विचार/लेख
- Dayanidhi
टिड्डियां दुनिया के कई हिस्सों में फसलों को तबाह कर रही हैं। अब वैज्ञानिक इस बात का पता लगाने में जुटे हैं कि ये कीट विनाशकारी झुंड क्यों और कैसे बनाते हैं?
एक अकेली टिड्डी नुकसान कम करती है। लेकिन तथाकथित अकेले रहने वाले टिड्डे एक बदलाव (मेटामोर्फोसिस) के दौर से गुजरते हैं। ये रंग बदलते हैं और लाखों अन्य टिड्डियों के साथ मिलकर तबाही मचाते हैं।
अकेले रहने वाले टिड्डे झुण्ड में कैसे बदल जाते हैं, ये आपस में एक दूसरे को क्या संकेत देते हैं? इसके पीछे एक गंध संबंधी रहस्य छिपा होता है।
टिड्डियों द्वारा एक ऐसी गंध छोड़ी जाती है जो आसानी से समाप्त नहीं होती है। यह इत्र की तरह एक रासायनिक यौगिक होता है। इससे वे अपनी तरह के अन्य टिड्डियों से निकटता महसूस करते हैं।
यह केमिकल अन्य टिड्डियों को एक दूसरे की ओर आकर्षित करता है। टिड्डियां समूह में शामिल हो जाती हैं और खुद भी गंध का उत्सर्जन करना शुरू कर देती हैं। इस प्रक्रिया से भारी संख्या में टिड्डियों का झुंड बन जाता है। जिसके बाद ये भारी मात्रा में फसल को बर्बाद कर दते हैं।
यह खोज कई आशावान संभावनाएं प्रदान करती है, जिसमें सूघंने की क्षमता के बिना आनुवंशिक रूप से इंजीनियरिंग टिड्डे शामिल हैं जो कि झुंड के गंध (फेरोमोन) का पता लगाते हैं, या कीड़ों को अपनी ओर आकर्षित करने और फंसाने के लिए गंध को हथियार बनाते हैं। यह अध्ययन नेचर नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
अध्ययन से पता चलता है कि पूर्वी अफ्रीका में टिड्डों ने भारी मात्रा में फसलों को नष्ट किया है, ये भारत, पाकिस्तान में खाद्य आपूर्ति के लिए खतरा बने हुए हैं।
गंध के रूप में कौन सा केमिकल छोड़ती है टिड्डियां
प्रवासी टिड्डियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए इसे कीटों की सबसे व्यापक रूप से वितरित प्रजाति माना गया है, और इस दौरना अध्ययनकर्ताओं ने कीड़ों द्वारा उत्पादित कई यौगिकों की जांच भी की।
अध्ययन में पाया गया कि एक विशेष रूप से 4-विनाइनिसोल, या 4वीए (4VA)- जो एक तरह का केमिकल है, इसके उत्सर्जित होने पर टिड्डियां इसकी ओर आकर्षित होती दिखाई दिए। 4वीए के अधिक उत्सर्जन से टिड्डियों इसकी ओर अधिक आकर्षित हुई और उनका झुंड बन गया।
चाइनीज एकेडमी ऑफ साइंसेज के प्रोफेसर ले कांग की अगुवाई वाली टीम ने चार टिड्डियों को एक पिंजरे में एक साथ रखा और उन्होंने पाया कि टिड्डों ने एक दूसरे को आकर्षित करने के लिए 4-विनाइनिसोल (4वीए) केमिकल छोड़ना शुरू कर दिया था।
तब टीम ने जांच की कि कैसे टिड्डों ने गंध को महसूस किया, टिड्डी में झुंड बनाने वाले केमिकल (फेरोमोन) का पता लगाने के लिए जिम्मेदार एंटीना के हिस्से को टिड्डी से अलग कर दिया गया। उन्होंने इसे जीन का पता लगाने की प्रक्रिया के लिए आवश्यक बताया। आनुवंशिक रूप से संशोधित टिड्डियों का उत्पादन किया गया जिसमें मुख्य ओआर35 (OR35) जीन की कमी थी।
क्या टिड्डियों के जीन में बदलाव कर उन्हें झुंड बनाने से रोका जा सकता है
अध्ययन में कहा गया कि जीन में परिवर्तन (उत्परिवर्ती) किए गए टिड्डों ने जंगली प्रकार के टिड्डों की तुलना में 4वीए की ओर आकर्षित होना बंद कर दिया था, अर्थात 4वीए के प्रति उनका आकर्षण समाप्त हो गया था।
खोजों ने फसलों को उजाड़ने वाले कीटों से निपटने के लिए कई संभावनाओं को खोला है। इनमें आनुवांशिक संशोधन का उपयोग करना, या झुंड के बनने का पूर्वानुमान के लिए 4वीए के उत्पादन पर नजर रखना शामिल है।
कांग और उनकी टीम ने क्षेत्र में दो तरह के नियंत्रित तरीके से जाल स्थापित किए, और दोनों मामलों में उन्होंने टिड्डियों को प्रभावी ढंग से लुभा कर फसाया था।
रॉकफेलर यूनिवर्सिटी की प्रयोगशाला न्यूरोएजेनेटिक्स एंड बिहेवियर के प्रमुख लेस्ली वॉशहॉल ने कहा कि शायद सबसे रोमांचक प्रयोग एक ऐसा रसायन ढूंढना होगा जो 4वीए के सूंघने (रिसेप्शन) को अवरुद्ध कर दे।
इस तरह के एक अणु की खोज कीटों के झुंड बनाने को रोकने के लिए एक केमिकल ऐन्टिडोट प्रदान कर सकता है। यह टिड्डियों के झुंड बनाने को रोक सकता है और उनके शांतिपूर्ण, एकान्त जीवन के मार्ग पर लौटा सकता है।
कांग ने कहा कि टिड्डियों के आनुवंशिक संशोधन से टिकाऊ उपाय किया जा सकता है, लेकिन यह भी स्वीकार किया कि ऐसी परियोजना के लिए बड़े पैमाने पर और दीर्घकालिक प्रयासों की आवश्यकता होती है।(downtoearh)
-रामचंद्र गुहा
15 अगस्त 2007 यानी भारत की आजादी के साठ साल पूरे होने के मौके पर मैंने देश के हालात को लेकर हिंदुस्तान टाइम्स में एक लेख लिखा था. उन दिनों यह खूब कहा जा रहा था कि भारत एक उभरती हुई विश्वशक्ति है. चीन पहले ही अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपना लोहा मनवा चुका था और कहा जा रहा था कि अब हमारी बारी है. बहुत से लोगों का मानना था कि 21वीं सदी एशिया की सदी होने वाली है. उनकी राय थी कि जिस तरह ग्रेट ब्रिटेन ने 19वीं और अमेरिका ने 20वीं सदी में अर्थ और राजनीतिक जगत पर प्रभुत्व जमाया वैसा ही चीन और भारत भी करेंगे और दुनिया हैरानी और प्रशंसा की दृष्टि से उन्हें देखेगी.
हमारी आसन्न वैश्विक महानता की इन भविष्यवाणियों को करने वाले मुख्यत: दो तरह के लोग थे : मुंबई और बेंगलुरु में बैठे उद्यमी और नई दिल्ली में बैठे संपादक. एक साल पहले ही इन्होंने दावोस में आयोजित होनी वाली विश्व आर्थिक मंच की बैठक में भारत को शानदार तरीके से दुनिया के सामने रखा था. इसमें हमें ‘दुनिया में सबसे तेजी से तरक्की करने वाला लोकतंत्र’ बताया गया था. इस टैगलाइन के आखिरी शब्द में चतुराई से चीन पर तंज किया गया था. कुल मिलाकर अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियों को संकेत दिया जा रहा था कि न सिर्फ उनके कर्मचारियों के रहने और काम करने के लिहाज से भारत कहीं बेहतर जगह है बल्कि यहां उन्हें अपने निवेश पर अच्छा रिटर्न भी मिलेगा.
उद्यमी लोग मिजाज से आशावादी होते हैं और कभी-कभी तो यह आशावादिता निरी काल्पनिकता में बदल जाती है. दूसरी तरफ, इतिहासकार स्वभाव से संशयी होते हैं और दोष ढूंढने वाले भी. तो अपने पेशेवर डीएनए के अनुरूप 15 अगस्त 2007 को हिंदुस्तान टाइम्स में छपे अपने लेख में मैंने कहा था कि दुनिया पर प्रभुत्व जमाने की हमारी महत्वाकांक्षाएं अवास्तविक हैं, हमारे यहां जाति, वर्ग और धर्म की गहरी खाइयां अब भी मौजूद हैं, हमारी संस्थाएं उतनी मजबूत नहीं हैं जितनी उनके बारे में संविधान निर्माताओं ने कल्पना की थी और पर्यावरण को हो रहा व्यापक नुकसान हमारे आर्थिक विकास के टिकाऊपन को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर रहा है. दावोस और इसके इतर मंचों पर जो कहानी बताई जा रही थी उसमें इन जमीनी सच्चाइयों के लिए कोई जगह न थी. अपने लेख के आखिर में मैंने कहा था कि हमारा देश विश्व शक्ति नहीं बनने वाला है बल्कि भारत बीच में रहेगा जैसा वह हमेशा रहा है.
मुझे मालूम था कि मेरे उद्यमी मित्रों को मेरा यह आकलन निराशावादी लगेगा. ऐसा हुआ भी. लेकिन आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि 13 साल पहले मैंने जो लिखा था वह भी असल में कुछ ज्यादा ही आशावाद था. देश की आजादी की 60वीं वर्षगांठ से पहले भारतीय अर्थव्यवस्था आठ फीसदी सालाना की बढ़िया रफ्तार से बढ़ रही थी. कोरोना महामारी से ठीक पहले यह आंकड़ा गिरकर चार फीसदी पर आ चुका था जो अब तो बुरी तरह से नकारात्मक हो चुका होगा.
2006 और 2007 में किए गए दावों का सच जो भी हो, यह तो साफ है कि बीते कुछ सालों से हम दुनिया में ‘सबसे तेजी से तरक्की करता लोकतंत्र’ नहीं हैं. यही नहीं, इस टैगलाइन के आखिर शब्द यानी लोकतंत्र पर भी संदेह के बादल दिनों-दिन बढ़ते दिखते हैं. न हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है और न ही कोई आज यह कह सकता है कि भारत में लोकतंत्र अच्छी तरह से चल रहा है. अपने पहले के लेखों में मैं सत्ताधारी पार्टी द्वारा योजनाबद्ध तरीके से हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर कब्जे का जिक्र कर चुका हूं. इन संस्थाओं की निष्पक्षता पर सवाल लगातार बड़े होते जा रहे हैं. इनमें हमारी नौकरशाही, जांच एजेंसियां, सेना, रिजर्व बैंक, चुनाव आयोग और कुछ हद तक हमारी न्यायपालिका भी शामिल है. गोपनीय चुनावी बॉन्डों और अलग-अलग राज्यों में विधायकों की खरीद-फरोख्त ने इस स्थिति को और गंभीर किया है. इस बीच मीडिया के एक बड़े हिस्से ने भी सत्ता के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है. साहसी और स्वतंत्र विचारों वाले मीडिया का जो थोड़ा सा हिस्सा बचा है, राज्य व्यवस्था की तरफ से उसके लिए पैदा होने वाली परेशानियां बढ़ती जा रही हैं.
2007 की बात करें तो उस समय मैंने भारत के विश्व शक्ति बनने का दावा करने वालों का मजाक तो उड़ाया था. लेकिन तब मैं भारत को लेकर काफी उत्साही भी था. इसका संबंध अर्थव्यवस्था से नहीं बल्कि दूसरी चीजों से था. मैं सधे हुए शब्दों में भारत के लोकतंत्र और खुलकर सांस्कृतिक और धार्मिक बहुलता का सम्मान करने वाली इसकी संस्कृति की तारीफ करता था. उस समय भारत में एक सिख प्रधानमंत्री था जिसे एक मुस्लिम राष्ट्रपति ने शपथ दिलाई थी. हमारे नोटों पर 17 भाषाओं बल्कि कहें तो 17 लिपियों में उनकी कीमत लिखी होती थी. इन सारी बातों को मैं उन आदर्शों की जीत मानता था जो हमारे गणतंत्र की नींव रखने वालों ने तय किए थे.
पीछे मुड़कर देखूं तो 2004 और फिर 2009 के आम चुनाव में भाजपा की हार ने मुझ जैसे उदारवादियों को हिंदुत्व के भविष्य को लेकर अतिआत्मविश्वास से भर दिया था. लेकिन उन पराजयों के बाद भी न तो एक राजनीतिक ताकत और न ही एक शक्तिशाली और अहितकारी विचार के तौर पर हिंदुत्व की ताकत कम हुई. 2014 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व के बूते भाजपा ने बहुमत हासिल कर सरकार बना ली. प्रधानमंत्री के तौर पर उनका पहला कार्यकाल मुख्य तौर पर नोटबंदी जैसे विनाशकारी प्रयोग के लिए याद किया जाएगा जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को कई साल पीछे धकेल दिया. नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल का पहला साल अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने और नागरिकता संशोधन कानून जैसे कदमों के लिए याद किया जाएगा जिन्होंने भारत में बहुलतावाद की संस्कृति पर बड़ी चोट की. अर्थव्यवस्था और समाज पर ऐसी और कितनी चोटें पड़नी शेष हैं, यह आने वाले सालों में देखा जाना है.
2007 में भारत को उभरती हुई विश्व शक्ति कहना शायद अपरिपक्वता थी. फिर भी भारत अपनी तरह की सफलता की कहानी तो था ही - एक ऐसे विशाल, जटिल और विविधताओं से भरे देश की कहानी जिसने किसी तरह खुद को संगठित करके एक राज्य व्यवस्था बनाने में सफलता हासिल की, पितृसत्ता और कम साक्षरता वाले एक ऐसे देश की कहानी जिसने दुनिया के इतिहास में लोकतंत्र की सबसे बड़ी कवायद को कई बार सफलता से अंजाम दिया, अकाल और अभाव से सदियों तक जूझते एक देश की कहानी जिसने न सिर्फ करोड़ों लोगों को गरीबी के जाल से बाहर निकाला बल्कि सूचना और जैव तकनीकी जैसे क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवाया.
अगस्त 2007 में वैश्विक महानता के दावे और पूर्वानुमान अनावश्यक थे. लेकिन उस शांत और शालीन गर्व के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता था जो हमें आजादी के बाद हासिल अपनी असाधारण उपलब्धियों पर था. अब अगस्त 2020 में भारत की किसी तरह की कोई कहानी नहीं है जिसे सुनाया जा सके. कोविड -19 के देश में आने से पहले ही हमारी अर्थव्यवस्था हांफ रही थी. हमारे लोकतंत्र को काफी तक भ्रष्ट और खस्ताहाल कहा जा रहा था. हमारे अल्पसंख्यक डरे हुए और असुरक्षित थे. यहां तक कि वे उद्यमी भी आशंकाओं से घिरे हुए थे जिन्हें मैं जानता हूं और जो कभी आशावादी हुआ करते थे. उस पर अब महामारी आ गई है जिसने हमारे आर्थिक संकटों, सामाजिक खाइयों और लोकतांत्रिक खामियों को बढ़ाने का ही काम किया है. अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर आने में बरसों लगेंगे. हमारे लोकतंत्र का संस्थागत ताना-बाना और हमारे समाज का बहुलतावादी चरित्र 2014 के बाद से इसे हुए नुकसान से उबर पाएगा या नहीं, यह एक खुला सवाल है.
एक देश के रूप में हमारी ढलान कैसे शुरू हुई और इसके लिए कौन लोग या संस्थान किस तरह से जिम्मेदार रहे, इसका आकलन भविष्य के इतिहासकार करेंगे. मेरी अपनी राय यह है कि हमारे पतन के बीज मनमोहन सिंह सरकार के दूसरे कार्यकाल में बोए गए, हालांकि वास्तविक नुकसान मोदी सरकार के कार्यकाल में हुआ है. इस बात पर दो राय हो सकती है, लेकिन यह निश्चित है कि 15 अगस्त 2007 को अपनी आजादी की 60वीं वर्षगांठ मनाते हुए हम कम से कम इस पर बहस कर सकते थे कि क्या हमारा देश अगली विश्व शक्ति बनने की प्रक्रिया में है. 13 साल बाद आज ऐसी बहस अति की सीमा तक हास्यास्पद लगेगी.(satyagrah)
-रेहान फ़ज़ल
जनवरी 1977 की एक सर्द शाम. दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्षी नेताओं की एक रैली थी. रैली यूँ तो 4 बजे शुरू हो गई थी, लेकिन अटल बिहारी बाजपेयी की बारी आते आते रात के साढ़े नौ बज गए थे. जैसे ही वाजपेयी बोलने के लिए खड़े हुए, वहाँ मौजूद हज़ारों लोग भी खड़े हो कर ताली बजाने लगे.
अचानक वाजपेयी ने अपने दोनों हाथ उठा कर लोगों की तालियों को शाँत किया. अपनी आँखें बंद की और एक मिसरा पढ़ा, ''बड़ी मुद्दत के बाद मिले हैं दीवाने....'' वाजपेयी थोड़ा ठिठके. लोग आपे से बाहर हो रहे थे. वाजपेयी ने फिर अपनी आंखें बंद कीं. फिर एक लंबा पॉज़ लिया और मिसरे को पूरा किया, ' कहने सुनने को बहुत हैं अफ़साने.'
इस बार तालियों का दौर और लंबा था. जब शोर रुका तो वाजपेयी ने एक और लंबा पॉज़ लिया और दो और पंक्तियाँ पढ़ीं, ''खुली हवा में ज़रा सांस तो ले लें, कब तक रहेगी आज़ादी कौन जाने?''

उस जनसभा में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह बताती हैं, ''ये शायद 'विंटेज वाजपेयी' का सर्वश्रेष्ठ रूप था. हज़ारों हज़ार लोग कड़कड़ाती सर्दी और बूंदाबांदी के बीच वाजपेयी को सुनने के लिए जमा हुए थे. इसके बावजूद कि तत्कालीन सरकार ने उन्हें रैली में जाने से रोकने के लिए उस दिन दूरदर्शन पर 1973 की सबसे हिट फ़िल्म 'बॉबी' दिखाने का फ़ैसला किया था. लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ था. बॉबी और वाजपेयी के बीच लोगों ने वाजपेयी को चुना. उस रात उन्होंने सिद्ध किया कि उन्हें बेबात ही भारतीय राजनीति का सर्वश्रेष्ठ वक्ता नहीं कहा जाता.''
भारतीय संसद में हिंदी के सर्वश्रेष्ठ वक्ता
पूर्व लोकसभा अध्यक्ष अनंतशयनम अयंगार ने एक बार कहा था कि लोकसभा में अंग्रेज़ी में हीरेन मुखर्जी और हिंदी में अटल बिहारी वाजपेयी से अच्छा वक्ता कोई नहीं है.
जब वाजपेयी के एक नज़दीकी दोस्त अप्पा घटाटे ने उन्हें यह बात बताई तो वाजपेयी ने ज़ोर का ठहाका लगाया और बोले, "तो फिर बोलने क्यों नहीं देता."
हालांकि, उस ज़माने में वाजपेयी बैक बेंचर हुआ करते थे, लेकिन नेहरू बहुत ध्यान से वाजपेयी द्वारा उठाए गए मुद्दों को सुना करते थे.
नेहरू थे वाजपेयी के मुरीद
किंगशुक नाग अपनी किताब 'अटलबिहारी वाजपेयी- ए मैन फ़ॉर ऑल सीज़न' में लिखते हैं कि एक बार नेहरू ने भारत यात्रा पर आए एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री से वाजपेयी को मिलवाते हुए कहा था, "इनसे मिलिए. ये विपक्ष के उभरते हुए युवा नेता हैं. हमेशा मेरी आलोचना करते हैं, लेकिन इनमें मैं भविष्य की बहुत संभावनाएं देखता हूँ."
एक बार एक दूसरे विदेशी मेहमान से नेहरू ने वाजपेयी का परिचय संभावित भावी प्रधानमंत्री के रूप में भी कराया था. वाजपेयी के मन में भी नेहरू के लिए बहुत इज़्ज़त थी.
साउथ ब्लॉक में नेहरू का चित्र वापस लगवाया
1977 में जब वाजपेयी विदेश मंत्री के रूप में अपना कार्यभार संभालने साउथ ब्लॉक के अपने दफ़्तर गए तो उन्होंने नोट किया कि दीवार पर लगा नेहरू का एक चित्र ग़ायब है.
किंगशुक नाग बताते हैं कि उन्होंने तुरंत अपने सचिव से पूछा कि नेहरू का चित्र कहां है, जो यहां लगा रहता था.
उनके अधिकारियों ने ये सोचकर उस चित्र को वहां से हटवा दिया था कि इसे देखकर शायद वाजपेयी ख़ुश नहीं होंगे.
वाजपेयी ने आदेश दिया कि उस चित्र को वापस लाकर उसी स्थान पर लगाया जाए जहां वह पहले लगा हुआ था.
प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं कि जैसे ही वाजपेयी उस कुर्सी पर बैठे जिस पर कभी नेहरू बैठा करते थे, उनके मुंह से निकला, "कभी ख़्वाबों में भी नहीं सोचा था कि एक दिन मैं इस कमरे में बैठूँगा."
विदेश मंत्री बनने के बाद उन्होंने नेहरू के ज़माने की विदेश नीति में कोई ख़ास परिवर्तन नहीं किया.
भाषणों के लिए बहुत मेहनत करते थे वाजपेयी
वाजपेयी के निजी सचिव रहे शक्ति सिन्हा बताते हैं कि सार्वजनिक भाषणों के लिए वाजपेयी कोई ख़ास तैयारी नहीं करते थे, लेकिन लोकसभा का भाषण तैयार करने के लिए वो ख़ासी मेहनत किया करते थे.
शक्ति के मुताबिक़, "संसद के पुस्तकालय से पुस्तकें, पत्रिकाएं और अख़बार मंगवाकर वाजपेयी देर रात अपने भाषण पर काम करते थे. वो पॉइंट्स बनाते थे और उस पर सोचा करते थे. वो पूरा भाषण कभी नहीं लिखते थे, लेकिन उनके दिमाग़ में पूरा ख़ाका रहता था कि अगले दिन उन्हें लोकसभा में क्या-क्या बोलना है."

मैंने शक्ति सिन्हा से पूछा कि मंच पर इतना सुंदर भाषण देने वाले वाजपेयी हर 15 अगस्त को लाल किले से दिया जाने वाला भाषण पढ़कर क्यों देते थे?
शक्ति का जवाब था कि ''वह लाल किले की प्राचीर से कोई चीज़ लापरवाही में नहीं कहना चाहते थे. उस मंच के लिए उनके मन में पवित्रता का भाव था. हम लोग अक्सर उनसे कहा करते थे कि आप उस तरह से बोलें जैसे आप हर जगह बोलते हैं, लेकिन वह हमारी बात नहीं मानते थे. यह नहीं था कि वो किसी और का लिखा भाषण पढ़ते थे. हम लोग उनको इनपुट देते थे जिसको वो बहुत काट-छांट के बाद अपने भाषण में शामिल करते थे.''
आडवाणी को कॉम्पलेक्स
अटल बिहारी वाजपेयी के काफ़ी क़रीब रहे उनके साथी लालकृष्ण आडवाणी ने एक बार बीबीसी को बताया था कि अटलजी के भाषणों को लेकर वह हमेशा हीनभावना से ग्रस्त रहे.
आडवाणी ने बताया था, "जब अटलजी चार वर्ष तक भारतीय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके तो उन्होंने मुझसे अध्यक्ष बनने की पेशकश की. मैंने ये कहकर मना कर दिया कि मुझे हज़ारों की भीड़ के सामने आपकी तरह भाषण देना नहीं आता. उन्होंने कहा संसद में तो तुम अच्छा बोलते हो. मैंने कहा संसद में बोलना एक बात है और हज़ारों लोगों के सामने बोलना दूसरी बात. बाद में मैं पार्टी अध्यक्ष बना, लेकिन मुझे ताउम्र कॉम्पलेक्स रहा कि मैं वाजपेयी जैसा भाषण कभी नहीं दे पाया."
कई दफ़ा आडवाणी ने राजनीतिक पटल पर भी वाजपेई से आगे निकलने की कोशिशें की. वरिष्ठ न्यायाधीश ए जी नूरानी लिखते हैं, ''जुलाई 2001 में अडवाणी ने उनके फ़ैसले को खारिज करते हुए आगरा सम्मेलन को खराब कर दिया था. इसके बाद अप्रैल 2002 में उन्होंने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के चुनाव में वाजपेई की पसंद को भी खारिज किया. इसके बाद वाजपेई ने उन्हें उप प्रधानमंत्री बनाया.''
अंतर्मुखी और शर्मीले
दिलचस्प बात यह है कि हज़ारों लोगों को अपने भाषण से मंत्रमुग्ध कर देने वाले वाजपेयी निजी जीवन में अंतर्मुखी और शर्मीले थे.
उनके निजी सचिव रहे शक्ति सिन्हा बताते हैं कि ''अगर चार-पांच लोग उन्हें घेरे हुए हों तो उनके मुंह से बहुत कम शब्द निकलते थे. लेकिन वो दूसरों की कही बातों को बहुत ध्यान से सुनते थे और उस पर बहुत सोच-समझकर बारीक प्रतिक्रिया देते थे. एक दो ख़ास दोस्तों के सामने वो खुलकर बोलते थे, लेकिन वो बैक स्लैपिंग वेराइटी कभी नहीं रहे.''
मणिशंकर अय्यर याद करते हैं कि जब वाजपेयी पहली बार 1978 में विदेश मंत्री के तौर पर पाकिस्तान गए तो उन्होंने सरकारी भोज में गाढ़ी उर्दू में भाषण दिया. पाकिस्तान के विदेश मंत्री आगा शाही चेन्नई में पैदा हुए थे. उनको वाजपेयी की गाढ़ी उर्दू समझ में नहीं आई.
शक्ति सिन्हा बताते हैं कि ''एक बार न्यूयॉर्क में प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ वाजपेयी से बात कर रहे थे. थोड़ी देर बाद उन्हें संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करना था. उन्हें चिट भिजवाई गई कि बातचीत ख़त्म करें ताकि वो भाषण देने जा सकें. चिट देखकर नवाज़ शरीफ़ ने वाजपेयी से कहा, "इजाज़त है... फिर उन्होंने अपने को रोका और पूछा आज्ञा है." वाजपेयी ने हंसते हुए जवाब दिया, "इजाज़त है."

वाजपेयी की स्कूटर सवारी
वाजपेयी अपनी सहजता और मिलनसार स्वभाव के लिए हमेशा मशहूर रहे हैं. मशहूर पत्रकार और कई अख़बारों के संपादक रहे एच के दुआ बताते हैं, "एक बार मैं अपने स्कूटर से एक संवाददाता सम्मेलन को कवर करने काँस्टिट्यूशन क्लब जा रहा था जिसे अटल बिहारी वाजपेयी संबोधित करने जा रहे थे. उस ज़माने में मैं एक युवा रिपोर्टर हुआ करता था. रास्ते में मैंने देखा कि जनसंघ के अध्यक्ष वाजपेयी एक ऑटो को रोकने की कोशिश कर रहे हैं. मैंने अपना स्कूटर धीमा करके वाजपेयी से ऑटो रोकने का कारण पूछा. उन्होंने बताया कि उनकी कार ख़राब हो गई है. मैंने कहा कि आप चाहें तो मेरे स्कूटर के पीछे की सीट पर बैठकर काँस्टिट्यूशन क्लब चल सकते हैं."
उन्होंने बताया, "वाजपेयी मेरे स्कूटर पर पीछे बैठकर उस संवाददाता सम्मेलन में पहुंचे जिसे वो ख़ुद संबोधित करने वाले थे. जब हम वहाँ पहुंचे तो जगदीश चंद्र माथुर और जनसंघ के कुछ नेता हमारा इंतज़ार कर रहे थे. माथुर ने हमें देखते ही चुटकी ली, 'कल एक्सप्रेस में छपेगा, वाजपेयी राइड्स दुआज़ स्कूटर.' वाजपेयी ने खिलखिला कर जवाब दिया, 'नहीं हेडलाइन होगी दुआ टेक्स वाजपेयी फॉर अ राइड.''
नाराज़गी से दूर दूर का वास्ता नहीं
शिव कुमार पिछले 51 सालों से अटल बिहारी वाजपेयी के साथ रहे हैं. ख़ुद उनके शब्दों में वो एक साथ अटल के चपरासी, रसोइये, बॉडीगार्ड, सचिव और लोकसभा क्षेत्र प्रबंधक की भूमिका निभाते रहे हैं.
जब मैंने उनसे पूछा कि क्या अटल बिहारी वाजपेयी को कभी ग़ुस्सा आता था तो उन्होंने एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाया, "उन दिनों मैं उनके साथ 1, फ़िरोज़शाह रोड पर रहा करता था. वो बेंगलुरू से दिल्ली वापस लौट रहे थे. मुझे उन्हें लेने हवाई अड्डे जाना था. जनसंघ के एक नेता जेपी माथुर ने मुझसे कहा चलो रीगल में अंग्रेज़ी पिक्चर देखी जाए. छोटी पिक्चर है जल्दी ख़त्म हो जाएगी. उन दिनों बेंगलुरू से आने वाली फ़्लाइट अक्सर देर से आती थी. मैं माथुर के साथ पिक्चर देखने चला गया."
शिव कुमार ने बताया, "उस दिन पिक्चर लंबी खिंच गई और बेंगलुरू वाली फ़्लाइट समय पर लैंड कर गई. मैं जब हवाई अड्डे पहुंचा तो पता चला कि फ़्लाइट तो कब की लैंड कर चुकी. घर की चाबी मेरे पास थी. मैं अपने सारे देवताओं को याद करता हुआ 1, फ़िरोज़ शाह रोड पहुंचा. वाजपेयी अपनी अटैची पकड़े लॉन में टहल रहे थे. उन्होंने मुझसे पूछा कहाँ चले गए थे? मैंने झिझकते हुए कहा कि पिक्चर देखने गया था. वाजपेयी ने मुस्कराकर कहा यार हमें भी ले चलते. चलो कल चलेंगे. वो मुझ पर नाराज़ हो सकते थे लेकिन उन्होंने मेरी उस लापरवाही को हंसकर टाल दिया."
जब वाजपेयी रामलीला मैदान में सोए000
शिव कुमार एक और किस्सा सुनाते हैं. 'वाजपेयी हमेशा इस बात का ध्यान रखते ते कि उनकी वजह से किसी दूसरे को कोई परेशानी न हो. बहुत समय पहले जनसंघ का दफ़्तर अजमेरी गेट पर हुआ करता था. वाजपेयी, आडवाणी और जे पी माथुर वहीं रहा करते थे. एक दिन वाजपेयी रात की ट्रेन से दिल्ली लौटने वाले थे. उनके लिए खाना बना कर रख दिया गया था. रात 11 बजे आने वाली गाड़ी 2 बजे पहुंची."
उन्होंने बताया, 'सवेरे 6 बजे दरवाज़े की घंटी बजी तो मैंने देखा वाजपेयी सूटकेस और होल्डाल (बड़ा बैग) लिए दरवाज़े पर खड़े हैं. हमने पूछा, आप तो रात को आने वाले थे. वाजपेयी ने कहा, गाड़ी 2 बजे पहुंची तो आप लोगों को जगाना ठीक नहीं समझा. इसलिए मैं रामलीला मैदान में जा कर सो गया.'
शिव कुमार बताते हैं कि 69 साल की उम्र में भी वाजपेयी डिज़नीलैंड की राइड्स लेने का आनंद नहीं चूकते थे. अपनी अमरीका यात्राओं के दौरान वो अक्सर अपने कुर्ते धोती को सूटकेस में रख कर पतलून और कमीज़ पहन लेते थे. न्यूयार्क की सड़कों पर उन्होंने कई बार अपने सुरक्षाकर्मियों के लिए साफ़्ट ड्रिंक्स और आइसक्रीम ख़रीदी है. वो अपनी नातिन निहारिका को लिए खिलौने ख़रीदने के लिए खिलौनों की मशहूर दुकान श्वार्ज़ जाना पसंद करते थे. उनका एक और शौक था, न्यूयार्क की पेट शाप्स में जाना जहाँ से वो अपने कुत्तों सैसी और सोफ़ी और बिल्ली रितु के लिए कालर्स और खाने का सामान ख़रीदा करते थे.
उम्दा खाने के शौकीन
वाजपेयी को खाना खाने और बनाने का बहुत शौक़ था. मिठाइयां उनकी कमज़ोरी थी. रबड़ी, खीर और मालपुए के वो बेहद शौक़ीन थे. आपातकाल के दौरान जब वो बेंगलुरू जेल में बंद थे तो वो आडवाणी, श्यामनंदन मिश्र और मधु दंडवते के लिए ख़ुद खाना बनाते थे.
शक्ति सिन्हा बताते हैं, "जब वो प्रधानमंत्री थे तो सुबह नौ बजे से एक बजे तक उनसे मिलने वालों का तांता लगा करता था. आने वालों को रसगुल्ले और समोसे वग़ैरह सर्व किए जाते थे. हम सर्व करने वालों को ख़ास निर्देश देते थे कि साहब के सामने समोसे और रसगुल्ले की प्लेट न रखी जाए."
शक्ति सिन्हा कहते हैं, "शुरू में वह शाकाहारी थे लेकिन बाद में वह मांसाहारी हो गए थे. उन्हें चाइनीज़ खाने का ख़ास शौक था. वो हम लोगों की तरह एक सामान्य व्यक्ति थे. मैं कहूंगा- ही वाज़ नाइदर अ सेंट नॉर सिनर. ही वाज़ ए नॉरमल ह्यूमन बीइंग, ए वार्म हार्टेड ह्यूमन बीइंग."
शेरशाह सूरी के बाद सबसे अधिक सड़कें वाजपेयी ने बनवाईं
अटल बिहारी वाजपेयी के पसंदीदा कवि थे सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, हरिवंशराय बच्चन, शिवमंगल सिंह सुमन और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़. शास्त्रीय संगीत भी उन्हें बेहद पसंद था. भीमसेन जोशी, अमजद अली खाँ और कुमार गंधर्व को सुनने का कोई मौक़ा वह नहीं चूकते थे.
किंगशुक नाग का मानना है कि हालांकि वाजपेयी की पैठ विदेशी मामलों में अधिक थी लेकिन अपने प्रधानमंत्रित्व काल में उन्होंने सबसे ज़्यादा काम आर्थिक क्षेत्र में किया.
वे कहते हैं, "टेलिफ़ोन और सड़क निर्माण में वाजपेयी के योगदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता. भारत में आजकल जो हम हाइवेज़ का जाल बिछा हुआ देखते हैं उसके पीछे वाजपेयी की ही सोच है. मैं तो कहूँगा कि शेरशाह सूरी के बाद उन्होंने ही भारत में सबसे अधिक सड़कें बनवाई हैं."
गुजरात दंगों को लेकर हमेशा असहज
रॉ के पूर्व प्रमुख एएस दुलत अपनी किताब 'द वाजपेयी इयर्स' में लिखते हैं कि वाजपेयी ने गुजरात दंगों को अपने कार्यकाल की सबसे बड़ी ग़लती माना था.
किंगशुक नाग भी कहते हैं गुजरात दंगों को लेकर वह कभी सहज नहीं रहे. वो चाहते थे कि इस मुद्दे पर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी इस्तीफ़ा दें.
नाग कहते हैं, "उस समय के वहाँ के राज्यपाल सुंदर सिंह भंडारी के एक बहुत क़रीबी ने मुझे बताया था कि मोदी के इस्तीफ़े की तैयारी हो चुकी थी लेकिन गोवा राष्ट्रीय सम्मेलन आते-आते पार्टी के शीर्ष नेता मोदी के बारे में वाजपेयी की राय बदलने में सफल हो गए थे.
वरिष्ठ न्यायाधीश एजी नूरानी ने 2004 में फ्रंटलाइन के लिए लिखे अपने चर्चित लेख द मैन बिहाइंड द इमेज़ में गुजरात दंगों के बारे में लिखा है, "गुजरात दंगों पर अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी की प्रतिक्रियाएं मानवता और नैतिकता से प्रेरित नहीं थीं. वे पहले दिन से ही राजनीति से प्रेरित थीं."
कठोर निर्णय लेने की क्षमता नहीं
जाने माने पत्रकार एच के दुआ का भी मानना है कि वाजपेयी के पूरे चरित्र में एक कमी साफ़ तौर पर उभर कर सामने आती है, महत्वपूर्ण मौकों पर मज़बूत फ़ैसले न ले पाना.
दुआ कहते हैं, "गुजरात के मामले में वो मोदी को हटाना चाहते थे लेकिन पार्टी के नेताओं के दबाव में आ कर वो ये फ़ैसला न ले सके. अयोध्या में जब बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ तो उन्होंने उस प्रकरण से अपनी दूरी तो बनाई लेकिन चोटी के नेता होते हुए भी वो ऐसा होने से रोक नहीं पाए."
कुछ लोग उनके बाबरी विध्वंस से एक दिन पहले लखनऊ में दिए गए भाषण का भी ज़िक्र करते है जिसमें उन्होंने ज़मीन समतल करने की बात कही थी.
उन्होंने ये भी कहा था, "मैं नहीं जानता कि कल अयोध्या में क्या होगा. मैं वहाँ जाना चाहता था, लेकिन मुझसे दिल्ली वापस जाने के लिए कहा गया है."
बाद में उन्होंने स्पष्टीकरण दिया कि ये कह कर उनका उद्देश्य किसी को भड़काना नहीं था.
1998 में भी जब वो जसवंत सिंह को अपने मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री बनाना चाहते थे, आरएसएस के दबाव में उन्हें अपना फ़ैसला बदलना पड़ा. जब पार्टी किसी मुद्दे पर ज़ोर देने लगती थी, चाहे वो जितना भी गलत मुद्दा हो, वो उससे दब जाते थे. वो तूफ़ान को अपने ऊपर से गुज़र जाने देते थे, लेकिन इंदिरा गाँधी की तरह उनमें उसे 'हेड ऑन' लेने की क्षमता नहीं थी.'
कंधार विमान अपहरण
वाजपेयी की इस मुद्दे पर भी आलोचना हुई जिस तरह से उन्होंने कंधार हाईजैकिंग मामले को हैंडिल किया. विमान अपहरणकर्ताओं के दबाव में वो ना सिर्फ़ तीन चरमपंथियों को रिहा करने के लिए राज़ी हो गए. उनकी इस बात पर भी किरकिरी हुई कि भारत का विदेश मंत्री उन चरमपंथियों को अपने विमान में बैठा कर कंधार ले गया.
'इंडिया शाइनिंग' उल्टा पड़ा
वाजपेयी से एक और राजनीतिक चूक तब हुई जब उन्हें लगा कि इंडिया शाइनिंग प्रचार चुनाव में उनकी नैया पार लगा देगा.
लेकिन भारतीय मतदाताओं ने उनको ग़लत साबित किया और वो 2004 का संसदीय चुनाव हार गए.(bbc)
पुण्यतिथि : महादेव देसाई
दो दशक से ज्यादा समय तक महात्मा गांधी के निजी सचिव रहे महादेव देसाई को ‘गांधी की छाया’ कहा जाता था
-अव्यक्त
महादेव देसाई तब कोई बीसेक साल के नौजवान रहे होंगे. उनके कई सहपाठी और दोस्त खूब पैसे कमा रहे थे. ऐसे ही एक दोस्त के पिता उनके घर चाय पीने आए. घर की बैठकी से पड़ोस का एक महलनुमा बंगला दिख रहा था. दोस्त के पिता ने महादेव से कहा— ‘देखो भाई, मैं तो तब समझूंगा जब तुम उतना ही बड़ा बंगला अपनी कमाई से बनाकर दिखाओगे!’ इस पर महादेव के पिता ने ऐतराज़ करते हुए कहा - ‘हम तो महल या बंगला नहीं चाहते. हमारी झोपड़ियां ही हमारे महल हैं. हमें कैसे पता कि इन महलों में रहने वाले लोग वास्तव में कैसा जीवन जी रहे हैं? न ही हमें यह मालूम कि वे खुश हैं या दुखी हैं. अगर हम एक निष्कलुष और बेदाग जीवन जी सकें तो हम अपने मौजूदा हाल में ही पूरी तरह संतुष्ट हैं.’ यह घटना जानकर कहा जा सकता है कि आज भी हमारे समाज में ऐसे पिता कम ही होते होंगे और महादेव इस मामले में भाग्यशाली रहे.
पिता हरिभाई गुजराती साहित्य के मर्मज्ञ थे और प्राइमरी स्कूल में सहायक शिक्षक की नौकरी से शुरू करके वीमेंस ट्रेनिंग कॉलेज के प्राचार्य पद तक पहुंचे थे. मां जमनाबाई बहुत ही सुघड़ और समझदार महिला थीं. महादेव से पहले उनके तीन बच्चे शैशवावस्था में ही चल बसे थे. इसलिए जब महादेव गर्भ में थे तो वे सरस के सिद्धनाथ महादेव मंदिर में मन्नत मांग आई कि यदि यह बच्चा जीवित बच गया तो लड़की होने पर ‘पार्वती’ और लड़का होने पर ‘महादेव’ नाम रखूंगी. बच्चा बच गया और महादेव के नाम से अपना नाम सार्थक भी कर गया. लेकिन महादेव केवल सात वर्ष के थे जब उनकी मां चल बसीं. लालन-पालन पिता और दादी ने मिलकर किया. महादेव को मां के बारे में केवल इतना याद रहा कि पिता का केवल पंद्रह रुपये मासिक वेतन होने के बावजूद मां उन्हें राजकुमार की तरह लाड़ करती थीं और जब कहो तब हलवा बनाकर खिलाती थीं!
महादेव की पढ़ाई-लिखाई वैसी ही हुई जैसी एक गरीब लेकिन सुसंस्कृत और मेधावी पिता के सुतीक्ष्ण बच्चे की होती है. अंग्रेजी शिक्षा के लिए उन्हें सूरत भेजना पड़ता, लेकिन पिता उन्हें अपनी नज़रों से दूर भेजना नहीं चाहते थे. बाद में गांव में ही एक अंग्रेजी स्कूल खुला तो नौ साल की उमर में उसमें दाखिला लिया. तबके अंग्रेजी के कड़क अध्यापक का उनपर गहरा असर हुआ और उन्हें वे जीवनभर नहीं भूल सके. बाद में जब वे ‘अर्जुनवाणी’ के संपादक बने तो उसकी एक प्रति पर अपने उन शिक्षक को लिख भेजा- ‘प्रेज़ेन्टेड विद प्रणाम्स टू माय फर्स्ट इंग्लिश टीचर.’ महादेव अंग्रेजी भाषा और साहित्य के बहुत बड़े विद्वान के रूप में भी जाने गए. वे लड़कपन में इतने शर्मीले थे कि नशाखोरी की बुराई के खिलाफ एक जगह भाषण देना था तो मंच पर पर्दे के पीछे खड़े रहकर दिया. तालियां फिर भी खूब बजीं. सुदर्शन और सुकुमार इतने थे कि एक बार दोस्तों के उकसावे पर एक पारसी ताड़ी विक्रेता को धमकाने के लिए साहब की वेश-भूषा बनाकर चले. हैट पहनी और स्टिक हाथ में पकड़ी और धड़ाधड़ अंग्रेजी में लगे उसे हड़काने. ताड़ीवाला डर भी गया. लेकिन तभी सिर में खुजली हुई और जैसे ही हैट उतारा तो पकड़े जाने के डर से भाग खड़े हुए.
तेरह साल की छोटी उम्र में ही महादेव का विवाह बारह साल की दुर्गाबहन से हो गया. महादेव तब छठी कक्षा में ही पढ़ते थे. इस बारे में दुर्गाबहन एक दिलचस्प किस्सा सुनाती थीं. शादी के बाद यह जोड़ा बैलगाड़ी में बैठकर सूरत से दिहेन आ रहा था. महादेव और दुर्गाबहन के अलावा उस गाड़ी में महादेव की दो हमउम्र बहनें भी थीं. उन्होंने महादेव से पूछा - ‘तुम तो बड़ी डींगें हांकते थे कि शादी नहीं करूंगा, मंडप पर से भाग जाऊंगा. लेकिन तुम तो बड़े मज़े से खुश होकर फेरे लगा रहे थे.’ इस पर महादेव ने जवाब दिया - ‘भागता तो तब, जब दुल्हन पसंद नहीं आती. लेकिन ये दुल्हन तो मुझे बहुत पसंद है.’ जब गाड़ी ससुराल (महादेव के घर) पहुंची और दुर्गाबहन को एक फूस और मिट्टी के घर के सामने उतरने को कहा गया तो उन्हें लगा कि यह किसी अन्य गरीब की झोपड़ी होगी. लेकिन यही महादेव का घर था. जल्दी ही दुर्गा को यहां इतना प्यार मिला कि वे इसमें पूरी तरह से रच-बस गईं.
1907 में जब एलिफिन्स्टन कॉलेज में दाखिले का समय आया तो पिता की आय 40 रुपये मासिक की थी. उस समय इस कॉलेज में केवल अमीर घरानों के छात्र ही पढ़ पाते थे और यहां के छात्रावास का जीवन भी विलासितापूर्ण और खर्चीला था. यह सब देखकर महादेव फूट-फूटकर रोए थे. वह तो ऐसा हुआ कि उन्हें गोकुलदास तेजपाल बोर्डिंग हाउस में निःशुल्क रहने की सुविधा मिल गई और कॉलेज की आधी-फीस के साथ-साथ छात्रवृत्ति भी मिल गई. छात्र जीवन में ही महादेव स्वामी विवेकानंद के जीवन और लेखन से बहुत प्रभावित हुए थे.
एलएलबी की पढ़ाई के दौरान ही महादेव ओरिएंटल ट्रांसलेटर्स ऑफिस में प्रशिक्षण भी लेने लगे. अनुवाद का यह अनुभव जीवनभर उनके और गांधीजी के काम आया. अंग्रेजी, गुजराती और हिंदी इन तीनों ही भाषाओं में महादेव देसाई की ग़ज़ब की दक्षता थी. इसके अलावा उन्हें मराठी भी खूब अच्छी आती थी. ट्रांसलेटर्स ऑफिस में काम करने के दौरान महादेव के सामने एक गुजराती किताब आई जिसका नाम तो था ‘सब्जियों से बनने वाली दवाइयां’, लेकिन वास्तव में उसमें बम बनाने के तरीके दिए गए थे.
इसके लेखक थे क्रांतिकारी मोहनलाल पंड्या, जो बाद में गांधीजी के प्रभाव में अहिंसक सत्याग्रही बन गए. महादेव ने इस पुस्तक को प्रतिबंधित करने की सिफारिश की. हालांकि जब इसके बाद पुलिस पंड्या के पीछे पड़ गई, तो राहत के लिए गवर्नर को आवेदन लिखने वाले भी महादेव देसाई ही थे. इसके बाद जब लोकमान्य तिलक ने बर्मा के मांडले जेल में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गीता-रहस्य’ लिखी, तो उसकी पांडुलिपी सेंसरशिप परीक्षण के लिए महादेव देसाई के पास ही आई. इस तरह तिलक की लिखी वह पुस्तक सबसे पहले महादेव देसाई ने ही पढ़ी थी. उन्होंने अपने बचपने से लेकर आजवीन बने रहने वाले मित्र और बाद में उनके जीवनीकार नरहरि परीख के साथ मिलकर टैगोर की विभिन्न कृतियों, जैसे-‘चित्रांगदा’, ‘विदाई अभिशाप’ और ‘प्राचीन साहित्य’ इत्यादि का गुजराती में अनुवाद भी किया था.
महादेव के पिताजी रिटायर होने वाले थे और घर का भार भी महादेव के कंधों पर आनेवाला था. इसलिए थोड़े समय तक वकालत करने के बाद उन्होंने को-ऑपरेटिव सोसाइटी के इन्स्पेक्टर का काम स्वीकार कर लिया. इसके तहत उन्हें गुजरात और महाराष्ट्र में को-ऑपरेटिव सोसाइटियों के काम की जांच और समीक्षा करनी होती थी. इस काम के सिलसिले में महादेव को बैलगाड़ी पर महाराष्ट्र और गुजरात के सुदूर गांवों में घूमने का मौका मिला. उन्होंने इस अवसर का लाभ गुजराती और मराठी लोक-साहित्य और संत-साहित्य को जुटाने और समझने में लगाया. हालांकि अपना काम भी उन्होंने उतनी की कड़ाई से किया. फिर भी एक साहित्य-रसिक का कहां इन सबमें मन इसमें लगने वाला था!
प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो चुका था और उस दौरान भारत सचिव मोंटेग्यू ने युद्ध की समाप्ति पर भारत में एक जिम्मेदार सरकार बनाने के बारे में एक जोरदार भाषण दिया था. बम्बई की होमरूल लीग ने इस भाषण का अनुवाद महादेव देसाई से कराया और जब वह अखबारों छपा तो सब उसे पढ़कर वाह-वाह कर उठे. इसके बाद तो बंबई के कई दिग्गज नेता उन्हें अपना निजी सचिव बनाने की कोशिश करने लगे. लेकिन महादेव इन प्रलोभनों में भी कहां फंसने वाले थे. उनकी मंजिल तो कहीं और थी.
महादेव के जीवन में सबसे दिलचस्प मोड़ तब आया, जब वे महात्मा गांधी से मिले. अप्रैल 1915 में गांधी ने अहमदाबाद के कोचरब में एक किराए के मकान में अपना आश्रम शुरू किया. कुछ दिनों बाद उन्होंने आश्रम की नियमावली का एक मसौदा बनाया और देशभर के लोगों से अपील की कि वे इस पर अपनी राय और आलोचनाओं से उन्हें अवगत कराएं.
महादेव देसाई और नरहरि परीख को यह मसौदा गुजरात क्लब की टेबल पर पड़ा मिला और दोनों ने संयुक्त रूप से अपने किताबी ज्ञान के आधार पर इसकी आलोचना महात्मा गांधी को लिख भेजी. दो आलोचनाएं प्रमुख थीं - पहली कि आश्रम में ब्रह्मचर्य अनिवार्य कर देने से बुराइयां बढ़ेंगी और दूसरी कि हथकरघा पर ज्यादा जोर देने से देश के आर्थिक विकास में बाधा पहुंचेगी. यह भी लिखा कि गांधी इन आलोचनाओं का लिखित जवाब पत्र के रूप न दें, बल्कि यदि इस पर चर्चा करनी हो तो उन्हें व्यक्तिगत रूप से आश्रम बुला लें. एक सप्ताह तक जब महादेव और नरहरि को इसका जवाब न मिला तो उन्होंने समझ लिया कि गांधी ने उनके पत्र को कोई महत्व नहीं दिया.
इसके बाद गांधी स्थानीय प्रेमाबाई हॉल में एक जनसभा में बोलने आने वाले थे. कार्यक्रम के बाद जब गांधी हमेशा की तरह अपनी तेज गति में आश्रम वापस जाने लगे तो दोनों ने लगभग दौड़ते हुए उनके साथ चलना शुरू कर दिया.
उन्होंने पूछा - ‘आपको हमारा पत्र मिला?’
गांधीजी ने कहा - ‘अच्छा, वो पत्र आप दोनों ने ही लिखा है?’
फिर गांधीजी ने पूछा - ‘आप लोग करते क्या हो?’
महादेव ने कहा - ‘वकालत की प्रैक्टिस.’
गांधी ने पूछा - ‘इंडियन ईयर बुक का ताज़ातरीन संस्करण है आपके पास?’
इस बार नरहरि ने कहा— ‘नहीं जी, वो पिछले साल वाला है हमारे पास. आपको नया वाला चाहिए तो हम ला देंगे आपको.’
गांधी ने कहा - ‘तो इसी तरह करते हैं आप लोग वकालत की प्रैक्टिस? जब मैं अपनी दाढ़ी खुद बनाता था न, तो उसके आधुनिकतम औजार अपने पास रखता था.’
उसके बाद आश्रम पहुंचकर गांधी ने उनका पत्र निकाला और डेढ़ घंटे तक दोनों को विस्तार से अपनी बात समझाई. रात के दस बज चुके थे. वापस लौटते हुए एलिस ब्रिज पर महादेव ने नरहरि से कहा- ‘नरहरि, मेरा तो आधा मन बन गया है कि मैं जाऊं और इस आदमी के चरणों में बैठ जाऊं.’
उसी साल फोर्ब्स एसोसिएशन ने महादेव देसाई को एक कड़ी प्रतियोगिता के बाद लॉर्ड मोर्ले की पुस्तक ‘ऑन कॉम्प्रोमाइज़’ के अनुवाद के लिए चुना था. अनुवाद सौंपने से पहले महादेव देसाई ने सोचा कि गांधी साहब विदेशों से लौटे हैं और अंग्रेजों के साथ काफी समय बिताया है इसलिए उस देश की भाषा-संस्कृति को ये बेहतर समझते हैं और इसलिए इन्हें अपना ड्राफ्ट दिखा लेना एक बार ठीक रहेगा. महादेव ने अनुवाद और लॉर्ड मॉर्ले को लिखी जाने वाली चिट्ठी का ड्राफ्ट आश्रम जाकर गांधीजी को दिखाया. गांधीजी को यह ड्राफ्ट बिल्कुल भी पसंद नहीं आया.
गांधी ने कहा - ‘ऐसे ही नहीं अंग्रेज हमें चापलूस और स्वराज के लिए अयोग्य समझते हैं. मोर्ले की प्रशंसा इतना विद्वान और दार्शनिक के रूप में बढ़ा-चढ़ाकर करने की क्या जरूरत है? और उसे एक चिट्ठी लिखने में तुम्हारे हाथ क्यों कांप रहे हैं?’ इसके बाद गांधी ने आपसी बातचीत में अंग्रेजी के लच्छेदार शब्दों का बार-बार इस्तेमाल करने को लेकर भी महादेव को आड़े हाथों लिया. कहा- ‘ऐसी भाषा यदि तुम अपनी मां के सामने बोलो तो वह तुम्हें विद्वान भले ही समझ ले, लेकिन बेचारी तुम्हारी एक भी बात समझ नहीं पाएगी.’ गांधीजी की इन बातों ने महादेव को अवश्य ही भीतर तक झकझोरा होगा.
इसके बाद महादेव के साथी नरहरि परीख ने गांधीजी के आश्रम स्थित स्कूल में बतौर शिक्षक काम करना शुरू कर दिया. महादेव देसाई आश्रम आते-जाते रहते थे. एक दिन गांधीजी ने ‘सत्याग्रह’ पर गुजराती में एक पर्चा लिखा और सभी शिक्षकों से कहा कि वे अंग्रेजी में इसका अनुवाद करें. सभी जानते थे कि गांधी द्वारा ली गई अंग्रेजी की इस परीक्षा में पास होना आसान नहीं था. उसी समय महादेव देसाई वहां आ गए. नरहरि ने महादेव देसाई से उसका अनुवाद कराया और गांधीजी के पास ले गए. उसके बाद उस अनुवाद पर महादेव देसाई और गांधीजी के बीच लंबी बहस हुई. इस बहस ने महादेव की योग्यता को गांधीजी की नज़रों में बहुत ऊंचा उठा दिया. गांधी समझ चुके थे कि यही वह व्यक्ति है जिसकी उन्हें तलाश है.
इसके बाद दोनों की रोज मुलाकात होती और खूब अंतरंग बातचीत होती. एक दिन गांधीजी ने कह दिया - ‘महादेव, दो साल से मुझे जिस व्यक्ति की तलाश थी, वो तुमसे मिलकर खत्म हो गई. तुमसे पहले मैंने इतना खुलकर, इतने विश्वास के साथ केवल तीन व्यक्तियों से बातचीत की है. मिस्टर पोलक (दक्षिण अफ्रीका में गांधी के अन्यतम सहयोगी), मिस शेल्सिन (दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के दौरान गांधी की निजी सचिव), और मगनलाल.’ महादेव ने पूछा - ‘लेकिन आप जानते ही क्या हैं मेरे कार्यों के बारे में कि आपको इतना विश्वास हो चला? मैंने तो आपको इतना कुछ बताया भी नहीं है.’ इस पर गांधी ने कहा - ‘मिस्टर पोलक को मैंने पांच घंटों के भीतर पहचान लिया था.’
इधर महादेव के मन में तो चल ही रहा था कि वे जल्दी-से-जल्दी गांधी के साथ हो जाएं. वे अब सब कुछ छोड़कर गांधीजी के साथ चंपारण जाना चाहते थे लेकिन महादेव के पिताजी इसके पक्ष में नहीं थे. उन्हें धन-दौलत की लालसा नहीं थी. बल्कि इसके दो कारण थे. पहला यह कि पिताजी की दृष्टि में महादेव देसाई बड़े सुकुमार थे और उन्हें शरीरिक श्रम की आदत नहीं रही थी, जो उन्हें गांधीजी के साथ करना ही पड़ता. दूसरा, वे चाहते थे कि महादेव पहले अपना खुद का मुकाम या समाज में अपनी खुद की पहचान हासिल कर लें, फिर गांधीजी या राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ें. इन बातों पर महादेव का कहना था - ‘मैं महानता हासिल करने की महत्वाकांक्षा से गांधीजी के साथ नहीं जाना चाहता हूं. मैं तो बस उनकी छाया की तरह उनके साथ रहना चाहता हूं, उनसे सीखना चाहता हूं, उनके सान्निध्य में अधिक-से-अधिक ज्ञान हासिल करना चाहता हूं. जहां तक नाम और सम्मान की बात है तो वह तो गांधीजी के पास है ही, फिर मुझे इसकी क्या चिंता करनी?’
महादेव अपनी जिद में गांधीजी के साथ चंपारण चले तो आए, लेकिन पिताजी बहुत नाराज औऱ दुखी थे. पिता को मनाने के लिए उन्हें चंपारण से वापस दिहेन (गुजरात) आना पड़ा. एक दिन नरहरि परीख को चंपारण में महादेव का टेलीग्राम मिला कि मैं फलां तारीख को अपनी पत्नी के साथ फिर से चंपारण आ रहा हूं. नरहरि उन्हें लेने स्टेशन गए तो देखा कि वे आए ही नहीं. वापस आए तो गांधीजी ने महादेव का दूसरा टेलीग्राम दिखाया जिसमें लिखा था कि कितना समझाने पर भी वे अपने दुखी पिता को मना नहीं पाए हैं, इसलिए चंपारण नहीं आ पाएंगे. लेकिन आखिरकार पिताजी महादेव का दुःख देखकर पसीज गए. तीसरे दिन फिर से महादेव का टेलीग्राम आया कि पिताजी मान गए हैं और उनका आशीर्वाद लेकर मैं चंपारण के लिए रवाना हो चुका हूं. जैसे ही महादेव देसाई को लेने नरहरि फिर से स्टेशन चलने लगे, तो गांधीजी ने मजाक किया - ‘कितना मज़ेदार होगा न,यदि हमें फिर से महादेव का टेलीग्राम मिले कि वह नहीं आ रहा है!’
हालांकि उस दिन महादेव अपनी पत्नी के साथ चंपारण पहुंच ही गए. और उसके बाद इन दोनों के बीच कभी न बिछड़ने वाला रिश्ता बन गया. फिर भी, महादेव देसाई पर अंग्रेजी शिक्षा और पश्चिमी कार्यशैली का बहुत प्रभाव था. निजी सचिव की भूमिका को वे यांत्रिक दृष्टि से ही देख-समझ पा रहे थे. गांधीजी के प्रति आत्मार्पण को लेकर उनके मन में अभी भी एक द्वंद चल रहा था. असहयोग आंदोलन के दौरान गांधी पूरे देश में घूम रहे थे, और महादेव देसाई चाहते थे कि गांधी हमेशा उन्हें अपने साथ ही रखें. लेकिन उनका एक सबक अभी बाकी था. इस बारे में गांधी ने अपनी गया यात्रा के दौरान ही 13 अगस्त, 1921 को महादेव देसाई को पत्र में लिखा -
‘किसी के प्रति आत्मार्पण में मनुष्य की अपनी मौलिकता का लोप न होता है और न ही होना चाहिए. अर्जुन ने कृष्ण से सवाल पर सवाल पूछने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. आत्मार्पण का अर्थ यह नहीं है कि मनुष्य स्वयं अपनी विचार-शक्ति ही गंवा बैठे. बल्कि शुद्ध आत्मार्पण से विचार-शक्ति कुंठित होने के बजाय और अधिक तीव्र हो जाती है. ऐसा मनुष्य यह समझकर कि उसका एक अंतिम अवलंब तो है ही, वह अपनी मर्यादा के भीतर रहता हुआ हजारों प्रयोग करता है. लेकिन उन सबके मूल में उसकी विनम्रता रहती है. उसका ज्ञान और विवेक रहता है.
मेरे प्रति मगनलाल की आत्मार्पण की भावना बहुत अधिक है, फिर भी उसने स्वयं विचार करना कभी नहीं छोड़ा, ऐसी मेरी मान्यता है. तुम्हारा आचरण उससे भिन्न है, तुममें साहस की कमी है. जब भी सहारा मिलता है, तुम साहस खो देते हो. बहुत ज्यादा पढ़-लिख लेने की वजह से तुम्हारी अपनी सृजन की शक्ति कुंठित हो गई है, इसी कारण तुम सहकारी होना चाहते हो. मनुष्य स्वतंत्र कार्य करने की इच्छा रखते हुए भी अति विनम्र हो सकता है.
...तुम जिस दृष्टि से मेरे साथ रहना चाह रहे हो, वह शुद्ध है, लेकिन वह भ्रमयुक्त है. तुम तो केवल पश्चिम का अनुकरण करना चाहते हो. यदि मैं किसी मनुष्य को केवल इसलिए हमेशा अपने साथ रखूं कि वह मेरे कार्य का लेखा-जोखा रखे, तो मेरा यह व्यवहार अस्वाभाविक हो जाएगा. कोई सामान्यतः मेरे साथ रहे और मेरे कार्य का लेखा अदृश्य रूप से रखे, यह एक बात है, और कोई इसी इरादे से मेरे साथ रहकर लेखा रखे यह बिल्कुल दूसरी बात है....लेकिन मैं यह तो चाहता ही हूं कि तुम मेरे साथ हर वक्त रहो. तुम्हारी ग्रहणशक्ति और तैयारी अच्छी है. इसलिए मैं चाहता हूं कि तुम मेरी सभी बातें जान लो. मेरे मस्तिष्क में विचार बहुत हैं, लेकिन वे प्रसंग आने पर ही व्यक्त होते हैं. उनमें कई सूक्ष्मताएं होती हैं जो किसी को दिखाई नहीं देतीं. ...यदि तुम जैसा कोई मनुष्य मेरे साथ में रहे, तो वह अंत में मेरे काम को हाथ में ले सकता है, यह लोभ मेरे मन में रहता है.
...अभी मेरी इच्छा तुम्हें किसी एक काम में लगा देने की नहीं होती. बल्कि मैं तुम्हें अनुभव कराना चाहता हूं. फिर जिन लोगों को मैं जानता हूं, उन सबसे तुम्हारा संपर्क हो जाए तो भविष्य में हमारा कामकाज बहुत आसानी से चल पाएगा.’
गांधी के इस पत्र ने महादेव की सारी बची-खुची दुविधाओं का भी अंत कर दिया. इसके बाद के 22 सालों के साथ की कहानी भी अलग से कहने की जरूरत होगी.
उस दौर में महादेव देसाई को ‘गांधी की छाया’ कहा जाता था और सचमुच शब्दों के सही अर्थों में अपनी अंतिम सांस तक वे गांधी की छाया ही बने रहे. गांधीजी की छाया के रूप में ही उन्होंने अपने प्राण भी त्यागे. उनका निधन 15 अगस्त 1942 को हुआ था. कहते हैं कि तब यह जानते हुए कि महादेव की सांसें रुक चुकी हैं, महात्मा गांधी ने बहुत उत्तेजना के साथ उन्हें आवाज़ दी - ‘महादेव! महादेव!’ यह पूछने पर कि उन्होंने ऐसा क्यों किया, गांधी ने कहा - ‘मुझे लगा कि यदि महादेव अपनी आंखें खोल दे और मेरी ओर देख ले, तो मैं उसे कहूंगा कि उठ जाओ. उसने अपने जीवन में कभी मेरी बात नही काटी. मुझे विश्वास था कि अगर उसने मेरे शब्द सुन लिए तो वह मौत को भी हराकर उठ खड़ा हो जाएगा.’
महादेव देसाई के पार्थिव शरीर को गांधी ने अपने हाथों से स्नान कराया था और उसका अंतिम संस्कार किया था.
जब 14 अगस्त, 1947 की शाम लॉर्ड माउंटबेटन कराची से दिल्ली लौटे तो वो अपने हवाई जहाज़ से मध्य पंजाब में आसमान की तरफ़ जाते हुए काले धुएं को साफ़ देख सकते थे. इस धुएं ने नेहरू के राजनीतिक जीवन के सबसे बड़े क्षण की चमक को काफ़ी हद तक धुंधला कर दिया था.
14 अगस्त की शाम जैसे ही सूरज डूबा, दो संन्यासी एक कार में जवाहर लाल नेहरू के 17 यॉर्क रोड स्थित घर के सामने रुके. उनके हाथ में सफ़ेद सिल्क का पीतांबरम, तंजौर नदी का पवित्र पानी, भभूत और मद्रास के नटराज मंदिर में सुबह चढ़ाए गए उबले हुए चावल थे.
जैसे ही नेहरू को उनके बारे में पता चला, वो बाहर आए. उन्होंने नेहरू को पीतांबरम पहनाया, उन पर पवित्र पानी का छिड़काव किया और उनके माथे पर पवित्र भभूत लगाई. इस तरह की सारी रस्मों का नेहरू अपने पूरे जीवन विरोध करते आए थे लेकिन उस दिन उन्होंने मुस्कराते हुए संन्यासियों के हर अनुरोध को स्वीकार किया.

लाहौर में हिंदू इलाक़ों की जल आपूर्ति काटी गई
थोड़ी देर बाद अपने माथे पर लगी भभूत धोकर नेहरू, इंदिरा गांधी, फ़िरोज़ गाँधी और पद्मजा नायडू के साथ खाने की मेज़ पर बैठे ही थे कि बगल के कमरे मे फ़ोन की घंटी बजी.
ट्रंक कॉल की लाइन इतनी ख़राब थी कि नेहरू ने फ़ोन कर रहे शख़्स से कहा कि उसने जो कुछ कहा उसे वो फिर से दोहराए. जब नेहरू ने फ़ोन रखा तो उनका चेहरा सफ़ेद हो चुका था.
उनके मुँह से कुछ नहीं निकला और उन्होंने अपना चेहरा अपने हाथों से ढँक लिया. जब उन्होंने अपना हाथ चेहरे से हटाया तो उनकी आँखें आँसुओं से भरी हुई थीं. उन्होंने इंदिरा को बताया कि वो फ़ोन लाहौर से आया था.
वहाँ के नए प्रशासन ने हिंदू और सिख इलाक़ों की पानी की आपूर्ति काट दी थी. लोग प्यास से पागल हो रहे थे. जो औरतें और बच्चे पानी की तलाश में बाहर निकल रहे थे, उन्हें चुन-चुन कर मारा जा रहा था. लोग तलवारें लिए रेलवे स्टेशन पर घूम रहे थे ताकि वहाँ से भागने वाले सिखों और हिंदुओं को मारा जा सके.
फ़ोन करने वाले ने नेहरू को बताया कि लाहौर की गलियों में आग लगी हुई थी. नेहरू ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा, 'मैं आज कैसे देश को संबोधित कर पाऊंगा? मैं कैसे जता पाऊंगा कि मैं देश की आज़ादी पर ख़ुश हूँ, जब मुझे पता है कि मेरा लाहौर, मेरा ख़ूबसूरत लाहौर जल रहा है.'
इंदिरा गाँधी ने अपने पिता को दिलासा देने की कोशिश की. उन्होंने कहा आप अपने भाषण पर ध्यान दीजिए जो आपको आज रात देश के सामने देना है. लेकिन नेहरू का मूड उखड़ चुका था.
ट्रिस्ट विद डेस्टिनी
नेहरू के सचिव रहे एम ओ मथाई अपनी किताब 'रेमिनिसेंसेज ऑफ़ नेहरू एज' में लिखते हैं कि नेहरू कई दिनों से अपने भाषण की तैयारी कर रहे थे. जब उनके पीए ने वो भाषण टाइप करके मथाई को दिया तो उन्होंने देखा कि नेहरू ने एक जगह 'डेट विद डेस्टिनी' मुहावरे का इस्तेमाल किया था.
मथाई ने रॉजेट का इंटरनेशनल शब्दकोश देखने के बाद उनसे कहा कि 'डेट' शब्द इस मौके के लिए सही शब्द नहीं है क्योंकि अमरीका में इसका आशय महिलाओं या लड़कियों के साथ घूमने के लिए किया जाता है.
मथाई ने उन्हें सुझाव दिया कि वो डेट की जगह रान्डेवू या ट्रिस्ट शब्द का इस्तेमाल करें. लेकिन उन्होंने उन्हें ये भी बताया कि रूज़वेल्ट ने युद्ध के दौरान दिए गए अपने भाषण में 'रान्डेवू' शब्द का इस्तेमाल किया है.
नेहरू ने एक क्षण के लिए सोचा और अपने हाथ से टाइप किया हुआ डेट शब्द काट कर 'ट्रिस्ट' लिखा. नेहरू के भाषण का वो आलेख अभी भी नेहरू म्यूज़ियम लाइब्रेरी में सुरक्षित है.
जब पूरी दुनिया सो रही होगी
संसद के सेंट्रल हॉल में ठीक 11 बजकर 55 मिनट पर नेहरू की आवाज़ गूंजी, 'बहुत सालों पहले हमने नियति से एक वादा किया था. अब वो समय आ पहुंचा है कि हम उस वादे को निभाएं...शायद पूरी तरह तो नहीं लेकिन बहुत हद तक ज़रूर. आधी रात के समय जब पूरी दुनिया सो रही है, भारत आज़ादी की सांस ले रहा है.'
अगले दिन के अख़बारों के लिए नेहरू ने अपने भाषण में दो पंक्तियाँ अलग से जोड़ीं. उन्होंने कहा, 'हमारे ध्यान में वो भाई और बहन भी हैं जो राजनीतिक सीमाओं की वजह से हमसे अलग-थलग पड़ गए हैं और उस आज़ादी की ख़ुशियाँ नहीं मना सकते जो आज हमारे पास आई है. वो लोग भी हमारे हिस्से हैं और हमेशा हमारे ही रहेंगे चाहे जो कुछ भी हो. '
जैसे ही घड़ी ने रात के बारह बजाए शंख बजने लगे. वहाँ मौजूद लोगों की आँखों से आंसू बह निकले और महात्मा गाँधी की जय के नारों से सेंट्रल हॉल गूंज गया.
सुचेता कृपलानी ने, जो साठ के दशक में उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं, पहले अल्लामा इक़बाल का गीत 'सारे जहाँ से अच्छा' और फिर बंकिम चंद्र चैटर्जी का 'वंदे मातरम' गाया, जो बाद में भारत का राष्ट्रगीत बना. सदन के अंदर सूट पहने हुए एंग्लो - इंडियन नेता फ़्रैंक एन्टनी ने दौड़ कर जवाहरलाल नेहरू को गले लगा लिया.
संसद भवन के बाहर मूसलाधार बारिश में हज़ारों भारतीय इस बेला का इंतज़ार कर रहे थे. जैसे ही नेहरू संसद भवन से बाहर निकले मानो हर कोई उन्हें घेर लेना चाहता था. 17 साल के इंदर मल्होत्रा भी उस क्षण की नाटकीयता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके थे.
जैसे ही घड़ी ने रात के बारह बजाए उन्हें ये देख कर ताज्जुब हुआ कि दूसरे लोगों की तरह उनकी आँखें भी भर आई थीं.
वहाँ पर मशहूर लेखक खुशवंत सिंह भी मौजूद थे जो अपना सब कुछ छोड़ कर लाहौर से दिल्ली पहुंचे थे. उन्होंने बीबीसी से बात करते हुए कहा था. 'हम सब रो रहे थे और अनजान लोग खुशी से एक दूसरे को गले लगा रहे थे.'

ख़ाली लिफ़ाफ़ा
आधी रात के थोड़ी देर बाद जवाहरलाल नेहरू और राजेंद्र प्रसाद लॉर्ड माउंटबेटन को औपचारिक रूप से भारत के पहले गवर्नर जनरल बनने का न्योता देने आए.
माउंटबेटन ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया. उन्होंने पोर्टवाइन की एक बोतल निकाली और अपने हाथों से अपने मेहमानों के गिलास भरे. फिर अपना गिलास भर कर उन्होंने अपना हाथ ऊँचा किया,' 'टु इंडिया.'
एक घूंट लेने के बाद नेहरू ने माउंटबेटन की तरफ अपना गिलास कर कहा 'किंग जॉर्ज षष्टम के लिए.' नेहरू ने उन्हें एक लिफ़ाफ़ा दिया और कहा कि इसमें उन मंत्रियों के नाम हैं जिन्हें कल शपथ दिलाई जाएगी.
नेहरू और राजेंद्र प्रसाद के जाने के बाद जब माउंटबेटन ने लिफ़ाफ़ा खोला तो उनकी हँसी निकल गई क्योंकि वो खाली था. जल्दबाज़ी में नेहरू उसमें मंत्रियों के नाम वाला कागज़ रखना भूल गए थे.
प्रिंसेज़ पार्क पर लाखों लोगों का मजमा
अगले दिन दिल्ली की सड़कों पर लोगों का सैलाब उमड़ा पड़ा था. शाम पाँच बजे इंडिया गेट के पास प्रिंसेज़ पार्क में माउंटबेटन को भारत का तिरंगा झंडा फहराना था. उनके सलाहकारों का मानना था कि वहाँ करीब तीस हज़ार लोग आएंगे लेकिन वहाँ पाँच लाख लोग इकट्ठा थे.
भारत के इतिहास में तब तक कुंभ स्नान को छोड़ कर एक जगह पर इतने लोग कभी नहीं एकत्रित हुए थे. बीबीसी के संवाददाता और कमेंटेटर विनफ़र्ड वॉन टामस ने अपनी पूरी ज़िदगी में इतनी बड़ी भीड़ नहीं देखी थी.
माउंटबेटन की बग्घी के चारों ओर लोगों का इतना हुजूम था कि वो उससे नीचे उतरने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे. चारों ओर फैले हुए इस अपार जन समूह की लहरों ने झंडे के खंबे के पास बनाए गए छोटे से मंच को अपनी लपेट में ले लिया था.
भीड़ को रोकने के लिए लगाई गई बल्लियाँ, बैंड वालों के लिए बनाया गया मंच, बड़ी मेहनत से बनाई गई विशिष्ट अतिथियों की दर्शक दीर्घा और रास्ते के दोनों ओर बाँधी गई रस्सियाँ- हर चीज़ लोगों की इस प्रबल धारा में बह गईं थीं. लोग एक दूसरे से इतना सट कर बैठे हुए थे कि उनके बीच से हवा का गुज़रना भी मुश्किल था.
फ़िलिप टालबोट अपनी किताब 'एन अमेरिकन विटनेस' में लिखते हैं, 'भीड़ का दवाब इतना था कि उससे पिस कर माउंटबेटन के एक अंगरक्षक का घोड़ा ज़मीन पर गिर गया. सब की उस समय जान में जान आई जब वो थोड़ी देर बाद खुद उठ कर चलने लगा.'
पामेला की ऊँची हील की सैंडिल

माउंटबेटन की 17 वर्षीय बेटी पामेला भी दो लोगों के साथ उस समारोह को देखने पहुंचीं थीं. नेहरू ने पामेला को देखा और चिल्ला कर कहा लोगों के ऊपर से फाँदती हुई मंच पर आ जाओ.
पामेला भी चिल्लाई, 'मैं ऐसा कैसे कर सकती हूँ. मैंने ऊंची एड़ी की सैंडल पहनी हुई है.' नेहरू ने कहा सैंडल को हाथ में ले लो. पामेला इतने ऐतिहासिक मौके पर ये सब करने के बारे में सपने में भी नहीं सोच सकती थीं.
अपनी किताब 'इंडिया रिमेंबर्ड' में पामेला लिखती हैं, 'मैंने अपने हाथ खड़े कर दिए. मैं सैंडल नहीं उतार सकती थी. नेहरू ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा तुम सैंडल पहने-पहने ही लोगों के सिर के ऊपर पैर रखते हुए आगे बढ़ो. वो विल्कुल भी बुरा नहीं मानेंगे. मैंने कहा मेरी हील उन्हें चुभेगी. नेहरू फिर बोले बेवकूफ़ लड़की सैंडल को हाथ में लो और आगे बढ़ो.'
पहले नेहरू लोगों के सिरों पर पैर रखते हुए मंच पर पहुंचे और फिर उनकी देखा देखी भारत के अंतिम वॉयसराय की लड़की ने भी अपने सेंडिल को उतार कर हाथों में लिया और इंसानों के सिरों की कालीन पर पैर रखते हुए मंच तक पहुंच गईं, जहाँ सरदार पटेल की बेटी मणिबेन पटेल पहले से मौजूद थीं.
डोमिनीक लापिएर और लैरी कॉलिंस इपनी किताब 'फ़्रीडम एट मिडनाइट' में लिखते हैं, 'मंच के चारों ओर उमड़ते हुए इंसानों के उस सैलाब में हज़ारों ऐसी औरतें भी थीं जो अपने दूध पीते बच्चों को सीने से लगाए हुए थीं. इस डर से कि कहीं उनके बच्चे बढ़ती हुई भीड़ में पिस न जाएं, जान पर खेल कर वो उन्हें रबड़ की गेंद की तरह हवा में उछाल देतीं और जब वो नीचे गिरने लगते तो उन्हें फिर उछाल देतीं. एक क्षण में हवा में इस तरह सैकड़ों बच्चे उछाल दिए गए. पामेला माउंटबेटन की आखें आश्चर्य से फटी रह गईं और वो सोचने लगीं, 'हे भगवान, यहाँ तो बच्चों की बरसात हो रही है.''
बग्घी से ही तिरंगे को सलाम
उधर अपनी बग्घी में कैद माउंटबेटन उससे नीचे ही नहीं उतर पा रहे थे. उन्होंने वहीं से चिल्ला कर नेहरू से कहा,' बैंड वाले भीड़ के बीच में खो गए हैं. लेट्स होएस्ट द फ़्लैग.'
वहाँ पर मौजूद बैंड के चारों तरफ़ इतने लोग जमा थे कि वो अपने हाथों तक को नहीं हिला पाए. मंच पर मौजूद लोगों ने सौभाग्य से माउंटबेटन की आवाज़ सुन ली. तिंरंगा झंडा फ़्लैग पोस्ट के ऊपर गया और लाखों लोगों से घिरे माउंटबेटन ने अपनी बग्घी पर ही खड़े खड़े उसे सेल्यूट किया.
लोगों के मुंह से बेसाख़्ता आवाज़ निकली,'माउंटबेटन की जय..... पंडित माउंटबेटन की जय !' भारत के पूरे इतिहास में इससे पहले किसी दूसरे अंग्रेज़ को ये सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था कि वो लोगों को इतनी दिली भावना के साथ ये नारा लगाते हुए सुने. उस दिन उन्हें वो चीज़ मिली जो न तो उनकी परनानी रानी विक्टोरिया को नसीब हुई थी और न ही उनकी किसी और संतान को.
भारत के इतिहास में किसी दूसरे अंग्रेज़ को ये सौभाग्य नहीं प्राप्त हुआ था कि वो लोगों को इतनी शिद्दत के साथ ये नारा लगाते हुए सुने. यह माउंटबेटन की कामयाबी को भारत की जनता का समर्थन था.
इंद्रधनुष ने किया आज़ादी का स्वागत
उस मधुर क्षण के उल्लास में भारत के लोग प्लासी की लड़ाई, 1857 के अत्याचार, जालियाँवाला बाग की ख़ूनी दास्तान सब भूल गए. जैसे ही झंडा ऊपर गया उसके ठीक पीछे एक इंद्रधनुष उभर आया, मानो प्रकृति ने भी भारत की आज़ादी के दिन का स्वागत करने और उसे और रंगीन बनाने की ठान रखी हो.
वहाँ से अपनी बग्घी पर गवर्नमेंट हाउज़ लौटते हुए माउंटबेटन सोच रहे थे सब कुछ ऐसा लग रहा है जैसे लाखों लोग एक साथ पिकनिक मनाने निकले हों और उन में से हर एक को इतना आनंद आ रहा हो जितना जीवन में पहले कभी नहीं आया था.
इस बीच माउंटबेटन और एडवीना ने उन तीन औरतों को अपनी बग्घी में चढ़ा लिया जो थक कर निढ़ाल हो चुकी थीं और उनकी बग्घी के पहिए के नीचे आते आते बची थीं. वो औरतें काले चमड़ों से मढ़ी हुई सीट पर बैठ गईं जिसकी गद्दियाँ इंग्लैंड के राजा और रानी के बैठने के लिए बनाई गई थीं.
उसी बग्घी में भारत के प्रधानमंत्री जवाहललाल नेहरू उसके हुड पर बैठे हुए थे क्योंकि उनके लिए बग्घी में बैठने के लिए कोई सीट ही नहीं बची थी.
पूरी दिल्ली में रोशनी
अगले दिन माउंटबेटन के बेहद करीबी उनके प्रेस अटाशे एलन कैंपबेल जॉन्सन ने अपने एक साथी से हाथ मिलाते हुए कहा था, 'आखिरकार दो सौ सालों के बाद ब्रिटेन ने भारत को जीत ही लिया !'
उस दिन पूरी दिल्ली में रोशनी की गई थी. कनॉट प्लेस और लाल किला हरे केसरिया और सफ़ेद रोशनी से नहाये हुए थे. रात को माउंटबेटन ने तब के गवर्नमेंट हाउस और आज के राष्ट्रपति भवन ने 2500 लोगों के लिए भोज दिया.
क्नाट प्लेस के सेंटर पार्क में हिंदी के जानेमाने साहित्यकार करतार सिंह दुग्गल ने आज़ादी का बहाना ले कर अपनी ख़ूबसूरत माशूका आएशा जाफ़री का पहली बार चुंबन लिया. करतार सिंह दुग्गल सिख थे और आएशा मुसलमान.
बाद में दोनों ने भारी सामाजिक विरोध का सामना करते हुए शादी की.(BBC)
-राकेश दीवान
‘राहत’ इंदौरी की विदाई ने साहित्यिक हलकों में एक बार फिर वही पुराना ‘लोकप्रिय बनाम शास्त्रीय’ का मुद्दा छेड दिया है। ‘राहत’ भाई की धुआंधार लोकप्रियता में डूबते-उतराते कई लोग उन्हें आवाम की आवाज कह रहे हैं तो कुछ विद्वान उन पर ‘लोकप्रिय’ होने की तोहमत लगा रहे हैं, गोया लोकप्रिय होना शास्त्रीय अर्थों में साहित्यकार होना नहीं माना जा सकता। गजल गायक जगजीत सिंह के शुरुआती दौर में उन पर भी आरोप थे कि उन्होंने गजल को लोकप्रियता के नाम पर ‘हलका’ कर दिया है। कई विद्वान साहित्यकार आज भी मानते हैं कि पचास-बावन साल और दर्जनों संस्करणों वाली ‘रागदरबारी’ केवल मनोरंजन की किताब है और उसमें सम-सामयिक समाज का कोई भरोसेमंद विश्लेषण नहीं है। कुल मिलाकर घूम-फिरकर सवाल यही है कि क्या लोकप्रियता शास्त्रीयता से कमतर और अल्प-जीवी होती है और लाखों-लाख लोगों को प्रभावित करने वाली रचना असल में साहित्य या कलाओं के संसार में दो-कौडी की हैसियत नहीं रखती?
भोपाल में तब के ‘शासन साहित्य परिषद’ की कार्यक्रम-श्रंखला ‘समय और हम’ में बोलते हुए हरिशंकर परसाई ने एक मार्के की बात कही थी। उन्होंने कहा था कि साहित्य सृजन का ‘कच्चा माल’ समाज ही देता है, जिसे बाद में अपने विचार, शैली, भाषा और अनुभवों के जरिए सजा-संवारकर साहित्यकार वापस उसी समाज के सामने पेश कर देता है। कुम्हार, मिट्टी और मटके के आपसी रिश्तों का उदाहरण देते हुए परसाई जी ने इसे रचना प्रक्रिया की द्वंद्वात्मकता बताया था। सवाल है कि किसी विधा की रचना प्रक्रिया में समाज नाम के ‘कच्चे माल’ का आजकल कितना हिस्सा होता है? क्या हमारा साहित्य और दूसरी कलाएं समाज, खासकर निम्न और निम्न-मध्यवर्गीय समाज की धडकन पहचान पाती हैं? क्या रचनाकार उस समाज को ठीक जानता-पहचानता है जिसके बारे में उसकी रचनाएं अहर्निश गुहार लगाती रहती हैं? और सबसे अहम, क्या रचनाकार समाज नाम की ‘कच्ची मिट्टी’ से अपनी भौतिक, संवेदनात्मक और आध्यात्मिक दूरी को पहचान पा रहा है?
साहित्य और कलाओं के ही सहोदर मीडिया की ‘कच्ची मिट्टी’ यानि जीते-जागते समाज से कोसों दूरी की बानगी पिछले अनेक चुनावों में की गई उसकी उन भविष्यवाणियों से बुरी तरह उजागर हो गई थीं जिनमें इस-या-उस राजनीतिक जमात को विजयी या हारता हुआ बताया जा रहा था और नतीजे भविष्यवाणियों के ठीक विपरीत आ रहे थे। देसी मीडिया में कृषि और ग्रामीण जीवन की लगातार घटती हैसियत और उनकी ‘बीट’ समाप्त होने को इसकी वजह बताया गया था, लेकिन फिर ‘न्यूयार्क टाइम्स’ को क्या हो गया था जिसने एन चुनाव के नतीजों के एक दिन पहले हिलरी क्लिंटन की जीत बताते हुए पूरे पहले पन्ने् पर उनका फोटू छापा था। सब जानते हैं, एक दिन पहले की गई इस ‘पक्की’ भविष्यवाणी के ठीक विपरीत चुनाव में मौजूदा राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रम्प की जीत हुई थी। जाहिर है, देशी हो या विदेशी, मीडिया अपनी-अपनी ‘कच्ची मिट्टी’ को पढने, पहचान पाने में नकारा साबित हुआ है।
कला-साहित्य–मीडिया की तरह यदि हम अपने आसपास की राजनीति को भी देखें तो ‘कच्ची मिट्टी’ से दूरी का यह कारनामा वहां ज्यादा तीखे रूप में दिखाई देता है। अभी पिछले हफ्ते न्यूज-पोर्टल ‘गांव कनेक्शन’ और ख्यात शोध संस्थान ‘सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डॅवलपिंग सोसाइटीज’ (सीएसडीएस) के लॉकडाउन के दौरान हुए अनुभवों पर एक संयुक्त रिपोर्ट आई है। मई 30 से जुलाई 16 के बीच देश के 20 राज्यों, जिनमें दक्षिण के चार बडे राज्य शामिल नहीं हैं, और तीन केन्द्र शासित क्षेत्रों के 179 जिलों में 25 हजार लोगों के रूबरू साक्षात्कार के आधार पर तैयार इस रिपोर्ट में बताया गया है कि तरह-तरह के संकटों, चिंताओं और कमियों के बावजूद लोगों को मौजूदा केन्द्र और राज्य सरकारों पर पूरा भरोसा है। रिपोर्ट में 78 फीसदी लोगों ने कहा है कि उनके यहां काम पूरी तरह ठप्प है, 68 फीसदी लोग आर्थिक संकट का सामना कर रहे हैं और 77 फीसदी के गांवों में रोजगार की समस्या है। पांच फीसदी परिवारों को छोडकर बाकी सभी पर लॉकडाउन का असर पडा है, एक तिहाई परिवारों को लॉकडाउन के दौरान बहुत बार (12 फीसदी) और कई बार (23 फीसदी) पूरा दिन भूखा रहना पडा है। उन्हें घर खर्च के लिए कर्ज लेना पडा है और जायदाद, जेवर, जमीन आदि बेचना पडे हैं। दो-तिहाई प्रवासी मजदूरों ने बताया कि उन्हें सरकारी खाना नहीं मिला और आठ में से एक प्रवासी मजदूर की पुलिस ने पिटाई भी की।
विडंबना यह है कि इन तमाम-ओ-तमाम दुखों, तकलीफों के बावजूद, इसी अध्ययन के मुताबिक 74 फीसदी लोग केन्द्र और राज्य सरकारों के कदमों से संतुष्ट पाए गए। यहां तक कि प्रवासी मजदूरों के दो-तिहाई हिस्से ने भी सरकारी कार्रवाइयों से संतुष्टि जाहिर की। लॉकडाउन के संकटों पर कमोबेश इसी तरह का अध्ययन मीडिया समूह ‘इंडिया टुडे’ ने भी करवाया था और उसके नतीजे भी लगभग ऐसे ही थे। यानि ढेर सारी असहनीय पीडाओं के बावजूद समाज में अपनी सरकारों से कोई गिला-शिकवा नहीं पाया गया। मानो तकलीफें और सरकार दो अलग-अलग बातें हैं और उन्हें चुनने या भोगने के मापदंड भी भिन्न -भिन्न। तमाम अटकल-पच्चियों के बावजूद सवाल है कि क्या हमारा समाज आजादी के बाद के सबसे बडे पलायन को भोगने की तकलीफों को महसूस करना भी छोड चुका है? या फिर ‘पहचान,’ ‘धर्म’,’ ‘बहु-संख्यकवाद’ जैसी कोई और बात है जिसके चलते आम लोग अपने दुख-दर्द भुला देते हैं? या फिर अध्ययन-कर्ताओं समेत विस्तारित मध्य और उच्च-मध्य वर्ग अपने ही समाज के ‘निचले’ तबकों के बारे में निरा अनजान है?
अर्थशास्त्री प्रोफेसर रामप्रताप गुप्ता ने मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह और उत्तरप्रदेश में मायावती की सरकारों के अपने तुलनात्मक अध्ययन में बताया था कि तरह-तरह की आर्थिक योजनाओं, नीतियों के बावजूद दिग्विजय सिंह दलित वोटों को अपनी तरफ नहीं खींच पाए थे। दूसरी तरफ, पहचान और अस्मिता की राजनीति करने वाली मायावती ने भले ही दलितों को अम्बेडकर पार्कों, हाथी और पार्टी के नीले रंग के अलावा कोई और ठोस मदद न भी की हो, दलितों के बीच अपना वोट प्रतिशत बढा पाने में सफल हुई थीं। तो क्या लॉकडाउन में भी तमाम तकलीफों के बावजूद राम मंदिर, धारा-370 और ‘समान नागरिक संहिता’ का झुनझुना काम कर गया? जो भी हो, इतना तो पक्का है कि हमारी राजनीतिक जमातें अपने-अपने ‘कच्चे माल’ यानि समाज से कोसों दूर बैठी हैं। यह दूरी समाज में एक तरह का राजनीतिक शून्य पैदा करती है और नतीजे में समाज उन संकटों की राजनीतिक अभिव्यक्ति तक नहीं कर पाता जो उसे अहर्निश तकलीफ देते रहते हैं, संकटों पर गोलबंद होना तो दूर की बात है। नब्बे के दशक की शुरुआत में आए भूमंडलीकरण ने और कुछ किया हो, न किया हो, तीस फीसद आबादी का ऐसा एक शहरी मध्यमवर्ग जरूर खडा कर दिया है जिसे अपने अलावा किसी की कोई परवाह नहीं रहती। डर है, हमारी कलाएं, साहित्य और राजनीति कहीं इसी के लपेटे में न आ जाएं।
“कोई भी भोजपुरी फ़िल्म महिला-केंद्रित नहीं है। इस भाषा में फिल्माए गए सभी गीत स्त्री को वस्तु के रूप में प्रदर्शित करते हैं।”
यह कथन है, साल 2001 के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार (बेहतरीन समीक्षक श्रेणी) के विजेता विनोद अनुपम का जिनके मुताबिक भोजपुरी में फ़िल्म बनाने वाले लोग भोजपुरी संस्कृति और समाज को बिल्कुल नहीं समझते। असल में भोजपुरी सिनेमा कहीं से भी भोजपुरी के उद्देश्यों को पोषित नहीं करता। क्षेत्रीय कला और साहित्य के निहित उद्देश्यों से इतर भोजपुरी सिनेमा का मूल उद्देश्य आर्थिक फायदे तक सीमित रह गया है। भोजपुरी सिनेमा अश्लीलता और फूहड़ता दर्शाकर अशिक्षित दर्शक वर्ग की सेक्स कुंठा की मांग पूरी करता है।
भोजपुरी सिनेमा की शुरुआती फिल्में आज की तुलना में काफ़ी अलग थी। ऐसा समाज जिसकी अभिव्यक्ति भिखारी ठाकुर के नाटकों और शारदा सिन्हा के गीतों से होती थी, आज वह सिनेमा में लगभग हर मायने में बदल गया है। इसमें एक ढर्रे के तहत बॉडी शेमिंग, ट्रांस समुदाय को उपेक्षित करना और औरतों के शरीर को हद से ज़्यादा ऑब्जेक्टिफाई करना सामान्य हो गया है।
भोजपुरी समाज और फिल्में
भोजपुरी हिंदी की उपभाषा है। यह अपने शब्दों के लिए हिंदी और संस्कृत पर निर्भर है। हालांकि इसे भाषा के रूप में प्रयोग करने वाला एक बड़ा समूह है। भारत में लगभग 3.3 करोड़ लोग भोजपुरी बोलते हैं और विश्व के अलग-अलग देशों में भी रोज़गार की तलाश में गए या उपनिवेशवाद के समय दूसरे देशों में भेजे गए मजदूरों की नई पीढ़ियां भी यह भाषा समझती हैं। इसलिए भोजपुरी सिनेमा के पास एक बड़ा दर्शक वर्ग है। यह बड़ा समूह तमाम कुरीतियों और रूढ़ियों का ग्राउंड ज़ीरो है। दरअसल, भोजपुरी दर्शक वर्ग जिस क्षेत्र से आता है वहां सामाजिक सुधार कार्यक्रमों से भी कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया है। यहां की अधिकतर जनता अशिक्षित है। राजनीति में धर्म और उच्च जाति का प्रभुत्व है। महिलाएं अभी भी घूंघट काढ़े चारदीवारी में सेवा करते हुए अपने कर्तव्य निभा रही हैं।
इस उत्तर-आधुनिक दौर में यहां एक बड़े सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता है जो कला आदि के माध्यम से लाया जाना चाहिए था। लेकिन, पृष्ठभूमि की सच्चाई यह है कि क्षेत्रीय सिनेमा अपने आप में ख़ुद जातिवाद, पितृसत्ता और शोषण की नींव रखता नज़र आता है। भोजपुरी फिल्मों के माध्यम से अपने शोषणात्मक रवैये को वैधता देने की कोशिश करता है। यहां क्लीशे कहानियां प्रस्तुत की जाती हैं जिनमें उच्च वर्गीय जमींदार ‘ठाकुर’ होता है और किसी अन्य ‘ठाकुर’ से उसकी दुश्मनी होती है। बदलते समय के साथ भोजपुरी सिनेमा अधिक ‘रिजिड’ ही हुआ है, उसमें प्रगतिशीलता का लेशमात्र भी नहीं मिलता।
भोजपुरी फिल्मों के माध्यम से अपने शोषणात्मक रवैये को वैधता देने की कोशिश करता है।
सिनेमा की भूमिका
सिनेमा समाज का आईना है और समाज को सिनेमा से बहुत कुछ सीखना चाहिए। असल में, सिनेमा, समाज और साहित्य एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। सिनेमा की विधा अपने भीतर तमाम दूसरी विधाओं को शामिल करते हुए एक बड़े दर्शक वर्ग तक पहुंचती है। इसलिए वैचारिक संचार में इसका महत्व अधिक है। फिल्में असल में केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं हैं। उनमें एक निहित उद्देश्य होता है, समाज के उत्थान व बेहतरी का उद्देश्य। भारत के मुख्य सिनेमा बॉलीवुड को देखें तो उसमें सत्यजीत रे, बलराज साहनी, देविका रानी जैसे प्रमुख नाम हैं जिन्होंने नए सिरे से सिनेमा को गढ़ा। उसे मनोरंजन मात्र का उद्देश्य और सामाजिक शोषण को वैधता देने वाला माध्यम न बनाकर सामाजिक परिवर्तन की नींव रखने वाला माध्यम बनाया।
ऐसा बदलाव भोजपुरी सिनेमा में नहीं हुआ। भोजपुरी सिनेमा का शुरुआती दौर साल 1963- ‘गंगा मईया तोहके पियरी चढ़ईबै’ में धार्मिक रहा, बाद में 1990 के बाद ये पूरी तरह कमर्शिअल सिनेमा हो गया जिसमें सामाजिक पितृसत्ता के कारण स्त्री देह का बाज़ारीकरण किया गया। जब यह धार्मिक था, तब भी स्त्रियों पर धर्म के नियम और कानून थोपकर उनका शोषण करता था। आज भोजपुरी सिनेमा में धड़ल्ले से स्त्री शरीर को निशाना बनाते हुए गाने बन रहे हैं, जिन्होंने स्त्री की परिभाषा वस्तु होने भर तक सीमित कर दी है। स्त्री के अंगों, वस्त्रों और उसकी मुद्राओं को इस तरह दिखाया जा रहा है, जिससे यह नैरेटिव सिद्ध हो कि तथाकथित वस्त्र अथवा मुद्रा ‘अपीलिंग’ होती है। यही कारण है कि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों के साथ यौन हिंसा और बलात्कार के लिए लड़कियों को ही दोषी ठहरा दिया जाता है।
यौनिकता और भोजपुरी सिनेमा
सामंतवादी दौर के बाद धर्म अधिक शक्तिशाली हुआ जिससे दिन-प्रतिदिन के जीवन में उसकी पैठ बनी। तमाम धार्मिक ग्रन्थों के आचारों और नियमों के माध्यम से स्त्री को हाशिए पर ढकेल दिया गया। धर्म स्त्री को माया और वासना के रूप में दर्शाते हुए उसे संतों और समाज कल्याण के इच्छुकों के लिए सदैव श्राप बताता आया है। धार्मिक कथाओं में अक्सर दर्शाया जाता है कि अप्सराएं ऋषियों का ध्यान भंग करने आती थीं यानी एक मापदंड बना दिया गया, जिसके अनुसार सेक्स की इच्छा को हमेशा बुरी चीज़ मानकर प्रसारित किया गया।
आज भी परिवार इसपर बात नहीं करते और यह ‘गन्दी बात’ मानी जाती है। बढ़ती उम्र के साथ व्यक्ति हार्मोन्स के कारण सेक्स की इच्छा तो महसूस करता है लेकिन तथाकथित सभ्य होने की परिभाषा के कारण वह इसे ज़ाहिर नहीं कर पाता, नतीजतन वह इच्छा कुंठा बनकर उभरती है। दरअसल, यह समाज स्त्री के शरीर को नहीं जानता, वह एक औरत के शरीर को अपने शरीर की तरह सहजता से नहीं स्वीकार करता है। रोक-टोक के कारण किसी भी स्त्री से बात तक नहीं कर पाने के कार उस शरीर के प्रति आकर्षण और उसे भेदने की इच्छा और तीव्र होती है। यही कारण है कि अशिक्षित ग्रामीण भोजपुरी समाज में इतनी तेज़ी से खेसारी लाल यादव और रितेश के अश्लील और औरतों के शरीर पर टिके गाने इतने पसंद किए जाते हैं।
भोजपुरी समाज अभी भी रूढ़ियों और कुरीतियों से जूझ रहा है। इन क्षेत्रों में धर्म और जाति अभी भी सबसे महत्वपूर्ण मसले हैं। स्त्रियां हाशिए पर हैं और पितृसत्ता चरम पर है, धर्म जीवन का अभिन्न अंग है। यहां फ़िल्म के महत्वपूर्ण तकनीशियन और कारीगर पुरुष हैं। फ़िल्म निर्माता पुरुष हैं इसलिए वे पुरुषों के चश्मे से ही फिल्में बनाते हैं। दर्शक वर्ग भी पुरुष है। इसलिए पूरी फिल्म इस उद्देश्य से बनती है कि उक्त समूह को आकर्षित कर बड़ी हिट हो जाए। भोजपुरी सिनेमा में जो कुछ फिल्में अश्लील नहीं भी होती वे भी पितृसत्ता को ढोती दिखती हैं। उनके माध्यम से पत्नी, बहन और बेटी के रूप में आदर्श स्वरूप गढ़े जाते हैं जिनके जीवन का मूल उद्देश्य पिता, पति और भाई के ‘सम्मान’ के लिए अपना जीवन न्योछावर करना होता है।
इन फिल्मों में अधिकतर ‘ठाकुर’, ‘ब्राह्मण’ और ‘यादव’ जातियों को दिखाया जाता है जो सीधे तौर पर अन्य जातियों को कमतर आंकने और समाज में उनकी मौजूदगी को नकारती मालूम पड़ती हैं। यहां की अमिनेत्रियों और गायिकाओं को बोलने तक की स्वायत्तता नहीं होती। रोजगार की कमी के कारण लगातार नए लोग आ रहे हैं और वे किसी भी समय प्रतिस्थापित की जा सकती हैं, यह डर उन महिलाओं को अपनी राय रखने का पूरा मौका नहीं देता। हाल ही में एक प्रसिद्द भोजपुरी अभिनेत्री ‘रानी चटर्जी’ ने यह बात ट्विटर पर शेयर करते हुए कहा कि महिलाएं बोल नहीं सकती क्योंकि फिल्म से उन्हें हटाकर दूसरे लोगों को रख दिया जाएगा।
भोजपुरी सिनेमा जिस समाज का नेतृत्व कर रहा है उसमें बहुत सारे बदलाव किए जाने की आवश्यकता है। ऐसे में अगर सिनेमा भी उसी पितृसत्ता और स्त्री-द्वेष को पोषित करेगा तो संपूर्ण बदलाव के लिए दूसरे अवसर खोजने होंगे। यह अवसर भोजपुरी साहित्य को मिले। साथ ही, पढ़े-लिखे लोगों को इन समस्याओं को समझने की ज़रूरत है। इन क्षेत्रों में जाकर व्यापक सुधार करने और कुंठाओं को तोड़ने की आवश्यकता है। इसमें महिलाओं को आगे बढ़ना होगा और तमाम रूढ़ियों को खत्म करना होगा। ये गाने और फिल्में सेंसर किए जाने चाहिए क्योंकि ये कम पढ़े लिखे युवाओं को वो सब करने के लिए उकसा रहे, जिसमें महिला को इंसान नहीं समझा जाता, उसकी राय नहीं ली जाती, न ही उसकी भावनाओं का कोई मोल होता है।
(यह लेख पहले फेमिनिज्मइनइंडियाडॉटकॉम पर प्रकाशित हुआ है।)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी ने कमला हैरिस को उप-राष्ट्रपति का उम्मीदवार घोषित करके एक तीर से कई शिकार कर लिये हैं। यदि वे जीत गईं तो वे अमेरिका की पहली महिला उप-राष्ट्रपति बनेंगी।
डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जो बाइडन हैं, जो स्वयं दो बार उप-राष्ट्रपति रह चुके हैं। यदि वे राष्ट्रपति चुने गए तो वे दूसरी बार राष्ट्रपति का चुनाव नहीं लड़ेंगे, क्योंकि वे 77 साल के हो गए हैं। अर्थात यह असंभव नहीं कि 2024 में अमेरिका की पहली राष्ट्रपति भी कमला हैरिस ही हों। उनकी उम्र अभी सिर्फ 55 साल है। कमला वैसे अभी अमेरिकी सीनेट (राज्यसभा) की सदस्य हैं। यह सीट उन्होंने बाकायदा चुनाव लडक़र जीती है। इसके पहले वे केलिफोर्निया की एटार्नी जनरल रह चुकी हैं। उनकी मां श्यामला गोपालन हमारे तमिलनाडु की थीं और पिता डोनाल्ड हैरिस जमैका के।
याने वे भारतीय मूल की भी है और लातीन अमेरिकी और अफ्रीकी मूल की भी। उन्हें अमेरिका में अश्वेत ही माना जाता है। वे वास्तव में न तो काली हैं, न गौरी हैं। वे गेहुंआ है। ऐसा लगता है कि यह गेहुंआ रंग अब अमेरिका के सिर पर चढक़र बोलेगा। उन्होंने जार्ज फ्लायड हत्याकांड पर अपनी आवाज़ इतने जोर से उठाई थी कि अमेरिकी लोगों के दिलों में उनका स्थान एक बहादुर महिला का बन गया था। उन्होंने डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बनने की भी कोशिश की थी। उन्होंने जो बाइडन का विरोध करने में भी कोई संकोच नहीं किया था।
बाइडन के प्रतिद्वंदी होने के बावजूद उनको बाइडन ने अपने साथ उप-राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया है। इसका फायदा उन्हें अपने चुनाव में जरुर मिलेगा। प्रवासी भारतीयों के लगभग 18 लाख वोट हैं और वोटों से भी कहीं ज्यादा उनका प्रभाव है। यों भी डेमोक्रेटिक पार्टी अमेरिका के भारतीयों में लोकप्रिय रही है। डोनाल्ड ट्रंप की तरफ उनका झुकाव इधर जरुर बढ़ा है लेकिन कमला हैरिस इस प्रभाव को बाइडन की तरफ मोडऩे में सफल होंगी।
कमला हैरिस से उम्मीद की जाती है कि उप-राष्ट्रपति बनने पर भारत के प्रति उनका रवैया काफी रचनात्मक रहेगा लेकिन कश्मीर और नागरिकता संशोधन कानून जैसे मुद्दों पर उनकी भारत से स्पष्ट असहमति रही है। वे स्पष्टवादी और निडर महिला हैं। उनका दृढ़ आत्म-विश्वास ही उन्हें इस ऊंचे मुकाम तक ले आया है। कमला की वजह से अमेरिका के भारतीय लोगों में नई चेतना का संचार होगा। अमेरिकी संस्कृति में एक नया आयाम जुड़ेगा। कमला हैरिस के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।
(नया इंडिया की अनुमति से)
महेन्द्र सिंह
एक समय था जब दलबदल कभी-कभी होता था। अब लगातार ऐसे समाचार आते हैं। किसी न किसी राज्य में यह मामला चलता रहता है। लगता है राज्यों में किसी दल को बहुमत मिलने का कोई अर्थ ही नहीं रहा। तुरंत कयास लगने लगते हैं कि कितनी देर सरकार चलेगी। विधायक अपनी नाराजगी के संदेश आसपास छोड़ते रहते हैं। अब यह मान लेना चाहिए कि दलबदल राज्यों की राजनीति का स्थायी पहलू हो गया है। क्या यह मतदाता के चुनने के अधिकार को कमजोर करना नहीं है।
दलबदल कानून जब बना था तब सोचा गया था कि इससे राजनीतिक पार्टियों में विधायक चुने जाने के बाद एक पार्टी से दूसरी पार्टी में शामिल होने के सिलसिले पर रोक लगेगी। राजनीतिक दृष्टि से अस्थिरता का माहौल निर्मित होने से रोकने के लिए यह कानून बना था। कानून में व्यवस्था दी गई कि पार्टी के विधायकों में से एक तिहाई विधायक, सांसद होने पर ही पार्टी बदली जा सकती है। बाद में इसे दो-तिहाई कर दिया गया।
लोभी लालची विधायक, सांसदों ने मंत्री पद, राज्यसभा सांसद एवं मोटी रकम के लोभ में दल बदल के नए-नए तरीके निकाल लिए। जिस पार्टी के टिकट पर उन्होंने विधायक सांसद पद पर जीत हासिल की, उसी पार्टी के विरूद्ध मनमाफिक आरोप भी लगा दिए। नारा दिया, जनता की भलाई का और क्षेत्र के विकास की तरफ ध्यान न देने का। वास्तव में देखा जाए तो अधिकांश विधायक सांसद जीत के बाद अपने क्षेत्र के किसी गांव कस्बे में जनता की समस्या जानने के लिए जाते ही नहीं हैं।
वैसे तो जब तक जनता ही ऐसे नेताओं और लोभी, लालची फरेबी नेताओं को चुनाव में नहीं हराएगी, तब तक इनका भ्रामक खेल चलता रहेगा। मगर वर्तमान हालात को देखते हुए दल बदल कानून में बदलाव भी जरूरी लगता है। कुछ सुधार विचारार्थ प्रस्तुत हैं। यदि किसी पार्टी के टिकट पर जीतने वाला विधायक सांसद इस्तीफा देता है अथवा दल बदलता है तो 6 वर्ष के लिए चुनाव लडऩे से वंचित किया जाए। क्योंकि पिछले सात-आठ सालों में राजनीति में इतनी धनशक्ति का प्रवेश हो गया है कि दलबदलूविधायकी से इस्तीफा देने और फिर चुनाव लडक़र वापस आने के लिए तैयार रहते हैं। प्रलोभन इतना है कि उन्हें अपनी विधानसभा सदस्यता गंवाने का थोड़ा सा भी डर नहीं होता।
साथ ही इस बारे में भी विचार किया जाना चाहिए कि दलबदलू विधायक टिकट देने वाली पार्टी को पाँच करोड़ रुपए दे। उसे कुछ न कुछ दिन की सजा देने पर भी विचार किया जा सकता है। साथ ही इस प्रस्ताव पर भी कि दलबदल करने वाला या कार्यकाल के बीच इस्तीफा देने वाले विधायक को मंत्री या किसी भी अन्य पद के लिए छह साल तक अयोग्य करारदिया जाए। ऐसा सुधार होने से ही लोभी नेता सौ बार सोचेने को विवश होंगे और दल बदलके प्रति हतोत्साहित होंगें।
मगर कानून के अलावा जनता के बीच भी इस बारे में बात होनी चाहिए। पद लोलुपता और लालच का एक उदाहरण विचारार्थप्रस्तुत है, जिसके कारण देश अंग्रेजों का गुलाम बना और तरह-तरह के जुल्मों सितम सहता रहा। अंग्रेजों का देश में आगमन ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा हुआ। ब्रिटेन की इस ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल के नवाब से व्यापार की इजाजत मांगी। इजाजत मिलने पर कंपनी ने अपना व्यापार शुरू कर दिया। धीरे, धीरे अंग्रेज गुप्त रूप से अपनी सैनिक शक्ति बढ़ाने के साथ कद्दावर, लोभी व्यक्तियों से संपर्क बढ़ाने लगे आखिरकार, उन्हें बंगालव नवाब की सेना का सेनापति मीर जाफर मिल गया। एक फर्जी नकली लड़ाई लड़ लो, कुछ सैनिक मरेंगे, और हार मान लेना। हमारा शासन पर कब्जा होते ही तुम्हें नवाब बना देंगे। ऐसा ही हुआ और बंगाल पर अंग्रेजों का शासन हो गया। गद्दारी के आरोप में मीर जाफर को भी मरवा दिया। लगातार अंग्रेजों की ताकत बढ़ती गई और पूरे देश में उनका शासन हो गया।
मीर जाफर जैसी सोच वाले अनेकोंकद्दावर नेता देश की राजनीतिक पार्टियों में भी हैं। वे अवसर की तलाश में रहते हैं और लाभ का मौका मिलने पर दूसरी पार्टी में शामिल हो जाते हैं। दल बदलने कानून में छेद के लिए नए-नए तरीके निकल रहे हैं। मध्य प्रदेश में 22 विधायकों, जिनमें 6 मंत्री भी थे, ने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा देकर कांग्रेस पार्टी की सरकार गिरा दी और भाजपा की सरकार बनवा दी। इसके बाद यह प्रवृत्ति राजस्थान की तरफ चली गई। वहां यथास्थिति है, मगर अस्थिरता भी बनी हुई है।
मीर जाफर को इस बात से कोई मतलब न था कि ईस्ट इंडिया कंपनी देश के साथ क्या करेगी। इसी तरह आज के मीर जाफरों को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि उनके ऐसे कदम से लोकतंत्र का क्या होगा। इसी तरह चलता रहा तो लोकतंत्र के एक मजाक में परिवर्तित होने में देर नहीं लगेगी। किसी राज्य में ऐसा लगातार दो बार हो गया तो लोगों में मतदान के प्रति वास्तविक रुचि भी घट जाएगी। ऐसे विधायकों को इस बात से कोई मतलब नहीं कि जिस नई पार्टी या सरकार में वे शामिल होने जा रहे हैं, उसकी अर्थतंत्र या समाज को लेकर क्या नीति है।
(लेखक सेवानिवृत्त प्राचार्य हैं / लेखक शिक्षा विभाग के सेवानिवृत अधिकारी हैं।)
-परिवेश मिश्र
कुछ सप्ताह पहले मेरे पते पर स्पीड पोस्ट के जरिये दिल्ली से एक लिफाफा रवाना हुआ। मैं नेट पर ट्रैक कर रहा था। ठीक ठाक चलते हुए लिफाफा 50 किलोमीटर दूर जिला मुख्यालय रायगढ़ तक पंहुचा और वहीं अटक गया। एक दो करते जब दस दिन हो गये तो अपने पोस्टमास्टर से फोन करवाया वजह जानने के लिये। रायगढ़ वालों ने कन्फर्म किया लिफाफा उनके पास है लेकिन वे इंतजार कर रहे थे कि कुछ और डाक आ जाए (संख्या सम्मानजनक हो जाए) तो भेजें।
मुझे वो जमाना याद आ गया जब मेरे शहर में कुछ सिनेमा हॉल (तब टॉकीज शब्द प्रचलित था) की रेपुटेशन थी कि वे पर्याप्त दर्शक इक_ा हो जाने के बाद ही शो शुरू करते थे। (और पर्याप्त संख्या न हो पाये तो जो आ चुके हों उन्हें टिकट के पैसे लौटा कर घर भेज दिया जाता था)। पर्याप्त यात्री न होने पर कभी कोई बस या ट्रेन ने रवाना होना कैन्सिल कर दिया हो ऐसी जानकारी अलबत्ता मुझे नहीं है, गनीमत है।
सत्तर के दशक के मध्य तक रायगढ़ और सारंगढ़ के बीच बिना पुल की एक बड़ी नदी थी। रायगढ़ से आने वाली बस बीच के स्थान चन्द्रपुर में नदी के उत्तरी तट पर रुक जाती थी। कंडक्टर सवारियों में से सबसे विश्वसनीय दिखते व्यक्ति को चुन कर डाक का झोला पकड़ा देता था। पैदल चलती नदी पार करती सवारी के साथ में भीगते भागते, झूलते झालते झोला नदी के दक्षिण तट पर प्रतीक्षा कर रही दूसरी बस के कंडक्टर के हाथ में पंहुच जाता था।
पीछे की ओर चलते हुए कंडक्टर और झोला वाली ये व्यवस्था जिस दिन फिर मिल जाएगी मेरा लिफाफा जल्दी आने लगेगा।
वैसे पूरा देश इन दिनों समय की उंगली पकड़े पीछे की ओर चल रहा है। यात्रा यूं ही जारी रही तो बादशाहों को ख़त पंहुचाते बेगमों के कबूतरों और कालीदास के संदेस ले जाते मेघों को पार करते हुए महाभारत काल के इंटरनेट की रेन्ज में भी पंहुच ही जाऊंगा। फिर संचार व्यवस्था से मेरी कोई शिकायत नहीं होगी। किसी भी व्यवस्था से नहीं होगी। मैं तो तब रामराज्य में पंहुच चुका होऊंगा।
-अनिल सिंह
कोविड-19 से बदहाल देश के सामने, बिना किसी संतोषजनक संवाद, बातचीत के, हड़बड़ी में लाई गई ‘शिक्षा नीति-2020’ आखिर क्या उपलब्ध करना चाहती है? क्या यह तेजी से बढ़ती निजी पूंजी को और बढाने की खातिर सस्ते मजदूरों की व्यवस्था करने वाली है या फिर, जैसा हमारे राजनेता बारंबार कहते हैं, भारत को ‘विश्वगुरु’ बनाने की ओर एक कदम है? ‘मानव संसाधन विकास मंत्रलय’ जो शायद इस नीति के बाद वापस शिक्षा मंत्रालय में तब्दील हो जाए, के मुताबिक शिक्षा की मौजूदा हालत कोई उल्लेखनीय नहीं है। ऐसे में ‘नई शिक्षा नीति’ क्या ‘तीर’ मारेगी? प्रस्तुत है, इसकी पड़ताल करता अनिल सिंह का यह लेख। – संपादक
बहु-प्रतीक्षित ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ (एनईपी-2020) एक रोज़ एकदम से आई और एकदम से ही स्वीकार ली गई। कोई चिल्ल-पों नहीं हुआ। तर्क यह कि पहले ही राष्ट्रव्यापी, बहुस्तरीय कन्सलटेशन और सुझाव आदि हो चुका है और इस तरह अब यह फुल-प्रूफ शिक्षा नीति जनाकांक्षाओं और जन-अपेक्षाओं से ओत-प्रोत है। दावा है कि इसे समय की नब्ज़ को पहचान कर बनाया गया है और इसमें ऐसा कुछ नहीं है जिसका आमतौर पर संदेह किया जा रहा था। पर संदेह न करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि क्रियान्वयन को मौजूदा सरकार और उसकी कार्य प्रणालियों व नीति- रीति के बरक्स देखना भी तो जरूरी है।
सन् 1950 से हम शिक्षा को संविधान के ‘नीति निर्देशक सिद्धांतों’ में शामिल करके, एक-के-बाद-एक नीतियाँ और कार्यक्रम बनाते चले आए हैं। उन दिनों हमने दम ठोंककर, दस सालों में सभी बच्चों को समान रूप से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराने का वादा किया था। तब तो राजनीतिक प्रतिबद्धता भी थी, अब वह थोड़ी संदेहास्पद है। सन् 1950 से गिनें तो 70 साल हो गए हैं, लेकिन नतीजा सिफर से थोड़ा ही आगे आया है। अब ‘नई शिक्षा नीति – 2020’ के अनुसार दस सालों में स्कूल से बाहर हुये 2 करोड़ बच्चों को वापस लाने का विशाल लक्ष्य सचमुच विशाल है। यह न होने जैसी बात का ही दुहराव मात्र है।
‘एनईपी-20’ बाकी नीतियों की तरह ही एक गोल-मोल नीति है। समय के साथ यह समय की जरूरतों को पूरा करने वाली नीति ही कही जा सकती है। यह नीति वैश्विक विकास एजेंडा की बात करती है और इसीलिए 2030 तक सभी देशों की तरह, सभी के लिए समावेशी और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए और जीवन पर्यंत शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिये जाने के लक्ष्य को सामने रखती है। भारत के लिए यह वैश्विक एजेंडा, विश्वबैंक के उस एजेंडे से कदमताल करता है जिसकी साफ हिदायतें हैं कि राज्य का ऐसा कल्याणकारी स्वरूप (वेल्फेयर स्टेट) धीरे-धीरे खत्म करते जाना चाहिए जो मुफ़्तखोरी को बढ़ावा देता है। जनता को स्वयं सक्षम और उपभोक्ता बनने की दिशा में ले जाया जाना चाहिए।
‘स्किल इंडिया’ के बाद एक बार फिर ज्ञान और तकनीकी के नाम पर आत्मनिर्भरता के जुमले के साथ स्कूल शिक्षा को ‘स्किल बेस्ड नॉलेज’ (हुनर आधारित ज्ञान) और ‘रिसोर्स’ (संसाधन) से जोड़ने की बात बहुत ही चतुराई से कही गई है। हमें भूलना नहीं चाहिए कि बुनियादी तालीम के साथ गांधी का भी सपना आत्मनिर्भर समाज बनाने का रहा था जिसमें शिक्षा को रोजगारोन्मुखी, जीवन और समुदाय से जुड़ी, श्रम के प्रति सम्मान सिखाने वाली, ग्राम-स्वराज की ओर ले जाने वाली माना गया था, लेकिन इस नीति में जो प्रावधान हैं वे ग्राम-स्वराज के लिए नहीं, बल्कि बाज़ार राज के लिए जान पड़ता है।
स्कूल के दौरान ही वोकेशनल ट्रेनिंग (व्यावसायिक प्रशिक्षण), कौशल उन्नयन और विषय की तरह उनकी पढ़ाई व प्रशिक्षण, शिक्षा और उसके अनुशासन में विविधता की बात तक तो ठीक है, लेकिन इसकी मंशा पर गौर करना जरूरी है। मौजूदा ‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ की ही एक रिपोर्ट कहती है कि ‘ड्रॉप-आउट रेट’ (स्कूल छोडने वालों की दर) 40 % है, हर साल नामांकित में से 50% बच्चे ही 8वीं तक पहुँचते हैं, उनमें भी 17% लड़कियां 14 साल या 8 वीं के बाद स्कूल छोड़ देती हैं, 12 वीं तक सिर्फ 10% बच्चे पहुँचते हैं। छूटने वाले और पहुँचने वाले ये कौन बच्चे हैं यह किसी से छुपा नहीं है। दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, ग्रामीण लड़कियों और विशेष जरूरतों वाले बच्चों का शिक्षा के इस संसार में क्या हश्र है इसके लिए ये आंकड़े पर्याप्त हैं। अब आठवीं (14 साल की उम्र) तक उन्हें किसी कौशल से नवाजने का मतलब आखिर क्या है? क्या एक बार फिर कामधंधों के हिसाब से जातियों वाला समाज बनने जा रहा है? क्या बच्चे अपने पुश्तैनी काम-धंधों में धकेल दिये जाएंगे? क्या उन्हें एक ऐसे मानव संसाधन के रूप में तैयार करके छोड़ दिया जाएगा जो बाद में कॉरपोरेट जगत के लिए कल-पुर्जे की तरह इस्तेमाल किए जाएंगे? क्या शिक्षा इसी का नाम है जिसके लिए इतनी महत्वाकांक्षी नीति बनाई गई है? या फिर ज्ञान के ‘सुपर पॉवर’ वाले जुमले की आड़ में यह सस्ते श्रम उपलब्ध कराने वाले बाज़ार खड़े करने की दूरगामी योजना है? सवाल कई हैं, क्योंकि मंशा में खोट है।
छह से 14 साल तक के शिक्षा के अधिकार कानून का दायरा बढ़ाकर 3 से 18 साल कर दिया गया है और अब मध्यान्ह भोजन के साथ नाश्ते का भी वादा किया गया है। इसे कुछ मायनों में ठीक कहा जा सकता है, लेकिन पिछला कानून ही जब कुछ नहीं कर पाया तो अब सिर्फ प्रावधान करने भर से क्या हो जाएगा? क्या ही अच्छा होता यदि तीन से 18 साल के इस निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार के लिए भी तुरत-फुरत कानून बना दिया जाता। जब तक यह नहीं होता, यह दिखावटी झुनझुने से ज्यादा कुछ नहीं होगा।
बच्चों के सीखने के शुरुआती महत्वपूर्ण सालों (3 से 6 साल) को औपचारिक ढांचे में बांधकर उन्हें स्कूल की दृढ़ संरचना के भीतर लाना एक तरह से उदार, लचीले, नैसर्गिक और स्वाभाविक रूप से सीखने के सिद्धान्त के विरुद्ध है। उसका ‘ढाँचाकरण’ और केंद्रीय नियंत्रण एक बार फिर सवाल खड़े करता है कि कहीं यह एक वैचारिक घुट्टी पिलाने की कवायद का हिस्सा तो नहीं है?
नई नीति एक लोक-लुभावन बयान देती है कि प्राइवेट स्कूलों पर नकेल कसी जाएगी। यह हर सरकार कहती है और उसके नियमन का एक ढांचा भी बनाती है, लेकिन दूसरे रास्ते से वही सरकार निजी स्कूलों को तमाम तरह की रियायतें देती है, फीस के बहाने लूट की खुली छूट देती है। अब फिर बाजारीकरण और निजीकरण को रोकने की खातिर सरकार की तरफ से कोई नियामक और नियंत्रक ढांचे का जिक्र इस नीति में नहीं है, बल्कि इसके उलट, ‘पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप’ (सार्वजनिक-निजी गठबंधन) को बढ़ावा देने की बात करती है। तमाम कॉरपोरेट फ़ाउंडेशन, पाठ्यक्रम बनाने से लेकर, शिक्षक प्रशिक्षण, स्कूल प्रबंधन, मूल्यांकन और निगरानी के काम में आगे आ रहे हैं और सरकार के सलाहकार की भूमिका में हैं। शिक्षक-प्रशिक्षण की ‘डाइट’ जैसी सरकारी महत्वाकांक्षी संस्थाओं को दरकिनार कर निजी संस्थान शिक्षा की डिग्रियाँ बाँट रहे हैं। निजी दानदाता संस्थाओं को शिक्षा के क्षेत्र की कमान सौंप कर एक तरह से निजीकरण, व्यवसायीकरण और कोर्पोरेटीकरण को ही प्रोत्साहित किया जा रहा है, ताकि शिक्षा का भार परिवारों पर पड़े और राज्य की जवाबदेही धीरे-धीरे खत्म हो।
उससे भी आगे विरोधाभास तो यह है कि युक्ति-युक्तकरण के नाम पर अकेले मध्यप्रदेश में ही हजारों स्कूल बंद करने का पूरा बंदोबस्त कर लिया गया है। इसके नाम पर बजट कटौती और मर्जर का काम तेजी से चल रहा है। ‘नई शिक्षा नीति-2020’ इस पर चुप्पी साधे दिखती है। ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (जीडीपी) का 6% शिक्षा में खर्च करने का वादा तो है पर ये जुटाया कहाँ से जाएगा, इस पर कोई खुलासा नहीं है। क्या विश्वबैंक और कॉरपोरेट पूंजी मिलकर देश की शिक्षा व्यवस्था चलाने वाले हैं? क्योंकि एक तरफ से ऋण आ रहा है और दूसरी तरफ से विचार। ये जुगलबंदी गरीब-गुरबा के बच्चों के लिए क्या समावेशी और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की चिंता करेगी या कारपोरेट धर्म निभाएगी! समय की माँग है बाज़ार, बाज़ार और बाज़ार। और सब जानते हैं कि यह सरकार समय की नब्ज़ पहचानती है। ‘नई शिक्षा नीति’ में इस बाज़ार की जरूरत को पूरा करने और भारत में सस्ता, कुशल श्रम उपलब्ध कराने के पूरे इंतजाम कर लिए गए हैं। (सप्रेस)
-मीनाक्षी नटराजन
हे राम !
सारा बचपन तुम्हारी कथा को सुनते-सुनते बीता है। नानी की लोरियों के राम यानि तुम अलौकिक थे। जाहिर है कि कल्पना ने तुम्हारे कई चित्र उकेरे, कई तरह से तुम्हें गढ़ा।
तीसरी कक्षा की बात है। आज भी वे दिन बंद आंखों के सामने सजीव हो उठते हैं। घर के आंगन में हरसिंगार के फूल बिखरे रहते थे और मैं तुम्हें “अमर चित्र कथा’’ मे पढ़ती थी। जैसे ही तुम्हारे वन गमन का प्रसंग आता, मन भारी हो जाता। आंखें छलछला उठतीं। बाल मन ने पहली बार पीड़ा का अहसास किया था। “ओह ! सारा एरेंजमेंट वेस्ट हो गया।’’ यह पहली प्रतिक्रिया ज्यों की त्यों याद है। शब्द नहीं बदले। उन चित्रों को देखकर बहुत दुख हुआ था। तुम्हारा राज्याभिषेक धरा रह गया। किन्तु तुम हंसते-हंसते लेश मात्र गुस्से के बिना वन चले गये।
मैंने तरूणाई मे प्रवेश किया। मन आंगन मे सवाल हिलोर भरने लगे। तुम्हें खरी-खोटी सुनाने का मन करता। तुमने सीता के साथ अन्याय किया था। तुम तो युग पुरूष थे। तुमसे ही तो बदलाव की उम्मीद थी। शंबूक के साथ जो तुमने किया उससे मैं और विचलित हुई। वो उम्र ही ऐसी होती है।
फिर भी तुमसे कभी विरक्त नहीं हो सकी। जब-जब भी घर में माता-पिता, वृद्ध जनों से मुंहजोरी करती, फिर तुम्हें पढ़ती तो मन लज्जित हो उठता था। बार-बार तुम्हारा आवेशरहित मुखमंडल सामने आ जाता। लोगों के साझे सहज बोध में सदियों से आखिर तुम्हारी यही तो छवि बसी थी। कृपासिन्धु की छवि। निषादराज गुह को गले लगाते, माता शबरी की जूठन खाते, विमाता को प्रेम से तारते करूणानिधान की छवि अंतस में बसी थी।
एकाएक सब बदलने लगा। तुम्हारा इस्तेमाल वैमनस्य घोलने के लिए चंद स्वार्थी लोगों ने किया। बहुत रक्तपात हुआ। कृपासिन्धु की छवि बदली गई। अब जहां-तहां तुम्हें योद्धा के रूप में उकेरा जाने लगा।
उन्हीं दिनों महज संजोग से इस धरती के लाल उस अनन्त सत्यान्वेषी के सत्य प्रयोगी मार्ग को समझने की जिज्ञासा जाग उठी। वो जिसने जीवन का हर पल तुम्हें समर्पित कर दिया और अंतिम क्षण मे तुम्हें “हे राम’’ कहकर पुकारा। उन्होंने अपने लिए यही कसौटी मानी थी। तुम ही ने तो उन्हें भवसागर पार कराया। हां । सत्य ही तो है। ऐसी अनन्य आस्था रखने वाले को तुम्हीं तो संचालित करते हो। अन्य ज्यादातर मुझ जैसे लोग तो तुम्हें सुन ही नहीं पाते। उन्हें उनका अहं संचालित करता है।
उस महात्मन् के लिए तुम “सत्य’’ थे। दशरथी राम केवल सत्य का लोक प्रतीक। “राम’’ माने “सत्य’’ और कुछ नहीं। उसी सत्य में उनकी आस्था थी। वैसे भी संसार में बाकी तो सब क्षण-क्षण बदलते नाम रूपों का जंजाल भर हैं। उनके मार्ग को जानने की जिज्ञासा ने मन की अधीरता को शांत किया। सोचने की नई रीत सिखाई। कहीं न कहीं यह समझना शुरू किया की हर एक को उसी के नजरिये से देखना चाहिए।
तुमसे असहमत और नाराज आज भी हूं। लेकिन अब तुम्हारे “राजधर्म’’ को खारिज नहीं कर पाती। व्यक्तिगत त्याग का उदाहरण प्रस्तुत किये बिना कोई बदलाव संभव नहीं। तुमने सुविधा नहीं, सत्य का कठिन क्रूर मार्ग चुना। लोगों की प्रतिक्रिया को “द्रोह’’ कहकर आसानी से दंड के सहारे मामले को टाल सकते थे। आज की व्यवस्था में तो आक्षेप लगाना बहुत दूर की बात है। यहां तो सवाल पूछना “द्रोह’’ कहलाता है।
शंबूक के प्रसंग को लेकर तो मेरा जी अब भी तुमसे झगड़ने को चाहता है। मैं जानती हूं कि यह तुम्हारे उदार बड़प्पन और क्षमाशीलता के कारण है। तुम अपने से लड़ने का हक जो देते हो। अब धीरे-धीरे सोच की दिशा बदलने लगी है। वैसे भी तुम्हारी कहानी कई तरह से कही गई है। वाल्मीकि “रामायण” लोकनायक की कथा अधिक लगती है। “अध्यात्म रामायण’’ से प्रेरित तुलसीकृत “मानस’’ में तुम “ब्रह्म’’ और सीता “जगत’’ के रूप में वर्णित किये गये हो। “मानस’’ में उपरोक्त दोनों ही प्रसंग नहीं है। “आनंद रामायण’’ में तो सीता हरण के पूर्व तुम्हारा एक सुंदर संवाद है। तुम सीता से कहते हो कि “रजो’’ रूप में वे अग्नि के पास संरक्षित रहें। “तम’’ रूप मे रावण द्वारा हरण कर ली जाये और “सत्व’’ के रूप में तुम्हारे हृदय में बसी रहें।
जैन परंपरा में “पौमचरियम्’’ और “त्रिषष्टीशलाका पुरूष चरितं’’ में तुम्हारी अलग दिव्य कथा है। सांख्य मत तो तुम्हें “पुरूष’’ और सीता को “प्रकृति’’ का प्रतीक मानता है। तुम्हें निर्गुण निराकार “सत्य’’ के लौकिक प्रतीक के रूप में देखती आई थी। अब भी देखती हूं। लेकिन अब तुम “सत’’ और सीता “चित्त’’ के रूप में दिखाई पड़ते हो। इस सत और चित्त का गठजोड़ ही “आनंद’’ मय होता होगा। सत और चित्त का परस्पर कभी त्याग नहीं हो सकता। वे दो कहां हैं? एक ही हैं। यह तो हुआ चैतन्य का बोध।
इतिहास कई राजाओं की कहानी कहता है। लोक मानस को तो “राम राज्य’’ याद है। कहते हैं कि “राम राज्य’’ मे कभी ताले नहीं लगते थे। बचपन में सोचती थी कि घर खुले रहते होंगे। चोरों का डर नहीं था। यह कितनी अद्भुत बात है। राम! तुम्हारे राज्य में सबके घर हर एक के लिए हमेशा खुले रहते थे। किसी के लिए किसी का भी घर कभी बंद नहीं होता था। वो चाहे कोई भी क्यूं न हो।
दरअसल “राम राज्य’’ में चित्त पर ताला नहीं लगता था। मन खुला हुआ था। हर पंथ, मार्ग, विचार, ख्याल के लिए हमेशा खुला था। तभी तो वह “राम राज्य’’ था। “सत्य’’ का राज्य ऐसा ही तो होगा। जहां विविध, विपरीत विपक्ष को विकार न माना जाये। “सत्य’’ की खोज बंद दिमाग से कहां हो सकती है।
कहते हैं कि रावण बड़ा मायावी था। कोई भी रूप धारण कर सकता था। फिर उसने राम का रूप धारण करके सीता को छलने का प्रयास क्यों नहीं किया? यह तो सही है कि सीता को तब भी छला नहीं जा सकता था। शायद रावण जानता था कि राम का तो रूप भी धारण करने से रावणत्व नष्ट हो जाएगा। वो “सत्’’ की ओर बढ़ जाएगा। सोचती हूं कि “राम’’ यदि कभी रावण का रूप धारण करते तो क्या होता? “सत्य’’ के प्रभाव से “दंभ’’ का दहन हो जाता। “राम’’! तुम्हारी यानि “सत्य’’ की ऐसी ही पावन महिमा है।
मुझे याद है कि तुम पर आधारित धारावाहिक प्रसारित हुआ, पुर्नप्रसारित भी हुआ। तुम पर लोकमानस की ऐसी श्रद्धा है कि सीरियल और गांवों, कस्बों में खेली जाती रामलीला के पात्रों को भी लोगों ने मान दिया। तुम्हारे चरित्र का अभिनय करना भी सम्मानजनक माना जाता है।
क्यूं न हो? तुम हो ही ऐसे। तुमसे विभीषण ने पूछा कि रावण का सामना कैसे करोगे? रथ तक तो है नहीं। तुमने शांत भाव से कह दिया कि तुम जिस रथ पर सवार हो, उसके बाद किसी भौतिक संसाधन की आवश्यकता नहीं। “धर्म’’ तुम्हारा रथ था। “धर्म’’ यानि “सत्य’’। कुछ दशक पहले “रथ यात्रा’’ कहलाता आधुनिक गाड़ी का कारवां तुम्हारी जन्मभूमि का अधिकार पाने के नाम पर निकला। जहां-तहां “सत्य’’ को रौंदता हुआ आगे बढ़ा । वहां धर्म यानि “सत्य’’ नहीं था। सत्य तो केवल प्रेम के कारवां में हो सकता है। विध्वंस मे नहीं।
“सत्य’’ की जन्मभूमि कहां है? मैं सोच रही हूं। तुम्हारा ही प्रसंग बरबस याद हो आया। तुमने सर्वथा अनजान बनकर ऋषि वाल्मीकि से पूछा कि मैं अपनी पत्नी और भाई के साथ कहां वास करूं? उन्होंने क्या खूब उत्तर दिया- “तुम्हारा वास कहां नहीं है राम ?’’
“काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें ह्दय बसहु रघुराया।।’’
आगे उन्होंने यह भी जोड़ा कि जाति, पाति, धन, धर्म, बड़ाई को छोड़कर जो अपने हृदय में तुमको धारण करे, वहीं बस जाओ रघुराई।
हां भौतिक स्थान चित्रकूट हो सकता है। अब तुम्हारा मंदिर बनने जा रहा है। लेकिन मैं जानती हूं कि तुम कहां वास करते हो। मेरा मंदिर वहीं होगा। पैदल चलते मजदूरों के पैर के छालों में, असंख्य बेदखल शबरियों की प्रेम कुटिया में, किसानों के पसीने में, सत्यान्वेषियों के बलिदान में, कबीरों के ताने-बाने में, मैं तुम्हें ढूंढ लूंगी। यही मेरे जीवन का लक्ष्य है, मेरी तपस्या, मेरी भक्ति है।(navjivan)
-विभुराज और सलमान रावी
"भारत के चीफ़ जस्टिस ऐसे वक़्त में राज भवन, नागपुर में एक बीजेपी नेता की 50 लाख की मोटरसाइकिल पर बिना मास्क या हेलमेट पहने सवारी करते हैं जब वे सुप्रीम कोर्ट को लॉकडाउन में रखकर नागरिकों को इंसाफ़ पाने के उनके मौलिक अधिकार से वंचित कर रहे हैं."
"आने वाले कल में जब इतिहासकार पीछे मुड़कर बीते छह सालों के दौर को देखेंगे कि भारत में बिना औपचारिक रूप से इमर्जेंसी लगाए लोकतंत्र को किस तरह से तबाह कर दिया गया तो वे ख़ास तौर पर इस बर्बादी में सुप्रीम कोर्ट की भूमिका का जिक्र करेंगे और उनमें से भी विशेष रूप से भारत के अंतिम चार मुख्य न्यायाधीशों की भूमिका पर बात होगी."
देश की सबसे बड़ी अदालत शुक्रवार को ये फ़ैसला सुनाएगी कि जानेमाने वकील प्रशांत भूषण के इन दो ट्वीट्स से सुप्रीम कोर्ट की मानहानि हुई या नहीं.
अगर वे दोषी पाए जाते हैं तो कंटेम्ट ऑफ़ कोर्ट्स ऐक्ट, 1971 के तहत प्रशांत भूषण को छह महीने तक की जेल की सज़ा जुर्माने के साथ या इसके बगैर भी हो सकती है.
इसी क़ानून में ये भी प्रावधान है कि अभियुक्त के माफ़ी मांगने पर अदालत चाहे तो उसे माफ़ कर सकती है.
इस बीच गुरुवार को वरिष्ठ पत्रकार एन राम, अरुण शौरी और एडवोकेट प्रशांत भूषण ने कंटेम्ट ऑफ़ कोर्ट्स ऐक्ट के कुछ प्रावधानों की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली अपनी याचिका वापस ले ली है.
मामला क्या है?
सुप्रीम कोर्ट ने एडवोकेट प्रशांत भूषण के इन ट्वीट्स पर स्वतः संज्ञान लेते हुए अदालत की मानहानि का मामला शुरू किया.
कोर्ट ने कहा, "पहली नज़र में हमारी राय ये है कि ट्विटर पर इन बयानों से न्यायपालिका की बदनामी हुई है और सुप्रीम कोर्ट और ख़ास तौर पर भारत के चीफ़ जस्टिस के ऑफ़िस के लिए जनता के मन में जो मान-सम्मान है, ये बयान उसे नुक़सान पहुंचा सकते हैं."
चीफ़ जस्टिस बोबडे के मोटरसाइकिल पर बैठने को लेकर की गई टिप्पणी पर प्रशांत भूषण ने अपने हलफनामे में कहा कि पिछले तीन महीने से भी ज़्यादा समय से सुप्रीम कोर्ट का कामकाज सुचारू रूप से न हो पाने के कारण वे व्यथित थे और उनकी टिप्पणी इसी बात को जाहिर कर रही थी.
उनका कहना था कि इसकी वजह से हिरासत में बंद, ग़रीब और लाचार लोगों के मौलिक अधिकारों का ख्याल नहीं रखा जा रहा था और उनकी शिकायतों पर सुनवाई नहीं हो पा रही थी.
लोकतंत्र की बर्बादी वाले बयान पर प्रशांत भूषण की ओर से ये दलील दी गई कि "विचारों की ऐसी अभिव्यक्ति स्पष्टवादी, अप्रिय और कड़वी हो सकती है लेकिन ये अदालत की अवमानना नहीं कहे जा सकते."
लेकिन ऐसा नहीं है कि प्रशांत भूषण सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के केवल इसी मामले में कटघरे में खड़े हैं. उन पर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना का एक और मामला लंबित है.
अदालत की अवमानना का एक और मामला
प्रशांत भूषण ने साल 2009 में 'तहलका' मैगज़ीन को दिए एक इंटरव्यू में आरोप लगाया था कि भारत के पिछले 16 मुख्य न्यायाधीशों में आधे भ्रष्ट थे.
इस मामले में तीन सदस्यों की बेंच ने 10 नवंबर, 2010 को कंटेम्प्ट पिटीशन पर सुनवाई करने का फ़ैसला सुनाया था.
इसी महीने की 10 तारीख को सुप्रीम कोर्ट ने कहा, "जजों को भ्रष्ट कहना अवमानना है या नहीं, इस पर सुनवाई की आवश्यकता है."
गौर करने वाली बात ये भी है कि पिछले दस सालों में इस मामले पर केवल 17 बार सुनवाई हुई है.
प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट को एक लिखित बयान में खेद जताने की बात कही थी. लेकिन अदालत ने इसे ठुकरा दिया.
जस्टिस अरुण मिश्रा की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट के तीन सदस्यों वाली बेंच ने इस मामले की अगली सुनवाई की तारीख़ 17 अगस्त तय की है.
सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अवमानना के बीच एक पतली रेखा है. जजों ने कहा है कि वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और एक संस्था के रूप में जजों की गरिमा की रक्षा की ज़रूरत को संतुलित करना चाहते हैं.
दूसरी ओर, वकील प्रशांत भूषण का कहना है कि भ्रष्टाचार के उनके आरोप में किसी वित्तीय भ्रष्टाचार की बात नहीं थी बल्कि उचित व्यवहार के अभाव की बात थी. उन्होंने कहा कि अगर उनके बयान से जजों और उनके परिजनों को चोट पहुँची है, तो वे अपने बयान पर खेद व्यक्त करते हैं.
कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट का मतलब क्या है?
हिमाचल प्रदेश नेश्नल लॉ यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर चंचल कुमार सिंह कहते हैं, "भारत के संविधान के अनुच्छेद 129 और 215 में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट को 'कोर्ट ऑफ़ रिकॉर्ड' का दर्जा दिया गया है और उन्हें अपनी अवमानना के लिए किसी को दंडित करने का हक़ भी हासिल है."
"कोर्ट ऑफ़ रिकॉर्ड से मतलब हुआ कि सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के आदेश तब तक प्रभावी रहेंगे जब तक कि उन्हें किसी क़ानून या दूसरे फ़ैसले से ख़ारिज न कर दिया जाए."
साल 1971 के कंटेम्ट ऑफ़ कोर्ट्स ऐक्ट में पहली बार वर्ष 2006 में संशोधन किया गया.
इस संशोधन में दो बिंदु जोड़े गए ताकि जिसके ख़िलाफ़ अवमाना का मामला चलाया जा रहा हो तो 'सच्चाई' और 'नियत' भी ध्यान में रखा जाए.
इस क़ानून में दो तरह के मामले आते हैं - फौजदारी और ग़ैर फौजदारी यानी 'सिविल' और 'क्रिमिनल कंटेम्प्ट.'
'सिविल कंटेम्प्ट' के तहत वो मामले आते हैं जिसमे अदालत के किसी व्यवस्था, फैसले या निर्देश का उल्लंघन साफ़ दिखता हो जबकि 'क्रिमिनल कंटेम्प्ट' के दायरे वो मामले आते हैं जिसमें 'स्कैंडलाइज़िंग द कोर्ट' वाली बात आती हो. प्रशांत भूषण पर 'आपराधिक मानहानि' का मामला ही चलाया जा रहा है.
प्रोफ़ेसर चंचल कुमार सिंह कहते हैं, "कोर्ट की आम लोगों के बीच जो छवि है, जो अदब और लिहाज है, उसे कमज़ोर करना क़ानून की नज़र में अदालत पर लांछन लगाने जैसा है."
'कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट' बनाम 'अभिव्यक्ति की आज़ादी'
अभिव्यक्ति की आज़ादी को लोकतंत्र की बुनियाद के तौर पर देखा जाता है.
भारत का संविधान अपने नागरिकों के इस अधिकार की गारंटी देता है.
लेकिन इस अधिकार के लिए कुछ शर्तें लागू हैं और उन्हीं शर्तों में से एक है अदालत की अवमानना का प्रावधान.
यानी ऐसी बात जिससे अदालत की अवमानना होती हो, अभिव्यक्ति की आज़ादी के दायरे में नहीं आएगी.
प्रोफ़ेसर चंचल कुमार सिंह की राय में संविधान में ही इस तरह की व्यवस्था बनी हुई है कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के पास 'कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट' की असीमित शक्तियां हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार इसके आगे गौण हो जाता है.
दिल्ली ज्यूडिशियल सर्विस एसोसिएशन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और सीके दफ़्तरी बनाम ओपी गुप्ता जैसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट बार-बार ये साफ़ कर चुकी है कि संविधान के अनुच्छेद 129 और 215 के तहत मिले उसके अधिकारों में न तो संसद और न ही राज्य विधानसभाएं कोई कटौती कर सकती है.
दूसरे लोकतंत्रों में क्या स्थिति है?
साल 2012 तक ब्रिटेन में 'स्कैंडलाइज़िंग द कोर्ट' यानी 'अदालत पर लांछन' लगाने के जुर्म में आपराधिक कार्यवाही का सामना करना पड़ सकता था.
लेकिन ब्रिटेन के विधि आयोग की सिफारिश के बाद 'अदालत पर लांछन' लगाने के जुर्म को अपराध की सूची से हटा दिया गया.
बीसवीं सदी में ब्रिटेन और वेल्स में अदालत पर लांछन लगाने के अपराध में केवल दो अभियोग चलाए गए थे.
इससे ये अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि अवमानना से जुड़े ये प्रावधान अपने आप ही अप्रासंगिक हो गए थे.
हालांकि अमरीका में सरकार के ज्यूडिशियल ब्रांच की अवज्ञा या अनादर की स्थिति में कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट के प्रावधन है लेकिन देश के संविधान के फर्स्ट अमेंडमेंट के तहत अभिव्यक्ति की स्वंतत्रता के अधिकार को इस पर तरजीह हासिल है.
विरोध और समर्थन में चिट्ठी
प्रशांत भूषण के ख़िलाफ़ अदालत की अवमानना के मामलों ने समाज में बहस छेड़ दी है.
जहां कुछ पूर्व न्यायाधीशों, पूर्व नौकरशाहों, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया है कि "सर्वोच्च न्यायलय की गरिमा को देखते हुए प्रशांत भूषण के ख़िलाफ़ अवमाना के मामले वापस लिए जाएं."
तो एक दूसरे समूह ने भारत के राष्ट्रपति को पत्र लिखकर संस्थानों की गरिमा को बचाने का अनुरोध किया है.
भूषण के पक्ष में जारी किए गए बयान में जिन 131 लोगों के हस्ताक्षर हैं उनमें सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व चीफ़ जस्टिस जस्ती चेलामेस्वर, जस्टिस मदन बी लोकुर के अलावा दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस (रिटायर्ड) एपी शाह, पटना उच्च न्यायालय की जस्टिस (रिटायर्ड) अंजना प्रकाश शमिल हैं.
इनके अलावा हस्ताक्षर करने वालों में इतिहासकार रामचन्द्र गुहा, लेखक अरुंधति रॉय और वकील इंदिरा जयसिंह भी हैं.
वहीं, राष्ट्रपति को पत्र भेजने वाले पूर्व न्यायाधीशों, वकीलों, पूर्व नौकरशाहों और सामजिक कार्यकर्ताओं के एक दूसरे समूह का कहना था कि कुछ प्रतिष्ठित लोग संसद और चुनाव आयोग जैसी भारत की पवित्र संस्थाओं को दुनिया के सामने बदनाम करने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ना चाहते हैं. अब सुप्रीम कोर्ट भी उनके निशाने पर है.
राष्ट्रपति को भेजी गई इस चिट्ठी पर हस्ताक्षर करने वालों में राजस्थान उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश अनिल देव सिंह, सिक्किम हाई कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस प्रमोद कोहली के अलावा 15 रिटायर्ड जज शामिल हैं.
कुल मिलाकर 174 लोगों के हस्ताक्षर वाले इस पत्र में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट में अवमाना का मामला पूरी तरह से प्रशांत भूषण और अदालत के बीच का मामला है. इसपर सार्वजनिक रूप से टिप्पणियाँ कर सुप्रीम कोर्ट के गौरव को हल्का दिखाना है.
समर्थक और विरोधी क्या कह रहे हैं?
सेंट्रल एडमिन्सट्रेटिव ट्रिब्यूनल (सीएटी) के अध्यक्ष और सिक्किम हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस रह चुके प्रमोद कोहली कहते हैं, "अवमाना का क़ानून अगर ना हो तो कोई भी सुप्रीम कोर्ट या दूसरी अदालतों के फ़ैसलों को नहीं मानेगा."
उनका कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पूरे देश पर लागू होते हैं और सभी अदालतें और कार्यपालिका उन फैसलों को मानने के लिए बाध्य हैं. सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता, अखंडता और साख बनी रहे, ये सुनिश्चित करना सबके लिए ज़रूरी है.
लेकिन क़ानून के जानकारों की राय इस मुद्दे पर बंटी हुई है.
दिल्ली हाई कोर्ट के रिटायर्ड चीफ़ जस्टिस एपी शाह कहते हैं, "ये अफ़सोसनाक है कि जज ऐसा सोचें कि आलोचना को दबाने से न्यायपालिका की प्रतिष्ठा बढ़ेगी."
शाह के अनुसार, अवमानना के क़ानून पर फिर से गौर किए जाने ज़रूरत तो है ही, साथ ही ये भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इसका इस्तेमाल किसी तरह की आलोचना को रोकने के लिए नहीं किया जाए.
आलोचना बनाम अवमानना
कानून के जानकारों को लगता है कि टकराव वहाँ होता है जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और संविधान के अनुच्छेद 129 आमने-सामने आ जाते हैं.
संविधान के अनुसार हर नागरिक अपने विचार रखने या कहने के लिए स्वतंत्र है. लेकिन जब वो अदालत को लेकर टिप्पणी करे तो फिर अनुच्छेद 129 को भी ध्यान में रखे.
अदालत की अवमाना को लेकर भारत के न्यायिक हलकों में हमेशा से ही बहस होती रही.
दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ़ जस्टिस (रिटायर्ड) एपी शाह के अनुसार अवमानना का क़ानून विश्व के कई देशों में और ख़ास तौर पर मज़बूत लोकतांत्रिक देशों में अप्रचलित होता जा रहा है. मिसाल के तौर पर अमरीका में अदालतों के फैसलों पर टिप्पणियाँ करना आम बात है और वो अवमानना के दायरे में नहीं आते हैं.
लेकिन पूर्व चीफ़ जस्टिस प्रमोद कोहली कहते हैं कि अगर अवमाना का कड़ा कानून नहीं हो तो फिर अदालतों का डर किसी को नहीं रहेगा. कार्यपालिका और विधायिका को मनमानी करने से रोकने का एक ही ज़रिया है और वो है न्यायपालिका.
वो कहते हैं, "अगर कानून और अदालतों का डर ही ख़त्म हो जाए तो फिर अदालतें बेमानी हो जाएंगी और सब मनमानी करने लगेंगे. इस लिए अदालत और कानून का सम्मान सबके अंदर होना ज़रूरी है."
कैसे वजूद में आया अवमानना क़ानून
साल 1949 की 27 मई को पहले इसे अनुच्छेद 108 के रूप में संविधान सभा में पेश किया गया. सहमति बनने के बाद इसे अनुच्छेद 129 के रूप में स्वीकार कर लिया गया.
इस अनुच्छेद के दो प्रमुख बिंदु थे- पहला कि सुप्रीम कोर्ट कहाँ स्थित होगा और दूसरा प्रमुख बिंदु था अवमानना. भीम राव आंबेडकर नए संविधान के लिए बनायी गई कमिटी के अध्यक्ष थे.
चर्चा के दौरान कुछ सदस्यों ने अवमानना के मुद्दे पर सवाल उठाया था. उनका तर्क था कि अवमाना का मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए रुकावट का काम करेगा.
आंबेडकर ने विस्तार से सुप्रीम कोर्ट को इस अनुच्छेद के ज़रिये अवमानना का स्वतः संज्ञान लेने के अधिकार की चर्चा करते हुए इसे ज़रूरी बताया था.
मगर संविधान सभा के सदस्य आरके सिधवा का कहना था कि ये मान लेना कि जज इस क़ानून का इस्तेमाल विवेक से करेंगे, उचित नहीं होगा.
उनका कहना था कि संविधान सभा में जो सदस्य पेशे से वकील हैं वो इस क़ानून का समर्थन कर रहे हैं जबकि वो भूल रहे हैं कि जज भी इंसान हैं और ग़लती कर सकते हैं.
लेकिन आम सहमति बनी और अनुच्छेद 129 अस्तित्व में आ गया.(bbc)
-आलोक जोशी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के नए टैक्सेशन सिस्टम की शुरुआत कर दी है. खबर तो पहले से आम थी लेकिन अब औपचारिक एलान हो गया है. नए सिस्टम के दो हिस्से हैं, ट्रांसपेरेंट टैक्सेशन यानी पारदर्शी कर व्यवस्था और ऑनरिंग द ऑनेस्ट या ईमानदार का सम्मान. दोनों में ही नया क्या है यह अभी पता चलना बाकी है.
ट्रांसपेरेंट टैक्सेशन की खास बातें पहले ही बताई जा चुकी थीं. सूत्रों से भी और सरकारी एलान के जरिए भी. इसमें सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह है कि इनकम टैक्स अफसर या अफसरों का डर खत्म होगा, उनकी मनमानी खत्म होगी और मुट्ठी गर्म करके अपनी फाइल क्लियर करवा लेने की व्यवस्था भी खत्म होगी.
यहां असेसमेंट भी फेसलेस होगा, अपील भी फेसलेस होगी और टैक्सपेयर चार्टर या करदाता का विधान भी जारी किया गया है जिसमें टैक्स भरने वाले के कर्तव्य और अधिकार दोनों शामिल हैं.
प्रधानमंत्री ने कहा कि आम आदमी की ईमानदारी पर विश्वास करके ही यह व्यवस्था चल सकती है. जबकि पहले ये व्यवस्था शुरुआत में ही ईमानदार करदाता को कटघरे में खड़ा करके चलती थी. चार्टर बनाकर नियम साफ करने की वजह भी यही बताई गई कि पॉलिसी साफ होती है तो ग्रे एरिया यानी भ्रम की गुंजाइश खत्म हो जाती है और फिर बात अफसरों के विवेक पर नहीं टिकी रहती.
इस बात को दूसरी तरफ से देखें तो आम आदमी को टैक्स अफसरों के हाथों परेशान न होना पड़े यह इंतज़ाम किया गया है. और यह सबसे पहले बता दिया गया कि इनकम टैक्स गजेटेड ऑफिसर्स एसोसिएशन ने पत्र लिखकर इस काम में सहयोग का भरोसा दिलाया है.
टैक्सपेयर में भरोसा जताने का फायदा कैसे होता है इसका उदाहरण भी प्रधानमंत्री ने बताया कि विवाद से विश्वास योजना में तीन करोड़ मामलों को सुलझाया जा चुका है. वरना ये मुकदमे बरसों चलते रहते.
फेसलेस सिस्टम के साथ ही अब यह भी ज़रूरी नहीं रहेगा कि आपकी इनकम टैक्स फाइल आपके ही शहर के इनकम टैक्स अफसर के पास जाए. खासकर स्क्रूटिनी का मामला रैंडम तरीके से देश के किसी भी टैक्स अधिकारी को आवंटित किया जाएगा. वो फेसलेस टीम के पास जा सकता है. उनके आदेश का रिव्यू भी किसी और शहर की किसी और टीम के पास जा सकता है.
फेसलेस टीम कौन होगी, उसमें कौन होगा, यह भी कंप्यूटर रैंडम तरीके से तय करेगा. करदाता और इनकम टैक्स अफसर को, दबाव बनाने का, जान पहचान का मौका कम हो गया. टैक्स की मुकदमेबाज़ी भी कम हो जाएगी. ऐसा ही तरीका अपील के लिए भी इस्तेमाल होगा. हालांकि अपील का सिस्टम शुरू होने में कुछ वक्त है. वो दीनदयाल जयंती यानी 25 सितंबर से लागू किया जाएगा.
ईमानदार का सम्मान
एलान का दूसरा बड़ा हिस्सा है ऑनरिंग द ऑनेस्ट, यानी ईमानदार का सम्मान. इसपर चर्चा बहुत समय से चल रही है कि टैक्स भरनेवालों को रेलवे रिजर्वेशन में कोटा मिल सकता है, एयरपोर्ट पर लाउंज इस्तेमाल करने की सुविधा मिल सकती है और यह भी हो सकता है कि चोटी के ईमानदार करदाताओं को प्रधानमंत्री के साथ चाय पर चर्चा का न्योता भी मिल जाए.
लेकिन यहां नया क्या होने जा रहा है? इनकम टैक्स देनेवालों को पासपोर्ट बनवाने में, इमिग्रेशन क्लियरेंस में और यहां तक कि सज़ा होने पर जेल में भी एक अलग दर्जा मिलता रहा है. पिछले साल लागू व्यवस्था में इनकम टैक्स डिपार्टमेंट की तरफ से अनेक लोगों को सर्टिफिकेट भेजे गए हैं. गोल्ड, सिल्वर और ब्रॉंज कैटेगरी के सर्टिफिकेट.
अब यह पता लगाने का क्या तरीका है कि कौन ज्यादा ईमानदार है और कौन कम? तो जिसने जितना टैक्स भरा उसे उतना ईमानदार मान लिया गया. यानी गोल्ड या उससे ऊपर की कैटेगरी में तो वही लोग आएंगे जिन्हें यूं भी प्रधानमंत्री के साथ चाय पीने का मौका मिलता ही रहता है और जिनके लिए एयरपोर्ट लाउंज के दरवाज़े खुले ही रहते हैं. फिर कम कमाई वाला इंसान खुद को ज्यादा ईमानदार कैसे साबित करे?
इस सवाल का जवाब तो आएगा. लेकिन प्रधानमंत्री ने एक और सवाल भी खड़ा किया है जिसका जवाब उन्हें देश से यानी हम सब से चाहिए. उन्होंने बहुत दिनों के बाद एक बार फिर मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस का नारा याद किया और कहा कि एक वक्त था कि मजबूरी और दबाव में लिए गए फैसलों को रिफॉर्म कहा जाता था. अब ये सोच और अप्रोच दोनों बदल गई है. जो बदलाव किए गए हैं ये नए भारत के नए गवर्नेंस मॉडल का प्रयोग है.
साथ ही उन्होंने याद दिलाया कि टैक्सपेयर को टैक्स इसलिए देना है क्योंकि उसी से सिस्टम चलता है. इस पैसे के बल पर ही देश एक बहुत बड़ी आबादी के प्रति दायित्व निभा सकता है. और सरकार का कर्तव्य है कि टैक्स की पाई पाई का सदुपयोग करे. ईमानदार टैक्सपेयर राष्ट्रनिर्माण में बड़ी भूमिका निभाता है, वो आगे बढ़ता है तो देश भी आगे बढ़ता है.
यहां उनकी तरफ से एक अपील भी आई, एक सवाल भी और शायद भविष्य के लिए एक संकेत भी. उन्होंने बताया कि पिछले छह सात साल में देश में इनकम टैक्स रिटर्न भरनेवालों की संख्या में ढाई करोड़ की बढ़ोत्तरी हुई है. लेकिन अब भी एक सौ तीस करोड़ के देश में डेढ़ करोड़ लोग ही इनकम टैक्स जमा करते हैं. प्रधानमंत्री ने कहा कि इसपर हम सबको चिंतन करने की जरूरत है. देश को आत्मचिंतन करना होगा. जो टैक्स देने में सक्षम है, लेकिन टैक्स नेट में नहीं हैं, उन्हें स्वप्रेरणा से आगे आकर टैक्स भरने की ओर बढ़ना होगा.
कितने लोग इससे प्रेरणा लेंगे, पता नहीं. लेकिन जैसे एलपीजी पर सब्सिडी छोड़ने की अपील के बाद टैक्स भरनेवालों के लिए वो सब्सिडी खत्म करने का एलान हुआ उसे याद ज़रूर करना चाहिए. अब जबकि इनकम टैक्स रिटर्न में ब्योरा पहले से भरकर आ रहा है. फॉर्म 26एएस में तमाम ऐसी चीज़ें जोड़ दी गई हैं जो अभी नहीं थीं. और ज्यादातर बड़े लेनदेन छुपाना मुश्किल होता जा रहा है, वहां इन अपीलों को भी नजरंदाज करनेवाले लोग कब तक खैर मनाते रहेंगे कहना बहुत मुश्किल भी नहीं है.(bbc)
प्रकाश दुबे
4 मई 1947 को गांधी की माउंटबेटन से भेंट को माउंटबेटन ने गोपनीय रखा। 27 मई को कांग्रेस कार्यसमिति ने विभाजन के पक्ष में मत दिया। गांधी ने असहमत थे। कहा-विभाजन के विचार से ही देश भयभीत है। 3 जून को विभाजन की योजना रखने के बाद लार्ड माउंटबेटन (गांधी जी के सायंकाल प्रार्थना सभा में जाने से पहले) फिर मुलाकात की। कहा-यह मेरी मजबूरी है। 14-15 जून की बैठक में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के 4 सौ में से 218 सदस्य उपस्थित रहे। लंबी, तीखी बहस के बाद 151 ने विभाजन के पक्ष में मत दिया। दूसरी उपेक्षा का उल्लेख प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगभग हर चुनाव प्रचार के दौरान करते हैं। गांधी चाहते थे कि सभी दल और व्यक्ति समान अवसर के सिद्धांत पर सत्ता पाने का प्रयास करें। आज़ाद भारत के पहले मंत्रिमंडल में डा भीमराव आम्बेडकर को शामिल करने में जवाहर लाल नेहरू की हिचक थी। आम्बेडकर ने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा नहीं लिया। राजकुमारी अमृत कौर से जानकारी मिलने पर बापू ने कहा-जवाहर से कहना पूरे देश को आज़ादी मिली है, सिर्फ उसे नहीं। गाँधीजी ने 29 जनवरी 1948 की रात मसौदा तैयार किया-
‘भारत को...सामाजिक, नैतिक और आर्थिक आजा़दी हासिल करना अभी बाकी है। भारत में लोकतंत्र के लक्ष्य की ओर बढ़ते समय सैनिक सत्ता पर जनसत्ता के आधिपत्य के लिए संघर्ष होना अनिवार्य है। हमें कांग्रेस को राजनीतिक दलों और साम्प्रदायिक संस्थाओं की अस्वस्थ स्पर्धा से दूर रखना है। ऐसे ही कारणों से अ.भा. कांग्रेस कमेटी मौजूदा संस्था को भंग करने और नीचे लिखे नियमों के अनुसार लोक सेवक संघ के रूप में उसे विकसित करने का निश्चय करती है।" अगले ही दिन उनकी हत्या कर दी गई। कांग्रेस पार्टी को भंग नहीं हुई। वंशवाद के आरोप से बचने के लिए पिछले वर्ष राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दिया। देश भर में घूमने के लिए राहुल मुक्त रहना चाहते थे। कुछ कांग्रेसी गांधी परिवार को खूंटी पर टंगी शेरवानी समझते हैं। उसे पहनते ही शपथ ग्रहण के लिए न्यौता पक्का है। अब अनिश्चितता और असमंजस है। उप मुख्यमंत्री और प्रदेश पार्टी के अध्यक्ष पद की दोहरी पगड़ी बांधने के बावजूद सचिन पायलट ने बगावत की। महाराष्ट्र में मंत्री ही पार्टी का प्रदेशाध्यक्ष है। मध्य प्रदेश में प्रदेशाध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष एक ही व्यक्ति है। भूपेश बघेल अपवाद हैं। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष पद छोड़ा। 12 महीने में कांग्रेस अध्यक्ष नहीं चुन सकी। राजनीतिक दल के रूप में मान्यता रद्द होने का अंदेशा है। कांग्रेस को सत्ता और महत्ता दिलाने वाले महात्मा गांधी ने 1942 में फिरोज घेंडी को अपना गांधी सरनेम दिया। ताकि फिरोज से इंदिरा के विवाह पर जवाहर लाल नेहरू की हिचक दूर हो। स्वतंत्रता के तुरंत बाद अनेक साहसी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कांग्रेस से अलग हुए। नई पार्टी बनाई। पहले और अंतिम भारतीय वायसराय राजगोपालाचार्य ने स्वतंत्र पार्टी बनाई। इंदिरा गांधी ने स्वयं ही कांग्रेस का नाम और चिह्न बदलकर पंजा छाप किया। आपात्काल के दौरान जनता पार्टी में भारतीय जनसंघ विलीन हुआ। जनता नाम की चमक का लाभ लेने के लिए नई पार्टी का नाम जनसंघ के बजाय भारतीय जनता पार्टी रखा गया। कांग्रेस और जनता पुछल्ले वाली दर्जनों पार्टियाँ हैं।
एक दल से दूसरे दल में आवागमन चलता रहता है। व्यक्तिगत विरोध के कारण जाते हैं। आम तौर पर सत्ता के लोभ में लौटते हैं। वैचारिक भूमिका नहीं होती। आपात्काल विरोधी पेट्रोल पंप, पद और पेंशन पाने लगे। यह देश तब भी चलेगा कांग्रेस नहीं होगी। हिंदू और अन्य भारतीय नागरिक तब रहेंगे जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में नहीं रहेगी। महज दलों के नाम से सत्ता नहीं मिलती। इस बात को कांग्रेस 70 बरस में नहीं समझ सकी। इस सत्य को वर्तमान सत्ताधीश समझें। सत्ता और राजनीतिक दल की आयु में कोई संबंध नहीं होता। जनता पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, पाकिस्तान में इमरान खान की तहरीक- ए- इंसाफ जैसे कई उदाहरण हैं। गांधी की बात मानकर कांग्रेस अब लोक सेवक संघ का चोला ओढ़ ले तब? राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अवश्य अचकचा जाएगा। सिर्फ विरासत, बयान और बैनर की बदौलत देश चलते होते तो सदियों पुरानी सभ्यता वाला यूनान दिवालियेपन की कगार पर न होता। भारत से होड़ लेने वाले दार्शनिक, शूर योद्धा और लोकतांत्रिक विचारक वहां भी हुए हैं।
(लेखक दैनिक भास्कर नागपुर के समूह संपादक हैं)
जे.के. कर
सोमवार 3 अगस्त को विश्वस्वास्थ्य संगठन के डायरेक्टर जनरल टेड्रोस एडहनॉम गिब्रयेसॉस ने एक वर्चुअल प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुये कहा कि......‘However, there's no silver bullet at the moment and there might never be.’ बात कोरोना वाइरस के संबंध में कही गई है। बीबीसी हिन्दी ने इस खबर को इस रूप में पेश किया है....‘फिलहाल इस वायरस के लिए कोई सटीक और पक्के तौर पर इलाज उपलब्ध नहीं है और हो सकता है कि कभी ना हो।’
हमें तीव्र आपत्ति है कि WHO की ओर से यह मान लिया जाए कि कोरोना वाइरस का इलाज कभी हो ही नहीं सकता। कारण, मानव समाज मूल रूप से अज्ञेयवादी नहीं अज्ञातवाद में विश्वास करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि कोई चीज आज अज्ञात अवश्य हो सकती है लेकिन कभी न कभी उसे ज्ञात जरूर किया जा सकता है. जबकि जबकि अज्ञेयवाद का अर्थ होता है कभी ज्ञात न हो सकने वाला।
यदि मानव समाज निराशावादी होता तो न ही आग जला सकता था, न ही चक्के की खोज कर सकता था और न ही भाप के इंजन की खोज होती।
एक समय तो संक्रमण का भी कोई इलाज ही नहीं था। लेकिन एँटीबायोटिक की खोज ने मानव समाज को कई बीमारियों से राहत प्रदान की. हम आज भी अपने बुजुर्गो से सुन सकते हैं कि किस तरह से एक समय लोग टीबी रोग होने से लोग मर जाया करते थे। लेकिन आज यह सब पुरानी बातें हैं। हमारे पास कई एँटीबायोटिक तथा वैक्सीन उपलब्ध हैं जिससे मानव समाज को संक्रमण से बचाया जा रहा है।
हां यह सच है कि आज भी इबोला, एचआईव्ही, एवियन इन्फ्लूएंजा, सार्स तथा मर्स का कोई सटीक इलाज़ या वैक्सीन मानव समाज नहीं बना पाया है लेकिन वैज्ञानिकों तथा चिकित्सकों ने तो हार नहीं मानी है। लगातार खोज हो रहे हैं। कोरोना वाइरस की भी कोई वैक्सीन अभी तक नहीं बन पाई है तथा जानकारों का मानना है कि इस वाइरस के खिलाफ़ शरीर में एँटीबाडी ज्यादा समय तक रह पायेगी कि नहीं इसमें भी शक है। शायद, यही कारण है कि WHO की ओर से कहा गया है कि 'silver bullet' शायद कभी बन ही न पाए।
बहस के लिए माना जा सकता है कि यदि वैक्सीन ज्यादा दिन तक काम नहीं करेगा तो जब तक लंबे समय तक काम करने वाले वैक्सीन का ईज़ाद न हो जाये तब तक, अब जो भी वैक्सीन बन रहा है उसे बार-बार लगाकर काम चलाया जाए। हमें एक वाइरस से निराश नहीं होना चाहिए बल्कि उसके खिलाफ जंग लडऩी चाहिए।
ऐसे समय में WHO का काम लोगों में हिम्मत बढ़ाना है न कि एक निराशाजनक बयान जारी करना है।
जहां तक बात ‘silver bullet? की बात है तो WHO को खोज करनी चाहिये कि जिस चीन से इस जानलेवा कोरोना वाइरस की शुरूआत मानी जा रही है उसके पास कौन सा 'silver bullet' है जो उसने कोरोना वाइरस के प्रसार को रोककर रखा हुआ है। आकड़ों के अनुसार चीन में अब तक इस वाइरस से मात्र 84,428 लोग संक्रमित हुए हैं, मात्र 4,634 मौतें हुई हैं तथा आज की तारीख में एक्टिव केसों की संख्या भी आश्चर्यजनक रूप से केवल 781 ही हैं (स्रोत: 2worldometers.info)
कम से कम चीन से लेकर उस ‘silver bullet’ को अन्य देशों को दिया जाना चाहिए, यह काम जाहिरा तौर पर WHO का ही है।
आपका क्या ख्याल है जनाब़? क्या हम हार मान लें?
अपूर्व गर्ग
आज नेहरूजी होते तो राहत इंदौरी साहब और नेहरूजी की दोस्ती के कई किस्से सामने होते। नेहरूजी उन्हें सर्वोच्च सम्मान के साथ अलग अंदाज़ से ही बिदा कर रहे होते!
70 साल में क्या हुआ जिनका तकिया कलाम है, उन्हें जानना चाहिए तब पीएमओ में ‘सरस्वती’ निवास करती थीं। तब पीएम ब्लैक कमांडो से नहीं लेखक, बुद्धिजीवियों, कवियों, शायरों से घिरे होते थे। तब दुनिया के बड़े बुद्धिजीवी नेहरूजी को पढ़ते, सुनते और उनसे बात करने को उत्सुक रहते थे।
फिराक से लेकर जोश मलीहाबादी तक नेहरूजी से एक दोस्त की तरह पूरे अधिकार से मिलते थे। एक बार फिराक नेहरूजी से मिलने पहुंचे पहुंचे तो रिसेप्शनिस्ट ने उन्हें पर्ची पर नाम लिख कर देने को कहा। उन्होंने लिखा रघुपति सहाय. रिसेप्शनिस्ट ने आगे आर सहाय लिखकर पर्ची अंदर भेज दी। जब 15 मिनट बीतने पर भी बुलावा न आया तो फिराक भडक़ गए। चिल्लाने लगे। शोर सुनकर नेहरू बाहर आए. माजरा समझने पर बोले कि मैं 30 साल से तुम्हें रघुपति के नाम से जानता हूं, मुझे क्या पता ये आर सहाय कौन है? उन्हें जब अंदर ले गए तो नेहरू ने उनकी सूरत देखकर पूछा, ‘नाराज हो?’
जवाब फिराक ने इस शे’र से दिया,
‘तुम मुखातिब भी हो, करीब भी
तुमको देखें कि तुमसे बात करें’
1952 के चुनाव प्रचार में जवाहरलाल नेहरू गोंडा के दौरा पर आए थे। इसी समय ‘बेकल वारिस’ की कविता ‘किसान भारत का’ सुनकर उनके उत्साह की प्रशंसा की, पंडित नेहरू ने उसे पास बुलाकर कहा, ‘तुमने जनता में उत्साह भर दिया, तुम तो वास्तव में उत्साही हो। ’ पंडित नेहरू ने उस नौजवान कवि को नया तख़ल्लुस दिया ‘उत्साही’। तब से से ‘बेकल उत्साही’ बन गए। चाँद और तारों के साथ रहने से आसमान जितना सुन्दर दीखता है उतनी ही सुन्दर-सजीव दोस्ती थी नेहरू-जोश मलीहाबादी की।
जोश मलीहाबादी को पता चला नेहरूजी भी शिमला में हैं। उन्होंने फोन किया सेक्रेटरी मुलाकात न करवा सकी। जोश मलीहाबादी ने अपने जोश के मुताबिक नेहरूजी को कड़ा पत्र लिखा। दूसरे दिन इंदिरा गाँधी का फोन आया आप आइये मेरे साथ चाय पीजिये। जोश ने कहा, ‘बेटी वहां तुम्हारे बाप मौजूद होंगे, मैं उनसे मिलना नहीं चाहता।’ इंदिरा ने कहा-‘मैं पिताजी को अपने कमरे में बुलाऊंगी ही नही।’
जोश जब पहुंचे तो पंडित नेहरू पीछे से जोश पकडक़र सीधे अपने कमरे में ले गए और इसके बाद पंडित नेहरू जोश से जिस दोस्ती से मिले जोश नेहरूजी के गले लग कर रोने लगे। नेहरू जी और जोश की दोस्ती की ऐसी कई दास्ताँ जानने के लिए जरूर पढि़ए ‘यादों की बरात’।
नेहरूजी के न रहने पर जोश ने लिखा था शराफत के आसमान का सूरज डूब गया। हिन्दुस्तान में ही नहीं सारे एशिया में अँधेरा छा गया।
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले ने देश की बेटियों को अपने पिता की संपत्ति में बराबरी का हकदार बना दिया है। अदालत के पुराने फैसले रद्द हो गए हैं, जिनमें कई किंतु-परंतु लगाकर बेटियों को अपनी पैतृक संपत्ति का अधिकार दिया गया था। मिताक्षरा पद्धति या हिंदू कानून में यह माना जाता है कि बेटी का ज्यों ही विवाह हुआ, वह पराई बन जाती है। मां-बाप की संपत्ति में उसका कोई अधिकार नहीं रहता।
पीहर के मामलों में उसका कोई दखल नहीं होता लेकिन अब पैतृक संपत्ति में बेटियों का अधिकार बेटों के बराबर ही होगा। यह फैसला नर-नारी समता का संदेशवाहक है। यह स्त्रियों के सम्मान और सुविधाओं की रक्षा करेगा। उनका आत्मविश्वास बढ़ाएगा। इस फैसले का सबसे बड़ा संदेश तो यह है कि यदि हिंदू कानून में सुधार हो सकता है तो मुस्लिम, ईसाई, सिख आदि कानूनों में सुधार क्यों नहीं हो सकता ? सारे कानूनों पर देश में खुली बहस चले ताकि समान नागरिक संहिता का मार्ग प्रशस्त हो। यह एतिहासिक फैसला कई नए प्रश्नों को भी जन्म देगा। जैसे पिता की संपत्ति पर तो उसकी संतान का बराबर अधिकार होगा लेकिन क्या यह नियम माता की संपत्ति पर भी लागू होगा ? आजकल कई लोग कई-कई कारणों से अपनी संपत्तियां अपने नाम पर रखने की बजाय अपनी पत्नी के नाम करवा देते हैं। क्या ऐसी संपत्तियों पर भी अदालत का यह नया नियम लागू होगा? क्या सचमुच सभी बहनें अपने भाइयों से अब पैतृत-संपत्ति की बंदरबांट का आग्रह करेंगी ? क्या वे अदालतों की शरण लेंगी ? यदि हां, तो यह निश्चित जानिए कि देश की अदालतों में हर साल लाखों मामले बढ़ते चले जाएंगे। यदि बहनें अपने भाइयों से संपत्ति के बंटवारे का आग्रह नहीं भी करें तो भी उनके पति और उनके बच्चे लालच में फंस सकते हैं। दूसरे शब्दों में यह नया अदालती फैसला पारिवारिक झगड़ों की सबसे बड़ी जड़ बन सकता है।
क्या हमारी न्यायपालिका में इतनी क्षमता है कि इन मुकदमों को वे साल-छह महीने में निपटा सके ? इन मुकदमों के चलते-चलते तीन-तीन पीढिय़ां निकल जाएंगी। बेटियों का पीहर से कोई औपचारिक आर्थिक संबंध नहीं रहे, शायद इसीलिए दहेज-प्रथा भी चली थी। दहेज-प्रथा तो अभी भी मजबूत है लेकिन अब राखी का क्या होगा? मुकदमेबाज़ बहन से क्या कोई भाई राखी बंधवाएगा ? भाई यह दावा कर सकता है कि पिता के संपत्ति-निर्माण में उसकी अपनी भूमिका सर्वाधिक रही है। उसमें बहन या बहनोई दखलंदाजी क्यों करें ? इस समस्या का तोड़ यह भी निकाला जाएगा कि पिता अपने संपत्तियां अपने नाम करवाने की बजाय पहले दिन से ही अपने बेटों के नाम करवाने लगेंगे। वे अदालत को कहेंगे कि तू डाल-डाल तो हम पांत-पांत।
(नया इंडिया की अनुमति से)
जब कोविड-19 का टीका बनकर तैयार होगा, वैश्विक आवश्यकता की तुलना में इसकी आपूर्ति सीमित होगी। कई स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि टीका सबसे पहले दुनिया भर के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को, फिर गंभीर जोखिम वाले लोगों को, फिर उन क्षेत्रों को जहां बीमारी तेज़ी से फैल रही है, और आखिर में बाकी लोगों को मिलना चाहिए। टीका वितरण की यह रणनीति सबसे अधिक ज़िंदगियां बचाएगी और संक्रमण के प्रसार को रोकेगी। यह बेतुका होगा कि टीका दक्षिण अफ्रीका के स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की बजाय अमीर देशों के कम जोखिम वाले लोगों को पहले मिले।
फिर भी पैसा और राष्ट्रीय हित जीत सकते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका और युरोप पहले ही टीका निर्माताओं को करोड़ों खुराक का ऑर्डर दे रहे हैं जिससे शायद दुनिया के गरीब देशों के लिए बहुत कम टीके बचेंगे। इस स्थिति से बचने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन और अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों ने टीके के समतामूलक वितरण का एक तरीका निकाला है: कोविड-19 वैक्सीन ग्लोबल एक्सेस (COVAX) फेसिलिटी। वे अमीर देशों से इस पर हस्ताक्षर करवा कर टीकों पर उनकी अनुचित दावेदारी के खतरे को कम करना चाहते हैं।
वैसे टीका या औषधि वितरण का इतिहास आशाजनक नहीं रहा है। 1996 में एचआईवी संक्रमण के उपचार में एंटीवायरल औषधि ने पश्चिम देशों में कई ज़िंदगियां बचाई, लेकिन इसे व्यापक रूप से अफ्रीका तक पहुंचने में 7 साल लग गए। 2009 में H1N1 इन्फ्लूएंज़ा महामारी के दौरान कई देशों को बहुत कम संख्या में टीके मिले थे वह भी लंबे इंतज़ार के बाद।
इस बार भी अमीर देशों की चिंता अपने नागरिकों तक सीमित है। यूएस ने टीका कंपनियों के साथ 6 अरब डॉलर के समझौते किए हैं और युरोपीय संघ ने एस्ट्राज़ेनेका के साथ 40 करोड़ टीके खरीदने के सौदे पर हस्ताक्षर किए हैं। यूके ने भी यही रणनीति अपनाई है।
COVAX के पीछे विचार यह है कि विभिन्न 12 टीकों में निवेश किया जाए और उन तक आसान पहुंच सुनिश्चित की जाए। 2021 के अंत तक टीकों की 2 अरब खुराक प्राप्त करने का लक्ष्य है: 95 करोड़ उच्च व उच्च-मध्यम आय वाले देशों के लिए, 95 करोड़ निम्न व निम्न-मध्यम आय वाले देशों के लिए और 10 करोड़ आपात उपयोग के लिए।
COVAX के अधिकारी जानते हैं कि COVAX से जुड़ने के बावजूद कई अमीर देश टीका निर्माता कंपनियों के साथ सौदे तो करेंगे। लेकिन COVAX अनुबंध एक प्रकार का बीमा है कि यदि उनके खरीदे टीके असफल रहे तो COVAX के माध्यम से उनकी पहुंच अन्य टीकों तक रहेगी।
टीकों के असफल होने के जोखिम को कम करने के लिए COVAX की योजना विभिन्न प्रकार के टीकों में निवेश करने की है। इसके अलावा COVAX विभिन्न देशों की कंपनियों से टीके लेना चाहता है ताकि कोई भी देश उनका निर्यात रोक ना सके।
अब तक, 70 से अधिक देशों ने COVAX में रुचि दिखाई है। यह बात और है कि वे इस पर हस्ताक्षर करते हैं या नहीं। वहीं युरोपीय संघ के कुछ देश, जो अक्सर वैश्विक एकजुटता के महत्व पर बल देते हैं, COVAX को वित्तीय मदद देने का इरादा रखते हैं लेकिन COVAX के माध्यम से खुद के लिए टीके नहीं लेंगे। डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स एक्सेस अभियान की टीका विशेषज्ञ कैट एल्डर का कहना है कि COVAX समतामूलक वितरण का अच्छा तरीका है लेकिन यह अधिक पारदर्शी होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
-मनोज श्रीवास्तव
वे राधा ही बस गईं वृंदावन में जो कभी कदंब के तने से टिककर खड़े कृष्ण को कभी यहां और कभी वहां देखने का भरम पाले रखीं। गोकुलनाथ गौवंश को छोड़कर चल दिये। वे जो ‘गो’ ही को अपना ‘कुल’ मानते थे, अब द्वारिकेश हैं। लेकिन न वह धेनु है और न वह वेणु है उनके पास, जिनकी ईश्वरी हुआ करती थीं राधा । वही रह गयीं उन गायों के पास जिन्हें कृष्ण को घेरे रहने में जाने कैसी तृप्ति मिलती थी। वही रह गयीं उस यमुना के करीब जिसे जन्मने पर कृष्ण ने पांवों के स्पर्श से शांत कर दिया था किन्तु जो अब पछाड़ें खाती हुई कृष्ण को ढूंढती है। वे घनप्रिय, वे श्यामकंठ मोर जिनके पंखों को धारण करके ही कृष्ण इस अगजग के सम्राट लगते थे, अब राधा के हाथों से दुलराये जाते हैं जैसे वही इनकी वनदेवी है। कौन रह गया उस भूसर्ग के साथ ? उन तितलियों और जुगनुओं, उन भृंगों और वीरबहूटियों के साथ ? उन बत्तखों और हंसों, उन सारसों और टिटहरियों के साथ ? उन चातकों और चकोरों, उन हिरनों और गिलहरियों के साथ ? राधा ही न।जो शेष रह गईं तो जैसे अशेष हो गयीं। वे वाकई प्रकृति थीं। कभी ब्रम्हा कृष्ण का प्रभाव जानने के लिए सारे गौएं, बछड़े और ग्वालबाल चुरा ले गये थे और सर्वसृष्टा योगीन्द्र हरि ने योगमाया से पुन: सबकी सृष्टि कर उन्हें लज्जित कर दिया था। अब कृष्ण स्वयं ही जैसे इन गौओं, बछड़ों, ग्वालबालों की हँसी चुरा ले गये हैं और अब वे सब राधा से ही जैसे प्रार्थना करते हैं कि वही उनका नवसृजन करे।
ब्रह्मवैवर्त पुराण में उद्धव श्रीकृष्ण से उचित ही कहते हैं कि मैंने उस पुण्यमय वृन्दावन को भी देख लिया जो भारतवर्ष का साररूप है। उस का साररूप परमरणीय रासमण्डल है । उसकी सारभूता गोलोक वासिनी श्रेष्ठ गोपिकाएं हैं। उनकी सारभूता परात्परा रासेश्वरी राधा हैं।सो यह हुआ कि कृष्ण के हाथ महाभारत आया, लेकिन भारत की सारभूत राधा ही हुईं।कृष्ण ने देश बचाया,राधा ने देस।‘सार’ के इन रूपों को क्रमश: मथते चले जाने के बाद जो अंतिमत: उपलब्ध हुईं वे हैं राधा । उनके लिए यहां इस पुराण में दो शब्द हैं : परात्परा और रासेश्वरी।परात्पर’ की परिभाषा यों की गई है : ‘परात् श्रेष्ठादापि पर:’ कि जिसके परे या जिससे बढ़कर कोई दूसरा न हो। किन्तु यदि अर्थ यह है कि जिसके परे कोई दूसरा न हो, तब वही तो राधा की आत्मीयता का ही सर्वव्यापकत्व है। राधा जैसे एक समष्टि को सम्बोधित हैं। कृष्ण व्रज से निकलकर विश्व के हुए तो राधा जहां थीं वहीं विश्वात्मिका हो गईं। कृष्ण अपनी परात्परता में पराक्रमिन हुए तो राधा की परिपूर्ति भी परहितरता होने में हुई। राधा के इस पहलू को अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने अपनी कृति ‘प्रिय प्रवास’ में पकड़ा।वहां राधा कृष्ण को विश्व के लिए उन्मुक्त करती हैं। लेकिन कृष्ण भी तो राधा को अपना कदंब और अपना कुंज, अपनी धेनु और अपना यमुनातट छोड़ के गये हैं। कृष्ण को राधा का उन्मोचन सम्भालना है, राधा को कृष्ण के बंधन। कृष्ण को राधा के द्वारा खोल दिया विश्वमंच सम्हालना है, राधा को कृष्ण की जीवित-जाग्रत कविताएं। राधा ने भी वह सीढ़ी पूरी तरह नहीं देखी जिस पर कृष्ण को चढ़ना था, लेकिन उसकी पहली पायदान तय करने के लिए कृष्ण को पहला कदम उठाने की अनुमति उन्होंने दे ही दी। कृष्ण ने कोई वायदा किया भी नहीं, राधा ने कोई वादा मांगा भी नहीं। कृष्ण को उनके कर्त्तव्य-पथ पर बढ़ने के लिए रासेश्वरी ने स्वतंत्र छोड़ दिया। रासेश्वरी परात्परा हो आईं।रासेश्वरी रसेश्वरी भी थी। रस नौ तरह के हैं। जीवन में आने जाने वाले कई तरह के रस हैं ।रस रास के विरोधी नहीं थे लेकिन उन्हें बहुत सी भूमियों को तय करना था। सिर्फ ब्रजभूमि पर नहीं इसलिए राधा भारतवर्ष की सारभूत हुईं, सिर्फ ब्रजभूमि की नहीं। पूरा जीवन ब्रज में लगाकर भी राधा भारत की ही निर्यूषा रहीं। भारत का सार।भारत का मकरंद ।भारत का मधु । उस भारत का मधु जो एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं है उस भारत का जो नि:श्रेयस है। बृज को भारत से अविभक्त देखना, स्वयं को भारत से अखंड देखना – यह साधना राधा ने की थी। कृष्ण के अभ्युदय के लिए राधा को नि:श्रेयसी होना ही था।
शंकराचार्य ने कहा था कि अभ्युदय का फल धर्मज्ञान है और नि:श्रेयस का फल ब्रह्म ज्ञान इसी कारण ब्रज में रहकर ही वह लोकसंग्रह कर लेती हैं। ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है । इसलिए राधा को वह हैसियत प्राप्त हुई। इसलिए राधा कृष्ण से कहीं अलग नहीं हैं। इसलिए वे भारत की सारभूता हैं क्योंकि भारत मनुष्य को और प्रकृति को कभी भी ईश्वर से अलग नहीं देखता। वे लोग जो कभी अपनी जन्मभूमि से अलग नहीं हुए, वहीं रह गये – उनमें राधा-तत्व है। वे जो बाहर निकल गये, जिन्होंने दुनिया की सैर कर ली अपने कर्म और कर्त्तव्य के लिए उनमें कृष्ण-तत्व है। लेकिन हैं ये दोनों एक ही। हैं राधा और कृष्ण दोनों ही परदु:खकातर, दोनों ही सुश्रवा हैं,दोनों ही नैष्ठिक। राधा किंचित् अंतर्मुखी हैं, कृष्ण किंचित बहिर्मुखी। लेकिन राधा की अंतमर्नस्कता ऐसी नहीं है कि कृष्ण के तैजस का लाभ विश्व को न मिले और न कृष्ण की बहिर्मनस्कता ऐसी है कि राधा की अंतर्लीनता का आदर न करे।दोनों में वह अनुदात्तता कहीं नहीं है।
प्रेम के लिए दुनिया को ठुकराने का भी एक सौंदर्य है। किंग एडवर्ड अष्टम ने श्रीमती वालिसवारफील्ड (सैंपसन) के लिए ब्रिटेन का ताज ठुकराया था। पर कृष्ण क्या त्याग करते ? वे तो गोपाल थे। और सिंहासन से प्रेम उन्हें भी न था। लेकिन उन्हें उस कर्त्तव्य का भान अवश्य था जो उनके द्वारा एक आततायी शासन का अन्त करने में निहित था। बच्चों पर सत्ता का क्रूर प्रहार करने वाला, वृद्धों पर अत्याचार करने वाला शासन ।कृष्ण ने कंस को मारकर उसके पिता उग्रसेन को सिंहासनाभिषिक्त किया। वे स्वयं नहीं बैठे। कंस ने सिर्फ वसुदेव और देवकी को ही बंदी नहीं बनाया था, अपने पिता उग्रसेन को भी बंदी बनाया था। कृष्ण ने अपने पिता को ही मुक्त नहीं कराया था, जिसे मारा था, उसके पिता को भी मुक्त कराया था। यह राधा के स्वभाव की ही मृदुता थी जो कंस की कठोरता का प्रतिध्रुव थी। रासेश्वरी का रास प्रेमोत्सव था जो कंस के क्रूरता-पर्व का प्रतिध्रुव था। ब्रज की अकृत्रिमता कंस के बनावटी साम्राज्य से एकदम अलग थी। कंस ने तो विवाह भी साम्राज्य के लिए किए थे। जरासंध की दोनों पुत्रियों से विवाह करके उसने अपने राज्य को और शक्तिशाली बना लिया था। लेकिन उसी हद तक वह निरंकुश भी होता चला गया था। उधर कृष्ण तो राधा के अंकुश में थे। राधा के वशानुग। राधा को स्वाधीनपतिका या स्वाधीनभर्तृका नायिका के रूप में चित्रित भी किया गया है। राधाकृपाकटाक्षस्तोत्र में ‘निरंतर वशीकृतं प्रतीतनन्दनन्दने’ में राधा के द्वारा कृष्ण को लगातार वशीकृत रखने की पुष्टि है। उस नायिका की तरह जिसका प्रेमी उसके वश में हो। वे ही राधा अपनी परात्परता के कारण अपना खुद का रास रचाते नहीं रह सकती थीं। सदात्मा राधा नष्टात्मा कंस के कारण जगत् में प्रेम का पतन होना भी देखती थीं।
मूर्ख थे वे जो राधा को परकीया बताते रहे। राधा को परकीया बताने वाले श्रीमान लोग स्थूल सामाजिक नैतिकता को ही सभी चीजों पर वरीयता देते हैं। ऐसे आलोचकों से वे पुराण बेहतर है जो राधा और कृष्ण के प्रेम की इस आत्मिकता को इस अध्यात्म को, इस पारलौकिकता की पूजा करते हैं। ट्रेसी कोलमेन कहती हैं कि ‘Krishna is free from obligation and free to do as he pleases contrasts sharply with Radha’s stridharma and her passionate bhakti, which bind her to husband and lover in different ways. लेकिन राधा द्वारा भक्ति पर ध्यान देने वाली ट्रेसी और अन्य ये क्यों भुला देते हैं कि राधा स्वयं ईश्वरी हैं और स्वयं उनकी भक्ति की एक प्राचीन परंपरा है। श्रुति में कण्ठशाखा के भीतर राधा की प्रशंसा की गई है। भारत में शिव राम के भक्त हैं, वे भगवान भी हैं। राधा की प्रतिष्ठा पुराणों में उसी तरह है। उद्धव राधा की वंदना यों करते हैं, ‘’मैं श्रीराधा के उन चरणकमलों की वंदना करता हूं, जो ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा वन्दित है तथा जिनकी कीर्ति के कीर्तन से ही तीनों भुवन पवित्र हो जाते हैं। गोकुल में वास करने वाली राधिका को बारंबार नमस्कार। शतश्रंग पर निवास करने वाली चंद्रवती को नमस्कार-नमस्कार। तुलसीवन तथा वृन्दावन में बसने वाली को नमस्कार नमस्कार। रासमण्डलवासिनी रासेश्वरीको नमस्कार नमस्कार। वृन्दावन विलासिनी कृष्णा को नमस्कार नमस्कार। कृष्णप्रिया को नमस्कार नमस्कार। कृष्ण के वक्ष: स्थल पर स्थित रहने वाली कृष्णप्रिया को नमस्कार नमस्कार देठि। जैसे दूध और उसकी धवलता में, गंध और भूमि में, जल और शीतलता में, शब्द और आकाश में तथा सूर्य और प्रकाश में कभी भेद नहीं है, वैसे ही लोक, वेद और पुराण में- कहीं भी राधा और माधव में भेद नहीं है।
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ट्रेसी ध्यान नहीं दे पाई कि लोक, वेद और पुराण तीनों ही इनका अभेद मानते हैं। इसलिए वे किस परंपरा की बात करती हैं जब वे यह कहती है कि : ‘ The tradition thus privileges masculine freedom in contrast to feminine duty and devotion, celebrating a woman who sacrifice everything for her man, but who may get nothing in return.’ काश राधा ने ऐसा कोई करोबार किया होता जो ‘’रिटर्न्स ऑन इन्वेस्मेंट’’ पर आधारित होता लेकिन तब कृष्ण ‘’मा फलेषु कदाचन’’ कैसे कह पाते ? ट्रेसी तो फल भी नहीं, प्रतिफल की बात करती है। राधा को ‘’शुद्ध लाभ’’ क्या प्राप्त हुआ ? निवेश के अनुपात में। Year -o से हिसाब लगाओ। अब इसका क्या करें कि यह राधा इतनी ‘’शुद्ध ‘’ है कि यह व्यापार को तैयार नहीं है। ट्रेसी की निवेश-दक्षता की कसौटियां तो क्या, यह तो उद्धव के योग के बदले अपने वियोग का सौदा करने को तैयार नहीं । जोग ठगौरी ब्रज न बिकै है । यह तो बालपन की प्रीत ही नहीं, जन्म जन्म की प्रीत है्। किसी जनम किसी का पलड़ा भारी होगा, किसी जन्म किसी का।
ट्रेसी के असल इरादे क्या हैं, यह तब स्पष्ट होता है जब वे कहती हैं : Given that Rama and krsna are God, then, one could say that god makes women utterly dependent, extremely vulnerable, and finally destitute when he abandons them with nothing, not even themselves, for the women have given themselves totally and unconditionally to their men, rendering an independent life meaningless. तो बात इन ‘ईश्वरों' की है। मेरा गॉड तेरे गॉड से बेहतर। कृष्ण तो गारूड़ी बनकर राधा पर चढ़ गया जहर उतार दिये थे, पर यह जहर कौन उतारे। कृष्ण की निर्दयता को इनसे उपालंभ मिलते हैं। पर इसका क्या करें कि चार्ल्स वाट्स ने ‘द क्रिश्चियन डीटी’ में लिखा कि The Bible character of God is continuously and consistently cruel. बाईबल में उसकी निर्दयताएं भरी पड़ी हैं ऐसा वे कहते हैं। तो शायद उसी की स्पर्धा या कुंठा में भारत के ‘God’ के बारे में भी यही निष्कर्ष निकालने की कोशिश की जा रही है। लेकिन कोशिश इसलिए औंधे मुंह गिरती है क्योंकि भारत में सीता और राधा भी देवी हैं, सिर्फ राम या कृष्ण ही ‘गॉड’ नहीं हैं। लोक ने उन राधा को मंदिरों में प्रतिष्ठित किया। वेद में राम या कृष्ण से ज्यादा उल्लेख उनका है और पुराणों में तो वे बहुत बहुत है। लोक ने उन्हें देवताओं से ज्यादा आदर बख्शा। ‘सीताराम’ ‘या’ ‘राधाकृष्ण’ जैसे सम्बोधनों में पहले उन्हें रखा गया। उनके गायत्री मंत्र बने। यदि रामनवमी है तो सीता नवमी भी है। यदि कृष्ण जन्माष्टमी है तो राधाष्टमी भी है। राधा कृष्ण का ही स्त्रैण रूप समझी जाती हैं। नारद पंचरात्र उन्हें गोकुलेश्वरी कहता है और महाभाव का साक्षात रूप। उस महाभाव को ट्रेसी तवज्जो न देकर उन्हें एक करोबारी दुनियादार किस्म की स्त्री में बदलना चाहती हैं। उनकी संतुष्टि तभी होगी। पर राधा कहेंगी : ‘यह ब्योपार तिहारो, ट्रेसी, ऐसोई फिरि जैहै ‘ और ब्रज की गोपियां कहेंगी – ‘ आयो घोष बड़ो व्यौपारी। ट्रेसी कितनी ही कोशिश कर लें, ब्रज में कोई अपना दूध छोड़ के खारे कुँए का जल नहीं पीने वाला और उनकी बातों के भरम में आने वाली कोई अज्ञानी नारी वहां उन्हें मिलेगी भी नहीं- इनके कहे कौन डहकावै ऐसी कौन अजानी/ अपनो दूध छौडि के पीवै खार कूप को पानी। कौन कहेगा कि कृष्ण ने राधा को निर्भर और दरिद्र बनाया। राधा इतनी आत्मगर्विता हैं कि वे कृष्ण से भी कुछ न मांगें। और वे राधा दरिद्र जिन्हें ब्रज की गोपियां चंवर डुलाती हैं। राधा का मंत्र उनकी श्री को बताता है : राधा साध्यं साधनं यस्य राधा मंत्रो राधा मंत्रदात्री च राधा/सर्वं राधा जीवन यस्य राधा राधा वाचि किं तस्य शेष’’। यानी राधा साध्य है, उसे पाने का साधन भी राधा ही हैं, राधा मंत्र हैं और मंत्रदात्री भी वही हैं। सबका प्राण भी राधा ही है। राधा नाम के अतिरिक्त ब्रह्मांड में शेष बचता ही क्या है ? राधा का कृपाकटक्षस्तोत्र उन्हें ‘’प्रभूतसंपदालये’’ कहता है और ट्रेसी उन्हें destitute कहती हैं। श्रीकृष्ण ही नहीं, धर्म ने, ब्रह्मा ने, अनन्त ने, वासुकि ने, महादेव ने, सूर्य और चन्द्रमा ने , देवराज इन्द्र, रूद्रगण, मनु, मनुपुत्र, देवगण, मुनींद्रगण ने राधा की पूजा की है। (ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्रकृतिखंड)।
दृष्टि दृष्टि का फर्क है। राधा से कोई वास्तविक सहानुभूति थोड़े ही है ट्रेसी को। वे लिखती हैं : Radha is an adulteress, after all – a woman who in the real social and economic world where relationships are legislated would be extremely vulnerable, possibly rejected and deserted. Perhaps abused and left utterly destitute . राधा को व्यभिचारिणी कहने वाली एक यह दृष्टि है और दूसरी और उसे सती कहने वाली भारतीय दृष्टि है : ‘परमानंदराशिश्च स्वयं मूर्तिमती सती/श्रुतिभि: कीर्तिता तेन परमानन्दरूपिणी.’ इन दृष्टियों के फर्क देखकर कई बार लगता है कि इन महाशया से कहा जाए कि देवि, ये रहस्य आपसे न समझे जायेंगे। पर इस दौर में देव भी हैं। ए.के.मजुमदार लिखते है : ‘In the whole range of Indian mythology a mistress, even divine, was never thought worthy of worship. राधा की पूजा इसका प्रमाण है कि भारत में ‘स्वकीया’ और ‘परकीया’ की रीतिकालीन श्रेणियों से कुछ नहीं निर्णीत होता बल्कि प्रेम की तीव्रता, हृदय और बुद्धि की शुद्धता से ही सब तय होता है।राधा और कृष्ण की दुनिया में यह नहीं है कि शौहर बीबी को अपनी खेती माने, कि यह कहा जाए कि ‘’Your Maker is your husband’’ (Isaiah 54:5) कि ‘’wives should be subordinated to their husbands as to the Lord’’ यहां यह तथाकथित ‘’ adulteress ‘’ देवी के रूप में स्वीकृत है। राधा को दांपत्य देवत्व नहीं देता। देवत्व राधा अपनी भावना की पवित्रता और नियतात्मता से उपलब्ध करती हैं। वे कृष्ण की मातहत नहीं हैं। कृष्ण का अवतार हैं। कृष्ण का आधा हिस्सा- उनकी पसली नहीं। राधा का ऋत और सरलता उन्हें पूज्य बना पायी वरना उन्हें कहीं किसी और मूल्य-प्रणाली में खेती की खरपतवार की तरह उखाड़ के फेंक दिया गया होता या वे अपने पति की अधीनस्थता में अपने मन के तथ्य का गला घोंट कर मर जातीं। "रिलेशनशिप्स’’ को ‘’लेजिस्लेट’’ करना एक क्षुद्राशय और अनृताधारित समाज का निर्माण करना हो सकता है। लेकिन धर्म न तो लेबल हैं, न लेबलों का अनुशासन। राधा और कृष्ण जन्मे ही लेजिस्लेट करने की मनोवृत्ति के असल टुच्चेपन को उजागर करने के लिए हैं। उनके अवतार के प्रयोजन ह्रदय के धर्म की संस्थापना करते हैं और इसीलिए वे दोनों भारत के ह्रदयों पर राज करते हैं।
क्या भारत ख़रीदेगा ये टीका
- सरोज सिंह
केवल दो महीने के ट्रायल के बाद रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने दावा किया है कि उनके वैज्ञानिकों ने कोरोना वायरस की ऐसी वैक्सीन तैयार कर ली है, जो कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ कारगर है. गेमालेया इंस्टीट्यूट में विकसित इस वैक्सीन के बारे में उन्होंने कहा कि उनकी बेटी को भी यह टीका लगा है.
रूस ने इस वैक्सीन का नाम 'स्पुतनिक वी' दिया है. रूसी भाषा में 'स्पुतनिक' शब्द का अर्थ होता है सैटेलाइट. रूस ने ही विश्व का पहला सैटेलाइट बनाया था.
उसका नाम भी स्पुतनिक ही रखा था. इसलिए नए वैक्सीन के नाम को लेकर ये भी कहा जा रहा है कि रूस एक बार फिर से अमरीका को जताना चाहता है कि वैक्सीन की रेस में उसने अमरीका को मात दे दी है, जैसे सालों पहले अंतरिक्ष की रेस में सोवियत संघ ने अमरीका को पीछे छोड़ा था.
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राष्ट्रपति पुतिन ने अपनी बेटी का ज़िक्र करके सबको अचरज में डाल दिया है. वो पब्लिक प्लेटफॉर्म पर अपनी बेटियों के बारे में कहने से हमेशा बचते रहे हैं.
वैक्सीन के बारे में उन्होंने सरकार के मंत्रियों को मंगलवार को संबोधित करते हुए कहा, "आज सुबह कोरोना वायरस की पहली वैक्सीन का पंजीकरण हो गया है."
पुतिन ने कहा कि इस टीके का इंसानों पर दो महीने तक परीक्षण किया गया और ये सभी सुरक्षा मानकों पर खरा उतरा है.
इस वैक्सीन को रूस के स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी मंज़ूरी दे दी है. माना जा रहा है कि रूस में अब बड़े पैमाने पर लोगों को यह वैक्सीन देनी की शुरुआत होगी, जिसके लिए अक्तूबर के महीने में मास प्रोडक्शन शुरू करने की बात कही जा रही है.
रूसी मीडिया के मुताबिक़ 2021 में जनवरी महीने से पहले दूसरे देशों के लिए ये उपलब्ध हो सकेगी.
हालाँकि रूस ने जिस तेज़ी से कोरोना वैक्सीन विकसित करने का दावा किया है, उसको देखते हुए वैज्ञानिक जगत में इसको लेकर चिंताएँ भी जताई जा रही हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन समेत दुनिया के कई देशों के वैज्ञानिक अब खुल कर इस बारे में कह रहे हैं.

विश्व स्वास्थ्य संगठन की चिंता
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कहा है कि उसके पास अभी तक रूस के ज़रिए विकसित किए जा रहे कोरोना वैक्सीन के बारे में जानकारी नहीं है कि वो इसका मूल्यांकन करें.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अंतर्गत आने वाले पैन-अमेरिकन हेल्थ ऑर्गनाइजेशन के सहायक निदेशक जरबास बारबोसा ने कहा, "कहा जा रहा है कि अब ब्राज़ील वैक्सीन बनाना शुरू करेगा. लेकिन जब तक और ट्रायल पूरे नहीं हो जाते ये नहीं किया जाना चाहिए."
उनका कहना था- वैक्सीन बनाने वाले किसी को भी इस प्रक्रिया का पालन करना है, जो ये सुनिश्चित करेगा कि वैक्सीन सुरक्षित है और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने उसकी सिफ़ारिश की है.
पिछले हफ़्ते विश्व स्वास्थ्य संगठन ने रूस से आग्रह किया था कि वो कोरोना के ख़िलाफ़ वैक्सीन बनाने के लिए अंतरराष्ट्रीय गाइड लाइन का पालन करे.
विश्व स्वास्थ्य संगठन के तहत जिन छह वैक्सीन का तीसरे चरण का ट्रायल चल रहा हैं, उनमें रूस की वैक्सीन का ज़िक्र नहीं है. विश्व के दूसरे देश इसलिए भी रूस की वैक्सीन को लेकर थोड़े आशंकित हैं.
वैक्सीन ट्रायल डेटा उपलब्ध नहीं
स्पुतनिक-वी को लेकर एक और भी चिंता है.
दरअसल जिस कोरोना वैक्सीन को बना लेने का दावा रूस कर रहा है, उसके पहले फेज़ का ट्रायल इसी साल जून में शुरू हुआ था.
बीबीसी लंदन के चिकित्सा संवाददाता, फ़र्गस वाल्श के मुताबिक़ रूस ने वैक्सीन बनाने के सारे ट्रायल पूरा करने में ज़्यादा ही तेज़ी दिखाई है. चीन, अमरीका और यूरोप में वैक्सीन ट्रायल शुरू होने के बाद रूस ने अपने वैक्सीन का ट्रायल 17 जून को शुरू किया था.
मॉस्को के गेमालेया इंस्टीट्यूट में विकसित इस वैक्सीन के ट्रायल के दौरान के सेफ़्टी डेटा अभी तक जारी नहीं किए गए हैं. इस वज़ह से दूसरे देशों के वैज्ञानिक ये स्टडी नहीं कर पाए हैं कि रूस का दावा कितना सही है.
फ़र्गस वाल्श के मुताबिक़ किसी भी बीमारी में केवल पहले वैक्सीन बना लेने का दावा ही सब कुछ नहीं होता. वैक्सीन कोरोना संक्रमण से बचाव में कितनी कारगर है, ये साबित करना सबसे ज़रूरी है. रूस की वैक्सीन के बारे में ये जानकारी दुनिया को अभी नहीं है और ना ही रूस ने इस बारे में कोई दावा ही किया है.
अमरीका और रूस में भी उठ रहे हैं सवाल
पिछले महीने अमरीका के संक्रमण रोग विशेषज्ञ डॉक्टर एंथनी फाउची ने भी रूस और चीन के वैक्सीन के ट्रायल की तेज़ी पर शक जताया था.
उस वक़्त भी डब्लूएचओ के प्रवक्ता ने कहा था कि किसी वैज्ञानिक ने वैक्सीन बनाने की दिशा में कोई भी क़ामयाबी हासिल की, ये अच्छी ख़बर है. लेकिन नया वैक्सीन खोजना और उस दिशा में एक क़दम आगे बढ़ाने, इन दोनों बातों में बहुत बड़ा फ़र्क होता है.
दरअसल वैक्सीन ट्रायल में कई स्टेज होते हैं, जिनको पार करने में सालों का वक़्त लगता है.
मेडिकल जर्नल लैंसेट के एडिटर इन चीफ़ रिचर्ड आर्टन के मुताबिक़ विश्व में सबसे तेज़ी से आज तक जो टीका बना है, वो ज़ीका वायरस का बना है, जिसमें दो साल का वक़्त लगा था.
लेकिन उन्होंने ये भी जोड़ा कि जब तक ज़ीका वायरस के ख़िलाफ़ टीका बन कर तैयार हुआ, तब तक, उसका कहर कम हो चुका था, इसलिए वो टीका कितना सफल रहा है, इस बारे में ज़्यादा डेटा उपलब्ध नहीं है. हालाँकि किसी भी वैक्सीन का पूरी तरह ट्रायल ख़त्म होने में अमूमन 7 साल लगते हैं.
अगर कोरोना वैक्सीन दुनिया इतने समय से पहले खोज लेती है, तो ये अब तक का सबसे तेज़ी से खोजा जाने वाला वैक्सीन होगा.
रूस के वैक्सीन बना लेने के दावे पर विश्व स्वास्थ्य संगठन और अमरीका को ही केवल भरोसा नहीं है. ख़ुद रूस में भी इन दावों पर सवाल उठ रहे हैं.
मॉस्को स्थित एसोसिएशन ऑफ क्लीनिकल ट्रायल्स ऑर्गेनाइजेशन (एक्टो) ने रूसी सरकार से इस वैक्सीन की अप्रूवल प्रक्रिया को टालने की गुज़ारिश की है. उनके मुताबिक़ जब तक इस वैक्सीन के फेज़ तीन के ट्रायल के नतीजे सामने नहीं आ जाते, तब तक रूस की सरकार को इसे मंज़ूरी नहीं देनी चाहिए.
एक्टो नाम के इस एसोसिएशन में विश्व की टॉप ड्रग कंपनियों का प्रतिनिधित्व है. एक्टो के एक्ज़िक्यूटिव डायरेक्टर स्वेतलाना ज़ाविडोवा नें रूस की मेडिकल पोर्टल साइट से कहा है कि बड़े पैमाने पर टीकाकरण का फ़ैसला 76 लोगों पर इस वैक्सीन के ट्रायल के बाद लिया गया है. इतने छोटे सैम्पल साइज़ पर आज़माए गए टीके की सफलता की पुष्टि बहुत ही मुश्किल है.
आपको बता दें कि ब्रिटेन की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में जिस कोरोना वैक्सीन के तीसरे चरण का ट्रायल चल रहा है, उसमें 10000 लोगों पर इसका ट्रायल किया जा रहा है. पहले चरण में भी 1000 से ज़्यादा लोगों पर इसका ट्रायल किया गया था.
द टेलीग्राफ़ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ ब्रिटेन ने रूस की वैक्सीन में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है.
क्या भारत इस वैक्सीन को ख़रीदेगा
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या डब्लूएचओ, अमरीका और ब्रिटेन के बाद भरोसा ना करने पर भी भारत ये वैक्सीन ख़रीदेगा?
भारत और रूस अच्छे दोस्त हैं. हाल ही में देश के रक्षा मंत्री कोरोना के समय में रूस का दौरा करके भी लौटे हैं. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़ रूस भारत को भी ये वैक्सीन बेचना चाहता है. लेकिन भारत की तरफ़ से अब तक इस पर कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है.
मंगलवार को रूस की वैक्सीन संबंधित दावे आने के बाद स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण ने कहा कि इस बारे में वैक्सीन पर बनी एक्सपर्ट ग्रुप ही फ़ैसला करेगी.
भारत में कोरोना की वैक्सीन कब और कैसे मिलेगी, इसको लेकर बुधवार को एक अहम बैठक होने वाली है. इस बैठक की अध्यक्षता नीति आयोग के सदस्य वीके पॉल करेंगे. इसमें इस बात पर भी चर्चा होगी कि क्या भारत रूस से उनकी बनाई वैक्सीन ख़रीदेगा या नहीं.
इस बैठक से पहले एम्स के निदेशक डॉक्टर रणदीप गुलेरिया ने कहा कि रूस की वैक्सीन ख़रीदने का फ़ैसला करने से पहले भारत को दो बातों का पता लगाना होगा. पहला ये कि उनका ट्रायल डेटा क्या कहता है. मसलन कितने लोगों पर ट्राई किया गया, नतीजे क्या आए, कितने दिनों तक के लिए ये कारग़र साबित होता है.
साथ ही ये पता लगाना भी आवश्यक होगा कि ये वैक्सीन सेफ़ भी या नहीं. एक निज़ी टेलीविज़न चैनल को इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि इन दोनों पैमानों पर आश्वस्त होने के बाद ही भारत को रूस से वैक्सीन ख़रीदने की दिशा में क़दम उठाना चाहिए.
यहाँ ये जानना ज़रूरी है कि भारत में भी स्वदेशी वैक्सीन का ट्रायल चल रहा है. भारत बायोटेक की वैक्सीन का फेज़ टू, फेज़ थ्री ट्रायल चल रहा है. इसके साथ ही ब्रिटेन में जिस वैक्सीन का ट्रायल तीसरे चरण में पहुँच चुका है, उसके लिए भारत के सीरम इंस्टीट्यूट ने ऑक्सफोर्ड के साथ करार किया है. भारत में बड़े पैमाने पर वैक्सीन तैयार करने की क्षमता भी है.
इसलिए जानकार रूस के साथ वैक्सीन के करार को लेकर बहुत उत्साहित नहीं दिख रहे हैं.
विश्व भर में कोरोना वैक्सीन की रेस
रूस अकेला देश नहीं है, जो वैक्सीन बनाने में लगा है. दुनिया भर में 100 से भी ज़्यादा वैक्सीन शुरुआती स्टेज में हैं और 20 से ज़्यादा वैक्सीन का मानव पर परीक्षण हो रहा है.
अमरीका में छह तरह की वैक्सीन पर काम हो रहा है और अमरीका के जाने माने कोरोना वायरस विशेषज्ञ डॉक्टर एंथनी फ़ाउची ने कहा है कि साल के अंत तक अमरीका के पास एक सुरक्षित और प्रभावी वैक्सीन हो जाएगी.
ब्रिटेन ने भी कोरोना वायरस वैक्सीन को लेकर चार समझौते किए हैं. चीन की सिनोवैक बायोटेक लिमिटेड ने मंगलवार को कोविड-19 वैक्सीन के ह्यूमन ट्रायल के अंतिम चरण की शुरुआत की है. इस वैक्सीन का ट्रायल इंडोनेशिया में 1620 मरीज़ों पर किया जा रहा है. भारत में भी स्वेदशी वैक्सीन का ह्यूमन ट्रायल शुरू हो चुका है.
विश्व स्वास्थ्य संगठन का मानना है कि 2021 के शुरुआत में ही कोरोना का टीका आम जनता के लिए उपलब्ध होगा.(bbc)
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजस्थान-कांग्रेस के दोनों गुटों—गहलोत और सचिन में सुलह तो हो गई है लेकिन जैसी कि कहावत है कि ‘काणी के ब्याह में सौ—सौ जोखम’ हैं। यदि दोनों में सुलह हो गई है तो कांग्रेस हायकमान ने तीन सदस्यों की कमेटी किसलिए बनाई है ? यह कमेटी क्या सचिन पायलट को दुबारा प्रदेशाध्यक्ष और उप-मुख्यमंत्री बनवाने की सलाह देगी ? यदि नहीं तो क्या सचिन को गहलोत के बोझ तले दबना नहीं पड़ेगा, जिसे मैंने पहले जीते-जी मर जाना कहा था। यों भी मुझे पता चला है कि सचिन गुट के 18 में से लगभग 10 सदस्य अपनी विधानसभा की सदस्यता खत्म होने से डरे हुए थे।
14 अगस्त को होनेवाले शक्ति-परीक्षण में यदि सचिन गुट कांग्रेस के विरुद्ध वोट करता या व्हिप के बावजूद गैर-हाजिर रहता तो उसकी सदस्यता ही खत्म हो जाती और फिर उप-चुनाव में पता नहीं कौन जीतता और कौन हारता। यों भी सचिन गुट के बिना भी गहलोत को बहुमत का समर्थन तो मिलना ही था।
अब सचिन अपने गुट के कितने लोगों को अपने साथ रख पाएंगे, यह देखना है। गालिब के शेर को सचिन अब उल्टा पढ़े तो वह उन पर बिल्कुल फिट बैठेगा। ‘बड़े बे-आबरु होकर तेरे कूचे में हम फिर घुस आए।’ सचिन-गुट ने अपनी नादानी के कारण अपनी इज्जत तो गिराई ही, साथ में भाजपा की इज्जत भी वह ले बैठा। भाजपा भी दो हिस्सों में बंटी दिखी। पैसों के लेन-देन की खबरें चाहे झूठी ही हों लेकिन जनता ने उन्हें सच माना। इस नौटंकी के कारण विधानपालिका का मान घटा और न्यायपालिका का हस्तक्षेप बढ़ा। कांग्रेस पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व पर भी सवाल उठे। वह इस बात का झूठा श्रेय ले सकती है कि उसने राजस्थान-कांग्रेस के दोनों गुटों में सुलह करवा दी लेकिन यह है— मजबूरी का नाम राहुल गांधी। इस नेतृत्व में इतना दम कहां रह गया है कि वह गलत को गलत कह सके और सही को सही? पंजाब-कांग्रेस पर भी संकट के बादल घिर रहे हैं। यदि कांग्रेस का केंद्रीय नेतृत्व इसी तरह लकवाग्रस्त रहा तो पता नहीं कांग्रेस— शासित राज्यों में कितनी स्थिरता रह पाएगी। राजस्थान में भाजपा फिर से कुछ नए सचिन पायलट खड़े कर दे तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। कांग्रेस नेतृत्व की कंगाली पता नहीं, क्या-क्या गुल खिलाएगी।
(नया इंडिया की अनुमति से)
औरैया, 12 अगस्त (वार्ता)। उत्तरप्रदेश का औरैया जिला जहां क्रांतिकारियों की भूमि के नाम से इतिहास में दर्ज है वही पौराणिक धरोहरों के साथ जिले के गांव कुदरकोट (पूर्व में कुंडिनपुर) का नाम भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है। मान्यता है कि यहां भगवान श्रीकृष्ण की ससुराल है। यहां भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रुकमिणी के हरण करने के प्रमाण भी मिलते हैं।
भागवत पुराण में उल्लेख है कि कुंदनपुर में पांडु नदी पार करके भगवान कृष्ण रुकमिणी का हरण कर ले गए थे और द्वारका ले जाकर विवाह कर उन्हें अपनी रानी बनाया था। इसके अलावा देवी के अ²श्य होने का भी तथ्य भागवत पुराण में मिलता हैै। कुदरकोट में अलोपा देवी का मंदिर भी है। हालांकि भगवान श्रीकृष्ण की ससुराल को लेकर लोगों के अलग-अलग तर्क भी हैं। तर्क है कि कुंडिनपुर जिसका अपभ्रंस कुंदनपुर का नाम बाद में कुदरकोट पड़ा है। भगवान कृष्ण की ससुराल होने के बाद भी आज तक न कुदरकोट का न तो विकास हो सका है और न ही इस स्थल को पौराणिक महत्व मिल सका है।
श्रीमद् भागवत ग्रंथो के उल्लेख के अनुसार लगभग 5 हजार बर्ष पूर्व कुंडिनपुर (मौजूदा कुदरकोट) के राजा भीष्मक धर्म प्रिय राजा थे। उनकी एक पुत्री रुक्मणि व पांच पुत्र रुक्मी, रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेस तथा रुक्ममाली थे। रुक्मी की मित्रता शिशुपाल से थी, इसलिये वह अपनी बहिन रुक्मणि का विवाह शिशुपाल से करना चाहता था। जबकि राजा भीष्मक व उनकी पुत्री रुक्मणि की इच्छा भगवान श्रीकृष्ण से विवाह करने की थी। जब राजा भीष्मक की अपने पुत्र रुक्मी के आगे न चली तो उन्होंने रुकमनी का विवाह शिशुपाल से तय कर दिया।
रुक्मणि को शिशुपाल के साथ शादी तय होने नागवार गुजरा तो उन्होंने द्वारका नगरी में भगवान कृष्ण के यहां एक दूत भेजकर अपने को हरण करने का आग्रह भिजवा दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने रुक्मणि का संदेश स्वीकार कर लिया और रुक्मणि को द्वारका ले जाकर अपनी रानी बनाने की पूरी तैयारी कर ली।
मान्यता है कि कुंडिनपुर महल से कुछ दूरी पर स्थित गौरी माता मंदिर से रुक्मणि के हरण के बाद देवी गौरी अलोप हो गयी। जिसके बाद वहां पर अलोपा देवी मंदिर की स्थापना की गयी और अब इसी मंदिर को अलोपा देवी मंदिर के नाम से जाना जाता है। मंदिर के पश्चिम दिशा में स्थित द्वापर कालीन महाराजा भीष्मक द्वारा स्थापित शिवलिंग है। जहां अब मंदिर बना हुआ है और ये मंदिर अब बाबा भयानक नाथ के नाम से जाना जाता है।

इस मंदिर के पुजारी सुभाष चौरसिया ने बताया कि यहां पर चैत्र व आषाढ़ माह की नवरात्रि में हर वर्ष मेला का आयोजन होता है। पिछले 116 बर्षो से भव्य रामलीला का आयोजन होता आ रहा है। दशहरा को रावण का बध होता है। माँ अलोपा देवी मंदिर धरती तल से 60 मीटर की ऊंचाई पर खेरे पर बना हुआ है, हर साल फाल्गुनी अमावश्या को चौरासी कोसी परिक्रमा का आयोजन भी होता है।
कुंडिनपुर जो बाद में कुंदनपुर के नाम से जाना जाता था। जब मुगलो का शासन हुआ तभी से इसका नाम कुदरकोट पढ़ गया। आज भी यहां राजा भीष्मक के 50 एकड़ में फैले महल के अवशेष स्पष्ट दिखाई देते है। आज के समय में जहां कुदरकोट में माध्यमिक स्कूल है वहां पर कभी राजा भीष्मक का निवास स्थान होता था और यहां पर रुक्मणि खेला करती थी। मुगलो ने इस नगर पर कब्जे के बाद इसके पूरे इतिहास को तहस नहस करने के लिए भौगोलिक स्थिति बदलने का भरसक प्रयास किया था। लेकिन यहां पर अवशेष व ग्रंथो में कुंडिनपुर का उल्लेख आज भी है। पुरातत्व विभाग की उदासीनता व जागरूकता की कमी के कारण मथुरा बृन्दावन जैसे पूज्य स्थान कुदरकोट को पौराणिक बिश्व प्रख्याति नही मिल सकी। पिछले बर्ष ही खेरे के ऊपर एक मकान में निकली सुरंग इसका उदाहरण है। जिसका आज तक कोई पता न चल सका है।
-अमरीक
जनाब राहत इंदौरी का जाना ग़ज़ल के एक युग का जाना है। एक जनवरी 1950 को इंदौर में उनका जन्म हुआ था। इस्लामी कैलेंडर के मुताबिक 1369 हिजरी थी और तारीख 12 रबी उल अव्वल थी। उन्होंने 1969-70 के दौरान शायरी शुरू की थी। वह जोश मलीहाबादी, साहिर लुधियानवी, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, अहमद फ़राज़ और हबीब जालिब की परंपरा के शायर थे। सचबयानी के उतने ही कायल। हुकूमत किसी भी रहनुमा की हो, राहत इंदौरी की ग़ज़ल ने उसे नहीं बख्शा।
उन्होंने 1986 में कराची में एक शेर पढ़ा और पाकिस्तान के नेशनल स्टेडियम में हजारों लोग खड़े होकर पांच मिनट तक ताली बजाते रहे। उसी शेर को कुछ अर्से बाद दिल्ली के लाल किले के मुशायरे में पढ़ा, तब भी उसी तरह की शोरअंगेजी हुई। शेर था: 'अब के जो फ़ैसला होगा वो यहीं पे होगा/हमसे अब दूसरी हिजरत नहीं होने वाली...।' यह शेर पाकिस्तान और हिंदुस्तान के अवाम के मुश्तरका गम को बखूबी बयान करता है। उनका एक और शेर है: 'मेरी ख्वाहिश है कि आंगन में न दीवार उठे/मेरे भाई मेरे हिस्से की ज़मीं तू रख ले...।' यह शेर भी गौरतलब है: 'ऐसे फूल कहां रोज़-रोज़ खिलते हैं/सियाह गुलाब बड़ी मुश्किलों से मिलते हैं...।'
राहत इंदौरी दुनिया भर में घूमे, लेकिन मन हिंदुस्तान और अपने घर ही रमा। उनकी शरीके-हयात सीमा जी ने कहीं एक इंटरव्यू में कहा था कि वह एक बार एक महीने अमेरिका रहकर लौटे तो सीधे रसोई में पहुंच गए और कहने लगे- "घर का खाना लाओ, इससे अच्छा खाना पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलता।" उनका एक शेर है: 'फुर्सतें चाट रही हैं मेरी हस्ती का लहू/मुंतज़िर हूं कि कोई मुझको बुलाने आए...।'
उनकी तीन संतानें हैं- शिब्ली, फैसल और सतलज। राहत बेहतरीन ग़ज़लकार और गीतकार के साथ-साथ एक उम्दा चित्रकार भी थे। मुसव्विरी में भी उनके जज्बात खूब-खूब उभरते थे। जिन्होंने उनकी चित्रकारी देखी है, वे बताते हैं कि ब्रश और रंगों से भी वह नायाब ग़ज़ल रचते थे। राहत साहब ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि चित्रकारी की प्रेरणा उन्हें गुरुदेव रविंद्र नाथ टैगोर से हासिल हुई।
पेंटिंग सीखने की बकायदा शुरुआत उन्होंने इंदौर के ज्योति स्टूडियो (ज्योति आर्ट्स) से की, जिस के संचालक छगनलाल मालवीय थे। इंदौर के गांधी रोड पर हाईकोर्ट के पास यह स्टूडियो था। उन दिनों ज्यादातर सिनेमा के बैनर और होर्डिंग का काम यहां होता था। इसी स्टूडियो के पास सिख मोहल्ला था, जहां किवंदती गायिका लता मंगेशकर जी का जन्म हुआ। प्रसंगवश, राहत साहब ने नायाब गीत भी लिखे और उनमें कुछ को लता जी ने स्वर भी दिया।
राहत इंदौरी जब नौवीं जमात में थे तब उनके नूतन हायर सेकेंडरी स्कूल में एक मुशायरा हुआ। जांनिसार अख्तर की खिदमत उनके हवाले थी। वह उनसे ऑटोग्राफ लेने गए तो कहा कि मैं भी शेर कहना चाहता हूं, इसके लिए मुझे क्या करना होगा। अख्तर साहब का जवाब था कि पहले कम से कम-से-कम पांच हजार शेर याद करो। राहत साहब ने कहा की इतने तो मुझे अभी याद हैं। जनाब जांनिसार ने सिर पर हाथ रखा और कहा कि तो फिर अगला शेर जो होगा वह तुम्हारा खुद का होगा। ऑटोग्राफ देने के बाद अख्तर साहिब ने अपनी ग़ज़ल का एक शेर लिखना शुरू किया: 'हम से भागा न करो दूर, ग़जालों की तरह...।' राहत साहब के मुंह से बेसाख्ता दूसरा मिसरा निकला: 'हमने चाहा है तुम्हें चाहनेवालों की तरह...।'
राहत इंदौरी ताउम्र जांनिसार अख्तर का बेहद एहेतराम करते रहे, लेकिन शायरी में उनके उस्ताद कैसर इंदौरी साहब थे। उनकी शागिर्दी में आने के बाद राहत साहब ने अपना नाम 'राहत कैसरी' रख लिया था। उनका पहला मज्मूआ (किताब) 'धूप-धूप' राहत कैसरी नाम से छपा था। बाद में अपने उस्ताद की सलाह पर ही उन्होंने अपना नाम राहत इंदौरी कर लिया।
शुरुआती मुशायरों में उन्हें 'इंदौरी' होने का खामियाजा भी भुगतना पड़ा। खासतौर पर जो मुशायरे दिल्ली, लखनऊ और भोपाल में होते थे। उनका गोशानशीं उस्तादों और उनके नामनिहाद शागिर्दों को जवाब होता था: 'जो हंस रहा है मेरे शेरों पे वही इक दिन/क़ुतुबफरोश से मेरी किताब मांगेगा..।' शुरुआती दिनों का ही उनका एक शेर है: 'मैं नूर बन के ज़माने में फैल जाऊंगा/तुम आफ्ताब में कीड़े निकालते रहना..।'
राहत इंदौरी वस्तुतः सियासी शायर थे। इन दिनों के मुशायरों में भी अक्सर वह विपरीत हवा पर शेर कहते थे। उनके ये अल्फ़ाज़ जिक्र-ए-खास हैं: 'जिन चराग़ों से तअस्सुब का धुआं उठता है/ उन चराग़ो को बुझा दो तो उजाले होंगे..।' इस शेर के जरिए वह सीधा फिरकापरस्त सियासत पर कटाक्ष करते हैं। उनके बेशुमार प्रशंसकों का एक पसंदीदा शेर है : 'ज़रूर वो मेरे बारे में राय दे लेकिन/यह पूछ लेना कभी मुझसे वो मिला भी है?'
कोरोना वायरस उनके जिस्मानी अंत की वजह बना और कोरोना काल में हिजरत ने दुनिया भर में इतिहास बनाया। बहुत पहले उन्होंने लिखा था: 'तुम्हें पता ये चले घर की राहतें क्या हैं/अगर हमारी तरह चार दिन सफ़र में रहो...।' जनाब इंदौरी के ये अल्फ़ाज़ भी रोशनी की मानिंद हैं: 'रिवायतों की सफें तोड़कर बढ़ो वर्ना, जो तुमसे आगे हैं वो रास्ता नहीं देंगे..।'।
जिस प्रगतिशील रिवायत से उनकी शायरी थी, उसी में यह लिखना संभव था: 'हम अपने शहर में महफूज भी हैं, खुश भी हैं/ये सच नहीं है, मगर ऐतबार करना है..।' इसी कलम से यह भी निकला: 'मुझे ख़बर नहीं मंदिर जले हैं या मस्जिद/मेरी निगाह के आगे तो सब धुआं है मियां..।' उन्होंने यह भी लिखा: 'महंगी कालीनें लेकर क्या कीजिएगा/अपना घर भी इक दिन जलनेवाला है...।' और यह भी कि: 'गुजिश्ता साल के ज़ख्मों हरे-भरे रहना/जुलूस अब के बरस भी यहीं से निकलेगा..।'
बहरहाल, अब आप जिस्मानी तौर पर हमारे बीच नहीं हैं राहत इंदौरी साहब, लेकिन आपका यह शेर आपके चाहने वालों के अंतर-कोनों में जरूर है: 'घर की तामीर चाहे जैसी हो/उसमें रोने की कुछ जगह रखना..!' आमीन!!(navjivan)
कनुप्रिया
लडक़ों से गलतियाँ हो जाती हैं, लडक़ों का मनचलापन समाजिक रूप से स्वीकार्य है। लडक़े होते ही ऐसे हैं तो ऐसे कहा जाता है मानो उनका स्वभाव कोई जेनेटिक डिसऑर्डर है जो सदियों पहले किसी कारण से इनकी प्रजाति में हो गया अब बदल नहीं सकता।
लडक़ों के इस मनचलेपन की कीमत लड़कियां सदियों से घरों में बंद होकर चुका रही हैं, उनके लिए खेल के मैदान नहीं हैं, वहाँ लडक़ों का कब्जा है, उनके लिए पार्क नहीं हैं, शाम गए सडक़ नहीं हैं, अगर मुहल्ले के किसी कोने पर मनचलों की टोली का ठिहा है तो लड़कियों का स्कूल भी बंद हो सकता है। लडक़ों का मनचलापन सडक़ों, पार्कों, मैदानों सब पर क़ब्ज़ा किए हंै और लड़कियों ने ये सब जगहें एक-एक करके खाली कर दीं, तब भी सुरक्षित रहने की जिम्मेदारी उन्हीं पर है। स्कूल से घर तक पीछा करने वाले लडक़ों के ग्रुप के भय से लगभग हर लडक़ी गुजरी होगी, कितनी बार रुट बदल दिए जाते हैं, लंबे रुट लिए जाते हैं, नहीं तो छोडऩे-लाने की जिम्मेदारी घर के किसी आदमी को सौंप दी जाती है, रक्षा भार। रक्षा सूत्र पर्व हो जाते हैं मगर लडक़ों का मनचलापन नहीं बंद होता।
इन सबके बीच से गुजरकर भी कोई लडक़ी सुदीक्षा अपने बूते 4 करोड़ की स्कॉलरशिप लेकर अमेरिका चली जाती हैं मगर जब अपने घर लौटती है तो कुछ नहीं बदलता, मनचले लडक़े अब भी खुले सांड की तरह सडक़ों पर मिलते हैं जिनको नगरपालिका भी बंद नहीं कर सकती। ऐसे साँडो के कारण हुई मौत यूपी पुलिस की नजऱ में अगर महज दुर्घटना ही है तो क्या आश्चर्य, परिवार वालों के लिए तो मर्डर ही है।
इस परिवार के सपनों की मौत तो दिखाई दे रही है कितने सपनों की मौत चुपचाप आँखों में ही हो जाती है, ऐसे ही मनचलों के कारण पढ़ाई छुड़ाई एक लडक़ी ने मुझे कहा था मैं हैंडबॉल प्लेयर बनना चाहती हूँ, मगर मेरे स्कूल के रास्ते में रोज बैठने वाले लडक़ों के कारण मेरा स्कूल छूट गया है, माँ-बाप काम पर जाते हैं। मैं छोटे भाई-बहनों को देखती हूँ, मैं बाहर मैदान में भी नहीं खेल सकती क्यों?
क्योंकि हमारे समाज में लडक़े ऐसे ही होते हैं, क्या करें।


