संपादकीय
पुणे की एक तकलीफदेह खबर है कि किसी ऑनलाईन गेम की आदत के शिकार, 10वीं के एक छात्र ने उस गेम के एक टॉस्क को पूरा करने के लिए 14वीं मंजिल से छलांग लगा दी, और उसकी मौत हो गई। उसके लिखे हुए कागज मिले हैं जिनमें इस तरह से छलांग लगाने की बात लिखी गई है, और स्कैच बनाया गया है। परिवार का कहना है कि वह 6 महीने से ऑनलाईन गेम की लत में पड़ा हुआ था, और कहीं आना-जाना भी छोडक़र दिन-रात कमरे में बंद रहता था, और खेलते रहता था। लोगों को याद होगा कि ऐसे कुछ और भी खेल कुछ अरसा पहले भारत सहित दुनिया के कुछ दूसरे देशों में भी प्रतिबंधित किए गए थे, जिन्हें खेलते हुए लोग जान खतरे में डालते थे, या सीधे-सीधे खुदकुशी कर लेते थे। यह ताजा घटना कई हिसाब से फिक्र की है कि 14 बरस का लडक़ा असल जिंदगी से इस हद तक कट जाए, और एक ऑनलाईन खेल को ही अपनी जिंदगी मान बैठे।
लेकिन हम अपने अगल-बगल के शहरों को देख रहे हैं, तो नाबालिग लडक़े-लड़कियां इतने किस्म के भयानक जुर्म कर रहे हैं कि उन्हें देखकर लोगें को लगता है कि कत्ल और बलात्कार जैसे जुर्म पर नाबालिगों की सुनवाई भी बालिग की तरह होनी चाहिए। ऐसी एक मांग देश में लगातार उठ रही है। हम छत्तीसगढ़ के भीतर ही यह देख रहे हैं कि हर दिन नाबालिग औसतन एक कत्ल या एक बलात्कार कर रहे हैं, कई मामलों में नाबालिग लडक़े किसी लडक़ी से अंतरंग संबंधों के दौरान बनाए गए वीडियो पोस्ट करके ब्लैकमेल कर रहे हैं, और नशा करके गुंडागर्दी करना तो बहुत आम बात हो गई है। ऐसा लगता है कि हिंसा या सामूहिक हिंसा करने में नाबालिगों और बालिगों के बीच कोई फर्क ही नहीं रह गया है। और कानून है कि नाबालिग को छूने नहीं देता, उसकी गिरफ्तारी नहीं हो पाती, उसके लिए अलग अदालत या बोर्ड का इंतजाम है, उसे जेल नहीं भेजा जा सकता, उसे सिर्फ सुधारगृह में रखा जा सकता है, उसकी शिनाख्त उजागर नहीं की जा सकती। कानून ने उसे तोडऩे वाले नाबालिगों को भी खूब सारी रियायतें दी हैं, लेकिन अब बहुत से लोग यह सोचने लगे हैं कि भयानक किस्म के अपराधों ने नाबालिगों को उम्र की रियायत नहीं मिलनी चाहिए।
हम अभी इस बारे में कोई साफ-साफ राय नहीं बना पाए हैं, और ऐसा लगता है कि देश में किशोरावस्था की बेहतर समझ रखने वाले मनोचिकित्सकों, परामर्शदाताओं, और कानून के जानकार तमाम तबकों के बीच अधिक विचार-विमर्श की जरूरत है। कायदे से तो यह विचार-विमर्श देश की संसद, और विधानसभाओं में खुलकर होना चाहिए, लेकिन हिन्दुस्तान में संसदीय चर्चा की कोई संभावना रह नहीं गई है। इसकी दो वजहें हैं। एक वजह तो यह है कि पार्टियों के बीच कटुता इतनी अधिक बढ़ गई है, कि सांसद या विधायक गिरोह जैसे खेमों में बंट गए हैं। और जैसा कि किसी भीड़ में होता है, गिरोह में दिमाग सिर्फ एक सरगना का होता है, बाकी के पास सिर्फ हामी में हिलाने को सिर होते हैं। सदनों में पिछले काफी बरस से पार्टियों के अनुशासन में बंधे सांसदों की निजी सोच की संभावना खत्म हो चुकी है, और महज पार्टी लाईन पर बोलने के लिए उन्हें कुछ-कुछ मिनट मिलते हैं जिनमें वे अपने नेता की स्तुति करते अधिक दिखते हैं। इसलिए सदनों में जो विचारों का उन्मुक्त प्रवाह होना चाहिए, वह गुंजाइश खत्म हो चुकी है। इसलिए भारतीय लोकतंत्र में अब एक दूसरी जरूरत आ खड़ी हुई है कि वैकल्पिक संसद या वैकल्पिक सदन नाम की एक नई परंपरा शुरू हो, और समाज के अलग-अलग तबकों के लोग इन मंचों पर अपनी राय रख सकें। आज तो टेक्नॉलॉजी मुफ्त में हासिल है, और ऐसे विचार-विमर्श, या बहस को ऑनलाईन भी किया जा सकता है, या किसी स्टेज के प्रोग्राम का प्रसारण भी किया जा सकता है। आज जरूरत संसद से परे एक छाया संसद, यानी शैडो पार्लियामेंट बनाने की है, ताकि लोकतांत्रिक विमर्श जारी रह सके। देश में जो प्रमुख, और जागरूक विश्वविद्यालय हैं, वे भी लोकतांत्रिक चेतना बढ़ाने के लिए इस तरह की पहल कर सकते हैं। यह एक अलग बात है कि कई जगहों पर सत्ता असहमति, या विचारों की विविधता को बर्दाश्त नहीं कर पाएगी, लेकिन जनता को तो लोकतंत्र में रास्ता सत्ता की नापसंदगी के बाद भी निकालना होता है।
हम जुवेनाइल क्राइम कहे जाने वाले अपराध के इस दर्जे पर यह भी बात करना चाहते हैं कि क्या समाज की भी फिक्र इसमें होना चाहिए, और समाज को सामुदायिक स्तर पर भी इससे निपटने की कोशिश करनी चाहिए? सरकार और संसद का मुंह देखने के बजाय समाज के लोगों को खुद ही समाधान तलाशना चाहिए। लोगों को याद रखना चाहिए कि दुनिया में कहीं पहाड़ को चीरकर रास्ता बनाने वाले एक अकेले समर्पित व्यक्ति की कहानी भी अच्छी तरह दर्ज है, तो कहीं उजड़ चुके पहाड़-जंगल को हरियाली में तब्दील कर देने वाले अकेले इंसान भी दुनिया के कई देशों में हैं। इसलिए हम किसी एक व्यक्ति की शुरू की हुई छोटी पहल की संभावनाओं को भी कम नहीं आंकते। हो सकता है कि कोई व्यक्ति ऐसे रहें, जो कि अकेले ही किशोर-मुजरिमों को सुधारने के लिए कुछ कर सकें। कोई एक छोटा सा संगठन भी ऐसी शुरूआत कर सकता है, और आगे चलकर या तो उसका काम आगे बढ़ सकता है, या कोई दूसरे बड़े संगठन उस किस्म का काम आगे बढ़ा सकते हैं।
नाबालिग या किशोर मुजरिमों को सुधारे बिना समाज सुरक्षित नहीं रह पाएगा, क्योंकि इनमें से हर किसी के सामने जेल के बाहर भी एक लंबी जिंदगी रहेगी, और न सुधर पाने की हालत में जुर्म करते ही रहेंगे। इसलिए समाज के लिए इन्हें सुधारने की कोशिश एक अधिक आसान और सस्ता काम हो सकता है, बजाय इन्हें इनके हाल पर छोड़ देने के, और इनके अधिक खतरनाक मुजरिम बन जाने का खतरा उठाने के। कुल मिलाकर किशोर-अपराध के मुद्दे पर समाज में खुलकर चर्चा की जरूरत है, और ऐसी चर्चा से ही किसी किस्म की पहल शुरू हो सकेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए कुछ बुनियादी सवाल खड़े कर रहा है। ट्रंप ने अभी लोगों को हैरान करने वाला एक बयान दिया है। एक चुनावी रैली में उसने मंच और माईक से कहा- ‘ईसाईयों बाहर निकलो, और सिर्फ इस बार वोट कर दो। फिर आपको वोट डालने की जरूरत ही नहीं होगी। चार साल में सब सही कर दिया जाएगा। मेरे प्यारे ईसाईयों, आपको फिर वोट डालने की जरूरत नहीं होगी, मैं आपसे प्यार करता हूं।’ बीबीसी की एक रिपोर्ट बताती है कि पहले भी कई बार ट्रंप ने दुनिया के तानाशाहों और बेकाबू शासकों की तारीफ की है। इनमें रूस के पुतिन, हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन, और उत्तर कोरिया के तानाशाह किंग जोन ऊन के नाम शामिल हैं। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि ट्रंप ने किसी वक्त हिटलर की कुछ बातों की भी तारीफ की थी। लोगों को याद होगा कि पिछला राष्ट्रपति चुनाव हारने के बाद जब ट्रंप के समर्थकों ने ट्रंप के उकसावे पर अमरीकी संसद पर हमला बोला था, तो वहां भी ईसाई धर्म से जुड़े झंडे लिए हुए लोग थे, बहुत से लोग हमले के वक्त प्रार्थना भी कर रहे थे, कुछ लोगों ने लकड़ी का सलीब उठाया हुआ था, और कई ट्रंप समर्थकों ने उसे ईसाई धर्म बचाने वाला बताया था। 2020 के चुनाव में भी ट्रंप अपने चुनाव प्रचार में धर्म का मुद्दा बार-बार उठाते थे, और अपने प्रतिद्वंद्वी बाइडन को ईश्वर विरोधी बताते थे। अब 2024 के चुनाव में उन्होंने एक बार फिर ईसाई धर्म का फतवा दुहराना शुरू किया है। अमरीका की एक शोध संस्था का अंदाज है कि वहां की करीब 70 फीसदी आबादी ईसाई है।
अब यह देखें कि ट्रंप जो लोकतंत्र विरोधी फतवा दे रहे हैं कि इस बार के वोट के बाद वोट की जरूरत ही नहीं रहेगी, इसे लेकर यह याद पड़ता है कि किस तरह डेमोक्रेटिक पार्टी ट्रंप को लोकतंत्र के लिए खतरा बताते आई है। और अभी ट्रंप के इस बयान पर जब अलग-अलग लोगों से पूछा गया, तो वहां के एक प्रमुख वकील ने सोशल मीडिया पर लिखा- ये ईसाई राष्ट्रवाद नहीं है, ट्रंप लोकतंत्र को खत्म करने, और ईसाई देश बनाने की बात कर रहे हैं। एक अभिनेता ने, ट्रंप के बयान कि इस बार के बाद वोट डालने की जरूरत ही नहीं होगी, सोशल मीडिया पर पूछा- लेकिन अगर मैं फिर से वोट डालना चाहूं तो? एक बड़े टीवी चैनल एनबीसी की कानूनी टिप्पणीकार ने कहा- दूसरे शब्दों में कहें तो ट्रंप राष्ट्रपति चुने गए, तो वो व्हाईट हाऊस कभी नहीं छोड़ेंगे। एक राजनीतिक टिप्पणीकार ने कहा- वो, ट्रंप ने 2028 के चुनाव को रद्द कर दिया। एक डेमोक्रेटिक प्रवक्ता ने कहा- जब हम ये कहते हैं कि ट्रंप लोकतंत्र के लिए खतरा है, तो हम यही बताने की कोशिश कर रहे होते हैं, जो ट्रंप ने अब कहा है। एक प्रमुख पॉडकॉस्टर ने कहा- ये ड्रील नहीं है, लोकतंत्र खतरे में है।
सच बात यही है कि ट्रंप की लोकतंत्र पर कोई आस्था नहीं है, और वे धार्मिक मामलों में बहुत ही कट्टर हैं। ऐसे में अब अचानक उन्हें ईसाई धर्म की जरूरत इस हद तक क्यों पड़ रही है, यह समझने की जरूरत है। मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन के मुकाबले ट्रंप वहां के रिपब्लिकन वोटरों, और अपने दीवानों के बीच शोहरत के सैलाब पर तैर रहे थे। लेकिन जैसे ही बाइडन ने चुनाव न लडऩे की घोषणा की, खुलकर कमला हैरिस को प्रत्याशी बनाने की वकालत की, दोनों पार्टियों के उम्मीदवारों की शोहरत के आंकड़े एकदम से बदल गए। ताजा सर्वे में पता लग रहा है कि उम्मीदवारी की संभावना के कुछ ही दिनों में कमला हैरिस ट्रंप को कड़ी टक्कर देने की हालत में आ गई हैं। अब जब ट्रंप को पहले जीती हुई दिख रही बाजी, आज हाथों से फिसलते हुए दिख रही है, तो उन्हें धर्म और राष्ट्रवाद ये दो हथियार सूझ रहे हैं। उन्होंने तुरंत ही इन दो बंदूकों को बैसाखियों की तरह एक-एक कांखतले टिका लिया है, और इनके सहारे से वे जीत की मंजिल तक पहुंचने की उम्मीद कर रहे हैं। अमरीका के शिक्षित या विकसित होने से वहां धर्मान्धता कम होने की कोई उम्मीद नहीं करना चाहिए। ऐसे में ईसाई धर्म का फतवा देकर अगर ट्रंप खुलकर यह मुनादी कर रहे हैं कि इस बार वोट देने के बाद आगे कभी वोट देने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी, तो वे संसद पर हमले के दर्जे की किसी तानाशाही की तरफ इशारा भी कर रहे हैं। जिन नेताओं का मिजाज अमर होने और तानाशाही का रहता है, वे कभी उग्र राष्ट्रवाद का फतवा देकर अपने देश के झंडे के पीछे छुप जाते हैं, या फिर धर्म का फतवा देकर लोगों के बीच एक धार्मिक उन्माद पैदा करते हैं। ट्रंप यह कोई अनोखी तरकीब इस्तेमाल नहीं कर रहे हैं, दुनिया में कई नेता ऐसा कर चुके हैं।
अब सवाल यह उठता है कि जो अमरीका अपने घरेलू लोकतंत्र पर गर्व करता है, उस अमरीका में लोकतंत्र के खिलाफ, और धार्मिक उन्माद वाले, ऐसे फतवों को लोग बर्दाश्त कैसे कर सकते हैं? क्या वहां पर ईसाई धर्म की कट्टरता वाले लोग, बंदूकों की संस्कृति के हिमायती लोग, महिलाविरोधी मर्दानगी वाले लोग, और ट्रंप की तरह के बदचलन को बुरा न मानने वाले लोग, धर्म और राष्ट्रवाद के फतवों पर अगला अमरीकी राष्ट्रपति चुनेंगे? यह देखना दिलचस्प है कि विपक्षी उम्मीदवार की जरा सी शोहरत दिखते ही रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार, और पिछले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने लोकतंत्र और सभ्यता दोनों के कपड़े उतार फेंके हैं, और अपने जन्म के कपड़ों पर उतर आए हैं। ऐसे नंगे को भी अगर अमरीकी जनता चुनती है, तो दुनिया में अमरीकी लोकतंत्र को मुंह छिपाने की जगह भी नहीं मिलेगी। दुनिया में लोकतंत्र का सरदार बना देश क्या एक ऐसा राष्ट्रपति चुनेगा जो कि अपने चुनाव को देश के भविष्य का आखिरी चुनाव कह रहा है, और जो संसद पर हमला करवाने के जुर्म में अदालती कटघरे में भी खड़ा है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हर दिन देश भर में पुलिस हजारों मामलों में लोगों की गिरफ्तारी करती है, और अगर जुर्म करने वाले लोग नाबालिग होते हैं, तो उन्हें महज हिरासत में लेकर सुधारगृह भेजा जाता है। बाकी तमाम लोगों के नाम-पते सहित उनकी तस्वीरें पुलिस समाचार में जारी करती है। इनमें नाबालिग को बहला-फुसलाकर ले जाने, और बलात्कार करने से लेकर मारपीट या बकरी चोरी तक की खबरें रहती हैं। इनमें जो लोग पकड़ाते हैं, उनके चेहरे दिखाते हुए पूरी जानकारी पुलिस प्रेसनोट से शुरू होकर पुलिस के ही सोशल मीडिया पेज, या अखबार-टीवी तक छपती और दिखती है। अब तो पुलिस प्रेसनोट के साथ छोटे-छोटे वीडियो बनाकर भी भेजने लगी है ताकि टीवी चैनलों और यूट्यूब पर उसका इस्तेमाल हो सके। यहां एक बुनियादी सवाल खड़ा होता है कि भारत की जांच और न्याय व्यवस्था में बड़ी संख्या में लोग अदालत से छूट जाते हैं। बहुत से लोगों को अदालतें संदेह का लाभ देकर बरी करती हैं क्योंकि जांच एजेंसियां कमजोर जांच, या कमजोर गवाह और सुबूत के चलते अदालत ने आरोप साबित नहीं कर पातीं। दूसरी तरफ कई ऐसे मामले रहते हैं जिनमें अदालतें गिरफ्तार और कटघरे में खड़े किए गए लोगों को पूरी तरह बेकसूर पाती हैं, और उन्हें बाइज्जत बरी करती है। कुछ मामले तो ऐसे भी होते हैं जिनमें अदालतें पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियों के खिलाफ कड़ी टिप्पणी लिखती हैं कि उन्होंने साजिशन किसी को गिरफ्तार करके जेल में डाला, और मुकदमा चलाया, जबकि पुलिस को अच्छे से मालूम था कि वे बेकसूर हैं।
अब इनमें से जिस किसी किस्म का जो भी मामला हो, अदालत ने तो अभियुक्त बनाकर खड़े किए गए लोगों की इज्जत जितनी मटियामेट होनी रहती है, वह तो होती ही है, लेकिन जब तक मामला अदालत में चलते रहता है, और साबित कुछ भी नहीं हुआ रहता, तब तक उनकी गिरफ्तारी की तस्वीरें जारी करना क्या ठीक है? इसे एक दूसरे तरीके से देखें कि जिन नेताओं पर ऐसे मुकदमे चलते हैं जिसमें उन्हें एक सीमा से अधिक सजा हो सकती है, और उनके आगे चुनाव लडऩे की अपात्रता हो सकती है, ऐसे मामलों में जब तक उन्हें सजा नहीं हो जाती, तब तक चुनाव घोषणापत्र में उन पर चल रहे मुकदमों का जिक्र होने के बाद भी उनके चुनाव लडऩे पर रोक नहीं रहती। दूसरी तरफ जिन लोगों को साइकिल चोरी से लेकर छेडख़ानी तक के जुर्म में गिरफ्तार किया गया है, उनके चेहरे पुलिस पहले दिन से जारी कर देती है, और उनके जमानत पर छूटने के बाद भी, उनका चेहरा लोगों के दिमाग में बैठे रहता है, और शायद ही उन्हें कोई नौकरी पर रखे। ऐसे में सवाल यह उठता है कि किसी के जुर्म के लिए किस तरह की सजा का प्रावधान होना चाहिए? क्या सजा अदालत दे, हिरासत में पिटाई करके पुलिस दे, सडक़ों पर पीटकर जनता दे, या रोजगार पाने का हक छीनकर समाज दे? किसी एक व्यक्ति के किसी एक जुर्म पर उसे कब, कब तक, और कितनी, कितने किस्म की सजाएं दी जानी चाहिए? जब देश के सांसद उन पर चल रहे मुकदमों के बावजूद अपनी रोजी-रोटी पाते रहते हैं, सांसद बने रहते हैं, वहां से वेतन-भत्ते पाते रहते हैं, शायद रियायती खाना भी पाते हैं, विशेषाधिकार भी कायम रहते हैं, तो फिर छोटे-छोटे आम जुर्म में फंसे हुए लोगों की बदनामी करके उनके जिंदा रहने की संभावनाओं को खत्म करना क्या इंसाफ कहलाएगा?
हमारी यह बात कई लोगों को बहुत खटक सकती है कि हम मुजरिमों को बचाने की बात कह रहे हैं। सवाल यह है कि क्या किसी जुर्म के शक में गिरफ्तार लोग समाज में जिंदा रहने का अपना हक खो बैठते हैं? पुलिस के प्रेसनोट से संदिग्ध लोगों, और आरोपियों की बदनामी गिरफ्तारी के साथ ही इतनी हो जाती है कि समाज एक किस्म से उनका बहिष्कार कर देता है। जब कोई काम पर न रखे, कोई काम न दे, तो लोग जिंदा रहने का हक खो बैठते हैं। इसलिए सवाल यह उठता है कि क्या एक आरोपी और अभियुक्त को अदालती सजा के साथ-साथ ऐसी सामाजिक सजा देना भी जायज है जिससे उन्हें आगे मुजरिम बनने की एक मजबूरी ही हो जाए? ऐसी बात हमने पुलिस और प्रशासन द्वारा जिलाबदर किए जाने वाले लोगों के बारे में भी लिखी थी। जिन लोगों पर बहुत से जुर्म दर्ज होते हैं, और जिनके बारे में पुलिस का मानना रहता है कि उनके सुधरने के आसार नहीं दिख रहे, और जिन्हें उनके इलाके से हटा देना ही अकेला इलाज है, उन्हें पुलिस की सिफारिश पर कलेक्टर जिलाबदर करते हैं। हमें इसमें दो बातें नाजायज लगती हैं। कोई व्यक्ति अपने इलाके में कितने ही बड़े गुंडे या मुजरिम क्यों न हों, वे पुलिस की नजर में रहते हैं, और समाज में भी उन्हें काफी लोग पहचानते हैं, इसलिए लोग उनके संभावित जुर्म से बचकर भी रह सकते हैं, और पुलिस भी उन्हें किसी भी शक की नौबत में तुरंत उठा सकती है। दूसरी तरफ जब वे अपने जिले के बाहर भेज दिए जाते हैं, और अड़ोस-पड़ोस के लगे हुए जिलों से भी परे जाने उन्हें कह दिया जाता है, तब उनके सामने नई जगह पर किसी भी तरह का रोजगार पाना मुश्किल हो जाता है, उन्हें रहने के लिए अलग से घर बसाना पड़ता है, जिसका खर्च रहता है, और उनके सामने सिवाय मुजरिम बनने के और कोई आसान रास्ता नहीं रहता। दूसरी तरफ जिस जिले में जाकर वे बसते हैं, वहां की पुलिस और जनता उन्हें पहचानती नहीं है, और उनसे सावधान रहना किसी के लिए मुमकिन नहीं रहता, वे समाज के लिए वहां अधिक बड़ा खतरा हो सकते हैं।
खैर, जिलाबदर पर कार्रवाई का वर्तमान कानून एक अलग किस्म की बेइंसाफी है, और समाज के लिए कहीं अधिक बड़ा खतरा है, दूसरी तरफ हर तरह के छोटे-छोटे आरोपों में गिरफ्तार लोगों की तस्वीरें रोज जारी करके पुलिस रोजाना ही कई लोगों के बुनियादी हक कुचलती है। हो सकता है आज सरकार के नियमों में इस पर कोई रोक न हो, और यह भी हो सकता है कि आज के नियम ऐसे प्रचार का समर्थन भी करते हों, ताकि बाकी समाज सावधान रह सके, लेकिन किसी संदिग्ध आरोपी के भी कुछ बुनियादी हक होने चाहिए, यह सोच भारत में लोकप्रिय नहीं है। यहां पर लोगों को यही सुहाता है कि शराबी, या किसी संदिग्ध के कोई बुनियादी हक नहीं होने चाहिए। यही वजह है कि जब पुलिस कुछ आरोपियों की बेरहमी से, अमानवीय तरीके से पिटाई करती है, तो लोग उसकी भी तारीफ करते हैं। कुछ पुराने लोगों को याद होगा कि 1980 में बिहार के भागलपुर में यह मामला सामने आया था जब पुलिस ने सजायाफ्ता या अभियुक्त लोगों की आंखों में तेजाब डालकर 31 लोगों को अंधा कर दिया था, क्योंकि पुलिस का यह मानना था कि ये लोग ऐसे आदतन मुजरिम हो गए थे कि इनके लिए और कोई सजा असरदार नहीं थी।
हमारा मानना है कि भारत की न्याय व्यवस्था में अदालती सजा ही अकेली सजा है, और पुलिस को अभियुक्तों के फोटो जारी करते हुए यह सोचना चाहिए कि क्या वे जुर्म के आरोप में फंसे लोगों को किसी रोजगार की संभावना से दूर करके महज मुजरिम बनने का विकल्प तो नहीं दे रहे हैं?
विधानसभा में यह बड़ी अजीब सी परंपरा रहती है कि सीएजी की रिपोर्ट सत्र के आखिरी दिन पेश होती है, इस तरह रिपोर्ट के बाद उस पर किसी तरह की चर्चा की गुंजाइश नहीं रह जाती। अब छत्तीसगढ़ विधानसभा में 31 मार्च 2022 के पहले तक की स्वास्थ्य विभाग के ढांचे, और सेवाओं पर नियंत्रक एवं महालेखक परीक्षक की रिपोर्ट पेश हुई, तो इसमें 2016 से 2022 तक का हिसाब-किताब पेश हुआ। इसमें पिछली दो सरकारों के कार्यकाल का लेखा-जोखा था, और उस पर भी अभी चर्चा न होना कुछ हैरानी की बात है। सरकारें चली जाती हैं, मंत्री चुनाव हार जाते हैं, सचिव रिटायर हो जाते हैं, या केन्द्र सरकार में प्रतिनियुक्ति पर चले जाते हैं, और जवाबदेही की संभावना खत्म हो जाती है। आठ महीने पहले आई विष्णु देव की सरकार से अब रमन सिंह और भूपेश बघेल की सरकारों की नाकामयाबी पर क्या जवाब मांगा जा सकता है। यह एक अलग बात है कि विधानसभा की लोकलेखा समिति सीएजी रिपोर्ट पर विभाग के अधिकारियों को बुलाकर जवाब-तलब कर सकती है, लेकिन उससे किसी सुधार की संभावना नहीं रहती।
अभी प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं पर 2016 से 2022 के बीच का प्रदेश का हाल अगर देखें, तो भारत सरकार के ऑडिटर जनरल के छत्तीसगढ़ दफ्तर ने ऑडिट या जांच में यह पाया है कि स्वास्थ्य विभाग के खरीदी निगम ने पौने चार हजार करोड़ के दवा, उपकरण, और बाकी सामानों की खरीदी में भारी अनियमितता बरती है। जो सैकड़ों टेंडर निकाले गए, उनमें से आधे से अधिक टेंडर दो-दो साल तक फाइनल नहीं किए। पचास करोड़ के उपकरण बिना इस्तेमाल पड़े रहे, शायद उन्हें बिना जरूरत खरीद भी लिया गया था, या उन्हें चलाने के लिए प्रशिक्षित लोग नहीं थे। इसी से जुड़ा हुआ जो निष्कर्ष सीएजी ने इस रिपोर्ट में निकाला है कि वह यह कि प्रदेश के तीन चौथाई जिलों में विशेषज्ञ डॉक्टरों के एक तिहाई पद खाली पड़े हैं। सीएचसी में स्पेशल डॉक्टरों के तीन चौथाई पद खाली पड़े हैं। इससे भी भयानक बात इस रिपोर्ट में यह है कि राजधानी रायपुर के सुपरस्पेशलिटी हॉस्पिटल में नियमित कर्मचारियों के 280 पदों में से कुल 9 पद भरे गए हैं, और 208 पद संविदा कर्मचारियों से भरे गए हैं। आईसीयू में हर बिस्तर पर एक नर्स नियुक्त होने का अनुपात रहना चाहिए लेकिन वहां 20-20 बिस्तरों पर एक नर्स काम करते पाई गई, और गैरआईसीयू वार्डों में तीन बिस्तरों पर एक नर्स होनी चाहिए थी, जो कि 39 बिस्तरों पर एक नर्स मिली है। आयुर्वेद महाविद्यालयों में भी कुर्सियां इसी तरह खाली पड़ी हैं, डॉक्टर 30 फीसदी कम हैं, नर्सें 60 फीसदी कम हैं, और बाकी पदों पर भी ऐसा ही हाल है। जिलों में 538 आयुर्वेद औषधालयों में से 130 में कोई चिकित्सक नहीं पाए गए। सीएजी ने अस्पतालों में हर किस्म की सहूलियतों की क्षमता और वहां उसके इस्तेमाल का बारीकी से विश्लेषण किया है, उसके आंकड़े बहुत निराश करने वाले हैं। कायदे से तो इस रिपोर्ट को ही अगर आज की तारीख पर आंका जाए, तो भी यह समझ में आ सकता है कि छत्तीसगढ़ के मरीजों के इलाज का हाल कितना बदहाल है।
अभी हम सीएजी रिपोर्ट में पौने चार हजार करोड़ की खरीदी की अनियमितता की बारीकियों पर नहीं जा रहे हैं क्योंकि लोकलेखा समिति उस पर देखेगी, लेकिन आए दिन खबरें छपती रहती हैं कि किस तरह कालातीत दवाइयां खरीदी जा रही हैं, या खरीदी गई दवाओं का वक्त खत्म हो जाने से उन्हें नष्ट किया जा रहा है। ये खबरें भी छपती हैं कि बाजार भाव से कितने अधिक गुना दाम पर स्वास्थ्य विभाग दवाइयां और उपकरण खरीदता है। हमें रमन सिंह के कार्यकाल की याद है जब बाबूलाल अग्रवाल नाम के आईएएस अफसर की खुली गड़बड़ी से नकली सोनोग्राफी मशीनें खरीदी गई थीं, और बाद में इस अफसर के खिलाफ जाने क्या-क्या कार्रवाई नहीं हुईं। इंकम टैक्स के कुछ मामलों में यह अफसर बहुत रहस्यमय और संदिग्ध तरीके से निकल आया था, लेकिन सीबीआई ने गिरफ्तारी की थी, और इसे जेल में रहना पड़ा था। लेकिन आमतौर पर हिन्दुस्तानी अदालतों में मामले जितने लंबे चलते हैं, उनमें आज उस वक्त के इस विभाग के खरीदी घोटाले के मामले, और इस अफसर की संपत्ति के मामले कहां पहुंचे, किसी को याद नहीं है। इस एक विभाग के भ्रष्टाचार में छत्तीसगढ़ के मूल निवासी इस अफसर का कॅरियर ऐसा बर्बाद किया कि सबसे कम उम्र में आईएएस बनने के बाद भी यह चीफ सेक्रेटरी तक पहुंचना तो दूर रहा, बीच में ही बर्खास्त हो गया, और जेल चले गया। यह सिलसिला स्वास्थ्य विभाग में इसके पहले से चले आ रहा था, और इसके बाद से जारी भी है, इसमें कोई रोक-टोक नहीं हुई।
स्वास्थ्य विभाग का भ्रष्टाचार प्रदेश के सबसे गरीब मरीजों की जिंदगी को प्रभावित करता है जो कि इलाज के लिए सरकारी सहूलियतों के ही मोहताज रहते हैं। ये एक अलग बात है कि अब भारत की उदारवादी अर्थव्यवस्था में गरीबों को स्वास्थ्य बीमा के जो कार्ड मिलते हैं, उनकी वजह से बहुत से मरीज निजी अस्पतालों में इलाज करा पाते हैं, और बाद में ऐसे अस्पतालों का सरकार से जो हिसाब-किताब होता है, उसमें फर्जीवाड़े की चर्चाएं कभी खत्म ही नहीं होतीं। पता नहीं राज्य सरकार के कुछ विभागों में भ्रष्टाचार की ऐसी असीमित संभावनाएं क्यों बनी रहती हैं, और वहां पहुंचने वाले कभी अफसर, तो कभी मंत्री, और अक्सर ही दोनों विभाग से हर किस्म की कमाई और उगाही में जुटे रहते हैं। हमारा ख्याल है कि छत्तीसगढ़ में आईआईएम जैसी राष्ट्रीय स्तर की एक बेहतर मैनेजमेंट-शिक्षण संस्थान काम कर रही है। और केन्द्र सरकार की ऑडिट एजेंसी सीएजी ने यह रिपोर्ट तैयार की है। विधानसभा की लोकलेखा समिति में जानकार और अनुभवी विधायक अपने हिसाब से सीएजी रिपोर्ट के आधार पर सरकारी अफसरों से जवाब मांगेंगे। लेकिन क्या सरकार के लिए यह बेहतर नहीं होगा कि वह स्वास्थ्य विभाग के कुल कामकाज को सुधारने के लिए आईआईएम के विशेषज्ञों से एक योजना बनवाए। जो आईआईएम-ग्रेजुएट अमरीका जाकर दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों को चलाते हैं, उसके छात्र, और प्राध्यापक अपनी इस जमीन के लिए कोई योजना क्यों नहीं बना सकते? जिस आईआईएम की विशेषज्ञता से दुनिया के सबसे बड़े कारोबार चलते हैं, उसकी टीम को यहां के हाल सुधारने का काम क्यों नहीं दिया जा सकता? एक सवाल जरूर उठ सकता है कि क्या पूरी तरह ईमानदारी से काम चलाने की योजना को भारत के देश-प्रदेश की सरकारें पूरी तरह पचा सकती हैं? जो भी हो, हमारा तो जिम्मा यही है कि गरीब देश-प्रदेश के मरीजों के हक के पैसों का कैसे बेहतर इस्तेमाल हो सके। वैसे अभी हमें यह बात नहीं मालूम है कि स्वास्थ्य विभाग के ढांचे में तीन चौथाई या उससे अधिक कुर्सियां खाली पड़ी हैं, या सरकार अपना खर्च बचाने के लिए इन पर नियुक्तियां ही नहीं करती हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने अभी कई अलग-अलग मामलों में लोगों के जमानत पाने के हक की वकालत की है। कुछ मामलों में जब निचली अदालत से मिली जमानत को खारिज करने में ऊपर की अदालत ने उत्साह दिखाया, तो सुप्रीम कोर्ट ने उसके भी खिलाफ टिप्पणी की है। सुप्रीम कोर्ट के दो जजों ने दिल्ली हाईकोर्ट के एक आदेश को खारिज कर दिया जिसमें मनी लॉंड्रिंग के मामले में एक व्यक्ति को दी गई जमानत पर दिल्ली हाईकोर्ट ने रोक लगा दी थी। अदालत ने कहा कि जजों के पास जमानत पर रोक लगाने का अधिकार तो है, लेकिन ऐसी कार्रवाई हल्के में या बिना किसी ठोस आधार के नहीं की जानी चाहिए। जजों ने कहा कि ऐसा सिर्फ असाधारण परिस्थितियों में ही किया जाना चाहिए। भारत में हाल के बरसों में बहुत से ऐसे मामले हुए हैं जिनमें अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के लोगों को आतंक के किसी कानून के तहत जेल में डाल दिया गया, और मामले की सुनवाई भी शुरू नहीं हो पाई, और चार-पांच बरस से ऐसे लोग जेल में बंद हैं क्योंकि जांच एजेंसियां उनकी जमानत का विरोध कर रही हैं।
हम धर्म के आधार पर, या किसी कानून के तहत होने वाली गिरफ्तारियां की बात नहीं कर रहे। हम सभी तरह के मामलों की बात कर रहे हैं कि बिना सुनवाई किसी भी व्यक्ति को लंबे समय तक जेल में बंद रखने की बड़ी ठोस वजहें होनी चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए कि कुछ आतंकरोधी, मनीलॉंड्रिंग के कानून की मदद लेकर एजेंसियां जरूरत से ज्यादा बेरहमी से लोगों को जेल में बंद रख सकें। खासकर इन दो किस्म के मामलों में देश का तजुर्बा यह है कि इनमें सजा दिलवाना बड़ा मुश्किल रहता है, और जमानत को रोकते चले जाना आसान। इसलिए इन कानूनों के तहत गिरफ्तारी और बिना जमानत जेल में बंद रहना ही सजा है। ऐसे अधिकतर मामलों में यह माना जाता है कि विचाराधीन कैदी के रूप में जितना समय जेल में रखा जाता है, बस वही सजा है, और एक बार जमानत होने पर वह तकरीबन रिहाई है।
खुद भारतीय न्यायपालिका की भावना यह है कि बेल एक स्वाभाविक अधिकार होना चाहिए, और जेल अपवाद की तरह। लेकिन बहुत से मामलों में आर्थिक रूप से कमजोर, किसी अल्पसंख्यक समुदाय के, दलित या आदिवासी आरोपी ऐसे रहते हैं जो बिना जमानत जेलों में पड़े रहते हैं। कुछ मामलों में तो लोग सुनवाई शुरू हुए बिना जेल में मर गए हैं, और जांच एजेंसियां जमानत का विरोध करती रहीं। भीमा-कोरेगांव मामले में फादर स्टेन स्वामी जो कि एक मानवाधिकार आंदोलनकारी थे, और 84 बरस की उम्र में वे माओवादियों के हमदर्द होने के आरोप में जेल में डाले गए थे, और गंभीर बीमारी की हालत में वे कैद में रहते-रहते ही मर गए। जांच एजेंसियों का हाल यह था कि बहुत बूढ़े और बीमार स्टेन स्वामी ने अदालत में अर्जी दी थी कि वे पार्किसन बीमारी के कारण गिलास नहीं पकड़ पाते हैं, इसलिए उन्हें स्ट्रॉ (पानी पीने की नली) की इजाजत दी जाए, लेकिन एनआईए ने इसका भी घनघोर विरोध किया, और वे कांपते हाथों से गिलास छलकाते हुए ही मर गए। उन्हें कोई सजा नहीं हो पाई, और न ही घर जाने के लिए जमानत दी गई, बिना सुनवाई भारतीय न्याय व्यवस्था ने उन्हें हर तरह की तकलीफ से मुक्ति दिला दी।
भारतीय न्याय व्यवस्था का यह बड़ा ही भयानक और हिंसक पहलू है कि कुछ एजेंसियां बिना जमानत लोगों को जेल में अंतहीन रखकर ही उन्हें सजा दे रही हैं, मामलों की सुनवाई भी नहीं हो रही है, एजेंसियां आगे कोई पूछताछ भी बाकी नहीं रख रही हैं, लेकिन जमानत का विरोध कर रही हैं। सुप्रीम कोर्ट को इस बारे में सोचना चाहिए कि अगर प्रक्रिया ही सजा है, तो फिर अदालत की जरूरत क्यों होना चाहिए? कल के दिन कोई ऐसा कानून भी बन सकता है कि जांच एजेंसियां कुछ बरस तक बिना अदालत में पेश किए किसी को गिरफ्तार रख सके। अभी देश में जो नया कानून लागू हुआ है, उसके तहत भी कुछ लोगों की आशंका है कि पुलिस को 15 दिनों की हिरासत का अधिकार बढ़ाकर 90 दिन कर दिया गया है, और उसका भी ऐसा ही बेजा इस्तेमाल हो सकता है। हम न्यायपालिका के कुछ लोगों की इस सोच का समर्थन करते हैं कि बेल स्वाभाविक हक होना चाहिए, और जेल एक अपवाद होना चाहिए। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट को कुछ ठोस मिसालें पेश करनी चाहिए, ताकि नीचे की अदालतें उससे सबक ले सकें। आज तो हमारा तजुर्बा यह है कि जिला स्तर की अदालतें जमानत की तमाम अर्जियों को खारिज कर देती हैं, और बहुत से मामलों में लोगों को सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ता है। आबादी का शायद एक फीसदी हिस्सा ही सुप्रीम कोर्ट की चौखट चढ़ सकता है। सुनाई यही पड़ता है कि वहां के वकील एक-एक पेशी का लाख-लाख रूपए तक ले लेते हैं, कितने लोग ऐसे होंगे जो जमानत के लिए इतनी बड़ी अदालत तक जा सकें। हमारा मानना है कि गरीबों को अदालती प्रक्रिया में भी एक रियायत मिलनी चाहिए, क्योंकि वे पूरी प्रक्रिया का फायदा पाने की हालत में नहीं रहते हैं। इस बारे में मानवाधिकार आंदोलनकारी लंबे समय से भारतीय न्यायपालिका के गरीबविरोधी रूख को गिनाते आए हैं, सुप्रीम कोर्ट जजों को देश की गरीबी के आंकड़े देखना चाहिए, और फिर अपने महंगे कोट में सज जाने के बाद आईने में अपना चेहरा भी देखना चाहिए, हो सकता है इससे जमानत पर अदालती रूख बदल जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
2020 में भारत की राजधानी दिल्ली में दंगे हुए जिनमें 40 मुसलमान और 13 हिन्दू मारे गए थे। इनमें से फैजान नाम का एक नौजवान उन 5 लडक़ों में था जिन्हें दिल्ली पुलिस मार-मारकर राष्ट्रगान गाने को कह रही थी। बाद में पुलिस हिरासत से निकलते ही दो दिन में बहुत ही संदिग्ध हालात में फैजान की मौत हो गई थी। हिरासत-मौत की वैसे भी कड़ी जांच का इंतजाम है, लेकिन दिल्ली पुलिस ने अपने ही साथियों पर आ रही तोहमत के इस मामले में अदालत के बार-बार झिडक़ने पर भी इस तरह से जांच की थी कि अभी दिल्ली हाईकोर्ट ने यह जांच सीबीआई को दे दी है। हाईकोर्ट ने पाया कि वीडियो पर जो पुलिसवाले मुस्लिम लडक़ों को मार-मारकर राष्ट्रगान गाने पर दबाव डाल रहे हैं, उनकी चार साल में भी न शिनाख्त हुई है, न ही कोई चार्जशीट पेश हुई है। हाईकोर्ट ने दिल्ली पुलिस को फटकार लगाते हुए यह कहा है कि अब तक की जांच लापरवाह और ढीली रही है, और ऐसा लगता है कि पुलिस अभियुक्तों को बचा रही है। फैजान की मां ने अदालत को बताया था कि जब वे उससे मिलने थाने पहुंची थी, तो उन्हें मिलने नहीं दिया गया, और एक रात पुलिस ने उन्हें फैजान को ले जाने दिया, तो उसकी हालत बहुत खरीब थी, उसके कपड़े खून से लथपथ थे। रहस्यमय और संदिग्ध बात यह है कि जिस रात फैजान को थाने में इस तरह के जख्म आए, उस रात थाने का सीसीटीवी कैमरा काम नहीं कर रहा था। अब हाईकोर्ट के जस्टिस अनूप भंभानी ने दिल्ली पुलिस के रवैये की कड़ी निंदा की है, और कहा है कि पुलिसवालों का पांच मुस्लिम लडक़ों को पीटना धार्मिक कट्टरता से प्रेरित था, और इसलिए ये एक हेट-क्राईम माना जाएगा, जिस पर कार्रवाई और तेजी से होनी चाहिए। जज ने पुलिस के इस बयान पर भी सवाल उठाया कि फैजान उस रात खुद थाने में रूकना चाहता था। जज ने कहा कि जब उसका परिवार उसे ढूंढ रहा था, तो उसके खुद थाने में रूकने की बात गले नहीं उतरती है, और यह एक असामान्य बात है। अदालत ने यह भी पूछा कि पुलिस फैजान का इलाज करवाने के बजाय उसे थाने क्यों ले गई? जज ने कहा कि ऐसे नाजुक मौके पर पुलिस थाने के सारे सीसीटीवी कैमरों का खराब हो जाना भी भरोसे के लायक नहीं है। इन सब तर्कों के आधार पर हाईकोर्ट ने इस मामले को दिल्ली पुलिस से लेकर सीबीआई को दे दिया है। यह एक अलग बात है कि आज की तारीख में दिल्ली पुलिस और सीबीआई दोनों ही केन्द्र सरकार के मातहत काम करती हैं, यह एक अलग बात हो सकती है कि सीबीआई में चूंकि अलग-अलग सभी प्रदेशों से आए हुए लोग प्रतिनियुक्ति पर काम करते हैं, इसलिए हो सकता है कि उसकी जांच कुछ ईमानदार हो सके। जहां तक दिल्ली पुलिस का सवाल है तो उसका सूरजमुखी के फूल की तरह सूरज की तरफ घूम जाना सत्ता के प्रति उसका समर्पण दिखाता है। बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2020 के दंगों की जांच को लेकर अदालतों ने दिल्ली पुलिस को पहले भी फटकार लगाई हुई है। सितंबर 2021 में दिल्ली कडक़डड़ूमा अदालत के जज विनोद यादव ने तीन लोगों को बरी करते हुए लिखा था कि आजादी के बाद हुए दिल्ली के सबसे भीषण साम्प्रदायिक दंगे को इतिहास देखेगा तो इसमें जांच एजेंसियों की नाकामी पर लोकतंत्र समर्थकों का ध्यान जाएगा कि किस तरह से जांच एजेंसियां वैज्ञानिक तौर-तरीके का इस्तेमाल नहीं कर पाईं। इसी अदालत के एक दूसरे जज पुलस्त्य प्रमचाला ने 2023 में दंगा फैलाने के मामले में तीन लोगों को बरी करते हुए लिखा था कि उन्हें शक है कि पुलिस ने सुबूतों के साथ छेड़छाड़ की है, और केस की ठीक तरह से जांच नहीं की।
हम दिल्ली पुलिस के खिलाफ पूर्वाग्रह, भेदभाव, और पक्षपात के मामलों की पूरी लिस्ट यहां पर गिनाना नहीं चाहते, वरना लोगों को यह तो याद है ही कि किस तरह अभी हाल ही में पहलवान लड़कियों की अनगिनत शिकायतों पर भी दिल्ली पुलिस ने भाजपा सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ जुर्म दर्ज नहीं किया था, और सुप्रीम कोर्ट की दखल, और बहुत कड़े रूख के बाद बहुत मजबूरी में दिल्ली पुलिस ने अनमने ढंग से केस दर्ज किया था, लेकिन बृजभूषण शरण सिंह पर कार्रवाई तो कभी की भी नहीं। देश की राजधानी में पुलिस को बाकी राज्यों के मुकाबले भी कुछ बेहतर होना चाहिए क्योंकि वहां हर राज्य की सरकारों का आना-जाना लगे रहता है, वहां पर दुनिया के हर देश के डिप्लोमेटिक दफ्तर हैं, संयुक्त राष्ट्र की हर संस्था के दफ्तर हैं। लेकिन दिल्ली पुलिस केन्द्र सरकार के निजी सेवक की तरह उसके हुक्म पर काम करते दिखती है, और जब दिल्ली में पुलिस का यह हाल है, तो अधिकतर राज्यों में मानो इसी से सीखकर पुलिस सत्ता की चाटुकार एजेंसी बन गई दिखती है। आज कहीं पुलिस से किसी इलाके में लाउडस्पीकर बहुत तेज बजने की शिकायत की जाए तो पुलिस सबसे पहले यह पूछती है कि कोई राजनीतिक कार्यक्रम तो नहीं है, किस पार्टी का है, या धार्मिक कार्यक्रम है, तो किस धर्म का है? जब पुलिस को यह भरोसा हो जाता है कि उसकी किसी कार्रवाई से सत्ता पर काबिज लोग नाराज नहीं होंगे, तभी वह थाने से हिलने को तैयार होती है। अब सवाल यह है कि देश में राज्य की पुलिस से कौन-कौन सा काम छीन लिया जाए?
जिन मामलों की जांच में आम पुलिस काबिल मानी जा सकती है, उन मामलों को भी पुलिस की धर्म या राजनीति के साथ गिरोहबंदी की वजह से अगर सीबीआई को देने की नौबत आ रही है, तो पहली बात तो यह कि सीबीआई पर भी सत्ता के दबाव की तोहमतें कम नहीं है, और दूसरी बात यह कि देश की बुनियादी जांच एजेंसी पुलिस को जड़ों से पत्तों तक सुधारने के बजाय कुछ मामले उससे लेकर सीबीआई को दे देने से पुलिस में तो कोई सुधार आ नहीं सकता। मुद्दा कुछ चुनिंदा मामलों की जांच का नहीं है, मुद्दा तो पुलिस में जड़ों तक फैल चुकी बीमारी का है, जिसमें भ्रष्टाचार से लेकर साम्प्रदायिकता तक की बीमारी है, और जो राजनीति में खुशी-खुशी शामिल होने वाली एजेंसी हो गई है। हम अभी देश में पुलिस सुधार के लिए बने हुए आयोगों और उनकी रिपोर्टों की चर्चा करना नहीं चाहते, क्योंकि अभी इस कॉलम की बाकी जगह में उसे लिखा नहीं जा सकता। लेकिन अब यह समय आ गया है कि सुप्रीम कोर्ट को केन्द्र और राज्य सरकारों से पुलिस की इस आम बर्बादी को सुधारने के बारे में राय मांगनी चाहिए, और दखल देना चाहिए। पुलिस राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र की बात रहती है, और हाल के बरसों में उसे राजनीतिक पसंद-नापसंद के आधार पर काम करने वाले घरेलू कामगार की तरह इस्तेमाल करना बढ़ते चले गया है। देश में जहां-जहां पुलिस का धार्मिक इस्तेमाल हो रहा है, वहां-वहां वह साम्प्रदायिक तो खुद होते चल रही है। धर्म और साम्प्रदायिकता के बीच अहाते की कोई दीवार नहीं खड़ी है, बल्कि इनके बीच एक खुला मैदान है, और पुलिस अपनी पसंद उस पर कहीं भी जाकर खड़ी हो सकती है। यह देश के लिए बहुत फिक्र की बात है, क्योंकि राज्यों में पुलिस का एकाधिकार है, और उसका कोई विकल्प भी नहीं है। दिल्ली में हुए साम्प्रदायिक दंगों को लेकर वहां की अदालतों के जजों को अगर बार-बार पुलिस के खिलाफ टिप्पणी करनी पड़ रही है, तो यह केन्द्र सरकार के खिलाफ भी कड़ी टिप्पणी है, और देश की बाकी संवैधानिक संस्थाओं को भी इस बारे में सोचना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में कुछ बड़े बिल्डरों ने सरकारी नहर को लगभग पूरा ही पाट दिया, और अवैध कब्जा करके अवैध निर्माण भी कर लिया। नतीजा यह निकला कि तकरीबन बंद हो चुकी इस नहर पर इन बड़े कब्जों के आसपास और लोगों ने भी कब्जा कर लिया। अब एक जनहित याचिका के हाईकोर्ट पहुंचने पर वहां से जांच का हुक्म दिया गया तो राज्य शासन ने कलेक्टर की रिपोर्ट के हवाले से यह माना कि सरकारी नहर पर इन बड़े बिल्डरों ने अवैध कब्जा और अवैध निर्माण कर लिया है। हाईकोर्ट इस बात पर हैरान है कि कलेक्टर की रिपोर्ट के बाद भी राजधानी के नगर निगम ने इस अवैध कब्जे को हटाया नहीं है। अदालत ने निगम आयुक्त को नोटिस भेजकर इस पर जवाब मांगा है।
राज्य बनने के पहले से भी छत्तीसगढ़ के इस सबसे बड़े शहर का हाल देखें, तो यहां बड़े-बड़े बिल्डर सरकारी जमीन पर, नहर, नालों, और तालाबों पर कब्जा करके कॉलोनियां बना लेते हैं। अभी शहर की एक सबसे महंगी, और सबसे अधिक इश्तहार करने वाली कॉलोनी का हाल यह है कि उसने अपने भीतर कोटवार की सरकारी जमीन को घेर लिया है, और चारों तरफ कॉलोनी बनाकर बेच दी है। हाईकोर्ट ने इस जमीन को कोटवार के नाम चढ़ाने का हुक्म भी दिया है, लेकिन इससे भी इस बड़े बिल्डर और कॉलोनाइजर की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। राजधानी में, और प्रदेश के दूसरे तमाम शहरों में भी कॉलोनियां बनाने वाले लोग कहीं बगीचों की जमीन बेच खा रहे हैं, तो कहीं खेल के मैदान पर मंदिर बना दे रहे हैं। इन पर कोई कार्रवाई इसलिए नहीं होती क्योंकि जिन विभागों को ऐसे गैरकानूनी कामों पर कार्रवाई करनी रहती है, उसके बड़े-बड़े अफसरों को अपनी कॉलोनी में पहले से चुनिंदा जमीनें दे दी जाती हैं, और उसके बाद ऐसे बिल्डरों के गैरकानूनी कामों को हिफाजत देना इन अफसरों की जिम्मेदारी हो जाती है। कई बरस हुए इस राजधानी में स्वागत विहार नाम की एक विवादास्पद कॉलोनी सरकारी जमीन पर कब्जा करके बना ली गई थी, और उस पर प्लॉट बेच दिए थे। बाद में शिकायतें होने पर पता लगा कि इस कॉलोनाइजर ने आसपास की तमाम सरकारी जमीनों पर कब्जा करके उसे बेच खाया था। मामले की जांच हुई तो इस कॉलोनी में प्लॉट पाने वाले अफसरों की लिस्ट में प्रदेश के सबसे बड़े अफसरों के, उनके रिश्तेदारों के नाम भरे पड़े थे, और ऐसे लोगों को उपकृत करने वाले मुजरिम पर हाथ डालने वाला कानून भला इस देश में कैसे बन सकता है? नतीजा यह हुआ कि स्वागत विहार में सरकारी जमीन पर कब्जे और उसकी बिक्री का साफ-साफ मामला रहते हुए भी वहां जमीन खरीदने वाले लोगों को बचाने के नाम पर सरकार ने किसी तरह इस मामले का निपटारा किया। जबकि सरकार की नीयत आम खरीददारों को बचाने की नहीं थी, बल्कि जो आला अफसर यहां जमीन के मालिक बन गए थे, उनके कब्जों को बचाने की थी।
छत्तीसगढ़ में हमने बीते दशकों में यह सबसे बड़ा खेल देखा है कि शहरों के नक्शों में अलग-अलग जमीनों के भू-उपयोग तय करते हुए जिसे फायदा पहुंचाना हो, उसकी रिहायशी जमीन को भी कारोबारी बना दिया जाए, और जिससे नाराजगी हो उसकी कारोबारी या रिहायशी जमीन को भी उद्यान या किसी और सार्वजनिक उपयोग का बना दिया जाए। राज्य शासन के बड़े-बड़े नौकरशाहों ने, और नेताओं ने अपनी जमीनों का सिर्फ रंग बदलवाकर करोड़ों की जमीन को अरबों का करवा लिया, और अपने आपको साफ-सुथरा भी बताते रहे। अभी हाईकोर्ट में मामला जाने के बाद भी सरकारी नहर पर से कब्जा अगर नहीं हट रहा है, तो सत्ता पर काबिज कुछ नेता और अफसर इस कार्रवाई को रोक रहे होंगे, क्योंकि जिस तरह किसी हादसे से बचने के लिए कारों में एयरबैग लगाए जाते हैं, उसी तरह कॉलोनाइजर अपनी स्कीम (या स्कैम?) में कुछ नेताओं और अफसरों को जमीनें देकर रखते हैं, और ऐेसे लोग एयरबैग बनकर कॉलोनाइजर की हिफाजत करते हैं। इस ताजा मामले में होना तो यह चाहिए था कि सरकार एक मिसाल कायम करती, सरकारी जमीन, खासकर सार्वजनिक उपयोग की नहर जैसी सहूलियत पर कब्जा कर लेना, सरकारी नालों को अपनी योजना के भीतर ले लेना, सरकारी जमीनों के इर्द-गिर्द अपनी कॉलोनी बना लेना, इन सब पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए थी। आज एक तरफ तो प्रदेश के अलग-अलग शहरों से यह सुनाई पड़ता है कि प्रशासन ने गैरकानूनी प्लॉटिंग करके जमीन बेचने वाले लोगों पर कार्रवाई की, और मशीनों से ऐसी अवैध कॉलोनियों को तहस-नहस कर दिया। दूसरी तरफ सरकारी नहर पर अवैध कब्जा और अवैध निर्माण करने वाले लोग धड़ल्ले से बड़े-बड़े कारोबार कर रहे हैं। कानून के खिलाफ काम करने वाले ऐसे बड़े बिल्डरों के इश्तहारों का दबाव इतना रहता है कि आमतौर पर हमलावर बने रहने वाले अखबार और टीवी चैनल भी सबसे बड़े मुजरिमों के मामलों में आंखें बंद कर लेते हैं, और फिर अपने कारोबारी कार्यक्रमों में अपने मंच पर ऐसे ही मुजरिमों को बुलाकर मंत्री-मुख्यमंत्री के हाथ से उनका सम्मान करवाते हैं। हमें इस बात पर भी हैरानी होती है कि जिन कारोबारियों के खिलाफ कई तरह के मुकदमे दर्ज रहते हैं, उनका सम्मान करने के लिए मंत्री-मुख्यमंत्री तैयार कैसे हो जाते हैं? पिछली सरकार में एक स्पा सेंटर चलाने वाले का सम्मान सीएम के हाथों करवाया गया था, और बाद में वह स्पा सेंटर वेश्यावृत्ति करते पकड़ाया था। सरकार में बैठे नेताओं को भी किसी कार्यक्रम में ऐसे नाजायज सम्मान करने से बचना चाहिए, क्योंकि ऐसे सम्मान के बाद ये मुजरिम अफसरों पर और अधिक दबाव डालने की हालत में आज जाते हैं।
फिलहाल छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने जिस मामले पर छत्तीसगढ़ सरकार और रायपुर म्युनिसिपल को उनकी जिम्मेदारी याद दिलाई है, उस मामले पर आगे क्या होता है, यह देखना चाहिए। इसी राजधानी में सबसे बड़े अवैध कब्जे, और सबसे बड़े अवैध निर्माण हाईकोर्ट में मुकदमा हारने के बाद भी मजबूती से जमे हुए हैं, और दसियों करोड़ रूपए साल की कमाई कर रहे हैं। मुकदमा जीती हुई सरकार अपनी जीत के बाद भी मुजरिमों पर कोई कार्रवाई नहीं कर रही है, ऐसा करने वाली प्रदेश की यह तीसरी सरकार चल रही है, और इससे मुजरिमों की ताकत का अंदाज लगाया जा सकता है। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट अगर चाहे तो वह लगे हाथों यह पूछ सकता है, कि उसके पिछले फैसलों पर दस-दस बरस हो जाने पर भी कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई है। वैसे तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी अवैध निर्माण इस शहर में टूटा नहीं है, और अपने फैसले पर अमल के लिए सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट को ही इंचार्ज बनाया था।
आबादी के आंकड़े बड़े दिलचस्प रहते हैं। इतिहास के मुकाबले आज की आबादी के आंकड़े तो सामने रहते हैं, लेकिन आज के मुकाबले भविष्य के आंकड़ों का एक अनुमान ही लगाया जा सकता है, और यह अनुमान जब बाकी दुनिया की आबादी के अनुमान के साथ जोडक़र देखा जाता है, तो यह बताता है कि 2050 या 2070 की दुनिया में हिन्दुस्तानियों का अनुपात क्या होगा। फिर आबादी को जब अलग-अलग उम्र के तबकों में बांटकर देखा जाता है, तो उससे भी बड़ी दिलचस्प तस्वीर उभरती है। आज सुबह ही चीन के आंकड़ों का एक विश्लेषण बता रहा था कि किस तरह वहां आने वाले बरसों में रिटायर्ड लोगों का अनुपात कामकाजी लोगों से अधिक हो जाएगा, और चीन की सरकार को यह समझ ही नहीं आ रहा है कि इतनी बड़ी संख्या में रिटायर्ड और अनुत्पादक हो चुके लोगों का खर्च कैसे उठाया जाएगा? कुछ लोग इसे चीन की इस गलती का नतीजा बतलाते हैं कि उसने अपने कामकाजी लोगों के रिटायर होने की उम्र बड़ी कम रखी थी, नतीजा यह हुआ कि जापान के मुकाबले चीन के लोग दस बरस कमउम्र में ही रिटायर होकर देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ बनने लगे। दुनिया का ऐसा कई किस्म का तजुर्बा हिन्दुस्तान के सामने भी बहुत सी बातों के सबक लेने का मौका पेश करता है।
संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की भारत की ईकाई, यूएनएफपीए-इंडिया की प्रमुख इंड्रिया ओजनार ने अभी एक इंटरव्यू में भारत के सामने चुनौतियों और संभावनाओं का अपना एक विश्लेषण पेश किया है। उनका कहना है कि 2050 तक इस देश में बुजुर्ग आबादी आज के मुकाबले संख्या में दो गुना हो जाएगी। इस साल तक 60 साल से ऊपर के लोग 34 करोड़ 60 लाख हो जाने का अंदाज है। इन बुजुर्ग लोगों की रहने-खाने की जरूरतों को लेकर भारत को एक योजना बनाने की जरूरत है। इंड्रिया का कहना है कि खासकर बूढ़ी महिलाओं के लिए ऐसा करना जरूरी है जिनके अकेले रहने, और गरीबी का सामना करने की अधिक आशंका है। उन्होंने भारत की नौजवान आबादी के बारे में संभावनाओं की चर्चा की, और कहा कि इस देश में आज दस से बीस बरस के दायरे में 25 करोड़ से अधिक लोग हैं, और इस उम्र के लोगों का देश के लिए एक उत्पादक उपयोग हो सकता है, अगर इनकी क्षमता को उस लायक बनाया जा सके। उन्होंने कहा कि लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के साथ-साथ प्रशिक्षण और रोजगार सृजन में निवेश करने से नौजवान कामकाजी पीढ़ी की इस क्षमता को भुनाया जा सकता है।
हम इस पर चर्चा इसलिए भी कर रहे हैं कि अभी दो-चार दिन पहले ही हमने भारत के राज्यों से यह उम्मीद की थी कि वे अपनी नौजवान पीढ़ी को हुनरमंद बनाएं, उनके हुनर में उत्कृष्टता लेकर आएं, और उन्हें स्थानीय मजदूरी से ऊपर के कामों के लिए भी तैयार करें। हमने यह भी सुझाया था कि चीन जैसे देश में प्रति व्यक्ति आय भारत के लोगों के मुकाबले सवा पांच गुना से अधिक है, और यह फर्क आबादी को हुनरमंद बनाने का है, और फिर उस आबादी को हुनर के लायक काम मुहैया कराने का है। भारत को जापान और चीन के बीच के तजुर्बे के फर्क को देखना चाहिए। जापान में लोग औसतन दस बरस अधिक उम्र तक कामकाजी रहते हैं, और उनकी उत्पादक भूमिका की वजह से वे सरकार पर बोझ नहीं बनते। चीन ने अर्थव्यवस्था के कई पहलुओं पर खासा काम किया है, लेकिन इस एक मामले में वह चूक गया दिखता है। उसने अपनी आबादी पर एक फौलादी पकड़ बना रखी थी, और आज जब उसे अधिक से अधिक कामगारों की जरूरत है, देश के आर्थिक और निर्माण ढांचे के बेहतर इस्तेमाल के लिए उसे अधिक कामकाजी लोग चाहिए, तो उसकी नौजवान पीढ़ी सिमटती चली जा रही है, आज चीनी नौजवान अधेड़ हो जाते हैं, लेकिन वे एक से अधिक बच्चे पैदा करना नहीं चाहते। यह चीन की दूसरी बड़ी दीर्घकालीन गलती थी कि उसने अपनी अर्थव्यवस्था में कामगारों की उत्पादक भूमिका का अंदाज नहीं लगाया था, और आज उसे आबादी की कमी खल रही है। चीन की दूसरी चूक यह रही कि उसने कामकाजी लोगों को कमउम्र में रिटायर करना जारी रखा, और आज घर बैठे ऐसे लोग सरकार पर बोझ बन गए हैं।
भारत के सामने आज ऐसे तमाम तजुर्बों से नसीहत लेने का मौका है। यहां आबादी अभी चीन की तरह सिमटती नहीं जा रही है, और 2060 तक यह आबादी बढ़ते जाने का अंदाज है। आबादी बढऩे से कामगार भी बढ़ेंगे, और भारत की आर्थिक नीतियां, काम का माहौल अगर अच्छा रहेगा, तो चीन से कई वजहों से निराश बाकी देश भारत को चीन के अलावा एक और मेन्युफेक्चरिंग केन्द्र बना सकते हैं। लेकिन इसके लिए बहुत ही हुनरमंद कामगारों की जरूरत पड़ेगी, और भारत के दक्षिण के राज्यों के अलावा बहुत कम राज्य ऐसे हैं जो कि इसके लिए तैयार हैं। भारत को यह भी देखना होगा कि अलग-अलग कामकाज में किस तरह लोगों को अधिक उम्र तक रखा जा सकता है, ताकि उनका उत्पादक उपयोग देश के लिए हो सके, और वे बुढ़ापे की तकलीफों और जरूरतों से अपनी कमाई से ही जूझ सकें। भारत को नौजवान पीढ़ी को अंतरराष्ट्रीय स्तर के कामकाज के लिए भी तैयार करना पड़ेगा। आज एप्पल जैसी एक सबसे बड़ी कंपनी के मोबाइल फोन बनाने का कारखाना दक्षिण भारत के तमिलनाडु और कर्नाटक में चल रहा है। इन दो राज्यों को कारखानों ने इसलिए भी छांटा होगा कि यहां पर तकनीकी कौशलयुक्त कामगार उपलब्ध होंगे। तमिलनाडु में इसके लिए एक और कारखाना बन रहा है, और आज आईफोन बनाने में 20 हजार कर्मचारी लगे हैं, जो बढक़र 55 हजार हो जाएंगे। भारत जैसे देश में अपनी आबादी को कामकाजी बनाने, और कमाऊ बनाए रखने में केन्द्र सरकार से परे राज्य सरकारों की भी बहुत बड़ी भूमिका है। हर राज्य सरकार को यह सोचना चाहिए कि क्या उसकी कामकाजी आबादी महज सरकारी राशन, और न्यूनतम मजदूरी पर जिंदा है, या उसके उगाए अनाज पर सरकारी सब्सिडी से जिंदा है? अपने कामगारों को सरकारी राशन पर जिंदा भी रखा जा सकता है, और उन्हें हुनरमंद-कामकाजी बनाकर चीन की तरह उनके पसीने की एक-एक बूंद का नगदीकरण भी किया जा सकता है। भारत को अपने कामगारों को रिटायर करने की हड़बड़ी नहीं रहना चाहिए, बल्कि अधिक उम्र तक लोग क्या-क्या काम कर सकते हैं, उसकी संभावनाएं भी ढूंढनी चाहिए, और नई पीढ़ी को आज की विकसित दुनिया की जरूरतों के मुताबिक कौन-कौन से हुनर सिखाकर, कितना उत्कृष्ट बनाय जा सकता है, यह भी देखना चाहिए। हालांकि हम जो कह रहे हैं उसके लिए पांच-पांच बरस में होने वाले चुनावों के दबावों से परे के लोग लगेंगे जो लंबी दूरी की सोच सकें, और आबादी के हर व्यक्ति को देश के विकास में जोड़ सकें।
दुनिया का एक बड़ा असमंजस आज खत्म हुआ। अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अपनी पार्टी के लोगों, दानदाताओं, और शुभचिंतकों की बात सुनी, और राष्ट्रपति चुनाव न लडऩा तय किया। उन्होंने इसके साथ-साथ अपनी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस का नाम डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार के लिए सुझाया है। वे न सिर्फ राष्ट्रपति चुनाव से बाहर हो गए हैं, बल्कि उन्होंने पार्टी के भीतर एक दुविधा को भी खत्म कर दिया कि उनके बाद अब और किसे उम्मीदवार बनाया जाए। बाइडन का समर्थन करने वाले जितने लोग हैं, उनमें से अधिकतर अब कमला हैरिस के साथ हो जाएंगे, और ऐसा माना जा रहा है कि चुनाव इतना करीब आ चुका है कि डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर कमला हैरिस को चुनौती देने की हसरत रखने वाले लोग भी पार्टी में अस्थिरता पैदा करने की तोहमत पाना नहीं चाहेंगे, और ऐसा लगता है कि रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार, भूतपूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के मुकाबले अब कमला हैरिस की उम्मीदवारी तय हो सकती है। जो बाइडन ने न सिर्फ मुकाबले से बाहर होना तय किया है बल्कि कमला हैरिस को उपराष्ट्रपति बनाने को अपना सबसे अच्छा फैसला भी घोषित किया है, इस तरह से अब उनका पूरा समर्थन कमला हैरिस को है। भारतवंशी मां और जमैका से अमरीका आए पिता की संतान, कमला हैरिस अमरीका की पहली महिला राष्ट्रपति भी बन सकती है, और वे पहली काली महिला राष्ट्रपति उम्मीदवार तो बनी हुई दिख रही है। अमरीका के सामने ओबामा के बाद अब यह दुविधा तो नहीं बची है कि क्या कोई काला अमरीकी राष्ट्रपति बन सकता है, लेकिन महिला को राष्ट्रपति बनाने वाले लोगों को तब निराशा हुई थी जब हिलेरी क्लिंटन को राष्ट्रपति चुनाव में शिकस्त मिली थी। अमरीकी समाज को इस बार कमला हैरिस की शक्ल में पहली काली महिला चुनने का मौका मिल रहा है, देखते हैं उसका फैसला क्या होता है। यहां यह भी जिक्र करना काम का हो सकता है कि एक पिछले अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की पत्नी मिशेल ओबामा का नाम भी डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार के तौर पर लिया गया था, लेकिन उन्होंने खुद ही इन चर्चाओं को खारिज कर दिया था। ओबामा का नाम जो बाइडन के उन शुभचिंतकों में शामिल था जिन्होंने राष्ट्रपति को मनाने की कोशिश की थी कि अपनी सेहत और उम्र का हाल देखते हुए उन्हें चुनाव नहीं लडऩा चाहिए।
कमला हैरिस को लेकर भारत के जो लोग अतिउत्साही हैं, उन्हें यह बात याद रखना चाहिए कि वे वहीं पर पैदा हुई हैं, और उनकी मां भारत के तमिलनाडु से अमरीका जाकर विश्वविद्यालय में वैज्ञानिक की तरह काम किया था, और वहीं जमैका से आए एक छात्र से उनकी मुलाकात हुई थी, और फिर शादी के बाद कमला हैरिस का जन्म हुआ। कमला हैरिस का अपने पुरखों के यहां चेन्नई आना-जाना लगे रहा, लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति के रूप में हिन्दुस्तान को उनसे किसी रियायत की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। भारत के मामलों को अगर वे बारीकी से देखती भी होंगी, तो भी वे इस देश की कई मौजूदा बातों को लेकर निराश भी होंगी। लेकिन भारत की महिलाओं के लिए यह एक प्रेरणा की बात हो सकती है कि किस तरह कमला की मां ने भारत से जाकर बर्कले विश्वविद्यालय में पहले दाखिला पाया था, फिर काम किया था, और उनकी बेटी आज अमरीकी राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार है। अमरीका में नस्लीय भेदभाव और रंगभेद अपनी जगह है, लेकिन वहां हर किस्म के लोगों की आगे बढऩे की संभावनाएं अपार रहती हैं। अमरीका की इस खूबी से आज कम से कम हिन्दुस्तान सरीखे देश को यह सीखने मिल सकता है कि किस तरह हर किसी को बराबरी से आगे बढऩे के मौके दिए जाएं, तो देश में कैसी प्रतिभाएं सामने आ सकती हैं। हिन्दुस्तान में विख्यात वैज्ञानिक एपीजे अब्दुल कलाम के इतिहास गढ़ देने के बाद भी आज किसी अब्दुल को सडक़ किनारे चायठेला लगाने में भी खतरा झेलना पड़ रहा है, और ऐसे देश को अमरीका में पैदा कमला हैरिस के आसमान तक पहुंचने पर खुशी मनाने का ज्यादा हक तो है नहीं।
खैर, हिन्दुस्तान से परे अमरीका की बात करें, तो जो बाइडन ने समय रहते एक अच्छा फैसला लिया है। उनकी उम्र उनकी जीत की संभावनाओं को घटा रही थी, और उनकी सेहत बार-बार लडख़ड़ा रही थी। यह एक अलग बात है कि पिछली आधी सदी के संसदीय जीवन का एक असाधारण और अनोखा तजुर्बा उनके साथ था जो कि जटिल अंतरराष्ट्रीय स्थितियों में मुश्किल फैसले लेने में मददगार हो सकता था। लेकिन चुनाव तो जनधारणाओं पर भी लड़ा जाता है, और ट्रंप की तरह गोली खाए हुए, और जख्मी सांड की तरह मंच और माईक पर फुंफकारते हुए रिपब्लिकन उम्मीदवार के सामने जो बाइडन की संभावनाएं बुरी तरह सिमट चुकी थीं। ऐसे में उन्होंने अपनी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस का नाम बढ़ाकर एक अच्छा फैसला लिया है, वरना बहुत बुरी तरह शिकस्त की हालत में उन्हें इतिहास में अपनी डेमोक्रेटिक पार्टी को बड़ा नुकसान पहुंचाने वाला दर्ज किया जाता। आज वे बेफिक्र होकर राष्ट्रपति का कार्यकाल पूरा कर सकते हैं, और डेमोक्रेटिक पार्टी इस तोहमत से भी बच रही है कि उसने पहली बार किसी काली महिला की संभावनाएं पैदा होने पर भी उन्हें खारिज कर दिया। ट्रंप कल तक बाइडन को कमजोर और बीमार साबित कर रहे थे, अब कमला हैरिस के मुकाबले वे खुद बूढ़े दिखने लगेंगे। फिर यह भी है कि ट्रंप अपनी बदजुबानी, बददिमागी, और बदचलनी के साथ कमला हैरिस के मुकाबले अधिक बुरे दिखने लगेंगे, जिनके साथ किसी तरह का कोई दाग लगा हुआ नहीं है। हालांकि जो बाइडन के साथ भी उनके जवान बेटे के एक-दो कानूनी मामलों से परे कोई बड़े विवाद नहीं थे, लेकिन कमला हैरिस बाइडन के मुकाबले भी अधिक बेदाग हैं।
अमरीकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार तय करने का काम उनकी पार्टी का कोई संगठन नहीं करता है, बल्कि पूरे देश में बिखरे हुए पार्टी के स्थानीय नेता बड़े लोकतांत्रिक तरीके से करते हैं जिसे भारत के मॉडल से नहीं समझा जा सकता। वहां पर अपनी पार्टी का उम्मीदवार बनने के लिए पार्टी के नेताओं के बीच मंच और माईक से जैसा खुला मुकाबला होता है, वह बड़ा पारदर्शी और हिम्मती काम होता है। एक-दूसरे के खिलाफ मतभेद खुलकर सामने आते हैं, और जब किसी एक उम्मीदवार को सबसे अधिक समर्थन मिल जाता है, तो फिर बाकी के दावेदार भी उसका साथ देते हैं। वह एक अलग ही किस्म की राजनीतिक व्यवस्था है, और भारत में जिस तरह पार्टियों में आंतरिक तानाशाही चलती है, यहां अमरीकी मॉडल को समझना भी मुश्किल है। कमला हैरिस की उम्मीदवारी से, जो कि तय सी लग रही है, उससे हमें कुछ बातों की खुशी है कि ट्रंप जैसे घटिया इंसान के मुकाबले अमरीकी मतदाताओं को एक भली और काबिल महिला को चुनने का मौका मिल रहा है। एक काली महिला को राष्ट्रपति बनाने का मौका पहली बार है, और कमला हैरिस ने पिछले चार बरस राष्ट्रपति भवन के काम को, और उस मार्फत पूरी दुनिया को बड़ी बारीकी से देखा है। वे जो बाइडन की विचारधारा और रणनीति को ही मोटेतौर पर जारी रख सकती हैं, और ट्रंप की शक्ल में दुनिया के सामने खड़े हुए एक भयानक खतरे को टालने के लिए वे एक विकल्प की तरह मौजूद हैं। आज अरब देशों से लेकर पूरे के पूरे योरप तक कोई भी ट्रंप को झेलने के लिए तैयार नहीं है, ट्रंप एक पूरी तरह सिद्धांतहीन, बेअक्ल सनकी तानाशाह है, लेकिन अमरीकी जनता एक बार उसे चुन चुकी है, और अमरीकी जनता के बहुमत का फैसला हमेशा सही रहता हो, ऐसा जरूरी भी नहीं है, वह घटिया लोगों को भी चुनने का भी इतिहास रखती है।
फिलहाल जो बाइडन ने बहुत अधिक देर किए बिना एक सही फैसला अपनी पार्टी और अमरीकी वोटरों के सामने रखा है, और हम भी इससे चुनाव में पडऩे जा रहे फर्क को लेकर उत्साहित हैं कि डेमोक्रेटिक उम्मीदवार को महज बढ़ती उम्र और घटती ताकत की वजह से खारिज नहीं किया जाएगा, और ट्रंप के मुकाबले करीब बीस बरस छोटी कमला हैरिस डेमोक्रेटिक पार्टी के लिए भी एक बेहतर लंबे भविष्य की उम्मीद है, अमरीका के लिए तो है ही। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया में सबसे बड़ी संख्या में कम्प्यूटरों पर माइक्रोसॉफ्ट का ऑपरेटिंग सॉफ्टवेयर विंडोज काम करता है। अभी माइक्रोसॉफ्ट से जुड़ी हुई साइबर सुरक्षा मुहैया कराने वाली एक कंपनी क्राउडस्ट्राईक ने सॉफ्टवेयर को अपडेट किया, तो माइक्रोसॉफ्ट का सर्वर ही डाउन हो गया, और उससे जुड़े हुए दर्जनों देशों की दसियों हजार कंपनियों के कम्प्यूटर ठप्प पड़ गए। पूरी दुनिया में बैंकों, शेयर बाजारों का काम ठप्प हो गया, हजारों विमान उडऩे से रूक गए, अस्पतालों का काम रूक गया, मीडिया कंपनियों का काम रूक गया। एक साथ दुनिया में दसियों लाख कम्प्यूटरों पर स्क्रीन नीली दिखने लगी, और क्राउडस्ट्राईक ने अपनी चूक को सुधार भी लिया, लेकिन एक बार बैठ गए कम्प्यूटरों में फिर जान डालने के लिए हर किसी को बहुत मशक्कत करनी पड़ी, जो अभी भी जारी है। हिन्दुस्तान भी इससे बुरी तरह प्रभावित हुआ था। और पूरी दुनिया में यह चर्चा चल रही है कि क्या कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर या साइबर सुरक्षा के मामले में गिनी-चुनी कंपनियों का एकाधिकार दुनिया के लिए खतरनाक नहीं है? आज जब पूरी दुनिया का कामकाज इन्हीं दो-चार कंपनियों के हार्डवेयर या सॉफ्टवेयर पर टिका हुआ है, तो इसके खतरे समझना जरूरी है। न्यूयॉर्क पुलिस ने कम्प्यूटरों को लकवा मार जाने के बारे में यह कहा कि एकाएक उसके पास काम करने के औजार 1970 और 1980 के दशक के रह गए थे, और टेलीफोन और कागज-पेन से न्यूयॉर्क की पुलिस पर नियंत्रण किया जा रहा था, और यह इंतजाम पूरी तरह नाकाफी था।
लेकिन हम पहले भी इस तरह की आशंका जता चुके थे कि दुनिया के साइबर-हैकर, और अब आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस नाम के औजार या हथियार से लैस साइबर-आतंकी किसी भी वक्त दुनिया को घुटनों पर ला सकते हैं। अभी तो एक साइबर-सुरक्षा कंपनी के बनाए हुए सॉफ्टवेयर में एक चूक से एक-दो दिन दुनिया की जिंदगी बुरी तरह प्रभावित ही हुई थी, लेकिन अगर किसी दिन साइबर-आतंकी अपनी पूरी तैयारी से आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल करके अगर दुनिया के प्रमुख कम्प्यूटरों पर काबू पा लेंगे, तो क्या होगा? हॉलीवुड में 20 बरस पहले ऐसी फिल्में बन चुकी हैं जिनमें साइबर-मुजरिम सार्वजनिक कम्प्यूटर प्रणालियों पर कब्जा कर लेते हैं, और किस तरह महानगरों के ट्रैफिक को पल भर में ध्वस्त कर देते हैं। जब चौराहों पर हर तरफ ग्रीन लाईट दिखने लगेगी, तो जाहिर है कि हर तरफ से आगे बढ़ी गाडिय़ां टकराकर सब कुछ उलझा देंगी, जिसे सुलझाना नामुमकिन सा रहेगा। इसके अलावा आज ट्रेन, प्लेन, बैंक, एटीएम, क्रेडिट कार्ड, अस्पताल के रिकॉर्ड, सुपर बाजारों की बिलिंग, पेट्रोल पंपों का काम, सब कुछ तो कम्प्यूटरों, और इंटरनेट से जुड़ गया है। अगर कोई आतंकी गिरोह एक तैयारी करके इन सबको चौपट कर दे, मोबाइल फोन और इंटरनेट ठप्प कर दे, बिजलीघरों का उत्पादन ठप्प कर दे, पानी की सप्लाई बंद कर दे, तो अपने आपको बचाने के लिए आबादी का एक बड़ा हिस्सा एक दिन के भीतर ही दुकानों से सामान, या कहीं से ईंधन लेने के लिए जुर्म करने को तैयार हो जाएगा। जो अमन-पसंद लोग हैं वे भी हिंसा पर उतारू हो जाएंगे, और दुनिया के ऐसे देशों की पुलिस अराजक हालात पर एक फीसदी भी काबू नहीं पा सकेगी। सरकार की आज की क्षमता नियमों के तहत चलने वाले समाज के मुताबिक बनी हुई है, और अगर आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपने जिंदा रहने के लिए लूटपाट पर आमादा रहेगा, तो उसे रोकने के लिए तो दूसरे ग्रह से लाई पुलिस भी कम पड़ेगी।
पूरी दुनिया आज जिस तरह ऑटोमेटिक मशीनों पर, कम्प्यूटरों, और संचार व्यवस्था पर टिक गई है, वह अपने आपमें एक नाजुक और खतरनाक नौबत है। हम यह तो नहीं कहते कि इससे बेहतर कोई इंतजाम हो सकता था, लेकिन यह इंतजाम कितना नाजुक है, यह भी देखने-समझने की जरूरत है। अभी तो दुनिया में छोटे-मोटे जुर्म करने वाले साइबर-मुजरिमों ने इस धंधे को दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बना लिया है। और अगर साइबर-जुर्म में, साइबर-आतंकी घुस जाएंगे, उनके हाथ आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस जैसा बड़ा हथियार आज भी है, तो वे अपनी विचारधारा और मकसद के हिसाब से किसी भी स्तर की तबाही ला सकते हैं। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की अपनी कोई नैतिकता या सोच नहीं है, अपनी कोई विचारधारा नहीं है, इसलिए वह अगर आतंकियों का हथियार रहेगी, तो उनकी ताकत को दुनिया की सरकारों की क्षमता के ऊपर ले जा सकती है। हमने पहले भी एक बार इस मुद्दे को उठाया था कि सिर्फ ठगने या जुर्म करने के लिए नहीं, दुनिया में पर्यावरण की तबाही को रोकने के लिए भी अगर कोई आतंकी समूह बीड़ा उठा लेगा, तो हो सकता है कि वह दुनिया में पर्यावरण को सबसे बड़ा नुकसान पहुंचाने वाले अतिसंपन्न देशों, अतिसंपन्न लोगों, और सबसे अधिक सुख-सुविधाओं के खर्चीले साधनों को तबाह करने पर जुट जाएं। ऐसे तमाम तबकों की शिनाख्त बड़ी आसान है, और ऐसे पहचाने और तय किए गए निशानों पर हमले की एक साजिश बनाई जा सकती है। किसी विचारधारा के प्रति समर्पित लोग यह सोच सकते हैं कि अतिसंपन्न तबकों को निशाना बनाकर पर्यावरण को बचाया जा सकता है, जलवायु परिवर्तन की धीमा किया जा सकता है, और इस सोच के साथ ये लोग धरती के साधनों की बड़ी बर्बादी को रोकने का हमला कर सकते हैं। हमारा ख्याल है कि किसी भी तरह की सुरक्षा व्यवस्था मुजरिमों और आतंकियों से अधिक असरदार नहीं रहती, और जब कुछ बड़े हमले हो चुके रहते हैं, तब जाकर सबसे काबिल देश भी अपने को बचा सकते हैं। 11 सितंबर को न्यूयॉर्क के वल्र्ड ट्रेड सेंटर में ओसामा के विमान जिस तरह घुसे थे, उसके लिए अमरीका तैयार नहीं था, अभी पिछले बरस 7 अक्टूबर को फिलीस्तीन के हमास के हमलावरों ने जिस तरह इजराइल पर हमला किया था, इस फौजी देश की सारी सुरक्षा तैयारियां धरी रह गई थीं। यह भी समझने की जरूरत है कि आज फिलीस्तीनियों पर जिस तरह के जुल्म हो रहे हैं, उसके खिलाफ अगर दुनिया के साइबर-घुसपैठिया दिमाग एकजुट होकर इजराइल और उसके मददगार देशों पर, कारोबारियों पर, बैंकों, और उनकी अर्थव्यवस्था पर हमला करेंगे, तो 7 अक्टूबर जैसी नौबत फिर सामने रहेगी।
सिर्फ पर्यावरण बचाने के लिए नहीं, दुनिया में गरीबों को हक दिलाने के लिए हो सकता है कि कोई आतंकी समूह अमीरों पर और पूंजीवादी व्यवस्था पर साइबर-हमला करे, या धार्मिक विचारधारा के आधार पर कोई आतंकी समूह अपने से असहमत देशों या अर्थव्यवस्थाओं पर हमला करे। आज जिस घटना को लेकर हम इन खतरों को गिना रहे हैं, वह तो एक कंपनी की चूक से उपजी हुई नौबत है, लेकिन जब दुनिया के कुछ सबसे काबिल, शातिर, और आतंकी दिमाग दुनिया के किसी तबके को तहस-नहस करने पर उतारू हो जाएंगे, तो शुरूआती हमलों का सामना करने की तैयारी तो शायद किसी की नहीं रहेगी। और कई अर्थव्यवस्थाएं वल्र्ड ट्रेड सेंटर की इमारतों के मलबे की तरह दिखने लगेंगी। इसलिए कम्प्यूटर-इंटरनेट, और इनसे चलने वाली दुनिया की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए यह भी जरूरी है कि दुनिया की अपनी शासन व्यवस्था को भी न्यायप्रिय रखा जाए, उसके बिना कुछ भी सुरक्षित नहीं रह पाएगा।
उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, और मध्यप्रदेश ठीक उसी तरह हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बने हुए हैं, जिस तरह आज दुनिया के कुछ दूसरे देशों को कुछ दूसरे धर्मों के सबसे अधिक हमलावर चेहरों की प्रयोगशाला पाया जा रहा है। उत्तरप्रदेश में मोदी सरकार का ताजा आदेश यह है कि जहां-जहां कांवड़ यात्रा निकलती है, वहां रास्ते के सभी दुकानदारों को अपना नाम और कर्मचारियों का नाम लिखना होगा ताकि उनका जात-धरम कांवडिय़ों को पता लग सके, और उनकी दुकान से कुछ खाने-पीने से उनकी धार्मिक आस्था आहत न हो। मोदी सरकार बनने के कुछ महीनों के भीतर ही देश में पहली बार किसी धार्मिक-साम्प्रदायिक मुद्दे पर एनडीए गठबंधन के भीतर दरार दिख रही है, और चिराग पासवान सहित जेडीयू ने भी इस पर आपत्ति की है। इस पर बखेड़ा अधिक होने के बाद योगी ने यह आदेश पूरे प्रदेश में लागू करने की घोषणा की है, और कॉमन सिविल कोड लागू करने में देश में अव्वल रहने वाले उत्तराखंड के भाजपा मुख्यमंत्री तुरंत ही इन पदचिन्हों पर चल पड़े हैं। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी सरीखे बहुत से राजनीतिक दलों ने इसका घोर विरोध किया है, और अखिलेश यादव ने तो कहा है कि अदालत को खुद इस मामले पर गौर करना चाहिए। इन दिनों भारत में हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं हैरान करने की रफ्तार से आहत हो रही हैं, और हिन्दू राजनीति करने वाली भाजपा की अगुवाई वाला केन्द्र पर सत्तारूढ़ गठबंधन अपने तीसरे कार्यकाल में दाखिल हो चुका है, लेकिन देश में हिन्दू इतने खतरे में दिख रहे हैं, जितने खतरे में इसके पहले कभी नहीं थे।
हिन्दुस्तान के अलग-अलग राजनीतिक दलों का धर्म और साम्प्रदायिकता पर अलग-अलग रूख बड़ा साफ है, लेकिन वह चुनाव के वक्त और अधिक ईमानदारी से दिखता है। उत्तरप्रदेश में तो लोकसभा का चुनाव भी निपट गया है, और विधानसभा के चुनाव बहुत दूर हैं। ऐसे में आक्रामक हिन्दुत्व के पैरोकार, सीएम योगी आदित्यनाथ के अपने असाधारण पैमानों पर भी यह ताजा आदेश कुछ अधिक ही आक्रामक है। जो लोग पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश में भाजपा की खासी शर्मनाक पराजय का विश्लेषण कर रहे हैं, उनमें से कुछ जानकार लोगों का यह कहना है कि अपनी 60 सीटों में से 17 खो बैठे योगी एक बड़े खतरे में फंसे हुए हैं, और शायद अपने हिन्दुत्व की धार बढ़ाने के लिए उन्होंने यह नया शिगूफा छोड़ा है। उत्तरप्रदेश में खासी खलबली मची हुई है, और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस प्रदेश से लोकसभा का चुनाव लगातार लड़ रहे हैं, उस प्रदेश में अपनी ऐसी बुरी हार बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे होंगे। बनारस से उनकी अपनी लीड सदमा पहुंचाने की हद तक कम हो चुकी है, और लोकतंत्र में किसी पूरे प्रदेश में ऐसी शर्मनाक नौबत के लिए जिम्मेदार तो सीएम को ही माना जाता है। इसलिए योगी आज एक खतरे में है, और शायद ऐसे में उन्होंने अपने अस्तित्व रक्षा के लिए भी यह मुहिम शुरू की है।
अब हम मुद्दे की बात पर लौटें तो जिन लोगों को लग रहा है कि राह चलते कांवडिय़े अगर किसी मुस्लिम की दुकान से कुछ खा-पी लेंगे, तो उनसे उनका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा, तो ऐसे नाजुक धर्म की रक्षा के लिए कुछ दूसरे काम तुरंत करने चाहिए। एक तो यह कि हिन्दुओं के सारे उपवास का खाना-पीना साधारण नमक से नहीं होता, बल्कि सेंधे नमक से होता है जो कि पाकिस्तान के सिंध से आता है। उसमें जाने कितने मुस्लिमों का हाथ लगता होगा, इसलिए भी, और एक मुस्लिम देश से आ रहा है, इसलिए भी उपवास में इसका इस्तेमाल बंद कर देना चाहिए। फिर सबसे बड़ी बात यह कि हिन्दुस्तान का अधिकतर पेट्रोलियम खालिस मुस्लिम देशों से आता है, और जिनकी धार्मिक भावनाएं बहुत अधिक नाजुक हैं, उन्हें डीजल-पेट्रोल का इस्तेमाल पूरी तरह छोड़ देना चाहिए। उससे देश की विदेशी मुद्रा भी बचेगी, और दूसरी तरफ प्रदूषण भी कम होगा। ऐसे लोग भारत के अधिक परंपरागत वाहनों का इस्तेमाल कर सकते हैं, और रथ पर चलने से एक गौरवशाली इतिहास की याद भी ताजा होती रहेगी। भारत में पटाखों का कारोबार अधिकतर मुसलमानों के हाथ में है, और पटाखे जलाना भी बंद करना चाहिए, इससे एक धार्मिक मकसद भी पूरा होगा, और दूसरी तरफ प्रदूषण भी घटेगा, सुप्रीम कोर्ट भी इस खुशफहमी में जी सकेगा कि उसके फैसले और हुक्म से पटाखों पर रोक लगी है। तमाम हिन्दू शादियों में इस बात पर भी गौर करना होगा कि कपड़ों पर कसीदाकारी, उनकी सिलाई किस धर्म के हाथों ने की है, और शादी चाहे दो-चार बरस बाद हो जाए, शादी के कपड़ों पर हाथ तो अपने मनपसंद ही लगने चाहिए। फिर शादी की घोड़ी लेकर किस जात-धरम का आदमी आया है, बैंड में किस जाति के लोग हैं, कौन लोग हैं जो शामियाना खड़ा कर रहे हैं, फूलों की माला किस धर्म के हाथों से होकर आई है, किसने सुहागरात का कमरा सजाया है, इन सबकी भी दरयाफ्त कर लेना जरूरी होगा, क्योंकि बाद में पता लगा कि किसी मुस्लिम के सजाए फूलों की शेज पर हिन्दुत्व की अगली पीढ़ी का निर्माण शुरू हो जाए, तो फिर घड़ी के कांटों को वापिस लाना भी मुश्किल होगा। जो खजूर खाड़ी के मुस्लिम देशों से आता है, उसका किसी भी शक्ल में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, और अफगानिस्तान जैसे देशों से किसी वक्त काबुलीवाला मेवे लाकर बेचकर चले जाता था, अब यह चालबाजी नहीं चलने देना चाहिए। साथ-साथ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि बीफ खाने वाले डोनल्ड ट्रंप को गोली लगने पर हिन्दुस्तान में उसकी अच्छी सेहत के लिए हवन करने पर भी रोक लगना चाहिए, क्योंकि वह जब तक रहेगा, गाय खाते ही रहेगा।
बहुत से लोग सोशल मीडिया पर लिख भी रहे हैं कि महज सडक़ किनारे की दुकानों और ठेलों पर ही क्यों, अस्पताल के खून पर भी दानदाता का जात-धरम लिखना चाहिए, वरना किसी और का खून लग जाने पर बाद में पूरी जिंदगी धार्मिक भावनाओं के जख्म ही न भर पाएं। हमारा तो यह भी ख्याल है कि तमाम मंदिरों को दानपेटियां हटा देना चाहिए क्योंकि उनमें पडऩे वाले हर नोट और सिक्के जाने कितने ही विधर्मियों के हाथों से होकर आए होंगे, और जाने कितने ही मुस्लिम-ईसाईयों ने उन नोटों को गिनते हुए उन पर थूक भी लगाया होगा। ऐसे पैसे को मंदिर में घुसने देना, कम से कम यूपी और उत्तराखंड के लिए तो ठीक नहीं है, और इस बात को तो बिना देर किए लागू किया जा सकता है। फिर इन प्रदेशों में सिर्फ सडक़ किनारे के दुकानदारों का धरम उनके बोर्ड पर लिखवाना काफी नहीं है, हो सकता है कि कांवडिय़ों के आगे-आगे कोई गैरहिन्दू सडक़ पर चलकर जा रहा हो, और उसकी धूल पर कांवडिय़ों का पैर पड़ रहा हो, ऐसे में कांवडिय़ों के आगे मीलों तक सडक़ को धुलवाना भी चाहिए, और आगे चलने वाले लोगों के लिए भी कपड़ों के सीने पर नाम की तख्ती लगाना जरूरी करना चाहिए, वरना धार्मिक भावनाएं बहुत बुरी तरह आहत हो सकती हैं। साथ-साथ धर्मालु हिन्दुओं को अमरनाथ, वैष्णो देवी, या बद्री-केदार जैसे तीर्थों पर जाते हुए मुस्लिम कंधों पर लदकर चलने वाली पालकी पर नहीं बैठना चाहिए, और इसके साथ-साथ उनके हांके जाने वाले खच्चर-घोड़ों पर भी। धार्मिक भावना सबसे बड़ी चीज है, उसे आहत होने से बचाने की हर कोशिश करनी चाहिए।
हम तो हिन्दुस्तान के सुप्रीम कोर्ट को देखकर हैरान हैं जो कि एक जुबानी जमाखर्च के अंदाज में हेट-स्पीच के खिलाफ एक बड़ी कड़ी बात कहकर फिर मानो उसे भूल ही गया है। उसके बाद से अब तक हजारों नेताओं ने तरह-तरह की नफरती बातें कही हैं जो कि कैमरों पर दर्ज हैं, और जिनका चुनावी इस्तेमाल भी किया जा चुका है। इसके बाद से सुप्रीम कोर्ट इस पर सब कुछ देखते-सुनते हुए भी चुप बैठा है जिस तरह घर में रिटायर्ड बूढ़े अपने आखिरी बरस गिनते हुए बड़बड़ाते भी रहते हैं, और लोगों के अनसुना करने पर चुप भी रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपना कुछ वैसा ही हाल बना रखा है। वरना हिन्दुस्तान में आज हेट-स्पीच तो बहुत पीछे रह गई, बहुत नीचे छूट गई, अब तो यहां हेट-हरकतें चल रही हैं। गाय बचाने के नाम पर इंसानों को थोक में मारा जा रहा है, और इससे किसी अदालत की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ रहा। फिलहाल यह उम्मीद की जानी चाहिए कि डीजल-पेट्रोल के बहिष्कार से, पटाखों और आतिशबाजी के बहिष्कार से देश में प्रदूषण घटेगा, और हिन्दुओं की सेहत सुधरेगी। इससे खाड़ी के मुस्लिम देशों की अर्थव्यवस्था चौपट भी होगी, और हिन्दुस्तान के बहुसंख्यक-हिन्दुओं का खासा पैसा भी बचेगा।
-सुनील कुमार
संसद में नए सांसदों के शपथ ग्रहण के दौरान जब देश की एक मुस्लिम पार्टी एआईएमआईएम के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी ने शपथ के तुरंत बाद जय भीम, जय तेलंगाना, जय फिलीस्तीन का नारा लगाया, तो भाजपा के सांसदों ने इस पर आपत्ति की, और आसंदी पर बैठे राधा मोहन सिंह ने कहा कि विवादास्पद नारे को संसद के रिकॉर्ड से हटा दिया जाएगा। सदन में कुछ मिनट तक ओवैसी के जय फिलीस्तीन के नारे पर हंगामा चलते रहा। इस पर ओवैसी का कहना था कि उन्होंने संविधान का कोई उल्लंघन नहीं किया। उन्होंने कहा कि अन्य सदस्यों ने भी कई तरह की बातें कही है, जाहिर है कि वे कई सदस्यों के धर्म और हिन्दू राष्ट्र के नारों के बारे में बोल रहे थे। सदन के बाहर ओवैसी ने यह साफ किया था कि उन्होंने फिलीस्तीनियों का जिक्र इसलिए किया कि आज वे जुल्म के शिकार हैं। फिलीस्तीन के उनके जिक्र को लेकर देश में कई लोगों ने एक हस्ताक्षर अभियान शुरू किया जिसमें यह मांग की गई कि उनकी संसद की सदस्यता खत्म की जाए। ओवैसी का ऐसी तमाम बातों पर यही कहना था कि महात्मा गांधी ने फिलीस्तीन के बारे में क्या कहा था, यह पढऩा चाहिए। यह इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है कि गांधी फिलीस्तीन के हक के हिमायती थे।
उस वक्त हमने इस बात पर नहीं लिखा था, जब संसद में शपथ ग्रहण हुई थी। लेकिन कल मुहर्रम के जुलूसों में कहीं-कहीं फिलीस्तीन का झंडा लहराया गया, तो इस पर मध्यप्रदेश के खंडवा सहित कुछ और जगहों पर बजरंग दल के लोगों ने शिकायत की कि ताजिये के जुलूस में कोई फिलीस्तीनी झंडा लेकर घूम रहा था, इस पर कड़ी कार्रवाई की जाए। उन्होंने इसे देशद्रोह करार दिया, और कहा कि पूरे देश में ऐसा किया गया है। कार्रवाई की खबरें कई जगहों से आईं, और कुछ जगहों पर तो लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया, जिनमें बिहार भी शामिल है जहां पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जेडीयू को मुस्लिमों के प्रति हमदर्दी रखने वाला माना जाता था। इस बारे में बिहार के एक नेता, भाकपा-माले के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने कहा है कि फिलीस्तीन का झंडा फहराना अपराध नहीं है। वहां एक लाख से अधिक लोगों की मौत हुई है, उनका समर्थन करना मानवता की मांग है।
जो लोग फिलीस्तीन के नारे या फिलीस्तीन के झंडे को देशद्रोह करार दे रहे हैं उन्हें गांधी ने 1938 में अपने अखबार में एक संपादकीय में लिखा था- यहूदियों के साथ गहरी मित्रता भी मुझे न्याय देखने से नहीं रोक सकती है, इसलिए फिलीस्तीन की जमीन पर यहूदियों की अपने राष्ट्रीय घर की मांग मुझे जंचती नहीं है। इसके लिए बाइबिल का आधार ढूंढा जा रहा है, और फिर उसके आधार पर फिलीस्तीनी इलाके में लौटने की बात उठाई जा रही है। गांधी ने आगे लिखा- लेकिन जैसा दुनिया में सभी लोग करते हैं, वैसा ही यहूदी भी क्यों नहीं कर सकते कि वे जहां जनमें हैं, और जहां से अपनी रोजी-रोटी कमाते हैं उसे ही अपना घर मानें। गांधी का कहना था फिलीस्तीन की जगह उसी तरह अरबों की है जिस तरह इंग्लैंड अंग्रेजों का है, और फ्रांस फ्रांसीसियों का। उन्होंने लिखा यह भी गलत होगा, और अमानवीय भी, कि यहूदियों को अरबों (फिलीस्तीनियों) पर जबरन थोप दिया जाए। अगर यहूदियों को फिलीस्तीन की जगह ही चाहिए, तो क्या उन्हें यह अच्छा लगेगा कि दुनिया की उन सभी जगहों से उन्हें जबरन हटाया जाए जहां पर वे आज हैं, या कि वे अपने मनमौज के लिए अपने दो घर चाहते हैं?
यह अकेला मौका नहीं था जब गांधी ने फिलीस्तीनियों के हक की वकालत करते हुए इजराइलियों की जमकर आलोचना की थी। लेकिन हिन्दुस्तान में जो तबका आज फिलीस्तीनी झंडों को देशद्रोह बता रहा है, और इस देश की कई मूढ़ राज्य सरकारें फिलीस्तीनी झंडे पर लोगों को गिरफ्तार कर रही हैं, वे शायद गांधी के बारे में सुनना भी नहीं चाहेंगी। बजरंग दल, और ऐसे दूसरे संगठन तो बिना फिलीस्तीनी झंडे के भी महज यह पता लगने पर कि गांधी ने फिलीस्तीन का साथ दिया था, वे पल भर में फिलीस्तीनी-विरोधी हो सकते हैं। लेकिन उनके साथ एक सबसे बड़ी सहूलियत यह है कि उन्हें सच्चे इतिहास को पढऩे की जहमत नहीं उठानी पड़ती। इसीलिए फिलीस्तीनी झंडे को देशद्रोह बताने वाले मूढ़ लोगों को यह नहीं पता है कि भाजपा के इतिहास के सबसे बड़े सर्वमान्य नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री की हैसियत से एक भीड़भरी आमसभा में मंच से माईक पर कहा था- एक गलतफहमी यह पैदा की जा रही है कि जनता पार्टी की सरकार बन गई, वह अरबों का साथ नहीं देगी, इजराइल का साथ देगी। प्रधानमंत्री मोरारजी भाई इस बात को स्पष्ट कर चुके हैं, मैं स्थिति को स्पष्ट करने के लिए कहना चाहता हूं कि मध्य-पूर्व के बारे में यह स्थिति साफ है कि अरबों की जिस जमीन पर इजराइल कब्जा करके बैठा है, वह जमीन उसको खाली करनी होगी। (वाजपेयी की इस बात पर आमसभा में जमकर तालियां बजती हैं) उन्होंने आगे कहा- आक्रमणकारी आक्रमण से मिले फायदों का उपभोग करे, यह हमें अपने संबंध में स्वीकार नहीं है, तो जो नियम हम पर लागू है, वह औरों पर भी लागू होगा। उन्होंने आगे कहा- अरबों की जमीन खाली होना चाहिए, जो फिलीस्तीनी हैं उनके जायज हक कायम किए जाएं। मध्य-पूर्व का एक ऐसा हल निकालना पड़ेगा जिसमें आक्रमण से पैदा हुई नौबत वापिस की जाए।
फिलीस्तीन दुनिया के मंच पर हमेशा से हिन्दुस्तान का हिमायती रहा है, और हाल के बरसों तक हिन्दुस्तान की खास हमदर्दी फिलीस्तीन के साथ बनी हुई थी। हाल के बरसों में, भारत इजराइल के कुल निर्यात का सबसे बड़ा इम्पोर्टर बन गया है, और ये कारोबारी रिश्ते भारत को एक गरीब फिलीस्तीन से कुछ दूर ले गए हैं। फिर भी भारत इस इजराइली हमले के बीच भी फिलीस्तीनियों को कुछ मदद भेज चुका है। फिलीस्तीन भारत का शत्रु राष्ट्र नहीं है कि जिसके झंडे फहराने को भारत में देशद्रोह कहा जाए। दुनिया मेें बड़े-बड़े खेलों के मुकाबलों में कई देशों की टीमों ने फिलीस्तीनियों के झंडे उठाए हुए स्टेडियम में प्रदर्शन किए हैं, कई टीमों ने अपनी जर्सी पर एक के अंक को फिलीस्तीन की गाजा पट्टी के नक्शे की तरह का बनाया है, और अमरीका के दो दर्जन विश्वविद्यालय सहित पश्चिम के कई लोकतंत्रों में फिलीस्तीन के समर्थन में, और इजराइल के खिलाफ जमकर प्रदर्शन हुए हैं। जाहिर तौर पर फिलीस्तीन में मरने वाले तकरीबन तमाम लोग मुस्लिम हैं, इसलिए दुनिया के मुस्लिमों की एक स्वाभाविक हमदर्दी फिलीस्तीनियों के साथ है, लेकिन मुस्लिमों से परे भी सभी धर्मों के लोग, खुद इजराइल के यहूदी लोगों में से बहुत से प्रमुख लोग भी फिलीस्तीनियों के जनसंहार के खिलाफ खड़े हुए हैं। ऐसे में अगर मुस्लिमों के एक मातमी त्यौहार मुहर्रम पर अगर फिलीस्तीन के झंडे फहराए गए, तो यह न तो देशद्रोह है, न भारत की सरकार का कोई विरोध है, न यह भारत की घरेलू राजनीति का कोई मुद्दा है। अगर हिन्दुस्तान के लिए वफादार होने का मतलब बाकी दुनिया के सबसे बड़े जुल्मों से अपने आपको जुदा रखना है, तो इसका मतलब तो हिन्दुस्तान को जुल्मों का हिमायती और भागीदार ठहराना हो जाएगा। कोई भी जिम्मेदार लोकतंत्र दुनिया के इतने बड़े मुद्दों से अपने को अलग रखकर अछूते नहीं बैठे रह सकते। आज की दुनिया में जो जिम्मेदार देश हैं, उनमें दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील सरीखे देश अंतरराष्ट्रीय अदालतों में इजराइल के खिलाफ गए हैं कि वहां के प्रधानमंत्री को युद्ध अपराधी घोषित करके उसके खिलाफ अंतरराष्ट्रीय गिरफ्तारी वारंट निकाला जाए। इन दोनों ही देशों में कोई मुस्लिम आबादी नहीं है, इनका फिलीस्तीन से कोई कारोबारी रिश्ता भी नहीं है, लेकिन ये देश जिम्मेदार लोकतंत्र हैं। फिलीस्तीन के मुद्दे पर अपने होंठ सिलकर रखने वाले देशों और लोगों को अपने बारे में आईने में देखते हुए खुद सोचना चाहिए। फिलहाल हम उन सरकारों की अक्ल पर तरस खाते हैं जिन्होंने फिलीस्तीन का झंडा फहराने पर मुकदमे दर्ज किए हैं, और गिरफ्तारियां की हैं। ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान के कई प्रदेश आज इंसानियत की जिम्मेदारी निभाने को देशद्रोह मान रहे हैं, और उनमें इतनी समझ तो है नहीं कि ऐसा मानते हुए वे अपने देश को कैसा साबित कर रहे हैं। पिछले पौन बरस में 38 हजार से अधिक फिलीस्तीनियों को इजराइली फौजी हमलों में मार डाला गया है, जिनमें अधिकतर औरत-बच्चे हैं। इस पर भी अगर हिन्दुस्तान में कुछ आंखों में आंसू, और हाथों में फिलीस्तीनी झंडे देखना भी कुछ धर्मान्ध और साम्प्रदायिक लोगों को बर्दाश्त नहीं है, तो ये लोग गांधी के देश के तो हैं ही नहीं, ये लोग अटल बिहारी वाजपेयी के देश के भी नहीं हैं।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया में धर्म का इतिहास कुछ हजार साल या हजारों सालों का है, और लोकतंत्र का इतिहास शायद उतनी ही सदियों का है। संसदीय परंपरा वाले आधुनिक लोकतंत्र की पहली शकल कोई चार सौ बरस पहले बनी, और अभी महज पौन सदी पहले हिन्दुस्तान ने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली की तर्ज पर भारत की संसदीय व्यवस्था कायम की। ब्रिटेन शायद स्वाभाविक मिसाल इसलिए भी था कि अंग्रेजों का गुलाम रहते हुए हिन्दुस्तान के कुलीन तबकों ने अंग्रेजी ही पढ़ी थी, और ब्रिटिश व्यवस्था को ही करीब से देखा था जो कि बहुत हद तक हिन्दुस्तान में भी लागू रही। उसी वक्त के चले आ रहे कानून अभी कुछ महीने पहले तक इस देश में लागू थे। लेकिन हम अंग्रेजी राज या ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था पर बात करना नहीं चाहते। हमारा यह सोचना है कि हजारों बरस के संगठित धर्म से एक किस्म से उबरकर लोकतंत्र ने अपना अस्तित्व पिछले कुछ सौ सालों में बनाया था, और आज हिन्दुस्तान सहित दुनिया के कई देशों में धर्म एक बार फिर लोकतंत्र पर काबिज हो रहा है। हिन्दुस्तान की बात तो खुलासे से होते ही रहती है, अमरीका को अगर देखें, तो वहां पर चर्च के असर वाली, महिलाओं को गर्भपात के हक से वंचित करने वाली रिपब्लिकन पार्टी की जीत का आसार एक बार फिर दिख रहा है। योरप के बहुत से देशों में यूरोपीय संसद के चुनावों में धर्म के अधिक करीब रहने वाले दक्षिणपंथियों को कामयाबी मिली है, और इनसे परे का इजराइल अपने अस्तित्व की आज की सबसे अधिक संकीर्णतावादी पार्टी के गठबंधन वाली सरकार से चल रहा है।
हम कुछ अधिक करीब और हिन्दुस्तान की बात करें, तो पिछले दस बरस से अधिक का वक्त हो गया है, हिन्दुस्तान के संसदीय चुनाव, और राज्यों के विधानसभा चुनावों में से अधिकतर का हाल धार्मिक जनमत संग्रह किस्म का रहा है। भाजपा की अगुवाई में एनडीए ने खुलकर एक धर्म का राज कायम करने की कोशिश की, उसके लिए सब कुछ किया, देश में हिन्दुओं को असल नागरिक जैसा आत्मविश्वास दिया, और मुस्लिमों से, ईसाईयों से, और हिन्दू समाज के भीतर भी दलित-आदिवासियों से भारत का नागरिक होने का गौरव एक किस्म से छीन लिया। भारत के अल्पसंख्यकों को हाल के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री ने घुसपैठिया करार दिया, और आज जगह-जगह सवर्ण हिन्दुओं को छोडक़र अधिकतर दूसरे लोगों में तरह-तरह की बेचैनी और असुरक्षा गहरे बैठी हुई दिखती है। सत्तारूढ़ भाजपा के बहुत से नेता हिन्दू राष्ट्र का फतवा देते हैं, और कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का यह भी मानना है कि हाल के लोकसभा चुनाव में भाजपा को एक बड़ा नुकसान इसलिए भी झेलना पड़ा कि वोटरों के बीच यह आशंका फैल गई थी कि चार सौ-पार सीटें पाकर भाजपा संविधान बदल देना चाहती है। जिस आजादी की 75वीं सालगिरह का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है उस आजादी की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद ही धार्मिक ध्रुवीकरण से खोखली कर दी जा रही है। आज स्कूलों के पाठ्यक्रम से लेकर विश्वविद्यालयों की पढ़ाई तक, सडक़ और शहर के नामकरण से लेकर संसद के नए भवन के उद्घाटन के रीति-रिवाज तक, भारत के एक हिन्दू राष्ट्र होने का अहसास कदम-कदम पर, पल-पल पर करवाया जा रहा है।
अब अगर हम पाकिस्तान में लोकतंत्र पर धर्म के दबदबे को देखें, अफगानिस्तान में नामौजूद लोकतंत्र पर हावी धार्मिक कट्टरता को देखें, एक वक्त के आधुनिकता में जीने वाले ईरान में धार्मिक कट्टरता को देखें, या अमरीका में सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा जजों द्वारा महिलाओं से गर्भपात के अधिकार को छीनना देखें, तो यह लगता है कि हजारों बरस की अपनी सत्ता को धर्म कुछ सौ बरस लोकतंत्र के हाथ कुछ हद तक छिन जाने के बाद अब फिर लौटकर उस पर हावी हो रहा है। कुछ उसी तरह कि मानो ट्रेन का कोई मुसाफिर दो स्टेशन पार होने के बाद अपनी पिछली सीट पर लौटे, और वहां बैठ गए मुसाफिर को धकियाकर फिर काबिज हो जाए। इतने किस्म की मिसालें दुनिया में जगह-जगह देखने मिल रही हैं कि धर्म की वापिसी का एक ऐसा दौर आया हुआ है जो लोकतंत्र को परदेसिया की तरह धकेलकर बाहर करना चाहता है। और लोकतंत्र को बाहर करने के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं को पूरी तरह से खत्म करना भी जरूरी नहीं रहता, बल्कि यह एक अलग इज्जत की नौबत रहती है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं के ढांचे खड़े रहें, और उनकी आत्मा पर बहुसंख्यक तबके के धर्म का कब्जा हो जाए। संविधान की प्रति बनी रहे, लेकिन संसद में राजशाही के दौर के प्रतीक सेंगोल को भी स्थापित कर दिया जाए।
दुनिया में जाने कितनी ही ऐसी मिसालें हैं जो बताती हैं कि जब लोकतंत्र पर धर्म को हावी होने दिया जाता है, तो कैसी तबाही होती है। दुनिया के कई देश अपनी धर्मान्धता के चलते भुखमरी की कगार पर पहुंचे हुए हैं, अंतरराष्ट्रीय मदद से उसकी आबादी का एक हिस्सा जिंदा रह पा रहा है, लेकिन वहां पर धार्मिक आतंक का राज कायम है। और इसमें हैरानी की भी कोई बात नहीं है, क्योंकि लोकतंत्र कायम होने के बाद भी अगर देश पर, सरकार पर धर्म का बोलबाला कायम रहता है, तो वह लोकतंत्र को खत्म करने की कीमत पर ही हो सकता है। बात कहने में कुछ लोगों को अटपटी लग सकती है, लेकिन जब कभी कोई नाजुक नौबत आती है, और किसी धार्मिक मुद्दे, और किसी लोकतांत्रिक मुद्दे के बीच टकराव होता है, तो यह बात साफ समझ पड़ती है कि धर्म और लोकतंत्र का सहअस्तित्व टकराव की नौबत के पहले तक ही चल सकता है। आज का हिन्दुस्तान इस बात की बेहतरीन मिसाल बना हुआ है कि लोकतंत्र पर हावी धर्म किस रफ्तार से न सिर्फ लोकतंत्र को कुचलता है, बल्कि ऐसे लोकतंत्र में जीने वाले लोगों की वैज्ञानिक समझ को भी कुचलता है। धर्म और लोकतंत्र की यह बहस बड़ी जटिल है, और हम इस सीमित जगह में इस पर बड़ी लंबी बहस नहीं कर पा रहे हैं। लेकिन जहां कहीं धर्म हावी होगा वह उस देश-प्रदेश को लोकतंत्र के पहले के दिनों में ले जाएगा, जैसे तालिबान ने अफगानिस्तान को हजारों बरस पहले के दिनों में पहुंचा दिया है। धर्म के सामने इंसाफ, औरत-मर्द की बराबरी, धर्म, जाति, रंग, नस्ल के भेदभाव से मुक्ति जैसी कोई नैतिक चुनौती नहीं रहती है। धर्म इन्हीं तमाम बातों की लाशों की बुनियाद पर खड़ी इमारत रहता है। दुनिया के लोकतंत्र को यह सोचना चाहिए कि वे लोकतंत्र के साथ आगे बढऩा चाहते हैं, या धर्म के साथ रिवर्स गियर में गुफाओं में लौटना चाहते हैं?
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत को 2047 तक विकसित देश बनाने की घोषणा कर चुके हैं। यह एक अलग बात है कि डॉ.मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए देश की किसी एक बड़ी प्राकृतिक आपदा के समय जब दुनिया के दूसरे देशों ने मदद भेजनी चाही थी, तो भारत ने यह कहते हुए उसे विनम्रता से अस्वीकार कर दिया था कि भारत अब एक विकसित देश है, और किसी आपदा से निपटने की उसकी पर्याप्त क्षमता है। हो सकता है कि वह बात सिर्फ उस मदद के संदर्भ में हो, और मोदी की 2047 की सोच देश के विकसित होने का कोई अलग पैमाना हो। फिलहाल यह भी समझने की जरूरत है कि मोदी सरकार दो कार्यकाल पूरी कर चुकी है, तीसरा कार्यकाल शुरू हो चुका है, और 2047 इसके बाद कम से कम तीन कार्यकाल पार करने पर आएगा। इस हिसाब से 2047 का सपना 2014 से शुरू होकर 2047 तक चलेगा जो कि देश की आजादी के सौ बरस पूरे होने का मौका भी रहेगा। जाहिर है कि भाजपा और एनडीए के जो राज्य हैं वहां भी 2047 को लेकर एक चर्चा शुरू हुई है कि उसकी तैयारी के लिए क्या-क्या किया जा सकता है।
छत्तीसगढ़ में कल राज्य नीति आयोग की तरफ से एक कार्यक्रम किया गया जिसमें बहुत से अलग-अलग तबके के लोगों से राज्य सरकार ने सलाह मांगी। इसमें मोटेतौर पर मुख्यमंत्री विष्णु देव साय, और नौजवान वित्तमंत्री ओ.पी.चौधरी प्रमुख थे जिन्होंने कार्यक्रम में कुछ कहा भी, और अधिक सुना भी। अगर एक औपचारिकता से परे यह एक गंभीर कोशिश है, तो फिर इसका विस्तार किसी सभागृह के कार्यक्रम से ऊपर उठकर सोशल मीडिया, और ऑनलाईन भी होना चाहिए ताकि जो लोग मौके पर न पहुंच सकें, वे भी अपनी सोच सरकार के सामने रख सकें। हम भी काफी समय से छत्तीसगढ़ को देखते आए हैं, और इस राज्य को अगर आजादी की सौवीं सालगिरह पर एक विकसित प्रदेश बनाना है, तो कुछ बातों के बारे में सोचना चाहिए।
हमारा ख्याल है कि एक खनिज राज्य होने की वजह से और साथ-साथ कृषि प्रधान होने की वजह से छत्तीसगढ़ में रोजगार खासा उपलब्ध है, और अब रोजगार की कमी से प्रदेश छोडक़र बाहर जाने की मजबूरी लोगों के सामने नहीं है। यह जरूर हो सकता है कि अभी भी कुछ इलाकों से लोग परंपरागत तरीके से हर बरस बाहर जाते हैं क्योंकि वहां पर शायद ठेके पर काम करके वे यहां मिलने वाली मजदूरी से कुछ अधिक कमाई कर पाते हैं। इसका एक मतलब यह भी है कि छत्तीसगढ़ में अभी लोगों की मजदूरी देश के कई दूसरे हिस्सों के मुकाबले कम है। हमारा ख्याल है कि छत्तीसगढ़ में खेतिहर मजदूर, खदान, और औद्योगिक मजदूर, सडक़ और निर्माण मजदूर जैसे रोजगार के साथ-साथ मनरेगा जैसी सरकारी रोजगार योजनाओं में काफी लोगों को काम मिलता है, लेकिन इनमें से अधिकतर काम अकुशल (अनस्किल्ड) दर्जे के हैं जिनमें प्रति व्यक्ति मजदूरी बड़ी सीमित है। और सरकार ने प्रदेश में जो न्यूनतम मजदूरी तय कर रखी है, उतनी मजदूरी भी निजी क्षेत्र में, और खेतों में कहीं नहीं मिल पाती। नतीजा यह है कि आबादी का तकरीबन तमाम कामकाजी हिस्सा बहुत कम मजदूरी पर काम करता है, और उसे न तो बेरोजगार कहा जा सकता, न ही उसकी कमाई उसे निम्न-मध्यम वर्ग तक पहुंचा पाती। इसलिए आय के पिरामिड में अगर देखें, तो नीचे का आधा हिस्सा ऐसे ही लोगों का दिखता है जो कि सरकारी रेट से न्यूनतम मजदूरी भी नहीं पाते हैं। सरकार को अगर इस प्रदेश को विकसित बनाने की कोशिश करनी है, तो उसे दक्षिण के राज्यों से सीख लेनी पड़ेगी कि लोगों को हुनर सिखाने, कामचलाऊ अंग्रेजी भाषा सिखाने, और काम की क्वालिटी में उत्कृष्टता लाने के लिए क्या किया जा सकता है? आज छत्तीसगढ़ से बाहर जाकर काम करने वाले गिने-चुने कामयाब लोगों की बात छोड़ दें, तो आबादी का अधिकतर हिस्सा अकुशल मजदूर से बेहतर नहीं है, और जब प्रति व्यक्ति आय इतनी कमजोर रहती है, तो प्रदेश खनिज रायल्टी के बावजूद विकसित नहीं हो सकता। आज भी छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था में उस खनिज रायल्टी का सबसे बड़ा योगदान है जिसमें यहां के लोगों का योगदान नहीं है, वह बस धरती की मुहैया कराई गई संपत्ति है जिसका दोहन करके छत्तीसगढ़ एक ठीकठाक अर्थव्यवस्था वाला राज्य बना हुआ है। इस राज्य को यह सोचने की जरूरत है कि खनिजों को छोडक़र खुद इंसान की खड़ी की हुई अर्थव्यवस्था में ऐसा क्या किया जा सका है, जिससे कामगारों की मेहनत से प्रदेश की कमाई हो सके? आज तो खनिजों की वजह से यह प्रदेश धान की फसल खरीदने में लोगों को एक ऐसी सब्सिडी दे पा रहा है कि जिसकी वजह से खेती फायदे का काम हो सका है, और खेतिहर मजदूर की मजदूरी भी थोड़ी सी बढ़ सकी है। इसके बावजूद यह प्रदेश दूसरे प्रदेशों को ईंट भट्ठा, और निर्माण के मजदूर ही भेज पाता है। यह किसी विकसित देश की पहचान नहीं है। अभी पिछले ही हफ्ते भारत का वित्त आयोग छत्तीसगढ़ आया हुआ था, और राज्य सरकार ने उससे जब छत्तीसगढ़ के विकास के लिए स्पेशल फंड की मांग की, तो वित्त आयोग के मुखिया बोले कि अपने लोगों को हुनर सिखाइए, उन्हें स्किल्ड कीजिए।
वित्त आयोग अध्यक्ष की बात एकदम सही थी, धरती की दी गई दौलत के दोहन से रोजाना का काम ठीकठाक चलाने वाले प्रदेश को अपने कामगारों की अधिक उत्पादकता की कोशिश भी करनी चाहिए। बरसों से एक नारा चले आ रहा है जो कि सर्वदलीय है, छत्तिसगढिय़ा सबले बढिय़ा। लेकिन सवाल यह है कि अगर राज्य के अधिकतर रोजगार सिर्फ मजदूरी और मजदूर दर्जे के हैं, तो क्या ऐसे मजदूरों को सबसे बढिय़ा कहा जाना जायज है? यह बात समझने की जरूरत है कि इसी देश में कई ऐसे प्रदेश हैं जहां से कामगार दुनिया के दर्जन भर विकसित देशों में जाकर हिन्दुस्तानियों की अच्छी पहचान बना चुके हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ से इक्का-दुक्का लोगों को छोड़ दें, तो आजादी से लेकर अब तक इस इलाके से विदेश में किसी कामकाज के लायक किसी को तैयार नहीं किया जा सका है। खासकर राज्य सरकार की कोशिशों से परे के एक छोटे से औद्योगिक शहर भिलाई को देखें, तो वहीं से पढ़ाई-लिखाई में कामयाब होकर कुछ बच्चे बाहर पढऩे जाते हैं, और फिर बेहतर ऊंची पढ़ाई करके वे दुनिया के विकसित देशों में बेहतर संभावनाएं पाते हैं। लेकिन आज जब दुनिया के दर्जनों देश कामगारों की कमी का शिकार है, वे दूसरे देशों के लोगों को काम करने के लिए आने देने को मजबूर हैं, तब भी छत्तीसगढ़ में रोजगार और कामगार की उम्र वाले नौजवानों को किसी अंतरराष्ट्रीय मोर्चे के लायक तैयार नहीं किया जा सका है। राज्य सरकार को अगर 2047 तक के अगले 20-22 साल का बेहतर इस्तेमाल करना है, तो वह छत्तीसगढ़ में मानव संसाधन के विकास की बड़ी मेहनत करके ही हो सकता है। छत्तीसगढ़ की नौजवान पीढ़ी को अंतरराष्ट्रीय मुकाबले में कई देशों में जाकर कई तरह के हुनर के काम करने के लायक कैसे तैयार किया जा सकता है, यह इस राज्य की किसी भी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती रहेगी। हम बीते बरसों में भी इस बात पर जोर देते आए हैं कि छत्तिसगढिय़ा को महज मजदूर बनाकर यह तसल्ली पा लेना कि वह बेरोजगार नहीं है, बड़ी ही निराशा की नौबत है। कामयाबी तो तब होगी जब यहां की नौजवान-कामगार पीढ़ी, बेहतर हुनर के साथ अधिक तनख्वाह, या मेहनताने का काम करेगी। आज दुनिया में संभावनाएं करोड़ों की संख्या में बिखरी हुई हैं, भारत की कुछ राज्य सरकारें इनका दोहन करने में बहुत कामयाब भी हैं, और वहां पर बाहर गए हुए लोगों की भेजी गई कमाई अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा है। छत्तीसगढ़ को भी और कई किस्म के कामों के साथ-साथ एक बड़ा काम यह भी करना चाहिए कि अपनी नौजवान पीढ़ी को अंतरराष्ट्रीय जरूरतों के मुताबिक बहुत ही उत्कृष्टता वाले हुनरमंद बनाकर उन्हें दुनिया भर में पहुंचाने का काम भी करना चाहिए। कोई हमसे पूछेगा तो राज्य बनने के बाद के तकरीबन चौथाई सदी के इतिहास में कई अच्छे नेता और अफसर इस राज्य में रहे, लेकिन इस मोर्चे पर कोई भी पहल हमें याद नहीं पड़ती। देखते हैं आज की भाजपा सरकार, मुख्यमंत्री विष्णु देव साय, और नौजवान वित्तमंत्री ओ.पी.चौधरी इस बारे में क्या कर सकते हैं।
महाराष्ट्र की एक आईएएस ट्रेनी अफसर का मामला और रहस्यमय होते चल रहा है। कलेक्ट्रेट में ट्रेनिंग के दौरान डॉ.पूजा खेडक़र ने जितने किस्म की सहूलियतें मांगी थीं, और जितना अहंकार साथी अफसरों पर दिखाया था, उनके पिता ने जिले के अफसरों को जितना धमकाया था, उन सबके चलते हुए उन्हें तबादले पर एक दूसरे जिले में डाल दिया गया है। अब जब इस युवती की जांच चल रही है, तो कई किस्म के खुलासे हो रहे हैं कि वह जिस तरह से विकलांग कोटे में आईएएस में आई थी, वह रियायत भी संदिग्ध थी, और शायद झूठे आधार पर उसे पाया गया था। इस युवती की मेडिकल फाईल अस्पताल से गायब है, और जब जांच खुल रही है तो तमाम किस्म की बातें अब कसौटी पर कसी जा रही हैं। यह भी सामने आ रहा है कि पिता के आईएएस होते हुए भी पूजा खेडक़र ने ओबीसी कोटे में क्रीमीलेयर से बाहर होने का सर्टिफिकेट जमा किया था, जबकि आईएएस की सालाना तनख्वाह के हिसाब से उसकी बेटी को क्रीमीलेयर में आना चाहिए, और आरक्षण का हकदार नहीं होना चाहिए। लगे हाथों अब ऐसे वीडियो भी सामने आए हैं कि पूजा खेडक़र की मां जमीन के किसी विवाद में दूसरे लोगों को हाथ में पिस्तौल लेकर धमका रही हैं, और इसे देखकर पुलिस अब उसे तलाश रही है, और एक खबर के मुताबिक वह फरार है।
हम इस घटना पर अधिक लिखना नहीं चाहते क्योंकि इस आईएएस प्रशिक्षणार्थी ने जो बददिमागी दिखाई थी उसे लेकर हम अफसरशाही के तौर-तरीकों पर दो-चार दिन पहले ही लिख चुके हैं। लेकिन हम आज जिंदगी के एक दूसरे पहलू पर लिखना चाहते हैं कि किस तरह एक परेशानी में फंसने पर दूसरी भी कई किस्म की परेशानियां सामने आती हैं। कहते हैं कि मुसीबत सहेलियों सहित आती है। लोगों को याद रखना चाहिए कि अगर सरकार का कोई टैक्स विभाग किसी कारोबारी की एक जांच शुरू करता है, तो फिर वह जांच बढ़ते-बढ़ते कई तरह से और कई तरफ से घेराबंदी करने लगती है। इसलिए बेहतर नौबत यही रहती है कि मुसीबत में फंसने से बचना चाहिए, और बिल्ली को रसोई में दूध का बर्तन देखने नहीं देना चाहिए।
जिंदगी में कई जगह यह देखने मिलता है कि लोग जब किसी एक परेशानी में फंसते हैं, तो उनके बाकी पहलू भी जांच के घेरे में आने लगते हैं, और इन सबसे एक साथ निपट और निकल पाना अधिकतर लोगों के लिए मुमकिन नहीं होता है। इसलिए सरकारी सेवा, या सार्वजनिक जीवन में रहने वाले लोगों के लिए बेहतर और समझदारी की बात यही होती है कि वे किसी गैरजरूरी विवाद में न फंसें। अब जैसे इसी आईएएस युवती की बात करें, तो अगर वह अपने वरिष्ठ अधिकारियों और सहकर्मियों से बदसलूकी नहीं करती, उसके रिटायर्ड पिता फोन करके सरकारी अमले को नहीं धमकाते, तो हो सकता है कि मां की पिस्तौल की बात भी खप जाती, और इस लडक़ी के विकलांगता प्रमाणपत्र का मामला, या इसके ओबीसी क्रीमीलेयर का विवाद भी दबे रह जाता। लोगों को जब यह भरोसा रहता है कि वे किसी एक बखेड़े में उलझकर उससे ऊबर सकते हैं, तो वे इस बात को भूल जाते हैं कि यह पहला बखेड़ा कई दूसरे और तीसरे नंबर के बखेड़े भी खड़े कर देता है।
जिंदगी में सयाने, और समझदार लोग विवाद में पडऩे से बचने के बारे में कई किस्म की बातें कहते आए हैं। उसमें जिंदगी की समझदारी भी रहती है कि जिस विवाद से कुछ ठोस हासिल न हो रहा हो, उसमें पडऩे से पहले संभावित खतरों और नुकसान के बारे में जरूर सोच लेना चाहिए। इसकी एक छोटी सी मिसाल यह है कि जब जहां चार लोग बैठकर गप्पें मारते रहते हैं, वहां लोग अपनी बात दूसरों को सुनाने के लिए कई बार बड़ी सनसनीखेज बात कहने लगते हैं, जो कि सच भी हो सकती है, और अफवाह भी। लेकिन वहां जो मौजूद नहीं हैं, उनके बारे में कोई आपत्तिजनक, अपमानजनक, और सनसनीखेज बात कहने पर लोग कुछ पल के लिए तो आपको ध्यान से सुनने लगते हैं, लेकिन उसके बाद आपकी कही यह बात हमेशा के लिए आपके नाम के साथ दर्ज हो जाती है, और मौजूद लोग संबंधित व्यक्ति को भी जाकर बताते हैं कि उसके बारे में आप क्या कह रहे थे। बिना किसी फायदे के आपकी जुबान आपका बड़ा नुकसान करती है। अपने आपको चोट पहुंचाने का काम किसी धारदार हथियार से जितना हो सकता है, उससे कई गुना ज्यादा आपकी नर्म दिखने और लगने वाली जुबान से भी हो सकता है। इसलिए अनर्गल बात कहकर परेशानी को न्यौता नहीं देना चाहिए।
हमारा यह भी मानना है कि लोग बिना काम के जब कहीं बैठकर दूसरे लोगों की चर्चा करते हैं, तो उससे फायदा किसी का भी नहीं होता, लेकिन बोलने वाले हर किसी का नुकसान जरूर हो जाता है। इसलिए समझदारी इसमें है कि लोग गप्पें मारने के अंदाज में बैठने से बचें, किसी को दूसरों के बारे में आपत्तिजनक बात लिखकर न भेजें, क्योंकि लोग इन दिनों स्क्रीनशॉट लेकर भी बांटते हैं, और पास में बैठे दूसरे लोगों को फोन पर आपके भेजे गए संदेश, और फोटो-वीडियो दिखाते भी हैं। जिस तरह आपको सनसनीखेज बातों को फैलाना अच्छा लगता है, उसी तरह उन्हें सुनने या पाने वाले लोगों को उन बातों को आपके नाम के साथ आगे बढ़ाना और अधिक अच्छा लगता है। इसलिए इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि सनसनी आप अकेले ही नहीं फैला सकते, और लोग भी फैला सकते हैं, और बिना कुछ हासिल होने की संभावना के लोग दूसरों से मुफ्त में दुश्मनी पा लेने का खतरा उठाते हैं। बकवास का स्वाद जुबान को बड़ा अच्छा लगता है, और तमाम दुश्मन मिलकर किसी को जितना नुकसान नहीं पहुंचा सकते, उससे अधिक उसकी खुद की जुबान ही पहुंचा देती है। मुंह खोलने के पहले याद रखें कि आप अपने खुद के भविष्य को, खुद की संभावनाओं को तो काटने नहीं जा रहे हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अब जब अमरीका में रिपब्लिकन उम्मीदवार और भूतपूर्व राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप गोली से मिले जख्म से उबरकर आगे के चुनाव अभियान में जुट गए हैं, तब अमरीका को वहां के राजनीतिक और सार्वजनिक माहौल पर एक नजर डालना चाहिए। ऐसा भी नहीं कि अमरीका को हमारी नसीहत की जरूरत है, वहां पर यह आत्ममंथन चल ही रहा है कि 20 बरस का एक नौजवान किस तरह एक तीन फीट की रायफल लेकर पूर्व राष्ट्रपति की आमसभा के किनारे एक इमारत की छत पर पहुंच जाता है, और वहां से ट्रंप पर गोलियां भी चलाता है। किस तरह बिना पुलिस या मिलिट्री ट्रेनिंग वाला यह नौजवान इतना अचूक निशाना लगाता है कि वह ट्रंप के सिर तक तो पहुंच ही जाता है। कल हमने इसी जगह यह लिखा था कि अमरीका में बंदूकों की संस्कृति और आसानी से उसकी उपलब्धता की वजह से वहां बंदूक-हिंसा कितनी अधिक होती है। कल ही जब ट्रंप टीवी स्क्रीन से हटे भी नहीं थे कि वहां एक नाईट क्लब में गोलीबारी हुई, और चार लोग मारे गए। आज अमरीका को यह सोचना चाहिए कि नागरिकों से अधिक संख्या में बंदूकों की वजह से तो हिंसा का खतरा रहता ही है, उससे परे भी कौन सी ऐसी वजहें हैं कि ट्रंप पर ऐसा हमला हुआ है?
यह याद रखने की जरूरत है कि ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के पहले से भी महिलाओं के बारे में जिस हिकारत का नजरिया सार्वजनिक रूप से पेश किया था, और उन्हीं की कुछ रिकॉर्डिंग बाद में यह बताते हुए भी सामने आई थीं कि मर्द कामयाब रहें तो वे महिलाओं को उनके गुप्तांगों से भी पकड़ सकते हैं, और उनका कुछ नहीं बिगड़ता। अमरीका में जिन लोगों की सोच मर्दवादी हिंसा से लदी हुई है, उनके लिए ट्रंप का यह फतवा एक और हिंसक उकसावा था, और इसका असर उनके समर्थक अमरीकी मर्दों की सोच पर निश्चित ही पड़ा होगा। राष्ट्रपति रहते हुए भी उनके फतवे नस्ल और रंग के आधार पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ थे, दूसरे देशों से आए हुए प्रवासियों के खिलाफ थे, और गरीबों के खिलाफ थे। इन सबसे भी समाज के एक तबके में हिंसक सोच बढ़ी होगी। लेकिन हम इन बातों को भी छोडक़र आगे बढ़ते हैं कि जब नवंबर 2020 में ट्रंप चार साल का कार्यकाल पूरा करके चुनाव हार चुके थे, तो उन्होंने चुनावी-धांधली के झूठे और बेबुनियाद आरोप लगाते हुए पूरे देश में तनाव और नफरत का एक ऐसा अलोकतांत्रिक और अराजक माहौल बनाया था कि जिससे अमरीकी इतिहास की एक सबसे बुरी हिंसा हुई। जब अमरीकी संसद संयुक्त सत्र में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन के आखिरी वोटों की गिनती पर औपचारिक मुहर लगनी थी, तब ट्रंप ने खुले हिंसक फतवे जारी करके अपने समर्थकों को संसद पर झोंक दिया था, और उनके हजारों समर्थक हथियारबंद होकर संसद में घुस गए थे, और पुलिस और सुरक्षाबल उन पर काबू भी नहीं कर सके थे क्योंकि अमरीका में किसी ने ऐसा भयानक सपना भी कभी नहीं देखा था। बाद में संसदीय जांच की सुनवाई में यह सामने आया कि किस तरह ट्रंप के सहयोगी उनसे यह अपील कर रहे थे कि वे अपने समर्थकों को हिंसा से रोकें, और टं्रप ने ऐसी कोई भी अपील करने से साफ मना कर दिया। जाहिर तौर पर ट्रंप एक राज्य के अपनी पार्टी के गवर्नर को वोटों में हेराफेरी करने के लिए एक टेलीफोन कॉल पर अच्छी तरह दर्ज हुए थे, और अपने समर्थकों को हिंसा के लिए भडक़ाने में भी। संसदीय जांच समिति ने बाद में यह पाया था कि ये तमाम हमले ट्रंप की ही साजिश का हिस्सा थे, जिनमें कई लोग मारे भी गए थे, और करीब पौने दो सौ पुलिस अफसर भी जख्मी हुए थे। ट्रंप ने अमरीका के सबसे अधिक कट्टर, तथाकथित राष्ट्रवादी, नस्लवादी, और हिंसक संगठनों को उकसाया था, और उन्होंने लोकतंत्र बचाने के नाम पर अमरीकी संसद पर अभूतपूर्व, और ऐतिहासिक हिंसक हमला किया था।
यहां पर यह भी याद रखने की जरूरत है कि चार बरस राष्ट्रपति रहते हुए, उसके पहले और उसके बाद भी ट्रंप ने अमरीका में लोकतंत्र के लिए जो परले दर्जे की हिकारत दिखाई थी, उसका असर वहां के लाखों लोगों पर पड़ा होगा, और उनमें ट्रंप के ऐसे कट्टर समर्थक भी हैं जिनका मानना था कि जो बाइडन की राष्ट्रपति पद पर जीत हेराफेरी और धांधली से हासिल की गई थी। जब किसी लोकतंत्र में अराजकता को खूब बढ़ावा दिया जाता है, जब किसी दूसरे को अलोकतांत्रिक तरीके से जीता हुआ बताया जाता है, धर्म, और नस्ल के आधार पर नफरत फैलाई जाती है, जब अराजक और हिंसक आंदोलनों के फतवे जारी किए जाते हैं, तब इन सबसे उपजी नफरत आगे कितनी बढ़ती है, और कहां जाकर थमती है, इस पर नफरती-फतवेबाज का भी काबू नहीं रहता। इसलिए एक तरफ जब ट्रंप रिपब्लिकन पार्टी के अपने समर्थकों के बीच नफरत और हिंसा भर रहे थे, तब उसकी एक प्रतिक्रिया भी हो रही थी, और बहुत से लोग ट्रंप को भी नापसंद कर रहे थे। अभी जिस नौजवान ने ट्रंप पर गोलियां चलाई है, वह तो रिपब्लिकन पार्टी का रजिस्टर्ड वोटर भी था। अब उसने किस नीयत से यह हमला किया था उस बारे में उसका बताया जा रहा एक वीडियो यह कहता है कि वह ट्रंप और रिपब्लिकन पार्टी से नफरत करने लगा था। अब जहां हर हाथ में काम हो या न हो, बंदूक जरूर है, सैकड़ों मीटर दूर तक मार करने वाली बंदूकों में टेलीस्कोप भी लगे हैं, और साइलेंसर भी, फौजी जरूरतों की बंदूकें घर-घर में हैं जो कि एक मिनट में उसके सेेकेंड से भी अधिक गोलियां दाग सकती हैं, तो फिर ऐसे हथियारबंद नागरिकों वाले देश में लोगों को लोकतंत्र के खिलाफ हिंसक और अराजक बगावत करने के लिए उकसाना बहुत खतरनाक हो सकता है। अभी ट्रंप की सभा में जो हिंसक हमला सामने आया है, उस हिंसक सोच के बीज इसी दशक में ट्रंप ने ही बोए थे, और उसमें खाद-पानी भी डाला था।
दुनिया के जिन देशों में भी नफरती और हिंसक फतवे दिए जाते हैं, वहां पर कब कौन सा फतवा उसे देने वाले के ही खिलाफ जानलेवा साबित हो जाए, इसका कोई ठिकाना तो रहता नहीं है। अमरीका की इस ताजा हिंसा से खुद अमरीका के भीतर तो सबक लेने की बात हो ही रही है, बाकी दुनिया को भी अमरीका के आज के तनाव से सबक लेना चाहिए, और नफरत फैलाने के खतरों को समझना चाहिए। लोकतंत्र में नफरत फैलाना जंगल में आग लगाने सरीखा रहता है जिसमें बाद में आग को बुझाना खुद अपने काबू का नहीं रह जाता। हिन्दुस्तान में भी सुप्रीम कोर्ट साल भर से हेट स्पीच के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए राज्य सरकारों, और पुलिस पर दबाव बनाए हुए हैं, लेकिन अदालत की बार-बार की नाराजगी भी जमीन पर पूरी तरह बेअसर दिखती है, क्योंकि भारत का पिछला लोकसभा चुनाव पूरे का पूरा नफरत से भरा हुआ था। नफरत से अगर किसी तबके के लिए समर्थन जुटता है, तो किसी दूसरे तबके की प्रतिक्रिया ऐसे पहले तबके के खिलाफ भी हिंसक हो सकती है। अमरीका का आज का हाल बाकी दुनिया के लिए एक बड़ा सबक है, जो उससे सीखना चाहें, वे सीख लें, बाकी के सामने खुद ठोकर खाकर अपना बड़ा नुकसान करने की आजादी तो है ही। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अभी कुछ घंटे पहले अमरीका में एक चुनाव अभियान रैली के मंच पर भाषण दे रहे पूर्व राष्ट्रपति और अगले संभावित रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनल्ड ट्रंप पर एक नौजवान ने गोली चलाई जो कि उनके कान को छेदते हुए निकल गई। यह सचमुच ही बाल-बाल बचने जैसी बात थी क्योंकि कान और सिर के बीच कोई फासला ही नहीं होता है, और एक-दो सेंटीमीटर का फर्क होने से ट्रंप वहीं पर खत्म हो चुके होते। यह बात तय है कि निशानेबाज नौजवान ने यह गोली ट्रंप को खत्म करने के लिए ही चलाई थी, और यह पेशेवर अंदाज में चलाई गई थी। बड़े जानकार निशानेबाज और हत्यारे सिर के इसी हिस्से में गोली मारते हैं, इसलिए यह किसी तरह का सोचा-समझा, या कमजोर नाटक नहीं था। अमरीका के सुरक्षा जानकार भी यह देखकर हक्का-बक्का हैं कि थॉमस मैथ्यू क्रुक्स नाम का यह नौजवान बिना किसी मिलिट्री पृष्ठभूमि के ऐसी गन लेकर, ऐसे पेशेवर अंदाज में मंच के सामने की तरफ दूरी पर एक छत पर लेटकर निशाना लगाते रहा, और सुरक्षा कर्मचारियों की उस पर नजर नहीं पड़ी। सुरक्षा इंतजाम की चूक कुछ और बातों से भी उजागर होती है कि इसे रायफल के साथ छत पर लेटे देखकर एक आदमी ने पुलिस को इसकी खबर की थी, और कुछ मिनटों तक कोई कार्रवाई नहीं हुई, और फिर गोलियां चलीं, पहले इस नौजवान ने ट्रंप पर एक या अधिक गोलियां चलाईं, और फिर सुरक्षा कर्मचारियों ने इसे गोलियां मारकर खत्म कर दिया। अमरीका की संघीय जांच एजेंसी एफबीआई ने कुछ घंटों के भीतर ही इस नौजवान की शिनाख्त उजागर की है क्योंकि जांच एजेंसी को इसके बारे में अधिक जानकारी की जरूरत है ताकि हत्या की इस कोशिश के पीछे की नीयत और मकसद तक पहुंचा जा सके। अभी तो अमरीका में राष्ट्रपति चुनाव के दोनों उम्मीदवार भी औपचारिक रूप से घोषित नहीं हुए हैं, और पूरा चुनाव अभियान अभी बाकी ही है। ऐसे में यह हमला कई सवाल खड़े करता है।
अमरीका में बंदूकों और पिस्तौलों की भयानक मौजूदगी हर किसी अमन-पसंद के लिए बहुत फिक्र का सामान रहते आई है। आंकड़े बताते हैं कि अमरीका में दुनिया के आबादी का चार फीसदी हिस्सा है, लेकिन नागरिक हथियारों के मामले में दुनिया के 46 फीसदी हथियार अमरीका में है। एक दूसरा आंकड़ा यह भी है कि अमरीका के तुरंत बाद के सबसे अधिक नागरिक-हथियारों वाले 25 देश मिलाकर भी उतने हथियार नहीं रखते जितने अकेले अमरीका में है। अमरीका में 40 फीसदी से अधिक घरों में कम से कम एक गन है। यहां आबादी से 20 फीसदी अधिक हथियार लोगों के पास है। अमरीका के जुर्म के आंकड़े बताते हैं कि यहां बंदूक-पिस्तौल से होने वाली मौतें दूसरे विकसित देशों के मुकाबले 18 गुना अधिक है। अमरीकी फिल्मों से लेकर दूसरे किस्म की सांस्कृतिक पहचान तक, वहां बंदूकें रखने का रिवाज है, और इसे मर्दाना ताकत का एक प्रतीक माना जाता है। अमरीका में हर कुछ दिनों में किसी न किसी सार्वजनिक जगह पर गोलीबारी में लोगों की मौत होती है, और 2019 में 414 ऐसी घटनाएं हुईं, और 2020 में 610, 2023 में 656 मास-शूटिंग हुईं, और 2024 में अब तक 295 शूटिंग हो चुकी है। मौजूदा राष्ट्रपति, डेमोक्रेटिक पार्टी के जो बाइडन लगातार गन-कंट्रोल की वकालत करते हुए लगे हुए हैं, वे हर सार्वजनिक गोलीबारी के बाद इसकी जरूरत गिनाते हैं, लेकिन वहां हथियार बनाने के कारखानेदारों की लॉबी इतनी मजबूत है कि वह कोई सरकारी नियंत्रण आने ही नहीं देती। खुद डोनल्ड ट्रंप और उनकी रिपब्लिकन पार्टी पूरी तरह से हथियारों की आजादी की पक्षधर है, और जहां-जहां रिपब्लिकन पार्टी के सम्मेलन होते हैं, वहां पर हथियारों की नुमाइश और बिक्री होती है क्योंकि इस पार्टी के सक्रिय-समर्थक हथियारों के शौकीन हैं। आज ट्रंप पर जो हमला हुआ है वह हमला जाहिर तौर पर किसी पेशेवर भाड़े के हत्यारे का किया हुआ नहीं दिखता है, बल्कि किसी विचलित नौजवान का हिंसक फैसला अधिक दिखता है, जिसने ट्रंप की तरफ कई गोलियां चलाई थीं, और जो रिपब्लिकन पार्टी के लोगों से नफरत करने की बात करता है। अब यह सोचने की बात है कि जहां घर-घर में इंसानों से अधिक बंदूकें हों, वहां पर किसी विचलित को किसी हिंसक गोलीबारी से कैसे रोका जा सकता है? हर बरस बहुत से लोग अपनी स्कूली जिंदगी के जख्मों की वजह से अपने स्कूल-कॉलेज पहुंचकर वहां बहुत से लोगों को मार डालते हैं, कुछ लोग किसी मॉल या शॉपिंग कॉम्पलेक्स में पहुंचकर वहां अपने को नापसंद धर्म या रंग के लोगों को मार डालते हैं। अब अगर बिना किसी पेशेवर हत्यारे के, आम लोग भी अगर राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार या भूतपूर्व राष्ट्रपति पर इतना घातक हमला कर सकते हैं कि मौत बस एक-दो सेंटीमीटर दूर से निकल गई, तो यह अमरीका में एक खतरनाक नौबत का सुबूत है। हथियारों को लेकर जिस समाज में एक दीवानगी है, जहां की फिल्में, टीवी प्रोग्राम, और सामाजिक माहौल बंदूकों को मर्दानी ताकत का एक विस्तार बताता हो, वहां पर हथियारों के ग्लैमर से बच पाना भी बड़ा मुश्किल होता होगा। अभी दो दिन पहले की ही खबर है कि अमरीका में अब राशन और रसोई के सामानों की दुकानों पर भी ऐसी ऑटोमेटिक मशीनें लग रही हैं जिनमें पैसा डालकर लोग अपनी बंदूकों के लिए गोलियां खरीद सकेंगे। अब यह काम चौबीसों घंटे फल-सब्जी, और अनाज खरीदने की तरह का आसान काम हो गया है। और ऐसी मशीनें अमरीका में बढ़ती चली जानी हैं।
कुल मिलाकर अमरीका की नागरिक-बंदूकों की हिंसा खुद अमरीका के लोगों को ही मार रही है, और इनमें तकरीबन सौ फीसदी लोग बेकसूर हैं जो कि हत्यारे को नापसंद भर है। इसलिए अमरीका के इस गन कल्चर से बाकी दुनिया को कोई परेशानी नहीं है, और इसका सबसे बड़ा नुकसान अमरीकी जिंदगियों का हो रहा है, खासकर ऐसी जिंदगियों का जो न तो किसी फौजी मोर्चे पर तैनात हैं, और न ही देश के भीतर मुजरिमों से लड़ रही हैं। आम नागरिक अपनी बंदूक के अहंकार में अपनी हिंसक सोच से दूसरे आम नागरिकों को मार रहे हैं, और इस पर रोक लगाने की किसी भी कोशिश को अमरीका के हथियार-उत्पादक कामयाब नहीं होने दे रहे हैं। किसी देश का पूंजीवाद, और उसमें किसी कारोबारी-लॉबी की कमाई की नीयत किस हद तक हत्यारी हो सकती है, अमरीका इसकी एक शानदार और भयानक मिसाल है। देखें कि बंदूकों को अपने शरीर की उत्तेजना के विकल्प और विस्तार की तरह इस्तेमाल करने वाले अमरीकी मर्द कभी इस खतरनाक मिजाज से उबर पाएंगे या नहीं? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
चारों तरफ चल रहे जुर्म देखकर यह लगता है कि बहुत से लोगों के लिए आज पैसा ही सब कुछ है। लोग कॉलेज में पढ़ाने का इज्जत का पेशा छोडक़र लोगों को ठगने के धंधे में उतर रहे हैं, एक लडक़ा अपने ही मां-बाप से रकम लूटने के लिए अपने अपहरण की झूठी कहानी गढ़ रहा है, अपनी हिंसक पिटाई का झूठा वीडियो बनवा रहा है, और पुलिस की पकड़ में भी आ जा रहा है। ऐसी दर्जन भर खबरें आज ही के अखबार में हैं, और सारी की सारी एक राज्य में हुई वारदातों की हैं। एक नाबालिग लडक़ी अपने मौजूदा ब्वॉयफ्रेंड के साथ मिलकर अपने किसी सोशल मीडिया फ्रेंड को खाड़ी के देश से बुलवाती है, और उसके बैंक खाते से दो-तीन लाख रूपए लूटकर दोनों उसका कत्ल कर देते हैं, डेढ़ दर्जन टुकड़े कर देते हैं, और अलग-अलग बैग में भरकर उन टुकड़ों को फेंक देते हैं। पैसों के लिए ही एक भाई अपने दूसरे भाई और मां का कत्ल कर देता है। कहीं एक नक्सल-शहीद की पत्नी को सरकार से मिली सहायता राशि को दो लोग मिलकर ठग लेते हैं, पूरी रकम निकाल लेते हैं। सरकार के अलग-अलग विभाग खुली धोखाधड़ी करते हैं, कहीं धान का स्टॉक गायब है, और एफआईआर हो रही है, तो कहीं किसी और तरह की जालसाजी की जा रही है।
पहली नजर में हमें लगता है कि इनमें से अधिकतर लोगों को इस बात का अंदाज रहना चाहिए था कि उनके जुर्म का हमेशा के लिए छुपना आसान या मुमकिन नहीं होगा। इन दिनों ऐसे कोई जुर्म नहीं छिप पाते हैं जिनमें मोबाइल फोन या कम्प्यूटर का इस्तेमाल होता है, जो सीसीटीवी कैमरों पर कैद रहते हैं, या बैंकों से रकम की आवाजाही रिकॉर्ड में रहती है। हर दिन अखबारों में ऐसे मुजरिमों की पकड़े जाने की खबर आती है, फिर भी लोग रूपए-पैसे की लालच में अगर उम्रकैद पाने लायक जुर्म करते हैं, तो पता नहीं उनके दिमाग का कौन सा हिस्सा उन्हें ऐसा खतरा लेने की सलाह देता है। आज के वक्त शायद ही कोई बड़ा जुर्म ऐसा होता हो जिसमें मुजरिम पकड़ में न आते हों, इसके बावजूद कुछ दिनों के लिए रकम पा लेने का लालच लोगों की तमाम सोच-समझ को खत्म करते दिखता है। हमें तो यह भी देखकर हैरानी होती है कि छत्तीसगढ़ के बड़े-बड़े अफसरों ने अंधाधुंध भ्रष्टाचार किया, खुला जुर्म किया, और इसकी काली कमाई से बेतहाशा जमीन-जायदाद खरीद ली, जबकि यह बात साफ थी कि ऐसी खरीदी रिकॉर्ड में दर्ज होते चल रही है। यह भी हो सकता है कि उन्हें इस बात पर अपार भरोसा रहा हो कि सरकारें आमतौर पर भ्रष्ट के खिलाफ केस नहीं चलाती हैं, और रहस्यमय कारणों से ऐसी रियायत मिल जाती है। हो सकता है कि ऐसी रियायत खरीदने की उम्मीद में इन अफसरों ने बेधडक़ जुर्म किए हों, और खुद सैकड़ों करोड़ कमाने के फेर में सरकारी खजाने को हजारों करोड़ का चूना लगाया हो। कुल मिलाकर जुर्म चाहे निजी रिश्तों में हों, या सरकारी कामकाज में, यह बात साफ दिखती है कि पैसों का मोह लोगों से हर किस्म का जुर्म करवा रहा है। कोई भूखे मरते लोग एक पैकेट डबल रोटी के लिए भी किसी का कत्ल कर दें, तो भी बात समझ में आती है, लेकिन जब खाते-पीते लोग और अधिक पैसों की चाह में हर किस्म का जुर्म करने लगते हैं, तो फिर लगता है कि यह पैसों की अंधी भूख है।
कुछ लोगों का कहना है कि आज की दुनिया में एक-दूसरे से आगे बढऩे की एक अंधी होड़ ऐसी रहती है कि दूसरों की संपन्नता देख-देखकर कई लोगों के दिल सुलगते रहते हैं, और वे जुर्म भी करने को तैयार हो जाते हैं। अब ऐसे में जो दुनिया के सबसे रईस हैं, उन्हें देख-देखकर तो बाकी तमाम दुनिया का दिल जल सकता है, तो क्या सारी दुनिया ही मुजरिम हो जाए? आज मुकेश अंबानी की बेटे की शादी में पिछले कई हफ्तों से देश-विदेश में जश्न चल रहे हैं, अरबों का खर्च हो चुका होगा, हो सकता है कि शादी का खर्च खरबों में चले जाए, लेकिन क्या उसे देखकर और लोग अपने घर की शादी की शान-शौकत बढ़ाने के लिए जुर्म करने लगें? हर शहर में बड़ी-बड़ी करोड़ों की गाडिय़ां दौड़ाते बहुत से लोग रहते हैं, तो क्या उन शहरों में पैदल या साइकिल पर चलने वाले मुजरिम बनने लगे? यह तर्क सही नहीं लगता है। अभाव लोगों का स्वभाव इतने बड़े पैमाने पर नहीं बदलता, लेकिन कुछ लोग जो अपने मिजाज से जुर्म से परहेज नहीं करते, वैसे कुछ लोग जरूर पैसों की चकाचौंध में नजरें खोकर जुर्म करते होंगे, लेकिन आमतौर पर जुर्म की ऐसी रकम का इस्तेमाल करने के लिए लोग आजाद नहीं रह जाते।
आज दुनिया में मुजरिमों के पकड़ाए जाने के मामले इतने बढ़े हुए हैं कि किसी को जुर्म करने के पहले उस जुर्म की अधिकतम संभव कैद के बारे में भी सोच लेना चाहिए। पकड़ाए मुजरिमों की खबरों को भी देख लेना चाहिए। एक सवाल मन में यह भी उठता है कि क्या जेल की जिंदगी का खौफ लोगों के मन में पूरी तरह खत्म हो गया है जो वे बेखौफ जुर्म करते रहते हैं? क्या अखबारों में रोज दर्जनों मुजरिमों के पकड़ाने की खबरों के बाद भी लोगों को और नसीहत देने की जरूरत है कि जुर्म करने से सजा मिलना तकरीबन तय रहता है? हो सकता है कि बहुत से लोग अखबार न पढ़ते हों, और उन्हें जुर्म से जुड़े खतरों का अहसास न रहता हो, तो ऐसे में शायद सरकार और पुलिस को चाहिए कि वे मुजरिमों के पकड़ाने, और उनके सजा पाने की खबरों को खुलासे के साथ सोशल मीडिया पर भी फैलाएं ताकि बाकी लोगों को उससे कुछ नसीहत मिल सके। कुल मिलाकर आज पैसों के लिए, या निजी रिश्तों की तनातनी में होने वाले सबसे बड़े जुर्म बड़ी संख्या में हो रहे हैं। सरकार और समाज को जानकार लोगों के साथ मिलकर जागरूकता का कोई अभियान चलाना चाहिए ताकि जिन और लोगों के मन में जुर्म करने का इरादा उबल रहा हो, उनके हौसलों पर कुछ पानी फिर सके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
महाराष्ट्र में एक आईएसए ट्रेनी युवती को लेकर बड़ा हंगामा मचा हुआ है। दरअसल हंगामे की शुरूआत पूजा खेडकर नाम की इस युवती ने ही की थी जब उसे पुणे कलेक्ट्रेट में ट्रेनी पाने के लिए तैनात किया गया। इस दौरान नौजवान अफसरों से यह उम्मीद की जाती है कि वे कलेक्ट्रेट के विभिन्न विभागों के कामकाज को रूबरू देखें, सीखने की कोशिश करें, और कलेक्टर के मातहत अनुभव हासिल करें। लेकिन इस युवती ने वहां अपने लिए सहूलियतें मांगते हुए दूसरे अफसरों का जीना हराम कर दिया। फिर मानो नीम चढ़े करेले की तरह इस युवती के लिए तरह-तरह की नाजायज सुविधाएं मांगने में उसका एक रिटायर्ड पिता भी जुट गया जो कि राज्य प्रशासनिक सेवा का अफसर था। बाप-बेटी ने तरह-तरह की नाजायज मांगों के लिए लोगों को धमकाना शुरू किया, निजी कार पर सरकारी नाम लिखवाकर उस पर लालबत्ती भी लगा ली, किसी दूसरे अफसर के कमरे पर कब्जा करके अपनी तख्ती लगा दी, और कुल मिलाकर इतना बवाल खड़ा किया कि सरकार को उसे उठाकर पुणे से वाशिम भेज देना पड़ा, और अब उसका हर कामकाज लोगों की खुर्दबीनी निगाहों में रहेगा। ढेर सारी शिकायतें खड़ी हो चुकी हैं, और जांच भी की जा रही है।
यह मामला कुछ अधिक ही बड़ा हंगामा होने से खबरों में आया, वरना अखिल भारतीय सेवाओं से चुनकर जो आईएएस-आईपीएस, या आईएफएस अफसर आते हैं, उन्हें विभागों के बाकी अफसर यह जानते हुए कि ये ट्रेनिंग के बाद सीधे ऊंचे ओहदों पर पहुंचेंगे, उनका वैसे भी अधिक ख्याल रखते हैं। उन्हें जिन सहूलियतों का हक नहीं रहता, वैसी भी बहुत सी सुविधाएं उन्हें दी जाती हैं, और हमने प्रशिक्षणार्थी रहते हुए ऐसे अफसरों को हजारों रूपए के एक दाम वाले कई चश्मे बाजार से उठवा लेते देखा है। आमतौर पर इनकी मनमानी, वसूली, और उगाही बहुत दूर तक खप जाती है। छोटे अफसर भविष्य के बड़े साहब की खिदमत करते हुए उनके लिए कई किस्म के नाजायज इंतजाम करते रहते हैं, और उनकी हवाई टिकटों से लेकर स्कॉच की बोतलों तक तमाम बातों का बोझ विभागीय अफसर उठाते हैं। लेकिन महाराष्ट्र की इस ट्रेनी आईएएस ने जब मनमानी की सीमा पार कर दी, तब उसके खिलाफ बातें फाइलों पर आईं, और राज्य सरकार तक पहुंचीं।
हमने छत्तीसगढ़ में पिछले पांच बरस में भूपेश बघेल सरकार के दौरान जितने कलेक्टर और एसपी गुंडागर्दी से वसूली और उगाही करते देखे हैं, वह शायद देश के इतिहास में पहली बार हुआ है। यही वजह है कि उनमें से कुछ आईएएस अफसर आज जेल में पड़े हैं, और उन्होंने दसियों करोड़ की जो काली कमाई की है वह किसी काम की नहीं रह गई। अब अगर छुपाकर रखी गई दौलत बची हुई भी है, तो भी नौकरी और इज्जत तो जा चुकी हैं, और अपने बच्चों को छोडक़र महिला अफसर भी जेल में पड़ी हुई हैं। जब नेताओं और अफसरों को उनके आसपास के दायरे के लोग, मातहत और मुसाहिब यह यकीन दिलाने लगते हैं कि आज दुनिया जो रौशन है, वह उन्हीं की पेशाब से जल रहे चिरागों की वजह से है, तो फिर यह बददिमागी सत्ता पर काबिज लोगों को जुर्म तक पहुंचाकर ही दम लेती है। हमारा तो ख्याल यह है कि छत्तीसगढ़ के पिछले पांच बरस के आईएएस-आईपीएस के कामकाज को देश में बनाए गए आईएएस-आईपीएस प्रशिक्षणार्थियों की अकादमी में पढ़ाना चाहिए कि अफसर कैसे-कैसे काम न करें। जब राजनीतिक और प्रशासनिक दोनों किस्म की सत्ता भागीदारी फर्म बनाकर हर किस्म का जुर्म करके कमाई करने पर आमादा हो जाती है, तो उनका अगला ठिकाना जेल होने की बहुत बड़ी आशंका रहती है। छत्तीसगढ़ इसका एक जलता-सुलगता उदाहरण है कि सत्ता पर बैठे लोग जब अपने को खुदा समझने लगते हैं, तो उनका कैसा बुरा हाल होता है।
हम पहले भी बीते दशकों में इस बात को कई बार लिख चुके हैं कि जिलाधीश, या जिला कलेक्टर जैसे पदनामों को खत्म करने का वक्त आ चुका है। अब मठाधीश किस्म का शब्द जिलाधीश लोकतांत्रिक नहीं लगता है। कुछ तो सत्ता के गलियारों में लंबे समय से चले आ रही यह बात भी लोगों को बददिमाग कर देती है कि देश में सत्ता कुल तीन हाथों में रहती है, पीएम, सीएम, और डीएम। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट का ओहदा जिला कलेक्टर के साथ ही रहता है, दोनों जिम्मेदारियां एक ही अफसर की रहती हैं। लेकिन जहां सरकारी कुर्सी जिम्मेदारी लेकर आती है, वहां इन कुर्सियों की ताकत इन पर बैठे लोगों में बददिमागी भी लेकर आती है। दरअसल कलेक्ट्रेट नाम की संस्था को इस हद तक लचीले अधिकार दिए गए हैं कि जब नौजवान इस कुर्सी के आसपास भी पहुंचते हैं, और इनसे कुछ कदम दूर रह जाते हैं, तो भी उनमें बददिमागी आने लगती है। देश में इस सिलसिले को कड़ाई से काबू में लाने की जरूरत है। कहने के लिए सरकार के ऐसे नियम है कि किसी एक अफसर को एक से अधिक गाड़ी न मिले, लेकिन किसी भी अफसर के बंगले पर जाएं वहां दो-चार गाडिय़ां खड़ी ही रहती हैं, अघोषित रूप से दर्जन-दो दर्जन कर्मचारी काम करते ही रहते हैं, सरकार के अलग-अलग विभाग इन अफसरों के बंगलों पर अघोषित रूप से लाखों-करोड़ों का काम करवाते रहते हैं, और उसका भुगतान किसी और निर्माण कार्य या मरम्मत के नाम पर विभाग से होते रहता है। यह पूरा गंदा सिलसिला खत्म करना चाहिए। अफसरों के दिमाग में एक बात यह रहती है कि वे तो जो करवा रहे हैं, वह सरकारी इमारत में ही बने रहेगा, इन कमरों को वे अपने घर तो नहीं ले जाएंगे, लेकिन हकीकत यह रहती है कि इनकी लागत से कई गुना अधिक का नुकसान सरकार को लगाया जाता है। जिस ठेकेदार से दसियों लाख का काम कराया जाता है, उसे करोड़ों की छूट भी दी जाती है।
महाराष्ट्र की यह मिसाल बाकी देश के सामने भी है क्योंकि अखिल भारतीय सेवाओं के प्रशिक्षणार्थी हर प्रदेश में इसी तरह जाते हैं, और दूसरी जगहों पर भी इसी तरह की बददिमागी सामने न आए, इसकी सीख तो तमाम प्रदेश इस घटना से ले ही सकते हैं। हर प्रदेश के मुख्य सचिव, डीजीपी, और वन विभाग के प्रमुख को अपने मातहत लोगों तक साफ-साफ निर्देश भेजने चाहिए कि प्रशिक्षणार्थियों को किसी भी हालत में बिगाड़ा न जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आए दिन हिन्दुस्तान के किसी न किसी कोने से खबर आती है कि किस तरह किसी तांत्रिक ने इलाज के नाम पर, या गर्भवती बनाने के नाम पर किसी लडक़ी या महिला से बलात्कार कर दिया। देश की एक सबसे बड़ी मिसाल आसाराम नाम के एक बलात्कारी की है जिसे उसके अंधभक्त अब भी बापू कहते हैं। इसने अपनी संस्था के एक स्कूल के छात्रावास में पढ़ रही अपने एक भक्त की नाबालिग बेटी को अपने पास बुलाकर उससे बलात्कार किया था। कुछ ऐसा ही राम रहीम नाम के एक दूसरे बाबा ने किया था। देश में अलग-अलग धर्मों के चोगे पहनने वाले कई किस्म के ‘बाबा’ हैं जो अंधभक्तों के परिवारों की लड़कियों और महिलाओं का शोषण करते हैं, और उसे भी कई परिवार आशीर्वाद मानकर खुशी-खुशी ग्रहण करते हैं। रोमन कैथोलिक चर्च में, या मदरसे में, या यतीमखाने, संस्कृत पाठशाला, किसी मठ, या किसी धार्मिक-आध्यात्मिक छात्रावास में तरह-तरह से देहशोषण होता है, और ऐसे बाबाओं के भक्तजन उन्हें बचाने के लिए खड़े रहते हैं। आज भी हर इतवार बलात्कारी आसाराम के भक्तजन उनके नाम का स्टॉल लगाकर उसका साहित्य बांटते हैं, और अपने घर की महिलाओं और बच्चों को साथ लेकर इस काम में जुटे रहते हैं।
दरअसल अंधभक्ति ऐसी ही होती है कि उसमें अक्ल काम करना बंद कर देती है, तर्कशक्ति खत्म हो जाती है, न्याय की कोई भावना बचती नहीं है। यह अंधभक्ति अभी-अभी हाथरस में करीब सवा सौ भक्तों की भगदड़-मौतों के बाद फिर सामने आ रही है, जब सूरज पाल उर्फ भोले बाबा उर्फ साकार विश्व हरि नाम के एक गुरू ने लाखों भक्तों की भीड़ के बीच अपनी चरण रज लेकर जाने को कहा था, और उसी भगदड़ में इतनी मौतें हुईं। अब एक समाचार-रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि यह भोले बाबा हमेशा कुंवारी लड़कियों से घिरे रहता था, और इन्हें आयोजक लाल रंग के कपड़े देते थे जिन्हें पहनकर वे मदहोश होकर बाबा के इर्द-गिर्द डांस करती थी। एक टीवी चैनल आज तक की रिपोर्ट में एक महिला ने बताया है कि भोले बाबा के आसपास रहने वाली कुंवारी लड़कियां उनको अपना पति मानती थीं, और इसी तरह से उनके साथ रहती भी थीं। इस महिला ने यह भी बताया है कि जब दीक्षा लेने वाली लड़कियां आसपास रहती थीं, और इनमें भी सिर्फ कुंवारी लड़कियों को विशेष दीक्षा देकर शिष्या बनाया जाता था, तो इन लड़कियों को इस बाबा में अपना पति दिखता था। यह भी कहा गया है कि शादीशुदा महिलाओं को बाबा पास नहीं आने देता था, और कुंवारी लड़कियां लाल जोड़े में तैयार होकर गहने पहन, श्रंृगार करके बाबा के पास जाती थीं, और नाचती थीं।
कल की ही खबर थी कि किसी एक दूसरी जगह कैसे एक तांत्रिक ने इलाज करने के नाम पर किसी लडक़ी या महिला से बलात्कार किया। यह सिलसिला हिन्दुस्तान में आम हैं जहां पर न सिर्फ इलाज के लिए, बल्कि नौकरी और दौलत के लिए, शादी के लिए जीवनसाथी पाने को, हर तरह की हसरत के लिए लोग बाबाओं की शरण में जाकर पड़े रहते हैं। संतान चाहने वाले बेऔलाद जोड़े तो अपने धर्म से परे के भी बाबाओं और गुरूओं के चरणों पर पड़े दिखते हैं। दरअसल धर्म और आध्यात्म के साथ दिक्कत यह है कि इन पर आस्था लोगों में तब ही जाग सकती है जब उनकी तर्कशक्ति खत्म हो जाती है। देश में इलाज का पुख्ता इंतजाम नहीं है, दाखिला और नौकरी के इम्तिहान इतने भ्रष्ट हो चुके हैं कि लोगों का उन पर भरोसा नहीं है, न्याय प्रक्रिया नीचे से ऊपर तक ऐसी भ्रष्ट है कि लोगों को लगता है कि बिना किसी ईश्वरीय मेहरबानी के उन्हें इंसाफ नहीं मिल सकता, लोकतंत्र पर भरोसा इतना कम है कि वे इंसाफ के बजाय अपने पक्ष में फैसला चाहते हैं, फिर चाहे वे खुद मुजरिम ही क्यों न हों। ऐसी नौबत में यह देश अंधविश्वास में डूबा हुआ है, और लोगों को तर्क की बात करने वाले लोगों को बेंगलुरू से लेकर पुणे तक मार डालना बेहतर लगता है। दुनिया में वैज्ञानिक सोच लोगों को न्यायप्रिय बनाती है, और अंधविश्वास उन्हें अन्यायी बना देता है। दूसरों के प्रति अन्यायी होने तक तो ठीक है, लोग अपनी आस्था के केन्द्र बाबाओं को अपने परिवार की महिलाएं और लड़कियां भी समर्पित कर देते हैं। यह जाहिर है कि अंधविश्वास लोगों के लिए आत्मघाती भी होते चलता है, और उन्हें आस्था के अपने केन्द्र की खुशी और सुख के लिए अपने परिवार को भी समर्पित कर देना खुशी का सामान लगता है।
दुनिया में अंधभक्ति और अंधविश्वास किसी का भला नहीं करते। जिस आसाराम को न जमानत मिल पा रही है, और न ही पैरोल, उसकी हरकतों पर भक्त अगर सवाल करते रहते, तो हो सकता है कि वह नाबालिग छात्रा से बलात्कार के मामले में न फंसा होता। ऐसा न सिर्फ धर्म, और आध्यात्म के मामले में होता है, बल्कि राजनीति में भी होता है। राजनीति में जिस नेता के जितने अधिक अंधभक्त होते हैं, उससे गलत काम होने का खतरा भी उतना ही बड़ा रहता है। कुल मिलाकर हम लोगों को सावधान करना चाहते हैं कि भक्ति तक तो बात ठीक है, लेकिन अंधभक्ति सबके लिए घातक होती है। किसी कीर्तन या कव्वाली में हिलने वाले सिरों के भीतर दिमाग काम करना तकरीबन बंद कर देते हैं। इसलिए सबका भला इसी में है कि भक्ति के चक्कर में तर्कशक्ति को दिमाग-निकाला न दे दिया जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में कल सामने आई ठगी की एक घटना कई मायनों में भयानक है। एक तो यह कि कोई ठग कितनी बारीक साजिश कर सकता है, और कैसे एक पूरा जाल बिछा सकता है, यह इसके पहले किसी मामले में हमें याद नहीं पड़ता। दूसरी बात यह कि जिसे ठगा गया है वह एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर है, जाहिर तौर पर पढ़ा-लिखा तो है ही, इसके अलावा वह आज की दुनिया में तरह-तरह के कम्प्यूटर सॉफ्टवेयरों की चर्चा से तो वाकिफ होगा ही कि ठग किस-किस तरह से अलग-अलग किरदार बनकर झांसा दे सकते हैं। तीसरी बात यह कि जिस इंजीनियर के पास ठगी और ब्लैकमेलिंग में देने के लिए करीब डेढ़ करोड़ रूपए थे, वह शादी के लिए एक लडक़ी पाने के लिए इतनी रकम डुबाता चला गया, जबकि हिन्दुस्तान में आमतौर पर यह माना जाता है कि शादी के बाजार में लडक़ी को दिक्कत होती है, और लडक़े दहेज लेते हैं। इतना काबिल, पढ़ा-लिखा, पेशेवर, और संपन्न नौजवान किस तरह डेढ़ करोड़ रूपए एक दुल्हन की चाह में डुबा सकता है, यह न सिर्फ अटपटा है, बल्कि यह भी बताता है कि हिन्दुस्तानी लोग कितने किस्म की जालसाजी के शिकार होने के लिए एकदम रेडीमेड सामान हैं। हम किसी ठगे गए व्यक्ति की खिल्ली उड़ाना नहीं चाहते, लेकिन इससे देश में जागरूकता का एक स्तर पता लगता है कि यह जालसाजों के लिए एकदम उपजाऊ जमीन है। लोगों को याद होगा कि अभी कुछ अरसा पहले ही इसी छत्तीसगढ़ में कुछ रिटायर्ड अफसर सैक्सटॉर्सन का शिकार हुए थे, और जो वीडियो कॉल पर किसी लडक़ी की आवाज और तस्वीर देखते ही अपने कपड़े उतारने को उतावले हो गए थे, और फिर ब्लैकमेलिंग में मोटी रकम डुबा बैठे। सैक्सटॉर्सन सिर्फ हिन्दुस्तानियों को लूटने का औजार नहीं है, और पश्चिम के बड़े विकसित देशों के स्कूली लडक़े भी उसका शिकार हो रहे हैं जिनसे कि टेक्नॉलॉजी के अधिक जानकार होने की उम्मीद की जाती है।
छत्तीसगढ़ की इस ताजा ठगी की कहानी अखबारों में खुलासे से आई है, लेकिन पुलिस को चाहिए कि इसका और अधिक प्रचार करे। हम किसी का अपमान करने के लिए यह बात नहीं सुझा रहे हैं, लेकिन कैसे कोई एक ठग अलग-अलग दर्जन भर अलग-अलग किरदार बनकर किसी को धोखा दे सकते हैं, और ठग सकते हैं, इसे अधिक लोगों को समझने की जरूरत है। एक ही ठग लडक़ी बनकर, उसका भाई बनकर, जज बनकर, टैक्स अफसर बनकर, आरबीआई अफसर बनकर, जाने क्या-क्या बनकर धोखा देते रहा, और इतनी बड़ी रकम वसूल ली। ऐसे और भी कई मामले दुनिया भर में सामने आए हैं जब किसी वकील, बैंक अफसर, या डॉक्टर जैसे पढ़े-लिखे लोगों को मोबाइल फोन की वीडियो कॉल से फंसाया गया, और फिर उनसे उनके बैंक खातों का एक-एक पैसा वसूल लिया गया। कई मामले तो ऐसे हुए हैं जिनमें ठग या ठगों ने ऐसे फंसे हुए लोगों की डेढ़-दो दिन तक डिजिटल-किडनैपिंग कर ली, और उन्हें उतना वक्त मोबाइल फोन की वीडियो कॉल चालू रखकर गुजारना पड़ा, फोन के कैमरे के सामने ही सोना पड़ा। यह एकदम भयानक नौबत है क्योंकि आज हर किसी के पास फोन है, अधिकतर लोगों के फोन से उनके बैंक खाते या भुगतान के और कोई तरीके जुड़े हुए हैं, और हर कोई अपनी बदनामी से डरते भी हैं। ऐसे में एक बार किसी को कर्ज के जाल में फंसाकर, लोन एप्लीकेशन के मार्फत लोगों के फोन की पूरी जानकारी पर कब्जा करके, या सेक्स-कॉल में किसी को उलझाकर, उसमें लोगों के वीडियो बनाकर फिर उन्हें निचोडऩे का जो सिलसिला शुरू होता है, वह कभी खत्म ही नहीं हो पाता। अधिकतर मामलों में लोगों की बैंक में रकम पहले खत्म होती है, जिंदा रहने का हौसला उसके बाद खत्म होता है, और बहुत कम लोग ही पुलिस तक पहुंच पाते हैं।
अब इस किस्म के साइबर-जुर्म को रोक पाना सरकार के लिए पता नहीं कितना मुमकिन है, क्योंकि वे दो लोगों के बीच टेलीफोन पर चलने वाला सिलसिला रहता है, और शायद सरकारी निगरानी एजेंसियों के जाल में ऐसे जुर्म आसानी से फंसते नहीं हैं। इसका एक ही तरीका दिखता है कि लोगों को जागरूक किया जाए। इसका दूसरा तरीका एक और हो सकता है कि लोगों के बैंक खातों से ऑनलाईन भुगतान को मुश्किल किया जाए। अब इससे लोगों के कामकाज और कारोबार कितने प्रभावित होंगे, और जुर्म कितने रूकेंगे, इसका अंदाज लगाना हमारे लिए मुमकिन नहीं है, लेकिन यह बात जरूर है कि ब्लैकमेलिंग या ठगी के शिकार लोग नए-नए बैंक खातों पर जब मोटी रकम डालने लगते हैं, तो उसके खिलाफ बैंकों में हिफाजत के लिए कोई तरकीब निकाली जा सकती है, या निगरानी रखने वाली एजेंसियां, और जांच एजेंसियां भी ऐसे तरीके निकाल सकती हैं कि संदिग्ध या रहस्यमय लगने वाले ऐसे भुगतान बैंकों की नजर में आएं, और उनकी आगे जांच की जा सके। अभी हमको यह अंदाज नहीं है कि बैंकों की अपने ग्राहकों से गोपनीयता की शर्तें इसमें आड़े आएंगी, या नहीं, लेकिन हमारा मानना है कि ग्राहकों से भी बैंक एक ऐसी इजाजत ले सकते हैं कि अगर बैंक को शक हो कि इस खाते से ठगी या ब्लैकमेलिंग का भुगतान हो रहा है, तो वे इस पर किसी तरह से नजर रख सकें, रोक सकें, या कम से कम ग्राहक से बात करके पूछ सकें कि ऐसे असाधारण भुगतान क्यों किए जा रहे हैं।
अभी एक अंतरराष्ट्रीय मीडिया की एक रिपोर्ट है कि अगर साइबर-जुर्म को एक देश माना जाए, तो इस देश की कमाई दुनिया में तीसरे नंबर की अर्थव्यवस्था रहेगी। अब अगर सिर्फ दर्ज हुए साइबर-जुर्म की कमाई इतनी बढ़ चुकी है, तो दर्ज न होने वाले साइबर-जुर्म का आकार तो शायद और भी विकराल होगा। अब समय आ गया है कि जिस तरह आवाज बदलने वाले सस्ते सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल से लोग किसी को ठग रहे हैं, सरकारी जांच एजेंसियों को भी एआई का इस्तेमाल करके ऐसे ठगों और जालसाजों को, ब्लैकमेलरों को पकडऩे की तरकीबें निकालनी चाहिए। पूरी की पूरी दुनिया आज डिजिटल हो चुकी है, और शायद दुनिया का तीन चौथाई से अधिक कारोबार डिजिटल या ऑनलाईन हो चुका है, ऐसे में साइबर-जुर्म को रोकना आज दुनिया के सामने शायद सबसे बड़ी चुनौती है। दुनिया के हिन्दुस्तान सरीखे बहुत से देशों ने हर चीज को डिजिटल, या ऑनलाईन कर दिया है, लेकिन ऑनलाईन ठगी, और जालसाजी को रोकने के लिए बचाव अभी तक नहीं ढूंढे हैं, यह काम बड़े पैमाने पर करने की जरूरत है, क्योंकि मुजरिमों के पकड़ाने पर भी लोगों की डूबी रकम तो नहीं लौटती है।
छत्तीसगढ़ में एकाएक स्कूलों से जुड़े हुए इतने मामले सामने आ रहे हैं कि वे चौंकाते हैं। कहीं पर शिक्षक नहीं है, इसलिए बच्चे अपने मां-बाप के साथ वहां से टीसी निकालने के लिए खड़े हुए हैं, तो कहीं निजी स्कूलों की बसें बच्चों को बिना किसी फिटनेस सर्टिफिकेट के ढो रही है, किसी सडक़ हादसे की नौबत में बड़ी संख्या में जिंदगियां खतरे में रहेंगी। एक कहीं पर हॉस्टल अधीक्षक ने नशे की हालत में आकर मार-मारकर बच्चों को हॉस्टल से भगा दिया, तो बस्तर के कोंडागांव में एक शिक्षक ने अपने बन रहे मकान की छत पर काम करने के लिए 10वीं की छात्रा को जबर्दस्ती बुलाया, और फेल करने की धमकी देकर उससे मुफ्त में मजदूरी करवाने लगा। तीन मंजिल से गिरकर यह नाबालिग लडक़ी मर गई। उसके साथ की एक और बच्ची अभी सदमे में है। कुछ जगहों पर स्कूल का भवन नहीं है, या खतरनाक हालत में है, और वहां पर गांव वालों ने गेट पर ताला डाल दिया है। अब तो छत्तीसगढ़ की मौजूदा भाजपा सरकार को काम संभाले छह महीने से अधिक हो चुका है, और अभी बीस दिन पहले तक सबसे अधिक अनुभवी मंत्री बृजमोहन अग्रवाल इस विभाग को देख रहे थे। यह जाहिर है कि यह हालत एकाएक तो नहीं हुई है, और इसमें से बहुत सी बातें तो पिछली कांग्रेस सरकार के समय से चली आ रही होंगी, और उस सरकार को भी ऐसी ही विरासत अपनी पिछली रमन सरकार से मिली रही होगी। कोई हैरानी नहीं है कि छत्तीसगढ़ के बच्चों का शिक्षा का स्तर देश में सबसे खराब पाया जा रहा है, जो आधा दर्जन राज्य सबसे खराब हालत में हैं, उनमें छत्तीसगढ़ भी शुमार है। अब किसी नए मंत्री के आने तक स्कूल शिक्षा को मुख्यमंत्री ने खुद रखा है, और ये महीने स्कूल शिक्षा के साल के सबसे महत्वपूर्ण महीने हैं जब न सिर्फ स्कूल या हॉस्टल को देखना होता है, बल्कि शिक्षकों से लेकर दोपहर के भोजन तक, और किताबों से लेकर यूनिफॉर्म तक हर चीज का इंतजाम करना पड़ता है। ऐसे में पहले से कई विभागों का काम देख रहे मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय को किसी ऐसे वरिष्ठ और अनुभवी व्यक्ति को स्कूल शिक्षा का जिम्मा देना चाहिए जो कि दबाव में तबादले करने का प्रतिरोध भी कर सके, और तीस लाख बच्चों के भविष्य का बेहतर इंतजाम भी कर सके।
छत्तीसगढ़ में स्कूल शिक्षा विभाग राज्य के सरकारी कर्मचारियों की संख्या के मामले में प्रदेश का सबसे बड़ा विभाग है। फिर यह भी है कि इससे जुड़े तीस लाख बच्चे लगभग सभी नाबालिग रहते हैं, और वे किसी गड़बड़ी का अधिक विरोध नहीं कर पाते। ऐसे में इस विभाग को भ्रष्टाचार से बाहर निकालना चाहिए जो कि इसकी रगों में भरा हुआ है। पिछले 25 बरस में छत्तीसगढ़ की स्कूलों के लिए फर्नीचर खरीदी से लेकर लाइब्रेरी की किताबें खरीदने तक, साइकिलें और यूनिफॉर्म लेने तक, कदम-कदम पर भ्रष्टाचार रहते आया है। हर किसी को यह पता रहता है कि कहां कितना कमीशन चलता है। जाहिर है कि इससे स्कूलों के ढांचों की क्वालिटी घटिया रहती है, और बच्चों की पढ़ाई भी प्रभावित होती है। हर स्कूल में एक-दो कमरे तो टूटे फर्नीचर से ही भरे रहते हैं, क्योंकि उन्हें इस्तेमाल के हिसाब से नहीं, सप्लाई के हिसाब से बनाया जाता है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। छोटे बच्चों को जब यह दिखे कि सरकारी खरीदी के सामान कितने घटिया होते हैं, तो उनकी जिंदगी में सीखने की शुरूआत ही सरकार के प्रति हिकारत के साथ होती है।
दूसरी बात यह कि किसी स्कूल में पांच-पांच कक्षाओं को पढ़ाने के लिए एक अकेले शिक्षक की तैनाती है, और बहुत से ग्रामीण इलाकों में तो ऐसे अकेले शिक्षक भी गांव के किसी मामूली पढ़े नौजवान को पढ़ाने का काम ठेके पर देकर घर चले जाते हैं। एक तरफ तो शिक्षकों के लिए पढ़ाने की तकनीक वाले बीएड जैसी डिग्री अनिवार्य की गई है, दूसरी तरफ कई-कई क्लास संभालने वाले इकलौते शिक्षक भी कई जगह नशे की हालत में आकर स्कूल में फर्श पर पड़े रहते हैं, और उसी कमरे में बच्चे पढ़ते रहते हैं। हर कुछ हफ्तों में किसी न किसी जगह से ऐसे वीडियो आते हैं, और हमारा मानना है कि ऐसे दर्जनों मामलों में से किसी एक का ही वीडियो बन पाता होगा। देश में बच्चों के यौन शोषण के खिलाफ खासा कड़ा कानून रहने के बावजूद छत्तीसगढ़ की स्कूलों में छात्राओं पर यौन शोषण बहुत सी जगहों पर होता है, और उनमें से कुछ ही जगहों पर पुलिस या प्रशासन तक शिकायत पहुंच पाती है। अब सवाल यह उठता है कि सबसे अनुभवी मंत्री के रहते हुए भी अगर हालत नहीं सुधर पा रही है, तो ऐसा स्कूल शिक्षा विभाग कैसे सुधारा जा सकता है?
यह तो सबसे गरीब बच्चों को दोपहर के भोजन का एक मोह स्कूल खींच लाता है, वरना स्कूल छोडऩे वाले बच्चों की गिनती और बहुत बढ़ गई रहती। पढ़ाई छोडऩे वाले बच्चों को स्कूल में वापिस लाने का अभियान हर बरस सुनाई पड़ता है, लेकिन यह भी सुनाई पड़ता है कि बच्चों के भोजन, और दूसरी चीजों पर होने वाले खर्च को खाने-पीने के लिए विभाग अधिक से अधिक बच्चों की मौजूदगी दिखाता है, जबकि इतने बच्चे स्कूल पहुंचते नहीं हैं। और ये तमाम बातें बिल्कुल ही बुनियादी पढ़ाई को लेकर हैं, और खेलकूद से लेकर दूसरे तरह की गतिविधियों का हाल अलग-अलग स्कूलों में अलग-अलग रहता है जिसे लेकर कोई एक बात नहीं कही जा सकती। छत्तीसगढ़ में एक दिक्कत यह भी रही कि यहां पिछली कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने स्वामी आत्मानंद अंग्रेजी स्कूल के नाम से अंधाधुंध लागत से ऐसे स्कूल बनाए जिनसे राज्य के बाकी सरकारी स्कूलों का कोई मुकाबला ही नहीं रह गया। और जिस शहर-कस्बे में सरकार की जो मौजूदा हिन्दी स्कूलें सबसे अच्छी हालत में थीं, उन्हें ही सबसे पहले आत्मानंद अंग्रेजी स्कूल बनाया गया, इससे हिन्दी भाषा में पढऩे वाले बच्चों के हाथ से सबसे अच्छे ढांचे वाली स्कूलें चली गईं। आम सरकारी स्कूलों में न भवन ठीक से हैं, न अहाते हैं, और न ही दूसरी कोई सुविधाएं। और ऐसे ही अभाव के समंदर में आत्मानंद नाम से महंगे और खर्चीले टापू बना दिए गए जो कि अंग्रेजी भाषा के आतंक का एक प्रतीक भी हैं। अंग्रेजी भाषा में पढ़ाने के लिए शिक्षकों का अधिक तनख्वाह पर मिलना तो समझ में आता है, लेकिन उसके लिए ऑलीशान इमारत और नए-बेहतर फर्नीचर जैसी जरूरतें क्यों हैं? अंग्रेजी तो बिना शान-शौकत के भी पढ़ी जा सकती है, लेकिन छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल की पांच बरस की सरकार ने स्कूल शिक्षा विभाग का बहुत सा पैसा और जिलों में आने वाला खनिज निधि का पैसा आत्मानंद पर खर्च किया, और नतीजा यह निकला कि बाकी उपेक्षित हिन्दी स्कूल परमात्मानंद होकर रह गए।
स्कूली शिक्षा बच्चों की जिंदगी में सबसे महत्वपूर्ण बुनियाद रहती है, और यहीं पर इतना भयानक भेदभाव, इतने किस्म के भ्रष्टाचार, शिक्षकों की तैनाती में अराजकता की नौबत, और कहीं नशा करते, कहीं मारपीट करते, और कहीं छात्राओं से दुष्कर्म करते शिक्षकों से सरकारी स्कूली शिक्षा के प्रति हिकारत ही पैदा होती है। मुख्यमंत्री विष्णु देव साय को चाहिए कि वे इस विभाग को किसी अच्छे पूर्णकालिक मंत्री को बिना देर किए सौंपें, ताकि स्कूलों के लिए सबसे महत्वपूर्ण जुलाई का यह महीना हर बात के लिए टलते न चले जाए।
तीन अलग-अलग खबरें हैं जिन्हें जोडक़र यह नतीजा निकलता है कि किस तरह पैसों की ताकत सरकार को भी आंखें दिखाती है। छत्तीसगढ़ के दुर्ग के एक व्यक्ति ने हाईकोर्ट में यह जनहित याचिका लगाई कि वहां के एक व्यक्ति ने अपने कर्मचारी के बैंक खाते से करोड़ों रूपए नगद निकाले हैं, और इसमें कानून तोड़े गए हैं। याचिकाकर्ता ने पहले राज्य सरकार को कई बार इस बारे में लिखा था लेकिन कोई कार्रवाई न देखकर वह हाईकोर्ट पहुंचा था। हाईकोर्ट में राज्य शासन ने एक हक्का-बक्का करने वाला तर्क दिया कि जिस निजी बैंक, यस बैंक, का यह मामला है वह जांच में सहयोग नहीं कर रहा है। इसके बाद अदालत ने इस बैंक को भी इस केस में नोटिस भेजा है। अब सवाल यह उठता है कि छत्तीसगढ़ की जमीन पर काम करने वाला कोई बैंक पहली नजर में ही करोड़ों की अफरा-तफरी की शिकायत या एफआईआर पर चल रही जांच में राज्य की पुलिस से सहयोग कैसे नहीं करेगा? पुलिस के पास तो ऐसे बैंक और उसके अफसरों पर कार्रवाई के लिए बहुत से अधिकार हैं, और अलग-अलग राज्यों में हम देखते हैं कि किस तरह बड़े-बड़े लोगों को गिरफ्तार कर लिया जाता है। अब अगर पहली नजर की इस जालसाजी और दोनंबरी बैंकिंग पर भी अगर राज्य की पुलिस हाईकोर्ट में दीन-हीन और मासूम बनकर खड़ी हो जाती है, तो यह बात तो ईमानदार नहीं लगती है। एक दूसरी खबर बताती है कि किस तरह छत्तीसगढ़ के कुख्यात महादेव ऐप नाम के सट्टेबाजी के धंधे में हजारों करोड़ रूपए के दांव लगवाने के लिए जो बैंक खाते इस्तेमाल किए गए, उनमें से अधिकतर खाते निजी बैंकों में थे। जाहिर है कि इतने बड़े पैमाने पर रकम की आवाजाही देखते हुए भी अनदेखा करने की आपराधिक भागीदारी निजी बैंकों में ही अधिक मुमकिन थी। अब ऐसे बैंक अफसरों के खिलाफ बड़े पैमाने पर कोई कार्रवाई हुई हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ता, जबकि ऑनलाईन सट्टेबाजी जैसे संगठित अपराध में सैकड़ों खाते खोलकर सैकड़ों करोड़ की रकम इधर-उधर करना बैंकों से अनदेखा नहीं रह सकता था। एक तीसरी खबर कल की है कि राजधानी रायपुर में एक बड़े होटल में एक लडक़ी का कत्ल हो गया, कातिल लडक़े ने जाकर रेल पटरी पर खुदकुशी कर ली, और इसकी पिछली रात जब गायब लडक़ी को ढूंढने पुलिस पहुंची, तो होटल मैनेजमेंट ने उन्हें रजिस्टर दिखाने से मना कर दिया, उनके असली पुलिस होने पर भी शक जाहिर किया, और बड़े अफसरों का नाम बताकर जांच अफसरों को धमकाया भी। रात भर पुलिस को जानकारी नहीं मिली, और अगले दिन जाकर जब बड़े अफसर पहुंचे तो होटल में रजिस्टर दिखाया, जो कि हो सकता है बाद में भरा गया हो।
वैसे तो सोशल मीडिया पर लगातार ऐसे वीडियो तैरते रहते हैं जिनमें पुलिसवाले किसी गरीब को कूट रहे हैं, बहुत बुरी तरह जख्मी कर रहे हैं, और वर्दी की सारी ताकत बेसहारा पर उतार रहे हैं। दूसरी तरफ जब ऐसे बड़े लोग किसी जुर्म में शामिल होते हैं, तो पुलिस की हालत खराब हो जाती है, और जिस तरह वह पुणे में अरबपति के बिगड़ैल, शराबी, नाबालिग कार चलाते लडक़े द्वारा दो-दो लोगों को कुचल मारने के बाद भी थाने में उसकी खातिर करते दिखते हैं, उसी तरह का हाल अतिसंपन्न लोगों के साथ हर जगह दिखता है। वरना क्या ऐसा हो सकता था कि कोई बैंक पुलिस से जांच में सहयोग न करे, और पिछली कांग्रेस सरकार से लेकर अब तक वह जांच अधूरी रह जाए? देश-प्रदेश की राजधानियों में जिन बड़े कारोबारियों का सत्ता के ताकतवर लोगों के साथ लंबा-चौड़ा लेन-देन रहता है, उनके बीच तेजी से भागीदारी हो जाती है, और वहां ऐसे दोनंबरी से लेकर दसनंबरी तक कारोबारी सत्ता की ताकत का भी इस्तेमाल करते दिखते हैं, इनमें शराबमाफिया से लेकर भूमाफिया तक, शामियाना वाले से लेकर केटरिंग वाले तक, कई किस्म के लोग रहते हैं। सत्ता के सबसे बड़े लोगों की निजी पार्टियों में भी ऐसे लोग आमंत्रित मेहमानों से हाथ मिलाते घूमते हैं, जबकि वे वहां एक कारोबारी की हैसियत से केवल खाना परोसने के लिए मौजूद रहते हैं। एक कत्ल के मामले में, लडक़ी के गायब हो जाने, और उस होटल में आने का पुख्ता सुराग रहने के बाद भी तमाम रात अगर होटल मैनेजमेंट पुलिस को भी जानकारी देने से मना कर दे, तो इससे शर्मनाक और क्या हो सकता है? यही पुलिस किसी गरीब के हाथ लगने पर, उसे बूटों से कूट-कूटकर उसका कीमा बना डालती, लेकिन यहां अरबपति होटल मालिक बड़े अफसरों का नाम लेकर मझले अफसरों को धमकाते दिखता है।
हम पुलिस की किसी संविधानेत्तर ताकत की हिमायत नहीं करते, लेकिन अपनी ड्यूटी पूरी करते हुए अगर पुलिस को कड़ाई और सख्ती से पूछताछ करनी चाहिए थी, और निजी बैंकों के कर्ताधर्ता पुलिस जांच में सहयोग न करे, और पुलिस बेबस मासूम बच्चे की तरह हाईकोर्ट में खड़ी होकर अपनी दीनता दिखाए, यह बात इस राज्य के कई ईमानदार और सख्त अफसरों की साख से मेल नहीं खाती। अब पता नहीं क्यों यस बैंक की जिस धांधली का मामला पिछली कांग्रेस सरकार के समय से चले आ रहा है, उसके साथ आज की भाजपा सरकार की पुलिस भी क्यों नरमी बरत रही है? कल ही एक ऐसा वीडियो सामने आया है जिसमें एक रेलवे स्टेशन पर एक बहुत ही कमजोर और गरीब आदमी को एक पुलिसवाला बहुत बुरी तरह मार रहा है, और उसे रेलवे पटरियों पर उल्टा लटकाकर वहां फेंक देने की कोशिश कर रहा है। सबके चेहरे दिख रहे हैं, और आसपास दर्जनों लोग भी यह नजारा देख रहे हैं। ऐसे पुलिसवाले की न सिर्फ तुरंत बर्खास्तगी होनी चाहिए थी, बल्कि उसका प्रचार भी होना चाहिए था ताकि ऐसे और मुजरिम-पुलिसवालों को सबक मिल पाए।
भारतीय लोकतंत्र में पैसा अपने आपमें एक कानून है। अरबपति और करोड़पति मुजरिम के घेरे में आने की गुंजाइश बड़ी ही कम रहती है। ऐसे घेरे या कटघरे की हर सलाख बिकने पर आमादा रहती है, पुलिस, गवाह, फोरेंसिक लैब, वकील, और जज, इनमें से जाने कितने ही लोग बिक जाते हैं, और ताकतवर मुजरिम अगला जुर्म करने के लिए आजाद रहते हैं। यह सिलसिला अब वीडियो-सुबूतों के आने के बाद थोड़ा सा मुश्किल हो गया है, और अगर पुख्ता सुबूत मौजूद हैं, तो फिर न्याय प्रक्रिया की अलग-अलग सीढिय़ों को बिक जाने की सहूलियत हासिल नहीं रहती है। लेकिन लोगों को किसी भी जुर्म में किसी ताकतवर का नाम आने पर यह याद रखना चाहिए कि उनके बच निकलने की गुंजाइश कितनी अधिक है। अब कल ही मुम्बई में सत्तारूढ़ पार्टी के एक नेता के लडक़े ने कार से कुचलकर एक महिला, या उसकी लाश को तीन किलोमीटर तक घसीटा, और अब वह फरार है। आगे जाकर पता नहीं उसके खिलाफ कोई गवाह और सुबूत बच भी जाएंगे या नहीं, हिन्दुस्तानी लोकतँत्र ऐसा ही है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के एक नए बने जिले गौरेला-पेण्ड्रा-मरवाही में एक शिक्षक ने अपनी छात्रा रही नाबालिग आदिवासी लडक़ी को फंसाकर 12 बरस तक उससे देहसंबंध बनाए रखे, और छात्रा का कहना है कि उसे बंधक बनाकर उससे बलात्कार किया गया। अब लडक़ी बालिग है, इसी शिक्षक से गर्भवती है, और उसने रिपोर्ट लिखाई है कि इस काम में इस शिक्षक की वकील बीवी ने भी उसका साथ दिया है। रिपोर्ट के आधार पर पति-पत्नी दोनों को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया है। छात्रा के बयान के मुताबिक उसकी 12 बरस की उम्र से उस पर शिक्षक यह जुल्म ढा रहा था, और अब वह गर्भवती है तो पुलिस डीएनए जांच से भी लडक़ी की शिकायत को परख सकती है।
छत्तीसगढ़ में हर कुछ दिनों में ऐसी खबर आ रही है कि नाबालिग लडक़ी को बहला-फुसलाकर, शादी का वायदा करके उससे देहसंबंध बनाए जाते हैं, और चूंकि कानून की नजर में नाबालिग लडक़ी की सहमति कोई मायने नहीं रखती, ऐसे संबंध पॉक्सो एक्ट के तहत नाबालिग से बलात्कार के दर्जे में आते हैं। ऐसे मामलों में तुरंत ही गिरफ्तारी भी होती है, और कुछ मामलों में हाईकोर्ट तक पहुंचने पर भी उम्रकैद कायम रखी गई है। अभी चार दिन पहले ही मानसिक-विचलित कहे जा रहे एक बुजुर्ग को नाबालिग से बलात्कार के आरोप में मिली उम्रकैद में हाईकोर्ट ने कोई भी रियायत देने से मना कर दिया। ऐसे में जब लडक़ी या महिला दलित या आदिवासी तबके की हो, तो इन पर एसटी-एससी एक्ट और लग जाता है, और सजा बढ़ जाती है, या अधिक कड़ी हो जाती है। इस पूरी नौबत को बारीकी से समझने की जरूरत है, और नाबालिगों को समझ देने की भी।
यह जरूर है कि देश में नाबालिग लड़कियों के शोषण के खिलाफ कड़ा कानून है, और अधिकतर मामलों में कार्रवाई करना पुलिस की मजबूरी भी हो जाती है, फिर चाहे वह किसी दबाव में कार्रवाई से कतराना भी चाहे। लेकिन ऐसी कार्रवाई से लडक़ी की कोई भरपाई नहीं हो पाती। सरकार से बलात्कार की शिकार को मिलने वाली आर्थिक मदद भी मिल जाए, तो भी इससे सामाजिक और भावनात्मक भरपाई नहीं हो पाती। ये दोनों ही जख्म किसी लडक़ी का पीछा बाकी तमाम जिंदगी करते हैं, और समाज की सोच ऐसी रहती है कि बलात्कार की शिकार लडक़ी या महिला बाकी लोगों के लिए भी मानो उपलब्ध रहती हो। इसलिए बलात्कार से बचना ही सबसे बेहतर विकल्प है।
बलात्कार करने वाले लोगों को समझाने का काम उनके बचपन से उनके परिवार अगर करते आए रहते तो वे ऐसे मुजरिम भी नहीं बनते। लेकिन हिन्दुस्तानी समाज लड़कियों को ही सावधानी सिखाने का आदी रहता है, और बलात्कारी लडक़ों के बारे में समाज ठीक वही सोचता है जो कि अभी कुछ बरस पहले ही मुलायम सिंह यादव ने कहा था कि लडक़े हैं, गलती हो जाती है। छत्तीसगढ़ में हर दिन दो-चार ऐसी शिकायतें दर्ज हों, और अनगिनत मामले बिना रिपोर्ट भी दब जाएं, यह नौबत ठीक नहीं है। नाबालिग लड़कियों को यह समझाने की जरूरत है कि शादी की किसी भी तरह की चाह, या झांसे के चलते वे किसी को अपना बदन नहीं सौंप देना चाहिए। फिर यह भी है कि देहशोषण करने वाले को सजा दिलवाने से अपना गर्भ कहीं नहीं चले जाता, अनचाही संतान को जन्म देना, या गर्भपात से गुजरना, ये दोनों ही बातें बड़ी तकलीफ की रहती हैं। इसे बचने की कोशिश करनी चाहिए। नाबालिग लड़कियों को खतरों की समझ भी शायद कुछ कम रहती है, और वे देहसंबंधों के साथ-साथ अंतरंग पलों की तस्वीरें भी खिंचवाने को तैयार हो जाती हैं, और वीडियो बनवा लेती हैं, या उनकी जानकारी के बिना भी छुपे कैमरों से यह काम कर लिया जाता है, जो बाकी पूरी जिंदगी तबाह करने के लिए अक्सर ही इस्तेमाल होता है। रिवेंज पोर्न नाम से दुनिया भर में ऐसे अंतरंग पलों के वीडियो फैले हुए हैं, और उन्हें जड़ से खत्म करना किसी टेक्नॉलॉजी या कानून के बस में नहीं हैं। जब लोग प्रेम में पड़े रहते हैं, या देहसंबंधों का सुख उनकी तर्कशक्ति को कुछ वक्त के लिए खत्म कर देता है, तो वे अपने लिए ऐसे खतरे खड़े कर लेते हैं। न सिर्फ छत्तीसगढ़ में बल्कि पूरे देश में नाबालिग लड़कियों, और लडक़ों को भी फोटो और वीडियो के ऐसे खतरों से आगाह करने की जरूरत है। आज पश्चिमी देशों में सेक्सटॉर्शन नाम से लोगों से वीडियो कॉल पर उनके कपड़े उतरवाकर जो रिकॉर्डिंग की जाती है, वह ब्लैकमेलिंग के काम आती है, और इसके शिकार बहुत से स्कूली लडक़े भी खुदकुशी कर रहे हैं। हिन्दुस्तान और छत्तीसगढ़ में भी सेक्सटॉर्शन के शिकार बहुत से लोग पुलिस तक पहुंचते हैं, और हमारा अंदाज है कि इससे सैकड़ों गुना अधिक लोग चुपचाप ब्लैकमेलरों को भुगतान करते रहते हैं।
इन दिनों लडक़े-लड़कियों की सेक्स की जरूरत कुछ कम उम्र में शुरू हो जाती है, और उस वक्त तक उन्हें बाकी की जिंदगी और दुनिया के तमाम खतरों की समझ नहीं आ पाती। सरकार और समाज को मिलकर इस नई पीढ़ी को चौकन्ना करने की जरूरत है, क्योंकि अब तो जो मामले सामने आ रहे हैं, उनमें रिटायरमेंट के बाद के लोग भी सेक्सटॉर्शन के शिकार हो रहे हैं। एक साइबर जुर्म, और एक रूबरू जुर्म, इन दोनों से बचाव जरूरी है। समाज में जहां अच्छे-खासे बालिग लोग आसपास के नाबालिगों का देहशोषण करते हैं, उस जुर्म से बचने की नसीहत भी बाकी लोगों को दी जानी चाहिए। जब हर किसी को जागरूकता मिल चुकी रहेगी, तभी जाकर ऐसे जुर्म घटेंगे, और लोग ऐसे जुर्म का शिकार होने से बचेंगे। स्कूल की उम्र से ही लडक़ों को भी ऐसे जुर्म करने से बचने की नसीहत देना चाहिए, वरना उसके खतरे भी बता देने चाहिए, जो कि महज कैद तक नहीं रह जाते, कैद के बाद बाकी तमाम जिंदगी को भी बर्बाद कर देने वाले रहते हैं।
दुनिया के लिए यह चुनाव का बरस है। इस बरस 64 देशों में, और यूरोपीय यूनियन के चुनाव हो रहे हैं। सबसे बड़ा चुनाव तो हिन्दुस्तान का हो चुका है जिसमें दस बरस की सत्तारूढ़ भाजपा को अपने ही रिकॉर्ड के मुकाबले कुछ शिकस्त हासिल हुई है, और उसके तमाम दावों और उम्मीदों के बावजूद भाजपा का ग्राफ गिरा है। भारत की राजनीति में भाजपा को दक्षिणपंथी पार्टी के रूप में जाना जाता है, और बाकी दुनिया के अखबारों की जुबान में इसे राष्ट्रवादी हिन्दू पार्टी कहते हैं। 2024 के चुनाव में इसका नुकसान हुआ है, और अब यह अपने अकेले के दम पर सरकार नहीं चला रही है, बल्कि अनिवार्य रूप से इसे साथीदलों की जरूरत है। इसलिए भारत के 2024 के लोकसभा चुनाव में यह बात समझ लेना ठीक होगा कि दक्षिणपंथ को वोटरों का समर्थन कुछ घटा है। यह भी समझने की जरूरत है कि हम यहां इस जुबान में बात क्यों कर रहे हैं। बाकी दुनिया में राजनीतिक दलों की विचारधारा, और उनके रूझान के लिए इसी भाषा का इस्तेमाल होता है, और इसी के तहत फ्रांस के चुनाव में घोर दक्षिणपंथी पार्टी पहले दौर के मतदान में बहुत आगे बढ़ी हैं, और यह सिलसिला फ्रांस में यूरोपीय यूनियन के चुनाव में सामने आए रूझान से ही जारी है। वहां पर राष्ट्रपति ने फ्रांस के इतिहास का सबसे बड़ा जुआ खेला था, और ईयू के चुनाव में फ्रांसीसी मतदाताओं का समर्थन दक्षिणपंथियों को मिलने के बाद उन्होंने तुरंत ही संसद भंग करके चुनाव करवाने का फैसला लिया था, जो कि उल्टा पड़ा। अब फ्रांस में पहले दौर के मतदान के बाद भी आगे यही रूझान जारी रहने का अंदाज है, योरप का यह एक सबसे ताकतवर देश दक्षिणपंथियों के हवाले हो रहा है।
अब पिछले दो दिनों में दो और चुनावी नतीजे आए हैं जिनको साथ रखकर देखने की जरूरत है। ब्रिटेन में वामपंथी रूझान वाली लेबर पार्टी को 14 बरस बाद सरकार बनाने का मौका मिल रहा है, और उसे संसद के 650 सीटों के निचले सदन में 410 सीटें मिली हैं, और मौजूदा प्रधानमंत्री ऋषि सुनक की कंजरवेटिव पार्टी को 131 सीटें। ब्रिटेन के चुनावों में दक्षिणपंथी रूझान वाली कंजरवेटिव पार्टी को ऐसी भयानक हार शायद ब्रिटिश इतिहास में दो सदी की सबसे बुरी शिकस्त है। हम अभी ब्रिटिश चुनाव की अधिक बारीकियों में नहीं जा रहे, क्योंकि एक और प्रमुख देश के चुनावी नतीजों पर साथ-साथ यहीं पर चर्चा करना है। ईरान में एक हेलीकॉप्टर हादसे में राष्ट्रपति की मौत के बाद बेवक्त हुए चुनाव में सुधारवादी नेता डॉ.मसूद पेजेक्शियान ने कट्टरपंथी नेता सईद जलीली को हरा दिया है। इन दोनों के बीच वोटों का फासला 9 फीसदी रहा है। डॉ. मसूद पेशे से हार्ट सर्जन रहे हैं, और ईरान में महिलाओं पर जुल्म ढहाने वाली मॉरल पुलिसिंग के कटु आलोचक रहे हैं। उनके मुकाबले जो लोग थे वे महिलाओं पर अधिक प्रतिबंध के हिमायती थे, और जैसा कि सबको मालूम है ईरानी महिलाएं पिछले दो बरस से हिजाब की अनिवार्यता के खिलाफ आंदोलन कर रही थीं, और बहुत कम वोट पडऩे के बावजूद इस बार का रूझान बड़ा साफ रहा, जो उम्मीदवार थे उनमें कम दकियानूसी, अधिक सुधारवादी, और कम कट्टरपंथी को जीत मिली। इससे ईरान में कोई क्रांति नहीं होने जा रही है क्योंकि वहां के संविधान के मुकाबले वहां के धार्मिक प्रमुख ही सुप्रीम लीडर हैं, जो संविधान में सबसे ऊपर है, लेकिन कम से कम जनता का एक रूख तो इससे सामने आया है।
भारत में भाजपा को पिछले चुनाव से कम सीटें मिलना, लेकिन फ्रांस में सबसे दक्षिणपंथी पार्टी को ईयू और देश, दोनों के चुनावों में बढ़त मिलना एक किस्म का रूख है, दूसरी तरफ ब्रिटेन में दक्षिणपंथी कंजरवेटिव पार्टी की बुरी शिकस्त हुई है, और उदारवादी लेबर पार्टी को ऐतिहासिक बहुमत मिला है, इसके साथ-साथ ईरान में भी सुधारवादी और उदारवादी राष्ट्रपति बन रहे हैं। अलग-अलग देशों का अलग-अलग रुझान हैं, इसलिए यह मानना ठीक नहीं है कि पूरी दुनिया में दक्षिणपंथ की, या उसके सफाए की कोई लहर चल रही है। फिर यह भी है कि अलग-अलग देशों की बहुत अलग-अलग स्थानीय स्थितियां हैं, वहां के वोटरों के सामने मुद्दे भी अलग-अलग हैं, इसलिए वहां के चुनावी नतीजे पूरी दुनिया का कोई रूझान नहीं बता रहे। लेकिन इस बरस दुनिया में जितने अधिक देशों में चुनाव है, उससे इन तमाम देशों के अंतरराष्ट्रीय संबंधों का भी एक नया दौर सामने आएगा। योरप के भीतर इस बात की चर्चा शुरू हो चुकी है कि फ्रांस के अलावा जिन दूसरे देशों में दक्षिणपंथी सरकारें रहेंगी, या हैं, उनके साथ ब्रिटेन की लेबर पार्टी की सरकार किस तरह संबंध रख सकेगी? क्योंकि राजनीतिक विचारधारा के स्तर पर इन दोनों के बीच किसी तरह का कोई तालमेल नहीं बैठ पाएगा। ब्रिटेन में लेबर पार्टी के नेताओं से ये सवाल भी शुरू हो चुके हैं कि वे दक्षिणपंथी सत्ता वाले देशों के साथ कैसे संबंध रख सकेंगे? ईरान को देखना भी बड़ा दिलचस्प रहेगा क्योंकि वहां के ऐतिहासिक महिला आंदोलन को लेकर नए राष्ट्रपति का क्या रूख रहेगा, और कैसे वे धार्मिक कट्टरता वाले अपने सुप्रीम लीडर के रूख के बावजूद महिलाओं के प्रति उदारता दिखा पाएंगे? ईरान में तो वोटरों के बीच एक उदासीनता यह भी थी कि किसी भी उम्मीदवार को वोट देने से क्या फायदा क्योंकि उम्मीदवार की निजी सोच की कोई औकात सुप्रीम लीडर के फैसलों के सामने नहीं रहने वाली है, यह सोचकर भी बहुत कम ईरानी वोटरों ने वोट डाले थे।
हमारा ख्याल है कि दुनिया में राजनीति शास्त्र के शोधकर्ताओं के सामने यह साल एक ऐतिहासिक मौका है जिसमें वे किसी एक इलाके के, या किसी एक धर्म से चलने वाले, या किसी एक फौजी खेमे वाले देशों के भीतर हुए चुनावों के नतीजों का विश्लेषण कर सकेंगे, उसकी तुलना कर सकेंगे। वैसे तो हर चुनाव अपने खुद के देश के लिए भी एक सबक रहता है जिससे वहां के राजनीतिक दल और वोटर सभी कुछ न कुछ सीखते हैं, लेकिन अब चूंकि दुनिया के देशों के बीच इतने जटिल अंतरसंबंध चल रहे हैं, कारोबार से लेकर जंग तक के रिश्ते लोगों को एक-दूसरे से बांधकर रख रहे हैं, इसलिए किसी देश की सत्ता पर आने वाली किसी पार्टी या गठबंधन को देश के आंतरिक मुद्दों के अलावा अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी दिलचस्प नीतियां बनानी पड़ सकती हैं। हम दुनिया में हो रहे इस फेरबदल को कई हिसाब से देख रहे हैं, भारत में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने राजनीतिक जीवन में पहली बार गठबंधन के साथियों के आश्रित रहकर सरकार चला रहे हैं, और ये साथीदल कुछ मुद्दों पर मोदी की सोच से बिल्कुल अलग सोच भी रखते हैं। ऐसे में लोकतंत्र में सामंजस्य से सरकार चलाने का यह थोड़ा सा नये किस्म का प्रयोग रहेगा। इजराइल में मौजूदा सरकार अपने भीतर के सबसे दकियानूसी कट्टरपंथियों की मोहताज है, और प्रधानमंत्री अपनी मर्जी से बहुत कुछ नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में कुछ देश किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत देकर गठबंधन की मजबूरियों को परे भी रख रहे हैं। यह साल अंतरराष्ट्रीय खबरों में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए बहुत सी अतिरिक्त समझ लेकर आएगा।