संपादकीय
हिन्दुस्तानी समाज में सेक्स संबंध हमेशा से एक नाजुक मुद्दा रहते आए हैं, और इस ‘हमेशा’ का मतलब अभी डेढ़-दो सौ साल ही है। उसके पहले तक अंग्रेज और ईसाई इस देश में नहीं आए थे, और तब की भारतीय संस्कृति सेक्स के मुद्दों को लेकर अधिक खुले खयालों की थी, अधिक उदार थी। लेकिन आज सेक्स शिक्षा से लेकर नग्नता तक, और वयस्क देह-संबंधों तक हिन्दुस्तानी समाज का बर्दाश्त जिस हद तक खत्म हो चुका है, वह अंग्रेजों की छोड़ी गई जूठन और गंदगी का नतीजा है। हिन्दुस्तान में समलैंगिकों को, वेश्याओं को, हिजड़ों और दूसरे किस्म के सेक्स-अल्पसंख्यकों को पहले कभी इतनी बुरी और हिंसक नजरों से नहीं देखा गया था जैसा कि आज देखा जा रहा है। यह वही देश है जहां वात्सायन ने कामशास्त्र लिखा था, जो कि दुनिया का एक प्रमुख सेक्स-ग्रंथ माना जाता है, सैकड़ों बरस पहले हिन्दुस्तान के सैकड़ों मंदिरों पर वयस्क सेक्स-संबंधों की मूर्तियां उकेरी गई थीं, भीतर ईश्वर और बाहर सेक्स! इस पर कभी कोई आपत्ति नहीं हुई थी, लेकिन अब अंग्रेजों के वक्त चर्च के लादे गए सेक्स-नैतिकता के पैमाने सिर पर इस तरह सवार हैं कि कहीं कोई स्कूल बड़ी कक्षाओं के बच्चों को उनकी देह का विज्ञान पढ़ाने की कोशिश करता है तो उस गौरवशाली भारतीय संस्कृति नष्ट करने की हरकत मानकर उसका हिंसक विरोध होता है। जबकि यह देश परंपरागत सेक्स-शिक्षा वाला देश रहा है, और अलग-अलग तबके की सेक्स-शिक्षा के अलग-अलग तरीके रहते आए हैं। आज जो हिन्दू उग्रवादी ऐसे तमाम मुद्दों पर सबसे पहले झंडा-डंडा लेकर टूट पड़ते हैं, उन्हें इतिहास के पन्ने अगर दिखाए जाएं कि वे केवल अंग्रेजों की छोड़ी गंदगी को अपने सिर पर टोकरा भरकर ढो रहे हैं, तो फिर पता नहीं टोकरे के नीचे के उनके सिर को कैसा लगेगा?
इस पर चर्चा की जरूरत आज इसलिए हो रही है कि एक-एक करके अब बहुत सी ऐसी बॉलीवुड फिल्में आ चुकी हैं जिनमें समलैंगिक संबंधों पर केन्द्रित कहानियां रही हैं। मर्दों के समलैंगिक संबंध भी, और औरतों के भी। इन सबका खुलकर जिक्र हुआ है, ऐसी कुछ फिल्मों को पुरस्कार भी मिले हैं, और लोगों ने सिनेमाघरों में जाकर या घर पर अकेले, बच्चों से दूर रहकर ऐसी फिल्में देख तो ली ही हैं। नतीजा यह है कि जो समलैंगिकता अब तक सिर्फ हिंसा के लायक मानी जाती थी, उसे बॉलीवुड की फिल्मों ने एक बर्दाश्त करने लायक मुद्दा बनाकर पेश किया है। अच्छे-अच्छे प्रगतिशील लोग आज तक समलैंगिकता को मानसिक रोग, मानसिक विकृति, और अप्राकृतिक मानते हैं। वे अब भी समलैंगिक लोगों के मनोवैज्ञानिक इलाज की वकालत करते हैं। दरअसल अंग्रेजी-राज में चर्च के लादे गए नैतिकता के मूल्य बहुत वजनदार थे, और हिन्दुस्तान की हजारों बरस की अपनी मौलिक सोच भी उससे उबर नहीं पाई है जिसमें समलैंगिकता को लेकर ऐसी हिंसक सोच कभी नहीं थी। हिन्दुस्तान का कानून भी अंग्रेजों के छोड़े गए पखाने से लिखा गया, और जो-जो बातें चर्च या अंग्रेज सरकार को खटकती थीं, वे तमाम बातें आज भी हिन्दुस्तानी कानून पर हावी हैं, फिर चाहे वे खुद अंग्रेजों के अपने देश में जमाने पहले से कानून से हटा क्यों न दी गई हों।
हिन्दुस्तान में फिल्मों से लोगों की सोच बदलने का सिलसिला कोई नया नहीं है। राजकपूर की कई फिल्मों में सफेद-झीने कपड़े पहनी नायिका को भीगते दिखाना एक अलग बात थी, लेकिन ऐसी बाजारू नुस्खों के साथ-साथ राजकपूर की कई फिल्मों में सामाजिक बेइंसाफी के कई मुद्दों को भी उठाया गया था, और उनसे भी लोग सोचने पर मजबूर हुए थे। अब फिल्मों का असर हम इतना भी अधिक आंकना और बताना नहीं चाहते कि उन्हें देखकर देश में कोई क्रांति ही हो जाएगी, लेकिन देश के लोगों के सरोकार को कोंचकर अगर फिल्में थोड़ी सी देर के लिए जगाती हैं, तो भी वह कोई छोटा योगदान नहीं रहता। इसी तरह आज जब समलैंगिकता पर एक-एक करके कई फिल्में आ रही हैं, तो इसमें से जो गंभीर फिल्में हैं उन्हें देखकर लोग समलैंगिकता को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं क्योंकि हिन्दुस्तान में इस मुद्दे पर न तो कोई गंभीर मंच बात करना चाहता, और न ही निजी जिंदगी में लोग इस पर बात करना चाहते क्योंकि जो चर्चा करे उसे ही लोग शक की नजर से देखने लगें कि वह समलैंगिक तो नहीं? इससे परे आम समाज में समलैंगिक लोगों के लिए हिकारत और हिंसा का हाल यह है कि महाराष्ट्र के एक सबसे बड़े नेता बाल ठाकरे तक अपने सार्वजनिक भाषणों में मंच और माईक से समलैंगिकों के लिए दी जाने वाली एक गाली का खुलकर इस्तेमाल करते थे। इसलिए आज जब कोई फिल्म या कोई कहानी संवेदनशीलता के साथ इस मुद्दे को छूती हैं, और समलैंगिकों को दिमागी मरीज की प्रचलित तस्वीर से अलग सामान्य इंसान बताती हैं, तो वे समाज की बीमार सोच के इलाज का काम भी करती हैं। हिन्दुस्तानी सोच को ढालने में फिल्मों का योगदान कम नहीं है क्योंकि उनका असर बहुत रहता है, उनकी पहुंच बहुत रहती है, और वे चाहे कोई क्रांति क्यों न ला सकें, वे धीरे-धीरे लोगों के दिमाग को बदलने में कामयाब तो हो ही सकती हैं। लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान में एक वक्त फिल्मों की मेहरबानी से किसी का मोटापा हॅंसने का सामान होता था, हर दक्षिण भारतीय एक काला मद्रासी होता था, हकलाने वाले लोगों को हॅंसाने का काम करते थे, लेकिन धीरे-धीरे फिल्मों की सोच भी बदली, और शायद समाज की बंधी-बंधाई धारणा को बदलने में इस बदलाव का भी योगदान रहा।
अब जब हिन्दुस्तानी कानून ने समलैंगिकता को जुर्म के दायरे से बाहर निकाल दिया है, लेकिन हिन्दुस्तानी संसद समलैंगिकों की आपस में शादी को अब तक अकल्पनीय मानकर उसे कोई कानूनी दर्जा देने के खिलाफ है, तब इस तबके, और इस किस्म के, दूसरी किस्म के कई और सेक्स-अल्पसंख्यकों के मुद्दों को लेकर हिन्दुस्तानी समाज को खुले दिमाग से और उदार मन से सोचने की जरूरत है। कुछ जानकार इतिहासकारों को संदर्भों सहित यह भी लिखने की जरूरत है कि नैतिकता के ये अंग्रेज पैमाने उनके यहां आने के पहले कभी इस देश के नहीं थे, और इस देश के सामने ऐसी कोई मजबूरी भी नहीं रहनी चाहिए कि यह अंग्रेजों की गंदगी को सिर पर सजाकर चले, खासकर ऐसा तबका जो कि वेलेंटाइन्स-डे का भी विरोध इसलिए करता है कि यह अंग्रजों का छोड़ा हुआ है, और इस दिन प्रेमी जोड़ों को पीटते हुए वह यह भूल जाता है कि आधे हिन्दुस्तान में पूजे जाने वाले कृष्ण इस देश के एक सबसे बड़े प्रेमी थे, उनकी तो तमाम कहानियां ही प्रेम में भीगी हुई हैं। इसलिए आज की इस नवधर्मान्धता और नवकट्टरता को आईना दिखाने की जरूरत है कि जिसे वे हिन्दुस्तानी संस्कृति करार देते हुए जिसे बचाने पर आमादा हैं वह इस देश की संस्कृति कभी थी ही नहीं। वह हमलावर अंग्रेजों के उस वक्त के नैतिक मूल्य थे जिन्हें खुद अंग्रेजों ने आज अपने देश में पखाने में बहा दिया है।
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छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में सत्रह बरस का एक नाबालिग लडक़ा अपने दोस्तों और अपने कुत्ते के साथ कार में निकला। अचानक कुत्ता स्टियरिंग पर चढ़ गया तो कार उस लडक़े के काबू से बाहर होकर कंस्ट्रक्शन कर रहे मजदूरों पर चढ़ गई, और 9 मजदूरों को रौंदते हुए जाकर पलट गई। एक महिला मजदूर की मौके पर मौत हो गई और बाकी मजदूर घायल हो गए। नए कानून के तहत नाबालिग को कार देने पर कार मालिक पर भी कार्रवाई का प्रावधान है, लेकिन अब तक शायद बिलासपुर पुलिस ने नाबालिग के कार मालिक पिता पर कार्रवाई नहीं की है। यह घटना बहुत अनोखी नहीं है, लेकिन दिनदहाड़े खुली सडक़ पर हुए इस हादसे की वजह से खबरों में आ गई है, और यह लडक़ा पकड़ में भी आ गया। इससे सबक लेकर राज्य सरकार को पूरे प्रदेश में पुलिस को चौकस करना चाहिए। सडक़ों पर नियमों को तोडऩा एक बुरी आदत की तरह लोगों के मिजाज में शामिल हो जाता है, और फिर पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहता है, इसलिए इस सिलसिले को शुरूआत में ही खत्म करना चाहिए। आम लोगों के लिए पुलिस की पहली पहचान सडक़ों से ही शुरू होती है, और नियमों को तोडऩे का सिलसिला भी सडक़ों से ही शुरू होता है। ये नियम दिखने में छोटे दिखते हैं, लेकिन इनको तोडऩा जानलेवा होता है, और अक्सर ही बेकसूर लोग इसमें मारे जाते हैं। यह बात समझने की है कि सडक़ों पर जितनी दुर्घटनाएं होती हैं, उनमें अक्सर ही एक लापरवाह की वजह से दूसरे बेकसूर मारे जाते हैं।
छत्तीसगढ़ में पिछले दशकों में हम देखते आए हैं कि जब-जब दुपहिया चलाने वालों पर हेलमेट की बंदिश लागू की जाती है, तब-तब जो पार्टी सत्ता में नहीं रहती है, वह लोगों की लापरवाही को भडक़ाने का काम करती है, और हेलमेट अनिवार्य करने के खिलाफ मुहिम चलाती है। अभी मौजूदा कांग्रेस सरकार ने भी आने के बाद राजधानी में कुछ महीनों तक हेलमेट का अभियान चलाया, हजारों लोगों पर जुर्माना हुआ, दसियों हजार लोगों ने हेलमेट खरीद भी लिए, लेकिन फिर पुलिस की कार्रवाई बंद हो गई, और लोगों ने हेलमेट पहनना बंद कर दिया। हिन्दुस्तान में लोगों को अपनी जिंदगी की परवाह नहीं है, और हेलमेट लगाने के बजाय दुपहिया चलाते लोग मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते दिखते हैं जिससे अपने अलावा वे दूसरों की जिंदगी भी खतरे में डालते हैं। इन दोनों बातों पर जुर्माने का नियम तो है, लेकिन यह किसी अफसर की सनक पर टिका रहता है कि उसके इलाके में कब कौन से नियम लागू किए जाएं। नतीजा यह है कि लोग बिना हेलमेट मोबाइल थामे हुए तीन सवारी लालबत्ती लांघते हुए चले जाते हैं, और उन्हें रोकने वाले कोई नहीं रहते। कारों और दूसरी बड़ी गाडिय़ों में भी सीट बेल्ट लगाने का काम तो केन्द्र सरकार ने करवा दिया है, लेकिन मौत से बचने का काम तो गाड़ी में बैठे लोगों को ही करना होगा, और पुलिस इस बात पर भी कोई कार्रवाई नहीं करती है।
दरअसल व्यापक जनसुरक्षा के ये मुद्दे राज्य सरकार या स्थानीय अफसरों की मर्जी पर नहीं छोड़े जाने चाहिए। सडक़ पर जनसुरक्षा के लिए जरूरी बातों को भी अगर पुलिस लागू नहीं कर रही है, तो पुलिस खुद नियमों के खिलाफ काम कर रही है, और ऐसी पुलिस को देखते हुए राज्य सरकार कुछ नहीं कर रही है तो वह भी अपनी कानूनी जिम्मेदारी से मुंह चुरा रही है। यह सिलसिला शायद तब तक चलते रहेगा जब तक कि लोग अदालत न जाएं, और सरकार-अफसरों की गैरजिम्मेदारी के खिलाफ कोई अदालती आदेश न पाएं। वैसे कोलाहल के खिलाफ अदालतों से मिले हुए आदेशों के बावजूद स्थानीय प्रशासन और पुलिस किसी-किसी मामले में ही कार्रवाई करते दिखते हैं, इसलिए अदालत भी कोई मायने रखेगी इस पर भी शक किया जा सकता है।
आज जब स्कूल और कॉलेज के बच्चे अपनी जिंदगी का पहला गैरकानूनी काम सडक़ों पर नियम तोडऩे का करते हैं, तो वहां से कानून की हेठी की उनकी जिंदगी शुरू होती है, और फिर वह धीरे-धीरे दूसरे तमाम दायरों तक बढऩे लगती है। इस सिलसिले को अगर शुरू में ही रोक दिया जाए, तो सडक़ों पर मौतें बच सकती हैं, और मौतों से कम के हादसे भी घट सकते हैं। बिलासपुर में कल नाबालिग की चलाई जा रही जिस कार से मजदूर कुचले गए हैं, और मौत हुई है, हमें कोई हैरानी नहीं होगी कि वे नाबालिग होने के साथ-साथ बिना सीट बेल्ट के भी होंगे, और हो सकता है कि गाड़ी चलाने वाला भी मोबाइल फोन पर लगा हुआ हो। इस घटना को देखते हुए पूरे प्रदेश में पुलिस को जांच करनी चाहिए, और हर शहर में दो-चार मां-बाप जब बच्चों को गाडिय़ां देने के जुर्म में जेल जाएंगे, तो ही बाकी लोगों की लापरवाही टूटेगी।
यह सिलसिला पैसे वाले लोगों से शुरू होता है, और गरीबों को कुचलता है। यह सडक़ों पर एक सामाजिक गैरबराबरी से उपजे बेइंसाफ का सिलसिला है, जिसे तोडऩा जरूरी है। राज्य सरकार की यह न्यूनतम जिम्मेदारी है कि वह हेलमेट और सीट बेल्ट लागू करे, और मोबाइल फोन का नाजायज इस्तेमाल रोके। इसके अलावा भी कुछ और बातें संगठित और कारोबारी ट्रांसपोर्ट से जुड़ी हुई हैं जिन्हें तुरंत सुधारने की जरूरत है। ट्रांसपोर्ट के काम में लगी गाडिय़ां बहुत बुरी तरह बदहाल हैं, और बिना ब्रेक लाईट, बैक लाईट के वे सडक़ों पर कहीं भी खड़ी रहती हैं जिनमें पीछे से आती हुई गाडिय़ां घुस जाती हैं, और आए दिन मौत होती हैं। इस किस्म की आपराधिक लापरवाही को जरा भी बर्दाश्त नहीं करना चाहिए, और अगर कोई चौकन्ने पुलिस अफसर हों, तो वे अपने इलाके से ऐसी किसी भी गाड़ी की आवाजाही को तुरंत ही रोक सकते हैं। यह सब करने के लिए कुछ तो राज्य सरकार की भी दिलचस्पी चाहिए, और कुछ अफसरों की अपनी पहल भी। कुल मिलाकर अफसर तो राज्य सरकार के ही मातहत हैं, ऐसे में जिम्मेदारी राज्य सरकार की ही है।
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अमरीका के तरह-तरह के निशाने पर बने हुए चीन में इन दिनों विंटर ओलंपिक चल रहा है। पश्चिम के कई देशों में इनके कुछ तरह के बहिष्कार की घोषणा की है, और अधिकारियों का दल भेजने के बजाय सिर्फ खिलाडिय़ों का दल भेजा है। लेकिन एक और वजह है कि यह बीजिंग शीतकालीन ओलंपिक खबरों में भी है और आलोचना का शिकार भी हो रहा है। जैसा कि नाम से जाहिर है शीतकालीन ओलंपिक ठंड के मौसम में होते हैं, और इनमें बर्फ पर खेले जाने वाले खेलों का बड़ा हिस्सा होता है। विंटर ओलंपिक्स का इतिहास बताता है कि ये 88 साल पहले 1924 में फ्रांस से शुरू हुए, और हाल के बरसों में ये बदलते मौसम की वजह से बर्फ की कमी का शिकार हुए, और धीरे-धीरे इन मुकाबलों के लिए कृत्रिम बर्फ का इंतजाम भी किया गया। चीन का यह ओलंपिक पहला ऐसा ओलंपिक है जो सौ फीसदी कृत्रिम बर्फ पर हो रहा है। आलोचना की एक वजह यह है कि क्या इतने बड़े पैमाने पर बिजली और पानी की फिजूलखर्ची करके खेल के ऐसे मुकाबले किए जाने चाहिए? क्योंकि आज धरती पर बिजली की भी कमी है, और पानी की भी। इसके पहले दुनिया के कुछ और देशों में ओलंपिक के पहले जमी हुई बर्फ को ढांककर, बचाकर उस पर भी खेल के मुकाबले हुए हैं, और दुनिया में कभी-कभी दूसरे पहाड़ों से बर्फ ढोकर लाकर भी ओलंपिक खेलों के लिए मैदान और मुकाबलों के ढलान बनाए गए थे।
अब सवाल यह उठता है कि इंसान अपने बनाए हुए खेलों और उनके मुकाबलों के लिए कितने बड़े पैमाने पर धरती के साधनों का दोहन करे? एक तरफ वैसे भी मौसम का बदलाव इतना बेकाबू हो चुका है कि धरती गर्म हुए चली जा रही है, समुद्र की सतह ऊपर बढ़ती चली जा रही है, प्राकृतिक विपदाएं लगातार अधिक खतरनाक होती जा रही हैं, और वे अधिक बार घट रही हैं, जल्दी-जल्दी हो रही हैं। इन सबको देखते हुए धरती एक बहुत ही नाजुक हालत में है, और मौसम की मार से बचने के लिए इंसान के पास किसी तरह का कोई हेलमेट भी नहीं है, न ही कोई सीट-बेल्ट ही है। मतलब यह कि शीतकालीन ओलंपिक के लिए बिजली-पानी के अलावा मौसम के साथ बहुत बड़े खिलवाड़ का पूरा खतरा अब तक न सामने आया है न समझ आया है। ठीक इसी तरह दुनिया में एक फिक्र सैकड़ों एकड़ में फैले हुए गोल्फ कोर्स की घास को सींचकर हरियाली बनाए रखने को लेकर भी होती है, क्योंकि इसमें बहुत बड़ी मात्रा में पानी बर्बाद होता है, और बहुत गिने-चुने खिलाड़ी इसे खेलते हैं, जिनमें से अधिकतर ऐसे रहते हैं जो कारोबार की दुनिया के कामयाब लोग हैं और शौकिया इस खेल को खेलते हुए धंधे के बड़े-बड़े सौदे करते हैं। गोल्फ के शौकीन खिलाड़ी इतने संपन्न रहते हैं कि वे पसंदीदा गोल्फ कोर्स पर खेलने के लिए दूसरे देशों का सफर भी करते हैं। अब सवाल यह उठता है कि धरती एक है उसके साधन सीमित हैं, और उनका इस्तेमाल सीमित लोगों के शौक के लिए, या फिर शीतकालीन ओलंपिक जैसे मौसम पर मार करने वाले आयोजनों पर कितना करना चाहिए?
क्या आज यह वक्त नहीं आ गया है कि धरती के कुदरती मिजाज को देखते हुए उस हिसाब से खेलों को ढाला जाए, या खेलों को चुना जाए। जिस चीन में इस मौसम में सौ फीसदी बर्फ जमाकर ये खेल-मुकाबले करवाए जा रहे हैं, उस चीन में शीतकालीन ओलंपिक करवाना ही क्यों चाहिए था? इसे उन देशों के बीच में ही क्यों न करवाया जाए जहां पर प्राकृतिक बर्फ रहती है? और ऐसे ही खेल क्यों न करवाए जाएं जो कि उन जगहों पर हो सकते हैं? आज दरअसल ओलंपिक से लेकर फुटबॉल और क्रिकेट तक के मुकाबले इतने बड़े कारोबारी धंधे बन चुके हैं कि खेलों से जुड़े तमाम फैसले कमाई के आधार पर तय किए जाते हैं। आज हिन्दुस्तान में आईपीएल के मुकाबले क्रिकेट के दूसरे फॉर्मेट की प्राथमिकता घट गई है क्योंकि कमाई आईपीएल में अधिक है। इसी तरह ओलंपिक किन देशों में हों, वहां पर कौन से खेल हों, इस बात का बहुत कुछ फैसला कमाई को ध्यान में रखकर होता है। ऐसे बहुत से अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजन हुए हैं जिनकी मेजबानी हासिल करने के लिए अंतरराष्ट्रीय खेल संघों के लोगों को मोटी रिश्वत देने के मामले भी सामने आए हैं। लेकिन हम इस मुद्दे का चौतरफा विस्तार करने के बजाय इसे मौसम के साथ जोडक़र सीमित रखना चाहते हैं कि बर्फ के कृत्रिम मैदान और पहाड़ बनाकर मौसम को शिकस्त देने के अंदाज में ऐसे खेल नहीं किए जाने चाहिए। दुनिया के जिन देशों में कुदरती सहूलियतें हैं, वहीं पर ऐसे आयोजन होने चाहिए।
खेल धरती से कम मायने रखते हैं। खेलों के लिए धरती के संतुलन को और बिगाडऩा जायज नहीं है, और इसके खतरे हो सकता है कि तुरंत न दिखें, लेकिन आगे चलकर सामने आएं, आएंगे ही, और उस दिन वे काबू में नहीं रहेंगे। इसलिए इंसान की समझदारी यही होगी कि मौसम की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए ही शौक पूरे करे।
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पंजाब के चुनाव में अरविन्द केजरीवाल एक बड़ा मुद्दा हैं। कांग्रेस को यह लगता है कि केजरीवाल आरएसएस की उपज हैं, और मनमोहन सिंह की यूपीए-2 सरकार को बदनाम करने के लिए और बेदखल करने के लिए अन्ना हजारे नाम के पाखंडी की अगुवाई में जो आंदोलन चला था, उसी के एक कार्यकर्ता अरविन्द केजरीवाल थे, और बहुत से राजनीतिक विश्लेषकों का यह मानना है कि अन्ना का वह आंदोलन भी सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार के खिलाफ न होकर केवल यूपीए सरकार और कांग्रेस को बदनाम करने का आंदोलन था, और उन सबके साथ जिस तरह से बाबा रामदेव और श्रीश्री रविशंकर जैसे नाम जुड़ गए थे, उससे लोगों का यह अंदाज है कि वह आरएसएस का आर्केस्ट्रा था। अरविन्द केजरीवाल वहीं से उठकर आम आदमी पार्टी बनाकर दिल्ली के मुख्यमंत्री बने, और अब वे देश के कई राज्यों में ऐसी दखल दे रहे हैं कि जिससे भाजपा की संभावनाएं मजबूत होती हैं। अब वे भाजपा के इंतजामअली की तरह काम कर रहे हैं या अपने लिए काम कर रहे हैं, यह एक अलग बात है, लेकिन पंजाब में उनकी मौजूदगी गैरभाजपाई वोटों को बांटने वाली है, और कमोबेश यही नौबत गोवा में भी सुनाई पड़ती है। इसलिए अरविन्द केजरीवाल आज कांग्रेस के निशाने पर तो हैं ही, वे अपने ही एक पुराने और शुरूआती साथी कुमार विश्वास के निशाने पर भी हैं जो कि आम आदमी पार्टी की राजनीति से अब अलग हो चुके हैं।
यह दिलचस्प बयान केजरीवाल के पुराने साथी कुमार विश्वास की तरफ से आया है जिसमें उन्होंने केजरीवाल के बारे में कहा है कि पंजाब में पिछला विधानसभा चुनाव जीतने के लिए केजरीवाल अलगाववादी तत्वों का साथ लेने के लिए तैयार थे। कुमार विश्वास ने एक औपचारिक इंटरव्यू में कहा है कि एक दिन केजरीवाल ने उनसे यह तक कहा था कि वे या तो पंजाब के मुख्यमंत्री बनेंगे, या एक स्वतंत्र देश के पहले प्रधानमंत्री बनेंगे। कुमार विश्वास की इस बात का सीधा-सीधा मतलब यह है कि केजरीवाल ने आपसी बातचीत में उनसे कहा था कि वे पंजाब के सीएम या एक स्वतंत्र देश (खालिस्तान) के पीएम बनेंगे। जाहिर है कि इस चुनाव के बीच केजरीवाल ने इस बात का खुलकर खंडन भी किया है और कहा है कि देश में पिछले दस साल में तीन साल कांग्रेस की सरकार थी, और सात साल से भाजपा की सरकार है, तो क्या ये लोग सो रहे थे? जांच एजेंसियां क्या कर रही थीं? इसके बाद केजरीवाल ने अपनी तुलना भगत सिंह से की कि सौ साल पहले अंग्रेजों ने भगत सिंह को आतंकवादी कहा था, और आज भी भगत सिंह के चेले (केजरीवाल) को आतंकवादी साबित करने की कोशिश हो रही है।
अब यहां पर एक बुनियादी सवाल यह खड़ा होता है कि कई बरस पहले केजरीवाल ने अगर कुमार विश्वास से आपसी बातचीत में ऐसा कुछ कहा भी था, तो कुमार विश्वास को उसी मुद्दे पर केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का साथ छोड़ देना था। और इसके साथ ही उनकी यह जिम्मेदारी भी बनती थी कि वे ऐसी खतरनाक बात को सार्वजनिक रूप से सामने रखते। क्योंकि ऐसी बात सुनने के बाद चुप रहना भी देश के हितों के खिलाफ जानते हुए चुप रहने के अलावा और कुछ नहीं है। तमाम व्यक्तिगत संबंध अलग रहते हैं, और देश अलग रहता है। इसलिए केजरीवाल को ऐसी बात के बाद बचकर निकल जाने देना उनकी बात में भागीदारी के अलावा क्या गिना जा सकता है? कुमार विश्वास का यह कहना इस चुनाव प्रचार के बीच में किसी न किसी राजनीतिक दल की मदद तो करेगा, और आम आदमी पार्टी को बदनाम करने का काम भी करेगा। इसलिए हम चुनाव प्रचार के दौरान गड़े मुर्दों को उखाडक़र उनकी ऐसी नुमाइश को देखते हुए उसे किसी किस्म की प्रायोजित कुश्ती अधिक पाते हैं। यह सिलसिला तभी ईमानदार कहलाता जब वह पिछले चुनाव के दौरान ही उजागर हो गया होता। यह देश तो साजिशों के झंझावात से गुजर रहा देश है जहां पर नेहरू, सुभाष, और सरदार पटेल के लिखे हुए दस्तावेजों वाली किताबों के मौजूद रहते हुए भी उनके आपसी संबंधों को लेकर उन्हें बदनाम करने की कोशिशें चल रही हैं। ऐसे में बंद कमरे में किसी को किसी की कही हुई कोई बात सच है या नहीं, इसका क्या ठिकाना है? हम केजरीवाल के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं रखते क्योंकि वे खुद भी ऐसी ही हरकतें करते आए हैं, लेकिन ऐसी हरकतें जो भी करें, उसका विरोध होना चाहिए क्योंकि ये बातें सार्वजनिक जीवन में एक-दूसरे का विश्वास खत्म करने वाली तो रहती ही हैं, एक-दूसरे की जनछवि खत्म करने वाली भी रहती हैं। वैसे भी इतिहास के दस्तावेजों के सच को खारिज करते हुए देश के सबसे महान नेताओं को बदनाम करने की जुबानी जमाखर्च चल ही रही है, ऐसे में बंद कमरों की कथित बातचीत का इतने-इतने बरस बाद चुनावी इस्तेमाल बहुत ही नाजायज बात है।
यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, लेकिन चुनाव की गंदगी के बीच यह एक छोटी सी बात है। हम इस बात को इन दो चर्चित लोगों के व्यक्तित्व से अधिक महत्व दे रहे हैं, और एक मुद्दे के रूप में इस पर बात कर रहे हैं। वरना इस चुनाव की गंदगी कुल मिलाकर अभूतपूर्व है, और असम के मुख्यमंत्री ने इस गंदगी को भी जितना बदबूदार बनाया है, वह एक नया रिकॉर्ड है। ऐसे में कुमार विश्वास कहने के लिए तो आज शायद किसी राजनीतिक दल में नहीं हैं, लेकिन वे चुनावी राजनीति में सक्रिय हिस्सेदार दिख रहे हैं, और वे किसकी मदद करने के लिए ऐसा कर रहे हैं, उसकी अटकल लगाना भी बहुत मुश्किल नहीं है। सार्वजनिक जीवन का तकाजा यह रहना चाहिए कि अगर देशहित और देश की हिफाजत का कोई मामला है, तो वह इस तरह का वक्त गुजर जाने के बाद दावा करने लायक नहीं रहता, वह तुरंत ही उजागर करने लायक रहता है। यह देर और यह चुनावी मौका अपने आपमें कुमार विश्वास को कुमार अविश्वास बना रहे हैं।
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ओडिशा की एक दिलचस्प लेकिन तकलीफदेह खबर है कि वहां अपने आपको केन्द्र सरकार का बड़ा अफसर बताने वाले एक धोखेबाज ने सत्रह महिलाओं को अपने जाल में फंसाया, उनसे शादी की, और लाखों रूपए ठगे। इतना कुछ कर गुजरने के बाद अब वह पुलिस की गिरफ्त में आया है। हैरानी की बात यह भी है कि यह आदमी 66 बरस का हो गया है, और अब तक शादियों का उसका सिलसिला जारी ही था, उसने ओडिशा, असम, दिल्ली, एमपी, पंजाब, यूपी, झारखंड और छत्तीसगढ़ की महिलाओं से शादियां कीं। पुलिस का यह भी कहना है कि हो सकता है कि इन सत्रह के अलावा भी और महिलाओं को उसने धोखा दिया हो, या शादी की हो। पुलिस जांच में यह भी पता लगा है कि इसके धोखे की शिकार महिलाएं भारी पढ़ी-लिखी भी थीं, कामकाजी थीं, और इस धोखेबाज की पसंद के मुताबिक उनमें से हर कोई पैसे वाली भी थीं। 1982 से शुरू होकर 2020 तक शादियों का उसका यह सिलसिला लगातार चलते रहा, जबकि उसकी पहली शादी से हुए तीनों बेटे डॉक्टर हैं, और विदेश में हैं।
धोखाधड़ी और जालसाजी के जुर्म पर लिखने की आज यहां पर हमारी कोई हसरत नहीं है। लेकिन इस बात पर सोचना-विचारना जरूरी है कि भारत में महिलाओं पर शादी के लिए ऐसा कितना दबाव रहता है कि वे 64 बरस के आदमी से भी शादी को तैयार हो जाती हैं, एक पेशेवर जालसाज के झांसे में भी करीब डेढ़ दर्जन महिलाएं शादी की हद तक फंस जाती हैं। इस मुद्दे पर सोचते हुए अभी कुछ ही दिन पहले बीबीसी पर ब्रिटेन के बारे में आई एक रिपोर्ट याद पड़ती है कि वहां पर बिना शादी रहने वाले, नौजवान से अधेड़ होने वाले अकेले लोगों का अनुपात आबादी में तेजी से बढ़ते जा रहा है। लेकिन इसी रिपोर्ट में यह भी था कि अकेली रहने वाली महिलाओं के बारे में ब्रिटेन जैसे विकसित और सभ्य समाज में भी अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल होता है, और समाज अकेली रहने वाली युवती की उम्र हो जाने पर उसे नीची नजरों से देखता है। हिन्दुस्तान में हालत ब्रिटेन के मुकाबले अधिक खराब है, और यहां पर परिवार से परे समाज और कामकाज की जगह भी सवालिया नजरों से अकेली महिला को देखने लगते हैं कि उसकी शादी क्यों नहीं हो रही है? देखने का यह नजरिया कभी नहीं रहता कि वह शादी क्यों नहीं कर रही है, और समाज का मर्दाना नजरिया शादी न होने को महिला की पसंद न मानकर उसकी बेबसी मानकर ही चलता है।
हिन्दुस्तान में सोशल मीडिया पर देखें तो अनगिनत अविवाहित लड़कियां अपने-अपने हौसले के अनुपात में समाज की खिल्ली उड़ाते हुए लिखती हैं कि किस तरह उनके शादी न करने को लेकर उनके पीछे लग जाता है, और किसी भी पारिवारिक प्रसंग में रिश्तेदार घेर लेते हैं कि अब तक शादी क्यों नहीं हुई है। वैसे तो अनगिनत युवक भी इसी बात को लिखते हैं कि हिन्दुस्तानी रिश्तेदार इस बात के पीछे लग जाते हैं कि वे शादी क्यों नहीं कर रहे हैं। हो सकता है कि अब समलैंगिकता पर बनी हुई बहुत सी हिन्दुस्तानी और हिन्दी फिल्मों को देखने के बाद मां-बाप और रिश्तेदारों को यह शक भी होता हो कि आल-औलाद उम्र हो जाने पर भी अगर शादी नहीं कर रही है, तो कहीं वह समलैंगिक तो नहीं है। लेकिन हम इससे परे भी यह बात देखते हैं कि शादी न करने और अकेले रहने का जो तनाव अकेली महिला को झेलना पड़ता है उससे अकेले आदमियों के तनाव का कोई मुकाबला नहीं हो सकता। शायद यह भी एक वजह भी होगी कि महिलाएं उम्र में अपने से बहुत बड़े, और 64 बरस के हो चुके आदमी से भी शादी करने को तैयार हो जाती हैं, बड़ी संख्या मेें हो गई हैं। ऐसे रिश्तों में फंसते हुए इन महिलाओं के जीवन में अकेले रहने को लेकर जितने किस्म की सामाजिक आशंकाएं रहती होंगी, जितने तरह के सामाजिक खतरे रहते होंगे, वे भी इन महिलाओं को ऐसी खतरनाक शादी की तरफ धकेलते होंगे। किसी महिला के अकेले रह जाने का कलंक भारतीय समाज में छोटा नहीं है, और चारों तरफ उसे लेकर मर्दों के मन में उत्साह पैदा होने लगता है, और आसपास की शादीशुदा महिलाओं के मन में आशंका। यह पूरा सिलसिला एक बहुत ही तकलीफदेह सामाजिक तनाव पैदा करता है, और ऐसी तकलीफ के बीच लड़कियां और महिलाएं कई बार खराब या खतरनाक रिश्तों में भी फंस जाती हैं।
शहरीकरण और महिला की आर्थिक आत्मनिर्भरता ने हिन्दुस्तान की इस तस्वीर को थोड़ा सा बदला जरूर है, लेकिन आज जब ब्रिटेन जैसा आधुनिक समाज भी महिलाओं को अकेले रहने पर अपमान की नजर से देखता है तो यह माना जाना चाहिए कि हिन्दुस्तान में अगली शायद आधी सदी भी अकेली महिला को सवालिया नजरें झेलनी पड़ेंगी। कुल मिलाकर आज की बात का नतीजा हम यही निकाल सकते हैं कि जिन आत्मनिर्भर और संपन्न महिलाओं ने एक शादी के फेर में ऐसे खतरे झेले, उन्हें अपनी आत्मनिर्भरता के साथ अधिक सावधान रहना था, और पुख्ता जानकारी के पहले कुछ और वक्त तक अकेले रह लेने का बर्दाश्त भी दिखाना था। आर्थिक आत्मनिर्भरता न रहने पर तो महिला को कई किस्म के अवांछित समझौते करने पड़ते हैं, लेकिन इन आत्मनिर्भर महिलाओं को ऐसे खतरों में पडऩे की कोई बेबसी नहीं थी, और उन्हें अधिक चौकन्ना रहना चाहिए था। इस एक मामले में फंसी डेढ़ दर्जन महिलाओं को देखते हुए चारों तरफ के लोगों को एक सामाजिक सावधानी और चौकन्नेपन की नसीहत लेनी चाहिए।
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छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के तहसील दफ्तर में कर्मचारियों से वकीलों ने मारपीट की। इस पर जो वीडियो सामने आए, उन्हें देखते हुए और कर्मचारियों की शिकायत पर पुलिस ने वकीलों के खिलाफ मामले दर्ज किए हैं। दोनों ही पक्ष गिरोहबंदी करके अपने-अपने मुद्दे पर अड़ गए हैं, मारपीट करते दिखने वाले वकीलों के संगठन इन मामलों को वापिस लेने की मांग कर रहे हैं, दूसरी तरफ सरकारी कर्मचारियों के संगठन वकीलों पर और कड़ी कार्रवाई मांग रहे हैं। अभी यह नौबत पूरी तरह बेकाबू इसलिए नहीं लग रही है कि राजस्व कार्यालयों और राजस्व अदालतों में वैसे भी काम इतनी धीमी रफ्तार से होता है कि लोग बरसों तक चक्कर लगाते रहते हैं, और फाईलों पर रिश्वत रखते-रखते थक जाते हैं। राजस्व विभाग का अमला भ्रष्टाचार में इस तरह डूबा रहता है कि महंगी जमीनों के धंधे वाले इलाकों में सबसे छोटे कर्मचारी पटवारी की भी दौलत करोड़ों में हो जाती है। ऐसे में इस विभाग के साथ रोजाना कामकाज वाले वकीलों का जब ऐसा बड़ा टकराव सामने आया है, तो सरकार को इस घटना से परे भी अपने अमले के बारे में सोचना चाहिए। हम किसी भी तरह से वकीलों की मारपीट को अनदेखा करने की बात नहीं सुझा रहे हैं, लेकिन ऐसी नौबत आने के पीछे क्या इस विभाग का सर्वव्यापी और संगठित भ्रष्टाचार मुख्य वजह तो नहीं है, यह भी देखना चाहिए। फिर राज्य सरकार के सामने यह घटना एक मौका भी पेश करती है कि किस तरह अपने एक भ्रष्ट विभाग के कामकाज को सुधार सके और जनता की जिंदगी इन दफ्तरों का चक्कर लगाते हुए बर्बाद होने से बचा सके। आज अगर तहसील और पटवारी दफ्तर में चक्कर लगाते लोगों से ही मतदान करवाया जाए, तो जो पार्टी सरकार में रहेगी वह शर्तिया ही हार जाएगी।
अब सरकार में राजस्व विभाग और राजस्व-अदालतों का यह अनंतकाल से चले आ रहा भ्रष्टाचार सत्ता की जानकारी में नहीं है यह कहना भी गलत होगा। लेकिन एक-एक फाईल को बरसों तक लटकाए रखने के इस विभाग के ढर्रे को बदलने की कोशिश किसी सरकार ने की हो ऐसा भी आज तक नहीं दिखा है। यह दिक्कत वकीलों की निजी दिक्कत नहीं है, यह पूरी जनता की दिक्कत है, और खासकर गरीब या अशिक्षित, बूढ़े या बीमार लोग जिस तरह पटवारी या तहसील के चक्कर लगाते हैं, और उनसे बेधडक़ जैसी खुली रिश्वत मांगी जाती है, वह देखते ही बनता है। सत्तारूढ़ पार्टी को किसी और वजह से न सही, कम से कम इस वजह से ही यह भ्रष्टाचार खत्म करना चाहिए कि सत्ता के बाद जनता की सबसे बड़ी नाराजगी जिस दफ्तर की वजह से उपजती है, वह राजस्व विभाग है।
वकीलों की दिक्कत यह रहती है कि वे जिस जगह काम करते हैं, वहां पर उनका सामना संगठित भ्रष्टाचार से होता है। जिला या जिला स्तर से नीचे की जितनी अदालतें होती हैं, उनमें चाहे या बिनचाहे जो अगली पेशी की तारीख तय होती है, उसके लिए भी दोनों पक्षों के वकीलों को रिश्वत देनी या दिलवानी पड़ती है। न्यायिक अदालतों का भ्रष्टाचार इस कदर संगठित है कि बाबुओं को रिश्वत न देने/दिलवाने वाले वकील आनन-फानन बेरोजगार हो सकते हैं। यही हाल राजस्व अदालतों में जाने वाले वकीलों का होता है, और अगर कोई वकील सौ फीसदी ईमानदार होकर काम करना चाहे, तो उसके मुवक्किल का मामला हार जाना तय सरीखा रहेगा, उसे लोग अपना केस देना नहीं चाहेंगे कि ऐसी ईमानदारी किस काम की जिससे कि केस ही हार जाएं।
कहने के लिए तो राजस्व विभाग सीधे कलेक्टर के मातहत काम करता है, लेकिन अपनी तमाम ताकत को रखकर भी न पटवारी के भ्रष्टाचार पर काबू पाते हैं, और न ही तहसील के। एक रस्म-रिवाज की तरह अधिकतर कलेक्टर अपने कार्यकाल में एक-एक बार कुछ तहसीलों का दौरा कर लेते हैं, लेकिन बहुत मौलिक काम करने वाले कलेक्टर भी इस संगठित भ्रष्टाचार को छू भी नहीं पाते। राज्य सरकार को अगर जनता को राहत देनी है, तो पटवारी और तहसील के कामकाज को समय सीमा से जोडऩा पड़ेगा कि कितने दिनों के भीतर कौन सा काम कर ही दिया जाए। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक राजस्व विभाग से काम पडऩे वाले लोग सत्ता को बद्दुआ देते ही रहेंगे, और अगर कोई सत्तारूढ़ पार्टी कम वोटों से सत्ता खोती है, तो यह मानकर चलना चाहिए कि हराने वाले ये वोटर तहसील-पटवारी दफ्तरों का चक्कर खाने वाले वोटर ही थे। फिलहाल यह मामला वकीलों और कर्मचारियों की मारपीट से शुरू हुआ है, और वीडियो सुबूतों की वजह से जांच एजेंसी का काम अधिक मुश्किल भी नहीं है, लेकिन सरकार को इससे परे भी सोचना चाहिए, और अपना घर सुधारना चाहिए।
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इंटरनेट पर बच्चों के लिए बनाए गए एक गेमिंग-प्लेटफॉर्म रोबलॉक्स की शोहरत दुनिया भर के बच्चों के बीच बहुत है लेकिन अभी इंटरनेट पर सामाजिक सुरक्षा की निगरानी रखने वालों ने यह पाया है कि इस प्लेटफॉर्म पर नग्न, अश्लील, और सेक्सुअल सामग्री पर इस प्लेटफॉर्म का कोई रोक नहीं है। इसमें कई तरह की वयस्क किस्म के सेक्स से जुड़ी सामग्री आ रही है, नस्लवादी सामग्री आ रही है, और इस पर कोई रोक नहीं है। खतरनाक बात यह है कि रोबलॉक्स को आने वाली आभासी दुनिया मेटावर्स का प्रारंभिक संस्करण माना जा रहा है कि आगे चलकर इंटरनेट के सोशल मीडिया पर सामाजिक अंतरसंबंध इसी किस्म से रहेंगे। और अब इसमें 9 से 12 बरस के बच्चे अगर इस तरह के वयस्क गेम खेल रहे हैं, सेक्स की बातें कर रहे हैं, तो उसका मतलब यह है कि मेटावर्स का यह पहला नजारा खतरनाक है। जिन लोगों ने इस खेल के बारे में अधिक नहीं जाना है उन्हें यह बताना ठीक होगा कि इसमें गेमिंग-फ्लेटफॉर्म बच्चों को तरह-तरह के अवतार धारण करने का मौका देता है, और फिर वे वहां अपना एक दायरा बनाकर उसमें ऐसे दूसरे अवतारों से संपर्क-संबंध रखते हैं। अभी यह पाया गया कि इसमेें ढेर सारे बच्चे सेक्स की बातें कर रहे हैं, और आभासी-सेक्स कर रहे हैं। इस कंपनी ने यह माना है कि बहुत कम संख्या में सही, लेकिन कुछ लोग नियमों को तोड़ते हैं, और ऐसा कर रहे हैं।
टेक्नालॉजी के साथ एक दिक्कत यह रहती है कि उस पर जुर्म या गलत काम पहले होते हैं, और उसकी रोकथाम के तरीके बाद में ही निकाले जा सकते हैं। यह कुछ उसी किस्म का है कि टेक्नालॉजी से परे की भी बाकी किस्म के जुर्म पहले होते हैं, और उनकी रोकथाम के इंतजाम बाद में होते हैं। इंटरनेट की मेहरबानी से दुनिया के लोगों के बीच अंतरसंबंध बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं और बेकाबू हद तक बढ़ रहे हैं। आज दुनिया में मनोविज्ञान की कुछ शाखाएं सोशल मीडिया पर ही केन्द्रित विकसित हो चुकी हैं। ऐसे में जब बच्चों के हाथ मोबाइल फोन और कम्प्यूटर हैं, और घर के लोगों से परे उनके पास ऐसे उपकरण बहुत समय तक रहते हैं, तो उसका एक नुकसान भी रहता है, और बहुत बड़ा खतरा भी। पाठकों को याद होगा कि हमने चार-छह दिन पहले इसी जगह पर छत्तीसगढ़ की दो घटनाओं को लेकर लिखा था जिनमें नाबालिग बच्चे ही शामिल थे। दो नाबालिग लड़कियां अपनी बुआ का फोन लेकर उससे अपने दोस्तों से गप्प मारती थीं, और जब बुआ ने रोकने की कोशिश की तो इन नाबालिग लड़कियों ने बुआ को कुल्हाड़ी से काट-काटकर मार डाला। एक दूसरी घटना उसी दिन छत्तीसगढ़ में हुई थी जिसमें पढ़ाई के लिए बच्चों को मिले हुए मोबाइल फोन पर परिवार के बच्चे पोर्न देखने लगे थे, और उसे देखते-देखते अपने ही परिवार की आठ बरस की बहन से महीनों तक सेक्स करते रहे, बाद में यह मामला परिवार के बड़े लोगों के सामने उजागर हुआ, और पुलिस तक पहुंचा।
अगर इंटरनेट पर सिर्फ पोर्न देखने से बच्चों पर ऐसा असर हुआ है कि उन्होंने घर के भीतर ही ऐसा कर डाला तो यह जाहिर है कि जब उन्हें आभासी दुनिया में जोड़ीदार बनाकर या किसी समूह में इस तरह सेक्स चर्चा का मौका मिलेगा तो वैसे देशों में बात आगे बढ़ेगी ही। जिस ब्रिटेन से यह खबर आई है कि इस गेमिंग प्लेटफॉर्म पर बच्चे ऐसे वयस्क अवतार बनकर आभासी-सेक्स कर रहे हैं, वह ब्रिटेन वैसे भी टीनएजर स्कूली छात्राओं के मां बनने की समस्या झेल रहा है। और जहां तक गेमिंग-प्लेटफॉर्म की बात है तो वह सरहदों के आरपार दुनिया के महाद्वीपों में कुछ पल में ही सब जगह पहुंच सकता है, और उसे कुछ दशक पहले की टेक्नालॉजी जैसा सफर का लंबा समय नहीं लगता।
भारत में चूंकि लगातार डिजिटल कामकाज बढ़ते रहा है, आज पढ़ाई-लिखाई और इम्तिहान तक मोबाइल फोन और लैपटॉप पर इंटरनेट के रास्ते हो रहे हैं इसलिए इसके खतरों को समझने की जरूरत है। हमने अभी कुछ ही दिन पहले इस खतरे से आगाह किया था कि बड़े-बड़े जुर्म तो पुलिस तक पहुंचकर खबरों में आ जाते हैं लेकिन बड़े जुर्म से पहले के बहुत से कम बेजा इस्तेमाल ऐसे हैं जो कि खबर नहीं बन पाते, और उनके खतरे को भी भांपते हुए सरकार और समाज को इस बारे में गौर करना चाहिए क्योंकि कुछ बातें महज सरकारी सीमा में है, और कुछ किस्म की निगरानी परिवार ही रख सकते हैं। इसलिए इन दोनों तरफ से इंटरनेट, सोशल मीडिया, और मैसेंजर सर्विसों के अश्लील या हिंसक इस्तेमाल पर रोक लगाने की जरूरत है। राज्यों की पुलिस को भी यह चाहिए कि वह सामाजिक स्तर पर जाकर लोगों के समूहों के बीच संगठित रूप से यह समझाए कि संचार उपकरणों और संचार टेक्नालॉजी को लेकर परिवार के लोगों को किस तरह सावधानी बरतनी चाहिए। चूंकि टेक्नालॉजी लगातार सुलभ होती जा रही है, बच्चों को पढऩे के लिए भी कम्प्यूटर-इंटरनेट या मोबाइल फोन जरूरी हो चुका है, इसलिए बच्चों को अश्लील, हिंसक, या किसी और किस्म के जुर्म के खतरे से बचाने की जरूरत है। इस पश्चिमी गेमिंग-प्लेटफॉर्म को लेकर आज ब्रिटेन में फिक्र चल रही है, बहस चल रही है, लेकिन छत्तीसगढ़ में एक ही दिन में दो बड़ी हिंसक घटनाएं हो जाने के बाद भी समाज में कोई सुगबुगाहट तक नहीं है, सरकार की तरफ से दो लाईन भी नहीं कही गई हैं।
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भारत के नेशनल स्टॉक एक्सचेंज, एनएसई, की एक पूर्व प्रमुख चित्रा रामकृष्ण के खिलाफ हुई एक जांच में भारत के शेयर बाजार नियामक सेबी ने पाया है कि चित्रा रामकृष्ण एनएसई की मुखिया रहते हुए अपने एक तथाकथित आध्यात्मिक गुरू से इस कदर प्रभावित थीं कि अपने पूरे कार्यकाल में वे एनएसई के हर राज इस गुरू के साथ साझा करती थीं, और उनके बताए मुताबिक काम करती थीं। सेबी ने जो पाया है वह किसी फिल्मी कहानी जैसा लग रहा है जिसमें चित्रा रामकृष्ण एनएसई के हर फैसले, हर जानकारी को इस गुरू को ईमेल करती थीं, और उनसे मिले निर्देशों को आदेश मानकर हर काम करत थीं। तीन बरस से अधिक तक एनएसई की मुखिया रही इस महिला ने इस तथाकथित गुरू के कहने पर एक आदमी को एनएसई के एक सबसे बड़े ओहदे पर करोड़ों रूपए साल पर नियुक्त किया था। यह पूरा सिलसिला बहुत ही रहस्मयमय है, और सेबी ने इसकी जांच में यह पाया है कि नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की जांच के दौरान जो कागजात उसने इक_ा किए हैं उनसे साफ होता है कि स्टॉक एक्सचेंज को पर्दे के पीछे से यह योगी ही चला रहा था, और चित्रा रामकृष्ण जब तक अपने ओहदे पर रहीं, तब तक वे महज उसके हाथों की कठपुतली बनी रहीं। देश का सबसे बड़ा स्टॉक एक्सचेंज अगर इस तरह अपने एक मुखिया के अंधविश्वास पर चलता रहा तो इससे भारत की ढांचागत सुरक्षा पर एक बड़ा सवाल खड़ा होता है। चित्रा रामकृष्ण की जांच के दौरान सेबी ने यह भी पाया कि एक तरफ तो यह महिला इस योगी को बिना शरीर वाला एक व्यक्ति बताती है जो जब चाहे जैसा चाहे शरीर धारण कर सकता था, दूसरी तरफ वह उसी गुरू के साथ घूमने के लिए विदेश भी गई ऐसा भी सेबी ने पाया है।
यह मामला चूंकि जांच में पुख्ता साबित हो रहा है इसलिए इसके बारे में आज इतनी बात हो रही है। लेकिन दूसरी तरफ यह बात अपनी जगह सही है कि सार्वजनिक ओहदों पर बैठे हुए लोग जिस तरह किसी धर्म, ईश्वर, आध्यात्मिक गुरू या किसी दूसरे अंधविश्वास के शिकार रहते हैं, वह बात उनके फैसलों पर कई बार हावी होती हैं। जब पी.व्ही. नरसिंहराव प्रधानमंत्री थे, उस वक्त वे पुट्टपर्थी के सांई बाबा के भक्त थे। उस वक्त दिल्ली के एम्स के सबसे बड़े हार्ट सर्जन डॉ. वेणुगोपाल भी सांई बाबा के भक्त थे, और प्रधानमंत्री के स्तर पर मिली एक विशेष अनुमति के आधार पर वे हर हफ्ते कुछ दिन हार्ट का ऑपरेशन करने के लिए पुट्टपर्थी के ट्रस्ट के अस्पताल जाते थे। देश के बहुत से प्रधानमंत्रियों से लेकर सुप्रीम कोर्ट के जजों तक, और चुनाव आयुक्त तक कभी किसी आध्यात्मिक गुरू के भक्त रहे, तो कभी वे अपनी धार्मिक आस्था का सार्वजनिक प्रदर्शन करते रहे। इनसे उनके कार्यक्षेत्र और अधिकार क्षेत्र के दूसरे लोगों के बीच एक प्रभामंडल बन जाता है जो कि सरकार, न्यायपालिका या चुनाव आयोग के निष्पक्ष काम करने में आड़े आता है। भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में सार्वजनिक पदों पर बैठे हुए लोगों को अपनी निजी आस्था को आडंबर और प्रदर्शन से दूर रखना चाहिए ताकि उनकी निष्पक्षता किसी संदेह से परे भी साबित हो सके। लेकिन ऐसा होता नहीं है। लोकतंत्र के भीतर भी लोग अपनी धार्मिक आस्था को अपना निजी अधिकार बताते हुए उसे सार्वजनिक पैसों से सार्वजनिक मंचों पर दिखाते रहते हैं, और उस आस्था से परे की कोई आस्था रखने वाले लोगों का विश्वास खोने में भी उन्हें कोई हर्ज नहीं लगता है।
आज सरकार से लेकर न्यायपालिका तक, और जैसा कि इस ताजा मामले से साबित हुआ है, एनएसई तक में आस्था और अंधविश्वास के आधार पर लिए गए फैसलों से भारी खतरनाक नौबत बनी रहती है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में ही हमारा देखा हुआ है कि आध्यात्मिक गुरू माने जाने वाले किसी व्यक्ति के भक्तजन न्यायपालिका और पुलिस में बड़े-बड़े ओहदों पर रहते हुए किस तरह अपनी आस्था का प्रदर्शन करते हैं, और अपने मातहत तमाम लोगों को ऐसे गुरू की सेवा में झोंक देते हैं। जाहिर है कि इन लोगों के फैसले ऐसे गुरू के प्रभाव में लिए जाते हैं, और धीरे-धीरे ऐसे गुरू मनचाहे फैसले दिलाने के दलाल भी बन जाते हैं। आस्था जब बढ़ते-बढ़ते अंधविश्वास हो जाती है और वह एक संगठन की ताकत के साथ मिलकर मनमानी करने पर उतारू होती है तो उससे आसाराम जैसे बलात्कारी से लेकर राम-रहिम जैसे मुजरिम पैदा होते हैं जो कि भक्तों से, भक्तों के बच्चों से बलात्कार करते हैं।
भारत में हमारा देखा हुआ है कि धर्म, आध्यात्म, और गुरू का यह सिलसिला कुल मिलाकर धर्मान्धता और अंधविश्वास की तरफ ही ले जाता है। देश के सबसे बड़े स्टॉक एक्सचेंज को चला रही महिला जिस तरह हिमालय में कहीं जीने वाले किसी अज्ञात और अलौकिक गुरू के कहे मुताबिक फैसले ले रही थी, उससे लोकतंत्र और सरकार के कामकाज में आस्था का खतरा भयानक पैमाने पर उभरकर सामने आया है। हिन्दुस्तान में सार्वजनिक ओहदों और जनता के पैसों से किसी भी किस्म की आस्था का प्रचार बंद होना चाहिए। लेकिन इस देश ने सुप्रीम कोर्ट के जाने कितने ही जजों को अपनी आस्था के आडंबर का प्रदर्शन करते देखा है, ऐसे में न्यायपालिका से भी कोई उम्मीद नहीं की जा सकती।
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असम की खबर है कि वहां भाजपा आज राहुल गांधी के खिलाफ राजद्रोह के हजार मामले दर्ज करवाने वाली है क्योंकि उसका कहना है कि राहुल ने तीन दिन पहले एक ट्वीट किया था जो राजद्रोह है। इस ट्वीट में राहुल ने लिखा था कि भारत के संघ में ताकत है, यह संस्कृतियों का संगठन है, यह विविधताओं का संगठन है, यह भाषाओं का संगठन है, यह लोगों का संगठन है, यह राज्यों का संगठन है। कश्मीर से केरल तक और गुजरात से पश्चिम बंगाल तक भारत अपने सारे रंगों में खूबसूरत है। भारत की विविधता की भावना का अपमान न करें। इस पर असम भाजपा का कहना है कि राहुल गांधी ने भारत को गुजरात से बंगाल तक लिखकर अरूणाचल प्रदेश में चीन के दावे को मान लिया है और यह राजद्रोह है।
ऐसा लगता है कि भाजपा के भीतर भी असम भाजपा एक अतिउग्र दक्षिणपंथी ताकत बनती जा रही है, और वहां के मुख्यमंत्री नफरत फैलाने के मामले में बाकी भाजपा नेताओं को भी खासा पीछे छोड़ देना चाहते हैं। अभी कल ही उन्होंने राहुल गांधी के पिता को लेकर कोई बयान दिया जिस पर विचलित प्रियंका गांधी ने भाजपा नेताओं को याद दिलाया कि उनकी मां देश के लिए शहीद हुए राजीव गांधी की विधवा हैं, और उनके नाम को इस तरह चुनावी गंदगी में घसीटा जाना नाजायज है। प्रियंका ने याद दिलाया कि उनकी मां शादी के बाद इस देश आई और यहीं की होकर रह गईं, उन्होंने पूरी जिंदगी यहीं की सेवा में गुजारी। असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने बयान दिया था कि भाजपा ने राहुल गांधी से इस बात का सुबूत मांगा है क्या कि वे राजीव गांधी की औलाद हैं। इस बात को लेकर तेलंगाना के सीएम के. चंद्रशेखर राव ने एक सार्वजनिक मंच से माईक पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मांग की है कि असम मुख्यमंत्री को ऐसा बयान देने के एवज में कुर्सी से हटाया जाए। केसीआर ने मोदीजी का नाम ले-लेकर खूब जमकर हमला किया कि क्या यह हमारी भारतीय संस्कृति है? क्या वेद, महाभारत, रामायण, और भगवद्गीता में यही सिखाया गया है? क्या एक मुख्यमंत्री इस तरह की बात कर सकता है? केसीआर ने कहा कि आपको लगता है कि लोग इस पर चुप रहेंगे? क्या यह भाजपा की संस्कृति है? एक भारतीय होने के नाते मैं यह जवाब मांग रहा हूं, मैं शर्मिंदा हूं। इससे इस देश का गौरव नहीं बढ़ रहा है और क्या आपको यह लगता है कि हम हाथ बांधे इस पर चुप बैठे रहेंगे? केसीआर ने कर्नाटक में खड़े किए जा रहे हिजाब विवाद को भी प्रधानमंत्री और भाजपा पर हमला किया और कहा कि जिस बेंगलुरू को हिंदुस्तान की सिलिकॉन वैली कहा जाता है उसे धर्मांधता में झोंककर कश्मीर वैली बनाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि अगर इस देश का माहौल बिगाडक़र यहां का अमन का ताना-बाना तबाह किया जाता है तो कौन यहां पर पूंजीनिवेश के लिए आएंगे, और कहां से रोजगार की संभावनाएं आएंगी?
अब इसी भाजपा मुख्यमंत्री की अगुवाई में जिस तरह असम में आज राजद्रोह के कम से कम हजार मामले राहुल गांधी के खिलाफ दर्ज करवाने की घोषणा की गई है, वह लोकतंत्र में भयानक है। राहुल गांधी के शब्दों से अगर अरूणाचल पर चीन के दावे को मान लेना माना जा रहा है, तो फिर किसी भी भाषा के किन्हीं भी शब्दों से कोई भी मतलब निकाला जा सकता है। देश के राष्ट्रगान में सिंधु शब्द चले आ रहा है, जो सिंध आज पाकिस्तान में है। फिर तो इसे लिखने वाले रवीन्द्र नाथ टैगोर को ऊपर से पकडक़र लाकर पूरी जिंदगी के लिए राजद्रोह के जुर्म में कैद सुना देनी चाहिए। और फिर जहां-जहां यह राष्ट्रगान गाया जाता है उन सबको भी जेल होनी चाहिए कि वे पाकिस्तान के एक प्रांत का गौरव गान कर रहे हैं। इतनी बड़ी गद्दारी पर तो भाजपा के कई नेता रोजाना ही पाकिस्तान भेजने की बात करते हैं और सिंध का गौरव गाने वाले हर हिंदुस्तानी को पाकिस्तान भेजने का मतलब भारत का पाकिस्तान में विलय कर देना होगा।
राजनीतिक गंदगी, बदनीयत, और आक्रामकता से परे भी राजद्रोह की यह ताजा तोहमत दिमागी दिवालियापन का एक पुख्ता सुबूत है। इसे कुतर्क कहना भी ठीक नहीं है, यह पूरी तरह से अतर्क है, यानी जिसमें तर्क कुछ भी नहीं है। एक दूसरे को राजनीतिक निशाना बनाने के लिए राज्य की पुलिस का अगर कोई सत्तारूढ़ पार्टी इस हद तक बेजा इस्तेमाल करने पर उतर आएगी, तो जाहिर है कि देश का संघीय ढांचा खत्म ही हो जाएगा, और दो राज्यों की पुलिस आपसी सरहद पर ठीक उसी तरह एक-दूसरे पर गोलियां चलाने लगेंगी जैसी कि इसी मुख्यमंत्री के राज्य में असम की पुलिस बगल के नगालैंड पुलिस पर चला रही है। तेलंगाना के सीएम केसीआर कांगे्रस के नहीं हैं, और उन्होंने जो सवाल उठाया है वह एक जायज सवाल है, और इस पर प्रधानमंत्री को गौर करना चाहिए। चुनाव तो आते-जाते रहते हैं, लेकिन चुनावी बयान राष्ट्रीय कलंक की नई-नई पराकाष्ठा बनते चले जाने से कोई चुनाव तो जीता जा सकता है लेकिन लोकतंत्र की शिकस्त तय है।
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में पिछले हफ्ते एक लडक़ी रेल की पटरी मालगाड़ी के नीचे से होकर पार कर रही थी कि अचानक मालगाड़ी चल पड़ी और वह लडक़ी निकल नहीं पाई और चीखने लगी। उसकी आवाज सुनकर वहीं खड़े एक बढ़ई ने अपनी जान की परवाह किए बिना चलती हुई मालगाड़ी के नीचे घुसकर उस लडक़ी को पकडक़र दबाकर रखा और 26 डिब्बों की मालगाड़ी ऊपर से निकल गई। इसके बाद वह लडक़ी अपने रास्ते चली गई, और यह गरीब बढ़ई बिना एक शुक्रिया के भी अपने घर चले गया। घर पर उसने अपनी बीवी को बताया कि ऐसा हादसा हुआ और उसकी कोशिश से एक लडक़ी बच गई तो घरवाली ने खुशी जाहिर की, बजाय इसके कि पति के खतरे में पडऩे को लेकर वह उस पर चढ़ाई करती। इस घटना का एक वीडियो अभी चारों तरफ फैला तो भोपाल की इस संस्था ने इस आदमी को ढूंढकर उसका सम्मान किया। और यह बढ़ई इतना गरीब था कि उसके पास एक मोबाइल फोन भी नहीं था तो संस्था ने उसे एक मोबाइल फोन भी दिया। अब इस घटना की एक आखिरी जानकारी यह है कि ऊपर से गुजर रही मालगाड़ी के नीचे इस लडक़ी को बचाए हुए इस आदमी का हुलिया वीडियो में दिखता है, और जैसा कि हिन्दुस्तान में कहा गया है कि लोगों के कपड़ों से उनकी पहचान होती है, तो इस बढ़ई ने मुस्लिम टोपी लगाई हुई थी। महबूब नाम का यह आदमी नमाज पढक़र आ रहा था, और सामने मुसीबत में इस तरह चीखती हुई लडक़ी को देखकर उसने अपने गरीब परिवार की फिक्र की किए बिना उसे बचाने के लिए अपनी जिंदगी इस तरह झोंक दी थी। मोहम्मद महबूब नाम के इस आदमी की टोपी उसका मजहब तो बता रही है, लेकिन यह टोपी किस तरह इंसानियत और बहादुरी भी अपने भीतर छुपाई हुई थी, वह इस घटना के बाद सामने आया है।
अब जिस तरह इस मुल्क में पोशाक को लेकर बवाल चल रहा है, और जिस तरह इस देश में यह कहा जा रहा है कि लोगों की पोशाक से उनका धर्म पता लगता है, तो क्या यह भी कोई सोचेंगे कि उनके धर्म से उनकी इंसानियत का भी पता लगता है या नहीं? क्या पोशाक और धर्म इस कदर मायने रखते हैं कि उनके भीतर की इंसानियत है या नहीं इसकी अहमियत खत्म हो जाती है? क्या पाकिस्तानी टैंकों को उड़ाने वाले देश के सबसे बहादुर सैनिक कैप्टन हमीद का धर्म उनकी बहादुरी को कम या अधिक कर पाएगा? या क्या उनकी पोशाक देखकर उनका धर्म पता लग सकता था? और क्या ऐसी पतासाजी इंसानियत के लिए कोई मायने रखती है? इस एक घटना से आज देश में सुलगाई और भडक़ाई जा रही पोशाक की लड़ाई की हकीकत उजागर होती है। पोशाक से अगर कोई धर्म उजागर होता है, तो उससे कोई इंसानियत तो कम से कम उजागर नहीं होती है। हो सकता है किसी पोशाक से उजागर होने वाले धर्म पर किसी को गर्व हो, लेकिन उस पोशाक के भीतर किस किस्म के इंसान हैं उससे भी यह तय होता है कि उनका धर्म उस पर गर्व करे या न करे। आज हालत यह है कि लोग अपने धर्म पर गर्व का नारा लगाते हुए ऐसी हरकतें कर रहे हैं कि उनके धर्म को उन पर सिवाय शर्मिंदगी के और कुछ न हो।
एक गरीब बढ़ई ने अपने परिवार की फिक्र किए बिना अपनी जान झोंककर एक मुसीबतजदा लडक़ी का धर्म जाने बिना जिस तरह उसकी जान बचाई, वही असली धर्म है और ऐसा बढ़ई अपने धर्म पर गर्व करे या न करे, उसका धर्म जरूर उस पर गर्व कर सकता है। दूसरी तरफ हाल ही में हुई कुछ दूसरी वारदातों को देखें तो यह समझ पड़ता है कि कौन से लोग अपने धर्म का नाम लेते हुए भी अपने धर्म पर कलंक बने हुए हैं, और अगर धर्म की कोई भावनाएं होतीं तो वह धर्म अपने ऐसे मानने वालों के जुर्म के लिए शर्म से डूब मरता, कहता कि हे धरती तू फट जा, और मुझे समा ले।
भोपाल की यह घटना छोटी सी है, लेकिन इसका वीडियो बन जाने से यह भरोसेमंद हो गई, और बहुत से धर्मान्ध और साम्प्रदायिक लोगों को शायद पहली बार यह लगा होगा कि मुस्लिम टोपी के नीचे का कोई इंसान भी कोई नेक काम कर सकता है। दूसरी तरफ कुछ धर्म के लोगों का, और खासकर इसी मध्यप्रदेश के बहुत से लोगों का अपने खुद के धर्म के बारे में यह मानना है कि वे धर्म का नाम लेकर जो कुछ भी करते हैं, जितनी भी हिंसा करते हैं, वह सब उनके धर्म का गौरव बढ़ाने का काम है। त्याग और बहादुरी किसी एक धर्म तक सीमित नहीं है, और इसकी मिसालें चारों तरफ रहती लेकिन आज इसकी चर्चा करने की जरूरत इसलिए हो रही है कि हिन्दुस्तान के इतिहास की सबसे अधिक ताकत वाली हिन्दूवादी सरकार के चलते हुए भी अगर लगातार हिन्दू को खतरे में बतलाया जा रहा है, और हिन्दू धर्म को बचाने के लिए बहादुरी के नाम पर दूसरे धर्म के लोगों पर, दूसरे किस्म की पोशाक वाले लोगों पर, दूसरे किस्म के खानपान वाले लोगों पर हमला किया जा रहा है, तो क्या उससे हिन्दू खतरे से बाहर आ जा रहा है? लोगों को यह समझने की जरूरत है कि इतनी हिन्दूवादी सरकार तो देश में कभी भी नहीं थी, और आज तो अधिकतर प्रदेशों में ऐसी ही हिन्दूवादी सरकारें हैं, उसके बाद हिन्दू कैसे खतरे में बतलाए जा सकते हैं? अगर इतनी सत्ता की ताकत भी हिन्दू पर से खतरा घटा नहीं सकती हैं, तो फिर इनके पहले की सरकारों के चलते भी हिन्दू कभी इतने खतरे में नहीं थे। इसलिए इस छोटी से घटना को लेकर यह सबक लेने की जरूरत है कि लोगों की पोशाक से उनके धर्म की अटकल न लगाएं, बल्कि लोगों की हरकतों से उनके भीतर की इंसानियत की, या उसकी नामौजूदगी की अटकल जरूर लगाएं।
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बिहार की राजधानी पटना में गायघाट सरकारी शेल्टरहोम में रखी गई लड़कियों में से एक ने वहां की महिला सुपरिटेंडेंट पर यह आरोप लगाया था कि वह लड़कियों से गलत काम करवाती है, और उन्हें मारपीट कर खाने में नशीली चीजें मिलाकर बाहर से लडक़ों को बुलाकर उनके साथ सेक्स करने को मजबूर करती है। कैमरों के सामने इस लडक़ी ने ये शिकायतें की थीं, लेकिन सरकार ने इन आरोपों को खारिज कर दिया, न इनकी कोई जांच करवाई, और न ही पुलिस ने शिकायत पर एफआईआर दर्ज की। जब यह मामला मीडिया में खूब आया तो उसके बाद पटना हाईकोर्ट ने खुद होकर इस मामले में दखल दी और सरकार और पुलिस को कड़ी फटाकर लगाई। अब हाईकोर्ट ने इस पीडि़ता को बयान दर्ज करने के लिए बुलाया है। बिहार में बीजेपी और जेडीयू, दो पार्टियों की डबल इंजन वाली सरकार है, और वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार स्वघोषित सुशासन बाबू हैं, उनके राज में सरकारी शेल्टरहोम के खिलाफ ऐसी गंभीर और भयानक शिकायत पर सरकार का यह रूख है। बिहार में कुछ संवैधानिक संस्थाएं भी होंगी, महिला आयोग, मानवाधिकार आयोग, बाल आयोग या बाल कल्याण परिषद, लेकिन मीडिया में लगातार छप रही इस घटना पर इनमें से किसी की भी नींद नहीं खुली, जाहिर है कि इन पर चर्बी बढ़ाने के लिए सरकार की पसंद के लोग मनोनीत किए गए होंगे, आमतौर पर सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन के नेता ही मनोनीत हुए होंगे, और उनकी भला मुसीबतजदा लोगों में क्या दिलचस्पी हो सकती है कि अपने राजनीतिक आकाओं को नाराज करके वे इंसाफ के बारे में सोचें।
लेकिन यह हाल महज बिहार में हो ऐसा भी नहीं है, देश भर में संवैधानिक संस्थाओं और सत्तारूढ़ पार्टी के बीच ऐसा ही एक नाजायज गठबंधन रहता है कि ऐशोआराम और अहमियत के लिए इन कुर्सियों पर बैठाए गए लोगों से यही उम्मीद की जाती है कि वे सरकारी जुल्म-ज्यादती या सरकारी जुर्म की तरफ न देखें, और देश के संविधान के तहत बनाए गए इन ओहदों पर मजा करते रहें। हिन्दुस्तान में शायद ही किसी प्रदेश में संवैधानिक संस्था पर बिठाए गए लोग अपनी जिम्मेदारी पूरी करते होंगे, और अधिकतर मामलों में तो अदालतें अपने रोज के कामकाज से आगे बढक़र खुद होकर ऐसी सुनवाई शुरू करती हैं, और तब तक भी कमजोर तबकों के संरक्षण के लिए बनाई गई संवैधानिक संस्थाओं के मुंह भी नहीं खुलते।
आज देश में जरूरत यह है कि सत्तारूढ़ पार्टी की पसंद का सम्मान करने के लिए जनता के पैसों पर किए जा रहे ऐसे मनोनयन खत्म करना चाहिए जिन्हें संविधान के तहत जरूरी बनाया गया है, लेकिन जिनका कोई योगदान कमजोर जनता को बचाने में नहीं रह गया है। कुछ समय पहले हमने इसी जगह पर रिटायर्ड नौकरशाहों और जजों को केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा तरह-तरह के आयोगों में मनोनीत करने के खिलाफ लिखा था कि यह हितों के टकराव का मामला है। अब ऐसी संवैधानिक कुर्सियों के बारे में भी हमारा यही मानना है कि यह सत्ता द्वारा मनोनयन करने के एवज में सत्ता को बचाने का एक मामला है, और यह सिलसिला खत्म होना चाहिए क्योंकि इसे संविधान के नाम पर चलाया जा रहा है, और जनता के पैसों से जनता के हितों के खिलाफ चलाया जा रहा है। देश भर में महिला आयोग, बाल आयोग, मानवाधिकार आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग जैसी तमाम संस्थाओं के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक विशेषज्ञ लिस्ट बनाने की जरूरत है जिसमें देश भर से छांटे हुए नाम रहें। इसके बाद हर प्रदेश के लिए इस किस्म के ओहदों पर नाम तय करते हुए लॉटरी से नाम निकालकर लोगों को भेजना चाहिए, और राज्य शासन के साथ उनके संबंध संवैधानिक दूरी के बने रहना चाहिए। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक कमजोर तबकों को विशेष सुरक्षा देने के लिए बनाई गई ऐसी संवैधानिक संस्थाएं जनता का पेट काटकर उन पर लादा गया बोझ हैं। बिहार में अगर इनमें से किसी भी संवैधानिक संस्था ने अपनी जिम्मेदारी पूरी की होती, तो शायद पहले से ही काम से लदे हुए पटना हाईकोर्ट को खुद होकर दखल देने की जरूरत नहीं पड़ती।
कमजोर तबकों को विशेष सुरक्षा के नाम पर की गई संवैधानिक व्यवस्था पूरी तरह बोगस है और वह जनता के पैसों की लूटपाट से मौज-मस्ती का एक जरिया बनी हुई है। ऐसी हरामखोरी से तो बेहतर यह है कि इन संस्थाओं की व्यवस्था ही खत्म कर दी जाए, और हाईकोर्ट में जजों का पद बढ़ा दिया जाए जो कि खुद होकर जनहित के मुद्दों को देख सकें, और सरकार से जवाब-तलब कर सकें। आज एक तरफ तो सरकारी या गैरसरकारी मुजरिम कमजोर लड़कियों और बच्चों से संस्थागत इंतजाम में बलात्कार करते हैं, और उनसे पेशा करवाते हैं, लेकिन दूसरी तरफ इससे उन बच्चों को बचाने का कोई भी इंतजाम कारगर नहीं हो रहा। जो-जो मामले सामने आते हैं उनमें दिखता है कि सरकारी नालायकी और अनदेखी किस परले दर्जे की थी बल्कि अधिकतर मामलों में जुर्म में सरकार की भागीदारी भी दिखती है। हिन्दुस्तानी कानून में फेरबदल करके जब तक ऐसे आयोगों के लिए लोगों का मनोनयन राजनीतिक ताकतों के हाथ से लिया नहीं जाएगा, और एक पारदर्शी संवैधानिक प्रक्रिया बनाकर उसे असरदार नहीं बनाया जाएगा तब तक जनता के पैसों की इन कुर्सियों पर बर्बादी एक और जुर्म है।
लोगों को याद रहना चाहिए कि चार बरस पहले इसी बिहार प्रदेश के मुजफ्फरपुर में सरकारी अनुदान पर चलने वाले एक एनजीओ के चलाए जा रहे शेल्टरहोम में इस बड़े पैमाने पर बच्चियों से बलात्कार हुए थे और उन्हें सेक्स के धंधे में धकेल दिया गया था कि उस मामले ने देश को हिलाकर रख दिया था। इस बालिका गृह को चलाने वाला एनजीओ संचालक ब्रजेश ठाकुर ऐसी चौंतीस बच्चियों के सेक्स-शोषण का जिम्मेदार पाया गया था, और 2018 के इस मामले का भी सुप्रीम कोर्ट ने खुद होकर नोटिस लिया था और इसकी सुनवाई शुरू की थी। इसके बाद इस मामले को बिहार के सत्तारूढ़ राजनीतिक असर से बचाने के लिए दिल्ली की एक अदालत में भेजा गया था और सुप्रीम कोर्ट ने अपनी निगरानी में छह महीने में इसकी सुनवाई करवाई थी। इस मामले में बिहार की उस वक्त की एक मंत्री मंजू वर्मा का नाम भी आया था जिन्हें इस्तीफा देना पड़ा, लेकिन इसके बाद 2020 के बिहार चुनाव में सत्तारूढ़ जेडीयू ने फिर उन्हें टिकट दी थी। जिस देश में सत्तारूढ़ पार्टी और बेबस बच्चियों से बलात्कार के बीच इस तरह का संबंध हो, उस देश में हरामखोरी करने के लिए और संवैधानिक कुर्सियां क्यों बढ़ानी चाहिए?
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पाकिस्तान की खबर आई है कि वहां तीन बेटियों की एक मां ने चौथी संतान बेटा पाने के लिए जादू के करिश्मे का दावा करने वाले अपने को पीर बताने वाले एक आदमी के झांसे में जान खतरे में डालने वाला काम किया है। दो इंच से लंबी एक कील को हथौड़े से उसके माथे पर ठोक दिया गया कि इससे उसे बेटा होगा। इसके बाद जब महिला से वह कील खुद ही सरोते से नहीं निकल पाई और उसकी हालत बिगडऩे लगी तो उसे पेशावर शहर के एक अस्पताल ले जाया गया और वहां डॉक्टरों ने ऑपरेशन करके यह कील निकाली। गनीमत यही रही कि यह कील इतने भीतर तक जाने पर भी उसके दिमाग में नहीं घुसी थी। पुलिस का कहना है कि अस्पताल से वीडियो फूटेज लिए गए हैं और जल्द ही उस महिला से पूछताछ करके कील ठोंकने वाले को गिरफ्तार किया जाएगा।
अब पाकिस्तान के हालात हिन्दुस्तान से बहुत अलग हैं। इसलिए वहां एक लडक़े की चाह में अगर कोई महिला ऐसा कर बैठी है तो उसके पीछे कई निजी और सामाजिक वजहें हो सकती हैं। एक वजह तो यह हो सकती है कि लड़कियों की हिफाजत आज इन दोनों ही मुल्कों में एक बड़ा खतरा बनी हुई है। हिन्दुस्तान के अधिकतर प्रदेशों में लड़कियों और महिलाओं की हिफाजत मुश्किल होती जा रही है और यह खतरा पेशेवर मुजरिमों से न होकर समाज से ही हो रहा है, अपने घर-परिवार के भीतर भी हो रहा है। कर्नाटक के ताजा हिजाब विवाद का लेना-देना भी लड़कियों से है और इसके पीछे की सरकारी-साम्प्रदायिक वजहों को छोड़ भी दें, तो यह मुस्लिम समाज के भीतर लड़कियों और महिलाओं से भेदभाव का एक जलता-सुलगता मामला है जिसमें पोशाक की हर किस्म की बंदिश सिर्फ लड़कियों-महिलाओं पर लादी गई हैं, और लडक़े और आदमी तमाम किस्म की हरकतों के लिए आजाद रहते हैं। राजस्थान को देखें तो आज इक्कीसवीं सदी में भी पूरे प्रदेश की महिलाएं घूंघट में दिखती हैं, बाकी देश में भी अधिकतर समाजों में तमाम रोक-टोक महिलाओं पर ही लागू है। इसलिए हिन्दुस्तान हो या पाकिस्तान संतान के होने पर आमतौर पर बेटे की ही खुशी मनाई जाती है, और बेटी होने पर लोग मन मसोसकर रह जाते हैं।
अब पाकिस्तान की इस ताजा घटना का अंधविश्वास से भी लेना-देना है, और इस मामले में भी हिन्दुस्तान कहीं पीछे नहीं है। छत्तीसगढ़ और झारखंड में जादू-टोने के नाम पर पेशेवर बैगा-ओझा-गुनिया लोगों को लूटते हैं, और पैसों के साथ-साथ महिलाओं-बच्चों के बदन भी लूटते हैं। और ऐसी ही घटनाओं के इर्द-गिर्द जादू करने वाले लोगों की हत्याएं भी सुनाई पड़ती हैं। जब पेशेवर लोग जादू करने का दावा करते हैं, तो यह जाहिर है कि उन्हें सचमुच काला जादू करने वाला मानकर लोग उन्हें मार भी डालते हैं। हिन्दुस्तान मेें आल-औलाद की चाह के लिए या बेटियों के बाद बेटे की चाह के लिए लोग तमाम किस्म के अंधविश्वास के भी शिकार होते हैं, और वे यह भी कोशिश करते हैं कि भ्रूण परीक्षण से पता लग जाए कि पेट में बेटी है तो उसे मार डाला जाए, और अगली बार बेटे की कोशिश की जाए।
बेटे की चाह को लोगों की निजी चाह मानना भी गलत होगा। आज की सामाजिक हकीकत यही है कि एक बेटी को बड़े करने से लेकर उसके शादी-ब्याह तक, और उसके ससुराल में उसकी सुरक्षित जिंदगी तक के लिए मां-बाप को अंतहीन फिक्र करनी होती है, अंतहीन खतरे उठाने होते हैं। समाज में लड़कियों के साथ जितने तरह के जुल्म होते हैं, उन्हें जितने किस्म के सेक्स अपराध झेलने पड़ते हैं, स्कूल-कॉलेज से लेकर खेल के मैदान और प्रयोगशाला तक जितने किस्म के सेक्स-शोषण का खतरा उन पर मंडराते रहता है, वह सब मां-बाप पर बहुत भारी पड़ता है, और हिन्दुस्तानी मां-बाप को महज बेटे की चाह में अंधा कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि बेटी को बड़ा करना बहुत अधिक आशंकाओं से भरा हुआ और चुनौती का काम होता है।
जिन बातों को हम कर रहे हैं इनका कोई आसान रास्ता नहीं है। फिर भी हिन्दुस्तान और पाकिस्तान जैसे देशों में महिलाओं की स्थिति को लेकर लगातार चर्चा की जरूरत रहती है और सामाजिक जागरूकता से लेकर कानूनी सुरक्षा तक के मोर्चे पर लगातार मेहनत की जरूरत है। आज कुछ संगठन इन मुद्दों पर चर्चा जरूर करते हैं लेकिन ऐसा लगता है कि ये चर्चाएं जागरूक लोगों के दायरे में, जागरूक लोगों द्वारा, जागरूक लोगों के लिए होकर रह जाती हैं, और समाज के व्यापक हिस्से तक इनका असर नहीं पहुंच पाता। पाकिस्तान के इस ताजा मामले को देखें तो वह एक बार फिर यही साबित करता है कि अंधविश्वास का अधिक शिकार महिलाएं ही होती हैं। उन्हीं के बीच अशिक्षा अधिक है, उन्हें जागरूक बनाते हुए समाज के मर्द डरते हैं कि वे जागरूक होकर मर्दों के खिलाफ ही खड़ी न हो जाएं। इसलिए समाज उन्हें बुर्के और घूंघट के भीतर रखना चाहता है, घर के भीतर रखना चाहता है, जागरूकता के मोर्चे से दूर रखना चाहता है, और जहां तक मुमकिन हो सके लडक़ी को मां के गर्भ में ही खत्म कर देना चाहता है। ऐसे तमाम मुद्दों पर जहां मौका मिले वहां चर्चा होनी चाहिए, इसीलिए हम आज पाकिस्तान की इस एक अकेली घटना को लेकर उससे जुड़े हुए दूसरे मुद्दों को भी सामने रख रहे हैं।
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दुनिया की एक सबसे बड़ी और सबसे कामयाब टेक्नालॉजी कंपनी, टेस्ला के संस्थापक और आज अंतरिक्ष में पर्यटक भेजने से लेकर पूरी दुनिया में उपग्रहों का घेरा डालने वाले एलन मस्क दुनिया के सबसे अमीर इंसान भी हैं। उनकी कंपनी बैटरी से चलने वाली कारें बनाने वाली दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी है, और वे हिन्दुस्तान सहित दुनिया के हर देश के ऊपर उपग्रह पहुंचाकर उससे इंटरनेट कनेक्शन देने का काम शुरू कर चुके हैं। इस परिचय की जरूरत आज उनके एक बयान को लेकर पड़ी है जिसमें उन्होंने आज के मीडिया में बुरी और नकारात्मक खबरों की बमबारी के बारे में लिखा है। उन्होंने यह सवाल उठाया है कि दुनिया में आज जो कुछ हो रहा है उसे पता लगाना इसके बिना मुश्किल हो गया है कि आपको ऐसी खबरों की भीड़ से गुजरना पड़े जो आपको दुखी और नाराज करती हैं। उन्होंने यह सवाल किया है कि परंपरागत मीडिया क्यों बिना थके हुए नफरत फैलाने में लगा हुआ है? उन्होंने ट्विटर पर लिखा कि अधिकतर मीडिया इस सवाल का जवाब देने में लगे रहता है कि धरती पर आज सबसे बुरा क्या-क्या हुआ है। एलन मस्क का कहना है कि यह धरती इतनी बड़ी है कि जाहिर है कि हर पल कहीं न कहीं कुछ बुरी चीजें हो रही होंगी, लेकिन इन्हीं चीजों पर लगातार फोकस किए रहने से हकीकत की असली तस्वीर पेश नहीं हो पाती हैं। उनका कहना है कि हो सकता है कि परंपरागत मीडिया इतना नकारात्मक इसलिए रहता हो क्योंकि पुरानी आदतें जल्द खत्म नहीं होती हैं, लेकिन इस मीडिया की सकारात्मक होने की कोशिश भी दुर्लभ है।
अब यह बात तो कुछ अधिक हैरान इसलिए भी करती है कि अमरीका में बैठे हुए एलन मस्क न तो हिन्दुस्तान के अखबार देखते हैं और न यहां के टीवी चैनल देखते हैं, वे हिन्दुस्तानी हवा में आज बहुत बुरी तरह फैली हुई जहरीली नफरत से भी रूबरू नहीं हैं, वरना वे पता नहीं और क्या लिखते, और क्या कहते। लेकिन हम उनकी बातों से परे भी इस पर आना चाहते हैं कि क्या परंपरागत और मुख्य धारा का कहा जाने वाला मीडिया सचमुच ही इतना नकारात्मक है कि उसे कोई भली बात दिखती ही नहीं? लोगों को याद होगा कि एक वक्त हिन्दुस्तान में मनोहर कहानियां नाम की एक सबसे लोकप्रिय अपराध पत्रिका खूब चलती थी, और एक वक्त ऐसा था जब यह पत्रिका उसी वक्त की सबसे लोकप्रिय समाचार पत्रिका इंडिया टुडे से भी अधिक छपती और बिकती थी। हिन्दी इलाकों में ऐसा माना जाता था कि लोग मनोहर कहानियां के बिना सफर नहीं करते थे, लेकिन घर आते ही उसे गद्दे के नीचे डाल देते थे क्योंकि उसमें हत्या और बलात्कार की घटनाओं का काल्पनिक विस्तार करके छापा जाता था, और वह परिवार के लायक पत्रिका नहीं मानी जाती थी। बाद में धीरे-धीरे जब हिन्दी टीवी चैनलों पर अपराध के कार्यक्रम आने लगे, तो शायद उसी वजह से इस पत्रिका का पतन हुआ, और अब शायद वह गायब हो चुकी है। लेकिन मीडिया का रूख हत्या-बलात्कार जैसे जुर्म से हटकर अब साम्प्रदायिकता और नफरत, धर्मान्धता और राजनीति जैसे जुर्म पर केन्द्रित हो गया है, और पहले के जो रेप-मर्डर के जो निजी जुर्म रहते थे, वे अब मीडिया में छाए हुए अधिक खतरनाक सामुदायिक और सामूहिक जुर्म के लिए जगह खाली कर गए हैं। एक हत्या से आगे दूसरी हत्या का रास्ता खुलने की नौबत कम ही आती थी अगर हत्या के बदले हत्या जैसा कोई मामला न रहता हो। लेकिन आज तो धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता के मुकाबले दूसरे तबकों की धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता लगातार बढ़ती चल रही है, और यह निजी अपराधों के मुकाबले अधिक खतरनाक नौबत है। फिर यह भी है कि कम से कम हिन्दुस्तान का गैरअखबारी मीडिया तो अखबारों के जमाने के मीडिया के मुकाबले नीति-सिद्धांत पूरी तरह खो चुका है, और आज तो अखबारी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा पूरी ताकत से धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता, नफरत और हिंसा फैलाने में जुट गया है।
आज हम दूसरे किस्म की नकारात्मक खबरों पर अधिक नहीं जा रहे जो कि भ्रष्टाचार की हैं या मामूली गुंडागर्दी की हैं। आज जब पूरे लोकतंत्र को, पूरे देश को तबाह करने की साजिशों में बड़े फख्र के साथ शामिल होकर मीडिया अपने आपको कामयाब भी बना रहा है, और पहले के मुकाबले अधिक बड़ा कारोबार भी बन रहा है, तो ऐसे में फिर भ्रष्टाचार या चाकूबाजी जैसी हिंसा को महत्वपूर्ण अपराध क्यों माना जाए? एलन मस्क ने तो अमरीकी मीडिया को देखकर अपनी सोच लिखी है, लेकिन हिन्दुस्तान के लोगों को भी यह सोचना चाहिए कि वे जिस मीडिया के ग्राहक हैं, या जिस मीडिया के विज्ञापनदाता हैं, वह मीडिया हिन्दुस्तान के लोकतंत्र को आज क्या दे रहा है, इंसानियत को आज क्या दे रहा है? यह सोचे बिना अगर लोग गैरजिम्मेदारी से गैरजिम्मेदार मीडिया के ग्राहक और विज्ञापनदाता बने रहेंगे, तो लोकतंत्र में जिम्मेदार मीडिया के जिंदा मीडिया रहने की गुंजाइश ही नहीं रहेगी, और आज वह वैसे भी खत्म सरीखी हो गई है। लोग अगर मीडिया से भगत सिंह जैसी शहादत की उम्मीद करते हैं, तो उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि मीडिया यह काम खाली पेट नहीं कर सकता, और लोग जिस किस्म के मीडिया का पेट भरेंगे, उसी किस्म का मीडिया ताकतवर होकर समाज को अपने तेवर दिखाएगा। लोग लोकतंत्र को जिम्मेदारी के साथ पा सकते हैं, या गैरजिम्मेदार होकर खो सकते हैं।
कर्नाटक का जो वीडियो सामने आया है वह पूरे हिन्दुस्तान और खासकर हिन्दू धर्म को मानने वाले लोगों के लिए भारी शर्मिंदगी का है कि किस तरह वहां मुस्लिम छात्राओं के हिजाब के खिलाफ साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा भगवा-केसरिया दुपट्टा पहनाकर झोंक दिए गए हिन्दू छात्रों की भीड़ ने हिजाब पहनी एक अकेली मुस्लिम लडक़ी को घेरकर उसके खिलाफ नारेबाजी की और उसकी बेइज्जती की। यह बहादुर लडक़ी अकेली वहां से इस भीड़ के बीच से निकली, और उसने सोशल मीडिया पर देश के तमाम गैरसाम्प्रदायिक लोगों का दिल जीत लिया, लोगों की वाहवाही पाई। देश के कुछ सबसे तीखे कार्टूनिस्टों ने इस लडक़ी पर किए जा रहे हमले, और उस लडक़ी की बहादुरी पर धारदार कार्टून बनाए हैं। इस मामले में हमने दो-तीन दिन पहले ही इसी जगह लिखा था लेकिन इन तीन दिनों में घटनाएं इस तेजी से आगे बढ़ी हैं, और यह विवाद चल ही रहा है इसलिए हम इस पर एक बार लिखना जरूरी और जायज समझ रहे हैं।
कर्नाटक के इस हिजाब विवाद में कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी ने कहा है कि महिलाएं बिकिनी पहनें, या हिजाब, घूंघट डालें, या जींस पहनें, यह उनका अधिकार है जो कि भारत के संविधान में उसे दिया है इसलिए महिलाओं को प्रताडि़त करना बंद करें। ऐन चुनाव के वक्त प्रियंका गांधी का यह बयान एक हौसलामंद रूख है जो कि दकियानूसी या कट्टरपंथी वोटरों को नाराज करने की कीमत पर भी देश की लड़कियों और महिलाओं की बुनियादी हक की बात करता है और कट्टरपंथियों पर वार भी करता है। आमतौर पर राजनीति के लोग ऐसी हिम्मत दिखाने से कतराते हैं, और गोलमोल जुबान में बात करते हैं, लेकिन प्रियंका गांधी ने साफगोई दिखाकर ठीक काम किया है। लोगों को याद होगा कि उत्तरप्रदेश से कांग्रेस ने एक ऐसी युवती को टिकट दिया है जिसने एक वक्त मिस इंडिया बिकिनी का खिताब जीता था, और उसकी पुरानी तस्वीरें निकालकर उसके खिलाफ प्रचार किया जा रहा है। यह करने वाले लोग यह भूल रहे हैं कि एक वक्त भाजपा की सांसद मेनका गांधी भी बॉम्बे डाईंग के तौलिये लपेटकर उनकी मॉडलिंग कर चुकी हैं, और स्मृति ईरानी भी टीवी सीरियलों पर कई तरह के किरदार कर चुकी हैं।
दूसरी तरफ कर्नाटक हाईकोर्ट में जस्टिस कृष्ण एस. दीक्षित की अध्यक्षता वाली बेंच में इस मामले पर सुनवाई चल रही है। सरकारी ड्रेसकोड के नाम पर वहां के स्कूल-कॉलेज से हिजाब हटाने के खिलाफ लगाई गई एक याचिका पर हाईकोर्ट जज ने कहा कि चूंकि सरकार इस अनुरोध पर राजी नहीं है कि दो महीनों के लिए छात्राओं को हिजाब पहनने दिया जाए इसलिए हम इस मामले पर मेरिट के आधार पर फैसला लेंगे। हाईकोर्ट ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय हमें देख रहा है और यह कोई अच्छी तस्वीर नहीं है। जस्टिस दीक्षित की पीठ ने कहा- हमारे लिए संविधान भागवत-गीता के सामान हैं। हमें संविधान के मुताबिक ही कार्य करना होगा, हम संविधान की शपथ लेने के बाद इस निष्कर्ष पर आए हैं कि इस मुद्दों पर भावनाओं को परे रखकर सोचा जाना चाहिए। सरकार कुरान के खिलाफ आदेश नहीं दे सकती, कपड़े पहनने का विकल्प मूल अधिकार है, हिजाब पहनना भी मौलिक अधिकार है, हालांकि सरकार मौलिक अधिकार को सीमित कर सकती है। अदालत का कहना है कि यूनिफॉर्म को लेकर सरकार का स्पष्ट आदेश नहीं है इसलिए हिजाब पहनना निजी मामला है, और सरकार का आदेश निजी हदों का उल्लंघन करता है। जस्टिस दीक्षित की बेंच ने सरकार से यह सवाल भी किया कि वे दो महीने के लिए हिजाब पहनने की अनुमति क्यों नहीं दे सकते, और समस्या क्या है?
इस बात को अनदेखा करना ठीक नहीं होगा कि कर्नाटक हाईकोर्ट की जिस बेंच ने ये सवाल किए हैं और यह सोच सामने रखी है उसके मुखिया एक हिन्दू जज हैं। और उनका रूख इस बात से भी दिखता है कि बेंच ने इस दौरान सिक्ख समुदाय से संबंधित विदेशी अदालतों के फैसलों का जिक्र देते हुए कहा कि सिक्खों के मामले में न सिर्फ भारत की अदालत ने, बल्कि कनाडा और ब्रिटेन की अदालतों ने भी उनकी प्रथा को आवश्यक धार्मिक परंपरा के तौर पर माना। हमारे पाठकों को याद होगा कि दो दिन पहले जब इस मुद्दे पर हमने इसी जगह लिखा उस वक्त हमने धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल को लेकर हिन्दुस्तान के साथ-साथ पश्चिमी देशों में भी सिक्खों को अपनी पगड़ी, कड़े, और प्रतीकात्मक कटार को लेकर मिली हुई कानूनी छूट का जिक्र किया था, और यह लिखा था कि मुस्लिम लड़कियों का हिजाब पहनने का आग्रह कोई अकेली धार्मिक मांग नहीं है। हिन्दू छात्र भी अपनी धार्मिक आस्था के अनुरूप बालों के पीछे चुटैया रखते ही हैं। इस धर्मनिरपेक्ष देश में भी हमने सरकारी कामकाज में चारों तरफ मोटेतौर पर हिन्दू धार्मिक रीति-रिवाजों के इस्तेमाल की एक लंबी फेहरिस्त गिनाई थी।
अब आज यह समझने की जरूरत है कि यह पूरा बखेड़ा इस अंदाज में क्यों खड़ा हो रहा है? कर्नाटक के बाद अब मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार ने यह घोषणा की है कि वह भी स्कूल यूनिफॉर्म के नियम कड़े करके कर्नाटक की तरह ही हिजाब पर रोक लगाएगी। मध्यप्रदेश के स्कूल शिक्षा मंत्री ने कहा है कि हिजाब बैन होगा। मजे की बात यह है कि हिन्दुस्तान के अनगिनत सरकारी और निजी स्कूलों में लड़कियों के पोशाक की स्कर्ट पर हिन्दूवादी राज्य सरकारों को कोई आपत्ति नहीं है। स्कर्ट जो कि एक विदेशी पोशाक है, जिसमें लड़कियों के बदन का एक हिस्सा दिखता है, और जो कि बहुत से ठंडे प्रदेशों में सही पोशाक भी नहीं है, उसके खिलाफ किसी हिन्दूवादी सरकार या संगठन को कुछ नहीं लगा। अब ऐसे में जब कर्नाटक से यह बवाल उठकर दूसरे भाजपा शासित राज्यों तक पहुंच रहा है तो इसके पीछे की राजनीति समझने की जरूरत है कि मुस्लिम तनाव को घेरे में लेकर हांका डालकर इस तरह छेककर मारने का यह काम ठीक यूपी-उत्तराखंड चुनाव के वक्त हो रहा है जहां पर लगातार धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने की कोशिश हो रही है। कर्नाटक की भाजपा सरकार आज हाईकोर्ट के सामने भी जिस तरह अपनी इस ध्रुवीकरण की कोशिश पर अड़ी हुई है, वह सारी कोशिश उत्तरप्रदेश के हिन्दू और मुस्लिम वोटरों के बीच एक भावनात्मक खाई खोदने की कोशिश है, और इस साजिश को अच्छी तरह समझने की जरूरत है। आज जब हिन्दुस्तान के समाचार-टीवी चैनल दक्षिण भारत के एक मंदिर की दर्शनीय पोशाक में सजे हुए एक आस्थावान हिन्दू की तरह समाचार-बुलेटिनों में छाए हुए हैं, सोशल मीडिया पर उनकी तस्वीरें और उनके वीडियो पट गए हैं, ऐन उसी वक्त मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक कर्नाटक का हिजाब-प्रतिबंध भी छाया हुआ है। इन दोनों नजारों को एक साथ पेश करने से जो तस्वीर बन रही है, वह उत्तरप्रदेश के चुनाव प्रचार की रणनीति दिखती है। अब सवाल यह है कि ध्रुवीकरण करके मुस्लिम अल्पसंख्यक वोटर-तबके को किनारे करने के लिए देश के इतिहास की गौरवशाली परंपराओं और संविधान के मौलिक अधिकारों के बुनियादी ढांचे को कितना गिराया जाएगा? जो लोग अभी के इस विवाद को अनायास मान रहे हैं, उन्हें चुनाव प्रचार के हर पहलू के सायास होने की बात समझनी चाहिए।
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हिन्दुस्तान में जब कभी यह धोखा होने लगे कि इससे घटिया शायद और कुछ नहीं हो सकेगा, उसी वक्त देश के बहुत से लोग इस खुशफहमी को एक चुनौती की तरह ले लेते हैं, और यह साबित करने लगते हैं कि उनके पहले का घटियापन तो कुछ भी नहीं था, असली माल तो उन्होंने अभी छुपा ही रखा था, जिसे अब पेश कर रहे हैं। लता मंगेशकर गुजरीं, और उनके अंतिम संस्कार के वक्त प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक और सार्वजनिक जीवन के अनगिनत लोगों तक ने श्रद्धांजलि दी। इस मौके पर फिल्म अभिनेता शाहरूख खान भी वहां पहुंचे, और उन्होंने अपने मुस्लिम रिवाजों के मुताबिक हाथ उठाकर लता मंगेशकर के लिए दुआ की, उनके साथ खड़ीं उनकी सेके्रटरी पूजा ददलानी अपने हिन्दू रिवाजों के मुताबिक हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रही थीं। दुआ करने के तुरंत बाद शाहरूख खान ने अपने धार्मिक रिवाजों के मुताबिक लता मंगेशकर के पार्थिव शरीर की ओर फूंका। इस पर भाजपा के एक नेता, हरियाणा के भाजपा आईटी सेल के प्रभारी अरूण यादव ने शाहरूख की फोटो के साथ यह लिखकर सोशल मीडिया पर पोस्ट किया- क्या इसने थूका है?
यह याद रखने की जरूरत है कि लता मंगेशकर अपनी पूरी जिंदगी सावरकर से लेकर नरेन्द्र मोदी तक की समर्थक रही हैं, कट्टर हिन्दू विचारधारा की रही हैं, और सार्वजनिक जीवन में वे अपनी सोच को बार-बार लिखती भी रही हैं। उनके गुजरने पर केन्द्र की मोदी सरकार ने दो दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया था, और महाराष्ट्र की सरकार ने तीन दिन का। यह शोक चल ही रहा था, राजकीय सम्मान के साथ लता का अंतिम संस्कार हो रहा था, पाकिस्तान सहित दुनिया के बहुत से हिस्सों से लता को श्रद्धांजलि दी जा रही थी, लेकिन दुख-तकलीफ के ऐसे मौके पर एक भाजपा शासित राज्य का भाजपा का आईटी सेल प्रभारी परले से परले दर्जे की यह घटिया नफरत हिन्दुस्तान की एकता पर थूक रहा था। फिर साम्प्रदायिकता को उपजाने-भड़काने और फैलाने के लिए बदनाम एक टीवी चैनल को तो यह नफरत रेडीमेड मिली, उसने अपने स्क्रीन पर इसे फैलाते हुए नफरत के इस थूक को पेट्रोल में तब्दील करने में अपना पसीना बहा दिया। हालत यह हो गई कि पेशेवर नफरतजीवियों ने सोशल मीडिया पर अपनी गंदी सोच के थूक का सैलाब ला दिया, और दुनिया को यह भरोसा दिलाने में लग गए कि शाहरूख ने लता मंगेशकर के शव पर थूका है। ये लोग अपने मां-बाप और उनके भी कई पीढ़ी पहले के पुरखों के नाम पर थूक रहे थे, इस देश की बहुत सी गौरवशाली परंपराओं के नाम पर थूक रहे थे, और हिन्दुस्तान के अच्छे वर्तमान और भविष्य की संभावनाओं पर भी थूक रहे थे। दिक्कत यह है कि जिनका नाम जपते हुए ये नफरतजीवी रात-दिन सोशल मीडिया पर मेहनताना-प्राप्त भाड़े के हत्यारों की तरह काम करते हैं, उन नामों में से किसी ने भी नफरत के जहर से भरे हुए इस थूक पर कुछ नहीं कहा जो कि लता मंगेशकर के सम्मानपूर्ण अंतिम संस्कार की गरिमा पर थूका गया था। और तो और जिस पार्टी का पदाधिकारी नफरत की इस गंदगी को फैलाने में पूरी तरह बेशर्म और हिंसक हमलावर था, उस पार्टी ने भी अपने इस पदाधिकारी पर कुछ नहीं कहा।
यह देश एक अभूतपूर्व नवनफरत को झेल रहा है। जिस तरह कुछ बरस पहले केदारनाथ से आई हुई बाढ़ ने सब कुछ बहा दिया था, कुछ उसी अंदाज में आज नफरतजीवी लोग हिन्दुस्तान की सारी गौरवशाली परंपराओं, लोकतंत्र के सारे गौरवशाली तौर-तरीकों, और इंसानियत के सारे गौरवशाली मूल्यों को बहाकर गंदे नालों में बाढ़ ला रहे हैं। इनकी गंदगी से, उनकी बदबू से ये नाले भी अपनी नाक बंद कर ले रहे हैं, लेकिन इनकी सेहत पर फर्क नहीं पड़ता। देश के बहुत से लोगों का ऐसा मानना और कहना है कि हिन्दुस्तानियत, और इंसानियत पर सामूहिक रूप से थूकने वाले ये लोग इसी मकसद से मेहनताने पर तैनात किए गए हैं, अब इस बात की हकीकत तो यही लोग बता सकते हैं जो कि यह मेहनताना दे रहे होंगे, या पा रहे होंगे, लेकिन इससे परे एक बात तो तय है कि देश के भीतर साम्प्रदायिक नफरत और हिंसा फैलाने और भड़काने के ऐसे देशद्रोह पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की जा रही है। अब अगर लता मंगेशकर के पार्थिव शरीर पर भी ऐसा देशद्रोह किया जा रहा है, तो उस सरकार को तो इस पर कुछ कहना और करना चाहिए जिसने कि देश में तीन दिनों का राष्ट्रीय शोक घोषित किया है। क्या देश का आईटी कानून चुनिंदा लोगों की ऐसी नफरत, और हमारे हिसाब से ऐसे देशद्रोह, को अनदेखा करने के लिए बना हुआ है? एक लोकतांत्रिक देश में, गांधी के देश में ऐसी नफरती हिंसा की फसल लहलहा सकती है, यह सोचना भी कुछ वक्त पहले तक नामुमकिन था, लेकिन अब ऐसा लगता है कि यह देश गांधी का देश नहीं रह गया है, और यह गोडसे का देश हो गया है, एक ऐसा देश बन गया है जिसमें मुस्लिम की जगह महज पाकिस्तान तय कर दी गई है। इस देश को हांकने वाले लोग अगर ऐसी बातों पर भी चुप्पी साधे रखेंगे, तो सबको यह याद रखना चाहिए कि दुनिया का इतिहास बोले हुए शब्दों को तो जितना भी दर्ज करता हो, वह चुप्पी को बड़े-पड़े हर्फों में दर्ज करता है।
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जापान दुनिया के उन गिने-चुने देशों में है जहां पर आबादी का एक हिस्सा बहुत उम्र जीता है। बहुत अधिक बूढ़े होकर मरने का सुख और दुख दोनों होता है। लोगों को यह तसल्ली हो सकती है कि उन्होंने अपनी अगली दो-तीन या चार पीढिय़ां देख ली, और बच्चों के बच्चों के बच्चों के साथ खेल लिए, लेकिन क्या ऐसी जिंदगी हमेशा ही इस एक छोटी खुशी से परे सुख की भी होती है? यह सवाल तमाम बूढ़ी पीढ़ी के बीच रहता है। हिन्दुस्तान जैसे देश में पड़पोता या पड़पोती होने पर कुछ समाज सोने की सीढ़ी चढ़ाते हैं कि परिवार के या की बुजुर्ग ने खुद भी सेहतमंद जिंदगी जी और इतनी सेहतमंद अगली पीढिय़ां पैदा कीं। यह एक किस्म से उनके डीएनए का सम्मान भी होता है और अगली पीढिय़ों का खयाल रखने की उनकी कामयाबी का भी। अब यह सवाल दुनिया में एक बड़े से आकार में खड़ा हुआ है कि लंबी जिंदगी क्या सचमुच में बेहतर होती है?
आज बहुत से लोग ऐसे दिखते हैं जो कि बहुत बूढ़े होने तक जीते हैं और कुछ देशों में संयुक्त परिवार कुछ पीढ़ी पहले की ऐसी सोच की मौजूदगी में असुविधा भी महसूस करती है, और कुछ लोग उसे एक भावनात्मक संरक्षण भी मानकर चलते हैं। लेकिन इन दोनों ही हालात में बूढ़े लोगों की देखरेख, उनका इलाज, और उन पर खर्च यह एक बड़ा मुद्दा बने रहता है। नई पीढ़ी अगर दूसरे शहर या दूसरे देश चली जाती है, तो पुरानी पीढ़ी पुराने शहर के बंद अकेले मकान में कई बार मरने के हफ्तों या महीनों बाद भी बरामद होती है। वजह यह रहती है कि हर बुजुर्ग को जिंदा रहने के लिए जरूरी मदद हासिल नहीं रहती। लोग अपने हाथ-पांव चलते हुए अपनी सारी कमाई अपने बच्चों के लिए इस्तेमाल कर लेते हैं। और फिर जब खुद को जरूरत पड़ती है तो यह जरूरी नहीं रहता कि बच्चे उसी सीमा तक मां-बाप या दादा-दादी, या नाना-नानी का साथ दें। नतीजा यह होता है कि बुढ़ापा तकलीफदेह हो जाता है, और लोग अपनी दौलत को या अपनी बचत को अपने बुढ़ापे के लिए नहीं रखते हैं, बच्चों पर पूरी खर्च कर देते हैं, और फिर वह बुढ़ापा तकलीफदेह रह जाता है।
ऐसे में आज जब दुनिया का विज्ञान उम्र को बढ़ाने में लगा हुआ है, और बदन का बर्बाद होना रोकने में लगा हुआ है, तो यह जाहिर है कि औसत उम्र बढ़ती चल रही है। जिन समाजों में मौजूदा पीढ़ी का खानपान, रहन-सहन, और इलाज बेहतर होता है, वहां वैसे भी औसत उम्र बढ़ती जाती है। ऐसे में सौ बरस से ऊपर तक जीने वाले लोगों की उम्र तो लंबी रहती है, लेकिन जरूरी नहीं है कि उनकी सेहत भी आखिरी तक बेहतर रहती हो। अब जिंदगी के आखिरी दस बरस लंबे तो हो गए, लेकिन अगर वे सिर्फ बीमार, इलाज, और बिस्तर तक सीमित रह गए हैं, तो क्या सचमुच ऐसी लंबी उम्र किसी काम की होती है? हिन्दुस्तान में एक गाने के बोल कहते हैं- तुम जियो हजारों साल, साल के दिन हों पचास हजार..., अब सवाल यह है कि नब्बे-सौ बरस के बाद तो किसी के सेहतमंद रहने की गुंजाइश ही नहीं रहती है, ऐसे में हजारों साल जिंदा रहने की यह दुआ है, या कि बद्दुआ, यह सोच पाना मुश्किल नहीं है। ऐसी जिंदगी भी क्या जिंदगी जिसमें कि आसपास के लोग थक जाएं, और उनकी ताकत चुक भी जाए?
कुल मिलाकर इन दो नौबतों को लेकर आज हम यहां जो बात कहना चाह रहे हैं वह यह है कि आप लंबा जिएं या कम जिएं, जब तक सेहतमंद जी सकें तब तक ही जीना ठीक है। और मरना तो अपने हाथ में है नहीं, बदन में बिजली के बटन की तरह कोई बटन तो होता नहीं है कि उसे बंद कर दिया जाए, और धडक़न बंद हो जाए, इसलिए सेहतमंद रहना ही अकेला ऐसा जरिया है जो कि जिंदगी के बेहतर बरसों में, और ढलते हुए बरसों में भी, जिंदगी को जीने लायक रख सकता है। यह याद रखने की जरूरत है कि अगर जिंदगी के आखिरी कई बरस गंभीर बीमारियों के साथ गुजरते हैं, तो वह जीना भी मरने से बुरा जीना होता है। इसलिए जब बुढ़ापे की फिक्र शुरू न हुई हो, उसी वक्त तन-मन की फिक्र शुरू हो जानी चाहिए, और यह फिक्र चिंता वाली फिक्र नहीं है, यह बेहतर रखरखाव वाली ध्यान रखने वाली बात है। लोगों को बचपन से ही एक सेहतमंद जिंदगी की आदत डालनी चाहिए ताकि न तो अपने आखिरी बरस खुद पर बोझ बन जाएं, और न ही आसपास के लोगों पर। उन लोगों के बारे में सोचना चाहिए जो बिना जरूरी इंतजाम के भी लंबा बुढ़ापा झेलते हैं, और सौ बरस के होने लगते हैं, और उनका बोझ ढोते हुए आगे की पीढिय़ां खुद बूढ़ी होने लगती हैं। यह सिलसिला किसी को भी थका सकता है, और किसी को भी आल-औलाद से इस हद तक श्रवण कुमार या श्रवण कुमारी होने की उम्मीद नहीं करना चाहिए कि वे अपनी अगली पीढ़ी का ख्याल भी न रख सकें, और सिर्फ पिछली पीढ़ी को ढोते हुए ही खत्म हो जाएं। अब जिनको श्रवण कुमार की कहानी याद है वे इस बात की कल्पना आसानी से कर सकते हैं कि बूढ़े मां-बाप को कांवर में बिठाकर तीर्थयात्रा कराने निकला श्रवण कुमार अपने खुद के बच्चों का तो कोई ख्याल रख ही नहीं पाया होगा।
आज लोगों को अपनी जिंदगी का बेहतर वक्त गुजारते हुए, सेहतमंद रहते हुए, इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि आज की उनकी लापरवाही कल उन्हें एक कांवर बनाकर उनके बच्चों के कंधों पर बोझ बन जाएगी। आज जो लोग सिगरेट, तम्बाकू इस्तेमाल कर रहे हैं, वे सोचें कि कल उनकी अगली पीढ़ी अपनी नौकरी या रोजगार छोडक़र कैंसर अस्पताल के चक्कर लगाती रहे तो उसका क्या हाल होगा? यह भी सोचें कि कल वे डंायबिटीज या दिल की बीमारी के मरीज होकर महंगे अस्पताल, इलाज, और दवाईयों के मोहताज हो जाएंगे, तो वे अपने बच्चों पर कितना बड़ा बोझ बनेंगे? हो सकता है कि बच्चों के बच्चों को बेहतर पढ़ाई नसीब न हो सके, क्योंकि घर की बुजुर्ग पीढ़ी को महंगे इलाज और देखरेख की जरूरत है।
इसलिए जो लोग अपनी अगली पीढिय़ों से मोहब्बत रखते हैं या उसकी कल्पना करते हैं, उन्हें अपने सेहतमंद बुढ़ापे का इंतजाम करना चाहिए। अपना तन-मन अगर ठीक न रहे, तो अगली पीढिय़ों से मोहब्बत की बस एक भावना हो सकती है, वह हकीकत नहीं हो सकती। इसलिए अगली पीढिय़ों से खरी मोहब्बत करने के लिए आज अपने खुद के तन-मन की खरी फिक्र अगर कर सकते हैं, करते हैं, तो ही आप ईमानदार हैं, गंभीर हैं, और अपनी अगली पीढिय़ों से सचमुच मोहब्बत करते हैं। सचमुच की मोहब्बत करना और मोहब्बत करने की एक खुशफहमी में जीना दो बिल्कुल अलग-अलग बातें होती हैं। लोगों को यह याद रखना चाहिए कि उनकी लंबी उम्र तभी तक अगली पीढिय़ों के लिए वटवृक्ष है जब तक उस वटवृक्ष पर कीड़े न लग जाएं। यह भी याद रखना चाहिए कि कई परिवारों में बूढ़े गुजरते ही नहीं हैं, और अगली पीढिय़ों के श्रवण कुमार थककर कांवर को आग लगा देते हैं। यह सब ध्यान में रखते हुए हर इंसान की पहली जिम्मेदारी अपने खुद के प्रति रहना चाहिए जिस तरह की हवाई जहाज में मुसाफिरों के लिए घोषणा होती है कि केबिन में हवा का दबाव कम होने पर ऑक्सीजन मास्क नीचे उतर आएंगे, लोग पहले खुद मास्क लगाएं फिर दूसरों की मदद करें। इसी तरह जिंदगी में लोगों को पहले खुद सेहतमंद रहना चाहिए, तभी वे अपने करीबी लोगों के किसी काम के रहेंगे।
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लोगों की जिंदगी में मोबाइल फोन की दखल इतनी अधिक बढ़ चुकी है कि उसके बिना जिंदगी की कल्पना नहीं की जा सकती। पिछले दो बरस में लॉकडाउन और ऑनलाईन पढ़ाई के चलते हुए बच्चों के हाथ में भी मोबाइल पहुंच गए हैं, और बहुत गरीब लोग भी अपने बच्चों की पढ़ाई को बचाने के लिए किसी न किसी तरह से मोबाइल फोन जुटाकर उन्हें दे रहे हैं। मोबाइल फोन वैसे तो अपने आपमें एक औजार है जैसा कि चाकू होता है, और उसका इस्तेमाल किस तरह से हो, यह उन हाथों के पीछे के इंसान पर निर्भर करता है जो उससे काम ले रहे हैं। ऐसे में छत्तीसगढ़ की कल की ही दो खबरें यह बतलाती हैं कि यह औजार कमसमझ या नासमझ बच्चों के हाथ में कैसा हथियार बन रहा है, और उन उससे बचने के लिए क्या किया जाना चाहिए।
एक खबर छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले की है जहां पर एक महिला की हत्या हुई, और जांच में पता लगा कि उसकी दो नाबालिग भतीजियों ने ही उसे कुल्हाड़ी से काट डाला क्योंकि बुआ अपने मोबाइल फोन के बेजा इस्तेमाल से नाराज थी, और परिवार की इन नाबालिग लड़कियों को डांटती थी। लड़कियां बुआ की मर्जी के खिलाफ उसके फोन से अपने दोस्तों से बात करती रहती थी, और जब एक दिन डांट अधिक पड़ी तो दोनों बहनों ने मिलकर बुआ को निपटा देने की साजिश बनाई। सत्रह और पन्द्रह साल की इन बहनों ने देर रात सोती हुई बुआ को कुल्हाड़ी से काट डाला। दूसरा मामला छत्तीसगढ़ के अम्बिकापुर जिले का है जहां पर एक परिवार के भीतर नाबालिग बच्चों के हाथ पढ़ाई के लिए दिया गया स्मार्टफोन सब लोग मिलकर इस्तेमाल करते थे। सात बरस से तेरह बरस तक के आधा दर्जन लडक़े मोबाइल पर किसी तरह पोर्नो फिल्म देखने लगे, और अपनी ही आठ बरस की एक बहन के साथ सेक्स करने लगे। यह सिलसिला दो महीने तक चला और परिवार के भीतर लोग यही समझते रहे कि ये बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं। इस हरकत में इन लडक़ों ने परिवार के बाहर के अपने एक दोस्त को भी शामिल कर लिया। पुलिस अपनी शुरुआती जांच में यह पाया कि इन बच्चों को दिए गए इन मोबाइल फोन पर किसी तरह की अश्लील चीजें देखने का कोई इतिहास नहीं था। मतलब यह कि ये बच्चे ही खुद किसी तरह ऐसी वेबसाईटों पर पहुंचे और उसे देखकर घर की ही बहन के साथ इस तरह का सामूहिक बलात्कार करते रहे।
ये दोनों घटनाएं बिल्कुल अलग-अलग किस्म की हैं लेकिन इन दोनों का मोबाइल फोन से लेना-देना है। फोन की जरूरत बच्चों को पड़ रही है, वहां तक तो ठीक है, लेकिन जरूरत के इस औजार का किस-किस तरह का बेजा इस्तेमाल भी साथ-साथ चल रहा है, यह देखना भयानक है। अब परिवार की ही बहन से इस तरह सिलसिलेवार बलात्कार करने वाले इन नाबालिग लडक़ों सहित इस लडक़ी की जिंदगी भी तबाह हुई है, और इन सबका ऐसे हादसे और ऐसी वारदात से उबरना इस जिंदगी में शायद ही मुमकिन हो पाएगा। दूसरी तरफ मोबाइल फोन के अधिक इस्तेमाल से रोकने पर परिवार की ही अधेड़ रिश्तेदार को इतने हिंसक तरीके से काट डालने की बात भी लोगों की कल्पना से परे की है, लेकिन ये दोनों मामले पुलिस की दी गई जानकारी के मुताबिक पुख्ता हैं।
अब सवाल यह है कि महामारी के लॉकडाउन से परे भी अब स्मार्टफोन जिंदगी की हकीकत बन चुका है और गरीब परिवार भी मजदूरी या कामकाज के सिलसिले में स्मार्टफोन रखने लगे हैं। चूंकि इंटरनेट लगातार आसानी से हासिल हो रहा है, और शहरों में कई जगहों पर उसे मुफ्त भी पाया जा सकता है, इसलिए बच्चे उसका किस तरह का इस्तेमाल कर सकेंगे, यह कल्पना आसान नहीं है, वैसे दूसरे हिसाब से देखें तो यह कल्पना बहुत मुश्किल भी नहीं हैं। चूंकि ये दोनों मामले बहुत बड़े जुर्म के हैं, इसलिए ये पुलिस तक पहुंचे हैं, और बड़ी-बड़ी खबर बने हैं। लेकिन चारों तरफ घरों में ऐसा बेजा इस्तेमाल हो रहा होगा जो कि खबर नहीं बन पाता है। सरकार और समाज इन दोनों को इस बारे में गौर करना चाहिए क्योंकि अलग-अलग परिवार ऐसी कोई रोकथाम नहीं कर पाएँगे और बच्चों को नहीं बचा पाएंगे।
देश भर में मोबाइल फोन या कम्प्यूटर से पोर्नो देख पाने पर कई किस्म की रोक लगाने की जरूरत है। हो सकता है कि वयस्क लोगों की जरूरत के मुताबिक हर पोर्नो वेबसाईट को ब्लॉक करना संभव न हो, और अब तो हिन्दुस्तान के भीतर भी वयस्क मनोरंजन के अश्लील या सेक्सी वीडियो बनाकर बेचने का कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है और यह कारोबार घोषित धंधा है। अभी तक तो सरकार ऐसे धंधे पर भी रोक लगाने की तरकीब नहीं निकाल पाई है क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत एक वयस्क मनोरंजन के दायरे में आ रहा है। लेकिन सरकार की सूचना तकनीक के तहत यह रास्ता निकालने की जरूरत है कि कम्प्यूटर और फोन पर जब तक कोई वयस्क व्यक्ति अपना पासवर्ड न डाले, तब तक इन उपकरणों से कोई वयस्क वेबसाईट न खुले। इसके अलावा लोगों के बीच यह जागरूकता फैलाना भी जरूरी है कि अगर वे अपने बच्चों के हाथ में जाने वाले कम्प्यूटर और स्मार्टफोन का खुद ऐसा कोई वयस्क इस्तेमाल करते हैं तो वे उन बच्चों को खतरे में डालते हैं, और वे बच्चे ऐसे किसी जुर्म में फंस सकते हैं। परिवार अपने आपमें शायद इस तरह के कम्प्यूटर रोक-टोक के रास्ते न निकाल पाएं, और इसके लिए सरकार को ही इंटरनेट कंपनियों के साथ मिलकर तुरंत ही वयस्क सामग्री को बच्चों की पहुंच से परे रखने का रास्ता निकालना पड़ेगा।
अब हर किस्म के परिवार को अपनी-अपनी परिस्थितियों और पारिवारिक स्थितियों को ध्यान में रखकर यह भी देखना चाहिए कि परिवार के बच्चे किसी अवांछित वयस्क या अश्लील, या हिंसक, सामग्री को देखने में फंस तो नहीं रहे हैं। टेक्नालॉजी जितनी सुलभ होती जा रही है, उतना ही यह खतरा बढ़ते जा रहा है। इतनी बड़ी हिंसा की वारदातों से कम हिंसक वारदातें बहुत सी होती होंगी या यह भी होता होगा कि बिना हिंसा के सिर्फ बच्चे अश्लीलता में फंस रहे होंगे। यह पूरा सिलसिला अगली पीढ़ी को खतरे मेें डालने वाला दिख रहा है, और इसके लिए तमाम तरह के उपकरणों और इंटरनेट पर तरह-तरह की रोक लगाने की जरूरत है ताकि वयस्क लोग जिन वेबसाईटों तक पहुंचते हैं, या जो वीडियो मैसेंजर सर्विसों पर पाते और भेजते हैं, उन तक बच्चों की पहुंच न हो सके।
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कर्नाटक के एक जूनियर कॉलेज में मुस्लिम लड़कियों के हिजाब पहनने के खिलाफ खड़े किए गए बवाल की आग अब वहां के दूसरे जिलों में भी फैल रही है। पूरी तरह से सांप्रदायिक सोच से उपजे हुए इस प्रतिबंध को बढ़ावा देने के लिए अब वहां की सांप्रदायिक ताकतें हिंदू छात्र-छात्राओं को भगवा शाल-दुपट्टे पहनाकर स्कूल-कॉलेज भेज रही हैं ताकि स्कूल की पोशाक का सांप्रदायिककरण किया जा सके। मुस्लिम छात्रों पर यह मामला सरकार के यूनिफार्म नियमों के हवाले से लादा जा रहा है और हिजाब लगाई हुई मुस्लिम लड़कियों को स्कूल-कॉलेज आने से रोका जा रहा है। इस रोक के खिलाफ कर्नाटक हाईकोर्ट में अपील की गई है लेकिन तब तक हिजाब, और हिजाब के मुकाबले भगवे दुपट्टे को खड़ा कर दिया गया है, और घोर सांप्रदायिक संगठन पूरी तरह सक्रिय हो गए हैं। हिंदुस्तान में जो ताजा धर्मांधता चारों तरफ फैलाई जा रही है यह उसी का एक विस्तार है और यह आग पता नहीं कहां तक पहुंचेगी। यह भी हो सकता है कि कर्नाटक में इम्तिहान के महीने भर पहले मुस्लिम छात्राओं पर लगाई गई यह रोग महज कर्नाटक के हिसाब से न हो और यह उत्तर प्रदेश के चुनावों में धार्मिक ध्रुवीकरण का एक और हथियार हो। कर्नाटक की भाजपा सरकार पूरी ताकत के साथ मुस्लिम छात्राओं के हिजाब के खिलाफ लगी हुई है, और तो और हिंदू छात्रों को इसके खिलाफ स्कूल-कॉलेज के अहातों में सांप्रदायिक मोर्चे पर झोंक दिया गया है।
हिंदुस्तान में छात्र-छात्राओं के धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल का मामला कोई नया नहीं है। हिंदू छात्र अपनी पसंद से बालों के पीछे अपनी एक चुटिया रख सकते हैं जिस पर कोई रोक नहीं लगी है, हिंदू लड़कियां चूड़ी पहन सकती हैं, या बिंदी लगा सकती हैं, और सिख छात्र पगड़ी पहन कर जाते हैं, कड़ा पहनते हैं, प्रतीकात्मक कटार टांगते हैं। इनमें से किसी पर कोई रोक नहीं है। लेकिन अब अचानक मुस्लिम छात्राओं के हिजाब पर रोक लगाकर उन्हें पढ़ाई से दूर कर देना एक बहुत ही असंवैधानिक काम है और यह मामला हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक जाकर सरकार के लिए फटकार लेकर आएगा। धार्मिक प्रतीकों को लेकर कोई भी जिम्मेदार लोकतंत्र सम्मान का नजरिया इस्तेमाल करते हैं। पश्चिम के बड़े-बड़े विकसित देश और ऑस्ट्रेलिया तक सिख नागरिकों को हेलमेट लगाने से छूट मिलती है जो कि वहां के सुरक्षा नियमों के हिसाब से बहुत ही अजीब बात है, इसके बावजूद वहां नियम कानून में तरह-तरह के फेरबदल करके यह छूट दी गई है। सिखों को प्रतीक के रूप में अपनी कटार टांगने की छूट भी मिली हुई है। हिंदुस्तान में ही सरकारी दफ्तरों में सरकारी गाडिय़ों में, और थानों में जगह-जगह हिंदू धर्म के प्रतीक दिखते ही हैं। तमाम स्कूल-कॉलेजों में आज बसंत पंचमी के दिन सरस्वती की पूजा हो रही है। तमाम सरकारी संस्थानों में जहां कहीं तिजोरी रहती है, या नकद रकम रखने के कैशबॉक्स रहते हैं, बहीखाता या कैश रजिस्टर रहता है, वहां पर दिवाली पर लक्ष्मी पूजा होती ही है। जितने कल-कारखाने होते हैं उनमें विश्वकर्मा पूजा होती ही है। देशभर में पुलिस और दूसरे सुरक्षा बलों में दशहरे पर हिन्दू रिवाजों से शस्त्र पूजा होती है और अलग-अलग पार्टियों के अलग-अलग धर्मों के नेता और अफसर उनमें बैठते हैं। इसी तरह जहां कहीं कोई भूमि पूजन होता है तो हिंदू धर्म की परंपराओं के अनुसार वहां पर पूजा होती है और चाहे किसी धर्म के हों, नेता और अफसर वहां बैठकर हिंदू रीति रिवाज से पूजा करते हैं।
यह देश सांस्कृतिक विविधताओं से भरा हुआ देश है, लेकिन यह देश उदारता से आगे बढ़ा हुआ, उदारता पर टिका हुआ देश भी है। हिंदुस्तान में ऐसी कट्टरता कभी नहीं थी कि किसी दूसरे धर्म के प्रतीकों को कुचला जाए, उनको खारिज किया जाए, जिससे कि किसी भी किसी दूसरे धर्म को कोई नुकसान भी नहीं हो रहा है. आज हिजाब के खिलाफ यह बवाल खड़ा किया जा रहा है क्योंकि देश में एक माहौल बनाया जा रहा है कि मुस्लिमों का विरोध हो। लेकिन किसी ने यह सोचा है कि अगर सारे धार्मिक प्रतीकों को सार्वजनिक जीवन से हटा ही देना है, तो बाकी धर्मों के लोगों के कौन-कौन से धार्मिक प्रतीकों को हटाना होगा? किसी धर्म की चुटिया, किसी धर्म की पगड़ी, किसी धर्म का कड़ा, और किसी दूसरे धर्म का कोई और प्रतीक, किस-किसको हटाया जाएगा? हिंदुस्तान के भीतर यह किस तरह लोगों को जोडऩे का काम चल रहा है कि अलग-अलग तबकों को तोड़ दिया जा रहा है? आज मुस्लिम समाज में पर्दे की प्रथा अच्छी है या नहीं है, उस समाज के लोगों के सोचने की भी बात है। लेकिन जब तक उस समाज में कोई बेहतर फैसला नहीं होता है, तब तक अगर हिजाब रोकने के नाम पर मुस्लिम लड़कियों की पढ़ाई को रोक दिया जाएगा तो यह हिंदुस्तान के संविधान को कुचलने का काम होगा। हमारा ख्याल है कि कर्नाटक की जो सरकारी और राजनीतिक ताकतें सांप्रदायिक संगठनों को सक्रिय करके ऐसा बवाल खड़ा कर रही हैं उनके आकाओं को भी यह बात अच्छी तरह मालूम है कि अदालतों में यह मामला नहीं टिक पाएगा, फिर भी हिंदुओं के बीच एक सांप्रदायिकता बढ़ाने के लिए और सांप्रदायिक हिंदुओं को खुश करने के लिए यह बखेड़ा खड़ा किया गया है जिसका स्कूल की पोशाक से कोई लेना-देना नहीं है। आज दुनिया के किसी दूसरे देश में भी तमाम धार्मिक प्रतीकों को खारिज कर देने का काम नहीं हो पाया है।
कल के दिन क्या यह हो सकेगा कि राजस्थान में घूंघट डाली हुई महिलाओं को अस्पताल जाने ना मिले, सरकारी दफ्तर जाने ना मिले, या मतदान केंद्र में घुसने ना मिले? वहां तो बहुत सी महिलाएं बिना घूंघट अपने ही घर के दूसरे कमरों में नहीं जातीं, उन पर किस तरह से इसे थोपा जा सकेगा? हम अपनी निजी सोच के मुताबिक तो इस बात के हिमायती हैं कि सार्वजनिक जीवन से सारे ही धार्मिक प्रतीकों को हटा दिया जाए। लेकिन क्या देश-प्रदेश चलाने वाले मंत्री-मुख्यमंत्री अपनी धार्मिक पोशाकों को हटाने के लिए तैयार होंगे? क्या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हिंदू धर्म की प्रतीक अपनी पोशाक, भगवा कपड़ों को हटाने के लिए तैयार होंगे? अगर यह देश ऐसे क्रांतिकारी बदलाव के लिए तैयार है, तब तो हिजाब को भी हटा देना चाहिए, और बाकी तमाम धर्मों के तमाम प्रतीकों को भी सार्वजनिक जीवन से हटा देना चाहिए। लेकिन छांट-छांटकर मुस्लिम लोगों पर ऐसे हमले करना यह कर्नाटक की भाजपा सरकार और दूसरी जगहों पर भी दूसरे कई प्रदेशों की ऐसी सरकारों की बदनीयत बताती है.
इस मामले में अदालतों को तेजी से सुनवाई करना चाहिए क्योंकि देश के भीतर एक तबके के खिलाफ दूसरे तबके में नफरत फैलाने का यह सिलसिला खत्म करने की जरूरत है। आज कर्नाटक में मुस्लिम लड़कियों की परंपरागत धार्मिक पोशाक के मुकाबले स्कूल के बच्चों को सांप्रदायिकता के मोर्चे पर खड़ा कर दिया गया है जो कि एक जुर्म है। कर्नाटक हाईकोर्ट को बिना देर किए इस सांप्रदायिक हिंसा को खत्म करना चाहिए लोगों को यह नहीं भूलना चाहिए कि कर्नाटक में सांप्रदायिक दंगों का एक पुराना इतिहास रहा हुआ है जिसमें से एक दंगे में मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए उमा भारती का नाम भी जुड़ा था जिन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। एक तरफ तो कर्नाटक प्रदेश का बेंगलुरु देश में सूचना तकनीक का सबसे विकसित केंद्र होने का दावा करता है, दूसरी तरफ वह वहां के समाज को पत्थर युग में ले जाने की कोशिश भी करता है। कर्नाटक की राजधानी सांप्रदायिक संगठनों की अति सक्रियता के लिए पहले से बदनाम है, यह सबसे विकसित और आधुनिक शहर पहले भी लड़कियों के खिलाफ, अल्पसंख्यकों के खिलाफ, और उत्तर-पूर्व के लोगों के खिलाफ तरह-तरह की हिंसा देख चुका है। हम बिना देर किए इस तजा मामले के एक संवैधानिक निपटारे की मांग करते हैं, और जिन लोगों ने इसे भडक़ाने की कोशिश की है उनको सजा भी होनी चाहिए।
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हिंदुस्तान के आर्मी चीफ जनरल एमएम नरवणे ने कहा है कि अभी हिंदुस्तान भविष्य में होने वाली जंग का ट्रेलर देख रहा है। वे एक ऑनलाइन सेमिनार में चीन और पाकिस्तान से पैदा होने वाली चुनौतियों पर बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि विरोधी देश अपने रणनीतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए लगातार कोशिशें जारी रखेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि सूचना क्षेत्र, नेटवर्क, और साइबर स्पेस में भी हर दिन यह देखने मिल रहा है। उन्होंने सरहद पर फौजी मोर्चों के बारे में तो कहा ही, लेकिन उनकी कही कुछ और बातें सरहद से परे की भी हैं जिनमें आम लोगों को समझने में कुछ दिक्कत भी हो सकती है। उन्होंने अफगानिस्तान का जिक्र करते हुए कहा कि वहां पर गैर सरकारी ताकतों ने जिस तरह की स्थितियां पैदा की है उनको भी देखने की जरूरत है। उनका कहना था कि ये गैर सरकारी ताकतें स्थानीय परिस्थितियों पर पनपती हैं और ऐसी स्थितियां बनाती हैं जिससे वह देश अपनी मौजूदा क्षमता का इस्तेमाल नहीं कर पाता।
हम जनरल नरवणे की बातों की बारीकियों पर नहीं जा रहे, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि दुनिया में आने वाले जंग किस-किस किस्म के हो सकते हैं। परंपरागत हथियारों से लेकर मिसाइलों तक और परमाणु हथियारों तक की मौजूदगी बहुत से देशों के तनाव को बढ़ा रही हैं। लेकिन उससे परे भी सोचने की जरूरत है क्योंकि आज तमाम देशों में सत्ता पर काबिज नेता और फौजी जनरल मिलकर परंपरागत सेनाओं को ही सबसे महत्वपूर्ण साबित करने में लगे रहते हैं क्योंकि आमतौर पर देशों के बजट का एक बहुत बड़ा हिस्सा हथियारों की खरीदी पर चले जाता है जिसमें जमकर कमीशनखोरी एक आम बात है। इसलिए हथियारों से लड़े जाने वाले जंग को कोई भी कम करना नहीं चाहते क्योंकि कमाई वहीं पर है। लेकिन ऐसी कमाई और सरहद से दूर बैठे हमारे जैसे लोग जब देखते हैं कि आने वाली लड़ाई जरूरी नहीं है कि सरहद तक सीमित रहे और वह दूसरे मोर्चों पर बिना हथियारों के भी लड़ी जा सकती हैं। अब जैसे आज हिंदुस्तान पेगासस नाम के जिस खुफिया और फौजी घुसपैठिए सॉफ्टवेयर के विवाद में उलझा हुआ है, वैसे सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किसी दूसरे दुश्मन देश के खिलाफ करके वहां के नेताओं, अफसरों, और प्रमुख लोगों के राज उजागर किए जा सकते हैं और उससे एक बड़ी बदअमनी फैलाई जा सकती है। किसी देश का लोकतांत्रिक ढांचा गिराया जा सकता है।
पिछले बहुत से बरसों से लगातार यह बात चल रही है कि साइबर हैकिंग करने वाले घुसपैठिए लगातार दुनिया के कंप्यूटरों में घुस जा रहे हैं, उन पर कब्जा कर रहे हैं। बीस बरस पहले ऐसी फिल्म आ चुकी है कि आतंकियों का एक गिरोह किस तरह अमेरिका के कई शहरों के सार्वजनिक सुविधाओं के कंप्यूटरों पर कब्जा कर लेता है, सडक़ों पर गाडिय़ां टकराने लगती हैं क्योंकि चारों तरफ एक साथ हरी बत्ती हो जाती है, बिजलीघरों के कंप्यूटरों पर कब्जा हो जाता है। अभी कुछ ही वक्त पहले अमेरिका का एक मामला सामने आया था जिसमें हैकिंग करने वाले लोगों ने पानी साफ करने के लिए उसमें मिलाए जाने वाले केमिकल की मात्रा पर कब्जा कर लिया था, और पानी जहरीला हो गया था। ऐसा काम हर किस्म के कंप्यूटर नेटवर्क पर हो सकता है और दुनिया के बहुत से देशों की सरकारें भी अघोषित रूप से ऐसे हैकरों को बढ़ावा देकर जंग की एक तैयारी रखती हैं कि किसी देश से दुश्मनी होने पर उसके कंप्यूटर नेटवर्क और जन सुविधाओं को कैसे तबाह किया जाए। अब हिंदुस्तान के बारे में ही यह कल्पना करें कि बैंकों और भुगतान के दूसरे सॉफ्टवेयर पर हैकर कब्जा कर लें, और वहां से भुगतान बंद हो जाए, एटीएम काम करना बंद कर दें, ऑनलाइन और मोबाइल फोन से कोई भुगतान न हो सके। इसके साथ-साथ अगर मोबाइल फोन कंपनियों, और इंटरनेट की सहूलियत पर कब्जा कर लिया जाए और उन्हें ठप कर दिया जाए, बिजली पहुंचाने वाली नेशनल ग्रिड को ध्वस्त करना कंप्यूटरों के रास्ते आसान काम है, और इसके बाद देश की हर किस्म की प्रणाली ठप्प हो जाएगी। जाहिर तौर पर किसी भी दुश्मन सरकार या आतंकी गिरोह का हमला एयर ट्रैफिक कंट्रोल पर भी होगा और विमानों का उडऩा और उतरना रुक जाएगा, रेलवे के सिग्नल काम करना बंद कर देंगे और लोगों की आवाजाही ठप्प हो जाएगी, सामान आना जाना बंद हो जाएगा। यह सब करने में सिर्फ सौ-दो सौ कंप्यूटर हैकरों की एक फौज लगेगी जो कि एक बूंद खून बहे बिना भी, किसी देश की सरहद पर पहुंचे बिना भी, उस देश को तबाह कर सकती है।
जो लोग आज यह मानते हैं कि परंपरागत और नए हथियारों कि यह दौड़ आने वाले जंग की तैयारी है, वे शायद खरीदी और खर्च में दिलचस्पी रखने वाले लोग हैं। हमारे हिसाब से तो अगली जंग सिर्फ कंप्यूटरों और नेटवर्क पर लड़ी जाएगी और इससे सरहद से हजारों किलोमीटर दूर बसे हुए बाकी के पूरे देश को भी बिना खून बहाए ठप्प और ध्वस्त किया जा सकेगा। हिंदुस्तान जैसे देश को यही सोचकर रखना चाहिए कि उसके कौन-कौन से कंप्यूटर नेटवर्क पर दुश्मन का कब्जा हो जाने के बाद वह किस तरह काम चला सकेगा। यह काम आसान नहीं रहेगा और आज जब हिंदुस्तान में झारखंड के एक गांव या कस्बे जामताड़ा में बैठकर अनपढ़ बेरोजगार लडक़े पूरे हिंदुस्तान में रोज दसियों हजार टेलीफोन कॉल करते हैं और हजारों लोगों को ठगते हैं, और कोई सरकार उनका कुछ नहीं बिगाड़ पा रही है, तो हिंदुस्तान की सरकारों को अपनी साइबर सुरक्षा तैयारी के बारे में एक बार फिर सोचना चाहिए। भारत की सरकार हर बात को कंप्यूटर और आधार कार्ड से जोडक़र चल रही है, लेकिन अगर आधार कार्ड के पीछे की कंप्यूटर व्यवस्था ही ठप्प हो जाएगी तो क्या होगा? देश की संचार कंपनियों के कंप्यूटर अगर बिगाड़ दिए जाएंगे तो क्या होगा? अभी तो जिस तरह रात दिन कंप्यूटर और मोबाइल फोन से ठगी और धोखाधड़ी चल रही है, उससे ऐसा लगता नहीं है कि भारत की सरकार का कोई बहुत बड़ा सुरक्षा तंत्र काम कर रहा है। ऐसा अगर होता तो हर दिन करोड़ों लोगों को झांसे के मैसेज नहीं पहुंचते, और इतने बड़े पैमाने पर साइबर धोखाधड़ी नहीं हो पाती। इसलिए सरहद की महंगी और कमाऊ तैयारियों से परे हर समझदार देश को अपने कंप्यूटर नेटवर्क की हिफाजत की तैयारियों पर भी ध्यान देना चाहिए।
अब यह भी समझ लेने की जरूरत है कि जनरल नरवणे के शब्दों में देश के भीतर के गैरसरकारी लोग कौन हो सकते हैं, जो कि देश की ताकत को खोखला करते हैं। हिंदुस्तान में आज नफरत का सैलाब फैलते बहुत से लोग हैं तो कि देश के भीतर दुश्मन खड़े करने का काम कर रहे हैं। आज इस खतरे को देशभक्ति माना जा रहा है। किसी जंग के वक्त ऐसे हिंसक राष्ट्रवाद का खतरा पता लगेगा।
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छत्तीसगढ़ में ग्रामीण भूमिहीन खेतिहर मजदूरों या किसानों की मदद के लिए आज सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी के हाथों एक बड़ी योजना शुरू की गई है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अपनी पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र के मुताबिक किसानों की कर्ज माफी का ऐतिहासिक काम सरकार संभालने के कुछ घंटों के भीतर ही कर दिया था। उसके बाद से भी लगातार राज्य सरकार ने ग्रामीण विकास के हिसाब से जमीन के भीतर बारिश के पानी को संजोने के लिए, और गावों के पशुधन के उत्पादक उपयोग को बढ़ाने के लिए, तरह-तरह की योजनाएं लागू कीं। छत्तीसगढ़ में गाय से जुड़ी हुई जितनी योजनाएं लागू हुईं उन्होंने गाय को बहुत बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनाकर चलने वाली भाजपा को भी हक्का-बक्का कर दिया है कि इस राज्य में भूपेश बघेल का विरोध कैसे किया जाए? लेकिन आज यहाँ लिखने का मुद्दा भाजपा के साथ कांग्रेस के टकराव का नहीं है बल्कि एक राज्य का मुद्दा है जिसमें लगातार किसानों, कमजोर तबकों, और ग्रामीण विकास पर काम किया गया, और करोड़ों लोगों को इसका प्रत्यक्ष या परोक्ष फायदा मिला। देश के बहुत से राज्यों में छत्तीसगढ़ सरकार की कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की नीतियां उत्सुकता पैदा कर रही हैं, और राज्य बनने के बाद शायद पहली बार सरकार का सबसे अधिक फोकस इन तबकों पर रहा है।
आज राहुल गांधी के हाथों राजीव गांधी ग्रामीण भूमिहीन कृषि मजदूर न्याय योजना शुरू हुई है जिससे प्रदेश के लाखों खेतविहीन ग्रामीण गरीबों को साल में छह हजार रुपियों की सीधी नगद मदद मिलेगी। राज्य सरकार ने करीब 200 करोड़ रुपए से 3.50 लाख से अधिक लोगों को यह मदद आज से देना शुरू किया है और यह साल भर में दो हजार रुपियों की तीन किस्तों में दी जाएगी। सरकार ने इसके लिए पिछले बरस भूमिहीन कृषि मजदूरों का रजिस्ट्रेशन भी किया है और इसमें दूसरे हुनर पर जिंदा रहने वाले चरवाहा, बढ़ई, लोहार, मोची, नाई, धोबी, और पुरोहित जैसे लोग शामिल होंगे। कुल मिलाकर ऐसे तमाम ग्रामीण गरीब जो कि अब तक सरकार की खेती और धान की किसी योजना के तहत फायदा नहीं पा रहे हैं, वे सभी लोग इस दायरे में आ जाएंगे। यह एक कमजोर तबके को कैश ट्रांसफर वाली योजना है जिसका दायरा बड़ा व्यापक रखा गया है और जिसमें बाद में और तबके जोड़े भी जा सकेंगे।
इसके पीछे सरकार का यह तर्क है कि राज्य में खरीफ के दौरान तो खेतिहर मजदूरी के पर्याप्त मौके रहते हैं, लेकिन रबी फसल के दौरान खेती का रकबा ही घट जाता है और वैसे में मजदूरी की गुंजाइश भी घट जाती है। छत्तीसगढ़ में एक बात अच्छी यह हुई है कि कोरोना महामारी और लॉकडाउन के पिछले पूरे दौर में ग्रामीण रोजगार गारंटी देने वाले मनरेगा के तहत छत्तीसगढ़ में खूब रोजगार दिया गया। यह योजना केंद्र सरकार में यूपीए सरकार के दौरान शुरू हुई थी और सोनिया गांधी की राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के अर्थशास्त्री सदस्य ज्यां द्रेज़ जैसे लोगों की सोच के मुताबिक यह योजना बनी थी। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता पर आए तो उन्होंने इस योजना को यूपीए सरकार की राष्ट्रीय नाकामयाबी का स्मारक करार दिया था, लेकिन बाद में देश को भुखमरी से बचाने के लिए यही योजना मोदी सरकार की मददगार बनी, और लॉकडाउन के पूरे दौर में गरीबों का चूल्हा इसी योजना से जला। छत्तीसगढ़ इस दौर में भी इस योजना के तहत अधिक से अधिक रोजगार देने में कामयाब रहा और मोटे तौर पर मनरेगा में जिन लोगों को काम दिया जाता है, या पिछले 2 बरस में छत्तीसगढ़ में मिला, वही लोग राज्य सरकार की इस नई योजना में भी शामिल रहेंगे। मतलब यह है कि मनरेगा के तहत काम मिलना तो लोगों के काम आया ही, कमजोर तबकों को यह एक सीधी मदद आज से और शुरू हो रही है।
कमजोर तबके के लोगों को सीधी आर्थिक मदद देने के खिलाफ भी एक विचारधारा रहती है जिसका यह मानना रहता है कि इससे लोग निकम्मे हो जाते हैं, और वे काम नहीं करना चाहते। जबकि जमीनी हकीकत को अगर देखा जाए तो छह हजार रुपये साल से किसी की जिंदगी नहीं चलती, उससे उन्हें थोड़ी सी मदद मिल जाती है। वे रोजगार तो करते ही हैं, लेकिन दूसरे खर्चों में यह रकम कुछ काम आ सकती है। अब यह सोचना राज्य सरकार के बजट की बात है कि यह रकम आएगी कहां से और यह प्राथमिकताओं के लिस्ट में कहां रहेगी लेकिन शहरी लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि जिस प्रदेश में शहरी विकास पर हजारों करोड रुपए सालाना खर्च होते हैं वहां पर अगर 200 करोड़ से कई लाख लोगों को मदद पहुंचाई जा सकती है, तो उसमें शहरी या संपन्न तबकों को हर्ज नहीं होना चाहिए। छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने इस कार्यकाल में किन किन तबकों के लिए कितनी आर्थिक मदद की है, कितना अनुदान दिया है, कौन सी योजनाएं शुरू की हैं, और उनकी सामाजिक और आर्थिक उत्पादकता क्या है, इस बारे में उसे जनता के सामने एक अच्छा प्रस्तुतीकरण रखना चाहिए ताकि जिनके मन में कमजोर तबकों के प्रति हमदर्दी है वे संतुष्ट हो सकें, और जो असंतुष्ट लोग हैं, उन्हें हकीकत समझाई जा सके। फिलहाल छत्तीसगढ़ में किसानों, गरीबों, ग्रामीणों, और कमजोर तबकों के लिए जितना कुछ किया जा रहा है यह कांग्रेस पार्टी के ही गिने-चुने बचे दूसरे राज्यों के लिए एक बड़ी चुनौती है. और उन राज्यों के लिए तो चुनौती है ही जहां कांग्रेस पार्टी सत्ता में नहीं है, लेकिन चुनावी घोषणा पत्र बना रही है. ऐसे में भूपेश बघेल इन तमाम राज्यों में कांग्रेस के बड़े प्रचारक बनाए गए हैं क्योंकि उनसे ज्यादा कामयाब मिसाल पार्टी के पास फिलहाल किसी राज्य में नहीं है।
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हिंदुस्तान में जब लोग सरकारी नियम-कानून से लड़ते हुए थक जाते हैं तो अंधा कानून किस्म की कहानियां लिखी जाती हैं, या फिल्में बनती हैं, और लोग बोलचाल में कहने लगते हैं कि कानून अंधा होता है. अब हिंदुस्तान में तो इस बात को बड़ा आम माना जाता है, लेकिन एक सबसे विकसित देश न्यूजीलैंड की एक ऐसी कहानी सामने आई है जो बताती है कि कोरोना महामारी के दौरान न सिर्फ दुनिया के तानाशाह देश और अधिक तानाशाह हो गए, बल्कि लोकतांत्रिक देशों में भी कई किस्म की तानाशाही की झलक दिखाई पडऩे लगी। कई देशों ने बहुत बुरी तरह से अपने लोगों को काबू किया, और जहां-जहां सरकारें लोगों पर शिकंजा कसना चाहती थीं, उन्हें कोरोना के महामारी नियम और लॉकडाउन के चलते हुए इसका बड़ा अच्छा मौका मिला। न्यूजीलैंड तो एक बड़ा संवेदनशील देश माना जाता है जहां पर अगर मां-बाप अपने बच्चों का ख्याल ठीक से न रखें तो सरकार उन बच्चों को मां-बाप से अलग करके किसी सरकारी इंतजाम में रखती है।
ऐसे न्यूजीलैंड की एक पत्रकार अफगानिस्तान में काम करते हुए गर्भवती थी और वह अपनी बच्ची को जन्म देने के लिए न्यूजीलैंड लौटना चाहती थी। कोरोना के चलते हुए बाहर से लौट रहे अपने ही देश के निवासियों के लिए न्यूजीलैंड की सरकार के नियम इतने कड़े थे कि वह बार-बार कोशिश करके भी अपने देश नहीं लौट पा रही थी जबकि वह वहां लौटकर आइसोलेशन में रहने के लिए भी तैयार थी। न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री भी एक महिला है, और वे अभी शादी करने वाली थीं, उनकी शादी भी देश में लगे हुए कोरोना प्रतिबंधों के चलते हुए आगे बढ़ी। ऐसे देश से तो यह उम्मीद की जा सकती थी कि अपनी नागरिक एक गर्भवती महिला के प्रति वह रहम दिखाए, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। बेलिस नाम की यह पत्रकार अफगानिस्तान में एक संवाददाता के रूप में काम कर रही थी लेकिन बार-बार की कोशिश के बावजूद वे अपने साथी फोटोग्राफर के देश बेल्जियम जा पाईं, और न ही अपने देश न्यूजीलैंड लौट सकीं, ऐसे में एक अविवाहित गर्भवती महिला के रूप में वे अफगानिस्तान में ही रह गईं, और उनका यह तजुर्बा है कि वहां के तालिबान उनके प्रति रहमदिल थे और बेलिस ने कहा कि तालिबान ने अपनी घोषित नीति के खिलाफ जाकर भी बहुत ही रहम की प्रतिक्रिया दी और कहा कि वे यहां सुरक्षित हैं, उन्हें होने वाली संतान मुबारक हो, और तालिबान-अफगानिस्तान उनका स्वागत करते हैं। जब वे बगल के देश कतर में रहते हुए बेल्जियम और न्यूजीलैंड जाने की कोशिश कर रही थीं, तब कतर के नियम भी अविवाहित गर्भवती महिला के खिलाफ थे और ऐसे में इस पत्रकार ने तालिबान के अफगानिस्तान ही लौटना पसंद किया जिन्होंने उसके संदेश पर तुरंत ही उसका स्वागत किया।
यह याद रखने लायक बात है कि पिछले साल जब अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिक वापस लौटे और वहां पर अल जजीरा के लिए रिपोर्टिंग कर रही बेलिस ने तालिबान नेताओं से महिलाओं और लड़कियों से उनके सुलूक के बारे में सवाल करके पूरी दुनिया का ध्यान खींचा था और पूरी दुनिया के सामने तालिबान के लिए शर्मिंदगी की एक नौबत खड़ी की थी। आज वही तालिबान उनकी मदद को तैयार थे और उनका अपना देश न्यूजीलैंड नियमों का जाल बिछाते चल रहा था। आखिर में जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह मुद्दा चारों तरफ नाराजगी खड़ी करने लगा तब जाकर न्यूजीलैंड सरकार ने महीनों की मनाही के बाद अब बेलिस को वापस आने की इजाजत दी है। इस दौरान उसे न्यूजीलैंड सरकार ने यह भी कहा था कि अगर वह अपने-आपको खतरे में पड़ा हुआ बताकर लौटने की अर्जी देगी तो सरकार उसकी इजाजत दे सकेगी, लेकिन तालिबान के बीच हिफाजत से रह रही न्यूजीलैंड की इस पत्रकार ने ऐसी अर्जी देने से मना कर दिया था, और कहा था यह बात सच नहीं है कि वह खतरे में है, इसलिए वे ऐसा लिखकर नहीं देंगी। इस पत्रकार ने एक बुनियादी सवाल यह भी उठाया था कि अगर न्यूजीलैंड की सरकार एक गर्भवती महिला की हालत को देखते हुए उसे भी नाजुक वक्त के पैमाने पर खरा नहीं पाती है, तो फिर नाजुक वक्त और हो कौन सा सकता है?
हिंदुस्तान जैसे देश में तो लड़कियों और महिलाओं के साथ भेदभाव बहुत आम है और कहीं उनके जींस पहनने पर रोक लगाने की कोशिश होती है, तो कहीं उनके मोबाइल फोन रखने पर, और इस देश के मुख्यमंत्री तक ऐसे कहने वाले हैं, जो मानते हैं कि महिलाओं को रात को बाहर नहीं निकलना चाहिए, वरना मानो वे बलात्कार के लायक रहती हैं। दूसरी तरफ बहुत से नेता महिलाओं के चाल-चलन के बारे में गंदी और ओछी बातें करने के लिए जाने जाते हैं, जिनमें से बहुत सी बातें तो संसद के भीतर भी हुई हैं। दुनिया के और भी कई देश ऐसे हैं जो महिलाओं के साथ कई किस्म के भेदभाव करते हैं, लेकिन विकसित लोकतंत्रों से ऐसी उम्मीद नहीं की जाती है। अभी तो पूरी तरह से नियंत्रित सरकारी व्यवस्था वाले चीन का हाल यह है कि उसने अपनी आबादी बढ़ाने के लिए तीसरी संतान होने पर किसी महिला को मिलने वाला मातृत्व अवकाश पहले दो बार के मातृत्व अवकाश से और अधिक लंबा मंजूर किया है. यानी जब देश को अपनी अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए आबादी बढ़ाना जरूरी लग रहा है तो वह महिलाओं पर से एक बच्चे की बंदिश को हटा कर दो बच्चों की छूट दे रहा है, और 2 साल के भीतर भीतर दो बच्चों की छूट को हटाकर 3 बच्चों पर प्रोत्साहन दे रहा है। एक महिला का अपने शरीर पर, अपने बच्चों पर किसी तरह के हक का सम्मान नहीं है, उसके बदन को पूरी तरह से सरकार की अर्थव्यवस्था की जरूरत से जोड़ दिया गया है।
दुनिया की अलग-अलग व्यवस्थाओं में महिलाओं के साथ भेदभाव के अलग-अलग तरीके हैं, ये भेदभाव कमोबेश अधिकतर जगहों पर है। हमने अभी चीन की चर्चा की है, लेकिन चीन से ठीक उल्टे एक लोकतंत्र अमेरिका का हाल यह है कि वहां पर किसी कारोबार में सबसे अधिक ऊंचाई पर पहुंचने वाली महिला को भी रोकने के लिए एक अदृश्य और काल्पनिक कांच की छत लगी रहती है कि वह उससे अधिक तरक्की न कर सके। ग्लास सीलिंग वाली यह बात वहां पर अधिकतर जगहों पर साबित होते चलती है। न्यूजीलैंड जैसे उदार और विकसित लोकतंत्र का यह मामला बताता है कि महामारी के चलते सरकारों ने लोकतांत्रिक रुख को कई किस्म से छोड़ भी दिया है, और मनमानी लाद दी है। हमने हिंदुस्तान में भी लॉकडाउन और रातों-रात ट्रेन-बस बंद करने जैसे फैसले देखे हुए हैं। और पूरी दुनिया का यह अनुभव है कि महामारी को तानाशाह मिजाज देशों ने अपने लोगों के ऊपर एक हथियार की तरह भी इस्तेमाल किया है। इस गर्भवती महिला पत्रकार के मामले को लेकर अलग-अलग देशों को अपने महामारी नियमों के बारे में सोचने की जरूरत है।
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दुनिया की एक सबसे बड़ी कंप्यूटर सॉफ्टवेयर कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने अभी-अभी डिजिटल गेम बनाने वाली एक कंपनी एक्टिविजन ब्लीजार्ड को 5 लाख 10 हजार करोड़ रुपए में खरीदने की घोषणा की है। इस रकम के बारे में सोचने की कोशिश करें तो हमारे जैसे लोगों की कल्पना इतने शून्य भी नहीं लगा पाती है, और यह भी समझ नहीं पड़ता है कि कैसे बिना किसी ठोस संपत्ति वाली, केवल वीडियो गेम बनाने वाली कोई कंपनी इतनी कीमती हो सकती है, और कैसे कोई दूसरी कंपनी इतनी बड़ी हो सकती है कि वह इसे 5 लाख 10 हजार करोड़ में खरीदे। लेकिन पिछले 10 बरस में ऐसे बहुत से मौके आए हैं जब किसी ने कोई ईमेल कंपनी खरीदी किसी ने कोई मैसेंजर सर्विस खरीदी और अपनी ताकत को एकदम से बढ़ा लिया, बाजार में लोगों के बीच अपना एकाधिकार कायम कर लिया। फेसबुक ने भी ऐसा ही किया और अब माइक्रोसॉफ्ट ने डिजिटल खेल की इस कंपनी को खरीदा है। इधर-उधर से दूसरी कई खबरें बताती हैं कि किस तरह ऑनलाइन डिजिटल खेल दुनिया भर में लाखों लोगों के लिए फुलटाइम काम हो गया है और वे वहां से न केवल रोजी-रोटी कमा रहे हैं, बल्कि मोटी कमाई भी कमा रहे हैं। राजस्थान के एक लडक़े की कहानी अभी बीबीसी की एक रिपोर्ट पर आई थी कि किस तरह वह ऑनलाइन गेम से जब कमाई करने लगा तब उसके घरवालों को यह तसल्ली हुई कि वह सिर्फ वक्त बर्बाद नहीं कर रहा है, और अब वह किसी अंतरराष्ट्रीय कंपनी की स्पॉन्सरशिप पाकर ऐसे ही ऑनलाइन खेलों में महारत हासिल कर रहा है।
हजारों बरस से दुनिया के परंपरागत कारोबार को देखें तो आज धंधे की बदली हुई शक्ल हैरान करती है। हजारों बरस तक दुनिया में सिर्फ सामान का कारोबार होता था, और थोड़ा-बहुत धंधा मजदूरी का होता था। ताकतवर देश, ताकतवर लोग कमजोर और गरीब देशों से गुलाम खरीदकर लाते थे और उनसे मरने तक मेहनत करवाते थे और अपना कारोबार बढ़ाते थे। एक किस्म से यह दुनिया का पहला सर्विस सेक्टर था जो कि एक अमानवीय जुल्म और जुर्म की बुनियाद पर खड़ा हुआ था और इसने कारोबार में और खुदाई या खेती में उत्पादकता बढ़ाई थी। फिर भी असली कारोबार सामानों से होता था, सामान को ही व्यापार माना जाता था। यह एक और बात है कि वेश्यावृत्ति को भी दुनिया का सबसे पुराना कारोबार कहा जाता है, और थोड़े पैमाने पर अपना बदन बेचने वाली महिलाएं हमेशा मौजूद थीं, और अब उन्हें कारोबार कहा जाए या सर्विस सेक्टर कहा जाए, आज की जीएसटी की परिभाषा में उसे अलग से समझना होगा।
पिछले कुछ दशकों में दुनिया में बिल्कुल नए-नए नौजवानों ने कंप्यूटर सॉफ्टवेयर प्रोग्रामिंग और ऑनलाइन गेमिंग जैसे बहुत से नए कारोबार खड़े किए, और उन्हें आसमान तक पहुंचा दिया। आज दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक बन चुकी, फेसबुक के बारे में 100 बरस पहले कौन यह सोच सकता था कि सिर्फ एक सोच इतना बड़ा कारोबार बन सकती है, जिसमें कोई सामान नहीं लगा है! जब मार्क जुकरबर्ग ने फेसबुक तैयार किया होगा तो उसके पास शायद खुद का ही एक अदना सा कंप्यूटर रहा होगा, और उसके बाद कारोबार बढ़ते-बढ़ते आज दुनिया के तकरीबन तमाम लोगों को अपने घेरे में ले चुका है, और आज नौबत यह है कि बिना किसी ठोस प्रोडक्ट के फेसबुक एक कारोबार की शक्ल में बड़े-बड़े विकसित देशों की संसद में बहस का सामान बना हुआ है, दुनिया के आधे देशों की अर्थव्यवस्था से बड़ा कारोबार बन चुका है। इसका मतलब यह हुआ कि खदानों से निकला हुआ सोना या हीरा, कारखानों में बनाया हुआ कोई सामान, या खेतों में उगाई गई कोई महंगी फसल ही अब उत्पादन नहीं रह गए हैं। अब एक सोच ही अपने-आपमें बहुत बड़ा प्रोडक्ट है। एक कल्पना जो कि मौलिक रहती है, वही अपने-आपमें सबसे बड़ी कामयाबी साबित तो हो रही है। लेकिन हिंदुस्तान जैसे देशों के परंपरागत आम लोगों को यह सोचना होगा कि परंपरागत कारोबार और रोजगार ही अब भविष्य नहीं रह गए हैं। अब इनसे बड़ा भविष्य वे छोकरे हो गए हैं जो कि जींस और टीशर्ट पहने हुए एक कंप्यूटर पर एक नई दुनिया गढ़ लेते हैं, और दुनिया के सबसे बड़े शासक से भी अधिक लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं, और अपने कारोबार को इतना कीमती साबित कर देते हैं जितना किसी ने कभी सोचा भी नहीं था। इसलिए परंपरागत प्रोडक्ट और परंपरागत रोजगार से परे सोचने की जरूरत है।
आज दरअसल किसी पुरानी तकनीक को या तरकीब को सीखने के बजाय यह सीखने की जरूरत है कि बिना कुछ सीखे, बिल्कुल खाली दिमाग से महज कल्पनाओं से क्या-क्या सोचा जा सकता है। जब तक लोग सोच के पुराने दायरों के कैदी बने रहेंगे, तब तक वे दूर तक नहीं जा पाएंगे। और आज का वक्त बिल्कुल नई-नई और मौलिक सोच से काम करने का है। हिंदुस्तान में भी ऐसे छोटे बहुत से उदाहरण है कि कैसे पहली पीढ़ी के नए-नए कारोबारियों ने कोई काम शुरू किया, और वह बिल्कुल अनोखा था, और लोगों ने उसके पहले वैसे किसी काम के बारे में सोचा भी नहीं था। उसकी एक बड़ी खूबी यही थी कि पहले किसी ने वैसा नहीं सोचा था, और उसी वजह से वह एक बड़ा कारोबार बन पाया। इसलिए आज की दुनिया में उसी देश और समाज की वही पीढ़ी आगे बढ़ सकेगी जिसे पुरानी किताबों को रटाने के बजाय खुले आसमान में पंछी की तरह कल्पनाओं को उड़ाकर कुछ नया सोचना सिखाया जा सके, और यह भी सिखाया न जाए, सिर्फ उकसाया जाए, सोचने के लिए। जब लोग पहले के किसी भी सीखे हुए से परे नया कुछ कर पाएंगे, कल्पना कर पाएंगे, तो ही वे चमत्कार की तरह का कोई कारोबार कर पाएंगे। आज विरासत में मिले किसी कारोबार के दो-चार गुना होने की तरकीब तो सरकार के साथ मिलकर निकाली जा सकती है, लेकिन एक कमरे या गैराज से आसमान तक पहुंचने का काम कोई दूसरी पीढ़ी का कारोबारी नहीं कर पा रहे हैं, यह काम पहली पीढ़ी के सिर्फ वही कारोबारी कर पा रहे हैं जिनके सिर पर विरासत को ढोने की जिम्मेदारी नहीं है, जिनके सामने यह चुनौती नहीं है कि बाप-दादा के कारोबार से उनकी तुलना करके लोग क्या कहेंगे। इतिहास और विरासत के ऐसे बोझ से मुक्त नौजवान ही खाली हाथों से एक नई दुनिया गढ़ रहे हैं, जिनमें दुनिया के करोड़ों लोग आकर जुड़ रहे हैं, उसमें बस रहे हैं। इसलिए घिसी-पिटी बातों को पढऩे और सीखने के बजाय, कल्पना की संभावनाओं, और संभावनाओं की कल्पना पर बच्चों को आगे बढऩे देना चाहिए।
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अमेरिका के एक सबसे प्रतिष्ठित अखबार न्यूयॉर्क टाईम्स ने एक रिपोर्ट छापी है जिसमें उसने बताया है कि दुनिया के किन-किन देशों ने इजरायल से पेगासस नाम का जासूसी घुसपैठिया सॉफ्टवेयर खरीदा था, और अपने लोगों की जासूसी की थी। उसने इसमें अमेरिका की सबसे बड़ी जांच एजेंसी का नाम भी दिया है कि एफबीआई ने भी इसे खरीदा था और इसका इस्तेमाल भी किया है. जबकि पेगासस बनाने वाली कंपनी ने अधिकृत रूप से साल भर पहले यह कहा था कि उसने यह सॉफ्टवेयर इस तरह से बनाया है कि यह अमेरिका के टेलीफोन पर काम नहीं करेगा। अब एफबीआई ने इसे अमेरिकी फोन पर इस्तेमाल किया या किसी और देश के टेलीफोन पर, यह एक अलग मुद्दा है लेकिन मुद्दे की बात यह है कि न्यूयॉर्क टाईम्स ने खुद अमेरिका की सबसे बड़ी घरेलू जांच एजेंसी का नाम भी इसमें लिखा है। उसने हिंदुस्तान सरकार का भी नाम लिखा है कि इजराइल से एक बड़े हथियार सौदे के तहत उसने बाकी हथियारों के साथ-साथ पेगासस भी खरीदा था, और हिंदुस्तान के पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ इस्तेमाल किया था। इस पर भारत के केंद्रीय मंत्री और रिटायर्ड आर्मी जनरल वी के सिंह ने न्यूयॉर्क टाईम्स को सुपारी मीडिया बताया है। अब इन शब्दों को कोई अमेरिकी तो ठीक से समझ नहीं पाएंगे क्योंकि वहां सुपारी चलती नहीं है, लेकिन हिंदुस्तान में लोग इस बात को समझ सकते हैं कि वी के सिंह न्यूयॉर्क टाईम्स को ठेके पर काम करने वाला कोई मुजरिम गिरोह या हत्यारा साबित कर रहे हैं। लोगों को अगर याद होगा तो वे कुछ बरस पहले हिंदुस्तान के मीडिया को भी प्रेस्टीट्यूट कहकर प्रॉस्टिट्यूट से उसकी तुलना कर चुके हैं। उनके मन में लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए जो हिकारत है वह हर कुछ महीनों में खुलकर सामने आती है। केंद्र सरकार का एक मंत्री जो यह कहने की हालत में भी नहीं है कि उसकी सरकार ने यह सॉफ्टवेयर खरीदा या नहीं, और जिसकी सरकार संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक इस पर कुछ भी बोलने से बच रही है कि उसने हिंदुस्तान के लोगों पर पेगासस का इस्तेमाल किया है या नहीं, वह एक प्रतिष्ठित अमेरिकी अखबार को सुपारी मीडिया कह रहा है। क्या यह सरकार की भाषा है? क्या यह फौज की सबसे ऊंची वर्दी पहनकर रिटायर होने वाले किसी इंसान की भाषा होनी चाहिए? हिंदुस्तान के एक केंद्रीय मंत्री की भाषा होनी चाहिए कि वह अपने देश के प्रेस को प्रेस्टीट्यूट कहे और उसे वेश्या करार दे? वैसे एक बात है कि वेश्या न तो अपने देश को बेचती है और न ही अपने देश के नागरिकों की आजादी को बेचती है, वह महज अपना बदन बेचती है जिस पर उसका 100 फीसदी हक होता है। दुनिया के इतिहास में ऐसी कोई वेश्या याद नहीं पड़ती जिसने अपने ग्राहकों के घर की भी जासूसी की हो, अब जो सरकारें ऐसी जासूसी कर रही हैं, वे अपने बारे में सोचें कि वे क्या हैं और क्या उन्हें प्रेस को प्रेस्टीट्यूट कहकर गाली देने का हक है, या किसी प्रॉस्टिट्यूट को भी गाली की तरह इस्तेमाल करने का कोई हक है?
जनरल वी के सिंह को अपना सामान्य ज्ञान थोड़ा सा बढ़ाना चाहिए और दुनिया के जो प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय अखबार या टीवी चैनल हैं, उनकी साख के बारे में भी देखना चाहिए कि वे किस तरह अपनी आजादी कायम रख सकते हैं, रखते हैं, और कुछ दूसरे लोकतंत्रों के ठेके पर काम करने वाले समर्पित भक्त-मीडिया की तरह जो लोग सचमुच ही सुपारी उठाकर काम नहीं करते हैं। बात थोड़ी अटपटी है लेकिन मन में उठती है कि सुपारी मीडिया का यह संदर्भ जनरल वी के सिंह के दिमाग में आया कहां से होगा? क्योंकि अमेरिकी मीडिया तो खुलकर अपनी नीति घोषित करके किसी पार्टी या प्रत्याशी का साथ देता है या उसका विरोध करता है उसमें लुका-छिपा कुछ भी नहीं रहता, लेकिन क्या वी के सिंह की नजर में कोई दूसरे ऐसे मीडिया घराने हैं जो कि सुपारी मीडिया की तरह काम कर रहे हैं? क्या वी के सिंह के अचेतन की कोई जानकारी उनकी जुबान पर आ गई? इस बारे में जानकार लोगों को वी के सिंह से पूछना चाहिए। इसके पहले के वर्षों में भी वे लगातार अनर्गल, अवांछित, नाजायज बातें कहते हैं और अपनी वर्तमान या भूतपूर्व वर्दी का अपमान करते हैं। वी के सिंह एक अकेली ऐसी बड़ी वजह है जो लोगों को यह सोचने पर मजबूर करती है कि लोकतांत्रिक राजनीति में किसी रिटायर्ड फौजी की जगह क्यों नहीं होनी चाहिए।
आज से संसद का सत्र शुरू हुआ है और यह जाहिर है कि पेगासस का मुद्दा वहां उठेगा, इसलिए सुप्रीम कोर्ट से लेकर देश की दूसरी लोकतांत्रिक संस्थाओं को भी इस बारे में सोचना होगा कि पेगासस का यह रहस्य खुलने में और कितना वक्त लगेगा? सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार द्वारा साफ-साफ कुछ भी कहने से मना कर देने के बाद अदालत ने अपने स्तर पर एक एक्सपर्ट जांच कमेटी बनाई थी, और उससे 60 दिनों के भीतर रिपोर्ट मांगी थी कि क्या भारत सरकार ने पेगासस खरीदा था, क्या उसका इस्तेमाल हुआ था, और इससे जुड़ी हुई और बहुत सी बातें। इन 60 दिनों का वक्त तो शायद निकल गया है, और वह जांच अभी किसी किनारे पहुंची हो या ना पहुंची हो, पेगासस को लेकर न्यूयॉर्क टाइम्स की ताजा रिपोर्ट सामने आई है। किसी भी अखबार की रिपोर्ट को हम अदालती सुबूत तो नहीं मान रहे, लेकिन उसे लेकर इस जांच कमेटी को सरकार से पूछताछ तो करनी ही चाहिए। क्या पेगासस खरीदने के लिए केंद्र सरकार ने एक इतना बड़ा पैकेज तैयार करके इजराइल से हथियार खरीदे कि जिसके ग_े के बीच दबकर पेगासस भी आ जाए, और सरकार के किसी बिल में पेगासस का भुगतान अलग से न दिखे ? अब जब इजराइल के साथ हुए ऐसे बड़े सौदे की जानकारी छपती है, सुप्रीम कोर्ट और उसकी जांच कमेटी की भी जिम्मेदारी हो जाती है कि जांच कमेटी इस जानकारी को परखे और सरकार से उस पर जवाब मांगे। इस तरह का कोई घुसपैठिया हथियार खरीदकर अपने ही लोकतांत्रिक नागरिकों के खिलाफ अगर उसका इस्तेमाल भारत सरकार ने किया है, तो यह बात खुलकर सामने आनी चाहिए। खुद सत्तारूढ़ भाजपा के एक वरिष्ठ सांसद जो कि कांग्रेस और सोनिया परिवार के प्रति अपनी नफरत के लिए बरसों से जाने जाते हैं, सुब्रमण्यम स्वामी ने भी सरकार से पेगासस की ऐसी खरीदी की इस अखबार की रिपोर्ट पर जवाब मांगा है। अभी पूरा मामला सुप्रीम कोर्ट में है और वहां सरकार से कोई जवाब देते बन नहीं रहा है क्योंकि वह शायद वहां सच मानने की हालत में नहीं है, इसलिए अब पूरी जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट की बनती है कि जितनी ताजा जानकारियां आ रही हैं उन पर भी गौर करने के लिए अपनी एक्सपर्ट कमेटी को कहे। लोकतंत्र में यह सिलसिला नहीं चल सकता। लोगों को याद होगा कि अमेरिका में विपक्षी पार्टी की जासूसी जब पकड़ाई और वाशिंगटन पोस्ट नाम के अखबार के रिपोर्टरों ने वॉटरगेट कांड नाम से सच को उजागर किया, तो उस वक्त के ताकतवर राष्ट्रपति निक्सन को इस्तीफा देना पड़ा था। आज हिंदुस्तान अपनी ही सरकार को लेकर एक संदेह से घिरा हुआ है। यह नौबत सुधरनी चाहिए, और ऐसी कोई वजह नहीं है कि हिंदुस्तान का सुप्रीम कोर्ट इस नौबत को सुधार न सके. ऐसे में वक्त इसलिए मायने रखता है कि इस दौर में देश के नागरिकों की आजादी खतरे में बनी हुई है।
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विख्यात नाटककार विजय तेंदुलकर का एक नाटक था ‘शांतता कोर्ट चालू आहे’। इस नाटक में एक जगह फंसे हुए लोगों की रात गुजारने के लिए एक खेल खेलने की कहानी है जो वक्त गुजारने के लिए एक अदालत का नाटक खेलने लगते हैं। इसमें कोई जज बन जाता है, कोई वकील, और एक महिला को घेरकर उस पर तरह-तरह के आरोप लगाए जाते हैं, इस मामले में जैसे-जैसे यह नाटक आगे बढ़ता है वैसे-वैसे उसके पुरुष पात्र लगातार उस महिला के चाल-चलन पर, उसकी दूसरी बातों पर तरह-तरह के काल्पनिक हमले करने लगते हैं, और नाटक यह उजागर करने लगता है कि पुरुष की मानसिकता किसी महिला के खिलाफ किस हद तक घटिया और हिंसक हो सकती है। कल जब दिल्ली हाईकोर्ट में पति-पत्नी के बीच जबरिया सेक्स के खिलाफ वैवाहिक जीवन में बलात्कार नाम से चर्चित एक मुकदमे की सुनवाई चल रही थी तो उसमें केंद्र सरकार के तर्क सुनना कुछ इसी तरह का था, जिस तरह विजय तेंदुलकर के नाटक में कटघरे में खड़ी की गई एक महिला के खिलाफ पुरुषों की हिंसक सोच लगातार हमले करती है। बलात्कार के आरोपों से घिरा हुआ कोई आदमी अपने बचाव के लिए अदालत में जितने तरह के तर्क दे सकता है उससे कहीं अधिक किस्म के तर्क केंद्र सरकार ने दिल्ली हाई कोर्ट में दिए।
अदालत में केंद्र सरकार ने कहा कि इस मामले में भारत आंख मूंदकर पश्चिमी देशों का अनुकरण नहीं कर सकता। पश्चिम के कई देशों ने मैरिटल रेप को अपराध के दर्जे में रखा है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि भारत भी वैसा कर ले। केंद्र सरकार का तर्क था कि भारत विशाल विविधताओं से भरा देश है और इसमें इसकी अपनी समस्याएं हैं, साक्षरता, महिलाओं में आर्थिक सशक्तिकरण का अभाव, समाज का चरित्र, गरीबी जैसे कई पहलू हैं, जिन पर विचार किए बिना मैरिटल रेप को अपराध बनाने की बात नहीं सोची जा सकती। केंद्र सरकार ने यह भी कहा कि दहेज उत्पीडऩ को रोकने के लिए बनाए गए कानून का बेजा इस्तेमाल जिस तरह से होता है उसे देखते हुए भी ऐसा कोई कानून वैवाहिक जीवन में बलात्कार स्थापित करने के लिए नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि यह तय करना मुश्किल लगता है कि वैवाहिक संबंध में कब किस परिस्थिति में महिला ने यौन संबंध बनाने की सहमति वापस ले ली। केंद्र सरकार का तर्क है कि बलात्कार के मौजूदा कानून में अपराध की शिकार महिला की गवाही ही सजा दिलाने के लिए पर्याप्त है, लेकिन शादीशुदा जिंदगी में यह साबित करना मुश्किल हो जाएगा कि कब महिला ने वैवाहिक संबंध के भीतर पति को दिए गए यौन संबंध बनाने के अधिकार को वापस ले लिया। इस सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने यह भी कहा कि इसे अपराध घोषित करने के लिए समाज में एक आम सहमति का व्यापक आधार होने की जरूरत भी होगी।
केंद्र सरकार ने अपने तर्कों में समझदारी को हक्का-बक्का करने वाली कई बातें कही हैं। उसका यह तर्क कि भारत की अपनी समस्याएं हैं और यहां पर साक्षरता, और महिलाओं में आर्थिक सशक्तिकरण का अभाव है, यह तर्क शादीशुदा महिलाओं को पति के बलात्कार के खिलाफ अधिकार देने के खिलाफ इस्तेमाल किया गया है! यह तर्क कायदे से तो भारतीय महिलाओं को मजबूत बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए था कि आज उनमें आर्थिक सशक्तिकरण का अभाव है, साक्षरता का अभाव है, लेकिन केंद्र सरकार ने इसे महिलाओं के खिलाफ इस्तेमाल कर लिया है जैसे कि हिंदुस्तानी समाज में महिलाओं की आर्थिक सशक्तिकरण न होने के लिए वे खुद जिम्मेदार हैं। फिर केंद्र सरकार ने दहेज प्रताडऩा से संबंधित कानून के बेजा इस्तेमाल की बात कही है। इस कानून के तहत कोई महिला शिकायत दर्ज करा सकती है लेकिन इस पर सजा तो जांच और सबूतों के बाद ही हो सकती है। और जहां तक किसी कानून के बेजा इस्तेमाल होने की बात है तो हिंदुस्तान का सवर्ण तबका लगातार यह बात कहता है कि देश में दलित और आदिवासी तबकों के संरक्षण के लिए बनाए गए विशेष कानून एससी-एसटी एक्ट का बेजा इस्तेमाल होता है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट तक बार-बार यह मामला जाने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट को आखिर यह मानना पड़ा कि इस कानून के तहत शिकायत होने पर गिरफ्तारी से कोई रियायत नहीं दी जानी चाहिए। ऐसे दूसरे कानून हैं जिनके बारे में कहा जा सकता है कि उनका बेजा इस्तेमाल होता है। केंद्र सरकार जिन सांसदों के बहुमत से बनती है उनमें से अधिकतर सांसद चुनाव कानून को तोडक़र, अंधाधुंध खर्च करके, काले धन का इस्तेमाल करके सत्ता पर आते हैं, और सरकार बनाते हैं। तो क्या चुनाव कानून को तोडऩे वाले सांसदों का बहुमत देखते हुए संसद को भंग कर दिया जाए, या चुनावों को भंग कर दिया जाए? सरकारें भ्रष्ट रहती हैं, यह बात निर्विवाद रूप से स्थापित है, तो क्या निर्वाचित लोगों को सत्ता देने के बजाय फौज को सत्ता दे दी जाए? जब कानूनों के बेजा इस्तेमाल का तर्क दिया जा रहा है तो वह महिलाओं के खिलाफ दिया जा रहा है, यह तर्क नहीं दिया जा रहा कि इस देश में कानून रहते हुए भी समाज महिलाओं को उनके माता-पिता की संपत्ति में जायज हक क्यों नहीं देता? जितने कानून गिनाये जा रहे हैं वे महिलाओं को कसूरवार मानकर बताये जा रहे हैं कि वे बलात्कार की झूठी रिपोर्ट लिखवाती हैं, वे दहेज प्रताडऩा की झूठी रिपोर्ट लिखवाती हैं। यह नजरिया अपने-आपमें बतलाता है कि इस केंद्र सरकार, या ऐसी किसी और केंद्र सरकार से भी हिंदुस्तानी औरत को कोई इंसाफ मिलने की उम्मीद नहीं हो सकती।
यह समझने की जरूरत है कि इस देश में महिलाओं के हक के लिए जब भी कोई कानून बने हैं, उनका जमकर विरोध हुआ है। जब सती प्रथा को रोकने की बात हुई तो एक हिंदुस्तानी हाई कोर्ट जज तक सती प्रथा के पक्ष में खुलकर सामने आ गए थे कि यह हिंदू महिला का अपना अधिकार है। जब मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से आजादी दिलवाने का कानून बना तो हिंदुस्तान के तमाम भाजपा विरोधी दल मुस्लिम, और खासकर मुस्लिम मर्द के सबसे बड़े हिमायती बन कर सामने आ गए कि मानो मुस्लिम औरत तीन तलाक पाने के ही लायक है। जिस वक्त सुप्रीम कोर्ट ने एक मुस्लिम महिला शाहबानो के पक्ष में फैसला दिया था, उस वक़्त राजीव गांधी की अभूतपूर्व और ऐतिहासिक बहुमत वाली सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए कानून बना दिया था कि मुस्लिम महिला को हक कैसे दिया जा सकता है। और कांग्रेस पार्टी शाहबानो की आह से कभी नहीं उबर सकी। इसी तरह बाल विवाह से लड़कियों को बचाने के लिए जब कानून बना था, तो बाल विवाह को सामाजिक परंपरा करार देते हुए उस कानून का जमकर विरोध हुआ था और आज भी जहां-जहां सामाजिक कार्यकर्ता या सरकार बाल विवाह को रोकने जाते हैं, उनका विरोध करने के लिए समाज के ठेकेदार खड़े हो जाते हैं। इस तरह के अनगिनत मामले हैं जिनमें महिला को किसी अधिकार के लायक समझा ही नहीं गया था, लेकिन या तो पहले सामाजिक आंदोलन हो गए, या पहले कानून बना और उसके बाद कानून और समाज दोनों ने मिलकर लंबा संघर्ष करके लड़कियों और महिलाओं को उनका हक दिलाया।
जिस भ्रूण परीक्षण मेडिकल जांच से गर्भवती लडक़ी को मारा जाता था, उस जांच को गैरकानूनी करार देने का काम बहुत समय बाद हो पाया जब तक उस जांच की मेहरबानी से दसियों लाख या करोड़ों लड़कियों को मार डाला गया होगा। तो जन्म के पहले से लेकर पति के मरने के बाद सती बनाने तक हिंदुस्तानी लडक़ी और महिला को तरह-तरह से कुचला जाता है और जब कभी उसके हक के लिए किसी कानून को बनाने की बात होती है तो सरकार और समाज शुरू में लंबे समय तक इसके खिलाफ कमर कसकर खड़े हो जाते हैं. महिला को हक़ देने के खिलाफ कुछ वैसे ही मर्दाने तर्क कल दिल्ली हाईकोर्ट में केंद्र सरकार ने दिए हैं, और सरकार की भाषा बहुत ही अपमानजनक है। किसी कानून के बेजा इस्तेमाल होने के डर से अगर उस कानून को न बनाया जाए तो देश का ऐसा कौन सा कानून है जिसका आज बेजा इस्तेमाल नहीं होता है? देश में टैक्स की छूट के लिए या किसी सब्सिडी को पाने के लिए, जिस किसी भी बात के लिए कोई कानून बना है, उसे करोड़ों लोग तोड़ रहे हैं। सरकार में बैठे हुए और जनता के पैसों पर पल रहे नेता और अफसर रात दिन भ्रष्टाचार कर रहे हैं, तो क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई कानून न बनाया जाए? क्या उस कानून को लोग तोड़ते हैं इसलिए उसे खत्म कर दिया जाए? केंद्र सरकार की नीयत और सोच बहुत ही दकियानूसी है और इससे न सिर्फ भारतीय महिलाओं का बल्कि पूरे भारतीय समाज का बहुत बुरा होगा। केंद्र सरकार अगर अपनी बात यहां तक सीमित रखती कि ऐसे किसी कानून पर विचार करते हुए पहले यह देखना चाहिए कि उसका कैसा-कैसा बेजा इस्तेमाल हो सकेगा, तब भी बात समझ में आती, लेकिन केंद्र सरकार ने तो भारतीय महिलाओं में सशक्तिकरण न होने की बात उठाकर ऐसा कहने की कोशिश की है कि मानो भारतीय महिला की आर्थिक कमजोरी के लिए वह खुद मुजरिम है। केंद्र सरकार के वकील के रखे गए पूरे पक्ष को और अधिक खुलासे से देखना चाहिए और देश के जागरूक लोगों को इसके खिलाफ एक जनमत तैयार करना चाहिए। जिस देश की संसद और सरकार कई दशक गुजार दें लेकिन महिला आरक्षण का कानून न बनाएं, उस देश में महिलाओं को किसी इंसाफ की कोई उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए।
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मद्रास हाई कोर्ट ने अभी एक सडक़ किनारे मंदिर के अवैध कब्जे के मामले में बड़ा शानदार हुक्म दिया है। एक स्टेट हाईवे के किनारे एक मंदिर अवैध कब्जे पर बनाया गया और जब इसे हटाने की बात हुई तो मंदिर ट्रस्ट हाईकोर्ट तक पहुंच गया और अपील की कि मंदिर न हटाया जाए। इस पर जस्टिस एस वैद्यनाथन और जस्टिस भरत चक्रवर्ती की बेंच ने कहा ईश्वर हर जगह मौजूद है और उसे अपनी दिव्य उपस्थिति के लिए किसी खास जगह की जरूरत नहीं है। जजों ने कहा कि कोर्ट में याचिका दायर करने वाले हाईवे की जमीन को मंदिर के नाम पर कब्जा नहीं कर सकते। इसके साथ ही यह जमीन सरकारी और सार्वजनिक है इसलिए इसका इस्तेमाल किसी भी जाति और धर्म के लोग कर सकते हैं। अगर याचिकाकर्ता भक्तों को उसी इलाके में पूजा की सुविधा देनी है तो इसके लिए वे आजाद हैं, वे अपनी खुद की जमीन दें, वहां मंदिर बनवाएं और मूर्ति को ले जाकर वहां पर रख दें। हाईकोर्ट जजों ने यह साफ किया कि अगर इस मंदिर को वहां रहने की इजाजत दी जाती है तो फिर हर कोई ऐसी मांग करेगा। जजों ने कहा कि अगर ऐसी मान मान ली जाती है तो हर कोई सरकारी और सार्वजनिक जमीन पर कब्जा करने लगेंगे, और यह तर्क देने लगेंगे कि उससे कोई जनसुविधा नहीं रुक रही है इसलिए उन्हें भी अपने अवैध कब्जे पर कायम रहने दिया जाए। साथ ही जजों ने यह टिप्पणी भी की कि धर्म के नाम पर लोगों को बांटने के लिए सभी समस्याओं का मूल कारण कट्टरपंथ है।
मद्रास हाई कोर्ट का यह आदेश शानदार और साहसी है जिसमें धर्म के नाम पर हिंदुस्तान में चल रही बदअमनी को कुछ हद तक रोकने की कोशिश की गई है। आज हम पूरे देश में देखते हैं चारों तरफ धर्म स्थलों के नाम पर सरकारी जमीन, सार्वजनिक जमीन, सडक़ों के किनारे, इन सब पर कब्जा कर लिया जाता है, और इस कब्जे के साथ-साथ वहां पर दुकानें निकाल दी जाती हैं, कारोबार शुरू हो जाता है, और मामला सुप्रीम कोर्ट तक भी चले जाए तो भी राज्य सरकारें कोई कार्रवाई करने से कतराती हैं। छत्तीसगढ़ में ही ऐसा एक मामला है जिसमें राजधानी रायपुर में एक बड़े नेता के परिवार ने शहर के सबसे प्रमुख धर्म स्थल के पास की सरकारी जमीन पर मंदिर का विशाल अवैध निर्माण किया, सुप्रीम कोर्ट ने उसे तोडऩे के लिए समय सीमा तय की, लेकिन फिर जाने कौन सा कानूनी या गैर कानूनी रास्ता ऐसा निकाला गया कि वह निर्माण आज तक खड़ा है, और एक के बाद दूसरी सरकार भी धार्मिक भावनाओं को छूने से बच रही है. इसे देखते हुए पूरे प्रदेश में यह माहौल है कि धर्म के नाम पर किया गया कोई भी अवैध कब्जा या अवैध निर्माण देश की कोई अदालत नहीं हटा सकती। यह बात सिर्फ मंदिर को लेकर नहीं है, यह बात मस्जिद, मजार, दरगाह, गुरुद्वारा, और शायद चर्च को लेकर भी है। इन बड़े और संगठित धर्मों से परे छोटे धर्म या पंथ भी ऐसे हैं जो कि अवैध कब्जे और अवैध निर्माण को अपनी धार्मिक आजादी मानते हैं और धड़ल्ले से उसमें लगे रहते हैं।
बहुत सा धार्मिक निर्माण तो इसलिए होता है कि उसके आसपास कारोबारी निर्माण हो जाए और स्थानीय प्रशासन उनमें से किसी को भी न छू सके। लोगों का यह भी देखा हुआ है कि किस तरह जब अदालत बंद रहती है और 2 दिनों के लिए सरकारी दफ्तर बंद रहते हैं तो ऐसे दिनों को छांटकर किसी धर्म के लोग बड़ी संख्या में कारसेवक जुटाकर, पहले से तैयारी करके, अंधाधुंध रफ्तार से अवैध निर्माण करते हैं, और फिर नेता और सरकार उनकी तरफ से तब तक आंखें मूंदे रहते हैं जब तक कि वह निर्माण पूरा न हो जाए। यह मिली-जुली नूरा कुश्ती जनता की कुर्सियों पर बैठे हुए लोगों और धर्म को हाँक रहे लोगों के बीच चलती ही रहती है। दोनों के बीच अच्छी सांठगांठ और समझ-बूझ रहती है कि किस तरह कभी अदालत को बीच में डालकर धार्मिक अवैध निर्माण को बचाया जा सकता है, और छत्तीसगढ़ का मामला तो पूरे हिंदुस्तान के सामने एक मिसाल हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट की दी गई समय सीमा में निर्माण को तोडऩे के बजाय उसे बरसों बाद भी बचाए रखने के लिए कौन सी तरकीब इस्तेमाल की गई थी। सभी धर्मों के लोग इस तरकीब पर चलकर देशभर में जहां चाहे वहां अवैध कब्जा, अवैध निर्माण कर सकते हैं।
कहने को तो हिंदुस्तान की अदालतों के पास अंधाधुंध ताकत है, लेकिन हकीकत यह है कि उस ताकत के इस्तेमाल से खुद जज बचते हैं कि कहीं ऐसे अलोकप्रिय फैसले न हो जाएं कि जिन्हें मानने से सरकारें भी इंकार कर दें, और फिर जज एकदम ही बेबस और लाचार साबित हों। अदालतों में जज कई बार बातें कड़ी करते हैं, लेकिन फैसला ऐसा देते हैं कि जिसमें भ्रष्ट और राज्य सरकारों के बच निकलने का रास्ता निकल जाए। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। मद्रास हाई कोर्ट के जजों का यह साफ-साफ कहना पूरे देश पर लागू होना चाहिए, सभी धर्म स्थलों पर लागू होना चाहिए। धर्म ने अपने आप को जिस हद तक अराजक बना रखा है, उससे भी छुटकारा पाने की जरूरत है। ऐसा लगता है कि धर्म स्थलों के प्रसाद से हिंदुस्तान का हर पेट साल के 365 दिन, तीन वक्त भरते रहेगा। ऐसा लगता है कि जब ईश्वर मेहरबान रहेगा तो किसी को कोई काम करने की जरूरत नहीं रहेगी, और किसी को कोई कमी नहीं रहेगी। लोग संविधान के ऊपर ईश्वर को चढ़ाते हैं, रोज की जिंदगी की प्राथमिकताओं से ऊपर धर्म को जगह देते हैं, और इन सबको धार्मिक भावनाओं के नाम पर सरकारें बढ़ावा देती हैं, राजनीतिक दल भडक़ाते हैं। यह सिलसिला खत्म करने की जरूरत है।
हर प्रदेश के हाई कोर्ट को, और देश के सुप्रीम कोर्ट को हिंदुस्तान की धर्मांधता के खिलाफ एक कड़ा रुख लेने की जरूरत है, और सुप्रीम कोर्ट को ही यह भी तय करना पड़ेगा कि जब स्थानीय संस्थाएं और राज्य सरकारें अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी पूरी नहीं करती हैं तो उन्हें किस तरह की सजा दी जाए. इस सजा का फैसला कुर्सियों के आधार पर तय होना चाहिए और जिस दिन यह खतरा खड़ा हो जाएगा कि धार्मिक अवैध निर्माण को न हटाने वाले म्युनिसिपल कमिश्नर या कलेक्टर-एसपी जेल भेजे जाएंगे, उस दिन यह पूरा सिलसिला ठीक हो जाएगा। आज दिक्कत यह है कि सत्तारूढ़ पार्टियां, और विपक्षी पार्टियां भी, धर्म को छूने से कतराती हैं, बल्कि बहुत हद तक उन्हें मनमानी का बढ़ावा देती हैं, और अदालतों की कार्रवाई एक अमूर्त मसीहाई नसीहत की तरह साबित होती है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ही एक दूसरी मिसाल है जहां एक रिहायशी बस्ती के बीच में बसे हुए एक मंदिर से रात-दिन लाउडस्पीकर बजता था और पास में बसे हुए लोगों का जीना हराम हो गया था। जब बात किसी तरह नहीं सुलझ पाई तो आसपास के लोग हाई कोर्ट गए और वहां के हुक्म के बाद भी जब मंदिर नहीं सुधरा तो बजते हुए लाउडस्पीकर की रिकॉर्डिंग की गई और मंदिर को बताया गया कि अब अदालत की अवमानना का मुकदमा चलाया जा रहा है, इस चेतावनी के बाद मनमानी बंद हुई। अधिक से अधिक लोगों को धार्मिक अवैध कब्जों और अवैध निर्माण के खिलाफ अदालत जाना चाहिए क्योंकि एक धर्म की अराजकता दूसरे धर्म को भी वैसा ही करने के लिए बढ़ावा देती है।
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