विचार/लेख
प्रियदर्शन
1. कविता लिखना कोई मुश्किल काम नहीं है। हर व्यक्ति के हिस्से कुछ स्मृतियां होती हैं, रिश्ते होते हैं, टूटने और जुडऩे के अनुभव होते हैं, किसी से धोखा खाने या किसी के समय पर काम आने की यादें होती हैं, कुछ सपने होते हैं। कविता इन्हीं के बीच तो बनती है।
2. बेशक, अनुभव का होना और उसे अभिव्यक्त करने का कौशल होना दो अलग-अलग बातें हैं। लेकिन अनुभव और अभिव्यक्ति के बीच एक अपरिहार्य रिश्ता भी है। अनुभव जहां अभिव्यक्ति को अधिकतम प्रामाणिक और विश्वसनीय भाषा अर्जित करने का यत्न करने को मजबूर करता है वहीं अभिव्यक्ति भी कई बार अनुभव की नई खिड़कियां खोलने की प्रेरणा देती है।
3. अनुभव की भी की परतें होती हैं। एक ही दृश्य से- समंदर या पहाड़ या सूर्योदय या सूर्यास्त या तारों जड़ी रात या कोहरे में डूबीं सुबह से- अलग-अलग लोगों के भीतर अलग-अलग अनुभव पैदा होते हैं। उस दृश्य या स्थिति से जुड़ाव हमारे भीतर जितनी तीव्रता पैदा करता है, हमारी अभिव्यक्ति उतनी ही गहन होती जाती है।
4. हम बहुत सारे लोग लगभग एक सी कविता लिखते हैं - प्रेम की स्मृति की, बीते हुए दुखों की, न आए सुखों की, प्रतीक्षा, उम्मीद और स्वप्न की- इसलिए कि हम सबके अनुभव और अभ्यास का लगभग एक प्रकार होता है- कई बार वह बिल्कुल प्राथमिक अनुभव होता है।
5. लेकिन यह बिल्कुल एक जैसी, लगातार दुहराई जा रही कविता एक जड़ क्लीशे में बदल जाती है। हमें पता रहता है कि हम क्या पढऩे जा रहे हैं, वह हमें स्पंदित नहीं करता।
6. किसी कवि की वास्तविक चुनौती यहीं से शुरू होती है - वह अपनी कविता को अलग कैसे करे। बल्कि यह काम भी इस तरह प्रयत्नपूर्वक नहीं किया जा सकता। इसके लिए अपने देखने, सुनने, महसूस करने का ढंग बदलना पड़ता है, दृश्य में छुपा जो अदृश्य है, शब्दों के बीच छुपा जो मौन है, सुनाई पडऩे के बीच पड़ा जो अनसुना है, सुंदरता के पीछे छुपी जो कुरूपता है, शालीनता के पीछे छुपी जो फूहड़ता है, उन सबको देखना-सुनना और महसूस करना होता है। कविता लिखने की कोशिश मजबूर करती है कि हम मनुष्य के रूप में भी बदलें, ज़्यादा संवेदनशील हों।
7. हालांकि इतने भर से काम नहीं चलता। बहुत लोग यह सब महसूस करने के बावजूद उसे लिख नहीं पाते। यहां अभिव्यक्ति की चुनौती सामने आती है। उसे साधना पड़ता है। इस काम में धैर्य भी चाहिए होता है, निर्मम ईमानदारी भी और अपने अनुभव से एक तरह की तटस्थ दूरी भी- ताकि उसे संपूर्णता में देखा-रचा जा सके।
8. किसी बड़े कवि की पंक्तियां हम क्यों उद्धृत करते हैं? इसलिए कि हमें लगता है कि हम जो अनुभव करते हैं, जो कहना चाहते हैं वह उसने बहुत सुंदर ढंग से कह दिया है। प्रेम, जीवन, संघर्ष या स्वप्न की जो कविता हम रचना चाहते हैं वह किसी और के शब्दों में हमारे पास है।
9. लेकिन कई बार यह भी होता है कि कोई कवि हमें अचरज में डाल देता है- कि जिस तरह उसने देखा-सोचा, वह हमें पहले क्यों नहीं दिखा। यहां अनुभव करने की प्रक्रिया पर ध्यान जाता है। दरअसल अनुभव करना भी अनायास कुछ महसूस कर लेना नहीं है। अनुभव को ठहर कर और बार-बार जीना पड़ता है, उसमें निहित वास्तविक अर्थ समझने होते हैं, उसमें न दिखने वाली विडंबनाओं को पहचानना पड़ता है। इस काम में स्मृति भी हमारी मदद करती है और अध्ययन भी। जो रचना में ढल सके, जिसका मर्म हमें छू सके, जो जीवन को देखने के लिए नई दृष्टि दे सके, वह अनुभव लेखन का असली कच्चा माल होता है। उससे लिखना सार्थक भी लगता है और सुखद भी?।
10 क्या अनुभव की इस प्रक्रिया से गुजऱे बिना भी अभिव्यक्ति को साध कर कविता लिखी जा सकती है? निश्चय ही। लेकिन ऐसी कविता बस चमकदार पंक्तियों का खेल लगती है, कभी-कभी इससे सूक्तियों का जादू भी निकल सकता है, लेकिन वह असली कविता छूट जाती है जो मर्म को छू ले, हमें इस तरह जकड़ ले कि हम उससे मुक्त भी होना चाहें और फिर लौट कर उसी के पास जाना चाहें।
फरहत जावे-फ्लोरा ड्रूरी
पाकिस्तान में राजनीति ऐसे दौर से गुजऱ रही है, जैसा पहले कभी नहीं देखा गया।
देश के लोगों में सियासत को लेकर ग़ुस्सा और निराशा है लेकिन वो उम्मीद के किरण के बारे में भी बातें करते हैं।
24 करोड़ की आबादी वाले पाकिस्तान में लगातार तीसरी बार आम चुनाव हो रहे हैं। सैन्य शासन और तानाशाही के इतिहास के लिहाज से देखें तो देश के लिए ये एक बड़ी उपलब्धि हो सकती है।
हालांकि, आठ फऱवरी का चुनाव कथित सैन्य हस्तक्षेप के साये में हो रहा है। पाकिस्तान के इतिहास में ऐसा कोई भी चुनाव नहीं रहा है, जो विवादों के घेरों में न हो।
मौजूदा समय में देश के एक पूर्व पीएम जेल में हैं तो दूसरे पूर्व पीएम स्वघोषित निर्वासन के बाद वतन वापस लौट आए हैं।
पाकिस्तान की राजनीति में पिछले काफ़ी समय से सियासी उथल-पुथल चल रहा है। ऐसे हालात में जानिए ये चुनाव पाकिस्तान के भविष्य के लिए क्यों अहम है।
भारत के चीर प्रतिद्वंद्वी देश पाकिस्तान की सीमा ईरान और तालिबान नियंत्रित अफग़़ानिस्तान से लगती है। पाकिस्तान का अमेरिका के साथ लव एंड हेट (प्यार और तकरार) का संबंध रहता है और वो चीन का कऱीबी है।
पाकिस्तान में पिछले साल से ही सत्ता को लेकर नेताओं के बीच टकराव चल रहा है। 2022 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान को सत्ता से बाहर कर गठबंधन की सरकार आई।
इसके बाद पिछले साल अनिर्वाचित केयर टेकर सरकार ने सत्ता संभाली, जिसे नवंबर तक देश में चुनाव करा लेने थे लेकिन चुनाव में देरी होती चली गई।
पाकिस्तान में कई लोगों का मानना है कि देश में सबसे ज़्यादा जरूरत स्थिर सरकार की है ताकि सुरक्षा से लेकर आर्थिक मसलों पर मजबूत निर्णय हो सके। हालांकि चुनावी दौड़ में शामिल नेताओं पर नजऱ डालने से लगता है कि स्थिरता दूर की कौड़ी है।
नवाज शरीफ, पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) - पीएमएल-एन
नवाज शरीफ एक बार फिर पाकिस्तान में चर्चा के केंद्र में हैं। 2018 के चुनाव में वो उम्मीदवार नहीं थे।
वो जेल में थे। उन्हें करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार के मामले में दोषी कऱार दिया गया था और इसकी वजह से वो चुनाव नहीं लड़ सकते थे।
तबियत बिगडऩे के बाद 2019 में वो इलाज के लिए लंदन गए और फिर वहीं रहने लगे।
पिछले साल उनकी वतन वापसी हुई है। 2022 में इमरान ख़ान के सत्ता से बाहर होने के बाद नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ़ ने नेतृत्व संभाला।
2024 के चुनाव से कुछ महीने पहले ही नवाज शरीफ को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया और उनके चुनाव लडऩे पर लगी आजीवन रोक को भी असंवैधानिक बताया गया।
पाकिस्तान में कई लोग ये कयास लगाते हैं कि सेना और इमरान खान के बीच बढ़ी दूरी ने नवाज शरीफ के लिए रास्ते तैयार किए और वो चौथी बार प्रधानमंत्री बनने की रेस में आ गए।
हालांकि, शरीफ को पता है कि सेना पाला बदल सकती है। सेना और शरीफ के बीच उनके तीसरे कार्यकाल (2013) से ही खूब तनातनी रही और बाद में शरीफ़ सत्ता से बाहर भी हुए।
1999 में उनके कार्यकाल के दौरान सैन्य तख़्ता पलट हुआ था।
क्रिकेटर से नेता बने पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) के इमरान ख़ान जेल में बंद हैं। ख़ान अपने ऊपर लगे आरोपों को ‘राजनीतिक प्रतिशोध’ और ‘षडयंत्र’ बता रहे हैं।
इमरान ख़ान के सत्ता में आने और जाने की कहानी दोनों सेना से जुड़ी है।
2018 में उनके आलोचकों ने उन्हें ‘सेना का मुखौटा’ बताया था और अब जब वो जेल में बंद हैं तो उनके समर्थकों का आरोप है कि पूर्व पीएम के जेल में होने के पीछे सेना प्रमुख वजह हैं।
2018 में ख़ान की छवि पाकिस्तान का भविष्य बदलने वाले नेता के रूप में बन रही थी।
वो अपने भाषणों में वंशवाद की राजनीति ख़त्म करने, भ्रष्ट नेताओं को जेल में डालने, न्यायपालिका में बदलाव करने और युवाओं को नौकरी देने के साथ ही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की बात कर रहे थे।
लेकिन उनके कार्यकाल में पाकिस्तान में आर्थिक हालात खऱाब होते गए, महंगाई बढ़ती गई और कई विपक्षी नेता जेल गए, मीडिया पर पाबंदी लगी और मानवाधिकार के उल्लंघन समेत पत्रकारों पर हमले की ख़बरें आती रहीं।
पाकिस्तान तालिबान के साथ शांति वार्ता पर हस्ताक्षर हो या अफग़़ानिस्तान में तालिबान की सत्ता का समर्थन, इन मामलों के लिए ख़ान की व्यापक आलोचना हुई।
पाकिस्तान में कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का तर्क है कि हाल के वर्षों में इमरान खान की लोकप्रियता कम होती गई है।
इन विश्लेषकों का कहना है कि वो जेल से बाहर होते तब भी 2023 में उनकी हार तय थी।
लेकिन सर्वे करानी वाली कंपनी गैलप ने जनवरी 2024 में एक सर्वे में बताया कि खान अब भी पाकिस्तान के सबसे लोकप्रिय नेता हैं।
हालांकि, पिछले छह महीने में शरीफ की लोकप्रियता बढ़ी है।
पाकिस्तान में ऐसी चिंताएं हैं कि पीटीआई को चुनाव प्रचार का निष्पक्ष मौक़ा नहीं दिया जा रहा है। पार्टी के कई बड़े नेता जेल में हैं या पार्टी से संबंध तोड़ चुके हैं।
पीटीआई के नेताओं को अब स्वतंत्र उम्मीदवार की तरह चुनाव में आना पड़ रहा है। यहां तक कि पार्टी के हाथ से क्रिकेट बैट का चुनावी चिह्न भी जा चुका है।
बिलावल भुट्टो जऱदारी की पाकिस्तान पीपल्स पार्टी (पीपीपी) पिछले चुनाव में तीसरे नंबर पर रही थी। जऱदारी ही पार्टी के अध्यक्ष भी हैं।
बिलावल पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो और पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के बेटे हैं। बेनज़ीर की 2007 में हत्या हो गई थी। बिलावल भुट्टो देश के मंत्री रह चुके हैं।
बिलावल की पार्टी चुनावों में लंबे-चौड़े वादे के साथ उतरी है। इसमें वेतन दोगुना करना, सरकारी खर्च में कटौती कर बजट बढ़ाना समेत कई चीज़ें शामिल हैं।
मौजूदा समय में ये असंभव ही लग रहा है कि पार्टी को ये नीतियां अपनाने का मौक़ा मिलेगा। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अगर गठबंधन की सरकार बनती है तो वो किंगमेकर बन सकते हैं।
बीबीसी से बातचीत में भुट्टो ने कहा था कि पीएमएलएन और पीटीआई के बीच किसी को चुनना काफ़ी मुश्किल फ़ैसला होगा।
पाकिस्तान की राजनीति पर जो लोग नजऱ रख रहे हैं, उन्हें ये लग रहा है कि पिछले छह साल की तुलना में मौजूदा समय भी कुछ ज़्यादा बदला नहीं है।
इस बार भी दर्जनों उम्मीदवार अयोग्य घोषित किए गए हैं, वो या जेल में हैं या फिर मजबूरी में चुनाव ही नहीं लड़ रहे हैं।
पाकिस्तान में जनता एक ऐसी सरकार की उम्मीद लगा रही है जो स्थिर हो और उन्हें बढ़ती महंगाई, पटरी से उतरती अर्थव्यवस्था और खऱाब सुरक्षा हालात से छुटकारा दे। (bbc.com/hindi)
फरहत जावे-फ्लोरा ड्रूरी
पाकिस्तान में राजनीति ऐसे दौर से गुजऱ रही है, जैसा पहले कभी नहीं देखा गया।
देश के लोगों में सियासत को लेकर ग़ुस्सा और निराशा है लेकिन वो उम्मीद के किरण के बारे में भी बातें करते हैं।
24 करोड़ की आबादी वाले पाकिस्तान में लगातार तीसरी बार आम चुनाव हो रहे हैं। सैन्य शासन और तानाशाही के इतिहास के लिहाज से देखें तो देश के लिए ये एक बड़ी उपलब्धि हो सकती है।
हालांकि, आठ फऱवरी का चुनाव कथित सैन्य हस्तक्षेप के साये में हो रहा है। पाकिस्तान के इतिहास में ऐसा कोई भी चुनाव नहीं रहा है, जो विवादों के घेरों में न हो।
मौजूदा समय में देश के एक पूर्व पीएम जेल में हैं तो दूसरे पूर्व पीएम स्वघोषित निर्वासन के बाद वतन वापस लौट आए हैं।
पाकिस्तान की राजनीति में पिछले काफ़ी समय से सियासी उथल-पुथल चल रहा है। ऐसे हालात में जानिए ये चुनाव पाकिस्तान के भविष्य के लिए क्यों अहम है।
भारत के चीर प्रतिद्वंद्वी देश पाकिस्तान की सीमा ईरान और तालिबान नियंत्रित अफग़़ानिस्तान से लगती है। पाकिस्तान का अमेरिका के साथ लव एंड हेट (प्यार और तकरार) का संबंध रहता है और वो चीन का कऱीबी है।
पाकिस्तान में पिछले साल से ही सत्ता को लेकर नेताओं के बीच टकराव चल रहा है। 2022 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान को सत्ता से बाहर कर गठबंधन की सरकार आई।
इसके बाद पिछले साल अनिर्वाचित केयर टेकर सरकार ने सत्ता संभाली, जिसे नवंबर तक देश में चुनाव करा लेने थे लेकिन चुनाव में देरी होती चली गई।
पाकिस्तान में कई लोगों का मानना है कि देश में सबसे ज़्यादा जरूरत स्थिर सरकार की है ताकि सुरक्षा से लेकर आर्थिक मसलों पर मजबूत निर्णय हो सके। हालांकि चुनावी दौड़ में शामिल नेताओं पर नजऱ डालने से लगता है कि स्थिरता दूर की कौड़ी है।
नवाज शरीफ, पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) - पीएमएल-एन
नवाज शरीफ एक बार फिर पाकिस्तान में चर्चा के केंद्र में हैं। 2018 के चुनाव में वो उम्मीदवार नहीं थे।
वो जेल में थे। उन्हें करोड़ों रुपये के भ्रष्टाचार के मामले में दोषी कऱार दिया गया था और इसकी वजह से वो चुनाव नहीं लड़ सकते थे।
तबियत बिगडऩे के बाद 2019 में वो इलाज के लिए लंदन गए और फिर वहीं रहने लगे।
पिछले साल उनकी वतन वापसी हुई है। 2022 में इमरान ख़ान के सत्ता से बाहर होने के बाद नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ़ ने नेतृत्व संभाला।
2024 के चुनाव से कुछ महीने पहले ही नवाज शरीफ को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया और उनके चुनाव लडऩे पर लगी आजीवन रोक को भी असंवैधानिक बताया गया।
पाकिस्तान में कई लोग ये कयास लगाते हैं कि सेना और इमरान खान के बीच बढ़ी दूरी ने नवाज शरीफ के लिए रास्ते तैयार किए और वो चौथी बार प्रधानमंत्री बनने की रेस में आ गए।
हालांकि, शरीफ को पता है कि सेना पाला बदल सकती है। सेना और शरीफ के बीच उनके तीसरे कार्यकाल (2013) से ही खूब तनातनी रही और बाद में शरीफ़ सत्ता से बाहर भी हुए।
1999 में उनके कार्यकाल के दौरान सैन्य तख़्ता पलट हुआ था।
क्रिकेटर से नेता बने पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ (पीटीआई) के इमरान ख़ान जेल में बंद हैं। ख़ान अपने ऊपर लगे आरोपों को ‘राजनीतिक प्रतिशोध’ और ‘षडयंत्र’ बता रहे हैं।
इमरान ख़ान के सत्ता में आने और जाने की कहानी दोनों सेना से जुड़ी है।
2018 में उनके आलोचकों ने उन्हें ‘सेना का मुखौटा’ बताया था और अब जब वो जेल में बंद हैं तो उनके समर्थकों का आरोप है कि पूर्व पीएम के जेल में होने के पीछे सेना प्रमुख वजह हैं।
2018 में ख़ान की छवि पाकिस्तान का भविष्य बदलने वाले नेता के रूप में बन रही थी।
वो अपने भाषणों में वंशवाद की राजनीति ख़त्म करने, भ्रष्ट नेताओं को जेल में डालने, न्यायपालिका में बदलाव करने और युवाओं को नौकरी देने के साथ ही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की बात कर रहे थे।
लेकिन उनके कार्यकाल में पाकिस्तान में आर्थिक हालात खऱाब होते गए, महंगाई बढ़ती गई और कई विपक्षी नेता जेल गए, मीडिया पर पाबंदी लगी और मानवाधिकार के उल्लंघन समेत पत्रकारों पर हमले की ख़बरें आती रहीं।
पाकिस्तान तालिबान के साथ शांति वार्ता पर हस्ताक्षर हो या अफग़़ानिस्तान में तालिबान की सत्ता का समर्थन, इन मामलों के लिए ख़ान की व्यापक आलोचना हुई।
पाकिस्तान में कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का तर्क है कि हाल के वर्षों में इमरान खान की लोकप्रियता कम होती गई है।
इन विश्लेषकों का कहना है कि वो जेल से बाहर होते तब भी 2023 में उनकी हार तय थी।
लेकिन सर्वे करानी वाली कंपनी गैलप ने जनवरी 2024 में एक सर्वे में बताया कि खान अब भी पाकिस्तान के सबसे लोकप्रिय नेता हैं।
हालांकि, पिछले छह महीने में शरीफ की लोकप्रियता बढ़ी है।
पाकिस्तान में ऐसी चिंताएं हैं कि पीटीआई को चुनाव प्रचार का निष्पक्ष मौक़ा नहीं दिया जा रहा है। पार्टी के कई बड़े नेता जेल में हैं या पार्टी से संबंध तोड़ चुके हैं।
पीटीआई के नेताओं को अब स्वतंत्र उम्मीदवार की तरह चुनाव में आना पड़ रहा है। यहां तक कि पार्टी के हाथ से क्रिकेट बैट का चुनावी चिह्न भी जा चुका है।
बिलावल भुट्टो जऱदारी की पाकिस्तान पीपल्स पार्टी (पीपीपी) पिछले चुनाव में तीसरे नंबर पर रही थी। जऱदारी ही पार्टी के अध्यक्ष भी हैं।
बिलावल पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री बेनज़ीर भुट्टो और पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी के बेटे हैं। बेनज़ीर की 2007 में हत्या हो गई थी। बिलावल भुट्टो देश के मंत्री रह चुके हैं।
बिलावल की पार्टी चुनावों में लंबे-चौड़े वादे के साथ उतरी है। इसमें वेतन दोगुना करना, सरकारी खर्च में कटौती कर बजट बढ़ाना समेत कई चीज़ें शामिल हैं।
मौजूदा समय में ये असंभव ही लग रहा है कि पार्टी को ये नीतियां अपनाने का मौक़ा मिलेगा। लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अगर गठबंधन की सरकार बनती है तो वो किंगमेकर बन सकते हैं।
बीबीसी से बातचीत में भुट्टो ने कहा था कि पीएमएलएन और पीटीआई के बीच किसी को चुनना काफ़ी मुश्किल फ़ैसला होगा।
पाकिस्तान की राजनीति पर जो लोग नजऱ रख रहे हैं, उन्हें ये लग रहा है कि पिछले छह साल की तुलना में मौजूदा समय भी कुछ ज़्यादा बदला नहीं है।
इस बार भी दर्जनों उम्मीदवार अयोग्य घोषित किए गए हैं, वो या जेल में हैं या फिर मजबूरी में चुनाव ही नहीं लड़ रहे हैं।
पाकिस्तान में जनता एक ऐसी सरकार की उम्मीद लगा रही है जो स्थिर हो और उन्हें बढ़ती महंगाई, पटरी से उतरती अर्थव्यवस्था और खऱाब सुरक्षा हालात से छुटकारा दे। (bbc.com/hindi)
ध्रुव गुप्त
पिछली सदी के चौथ-पांचवे दशक की स्टार अभिनेत्री और दिलकश गायिका सुरैया के बारे में यह बहस होती रही है कि वे उनके अभिनेत्री और गायिका रूपों में बेहतर रूप कौन सा था। अभिनेत्री के रूप में उन्हें हिंदी सिनेमा की पहली 'ग्लैमर गर्ल’ माना जाता है जिन्होंने अपने चुंबकीय व्यक्तित्व, शालीन सौंदर्य और दिलफरेब अदाओं से करोड़ों के दिल जीते थे। अपनी सीमित अभिनय प्रतिभा के बावज़ूद उस दौर की कई बेहतरीन अभिनेत्रियों- नूरजहां, नरगिस, कामिनी कौशल, निम्मी और मधुबाला के बीच भी उनकी चमक कभी फीकी नहीं पड़ी। अपने दो दशक लंबे कैरियर में सुरैया की कुछ चर्चित फिल्मे थीं- उमर खैयाम, विद्या, परवाना, अफसर, प्यार की जीत, शमा, बड़ी बहन , दिल्लगी, वारिस, माशूका, जीत, खूबसूरत, दीवाना, डाकबंगला, अनमोल घडी, मिर्जा गालिब और रुस्तम सोहराब। इन फिल्मों में अभिनेत्री के तौर पर सुरैया में नया और अलग कुछ भी नहीं था। सीधे-सादे अभिनय के बावजूद परदे पर उनकी शालीन उपस्थिति, ग्लैमर, मीडिया द्वारा बनाए गये उनके रहस्यमय आभामंडल और अभिनेता देव आनंद के साथ चर्चित लेकिन असफल प्रेम-संबंधों की वजह से ही लोग उनकी फिल्मों तक खींचे चले आते थे।
ज्यादातर लोगों का मानना है कि सुरैया अभिनेत्री से बेहतर एक गायिका थी जिनकी खनकती, महीन, सुरीली आवाज के लाखों मुरीद आज भी हैं। उन्होंने हालांकि संगीत की कभी विधिवत शिक्षा नहीं ली, लेकिन उनका रूझान बचपन से ही संगीत की ओर था। वे पाश्र्वगायिका ही बनना चाहती थी। उनके गायन की शुरुआत आकाशवाणी से हुई थी। संगीतकार नौशाद ने आकाशवाणी के एक कार्यक्रम में जब सुरैया को गाते सुना तो उनकी आवाज और अंदाज से प्रभावित हुए। उन्होने पहली बार सुरैया को फिल्म ‘शारदा’ में गाने का मौका दिया। उसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। उनके कुछ बेहद लोकप्रिय गीत हैं- तू मेरा चांद मैं तेरी चांदनी, जब तुम ही नहीं अपने दुनिया ही बेगानी है, तुम मुझको भूल जाओ, ओ दूर जानेवाले वादा न भूल जाना, धडक़ते दिल की तमन्ना हो मेरा प्यार हो तुम, नैन दीवाने एक नहीं माने, सोचा था क्या क्या हो गया, वो पास रहे या दूर रहे नजरों में समाए रहते हैं, मुरली वाले मुरली बजा, तेरे नैनो ने चोरी किया मेरा छोटा सा जिया, नुक्ताचीं है गमे दिल उसको सुनाए न बने, दिले नादां तुझे हुआ क्या है, ये न थी हमारी कि़स्मत कि विसाले यार होता, ये कैसी अजब दास्तां हो गई है, ऐ दिलरुबा नजरे मिला। ‘मिर्जा गालिब’ में गुलाम मोहम्मद के संगीत में गालिब की कुछ गजलों को जिस बारीकी और ख़ूबसूरती से उन्होंने गाया है, उन्हें सुनना आज भी एक विलक्षण अनुभव है। उनकी आवाज़ की खनक, गहराई और भंगिमाएं सुनने वालों को एक दूसरी ही दुनिया में ले जाती थी। लता के उत्कर्ष के पूर्व सुरैया ने ही हिंदी सिनेमा में गीत को गरिमा और ऊंचाई दी थी। राष्ट्रपति का स्वर्ण कमल पुरस्कार प्राप्त फिल्म ‘मिर्जा गालिब’ में सुरैया की गायिकी से प्रभावित होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उनसे कहा था- ‘तुमने मिर्जा गालिब की रूह को जिंदा कर दिया।’ आज उनके अभिनय का अंदाज़ पुराना पड़ गया है, लेकिन उनकी दिलकश गायिकी का असर संगीत प्रेमियों पर कई सदियों तक हावी रहेगा।
आज सुरैया की पुण्यतिथि पर खिराज-ए-अकीदत!
ऊपर की तस्वीर देखिए। फेसबुक तब ऐसा ही दिखता था और उस समय इसका नाम था ‘द फेसबुक’। ये 20 साल पुरानी बात है जब मार्क जुकरबर्ग ने अपने चंद दोस्तों के साथ इसे लॉन्च किया था।
दुनिया के सबसे लोकप्रिय सोशल नेटवर्क प्लेटफॉर्म को तब से दर्जनों बार रिडिजाइन किया जा चुका है।
लेकिन, इसका मकसद वही है, लोगों को ऑनलाइन कनेक्ट करना यानी उनके बीच संपर्क बनाना और विज्ञापन के जरिए पैसों का पहाड़ खड़ा करना।
फेसबुक की शुरुआत को 20 साल हो गए हैं। आइए, फ़ेसबुक से जुड़ी उन चार अहम बातों पर नजऱ डालते हैं, जिनके जरिए इसने दुनिया को बदल दिया।
1. फेसबुक ने बदला सोशल मीडिया का खेल
माइस्पेस पर टॉम हर किसी के पहले दोस्त होते थे। इस सोशल नेटवर्क को टॉम एंडरसन ने फेसुबक की शुरुआत से एक साल पहले लॉन्च किया था।
फेसबुक की शुरुआत के पहले ‘माइस्पेस’ जैसे सोशल नेटवर्क मौजूद थे लेकिन मार्क जुकरबर्ग की साइट ने साल 2004 में लॉन्च होने के साथ ही रफ्तार पकड़ ली और साबित किया कि इस किस्म की ऑनलाइन साइट किस तरह दबदबा बना सकती है।
एक साल से कम वक्त में फेसबुक के 10 लाख यूजर्स थे। चार साल के अंदर इसने माइस्पेस को पीछे छोड़ दिया। इस तरक्की के पीछे, फेसबुक की कई ख़ूबियों की भूमिका थी, जैसे कि फोटो में लोगों का ‘टैग’ करने का विकल्प देना।
नाइट आउट के वक्त डिजिटल कैमरा का साथ होना, तमाम तस्वीरों में अपने दोस्तों को ‘टैग करना’, 2000 के दशक के आखिरी सालों में टीनएजर्स के जिंदगी का हिस्सा था। शुरुआती यूजर्स को लगातार फीड बदलना भी लुभाता था।
साल 2012 आते आते फेसबुक के एक अरब से ज़्यादा यूजर्स हो चुके थे। साल 2021 के आखिरी महीनों में पहली बार फेसबुक के एक्टिव यूजर्स की संख्या 1.92 अरब तक गिर गई। अगर इसे छोड़ दें तो बाकी वक्त ये प्लेटफॉर्म लगातार बढ़ता ही रहा है।
जो देश कनेक्टिविटी के मामले में पिछड़े हैं, फेसबुक ने वहां भी पैर फैलाए और मुफ्त इंटरनेट का ऑफर दिया। ये कंपनी फेसबुक यूजर्स की संख्या लगातार बढ़ाने में कामयाब रही। साल 2023 के अंत में फेसबुक ने जानकारी दी कि उसके पास दो अरब से ज़्यादा ऐसे यूजर्स हैं, जो हर दिन इस सोशल प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल करते हैं।
ये तथ्य है कि युवाओं के बीच फेसबुक पहले की तरह लोकप्रिय नहीं है लेकिन फिर भी ये दुनिया की सबसे लोकप्रिय सोशल नेटवर्क साइट है और इसने ऑनलाइन सोशल एक्टिविटी के नए युग का दरवाजा खोला है।
कुछ लोग फेसबुक और इससे मुकाबला कर रहे दूसरे सोशल प्लेटफॉर्म को कनेक्टिविटी को सशक्त बनाने वाले औजार के तौर पर देखते हैं तो बाकी लोग इन्हें लत का शिकार बना देने वाले विध्वंस का एजेंट मानते हैं।
2. निजी डेटा को बनाया कीमती
लेकिन निजता में दिया दखल
फेसबुक ने साबित किया कि हमारी पसंद और नापसंद की जानकारी जुटाना, बहुत फ़ायदे की बात है।
इन दिनों, फेसबुक की पैरेंट कंपनी, मेटा ‘एडवर्टाइजि़ंग जायंट’ यानी विज्ञापन की दुनिया की सरताज जैसी हैसियत रखती है।
मेटा और गूगल जैसी कंपनियां दुनिया भर में विज्ञापन पर ख़र्च होने वाली रकम का सबसे बड़ा हिस्सा हासिल करती हैं।
मेटा ने बताया कि 2023 की तीसरी तिमाही में 34 अरब डॉलर यानी करीब 28 खरब 25 अरब से ज़्यादा रुपये कमाए। इसमें से 11।5 अरब डॉलर यानी करीब नौ खरब 55 अरब रुपये ज़्यादा मुनाफा था। कमाई का ज़्यादातर हिस्सा टार्गेटेड एड सर्विसेज़ के जरिए आया।
लेकिन, फ़ेसबुक ने ये भी दिखाया है कि डेटा इक_ा करने का किस तरह दुरुपयोग हो सकता है। मेटा पर निजी डेटा की मिसहैंडलिंग (सही तरह से इस्तेमाल नहीं करने) के लिए कई बार जुर्माना लगाया जा चुका है।
सार्वजनिक तौर पर जिस मामले को सबसे ज़्यादा चर्चा मिली वो साल 2014 का कैंब्रिज एनालिटिका स्कैंडल था। फेसबुक ने इस मामले में सेटलमेंट के लिए 72 करोड़ डॉलर से ज़्यादा रकम चुकाने को तैयार हो गया।
साल 2022 में फ़ेसबुक ने ईयू की ओर से लगाया गया 2650 लाख यूरो का जुर्माना भरा। ये जुर्माना फ़ेसबुक की साइट से निजी डेटा निकालने की वजह से लगाया गया था।
बीते साल इस कंपनी पर आयरिश डेटा प्रोटेक्शन कमीशन ने रिकॉर्ड 1।2 अरब यूरो का जुर्माना लगाया। ये जुर्माना यूरोप के यूजर्स के डेटा को जूरिडिक्शन (क्षेत्राधिकार) से बाहर ट्रांसफऱ करने के लिए लगाया गया था। फेसबुक ने जुर्माने के खिलाफअपील की है।
3. फेसबुक ने किया इंटरनेट का राजनीतिकरण
फेसबुक टार्गेटिंग विज्ञापन की सुविधा देता है। इससे ये दुनिया भर में चुनाव प्रचार का प्रमुख प्लेटफ़ॉर्म बन गया है।
उदाहरण के लिए, साल 2020 में जब अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में सिफऱ् पांच महीने बाकी थे, तब तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की टीम ने फेसबुक विज्ञापन पर 400 लाख डॉलर से ज़्यादा रकम खर्च की। ये आंकड़ा स्टेटिस्टा रिसर्च ने जारी किया है।
फेसबुक की भूमिका जमीनी स्तर की राजनीति को बदलने में भी रही है। ये समूहों को इकट्टा होने, अभियान चलाने और वैश्विक स्तर पर कदम उठाने से जुड़ी योजना बनाने की सहूलियत देता है।
अरब स्प्रिंग यानी अरब क्रांति के दौरान विरोध प्रदर्शन आयोजित करने और जमीन पर हो रही घटनाओं की खबर प्रसारित करने में फेसबुक और ट्विटर की भूमिका अहम मानी गई।
लेकिन, कुछ नतीजों को लेकर फेसबुक के राजनीतिक इस्तेमाल की आलोचना भी होती है। मानवाधिकारों पर असर भी इसमें शामिल है।
साल 2018, में फेसबुक ने संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट से सहमति जाहिर की थी। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि म्यामांर में रोहिंग्या लोगों के खिलाफ ‘हिंसा के लिए उकसाने’ के वक्त फेसबुक यूजर्स को अपना प्लेटफॉर्म इस्तेमाल करने से रोकने में नाकाम रहा।
4. फेसबुक के जरिए मेटा का दबदबा
फेसबुक की बेशुमार कामयाबी के जरिए मार्क जुकरबर्ग ने सोशल नेटवर्क बनाया और तकनीकी साम्राज्य खड़ा कर लिया। यूजर्स की संख्या और इसके जरिए मिली ताकत अतुलनीय है।
उभरती कंपनियों मसलन व्हाट्सऐप, इंस्टाग्राम और ऑकुलस को फेसबुक ने खरीद लिया। इस को फेसबुक के तहत लाया गया और बाद में साल 2022 में इस कंपनी का नाम मेटा कर दिया गया।
मेटा का कहना है कि आज तीन अरब से ज़्यादा लोग हर दिन उसका कम से कम एक प्रॉडक्ट इस्तेमाल करते हैं।
मेटा जब अपनी प्रतिस्पर्धी कंपनी को खरीद नहीं पाता है तो कई बार उन पर अपनी नकल करने का आरोप लगा देता है। ताकि वो अपना दबदबा बनाए रख सके।
फेसबुक और इंस्टाग्राम का ‘डिस्एपीयरिंग स्टोरीज’ का फीचर स्नैपचैट के अहम फीचर की ही तरह है।
इंस्टाग्राम रील्स मेटा की ओर से वीडियो शेयरिंग ऐप टिकटॉक का जवाब है। मेटा का थ्रेड्स सोशल प्लेटफ़ॉर्म एक्स (पहले ट्विटर) जैसा विकल्प देने का प्रयास है।
अब रणनीति की भूमिका कहीं ज़्यादा अहम हो गई है। इसकी वजह बढ़ता मुकाबला और निगरानी रखने वाली संस्थाओं की बढ़ती सख्ती है।
साल 2022 में मेटा घाटा सहकर भी जीआईएफ़ मेकर जिफी को बेचने पर मजबूर हो गई। ब्रिटेन के रेगुलेटर ने मार्केट में इसके जरूरत से ज़्यादा दबदबे के डर से इसकी सेवाओं पर स्वामित्व रखने से रोक दिया।
अगले 20 साल में क्या होगा?
फ़ेसबुक का उभार और इसका लगातार दबदबा बनाए रखना मार्क जुकरबर्ग की क्षमता दिखाता है जो इस साइट को लगातार प्रासंगिक बनाए हुए हैं।
लेकिन अगले 20 साल के दौरान इसे सबसे लोकप्रिय सोशल नेटवर्क प्लेटफॉर्म बनाए रखना पहाड़ जैसी चुनौती साबित हो सकती है।
मेटा अब मेटावर्स के आइडिया के इर्द-गिर्द बिजनेस खड़ा करने की पुरज़ोर कोशिश में जुटा है, वो एपल जैसे प्रतिस्पर्धी से आगे निकलने की कोशिश में है।
मेटा के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस भी बड़ी प्राथमिकता में शुमार है। और अब जब कंपनी फेसबुक की जड़ों से कटती जा रही है, ये देखना दिलचस्प होगा कि दुनिया भर में मौजूद इस सोशल नेटवर्क साइट का भविष्य कैसा रहता है।(bbc.com)
(इमान मोहम्मद के इनपुट के साथ)
डॉ. आर.के. पालीवाल
ऐसा लगता है कि रेल प्रशासन आम जनता से केवल तरह तरह से धन वसूली में ही लगा है इसीलिए जिन लोगों को जरूरी काम से यात्राएं करनी पड़ती हैं उनकी मजबूरी का लाभ उठा कर पहले उसने महंगी तत्काल सेवा शरू की थी और अब हवाई यात्रा की तरह कम सीट रहने पर बहुत महंगी डायनेमिक प्राइसिंग भी शरू हुई है जिससे कभी कभी रेल का किराया हवाई यात्रा से भी महंगा हो गया है।
दूसरी तरफ यात्रियों की सुविधाओं के नाम पर वैसा ही शून्य पसरा हुआ है जैसा कई दशक से चल रहा है। यदि रेल प्रशासन लोगों से ज्यादा से ज्यादा धन वसूली में पूरी तरह से सजग है तब उसे यात्रियों की सुविधाओं के प्रति भी उसी तरह से सजग होना चाहिए। यात्रियों की सुविधाओं के नाम पर रेल प्रशासन कुंभकरण की नींद सोया लगता है।
उत्तर भारत में सर्दियों के मौसम में दिसंबर और जनवरी माह में हर साल कोहरा पड़ता है जिसकी वजह से अधिकांश ट्रेनों का विलंब से चलना स्वाभाविक है। इस दौरान बहुत सी फ्लाइट भी विलंब से चलती हैं और निरस्त भी होती हैं। ऐसी स्थिति में अधिकांश एयरलाइंस यात्रियों को गंतव्य स्थान तक पहुंचाने के लिए कनेक्टिंग फ्लाइट की व्यवस्था के साथ-साथ भोजन आदि की भी व्यवस्था करती हैं। एयरपोर्ट पर वातानुकूलन के कारण भी यात्रियों और विशेष रूप से महिलाओं, बच्चों और बुजुर्गों को परेशान नहीं होना पड़ता क्योंकि वहां काफी संख्या में टॉयलेट, खाद्य पदार्थों की दुकानें, और चलने के लिए व्हीलचेयर और स्वचालित सीढिय़ों आदि की व्यवस्था है। एयरलाइंस विलंब की स्थिति में समय-समय पर एसएमएस आदि से सूचना भी देती हैं। इस मामले में रेल प्रशासन में हद दर्जे की लापरवाही है।
रेल प्रशासन की हद दर्जे की लापरवाही का ताजा उदाहरण आजकल दिल्ली से भोपाल की तरफ आने वाली ट्रेनों को लेकर समझा जा सकता है जिसका खामियाजा हाल ही में हमने भी भुगता है। दिल्ली से आगरा की लगभग दो सौ किलोमीटर की दूरी अमूमन ट्रेन दो से तीन घंटे में पूरी करती हैं लेकिन आजकल इस रूट की अधिकांश ट्रेनों को मथुरा में ट्रेक रिपेयर के कारण अलीगढ़ होकर आगरा भेजा जा रहा है जिससे दिल्ली आगरा की दो-तीन घंटे की यात्रा बारह घंटे में पूरी हो रही है। टिकट बुक करते समय रेल प्रशासन यह सूचना यात्रियों से छिपा रहा है जिससे यात्रियों के दस दस घंटे बर्बाद हो रहे हैं।
हर दिन लाखों लोग इस ट्रैक से यात्रा करते हुए रेल प्रशासन की अपारदर्शिता और लापरवाही को कोस रहे हैं। महिलाओं के लिए यह मुसीबत और भी ज्यादा खतरनाक है। यदि उन्होंने अपनी यात्रा इस तरह प्लान की है कि वे शाम को दिल्ली से चलकर दिन में भोपाल पहुंच जाएं तो उन्हें दिल्ली में भी आधी रात के बाद ट्रेन पकडऩी पड़ रही है और भोपाल भी आधी रात को पहुंचकर परेशानी झेलनी पड़ रही है। उदाहरण के तौर पर 23 जनवरी की शाम आठ बजकर चालीस मिनट पर दिल्ली के निजामुद्दीन स्टेशन से चलकर सुबह छह बजे भोपाल पहुंचने वाली ट्रेन को दिल्ली से आधी रात के बाद सुबह चार बजे चलाया गया। पहले सूचित किया कि यह ट्रेन रात साढ़े ग्यारह बजे चलेगी। फिर बताया गया कि सुबह तीन बजे चलेगी। सुबह तीन बजे दिल्ली की कडक़ड़ाती ठंड में प्लेटफार्म पर पहुंचे हजारों यात्रियों को सही सूचना बताने के लिए रेलवे का कोई व्यक्ति मौजूद नहीं था।
प्लेटफार्म की दुकानें भी बंद हो चुकी थी। रेलवे की तरफ से संवेदनहीन अनाउंसमेंट में यह कहा जा रहा था कि ट्रेन तकनीकी देखरेख में यार्ड में खड़ी है यात्री अगली सूचना को ध्यान से सुनें। रेल प्रशासन का इस तरह का व्यवहार निकृष्टतम श्रेणी का है। प्लेटफार्म पर महिला यात्रियों के लिए न कोई सुरक्षा थी और न टॉयलेट आदि की सुविधा रहती है। यह ट्रेन सुबह चार बजे चलकर अठारह घंटे विलंब से रात साढ़े बारह बजे भोपाल पहुंची। विशेष रूप से महिला यात्रियों के लिए दो रात भयानक बीती। डायनेमिक प्राइसिंग से यात्रियों से धन वसूली करने वाला रेल प्रशासन कितना संवेदनहीन हो गया यह रेल से यात्रा करने वाले लाखों लोग आए दिन भुगत रहे हैं।
चंदन कुमार जजवाड़े
अगस्त 2022 में एनडीए से रिश्ता तोडऩे के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था कि वो मरना पसंद करेंगे लेकिन उनके (बीजेपी) के साथ लौटना पसंद नहीं करेंगे।
दूसरी तरफ़ केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि नीतीश कुमार के लिए एनडीए के दरवाज़े हमेशा के लिए बंद हो चुके हैं।
बीजेपी के कई अन्य नेता भी इस बात को दोहराते रहे हैं। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह तो पिछले हफ्ते तक बोलते रहे हैं कि नीतीश कुमार के लिए एनडीए का रास्ता बंद हो चुका है।
नीतीश ने पिछली बार एनडीए छोड़ते वक़्त बीजेपी पर जेडीयू को कमजोर करने का आरोप लगाया था। जेडीयू के नेता कई बार ‘चिराग मॉडल’ की बात करके भी बीजेपी पर अपनी नाराजग़ी ज़ाहिर करते रहे हैं।
साल 2000 के विधानसभा चुनावों में एनडीए का हिस्सा होते हुए भी लोक जनशक्ति पार्टी के चिराग पासवान ने बिहार में जेडीयू के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतारे थे। इससे जेडीयू को सीटों का बड़ा नुकसान हुआ था और बिहार में तीसरे नंबर की पार्टी हो गई थी।
जेडीयू ने अपने नेता और उस वक़्त अध्यक्ष रह चुके आरसीपी सिंह पर भी बीजेपी के साथ मिलीभगत का आरोप लगाया था। बाद में आरसीपी सिंह पार्टी से बाहर हो गए और अब वो बीजेपी में शामिल हो गए हैं।
विपक्ष को एक करने की कोशिश
नीतीश कुमार ने इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए बीजेपी के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने की पहल की थी।
इस तरह से 18 विपक्षी दलों की पहली बैठक बिहार की राजधानी पटना में ही 23 जून 2023 को हुई थी।
इस बैठक के बाद बिहार में महज 45 विधायकों के सहारे मुख्यमंत्री कुर्सी पर बैठे नीतीश कुमार राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आ गए थे। इस तरह से पहली बार बीजेपी और नरेंद्र मोदी के लिए एक संगठित विपक्ष की चुनौती तैयार हो रही थी। लेकिन अब कहानी पूरी तरह से बदल गई है।
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, ‘नीतीश को भी राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा के बाद लगने लगा था कि बीजेपी का मुकाबला करना आसान नहीं होगा। दूसरी तरफ़ भले ही बिहार के बीजेपी नेता न चाहते हों लेकिन बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व नीतीश को अपने साथ जोडऩा चाहता था ताकि विपक्षी एकता की नींव ही कमज़ोर हो जाए।’
कभी नीतीश के करीबी रहे आरजेडी के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘नीतीश के बारे में राजनीतिक विशेषज्ञ कुछ नहीं बता सकता, उनके बारे में मनोचिकित्सक बता सकता है। उन्होंने ख़ुद विपक्ष के लोकतंत्र बचाने के प्रस्ताव पर दस्तख़त किए थे। उनको शर्म आनी चाहिए, यह धोखा देना है। अगर उन्हें कोई शिकायत थी तो बात कर सकते थे।’
नीतीश कुमार पर धोखा देने और रंग बदलने का आरोप कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने भी लगाया है, जबकि समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने कहा है कि एक भावी प्रधानमंत्री को बीजेपी ने षडय़ंत्र कर मुख्यमंत्री तक सीमित कर दिया है।
किसने बनाया एनडीए में वापसी का रास्ता
बीजेपी के साथ रिश्ते तल्ख़ होने के बाद भी नीतीश कुमार ने विपक्ष का साथ क्यों छोड़ा और उनकी एनडीए में वापसी की पहल किसने की?
विपक्षी धड़े में रहकर नीतीश मुख्यमंत्री होने साथ ही राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी और सक्रिय भूमिका में दिख रहे थे।
वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी कहते हैं, ‘नीतीश ने विपक्ष के गठबंधन का साथ छोडऩे की जो वजह बताई है, वह तलाक़ लेने का केवल बहाना है। इसकी असली वजह वह नहीं है जो बताई जा रही है या जो दिख रही है। इसकी वजह अदृश्य है।’
कन्हैया भेलारी के मुताबिक़, ‘जेडीयू के नेताओं और कुछ के कऱीबियों के उपर जाँच एजेंसियों का कसता शिकंजा इसकी सबसे बड़ी वजह है। कुछ मामलों में नीतीश के कुछ कऱीबी अधिकारियों तक जाँच की आँच पहुँच सकती थी और नीतीश के मन में यह डर भी होगा कि कहीं उनसे भी पूछताछ न शुरू हो जाए।’
इससे पहले प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी ने पिछले साल सितंबर महीने में जेडीयू एमएलसी राधा चरण सेठ को गिरफ़्तार किया था। राधा चरण सेठ की गिरफ़्तारी आरा के उनके घर से हुई थी।
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक राधा चरण सेठ को मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में गिरफ्तार किया गया था। ख़बरों के मुताबिक़ जलेबी बेचने के व्यवसाय से शुरुआत करने वाले राधा चरण सेठ बाद में कई तरह के कारोबार से जुड़े, जिनमें माइनिंग, होटल और रेस्टोरेंट का कारोबार भी शामिल है।
नीतीश की वापसी में बड़ी भूमिका किसकी?
पिछले साल नीतीश कुमार के करीबी माने जाने वाले जेडीयू विधायक और मंत्री विजय चौधरी के साले अजय सिंह उर्फ कारू सिंह के आवास पर भी आयकर विभाग ने छापेमारी की थी।
बेगूसराय में बिल्डर कारू सिंह के आवास पर यह छापेमारी पटना में जून में विपक्षी दलों की मीटिंग के एक दिन पहले हुई थी।
पिछले साल ही अक्टूबर के महीने में जेडीयू के करीबी माने जाने वाले ठेकेदार गब्बू सिंह के ठिकानों पर भी आयकर विभाग ने छापेमारी की थी।
कन्हैया भेलारी के मुताबिक़, ‘राधाचरण सेठ के यहाँ ईडी को एक लाल डायरी मिली थी, बताया जाता है कि इसमें बहुत कुछ पाया गया है। इसलिए नीतीश के उपर अपने नेताओं का भी दबाव रहा होगा कि वो एनडीए में वापस चले जाएँ। इसकी पहल जेडीयू विधायक संजय झा की हो सकती है, जो पहले बीजेपी में ही थे।’
इसके अलावा नीतीश की एनडीए में वापसी की पहल करने वालों में नीतीश के करीबी माने जाने वाले विधान परिषद सदस्य अशोक चौधरी और नीतीश के करीबी कुछ अधिकारियों की भी इसमें अहम भूमिका मानी जाती है।
शिवानंद तिवारी आरोप लगाते हैं, ‘नीतीश कुमार के करीबी अधिकारी क्या कर रहे हैं, उनको भी पता है। नीतीश खुद चौबीसों घंटे ऐसे नेताओं से घिरे रहते हैं जो ‘मंडल’ विरोधी हैं। आप उनके नाम देख लीजिए। इन सबने नीतीश को एनडीए में वापस जाने की सलाह दी होगी और खुद नीतीश ने परोक्ष रूप से बीजेपी से संपर्क किया होगा।’
इसमें विजय चौधरी, संजय झा और जेडीयू एमएलसी ललन सिंह जैसे नेताओं नाम लिया जाता है। पिछले साल दिसंबर में ललन सिंह के मुद्दे पर चल रही अटकलों के दौरान विजय चौधरी ‘इंडिया’ को ‘इंडी’ गठबंधन कहते नजऱ आए थे। यह नाम आमतौर पर बीजेपी और उनके सहयोगी लेते हैं।
जेडीयू के भीतर मंदिर और मंडल खेमा
वरिष्ठ पत्रकार फैजान अहमद का मानना है कि जेडीयू में बीजेपी के करीबी और बीजेपी के विरोधी दोनों तरह के लोग हैं, मसलन संजय झा नीतीश कुमार के बेहद कऱीबी हैं और बीजेपी के भी। इसलिए दोनो के बीच डोर के तौर पर संजय झा की भूमिका हो सकती है।
फैजान अहमद कहते हैं, ‘लालू और नीतीश के बीच मतभेद राजनीति के बहुत शुरुआती दिनों में ही हो गया था। नीतीश कुमार भी लालू से ज़्यादा बीजेपी के साथ रहे हैं और वहीं सहज भी दिखते हैं। लेकिन इस बार गठबंधन छोडऩे के पीछे नीतीश ने लालू की जगह कांग्रेस पर आरोप लगाया है।’
दअसल नीतीश कुमार का यह फ़ैसला अचानक का फैसला भी नहीं दिखता है। पिछले कई हफ्तों से कई कार्यक्रमों में नीतीश और तेजस्वी यादव को एक साथ नहीं देखा गया था। नीतीश कई बार बिहार के राज्यपाल से भी मिले लेकिन तेजस्वी से उनकी दूरी बनी रही।
बिहार में निजी निवेश को बढ़ावा देने के लिए पिछले महीने यानी दिसंबर हुए ‘इन्वेस्ट बिहार’ कार्यक्रम में भी तेजस्वी यादव नजर नहीं आए थे। इसमें अदानी ग्रुप ने बिहार में अपने कारोबार के विस्तार के लिए 8700 करोड़ रुपये का निवेश की घोषणा की थी।
वहीं नीतीश ने खुद पटना में पिछले साल नवंबर महीने में सीपीआई की रैली में पहुँचकर गठबंधन के प्रति कांग्रेस के रुख पर सवाल उठाया था। पिछले साल मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान चुनाव में हार के बाद तो जेडीयू ने कांग्रेस को सहयोगी दलों को उचित सम्मान देने की सलाह भी दी थी।
कौन ले गया नीतीश को दूर
कांग्रेस के साथ नीतीश के मोहभंग की शुरुआत भोपाल में महागठबंधन की रैली रद्द होने के दौरान मानी जाती है। पिछले साल मध्य प्रदेश चुनाव के दौरान भोपाल में विपक्षी दलों की एक बड़ी रैली होनी थी, जिसे कांग्रेस नेता कमलनाथ ने रद्द करा दिया था।
पटना में विपक्ष की मीटिंग के बाद बेंगलुरु, मुंबई या विपक्ष की बाक़ी मीटिंग को लेकर नीतीश कुमार बहुत उत्साहित नजर नहीं आ रहे थे। बीजेपी की तरफ से यह दावा किया जा रहा था कि नीतीश ‘इंडिया’ के संयोजक नहीं बनाए जाने से नाराज हैं, हालाँकि नीतीश कुमार और जेडीयू इससे इनकार करते रहे।
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, ‘नीतीश ख़ुद को विपक्षी गठबंधन का संयोजक देखना चाहते थे, भले ही वो स्वीकार न करें, लेकिन सबकी अपनी महत्वाकांक्षा होती है। फिर भी कांग्रेस उन्हें यह पद क्यों दे? नीतीश एक राज्य में सहयोगियों से भरोसे मुख्यमंत्री हैं और कांग्रेस विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है।’
नीतीश कुमार को लेकर कांग्रेस की दुविधा की एक और वजह मानी जाती है। नीतीश ख़ुद को लेकर कांग्रेस या बाकी कई दलों का भरोसा नहीं जीत पाए और सबके मन में यह सवाल हो सकता है कि जिम्मेदारी सौंपने के बाद नीतीश विपक्षी गठबंधन से दूर हो गए तो यह विपक्ष के लिए ज़्यादा बुरी स्थिति होती।
हालाँकि गठबंधन को लेकर कांग्रेस के रुख़ पर भी कई लोग सवाल उठाते हैं। तीन विधानसभा चुनावों में हार के बाद काँग्रेस ने अचानक विपक्ष की मीटिंग बुला ली थी, जिस पर ममता बनर्जी ने तीखी प्रतिक्रिया दी थी। (bbc.com)
-नलिन वर्मा
नीतीश कुमार रविवार को पाला बदलकर भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में शामिल हो गए।
उनके इस कदम से 2024 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़ा हो रहे इंडियन नेशनल डिवेलपमेंट इनक्लूसिव अलायंस (इंडिया) को तगड़ा झटका लगा है।
मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के नेताओं के मुताबिक़ ‘इंडिया’ गठबंधन के आर्किटेक्ट नीतीश कुमार ही थे।
यह इसलिए भी महत्वूर्ण था कि उन्होंने दिल्ली और पश्चिम बंगाल में अपने समकक्ष अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी के साथ-साथ उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव से मुलाकात कर उन्हें कांग्रेस के साथ इस गठबंधन में शामिल किया।
नीतीश कुमार के पाला बदलने का समय
नीतीश कुमार का यह क़दम उस दिन सामने आया, जब एक दिन बाद कांग्रेस नेता राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ बंगाल से लगे किशनगंज के रास्ते बिहार में प्रवेश कर रही है।
शायद बीजेपी के रणनीतिकारों ने एनडीए को और अधिक फायदा पहुंचाने के लिए नीतीश की एंट्री का दिन तय किया।
इससे उसे कई राज्यों में सीट बँटवारे में फँसे ‘इंडिया’ गठबंधन पर मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल होगी।
बीजेपी का अनुमान है कि अयोध्या में राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरी बार सत्ता में लौटने के लिए उत्तर भारत में उनके लिए जबरदस्त माहौल तैयार किया है।
बीजेपी ने अभी हाल ही में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान का विधानसभा चुनाव जीता है। इससे हिंदी भाषी राज्यों में उसकी ताकत बढ़ी है।
अगस्त 2022 में नीतीश कुमार के महागठबंधन में शामिल हो जाने से बीजेपी बिहार में असुरक्षित महसूस कर रही थी।
विधानसभा की 79 सीटों के साथ राष्ट्रीय जनता दल बिहार की सबसे बड़ी पार्टी है। इसके नेता लालू प्रसाद यादव सामाजिक न्याय की लड़ाई के सबसे बड़े योद्धा और हिंदुत्व विरोधी राजनीति के सबसे बड़े प्रतीक हैं।
हालांकि बीजेपी के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 2019 के लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 39 पर जीत दर्ज की थी।
लेकिन उसके रणनीतिकारों को इस बात का डर था कि नीतीश कुमार के महागठबंधन में रहते हुए वे शायद 2019 के चुनाव परिणाम को दोहरा न पाएं।
बिहार में कैसा प्रदर्शन करेगी बीजेपी?
क्या बीजेपी 2024 के लोकसभा चुनाव में 2019 के चुनाव परिणाम को दोहरा पाएगी? नीतीश के साथ आने से भाजपा के रणनीतिकार अब अपनी संभावनाओं को लेकर आशावादी हो सकते हैं।
लेकिन इस सवाल का असली जवाब जानने के लिए हमें तब तक इंतजार करना होगा, जब तक कि चुनाव परिणाम नहीं आ जाते हैं।
नीतीश कुमार की जेडीयू ने 2014 का लोकसभा चुनाव अकेले के दम पर लड़ा था। उसे करीब 15 फ़ीसदी वोट और दो सीटें मिली थीं। इसके बाद वो राजद और कांग्रेस के महागठबंधन में शामिल हो गए, जिसने भाजपा के 53 सीटों के मुकाबले 178 सीटों पर जीत दर्ज की।
नीतीश 2017 में महागठबंध को छोडक़र एनडीए में शामिल हो गए। साल 2019 के चुनाव में जेडीयू ने 17 सीटों पर चुनाव लडक़र 16 सीटें जीतीं और भाजपा ने 17 सीटें जीतीं।
साल 2020 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू को बड़ा घाटा हुआ। उसकी सीटें घटकर 42 रह गईं। 76 सीटें जीतने वाली भाजपा ने चुनाव पूर्व किए वादे के मुताबिक नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनवाया।
लेकिन चुनाव परिणाम साफ तौर पर मतदाताओं के बीच नीतीश की घटती लोकप्रियता को दिखा रहे थे।
उनकी पार्टी के नेताओं ने बीजेपी पर रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान को आगे कर जेडीयू की जीत की संभावनाओं को कम करने का आरोप लगाया।
उनका आरोप था कि चिराग की लोक जनशक्ति पार्टी ने जेडीयू के खिलाफ उम्मीदवार खड़ा किए।
जेडीयू के बयान के मुताबिक़ लोजपा ने भले ही अधिक सीटें न जीती हों, लेकिन उसके उम्मीदवारों ने 32 सीटों पर उसके उम्मीदवारों को हराने के लिए पर्याप्त वोट काटे।
संभव है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले हिंदुत्व और विपक्षी दलों के कथित समावेशी राजनीति के बीच नीतीश कुमार की आवाजाही से अच्छे प्रशासक वाली उनकी छवि प्रभावित नहीं हुई होगी। इसके अलावा नीतीश कुमार भ्रष्टाचार और वंशवादी राजनीति के आरोपों से भी मुक्त हैं।
साल 2024 के लोकसभा चुनाव पर क्या असर पड़ेगा?
लेकिन बार-बार इधर-उधर करने से नीतीश कुमार की वैचारिक प्रतिबद्धता को नुकसान जरूर हुआ है। भाजपा के रणनीतिकार यह जरूर कह सकते हैं कि उन्होंने ‘इंडिया’ गठबंधन के पायलट को ही हटाकर, गठबंधन तोड़ दिया है।
नीतीश के पाला बदकर बीजेपी की ओर जाने का बिहार से बाहर बहुत कम प्रभाव पड़ेगा।
छह बार सांसद और लंबे समय तक केंद्र सरकार में मंत्री रहने के बाद भी नीतीश एक ऐसे राष्ट्रीय नेता के रूप में नहीं उभर पाए, जो दूसरे राज्यों की राजनीति को प्रभावित कर सके।
अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश, ममता बनर्जी को बंगाल और कांग्रेस को राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ लड़ाई में नीतीश कुमार की बहुत कम जरूरत है।
राजद, कांग्रेस और वाम दलों के महागठबंधन की सरकार की ओर से बिहार में जाति सर्वेक्षण कराने, अति पिछड़ा वर्ग, अन्य पिछड़ा वर्ग, अनुसूचित जाति-जनजाति का आरक्षण 65 फीसदी तक बढ़ाने और युवाओं को करीब चार लाख नौकरियां देने की पृष्ठभूमि में नीतीश कुमार ने पाला बदला है।
साल 2020 के चुनाव में राजद नेता और लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव ने 10 लाख नौकरियां देने का वादा किया था।
उनकी पार्टी जाति आधारित जनगणना और हाशिए के समाज को आबादी के हिसाब से हिस्सेदारी देने के लिए दवाब डाल रही थी। तेजस्वी यादव ने नौकरी देने का जो वादा किया था, महागठबंधन सरकार ने कम से कम उसे पूरा किया है।
इतने बड़े आधार पर नौकरियां देने और वंचित तबके का आरक्षण बढ़ाने का श्रेय तार्किक रूप से लालू प्रसाद यादव की राजद को ही जाता है।
ईसीबी, ओबीसी और एससी-एसटी का बढ़ा हुआ आरक्षण बीजेपी के आक्रामक हिंदुत्व के मुक़ाबले वंचित समाज और अल्पसंख्यकों को राजद के पीछे लामबंद कर सकता है।
राजद के साथ सीपीआई-एमएल भी है, जिसका बिहार के कुछ इलाकों के गऱीबों में अच्छा प्रभाव है। नीतीश कुमार के डिप्टी के रूप में तेजस्वी यादव ने अच्छा काम किया है। युवाओं में उन्होंने अच्छी साख भी कमाई है।
नीतीश कुमार ने क्यों बदला पाला?
पूर्व चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार के साथ 2015 के विधानसभा चुनाव में काम किया था।
वो कहते हैं, ‘साल 2022 में नीतीश कुमार के पाला बदलकर महागठबंधन में शामिल होने का कारण जेडीयू थी, उन्हें डर था कि 45 विधायकों वाली उनकी पार्टी को बीजेपी तोड़ कर उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटा सकती है।’
‘वह मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी बचाने के लिए महागठबंधन में शामिल हुए थे। अब मुख्यमंत्री बने रहने के लिए बीजेपी के साथ गए हैं। लेकिन यह कोई नहीं जानता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद वो क्या करेंगे। नीतीश ख़ुद नहीं जानते हैं कि वो क्या करेंगे। वह वही करेंगे जो उस समय उन्हें अच्छा लगेगा।’
जेडीयू ने ‘इंडिया’ गठबंधन से नीतीश के अलग होने का दोष कांग्रेस पर मढ़ दिया है।
जेडीयू के मुख्य प्रवक्ता केसी त्यागी ने कहा, ‘हमारे नेता (नीतीश) ने ‘इंडिया’ गठबंधन को बनाने के लिए कठिन परिश्रम किया। वो इसमें कांग्रेस के साथ ममता बनर्जी, अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल को लेकर आए, लेकिन कांग्रेस हमेशा घमंड में रही।’
‘उसने अपनी मज़बूत पकड़ वाले क्षेत्रों में क्षेत्रीय दलों को जगह नहीं दी, लेकिन उनकी बदलौत वह उन क्षेत्रों में बढ़त बनाना चाहती थी, जहाँ उसका अस्तित्व नहीं है। कांग्रेस की जि़द ने नीतीश को उसे छोडऩे पर मजबूर किया।’
हालांकि नीतीश कुमार ने इस बात से हमेशा इनकार किया कि वो ‘इंडिया’ गठबंधन का संयोजक या प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनना चाहते हैं। लेकिन जेडीयू के नेता चाहते थे कि ‘इंडिया’ गठबंधन उन्हें अपना संयोजक या प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए।
इस बात की चर्चा थी कि ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल ने मुंबई में हुई ‘इंडिया’ की बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के नाम का प्रस्ताव प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में किया था और ये दोनों नेता नीतीश कुमार को ‘इंडिया’ का संयोजक बनाए जाने के ख़िलाफ़ थे।
अभी हाल में हुई ‘इंडिया’ गठबंधन की ऑनलाइन बैठक में माकपा महासचिव सीताराम येचुरी ने नीतीश का नाम संयोजक के रूप में प्रस्तावित किया था।
उनके इस प्रस्ताव का कांग्रेस और राजद समेत अन्य दलों ने समर्थन किया था। लेकिन नीतीश ने यह जि़म्मेदारी लेने से इंकार कर दिया था। बैठक में ममता बनर्जी शामिल नहीं हुई थीं।
कई दलों को ‘इंडिया’ गठबंधन में शामिल कराने के प्रयासों के बाद भी नीतीश शायद पाला बदल राजनीति की वजह से गठबंधन के संयोजक के रूप में स्वीकार किए जाने के लिए राजनीतिक दलों का विश्वास नहीं जीत पाए थे। वे विश्वास की कमी से पीडि़त थे। (bbc.com/hindi)
(नलिन वर्मा वरिष्ठ पत्रकार, मीडिया शिक्षक और लोककथाओं के स्वतंत्र शोधार्थी हैं)
-गोकुल सोनी
छुरा से कोमाखान की ओर जाते हुए कल मैंने चरोदा गांव में यह दृश्य देखा। राजस्थान से आए ये लोहार परिवार बरसात को छोडक़र शेष समय छतीसगढ़ में ही बिताते हैं।
राजस्थान में इन्हें लोहपीट्टा कहा जाता है। खुले आसमान के नीचे कोयले की भट्ठी जलाकर लोहार लोहे को गर्म कर रहा था। गर्म होने पर लोहे को वह ‘निहई’ पर रखता था। लोहार की पत्नी उस लोहे पर घन से प्रहार करती थी। लोहे को आकार देने के लिए लोहार गर्म लोहे को संसी की मदद से निहई के ऊपर घुमाता था। धीरे-धीरे साधारण लोहा कुदाली, कुल्हाड़ी, हंसिया का आकार ले रहा था। इनकी तस्वीर लेकर मैं आगे बढ़ गया। कार में बैठे-बैठे मुझे लोहा और उससे जुड़ी बातें याद आ रही थी।
करीब 50 साल पहले अपने स्कूल की पाठ्यपुस्तक बाल भारती में एक कविता थी। उस कविता के माध्यम से समाज में अलग-अलग तरह के काम करने वालों को इंगित किया गया था। उसमें लोहारों के लिए एक पंक्ति थी-
वह लोहे को लाल तपाकर कौन पीटता घन दिन-रात।
इसी तरह सोशल मीडिया के स्टार खान सर कहते हैं कि इंसान को कभी क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोधी व्यक्ति अपनी शक्ति खो देता है। वे कहते हैं कि लोहा बहुत सख्त होता है लेकिन उसे जब आग में गर्म किया जाता है यानी गुस्सा दिलाया जाता है तो वह अपनी शक्ति खो देता है और तब लोहार उसे मोड़ देता है या झुका देता है।
हरिवंशराय बच्चन जी कहते हैं कि गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है।
वे कहते हैं कि जब लोहा गर्म हो तभी उस पर वार करो। अर्थात परिस्थितियां जब अनुकूल हो तब किसी कठिन काम को कर लो।
बात जब लोहा और कवियों की हो रही है तो महान क्रांतिकारी कवि पाश को भी सुन लीजिए। वे कहते हैं-आप लोहे की बात करते हैं, मैंने लोहा खाया है।
उन्हीं के तेवर के प्रसिद्ध कवि धूमिल को भी पढ़ लीजिए। उन्होंने लिखा है- लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है।
वैसे लोहे की खोज के बाद मानव सभ्यता का बहुत तेजी से विकास हुआ है। आज भी हम उसी लोहे के कल-पुर्जों के सहारे इक्कीसवीं सदी को पार करने जा रहे हैं।
भारत में आधिकारिक रूप से यह जानकारी दी गई है कि देश भर में करीब 25 करोड़ लोगों को बहुआयामी गरीबी से बाहर निकाला गया है। हालांकि, विशेषज्ञों ने इन आंकड़ों पर कई तरह के संदेह जताए हैं।
डॉयचे वैले पर मुरली कृष्णन का लिखा-
कागज पर, भारत के पास जश्न मनाने के लिए बहुत कुछ है। सरकारी थिंक टैंक नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले नौ वर्षों में देश में रहने वाले लगभग 24.8 करोड़ लोग ‘बहुआयामी गरीबी’ से बाहर आ गए।
रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले नौ वर्षों में बहुआयामी गरीबी में 18 फीसद की गिरावट आई है और इस स्थिति में रहने वाले लोगों की संख्या 29 फीसद से घटकर 11 फीसद हो गई है।
आंकड़े दिखाते हैं कि बहुआयामी गरीबी को एक फीसद से कम करने के सरकार के लक्ष्य की दिशा में काफी प्रगति हुई है, लेकिन कुछ अर्थशास्त्रियों ने इन दावों के पीछे बहुआयामी गरीबी सूचकांक (एमपीआई) के उपयोग पर कुछ गंभीर संदेह उठाए हैं और कहा है कि रिपोर्ट में जो बातें कही गई हैं वो वास्तव में गरीबी की पूरी तस्वीर पेश नहीं करतीं।
यूनिवर्सिटी ऑफ बाथ के सेंटर फॉर डेवलपमेंट स्टडीज में विकास अर्थशास्त्र के विजिटिंग प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा कहते हैं कि ‘इन आंकड़ों की गणना का तरीका यानी कार्यप्रणाली संदिग्ध है।’
गरीबी का सही आंकलन
बहुआयामी गरीबी स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन स्तर पर आधारित है, जिनमें से प्रत्येक को समान महत्व दिया जाता है। इन तीनों श्रेणियों को 12 संकेतकों में विभाजित किया गया है।
भारत में प्रत्येक परिवार को 12 मापदंडों के आधार पर एक अंक दिया जाता है और यदि किसी परिवार का अभाव स्कोर 33 फीसद से ज्यादा है तो उसे बहुआयामी रूप से गरीब के रूप में पहचाना जाता है।
एमपीआई को अल्किरे-फोस्टर विधि भी कहा जाता है। इसे गरीबी के स्तर और गरीबी की तीव्रता को मापने के लिए ऑक्सफोर्ड गरीबी और मानव विकास पहल द्वारा विकसित किया गया था।
भारत ने अपने राष्ट्रीय एमपीआई में दो नए पैरामीटर्स- मातृ स्वास्थ्य और बैंक खाते भी जोड़े हैं। कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि रिपोर्ट के निष्कर्षों में गरीबी पर कोविड के विनाशकारी प्रभावों को नजरअंदाज कर दिया गया है। जबकि दूसरे विशेषज्ञों का कहना है कि इस विधि में वैश्विक स्तर पर गरीबी का आकलन करने की पारंपरिक विधि का पालन नहीं किया गया है, जिसमें उपभोग गरीबी रेखा के नीचे की आबादी की संख्या और हिस्सेदारी महत्वपूर्ण होती है।
‘उपयुक्त आंकड़ों का अभाव’
मेहरोत्रा कहते हैं कि साल 2014 और 2022 के बीच उपभोग व्यय सर्वेक्षण की अनुपस्थिति के बावजूद, भारत में गरीबी संकेतक के रूप में राष्ट्रीय एमपीआई का उपयोग करना, राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है।
मेहरोत्रा के मुताबिक, ‘वास्तविक मजदूरी छह साल से स्थिर थी जिसका उपभोग मांगों पर गंभीर प्रभाव पड़ा। जाहिर है, गरीबी के स्तर में जो गिरावट दिखाई जा रही है, ये उसके अनुरूप नहीं हो सकती। क्या आकलन की प्रक्रिया और उसके परिणाम बारीकी से जांच करने लायक हैं? क्या एमपीआई गरीबी की पूरी तस्वीर खींचने में सक्षम है?’
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर और अध्यक्ष लेखा चक्रवर्ती का कहना है कि किसी भी समग्र सूचकांक की सीमाएं होती हैं क्योंकि यह प्रभावित करने वाले कारकों की विशिष्ट पसंद के साथ-साथ उपयोग की जाने वाली पद्धति के आधार पर अत्यधिक विषम होती हैं।
डीडब्ल्यू से बातचीत में लेखा चक्रवर्ती कहती हैं, ‘यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा हर साल बनाया जाने वाला मानव विकास सूचकांक भी वैचारिक रूप से और प्रणाली के स्तर पर आलोचनाओं से मुक्त नहीं है क्योंकि यह केवल चयनित तीन संकेतकों और प्रत्येक वैरियेबल को महत्व देने के तरीके पर आधारित है।’
उनके मुताबिक, आंकड़ों के दबाव कई बार ऐसे समग्र संकेतकों के सार्थक निर्माण को विफल कर देते हैं और अर्थशास्त्री हमेशा ‘प्रॉक्सी वेरिएबल्स’ का उपयोग करते हैं यानी डेटा को ‘एक्सट्रापोलेट’ करते हैं। वो कहती हैं, ‘गरीबी गतिशील है। बिल्कुल उसी तरह जैसे किसी गतिशील लक्ष्य का पीछा करना। नीतिगत निर्णयों के लिए एमपीआई का उपयोग करना बहुत ज्यादा विवादास्पद होगा।’
गरीबी आंकलन से जुड़े विवाद
नीति आयोग की रिपोर्ट यह भी दावा करती है कि विभिन्न सरकारी प्रयासों और कल्याणकारी योजनाओं ने विभिन्न प्रकार के अभाव को कम करने में प्रमुख भूमिका निभाई है।
दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे अरुण कुमार ने डीडब्ल्यू को बताया कि सरकार की रिपोर्ट की दोबारा व्याख्या की जरूरत है।
देश भर में परिवारों के प्रतिनिधि नमूने में बड़े पैमाने पर बहु स्तरीय सर्वेक्षण का जिक्र करते हुए अरुण कुमार कहते हैं, ‘कुछ खामियां हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा संकेतक जिनका एमपीआई में सबसे ज्यादा योगदान है, उन पर कोविड के दौरान यानी 2020-21 में सबसे ज्यादा प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।
2019-21 के पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के डेटा का उपयोग करने से सर्वेक्षण के आधार पर अभाव सूचकांक में काफी त्रुटियां हुई होंगी, जिससे नीति आयोग की रिपोर्ट के निष्कर्ष संदेह के घेरे में आ गए हैं।’
भारत में गरीबी के अनुमान को लेकर विवाद नए नहीं हैं और पहले भी अनुमान और अपनाई गई पद्धतियों को लेकर इन पर बहस होती रही है।
क्या कहता है भुखमरी सूचकांक
किसी देश की आर्थिक प्रगति का आकलन करने के लिए गरीबी के आंकड़े महत्वपूर्ण हैं और सरकार को गरीबी उन्मूलन के लिए लोगों को भोजन उपलब्ध कराने के मकसद से सार्वजनिक वितरण प्रणाली जैसी योजनाओं के लाभार्थियों की संख्या का अनुमान लगाने के लिए भी इन आंकड़ों की जरूरत होती है।
विश्व बैंक ने अंतरराष्ट्रीय गरीबी रेखा को 2017 की क्रय शक्ति समानता (पीपीपी) के आधार पर परिभाषित किया है। इस आधार पर गरीबी रेखा को 2.15 डॉलर प्रति दिन के रूप में तय किया गया है। पीपीपी विभिन्न देशों में विशिष्ट वस्तुओं की कीमत का एक माप है और इसका उपयोग विभिन्न देशों की मुद्राओं की पूर्ण क्रय शक्ति की तुलना करने के लिए किया जाता है।
पिछले साल अक्तूबर में, ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) 2023 में भारत कुल 125 देशों में से 111वें स्थान पर था। साल 2015 के बाद से भूख के खिलाफ इसकी प्रगति लगभग रुकी हुई थी, जो एक वैश्विक प्रवृत्ति को दर्शाता है।
जीएचआई चार घटक संकेतकों पर विभिन्न देशों के प्रदर्शन को मापता है- अल्पपोषण, बच्चों में वेस्टिंग, स्टंटिंग और बाल मृत्यु दर। हालांकि, सरकार ने त्रुटिपूर्ण कार्यप्रणाली का हवाला देते हुए इस सूचकांक में भारत के प्रदर्शन का विरोध किया था। जारी सूचकांक में भारत का स्कोर 28,7 है, जो भुखमरी के गंभीर स्तर को दर्शाता है। (dw.com)
जर्मनी के लिए 27 जनवरी एक अहम तारीख है. यह दिन 'होलोकॉस्ट स्मृति दिवस' के तौर पर मनाया जाता है. होलोकॉस्ट मानव इतिहास का एक जघन्य अध्याय है, जब 1933 से 1945 के बीच नाजी शासन में लाखों यहूदी कत्ल कर दिए गए.
डॉयचे वैले पर स्वाति मिश्रा का लिखा-
‘होलोकॉस्ट स्मृति दिवस’ के लिए 27 जनवरी की तारीख चुने जाने का संदर्भ आउशवित्स यातना शिविर से जुड़ा है। यह यातना शिविर नाजी जर्मनी के कब्जे वाले पोलैंड में था। 27 जनवरी 1945 को सोवियत संघ की सेना ने आउशवित्स को आजाद कराया था। साल 2005 में संयुक्त राष्ट्र ने होलोकॉस्ट के शिकार हुए 60 लाख यहूदियों की याद और नाजियों द्वारा सताये गए अन्य पीडि़तों के सम्मान में अंतरराष्ट्रीय होलोकॉस्ट स्मृति दिवस के लिए 27 जनवरी की तारीख चुनी।
क्या है आउशवित्स का इतिहास?
दूसरे विश्व युद्ध के समय आउशवित्स, दक्षिणी पोलैंड का एक छोटा सा शहर था। सितंबर 1939 में दूसरा विश्व युद्ध शुरू होने के बाद जल्द ही नाजी जर्मनी की सेना ने यहां कब्जा कर लिया और इसे थर्ड राइष में मिला लिया गया। 1940 में सबसे क्रूर नाजी नेताओं में से एक हाइनरिष हिमलर के नेतृत्व में नाजी सेना ने यहां एक यातना शिविर बनाया। यह जगह हत्या के कारखाने जैसी थी। यहां लाए जाने वाले नए लोगों में से करीब 80 फीसदी को बतौर कैदी रजिस्टर तक नहीं किया जाता था, बल्कि लाए जाने के साथ ही सीधे गैस चैंबरों में भेज दिया जाता था।
अनुमान है कि आउशवित्स में करीब 11 लाख लोगों की हत्या की गई। इनमें लगभग 90 फीसदी यहूदी थे, जो मुख्य रूप से हंगरी, पोलैंड, इटली, बेल्जियम, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, नीदरलैंड, ग्रीस, सोवियत संघ और क्रोएशिया से थे। यहूदियों के अलावा नाजियों की क्रूरता का शिकार बने समूहों में रोमा और सिंती, समलैंगिक, कैथोलिक, यहोवा विटनेस, विकलांग और राजनैतिक विरोधी शामिल थे। 1947 में इसे स्मारक स्थल बना दिया गया।
होलोकॉस्ट क्या है?
1945 में दूसरा विश्व युद्ध खत्म होने के बाद जब नाजी जर्मनी की क्रूरताओं के ब्योरे सामने आए, यातना शिविरों में औद्योगिक स्तर पर की गई जघन्य हत्याओं का विस्तार पता चला, तो दुनिया सन्न रह गई। तब से ही नाजी जर्मनी के शासन में यूरोपीय यहूदियों की हत्याओं के लिए बतौर अभिव्यक्ति ‘होलोकॉस्ट’ एक पर्याय बन गया।
1933 में नाजियों के सत्ता में आने के बाद से ही यहूदी समेत कई अन्य समूहों के साथ भेदभाव शुरू हो गया था। उन्हें सताने की एक सुनियोजित और विस्तृत कवायद शुरू हुई। यहूदियों को ‘कमतर नस्ल’ बताकर कलंकित किया गया। उनसे संपत्ति का अधिकार छीन लिया गया। उन्हें ‘चिह्नित’ और अपमानित किया गया। उन्हें अलग-थलग कर घेटो में रहने के लिएमजबूर किया गया। लाखों यहूदी यातना शिविरों में कत्ल कर दिए गए। ये नरसंहार और व्यवस्थागत नृशंसता होलोकॉस्ट इतिहास का हिस्सा है।
‘नेवर फॉरगेट, नेवर अगेन’
नाजी शासन के दौरान यूरोपीय यहूदियों के साथ हुई नृशंसताओं को याद करना जर्मनी की स्मरण संस्कृति का एक अहम हिस्सा है। अक्सर इसकी अभिव्यक्ति के लिए ‘नेवर फॉरगेट, नेवर अगेन’ शब्द इस्तेमाल किया जाता है। यानी, नाजियों के अपराध और उनकी क्रूरता का इतिहास ना तो कभी भुलाया जाए और ना ही फिर कभी दोहराया जा सके।
असल में इस इतिहास का सबक आधुनिक जर्मनी को आधार देता है। जर्मनी मानता है कि एक देश और समाज के तौर पर होलोकॉस्ट की याद को जिंदा रखना और इस अतीत से सबक लेना उसका कर्तव्य है। जर्मनी के सभी राज्यों में नाजी इतिहास और होलोकॉस्ट, पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा हैं।
स्टाट्सरेजॉं: देश का विवेक
यह इतिहास जर्मनी की विदेश नीति का भी एक अहम हिस्सा है। यहूदियों की सुरक्षा को जर्मनी अपनी एक खास ऐतिहासिक जिम्मेदारी मानता है। इसी ऐतिहासिक भूमिका के मद्देनजर इस्राएल की सुरक्षा को जर्मनी अपना ‘स्टाट्सरेजॉं’ कहता है, यानी देश का विवेक। पूर्व जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल ने 2008 में इस्राएली संसद को संबोधित करते हुए इस शब्द का इस्तेमाल किया था।
जर्मनी में कई स्मारक और संग्रहालय हैं, जो नाजियों के अपराध के शिकार हुए समूहों को समर्पित हैं। इनके अलावा नाजी शासन के शिकार बने लोगों को श्रद्धांजलि देते हुए जर्मनी समेत कई अन्य यूरोपीय देशों में फुटपाथ पर पीतल की पट्टियां भी लगी हैं। जर्मन भाषा में ‘श्टोल्परश्टाइन’ कही जाने वाली इन पट्टियों की संख्या 90,000 से ज्यादा है।
स्मृति दिवस की शुरुआत साल 1996 में हुई, जब तत्कालीन राष्ट्रपति रोमान हैरत्सोग ने 27 जनवरी को नाजी यातना के पीडि़तों की याद में समर्पित किया। स्मृति की इस परंपरा का मकसद नाजी अपराधों के इतिहास से सबक लेना है। इस रोज जर्मनी में कई खास कार्यक्रम होते हैं, ताकि नाजियों के अपराध की याददाश्त बनी रहे। यातनाओं की आपबीतियों से आने वाली पीढिय़ां भी वाकिफ रहें और लोगों की चेतना को आकार देती रहें।
क्यों जरूरी है याद रखना, याद दिलाना
होलोकॉस्ट का दौर बीते लंबा वक्त हो गया है। उन क्रूरताओं के चश्मदीद, ऐसे लोग जिन पर होलोकॉस्ट गुजरी है, वो अकल्पनीय यातनाएं जिनकी आपबीतियों का वे हिस्सा हैं, वो हमेशा दुनिया में नहीं रहेंगे। बीते दिनों ‘ज्यूइश क्लेम्स कॉन्फ्रेंस’ ने एक रिपोर्ट जारी की। इसमें बताया गया कि 1941 से 1945 के बीच नाजी शासन के दौरान हुए नरसंहार और अत्याचारों से बचे करीब 245,000 लोग अब भी दुनिया में हैं।
इनमें लगभग 14,000 जर्मनी में रहते हैं। सर्वाइवर्स की औसत उम्र 86 साल है। इनमें से 95 फीसदी ‘चाइल्ड सर्वाइवर’ की श्रेणी में हैं, जो दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के समय औसतन सात साल के थे। 1933 में जब हिटलर ने जर्मनी में सत्ता संभाली, तब देश में रह रहे यहूदियों की संख्या लगभग 560,000 थी।
1945 में जब विश्व युद्ध खत्म हुआ, तब जर्मनी में केवल 15,000 यहूदी बचे थे।
ज्यूइश क्लेम्स कॉन्फ्रेंस ने कहा कि होलोकॉस्ट से जिंदा बचे 5।8 फीसदी लोगों ने जर्मनी को अपना घर बनाया, यह तथ्य ‘जर्मन लोकतंत्र की स्थिरता का एक संकेत था, जिसकी हमें हिफाजत करनी चाहिए और सहेजना चाहिए।’ कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष गिडियन टेलर ने कहा, ‘ज्यादातर सर्वाइवर उम्र के ऐसे दौर में पहुंच गए हैं, जहां उन्हें ज्यादा मदद और देखभाल की जरूरत है। यह वक्त है कि हम ऐसे लोगों पर पहले से दोगुना ज्यादा ध्यान दें, जिनकी संख्या नाटकीय रूप से कम हो रही है। उन्हें अब हमारी सबसे ज्यादा जरूरत है।’
कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष ग्रेग श्नाइडर का कहना है, ‘ये ऐसे यहूदी थे, जो उस दुनिया में पैदा हुए जो उन्हें कत्ल होते हुए देखना चाहता था। उन्होंने अपने बचपन में होलोकॉस्ट की क्रूरताएं झेलीं। उन्हें उन यातना शिविरों और घेटो की राख से अपनी आगे की पूरी जिंदगी नए सिरे से बनानी पड़ी, जिसने उनके परिवारों और समुदायों को खत्म कर दिया था।’
दशकों बाद जर्मनी में यहूदी विरोधी भावना फिर से बढ़ रही है। 7 अक्टूबर को इस्राएल पर हमास के हमले और गाजा में शुरू हुए संघर्ष के बाद से जर्मनी में यहूदियों को निशाना बनाने वाले अपराधों की संख्या बढ़ी है। 7 अक्टूबर के बाद से अब तक ऐसी 1,200 से ज्यादा घटनाएं हुई हैं। दूसरी ओर यहूदियों के साथ एकजुटता दिखाने के लिए कई शहरों में प्रदर्शन भी हुए हैं। (dw.com)
-सौतिक बिस्वास
बीते सप्ताह की एक सुबह सैंकड़ों की संख्या में युवा देश के उत्तरी राज्य हरियाणा में एक यूनिवर्सिटी कैंपस के सामने एकत्र हुए।
कड़ाके की ठंड में ख़ुद को गर्म कपड़ों और कंबल में लपेटे ये युवा भारत के बाहर नौकरी करने की तलाश में यहाँ जमा हुए थे। ये युवा अपने घर से दोपहर का खाना लेकर निकले थे, जो उनकी पीठ पर मौजूद बैकपैक में रखा था। ये सभी युवा भारत से दूर इसराइल में प्लास्टरिंग, स्टील फिक्सिंग या टाइल लगाने जैसे कंस्ट्रक्शन के काम के लिए प्रैक्टिकल परीक्षा देने के लिए आए थे।
युनिवर्सिटी से अपनी शिक्षा पूरी कर चुके रंजीत कुमार एक योग्यता प्राप्त टीचर हैं लेकिन अब तक उन्हें कोई पक्की नौकरी नहीं मिल सकी। उन्होंने कभी पेन्टर, तो कभी स्टील फिक्सर, कभी मज़दूर, कभी गाडिय़ों के वर्कशॉप में बतौर तकनीशियन तो कभी ग़ैर-सरकारी संगठन में बतौर सर्वेयर काम किया है। उनके लिए ये ऐसा मौक़ा है, जिसे वो हाथ से जाने नहीं दे सकते।
31 साल के रंजीत कुमार के पास दो-दो डिग्रियां हैं और वो ‘डीज़ल मकैनिक’ के तौर पर काम करने के लिए सरकार की तरफ़ से कराए जाने वाले ‘ट्रेड टेस्ट’ को पास कर चुके हैं, लेकिन वो रोज़ का 700 रुपये से अधिक कभी कमा नहीं सके हैं।
वहीं इसके मुक़ाबले इसराइल में नौकरी करने पर उन्हें हर महीने 1,37,000 रुपये की (1,648 डॉलर) तनख़्वाह के साथ-साथ रहने का ठिकाना भी मिलेगा और मेडिकल सुविधाएं मिलेंगी।
रंजीत कुमार का पासपोर्ट बीते साल ही बना है। सात सदस्यों वाले अपने परिवार की आर्थिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए के वो इसराइल जाकर स्टील फिक्सर के तौर पर नौकरी करने के लिए तैयार हैं। वो कहते हैं, ‘यहां पर कोई सुरक्षित नौकरी नहीं है। चीज़ों की क़ीमतें बढ़ रही हैं। नौ साल पहले मैंने ग्रैजुएशन की पढ़ाई ख़त्म की थी लेकिन अब तक आर्थिक तौर पर स्थायित्व नहीं हासिल कर सका हूं।’
रोजग़ार की कमी से परेशान हैं युवा
अधिकारियों के हवाले से मिल रही ख़बरों के अनुसार, इसराइल चीन और भारत से कऱीब 70 हज़ार युवाओं को अपने यहां कंस्ट्रक्शन सेक्टर में नौकरी देना चाहता है।
बीते साल सात अक्तूबर को हुए हमास के हमले के बाद से ये सेक्टर बुरी तरह प्रभावित हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार, इसराइल ने अपने यहां आकर काम करने वाले फ़लस्तीनियों पर पाबंदी लगा दी है, जिससे वहां कामग़ारों की भारी कमी हो गई है। हमास के हमले से पहले तक कऱीब 80,000 फ़लस्तीनी इस सेक्टर में काम कर रहे थे।
कहा जा रहा है कि भारत से कऱीब 10,000 कामग़ारों को नौकरी पर रखा जाने वाला है। इसके लिए हरियाणा और उत्तर प्रदेश में युवाओं से नौकरी की दरख़्वास्त ली जा रही है।
हरियाणा के रोहतक शहर में मौजूद महर्षि दयानंद युनिवर्सिटी में इसके लिए टेस्ट का आयोजन किया गया था, जिसमें देश भर से कई हज़ार युवा शामिल हुए। (दिल्ली में मौजूद इसराइली दूतावास ने इस मामले पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया है।)
इस रेस में रंजीत कुमार अकेले नहीं है, उनके साथ कतार में लगकर अपनी बारी का इंतज़ार करने वाले हज़ारों युवा भारत के विशाल और अस्थायी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं, जहाँ उन्हें बिना औपचारिक कॉन्ट्रैक्ट और सुविधाओं के काम करना पड़ता है।
रंजीत की ही तरह इनमें से कइयों के पास कॉलेज की डिग्री है लेकिन वो अपने लिए एक स्थायी नौकरी का इंतज़ार कर रहे हैं। इनमें से अधिकतर युवा कंस्ट्रक्शन सेक्टर में रोजग़ार जैसे अनौपचारिक काम कर रहे हैं, जिसमें उन्हें महीने में 15-20 दिनों के काम के बदले 700 रुपये मिलते हैं। हर युवा अपने साथ अपना रेज़्यूमे लेकर आए हैं। इनमें से एक युवा ने हमें बताया कि ‘मैं अपनी टीम के साथ तालमेल बैठाकर काम करता हूं।’
‘नोटबंदी और कोरोना महामारी की दोहरी मार’
इनमें से कई युवा अपनी कमाई बढ़ाने के लिए एक वक़्त में दो या दो से ज़्यादा काम करते हैं।
कई अपनी आर्थिक परेशानियों के लिए साल 2016 में मोदी सरकार की लगाई नोटबंदी और फिर 2020 में कोरोना महामारी को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन को जि़म्मेदार मानते हैं।
कई युवा सरकारी परीक्षाओं में प्रश्नपत्र लीक होने की भी शिकायत करते हैं। कई कहते हैं कि उन्होंने अवैध तरीके से अमेरिका या कनाडा जाने के लिए एजेंटों को पैसे देने की कोशिश भी की, लेकिन इसके लिए पैसे जमा नहीं कर पाए। वो कहते हैं कि इन सभी वजहों से वो विदेश जाकर कोई सुरक्षित और अधिक कमाई वाली नौकरी करना चाहते हैं और इसके लिए ‘वार ज़ोन में भी काम करने को तैयार हैं।’
संजय वर्मा ने साल 2014 में ग्रैजुएशन किया जिसके बाद उन्होंने टेक्नीकल एजुकेशन में डिप्लोमा किया। बीते छह सालों से वो पुलिस, अर्धसैनिक बल और रेलवे में सरकारी नौकरी के लिए कोशिशें कर रहे हैं और दर्जनों परीक्षाएं दे चुके हैं। वो कहते हैं, ‘नौकरियां कम हैं और मांग उससे 20 गुना अधिक।’ वो कहते हैं कि 2017 में एक एजेंट ने उन्हें इटली में खेत में काम करने के लिए 600 यूरो प्रति महीने की नौकरी का वादा किया था, लेकिन इसके लिए वो 1,40,000 रुपये की व्यवस्था नहीं कर पाए।
नोटबंदी और कोरोना लॉकडाउन की तरफ इशारा करते हुए प्रभात सिंह चौहान कहते हैं कि अर्थव्यवस्था को एक के बाद एक दो झटके लगे और उनकी माली हालत अस्थिर हो गई।
35 साल के प्रभात राजस्थान से हैं और इमर्जेंसी एंबुलेंस चलाने वाले ड्राइवर के रूप में काम करते हैं। रोज़ाना 12 घंटों के काम के लिए उन्हें 8,000 रुपये प्रतिमाह मिलते हैं।
वो कहते हैं कि उन्होंने अपने गांव में कंस्ट्रक्शन से जुड़े ठेके लेने शुरू किए और किराए पर चलाने के लिए छह कार खरीदीं।
कई अन्य युवाओं की तरह प्रभात सिंह ने भी हाई स्कूल ख़त्म करने के बाद से ही कमाई के ज़रिए तलाशने शुरू कर दिए। उन्होंने स्कूल में अख़बार बेचे और महीने में 300 रुपये तक की कमाई की। अपनी मां की मौत के बाद उन्होंने कपड़ों की एक दुकान में काम किया। जब उन्हें कोई स्थायी नौकरी नहीं मिली तो उन्होंने मोबाइल रिपेयरिंग की पढ़ाई की। वो कहते हैं ‘इससे कुछ ज़्यादा फ़ायदा नहीं हुआ।’
कऱीब पांच से सात तक उनके नसीब ने उनका साथ दिया और उन्होंने अच्छी कमाई की। एक तरफ वो खुद एंबुलेंस चलाते थे और गांव में कंस्ट्रक्शन का काम ठेके पर लेते थे तो दूसरी तरफ़ उनकी टैक्सियां किराए पर चल रही थीं। लेकिन 2016 से पहले ये सिलसिला भी ख़त्म हो गया। वो कहते हैं, ‘2020 के लॉकडाउन ने मुझे तबाह कर दिया। मुझे अपनी कारें बेचनी पड़ी क्योंकि मैं उनकी किस्त नहीं दे पाया। अब मैं एक बार फिर एंबुलेंस चला रहा हूं और गांव में ठेके पर काम ले रहा हूं।’
‘युद्ध से डर नहीं लगता’
हरियाणा के रहने वाले 40 साल के राम अवतार टाइल लगाने के काम करते हैं। उनहें इसका 20 साल का तजुर्बा है। वो लगातार बढ़ रही महंगाई के बीच कमाई में उस तरह से इज़ाफा न होने से परेशान हैं। वो कहते हैं कि उनके लिए बच्चों की पढ़ाई पूरी करवा पाना बड़ी चुनौती बन गया है। उनकी बेटी विज्ञान में ग्रैजुएशन कर रही है जबकि बेटा चार्टर्ड अकाउंटेन्ट बनना चाहता है।
उन्होंने दुबई, इटली, कनाडा जैसे मुल्कों में काम करने के मौक़े तलाश किए लेकिन इसके लिए एजेंट बड़ी फीस मांगते हैं जो दे पाना उनके लिए असंभव है। वो कहते हैं खाना और रोज़मर्रा की ज़रूरतों के साथ-साथ घर का किराया और कोचिंग का खर्च जुटाना उनके लिए मुश्किल होता जा रहा है। वो कहते हैं, ‘हम जानते हैं कि इसराइल में युद्ध चल रहा है। मैं मौत से नहीं डरता। हम यहां भी मर सकते हैं।’
इन सबके बीच हर्ष जाट जैसे उम्मीदों से भरे कुछ युवा भी हैं। 28 साल के हर्ष ने 2018 में ह्यूमैनिटीज़ में डिग्री हासिल की थी। शुरुआत में उन्होंने एक मकैनिक के तौर पर कार फैक्ट्री में काम किया जिसके बाद दो साल तक वो पुलिस गाड़ी में ड्राइवर के तौर पर काम करते रहे। वो कहते हैं ‘नशे में डूबे लोगों के इमर्जेंसी फ़ोन लाइन के इस्तेमाल से’ वो थक गए और उन्होंने ये नौकरी छोड़ दी।
इसके बाद हर्ष ने गुडग़ांव के संपन्न इलाक़े में एक पब में बतौर बाउंसर काम किया, जहां उन्हें हर महीने 40,000 रुपये मिलते थे। वो कहते हैं, ‘इस तरह के काम में वो दो साल बाद आपको निकाल फेंकते हैं और ये नौकरियां सुरक्षित नहीं हैं।’
अब हर्ष जाट बेरोजग़ार हैं अपने परिवार के आठ एकड़ की ज़मीन पर खेती का काम करते हैं। वो कहते हैं ‘आज के वक्त में खेती का काम कोई नहीं करना चाहता।’ वो कहते हैं उन्होंने क्लर्क और पुलिसकर्मी जैसी सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन किया लेकिन उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली। वो बताते हैं कि उनके गांव के कुछ युवाओं ने अवैध तरीक़े से अमेरिका और कनाडा जाने के लिए एजेंटों को 60 लाख रुपये तक दिए हैं। ये लोग अब विदेश से भारत में अपने घर पैसे भेज रहे हैं और महंगी गाडिय़ां खरीदने में उनकी मदद कर रहे हैं।
हर्ष कहते हैं, ‘मैं भी विदेश जाना चाहता हूं और अच्छी कमाई वाली नौकरी करना चाहता हूं। मैं नहीं चाहता कि कल को मेरे बच्चे मुझसे ये सवाल करें कि हमारे पड़ोसियों के पास जब अच्छी गाडिय़ां और एसयूवी हैं तो हमारे पास क्यों नहीं है?
वो कहते हैं, ‘मैं युद्ध ने नहीं डरता।’
भारत में रोजग़ार की तस्वीर
भारत में रोजग़ार के अवसर को लेकर तस्वीर मिलीजुली दिखती है। पीरियॉडिक लेबर फ़ोर्स सर्वे (पीएलएफ़एस) में बरोजग़ारी को लेकर जो आंकड़े दिए गए हैं वो बेरोजग़ारी में कमी दिखाते हैं। जहां साल 2017-18 में बोरोजग़ारी दर 6 फ़ीसदी थी, वहीं 2021-22 में 4 फ़ीसदी थी।
डेवेलपमेन्ट इकोनॉमिस्ट और बाथ यूनिवर्सिटी में विजि़टिंग प्रोफ़ेसर संतोष महरोत्रा कहते हैं कि ??अवैतनिक काम को भी सरकारी डेटा में शामिल करने की वजह से ऐसा दिखता है। वो कहते हैं, ‘ऐसा नहीं है कि नौकरियां नहीं आ रही हैं। मामला ये है कि एक तरफ औपचारिक सेक्टर में नौकरियां बढ़ नहीं रहीं तो दूसरी तरफ नौकरी की तलाश कर रहे युवाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है।’
अज़ीम प्रेमजी युनिवर्सिटी की स्टेट ऑफ़ वर्किंग इंडिया की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार बेरोजग़ारी कम तो हो रही है लेकिन ये अभी भी काफी ज़्यादा है।
इस रिपोर्ट के अनुसार 1980 के दशक में आए ठहराव के बाद 2004 में अर्थव्यवस्था में रेगुलर वेतन या वेतनभोगी कामग़ारों की हिस्सेदारी बढऩे लगी। 2004 में ये पुरुषों के लिए 18 से 25 फ़ीसदी तक हुई और महिलाओं में 10 से 25 फ़ीसदी तक। लेकिन 2019 के बाद से, ‘विकास मंदी और महामारी’ के कारण रेलुलर वेतन वाली नौकरियों में कमी आई है।
इस रिपोर्ट के अनुसार कोरोना महामारी के बाद देश के 15 फ़ीसदी से अधिक ग्रैजुएट और 25 साल से कम उम्र के 42 फ़ीसदी ग्रैजुएट्स के पास नौकरियां नहीं हैं।
अज़ीम प्रेमजी युनिवर्सिटी में लेबर इकोनॉमिस्ट रोज़ा अब्राहम कहती हैं, ‘ये वो तबका है जिसे अधिक कमाई चाहिए और ये छोटे-मोटे अस्थायी काम करने में दिलचस्पी नहीं रखता। यही वो समूह है अधिक कमाई और नौकरी में स्थायित्व की उम्मीद में जान का जोखिम लेने के लिए (इसराइल जाने के लिए) तैयार है।
इन युवाओं में से एक हैं उत्तर प्रदेश के अंकित उपाध्याय। वो कहते हैं कि उन्होंने एक एजेंट को पैसे दिए, अपना वीज़ा बनवाया और कुवैत जाकर स्टील फिक्सर के तौर पर आठ साल काम किया।
वो कहते हैं क महामारी ने उनकी नौकरी छीन ली। वो कहते हैं, ‘मुझे किसी बात की डर नहीं है। मैं इसराइल में काम करने के लिए तैयार हूं। वहां मौजूद ख़तरों से मुझे फर्क नहीं पड़ता। देश के भीतर भी नौकरियों में सुरक्षा नहीं है।’ (bbc.com/hindi)
-शमाइल जाफरी
तीर्थ सिंह मेघवार सिंध के उमरकोट में अपने समर्थकों के एक छोटे दल के साथ डिप्टी कमिश्नर के दफ़्तर में पहुंचते हैं। उनके समर्थक उनके लिए नारे लगा रहे हैं।
ये लोग फॉर्म भरते हैं और फिर अंदर अपना चुनाव चिह्न लेने चले जाते हैं। नोटिस बोर्ड पर चुनाव चिन्ह लगे हुए हैं। तीर्थ सिंह अपनी मर्जी से स्लेट चुनाव चिह्न ले लेते हैं।
तीर्थ सिंह हिंदू हैं और आठ फऱवरी को पाकिस्तान में हो रहे आम चुनाव में उमरकोट से एक निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर खड़े हैं।
उमरकोट भारतीय सीमा से लगभग 60 किलोमीटर दूर पूर्वी सिंध का एक छोटा सा शहर है।
पाकिस्तान का दक्षिणी प्रांत सिंध देश के ज्यादातर हिंदुओं का ठिकाना है। मुस्लिम बहुल पाकिस्तान में इस्लामी अतिवाद के उभार के बावजूद सिंध ने अपने ऐतिहासिक हिंदू खासियतों और परंपराओं को बचा रखा है।
उमरकोट का नाम पहले अमरकोट हुआ करता था। इसका नाम एक स्थानीय हिंदू राजा पर रखा गया था।
11वीं सदी में बने अमरकोट किले में ही 1542 में मुगल बादशाह अकबर का जन्म हुआ था।
शहर का इतिहास काफी समृद्ध रहा है। लेकिन एक चीज़ की वजह से इस शहर की अपनी अलग पहचान है। उमरकोट में आज भी हिंदू बहुसंख्यक हैं।
स्थानीय लोगों का दावा है कि बँटवारे के वक्त यहां की 80 फीसदी आबादी हिंदू थी। हालांकि हिंदुओं में सबसे ज्यादा अमीर ठाकुर बिरादरी के लोग धीरे-धीरे भारत चले गए।
लेकिन अनुसूचित जाति के लोगों के पास इतने संसाधन नहीं थे वो यहां से कहीं जा सके। लिहाजा वो यहीं रह गए। यहां रहने वाले हिंदुओं में 90 फीसदी लोग अनुसूचित जाति के हैं।
उमरकोट में बड़ी हिंदू आबादी लेकिन राजनीतिक ताकत नहीं
तीर्थ मेघवार भी उनमें से एक है। तीर्थ कहते हैं कि यहाँ अनुसूचित जाति के हिंदुओं की काफ़ी बड़ी आबादी है लेकिन देेश के राजनीति में उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। इसके लिए वो धनी ऊंची जातियों के लोगों को जि़म्मेदार ठहराते हैं।
तीर्थ सिंह कहते हैं, ‘‘सत्ता हासिल करके ही हम इस व्यवस्था में बदलाव ला सकते हैं। इसीलिए हम चुनाव लड़ रहे हैं। इस असंतुलन को ख़त्म करने और अपने समुदाय को प्रतिनिधित्व दिलाने के लिए हम मैदान में उतर रहे हैं।’’
वो कहते हैं, ‘पिछले कई सालों से प्रमुख राजनीतिक पार्टियां हमारी रिजर्व सीटें ऊंची जाति के बड़े जमींदारों, कारोबारियों और सेठों को बेचती आ रही हैं। इससे हमारी राजनीतिक ताकत खत्म हो रही है। हमें इसका प्रतिरोध करना ही होगा। तभी हम ख़ुद को सामाजिक तौर पर ऊपर उठा सकते हैं।’’
पहले पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के लिए अलग निर्वाचन मंडल हुआ करते थे लेकिन साल 2000 में पूर्व सैनिक शासक परवेज मुशर्रफ ने अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा में लाने के लिए ये व्यवस्था खत्म कर दी।
अल्पसंख्यकों के लिए अब भी राष्ट्रीय और प्रांतीय असेंबलियों में सीटें रिजर्व हैं लेकिन वे दूसरे अन्य नागरिकों की तरह देश के किसी भी हिस्से से चुनाव लड़ सकते हैं।
हालांकि उमरकोट के हिंदू समुदाय के लोगों को लगता है कि संयुक्त निर्वाचन मंडल ने उनकी राजनीतिक ताक़त कम की है।
ये पहली बार नहीं है जब अनुसूचित जाति का कोई हिंदू स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ रहा है।
2013 से अनुसूचित जाति के कई उम्मीदवार चुनाव में अपनी किस्मत आजमा चुके हैं। हालांकि वो जीत से दूर ही रहे हैं।
ऊंची जातियों के हिंदुओं का दबदबा
इस समुदाय से आने वाले कार्यकर्ता शिवराम सुथार कहते हैं,‘‘इसकी वजह पैसा है लेकिन ये भरोसे की भी बात है।’’
शिवराम बताते हैं अनुसूचित जाति के उम्मीदवार अमूमन चुनाव के कुछ दिन पहले मैदान छोड़ देते हैं। इससे उनके समर्थक हताश हो जाते हैं।
शिवराम कहते हैं, ‘‘इसलिए स्थानीय हिंदू आबादी के लोग भी उन भर भरोसा करने को तैयार नहीं होते। इसके बजाय वो उन मुस्लिम उम्मीदवारों को वोट देते हैं, जिनके बारे में वो ये सोचते हैं कि वे ज्यादातर ताक़तवर हैं और उनका काम करवा सकते हैं।’’
हालांकि उमरकोट की समस्याएं गिनाते हुए शिवराम कहते हैं कि यहाँ हिंदू और मुसलमानों दोनों की समस्याएं एक जैसी हैं
वो कहते हैं, ‘‘ऐसा नहीं है कि अलग धर्म की वजह से हमें मुश्किल हो रही है। दरअसल आपकी आर्थिक स्थिति क्या है, इस पर काफ़ी कुछ निर्भर करता है। गरीबों की समस्या एक जैसी है। स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सुविधाएं तक उनकी पहुंच काफ़ी कम है। उनके पास सामाजिक सुविधाएं और आगे बढऩे के सीमित अवसर हैं। गरीब हिंदू है या मुसलमान इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। सबके सामने एक जैसी समस्याएं हैं।’’
पाकिस्तान पीपल्स पार्टी और हिंदू उम्मीदवार
लाल चंद वकील हैं। वो एमक्यूएम पाकिस्तान के टिकट पर चुनाव लड़ रहे हैं। यहां पार्टी की ओर से खड़े किए गए अनुसूचित जाति के तीन उम्मीदवारों में से वो एक हैं।
उन्होंंने बीबीसी से कहा पाकिस्तान पीपल्स पार्टी ने उमरकोट में सामान्य सीट पर कभी भी किसी हिंदू उम्मीदवार को खड़ा नहीं किया। जबकि शहर की आबादी में 52 फीसदी हिंदू हैं।
लाल चंद कहते हैं, ‘‘मुख्यधारा की पार्टियों ने हमें हमारे हक़ से वंचित रखा है। वो सिर्फ पूंजीपतियों और जमींदारों को बढ़ावा देते हैं। मैं इस बात का बहुत आभारी हूं कि एमक्यूएम पाकिस्तान ने हमारे समुदाय पर भरोसा जताया है।’’
वो कहते हैं, ‘यहां भील, कोली, मेघवार मल्ही और योगी जैसी जातियों के लोग बड़े जमींदारों के खेतों में काम करते हैं। लिहाजा जमींदार उन्हें जिस उम्मीदवार को वोट देने के लिए कहते हैं, उन्हें ही वोट देना पड़ता है। ऊंची जाति के हिंदू हमारा दर्द नहीं समझते हैं। वो सत्ता में बैठे लोगों के साथ हैं। जबकि हम जैसे बहुसंख्यक हिंदू नाइंसाफ़ी के शिकार हो रहे हैं।’’
लाल ने बीबीसी से कहा कि ज्यादातर राजनीतिक दलों को पता है कि राजनीति महंगा कारोबार है। इसलिए वो ऐसे उम्मीदवारों पर दांव नहीं लगाना चाहते, जिनकी जीत की संभावना कम हो। हालांकि कामगारों में से अब ज्यादा से ज्यादा लोग आगे आ रहे हैं। लेकिन फिर भी असेंबली (संसद) पहुंचने की उनकी संभावना बहुत ही कम है।
इमरान खान की पार्टी और हिंदू उम्मीजवाक
इमरान खान की तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी ने राष्ट्रीय और प्रांतीय असेंबली के लिए उमरकोट में मल्ही समुदाय को दो धनी भाइयों को मैदान में उतारा है।
चूंकि पार्टी को सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव लडऩे से रोक दिया गया है। लिहाजा वो अब स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतरेंगे।
पार्टी के उम्मीदवार लेखराज मल्ही ने बीबीसी को बताया कि सरकार जिस तरह से पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ के नेतृत्व और उम्मीदवारों को जिस तरह से निशाना बना रही है, उसी तरह से उनके परिवार को भी परेशान किया जा रहा है।
वो कहते हैं, ‘‘हमारे घरों पर छापे मारे गए। हम पर आतंकवाद को बढ़ावा देने के केस ठोके गए। मेरे बड़े भाई को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन तमाम धमकियों और बदला लेने की कार्रवाई के बावजूद हम इमरान ख़ान की विचारधारा के साथ खड़े हैं। वही उमरकोट को पाकिस्तान पीपल्स पार्टी की गिरफ्त से बाहर निकाल सकते हैं।’’
लेकिन विशेषज्ञों को नहीं लगता है कि निकट भविष्य में ऐसा होने जा रहा है। उनका मानना है कि पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पंजाब और उत्तर पश्चिमी प्रांत खैबर पख़्तूनख़्वा तक ही सीमित है। वो अभी तक सिंध में सेंध नहीं लगा पाई है।
इसके बावजूद अनुसूचित जातियों के हिंदुओं का चुनाव में उतरना एक बदलाव का प्रतीक तो है ही। (bbc.com/hindi)
-अजीत द्विवेदी
दस साल पहले 2014 में जब मनमोहन सिंह की सरकार लोकसभा चुनाव में जाने वाली थी तब उसने सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न दिया था। अभी 2024 के चुनाव में जाने की तैयारी कर रही नरेंद्र मोदी की सरकार ने कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिया है। इससे दोनों पार्टियों- कांग्रेस और भाजपा की राजनीतिक समझ का फर्क पता चलता है। वैसे अपने दस साल के कार्यकाल में मनमोहन सिंह ने सिर्फ तीन लोगों को भारत रत्न दिया और उनमें से कोई भी राजनीतिक व्यक्ति नहीं था। इसके उलट नरेंद्र मोदी ने अपने दस साल में सात लोगों को भारत रत्न दिया, जिसमें से सिर्फ एक भूपेन हजारिका अराजनीतिक व्यक्ति थे।
बाकी छह लोग हार्डकोर राजनीति से जुड़े हैं। इससे भी दोनों सरकारों की कार्यशैली के फर्क का पता चलता है। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कर्पूरी ठाकुर की सौवीं जयंती की पूर्व संध्या पर उनको भारत रत्न देने का ऐलान हुआ। ऐसा नहीं हुआ कि सिर्फ घोषणा कर दी गई और बात आई-गई हो गई। हिंदी और अंग्रेजी के सभी अखबारों में प्रधानमंत्री मोदी का लेख छपा, जिसमें उन्होंने दावा किया कि उनकी सरकार कर्पूरी ठाकुर के आदर्शों पर चल रही है। उन्होंने उनके बेटे रामनाथ ठाकुर से फोन पर बात की और उनको बधाई दी। उसके बाद सारे मंत्री और पूरा प्रचार तंत्र इसमें जुट गया कि कैसे मोदी ने अत्यंत पिछड़े समुदाय के सबसे बड़े नेता को सबसे बड़ा सम्मान दिया है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि केंद्र सरकार का फैसला लोकसभा चुनाव और अत्यंत पिछड़ी जाति की राजनीति को ध्यान में रख कर किया गया है। अन्यथा जब अटल बिहारी वाजपेयी या प्रणब मुखर्जी को भारत रत्न दिया जा रहा था उसी समय कर्पूरी ठाकुर को भी यह सम्मान मिल जाता। आखिर वे भारतीय राजनीति में अपना बेमिसाल योगदान देकर 1988 में ही इस दुनिया से चले गए थे। उनके जीवित रहते नहीं तो उनके जाने के बाद किसी भी समय उनको यह सम्मान दिया जा सकता था। लेकिन पहले किसी ने इसकी जरुरत नहीं समझी। उनके चेले भी सरकार में रहे लेकिन उनको भी नहीं लगा कि इस देश के सबसे मौलिक और साहसी सोच रखने वाले नेताओं में से एक कर्पूरी ठाकुर को सर्वोच्च नागरिक सम्मान मिलना चाहिए।
नरेंद्र मोदी ने भी इस बारे में तब सोचा, जब बिहार में जाति गणना के आंकड़े आए और पता चला कि सबसे ज्यादा 36 फीसदी आबादी अति पिछड़ी जातियों की है। बिहार में जाति गणना के बाद अब आंध्र प्रदेश में भी जाति गणना शुरू हो गई है और देश के कई राज्यों में मंडल की राजनीति करने वाली पार्टियां इसकी मांग कर रही हैं। नब्बे के दशक के बाद एक बार फिर जाति की भावना को राजनीतिक लाभ के लिए उभारा जा रहा है। राज्यों में गैर भाजपा सरकारें पिछड़ी जातियों की अनुमानित संख्या के आधार पर आरक्षण की सीमा बढ़ा रही हैं। बिहार में ही आरक्षण की सीमा 75 फीसदी कर दी गई है। हिंदुत्व की राजनीति कर रही भाजपा आरक्षण बढ़ाने का फैसला अभी नहीं कर सकती है और न प्रत्यक्ष रूप से जाति की राजनीति में हाथ डाल सकती है। इसलिए उसने एक दूसरा रास्ता निकाला। प्रधानमंत्री मोदी ने पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करने वाले महानायक को भारत रत्न से सम्मानित कर दिया। इस पर आगे बहुत राजनीति होनी है, प्रधानमंत्री मोदी ने लेख लिख कर इसकी शुरुआत कर दी है। उन्होंने अपने लेख में खुद को पिछड़ी जाति का बताते हुए कर्पूरी ठाकुर से जोड़ा है।
यह दुर्भाग्य है कि कर्पूरी ठाकुर को सिर्फ आरक्षण और अति पिछड़ी जातियों की राजनीति से जोड़ कर देखा जा रहा है। इस दायरे से बाहर उनके जीवन और राजनीति का विस्तार बहुत बड़ा था। आरक्षण की व्यवस्था तो समाज में बदलाव लाने के उनके प्रयासों का एक छोटा सा हिस्सा थी। उन्होंने सबसे पहले तो शिक्षा की जरुरत को समझा था और 1967 में जब उप मुख्यमंत्री बने थे तभी आठवीं तक की गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को पूरी तरह से मुफ्त कर दिया था। उन्होंने एक नारा भी दिया था कि ‘पढ़ जाएगा तो बढ़ जाएगा’।
अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में शामिल रहे कर्पूरी ठाकुर को पता था कि बिहार में छात्रों के लिए अंग्रेजी कितनी दुरूह है और कैसे उनकी शिक्षा के रास्ते की बाधा है।
इसलिए उन्होंने एक विषय के रूप में अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त किया। इसके लिए उनकी बड़ी आलोचना हुई लेकिन उन्होंने कभी परवाह नहीं की। अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म होने के बाद उसमें फेल होने वाले भी मैट्रिक में पास होने लगे तो ऐसे छात्रों के बारे में कहा जाता था कि वह कर्पूरी डिवीजन से पास हुआ है। कर्पूरी ठाकुर संभवत: पहले नेता थे, जिन्होंने सरकारी ठेकों में परोक्ष आरक्षण की व्यवस्था की। उन्होंने बेरोजगार इंजीनियरों को ठेके में प्राथमिकता देने का नियम बनाया था। उर्दू को दूसरी राजभाषा बनाने और बंजर जमीन पर मालगुजारी नहीं लगाने का उनका फैसला भी बहुत साहसिक था।
उप मुख्यमंत्री बनने के तीन साल बाद वे मुख्यमंत्री बने थे लेकिन तब उनका कार्यकाल महज 163 दिन का था। वे दूसरी बार 1977 में मुख्यमंत्री बने तब पिछड़ी जातियों के लिए 26 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था लागू की। अनुसूचित जाति व जनजातियों को संविधान से आरक्षण मिलता था। लेकिन पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की पहली बार व्यवस्था कर्पूरी ठाकुर ने की। उसी समय उन्होंने पिछड़ी जातियों का वर्गीकरण किया और अधिक आबादी वाले और अपेक्षाकृत ज्यादा गरीब अति पिछड़ी जातियों को ज्यादा आरक्षण दिया था। बाद में नीतीश कुमार ने कर्पूरी फॉर्मूले पर बिहार में आरक्षण दिया। हालांकि अभी तक केंद्र सरकार ने ऐसी कोई पहल नहीं की है।
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अनुसूचित जातियों के वर्गीकरण के लिए तो पांच सदस्यों की एक कमेटी बनाई है लेकिन पिछड़ी जातियों का वर्गीकरण करने और अत्यंत पिछड़ों को आरक्षण का ज्यादा लाभ देने की पहल नहीं की गई है, जबकि सरकार के पास जस्टिस जी रोहिणी आयोग की रिपोर्ट लंबित है। फिर भी प्रधानमंत्री ने दावा किया है कि उनकी सरकार कर्पूरी ठाकुर के आदर्शों पर चलती है! बहरहाल, कर्पूरी पहले नेता था, जिन्होंने नौकरियों में महिलाओं और गरीब सवर्णों के लिए भी तीन-तीन फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की। हालांकि आरक्षण पर उनकी क्रांतिकारी सोच के चलते उनको डेढ़ साल के बाद ही मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया और उनकी जगह रामसुंदर दास मुख्यमंत्री बने, जिन्होंने आरक्षण के सारे प्रयोगों को रोक दिया।
उप मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री के नाते अपने फैसलों की वजह से जितना महत्व कर्पूरी ठाकुर का है उतना ही महत्व उनकी राजनीति का भी है। उन्होंने कांग्रेस और भारतीय जनसंघ से अलग हमेशा समाजवादी राजनीति की और उसके आदर्शों को अपने जीवन में अपनाया। वे अपने जीवन में संपूर्ण ईमानदारी का पर्याय बने। जीवन भर पिछड़े, दलित और वंचितों के लिए काम किया और सही अर्थों में समाज के सबसे कमजोर तबके के मसीहा रहे। राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण को अपना आदर्श मानने वाले कर्पूरी ठाकुर ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के समय यह नारा दिया था कि ‘संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साठ’।
सोचें, इस नारे के पांच दशक बाद राहुल गांधी ‘जितनी आबादी उतना हक का नारा’ देकर चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे हैं। अपने आचरण, अपने विचार, अपनी राजनीति और अपने फैसलों से कर्पूरी ठाकुर ने देश की राजनीति में एक नया उजाला भर दिया था। वे बहुत कम समय तक मुख्यमंत्री रहे लेकिन उतने समय में उन्होंने जो कुछ किया उसकी गूंज आज तक सुनाई दे रही है। दशकों तक मुख्यमंत्री रहा कोई भी नेता देश की राजनीति पर वैसी छाप नहीं छोड़ सका, जैसी कर्पूरी ने छोड़ी थी। उनको भारत रत्न दिया जाना एक समाजवादी योद्धा का सम्मान तो है ही साथ ही ईमानदार और समावेशी राजनीति का भी सम्मान है। (नया इंडिया)
थोडी समझदारी और सहयोग से काम किया जाए तो खेती आज भी रोजगार का बेहतरीन जरिया बन सकती है। उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड इलाके में सक्रिय स्वयंसेवी संस्था ‘परमार्थ’ ने इसी का प्रयास किया है। प्रस्तुत है, इस अनुभव पर भारत डोगरा का यह लेख। - संपादक
भारत डोगरा
सोना सहरिया एक आदिवासी महिला है जो तालबेहट ब्लाक के बम्होरा गांव में अपने छोटे स्तर की खेती-किसानी से संतोषजनक आजीविका प्राप्त कर रही है। खेत और किचन गार्डन में बहुत सी सब्जियां लगी हैं, नीबू और अमरूद के पेड़ लगे हैं, जैविक खाद तैयार हो रही है, पर यह स्थिति एक दशक पहले नहीं थी। उस समय सोना के पति इंदौर में प्रवासी मजदूर के रूप में ईंट भट्टों पर मजदूरी करते थे। उन दिनों को याद करते हुए वे बताते हैं कि किसी-किसी दिन तो पूरा दिन मेहनत कर पांच रुपए की ही आमदनी होती थी। खूब मेहनत करने के बावजूद न अपने लिए बचत कर पाते थे, न गांव में अपने घर के लिए।
जैसे ही उन्हें खबर मिली कि अब गांव में स्थिति सुधर रही है तो प्रवासी मजदूरी छोडक़र गांव वापस आ गए और नए सिरे से खेती जमाने के हिम्मत भरे प्रयास करने लगे। आज उसके परिणाम सामने आ चुके हैं - हरे खेत लहलहा रहे हैं, नींबू और अमरूद के पेड़ भी खड़े हैं। अपने लिए पर्याप्त खाद्य प्राप्त हो रहा है, कुछ बिक्री भी हो रहा है। आर्थिक स्थिति को वे संतोषजनक मान रहे हैं और भविष्य के लिए उम्मीद भी है।
सोना के खेत में सावां और कोदो जैसे मिलट या मोटे अनाज भी उगाए जा रहे हैं, ताकि इन पौष्टिक गुणों वाले, पर उपेक्षित मोटे अनाजों की वापसी हो सके। सोना ने बड़े बर्तन दिखाए जिनमें मोटे अनाजों के बीज संग्रहित किए जाएंगे व इस ‘बीज बैंक’ के माध्यम से अन्य किसान भी मोटे अनाज उगा सकेंगे।
यह बदलाव एक स्वयंसेवी संस्था ‘परमार्थ’ व प्रशासन के सहयोग से हुए जल-संरक्षण से आया है। सोना स्वयं भी इस संस्था से जुड़ी हैं। इसके साथ सोना ने गांव की सामूहिक भलाई के प्रयास जारी रखे हैं, पर दूसरी ओर पास में तेन्द्रा जैसी बस्तियां आज भी हैं जहां अधिकांश लोग प्रवासी मजदूर के रूप से बाहर गए हुए हैं।
तालबेहट ब्लाक के हनौता गांव में सहरिया आदिवासी व दलित परिवार प्राय: ऐसी स्थिति में वर्षों से रहते आए हैं जब पानी के अभाव में वे खेती नहीं कर पाते थे व प्रवासी मजदूर के रूप में इंदौर, दिल्ली, पंजाब आदि में भटकते रहते थे। ईंट भट्टों पर या जहां भी काम मिले, बहुत कम मजदूरी पर कार्य करने को मजबूर थे, पर अब इस मजबूरी पर रोक लगी है। रबी की फसल तो कई किसानों ने पहली बार ली है। हनौता में यह सार्थक बदलाव इस कारण आ सका, क्योंकि ‘परमार्थ’ संस्था ने यहां से आठ किलोमीटर दूर बेतवा नदी से एक भूमिगत पाईप लाइन द्वारा इस गांव के अनेक परिवारों को सिंचाई उपलब्ध करवाई।
शांति सहरिया के खेत में मूली, मटर, टमाटर, बहुत सी सब्जियां लगी हैं, अमरूद व नींबू के पेड़ भी हैं। अब शांति के परिवार को प्रवासी मजदूरी के लिए भटकना नहीं पड़ता। बबलू अहिरवार का केवल एक हाथ है, दूसरा हाथ दुर्घटना में क्षतिग्रस्त हो गया था। उसके लिए तो यह और भी महत्वपूर्ण है कि गांव में उसकी खेती जम गई है व उसे प्रवासी मजदूरी के लिए नहीं जाना पड़ता।
ग्राम बंडा (बबीना प्रखंड, जिला झांसी) के किसान हीरालाल इन दिनों बहुत प्रसन्न हैं। वजह स्पष्ट है कि विविधता भरी बहुत सी फसलें, विशेषकर बागवानी की फसलें उन्होंने प्राप्त की हैं व उत्पादकता भी बढ़ी है। बैंगन, करेला, तुरई, लौकी, कद्दू, मिर्ची, भिंडी, लोभिया, मटर, आलू के बीच उन्होंने कुछ फूल भी उगाए हैं। उनके पड़ौसी किसान अजय भी ऐसे ही प्रसन्न हैं। वे बताते हैं कि अधिक नहीं तो उत्पादन कम-से-कम डेढ़ गुना तो बढ़ ही गया है।
वे व बंडा गांव के सात-आठ अन्य किसान अपनी उपलब्धि के लिए ड्रिप और स्प्रिंकलर खेती को श्रेय देते हैं। हीरालाल बताते हैं कि इससे पानी की बहुत बचत होती है तथा साथ में मिट्टी पर भी अनुकूल असर पड़ता है। मिट्टी व पानी का संरक्षण हो जाए व साथ में उत्पादकता बढ़ जाए तो लगता है कि सब कुछ अनुकूल ही हो रहा है।
यह सही है, पर इसमें एक पेंच भी है। इस खेती के लिए जो यंत्र, पाईप आदि चाहिए उनका खर्च अधिक है व प्रति एकड़ खेत लगभग एक लाख रुपए का निवेश मांग रहा है। हीरालाल व अजय के लिए यह इस कारण संभव हुआ क्योंकि उन्हें केन्द्र व राज्य सरकार से मिली-जुली 90 प्रतिशत तक की सबसिडी प्राप्त हुई। इस सबसिडी के कारण पांच एकड़ पर ड्रिप सिंचाई अपनाने पर हीरालाल को मात्र 25000 रुपए का खर्च ही करना पड़ा।
इन किसानों ने स्पष्ट बताया कि सबसिडी न मिलने पर वे इस तकनीक को नहीं अपना सकते थे। जिस समय उन्होंने यह तकनीक अपनाई थी, उस आरंभिक दौर में यह सबसिडी प्राप्त करना अपेक्षाकृत सरल भी था। तिस पर इस क्षेत्र में कृषि व संबंधित आजीविकाओं में सहायता पहुंचा रही स्वैच्छिक संस्था ‘परमार्थ’ ने भी सबसिडी और विभिन्न फसलों के बीज प्राप्त करने में भरपूर सहायता दी थी। इन दो कारणों से हीरालाल व अजय के लिए यह सफलता प्राप्त करना अपेक्षाकृत आसान था। इस आरंभिक सफलता को देखते हुए जब इस सबसिडी की मांग तेजी से बढऩे लगी, तो इसके नियम-कायदे अधिक सख्त बना दिए गए। अन्य किसानों के साथ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भी बताया कि अब यह सबसिडी प्राप्त करना अधिक कठिन हो गया है। (सप्रेस)
श्री भारत डोगरा प्रबुद्ध एवं अध्ययनशील लेखक हैं। उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
मयूरेश कोण्णुर
अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा की तारीख़ घोषित होने के बाद से ही देश में एक महत्वपूर्ण राजनीतिक बहस चल रही है।
ये मंदिर वहीं बना है, जहाँ छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई थी।
अयोध्या मामले में सुनवाई के बाद 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि बाबरी मस्जिद की विवादित जमीन को एक ट्रस्ट को सौंप दिया जाए, जो वहाँ पर एक मंदिर का निर्माण कराएगी।
इसके साथ ही कोर्ट के आदेश पर उत्तर प्रदेश सेंट्रल सुन्नी वक्फ बोर्ड को मस्जिद के निर्माण के लिए पाँच एकड़ की जमीन आबंटित की गई है।
अब अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो गया है और सोमवार 22 जनवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राम मंदिर में राम लला की प्राण-प्रतिष्ठा भी कर दी है।
एक तरफ चर्चा इस बात की चल रही है कि कैसे लोकसभा चुनाव से पहले जान बूझ कर राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा की तारीख़ घोषित की गई, वह भी तब, जब मंदिर का निर्माण अभी भी अधूरा है।
विपक्ष ने समारोह के आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। यहाँ तक कि शंकराचार्यों ने भी इस कार्यक्रम में शामिल न होने का फैसला किया। उनके इस कदम से एक और हलचल पैदा हो गई।
वहीं, दूसरी ओर भाजपा, आरएसएस और उससे जुड़े दलों और संगठनों ने प्रत्येक घर में अक्षत वितरित कर और कलश यात्राएं निकाल कर पूरे देश में धार्मिक माहौल बनाया। देश के कोने-कोने में भगवा रंग से सराबोर धार्मिक माहौल नजर आ रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस शो का नेतृत्व कर रहे हैं। वह इतने बड़े पैमाने पर होने वाले किसी मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने वाले पहले प्रधानमंत्री होंगे।
ऐसे में इस आयोजन में अंतर्निहित राजनीतिक उद्देश्य से कौन इनकार कर सकता है?
आज का अयोध्या कांड कभी भी केवल धार्मिक नहीं रहा। इसमें हमेशा से राजनीति शामिल रही है।
राम मंदिर आंदोलन न केवल हिंदुत्व और बहुसंख्यकवाद को मुख्यधारा में लेकर आया, बल्कि भारतीय राजनीति की प्रकृति को भी बदल दिया। मंदिर का मुद्दा जैसे ही राजनीति में आया, इसका असर हर अगले चुनाव पर पड़ा। ऐसा लगता है कि इसका असर इस बार के चुनाव पर भी पड़ेगा।
क्या अगले कुछ महीनों में होने वाले लोकसभा चुनाव में मंदिर सबसे बड़ा मुद्दा होगा? भाजपा ने पिछले तीन दशक में इस मुद्दे का राजनीतिक लाभ लिया है, तो क्या वह नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में लगातार तीसरी बार बहुमत लाएगी।
क्या भाजपा को फिर मंदिर का फायदा मिलेगा?
पिछले तीन दशक का राजनीतिक इतिहास बताता है कि राम मंदिर मुद्दे से बीजेपी को चुनाव में मिलने वाली सीटों के लिहाज से फायदा हुआ है। भाजपा का वोट बेस धीरे-धीरे बढ़ता गया है। भाजपा जो कभी दो सांसदों तक सीमित थी, उसने पहले लोकसभा में सौ के आंकड़े को छूआ और जल्द ही पूर्ण बहुमत की सरकार बना ली।
चुनाव विश्लेषक और लोकनीति-सीएसडीएस के निदेशक संजय कुमार 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में हिंदू वोटों के बीच सर्वेक्षणों के आंकड़ों की ओर ध्यान दिलाते हैं। वो कहते हैं कि ज़्यादातर लोग धार्मिक आस्था रखते हैं। वो मंदिरों ने नियमित रूप से जाते हैं, उन लोगों ने भाजपा को वोट दिया। यह मतदान प्रतिशत में महत्वपूर्ण है।
संजय कुमार बताते हैं कि रोजाना मंदिर जाने वाले धार्मिक लोगों में से 51 फीसद ने 2019 में बीजेपी को वोट दिया। करीब इतना ही फीसद 2014 में भी था। लेकिन जो लोग बहुत ज्यादा धार्मिक नहीं हैं और रोजाना मंदिर नहीं जाते, उनमें से 32 फीसदी ने बीजेपी को वोट दिया। इसका मतलब है कि धार्मिक लोगों का झुकाव बीजेपी की ओर है।
भाजपा 1980 के दशक में राम मंदिर मुद्दे के जोर पकडऩे के साथ ही इन मतदाताओं का समर्थन तेजी से हासिल करती आई है।
कुमार कहते हैं, 2014 में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उस समय की ‘यूपीए’ सरकार के खिलाफ गुस्से, 2019 में पुलवामा-बालाकोट की घटनाओं के बाद बने माहौल के बाद भी मतदाताओं पर धार्मिक मुद्दों का प्रभाव कम नहीं हुआ है।
उनका मानना है कि इस बार के चुनाव में भी ऐसा ही होने की संभावना है। वो कहते हैं, ‘मुझे लगता है कि 2024 का चुनाव हिंदुत्व के मुद्दे पर लड़ा जाएगा और राम मंदिर सबसे आगे रहेगा। मुझे यकीन है कि कम से कम उत्तर भारत के मतदाता राम मंदिर के निर्माण के लिए बीजेपी को वोट देंगे।’
राम मंदिर का मुद्दा धार्मिक या राजनीतिक?
बीजेपी के नेता लगातार कहते रहे हैं कि राम मंदिर का कार्यक्रम पूरी तरह से धर्म और आस्था से जुड़ा मामला है और इसमें कोई राजनीति नहीं है। इसके बाद भी जब जनता की भावनाएं इस पैमाने पर प्रभावित होंगी तो उसका असर उनकी राय पर भी दिखेगा।
महाराष्ट्र भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष माधव भंडारी कहते हैं, ‘जब इस तरह का कोई बड़ा आंदोलन होता है, जो देश के कोने-कोने में पहुंच जाता है, तो जनमत एक दिशा में जाने लगता है। इसका किसी न किसी तरह से प्रभाव पड़ेगा और आपको वह परिणाम जरूर नजर आएगा।’
अयोध्या में राम मंदिर बनाने और राम जन्मभूमि आंदोलन में भाग लेने का वादा कर भाजपा ने इस मुद्दे को सालों तक जि़ंदा रखा।
भाजपा भले ही मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के जरिए उन्हीं परिणामों को दोहराने का इरादा रखती है, इतिहास हमें यह भी बताता है कि कुछ धारणाएं, जैसी सतह पर दिखाई देती हैं, वो चुनाव क्षेत्र में बदल जाती हैं।
वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं, ‘यहां तक कि जब बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया गया था, तब भी हर जगह यह धारणा थी कि हिंदुत्व हर जगह हावी होगा और भाजपा हर जगह चुनाव जीतेगी। लेकिन उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह और कांशीराम एकसाथ आए और बीजेपी हार गई। वो बाद के कुछ चुनावों में भी सरकार नहीं बना सकी।’
लोकसत्ता के संपादक गिरीश कुबेर कहते हैं, ‘बीजेपी को जो बहुमत मिलने वाला था, राम मंदिर के प्रभाव से उसमें अधिकतम 10-20 सीटें बढ़ जाएंगी। ऐसा नहीं है कि राम मंदिर ही बीजेपी के दोबारा सत्ता में आने का एकमात्र कारण हो, अन्यथा यह मुश्किल होगा। आप एक ही प्रोडक्ट को बार-बार नहीं बेच सकते हैं। लोगों ने राम मंदिर के विचार को स्वीकार किया। यह अब तैयार है। इसका अनुमान सभी को पहले से ही था। इसलिए बीजेपी को इसका कोई खास फायदा नहीं मिलेगा। लेकिन राम मंदिर को लेकर बने भावनात्मक माहौल का वे फायदा जरूर उठाएंगे। यही राजनीति है।’
मंडल बनाम कमंडल, जाति बनाम धर्म
आम चुनाव से पहले जब अयोध्या में राम मंदिर का मुद्दा जोर पकड़ रहा है तो सवाल पूछा जा रहा है कि क्या हम एक बार फिर भारतीय राजनीति में मंडल बनाम कमंडल की लड़ाई के साक्षी बनेंगे।
जब 80 के दशक में राम मंदिर का आंदोलन शुरू हुआ और 90 के दशक में और अधिक उग्र हो गया, तो मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की गईं। ओबीसी समुदाय को आरक्षण दिया गया।
इस कदम ने राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया। चुनावी राजनीति में धर्म और जाति प्रमुख कारक हैं। असली सवाल यह है कि क्या इतिहास दोहराया जाएगा? क्या ‘मंडल’ को रोक पाएगा ‘कमंडल’?
कांग्रेस के नेतृत्व वाला विपक्षी दलों का गठबंधन ‘इंडिया’ यही करने की कोशिश कर रहा है। राम मंदिर का मुद्दा सामने आते ही जाति जनगणना की मांग की गई। हालांकि, 1992-93 के बाद से 2024 तक समय और सामाजिक-राजनीतिक हालात काफी बदल गए हैं।
पहचान की राजनीति, समाज में धर्म और जाति की लड़ाई की प्रकृति बदल गई है। इसके अलावा, भाजपा की राजनीति अब ‘कमंडल’ तक सीमित नहीं है, बल्कि उसने ‘मंडल’ को भी जन्म दिया है। इसका अर्थ यह है कि वे पहले से ही सोशल इंजीनियरिंग की राजनीति कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश के प्रमुख अखबार ‘जनमोर्चा’ के संपादक सुमन गुप्ता कहते हैं, ‘2014 तक, ओबीसी, विशेष रूप से उत्तर भारत में खुद को भाजपा से दूर कर रहे थे। उनका एक अलग राजनीतिक एजंडा था। मंडल था और कमंडल भी था। बेरोजगारी और अन्य मुद्दे थे। लेकिन उसके बाद से राजनीति पूरी तरह से बदल गई हैं। ‘मंडल’ के खिलाफ ‘कमंडल’ खड़ा करने की राजनीति बदल गई है। भाजपा अब अति पिछड़ों से जुड़ गई है, जो पहले मंडल का हिस्सा हुआ करता था।’
गुप्ता कहते हैं कि ऐसा बीजेपी की ओर से ग्रामीण इलाकों में गरीबों के लिए लाई गई कल्याण योजनाओं की वजह से हुआ है। ये योजनाएं उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान करने के लिए थीं। इससे ये वर्ग भी बीजेपी के करीब आ गया।
रामदत्त त्रिपाठी भी कहते हैं कि बीजेपी की राजनीति ‘धर्म प्लस कल्याण’ जैसी हो गई है।
लोकनीति सीएसडीएस के संजय कुमार का मानना है कि अगर विपक्षी दल राम मंदिर और हिंदुत्व के मुद्दे के प्रभाव को कम करने के लिए जाति जनगणना का मुद्दा लाते हैं, तो भी उसके बहुत प्रभावी होने की संभावना नहीं है।
वो कहते हैं, ‘एक तरह से जाति जनगणना के मुद्दे पर मंदिर का मुद्दा हावी हो जाएगा। भले ही विपक्ष जाति जनगणना की बात करता हो, लेकिन अब लोगों के लिए जाति से ज्यादा धर्म महत्वपूर्ण हो गया है। इसलिए जाति खतरे में है का नैरेटिव उतना प्रभावी नहीं है। लेकिन ‘हिंदू खतरे में है’ का नारा अधिक प्रभावी हो गया है। यह जाति की राजनीति से ज्यादा लोगों को लामबंद करेगा। इसलिए जाति जनगणना के लाइन पर लोगों को लामबंद करना मुश्किल लगता है।’
तो क्या ऐसे माहौल में कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के लिए राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा समारोह से दूर रहना समझदारी है या खतरनाक?
विपक्षी दलों की प्राण-प्रतिष्ठा
समारोह से दूरी
पिछले कुछ दिनों मंदिर के मुद्दे पर हुई राजनीतिक बहस में यह ऐसा सवाल था, जिस पर सबसे अधिक बहस हुई। पहले सवाल यह था कि अयोध्या में इस समारोह का निमंत्रण किसे मिलेगा। लेकिन कांग्रेस समेत ज्यादातर विपक्षी नेताओं को न्योता दिया गया। हालांकि, सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे समेत लगभग सभी विपक्षी दलों ने समारोह से दूरी बनाए रखी। उन्होंने कहा कि वे बाद में अयोध्या जाएंगे।
इस निमंत्रण को स्वीकार करना या न करना विपक्ष के लिए आसान नहीं था। समारोह में शामिल होना बीजेपी की राजनीतिक साख को समर्थन देने जैसा माना जाएगा। इसमें भाग न लेने का मतलब कट्टर हिंदू मतदाताओं को नाराज़ करने का जोखिम उठाना हो सकता है।
विपक्ष के नेताओं ने कार्यक्रम के राजनीतीकरण का आरोप लगाते हुए अयोध्या जाने से परहेज किया। उन्होंने यह भी कहा कि वे आधे-अधूरे मंदिर के ढांचे को देखने की बजाय उसके पूरा होने के बाद मंदिर का दर्शन करेंगे।
इसका चुनाव के नतीजे पर कितना असर पड़ेगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि मतदाता राम मंदिर उद्घाटन समारोह को धार्मिक मानते हैं या राजनीतिक।
एक तरफ जहां राम मंदिर का जश्न चल रहा है, जो राष्ट्रीय राजनीति का मूड बदल सकता है, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस नेता राहुल गांधी पूर्वोत्तर राज्यों में अपनी ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ निकाल रहे हैं। हालांकि कांग्रेस का कहना है कि यात्रा का चुनाव से कोई लेना-देना नहीं है।
महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता पृथ्वीराज चव्हाण कहते हैं, ‘जिस तरह से कार्यक्रम हो रहा है, उसे देखते हुए क्या भाजपा के खिलाफ वोट करने वाले लोग अपना मन बदल लेंगे? मुझे लगता है कि ऐसा नहीं होगा।’
कांग्रेस को अयोध्या के धार्मिक आयोजन में शामिल न होने के शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती के रुख़ से राम मंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में जाने के रवैये को एक समर्थन मिल गया है।
चव्हाण कहते हैं, ‘हिंदू धर्म में पूजनीय शंकराचार्य ने कहा है कि अयोध्या में जो कुछ भी हो रहा है वह ग़लत है। उन्होंने प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने से इनकार कर दिया हैं। अब मुझे बताएं-क्या शंकराचार्य भी हिंदू विरोधी हैं? क्या वे मुस्लिम समर्थक हैं? उन्होंने भाजपा की राम मंदिर राजनीति को उजागर किया है।’
क्या महंगाई और बेरोजगारी से
बड़ा मुद्दा है राम मंदिर?
जमीनी हकीकत भी यही है- देश के आम लोगों को जीवन में बुनियादी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है।
लेकिन मीडिया ने जो नैरेटिव गढ़ा है, उससे क्या आप विश्वास करेंगे कि मंदिर का मुद्दा राजनीति में प्रमुख हो गया है। यह तब है, जब बेरोजगारी और महंगाई ने आम आदमी का जीना दूभर कर दिया है।
‘सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी’ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक बेरोजगारी दर 8 फीसदी से ज्यादा है। इसे पिछले कुछ दशकों में सबसे ज्यादा बताया जा रहा है।
वहीं दूसरी तरफ महंगाई है। महंगाई ने कई परिवारों के बजट पर नकारात्मक प्रभाव डाला है। इनमें से अधिकांश निम्न मध्यम वर्ग और गरीब वर्ग के हैं। क्या राम मंदिर के धार्मिक माहौल में आम आदमी के जीवन से जुड़े ये मुद्दे चुनाव पर कोई असर डालेंगे?
पत्रकार गिरीश कुबेर कहते हैं, ‘यह (धार्मिक) उन्माद इस हद तक पैदा किया जाएगा कि लोग अन्य सभी मुद्दों को ज़रूरी न मानने के पक्ष में होंगे। जब नेता इस तरह के उन्माद में शामिल होंगे तो स्वाभाविक रूप से जो लोग सामाजिक क्रम में उनसे नीचे हैं, वे ये सवाल नहीं पूछेंगे। टकराव की कोई संभावना नहीं है। सच यह है कि उनके पास इसके खिलाफ सवाल उठाने का कोई मौका ही नहीं है।’ वहीं संजय कुमार कहते हैं कि लोग भले ही बेरोजगारी, महंगाई जैसे ज्वलंत मुद्दों पर बात कर रहे हों, लेकिन असल वोटिंग में इसका असर शायद नजर न आए। ये हकीकत है।
वो कहते हैं, ‘लोग पिछले दो साल से इन मुद्दों का सामना कर रहे हैं। पिछले कुछ चुनावों के दौरान हमारे सर्वेक्षणों में यह देखा गया था कि बेरोजगारी, महंगाई बढ़ रही थी, लेकिन हमने देखा कि इन मुद्दों के बाद भी भाजपा फिर से सत्ता में आई।
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में बेरोजगारी और महंगाई से जुड़े मुद्दे थे, लेकिन लोगों ने फिर भी भाजपा को वोट दिया। लोग इन मुद्दों पर चिंता तो जताते हैं, लेकिन उन पर वोट नहीं करते हैं। वे दूसरे मुद्दों के लिए वोट देते हैं। वह मुद्दा है राष्ट्रवाद और हिंदुओं का एकीकरण।’
कई पर्यवेक्षकों के मुताबिक, बीजेपी राष्ट्रवाद के मुद्दे को मंदिर से जोडऩे में सफल रही है।
आने वाले चुनाव शायद ये तय करें कि राम मंदिर के निर्माण का भारतीय राजनीतिक पर कितना असर पड़ा है। (bbc.com)
पुष्य मित्र
तस्य चैवंप्रभावस्य धर्मज्ञस्य महात्मन:।
सुतार्थं तप्यमानस्य नासीद् वंशकर: सुत:।।
कल जब पूरा देश रामजन्मभूमि कही जाने वाली अयोध्या में हो रहे राममंदिर के प्राण-प्रतिष्ठा के आयोजन में व्यस्त था, तब मैंने वाल्मिकी रचित रामायण पढऩा शुरू किया। मकसद सिफ$ इतना था कि जिस राम को सभी आदर्श और मर्यादा पुरुषोत्तम मानते हैं, उनके जीवन को जानना और समझना कि उनके जीवन की कथा से हम क्या सीख सकते हैं। और गीताप्रेस वाली वाल्मिकी रामायण में रामकथा की जब शुरुआत हुई तो यह श्लोक मिला।
नीचे इस श्लोक का हिंदी में अर्थ बताया गया था-सभी धर्मों को जानने वाले महात्मा राजा दशरथ प्रभावशाली होने के बावजूद पुत्र के लिए चिंतित रहते थे। उनके वंश को चलाने वाला कोई नहीं था।
आगे ऐसा ही एक श्लोक मिला, जिसमें लिखा था- वे सदा पुत्र के लिए विलाप करते रहते थे।
तो क्या तीन रानियों के पति दशरथ निस्संतान थे? सहज यह प्रश्न मेरे मन में उठा। अगले ही कुछ पन्नों में इसका उत्तर मिल गया। राजा दशरथ के सबसे करीबी मंत्री सुमंत ने उन्हें याद दिलाया कि राजा दशरथ की एक पुत्री थी शांता। जिसे उन्होंने अपने मित्र अंग नरेश रोमपाद को गोद दे दिया था। रोमपाद उनके साढ़ू भी थे, वे कौश्लया की बहन वर्षिणी के पति थे। वे निस्संतान थे, इसलिए दशरथ और कौशल्या ने अपनी पुत्री शांता को उन्हें गोद दे दिया था।
सहज ही शांता की कथा जानने की उत्कंठा मन में उठी। वाल्मिकी रामायण में इसका जिक्र नहीं था कि शांता का जन्म कैसे हुआ और वे कितने वर्ष तक दशरथ और कौशल्या के साथ रहीं। मगर दक्षिण के कुछ रामायणों में इसका जिक्र था कि शांता का जब जन्म हुआ तो कोशल के राज्य में भीषण अकाल था और यह अकाल लंबे समय तक रहा। राजा दशरथ को लगा कि उनकी इसी कन्या की वजह से अकाल पड़ा। इसलिए उन्होंने शांता को रोमपाद को गोद दे दिया।
शांता को एक विदुषी बालिका के रूप में वाल्मिकी रामायण में बताया गया है। वे वेदों की ज्ञाता थीं। मगर यह कथा भी वाल्मीकि रामायण में मिलती है कि जिस शांता को अकाल के भय से अयोध्या ने अंग देश भेज दिया था, उसी शांता ने अंग देश को अकाल से मुक्ति दिलाई। अंग देश में जब बारिश नहीं होने की वजह से सूखा पड़ा तो रोमपाद ने श्रृंगि ऋषि को अपने राज्य में आमंत्रित किया।
वाल्मीकि रामायण में श्रृंगि ऋषि को अंग देश में लाने की दिलचस्प कथा है। कभी स्त्रियों के संपर्क में नहीं आये ऋषि श्रृंगि को लाने के लिए उन्होंने वेश्याएं भेजीं। उन वेश्याओं के रूप से मोहित होकर श्रृंगि ऋषि अंग देश आये और वहां शांता को कहा गया कि वे उनसे विवाह कर लें। श्रृंगि ऋषि के अंग देश आने से वहां का सूखा खत्म हो गया।
यह तो राम की बड़ी बहन शांता की कहानी थी। इस कहानी को सुमंत दशरथ को बताते हैं और कहते हैं कि उनके जो दामाद हैं श्रृंगि ऋषि वे अगर अयोध्या आकर पुत्रेष्टि यज्ञ करायें तो उन्हें पुत्र(संतान नहीं पुत्र) की प्राप्ति हो सकती है।
यह जानकर जिस शांता को उन्होंने अपशकुनी मानकर राज्य से बाहर भेज दिया था, उसे उसके पति के साथ ससम्मान बुलाया और दोनों पति-पत्नी को पूरे सम्मान के साथ अयोध्या के राजमहल में रखा, तब तक, जब तक पुत्रष्टि यज्ञ न हो गया। फिर अच्छी विदाई देकर विदा भी किया। इसके बाद शांता अपने असल मायके कब आई इसका विवरण नहीं मिलता। राम के जन्म के वक्त, राम के विवाह के वक्त या फिर राम के राज्याभिषेक के वक्त ही आई हो। अगर किसी को पता हो तो जरूर बतायें। मुझे ऐसा कोई विवरण नहीं मिला।
बहरहाल कहानी आगे बढ़ती है। दशरथ पुत्र के लिए पहले अश्वमेध यज्ञ कराते हैं। फिर पुत्रेष्टि यज्ञ। इस कथा में अश्वमेध यज्ञ का पूरा विवरण है। पहले अश्व पूरी दुनिया में घूमता है। फिर जब लौट कर आता है तो ‘कौशल्या सुस्थिर चित्त से धर्मपालन की इच्छा करते हुए अश्व के निकट एक रात निवास करती हैं।’ फिर अश्व के गूदे को पकाया जाता है (जाहिर है अश्व की बलि के बाद) और फिर उसकी आहुति दी जाती है।
उसके बाद पुत्रेष्टि यज्ञ होता है। जिसमें एक देवपुरुष खीर की एक प्याली दशरथ को देते हैं और दशरथ उस खीर को अपनी रानियों को देते हैं। फिर रानियां गर्भवती हो जाती हैं।
पुत्र पाने के इस यज्ञ में पहले दशरथ अपना पूरा राज्य ऋषियों को बांट देते हैं, मगर ऋषि कहते हैं, हमें राजपाट से क्या लेना। आप हमें सामग्री दान करें। फिर दशरथ दस लाख गायें, दस करोड़ सोने की मुद्राएं और 40 करोड़ चांदी के सिक्के इन ब्राह्मणों को दान देते हैं। बेटे के लिए वे क्या नहीं करते हैं। यह वह कथा है जो राम के जन्म से जुड़ी है, वाल्मीकि रामायण के मुताबिक।
इस कथा ने मेरे मन में एक संशय जरूर उत्पन्न कर दिया। राम के जन्म की इस कथा से भारतीय समाज ने आखिर क्या सीखा होगा? यही न कि जीवन में पुत्र सबसे महत्वपूर्ण होता है। पुत्रियों का कोई अर्थ नहीं होता। उनका होना न होना बराबर है। हां, वे तभी महत्वपूर्ण हैं, जब उनसे अपना कोई मतलब सधता हो। मुझे लगता है कि भारतीय समाज में बेटे और बेटियों के बीच जो भेदभाव गहरे तक समाया है, उसमें राम के जन्म की इस कथा की बड़ी भूमिका रही होगी।
राम कथा को लेकर एक भाव हमेशा से मेरे मन में रही है। यह कहानी भारतीय समाज में पुरुषसत्ता या पितृसत्ता को मजबूत करने के लिए रची गयी होगी। और यह कथा इस बात को सही साबित करती है। हालांकि मैं इसे आगे और पढ़ूंगा। मैं चाहूंगा कि राम के चरित में मुझे वैसा आदर्श मिल जाये, जो मुझे बुद्ध और गांधी जैसे नायकों में कई बार मिल जाता है। अगर मिला तो वह भी लिखूंगा। फिलहाल तो निराश ही हूं।
सुशीला सिंह, आदर्श राठौर
अगर आप रेल या सडक़ से लंबी यात्रा कर रहे हों या फिर कहीं घूमने गए हों और बीच सफर में भूख लग जाए तो पेट भरने के लिए दाल, चावल या रोटी जैसे विकल्पों की तुलना में आपको चिप्स, बिस्किट और कोल्ड ड्रिंक्स जैसे भरपूर विकल्प मिल जाएंगे।
कई बार हम यूं ही टाइम पास करने के लिए या फिर पेट भरा होने के बावजूद स्वाद की वजह से भी इन्हें खाते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि खाने-पीने की पारंपरिक चीज़ों की जगह खाए जाने वाले ये स्वादिष्ट विकल्प ‘अल्ट्रा प्रोसेस्ड फ़ूड’ कहलाते हैं और इनका ज़्यादा इस्तेमाल सेहत के लिए हानिकारक होता है?
यही नहीं, विशेषज्ञों का कहना है कि इन्हें कुछ इस तरह से तैयार किया जाता है ताकि इन्हें खाने में मजा आए और हम इनके आदी हो जाएं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) और इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशन (आईसीआरआईईआर) की हाल ही में आई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले 10 सालों में भारत में अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड के बाजार में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है।
क्या होता है अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड
डॉक्टर अरुण गुप्ता बाल रोग विशेषज्ञ हैं और न्यूट्रिशन एडवोकेसी फॉर पब्लिस इंटरेस्ट (एनएपीआई) नाम के थिंक टैंक के संयोजक हैं।
वह अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड का मतलब कुछ इस तरह बताते हैं, ‘सरल शब्दों में समझें तो अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड वह खाद्य सामग्री है, जिसे आप आमतौर पर अपने किचन में नहीं बना सकते। यह सामान्य खाने की तरह नहीं दिखती। जैसे कि पैकेट में आने वाले चिप्स, चॉकलेट, बिस्किट और बड़े पैमाने पर बनाए गए ब्रेड और बन वगैरह।’
वे कहते है, ‘हर समुदाय अपने स्वाद और पसंद के हिसाब से खाना तैयार करता है। इसे भी फूड प्रोसेसिंग यानी खाद्य प्रसंस्करण कहा जा सकता है। अगर हम दूध से दही बनाते हैं तो वो प्रोसेसिंग है। लेकिन अगर किसी बड़ी इंडस्ट्री में दूध से दही बनाया जाए और उसे स्वादिष्ट बनाने के लिए रंग, फ्लेवर, चीनी या कॉर्न सिरप डाला जाए तो यह अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड होगा।’
वह कहते हैं कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड में डाली जाने वाली ये चीज़ें उनकी पोषकता नहीं बढ़ातीं बल्कि उन्हें इसलिए डाला जाता है ताकि आप इन्हें खाते रहें, इनकी बिक्री होती रहे और ज्यादा मुनाफ़ा हो। ऐसे में इन्हें सिर्फ बड़े उद्योग ही तैयार कर सकते हैं।
अल्ट्रा प्रोसेस्ड फ़ूड को कॉस्मैटिक फूड भी कहा जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़, अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड ऐसी सामग्री से बनाए जाते हैं जिन्हें औद्योगिक तकनीकों और प्रक्रियाओं से तैयार किया जाता है।
डब्लयूएचओ के अनुसार, अल्ट्रा प्रोसेस्ड चीजों के कुछ उदाहरण हैं-
कार्बोनेटेड कोल्ड ड्रिंक
मीठे, फैट वाले या नमकीन स्नैक्स, कैंडी
बड़े पैमाने पर तैयार ब्रेड, बिस्किट, पेस्ट्री, केक, फ्रूट योगर्ट
रेडी टू ईट मीट, चीज, पास्ता, पिज़्जा, फि़श, सॉसेज, बर्गर, हॉट डॉग
इन्स्टेंट सूप, इन्स्टेंट नूडल्स, बेबी फॉर्मूला
विशेषज्ञों के अनुसार इन सब चीजों में औद्योगिक प्रक्रिया के तहत चीनी, नमक, फैट्स (वसा) या इमल्सिफाई (दो अलग-अलग तरह के पदार्थों को मिलाना) करने वाले केमिकल और प्रिजर्वेटिव डाले जाते हैं, जिन्हें हम अमूमन अपने किचन में इस्तेमाल नहीं करते।
प्रिजर्वेशन की शुरुआत
तुर्की में टमाटर सुखाते लोग। खाने पीने की कुछ चीजों से नमी निकालकर उन्हें लंबे समय तक सुरक्षित रखा जा सकता है।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन में पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ। वी सुदर्शन राव बताते हैं कि जब सभ्यता की शुरुआत हुई तभी से प्रिजर्वेशन (संरक्षण) का इस्तेमाल होने लगा। इसका मुख्य काम भोजन को लंबे समय के इस्तेमाल के लिए बैक्टीरिया और फफूंद आदि से खराब होने से बचाना था।
वे बताते हैं, ‘हमारे पूर्वजों ने ये जाना कि अगर खाद्य पदार्थों से नमी को निकाल लिया जाए तो उसे प्रिज़र्व किया जा सकता है। इसलिए सबसे पहले खाद्य पदार्थों को धूप में सुखाने से शुरुआत हुई, क्योंकि उन्होंने जाना कि सूखे हुए खाद्य पदार्थों को लंबे समय तक इस्तेमाल किया जा सकता है।’
हैदराबाद स्थित, इंडियन कॉउसिल फॉर मेडिकल रिसर्च में वैज्ञानिक रह चुके डॉ. वी सुदर्शन राव बताते हैं कि प्रिजर्वेशन के लिए नमक, शुगर का उपयोग होने लगा, जिन्हें आप प्रिज़र्वटिव कह सकते हैं। लेकिन अब नई तकनीक आने की वजह से प्रिजर्वेशन में कई बदलाव आए हैं।
इसी बात को समझाते हुए गुजरात के राजकोट में नगरपालिका निगम के स्वास्थ्य विभाग में डॉ. जयेश वकानी बताते हैं, ‘उदाहरण के तौर पर आप अचार लीजिए। उसमें अधिक नमक, शुगर, सिरका और सिट्रिक एसिड को इस्तेमाल किया जाता है, जो प्राकृतिक तौर पर प्रिजर्वटिव का काम काम करते हैं। अगर कृत्रिम प्रिजर्वेटिव इस्तेमाल करने होते हैं तो भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसआई) के मानकों के अनुसार उन्हें इस्तेमाल करना होता है।’
प्रिजर्वेटिव का इस्तेमाल कॉस्मेटिक्स में भी
जानकार बताते हैं कि खाद्य पदार्थों में होने वाले प्रिजर्वेटिव, जिनमें कई प्रकार के एंटीमाइक्रोबियल, एंटीऑक्सिडेंट, सॉर्बिक एसिड आदि शामिल हैं, उनका हर खाद्य सामग्री में इस्तेमाल नहीं हो सकता।
खाद्य पदार्थों में बैक्टीरिया को रोकने के लिए एंटीमाइक्रोबियल प्रिजर्वेटिव का उपयोग होता है। वहीं तेल में एंटीऑक्सिडेंट, जबकि सॉर्बिक एसिड प्रिजर्वेटिव का इस्तेमाल फफूंद से बचाने के लिए होता है।
प्रिज़र्वेटिव का इस्तेमाल केवल खाद्य सामग्रियों में ही नहीं होता, बल्कि कॉस्मेटिक्स जैसे क्रीम, शैम्पू, सनस्क्रीन में भी होता है, ताकि इन्हें लंबे समय तक उपयोग किया जा सके।
लेकिन क्या ये हानिकारक हो सकते हैं? इस सवाल का जवाब देते हुए डॉ। जयेश वकानी कहते हैं, ‘किसी भी पदार्थ या खाद्य सामग्री में प्रिजर्वेटिव का उपयोग सुरक्षा मानकों को ध्यान में रखकर किया जाता है और जितनी मात्रा की जरूरत हो, केवल उतना होता है, क्योंकि ज्यादा इस्तेमाल का कोई फायदा नहीं होता।’
डॉ. वी सुदर्शन राव कहते हैं कि भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (एफएसएसआई) खाद्य सामग्रियों में इस्तेमाल होने वाले प्रिजर्वेटिव की जाँच करता है और ये पाया गया है कि 60-70 साल तक लेने पर भी इनका शरीर को कोई नुकसान नहीं होता।
प्रिजर्वेटिव और अल्ट्रा प्रोसेस्ड फ़ूड
उपभोक्ताओं को जागरूक करने वाली संस्था ‘कंज़्यूमर वॉइस’ के सीईओ आशिम सान्याल कहते हैं कि खाने-पीने की चीजों को लंबे समय तक खराब होने से बचाने के अलावा टेस्ट बढ़ाने और रंग डालकर आकर्षक बनाने में भी प्रिजर्वेटिव को इस्तेमाल किया जाता है।
ये प्रिजर्वेटिव कृत्रिम होते हैं और सीमित मात्रा में ही डाले जाते हैं। लेकिन अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड को खराब होने से बचाने के लिए जो तरीक़े अपनाए जाते हैं, उससे ये बेहद हानिकारक बन जाते हैं।
डॉक्टर आशिम सान्याल बताते हैं कि खाद्य पदार्थों में प्रिजर्वेटिव के इस्तेमाल को अलग करके नहीं देखा जा सकता बल्कि इसे अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड से जोडक़र देखा जाना चाहिए।
डब्लयूएचओ भी कहता है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड प्रिजर्वटिव और केमिकल से भरपूर होते हैं। इनकी आदत डलवाने के लिए इनमें कुछ एडिक्टिव (लत लगाने वाले पदार्थ) भी डाले जाते हैं।
भारत में प्रोसेस्ड फूड के कारोबार का सेक्टर 500 अरब डॉलर है।
आशिम सान्याल बताते हैं कि सब्जी, दाल आदि बनाना भी प्रोसेस्ड फूड कहलाता है लेकिन अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड वो होता है, जिसे टेक्निकल इनोवेशन के जरिए प्रयोगशाला में नए रूप में ढाला जाता है। इसमें शुगर, सैचुरेटेड फैट्स आदि के अलावा प्रिजर्वेटिव के मिश्रण बहुत ज़्यादा मात्रा में होते हैं।
उनके अनुसार, ‘डब्लयूएचओ भी कहता है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड प्रिज़र्वेटिव और केमिकल से भरपूर होते हैं। इनमें प्रिज़र्वेटिव इसलिए डाले जाते हैं ताकि लंबे समय तक इस्तेमाल किया जा सके। इनकी आदत डलवाने के लिए इनमें कुछ एडिक्टिव (लत लगाने वाले पदार्थ) भी डाले जाते हैं।’
आशिम सान्याल कहते हैं कि उदाहरण के तौर पर चिप्स, कोल्ड ड्रिंक या अन्य खाद्य पदार्थों की बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक को आदत पड़ जाती है और यही आदत डलवाने के लिए ऐसे पदार्थ डाले जाते है।
उनके अनुसार, ‘ये वैज्ञानिक तौर पर भी साबित हो चुका है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड बहुत सी बीमारियों की जड़ बन चुका है। हमने जब भी जाँच की तो पाया कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड में प्रिजर्वेटिव और अन्य केमिकल की मात्रा काफी ज़्यादा होती है।’
डॉ. आशिम सान्याल कहते हैं, ‘अल्ट्रा प्रोसेसिंग में पोषक तत्व ख़त्म हो जाते हैं। इस खाने में कोई गुणवत्ता नहीं रहती। जैसे तंबाकू या सिगरेट की लत लगती है, वैसे ही ऐसे भोजन के भी एडिक्टव होने के कारण लत पड़ जाती है।’
विशेषज्ञों का कहना है कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड के साथ दिक्कत यह है कि हमें पता ही नहीं चलता कि इन्हे कितना ज़्यादा खाया जा रहा है।
डॉक्टर अरुण गुप्ता कहते हैं, ‘खाना खाते वक्त हमारा दिमाग हमें सिग्नल देता है कि अब पेट भर गया। लेकिन अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड को कुछ इस तरीक़े से तैयार किया जाता है कि आपको इन्हें खाने में मज़ा आए। जब आप इसे खा रहे होते हैं तो दिमाग से ऐसा सिग्नल नहीं आता कि पेट भर गया और आप इसे खाते चले जाते हैं।’
प्रिजर्वेटिव और अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड के नुकसान
डॉ. जयेश वकानी कहते हैं कि अगर कृत्रिम प्रिजर्वटिव का इस्तेमाल मानकों से ज़्यादा मात्रा और लंबे समय तक किया जाए तो शरीर में कैंसर भी बन सकता है।
डॉ अरुण गुप्ता भी कहते हैं कि कि कई बार खाद्य पदार्थों की शेल्फ लाइफ बढ़ाने के लिए ऐसे प्रिजर्वेटिव डाले जाते हैं, जिनसे नुक़सान हो सकता है।
वह कहते हैं, ‘इनमें प्रिज़र्वेटिव और कलरिंग एजेंट जैसे केमिकल होते हैं, जिनसे शरीर में एलर्जी हो सकती है या फिर शरीर की इम्युनिटी कमजोर हो जाती है। भले ही तुरंत पता न चले, लेकिन लंबे समय में ये ख़तरनाक साबित हो सकते हैं।’
ग्लोबल हंगर इंडेक्स की साल 2023 की रिपोर्ट के अनुसार, 125 देशों में भारत भूख के मामले में 111वें स्थान पर है और भूख से जूझ रही सबसे बड़ी आबादी वाला देश है। जहां एक ओर देश कुपोषण की चुनौती झेल रहा है, वहीं मोटापे की बढ़ती समस्या का सामना भी कर रहा है। मोटापा बढ़ाने में अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड भी भूमिका निभा रहे हैं।
डॉक्टर अरुण गुप्ता कहते हैं, ‘कभी-कभार इन्हें खाया जा सकता है, लेकिन जब हम इनका इस्तेमाल अपने भोजन के दस फ़ीसदी से ज़्यादा करने लगते हैं, यानी कि 2000 कैलोरी में 200 कैलोरी से ज़्यादा अगर अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड से आ रही हों तो नुकसान की शुरुआत हो जाती है।’
वे कहते कि सबसे पहले तो वजन बढऩे लगता है, जो खुद में कई बीमारियों को आमंत्रण देता है। इससे डायबिटीज, ब्लड प्रेशर, दिल और किडनी से जुड़ी बीमारियाँ और यहा तक कि कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है।
डॉक्टर अरुण गुप्ता के अनुसार, ‘हालिया शोध ये भी इशारा करते हैं कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड इस्तेमाल करने से डिप्रेशन और एंग्ज़ाइटी भी हो सकती है। ऐसा क्यों है, इस पर अभी शोध चल रहे हैं।’
आमतौर पर ये देखा गया है कि हर उम्र और वर्ग के लोग अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड खाते हैं, लेकिन भारत के लिहाज से देखें तो बच्चों को ज़्यादा खतरा है, क्योंकि आमतौर पर बच्चों को मीठी चीजें पसंद होती हैं। वे चिप्स, कैंडी, चॉकलेट, पैक्ड जूस और कोल्ड ड्रिंक्स खाना पसंद करते हैं।
डॉक्टर अरुण गुप्ता बताते हैं कि वैसे तो इस संबंध में ज़्यादातर शोध वयस्कों पर हुए हैं, लेकिन 2017 में हुए एक शोध में पता चला था कि करीब पचास फीसदी बच्चों को अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड से नुक़सान हो रहा है और ये उन्हें मोटापे की ओर धकेल रहा है।
क्या है बचने का रास्ता?
जानकार बताते हैं कि अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड खाने की आदत से बचना चाहिए।
आशिम सान्याल बताते हैं कि अगर आप एक हफ्ते में चार बार ऐसा भोजन या खाद्य पदार्थ खाते हैं तो धीरे-धीरे इसके सेवन में कमी लाएं।
साथ ही वे कहते हैं कि लोगों को फूड लेबल के बारे में जागरूक करने की भी जरूरत है। इसके अलावा, ऐसे खाद्य पदार्थ बनाने वाली कंपनियों को भी सामग्रियों के फ्रंट पर प्रमुखता से जानकारी देनी चाहिए।
उनके अनुसार, ‘हम फ्रंट ऑफ पैक न्यूट्रिशनल लेबलिंग पर जोर दे रहे हैं, ताकि लेबल में सामने की ओर ये चीजें बताई जाएं कि इसमें शुगर ज़्यादा है, नमक ज़्यादा है या फैट ज़्यादा है। इन मुख्य चीजों पर ध्यान दिया जाएगा तो 80 फ़ीसदी समस्या पर रोक लग सकेगी। अभी ये सारी जानकारियाँ लेबल के पीछे लिखी होती हैं और इतनी छोटी होती हैं कि ग्राहकों का ध्यान ही नहीं जाता।’
आशिम सान्याल उदाहरण देते है कि लातिन अमेरिकी देशों ने फ्रंट लेबलिंग शुरू की है और इससे लोगों की खाने की आदत में बदलाव आया है, क्योंकि वे जागरूक हुए हैं। वहीं इस बात पर भी बहस होती है कि अगर लेबलिंग में जानकारी दी गई तो इससे ब्रिकी पर असर पड़ेगा। इसके जवाब में आशिम सान्याल कहते है कि सिगरेट और तंबाकू पर चेतावनी डाली गई है, क्या इससे ऐसे उत्पादों की ब्रिकी बंद हो गई?
वहीं, डॉक्टर अरुण गुप्ता कहते हैं कि इस मामले में सबसे बड़ी भूमिका सरकार की है।
वह कहते हैं, ‘सरकार की जि़म्मेदारी सबसे बड़ी है। लोग क्या खा रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए। इसके अलावा, मीडिया, समाज और संस्थाओं का भी फज़ऱ् है कि लोगों को इस बारे में जागरूक करें। फिर लोगों की अपनी मजऱ्ी है कि क्या करना है।’
डॉक्टर अरुण गुप्ता कहते हैं कि जिस तरह से दो साल तक के शिशुओं के लिए बेबी फूड का विज्ञापन करने पर भारत में रोक लगाई गई है, उसी तरह ज़्यादा नमक, चीनी और फ़ैट वाली सामग्रियों को लेकर भ्रामक प्रचार पर भी रोक लगनी चाहिए।
वह कहते हैं, ‘लोगों को पता चलना चाहिए कि कौन सी चीज़ हानिकारक है। हो सकता है कि फिर भी लोग खाएं, लेकिन उन्हें पता होगा कि इन चीज़ों को कम खाना चाहिए।’
डॉक्टर अरुण गुप्ता के अनुसार, ‘ऐसी नीतियों से इंडस्ट्री को भी संदेश जाता है कि भले वे प्रोसेस्ड फूड बनाएं, मुनाफ़ा कमाएं, इसमें कुछ बुरा नहीं है। लेकिन मुनाफ़ा भी कमाना और लोगों की सेहत से खिलवाड़ भी करना, ये सही नहीं है।’ (bbc.com)
घनाराम साहू आचार्य
छत्तीसगढ़ में प्रचलित लोक आस्था के अनुसार श्रीराम 14 वर्ष के वनवास काल में से 12 वर्ष सरगुजा से बस्तर तक बिताए थे । श्रीराम की माता कौशल्या ही छत्तीसगढ़ याने दक्षिण कोसल के राजा भानुमंत की बेटी भानुमति थी।
श्रीराम के प्रसंग को लेकर आज स्व डॉ मन्नूलाल यदु जी का स्मरण हो रहा है जिन्होंने श्री श्याम बैस, स्व डॉ हेमू यदु प्रभृति विद्वान रामभक्तों के साथ छत्तीसगढ़ में प्रचलित सभी जनश्रुतियों को संकलित और प्रकाशित कर अविस्मरणीय कार्य किया है।
श्री संगम राजिम धाम क्षेत्र में प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार श्रीराम यहां दो बार आए थे । प्रथम बार वनवास काल में लोमस ऋषि आश्रम में चौमासा बिताए थे तब माता सीता ने संगम में बालू से शिवलिंग बनाकर पूजन किया था । कहा जाता है कि उसी स्थान पर शिव जी का भव्य मंदिर कुलेश्वर/कोल्हेश्वर स्थापित है । दूसरी बार अयोध्या में राजतिलक होने के बाद अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा छुड़ाने आए थे । प्रचलित कहानी के अनुसार अश्वमेध यज्ञ का श्याम कर्ण घोड़ा की रक्षा के लिए शत्रुघ्न को तैनात किया गया था।
घोड़ा विचरण करते हुए महानदी के तट पर पहुंचा तब यहां के राजा राजीव लोचन /राजू लोचन ने उसे पकडक़र तपस्यारत कर्दम ऋषि आश्रम में बांध दिया था । घोड़ा को आश्रम में बंधा देख शत्रुघ्न की सेना ने ऋषि आश्रम में आक्रमण कर दिया । इससे ऋषि का ध्यान टूटा और क्रोधित होकर दिव्य शक्ति से शत्रुघ्न को सेना सहित भस्म कर दिया।
शत्रुघ्न के भस्म होने की सूचना अयोध्या पहुंची तब श्रीराम आए। राजा राजीव लोचन श्रीराम का शरणागत होकर अभयदान प्राप्त कर लिया। श्रीराम कर्दम ऋषि आश्रम जाकर ऋषि को प्रसन्न किए । ऋषि प्रसन्न होकर शत्रुघ्न को सेना सहित पुनर्जीवित कर दिए । श्रीराम अयोध्या लौटने के पूर्व राजा राजीव लोचन को आदेश दिए कि शिव जी और विष्णु जी के पवित्र संगम स्थली में उनका एक मंदिर का निर्माण करे और प्रतिवर्ष मकर संक्रांति के दिन सामूहिक भोज उत्सव का आयोजन करे। जो मंदिर बनेगा वह तुम्हारे नाम पर याने ‘राजीव लोचन मंदिर’ कहलाएगा। श्रीराम के आदेशानुसार राजा ने भव्य मंदिर का निर्माण किया और प्रतिवर्ष महाभोज का आयोजन होने लगा जिसमें बिना किसी भेदभाव के सभी वर्ण और जाति के लोग महाप्रसाद प्राप्त करने लगे । इतिहासकार डॉ रमेंद्रनाथ मिश्र यह परंपरा मराठा काल तक जारी रही और पुरी (ओडिशा) में शांति स्थापित होने के बाद वहां स्थानांतरित हुई थी ।
क्षेत्र में प्रचलित कहानी के अनुसार सिरपुर के निकट तुरतुरिया में महर्षि वाल्मीकि का आश्रम था जहां माता सीता को निर्वासन काल में आश्रय मिला और यहीं कुश और लव का जन्म हुआ था । कुश और लव ने यहीं अश्वमेध यज्ञ के घोड़ा को पकडक़र श्रीराम से युद्ध किया था ।
यद्यपि इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता इन कहानियों को खारिज करते हैं फिर भी लोकमानस में वनवासी श्रीराम की अविस्मरणीय छवि बसी हुई है । इसी तरह माता कौशल्या के जन्म स्थली के रूप में कोसला, केसला, कोसिर सहित चंदखुरी भी लोक मान्यता में स्थापित हो चुका है और सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ राम मय है ।
हर तरफ राम नाम के लहराते झंडे और सडक़ों पर जय श्रीराम के नारे, धनुष पकड़े प्रभु श्री राम की एलईडी तस्वीरें, मुख्य रास्तों पर बड़ी-बड़ी मूर्तियां, जगमग घाटों पर बजती रामधुन और सडक़ों पर बिछता तारकोल।
इस वक्त अयोध्या में हर तरफ राम और उनके नाम पर हो रहा निर्माण दिखाई देता है। राम मंदिर की तरफ जाने वाले हर रास्ते पर काम चल रहा है। कई किलोमीटर लंबे रामपथ को एक रंग में रंग दिया गया है।
22 जनवरी को राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होनी है, जिसके लिए अयोध्या को सजाया संवारा जा रहा है।
इस तैयारी में उत्तर प्रदेश सरकार के 26 विभाग दिन-रात लगे हुए हैं।
नवंबर, 2019 में सुप्रीम कोर्ट से बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद समाप्त हुआ और राम मंदिर बनने का रास्ता साफ हुआ।
इस फैसले के बाद ये अनुमान तो था कि अयोध्या में प्रॉपर्टी के दाम बढ़ेंगे लेकिन इतने बेतहाशा बढ़ेंगे ये किसी ने नहीं सोचा था।
संपत्ति के दाम में कितना उछाल
नवंबर 2018 में उत्तर प्रदेश सरकार ने फैज़ाबाद जि़ले का नाम बदलकर अयोध्या कर दिया था। यहां सरकार ने साल 2017 के बाद से सर्किल रेट यानी सरकारी रेट नहीं बढ़ाया है।
यह एक स्टैंडर्ड रेट होता है, जिसे जि़ला प्रशासन तय करता है। इसी आधार पर खरीद-बिक्री होती है और व्यक्ति इस रेट के आधार पर सरकार को स्टांप ड्यूटी देता है। लेकिन पिछले चार सालों में अयोध्या में संपत्ति के दामों में दस गुणा से भी अधिक बढ़ोतरी हुई है।
अयोध्या के कारोबारी और प्रॉपर्टी डीलर राजीव कुमार गुप्ता कहते हैं, ‘अयोध्या में अब संपत्ति के रेट का कोई पैमाना नहीं रह गया है, क्योंकि ज्वार भाटा जब आता है तो नदी की कोई गति नहीं नाप सकता। इस वक्त प्रॉपर्टी में ज्वार भाटा चल रहा है। कोई भी संपत्ति किस रेट बिक जाए, कोई आश्चर्य नहीं होता।’
वे कहते हैं, ‘लखनऊ-गोरखपुर हाईवे से एक रास्ता नए घाट की तरफ जाता है, जहां से राम मंदिर पास में है। यहां पर 5 हजार वर्ग फीट की एक कमर्शियल प्रॉपर्टी की कीमत 2019 में 4500 रुपये वर्ग फीट यानी 2 करोड़ 25 लाख आंकी जा रही थी, 2020 में यह बढक़र 3 करोड़ और आज वह व्यक्ति उसे पांच करोड़ रुपये में भी बेचने को तैयार नहीं है।’
अयोध्या में रियल एस्टेट कंसल्टेंट अमित सिंह कहते हैं, ‘राम मंदिर के आसपास के इलाके को प्राधिकरण ने धार्मिक क्षेत्र घोषित किया है। यहां चार साल पहले जो जगह 2 हज़ार रुपये वर्ग फीट थी अब वह 15 हजार वर्ग फीट में भी नहीं मिल रही है।’
न सिर्फ राम मंदिर के आस पास बल्कि पूरे अयोध्या और उसके आस-पास के जिलों में भी संपत्ति के दाम तेज़ी से बढ़ रहे हैं।
अमित सिंह कहते हैं, ‘मंदिर के 15-20 किलोमीटर की रेडियस में जो किसान खेती करते हैं, पहले वो बीघे में बात करते थे, कि हमारे पास इतना बीघा खेत है, फिर उन्होंने बोलना शुरू किया कि हमारे पास इतना बिस्वा (1361 वर्ग फीट) खेत है, फिर कहा कि हमारे पास इतनी वर्ग फीट जगह है। उन्होंने पिछले तीन-चार सालों में मानक ही बदल दिए हैं।’
वे कहते हैं, ‘दस साल में जो प्रॉपर्टी तीन सौ रुपये वर्ग फीट थी, आज उसी जगह की कीमत कम से कम पांच हजार रुपये वर्ग फीट है। दस गुणा से भी ज्यादा रेट बढ़ गए हैं।’
अब बदल गई है अयोध्या
प्रदेश की धार्मिक नगरी अयोध्या में विकास के लिए अयोध्या विकास प्राधिकरण ने जुलाई 2022 में एक मास्टर प्लान बनाया- ‘अयोध्या महायोजना 2031।’
इस मास्टर प्लान में अयोध्या विकास प्राधिकरण ने जिले की फिलहाल 133 वर्ग किलोमीटर ज़मीन को शामिल किया है। इसके मुताबिक ही अब ज़मीन की खरीद बिक्री हो सकती है।
रियल एस्टेट कंसल्टेंट अमित सिंह कहते हैं, ‘अगर हम रियल एस्टेट के तौर पर बात करें तो अयोध्या पहले दूसरे शहरों की तरह बहुत अनऑर्गेनाइज थी, लोग कहीं भी बिना नक्शा पास करवाकर घर बना लेते थे, लेकिन अब अयोध्या विकास प्राधिकरण के मास्टर प्लान के बाद ऐसा नहीं किया जा सकता। अब सब उसके हिसाब से करना होगा।’
अयोध्या के मास्टर प्लान को समझाते हुए अमित सिंह कहते हैं, ‘मास्टर प्लान में प्राधिकरण ने अलग-अलग रंगों से जमीन को चिन्हित किया है। राम मंदिर और उसके आस-पास के इलाके को धार्मिक स्थल के रूप में रखा गया है, इसके अलावा अब साफ कर दिया गया है कि अयोध्या का कौन सा हिस्सा आवासीय, व्यावसायिक और औद्योगिक होगा।’
वे कहते हैं, ‘जमीन के नज़रिए से अयोध्या एक तरफ तो नदी से बंधा हुआ है और दूसरी तरफ एक बड़ा हिस्सा केंट का है। इसके अलावा सरकार ने मंदिर के पास करीब तीन हजार एकड़ जमीन को ग्रीन बेल्ट घोषित किया है, जहां बिना इजाजत के ज़मीन में कोई बदअगर कोई व्यक्ति अयोध्या में जमीन खरीदना चाहता है, तो उसे इसी मास्टर प्लान के हिसाब से ही खरीद-बिक्री करनी होगी।
क्यों बढ़ रहे हैं संपत्ति के दाम
अयोध्या में जैसे ही राम जन्मभूमि पर राम मंदिर का निर्माण कार्य शुरू हुआ, वैसे ही बड़ी-बड़ी सरकारी योजनाएं अयोध्या में आने लगीं।
शहर के कारोबारी और व्यापार अधिकार मंच के संयोजक सुशील जायसवाल कहते हैं, ‘मंदिर का निर्माण शुरू होते ही सरकार ने रोड, एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन, अस्पताल, चौड़ी सडक़ों से लेकर सीवर लाइन तक तेजी से काम करना शुरू कर दिया।’
‘जिसके बाद लोगों का ध्यान एकदम से अयोध्या की तरफ गया और यहां जमीनों के दामों में अप्रत्याशित उछाल आया।’
शहर में होते तेज़ विकास ने जमीनों के दाम बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई है।
इस वक्त अयोध्या में उत्तर प्रदेश सरकार के 26 विभाग करीब 30 हजार करोड़ के 187 प्रोजेक्ट्स को पूरा करने में लगे हुए हैं।
डिपार्टमेंट ऑफ अर्बन डेवलपमेंट फिलहाल सबसे ज्यादा 54, पब्लिक वक्र्स डिपार्टमेंट 35 और टूरिज्म विभाग के 24 प्रोजेक्ट्स अयोध्या में चल रहे हैं।
इसके अलावा अयोध्या में बड़ी रियल एस्टेट कंपनियां भी निवेश कर रही हैं।
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रियल एस्टेट कंसल्टेंट अमित कहते हैं, ‘आवास विकास ने अयोध्या में करीब 1900 एकड़ ज़मीन मुआवज़ा देकर किसानों से ली है। इसके अलावा मुंबई से लोढ़ा ग्रुप, ताज ग्रुप, हैदराबाद ग्रुप, तिरुपति बालाजी ग्रुप होटलों और टाउनशिप में निवेश कर रहा है।’
मंदिर से करीब सात किलोमीटर मुंबई के लोढ़ा ग्रुप ने 25 एकड़ ज़मीन खरीदी है, जहां वह प्लॉटिंग कर रहा है।
इस टाउनशिप में एक वर्ग फीट की कीमत 15700 रुपये है। कंपनी शुरुआती प्लाट 1270 वर्ग फीट का ऑफर कर रही है, जिसकी कीमत करीब 1 करोड़ 80 लाख रुपये है।
न सिर्फ बड़े-बड़े रियल एस्टेट कारोबारी बल्कि धर्माचार्य भी अयोध्या में अपनी मौजूदगी चाहते हैं। पिछले कुछ समय में कई मठों ने यहां जगह ली है। इन्हीं में से एक है दक्षिण भारत का उत्तराधी मठ।
उत्तराधी मठ माधवा संप्रदाय से जुड़ा हुआ है। राम मंदिर से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर उत्तराधी मठ ने कुछ समय पहले करीब 13 हज़ार वर्ग फीट जगह खरीदी है, जहां दिसंबर 2023 में काम शुरू हुआ। मठ के लिए इस जमीन पर कंस्ट्रक्शन का काम करने मुंबई के डेवलपर चिंतन ठक्कर का कहना है कि चार मंजिल का श्रद्धालुओं के लिए यात्री निवास बनाया जा रहा है, जिसमें मंदिर भी होगा और यहां यात्री निशुल्क रुक पाएंगे।
अयोध्या में कितनी रजिस्ट्री हुई
अयोध्या तहसील में पिछले तीस सालों से काम करने वाले दस्तावेज़ लेखक कृष्ण कुमार गुप्ता बताते हैं कि साल 2017 से सर्किल रेट नहीं बढ़े हैं।
वे कहते हैं कि राम मंदिर के आसपास के इलाके में संपत्ति का सर्किल रेट 1000 रुपये वर्ग फीट से लेकर 3 हजार रुपये वर्ग फीट तक है।
लेकिन इस संपत्ति की मार्केट वैल्यू, सर्किल रेट से पांच से दस गुणा ज्यादा है।
अयोध्या जि़ले के स्टांप एवं रजिस्ट्रेशन विभाग के मुताबिक राम मंदिर पर फैसला आने से पहले यानी 1 अप्रैल 2017 से 31 मार्च 2018 के बीच जि़ले में 13 हज़ार 542 रजिस्ट्री हुईं। यह संख्या साल 2021 में बढक़र 22 हज़ार 478, साल 2022 में 29 हज़ार हो गई है।
स्टांप एवं रजिस्ट्रेशन विभाग का यह डेटा बताता है कि कैसे पिछले पांच साल में अयोध्या जि़ले में संपत्ति की रजिस्ट्री में 50 प्रतिशत से भी ज्यादा का उछाल आया है।
स्थानीय लोग नहीं खरीद पा रहे हैं प्रॉपर्टी
अयोध्या में काम करने वाले प्रॉपर्टी डीलर्स की मानें, तो शहर में 100 से ज्यादा बड़ी कंपनियों ने डेरा डाला हुआ है, जो खासकर होटल उद्योग और रियल एस्टेट से जुड़ी हुई हैं।
स्थानीय प्रॉपर्टी डीलर राजीव गुप्ता कहते हैं कि ये बड़ी कंपनियां किसी भी दाम में संपत्ति खरीद रही हैं और हर रो़ नए कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं, जिसके चलते उनके हाथ में भी लैंड बैंक नहीं बचा है।
हाल ही में राम मंदिर निर्माण के चलते राज्य सरकार ने अयोध्या में सडक़ चौड़ीकरण का काम किया है, जिसके चलते सैकड़ों लोगों की संपत्तियों को नुकसान पहुंचा है।
अयोध्या के रहने वाले अनुज सागर भी उन्हीं में से एक हैं। वे कहते हैं, ‘मेरी दुकान पहले काफी आगे तक थी, ओवर ब्रिज के कारण सरकार ने दुकान तोड़ दी और अब यह काफी छोटी हो गई है, जिसमें काम चलाना हमारे लिए बहुत मुश्किल था। हमने दूसरी जगह दुकान लेने की कोशिश की लेकिन नहीं मिली।’
वे कहते हैं, ‘बाहर से लोगों ने आकर यहां दाम बढ़ा दिए हैं। जिस दुकान का दाम 50 लाख रुपये था, अब वह दो करोड़ रुपये में भी नहीं मिल रही है। आखिर में हमने अपनी छोटी दुकान में संतुष्टि कर ली।’
ऐसी ही परेशानी का जिक्र व्यापार अधिकार मंच के संयोजक सुशील जायसवाल करते हैं। अपने दोस्त का जिक्र करते हुए वे कहते हैं, ‘शहरी क्षेत्र में पहले से जो छोटी बड़ी इंडस्ट्री चल रही हैं, उन्हें अब शिफ्ट करना पड़ रहा है। मेरे एक दोस्त की यहां सबसे पुरानी बिस्किट फैक्ट्री है। उन्हें सवा लाख वर्ग फीट जगह चाहिए। वो चार पांच महीने से तलाश कर रहे हैं, लेकिन नहीं मिल रही।’
वे कहते हैं, ‘बाहरी क्षेत्र में पहले एक बिस्वा (1361 वर्ग फीट) की कीमत एक लाख रुपये थी, अब वह बढक़र चार से आठ लाख रुपये बिस्वा हो गई है।’
संपत्ति बेचने का दुख
अयोध्या में जमीनों के बढ़ते दाम के बीच कुछ ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें अपनी संपत्ति बेचने का अब अफसोस है।
अयोध्या की रहने वाली काजल गुप्ता के पास राम मंदिर से छह किलोमीटर दूर 2 हज़ार वर्ग फीट की एक कमर्शियल प्रॉपर्टी थी, जिसे उन्होंने साल 2021 में 65 लाख में बेच दिया था।
वे बताती हैं, ‘हम लोगों ने सोचा नहीं था कि राम मंदिर बनने के बाद प्रॉपर्टी के दामों में इतना उछाल आएगा। हमने उस समय अपनी ज़मीन मार्केट रेट पर बेची थी, लेकिन 2 सालों में ही उसकी कीमत डेढ़ करोड़ से ज्यादा हो गई है। आज हमें उस बात का पछतावा होता है कि हमें थोड़ा इंतजार करना चाहिए था।’
ये कहानी अयोध्या में सिर्फ एक व्यक्ति की नहीं है। रियल एस्टेट कंसल्टेंट अमित सिंह बताते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने से छह महीने पहले हमारे एक जानकार व्यक्ति ने अपना प्लाट बेचकर लखनऊ में घर लिया। उस समय उन्हें उस प्लाट की कीमत करीब 80 लाख रुपये मिली।’
‘आज उसकी कीमत तीन करोड़ रुपये से भी ज्यादा है। उन्होंने मुझे फोन कर कहा कि मुझसे बड़ी गलती हो गई, अब वो उस संपत्ति को खरीदने की स्थिति में नहीं हैं।’
फैसला आने के बाद संपत्ति के दामों में इतना उछाल आएगा, इसका अंदाजा प्रॉपर्टी का काम करने वाले लोगों ने भी नहीं लगाया था।
प्रॉपर्टी डीलर राजीव गुप्ता कहते हैं, ‘राम मंदिर पर फैसला आने से दस दिन पहले हमने एक छोटी सी कमर्शियल प्रॉपर्टी की डील 34 लाख में करवाई थी। यह प्रॉपर्टी राम मंदिर से 150 मीटर आगे है। उसी प्रॉपर्टी को हाल ही में फिर से 2 करोड़ 19 लाख रुपये में बेचा गया है।’
फिलहाल अयोध्या में स्थानीय प्रशासन के मुताबिक हर रोज करीब सात हजार लोग अस्थाई राम मंदिर में दर्शन के लिए आते हैं, जो आने वाले समय में कई लाख हो सकते हैं।
ऐसे में धार्मिक नगरी अयोध्या में संपत्ति के दाम कहां तक पहुंच सकते हैं, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। (bbc.com/hindi)
-इमरान कुरैशी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस वक्त पांच दक्षिणी राज्यों के मंदिरों में पूजा-पाठ और बैठकें कर रहे हैं, जिसे लेकर कई सवाल पूछे जा रहे हैं।
सबसे बड़ा सवाल इसमें यह है कि जब पूरा देश अयोध्या में राम मंदिर और वहां होने वाली प्राण प्रतिष्ठा की तरफ देख रहा है तो ऐसे समय में प्रधानमंत्री दक्षिण भारत में क्या कर रहे हैं?
प्रधानमंत्री ने दो हफ्ते के अंदर दो बार केरल का दौरा किया है। इस दौरान उन्होंने मंदिरों में पूजा-पाठ किया। इसके अलावा उन्होंने महिलाओं की सबसे बड़ी सभा में से एक को संबोधित किया और पार्टी के कार्यकर्ताओं को यह समझाया कि वे केंद्रीय योजनाओं का लाभ लेने वाले लोगों के बीच ‘मोदी गारंटी’ का प्रचार किस तरह करें और उसे लोकप्रिय कैसे बनाएं।
उन्होंने केरल दौरे में गुरुवयूर और त्रिप्रयार श्री रामास्वामी मंदिर और आंध्र प्रदेश दौरे के समय लेपाक्षी मंदिर में पूजा-पाठ किया।
लेपाक्षी मंदिर को लेकर मान्यता है कि जब पौराणिक पक्षी जटायु पर रावण ने हमला किया था, तो वह यहां गिर गया था।
वीकेंड पर पीएम मोदी ने प्रभु श्री राम के पूर्वज माने जाने वाले श्री रंगनाथस्वामी के श्रीरंगम मंदिर में पूजा-अर्चना की। इसके बाद वे धनुषकोडी के श्री कोथंड्रामा स्वामी मंदिर और प्रभु श्रीराम के पैरों के निशान को समर्पित रामनाथस्वामी मंदिर और रामर पथम मंदिर में पूजा करेंगे।
इसके बाद वे अरिचल मुनाई जाएंगे, पौराणिक मान्यताओं के अनुसार जहां राम सेतु बनाया गया था। पीएम मोदी उस जगह पर डुबकी भी लगाएंगे, जहां बंगाल की खाड़ी और हिंद महासागर का मिलन होता है।
सोमवार, 22 जनवरी को अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा से 11 दिन पहले से पीएम मोदी उपवास रख रहे हैं।
उपवास रखने के बाद से पीएम मोदी जो कर रहे हैं, उस पर उनकी पार्टी, विपक्षी नेता और राजनीतिक पंडित बहुत बारीक नजर रख रहे हैं। राजनीतिक हलकों में इसे अलग-अलग नजरिए से देखा जा रहा है।
पीएम मोदी ने पहले ही 2024 का लोकसभा अभियान शुरू कर दिया है। जानकारों की राय है कि बीजेपी उत्तरी राज्यों में चुनाव परिणाम को लेकर आशंकित है। पार्टी के सामने कर्नाटक की 28 में से 25 सीटें और तेलंगाना में चार सीटें बरकरार रखने की चुनौती है।
बीजेपी ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव में तेलंगाना की 17 सीटों में से चार पर जीत हासिल की थी। पार्टी, कर्नाटक और तेलंगाना के अलावा केरल और तमिलनाडु जैसे दक्षिणी राज्यों में अपना आधार मजबूत करना चाहती है।
बात अगर आंध्र प्रदेश की हो, तो यहां बीजेपी के सामने कोई बड़ी चुनौती नहीं है। पिछले लोकसभा चुनाव में एक प्रतिशत से भी कम वोट पाने वाली बीजेपी को राज्य के दोनों मुख्य क्षेत्रीय दल अपने पक्ष में रखने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं।
पिछले दशक के अनुभव के आधार पर मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस सरकार और न ही उसके कट्टर प्रतिद्वंद्वी टीडीपी के नेता चंद्रबाबू नायडू, बीजेपी के सामने कोई मुश्किल खड़ी कर रहे हैं।
विंध्याचल पहाड़ पार करने की चुनौती
जिस तरीके से प्रधानमंत्री, केरल में अपने पसंदीदा उम्मीदवार और अभिनेता सुरेश गोपी की बेटी की शादी में शामिल हुए और प्रभु श्रीराम से जुड़े मंदिरों में पूजा-पाठ किया, उसे लेकर राजनीतिक विश्लेषक इस तरफ इशारा कर रहे हैं कि बीजेपी दो बार की सत्ता विरोधी लहर को भेदने की कोशिश कर रही है।
राजनीतिक विश्लेषक डॉ. संदीप शास्त्री ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘हिंदी भाषी क्षेत्र में अयोध्या को लेकर जिस तरीके की लहर पैदा करने की उम्मीद वे लोग कर रहे हैं उसे देखकर ऐसा लगता है कि पार्टी और प्रधानमंत्री को यह अहसास हो गया है कि भावनात्मक रूप से विंध्याचल काफी ऊंचा पहाड़ है जिसे पार करना आसान नहीं हैं।’
कर्नाटक जैसे राज्य में बीजेपी, लिंगायतों, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और अनुसूचित जाति के एक वर्ग को अपने साथ लेकर आगे बढऩे में सक्षम रही है।
बीजेपी ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव में तेलंगाना में चार सीटें जीतकर सभी को हैरान कर दिया था, लेकिन मई में हुए विधानसभा चुनावों में बीजेपी ने कांग्रेस के हाथों अपनी जमीन गंवा दी। इस चुनाव में बीजेपी को भारत राष्ट्र समिति (तेलंगाना राष्ट्र समिति) का मुख्य प्रतिद्वंद्वी माना जा रहा था।
चलेगी ‘मोदी गारंटी’ ?
केरल के राजनीतिक विश्लेषक एमजी राधाकृष्णन ने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘यह बहुत साफ है कि वे चाहते हैं कि दक्षिण भारत भी मोदी मैजिक और मोदी गारंटी से आकर्षित हो।’
‘केरल जैसे राज्य में एक सीट भी अगर बीजेपी को मिलती है, तो इसका मतलब है कि भाजपा अब भारत के इस हिस्से में अछूत नहीं है। यह एक हताशा से भरा कदम है, क्योंकि सबरीमाला जैसे मामले को लेकर भी पार्टी का लोगों के बीच कोई प्रभाव नहीं पड़ा।’ लेकिन चेन्नई में रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक सुरेश कुमार, दक्षिणी राज्यों पर पीएम मोदी के फोकस को अलग नजरिए से देखते हैं।
वे कहते हैं, ‘उत्तर में यह साफ है कि इससे फायदा हुआ है। उन्हें राम मंदिर निर्माण के अलावा कुछ करने की जरूरत नहीं है, लेकिन दक्षिण में कर्नाटक को छोडक़र राम मंदिर आंदोलन और दक्षिण के बीच कोई संबंध नहीं है।’
उन्होंने कहा, ‘आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, केरल और तमिलनाडु जैसे अन्य राज्यों में इसे लेकर लोगों का बहुत कम जुड़ाव है।’
दक्षिण भारत में प्रभु श्रीराम को कैसे देखा जाता है?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस अभियान के कई अन्य पहलू भी हैं। इनमें सबसे अहम यह है कि प्रभु श्रीराम को उत्तरी राज्यों की तुलना में दक्षिण राज्यों में किस तरह देखा जाता है।
राजनीतिक विश्लेषक नागराज गली कहते हैं, ‘इसमें कोई शक नहीं है कि भगवान राम, दक्षिण में भी पूजनीय हैं, लेकिन उन्हें देखने के तरीके में फर्क है।’
वे कहते हैं, ‘दक्षिण राज्यों में भगवान राम अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि के लिए जाने जाते हैं।’
नागराज, गोलकुंडा में कुतुब शाही राजवंश के अबुल हसन कुतुब शाह उर्फ ताना शाह की कहानी सुनाते हैं।
उनके एक रेवेन्यू इंस्पेक्टर भद्राचल रामदासु को 1662 ई। में भगवान राम के लिए एक मंदिर बनाने के लिए लोगों से धन इक_ा करने के लिए जेल में डाल दिया गया था।
कुछ सालों के बाद रामदासु को ताना शाह ने जेल से रिहा कर दिया, क्योंकि भगवान राम ने सपने में आकर उनसे कहा था कि रामदासु ने उनके (भगवान राम) के प्रति आस्था के कारण सार्वजनिक तौर पर धन जमा किया था। इस सपने के बाद ताना शाह ने रामदासु को तुरंत रिहा कर दिया और भद्राचलम राम मंदिर बनाने में उनकी मदद की।
नागराज कहते हैं, ‘तिरुपति के बालाजी मंदिर के मामले में भी मुस्लिम समुदाय के साथ ऐसा ही जुड़ाव है। उनकी तीसरी पत्नी एक मुस्लिम महिला थी।’ (बाकी पेज 8 पर)
बीजेपी का क्या है लक्ष्य?
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि जातीय पहचान, धार्मिक पहचान को चैलेंज कर रही है।
नागराज कहते हैं, ‘यही कारण है कि भाजपा के लिए दक्षिण में बड़ी सफलता हासिल करना मुश्किल होगा, हालांकि हम इस संभावना से इनकार नहीं कर सकते कि इस बार तेलंगाना में भाजपा को फायदा होगा।’
वे कहते हैं, ‘मुकाबला सबसे ज्यादा कांग्रेस और भाजपा के बीच होने की संभावना है क्योंकि विधानसभा चुनावों में हार के बाद बीआरएस की स्थिति कमजोर हो रही है।’
सुरेश कुमार कहते हैं, ‘उनका लक्ष्य आगामी लोकसभा चुनाव नहीं हैं। उनकी नजर 2026 के विधानसभा चुनाव पर है, लेकिन हाल के हफ्ते में डीएमके ने जो कदम बढ़ाएं हैं उससे चीजें बदल गई हैं।’
वे कहते हैं, ‘अब वह ये कह रही है कि वो हिंदुओं और भगवान राम की पूजा के खिलाफ नहीं है। भाजपा का मकसद एडप्पादी पलानीस्वामी के नेतृत्व वाली एआईएडीएमके के सपोर्ट बेस पर कब्जा करना है, जो राज्य में अपनी स्थिति मजबूत नहीं कर पा रहे हैं।’ उनका कहना है, ‘अहम पहलू यह है कि भाजपा को टीटीवी दिनाकरन के साथ भी गठबंधन करने में कोई झिझक नहीं है, जो प्रवर्तन निदेशालय के मामलों का सामना कर रहे हैं।’
दलित इंटेलक्चुअल कलेक्टिव, चेन्नई के संयोजक प्रोफ़ेसर सी। लक्ष्मणन कहते हैं, ‘उनको (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) इस बात का भरोसा नहीं है कि अकेले यूपी चुनाव में बीजेपी को बहुत ज्यादा बढ़त बनाने में मदद करेगा। अयोध्या में राममंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के बाद भी बीजेपी और आरएसएस को और ज्यादा समर्थन की जरूरत पड़ेगी क्योंकि इस बार उन्हें एकजुट विपक्ष का सामना करना होगा। पिछले दो चुनावों में उनका इस तरह के विपक्ष से सामना नहीं हुआ था। प्रधानमंत्री धार्मिक आधार पर लोगों की गोलबंदी की पूरी कोशिश करेंगे।’
मोदी फैक्टर
पिछले दो हफ्तों में प्रधानमंत्री के केरल दौरा का फोकस त्रिशूर पर था। राजनीतिक विश्लेषक राधाकृष्णन कहते हैं, ‘यह एक बहुत ही योजनाबद्ध अभियान है। त्रिशूर (लोकसभा क्षेत्र) ईसाई समुदाय का गढ़ है। यहां पर भगवान राम का नाम लेने की जरूरत नहीं है। यह मोदी फैक्टर है, जो सोने पर सुहागे का काम करेगा।’
वे कहते हैं, ‘मोदी फैक्टर के जरिए अतिरिक्त धक्का देने की कोशिश की जा रही है। त्रिशूर में बीजेपी के लिए फायदा यह है कि इस्लामोफोबिक अभियान के कारण ईसाई समुदाय बंटा हुआ है। दूसरी तरफ हाल के सालों में मुसलमानों के समर्थन के कारण सीपीएम तेजी से बढ़ी है। बेशक हिंदू सीपीएम का समर्थन करते हैं। हालांकि भाजपा की सफलता से केरल में राजनीतिक समीकरण नहीं बदलेंगे।’
कर्नाटक में 2019 के चुनाव में बीजेपी ने कांग्रेस को महज एक सीट पर समेट दिया और अपने चरम पर पहुंच गई। पार्टी एक बार फिर मोदी की अपील पर निर्भर रहेगी लेकिन डॉ. शास्त्री के अनुसार सीटों की मात्रा कुछ कारकों पर निर्भर करेगी।
वे कहते हैं कि इसके लिए चार कारण अहम हैं। वे बताते हैं, ‘यह इस बात पर निर्भर करता है कि कांग्रेस अपनी गारंटी पूरा किए जाने को कितनी अच्छी तरह से लोगों तक पहुंचा पाती है। महिला मतदाताओं की धारणा, मुफ्त बस यात्रा और परिवार की महिला मुखिया को पैसे मिलने से जुड़ी हुई है।’ उनका कहना हैं, ‘यह जरूरी है कि कांग्रेस कैसे एकजुट होकर प्रदर्शन करती है और भाजपा कैसे अपने आंतरिक विरोधाभासों को दूर करती है और क्या मोदी फैक्टर भाजपा की आंतरिक कलह को दूर कर सकता है।’
डॉ. शास्त्री सीएसडीएस-लोकनीति के साल 2014 लोकसभा चुनाव के अध्ययन का जिक्र करते हैं, जो विधानसभा चुनाव के एक साल बाद हुआ था।
वे कहते हैं, ‘हमने लोगों से पूछा कि वे सिद्धारमैया के नेतृत्व वाली सरकार के बारे में क्या महसूस करते हैं? 90 प्रतिशत लोगों ने कहा कि उन्होंने अच्छा प्रदर्शन किया है। कई राज्यों में बीजेपी को वोट देने वालों में से कई अधिक प्रतिशत लोगों ने कहा कि अगर मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होते तो वे बीजेपी को वोट नहीं करते।’
उन्होंने कहा, ‘कर्नाटक में भाजपा को वोट देने वाले 10 में से 6 लोगों ने कहा कि अगर मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होते तो वे पार्टी को लेकर अपनी पसंद बदल देते।’
इस बार फिर विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव होना है, जिसे कांग्रेस ने भारी बहुमत से जीता है। क्या इस बार चीजें बदलेंगी। यह भी एक बड़ा सवाल है। (bbc.com/hindi)
-तारन प्रकाश सिन्हा
करुणा सुख सागर, सब गुन आगर, जेहि गावहिं श्रुति संता।
सो मम हित लागी, जन अनुरागी, प्रकट भये श्रीकंता॥
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के निकट चंदखुरी में माता कौशल्या मंदिर के अलावा और भी बहुत कुछ अद्भुत है, जिसकी चर्चा कभी कभार ही होती है। एक है फुटहा मंदिर। यानी टूटा-फूटा। खंडहर। अब भला नये जमाने के लोगों को इसमें रुचि क्योंकर होनी चाहिए! लेकिन जरा रुकिए, खंडहरों की खामोशियों को सुनिए, वे बोलती हैं। कथाएं सुनाती हैं।
तो चंदखुरी गांव के खूब भीतर की ओर वह फुटहा मंदिर है। बस्ती तो उसे निगल ही जाती, गर पुरातत्व के जानकारों ने वहां लक्ष्मण-रेखा न खींच रखी होती। बस्ती की बसाहट में गुम होता-होता बच रह गया, यह बताने के लिए कि जब तुलसीदास जी का रामचरित मानस नहीं था, तब भी छत्तीसगढ़ के जन-जन में राम बसा करते थे।
पुरातत्व के जानकार बताते हैं कि फुटहा मंदिर आठवीं शताब्दी का है, और तुलसीदास जी को तो यही कोई 500 बरस हुए। फुटहा मंदिर में राम कथा के प्रसंग उत्कीर्ण हैं। अर्थ यह हुआ कि तब लोग न केवल राम को जानते थे, बल्कि रामकथा भी जानते थे।
राम के नाम का चमत्कार यह कि वह एक बार उच्चारित होकर हजारों-हजार बार प्रतिध्वनित होता है। एक बार लिखा जाकर हजारों-हजार बार पढ़ा जाता है। एक बार पढ़ा जाकर हजारों-हजार बार मन के भीतर हिलोरें मारता है। उच्चारित और उद्घोषित होने के बाद राम का नाम सर्वव्याप्त हो जाता है। सुनने और पढऩे वालों के जीवन में चंदन और पानी हो जाता है।
तुलसीदास जी पहले वाल्मीकि ने रामायण संस्कृत में लिखी। राम का नाम रामायण में भला कहां समाता? उसने छलक छलक कर भाषाओं को पूरित किया। संस्कृत से उद्गमित होकर संस्कृति में प्रवाहित होने लगा। राम अयोध्या के राजा बन गये, लेकिन लोक ने उन्हें अपने निकट ही, वनों में बसाए रखा, अयोध्या लौटने न दिया।
राजा राम से ज्यादा वनवासी राम की छवि लोक में बसी रही। शबरी के जूठे बेरों का बड़े प्रेम से भोग लगाते राम, केंवट के आगे पार उतार देने का अनुनय करते राम, वनवासियों को हृदय से लगाते, आलिंगन करते राम।
डॉ. आर.के. पालीवाल
आज़ादी के बाद जन प्रतिनिधियों और जन सेवकों में जन के प्रति दुष्प्रवृत्तियां निरंतर बढ़ी हैं। जन प्रतिनिधि जन सेवकों को अपना व्यक्तिगत गुलाम समझने लगे हैं और चाहते हैं कि नौकरशाही उनके इशारों पर नाचते हुए नियम कानून को धता बताकर वही काम करे जो वे चाहते हैं। दूसरी तरफ जन सेवक जनता को अपना गुलाम समझने लगे हैं और चाहते हैं कि जनता उनके हर आदेश को ईश्वर का आदेश समझकर चुपचाप अनुसरण करे।मध्य प्रदेश में हाल की दो घटनाओं ने इस मुद्दे पर मीडिया और लोगों का ध्यान खींचा है। पहली घटना में ड्राइवर हड़ताल के दौरान एक जिला कलेक्टर द्वारा आयोजित बैठक में सरेआम एक ड्राइवर को उसकी औकात बताने का वीडियो सामने आया था। इस कलेक्टर को सरकार ने त्वरित कार्रवाई करते हुए तुरंत प्रभाव से जिले से हटा दिया था। इसके बावजूद नौकरशाही पर कोई असर नहीं हुआ और इस घटना के कुछ दिन बाद एक तहसीलदार एक किसान को चूजा कहती हुई दिखाई दी ।तहसीलदार और कलेक्टर क्रमश: तहसील और जिले में राज्य सरकार के प्रमुख प्रतिनिधि और शासन के प्रतीक होते हैं। जब आमजन के प्रति उनके व्यवहार इस तरह के होंगे तब उनके मातहत काम करने वाले जूनियर अफसर और कर्मचारी भी जनता से इसी तरह की बदसलूकी करते हैं।
गांव गांव में पटवारियों द्वारा किसानों और गरीबी रेखा से नीचे आने वाले नागरिकों के उत्पीडऩ और दुर्व्यवहार की शिकायतें भी आम हैं लेकिन वे मीडिया की सुर्खियां नहीं बन पाती क्योंकि अधिकांश पीडि़त ग्रामीण इन घटनाओं के वीडियो नहीं बना पाते और उन्हें सोशल मीडिया पर वायरल नहीं कर पाते। इसी तरह ग्राम पंचायत के सचिवों की मनमानी की भी हर गांव में अनंत कहानियां सुनने को मिलती हैं। थानों और पुलिस एवम आर टी ओ आदि की चेकपोस्ट पर भी जनता को आए दिन ऐसी ही बदसलूकी और बदतमीजी का सामना करना पड़ता है। आम जनता से सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों का अच्छा व्यवहार अपवाद सरीखा हो गया है।विधायकों, सांसदों और मंत्रियों के प्रतिनिधियों, परिजनों और ओ एस डी आदि से यही अधिकारी और कर्मचारी बहुत इज्जत से पेश आते हैं और मंत्रियों के सामने तो दंडवत प्रणाम की मुद्रा में रहते हैं लेकिन जनता के साथ तरह तरह से दुर्व्यवहार करते हैं।
जन प्रतिनिधियों और जन सेवकों का दुर्व्यवहार भ्रष्टाचार की अविरल गंगा के कारण भी बढ़ा है। इस मैली गंगा में ऊपर से नीचे तक काफी बडी संख्या में जन प्रतिनिधियों और जन सेवकों के नग्न स्नान के कारण अधिकारियों और कर्मचारियों को विभागीय अनुशासनात्मक कार्यवाही का कोई भय नहीं रहा क्योंकि उन्हें विश्वास है कि घूस और रसूख के दोहरे बल से वे जस के तस रहेंगे। हाल ही में मध्य प्रदेश के वन विभाग के एक जूनियर अधिकारी का भी एक वीडियो वायरल हुआ था जिसमें वह अपनी घूसखोरी को सरेआम जायज ठहराते हुए कह रहा था कि वह अपनी पोस्टिंग के लिए मंत्री तक घूस देकर आया है इसलिए कोई उसका बाल बांका नहीं कर सकता। घूस देकर पोस्टिंग या मंत्री और मुख्यमंत्री की गुलामी की गारंटी देकर मलाईदार माने जाने वाले पदों पर नियुक्तियां हमारे समय का ऐसा कड़वा सच है जिसे कोई ईमानदार नागरिक नकार नहीं सकता। जो व्यक्ति शीर्ष पर बैठे आकाओं को घूस देकर या उनके उल्टे सीधे कामों को पूरा करने की गारंटी देकर किसी जिले, तहसील, थाने या पंचायत की कमान संभालेगा वह दी गई घूस की तुलना में कई गुना ज्यादा घूसखोरी करता है। ऐसे अधिकारी और कर्मचारी ज्यादा घूसखोरी करने के लिए भी आम जनता से बदसलूकी करते हैं क्योंकि वे यह अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी छोटी मोटी शिकायतों को ऊपर वाले ठंडे बस्ते में डाल देंगे। दो चार अफसरों के ट्रांसफर या सस्पेंड होने से हालात सुधरने की संभावना नहीं है। जब तक संविधान और कानून का राज नहीं होगा तब तक जमीनी स्थितियां बद से बदतर होती जाएंगी।
कश्यप किशोर मिश्र
सन उन्यासी की रामनवमी थी, असवनपार के इदरीश मियाँ के इक्के से, हम दोहरीघाट जा रहे थे, पटना चौराहे से आगे सरयू का पुल शुरू होता था, पुल के बीच पहुँच इदरीश मियाँ नें इक्का रोक दिया और अपनें कुर्ते से दो तीन सिक्के निकाले, एक दो पैसे का सिक्का हाथ में ले, सरजू मईया को देखते आँखें मूँद मन्नत माँगते कहा ‘हे रामजी, हमके हज करवा दो!’ और सिक्का सरजू मईया में उछाल दिया।
फिर एक सिक्का, एक पैसे का, मुझे देते हुए कहा, बाबू लो तूहहू चढ़ा दो, मेरे लिए वह एक पैसे का सिक्का, एक चॉकलेट था, जिसे पानी में मै खुद तो कभी नहीं फेंकता।
मैंने इक्के पर बैठे, अपनें बाबा की तरफ देखा, बाबा के चेहरे पर असमंजस के भाव थे, अर्थात उनकी निगाहों में मुझे सहमति नहीं दिखाई दी, सहमति नहीं अर्थात वर्जना ! हमनें बचपन से यही सीखा था, बाबा की बरज रही भाव मुद्रा से मैं एक पल को ठिठक गया, एक कारण हरेक सिक्के से जुड़ी हमारी चॉकलेट भी यकीनन रही होगी ।
बाबा नें पूछा ‘इसको सिक्का फेंकने को क्यों दे रहे हो, इदरीश ?’ इदरीश मियाँ नें कहा ‘मनेजर साहब, लईकन की माँगी मुराद पूरी हो जाती है, मन के सच्चे होते हैं, न ! हमारे मन में तो पाप भरा होता है।’ उस लडक़पन में भी, मेरा मन भींग गया, मैंने दुबारा बाबा की तरफ देखा भी नहीं और ‘हे सरजू मईया, हे राम जी बाबा को हज करवा दो’ कहते सिक्का उछाल दिया ।
फिर मैंने पाकिट टटोली, गाँव से चलते विदाई में खूब सारे सिक्के मिले थे, उनमें से एक सिक्का निकाला और ‘ई हमारी तरफ से है’‘कहते उसे भी सरयू में उछाल दिया । मैंने चोर नजरों से बाबा को देखा ‘बाबा के चेहरे पर खिलखिलाहट नाच रही थी।’
करीब दो बरस बाद, हम गाँव लौटे। सडक़ पर लेनें गगहा में केवल की बैलगाड़ी आई हुई थी, राह में ईदरीश मियाँ की चर्चा चली, केवल नें कहा ‘ऊ तो साल भर हुआ मर गए, घरवा भी बिला गया।’
बाबा नें पूछा ‘हज गए की, नहीं?’
केवल नें भारी मन से बताया ‘कहाँ कर पाए, रिरिक रिरिक के मर गए, रहा होगा कोई पाप, जो जनम भर की उनकी साध, साध ही रही।’
मैंने देखा, बाबा सहित मेरे पूरे परिवार की कोरे गीली थीं । यह याद करते हमेशा ही मेरा मन भी भींग जाता है, जी करता है, वो पल फिर लौट आए और अपनें पाकिट के सारे सिक्के सरजू मईया में उछाल दूँ और पूरे मन से, पूरी साध से कहूँ ‘रामजी, ईदरीश बाबा को हज करवा दो ।’
दिलीप कुमार शर्मा
मणिपुर में बीते 48 घंटों में अलग-अलग जगह पर हुई हिंसा में पांच नागरिकों समेत दो सुरक्षाकर्मियों की मौत हुई है।
इसमें से एक मामला विष्णुपुर जि़ले का है। यहां संदिग्ध हथियारबंद चरमपंथियों ने गुरुवार शाम एक पिता-पुत्र समेत चार लोगों की हत्या कर दी।
मरने वाले लोगों की पहचान थियाम सोमेन सिंह,ओइनम बामोइजाओ सिंह, उनके बेटे ओइनम मनितोम्बा सिंह और निंगथौजम नबादीप मैतेई के रूप में की गई है।
वहीं बुधवार रात इंफाल पश्चिम जि़ले के कांगचुप में हमलावरों ने एक मैतेई बहुल गांव के ग्राम रक्षक की हत्या कर दी। बुधवार को ही संदिग्ध चरमपंथियों ने टैंगनोपल जि़ले में म्यांमार सीमा से सटे मोरेह शहर में सुरक्षाबलों पर हमला किया था। इसमें पुलिस के दो जवानों की मौत हो गई थी।
हिंसा की इन अलग-अलग घटनाओं में मारे गए सभी लोग मैतेई समुदाय के थे। इसके बाद राजधानी इंफाल से लेकर बिष्णुपुर जैसे मैतेई बहुल इलाकों में सुरक्षा व्यवस्था को लेकर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए है।
मणिपुर में 3 मई से रह-रहकर हो रही हिंसा के बीच पिछले कुछ दिनों से शांति का माहौल बना हुआ था। लेकिन बुधवार को मोरेह शहर से फिर शुरू हुई हिंसा ने राज्य में भय और दहशत का माहौल पैदा कर दिया है।
मणिपुर में चरमराई कानून-व्यवस्था को लेकर सवाल उठ रहे हैं कि आखिर इस ताज़ा हिंसा के पीछे क्या वजह है? क्यों पिछले आठ महीनों से यहां हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है?
मोरेह में कैसे भडक़ी हिंसा
पिछले 8 महीनों में मणिपुर के जिन शहरी इलाकों में व्यापक स्तर पर हिंसा हुई, उसमें सीमावर्ती मोरेह शहर भी एक है।
कुकी जनजाति बहुल इस शहर में हिंसा के दौरान मैतेई लोगों के अधिकतर घरों को जला दिया गया था। इस समय मोरेह में एक भी मैतेई परिवार नहीं है।
मोरेह में असम राइफल्स और बीएसएफ के साथ मणिपुर पुलिस कमांडो की तैनाती को लेकर विरोध होता रहा है। वहां कुकी जनजाति के लोग मणिपुर पुलिस कमांडो को इलाके से हटाने की मांग करते आ रहे हैं। उनका कहना है कि मणिपुर पुलिस कमांडो में मैतेई समुदाय के जवान हैं, जिसके कारण वे लोग सुरक्षित महसूस नहीं करते। उनका यह भी आरोप है कि पुलिस कमांडो के साथ कुछ मैतेई हमलावर भी इलाके में आ गए हैं।
कुकी जनजाति के प्रमुख संगठन कुकी इंग्पी के वरिष्ठ नेता थांगमिलन किपजेन की मानें तो इस लड़ाई को रोकने के लिए भारत सरकार का हस्तक्षेप ज़रूरी है।
उन्होंने बीबीसी से कहा, ‘राज्य में तुलनात्मक शांति थी। क्योंकि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जी ने कहा था कि पहाड़ी इलाकों की कानून-व्यवस्था वे खुद देखेंगे और घाटी वाले इलाकों को मुख्यमंत्री बीरेन सिंह संभालेंगे। लिहाज़ा अब तक राज्य पुलिस के कमांडो पहाड़ी इलाके में नहीं आ रहे थे। अब हिंसा इसलिए बढ़ गई कि मणिपुर सरकार मैतेई समुदाय के पुलिस कमांडो को हेलीकॉप्टर के जरिए मोरेह भेज रही है। राज्य सरकार को शांति कायम करने के लिए इन कमांडो को वापस बुलाने की ज़रूरत है।’
कुछ कुकी संगठनों ने मोरेह शहर से मणिपुर पुलिस कमांडो को हटाने की मांग पर कई बार विरोध प्रदर्शन भी किया है।
पिछले साल अक्टूबर महीने में मोरेह में सब डिविजनल पुलिस अधिकारी (एसडीपीओ) चिंगथम आनंद कुमार की संदिग्ध चरमपंथियों ने हत्या कर दी थी जिसके बाद से इलाके में संघर्ष बढ़ता गया।
गिरफ्तारी के ख़िलाफ़ प्रदर्शन
मणिपुर पुलिस की स्पेशल कमांडो टीम ने सोमवार की शाम एक मुठभेड़ के बाद दो संदिग्ध लोगों को पकड़ा था। पुलिस का दावा है कि ये दोनों लोग मोरेह शहर के एसडीपीओ रहे आनंद कुमार की हत्या में शामिल हैं।
पुलिस ने इस मामले में दो लोगों को गिरफ़्तार किया। ये दोनों लोग कुकी-ज़ो जनजाति से जुड़े थे। ऐसे में कुकी लोगों, ख़ासकर इस समुदाय की महिलाओं ने दोनों की रिहाई के लिए मोरेह थाने के सामने प्रदर्शन किया।
पुलिस ने प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए बल का प्रयोग किया। इसमें कई महिलाएं घायल हो गईं। इसके अगले दिन ही हथियारबंद संदिग्ध चरमपंथियों ने मोरेह शहर के तीन अलग-अलग जगहों पर हमला कर दो पुलिस कमांडो की जान ले ली।
मणिपुर में कुकी चरमपंथियों की ओर से ताज़ा हमले किए जाने के सवाल पर किपजेन कहते हैं, ‘म्यांमार में अभी संघर्ष चल रहा है। लिहाज़ा इस समय वहां कई चरमपंथी संगठन सक्रिय हैं। मणिपुर का बॉर्डर सील नहीं है, इसलिए यहां मूवमेंट होता रहता है। लेकिन मोरेह में सुरक्षाबलों पर हुए हमले में विदेशी चरमपंथियों का हाथ नहीं है।’
सुरक्षा सलाहकार के इस्तीफे की मांग और उनका जवाब
राज्य की सुरक्षा व्यवस्था को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे कुछ संगठनों ने मणिपुर में राज्य और केंद्रीय बलों की एकीकृत कमान के अध्यक्ष कुलदीप सिंह के इस्तीफे की मांग की है।
राज्य में मैतेई महिलाओं के सबसे ताकतवर संगठन मीरा पैबी ने भी यही मांग उठाई है।
जबकि मणिपुर के सुरक्षा सलाहकार कुलदीप सिंह का कहना है कि सुरक्षाबलों के जवान असम राइफल्स के साथ मिलकर हमला करने वाले चरमपंथियों का मुकाबला कर रहे हैं।
सुरक्षाबलों पर हुए हमले पर गुरुवार शाम इंफाल में कुलदीप सिंह ने कहा, ‘म्यांमार की सीमा पर स्थित मोरेह शहर में बुधवार को पुलिसकर्मियों पर हुए हमले से पहले एक खुफिया रिपोर्ट में सुझाव दिया गया था कि विद्रोही गुटों के साथ ‘बर्मा से आए सैनिक’ सुरक्षाबलों पर हमला कर सकते हैं।’
उन्होंने कहा कि कुकी समूहों से मिली धमकी के बाद खुफिया जानकारी इक_ा की गई थी कि मोरेह में तैनात मणिपुर पुलिस कमांडो को निशाना बनाया जाएगा। क्योंकि कूकी इंग्पी और नागरिक समाज संगठन के कई लोग मोरेह में सुरक्षित स्थानों पर आ रहे थे और वे कह रहे थे कि पुलिस के कमांडो को वहां से हटा दिया जाए।
लेकिन उस घटना में विदेशी हमलावरों की संलिप्तता के संबंध में अभी भी कोई सबूत नहीं है।
मैतेई समाज के हितों के लिए बनी कोआर्डिनेशन कमेटी ऑफ़ मणिपुर इंटीग्रिटी अर्थात कोकोमी के वरिष्ठ नेता किरेन कुमार मानते हैं कि केंद्र और राज्य सरकार मणिपुर में स्थिति संभालने में सफल नहीं हो रहे हैं।
वो कहते है, ‘सरकार कुकी आतंकियों को नियंत्रित नहीं कर पा रही है। कुकी बॉर्डर टाउन मोरेह पर कब्जा करना चाहता है। म्यांमार के विद्रोही इन कुकी आतंकियों के साथ मिलकर आरपीजी विस्फोटक से हमला कर रहे हैं। किसी भी जातीय हिंसा में आरपीजी चलाने की बात किसी ने नहीं सुनी होगी।’
राज्य में शांति स्थापित करने के सवाल पर मैतेई नेता किरेन कुमार कहते हैं, ‘प्रदेश में शांति केवल भारत सरकार के हस्तक्षेप से ही कायम हो सकती है। हिंसा को शुरू हुए आठ महीने से ज्यादा हो चुके हैं। बीरेन सरकार पूरी तरह फेल हो गई है। लोगों की हत्या की जा रही है। घरों को जलाया जा रहा है लेकिन किसी को मणिपुर की चिंता नहीं है।’
सुरक्षा इंतज़ामों में बदलाव
राज्य में सामने आई हिंसा की इन ताज़ा घटनाओं के बाद नए सिरे से सुरक्षा इंतज़ाम किए गए हैं। क्योंकि पहले चरमपंथी इस तरह के हमले दूर-दराज़ के इलाकों से कर रहे थे।
लेकिन हाल ही में पुलिस के कमांडो पर पास से आकर हमला किया गया है। लिहाज़ा सीमावर्ती इलाकों में असम राइफल्स, बीएसएफ और पुलिस कमांडो के जवानों ने हमलावरों को खोजने के लिए व्यापक अभियान शुरू किया है।
इस बीच राज्य सरकार ने केंद्र सरकार से सैन्य और मेडिकल संबंधी मदद के साथ-साथ इमरजेंसी सिचुएशन में इस्तेमाल किया जाने वाला विशेष हेलिकॉप्टर मांगा। केंद्र सरकार ने ये हेलिकॉप्टर उपलब्ध भी करा दिया है।
मणिपुर के सुरक्षा सलाहकार कुलदीप सिंह ने बताया, ‘मोरेह में बीएसएफ की एक कंपनी, सेना की दो टुकडिय़ां और चार कैस्पर वाहनों सहित अतिरिक्त बल तैनात किया गया है। इसके अलावा केंद्रीय गृह मंत्रालय के एक हेलीकॉप्टर को भी इलाके में उतारा गया है।’
मणिपुर में पिछले 8 महीनों से जारी हिंसा पर नजऱ रख रहे वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप फनजौबाम कहते हैं, ‘पहाड़ी इलाकों के लिए अलग प्रशासन की मांग की जा रही है जिसका मैतेई समुदाय विरोध कर रहा है। बीते कुछ दिन बिना हिंसा के बीतने के बाद चरमपंथियों ने सरकार का ध्यान खींचने के लिए फिर से हमला करना शुरू कर दिया है।’
‘लोकसभा चुनाव नज़दीक है। चरमपंथियों को लगता है कि इस तरह से वे अपनी मांगें मनवा सकते हैं। अगर केंद्र सरकार अलग प्रशासन देने जैसा कोई फैसला लेती है तो मणिपुर के साथ नागालैंड और मेघालय जैसे राज्यों में भी लड़ाइयां शुरू हो जाएंगी।’ (bbc.com)