संपादकीय
तेलंगाना में अभी कांग्रेस की सरकार बनी ही है कि नए मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने यह आरोप लगाया है कि विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बीआरएस के पिछले मुख्यमंत्री के.चन्द्रशेखर राव ने किसी को बताए बिना गुपचुप तरीके से 22 महंगी, बुलेटप्रूफ कारों की सरकारी खरीद की थी। उनका इरादा दुबारा मुख्यमंत्री बनने के बाद इनको अपने काफिले में इस्तेमाल करने का था। इन कारों को विजयवाड़ा में एक जगह छुपाकर रख दिया गया था। कांग्रेस को अंधाधुंध शानदार जीत दिलाने वाले रेवंत रेड्डी ने कल एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि उन्हें भी मुख्यमंत्री बनने के बाद दस दिनों तक इन कारों के बारे में नहीं बताया गया था। उन्होंने जब अपने लिए पुरानी सरकारी कारों की मरम्मत की बात कही, तो उन्हें कुछ अफसरों ने कहा कि तीन-तीन करोड़ दाम वाली 22 कारें पिछले मुख्यमंत्री खरीदकर गए हैं, और उनका इस्तेमाल दुबारा शपथ ग्रहण के बाद करने की उनकी योजना थी। यह लोकतंत्र में एक बहुत बड़ा दुस्साहस दिखता है कि कोई नेता चुनाव में जाने के ठीक पहले जीतने की उम्मीद के साथ इतनी बड़ी फिजूलखर्ची करे। किसी और राज्य से किसी मुख्यमंत्री के अपने लिए नए विमान खरीदने की चर्चा है, कहीं कोई मुख्यमंत्री अपने लिए नया हेलीकॉप्टर भी लेते हैं, लेकिन इन सबके बीच कारों के अपने काफिले पर 66 करोड़ रूपए खर्च करने का तेलंगाना का यह मामला बहुत ही भयानक है। तेलंगाना के जानकार अखबारनवीस बताते हैं कि राज्य का सचिवालय भी साढ़े 6 सौ करोड़ रूपए (जमीन के दाम शामिल नहीं) की लागत से केसीआर ने बनवाया, इस महलनुमा इमारत के उद्घाटन के बाद से वे खुद इसमें एक दिन के लिए भी नहीं गए, और अब कांग्रेस के रेवंत रेड्डी इसके मुख्यमंत्री कार्यालय में बैठेंगे। सचिवालय की यह इमारत एक महल की तरह दर्शनीय बनी हुई है, और पर्यटक इसके सामने आकर सेल्फी लेने को एक जरूरी रिवाज मानने लगे हैं।
तेलंगाना में पिछले मुख्यमंत्री के मंत्री बेटे, केटीआर प्रदेश में सबसे अधिक मंत्रालयों वाले मंत्री थे, और अभी वे कांग्रेस सरकार पर नजर रखने के लिए अपने नेताओं को, एक शैडो टीम (छाया मंत्रिमंडल) खुला आव्हान कर चुके हैं। इसके जवाब में रेवंत रेड्डी ने कहा है कि शैडो टीम की क्या जरूरत है, उनके नेता तो यहां मंत्री रहे हुए हैं, और उन्हीं को अब सरकार पर नजर रखने के लिए लगा देना चाहिए, वे एक छाया मंत्रिमंडल की तरह काम कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सरकार में रहते तो काम किया नहीं था। दरअसल तेलंगाना में पिछली सरकार के गलत कामों को उजागर करने का सिलसिला नई सरकार चला रही है, और इसी को लेकर वहां टकराव चल रहा है, जिससे कई तरह के मामले उजागर हो रहे हैं। इसी सिलसिले में यह बात उजागर हुई कि सादे सफेद कपड़ों में आम इंसान सरीखे दिखने वाले पिछले मुख्यमंत्री केसीआर के काफिले के लिए 22 बुलेटप्रूफ गाडिय़ां खरीदी गई थीं। यह बात अकल्पनीय है कि कोई मुख्यमंत्री अपने काफिले की हर गाड़ी को बुलेटप्रूफ बनाने के लिए तीन-तीन करोड़ रूपए खर्च करे।
मुख्यमंत्री हों, या प्रधानमंत्री, अपने घर, दफ्तर, काफिले की कारों, अपने विमान और इन सबकी साज-सज्जा पर इस तरह खर्च करते हैं कि मानो वे पूरी जिंदगी वहीं बने रहने की लीज लिखाकर लाए हैं। देश की आबादी इतनी गरीब है कि केन्द्र सरकार, या अलग-अलग राज्य सरकारों को मुफ्त में राशन देना पड़ता है, तो लोग भुखमरी से बच पाते हैं। बच्चे तो फिर भी अन्न से परे कुछ भी न मिल पाने की वजह से कुपोषण के शिकार रहते ही हैं। ऐसे देश में जब जनता का पैसा नेताओं के शाही निजी आराम पर खर्च होता है, तो लगता है कि लोकतंत्र कहां है? सरकारी इमारतों को महलों की शक्ल में बनयाा जाता है, और फिर वहां रहने वालों का मिजाज सामंती हो जाए, तो इसमें हैरानी कैसी? हम जनता के पैसों पर बनने वाले सरकारी दफ्तरों को महलों की शक्ल में देख-देखकर थक गए हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में जो म्युनिसिपल ठीक से कचरा साफ नहीं करवा सकता, उसने अपना दफ्तर महलनुमा बनाया है, नाम व्हाईट हाऊस रखा है कि मानो वह अमरीकी राष्ट्रपति का दफ्तर है। सत्ता अपने छोटे-छोटे अहंकार सहलाने के लिए जनता का बड़ा-बड़ा पैसा खर्च करती है, और हिन्दुस्तान में ऐसी सरकारी आपराधिक फिजूलखर्ची पर कोई अदालती रोक भी नहीं है क्योंकि इसे सरकार का विवेकाधिकार मान लिया जाता है। यह एक अलग बात है कि यह गरीब जनता के प्रति हिकारत दिखाने वाला विवेकहीन अधिकार अधिक है क्योंकि यह जनता का खून निचोडऩे के साथ-साथ उसे यह गौरव दिलाने की कोशिश भी करता है कि यह लोकतंत्र की ताकत है।
जब संसद या विधानसभा में विपक्ष की आवाज या तो निकले ही नहीं, या उसे सुना नहीं जाए, तो फिर जनता के पैसों की फिजूलखर्ची पर कोई रोक नहीं लग पाती। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में कई एकड़ जमीन पर 65 करोड़ रूपए से मुख्यमंत्री निवास बना है, इसे डॉ.रमन सिंह के कार्यकाल में मंजूरी दी गई थी, भूपेश बघेल ने पांच बरस ईंट-गारा ढोकर इसे पूरा किया, और अब विष्णुदेव साय इसमें रहने जा रहे हैं। हमने कुछ दिन पहले अपने यूट्यूब चैनल पर मंत्री-मुख्यमंत्री, और अफसरों के लिए बहुत अंधाधुंध बड़े बंगले बनवाने के बारे में कहा था जिस पर लोगों की तीखी प्रतिक्रिया भी आई थी। लोकतंत्र में जो जनसेवा के नाम पर सत्ता पर आते हैं, उन्हें एक सेवक सरीखी जिंदगी जीने की भी आदत रखनी चाहिए। सरकारी इमारतों को न सिर्फ बनाना खर्चीला रहता है, बल्कि उनके रख-रखाव पर भी जनता का ही पैसा लगता है। इसलिए किसी भी जनकल्याणकारी सरकार को ऐसा नया खर्च शुरू करने के पहले यह भी सोचना चाहिए कि उसे देश-प्रदेश की जनता को मुफ्त में अनाज क्यों देना पड़ रहा है? और ऐसी जनता के खजाने से खुद पर इतना खर्च क्यों करना चाहिए कि मुख्यमंत्री निवास 8 एकड़ पर बने, और प्रधानमंत्री निवास 15 एकड़ पर!
हमारा ख्याल है कि लोकतंत्र में हर सरकार को अपने से पहले वाली सरकार के गलत कामों, फिजूलखर्चियों, और अपराधों पर श्वेत पत्र जारी करना ही चाहिए जैसा कि आज तेलंगाना में हो रहा है। श्वेत पत्र एक किस्म का तथ्य पत्र होता है जिसमें जानकारी लोगों के सामने रख दी जाती है। सत्ता में आने के पहले हर पार्टी अपने चुनाव अभियान में कई तरह के आरोप लगाती है, और सत्ता में आने पर ऐसी पार्टी को पूरे पारदर्शी तरीके से तथ्य जनता के सामने रख देने चाहिए। देश में आज सूचना के अधिकार का जो कानून लागू है, वह सूचना मांगने का अधिकार है। जबकि लोकतंत्र और संविधान की भावना यह होनी चाहिए कि सरकार खुद होकर जनता के सामने तमाम चीजों को रखती चले। यह सबका तजुर्बा है कि जहां-जहां चीजों को छुपाया जाता है, वहां-वहां जुर्म अधिक होते हैं, जैसे कि गरीब जनता के पैसों से 66 करोड़ का कार काफिला!
असम के गुवाहाटी हाईकोर्ट ने अभी राज्य की पुलिस को कहा है कि एक मामले में गिरफ्तार किए गए एक वकील को हथकड़ी लगाकर अदालत लाने, जेल ले जाने की नुमाइश करने वाले पुलिसवालों पर 5 लाख रूपए का जुर्माना लगाया जाए, और यह रकम अदालत से रिहा किए जा चुके इस वकील को हर्जाने के रूप में दी जाए। हाईकोर्ट ने यह पाया है कि असम पुलिस के एक होमगार्ड से एक मामूली से पार्किंग के झगड़े में इस वकील को गिरफ्तार किया गया था, उसके साथ बुरा सुलूक किया गया। अदालत ने इस बात को सुप्रीम कोर्ट के बड़े स्पष्ट आदेश-निर्देश के खिलाफ पाया कि अभियुक्त को हथकड़ी लगाकर अदालत में पेश किया गया, और अदालत से मेडिकल जांच के लिए, और जेल तक हथकड़ी लगाकर ही ले जाया गया। हाईकोर्ट ने यह माना है कि ऐसा बर्ताव इस अभियुक्त के बुनियादी मानवाधिकारों और गरिमा से जीने के हक के खिलाफ था। निचली अदालत से इस मामले में बरी हो जाने के बाद वकील ने मानवाधिकार आयोग में शिकायत की थी, लेकिन इस शिकायत को आयोग ने इस आधार पर बंद कर दिया था कि जिस अफसर के खिलाफ शिकायत है, वह गुजर चुका है। इसके बाद वकील ने हाईकोर्ट में इस आदेश के खिलाफ अपील की, और हथकड़ी लगाने से उसकी साख और गरिमा को हुए नुकसान का हर्जाना मांगा। अदालत ने माना कि जांच अधिकारी ने सोच-समझकर हथकड़ी लगाई थी जबकि सारे आरोप जमानतीय थे। अदालत ने राज्य शासन को आदेश दिया है कि दो महीने के भीतर इस वकील को पांच लाख रूपए हर्जाना दिया जाए, साथ ही असम पुलिस को हथकडिय़ों के बारे में सुप्रीम कोर्ट की दी गई व्यवस्था को लेकर संवेदनशील भी बनाया जाए।
अदालत ने इस मामले में जुर्माने की रकम पुलिस विभाग से वसूलने का निर्देश दिया है। यहीं पर हम अदालत से कुछ असहमत होना चाहेंगे। किसी अभियुक्त को हथकड़ी लगाई जाए या नहीं, इस बारे में पुलिस को बरसों से पर्याप्त जानकारी है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 1980 के एक फैसले में बहुत विस्तार से ये निर्देश दिए थे कि किस तरह के मामलों में किस इजाजत के बाद ही हथकड़ी लगाई जाए। इस बात को 40 साल हो चुके थे, जब असम पुलिस ने अपने होमगार्ड के साथ हुए झगड़े पर एक वकील के साथ यह सुलूक किया था। इसे पूरी तरह, या किसी तरह भी मासूम कार्रवाई नहीं कहा जा सकता था। एक मामूली से झगड़े की शिकायत पर स्थानीय अदालत में वकालत करने वाले वकील के फरार हो जाने या हिंसक हमला करने का ऐसा कोई खतरा नहीं था कि उसे हथकड़ी लगाई जाती। यह बात साफ-साफ है कि अपने ही विभाग के एक कर्मचारी के साथ हुए इस झगड़े के बाद पुलिस ने अतिउत्साह में, और बदले की भावना से यह कार्रवाई की थी, जिसकी नीयत किसी इंसाफ की न होकर वकील को बेइज्जत करने की थी। इसलिए इस मामले में हाईकोर्ट का यह दखल तो ठीक है कि पुलिस को इस ज्यादती के लिए जिम्मेदार मानते हुए उस पर जुर्माना लगाया जाए, लेकिन बदनीयत के ऐसे मामलों में जुर्माने का कम से कम एक हिस्सा जिम्मेदार अफसर और कर्मचारी के मत्थे भी मढ़ा जाना चाहिए क्योंकि यह किसी नियमित और मासूम कार्रवाई का हिस्सा नहीं था, यह बदनीयत से की गई कार्रवाई थी। लोगों को सरकारी कामकाज के दौरान रियायत सिर्फ अच्छी नीयत से की गई कार्रवाई के लिए ही मिलनी चाहिए, निजी दुश्मनी भंजाने के लिए ऐसी छूट नहीं दी जानी चाहिए।
अभी-अभी एक हाईकोर्ट में चल रही सुनवाई का एक वीडियो सामने आया है जिसमें एक मकान को तुड़वाने पर आमादा वकील को जज याद दिलाते हैं कि लोग बड़ी मुश्किल से एक मकान बना पाते हैं, और अगर किसी व्यक्ति ने अपनी जमीन के भीतर ही ऐसा मकान बनाया है, तो फिर उसे तुड़वाते हुए यह भी याद रखना चाहिए कि वकील ने खुद ने, या उनके मुवक्किल ने अपना मकान पूरी तरह नियमों के मुताबिक बनाया है क्या? अदालत ने इस प्रसारण में काफी सख्त रूख बताते हुए शिकायकर्ता के मकान का नक्शा और निर्माण की इजाजत भी मांगी है ताकि देखा जा सके कि शिकायत करने वाले लोगों का अपना खुद का क्या हाल है। इन दो मामलों का एक-दूसरे से कुछ भी लेना-देना नहीं है लेकिन दोनों ही मामले अदालत के इस रूख को बताते हैं कि सरकारी, पुलिसिया, या कानूनी ताकत हाथ में रहने पर किसी को परेशान करने या नीचा दिखाने का हक नहीं मिल जाता। हम गुवाहाटी हाईकोर्ट के इस ताजा आदेश पर लौटें, तो यह बाकी राज्यों के लिए भी एक सबक और चेतावनी हो सकती है कि पुलिस को मनमानी से किस तरह बचना चाहिए। मनमानी पर सरकार अपने अधिकारियों और कर्मचारियों की तरफ से जुर्माना जमा करे, यह हर मामले में ठीक नहीं है। जब व्यक्तियों की बदनीयत हो, तब उन पर भी जुर्माने का कुछ बोझ तो आना ही चाहिए।
देश में पुलिस सुधार पर बहुत सी बड़ी-बड़ी रिपोर्ट बन चुकी हैं, जो धूल खा रही हैं। देश भर के राज्यों में पुलिस राजनीतिक ताकतों के हाथ एक औजार की तरह काम करती है, और उसकी असल हसरत तो यह रहती है कि उसे हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाए। पुलिसवर्दी के बड़े-बड़े लोग अपने आपको सत्ता के हाथों हथियार की तरह पेश करने के लिए बेचैन रहते हैं ताकि उन्हें मोटी कमाई करने वाली कुर्सियां मिल जाएं। देश की ऐसी पुलिस व्यवस्था को सुधारने के लिए, और उसके कामकाज में राजनीतिक दखलंदाजी को कम करने के लिए दशकों से बात ही बात हो रही है, बात किसी किनारे नहीं पहुंच रही है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। यह मामला तो एक वकील का था, और यह बात अदालत में अच्छी तरह साबित पाई थी कि उसे पूरे वक्त हथकड़ी लगाकर रखा गया था, लेकिन जो कमजोर लोग पुलिस के जाल में फंसते हैं वे तो ऐसी कानूनी लड़ाई लडऩे की हालत में भी नहीं रहते हैं, और उनकी कोई भी मदद तभी हो सकती है जब पुलिस को संवेदनशील बनाया जा सके, वरना पुलिस ताकत को सलाम करते हुए, कमजोरों को अपने बूटतले कुचलने का काम करती रहेगी।
क्रिसमस मनाने हिमाचल के शिमला और कुल्लू मनाली जा रहे लोगों की दसियों हजार गाडिय़ां सडक़ों पर ऐसे जाम रहीं कि उसके वीडियो देख हैरानी होती रही कि इनमें से किसी की तबियत बहुत खराब हो जाने पर क्या होगा? कैसे कोई एम्बुलेंस वहां तक पहुंच सकेगी? हिमाचल की बहुत सी सडक़ों पर जाम का यह हाल था कि पूरे 24-24 घंटे गाडिय़ां हिल नहीं सकीं। एक जगह तो 55 हजार गाडिय़ां फंसने की खबर थी। अब इससे पहाड़ की सडक़ों की क्षमता का भी अंदाज लग रहा है, और लोगों की कार लेकर जाने की दीवानगी भी समझ आ रही है। जहां पर तापमान शून्य से नीचे चले जाता है, जहां पर बर्फबारी होती है, वहां 24-24 घंटे का ट्रैफिक जाम किसे जिंदा रखेगा, किसे मारेगा इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। खबरें बताती हैं कि इसी मानसून की बाढ़ में कई रास्ते तबाह हुए थे, जिनकी पूरी मरम्मत अभी तक नहीं हो पाई है, और अब उन जगहों पर भी ट्रैफिक जाम लगा हुआ है। जिन सैलानी शहर-कस्बों तक पहुंचने के लिए ये लोग कारों से सपरिवार, या दोस्तों सहित जा रहे हैं, वहां पर भी होटलों का इंतजाम दम तोड़ देता है, और अभी कुछ बरस पहले वहां पानी की कमी से यह अपील जारी करनी पड़ी थी कि और सैलानी वहां पर न आएं। पड़ोस के उत्तराखंड का हाल तीर्थयात्राओं की वजह से इससे भी अधिक बुरा रहता है, और वहां भी सडक़ और तीर्थों की क्षमता ध्वस्त हो जाती है, लेकिन लोगों का आना रूकता ही नहीं है। लोगों की दीवानगी, और भक्ति के चलते हुए एक आसान और तुरत इलाज यह हो सकता है कि निजी गाडिय़ों का वहां जाना अंधाधुंध महंगा कर दिया जाए, और सिर्फ बसों को छूट दी जाए ताकि कम ईंधन और कम सडक़ घेरकर अधिक मुसाफिर सफर कर सकें। पब्लिक ट्रांसपोर्ट हमेशा ही पर्यावरण के लिए कम नुकसानदेह होता है, और पहाड़ी इलाकों में ट्रैफिक जाम भी इससे बचता है।
आज हिन्दुस्तान के गिने-चुने पहाड़ी तीर्थों, और पर्यटन केन्द्रों पर देश की बहुत बड़ी आबादी का हमला सरीखा चलते रहता है। देश में समुद्र तट तो बहुत से हैं, और वहां पर अधिक लोगों के पहुंचने पर भी वैसी दिक्कत नहीं होती जैसी पहाड़ पर होती है। समंदर तक जाने के रास्तों पर ट्रैफिक जाम नहीं होता, आसपास के इलाकों में होटलों की कमी नहीं रहती, और वहां की पर्यटक-क्षमता काफी होती हैं। हिन्दुस्तान समुद्रतटों से घिरा हुआ देश है, इसलिए सैलानियों की वजह से समंदर किनारे भीड़ नहीं होती। लेकिन कश्मीर, उत्तराखंड, और हिमाचल, सैलानियों और तीर्थयात्रियों के लिए पहाड़ तो बस इतने ही हैं, इसलिए इनकी क्षमता को ध्यान में रखना चाहिए। आज जिस तरह निजी कारों पर सवार होकर लोग पहाड़ों के लिए निकल पड़ते हैं, पहाड़ी राज्यों को यह भी देखना चाहिए कि किसी मुसीबत से जूझने की उनकी ताकत कितनी है? अगर किसी सडक़ पर भूस्खलन हो गया, या कहीं पर बाढ़ से पुल बह गए, तो क्या होगा? दसियों हजार फंसे हुए सैलानियों को किस तरह बचाया जा सकेगा? और अभी तो हम किसी किस्म की साजिश और आतंकी हमले की बात भी नहीं कर रहे हैं। अगर किसी आतंकी हमले में दो तरफ के पुल उड़ा दिए जाएं, तो बीच में फंसे हुए मुसाफिरों और सैलानियों का क्या होगा? कई बार स्थानीय शासन और प्रदेश शासन पर कारोबारी दबाव इतना अधिक रहता है कि साल में कुछ महीने आने वाले सैलानियों को न रोका जाए क्योंकि उन्हीं की वजह से पहाड़ी कारोबार चलता है, लेकिन ऐसे कारोबार को पर्यावरण और प्रशासन दोनों की क्षमता को देखते हुए ही इजाजत दी जानी चाहिए।
पर्यावरण के लिए, और प्रशासन की दृष्टि से भी सबसे आसान तरीका पहाड़ों पर जाने वाली गाडिय़ों पर एक मोटा टैक्स लगाना हो सकता है। निजी कारों या टैक्सियों का यह सफर इतना महंगा कर दिया जाए कि लोग बसों से जाने को मजबूर हों। इससे जो प्रदूषण घटेगा, उससे ही पहाड़ भी बचेंगे, वरना प्रदूषण से जो जलवायु परिवर्तन हो रहा है, वह पहाड़ों को खतरे में डालते चल रहा है। चूंकि पहाड़ी इलाकों की अर्थव्यवस्था तीर्थ या पर्यटन पर टिकी रहती हैं, इसलिए ऐसी जगहों पर टैक्स बढ़ाकर भीड़ को कम करना ही अकेला जरिया हो सकता है। अभी जब यह अभूतपूर्व ट्रैफिक जाम लगा है, और इसके पहले जब बाढ़ से तबाही आई, तब यह बात भी सामने आई कि पहाड़ी इलाकों में भ्रष्टाचार और रिश्वत के चलते चारों तरफ अवैध निर्माण हो रहे हैं, इससे भी वहां पर्यटकों की क्षमता बढ़ रही है, और स्थानीय पर्यावरण बर्बाद हो रहा है। देश के बाकी मैदानी इलाकों में अवैध निर्माण से उस तरह का फर्क नहीं पड़ता जिस तरह का फर्क पहाड़ी इलाकों पर इससे पड़ता है। इसलिए इन राज्य सरकारों को अधिक ईमानदार रहना चाहिए, वरना वहां पर सब अवैध ही अवैध रह जाएगा, और जब जख्मी की गई कुदरत की मार पड़ेगी, तो किसी सरकार के हाथ कोई बचाव नहीं रह जाएगा। यह भी हो सकता है कि इन प्रदेशों की किसी गलती के बिना भी दूसरे इलाकों के प्रदूषण से जलवायु परिवर्तन हो रहा हो, लेकिन पहाड़ों पर होने वाले कुदरती नुकसान को तो इन्हीं प्रदेशों को झेलना पड़ेगा।
हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में जो शासन व्यवस्था है उसमें राज्यों को बहुत दूर तक उनके ही हाल पर छोड़ दिया जाता है। किसी समझदार सरकार को कुदरत के रखरखाव वाले प्रदेशों को उनके नुकसान की भरपाई करनी चाहिए। भारत में भी केन्द्र सरकार को चाहिए कि जिन प्रदेशों में पहाड़, जंगल, नदी, और कुदरत को बचाने का जिम्मा दिया जाता है, उन्हें उसकी भरपाई भी दी जाए। पूरे बदन में फेंफड़ा तो एक ही जगह होता है, लेकिन उसकी वजह से बाकी का बदन भी चलता है। इसलिए देश के जिन हिस्सों को अछूता रखने की मजबूरी रहती है, उन्हें उनके नुकसान की भरपाई भी करनी चाहिए। राज्यों को उनके रहमोकरम पर छोड़ देना ठीक नहीं है। पहाड़ी इलाकों के रोजगार और कारोबार को किस तरह पर्यावरण-दोस्ताना बनाया जा सकता है, इस बारे में केन्द्र और राज्य सरकारों को सोचना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों से कहा है कि वे शारीरिक और मानसिक दिक्कतें झेल रहे लोगों के साथ रहम बरतें। आयोग ने भाषणों और बयानों में ऐसे लोगों के बारे में उनकी विकलांगता को गिनाने वाले शब्द इस्तेमाल न करने को कहा है। ऐसे शब्दों की एक लिस्ट भी आयोग ने गिनाई है जिनमें गूंगा, बहरा, अंधा, काना, लंगड़ा, लूला, अपाहिज, पागल, सिरफिरा जैसे बहुत से शब्द बताए गए हैं, और कहा गया है कि चुनाव प्रचार में इनका इस्तेमाल चुनाव कानून के खिलाफ होगा, और ऐसा करने पर दिव्यांगजन अधिकार कानून-2016 के तहत पांच साल की कैद हो सकती है। देश में राजनीतिक दल और नेता लापरवाह जुबान इस्तेमाल करने के लिए जाने जाते हैं, और ऐसे में शारीरिक-मानसिक विकलांगता के अलावा महिलाओं के बारे में भी बहुत अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल एक आम बात है। हमारा ख्याल है कि चुनाव आयोग को किसी कानून के तहत महिलाओं के अपमान पर भी चेतावनी जारी करनी चाहिए जो कि राजनीति और सार्वजनिक जीवन में मर्दों की सोच से उपजी रहती है।
लेकिन भारत के सुप्रीम कोर्ट के बार-बार के तल्ख हुक्म के बाद भी चुनावों में नफरती बातों का कोई अंत नहीं दिख रहा है, और बहुत साम्प्रदायिक और नफरती बातों का इस्तेमाल बड़ा आम है। चुनाव आयोग इस बात को अच्छी तरह देख रहा है कि चुनाव या उससे परे किसी भी वक्त, किसी भी जगह नफरती बातों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट कितना कड़ा है, लेकिन चुनाव आयोग ऐसे बयानों और भाषणों पर कोई कार्रवाई करते नहीं दिखता है। नतीजा यह है कि हर चुनाव में नफरत कुछ बढ़ा दी जाती है, क्योंकि नफरत के पिछले बयान अब लोगों का ध्यान उतना नहीं खींचते हैं, लोगों की वाहवाही पाने के लिए कुछ अधिक की जरूरत पड़ती है। यह तो ठीक है कि चुनाव आयोग ने विकलांगों या दिव्यांगजनों के बारे में यह संवेदनशील आदेश निकाला है, और इस देश में सैकड़ों बरस से भाषाओं और बोलियों में इन लोगों के बारे में हिकारत एक आम बात रहते आई है। लेकिन इससे परे देश में साम्प्रदायिक नफरत, धार्मिक उन्माद, और कट्टरता के खतरे बहुत अधिक हैं, और उनके बारे में चुनाव आयोग तकरीबन चुप्पी साधे रखता है। बहुत से ऐसे मामले हैं जिनमें चुनाव आयोग की सीधी-सीधी दखल की उम्मीद रहती है, लेकिन आयोग शिकायत मिलने पर भी उसकी अनदेखी ही करते रहता है।
हम राजनीति और चुनाव की भाषा से परे अगर देखें, तो चुनाव आयोग अब महज ईवीएम के रास्ते चुनाव करवाने की विकसित हो चुकी एक तकनीक पर चलते जा रहा है, लेकिन उसने चुनावों को प्रभावित करने वाले दूसरे नाजायज तरीकों को रोकने के लिए कुछ नहीं किया है। आज हर तरफ चुनाव में कालेधन का अंधाधुंध इस्तेमाल के खिलाफ आयोग पूरी तरह बेअसर दिखता है। अभी जिन पांच राज्यों में चुनाव हुए उनमें अकेले तेलंगाना में ही सात सौ करोड़ रूपए नगद जब्त हुए। किसी राजनीतिक दल और नेता ने इस पर दावा नहीं किया। पांच राज्यों में कुल मिलाकर 1760 करोड़ रूपए की नगदी जब्त हुई थी, जिसे कि 2018 के विधानसभा चुनावों के बाद के इन पांच बरसों में सात गुना बताया गया है। इस जब्ती में कुछ हिस्सा शराब और दूसरे नशे के सामानों का भी था जो कि नगदी के मुकाबले कम खतरनाक नहीं थे। एक तरफ तो चुनाव आयोग के अधिकार अंधाधुंध हैं, और वे राज्यों के पुलिस और प्रशासन को भी अपनी मर्जी से बदल सकते हैं। दूसरी तरफ जो नगदी पकड़ा रही है उससे दर्जनों या सैकड़ों गुना अधिक नगदी चुनाव में इस्तेमाल होती है, ऐसा आम जानकारी से पता लगता है। ऐसे में पैसों का इतना बड़ा इस्तेमाल चुनावी नतीजों को किस हद तक प्रभावित करता होगा यह अंदाज लगाना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए।
शारीरिक-मानसिक विकलांगता को लेकर चुनाव आयोग की पहल ठीक है, लेकिन वह देश में चुनावों में होने वाली नाजायज बातों का एक बहुत छोटा सा हिस्सा है। आयोग को अधिक असरदार होना चाहिए जैसा कि एक वक्त के मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन ने साबित किया था। यह एक अलग बात है कि अब चुनाव आयुक्त नियुक्त करने की प्रक्रिया से सुप्रीम कोर्ट जजों को जिस तरह अलग किया गया है, और अब प्रधानमंत्री और उनके मनोनीत मंत्री ही चुनाव आयुक्त नियुक्त करेंगे। इसके लिए अभी संसद में एक विधेयक लाया गया है जो कि राज्यसभा में पास हो गया है, और लोकसभा में पास होना शायद बाकी है। सरकार का यह विधेयक सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले की रोशनी में आया है जिसमें इसी बरस मार्च में अदालत में कहा था कि चुनाव आयुक्त नियुक्त करने के बारे में संसद ने पिछले 73 बरसों में कोई कानून नहीं बनाया है, और इसलिए इस पर एक स्पष्ट कानून होना चाहिए। इसके पहले देश में चुनाव सुधार के लिए तैयार कुछ रिपोर्ट में यह सुझाया गया था कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री, देश के मुख्य न्यायाधीश, और लोकसभा के सबसे बड़े दल के मुखिया की एक कमेटी करे। सुप्रीम कोर्ट में भी ऐसी ही सिफारिश की वकालत की थी, और कहा था कि जब तक संसद कोई कानून नहीं बनाती है तब तक ऐसी कमेटी चुनाव आयुक्त बनाए। अब नया कानून जो तरीका लागू करने जा रहा है उसके मुताबिक प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता, और एक केन्द्रीय मंत्री मिलकर चुनाव आयुक्त नियुक्त करेंगे, और इस कमेटी से देश के मुख्य न्यायाधीश को बाहर कर दिया गया है। मतलब यह कि कमेटी के तीन सदस्यों में खुद प्रधानमंत्री और उनके मनोनीत मंत्री का हमेशा ही एक बहुमत रहेगा, और प्रधानमंत्री की मर्जी से परे इसमें कुछ नहीं हो सकेगा। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में अपना रूख साफ किया था।
दिव्यांगजनों या विकलांगों के बारे में चुनाव आयोग की पहल उसके सरोकार को दिखाती है, लेकिन यह बात भी है कि इससे चुनाव के बुनियादी मकसद में निष्पक्षता और ईमानदारी पर कुछ फर्क नहीं पड़ता। ये दोनों बुनियादी जरूरतें अभी खतरे में ही हैं, और आने वाले दिनों में जिन शर्तों पर जिन लोगों के द्वारा ये नियुक्तियां, निष्पक्षता और खतरे में ही पड़ेगी। इसलिए चुनाव आयोग जैसी एक संवैधानिक संस्था को लेकर जिस तरह की पारदर्शिता होनी चाहिए थी, वही जब नहीं हो रही है, तो उसकी साख भी खतरे में ही रहेगी। ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग सरकार के ही एक विभाग की तरह काम करेगा, और सरकार के पसंदीदा और वफादार लोगों को वहां बिठाया जाएगा। दुनिया के विकसित लोकतंत्रों में संवैधानिक संस्थाओं के लिए ऐसा कमजोर इंतजाम नहीं रहता है, लेकिन भारत में यह लगातार चल रहे एक सिलसिले की कड़ी है कि किस तरह संवैधानिक संस्थाओं को सरकार के मातहत रखा जाए।
इस बरस की शुरूआत में दुनिया की एक सबसे बड़ी टेक्नॉलॉजी कंपनी गूगल ने 12 हजार कर्मचारियों को एक साथ निकाल दिया था। अभी कुछ अरसा पहले इस कंपनी के भारतवंशी मुखिया सुन्दर पिचई ने यह गलती मानी थी कि छंटनी को सही तरीके से लागू नहीं किया गया था, और इससे कर्मचारियों का मनोबल टूटा था। अब आज एक खबर यह है कि गूगल में फिर से दसियों हजार कर्मचारियों को नौकरी से निकालने की योजना बन रही है। साल के शुरू में जिन लोगों को निकाला गया था, उनके बारे में कंपनी का यह तर्क था कि मंदी की आशंका में लोग हटाए गए थे। अब ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस और मशीन लर्निंग जैसी टेक्नॉलॉजी की वजह से लोगों की जरूरत घटते चल रही है, और न सिर्फ गूगल, बल्कि दुनिया की और भी बहुत सी कंपनियां कर्मचारियों को लगातार घटाती चली जाएंगी। ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से नौकरियों का खत्म होना जिस रफ्तार से सोचा जा रहा था, हो सकता है कि वह उससे बहुत अधिक रफ्तार से होने लगे।
लोगों को याद होगा कि अमरीका में फिल्म और टीवी इंडस्ट्री के लेखकों ने कई महीने चली लंबी हड़ताल की थी क्योंकि वे फिल्म-सीरियल बनाने वाली कंपनियों के ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस से आगे की कहानी बना लेने की वजह से अपने रोजगार को खतरे में पा रहे थे। अब कल बीबीसी की एक रिपोर्ट है कि लाखों लोगों को रोजगार देने वाले भारतीय फिल्म उद्योग ने ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के इस्तेमाल से बहुत सी नौकरियां जा सकती हैं। अभी किसी एक फिल्म में एक एक्शन सीन को पूरे का पूरा एआई से बनाया गया। एक तमिल फिल्म के ढाई मिनट के इस सीन को गढऩे में सैकड़ों लोगों को कई हफ्तों का काम मिलता, अब वह एआई कर रहा है। इस रिपोर्ट में एक दूसरी खतरनाक मिसाल दी गई है कि 1983 में मासूम नाम की एक चर्चित फिल्म बनाने वाले फिल्म निर्देशक शेखर कपूर ने जब इस फिल्म की अगली कड़ी को बनाना तय किया, तो उन्होंने एआई टूल चैटजीपीटी से मासूम की कहानी को आगे बढ़ाकर देखा। शेखर कपूर का कहना है कि एआई ने मासूम की कहानी की सारी नैतिक जटिलताओं को तुरंत ही बारीकी से समझ लिया, और आगे की एक कहानी बनाकर पेश कर दी जिसमें यह दिखता है कि विवाहेत्तर संबंधों से पैदा हुआ एक बच्चा बड़ा होकर कैसे अपने पिता से नाराजगी पाल लेता है। फिल्म मासूम की कहानी ऐसे ही एक बच्चे पर थी, और एआई टूल ने कहानी को सारी मानवीय, सामाजिक, और नैतिक जटिलताओं के साथ आगे बढ़ा दिया!
लेकिन ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल सिर्फ रचनात्मक चीजों के लिए होगा ऐसा भी नहीं है, दुनिया भर में बिखरे हुए कॉल सेंटरों में जवाब देने वाले कर्मचारी भी एआई की वजह से नौकरियां खोएंगे क्योंकि ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस इंसानों से बेहतर काम तकरीबन मुफ्त कर देगा। एआई की मदद से सीसीटीवी कैमरों से होने वाली निगरानी का मानवीय विश्लेषण जरूरी नहीं रह जाएगा, और हजारों गुना रफ्तार से एआई टूल्स ऐसी निगरानी करके खतरा बता सकेंगे, जिन लोगों की तलाश है उन्हें पकड़ सकेंगे। अभी तक न तो ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस टेक्नॉलॉजी अपनी पूरी ऊंचाई पर पहुंची है, और न ही हासिल हो चुकी कामयाबी का पूरा इस्तेमाल हो रहा है। जब इन दोनों ही मामलों में बात आगे बढ़ेगी, तब नौकरियों पर खतरा एक विस्फोट की तरह सामने आएगा। ऐसे में दुनिया भर के लोगों को अपने कामकाज को बेहतर बनाने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि जब नौकरियां जाती हैं तो भी सबसे अच्छे कर्मचारी और कामगार बचे रह जाते हैं। जिनका काम बहुत अच्छा नहीं होता, उनकी नौकरियां पहले जाती हैं।
लेकिन ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस टेक्नॉलॉजी से परे भी दुनिया भर के कामगारों को अपने काम को बेहतर बनाने की कोशिश करनी चाहिए। दुनिया के पूंजीवादी देशों में तो नौकरी की कोई गारंटी रहती नहीं है, बिना किसी एडवांस नोटिस के लोगों को महीने भर की तनख्वाह देकर निकाल दिया जाता है। अब हिन्दुस्तान में भी मजदूर कानून कमजोर किए जा रहे हैं, और कंपनियों के लिए सहूलियत के कानून बढ़ते जा रहे हैं। इसके अलावा सरकारी कंपनियों और सरकारी कामकाज का जिस रफ्तार से निजीकरण हो रहा है, उससे धीरे-धीरे कर्मचारी हक के लिए यूनियन और आंदोलन सरीखी बातें इतिहास बन जाएंगी। एक वक्त देश में एक मजबूत श्रमजीवी पत्रकार आंदोलन रहता था, फिर जैसे-जैसे इस आंदोलन ने पत्रकारों और दीगर मीडिया कर्मचारियों के हक वेतन आयोग के रास्ते मजबूत करवाए, वैसे-वैसे मीडिया-मालिकों ने नौकरी की शर्तें ही कड़ी कर दीं, नियमित नौकरियों के घटा दिया, और संपादक तक ठेका-मजदूर जैसी शर्तों पर रखे जाने लगे। आज हालत कारोबार के लिए और अधिक दोस्ताना हो चुकी है, और मजदूर कानून नामौजूद और बेअसर से हो चुके हैं। ऐसे में ऑर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के निशाने पर मीडिया उद्योग भी रहने वाला है, और भारत की कुछ टीवी समाचार चैनलों ने एआई न्यूज रीडर से समाचार पढ़वाना शुरू भी कर दिया है। न पोशाक, न मेकअप, और न ही तनख्वाह। यह चलन जरा सा आगे बढ़ेगा तो दसियों हजार न्यूज रीडरों और एंकरों की नौकरियां खतरे में पडऩे लगेंगी। वैसे वक्त सिर्फ वही लोग बच पाएंगे जिनका काम सबसे अच्छा होगा।
टेक्नॉलॉजी पहाड़ से लुढक़ते हुए बर्फ के गोले सरीखी रहती है, उसका आकार और उसकी रफ्तार दोनों बढ़ते चलते हैं। इसलिए कम्प्यूटरों के इस्तेमाल वाले किसी भी कारोबार में एआई की घुसपैठ महज वक्त की बात है, और समझदारी इसी में है कि लोग छंटनी के ऐसे खतरे से आगाह रहें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दिल्ली से लगे यूपी के नोएडा की खबर है कि देश के एक चर्चित मोटिवेशनल स्पीकर विवेक बिन्द्रा के खिलाफ पत्नी से मारपीट की पुलिस रिपोर्ट दर्ज कराई गई है। यह शादी इसी 6 दिसंबर को होना बताया गया है, और पत्नी के भाई का कहना है कि उनकी बहन से इस बुरी तरह मारपीट की गई है कि एक कान का पर्दा फट गया, और बदन पर पिटाई के निशान हैं, उसका इलाज एक अस्पताल में चल रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि शादी के अगले ही दिन विवेक बिन्द्रा अपनी मां से बहस कर रहे थे, और बीच-बचाव करने के लिए नवविवाहिता पत्नी ने बीच-बचाव की कोशिश की, उस पर बहुत बुरी तरह पिटाई की गई। पुलिस को एक वीडियो भी दिया गया जिसमें विवेक बिन्द्रा अपनी रिहायशी सोसायटी के मेनगेट पर पत्नी से जबर्दस्ती कर रहे हैं। अब जिस व्यक्ति को बहुत बड़ा मोटिवेशनल स्पीकर कहा जाता है, उसका यह हाल है कि शादी के दस दिन के भीतर ही पत्नी पर हिंसा का यह मामला दर्ज हुआ है। दूसरों को जिंदगी जीने के और कामयाबी के तरीके सिखाने का दावा करने वाले आदमी ने यह कैसी मिसाल पेश की है?
आज ही सुबह इस खबर को देखे बिना यह संपादकीय लिख रहे संपादक ने फेसबुक पर कुछ बातें लिखी थीं कि ऐसे परिवार जो कि बेटे और बेटी में फर्क करते हैं, वे एक को हिंसक बनने के लिए, और दूसरे को हिंसा का शिकार बनने के लिए तैयार करते हैं। यह भी लिखा था कि बेटे सबसे तेजी से सीखते हैं, अपनी मां-बहन से घर पर होती हिंसा से, फिर वे अपनी बीवी-बेटी तक वही ले जाते हैं। एक और बात लिखी थी कि जाति का अहंकार दूसरी जातियों पर ही नहीं उतरता, अपने घर की महिलाओं और लड़कियों पर भी उतरता है। अब अनजाने में लिखी गई इन बातों को आज अगर इस तथाकथित मोटिवेशनल स्पीकर विवेक बिन्द्रा से जोडक़र देखें, तो वह शादी के अगले ही दिन बीवी को इस तरह पीट रहा है, और इसकी वजह मां से की जा रही बदसलूकी में बीवी का बीच-बचाव करना है। यानी यह आदमी मां से भी बदसलूकी कर रहा था, और बीवी से भी! यह कुछ उसी किस्म की बात है जैसी कि इस संपादक ने सुबह फेसबुक पर लिखी थी।
भारत में जिन जातियों को अपने बेहतर होने का घमंड रहता है, उसके लोग न सिर्फ बाहर की दुनिया में दूसरी जातियों से बदसलूकी करते हैं, बल्कि वे घर के भीतर भी लड़कियों और महिलाओं को मर्दों से नीचा मानते हैं, और उनके साथ हिंसा करते हैं। जाति व्यवस्था और धर्म व्यवस्था मिलकर ऐसा माहौल बनाते हैं कि महिलाएं नीचे दर्जे वाली हैं, और उनके साथ हिंसा एक जायज बात है। यह मनुस्मृति से लेकर दूसरे कई धर्मों तक की सोच है, और धीरे-धीरे धार्मिक कहानियों से शुरू होकर लोगों की सोच में यह हिंसा आने लगती है। मर्दों को लगने लगता है कि वे बेहतर इंसान होते हैं, और औरतें गुलामी के लायक होती हैं। यही सोच परिवार के भीतर पिछली पीढ़ी, अपनी पीढ़ी, और अगली पीढ़ी, सबकी महिलाओं और लड़कियों से हिंसा का माहौल खड़ा करती हैं। जिस परिवार में एक पुरूष लड़कियों और महिलाओं से हिंसा करता है, उसकी अगली पीढ़ी के पुरूष भी ऐसे ही खतरनाक होने की गुंजाइश रखते हैं। दुनिया भर में शोहरत पाने वाला मोटिवेशनल स्पीकर या तो खुद परिवार की किसी ऐसी मिसाल से प्रभवित है, या कम से कम वह आसपास के और लोगों को धीरे-धीरे ऐसी ही हिंसा की प्रेरणा देते रहेगा।
कुछ लोगों का यह भी मानना है कि बाप-भाई की हिंसा से प्रभावित परिवार की लड़कियां और महिलाएं भी अपनी अगली पीढ़ी की बेटी-बहू के साथ हो रही हिंसा को प्राकृतिक, स्वाभाविक, और जायज मानने लगती हैं, और परिवार के पुरूषों की ऐसी हिंसा में साथ भी देने लगती हैं। इन दिनों तो दहेज-हत्याएं कड़े कानून की वजह से कम हुई हैं, वरना परिवार में महिला के रहते हुए बाहर से आई बहू की हत्या हो जाए, और उसकी सास-ननद-जेठानी की उसमें सहमति न हो, ऐसा हो नहीं सकता। जबरिया गर्भपात से लेकर गुलाम सरीखी जिंदगी देने में परिवार की महिलाएं भी पुरूषों के साथ हो जाती हैं क्योंकि उन्होंने भी अपने वक्त पर ऐसे जुल्म सहे हुए रहते हैं, और शायद उन्हें उनका बदला निकालने के लिए भी ऐसा जायज लगता है। इस तरह परिवार के भीतर का हिंसक माहौल अगली कई पीढिय़ों को प्रभावित कर सकता है, और ऐसी हिंसक सोच से उबरने के लिए अगली पीढ़ी को एक सचमुच की सामाजिक न्याय की सोच की जरूरत रहती है, जो कि भारत जैसे समाज में बहुत आसान भी नहीं रहती।
औरत और मर्द के हकों में फर्क करने वाली लैंगिक-असमानता से उबरना न तो सिर्फ कानून के बस का रहता है, और न ही समाज अकेले इसे कर सकता है। इन दोनों की साथ-साथ जरूरत रहती है। भारत की ही मिसाल को लें, तो यहां पर सतीप्रथा से लेकर बालविवाह तक को खत्म करने के लिए, देवदासीप्रथा को खत्म करने के लिए कानून की भी जरूरत पड़ी, और सामाजिक आंदोलन की भी। कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए भी इन दोनों की साथ-साथ जरूरत पड़ी। इन सबके लिए महिलाओं की पढ़ाई-लिखाई और आर्थिक आत्मनिर्भरता की जरूरत पड़ी जो कि एक दीर्घकालीन सामाजिक सुधार की बात रही। लेकिन धीरे-धीरे जैसे-जैसे महिलाएं आत्मनिर्भर हो रही हैं, वे हिंसा का प्रतिकार भी करने लगी हैं, और उससे उबरना भी जानती हैं। पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ शहरीकरण ने भी नौबत सुधारने का काम किया है, और संयुक्त परिवार टूटने से भी महिलाओं को बेहतर हक मिल पाए हैं। संयुक्त परिवारों में जो सबसे पुरानी पीढ़ी रहती है, उसके दकियानूसी खयालों से उबर पाना परिवार की किसी भी पीढ़ी के बस का नहीं रह जाता। इसलिए परिवार के भीतर पुरूषवादी हिंसक सोच को खत्म करने के जो-जो तरीके हो सकते हैं, उन सबके बारे में कोशिश करने की जरूरत है। इसमें धर्म और जाति, इन दोनों के बेइंसाफ ढांचों में औरत को गुलाम की तरह माना गया है, और धर्म और जाति की कट्टरता से लैस लोग परिवार के भीतर भी औरत को गुलाम बनाकर चलने की सोच रखते हैं। इसलिए धर्म और जाति के ढांचों के रहते हुए भी उनके भीतर से लैंगिक-हिंसा खत्म करने की जरूरत है। दुनिया के अलग-अलग देशों, धर्मों, और संस्कृतियों में महिलाओं के सामने चुनौतियां अलग-अलग हैं। हिन्दुस्तान एक बहुत बड़ा मुल्क है, और यहां की अलग किस्म की सामाजिक बेइंसाफी से निपटने के तरीके अपने आपमें बहुत अलग-अलग किस्म के रहेंगे। देश के कई महिला-अधिकार संगठन इस तरफ काम कर रहे हैं, लेकिन उनकी रफ्तार और क्षमता दोनों ही जरूरत के मुकाबले बहुत कम है। कानून, उस पर अमल, अदालती निपटारे, और समाज सुधार, इन सब मोर्चों पर कोशिश करने के साथ-साथ महिला की आर्थिक आत्मनिर्भरता पर सबसे अधिक जोर देना चाहिए।
चेक गणराज्य की राजधानी प्राग में एक विश्वविद्यालय में वहीं के एक छात्र ने किसी किस्म की बंदूक से गोलियां चलाईं जिसमें 15 लोगों की मारे जाने की खबर है, और दो दर्जन के करीब लोग जख्मी हुए हैं। वहां से आई इस सरकारी खबर के मुताबिक इसके पीछे कोई अंतरराष्ट्रीय उग्रवादी हाथ नहीं है, और विदेश में हुए इसी किस्म के किसी जनसंहार से प्रभावित होकर इस छात्र ने ऐसा किया है। चेक गणराज्य में ऐसी घटनाएं आम नहीं हैं, और इस हमले के पहले इस संदिग्ध हमलावर के पिता का भी शव मिला था, जिससे ऐसा लगता है कि उसकी हिंसा की शुरूआत परिवार से हुई। जो भी हो, यह वारदात दो बातों को साफ करती है, पहली तो यह कि थोक में मारने की ताकत रखने वाले हथियारों की आसान उपलब्धता, और बड़ी संख्या में मौजूदगी से ऐसे खतरे बने ही रहेंगे। दूसरी बात यह कि किसी दूसरे देश के किसी हमले से दुनिया में दूसरी जगहों पर भी लोगों को ऐसी हिंसा की प्रेरणा मिल सकती है, मिलती है।
इस किस्म की सामूहिक हत्याओं की सबसे अधिक खबरें अमरीका से आती हैं जहां पर लोग नस्लीय नफरत से परे भी सिर्फ अपनी भड़ास निकालने को इस तरह लोगों को थोक में मार डालते हैं। खुद अमरीका का एक बड़ा तबका इस किस्म की हिंसा को लेकर परेशान है, और लगातार यह कोशिश कर रहा है कि किसी तरह अमरीकियों की दिमाग पर से हथियारों की दीवानगी घटाई जाए, ताकि बच्चे-बच्चे के हाथ अनगिनत हथियारों तक न पहुंच सकें। लेकिन वहां की एक सबसे बड़ी पार्टी, ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी हथियारों के कारोबार और शौक को बढ़ावा देते चलती है, और हथियार किसी तरह कम हो नहीें रहे हैं। दूसरी तरफ पूरी दुनिया में अमरीका की खबरें सबसे तेजी से पहुंचती हैं, और ऐसी हिंसा की मिसालें दूसरी जगहों पर भी किसी तनाव या नफरत से गुजरते हुए दिमागों को वैसा ही करने का हौसला देती होंगी, और रास्ता दिखाती होंगी।
दुनिया के बाकी देशों को भी यह याद रखना चाहिए कि किसी भी तरह की नफरत और हिंसा की मिसालें बाकी दुनिया को भी प्रभावित करती हैं। और आज तो दुनिया के अधिकतर देशों में अधिकतर धर्मों और नस्लों के लोग मौजूद हैं, और कब, कौन, कहां का बदला कहां निकालने लगे, इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। लोगों को याद रखना चाहिए कि जब वे अपने देश में किसी नस्ल या धर्म के लोगों के खिलाफ नफरत और हिंसा खड़ी करते हैं, तो उसकी प्रतिक्रिया दुनिया के किसी दूसरे देश में, हमलावर नस्ल या धर्म के लोगों के खिलाफ हो सकती है। यह भी हो सकता है कि ऐसी प्रतिक्रिया किसी बड़ी हिंसा की शक्ल में सामने न आए, बल्कि सामाजिक नफरत की शक्ल में निकले। आज भी पश्चिम के बहुत से देशों में इस्लाम और मुस्लिमों के खिलाफ कुछ तबकों में एक सोच है, और ऐसी सोच इन देशों में मुस्लिम शरणार्थियों के खिलाफ माहौल खड़ा करती है, और इस्लामिक रीति-रिवाजों की साख खराब करती है। भारत जैसे दूसरे देशों को भी यह समझने की जरूरत है कि भारत के जातिवाद के खिलाफ अमरीका जैसे देश में कई शहरों की स्थानीय सरकारें नियम बना रही हैं, और भारत में मुस्लिमों के खिलाफ जितने किस्म की कार्रवाई चलती है, उसकी प्रतिक्रिया मुस्लिम देशों में भारत के लोगों के खिलाफ होती है। यह एक अलग बात है कि बड़ी हिंसक घटना के बिना ऐसी प्रतिक्रिया खबरों में नहीं आती हैं, लेकिन जो लोग वहां काम करते हैं, कारोबार करते हैं, उन्हें भेदभाव झेलना पड़ता है।
यह भी समझने की जरूरत है कि हिंसा से प्रभावित होकर कोई अकेले व्यक्ति भी बड़े पैमाने पर हिंसा कर सकते हैं जैसा कि कल चेक गणराज्य की राजधानी प्राग में सामने आया है। दुनिया को हिंसक मिसालों से भी बचने की जरूरत है क्योंकि जब किसी व्यक्ति में कोई हत्यारी सोच आ जाती है, तो उनके नुकसान करने की ताकत कई गुना बढ़ जाती है। आज हिंसा को बढ़ाने वाले वीडियो गेम भी इतने लोकप्रिय हो गए हैं कि बच्चे भी उन्हें खेलते हुए हत्या या आत्महत्या के बारे में सोचने लगे हैं, और ऐसे हिंसक खेलों से प्रभावित हिंसा की बहुत सी घटनाएं सामने आई हैं। हॉलीवुड की फिल्में हथियारों की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए लंबे समय से बदनाम हैं, और फिल्मों से परे टीवी के कार्यक्रमों से लेकर चुनौतियां देने वाले वीडियो गेम तक हिंसा को बढ़ाते चल रहे हैं। इन सबसे प्रभावित लोगों की सोच को जब दुनिया की किसी एक जगह पर थोक में कत्ल करने की मिसालें मिलती हैं, तो वह पेट्रोल को आग मिल जाने सरीखा होता है। खुद अमरीका के भीतर हर कुछ दिनों में कहीं न कहीं बेकसूरों पर गोलीबारी होती है, और इनमें से बहुत सी घटनाएं नस्लीय-हिंसा से भी प्रभावित होती हैं।
दुनिया को अगर रंग, धर्म, जाति, नस्ल, और राष्ट्रीयता की नफरत से बचाना है, तो आज उसे किसी एक देश की सरहद के भीतर कैद करके नहीं बचाया जा सकता। भूमंडलीयकरण एक हकीकत है, और हर देश में बहुत से किस्म के लोग मौजूद हैं। ऐसे में अपनी-अपनी किस्मों के भीतर लोगों को कट्टरता घटानी होगी, तभी उनके खिलाफ बाकी दुनिया में नफरत घट सकेगी। लोग कट्टर बने रहें, और उनके खिलाफ दुनिया में कोई प्रतिक्रिया न हो, ऐसा नहीं हो सकता। इसलिए जो लोग खुद को, अपने परिवार और समाज को सुरक्षित रखना चाहते हैं, उन्हें अपने इलाकों में अपनी कट्टरता को घटाना होगा, और दूसरों के साथ हिंसा को खत्म भी करना होगा। ऐसा न करने पर हो सकता है कि कई धर्मान्ध और साम्प्रदायिक, नस्लीय हिंसा करने वाले लोग खुद तो अपने इलाकों में महफूज बैठे रहें, लेकिन उनके समाज के लोग दूसरे देशों में हिंसा के शिकार हों। पश्चिम के बहुत से देशों में धार्मिक शिनाख्त की बिना पर कई लोगों पर हमले होते हैं, क्योंकि उनके जैसी शिनाख्त वाले लोग दुनिया में किसी और जगह पर कट्टरता फैलाते बदनाम रहते हैं। इसलिए आज कोई भी व्यक्ति तभी सुरक्षित हो सकते हैं, जब सब लोग सुरक्षित हों। अमरीका जैसे दुनिया के सबसे हथियारबंद देश में भी लोगों के हथियार धरे रह जाते हैं जब एक स्कूल, एक मॉल, या एक यूनिवर्सिटी में एक अकेला बंदूकबाज जाकर दर्जनों लोगों को मार डालता है। इससे यही साबित होता है कि हथियारों की अधिक मौजूदगी हिफाजत की गारंटी नहीं होती। दूसरी तरफ लोगों का किसी भी किस्म के तनाव से, किसी भी तरह की नफरत से मुक्त होना, अहिंसक होना, सहनशील होना, लोकतांत्रिक होना ही सुरक्षा का सामान हो सकता है।
राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने सदन के बाहर तृणमूल कांग्रेस के लोकसभा सदस्य कल्याण बैनर्जी द्वारा की गई उनकी मिमिक्री (नकल का अभिनय) को जिस तरह अपनी जात से जोड़ लिया है, और इसे जाट समुदाय का अपमान बताया है, उस पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने आपत्ति की है। उन्होंने कहा है कि हर चीज को जाति से जोड़ लेना ठीक नहीं है। उन्होंने कहा कि उन्हें भी राज्यसभा में कई बार बोलने का मौका नहीं मिलता है तो क्या वे यह दावा करें कि संसद में दलितों को बोलने का अवसर नहीं दिया जाता? उन्होंने सभापति को सलाह दी है कि उन्हें सदन में जाति का मुद्दा उठाकर लोगों को नहीं भडक़ाना चाहिए। धनखड़ ने उनकी मिमिक्री को जाट समुदाय का अपमान करार दिया था, और किसानों का भी। पाठकों को याद होगा कि हमने कल ही इस बारे में लिखा, और यूट्यूब पर कहा है कि इसका जाति से क्या लेना-देना है? और मानो धनखड़ की बात को इशारा समझकर एक जाट संगठन ने अगले चुनाव में विपक्ष को सबक सिखाने का सार्वजनिक बयान भी जारी कर दिया है।
हिन्दुस्तान में जाति की एक भूमिका तो रहती है, लेकिन यह भी समझने की जरूरत है कि जाति हर जगह हथियार की तरह इस्तेमाल नहीं होती है। जगदीप धनखड़ का परिचय देखें, तो वे राजस्थान के गांव में पैदा होकर सैनिक स्कूल में पढ़े, कानून की पढ़ाई की, राजस्थान हाईकोर्ट में वे सीनियर वकील रहे, और वे सुप्रीम कोर्ट में भी एक सीनियर वकील का दर्जा पाए हुए थे, और कई हाईकोर्ट में भी वे संवैधानिक मामलों में वकालत करते आए हैं, वे जनता दल और कांग्रेस के भी सदस्य रहे, लोकसभा का चुनाव जीतकर आए, विधायक भी रहे, और 2003 से भाजपा में हैं। वे 2019 से 2022 तक पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहे, और वहां रहते हुए वे सार्वजनिक रूप से और सोशल मीडिया पर ममता सरकार से लगातार टकराते भी रहे। 2022 में वे उपराष्ट्रपति चुने गए, और उसी नाते वे राज्यसभा के सभापति भी हैं। अब जिन्हें अलग-अलग वक्त पर अलग-अलग राजनीतिक दलों ने इतना महत्व दिया, और जो खुद अपनी पढ़ाई और अपनी वकालत की वजह से सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे हुए हैं, उन्हें एक मिमिक्री को अपनी जात पर नहीं ले लेना था। उन्होंने दर्जनों सांसदों को निलंबित किया है, और लोकसभा से भी ऐसे ही निलंबित सांसद बाहर प्रदर्शन कर रहे थे, जिसमें धनखड़ के सदन-संचालन की नकल की गई। किसी ने भी उनकी जाति का कोई जिक्र नहीं किया, और इतने ऊंचे ओहदे पर पहुंचने के बाद उन्हें खुद भी अपनी जाति को ढाल की तरह इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था। वैसे भी भारत के संदर्भ में देखा जाए तो जाट एसटी-एससी जैसे किसी सामाजिक उपेक्षा और शोषण की शिकार जाति नहीं है। जाट एक मजबूत बिरादरी है, और यह संपन्न तबका भी है। जाटों को लेकर किसी तरह की सामाजिक हिकारत कहीं नहीं रहती, इसलिए धनखड़ का जाति को जगाना एक किस्म की राजनीति है, जिससे राज्यसभा की कुर्सी पर बैठे हुए व्यक्ति को, उपराष्ट्रपति को बचना चाहिए था।
यह संपादकीय लिखने वाले संपादक को अच्छी तरह याद है कि जब दो दशक पहले, भारतीय क्रिकेट टीम के खिलाड़ी मोहम्मद अजहरुद्दीन के बारे में दक्षिण अफ्रीकी टीम के कप्तान ने यह बयान दिया था कि अजहर ने उन्हें सट्टेबाजों से मैच फिक्सिंग के लिए मिलवाया था, इसके बाद इस मामले की सीबीआई जांच हुई थी, और अजहर को इंटरनेशनल क्रिकेट काउंसिल और बीसीसीआई ने जिंदगी भर के लिए प्रतिबंधित कर दिया था। यह एक अलग बात है कि 2012 में आंध्रप्रदेश हाईकोर्ट ने इस फैसले को पलट दिया था। अजहर ने प्रतिबंध के खिलाफ एक बयान में यह कहा था कि वे मुस्लिम हैं इसलिए उनके साथ यह भेदभाव किया जा रहा है। उस वक्त इस संपादक के साप्ताहिक कॉलम (आजकल) में इस मुद्दे पर लिखते हुए यह अफसोस जाहिर किया गया था कि जिस देश ने अजहर को राष्ट्रीय टीम का कप्तान बनाया था, और जिसने 47 टेस्ट मैच और 174 वनडे इंटरनेशनल में टीम की अगुवाई की थी, 14 टेस्ट और 90 वनडे में टीम को जीत दिलाई थी, उसे इतना महत्व मिलने के बाद मैच फिक्सिंग के आरोप पर मुस्लिम होने की आड़ नहीं लेनी थी। उस वक्त इस संपादक ने कॉलम में लिखा था कि देश से इतना सब पाने के बाद जब अजहर पर एक आरोप साबित हुआ, तो उसने पतलून उतार दी।
लोगों को अपनी जाति का इस्तेमाल सोच-समझकर, और न्यायसंगत, तर्कसंगत तरीके से ही करना चाहिए। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि सार्वजनिक जीवन में जाति का महत्व नहीं रहता, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि जाति के आधार पर अगर शोषण नहीं होता है, हमला नहीं होता है, तो उसे नाजायज तरीके से ढाल बनाना सबको समझ भी आ जाता है। अभी धनखड़ ने कुछ वैसा ही किया है। दूसरी एक बात और निराश करती है कि जब देश की संसद में दर्जनों जलते-सुलगते जनहित के मुद्दे उठ रहे हैं, विपक्ष और सत्ता के बीच टकराव चल रहा है, सत्ता अपने अंधाधुंध बाहुबल के साथ विपक्ष को कुचलकर धर दे रही है, प्रस्तावित कानूनों पर चर्चा भी नहीं हो पा रही है, तब राज्यसभा का सभापति अपना मजाक उड़ाने को ही तीन दिन से देश का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा मान बैठे, तो यह आत्ममुग्धता की एक बड़ी मिसाल है। जब दमकलकर्मी आग बुझाने कहीं जाते हैं, तो बचाव मेें लगे किसी व्यक्ति का पांव अपने पांव पर पड़ जाने को अपनी जाति से जोडक़र नहीं देखते। उपराष्ट्रपति और राज्यसभा सभापति का यह बर्ताव उनके पद की गरिमा के अनुकूल नहीं है, और उन्हें अपने आपको देश से अधिक महत्वपूर्ण साबित करने से बचना चाहिए था, अपनी जाति को ढाल बनाने से बचना चाहिए था, क्योंकि देश में जाटों को लेकर किसी तरह का जाति भेदभाव है भी नहीं। राजनीति में यह सिलसिला बहुत घटिया रहता है जब लोग दूसरों पर हमला करने के लिए उनकी किसी भी बात को अपनी जाति पर हमला करार देने लगते हैं। लोकतंत्र के सार्वजनिक बयानों के इतिहास में ऐसे खोखले काम अलग से दर्ज होते हैं, हो सकता है कि कुछ बरस के शासन काल में सत्ता पर काबिज लोगों के खिलाफ अधिक न लिखा जाए, लेकिन जब कभी राजनीति या किसी दूसरे सार्वजनिक जीवन के व्यक्ति का पूरा मूल्यांकन होता है, तो कहे और लिखे गए एक-एक शब्द कटघरे में खड़े रहते हैं।
हमारा मानना है कि मल्लिकार्जुन खडग़े ने धनखड़ को सही आईना दिखाया है। उन्होंने धनखड़ को यह भी कहा है कि अगर उनकी मिमिक्री सदन के बाहर हुई है तो सदन में प्रस्ताव क्यों लाया जा रहा है? उनकी बात इस हिसाब से भी सही है कि मिमिक्री करने वाले सांसद लोकसभा के निलंबित सदस्य हैं, और उसकी वीडियो रिकॉर्डिंग करने के लिए जिस राहुल गांधी को घेरा जा रहा है, वे भी लोकसभा के सदस्य हैं। क्या यह मुद्दा संसद में पेश किए जा रहे कानूनों के मुकाबले अधिक अहमियत का हो गया है? और धनखड़ के बयान को देखें तो हैरानी होती है कि वे अपने सम्मान की रक्षा के लिए किसी भी आहुति देने के लिए तैयार होने जैसी बातें कह रहे हैं। देश से अपने आपको अधिक महत्वपूर्ण समझना, और साबित करना देश के किसी भी इंसान को उसके अपने व्यक्तित्व से छोटा ही साबित करता है। खडग़े ने उन्हें इस मुद्दे पर जाति को न भडक़ाने की जो सलाह दी है, वह भी एकदम सही है। लोकतंत्र में संसदीय परंपराएं ओछी नहीं, गरिमामय होनी चाहिए, और जो व्यक्ति जितनी ऊंची कुर्सी पर पहुंचे, उसे उतना ही अधिक विनम्र और न्यायप्रिय भी होना चाहिए। किसी को भी अपने सम्मान को इतना नाजुक नहीं मान लेना चाहिए कि वह एक मजाक से जख्मी हो जाएगा।
भारतीय संसद के दोनों सदनों में लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति दोनों की कड़ी कार्रवाई से विपक्ष का एक बड़ा हिस्सा सदन के बाहर हो गया है। दस से अधिक दिन हो गए हैं, और विपक्ष और सत्ता के चल रहे टकराव के बीच हालत यह है कि संसद विपक्षमुक्त होने की तरफ बढ़ रही है। 18 दिसंबर को एक दिन में 78 सांसदों को निलंबित किया गया। लगातार टकराव, और आसंदी द्वारा लगातार निलंबन और निष्कासन के चलते हुए विपक्ष अपने को प्रताडि़त महसूस कर रहा है, और उसे ऐसा लग रहा है कि अध्यक्ष और सभापति विपक्ष के खिलाफ आमादा हैं। हम अभी निलंबन सही या गलत होने पर जाना नहीं चाहते, क्योंकि जिस तरह थोक में संसद खाली करवाई जा रही है, उससे देश का संसदीय लोकतंत्र कमजोर हो रहा है। यह पूरा सिलसिला अभूतपूर्व है। ऐसे में जब निलंबित सांसदों की भीड़ संसद परिसर में जुटी हुई थी, तो तृणमूल कांग्रेस के एक सांसद कल्याण बैनर्जी ने बाकी सांसदों के सामने उपराष्ट्रपति जो कि राज्यसभा के सभापति भी होते हैं, जगदीप धनखड़ के सदन चलाने के तरीके की नकल करना शुरू किया, और वहां मौजूद सभी पार्टियों के सांसदों ने उसका मजा लिया। राहुल गांधी अपने मोबाइल पर उसका वीडियो बनाते दिखे। सांसदों के इस बर्ताव पर प्रधानमंत्री सहित बहुत से सत्तारूढ़ नेताओं ने अफसोस जाहिर किया, और उपराष्ट्रपति ने इस घटना को शर्मनाक बताया है कि एक सांसद मजाक उड़ा रहा है, और दूसरा सांसद उसका वीडियो बना रहा है। धनखड़ ने कहा कि यह एक किसान और एक समुदाय का अपमान मात्र नहीं है, यह राज्यसभा के सभापति के पद का भी अपमान है। उन्होंने कहा कि यह सबसे गिरा हुआ स्तर है, और उन्हें इससे बहुत कष्ट हुआ है। उन्होंने इसे अपने जाट होने से भी जोड़ा, और सदन के बाहर कल ही किसी जाट संगठन ने इस पर सार्वजनिक आपत्ति भी की थी। एक दूसरी खबर बताती है कि दिल्ली के किसी वकील ने वहां थाने में रिपोर्ट दर्ज कराई है कि यह उपराष्ट्रपति का अपमान है। अभी तक इस रिपोर्ट के बारे में और जानकारी तो नहीं मिली है, लेकिन पुलिस ने रिपोर्ट ले ली है।
इस मामले के इतिहास को भी थोड़ा सा समझना जरूरी है कि जगदीप धनखड़ इससे पहले पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे, और वहां तृणमूल सरकार के साथ उनका नियमित और लगातार टकराव चलते ही रहता था। अभी तृणमूल सांसद ने निलंबन के बाद उनकी जो नकल की इसके पीछे धनखड़ के बंगाल राजभवन के कार्यकाल का टकराव भी रहा है। राज्यसभा में अलग-अलग पार्टियों के साथ उनका टकराव अलग-अलग मुद्दों पर चल रहा है, जो कि गंभीर संवैधानिक मुद्दे भी हैं। ऐसे में सदन से निलंबित सदस्यों के बीच उनकी मिमिक्री करके उनकी खिल्ली उड़ाना कितना बड़ा अपमान है, और कितना बड़ा जुर्म है इसकी साफ मिसालें अभी नहीं हैं, और पुलिस रिपोर्ट के बावजूद इस पर कोई कानून लागू होगा ऐसा लगता नहीं है। हालांकि दिल्ली पुलिस केन्द्र सरकार के मातहत काम करती है, और वह अगर कोई जुर्म दर्ज करके तृणमूल सांसद की गिरफ्तारी भी कर लेती है, तो भी उन्हें अपने आपको बेकसूर साबित करने में बरसों लग सकते हैं। इसलिए यह बात साफ है कि बहुत से दूसरे मामलों की तरह किसी भी राज्य या केन्द्र के मातहत काम करने वाली पुलिस के रिपोर्ट दर्ज कर लेने से उस काम के जुर्म होने का अधिक लेना-देना नहीं रहता। इसलिए हम कानूनी बारीकियों से परे अपनी सामान्य समझबूझ से इसकी चर्चा कर रहे हैं।
लोकसभा, राज्यसभा, या राज्यों की विधानसभाओं के सदस्यों के कुछ विशेषाधिकार रहते हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह कि अदालती जजों को हम बात-बात पर अदालत की अवमानना मानकर किसी को कटघरे में खड़ा करते देखते हैं। हो सकता है कि संसद के विशेषाधिकार में यह आता हो कि सदनों के मुखिया, या कि किसी आम सदस्य भी, की अवमानना पर सदन की विशेषाधिकार कमेटी को मामला दिया जा सके। और ऐसी कमेटियां चूंकि सत्ता के बहुमत वाली होती हैं, इसलिए सत्ता के साफ रूख को देखते हुए उनके रुझान का अंदाज भी लगाया जा सकता है, जैसा कि लोकसभा से तृणमूल की ही सांसद महुआ मोइत्रा को आनन-फानन बर्खास्त करने के मामले में दिखा है। यह एक अलग बात है कि इसी संसद में एक मुस्लिम सांसद को नफरती और साम्प्रदायिक गंदी गालियां देने वाले भाजपा सांसद को अगली बार ऐसा न करने की चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। जबकि सदन के बाहर अगर ये गालियां दी गई होतीं, तो सुप्रीम कोर्ट के दर्जन भर बार के आदेशों के मुताबिक उस पर हेट-स्पीच का जुर्म दर्ज होता ही, और हमारा अंदाज है कि उस पर कैद भी हुई होती। लेकिन संसद के भीतर की हिंसक बात पर भी अदालती दखल नहीं हो सकता, और लोकसभा ने इसे अपने रूख और रुझान के मुताबिक नरमी से निपटा दिया, भाजपा सांसद को एक असाधारण रियायत मिली, जो कि देश के कानून के तहत संसद के बाहर नहीं मिल सकती थी। इसलिए आज अलग-अलग पार्टियों के सांसद कई वजहों को लेकर लोकसभा, राज्यसभा, और सरकार के रूख से बहुत ही हक्का-बक्का हैं, और ऐसे में बंगाल के एक राज्यसभा सदस्य ने राज्यसभा के उपसभापति की खिल्ली उड़ाई, और बाकी लोगों ने उसका मजा लिया।
लोकतंत्र में कानून दो किस्म के हैं, एक संसद और विधानसभाओं के भीतर के लिए, और एक इन सदनों के बाहर के लिए। सदन के बाहर किसी की खिल्ली उड़ाने को हम लोगों का लोकतांत्रिक अधिकार मानते हैं। वह सही या गलत हो सकता है, उसकी तारीफ या निंदा की जा सकती है, लेकिन वह जुर्म नहीं होता। लोकतंत्र बहुत किस्म के व्यंग्य और हास्य की आजादी देता है। लेकिन जब सदन और अदालतें कुछ खास कानूनों हिफाजत में काम करती हैं, तो किसी जज या किसी संसद सदस्य की ऐसी खिल्ली उड़ाना, अदालत या सदन के भीतर एक अलग परेशान का सामान बन सकता है। अदालतों और सदनों के अवमानना और विशेषाधिकार भंग होने के ये अधिकार अपने आपमें अलोकतांत्रिक रहते हैं, लेकिन ये ताकतवर तबके के अपने आपको अधिक हिफाजत देने की मनमानी रहते हुए भी भारत जैसे लोकतंत्र में कानूनी हैं। अब आज तो देश का कानून ऐसा है कि सांसद की किसी भी बात को सदन के अध्यक्ष या सभापति अनदेखा कर सकते हैं, या किसी की भी किसी दूसरी बात को जुर्म ठहरा सकते हैं। संसदीय परंपरा में सदन के मुखिया को कल्याणकारी-तानाशाह (बेनेवलेंट-डिक्टेटर) कहा जाता है, जबकि ये दो शब्द अपने आपमें विरोधाभासी हैं। न कोई तानाशाह जनकल्याणकारी हो सकते, और न किसी जनकल्याणकारी व्यक्ति को तानाशाही की छूट दी जा सकती। अब आज के संसद के विशेषाधिकार के चलते तृणमूल सांसद की व्यंग्य की मिमिक्री पर संसद की विशेषाधिकार कमेटी, या सांसदों की आचार कमेटी जो चाहे वह सजा सुना सकती हैं, लेकिन लोकतंत्र की भावना व्यंग्य को छूट देती है, और वह तीखा, हमलावर, और अपमानजनक, या बदमजा होने के बावजूद लोकतांत्रिक ही कहलाता है। हमारा ख्याल है कि सभ्य और विकसित लोकतंत्रों के इतिहास में इस मिमिक्री को सजा के लायक ठहराना, न तो देश के आम कानून के तहत मुमकिन होगा, और न ही संसद के विशेषाधिकार से महफूज लोगों को इस पर सजा दिलवाना ठीक लगेगा। इतिहास ऐसी कार्रवाई को लोकतंत्र की परिपक्वता से परे ही दर्ज करेगा। लोकतंत्र का एक मतलब मखौल उड़ाने की आजादी भी होता है। सत्ता चाहे वह अदालत की हो, संसद की, या सरकार की, उसे लोगों के पीछे लगातार लाठी लेकर नहीं दौडऩा चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी किसी की खिल्ली उड़ाने की हद तक जा सकती है, और उस पर कार्रवाई लोकतंत्र का गौरव नहीं बढ़ाएगी।
कर्नाटक के एक सरकारी हॉस्टल-स्कूल में दलित बच्चों को सजा देने के लिए प्रिंसिपल ने उनसे पखाने के सेप्टिक टैंक की सफाई करवाई। स्कूली बच्चे जब सेप्टिक टैंक के भीतर उतरकर उसकी सफाई कर रहे थे, तो उस वक्त के कुछ फोटो और वीडियो चारों तरफ फैले। सोशल मीडिया पर इनके आने के बाद सरकार की नींद खुली, और प्रिंसिपल और उसके मातहत कुछ शिक्षक-कर्मचारी निलंबित किए गए, और सरकार की तरफ से पुलिस में इसके खिलाफ एसटी-एससी कानून के तहत रिपोर्ट दर्ज कराई गई। कोलार जिले के मोरारजी देसाई आश्रम-स्कूल के इस मामले में हिन्दुस्तान में दलितों के खिलाफ भेदभाव, छुआछूत, और हिंसा को एक बार फिर बुरी तरह उजागर कर दिया है। भारत में सफाई कर्मचारी हर बरस सेप्टिक टैंक और गटर साफ करते हुए मारे जाते हैं, और पिछले पांच बरस में सवा तीन सौ से अधिक ऐसी मौतें हो चुकी हैं। जो लोग आरक्षण के खिलाफ हिंसक बातें करते हैं, कभी उनके मुंह से यह सुनाई नहीं पड़ता कि सफाई कर्मचारियों में भी गैरदलितों के लिए आरक्षण होना चाहिए। सच तो यह है कि शहरी संपन्न तबका पूरी तरह से इस भरोसे पर गंदगी करते चलता है कि सफाई करने को दलित तबका अनंतकाल तक मौजूद रहेगा। अब दलितों के बारे में गैरदलितों की यह सोच हिंसक होकर इस हद तक पहुंच गई कि एक सरकारी स्कूल-हॉस्टल के प्रिंसिपल ने दलित बच्चों को सेप्टिक टैंक की सफाई की सजा दी, जबकि ऐसी सफाई में मौतों की खबरें आती रहती हैं।
हम किसी एक प्रदेश की एक स्कूल के प्रिंसिपल और शिक्षकों पर ही आज की इस पूरी बात को खत्म करना नहीं चाहते क्योंकि देश के कई प्रदेशों में इस तरह की हिंसा होती रहती है। आज कर्नाटक में जिस कांग्रेस पार्टी की सरकार है, उसी पार्टी की सरकार राजस्थान में थी, जब आजादी की 75वीं सालगिरह देश भर में मनाई जा रही थी, और एक शिक्षक ने एक दलित छात्र को पीट-पीटकर इसलिए मार डाला था कि उसने सवर्ण जाति के लिए अलग से रखी गई मटकी का पानी पी लिया था। शिक्षक ने उसे गालियां बकते हुए इतना पीटा था कि भीतरी चोटों से वह मर गया। तमिलनाडु में जहां पर कि दलित-हिमायती डीएमके सरकार है, वहां पर अभी सितंबर के महीने में ही एक दलित स्कूली बच्चे को तीन गैरदलित छात्रों ने इतना मारा कि वह टूटे हाथ-पैर सहित अस्पताल में पड़ा है, और उसकी बहन भी द हिन्दू अखबार में छपी इस तस्वीर में टूटे हाथ सहित अस्पताल के कमरे में एक कुर्सी पर दिख रही है। इस अखबार की खबर कहती है कि तमिलनाडु के ग्रामीण इलाकों में बहुत से छात्र-छात्राएं अपनी कलाई पर जाति सूचक धागे बांधते हैं। एक दलित-हिमायती शासन वाले राज्य में जाति सूचक ऐसे संगठनों की भरमार है जो कि अपने सवर्ण होने के अहंकार में डूबे रहते हैं। आजादी की सालगिरह वाले अगस्त महीने में ही तमिलनाडु में दलितों पर ऐसे तीन हमले हुए हैं। भाजपा के योगीराज वाले यूपी के अमेठी जिले में दस-दस बरस के दलित स्कूली बच्चों को दोपहर के भोजन की कतार में अलग खड़े रखने के लिए स्कूल प्रिंसिपल ने ही उन पर हिंसा की थी। यह एक सरकारी स्कूल का मामला था, और गैरदलित प्रिंसिपल दलित बच्चों को लगातार पीटती रहती है। यूपी में ही सितंबर 2022 में एक दलित बच्चे की हिज्जे की एक गलती पर एक टीचर ने उसे इतना पीटा था कि यह बच्चा इन चोटों से अस्पताल में मर गया।
ऐसी घटनाओं को इंटरनेट पर बड़ी आसानी से एक पल में ढूंढा जा सकता है, और हिन्दुस्तानी लोकतंत्र के इस अमृतकाल में देश में आज दलितों की जो हालत है उसे देखने के लिए मोबाइल-इंटरनेट वाले लोगों को ऐसी खबरों को पल भर में ढूंढ भी लेना चाहिए, और कुछ मिनट देश की इस हकीकत को जानने में लगाना भी चाहिए क्योंकि गैरदलितों के बीच इन मुद्दों की ऐसी कोई समझ नहीं है, न उनके कोई सरोकार हैं। संविधान में दलितों को जो आरक्षण मिला है, उससे परे उन्हें कानून से भी पूरी हिफाजत नहीं मिल पाती, क्योंकि उसे लागू करने वाले अफसर, जुर्म पर सजा देने वाली अदालतें, इन सबके भीतर एक बहुत गहरा दलित-विरोधी पूर्वाग्रह भरा हुआ है। दलित-आदिवासी आरक्षण को लेकर देश के अनारक्षित तबकों में अब तक सरकारी दामाद कहने का चलन रहा है। और तो और वे ओबीसी लोग भी इसी जुबान का इस्तेमाल करते थे, जो कि कुछ अरसे से ओबीसी आरक्षण पा रहे हैं, और आज जाति जनगणना के बाद संसद और विधानसभाओं में भी राजनीतिक आरक्षण पाने का भरोसा रख रहे हैं।
हमारे पाठकों को याद होगा कि हमने अभी दो-चार दिन पहले ही हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों में आरक्षण लागू करने की वकालत की है, और ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि आरक्षित तबके के लोगों को, खासकर दलित-आदिवासियों को नालायक मानने की एक सवर्ण सोच खत्म हो। देश के संविधान निर्माताओं में एक दलित, डॉ.भीमराव अंबेडकर का नाम सबसे ऊपर है, जो कि दलित समाज के थे, लेकिन आज 140 करोड़ आबादी के इस शहर में सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि उसकी 32 कुर्सियों में से कुछ कुर्सियों पर आरक्षण के लायक भी दलित नहीं मिल पाएंगे। हमारा ख्याल है कि कर्नाटक के स्कूल में प्रिंसिपल ने दलित बच्चों को जो यह सजा दी है, वह ऐसे ही सवर्ण अहंकार से उपजी हुई सजा है। जब तक देश की बड़ी अदालतों में यह आरक्षण लागू नहीं होगा, तब तक स्कूली प्रिंसिपलों और टीचरों से दलितों के सम्मान की उम्मीद करना फिजूल बात होगी।
बॉम्बे हाईकोर्ट में अभी एक केस सामने आया जिसमें एक आदमी ने शादी के कुछ साल बाद तक लडक़ा न हुआ, तो दूसरी शादी कर ली। दूसरी बीवी से बेटा हो गया। साथ रह रही पहली बीवी को भी बेटा हो गया। इसके बाद उस आदमी ने पहली बीवी के कहने पर दूसरी को घर से निकाल दिया, जो कि उसके बेटे की मां भी थी। अब मामला गुजारा-भत्ता के लिए हाईकोर्ट तक पहुंचा तो वहां अदालत ने इस आदमी को जमकर फटकार लगाई, और कहा कि पहली शादी के बरकरार रहते हुए उसने पहले तो दूसरी शादी की, और अब वह दूसरी पत्नी को अलग करके उसके गुजारे की जिम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकता। यह मामला 1989 में हुई दूसरी शादी का है, और 2012 में दूसरी पत्नी को गुजारे के लिए अदालत जाने की जरूरत पड़ी। 2015 में निचली अदालत के हुक्म पर भी अब पति ने दूसरी पत्नी को मासिक भत्ता देना बंद कर दिया है, अब हाईकोर्ट ने इस पति को फटकार लगाई है, और महिला को छूट दी है कि वह भत्ता बढ़ाने की मांग कर सकती है।
इंसान बात-बात पर अपने भीतर की हिंसा, दगाबाजी, बेईमानी को लेकर जानवरों की मिसालें देते हैं। कहीं भेड़ की खाल ओढक़र धोखा देने वाले भेडिय़े की बात कहते हैं, कहीं आस्तीन में सांप की मिसाल, कहीं मूर्खता के लिए गधे की कहानियां, तो कहीं बहादुरी की मिसाल के लिए शेर की कहावतें, यह अंतहीन है। इनमें से कोई भी जानवर इंसानों जैसे घटिया नहीं होते। वे अपनी नस्ल के प्राकृतिक मिजाज के मुताबिक रहते हैं, अगर वहां एक से अधिक साथियों से देहसंबंध स्वाभाविक है, तो उसे निभाते हैं, और पेंगुइन जैसे कुछ प्राणी एक साथी के साथ भी जीने वाले कहे जाते हैं। हम किसी पेंगुइन को कोई चरित्र प्रमाणपत्र नहीं दे रहे, लेकिन कई और भी ऐसे पशु-पक्षी हैं जिन्हें एक ही जोड़ीदार के लिए जाना जाता है। सैंडहिल क्रेन नामक पंछी, दरियाई घोड़े, सलेटी-भेडिय़े, बार्न-उल्लू, बाल्ड-ईगल, गिबन जाति के बंदर, काले गिद्ध, हंस ऐसे ही कुछ और प्राणी हैं जिन्हें आमतौर पर अपने एक साथी के लिए वफादार माना जाता है। अब जानवरों को गाली बकने वाली इंसानी नस्ल को देखें तो उनमें वफादार-मर्द की धारणा भूतों और चुड़ैलों जितनी ही हकीकत होती है। लेकिन जब गाली देना हो तो पशु-पक्षियों की मिसाल आसान रहती है क्योंकि वे मानहानि का मुकदमा दायर नहीं कर सकते।
बॉम्बे हाईकोर्ट के इस ताजा मामले को देखें तो समझ पड़ता है कि इंसानों में कमीनगी धरती पर किसी भी दूसरे प्राणी के मुकाबले हजारों गुना अधिक रहती है, और हो सकता है कि इंसानों से परे किसी भी प्राणी में कमीनगी रहती भी न हो। लोगों को याद रखना चाहिए कि दूसरों को लूट लेने की कीमत पर भी अपने परिवार के लिए दौलत जुटा लेने जैसा घटिया काम दुनिया के करोड़ों किस्म के प्राणियों में से सिर्फ इंसान का एकाधिकार है। कहने के लिए इंसानी समाज के जो रीति-रिवाज प्रचलित हैं, उनके खिलाफ जाकर अपने ही बच्चों से बलात्कार करना सिर्फ इंसान ही कर सकते हैं। बाकी पशु-पक्षी तो उनके समाज में प्रचलित काम ही करते हैं। अब सिर्फ इंसानों की बात पर लौटें, तो आए दिन ऐसी खबरें आती हैं कि किसी बालिग ने शादी का वायदा करके किसी नाबालिग से देहसंबंध बनाए, और फिर धोखा दे दिया। शिकायतकर्ता के नाबालिग होने पर कार्रवाई के लिए देश में कड़ा कानून है, लेकिन दोनों लोगों के बालिग होने पर शादी के वायदे को लेकर अगर बाद में धोखे की कोई शिकायत खड़ी होती है, तो अब देश की अदालतें ऐसी शिकायतों पर सजा सुनाने से मना कर रही हैं। अदालतों ने भी यह ठीक ही अहसास किया है कि बालिग लोगों के बीच शादी के वायदे को पूरा न करना, या न कर पाना किसी किस्म का जुर्म मानना गलत है। जब शादीशुदा जोड़ों के बीच भी निभना मुश्किल हो जाता है, और तलाक हो जाते हैं, तो फिर प्रेमसंबंधों में जी भर जाने, या कोई शिकायत हो जाने की गुंजाइश तो हमेशा ही रहती है। पुरूष साथी पर तोहमत मढऩे के बजाय लडक़ी या महिला के लिए बेहतर यही होता है कि किसी रिश्ते में पडऩे के पहले इस बात को समझ ले कि हर वायदे कभी पूरे नहीं होते, और ऐसा सिर्फ मर्द की तरफ से औरत के साथ हो, ऐसा भी नहीं है, कई मामलों में कोई लडक़ी या महिला भी शादी का वायदा पूरा नहीं कर पातीं, और ऐसे में क्या उन पर यह तोहमत लगाई जाए कि उन्होंने धोखा दिया है?
पुलिस और अदालत तक पहुंचने वाले बहुत से मामलों को देखें तो यह समझ पड़ता है कि लोग अपनी सामान्य समझबूझ, और बहुत मामूली तर्कशक्ति, बहुत सीमित तजुर्बे को भी अनदेखा करते हुए खतरनाक रिश्तों में पड़ते हैं। ऐसे अनगिनत मामले सामने आते हैं जिनमें दूसरी बीवी यह कहती है कि उसे पहली बीवी से तलाक का वायदा किया गया था। अगर ऐसी नौबत है तो शादीशुदा से रिश्ता बनाने के पहले उसके तलाक का इंतजार भी कर लेना चाहिए। लेकिन लोग पहले ऐसे उलझे हुए रिश्तों में पड़ते हैं, और फिर उनमें धोखा होने की बात कहते हुए झींकते हैं। यह बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि इंसान जानवरों जितने ईमानदार नहीं होते, और वे कई किस्म से बेवफा हो सकते हैं, उनसे बहुत ऊंचे दर्जे की वफा की उम्मीद जीते जी जन्नत के नजारे सरीखी होगी। इसलिए हर किसी को चाहिए कि सामाजिक और कानूनी रूप से पुख्ता रिश्तों में ही पड़ें। अगर लोगों को सिर्फ प्रेम और देहसंबंधों में पडऩा, तो उनके बीच में दोनों के बालिग होने पर किसी तरह का कानून शामिल नहीं होता। यहां तक तो सब ठीक है, लेकिन जहां शादी की बात आती है, वहां पर पहली या दूसरी पत्नी, परिवार के दूसरे कानूनी वारिसान जैसे बहुत से उलझाने वाले पहलू जुड़ जाते हैं। इसलिए दस-दस, बीस-बीस बरस बाद जाकर अदालत से मिले मामूली से इंसाफ पर भरोसा करके लोगों को अधिक रिश्ते नहीं बनाने चाहिए। अब यह कल्पना करें कि दस बरस की अदालती लड़ाई के बाद, और यह लड़ाई शुरू होने के पहले की बीस बरस की तकलीफदेह शादीशुदा जिंदगी के बाद अगर ढाई हजार रूपए महीने का कोई गुजारा-भत्ता मिलना है, तो उससे एक महिला और उसके बेटे का क्या काम चल सकता है? इसलिए अपनी समझ और दुनिया के तजुर्बे को कानूनी संभावना से ऊपर मानना चाहिए। कानून को एक आखिरी विकल्प की तरह रखना चाहिए क्योंकि वह अधिकतर मामलों में ऐसे सुबूतों पर काम करता है जिन्हें जुटाना किसी मामूली के बस का काम नहीं रहता है। इंसानी समाज पशु-पक्षियों के समाज सरीखे ईमानदार नहीं हैं, इसलिए यहां पर लोगों को दूसरों की कही बातों, और उनके दिखाए गए सपनों पर लापरवाही से जरूरत से ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए।
तीन राज्यों में भाजपा की सरकार बनने का सिलसिला चल रहा है, और इन हिन्दीभाषी राज्यों से परे, तेलंगाना और मिजोरम भी इसी दौर से गुजर रहे हैं। पांचों राज्यों में नए मुख्यमंत्री हैं, जो कि पहली बार यह जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। तीन बड़े और हिन्दीभाषी राज्यों में देश के एक ही नेता, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पार्टी के, और उनकी पसंद के नेता सरकार और विधानसभा के ओहदे संभालने वाले हैं। मोदी हिन्दुस्तान के एक ऐसे अनोखे नेता हैं जिनकी पूरी पार्टी उनके काबू में है, और जनता का एक पर्याप्त बड़ा हिस्सा उनके हर फैसले पर ताली बजाने को तैयार खड़े ही रहता है। जब वे अपने एक फैसले से देश के करोड़ों लोगों के हाथों में झाड़ू थमवा सकते हैं, तो फिर अपनी पार्टी की राज्य सरकारों के लिए तो उनकी मर्जी ही हुक्म सरीखी होगी। ऐसे में कुछ महीनों बाद के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले अगर वे हिन्दी पट्टी कहे जाने वाले इलाके के इन तीन राज्यों में अगर सरकारों को जनता के करीब ला सकते हैं, उन्हें जनसरोकारों से जोड़ सकते हैं, तो इससे नए मुख्यमंत्रियों की एक सादगी और किफायत की बुनियाद भी बन सकती है, इन राज्यों का भला भी हो सकता है, और लोकसभा चुनाव में इसका फायदा मोदी और उनकी पार्टी को तो होगा ही होगा।
यह कोई रहस्य की बात नहीं है कि सरकारों में बैठे मंत्री और अफसर अपनी ताकत का बेजा इस्तेमाल करते हुए बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारियों को बंगलों पर तैनात करवाते हैं, जो कि जनता की जेब पर ही बोझ रहता है, और इसके साथ-साथ ऐसे कर्मचारियों को मजबूरी की नौकरी या रोजी के लिए मानवीय गरिमा के खिलाफ काम करने पड़ते हैं। एक-एक बड़े अफसर के बंगले पर दर्जन भर या दर्जनों कर्मचारियों की तैनाती रहती है, और वे घोषित रूप से तो कहीं और ड्यूटी पर रहते हैं, लेकिन अघोषित रूप से वे बंगला ड्यूटी करते हैं। कुत्तों को घुमाने से लेकर बच्चों का पखाना साफ करने तक, कपड़े धोने, और प्रेस करने तक, खाना पकाने और सब्जियां उगाने तक सैकड़ों किस्म के काम सरकारी कर्मचारियों से करवाए जाते हैं, जो कि पूरी तरह से गैरकानूनी इंतजाम है, और बहुत से बड़े अफसर तो खुद जितनी तनख्वाह पाते हैं, उससे अधिक कुल तनख्वाह के कर्मचारियों का बेजा इस्तेमाल करते हैं।
हमारा ख्याल है कि प्रधानमंत्री या उनकी पार्टी अपने नए मुख्यमंत्रियों को सादगी और किफायत की नसीहत देकर सरकारी फिजूलखर्ची घटाने की बात करेंगे, तो यह देश के सामने एक मिसाल हो सकती है, और एक-एक राज्य में दसियों हजार ऐसे कर्मचारियों को इंसान की तरह जीना नसीब हो सकता है। आज सरकार में ऊपर से नीचे तक तमाम लोग इस पूरी तरह गैरकानूनी इस्तेमाल के लिए इस हद तक संगठित रहते हैं कि छोटे कर्मचारियों की जुबान ही सिली रहती है, और वे नौकरी खोने के डर से, या रोजी खत्म हो जाने के खतरे से कुछ कह नहीं पाते। हमारा ख्याल है कि सरकारी कर्मचारियों के ऐसे अघोषित इस्तेमाल के खिलाफ एक कड़ा कानून बनाना चाहिए, और इस पर सजा का इंतजाम करना चाहिए। इस देश में संस्कृति यह हो गई है कि जब तक अदालती डंडे का डर न हो, किसी को किसी कानून की परवाह नहीं रह गई है।
देश में गरीबी इतनी है कि केन्द्र और राज्य सरकारों को तरह-तरह की अनाज-योजनाएं चलानी पड़ रही हैं, स्कूली बच्चों को दोपहर का भोजन देने से ही वे कुपोषण से बच पा रहे हैं, देश के दसियों करोड़ लोग आज भी बेघर हैं, और दसियों करोड़ लोग न्यूनतम मजदूरी से भी कम पर काम करने को मजबूर हैं। ऐसे देश में सरकारी ओहदों पर बैठे हुए लोग न सिर्फ भ्रष्टाचार में डूबे रहते हैं, बल्कि सरकारी ढांचे का बेजा निजी इस्तेमाल करने को वे अपना जायज हक मान बैठे हैं। हमारा ख्याल है कि जब भाजपा आज देश में सबसे अधिक संख्या में राज्यों पर काबिज है, और ये तीन प्रमुख राज्य अभी सरकार बनाने के दौर से गुजर रहे हैं, तो यह पार्टी अपने नरेन्द्र मोदी सरीखे मजबूत नेता की अगुवाई में एक सुधार शुरू करने के लिए सबसे अधिक काबिल संगठन है। भाजपा के भीतर पार्टी की राष्ट्रीय लीडरशिप की हालत कांग्रेस सरीखी बर्बाद नहीं है कि जिसे सुनने से पार्टी के मुख्यमंत्री ही मना कर दें। इसलिए भी हम आज यह सुझाने की हालत में हैं कि प्रधानमंत्री अगर भाजपा मुख्यमंत्रियों को किफायत और सादगी की नसीहत दें, और मंत्रियों-अफसरों के निजी इस्तेमाल में सरकारी अमले को झोंकने के खिलाफ कड़ाई से कहें, तो हर राज्य में हजारों करोड़ रूपए सालाना की बचत हो सकती है। और किसी को भी नौकरी या रोजगार से निकाले बिना उनका बेहतर इस्तेमाल सार्वजनिक जरूरत की जगहों पर किया जा सकता है।
और यह बात प्रधानमंत्री तक न पहुंचे, तो हर राज्य के मुख्यमंत्री अपने स्तर पर भी ऐसा कर सकते हैं, और इससे अफसरी बददिमागी भी जमीन पर आएगी। आज जिन लोगों को यह लगता है कि उनके बिना सरकार नहीं चल सकती, उन्हें भी यह अहसास कराना जरूरी है कि स्थाई रूप से नियम-कानून तोड़ते हुए वे सरकारी अमले को घर पर नहीं जोत सकते। कल ही हमने अपने यूट्यूब चैनल पर छत्तीसगढ़ की राजधानी, नया रायपुर में मंत्री-मुख्यमंत्री और अफसरों के लिए बने बड़े-बड़े बंगलों की बात की थी कि अब उनके रखरखाव के लिए साधन और सुविधाओं का कई गुना अधिक बेजा इस्तेमाल शुरू हो जाएगा। प्रधानमंत्री को पूरे देश में सरकारी अमले की सादगी को भी लागू करना चाहिए, यह एक अलग बात है कि नया रायपुर में सरकारी बंगलों की यह योजना उन्हीं की पार्टी की रमन सिंह सरकार ने मंजूर की थी, उसका टेंडर किया था, और कांग्रेस सरकार ने पांच बरस ईंट-गारा ढोकर ये बंगले पूरे किए, और अब भाजपा के मंत्री-मुख्यमंत्री उसमें रहने जा रहे हैं। हमने उस वक्त भी इतनी बड़ी फिजूलखर्ची के खिलाफ लिखा था, लेकिन सत्ता को फिजूलखर्ची सुहाती है, और किफायत की हमारी सलाह कूड़े के ढेर में गई थी, और अब यह प्रदेश हाथी सरीखे विशाल रखरखाव का खर्च बाकी जिंदगी उठाता रहेगा। चाहे पीएम, चाहे सीएम जिस स्तर पर भी हो, जनता की जेब काटना बंद होना चाहिए।
भारत की संसदीय प्रणाली ब्रिटेन के मॉडल पर ढली हुई है, इसलिए भारतीय संसद या यहां की विधानसभाओं के जानकार लोगों को यह बात चौंका सकती है कि अभी ब्रिटिश प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण एक बिल संसद में पेश किया, तो उन्हीं की पार्टी के 29 सांसद गैरहाजिर थे। ऐसा नहीं कि वे इस बिल के खिलाफ थे, लेकिन वे कानून बनने जा रहे इस बिल के प्रावधानों को और कड़ा बनाना चाहते थे, और इसलिए उन्होंने वोट नहीं दिया। फिर भी वहां संसद के निचले सदन ने इसे बहुमत से पास कर दिया। रवांडा बिल नाम का यह विधेयक ब्रिटेन में दूसरे देशों से पहुंचने वाले लोगों को रोकने के लिए बनाया गया है क्योंकि देश अब शरणार्थियों और घुसपैठियों से थक गया सा लगता है। वहां के कुछ आंकड़े देखें, तो ब्रिटिश सरकार ने हर बरस एक लाख प्रवासियों को बसाने का वायदा किया था, लेकिन 2022 में ऐसे लोगों की संख्या 7 लाख 45 हजार पहुंच गई थी। ऐसे में ब्रिटेन ने एक अफ्रीकी देश रवांडा के साथ मिलकर यह योजना बनाई है कि ब्रिटेन रवांडा में ऐसे गैरकानूनी पहुंचने वालों को बसाएगा, और उसका खर्च खुद उठाएगा। अब इस योजना को लेकर खुद ब्रिटेन के भीतर कुछ लोग सरकार की इस सोच के खिलाफ हैं, वे इसको अमानवीय मानते हैं, और इसे ब्रिटेन का अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी से मुंह चुराना कहते हैं। दूसरी तरफ सत्तारूढ़ कंजर्वेटिव पार्टी इस पर प्रधानमंत्री के पेश किए गए रवांडा प्लान के मुकाबले अधिक कड़ा कानून चाहती है क्योंकि अवैध घुसपैठियों, और इजाजत पाकर आए शरणार्थियों से ब्रिटिश खजाने की कमर टूट रही है।
लोगों के याद होगा कि 2016 में जब ब्रिटेन में यूरोपियन यूनियन को छोडऩे के मुद्दे पर ब्रेक्जिट नाम का जनमतसंग्रह हुआ था, तब लोगों ने जिन वजहों से इस ऐतिहासिक गठबंधन को छोडऩा चाहा था, उसमें बाहर से आने वाले लोगों का मुद्दा एक सबसे बड़ा था। तब से लेकर अब तक ब्रिटेन में सरकार के सामने यह एक दुविधा बनी रही कि यूनियन छोड़ देने के बाद भी अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए ब्रिटेन की जवाबदेही खत्म नहीं हुई थी, और खुद उसके लोग देश के भीतर भी गरीब और हिंसा झेल रहे देशों से आ रहे मजबूर लोगों को रवांडा में शरणार्थी या राहत शिविरों जैसे इंतजाम में बसाने के खिलाफ हैं। ब्रिटेन में यह नया कानून लागू हो जाने के बाद भी इस पर चर्चा खत्म नहीं होगी, और खुद सत्तारूढ़ पार्टी अपने प्रधानमंत्री की इस पहल से संतुष्ट नहीं हैं, और इसमें और कड़ाई चाहती है।
हम दो पहलुओं से इस मुद्दे को हमारे पाठकों के बीच चर्चा के लायक पाते हैं, एक तो यह कि किसी देश की शरणार्थी नीति कैसी होनी चाहिए, क्योंकि खुद भारत म्यांमार और बांग्लादेश से कानूनी और गैरकानूनी तरीकों से आने वाले लोगों को लेकर एक चुनौती से गुजरता है, यह देश में आज बसे हुए लोगों की नागरिकता को पीढिय़ों पहले से साबित करने के कानून की बहस में भी उलझा हुआ है। दूसरी बात यह कि किसी संसदीय व्यवस्था में सत्तारूढ़ या कोई दूसरी पार्टी किस तरह अपने सदस्यों की असहमति को बर्दाश्त कर सकती है। हिन्दुस्तान में तो हम बात-बात में संसद या विधानसभाओं में पार्टियों के व्हिप देखते हैं जिनके मुताबिक अगर सदस्य सदन में मौजूद नहीं रहे, और उन्होंने पार्टी के फैसले के मुताबिक वोट नहीं दिया, तो उनकी सदस्यता खत्म हो सकती है। ऐसे में दूसरे कुछ अधिक विकसित लोकतंत्रों में यह देखना दिलचस्प रहता है कि आंतरिक असहमति से पार्टियां किस तरह जूझती हैं। हिन्दुस्तान की संसदीय व्यवस्था में यह कल्पना से परे है कि किसी पार्टी के इतने सदस्य अपनी ही सरकार से असहमत होकर किसी विधेयक पर मतदान के दौरान गैरहाजिर हों। कुछ लोगों को यह बात अटपटी लग सकती है कि हम ऐसी असहमति की वकालत कर रहे हैं जो कि भारत जैसे माहौल में किसी मुद्दे पर दाम पाकर भी खड़ी हो सकती है। आज भारत में संसदीय व्यवस्था की जो साख है, उसमें ऐसा भी हो सकता है कि किसी कारोबारी घराने के हाथों बिककर सांसद या विधायक किसी फैसले को प्रभावित करें। दूसरी तरफ पार्टियों को भी यह बात सहूलियत की लगती है कि सदन में मौजूदगी और पार्टी के फैसले के मुताबिक वोट देने का एक कानून रहे, ताकि जिस किस्म का भी सौदा-समझौता करना हो, उसे पार्टी खुद करे, और सांसदों को अलग-अलग अपनी ‘आत्मा’ बेचने की छूट न रहे। हम असहमति की गुंजाइश को खत्म करने को अलोकतांत्रिक भी पाते हैं कि वोटरों के फैसले से चुनकर आए सांसद या विधायक उनकी या अपनी पसंद से वोट नहीं डाल सकते, बल्कि अपनी पार्टी की गिरोहबंदी का एक पुर्जा बनकर रह जाते हैं। इससे किसी पार्टी के भीतर लोकतांत्रिक विचार-विमर्श की संभावना भी खत्म हो जाती है। इसलिए लोकतंत्र में दलबदल कानून के रास्ते, व्हिप (कोड़ा) चलाकर अपने सांसदों को जानवरों की तरह एक रास्ते पर, एक दिशा में हांकने का इंतजाम पूरी तरह लोकतांत्रिक नहीं लगता है।
फिर दूसरी तरफ ब्रिटेन, और योरप के दूसरे देशों की तरह इस मुद्दे पर सोचने की जरूरत भी है कि पड़ोस के देशों से, या दूर-दराज के देशों से भी आने वाले लोगों को अपनी जमीन पर किस तरह बर्दाश्त किया जा सकता है। अफ्रीका से लेकर सीरिया और इराक तक, पाकिस्तान और दूसरे कई देशों से आने वाले शरणार्थियों तक के लिए योरप-अमरीका जैसे विकसित इलाकों की नीति कैसी रहती है, उसे भी भारत जैसे देशों को देखना चाहिए, क्योंकि यहां पर पड़ोस के म्यांमार जैसे हिंसाग्रस्त देश से बहुत ही मजबूर शरणार्थी पहुंचते हैं, और उन्हें उनके धर्म के आधार पर रोक देने की एक मजबूत सरकारी सोच भारत में बनी हुई है। लोकतंत्र तंगदिली का नाम नहीं रहता है, और यह एक आक्रामक राष्ट्रवाद का शिकार होकर भी नहीं चल सकता है। लोकतंत्र अपने देश की सरहदों के पार भी लोकतांत्रिक बने रहने का नाम है, और सरहद पार के लोगों के लिए भी एक लोकतांत्रिक रूख बने रहना जरूरी रहता है। हम ब्रिटेन के इस ताजा मामले को लेकर भारत के बारे में इन दोनों ही पहलुओं से सोचते हैं कि अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारियों के प्रति भारत का रूख क्या रहना चाहिए, और भारत के भीतर संसदीय लोकतंत्र में पार्टी के भीतर की असहमति का क्या महत्व हो सकता है। दुनिया के लोकतंत्र एक-दूसरे से हमेशा ही कुछ न कुछ सीखते रहते हैं, और हो सकता है कि ब्रिटेन के इस रवांडा-प्लान और उस पर सत्तारूढ़ पार्टी के दर्जनों सदस्यों की संसदीय असहमति से भारत में भी सोच-विचार का सामान जुटे।
देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव के चलते हिन्दीभाषी इलाकों से मणिपुर की खबरें गायब ही हो गई थीं। और बात महज हिन्दी इलाकों की नहीं है, उत्तर-पूर्व के बाहर भारत के बहुत कम हिस्से की कोई बड़ी दिलचस्पी उत्तर-पूर्वी राज्यों में रहती है, और ये इलाका देश की खबरों की मूलधारा से तब तक कटा सा रहता है जब तक वहां से किसी बड़ी हिंसा की बड़ी खबर नहीं आ जाती। पिछले कई महीनों से मणिपुर धीरे-धीरे खबरों में किनारे होते चले गया, और अब एक बार फिर वहां की एक खबर सामने आई है कि कई महीने पहले जातीय हिंसा में मारे गए 64 लोगों के शव उनके परिवारों को दिए जा रहे हैं, और आज उनके अंतिम संस्कार के लिए मणिपुर के अलग-अलग इलाकों में सुरक्षाबलों ने छूट दी है, और संघर्ष कर रहे समुदायों ने भी कुछ घंटे की शांति का आव्हान किया है। सुप्रीम कोर्ट की बनाई भूतपूर्व हाईकोर्ट जजों की एक कमेटी की रिपोर्ट के बाद अदालत के आदेश पर महीनों से मुर्दाघरों में रखे गए वे शव अब परिवारों को दिए जा रहे हैं, जिनमें 60 ईसाई-आदिवासी कुकी समुदाय के हैं, और 4 मणिपुर के शहरी और गैरआदिवासी, हिन्दू मैतेई समुदाय के हैं।
मई के महीने से मणिपुर में शुरू हुई हिंसा का अभी भी कोई अंत नहीं हुआ है, और जिन दो समुदायों के बीच टकराव चल रहा है, वे अलग-अलग इलाकों में सीमित हो गए हैं, और मणिपुर के भीतर जातीय आधार पर एक भौगोलिक विभाजन हो गया है जो कि सुरक्षाबलों की असाधारण बड़ी मौजूदगी की वजह से किसी तरह टकराव को टालते हुए जारी है। लेकिन यह यथास्थिति शांति से कोसों दूर है, और महज बंदूकें हंै जो कि बड़ी संख्या में तैनात हैं, और मणिपुर के दो समुदायों को एक-दूसरे को मारने से रोक रही हैं। जिन लोगों को मणिपुर के इस तनाव के ताजा इतिहास की याद न हो, उन्हें यह बताना ठीक होगा कि इस छोटे से राज्य की 40 लाख से कम आबादी में आधी आबादी नगा-कुकी आदिवासी समुदाय की है जो कि ईसाई हैं, और जिन्हें आदिवासी-आरक्षण मिला हुआ है। ये लोग राजधानी इम्फाल के शहरी इलाके से परे के पहाड़ी इलाकों पर अधिक बसे हैं। दूसरी तरफ इम्फाल के घाटी जैसे इलाके में मैतेई समुदाय बसा है जिसके अधिकतर लोग हिन्दू हैं, और इस समाज के कुछ लोगों ने मणिपुर हाईकोर्ट में एक याचिका लगाई थी जिसमें उन्हें भी आदिवासी-आरक्षण में शामिल करने की मांग की गई थी। इस पर मई के पहले हफ्ते में हाईकोर्ट का एक फैसला आया जिसमें राज्य सरकार से कहा गया था कि वह मैतेई समुदाय को आरक्षण देने की सिफारिश केन्द्र सरकार से करे। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के इस आदेश को उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर माना, लेकिन तब तक हिंसा के कुछ महीने गुजर चुके थे, और पौने दो सौ लाशें गिर चुकी थीं। केन्द्र सरकार की कोशिशें भी देर से शुरू हुईं, और वे मणिपुर का कोई समाधान नहीं निकाल पाईं क्योंकि राज्य के भाजपाई मुख्यमंत्री बीरेन सिंह वहां की आधी आबादी का भरोसा खो बैठे हैं, और अड़ोस-पड़ोस के दूसरे राज्यों में भी मणिपुर के आदिवासियों के खिलाफ हुई सरकारी और मैतेई हिंसा को लेकर बड़ी नाराजगी है। इस सिलसिले में यह याद दिलाना बेहतर होगा कि अभी पांच राज्यों में मणिपुर के पड़ोस के मिजोरम में भी चुनाव हुआ है, और वहां आदिवासियों के बीच जिस तरह की नाराजगी है उसे देखते हुए एनडीए में भागीदार मिजोरम की सत्तारूढ़ पार्टी के मुख्यमंत्री ने चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ एक मंच पर आने से भी इंकार कर दिया था कि मिजो आदिवासी मतदाता उससे नाराज होंगे।
खैर, मिजोरम का चुनाव तो निपट गया, लेकिन मणिपुर में ऐसी गहरी दरार पड़ी है कि पहाडिय़ों के बीच घाटी की तलहटी की तरह बसा हुआ राजधानी इम्फाल शहर मैतेई समुदाय का एक ऐसा इलाका बन गया है जहां पर राज्य की सरकार, विधानसभा, हाईकोर्ट सब कुछ है, लेकिन वहां पर प्रदेश की आधी नगा-कुकी आदिवासी आबादी पहुंच भी नहीं सकती। केन्द्र सरकार के सुरक्षाबलों की बहुत बड़ी मौजूदगी से हिंसा स्थगित चल रही है, वह किसी भी तरह से खत्म नहीं हुई है, उसे बस बंदूकों की नोंक पर रोककर रखा गया है, लेकिन ऐसी जिंदगी में मणिपुर के लोगों का वक्त थम गया है। दोनों समुदायों के लोग एक-दूसरों के इलाकों में आ-जा नहीं सकते, और तो और, आदिवासी इलाकों के अस्पतालों से मैतेई डॉक्टरों को भी छोडक़र जाना पड़ गया है, दोनों तरफ के अफसर-कर्मचारी एक-दूसरे के इलाकों में काम नहीं कर सकते, दस हजार से अधिक स्कूली बच्चे मां-बाप के साथ सैकड़ों राहत शिविरों में बंटे हुए हैं, और वहां उनकी कोई पढ़ाई भी नहीं हो रही है। मणिपुर की जिंदगी के बाकी तमाम पहलू भी इन दो तबकों के बीच बंटे हुए, थमे हुए हैं, और एक प्रदेश के भीतर नौबत दो दुश्मन देशों की तरह की हो गई है। आठ महीने से अधिक का वक्त गुजर चुका है, और मणिपुर के इस आंतरिक टकराव का कोई राजनीतिक समाधान आसपास भी नहीं दिख रहा है। दिक्कत यह भी है कि मणिपुर की एक बड़ी लंबी सरहद पड़ोसी देश म्यांमार के साथ लगी हुई है जो कि चार सौ किलोमीटर लंबी है। म्यांमार चीन के प्रभाव वाली एक ऐसी फौजी तानाशाही बना हुआ है जो कि नशे की तस्करी के बड़े धंधे में शामिल है। इसलिए वहां से मणिपुर में बड़े पैमाने पर हथियार, हथियारबंद म्यांमारी लोग, और नशे की कमाई आने की खबरें भी बनी रहती हैं। एक फौजी-रणनीतिक महत्व के इस सरहदी प्रदेश में इतनी लंबी अशांति और हिंसा के अपने खतरे हैं, और भारत के साथ फौजी मुकाबले वाले चीन का इस नौबत से फायदा उठाना बड़ा स्वाभाविक लगता है।
देश के सरहदी राज्यों को भुला देना एक आम और आसान बात दिखती है। और ऐसा सिर्फ देश की राजनीति में नहीं हो रहा है, प्रदेशों में भी जो हिस्से राजधानियों से सबसे दूर रहते हैं, वहां तक पहुंचते हुए शासन-प्रशासन बेअसर होने लगते हैं। ठीक उसी तरह की नौबत उत्तर-पूर्व के राज्यों को लेकर भारत सरकार की रहती है। कई बार तो ऐसा लगता है कि केन्द्र सरकार इन इलाकों को यह सोचकर भुला देती है। यहां की समस्याएं अपने आप सुलझ जाएंगी। जो भी हो, मणिपुर आज देश की बाकी बड़ी आबादी को सीधा खतरा न दिख रहा हो, यहां के लोगों के बुनियादी हक आज निलंबित हैं, और यह सिलसिला जल्द से जल्द खत्म होना चाहिए। जिस प्रदेश में वहां के सबसे बड़े हिस्से के विधायक भी राजधानी, और विधानसभा न पहुंच सकें, उसे उस राज्य के रहमोकरम पर छोड़ देना समझदारी नहीं है।
हिन्दुस्तान की संसद पर आतंकी हमले की 22वीं सालगिरह पर लोकसभा के भीतर और संसद परिसर में एक अहिंसक हमला हुआ। इसमें सिर्फ नारों और रंगीन गैस का इस्तेमाल करते हुए कुछ लोकतांत्रिक मांगें की गईं। वैसे तो संसद पर हमले की सालगिरह का यह दिन थोड़ी सी अधिक सावधानी का रहना चाहिए था, लेकिन गैरहथियारबंद और कुछ लोकतांत्रिक किस्म के इस ‘हमले’ से बचाव और रोकथाम करना कुछ मुश्किल भी रहा होगा क्योंकि इसमें मैटल डिटेक्टर वगैरह काम नहीं आए होंगे। अब यह जरूर है कि ऐसे असाधारण विरोध-प्रदर्शन को लेकर संसद की सुरक्षा पर कई सवाल खड़े होंगे, और देश में यह भी एक फिक्र की बात हो सकती है कि महज सोशल मीडिया पर एक-दूसरे से जुड़े हुए आधा दर्जन लोग किस तरह ऐसी कार्रवाई कर सकते हैं। यह भी है कि अगर एक-दूसरे से सिर्फ सोशल मीडिया पर जुड़े हुए लोग ऐसा कर सकते हैं, तो फिर उनके हथियारबंद होने पर ऐसा कोई भी खतरा और कितना बड़ा हो सकता था। ऐसी बहुत सी बातें हैं, जिन पर सोच-विचार होना चाहिए। यह जरूर है कि संसद के भीतर सदन में बैठे सांसदों के लिए खतरनाक साबित हो सकने वाले ऐसे प्रदर्शन में जिन मुद्दों को उठाया गया है, उन पर इस मौके पर चर्चा नहीं होगी, और महज प्रदर्शन के तौर-तरीके एक आतंकी हमला करार दे दिए जाएंगे। अभी तक की जानकारी के मुताबिक गिरफ्तार पांच लोगों के साथ-साथ दो और लोगों की तलाश चल रही है, और खबर है कि इन पर यूएपीए जैसा कड़ा कानून लगाया गया है। एक राहत की बात यह है कि इसमें गिरफ्तार तमाम लोग कश्मीर, पंजाब, या उत्तर-पूर्व जैसे राज्यों के नहीं हैं, वे न मुस्लिम हैं, न सिक्ख हैं, इसलिए उन पर पाकिस्तानी या खालिस्तानी साजिश की तोहमत नहीं लग सकती। सारे के सारे नाम हिन्दू नाम हैं, और चाहे कितने ही हिन्दू पाकिस्तान के लिए जासूसी करते पकड़ाए न जा चुके हों, आज अगर संसद में इस प्रदर्शन के पीछे गैरहिन्दू होते, तो देश एक अलग किस्म से जलता-सुलगता रहता। प्रदर्शनकारियों ने कहा है कि वे किसानों के आंदोलन, मणिपुर संकट, और बेरोजगारी की वजह से नाराज थे, इसलिए उन्होंने ऐसा किया है।
हम अभी इस चर्चा में संसद की हिफाजत की लापरवाही पर अधिक जोर डालना नहीं चाहते क्योंकि हमारा मानना है कि यह कोई हथियारबंद हमला नहीं था, यह एक विरोध-प्रदर्शन था, और इससे संसद के हिफाजत के इंतजाम को बेहतर करने का एक मौका भी मिला है। कल अगर रंगीन गैस के बजाय जहरीली गैस का कोई स्प्रे लिए हुए प्रदर्शनकारी आत्मघाती जत्थे की शक्ल में सदन के बीच इतना स्पे्र करते रहते, तो दर्जनों सांसद मारे जा सकते थे। इसलिए इस प्रदर्शन को एक बड़े हमले से बचाव का मौका मानकर चलना बेहतर होगा। अभी संसद और सरकार को यह नसीहत देने का मौका नहीं है कि इन प्रदर्शनकारियों के उठाए मुद्दों पर भी चर्चा की जरूरत है क्योंकि ये मुद्दे तो पहले से संसद के भीतर और बाहर लगातार चर्चा का सामान है, फिर चाहे संसद और सरकार से इन पर देश को कुछ हासिल न हो रहा हो। संसद अभी तक खत्म नहीं हुई है, और संसद के बाहर उठाए मुद्दे भी थोड़ी बहुत जगह तो पा ही लेते हैं, ऐसे में अंग्रेजी की पार्लियामेंट में भगत सिंह की तरह हथगोला फेंकने की जरूरत अभी नहीं थी, और कल का यह प्रदर्शन एक हिंसक और खतरनाक प्रदर्शन ही कहलाएगा, और सरकार और अदालतें इसे आतंकी कार्रवाई मान लेंगी, तो भी उसमें कुछ अटपटा नहीं होगा। लोकतंत्र में प्रदर्शन का यह तरीका मंजूर नहीं किया जा सकता।
अब देश की खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों के लिए यह सोचने का एक मुद्दा है कि अलग-अलग शहरों में बसे लोग सोशल मीडिया पर आपस में जुडक़र इस तरह दिल्ली में एकजुट होते हैं, और इस तरह संसद के भीतर और बाहर देश का ध्यान खींचते हैं। ऐसे में किसी बड़े आतंकी संगठन की जरूरत भी नहीं रह जाती, और अगर वैचारिक आधार पर देश की असल दिक्कतों पर कुछ नौजवान कई बरस जेल में काटने का खतरा उठाकर भी ऐसा प्रदर्शन करते हैं, तो फिर कुछ हिंसक किस्म के नौजवानों को इसी अंदाज में और अधिक हिंसा करने के लिए भी तैयार किया जा सकता है। फिर यह भी जरूरी नहीं है कि ऐसा कोई हमला संसद जैसी महफूज समझी जा रही जगह के भीतर ही हो, यह भी हो सकता है कि देश में कहीं भी भीड़भरी जगह पर ऐसा महज रंगीन-गैस हमला किया जाए, और बिना किसी जानलेवा खतरे के भी महज भगदड़ में सैकड़ों लोग मारे जाएं। ऐसे में अगर किसी की नीयत देश में अधिक बदअमनी फैलाने की होगी, तो इसमें हमलावर को भीड़ से अलग धर्म का बताकर साम्प्रदायिक हिंसा भी फैलाई जा सकती है। कल संसद तो किसी जान-माल के नुकसान से बच गई है, लेकिन देश को एक नई किस्म के खतरे का पता चल गया है, जो कि अधिक फायदे की बात लगती है। न सिर्फ संसद, विधानसभाओं, और अदालतों को ऐसी नौबत से बचाना चाहिए, बल्कि दूसरे किस्म की गैसों के असली आतंकी हमलों की शिनाख्त और उनसे बचाव के रास्ते भी तलाश लेने चाहिए।
संसद खबरों में अधिक महत्वपूर्ण है, लेकिन मजदूरों के बाजार या गरीबों के किसी स्कूल में बच्चों की जिंदगी भी उतना ही मायने रखती है। इसलिए देश को पहली बात तो यह कि हमलों से बचाव की तरकीबें सीखनी चाहिए, और साथ-साथ देश में सामाजिक अमन-चैन, इंसाफ, और लोकतंत्र को कायम रखने की कोशिश भी करनी चाहिए।
छत्तीसगढ़ में आज से एक नई सरकार काम संभाल रही है। भाजपा न केवल एक मजबूत बहुमत के साथ सत्ता पर आई है, बल्कि कांग्रेस के पांच बरस के कार्यकाल की गलतियों और गलत कामों को लगातार करीब से देखते हुए उसे सबक भी मिले हैं। ऐसे में प्रदेश के हित में हम यह उम्मीद करते हैं कि भाजपा के नए मुख्यमंत्री और उनकी बाकी टीम यह ध्यान रखे कि तमाम किस्म की सीधे फायदे पहुंचाने वाली योजनाओं के बाद भी अगर मतदाताओं ने कांग्रेस को खारिज किया, तो इस भाजपा सरकार को भी उस किस्म की गलतियों से, और गलत कामों से बचना चाहिए। चुनाव तो हर पांच बरस में आते रहेंगे, और पांच बरस के पहले भी किसी भी राज्य में लोकसभा और स्थानीय संस्थाओं के चुनाव भी होते रहते हैं, इसलिए सरकार का कामकाज लोगों के बीच में एक धारणा बनाते रहता है, सरकार की साख बनती और बिगड़ती रहती है। यह बात हैरान करने वाली है कि पिछली भूपेश बघेल सरकार का सैकड़ों करोड़ लागत का जनधारणा-प्रबंधन काम नहीं आया, और उससे महज सत्ता खुद एक झांसे में रही, और उसने शायद कभी यह सोचा भी नहीं था कि वह हार भी सकती है, इतनी बुरी तरह हारने की बात तो शायद उसकी कल्पना से परे की थी।
जब तक हमारा यह लिखा छपेगा, तब तक शायद छत्तीसगढ़ सरकार के मंत्री तय हो चुके होंगे, और उनके विभागों का बंटवारा भी आज-कल में हो जाएगा। मंत्रियों के नाम तय करने में शायद मुख्यमंत्री का अकेले का अधिकार न हो, और पार्टी नाम तय करके उन्हें दे, लेकिन विभागों के बंटवारों में मुख्यमंत्री की अधिक मर्जी चल सकती है। हम यह बात आज लिख तो छत्तीसगढ़ के संदर्भ में रहे हैं, लेकिन यह आज-कल में ही मध्यप्रदेश और राजस्थान पर भी लागू होने वाली है, और यह पांच बरस बाद भी प्रदेशों और पार्टियों के नाम बदलकर, उस वक्त भी कहीं पर भी लागू की जा सकेगी। इसलिए यह डॉक्टर की लिखी गई एक जेनेरिक दवा है, न कि कोई ब्रांड दवा। इसलिए यह छत्तीसगढ़ सरकार के लिए कोई सलाह या नसीहत बिल्कुल नहीं है, यह भारत जैसे लोकतंत्र में एक राजकाज की एक मामूली समझ है।
सरकार में मंत्रियों के विभाग तय करते हुए आमतौर पर राजनीतिक पैमाना यह रहता है कि जो मंत्री जितने वजनदार हों, उन्हें उतने ही बड़े बजट वाले, या अधिक कमाई की गुंजाइश वाले विभाग दिए जाते हैं। यहां पर अगर किसी मुख्यमंत्री को फैसला लेने की छूट पार्टी से मिले, तो विभागों के कामकाज के मिजाज को देखते हुए उसके हिसाब से मंत्री तय करना, या मंत्रियों का जिस किस्म का अनुभव है, उस किस्म के विभाग उन्हें देना चाहिए। मंत्रियों के अलावा जो दूसरी बात सबसे अधिक मायने रखती है, वह विभागों के लिए अफसरों को छांटना। कहने के लिए सरकार के विभाग चलाने वाले तमाम अफसर अखिल भारतीय सेवाओं के रहते हैं, लेकिन उनकी साख, उनका अनुभव देखते हुए अगर उन्हें विभागों में रखा जाए, तो वहां का कामकाज खासा अच्छा हो सकता है। लेकिन यहां पर भी लोग आमतौर पर साख और तजुर्बे के बजाय व्यक्तिगत निष्ठा को पहला पैमाना मानते हैं, और वहीं से काम बिगडऩा शुरू होता है। हर नई सरकार के पास यह एक गुंजाइश रहती है कि वह मौजूदा अफसरों में से उनकी काबिलीयत, ईमानदारी की साख, और अनुभव को देखते हुए उन्हें जिम्मा दे। जो मुख्यमंत्री या पार्टी यह सावधानी बरतते हैं, वे बाद में अदालती कटघरे में खड़े नहीं होते। कई सरकारों में हमारा देखा हुआ है कि सचिव और मंत्री एक टीम की तरह काम करने के बजाय, एक गिरोह की तरह काम करने लगते हैं, और नतीजा यह होता है कि उस विभाग में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार होने लगता है, और बाद में मामले जांच एजेंसियों और अदालतों तक पहुंचते हैं। बहुत से मंत्री ऐसे ही भ्रष्टाचार की वजह से चुनाव हारते भी हैं। इसलिए बड़े अफसरों को इस बुरी तरह राजनीतिक नियंत्रण में नहीं रखना चाहिए कि वे कानून के मुताबिक सही सलाह देने के बजाय सिर्फ मंत्री की हां में हां मिलाने लगें। जब ऐसा करना मजबूरी हो जाती है, तो फिर अफसर जो कि कागजी काम में माहिर होते हैं, वे कागजों में खुद बचते हुए कई बार मंत्रियों को फंसा देते हैं। कभी-कभी मंत्री अधिक ताकतवर होते हैं, तो वे अफसरों के पुराने कुकर्मों की फाइलों को अपने कब्जे में रखकर उनसे नए कुकर्म करवाते हैं, और अपने दस्तखत फंसने से बचे भी रहते हैं। एक नए मुख्यमंत्री को सरकार के प्रशासनिक ढांचे को राजनीतिक दबाव से कुचलने भी नहीं देना चाहिए, कई बार मंत्री एक स्वायत्तशासी विभाग के मालिक की तरह बेकाबू भी होने लगते हैं, लेकिन ऐसे में यह जिम्मेदारी मुखिया पर ही आती है कि वे प्रशासन और पार्टी, दोनों के माध्यम से ऐसे बेकाबू मंत्रियों पर काबू रखें। दिक्कत वहां पर और बड़ी हो जाती है जब मुख्यमंत्री और उनके करीबी अफसर ही पूरी सरकार में सबसे अधिक बेकाबू रहते हैं, और फिर उनको सही राह पर लाने की ताकत किसी में नहीं रहती। हम उम्मीद करते हैं कि नए राज्यों के नए मुख्यमंत्री अपने-अपने और दूसरे राज्यों के ऐसे तजुर्बों से सीख लेकर काम करें क्योंकि कानून तो हर दिन अपना काम कर सकता है, वोटरों को ही पांच बरस में एक बार फैसले का मौका मिलता है।
पहली बार मुख्यमंत्री बन रहे नेताओं को एक नया इतिहास बनाने का मौका भी मिलता है, वे पारदर्शिता और ईमानदारी के नए पैमाने गढ़ सकते हैं, आम जनता की जिंदगी में सरकारी अमले के भ्रष्टाचार से होने वाली दिक्कतों को कम कर सकते हैं। एक कार्यकाल के बाद के मुख्यमंत्री तो धीरे-धीरे ऐसी तमाम चीजों को सरकार का मजबूरी का एक हिस्सा मानने लग जाते हैं, लेकिन जब तक लोग सत्ता पर नए हैं, तब तक उनकी संवेदनशीलता भी जिंदा रहती है, और उसका इस्तेमाल भी करना चाहिए। नए मुख्यमंत्रियों को यह भी चाहिए कि वे अपने अफसरों, सलाहकारों, और पार्टी के लोगों से परे के संपर्क भी जिंदा रखें। कई मुख्यमंत्री इसी की कमी के शिकार हो जाते हैं, और अपने ही करीबी दायरे के कैदी की तरह वे अपने पूरे प्रदेश की हकीकत से वाकिफ नहीं रह पाते। ऐसे ही लोग चुनाव तक अपने जीत के अहंकार से भरे रहते हैं, और फिर अचानक उन्हें हार मिलती है।
भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर सबसे कामयाब पार्टी है। देश पर उसकी सत्ता है, और देश के सबसे अधिक प्रदेशों पर यही पार्टी काबिज है। छत्तीसगढ़, एमपी में भी भाजपा ने 15 या अधिक बरस राज किया है। ऐसे में उसे बाहर से किसी सलाह की जरूरत नहीं है। हम तो आज महज कुछ सिद्धांतों की बात कर रहे हैं जो कि किसी भी शासन-प्रशासन के काम आ सकती हैं, और इन्हें पूरी तरह अनदेखा करते हुए भी लोग अपने हिसाब से भी सरकार चला सकते हैं, जो कि एक बिल्कुल ही अलग तौर-तरीका भी हो सकता है। देखना है कि भाजपा के जो तीन नए मुख्यमंत्री काम शुरू करने जा रहे हैं, उनके तौर-तरीके क्या रहते हैं, और वे अपने राज्य के लोगों की कितनी सेवा कर सकते हैं, शासन-प्रशासन को कितना बेहतर बना सकते हैं, राज्य का कितना आर्थिक विकास कर सकते हैं, और इनके साथ-साथ साख कितनी कमा सकते हैं।
छत्तीसगढ़ की एक खबर है कि यहां सरकारी स्कूलों में दोपहर के भोजन के लिए केन्द्र सरकार से बजट नहीं आ रहा है। तीस लाख स्कूली बच्चों के खाने का करीब तीन सौ करोड़ रूपए न आने से किसी तरह इन स्कूलों में काम चल रहा है। जाहिर है कि स्थानीय स्तर पर कामचलाऊ इंतजाम से खाने पर सीधा असर पड़ रहा होगा। यह बात पिछली कांग्रेस सरकार के वक्त की है, और केन्द्र से जो पैसा आना है, वह वेबसाइट की किसी दिक्कत की वजह से रूका हुआ बताया जा रहा है। अब छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार कल से काम संभाल लेगी, और इसे नई सरकार को अपनी पहली जिम्मेदारी मानना चाहिए क्योंकि सरकारी स्कूलों के तीस लाख बच्चे प्रदेश के सबसे ही गरीब तबके वाले के भी रहते हैं, और उनके खानपान में किसी भी तरह की कमी बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए। दूसरी तरफ हमने पिछले एक-दो बरस में कई बार इसी कॉलम के मार्फत, और अलग से एक योजना की जानकारी प्रदेश की भूपेश सरकार को और तमाम राजनीतिक दलों को दी थी, जो कि सरकारी स्कूलों में बच्चों के सुबह के नाश्ते के बारे में थी। तमाम पार्टियों में से सिर्फ भाजपा ने इसे गंभीरता से लिया, और उसके चुनावी घोषणापत्र में इसे जोड़ा गया है। पहली से आठवीं तक के बच्चों को नाश्ता देने का वायदा किया गया है, और हमारा मानना है कि इसे बिना देर किए शुरू करना चाहिए, इसके लिए धान बोनस जैसी बड़ी रकम भी नहीं लगनी है। लेकिन उसके पहले दोपहर के भोजन में जहां कहीं रूकावट आ रही है, उसे खत्म करना चाहिए, और जरूरत हो तो भ्रष्टाचार में डूबे हुए डीएमएफ फंड सरीखे सैकड़ों-हजारों करोड़ का इस्तेमाल इस काम में करना चाहिए।
अब चूंकि स्कूली बच्चों के मुद्दों पर आज हम लिख ही रहे हैं, इसलिए यह बात भी सोचने लायक है कि प्रदेशों में डीएमएफ जैसे फंड से अंधाधुंध रकम निकालकर भूपेश सरकार की एक सबसे पसंदीदा योजना, आत्मानंद स्कूलों पर अनुपातहीन खर्च किया गया, और प्रदेश के बाकी आम सरकारी स्कूल उनके बदहाल पर छोड़ दिए गए। हमने इस मामले को पिछले बरसों में कई बार उठाया, और पिछले महीनों की चुनाव चर्चाओं में अपने यूट्यूब चैनल पर भी इस बारे में कई बार बात की कि राज्य में जिन स्कूलों का सबसे अच्छा ढांचा था, उन्हें सरकार ने ले लिया, और वहां पर आत्मानंद अंग्रेजी स्कूल बना दी गईं। हमने इस बात पर भी हैरानी जाहिर की थी कि अगर बच्चों को अंग्रेजी ही पढ़ाना है, तो वह तो महज एक भाषा है, उसके लिए महंगे ढांचे, महंगी पोशाक, और अतिरिक्त सुविधाओं की क्या जरूरत है? वैसे भी इतना बड़ा खर्च कुल तीन-चार फीसदी आत्मानंदी छात्रों पर किया जा रहा है, और बाकी छात्रों को सिर्फ परमात्मानंद (भगवान भरोसे) स्कूल नसीब हैं। हम सरकारी स्कूलों के छात्रों को अतिरिक्त सुविधाएं देने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन प्रदेश के सरकारी छात्रों के बीच संपन्नता के कुछ टापू बना देना ठीक नहीं है, क्योंकि उसी सरकारी खजाने से तो प्रदेश की दसियों हजार दूसरी हिन्दी स्कूलों को भी चलाना है, जो कि बहुत खराब हालत में हैं। एक तरफ आत्मानंद स्कूलों के लिए अंग्रेजी के महंगे शिक्षक लिए जा रहे हैं, दूसरी तरफ गांव-गांव में सरकारी स्कूलें ऐसी हैं जहां एक-एक शिक्षक के भरोसे पांच-पांच कक्षाएँ चलती हैं। एक ही विभाग के भीतर महज भाषा के आधार पर ऐसा भेदभाव अंग्रेजों की छोड़ी गई भाषा का एक आतंक है, और उससे उबरने की जरूरत है। अंग्रेजी स्कूलों में कोई बुराई नहीं है, वे वक्त की जरूरत भी हैं, लेकिन सिवाय अंग्रेजी शिक्षकों के बाकी तमाम बातें ज्यों की त्यों रखी जानी चाहिए थीं। हो सकता है कि नई सरकार ऐसे अनुपातहीन फिजूलखर्च के बारे में कुछ सोचे, और बिना भेदभाव के सभी बच्चों की भलाई के लिए क्या-क्या हो सकता है उस बारे में सोचे। हम किसी स्कूल को बंद करने की सिफारिश नहीं कर रहे हैं, लेकिन जिस फिजूलखर्ची को लेकर हम पिछले दो बरस में कई बार लिख चुके हैं, आज स्कूलों के मिड-डे-मील पर लिखते हुए उसी को याद दिला रहे हैं।
छत्तीसगढ़ की नई सरकार को तमाम आर्थिक दिक्कतों के बीच भी स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च बढ़ाना चाहिए। इसके अलावा इन दोनों ही विभागों में हमेशा से चले आ रहे बहुत ही संगठित भ्रष्टाचार को भी खत्म करना चाहिए क्योंकि गरीबों के हक को नेता, अफसर, ठेकेदार मिलकर इस तरह खा जाएं, यह ठीक नहीं है। दुनिया में जो भी देश आगे बढ़ते हैं, वे अपना स्कूल शिक्षा, और इलाज का बजट अधिक रखते हैं। इन्हीं दोनों से जनता की उत्पादकता बढ़ती है, और किसी देश-प्रदेश की अर्थव्यवस्था बेहतर होती है। केरल जैसे राज्य इसकी एक बहुत बड़ी मिसाल हैं जहां पर कोरोना से जूझने का काम देश में सबसे अच्छा हुआ था, और जो पढ़ाई के मामले में देश में अव्वल है। केरल की सत्तारूढ़ पार्टी की विचारधारा अलग हो सकती है, लेकिन भारत जैसे संघीय ढांचे में राज्यों को एक-दूसरे के कामयाब तजुर्बों से सीखना चाहिए। पिछली सरकार में इन दोनों ही विभागों में तैनात कुछ बड़े अफसर प्रदेश के सबसे भ्रष्ट अफसर भी थे। इसलिए नई सरकार को बहुत सावधानी से इन विभागों का जिम्मा ईमानदार और काबिल अफसरों को देना चाहिए।
नए मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय छोटे गांव से निकलकर आए हुए आदिवासी हैं जिन्होंने इतने लंबे राजनीतिक जीवन में सरकारी स्कूलों का हाल कई अलग-अलग हैसियत में देखा होगा। हम उम्मीद करते हैं कि वे अपने व्यस्त कार्यकाल में भी इस व्यवस्था को सुधारने की कोशिश करेंगे क्योंकि हर कुछ दिनों में छत्तीसगढ़ के किसी न किसी स्कूल में नशे में धुत्त शिक्षक की खबर आती है, तस्वीरें और वीडियो चारों तरफ फैलते हैं। बच्चों पर न केवल बजट, बल्कि फिक्र भी लगाने की जरूरत है, ताकि जब वे बड़े हों तो उनके सामने बेहतर मिसालें रहें, और नशे में धुत्त गुरूजी उनकी प्रेरणा न बनें। फिलहाल नए मुख्यमंत्री को दोपहर का भोजन, और भाजपा घोषणापत्र के मुताबिक सुबह का नाश्ता, इसका ख्याल सबसे पहले करना चाहिए क्योंकि भूख और बदन की पोषण आहार की जरूरत को एक दिन भी रोकना ठीक नहीं है।
ओडिशा और झारखंड के एक शराब कारोबारी और कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य धीरज प्रसाद साहू के ठिकानों से देश की सबसे बड़ी नगदी, साढ़े 3 सौ करोड़ से ऊपर के नोट बरामद हुए हैं। यह बरामदगी कई सवाल खड़े करती है। एक सवाल तो यह है कि मोदी सरकार की लाई गई नोटबंदी से देश में कालाधन खत्म होने का जो दावा किया जा रहा था, उससे इस हद तक कालेधन की गुंजाइश बनी हुई है, और कहीं भी खत्म या कम नहीं हुई है। दूसरी बात यह है कि कांग्रेस पार्टी जिसे राज्यसभा में भेजती है, उसकी ऐसी दौलत के बारे में भी या तो उसे कोई अंदाज नहीं है, या फिर वह पार्टी में ऐसे अरबपति-खरबपति का इस्तेमाल करती है। अब कहने के लिए यह राजनीतिक बयान जरूर दिया जा सकता है कि केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियां सिर्फ गैरभाजपाई, या एनडीए-विरोधी पार्टियों के नेताओं पर ही कार्रवाई करती है, लेकिन इस बात को कैसे अनदेखा किया जा सकता है कि जब देश में कुछ लाख रूपए से अधिक की नगदी रखने पर सवाल खड़े होते हैं, तब सैकड़ों करोड़ के नोट इस तरह एक कब्जे से बरामद होना एक राजनीतिक नैतिकता का पाखंड भी साबित करता है। ऐसे में इसी कांग्रेस सांसद धीरज प्रसाद साहू का अगस्त 2022 का एक ट्वीट भी सोशल मीडिया पर तैर रहा है जिसमें उसने लिखा था- नोटबंदी के बाद भी देश में इतना कालाधन और भ्रष्टाचार देखकर मन व्यथित हो जाता है। मेरी तो समझ में नहीं आता कि कहां से लोग इतना कालाधन जमा कर लेते हैं? अगर इस देश से भ्रष्टाचार को कोई जड़ से खत्म कर सकता है, तो वह सिर्फ कांग्रेस पार्टी ही है।
देश के अधिकतर राजनीतिक दलों के पास अपने नेताओं के चाल-चलन पर निगरानी रखने का या तो कोई जरिया नहीं रहता है, या उन्हें कोई आपत्ति नहीं होती है। अभी जितनी खबरें हमें याद पड़ रही हैं, उनके मुताबिक अकेले वामपंथी दल हैं जिनके नेताओं में इस किस्म का भ्रष्टाचार उस वक्त भी देखने नहीं मिला, जिस वक्त पश्चिम बंगाल में लगातार 30 बरस से अधिक का वामपंथी राज था। इसके त्रिपुरा के एक के बाद एक मुख्यमंत्री गरीबी की जिंदगी जीने वाले रहे। शायद बंगाल की संस्कृति ऐसी थी कि वहां वाममोर्चा सरकार के बाद आने वाली तृणमूल कांग्रेस की ममता बैनर्जी सरकार को भी सादगी की जिंदगी जीनी पड़ती थी। यह एक अलग बात है कि बाद के बरसों में ममता बैनर्जी के एक के बाद एक कई मंत्री बहुत परले दर्जे के भ्रष्टाचार में दसियों करोड़ की नगदी के साथ भी पकड़ाए, और इससे अधिक बड़े भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ भी। ममता के मंत्री चिटफंड घोटालों में भी पकड़ाए, और बंगाल की राजनीतिक संस्कृति को गहरी चोट पहुंची। लेकिन त्रिपुरा के माक्र्सवादी मुख्यमंत्री पूरे देश में ईमानदारी और सादगी की मिसाल बने रहे, और उन्होंने गरीबी की जिंदगी जीने को बिना किसी प्रचार के अपनाया। भारत की राजनीति में अगर गांधीवादी सादगी कहीं पर दिखी, तो वह उनसे कई मामलों में असहमत रहने वाले वामपंथियों में ही दिखी, खुद गांधी की कांग्रेस पार्टी के लोगों का कोई भरोसा सादगी या ईमानदारी में नहीं रहा।
अब भारत की राजनीति के कुछ बुनियादी सवालों पर आएं, तो देश के कालेधन का एक बड़ा योगदान इस देश के लोकतंत्र का अपहरण कर लेने में दिखता है। कारोबारी घराने जिस तरह से हर दर्जे के नेताओं को अपनी जेब में रखते हैं, उसके खतरे को कम नहीं समझना चाहिए। आज चाहे जिस पार्टी के निशान से लोग संसद और विधानसभाओं में पहुंचें, उनमें से बहुतों के पीछे देश के बड़े कारोबारी रहते हैं, जो कि स्थानीय स्तर पर चुनिंदा नेताओं को बढ़ावा देने का दांव लगाते हैं, उन पर पूंजीनिवेश करते हैं, उन्हें अलग-अलग पार्टियों की टिकटें दिलाते हैं, उनके मुकाबले कमजोर विपक्षी उम्मीदवार के लिए दूसरी पार्टियों में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हैं, चुनाव में कालाधन देते हैं ताकि उनका पसंदीदा उम्मीदवार वोटर खरीद सके। और इतना कुछ हो जाने के बाद बड़े कारोबारी यह ख्याल भी रखते हैं कि उनके पसंदीदा और पूंजीनिवेश वाले निर्वाचित जनप्रतिनिधि को सरकार में अच्छी जगह मिले, कारोबारी की दिलचस्पी वाले विभाग और मंत्रालय मिलें, और जब किसी जिले के प्रभारी मंत्री बनाने की बात आए, तो कारोबारी अपने धंधों के जिलों के प्रभारी मंत्री तय करने के लिए पार्टियों और सरकारों में अपने प्रभाव का और भी इस्तेमाल करते हैं।
आज हिन्दुस्तानी लोकतंत्र कारोबार के पूंजीनिवेश का गुलाम हो चुका है। अभी-अभी राज्यों में विधानसभाओं के चुनाव हमने देखे हैं, और उनमें चुनाव आयोग की तथाकथित निगरानी के बाद भी खर्च हुए सैकड़ों करोड़ देखे हैं। यह पैसा गैरकानूनी तरीकों से कमाया जाता है, और चुनाव में गैरकानूनी इस्तेमाल से विधानसभा या संसद तक पहुंचा जाता है। आज हिन्दुस्तानी चुनावों का पूरा सिलसिला ही ऐसा हो गया है कि पैसे वाले लोग या तो खुद उम्मीदवार बनकर मोटा पूंजीनिवेश करें, और जीत जाने के बाद उसके मुनाफे सहित वापिसी में जुट जाएं। दूसरा तरीका यह है कि जिन लोगों के पास खुद का पूंजीनिवेश नहीं रहता है, उनके लिए कई किस्म के कारोबारी लागत लगाने तैयार रहते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह की कई कारोबार अलग-अलग खेलों और खिलाडिय़ों को बढ़ावा देने के लिए, या उस नाम पर खर्च करते हैं। कारोबार के लिए यह एक किस्म का ही रहता है कि सामाजिक वाहवाही के लिए वह कोई तीरंदाज या टीम तैयार कर दे, या सांसदों और विधायकों के अपने भाड़े के जत्थे खड़े कर ले। आज बड़े कारोबार इसी अंदाज में संसद और विधानसभाओं में अपने लोगों को पहुंचाते हैं, और कई जगह यह भी सुनाई पड़ता है कि प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनाने के लिए, मंत्री या उनका मंत्रालय तय करने के लिए ये कारोबार पहले दी गई अपनी रकम का जवाबी उपकार भी मानते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह आजकल संपन्न तबके में जन्मदिन पर तोहफा देने वाले बच्चों को रिटर्न गिफ्ट दी जाती है। देश के बड़े-बड़े दल उन्हें मोटी रकम देने वाले लोगों को ऐसी ही रिटर्न गिफ्ट देते हैं।
कुछ पार्टियों के बारे में लंबे समय से यह बात प्रचलित रही है कि वे मोटी रकम लेकर कारोबारियों को सीधे राज्यसभा मेंं मनोनीत करती हैं, और बिना किसी राजनीतिक या सामाजिक योगदान के, बिना किसी विचारधारा या प्रतिबद्धता के ऐसे बड़े उद्योगपति, कारोबारी, या दलाल रातोंरात राज्यसभा के भीतर दिखते हैं, जिनमें से कुछ तो अभी देश से फरार भी हैं। यह सिलसिला बताता है कि हिन्दुस्तानी लोकतंत्र किस हद तक कालेधन की गिरफ्त में है, और जिस मौजूदा कांग्रेस राज्यसभा सदस्य से साढ़े 3 सौ करोड़ से अधिक के नोट मिले हैं, उसकी भी ताकत हो सकता है अपनी पार्टी में इसी की बदौलत हो। और फिर उसे ऐसा नैतिक दुस्साहस भी मिला हुआ था कि वह कालेधन के खिलाफ ट्वीट करते आ रहा था। यह पूरा सिलसिला गजब का है, और यह देश में राजनीति, और सत्ता के माफिया अंदाज के जुर्मों की तरफ भी सोचने को मजबूर करता है। हमने पिछले बरसों में सत्ता के गैरकानूनी धंधों से अंधाधुंध कमाई की पार्टी पर बाहुबलि ताकत देखी हुई है, और अब हमें हिन्दुस्तानी लोकतंत्र की माफियाकरण से वापिसी की कोई उम्मीद भी नहीं दिखती। इटली के माफियागिरोहों की तरह हिन्दुस्तान में भी अलग-अलग कई गिरोह हो सकते हैं जो कि राजनीतिक दलों, और उसके नेताओं को भाड़े के हत्यारों की तरह किराए पर रख सकते हैं। जनता के सामने भी इस लोकतंत्र में पूरी आजादी है कि वह इनमें से किस हत्यारे के मुकाबले किसको चुने, और यह तो इतिहास में कहा ही गया है कि जनता वैसी ही सरकार पाती है, जैसी सरकार की वह हकदार रहती है।
देश के पांच राज्यों में हुए चुनाव के बाद अभी सरकारें बनने का सिलसिला चल रहा है, सैकड़ों नए विधायक चुनकर आए हैं, और ऐसे में विधायक ही सबसे अधिक खबरों में हैं। लोगों को यह पता नहीं होगा कि देश के अलग-अलग राज्यों में विधायकों को कितना मेहनताना मिलता है? यह तनख्वाह की शक्ल में भी है, सहूलियतों की शक्ल में भी, और पेंशन के भी अलग-अलग इंतजाम हैं। देश में तेलंगाना, जहां कि अभी चुनाव हुआ है और सरकार बनी है, वहां किसी भी दूसरे राज्य के मुकाबले विधायक की तनख्वाह अधिक है, जो कि ढाई लाख रूपए महीने हैं। दूसरी तरफ मेघालय में 28 हजार से कम तनख्वाह है, और त्रिपुरा में देश की सबसे कम तनख्वाह, 26 हजार से कम है। त्रिपुरा में शायद ऐसा इसलिए भी होगा कि वहां वामपंथी सरकार लंबे समय तक रही है, और नेताओं को जनता के पैसों पर अधिक सहूलियत देने की संस्कृति नहीं रही। शायद इसीलिए बंगाल में भी यह तनख्वाह कुल 52 हजार रूपए महीने है, और इन राज्यों में तनख्वाह जरा भी बढऩे पर उसका बड़ा विरोध होता है। वामपंथी शासन में लंबे समय तक रहने वाले केरल में तनख्वाह बंगाल से भी कम, 44 हजार से कम है। अलग-अलग राज्यों में मुख्यमंत्रियों या मंत्रियों की तनख्वाह भी बहुत अधिक कम या अधिक है। भारत में निर्वाचित नेताओं में प्रधानमंत्री को करीब दो लाख रूपए तनख्वाह और कुछ भत्ते मिलते हैं। जबकि कम से कम तेलंगाना में ही मुख्यमंत्री की तनख्वाह इससे दोगुनी से अधिक है।
तमाम राज्यों के आंकड़े अलग-अलग गिनाना आज का मकसद नहीं है, लेकिन यह सोचने की जरूरत है कि विधायकों और सांसदों की तनख्वाह आखिर कितनी होनी चाहिए? उनके कौन से खर्च जनता उठाए, उनके परिवारों को किस दर्जे की जिंदगी जनता के पैसों से दी जाए? अगर हम हिन्दुस्तान को बुनियादी तौर पर एक बेईमान देश मानकर यह मानकर चलें कि नेता तो करोड़ों की कमाई कर ही लेते हैं, उन्हें कोई अच्छी तनख्वाह देना जरूरी क्यों है, तो एक पुरानी कहावत याद रखनी चाहिए कि सस्ता रोए बार-बार, महंगा रोए एक बार। देश और प्रदेश को चलाने के लिए जिन सांसदों और विधायकों की जरूरत है, उन्हें सस्ता ढूंढने का मतलब काबिल लोगों को इस काम में आने से रोकना है। जनसेवा की बात और सोच तो ठीक है, लेकिन यह हकीकत अपनी जगह बनी रहती है कि जनप्रतिनिधियों के भी परिवार रहते हैं, और उनकी अपनी जरूरतें भी होती हैं, और महत्वाकाक्षाएं भी रहती हैं। आज के वक्त हर किसी से त्याग की ऐसी उम्मीद करना नाजायज होगा कि हर सांसद और विधायक वामपंथियों की तरह की गरीब जिंदगी गुजार लें, और अपनी तनख्वाह पार्टी ऑफिस में जमा करके उसके एक छोटे से हिस्से को पाकर उससे अपना घर चलाएं। ऐसा समर्पण किसी एक पार्टी में हो सकता है, या कि देश में आजादी की लड़ाई के दौरान था, लेकिन अब ऐसा समर्पण स्थाई रूप से नहीं हो सकता, और जब देश को आजाद कराने जैसा बड़ा मकसद न हो, तब तो बिल्कुल नहीं हो सकता। आज जब सांसद और विधायक बनते ही लोगों को 50-50 लाख की गाडिय़ां सूझने लगती हैं, और वे उसके इंतजाम करने में लग जाते हैं, या कि पहले दिन से ही कुछ लोग पूंजीनिवेश की तरह उनके लिए इंतजाम कर देते हैं, तब जनता को यह सोचना चाहिए कि अगर कोई सांसद या विधायक ईमानदार बने रहना चाहते हैं, तो जनता भी उसमें मदद करे। अपने लोगों को बेईमानी की तरफ धकेलकर सरकारी खजाने के पैसे को बचाना कोई समझदारी नहीं है।
हम पहले भी इसी विचार के रहे हैं कि सांसद और विधायक से यह उम्मीद नाजायज है कि वे बिना तनख्वाह, या बहुत कम तनख्वाह पर जनसेवा करें। ऐसी चुनावी राजनीति में आने वाले अधिकतर लोग जिंदगी भर के लिए अपने किसी पेशे या कारोबार से बाहर सरीखे भी हो जाते हैं। और अगर उनके लिए कार्यकाल में बेहतर तनख्वाह और बाद में ठीकठाक पेंशन रहे, तो उनमें से कम से कम कुछ लोग तो ईमानदार बने रहना पसंद कर सकते हैं। हमारा ख्याल है कि देश में सांसदों की तनख्वाह केन्द्र सरकार को कम से कम सीनियर आईएएस की तनख्वाह के बराबर तय करना चाहिए, और राज्य अपनी आर्थिक क्षमता के आधार पर विधायकों की तनख्वाह तय कर सकते हैं, वो भी हमारे हिसाब से ऐसी ही तनख्वाह के आसपास होनी चाहिए। जनप्रतिनिधियों को परिवार की जरूरतों से बेफिक्र होने का एक मौका मिलना चाहिए, उन पर सामाजिकता निभाते हुए पडऩे वाले शिष्टाचार के बोझ को भी समझने की जरूरत है। आज हिन्दुस्तान में किसी सांसद या विधायक के घर जाने पर अगर वहां कोई पानी पिलाने को न रहें, तो यह सामाजिक शिष्टाचार के भी खिलाफ रहेगा। बहुत से सांसद और विधायक बरसों तक मेहनत के बाद इस जगह पहुंचते हैं, और पांच-दस बरस के भीतर वे भूतपूर्व भी हो जाते हैं। इसलिए जिंदगी के बहुत से हिस्से को पूंजीनिवेश की तरह लगाना पड़ता है, तब जाकर लोग संसद और विधानसभाओं तक पहुंच पाते हैं। जनता के एक बड़े हिस्से के बीच यह सोच बनाई जाती है कि सांसदों और विधायकों को अधिक तनख्वाह नहीं मिलनी चाहिए, और यह जनता पर बोझ रहता है। हम यह साफ कर देना चाहते हैं कि किसी भी राज्य में इनकी गिनती बड़ी सीमित रहती है, और राज्य को चलाने, वहां के विकास से जुड़ी हुई जिम्मेदारियां इन पर बहुत रहती हैं, इनके बेईमान हो जाने के खतरे भी बहुत रहते हैं। इसलिए इन्हें पर्याप्त तनख्वाह देना एक किस्म से बचत होगी, फिजूलखर्ची नहीं होगी।
छत्तीसगढ़ में सत्तारूढ़ कांग्रेस की जमकर शिकस्त हुई, और भाजपा किसी की भी उम्मीद से अधिक सीटों के साथ सरकार पर आई। जाहिर है कि ताकतवर, और शायद कमाऊ भी, कुर्सियों पर बैठे हुए अफसर इससे सबसे पहले प्रभावित होंगे। इधर लीड के आंकड़े आते जा रहे थे, और उधर राजधानी रायपुर सहित कुछ दूसरे शहरों में भी पुलिस-प्रशासन, और म्युनिसिपल के अफसर बुलडोजर लेकर निकल गए, और जगह-जगह से ठेले और गुमटियां हटाने लगे। यह काम इस रफ्तार से चालू हुआ कि मानो यह यूपी और एमपी हो, जहां पर सत्ता बुलडोजर को एक प्रतीक बनाकर काम करती है। अभी तो विधायकों की शपथ भी बाकी थी, सरकार बनना तो अभी भी बाकी है, लेकिन बड़े-बड़े अफसर मानो एक किस्म से नई सत्ता के प्रति वफादारी दिखाने के लिए घर से दफ्तर कार के बजाय बुलडोजर पर बैठकर आने लगे हों।
इन पांच बरसों में इन्हीं अफसरों ने एक संगठित गिरोह की तरह शराब का गैरकानूनी कारोबार किया था, ये सरकार से परे के लोगों के निजी नौकरों की तरह काम करते हुए अखिल भारतीय सेवाओं का नाम डुबा रहे थे, लेकिन कमाऊ कुर्सियों पर बने रहना चाहते थे, बने हुए थे। अब एकाएक ऐसे अफसरों को शराब दुकानों के आसपास के ठेलों और गुमटियों पर हमले के लिए हाईकोर्ट में चल रही एक सुनवाई का सहारा मिल गया, दूसरी तरफ इनके बुलडोजर ऐसे इलाकों में भी जाकर गरीबों को उजाडऩे लगे जहां पर आसपास कोई भी शराब दुकान नहीं है। प्रदेश कांग्रेस भवन के अहाते से लगे हुए दर्जनों ठेलों और गुमटियों को उठाकर फेंक दिया गया, और अफसरों ने एक मजबूत बुलडोजरी-निष्ठा की नुमाइश करके अपनी अगली कुर्सियां पक्की करने की एक कोशिश कर ली। कहीं किसी अफसर ने मातहत थानेदारों के तबादले कर दिए, तो किसी कलेक्टर ने डिप्टी कलेक्टर इधर-उधर कर दिए। जब दो-तीन दिन के भीतर नई सरकार काम संभालने वाली है, उस वक्त किसी अफसर को ऐसे तबादलों में क्यों उलझना चाहिए जहां वे खुद भी कल जिले के मुखिया रहेंगे या नहीं?
दरअसल पिछले पांच बरसों में सरकारी अमले ने जिस किस्म से अपने आपको बैठने को कहने पर लेटना महफूज समझा था, उस नौबत को सुधारने में खासा वक्त लग सकता है। एक तो तमाम पार्टियों और नेताओं को यह समझ में आ गया है कि अफसर हों, या कि मीडिया, उन्हें किस तरह काबू में रखा जा सकता है, और किस तरह सरकार के एकाधिकार को दुहा जा सकता है। पिछले पांच बरस अगर आने वाली सरकार के लिए कोई मिसाल हैं, तो इस बात की मिसाल नहीं बनने चाहिए कि गलत काम कैसे-कैसे करवाए जा सकते हैं, भाजपा सरकार के लिए बेहतर यही होगा कि वह यह सबक ले कि कैसे-कैसे गलत काम नहीं करने हैं जिनकी वजह से इतनी ताकतवर दिखती सरकार इतनी गहराई में डूब सकती है। राजनीति और सरकार में एक दिक्कत यह रहती है कि अच्छी मिसालों के मुकाबले बुरी मिसालें अधिक मुनाफे की रहती हैं। लोगों को याद रहना चाहिए कि सत्ता के इर्द-गिर्द के लोग चाहे उसकी खामियों, गलतियों, और गलत कामों को न गिनाएं, जनता उन्हें गिनती रहती है। और जैसा कि इस बार के नतीजे आने के बाद समझ आ रहा है, लोगों ने ठीक जोगी सरकार की तरह इस बार भूपेश सरकार को खारिज किया है। भाजपा को यह बात सुनने में बहुत अच्छी नहीं लगेगी, लेकिन उसकी इस बार की असाधारण, और उम्मीद से परे की जीत में भूपेश सरकार का योगदान कम नहीं था।
जोगी के वक्त छत्तीसगढ़ में जो जुर्म और जुल्म हुए, ठीक उसी तर्ज पर भूपेश सरकार के दौरान भी हुए, और उसी वजह से किसानों के फायदे की अभूतपूर्व योजनाओं के रहते हुए भी कांग्रेस सत्ता से बुरी तरह बाहर हुई। आज अगर भाजपा सरकार को आने के पहले ही खुश करने में जुट गए अफसर अगर बेकसूर गरीबों पर बुलडोजर चलाकर निष्ठा दिखाना चाह रहे हैं, तो ऐसी हरकतों से भी भाजपा को सावधान रहना चाहिए। हमारा ख्याल है कि जिन इलाकों में गुंडागर्दी के अंदाज में अवैध कब्जे थे, अवैध काम चल रहे थे, वहां पर तो कार्रवाई ठीक है, लेकिन जिन इलाकों में कोई संगठित गुंडागर्दी नहीं है, दारू की दुकानों के आसपास की अराजकता नहीं है, वहां चाट-गुपचुप बेचने वालों को बेदखल और बेरोजगार करके ये अफसर सत्ता पर आने वाली भाजपा का नुकसान पहले ही शुरू कर देंगे। यह सिलसिला आने वाले लोकसभा चुनाव से लेकर पंचायत और म्युनिसिपल चुनावों तक सत्तारूढ़ पार्टी का नुकसान कर सकता है। आज गरीब जनता का जो हिस्सा पूरी तरह से कानूनी काम करते हुए अपनी रोजी-रोटी कमा रहा है, किसी जुर्म से दूर है, उसे बेरोजगार करना बिल्कुल भी समझदारी नहीं है। अफसरों की पहली प्राथमिकता सत्ता पर आने वाले नेताओं को किसी भी तरह से प्रभावित और खुश करने की है, नेताओं को ऐसे खुशामदखोरों से सावधान रहना चाहिए, क्योंकि अभी-अभी निपटे विधानसभा चुनाव में बहुत से ऐसे नेता निपटे हैं, या उनकी सरकार निपटी है, जिन्हें कोई ईमानदार और जिम्मेदार अफसर रोक सकते थे। जब लोगों को अपने आसपास दूसरी, तीसरी, और चौथी सलाह लेने का इंतजाम नहीं रहता है, सत्ता उनसे कई किस्म की मनमानी करवाती है। सत्ता की ताकत ही लोगों को अलोकतांत्रिक, बददिमाग, और बेदिमाग बना देती है। ऐसा भी नहीं कि यह खतरा सिर्फ नेताओं के सामने रहता है, अफसरों में भी बहुत कम ऐसे रहते हैं जो बहुत ही ताकत की जगह पर रहकर भी अपने दिमाग को सही जगह पर रख पाते हैं।
आने वाली भाजपा सरकार के लोगों की आज के अफसरों से अगर कोई बातचीत है, तो उन्हें अफसरों को गरीब जनता को उजाडऩे से रोकना चाहिए। किन इलाकों से अवैध कब्जों को हटाना है, किस किस्म के अवैध निर्माण गिराना है, यह करने के लिए तो पूरे पांच साल हैं। लेकिन न तो नेताओं को अपने जश्न के बीच लोगों की रोजी-रोटी छीनने के हुक्म देने चाहिए, और अगर उन्होंने ऐसे हुक्म नहीं दिए हैं, तो अफसरों को ऐसा करने से रोकना चाहिए। पिछले पांच बरस में छत्तीसगढ़ के बड़े से बड़े अफसरों ने यह साबित कर दिया है कि सत्ता उनका जैसा चाहे वैसा इस्तेमाल कर सकती है, और वे उफ भी किए बिना उपलब्ध रहेंगे। लेकिन ऐसी सत्ता का क्या हाल होता है, यह इस बार के नतीजों ने दिखा दिया है। हमारा मानना है कि भाजपा के कुछ समझदार लोग पांच बरसों के इस तजुर्बे के उन चुनिंदा हिस्सों से सबक लेंगे, जिससे पांच बरस बाद इस पार्टी का वैसा ही हाल न हो। फिलहाल जब तक कुछ तय नहीं होता है, किसी भी गरीब फुटपाथी रोजगार चलाने वाले को बेदखल नहीं करना चाहिए।
केन्द्र सरकार ने अभी संसद के एक जवाब में बताया है कि 2018 से 2023 के बीच, तकरीबन पांच बरस में देश के उच्च न्यायालयों में किन तबकों के कितने जज नियुक्त किए गए। यह जवाब खासकर उन आंकड़ों को लेकर चौंकाता है, जो कि दलित, आदिवासी, ओबीसी, और अल्पसंख्यक तबकों के हैं। इन बरसों में कुल 650 हाईकोर्ट जज बनाए गए, जिनमें से अनुसूचित जाति के 23 थे (आबादी 20 फीसदी), अनुसूचित जनजाति के 10 थे (आबादी 9 फीसदी), ओबीसी के 76 थे (आबादी 41 फीसदी), और अल्पसंख्यक 36 थे (आबादी 19-20 फीसदी)। 13 जज ऐसे भी थे जिनके बारे में यह जानकारी उपलब्ध नहीं है। अनारक्षित वर्ग के 492 जज बने, जिसकी आबादी 30 फीसदी है। बहुत बारीकी से इन आंकड़ों को न देखें, तो भी यह समझ आता है कि 70 फीसदी आबादी से 30 फीसदी से भी कम जज बने हैं, और 30 फीसदी आबादी से 70 फीसदी जज।
हिन्दुस्तान में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के लिए कोई आरक्षण नहीं है। इस बारे में राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में इस व्यवस्था का जमकर विरोध किया था, और कहा था कि आज की व्यवस्था से सामाजिक न्याय की जरूरत पूरी नहीं होती है। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि ऊंची अदालतों के अधिकतर जज उन्हीं तबकों से आते हैं जिन तबकों में सदियों से सामाजिक पूर्वाग्रह चले आ रहा है। यह भी कहा गया था कि अपने वर्गहित में इन जजों के लिए पूरी ईमानदारी बरतना, और सही फैसले देना मुमकिन नहीं रहता है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि धर्म और जाति को लेकर समाज का पूर्वाग्रह तो भारत के कानून में भी है जिसमें कि कई जातियों को तरह-तरह से अपराधी बताया गया है। इस रिपोर्ट में मद्रास हाईकोर्ट के एक दलित जज के मामले का भी जिक्र है कि उनके जैसे ओहदे पर पहुंचे हुए व्यक्ति को भी ऊंची कही जाने वाली जातियों के साथी जजों के भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। इस रिपोर्ट में छत्तीसगढ़ के 17 दलित आदिवासी जिला जजों का केस भी गिनाया गया था जिन्हें कि 5 से 10 बरस की बची हुई नौकरी के वक्त, हाईकोर्ट जज बनने की संभावना के वक्त, बिना कोई जायज वजह बताए नौकरी से हटा दिया गया था।
बीच-बीच में कई बड़ी अदालतों के जजों के फैसलों में ऐसी टिप्पणियां सामने आती हैं, और अदालती कार्रवाई के बीच उनकी जुबानी टिप्पणियां तो आती ही रहती हैं जो कि उनके जातिगत पूर्वाग्रह बताती हैं। फिर सुप्रीम कोर्ट के कई बड़े वकील लगातार इस बात को उठाते आए हैं कि किस तरह जजों के नामों की सिफारिश करने वाले सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के जज अपनी ही जातियों या कुनबों के लोगों को आगे बढ़ाते हैं। इस बात में कुछ नया नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट के कई जजों के सामने, उनके करीबी वकीलों के साथ बेहतर बर्ताव की तोहमत लगती है। अंकल जज का यह सिलसिला कुनबापरस्ती और जातिवाद पर टिका हुआ कहा जाता है।
अब सवाल यह उठता है कि जब देश में बड़े से बड़े पुल बनाने वाले इंजीनियर आरक्षण की व्यवस्था से ही निकलकर आए रहते हैं, बड़े से बड़े डॉक्टर आरक्षण के तहत ऊपर पहुंचे रहते हैं, देश में शायद ही कोई ऐसा मेडिकल सुपर स्पेशलाइजेशन हो जिसमें अल्पसंख्यक तबकों के डॉक्टर न हों, तो फिर बड़ी अदालतों में ही ऐसा कौन सा ईश्वर का इंसाफ करना होता है जिसे कि आरक्षित जातियों या अल्पसंख्यकों से आए जज नहीं कर सकते? यह पूरा सिलसिला बेइंसाफी का है, और सामाजिक न्याय को ध्यान में रखते हुए इस व्यवस्था को बदलने की जरूरत है। अदालतों को समाज के भीतर रहते हुए भी समाज से ऊपर रहने की अपनी सोच खत्म करनी चाहिए। इस देश में संविधान बनाने में जिन लोगों का सबसे बड़ा योगदान था, वे भीमराव अंबेडकर दलित समाज से ही आए थे, और दलितों के साथ बेइंसाफी के एक बड़े प्रतीक भी थे। अब 140 करोड़ आबादी के इस देश में आजादी के पौन सदी बाद भी अगर यह माना जाता है कि सुप्रीम कोर्ट के तीन दर्जन से कम जजों के लिए आरक्षित तबके के लोग नहीं मिलेंगे, तो इस समाज व्यवस्था को चकनाचूर करने के लिए हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में आरक्षण लागू करना जरूरी है। जब तक यह आरक्षण लागू नहीं होगा, तब तक अपने आपको कुलीन तबकों का प्रतिनिधि मानने वाले, ऊंची कही जाने वाली जातियों के जज नए जजों के नाम तय करते वक्त इसी तरह की बेइंसाफी करते रहेंगे।
जब देश में चलने वाले कानून के बड़े-बड़े कोर्स में आरक्षण हैं, निचली अदालतों में नियुक्तियों में आरक्षण हैं, तो हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट को किसी पवित्र ग्रंथ की तरह दलित-आदिवासियों की पहुंच से परे रखना अपने आपमें अलोकतांत्रिक, अमानवीय, और अन्याय है। सुप्रीम कोर्ट जजों में इस तरह की सोच बड़ी निराशा पैदा करती है, और उन्हें इस बेइंसाफी को खत्म करने के लिए अगर कोई रास्ता नहीं सूझता है, तो फिर देश की संसद को इस अदालती मनमानी को खत्म करने के लिए कानून बनाना चाहिए।
किसी संगठन के भीतर फैसले कितने सही हैं और कितने गलत, यह उस संगठन के अपने तौर-तरीकों पर भी निर्भर करता है। आज देश के तीन प्रमुख हिन्दीभाषी राज्यों में बड़ी जीत के बाद भाजपा के मुख्यमंत्री तय होने हैं। लोकतांत्रिक तौर-तरीकों के हिसाब से जीते हुए विधायकों के बहुमत से मुख्यमंत्री बनने चाहिए, लेकिन इस देश में हाल के दशकों में शायद ही कभी, और कहीं इस आधार पर मुख्यमंत्री तय किए गए हों। देश की दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों में हाईकमान की संस्कृति विकसित और मजबूत हो चुकी है, और कांग्रेस और भाजपा के ऐसे फैसले राज्यों की राजधानी में नहीं, देश की राजधानी में तय होते आए हैं, और भाजपा में आज यही हो रहा है। 15-15 बरस मुख्यमंत्री रहे हुए नेता भी अपने राज्यों में बैठे दिल्ली के फैसले का इंतजार कर रहे हैं, और यही कांग्रेस में भी कुछ अरसा पहले तक होता था, जब तक कुछ राज्यों में उसकी सरकारें थीं। धीरे-धीरे कांग्रेस के पास अपने चुनाव चिन्ह पंजे की उंगलियों जितने राज्य भी नहीं रह गए, और इसके साथ ही राज्य के नेताओं पर उसकी पकड़ भी खत्म हो गई। अब कांग्रेस के राज्यों के संगठन स्वायत्तशासी संगठनों की तरह काम कर रहे हैं, और दिल्ली दिखावे के लिए मुखिया बनी हुई है।
खैर, आज मुद्दा कांग्रेस नहीं भाजपा है। और भाजपा के भीतर भी हाईकमान की संस्कृति उसी तरह विकसित हो गई है जिस तरह दर्जन भर प्रदेशों पर राज करने वाली किसी भी दूसरी पार्टी में हो सकती थी, कांग्रेस में हमेशा से रहते आई थी, अभी कुछ बरस पहले तक। आज देश में भाजपा के 10 सांसद विधायक बनकर आए हैं जिनके कल लोकसभा से इस्तीफे हुए हैं। जब पार्टी देश में इस हद तक मजबूत हो जाती है कि वह राज्यों में अपने नेताओं में से जिसे चाहे बना सके, और जिसे चाहे हटा सके, तो फिर सांसदों और विधायकों को प्यादों की तरह इधर-उधर करना उसके लिए आसान भी हो जाता है, और उसका हक भी हो जाता है। हम इसे सही और गलत की परिभाषा में बांटना नहीं चाहते, क्योंकि यह भी ताजा इतिहास ही है कि मध्यप्रदेश में पांच बरस की सत्ता के बाद दुबारा जीतकर आए अर्जुन सिंह को शपथ ग्रहण के अगले ही दिन पंजाब का राज्यपाल बनाकर भेज दिया गया था। ऐसा लगता है कि भारतीय लोकतंत्र में जब कोई पार्टी या नेता जरूरत से अधिक ताकतवर हो जाते हैं, तो उन्हें किसी लोकतांत्रिक नीति-सिद्धांत, या प्रक्रिया की जरूरत नहीं रह जाती है। छत्तीसगढ़ के पांच बरस के अतिशक्तिशाली मुख्यमंत्री रहे भूपेश बघेल के हटने के बाद अब लोगों को यह कहने का हौसला जुट रहा है कि उन्होंने पार्टी और अपनी सरकार में लोकतंत्र को पूरी तरह खत्म कर दिया था। बीते पांच बरस में सिवाय दबी-छुपी जुबान के किसी ने खुलकर यह बात नहीं कही थी, क्योंकि देश या प्रदेश में अंधाधुंध ताकत के सामने मुंह खोलने के खतरे सबको पता थे।
आज प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, और गृहमंत्री अमित शाह देश के इतिहास के सबसे अधिक विपरीत और खतरनाक दौर से उबरकर, गुजरात में बचकर पूरे देश पर जिस तरह जीत हासिल कर चुके हैं, उससे वे एक ऐसी अनोखी ताकतवर स्थिति में आ गए हैं कि वे अपनी पार्टी और सरकार को लेकर कोई भी फैसले कर सकते हैं। इसलिए जब उन्होंने इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में पार्टी के उम्मीदवार तय करते हुए शायद दर्जनभर सांसदों को चुनाव में उतारा, तो भी किसी के पास कहने को कुछ नहीं था। आज इन सांसदों को जीतने के बाद विधायक बनाने के फैसले पर भी कहने को किसी के पास कुछ नहीं है, और पार्टी तीन राज्यों में नए मुख्यमंत्री किन्हें बनाएगी, इस बारे में भाजपा के इन दो सबसे ताकतवर नेताओं से परे किसी और को कोई खबर नहीं है। जाहिर है कि ऐसी अनोखी ताकत हासिल करने के लिए राजनीतिक और चुनावी रूप से अंधाधुंध कामयाब होना जरूरी रहता है। अगर किसी पार्टी का केन्द्रीय संगठन चुनावों में लगातार कामयाब नहीं है, तो उसकी बात प्रदेश के नेता ठीक उसी तरह अनसुनी कर देते हैं, जिस तरह परिवार में बैठे बूढ़े मां-बाप की बात को बड़बड़ाहट मान लिया जाता है। इन तीन राज्यों को खोने के बाद कांग्रेस कुछ ऐसी ही हालत में है, और 2018 के चुनाव में खोए हुए इन तीन राज्यों को पाने के बाद भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व अभूतपूर्व ताकत से लैस है। मोदी और शाह की जोड़ी लोकसभा चुनावों से लेकर बहुत से राज्यों के चुनावों में कामयाबी पा चुकी है, पार्टी को दिला चुकी है, और उनकी आज की ताकत इस कामयाबी पर भी टिकी हुई है। न सिर्फ किसी राजनीतिक दल में, बल्कि जिंदगी के बाकी दायरों में भी यह बात लागू होती है कि कामयाबी के साथ बहस नहीं की जाती। इसलिए भाजपा लीडरशिप से कोई सवाल भी नहीं हो सकते कि वे किसे मुख्यमंत्री बनाएंगे।
हम सोशल मीडिया पर अक्सर होने वाली चुनिंदा निशानेबाजी को लोगों की अपनी भड़ास निकालने की एक तरकीब मानते हैं, और हम राजनीति या सार्वजनिक जीवन में चुनिंदा निशानों पर हमले करने, और कुछ दूसरे चुनिंदा निशानों को रियायतें देने के खेल में शामिल नहीं होते। अगर हाईकमान की संस्कृति आज किसी पार्टी में है, तो इसकी शुरुआत तो कांग्रेस से ही हुई है, यह एक अलग बात है कि कांग्रेस की आज की दुर्गति को देखते हुए दूसरी पार्टियों को ऐसी संस्कृति से बचना चाहिए, या कांग्रेस की मिसाल का इस्तेमाल करना चाहिए? ऐसा करने के लिए भी एक बड़ी ताकत की जरूरत पड़ती है जो कि कांग्रेस में इतिहास के पन्नों पर दर्ज है, और भाजपा के वर्तमान में आज बैनर पर लिखी हुई है।
आज की इस नौबत को देखते हुए राजनीति में चुनावी कामयाबी के महत्व को समझने की जरूरत है। चुनावी लोकतंत्र में कामयाबी बुरी बात नहीं होती है, और कई मायनों में वह अपनी नीतियां लागू करने के लिए एक जरूरी औजार भी रहती है। नेताओं और पार्टियों की नीतियां चाहे कितनी अच्छी क्यों न हों, अगर सत्ता हाथ नहीं है, तो वे हसरत और नारों की तरह रह जाती है। पार्टियों के लिए अपनी विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए चुनावों में जीतना जरूरी रहता है, और हर चुनावी नतीजे के बाद उससे जुड़ी हुई पार्टियों को आत्ममंथन करना चाहिए। यह बात हम कांग्रेस के सिलसिले में अभी दो-चार दिन पहले ही लिख चुके हैं, और पार्टी को देश के लोकतंत्र के भले के लिए न सही, अपने खुद के अस्तित्व के लिए एक ईमानदार आत्मविश्लेषण करना चाहिए। कई बार घर के भीतर ईमानदार सोच-विचार मुमकिन नहीं हो पाता, ऐसे में पार्टी को बाहर के कुछ लोगों से भी अपनी हार का विश्लेषण मांगना चाहिए।
हिन्दुस्तान में मोदी या एनडीए के खिलाफ बने इंडिया नाम के गठबंधन में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद दरारें दिख रही हैं। गठबंधन की होने वाली बैठक को भी शायद आगे बढ़ा दिया गया है क्योंकि कांग्रेस की अगुवाई में इस गठबंधन ने अलग-अलग राज्यों में सहयोगी दलों के साथ बुरा सुलूक किया है। और इससे तमाम क्षेत्रीय दल निराश और नाराज हैं कि कांग्रेस एक बॉस की तरह बर्ताव कर रही है। गठबंधन के बनने से लेकर अब तक के वक्त को देखें तो यह बात साफ है कि बाकी तमाम पार्टियों ने यह मान लिया था कि कांग्रेस ही पूरे देश में फैली हुई अकेली पार्टी है, और उसे ही एक धुरी की तरह बाकी तमाम लोगों को साथ लेकर चलना है। जो लोग कांग्रेस के कटु आलोचक थे, उन्होंने भी वक्ती तौर पर कांग्रेस की अगुवाई को गठबंधन के मुखिया के तौर पर मान लिया था कि अगर 2024 के आम चुनाव में मोदी से कोई मुकाबला करना है, तो उसके लिए कांग्रेस के साथ काम करना जरूरी और मजबूरी दोनों है। ऐसी तस्वीर उभरकर आने के बाद एक गठबंधन के सबसे बड़े दल, और अघोषित मुखिया के रूप में कांग्रेस को जो बर्ताव करना था, उसे कांग्रेस के नेताओं के अहंकार ने नामुमकिन कर दिया।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हमने ये खतरा पहले भी बताया था कि कांग्रेस जैसे-जैसे मजबूत होगी, वैसे-वैसे यह गठबंधन कमजोर होते जाएगा। और इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का तीन राज्यों में समूल नाश सा हो गया है, लेकिन नतीजे आने के पहले तक महज ओपिनियन पोल की बदौलत कांग्रेस की बददिमागी सिर चढक़र बोलने लगी थी, और मध्यप्रदेश के कमलनाथ ने राज्य में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को एक भी सीट देने के बजाय जिस हिकारत के साथ अखिलेश-वखिलेश की भाषा बोली थी, वह किसी भी गठबंधन को बर्बाद करने वाली थी। कमलनाथ की जगह कोई और छोटे नेता होते तो ऐसी जुबान के लिए यह भी माना जा सकता था कि वे इस गठबंधन के खिलाफ भाड़े पर यह बयान दे रहे थे।
कांग्रेस के साथ हर स्तर पर एक दिक्कत यह है कि यह अपने घर के भीतर एक बेकाबू पार्टी है। राज्यों में बिखरे इसके क्षेत्रीय नेता अपने इलाकों को स्वायत्तशासी प्रदेशों की तरह लीज पर चलाने लगे हैं, और राष्ट्रीय संगठन की पकड़ वहां बुरी तरह घट गई है। क्षेत्रीय-छत्रप संगठन को उसी वक्त महत्व देते हैं जब संगठन के फैसले उन्हें अपने फायदे के दिखते हैं। इससे परे उनके लिए राहुल गांधी की कही बातें भी कोई मायने नहीं रखतीं, जैसा कि छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के मुद्दों पर पिछली भूपेश सरकार ने साबित किया है। यही हाल देश में दूसरी जगहों पर भी दिखता है जहां राहुल गांधी, और प्रियंका गांधी भी, कोई सैद्धांतिक बात करते दिखते हैं, और उन बातों को महज मंच को सजाने का सामान बना दिया जाता है। पार्टी के प्रदेश के नेता उन पर अमल करने, या पार्टी के भीतर चर्चा करने की जहमत भी नहीं उठाते। इस किस्म से चापलूसी से भरी हुई पार्टी को उसके मौजूदा अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने कुछ हद तक तो पैरों पर खड़ा किया है, लेकिन कांग्रेस सरकारें इतने कम राज्यों में रह गई हैं कि दिल्ली की जुबान अधिक नहीं रह गई। इसी का नतीजा है कि इंडिया गठबंधन के साथियों को छत्तीसगढ़ या मध्यप्रदेश में एक सीट भी नहीं दी गई, और कांग्रेस के क्षेत्रीय नेता अपने पूरे अहंकार में डूबे हुए पार्टी की संभावनाओं को मटियामेट करते रहे। किसी से कोई गठबंधन या तालमेल करना है या नहीं, यह सबकी अपनी मर्जी की बात हो सकती है, लेकिन 2024 के लिए एक व्यापक गठबंधन बनाने चली पार्टियों में से सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को जो एक छोटी सी दरियादिली दिखानी थी, वह एक डबरादिली भी नहीं दिखा पाई। राज्यों में तो जनता से जिसे जो मिलना था वही मिला है, हम अभी यहां उस मुद्दे को छेडऩा नहीं चाहते, लेकिन इन विधानसभा चुनावों ने कांग्रेस की बर्बादी राज्यों से परे, राज्यों से अधिक इंडिया-गठबंधन में भी की है, जो कि आज एक साथ बैठने के लायक भी नहीं रह गया है।
भारतीय लोकतंत्र में दो किस्म की पार्टियां हैं, एक जो कि राष्ट्रीय पार्टियां हैं, और दूसरी वे जो कि क्षेत्रीय पार्टियां हैं। देश में कोई भी गठबंधन इन दोनों के मेलजोल के बिना नहीं बन सकता। और अब देश के अगले कुछ चुनाव कोई गैरभाजपाई दल अपने बूते जीतते भी नहीं दिखता। ऐसे में जितनी जरूरत क्षेत्रीय पार्टियों को कांग्रेस की है, उससे कहीं अधिक जरूरत कांग्रेस को क्षेत्रीय पार्टियों की है जिनकी पीठ पर सवार होकर वह चुनाव में उतर सके। कांग्रेस के मुकाबले कुछ क्षेत्रीय पार्टियां अपने-अपने प्रदेशों में एक बेहतर चुनावी संभावना रखती हैं, उनकी जिंदगी तो कांग्रेस के बिना चल सकती है, लेकिन कांग्रेस आज एक ऐसी अमरबेल सरीखी हो गई है जिसे सहारे के लिए किसी पेड़ के तने की जरूरत है, और उस पेड़ का रस चूसकर वह बेल अपने को बढ़ा सके। कांग्रेस की अपनी जरूरत, और उसका अपना रूख, इन दोनों के बीच कोई तालमेल नहीं दिख रहा है। राहुल और सोनिया गांधी व्यवहार में विनम्र हैं, लेकिन उनकी पार्टी के बाकी नेता कुछ अलग ही किस्म की जुबान बोलते हैं। यह तो गनीमत है कि कांग्रेस राज्यों के चुनाव इस बुरी तरह हार गई, यह अगर इन राज्यों को जीत गई होती तो कमलनाथ जैसे लोग अखिलेश का पोस्टर जलाते दिखते। अगले आम चुनावों में अगर मोदी-एनडीए के खिलाफ किसी तरह की कोई विपक्षी संभावना बन सकती है, तो वह एक कमजोर कांग्रेस की अगुवाई में ही बन सकती है। किसी मामूली सी कामयाबी से भी जिस पार्टी के क्षेत्रीय नेता बदजुबानी करने लगते हैं, उस पार्टी की कामयाबी गठबंधन के साथियों को भुनगा साबित करने लगती। हम पहले भी इस बात को कह चुके हैं कि कांग्रेस का मजबूत होना गठबंधन को कमजोर करेगा। और आज चुनावी नतीजों को देखते हुए क्षेत्रीय साथियों ने कांग्रेस की ताकत और औकात को आईना दिखा दिया है, और यह जरूरी भी था। किसी भी गठबंधन या संगठन में अगुवाई करने वाली बड़ी पार्टी के कुछ गठबंधन धर्म होते हैं, जब तक सोनिया यूपीए की मुखिया थीं, यह धर्म अच्छी तरह निभ गया। यही वजह थी कि वह गठबंधन दस बरस सत्ता पर रहा। अब राज्यों में बौने साबित हो चुके नेता भी कांग्रेस के भीतर वजनदार बने हुए हैं, और ऐसे लोग गठबंधन को हिकारत की नजर से देखते भी हैं। कांग्रेस को अपने इस आंतरिक विरोधाभास से उबरना होगा, वह भारत के संघीय ढांचे की तरह अपनी राज्य इकाईयों के एक संघीय ढांचे की तरह नहीं चल सकतीं। पार्टी के भीतर आंतरिक लोकतंत्र के नाम पर क्षेत्रीय-छत्रपों की अराजक स्वायत्तता ने ही कांग्रेस को चुनाव में यह बदहाली दी है। अपना घर सुधारे बिना कांग्रेस इंडिया-गठबंधन नाम के तम्बू का बम्बू नहीं बन सकती। अब लोकसभा चुनाव तक कांग्रेस के सामने अपने क्षेत्रीय नेताओं की अधिक चुनौतियां नहीं हैं, लेकिन जैसे-जैसे आम चुनाव में सीटों की बंटवारे की बात आएगी, वैसे-वैसे इसके छत्रप फिर लीडरशिप के मुकाबले खड़े होने लगेंगे। यह खरगे और सोनिया-परिवार के कड़े इम्तिहान का मौका है।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद अब सार्वजनिक रूप से अलग-अलग पार्टियां अपनी जीत की वाहवाही, या हार की बहानेबाजी के दौर से गुजर रही हैं। यह बात सही है कि लोकतंत्र में जनधारणा बनाने के लिए कई किस्म के झूठ बोले जाते हैं, लेकिन चुनावी नतीजों के बाद का यह मौका ऐसा रहता है कि नेताओं और पार्टियों को एक ईमानदार आत्ममंथन करना चाहिए। अगर इस मौके पर भी अपनी जीत के पीछे विरोधियों या विपक्षियों की खामियों, और उनके गलत कामों के योगदान को न गिना जाए, तो फिर अपनी खूबियों और सही कामों के योगदान को जरूरत से अधिक आंक लिया जाएगा। इसलिए जटिल चुनावी नतीजों को इस किस्म से भी देखना चाहिए कि लोगों ने आपको और आपकी पार्टी को कितना जिताया है, और कितना आपके प्रतिद्वंद्वी और उसकी पार्टी को हराया है। इस तरह अलग-अलग करके देखना आसान नहीं रहता है, लेकिन जिंदगी और दुनिया के और किसी भी ईमानदार काम की तरह यह काम भी मुश्किल रहता है, लेकिन नामुमकिन नहीं रहता है।
आज जब कहीं पर सरकार गिरी है, कहीं पर नई सरकार बनने जा रही है, और अलग-अलग विधानसभा क्षेत्रों में पुराने दिग्गज निपट गए हैं, नए चेहरे सामने आए हैं, तो जिन लोगों को राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में बने रहना है, जिन पार्टियों को अपनी दुकान का शटर पूरी तरह बंद नहीं करना है, उन सबको बंद कमरे में कम से कम अपने भरोसेमंद सहयोगियों के साथ बैठकर यह सोचना चाहिए कि उनकी जीत या हार के पीछे वजहें क्या रहीं? जीत जाने पर भी यह तो सोचने का मौका सबके सामने रहता है कि यह जीत किस कीमत पर मिली है, उसमें से कितने के दाम अनैतिक सिक्कों की शक्ल में दिए गए हैं, कौन-कौन से और गैरकानूनी काम किए गए हैं, और इनमें से किसका जीत में कितना योगदान रहा है। इसी तरह हारने वाले को भी यह सोचना चाहिए कि उनकी तपस्या में क्या कमी रह गई है।
अब इस मुद्दे को यहीं छोडक़र हम पांच बरस बाद के चुनाव की तरफ आते हैं कि इस बार के चुनाव से सबक लेकर कौन से नेता, और कौन सी पार्टियां अगले किसी चुनाव के लिए क्या तैयारियां कर सकते हैं? कुछ राज्यों में छह महीने के भीतर लोकसभा के आम चुनाव होने हैं, कई राज्यों में उसके कुछ महीनों के भीतर पंचायत और म्युनिसिपल के चुनाव होंगे, और राष्ट्रीय पार्टियों के सामने तो भारत में यह एक स्थाई चुनौती बनी रहती है कि उन्हें तकरीबन हर बरस कुछ राज्यों में चुनाव लडऩा पड़ता है। इसलिए हम राष्ट्रीय या क्षेत्रीय पार्टियों के बारे में यह भी सोचते हैं कि उन्हें अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के हुनर में कुछ जोडऩे के लिए गंभीर योजना बनानी चाहिए। इसके अलावा पार्टी के संगठन को भी एक पेशेवर अंदाज में एक राजनीतिक मशीन की तरह विकसित भी करना चाहिए ताकि चुनाव के वक्त हड़बड़ी में भाड़े की एजेंसियों के भरोसे न रहना पड़े। आज तो हालत यह है कि देश-प्रदेश में जगह-जगह बड़े नेता और उनके सहयोगी अपने और पराए नामों से तरह-तरह की कंपनियां चलाते हैं, वही चुनाव का सारा काम करते हैं, और एक जेब से पार्टी का पैसा निकालकर अपनी दूसरी जेब में डालते रहते हैं। यह काम इतने बड़े पैमाने पर चल रहा है कि नेताओं और संगठन के पदाधिकारियों ने अब मेहनत करना भी कम कर दिया है, और वे वोट डालने के अलावा बाकी तमाम कामों के लिए एजेंसियों की तरफ देखते हैं। राजनीतिक दलों के खर्च का इंतजाम और प्रबंधन करने वाले लोग इस धंधे में लाल होते रहते हैं, और कार्यकर्ताओं की जरूरत कम मान ली गई है।
हमारा मानना है कि कम से कम बड़े राजनीतिक दलों को अपनी सत्ता के प्रदेशों में लीडरशिप के कॉलेज शुरू करने चाहिए। किसी जिम्मेदार और लोक कल्याणकारी सरकार को भी यह काम करना चाहिए क्योंकि यह लोकतंत्र की परिपक्वता और उसके विकास से जुड़ा हुआ काम है। लोकतंत्र में राजनीतिक दल एक हकीकत हैं, और हर कुछ बरस में चुनाव एक नियति है। इसलिए पार्टियों को किस तरह चलना चाहिए, नेताओं को किस तैयार होना चाहिए, सत्ता और विपक्ष की अलग-अलग भूमिकाएं क्या हो सकती हैं, किस तरह विपक्ष अपने आपको एक छाया-सरकार (शैडो गवर्नमेंट) की तरह चला सकता है, और न सिर्फ सरकार की कमजोरियों पर निगाह रख सकता है, बल्कि विरोधी उम्मीदवारों पर भी निगाह रख सकता है। ऐस कॉलेज पंचायत से लेकर संसद के चुनाव तक, और गांव-कस्बे के राजनीतिक संगठन से लेकर राष्ट्रीय संगठन तक की ट्रेनिंग दे सकते हैं, देश के संविधान, इतिहास, वर्तमान, और भविष्य की ट्रेनिंग दे सकते हैं। अगर कोई जिम्मेदार पार्टी रहे, तो वह न सिर्फ चुनाव के वक्त बल्कि तमाम किस्म के दौर में अपने लोगों को बेहतर तरीके से तैयार करने का ऐसा काम कर सकती है।
वैसे तो जिस तरह आज समाजसेवा और जनसंगठनों के कामकाज की ट्रेनिंग के लिए, तरह-तरह के डिग्री कोर्स चल रहे हैं, उसी तरह से देश की राजनीति और सामाजिक लीडरशिप के कोर्स भी चल सकते हैं जो कि भारतीय लोकतंत्र में राजनीति और चुनाव को बेहतर बना सकते हैं, पार्टियों के ढांचों को अधिक उत्पादक बना सकते हैं, और राजनीति को नारेबाजी की जगह से ऊपर उठाकर एक गंभीर लोकतांत्रिक मंच पर ले जा सकते हैं। हमने पहले भी कुछ सरकारों को इस तरह की सलाह दी थी कि उन्हें सरकारी स्तर पर लीडरशिप-विकास के लिए ऐसा कोई विश्वविद्यालय शुरू करना चाहिए जिसमें अलग-अलग विचारधाराओं के लोगों की जगह रहे, और पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों, और नेताओं को यहां अलग-अलग कोर्स में भेज सकें। लोकतंत्र, राजनीतिक दल, चुनाव, और विपक्ष, ये तमाम चीजें हमेशा रहने वाली हैं, और यह कोशिश की जानी चाहिए कि वे बेहतर हो सकें। इनमें देश के करोड़ों लोग लगे हुए हैं, और उनका हुनर अगर बेहतर किया जा सके, तो यह भारतीय लोकतंत्र का विकास ही होगा।
-सुनील कुमार
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में से चार के नतीजे कल आ गए, और उनमें से तेलंगाना का नतीजा तो उम्मीद के मुताबिक कांग्रेस के पक्ष में था, लेकिन राजस्थान के साथ-साथ मध्यप्रदेश, और मध्यप्रदेश के साथ-साथ छत्तीसगढ़ जिस तरह से भाजपा की जेब में गए हैं, वह तकरीबन तमाम लोगों को हैरान करने वाले हैं। इन पांचों राज्यों में से मिजोरम की मतगणना कल नहीं हुई थी, और वहां के क्षेत्रीय पार्टियों के गणित भी कुछ अलग हैं। लेकिन कल के चार राज्यों के नतीजों के बारे में सोचना जरूरी है कि ऐसा जनादेश क्यों आया है, उसका क्या मतलब है। अब इन चारों के बीच भी अगर फर्क किया जाए तो तेलंगाना इस मायने में अलग है कि वहां कांग्रेस और भाजपा आमने-सामने नहीं थे, और कांग्रेस का मुकाबला वहां सत्तारूढ़ क्षेत्रीय पार्टी बीआरएस से था। वहां यह माहौल भी बना हुआ था कि कांग्रेस की इकतरफा जीत होगी। लेकिन बाकी तीन हिन्दी राज्यों को एक साथ रखकर देखें तो यह याद रखने की जरूरत है कि 2018 के चुनाव में ये तीनों हिन्दीभाषी, अगल-बगल के राज्य कांग्रेस ने भाजपा से छीने थे, और उसे उस वक्त भाजपा को एक बड़ा सदमा गिना गया था। आज पांच बरस के भीतर इन तीनों में अलग-अलग वजहों से भाजपा जीतकर आई है। राजस्थान के बारे में तो यह कहा जा सकता है कि वहां हर पांच बरस में सत्ता पलट देने की परंपरा रही है, और वोटरों ने उसी इतिहास को दुहराया है, लेकिन मध्यप्रदेश को तो अधिकतर लोग कांग्रेस की जीत का बता रहे थे, वहां हाल यह है कि भाजपा को 163, और कांग्रेस को 66 सीटें मिली हैं, यानी कांग्रेस से ढाई गुना। वहां तो कमलनाथ ने कांग्रेस का मंत्रिमंडल कागज पर बना डाला था, और आज वह मौजूदा सीटों में भी 48 सीटें खोकर बैठी है। लेकिन इन तीनों राज्यों की चर्चा के बाद जब हम छत्तीसगढ़ पर आते हैं, तो लगता है कि चुनावी ओपिनियन पोल, एक्जिट पोल, और विश्लेषकों की अटकलें, उनकी अपनी-अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए ठीक हैं, उनका जमीनी हकीकत से अधिक लेना-देना नहीं दिखता है। या तो ये तमाम चीजें किसी दौलतमंद पार्टी के भोंपुओं की तरह काम करती हैं, और उसके एजेंडा को आगे बढ़ाती हैं, या फिर इन सबका काम खाली बैठे लोगों का मनोरंजन करने जितना रहता है। जो भी हो, छत्तीसगढ़ के बारे में पिछले कुछ महीनों के हर ओपिनियन पोल, और तकरीबन हर एक्जिट पोल, पूरी तरह गलत साबित हुए हैं, और विश्लेषकों के अंदाज भी नतीजों के आसपास भी कहीं पहुंचे हुए नहीं थे।
छत्तीसगढ़ में चुनावी नतीजों के साथ इस पृष्ठभूमि को भी समझने की जरूरत है कि यह राज्य बनने के बाद की पांच बरस की पहली कांग्रेस सरकार का लड़ा हुआ चुनाव था। शुरू की जोगी सरकार निर्वाचित नहीं थी, कुल तीन बरस की थी, और वह राज्य के ढांचे को खड़ा करने के एक मुश्किल दौर से गुजरी हुई थी। लेकिन 2018 में आई भूपेश बघेल सरकार को न सिर्फ राज्य का एक ढांचा बना हुआ मिला था, बल्कि प्रदेश के करीब डेढ़ दर्जन सालाना बजट का सरकारी तजुर्बा भी विरासत में मिला था। उसके पास चीजों की तुलना करने के लिए बहुत सी मिसालें थीं, और चार विधानसभा चुनावों का एक तजुर्बा भी था कि घोषणाओं और उन पर अमल का क्या होते आया है। 2018 में मुख्यमंत्री बने भूपेश बघेल को अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के मंत्रिमंडल में काम करने का तजुर्बा भी हासिल था, और उनसे बिल्कुल अलग अंदाज में काम करने वाले अजीत जोगी के साथ भी उन्होंने काम किया था। फिर रमन सिंह के 15 बरस के कार्यकाल में विपक्ष में भूपेश बघेल ने लगातार यह भी बताया था कि कौन-कौन से काम नहीं होने चाहिए, और किस-किस तरह काम नहीं किया जाना चाहिए।
इस पृष्ठभूमि में जब पिछले पांच बरस की भूपेश बघेल सरकार को देखें, तो एक आम जनधारणा 2023 के विधानसभा चुनावों को लेकर बनी हुई थी कि सरकार ने आम जनता को 2018 के घोषणापत्र के मुताबिक जो-जो दिया है, और अभी इस चुनाव में और जो-जो देने के वायदे किए हैं, उनके मुताबिक कांग्रेस पार्टी वोटरों के लिए सबसे अधिक फायदेमंद पार्टी दिखती है। हम भी जब हिसाब लगाते थे, तो लगता था कि कांग्रेस के वायदे कई तबकों को इतने बड़े निजी फायदे पहुंचाने वाले थे, कि भाजपा के चुनावी वायदे उनके मुकाबले कहीं बैठते नहीं थे। लेकिन घोषणापत्रों की यह लड़ाई मतदान में काम आई नहीं दिखती है। प्रदेश के वोटरों के एक बहुत बड़े बहुमत ने जो ऐतिहासिक फैसला दिया है, उसे बहुत साफ-साफ समझने की जरूरत है, लेकिन यह बात कहना आसान है, समझना बड़ा मुश्किल है। कल आए नतीजों में भाजपा को राज्य बनने के बाद से अब तक रिकॉर्ड सीटें मिली हैं, और दूसरी तरफ कांग्रेस की इतनी कम सीटें पिछले किसी चुनाव में नहीं थीं। यह फर्क उस समय सामने आया जब चारों तरफ यह हवा थी कि इन चार-पांच प्रदेशों में अगर किसी एक में कांग्रेस की संभावनाएं सबसे अधिक मजबूत हैं, तो वह छत्तीसगढ़ में हैं। लेकिन यहां जिस अंदाज में सत्ता की शिकस्त हुई है, वह कांग्रेस के लिए एक लंबे आत्ममंथन का सामान है, और ओपिनियन पोल, एक्जिट पोल करने वालों से लेकर राजनीतिक विश्लेषकों के लिए भी। भूपेश कैबिनेट के डिप्टी सीएम टीएस सिंहदेव सहित 8 सबसे ताकतवर मंत्री चुनाव हार गए हैं, और जो 3 मंत्री चुनाव जीते हैं, वे ऐसे हैं जो कि सत्ता की ताकत के घमंड की नुमाइश करने वाले नहीं थे। जो सरकार में दीन-हीन किस्म के मंत्री थे, वही तीन जीत पाए हैं। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल बड़ी मामूली लीड से जीते हैं, और उनसे परे अकेले बड़े नेता डॉ.चरणदास महंत जीत पाए हैं, जो कि सत्ता के घमंड से परे रहे, जिन्हें सत्ता की ताकत हासिल नहीं रही, और जिन्हें अपने खुद के इलाकों में सत्ता की उपेक्षा का शिकार होना पड़ा। कुल मिलाकर नतीजा यह दिखता है कि जिसके पास सत्ता की ताकत जितनी अधिक थी, उन्हें जनता ने उतना ही अधिक निपटाया, मुख्यमंत्री शायद इसका अपवाद इसलिए रहे कि उनकी सीट के मतदाता विधायक नहीं मुख्यमंत्री चुनने के लिए वोट दे रहे थे।
भाजपा का चुनाव अभियान ऐसा लगता था कि बहुत देर से शुरू हुआ, और बहुत अनमने तरीके से चला। इन पांच बरसों में प्रदेश के भाजपा नेता उपेक्षित भी पड़े रहे क्योंकि उन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव में 15 बरसों की सत्ता के बाद पार्टी को कुल 15 सीटों पर लाकर टिका दिया था। उन्हें दी गई उपेक्षा की सजा जायज थी या नाजायज, इस पर चर्चा का यह वक्त नहीं है क्योंकि भाजपा की केन्द्रीय लीडरशिप न सिर्फ छत्तीसगढ़ बल्कि इन तीनों राज्यों में अंधाधुंध कामयाब साबित हुई है, और सफलता के साथ कोई भी बहस नाजायज होती है। आज देश भर में इन तीन राज्यों में कामयाबी का सेहरा मोदी और शाह के माथे बांधा जा रहा है।
कांग्रेस के लिए यह बात बड़ी राहत की थी कि छत्तीसगढ़ में भाजपा का अभियान दबा-सहमा सा चल रहा था, और भूपेश सरकार के खिलाफ जो सबसे बड़े मुद्दे हो सकते थे, उनको भाजपा ने छुआ भी नहीं था। यह चुनाव प्रचार असल सुबूतों के साथ बड़ा खूंखार भी हो सकता था, लेकिन भाजपा ने जाने क्यों उससे परहेज किया था, और इस बात ने भी सत्तारूढ़ कांग्रेस के आत्मविश्वास और उसकी उम्मीदों को आसमान पर बनाए रखा था। कांग्रेस की उम्मीदें एक ऐसे आसमान पर चढ़ी हुई थीं जहां तक कि सीढ़ी उसने खुद ने अपनी गढ़ी हुई एक जनधारणा की शक्ल में बनाई हुई थी। अंधाधुंध आक्रामक प्रचार, और मीडिया मैनेजमेंट के चलते, देश में शायद ही किसी को यह सूझ रहा था कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस हार भी सकती है। खुद भाजपा के नेताओं को छत्तीसगढ़ में ऐसी किसी कामयाबी की उम्मीद नहीं थी, और वे भी आपसी बातचीत में महज आधी सीटों तक पहुंचने की उम्मीद ही जताते थे। यह चुनाव लोगों को हक्का-बक्का करने वाला साबित हुआ। कुछ लोगों का यह जरूर कहना है कि भाजपा ने अपनी महतारी वंदन योजना के तहत बड़ी रफ्तार से महिलाओं से फॉर्म भरवाए थे, और उसे उसका फायदा हुआ था।
अब अगर मतदाता की सोच को देखें तो यह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास की सबसे अधिक हक्का-बक्का करने वाली बात दिखती है। एक तरफ तो गरीब जनता वाले छत्तीसगढ़ के मतदाताओं को भूपेश बघेल की तरफ से आसमान छूते फायदों के वायदे किए गए थे, जिन पर राज्य के खजाने का दसियों हजार करोड़ सालाना खर्च होता, और जनता की जेब में जाता। दूसरी तरफ भाजपा के तमाम वायदे देखने पर भी जनता को उनसे कुछ खास नगद-नफा होते नहीं दिख रहा है। इसके बाद भी पूरे प्रदेश की जनता ने मानो एक राय होकर, एकजुट होकर कांग्रेस के खिलाफ वोट डाला। यह बात हैरान करती है कि गरीब जनता कर्जमाफी के फायदों को ठुकराकर, मुफ्त की बिजली को ठुकराकर, परिवार की महिलाओं के काफी अधिक फायदों को ठुकराकर भी भूपेश बघेल की कांग्रेस को ठुकरा सकती है। देश में जिन लोगों को यह लगता है कि टैक्स देने वाले लोगों के पैसों से गरीबों को रेवड़ी बांटी जाती है, उन्हें यह देखना चाहिए कि भाजपा से अपेक्षाकृत तकरीबन कुछ भी नगद न मिलने की उम्मीद के बाद भी वोटरों ने नगद-फायदे को खारिज करने की कीमत पर भी कांग्रेस को खारिज कर दिया। हमको हिन्दुस्तान के लोकतांत्रिक इतिहास में जनता का इतने बड़े त्याग का कोई दूसरा फैसला याद नहीं पड़ता है। जो जनता मुफ्तखोरी की तोहमत से बदनाम की जाती है, उस जनता ने इस बार छत्तीसगढ़ में जो फैसला दिया है, उससे वोट खरीदने वाले नेताओं और पार्टियों का दिल सहम जाएगा। छत्तीसगढ़ का यह चुनाव भारतीय जनता पार्टी की जीत का जश्न तो साबित हुआ ही है, लेकिन हमारा मानना है कि यह इस प्रदेश की गरीब जनता के त्याग का और अधिक बड़ा जश्न है जिसने अपने आपको हर लालच से ऊपर साबित किया है।
कहने के लिए धार्मिक धु्रुवीकरण, जातिगत समीकरण जैसे कई और मुद्दों को गिनाया जा सकता है जिनसे कि ये चुनाव प्रभावित हुए होंगे। हम ऐसे कई अलग-अलग छोटे-छोटे प्रभावों से इंकार नहीं करते हैं, लेकिन इस बात को साफ-साफ समझने की जरूरत है कि ऐसे किसी भी असर से सत्तारूढ़ पार्टी, और खासकर उसके हर अहंकारी और ताकतवर चेहरे इस हद तक खारिज नहीं हो सकते थे। घमंड को खारिज करने, भ्रष्टाचार और जुर्म को खारिज करने का जनता का फैसला किसी भी पार्टी की चुनावी कोशिशों से अधिक ताकतवर साबित हुआ है। आज इस जगह पर इससे अधिक विश्लेषण मुमकिन नहीं है, लेकिन हम इस बात को जोर देकर कहना चाहते हैं कि किसी पार्टी को इसे महज अपनी जीत नहीं मानना चाहिए, और हारने वाली पार्टी को इसे महज जीतने वाली पार्टी की तिकड़म नहीं मानना चाहिए। यह फैसला एक अजीब किस्म की लोकतांत्रिक जनचेतना का संकेत देता है, जिस पर भरोसा करना कुछ मुश्किल भी हो रहा है, लेकिन जनादेश के इस पहलू पर गौर किए बिना राजनीतिक दल सही निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाएंगे। अगर इन चुनावों को भविष्य के लिए किसी सबक की तरह लेना है, तो इन्हें अपने नेता, अपनी पार्टी, अपने घोषणापत्र से परे, जनता की सोच को, उसके त्याग को सबसे ऊपर रखकर देखना होगा। छत्तीसगढ़ का यह चुनाव जनता का निजी नफे के ऊपर अपनी लोकतांत्रिक पसंद और नापसंद का चुनाव रहा है।
आज इसके साथ ही बाकी प्रदेशों का विश्लेषण मुमकिन नहीं है, उनके बारे में आगे फिर कभी।