विचार/लेख
ह्यू स्कोफिल्ड
फ्रांस के संसदीय चुनावों में धुर दक्षिणपंथी पार्टी नेशनल रैली सत्ता में नहीं आ सकी।
पहले चरण में नेशनल रैली को सफलता मिली थी। मगर जब दूसरे चरण के मतदान की बारी आई तो लोगों का रुख़ अलग दिखा। ऐसा राष्ट्रपति चुनाव में भी हुआ था।
नेशनल रैली के नेतृत्व वाला गठबंधन को तीसरे नंबर पर है और 150 सीटें मिलती दिख रही हैं जबकि एक हफ़्ते पहले 300 सीटों का अनुमान लगाया जा रहा था। हालांकि एक पार्टी के रूप में 'नेशनल रैली' चुनाव में पहले नंबर पर है।
ऐसा दो कारणों से हुआ। पहला- मतदाताओं का बड़ी संख्या में वोट डालना, दूसरा- नेशनल रैली को रोकने के लिए दूसरी पार्टियों का गठबंधन।
इन चुनावी नतीजों से फ्ऱांस में क्या बदलेगा और कैसे इस देश की राजनीतिक व्यवस्था बदलती नजर आ रही है?
फ्रांस की राजनीतिक व्यवस्था ही बदल गई
दक्षिणपंथी नेता मरीन ले पेन का कहना है, ‘वामपंथी दलों ने अचानक से अपने सारे मतभेद भुलाकर एक नया एंटी-नेशनल रैली गठबंधन बना लिया। मैक्रों समर्थक और वामपंथी भी अपने बीच के मतभेद भूल गए।’ इस दक्षिणपंथी दल का मानना है कि इन नेताओं को नेशनल रैली के विरोध के अलावा कोई दूसरी चीज़ एकजुट नहीं करती है। ऐसे में भविष्य में आने वाली असहमतियों से दिक्कत हो सकती है।
इन सब तर्कों के बावजूद तथ्य साफ़ दिख रहा है।
ज़्यादातर लोग अति-दक्षिणपंथ को पसंद नहीं करते।
इसकी दो वजहें हो सकती हैं।
पहला- दक्षिणपंथियों के विचार पसंद ना होना।
दूसरा- धुर दक्षिणपंथियों के सत्ता में आने से अशांति फैलने का डर।
ऐसे में अगर नेशनल रैली पार्टी के नेता जॉर्डन बार्डेला देश के अगले प्रधानमंत्री नहीं होंगे तो कौन होगा?
फ्रांस के अगले पीएम के नाम से जुड़े सवाल का जवाब ढूंढने में अभी वक्त लगेगा।
फ्रांस के पिछले संसदीय चुनाव से उलट इसका जवाब जानने में कई हफ्ते लग सकते हैं।
बीते हफ़्तों में ऐसा कुछ हुआ है, जिसने फ्ऱांस की राजनीतिक व्यवस्था को ही बदल दिया है।
कई दशकों से फ्ऱांस की राजनीति पर नजऱ रखते आ रहे राजनीतिक विश्लेषक अलन डूआमेल कहते हैं, ‘आज किसी भी पार्टी का दबदबा नहीं है। सात साल पहले जब मैक्रों सत्ता में आए, तब से हम राजनीतिक ताक़तों के बिखराव के दौर से गुजर रहे हैं।’
उन्होंने कहा-‘शायद अब हम पुनर्निर्माण का दौर शुरू करने जा रहे हैं।’
अलन डूआमेल का मतलब ये है कि अब फ्रांस में कई राजनीतिक ताकतें हैं, तीन बड़े पक्ष हैं।
वामपंथी अति-दक्षिणपंथी मध्यमार्गी
इसके साथ ही मध्य-दक्षिणपंथी।
इन पक्षों के भीतर भी अलग-अलग प्रतिस्पर्धाएं और पार्टियां हैं।
अब जब कोई भी पार्टी बहुमत में नहीं है। इस वजह से नया गठबंधन बनाने के लिए लंबे समय तक मध्य-दक्षिणपंथी पार्टियों से लेकर वामपंथी पार्टियों के बीच सौदेबाज़ी चल सकती है।
ये साफ नहीं है कि नए गठबंधन का गठन कैसे होगा।
लेकिन हम ये शर्तिया कह सकते हैं कि पिछले हफ्ते जिस तरह से अशांति और तनाव दिखा, उसके बाद राष्ट्रपति मैक्रों कुछ वक्त चाहेंगे। इस अवधि में वो सुलह-समझौते को महत्व देंगे।
ये अवधि पेरिस में होने वाले ओलंपिक और गर्मी की छुट्टियों तक चलेगी ताकि फ्रांस के लोगों को सियासी तनाव भूलने का वक्त मिले और दोबारा से शांति-सौहार्द स्थापित किया जा सके।
राष्ट्रपति मैक्रों का क्या होगा?
इस बीच मैक्रों बातचीत का नेतृत्व करने और अलग-अलग दलों से संपर्क करने के लिए किसी को नामित करेंगे।
क्या ये कोई वामपंथी पार्टी से होगा या दक्षिणपंथी पार्टी से? या ये कोई राजनीति से बाहर का व्यक्ति होगा? हम नहीं जानते।
हालांकि ये साफ है कि फ्रांस अब अधिक संसदीय प्रणाली में प्रवेश करने वाला है।
अगर मैक्रों किसी मध्यमार्गी को प्रधानमंत्री पद पर बैठाने में सफल हो जाते हैं (वामपंथी पार्टियों की ताकत को देखकर ऐसा लगता तो नहीं है) तो वो व्यक्ति अपने अधिकार का इस्तेमाल करेगा और संसदीय समर्थन के आधार पर सत्ता चलाएगा।
मैक्रों के साल 2027 के चुनाव में फिर से लडऩे की कोई संभावना नहीं है। वो एक कमजोर शख्सियत बन जाएंगे।
तो क्या राष्ट्रपति मैक्रों अपनी शर्त हार गए हैं? क्या उन्हें चुनाव कराने में की गई जल्दबाजी पर पछतावा हो रहा है? क्या वो पीछे हटने को तैयार हैं?
मैक्रों इन सब चीजों को ऐसे नहीं देखते हैं।
वो कहेंगे कि उन्होंने चुनाव इसलिए पहले कराया क्योंकि स्थिति बर्दाश्त के बाहर थी और वो नेशनल रैली को असेंबली में हिस्सा देना चाहते थे। ज़ाहिर है कि नेशनल रैली के पास व्यापक समर्थन था।
आखिर में उनका ये दांव कि फ्ऱांस कभी भी अति-दक्षिपंथियों को सत्ता में नहीं लाएगा, सही था।
इस बीच असल बात ये है कि मैक्रों कहीं नहीं जा रहे हैं।
मैक्रों की शक्ति भले ही कम हो रही है, लेकिन वो जमे हुए हैं और अपनी टीम के साथ सलाह कर रहे हैं, नेताओं को प्रेरित कर रहे है।
मैक्रों अब भी फ्रांसीसी सियासत में दमखम रखते हैं। (bbc.com)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच बातचीत के दौरान भारत तटस्थ रहना चाहता है और रूस के साथ व्यापार बढ़ाना चाहता है.
डॉयचे वैले पर निक मार्टिन की रिपोर्ट-
यूक्रेन पर मॉस्को द्वारा हमले के मद्देनजर रूसी कच्चे तेल के आयात में वृद्धि के लिए भारत को पश्चिम में बहुत आलोचना झेलनी पड़ी. दुनिया के तीसरे सबसे बड़े तेल आयातक ने सस्ते कच्चे तेल के कारण 2022 में रूस से डिलीवरी में दस गुना वृद्धि देखी और पिछले साल फिर से इसमें दोगुनी वृद्धि देखने को मिली. इसी दो साल की अवधि में रूस से भारत का कोयला आयात तीन गुना बढ़ गया.
पुतिन की युद्ध मशीन को फंडिंग करने के आरोपों के बावजूद, नई दिल्ली ने मॉस्को के साथ भारत के पारंपरिक "स्थिर और दोस्ताना" संबंधों और आयातित तेल पर भारत की भारी निर्भरता का हवाला देकर इस बढ़ोतरी को उचित ठहराया.
भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सोमवार को 22वें भारत-रूस वार्षिक सम्मेलन में हिस्सा लेने के लिए मॉस्को पहुंचे. रूस दौरे के दौरान मोदी की मुलाकात राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से होगी. तीसरी बार सत्ता संभालने के बाद यह मोदी का पहला रूस दौरा और पहला द्विपक्षीय दौरा भी है.
मोदी के दौरे के दौरान क्रेमलिन रूस की कमोडिटी-निर्भर अर्थव्यवस्था को मजबूत करने और यूक्रेन युद्ध पर पश्चिमी प्रतिबंधों के प्रभाव को कम करने के लिए दक्षिण एशियाई शक्ति के साथ व्यापार को और बढ़ाने की कोशिश करेगा.
रूसी सरकार के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव ने वार्ता की घोषणा करते हुए एक बयान में कहा था कि पुतिन और मोदी अपनी बैठक के दौरान क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा के अलावा व्यापार जैसे एजेंडे पर बात करेंगे.
भारत-रूस संबंध कितने मजबूत
रूस के मामले में भारत को एक नाजुक रास्ते पर चलना होगा क्योंकि उसका लक्ष्य पश्चिम के साथ मजबूत संबंध बनाए रखना, मॉस्को के साथ नए व्यापारिक संबंध बनाना और यूक्रेन युद्ध पर तटस्थ रुख बनाए रखना है.
डीडब्ल्यू ने भारत-रूस व्यापार संबंधों की मौजूदा स्थिति पर नजर डाली है और यह भी जानने की कोशिश की कि दोनों नेता किन मुद्दों पर सहमत हो सकते हैं.
शीत युद्ध के दौर से सोवियत संघ भारत का करीबी रहा है. सोवियत संघ और भारत ने रक्षा और व्यापार के लिए एक रणनीतिक साझेदारी बनाई जो साम्यवाद के अंत के बाद भी जारी रही. 2000 में तत्कालीन रूसी प्रधानमंत्री पुतिन ने नई दिल्ली के साथ सहयोग की एक नई घोषणा पर हस्ताक्षर किए थे.
भारत रूसी रक्षा उद्योग के लिए एक प्रमुख बाजार है. हाल ही तक यह इसका सबसे बड़ा बाज़ार था. स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टिट्यूट (सिपरी) के मुताबिक पिछले दो दशकों के दौरान मॉस्को ने भारत की 65 फीसदी हथियार खरीद की सप्लाई की, जिसकी कुल कीमत 60 अरब डॉलर से अधिक थी.
व्यापार बढ़ने की कितनी संभावना
रूसी सेना द्वारा यूक्रेन पर हमला करने के बाद मॉस्को ने पश्चिम के प्रतिकार के रूप में भारत और चीन के साथ अपने संबंधों को गहरा करने की कोशिश की. क्रेमलिन ने युद्ध लड़ने के लिए देश के वित्त को बढ़ाने के लिए नई दिल्ली को तेल, कोयला और फर्टिलाइजर की सप्लाई पर भारी डिस्काउंट की पेशकश की. नतीजतन पश्चिमी प्रतिबंधों के मद्देनजर नए बाजार की तलाश में भारत रूसी कच्चे तेल के लिए एक प्रमुख निर्यात बाजार के रूप में उभरा.
उदाहरण के लिए वित्तीय विश्लेषक कंपनी एसएंडपी ग्लोबल के मुताबिक अप्रैल में भारत को रूसी कच्चे तेल की सप्लाई 21 लाख बैरल प्रतिदिन के नए रिकॉर्ड पर पहुंच गई.
2023-2024 में भारत और रूस के द्विपक्षीय व्यापार में इजाफा देखने को मिला है. दोनों देशों के बीच करीब 65 अरब डॉलर का व्यापार हुआ. इस व्यापार की अहम वजह ऊर्जा है. भारत के वाणिज्य विभाग के आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार 65.7 अरब डॉलर के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया था. हालांकि, व्यापार में रूस का पलड़ा भारी है, क्योंकि भारत ने तेल, उर्वरक, कीमती पत्थरों और धातुओं समेत 61.4 अरब डॉलर का सामान आयात किया है.
भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इसी साल मई में एक उद्योग सम्मेलन में कहा, "हम लंबे समय से रूस को राजनीतिक या सुरक्षा के नजरिए से देखते आए हैं. जैसे-जैसे वह देश पूर्व की ओर मुड़ रहा है, नए आर्थिक अवसर सामने आ रहे हैं... हमारे व्यापार में वृद्धि और सहयोग के नए क्षेत्रों को अस्थायी घटना नहीं माना जाना चाहिए."
भारत की चिंताएं क्या हैं?
जबकि पश्चिम ने रूस के साथ सस्ते तेल सौदे को लेकर भारत की आलोचना को सीमित रखा है, हथियारों के लिए मॉस्को पर नई दिल्ली की ऐतिहासिक निर्भरता अमेरिका और यूरोप के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है.
फ्रेंच इंस्टिट्यूट ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंस (आईएफआरआई) में भारतीय विदेश नीति पर शोधकर्ता अलेक्सेई जखारोव ने पिछले महीने एक शोध रिपोर्ट में लिखा था, "नई दिल्ली ने रूस-यूक्रेन युद्ध से निपटने के लिए एक बारीक दृष्टिकोण का प्रदर्शन किया है और मॉस्को और पश्चिम के साथ अच्छे संबंध बनाए रखे हैं."
शोध पत्र में जखारोव ने "संरचनात्मक चुनौतियों" के बारे में लिखा, जिनके बारे में उन्होंने कहा कि "ये चुनौतियां अभी भी दोनों पक्षों को आर्थिक संबंधों को पुनर्जीवित करने से रोकती दिखती हैं." साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि रूस और भारत के बीच रक्षा सहयोग वर्तमान में "अनिश्चितता की स्थिति में है." उनके मुताबिक यूक्रेन युद्ध और पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण रूस का हथियार क्षेत्र आंशिक रूप से प्रभावित हुआ है.
रूस के हथियार उद्योग के साथ पहले के सौदों में भारत को कई नकारात्मक अनुभव हुए हैं. 2004 में रूस द्वारा अपग्रेड और मोडिफिकेशन किए गए सोवियत युग के विमानवाहक पोत को खरीदने के सौदे की लंबी देरी और लागत दोगुनी होने के कारण आलोचना की गई थी.
2013 में रूस की बनी एक पनडुब्बी में विस्फोट होने और उसके डूबने की घटना में चालक दल के 18 सदस्यों की मौत हो गई थी, जिसके बाद भारत के नेताओं पर मॉस्को के साथ रक्षा सहयोग को लेकर और अधिक दबाव बढ़ गया था.
भारतीय मीडिया ने अप्रैल में बताया कि भारतीय सेना वर्तमान में पांच एस-400 वायु रक्षा प्रणालियों और रूसी निर्मित फ्रिगेट्स में से दो का इंतजार कर रही है, जिन्हें रूस ने 2018 के सौदों के तहत सप्लाई करने पर सहमति जताई थी.
सिपरी के आंकड़ों से पता चलता है कि 2017 और 2022 के बीच भारत मॉस्को से हथियारों के ट्रांसफर का प्रमुख गंतव्य बना रहा, लेकिन इसी अवधि के दौरान दक्षिण एशियाई देश को रक्षा निर्यात में रूस की हिस्सेदारी 65 प्रतिशत से घटकर 36 प्रतिशत हो गई.
फ्रांस और जर्मन हथियार सप्लायरों को नई दिल्ली की रणनीति में बदलाव से फायदा मिला है, जबकि भारतीय नीति-निर्माता क्रेमलिन के साथ नए समझौतों पर हस्ताक्षर करके मॉस्को पर पश्चिमी प्रतिबंधों को तोड़ने में संकोच कर रहे हैं.
भारत ने कभी भी यूक्रेन का दृढ़ समर्थन नहीं किया है. विशेष रूप से पिछले महीने स्विट्जरलैंड में एक शांति सम्मेलन में एक संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर करने से भारत ने इनकार कर दिया था जिसमें किसी भी शांति समझौते में यूक्रेन की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने की बात कही गई थी. नरेंद्र मोदी कई बार अपील कर चुके हैं कि युद्ध समाप्त होना चाहिए और दोनों पक्षों को बातचीत से अपने विवाद सुलझाने चाहिए.
जखारोव ने अपने हालिया शोधपत्र में कहा, "सतह पर देखने पर ऐसा लग सकता है कि (यूक्रेन युद्ध में) भारत की तटस्थता ने मॉस्को के साथ द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने में मदद की है. हालांकि, करीब से देखने पर पता चलता है कि भारत रूस के साथ अपने संबंधों में ज्यादा सतर्क हो गया है... इसलिए दोनों पक्षों के लिए नए सौदे करने की तुलना में संवाद बनाए रखना और दांव लगाना ज्यादा महत्वपूर्ण होगा."
भले ही रूसी हथियार खरीदने के लिए नए समझौते सीमित हो सकते हैं, लेकिन मोदी की "मेक इन इंडिया" पहल, जिसका उद्देश्य देश को मैन्युफैक्चरिंग केंद्र के रूप में बढ़ावा देना है, उसके तहत रूस, भारतीय घरेलू हथियार उत्पादन के लिए अधिक कच्चा माल और पुर्जे उपलब्ध करा सकता है. हाल ही में रूसी कंपनी रोस्टोक ने भारत में अपने टैंकों के लिए गोले बनाने का एलान किया.
इसके अलावा रूस अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारे (आईएनएसटीसी) का विस्तार करने का भी इच्छुक है, यह एक सड़क, समुद्र और रेल परियोजना है जो ईरान के जरिए रूस को भारत से जोड़ती है. रूस ने पिछले महीने आईएनएसटीसी के माध्यम से कोयले की पहली खेप भेजी थी.
यह परियोजना दो दशकों से अधिक समय से चल रही है और पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण रूस को जिन बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है, उसके कारण आईएनएसटीसी अब क्रेमलिन के लिए एक प्रमुख व्यापार प्राथमिकता है.
एक और परियोजना के पूरा होने की जरूरत है, जो नई अहमियत रखती है. वह है चेन्नई-व्लादिवोस्तोक समुद्री मार्ग. रूस के पूर्वी क्षेत्र से 10,300 किलोमीटर तक फैला समुद्री मार्ग भारत में रूसी ऊर्जा और अन्य कच्चे माल के सुरक्षित प्रवाह में मदद कर सकता है. प्रस्तावित परियोजना से स्वेज नहर के मौजूदा मार्ग की तुलना में शिपिंग समय 40 दिनों से घटकर 24 दिन रह जाने की उम्मीद है. (dw.com)
ऑफिस में, सहकर्मियों के साथ दोस्ती हो सकती है या नहीं, यह सवाल मनोविज्ञान के लिए जरूरी रहा है. जिस तरह दुनिया में अकेलापन बढ़ रहा है, उससे इस सवाल का जवाब खोजा जाना जरूरी हो गया है.
डॉयचे वैले पर विवेक कुमार की रिपोर्ट-
डेटिंग ऐप कंपनी हिंज में काम करने वाले लोग हर महीने दो बार टीम मीटिंग के लिए जमा होते हैं. लेकिन मीटिंग के शुरुआती 30 मिनट में वे केवल बातें करते हैं. सब लोग एक-दूसरे से अपनी उम्मीदें और चिंताएं साझा करते हैं. बताते हैं कि क्या अच्छा हुआ, किस बात से उन्हें चिंता हुई और किसके लिए वे आभारी हैं.
हिंज के सीईओ जस्टिन मैक्लॉयड ने ‘साउथ बाय साउथवेस्ट कॉन्फ्रेंस‘ में बताया कि "लोगों को जोड़ने का काम करने वाली कंपनी में भी, दफ्तर के भीतर एक-दूसरे से रिश्ते बनाना मुश्किल होता है."
अमेरिका के सर्जन जनरल विवेक मूर्ति ने पिछले साल इसे 'अकेलापन महामारी' कहा था. एक रिपोर्ट के अनुसार, 2020 में अमेरिका के लगभग 60 प्रतिशत वयस्कों ने कहा था कि वे अकेलेपन की समस्या से जूझ रहे हैं. यह संख्या कोविड-19 महामारी के दौरान और भी बढ़ गई.
महामारी बना अकेलापन
अकेलापन केवल अमेरिका तक सीमित नहीं है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की एक रिपोर्ट में पाया गया कि अकेलापन और सामाजिक अलगाव दुनिया भर में बढ़ रहे हैं, खासकर बुजुर्गों में. 2021 में, ब्रिटेन में एक सर्वेक्षण के अनुसार, 16-24 आयु वर्ग के लगभग 40 प्रतिशत युवाओं ने अत्यधिक अकेलापन महसूस किया.
अकेलापन न केवल मानसिक स्वास्थ्य पर बल्कि शारीरिक स्वास्थ्य पर भी नकारात्मक प्रभाव डालता है. इससे दिल की बीमारियों, स्ट्रोक और समयपूर्व मृत्यु का खतरा बढ़ जाता है. अध्ययनों से पता चलता है कि अकेलापन 15 सिगरेट प्रतिदिन पीने जितना ही हानिकारक हो सकता है.
गैलप के एक सर्वेक्षण में दफ्तरों में काम करने वाले 30 प्रतिशत से अधिक लोगों ने कहा कि वे काम के दौरान अकेलापन महसूस करते हैं. रिमोट वर्क और हाइब्रिड वर्क मॉडल्स ने इस समस्या को और बढ़ा दिया है.
समाधान की जरूरत
यही वजह है कि दुनियाभर में कंपनियां इस समस्या का समाधान ढूंढने में लगी हैं. लीडरशिप स्पेशलिस्ट' माइकल बुंगे स्टैनियर कहते हैं, "लोग चाहते हैं कि उन्हें देखा और सुना जाए" लेकिन वीडियो कॉल्स में लोग सीधे काम की बात पर आ जाते हैं, जिससे कुदरती, अनौपचारिक बातचीत कम हो जाती है और लोग स्क्रीन पर विंडो में मौजूद चेहरों में बदल जाते हैं.
येल यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर लॉरी सांतोस के अनुसार, ऑफिस में दोस्ती और अपनापन कर्मचारियों की खुशी और कंपनियों की सफलता के लिए महत्वपूर्ण हैं.
वह कहती हैं, "शायद हम सभी काम में इतने अलग-थलग महसूस करते हैं क्योंकि हम सबसे महत्वपूर्ण चीज में निवेश नहीं कर रहे हैं - अन्य लोगों के साथ हमारा संबंध. हमें लगता है कि ऑफिस में दोस्त होना अच्छा है, लेकिन हम यह नहीं सोचते कि ऑफिस में दोस्त होना जरूरी है."
हो रही हैं कोशिशें
कुछ बड़ी कंपनियां कर्मचारियों के स्वास्थ्य पर ध्यान दे रही हैं. उदाहरण के लिए, कुछ कंपनियां अपने यहां सीढ़ियों को जोड़ रही हैं ताकि लोग अधिक चल सकें और "आकस्मिक मुलाकातों" से अच्छे संबंध बन सकें. कुछ कंपनियां ऑनलाइन कार्यक्रम आयोजित कर रही हैं, जैसे अमेरिकन एक्सप्रेस ने महामारी के दौरान ऑनलाइन कुकिंग क्लासेस शुरू की थीं.
कर्मचारी भी अपने लिए उत्तर खोज रहे हैं. ‘हेल्दी रिलेशनशिप एकेडमी‘ के संस्थापक डेनियल बॉस्काल्जॉन कहते हैं, "लोगों को रिश्तों की लालसा होती है, लेकिन कई लोगों को बातचीत की कला नहीं आती. एक महत्वपूर्ण रणनीति है खुद को स्वस्थ रखने पर काम करना और सबके सामने एक जैसा बने रहना.”
बुंगे स्टैनियर कहते हैं कि किसी भी प्रोजेक्ट में शामिल होने से पहले सहकर्मियों के साथ संवाद करना भी महत्वपूर्ण है. वह बताते हैं, "हम सभी की अपनी छोटी-छोटी आदतें और प्राथमिकताएं होती हैं, और हम मानते हैं कि जो हमारे लिए सामान्य है, वह सभी के लिए सामान्य है."
विशेषज्ञों के मुताबिक सबसे महत्वपूर्ण है काम पर रोज के अभिवादन. बुंगे स्टैनियर कहते हैं, "एक साधारण 'हैलो' अकेलेपन को खत्म करने की शुरुआत हो सकती है." (dw.com)
कनुप्रिया
मेरे घर के सामने बाबा रामदेव के मंदिर में दिन-रात लाउडस्पीकर पर कर्कश आवाज में औरतें कुछ न कुछ गाती रहती हैं, छोटे से छोटा पर्व मनता है, मन्नत मणौतियों के आयोजन होते हैं, एक मिनट की भी शांति नहीं।
मगर आप कुछ नहीं कह सकते क्योंकि धर्म का मामला है। दो-तीन बार मैंने विरोध किया कि आप आवाज धीमी कर लें, कम से कम लाउडस्पीकर न बजाएँ तो मुझे कहा गया कि आप लोग तो नास्तिकों के घर से हैं आप को तो दिक्कत होगी ही। मुहल्ले वाले बोले हमें तो कोई दिक्कत नहीं है घर बैठे, कमरे में लेटे लेटे ईश्वर का नाम सुनने को मिलता जाता है।
एक तरफ कमरे में ईश्वर का नाम सुनते हैं दूसरी तरफ सडक़ों पर ढेरों कचरा पटक जाते हैं, कुत्ते सैनिटरी पैड्स की पॉलीथिन फाड़ देते हैं रात को, सुबह सडक़ों पर गंदगी पसरी होती है उसी बीच मंदिर आना-जाना चलते रहता है।
एक बार पुलिस को कॉल किया तो सामने वाले ने मेरी धर्म, जाति सब पूछ ली मगर लाउडस्पीकर की आवाज कम नहीं करवाई। एक जरा सी लाउडस्पीकर की आवाज जिस देश में धर्म के नाम पर कम न करवाई जा सकती हो वहाँ धर्म के नाम पर क्या नहीं हो सकता।
कानों में ईयरफोन ठूँसकर महाराज मूवी आज देखी गई और देखकर जो पहली बात दिमाग में आई वो ये कि क्या ये शुक्र था कि अंग्रेजों की अदालत में महाराज का मामला गया और करसन दास जीत गए। कई सौ साल से चली आ रही चरण सेवा जैसी कुप्रथा समाप्त हुई जिसमें लोग खुद धर्म के नाम पर खुशी-खुशी अपने घर की बच्चियों, स्त्रियों को महाराज को सौंप देते थे।
आज का वक्त होता तो ऐसे बाबा के खिलाफ आवाज उठाना नामुमकिन हो जाता, जजों से न के बराबर उम्मीद होती, मीडिया चुप मार जाता और उसके खिलाफ आवाज उठाने वाले हिंदू विरोधी साबित हो जाते। इस प्रकार स्त्रियों के शोषण की परम्परा चलती रहती।
मुझे बार-बार और हमेशा लगता है कि इस देश की आबादी का सबसे बड़ा दुश्मन धर्म है, शुचिता की बात करने वाले इसके नाम पर व्याभिचार को भी समर्थन करते हैं, अहिँसा की बात करने वाले हत्याओं को। अगर धर्म नहीं होता तो लोग शायद इतने गाफिल नहीं रहते, अपनी बदहाली के लिये कब के सडक़ों पर आ जाते।
डॉ. आर.के. पालीवाल
हम भारतीय नकल करने में विश्व गुरु हैं। आजादी के पहले पढ़े लिखे अधिकांश लोग अंग्रेजों जैसी वेशभूषा पहनकर, छुरी कांटे से खाना खाकर और उनकी तरह सफेद ड्रेस पहन क्रिकेट खेलकर अंग्रेजों की हर संभव नकल करने में गर्व महसूस करते थे लेकिन अंग्रेजों की मेहनत, देश भक्ति और अन्य अच्छाइयों को भारतीय लोग तब कम ही अपनाते थे। गांधी इस मामले में अपवाद हुए हैं जिन्हें बहुत जल्द यह समझ में आ गया कि अंग्रेजों की कपड़ों आदि की बाहरी नकल करना मूर्खता है अपितु इस कौम और पश्चिमी सभ्यता की केवल अच्छी चीजों, यथा अनुशासन एवम अध्ययनशीलता आदि गुणों को आत्मसात करने की जरुरत है। कालांतर में गांधी से प्रेरित होकर सरदार पटेल, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद और जवाहर लाल नेहरु ने भी अपनी तडक़ भडक़ वाली अंग्रेजी जीवन शैली को तिलांजली देकर सादगी और राष्ट्र समर्पण की शिक्षा लेकर आजादी के आंदोलन को जन जन तक पहुंचाने में गांधी के सहयोगी की भूमिका का सफल निर्वहन किया था।
नकल करने की यह स्थिति हमारे स्वभाव में कमोवेश अभी भी है लेकिन दुर्भाग्य से हम यूरोप की अच्छी परंपराओं की नक़ल नहीं करते। हमारे नेता तो इस मामले में सबसे बदतर हैं।हमारे लोकसभा चुनावों के साथ ही यूरोप में यूनाइटेड किंगडम और नीदरलैंड में भी चुनाव हुए हैं और इन दोनों देशों में लगभग चौदह साल सत्ता में रहने के बाद सत्ताधारी दलों के हाथ से सत्ता की कमान दूसरे नेताओं के पास गई है। यू के में कंजरवेटिव पार्टी की करारी हार के बाद भारतीय मूल के प्रधानमंत्री सुनक की जगह लेबर पार्टी की सरकार बनी है और नीदरलैंड में चौदह साल प्रधानमन्त्री रहे मार्क रूटे की सरकार बदली है। मार्क रूटे को लगातार चौदह साल नीदरलैंड का प्रधानमन्त्री रहने के बाद सादगी के साथ मुस्कुराते हुए अपने विरोधी को सत्ता सौंपकर साइकिल से अपने घर जाते हुए देखना अंदर तक भिगो देता है। लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहने के बाद न कोई तामझाम उनके विराट व्यक्तित्व से चिपका और न कोई अहंकार या मातम का भाव उनके चेहरे पर दिखाई दिया। यही गुण किसी व्यक्ति को महान और आदरणीय बनाते हैं। गीता में इसी तरह की विभूतियों के लिए स्थितप्रज्ञ की उपाधि दी गई है। यू के के निवर्तमान प्रधानमन्त्री सुनक ने भी न प्रधानमन्त्री रहते हुए कभी पद या अहंकार का भौंड़ा प्रदर्शन किया और पद छोड़ते हुए भी उनके चेहरे पर मातमी भाव नहीं आया। उन्होंने भी सादगी के साथ मुस्कुराते हुए पद से त्यागपत्र दे दिया।इसके बरक्स यदि हम अपने नेताओं के तामझाम और अहंकार को देखते हैं तो हमे शर्म का अहसास होता है। वे जीत पर अहंकार से सीना फुलाते हैं, बड़े बड़े अभिनंदन समारोह और रोड शो आयोजित कराते हैं और हार का ठीकरा दूसरों के सिर फोड़ते हैं।सरपंच और पार्षद से शुरू होकर विधायकों और सांसदों के अहंकार और तामझाम के किस्से मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक आते आते सातवें आसमान पर पहुंच जाते हैं।
चाहे प्रधानमन्त्री के लिए विशेष विमान खरीदने की बात हो या मुख्यमंत्री के लिए हेलीकॉप्टर और मंत्रियों के लिए कारों के काफिले की कोई किसी से कम नहीं रहना चाहता। यही हाल मंत्रियों, विधायकों और वरिष्ठ अधिकारियों के विशाल बंगलों में होने वाली मरम्मत का है जिसका करोड़ों में पहुंचना आम बात है भले ही वह कांग्रेसी हो, समाजवादी हो या भाजपा अथवा आम आदमी पार्टी के बड़े नेताओं का बंगला हो। हाल ही में मध्यप्रदेश में ऐसी ही एक योजना के लिए अ_ाइस हज़ार पेड़ों की बलि देने की योजना बनाई गई थी जिसे जनता के भारी विरोध से निरस्त करना पड़ा।त्रिपुरा और गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री मानिक सरकार और मनोहर पर्रिकर जैसे कुछ नेताओं को अपवाद स्वरूप छोडक़र अधिकांश जन प्रतिनिधियों के जलवे देखने लायक होते हैं। हमारे नेताओं को यूरोप के नेताओं से सादगी के साथ देश सेवा सीखनी चाहिए तभी हमारा समाज उनका अनुकरण कर बेहतर समाज बन सकता है।
-चंद्रशेखर गंगराड़े
( लेखक - पूर्व प्रमुख सचिव, छत्तीसगढ़ विधानसभा हैं )
9 जून, 2024 को श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) की सरकार ने शपथ ले ली है और उसी के साथ 18वी लोकसभा के गठन की अधिसूचना भी राष्ट्रपति द्वारा 6 जून, 2024 को जारी की जा चुकी है। 18वी लोकसभा हेतु संपन्न आम चुनाव में किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिलने के कारण चुनाव पूर्व राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का गठन हुआ था जिसमें भारतीय जनता पार्टी, जनता दल (यूनाईटेड), तेलगु देशम पार्टी, जन सेना, शिवसेना (शिंदे गुट), राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (अजीत पवार गुट), राष्ट्रीय लोकदल, अपना दल (सोनेलाल), हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (हम), जनता दल (सेक्यूलर), लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास), राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी (पशुपतिनाथ पारस), राष्ट्रीय लोक दल, रिपब्लिक पार्टी ऑफ इंडिया, असम गण परिषद, ए।जे।एस।यू।, हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा (सेक्यूलर), सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा, तिपरा मोथा पार्टी, यूनाईटेड पीपुल्स पार्टी (यूनाईटेड) शामिल थे और चूंकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को लोकसभा में स्पष्ट बहुमत मिला था इसलिए राष्ट्रपति ने उन्हें सरकार बनाने का अवसर दिया और इस प्रकार देश में 10 वर्षों के बाद पुन: गठबंधन सरकार का युग आ गया।
इस अवसर पर हम इस बात पर विचार करेंगे कि चुनाव में इस प्रकार के विभिन्न राजनैतिक दलों का जो गठबंधन बनता है, उसकी विधिक स्थिति क्या है?विधिक दृष्टि से देखा जाये तो गठबंधन में ऐसे दल शामिल होते हैं, जिनकी विचारधारा परस्पर समान होती है या वे एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत एक-दूसरे की नीतियों में विश्वास व्यक्त करते हुए, एक साथ काम करने के लिए तैयार होते हैं। लेकिन उन पर कोई विधिक बंधन नहीं होता, वे जब चाहें गठबंधन से अलग हो सकते हैं और किसी दूसरे गठबंधन में शामिल हो सकते हैं। इसीलिए गठबंधन सरकारों को स्थिर और मजबूत सरकार की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। गठबंधन में शामिल दल अपने समर्थन की कीमत वसूल करना चाहते हैं और मुख्य दल के लिए यह संभव नहीं होता कि वे हमेशा गठबंधन में शामिल दलों की मांग पूरी कर सकें।
पूर्व में जब राजनैतिक दलों के सदस्य दल-बदल करते थे तो उस समस्या के निराकरण के लिए संविधान में दसवीं अनुसूची को शामिल करते हुए आंशिक तौर पर दल परिवर्तन को हतोत्साहित किया गया था लेकिन दल-बदल के मामले जब और बढऩे लगे तो वर्ष 2003 में उसे और संशोधित करते हुए, यह प्रावधान कर दिया गया कि जब किसी विधान दल के कम से कम दो-तिहाई सदस्य विलय के लिए सहमत हों तभी उस दल के सदस्य अपने दल को छोड़ सकेंगे। इसमें यह भी प्रावधान है कि यदि कोई निर्दलीय सदस्य निर्वाचन के पश्चात, किसी राजनैतिक दल में सम्मिलित हो जाता है तो उसकी भी सदस्यता समाप्त हो जाती है और जब से संविधान में दल परिवर्तन के आधार पर सदस्?यता समाप्त होने का प्रावधान वर्ष 2003 में जोड़ा गया है, दल परिवर्तन के मामले कम होते जा रहे हैं। लेकिन जब गठबंधन की सरकार बनती है तो गठबंधन में शामिल दलों पर कोई कानूनी बाध्यता नहीं रहती है और वे कभी-भी उनकी शर्तें या मांगें पूरी न होने पर गठबंधन से अलग हो जाते हैं। जिससे सरकार अस्थिर हो जाती है। इसलिए चुनाव पूर्व जिन दलों को मिलाकर गठबंधन किया जाता है, उनका भी पंजीयन होना चाहिए। जैसे चुनाव में केवल वही राजनैतिक दल भाग लेते हैं, जिनका चुनाव आयोग में पंजीयन होता है।
इसलिए मेरा यह मत है कि अब समय आ गया है, जब इस विषय पर चर्चा हो कि चुनाव पूर्व जो गठबंधन बनें, उसका चुनाव आयोग में पंजीयन हो और चुनाव के बाद यदि वे गठबंधन से किसी कारणवश अलग होते हैं तो उन पर भी दल परिवर्तन के आधार पर सदस्यता समाप्त होने की कार्यवाही हो ताकि स्थिरता बनी रहे और यदि चुनाव में किसी भी दल या चुनाव पूर्व बने गठबंधन को बहुमत न मिले और चुनाव के बाद मात्र सरकार बनाने के लिए गठबंधन किया जाये तो उसे भी कानून की परिधि में लाया जाये। इस प्रकार जहां सरकार में स्थिरता आयेगी, वहीं राजनैतिक शुचिता भी कायम रहेगी और सरकार मजबूती से निर्णय ले सकेगी। क्?योंकि जिस प्रकार के पूर्व में हमारे सामने उदाहरण रहे हैं कि जब गठबंधन की सरकारें बनीं तो कभी भी, किसी-भी दल ने समर्थन वापस ले लिया और ऐसे सिद्धांतहीन गठबंधन से देश में राजनैतिक नैतिकता का भी पतन हुआ और गठबंधन से कोई दल अलग हो तो उसकी मान्?यता समाप्त हो या यदि वे गठबंधन से अलग होते हैं तो उन्हें इसका कोई लाभ न मिले।
दिनेश श्रीनेत
हम सब्जी मंडी में जाकर टमाटर तक हाथ से दबा-दबाकर देखते हैं, भिंडी तोडक़र देखते हैं। किताबें खरीदते समय कितना सोचते हैं?
कोई भी रचनाकार अहम कैसे बनता है? किताबों की बिक्री से? सस्ती, हल्की, सतही कथानक वाली किताबें तो बहुत-बहुत ज्यादा बिकती हैं, तो क्या उनके लेखक महान होते हैं?
पुरस्कार से? किताबों के नामांकन, ज्यूरी में जाने और पुरस्कार पाने तक की प्रक्रिया में कितना लोचा है, यह किसी से छिपा नहीं है। इसका सबसे रोचक उदाहरण बुकर पुरस्कार हैं, जिनकी लॉन्ग लिस्ट और शॉर्ट लिस्ट दोनों ही उसकी वेबसाइट पर मौजूद होती है। अक्सर यह लगता है कि ये नामांकित पुस्तकें विजेता पुस्तक के मुकाबले- अपने में ज्यादा रोचक कथा-संसार लेकर चल रही हैं।
यह तो बात हुई उन पुरस्कारों की जिनकी विश्वसनीयता बनी हुई है, इसके अलावा जाने कितने पुरस्कार सिर्फ राजनीतिक वजहों, जान-पहचान या खरीद-फऱोख़्त के माध्यम से मिलते हैं। कुछ ऐसे पुरस्कार होते हैं, जिनका कोई नामलेवा नहीं होता, मगर साहित्यकार वहां मिली ट्राफियों को अपने ड्राइंगरूम में और उस खिताब को अपने बायोडाटा में शामिल करके खुद का वजन बढ़ाने की कोशिश करते हैं।
लेखक को वैधता मिले और उसे महत्व मिले, इसके जाने कितने शॉर्टकट साहित्य के बाजार में मौजूद हैं। पहले किताब लिखिए, फिर उस किताब के लिए प्रकाशक खोजिए, उसके बाद से उस किताब का सोशल मीडिया प्रचार-प्रसार कीजिए- कुछ इस तरह कि लोगों को लगे कि किताब चर्चा में है। यदि ऐसा नहीं हो रहा है तो बेशर्मी से खुद ही मैदान में उतर आइए।
अब बारी आती है कि किताब के बारे में कुछ लोग बोल दें। जो ऐवें ही बोलते हैं वो तो बोलें ही कुछ ऐसे लोग बोलें जिनकी बोली का महत्व है। यानी जिनकी बात को गंभीरता से लिया जाता है। उन्हें प्रसन्न करके, संबंधों का वास्ता देकर, कुछ लालच देकर लिखवा ही लिया जाता है। कुछ बेचारे सामाजिकता का निर्वाह करने में लिख देते हैं, कुछ इसे अपनी सामाजिक नियति मान लेते हैं और उदार भाव से कलम चलाते रहते हैं।
इतना काफी नहीं होता है क्योंकि किताब विमर्श का हिस्सा भी तो बननी चाहिए। लिहाजा एक प्रायोजित विमर्श होता है, जिसमें मंचासीन लोगों ने हड़बड़ी में, या कार्यक्रम वाले दिन नित्य क्रिया से निवृत होते वक्त उसके आठ-दस पन्ने पलट लिए होते हैं, उनके पास पहले से बनी-बनाई वाक्य संरचनाएं होती हैं, जिसमें वह लेखक और किताब का नाम फिट कर देते हैं।
पर सोशल मिडिया और मंचीय विमर्श तो खुश्बू की तरह है, जिसे समय ही हवा उड़ा ले जाएगी। लिहाजा पत्र-पत्रिकाओं में समीक्षा छपवाने की कवायद आरंभ होती है। इसके लिए पहले पत्रिका के संपादक को पटाना पड़ता है, उसके बाद लिखने वाला कोई न कोई मिल जाता है, जो एक अच्छी दावत के बदले में किताब की तारीफ करने को तैयार हो जाता है।
जिन दिनों यह सब कुछ नैसर्गिक रूप से होता था, इसमें तीन-चार वर्ष का समय लगता था। लेकिन अब लेखक को यह सब कुछ छह से आठ महीनों में चाहिए, इसकी एक वजह तो यह कि अगले बरस तो उसकी दूसरी किताब आने वाली है। दूसरी वजह जो ज्यादा बड़ी है, अगले बरस तक उनकी इस बरस आई किताब को याद कौन रखेगा?
लेखक को बाजार में टिके रहने के लिए लगातार चर्चा में बने रहना है, लेखक दिखने से उसे जो टुच्चे लाभ होते हैं, उसे वह कायम रखना चाहता है। प्रकाशकों को अपने टाइटल बढ़ाने हैं, उनको लगता है कि लेखक खुद के प्रचार-प्रसार के दम पर 100-150 प्रतियां तो बेच ही देगा, कुछ खुद खरीदेगा, कुछ खरीदवाएगा, कुछ नासमझी में खरीद ली जाएंगी। पत्रिकाओं को खाली पन्ने भरने हैं। जिन्हें साहित्य की दुनिया एंट्रियां मारनी हैं, उन्हें तारीफ करके जमे-जमाए लोगों के दिलों में घंटियां बजानी हैं।।। तभी तो बदले में उन्हें वैधता मिलेगी।
तो हाथ में किताब उठाने से पहले यह सोचना चाहिए, क्या यह रचनाकार वास्तव में अहम है? क्या यह किताब वास्तव में जरूरी है? इसे पढ़ा जाना चाहिए? सस्टेनेबिलिटी के इस दौर में सिर्फ अपने अहं और आत्ममुग्धता को तृप्त करने के लिए कई किलो कागज और लोगों का वक्त बरबाद करने क्या फायदा है?
-प्रेरणा
ये 15 मई, 2024 की बात है। झारखंड मुक्ति मोर्चा की विधायक और हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन गांडेय विधानसभा क्षेत्र में चुनाव प्रचार कर रही थीं। उनकी चुनावी सभा में राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री चंपई सोरेन और बिहार के पूर्व उप-मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव भी शामिल हुए थे, पर समर्थकों में बेचैनी और उत्साह कल्पना सोरेन को देखने और सुनने का था।
जैसे ही कल्पना सोरेन का भाषण समाप्त हुआ और चंपई सोरेन मंच पर आए, भीड़ की एक बड़ी तादाद छंटनी शुरू हो गई। जाने वाले लोगों से जब बीबीसी ने पूछा कि वो मुख्यमंत्री का भाषण सुने बगैर क्यों लौट रहे हैं?
तो उन्होंने जवाब दिया कि चंपई सोरेन की लोकप्रियता उतनी नहीं हैं। उनकी जगह कल्पना सोरेन को मुख्यमंत्री होना चाहिए था।
मैंने पूछा, ‘अगर कल्पना चुनाव जीत जाती हैं, तो क्या पार्टी को चंपई सोरेन की जगह उन्हें मुख्यमंत्री बना देना चाहिए?’
जवाब आया, ‘नहीं, चुनाव में कुछ ही महीने बचे हैं। ऐसे में चुनाव के बाद ही अब ऐसा कोई फ़ैसला लेना चाहिए। फिलहाल जैसा चल रहा है। वैसे ही चलते छोड़ देना चाहिए।’
इस वाकये को लगभग दो महीने बीत चुके हैं और प्रदेश की राजनीतिक तस्वीर एक बार फिर बदल गई है।
फिर झारखंड के मुख्यमंत्री बने हेमंत सोरेन
मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अब न तो चंपई सोरेन आसीन हैं, न ही कम समय में लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचने वालीं कल्पना सोरेन को ही इस पद की जि़म्मेदारी सौंपी गई है।
कथित ज़मीन घोटाले से जुड़े मनी लॉन्ड्रिंग मामले में बीते 31 जनवरी, 2024 को गिरफ्तार हुए और फिर 28 जून को जमानत पर रिहा हो चुके हेमंत सोरेन ने एक बार फिर मुख्यमंत्री पद की बागडोर संभाल ली है। उनके समर्थकों और कार्यकर्ताओं में खुशी और उत्साह का माहौल तो है, लेकिन एक खेमा चुनाव के चंद महीने पहले चंपई सोरेन को मुख्यमंत्री के पद से हटाने के फैसले पर भी सवाल उठा रहा है।
इस खेमे का मानना है कि हेमंत सोरेन पहले से ही सर्वमान्य नेता हैं, ऐसे में अगर वो चुनाव के बाद ही मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालते तो क्या बिगड़ जाता?
रांची के स्थानीय पत्रकारों का कहना है कि हेमंत सोरेन ने बैठे बिठाए मुख्य विपक्षी दल बीजेपी को मुद्दा दे दिया है। आने वाले विधानसभा चुनाव में परिवारवाद का विषय बीजेपी और जोर-शोर से उठाएगी।
हालांकि झारखंड मुक्ति मोर्चा और महागठबंधन के अन्य सहयोगी दलों का मानना है कि जब साल 2019 में हेमंत सोरेन के चेहरे पर चुनाव लड़ा गया, जनादेश उनके चेहरे पर आया, वे ही प्रदेश के मुख्यमंत्री चुने गए तो उनके दोबारा कमान संभालने से किसी को क्यों दिक्कत होनी चाहिए?
हालांकि राजनीति के जानकारों का यह भी मानना है कि चंपई सोरेन ख़ुद अपने इस्तीफे के लिए तैयार नहीं थे।
इस्तीफे की मांग पर भावुक हुए चंपई सोरेन?
कुछ मीडिया रिपोर्ट्स ये दावा करती हैं कि बीते दो जुलाई को मुख्यमंत्री आवास पर बुलाई गई विधायक दल की बैठक में चंपई सोरेन थोड़े भावुक हो गए थे। उनका कहना था कि चुनाव से दो महीने पहले इस्तीफा देने से लोगों के बीच ग़लत संदेश जाएगा।
बैठक कवर करने पहुंचे स्थानीय पत्रकारों ने बीबीसी को बताया कि चंपई सोरेन मीटिंग खत्म होने से पहले ही उठकर चले गए थे। हालांकि उन्होंने जाने से पहले विधायकों को आश्वस्त किया कि वो इस्तीफा दे देंगे। बस राजभवन पहुंचने का तय समय उनके साथ साझा कर दिया जाए।
बैठक में शामिल हुए एक विधायक ने नाम न बताने की शर्त पर बीबीसी से कहा, ‘चंपई सोरेन का भावुक होना स्वाभाविक है, लेकिन इसे वैमनस्यता के नजरिए से देखने की जरूरत नहीं है।’
उन्होंने कहा, ‘राज्यपाल को इस्तीफा सौंपने से लेकर, हेमंत सोरेन के नई सरकार बनाने का दावा पेश करने और फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने तक, चंपई सोरेन की उपस्थिति हर जगह मौजूद रही। उनके रिश्ते सोरेन परिवार के साथ बहुत मधुर और पुराने रहे हैं।’
वहीं महागठबंधन के सहयोगी दल सीपीआई (माले) के विधायक विनोद सिंह का कहना है कि सत्ता का इतना सहज हस्तांतरण तो दूसरे किसी राज्य में पहले कभी देखा ही नहीं गया।
ऐसे में महागठबंधन के नेता भले ही इसे बहुत सामान्य और सहज प्रक्रिया के रूप में पेश कर रहे हों लेकिन राजनीतिक विश्लेषक ऐसा नहीं मानते।
हेमंत सोरेन के फ़ैसले के पीछे क्या वजह रही?
झारखंड की राजनीति पर लंबे समय से नजर बनाए रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार सुधीर पाल का मानना है कि चंपई सोरेन के हालिया लिए कुछ फैसलों ने हेमंत सोरेन को असुरक्षित महसूस करवाया।
वे कहते हैं, ‘चुनाव से पहले चंपई सोरेन लगातार लोक लुभावन घोषणाएं कर रहे थे, उन्होंने कई कल्याणकारी योजनाएं शुरू कर दीं, नौकरियों के मामले में भी घोषणाएं की गईं।’
‘अब भले ही ये सारी घोषणाएं हेमंत सोरेन की सहमति से की गईं लेकिन चुनाव में महत्वपूर्ण ये हो जाता है कि किसके कार्यकाल या किसके नेतृत्व में फैसले लिए गए।’
‘इसलिए हेमंत सोरेन नहीं चाहते थे कि चुनाव के दौरान चंपई सोरेन एक बड़े फैक्टर के रूप में उभरे। उन्हें चंपई सोरेन के लोकप्रिय होने का एक खतरा हो सकता था।’
सुधीर पाल कहते हैं कि हेमंत सोरेन के सामने गुटबाजी का भी खतरा मंडरा रहा था। सीता सोरेन के प्रकरण के बाद वो नहीं चाहते थे कि उनके खिलाफ एक और गुट तैयार हो। उन्हें डर था कि चुनाव के बाद कहीं चंपई सोरेन के नेतृत्व में कोई प्रेशर ग्रुप न खड़ा हो जाए।
झारखंड के एक और वरिष्ठ पत्रकार पीसी झा भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि हेमंत सोरेन का ये फ़ैसला असुरक्षा की भावना से प्रभावित है।
उनके मुताबिक चंपई सोरेन को मुख्यमंत्री पद से हटाने के पीछे कांग्रेस के कुछ स्थानीय नेताओं की भी अहम भूमिका रही।
झा कहते हैं, ‘कांग्रेस चंपई सोरेन से नाखुश थी। पार्टी की प्रेशर पॉलिटिक्स चंपई सोरेन पर काम नहीं कर रही थी। ऐसे में ये नाराजगी और न बढ़ जाए इसलिए आनन-फानन में ये फैसला लिया गया।’
क्या स्वाभाविक था हेमंत का फिर से मुख्यमंत्री बनना
हालांकि पिछले तीस सालों से झारखंड मुक्ति मोर्चा की राजनीति को देखने-समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार हरिनारायण सिंह का मानना है कि जो फैसला हेमंत सोरेन ने लिया, वो बहुत स्वाभाविक था। इसे शक की निगाह से देखने की जरूरत नहीं है।
उनका कहना है, ‘झारखंड मुक्ति मोर्चा के लोगों की आस्था सोरेन परिवार में है। चंपई सोरेन को एक खास परिस्थिति में मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी सौंपी गई थी।’
‘अब जब हेमंत सोरेन के ख़िलाफ़ कोर्ट में कोई ठोस सबूत मौजूद नहीं था, वो एक तरह से अपराध मुक्त होकर जमानत पर रिहा हो गए हैं, तो जाहिर सी बात है कि उनके कार्यकर्ता उन्हें ही सीएम की कुर्सी पर देखना चाहेंगे।’
इस सवाल पर कि चुनाव तक चंपई सोरेन को ही मुख्यमंत्री बनाए रखने में क्या समस्या थी?
हरिनारायण सिंह कहते हैं, ‘चुनाव के मद्देनजर हेमंत सोरेन का मुख्यमंत्री बनना और जरूरी हो गया था। अगर चंपई सोरेन सीएम बने रहते और हेमंत सोरेन कार्यकारी अध्यक्ष रहते तो वो चुनाव प्रचार के दौरान किसी सरकारी पद पर न होने का खामियाजा भुगतते।’
‘जैसे- कहीं जाने से लेकर दूसरे सरकारी संसाधनों के इस्तेमाल के लिए उन्हें चंपई सोरेन पर निर्भर होना पड़ता। जबकि किसे टिकट देना है, कहां चुनावी रैली करनी है इससे जुड़े सारे फ़ैसले तो हेमंत सोरेन ही ले रहे होते।’
वो मानते हैं कि चंपई सोरेन भले ही हेमंत सोरेन से उम्र में बड़े हैं, उनका राजनीतिक करियर लंबा है। लेकिन मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी निभाने और प्रशासनिक फैसले लेने का अनुभव हेमंत सोरेन के पास अधिक है। वहीं नाम न बताने की शर्त पर महागठबंधन में शामिल दलों के एक विधायक ने बीबीसी से कहा कि हेमंत सोरेन का मुख्यमंत्री पद संभालना इसलिए भी ज़रूरी हो गया था क्योंकि जनता में चुनाव के दौरान असमंजस की स्थिति पैदा हो सकती थी।
वे कहते हैं, ‘आपको याद होगा कुछ दिनों पहले ये बात हो रही थी कि कल्पना सोरेन अगली मुख्यमंत्री बनाई जाएंगी, चंपई सोरेन तो ख़ुद मुख्यमंत्री थे ही।’
‘ऊपर से हेमंत सोरेन भी जमानत के बाद बाहर आ गए। ऐसे में एक स्पष्ट संदेश देने की जरूरत थी। सत्ता के कई केंद्र होने से न केवल दुविधा की स्थिति पैदा होती है, बल्कि कुछ गलत फैसले भी ले लिए जाते हैं।’
विधायक ने बीबीसी को बताया, ‘हाल में जब देशभर में लागू हुए तीन नए आपराधिक क़ानूनों के खिलाफ विरोध हो रहा था। कांग्रेस से लेकर क्षेत्रीय विपक्षी पार्टियां कानून के विरुद्ध अपनी असहमति जता रही थीं, तब झारखंड में कानून के स्वागत में सरकारी विज्ञापन छप जाता है। तो ऐसी स्थिति चुनाव के मद्देनजर और खतरनाक हो सकती है।’
पर क्या इस फैसले से पार्टी को या कहें इंडिया ब्लॉक को आगामी विधानसभा चुनाव में किसी तरह का कोई नुकसान भी हो सकता है? खासकर कोल्हान के क्षेत्र में, जहां से चंपई सोरेन आते हैं।
चंपई को सीएम पद से हटाना भारी पड़ सकता है?
झारखंड राज्य पांच प्रशासनिक क्षेत्रों में बंटा है- दक्षिण छोटानागपुर, उत्तर छोटानागपुर, संथाल परगना, पलामू और कोल्हान।
कोल्हान क्षेत्र के अंतर्गत कुल 14 विधानसभा सीटें हैं। यहां के स्थानीय पत्रकार उपेंद्र गुप्ता का कहना है कि इनमें से ऐसी 7-8 सीटें ऐसी हैं, जिन पर चंपई सोरेन का खासा प्रभाव है। ऐसे में अगर वो पार्टी के प्रति थोड़ी भी नाराजगी सार्वजनिक रूप से जाहिर करते हैं, तो इसका असर चुनाव में पडऩा तय है।
वरिष्ठ पत्रकार सुधीर पाल कहते हैं कि चंपई सोरेन के प्रति लोगों की सहानुभूति न बढ़े इसके लिए उनके खिलाफ मीडिया में नैरेटिव चलाया गया कि चंपई सोरेन के पारिवारिक सदस्य टेंडर सेटिंग जैसी चीजों में संलिप्त थे, जिसके कारण पार्टी की छवि खराब हो रही थी।
उन्होंने कहा, ‘जिस राजनीतिक सुचिता का हवाला देकर इस फैसले के बचाव की कोशिश की जा रही है, वो खुद सोरेन परिवार में नहीं बची। इसलिए उनका ये तर्क गले नहीं उतरता।’
‘दूसरा तर्क पार्टी जो अपने-अपने क्षेत्र में कार्यकर्ताओं के हवाले से पेश कर रही है, वो ये कि सरकार को ऑपरेशन लोटस का डर था। जबकि सरकार गिरने का डर तो तब भी था जब हेमंत सोरेन ईडी की गिरफ्त में जा रहे थे।’
उधर पीसी झा का मानना है कि अगर चंपई सोरेन चुनाव तक मुख्यमंत्री बने रहते और हेमंत सोरेन कैंपेनिंग संभालते, संगठन को मजबूत करते तो इससे उनकी पार्टी को अच्छा फायदा होता।
ऐसे में अगर मान लिया जाए कि चंपई सोरेन के मुख्यमंत्री रहते ही महागठबंधन चुनाव लड़ता और जीत जाता तो क्या होता, क्या हेमंत सोरेन अगले सीएम होते या चंपई सोरेन भी अपनी दावेदारी पेश कर सकते थे?
इस सवाल के जवाब में पीसी झा कहते हैं, ‘बेशक चंपई सोरेन अपनी दावेदारी पेश कर सकते थे। ऐसी परिस्थिति में उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं बचता।’
‘रही बात हेमंत सोरेन की, तो वो शिबू सोरेन की जगह पार्टी के अध्यक्ष का पद संभालते। लेकिन अब ऐसी बातों का कोई मतलब नहीं है।’
ऐसे में अब चंपई सोरेन का राजनीतिक भविष्य क्या होगा। नई सरकार में उनकी क्या भूमिका होगी? वो क्या वापस मंत्री पद संभालने के लिए तैयार होंगे?
इस सवाल पर पीसी झा कहते हैं, ‘मुझे नहीं लगता चंपई सोरेन दोबारा मंत्रिमंडल में शामिल होंगे। पार्टी को उन्हें कोई न कोई बड़ी जिम्मेदारी या पद देना ही पड़ेगा।’
ईरान के सुधारवादी नेता मसूद पेजेश्कियान ने राष्ट्रपति चुनाव जीत लिया है. उन्होंने कट्टर रूढ़िवादी नेता सईद जलीली को हराया. पिछले राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की हेलिकॉप्टर हादसे में मौत के बाद ईरान में चुनाव कराए गए थे.
ईरान के राष्ट्रपति चुनाव में सुधारवादी नेता मसूद पेजेश्कियान जीत गए हैं. उन्होंने कट्टर रूढ़िवादी नेता सईद जलीली को हराया है. चुनाव में करीब 3 करोड़ लोगों ने मतदान किया. पेजेश्कियान को 1.6 करोड़ से ज्यादा वोट मिले जबकि जलीली ने 1.3 करोड़ से ज्यादा वोट हासिल किए. आधिकारिक आंकड़ों में मतदान प्रतिशत 49.8 फीसदी रहा. 6 लाख से ज्यादा वोट रद्द भी किए गए.
पेजेश्कियान ने इस चुनाव को ईरानी अवाम के साथ 'साझेदारी' की शुरुआत बताया. जीत के बाद उन्होंने 'एक्स' पर लिखा, "आपके साथ, सहानुभूति और विश्वास के बिना आगे की मुश्किल राह आसान नहीं होगी." इससे पहले मंगलवार को उन्होंने कहा था कि अगर वह जीतते हैं, तो वह सब की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाएंगे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक्स पर पेजेश्कियान को जीत की बधाई दी है. पीएम मोदी ने लिखा कि वह लोगों और क्षेत्र के फायदे के लिए द्विपक्षीय संबंध मजबूत करने और मिलकर काम करने के लिए तत्पर हैं.
ईरान के पिछले कट्टर रूढ़िवादी राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी का मई में हेलिकॉप्टर हादसे में निधन हो गया था. इसके बाद चुनाव कराए गए. 28 जून को पहले चरण की वोटिंग में सिर्फ 40 फीसदी मतदान हुआ. यह अब तक का सबसे कम वोटिंग प्रतिशत था.
कम मतदान ने दिए संदेश
ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह अली खमेनेई ने लोगों से बढ़-चढ़कर मतदान करने की अपील की थी. उन्होंने पहले चरण में कम मतदान की बात स्वीकार की थी, लेकिन यह भी कहा था कि कम वोटिंग 'सिस्टम के खिलाफ' नहीं थी.
लोगों में सत्ता और चुनावी प्रक्रिया के प्रति खासी नाराजगी दिखी. वोटिंग प्रतिशत में तो यह जाहिर हुआ ही. एक्स पर ईरानी हैशटैग 'देशद्रोही अल्पसंख्यक' वायरल हुआ, जिसके साथ लोगों से चुनाव में किसी भी उम्मीदवार के लिए वोट ना करने की अपील की गई. संदेश दिया जा रहा था कि वोट देने वाले को देशद्रोही माना जाएगा.
जून में हुए मतदान में पेजेश्कियान ने 42 फीसदी वोट हासिल किए थे और जलीली को 39 फीसदी वोट मिले थे. ईरान के 6.1 करोड़ मतदाताओं में से सिर्फ 40 फीसदी ने ही मतदान किया था. यह ईरान में 1979 की क्रांति के बाद से किसी राष्ट्रपति चुनाव में सबसे कम वोटिंग प्रतिशत था.
यह चुनाव गजा में जारी हिंसा के दौर में हुआ, जिसकी वजह से इलाके में तनाव बढ़ा हुआ है. परमाणु कार्यक्रम को लेकर ईरान की पश्चिम के साथ तनातनी भी बड़ा मसला है. वहीं तमाम प्रतिबंधों की वजह से ईरान की अर्थव्यवस्था खस्ताहाल है, जिससे ईरानी खासे निराश और नाराज हैं.
कौन हैं पेजेश्कियान
69 साल के पेजेश्कियान पेशे से हार्ट सर्जन हैं. वह पश्चिमी देशों के साथ 'रचनात्मक संबंधों' की अपील करते हैं. वह परमाणु संधि को दोबारा शुरू करने के पक्ष में हैं, ताकि ईरान को अलग-थलग वाले हालात से बाहर निकाला जा सके. पेजेश्कियान ईरान में 'मोरल पुलिसिंग' के आलोचक रहे हैं. उनका यही रुख उन्हें लोगों के करीब ले गया.
पेजेश्कियान और उनकी उम्मीदवारी को व्यापक चर्चा में आए ज्यादा समय नहीं हुआ है. उनकी उम्मीदवारी ने ईरान में रूढ़िवादी और कट्टर रूढ़िवादी खेमे के दशकों लंबे प्रभुत्व के बाद देश के सुधारवादियों की उम्मीद बढ़ा दी है. ईरान का मुख्य सुधारवादी गठबंधन पेजेश्कियान के समर्थन में है. नरम माने जाने वाले पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद खातमी और हसन रोहानी उनका समर्थन कर रहे थे.
ईरान के मुद्दे
58 साल के जलीली ईरान की परमाणु संधि के वार्ताकार रहे हैं, उनका पश्चिम-विरोधी रुझान जगजाहिर है. अपने चुनावी अभियान में उन्होंने रूढ़िवादी समर्थकों को लामबंद किया और रूढ़िवादी हस्तियों का समर्थन जुटाया. ईरान में माना जा रहा था कि अगर जलीली जीतते हैं, तो ईरान का पश्चिम के साथ टकराव बढ़ जाएगा.
पहले चरण की वोटिंग के बाद दोनों उम्मीदवारों के बीच टीवी पर दो डिबेट भी हुईं. इन डिबेट में दोनों ने कम मतदान, ईरानी की आर्थिक स्थिति, अंतरराष्ट्रीय संबंध और इंटरनेट पर पाबंदी जैसे मुद्दों पर बहस की.
पेजेश्कियान ने वादा किया है कि वह इंटरनेट पर लंबे समय से चले आ रहे प्रतिबंध घटाएंगे और महिलाओं के लिए अनिवार्य हिजाब लागू कराने वाली पुलिस का विरोध करेंगे. 2022 में पुलिस हिरासत में महसा अमीनी की मौत के बाद से यह ईरान में बड़ा मुद्दा है. 22 साल की कुर्द-ईरानी अमीनी को ड्रेस कोड के उल्लंघन में हिरासत में लिया गया था, जहां उसकी मौत हो गई थी. फिर पूरे ईरान में कई महीनों तक अशांति फैली रही थी.
वीएस/एनआर (एजेंसियां)
भारत की क्रिकेट टीम को टी-20 वर्ल्डकप जीते हुए करीब एक हफ्ता हो रहा है, मगर भारतीय खिलाडिय़ों की रोज़ आती नई तस्वीरें और वीडियो अब भी लोगों में चर्चा का विषय बने हुए हैं।
ऐसा ही एक वीडियो शुक्रवार यानी पांच जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सोशल मीडिया हैंडल्स से साझा किया गया।
ये वीडियो तब का है, जब टी-20 वल्र्ड चैंपियन टीम चार जुलाई को दिल्ली पहुंची थी और पीएम मोदी से मुलाकात की थी।
इस मुलाकात के वीडियो में कप्तान रोहित शर्मा, विराट कोहली समेत कई खिलाडिय़ों के मन की बातें और अनुभव पता चले हैं।
फिर चाहे रोहित शर्मा का घास निकालकर चखना हो, विराट कोहली का अहंकार की बात को कहना हो या फिर युजवेंद्र चहल से मज़ाक करना हो।
इस रिपोर्ट में हम आपको भारतीय क्रिकेट खिलाडिय़ों के कुछ अनुभव और बातें बता रहे हैं। साथ ही जानिए कि चार जुलाई को मुंबई में विक्ट्री परेड के दौरान समंदर किनारे फैंस का जो सैलाब था, तब वहां क्या कुछ ऐसा रहा, जो शायद कैमरों में दर्ज नहीं हो पाया।
रोहित से पूछा- घास वाला किस्सा
जब टीम इंडिया ने टी- 20 क्रिकेट वल्र्डकप जीता था, तब रोहित शर्मा ने स्टेडियम की थोड़ी सी घास निकालकर चखी थी।
पीएम मोदी ने रोहित शर्मा से कहा- मैं पिच से घास निकालकर खाने वाले पल को जानना चाहता हूं।
रोहित शर्मा ने जवाब दिया, ‘जहां पर हमें वो विक्ट्री मिली, उस पल को मुझे हमेशा याद रखना था और वह चखना था बस। क्योंकि उस पिच पर खेलकर हम जीते थे।’
रोहित ने कहा, ‘हम सब लोगों ने इसके लिए काफ़ी इंतजार किया था। कई बार वल्र्ड कप हमारे काफ़ी कऱीब आया, लेकिन हम आगे नहीं जा सके। लेकिन इस बार सभी लोगों की वजह से हम ट्रॉफी को हासिल कर सके।’
रोहित बोले, ‘जो भी हुआ, उसी पिच पर हुआ, इसलिए उस समय वो मुझसे हो गया।’
कोहली बोले- अहंकार आ जाता है तो...
रोहित शर्मा के अलावा टीम इंडिया के बाक़ी खिलाडिय़ों ने भी अपने अनुभव साझा किए।
विराट कोहली बोले, ‘ये दिन हमेशा मेरे दिमाग में रहेगा। क्योंकि इस पूरे टूर्नामेंट में मैं वो योगदान नहीं दे पाया, जो मैं चाहता था।’
कोहली ने कहा, ‘एक समय पर मैंने राहुल (द्रविड) भाई को भी बोला कि मैंने अपने आप को और टीम को न्याय नहीं दिया। उन्होंने मुझे बोला कि उन्हें उम्मीद है कि जब ज़रूरत होगी तो तुम जरूर अच्छा प्रदर्शन करोगे।’
कोहली कहते हैं, ‘जब शुरू में तीन विकेट गिर गए तो मुझे लगा कि मुझे इस जोन में डाला गया है और मैं उसी के अनुसार खेलने लगा। बाद में मुझे समझ आया कि जो चीज होनी होती है, वह किसी भी तरह से होती ही है।’
उन्होंने कहा, ‘मुझे खुशी इस बात की है कि मैंने इतने बड़े मैच में टीम के लिए योगदान दिया। पूरा दिन जैसे गया और हम जिस प्रकार से जीते, उसे मैं कभी नहीं भुला सकता।’
कोहली ने कहा, ‘जब अहंकार आपके अंदर आ जाता है तो खेल आपसे दूर चला जाता है। उसी को छोडऩे की ज़रूरत थी। गेम में परिस्थिति ही ऐसी बन गई कि मेरे पास अहंकार की जगह ही नहीं बची और उसे टीम के लिए पीछे रखना पड़ा। फिर गेम को इज़्जत दी तो गेम ने भी मुझे इज़्जत दी।’
‘इडली खाकर जाते हो क्या मैदान पर’
जसप्रीत बुमराह टी-20 क्रिकेट वर्ल्डकप में प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट रहे।
टूर्नामेंट में बुमराह ने कुल 15 विकेट लिए। टूर्नामेंट में ऐसे कई मौक़े आए, जब बुमराह ने मैच की दिशा बदलने में मदद की।
जसप्रीत बुमराह ने कहा, ‘मैं जब भी इंडिया के लिए बहुत महत्वपूर्ण समय पर गेंदबाज़ी करता हूं। जब भी सिचुएशन मुश्किल होती है तब मुझे बॉलिंग करनी होती है। मुझे बहुत अच्छा लगता है, जब मैं टीम की मदद कर पाता हूं। इस टूर्नामेंट में कई बार ऐसी मुश्किल परिस्थिति आई, जब मुझे टीम के लिए बॉलिंग करनी थी। और मैं टीम की मदद कर पाया और मैच जिता सके।’
मुश्किल ओवरों में बॉलिंग के सवाल पर बुमराह ने बताया, ‘मैं नकारात्मक सोच नहीं रखता हूं। मैंने जो भी अच्छी बॉलिंग की होती है, उसके बारे में सोचता हूं।’
उन्होंने कहा, ‘बहुत अच्छा टूर्नामेंट गया। पहली बार वर्ल्ड कप जीता। इससे अच्छी फीलिंग आज तक कभी अनुभव नहीं की।’
पीएम मोदी ने जब ये पूछा कि मैदान पर क्या इडली खाकर जाते हो, उन्होंने कहा कि वेस्टइँडीज़ में इडली नहीं मिलती थी।
शानदार कैच पर सूर्य कुमार यादव ने क्या कहा
टी-20 क्रिकेट वल्र्डकप के फाइनल मुकाबले के आखिरी ओवर में सूर्य कुमार यादव ने शानदार कैच पकड़ा था।
सूर्य कुमार के इस कैच को भी भारत के चैंपियन बनने की अहम वजहों में से एक माना गया।
इस कैच पर सूर्य कुमार ने कहा, ‘मुझे पता नहीं था कि कैच पकड़ पाऊंगा, लेकिन दिमाग़ में ये बात थी कि गेंद को अंदर ढकेल दूंगा।’
सूर्य कुमार बोले, ‘एक बार गेंद जब हाथ में आ गई तो मैंने सोचा कि अंदर रोहित भाई को दे देता हूं, लेकिन वो बहुत दूर थे। फिर मैंने अंदर फेंका और वापस आकर कैच पकड़ा।’
उन्होंने बताया कि ऐसे कैच पकडऩे की उन्होंने काफी प्रैक्टिस की थी।
हार्दिक और ऋषभ पंत क्या बोले
आईपीएल में मुंबई इंडियंस के कप्तान बनाए जाने पर हार्दिक पांड्या को काफी ट्रोल किया गया था।
मगर टी-20 क्रिकेट वल्र्डकप के फ़ाइनल मुकाबले का आखिरी ओवर हार्दिक पांड्या ने डाला था।
इस ओवर में हार्दिक की गेंदबाज़ी के कारण दक्षिण अफ्रीका की टीम लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाई थी।
हार्दिक पांड्या ने कहा, ‘छह महीने काफी उतार चढ़ाव भरे रहे। मैं ग्राउंड पर गया तो पब्लिक ने काफी ट्रोल किया। हमेशा मैंने माना था कि जवाब दूंगा तो खेल से दूंगा।’
इस दौरान ऋषभ पंत ने अपने एक्सीडेंट पर भी बात की।
ऋषभ ने कहा, ‘उस दौरान लोग कहते थे कि मैं कभी क्रिकेट खेल भी पाऊंगा या नहीं।’
उन्होंने कहा, ‘मैं पिछले डेढ़-दो साल से यही सोच रहा था कि वापस फील्ड में आकर जो कर रहा था, उससे बेहतर करने की कोशिश करनी है।’
पीएम मोदी के साथ बातचीत के दौरान युजवेंद्र चहल से भी हँसी मजाक हुआ और कोच राहुल द्रविड ने भी अपनी बात रखी।
पीएम मोदी के साथ टीम इंडिया की बातचीत यहां देखिए।
अब आइए आपको चार जुलाई को विक्ट्री परेड के दौरान मुंबई की सडक़ों पर क्या दिखा, इस बारे में बताते हैं।
मुंबई में टीम इंडिया की विक्ट्री परेड
चार जुलाई को मुंबई में टीम इंडिया की विक्ट्री परेड को देखने के लिए मरीन ड्राइव पर लाखों लोग जुटे थे।
बीबीसी संवाददाता जाह्नवी मुले भी वहां मौजूद थीं। पढि़ए उनकी ये रिपोर्ट-
मरीन ड्राइव पर मैंने इतनी भीड़ कभी नहीं देखी। मैराथंस के दौरान भी इतनी भीड़ मैंने नहीं देखी।
किलाचंद चौक पर अफरातफरी मची हुई थी। वानखेड़े स्टेडियम के पास यही स्थिति थी। पुलिस भी भीड़ को नियंत्रित करने के लिए संघर्ष कर रही थी।
स्टेडियम के गेट पर दोपहर 2 बजे से ही भीड़ जुटनी शुरू हो गई थी।
मुझे बताया गया कि शाम चार बजे स्टेडियम में लोगों की एंट्री शुरू हुई और आधे घंटे में पूरा स्टेडियम भर गया। ऑफिस में काम करने वाले भी उस दिन ऑफिस से 2-3 बजे तक निकल गए।
यहाँ अभी भी तैयारियाँ चल रही थीं। बैनर लगाए जा रहे थे और पेड़ों की टहनियाँ काटी जा रही थीं।
हमने शाम साढ़े चार बजे लाइव और प्रशंसकों से बातचीत समाप्त की और नरीमन पॉइंट से निकल पड़े। तब सडक़ का एक हिस्सा कारों के लिए बंद था।
भीड़ को देखते हुए हमने कार को छोड़ पैदल चलना शुरू कर दिया। हमारे सुरक्षा-प्रशिक्षण और मुंबई लोकल ट्रेनों से यात्रा करने के अनुभव ने हमारी मदद की।
जब तक हम किलाचंद चौक पहुँचे, तब तक वहाँ लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी थी।
हमने भीड़ से दूर जाने का फैसला किया और चर्चगेट स्टेशन की ओर चल पड़े और अंतत: प्रेस क्लब पहुँच गए। यह स्टेडियम से करीब एक-डेढ़ किमी। दूर है और हम यहीं से वानखेड़े में भीड़ की गर्जना सुन सकते थे।
पुलिस और रेलवे अधिकारियों ने चर्चगेट स्टेशन पर लोगों से वापस जाने के लिए एनाउंसमेंट शुरू कर दी थीं।
कई लोगों ने पुलिस की बात मानी और वापस लौट गए। लेकिन कई लोग ट्रेनों से आ रहे थे, उन्हें नहीं पता था कि भीड़ कितनी बढ़ गई है।
आखिरकार हमें देर रात पता चला कि 10-12 लोग घायल हुए हैं और उन्हें शहर के कई अस्पतालों में भर्ती कराया गया है।
यह केवल इसलिए त्रासदी में नहीं बदला, क्योंकि मुंबई वाले बड़ी भीड़ के आदी हैं और यहाँ की पुलिस इसे संभालने में काफी अनुभवी है।
भीड़ के बीच एम्बुलेंस को रास्ता देते देखना उल्लेखनीय था।
अब मैं सोशल मीडिया पर कई लोगों को बड़ी संख्या में लोगों के इक_ा होने के लिए दोषी ठहराते हुए देखती हूँ।
क्या वास्तव में वहाँ जाना आवश्यक था? खासकर उत्तर भारत के हाथरस में भगदड़ की घटना के बाद। किसी को यह सोचना होगा कि वहाँ इतने सारे लोग क्यों इक_ा हुए?
सबसे पहले, कई लोग वहाँ इसलिए आए क्योंकि उन्हें लगा कि स्टेडियम में प्रवेश मिलेगा, जो कि मुफ़्त था। इसलिए कुछ लोगों के लिए वहाँ जाना, जीवन में एक बार मिलने वाला मौका था।
फिर अधिकांश लोगों को मरीन ड्राइव पहुँचने तक पता ही नहीं चला कि भीड़ कितनी ज़्यादा थी। उन्होंने सोचा कि अब हम यहाँ हैं, चलो यहीं रुकें और टीम का इंतज़ार करें।
गुरुवार का दिन यादगार था। (bbc.com)
रूस के राष्ट्रपति भवन क्रेमलिन ने एक बयान में कहा है कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 8 और 9 जुलाई को रूस की यात्रा करेंगे और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से बातचीत करेंगे.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट-
फरवरी 2022 में रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले के बाद यह मोदी का पहला रूस दौरा होगा. आखिरी बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019 में रूस का दौरा किया था, जब वे भारत-रूस वार्षिक शिखर सम्मेलन के लिए रूस के सुदूर पूर्वी शहर व्लादिवोस्तोक गए थे.
ताजा दौरे पर मोदी मॉस्को के साथ दीर्घकालिक गठबंधन को बनाए रखने के साथ-साथ पश्चिमी सुरक्षा संबंधों को और मजबूत करने के बीच एक महीन रेखा पर चलने की कोशिश करते नजर आएंगे. गुरुवार को भारतीय विदेश मंत्रालय ने एक बयान में कहा, "दोनों देशों के नेता द्विपक्षीय संबंधों के अलग-अलग आयामों की समीक्षा करेंगे और आपसी हितों के क्षेत्रीय और वैश्विक मुद्दों पर विचारों का आदान-प्रदान करेंगे."
यूक्रेन पर हमले के बाद से ही भारत रूस का प्रमुख ट्रेडिंग पार्टनर बना हुआ है और वह रूस से सस्ते दामों में कच्चा तेल खरीद रहा है. इसी तेल को वह आगे बाकी देशों को बेच रहा है. ऐसी ही कुछ स्थिति चीन की भी है जो रूस के कच्चे तेल का प्रमुख खरीदार है.
रूस भारत को सस्ते तेल और हथियारों का एक प्रमुख सप्लायर है, लेकिन पश्चिम से उसका अलगाव और चीन के साथ बढ़ती दोस्ती ने नई दिल्ली के साथ उसकी पुरानी साझेदारी को प्रभावित किया है.
वरिष्ठ पत्रकार संजय कपूर कहते हैं कि भारत के लिए रूस बहुत महत्वपूर्ण साझेदार है. उन्होंने डीडब्ल्यू से कहा, "रूस भारत का सबसे बड़ा तेल सप्लायर है. इस समय भारत हर दिन 20 लाख बैरल तेल आयात कर रहा है. उसके साथ ही भारत एक कनेक्टिविटी कॉरिडोर का हिस्सा है जिसका नाम अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन कॉरिडोर (आईएनएसटीसी) है. स्वेज नहर के रास्ते जिस माल के भारत आने में 40 दिन लगते हैं आईएनएसटीसी से वही काम 25 दिन में हो जाएगा."
भारत पर पश्चिम देशों की नजर
अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों ने हाल के सालों में बीजिंग और एशिया-प्रशांत में इसके बढ़ते प्रभाव के खिलाफ एक सुरक्षा कवच के रूप में भारत के साथ संबंधों को विकसित किया है, साथ ही रूस से दूरी बनाने के लिए उस पर दबाव भी डाला है.
हालांकि, बीजिंग के साथ मॉस्को के गहरे होते संबंधों ने भी भारत के लिए चिंताएं बढ़ा दी हैं. दुनिया के दो सबसे अधिक आबादी वाले देश चीन और भारत दक्षिण एशिया में रणनीतिक प्रभाव के लिए प्रतिस्पर्धा करने वाले कट्टर प्रतिद्वंद्वी हैं. भारत- अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वॉड समूह का हिस्सा है जो एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन की बढ़ती मुखरता के खिलाफ खुद को खड़ा करता है.
अमेरिका और यूरोपीय संघ चीन पर रूस के सैन्य उद्योग को मजबूत करने वाले उपकरणों को बेचने का आरोप लगाते हैं, हालांकि बीजिंग इन आरोपों का सख्ती से खंडन करता आया है.
दिल्ली में रक्षा मंत्रालय द्वारा समर्थित शोध समूह मनोहर पर्रिकर इंस्टीट्यूट फॉर डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस की एसोसिएट फेलो स्वास्ति राव कहती हैं यूक्रेन में रूस के युद्ध ने भारत के साथ संबंधों को "बदल" दिया है. राव के मुताबिक, "भारत और रूस के बीच सद्भावना में कोई कमी नहीं आई है, लेकिन कुछ चुनौतियां सामने आई हैं."
यूक्रेन युद्ध है बड़ा मुद्दा
नई दिल्ली स्थित आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में समीक्षक नंदन उन्नीकृष्णन ने समाचार एजेंसी एएफपी से कहा, "आगामी व्यक्तिगत बैठक से पता चलता है कि दोनों पक्ष आगे बढ़ने के तरीकों की तलाश कर रहे हैं."
उन्नीकृष्णन ने कहा, "भारत पर दबाव रहा है, और भारत-रूस संबंधों पर भी दबाव रहा है." उन्होंने कहा, "आमने-सामने की बातचीत से स्थिति को समझने में मदद मिलती है. मुझे यकीन है कि मोदी यूक्रेन युद्ध पर पुतिन से आकलन चाहेंगे."
भारत ने यूक्रेन पर रूस के आक्रमण की स्पष्ट निंदा करने से परहेज किया है और मॉस्को की निंदा करने वाले संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावों पर भी अपना पक्ष नहीं रखा है.
कपूर मोदी की यात्रा के बारे में एक और अहम बिंदु की ओर इशारा करते हैं और वह है अमेरिका के साथ भारत के मोलभाव की ताकत. कपूर कहते हैं, "रूस एक और जरूरी कारण है. वह चीन को बेअसर करने के लिए भी काम आता है. रूस के साथ जब भारत के रिश्ते मजबूत होंगे तो अमेरिका के साथ भारत की बातचीत की शक्ति अपने आप ही बढ़ जाएगी."
सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर द्वारा जुटाए कमोडिटी ट्रैकिंग डाटा के मुताबिक भारत का रूसी कच्चे तेल का महीने-दर-महीने आयात "मई में आठ प्रतिशत बढ़कर जुलाई 2023 के बाद के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया."
शोध केंद्र ने कहा, "मई में भारत के कुल कच्चे तेल आयात में रूसी कच्चे तेल का हिस्सा 41 प्रतिशत था और रूबल में भुगतान करने के लिए नए समझौतों के साथ व्यापार में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है." (dw.com)
भारत के पड़ोसी देश नेपाल में नए राजनीतिक समीकरण बनने से मौजूदा प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल प्रचंड की कुर्सी ख़तरे में पड़ गई है।
पुष्प कमल दहाल प्रचंड की सरकार पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) यानी सीपीएनयूएमएल के समर्थन से चल रही थी।
ओली के पार्टी ने प्रचंड से समर्थन वापस ले लिया है और नेपाली कांग्रेस से नया गठबंधन बना लिया है।
सीपीएनयूएमएल के उप महासचिव और नेपाल के पूर्व विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञवाली कहा है कि नेपाली कांग्रेस से समझौते के कारण हैं।
उन्होंने कारण बताते हुए कहा, ''प्रधानमंत्री नेपाली कांग्रेस से एक महीने से राष्ट्रीय एकजुटता की सरकार बनाने के लिए बात कर रहे थे। इसी वजह से अविश्वास का माहौल बना। ऐसे में हम नेपाल कांग्रेस से गठबंधन करने पर मजबूर हुए। जब नेपाली कांग्रेस ने प्रचंड के प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया, तब हमने बातचीत शुरू की थी।’
नेपाल की 275 सदस्यों वाली प्रतिनिधि सभा में प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) के महज़ 32 सदस्य हैं।
प्रचंड को केपी शर्मा ओली की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) का समर्थन मिला था। ओली की पार्टी के पास 78 सीटें हैं।
प्रचंड ने 2022 के नवंबर महीने में हुए आम चुनाव नेपाली कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा था। नेपाली कांग्रेस चुनाव में 89 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी।
ओली की पार्टी के समर्थन वापस लेने के बाद प्रचंड के पास अब बहुमत नहीं है। ऐसे में उनको इस्तीफ़ा देना पड़ेगा।
प्रचंड सरकार में ओली की पार्टी से कुल आठ मंत्री है और सभी को इस्तीफ़ा देने के लिए कहा गया है।
पूर्व प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और नेपाली कांग्रेस के बीच सोमवार को एक राजनीतिक समझौता हुआ था। इस समझौते के तहत पहले ओली पीएम बनेंगे और फिर नेपाली कांग्रेस से शेर बहादुर देऊबा।
नेपाल में संविधान के जानकारों का कहना है कि सीपीएनयूएमएल के सरकार से समर्थन वापसी का पत्र सचिवालय को सौंपे जाने के एक महीने के भीतर नई सरकार का गठन किया जाएगा।
हालाँकि नेपाल में नई सरकार और भी जल्दी बन सकती है लेकिन इसके लिए प्रचंड को इस्तीफ़ा देना होगा। लेकिन प्रचंड ने इस्तीफ़ा देने से इनकार कर दिया है और संसद में विश्वासमत का सामना करने के लिए कहा है।
अल्पमत में प्रचंड की सरकार
पुष्प कमल दाहाल प्रचंड ने संसद में विश्वासमत हासिल करने के लिए संविधान में दी गई अधिकतम समय सीमा का इंतज़ार किए बिना ही विश्वासमत परीक्षण की प्रक्रिया शुरू कर दी है।
नेपाल में संविधान के जानकार और नेपाली कांग्रेस के पूर्व सदस्य राधेश्याम अधिकारी कहते हैं, ‘यूएमएल की ओर से समर्थन वापस लेने का नोटिस दिए जाने के बाद, प्रधानमंत्री की 30 दिनों की उल्टी गिनती शुरू हो जाएगी। हालाँकि वो इससे पहले भी इस्तीफ़ा दे सकते हैं क्योंकि इस तरह निष्क्रिय बने रहना अच्छा नहीं है।’
नेपाली कांग्रेस और सीपीएनयूएमएल के बीच हुई इस साझेदारी पर राजनीतिक गलियारों में लोगों की राय बँटी हुई है।
इसकी वजह है कि ये दोनों राजनीतिक दल एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हुआ करते थे। मगर अब दोनों एक साथ आ गए हैं।
नेपाल की संसद में नेपाली कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी है और सीपीएनयूएमएल दूसरे नंबर की पार्टी है।
नेपाली कांग्रेस के प्रवक्ता डॉ प्रकाश शरण महत ने कहा कि शुरुआती दौर में सीपीएनयूएमएल के अध्यक्ष केपी शर्मा ओली सरकार का नेतृत्व करेंगे।
महत ने जानकारी दी है कि दूसरे चरण में चुनाव से पहले की सरकार शेर बहादुर देऊबा के नेतृत्व में बनाई जाएगी।
उन्होंने कहा, ‘दो बड़े राजनीतिक दलों ने एक साथ सरकार बनाने का फ़ैसला किया है तो प्रधानमंत्री को कुर्सी से हट जाना चाहिए। यही सही रहेगा। कई दूसरे राजनीतिक दल भी इस नए गठबंधन के प्रति अपना समर्थन जता चुके हैं। हमने भी प्रचंड से इस्तीफ़ा देने के लिए कहा है।’
‘राजनीतिक वैधता ख़त्म’
माओवादियों के कऱीबी माने जाने वाले एक वरिष्ठ वकील ने कहा कि भले ही संविधान ने प्रचंड को एक महीने तक और प्रधानमंत्री बने रहने की सुविधा दी है, लेकिन उनका उस पद पर बने रहना उचित नहीं है।
माओवादी सांसद रहे वरिष्ठ अधिवक्ता राम नारायण बिदारी का कहना है, ‘यदि आप मेरी व्यक्तिगत राय पूछते हैं, तो बेहतर होगा कि प्रधानमंत्री पहले इस्तीफ़ा दे दें क्योंकि उनके पास विश्वासमत हासिल करने का कोई आधार नहीं है।’
नेपाली कांग्रेस के एक पूर्व सदस्य और संवैधानिक अधिकारी ने बीबीसी से कहा है कि बहुमत खोने के बाद प्रधानमंत्री की राजनीतिक वैधता समाप्त हो जाएगी।
उनके मुताबिक़, ‘संसद में सबसे बड़ी पार्टी और दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के यह कहने के बाद कि हम ख़ुद सरकार बनाएंगे, इस सरकार की राजनीतिक वैधता समाप्त हो गई है।’
नेपाल में बनते बिगड़ते राजनीतिक समीकरण
2022 के चुनाव के बाद ऐसा लग रहा था कि नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा ही प्रधानमंत्री रहेंगे लेकिन प्रचंड ने ऐन मौक़े पर पाला बदल लिया था। प्रचंड चाहते थे कि नेपाली कांग्रेस उन्हें प्रधानमंत्री बनाए लेकिन उनकी मांग नहीं मानी गई थी। जून 2021 में प्रचंड के समर्थन से ही देउबा प्रधानमंत्री बने थे।
नवंबर 2017 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली की पार्टी सीपीएन-यूएमएल यानी कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-यूनाइटेड मार्क्सवादी लेनिनवादी और प्रचंड की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) मिलकर चुनाव लड़ी थी।
फऱवरी 2018 में ओली पीएम बने और सत्ता में आने के कुछ महीने बाद प्रचंड और ओली की पार्टी ने आपस में विलय कर लिया था। विलय के बाद नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी बनी। संसद में इनका दो तिहाई बहुमत था। लेकिन ओली और प्रचंड के बीच की यह एकता लंबे समय तक नहीं रही थी।
जब पार्टी का विलय हुआ था, तो यह बात हुई थी कि ओली ढाई साल प्रधानमंत्री रहेंगे और ढाई साल प्रचंड। लेकिन ढाई साल होने के बाद ओली ने कुर्सी छोडऩे से इनकार कर दिया था।
इसके बाद से प्रचंड बनाम ओली का खेल शुरू हुआ था और 2021 में संसद भंग कर दी गई। फिर मामला सुप्रीम कोर्ट में गया था और संसद भंग करने के फ़ैसले को रद्द कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के इसी फ़ैसले के बाद शेर बहादुर देउबा प्रधानमंत्री बने थे।
लेकिन ओली और देऊबा के बीच हुए समझौते में भी यही डर है कि कहीं ओली देऊबा को मौक़ा ना दें।
प्रचंड पहली बार जब 2008 में नेपाल के प्रधानमंत्री बने थे तब उन्होंने पहला विदेशी दौरा चीन का किया था। नेपाल में अब तक परंपरा थी कि प्रधानमंत्री शपथ लेने के बाद पहला विदेशी दौरा भारत का करता था। प्रचंड ने यह परंपरा तोड़ी थी और इसे उनके चीन के कऱीब होने से जोड़ा गया था। (bbc.com)
भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने चीनी विदेश मंत्री वांग यी से अस्ताना में शंघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन के दौरान अलग से मुलाकात की है. दोनों पक्षों ने लंबे समय से अटके सीमा विवादों को जल्द सुलझाने पर चर्चा की.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी की रिपोर्ट-
भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर और चीन के विदेश मंत्री वांग यी कजाखस्तान के अस्ताना में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक में हिस्सा लेने अस्ताना पहुंचे हैं. भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल की शुरूआत के बाद दोनों विदेश मंत्रियों की यह पहली बैठक है. पूर्वी लद्दाख में गतिरोध के कारण भारत और चीन के बीच चार साल से संबंध अच्छे नहीं चल रहे थे. इसके मद्देनजर दोनों नेताओं की इस मुलाकात को काफी अहम माना जा रहा है.
बैठक में क्या बात हुई
जयशंकर ने बैठक के बाद एक्स पर अपनी पोस्ट में लिखा, "आज अस्ताना में सीपीसी पोलित ब्यूरो सदस्य और विदेश मंत्री वांग यी से मुलाकात हुई. सीमावर्ती क्षेत्रों में शेष मुद्दों के शीघ्र समाधान पर चर्चा की. इस उद्देश्य के लिए राजनयिक और सैन्य माध्यम से प्रयासों को दोगुना करने पर सहमति व्यक्त की गई."
उन्होंने कहा कि एलएसी का सम्मान करना और सीमावर्ती क्षेत्रों में शांति सुनिश्चित करना आवश्यक है. जयशंकर का कहना है, "आपसी संबंधों के तीन तत्व - आपसी सम्मान, आपसी संवेदनशीलता और आपसी हित हमारे द्विपक्षीय संबंधों का मार्गदर्शन करेंगे."
इस मुलाकात के बाद भारतीय विदेश मंत्रालय ने एक बयान में कहा एससीओ के राष्ट्र प्रमुखों की परिषद की बैठक के मौके पर हुई इस मुलाकात के दौरान दोनों मंत्रियों ने द्विपक्षीय संबंधों को स्थिर करने और पुनर्निर्माण करने के लिए पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर बाकी मुद्दों का जल्द समाधान खोजने पर विचारों को साझा किया. दोनों मंत्री इस बात पर सहमत हुए कि सीमावर्ती क्षेत्रों में मौजूदा स्थिति का लंबा खिंचना किसी भी पक्ष के हित में नहीं है.
तनाव कम करने की कोशिश
मई 2020 में चीन और भारतीय सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई थी. यह झड़प लद्दाख की गलवान घाटी में हुई थी जहां से चीन के कब्जे वाला तिब्बत पठार बहुत पास है. गलवान घाटी की झड़प में भारत के 20 सैनिक मारे गए थे. इस घटना में चीन के भी कई सैनिक मारे गए लेकिन चीन की सरकार ने उनकी सही संख्या को सार्वजनिक नहीं किया. इस घटना के बाद दोनों देशों ने इलाके में सैनिकों और हथियारों की भारी तैनाती कर दी.
भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच पूर्वी लद्दाख में कुछ स्थानों पर अब भी गतिरोध बना हुआ है, जबकि दोनों पक्षों ने राजनयिक और सैन्य स्तर की बातचीत के बाद कई क्षेत्रों से सैनिकों को पीछे हटाने की प्रक्रिया पूरी कर ली है.
दोनों देश पहले भी सैन्य और कूटनीतिक माध्यमों से बातचीत जारी रखने पर सहमत हो चुके हैं. भारत की ओर से जारी बयान में कहा गया कि जयशंकर ने पूर्वी लद्दाख के शेष क्षेत्रों से भी सैनिकों को पूरी तरह से हटाने के लिए प्रयास बढ़ाने और दोनों देशों के संबंधों में सामान्य स्थिति बहाल करने पर भी जोर दिया.
एससीओ की बैठक अस्ताना में हो रही है और इस बैठक में भाग लेने के लिए चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ पहुंचे हैं. भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बैठक के लिए नहीं गए हैं और भारत का प्रतिनिधित्व जयशंकर कर रहे हैं. मोदी अगले हफ्ते रूस की यात्रा पर जाने वाले हैं और वहां उनकी मुलाकात राष्ट्रपति पुतिन से होगी. (dw.com)
बिहार में पुलों के टूटने का सिलसिला जारी है. पिछले दो हफ्ते में राज्य के 10 पुल टूट चुके हैं. ताजा घटना सारण की है, जहां पिछले 24 घंटे में तीन पुल टूट चुके हैं.
डॉयचे वैले पर मनीष कुमार की रिपोर्ट-
भारत के बिहार राज्य में पुल टूटने की ताजातरीन घटना सारण जिले में हुई. यहां गंडकी नदी पर बना एक डेढ़ दशक पुराना पुल गिर गया. पिछले 24 घंटे के दौरान सारण में पुल गिरने की यह तीसरी घटना है.
इससे पहले 3 जुलाई को सिवान जिले में तीन पुल टूट गए थे. इसी दिन सारण जिले में भी दो और छोटे-छोटे पुल टूटे. ये सभी गंडक नदी की शाखा पर बने थे. बताया जा रहा है कि ये पांचों पुल पानी का तेज बहाव नहीं झेल पाए और ध्वस्त हो गए. इनमें एक ब्रिटिश काल में बनाया गया पुल था, जिसपर अभी तक आवागमन हो रहा था.
पुलों के टूटने की घटना अररिया, पूर्वी चंपारण, सिवान, मधुबनी व किशनगंज जिले में भी हुईं. सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि इनमें तीन निर्माणाधीन थे.
सुप्रीम कोर्ट से अपील, राज्य में सभी पुलों की जांच हो
इन घटनाओं को देखते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पुलों के रखरखाव से जुड़ी नीति बनाने का निर्देश दिया है. इस बीच सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी दायर हुई है, जिसमें कहा गया कि लगातार हो रही इन घटनाओं के कारण पूरे प्रदेश में पुलों की सुरक्षा को लेकर गंभीर चिंता पैदा हो गई है, खासतौर पर बाढ़ प्रभावित इलाकों में.
याचिकाकर्ता एडवोकेट ब्रजेश सिंह ने अदालत से अपील की है कि वह बिहार सरकार को ढांचागत ऑडिट करवाने का निर्देश दे. साथ ही, एक उच्च-स्तरीय विशेषज्ञ समिति का गठन कर कमजोर पुलों की शिनाख्त की जाए. याचिका के मुताबिक, पुलों की जांच और लगातार निगरानी से यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि वे लोगों के इस्तेमाल के लिए सुरक्षित हैं या नहीं.
पहले भी गिरते रहे हैं पुल
पिछली ऐसी कई घटनाओं की तरह इस बार भी सरकार ने जांच के आदेश दे दिए, आनन-फानन प्रारंभिक कार्रवाई भी हुई और पक्ष-विपक्ष के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी शुरू हो गया. इन घटनाओं की वजह क्या है, इसपर सब की अपनी-अपनी परिभाषा है. सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ही तरफ के लोग सरकार का हिस्सा रह चुके हैं.
पुराने पुल-पुलिया टूटने पर उनके रख-रखाव पर सवालिया निशान लगता है. निर्माणाधीन पुल ध्वस्त होने पर भ्रष्टाचार में संलिप्तता से जुड़े गंभीर सवाल खड़े होते हैं. उदाहरण के तौर पर दिसंबर 2022 में बेगूसराय जिले में गंडक नदी पर 13.5 करोड़ की लागत से बनाया गया पुल औपचारिक उद्घाटन से पहले ही ध्वस्त हो गया था. जांच में पता चला कि खराब गुणवत्ता के कारण सेल्फ लोड की वजह से ही पुल टूट गया.
दूसरा चर्चित उदाहरण भागलपुर जिले के सुल्तानगंज में 1,711 करोड़ की लागत से गंगा नदी पर बनाए जा रहे पुल का है. दो साल पहले इसका एक हिस्सा तेज आंधी में गिर गया था. निर्माण के क्रम में ही पुल का ढहना या किसी स्पैन या फ्लैंक का टूटना, खराब गुणवत्ता वाली निर्माण साम्रगी के इस्तेमाल की ओर इशारा करता है.
लागत ज्यादा और उम्र कम
बीते 18 साल के दौरान बिहार में डेढ़ से दो लाख छोटे-बड़े पुलों का निर्माण हुआ है. भले ही इनकी लागत ज्यादा रही हो, लेकिन ये पुल-पुलिया अपनी निर्धारित अवधि कमोबेश पूरी नहीं कर पा रहे. आम कंक्रीट ढांचे की उम्र करीब 50-60 साल होती है, लेकिन यहां महज 30 साल पुराना पुल टूट रहा है, यहां तक कि कास्टिंग के चार-पांच घंटे बाद ही ढह रहा है. ऐसे में निर्माण सामग्रियों की मात्रा व गुणवत्ता में मानकों का पालन ना किए जाने के आरोप लग रहे हैं.
पुल विशेषज्ञ हेमंत कुमार कहते हैं, "अगर डिजाइन सही है और कंक्रीट, सीमेंट व स्टील मिक्स सही ढंग से डालें, तो पुल गिरेगा ही नहीं. अररिया में बकरा नदी पर बना जो पुल ध्वस्त हुआ, उसके वीडियो को देखिए. पुल इस तरह ट्विस्ट होकर गिर रहा है, जैसे उसमें छड़, सीमेंट और कंक्रीट हो ही नहीं. उसका मलबा भी आसानी से पानी के साथ बह गया."
बार-बार डिजाइन पर दोष क्यों
विदित हो कि दिल्ली और हैदराबाद से आई तकनीकी टीम ने जब अररिया में बकरा नदी के ध्वस्त पुल की जांच की, तो पता चला कि खंभे की पाइलिंग 40 मीटर नीचे से की जानी थी, जो महज 20 मीटर नीचे ही की गई थी.182 मीटर लंबा यह पुल बिहार सरकार के ग्रामीण कार्य विभाग द्वारा 7.79 करोड़ की लागत से बनाया जा रहा था.
रिटायर्ड इंजीनियर अशोक कुमार कहते हैं, "इस पुल के बारे में अब कहा जा रहा कि इसके डिजाइन में ही दोष था, निर्माण में मानकों का पालन नहीं किया गया और बकरा नदी के धारा बदलने के स्वभाव का ध्यान नहीं रखा गया. अगर सच में ऐसा था, तो निर्माण की स्वीकृति क्यों दी गई." जानकार सवाल उठा रहे हैं कि अगर डिजाइन से जुड़ी दिक्कतें थीं, तो पुल निर्माण से पहले ही धारा में बदलाव को रोकने के लिए बोल्डर पिचिंग कर नदी को क्यों नहीं बांधा गया. क्या यह देखना भी निर्माण एजेंसी की जिम्मेदारी है या विभागीय इंजीनियरों को इसपर ध्यान देना चाहिए था.
जिम्मेदार की नहीं होती पहचान
नाम नहीं प्रकाशित करने की शर्त पर एक निर्माण कंपनी के वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, "इससे पहले भी भागलपुर जिले के सुल्तानगंज में गंगा नदी पर बन रहे पुल का हिस्सा ढहने में यह बात कही गई कि डिजाइन में दोष था. यह किस तरह का फॉल्ट था? और अगर यह सच है, तो सुपरविजन का काम देखने वाले कंसल्टिंग इंजीनियर ने उसमें बदलाव क्यों नहीं किया?"
पुल के निर्माण के दौरान हर सेगमेंट की कास्टिंग के समय कंसल्टिंग इंजीनियर की उपस्थिति में डेट मार्क किया जाता है और उनके हस्ताक्षर करने पर ही एजेंसी को भुगतान किया जाता है. उनपर किसी तरह की कार्रवाई की बात तो दूर, आज तक इस घटना की जांच रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई. जब बड़े पुलों के गिरने पर मामले में लीपापोती हो जाती है, तो छोटे-छोटे ठेकेदारों का मनोबल बढ़ता है.
रखरखाव की पॉलिसी ही नहीं
जानकार बताते हैं कि पुल बन जाने के बाद रख-रखाव के तहत उसके एक्सपेंशन जॉइंट की बार-बार सफाई जरूरी है. 10 साल बाद बियरिंग को बदलना होता है या उसकी मरम्मत करनी पड़ती है. ऐसा किया जाना तो दूर, पुलों के रख-रखाव को लेकर बिहार सरकार की कोई नीती ही नहीं है. कई बार सरकार के स्तर पर इस संबंध में चर्चा तो हुई, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ सकी.
इतना ही नहीं, 60 मीटर से अधिक लंबे 300 से अधिक पुलों के रख-रखाव के लिए फंड भी आवंटित नहीं है. इन पुलों का निर्माण हुए 20 वर्ष से अधिक बीत चुके हैं. बताया गया कि पुल बनने के अगले दो-तीन साल तक मेंटेनेंस की जिम्मेदारी तो निर्माण एजेंसी की रहती है, लेकिन उसके बाद बंदोबस्त कैसे होगा और कौन करेगा, यह निर्धारित नहीं है.
चाहे पुल बिहार राज्य पुल निर्माण निगम ने बनाया हो या फिर ग्रामीण कार्य विभाग ने. हालांकि, रोड मेंटनेंस पॉलिसी के तहत पथ निर्माण विभाग की सड़कों के साथ ही 60 मीटर तक की लंबाई वाले पुल-पुलिया का रख-रखाव किया जाता है. अब राज्य सरकार ने ग्रामीण कार्य विभाग के पुलों के गिरने की जांच के लिए एक समिति का गठन किया है. समिति यह उपाय भी सुझाएगी कि भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए क्या उपाय किए जाएं.
पुल लोगों की दिनचर्या से जुड़ा बेहद उपयोगी ढांचा है. बिहार के कई बाढ़ प्रभावित इलाकों में तो पुल की इतनी सख्त जरूरत है कि लोग खुद ही चंदा जमा कर बांस-बल्ली से कामचलाऊ पुल बना लेते हैं. ऐसे में जब भी कहीं कोई पुल बन रहा होता है, तो इलाके के लोग अपनी दुश्वारियां कम होने की उम्मीद करते हैं. पुल ढहने के साथ ही उनका सपना तो टूटता ही है, सरकार से विश्वास भी ढह जाता है. (dw.com)
असम और मणिपुर में भारी बारिश के बाद आई बाढ़ ने बड़ी तबाही मचाई है. अब तक कम-से-कम 50 लोगों की मौत हो चुकी है. काजीरंगा राष्ट्रीय अभयारण्य में भी बाढ़ की स्थिति गंभीर है और जानवरों को सुरक्षित स्थान पर ले जाया जा रहा है.
डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट-
पूर्वोत्तर भारत के असम और मणिपुर में करीब 20 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हुए हैं. अब तक कम-से-कम 50 लोगों की मौत हो चुकी है. एक सींग वाले गैंडों के लिए मशहूर असम के काजीरंगा नेशनल पार्क में बाढ़ का पानी भरने के कारण अब तक 17 जानवरों के मारे जाने की खबर हैं. 100 से ज्यादा वन्यजीवों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है.
असम में ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियां खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं. ऊपर से मौसम विभाग ने अगले तीन दिनों तक दोनों राज्यों में भारी से अति भारी बारिश की चेतावनी दी है. इससे हालात और बिगड़ने का अंदेशा है.
असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने राजधानी गुवाहाटी से सटे बाढ़ग्रस्त इलाकों का दौरा कर स्थिति की समीक्षा की है. असम और मणिपुर, दोनों राज्यों में राहत और बचाव कार्य के लिए प्राकृतिक आपदा विभाग के अलावा सेना और केंद्रीय सुरक्षा बल के जवानों की भी सहायता ली जा रही है. बाढ़ से इन दोनों राज्यों में सड़कों और कई पुलों को भी भारी नुकसान पहुंचा है.
ज्यादा विकराल होती जा रही है बाढ़
असम में अब साल में कम-से-कम तीन बार बाढ़ आती है. पहले ऐसा नहीं था. विशेषज्ञों का कहना है कि 1950 में आए भयावह भूकंप ने ब्रह्मपुत्र का मार्ग बदल दिया था और उसकी गहराई भी कम हो गई थी. उसके बाद धीरे-धीरे बाढ़ की समस्या गंभीर होने लगी. बीते एक दशक के दौरान इसकी गंभीरता तेजी से बढ़ी है. इसके लिए प्रकृति और पर्यावरण का अंधाधुंध दोहन, जलवायु परिवर्तन और इंसानी गतिविधियों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है.
असम राज्य प्राकृतिक आपदा विभाग के एक अधिकारी ने डीडब्ल्यू को बताया कि बाढ़ से राज्य के 29 जिलों में 2,800 गांवों के 16.25 लाख लोग प्रभावित हैं. इनमें से नगांव, दरंग और करीमगंज जिले सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. सरकार ने बाढ़ प्रभावित इलाकों में 515 राहत शिविर खोले हैं. उनमें करीब 3.86 लाख लोगों ने शरण ली है.
काजीरंगा पार्क में नुकसान
काजीरंगा नेशनल पार्क में हर साल बाढ़ के कारण बड़ी संख्या में जानवरों की मौत हो जाती है. इस बाढ़ से राज्य के गोलाघाट और नगांव जिलों में फैले अभयारण्य का लगभग 75 फीसदी हिस्सा पानी में डूब गया है और 20 जानवरों के मारे जाने की खबर है.
विश्व धरोहरों की सूची में शामिल इस पार्क की जैव विविधता और चरागाहों को बचाने के लिए बाढ़ कुछ हद तक उपयोगी भी है. बाढ़ अपने साथ उपजाऊ जमीन की परत लाती है. पहले बाढ़ इतनी विकराल नहीं होती थी, ना ही नियमित. बीते कुछ वर्षों से यह बाढ़ इस पार्क और यहां रहने वाले जानवरों को भारी नुकसान पहुंचा रही है. दुनिया भर में एक सींग वाले गैंडों की एक-तिहाई आबादी यहां रहती है. बाढ़ के कारण सैकड़ों जानवरों ने ऊंची जगहों पर शरण ली है.
राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 37 भी अभयारण्य के बीच से होकर गुजरती है. पानी से बचने की कोशिश में कई वन्यजीव एनएच-37 से गुजरने वाले तेज गति के वाहनों से टकराकर या तो मारे जाते हैं या फिर गंभीर रूप से घायल हो जाते हैं. इसलिए सरकार ने यहां से गुजरने वाले वाहनों को गति सीमा 20 से 40 किलोमीटर प्रति घंटा रखने की सलाह दी है.
काजीरंगा नेशनल पार्क की फील्ड डायरेक्टर सोनाली घोष ने डीडब्ल्यू से कहा, "पार्क में बाढ़ की स्थिति गंभीर है. यहां 233 में से 141 फारेस्ट कैंप अब भी बाढ़ के पानी में डूबे हैं. इनमें पार्क के कर्मचारी और सुरक्षा गार्ड रहते थे. पार्क के कर्मचारी जानवरों को बचाने की कोशिश में जुटे हैं. अब तक मरने वाले जानवरों में हिरणों की तादाद ज्यादा है. 72 जानवरों को बचाकर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया गया है और कुछ घायल जानवरों का इलाज चल रहा है."
मणिपुर के स्कूलों में छुट्टी, सार्वजनिक अवकाश
मणिपुर में भी लगातार भारी बारिश के कारण दोनों प्रमुख नदियों- इंफाल और कोंग्बा के तटबंधों में दरार आ गई है. इसके कारण इंफाल ईस्ट और इंफाल वेस्ट जिलों के कई इलाके पानी में डूब गए हैं. इनमें राजधानी इंफाल भी शामिल है. सरकार ने राज्य में तमाम स्कूलों को बंद कर दिया है. सरकार ने पहले स्कूलों को चार जुलाई तक बंद करने का निर्देश दिया था, लेकिन लगातार गंभीर होती स्थिति के कारण छुट्टी को अगली सूचना तक बढ़ा दिया गया है.
राज्य सरकार ने 4 जुलाई को लगातार दूसरे दिन भी सरकारी छुट्टी घोषित की है. लोगों से घरों के बाहर ना निकलने की अपील की गई है. यहां भी सेना और असम राइफल्स के जवानों को राहत व बचाव कार्य में लगाया गया है.
बीते साल की हिंसा के बाद से ही राहत शिविरों में रहने वाले हजारों लोगों के लिए यह बाढ़ एक नई मुसीबत बनकर आई है. सरकारी सूत्रों ने बताया कि बाढ़ प्रभावित इलाकों से करीब 2,000 लोगों को मोटर बोट के जरिए सुरक्षित निकालकर राहत शिविरों में पहुंचाया गया है. सेना और सुरक्षा बल के जवान प्रभावित इलाकों में लोगों तक खाना-पानी भी पहुंचा रहे हैं.
मुख्यमंत्री एन.बीरेन सिंह ने भी राजधानी के आसपास के बाढ़ग्रस्त इलाकों का दौरा करने के बाद शीर्ष अधिकारियों के साथ बैठक में परिस्थिति की समीक्षा की है. उन्होंने आम लोगों से बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए राहत कोष में दान देने की भी अपील की है.
जंगल की कटाई है बाढ़ की वजह?
मणिपुर के जल संसाधन, राहत और आपदा प्रबंधन मंत्री अवांग्बो नेमाई डीडब्ल्यू को बताते हैं, "हालात अब भी चिंताजनक हैं. तमाम नदियां खतरे के निशान से ऊपर बह रही हैं. बड़े पैमाने पर जंगल की कटाई और अफीम की खेती के अलावा नदियों के तटवर्ती इलाकों पर बढ़ता अतिक्रमण ही इस बाढ़ की सबसे प्रमुख वजहें हैं."
नेमाई बताते हैं कि हर साल औसतन 420 वर्ग किलोमीटर जंगल साफ हो जाते हैं. अगर 10-15 साल तक ऐसा चलता रहा, तो प्रकृति और पर्यावरण का संतुलन गड़बड़ाना स्वाभाविक है.
मणिपुर के एक विशेषज्ञ डी.के.नीपामाचा सिंह कहते हैं, "बाढ़ पर अंकुश लगाने के लिए बहुस्तरीय उपाय जरूरी है. सरकार को पहले संवेदनशील इलाकों की शिनाख्त कर वहां बनने वाली सड़कों और पुलियों में खास तकनीक का इस्तेमाल करना चाहिए. ताकि हर साल बाढ़ में बहने से उनको रोका जा सके."
बांधों के निर्माण की भी भूमिका
विशेषज्ञों का कहना है कि असम सरकार ने बीते करीब छह दशकों के दौरान ब्रह्मपुत्र के किनारे तटबंध बनाने पर 30,000 करोड़ रुपये खर्च किए हैं. हालांकि पिछले करीब एक दशक से इस नदी के तटवर्ती इलाके में इंसानी बस्तियों की बढ़ती संख्या, जंगलों के तेजी से कटने और आबादी बढ़ने की वजह से यह प्राकृतिक आपदा और विकराल होती जा रही है.
विशेषज्ञों का कहना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण होने वाले मौसमी बदलावों और अरुणाचल प्रदेश में बड़े पैमाने पर बांधों के निर्माण ने भी असम में बाढ़ की गंभीरता बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई है. असम की पिछली सर्वानंद सोनोवाल सरकार ने करीब 40 हजार करोड़ की लागत से ब्रह्मपुत्र में ड्रेजिंग यानी गाद और मिट्टी निकालने की महत्वाकांक्षी योजना बनाई थी.
केंद्र की मंजूरी के बावजूद इसपर अब तक अमल नहीं हो सका है क्योंकि विशेषज्ञों ने इसपर सवाल खड़ा कर दिया था. उनकी राय थी कि एक बार की ड्रेजिंग से खास फायदा नहीं होगा. कुछ साल बाद समस्या फिर जस-की-तस हो जाएगी. (dw.com)
ब्रिटेन के चुनाव में लेबर पार्टी ने किएर स्टार्मर के नेतृत्व में बड़ी जीत दर्ज की है.
14 साल बाद लेबर पार्टी की सत्ता में वापसी हो रही है और वो भी ऐतिहासिक जीत के साथ.
लेबर पार्टी अब तक 409 सीटें जीत चुकी है और ऋषि सुनक के नेतृत्व में कंज़र्वेटिव पार्टी अभी 113 सीटें ही जीत सकी है. ब्रिटेन में 650 सीटों में से सरकार बनाने के लिए 326 सीटों का आँकड़ा पार करना होता है. यानी लेबर पार्टी को बहुमत मिल गया है.
एग्ज़िग पोल की मानें तो लेबर पार्टी 410 सीटें जीत सकती है और कंज़र्वेटिव पार्टी 131 सीटों पर सिमट सकती है.
ऐसे में ये कंजर्वेटिव पार्टी की अब तक की सबसे बड़ी हार होगी.
लेबर पार्टी 2010 के बाद सत्ता में पहुँच रही है. अगर लेबर पार्टी 410 सीटें जीती तो ये साल 1997 में टोनी ब्लेयर के बाद लेबर पार्टी की सबसे बड़ी जीत होगी.
लेकिन लेबर पार्टी को इस ऐतिहासिक जीत तक ले जाने वाले किएर स्टार्मर कौन हैं.
क़ानून की पढ़ाई और अफ़्रीका में काम
किएर स्टार्मर का संसदीय क्षेत्र साल 2015 से हॉबर्न और सेंट पैनक्रास है. स्टार्मर ख़ुद को "वर्किंग क्लास की पृष्ठभूमि" से बताते हैं.
उनके पिता एक टूलमेकर थे और उनकी माँ एक नर्स के रूप में काम करती थीं.
उनकी माँ को स्टिल्स रोग था जो एक दुर्लभ ऑटोइम्यून बीमारी है.
उन्होंने रीगेट ग्रामर स्कूल में पढ़ाई की है. उनके दाखिला लेने के दो साल बाद ये एक निजी स्कूल बन गया था.
16 साल की उम्र तक उनकी फीस स्थानीय परिषद भरता था. स्कूल के बाद यूनिवर्सिटी जाने वाले वह अपने परिवार के पहले सदस्य बने और लीड्स यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया. बाद में उन्होंने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में क़ानून की पढ़ाई की.
1987 में वो बैरिस्टर बने और मानवाधिकार क़ानून में उनकी विशेषज्ञता है. अपने काम के सिलसिले में वो कैरिबिया और अफ्रीका में रहे, जहाँ उन्होंने मौत की सज़ा का सामना कर रहे क़ैदियों का केस लड़ा.
90 के दशक के अंत में उन्होंने तथाकथित मैक्लिबेल कार्यकर्ताओं का केस फ्री में लड़ा.
मैकडॉनल्ड्स कॉर्पोरेशन बनाम स्टील एंड मॉरिस 1997 केस को "मैक्लिबेल केस" के रूप में जाना जाता है.
इसमें मैकडॉनल्ड्स कॉर्पोरेशन ने कंपनी की आलोचना करने वाले पर्यावरण कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ मानहानि का केस किया था. इन कार्यकर्ताओं ने एक पर्चा बाँटा था, जिसमें मैकडॉनल्ड कंपनी के पर्यावरण के दावों पर सवाल उठाए गए थे.
साल 2008 में किएर डॉयरेक्टर ऑफ़ पब्लिक प्रॉसिक्यूशन चुने गए. जो इंग्लैंड और वेल्स में सबसे वरिष्ठ क्रिमिनल प्रॉसिक्यूटर का पद है.
राजनीति में कब आए
साल 2015 में वो उत्तरी लंदन में हॉबर्न और सेंट पैनक्रास से सांसद बने.
उन्होंने पूर्व लेबर नेता जर्मी कॉर्बिन की फ्रंटबेंच टीम में उनके ब्रेग्ज़िट सचिव के रूप में काम किया जहाँ उन्होंने दूसरे ब्रेग्ज़िट चुनाव पर विचार किए जाने की बात कही थी. ब्रेग्ज़िट यूरोपियन यूनियन से ब्रिटेन को अलग करने की प्रक्रिया थी.
साल 2019 के आम चुनाव में पार्टी की भारी हार के बाद सर किएर स्टार्मर ने लेबर नेता पद का चुनाव लड़ा और 2020 में पार्टी के नेता बने. जीत के बाद अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि वो लेबर को "विश्वास और आशा के साथ एक नए युग में ले जाएंगे."
किएर स्टार्मर के चुनावी वादे क्या हैं?
- स्वास्थ्य सेवा: ब्रिटेन की स्वास्थ्य सेवा एनएचएस में मरीज़ों के लिए वेटिंग लिस्ट कम करना. हर सप्ताह एनएचएस को 40,000 से अधिक नियुक्तियाँ मिलेंगी. इसकी फंडिंग टैक्स की चोरी से निपट कर और टैक्स 'खामियों' को ख़त्म करके किया जाएगा.
- अवैध प्रवासी: बॉर्डर सिक्योरिटी कमांड लॉन्च किए जाएंगे ताकि छोटी और ख़तरनाक नावों से मानव तस्करी पर लगाम लगाई जाए.
- आवास: 15 लाख नए घर बनाए जाएंगे और पहली बार घर ख़रीदने वालों को "पहला अधिकार" देने की योजना शुरू करेंगे.
- शिक्षा: 6500 शिक्षकों की भर्ती होगी और इसका खर्च निजी स्कूलों को जो टैक्स ब्रेक मिल रहा है उसे रोक कर किया जाएगा.
लेबर पार्टी का हाल क्या था
साल 2023 से जितने पोल हो रहे थे, उसमें लेबर पार्टी कंज़र्वेटिव से 20 फ़ीसदी आगे दिख रही थी.
किएर के नेतृत्व के शुरुआती सालों में उन्हें पार्टी की लोकप्रियता बढ़ाने में काफ़ी दिक्क़त आई.
साल 2021 के उपचुनाव में लेबर की हार के बाद उनका फोकस था कि वो रेड वॉल को दोबारा जीतें. रेड वॉल मतलब उत्तर इंग्लैंड और मिडलैंड की वो सीटें जो अतीत में लेबर की सीट रही थीं.
लेकिन 2019 के चुनाव में उन पर कंज़र्वेटिव पार्टी की जीत हुई थी.
किएर स्टार्मर ने पार्टी की नीतियों पर दोबारा विचार किया और उन्हें यूनिवर्सिटी में ट्यूशन फीस ख़त्म करने और पानी-बिजली कंपनियों का राष्ट्रीयकरण का वादा छोड़ना पड़ा.
2019 के चुनाव में लेबर के पास पास 205 सांसद थे. बहुमत हासिल करने के लिए उसे 326 सीटें जीतनी होती है. (bbc.com)
मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में शराब बनाने वाली फैक्ट्री में बाल श्रम का मामला सामने के बाद सरकार ने कार्रवाई की है. राज्य सरकार का कहना है कि 13 से 17 साल के बच्चों से शराब की बोतलें पैक करवाई जाती थी.
डॉयचे वैले पर आमिर अंसारी का लिखा-
मध्य प्रदेश सरकार के मुताबिक सोम ग्रुप डिस्टिलरीज में बच्चों से शराब की पैकिंग करवाई जाती थी और उनसे 11-11 घंटों तक काम करवाया जाता था। हाल ही में राज्य के आबकारी विभाग ने शराब फैक्ट्री की जांच की थी।
राज्य की पुलिस अब शराब फैक्ट्री में बाल श्रम के आरोपों की जांच कर रही है। राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने कहा कि उसने जब जून में फैक्ट्री का निरीक्षण किया तो उसे गैरकानूनी रूप काम करते हुए 58 बच्चे मिले थे।
खतरनाक हाल में काम कर रहे थे बच्चे
आयोग ने कुछ बच्चों की तस्वीरें जारी कीं जिनमें उनके हाथों पर रसायन से जलन के निशान थे। आयोग ने बताया कि कुछ बच्चों को फैक्ट्री में काम के लिए स्कूल बसों से पहुंचाया जाता था।
15 जून को बच्चों के मिलने के एक दिन बाद राज्य के औद्योगिक स्वास्थ्य और सुरक्षा विभाग ने 27 श्रमिकों से बातचीत के आधार पर एक निरीक्षण रिपोर्ट तैयार की, जिनमें सबसे कम उम्र का बच्चा 13 साल का था। राज्य सरकार का कहना है कि 21 साल से कम उम्र के लोग शराब फैक्ट्री में काम नहीं कर सकते।
समाचार एजेंसी रॉयटर्स ने उस रिपोर्ट को देखा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बच्चे सुबह 8 बजे से 11 घंटे की शिफ्ट में काम कर रहे थे। यह रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नहीं की गई है। सोम ग्रुप और मध्य प्रदेश सरकार ने रॉयटर्स द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब नहीं दिए हैं।
18 जून को राज्य सरकार को सौंपे गए जवाब में सोम ग्रुप ने कहा कि कुछ बच्चे अपने माता-पिता को भोजन और दवाइयां देने के लिए कंपनी में आते थे और शराब कंपनी ने यह भी दावा किया है कि कोई भी कर्मचारी 21 साल से कम उम्र का नहीं है। यह जवाब भी रॉयटर्स ने देखा है।
सोम ग्रुप का कारोबार
सोम भारत के फलते-फूलते शराब उद्योग में छोटी डिस्टिलरी है, जहां देशी और विदेशी दोनों ही कंपनियां काम करती हैं। इसकी वेबसाइट इसे ‘अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसित ब्रांड’ के रूप में बताती है। वेबसाइट के मुताबिक इसके उत्पाद अमेरिका, न्यूजीलैंड और ब्रिटेन समेत 20 से अधिक विदेशी बाजारों में उपलब्ध हैं।
इस घटना ने भारतीय सप्लाई चेन में बाल मजदूरी की ओर ध्यान आकर्षित किया है। 2021 में रॉयटर्स ने झारखंड में कार्ल्सबर्ग के दो गोदामों की ऑडिट की रिपोर्ट की थी, जिसमें कम उम्र के मजदूर पाए गए थे। उस समय कार्ल्सबर्ग ने कहा था कि उसने थर्ड पार्टी सर्विस खत्म कर दी है।
सोम के मामले में निरीक्षण रिपोर्ट में राज्य सरकार ने कहा कि वहां काम करने वाले बच्चों को यह प्रशिक्षण नहीं दिया गया कि वे हानिकारक रसायनों से खुद को कैसे बचा सकते हैं। रिपोर्ट में कहा गया, ‘चूंकि यह खतरनाक काम है, इसलिए फैक्ट्री में एक स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए था।’
सरकार के फैसले को अदालत में चुनौती
मध्य प्रदेश सरकार ने सोम डिस्टिलरी के फैक्ट्री लाइसेंस को अस्थायी रूप से निलंबित कर दिया है, लेकिन कंपनी ने इस फैसले को निचली अदालत में चुनौती देते हुए कहा कि इसमें कोई गलत काम करने का सबूत नहीं मिला है।
सोम की चुनौती के बाद निचली अदालत ने राज्य के फैसले पर रोक लगा दी और कहा कि वह इस मामले की अगली सुनवाई जुलाई महीने के आखिर में करेगी।
सोम डिस्टिलरी भारतीय शेयर बाजार में लिस्टेड है और उसने स्टॉक एक्सचेंज को दिए गए बयान में कहा कि मध्य प्रदेश प्लांट को ‘सहयोगी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी’ चलाती है और उसने ठेकेदारों द्वारा सप्लाई किए गए श्रमिकों का इस्तेमाल किया, जिन्होंने उचित आयु जांच नहीं की होगी। फैक्ट्री में बच्चों के पाए जाने के बाद से कंपनी के शेयरों में आठ फीसदी की गिरावट आई है।
भारतीय श्रम कानून के मुताबिक 15 साल से कम उम्र के बच्चों से श्रम कराना गैर कानूनी है। लेकिन स्कूल के बाद वे परिवार के व्यवसाय में हाथ बंटा सकते हैं। इस प्रावधान का नियोक्ता और मानव तस्कर व्यापक रूप से शोषण करते हैं। एक अनुमान के मुताबिक पूरे देश में 5 से 14 साल तक की उम्र वाले कामकाजी बच्चों की संख्या करीब 44 लाख है। (dw.com/hi)
गीता यथार्थ
मंदिर, कीर्तन औरतों के लिए सिर्फ अंधविश्वास ही नहीं, आजादी की जगह भी हैं..!
महिलाएं ज्यादा अंधविश्वासी होती है!?
क्या सच में ऐसा है?
अगर है तो अंधविश्वास और शिक्षा की कमी से इसको समझिए..!
राजस्थान में तो कई बार ये खबरें आती है कि अकेली घर से कहीं जाने को निकली तो वापिस ही नहीं पहुंच पाई..!
क्योंकि घर से कभी निकली ही नहीं तो घर वापसी के रास्तों से कोई वास्ता ही नहीं पड़ा.!
दूसरा पहलू ये भी है कि मंदिर, कीर्तन औरतों के लिए सिर्फ अंधविश्वास ही नहीं, आजादी की जगह भी हैं.
घर से कभी किसी रिश्तेदार के घर, शहर का बाजार या दूसरे शहर सहेली के घर कभी नहीं गई..! लड़कियों का ग्रुप बनाकर कहीं नहीं गई..! आस पड़ोस की औरतें इकठ्ठा होकर कहीं नहीं निकली सुबह से शाम तक..!
शादी के बाद, ना शादी के पहले..!
वे अकेली कहीं नहीं जाने दी गई।
मंदिर और धार्मिक जगहें वे जगहें रही हैं औरतों के जीवन में जहां वे अकेली या आस-पास की औरतों के साथ निकल गई..! भगवान के नाम पर उनसे सवाल कम होते है,
दीवारों में बंधी औरतें वहां खुली हवा में सांस लेने भी जाती हैं,
सत्संग में बैठी सब औरतें अंधविश्वास के चलते वहां बैठी हो ये ज़रूरी नहीं..!
अब बात आती है कि वो कौन सी इकोनॉमिक क्लास के लोग हैं जो ऐसे मर जा रहे हैं? बार बार एक ही तरीके से..!
एलिट और अपर मिडिल क्लास के लोग मरेंगे तो व्यवस्थाएं सुधर जायेगी..., लोअर और लोअर मिडल और गांव के लोग जब मरेंगे तो मरते रहेंगे..!!
सीटू तिवारी
3 करोड़ देवी देवता हैं भईया, ढोंगियों और रेपिस्टों के यहां जाकर क्या मिलता है?
बीती शाम अम्मा से बात हुई। बहुत नाराज और व्यथित थी। वजह थी हाथरस सत्संग। अम्मा का कहना था कि भगवान तो घर में है, हाथ जोड़ लो। ये मजमा लगाने की क्या जरूरत है?
बात सही थी और एक ऐसे देश के लिए और भी ज्यादा, जहां अगर कुछ हो जाए तो ना अस्पताल मिलेगा, ना पुलिस मिलेगी, ना अग्निशमन वाहन और भी ऐसा बहुत कुछ।
कुछ दिन पहले सहरसा गई थी। बिहार में खान पान मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से हमेशा से मुश्किल का सबब रहा है। खाना पीना हमें पसंद आता नहीं और खानपान के केन्द्र की साफ सफाई एक बड़ा इश्यू है मेरे लिए। खैर वहां स्टेशन के पास राजस्थान से आए लोगों ने एक अच्छी खाने की दुकान खोली है। दुकान अच्छी इसलिए क्योंकि रोज बनता है और रोज खप जाता है। रेस्टोरेंट वालों की तरह महीने भर की फ्रिज में रखी दाल नहीं खानी पड़ती है।
खाना सादा और अच्छा था, लेकिन काउंटर पर आसाराम का फोटो और उसकी किताबें लगा रखी थी। हमने वजह पूछी तो काउंटर पर बैठे श्रीमान ने आसाराम वाली किताबें बढ़ा दी। हमने लेने से इंकार किया और कहा, ये तो जेल में बंद है। तो श्रीमान का जवाब था – सब मीडिया वालों का किया धरा है।
हम वहां से चले आए लेकिन एक रेपिस्ट को किस तरह से लोग अपने दिल में सम्मान देते है, इस विचार से ही मुझे घिन आती है। लोगों की क्या कहे, बिहार सरकार के बिहार दिवस जैसे आयोजनों में कई दफे आसाराम वालों के बुक स्टॉल हमने देखे है। किस आधार पर सरकार उन्हें ये स्टॉल दे देती है?
अभी पटना के पास कोई बाबा आया था, सब पागल थे। नेता, अफसर, बाहुबली की बीबी से लेकर आमजन तक। क्या सारी तार्किकता को श्मशान घाट में भस्म कर आए है लोग? जो इन आयोजनों में चले जाते है। डेरा सच्चा सौदा, राम रहीम, निर्मल बाबा ये सब क्या करते है? मंदिरों के अलावा किसी ऐसे बाबा के केन्द्र पर जाने पर नशे में धुत ऊंघते लोग मिलेंगे।
ऐसे ही एक केन्द्र में अयोध्या में एक व्यास जी नाम का बाबा मिला था, जो गंजेड़ी था, नशे में धुत। कायदे से सिर उठाकर आंख में आंख मिलाकर बात तक नहीं कर सकता था। आलम ये था कि जरा सा धक्का दे दे तो नीचे लुढक़ जाए। लेकिन उसको छू भर लेने के लिए लोग मरे जा रहे थे। ऐसे नशेड़ी लोगों को अपना आराध्य क्यों बनाना, पूजा करनी है तो भगवान है, उनकी चालीसा और पूजन विधि की किताबें है। अपने आप कर लो भाई।
हिंदुस्तान से तार्किकता खत्म होती जा रही है और भीषण गर्मी में निकलती कलश यात्राएं, इग्जाम के वक्त शादियों का कानफोडू शोर, शिव चर्चा के नाम पर शोर और पापियों के सत्संग में उमड़ते लोग इसकी मिसाल हैं। जिसके सत्संग में हाथरस में लोग मरे, उस पर यौन शोषण का आरोप सहित छह केस है। औरत की इज्जत लूटने वाले का सत्संग सुनकर आप कौन से अच्छे मनुष्य बन जाएंगे। और आप अच्छे मनुष्य वैसे भी नहीं है क्योंकि आप भीड़ में तब्दील हो गए थे जिसने सैकड़ों को रौंद दिया।
भवदीप कांग
आस्था ही श्रद्धालुओं को पहले स्वयंभू ‘भोले बाबा’ के सत्संग तक लेकर आई और बाद में उनकी दुखद मौतों का कारण बनी।
श्रद्धालुओं के शव ज़मीन में रौंदे गए। महिलाओं और बच्चों समेत 123 लोगों के शव हाथरस के एक खेत में बिखरे पड़े थे। लेकिन आस्था में कोई कमी नहीं आई।
मंदिरों और धार्मिक आयोजनों में ऐसा बार-बार हो चुका है। सैकड़ों लोग भगदड़ में अपनी जान गंवा चुके हैं। भक्ति में सराबोर भावनाएं अक्सर श्रद्धालुओं को एक घबराई हुई भीड़ में बदल देती हैं और फिर उनके रास्ते में जो भी चीज़ आती है, वो नष्ट हो जाती है।
कुंभ मेला, वैष्णव देवी, नैना देवी, सबरीमला ऐसे उदाहरण हैं, जहाँ कई श्रद्धालु अतिउत्साह की वजह से कुचले जा चुके हैं। लेकिन आस्था अपनी गति से आगे बढ़ती रही है।
कॉन्स्टेबल से स्वयंभू धार्मिक गुरु बने भोले बाबा उर्फ नारायण साकार हरि उफ$ सूरजपाल जाटव, ऐसे पहले धार्मिक गुरु नहीं हैं जो अपने अनुयायियों के प्रति लापरवाह हैं।
पुलिस के मुताबिक़, बाबा के ‘सत्संग’ के आयोजकों ने कार्यक्रम में आने वालों की संख्या को कम करके बताया, जितने लोग बताए गए थे, उससे तीन गुना ज़्यादा लोग कार्यक्रम में शामिल होने आए थे।
भगदड़ के कारण जो बताए जा रहे हैं, उनमें दो बातें सामने आ रही हैं।
भगदड़ इसलिए मची क्योंकि आयोजकों ने भीड़ को खेत के रास्ते से जाने से रोक दिया या बाबा के निजी सुरक्षाकर्मियों ने लोगों को उनके रास्ते से हटाने के लिए धक्का दिया था।
भीड़ के लिए व्यवस्थित तरीक़े से आवागमन का प्रावधान नहीं था और भगदड़ में जो लोग घायल हुए, उन्हें तत्काल कोई मदद नहीं दी गई।
अब जो कुछ भी हुआ है, उसकी जि़म्मेदारी बाबा नहीं ले रहे हैं। वो इस पूरे हादसे से ख़ुद को अलग कर चुके हैं और कहीं दिख भी नहीं रहे हैं।
गुरु पर सवाल क्यों नहीं उठाते अनुयायी?
कुछ ऐसा दिख रहा है कि श्रद्धालुओं को अपने भाग्य का सामना करना पड़ा है और उन्हें उनके कर्मों का फल मिला है।
गुरु इसके लिए जि़म्मेदार नहीं हैं। ये चीज़ गुरु और उनके अनुयायियों के बीच के शक्ति संबंधों को भी दर्शाता है: गुरु आदेश देता है और भक्त इसका पालन करते हैं। भक्त सेवा करते हैं और गुरु उस सेवा को स्वीकार करते हैं।
ऐसे स्वयंभू बाबा अंधविश्वास चाहते हैं और अपने निजी स्वार्थ के लिए श्रद्धालुओं का फ़ायदा उठाते हैं। महिलाएं इस मामले में ख़ासकर असुरक्षित होती हैं।
ऐसे धार्मिक गुरुओं की लंबी सूची है, जिन पर महिला अनुयायियों ने यौन शोषण के आरोप लगाए हैं। और मीडिया रिपोर्ट के दावों को मानें तो ये भोले बाबा भी उनमें से एक हैं।
ऐसे बाबा जिन पर रेप के आरोप हैं, उनमें ख़ासतौर पर गुरमीत राम रहीम और आसाराम बापू जैसों का नाम आता है।
ऐसे आरोपों के लिए कुख्यात नित्यानंद परमहंस फरार हैं। श्री रामचंद्रपुरा मठ के राघवेश्वर भारती के ख़िलाफ़ चाजऱ्शीट तकनीकी आधार पर रद्द कर दी गई थी।
इन सब के बावजूद इन धार्मिक गुरुओं के अनुयायी इनके साथ बने हुए हैं। आस्था, अंधी नहीं होती है लेकिन वो वही देखती है जो वो देखना चाहती है।
आस्था का मतलब है कि गुरु हमेशा सही हैं, चाहे वो ग़लत ही क्यों न हों।
भक्तों का मानना होता है कि गुरु ग़लत काम कर ही नहीं सकते हैं। आस्था की अतार्किकता भक्त के इस तर्क पर आधारित है कि गुरु कभी ग़लत कर ही नहीं सकते, इसलिए वो जो भी करेंगे वो सही ही होना चाहिए।
एक बार गुरु की दिव्यता स्वीकार कर ली गई तो भक्त को इसे परिवार, दोस्तों और चाहने वालों से ऊपर रखना चाहिए।
मौतों का जि़म्मेदार कौन- गुरु या अनुयायी?
'लव चार्जर' गुरु राम रहीम ने साल 2017 में सरकार और न्यायपालिका को धमकाने के लिए अपने अनुयायियों की सेना का इस्तेमाल किया था। ये वो वक़्त था, जब राम रहीम को बलात्कार के आरोप में अदालत में लाया गया था।
लेकिन भक्तों को इन आरोपों की कोई परवाह नहीं थी। राम रहीम पर बलात्कार के अलावा हत्या का भी आरोप था, उन पर 400 अनुयायियों को नपुंसक बनाने की भी जांच चल रही थी।
लेकिन भक्तों के लिए गुरु, क़ानून से ऊपर थे। वो चाहते थे कि राम रहीम के चरित्र पर बिना किसी दाग़ के उन्हें रिहा कर दिया जाए।
जब अदालत में गुरु दोषी कऱार दिए गए तो रो पड़े और उनके आंसुओं की वजह से बड़े पैमाने पर हिंसा भडक़ उठी, जिसमें 38 लोग मारे गए और सैकड़ों जख़्मी हुए।
आखऱि इन मौतों का जि़म्मेदार कौन था- गुरु या अनुयायी?
राम रहीम की ही तरह हरियाणा के एक और स्वयंभू बाबा हैं, जगत गुरु रामपाल महाराज, जिन्होंने अपने भक्तों को इस्तेमाल किया।
रामपाल ने प्रशासन की नाक के नीचे अपने आश्रम में हथियार और गोला-बारूद जमा कर लिया था। साथ ही 'कमांडोज़' की एक निजी सेना भी बनाई थी।
जब अदालत ने रामपाल के ख़िलाफ़ गिरफ़्तारी का वॉरंट जारी किया, उस वक़्त पुलिस अनुयायियों से इतनी घबराई हुई थी कि गिरफ़्तारी के लिए अर्धसैनिक बलों की सहायता का अनुरोध किया था।
अनुयायियों और पुलिस के बीच हुई झड़प में चार महिलाओं की मौत हो गई थी। इन लोगों ने अपनी आस्था के नाम पर ख़ुद का 'समर्पित' कर दिया था।
आस्था का मतलब यहाँ ये है कि गुरु की नैतिकता सर्वश्रेष्ठ है। उस पर सवाल नहीं किए जा सकते।
इसलिए, गुरु पर चाहे बलात्कार, हत्या, अपहरण, बधियाकरण, ज़मीन हड़पने या वित्तीय लेनदेन से जुड़े आरोप ही क्यों ना हों, भक्त के लिए वो शुद्ध रहता है, भक्त अपने गुरु को साजि़शों के निर्दोष शिकार के तौर पर देखते हैं। ऐसे आरोप स्वयंभू बाबाओं पर लगते आए हैं।
गुरु की संपूर्णता में गुरु से ज़्यादा भक्त को भरोसा रखना पड़ता है। जिस गुरु में भक्त की आस्था है, अगर वो फ्रॉड निकला तो भक्त अपने आप फ्रॉड या मूर्ख कहा जाएगा। ऐसे में यहां पहचान का सवाल बन जाता है।
गुरु के अनुयायी अपने आप में एक समुदाय बन जाते हैं और इस समुदाय की सदस्यता उनकी पहचान का हिस्सा।
गुरु पर सवाल उठाना मतलब इस समुदाय से बहिष्कृत हो जाना है, ऐसे में वफादार बने रहना पड़ता है।
आस्था और सियासत
ये आस्था न केवल गुरु के लिए बेहद उपयोगी होती है, साथ ही गुरु के सियासी दोस्तों के लिए भी ये महत्वपूर्ण होती है। इसे वोटों में तब्दील किया जा सकता है।
ज़्यादातर मुख्यधारा के गुरु राजनीति में शामिल होना पसंद नहीं करते हैं लेकिन राम रहीम जैसे कुछ धर्म गुरु हैं जो किसी न किसी पार्टी से जुड़े रहने के लिए जाने जाते हैं।
इससे गुरु की शक्ति कई गुना बढ़ जाती है क्योंकि इससे उन्हें राजनीतिक सुरक्षा भी मिल जाती है। अधिकारियों के ट्रांसफर-पोस्टिंग और चुनाव में उम्मीदवारों को टिकट दिलाने जैसी भी शक्ति मिल जाती है।
ज़ाहिर है कि धर्मगुरु और राजनेताओं का गठजोड़ सिफऱ् वोटों के लिए नहीं होता है, क्योंकि राजनेता बेहद अंधविश्वासी होते हैं। वो ऊपर वाले को अपने पक्ष में करने के लिए गुरुओं की शक्ति पर भरोसा करते हैं।
सभी पार्टियों के नेता अपने पक्ष में नतीजे आने के लिए चुनाव से पहले सलाह, आशीर्वाद लेते और प्रार्थना-अनुष्ठान करते दिखते हैं।
उदाहरण के लिए, कुछ मीडिया आउटलेट्स ने समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव की तस्वीरें प्रकाशित की हैं, जिसमें वो भोले बाबा के सत्संग में हिस्सा लेते दिख रहे हैं, साथ ही उनके एक्स पोस्ट को भी जगह दी गई है, जिसमें वो बाबा की तारीफ़ कर रहे हैं।
प्राचीन कथाओं में ऐसा बताया गया है कि भगवान जगन्नाथ की वार्षिक रथ यात्रा के दौरान भक्त मोक्ष पाने के लिए ख़ुद को रथ के पहिये के नीचे डाल देते थे।
इसके उलट, हाथरस में भगदड़ के दौरान जो महिलाएं और बच्चे मरे हैं, उन्होंने अपनी किस्मत नहीं चुनी थी। वो आशीर्वाद लेना और मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए वहां आए थे।
लेकिन वो आपराधिक लापरवाही और संवेदनहीनता के शिकार बन गए।
इन सबके बावजूद आस्था अपनी गति से आगे बढ़ रही है। (bbc.com/hindi)
(लेखिका भारतीय ‘बाबाओ’ पर ‘स्टोरीज ऑफ़ इंडियाज़ लीडिंग बाबाज़’ नाम की किताब लिख चुकी हैं।)
-दिनेश शाक्य
उत्तर प्रदेश में हाथरस जि़ले के सिकन्द्राराऊ इलाके के पुलराई गाँव में आयोजित एक सत्संग में मची भगदड़ से अब तक 122 लोगों की मौत हो चुकी है।
अब यह सवाल उठ रहा है कि सत्संग किसका था?
यह सत्संग नारायण साकार हरि नाम के कथावाचक का था, जिसके पोस्टर हाथरस की सडक़ों पर लगाए गए थे।
इस कथावाचक को लोग भोले बाबा और विश्व हरि के नाम से भी जानते हैं।
जुलाई महीने के पहले मंगलवार को होने वाले आयोजन को मानव मंगल मिलन कहा गया था और उसके आयोजक के तौर पर मानव मंगल मिलन सद्भावना समागम समिति का नाम है।इस समिति के छह आयोजकों के नाम भी हैं, लेकिन उन सबके मोबाइल बंद हैं और स्थानीय पुलिस का संपर्क भी इन लोगों से नहीं हो पाया है।
यूपी पुलिस में कॉन्स्टेबल
हालांकि इन लोगों के बारे में अलीगढ़ के पुलिस महानिरीक्षक शलभ माथुर ने बताया, ‘सत्संग समारोह के आयोजक मंडल और बाबा के खिलाफ संगीन धाराओं में मामला दर्ज कर लिया गया है।’
‘आयोजक मंडल के सदस्यों और भोले बाबा की भी तलाश की जा रही है लेकिन सभी ने अपने-अपने मोबाइल को बंद कर रखा है। इसलिए सभी के बारे में सही और सटीक सूचनाएं नहीं मिल पा रही हैं।’
सत्संग वाले बाबा की असली कहानी किसी फि़ल्मी कहानी से कम नहीं है।
सूरजपाल जाटव नामक पूर्व पुलिस कॉन्स्टेबल ने नौकरी छोडक़र यह रास्ता अपनाया और देखते-देखते लाखों भक्त बना लिए।
आइए जानते हैं कि भोले बाबा नारायण साकार हरि उफऱ् सूरजपाल जाटव कौन हैं?
नारायण साकार हरि एटा जिले से अलग हुए कासगंज जि़ले के पटियाली के बहादुरपुर गांव के निवासी हैं। उत्तर प्रदेश पुलिस की नौकरी के शुरुआती दिनों में वे स्थानीय अभिसूचना इकाई (एलआईयू) में तैनात रहे और करीब 28 साल पहले छेडख़ानी के एक मामले में अभियुक्त होने के कारण निलंबन की सज़ा मिली।
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निलंबन के कारण सूरजपाल जाटव को पुलिस सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था। हालांकि इससे पहले सूरजपाल जाटव करीब 18 पुलिस थाना और स्थानीय अभिसूचना इकाई में अपनी सेवाएं दे चुके थे।
इटावा के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक संजय कुमार बताते हैं कि छेडख़ानी वाले मामले में सूरजपाल एटा जेल में काफी लंबे समय तक कैद रहे और जेल से रिहाई के बाद ही सूरजपाल बाबा की शक्ल में लोगों के सामने आए।
पुलिस की नौकरी छोडऩे का फैसला
पुलिस सेवा से बर्खास्त होने के बाद सूरजपाल अदालत की शरण में गए फिर उनकी नौकरी बहाल हो गई लेकिन 2002 में आगरा जिले से सूरजपाल ने वीआरएस ले लिया।
पुलिस सेवा से मुक्ति के बाद सूरजपाल जाटव अपने गांव नगला बहादुरपुर पहुँचे, जहाँ कुछ दिन रुकने के बाद उन्होंने ईश्वर से संवाद होने का दावा किया और खुद को भोले बाबा के तौर पर स्थापित करने की दिशा में काम शुरू किया।
कुछ सालों के अंदर ही उनके भक्त उन्हें कई नामों से बुलाने लगे और इनके बड़े-बड़े आयोजन शुरू हो गए, जिनमें हजारों लोग शरीक होने लगे।
इटावा के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक संजय कुमार ने बताया कि 75 साल के सूरजपाल उर्फ भोले बाबा तीन भाई हैं।
सबसे बड़े सूरजपाल है, दूसरे नंबर पर भगवान दास हैं, जिनकी मौत हो चुकी है जबकि तीसरे नंबर पर राकेश कुमार हैं, जो पूर्व में ग्राम प्रधान भी रह चुके हैं।
इस बात की पुष्टि हुई है कि अपने गाँव में अब बाबा का आना-जाना कम रहता है।
हालांकि बहादुरपुर गांव में उनका चैरिटेबल ट्रस्ट अब भी सक्रिय है।
अपने सत्संगों में नारायण साकार ने यह दावा कई दफा किया है कि उन्हें यह नहीं मालूम कि सरकारी सेवा से यहां तक खींचकर कौन लाया।
बिना दान दक्षिणा के कई आश्रम
दिलचस्प ये भी है कि नारायण साकार अपने भक्तों से कोई भी दान, दक्षिणा और चढ़ावा आदि नहीं लेते हैं लेकिन इसके बावजूद उनके कई आश्रम स्थापित हो चुके हैं।
उत्तर प्रदेश में कई दूसरे स्थानों पर स्वामित्व वाली ज़मीन पर आश्रम स्थापित करने का दावा भी किया जा रहा है।
नारायण साकार हरि अपने सत्संगों में अपने भक्तों की सेवा सेवादार बनकर करते नजर आते हैं। बहुत संभव है कि ये सब वह अपने भक्तों में लोकप्रिय होने के लिए सोच समझकर करते हों।
वह हमेशा सफेद कपड़ों में दिखते हैं। नारायण साकार पायजामा कुर्ता, पैंट-शर्ट और सूट तक में नजर आते हैं।
हालांकि इंटरनेट पर वह बहुत लोकप्रिय नहीं हैं। सोशल मीडिया पर उनके भक्तों की बहुत मौजूदगी नहीं दिखाई देती है।
उनके फेसबुक पेज आदि पर बहुत ज़्यादा लाइक्स नहीं हैं लेकिन जमीनी स्तर पर उनके भक्तों की संख्या लाखों में है। उनके हर सत्संग के दौरान हज़ारों भक्तों की भीड़ दिखाई देती है।
ऐसे आयोजनों में सैकड़ों स्वयं सेवक और स्वयं सेविकाएं सेवा की कमान संभालती हैं।
पानी, भोजन से लेकर ट्रैफिक की व्यवस्था सुचारू रूप से चले, इसकी कोशिश की भी भक्तों की समिति करती है।
यूपी पुलिस सेवा से क्षेत्राधिकारी के रूप में सेवा मुक्त हो चुके रामनाथ सिंह यादव बताते हैं, ‘भोले बाबा का आज से तीन साल पहले इटावा के नुमाइश मैदान में भी एक माह तक सत्संग समागम का आयोजन हुआ था। इसमें अफरातफरी का माहौल देखने को मिला था। आयोजन के आसपास वाली कॉलोनी में रहने वाले लोगों ने प्रशासनिक अधिकारियों से आगे भविष्य में बाबा के कार्यक्रम की अनुमति न देने की भी गुहार लगाई थी।’
भक्तों की दलील
नारायण साकार के भक्तों में समाजवादी पार्टी के नेता अनवर सिंह जाटव भी शामिल हैं। अनवर सिंह जाटव बताते हैं कि बाबा अपने सत्संग में लोगों के बीच मानवता का संदेश देते हैं।
उन्होंने बताया, ‘वे लोगों को प्रेम से रहने का भरोसा देते हैं। साथ ही एकजुट रहने की भी अपील करते हैं।’
अनवर सिंह जाटव के मुताबिक नारायण सरकार अपने सत्संगों में मोबाइल के प्रचलन की आलोचना करते हैं।
जाटव के मुताबिक जहाँ-जहाँ प्रवचन होता है, वहाँ एक कमिटी का गठन किया जाता है और उस कमिटी के सभी लोगों को जिम्मेदारी सौंप दी जाती है।
सत्संग को सफलतापूर्वक संपन्न कराने के लिए कमिटी के सदस्य आपस में चंदा इक_ा करते हैं और कार्यक्रम आयोजित कराते हैं।
इटावा में मानव मंगल मिलन सेवा समिति के बैनर तले सत्संग का आयोजन हुआ था।
समिति अध्यक्ष राजकिशोर यादव बताते हैं, ‘जब कभी भी बाबा का कोई सत्संग कार्यक्रम होता है तो उनको इस बात की सूचना दे दी जाती है, जिसके आधार पर कमिटी के माध्यम से संपूर्ण व्यवस्था होती है।’ (bbc.com/hindi)
-मनोज श्रीवास्तव
निखिल नाज़ ने 1983 की विश्वकप विजय पर 'मिरैकल मैन' नाम से एक पुस्तक लिखी थी. 2024 के इस टी-20 विश्व में भी हमारी टीम चमत्कारी पुरुषों से भरी हुई थी. फर्क सिर्फ इतना था कि 1983 में विजय के बाद ये खिलाड़ी चमत्कारी पुरुषों के रूप में पहचाने गये जबकि 2024 में ये सब इस रूप में पहले ही सिद्ध और प्रसिद्ध हो चुके थे.
1983 के ODI की तुलना 2007 के T-20 से की जानी चाहिए क्योंकि दोनों में ही एक बिल्कुल नया बंदा भारतीय कप्तान था. वे दोनों विश्वकप दोनों कप्तानों का यज्ञारंभ थे. अंग्रेजी का वह शब्द मुझे अच्छा नहीं लगता पर वे दोनों विश्वकप अंडरडॉग' के रूप में हमारी विजय थे. जब चांस ही नहीं था तो चमत्कार कर दिखाया.
पर 2011 और 2024 के क्रमश: ODI और टी-20 विश्वकप ज़्यादा कठिन थे क्योंकि तब कप्तानों के कंधों पर करोड़ों की आशाओं का भार था. तब सिद्ध और प्रसिद्ध कप्तानों से जनता पूछ रही थी: अब नहीं तो कब. इन दोनों समय एक एक चमत्कारी खिलाड़ी था. तब युवराज था अब बुमराह था.
पर 2024 जितना टीम गेम था, उसके कारण यह विजय और मधुर हो गयी. और छोटा-सा चमत्कार इस बार भी हुआ. फाइनल में 16 वें ओवर के बाद की कहानी एक अलग तरह का थ्रिल है. अंडरडॉग शब्द शायद चोकर शब्द की तुलना में ज़्यादा सम्माननीय है.
वैसे इस विश्वकप में अंडरडॉग्स की प्रतिभा खूब खिलकर आई. सबसे पहले तो अमेरिका ने पाकिस्तान को हराकर चकित किया. ठीक वैसे ही जैसे 29 जून 1950 के दिन इसी अमेरिका ने इंग्लैंड को फुटबॉल में हराकर किया था. जैसे अभी अमेरिका में क्रिकेट को लोग बहुत ज़्यादा न जानते हैं, न तवज्जो देते हैं, वैसे ही उस समय अमेरिकी फुटबॉल का हाल था कि इस विजय के अनुकम्प पता ही न चले. पर जैसे उत्तरी कोरिया ने अपना पहला फुटबाल वर्ल्ड कप खेलते हुए इटली जैसी ताकतवर टीम को हरा दिया था, अमेरिका ने पाकिस्तान को ऐसा झटका दिया कि अब तक उनके प्रलाप और विलाप इंजमाम-उल- हक जैसे अपेक्षया शान्त और परिपक्व दिखने वालों तक के श्रीमुख से झरते नज़र आ रहे हैं. अफगानिस्तान की कथा तो अब प्रख्यात हो ही गई है. प्रतिस्पर्धी विश्वकपों में क्रिकेट की वर्णमाला के ‘अ’ अक्षर पर ही मौजूद देशों ने कई पंडित देशों को पूरा का पूरा पाठ ही पढ़ा दिया.
जिस न्यूयॉर्क की नसाऊ पिच पर भारत ने अपनी जीतें दर्ज की वे obsessively neutral pitches थीं. उन पर कोई भी जीत सकता था और आपके विगत की कोई ख्याति , कोई प्रताप यहां काम नहीं आने वाला था. भारत उस unproven पिच पर अपने को प्रमाणित करके आया था.
जब ऑस्ट्रेलिया इंग्लैंड के विरुद्ध किंग्सटन में 201 रन ठोंक रहा था, इंडिया को सवा सौ रनों के भी लाले पड़े हुए थे. श्रीलंका 201 रन मार रहा था और नसाऊ की पिच भारतीय बल्लेबाजों की लय और आत्मविश्वास का नाश किये दे रही थी क्योंकि जीत में भी जान बची लाखों पाए का आलम था. इतनी वल्नरेबिलिटी के साथ खेलने के भी मनोवैज्ञानिक फायदे हैं. आप कभी भी झूठी आत्मसंतुष्टि के जाल में नहीं फँसते.
हर बार भारत बाल बाल बचता था. पर तब हर बार जीतने ने भारत के गेंदबाजों में यह जज़्बा पैदा किया कि कोई-सा भी स्कोर डिफेंडेबल है. यह आत्म-श्रद्धा फाइनल में काम आई. इसने टीम के हर सदस्य में यह भरोसा भी भरा कि वह भी इस टीम की नियति के निर्धारण में उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि कोई अन्य.
और तब इस बात ने भी खिलाड़ियों को स्फूर्त दिया कि प्रयोगों के लिए कुख्यात हो चुके राहुल द्रविड़ ने इस बार कोई प्रयोग नहीं किया सिवाय ग्रुप स्टेज-सुपर एट- में कुलदीप यादव को लाने के. बार बार विराट असफल होते थे लेकिन उनकी पोजीशन चेंज नहीं की गई तो नहीं की गई. कोई revamping या redesigning की कोशिश नहीं हुई. विराट कोहली अपनी ही आत्मा के नरक से निकले - उनके आलोचकों और सोशल मीडिया वीरों तक ने उनके लिए जो भट्टियाँ तैयार कर रखीं थीं उनसे तो निकले ही - जब फाइनल में उन्होंने 'मैन ऑफ द मैच' होकर बताया. बड़े मुकाबलों में He was always a Man enough.
जिस शिवम दुबे को हटाकर उसकी जगह यशस्वी को लाने और विराट को वन-डाउन खिलाने की चीखें मची हुई थीं, उस शिवम ने लगातार अपना विनम्र योगदान किया तो उसके पीछे कप्तान और कोच के स्थैर्य और मानसिक दृढ़ता की बहुत बड़ी भूमिका है.
जब टीम बनी तो टीम स्पिरिट भी बनी. रोहित शर्मा ने' आल फॉर वन और वन फॉर आल 'को सिद्ध किया जबकि इस टीम के कई खिलाड़ी under siege थे अपने ही लोगों से और सबसे ज्यादा इस बात को प्रतीकायित करने वाला शख्स हार्दिक पांड्या था.
यह विश्व कप असाधारण था इसलिए भी कि इसके बाद भारत की तीन असाधारण क्रिकेट प्रतिभाओं ने इस फॉर्मेट से अपनी स्वैच्छिक निवृत्ति की घोषणा की। एक ऐसी विदाई जो इन तीनों जीनियस के साथ न्याय करती है। टीयर्स और चीयर्स साथ साथ। हालाँकि यह किसी को पता नहीं था कि जब विराट ने 76 वाँ रन बनाया तो वह इस अंतर्राष्ट्रीय फॉर्मेट में उनका आख़िरी रन था। नहीं तो यह बात ही कि यह जडेजा की आख़िरी दौड़ है, रोमांचित कर देने वाली थी। उन सारे संचित संवेगों का विस्फोट बाद में ही हुआ। लेटकर ग्राउंड को चूमते हुए रोहित का दृश्य सौरभ गांगुली के शर्ट घुमाने के विद्रोही दृश्य से गुणात्मक रूप से अलग था। यह स्वस्थापन का उद्घोष नहीं था। यह जैसे जीवन भर का आभार था। अभी वन-डे और टेस्ट में उन्हें इसी गौरव पर देश को पहुँचाना है। पर तब तो ऐसा था कि जैसे वह दिन रोहित का सब कुछ हो। कितने कितने फ़्रस्ट्रेशन से यह व्यक्ति गुज़रा है। इस बार भी आँसू थे पर इस बार इनका रूप, रंग, लय, गंध, छंद सब अलग था। कुछ Surreal इनिंग्स रोहित ने इतने आवेश में इतनी दृढ़िमा में खेली हैं- ऐसे ही जैसे वे मैदान आकाश हों जिन पर बिजलियाँ कड़क रहीं हों। ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ तो वह ‘ वॉर माइनस द शूटिंग’ भी नहीं थी। शूटिंग ही थी और ज़बर्दस्त थी। पर उन सबसे भी कहीं ज़्यादा अपने साथियों के प्रातिभ प्रयोग की, अपनी जनशक्ति के सही सही डिप्लायमेंट वाली उसकी कप्तानी याद रखी जायेगी।
एक उत्कर्ष पर टीम को पहुँचा देने के बाद ज़ेन-ज़ी, जो दस्तक देते हुए दरवाज़े पर ही खड़ी है, का आव्हान उचित भी है। ओल्ड ऑर्डर चेंजेथ यील्डिंग प्लेस टु न्यू।।
और वह नई पीढ़ी भी काफ़ी पुरानी हो गई। मसलन वो सुनहरे हाथों वाला सूर्य जो टूर्नामेंट के आख़िरी ओवर की पहली गेंद पर कुछ अलग तरह से चमका, वही तैंतीस वर्ष का हो चुका।
साधारणतः वह अपनी फ्लैशी बल्लेबाज़ी के लिए जाना जाता है पर यह तो फ़ील्डिंग फ़्लैश के लिए अमर हो गया।
मुझे लॉर्ड्स टेस्ट में सचिन तेंदुलकर के द्वारा लिए कैच की याद हो आई। सचिन की पहचान भी बैटिंग के लिए थी। पर वह कैच क्या था? कहते हैं कि कार्ल ल्युइस की रफ़्तार से वह चालीस यार्ड की दूरी तय कर लिया गया कैच था जिस पर तब हर्षा भोगले ने मिड डे में लिखा था कि यह मेरे द्वारा देखा गया महानतम कैच था। विज्डेन क्रिकेट अल्मनाक में तब जॉन थिकनेस ने इसे As wonderful an outfield catch as Lord’s has ever seen लिखा था।
पर सूर्य का कैच मैच और टूर्नामेंट का निर्णायक कैच था जबकि सचिन का कैच एक अर्थहीन ड्रा हुए मैच में लिया कैच था। इसलिए सचिन के उस कैच को अद्भुत होने के बावजूद लोग भूल गये हैं पर सूर्य का यह कैच लोगों की स्मृति में अब हमेशा अंकित हो गया है।
दक्षिण अफ़्रीका इसे कैच-24 की जगह अवश्य ही कैच-22 की तरह याद करना चाहेगा। पर इस टूर्नामेंट ने दक्षिण अफ़्रीका का jinx तोड़ तो दिया ही है और उन्होंने अपना खोया हुआ गौरव कमा भी लिया है।
तथ्य यह है कि 2007 में भारत ने जब पहला T-20 विश्व कप जीता तो वह दक्षिण अफ़्रीका में हुआ था और अब जब यह विश्व कप जीता तो यह दक्षिण अफ्रीका के विरुद्ध फाइनल था। तो इस देश का भारत के लिए इस मामले में कुछ तो रिश्ता है। यह रिश्ता क्या कहलाता है पता नहीं। बापू का भी बताते हैं।
और बापू का तो इस बार वो भी लोहा मान गये जो पहले उनके शैदाई नहीं थे। बैट से डिस्ट्रक्टिव और बॉल से क्रिएटिव अक्षर पटेल बापू और पटेल दोनों का मिश्रण रहा। कुलदीप की स्पिन भी एक जाल रचती है। हालाँकि अक्षर, कुलदीप और जडेजा की स्पिन त्रयी फ़ाइनल में बिल्कुल नहीं चली- पर कई मैचों में उनका क्रिएटिव डिस्ट्रक्शन काम आया।
अर्शदीप भी वैसे ही बड़े टूर्नामेंट का खिलाड़ी है जैसे हार्दिक पांड्या। पिछले टी-20 विश्व कप में भी भारत की ओर से सबसे ज़्यादा विकेट उसी ने लिये थे, इस बार भी। थोड़ा-सा रडार के नीचे रहता है तो इसकी थ्रेट को ट्रेस करना और कठिन पड़ता है। और यह कितना प्रभावी है यह तो ट्रांस-बॉर्डर प्रतिक्रिया से ही पता लग गया जब इंज़माम दादा उस पर बॉल-टेंपरिंग का आरोप लगाने लग गये। इंजमाम अपनी टीम का तो सही सही इंतज़ाम कर न पाये तो अर्श को फ़र्श पर लाने की खीझ।
और ऐसा नहीं है कि इस टीम में कमियाँ न थीं पर कमियों का उचित प्रबंधन करने के लिए राहुल द्रविड़ जो बैठे थे। पूरे जीवन भर का अनुभव लिए। ऐसा बंदा जो प्रेस को इंप्रेस करने में कोई ऊर्जांश व्यय नहीं करता। जितनी शांति उनके बैटिंग कैरियर में थी, उतनी कोचिंग में भी। जो मूव्स राहुल ने चले वे टीम में behavioural ही नहीं structural सुधार लाये हैं। वे सही अर्थों में द्रोणाचार्य सिद्ध हुए हैं।
सबको कुछ न कुछ सिद्ध करना था, इसलिए सिद्धि संभव हुई।
-के. जी. कदम
हाथरस के एक सत्संग में भगदड़.. सौ से अधिक मरे… कई घायल…
कल से ये खबर टीवी, अखबार, सोशल मीडिया पर दौड़ रही है।
आयोजन को “सत्संग” नाम देकर किस तरह से लोगों को खींचा जा सकता है। इस तरह के बाबा लोग ये बहुत अच्छे से जानते है। साथ ही इससे यह भी स्पष्ट है कि देश में लाखों- करोड़ो लोग ज्ञान और गुरु की तलाश में भटक रहे है (पता नहीं क्यों) ऐसे बाबा लोग इसी का फायदा उठाते हैं।
स्वयं को ईश्वर समझने वाले लोग अहंकार नहीं करने के प्रवचन दे रहे है। मोह माया को त्यागने की बातें करने वाले.. लग्जरी कारों में घूम रहे है।
ऐसे भव्य सत्संगों में, भव्य आसनों पर बैठकर वही सब बातें बोली जाती है जो घर में सामान्य तरीके से अपने बड़े बुजुर्ग बोलते है.. ईमानदारी से काम करो, धर्म कर्म से जीवन व्यापन करो, जीव सेवा करो…
ये छोटी छोटी बातें हमको बचपन से समझाया जा रही है। बच्चे तक जानते है।
लेकिन उम्र पचास, साठ या सत्तर भी हो जाये .. यही सब बातें सुनने फिर ऐसे सत्संग जाना है…
अब और कितनी बार सुनना है ???
पर ऐसे बाबा ये सब बातें ढोलक तबले आधुनिक संगीत और फिल्मी गीत के साथ समझाते है.. शायद तभी वो अच्छे से समझ आती है.. घर पर माता पिता बोलते है तो उनके मुंह से अलग ही बदबू आती है ।
एक अजीब सा रस भीड़ को खींचता है.. भीड़ , प्रवचन के मूल तत्व के बजाय प्रवचन की प्रस्तुति को पकड़ती है।.. मूल तत्व तो बहुत सरल सामान्य है.. उसमें कहां रस ? उसे तो जीना पड़ता है।
ऐसा लगता है बाबाजी के प्रवचन पेट्रोल की तरह होते है। एक बार भरा, तीन महिने चला।.. खत्म.... भूल गये सब प्रवचन.. वापस भराऔ… फिर जाओ बाबाजी के पास… बाबा जी वही बातें फिर कहेगें… गुरु की सेवा करो, मोह माया त्यागो…
सालों हो गये... ना श्रोता मोह माया छोड़ते है , ना वक्ता लग्जरी कारें… प्रवचन कटी पतंग की तरह हवा में तैरते तैरते कहीं अटक भटक जाते है।..
बातें, हर बार वही है। समझ में आ जाये तो पहली बार में ही आ जानी चाहिए। कुछ लोगो को बिना ऐसे सत्संग के भी आ जाती है। कभी कभी एक बच्चा, बाबाजी से ज्यादा बडी बात समझा देता है। बिना ढोलक तबले के.. ।
हमारे जैसे कुछ लोग सुनने के बजाय पढना पसंद करते है। किताबों और लाइब्रेरी से बेहतर सत्संग कहीं नहीं है।
सत्संग पर कोई ऐतराज नहीं है। सत्संग भी जरूरी है। लेकिन सत्संग सिर्फ टेंट, तम्बू, बैनर या लाउडस्पीकर लगाने से नहीं हो जाते.. सच्चे सत्संग तो तामझाम से दूर होते है.. और भीतर के तामझाम दूर करते है।
सीखने, सुनने, स्मरण और साधना और सत्संग के वक्त भी अगर अन्दर कुछ चल रहा है तो ये सिर्फ वक्त खराब करना है।
घर पर बच्चो को पढ़ाती एक मां को उसकी पड़ोसी ने ताना मारा.. दिन भर क्या बच्चों और सास की सेवा में लगी रहती हो.. बाबाजी आये हुए है जीवन में कुछ समय तो सत्संग को दो… ईश्वर को क्या जवाब दोगी ?
बहरहाल इस विषय पर सबका अपना नज़रिया है। ये मेरे अपने विचार है। मैं भी ईश्वर, सत्संग.. सबको मानता हूं, लेकिन उनके लिए मेरी परिभाषा अलग है।
-प्रमोद भार्गव
उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले के ग्राम पुलराई में नारायण साकार हरि उर्फ भोले बाबा के सत्संग समागम में मची भगदड़ में 120 से ज्यादा श्रद्धालुओं की असमय मौत हो गई। इनमें ज्यादातर महिलाएं और बच्चे हैं। बड़ी संख्या में लोग घायल हुए हैं। मौत की यह भयावह त्रासदी कोई पहली घटना नहीं है। अंधभक्त धर्मपरायण देश में ब्रह्मज्ञान देने के आयोजन निरंतर होते रहते हैं, उसी अनुपात में दुर्घटनाएं भी घटती रहती हैं। तीर्थस्थलों की आवाजाही में होने वाली वाहन दुर्घटनाओं में भी बड़ी संख्या में लोग हर साल काल के गाल में समा जाते हैं।
पिछले माह संपन्न हुई हज यात्रा में भी एक हजार के करीब लोग भीषण गर्मी के चलते मक्का में मौत की नींद सो गए थे। इसमें 78 भारतीय थे। आजकल राजनेताओं और फिल्म जगत की बड़ी हस्तियों द्वारा बाबाओं की शरण में जाने से आम आदमी यह सोचने लगा है कि ब्रह्म और भविष्य के इन अलौकिक ज्ञाताओं के पास वाकई अदृष्य शक्तियां नियंत्रण में हैं।
गोया, बाबा बाघेष्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री और सीहोर के प्रदीप मिश्रा भी आसानी से अपने प्रवचनों के लिए लाखों की भीड़ जुटा लेते हैं। भीड़ उम्मीद से ज्यादा हो जाती है और प्रशासन प्रबंधन में अकसर चूक जाता है। फलत: भगदड़ में ही सैंकड़ों लोग मर जाते हैं। आज कल नेता बाबाओं की इस भीड़ को मतदाता समझने लगे हैं। अतएव वोट के लालच में इन समागमों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं और श्रद्धालुओं की धार्मिक भावनाओं का दोहन कथित बाबाओं के मध्ययम से स्वयं एव ंअपने दल के लिए दोहन करने में कोई संकोच नहीं करते हैं। वैभव और विलास में डूबे बाबा भी इन नेताओं की पैरवी करने लग जाते हैं। नतीजतन उचित प्रबंधन की प्रशासन अनदेखी कर देता है।
उत्तर प्रदेश की पुलिस सेवा में आरक्षक रहे सूरजपाल जाटव को एकाएक आध्यात्मिक ज्ञान हो गया और वे नारायण साकार उर्फ भोले बाबा के रूप में सत्संग कर ब्रह्मज्ञान की रसधारा बहाने लग गए। सूरजपाल ने 1997 में नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर आध्यात्मिक मार्ग पर चल पड़े थे। बाबा कांसीनगर में पटियाली तहसील के बहादुर नगर के रहने वाले हैं। यही उन्होंने अपने घर को आश्रम का रूप दे दिया और प्रवचन शुरू कर दिए। बीते कुछ सालों में ही उन्होंने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब में अपने असंख्य भक्त बना लिए। चमत्कारी बाबा के रूप में प्रसिद्धि मिल गई तो उनकी पत्नी भी माताश्री कही जाने लगी। भोले बाबा के सत्संग में लोग अपनी परेशानियां लेकर पहुंचने लगे। उनके द्वारा हाथ से छूकर बीमारियों को दूर करने का चमत्कार जुड़ गया। अतएव चमत्कार से वशीभूत उनके अनुयायियों का कारवां बढ़ता चला गया। वे काशी नगर के अलावा अनेक जगह बुलावे पर प्रवचन देने जाने लगे। पुलराई में जहां यह त्रासदी घटी है, वहां 80,000 से ज्यादा भक्त पहुंचे थे। जबकि प्रशासन को सूचना 50,000 लोगों के पहुंचने की दी गई थी। सत्संग जब समाप्त हुआ तो अनुमान से ज्यादा पहुंचे भक्त बाबा के चरण छूने की होड़ में लग गए और एक-दूसरे को मची भगदड़ में कुचलने लग गए। ऐसे मामलों में कभी कोई कठोर कार्यवाही हुई हो अब तक देखने में नहीं आया है। गोया, यह मामला भी कुछ दिन चर्चा में रहने के बाद शून्य में बदल जाएगा।
2018 में अमृतसर में रावण दहन के अवसर पर हुए रेल हादसे में 61 लोग मारे गए थे। सीधे-सीधे यह प्रशासनिक लापरवाही थी। देश में धार्मिक मेलों और सांस्कृतिक आयोजनों के दौरान भीड़ में भगदड़ मचने से होने वाले हादसों का सिलसिला लगातार बढ़ रहा है। ठीक इसी किस्म की लापरवाही केरल में कोल्लम के पास पुत्तिंगल देवी मंदिर परिसर में हुई त्रासदी के समय देखने में आई थी। इस घटना में 110 लोग मारे गए थे और 383 लोग घायल हुए थे। यह ऐसी घटना थी, जिसे मंदिर प्रबंधन और जिला प्रशासन सचेत रहते तो टाला जा सकता था। क्योंकि मलयालम नववर्ष के उपलक्ष में हर वर्ष जो उत्सव होता है, उसमें बड़ी मात्रा में आतिशबाजी की जाती है और इसका भंडारण मंदिर परिसर में ही किया जाता है। आतिशबाजी चलाने के दौरान एक चिंगारी भंडार में रखी आतिशबाजी तक पहुंच गई और भीषण त्रासदी में लोगों की दर्दनाक मौतें हो गईं। यह हादसा इतना बड़ा और हृदयविदारक था कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिकित्सकों का दल लेकर कोल्लम पहुंचना पड़ा था। लेकिन इस तरह से संवेदना जताकर और मुआवजा देने की खानापूर्ति कर देने भर से मंदिर हादसों का क्रम टूटने वाला नहीं हैं। जरूरत तो शीर्ष न्यायालय के उस निर्देश का पालन करने की है, जिसमें मंदिरों में होने वाली दुर्घटनाओं को रोकने के लिए राष्ट्रव्यापी समान नीति बनाने का उल्लेख है।
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यदि प्रधानमंत्री इस हादसे से सबक लेकर इस नीति को बनाने का काम करते तो शायद यह हादसा नहीं हुआ होता ? दर्शनलाभ की जल्दबाजी व कुप्रबंधन से उपजने वाली भगदड़ व आगजनी का सिलसिला जारी है। धर्म स्थल हमें इस बात के लिए प्रेरित करते हैं कि हम कम से कम शालीनता और आत्मानुशासन का परिचय दें। किंतु इस बात की परवाह आयोजकों और प्रशासनिक अधिकारियों को नहीं होती। इसलिए उनकी जो सजगता घटना के पूर्व सामने आनी चाहिए, वह अक्सर देखने में नहीं आती। लिहाजा आजादी के बाद से ही राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र उस अनियंत्रित स्थिति को काबू करने की कोशिश में लगा रहता है, जिसे वह समय पर नियंत्रित करने की कोशिश करता तो हालात कमलेश बेकाबू ही नहीं हुए होते?
हमारे धार्मिक-आध्यात्मिक आयोजन विराट रुप लेते जा रहे हैं। कुंभ मेलों में तो विशेष पर्वों के अवसर पर एक साथ तीन-तीन करोड़ तक लोग एक निश्चित समय के बीच स्नान करते हैं। दरअसल भीड़ के अनुपात में यातायात और सुरक्षा के इंतजाम देखने में नहीं आते। जबकि शासन-प्रशासन के पास पिछले पर्वों के आंकड़े हाते हैं। बावजूद लपरवाही बरतना हैरान करने वाली बात है। दरअसल, कुंभ या अन्य मेलों में जितनी भीड़ पहुंचती है और उसके प्रबंधन के लिए जिस प्रबंध कौशल की जरुरत होती है, उसकी दूसरे देशों के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते ? इसलिए हमारे यहां लगने वाले मेलों के प्रबंधन की सीख हम विदेशी साहित्य और प्रशिक्षण से नहीं ले सकते? क्योंकि दुनिया के किसी अन्य देश में किसी एक दिन और विशेष मुहूर्त के समय लाखों-करोडों़ की भीड़ जुटने की उम्मीद ही नहीं की जा सकती? बावजूद हमारे नौकरशाह भीड़ प्रबंधन का प्रशिक्षण लेने खासतौर से योरुपीय देशों में जाते हैं। प्रबंधन के ऐसे प्रशिक्षण विदेशी सैर-सपाटे के बहाने हैं, इनका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता। ऐसे प्रबंधनों के पाठ हमें खुद अपने देश, ज्ञान और अनुभव से लिखने होंगे।
प्रशासन के साथ हमारे राजनेता, उद्योगपति, फिल्मी सितारे और आला अधिकारी भी धार्मिक लाभ लेने की होड़ में व्यवस्था को भंग करने का काम करते हैं। इनकी वीआईपी व्यवस्था और यज्ञ कुण्ड अथवा मंदिरों में मूर्तिस्थल तक ही हर हाल में पहुंचने की रूढ़ मनोदशा, मौजूदा प्रबंधन को लाचार बनाने का काम करती है। नतीजतन भीड़ ठसाठस के हालात में आ जाती है। ऐसे में कोई महिला या बच्चा गिरकर अनजाने में भीड़ के पैरों तले रौंद दिया जाता है और भगदड़ मच जाती है। धार्मिक स्थलों पर भीड़ बढ़ाने का काम मीडिया भी कर रहा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया टीआरपी के लालच में इसमें अहम् भूमिका निभाता है।
वह हरेक छोटे बड़े मंदिर के दर्शन को चमात्कारिक लाभ से जोडक़र देश के भोले-भाले भक्तगणों से एक तरह का छल कर रहा है। इस मीडिया के अस्तित्व में आने के बाद धर्म के क्षेत्र में कर्मकाण्ड और पाखण्ड का आंडबर जितना बड़ा है, उतना पहले कभी देखने में नहीं आया। निर्मल बाबा, कृपालू महाराज और आसाराम बापू, रामपाल जैसे संतों का महिमामंडन इसी मीडिया ने किया था। हालांकि यही मीडिया पाखण्ड के सार्वजनिक खुलासे के बाद मूर्तिभंजक की भूमिका में भी खड़ा हो जाता है।
मीडिया का यही नाट्य रूपांतरण अलौकिक कलावाद, धार्मिक आस्था के बहाने व्यक्ति को निष्क्रिय व अंधविश्वासी बनाता है। यही भावना मानवीय मसलों को यथास्थिति में बनाए रखने का काम करती है और हम ईश्वर अथवा भाग्य आधारित अवधारणा को प्रतिफल व नियति का कारक मानने लग जाते हैं। दरअसल मीडिया, राजनेता और बुद्धिजीवियों का काम लोगों को जागरूक बनाने का है, लेकिन निजी लाभ का लालची मीडिया, धर्मभीरु राजनेता और धर्म की आंतरिक आध्यात्मिकता से अज्ञान बुद्धिजीवी भी धर्म के छद्म का शिकार होते दिखाई देते हैं। यही वजह है कि पिछले एक दशक के भीतर मंदिर हादसों में कई हजार से भी ज्यादा भक्त मारे जा चुके हैं। 2013 में घटित केदारनाथ हादसे में तो कई हजार लोग दफन हो गए थे। बावजूद श्रद्धालु हैं कि दर्शन, श्रद्धा, पूजा और भक्ति से यह अर्थ निकालने में लगे हैं कि इनको संपन्न करने से इस जन्म में किए पाप धुल जाएंगे, मोक्ष मिल जाएगा और परलोक भी सुधर जाएगा। गोया, पुनर्जन्म हुआ भी तो श्रेष्ठ वर्ण में होने के साथ समृद्ध व वैभवशाली होगा? जाहिर है, धार्मिक हादसों से छुटकारा पाने की कोई उम्मीद निकट भविष्य में दिखाई नहीं दे रही है ?
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।)
हिमांशु राय
आज से 56 साल पहले 21 मई 1968 को आमनपुर मदन महल जबलपुर स्थित हमारे घर के सामने दोपहर को बलवा हो गया था। कोर्ट का आर्डर लेकर जमीन मालिक पुलिस और सरकारी अमला लेकर झुग्गी झोपड़ी वालों से जमीन खाली कराने आया था। सब कुछ अचानक घटा। पुलिस का एक सिपाही घायल हो गया। वो रास्ते में पड़ा था। मेरे पिता का शेषनारायण राय उस समय घर पर थे। परिवार के हम सब लोग ननिहाल गये हुए थे। वो बाहर निकले। देखा पुलिस वाला घायल पड़ा है। पड़ोस के लोगों से उसे पानी लेकर उसे पिलाया। एक रिक्शे में रखकर उसे मेडिकल कॉलेज भिजवाया। धीरे धीरे कर पुलिस वाले और बाकी लोग घटना स्थल पर वापस लौटे। शाम को पिताजी को पुलिस ने आग्रह किया किया कि थाने में चलकर बयान दे दीजिए। पिताजी बयान देने गये। वहां बयान नहीं लिया गया। और न घर जाने दिया गया। उन्हें थाने में बैठा लिया गया। दूसरे दिन वो सिपाही मर गया। इसी दौरान पुलिस ने पूरी योजना का निर्माण कर लिया। का शेषनारायण राय उस पुलिस वाले की हत्या के जुर्म में गिरफ्तार कर लिए गए। कम्युनिष्ट पार्टी के एक और बहुत सक्रिय कार्यकर्ता का शंकर सिंह धीमान जो घटना स्थल से दूर एक सहकारी संस्था में नौकरी करते थे वे भी गिरफ्तार कर लिए गए। सोशलिस्ट पार्टी के नेता डा के एल दुबे भी गिरफ्तार कर लिए गए। बस्ती में रहने वाले 30 लोग गिरफ्तार कर लिए गए। इसे आमनपुर कांड का नाम दिया गया।
परसाई जी की विख्यात कहानी ’इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ आमनपुर कांड पर है। उस कहानी में चांद की फेंटेसी को छोडक़र एक-एक वाक्य सही है और घटा है। उस कहानी का भला आदमी का शेषनारायण राय हैं। 1967 में उस समय मध्यप्रदेश में संविद सरकार थी। वीरेंद्र कुमार सकलेचा गृहमंत्री और गोविन्द नारायण सिंह मुख्यमंत्री थे। जनसंघ पहली बार सत्ता में आई थी। आमनपुर कांड पर परसाई जी ने दो रचनाएं लिखीं। एक ’इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ जो पूरी तरह पुलिस की कारगुजारियों पर है और दूसरी ’एक काना ऐंचकताना’ जो पूरी तरह अदालती कार्यवाहियों पर है।
हमारा परिवार पहले जबलपुर में राइट टाउन में रहता था। सन् 1965 में हम लोग आमनपुर में खुद के घर में रहने आ गये थे। हमारी पुस्तकों की दुकान थी। यूनिवर्सल बुक डिपो। ये गंजीपुरा में थी। पिताजी की दुकान में परसाई जी की नियमित बैठक थी। कम्युनिष्ट पार्टी की गतिविधियां भी वहीं से संचालित होती थीं। सारा दिन लोगों का आना जाना लगा रहता था। परसाई जी एक बार दोपहर और एक बार शाम को आकर दुकान में बैठते थे। राइट टाउन में भी हमारे घर के पास ही नाले के पार परसाई मामाजी जैसा कि हम लोग उन्हें कहते थे रहा करते थे। दोनों परिवारों का भी आना जाना लगा रहता था।
जब हम लोग 1965 में आमनपुर में रहने आ गये तो ये इलाका उस समय नया नया बस रहा था। अधिकांश प्लाट खाली पड़े थे। पूरी बस्ती में बिजली के ख्ंाबे तक नहीं थे। रात को एक आदमी नसैनी लेकर चलता था और खंभों पर चिमनी जलाकर रखता जाता था। पिताजी ने का शंकर सिंह धीमान और साथियों को साथ लेकर जनसमिति बनाई और जनसमस्याओं के लिए लडऩा शुरू किया। लाइब्रेरी, वाचनालय खुलवाये। सांस्कृतिक कार्यक्रमों और आयोजनों की शुरुआत करवाई। परिणाम ये हुआ कि मोहल्ले में वो काफी लोकप्रिय हो गये। आमनपुर कांड में फंसाए जाने के पीछे यही लोकप्रियता और भविष्य का भय था।
जब दूसरे दिन 22 मई को पुलिस वाला मर गया तो पुलिस ने उसे शहीद घोषित किया। उसका राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार किया गया। का राय, का शंकर सिंह धीमान और डा के एल दुबे के अलावा शायद 21 लोगों पर दफा 302 के अंतर्गत हत्या का केस चलाया गया। यह केस जो 21 मई 1968 को चालू हुआ वो 20 दिसंबर 1968 को पहले पड़ाव पर पहुंचा। जब का शेषनारायण राय, का शंकर सिंह धीमान व 9 अन्य को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सेशंस जज ने अपने फैसले में लिखा कि इन लोगों ने इतना जघन्य अपराध किया है कि इन्हें फांसी की सजा दी जाना चाहिए। पर मैं रियायत कर रहा हूं। बहुत शीघ्र ही इन जज महोदय का प्रमोशन हुआ और वे हाईकोर्ट जज बन गये।
इस केस का दूसरा पड़ाव 30 अप्रैल 1969 को आया जब हाईकोर्ट ने का राय व का धीमान को ससम्मान बरी किया। हाईकोर्ट ने अपने फैसले में लिखा कि सेशंस कोर्ट ने इन लोगों को सजा देकर मानवता के प्रति बहुत बड़ी गलती की है। हाईकोर्ट की बेंच में उस समय जस्टिस गोलवलकर और जस्टिस सूरजभान ग्रोवर बैठे थे। हाईकोर्ट से रिटायर होने के बाद जस्टिस गोलवलकर एक दिन यूनिवर्सल बुक डिपो आए पिताजी से मिलने के लिए। उनने कहा कि मैं उस व्यक्ति को देखना चाहता हूं जिसको ये सब भोगना पड़ा। सुनवाई के दौरान जस्टिस गोलवलकर से सरकारी वकील ने कहा कि इस केस की पैरवी के लिए सरकार की ओर से महाधिवक्ता चित्तले को बुलाना चाहता हूं। हाईकोर्ट ने कहा कि जिसे भी बुलाना है तुरंत बुलाइये वरना मैं इन लोगों को तत्काल जमानत पर छोड़ूगा। वो केस पढ़ चुके थे और समझ चुके थे।
उस जमाने में सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट चारी बहुत बड़े वकील माने जाते थे। ये कोशिश की गई कि वे इस मुकदमे की पैरवी करने आएं। परसाई जी इलाहाबाद जाकर एडवोकेट सरन को लाए। जिन्होंने हाईकोर्ट में इस केस की पैरवी की। एडवोकेट सरन ने हाईकोर्ट को यह बात बताई कि मुकदमे में यह बात कही गई कि अभियुक्त शेषनारायण राय ने जहां सिपाही के सिर पर लोहे की सब्बल मारी गई बताई गई है पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार वहां कोई घाव ही नहीं है। सेशंस में पूरा केस पिताजी के लिए जबलपुर के जाने माने वकील लल्लू भार्गव जी ने लड़ा था। लल्लू भार्गव जी ने जिस रणनीति के अनुसार केस लड़ा और गवाहों से जिरह की उसकी भूरि भूरि प्रशंसा एडवोकेट सरन ने की। भार्गव जी बहुत धीरे धीरे प्रश्न करके गवाह से पूरी सचाई उगलवा लेते थे। वे बहुत खूबसूरत और प्रभावशाली व्यक्तित्व के स्वामी थे। वो काली शेरवानी पहनते थे और गांधी टोपी लगाते थे। सेशंस कोर्ट में फाइनल आर्गुमेंट के लिए जबलपुर के जाने माने वकील सरदार राजेन्द्र सिंह भी खड़े हुए थे।
20 दिसंबर 1968 को जब फैसला हुआ तो ठंड के दिन थे। सैकड़ों लोग अदालत में सुबह से थे। पूरा दिन इंतजार में गुजर गया। शाम हो गई। फिर अंधेरा हो गया। करीब साढ़े सात आठ बजे फैसला सुनाया गया।
सैकड़ों लोगों के बीच एक ठंडी हवा और चुप्पी फैल गई। लाईफ लाईफ आजीवन कारावास की सुगबुगाहट थी। मैं बाहर खड़ा था। अंदर जाने की जगह ही नहीं थी। किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। कहा चिंता मत करो। अपन हाई कोर्ट में लड़ेंगे। सभी लोग हारे थके लौट चले। पुलिस की गाड़ी में पिताजी लोग जेल रवाना हो गए।
आमतौर पर सेशंस कोर्ट में फैसला होने के बाद चार पांच साल बाद हाई कोर्ट में केस लगता है। एक केस बुक बना करती है। इस केस में वह केस बुक करीब 1000 पन्ने की थी। सारे साथी कोर्ट में जुट गए। टाइपिंग कराने में। दो महीने के अंदर केस बुक तैयार हो गई और हाईकोर्ट में केस लग गया। यह एक चमत्कार जैसा था। इसी बीच जनसंघ की संविद सरकार गिर गई।
और इस तरह 11 महीने जेल में रहने के बाद 30 अप्रैल को पिताजी घर वापस पहुँचे। शाम को जेल से रिहाई हुई। सैकड़ों लोग जेल के दरवाजे पर खड़े थे। फूलमालाएं लिए। कामरेड शेषनारायण राय की जय जयकार हो रही थी। ये केस पूरी पार्टी और पिताजी के दोस्तों ने लड़ा था। जिस दिन ये केस हुआ उस दिन से पिताजी के घर पहुंचने तक परसाई जी ने एक पल चैन के सांस नहीं ली। मेरा पिता के सगे बड़े भाई एडवोकेट आर एन राय जबलपुर के जानेमाने फौजदारी वकील थे। पूरे केस में शहर के नामी वकीलों को जो उनके खास मित्र थे उन्होंने लगा रखा था। परंतु का शेषनारायण राय के परिवार की ओर से परसाई जी ही पूरा केस लड़ते रहे। का एल एन मेहरोत्रा अपने स्तर पर वकालत का पक्ष देखते थे। पूरे केस के दौरान जो खर्च हुआ उसका एक नया पैसा भी हमारे घर से नहीं गया। परसाई जी और पार्टी ने शायद फंड जमा करके या जैसे भी पूरा केस लड़ा। का शंकर सिंह धीमान भी इस केस में अभियुक्त थे उनकी और उनके परिवार की जिम्मेदारी पार्टी ने उठाई। उस समय के नौजवान का रमेश बाजपेयी, का कृष्णकुमार पाठक की ड्यूटी लगाई गई थी कि वे नियमित रूप से हमारे घर जाते रहें और यदि कोई समस्या हो तो उसका निदान करें। श्याम कश्यप उस समय जबलपुर में हमारे घर के पास ही रहते थे। दुर्भाग्य से ये तीनों आज इस दुनिया में नहीं हैं।
जब केस हुआ तब मैं 14 साल का था, मेरी बहनें नीलू 12 साल और भावना 9 साल की थी। सबसे छोटा भाई पंकज केवल 4 साल का था। पिताजी उस समय 42 साल और मां सरोज राय 37 साल की थीं। हम सब पढ़ रहे थे। केस के कारण दुकान बंद हो जाती परंतु पिताजी के चचेरे भाई अशोक उसी समय पॉलिटेक्निक की पढाई करके खाली हुए थे। वो हमारे घर आ गये और उन्होंने उस पूरे कठिन समय में दुकान चलाई और हमारा घर चलता रहा। दुकान में दो कर्मचारी थे। हुकुम चंद जैन और रतन। हुकुमचंद जैन, रतन और अशोक चाचाजी की तिकड़ी ने दुकान बहुत अच्छे से चलाई।
इस केस की सबसे बड़ी मार मेरी मां सरोज राय पर पड़ी थी। घर सम्भालना, बच्चों को देखना और पिताजी के केस के लिए पूरे समय जेल और अदालत में हर पेशी के समय खाना वगैरह लेकर जाना हर कुछ वो दौड़ दौड़ कर करती रहीं। इन 11 महीनों में मैंने कभी उन्हें रोते नहीं देखा। बहुत बहादुरी से वे लड़ीं। वो उस जमाने में बी ए पास थीं। हिन्दी अंग्रेजी आदि विषयों की अच्छी जानकार थीं। इंटरमीडिएट ड्राइंग की परीक्षा पास थीं। उनके दिये हुए संस्कार और सिद्धांत हम सब बच्चों के पथप्रदर्शक बने। इन 11 महीनों में हर रोज उन्हें नई नई सलाहें देने लोग आते थे। मगर वे कभी किसी अंधविश्वास में नहीं पड़ीं।
इस केस में कई ऐसी घटनाएं घटीं जिनसे अनेक लोगों के चरित्रों को पढऩे का अवसर मिला। सबसे पहले उस व्यक्ति के बारे में जो इंस्पेक्टर मातादीन नामक चरित्र बना। इनका नाम पं शिवकुमार तिवारी था। ये ढलती उम्र के इंस्पेक्टर थे और माथे पर सफेद रंग का गोल टीका लगाते थे। हर पेशी में ये आते थे। परसाई जी इन्हें कहते थे कि क्यों पंडित ये सफेद टीका जो तुम माथे पर लगाते हो वो क्या कोई सफेद चूरन है जिससे झूठ पचा जाते हो। वो कहते थे नहीं परसाई जी मैं प्रतिदिन सुबह तीन घंटे पूजा करता हूं। ये पुलिस विभाग में झूठा केस बनाने के प्रोफेसर थे। जैसा मातादीन में लिखा है झूठा केस बनाना, झूठे गवाह बनाना इन सबमें इनकी विशेषज्ञता थी। 30 अप्रैल 1969 को जब ये केस खत्म हो गया तो सवाल ये था कि क्या सरकार सुप्रीम कोर्ट जाएगी। संभावना कम थी क्योंकि तब तक संविद सरकार गिर चुकी थी और जनसंघ का राज खत्म हो चुका था। फिर भी ये शिवकुमार तिवारी अपने झूठे केस को सुप्रीम कोर्ट भिजवाने के लिए भोपाल गया था। किस्मत से उस दिन पिताजी भी भोपाल में थे। मुलाकात हो गई थी। इस केस में एक भी बात सच्ची नहीं थी। इसीलिए गवाह पूरी तरह झूठे थे और तैयार किए गए थे। सभी चोर चुरकट थे। हमारे वकील श्री लल्लू भार्गव ने हरेक का इतिहास निकाल कर अदालत में रखा था।
हमारी ओर से चार प्रमुख गवाह थे। प्रो गो मो रानडे और उनके पुत्र राजन रानडे जिन्होंने पूरा घटनाक्रम देखा था और पिताजी ने रानडे साहब के घर से फोन भी किया था। इसके अलावा हमारे पड़ोसी खन्ना परिवार के घर जमाई परजाई जी थे। वो बहुत मस्त मौला आदमी थे और हमारे घर आया जाया करते थे। इन्होंने भी अपने घर से पूरा घटनाक्रम देखा था। इस खन्ना परिवार के मुखिया एक कालू भैया थे जो नौजवान थे पर पूरे घर की जिम्मेदारी उन्हीं की थी। वो जनसंघ के कार्यकर्ता थे। जब उन्होंने देखा कि राय भैया पर इस तरह से झूठा केस बनाया गया है तो वे जनसंघ के नेताओं के पास गये। उन लोगों ने उनसे कहा कि तुम राजनीति नहीं जानते हो तुम चुप रहो। जिस दिन परसाई जी को गवाही देने जाना था उस दिन उन्होंने सुबह खबर भिजवा दी कि वो गवाही नहीं देंगे। सभी अवाक रह गये मगर यही सच था। मगर हमारे वकीलों ने कहा कि कोई बात नहीं उनकी गवाही के बिना भी काम चल जाएगा। चौथे सबसे महत्वपूर्ण गवाह सालपेकर जी थे। ये हमारे पड़ोस के घर पर पहली मंजिल में रहते थे। इनने सब कुछ देखा था और सिपाही को जो पानी वगैरह पिताजी ने पिलाया था वो इन्होंने ही छत से बाल्टी लटकाकर दिया था। इनकी विशेषता यह थी कि यह आर एस एस के वरिष्ठ कार्यकर्ता थे। इनकी छत पर बौद्धिक आदि हुआ करते थे। एक क्षण को लगा कि शायद इस कारण वे गवाही न दें परंतु साल्पेकर जी एक दृढ़ प्रतिज्ञ व्यक्ति थे। उन पर दबाव जरूर आया होगा लेकिन उन्होंने कहा कि आप लोग निश्चिंत रहें जो सच है वो मैं बोलूंगा। उन्होंने पूरा सहयोग किया। उनकी गवाही महत्वपूर्ण थी।
एक और घटना है जो कुछ सोचने पर मजबूर करती है। चरित्र की विविधता। जेल से छूटने के कुछ दिन बाद पिताजी को पथरी की शिकायत हो गई। उनका मेडिकल कालेज में आपरेशन हुआ। वो आपरेशन सफल नहीं रहा। आज से पचास साल पहले बहुत कम सुविधाएं थीं। पिताजी प्राइवेट वार्ड में थे। दर्द आदि से बहुत परेशान थे। बाजू के कमरे में जस्टिस नवीनचंद्र द्विवेदी की पत्नी भरती थीं। ये जस्टिस वही व्यक्ति थे जिन्होंने सेशंस कोर्ट में पिताजी को आजीवन कारावास की सजा दी थी और उन्हें जघन्य हत्या का दोषी बताया था। जो कुछ भी उनके मन में घटा हो जब उन्हें पता चला कि शेषनारायण राय बाजू के कमरे में भर्ती हैं तो वे रोज शाम को आकर पिताजी के बिस्तर के बाजू में बैठ जाते और उनके लिए अगरबत्ती वगैरह जलाते। उन्हें गीतासार वगैरह बताते रहते। पिताजी बहुत परेशान थे मगर बिस्तर में पड़े रहने के अलावा कोई चारा नहीं था। बाद में बम्बई जाकर उनका सही उपचार हुआ।
मैं उस समय दसवीं में पढ़ता था। हमारा मॉडल हाई स्कूल सेशंस कोर्ट के ठीक बाजू में था। जब पेशी होती तो मैं अपने दोस्त विजय श्रीवास्तव के साथ दोपहर की छुट्टी में जाकर पिताजी से मिल आता था। विजय के अलावा शशांक और देवेन्द्र गुमास्ता ही थे जिन्हें इस केस के बारे में पता था। कक्षा में मेरे सहपाठी आपस में बात करते थे कि इसके पिता जेल में हैं मगर मेरे से केवल एक बार एक ही सहपाठी ने पूछा। विडंबना ये थी सेशंस जज द्विवेदी जी का लडक़ा चारूचन्द्र हमारी ही स्कूल में दूसरे सेक्शन में हमारे साथ पढ़ता था।
उन कठिन दिनों में मेरे मामा ज्योतिन्द्र कुमार राय और मेरे ताउ स्व शिवदत्त राय ने हमारी आर्थिक मदद की थी जो मैं हमेशा याद करता हूं। पिताजी ने जिन यूनियनों के लिए काम किया था उसके मजदूर साथियों ने भी मुझे कई बार रास्ता रोक कर छोटी छोटी मदद करने की बात कही जो मेरे लिए बहुत बड़ी बात है।
पिताजी 2006 में नहीं रहे। मां 2014 में नहीं रहीं। मेरे बच्चों को आमनपुर कांड और अपने दादा दादी के जीवन की इस घटना का पता ही नहीं था। इसीलिए मैंने किंचित विस्तार से यह सब लिखा। ज्यादा से ज्यादा नाम याद कर लिखे हैं।


