विचार/लेख
अदानी ग्रुप के खिलाफ रिपोर्ट जारी करने वाली हिंडनबर्ग रिसर्च ने अब बाज़ार नियामक सेबी की चेयरपर्सन माधबी पुरी बुच पर आरोप लगाया है।
अमेरिकी शॉर्ट सेलर फंड हिंडनबर्ग ने शनिवार को व्हिसलब्लोअर दस्तावेजों का हवाला देते हुए कहा कि सेबी की चेयरपर्सन और उनके पति धवल बुच की उन ऑफ़शोर कंपनियों में हिस्सेदारी रही है, जो अदानी समूह की वित्तीय अनियमितताओं से जुड़ी हुई थीं।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ और पीटीआई के मुताबिक़, सेबी चेयरपर्सन और उनके पति धवल बुच ने एक बयान जारी कर इन आरोपों का खंडन किया है।
दोनों ने एक संयुक्त बयान जारी कर कहा है, ‘इन आरोपों में कोई सचाई नहीं है। हमारी जि़ंदगी और वित्तीय लेनदेन खुली किताब हैं।’
क्या है हिंडनबर्ग की रिपोर्ट में
हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट में कहा गया है कि सेबी के चेयरपर्सन की उन ऑफ़शोर कंपनियों में हिस्सेदारी रही है जिनका इस्तेमाल अदानी ग्रुप की कथित वित्तीय अनियमतताओं में हुआ था।
इसमें कहा गया है कि आज तक सेबी ने अदानी की दूसरी संदिग्ध शेयरहोल्डर कंपनियों पर कोई कार्रवाई नहीं की है जो इंडिया इन्फोलाइन की ईएम रिसर्जेंट फंड और इंडिया फोकस फंड की ओर से संचालित की जाती है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि सेबी चेयरपर्सन के हितों के इस संघर्ष की वजह से बाज़ार नियामक की पारदर्शिता संदिग्ध हो गई है। सेबी की लीडरशिप को लेकर रिपोर्ट में चिंता जताई जा रही है।
हिंडनबर्ग ने कहा है कि अदानी समूह की वित्तीय अनियमितताओं में जिन ऑफशोर फंड्स की संलिप्तता रही है वो काफी अस्पष्ट और जटिल स्ट्रक्चर वाले हैं।
रिपोर्ट में माधबी पुरी बुच के निजी हितों और बाजार नियामक प्रमुख के तौर पर उनकी भूमिका पर सवाल उठाए गए हैं। हिंडनबर्ग रिसर्च ने कहा है अदानी ग्रुप को लेकर सेबी ने जो जांच की है उसकी व्यापक जांच होनी चाहिए।
हिंडनबर्ग रिसर्च ने कहा है कि व्हिसलब्लोअर से उसे जो दस्तावेज़ हासिल हुए हैं उनके मुताबिक़ सेबी में नियुक्ति से कुछ सप्ताह पहले माधबी पुरी बुच के पति धवल बुच ने मॉरीशस के फंड प्रशासक ट्रिडेंट ट्रस्ट को ईमेल किया था। इसमें उनके और उनकी पत्नी के ग्लोबल डायनेमिक ऑप्चर्यूनिटीज फंड में निवेश का जि़क्र था।
हिंडनबर्ग की रिपोर्ट में कहा गया है माधबी बुच के सेबी अध्यक्ष बनने से पहले उनके पति ने अनुरोध किया था कि संयुक्त खाते को वही ऑपरेट करेंगे। इसका मतलब ये कि वो माधबी बुच के सेबी अध्यक्ष बनने से पहले पत्नी के खाते से सभी एसेट्स हटा देना चाहते थे।
चूंकि सेबी अध्यक्ष का पद राजनीतिक तौर पर काफी संवेदनशील होता है इसलिए उनके पति ने ये कदम उठाया होगा।
हिंडनबर्ग की रिसर्च रिपोर्ट में कहा गया है, ‘माधबी बुच के निजी ईमेल को एड्रेस किए गए 26 फरवरी 2018 के अकाउंट में उनके फंड का पूरा स्ट्रक्चर बताया गया है। फंड का नाम है ‘जीडीओएफ सेल 90 (आईपीईप्लस फंड 1)’। ये माॉरीशस में रजिस्टर्ड फंड ‘सेल’ है जो विनोद अदानी की ओर से इस्तेमाल किए गए फंड की जटिल संरचना में शामिल था।’
हिंडनबर्ग ने बताया है कि उस समय उस फंड में बुच की कुल हिस्सेदारी 872762.65 डॉलर की थी।
माधबी पुरी बुच ने आरोपों को किया ख़ारिज
समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक़, माधबी बुच और उनके पति ने कहा है,‘हम यह बताना चाहते हैं कि हमारे ऊपर लगाए गए निराधार आरापों का हम खंडन करते हैं।’
उन्होंने कहा है, ‘हमारी जिंदगी और हमारा वित्तीय लेखा-जोखा खुली किताब की तरह है और पिछले कुछ वर्षों में सेबी को सभी आवश्यक जानकारियां दी गई हैं।’
माधबी पुरी बुच और उनके पति ने कहा है, ‘हमें किसी भी और वित्तीय दस्तावेजों का खुलासा करने में कोई झिझक नहीं है, इनमें वो दस्तावेज भी शामिल हैं जो उस समय के हैं जब हम एक आम नागरिक हुआ करते थे।’
उन्होंने कहा है कि मामले की पूरी पारदर्शिता के लिए हम उचित समय पर पूरा बयान जारी करेंगे।
उन्होंने कहा है, ‘हिंडनबर्ग रिसर्च के ख़िलाफ़ सेबी ने प्रवर्तन कार्रवाई की थी और कारण बताओ नोटिस जारी किया था। उसी के जवाब में हिंडनबर्ग रिसर्च ने नाम खऱाब करने की कोशिश की है।’
कौन हैं धवल बुच
माधबी पुरी बुच के पति धवल बुच फिलहाल मशहूर इनवेस्टमेंट कंपनी ब्लैकस्टोन और अल्वारेज़ एंड मार्शल में सलाहकार हैं। वो गिल्डेन के बोर्ड में नॉन एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर भी हैं।
उनके लिंक्डइन प्रोफाइल के मुताबिक़ उन्होंने आईआईटी दिल्ली से पढ़ाई की है। उन्होंने यहां से 1984 में मैकेनिकल इंजीनियरिंग से ग्रेजुएशन की थी।
धवल बुच यूनिलीवर में एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर भी थे और बाद में कंपनी के चीफ प्रॉक्यूरमेंट ऑफिसर बने।
बुच ने खुद को प्रॉक्यूरमेंट और सप्लाई चेन के सभी पहलुओं का विशेषज्ञ भी बताया है।
कांग्रेस ने हिंडनबर्ग रिसर्च की इस नई रिपोर्ट के बाद कहा है कि ‘अदानी मेगा स्कैम की व्यापकता की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति बननी चाहिए।’
वहीं तृणमूल कांग्रेस ने सेबी प्रमुख माधबी बुच के इस्तीफे की मांग की है।
कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने एक्स पर लिखा, ‘ये सेबी चेयरपर्सन बनने के तुरंत बाद बुच के साथ गौतम अदानी की 2022 में दो बैठकों के बारे में सवाल पैदा करता है। याद करें सेबी उस समय अदानी लेनदेन की जांच कर रहा था।’
वहीं टीएमसी प्रवक्ता ने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में लंबित जांच को देखते हुए सेबी चेयरमैन को तुरंत निलंबित किया जाना चाहिए और उन्हें और उनके पति को देश छोडऩे से रोकने के लिए सभी हवाई अड्डों और इंटरपोल पर लुकआउट नोटिस जारी किया जाना चाहिए।’
टीएसी नेता महुआ मोइत्रा ने लिखा, ‘ सेबी के चेयरपर्सन का अदानी समूह में निवेशक होना सेबी के लिए टकराव और सेबी पर कब्जा दोनों है। समधी सिरिल श्रॉफ कॉपरेट गर्वनेंस कमिटी में हैं। कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सेबी को भेजी गई सारी शिकायतें अनसुनी हो जाती हैं।’
महुआ मोइत्रा ने अपने एक और ट्वीट में लिखा है कि इस चेयरपर्सन के नेतृत्व में सेबी की ओर से अदानी पर की जा रही किसी भी जांच पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। यह सूचना सार्वजनिक होने के बाद सुप्रीम कोर्ट को अपने निर्णय पर दोबारा विचार करना चाहिए।
महुआ ने कहा है कि यहां तक कि सेबी की चेयरपर्सन भी अदानी के समूह में निवेशक हैं। उन्होंने सीबीआई और ईडी को टैग करते हुए लिखा है कि क्या आप लोग पीओसीए और पीएमएलए के मामलों को दायर करेंगे या नहीं।
हिंडनबर्ग रिसर्च की यह रिपोर्ट लगभग उस रिपोर्ट के 18 महीने बाद आई है, जब इसने पहली बार अदानी समूह पर आरोप लगाए थे।
जनवरी 2023 में आई इस रिपोर्ट से भारत में राजनीतिक तूफान खड़ा हो गया था।
रिपोर्ट में अदानी समूह पर ‘शेयर बाजार में हेरफेर’ और ‘अकाउंटिंग धोखाधड़ी’ का आरोप लगाया गया था।
हालांकि बंदरगाहों से लेकर ऊर्जा कारोबार में शामिल अदानी समूह ने इन सभी आरोपों से इंकार किया था। सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई या कोर्ट की निगरानी में जांच की मांग खारिज कर दी थी।
उसके बाद अदानी समूह ने कहा था कि सच की जीत हुई है।
अदानी समूह ने क्या कहा
माधबी पुरी बुच को घेरने वाली हिंडनबर्ग की इस रिपोर्ट पर अदानी समूह ने भी प्रतिक्रिया दी है। समूह ने एक बयान जारी कर कहा है कि हिंडनबर्ग की ओर से लगाए गए ताजा आरोप में दुर्भावना और शरारत पूर्ण तरीके से सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारी का चयन किया गया है। ताकि निजी लाभ के लिए पहले से तय निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके। यह तथ्यों और कानूनों का पूरी तरह उल्लंघन है।
बयान में कहा गया है, ‘ हम अदानी समूह पर लगाए गए आरापों को पूर्ण रूप से खारिज करते हैं। यह आरोप उन बेबुनियाद दावों की री-साइकलिंग है जिनकी पूरी तरह से जांच की जा चुकी है। इन आरोपों को जनवरी 2024 में सुप्रीम कोर्ट की ओर से पहले ही खारिज किया जा चुका है।’
इससे पहले कांग्रेस ने एक बयान जारी कर अदानी मामले में उच्च अधिकारियों की कथित मिलीभगत उजागर करने के लिए जेपीसी गठित करने की मांग की थी।
हिंडनबर्ग रिसर्च ने अदानी के बाद सेबी चीफ को घेरा, जानिए क्या हैं आरोप (bbc.com/hindi)
-अशोक पांडे
बारह साल पहले हैदराबाद में हुई विश्व जूनियर टेबल टेनिस प्रतिस्पर्धा में हिस्सा लेने आई 17 साल की उस ब्राजीली लडक़ी ने अपने पहले मैच में वेनेजुएला की लूसेना जोसमेरी को सीधे सेटों में बुरी तरह हरा दिया। वह अपने देश की जूनियर रैंकिंग में तीसरे स्थान पर थी और सिंगल्स मैचों में उसने तब तक खेले अपने 66 मैचों में से 56 जीत रखे थे। एक लिहाज से उसकी यह जीत पहले से तय मानी जा रही थी।
लेकिन इस साधारण-सी, तयशुदा जीत को ‘द हिन्दू’ और ‘डेक्कन क्रॉनिकल’ जैसे अखबारों ने अपनी सुर्खियों में जगह दी और उसके इंटरव्यू किये क्योंकि उसके भीतर कुछ खास बात थी। ब्रूना अलेक्जांद्रे नाम की इस लडक़ी की एक बाँह का कोहनी से ऊपर का हिस्सा तब काटना पड़ा था जब वह कुल तीन माह की थी। डॉक्टरों की लापरवाही हुई एक गलती ने उसे जीवन भर के लिए विकलांग बना दिया था।
उससे दो साल बड़ा उसका भाई टेबल टेनिस खेलने जाता था। उसकी देखा देखी सात साल की होने पर ब्रूना ने पहली बार रैकेट हाथ में लिया। टेबल टेनिस में सर्विस करने के लिए गेंद को एक हाथ से उछाला जाना होता है जबकि दूसरे से रैकेट थामा जाता है। ब्रूना ने इसका तोड़ यह निकाला कि कटी हुई कोहनी और बगल के बीच रैकेट फंसा कर सर्विस करना सीख लिया। तरीका कारगर तो हुआ लेकिन ऐसा करने से रैकेट का हैंडल पसीने की वजह से गीला हो जाता था और खेलने में मुश्किल होती थी।
जल्द ही उसे इस मुश्किल का समाधान खोजना था। कुछ बरसों बाद एक कोच के कहने पर उसने एक ही हाथ से गेंद उछालने और सर्विस करने का अभ्यास करना शुरू किया और दो माह में ऐसी महारत हासिल कर दिखाई कि पूरे देश में अपने आयु-वर्ग में उसकी सर्विस सबसे कमाल की हो गई।
एक बांह वाली इस बच्ची को साधारण खिलाडिय़ों के साथ भी खलने का मौका मिलता था, जैसा कि हैदराबाद में हुआ और शारीरिक रूप से अक्षम खिलाडिय़ों के साथ भी। हैदराबाद में उसकी टीम कुछ विशेष नहीं कर सकी अलबत्ता ब्रूना ने दुनिया भर के लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा। बहरहाल यूं हुआ कि शारीरिक कमी के चलते उसे अगले कुछ सालों तक दुनिया भर की ऐसी स्पर्धाओं में हिस्सा लेने तक सीमित कर दिया गया जिसमें केवल विकलांग खिलाड़ी हिस्सेदारी करते हैं।
इस तरह के खेलों का सबसे बड़ा आयोजन पैरालिम्पिक खेल होते हैं। ब्रूना ने 2016 और 2020 के पैरालिम्पिक्स में हिस्सा लिया और पदक भी जीते लेकिन उसकी अदम्य इच्छाशक्ति यहीं तक थमने वाली नहीं थी। बचपन से ही ब्रूना ने खुद से छ: साल बड़ी पोलैंड की जांबाज महिला नतालिया पार्तीका को अपना रोल मॉडल माना था जिसने जन्मजात एक बांह के साथ पैदा होने के बावजूद तीन ओलिम्पिक खेलों में हिस्सा लिया था।
ब्रूना ने अपने खेल पर दूनी मेहनत शुरू कर दी। नतीजतन इस बार के पेरिस ओलंपिक में ब्राजील का प्रतिनिधित्व करने से उसे कोई नहीं थाम सका। उसकी कटी हुई बांह भी नहीं।
कभी उसे खेलते हुए देखिएगा। जिन्दगी से बहुत सारी परेशानियों की शिकायत करना भूल जाएंगे।
-अकबर हुसैन
आग से जले इस भवन को देख कर यह समझना मुश्किल है कि यह ढाका के मीरपुर पुलिस स्टेशन की इमारत है। इसकी दीवारें आग से जल कर काली पड़ चुकी हैं।
थाने के सामने पुलिस की कुछ वर्दियों, कुछ जोड़ी जूतों और कुछ बुलेटप्रूफ जैकेटों के अलावा दूसरे सामानों का ढेर लगा है। यह तमाम चीज़ें आधी से ज़्यादा जल चुकी हैं।
अब इनका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
गुरुवार को सुबह कऱीब साढ़े 9 बजे ढाका के मीरपुर मॉडल थाने की तस्वीर ऐसी ही थी। इस थाने में अंसार (अर्धसैनिक बल) के आठ कर्मचारी ड्यूटी कर रहे हैं।
मीरपुर थाने की यह जली हुई इमारत इस बात का गवाह है कि आम लोगों में पुलिस के प्रति किस हद तक नाराजग़ी थी।
एक दफ्तर में काम करने वाले कमाल हुसैन थाने के सामने खड़े होकर हालात का मुआयना कर रहे थे।
उन्होंने बीबीसी बांग्ला से कहा, ‘मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि पुलिस की ऐसी हालत हो जाएगी।’
सिर्फ मीरपुर ही नहीं, बांग्लादेश के किसी भी थाने में बीते सोमवार दोपहर से ही कोई पुलिस वाला नहीं है।
इससे पहले तमाम थानों से एक साथ सभी पुलिसवालों के फऱार होने की घटना बांग्लादेश में कभी नहीं हुई थी।
मौजूदा और पूर्व अधिकारियों का कहना है कि दुनिया के दूसरे देशों में भी ऐसी घटना बहुत विरले ही होती है। उनका कहना है कि कई बार युद्धकालीन हालात में ऐसी घटनाएं देखने को मिलती हैं।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखऱि पुलिस के सामने ऐसी परिस्थिति क्यों पैदा हुई?
‘मनमाने तरीके से फायरिंग की’
ढाका के भाटारा थाने की स्थिति भी मीरपुर थाने जैसी ही है। आगजऩी के बाद वहां चारों ओर अब थाने का मलबा ही बिखरा पड़ा है।
अंसार के कई सदस्य थाने में ड्यूटी कर रहे हैं। थाने के भीतर छात्र-छात्राओं के एक समूह से भी मुलाकात हुई। उन्होंने बताया कि वो लोग थाने से बाहर बिखरे मलबे की सफाई करने यहां आए हैं।
पुलिस का जिक्र करते ही उनके सुरों में नाराजग़ी उभर आती है। लेकिन पुलिस को लेकर आम लोगों में जो गुस्सा है उसे दूर कर हालात सामान्य कैसे बनाया जा सकता है।
एक निजी विश्वविद्यालय के छात्र अब्दुर रज़्ज़ाक़ बीबीसी बांग्ला से कहते हैं, ‘आम लोगों के साथ एकजुटता दिखाते हुए अपने बर्ताव में नरमी लाकर ही हालात को सामान्य किया जा सकता है।’
ढाका के न्यू मॉडल कॉलेज के छात्र शाहजलाल पटवारी कहते हैं, ‘मुझे पुलिस वालों के साथ बात करने में डर लगता था। पुलिस का रवैया बेहद खऱाब था। इसके अलावा पुलिस वालों ने छात्रों और आम लोगों पर बर्बर हमले किए हैं। उन लोगों ने मनमाने तरीके से गोलियां चलाई हैं।’
पुलिस के खिलाफ लोगों के मन में उपजे इस गुस्से से वरिष्ठ अधिकारी भी वाकिफ हैं।
एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बीबीसी बांग्ला से कहा कि ‘साल 2012 से पुलिस ने जब बड़े पैमाने पर बल प्रयोग शुरू किया उसी समय से लोगों के मन में उसके प्रति भारी अविश्वास पैदा हो गया।’
उनका कहना था कि पुलिस वालों से ड्यूटी पर लौटने को कहा गया है।
पुलिस वाले जितनी जल्दी काम पर लौटकर कानून व्यवस्था को सामान्य बनाने में अपनी अहम भूमिका निभाएंगे, उतनी जल्दी ही उन पर भरोसा लौटेगा।
उस अधिकारी ने माना कि पुलिस के रवैये के कारण आम लोगों में उसके प्रति भारी नाराजग़ी पनपी है। अब एक साथ यह नाराजगी फूट पड़ी है।
इस बात में कोई शक नहीं है कि पुलिस के लिए मौजूदा हालात बेहद जटिल हैं।
तमाम थानों से बड़े पैमाने पर हथियार और गोला-बारूद लूटे लिए गए हैं। कई पुलिस वालों के पास वर्दी नहीं है। कई थानों में बैठने लायक हालत नहीं है।
गुरुवार को ढाका के कई स्थानों का दौरा करने पर देखने में आया कि सिटी कॉर्पोरेशन के कुछ कर्मचारी वहां मलबे को हटाने का काम कर रहे हैं।
ढाका के पल्लवी थाने के सामने कुछ स्थानीय लोग गटर के सामने खड़े थे। उनमें ढाका उत्तर सिटी कॉर्पोरेशन के 2 नंबर वार्ड के काउंसलर सज्जाद हुसैन भी थे।
सज्जाद ने बीबीसी बांग्ला से कहा, ‘पुलिस वाले थाने तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। इसलिए स्थानीय लोगों से सहयोग की अपील की जा रही है। अब कानून और व्यवस्था की स्थिति के लिए पुलिस की ज़रूरत तो पड़ेगी। पुलिस वाले हमसे संपर्क कर रहे हैं।’
पुलिस की मौजूदगी दिखनी चाहिए
फिलहाल पुलिस वाले सादी वर्दी में विभिन्न थाने में जाकर नुकसान का आकलन कर रहे हैं।
ऐसे ही एक थाने में काम कर रहे सब-इंस्पेक्टर अब्दुल लतीफ ने बीबीसी बांग्ला से कहा कि वे लोग मीरपुर इलाके के तमाम थानों में जाकर नुक़सान का आकलन कर रहे हैं।
वो कहते हैं, ‘उन थानों में पुलिस का कोई भी वाहन साबुत नहीं बचा है। उन सबको जलाकर राख कर दिया गया है।’
विश्लेषकों का कहना है कि हालात चाहे कितने भी प्रतिकूल क्यों न हों, पुलिस वालों को फील्ड में जाना ही होगा। उनको कहीं से इसकी शुरुआत करनी होगी।
पूर्व पुलिस प्रमुख नुरुल हुदा ने बीबीसी बांग्ला से कहा, ‘पुलिस की मौजूदगी दिखानी होगी। वह लोग विभिन्न संस्थानों में जाकर उनकी सुरक्षा का उपाय कर सकते हैं। इसके अलावा कानून व्यवस्था की स्थिति को सुधारने में अहम भूमिका निभानी होगी। उसके बाद ही पुलिस पर आम लोगों का भरोसा लौटेगा।’
पुलिस को लेकर लोगों के मन में जमे ग़ुस्से को दूर करने के लिए पुलिस सुधार जरूरी है। लेकिन नूरुल हुदा मानते हैं कि ऐसा कोई सुधार तेज़ी से करना संभव नहीं होगा।
हुदा मानते हैं कि पुलिस की मौजूदा हालत के लिए राजनीतिक नेतृत्व ही जि़म्मेदार है। इसकी वजह यह है कि लंबे अरसे से पुलिस का राजनीतिक इस्तेमाल किया गया है।
दूसरी ओर, पुलिस के शीर्ष अधिकारियों ने संकेत दिया है कि पुलिस बल में बड़े पैमाने पर बदलाव तय है।
एक शीर्ष पुलिस अधिकारी ने बीबीसी बांग्ला से कहा, ‘तमाम थानों के ओसी और हर जिले के पुलिस अधीक्षक के बारे में विचार-विमर्श किया जा रहा है।’
उनका कहना था कि सबसे पहले उन इलाकों में बदलाव किया जाएगा जहां छात्रों के आंदोलन के दौरान पुलिस ने सबसे ज़्यादा बल प्रयोग किया था।
उनका कहना है कि जिन पुलिस अफसरों ने पुलिस वालों को अतिरिक्त बल प्रयोग का निर्देश दिया था और जिनके खिलाफअतीत में मानवाधिकार उल्लंघन के गंभीर आरोप हैं।
उनके अनुसार, ऐसे अफसरों खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं करने या उनको सजा नहीं देने तक पुलिस के प्रति आम लोगों में भरोसा बहाल करना मुश्किल होगा। लेकिन एक साथ यह सब करना संभव नहीं है।
पुलिस वालों की मांगें
देश में थाने के ओसी और सब-इंस्पेक्टरों को लेकर गठित पुलिस एसोसिएशन का कहना है कि पुलिस के प्रति आम लोगों का भरोसा बहाल करने के लिए कुछ जरूरी कदम उठाने होंगे।
बुधवार को ढाका में आयोजित एसोसिएशन की एक बैठक में कुछ मांगें भी पेश की गईं।
पुलिस सब-इंस्पेक्टर जाहिदुल इस्लाम ने उस बैठक में कहा कि ‘पुलिस के राजनीतिक इस्तेमाल और वरिष्ठ अधिकारियों के मनमाने आदेश के कारण ही पुलिस वालों के सामने यह हालत पैदा हुई है।’
‘हम ऐसा नेतृत्व चाहते हैं जो आम लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए काम करे और हमें वैसा ही निर्देश दे। वह किसी राजनीतिक पार्टी की दलाली कर हमें जनता के ख़िलाफ़ न खड़ा करे।’
इस्लाम का कहना था कि छात्र और आम लोग जिस तरह के पुलिस अधिकारी चाहते हैं, विभाग में वैसे अफसर मौजूद हैं। लेकिन वह लोग सामने नहीं आ सकते।
उनके अनुसार, ‘ऐसे अफ़सरों की शिनाख्त कर उनको जिम्मेदारी सौंपनी होगी ताकि वो सही तरीके से विभाग का संचालन कर सकें।’
पुलिस एसोसिएशन की मांग
पुलिस एसोसिएशन की बैठक में जो मांगें रखी गईं वो इस प्रकार हैं-
पुलिस को राजनीतिक प्रभाव से मुक्त रहना होगा।
तमाम पुलिस वालों और उनके परिवारों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी। ज़ाहिदुल इस्लाम का कहना था, ‘जिन सत्तालोलुप और दलाल पुलिस अफसरों के कारण पुलिस वालों, छात्रों और आम लोगों की मौत हुई हो, उनको तत्काल गिरफ्तार कर उनके खिलाफ बांग्लादेश के कानून के तहत मुकदमा चलाना चाहिए।’
ऐसे अधिकारियों की तमाम अवैध संपत्ति ज़ब्त कर उसका इस्तेमाल बांग्लादेश पुलिस के कल्याण के मद में करना चाहिए।
हिंसा में मृत पुलिस वालों के परिजनों और घायलों को मुआवज़ा देना चाहिए।
जिन पुलिस वालों ने जान-माल की रक्षा के लिए हथियारों का इस्तेमाल किया है, उनके खिलाफ कोई विभागीय कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए।
बांग्लादेश के श्रम कानून के मुताबिक पुलिस वालों के लिए आठ घंटे की ड्यूटी का प्रावधान सुनिश्चित करना चाहिए। काम के अतिरिक्त घंटे के लिए ओवरटाइम की व्यवस्था करनी चाहिए।
पुलिस की वर्दी के रंग को बदल कर कॉन्स्टेबल से लेकर आईजी तक सबके लिए समान ड्रेस कोड तय करना चाहिए।
जाहिदुल जब बैठक में इन मांगों को पढ़ रहे थे तो वहां मौजूद तमाम पुलिस वाले तालियां बजा कर इसका समर्थन कर रहे थे।
(बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूजरूम की ओर से प्रकाशित)
- दिलीप कुमार पाठक
नीरज चोपड़ा एक ऐसा नाम जो न जाने कितनी आँखों में ख्वाब देखने की कसक पैदा कर देता है. नीरज एक ऐसा नाम है जो भारत के गांवों से लेकर ग्लोबल स्तर पर जाना जाता है. एक ऐसा एथलीट जिसके जुनून की कहानियां सैकड़ों सालों तक आने वाली पीढ़ियों को सुनाई जाएगीं. 07 अगस्त 2020 को उगते सूरज के मुल्क जापान में जब दिन ढल रहा था तब एक हिन्दुस्तानी लड़का अपने जुनून, अपनी मेहनत के दम पर कभी न भुलाया जाने वाला अध्याय लिख रहा था. उस लड़के ने 87.58 मीटर की दूरी तय की.. इसी दूरी ने भारत एवं गोल्ड मेडल के बीच की खाई पाट दी. 87.58 मीटर की दूरी ने भारत के कई साल पुराने इंतज़ार को खत्म कर दिया था. हरियाणा के पानीपत में एक किसान के घर पैदा होने वाले नीरज बचपन में बहुत मोटे थे. बचपन में 80 किलोग्राम का बच्चा जब कुर्ता - पजामा पहन कर निकलता तो लोग उसके शारीरिक कद को देखकर सरपंच कहकर पुकारते थे. चाचा के कहने पर नीरज पानीपत के स्टेडियम जाने लगे. अपनी शारीरिक स्थिति से निपटने के बाद नीरज कई तरह के खेलों में भाग लेने लगे. स्थानीय कोच के कहने पर नीरज ने भाला फेंकना शुरू किया. पहले ही दिन से नीरज ने भाला फेंकने में अपना भविष्य बनाने की ठान लिया. खुद ही तैयारी करते हुए नीरज के लिए तैयारी करना ख़तरनाक था, अतः अपनी मेहनत से नीरज चोपड़ा ने सूबेदार के रूप में इंडियन आर्मी जॉइन कर लिया, भारतीय सेना ने नीरज को उनके इस ख़ास मुकाम पर पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. सेना से जुड़ने के बाद नीरज ने उच्च स्तरीय ट्रेनिंग शुरू की, और खुद को अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा के लिए तैयार किया. फिर अचानक दोस्तों के साथ बास्केटबाल खेलते हुए नीरज की कलाई टूट गई, उनके परिजनों को लगा नीरज का एथलेटिक कॅरियर यहीं तक था. हालाँकि सबको गलत साबित करते हुए खुद को तैयार करके नीरज ने ज़बरदस्त वापसी करते हुए 2016- 2018 तक वर्ल्ड जूनियर चैम्पियनशिप, एशियन चैम्पियनशिप, कॉमनवेल्थ गेम्स, एशियन गेम्स में गोल्ड मेडल जीतकर, पूरे विश्व को अपनी प्रतिभा दिखाई.
कई बार मुश्किल वक़्त से पार पाने के लिए खिलाड़ी को अपनी इच्छाशक्ति से सबकुछ जीतना पड़ता है, और वो वक़्त हर किसी की ज़िन्दगी में आता है. टोक्यो ऑलम्पिक में क्वालीफाई करने के बाद नीरज की कोहनी में चोट लग गई, चोट कितनी गम्भीर थी, इस बात से ही अंदाजा लगाया जा सकता है. चोट लगने के बाद नीरज को वापसी करने के लिए 16 महीने लग गए, कामयाब होने के बाद उस वक्त को याद करते हुए नीरज ने कहा - "बुरा वक़्त हर खिलाड़ी की ज़िन्दगी में आता है लेकिन मैंने उसे दूसरी तरह से लिया , मैंने सोचा जैसे शेर छलांग लगाने के लिए दो कदम पीछे जाता है, मैंने अपनी ज़िन्दगी में लंबी छलांग लगाने के लिए दो कदम पीछे किए". इसी सोच के चलते नीरज अपने इस मुकाम तक पहुंच सके. मार्च 2019 में 88.07 मीटर भाला फेंककर अपना रिकॉर्ड सुधारा और गोल्ड मेडल के लिए खुद को पँख दिए.
यूं तो नीरज को पोडियम तक पहुंचाने में कई कोचों की भूमिका रही, लेकिन एक ऐसे कोच भी रहे हैं जिनकी भूमिका अविस्मरणीय है. 'उवे हॉन' जैवलिन थ्रो की दुनिया के बेताज बादशाह जिनका नाम उनकी दुनिया में आदर सहित लिया जाता है. 'उवे हॉन' के रिकॉर्ड उनकी शख्सियत की कहानी कहते हैं. 1983 ऑलम्पिक जैवलिन थ्रो में 104.6 मीटर की दूरी तक जैवलिन थ्रो किया था. इसी के बाद अंतर्राष्ट्रीय ऑलम्पिक संघ ने जैवलिन थ्रो के डिजायन में परिवर्तन किया, क्योंकि इस तरह के जैवलिन थ्रो से दर्शकों को भाला लगने की आशंका हुई थी. जिसके बाद भाले के आकार में परिवर्तन किया गया. 'उवे हॉन' का रिकॉर्ड कभी न टूटने वाला रिकॉर्ड बनकर रह गया, बाद में इस रिकॉर्ड को हटा लिया गया. हालांकि उनके इस रिकॉर्ड के टूटने की गुंजाइश नहीं थी. 'उवे हॉन' जैसे महानतम भाला फेंकने वाले कोच के अनुभव का फायदा मिलना ही था, और वो टोक्यो ऑलम्पिक में दिख भी गया...
टोक्यो ऑलम्पिक में जब नीरज चोपड़ा भाला फेंकने के लिए दौड़े तो करोड़ों हाथ दुआएं मांगते हुए उठ गए. उस ऑलंपिक में भारत ने कुछ मेडल ज़रूर जीते थे लेकिन किसी ने भी गोल्ड मेडल नहीं जीता था. नीरज ने फ़ाइनल में पहले प्रयास में 87.3 मीटर के थ्रो के बाद दहाड़ लगाकर गोल्ड मेडल पर दावा ठोका. दूसरे प्रयास में 87.58 मीटर के थ्रो में नीरज ने अपना सबकुछ झोक दिया, और आसमान की ओर देखकर ईश्वर को प्रणाम किया. बचे 11 खिलाडियों ने खूब कोशिश की लेकिन नीरज के करीब भी नहीं पहुंच सके... नीरज का सीधा निशाना गोल्ड पर लगा. सालो बाद भारत ने केवल गोल्ड ही नहीं जीता, बल्कि पूरे भारत ने एक नया सवेरा देखा... जो हर हिन्दुस्तानी की आँखों में नीरज चोपड़ा नाम से चमक रहा था.
नीरज की अन्य गेम्स में गोल्ड यात्रा निरंतर चलती रही. पेरिस ऑलंपिक में फ़ाइनल तक पहुँचने वाले नीरज से पूरे मुल्क को उम्मीद थी कि इकलौता कोई गोल्ड मेडल ला सकता है तो कोई और नहीं बल्कि नीरज चोपड़ा हैं. उम्मीद के मुताबिक नीरज फ़ाइनल तक पहुंचे लेकिन दूसरे नंबर पर पहुंच कर सिल्वर मेडल लाने में कामयाब हुए... पाकिस्तानी गोल्ड मेडल विजेता अरशद नीरज को अपना हीरो मानते हैं, उन्होंने कई बार कहा है कि मैं नीरज से मार्गदर्शन लेता हूं. इसे ही कहते हैं जीते जी संतृप्त अवस्था प्राप्त कर लेना.. एक बार बुडापेस्ट में आयोजित विश्व एथलेटिक्स चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक हासिल करने वाले नीरज पोडियम में खड़े थे राष्ट्रगान बज रहा था. पॉज देते नीरज ने देखा पाकिस्तान का पदक विजेता एथलीट संकोच में बिना अपने बिना झंडे के खड़ा है. तब ही नीरज ने पाकिस्तान के एथलीट अरशद को अपने पास बुलाया, और तिरंगे के नीचे खड़ा कर लिया. दोनों ने तिरंगे के साथ तस्वीरे खिचाई. यूं लगा जैसे अरशद इंतज़ार में ही खड़े थे... उस दिन नीरज ने अरशद सहित पूरी दुनिया का दिल जीत लिया था.
गोल्ड मेडल जीतने के बाद अरशद के पिता ने कहा है - "जब भी खेल प्रतियोगिताओं में अरशद भाग लेने के बाद वापस गांव आते हैं, तो वे पूरे गाँव के लोगों को नीरज की बातेँ ही बताते रहते हैं, लोग नीरज की बातेँ बड़ी चाव से सुनते हैं.. लोग भारतीय एथलीट नीरज की बहुत इज़्ज़त भी करते हैं.
अरशद ने फ़ाइनल से पहले भी कहा था - "अगर मैं जीत भी जाऊँगा तो मैं पोडियम में नीरज के बगल में खड़ा होना चाहूँगा, नीरज जैसे महान एथलीट के बगल में खड़ा होना अपने आप में गर्व की बात है". इससे ही समझा जा सकता है कि नीरज कितने बड़े एथलीट हैं.
जबकि नीरज की माँ ने सिल्वर मेडल जीतने के बाद अरशद को शुभकामनाएं देते हुए कहा - " सिल्वर मेडल भी गोल्ड के बराबर ही है, इतने बड़े मंच पर खड़ा होना भी अपने आप में बड़ी बात है. गोल्ड जीतने वाले अरशद को शुभकामनाएं वो भी हमारा ही बच्चा है. कोई भी माँ ऐसी ही होती है. नीरज की माँ के उच्च विचार नीरज की शख्सियत में भी देखने को मिलते हैं.
आज हमारे मुल्क में नीरज चोपड़ा जैसे एथलीट दुर्लभ हैं. नीरज चोपड़ा हमारे हीरो हैं, व्यक्तिगत दो ऑलंपिक मेडल, उसमे एक गोल्ड... ऐसा करने वाले पहले एथलीट हैं.. ओवर ऑल गोल्ड मेडल देखे जाएं तो नीरज ने आठ गोल्ड मेडल समेत दर्जनों पदक जीते हैं. अव्वल रात 10 बजे सो जाता हूँ, लेकिन हीरो को देखने के लिए जगता रहा. नीरज का आत्मविश्वास देखने लायक था, सारे के सारे एथलीट पर नीरज का दबाव दिख रहा था. नीरज ने बड़ी दिलेरी के साथ फ़ाइनल में थ्रो किया. इसलिए ही छह में से चार प्रयास फाउल रहे.. यह बताता है कि नीरज ने कितना रिस्क लिया. ख़ैर नीरज का सिल्वर भी गोल्ड से कम नहीं है. हमारे हीरो नीरज को सलाम...
भारत सरकार उन्हें बड़े सम्मान से सम्मानित करे.. ऐसे नायक भारत में बहुत कम पैदा होते हैं. नीरज का सर्वोच्च सम्मान होने से देश के कोने-कोने के बच्चे ऑलंपिक में जाना चाहेंगे. नीरज को देखने के बाद हिन्दुस्तान में गोल्ड जीतने वाली पीढ़ियां तैयार होंगी.. वैसे भी नीरज की यात्रा किसी भी बच्चे को जानना चाहिए उनका व्यक्तिगत संघर्ष अपने आप में एक मिशाल है.
-डॉ. अनिल कुमार मिश्र
पेरिस ओलंपिक में चल रही विभिन्न प्रतियोगिताओं में हर रोज नई खबरें आ रही है। कुछ जो निराश करती हैं और कुछ ऐसी भी जो सुकूनदेह के साथ साथ अथक मेहनत, लगन और दोस्ती की मिसाल बन जाती हैं। कुश्ती के अखाड़े से विनेश फोगाट की दुखदायी विदाई ने जहाँ मायूस किया तो नीरज चोपड़ा के रजत पदक ने देश भर में खुशी की लहर पैदा की है।
हालांकि, भाला फेंक/जेवलिन थ्रो प्रतियोगिता में पाकिस्तान के एथलीट अरशद नदीम ने इस बार विश्व रिकॉर्ड तोड़ दिया। 92.97 मीटर भला फेंकने के बाद उन्होंने स्वर्ण पदक हासिल किया। वहीं नीरज चोपड़ा भाला फेंक में 89.45 मीटर की दूरी तय करने के बाद सिल्वर के दावेदार बने। नीरज चोपड़ा टोक्यो ओलंपिक में स्वर्ण पदक लाये थे। इस बार वे स्वर्ण से भले ही चूक गये लेकिन उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी अरशद नदीम की मेहनत और जज़्बे के लिए दिल खोलकर सराहना की।
नीरज चोपड़ा के प्रदर्शन के बाद उनकी माँ का एक बयान दुनिया भर की मीडिया में सुर्खियाँ बटोर रहा है। नीरज की माँ ने कहा कि जिसने स्वर्ण पदक जीता है वह भी अपना ही लडक़ा है। उन्होंने यह बयान पाकिस्तान के अरशद नदीम के स्वर्ण पदक जीतने पर दिया। नीरज चोपड़ा की माँ का यह बयान भारत के अधिकतर युद्धोन्मादी मीडिया घरानों को रास नहीं आएगा। न ही उन राजनेताओं को जो भारत और पाकिस्तान के बीच हमेशा दुश्मनी की संगीन तलवारें भांजते रहते हैं।
अधिकतर मीडिया घरानों के व्यवसायिक मोडल्स के लिए को यह बयान इसलिए भी असुविधाजनक है क्योंकि यह नकली राष्ट्रवाद के आख्यान और उसकी सीमाओं का एक प्रति-संसार रचता है। यह कोई छिपा हुआ तथ्य नहीं है कि मौजूदा मुख्यधारा मीडिया के अधिकतर एंकर्स बंटवारे और नफरत की जिस राजनीति को बढ़-चढक़र प्रोत्साहित करते हैं, उनके लिए ऐसे किसी बयान को स्वीकार करना खासा चुनौतीपूर्ण है। खासतौर से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के 24*7 चलने वाले खबरिया चैनल जो रात के 8-10 के बीच प्राइम समय में लगातार ऐसे विचारों को प्रश्रय देते हैं जिससे विविध धर्मों और समाजों के बीच आपसी विभाजन और गलतफहमी और ज़्यादा बढ़ती है। मतों का ध्रुवीकरण होता है। आपसी बैर-भाव मज़बूत होता है। नीरज चोपड़ा की माँ का बयान अधिकतर मीडिया मालिकों के मुनाफे के गणित के हिसाब से एक घाटे का सौदा है, क्यूंकि इससे सनसनी पैदा नहीं होती, उत्तेजना पैदा नहीं होती है।
बावजूद इसके, नीरज चोपड़ा की माँ का बयान उन लोगों को जरूर राहत दे रहा है जो भारत और पाकिस्तान के साझा इतिहास, साझी संस्कृति और साझी विरासत को रेखांकित करते हुए दोनों देशों के बीच अमन-चैन और दोस्ती के प्रगाढ़ रिश्तों की हिमायत करते हैं। ऐसे लोग सरहद के दोनों तरफ हैं। भले ही वो अपने-अपने मुल्क में अल्पसंख्यक हैं। ऐसे लोग सामान्यत: कोई मजबूत या निर्णायक स्वर नहीं हैं। वे हाशिये के लोग कहे जा सकते हैं। ये लोग दुश्मनी की भावना के बजाय सह-अस्तित्व और आपसी समझदारी के साथ साथ साझेदारी की जरूरत पर भी बल देते हैं। ये चाहते हैं कि दोनों देशों के बीच बेहतर संवाद हो। आपसी सलाहियत हो। समझदारी हो। साथ ही, संवाद के माध्यम से सभी द्विपक्षीय समस्याओं का समाधान निकाला जाए।
दक्षिण एशिया के एक साझे भविष्य के लिहाज़ से अरशद नदीम और नीरज चोपड़ा के बीच मैदान में एक दूसरे के प्रति जो परस्पर सद्भावना दिखी वो भी साझे इतिहास और विरासत के पहलू की तरफ़ एक अहम इशारा करती है। वरना, क्रिकेट जैसे खेल में आज से 20-25 साल पहले से लेकर अब तक जिस तरह की भाषा और विचार सरणी का प्रयोग होता था वह दोनों देशों के बीच आपसी कलह और दुश्मनाना रवैये को बढ़ाती और मजबूत ही करती थी।
पाकिस्तान के एथलीट अरशद नदीम और भारत के एथलीट नीरज चोपड़ा की पेरिस ओलंपिक में सफलताओं और उसके बाद नीरज की माँ के सद्भावनापूर्ण बयान के आलोक में चीजों को देखने पर यह बात साफ हो जाती है कि इसमें सरहद के दोनों पार बसे पंजाब के बीच जो ऐतिहासिक साझापन है, वह समूचे दक्षिण एशिया की एकता के लिये एक नई शुरुआत का बिंदु हो सकती है। बशर्ते कि बतौर राष्ट्र हम अपने इतिहास से सबक लेने की समझदारी और संवेदना रखते हों।
पंजाब की धरती हमेशा से मोहब्बत और भाईचारे के पैगाम के साथ रही। सरहद के दोनों तरफ के पंजाब की मिट्टी एक जैसी है। वहां का भूगोल, खानपान और संस्कृति में साझेपन की कई रवायतें हैं, जो आपसी मेलजोल की भावना को पुष्ट करती हैं। 1965 की जंग के पहले तक अमृतसर और लाहौर के बीच आवाजाही बहुत आसान थी। अमृतसर के प्राध्यापक लाहौर के विश्वविद्यालय या कॉलेज में परीक्षा लेने या कॉपी जांचने सुबह जाते थे और शाम को वापस आ जाते थे। पंजाब के अधिकतर लोगों के लिए बंटवारा कभी मनोवैज्ञानिक दूरी की वजह नहीं बन सका।
एक अन्य तथ्य यह है कि समाजशास्त्र और राजनीति शास्त्र के लगभग सभी चिंतक इस बात से एकमत होते हैं कि आधुनिक राष्ट्र-राज्य आमतौर पर एक काल्पनिक सामुदायिक विभाजन और उनके कठोर वर्गीकरण की उपज हैं। अगर कोई चीज शाश्वत तौर पर लोगों को आकर्षित करती है तो वह है आपसी सहयोग और परस्पर भाईचारे/बहनापे की भावना। इसी में समूची मनुष्य सभ्यता का भविष्य संरक्षित है। युद्ध, नफरत और कलह ये सब मु_ी भर लोगों के विशेषाधिकार और सतत मुनाफे की व्यवस्था को टिकाये रखने के औजार होते हैं।
यह मनुष्य सभ्यता की साझी विडंबना है कि आधुनिक खेलों के मैदान इन्हीं प्रतिस्पर्धी राष्ट्रवाद के अदृश्य सूत्रों के लिये जोर-आजमाइश की जगह बन गये हैं। अरशद नदीम और नीरज चोपड़ा जैसे एथलीट्स कई बार सामान्य मानवीय गरिमा के व्यवहार से काल्पनिक डर की बुनियाद पर टिकी नफरत और युद्धोन्माद की समूची परियोजना की हकीकत उघाड़ कर रख देते हैं।
नीरज चोपड़ा की माँ के विचार कि जिसने स्वर्ण हासिल किया है वो भी अपना ही लडक़ा है, भारत और पाकिस्तान के नागरिकों के बीच परस्पर आवाजाही, दोस्ती और सद्भावना की अनिवार्यता पर जोर देते हैं। नीरज चोपड़ा की माँ जैसे लोगों की पवित्र और निश्छल आवाज क्या भारत और पाकिस्तान के सियासतदानों और राष्ट्र के कर्णधारों की चेतना जगाने के लिए पर्याप्त होगी? या दोनों देशों के राजनेता ऐसी स्वस्थचित्त आवाजों को अनसुना करने के लिए अभिशप्त हैं?
(लेखक हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय, जयपुर में सहायक प्रोफेसर हैं। उन्होंने वर्धा के महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय से भारत-पाकिस्तान रिश्तों में मीडिया की भूमिका के बारे में पीएचडी की है। ये लेखक के ये अपने विचार हैं।)
पेरिस ओलंपिक के जैवलिन थ्रो मुक़ाबले में पाकिस्तान के अरशद नदीम ने गोल्ड और भारत के नीरज चोपड़ा ने सिल्वर मेडल जीता है।
इसी के साथ अरशद नदीम ने नया ओलंपिक रिकॉर्ड भी बना लिया है। अरशद ने 92.97 मीटर का थ्रो फेंका। जबकि नीरज चोपड़ा का बेस्ट थ्रो 89.45 मीटर रहा। यह ओलंपिक खेलों में नीरज चोपड़ा का दूसरा मेडल है। इससे पहले उन्होंने टोक्यो ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीता था।
मेडल जीतने के बाद नीरज चोपड़ा ने कहा, ‘किसी दिन किसी खिलाड़ी का दिन होता है। आज अरशद का दिन था। खिलाड़ी का शरीर उस दिन अलग ही होता है। हर चीज परफेक्ट होती है जैसे आज अरशद की थी। टोक्यो, बुडापेस्ट और एशियन गेम्स में अपना दिन था।’
नीरज चोपड़ा की मां सरोज देवी ने अरशद नदीम को लेकर कहा, ‘हम बहुत खुश हैं। हमारे लिए तो सिल्वर भी गोल्ड के ही बराबर है। गोल्ड जीतने वाला भी हमारा ही लडक़ा है। मेहनत करता है।’ सरोज देवी के इस बयान की चर्चा पाकिस्तान में हो रही है। सोशल मीडिया पर कई लोग इस अपनत्व की तारीफ कर रहे हैं।
पूर्व क्रिकेटर शोएब अख़्तर ने सोशल मीडिया पर लिखा-‘गोल्ड जिसका है, वो भी हमारा ही लडक़ा है। ये बात सिर्फ एक मां ही कह सकती है। कमाल है।’
पाकिस्तानी पत्रकार एहतिशाम उल हक ने नीरज चोपड़ा की मां का वीडियो शेयर कर कैप्शन में लिखा कि कैसे उन्होंने अरशद की जीत के लिए खुशी जाहिर की।
एहतिशाम ने लिखा- ‘इस ख़ूबसूरत मैसेज के लिए धन्यवाद मां।’
अब्दुल्लाह जफर एक्स पर लिखते हैं, ‘कोई शक नहीं, वो एक चैंपियन की मां हैं।’
वसीम ने एक्स पर लिखा, ‘नीरज की मां, एक बहादुर महिला।’
पाकिस्तान का मीडिया क्या बोला
पाकिस्तान के जियो टीवी की वेबसाइट पर टॉप तीन खबरें अरशद नदीम पर हैं।
पहली खबर की हेडिंग है- ‘पाकिस्तान के जेवलिन थ्रो खिलाड़ी अरशद नदीम ने पेरिस ओलंपिक 2024 में गोल्ड मेडल जीता, 40 साल का इंतज़ार खत्म हुआ।’
इस ख़बर में नीरज चोपड़ा को लेकर लिखा है कि लगातार दूसरा ओलंपिक गोल्ड मेडल हासिल करने की उम्मीद लिए भारत के नीरज चोपड़ा ने 89.45 का थ्रो किया और सिल्वर मेडल जीता। दूसरी ख़बर की हेडिंग है-‘देश का गौरव: पाकिस्तान ने अरशद नदीम की जमकर तारीफ की।’
जियो टीवी की इस ख़बर में अरशद की मां के हवाले से लिखा है- ‘मैंने अपने बेटे की सफलता के लिए बहुत दुआएं की थीं। पूरे देश ने भी मेरे बेटे की सफलता के लिए दुआएं कीं।’
पाकिस्तानी वेबसाइट डॉन के होम पेज को ऐसे डिजाइन किया गया है कि उसे आप जैसे ही खोलते हैं तो रंग बिरंगे रिबन दिखते हैं। ये वैसे ही रिबन हैं जिन्हें किसी खुशी के मौके पर प्रदर्शित किया जाता है।
पाकिस्तान का इंतज़ार ख़त्म किया
डॉन की ख़बर की हेडिंग है- ‘जैवलिन स्टार अरशद नदीम ने ओलंपिक मेडल के लिए पाकिस्तान का 40 साल का इंतजार खत्म किया।’
इस ख़बर में नीरज और अरशद को लेकर लिखा है, ‘आज रात फाइनल में पाकिस्तान-भारत की प्रतिद्वंद्विता दिखी, जिसे नदीम और चोपड़ा ने वर्षों से जीवित रखा है। बीते साल ये जोड़ी 1-2 पर थी, जब वल्र्ड एथलेटिक्स चैंपियनशिप में चोपड़ा ने गोल्ड और नदीम ने सिल्वर जीता था।’
पन्ने पर दिख रहीं लगभग सभी टॉप खबरें अरशद नदीम को लेकर हैं। डॉन ने एक वीडियो भी शेयर किया जिसमें पाकिस्तानी लोग ढोल पर नाचते दिख रहे हैं।
पाकिस्तानी वेबसाइट द एक्सप्रेस ट्रिब्यून पर भी इस जीत के चर्चे हैं।
ख़बर का शीर्षक है- ‘अरशद नदीम को गोल्ड मिला, पाकिस्तान का 32 साल का सूखा समाप्त हुआ।’ यह पाकिस्तान को 40 साल में मिला पहला व्यक्तिगत गोल्ड मेडल और 32 साल बाद ओलंपिक में मिला पहला मेडल है।
पाकिस्तान 40 साल से कोई गोल्ड मेडल नहीं जीता। वहीं 1992 में बार्सिलोना ओलंपिक में पाकिस्तान की हॉकी टीम ने ब्रॉन्ज मेडल जीता था।
पाकिस्तान के नेता क्या बोले?
प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने लिखा, ‘शाबाश अरशद। इतिहास रच दिया। पाकिस्तान के पहले पुरुष जैवलिन चैंपियन अरशद नदीम पेरिस ओलंपिक 2024 से गोल्ड मेडल घर ला रहे हैं! आपने पूरे देश को गर्व महसूस कराया है।’
पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान ने लिखा, ‘पाकिस्तान के लिए गोल्ड जीतने पर अरशद नदीम को बधाई। ऐसा पहली बार है जब किसी पाकिस्तानी ने व्यक्तिगत रूप से एथलेटिक्स के लिए ओलंपिक में गोल्ड जीता हो।’
बिलावल भुट्टो जऱदारी ने एक्स पर लिखा, ‘92.97 मीटर से जेवलिन थ्रो में ओलंपिक रिकॉर्ड तोडऩे पर अरशद नदीम को बधाई। पाकिस्तान के लिए गोल्ड मेडल। हम सभी को आपने गर्व महसूस कराया है।’
पीएलएल-एन पार्टी के एक्स अकाउंट पर एक पोस्ट को रीट्वीट कर लिखा गया है- ‘दोनों ही बार पीएमएल-एन की सरकार थी।’
रीट्वीट पोस्ट में पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान और अरशद नदीम की तस्वीर हैं।
इमरान खान की कप्तानी में पाकिस्तानी क्रिकेट टीम ने वल्र्डकप जीता था।
आम लोग क्या बोले
फखर जमान नाम के अकाउंट से पोस्ट किया गया, ‘ओलंपिक में गोल्ड जीतने के लिए अरशद नदीम को बधाई। पाकिस्तान आपकी उपलब्धि पर गर्व महसूस कर रहा है।’
पाकिस्तान क्रिकेट के आधिकारिक हैंडल से लिखा गया, ‘पेरिस में इतिहास रचा गया। अरशद नदीम ने 92.97 मीटर थ्रो के साथ 1984 के बाद पाकिस्तान को उसका पहला गोल्ड मेडल दिलाया।’
मलाला यूसुफज़ई एक्स पर लिखती हैं, ‘बधाई हो अरशद नदीम। आपने इतिहास रच दिया। आप पाकिस्तान के युवाओं को अपने सपनों पर भरोसा करने के लिए प्रेरित करने वाले चैंपियन रहेंगे। ’
फ्रांस में पाकिस्तानी दूतावास के एक्स अकाउंट पर पोस्ट किया गया, ‘कितना गौरवपूर्ण क्षण था। अरशद आपने हम सभी को गर्व महसूस कराया है। बधाई हो।’
कराची के पत्रकार फैजान लखानी एक्स पर पोस्ट करते हैं, ‘मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि अपने जीवन में ऐसा दिन देखूंगा। ये सपने जैसा है कि पाकिस्तान ने ओलंपिक में गोल्ड जीता है। वो भी रिकॉर्ड के साथ। अरशद नदीम को धन्यवाद। आपने युवा पीढ़ी को बता दिया है कि क्या संभव है। इतिहास रचने के लिए शुक्रिया अरशद नदीम।’
अरशद नदीम के बारे में अहम बातें
अरशद नदीम 2016 से अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, लेकिन साल 2019 तक वह सुर्खय़िों में नहीं आए थे।
साल 2016 में, भारत के गुवाहाटी में आयोजित हुए दक्षिण एशियाई खेलों में उन्होंने ब्रोंज मेडल जीता था। अगले साल बाकू में आयोजित हुए इस्लामिक खेलों में भी वह तीसरे स्थान पर रहे थे।
साल 2018 के एशियाई खेलों में उन्होंने ब्रोंज मेडल जीता था, लेकिन उसी साल गोल्ड कोस्ट में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों में वो आठवें स्थान पर रहे थे।
अरशद नदीम के कैरियर का टर्निंग पॉइंट साल 2019 में नेपाल में आयोजित दक्षिण एशियाई खेलों में आया, जहां उन्होंने 86.29 मीटर की दूरी पर भाला फेंककर न केवल उन खेलों में एक नया रिकॉर्ड बनाया, ऐसा करके वो टोक्यो ओलंपिक के लिए भी क्वालिफाई करने में सफल हो गए थे।
पाकिस्तान के एथलेटिक्स इतिहास में यह पहली बार था कि किसी एथलीट ने ओलंपिक के लिए सीधे क्वालीफाई किया। इससे पहले हाल के सालों में पाकिस्तान के एथलीटस वाइल्ड कार्ड एंट्री के माध्यम से ही ओलंपिक में शामिल होते रहे हैं।
ओलंपिक से पहले, अरशद नदीम ने ईरान में एथलेटिक्स प्रतियोगिता में 86.38 मीटर के साथ अपना ही राष्ट्रीय रिकॉर्ड बेहतर किया था।
टोक्यो ओलंपिक में, वह 84.62 मीटर से आगे नहीं जा सके और उन्हें पांचवें स्थान पर ही संतोष करना पड़ा था। लेकिन वह यह संकेत दे चुके थे कि आने वाले मुकाबलों में वो अपने प्रतिद्वंद्वियों को चुनौती देने की स्थिति में होंगे।
पेरिस ओलंपिक में अरशद नदीम ने अपने संकेत को गोल्ड जीतकर हकीकत में बदल दिया है। (bbc.com/hindi)
-संजय श्रमण
भक्त: ऋषिवर ये रक्षा बंधन का क्या महाम्त्य है? इसमें किसकी रक्षा की जा रही है और किसे बंधन में बांधा जा रहा है?
ऋषिवर: वत्स, रक्षा बंधन वस्तुत: नारीशक्ति के कोप से प्राचीन संस्कृति और धर्म की रक्षा का पर्व है, इसमें प्राचीन धर्म और संस्कृति की रक्षा हो रही है और नारी को बंधन में बांधा जा रहा है।
भक्त: यह स्पष्ट न हुआ ऋषिश्रेष्ठ, कुछ अधिक विस्तार से बताइए...
ऋषिवर: यह विषय भी बड़ा रहस्यपूर्ण है वत्स, समझने का प्रयास करो. संस्कृति और धर्म को सबसे बड़ा खतरा स्त्री और स्त्री की स्वतन्त्रता से होता है. जिन देशों और समाजों में स्त्री बंधन मुक्त हो गई वहां का धर्म और संस्कृति नष्ट हो जाती है.
फिर वहां धर्म का प्राचीन रथ उठाने वाले भक्तों की भीड़ पैदा ही नहीं होती. स्त्री के मन में स्वतंत्र और आत्मनिर्भर होने का विचार नहीं आना चाहिए अन्यथा वह अपने व्यक्तित्व और स्वतंत्रता की घोषणा करने लगती है. इसलिए उसे हर संभव आयाम में पुरुषों के अधीन रखा जाना आवश्यक है.
जिन पुरुषों से उसे भय है, उन्हीं पुरुषों से उसकी रक्षा का आश्वासन भी मिलते रहना जरूरी है वत्स !
भक्त: यह अंतिम बिंदु थोड़ा और स्पष्ट करें ऋषिवर।
ऋषिवर: ध्यान से सुनो वत्स, कोई बहन जिन पुरुषों से रक्षा मांगती है वे पुरुष अन्य स्त्रियों के लिए आतंक पैदा करते हैं. अपनी बहनों के अलावा अन्य स्त्रियों के प्रति उनके व्यवहार को उनकी स्वयं की बहन भी देखती अवश्य है लेकिन उस पर प्रश्न नहीं उठा पाती।
वह स्त्री ऐसे प्रश्न न उठा सके यही इन आयोजनों का लक्ष्य है। यही वास्तविक बंधन है इसी से धर्म की रक्षा होती है।
एक स्त्री दूसरी स्त्री पर हुए अत्याचार के प्रति मौन रहे, अपने स्वयं के भाइयों, पतियों पुत्रों द्वारा हो रहे स्वयं के और अन्य स्त्रियों के शोषण के प्रति मौन रहे, अपने सजातीय, सधर्मी पुरुषों द्वारा विजातीय और विधर्मी स्त्रियों के अपमान पर मौन रहे – इसके लिए आवश्यक है कि वह उन्ही पुरुषों से सुरक्षा का आश्वासन पाती रहे।
ऐसा आश्वासन बना रहना आवश्यक है ताकि उसे इस नाम मात्र के आश्वासन के भी निरस्त हो जाने का भय बना रहे।
यही भय प्राचीन धर्म के लिए रक्षा है और स्त्री के लिए बंधन है.
भक्त: अहो ऋषिवर, अद्भुत महात्म्य है इस पर्व का... यह महात्म्य सुनकर मैं धन्य हुआ।
-सीटू तिवारी
चार अगस्त को पटना के गांधी मैदान के पास बने बापू सभागार में हजारों युवा जनसुराज के युवा संवाद आयोजन में जुटे।
ये युवा थोड़ी-थोड़ी देर पर तालियां बजाते। मंच से आती चुटीली बातों पर हँसते और उत्साह दिखाते। मंच पर सालों तक देश की अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के लिए चुनावी कैंपेन करने वाले प्रशांत किशोर थे।
प्रशांत किशोर नीले कुर्ते में पेपर लीक पर राहुल गांधी के स्टैंड से लेकर ‘दसवीं फेल युवा नेतृत्व’ जैसी बातें कहकर तेजस्वी यादव पर इशारों में तंज कस रहे थे।
बिहार की राजधानी पटना में पीके यानी प्रशांत किशोर की इस तरह की बैठकें लगातार चल रही हैं। इन बैठकों की सोशल मीडिया पर चर्चा है।
यह एक तरह से उनकी जनसुराज पार्टी की ग्रैंड लॉन्चिंग की तैयारी है जो आगामी दो अक्टूबर को लॉन्च होगी।
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, ‘प्रशांत किशोर के इन कदमों ने एक तरह की राजनीतिक हलचल पैदा कर दी है। बिहार में 35 साल से जो कथित सामाजिक न्याय की सरकारें रही हैं वो विफल साबित हुई हैं। बिहार की राजनीति में तीन चार नाम ही प्रमुखता से लिए जाते हैं। प्रशांत किशोर खुद को नए विकल्प के तौर पर प्रोजेक्ट करने में आरंभिक तौर पर सफल दिख रहे हैं।’
चुनावी रणनीतिकार से पार्टी तक का सफर
चुनावी रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर तकरीबन दो साल से अपनी पार्टी जनसुराज को बनाने में लगे हैं।
साल 2022 में दो अक्टूबर यानी गांधी जयंती के दिन से उन्होंने जनसुराज नाम से पदयात्रा शुरू की थी। बिहार के अंदरूनी इलाकों में प्रशांत किशोर ने ये यात्राएं की हैं।
जनसुराज की वेबसाइट के मुताबिक़- प्रशांत की यात्रा के 665 दिन हो चुके हैं जिसमें उन्होंने 1319 पंचायत के 2697 गांव में संपर्क किया है।
प्रशांत किशोर की ये यात्राएं बहुत ही मामूली तैयारी के साथ होती थीं।
उनकी एक ऐसी ही यात्रा में मौजूद मुजफ्फरपुर के पत्रकार अभिषेक बताते हैं, ‘यहां जिले के गांव में छोटे छोटे पंडाल लगते थे। प्लास्टिक की कुर्सी-मेज का मामूली इंतजाम रहता था। प्रशांत किशोर अपनी मीटिंग में लोगों से कहते थे कि जाति और धर्म के नाम पर वोट दे दिया लेकिन अब पढ़ाई, रोजगार और स्वास्थ्य के नाम पर वोट दीजिए।’
वरिष्ठ पत्रकार अरुण श्रीवास्तव बीबीसी से कहते हैं, ‘प्रशांत किशोर की राजनीति को देखें तो वो धीरे-धीरे बिहार की पारंपरिक राजनीति के ढर्रे पर आते दिख रहे हैं। पहले वो जाति और धर्म के नाम पर वोट देने पर सवाल करते थे। लोकतंत्र की मजबूती और बिहार के विकास का नया ब्लूप्रिंट तैयार करना उनकी यात्रा का मकसद था लेकिन अब वो खुद ‘डीईएम’ पर जोर दे रहे हैं।’
दलित, अति पिछड़ा, मुस्लिम से लेकर महिला पर जोर
डीईएम यानी दलित, अति पिछड़ा, और मुस्लिम। बीती 28 जुलाई को पटना में जनसुराज की राज्य स्तरीय बैठक में ये तय हुआ है कि पार्टी का पहला अध्यक्ष दलित, दूसरा अति पिछड़ा और तीसरा मुस्लिम समुदाय से होगा। पिछड़ा और सवर्ण समुदाय से आने वाले पार्टी अध्यक्ष इन तीनों के बाद बनेंगे।
यानी प्रशांत किशोर का लक्ष्य डीईएम है। इस लक्ष्य की वजह बिहार की जाति आधारित जनगणना के आंकड़ों में मिलती है।
जातिगत गणना में देखें तो बिहार में दलितों की आबादी 19.65 फीसदी, अतिपिछड़े 36।01 फीसदी और मुस्लिम 17.70 फीसदी है। इससे पहले प्रशांत किशोर घोषणा कर चुके हैं कि उनकी पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव में कम से कम 40 महिलाओं को टिकट देगी।
वहीं आरजेडी के पार्टी प्रवक्ता चितरंजन गगन कहते हैं, ‘पीके का तो दोहरा चरित्र सामने आ रहा है। वो पहले जात पात के खिलाफ बोल रहे थे लेकिन अब तो वो दलित अतिपिछड़ा कर रहे हैं। पीके किसके लिए काम कर रहे हैं ये बिहार की जनता समझ चुकी है। वो बीजेपी की बी टीम हैं।’
चितरंजन गगन के इस बयान से इतर बिहार के राजनीतिक दलों में पीके की चुनावी इंट्री से बेचैनी बड़ी है। खासतौर पर जेडीयू और आरजेडी में।
दरअसल, प्रशांत किशोर डीईएम के जरिए जिस वोट बैंक को टारगेट कर रहे है वो मुख्य तौर पर जेडीयू और आरजेडी का आधार वोट रहा है।
जेडीयू प्रवक्ता अंजुम आरा बीबीसी से कहती हैं, ‘ प्रशांत किशोर भीड़ को इकठ्ठा करके माहौल बना रहे हैं। बिहार की 85 फीसदी आबादी गांव की है जिसकी समस्याओं को नीतीश कुमार ने एड्रेस किया है। ये ठीक है कि वो लंबे समय तक जेडीयू के साथ चुनावी रणनीतिकार व अन्य पदों पर जुड़े रहे लेकिन जेडीयू का बिहार की जनता से सीधा संबंध विकास को लेकर है जो किसी चुनावी रणनीति का मोहताज नहीं है।’
एक करोड़ सदस्यों के साथ पार्टी लॉन्च करने का दावा
कभी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विश्वस्त सहयोगी रहे प्रशांत किशोर का दावा है कि आगामी दो अक्टूबर को एक करोड़ सदस्यों के साथ जनसुराज पार्टी लॉन्च होगी।
चार अगस्त को युवा संवाद में पत्रकारों से प्रशांत किशोर ने कहा, ‘मुसलमान बीजेपी के डर से आरजेडी को वोट दे रहे हैं। बीजेपी को उनके समर्थकों से ज्यादा लालू यादव के डर से वोट मिलता है। 30 बरस से एनडीए और इंडिया ने बिहार की जनता को बंधुआ मज़दूर बना दिया है। लोगों को अब नया विकल्प मिल है।’
बीते दिनों में जनसुराज में शामिल होने वालों की फेहरिस्त देखें तो जेडीयू -आरजेडी से जुड़े रहे मोनाजिर हसन, जननायक कर्पूरी ठाकुर की पोती जागृति ठाकुर, आरजेडी के विधान पार्षद रहे रामबलि सिंह चंद्रवंशी, बक्सर से लोकसभा निर्दलीय प्रत्याशी रहे आनंद मिश्रा से लेकर जमीनी स्तर के जेडीयू-आरजेडी के कार्यकर्ता बड़ी संख्या में शामिल हुए हैं।
जमीनी तौर पर शामिल इन कार्यकर्ताओं में एक बड़ी तादाद मुस्लिम समुदाय की है।
बिहार और मुसलमान
वरिष्ठ पत्रकार फैजान अहमद बीबीसी से कहते हैं, ‘ बिहार में मुसलमान क्रॉसरोड पर हैं। जेडीयू को लेकर एक तरह का संशय उनके मन में है और बीते कुछ चुनावों को देखें तो ये लगता है कि मुसलमान एंटी आरजेडी वोट कर रहा है। सारण लोकसभा का ही उदाहरण देखें तो वहां रोहिणी आचार्य सिर्फ 13,000 वोट से हारीं और यहीं पर एक मुस्लिम निर्दलीय उम्मीदवार ने 20,000 वोट लेकर रोहिणी का गेम बिगाड़ दिया। प्रशांत किशोर मुसलमानों की दुविधा को समझ रहे हैं और इसी के हिसाब से अपनी रणनीति बना रहे हैं।’
फैजान अहमद बिहारी मुसलमानों के क्रॉसरोड और पीके की जिस चुनावी रणनीति की बात कर रहे हैं, उसका असर भी दिख रहा है।
हाल ही में जनसुराज मुस्लिम समुदाय के साथ पटना में बैठक कर चुका है और चार अगस्त को शहर के मुस्लिम बुद्धिजीवियों की भी एक बैठक पटना में हुई है।
जनसुराज में शामिल हुए मोनाजिर हसन बीबीसी से कहते हैं, ‘लालू जी, तेजस्वी और नीतीश जी को मुसलमानों ने देख लिया है। नीतीश जी ने मुसलमानों के लिए कुछ किया भी तो वो बीजेपी के साथ हैं। ऐसे में प्रशांत किशोर मुसलमानों के लिए अंधेरे में जलता दीया जैसे हैं। जनसुराज मुसलमानों की ही नहीं बल्कि सभी जातियों की पार्टी बनेगी।’
जनसुराज की इस सक्रियता के चलते ही आरजेडी के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह को हाल ही में एक चिठ्ठी जारी करनी पड़ी।
इस चिठ्ठी में लिखा है, ‘जनसुराज बीजेपी की बी टीम है। इसलिए सभी साथियों से अनुरोध है कि ऐसे लोगों के बहकावे में ना आएं, उनकी मंशा आरजेडी को कमजोर करने और बीजेपी की शक्ति को बढ़ावा देने की है।’
‘बिहार के लिए काम कीजिए’
इधर बीजेपी जनसुराज के साथ किसी तरह के ताल्लुक से इंकार करती है।
पार्टी के ओबीसी मोर्चा के राष्ट्रीय महामंत्री निखिल आनंद कहते हैं, ‘हम बड़ी और सक्षम पार्टी हैं। हमें किसी को बी टीम बनाने की क्या ज़रूरत है।आरजेडी में भगदड़ है तो ये उनके लिए चिंता का विषय है। वैसे भी अभी पीके की राजनीतिक निष्ठा साबित नहीं हुई है तो उसको गंभीरता से हम लोग क्यों लेंगे?
चार अगस्त को युवा संवाद के आयोजन में प्रशांत किशोर ने युवाओं को संबोधित करते हुए कहा, ‘बिहार के लिए कुछ करना है तो पैसे की चिंता मत कीजिए। (बाकी पेज 8 पर)
चुनाव हारने जीतने की चिंता मत कीजिए।’
प्रशांत किशोर के इस वक्तव्य से एक अहम सवाल उठता है कि आखिर जनसुराज की फंडिंग कहां से हो रही है। प्रशांत किशोर ने चुनावी रणनीतिकार के तौर पर आई पैक कंपनी बनाई थी।
लेकिन आई पैक में उनकी भूमिका क्या है, इसका लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है।
जनसुराज की फंडिंग के सवाल पर अपनी पदयात्रा के दौरान प्रशांत किशोर ने पत्रकारों से कहा था, ‘जिन राज्यों में हमने काम किया है, वहां सैकड़ों ऐसे लोग हैं जिन्हें हमारी समझ पर भरोसा है। उन्हीं की मदद से ये अभियान चलाया जा रहा है।’
लेकिन प्रशांत किशोर की राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को उनका ये जवाब शायद संतुष्ट नहीं करता।
वरिष्ठ पत्रकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं, ‘प्रशांत किशोर को लेकर अभी भी ये सवाल अहम है कि वो आर्थिक मदद कहां से ले रहे हैं। अगर वो भी किसी भ्रष्टाचारी से पैसे लेकर राजनीति करेंगे तो उनके साथ भी विश्वनीयता का संकट पैदा हो जाएगा।’
वहीं पत्रकार अरूण श्रीवास्तव कहते हैं, ‘अगर आप बिहारी कल्चर में देखें तो यहां पार्टियां टिकट बेचती हैं और उम्मीदवार अपने आर्थिक बल पर चुनाव लड़ते हैं। लेकिन प्रशांत किशोर अपने उम्मीदवारों को एक तरीक़े से पैसे की चिंता से मुक्त कर रहे हैं।’ (bbc.com/hindi)
विश्व आदिवासी दिवस 9 अगस्त पर विशेष
- छगनलाल लोन्हारे/जी.एस. केशरवानी (उप संचालक)
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने छत्तीसगढ़ में 32 प्रतिशत जनजातीय समुदाय की आबादी को देखते हुए राज्य की बागडोर श्री विष्णु देव साय के हाथों में सौंपी है। राज्य गठन के 23 वर्षों बाद वे ऐसे पहले आदिवासी नेता है जिन्हें राज्य के मुखिया के तौर पर कमान सौंपी गई है। राज्य में नई सरकार की गठन के साथ ही उन्होंने किसानों, महिलाओं और वंचित समूहों को आगे बढ़ाने के लिए योजनाओं की शुरूआत की। वे सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास के ध्येय वाक्य को लेकर सभी वर्गों की उन्नति और बेहतरी के लिए काम कर रहे हैं।
छत्तीसगढ़ की समृद्ध आदिवासी संस्कृति की देश-विदेश में अलग पहचान रही है। राज्य के आदिवासी अंचल एक ओर वनों से आच्छादित है। वहीं इन क्षेत्रों में बहुमूल्य खनिज सम्पदा भी है। मनोरम पहाड़ियां, झरनें, इठलाती नदियां बरबस लोगों को आकर्षित करती हैं। मुख्यमंत्री विष्णु देव साय के नेतृत्व में गठित नई सरकार बनने के बाद राज्य के आदिवासी अंचलों में जन जीवन में तेजी से बदलाव लाने और उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने के लिए अनेक नवाचारी योजनाओं का संचालन किया जा रहा है।
आदिवासी समुदाय को सभी प्रकार की मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए संचालित की जा रही महत्वाकांक्षी योजना प्रधानमंत्री जनमन योजना में आदिवासी बहुल क्षेत्रों में सड़क, बिजली, आवास, पेयजल जैसी महत्वपूर्ण मूलभूत सुविधाएं पहुंचाई जा रही हैं। साथ ही केन्द्र और राज्य सरकार की योजनाओं का बेहतर क्रियान्वयन किया जा रहा है।
आदिवासी क्षेत्रों के तेजी से विकास सुनिश्चित करने के लिए केन्द्र सरकार की पहल पर जगदलपुर के नगरनार में लगभग 23 हजार 800 करोड़ रूपए की लागत से वृहद स्टील प्लांट लगाया गया हैं, इससे आने वाले वर्षों में बस्तर अंचल की पूरी तस्वीर बदलेगी। लोगों को बड़ी संख्या में रोजगार मिलेगा साथ ही रोजगार के नए अवसरों का निर्माण होगा।
इस साल के केन्द्रीय बजट में जनजाति उन्नत ग्राम अभियान योजना शामिल की गई है। इस योजना से राज्य के लगभग 85 विकासखंडों में शामिल गांवों को विभिन्न मूलभूत सुविधाएं मिलेगी। इसके अलावा जैविक खेती को बढ़ावा देने जैसी प्राथमिकताएं भी जनजाति क्षेत्रों की दशा और दिशा बदलेंगी।
जनजाति क्षेत्रों के तेजी से विकास सुनिश्चित करने के लिए भारत माला प्रोजेक्ट के अंतर्गत रायपुर-विशाखापत्तनम एक्सप्रेसवे बनाया जा रहा है 464 किलोमीटर लंबा और छह लेन चौड़ा एक्सप्रेसवे होगा। यह छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्र प्रदेश से होकर गुजरेगा। यह एक्सप्रेसवे मार्ग छत्तीसगढ़ में 124 किलोमीटर, ओडिशा में 240 किलोमीटर और आंध्र प्रदेश में 100 किलोमीटर बनेगी। उड़ीसा से आंध्रप्रदेश के विशाखापटनम तक बनाए जा रहे इस नए कॉरिडोर से आर्थिक गतिविधियों में तेजी आएगी। वहीं नए उद्योगों की स्थापना से रोजगार के अवसरों में वृद्धि होगी।
बस्तर के माओवादी आतंक से सुरक्षा प्रदान करने के लिए एक तरफ सुरक्षा कैंपों की सख्या बढ़ायी जा रही है। वहीं सुरक्षा कैंपों के आसपास 5 किलोमीटर के दायरे में आने वाले गांवों में केन्द्र और राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ दिलाने के लिए नियद् नेल्लानार जैसी नवाचारी योजनाओं की शुरूआत की गई है। इस योजना के बेहतर और सार्थक परिणाम मिल रहे हैं। लोगों का विश्वास फिर से शासन-प्रशासन के प्रति लौटने लगा है।
आदिवासियों की आय में वृद्धि और उन्हें बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए सरकार तेजी से काम कर रही है। प्रदेश सरकार ने लगातार ऐसे कदम उठाए हैं, जिनसे वनों के साथ आदिवासियों का रिश्ता फिर से मजबूत हुआ है। वनांचल क्षेत्रों में लघु वनोपज की समर्थन मूल्य पर खरीदी के साथ-साथ तेन्दूपत्ता का खरीदी कार्य भी पहले से अधिक व्यवस्थित रूप से किया जा रहा है। राज्य सरकार द्वारा 36 कॉलेजों के भवन-छात्रावास निर्माण के लिए 131 करोड़ 52 लाख रूपए मंजूर किए गए है। इससे प्रदेश के 36 कॉलेजों के इंफ्रास्ट्रक्चर सुदृढ़ होंगे तथा शैक्षणिक माहौल को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी। वहीं युवाओं को उच्च स्तर की शैक्षणिक सुविधाएं प्राप्त होगी और वे बेहतर भविष्य की ओर बढ़ सकेंगे।
राज्य सरकार ने तेन्दूपत्ता पारिश्रमिक दर प्रतिमानक बोरा 4000 से बढ़ाकर 5500 रूपए कर दिया है। इससे लगभग 13 लाख जनजाति परिवार लाभान्वित हो रहे हैं। इन क्षेत्रों में लघु वनोपज संग्रहण भी महिला स्व-सहायता समूहों के माध्यम से हो रहा है। लघु वनोपज के प्रसंस्करण के लिए वनधन केन्द्रों की स्थापना की गई है।
प्रदेश में जनजातिय समुदाय के बच्चों के लिए बेेहतर शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए 75 एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय संचालित किए जा रहे हैं। इसके अलावा माओवादी प्रभावित क्षेत्र के बच्चों के लिए 15 प्रयास आवासीय विद्यालय संचालित है। इन विद्यालयों में मेधावी विद्यार्थियों को अखिल भारतीय मेडिकल और इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा की तैयारी कराई जा रही हैं। नई दिल्ली में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी के लिए संचालित यूथ हॉस्टल में सीटों की संख्या 50 से बढ़ाकर 185 कर दी गई है।
राज्य में बस्तर, सरगुजा, मध्य क्षेत्र आदिवासी विकास, अनुसूचित जाति विकास प्राधिकरण तथा छत्तीसगढ़ राज्य ग्रामीण अन्य पिछड़ा वर्ग विकास प्राधिकरणों के कामकाज को व्यवस्थित और प्रभावित बनाने के लिए इनका पुनर्गठन किए जाने का निर्णय लिया गया है। इन प्राधिकरणों की कमान अब मुख्यमंत्री के हाथों में होगी। क्षेत्रीय विधायक इन प्राधिकरणों के सदस्य होंगे तथा मुख्यमंत्री के सचिव अथवा सचिव इन प्राधिकरणों के सदस्य सचिव होंगे।
आदिवासी संस्कृति के संरक्षण के लिए बस्तर अंचल के देवगुड़ियां और घोटुलों तथा अन्य ऐतिहासिक धरोहरों के आसपास एक पेड़ मां के नाम अभियान के तहत वृक्षारोपण किया जा रहा है। इससे लोगों में पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता बढ़ रही है, साथ ही ऐसे स्थानों में प्राकृतिक सुन्दरता भी बढ़ेगी।
-दिलीप कुमार पाठक
बिग बॉस कि इतनी लोकप्रियता थी, कि मैंने एक-दो एपिसोड कई साल पहले दो -चार मिनट के लिए देखा था। मुझे भी शुरू में लगा था कि बनावटी दुनिया के लोगों की एक सच्ची जिंदगी की झलकियां होगी लेकिन तब ही भ्रम दूर हो गया। बहुत ही बकवास है और इसे देखने वाले एकदम फालतू जिनके पास सोचने विचारने के लिए कोई काम ही नहीं बचा। मुझे इतना वाहियात लगा था, कि मुझसे झेला नहीं गया। हद्द दर्जे का फूहड़पना किसी भी नॉर्मल इंसान के लिए तो नहीं हो सकता। मेरे लिए वो किसी ट्रॉमा से कम नहीं था। फिर भी कभी-कभार मुझे एक बात आज भी परेशान करती है। ये शो आज भी सबसे ज्यादा लोकप्रिय शो है! जाहिर है बहुत लोग देखते हैं हैं लेकिन मैं पूछना चाहता हूं आप देखने वाले यह शो क्यों देखते हैं?
इसमे सब कुछ स्क्रिप्टिड होता है, कब कौन क्या बोलेगा। कब किससे कौन भिड़ेगा। बुलिंग, गाली, फूहड़ता, अश्लीलता। प्रतिभागी, एक - दूसरे पर फब्तियाँ कसते हैं, कई तो एक दूसरे को चोट भी पहुंचाते हैं। क्या लडक़ी-क्या लडक़ा सारे के सारे एक दूसरे को पीछे छोडऩे के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए आतुर रहते हैं। यह सब इस शो को स्तरहीन बनाता है।
यूं तो शो को घर जैसे बनाया जाता है, वहीँ प्रतिभागी सारे के सारे सस्ती लोकप्रियता के भूखे होते हैं। सब के सब प्रतिभागी ऐसे लगते हैं, जैसे अभी-अभी इन्हें मानसिक हस्पताल से यहीं शिफ्ट किया गया है। बिगबॉस में बने रहने के लिए ऊलूल-जलूल हरकतें जिसे देखकर सामान्य बुद्धि का इंसान अचंभित हो जाए कि यह प्रतिभागी इतना क्यों चिल्ला रहा है? ऐसे लगता है जैसे इसकी पूंछ किसी के पैर के नीचे आ गई है।
एक दिन मेरे मोबाइल पर अचानक एक क्लिप चली जिसमें एक प्रतिभागी दूसरे से पूछता है- ‘क्या चल रहा है सर आपकी लाइफ में? दूसरा प्रतिभागी जवाब देता है-‘जिन्दगी में सब कुछ ठीक चल रहा होता तो मैं यहाँ बिग बॉस में थोड़ा ही होता।’ मतलब साफ है कि प्रतिभागी सस्ती लोकप्रियता के लिए बिग बॉस में आना पसन्द करते हैं। मुझे हैरत होती है इसे नॉर्मल इंसान देख भी कैसे सकता है? बिग बॉस जैसे बकवास शो को देखने वालों को सस्ता नशा दिया जा रहा है।। जो भी इसके दर्शक हैं, उन्हें सचमुच इलाज की ज़रूरत है।
शायद स्क्रिप्टिड होता है सबकुछ तब ही इसके प्रतिभागी अपनी निजी जिन्दगी के चटकारे भी परोसते हैं।। ये सब बातेँ आसान नहीं होतीं हालांकि बहुतेरे प्रतिभागी सस्ती लोकप्रियता के लिए शो की टीआरपी के लिए बोल तो देते हैं, लेकिन बाद में उनकी निजी जि़न्दगी प्रभावित होती है। समाज, परिवार की आलोचना झेलनी पड़ती है। इससे कई पूर्व प्रतिभागी मानिसक समस्याओं से जूझ चुके हैं। क्या बिग बॉस यह सोचता होगा? सीधा जवाब है बिल्कुल नहीं! बिग बॉस यह भी कहता है कि हम वही दिखाते हैं जो समाज को अच्छा लगता है। फिर सोचता हूं अब असल जिन्दगी में भी तो बहुतेरे लोग ऐसे ही होते हैं, हुड़दंग, फूहड़ता अतिवाद अपनी तरफ खींच ले जाता है। जबकि सभ्य बातेँ बकवास लगती हैं कुछ न कुछ सनसनीखेज होते रहना चाहिए। हमारा समाज इतना ज्यादा उत्सवधर्मी हैं, कि चटकारे बिना हमारी जिन्दगी ही बेरंग महसूस होती है। यही कारण है कि बिग बॉस की लोकप्रियता अपने उरूज़ पर है जो हमारे समाज की हकीकत को बखूबी बयां करता है।
बिग बॉस का कहना है, कि इसमें प्रतिभागी वही हो सकता है! जिसने समाज को प्रभावित किया हो! सुनकर बहुत हास्यापद लगा। बिगबॉस में आज तक मुझे ऐसा कोई प्रतिभागी नहीं दिखा जिस का समाज पर कोई सकारात्मक प्रभाव रहा हो। मतलब बिगबॉस के प्रतिभागी बनने के लिए फेमस होना जरूरी है। प्रसिद्धि का कारण जो भी हो। बिग बॉस में मैंने आजतक किसी भी ऐसे प्रतिभागी को नहीं देखा जिसने वैश्विक परिदृश्य में भारत का नाम रोशन किया हो। कुछ अपवाद हो तो कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसे ही भजन गायक अनूप जलोटा एक बार अपनी एक शिष्या के साथ बिग बॉस पहुंचे वहाँ रंग दिया गया कि यह लडक़ी अनूप जलोटा की प्रेमिका है। समाज में अनूप जलोटा की एक भजन गायक होने के साथ ही एक उम्दा इंसान की थी, बाद में इस शो में जाने के बाद सारी की सारी प्रतिष्ठा खऱाब हो गई। किसी भी भी रचनात्मक व्यक्ति को मीडिया, मैग्जीन उसके सर्वोत्तम दौर में फुल रुचि रखते हुए मेन स्ट्रीम पर जगह देते हैं। बाद में जैसे ही जगह नहीं मिलती, तो व्यक्ति अनाप-शनाप हरकतें करने लगता है। यही तो बिग बॉस चाहता है कि आप चर्चा में बने रहें। तब से ही अनूप जलोटा की इज्जत ही कम हुई है। देखा जाए तो आज के समय में टीवी से बड़ा समाज का दुश्मन कोई और नहीं दिखता। सीरीयल्स, फिल्में, न्यूज, म्यूजिक आदि फूहड़ असंवेदनशील, हिंसात्मक, भडक़ाऊ है। मुझे लगता है यह सब जानबूझकर परोसा जा रहा है, ताकि भारतीयों की राजनीतिक चेतना विकसित न हो। उसे अपने मूलभूत मुद्दों पर कोई विचारोत्तेजक सामाग्री साजिशन नहीं प्रोवाइड की जा रही है। इस ज़रूरी विषय पर समाज के अग्रणी लोगों को विचार करना चाहिए।
हम सब को गौर करना चाहिए कि हम क्या देख रहे हैं? क्यों देख रहे हैं? हमारी जि़न्दगी में इसका क्या प्रभाव पड़ता है। वैसे भी देखने का अपना असर ज्यादा होता है अत: ढंग के कन्टेन्ट में समय खर्च किया जाना चाहिए। बिग बॉस एक एक नॉवल पर आधारित ही एक शो हॉलीवुड में आता है, हमारे यहां वाला उसी का कॉपी पेस्ट है। मतलब इसमे भी चोरी। अगर चोरी ही करना था, तो हॉलीवुड में एक से बढक़र एक कन्टेन्ट भरे पड़े हैं। उनकी कॉपी कीजिए समाज को कुछ सकारात्मक दिखाइए। अफसोस पैसा कैसे बनेगा?
वैसे भी हमारे मुल्क में इतनी ज्यादा बेरोजगारी है, कि लोग फ्री बैठे हुए कुछ भी करते हुए समय पास कर रहे हैं। और बिग बॉस को तो पैरेंट्स भी अपने बच्चों के साथ बैठकर देखते हैं। कुल मिलाकर बाजार की अपनी नीतियां-सोच होती है। ्रढ्ढष्ठ्र मॉडल यूँही नहीं काम करता। उसे पता होता है कि क्या कैसे बेचना हैं। सभी की अपनी स्वायत्ता है, कोई कुछ भी देखे। बहरहाल मेरा अपना दृष्टिकोण था तो आप सभी से साझा किया। फिर भी देखने वालों को खुद से एक बार पूछना चाहिए हम बिग बॉस क्यों देखते हैं?
-नवीन सिंह खडक़ा
हाल के हफ़्तों में भारी बारिश और बाढ़ के कारण भारत के कई हिस्से प्रभावित हुए हैं। इस कारण कई लोगों की जान गई है और हज़ारों विस्थापित हुए हैं।
साल के इन महीनों में जब सबसे अधिक बारिश होती है, भारत या दक्षिण एशिया में बाढ़ आना कोई असामान्य बात नहीं है।
लेकिन जलवायु परिवर्तन ने मॉनसून की बारिश को अधिक अनियमित बना दिया है, मसलन लंबे समय समय तक सूखा रहने के बाद किसी जगह पर अचानक बहुत कम समय में मूसलाधार बारिश हो जाना।
अब वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण नमी में बहुत अधिक वृद्धि के साथ एक किस्म का तूफ़ान हालात को और बिगाड़ रहा है। इस तूफ़ान को ‘एटमॉस्फ़ेरिक रिवर’ या ‘वायुमंडलीय नदी’ के नाम से जाना जाता है।
आसमान में बनने वाले इन तूफ़ानों को ‘फ्लाइंग रिवर्स’ या ‘वायुमंडलीय नदियां’ भी कहते हैं। ये पानी के भाप वाले रिबन बैंड जैसे होते हैं जो गऱम समंदर से होने वाले वाष्पीकरण से बनते हैं और अदृश्य होते हैं।
ये भाप वायुमंडल के निचले हिस्से में एक पट्टी की तरह बनाते हैं जो उष्णकटिबंधीय इलाक़ों से ठंडे प्रदेशों की ओर बढ़ता है और बारिश या बर्फ के रूप में गिरता है।
यह किसी इलाके में बाढ़ या भयावह बर्फीला तूफान लाने के लिए पर्याप्त विनाशकारी होता है।
ये ‘फ्लाइंग रिवर्स’ कुल जल वाष्प का 90 फीसदी हिस्सा लेकर चलती हैं और पृथ्वी के मध्य-अक्षांश के ऊपर से होकर गुजरती हैं। औसतन इनमें अमेजन नदी में आम तौर पर बहने वाले पानी का दोगुना पानी होता है।
पानी की मात्रा के लिहाज़ से अमेजऩ नदी दुनिया की सबसे बड़ी नदी है।
जितनी तेज़ी से पृथ्वी गर्म हो रही है, वैज्ञानिकों का कहना है कि ये ‘एटमास्फेरिक रीवर्स’ और बड़ी, चौड़ी और अधिक तीव्र होती जा रही हैं। इसकी वजह से पूरी दुनिया में करोड़ों लोगों पर बाढ़ का जोखिम बढ़ गया है।
भारत में मौसम विज्ञानियों का कहना है कि हिंद महासागर के गर्म होने से ‘फ्लाइंग रिवर्स’ बन रही हैं जो जून और सितंबर के बीच इस क्षेत्र में होने वाली मॉनसून की बारिश पर असर डाल रही हैं।
भयावह होती जा रही ‘फ्लाइंग रिवर्स’
वैज्ञानिक पत्रिका ‘नेचर’ में 2023 में प्रकाशित एक अध्ययन दिखाता है कि 1951 से 2020 के बीच भारत में मॉनसून सीजन के दौरान कुल 574 ‘वायुमंडलीय नदियां’ बनीं। समय के साथ इनके बनने में तेजी आई है।
अध्ययन में कहा गया है, ‘पिछले दो दशकों में, कऱीब 80 फ़ीसदी सबसे ख़तरनाक ‘वायुमंडलीय नदियां’ भारत में बाढ़ का कारण बनीं।’
इस अध्ययन में शामिल आईआईटी और कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों की टीम ने यह भी पाया कि 1985 और 2020 के बीच मॉनसून के सीजऩ में भारत के 10 में से 7 सबसे भयावह बाढ़ों का कारण ये ‘वायुमंडलीय नदियां’ रही हैं।
अध्ययन में कहा गया है कि हाल के दशकों में हिंद महासागर में वाष्पीकरण की प्रक्रिया में ख़ासा इजाफ़ा हुआ है और इस तरह की ‘वायुमंडलीय नदियां’ बनने की प्रक्रिया तेज हुई है। और फिर ग्लोबल वार्मिंग के कारण हाल के दिनों में इसके कारण बाढ़ की घटनाएं भी बढ़ गई हैं।
इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ ट्रापिकल मेटीरियोलॉजी में एटमॉस्फ़ेरिक वैज्ञानिक डॉ.रॉक्सी मैथ्यू कोल ने बीबीसी को बताया, ‘मानसून सीजऩ के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप की ओर बहने वाली नमी में उतार-चढ़ाव की घटनाएं बढ़ गई हैं।’
‘परिणामस्वरूप, गरम समंदर की कुल नमी को ‘फ्लाइंग रिवर्स’ कुछ घंटों या कुछ दिनों के अंदर ही छोड़ देती हैं। इसकी वजह से पूरे देश में भूस्खलन और अचानक आने वाली बाढ़ की संख्या बढ़ गई है।’
कैसी होती हैं ‘फ्लाइंग रिवर्स’?
एक ‘फ्लाइंग रिवर’ या ‘वायुमंडलीय नदी’ की औसत लंबाई लगभग 2000 किलोमीटर और चौड़ाई 500 किलोमीटर तक होती है। इसकी गहराई तीन किलोमीटर तक हो सकती है। हालांकि अब ये और लंबी और चौड़ी होती जा रही हैं और कुछ की लंबाई 5,000 किलोमीटर से अधिक हो सकती है।
बावजूद इसके, ये इंसानी आंखों के लिए अदृश्य होती हैं।
नासा के जेट प्रोपल्शन लैबोरेटरी के साथ काम करने वाले एटमॉस्फेरिक रीसर्चर ब्रायन कान कहते हैं, ‘इन्हें इनफ्रारेड और माइक्रोवेव फ्रीक्वेंसी के द्वारा देखा जा सकता है।’
उनके मुताबिक, ‘यही कारण है कि पूरी दुनिया में भाप के बादलों और वायुमंडलीय नदियों की निगरानी के लिए सैटेलाइट ऑब्जर्वेशन कारगर हो सकता है।’
इसके अलावा मौसम की कुछ और घटनाएं भी हैं जैसे पश्चिमी विक्षोभ, मानसून और चक्रवात, जो बाढ़ पैदा कर सकते हैं।
लेकिन वैश्विक अध्ययनों ने दिखाया है कि 1960 के दशक से ही वायुमंडल में भाप के बादलों में 20 फीसदी तक की वृद्धि हुई है।
वैज्ञानिकों ने दक्षिण एशिया में 56त्न तक अत्यधिक बारिश और बर्फबारी को वायुमंडलीय नदियों से जोड़ा है, हालांकि इस क्षेत्र में अभी सीमित अध्ययन हैं।
मानसून से जुड़ी भारी बारिश और वायुमंडलीय नदियों के बीच के संबंध को लेकर पड़ोसी दक्षिण पूर्व एशिया में अधिक विस्तृत अध्ययन हुए हैं।
अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन द्वारा प्रकाशित साल 2021 में हुए एक अध्ययन में पाया गया कि पूर्वी चीन, कोरिया और पश्चिमी जापन में मानसून सीजऩ (मार्च और अप्रैल) के दौरान 80 फीसदी भारी बारिश की घटनाओं का संबंध वायुमंडलीय नदियों से जुड़ा है।
पोस्टडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रीसर्च से जुड़ी सारा एम वालेजो-बर्नाल का कहना है, ‘1940 से ही पूर्वी एशिया में वायुमंडलीय नदियां बनने की घटनाओं में ख़ासी वृद्धि हुई है।’
उनके अनुसार, ‘हमने पाया है कि उसके बाद से ही मेडागास्कर, ऑस्ट्रेलिया और जापान में ये बहुत तीव्र होती गई हैं।’
अन्य हिस्सों के मौसम वैज्ञानिकों ने हाल में हुई कुछ बड़ी बाढ़ की घटनाओं को वायुमंडलीय नदियों से जोड़ा है।
इराक, ईरान, कुवैत और जॉर्डन में भारी बारिश के पीछे वायुमंडलीय नदियां?
2023 के अप्रैल में इराक, ईरान, कुवैत और जॉर्डन को ओलावृष्टि, और भारी वर्षा के बाद प्रलयकारी भयानक बाढ़ का सामना करना पड़ा था।
मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार, यहाँ के इन इलाकों में आसमान में नमी की रिकॉर्ड मात्रा थी जो 2005 के इसी तरह की घटना से भी ज्यादा थी।
ठीक दो महीने बाद चिली में महज तीन दिनों में 500 मिलीमीटर की बारिश दर्ज की गई। इन तीन दिनों में इतनी बारिश हुई कि इसने एंडीज पर्वत के कुछ हिस्सों पर पड़े बर्फ को भी पिघला दिया। इसके कारण आई भारी बाढ़ ने कई सडक़ों, पुलों और पानी की आपूर्ति व्यवस्था को बर्बाद कर दिया।
एक साल पहले ऑस्ट्रेलिया में भी ऐसी ही बारिश हुई जिसे वहाँ के राजनेताओं ने ‘रेन बॉम्ब’ यानी बारिश बम का नाम दिया था। इसमें 20 लोगों की जान गई थी और हजारों को बचाना पड़ा था।
वैज्ञानिकों ने इन सारी घटनाओं को वायुमंडलीय नदियों का ही परिणाम बताया जो अधिक तीव्र, लंबी, चौड़ी और अक्सर विनाशकारी होती जा रही हैं।
नासा का भी कहना है कि वायुमंडलीय नदियां दुनिया भर में लाखों लोगों को बाढ़ के खतरे में डाल रही हैं।
जर्मनी में पॉट्सडैम विश्वविद्यालय के भूगर्भ विज्ञान संस्थान के अभी हाल के अध्ययन में पता चला है कि वायुमंडलीय नदियों जैसी स्थिति उष्णकटिबंधीय दक्षिण अमेरिका, उत्तरी अफ्रीका, मध्य पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया में लंबे समय तक चल रही है।
इसका मतलब है कि इससे होने वाली बारिश जमीन पर विनाशकारी हो सकती है।
संयुक्त अरब अमीरात में ख़लीफ़ा विश्वविद्यालय के एक अन्य अध्ययन के मुताबिक़, 2023 के अप्रैल में मध्य पूर्व में भी ठीक ऐसा ही हुआ था।
अध्ययन में निकले निष्कर्ष के मुताबिक़, प्रयोग में लाए गए हाई रेसोल्यूशन सिमुलेशन ने वायुमंडलीय नदियों की उपस्थिति की पुष्टि की जो जो उत्तर-पूर्वी अफ्रीका से पश्चिमी ईरान में तेज गति से आगे बढऩे के कारण भारी बारिश करती थीं।
इनसे होने वाले विनाशकारी बाढ़ों और भूस्खलन के खतरों को देखते हुए, एटमॉस्फेरिक रीवर्स को समुद्री तूफानों की तरह ही उनकी विशालता और तीव्रता के आधार पर पांच प्रकार में श्रेणीबद्ध किया गया है।
हालांकि ये सभी विनाशकारी नहीं होती हैं, खासकर वे, जिनकी तीव्रता कम होती है।
कुछ तो उन इलाकों के लिए बहुत लाभकारी होती हैं जहां लंबे समय तक सूखा रहा हो।
लेकिन यह फ़ेनामिना तेजी से गर्म होते वायुमंडल के लिए चेतावनी है, जो अतीत के मुकाबले अधिक भाप को अपने अंदर समाहित कर रहा है।
वायुमंडलीय नदियों से संबंधित डेटा की कमी बड़ी चुनौती
इस समय दक्षिण एशिया में इस तूफ़ान को लेकर, मौसम की अन्य घटनाओं, जैसे पश्चिमी विक्षोभ या भारतीय चक्रवात की तुलना में अध्ययन हो रहे हैं जो बाढ़ और भूस्खनल की बड़ी घटनाओं का कारण बनते हैं।
आईआईटी इंदौर से जुड़ी एक रीसर्च स्कॉलर रोज़ा वी लिंग्वा के अनुसार, ‘मौसम वैज्ञानिकों, जल वैज्ञानिकों और जलवायु वैज्ञानिकों के बीच प्रभावी सहयोग की कोशिशें मौजूदा समय में चुनौतीपूर्ण हैं क्योंकि इस क्षेत्र में अवधारणा नई है और इसे लागू करना मुश्किल है।’
वो जोड़ती हैं, ‘लेकिन भारत के कई हिस्सों में भारी बारिश जारी है, ऐसे में इस तूफ़ान और इसके विनाशकारी प्रभावों का अध्ययन करना और अहम हो गया है।
वायुमंडलीय नदियों की पहुँच भी नए स्थानों तक हो रही है। वैज्ञानिकों के अनुसार, इसका एक कारण बदलते जलवायु में हवा का बदलता बहाव और जेट धाराएँ हैं।
चिली के वालपराइसो विश्वविद्यालय के मौसम वैज्ञानिक डेनिज बोजकर्ट के मुताबिक़, ‘हवाओं और जेट धाराओं में बढ़ी हुई लहरों का मतलब साफ़ होता है उनके अपने बहाव के विशिष्ट रास्तों से मोड़ और विचलन। इससे वायुमंडलीय नदियों को अधिक कठिन मार्गों का पालन करने के कारण संभावित रूप से विभिन्न क्षेत्रों पर उनकी अवधि और प्रभाव बढ़ सकता है।
वालपराइसो विश्वविद्यालय के बोजक़र्ट का आगे और कहना है ‘क्षेत्रीय मौसम संबंधी पूर्वानुमानों में वायुमंडलीय नदियों की अवधारणाओं के बारे में जागरूकता सीमित है।
इसका मुख्य कारण और चुनौती विशेष रूप से जटिल इलाकों में वायुमंडलीय नदियों से संबंधित डेटा की कमी है।(bbc.com/hindi)
मोदी सरकार द्वारा वक्फ कानून बदलने के लिए कथित रूप से एक नया बिल लाए जाने से पहले ही इस कदम का विरोध शुरू हो गया है. आखिर क्या होता है वक्फ और क्यों उठा है इस पर विवाद?
डॉयचे वैले पर चारु कार्तिकेय की रिपोर्ट-
मीडिया रिपोर्टों में दावा किया जा रहा है कि केंद्र सरकार जल्द ही वक्फ अधिनियम, 2013 में संशोधन लाने के लिए एक बिल संसद में ला सकती है. सरकार ने इन रिपोर्टों की पुष्टि नहीं की है, लेकिन मुसलमान समुदाय से जुड़े राजनेता और अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) ने सरकार के इस कदम का विरोध किया है.
एआईएमपीएलबी ने एक बयान जारी कर कहा कि वक्फ अधिनियम, 2013 में अगर ऐसा कोई बदलाव किया जाता है जो वक्फ संपत्तियों के रूप को बदल देगा या सरकार या किसी व्यक्ति के लिए उन संपत्तियों को हड़प लेना आसान बना देगा, तो यह बदलाव अस्वीकार्य है.
क्या होता है वक्फ
'वक्फ' अरबी भाषा का शब्द है, जिसका मतलब होता है किसी संपत्ति को धार्मिक या परोपकारी कार्यों के लिए एक ट्रस्ट के नाम कर देना. एक बार किसी ने अपनी संपत्ति को वक्फ कर दिया तो उसके बाद ना उसकी खरीद-बिक्री हो सकती है और ना दान या तोहफे में किसी को दिया जा सकता है.
मुस्लिम समुदाय में लोग अक्सर अपनी संपत्तियों को स्कूल, क्लिनिक, मस्जिद, मदरसा, कब्रिस्तान आदि समेत किसी ना किसी धार्मिक या परोपकारी उद्देश्य के लिए 'वक्फ' कर देते हैं. वक्फ की हुई संपत्तियों का प्रबंधन वक्फ बोर्ड करता है.
भारत में एक केंद्रीय वक्फ काउंसिल है और राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के भी अपने अपने कुल मिला कर 32 वक्फ बोर्ड हैं. कुछ राज्यों में शिया और सुन्नी समुदायों के अलग अलग वक्फ बोर्ड हैं.
यह सभी बोर्ड वक्फ अधिनियम, 2013 के तहत काम करते हैं. केंद्रीय वक्फ काउंसिल की स्थापना 1964 में वक्फ अधिनियम, 1954 के तहत की गई थी. इस कानून में कई बार संशोधन किए है. आखिरी संशोधन 2013 में किया गया था.
कितनी संपत्ति है वक्फ बोर्डों के पास
वक्फ एसेट्स मैनेजमेंट ऑफ इंडिया की वेबसाइट के मुताबिक देश में इस समय कुल 3,56,047 वक्फ एस्टेट, 8,72,321 अचल वक्फ संपत्तियां और 16,713 चल संपत्तियां है. अचल संपत्तियों में से कुल 4,36,166 संपत्तियों के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है.
सबसे ज्यादा अचल संपत्तियां कब्रिस्तान (1,50,000), खेती-बाड़ी (1,40,000), मस्जिद (1,20,000) और दुकानों (1,12,000) के लिए वक्फ की गई हैं. कई वक्फ संपत्तियों पर अतिक्रमण हो चुका है.
केंद्रीय वक्फ काउंसिल के अध्यक्ष अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री होते हैं. इस समय किरन रिजिजू काउंसिल के अध्यक्ष हैं. इस लिहाज से केंद्र सरकार के पास पहले से ही वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन की जिम्मेदारी है, लेकिन नए संशोधन की खबर से मुस्लिम समुदाय में कई लोग नाराज हैं.
एआईएमपीएलबी के प्रवक्ता एसक्यूआर इलियास ने एक बयान जारी कर कहा है, "पुख्ता खबरों के मुताबिक भारत सरकार वक्फ अधिनियम में 40 संशोधन लाकर वक्फ संपत्तियों के रूप को बदलना चाहती है ताकि उन पर कब्जा ले लेना आसान हो जाए."
उन्होंने आगे कहा कि वक्फ अधिनियम और वक्फ संपत्तियों को भारत के संविधान और शरीयत एप्लीकेशन अधिनियम, 1937 के तहत संरक्षण प्राप्त है और मुसलमान कभी भी वक्फ अधिनियम में ऐसे किसी संशोधन को स्वीकार नहीं करेंगे जिससे अधिनियम का दर्जा ही बदल जाए.
विवादों में रहते हैं वक्फ बोर्ड
एआईएमआईएम पार्टी के अध्यक्ष और सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने भी अधिनियम में संशोधन की कोशिशों का विरोध किया. उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार वक्फ बोर्डों की स्वायत्तता छीन लेना चाहती है और यह धार्मिक स्वतंत्रता के खिलाफ है.
हालांकि कई राज्यों में वक्फ बोर्ड और वक्फ संपत्तियां कई तरह के विवादों में फंसी हुई हैं. जैसे दिल्ली में आम आदमी पार्टी के विधायक और दिल्ली वक्फ बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष अमानतुल्ला खान के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) भ्रष्टाचार के कई आरोपों की जांच कर रही हैं.
इनमें यह आरोप भी शामिल है कि अध्यक्ष पद पर खान के कार्यकाल के दौरान लोगों को अवैध रूप से वक्फ संपत्तियों पर कब्जा जमाने की इजाजत दी गई. इसी तरह 2020 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि पूरे भारत में वक्फ संपत्तियों की ठीक से गिनती नहीं की जा रही है.
कर्नाटक में राज्य के अल्पसंख्यक आयोग ने 2012 में अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि राज्य में वक्फ संपत्तियों के गलत इस्तेमाल और अतिक्रमण से सरकारी खजाने को दो लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. इस रिपोर्ट पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है. (dw.com)
-ध्रुव गुप्त
बहुधा प्रेम को स्त्री-पुरुष के बीच के दैहिक आकर्षण का पर्याय मान लिया जाता है। प्रेम में दैहिक आकर्षण की भूमिका होती है, लेकिन हर दैहिक आकर्षण प्रेम नहीं होता। आकर्षण की उम्र छोटी होती है। यौन आवेग उतर जाने के बाद यह लुप्त होने लगता है। इस आकर्षण से अहंकार का उपनिवेश निर्मित होता है। आपको जो आकर्षित करता है,आप चाहते हैं कि वह सदा आपकी संपत्ति बनकर आपके साथ रहे। आपकी आकांक्षा के अनुरूप चले। आपके अहंकार को सहलाता रहे और आपको विशिष्ट होने का गौरव दे। इच्छाएं पूरी न होने पर यह आकर्षण हिंसा का रूप भी धर ले सकता है। इसके विपरीत प्रेम दो व्यक्तित्वों के मिलने से उपजी एक आंतरिक खुशबू है जो उनके बिछड़ जाने के बाद भी उनके व्यक्तित्व में सदा के लिए बची रह जाती है। प्रेम बेडिय़ां नहीं, मुक्ति देता है। वह एकाधिकार तो नहीं मांगता। किसी ने आपको दो घड़ी, दो दिन भी प्रेम के अनुभव दिए तो आप सदा के लिए उसके कृतज्ञ हो जाते हैं। प्रेम की सफलता पा लेने में नहीं, फासलों और अतृप्तियों में है। दांपत्य में नहीं, उन नाजुक और बेशकीमती संवेदनाओं में है जिन्हें आपके व्यक्तितव में भरकर आपके महबूब ने आपको अनमोल कर दिया।
प्रेम हमारा स्वभाव है। प्रेम। को कुरेदकर जगाने में सबसे बड़ी भूमिका हमारे जीवन में विपरीत सेक्स की होती है। एक पुरुष का स्त्री से या स्त्री का पुरुष से प्रेम स्वाभाविक है। लेकिन यह प्रेम के उत्कर्ष तक पहुंचने का रास्ता भर है, मंजिल नहीं। एक बार प्रेम में पड़ जाने के बाद प्रेम व्यक्ति-केंद्रित नहीं रह जाता। वह हमारी मन:स्थिति बन जाता है। एक बार आप प्रेम में हैं तो आप हमेशा के लिए प्रेम में हैं। आप एक के प्रेम में पड़े तो आप सबके प्रेम में पड़ जाते हैं। समूची मानवता के प्रेम में। सृष्टि के तमाम जीव-जंतुओं के प्रेम में। प्रकृति के प्रेम में।
सोचकर देखिए कि आप सचमुच प्रेम में हैं कि प्रेम के नाम पर अपने अहंकार के उपनिवेश निर्मित करना चाहते हैं ?
शेख़ हसीना ने 15 साल तक बांग्लादेश की सरकार पर काबिज़ रहने के बाद सोमवार को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया और वह देश छोडक़र भारत पहुंचीं।
शेख़ हसीना के बांग्लादेश छोडऩे के बाद हज़ारों प्रदर्शनकारी उनके सरकारी आवास में घुसे और वहां तोडफ़ोड़ और लूटपाट की।
शेख़ हसीना के देश छोडऩे के बाद आर्मी चीफ़ जनरल वकार-उज़-ज़मान ने मीडिया से कहा कि बांग्लादेश में एक अंतरिम सरकार बनाई जाएगी।
बांग्लादेश में बीते महीने से ही हिंसक प्रदर्शनों का दौर जारी था। प्रदर्शनकारियों में अधिकांश छात्र समूह थे जो सरकारी नौकरियों में आरक्षण के ख़िलाफ़ सडक़ों पर उतरे थे।
बांग्लादेश में हुए इस बड़े फेरबदल की पाकिस्तान के मीडिया में भी चर्चा हो रही है।
पाकिस्तान का मीडिया क्या कह रहा है
बांग्लादेश के सियासी घटनाक्रम पर पाकिस्तान के जियो टीवी नेटवर्क ने अपनी लीड स्टोरी का शीर्षक दिया है, ‘देशभर में ख़ूनी प्रदर्शनों के बाद बांग्लादेश की पीएम शेख़ हसीना ने पद छोड़ा, बांग्लादेश से भागीं।’
इसके साथ शेख़ हसीना की वह तस्वीर लगाई गई है, जिसमें वह सुबकती दिख रही हैं। ये तस्वीर बीती 25 जुलाई की है, जब प्रदर्शनकारी छात्रों ने एक मेट्रो स्टेशन पर तोडफ़ोड़ की थी और शेख़ हसीना घटनास्थल पर पहुंची थीं।
ठीक इसके नीचे बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री ख़ालिदा जिय़ा को रिहा करने के लिए राष्ट्रपति मोहम्मद शहाबुद्दीन के आदेश से जुड़ी ख़बर को जगह दी गई है।
इसमें बताया गया है कि शेख़ हसीना के देश छोडऩे के कुछ ही घंटों बाद उनकी चिर प्रतिद्वंद्वी और बांग्लादेश नेशनिलिस्ट पार्टी की नेता ख़ालिदा जिय़ा को जेल से रिहा करने के आदेश दिए हैं। ख़ालिदा जिय़ा को साल 2018 में भ्रष्टाचार के मामले में 17 साल की जेल की क़ैद सुनाई गई थी।
डॉन न्यूज़ ने अपने संपादकीय का शीर्षक दिया है- ‘हसीना का पतन’।
डॉन न्यूज ने अपने संपादकीय में लिखा है कि अगर सेना ने सत्ता न संभाली होती तो बांग्लादेश एक और अस्थिरता की ओर बढ़ सकता था।
डॉन न्यूज़ लिखता है, ‘शेख हसीना ने अपने 15 साल के कार्यकाल में विपक्ष को दबाया और सभी रास्ते ऐसे बंद किए जिससे जनता का आक्रोश फूट गया। शेख हसीना के विपक्षियों ने उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार, ग़ैर-न्यायिक हत्याएं, लोगों को गायब होने के मामलों में संलिप्तता का आरोप लगाया। पिछले कुछ सप्ताहों में शेख़ हसीना की आवामी लीग ने प्रदर्शनकारियों से संघर्ष किया। इसमें कम से कम 300 लोग मारे गए। इसी कार्रवाई ने शेख़ हसीना की विदाई तय कर दी।’
डॉन न्यूज़ के मुताबिक़, ये अख़बार हमेशा से राजनीतिक मामलों में सैन्य दख़लअंदाज़ी का विरोध करता रहा है।
संपादकीय में लिखा है, ‘पाकिस्तान ने सीधे या परोक्ष तौर पर कई बार सैन्य शासन देखा। बांग्लादेश के लिए भी सैन्य सरकार कोई नई बात नहीं है। लेकिन दोनों ही ओर इस दख़लअंदाज़ी से लोकतांत्रिक प्रक्रिया को ठेस पहुंची हैं। इस बात पर चर्चा हो सकती है कि शेख़ हसीना की दमनकारी कार्रवाई, कुप्रबंधन और उनकी बढ़ती अलोकप्रियता सेना के लिए सत्ता में आने का सुनहरा मौका बनी। लेकिन बांग्लादेश के जनरलों (सेना) की राजनीतिक गतिविधियों में दखलअंदाज़ी करने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को नुकसान पहुंचाने के लिए आलोचना होनी चाहिए।’
वहीं ट्रिब्यून एक्सप्रेस ने एक ओपिनियन पीस में लिखा है कि शेख़ हसीना के पीएम पद छोडक़र भारत जाने से अब ये सवाल पैदा हो गया है कि आगे क्या होगा।
इस लेख के अनुसार, ‘सत्ता से बेदखल हुई आवामी लीग अब कहीं नहीं है और न तो जेल में बंद ख़ालिदा जिय़ा और उनकी पार्टी की ओर से ही कुछ कहा जा रहा है। ढाका में चीज़ें अभी स्पष्ट नहीं हैं। इस बीच बांग्लादेश के संस्थापक शेख़ मुजीबुर्रहमान की प्रतिमा से तोडफ़ोड़ करने की कोशिशों की तस्वीरें परेशान करने वाली हैं।’
‘ये दक्षिण एशियाई मुस्लिम देश गंभीर रूप से सामाजिक-आर्थिक उलझन में हैं और महीनों तक राजनीतिक उठापटक और कानून व्यवस्था की लचर हालात के बाद अब ये देश इस हालात में आ पहुंचा है। सबसे बड़ी चिंता ये है कि क्या ये देश फिर से सैन्य शासन की ओर बढ़ रहा है।’
मदीहा लोधी ने क्या कहा
जियो टेलीविजऩ चैनल पर बांग्लादेश की पीएम शेख़ हसीना के पद छोडऩे की नौबत क्यों आई? इस पर मदीहा लोधी ने प्रतिक्रिया दी और सारे घटनाक्रम को भारत के लिए झटका बताया।
लोधी अमेरिका में पाकिस्तान की राजदूत रह चुकी हैं।
वह कहती हैं, ‘आवामी ताकत से ये साबित हुआ है कि जब आवाम सडक़ पर आती है तो उसके सामने कोई नहीं आ सकता। शेख़ हसीना ने छात्रों पर जिस किस्म के दमनकारी कदम उठाए लेकिन उससे वह प्रदर्शन रोक नहीं पाईं। हसीना भारत की ओर ज़्यादा थीं और पाकिस्तान के ख़िलाफ़। ज़ाहिर तौर पर इससे भारत को झटका लगा होगा। लेकिन आगे क्या होगा वह इसपर निर्भर करता है कि बांग्लादेश की नई सरकार की शक़्ल क्या होगी। क्या वहां फ़ौज का शासन होगा या सरकार बनेगी।’
डॉन न्यूज़ ने बांग्लादेश के पीएम के तौर पर शेख हसीना के पिछले 15 सालों का ब्योरा दिया है।
वेबसाइट ने लिखा है कि शेख़ हसीना ने एक वक़्त पर बांग्लादेश को सैन्य शासन से बचाया था।
डॉन न्यूज़ लिखता है, ‘शेख़ हसीना के सत्ता में बीते 15 सालों को बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था के पुनर्जन्म के तौर पर देखा जाता है। लेकिन उनपर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी के आरोप भी लगते रहे हैं।’
पाकिस्तानी चैनल हम न्यूज़ ने बांग्लादेश की सियासी उठक-पटक को लेकर देश के कुछ राजनीतिक विश्लेषकों से बातचीत की।
इनमें से एक आशिमा सिराजी ने बांग्लादेश के मौजूदा हालात पर कहा, ‘ये बहुत बड़ी डेवलेपमेंट है लेकिन पहले ही ऐसा लग रहा था कि ये होगा। जिस तरह से नौकरियों के मुद्दे पर नौजवान सडक़ों पर निकले और उनपर जिस तरह से ताकत का बेजा इस्तेमाल किया शेख़ हसीना सरकार ने।।।ये नजऱ आ रहा था कि वहां इस तरह से हालात बिगड़ जाएंगे।’
वहीं, द ट्रिब्यून अख़बार ने शेख़ हसीना के देश और पीएम पद छोडऩे का एलान करने वाले बांग्लादेश सेना के प्रमुख जनरल वकार-उज़-ज़मान के बारे में बताया है।
वकार उज्ज़मां ने इसी साल 23 जून को तीन साल के लिए सैन्य प्रमुख का पद संभाला था।
सोशल मीडिया यूज़र्स की राय क्या है
मीडिया की तरह ही पाकिस्तान के सोशल मीडिया पर भी बांग्लादेश के मुद्दे कुछ प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं।
सोशल मीडिया यूज़र्स वो वीडियो शेयर कर रहे हैं जिसमें बांग्लादेशी प्रदर्शनकारी छात्र अपने देश के संस्थापक शेख़ मुजीबुर्रहमान की प्रतिमा पर हथौड़ा चला रहे हैं।
एक यूजऱ ने इस वीडियो पर प्रतिक्रिया देते हुए लिख़ा है, ‘1971 का बदला। अच्छा किया मुजीबुर्रहमान के साथ। गद्द़ारों की कोई इज़्ज़त नहीं। छात्र संगठनों को सलाम है।’
छह दिसंबर 1971 को पाकिस्तान का पूर्वी हिस्सा उससे अलग होकर बांग्लादेश के तौर पर एक स्वतंत्र देश बना था। इस आंदोलन की अगुवाई शेख़ मुजीबुर्ररहमान ने की थी।
बांग्लादेश के बनने में भारत की अहम भूमिका रही थी और इसे आज भी पाकिस्तान की बड़ी हार माना जाता है।
बांग्लादेश की स्थिति पर जियो न्यूज़ की एक रिपोर्ट पर एक पाकिस्तानी यूजऱ ने सवाल किया, ‘क्या बांग्लादेश से सीखकर, पाकिस्तान, ख़ासकर कराची के लोगों के लिए मौजूदा कोटा प्रणाली ख़त्म कर दी जाएगी? या फिर हम ऐसी ख़ूनी घटना का इंतज़ार करेंगे?’
ख़ुद को बांग्लादेशी बताने वाले एक यूजऱ ने लिखा, ‘आज आज़ाद हो गया हमारा बांग्लादेश।’
बांग्लादेश के हालात पर जियो न्यूज़ की एक अन्य रिपोर्ट पर एक यूजऱ ने लिखा, ‘बांग्लादेश हमारा बड़ा भाई है और मैं आशा करता हूं कि ये देश शांति से अपनी समस्याएं सुलझाएगा।पाकिस्तान आर्मी परिवार का होने के नाते मैं बांग्लादेश का दुखद बंटवारा भुला नहीं सकता। अल्लाह उन पर रहम करे।’
बांग्लादेश के अख़बारों ने क्या लिखा?
बांग्लादेश की पीएम शेख़ हसीना के देश छोड़ कर चले जाने पर वहां के अख़बारों ने अलग-अलग नज़रिये से टिप्पणी की है।
दैनिक ‘प्रोथोम आलो’ की ख़बर का शीर्षक है- शेख़ हसीना अंत में भी बल प्रयोग करना चाहती थीं।
अख़बार लिखता है कि शेख हसीना अंत में भी अतिरिक्त बल और अधिक रक्तपात के जरिए सत्ता बरकरार रखना चाहती थीं।
‘सामयिक’ पत्रिका की हेडलाइन है- छात्रों की खून से सनी जीत।
इसमें कहा गया है कि बांग्लादेश में जनता की जीत हुई लेकिन ये छात्रों के खून से सनी हुई है।
‘न्यू एज’ की खबर कुछ इस तरह शुरू होती है- खालिदा की रिहाई, जेएस का विघटन, राष्ट्रीय सरकार जल्द।
पहले पन्ने पर लगी इस रिपोर्ट के अनुसार, पार्टी के महासचिव मिर्जा फखरुल इस्लाम आलमगीर ने कहा है कि बीएनपी चेयरपर्सन खालिदा जिया को तुरंत रिहा करने का फैसला किया गया है।
‘नया दिगंत’ अखबार में बांग्लादेश ग्रामीण बैंक के संस्थापक मोहम्मद यूनुस के हवाले से कहा गया है कि छात्रों की जीत दूसरी आज़ादी है।
जीत के दिन पुलिस फायरिंग में 103 की मौत-युगांतर अखबार के पहले पन्ने पर ये ख़बर छापी गई है।
इसमें लिखा गया है कि प्रधानमंत्री शेख हसीना के सोमवार को इस्तीफा देने के बाद अवामी लीग के मंत्रियों-सांसदों के आवास, केंद्रीय कार्यालय और अन्य कार्यालयों में तोडफ़ोड़ की गई और आगजनी की गई।
‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ ने लिखा कर्फ्यू आज ख़त्म; सभी शैक्षणिक, निजी संस्थान, कारखाने भी खुलेंगे। यह बिजनेस स्टैंडर्ड के पहले पन्ने का शीर्षक है।
बांग्लादेश में क्या हुआ?
बांग्लादेश में आरक्षण पर चल रहे हिंसक प्रदर्शनों के राष्ट्रव्यापी आंदोलन में तब्दील हो जाने के बाद देश की प्रधानमंत्री शेख हसीना ने पांच अगस्त को इस्तीफ़ा दिया और वह भारत आ गईं।
शेख़ हसीना वर्ष 2009 से लगातार बांग्लादेश की प्रधानमंत्री रहीं।
वो एक सैन्य विमान से भारत पहुंचीं।
बांग्लादेश में छात्रों ने सरकारी नौकरियों में आज़ादी की लड़ाई लडऩे वालों के परिजनों के लिए 30 प्रतिशत के आरक्षण को समाप्त करने की मांग के साथ विरोध शुरू किया था।
हाई कोर्ट की ओर से इस विवादित कोटा व्यवस्था को बरकरार रखने के बाद छात्रों के प्रदर्शन और तेज़ हो गए। हिंसा में सैकड़ों लोग मारे गए।
प्रदर्शनकारियों पर सरकार की कड़ी कार्रवाई ने आक्रोश को और हवा दी।
बढ़ते विरोध-प्रदर्शनों और हिंसा को समाप्त करने के लिए शेख़ हसीना ने छात्र नेताओं के साथ बिना शर्त बातचीत की पेशकश की थी लेकिन लेकिन छात्र प्रदर्शनकारियों ने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया और ढाका कूच का आह्वान कर दिया।
इसके बाद सोमवार को शेख हसीना को अपना पद और देश दोनों छोडऩे पड़े। (bbc.com/hindi)
-अरविंद दास
पिछले साल जब वहीदा रहमान को दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिया गया तब मैंने उनसे लंबी बातचीत की थी। मैंने उनसे पूछा था कि ‘आप गुरुदत्त को कैसे याद करती हैं?’ उनका कहना था कि ‘मैं न्यूकमर थी उस वक्त। मुझे कुछ समझ नहीं थी। उन्होंने एक के बाद एक ऐसी क्लासिक पिक्चर बनाई, जिसका मैं हिस्सा बनी। पूरा क्रेडिट गुरुदत्त जी का है।’ प्रसंगवश, वर्ष 1955 में तेलुगु फिल्म ‘रोजुलू माराई’ के एक गाने में पहली बार वह नजर आई जो बेहद चर्चित हुई। उस गाने पर गुरुदत्त की नजर पड़ी और वे उन्हें मायानगरी (मुंबई) खींच लाए।
वहीदा रहमान की फिल्में, जिसे गुरुदत्त (1925-1964) ने निर्माण-निर्देशित किया, मसलन ‘प्यासा’, ‘साहब बीवी और गुलाम’, ‘कागज के फूल’ विश्व सिनेमा के इतिहास में क्लासिक का दर्जा रखती है। महज 39 वर्ष का जीवन ही गुरुदत्त को मिला। लेकिन करीब पंद्रह वर्ष के फिल्मी करियर में गुरुदत्त ने परदे पर एक कलाकार और निर्देशक के रूप में जो कुछ भी रचा उसने हिंदी सिनेमा के मुहावरे को बदल दिया। उनकी अधिकांश फिल्में कलात्मक और व्यावसायिक दोनों ही रूपों में सफल रही थी।
साथ ही उनकी बनाई फिल्मों में एक उत्तरोत्तर उठान दिखाई देता है। शुरुआत की फिल्म ‘बाजी’ (1951), जिसे उन्होंने बलराज साहनी के साथ मिल कर लिखा था, से लेकर ‘जाल’, ‘बाज’, ‘आर-पार’, ‘मिस्टेर मिसेज 55’ और ‘साहब बीवी और गुलाम’ तक के सफर में यह दिखाई देता है। उनकी आखिरी फिल्में एक कुशल रचनाकार के ‘स्व’ की खोज की तरफ जाती दिखाई देती है। एक कश्मकश है यहाँ, जो उनकी निजी जीवन का भी प्रतिबिंब है। उनका जीवन एक अधूरे अफसाने की तरह रहा, जो हूक पैदा करता है।
गुरुदत्त के जन्मशती वर्ष में एक बार फिर से उनके योगदान की चर्चा अपेक्षित है। गुरुदत्त की फिल्में जितनी मेलोड्रामा के लिए याद रखने योग्य है, उतनी है बिंब के इस्तेमाल को लेकर। उनकी फिल्मों में विभिन्न शॉट्स का संयोजन एक लय की सृष्टि करता है। ‘कागज के फूल’ फिल्म में जिस तरह से कैमरा ने प्रकाश और छाया को कैद किया है, वह अविस्मरणीय है।
उनकी फिल्मों में गीत-संगीत का प्रयोग अलग से रेखांकित किया जाता रहा है। नसरीन मुन्नी कबीर ने ‘गुरुदत्त: ए लाइफ इन सिनेमा’ में ठीक ही लिखा है कि गानों को परदे पर उतारने में उन्हें महारत हासिल थी, जिससे उनके सहयोगी हमेशा प्रभावित होते थे। अपनी सभी फिल्मों में गुरुदत्त गीतों का इस्तेमाल संवाद के विस्तार के रूप में करते थे। ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ जैसी कॉमेडी हो या ‘प्यासा जैसी ट्रेजडी फिल्म, इनके गाने साठ-सत्तर साल बाद भी लोगों की जबान पर हैं।
कर्नाटक के मंगलौर में जन्मे गुरुदत्त का बचपन कोलकाता में बीता था। सत्तरह वर्ष की उम्र में वे प्रसिद्ध नृत्यकार उदय शंकर की संस्था ‘इंडिया कल्चर सेंटर’(अल्मोड़ा) से जुड़े थे। वर्ष 1944 में, दो वर्ष बाद, वे पूना पहुँचे जहाँ वे विश्राम बेडेकर निर्देशित फिल्म ‘लाखारानी (1945)’ में सहायक निर्देशक और एक किरदार की छोटी सी भूमिका में दिखे। यहीं से उनके फिल्मी सफर की शुरुआत हुई, जो मंजिल तक पहुँचे बिना खत्म हुई।
-द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
कैंसर की जड़ें मेरे शरीर में पनप चुकी थी. अन्तत: 2002 में मैं उसकी गिरफ्त में आ गया। कैंसर का नाम सुनते ही इन्सान घबरा जाता है। घबराने की असल वजह होती है- डर। यह बीमारी जरा नखरीली है, मानी तो मानी और न मानी तो सता-सता कर मारती है। लोग इस बीमारी का नाम सुनकर ही सदमा खा जाते हैं, ‘साइलेन्ट हार्ट अटैक’ तो हो ही जाता है. सुनते साथ ही आँखों के सामने मृत्यु का तांडव नृत्य आरम्भ हो जाता है। जैसे ही इस बीमारी के समाचार का आगमन होता है, अनेक विद्वान सलाहकारों का अपने-आप अभ्युदय हो जाता है. सब के सब कैन्सर ठीक होने का मुफ़ीद इलाज बताते हैं- एकदम ‘गेरेन्टीड’, न ठीक होने पर सलाह वापस ! जैसे, गौ-मूत्र, स्वमूत्र का सेवन; गेहूँ के ज्वारे का रस, आयुर्वेदिक या होम्योपैथिक उपचार आदि लेकिन मैं असमंजस में था कि क्या करूं, किसकी शरण में जाऊं ? सबसे अधिक डर इस सूचना का था - ‘किसी हालत में ‘सर्जरी’ मत करवाना क्योंकि चाकू के लगते ही कैन्सर शरीर में बुरी तरह फैलता है।’
मेरा जी घबरायमान हो रहा था. हमारी बिटिया संगीता और भावी दामाद डॉ. केदारनाथ मेरी सर्जरी के पक्ष में थे और वह भी तुरन्त क्योंकि देर करने से कैन्सर के शरीर के अन्य अंगों में फैलने का डर था लेकिन मैं तो त्रिकोणीय समस्या से जूझ रहा था। पहला कोण था- 15 फरवरी को संगीता का विवाह, दूसरा कोण- विवाह के एक माह पूर्व कैन्सर की सर्जरी और तीसरा कोण- देर हो जाने पर कैन्सर के फैलने का डर। अब, आपको तो मालूम है ही कि इस संसार में बिना पैसे कुछ होता नहीं है और मेरी माली हालत इतनी खराब थी कि ‘क्या नहाएं, क्या निचोएं !’
सर्जरी की तारीख नज़दीक आते जा रही थी और अपनी जेब खाली थी, मैं निरुपाय था, चुपचाप अपनी बीमारी के डर को सीने में छुपाए सहज बने रहने की कोशिश करता। मेरा दिमाग दिनोंदिन सुन्न पड़ते जा रहा था, हर दिन मेरे लिए कठिन होता जा रहा था। उसी दौरान एक दिन जब मैं अपनी लॉज में बैठा था, मेरे अभिन्न मित्र रमाकान्त मिश्रा (राजा) जो भारतीय स्टेट बैंक से स्वैच्छिक अवकाश ले चुके थे, आए. हम दोनों ने साथ-साथ चाय पी। उन्होंने पूछा- ‘कब निकल रहे हो, इन्दौर के लिए ?’
‘अभी तो कोई प्रोग्राम नहीं बना।’ मैंने कहा.
‘अरे, तुझे सर्जरी के लिए निकलना था न ?’
‘सर्जरी मुफ्त में होती है क्या ?’
‘कितना लगेगा?’
‘क्या पता, लेकिन एक लाख से कम क्या लगेगा?’
‘फिर?’
‘फिर क्या...चुपचाप बैठा हूँ.’ मैंने बताया. बैठक समाप्त हो गई।
रमाकान्त चले गए। लगभग दो घंटे बाद आए और मुझे एक बंडल दिया और कहा- ‘ये बहत्तर हजार हैं, इसे लेकर कल सुबह इंदौर के लिए निकल जा, एक दिन की भी देर नहीं करना। मेरे खाते में अभी इतना ही था। और पैसे की ज़रूरत होगी तो मुझे वहां से फोन करना, मैं खुद लेकर आऊंगा।’ उन्होंने मुझे आदेश जैसा दिया और चले गए।
उन रुपयों को देखकर मेरी आंखे डबडबा गई, मैं सोच रहा था- मौत की ओर तेजी से कदम बढ़ाते इन्सान की भला कौन ऐसी मदद करता है !
(रमाकांत मिश्र अब न रहे लेकिन उनकी और उनके दोस्ताना जज्बे की बहुत याद आती है)
(आत्मकथा : ‘दुनिया रंग बिरंगी’ का एक अंश)
-आशय येडगे
सुप्रीम कोर्ट ने एक अगस्त 2024 को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण बारे में ऐतिहासिक फै़सला सुनाते हुए कहा कि सरकार इन समुदायों के आरक्षण सीमा के भीतर अलग से वर्गीकरण कर सकती है।
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस बेला त्रिवेदी, जस्टिस पंकज मित्तल, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की सात जजों की बेंच के छह न्यायाधीशों ने एससी-एसटी आरक्षण में उप-वर्गीकरण के पक्ष में फ़ैसला सुनाया, जबकि एक न्यायाधीश ने इसका विरोध किया।
फ़ैसला सुनाते समय यह सिफ़ारिश भी की गई कि अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण में क्रीमी लेयर का प्रावधान होना चाहिए और यह अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी वर्ग पर लागू क्रीमी लेयर के प्रावधान से अलग होना चाहिए।
इस फ़ैसले को लेकर कई पहलुओं की तरफ़ लोगों का ध्यान गया है कि क्या अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षण में क्रीमी लेयर देने की ज़रूरत है?
यह प्रावधान ओबीसी वर्ग में क्रीमी लेयर से कैसे अलग हो सकता है? क्रीमी लेयर के पक्ष और विपक्ष में लोगों के क्या तर्क हैं?
क्रीमी लेयर पर कोर्ट ने क्या कहा?
अनुसूचित जनजाति में क्रीमी लेयर को लेकर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के चार न्यायाधीशों ने अपनी राय दी।
‘क्रीमी लेयर’ से मतलब उस वर्ग से है जो आर्थिक और सामाजिक रूप से प्रगति कर चुका है। इस श्रेणी में आने वाले लोगों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता है।
वर्तमान में अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण के लिए क्रीमी लेयर की सीमा लागू है। साथ ही, अनुसूचित जाति एवं जनजाति के संबंध में पदोन्नति में क्रीमी लेयर का सिद्धांत लागू किया गया है।
संविधान पीठ के सदस्य बीआर गवई ने इस बारे में कहा, ‘सरकार को अन्य पिछड़ा वर्ग की तरह अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए क्रीमी लेयर लागू करने के लिए कुछ मानदंड तय करने चाहिए। ओबीसी और अनुसूचित जनजाति के लिए मानदंड अलग-अलग हो सकते हैं।’
उन्होंने कहा कि संविधान में दिए गए समानता के सिद्धांत को स्थापित करने के लिए यह कदम महत्वपूर्ण हो सकता है। लेकिन क्रीमी लेयर के मानदंड क्या होंगे, इस पर उन्होंने कोई टिप्पणी नहीं की।
जस्टिस पंकज मित्तल ने एक मानदंड का उल्लेख किया जिसका उपयोग अनुसूचित जनजातियों के बीच क्रीमी लेयर का निर्धारण करते समय किया जा सकता है।
उन्होंने कहा, ‘अगर एक छात्र सेंट स्टीफंस या किसी अन्य शहरी कॉलेज में पढ़ रहा है और एक छात्र ग्रामीण इलाके के स्कूल या कॉलेज में पढ़ रहा है, तो इन दोनों छात्रों को एकसमान नहीं माना जा सकता है। अगर एक पीढ़ी आरक्षण का लाभ लेकर आगे बढ़ी है तो अगली पीढ़ी को आरक्षण नहीं मिलना चाहिए।’
जस्टिस विक्रम नाथ ने भी कहा, ‘अन्य पिछड़े वर्गों की तरह, क्रीमी लेयर का प्रावधान अनुसूचित जाति और जनजाति पर भी लागू होना चाहिए लेकिन मानदंड अलग होने चाहिए।’
वहीं जस्टिस सतीशचंद्र शर्मा ने कहा कि एससी/एसटी समुदायों के लिए ‘क्रीमी लेयर’ निर्धारित करने के लिए एक संवैधानिक आदेश की आवश्यकता है।
नि:संदेह, ये केवल न्यायाधीशों की टिप्पणियाँ थीं, इसलिए ये भविष्य में तत्काल प्रभाव से लागू नहीं होंगी, लेकिन यह भी महत्वपूर्ण है कि सु्प्रीम कोर्ट के सामने क्रीमी लेयर का मुद्दा नहीं था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के न्यायधीशों ने इस मुद्दे को चर्चा में ला दिया है।
चूंकि वे सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश हैं, लिहाजा उन्हें संदर्भित किया जा सकता है, नीतियां बनाते समय इन टिप्पणियों पर विचार किया जा सकता है और इसलिए यह महत्वपूर्ण भी है।
पिछड़ापन मापने के मापदंड
वंचित बहुजन अघाड़ी के अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर ने इस फैसले का विरोध किया है।
प्रकाश आंबेडकर ने एक्स पर लिखा, ‘सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला अनुसूचित जाति के तहत पिछड़ेपन को मापने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले मानदंडों पर चुप है।’
वह कहते हैं, ‘ईवी चिन्हिया का फैसला अभी भी मजबूत है। भले ही आरक्षण के तहत श्रेणी को 6 से 1 तक बरकरार रखा गया था, लेकिन यह अनुच्छेद 14 खिलाफ ही फैसला है।
आरक्षण से न केवल एससी, एसटी और ओबीसी को लाभ होता है, बल्कि सामान्य श्रेणियों को भी लाभ होता है। प्रकाश आंबेडकर ने कहा कि यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है।
दक्षिण भारतीय फिल्म निर्देशक पा रंजीत ने भी अनुसूचित जाति के आरक्षण में क्रीमी लेयर का प्रावधान लागू करने का विरोध किया है। उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा, ‘जाति एक सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान है, आर्थिक स्थिति का जाति पर कोई असर नहीं पड़ता है।’
पा रंजीत ने लिखा, ‘एससी/एसटी आरक्षण में क्रीमी लेयर लागू करना सामाजिक न्याय के लिहाज से एक नकारात्मक क़दम होगा। अनुसूचित जनजातियों को दिया गया आरक्षण उनकी आबादी की तुलना में पहले से ही पर्याप्त नहीं है।’
क्या होगा असर
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सुनाए फ़ैसले के बारे में बॉम्बे हाई कोर्ट के वकील संघराज रूपवते ने कहा, ‘सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों ने एक बार फिर अदालत की आड़ में वही किया है जो वे चाहते थे। यह एक ऐसा फ़ैसला है जो हमें जातिविहीन समाज से दूर ले जाता है। अनुसूचित जाति और जनजाति के उप-वर्गीकरण की अनुमति देना छह न्यायाधीशों की एक बड़ी गलती है। जस्टिस बेला त्रिवेदी की एकमात्र असहमति ही संवैधानिक क़ानून का सही पुनर्कथन है।’
क्रीमी लेयर के प्रावधान के बारे में संघराज रूपवते बोले, ‘इस बात पर बहस हो सकती है कि क्या क्रीमी लेयर के प्रावधानों को अनुसूचित जाति और जनजातियों पर लागू किया जाना चाहिए। जिन व्यक्तियों और परिवारों को आरक्षण का लाभ नहीं है, उनके लिए क्रीमी लेयर के प्रावधानों में कुछ बदलाव किए जा सकते हैं।’
संघराज रूपवते इसके पीछे का कारण बताते हैं, ‘अगर हम महाराष्ट्र पर विचार करें तो अनुसूचित जाति श्रेणी में मुख्य रूप से तीन जातियां हैं। इनमें नव-बौद्ध या जिन्हें महार कहा जाता है, चर्मकार और मातंग ये तीन जातियां है। इनमें से नव-बौद्ध समाज पर आरक्षण का लाभ लेने का आरोप है लेकिन अगर हम इन तीन समुदायों की तुलना करें तो नव-बौद्धों में शिक्षा का स्तर ऊंचा है और यही कारण है कि उनके आंकड़े अपेक्षाकृत ऊंचे हैं, लेकिन वर्गीकरण इसका समाधान नहीं है।’
रूपवते यह भी बताते हैं, ‘अनुसूचित जातियों और जनजातियों को विभाजित और विघटित करके शासक वर्ग के लिए हमेशा के लिए शासन करने का दरवाजा खोल दिया गया है और अब इन जातियों और जनजातियों को एकजुट करना लगभग असंभव है। यह लकड़ी के लिए एक पूरे पेड़ को काटने जैसा है। ऐसा लगता है कि इससे जाति व्यवस्था और मजबूत होगी।’
‘क्रीमी लेयर लगाने का कोई आधार नहीं’
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बारे में राउंड टेबल इंडिया मराठी के संपादक राहुल गायकवाड़ ने कहा, ‘क्रीमी लेयर को लागू करने से निष्पक्ष और पर्याप्त प्रतिनिधित्व का सिद्धांत कमजोर हो जाएगा। एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि एक निश्चित स्तर तक पहुंचने के बाद ही दबे-कुचले लोगों की आवाज बुलंद होती है।’
उप-वर्गीकरण के बारे में राहुल गायकवाड़ ने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट की ओर से किए गए उप-वर्गीकरण से एक ही श्रेणी की जातियों के बीच संघर्ष हो सकता है। साथ ही, इस उप-वर्गीकरण के मानदंड स्पष्ट नहीं हैं। अगर इस तरह से उप-वर्गीकरण वर्गीकरण किया गया है, तो ऐसा हो सकता है कि किसी जाति समूह को वर्षों तक आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।’
राहुल गायकवाड़ के मुताबिक, ‘अनुसूचित जाति जनजातियों के आरक्षण में क्रीमी लेयर के प्रावधान को लागू करने के लिए पर्याप्त डेटा और आधार नहीं है। समाज में आर्थिक या प्रशासनिक प्रगति से जाति कहीं नहीं जाती। हमने देखा है कि हमारी राष्ट्रपति को भी मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं दी जा रही है।’
आरोप है कि अनुसूचित जाति, जनजाति के आरक्षण से सिफऱ् कुछ ख़ास जातियों को ही फायदा हुआ है। बेशक, आंकड़े अक्सर बताते हैं कि लोग अभी भी बड़े पैमाने पर आरक्षण के लाभ से वंचित हैं।
इस बारे में राहुल गायकवाड़ ने कहा, ‘एक समाधान जाति-वार जनगणना करना और जनसंख्या-वार नीतियों को लागू करना है। इसके लिए ऐसी जनगणना ज़रूरी है।’
मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील बोधी रामटेके का मानना है, ‘अगर हम संवैधानिक प्रावधानों से हटकर दलित एकता पर विचार करें तो इस फ़ैसले से पहली बार दलित आंदोलन में फूट पड़ गई है। अगर हम अनुसूचित जनजातियों पर विचार करते हैं, तो मान लीजिए कि फ़ायदा नव-बौद्ध या महार समुदाय के लोगों को मिलता है। लेकिन सौ प्रतिशत महारों में से केवल दो से तीन प्रतिशत को ये सभी रियायतें दी गई हैं और ऐसी परिस्थितियों में उप-वर्गीकरण से शेष 98 प्रतिशत दलितों के साथ अन्याय होगा।’
बोधि रामटेके के मुताबिक जिन लोगों की आय थोड़ी अधिक है उन्हें आरक्षण लाभ के दायरे से बाहर कर दिया जाना चाहिए और क्रीमी लेयर लागू करने की बजाय एक वैकल्पिक नीति बनानी चाहिए।
किन्हें मिलेगा लाभ?
हालांकि कुछ विश्लेषक इन सिफ़ारिशों का समर्थन भी कर रहे हैं।
लहूजी शक्ति सेना के प्रोफेसर डॉ. डी.डी. कांबले कहते हैं, ‘दरअसल एससी वर्ग में 59 जातियां हैं और आरक्षण का लाभ केवल मु_ी भर लोगों को ही मिला है। इस फ़ैसले का सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव यह है कि जिन लोगों को आरक्षण से आर्थिक लाभ हुआ है, उन्हें अब आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा। क्रीमी लेयर प्रमाण पत्र के आधार पर, ऐसे लोग आरक्षण का लाभ नहीं उठा सकेंगे।’
मातंग विस्तार संघर्ष समिति के सदस्य अजीत केसरालिकर ने कहा, ‘महाराष्ट्र में शाहू, फुले, अंबेडकर के अनुयायियों के रूप में रहने वाले लोगों ने 1965 से इस वर्गीकरण को नजरअंदाज़ कर दिया है। अगर हम महाराष्ट्र में अनुसूचित जाति के अंतर्गत आने वाली 59 जातियों पर विचार करें, तो एक या इनमें से दो जातियाँ उन्नत हैं और बाकी इस विकास से वंचित हैं।’
केसरालिकर ने बताया, ‘अगर आरक्षण का लाभ समान रूप से वितरित किया जाए, अगर हाशिये पर पड़े लोगों को मौका मिले तो उनका भी सर्वांगीण विकास हो सकता है। मेरा मानना है कि इससे जाति समानता की स्थापना में मदद मिलेगी। इसलिए इसका स्वागत है।’
क्रीमी लेयर क्या है? ये कब शुरू हुआ?
भारत में ‘क्रीमी लेयर’ ओबीसी के अपेक्षाकृत समृद्ध और शिक्षित वर्ग को सूचित करता है। इस वर्ग के लोगों को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण का लाभ नहीं मिलता है।
आरक्षण का लाभ वास्तव में वंचित वर्ग के लोगों को मिले, इसके लिए क्रीमी लेयर का प्रावधान किया गया है।
‘क्रीमी लेयर’ की अवधारणा इंद्रा साहनी मामले (1992) में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद पेश की गई थी, जिसे मंडल आयोग मामले के रूप में भी जाना जाता है।
अदालत ने फैसला सुनाया कि ओबीसी में उन्नत वर्गों को आरक्षण के लाभ का दावा नहीं करना चाहिए, लेकिन इस वर्ग के वास्तव में जरूरतमंद लोगों को ये लाभ मिलना चाहिए।
इसके मुताबिक, आठ लाख से अधिक वार्षिक आय वाले परिवारों को क्रीमी लेयर का हिस्सा माना जाता है। यह आय सीमा सरकार की ओर से समय-समय पर संशोधित की जाती है।
इसके अतिरिक्त, ग्रुप ए और गु्रप बी सेवाओं में उच्च पदस्थ अधिकारियों के बच्चे भी क्रीमी लेयर में शामिल हैं।
डॉक्टर, इंजीनियर और वकील जैसे संपन्न पेशेवरों के बच्चों को भी क्रीमी लेयर का हिस्सा माना जाता है। इसके अलावा बड़े पैमाने पर कृषि भूमि के मालिक परिवारों को भी क्रीमी लेयर में शामिल किया गया है।
क्रीमी लेयर के सदस्य सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों सहित ओबीसी के लिए आरक्षित लाभों के लिए पात्र नहीं हैं।
वर्तमान में क्रीमी लेयर की अवधारणा अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति पर लागू नहीं होती है।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लगभग सभी लोगों को आरक्षण का लाभ मिलता है। लेकिन अब कोर्ट की इस ऐतिहासिक सिफारिश के बाद इसमें बदलाव की संभावना है।
-अपूर्व गर्ग
इस बार रायपुर की अनवरत बारिश ने भिगा दिया। दो सप्ताह से जारी झड़ी अनवरत जारी है। बहुत दिनों बाद इस तरह घुमड़ रहे बादलों से लोगों को पुराने दिन याद आ रहे।
बारिश की पड़ती बौछारों से अतीत की खिड़कियाँ हिल रही हैं-खुल रही हैं।
ऐसी बारिश में उन दिनों बूढ़ातालाब का दृश्य विहंगम होता और किसी विशाल सागर सा नजर आता। तब ये बूढ़ा इठलाता, इतराता करवटें बदलता रहता और इसकी बाहें कितनी दूर-दूर तक फैली रहतीं, जरा याद करिये!
सारी रात बारिश में भीगने के बाद ये छोटा सा शहर उजला-उजला से नजर आता। कुछ भुट्टे वाले, कुछ मूंगफली वाले और सब एक दूसरे को जानने वाले।
दूसरी ओर सदर, रामसागर पारा, फूल चौक पर गिनती के हलवाई जिनकी कड़ाही मानों ऐसी बारिश से खौल नहीं खिल रही हो।
बारिश और मिट्टी का संगम क्या होता है ये पता चलता भीगी मिट्टी की महक से। आज ड्रेन टू ड्रेन सडक़ के इस दौर में न जाने कहाँ खो गया वो महक, न जाने कहाँ दब गई वो मिट्टी?
बारिश का एक मिजाज था, बौछारों से निकलती धुन ओर बूदें गुनगुनाती हुई महसूस होतीं क्योंकि मेरे शहर के पास ऐसे मौसम में खामोश रहने की तहजीब, तमीज थी।
बादलों के मेहरबान होते ही आसपास फूल ही नहीं खिलते झाडिय़ाँ, लम्बी घासें भी झूमने लगतीं, आज हमारे आसपास न झाडिय़ाँ हैं न घास, न झींगुर, न तितलियाँ न टिड्डे। चिडिय़ों की चहचहाहट तो ‘लक्सेरियस’ हो गई। देखना है तो बर्ड पार्क जाओ। जमाना हो गया कोई कम्बख्त कौआ आकर प्राण खाना तो दूर किसी मुंडेर पर भी नहीं दीखता।
फिर भी उड़ते हुए बादलों में वो उस पुराने शहर की यादें उड़ती दिखाई देती हैं, जहाँ मैदान ही मैदान थे ओर बारिश में कबड्डी-कबड्डी की आवाजें और फुटबॉल उछलती नजर आती। इन दिनों प्रभात टॉकीज की पीछे होने वाले मोहन क्लब फुटबॉल टूर्नामेंट को कोई कैसे भूल सकता है?
मेरे कानों में तो अब भी रेडियो की गूंजती ‘राम-राम बरसाती भैया’ आवाज मिश्री घोलती है।
मुझे ऐसी बारिश में अपने दोस्त के गाने के बोल याद आते हैं जो बारिश में तरबतर ‘खीला गड़वनी’ खेलते मधुर कंठ से गाया करता।
‘हाय चना के दार राजा, चना के दार रानी, चना के दार गोंदली, तडक़त हे वो टुरा हे परबुधिया, होटल में भजिया, झडक़त हे वो।’
-दिनेश चौधरी
ओलम्पिक खेलों के कवरेज का ठेका उनके पास है, जो सिनेमा के कारोबार में भी हैं और जिनका मकसद मूलत: एंटरटेनमेंट का है। इनकी हिंदी कॉमेंट्री भी बड़ी मनोरंजक है, जिन्हें मैं अक्सर बंद करके खेल देखता हूँ। एक का तकियाकलाम ‘प्रभु’ है। कल हॉकी में आस्ट्रेलिया से जीत के बाद उनका गला फटते-फटते बचा। टेलीविजन में कमेंट्री करने वालों को ज्यादा बोलने से बचना चाहिए। मुझे लगता है कि सेठ के चैनल के लिए कर रहे हैं तो सोचते होंगे कि कम बोले तो पेमेंट कट जाएगी।
मुद्दे की बात यह है कि सात दिनों पहले तक मनु भाकर को कितने लोग जानते थे? मेडल लाने से पहले अभिनव बिंद्रा को? कौन अभिनव बिंद्रा?अच्छा भूल गए! वहीं जो पहली बार भारत के लिए ओलंपिक में गोल्ड लेकर आए थे। अब तो कोई याद भी नहीं करता। सात-आठ दिनों में लोग मनु को भी भूल जायेंगे और शायद नीरज चोपड़ा को भी। अपुन का राष्ट्रीय खेल क्रिकेट है! हम बस वही खेलते, देखते, सुनते, ओढ़ते, बिछाते, खाते, पीते हैं। ये दस-बारह दिन उपवास के हैं।
तो खवातीनों-हजरात! जब आपको पूरे चार साल तक किसी और खेल से कोई मतलब नहीं होता तो आपको मेडल की उम्मीद क्यों होती है? अभी कुछ दिनों में रोना लेकर बैठ जाएंगे कि फलां देश की इतनी-सी आबादी है, पिद्दी सा मुल्क है, उसने इत्ते गोल्ड ले लिए और हम 130 करोड़ की आबादी में लुटे-पिटे से लौटते हैं। खेलों को लेकर जैसा अपना नजरिया और रवैया है, कायदे से हम इतना भी डिजर्व नहीं करते। यह तो उन खेलने वालों की अपनी लगन, प्रतिभा और समर्पण है, जो इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी दम लगाकर खेल रहे हैं। अच्छा खेल रहे हैं। आपको कोई हक नहीं बनता कि आप उनसे मैडल की उम्मीद रखें।
खेल देखना अच्छा लगता है। कभी-कभी तनाव भी हो जाता है। अर्जेंटीना और आयरलैंड वाले हॉकी मैच में मैंने आखिरी क्षणों में टीवी बंद कर दिया था। ऑस्ट्रेलिया वाला मैच अलबत्ता पूरा देखा। अच्छा खेल रही थी अपनी टीम। आगे भी ऐसे ही खेले तो हम जीत सकते हैं, पर हम चीख-चीख कर नहीं कहेंगे कि ‘इंडिया लाओ गोल्ड।’ हम आपके सिर पर मैडल का बोझ नहीं लादेंगे। आप तनावमुक्त होकर खेलें, अच्छा खेलें। आपके स्टिक-वर्क में जादुई कला है और हम बस उसी के मुरीद हैं।
अपने पड़ोस में एक सिंग चच्चा रहते थे। उनका बेटा अपनी ही क्लास में पढ़ता था और फिर फेल होकर बिछड़ गया। औरों से भी बिछड़ता और पिछड़ता रहा। सिंग चच्चा को साल भर बेटे की पढ़ाई-लिखाई से कोई मतलब नहीं होता था पर जब वह फेल होकर आता था तो वे उसकी पिटाई बड़ी श्रद्धा के साथ और समारोह-पूर्वक करते थे।
अपने मुल्क के खेल-प्रेमी भी सिंग चच्चा की तरह हैं।
-सैय्यद मोजिज इमाम
नज़ूल भूमि पर उत्तर प्रदेश सरकार का बिल सुर्खय़िों में है। विधानसभा में ये बिल पास हो गया लेकिन विधान परिषद में पेश करने के बाद इसे प्रवर समिति को भेज दिया गया है।
सरकार के भीतर ही इस बिल को लेकर अंदरूनी कलह सदन के भीतर दिखाई दी। विधान परिषद में ख़ुद बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष भूपेन्द्र चौधरी ने समिति को भेजने का प्रस्ताव दिया जिसे सभापति ने मान लिया।
बिल को केशव प्रसाद मौर्य ने विधानसभा में पेश किया था। हालांकि, इससे पहले मुख्यमंत्री और दोनों उपमुख्यमंत्रियों के बीच बैठक में बिल को लेकर तमाम आशंकाओं पर बात हुई थी।
विधानसभा में बीजेपी के विधायक हर्ष वाजपेयी और सिद्धार्थनाथ सिंह ने अपनी आपत्ति ज़ाहिर की थी। इसके अलावा सरकार की सहयोगी और केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल ने भी विरोध किया था।
सरकार को उस वक़्त परेशानी का सामना करना पड़ा जब इस बिल का विरोध ख़ुद उनके ही लोग करने लगे। उधर कांग्रेस ने धमकी दी थी कि इस बिल के ख़िलाफ़ पार्टी सडक़ पर उतरेगी।
क्या है नज़ूल बिल, क्यों है विरोध?
इस बिल के लागू होने से नज़ूल की ज़मीन फ्री होल्ड नहीं की जा सकती है।
इलाहाबाद से विधायक हर्ष वाजपेयी का कहना है, ‘सरकार एक या दो लोगों से ज़मीन ले ले तो फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन जो लोग ब्रिटिश काल से इन ज़मीनों पर रह रहे हैं, उनका क्या होगा, कई लोग 100 साल से रह रहे हैं। एक तरफ़ प्रधानमंत्री आवास दे रहे हैं, दूसरी तरफ़ हम लोगों से ज़मीन ले रहे हैं ये न्यायसंगत नहीं है।’
वाजपेयी के इस बयान के बाद विपक्ष ने उनकी सराहना तो की, लेकिन सरकार से मांग की कि इस ज़मीन को फ्री होल्ड कराने का मौका देना चाहिए। वहीं दूसरे विधायक सिद्धार्थनाथ सिंह ने कहा कि सुझाव पर सरकार को तवज्जो देनी चाहिए और लीज़ को फिर से नवीनीकरण का मौक़ा देना चाहिए।
सरकार के बिल के मुताबिक़ नज़ूल की ज़मीन पर मालिकाना हक़ के लिए कोर्ट में लंबित सभी मामले ख़ारिज माने जाएंगे।
आलोचकों का कहना है कि इस बिल के ज़रिए सरकार नज़ूल की ज़मीन को रेगुलेट करना चाहती है जो सरकार के अधीन है पर सीधे सरकार के प्रबंधन में नहीं है। बिल के ज़रिए सरकार इसके ट्रांसफऱ को रोकना चाहती है।
इस बिल में सरकार के पास अधिकार है कि जिसका किराया सही समय पर जमा हो रहा है उसके लीज़ को बढ़ा सकती है, जिससे सरकार के पास इसका कंट्रोल बना रहेगा।
जिन लोगों नें फ्री होल्ड के लिए पैसा जमा किया है उनको ब्याज सहित पैसा वापस कर दिया जाएगा जो एसबीआई के हिसाब से होगा।
लीज़ की ज़मीन का रेंट जमा किया जा रहा है, शर्ते भी मानी जा रही हैं तो भी लीज़ ख़त्म होने पर सरकार ज़मीन वापस ले सकती है।
नज़ूल की ज़मीन का मालिकाना हक़ किसी को नहीं दिया जाएगा बल्कि सिर्फ सार्वजनिक इस्तेमाल किया जाएगा।
पहले सरकार नज़ूल की ज़मीन को 99 साल के लिए लीज़ पर देती थी।
सरकार के सहयोगियों ने भी किया है विरोध
सरकार के सहयोगी निषाद पार्टी और अपना दल (एस) की अनुप्रिया पटेल ने भी बिल का विरोध किया है।
अनुप्रिया पटेल ने एक्स पर लिखा कि, ''नज़ूल भूमि संबधी विधेयक को विमर्श के लिए विधान परिषद की प्रवर समिति को आज भेज दिया गया है, व्यापक विमर्श के बिना लाए गए इस बिल के संबध में मेरा स्पष्ट मानना है कि ये विधेयक गैर-ज़रूरी आम जनमानस की भावनाओं के विपरीत भी है।’
पटेल ने मांग की कि ये विधेयक वापस लेना चाहिए और अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी चाहिए। वहीं निषाद पार्टी के नेता संजय निषाद जिनकी पार्टी के विधायक ने इस बिल का विरोध किया था।
उनका कहना है कि लोग नदी के किनारे रह रहे हैं वो कैसे कागज़़ दिखाएंगे और जब लोगों के बसाने की जगह दूसरा काम होगा तो लोग हमारे विरोध में खड़े हो जाएंगे। इस सभी लोगों का समर्थन समाजवादी पार्टी ने और जनसत्ता दल (लोकतांत्रिक) के रघुराज प्रताप सिंह उफऱ् राजा भैया ने भी किया है।
समाजवादी पार्टी इस बिल को वापस लेने की मांग कर रही है। समाजवादी पार्टी का कहना है कि ये बिल जन विरोधी है।
सरकार की तरफ़ से संसदीय कार्य मंत्री सुरेश खन्ना ने इस बिल का बचाव किया है उनका कहना था कि 'बहुत सारे केस अदालत में लंबित हैं जो फ्री होल्ड की मांग कर रहे हैं। सरकार का हितों का नुक़सान हो रहा है। क्योंकि सार्वजनिक कामों के लिए सरकार को भी ज़मीन की ज़रूरत है।’
नज़ूल की भूमि क्या है?
यूपी में लगभग 25 हज़ार हेक्टेयर ज़मीन नज़ूल की है, जिसको आमतौर पर लीज़ पर दिया जाता है। ये किसी व्यक्ति को या संस्था को दिया जाता है। इन ज़मीनों पर लोग सालों साल से रह रहे हैं। ये लोग इस उम्मीद में हैं कि एक दिन ये फ्री होल्ड हो जाएगी लेकिन बिल के अमल में आ जाने से ऐसा नहीं हो सकता। अभी तक नज़ूल की ज़मीन सिर्फ ट्रांसफऱ हो सकती है लेकिन उसका मालिकाना हक़ नहीं मिल सकता, वो सरकार के पास है।
दरअसल, आज़ादी से पहले ब्रिटिश हुक़ूमत किसी की भी ज़मीन ज़ब्त कर लेती थी जिसमें राजा से लेकर छोटे आदमी तक हो सकते थे लेकिन आज़ादी के बाद जो लोग इसके मालिकाना हक़ के कागज़ नहीं दिखा पाए वो ज़मीन सरकार की हो गई।
फ़ैज़ाबाद में हार का एक कारण यह भी
फ़ैज़ाबाद में बीजेपी की हार के कई कारण में से एक कारण नज़ूल की ज़मीन भी थी।
टाइम्स ऑफ इंडिया के पत्रकार अरशद अफज़़ाल ख़ान का कहना है कि राम पथ और परिक्रमा मार्ग की अधिकांश ज़मीनें नज़ूल की हैं।
वो कहते हैं, ‘जब अधिग्रहण हुआ तो ज़मीनें सरकार की निकलीं, जिनका घर तोड़ा गया चौड़ीकरण के लिए उनको मुआवज़ा उनकी बिल्डिंग का मिला पर ज़मीन का नहीं मिला। मकान पुराने थे इसलिए मुआवज़ा कम होता चला गया। जिसकी वजह से वोटर बीजेपी के प्रति उदासीन रहा है और कई जगह विरोध में भी रहा है।’
जानकार बताते हैं कि पुराने शहर लखनऊ, प्रयागराज, कानपुर, फ़ैज़ाबाद जैसे शहरों में नज़ूल की ज़मीन तो है लेकिन तकऱीबन हर जि़ले में कुछ ना कुछ ज़मीन नज़ूल की पाई जाती है।
फ़ैज़ाबाद में ही नज़ूल की ज़मीन को लेकर पीएमओ तक शिकायत हो चुकी है। टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के मुताबिक़, 2022 में बीजेपी नेता रजनीश सिंह ने इसमें घोटाले का आरोप लगाया था। तत्कालीन सांसद लल्लू सिंह ने भी एसआईटी जांच की मांग की थी।
इस तरह कानपुर में भी नज़ूल की ज़मीन के लिए विवाद चल रहा है जिसमें सिविल लाइंस इलाके़ में कई ज़मीनों को लेकर सरकार की तरफ़ से सर्वे किया जा रहा है।
इसमें कई ज़मीन का लीज़ समाप्त हो गया है और कई ज़मीनों पर अवैध कब्ज़े की शिकायत मिली है।
कानपुर में 15 लोगों को गिरफ़्तार किया गया है जो इस तरह की नज़ूल की ज़मीन पर कब्ज़ा करने का प्रयास कर रहे थे।
जि़लाधिकारी राकेश कुमार सिंह के मुताबिक़, सिविल लाइंस में 7500 वर्ग मीटर की ज़मीन को 1884 में 99 साल की लीज़ पर दिया गया था जिसे बाद में 25 साल के लिए बढ़ाया गया था। इसकी बाजार कीमत 1000 करोड़ रुपये के करीब है। (bbc.com/hindi)
-विजय सिंह ठकुराय
पेरिस ओलंपिक में बॉक्सिंग विवाद के बाद जिस तरह सोशल मीडिया पर मिसइनफार्मेशन की लहर चल पड़ी है, उसके मद्देनजर मुझे लगता है कि मुझे आपको कुछ बेसिक फैक्ट्स क्लियर कर देने चाहिएं।
सबसे पहले तो आपको यह जान लेना चाहिये कि ट्रांस अथवा कथित तौर पर मर्द से औरत बनी अल्जीरियन बॉक्सर ईमन खलीफ जैविक रूप से ट्रांस नहीं, एक महिला है। दिखने में मर्दों जैसी हो सकती है पर जन्म से जनाना अंगों के साथ ही पैदा हुई थी और बचपन से महिला वर्ग में ही बॉक्सिंग करती आ रही है।
मैं आपको यह भी बता दूँ कि भले ही ईमन ने इस बार 46 सेकंड में इटालियन बॉक्सर एंजेला करिनि को ढेर कर दिया हो, पर पूर्व में ईमन को कई महिला बॉक्सरों ने जम कर धोया है, जिनके नाम आप विकिपीडिया पर ईमन की मैच हिस्ट्री में सर्च कर सकते हैं। कहने का अर्थ यह है कि ईमन हमेशा महिला बॉक्सरों पर उतनी भारी नहीं पड़ी है। तो फिर उसे लेकर उठ रहे विवाद की जड़ क्या है?
जड़ पिछले साल शुरू हुई, जब रशिया द्वारा कंट्रोल्ड बॉक्सिंग फेडरेशन ने ईमन के डीएनए में ङ्गङ्घ क्रोमोसोम तथा टेस्टोस्टेरोन के एलिवेटेड लेवल पाए जाने पर उसे महिला जननांग होने के बावजूद ‘मर्द’ घोषित कर अयोग्य करार दे दिया। तो क्या ङ्घ क्रोमोसोम मर्द होने की गारंटी है?
जी नहीं, यह बात पूरी तरह सही नहीं है। वास्तव में ङ्घ क्रोमोसोम पर मौजूद स्क्रङ्घ नामक जीन ञ्जष्ठस्न तथा स्ह्रङ्ग9 प्रोटीन को जन्म देकर पुरुषत्व प्रेरित करती है। अगर किसी बायोलॉजिकल डिसऑर्डर से यह जीन निष्क्रिय हो, अथवा अनुपस्थित हो, तो ङ्घ क्रोमोसोम होने के बावजूद व्यक्ति महिला होता है।
वहीं अगर स्क्रङ्घ जीन ङ्घ क्रोमोसोम की बजाय किसी अन्य क्रोमोसोम पर एक्सप्रेस हो जाये, तो ङ्गङ्ग होने के बावजूद व्यक्ति महिला होने की बजाय पुरुष होता है। इसके अलावा और भी पचासों ज्ञात तथा अज्ञात हार्मोनल फैक्टर हैं, जो व्यक्ति के जेंडर का निर्धारण करते हैं। सिर्फ ङ्घ क्रोमोसोम होने अथवा टेस्टोस्टेरोन हाई होना मात्र ही पुरूष होने की गारंटी नहीं है, खासकर जब जनाना अंग मौजूद हों। इस तरह देखा जाए तो ईमन खलीफ ट्रांस न होकर कुछ एब्नार्मल हार्मोनल डिसऑर्डर की शिकार महिला है। बेशक, ये डिसऑर्डर उसे दूसरी महिलाओं की अपेक्षा शारीरिक एडवांटेज देते हैं, पर इससे उसके ऊपर ‘मर्द’ होने का लेबल नहीं लग जायेगा।
वास्तविक मुद्दा यह है कि जब आप जेंडर को बाइनरी (महिला/पुरूष) रूप में न देख कर एक स्पेक्ट्रम के रूप में देखने का आग्रह रखते हैं, तो प्रतिस्पर्धाओं का स्वरूप बाइनरी रखने का क्या तुक है?
प्रतिस्पर्धाओं को लेकर एक विस्तृत फ्रेमवर्क तैयार करने की जरूरत है, ताकि समान शारीरिक क्षमता वाले लोग ही एक-दूसरे से कॉम्पिटिशन कर पाएं। जब तक ऐसा नहीं होगा, पेरिस ओलंपिक जैसे ब्लंडर होते रहेंगे। इस मामले में किन्नरों और ट्रांस समुदाय का मजाक उड़ा रहे मित्रों से मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि ईमन खलीफ का तो पता नहीं, पर दुनिया में लाखों वास्तविक बायोलॉजिकल ट्रांस लोग मौजूद हैं, जो इस विवाद में गलत दिशा में जा रहे आउटरेज के कारण भविष्य में अपनी पहचान और सम्मान के प्रति हमेशा सशंकित और असुरक्षित महसूस करेंगे।
-छगन लोन्हारे
छत्तीसगढ़ में हरेली त्यौहार का विशेष महत्व है। हरेली छत्तीसगढ़ का पहला त्यौहार है। इस त्यौहार से ही राज्य में खेती-किसानी की शुरूआत होती है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह त्यौहार परंपरागत् रूप से उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस दिन किसान खेती-किसानी में उपयोग आने वाले कृषि यंत्रों की पूजा करते हैं और घरों में माटी पूजन होता है। गांव में बच्चे और युवा गेड़ी का आनंद लेते हैं। इस त्यौहार से छत्तीसगढ़ की संस्कृति और लोक पर्वों की महत्ता भी बढ़ गई है। ग्रामीण क्षेत्रों में गेड़ी के बिना हरेली तिहार अधूरा है।
परंपरा के अनुसार वर्षों से छत्तीसगढ़ के गांव में अक्सर हरेली तिहार के पहले बढ़ई के घर में गेड़ी का ऑर्डर रहता था और बच्चों की जिद पर अभिभावक जैसे-तैसे गेड़ी भी बनाया करते थे। हरेली तिहार के दिन सुबह से तालाब के पनघट में किसान परिवार, बड़े बजुर्ग बच्चे सभी अपने गाय, बैल, बछड़े को नहलाते हैं और खेती-किसानी, औजार, हल (नांगर), कुदाली, फावड़ा, गैंती को साफ कर घर के आंगन में मुरूम बिछाकर पूजा के लिए सजाते हैं। माताएं गुड़ का चीला बनाती हैं। कृषि औजारों को धूप-दीप से पूजा के बाद नारियल, गुड़ के चीला का भोग लगाया जाता है। अपने-अपने घरों में अराध्य देवी-देवताओं के साथ पूजा करते हैं। गांवों के ठाकुरदेव की पूजा की जाती है।
हरेली पर्व के दिन पशुधन के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए औषधियुक्त आटे की लोंदी खिलाई जाती है। गांव में यादव समाज के लोग वनांचल जाकर कंदमूल लाकर हरेली के दिन किसानों को पशुओं के लिए वनौषधि उपलब्ध कराते हैं। गांव के सहाड़ादेव अथवा ठाकुरदेव के पास यादव समाज के लोग जंगल से लाई गई जड़ी-बूटी उबाल कर किसानों को देते हैं। इसके बदले किसानों द्वारा चावल, दाल आदि उपहार में देने की परंपरा रही हैं।
सावन माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को हरेली पर्व मनाया जाता है। हरेली का आशय हरियाली ही है। वर्षा ऋतु में धरती हरा चादर ओड़ लेती है। वातावरण चारों ओर हरा-भरा नजर आने लगता है। हरेली पर्व आते तक खरीफ फसल आदि की खेती-किसानी का कार्य लगभग हो जाता है। माताएं गुड़ का चीला बनाती हैं। कृषि औजारों को धोकर, धूप-दीप से पूजा के बाद नारियल, गुड़ का चीला भोग लगाया जाता है। गांव के ठाकुर देव की पूजा की जाती है और उनको नारियल अर्पण किया जाता है।
हरेली तिहार के साथ गेड़ी चढऩे की परंपरा अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग सभी परिवारों द्वारा गेड़ी का निर्माण किया जाता है। परिवार के बच्चे और युवा गेड़ी का जमकर आनंद लेते है। गेड़ी बांस से बनाई जाती है। दो बांस में बराबर दूरी पर कील लगाई जाती है। एक और बांस के टुकड़ों को बीच से फाडक़र उन्हें दो भागों में बांटा जाता है।
उसे नारियल रस्सी से बांधक़र दो पउआ बनाया जाता है। यह पउआ असल में पैर दान होता है जिसे लंबाई में पहले कांटे गए दो बांसों में लगाई गई कील के ऊपर बांध दिया जाता है। गेड़ी पर चलते समय रच-रच की ध्वनि निकलती हैं, जो वातावरण को औैर आनंददायक बना देती है। इसलिए किसान भाई इस दिन पशुधन आदि को नहला-धुला कर पूजा करते हैं। गेहूं आटे को गंूथ कर गोल-गोल बनाकर अरंडी या खम्हार पेड़ के पत्ते में लपेटकर गोधन को औषधि खिलाते हैं। ताकि गोधन को विभिन्न रोगों से बचाया जा सके। गांव में पौनी-पसारी जैसे राऊत व बैगा हर घर के दरवाजे पर नीम की डाली खोंचते हैं। गांव में लोहार अनिष्ट की आशंका को दूर करने के लिए चौखट में कील लगाते हैं। यह परम्परा आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में विद्यमान है।
हरेली के दिन बच्चे बांस से बनी गेड़ी का आनंद लेते हैं। पहले के दशक में गांव में बारिश के समय कीचड़ आदि हो जाता था उस समय गेड़ी से गली का भ्रमण करने का अपना अलग ही आनंद होता है। गांव-गांव में गली कांक्रीटीकरण से अब कीचड़ की समस्या काफी हद तक दूर हो गई है। हरेली के दिन गृहणियां अपने चूल्हे-चौके में कई प्रकार के छत्तीसगढ़ी व्यंजन बनाती है। किसान अपने खेती-किसानी के उपयोग में आने वाले औजार नांगर, कोपर, दतारी, टंगिया, बसुला, कुदारी, सब्बल, गैती आदि की पूजा कर छत्तीसगढ़ी व्यंजन गुलगुल भजिया व गुड़हा चीला का भोग लगाते हैं। इसके अलावा गेड़ी की पूजा भी की जाती है। शाम को युवा वर्ग, बच्चे गांव के गली में नारियल फेंक और गांव के मैदान में कबड्डी आदि कई तरह के खेल खेलते हैं। बहु-बेटियां नए वस्त्र धारण कर सावन झूला, बिल्लस, खो-खो, फुगड़ी आदि खेल का आनंद लेती हैं।
-डॉ. दिनेश मिश्र
सावन के महीने में जब बरसात हो रही है,चारों ओर हरियाली बिखरी हुई हो,वैसा नजारा तो छत्तीसगढ़ जैसे कृषि प्रधान प्रदेश के लिये अत्यन्त महत्व का है। गर्मी के बाद बरसात की बौछारों वे खुशनुमा हरियाली का स्वागत करने को सब आतुर रहते हैं। सावन में हरेली में ही जहां किसान खेती की प्रारंभिक प्रक्रियाएं पूरी कर फसल के लिये स्वयं को तैयार करते है,अपने खेतों, गाय-बैलों,औजारों की पूजा करते है व हरियाली का उत्सव मनाते हैं। वहीं आज भी सुदूर अंचल में अमावस्या की रात मन ही मन आशंकित रहते है, जबकि वर्ष में साल भर अमावस्या हर पखवाड़े में आती है, चन्द्रमा के न दिखने के कारण रात अंधेरी होती है तथा बारिश के कारण, हवाओं, बादलों के गरजने के कारण यह अंधेरा रहस्यमय बन जाता है जबकि इसमें रहस्य व डर जैसी कोई बात नहीं है।
आज भी ग्रामीण अंचल में अनेक स्थानों में हरेली अमावस्या की रात के नाम से अनजाना सा भय छाने लगता है, किसी अनिष्ठ की आशंका बच्चों, बड़ों को, पशुओं को नुकसान पहुंचने का डर, गांव बिगडऩे का ख्याल ग्रामीणों को बैगा के द्वार पर जाने को मजबूर कर देता है तथा सहमें ग्रामीण न केवल गांव बांधने की तैयारियां करते हैं, अनुष्ठान पूर्वक गांव के चारों कोनों को कथित तंत्र-मंत्र से बांधते है, गांवों में लोग शाम ढलते ही दरवाजे बंद कर लेते हैं। बैगा के निर्देशानुसार किसी भी व्यक्ति के गांव से बाहर आने-जाने की मनाही कर दी जाती है। कथित भूत-प्रेत, विनाशकारी जादू-टोने से बचाने के लिये नीम की डंगलियां घरों-घर खोंस ली जाती है। घरों के बाहर गोबर से आकृति बनायी जाती है। कही सुनी बातों, किस्से कहानियों के आधार पर पले-बढ़े भ्रम व अंधविश्वासों के आधार पर माहौल इतना रहस्यमय बन जाता है कि यदि हरेली की रात कोई आवश्यकता पडऩे पर घर का दरवाजा भी खटखटायें तो लोग दरवाजा खोलने को तैयार नहीं होते। जादू-टोने के आरोप में महिला प्रताडऩा की घटनाएं भी घट जाती है।
पिछले 28 वर्षो से अधिक समय से अंचल के ग्रामीण क्षेत्रों में अंधविश्वासों एवं जादू-टोने के संदेह में होने वाली महिला प्रताडऩा, टोनही प्रताडऩा के खिलाफ अभियान चलाने के लिये हम गांवों में सभाएं लेते हैं व जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करते हैं। जिन स्थानों पर महिला प्रताडऩा की घटनाएं होती है वहां जाकर उन महिलाओं व उनके परिजनों से भी मिलते है। उन्हें सांत्वना देते हैं, उनसे चर्चा करते हैं व आवश्यकतानुसार उनके उपचार का भी प्रबंध करते हैं। 3500 से अधिक गांवों में सभाएं लेने के दौरान अनेक प्रताडि़त महिलाओं से चर्चा हुई, उनके दुख सुने कि कैसे अनेक बरसों से उस गांव में सबके साथ रहने व सुख दुख में भागीदार बनकर जिंदगी गुजारने के बाद कैसे वे कुछ संदेहों व बैगाओं के कारण पूरे गांव के लिये मनहूस घोषित कर दी गई। उन्हें तरह-तरह से प्रताडि़त किया गया, सरेआम बेईज्जती की गई। जब उन्होंने चिल्लाकर अपने बेगुनाह होने की दुहाई दी तब भी उनकी बात नहीं सुनी गई, उन्हें सजा दे दी गई। न ही उन्हें बचाने कोई आगे आया व न ही किसी ने उन्हें सांत्वना दी। शरीर व मन के जख्मों को लिये वे कहा-कहां नहीं भटकती रही। किसी-किसी गांवों में महिलाओं ने बताया उनके सामने जीवन यापन की मजबूरी उठ खड़ी हुई तथा अपने गांव व आस पास के गांवों में मजदूरी न मिलने के कारण भीख मांगकर काम चलाना पड़ा। डायन/टोनही के आरोप में प्रताडि़त होने वाली अधिकांश महिलाएं गरीब, असहाय, विधवा व परित्यक्ता होती है। जिन पर आरोप लगाना बैगा व उसके बहकावे में आये ग्रामीणों के लिये आसान होता है। डायन/टोनही प्रताडऩा के खिलाफ अभियान चलाते समय इन महिलाओं से जब बातचीत का अवसर मिलता हे तब अपनी कहानी बताते हुए उनकी आंखें डबडबा जाती है, गला भर जाता है, आवाज रूंध जाती है उनके आंसू उनकी निर्दोषिता बयान कर देते है।
दुर्ग जिले के खुड़मुड़ी के नजदीक एक गांव में जब हम हरेली की रात पहुंचे तब कुछ ग्रामीणों ने कहा हरेली की रात टोनही सुनसान स्थान, श्मशान में मंत्र साधना करती है व शक्ति प्राप्त करने के लिये निर्वस्त्र होकर पूजा अनुष्ठान करती है, लाश जगाती है, उसके मंत्र से चांवल बाण जैसे घातक बन जाते है। ऐसी बात और भी अनेक गांवों में ग्रामीणों ने कही। तब हमने उनसे कहा कि हम रात में ही श्मशान घाट जाने को तैयार है तथा पिछले वर्षो में खुड़मुड़ी, घुसेरा, बीरगांव, मंदिर हसौद, रायपुरा सहित अनेक गांवों के श्मशान भी गये, हमारे साथ ग्रामीण भी गये, निर्जन स्थानों तालाबों के किनारे, जंगलों में गये पर सारी बातें असत्य सिद्ध हुई। न ही कहीं कोई अनुष्ठान करती महिला न ही कोई अन्य डरावनी बात। अलबत्ता खराब मौसम, तेज बारिश, तेज हवाएं, बादलों से जरूर सामना हुआ।
सरगुजा बैकुंठपुर के पास एक गांव में जब हम रात में सभा कर रहे थे तब कुछ ग्रामीणों ने कहा हमने टोनही के संबंध में पुराने लोगों से सुना जरूर है पर देखा नहीं है। जब हमने वहां एक करीब सत्तर वर्ष के वृद्ध से बात की तब उसने भी स्वयं देखने से इंकार किया। ग्रामीणों ने बैगाओं के तंत्र-मंत्र के जानकार होने व झाड़-फूंक करने वाले बैगाओं ने तंत्र-मंत्र के जानकार होने का दावा भी किया पर कभी किसी महिला ने यह नहीं कहा कि वह कोई तंत्र मंत्र जानती है, वह जादू के छोटे से खेल भी नहीं दिखा पाती। मात्र अफवाहों व गलत सूचनाओं के आधार पर किसी महिला पर जादू टोने का संदेह करना व प्रताडि़त करने की घटनाएं घटती है।
हरेली के संबंध में बहुत से मिथक व किस्से कहानियां हमें गांवों से सुनने को मिलती है जिसका कारण अंचल में शिक्षा व स्वास्य चेतना का अपेक्षित प्रचार-प्रसार न होना ही है जिसके कारण आज भी मनुष्य व पशुओं को होने वाली शारीरिक व मानसिक बीमारियों को जादू-टोने के कारण होना माना गया व तंत्र मंत्र व झाड़-फूक से ही इनका निदान मानकर बैगाओं के पास जाने का विकल्प अपनाना पड़ा। गांवों में बैगा-गुनियां भी बीमारियों की झाड़-फूंक करके ठीक करने का प्रयास करते, पर बीमार व्यक्ति के ठीक न हो पाने पर सारा दोष किसी निर्दोष महिला की तंत्र-मंत्र शक्ति, जादू पर डाल देते हैं। किसी महिला को दोषी ठहरा कर उसे बीमारी को दूर करने को कहा जाता है तथा उस महिला के आरोपों से इंकार करने व इलाज करने में असमर्थता बताने पर उसे तरह-तरह से प्रताडि़त किया जाता है, पहले गांवों में विद्युत व्यवस्था व चिकित्सा सुविधा भी बिल्कुल नहीं थी। इसलिये ऐसी धारणाएं बढ़ती चली गई।
कथित जादू टोने की शक्तियों से आज भी ग्रामीण अंचल में खौफ बरकरार रहता है। ग्राम जुनवानी में कुछ वर्षों पहले टोनही प्रताडऩा की एक घटना हुई थी, जिसमें बैगा के कहने पर एक महिला को घर से घसीट कर बाहर लाया गया, सार्वजनिक चौक पर उसे सरेआम पीटा गया। मैला खिलाया गया व उसे जान से मारने की कोशिश की गई। सुबह जानकारी मिलने पर हम वहां गये तथा ग्रामीणों व पंचों से चर्चा की। हमने उन्हें समझाईश देते हुए कहा यदि उस महिला में कोई चमत्कारिक शक्ति होती, जादू-टोने की ताकत होती,किसी को भी मार सकती तो क्या वह चुपचाप आप सबसे मार खा लेती उसकी सार्वजनिक बेईज्जती करना आसान होता। वह अपनी ताकत से अपने उपर पडऩे वाले प्रहारों को रोक क्यों नहीं लेती, जिसके पास ताकत होगी व न केवल अपना बचाव कर सकता है बल्कि मारपीट का प्रत्युत्तर भी दे सकता है,पर यहां कुछ ऐसा नहीं हुआ। बेचारी महिला कुछ नहीं कर पायी एवं अंधविश्वास में पडक़र अकेली औरत को गांव में मारा पीटा गया है जो बिलकुल गलत है। एक निर्दोष महिला के साथ ऐसा सलूक करना शर्मनाक है। हमारी बात सुनकर वहां सन्नाटा छा गया। भीड़ में मौजूद लोगों ने भी माना उनसे गलती हो गई है तथा हमारे कहने पर वे उस महिला को पुन: वहां रखने को तैयार हो गये। हम उस प्रताडि़त महिला से मिले,उसे व उसके परिवार को सांत्वना दी,उसके इलाज के लिये इंतजाम किया।
हम हरेली व अन्य अवसरों पर आयोजित सभाओं में बताते हैं कि सावन में, बरसात में, मौसम में नमी व उसमें के चलते तापमान में अनियमितता आती है जिसके कारण बीमारियां फैलाने वाले कीटाणु,बैक्टीरिया,वायरस तेजी से पनपने लगते हैं व संक्रमण तेजी से फैलता है।गांवों में गंदगी गड्ढों में रूका हुआ पानी,नम वातावरण, संक्रमित पानी व दूषित भोजन बीमारी बढ़ाने में सहायक होता है।नीम की डंगाल तोड़ तोडक़र घर के सामने,गाडिय़ों के सामने लगाने की बजाय नीम के पौधे लगाने की आवश्यकता अधिक है। मच्छर व मक्खियां बीमारियां फैलाने के प्रमुख कारक है। बीमारियों व उनके जिम्मेदार कारकों पर नियंत्रण के लिये तंत्र मंत्र गांव बांधने की जरूरत नहीं है बल्कि साफ सफाई से रहने,उबला हुआ पानी पीने, स्वच्छता व स्वास्थ्य के सरल नियमों का पालन करने की जरूरत है।मक्खियों व मच्छरों से अधिक खतरनाक कोई तंत्र-मंत्र नहीं हो सकता। कोरोना काल में जब संक्रमण के मामले बढऩे पर डॉक्टरों एवम सरकार के द्वारा मास्क पहिनने,आपसी दूरी बनाए रखने ,बार बार हाथ धोने की सलाह सेअनेक लोगों की जान बची । वैक्सीन लगाने,सावधानी रखने,,वैज्ञानिक दृष्टिकोण,अंधविश्वास को न मानने से बीमारियों से बचा जा सकता है।तथा संक्रमित होने पर भी सही इलाज से पुन: स्वास्थ्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
-विवेक मिश्रा
भारतीय मानसून की खासियत यह है कि कुछ ही घंटो में किसी क्षेत्र में साल की औसत वर्षा का 50 या उससे अधिक फीसदी पानी बरसा सकता है।
भारत में राज करने वाले ब्रितानिया हुकूमत के अंग्रेजी वास्तुकार वर्षा वितरण की इस खासियत का अंदाजा नहीं लगा पाए और देश की राजधानी दिल्ली में मिंटो ब्रिज नाम का एक ऐसा विरासती नमूना देकर चले गए जहां थोड़ी सी वर्षा के दौरान ही जानलेवा बाढ़ जैसी स्थिति पैदा हो जाती है।
हाल ही में 28 जून, 2024 को दिल्ली में हुई अत्यंत भीषण मानसूनी वर्षा ने पूरी राजधानी को जलमग्न कर दिया। इस भीषण वर्षा के दौरान 11 लोगों की मौत हो गई और मिंटो ब्रिज समेत कई सुरंग वाले रास्तों में इतना पानी भर गया कि उन्हें बंद करना पड़ा। जुलाई, 2020 में ऐसी ही भीषण वर्षा के बाद मिंटो ब्रिज के नीचे एक डीटीसी बस डूब गई थी और जलभराव के कारण एक व्यक्ति की मौत भी हो गई थी।
भारतीय मौसम विभाग के मुताबिक सफदरजंग स्टेशन पर 28 जून, 2024 की सुबह साढ़े आठ बजे तक 229 मिलीमीटर (एमएम) वर्षा रिकॉर्ड की गई जो कि 1936 के बाद से जून महीने की दूसरी सर्वाधिक वर्षा थी। सालाना औसत 800 एमएम वर्षा हासिल करने वाले दिल्ली में कुछ घंटों की यह वर्षा भारत के मानसून की प्रकृति को दिखाता है कि किस तरह कुछ घंटों में ही बहुत ज्यादा वर्षा हो सकती है।
दिल्ली की हृदयस्थली कनॉट प्लेस और रेलवे स्टेशन तक पहुंचाने वाला मिंटो ब्रिज का रास्ता अब अपनी ऑर्क शेप की खूबसूरत सिविल इंजीनियरिंग के कारण कम बल्कि जलभराव के कारण ज्यादा पहचाने लगा है, जहां बरसात में न सिर्फ शक्तिशाली इंजन वाली गाडिय़ां पानी में जाकर डूबने की स्थिति में आ जाती हैं बल्कि यह ब्रिज जानलेवा भी बन जाता है।
मिंटो एक रेलवे ब्रिज है जो कि मिंटो रोड पर ही बनाया गया है। दरअसल मिंटो नाम 1905 से 1910 के बीच भारत में तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय रहे लॉर्ड मिंटो के नाम से प्रचलन में आया। हालांकि, सरकारी कागजों में इसका नाम अब शिवाजी ब्रिज दर्ज है।
1933 में इसे यमुना के बाढ़ क्षेत्र और दिल्ली रिज के बीच बनाया गया था। दिल्ली रिज प्राचीन अरावली रेंज का उत्तरी विस्तार है जो शहरी क्षेत्र से घिरा हुआ है। मिंटो रेलवे ब्रिज को बनाने में चूना गारे और सीमेंट का इस्तेमाल किया गया है।
90 वर्ष के इस पुराने ब्रिज के नीचे की सडक़ एक कटोरे जैसी है, जिसमें वर्षा के समय बहुत तेज जलभराव होता है। इस दौरान जलभराव की समस्या से बचने के लिए ब्रिज के रास्ते में कई बदलाव किए गए, मसलन रास्ते को चौड़ा किया गया। साथ ही शक्तिशाली मोटर पंप लगाए गए ताकि जलभराव होते ही पानी को बाहर निकाल लिया जाए । हालांकि, यह सारे उपाय अब तक विफल साबित हुए हैं।
औपनिवेशिक काल में बनाए गए इस रेलवे ब्रिज को हेरिटेज यानी विरासत माना जाता है। इसका निर्माण नई दिल्ली को अपने शिल्प और वास्तु से गढऩे वाले एडविन लुटियंस की देखरेख में उनकी टीम के द्वारा हुआ था।
आधुनिक शिल्प और वास्तु के महारथी लुटियंस नई दिल्ली में इस ब्रिज की खूबसूरती को ध्यान में रखा लेकिन वह यह भूल गए कि यूरोप और भारत की वर्षा में काफी भिन्नता है।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट की ओर से प्रकाशित बूंदों की संस्कृति (डाइंग विजडम का हिंदी अनुवाद) में बरसात की विभिन्नता को लेकर दिवंगत प्रमुख मौसम विज्ञानी पी.आर पिशरोती के हवाले से लिखा गया है ’ भारत में बरसात की प्रकृति यूरोप से एकदम भिन्न है। और यहां की बरसात की प्रवृत्तियों को औपनिवेशिक शासन के दौरान यूरोप से आए इंजीनियरों ने नहीं समझा और आज भी भारतीय इंजीनियर यही गलती दोहराए जा रहे हैं। अब भी जो परियोजनाएं तैयार हो रही हैं वे देसी पर्यावरण से मेल नहीं खाती।’
वहीं, बरसात इस प्रकृति की भिन्नता पर पिशरोती आगे बताते हैं कि ‘यूरोप के विपरीत भारत में पूरे वर्ष बरसात नहीं होती। बरसात मुख्यत: साल के चार महीनों में होती है। फिर इन दिनों भी रोज पानी नहीं बरसता। देश के अधिकांश इलाकों में वहां पडऩे वाला अधिकांश पानी 50 दिनों में ही गिरता है। और इन दिनों में भी चौबीसो घंटो पानी नहीं बरसता। दरअसल जब पानी पड़ता है तब मूसलाधार ही बरसता है। देश के अधिकांश हिस्सों में ज्यादातर पानी 100 घंटों के अंदर ही गिरता है।’
बूंदों की संस्कृति पुस्तक में इस बारे में पिशरोती के अनुभव के हवाले से एक दावा यह भी किया गया है कि किसी भी जगह औसत जितने सेंटीमीटर पानी बरसता है और अक्सर वहां उतने ही घंटों में पानी पड़ जाता है।
मिसाल के तौर पर दिल्ली में 80 सेंटीमीटर बारिश होती है और यहां 80 घंटों में ही बारिश हो जाती है। इतना ही नहीं पिशरोती के अनुसार साल का आधा पानी तो बरसात वाले कुछ घंटों के सिर्फ पांचवे हिस्से के अंदर ही बरस जाता है।
इस प्रकार अगर किसी शहर में औसत 80 सेंटीमीटर पानी पड़ता है तो 40 सेंटीमीटर पानी सिर्फ 16 घंटों में ही बरस जाता है। जबकि पूरे देश को देखें तो आधे हिस्से में वहां पडऩे वाले पानी का आधा भाग सिर्फ 20 घंटों के अंदर ही बरस जाता है। भारत में मूसलाधार वर्षा की यह तथ्य शायद वास्तुकार एडवर्ड लुटियंस नहीं लगा पाए।
पिशरोतीके अनुसार ‘एडवर्ड लुटियंस जिन्होंने दिल्ली शहर को बसाने की योजना बनाई थी, वह भी हमारे यहां होने वालीबरसात की प्रकृति नहीं जान पाए थे। नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली को जोडऩे वाली जो सडक़ मिंटो ब्रिज के नीचे से गुजरती है वह 20 से 30 मिलीमीटर वर्षा होते ही पानी से भर जाती है। शायद इस नामी वास्तुकार ने सोचा होगा कि दिल्ली में होने वाली 800 मिलीमीटर वर्षा 365 दिनों में बराबर होती होगी।’
इससे पता चलता है कि देसी पर्यावरण के ज्ञान के अभाव में न सिर्फ करीब 90 साल पुराना शिल्प एक बर्बाद नमूना हो सकता है बल्कि इंजीनियरों का अंधानुकरण आधुनिक सुरंगों को भी एक ही बरसात में विफल कर दे रहा है। (डाऊन टू अर्थ)
-उमंग पोद्दार
सुप्रीम कोर्ट के सात जजों की पीठ ने गुरुवार को एक अहम फैसला सुनाया है।
पीठ के छह जजों ने कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में सब-कैटेगरी को भी आरक्षण दिया जा सकता है।
सिर्फ जज जस्टिस बेला त्रिवेदी इस राय से असहमत थीं।
इस फैसले के बाद राज्य अनुसूचित जाति और जनजातियों के आरक्षण में आंकड़ों के आधार पर सब-क्लासिफिकेशन यानी वर्गीकरण कर सकते हैं। इसका मतलब ये है कि अगर किसी राज्य में 15 फीसदी आरक्षण अनुसूचित जातियों के लिए है तो उस 15 फीसदी के अंतर्गत वो कुछ अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण तय कर सकते हैं।
कोर्ट ने कहा कि सारी अनुसूचित जातियां और जनजातियां एक समान वर्ग नहीं हैं। कुछ दूसरों से ज़्यादा पिछड़ी हो सकती हैं। इसलिए उनके उत्थान के लिए राज्य सरकार सब-क्लासिफिकेशन कर के अलग से आरक्षण रख सकती है।
सात जजों ने छह अलग-अलग राय लिखी। विशेषज्ञों का मानना है कि आरक्षण के हिस्से में ये एक बहुत बड़ा फ़ैसला है जिसके कई राजनीतिक प्रभाव दिखेंगे।
1975 में पंजाब सरकार ने अनुसूचित जाति की नौकरी और कॉलेज के आरक्षण में 25 फीसदी वाल्मीकि और मज़हबी सिख जातियों के लिए निर्धारित किया था। इसे हाई कोर्ट ने 2006 में खारिज कर दिया।
खारिज करने का आधार 2004 का एक सुप्रीम कोर्ट का फैसला था। जिसमें कहा गया था कि अनुसूचित जाति की सब-कैटेगरी नहीं बनाई जी सकती।
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि राज्यों के पास ये करने का अधिकार नहीं है। क्योंकि अनुसूचित जाति की सूची राष्ट्रपति की ओर से बनाई जाती है।
पढ़ाई और नौकरी दोनों पर लागू
आंध्र प्रदेश ने भी पंजाब जैसा एक कानून बनाया था। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने अवैध करार दिया।
इस कारण। पंजाब सरकार ने एक नया क़ानून बनाया। जिसमें यह कहा गया कि अनुसूचित जाति के आरक्षण के आधे हिस्से में इन दो जातियों को प्राथमिकता दी जाएगी। ये कानून भी हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया।
यह मामला सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की पीठ के पास पहुंचा।
एक अगस्त के फैसले ने 2004 के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलट दिया।
चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने और जस्टिस मनोज मिश्रा के फैसले में कहा कि अनुसूचित जाति एक समान वर्ग नहीं है।
उन्होंने लिखा कि कुछ जातियां। जैसे जो सीवर की सफ़ाई करते हैं। वो बाकियों से ज़्यादा पिछड़ी रहती हैं। जैसे जो बुनकर का काम करते हैं जबकि दोनों ही अनुसूचित जाति में आते हैं और छुआ-छूत से जूझती हैं।
उन्होंने यह भी कहा कि सब-क्लासिफिकेशन का निर्णय आंकड़ों के आधार पर होगा ना कि राजनीतिक लाभ के लिए। सरकारों को ये दिखाना होगा कि क्या पिछड़ेपन के कारण किसी जाति का सरकार के कार्य में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। सब-क्लासिफिकेशन पर जुडिशियल रिव्यू भी लगाया जा सकता है।
क्या होगा असर?
चार और जजों ने चीफ जस्टिस की राय से सहमति जताई। पर अपने-अपने फैसले लिखे।
जस्टिस बी आर गवई ने कहा कि सरकार ये नहीं कर सकती कि किसी एक जनजाति को पूरा आरक्षण दे दे।
पंजाब सरकार ने कोर्ट के सामने ये तर्क रखा कि अनुसूचित जाति में सभी जातियां समान नहीं है। केंद्र सरकार ने भी अपना पक्ष रखते हुए कहा कि सब-क्लासिफिकेशन की अनुमति मिलनी चाहिए।
फिलहाल। अन्य पिछड़ा वर्गों के आरक्षण में सब-क्लासिफिकेशन होता है। अब ऐसा ही सब-क्लासिफिकेशन अनुसूचित जाति और जनजाति में भी देखा जा सकता है।
हालांकि इसके लिए राज्यों को पर्याप्त आंकड़ा पेश करना होगा।
ऐसा कई बार हुआ है कि कोर्ट ने सरकार के ठीक से आंकड़ा इक_ा नहीं करने की बात कहते हुए आरक्षण को खारिज कर दिया है।
राजनीतिक जानकारों का कहना है कि इससे दलित वोट पर भी असर पड़ेगा।
जादवपुर यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर और पॉलिटिकल साइंटिस्ट सुभाजीत नस्कर का कहना है। ‘सब-क्लासीफिकेशन मतलब एससी-एसटी वोट बँट जाएं। ऐसे एक समुदाय के अंदर राजनीतिक बँटवारा पैदा होगा। बीजेपी ने भी कोर्ट में सब-क्लासिफिकेशन का समर्थन किया है। हो सकता है कि इनसे उनको सियासी फायदा मिले। राज्य स्तर की राजनीतिक पार्टियां भी अपने फ़ायदे के मुताबिक़ सब-क्लासिफिकेशन लाएंगी।’
हालांकिउन्होंने इस फैसले से असहमति जताई और कहा। ‘अनुसूचित जाति का आरक्षण छुआछूत के आधार पर दिया जाता है। इसका सब-क्लासिफिकेशन नहीं कर सकते। इस फैसले का आने वाले दिनों में जोर-शोर से विरोध होगा।’
वंचित बहुजन आघाड़ी के अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर ने भी एक्स पर इस फैसले का विरोध किया। उन्होंने कहा कि यह फैसला समानता के मौलिक अधिकार के खिलाफ जाता है। उन्होंने इस बात पर भी आपत्ति जताई कि पिछड़ापन का निर्णय किस आधार पर किया जाएगा।
कोर्ट के चार जजों ने अनुसूचित जाति और जनजाति में क्रीमी लेयर पर भी अपने विचार रखे।
क्रीमी लेयर का मतलब ये है कि वो वर्ग वित्त और सामाजिक रूप से विकसित हैं और वो आरक्षण का उपयोग नहीं कर सकते।
जस्टिस बीआर गवई ने कहा कि अन्य पिछड़े वर्ग आरक्षण जैसे अनुसूचित जाति और जनजाति में भी क्रीमी लेयर आना चाहिए। पर उन्होंने ये नहीं कहा कि क्रीमी लेयर कैसे निर्धारित किया जाएगा।
इस पर दो और जजों ने सहमति जताई। वहीं जस्टिस पंकज मिथल ने कहा कि अगर एक पीढ़ी आरक्षण लेकर समाज में आगे बढ़ गई है। तो आगे वाली पीढिय़ों को आरक्षण नहीं मिलना चाहिए।
हालांकि। ये बस जजों की टिप्पणी थी और भविष्य के मुकदमों पर बाध्य नहीं होगा। क्रीमी लेयर का सवाल कोर्ट के सामने नहीं था।
फि़लहाल अन्य पिछड़ा वर्ग आरक्षण पर क्रीमी लेयर लागू है और अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए नौकरी में वृद्धि में भी क्रीमी लेयर का सिद्धांत लागू है। (bbc.com/hindi)