के ऐसे गुंडे से हीरोइन का पर्स छिनवाता था और उसे लाकर देकर अपने आपको हीरो साबित करता था। इसी किस्म से हिंदी फिल्मों का एक और जमा-जमाया ढर्रा चल रहा था कि फिल्म के आखिर में जब हीरो विलेन को मार-मारकर हीरोइन को छुड़ा चुका रहता है, और विलेन को जमीन पर पटक-पटककर जख्मी कर चुका रहता है तब पुलिस की जीप सायरन बजाते पहुंचती है और महज गिरफ्तार करने का काम करती है। हिंदुस्तान की कई संवैधानिक संस्थाओं का हाल आज कुछ इसी किस्म से चल रहा है।
पिछले दो दिनों से मद्रास हाईकोर्ट का चुनाव आयोग के खिलाफ एक हमलावर तेवर खबरों में बना हुआ है जिसमें चुनाव प्रचार की वजह से फैले कोरोना संक्रमण को देखते हुए हाईकोर्ट ने चुनाव आयोग से कहा है कि उसकी गैर जिम्मेदारी तो इस दर्जे की है कि उसके खिलाफ हत्या का जुर्म दर्ज किया जाना चाहिए। हाईकोर्ट ने इतनी कड़ी बातें कही हैं कि हिंदुस्तान की जनता खुश हो गई कि चुनाव आयोग को अच्छी जमकर लताड़ पड़ी। लेकिन अब सवाल यह है कि मद्रास हाईकोर्ट का यह रूप कब देखने में आ रहा है? उस दिन जिस दिन कि वोट डाले हुए 20 दिन हो चुके हैं? चुनाव कार्यक्रम घोषित हुए शायद दो महीने, और चुनाव प्रचार खत्म हुए भी 20 दिन से अधिक हो चुके हैं, तब जाकर अगर हाईकोर्ट को यह दिख रहा है कि पूरा चुनाव जनता की सेहत को खतरे में डालकर करवाया जा रहा है तो यह देखना आज किस काम का रह गया है? सोशल मीडिया पर लोगों ने यह भी कहा है कि क्या हत्या का जुर्म सुप्रीम कोर्ट के जजों पर भी दर्ज नहीं होना चाहिए जो कि देशभर में चुनाव-प्रचार और कोरोना की मिली-जुली कदमताल देखते हुए भी चुप बैठे हुए थे? और सवाल यह है कि जब असम से लेकर बंगाल तक और केरल से लेकर तमिलनाडु तक चारों तरफ चुनाव चल रहे थे, चारों तरफ यह लिखा जा रहा था कि ऐसा भयानक चुनाव प्रचार, ऐसी भयानक रैलियां, लोगों को खतरे में डालकर छोड़ेंगे और कोरोना इन्हें देखकर बहुत खुश हो रहा है, क्या उस वक्त भी देश के सुप्रीम कोर्ट को यह नहीं दिखा कि बंधुआ मजदूर की तरह काम करते हुए चुनाव आयोग से परे, देश की सबसे बड़ी अदालत को भी कुछ करना चाहिए? और अगर सुप्रीम कोर्ट ने अपना जिम्मा पूरा नहीं किया, तो फिर आज कागजी और सतही सुनवाई करके सरकार को कोरोना के मोर्चे पर कटघरे में खड़ा करने का क्या मतलब है?
मद्रास हाईकोर्ट का फैसला हिंदी फिल्मों में बीते वक्त में आखिर में सायरन बजाते हुए पहुंची पुलिस जीप की तरह का है, जिससे अब केवल चुनाव की मतगणना की गर्दन हाईकोर्ट के हाथ में आ रही है, और चुनाव आयोग ने अदालत के आदेश के बाद आज यह रोक लगा दी है कि जीतने वाले उम्मीदवार कोई विजय जुलूस नहीं निकालेंगे। हाथी निकल चुका है अब आखिर में बची हुई उसकी दुम पर हाईकोर्ट और चुनाव आयोग दोनों अपना झंडा लगाकर कामयाबी दिखा रहे हैं। यह पूरा सिलसिला हिंदुस्तानी लोकतंत्र की नाकामयाबी का है, जिसमें कई राज्यों में चल रहे चुनावों में एक साथ दखल देने का अधिकार अकेले सुप्रीम कोर्ट का था। और जब देश के बच्चे-बच्चे को दिख रहा था कि चुनाव आयोग चुनाव कार्यक्रम तय नहीं कर रहा था, चुनावी आम सभाओं की सहूलियत तय कर रहा था, उस वक्त भी सुप्रीम कोर्ट ने कोरोना के बढ़ते हुए खतरे को अनदेखा किया। जज चुपचाप अपने बंगलों में कैद होकर महफूज़ बैठ गए। उस वक्त भी हमने यह बात लिखी थी कि सुप्रीम कोर्ट के जजों के स्टाफ के कुछ कर्मचारी पॉजिटिव निकलने पर जिस रफ्तार से जजों ने अपने को अपने बंगलों में कैद कर लिया था, उन्हें देश की बाकी हालत नहीं दिखी, उन्हें देश में बाकी जगहों पर जनता को खतरे में डालते हुए राजनीतिक दल, सरकार और चुनाव आयोग नहीं दिखे?
आज देश में हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक और चुनाव आयोग तक ऐसी अनगिनत संवैधानिक संस्थाएं हैं जो कि वक्त निकल जाने पर काम शुरू करती हैं, ठीक उसी तरह जैसे आज केंद्र सरकार वेंटिलेटर के रोक दिए गए आर्डर जिंदा कर रही है, ऑक्सीजन के प्लांट लगाने के लिए देशभर के जिलों को मंजूरी दे रही है। यह पूरा सिलसिला लोकतंत्र की नाकामयाबी का है। जब केंद्र और राज्यों के संबंध इस हद तक तनातनी के चल रहे हैं कि केंद्र सरकार देश के संघीय ढांचे को कुछ गिन ही नहीं रही है, जब वह राज्यों के कोई अधिकार मान ही नहीं रही है, उस वक्त भी अगर सुप्रीम कोर्ट को अपनी जिम्मेदारी का एहसास नहीं हो रहा है, तो यह उसकी नाकामयाबी है। आज पत्ता-पत्ता बूटा -बूटा हाल हमारा जाने है, जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है, जैसी हालत हिंदुस्तानी लोकतंत्र की हो चुकी है। आज बेहतर तो यह होगा कि जिस तरह सुप्रीम कोर्ट कई मामलों में अपनी मदद के लिए किसी बड़े वकील को न्याय मित्र बनाकर तैनात करता है कि वह जटिल मामलों को समझकर अदालत को उसकी बारीकियां समझाएंगे, सुप्रीम कोर्ट को इस देश में एक से अधिक ऐसे न्याय मित्र तैनात करने चाहिए जो सोशल मीडिया पर देखकर, अब तक ईमानदार रह गए कुछ अखबारों को देखकर, देश की हालत सुप्रीम कोर्ट को बताएं, क्योंकि जजों को खुद होकर अखबारों के पहले पन्ने की बड़ी-बड़ी सुर्खियां भी दिख नहीं रही है।
तमिलनाडु में 6 अप्रैल को वोट डल चुके और 26 अप्रैल को हाईकोर्ट के जजों को यह दिख रहा है कि चुनाव आयोग पर हत्या का जुर्म दर्ज किया जाना चाहिए। 6 अप्रैल के दो दिन पहले प्रचार बंद हो चुका होगा और तमाम आम सभाएं और रैलियां 4 अप्रैल के पहले खत्म हो चुकी होंगी। अब तक तो चेन्नई के मरीना बीच में से उस दिन के बने हुए पदचिन्ह भी मिट चुके होंगे, और अब जाकर मद्रास हाई कोर्ट को इतनी कड़ी टिप्पणी करना सूझ रहा है जबकि वहां के जज वहां के स्थानीय अखबारों में टीवी चैनलों पर और सोशल मीडिया पर लगातार चुनाव प्रचार का माहौल देख रहे होंगे। कुछ ऐसा ही देखना कोलकाता में वहां के हाईकोर्ट के जजों का हो रहा होगा, केरल हाईकोर्ट के जज भी देख रहे होंगे, गुवाहाटी में असम के हाई कोर्ट के जज भी देख रहे होंगे, और सुप्रीम कोर्ट के जज तो पूरे हिंदुस्तान के मालिक हैं इसलिए वे तो देख ही रहे होंगे। लेकिन देश की किसी अदालत ने समय रहते हुए इस देश के लोगों की जिंदगी की फितख नहीं की। नेताओं ने बंगाल की अपनी आमसभा में जहां तक नजर जाए वहां तक लोगों के सिर ही सिर दिखने पर खुशी जाहिर की, लेकिन किसी जज को इन सिरों पर मंडराते हुए खतरे को देखने की फुर्सत नहीं थी, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के तमाम जज अदालत के अपने चेंबर से अपने बंगलों के चेंबर जाने में लगे हुए थे। ऐसा लगता है किस देश का मीडिया और सोशल मीडिया जिन नजरों से हिंदुस्तान को देखता है, वह नजर भी जजों को हासिल नहीं है। इसलिए इस बात में कोई बुराई नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के जज अपने लिए कुछ ऐसे न्याय मित्र नियुक्त करें जो कि अखबारों को पढक़र और सोशल मीडिया देखकर जजों को बताएं कि हिंदुस्तान आज किस हाल में है। ऐसा लगता है कि न्याय की देवी की जो आंखों पर पट्टी बंधी हुई प्रतिमा न्याय के प्रतीक के रूप में पूरी दुनिया में प्रचलन में है, कुछ वैसी ही पट्टी हिंदुस्तान जैसे लोकतंत्र के बड़े-बड़े जज अपनी आंखों पर बांधे रखते हैं, और इस पट्टी को उस वक्त खोलते हैं जब उनके करने का कुछ नहीं रह जाता, और अदालती इतिहास में अपनी टिप्पणियों को दर्ज करने के लिए वे बड़ी कड़ी-कड़ी बातें कहते हैं जिनका असल जिंदगी में कोई इस्तेमाल नहीं बचता।
अखबारों को मद्रास हाई कोर्ट के जजों की कही हुई बातों से एक अच्छी सुर्खी मिल गई, और हिंदुस्तानी लोकतंत्र के बेवकूफ वोटरों को यह तसल्ली मिल गई कि चुनाव आयोग को अच्छी लताड़ पड़ी है, लेकिन इस किस्म की नूरा कुश्ती देखकर आज अगर सबसे अधिक हंसी किसी को आ रही होगी तो वह कोरोना को, जिसे कि बंगाल में लाखों लोगों की भीड़ मिली जिनमें सैकड़ों मास्क भी नहीं थे। लोकतंत्र ऐसी नूरा कुश्ती या शास्त्रीय संगीत की जुगलबंदी का नाम नहीं है, लोकतंत्र के तीनों स्तंभों के एक दूसरे पर संतुलित काबू का नाम है, जो कि आज खत्म हो चुका है। इस देश में 20 हज़ार करोड़ की लागत से नए संसद भवन और उसके आसपास के इलाके को आलीशान बनाया जा रहा है। संसद भवन का संसदीय इस्तेमाल शून्य सरीखा हो गया है, उसके लिए 20 हज़ार करोड़ की नई शान शौकत! यह जिसे हक्का-बक्का नहीं करती, उन्हें वोट डालने का भी कोई हक नहीं होना चाहिए। इस देश में आज ऑक्सीजन की कमी से लोग सडक़ों पर मर रहे हैं, योगीराज के रामराज में सरकारी अस्पताल के बाहर एक महिला, ऑक्सीजन के बिना मरते अपने कोरोनाग्रस्त पति को बचाने के लिए मुंह से सांसें देने की कोशिश में विधवा हो जाती है. लेकिन हिंदुस्तान नाम के दम तोड़ते इस लोकतंत्र के मुंह से मुंह लगाकर भला कौन ऑक्सीजन दे सकते हैं ? वोटर तो पहले ही खुद ही मुर्दा हो चुके हैं।
पिछले कुछ दिनों से हिंदुस्तान की खबरों में सतह पर ही इतना कुछ तैर रहा था कि लिखने के लिए कोई मुद्दा ढूंढना मुश्किल नहीं था। लेकिन सतह से नीचे, आंखों से सीधे-सीधे न दिखने वाले भी बहुत से ऐसे मुद्दे रहते हैं जिनको देखना-समझना और उन पर लिखना जरूरी होता है। ऐसा ही एक मुद्दा हिंदुस्तान में आज मीडिया में है, और मीडिया के बारे में भी है। इसे लिखना न महज मीडिया के बारे में लिखना होगा, बल्कि लोकतंत्र के बाकी पहलू भी इससे जुड़े हुए हैं, और उन पर लिखना भी हो जाएगा।
अभी जिस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ मुख्यमंत्रियों के साथ एक वीडियो कॉन्फ्रेंस की, और उसके बाद टीवी की खबरों में केवल एक खबर लगातार छाई रही कि किस तरह दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने वीडियो कॉन्फ्रेंस का अपने सिरे से जीवंत प्रसारण कर दिया था। केंद्र सरकार से लेकर, कुछ मुख्यमंत्रियों तक ने इसकी खूब आलोचना की और दो दिन मीडिया में केजरीवाल की यह नाजायज कहीं जा रही हरकत, प्रोटोकॉल के उल्लंघन के रूप में छाई रही। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो इस बात को लेकर टूट ही पड़ा कि किस तरह केजरीवाल ने प्रधानमंत्री के साथ बैठक के प्रोटोकॉल को तोड़ा है। यह एक अलग बात है कि बैठक के चलते हुए ही केजरीवाल ने इस बात के लिए मोदी से भरपूर माफी मांग ली थी। लेकिन देश में कोरोना मोर्चे पर हालत को लेकर हुई इस बैठक के बाद तमाम खबरें केवल प्रोटोकॉल के इस उल्लंघन को लेकर बनती रहीं, मानो देश में कोरोना के खतरे से अधिक बड़ा प्रोटोकॉल पर यह खतरा था।
सतह के नीचे की चीजों को पढऩे या उनका अंदाज लगाने वाले लोगों ने इसे केजरीवाल की पुरानी कई हरकतों और तरकीबों से जोडक़र देखा और अंदाज लगाया कि देश की खतरनाक नौबत पर प्रधानमंत्री की जिस बैठक के बाद आमतौर पर केंद्र सरकार की नाकामी आलोचना के केंद्र में होनी चाहिए थी, वह आलोचना तो कहीं हो ही नहीं पाई क्योंकि केजरीवाल ने प्रोटोकॉल तोड़ दिया था। लोगों का यह अंदाज है कि केजरीवाल ने सोच-समझकर ऐसी हरकत की जिसे कि बाद में सोचे-समझे मीडिया ने सोच-समझकर शाम की सुर्खी बना दिया और केंद्र सरकार की नाकामी की बात तो आई-गई ही हो गई। अब यह बात सच है या नहीं है, यह तो केजरीवाल और मोदी ही बता सकते हैं, लेकिन सार्वजनिक जीवन में ऐसे बहुत से मौके आते हैं जब किसी एक खबर को दबाने के लिए उसी वक्त कोई दूसरी खबर ऐसी चटपटी खड़ी कर दी जाती है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो उस पर टूट ही पड़ता है। फिर आज तो देश का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मोटे तौर पर मोदी सरकार के साथ सिंक्रोनाइज्ड स्विमिंग करते दीखता है।
प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ऐसे फर्क को लेकर पिछले कुछ महीनों में हमने इसी जगह एक से अधिक बार लिखा है कि किस तरह बीते कल के अखबारों को आज के मीडिया नाम के एक व्यापक शब्द के तहत लाया गया है, और धीरे-धीरे अखबार नाम का शब्द, न्यूजपेपर नाम का शब्द, गायब कर दिया गया और केवल मीडिया शब्द रह गया। आज इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और अखबार, और एक किस्म से डिजिटल मीडिया भी, इस मीडिया शब्द के तहत आ गए हैं और अखबारों की अपनी एक पेशेवर पहचान गायब हो गई है। आज इस देश में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के हाल को देखें तो लगता है कि बीते कल का प्रिंट मीडिया, यानी अखबार एक बेहतर पत्रकारिता करते थे जिसकी विश्वसनीयता अधिक थी, जिसे लोग अधिक गंभीरता से लेते थे, और जिसे तोडऩा-मरोडऩा इतना आसान नहीं था जितना कि आज टीवी चैनलों के साथ देखने मिलता है.
टीवी चैनल अपने प्रसारण को लेकर और प्रसारण के बाद सोशल मीडिया पर अपने लोगों की मौजूदगी से अपना जो आक्रामक तेवर दिखाते हैं, उसके भीतर एक बड़ी सधी हुई सोच दिखती है। अभी जब केंद्र सरकार एकदम से आलोचना का शिकार हो रही थी, देश और दुनिया के अखबार कोरोना के बेकाबू होने को लेकर भारत की मोदी सरकार के खिलाफ काफी कुछ लिख रहे थे, उस वक्त यह देखना दिलचस्प था कि किस तरह हिंदुस्तान के अधिकतर समाचार चैनलों ने एक ही दिन एक ही शब्द को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया कि हिंदुस्तान में व्यवस्था नाकामयाब हो गई है, सिस्टम फेल हो गया है। ये शब्द ‘सिस्टम’ और ‘व्यवस्था’ बरसों से कहीं चर्चा में नहीं थे, लेकिन एकाएक जब आलोचना का केंद्र मोदी के इर्द-गिर्द हो चुका था, तब मानो मोदी के विकल्प के रूप में व्यवस्था नाम का शब्द छांटा गया और बहुत सारे चैनलों के संपादकों और चर्चित एंकरों ने लिखना शुरू किया कि किस तरह व्यवस्था फेल हो गई, किस तरह सिस्टम फेल हो गया। नतीजा यह हुआ कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का फोकस प्रधानमंत्री के इर्द-गिर्द से हटकर किसी एक ऐसी अदृश्य ‘व्यवस्था’ पर फोकस हो गया जिसे किसी ने देखा सुना ही नहीं था और जो मानो भारत सरकार से परे की कोई चीज हो। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की ऐसी व्यापक सुनियोजित कोशिश उसे प्रिंट मीडिया से बिल्कुल अलग-थलग कर देती है. और यहां पर हमारी पिछले कई महीनों की यह वकालत जायज साबित होती है कि अखबारों को अपने-आपको मीडिया शब्द से बाहर लाकर अखबार या न्यूज़पेपर शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए, जो कि उनकी असली पहचान है, जो कि एक इज्जतदार पहचान भी है।
अभी चार दिन पहले हिंदुस्तान के एक नामी-गिरामी पत्रकार रहे हुए और पिछली यूपीए सरकार के वक्त पद्मश्री हासिल कर चुके, और मौजूदा एनडीए सरकार के तहत राज्यसभा में जाने की कोशिश के लिए चर्चित एक पत्रकार ने जिस तरह देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निलंबित करने की वकालत की है उस पर हम इसी जगह काफी लंबा लिख चुके हैं। लेकिन यह बात समझने की जरूरत है कि देश के किसी रद्दी अखबार के संपादक का भी ऐसा फतवा देने का हौसला नहीं हो सकता था, कागज पर छपने वाले शब्दों की एक अलग इज्जत होती है जो कि अखबारों से अलग होने के बाद महत्व खो देती है। इसलिए देश में अखबारों को अपनी पुरानी इज्जतदार और विश्वसनीय पहचान पाने के लिए अपने को मीडिया नाम की विशाल छतरी के साए से बाहर निकाल लेना चाहिए। आज जिस तरह केंद्र सरकार को आलोचना से बचने के लिए पूरे मीडिया पर सोशल मीडिया के रास्ते दबाव बनाया जा रहा है कि मीडिया सकारात्मक खबरें दिखाए। क्या कोई टीवी के पहले के अखबारों को ऐसी नसीहत दे सकते थे कि सच के बजाय सकारात्मक दिखाएँ? ऐसे वक्त सच की जगह ‘सकारात्मक’ होने की नसीहत, सच की जगह ‘सरकारात्मक’ होने की नसीहत है, और कुछ नहीं।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
उत्तरप्रदेश के कानपुर की खबर है कि वहां सरकारी आंकड़े एक दिन में कोरोना से मरने वालों की संख्या किसी दिन तीन बता रहे हैं, तो किसी दिन छह। और वहां के स्थानीय अखबारों का कहना है कि वहां के अलग-अलग श्मशान घाटों पर अभी एक दिन में करीब पौने पांच सौ अंतिम संस्कार हुए और इनमें से अधिकतर कोरोना-मौतों के हैं। लोगों का मानना है कि अधिकतर मौतें कोरोना से हुई हैं, लेकिन सरकार उन्हें उस तरह दर्ज नहीं कर रही है। दूसरी तरफ गुजरात की खबरें लंबे समय से आ रही हैं कि वहां की सरकार ने कोरोना मरीजों की कोई भी और दिक्कत होने पर उनकी मौत को कोरोना-मौत की तरह दर्ज करना बंद कर दिया है, और सिर्फ उन्हीं मौतों को कोरोना गिना जा रहा है जहां मरीजों को और कोई भी दिक्कत नहीं थी। जाहिर है कि मौतों के आंकड़े पूरी तरह फर्जी हैं, इनसे ना असली तस्वीर सामने आ रही है, और ना ही हालात का कोई इलाज निकल सकेगा। पूरी दुनिया का लंबा तजुर्बा है कि किसी समस्या के समाधान का रास्ता, उस समस्या के अस्तित्व को मानने के बाद ही निकल सकता है। आज इस देश की सरकार और बहुत से प्रदेशों की सरकारें मुर्दों को ठीक से दफन करने के बजाए सच को दफन करने में लगी हुई है, सच को जलाकर पंचतत्व में में विलीन कर देना चाहती हैं ताकि उसका अस्तित्व ही ना दिखें।
आज देश में ऑक्सीजन की कमी को लेकर सच को बुरी तरह छुपाया जा रहा है, कोरोना की वैक्सीन को लेकर हकीकत छुपाई जा रही है, कोरोना के इलाज के लिए जरूरी समझी जाने वाली दवाओं की हकीकत छुपाई जा रही है, और अस्पताल में मरीजों की गिनती, मरघटों में लाशों की गिनती, इन सबको भी छुपाया जा रहा है। आज दुनिया के कई अखबारों में हिंदुस्तान के बारे में यह खबर छपी है कि भारत की सरकार ने एक सबसे लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर को यह आदेश दिया है कि कोरोना तैयारियों में सरकारी कमी के बारे में लिखने वाले लोगों की ट्वीट ब्लॉक की जाएं। बहुत से भरोसेमंद अख़बारों ने एक अंतरराष्ट्रीय प्लेटफार्म के हवाले से लिखा है कि ट्विटर ने वहां जानकारी दाखिल की है कि भारत सरकार ने उसे किन-किन लोगों की ट्वीट रोकने के लिए कहा है। दुनिया की एक बड़ी प्रतिष्ठित पत्रिका, इकोनॉमिस्ट ने यह लिखा है भारत में कोरोना के आंकड़े, उस मोर्चे की सरकारी तैयारियों की जानकारी, और उससे मौतों के आंकड़े किस तरह छुपाए जा रहे हैं। इस पत्रिका का अंदाज है कि ये आंकड़े सरकार द्वारा पेश किए गए आंकड़ों से 10-20 गुना अधिक भी हो सकते हैं।
यह पूरा सिलसिला बहुत ही खतरनाक है। लोगों को याद होगा कि जब आपातकाल लगा था और खबरें सेंसर होती थीं, तो छत्तीसगढ़ के रायपुर में उस वक्त के सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल की वजह से दूरदर्शन केंद्र बन रहा था। उसे बनाते हुए एक निर्माण हादसा हुआ था जिसमें 5 या 7 मजदूर मारे गए थे। ऐसे हादसे कहीं भी हो सकते थे और उनसे मंत्री की कोई सीधी बदनामी भी नहीं होती थी, लेकिन सरकार इतनी डरी-सहमी थी कि उसने हादसे की उस खबर को भी सेंसर कर दिया था। ऐसी सेंसरशिप का खतरा यह था कि उस वक्त उस किस्म की सरकारी कंस्ट्रक्शन-लापरवाही और भी मामलों में हो सकती थी, और उस पर कोई रोक नहीं लग रही थी। आज जब किसी देश या प्रदेश में कोरोना संक्रमण के आंकड़ों को छुपाया जा रहा है, कोरोना मौतों को छुपाया जा रहा है, अंतिम संस्कार को छुपाया जा रहा है, ऑक्सीजन की कमी को छुपाया जा रहा है तो जाहिर है कि कोरोना वायरस से निपटा नहीं जा सकता। आज दिल्ली के कई सबसे बड़े और सबसे महंगे अस्पतालों के मुखिया टीवी कैमरों के सामने रोते हुए दिख रहे हैं कि ऑक्सीजन न होने से वे अपने मरीजों को बचा नहीं पा रहे हैं। देश के कई प्रदेशों में अस्पताल मरीजों के घरवालों से पहले यह लिखवा रहे हैं कि अस्पताल में ना बिस्तर है, न ऑक्सीजन, है फिर भी वे उन्हें वहां भर्ती कर रहे हैं और जिम्मेदारी उनकी खुद की होगी।
इस देश की सबसे बड़ी अदालत ने पिछले एक-दो बरस से अधिक वक्त से यह आदत बना ली है कि जब सांप निकल जाता है तब जज लाठी लेकर लकीर पर टूट पड़ते हैं। ऐसा ही पिछले बरस प्रवासी मजदूरों की वापसी के समय हुआ, लॉकडाउन के समय हुआ, और अभी ऑक्सीजन की कमी, इलाज की बदइंतजामी को लेकर भी हो रहा है। जाते हुए मुख्य न्यायाधीश जस्टिस शरद बोबड़े जिस शहीद के अंदाज में कोरोना पर सरकार को नोटिस जारी कर रहे हैं, खुद होकर केस की सुनवाई शुरू कर रहे हैं, और सरकार को जवाब देने के लिए जिस तरह से मौका दे रहे हैं, उसे देखकर यह शक होता है कि क्या यह अदालती दखल किसी के काम की है? हमारे पाठकों को याद होगा कि हमने 10-15 दिन पहले इसी जगह पर लिखा था कि अदालतों ने कोरोना से संक्रमित जनता की फिक्र करने के बजाए सुप्रीम कोर्ट के कुछ कर्मचारियों के पॉजिटिव निकल जाने पर अपने आप को बंगलों में सुरक्षित बंद कर लिया है और बंगलों से ऑनलाइन सुनवाई शुरू कर दी है। आज वही हालत है कि जिस वक्त देश की जनता के बीच लाश जलाने का इंतजाम नहीं था, ऑक्सीजन का इंतजाम नहीं था, उस वक्त तो जज अपनी ऊंची-ऊंची मीनारों पर अछूते बैठे हुए थे, और जब देश में कोरोना-विस्फोट हो चुका था, तो जाते हुए चीफ जस्टिस अपने आखिरी 3 दिनों में सरकार को नोटिस जारी कर रहे हैं। यह सिलसिला अच्छा नहीं है। किसी लोकतंत्र में अगर देश की सबसे बड़ी अदालत का रुख भी सरकार के साथ शास्त्रीय संगीत में जुगलबंदी सरीखा हो जाए, एक के बाद एक अनगिनत मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले या उसके आदेश, ऐसे लगने लगें कि वह सरकार की हिमायती है, तो ऐसी जनधारणा अदालत की इज्जत नहीं बढ़ाती। अदालत की सरकार के बारे में क्या सोच है, वह सोच क्यों है, यह अदालत ही जाने, हम उस बारे में कोई अटकल लगाना नहीं चाहते, लेकिन हम इतना जरूर चाहते हैं कि जब देश में आग लगी हुई रहे तब सुप्रीम कोर्ट के जज अपने आपको अपने सुरक्षित बंगलों में बंद करके रखना काफी ना मानें। लोकतंत्र में देश की सबसे बड़ी अदालत की जिम्मेदारी इससे कहीं अधिक होती है।
फिलहाल केंद्र सरकार, और कई प्रदेशों की सरकारें कोरोना मोर्चे की अपनी लापरवाहियों को उस तरह छुपा रही हैं, जिस तरह ट्रम्प के अहमदाबाद आने पर दीवार उठाकर झुग्गियों को छुपाया गया था. शायद ऐसी ही हरकत का साथ देने के लिए एक नामी, पद्मश्री पत्रकार ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्र निलंबित करने का फतवा कोर्ट और केंद्र सरकार को दिया है !(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
किसी एक घटना को लेकर उस पर संपादकीय लिखा जाए या नहीं यह दुविधा कभी-कभी रहती है। और कल भी छत्तीसगढ़ के एक नए जिले की एक खबर को लेकर यह दुविधा थी, लेकिन वहां से कल ही दो ऐसी खबरें और आ गईं कि जिनसे लगा कि इस जिले में कोरोना को लेकर लोगों की सोच और जागरूकता के स्तर पर लिखने की जरूरत है। यह जिला छत्तीसगढ़ का एक नया बना हुआ जिला जीपीएम है, गौरेला पेंड्रा मरवाही नाम का यह जिला छत्तीसगढ़ का सबसे लंबे नाम वाला जिला भी है और आदिवासी आबादी का जिला भी है। छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी इसी इलाके के रहने वाले थे। यहां पर पहली घटना सामने आई कि जब एक ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यकर्ता, जिसे छत्तीसगढ़ में मितानिन कहा जाता है, वह लोगों को टीकाकरण के बारे में प्रेरित करने गई थी, और उसे लोगों ने वहां से मारकर भगा दिया क्योंकि लोग टीकाकरण पर भरोसा नहीं कर रहे थे। इसी जिले की एक अलग खबर यह है कि एक नौजवान एक कोरोना सेंटर में भर्ती किया गया था, जहां पर उसके परिवार के कुछ और लोग भी भर्ती थे, वह वहां से गायब हो गया था और अभी रेल लाइन के पास उसकी लाश मिली है। ऐसा अंदाज लगाया जा रहा है कि कोरोना की दहशत में जाकर उसने आत्महत्या कर ली है। एक तीसरी घटना इसी जीपीएम जिले से आई जहां पर छत्तीसगढ़ पुलिस का एक सब इंस्पेक्टर वर्दी में, प्लास्टिक की लाठी लिए हुए, गांव के लोगों को टीकाकरण के लिए जाने को मजबूर करते दिख रहा है, और गांव की महिलाएं उसी वीडियो में यह कहते हुए सुनाई पड़ रही हैं कि टीका लगवाना या न लगवाना उनका अधिकार है, और पुलिस इसके लिए जबरदस्ती नहीं कर सकती। यह वीडियो खासा लंबा है और यह बहस देर तक चलती है जिसमें पुलिस सब इंस्पेक्टर लगातार यह कहते हुए दिखता है कि टीका तो लगवाना ही पड़ेगा और पूरे गांव को चलना पड़ेगा। ऐसे में गांव की महिलाएं और वहां के आदमी लगातार पुलिस के वीडियो के जवाब में वीडियो बना रहे हैं और विरोध भी कर रहे हैं, अपने अधिकार भी गिना रहे हैं।
इन तीन घटनाओं को देखें तो यह साफ दिखता है कि इस आदिवासी बहुल जिले में लोगों की टीकाकरण के खिलाफ सोच बनी हुई है, कहीं वे टीकाकरण की प्रेरणा देने के लिए आई हुई मितानिन को मार रहे हैं, तो कहीं पुलिस का विरोध कर रहे हैं, और शायद ऐसे माहौल को देखते हुए ही पुलिस अपने दायरे से बाहर जाकर लोगों को लाठी के बल पर टीका लगवाने की कोशिश कर रही है जो कि सरकार के नियमों के बिल्कुल खिलाफ है। लेकिन शायद सरकारी अमले का यह सोचना रहता है कि जिस कोरोना की वजह से पुलिस सहित सभी की जिंदगी खतरे में पड़ी हुई है, उससे लोगों को बचाने के लिए कुछ जबरदस्ती करके भी लोगों का टीकाकरण करवाया जाना चाहिए। और तीसरी घटना बताती है कि लोगों में कोरोना के इलाज या कोरोनावायरस में भर्ती होने के खिलाफ किस तरह की दहशत फैली हुई है।
अब सवाल यह है कि टीकाकरण के खिलाफ तो देश के बहुत से पढ़े-लिखे पत्रकार भी रात-दिन सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं, और टीकों के असर पर सवाल खड़े कर रहे हैं। कुछ जाने-माने पेशेवर पत्रकारों ने भी ट्विटर पर यह लिखा है कि टीके लगवाने के बाद भी 26 हजार लोग देश में अब तक कोरोनाग्रस्त हो चुके हैं। इसके जवाब में एक दूसरे वरिष्ठ पत्रकार ने यह याद दिलाया है कि यह 26 हजार लोग उन 13.50 करोड़ लोगों में से हैं जिन्हें टीका लग चुका है। जब इतनी बड़ी संख्या में टीका लगवा चुके लोगों को देखें तो उनके मुकाबले 26 हजार लोग कोई मायने नहीं रखते हैं, और बाकी लोग अगर पॉजिटिव नहीं हुए हैं तो वह बात अधिक मायने रखती है। टीकाकरण को लेकर इसी जगह पर हमने कुछ दिन पहले भी यह लिखा था कि इसका विरोध करने के पहले यह सोचने की जरूरत है कि टीके से अगर कुछ लोगों को नुकसान भी हो रहा है तो टीके से लोगों को ऐसा फायदा भी हो रहा है कि पहले तो वे कोरोना संक्रमित होने से बच रहे हैं, और अगर हो भी जाते हैं तो संक्रमण के लक्षण उन पर बहुत हल्के रहते हैं, और उनकी जान खतरे में नहीं आती। इस बात को देखते हुए ऐसा लगता है कि टीके को एक राजनीतिक मुद्दा बनाना या केंद्र सरकार की कमजोर होती साख के साथ टीके की साख को भी कमजोर मानकर चलना जायज बात नहीं है। यह टीका ना तो केंद्र सरकार ने विकसित किया है, न ही किसी नेता का इसमें कोई योगदान है। ये टीके वैज्ञानिकों ने बनाए हुए हैं और इनको बनाने के पीछे इतना लंबा तजुर्बा लगता है जो कि 2-4 सरकारों के कार्यकाल में खड़ा नहीं हो जाता। इसलिए मोदी को नापसंद करने वाले लोगों का, मोदी के कार्यकाल में वैज्ञानिकों के बनाए हुए टीकों को भी नापसंद करना सही बात नहीं होगी। और टीकों की विश्वसनीयता को बिना किसी वैज्ञानिक आधार के बिना किसी सबूत के महज आशंका के आधार पर या अपने पूर्वाग्रह के आधार पर, अपनी नापसंदगी के आधार पर खारिज कर देना ठीक नहीं है।
और फिर देश का एक हिस्सा ऐसा भी है जो कि परंपरागत ज्ञान या परंपरागत अंधविश्वास पर अधिक भरोसा करता है और वहां पर परंपरागत दवाओं से, जादू से, या किसी ताबीज और टोटके से इलाज करने की परंपरा है। आदिवासी इलाकों में या पिछड़े इलाकों में परंपरागत तरीके से इलाज करने वाले लोग या जादू टोने से इलाज करने वाले लोग भी ऐसे टीकों का विरोध करवाते हैं, और लोग उनके झांसे में आ जाते हैं। ऐसे में सरकार को वहां पर टीके की विश्वसनीयता बनाना कुछ मुश्किल पड़ता है। और जीपीएम जिले में पुलिस का एक छोटा सा अधिकारी जिस तरह से लोगों को मुफ्त टीका लगवाने के लिए जोर डालते दिख रहा है, वह अतिउत्साह अधिक है क्योंकि उसकी कोई अवैध कमाई तो इससे जुड़ी हुई नहीं है, वह गांव के लोगों से टीके के लिए कोई वसूली या उगाही करते नहीं दिख रहा है, वह मुफ्त टीका लगवाने की ही बात कर रहा है।
लेकिन महानगरों में बसे हुए टीकाविरोधी पत्रकारों से लेकर, पिछड़े हुए भीतरी आदिवासी इलाकों के टीकाविरोधी गांव तक एक बात एक सरीखी है कि वे टीके की विश्वसनीयता को गिराना चाहते हैं। हम टीकों को लेकर बाजार में चल रहे दाम के विवाद, केंद्र और राज्य के बीच चल रहे अधिकारों के या जिम्मेदारियों के विवाद से परे टीकों को पहली नजर में और हमारी सीमित समझ में लोगों के फायदे का मानकर चल रहे हैं। जब तक वैज्ञानिकों और जानकारों से नुकसान का सुबूत नहीं आएगा तब तक हम टीके लगवाने के हिमायती हैं। इसके लिए सोशल मीडिया पर भी लोगों में जागरूकता की जरूरत है, और सोशल मीडिया से बहुत दूर अंधविश्वास में जी रहे या परंपरागत ज्ञान पर आश्रित तबकों में भी टीकों के असर को लेकर विश्वसनीयता बनाने की जरूरत है। यह काम लाठी के बल पर नहीं हो पाएगा क्योंकि आपातकाल में सबने देखा हुआ है कि नसबंदी के फायदे तो बहुत थे लेकिन उसे जिस तरह लोगों के सिर पर पुलिस की लाठी के बल पर लादा गया था उससे वह हिंदुस्तान का सबसे बड़ी नफरत का शिकार सरकारी कार्यक्रम हो गया था। चूंकि छत्तीसगढ़ में ऐसी एक ही घटना हुई है इसलिए हम उसे कोई प्रतिनिधि-घटना मानकर पूरे प्रदेश की पुलिस को कसूरवार नहीं मान रहे, लेकिन इतना जरूर है कि पुलिस का एक सब इंस्पेक्टर अगर ऐसे अज्ञान का शिकार है कि टीके के लिए लोगों के साथ जबरदस्ती करनी है, तो ऐसे अज्ञान को पुलिस के, और बाकी सरकारी अमले के बीच से खत्म करने की भी जरूरत है। यह सिलसिला जल्द ही उजागर हो गया इसलिए आज सरकार के पास इसमें सुधार की गुंजाइश है। छत्तीसगढ़ ऐसा अकेला या अनोखा प्रदेश नहीं होगा जहां टीकाकरण को लेकर सरकारी अमले के किसी व्यक्ति में ऐसी गलतफहमी हो और अपनी राष्ट्रीय जिम्मेदारी को लेकर ऐसी खुशफहमी हो, इसलिए बाकी लोगों के सामने भी यह एक मिसाल है कि किस तरह ऐसे सामाजिक खतरे घटाए जा सकते हैं। देशभर में जगह-जगह से ऐसी खबरें आ रही हैं कि कोरोना मरीज कहीं किसी इमारत से कूदकर, तो कहीं किसी और तरीके से आत्महत्या कर रहे हैं। आज समाज में धार्मिक या सामाजिक नेताओं का कोई असर है, तो उन्हें अपने-अपने दायरे में लोगों को टीकाकरण के लिए, इलाज के लिए, जागरूक करना चाहिए और दहशत कम करने की कोशिश भी करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिंदी मीडियम एक जाने-माने पत्रकार रहे आलोक मेहता ने कल एक अजीब सा ट्वीट किया है जिसका स्क्रीनशॉट जब सोशल मीडिया पर चारों तरफ देखने मिला तो पहली नजर में लगा कि यह गढ़ा हुआ फर्जी और फेक ट्वीट है, कोई भी समझदार और जिम्मेदार नागरिक, और खासकर एक पत्रकार (या भूतपूर्व पत्रकार) कैसे ऐसी कोई बात लिख सकता है। लेकिन एक दिन गुजर जाने पर जब आलोक मेहता ने यह ट्वीट अपने पेज से न हटाया है, न ही किसी तरह की शरारत की बात कही है, तो यह मानने की कोई वजह नहीं है कि यह फेक है, या उनका अकाउंट हैक करके किसी और ने लिखा है। 22 अप्रैल को उन्होंने ट्वीट किया कि जब पूरा भारत एक गंभीर संकट में है तो गैर जिम्मेदार नेताओं, पार्टियों, और मीडिया के लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुछ महीनों के लिए निलंबित क्यों नहीं किया जाता? उन्होंने सवाल उठाया कि क्या अदालतों और सरकार के कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है? इसके साथ ही उन्होंने एक दूसरी ट्वीट में किसान आंदोलन के खिलाफ लिखा उन्हें आढ़तिया, दलाल और लुटेरा कहा, और यह भी सलाह दी कि उन्हें गिरफ्तार करके जेल में क्यों नहीं डाला जा रहा?
खैर, किसान आंदोलन के बारे में उनका जो सोचना है उस पर हम अभी नहीं जाते, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निलंबित करने की जो वकालत उन्होंने की है उस पर जरूर गौर करना चाहिए। और जब एक ऐसा पत्रकार यह वकालत करता है जो कि कई अखबारों या पत्रिकाओं का संपादक रह चुका है, नियमित लेखक है, टीवी की बहसों में जाना-पहचाना चेहरा है, और उनके खुद के लिखे गए परिचय के मुताबिक वे पद्मश्री हैं, और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष रह चुके हैं। यह सारा परिचय पहली नजर में ऐसा कुछ भी नहीं सुझाता कि ऐसा कोई व्यक्ति अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निलंबित करने की मांग करते हुए सरकार और अदालत को चुनौती दे कि क्या उसके पास ऐसा करने के संवैधानिक अधिकार नहीं है? और खासकर आज के कोरोना खतरे, मुसीबत के संदर्भ में जब यह मांग की जाए, तो वह और अधिक हैरान करती है।
उनके पद्मश्री होने पर हमें कोई हैरानी नहीं है क्योंकि केंद्र की सत्ता पर बैठी पार्टी अपनी पसंद से वैचारिक और सैद्धांतिक आधार पर बहुत से लोगों को पद्मश्री देती है जिनमें से बहुत से पत्रकार भी होते हैं। अब यह तो पत्रकार के अपने निजी सिद्धांत रहते हैं जो उसे यह सुझाएँ कि एक पत्रकार को राजकीय सम्मान लेना चाहिए, या नहीं। हम उनके पद्मश्री होने पर भी ना तो कोई हैरानी जाहिर करना चाहते ना हमें उसमें कोई आपत्तिजनक बात लगती है क्योंकि बहुत से पत्रकार ऐसा सम्मान हासिल करते हैं जो कि उनकी खुद की पसंद और उनके खुद के सिद्धांतों का एक सुबूत होता है, लेकिन वह आज की बातचीत में महत्वहीन है। उनके परिचय का दूसरा पहलू एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया का अध्यक्ष रहना है। देश में पत्रकारों की यह एक ऐसी संस्था है जिसने बीते बरसों में बहुत से मौकों पर नौबत आने पर सरकार के साथ तनातनी के तेवर भी अख्तियार किए हैं, और कुछ टकराव से भी कतराई नहीं है। ऐसी संस्था में अध्यक्ष रहने वाले व्यक्ति को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का महत्व तो आम पत्रकारों से कुछ अधिक होना चाहिए। लेकिन इसमें कुछ कमी दिखाई पड़ रही है। आज जब देश में कोई सा भी तबका, एक वक्त आपातकाल लगाने वाली कांग्रेस, या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खत्म करने में दिलचस्पी रखने वाली कुछ दूसरी पार्टियां भी, जब कोई भी ऐसी कोई जरूरत महसूस नहीं कर रही हैं, खासकर कोरोना के संदर्भ में, देश की किसी अदालत ने भी मीडिया पर गैरजिम्मेदारी की कोई टिप्पणी नहीं की है, तब बड़े-बड़े ओहदों पर रह चुके आलोक मेहता ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निलंबित करने के फतवे की अपनी ट्वीट में सुप्रीम कोर्ट, प्रधानमंत्री, और कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को भी टैग किया है। मतलब यही है कि वे अपनी गंभीरता को इन तीनों तक पहुंचाना चाहते हैं। यह महज बोलचाल में लिखी गई कोई हलकी बात नहीं है, वे उस पर अमल भी देखना चाहते हैं।
आज देश में केंद्र सरकार की लापरवाही या गैर जिम्मेदारी से, या किसी राज्य सरकार की लापरवाही और गैरजिम्मेदारी से कोरोना के मोर्चे पर तबाही चल रही है, यह बात सबसे अधिक तो मीडिया के एक हिस्से में सामने आ रही है, सोशल मीडिया पर सामने आ रही है। अब नेताओं में बहुत से ऐसे नेता भी हैं जो जिम्मेदारी के साथ सच बोल रहे हैं, हकीकत सामने ला रहे हैं। पत्रकारों में भी बहुत से हैं जो सरकारी गैरजिम्मेदारी या लापरवाही के सुबूत सामने रखते हुए उन्हें अपना काम सुधारने को मजबूर कर रहे हैं या कम से कम उसकी कोशिश तो कर ही रहे हैं। क्या यह मौका अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाने का है? उसे निलंबित करने का है? ऐसी बात तो आपातकाल के बाद से आज तक किसी सबसे अधिक तानाशाही की सोच ने भी कभी नहीं की है, और ऐसे में एडिटर्स गिल्ड के अध्यक्ष रहे हुए व्यक्ति की यह बात एक बड़ा बुरा सदमा पहुंचाती है, और उसकी लोकतांत्रिक समझ की बुनियाद पर एक सवाल भी खड़ा करती है। हमारा आलोक मेहता से ना कोई परिचय है न कोई वास्ता कभी उनसे पड़ा। न उनसे दोस्ती है न दुश्मनी। इसलिए पूरी तरह तटस्थ भाव से, उनसे किसी लाग-लपेट के बिना यह बात लिखना जरूरी लग रहा है कि हिंदुस्तान में आज ऐसी सोच एक खतरे से कम नहीं है क्योंकि यह नेताओं को एक ऐसा रास्ता सुझाने की कोशिश कर रही है जो उनको किसी भी दिन सुहा भी सकता है। आपातकाल की यादें जरूर लोगों के दिमाग में ताजा हैं, लेकिन आपातकाल जैसी असीमित ताकतों से नेताओं को कोई परहेज होगा ऐसा भी नहीं लगता है। अगर तानाशाही की तोहमत के बिना, आपातकाल जैसे आरोपों के बिना, वैसे अधिकार अगर किसी नेता, सरकार, या पार्टी को मिल जाएं तो भला किसे नहीं सुहाएंगे? इसलिए आज जब ऐसी कोई सोच सार्वजनिक रूप से देश की सबसे बड़ी अदालत और देश की सबसे बड़ी सरकार के सामने रखी जा रही है, उन्हें कोंचा जा रहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता निलंबित कर देनी चाहिए, तो यह एक बहुत ही खतरनाक नौबत है। यह लोकतंत्र के लिए भी बहुत ही खतरनाक सोच है।
आलोक मेहता के ट्विटर पेज पर कई लोगों ने उनके बारे में आलोचना की कई बातें कही हैं, कई लोगों ने उन्हें पद्मश्री मिलने को लेकर सत्ता से उनके घरोबे की बात लिखी है, कई लोगों ने उनकी राज्यसभा जाने की हसरत की बात लिखी है, लेकिन हम मुद्दे की बात से हटकर व्यक्ति की बात पर आना नहीं चाहते। कई पत्रकार हुए हैं जिन्होंने पद्मश्री लेना ठीक समझा है और कल पत्रकार हुए हैं जो राजनीतिक दलों के सहयोग से राज्यसभा में गए हैं। इसलिए हम उस पहलू को लोकतंत्र का दुश्मन नहीं मानते, यह लोगों की अपनी प्राथमिकता और अपने सिद्धांतों की बात है। लेकिन जब लोकतंत्र को खत्म करके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को निलंबित करने का फतवा दिया जा रहा है, तो उस पर लोगों को गौर करना चाहिए, उस पर लोगों को सोचना चाहिए। आज के वक्त जब कोरोना पर लोगों की, संगठनों की, और मीडिया की लगातार निगरानी की जरूरत है लगातार कमजोरियों को उजागर करने की जरूरत है, उस वक्त अगर कोई ऐसी सेंसरशिप की वकालत करके उसे लागू करने की बात करते हैं तो उसके पीछे के अलोकतांत्रिक खतरों को समझना चाहिए। हम सोचने वाले लोगों को सोचने के लिए यह मुद्दा दे रहे हैं, आलोक मेहता की निंदा करना हमारा मकसद नहीं है क्योंकि उनका भारतीय लोकतंत्र में आज वैसा कोई महत्व नहीं है। लेकिन हम इस बात पर चर्चा जरूर करना चाहते हैं कि बिना किसी मौके के, बिना किसी खतरे के तानाशाही का यह फतवा क्यों दिया जा रहा है? क्या यह हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के बर्दाश्त को टटोलने की कोई कोशिश है?
भारतीय लोकतंत्र में जनता की दिक्कतें बड़ी अदालतों के जितने करीब रहती हैं उतनी ही अधिक उभरकर दिखती हैं, और देश की राजधानी दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट भी है, और दिल्ली का हाईकोर्ट भी, वहां पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, अल्पसंख्यक आयोग जैसी देश की सबसे ताकतवर संवैधानिक संस्थाएं स्थापित हैं। इसलिए जब दिल्ली पर कोई दिक्कत आती है तो ये अदालतें और ये दूसरी संस्थाएं सबसे पहले उसकी तरफ गौर करती हैं। इस व्यवस्था का नतीजा यह निकला कि कल दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली के अस्पतालों में भर्ती हजारों मरीजों की जान खतरे में देखते हुए रात तक सुनवाई की, और केंद्र सरकार को ऑक्सीजन की कमी तुरंत दूर करने का हुक्म दिया। लेकिन जैसा कि जाहिर है दिल्ली हाईकोर्ट का कार्य क्षेत्र दिल्ली तक सीमित है, और यह अर्जेंट याचिका दिल्ली के एक सबसे बड़े और महंगे निजी अस्पताल समूह की ओर से लगाई गई थी कि उसके सैकड़ों मरीजों के लिए बस कुछ घंटों की ऑक्सीजन बाकी है। बड़े वकील थे, मामले की तुरंत सुनवाई हुई, और केंद्र सरकार ने आनन-फानन यह वादा किया कि उसने दिल्ली के लिए ऑक्सीजन का कोटा बढ़ा दिया है और वह ऑक्सीजन की कमी नहीं होने देगी। लेकिन अदालत ने केंद्र सरकार से इस आश्वासन के पहले जो कहा उन शब्दों को न सिर्फ दिल्ली के लिए केंद्र सरकार की जिम्मेदारी के तौर पर, बल्कि पूरे देश के लिए केंद्र सरकार की जिम्मेदारी और राज्य-सरकारों की जिम्मेदारी के तौर पर भी, देखने की जरूरत है।
दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा कि पेट्रोल और स्टील इंडस्ट्री की ऑक्सीजन सप्लाई रोक कर सरकार को इसे अपने हाथों में ले लेना चाहिए, उद्योगों को ऐसे वक्त पर ऑक्सीजन देना, कारोबारी लालच की इंतहा है। अदालत ने कहा कि यह (केंद्र) सरकार आसपास की सच्चाई से इतनी बेखबर कैसे हो सकती है? जज ने कहा-हम हैरान और हताश हैं कि सरकार मेडिकल ऑक्सीजन की इतनी अहम जरूरत को लेकर सचेत नहीं है। अदालत ने यह भी कहा कि सबसे अहम बात यह है कि किसी की मौत ऑक्सीजन की कमी के कारण नहीं होना चाहिए। किसी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट का ऐसा कड़ा रुख ऐसे कड़े शब्दों में इसके पहले का याद नहीं पड़ता जब केंद्र सरकार से अदालत ने यह कहा हो कि भीख मांगो, उधार मांगो, या चोरी करके लाओ, कहीं से भी ऑक्सीजन लेकर आओ, वरना हजारों जिंदगियां खत्म हो जाएंगी। अदालत ने कहा कि जनता सिर्फ सरकार पर निर्भर हो सकती है, और ऐसी बुनियादी इमरजेंसी में लोगों को सुरक्षा देने के लिए सरकार को जो करना हो करे, वह भीख मांगे, उधार मांगे, या चोरी करे लेकिन जनता की जिंदगी बचाए।
अदालत में बातचीत का यह पूरा सिलसिला दिल्ली को लेकर सीमित था, लेकिन आज देश भर से जो खबरें आ रही हैं वे भयानक हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार की राजधानियों में निजी अस्पतालों ने नोटिस लगा दिए हैं कि वहां मरीजों के लिए ऑक्सीजन नहीं बची है और मरीजों के घरवाले उन्हें दूसरे अस्पतालों में ले जाएं और दूसरे अस्पतालों का हाल यह है कि वहां न बिस्तर है ना ऑक्सीजन है ना दवाइयां हैं और वेंटीलेटर जैसी बड़ी सुविधाओं की बात तो छोड़ ही दें। एक अस्पताल के नोटिस की फोटो आई है कि बीस मिनट के भीतर मरीज को ले जाएँ, क्योंकि उसके बाद के लिए ऑक्सीजन नहीं है। पूरे देश में यही हाल है और पूरे देश की जनता यह भी देख रही है कि किस तरह केंद्र सरकार चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी, और उसके बड़े बड़े नेता, बड़े-बड़े मंत्री पिछले एक-डेढ़ महीने से किस तरह लगातार दिल्ली के बाहर चल रहे थे और किस तरह लगातार चुनावी राज्यों में चुनाव प्रचार में लगे हुए थे। कल के दिल्ली हाईकोर्ट के रुख को देखें, उसके कड़े शब्दों को देखें, तो लगता है कि दिल्ली राज्य से बाहर भी पूरे देश में ऑक्सीजन सप्लाई को लेकर जो जिम्मेदारी केंद्र सरकार की बन रही थी, वह जिम्मेदारी चुनावी लाउडस्पीकर के शोर में खो चुकी थी। केंद्र सरकार के एक दिग्गज रेल मंत्री, पीयूष गोयल राज्यों को यह सुझाव देते दिख रहे थे कि उन्हें ऑक्सीजन की खपत पर रोक लगानी चाहिए। देश के लोग यह सुनकर हैरान थे कि मरीजों को दी जाने वाली ऑक्सीजन में किस किस्म की कटौती और किफायत बरती जा सकती है ? लोगों ने सोशल मीडिया पर रेल मंत्री की इस बात को लेकर जो कुछ लिखा है वह अखबार में लिखने लायक बात भी नहीं है लेकिन हकीकत यही है कि यह देश जिस किस्म के गैरइंतजाम का शिकार हुआ है, और यह शब्द लिखना जरूरी इसलिए है कि यह बात बदइंतजाम की नहीं, गैरइंतजाम की है, कोई इंतजाम ही नहीं रह गया। और अब जब कोरोना वायरस वाली मौतें हिंदुस्तान को दुनिया में अव्वल होने का एक शर्मनाक खिताब दिला चुकी हैं तो मानो केंद्र सरकार जागी है, और किसी एक राज्य को ऑक्सीजन देने का कोटा बढ़ाकर वह फटकार लगा रही अदालत को संतुष्ट करना चाहती है।
आज पूरे देश से जगह-जगह सोशल मीडिया पर आम लोग गुहार लगा रहे हैं कि एक ऑक्सीजन वाले बिस्तर की जरूरत है, ऑक्सीजन सिलेंडर की जरूरत है, जीवन रक्षक इंजेक्शन की जरूरत है, वेंटिलेटर की जरूरत है, लेकिन पूरे देश में इसकी कोई तैयारी नहीं दिख रही है राज्य सरकारों की अपनी जिम्मेदारियां अपनी जगह पर हैं, लेकिन केंद्र सरकार, जिसने कि महामारी एक्ट के तहत पूरे देश का कोरोना नियंत्रण, कोरोना से बचाव, कोरोना से जुड़ी हर बात को अपने कब्जे में रखा हुआ था, अपने काबू में रखा हुआ था, जहां रोज केंद्र सरकार की ओर से राज्यों को नोटिस और सलाह जारी हो रहे थे, वहां पर आज अगर पूरा देश इस कदर बिना तैयारी के बैठा हुआ है तो इसकी जिम्मेदारी का एक बड़ा हिस्सा केंद्र सरकार पर आता है जिसने वक्त रहते चीजों पर काबू नहीं किया। जिसने हिंदुस्तान में कोरोना की हेल्थ इमरजेंसी के रहते हुए, चलते हुए, पिछले एक साल में ऑक्सीजन दूसरे देशों को एक्सपोर्ट की। जिसने वक्त रहते हुए यह तैयारी नहीं की कि ऑक्सीजन की कमी पडऩे के पहले, ऑक्सीजन की खपत वाली किन इंडस्ट्रीज को सप्लाई रोक कर, वहां की सप्लाई को मेडिकल ऑक्सीजन में बदलकर उसका इस्तेमाल किया जा सकता है। आज अगर हाईकोर्ट का एक जज इस बात को बड़ी तल्खी के साथ सरकार को सिखाने की कोशिश कर रहा है, तो सरकार में बैठे हुए बड़े-बड़े मंत्री और बड़े बड़े अफसर इतने बरसों में क्या सीखे हुए हैं ? क्या इनको खुद होकर यह समझ नहीं आ रहा था कि पूरे देश में ऑक्सीजन की कमी से तबाही मची हुई है और ऐसे में उद्योगों को ऑक्सीजन देना बंद करना चाहिए ? उद्योगों का ऑक्सीजन का उत्पादन अस्पतालों की तरफ मोडऩा चाहिए ? यह बात आज दिल्ली हाईकोर्ट में केंद्र सरकार का वकील कह रहा है कि ऐसे उद्योगों को बंद करने में 72 घंटे का समय लगता है, तो यह 72 घंटे का समय पिछले हफ्ते-दस दिन में क्यों इस्तेमाल नहीं किया गया जब पूरे देश में ऑक्सीजन की कमी थी ?
आज हमारे पास दिल्ली हाईकोर्ट के जज की की हुई टिप्पणियों से अधिक कड़ा लिखने के लिए कुछ भी नहीं है। हम आमतौर पर ऐसे मामलों में बहुत कड़ा लिखते हैं लेकिन उससे भी अधिक कड़ा दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है। उसमें केंद्र सरकार को कहां है कि आप भीख मांगो, उधार मांगो, या चोरी करो, लेकिन जिंदगियों को बचाना आपकी जिम्मेदारी है। यह एक बहुत ही साफ आईना केंद्र सरकार को दिखाया है हाईकोर्ट ने, और इससे जो शर्मिंदगी लोगों को होनी चाहिए वह शर्मिंदगी ताली, थाली, दिया-मोमबत्ती, इन सबसे जा नहीं सकती, इन सबसे धुल नहीं सकती। इनकी रोशनी में यह शर्मिंदगी और उभरकर दिखेगी। आज देश यह देखकर हैरान है कि लोगों के पास सिवाय लफ्फाजी, सिवाय बयान देने के, और कुछ नहीं बचा है लोगों की जिंदगी को बचाने के लिए। और इस बात को समझ लेना चाहिए कि आज देश में कोरोना की यह हालत कोई अंत नहीं है। आज सुबह के आंकड़े बता रहे हैं कि किस तरह तीन लाख को पार करके काफी आगे बढ़ चुके हैं कोरोना के 24 घंटों के आंकड़े। किस तरह से मौतें 2000 को पार करके आगे बढ़ रही हैं। एक दिन में यह नौबत पूरे देश की जनता का भरोसा केंद्र सरकार और राज्य सरकारों पर से भी उठाने के लिए बहुत है। केंद्र सरकार जिसको कि पूरे देश को एक योजना में जोडक़र चलना चाहिए था, जो पूरी तरह से अपनी फौलादी शिकंजे में देश के राज्यों को लेकर चल रही थी, जो एक-एक बात को तय कर रही थी, जो एक एक बात के लिए जवाब मांग रही थी राज्य सरकारों से, आज उसके खुद के पास अदालत में देने के लिए कोई जवाब नहीं है। यह इतनी शर्मनाक नौबत है, इतनी शर्मनाक नौबत है कि इससे इस देश की लीडरशिप उबरेगी कैसे ? आज इस देश में यह माहौल लग रहा है कि मानो चुनाव जीत लेना, किसी राज्य का चुनाव जीत लेना, केंद्र की कुछ सीटों का उपचुनाव जीत लेना, यही इस देश को चलाने की कामयाबी है, यही लोकतंत्र को चलाने की कामयाबी है, यही मानवता के प्रति सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। यह किस नौबत में आकर यह देश खड़ा हो गया है कि जहां मरीज को स्ट्रेचर पर लेकर दौड़ रहे हैं घरवाले, और अगर वह खुशकिस्मत हैं तो आधे लोग ऑक्सीजन सिलेंडर लेकर साथ-साथ दौड़ रहे हैं। लोग सडक़ों के किनारे कहीं से ऑक्सीजन सिलेंडर जुटाकर बैठे हैं। और यह तो बातें उनकी जिनको ऑक्सीजन सिलेंडर मिल गया है, बाकी को तो मौत के बाद दफन होना या जलना भी नसीब नहीं हो रहा है। मध्यप्रदेश के एक जिले की ऐसी भयानक तस्वीरें आई है जहां पर मरघट में लकडिय़ों को और गोबरियों को जमा-जमाकर पहले से तैयार करके रखा जा रहा है, कि जैसे-जैसे लाशें आएं, वैसे-वैसे उनको तुरंत जलाया जाए।
यह देश अस्पताल की तैयारी नहीं कर सका, टीके और दवाई की तैयारी नहीं कर सका, ऑक्सीजन की तैयारी नहीं कर सका, लेकिन यह जरूर है कि मध्यप्रदेश जैसे एक राज्य में यह देश एडवांस में चिताओं की तैयारी करके रख रहा है कि मुर्दा पहुंचे उसके पहले चिता तैयार रहना चाहिए, मृतक के सम्मान में कोई गुस्ताखी नहीं होना चाहिए ! आज पूरे देश को, दिल्ली को ही नहीं, और दिल्ली के हाईकोर्ट को ही नहीं, पूरे देश को यह देखने की जरूरत है कि यह किस मुहाने पर आकर खड़ा हो गया है ! और क्या नेताओं के दिए गए बयानों से किसी की जिंदगी बच रही है ? किसी की सांसें चल रही हैं ? किसी के घर के मृतक को सम्मान के साथ जलने का मौका मिल रहा है ? आज यह देश सरकार की बदइंतजामी, गैरइन्तजामी, सरकार की नाकामी को लेकर जिस मुहाने पर आकर खड़ा हुआ है इस मुहाने पर तो यह देश अपने पूरे इतिहास में कभी भी नहीं खड़ा था। देश की जनता इस बात को कब तक याद रखेगी और कब तक अपने सामूहिक सम्मोहन के चलते हुए बार-बार उन्हीं नेताओं को चुनते रहेगी, इसको वह जनता जाने। और जनता की जिंदगी और मौत उसकी ऐसी पसंद से ही जुड़ी रहेगी। अब क्या जनता दिल-दिमाग से वोट देने के बजाय फेंफड़ों से वोट देना सीखेगी? फिलहाल तो दिल्ली हाईकोर्ट ने जो कहा है इन लाइनों को यहां लिखने से अधिक कड़ा हमारे पास कुछ नहीं है।