संपादकीय
चारों तरफ की नकारात्मक खबरों के बीच जब कभी कोई अच्छी खबर दिखती है, तो वह मन मोह लेती है। राजस्थान में बीकानेर से सीकर के बीच रशीदपुर खोरी नाम का एक रेलवे स्टेशन है, और वहां से कमाई न होने की वजह से 2005 में रेलवे ने वहां ट्रेन रोकना बंद कर दिया था क्योंकि उसे घाटा हो रहा है। यह स्टेशन आज से सौ बरस पहले, अंग्रेजों के वक्त 1923 में जयपुर-चुरू रेललाईन पर बनाया गया था, और आसपास के कई गांवों के लिए यही एक रेल-संपर्क था। गांव के लोगों ने काफी कोशिश की, और रेल अफसरों ने बातचीत और समझौते में यह शर्त रखी कि साल में कुछ लाख रूपए की टिकटें खरीदे जाने पर ही ट्रेन रूकना शुरू होगा, और रेलवे ने यह भी कहा कि वह वहां कोई कर्मचारी तैनात नहीं कर पाएगा। गांव के लोगों ने आपस में बात की, और यह तय किया कि चाहे जो करना पड़े, ट्रेन का स्टेशन बंद नहीं होने दिया जाएगा। लोगों ने मिलकर स्टेशन का पूरा काम संभाल लिया, आम लोगों के बीच से ही कोई स्टेशन मास्टर की तरह काम करने लगा, तो कोई टिकट बेचने का। लोग साफ-सफाई भी खुद करने लगे, और अलग-अलग कई खबरें बताती हैं कि रेलवे के दिए गए टिकट बिक्री के टारगेट को पूरा करने के लिए वहां से चढऩे वाले हर मुसाफिर पांच-दस टिकटें खरीदकर चढ़ते थे, ताकि ट्रेन रूकना बंद न हो जाए। धीरे-धीरे इस गांव का स्टेशन इतना कामयाब हो गया कि लोगों को घाटा खत्म हो गया, और बड़ी कामयाबी से रशीदपुर खोरी एक स्टेशन की तरह चल रहा है, और शायद यह हिन्दुस्तान का अकेला ऐसा स्टेशन है जो बिना किसी रेलवे कर्मचारी के सिर्फ गांव के लोग चला रहे हैं। कामयाबी की यह कहानी इतनी आगे बढ़ी है कि इस गांव के लोग अपने स्टेशन को लोकप्रिय बनाने के लिए आसपास के गांवों में जाकर पर्चे भी बांटते हैं, और उन्हें यहां से सफर करने पर कुछ रियायत भी देने की बात करते हैं।
समाज की सफलता की यह एक ऐसी अजीब कहानी है जो कि हमने इसके पहले कभी सुनी नहीं थी। भला एशिया का यह सबसे बड़ा उद्योग जो कि रोजाना कई करोड़ मुसाफिरों को ढोता है, इस तरह एक गांव के लोगों के भरोसे एक स्टेशन चला रहा है!! इस स्टेशन पर देश के अलग-अलग बहुत से अखबारों ने पिछले बरसों में लगातार रिपोर्टिंग की है, और उन्हीं सबकी जानकारियों को परखकर हम इस पर लिख रहे हैं। दुनिया में कई जगहों पर सामुदायिक प्रोजेक्ट की बात होती है, लोग एक साथ मिलकर कहीं खेती का प्रयोग करते हैं, तो कहीं किसी आध्यात्मिक गुरू के मातहत एक पूरे संप्रदाय की आबादी एक जगह एक परिवार की तरह रहती है, और सारे सदस्य समुदाय के सभी बच्चों के प्रति जवाबदेह रहते हैं। आर्थिक प्रयोग भी कई गांवों में ऐसे हुए हैं जहां पर लोग एक-दूसरे के साथ मिलकर, परस्पर भरोसे और सद्भाव से कारोबार भी कर लेते हैं। देश का सबसे बड़ा दूध उद्योग अमूल नाम का एक सहकारी आंदोलन है, और उसमें कोई सरकारी दखल नहीं है, उसकी कमाई वहीं भीतर रह जाती है। इसी तरह देश भर में फैले हुए इंडियन कॉफी हाऊस नाम का संगठन है जो कि उसी के कर्मचारियों का बनाया हुआ है, और मजदूर या कामगार संगठन ने देश का एक सबसे भरोसेमंद और कामयाब कारोबार भी खड़ा कर लिया है। आज विधानसभाओं से लेकर संसद तक, और मंत्रालयों से लेकर दूसरी सार्वजनिक जगहों तक लोग बेफिक्र होकर बिना किसी टेंडर के इंडियन कॉफी हाऊस को जगह दे देते हैं, और बिना किसी मुकाबले के यह संगठन साधारण दाम पर अच्छा और भरोसेमंद खाना परोसता है। इसके हर कर्मचारी इस कारोबार के शेयर होल्डर हैं, और इसके आगे बढऩे की रफ्तार देश के सबसे काबिल कारोबारियों को भी हीनभावना में डाल सकती है।
हम फिर से राजस्थान के इस रेलवे स्टेशन पर लौटें, तो यह गांव के आम लोगों की सामाजिक एकता का सुबूत तो है ही, किस तरह से इन लोगों ने एक कारोबारी मॉडल भी तैयार किया वह देखना हैरान करता है, और हमें पूरा भरोसा है कि देश के किसी न किसी प्रबंधन-संस्थान ने इस मॉडल पर रिसर्च किया होगा। एक तरफ जहां केन्द्र सरकार के संगठन अपने ही ढांचे के खर्चतले दबकर दम तोड़ रहे हैं, वहां गांव के लोगों ने बिना लागत के ऐसा हौसला दिखाया, और उन्होंने तब यह कर दिखाया जब न किसी स्थानीय नेता ने उनका साथ दिया, और न ही मीडिया ने उनकी बात सुनी। रेलवे के साथ लिखित समझौते के तहत लाखों रूपए साल के भुगतान की गारंटी देकर उन्होंने एक किस्म से अपने और आसपास के गांवों के लिए एक सहूलियत खरीदी, और उसे कामयाब कर दिखाया! एक खबर यह भी बता रही है कि पन्द्रह बरस कामयाबी से इस रेलवे स्टेशन को चलाने के बाद अब जब यह कामयाब हो गया है, तो रेलवे ने इसे अपने हाथ ले लिया है, और इसे छोटी लाईन से बड़ी लाईन भी कर दिया है। जो भी हो, जिसे असफल मानकर एशिया के सबसे बड़े उद्योग, भारतीय रेल ने छोड़ दिया था, उसे एक गांव ने पटरी पर ला दिया जो कि एक ऐतिहासिक मिसाल है।
कुछ छोटी-मोटी खबरों के अलावा इस पर अधिक पढऩे नहीं मिला है। जरूरत यह है कि देश के स्कूल-कॉलेज में छात्र-छात्राओं को पाठ्यपुस्तकों के तहत या उससे बाहर ऐसे मॉडल पढ़ाने चाहिए, और हो सके तो इन पर फिल्में बनाकर दिखाना भी चाहिए। इससे लोगों का अपने-आपमें भरोसा लौटेगा, और समाज अपनी ताकत का अहसास भी करेगा। समाज की सामूहिक शक्ति अगर एक गांव में ऐसी क्रांति ला सकती है, तो इससे बाकी लोगों को भी अपने-अपने इलाके, अपने समुदाय और समूह, अपने धर्म और अपनी जाति के बारे में सोचना चाहिए कि वे क्या नहीं कर सकते? हम यहां पर अपनी एक पसंदीदा मिसाल को एक बार फिर लिखना चाहेंगे, दुनिया में कहीं भी किसी तरह की आपदा आती है, तो उनमें से बहुत सी जगहों पर सिक्खों के संगठन काम करते दिखते हैं। वे न सिर्फ पैसा खर्च करते हैं, बल्कि वे कहीं बाढ़ में डूबकर, तो कहीं जख्मियों को उठाकर, खाना पहुंचाकर जिंदगियां बचाते हैं। अब एक धर्म में ऐसी कौन सी खूबी है कि उसके लोग दुनिया में किसी का भी धर्म पूछे बिना, और आमतौर पर गैरसिक्खों की ही मदद करते दिखते हैं, जात-धरम किसी को नहीं देखते। यह भी ऐसे वक्त जबकि हिन्दुस्तान के ही कुछ धर्म इस बात में लगे रहते हैं कि किस तरह उनकी ताकत का एक कतरा भी किसी दूसरे धर्म के काम न आ जाए, वे खुलेआम यह लिखते दिखते हैं कि सिर्फ अपने धर्म के लोगों से ही सामान खरीदें, उन्हीं को नौकरी पर रखें, उन्हीं को मदद करें। ऐसी धार्मिक दकियानूसी हवा के बीच सिक्खों के संगठन बिना किसी का धर्म पूछे जुट जाते हैं।
हम राजस्थान के इस गांव की बात करते-करते धर्म की ताकत और उसके इस्तेमाल पर इसलिए आ रहे हैं कि न सिर्फ भारत में, बल्कि दुनिया के तकरीबन तमाम देशों में धर्म एक हकीकत है, और वह एक बहुत बड़ी ताकत भी है। इसलिए अगर रशीदपुर खोरी गांव वालों की तरह किसी धर्म के लोगों की एकता अगर समाज के काम आ सके, तो वह तस्वीर को कितना बदल सकती है! समाज की ताकत को समझकर, और उसका इस्तेमाल करके एक बेहतर कल की तरफ बढ़ा जा सकता है। कोई इलाका, किसी आध्यात्मिक संगठन या संप्रदाय के लोग, या किसी धर्म और जाति के लोग, किसी मजदूर या कर्मचारी संगठन के सदस्य ऐसी सामूहिक ताकत के बारे में सोच सकते हंै, वे एक स्टेशन चला सकते हैं, वे अमूल बना सकते हैं, और वे इंडियन कॉफी हाऊस जैसा बेताज बादशाह खड़ा कर सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ की खबर है कि एक महिला ने अपने शराबी पति की प्रताडऩा से तंग आकर उसे पेट्रोल डालकर जिंदा जला दिया। पन्द्रह बरस पहले यह प्रेमविवाह हुआ था, इनका 14 बरस का एक बेटा भी था, और जब यह नशा इस महिला के बर्दाश्त के बाहर हो गया, तो उसने पति को इस तरह से निपटा दिया। जांच और पूछताछ में पता चला कि 44 बरस की थकी हुई पत्नी खुद ही पेट्रोल पंप पर जाकर पेट्रोल खरीद लाई, और फिर सोए हुए पति पर पेट्रोल छिडक़कर आग लगा दी। यह बात सुनने में भयानक लग सकती है, लेकिन नशेड़ी जीवनसाथी से प्रताडि़त आदमी या औरत के लिए रोज की प्रताडऩा इससे कम भयानक नहीं रहती है। आमतौर पर इस दर्जे का नशा करने वाले लोग गरीब या मध्यमवर्गीय रहते हैं, और नशे की उनकी आदत परिवार की कमर भी तोड़ देती है। बहुत से ऐसे गरीब परिवार हैं जहां पर राशन के रियायती चावल को भी घर से ले जाकर, बेचकर लोग शराब पी लेते हैं, और फिर उसके बाद चाहे उनके बच्चों के भूखे मरने की ही नौबत क्यों न आ जाए। हाल के महीनों में ही कई ऐसी घटनाएं सुनाई पड़ी हैं जिनमें बेटे के नशे से परेशान, और पैसे न देने पर उसकी हिंसा झेलने वाले मां-बाप ने उसे मार डाला, या बाप की नशे की आदत से थके हुए बच्चों ने उसे मार डाला। यह बात समझने की जरूरत है कि इनमें से अधिकतर लोगों को यह पता रहा होगा कि कत्ल करने की सजा कैद होती है, और बचना शायद आसान भी नहीं रहता है। इसके बावजूद लोगों ने अगर अपने ही सबसे करीबी लोगों के ऐसे कत्ल किए हैं, तो यह जाहिर है कि अपने घर की खुली जिंदगी से उन्हें उस पल जेल की कैद बेहतर लगी होगी, जब उन्होंने ऐसा कत्ल किया होगा। मतलब यह कि शराबी घरवालों की प्रताडऩा का बर्दाश्त जब जवाब दे जाता है, तो वह कातिल हो जाता है।
अब किया क्या जाए? भारत जैसे देश में जहां राज्यों के बीच सरहदें न कटीले तारों से घिरी हुई हैं, न दीवारे हैं। ऐसे में किसी एक प्रदेश में नशाबंदी शायद आसान या मुमकिन भी नहीं है। आज देश में गुजरात, बिहार, और मिजोरम शायद पूरी तरह नशाबंदी लागू किए हुए हैं, लेकिन जो खबरें आती हैं, वे बताती हैं कि कम से कम गुजरात और बिहार में तो बाजारभाव देने पर हर किस्म की दारू घर पहुंचकर मिलती है, और दारूबंदी के नाम पर, उसे लागू करते हुए सरकार का पूरा अमला ही भ्रष्ट हो गया है। शराबबंदी से गैरकानूनी शराब का इतना बड़ा बाजार खड़ा हो जाता है कि वह पुलिस और दीगर संबंधित अमले को गले-गले तक भ्रष्ट कर देता है। यह कमाई एक बार मुंह लगती है, तो फिर वहां शराब से परे कई दूसरे किस्म के नशे भी चलने लगते हैं, और सरकारी अमला संगठित गिरोह की तरह काम करने लगता है, तरह-तरह के माफिया पनप जाते हैं। दुनिया के और कई देशों का इतिहास बताता है कि जहां कहीं शराबबंदी की गई, उन देशों में बड़े-बड़े माफिया पनप गए, और एक बार सरकार के खिलाफ, कानून के खिलाफ एक कारोबार करना शुरू हुआ, तो फिर वे ऐसे हर किस्म के कारोबार को करने लगे। इसलिए किसी देश में शराबबंदी को टुकड़ों में करना शायद आसान नहीं है, और अभी तकरीबन तमाम हिन्दुस्तान में शराब खुली रहने पर भी जितने किस्म के खतरनाक नशे दुनिया भर से इस देश में आते हैं, वे शराब के मुकाबले अधिक खतरनाक रहते हैं।
एक बार फिर परिवारों की तरफ लौटें, तो लगता है कि क्या परिवार, पड़ोस, समाज, और दोस्तों का ढांचा पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है कि किसी के नशे में इतने डूब जाने पर भी आसपास के लोग उसे रोकने-टोकने, संभालने और बचाने की अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पाते? नशे की ऐसी हालत तो परिवार से परे भी सबको दिखती होगी, लेकिन अगर बाकी लोग दखल नहीं दे पा रहे हैं, तो यह सामुदायिक जिम्मेदारी का पूरा ही असफल हो जाना बताता है। ऐसे में एक परिवार अपने ही एक सदस्य से जूझने के लिए अकेला रह जाता है, और बहुत से मौकों पर दोनों में से किसी एक तरफ से हिंसा होती है। यह हिंसा जब मरने-मारने पर आ जाती है, तब तो वह पुलिस के मार्फत लोगों को दिखती है, लेकिन संगीन जुर्म से नीचे की ऐसी हिंसा परिवार के बंद दरवाजे के भीतर लगातार चलती है, पूरे परिवार को बर्बाद करती है, और इसके खिलाफ कोई कानून भी नहीं है। यह सिलसिला बहुत निराश करता है क्योंकि यह गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों की अर्थव्यवस्था को पूरा ही खत्म कर देता है, परिवार के कमाऊ, या काम करने के लायक किसी सदस्य को बेरोजगार या बेकार कर देता है, और बच्चों के सामने एक बहुत बुरी मिसाल पेश करता है। ऐसा खतरा दिखता है कि शराबियों के बच्चे हो सकता है कि आगे चलकर खुद भी शराबी हो जाएं क्योंकि नशे से उनकी हिचक देख-देखकर खत्म हो चुकी रहती है।
हम इस नौबत को सुधारने में सरकार की अधिक जिम्मेदारी नहीं देखते जो कि दारू के धंधे की वैध और अवैध कमाई को पसंद करती है। लेकिन जनता के बीच के लोगों को इस तरह का हस्तक्षेप करना चाहिए जो कि समाज के ही लोगों को दखल देने की जिम्मेदारी का अहसास कराए। आज भी इस दर्जे के एक शराबी के आसपास दर्जनों ऐसे परिचित और परिवार होंगे जो कि उसे रोकने की कोशिश करने का हक रखते होंगे। सामाजिक पहल बस इतनी करनी है कि ऐसा हक रखने वाले लोगों को उनकी जिम्मेदारी का अहसास कराना है कि वे किसी को समझाकर, किसी का हाथ थामकर, डांटकर या रोककर अगर बर्बाद होने से रोक सकते हैं, तो उन्हें रोकना चाहिए। सामुदायिक और सामाजिक जिम्मेदारी बड़ी अमूर्त बातें लगती हैं जिनका कोई चेहरा नहीं है, लेकिन कानून की पौन सदी ने समाज के ढांचे को खत्म नहीं कर दिया है कि लोग एक-दूसरे से बात न कर सकें। अनगिनत ऐसी मिसालें हैं जिनमें लोगों ने एक-दूसरे को बचाते हुए जान भी दे दी है, यह एक अलग बात है कि एक-दूसरे की जान लेने की खबरें अधिक बनती हैं। समाज में इतना कुछ अच्छा भी होता है कि वह लोगों के एक-दूसरे के फिक्र किए बिना नहीं हो सकता था, परेशानी और मुसीबत में एक-दूसरे का साथ दिए बिना नहीं हो सकता था। इसलिए समाज को हर बात-बिनबात पर सरकार की तरफ देखना बंद करना चाहिए, पुलिस, कोर्ट, और जेल तो सबसे आखिरी इलाज होना चाहिए, इन सबकी नौबत आने का एक मतलब यह भी होता है कि समाज के लोग अपनी जिम्मेदारी से चूक गए हैं। समाज का ढांचा हजारों बरस से चले आ रहा है, उसके भीतर बहुत सी बुराईयां भी हैं, लेकिन उसकी बहुत सी अच्छी ताकतें भी रही हैं, और हमारा मानना है कि अपने आसपास इस किस्म के नशे और उससे उपजी हिंसा की नौबत को रोकने के लिए सभी को अपनी सामाजिक जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ की विष्णु देव साय की भाजपा सरकार का पहला बजट आबादी के अधिक से अधिक हिस्से को किसी न किसी किस्म का फायदा देने वाला है। कुछ महीने पहले ही विधानसभा चुनाव के घोषणापत्र में भाजपा ने कई किस्म के वायदे किए थे, और फिर उन वायदों को देश भर के अलग-अलग राज्यों में मोदी की गारंटी के नाम से प्रचारित भी किया गया था। अब चूंकि कुछ महीने के भीतर लोकसभा का चुनाव है, और प्रधानमंत्री मोदी का चेहरा ही पूरे देश में भाजपा के कमल निशान से ज्यादा दिखेगा, इसलिए भाजपा की ताजा-ताजा बनी राज्य सरकारों के लिए भी यह जरूरी था कि वे मोदी की गारंटी को अधिक से अधिक पूरा करें। इसी के मुताबिक छत्तीसगढ़ के नौजवान वित्तमंत्री ओ.पी. चौधरी ने कुछ महीनों की मेहनत से ही राज्य के बजट का यह दस्तावेज तैयार किया है जो कि अधिक से अधिक आबादी को खुश करेगा। ऐसा माना जाना चाहिए कि ऐसा करते हुए राज्य के ढांचागत विकास के मद में कुछ कटौती हुई होगी, और सामने खड़े लोकसभा चुनाव के पहले मतदाताओं को खुश करने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर विकास को कुछ महीने टाला गया है। इसमें कोई अटपटी बात नहीं है, और चुनावी लोकतंत्र में कोई भी पार्टी चुनाव के साल में बजट को लुभावना और लोकप्रिय बनाने की कोशिश करती ही है।
पिछले बरसों में प्रदेश में यह चलन था कि मुख्यमंत्री ही वित्तमंत्री भी होते थे, और वे ही बजट पेश करते थे। दस से अधिक बरस तक डॉ.रमन सिंह ने, और पांच बरस भूपेश बघेल ने यही किया। लेकिन विष्णु देव साय का यह फैसला सही था कि प्रदेश को एक पूर्णकालिक वित्तमंत्री मिलना ही चाहिए, क्योंकि बजट से परे भी साल भर वित्तमंत्री से हर विभाग का काम पड़ता है, और वित्तमंत्री के पास समय की कमी रहने पर पूरे प्रदेश का विकास धीमा हो जाता है। ऐसे में नौजवान, और मेहनती होने की साख वाले, कुछ बरस पहले ही आईएएस छोडक़र राजनीति में आए ओ.पी.चौधरी वित्त मंत्रालय की रोजाना की जरूरतों के साथ इंसाफ कर सकते हैं। फिलहाल कल उनके पेश किए हुए बजट की अगर बात करें, तो वह एक लोकप्रिय साबित होने वाला, और गरीब मतदाताओं को अधिक से अधिक फायदा देने वाला लुभावना बजट है।
इसके कुछ चुनिंदा मुद्दों पर बात करें, तो हमें सबसे अधिक असरदार फैसला लोगों को दो सौ यूनिट तक बिजली मुफ्त देने का है, चार सौ यूनिट तक की बिजली खपत पर आधी रकम माफ कर दी जाएगी। एक मोटा अंदाज यह है कि प्रदेश में घरेलू बिजली उपभोक्ताओं का आधे से अधिक हिस्सा दो सौ यूनिट से कम बिजली खपत वाला है, और इसके लिए यह एक बड़ी रियायत रहेगी। प्रदेश की तकरीबन तमाम आबादी के घरों तक बिजली पहुंची हुई है, इसलिए पूरे दो करोड़ वोटरों को यह फायदा मिलेगा। दिलचस्प बात यह भी है कि यह भाजपा के घोषणापत्र में नहीं था, और उससे बाहर जाकर पार्टी ने यह बड़ा फैसला किया है, हम इसे पार्टी का फैसला इसलिए लिख रहे हैं कि दूसरे राज्यों में भी भाजपा इस मद में रियायत दे रही है। इससे परे जो बड़े फायदे आम जनता तक पहुंचने वाले हैं, उनमें पिछले विधानसभा चुनाव की तस्वीर को बदलने वाली महतारी वंदन योजना है, जिसमें 21 बरस से ऊपर की हर गरीब और विवाहित महिला को एक हजार रूपए महीने मिलेंगे। इसके लिए बजट में तीन हजार करोड़ रूपए रखे गए हैं। प्रदेश में पिछली कांग्रेस सरकार ने भूमिहीन कृषि मजदूर योजना शुरू की थी, उसे जारी रखते हुए इस सरकार ने उन्हें मिलने वाली रकम सात हजार रूपए साल से बढ़ाकर 10 हजार रूपए सालाना किया है। इसमें आठ लाख लोगों को फायदा होने का अनुमान है। तेंदूपत्ता संग्राहकों को अब तक चार हजार प्रति बोरा मिलता था, इसे बढ़ाकर पचपन सौ रूपए किया गया है, और इससे तेरह लाख लोगों को फायदा मिलने की उम्मीद है। इनमें से अधिकतर लोग आदिवासी इलाकों में हैं, जहां से विधानसभा चुनाव में भाजपा को बम्पर वोट मिले हैं, और अधिक से अधिक आदिवासी सीटें भाजपा के खाते में गई हैं। प्रदेश के बेघर लोगों के लिए 18 लाख प्रधानमंत्री आवास बनाने के लिए 8 हजार करोड़ से ज्यादा इस बजट में रखा गया है। लोगों को याद होगा कि भूपेश सरकार के समय उस समय के पंचायत मंत्री टी.एस.सिंहदेव ने राज्य सरकार द्वारा पीएम आवास के लिए राज्य का हिस्सा जारी न करने का लिखित विरोध करते हुए एक लंबी सार्वजनिक चिट्ठी के बाद यह मंत्रालय छोड़ दिया था। उस वक्त भी यह माना जा रहा था कि 18 लाख परिवारों को हुई निराशा चुनाव में कांग्रेस को नुकसान पहुंचाएगी, और कांग्रेस को हुए कई तरह के नुकसान में से यह भी एक रहा।
वित्तमंत्री ओ.पी. चौधरी ने इसे ज्ञान का बजट कहा है, ज्ञान के अंग्रेजी अक्षरों को देखें, तो गरीब, युवा, अन्नदाता, और नारी, इन चार तबकों को फायदा पहुंचाने की प्राथमिकता इस बजट में दिखती है। चौधरी ने कलेक्टर रहते हुए रायपुर में नालंदा परिसर नाम से बहुत बड़ी लाइब्रेरी, और वाचनालय को बनाने का काम किया था, अब इस बजट में उन्होंने प्रदेश में 22 ऐसे नालंदा परिसर बनाने की घोषणा की है। इससे नौजवानों की जिंदगी पर पहले दिन से असर नहीं पड़ता, लेकिन आगे की पढ़ाई या नौकरी के मुकाबले की तैयारी में ऐसी लाइब्रेरी बहुत काम की रहती है, और नौजवान पीढ़ी के ज्ञान और समझ को बढ़ाने में इससे बड़ी मदद मिलेगी। एक जगह इतने नौजवानों के साथ उठने-बैठने से ही एक प्रतियोगी-वातावरण बनता है, और नौजवान आगे मुकाबलों के लिए तैयार होते हैं।
बजट की बहुत सी बातें खबरों में आ चुकी हैं, और उनमें से एक-एक पर हम यहां लिखना नहीं चाहते, मुमकिन भी नहीं है, लेकिन किसी पार्टी या सरकार में नया खून आने का जो फायदा मिलता है, वह छत्तीसगढ़ के वित्त विभाग को अभी मिल रहा है, और सरकार पांच बरस में बदल जाने से भी एक नई कल्पना की गुंजाइश निकलती है। बजट की बहुत सी कामयाबी इस पर भी रहेगी कि इस पर अमल करने वाले विभागों में कितनी ईमानदारी से काम होता है, और पैसों का कितना बेहतर इस्तेमाल होता है। पिछले बरसों में हमने देखा है कि राज्य के अफसर किस हद तक संगठित भ्रष्ट हो सकते हैं, सरकारी मशीनरी तो वैसी ही है, भाजपा सरकार को इसे ईमानदार बनाने, और बनाए रखने के लिए खासी मेहनत करनी पड़ेगी। ऐसा होने पर ही अलग-अलग कामों के लिए रखा गया पैसा किसी काम आएगा, वरना पांच बरस बाद फिर दसियों हजार करोड़ के घोटालों की जांच की नौबत आ खड़ी होगी। प्रदेश की पिछली सरकार आज की विष्णु देव साय सरकार के सामने एक अच्छा सबक है, एक अच्छी मिसाल है कि काम कैसे-कैसे नहीं करना चाहिए। देखते हैं यह सरकार इस बजट के साथ कितनी ईमानदारी निभा पाती है।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भारत जोड़ो न्याय यात्रा के तहत छत्तीसगढ़ पहुंचे राहुल गांधी अपने साथ एक विवाद लेकर आए हैं, उन्होंने छत्तीसगढ़ में एक सभा में कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का जन्म ओबीसी से तालुक रखने वाले परिवार में नहीं हुआ, और वे खुद को ओबीसी बताकर लोगों को गुमराह कर रहे हैं। राहुल ने दावा किया कि मोदी की जाति घांची को गुजरात की भाजपा सरकार ने सन् 2000 में ओबीसी में शामिल किया था। राहुल का कहना है कि इस तरह गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद मोदी ने अपनी जाति बदलकर ओबीसी कर ली। इसके जवाब में भाजपा की ओर से वह अधिसूचना पेश की गई जिसमें 27 अक्टूबर 1999 को, यानी मोदी के मुख्यमंत्री बनने के दो बरस पहले मोदी की जाति घांची को ओबीसी के रूप में मान्यता दी गई थी। भाजपा के केन्द्रीय मंत्रियों ने कहा कि राहुल गांधी का यह दावा झूठा है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद मोदी ने खुद की जाति को ओबीसी करवा दिया। उल्लेखनीय है कि गुजरात में घांची जाति को ओबीसी में शामिल करने की अधिसूचना एक सार्वजनिक दस्तावेज है, जिस पर 27 अक्टूबर 1999 की तारीख है, और इसी तरह मोदी का मुख्यमंत्री बनना भी एक सार्वजनिक जानकारी की बात है। तारीखें बताती हैं कि मोदी इस अधिसूचना के एक बरस बाद, 7 अक्टूबर 2001 को मुख्यमंत्री बने थे।
राहुल गांधी देश की एक लंबी यात्रा पर हैं, और भारत की राजनीति में उनसे यह उम्मीद की जा रही है कि वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा के खिलाफ विपक्ष के संघर्ष की अगुवाई करते रहें। वे कांग्रेस या इंडिया-गठबंधन में किसी औपचारिक पद पर नहीं हैं, लेकिन सार्वजनिक बयानों से राजनीति करने के लिए ऐसे किसी पद की जरूरत होती भी नहीं है। फिर भी जब बात प्रधानमंत्री की हो जो कि बहुत ताकतवर हैं, और भाजपा की हो जो कि देश में आज सबसे अधिक जगहों पर काबिज, संसद में सबसे बड़ी मौजूदगी वाली पार्टी है, तो इन पर हमला लापरवाह नहीं होना चाहिए। राहुल गांधी ने कुछ अरसा पहले कर्नाटक के एक चुनाव में मोदियों को लेकर दिए गए एक लापरवाह बयान पर अदालत को झेला है, और अब तक उनका मामला खत्म नहीं हुआ है, इस बीच कुछ अरसा के लिए उनकी संसद की सदस्यता जरूर खत्म कर दी गई थी, जो कि सुप्रीम कोर्ट की दखल से अभी वापिस कायम है। कुछ और जगहों पर भी उनके कुछ बयानों को लेकर मुकदमे चल रहे हैं। सार्वजनिक जीवन में कई किस्म के विवादास्पद बयान भी लोग देते रहते हैं, लेकिन जब हम राहुल पर छाई हुई कानूनी दिक्कतों को देखते हैं, तो यह समझ आता है कि वे हर बार ऐसे गैरजरूरी बयान, या लापरवाह बयान से मुसीबत में फंसे हैं, जिसे दिए बिना उनकी राजनीति चल सकती थी। कम से कम कांग्रेस जितनी बड़ी पार्टी के इस सबसे बड़े नेता को इतनी सहूलियत तो हासिल थी कि मोदी की जाति कबसे ओबीसी करार दी गई है, उस तारीख को तो जांच लेते। हम अभी इंटरनेट पर इन दो तारीखों को देख रहे हैं, तो पांच मिनट में दोनों तारीखें दिख जा रही हैं। जब किसी की जन्म, जाति, और परिवार की बात हो, तो इस बात की प्रासंगिकता बड़ी सीमित है कि कब उस जाति का क्या कानूनी दर्जा था। पिछले करीब 25 बरस से नरेन्द्र मोदी की जाति को ओबीसी का दर्जा मिला हुआ है, और 25 बरस पहले के उस सरकारी फैसले के और पहले से ऐसी सामाजिक स्थितियां रही होंगी कि घांची जाति ओबीसी में गिनी जानी चाहिए, तो आज उसे लेकर यह कहना कि प्रधानमंत्री का जन्म ओबीसी परिवार में नहीं हुआ, यह एक तकनीकी इतिहास जरूर हो सकता है, लेकिन यह बड़प्पन की बात नहीं हो सकती। यह बात उस वक्त तो प्रासंगिक हो सकती है जब मोदी की जाति को लेकर अदालत में कोई विवाद चल रहा हो, और वहां पर किसी एक तरफ से जाति और उसके इतिहास की तारीख सामने रखी जाए, लेकिन आज के एक राजनीतिक बयान में इस बात को चुनौती देने का मतलब नहीं दिखता कि मोदी का जन्म जब हुआ था तब उनकी जाति ओबीसी नहीं थी। जातियों की सामाजिक स्थितियां लंबे समय तक चलती हैं, और सरकारी और कानूनी कार्रवाई चलते-चलते उन्हें कोई दर्जा मिलने में बहुत वक्त भी लग जाता है। इसलिए करीब 25 बरस पहले ओबीसी घोषित हो चुकी जाति के मोदी आज अपने को ओबीसी कहते हैं, तो यह राजनीतिक विवाद कुरेदने का कोई अच्छा सामान नहीं है, और खासकर तब जबकि इसे लेकर कोई विवाद भी नहीं है, और राहुल गांधी एक ताजा विवाद खड़ा कर रहे हैं।
सच तो यह है कि पिछले दो-तीन बरसों में राहुल गांधी की पार्टी की छत्तीसगढ़ सरकार के खिलाफ जितने किस्म के जुर्म दर्ज हुए हैं, जितने नेता-अफसर-माफिया अंदाज के सत्ता के पसंदीदा कारोबारी जेल गए हैं, उन सबको लेकर राहुल गांधी को जनता को एक जवाब देना चाहिए था। जिस तरह हजारों करोड़ रूपए की काली कमाई, और रंगदारी के मामले सामने आए हैं, बड़े-बड़े अफसर जेल में हैं, पार्टी के बड़े-बड़े पदाधिकारी फरार हैं, तो ऐसे में राहुल गांधी प्रदेश की जनता के प्रति एक साफगोई की जिम्मेदारी रखते हैं। पूरा प्रदेश जिस तरह के अपराधों की कहानियों से लदा हुआ है, राहुल की अपनी पार्टी जिस तरह इस राज्य को कानूनी खतरों में उलझा चुकी है, तत्कालीन कांग्रेस सरकार गले-गले तक जुर्म में डूबी दिख रही है, उसमें राहुल की जिम्मेदारी छत्तीसगढ़ की जनता को जवाब देने की है, न कि गलत तारीखों के आधार पर मोदी से सवाल करने की है। यह राज्य कांग्रेस सरकार के वक्त के भ्रष्टाचार और जुर्म की खबरों से उबल रहा है, और चुनावी नतीजे बताते हैं कि बड़े नफे के घोषणापत्र को देखते हुए भी प्रदेश की जनता ने कांग्रेस को किस तरह खारिज किया था, ऐसे में राहुल को अपनी पार्टी से भी जवाब लेना चाहिए। वह तो कुछ होते दिख नहीं रहा है, दूसरी तरफ वे प्रधानमंत्री पर बेबुनियाद तथ्यों को लेकर एक आरोप लगा रहे हैं, जिससे खुद उनकी छवि गंभीर बनने से रूकती है। कांग्रेस पार्टी के पता नहीं कौन से ऐसे सलाहकार हैं जो राहुल गांधी को इतना अधिक बोलने की सलाह दे रहे हैं, और राहुल हैं कि वे हर दिन बहुत सारा बोलने को अपनी जिम्मेदारी मान रहे हैं। इसी अधिक बोलने में उनसे कई तरह की चूक हो रही हैं, और उनकी कुछ गंभीर बातें किनारे हो जाती हैं, और उनकी चूक पहले पन्ने की खबरों में छाई रहती हैं।
छत्तीसगढ़ में राहुल का आना ऐसे वक्त हुआ है जब उनकी पार्टी और उसकी पिछली सरकार यहां भारत के इतिहास के सबसे अप्रिय आर्थिक अपराधों के विवादों से घिरी हुई है। ओबीसी कांग्रेस का पसंदीदा मुद्दा हो सकता है, लेकिन जनता का खजाना किसी भी राज्य का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा रहता है। राहुल गांधी की ईमानदारी इसी में रहेगी कि वे अपनी पार्टी की सरकार के कामकाज के बारे में बोलें, और अगर पिछली भूपेश सरकार पर लगे सारे आरोप झूठे हैं, तो उनका तथ्यों के साथ खंडन करें। प्रधानमंत्री पर गलत तथ्यों से किया गया उनका हमला कांग्रेस या विपक्ष को किसी किनारे पर नहीं पहुंचा पाएगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया में एक शांत पर्यटन स्थल रहते आया देश, इक्वाडोर अब दुनिया में नशे के कारोबार का एक बड़ा केन्द्र बन गया है। हालत यह है कि अभी वहां के राष्ट्रपति ने देश में आपातकाल घोषित कर दिया है, क्योंकि नशे के कारोबारी देश पर एक किस्म से कब्जा सा करने की तरफ बढ़ रहे हैं। लोगों को याद होगा कि कुछ हफ्ते पहले एक टीवी स्टूडियो से जीवंत प्रसारण के बीच बंदूकबाजों ने भीतर घुसकर एक टीवी पत्रकार का अपहरण कर लिया था, एक वकील को गोली मार दी थी, कहीं जेलों में कैदियों ने सुरक्षा कर्मचारियों को बंधक बना लिया था। बीबीसी की एक ताजा रिपोर्ट देखें तो अब कुछ जानकार लोग इक्वाडोर को योरप और अमरीका जाने वाले कोकेन का रास्ता बता रहे हैं। दरअसल, इक्वाडोर से लगे हुए कोलंबिया और पेरू जैसे देश कोकेन नाम के खतरनाक नशे को बनाने वाला कच्चा माल पैदा करते हैं। नशे के कारोबार में कमाई इतनी रहती है कि ये दुनिया के किसी भी देश की खुफिया और सुरक्षा एजेंसियों को भाड़े पर पालने लगते हैं, जैसा कि भारत के पंजाब में बड़े पैमाने पर संगठित रूप से हो रहा है। पंजाब पाकिस्तान के रास्ते आने वाले नशे का ऐसा बुरा शिकार है कि वहां की पूरी की पूरी जवान पीढ़ी इसमें फंसकर रह गई है, और उड़ता पंजाब जैसी फिल्में बनाई जा रही हैं। जिस पंजाब को अपनी स्थानीय और विदेशों से आने वाली कमाई की वजह से देश का एक सबसे संपन्न राज्य होना था, वह राज्य नशे की गिरफ्त में आकर इस तरह खत्म हो रहा है कि वहां अधिकतर घरों में कोई न कोई नशे के शिकार दिख रहे हैं, और नशे की आदतों की वजह से वहां की आबादी का एक हिस्सा दूसरे कई किस्म की बीमारियों का भी शिकार होते चल रहा है।
हम इक्वाडोर और पंजाब से होते हुए छत्तीसगढ़ जैसे राज्य पर आना चाहते हैं, और जिस तरह इक्वाडोर को योरप और अमरीका का नशे के ट्रांसपोर्ट का दरवाजा बताया जाता है, कुछ उसी तरह छत्तीसगढ़ देश के काफी हिस्सों के लिए नशे का दरवाजा बन गया है। ओडिशा की सरहद से लगे हुए छत्तीसगढ़ के कम से कम एक जिले में तो तकरीबन हर दिन गांजे की तस्करी पकड़ाती है, करोड़ों का सोना पकड़ाता है, करोड़ों की नगदी के साथ-साथ, अभी कुछ दिन पहले ही करोड़ों के नकली नोट भी पकड़ाए हैं। यह राज्य अवैध कारोबार से बाजार में आई नशा देने वाली दवा की गोलियों और शीशियों का अड्डा भी बन गया है। इस प्रदेश में कम से कम एक पुलिस अफसर ऐसे हैं जिन्होंने अपनी तैनाती के हर जिले में नशे के खिलाफ पुलिस के सीमित साधनों में भी असीमित अभियान छेड़ा है, और कामयाबी पाई है। अभी राजधानी रायपुर में एसएसपी बनाए गए संतोष सिंह जिस जिले में रहे वहां उन्होंने नशे के कारोबार पर भी वार किया, और लोगों से नशा छुड़ाने की कोशिश भी की। एक किस्म से ऐसी कोशिश किसी अफसर के लिए नामुमकिन लग सकती है क्योंकि प्रदेश में शराब के नशे का कारोबार पूरे का पूरा सरकार ही करती है। लेकिन शराब के कम नुकसानदेह नशे के मुकाबले अवैध दवाईयों का नशा, और दूसरे किस्म के गैरकानूनी नशे अधिक खतरनाक हैं। इसलिए संतोष सिंह का यह अभियान सरकारी कारोबार से परे अवैध नशे के खिलाफ रहता है, और इसीलिए सरकार को भी इसमें कोई दिक्कत नहीं होती है।
दरअसल, नशे का बुरा असर जब तक समाज को ठीक से समझ में आता है तब तक समाज उसके शिकंजे में फंस चुका रहता है। शराब का सरकारी कारोबार तो सरकार की नजर में रहता है, हालांकि छत्तीसगढ़ में पिछली कांग्रेस सरकार के समय सत्ता के पसंदीदा मवालियों ने सरकार के साथ मिलकर जिस तरह से प्रदेश में हजारों करोड़ की अवैध शराब बनवाई थी, और सरकारी दुकानों से ही बेची थी, वह हिन्दुस्तान के इतिहास में बेमिसाल संगठित अपराध रहा। वैसी अघोषित बिक्री को अगर छोड़ दें, तो आमतौर पर शराब की खपत सरकार की नजर में रहती है। लेकिन दूसरे किस्म के गैरकानूनी नशे की जानकारी भी सरकार को नहीं हो पाती है, और उसके असर का अंदाज लगना भी नामुमकिन रहता है। प्रदेश सरकार को चाहिए कि जिस तरह एक अफसर अपने प्रभार के जिलों में लगातार ऐसा अभियान चलाता है, वैसा अभियान पूरे प्रदेश में चलाना चाहिए, और इससे छत्तीसगढ़ की अगली पीढ़ी नशे की गिरफ्त में आने से बचेगी। आज केन्द्र और राज्य सरकारों की बहुत सी योजनाओं की वजह से लोगों को बहुत अधिक मेहनत करने की जरूरत नहीं रह गई है, और नौजवानों में से कई ऐसे हैं जो मां-बाप की छाती पर मूंग दलते हुए बैठे रह सकते हैं। ऐसी पीढ़ी अगर नशे की गिरफ्त में आ जाती है, तो वह बाकी जिंदगी भी कुछ काम करने के लायक नहीं रह जाएगी। इसलिए हर प्रदेश की यह जिम्मेदारी है कि वह कानूनी नशे की खपत भी घटाए, और गैरकानूनी नशे पर कड़ाई से रोक लगाए।
ऐसा एक भी दिन नहीं गुजरता जब छत्तीसगढ़ से होकर गुजरती हुई गांजे की गाडिय़ां न पकड़ाती हों। दूसरे प्रदेशों में भी जहां ये गाडिय़ां जाती हैं, वहां भी इनको पकड़ा तो जा ही सकता है, और छत्तीसगढ़ में अगर ये रोज ओडिशा से आ रही हैं, तो वहां के ढीले इंतजाम की वजह से ही वे इस राज्य तक पहुंच पाती हैं। नशे के कारोबार के खिलाफ देश में कानून बहुत कड़े हैं, और केन्द्र सरकार की एजेंसियां भी नशे के खिलाफ कार्रवाई करती हैं। इसके बाद भी इतने मामले पकड़ाना बड़े खतरे का संकेत है कि यह कारोबार सरकार के काबू से परे का है, और कल्पना से अधिक बड़ा है। दुनिया के बहुत से देश नशे के कारोबार पर जिंदा हैं, अफगानिस्तान जैसे देश की तालिबान सरकार वहां अफीम की खेती को बढ़ाकर किसी तरह घरेलू काम चला रही है, क्योंकि उसके पास कमाई का और कोई जरिया नहीं रह गया है। जब किसी देश-प्रदेश के लोगों का धंधा ही नशे का धंधा हो जाए, तो फिर वह एक बड़ा संगठित अपराध बन जाता है। हर राज्य अपने कुछ सबसे काबिल अफसरों को इस मोर्चे पर तैनात करना चाहिए, क्योंकि इसकी वजह से प्रदेश का भविष्य भी बचता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट में सात जजों की एक संविधानपीठ ने इस बात पर विचार करना शुरू किया है कि क्या संपन्न पिछड़ी जातियों को आरक्षण के बाहर नहीं कर देना चाहिए? मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता वाली इस पीठ में शामिल एक जज, जस्टिस विक्रमनाथ ने सामने खड़े वकीलों से सवाल किया कि जब ओबीसी की कुछ उपजातियों की संपन्नता बढ़ी है, वे बेहतर स्थिति में आई हैं, तो उन्हें आरक्षण से बाहर क्यों नहीं आना चाहिए? उन्होंने कहा कि ये संपन्न उपजातियां बाहर आकर आरक्षण के भीतर उन उपजातियों के लिए अधिक जगह बना सकती हैं जो कि अधिक हाशिए पर हैं, या बेहद पिछड़ी हुई हैं। एक दूसरे जज जस्टिस बी.आर.गवई ने कहा कि जब कोई आईएएस या आईपीएस बन जाते हैं, तो उनके बच्चे गांव में उन्हीं के बिरादरी के दूसरे लोगों की तरह दिक्कत नहीं झेलते, लेकिन ऐसे अफसर के परिवार को भी पीढिय़ों तक आरक्षण का लाभ मिलते रहता है। इसके पहले सुप्रीम कोर्ट की ही एक पांच जजों की संविधानपीठ ने यह फैसला दिया था कि अनुसूचित जाति या जनजाति जैसे आरक्षित वर्ग एक जाति के हैं, और उन्हें उपजातियों में बांटना समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा। यह मामला ओबीसी के साथ-साथ अनुसूचित जाति और जनजाति के आरक्षित तबकों की स्थिति पर भी विचार कर रहा है, और यह बहस केन्द्र के वकील के साथ-साथ राज्यों के वकीलों के बीच भी चलेगी।
सात जजों की संविधानपीठ एक बहुत बड़ा मामला होता है, ऐसा बहुत कम मामलों में होता है, और हम इसकी सुनवाई की शुरूआत में ही जजों के रूख सहित केन्द्र और राज्यों के तर्कों पर अधिक टिप्पणी करना नहीं चाहते, लेकिन इस मामले में हम बरसों से अपनी लिखी जा रही कुछ बातों को फिर से याद दिलाना जरूर चाहते हैं जो कि सामाजिक न्याय की नीयत से की गई आरक्षण की व्यवस्था में सुधार के लिए बहुत जरूरी हैं। आज देश में ओबीसी तबके के आरक्षण में क्रीमीलेयर लागू है जिसके तहत एक सीमा से अधिक कमाई या सामाजिक स्थिति वाले ओबीसी परिवार इस आरक्षण के लाभ से बाहर हो जाते हैं। लेकिन अनुसूचित जाति-जनजाति तबकों को इस क्रीमीलेयर से मुक्त रखा गया है, तर्क यह है कि ये तबके आर्थिक हैसियत से परे छुआछूत जैसी जाति व्यवस्था के भी शिकार हैं, और उसकी भरपाई संपन्न एसटी-एससी हो जाने से भी नहीं हो पाती।
हम इसी बात के खिलाफ लगातार लिखते आए हैं कि एसटी-एससी तबकों में भी जो पीढ़ी आरक्षण का एक सीमा से ऊपर का फायदा पा चुकी है, उसकी अगली पीढ़ी को आरक्षण से बाहर कर देना चाहिए क्योंकि ताकत की जगह पर पहुंच चुके लोग अपनी संपन्नता से अपने बच्चों को अनारक्षित वर्ग के मुकाबले तैयार करने की हालत में रहते हैं। लेकिन भारत में सरकारें इसके खिलाफ रही हैं, और 2019 में केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह अपील दाखिल की थी कि एसटी-एससी तबकों पर क्रीमीलेयर लागू नहीं करनी चाहिए। यह मामला इन तबकों को मिलने वाले बुनियादी आरक्षण को लेकर नहीं था बल्कि पदोन्नति के मामलों में अदालत का यह कहना था कि पदोन्नति के समय एसटी-एससी के भीतर भी क्रीमीलेयर का ध्यान रखा जाना चाहिए। इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट के इतने किस्म के फैसले हैं कि हम पूरी जटिलता में यहां जाना नहीं चाहते, लेकिन अभी चूंकि यह मामला फिर से उठा है, और सात जजों की संविधानपीठ इस पर सुनवाई कर रही है, इसलिए इस पर हमारे तर्क रखना जरूरी है।
हमारा ख्याल है कि क्रीमीलेयर के मामले में एसटी-एससी पर भी ओबीसी की तरह की शर्तें लागू होनी चाहिए, और एक सीमा से अधिक की संपन्नता, या सामाजिक ताकत की स्थिति को पैमाना बनाना चाहिए, ताकि आरक्षित वर्ग के भीतर एक शोषक वर्ग तैयार न हो सके। जब ताकतवर ओहदों तक पहुंचे हुए, और एक सीमा से अधिक संपन्न हो चुके आरक्षित लोगों की अगली पीढ़ी भी आरक्षण की पात्र मानी जाती है, तो यह बात साफ रहती है कि उस आरक्षित वर्ग के कमजोर लोग कभी भी इस मलाईदार तबके का मुकाबला नहीं कर सकते, और वे समान अवसर से उसी तरह वंचित रहते जाएंगे जिस तरह आरक्षित वर्ग अनारक्षित वर्गों के मुकाबले रहते थे, और जिस वजह से देश में आरक्षण की जरूरत आई थी। देश के दिग्गज वकील अभी सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग राज्य और केन्द्र सरकार की तरफ से इस पर बहस करेंगे, और हो सकता है कि कुछ दूसरे तबकों की तरफ से भी वकील इसमें खड़े हों, लेकिन हम कानूनी बारीकियों में गए बिना इस मोटी बुनियादी समझ की बात करना चाहते हैं कि किसी भी परिवार को आरक्षण के लाभ की एक सीमा होनी चाहिए। इस सीमा तक फायदा उठा लेने के बाद लोगों को अपने बच्चों को अनारक्षित वर्ग के साथ मुकाबले के लिए तैयार करना चाहिए, और आरक्षण का फायदा उन्हीं तबकों के अधिक कमजोर लोगों के लिए छोडऩा चाहिए। सुप्रीम कोर्ट में दो जजों ने कल ठीक यही मुद्दा उठाया है, और हम बरसों से यही मांग करते आ रहे हैं।
हिन्दुस्तान में दिक्कत यह है कि आरक्षित वर्गों से आरक्षण का फायदा पाकर संसद, विधानसभा, देश की नौकरशाही, और तमाम किस्म की दूसरी ताकत की जगहों पर जो लोग पहुंचे हैं, अगर क्रीमीलेयर उन पर लागू हो, तो सबसे पहले उन्हीं के बच्चे आरक्षण के फायदों से बाहर हो जाएंगे। यही वजह है कि जहां-जहां मुमकिन है, वहां-वहां आरक्षित तबकों से सत्ता पर पहुंचे लोग क्रीमीलेयर के खिलाफ काम करते हैं, और इसीलिए एसटी-एससी तबकों पर क्रीमीलेयर लागू ही नहीं हो सकी क्योंकि तमाम सांसद, विधायक, जज, बड़े अफसर, अपने ओहदों और अपनी तनख्वाह की वजह से अपने बच्चों के लिए आरक्षण का फायदा खो बैठेंगे, और यह एक वर्गहित की बात आ जाएगी जिसमें आरक्षित वर्ग के भीतर सामाजिक न्याय करने का मतलब फैसला करने वालों के लिए आत्मघाती हो जाएगा। यही वजह है कि देश में बार-बार आरक्षण का फायदा पाने वाले लोगों को भी उससे हटाया नहीं जा सक रहा है। और तो और अखबारों और बाकी मीडिया की ताकतवर कुर्सियों पर बैठे हुए लोग भी अपनी तनख्वाह की वजह से क्रीमीलेयर में भी ऊपर रहेंगे, और वे भी नहीं चाहते कि उनके बच्चे आरक्षण के फायदे से बाहर हो जाएं। हमारा मानना है कि सुप्रीम कोर्ट को सामाजिक न्याय को एक व्यापक परिदृश्य में देखना चाहिए, और संविधान की अलग-अलग धाराओं की बारीकियों में उलझने के बजाय इस बुनियादी जरूरत को पूरा करना चाहिए कि किसी आरक्षित वर्ग के भीतर ऊपर के पांच-दस फीसदी लोग ही पीढ़ी-दर-पीढ़ी फायदा न पाएं, बल्कि एक पीढ़ी फायदा पाने, और एक सीमा से ऊपर पहुंच जाने के बाद उन्हें आरक्षण के फायदों से बाहर कर दिया जाना चाहिए। किसी भी तरह के अवसर किसी तबके की आबादी के मुकाबले बहुत ही कम रहते हैं, और इन तबकों के हित में है कि अधिक से अधिक लोगों तक ये अवसर पहुंचाए जाएं, और इसके लिए जरूरी है कि आरक्षित तबके पर से क्रीमीलेयर को हटाया जाए। हम इस तर्क को बिल्कुल बोगस मानते हैं कि एसटी-एससी तबके चूंकि सामाजिक भेदभाव के शिकार हैं, इसलिए इन तबकों के आरक्षण पर न तो क्रीमीलेयर लागू होनी चाहिए, और न ही इनके पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने पर रोक लगनी चाहिए। आरक्षण का फायदा पाई हुई पीढ़ी हटने के बाद ही दूसरे लोग मौका पा सकते हैं, और सामाजिक भेदभाव की बात तो इन दोनों पर एक बराबर लागू होती है, कमजोर एसटी-एससी सामाजिक भेदभाव से उबरे हुए तो नहीं हैं। देखना है सुप्रीम कोर्ट का कैसा फैसला आता है, यह फैसला सरकारी नौकरियों में अवसरों से परे भी देश के सामाजिक न्याय के लिए बड़ा ऐतिहासिक होगा।
उत्तराखंड विधानसभा इस वक्त राज्य का अपना यूनिफॉर्म सिविल कोड पास करने जा रही है। यह देश में आजादी के बाद किसी राज्य का पहला ही यूनिफॉर्म सिविल कोड होगा। आजादी के बहुत पहले गोवा पर काबिज पुर्तगालियों ने 1867 में वहां यूसीसी लागू किया था जो कि अभी तक चल रहा था। लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव के पहले उत्तराखंड में भाजपा ने इस बात को लेकर वायदा किया था, और इसके बाद बनी कमेटी ने 20 महीने काम करके 740 पेज का एक मसौदा तैयार किया है जो कि उत्तराखंड में लडक़े और लडक़ी के बीच विरासत में फर्क खत्म करता है, वैध और अवैध कही जाने वाली संतानों के बीच हक का फर्क खत्म करता है, जो तलाक के मामले में महिला को मौजूदा मुस्लिम विवाह कानून के कई तरह के प्रतिबंधों से मुक्त करता है। उत्तराखंड के इस प्रस्तावित विधेयक में सभी धर्मों की लड़कियों के विवाह की उम्र एक समान रखी गई है, इससे कुछ समुदायों में होने वाले बाल विवाह खत्म होंगे, और मुस्लिम धर्म में किशोरावस्था पहुंचते ही नाबालिग लडक़ी की शादी की छूट भी खत्म होगी। इसमें एक से अधिक जीवन-साथी बनाने पर भी रोक लगाई गई है, और साथ रहने वाले अविवाहित जोड़ों, लिव-इन-रिलेशनशिप, की घोषणा करना जरूरी किया गया है, जिसका रजिस्ट्रेशन भी होगा। फिलहाल हम उसके प्रावधानों पर चर्चा कर रहे हैं क्योंकि ऐसा माना जा रहा है कि उत्तराखंड में पास होते ही यह विधेयक भाजपा शासन के दो और राज्यों, गुजरात और असम जाएगा, और वहां की सरकारें भी तकरीबन इसी किस्म का विधेयक बनाकर अपनी विधानसभाओं में रखेंगी। अभी की खबरें बताती हैं कि उत्तराखंड की करीब तीन फीसदी आदिवासी आबादी पर यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू नहीं किया जाएगा।
फिलहाल हम यह भी मानकर चल रहे हैं कि इस विधेयक के पास हो जाने के बाद राज्यपाल से अनुमति की जो औपचारिकता है वह भी तुरंत पूरी हो जाएगी, और यह विधेयक राज्य में एक कानून बन जाएगा, लेकिन मुस्लिम विवाह कानून जैसे कुछ राष्ट्रीय स्तर के कानून हैं, और हो सकता है कि उनके प्रावधानों में उत्तराखंड के इस यूसीसी में छेडख़ानी के खिलाफ लोग सुप्रीम कोर्ट जाएं, और वहां पर फैसला कुछ अलग हो। ऐसे विवाह कानून से परे भी एक दूसरी बात जो हमें अटपटी लगती है वह लिव-इन-रिलेशनशिप वाले जोड़ों का अनिवार्य रजिस्ट्रेशन करना है, जो कि दोनों साथियों के परिवारों में बखेड़े की एक बड़ी वजह रहेगी, और विधेयक का यह प्रावधान हमारी समझ से परे है कि प्रशासन ऐसे आवेदनों की जानकारी दोनों जोड़ीदारों के परिवारों को देगा। अगर दोनों साथी बालिग नहीं हैं, तो वे वैसे भी साथ नहीं रह सकते, और अगर वे बालिग हैं तो उनके परिवारों को इसकी सूचना देना बालिगों की निजता का हनन होगा, और हमारा ख्याल है कि यह प्रावधान अदालत की कसौटी पर खड़ा नहीं रह पाएगा। दूसरी तरफ उत्तराखंड में विपक्ष की इस बात की गंभीरता को भी समझने की जरूरत है कि अब तक 740 पेज के इस मसौदे को सार्वजनिक नहीं किया गया है, विपक्ष के पास इसकी कॉपी भी नहीं है, और भाजपा सरकार इसे विधानसभा से आनन-फानन पास करवाना चाहती है। यह सिलसिला बहुत ही अलोकतांत्रिक है क्योंकि जन्म, मृत्यु, विरासत, विवाह, और बच्चों को गोद लेने जैसे बुनियादी और महत्वपूर्ण मुद्दों को लेकर जब इतने बड़े फेरबदल होने वाले हैं, तो उन पर ठंडे दिल से लंबी चर्चा होनी चाहिए, ताकि इससे जुड़े हुए तमाम नजरिए विधानसभा की कार्रवाई में दर्ज हो सकें, और कल के दिन सुप्रीम कोर्ट के किसी फैसले के आने पर यह बात साफ रहे कि किस पार्टी या नेता ने इस पर क्या कहा था। सदनों में सत्ता के बहुमत से बिना चर्चा के भी ध्वनिमत से नया कानून बना देना एक फैशन सा हो गया है, लेकिन यह न सिर्फ लोकतांत्रिक परंपराओं के खिलाफ हैं, बल्कि यह अलोकतांत्रिक भी है। लोकतंत्र महज सत्ता बल का नाम नहीं होता है, लोकतंत्र सभी विचारों के बीच विचार-विमर्श और बहस का मंच होता है, और देश की संसद या राज्यों की विधानसभाओं को ऐसा ही रहने भी देना चाहिए।
एक बार फिर हम इस प्रस्तावित विधेयक के कुछ प्रावधानों पर लौटें जो कि खबरों में आए हैं, और हम यह नहीं कहते कि इनके बारीक खुलासे में कुछ दबी-छुपी बातें नहीं होंगी। लेकिन चूंकि आज पूरे देश में यूनिफॉर्म सिविल कोड की चर्चा छिड़ते रहती है, और कई राज्य इसकी तरफ बढ़ रहे हैं, इसलिए हम उत्तराखंड के इस विधेयक के प्रावधानों को मुद्दे मानकर उन पर चर्चा कर रहे हैं। यूनिफॉर्म सिविल कोड के भाजपा के बहुत पुराने चुनावी एजेंडे का हमला मोटेतौर पर मुस्लिम समुदाय पर माना जाता है, और इसका एक हिस्सा देशभर में तीन-तलाक पर लगी रोक की शक्ल में मोदी सरकार कानून बनाकर लागू भी कर चुकी है। देश भर में हजारों मामले इस कानून के आने के बाद उन मुस्लिम मर्दों के खिलाफ दर्ज हुए हैं जिन्होंने अपने बीवियों को एक साथ तीन बार तलाक कहकर उन्हें छोड़ दिया था। हमारा ऐसा मानना है कि यह कानून, और समान नागरिक संहिता के मुस्लिमों से संबंधित कई प्रावधान पहली नजर में मुस्लिमों के खिलाफ लग सकते हैं, लेकिन जब हम मुस्लिम समाज में महिलाओं के बारे में सोचेंगे, तो ये प्रावधान मुस्लिम महिला के हक के दिखते हैं। ट्रिपल तलाक का कानून बनते ही हमने उसकी तारीफ की थी कि इससे मुस्लिम मर्द की मनमानी खत्म होती है, और मुस्लिम महिला को न्यूनतम मानव अधिकार मिलते हैं। इस समान नागरिक संहिता से भी नाबालिग मुस्लिम लड़कियों की शादी गैरकानूनी हो जाएगी, जो कि एक सही फैसला होगा। इसके अलावा तलाक की प्रक्रिया के दौरान सिर्फ मुस्लिम महिला पर लादी गई कई किस्म की शर्तें भी इससे खत्म हो जाएंगी, वह भी औरत और मर्द की बराबरी का एक इंसाफ होगा। जहां तक बहुविवाह पर रोक की बात है, तो यह मुस्लिमों से परे हिन्दुओं और दूसरे धर्मों में भी प्रचलित है, और इस पर पूरी रोक भी मोटेतौर पर भारतीय महिला की बदहाली को कम करेगी जो कि आमतौर पर बहुविवाह का शिकार होती है। इसके प्रावधानों में लडक़े और लडक़ी, औरत और मर्द इन सबका संपत्ति में बराबरी का हक रखना, वैध, और कथित अवैध संतान का बराबरी का हक रखना भी एक सही फैसला है, जो कि एक किस्म से सुप्रीम कोर्ट अलग-अलग फैसलों में लागू कर ही चुका है। सभी के लिए शादी का रजिस्ट्रेशन कराना जरूरी किया जा रहा है, जो कि वैसे भी पूरे देश में लागू है, और किसी भी सरकारी कामकाज में ऐसे रजिस्ट्रेशन की अनिवार्यता सामने आती ही रहती है, इसे उत्तराखंड ने अपने यूनिफॉर्म सिविल कोड में जोडक़र शायद उन समुदायों पर दबाव बनाया है जो परंपरागत रूप से सरकारी विवाह-पंजीकरण नहीं करवाते हैं, इस प्रावधान में भी कोई खामी नहीं है।
देश में कई राजनीतिक दल मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक रिवाजों का सम्मान करने के लिए उन तमाम प्रथाओं का सम्मान करते आए हैं, जो कि उनके भीतर महिलाओं के साथ बहुत बुरी बेइंसाफी करते थे। किसी समुदाय के हक बचाने के नाम पर उसके भीतर के बेइंसाफ को पूरी तरह से औरत पर ही लाद दिया जाता है। ऐसे में ट्रिपल तलाक का कानून, या कि बालिग होने के पहले किसी भी धर्म की लडक़ी की शादी पर रोक, तलाक के मामले में महिला के साथ धार्मिक रिवाजों के नाम पर भेदभाव को खत्म करना कुछ लोगों को उस धर्म पर हमला लग सकता है, लेकिन उन धर्मों के भीतर की महिलाओं के नजरिए से देखें तो शायद पहली बार ऐसी महिलाओं को बराबरी के इंसान होने का दर्जा मिल रहा है।
अभी हमारी यह टिप्पणी किसी भी तरह से उत्तराखंड के इस प्रस्तावित कानून पर एक समग्र बात नहीं है, क्योंकि अभी इसके पूरे पहलू ही सामने नहीं हैं, लेकिन हम अब तक खबरों में आए पहलुओं पर चर्चा इसलिए कर रहे हैं कि इन पर देश के तमाम सार्वजनिक मंचों पर चर्चा होनी चाहिए क्योंकि एक-एक करके कई भाजपा-राज्यों में यह स्थिति आएगी, इसलिए इससे सहमत और असहमत लोग अपने तर्कों और अपनी सोच के साथ तैयार रहें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार ने विधानसभा चुनाव में पार्टी घोषणापत्र की सबसे लोकप्रिय साबित हुई महतारी वंदन योजना का खुलासा किया है, और जल्द ही प्रदेश की महिलाओं को इसका फायदा मिलने लगेगा। विधानसभा चुनाव में जब भाजपा ने हर विवाहित महिला को एक हजार रुपये महीने देने का वायदा किया था, तो कुछ तो इसका खुद का असर हुआ, और कुछ भाजपा संगठन ने तेजी से इसके फॉर्म भरवाने शुरू कर दिए थे। वोटरों पर इसका असर देखकर कांग्रेस के तकरीबन हर उम्मीदवार ने और हर बड़े नेता ने तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से लेकर राहुल गांधी तक यह बात पहुंचाई थी कि भाजपा की इस घोषणा का कोई काट नहीं है, और इसका मुकाबला किए बिना चुनाव जीतना नामुमकिन होगा। लेकिन कई रहस्यमय वजहों से कांगे्रस ने प्रचार का लंबा वक्त खो दिया, और जब इससे सवाए भुगतान की घोषणा कांग्रेस ने की, तो वह दीवाली और बाकी त्यौहारों के बीच खो गई, और भाजपा की जीत के पीछे छत्तीसगढ़ महतारी का सबसे बड़ा हाथ माना जा रहा है। अब पिछले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने यह सवाल खड़ा किया है कि हर विवाहित महिला को महतारी योजना का फायदा देने के वायदे के बाद अब राज्य सरकार इसे लागू करते हुए आयकर दाता परिवारों और शासकीय कर्मचारियों को इससे बाहर कर रही है, जो कि वायदाखिलाफी है। भूपेश बघेल ने चुनाव प्रचार के दौरान कुछ नेताओं के बयान भी गिनाए हैं जिनमें हर वर्ग की हर महिला की बात कही गई थी।
आज देश में जनता के पैसों से जनता के कुछ चुनिंदा तबकों को रियायत या फायदा देने की बात खूब चर्चा में है, और सुप्रीम कोर्ट तक यह मामला पहुंचा हुआ है कि रेवड़ी या तोहफा भी कहे जाने वाली ऐसी रियायतों पर क्या सीमा लगाई जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिक दलों, चुनाव आयोग, और सरकारों से भी राय मांगी है। देश के अपेक्षाकृत संपन्न तबके का मानना है कि उससे लिए गए टैक्स से गरीब जनता को अनुपातहीन अधिक मदद की जाती है। ऐसे में अदालत से जो भी फैसला हो, राजनीतिक दलों में कोई सहमति बने या न बने, यह सवाल तो उठता ही है कि जनता के खजाने से किस तबके को कितनी रियायत दी जाए।
देश में जब रसोई गैस पर सब्सिडी थी, उस वक्त भी हमारा यह मानना था कि आयकरदाता, और अधिक कमाई वाले दूसरे तबकों को इसका फायदा नहीं मिलना चाहिए। इसी तरह जब किसान कर्जमाफी का काम पिछली भूपेश सरकार ने किया था, तब भी हमने लिखा था कि यह कर्जमाफी सिर्फ जरूरतमंद किसानों को मिलनी चाहिए, और संपन्न बड़े किसानों को इस छूट से बाहर रखना चाहिए। आज महतारी योजना के बारे में भी हमारा यही कहना है कि गरीब महिलाओं तक तो इसका फायदा ठीक है, जो संपन्न तबका है, उसे हजार रुपये महीने पर अपनी नीयत क्यों खराब करनी चाहिए? राज्य सरकार ने जो सीमा तय की है, वह इस हिसाब से भी ठीक है कि आज अगर किसी महिला को वृद्धावस्था, या विकलांगता जैसी कोई भी सामाजिक पेंशन मिल रही है, तो उसे ऐसी पेंशन की रकम काटकर ही महतारी वंदन का एक हजार रुपया महीना दिया जाएगा। जब एकदम ही गरीब, समाज की सबसे ही कमजोर तबके की, सामाजिक पेंशन पर जिंदा महिलाओं के साथ भी ऐसी कटौती हो रही है, तो भाजपा को उसके चुनावी नारे का ताना देना ठीक नहीं है। चुनाव प्रचार में कई तरह की बातें की जाती हैं, लेकिन जब खुलासे से उसकी योजना बनती है, तो वह जनता के खजाने के साथ इंसाफ वाली होनी चाहिए। महतारी वंदन योजना के लिए तय की गई सीमा ठीक है, जिन महिलाओं के जीवन में हजार रुपये महीने से फर्क नहीं पड़ेगा, उन्हें यह मिलना भी नहीं चाहिए। और यही नहीं, इसी राज्य की नहीं, भाजपा जैसे लोकतंत्र की राशन की योजना, इलाज की योजना, इन सबके साथ ऐसी शर्त जुडऩी चाहिए कि जिन तबकों को रियायत की जरूरत नहीं है, उन्हें यह न मिले। सिर्फ एक नारे की तरह कोई रियायत ऐसी लागू न हो जिसमें करोड़पति लोगों का भी इलाज का कार्ड बन जाए।
चुनावी वायदों की बात अगर करें, तो हमने पूरे चुनाव प्रचार के दौरान इस बात को बार-बार उठाया कि कांग्रेस पार्टी ने 2018 के विधानसभा चुनाव के घोषणापत्र में प्रदेश की महिलाओं से जो सबसे बड़ा वायदा किया था, उस शराबबंदी के वायदे को सरकार ने छुआ भी नहीं, शराबबंदी की उसकी नीयत भी नहीं थी, और अगर ईडी की बात को सही माने तो पांच बरस कांग्रेस सरकार ने अवैध शराब का इतना बड़ा कारोबार किया कि उसमें हजारों करोड़ की कमाई सत्ता से जुड़े लोगों ने खुद कर ली। ऐसा माना जाता है कि कांग्रेस के 2018 के चुनाव घोषणापत्र में शराबबंदी का वायदा ऐसा था जिसने महिला मतदाताओं को प्रभावित किया था। और लॉकडाऊन जैसा एक लंबा दौर बिना शराब के जी लेने वाली जनता को देखकर भी कांग्रेस सरकार ने शराबबंदी नहीं की थी। इसलिए चुनावी वायदों को एक सीमा से अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता, और मुख्यमंत्री विष्णु देव साय की सरकार ने प्रदेश की अधिकतर विवाहित महिलाओं के लिए महतारी वंदन योजना लागू कर दी है, जो कि चुनावी वायदे पर तेज रफ्तार अमल है। हम देश की सभी सरकारों से यह सिफारिश करेंगे कि रियायतों की तमाम योजनाओं में बारीकी से ऐसे फिल्टर लगाने चाहिए कि सिर्फ जरूरतमंद तबके तक फायदा पहुंचे। सरकार को एक ऐसी कमेटी बनानी चाहिए जो कि अपात्र संपन्न लोगों को फायदे से बाहर करने के तरीके ढूंढे, इसके बिना जनता के पैसों से बना हुआ, सरकारी खजाना कहे जाने वाला पैसा बर्बाद होते रहेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पुणे विश्वविद्यालय में बैठे-ठाले एक बखेड़ा खड़ा हो गया है। वहां पर रामलीला पर आधारित एक नाटक के मंचन के दौरान जब कुछ हिन्दू छात्रों ने यह पाया कि सीता की भूमिका कर रहा एक नौजवान सीता बने हुए सिगरेट पी रहा है, और गंदी जुबान बोल रहा है, तो उन्होंने आपत्ति की। उनकी लिखाई रिपोर्ट पर 5 छात्रों सहित विश्वविद्यालय के एक विभागाध्यक्ष को भी गिरफ्तार किया गया। धार्मिक भावनाएं आहत करने के इस मामले में इन्हें जमानत भी मिल गई, लेकिन विश्वविद्यालय में इससे एक गैरजरूरी तनाव उठ खड़ा हुआ है। राम और सीता के किरदार वाले इस नाटक, जब वी मेट, में कथानक ही यही था कि रामलीला करने वाले अभिनेता-अभिनेत्री जब मंच के पीछे रहते हैं, तो वे किस तरह बातें करते हैं। ऐसी ही अनौपचारिक बातचीत पर आधारित इस नाटक ने हिन्दू संगठनों के छात्र नेताओं को नाराज किया। इस मंचन को रोकने वाले छात्रों के साथ स्टेज कलाकारों का कुछ झगड़ा भी हुआ। यह नाटक रामलीला की पोशाक में राम-सीता, लक्ष्मण और रावण बने हुए कलाकारों की पर्दे के पीछे चल रही अनौपचारिक बातचीत को ही स्टेज पर नाटक की तरह दिखाने का काम था। लेकिन जब ऐसी अनौपचारिक बातचीत को मंच पर औपचारिक नाटक की तरह पेश किया गया तो दर्शकों में से भी लोग भडक़कर उठे, और स्टेज पर आकर झगड़ा करने लगे। विश्वविद्यालय का कहना है कि उसे अभी यही साफ नहीं है कि यह औपचारिक मंचन था, या रिहर्सल चल रहा था।
हिन्दुस्तान में धार्मिक मुद्दों को लेकर कई तरह के विवाद होते ही रहते हैं। लोगों की धार्मिक भावनाएं, और लोकतंत्र की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता साथ-साथ नहीं चलती हैं। यह बात सिर्फ हिन्दू भावनाओं को लेकर नहीं है, कई अलग-अलग धर्मों के लोग अपने धर्म से जुड़े प्रतीकों, रिवाजों, और मुद्दों को लेकर तेजी से भडक़ जाते हैं। कुछ दशक पहले तक इस तरह के बहुत से मजाक फिल्मों में दिखाए जाते थे, कुछ फिल्मों में शंकर बना हुआ कोई अभिनेता कहीं पेशाब घर से निकलते दिखता था, तो कहीं दौड़-भाग करते हुए। रामायण और महाभारत के किरदारों को लेकर सैकड़ों किस्म के मजाक चलते थे, और इन पर कोई बखेड़ा नहीं होता था। लेकिन आज हालात बिल्कुल अलग हैं, अब लोगों की धार्मिक भावनाएं मन के भीतर नहीं है, उनकी चमड़ी के ऊपर बसी हुई हैं, और जरा सी हवा की सरसराहट होते ही वे भडक़ने लगती हैं, हवा से भडक़ने वाली आग की लपटों की तरह। लोगों को याद होगा कि जब विश्वविख्यात लेखक सलमान रुश्दी ने सेटेनिक वर्सेज नाम की एक विवादास्पद किताब लिखी थी, तो दुनिया के मुस्लिम और इस्लामिक देशों से भी पहले भारत ने उस किताब पर प्रतिबंध लगा दिया था। हर देश की अपनी संवेदनाएं होती हैं, सहनशीलता के अलग-अलग पैमाने होते हैं, और धार्मिक मान्यताएं भी समय के साथ-साथ कम या अधिक नाजुक होती रहती हैं। ऐसे में सरकार को अपने देश-प्रदेश में अधिक तनाव होने के पहले ही चीजों पर रोक-टोक लगानी पड़ती है। बहुत किस्म के साम्प्रदायिक तनाव ऐसे रहते हैं जिनको बढऩे के पहले ही रोका जा सकता है। एक बार साम्प्रदायिक तनाव या धार्मिक उन्माद फैल गया तो उसके बाद फिर काबू करना बड़ा मुश्किल रहता है। और अभी पुणे के इस मामले में तो एक बात यह अच्छी है कि इसमें महज धार्मिक भावनाएं आहत होने की शिकायत है, और सभी लोग एक ही धर्म के हैं, अगर इनमें कोई गैरहिन्दू होते तो यह बवाल अधिक बड़ा हो गया रहता।
भारत में बहुसंख्यक हिन्दू धर्म के भी अनगिनत सम्प्रदाय हैं, और हर सम्प्रदाय की प्रचलित कहानियां भी कई-कई किस्म की हैं। हिन्दुओं के बीच भी कहीं रामचरित मानस को लेकर, तो कहीं किसी और कहानी को लेकर मतभेद चलते रहते हैं। तुलसीदास और उनके रामचरितमानस को लेकर कितने ही तरह के विवाद बिहार से लेकर तमिलनाडु तक चलते रहते हैं, और हिन्दू धर्म से जुड़ी हुई जिस सनातनी संस्कृति, या उसकी मान्यताओं को आज सबसे ऊपर मान लिया गया है, वे भी हिन्दुओं के बीच एक तबके की मान्यताएं हैं, और हिन्दुओं के बहुत से दूसरे तबके उनसे सहमत नहीं हैं। ऐसे में कोई भी एक तबका अगर राम-सीता जैसे किरदार को लेकर कोई प्रयोग करता है, तो उसे ऐसे खतरे झेलने के लिए तो तैयार रहना ही पड़ेगा। लोगों को याद होगा कि एक वक्त देश के एक सबसे बड़े कलाकार मकबूल फिदा हुसैन ने हिन्दू देवियों की जो तस्वीरें बनाई थीं, उनके खिलाफ इतने मुकदमे दायर हुए थे कि वे अपने आखिरी के कई बरस देश के बाहर रहने को, और वहीं मरने को मजबूर हो गए थे।
हमारा ख्याल है कि हिन्दुस्तान में आज धार्मिक भावनाएं बारूद के ढेर पर बैठी हुई हैं, और ऐसे में समझदारी तो यही है कि अभिव्यक्ति की किसी स्वतंत्रता के तहत धार्मिक मुद्दों को न छुआ जाए। धर्म को लेकर एक गंभीर और ईमानदार लेखन भी आज भारी पडऩे लगा है, ऐसे में धर्म से मसखरे अंदाज में कोई प्रयोग करना एक बहुत ही अनावश्यक तनाव खड़ा करेगा, जिसके लिए मसखरों को देश के अलग-अलग कई प्रदेशों में मुकदमे झेलने पड़ सकते हैं, और उसके बाद किसी बड़ी अदालत से जमानत पाकर चुपचाप घर बैठना पड़ सकता है। आज कला की आजादी का दावा करने का वक्त नहीं है। आज धर्म पर किसी गंभीर व्याख्या और विश्लेषण का भी वक्त नहीं है, और खतरा झेलकर ही वैसा किया जा सकता है। अदालतों का रूख भी धार्मिक भावनाओं का हिमायती दिख रहा है। ऐसे में हर किसी को अपनी खाल बचाकर चलना चाहिए। दस-बीस बरस पहले तक जितने हास्य और व्यंग्य धार्मिक किरदारों को लेकर खप जाते थे, अब उसका वक्त नहीं रह गया है। और ऐसा करने पर कट्टर धर्मान्धता को तो स्टेज पर पहुंचने का मौका मिलता ही है, ऐसी धार्मिक एकजुटता साम्प्रदायिक होने का खतरा भी खड़ा करती है। इसलिए अभिव्यक्ति की ऐसी किसी स्वतंत्रता को बढ़ाने की कोशिश नहीं करना चाहिए जिसे लोग कट्टरता बढ़ाने के लिए इस्तेमाल कर सकें। धर्म के नाम पर बोलने, लिखने, और कलात्मक आजादी लेने वाले लोग किसी मासूमियत का दावा नहीं कर सकते क्योंकि देश में आज हवा का रूख दिखाने वाला कपड़ा सारे वक्त फडफ़ड़ाते रहता है, सबको मालूम है कि कौन सी बातों को लेकर एक गैरजरूरी उपद्रव हो सकता है, इसलिए अपनी कलात्मक रचनात्मकता को दूसरे विषयों पर खर्च करना चाहिए।
योगी आदित्यनाथ के उत्तरप्रदेश में अभी बजरंग दल (एक दूसरे समाचार में इसे विश्व हिन्दू परिषद बताया गया है) के कुछ कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया जो अपने इलाके के पुलिस थाना प्रभारी को हटवाने के लिए इलाके में तनाव खड़ा करके माहौल बनाना चाह रहे थे। यहां तक तो मामला ठीक था, लेकिन इसके लिए बजरंग दल के मुरादाबाद जिला प्रमुख और इस संगठन के कुछ और पदाधिकारियों ने एक गाय कटवाई, और उसके बदन के हिस्से इस थाने के इलाके में जगह-जगह रखवाए ताकि तनाव खड़ा हो, और थाना प्रभारी को हटाया जाए। इसके साथ-साथ इन लोगों ने एक ऐसे मुस्लिम का नाम बताकर उसे गिरफ्तार करने की मांग की जिसका इस मामले से कुछ लेना-देना नहीं था, और बजरंग दल के लोगों ने अपने साथ जिस मुस्लिम को रखा हुआ था, उसने पुलिस को बयान और सुबूत सब दे दिए। इस खबर की संवेदनशीलता को देखते हुए इसके नामों पर गौर करने की जरूरत है। साम्प्रदायिकता के मामले में अत्यंत संवेदनशील यूपी के मुरादाबाद जिले में बजरंग दल और वीएचपी से जुड़े हुए सुमीत बिश्नोई ने स्थानीय थानेदार पर दबाव बनाने के लिए यह साजिश रची थी क्योंकि बिश्नोई बहुत से गैरकानूनी काम करता था, और पुलिस उसमें कभी-कभी आड़े आती थी। उसने दूसरे दो हिन्दू दोस्तों के साथ मिलकर एक मुस्लिम के साथ यह साजिश रची, एक गाय काटकर फेंकी गई, और इलाके के थानेदार को हटाने के लिए एक अभियान छेड़ा गया ताकि जुर्म में बाधा बनने वाले पुलिस अफसर राह से हटा दिए जाएं। इसके बाद साजिश में शामिल मुस्लिम नौजवान, शाहबुद्दीन ने अपने एक निजी रंजिश वाले महमूद नाम के आदमी का नाम, उसकी फोटो ऐसी अगली गाय की लाश के साथ प्लांट कर दी ताकि गोहत्या में वह फंस जाए। सुमीत बिश्नोई थानेदार को हटाने और इस महमूद को गिरफ्तार करने की मांग करते हुए प्रदर्शनों में भी शामिल रहा। एक गाय की लाश कांवर पथ पर डाली गई जो कि धार्मिक यात्राओं वाला रास्ता है। अब वहां के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक हेमराज मीणा ने इस पूरी साजिश का भांडाफोड़ करते हुए बताया कि इसी थाने के एक सबइंस्पेक्टर नरेन्द्र कुमार को इन अभियुक्तों के साथ मिलीभगत के लिए निलंबित किया गया है। चूंकि यूपी में योगीराज है, और इस मामले की जांच करने वाले सारे अफसर हिन्दू हैं, इसलिए कोई यह आरोप भी नहीं लगा सकते कि किसी दूसरे धर्म के लोगों ने हिन्दू संगठनों के लोगों को फंसा दिया है।
देश में और भी कुछ जगहों पर ऐसा हुआ है कि किसी मुस्लिम या गैरहिन्दू को फंसाने के लिए कुछ हिन्दुओं ने ही गाय कटवाई, और दूसरों के नाम उलझाए। यह मामला खतरनाक इसलिए है कि हिन्दुस्तान आज हिन्दू-गैरहिन्दू धर्मों के बीच बहुत बुरी तरह बंटा हुआ है, और लोगों की साम्प्रदायिक भावनाओं की लपटें आसमान छू रही हैं। ऐसे में जहां कहीं किसी तरह का साम्प्रदायिक तनाव खड़ा करने की साजिश होती है, वहां पर हमारे हिसाब से अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम लागू करना चाहिए क्योंकि देश में आज साम्प्रदायिक तनाव खड़ा करने की साजिश राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरे से कम नहीं है। यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ का हिन्दूवादी रूख कोई छुपा हुआ नहीं है। इसके पहले कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र बन सके, यूपी को वे एक हिन्दू प्रदेश बनाने पर आमादा हैं, और हज-हाऊस को भी वे भगवा-केसरिया रंग से पुतवा चुके हैं। वीएचपी और बजरंग दल जैसे हिन्दू संगठनों को अपने नेताओं और कार्यकर्ताओं के बारे में भी सोचना चाहिए कि वे किस तरह के धंधों में लगे हुए हैं। मुरादाबाद पुलिस ने बताया है कि इस साजिश के मुखिया सुमीत बिश्नोई के खिलाफ पहले से अवैध धंधों के कई मामले दर्ज हैं, कई मामलों में उसे कैद हो चुकी है, जिनमें हत्या, दंगे भडक़ाना जैसे जुर्म शामिल हैं। और इस मामले में पुलिस ने मोबाइल टेलीफोन के कॉल डिटेल्स सहित यह पूरी तरह से स्थापित कर दिया है कि किस तरह वीएचपी-बजरंग दल के ये पदाधिकारी शाहबुद्दीन नाम के मुस्लिम के साथ मिलकर गौहत्या करने, और उसकी तोहमत किसी और पर थोपने, और तनाव खड़ा करके इलाके के पुलिस अफसर को हटाने की साजिश कर चुके थे, उस पर अमल कर चुके थे।
यह नौबत इसलिए भयानक है कि आज देश में जगह-जगह धर्म के नाम पर लोगों को आपस में लड़वाना बड़ा आसान हो गया है। गाय देश में एक सबसे संवेदनशील मुद्दा है, और इसे लेकर किसी भी मुस्लिम या ईसाई पर तोहमत धरी जा सकती है, उसकी भीड़त्या की जा सकती है। आज बहुसंख्यक हिन्दू तबका जिस तरह के धार्मिक उन्माद में झोंका जा रहा है, उसका सबसे बड़ा नुकसान उसे खुद को हो रहा है। ऐसा करने वाले नेताओं के परिवारों के बारे में तो हम नहीं जानते, लेकिन ऐसा कर रही भीड़ के बारे में यह साफ दिखता है कि वह बेरोजगार भीड़ है जिसे धार्मिक भावनाओं के नाम पर शहादत के अंदाज में झोंक दिया जा रहा है, और उसकी पूरी जवानी झंडे-डंडे के साथ खत्म हुई जा रही है। चूंकि यह मामला एक हिन्दू प्रदेश यूपी के हिन्दू मुख्यमंत्री योगी की पुलिस के हिन्दू अफसरों द्वारा उजागर किया गया है, इसलिए इसे आंख खोलने लायक मामला मानना चाहिए। अगर पुलिस ने ईमानदारी के साथ जांच करके बारीकी से सुबूत पेश न किए होते, तो यह भी हो सकता था कि इसमें वह बेकसूर मुस्लिम फंस गया रहता जिसका नाम गाय की लाश के साथ जोड़ा गया था। अब सवाल यह उठता है कि कितने प्रदेशों में कहां-कहां की पुलिस कड़ाई और ईमानदारी के साथ काम कर सकेगी जब थाने से अफसरों को हटाने के लिए हिन्दू नेता ही थाना-इलाके में गाय कटवाकर उसके टुकड़े फैलाते रहें? हमारा ख्याल है कि ऐसा जुर्म करने वालों के लिए जो सजा कानून में तय की गई है, उससे कई गुना अधिक सजा इस तरह की झूठी साजिश के लिए होनी चाहिए जिसमें किसी बेकसूर को फंसाने के लिए वह जुर्म किया जा रहा है।
इस बात को इसका सुबूत भी मानना चाहिए कि हर जगह साम्प्रदायिक तनाव की घटनाएं जरूरी नहीं हैं कि वैसी हों जैसी कि दिखती हों। इसलिए लोगों को भडक़ने के लिए कुछ सब्र रखना चाहिए, और आग में घी डालने का काम नहीं करना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ सरकार ने कल मंत्रिमंडल की एक बैठक में संविदा नियुक्ति के लिए पिछली भूपेश बघेल सरकार के नियमों में किए गए एक बदलाव को पलट दिया। इस बदलाव के चलते 2012 में राज्य सरकार द्वारा बनाए गए संविदा नियमों में फेरबदल करके 2023 में यह संशोधन किया गया था कि किसी अधिकारी के खिलाफ विभागीय जांच के चलते हुए, या अदालत में मुकदमे चलते हुए भी उन्हें संविदा नियुक्ति दी जा सकेगी। इस प्रावधान के बाद भूपेश बघेल सरकार के लिए यह रास्ता खुल गया था कि वह विभागीय जांच झेल रहे, या अदालत में मुकदमे झेल रहे अफसरों को भी रिटायर होने के बाद संविदा नियुक्ति दे सके। और भूपेश सरकार ने ऐसा किया भी था। पिछली सरकार के कुछ सबसे विवादास्पद अफसरों को संविदा नियम-2012 में किए गए बदलाव का फायदा जाहिर तौर पर भ्रष्ट दिखने वाले, विभागीय जांच और अदालती मुकदमे झेलने वाले लोगों को देने के लिए किया गया था, और वही हुआ भी। मुख्यमंत्री विष्णु देव साय की अगुवाई में कल राज्य मंत्रिमंडल ने 2023 के इस संशोधन को खारिज कर दिया, और 2012 के संविदा नियम ज्यों के त्यों लागू करने का फैसला लिया है। 2012 में उस वक्त के मुख्य सचिव रहे सुनिल कुमार ने इन संविदा नियमों को तैयार किया था, जिनमें 2023 में छेडख़ानी करके इसमें भ्रष्ट लोगों की जगह निकाली गई थी। हैरानी की बात यह थी कि भूपेश-मंत्रिमंडल ने जब संविदा नियम में संशोधन किया, तो सरकारी कामकाज के नियमों के खिलाफ इस संशोधन का न तो मंत्रिमंडल में किसी ने विरोध किया था, और न ही कैबिनेट के फैसले की जानकारी मिलने पर राज्यपाल ने ही इसमें कोई आपत्ति लगाई थी। वर्तमान भाजपा सरकार ने इस भ्रष्ट संशोधन को खत्म करके सही फैसला लिया है, और इससे सरकार में ऐसे अफसरों की संविदा नियुक्ति होना थमेगा जो कि पहले ही भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। उल्लेखनीय है कि भूपेश सरकार ने जब ऐसे अफसरों को संविदा पर नियुक्ति दी, तो उसके बाद इनके हाथों और भी ढेरों भ्रष्टाचार हुआ, और शायद भ्रष्टाचार की वह क्षमता ही उनकी काबिलीयत थी।
कोई भी सरकार जब बहुत ही बदनाम और भ्रष्ट अफसरों को किसी भी तरह से सेवा में रखने पर आमादा रहती है, तो उससे वैसी सरकारों की अपनी नीयत भी उजागर हो जाती है। वैसे तो किसी मंत्रिमंडल में बैठने वाले बाकी अफसरों की भी यह जिम्मेदारी होती है कि सरकार के नियमों के खिलाफ अगर कोई फैसला लिया जा रहा है, तो उसे कैबिनेट की जानकारी में लाए, और मुख्यमंत्री-मंत्रियों को बताए कि ऐसा फेरबदल या संशोधन कानून या नियम के खिलाफ रहेगा। लेकिन ऐसा लगता है कि राजनीतिक दबदबे की वजह से अफसर भी दबंग नेताओं के सामने मुंह नहीं खोलते, और गलत काम शुरू करने और आगे बढ़ाने का सिलसिला चल निकलता है। आज भूपेश बघेल सरकार के खिलाफ जितने किस्म के मामले अदालतों में गए हैं, या जिनके खिलाफ एफआईआर हुई है, उनको अगर देखें तो यह साफ है कि अखिल भारतीय सेवाओं के बड़े-बड़े अफसर इसमें नेताओं के साथ गिरोहबंदी करके जुर्म कर रहे थे। इनमें ऐसे अफसर भी थे जो कि अपने मामले-मुकदमे के बाद भी संविदा नियुक्ति पर थे, या सबसे अधिक ताकतवर थे। यह देश और दूसरे प्रदेशों की बहुत सी सरकारों के इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है कि जब चुने गए नेताओं के साथ अफसर भागीदारी कर लेते हैं, तभी अदालत तक पहुंचने लायक भ्रष्टाचार हो पाता है। अगर अफसर ही फाइलों पर नियमों का हवाला देकर गलत काम रोकने लग जाएं, तो फिर कोर्ट-कचहरी और जेल के लायक भ्रष्टाचार और जुर्म हो भी नहीं पाएंगे।
सरकार में गलत कामों की एक गुंजाइश इससे भी निकलती है कि तरह-तरह की जांच और मुकदमों से घिरे हुए अफसरों को भी प्रमोशन देने पर आमादा नेता इसमें कामयाब हो जाते हैं, और इस प्रक्रिया में शामिल अफसर भी सत्ता के दबाव के सामने दंडवत हो जाते हैं। हिन्दुस्तान की नौकरशाही में ऐसी मिसालें कम नहीं हैं कि ईमानदार अफसरों ने सरकार को बड़ी गलतियां करने से रोक ही दिया। लेकिन इसके लिए अफसरों की खुद की साख अच्छी होनी चाहिए, और उनके हाथ कालेधन से रंगे हुए नहीं होने चाहिए। हम इस बात को कई बार उठा चुके हैं कि राज्यों में आने वाली नई सरकारें पिछली सरकारों से दो किस्म के सबक ले सकती हैं, पहला सबक तो यह कि कैसे-कैसे काम न किए जाएं ताकि नई सरकार को भी जेल जाने की जरूरत न पड़े, और दूसरा सबक यह कि पिछली सरकार द्वारा भ्रष्टाचार के जो रास्ते निकाले गए हैं, उन पर तेज रफ्तार से आगे बढक़र खुद भी कैसे नए फ्लाईओवर बनाए जा सकते हैं। हर सरकार को इन दो में से किसी एक किस्म के सबक को लेने की आजादी रहती है। हर सरकार को यह भी पता रहता है कि पिछली सरकार के किन अफसरों ने कैसे-कैसे गलत काम करके नेताओं की भी कमाई करवाई, और खुद भी पैसा बनाया। कुछ नए नेता ऐसे तजुर्बे का खुद भी इस्तेमाल करने लगते हैं, लेकिन जो समझदार होते हैं, वे यह कसम भी खा सकते हैं कि भ्रष्ट तरीकों से दूर कैसे रहा जाए।
हमारा मानना है कि सरकार को जांच और मुकदमों में घिरे हुए अफसरों और कर्मचारियों को दुबारा काम पर नहीं रखना चाहिए क्योंकि इससे जनता को बहुत ही खराब सरकार मिलती है। सरकार को खुद भी यह तय करना चाहिए, और अगर राज्यपाल के संवैधानिक अधिकारों में आए, तो उन्हें भी इस मुद्दे को उठाना चाहिए ताकि सरकार संदिग्ध निष्ठा वाले अफसरों की मोहताज न रहे। वैसे भी हमारा मानना है कि संविदा नियुक्ति किसी अधिकारी पर भी एक किस्म का अहसान होती है, और अगर सरकार को संविदा नियुक्ति देनी ही है, तो उसके लिए ऊंची साख और ईमानदार ट्रैक रिकॉर्ड वाले अफसर-कर्मचारी को ही छांटना चाहिए। यह काम उतना मुश्किल भी नहीं रहता, और सरकार के अपने ढांचे में आई गंदगी को धीरे-धीरे करके कम किया जा सकता है, या फिर धीरे-धीरे ढील देकर शासन को पूरा बर्बाद भी किया जा सकता है।
छत्तीसगढ़ सरकार ने पिछली सरकार का यह संशोधन खत्म करके ठीक किया है, और इसका फायदा पाने वाले अफसरों के कामकाज का मूल्यांकन करना चाहिए कि कैसे लोगों को बढ़ावा देकर पिछली सरकार ने कैसे-कैसे काम किए थे। और अगर किसी सरकार का यह मानना है कि उसका काम किसी अफसर के बिना चल ही नहीं सकता है, और उस अफसर के खिलाफ जांच चल रही है, तो यह सरकार के हाथ में रहता है कि जांच को तेजी से पूरा करे, और उसके बाद जांच में बेकसूर निकलने पर उस अफसर को संविदा नियुक्ति दे। लेकिन नजरों का इतना सा पर्दा भी न रखना तो बड़ा ही शर्मनाक है।
पाकिस्तान के एक मशहूर गायक राहत फतेह अली खां का एक वीडियो अभी चारों ओर फैल रहा है जिसमें वे अपनी एक बोतल को लेकर एक घरेलू कामगार को बुरी तरह पीट रहे हैं, अपने जूते-चप्पल से उसे मारे जा रहे हैं कि उसने उसकी बोतल कहां रख दी? सोशल मीडिया पर उनके घर के भीतर के इस वीडियो के साथ लोगों ने लिखा है कि वे नशे में धुत्त भी दिख रहे थे, और शराब की बोतल मांग रहे थे जो कि नौकर से कहीं इधर-उधर हो गई थी। इस पर इस गायक ने यह सफाई दी है कि वह बोतल किसी पीर साहब का पानी था, और वे उसके न मिलने पर अपने ही एक शागिर्द को पीट रहे थे। उन्होंने उस शागिर्द और उसके पिता से माफी मांगने का वीडियो भी पोस्ट किया है, और जिसे वो शागिर्द कह रहे हैं वह उनकी बात में हामी भर रहा है। लोगों का कहना है कि यह सफाई पूरी तरह फर्जी और झूठी है, और वे राहत फतेह अली खां के एक पुराने वीडियो को भी पोस्ट किया है जिसमें वे नशे में टुन्न बकवास करते दिख रहे हैं।
उनका घरेलू नौकर या शागिर्द, जो भी हो, उसकी ऐसी बेरहमी से हिंसक पिटाई किसी धार्मिक पानी के लिए तो होते नहीं दिख रही है, बाकी मालिक या गुरू की बात में हामी भरना गरीब और कमजोर की मजबूरी सभी जगह रहती है। इसे देखकर सोशल मीडिया पर लोगों ने लिखा है कि इस मशहूर गायक की गायकी के लिए मन में इज्जत अब खत्म हो गई है। लोगों को याद होगा कि कई बरस पहले भारतीय फिल्मों के एक गायक और संगीतकार अनु मलिक का एक वीडियो सामने आया था जिसमें वे दुबई में दाऊद इब्राहिम की एक दावत में दाऊद की तारीफ में गाने गाते दिख रहे थे। यह वीडियो उस वक्त का था जब दाऊद भारत में मुम्बई बम विस्फोट में सैकड़ों लोगों की जान लेने के बाद भारत छोडक़र बाहर जा बसा था, और उसके बाद जिस अंदाज में वह वहां ऑलीशान दावतें करता था, उसमें मुम्बई फिल्म इंडस्ट्री के लोग जाते थे, वह बात हिन्दुस्तानी जनता को समझकर ऐसे कलाकारों का बहिष्कार करना था, लेकिन अनु मलिक नाम का यह आदमी आज भी टीवी रियलिटी शो में जज बना दिखता है, और लोग कोई बहिष्कार नहीं करते। दरअसल सामूहिक जनचेतना एक किस्म की मृगतृष्णा है जो असल में होती नहीं है, उसकी बस चर्चा होती है, उसकी बस कल्पना होती है। लोग यह मानकर चलते हैं कि जनता के बीच कोई जागरूकता आ सकती है। अब अभी राहत फतेह अली खां के बहिष्कार की बातें चार लोग लिख रहे हैं, लेकिन चार हजार लोग उनके नाम की चर्चा होने पर उनके पुराने गाने ढूंढकर देखने-सुनने लगेंगे। शायद इसीलिए मनोरंजन की दुनिया, और सार्वजनिक किस्म के कारोबार के बारे में कहा जाता है कि बदनाम हुए तो क्या नाम न हुआ?
लोगों ने देखा हुआ है कि सलमान खान की गाड़ी ने मुम्बई मेें रात फुटपाथ पर सोने वाले लोगों को कुचला था, और फिर जैसा कि बड़े लोगों के हर मामले में साबित हो जाता है कि गाड़ी वे खुद नहीं चला रहे थे। इसी तरह बरसों गुजर गए हैं सलमान पर काले हिरण के शिकार का मुकदमा चल रहा है, लेकिन इससे फिल्म दर्शकों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता। मशहूर लोग कुछ भी कर सकते हैं, और उनकी शोहरत की चकाचौंध में लोग बंधे रह जाते हैं। बहुत से सांसद और विधायक, मंत्री और दूसरे नेता सार्वजनिक हिंसा करते दिखते हैं, हिंसक फतवे देते दिखते हैं, बलात्कार जैसे जुर्म में फंसते हैं, लेकिन उनके इलाके के वोटर हैं जो कि उन्हें बार-बार चुनते चले जाते हैं। देश में कई ऐसे दबंग और मवाली नेता हैं जो कि पार्टी के भीतर और मतदाताओं के बीच बराबरी से महत्व पाते हैं, और अतिआत्मविश्वास से भरे हुए जुर्म भी किए चले जाते हैं।
पूरी दुनिया का यही हाल है, पश्चिम के अमरीका और ब्रिटेन जैसे देश बहुत से बेकसूर देशों पर बमबारी करते हैं, हजारों लोगों को मार डालते हैं, लेकिन उनके सामानों के बहिष्कार की कोई बात नहीं हो पाती। और तो और इन देशों से आने वाले कोका कोला जैसे गैरजरूरी सामान की बिक्री पर भी किसी मुस्लिम देश में भी फर्क नहीं पड़ता, जबकि ये देश इराक, अफगानिस्तान, सीरिया, और न जाने कितने दूसरे मुस्लिम देशों पर हमला करते रहते हैं, और वहां के मुस्लिम हैं कि इनका कोका कोला तक पीते रहते हैं, जो कि कम्प्यूटर या मोबाइल फोन सरीखी टेक्नॉलॉजी नहीं है, जिंदा रहने के लिए जरूरी नहीं है। तकरीबन तमाम दुनिया में लोग इतने आत्मकेन्द्रित और मतलबपरस्त रहते हैं कि किसी का मुजरिम होना उन्हें बहिष्कार के लायक नहीं बनाता। दुनिया के बड़े-बड़े जंगखोर मुल्क भी घुटनों पर आ जाएं अगर बाकी दुनिया उनका आर्थिक बहिष्कार करने लगे, लेकिन ऐसा होता नहीं है। और तो और जिस हिटलर की फौज के लिए फौजीवर्दियां सिलने वाला उसका कारोबारी दोस्त ह्यूगो बॉस नाजी सेना का काम करते हुए संपन्नता के आसमान पर पहुंचा, आज भी उसका फैशन ब्रांड पूरी दुनिया में चलता है, और किसी को इससे फर्क नहीं पड़ता कि यह कंपनी हिटलर की सेवा करती थी। हिन्दुस्तान के गुजरात से लेकर छत्तीसगढ़ के दुर्ग तक हिटलर नाम की दुकानें खुली हुई हैं, और इनसे बात करके भी हमने देखी, इनकी सेहत पर इसका फर्क नहीं पड़ता कि हिटलर ने दुनिया में लाखों बेकसूरों का नस्लवादी कत्ल किया था। उन्हें एक चर्चित नाम से अपनी दुकान मशहूर करने की संभावना अधिक प्यारी है, और वे हिटलर जैसे मुजरिम के नाम से भी परहेज नहीं करते।
दुनिया में अच्छे और बुरे के बीच फर्क करने के लिए जिस राजनीतिक चेतना और सामाजिक सरोकार की जरूरत रहती है, वह गिने-चुने लोगों में ही दिखते हैं। आबादी का बाकी तकरीबन तमाम हिस्सा जिम्मेदारी के ऐसे बोझ से आजाद रहता है, और उसे न कातिलों से परहेज रहता, न बलात्कारियों से। दहेज हत्या की तोहमत जिन परिवारों पर लगती है, उनके साथ भी जात-पात के रिश्ते तोडऩे को लोग तैयार नहीं होते, और उनके घर भी रोटी-बेटी के रिश्ते कायम रखते हैं। ऐसा लगता है कि दुनिया में इंसानियत नाम का जो शब्द है, उसकी काल्पनिक खूबियों पर गर्व करते हुए लोग उसकी इज्जत जरूरत से हजार गुना अधिक करते हैं, जबकि इसी इंसानियत के भीतर हिंसानियत भी छुपी रहती है, जिसकी तोहमत लोग इंसान से परे हैवान नाम के किसी काल्पनिक पिशाच पर मढ़ते रहते हैं। अगर कोई राहत फतेह अली खां के गानों के दर्शकों की गिनती में फर्क ढूंढ पाए, तो यही दिखेगा कि बदनाम हुए तो क्या नाम नहीं हुआ? उनके दर्शक हिंसक वीडियो सामने आने के बाद बढ़े ही होंगे, घटे नहीं होंगे।
देश में स्कूल-कॉलेज के इम्तिहान शुरू होने के पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें इम्तिहान के तनाव से बचाने के लिए टीवी प्रसारण में मां-बाप को सुझाया कि वे अपने बच्चों के रिपोर्ट कार्ड को अपना विजिटिंग कार्ड न बनाएं। उनका कहना था कि जो मां-बाप अपनी जिंदगी में बहुत सफल नहीं हो पाते, वे अपने बच्चों को कामयाबी की मिसाल बनाना चाहते हैं ताकि वे औरों के बीच उसकी चर्चा कर सकें। उन्होंने यह बात ठीक कही कि मां-बाप बच्चों पर एक गैरजरूरी तनाव खड़ा कर देते हैं। हम भी बरसों से यह लिखते आए हैं कि मां-बाप अपने अपूरित सपनों और हसरतों को बच्चों में पूरे होते देखना चाहते हैं, और इससे बच्चों के अपने रूझान के खिलाफ जाकर भी किसी विषय को पढऩे, या किसी कॉलेज में दाखिला पाने का एक निहायत गैरजरूरी और नाजायज दबाव पैदा होता है। कल जब प्रधानमंत्री देश भर के चुनिंदा बच्चों से टीवी पर बात भी कर रहे थे, और अपने सुझाव भी रख रहे थे, ऐन उसी समय राजस्थान में कोचिंग इंडस्ट्री कहे जाने वाले कोटा में एक छात्रा ने खुदकुशी कर ली, और मां-बाप के लिए यह लिखकर छोड़ा कि वह जेईई नहीं कर सकतीं, इसलिए वह खुदकुशी कर रही है, वह असफल है, और उसके लिए यही आखिरी विकल्प है। अब इस कोचिंग इंडस्ट्री में हफ्ते भर में यह दूसरी खुदकुशी है, और पिछले एक बरस में यहां दो दर्जन से अधिक छात्र-छात्राओं ने खुदकुशी की थी। पिछली अशोक गहलोत सरकार ऐसी मौतों पर हड़बड़ा गई थी, और सरकारें आमतौर पर दिखावे के लिए जो करती हैं, वैसा ही गहलोत सरकार ने भी किया था, कोचिंग इंडस्ट्री चलाने वाले लोगों के साथ बैठकें की थीं, और बच्चों का तनाव कम करने का रास्ता ढूंढने का नाटक भी किया था। यहां इस बात का जिक्र जरूरी है कि कोटा में तनाव का हाल यह है कि वहां छात्र-छात्राओं की रहने की जगहों पर छत के पंखे नहीं लगाए जाते क्योंकि बच्चे उनसे लटककर आसानी से जान दे सकते हैं। अभी कल जिस लडक़ी ने खुदकुशी की है, वह तीन बहनों में सबसे बड़ी थी, उसके पिता बैंक में गार्ड हैं, और मां घरेलू महिला है, ऐसे परिवार ने इंजीनियरिंग दाखिले की कोशिश और तनाव में अपनी एक बच्ची खो दी। लोगों को याद होगा कि कुछ महीने पहले भी हमने जब ऐसी ही आत्महत्याओं के मुद्दे पर इसी जगह लिखा था, तो उसमें देश में एक जगह खुदकुशी करने वाले छात्र के पिता ने भी अंतिम संस्कार के बाद खुद भी आत्महत्या कर ली थी।
हिन्दुस्तान में सरकारी और निजी, बड़े-बड़े कॉलेज तो खुल गए हैं, बड़े-बड़े कोचिंग संस्थान भी फैक्ट्रियों की तरह चल रहे हैं, लेकिन किसी विषय को पढऩे, या किसी दाखिला इम्तिहान की तैयारी करने की बच्चों की क्षमता का अंदाज लगाना हिन्दुस्तान में चलन में नहीं है। मां-बाप अपने सपने पूरे करने के लिए बच्चों पर नाजायज बोझ डाल देते हैं, और जितने बच्चे खुदकुशी करते हैं, उससे हजारों गुना बच्चे हीनभावना का शिकार भी होते ही होंगे कि वे मां-बाप के कर्ज से कोचिंग लेते हुए, पढ़ते हुए भी उनकी उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं। देश की शिक्षा व्यवस्था एक ऐसी भेड़ चाल में फंसी हुई दिखती है कि गिने-चुने कुछ प्रचलित, लोकप्रिय, और महत्वाकांक्षी कोर्स में जाने के लिए कुछ बच्चे खुद भी आमादा रहते हैं, और अधिकतर के मां-बाप उस पर जिद पर अड़े रहते हैं। नतीजा यह होता है कि बच्चों की पसंद, उनका रूझान, और उनकी क्षमता कहीं प्राथमिकता नहीं रखतीं। हमारा तो यह मानना है कि स्कूल के दौरान ही इन बातों का लगातार आंकलन होते रहना चाहिए, और ऊंची पढ़ाई के लिए उन्हीं बच्चों की बारी आनी चाहिए जो कि वैसे पाठ्यक्रम पढऩे के लायक हैं। दरअसल किताबी पढ़ाई को ही इस देश में सब कुछ मान लिया गया है, और स्कूल-कॉलेज की कम पढ़ाई के बाद कमाई का कोई रोजगार करने वाले लोगों का भी सम्मान नहीं रहता है, बल्कि पढ़े-लिखे बेरोजगार जो कि मां-बाप की छाती पर मूंग दलते रहते हैं, उन्हें बेहतर समझा जाता है। समाज की इस सोच को भी बदलना होगा क्योंकि औसत दर्जे की पढ़ाई करके लोग कोई उत्पादक काम नहीं पा सकते, और ऐसे शिक्षित-बेरोजगार देश की उत्पादकता में कुछ जोड़ नहीं सकते।
केन्द्र और राज्य सरकारें अलग-अलग किस्म की अधकचरी कोशिशें करती रहती हैं, जिनमें कोचिंग को लेकर भी पिछले दिनों कुछ नियम खबरों में आए थे। सरकारों को स्कूल-कॉलेज, पढ़ाई, और इम्तिहान खिलवाड़ के सबसे ही आसान सामान लगते हैं, और जब जिस सरकार को जैसा ठीक लगे, वैसा फेरबदल इनमें होते चलता है। आज दुनिया, और इस देश में भी, बदलती जरूरतों के मुताबिक न शिक्षा नीति बदल रही है, और न परीक्षा नीति। फिर देश में संपन्न और विपन्न तबकों के बीच साधनों का जो बहुत बड़ा फर्क खड़ा हो गया है, वह भी आगे की जिंदगी के मौकों पर असर डालता है। जो लोग महंगी कोचिंग से तैयारी करते हैं, वे कई बड़े दाखिला इम्तिहानोंं में कामयाबी की अधिक गुंजाइश रखते हैं। आज इन्हीं सब वजहों से देश में समान अवसर की बात कागजों पर भी नहीं रह गई है, असल जिंदगी में तो यह दूर-दूर तक कहीं नहीं हैं। ऐसे में गरीब तबके से निकलकर आए हुए इक्का-दुक्का कामयाब लोगों की मिसालें देकर लोग साबित करने की कोशिश करते हैं कि संपन्नता ही सब कुछ नहीं होती, लेकिन जब व्यापक नतीजों को देखें, तो यह समझ आता है कि संपन्नता ही बहुत मायने रखती है।
लेकिन बाकी तमाम बातों से परे सबसे जरूरी बात यह है कि बच्चों पर उनकी मर्जी और उनके रूझान के खिलाफ कोई दबाव नहीं डालना चाहिए क्योंकि आत्महत्या की एक-एक खबर तनाव के कगार पर खड़े बहुत से और बच्चों के लिए एक असर लेकर आती है। यह नौबत किसी भी कीमत पर टालनी चाहिए।
ऐसा लगता है कि आम जिंदगी में चारों तरफ से आने वाली खबरों से लोगों ने सबक न लेना तय कर लिया है। इसीलिए लगातार खबरें छपती हैं, हाईकोर्ट नाराजगी दिखाते रहता है, लेकिन न लोग लाउडस्पीकर की चीख-चिल्लाहट कम करते, और न ही अफसर उस पर कोई कार्रवाई करते दिखते। यहां तक कि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट शोरगुल पर काबू पाने में पूरी तरह निराश होने के बाद यह तक कह चुका है कि ऐसा लगता है कि अफसर यह करना ही नहीं चाहते, इसके बाद भी हालत नहीं सुधर रही। अधिकतर इलाकों में सुबह से रात तक लाउडस्पीकर चलते रहते हैं, प्रशासन इम्तिहान चलने का हवाला देकर रोक लगाने के लिए टीम बनाता है, लेकिन होता कुछ नहीं है। इसी तरह यातायात सुधार सप्ताह के नाम पर कुछ गाडिय़ों का चालान हो जाता है, कुछ महंगी मोटरसाइकिलों में शौक में लगाए गए शोर करने वाले साइलेंसर जब्त कर लिए जाते हैं, और उन्हीं तमाम जगहों पर दुबारा यही सब होने लगता है। आम जिंदगी में बदअमनी और अराजकता फैलाने को लोगों ने लोकतांत्रिक स्वतंत्रता मान लिया है, और इसका इस्तेमाल करते रहते हैं।
अभी एक सरकारी स्कूल में हेडमास्टर ने बच्चों को बौद्ध धर्म अपनाने की शपथ दिलाई, और बौद्ध शपथ के मुताबिक उन्हें हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा न करने की कसम भी दिलाई। अब सरकारी स्कूल के हेडमास्टर को देश के कानून की इतनी आम समझ न हो, यह कल्पना से परे की बात है, लेकिन ऐसा जगह-जगह हो रहा है। स्कूलों में खासकर बहुत से शिक्षक शराब के नशे में पहुंच रहे हैं, और ऐसी खबरें तभी बाहर आती हैं जब मास्टर फर्श पर पड़े दिखते हैं, या कोई उनके वीडियो बनाते हैं। यह सिलसिला भयानक इसलिए है कि हमारा अंदाज है कि सामने आने वाली ऐसी हर खबर के मुकाबले सौ-सौ गुना खबरें दबी रह जाती होंगी, और बच्चों का उन पर कैसा असर पड़ता होगा यह अंदाज लगाना अधिक मुश्किल नहीं है।
देश भर में स्कूली बच्चों का जो सर्वे हुआ है, वह बताता है कि ऊंची कक्षाओं में पहुंच चुके बच्चे भी नीची कक्षाओं के बच्चों जितनी भी पढ़ाई नहीं कर पाते, न किताब पढ़ सकते, न ठीक से जोड़-घटाना कर सकते। देश का यह हाल न सिर्फ स्कूलों में हैं, बल्कि हर किस्म की सरकारी और सार्वजनिक जगह पर से उत्कृष्टता गायब है। अदालतों में कामकाज की रफ्तार नहीं है, जज और मजिस्ट्रेट के सामने बैठे बाबू खुलेआम हर वकील और मुवक्किल से रिश्वत लेते हैं, और अदालत पहुंचकर हर किसी को सबसे पहले यही लगता है कि वे एक सबसे भ्रष्ट जगह पर आ गए हैं, जहां पर वे मुजरिम रहें, या शिकायतकर्ता, हर पेशी पर रिश्वत देनी ही है। सरकारी अस्पतालों में इसी तरह का हाल दिखता है, मशीनें हैं तो चलाने वाले डॉक्टर और टेक्नीशियन नहीं हैं, कहीं पर ये लोग हैं, तो मशीनें नहीं हैं, दोनों हैं तो मशीनों में लगने वाले केमिकल की किट नहीं हैं, दूसरे सामान नहीं हैं, सर्जन हैं तो बेहोश करने वाले डॉक्टर नहीं हैं, बेहोश करने वाले डॉक्टर हैं तो सर्जन नहीं हैं। और इन विभागों में इतना संगठित भ्रष्टाचार चलता है कि वहां लोगों की जान कैसे बचती है इस पर सोचें तो ईश्वर पर भरोसा होने लगता है।
हर नए अफसर और नेता कहीं बगीचों में फौव्वारे लगवाते हैं, तो कहीं तालाबों में बोट चलवाते हैं, और जब से स्मार्ट सिटी की योजना आई है, तब से तो हर स्मार्ट सिटी में सैकड़ों करोड़ रूपए सालाना की बर्बादी की गारंटी सी हो गई है। अफसर स्मार्ट सिटी में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों के बिना अपनी मर्जी से अंधाधुंध खर्च करते हैं, और ऐसा लगता है कि अधिक से अधिक भ्रष्ट खर्च करना ही उन्हें काम करने की ताकत देता है। दूसरी तरफ जिलों में कलेक्टरों के हाथ में जिला खनिज न्यास के दर्जनों या सैकड़ों करोड़ रूपए रहते हैं, और उनमें नेता, अफसर, और सप्लायर मिलकर अधिक से अधिक बर्बादी करने का सामान जुटाते रहते हैं। सत्ता के सभी भागीदार स्मार्ट सिटी और डीएमएफ को कमाई का एक जरिया बनाकर चलते हैं। अभी छत्तीसगढ़ में कई मामलों की जांच कर रही ईडी ने जिला खनिज न्यास, डीएमएफ, के घोटाले के खिलाफ राज्य की एसीबी-ईओडब्ल्यू में एफआईआर की है, और जब केन्द्र सरकार की इन जांच एजेंसी राज्य के बड़े-बड़े अफसरों के खिलाफ ऐसी रिपोर्ट कर रही है, जो कि केन्द्रीय सेवाओं के अफसर हैं, तो फिर इसकी गंभीरता को समझना चाहिए।
रोज के अखबार उठाकर देखें तो उनका खबरों का तकरीबन हर पन्ना जनता और सरकार दोनों की अराजकता और भ्रष्टाचार की खबरों से भरा रहता है। ऐसे में यह लगता है कि लोगों के लिए सकारात्मक प्रेरणा की कोई खबर कैसे मिल सकती है? यह हैरानी होती है कि खबरों को पढऩे वाले लोग अगर सिर्फ यही देख पाएंगे कि देश में कितना भ्रष्टाचार है, लोग कितने अराजक हैं, चारों तरफ थूक और मूत रहे हैं, सडक़ पर चाकूबाजी कर रहे हैं, दारू के लिए पैसा मांगने पर न मिले तो राह चलते को भी चाकू भोंक रहे हैं, तो लगता है कि कानून व्यवस्था से लेकर जनता की सोच तक ऐसी भयानक गिरावट आई है कि इस देश के सुधरने की कोई गुंजाइश नहीं है। हम ऐसी खबरों का व्यापक असर देखते हैं, और आज देश भर में धर्म और जाति का तनाव, क्षेत्र और भाषा का तनाव हिंसक होते जा रहा है, और इनका भी असर लोगों पर होता ही है।
आज ही की एक दूसरी खबर दिख रही है कि प्रेमसंबंध में असफल एक नाबालिग ने दूसरे नाबालिग का कत्ल कर दिया! एक तरफ नाबालिग बच्चों के किए जुर्म बढ़ते चले जा रहे हैं, तो दूसरी ओर नाबालिग बच्चों के अश्लील वीडियो पोस्ट करने वाले लोग आए दिन गिरफ्तार होते दिखते हैं, और आज की ही एक दूसरी खबर है कि भारत सरकार के आंकड़े बताते हैं कि पिछले 6 बरसों में बच्चों के देहशोषण के मामले बढक़र दो गुना हो गए हैं। हर जुर्म की खबर दूसरे कुछ संभावित मुजरिमों को रास्ता दिखाती है, और फिल्में और टीवी के कई किस्म के सीरियल हिंसा को अंधाधुंध बढ़ा भी रहे हैं। हमारा यह भी मानना है कि हिंसा की सीमा तक पहुंचने वाले नाबालिग और बालिग लोगों के दिमाग में यह भी रहता है कि देश में आज प्रेरणा की खबरें कहीं से नहीं आती हैं, और हिंसा की खबर हर तरफ से आती हैं। कल ही इस अखबार के संपादक ने अपने साप्ताहिक कॉलम, ‘आजकल’ में रोहन बोपन्ना के इतनी उम्र में पहुंचकर, इतने दर्जन बार कोशिश करने के बाद ग्रैंड स्लैम टाइटिल पाने पर लिखा, तो उस पर दर्जनों लोगों ने संदेश भेजे कि कम से कम एक सकारात्मक बात पढऩे मिली जिससे दिल-दिमाग को राहत मिली, और हौसला मिला। चारों तरफ से अगर हिंसा, नफरत, धर्मान्धता, और जुर्म की खबरें आएंगी, मारने या मर जाने की खबरें रहेंगी, तो उससे ऐसी घटनाएं और बढ़ती चली जाएंगी। इसलिए दुनिया को लगातार कुछ बेहतर बनाने की कोशिश होती रहनी चाहिए, ताकि बेहतर मामलों की खबरें लोगों की सोच को बेहतर बना सकें।
दो खबरें जिनका आपस में एक-दूसरे से कोई लेना-देना न हो, उनका किस तरह एक-दूसरे से लेना-देना हो सकता है, इसकी एक मिसाल अभी इसी पल सूझी है। दो अलग-अलग मामलों पर आज इस जगह लिखने की एक संभावना बन रही थी, इनमें से एक तो छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की एक अदालती खबर है जिसमें एक नौजवान को उम्रकैद हुई है। इसने साल भर पहले घर पहुंचकर मां से पूछा था कि क्या सब्जी बनी है, और जब उसे पता लगा कि उसे नापसंद सब्जी बनी है, तो इस पर उसने फावड़ा उठाकर मां को मार डाला था। मां-बाप के साथ रहने वाला नौजवान किस तरह मां का कातिल हो सकता है, कितनी सी बात पर हो सकता है, इसकी यह एक भयानक मिसाल है, और बहुत से लोगों को अपने कलेजे के टुकड़ों से रिश्ते तय करते हुए, रखते हुए, निभाते हुए ऐसी कुछ मिसालों को याद रखना चाहिए। अभी कुछ ही दिन हुए हैं कि पास की ही एक खबर थी कि एक नौजवान ने शराब पीने को पैसे मांगे, और न मिलने पर बाप को मार डाला। रिश्ते किस तरह खराब हो सकते हैं, बिना बात के भी खराब हो सकते हैं, इसकी मिसाल हम कुछ पारिवारिक मामलों से शुरू भर कर रहे हैं, इसके बाद यह मिसाल आज की सबसे बड़ी राजनीतिक घटना तक चली जाती है जिसमें बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कुछ दिनों से चली आ रही खबरों के मुताबिक राजभवन से इस्तीफा देकर निकले, और उन्होंने कहा कि गठबंधन की सरकार खत्म हो गई है, और एक पिछला गठबंधन था, उसके लोग मिलकर अगर कुछ तय करते हैं, तो उस बारे में सोचा जाएगा। लोगों को याद होना चाहिए कि बिहार का पिछला विधानसभा चुनाव नीतीश ने भाजपा के साथ मिलकर लड़ा था, और फिर लालू और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बना ली थी। अब ऐसा जाहिर है कि वे लालू और कांग्रेस का साथ छोडक़र एक बार फिर भाजपा के साथ मिलकर या तो आज सरकार बना लेंगे, या हो सकता है कि नया गठबंधन विधानसभा को भंग करके आने वाले लोकसभा चुनाव के साथ बिहार के विधानसभा चुनाव की सिफारिश भी कर दे। अभी हम ऐसी संभावनाओं पर कुछ कहना नहीं चाहते, लेकिन जिस तरह से नीतीश ने बिना किसी जाहिर या ठोस वजह के इस गठबंधन को तोड़ा, अपनी ही सरकार गिराई, और पहले की अपनी ऐसी ही कुछ बार की हरकत को दोहराया, उससे हमें लगा कि क्या इसकी तुलना किसी तरह मां के कत्ल की घटना से की जा सकती है?
नीतीश ने 2020 में पिछला विधानसभा चुनाव एनडीए के साथ मिलकर लड़ा था, जिसकी अगुवाई भाजपा करती है। और बाद में उन्होंने 2022 में एनडीए की सरकार गिराकर भाजपा से रिश्ता तोड़ दिया, और बिहार का महागठबंधन नाम के एक गठबंधन में शामिल हो गए, जिसमें लालू यादव की आरजेडी, और कांग्रेस पार्टी शामिल थे। अब डेढ़ बरस बाद इस गठबंधन की सरकार गिराकर नीतीश ने अब से कुछ घंटे बाद भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाने के एक समीकरण को जन्म दिया है। इस तरह परस्पर विरोधी खेमों में जाकर, उनकी मदद से मुख्यमंत्री बने रहकर नीतीश अब बिहार के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले नेता हो गए हैं। उन्होंने डेढ़ बरस पहले जब भाजपा-एनडीए वाले गठबंधन की पीठ में छुरा भोंका था, तब बहुत से लोगों को नीतीश बहुत अच्छे लगे थे। अब उन्होंने आज सुबह तक के गठबंधन की पीठ में छुरा भोंका है तो वे लालू और कांग्रेस के विरोधियों को अच्छे लग रहे होंगे। लेकिन जिस तरह बिना किसी मुद्दे के, वे अपने साथियों को धोखा देते हैं, उनकी पीठ में छुरा भोंकते हैं, तो लगता है कि कोई बेटा मां की पीठ में इस तर्क के साथ छुरा भोंक दे रहा है कि मां ने बेटे की पसंद की सब्जी नहीं बनाई है। नीतीश की खूबी यही है कि वह बिना पिए, बिना नशे के भी अपने मातृ-गठबंधन की पीठ में छुरा भोंक सकते हैं, और पसंद की सब्जी की चाहत और संभावना में नई मां बना सकते हैं। यह बात हम आज उनके लालू छोडक़र भाजपा के साथ जाने की संभावना पर नहीं कह रहे हैं, पिछले कुछ बार जिस तरह से उन्होंने बार-बार सब्जी नापसंद होने की आड़ लेकर, उसके बहाने से अपनी उस वक्त की मां की पीठ में छुरा भोंका है, वह भारतीय लोकतंत्र में गजब की मिसाल है। कुछ और पार्टियों के कुछ नेताओं ने अलग-अलग प्रदेशों में कुछ हद तक ऐसा किया है, लेकिन नीतीश उन सबसे भी ऊपर एक अनोखी मिसाल हैं, और इस बार उन्होंने ऐसा लगता है कि बिहार के महागठबंधन के साथ-साथ इंडिया नाम के राष्ट्रीय गठबंधन की पीठ में भी सब्जी नापसंद होने की वजह से छुरा भोंक दिया है।
हम पहले भी बहुत बार यह बात लिखते आए हैं कि लोगों को अपनी अगली पीढ़ी के साथ अपने रिश्ते और लेन-देन तय करते हुए, उन्हें वारिस बनाते हुए इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि आज उनकी आंखों के तारे कल मां-बाप को अपनी आंखों की किरकिरी भी महसूस कर सकते हैं, और उस वक्त मां-बाप कहीं के नहीं रह जाते। इसलिए अपना सब कुछ अपनी अगली पीढ़ी को देने के पहले मां-बाप को इतना कुछ अपने लिए बचाकर रख लेना चाहिए कि बकाया लंबी जिंदगी लोगों के सामने हाथ न फैलाना पड़े, भूखों न मरना पड़े, किसी वृद्धाश्रम के रहमोकरम पर न रहना पड़े। नीतीश कुमार ने भारत की राजनीति को कुछ इसी तरह का साबित किया है कि साल-दो साल किसी मातृ-गठबंधन को चूसकर वे सीएम बने रहें, और फिर आगे की बेहतर संभावनाओं को देखते हुए वे मां की पीठ में किसी बहाने से छुरा भोंककर नई मां बना लें, और फिर उस नई मां से बकाया तमाम जिंदगी निभाने के बारे में ऐसी जुबान में दावे करें जो कि लोगों को ईमानदार और सरलता की मिसाल लगे, और जिसका कि इन दोनों से कुछ भी लेना-देना न रहे।
राजनीति में किसी नैतिकता की हमें उम्मीद नहीं रहती, और नीतीश तो लोकतंत्र की एक ऐसी औलाद है जो कि कई बार अनैतिक हो चुके हैं। अब ऐसा लगता है कि वे अगले कुछ बरस नई मां के साथ रह भी सकते हैं, क्योंकि वहां पर पसंदीदा सब्जियों के बनने की संभावना अधिक दिखती है, वहां पर अगले चुनाव में जीतकर आने की संभावना अधिक दिखती है, वहां पर फायदे अधिक दिखते हैं। अगले कुछ घंटों में ऐसी उम्मीद की जा रही है कि बिहार में एक बार फिर एनडीए की सरकार बन जाएगी, और वह इंडिया नाम के गठबंधन की संभावनाओं का एक बड़ा नुकसान रहेगा। लेकिन नीतीश जैसे बेटे के लिए सब्जी बनाने के पहले हर मां को अपनी पीठ पर तवा बांधकर रखना चाहिए, उसे कब कौन सी सब्जी नापसंद हो जाए, और कब उसे किसी दूसरे चूल्हे पर बनी सब्जी अच्छी लगने लगे।
बड़ी अजीब सी बात है कि एक कत्ल और एक सत्तापलट के बीच ऐसी मिसाल सूझ रही है, लेकिन जिंदगी ऐसी ही है, जहां कहीं के निजी रिश्ते, कहीं की राजनीति से मिलते-जुलते दिखते हैं!
छत्तीसगढ़ में ऑनलाईन शेयर खरीद-बिक्री पर रोजाना पांच-दस फीसदी मुनाफे का झांसा देकर एक पति-पत्नी से एक मोबाइल ऐप के माध्यम से 68 लाख रूपए की ठगी हो गई। और एक दूसरी खबर इसी प्रदेश में सेना के एक अफसर से कुछ इसी किस्म का शेयर कारोबार का झांसा देकर 89 लाख रूपए ठग लिए। कल ही के अखबारों में ये दोनों खबरें हैं, और हमारे सरीखे कुछ अखबारनवीसों के वॉट्सऐप नंबर हर हफ्ते ऐसे किसी न किसी शेयर खरीदी-बिक्री के ग्रुप में जोड़े जाते हैं, या क्रिप्टोकरेंसी कारोबार के एक नए झांसे में। इन पर होने वाली अलग-अलग लोगों की चर्चा के पोस्ट देखें तो वे ग्रुप के मुखिया की सलाह पर हर दिन लाखों या दसियों लाख रूपए कमाने की खुशी जाहिर करते रहते हैं, और ऐसा लगता है कि उनके झांसे में आकर और बहुत से लोग पैसा इस तरह लुटा बैठते हैं। ऐसे जालसाज और ठग कई फर्जी वेबसाईटें भी बना लेते हैं, और वहां से भी लोगों को फांसते हैं।
यहां तक तो बात ठीक थी, लेकिन कल ही एक दूसरी खबर यह है कि साइबर-मुजरिमों ने मोबाइल फोन की एक मैसेंजर सर्विस पर यह पोस्ट किया है कि उनके पास भारत के 75 करोड़ लोगों के आधार कार्ड, और उससे जुड़ी हुई तमाम जानकारियां बिक्री के लिए मौजूद हैं। इंटरनेट का जो हिस्सा सिर्फ मुजरिमों के बीच लोकप्रिय है, वहां भी ऐसी जानकारी पोस्ट की गई है। दुनिया की जिस साइबर-सुरक्षा फर्म ने यह जानकारी सामने रखी है, उसने अभी तक इन बेचने वालों की जानकारी को परखा तो नहीं है, लेकिन इस तरह की जानकारी दुनिया के कई देशों में कई कंपनियों या सरकारी सेवाओं से चुराकर बिक्री के लिए सामने रखी जाती हैं।
अब हम भारत में इन दो चीजों को मिलाकर देखें तो अधिकतर लोग धोखा खाने के लिए एक पैर पर खड़े दिखते हैं, उन्हें बस कोई फायदे का सौदा दिख जाए। हमारे सरीखे लोग भी फेसबुक पर दो-तीन सौ रूपए में शानदार शर्ट का इश्तहार देखकर पैसा गंवा चुके हैं। लेकिन जब लोग शेयर कारोबार में अंधाधुंध मोटी कमाई के झांसे में आ जाते हैं, या दुनिया में अभी पूरी तरह अविश्वसनीय क्रिप्टोकरेंसी से फायदा पाने के फेर में ठगे जाते हैं, तो कुछ हैरानी होती है। अगर दुनिया में इतनी कमाई मुमकिन होती, तो लोग कारोबार ही क्यों करते? लेकिन यहां पर एक दूसरा सवाल परेशान करता है कि सरकार की इतनी सारी निगरानी एजेंसियां, और जांच एजेंसियां मिलकर भी ऐसी जालसाजी को पकड़ क्यों नहीं पाती हैं? इनके तौर-तरीके मिलते-जुलते रहते हैं, और इंटरनेट पर उन्हें पकड़ पाना इतना मुश्किल भी नहीं होना चाहिए। अभी ब्रिटेन से स्पेन के लिए रवाना हुए एक नौजवान ने लंदन के एयरपोर्ट पर अपने दोस्तों को मजाक में एक संदेश भेजा था कि वह तालिबान है, और वह विमान को विस्फोट से उड़ाने जा रहा है, तो उसके शब्दों को ही एयरपोर्ट के वाईफाई पर निगरानी एजेंसियों ने पकड़ लिया था, और एक खतरे की आशंका को टाल दिया था। हिन्दुस्तान जैसे काबिल देश में जहां से निकलकर आईआईटी और आईआईएम के लोग दुनिया की सबसे बड़ी टेक्नॉलॉजी कंपनियां चला रहे हैं, उन संस्थानों से निकले हुए हजारों दूसरे लोग देश के भीतर साइबर-ठगी को रोकने की तरकीबें क्यों नहीं निकाल सकते? आज हिन्दुस्तान के कम्प्यूटर विशेषज्ञ बनने वाले नौजवान दुनिया भर में जाकर कामयाबी पा रहे हैं, लेकिन अगर उनकी खूबियों से इस देश में ही साइबर-जुर्म नहीं रूक पा रहे, तो सरकार और जानकार के बीच एक फासले की वजह से ऐसा दिखता है।
दूसरी तरफ भारत में सेक्स के भूखे बहुत से लोगों को जब किसी लडक़ी का संदेश मिलता है कि बाथरूम में पहुंचकर कपड़े उतारो, तो वे लार टपकाते हुए अपने कपड़े उतार देते हैं, और मोबाइल फोन पर कैमरे पर अपने को दिखाते हुए, और सामने किसी पेशेवर ठग लडक़ी को देखते हुए ब्लैकमेल होने का सामान बन जाते हैं। ऐसी ठगी के शिकार देश में हर दिन दसियों हजार लोग हो रहे हैं, और ब्लैकमेल की शिकायत करने वे पुलिस तक भी नहीं जाते क्योंकि उससे उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा खतरे में पड़ सकती है। यह तरीका इतना आम हो चुका है, और इतनी अधिक घटनाएं छप चुकी हैं कि कोई बहुत ही मूढ़ और मूर्ख समाज ही ऐसे झांसे में आ सकता है, लेकिन हिन्दुस्तानी मर्द के दिल-दिमाग में सेक्स की भूख इतनी बैठी रहती है कि महिला का बदन देखते ही वे मानो सम्मोहन का शिकार होकर उसके आदेश पर कपड़े उतार फेंकते हैं। लेकिन अधिक हैरानी इसलिए नहीं होती है कि जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने कहा है कि 90 फीसदी हिन्दुस्तानी बेवकूफ होते हैं, और अब वे 90 फीसदी लोग यह साबित करने में लगे हुए हैं कि वे वेबकूफ भी हैं।
ठगी के कुछ ऐसे बहुत प्रचलित और बहुत छप चुके तरीके भी जब रोके नहीं जा सक रहे हैं, तो हैरानी होती है कि सरकार की इंटरनेट और साइबर सुरक्षा क्या बिल्कुल ही बेअसर है? होना तो यह चाहिए कि कुछ शब्दों को लेकर भारत में सरकारी एजेंसियां निगरानी करती रहें, और आतंक की धमकी या किसी तरह के आर्थिक फ्रॉड का रूख दिखते ही और बारीक जांच की जाए, और मुजरिमों को पकड़ा जाए। कुछ अरसा पहले टेलीफोन फ्रॉड के एक मामले में जब सरकारी एजेंसियों ने जांच की थी, तो बंगाल में एक व्यक्ति के पास 25 हजार सिमकार्ड मिले थे। जब एक-एक सिमकार्ड के लिए कई तरह के पहचान पत्र लगते हैं, आधार कार्ड लगता है, अंगूठे का निशान लिया जाता है, तो फिर इतने सिमकार्ड कैसे बन जाते हैं? लेकिन ठगों के जाल को तोडऩे के लिए सरकारी एजेंसियां समय रहते कुछ नहीं कर पाती हैं, और जब लोगों के खाते खाली हो चुके रहते हैं, उनकी अश्लील फिल्में बन चुकी रहती हैं, तब जाकर सरकार कुछ मुजरिमों तक पहुंचती है। भारत में सरकार ने खुद ही जितने तरह के काम को डिजिटल करवाया है, उसे देखते हुए सरकार को ही सारे डिजिटल ट्रैफिक पर जुर्म रोकने के तरीके निकालने चाहिए, जो कि लोगों को उनकी निजता भंग किए बिना भी बचा सके।
सोशल मीडिया पर धर्म से जुड़ी हुई कुछ आपत्तिजनक, भडक़ाऊ, या किसी धर्म के प्रति अपमानजनक पोस्ट का एक नया सैलाब सामने आया है। इसमें कई धर्मों के लोग शामिल दिख रहे हैं, और बहुत सी जगहों पर बड़ा सार्वजनिक तनाव भी इनको लेकर हुआ है, कुछ लोगों की गिरफ्तारियां भी हुई हैं, और कम से कम एक मामले में एक नाबालिग को भी पकड़ा गया है। दरअसल हिन्दुस्तान में जब कभी धार्मिक भावनाओं का सैलाब आता है, या कोई धार्मिक उन्माद आता है, तो उसकी लहरें लोगों को बहाकर किसी दूसरे धर्म के खिलाफ भी ले जाती हैं, और फिर क्रिया की प्रतिक्रिया होने लगती है, और कई समुदायों के सबसे हिंसक और साम्प्रदायिक लोग अधिक सक्रिय हो जाते हैं, जाहिर तौर पर उनको यह अहसास रहता है कि ऐसे मौके उनके अपने अस्तित्व के लिए जरूरी रहते हैं, अस्तित्व को बनाने के लिए, और फिर उसकी मौजूदगी को साबित करने के लिए। ऐसे माहौल में किसी संदेश वाले ग्रुप में कुछ डाल देना, या किसी सोशल मीडिया पेज पर कुछ पोस्ट कर देना बड़ा तनाव खड़ा कर रहा है।
लेकिन हम इससे जुड़ी हुई कुछ दूसरी चीजों को मिलाकर ही आज इस पर चर्चा करना चाहते हैं। आज दुनिया में कोई भी बड़ी कंपनी, या सरकार के किसी संवेदनशील ओहदे पर अगर किसी की नियुक्ति होनी है, तो बड़ी कंपनियां, या कि सरकारी एजेंसियां सबसे पहले ऐसे उम्मीदवारों के सोशल मीडिया अकाऊंट खंगालती हैं कि इस व्यक्ति की सोच क्या है, वह साम्प्रदायिकता, अश्लीलता, और नैतिकता के पैमानों पर कहां खड़ा होता है, या कहां खड़ी होती हैं। अब मिसाल के तौर पर दो दिन पहले की ही एक खबर है कि ब्रिटेन के नागरिक एक भारतवंशी नौजवान, आदित्य वर्मा को स्पेन की पुलिस ने गिरफ्तार करके एक अदालत में पेश किया है। यह नौजवान 2022 में अपने दोस्तों के साथ लंदन से छुट्टियां मनाने निकला था, और उसने दोस्तों के समूह में यह संदेश पोस्ट किया था कि वह तालिबान का एक सदस्य है, और वह इस उड़ान के दौरान विमान को विस्फोट से उड़ा देगा। लंदन एयरपोर्ट पर वाई-फाई नेटवर्क ने इस संदेश को पकड़ा, और इस विमान के उड़ते हुए इसके साथ स्पेन की वायुसेना के दो लड़ाकू जेट विमान भी पहुंच गए जो कि इसके सुरक्षित उतरने तक साथ रहे। यह नौजवान उस वक्त 18 बरस का था, और गिरफ्तारी के बाद उसने इसे एक मजाक बताया, और अदालत ने उसे जमानत पर रिहा किया। बाद में ब्रिटेन लौटने पर वहां की खुफिया एजेंसियों ने उससे पूछताछ की, और अब वह विश्वविद्यालय में पढ़ाई करते हुए भी स्पेन के मुकदमे और ब्रिटेन की जांच का सामना कर रहा है। ब्रिटिश एजेंसियों ने जब उसके फोन की जांच की, तो पाया कि वह भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ाईयों के बारे में सर्च करते रहता है, और इस इलाके में इस्लामिक स्टेट के हमले की संभावनाओं के बारे में भी सर्च और रिसर्च करता है। दोस्तों को भेजे गए एक संदेश से अब हालत यह है कि स्पेन इस नौजवान से करीब एक करोड़ हर्जाना मांग रहा है, जो कि उसके विमानों पर खर्च हुआ था। इस मामले में अभी फैसला आने वाला है। अब यह सोचें कि ऐसे मामले में फंसा हुआ यह नौजवान ब्रिटेन से डिग्री लेकर भी निकलेगा, तो यह बात किसी भी कंपनी या सरकार में नौकरी पाते हुए आड़े आएगी।
देश या दुनिया में जहां कहीं भी लोग नफरत या मजाक में इस तरह की बातें लिखते हैं, भेजते हैं, या पोस्ट करते हैं, वे आत्मघाती काम करने के अलावा कुछ नहीं करते। इससे उनकी जिंदगी का एक स्थाई नुकसान हो जाता है, और जब यह मामला सार्वजनिक साम्प्रदायिक तनाव का सामान बनता है, तो ऐसे लोगों का अपने खुद के इलाके में रहना भी मुश्किल हो जाता है, न उन्हें लोग काम पर रखना चाहते, और न ही उनके साथ कारोबार करना चाहते। दुनिया के बहुत से देशों में इन बरसों में कट्टरपंथी ताकतों की सत्ता पर वापिसी हो रही है, और वे अपनी विचारधारा के मुताबिक कानूनों और उन पर अमल को अधिक कड़ा बनाते चल रहे हैं। पश्चिम के कई देश मतदाताओं का इस तरह का रूझान देख रहे हैं, और आज की तारीख में फिलीस्तीन पर इजराइल का जो हमला चल रहा है, उसके पीछे इजराइली सरकार की नई सोच भी कुछ हद तक जिम्मेदार है, और इजराइल के इतिहास की यह अब तक की सबसे कट्टरपंथी सरकार है। ऐसे में दुनिया के किसी एक देश में एक भडक़ाऊ सोच को आगे बढ़ाने वाले लोग दुनिया के दूसरे देशों में भी अछूत हो सकते हैं। किसी देश के वीजा के लिए, कहीं पर पढ़ाई में दाखिले के लिए, या नौकरी और कारोबार के लिए अर्जी देने पर तमाम चौकन्ने देश लोगों को सोशल मीडिया पर खंगाल डालते हैं, और इंटरनेट पर यह ढूंढ लेते हैं कि उनके बारे में कौन-कौन सी नकारात्मक खबरें मौजूद हैं।
इसलिए हिंसक, भडक़ाऊ, साम्प्रदायिक, सोशल मीडिया पोस्ट या संदेश देश के कानून के शिकंजे में भी आ सकते हैं, और बाकी दुनिया भी ऐसे लोगों को हमेशा के लिए अछूत मान सकती है। जो पढ़े-लिखे, या समझदार, या शातिर लोग खुद अपने हाथों को साफ रखते हुए अपने समर्थकों, या भाड़े की भीड़ को नफरत और धर्मान्धता, या हिंसक धमकियां फैलाने के काम में झोंककर रखते हैं, वे अपने खुद के बच्चों को इस काम से दूर सुरक्षित रखते हैं। इसलिए आम लोगों को यह समझना चाहिए कि सार्वजनिक जीवन और सोशल मीडिया पर किसी भी तरह की गैरजिम्मेदारी दिखाते ही वे अपने भविष्य को भी बर्बाद करते हैं, उनका वर्तमान तो किसी पुलिस या जांच एजेंसी के हाथों अदालत तक पहुंचकर बर्बाद हो ही जाता है। अब यह सोचें कि साम्प्रदायिकता फैलाने वाले लोग अगर विदेशों में बसे हुए अपने बच्चों के पास जाना चाहें, और उन्हें वहां की सरकारें साम्प्रदायिकता की वजह से वीजा देने से मना कर दें, तो क्या वे ऐसे भविष्य की कीमत पर भी हिंसा और साम्प्रदायिकता फैलाना चाहते हैं? फिर लोगों को यह भी याद रखना चाहिए कि किसी देश-प्रदेश की सरकारें अगर उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं भी कर रही हैं, तो भी हो सकता है कि देश-प्रदेश की कोई अदालत किसी दिन अपनी जिम्मेदारी का अहसास करे, और सरकारी अनदेखी से परे जाकर सीधे इनके खिलाफ जुर्म दर्ज करवाए। इसलिए लोगों को तात्कालिक धार्मिक उन्माद पर सवार होकर हिंसक और नफरती बातें नहीं करना चाहिए। कुछ नेता तो ऐसा करके बच भी निकलते हैं क्योंकि उनके पास अदालत को गुमराह करने के लिए देश के सबसे महंगे वकील रहते हैं, लेकिन आम लोग कुछ लापरवाह शब्दों को पोस्ट करके, या किसी वीडियो पर कहकर अपनी जिंदगी के कई बरस जेल में गुजारने का खतरा मोल ले लेते हैं। लोगों को अपने बच्चों को भी ऐसे खतरों से आगाह करना चाहिए।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बिहार के एक महान जनकल्याणकारी नेता कर्पूरी ठाकुर को उनकी 100वीं जयंती के मौके पर भारतरत्न देने की घोषणा ने मोदी सरकार को देश के पिछड़ों और अतिपिछड़ों के बीच एक वाहवाही तो दिलवा ही दी है, एक और बात उभरकर सामने आई है कि भारतीय राजनीति में ईमानदारी की एक अनोखी मिसाल का भी ऐसा सम्मान हो रहा है। बिहार में दो बार मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर वहां दशकों तक विधायक भी थे, और नाई समाज से आकर वे इतने बड़े नेता बने थे कि वैसी महानता बिहार की राजनीति में किसी और को हासिल नहीं हो पाई। जातिवाद से लदी हुई बिहार की राजनीति में कर्पूरी ठाकुर की जाति की आबादी दो फीसदी से भी कम है, और ऐसे में वे बिहार के एक सर्वाधिक मान्य, और सर्वाधिक सम्मानित मुख्यमंत्री बने, जिन्होंने सबसे कमजोर तबकों और गरीबों के लिए जनकल्याण की ऐसी योजनाएं शुरू कीं, जो कि न उनके पहले सुनाई पड़ी थी, न उनके बाद। मोदी सरकार का यह फैसला चुनावी नफे-नुकसान से परे उसे खुद एक सम्मान दिलाने वाला फैसला है क्योंकि 1988 में उनके गुजरने के बाद से आज तक इन 35 बरसों में किसी केन्द्र सरकार ने यह जहमत नहीं उठाई थी। इसके पीछे मोदी सरकार की चाहे जो राजनीतिक और चुनावी नीयत हो, इस फैसले से शायद ही कोई असहमति जाहिर कर सके।
कर्पूरी ठाकुर के पिता बाल काटने का काम करते थे, और वे खुद मैट्रिक के बाद से स्वतंत्रता संग्राम में उतरे, 26 महीने जेल भुगती, और 1948 से वे राजनीति में आए, और 1970 में मुख्यमंत्री बने। सबसे कमजोर और सबसे गरीब लोगों की भलाई की उनकी सोच अद्भुत थी। उनका एक नारा अक्सर लिखा जाता है- सौ में नब्बे शोषित हैं, शोषितों ने ललकारा है, धन, धरती, और राजपाट में नब्बे भाग हमारा है। उन्होंने बिहार में पिछड़ों और अतिपिछड़ों को आरक्षण दिया, सरकारी कामकाज में हिन्दी को बढ़ावा दिया, और यह मिसाल सामने रखी कि बिना कुनबापरस्ती के ईमानदार राजनीति कैसे की जा सकती है। उनके करीबी बताते हैं कि जब वे सीएम थे, और उनके रिश्ते के बहनोई जाकर किसी नौकरी की मांग करने लगे तो कर्पूरी ठाकुर ने जेब से 50 रूपए निकालकर उन्हें दिए, कहा कि उस्तरा वगैरह खरीद लीजिए, और अपना पुश्तैनी धंधा शुरू कीजिए। उनके सीएम रहते कुछ जमींदारों ने उनके पिता को सेवा के लिए बुलाया, और बीमार होने की वजह से वे नहीं जा पाए तो जमींदार के लठैतों ने जाकर उनके पिता को प्रताडि़त किया, लेकिन जब उन लठैतों को पकड़ा गया, तो कर्पूरी ठाकुर ने उन्हें यह कहकर छुड़वा दिया कि यह तो पूरे प्रदेश में कमजोर तबकों के साथ हो रहा है, और सभी जगह ऐसी ज्यादती के खिलाफ अभियान चलाना चाहिए, सिर्फ सीएम के पिता के खिलाफ जुर्म रोकने से क्या होगा। बिहार के लोग बताते हैं कि दो बार सीएम रहने के बाद भी कर्पूरी ठाकुर रिक्शे से चलते थे क्योंकि कार खरीदने, और चलाने का खर्च उनकी सीमा के बाहर था। वे शायद देश के गिने-चुने ऐसे नेताओं में से होंगे जिन्होंने दशकों की विधायकी, और प्रदेश के मुखिया रहने के बाद भी मरते वक्त अपने परिवार के लिए न एक घर छोड़ा था, न पिता के घर में एक इंच जमीन जोड़ी थी।
समता और सामाजिक न्याय की सोच के उनके बहुत से उदाहरण बिहार में याद रखे जाते हैं, और देश के राजनीतिक इतिहास में अच्छी तरह दर्ज है। शायद यही वजह रही कि 1952 में पहली बार विधानसभा का चुनाव जीतने के बाद वे कभी चुनाव नहीं हारे। उनकी पहल से बिहार में मिशनरी स्कूलों ने हिन्दी में पढ़ाना शुरू किया, और उन्होंने राज्य में मैट्रिक तक मुफ्त पढ़ाई का इंतजाम किया। बीबीसी की एक रिपोर्ट जानकारी देती है कि उन्होंने बिना मुनाफे वाली जमीन पर किसानों से मालगुजारी लेना बंद करवाया। और मुख्यमंत्री सचिवालय की लिफ्ट में चतुर्थ वर्ग कर्मचारियों को चढऩे की मनाही थी, कर्पूरी ठाकुर ने उसे शुरू करवाया। वे एक सच्चे समाजवादी की तरह अंतरजातीय विवाह के हिमायती थे, और जहां खबर लगती थी उसमें शामिल होते थे। राज्य कर्मचारियों के लिए समान वेतन आयोग को उन्होंने लागू किया था, और जनकल्याण के, सबसे कमजोर तबके की भलाई के बहुत से कार्यक्रम उन्होंने लागू किए, या उसके लिए विपक्ष से आंदोलन करते रहे।
उनकी सादगी और गरीबी का हाल यह था कि एक प्रतिनिधि मंडल ने उन्हें ऑस्ट्रिया जाना था तो उनके पास कोट ही नहीं था, एक दोस्त से लिया तो वह फटा हुआ था। यह किताबों में दर्ज है कि वहां से भारतीय दल यूगोस्लाविया गया तो मार्शल टीटो ने देखा कि उनका कोट फटा है, तो उन्हें एक कोट भेंट किया। एक दूसरा लेख यह भी बताता है कि कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद हेमवंती नंदन बहुगुणा उनके गांव गए थे, तो उनकी पुश्तैनी झोपड़ी देखकर रो पड़े थे। दशकों की सत्ता और विधायकी के बाद भी उन्होंने एक घर तक नहीं बनवाया था, जब सरकार ने विधायकों और पूर्व विधायकों को रियायती जमीन दी, तो भी उन्होंने इसे लेने से इंकार कर दिया। बेटी की शादी में उन्होंने किसी मंत्री को नहीं बुलाया था, और आने से सबको मना भी कर दिया था। उनके बारे में एक घटना लिखने लायक है कि 1977 में वे जयप्रकाश नारायण के जन्मदिन पर अपनी आम टूटी चप्पल, और फटे कुर्ते में ही पहुंच गए थे, तो चन्द्रशेखर ने अपना कुर्ता फैलाकर सभी नेताओं से कर्पूरी ठाकुर के कुर्ते के लिए दान मांगा, उसे देते हुए चन्द्रशेखर ने सीएम को कहा कि इससे धोती-कुर्ता खरीद लीजिए, तो उन्होंने वह रकम मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा कर दी।
हम अपने विचारों वाले इस कॉलम, संपादकीय में अपनी किसी राय के बिना सिर्फ कर्पूरी ठाकुर की जीवनगाथा के कुछ हिस्से सामने रखकर उसे ही अपने विचार मान रहे हैं। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम अपने आसपास भी सरकार के नेताओं और अफसरों से जिस तरह की सादगी और किफायत की अपील बार-बार करते हैं, उसकी एक बहुत बड़ी मिसाल कर्पूरी ठाकुर की जिंदगी की कहानी में दिख रही है। उनके लिए भारतरत्न की घोषणा के इस मौके पर उनकी जिंदगी को याद करना चाहिए, और जो लोग भी उनके प्रति सम्मान व्यक्त करते हैं, उन्हें सादगी, किफायत, और ईमानदारी की उनकी मिसाल पर भी सोचना चाहिए।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आज शहर के बीच जयस्तंभ चौक पर सरकारी स्कूलों के छात्र-छात्राओं को सुबह 8 बजे पहुंचने का आदेश दिया गया था, और वहां पहुंचे सैकड़ों ऐसे बच्चों को बताया गया था कि नेताजी सुभाष जयंती का आयोजन होने जा रहा है। लेकिन आज की भीगी हुई सुबह में ठंड में जब बच्चे यहां पहुंचे, तो आयोजक संस्था छत्तीसगढ़ युवा संगठन, और नगर निगम के कोई लोग वहां नहीं थे। बच्चे चौराहे पर खड़े हुए थे, और उनके साथ के शिक्षकों ने घंटे भर बाद जब आयोजकों को फोन लगाया तो उन्होंने कुछ देर में आने की बात कही। अब यहां आए हुए बच्चे कई किलोमीटर दूर से पहुंचे थे, और जिला शिक्षा अधिकारी के लिखित आदेश की वजह से स्कूलों के प्राचार्य ने गंभीरता से समय पर बच्चों के वहां पहुंचने की ड्यूटी शिक्षक-शिक्षिकाओं की लगाई थी। घंटे भर बाद जब यह कार्यक्रम शुरू हुआ तो बच्चों को रेलवे स्टेशन की सुभाष प्रतिमा पर ले जाया गया।
पहले स्कूली बच्चों को मंत्रियों के स्वागत में कतार बनाकर खड़ा कर दिया जाता था, और देश भर से खबरें आती थीं कि धूप में या खड़े-खड़े थकान में बच्चे चक्कर खाकर गिर जाते थे। बाद में बड़ी अदालतों के हुक्म से यह सिलसिला तकरीबन थम गया है, लेकिन अभी भी कहीं-कहीं घोषित और अघोषित रूप से बच्चों का ऐसा इस्तेमाल कर लिया जाता है। एक तरफ स्कूलों के शिक्षकों से जनगणना से लेकर चुनावी काम तक, दर्जनों किस्म के सरकारी काम करवाए जाते हैं, और सरकार के आयोजनों में चाहे मंत्री के स्वागत के लिए न सही, लेकिन इस किस्म की किसी रैली के लिए, किसी आयोजन के लिए स्कूली बच्चों की भीड़ इसी तरह की चिट्ठी से भेज दी जाती है कि हर स्कूल से सौ बच्चों की उपस्थिति सुनिश्चित की जाए, फिर चाहे आयोजक खुद ही गायब रहें।
यह मामला बहुत बड़ा नहीं है, लेकिन राज्य शासन और नगर निगम दोनों को अपने संबंधित विभागों के कामकाज को परखने का एक मौका इससे मिल रहा है। कैसे किसी सामाजिक संगठन के साथ मिलकर नगर निगम ऐसा कार्यक्रम कर रहा है जिसमें सैकड़ों बच्चों को सुबह-सुबह जुटा लिया गया है, और आयोजक ही नदारद हैं। राज्य शासन के शिक्षा विभाग को भी देखना चाहिए कि उसके अफसरों ने ऐसे गैरजिम्मेदार आयोजकों के कार्यक्रम में बच्चों को क्यों भेजा? अगर नेताजी सुभाष जयंती ही मनानी थी, तो स्कूली बच्चे अपने स्कूल में मना सकते थे, सडक़ों पर उन्हें रैली में भेजना, घंटों इंतजार करवाना, कई किलोमीटर पैदल चलवाना, और घर से आने-जाने का निजी इंतजाम करना, यह सब मध्यमवर्गीय या गरीब छात्र-छात्राओं पर भारी पडऩे वाला काम है। हमारा ख्याल है कि स्कूली बच्चों को सिर्फ ऐसे आयोजन में शामिल करना चाहिए जो कि किसी सुरक्षित और सुविधाजनक मैदान में पर्याप्त इंतजाम के साथ हो रहे हों, या किसी सभागृह या स्कूल के अहाते में। इस बात की कल्पना आसान है कि कई घंटों के इस इंतजार और कार्यक्रम में, और कई किलोमीटर आने-जाने, और पैदल चलने में स्कूली छात्राओं को अगर किसी शौचालय की जरूरत पड़ेगी, तो उसका तो कोई इंतजाम इस शहर में नहीं है। अभी दो दिन पहले ही एक अखबार ने यह रिपोर्ट छापी है कि किस तरह शहर के सार्वजनिक शौचालय बंद या खराब पड़े हैं, या बहुत बुरी तरह गंदे पड़े हैं। ऐसे में छात्राओं को चौराहे पर जुटाना, और सडक़ों पर घुमाना ठीक बात नहीं है।
प्रदेश के शिक्षामंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने अभी-अभी इन्हीं स्कूलों में से एक स्कूल की छात्राओं के आने-जाने का बंद किया हुआ एक रास्ता खुलवाया है, और वे खुद इसी शहर की आम स्कूलों में पढ़े हुए हैं। उन्हें व्यक्तिगत दिलचस्पी लेकर बच्चों का ऐसा इस्तेमाल बंद करना चाहिए जो कि किसी प्रतिमा पर होने वाले समारोह में भीड़ बढ़ाने की नीयत से किया गया है। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के बारे में किसी भी स्कूल के शिक्षक और बच्चे अपने स्कूल में ही आधे-एक घंटे में पर्याप्त बोल-सुन सकते थे, उन्हें अगर महापुरूषों की प्रतिमाओं पर इस तरह ले जाना चलते रहा, तो साल में उनके दस-बीस दिन इसी में निकल जाएंगे। किसी महान व्यक्ति के सम्मान का यह तरीका ठीक नहीं है कि भीड़ बढ़ाने के लिए बच्चों के घंटों बर्बाद किए जाएं, और उनकी असुविधा के बारे में सोचा भी नहीं जाए। दिखने में छोटी लगने वाली यह बात अफसरों का बच्चों के प्रति रूख बताती है, और यह बात तो सार्वजनिक रूप से दिखने पर हमारे ध्यान में आई है, लेकिन अफसरों की सोच अगर ऐसी ही है, तो वह बच्चों से जुड़े हुए दूसरे मामलों में भी सामने आती होगी। स्कूल शिक्षा मंत्री को पूरे प्रदेश के स्कूलों, खासकर कन्या विद्यालयों की जांच करवानी चाहिए कि वहां लड़कियों के लिए शौचालय का पर्याप्त और ठीक-ठाक इंतजाम है या नहीं, लड़कियों की खास जरूरतों के लिए पानी का इंतजाम है या नहीं।
राजधानी के नगर निगम को भी अपने अफसरों के फैसले और कामकाज को जांचना चाहिए कि जब स्कूली बच्चों को कई किलोमीटर दूर से सुबह-सुबह बुला लिया गया, तो उस वक्त के पहले वहां पर म्युनिसिपल के अफसर, और आयोजक संस्था के लोग मौजूद क्यों नहीं थे, और खासकर छात्राओं के लिए जरूरत के क्या इंतजाम इन लोगों ने किए थे? स्कूली बच्चों को किसी भी कार्यक्रम में झोंकने के पहले यह देखने की जरूरत है कि इससे उनके पढ़ाई के कितने घंटे खराब होने जा रहे हैं, और ऐसे आयोजन में शामिल होना उन बच्चों के हित में है, या महज आयोजकों को भीड़ बढ़ाकर दी जा रही है? राज्य में बच्चों के कल्याण के लिए प्रदेश स्तर की एक परिषद बनी हुई है, और उसे भी न सिर्फ इस घटना को लेकर, बल्कि ऐसे तमाम कार्यक्रमों को लेकर एक अध्ययन करना चाहिए कि कौन से आयोजन स्कूली बच्चों के हित में हैं, और बाकी तमाम किस्म के कार्यक्रमों का विरोध करना चाहिए। वैसे भी इस प्रदेश में छुट्टियां बहुत हैं, पढ़ाई कम होती है, पूरे देश में ही स्कूल शिक्षा का स्तर बहुत ही खराब है, अभी चार-छह दिन पहले की इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट बतलाती है कि किस तरह बड़े-बड़े हो चुके स्कूली बच्चे भी बुनियादी बातें भी नहीं पढ़ पा रहे हैं। स्कूली बच्चों को सिर्फ संख्या की तरह गिनना और इस्तेमाल करना ठीक नहीं है, और देश-प्रदेश की सरकारों को इन बच्चों के समय का इस्तेमाल करते हुए बहुत ही सावधान रहना चाहिए, और विशेषज्ञों से सलाह-मशविरे के बिना बच्चों पर कुछ भी नहीं लादना चाहिए। एक अफसर जिस तरह चिट्ठी लिखकर सरकारी स्कूलों के प्राचार्यों से सौ-सौ बच्चों को तय समय पर किसी जगह भेजने को सुनिश्चित करने को कह रहा है, वह अपने आपमें फिक्र की बात है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
अयोध्या में राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के मौके पर पिछले कई दिनों से देश के बहुत से हिस्सों में जो अभूतपूर्व और असाधारण उत्साह बहुसंख्यक हिन्दू तबके में देखने मिल रहा है, उससे एक यह संभावना भी बनती है कि धर्म के नाम पर इतने लोग एकजुट हो सकते हैं। अब सवाल यह है कि धार्मिक आस्था जो आस्थावान लोगों का खुद का भला कर सकती है, लेकिन उससे देश और समाज का भी कुछ भला किया जा सकता है? आज भारत से बहुत से धर्मों के लोग अपने त्यौहारों के मौकों पर सडक़ किनारे भंडारे लगा लेते हैं, जिन पर आते-जाते लोग रूककर छककर खा लेते हैं। कई त्यौहार ऐसे भी रहते हैं जिन पर इतने अधिक भंडारे लगते हैं कि लोगों को कई जगहों पर रूककर खाना पड़ता है। लेकिन क्या उससे सचमुच ही किसी गरीब का कुछ भला होता है? जो भूख मिटती है, क्या वह किसी गरीब की भूख रहती है, या फिर मोटरसाइकिलों को रोक-रोककर लोग खाने में जुट जाते हैं। धर्म में लोगों को जोडऩे की, और दान-धर्म के नाम पर लोगों की जेब से पैसे निकलवाने की भी अपार ताकत है, लेकिन इस ताकत का इस्तेमाल किस काम में किया जाता है, यह देखने की बात है।
आज सडक़ों पर हो रहे आयोजनों से लेकर अखबारों के इश्तहारों तक लोगों का उत्साह देखते ही बन रहा है। चारों तरफ राम जन्म भूमि और रामलला के पोस्टर लगे हैं, झंडे फहरा रहे हैं, और लोग अपनी गाडिय़ों पर ऐसे झंडे लगाकर चारों तरफ घूम रहे हैं। लेकिन उत्सव से परे इसकी कोई उपयोगिता समाज के लिए नहीं है। लेकिन ऐसी संभावना तो है ही। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के मंदिरों की साफ-सफाई का आव्हान किया, तो चारों तरफ मंदिर साफ होते दिखने लगे। लेकिन जब किसी ईश्वर की पूजा-आराधना की बात उठती है, तो महज मंदिर-मस्जिद जैसी जगहें ही ईश्वर से जुड़ी नहीं रहतीं, जिन लोगों को ईश्वर पर आस्था है, वे तो यही मानते हैं कि पूरी दुनिया ईश्वर की बनाई हुई है, और ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। ऐसे में सिर्फ पूजास्थल की सफाई क्यों हो? और दूसरी सार्वजनिक जगहों की भी सफाई हो सकती है, और होनी चाहिए। आज जितने लोग धार्मिक उत्सव के लिए समय निकालकर उस पर समर्पित हैं, उनके पास ऐसा वक्त निकलने की गुंजाइश तो है ही। अब सवाल यह है कि मोदी सरीखे असर वाले कोई नेता, या दूसरे धार्मिक लोग भक्तों के ऐसे रेले को समाजसेवा के जरूरी काम की तरफ किस तरह मोड़ सकते हैं?
हमने कई धर्मों के लोगों को धर्म के नाम पर एकजुट होते, और फिर नेक काम करते भी देखा है। सिक्खों के संगठन दुनिया में कहीं भी कोई मुसीबत आने पर लोगों की मदद को सबसे आगे रहते हैं, और इसमें बहुत कम ऐसे मौके रहते हैं जब सिक्ख खतरे में पड़े हों, आमतौर पर सिक्ख संगठनों की मदद दूसरे धर्मों के लोगों को ही पहुंचती है। दक्षिण भारत में तिरुपति जैसे मंदिर है जहां पर भक्तों को दर्शन तेजी से करने के लिए कुछ अधिक भुगतान करना पड़ता है, लेकिन मंदिर ट्रस्ट ऐसी कमाई का इस्तेमाल अस्पताल और कॉलेज बनाने और चलाने में करता है। कुछ और धर्मों में भी लोग दान करते हैं, लेकिन उनका दान अपने ही धर्म के लोगों तक सीमित रहता है। हम रामभक्तों की अपार भीड़ की ताकत को समाज की व्यापक जरूरत के लिए इस्तेमाल करने की संभावनाओं पर देखना चाहते हैं। भारत जैसे लोकतंत्र में धर्म एक हकीकत है, और उसके नाम पर होने वाली एकजुटता में बड़ी ताकत हो सकती है। कभी यह ताकत किसी दूसरे धर्म के खिलाफ होती है, तो कभी अपने ही लोगों के बीच कट्टरता को बढ़ाने में काम आती है। ऐसी खामियों से परे कई धार्मिक संगठनों को क्षेत्रीय विकास में बड़ी भागीदारी भी करते देखा गया है। दक्षिण में सत्य सांई बाबा का संगठन कई इलाकों में ग्रामीण विकास और पानी की सप्लाई जैसा काम करता था, और पूरी तरह मुफ्त में बच्चों की हार्ट सर्जरी के अस्पताल भी यह धार्मिक-आध्यात्मिक संगठन चलाता है।
हमारा ख्याल है कि हिन्दुओं के बीच जिन लोगों का असर है, उन्हें देश के दसियों करोड़ आस्थावान लोगों को साथ लेकर समाज की कुछ जरूरतों को पूरा करने का बीड़ा उठाना चाहिए। किसी भी धर्म का सम्मान उसके ईश्वर से नहीं बढ़ता, बल्कि इससे बढ़ता है कि उसे मानने वाले लोग कैसे हैं, और वे क्या करते हैं। धार्मिक ग्रंथ तो अपनी जगह रखे रह जाते हैं, लेकिन उनके नाम पर लोग कैसा काम करते हैं इससे उस धर्म और उसके ईश्वर का सम्मान तय होता है। इसलिए भी हर धर्म के लोगों को यह देखना चाहिए कि वे धर्मों की आम नसीहत के तहत जरूरतमंद लोगों का क्या भला कर सकते हैं? बहुत से धर्म लोगों को त्याग सिखाते हैं, जरूरतमंदों के लिए दान देना सिखाते हैं, लेकिन अधिकतर धर्मों के अतिसंपन्न लोग त्याग की यह सोच गरीबों में तो भरते हैं, खुद उस पर अमल नहीं करते। इसलिए जिस धर्म के लोगों पर जिन लोगों का असर हो, उन्हें ऐसे आस्थावानों को समाजसेवा के काम में जोडऩा चाहिए, क्योंकि आस्था और उपासना तो साथ-साथ चल ही सकते हैं।
हम जानते हैं कि इस बात को कहना आसान है, और करना मुश्किल है, लेकिन इसकी छोटी सी मिसाल का जिक्र हम पहले भी कभी कर चुके हैं कि श्रीलंका में बौद्ध धर्म के असर से लोगों के बीच त्याग की जो भावना आई है, उसके चलते श्रीलंका नेत्रदान के मामले में दुनिया में सबसे आगे है, और वहां घरेलू जरूरतों के पूरा होने के बाद दुनिया के बाकी देशों को भी श्रीलंका से निकली आंखें काम आती हैं। भारत में भी धर्म के सामाजिक योगदान की कोशिश करनी चाहिए। इस देश में बहुत से मोर्चों पर त्यागियों और दानदाताओं की जरूरत है, और शायद धर्म के नाम पर उनकी जेब से आसानी से कुछ निकाला जा सके।
(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में एक ऐसा गजब का हत्याकांड सामने आया है जिसमें एक महिला ने अपने पति की बीमारी और नशे की लत से तंग आकर एक फिल्मी कहानी की तरह उसका कत्ल कर दिया। इसके लिए उसने पति के इलाज के दौरान अस्पताल में दोस्त बने एक कर्मचारी को साथ लिया, और अपने कुछ दूसरे दोस्त, सहेली, पड़ोसी को भी। इसके बाद इन लोगों ने अस्पताल से चुराई गई बेहोश करने की दवा नशे में सोए पति के बदन में इंजेक्शन से डाली, और उसे मार डाला। बदन पर कई जगह इंजेक्शनों के निशानों से शक खड़ा हुआ, और पुलिस ने इस हत्या का भांडाफोड़ किया। खबर के मुताबिक यह पत्नी कुल 22 बरस की है, और उसकी शादी 15 साल की उम्र में हो गई थी, और लगातार पति के नशे से वह परेशान थी।
हत्या के तरीके से परे भी इसके जो दूसरे पहलू हैं उस पर हम लिखना चाह रहे हैं कि किस तरह कम उम्र में समय के पहले कर दी गई शादी का नतीजा इतना बुरा हो सकता है कि वह मरने-मारने तक पहुंच जाए। 15 बरस की लडक़ी भारतीय समाज में शादी के बाद पति के नशे पर काबू कर सके, इसकी कोई गुंजाइश नहीं रहती। कम उम्र में ही बच्चे हो जाने पर महिला उन बच्चों के बोझ से भी लदी रहती है, और पति की लत से भी। ऐसे में परिवार को चलाना ही एक चुनौती रहती है, और आम हिन्दुस्तानी लडक़ी या महिला इसी में दबी रह जाती हैं। साथ-साथ तब नौबत और अधिक खराब हो जाती है जब ऐसी शादीशुदा युवती आर्थिक आत्मनिर्भर नहीं रहती, और परिवार का पेट भरना नशे के आदी पति का मोहताज रहता है। आज जिस तरह भारतीय समाज में लडक़ी और महिलाओं को घर से बाहर निकलने का मौका मिल रहा है, मोबाइल और सोशल मीडिया की मेहरबानी से उसके भी संपर्क बाहर हो पा रहे हैं, इसलिए वह ऐसी नर्क सरीखी जिंदगी से उबरने के कुछ कानूनी और कुछ गैरकानूनी रास्ते भी देखने लगी है। कहीं पर वह तलाक लेकर, या बिना तलाक लिए अलग रहने का हौसला जुटा पाती है, तो कहीं वह हिंसा पर उतरकर अकेले या कुछ लोगों की मदद से ऐसे गैरजिम्मेदार, या किसी किस्म के हिंसक पति को निपटा भी देती है। पाठकों को याद होगा कि कुछ अरसा पहले हमने ऐसे कुछ दूसरे मामलों को लेकर अपने यूट्यूब चैनल इंडिया-आजकल पर उज्जैन में एक महिला के हाथों पति और जेठ के मारे जाने पर एक वीडिटोरियल भी पोस्ट किया था।
लेकिन इस बार कत्ल करने का जो तरीका छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले की इस महिला ने अपने अस्पताल-कर्मचारी दोस्त के साथ मिलकर इस्तेमाल किया है, वह बिना खून बहाए मौत को प्राकृतिक और स्वाभाविक दिखाने की एक बिल्कुल अनोखी साजिश थी, और यह एक भयानक सिलसिला है क्योंकि बेहोशी की ऐसी दवा जुटा लेना कोई दुर्लभ काम नहीं है। किसी फिल्म या अपराधकथा की तरह यह कत्ल अपने इस तरीके से परे भी एक और बात की तरफ ध्यान खींचता है। अस्पताल कर्मचारी तो इस महिला का दोस्त या प्रेमी था, लेकिन इसके एक सहेली, इसका एक पड़ोसी, ऐसे कई और लोग हत्या के इस जुर्म में भागीदार बन गए थे, और इन सबने कहीं न कहीं तो यह पढ़ा होगा कि हत्यारों को आखिर जेल जाना पड़ता है, कैद काटनी पड़ती है। लोग किसी की मदद करते हुए अपने आपकी बाकी जिंदगी को इस तरह और इस कदर खतरे में कैसे डाल लेते हैं, यह हमारी समझ से परे है। हो सके तो सरकार या समाज के कुछ संगठनों को कत्ल जैसे जुर्म के मददगार लोगों का अध्ययन करके समाज के सामने रखना चाहिए कि ये लोग ऐसे गलत काम में पड़े कैसे, और इसका नतीजा कितना खतरनाक भुगतना पड़ा है।
हम बहुत से हादसों और बहुत से ऐसे जुर्म को लेकर यही सोच रखते हैं कि इनका विश्लेषण करके लोगों के सामने रखना चाहिए ताकि बाकी लोग कमअक्ली में, या अतिउत्साह में ऐसे जुर्म में न फंसें। फिर आज जैसी खबरें आती हैं, उन्हें देखकर यह भी समझ नहीं पड़ता कि क्या शराबबंदी करने से इस किस्म के जुर्म घटेंगे? छत्तीसगढ़ में ही एक आईपीएस अफसर, संतोष सिंह अपने खुद के निजी उत्साह से जिस-जिस जिले में रहते हैं, वहां पर नशे के खिलाफ एक बड़ा अभियान, निजात-अभियान छेड़ते हैं। और उनका यह निष्कर्ष है कि नशा जहां पर कम होता है, वहां पर हर किस्म के जुर्म भी कम होने लगते हैं, सडक़ हादसे भी कम होने लगते हैं। उन्होंने इसका विश्लेषण करके जो आंकड़े सामने रखे हैं वे चौंकाते हैं कि एक बरस तक नशे के खिलाफ अभियान चलाने से बलात्कार की घटनाओं में 35 फीसदी कमी आई, हत्याओं में 47 फीसदी की कमी आई, हत्या की कोशिशें 64 फीसदी घटीं, चाकूबाजी आधे से भी कम रह गई, और छेड़छाड़ जैसी घटनाओं में भी 40 फीसदी की कमी आई। अब छत्तीसगढ़ में चूंकि शराब तो सरकार ही बेचती है, इसलिए कोई पुलिस अफसर बाकी किस्म के नशों के खिलाफ ही कार्रवाई कर सकता है, या अवैध शराब के खिलाफ। आज प्रदेश में चारों तरफ से खबरें आती हैं कि तरह-तरह की प्रतिबंधित दवाएं नशे के लिए बाजार में बेची जा रही हैं, और रोजाना ही गांजे से भरी गाडिय़ां पकड़ा रही हैं। ऐसे ही प्रतिबंधित नशे और अवैध शराब के खिलाफ कार्रवाई से अगर किसी जिले में बड़े-बड़े किस्म के जुर्म आधे रह जाते हैं, या एक तिहाई घट जाते हैं, तो वह नशे से होने वाले अपराध का एक बड़ा संकेत और सुबूत है।
रायगढ़ में अभी हुई इस ताजा हत्या का मामला पति के नशे से थकी हुई पत्नी का है, और कानूनी या गैरकानूनी नशा किस तरह परिवारों को खत्म करता है, उसका यह बड़ा सुबूत है। अब ऐसे जोड़ों में एक मर जाए, दूसरे को जेल हो जाए, तो जाहिर है कि उनके बच्चों की जिंदगी भी खत्म हो जाती है। हम पारिवारिक हिंसा के पीछे की कई वजहों में से नशे को एक बड़ी वजह पाते हैं, और इस पहलू से भी समाजशास्त्रीय अध्ययन होना चाहिए। महज जुर्म, जांच, मुकदमा, और सजा, इससे समाज में कोई सुधार नहीं आ सकता, ऐसे जुर्म और ऐसी हिंसा की वजहों को समझना और उन्हें दूर करना जरूरी है। ऐसे पहलू बहुत से हैं, लेकिन हमने उनमें से कुछ की चर्चा आज यहां की है, लोग अपने आसपास इस तरह के तनाव से गुजर रहे परिवारों की मदद करने की कोशिश भी कर सकते हैं।
ओडिशा की एक खबर है कि वहां गंजाम में एक स्कूटर और मोटरसाइकिल की आमने-सामने टक्कर हो गई, दोनों पर तीन-तीन लोग सवार थे, चार लोग मौके पर मारे गए, एक की मौत अस्पताल के रास्ते पर हुई, और बचे एक व्यक्ति की हालत गंभीर है। ये सारे लोग 30 से 43 बरस उम्र के बताए जाते हैं। आज ही छत्तीसगढ़ के जांजगीर की एक खबर है कि आमने-सामने दो मोटरसाइकिलों की टक्कर हो गई, एक की मौत हुई है, और दो गंभीर हैं। ओडिशा के इस सडक़ हादसे को हादसा कहना पता नहीं कितना जायज होगा क्योंकि जब दुपहिया पर तीन बड़े लोग चल रहे हैं, और रात के धुंध में सफर कर रहे हैं, और टक्कर इतनी जोरों की हुई है कि चार लोग मौके पर ही मर जा रहे हैं, तो इसे हादसे के बजाय लापरवाही और गैरजिम्मेदारी से हुई मौत कहना बेहतर होगा। इनमें से कई मौतें तो टाली जा सकने वाली रही होंगी, और अगर दुपहिए पर दो-दो लोग ही चलते, और चारों लोग हेलमेट लगाए रहते, रफ्तार काबू में रहती, तो हो सकता है कि मौतें कम हुई होतीं, या नहीं हुई होतीं। हम अपने अखबार में सडक़ दुर्घटनाओं को कम करने के लिए लगातार जनजागरण अभियान चलाते हैं, और लोगों को दुपहिए पर चलते हुए हेलमेट लगाने को कहते हैं, अपने यूट्यूब चैनल पर भी हर एक दिन की आड़ से इसकी अपील करते हैं। और सडक़ों पर दुपहिए वालों की जितनी मौतें हम देखते हैं, उनमें से शायद ही किसी में हेलमेट दिखता हो, और सिर दिमाग का सबसे नाजुक हिस्सा रहता है, और उसमें लगी गंभीर चोट के बाद बचने की कोई गुंजाइश नहीं रहती है।
अभी सडक़ सुरक्षा का राष्ट्रीय सप्ताह मनाया जा रहा है, और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री ने हेलमेट के साथ एक आयोजन में इस सप्ताह की शुरूआत की। वैसे भी बीच-बीच में कुछ जिलों के एसपी ने लोगों को हेलमेट भेंट भी किए, लेकिन कुल मिलाकर हमारा देखा हुआ है कि किसी मुहिम की तरह हेलमेट को लागू किया जाता है, और शायद दो-चार हफ्तों के भीतर ऐसी मुहिम ठंडी पड़ जाती है। जनता का एक बड़ा हिस्सा गैरजिम्मेदार रहता है, या सस्ती राजनीति करने वाले लोग उसे गैरजिम्मेदार बनाए रखने का काम करते हैं, ऐसे लोग हेलमेट को लागू करने का अभियान जब भी चलता है, उसके खिलाफ आवाज उठाने लगते हैं, और गैरजिम्मेदार जनता को उकसाने भी लगते हैं। इस राज्य में हमने पिछली चौथाई सदी में बार-बार देखा है कि जो पार्टी सत्ता पर रहती है वह तो हेलमेट का विरोध कुछ कम करती है, लेकिन जो पार्टी विपक्ष में रहती है, वह हेलमेट का विरोध इस अंदाज में करने लगती है कि जनता के सिर और दिमाग को बचाने की तानाशाही सरकार कैसे कर सकती है, वे जनता को उकसाने लगते हैं कि हेलमेट की जरूरत नहीं है, और वे अफसरों को मजबूर देंगे कि वे ऐसा अभियान बंद करें। और ऐसा होता भी है। आमतौर पर ऐसे गैरजिम्मेदार अभियान वे नेता चलाते हैं, जो खुद तो सुरक्षित बड़ी-बड़ी कारों में चलते हैं, और लोगों पर हेलमेट का नियम लागू करने का विरोध करते हैं। किसी अफसर ने अपने जिले या शहर में ऐसा अभियान शुरू किया, तो उसके तबादले की बात भी होने लगती है। कई बार सत्तारूढ़ पार्टी को लगता है कि हेलमेट से नाराज जनता अगले चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी को हरा देगी।
अब ट्रैफिक का यह नियम सरकार की कमाई करने के लिए नहीं बना है, न ही यह पुलिस महकमे की जिंदगी बचाने के लिए बना है, बल्कि यह आम लोगों को जागरूक करके उनके अपने सिर को बचाने के लिए बना है, और मानो यह सुरक्षा राजनीतिक दलों को खटकने लगती है, और वे सिरों को खतरे में डालने पर आमादा हो जाते हैं। कुछ ऐसा ही कारों में सीट बेल्ट लगाने को लेकर, गाड़ी चलाते मोबाइल पर बात न करने को लेकर भी होता है जिसमें स्थानीय नेता अपनी ताकत दिखाने के लिए पुलिस के अभियान के खिलाफ उठकर खड़े हो जाते हैं, और जनता की अराजकता को बचाने वाले बनने लगते हैं। जहां लोगों की जिंदगी बचानी चाहिए, वहां ऐसे नेता लोगों की अराजकता को बचाना शोहरत पाने का एक जरिया बना लेते हैं। हमारा तो यह मानना है कि ट्रैफिक सुरक्षा के लिए साल में कोई एक हफ्ता मनाना कुछ वैसा ही है जैसा साल में एक हफ्ता साफ हवा का मनाना होगा, मानो बाकी 360 दिन प्रदूषित में कोई बुराई नहीं है। जब सडक़ों पर ट्रैफिक 365 दिन रहता है, तो उसकी सुरक्षा का कोई हफ्ता कैसे हो सकता है? दूसरी बात यह भी है कि अगर सडक़ों पर नियम किसी एक गाड़ी के लोग तोड़ते हैं, तो उससे दूसरे लोगों की जिंदगी भी खतरे में पड़ती है, और ऐसा खतरा खड़ा करने की आजादी पुलिस किसी को भी कैसे दे सकती है? पुलिस के पास ऐसा अधिकार कैसे आ सकता है कि नियम तोडऩे वाले लोगों पर कार्रवाई न करे? किसी नियम को लागू न करने से अगर बाकी लोगों की जिंदगी भी खतरे में पड़ती है, तो कुछ चुनिंदा लोगों की लापरवाही और गैरजिम्मेदारी को अनदेखा कैसे किया जा सकता है?
क्लिक करें और यह भी देखें... सुनील से सुनें : साल में देश में 75 हजार ऐसी मौतें!
लेकिन आमतौर पर देखने में यही आता है कि सडक़ों पर लापरवाही रोकने के काम को एक मुहिम या अभियान की तरह चलाया जाता है, और बाकी वक्त अराजकता को आजादी दे दी जाती है। अब पता नहीं बात-बात पर लोगों को अदालत तक जाने की सलाह देना कितना जायज है या नहीं है, लेकिन ऐसा लगता है कि जिस तरह लाउडस्पीकरों पर रोक के लिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को दखल देनी पड़ती है, उसी तरह ट्रैफिक की हिफाजत लागू करने के लिए भी अदालत लगेगी। सरकारें अपने हिस्से का काम करना तब तक जरूरी नहीं मानतीं जब तक हाईकोर्ट या उससे बड़ी अदालत लाठी लेकर उसे लागू करवाने पर उतारू न हो जाएं। यह नौबत ठीक नहीं है, अदालतों को इसलिए नहीं बनाया गया है कि वे सरकारों से उनकी न्यूनतम जिम्मेदारी पूरी करवाने के लिए उन्हें कटघरे में खड़ा करवाएं। छत्तीसगढ़ सहित चार और राज्यों में अभी नई सरकारों ने काम संभाला है, अभी कई किस्म की नई बातें यहां लागू हो सकती हैं, और हमारी सलाह यह है कि हेलमेट, सीट बेल्ट लागू करवाने, और वाहन चलाते मोबाइल पर रोक जैसे एकदम बुनियादी नियमों को तुरंत पूरी कड़ाई से लागू करना चाहिए, और हिन्दुस्तान के ही जिन शहरों में ये नियम एक बार ठीक से लागू हो गए हैं, तो वहां पर उन पर अमल चलते ही रहता है।
दुनिया के रईसों से गरीबों के भले की खबर भूले-भटके ही आती है। ऐसे में अभी दाओस में होने जा रहे वल्र्ड इकॉनॉमिक फोरम के सम्मेलन के सामने जब दुनिया के सैकड़ों खरबपतियों और अरबपतियों ने एक चिट्ठी लिखकर भेजी है कि दुनिया के अतिसंपन्न लोगों पर टैक्स बढ़ाया जाए, और उन्हें अधिक टैक्स देकर खुशी होगी। इसके लिए प्राउड टू पे मोर नाम की एक वेबसाइट भी बनाई गई है, और उसमें अतिसंपन्न लोगों के इस समूह ने अपना बड़ा सीधा-सरल संदेश पोस्ट किया है- निर्वाचित नेताओं को हम पर, अतिसंपन्न लोगों पर अधिक टैक्स लगाना चाहिए, हमें ऐसा करके फख्र हासिल होगा। इन कारोबारियों ने यह भी लिखा है कि अपने इस बड़े सीधे और सरल सुझाव को वे तीन बरस से दुहरा रहे हैं कि आप अतिसंपन्न टैक्स लोगों पर टैक्स कब बढ़ाएंगे? उन्होंने कहा कि अगर दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं के निर्वाचित जनप्रतिनिधि दुनिया में आर्थिक असमानता में खुद चुकी गहरी और चौड़ी खाई को कम करने के लिए कदम नहीं उठाएंगे, तो इससे समाज तबाही की तरफ बढ़ेगा। उन्होंने इस खुली चिट्ठी में लिखा है कि न्यायसंगत टैक्स की हमारी कोशिश कोई बहुत क्रांतिकारी सोच नहीं है, बल्कि यह आज की आर्थिक स्थितियों के एक आंकलन पर आधारित समानता की तरफ एक कदम भर है। इस चिट्ठी में कहा गया है कि आर्थिक असमानता ऐसे भयानक स्तर पर पहुंच गई है कि इससे अर्थव्यवस्था, समाज, और पर्यावरण का संतुलन सभी कुछ खतरे में पड़ गया है, और ये खतरा हर दिन बढ़ते चल रहा है। इस चिट्ठी में लिखा गया है कि हम एक बड़ी सरल और आसान अपील कर रहे हैं, समाज के हमारे जैसे सबसे रईस लोगों पर टैक्स बढ़ाया जाए। इससे हमारे जीवनस्तर पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, न ही इससे हमारे बच्चों का हक छिनेगा, न इससे हमारे देशों की आर्थिक प्रगति को नुकसान होगा, बल्कि इससे कुछ लोगों में सीमित अनुत्पादक निजी संपत्ति सार्वजनिक लोकतांत्रिक भविष्य में इस्तेमाल हो सकेगी। इस चिट्ठी में यह भी लिखा गया है कि अतिसंपन्न लोग दान देकर, या समाज सेवा करके ऐसा समाधान नहीं पा सकते, अलग-अलग लोगों की अलग-अलग कोशिशें आज की दानवाकार असमानता को कम नहीं कर सकती। हमारी सरकारों और हमारे नेताओं को पहल करने की जरूरत है, और हम एक बार फिर आपके पास यह अर्जेंट अनुरोध लेकर आए हैं कि आप कार्रवाई करें, अपने राष्ट्रीय स्तर पर भी, और एक अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी। चिट्ठी में आगे लिखा गया है कि इसमें होने वाली देर का हर पल मौजूदा खतरनाक आर्थिक यथास्थिति को और मजबूत करते चल रहा है, और लोकतांत्रिक मूल्यों को खतरे में डाल रहा है, और इस नौबत को हमारे बच्चों और उनके बच्चों तक जारी रख रहा है। इन सैकड़ों अरब-खरबपतियों ने लिखा है- कि हम न सिर्फ अपने पर अधिक टैक्स चाहते हैं, बल्कि हम यह मानते हैं कि हम पर अधिक टैक्स लगाया ही जाना चाहिए। हम ऐसे देशों में रहने पर गर्व महसूस करेंगे जहां हमारे निर्वाचित नेता ऐसा करके असमानता को पाटेंगे, और पूरे समाज का बेहतर भविष्य बनाएंगे।
सैकड़़ों अतिसंपन्न अरब-खरबपतियों की इस चिट्ठी में लिखा गया है- हमें भयानक असमानता को दूर करने के लिए अधिक टैक्स देकर फख्र हासिल होगा। हम अधिक टैक्स देकर दुनिया के कामकाजी लोगों की जिंदगी के खर्च को घटाना चाहेंगे। हम अगली तमाम पीढ़ी को बेहतर शिक्षा देने के लिए भी अधिक टैक्स देना चाहते हैं। हम इसलिए भी अधिक भुगतान करना चाहते हैं कि दुनिया में इलाज अधिक आसानी से हासिल हो, दुनिया का बेहतर ढांचा बन सके, पर्यावरण को बचाए रखकर विकास किया जा सके।
जैसा कि इस चिट्ठी से पता लगता है कि इस ढाई सौ से अधिक लोगों के दस्तखत हैं, और इसमें दुनिया की सबसे चर्चित कंपनियों, और सबसे चर्चित अतिसंपन्न लोगों के नाम हैं। इनमें से कुछ लोगों ने यह कहा है कि उन्हें विरासत में दौलत का यह भंडार मिला है, और उसकी शक्ल में उन्हें असीमित ताकत मिली है, जिसके लिए उन्होंने खुद कोई मेहनत नहीं की है। ऐसी एक ऑस्ट्रेलियन महिला ने कहा कि उन्हें अपनी दादी की वसीयत से अरबों-खरबों की दौलत मिल गई, और सरकार उस पर कोई टैक्स लगाना नहीं चाहती है। मार्लिन एंजलहॉर्न नाम की यह महिला स्विटजरलैंड के दाओस में वल्र्ड इकॉनॉमिक फोरम के आयोजन के दौरान अतिसंपन्न लोगों के एक समूह में शामिल होकर अधिक टैक्स की मांग करते हुए विरोध-प्रदर्शन करने वाली हैं। ऑक्सफैम नाम की संस्था की एक रिपोर्ट में बताया गया है-दुनिया में दो हजार से अधिक खरबपति हैं, जो कि 2020 के मुकाबले अभी और संपन्न हो गए हैं। दूसरी तरफ पूरी दुनिया में पांच अरब से अधिक लोग पहले से गरीब हो गए हैं।
भारत जैसी सोच को देखें तो यह कल्पना भी नहीं हो सकती कि ऐसे ढाई सौ अतिसंपन्न लोगों में हिन्दुस्तान के भी कोई होंगे। यहां के कारोबारी, उद्योगपति और व्यापारी, टैक्स सलाहकारों की मदद लेकर सरकार से एक-एक बूंद रियायत निचोड़ लेना चाहते हैं, और उसके बाद फिर समाज सेवा के नाम पर पहले से तैयार रखे गए कैमरों के सामने वे छोटा-मोटा दान करते हैं। दो-चार ऐसे बड़े कारोबारी भी हैं जिन्होंने अपनी दौलत के आधे हिस्से को समाज के लिए देना तय किया है, लेकिन वे भी अपनी पसंद के दायरों में समाज सेवा करते हैं, और सरकार के रास्ते आम और गरीब जनता का एक व्यापक फायदा उससे नहीं हो पाता है। यह एक अलग बात है कि सरकार के माध्यम से समाज सेवा करना लोगों को इसलिए जायज नहीं लगता है कि सरकारी ढांचे में दान और समाज सेवा का भी एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार में निकल जाता है, भारत जैसे देश में यह भी एक वजह है कि सचमुच के ही समाजसेवी लोग भी अपने ट्रस्ट बनाकर समाज सेवा करते हैं, बजाय सरकार को दान देने के। हिन्दुस्तान में लोग सरकार को अधिक टैक्स भी देना नहीं चाहते कि उसका एक बड़ा हिस्सा भी भ्रष्टाचार में ही खत्म हो जाएगा। लेकिन हिन्दुस्तानी अतिसंपन्न तबके को देखें, तो उसमें अपने पर टैक्स बढ़ाने की मांग करने वाले नहीं दिखेंगे। लोग कोई भी त्याग उसी व्यवस्था के तहत करना चाहते हैं, जो भ्रष्टाचार और गबन में डूबी हुई न हो। इसलिए भारत के संदर्भ में इस बारे में अधिक बात मुमकिन नहीं दिखती है, लेकिन दुनिया के जिन देशों में सरकारें ईमानदार हैं, वहां पर अगर अतिसंपन्न लोगों पर टैक्स बढ़ाकर समाज में आर्थिक समानता लाई जा सकती है, तो वह एक बड़ी बात होगी। और संपन्न लोगों की इस मिसाल को हिन्दुस्तान के उस दर्जे के लोगों को देखना चाहिए, और उससे कुछ सीखना चाहिए। सरकार पर भरोसा न हो तो खुद के ट्रस्ट बनाकर, टैक्स-छूट पाने से परे भी गरीबों का भला करना चाहिए। आर्थिक असमानता को दूर करना पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए भी एक बेहतर नौबत रहती है, और कारोबारी दुनिया को भी उसे समझना चाहिए।
भारत के पड़ोस में एकाएक देशों के बीच तनातनी बढ़ी हुई दिख रही है जिससे हिन्दुस्तान सीधे तो प्रभावित नहीं हो रहा है, लेकिन यह जटिलता अगर और बढ़ती है तो हिन्दुस्तान के लिए कुछ गंभीर सोच-विचार की नौबत आ खड़ी होगी। ईरान अभी अपने से लगे हुए तीन देशों पर चुनिंदा ठिकानों पर हमले किए, और उसे आतंकियों पर हमला करार दिया जो कि ईरान के भीतर आतंकी हमले कर रहे थे। पाकिस्तान में उसने बलूचिस्तान में एक ऐसे आतंकी समूह पर ड्रोन और मिसाइल से हमला किया जिस पर उसका शक है कि उसने ईरानी सैनिकों को मारा है, और अभी दिसंबर में ही एक ईरानी थाने पर आतंकी हमले में 11 पुलिस अधिकारी मारे गए थे। इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हुए ईरान ने बलूचिस्तान में बसे हुए जैश-अल-अदल नाम के इस सुन्नी आतंकी समूह पर हमला किया है। इसके जवाब में आज पाकिस्तान ने ईरान के एक हिस्से में बसे हुए ऐसे बलूच लोगों पर हमला किया है जिन पर पाकिस्तानी सीमा के भीतर आतंकी हमले करने का आरोप है। दोनों ही देशों में तनातनी इतनी बढ़ी है कि एक-दूसरे देश से राजदूत वापिस बुला लिए गए हैं। ईरान ने पाकिस्तान के अलावा सीरिया और इराक में भी चुनिंदा ठिकानों को फौजी निशाना बनाया है, और ईरान का यह कहना है कि इन दोनों जगहों पर बसे हुए आतंकी ईरान में आतंकी हमले कर रहे थे। इस पूरी तनातनी को इस बात से भी जोडक़र देखने की जरूरत है कि अभी ईरान के पास के फिलीस्तीन-इजराइल के बीच जंग सी छिड़ी हुई है, और ऐसे आरोप हैं कि फिलीस्तीन पर काबू वाले हमास नाम के हमलावर संगठन को ईरान से मदद मिलती है, और इसी मदद से वह इजराइल से लड़ रहा है, यह एक अलग बात है कि इन दोनों की फौजी ताकत का कोई मुकाबला नहीं है, और इजराइल की बहुत मजबूत फौज के मुकाबले कुछ हजार हमास लड़ाके ही मामूली और हाथ से बनाए हुए हथियारों से लड़ रहे हैं। इसी के साथ-साथ एक तीसरे मोर्चे को भी समझने की जरूरत है जिसमें यमन में बसे हुए हूथी नाम के हथियारबंद आतंकी संगठन ने उसके पास से गुजरने वाले मालवाहक समुद्री जहाजों पर छांट-छांटकर हमले करना जारी रखा है जो कि उसके हिसाब से इजराइल से जुड़े हुए कारोबारी जहाज हैं, और इन हमलों को रोकने के लिए अमरीकी और ब्रिटेन की फौज ने यमन में हूथी अड्डों पर अभी हवाई हमले किए हैं, और इनसे यह खतरा भी खड़ा हो रहा है कि इजराइल-फिलीस्तीन संघर्ष इस इलाके में कुछ दूसरे देशों को भी खींच सकता है।
इस पूरे मामले को बारीकी से देखें, तो ईरान अमरीका का जानी-दुश्मन है, और उसे कुछ या अधिक हद तक रूस और चीन का समर्थन हासिल है क्योंकि इन दोनों बड़े देशों की अमरीका के साथ हमेशा ही कई किस्म की तनातनी चलती रहती है। ईरान और आसपास के कुछ दूसरे मुस्लिम और इस्लामिक देशों में एक धार्मिक तनातनी भी बनी रहती है क्योंकि ईरान एक शियाबहुल इस्लामी देश है, और अड़ोस-पड़ोस के दूसरे देश सुन्नी मुस्लिम देश हैं। फिर अफगानिस्तान, इराक, सीरिया, पाकिस्तान जैसे कई देशों में अमरीका की सीधी फौजी दिलचस्पी है, और कुछ देशों में अमरीका के फौजी ठिकाने भी है। चीन और रूस भी इन देशों में तरह-तरह की दखल रखते हैं। इस तरह आज जितने मोर्चे इस इलाके में खुल गए हैं, उसमें दुनिया की तीन सबसे बड़ी फौजी ताकतें कुछ या अधिक हद तक उलझ गई हैं, और इसे कम जटिल नहीं समझना चाहिए। हम खासकर भारत जैसे देश को लेकर यह बात करना चाहते हैं क्योंकि उसके अमरीका और इजराइल से भी बड़े गहरे रिश्ते हैं, रूस से भी भारत ने अपने संबंध यूक्रेन की जंग के बावजूद सामान्य बनाकर रखे हैं, और पाकिस्तान के खिलाफ ईरान की फौजी कार्रवाई होते ही भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ईरान पहुंच भी गए हैं, और ईरानी मिसाइल हमले का समर्थन किया है। अब यह पूरा मामला अभी तक इन तमाम फौजी मोर्चों में शामिल न रहने वाले हिन्दुस्तान के लिए भी कुछ जटिल नौबत है, क्योंकि भारत पाकिस्तान को आतंकियों की पनाहगाह कहते आया है, और अगर ईरान यही बात कहते हुए पाकिस्तान के कुछ ठिकानों पर हमला कर रहा है, तो यह एक किस्म से भारत को माकूल बैठने वाली बात है। मध्य-पूर्व के पूरे इलाके में आज तनाव जिस तरह फैल रहा है, और ईरान के एक साथ तीन पड़ोसी देशों पर हमले मामूली संयोग नहीं है, बल्कि इसे यमन में हूथी ठिकानों पर हुए पश्चिमी फौजी हमले की रौशनी में भी देखा जाना चाहिए। अभी एक पहलू को हम नहीं छू रहे हैं, इजराइल के बगल में लेबनान के हिजबुल्ला नाम के एक संगठन पर भी इजराइल का निशाना है, और फिलीस्तीन के हमदर्द हिजबुल्ला के खिलाफ इजराइल एक फौजी मोर्चा खोल सकता है।
ऐसी तमाम जटिलताओं की कोई आसान व्याख्या अभी संभव नहीं है। दूसरी तरफ यह बात जाहिर है कि ईरान और इजराइल लंबे समय से एक-दूसरे के खात्मे की हसरत पाले हुए हैं। ऐसा भी माना जा रहा है कि इजराइल पहला मौका मिलते ही ईरान के परमाणु ठिकानों पर हमला करना चाहेगा, ताकि ईरान इजराइल के अस्तित्व पर एक खतरा बना हुआ न रहे। फिर इस नौबत को रूस और यूक्रेन में चल रही जंग से भी जोडक़र देखने की जरूरत है जो कि कुछ दिनों या कुछ हफ्तों में खत्म हो जाने वाली मानी जा रही थी, और उसे चलते हुए एक बरस से अधिक कब का हो चुका है। उस जंग में यूक्रेन के कंधों पर बंदूक धरकर तमाम नाटो देश जिस तरह रूस को खोखला करने में लगे हुए हैं, उस प्रॉक्सीवॉर को समझने की जरूरत है। कुछ उसी तरह का प्रॉक्सीवॉर हमास, हिजबुल्ला और हूथी जैसे संगठनों की फौजी मदद करके ईरान सरीखे कुछ देश चला रहे हैं, और यह इजराइल की फौजी और आर्थिक ताकत को उलझाने का एक काम है। मध्य-पूर्व का यह इलाका अमरीका-इजराइल गठबंधन को उलझाकर उसे कमजोर करने का एक काम भी हो सकता है, जिस तरह यूक्रेन की मदद करके नाटो देश रूस को खोखला कर रहे हैं। इन तमाम मोर्चों पर अमरीका ने अपने फौजियों को अलग रखा है ताकि कहीं से ताबूत घर न लौटें। लेकिन फौजी और दीगर मदद करके गाजा को भी अमरीका एक कब्रिस्तान में बदल चुका है, उसे दुनिया का सबसे बड़ा मलबा भी बना चुका है, और हिटलर के जुल्मों के बाद शायद गाजा जुल्म का सबसे बड़ा शिकार दिख रहा है।
दुनिया के लोगों को जंग और हमलों की, आतंकी कारनामों की जटिलताओं को ठीक से समझना होगा, इन बातों को टुकड़़ा-टुकड़ा समझना मुश्किल होगा, और इनमें से हर जंग को दुनिया के कारोबारी मुकाबलों से भी जोडक़र देखना होगा।
अभी भारत में खबरों और सोशल मीडिया का एक हिस्सा एक ऐसे विमान में मुसाफिर के बनाए गए वीडियो पर है जिसमें करीब 12 घंटे लेट हो चुकी उड़ान के थके हुए मुसाफिरों में से एक ने और अधिक देर की घोषणा करते हुए पायलट पर हमला कर दिया था। कुछ लोगों का कहना है कि मुसाफिर इस असाधारण देरी से थके हुए थे जिसमें उन्हें घंटों विमान के भीतर बैठना पड़ा था। देश के लोग इस वीडियो के साथ तरह-तरह की बातें लिख रहे हैं जिनमें विमान सेवाओं के खराब होने की बात भी है। जिस विमान कंपनी की उड़ान में यह घटना हुई है वह कंपनी आमतौर पर अपनी उड़ानों के समय पर चलने के लिए जानी जाती है। लेकिन इन दिनों मौसम की वजह से पूरे देश में सैकड़ों उड़ानें देर से चल रही हैं, कई लोग प्लेन छोडक़र ट्रेन से जाना चाह रहे हैं, तो रेलगाडिय़ां रद्द हैं, और सडक़ के रास्ते जा रहे हैं तो धुंध और कोहरे में बहुत से एक्सीडेंट भी हो रहे हैं। कुछ लोगों ने यह सलाह भी सोशल मीडिया पर दी है कि जब तक टालना मुमकिन हो, इस मौसम में सफर न किया जाए। लोग पूरे-पूरे दिन एयरपोर्ट पर फंसे हैं, रवाना किसी शहर के लिए होते हैं, विमान को किसी दूसरे शहर पर उतरना पड़ता है, और यह सलाह सचमुच मायने रखती है कि अगर टाला जा सके तो सफर न करें, लोग घर से निकलते तो उर्दू के सफर (यात्रा) पर हैं, लेकिन उन्हें अंग्रेजी का सफर (यातना झेलना) करना पड़ता है।
अब उड़ानों में देर तो ठीक है, लेकिन हिन्दुस्तान में पिछले कुछ बरसों में देश भर में हर दिन दर्जनों रेलगाडिय़ां रद्द हो रही हैं, और यह बात कोहरे के मौसम की वजह से नहीं है, यह पिछले कुछ बरसों से लगातार चल रहा है। हमारे पास अभी आंकड़े नहीं हैं, लेकिन हजारों रेलगाडिय़ां रद्द हो रही हैं, और मजे की बात यह है कि जो चल रही हैं, वे भी घंटों देर से चल रही हैं, दिन की गाड़ी रात में आती है, और रात की गाड़ी दिन में। फिर हर मुसाफिर से अधिक से अधिक उगाही कीसरकारी और निजी साजिश के चलते स्टेशन पर लेट ट्रेन के मुसाफिरों को वेटिंग हॉल में बैठने का हर घंटे भुगतान करना पड़ता है, उन्हें छोडऩे आए लोगों को अतिरिक्त प्लेटफॉर्म टिकट लेनी पड़ती है। अब अगर ट्रेन के कोई मुसाफिर बौखलाकर ट्रेन के ड्राइवर या गार्ड पर हमला करने लगें, तो क्या होगा? एयरपोर्ट के मुकाबले स्टेशनों की हालत अधिक तकलीफदेह रहती है, और मौसम की सबसे बुरी मार प्लेटफॉर्म पर सीधे पड़ती है। ऐसे में एक प्लेन के मुकाबले एक ट्रेन में कई गुना अधिक मुसाफिर रहते हैं, और हमले के ऐसे खतरे और अधिक हो सकते हैं, लेकिन होते नहीं हैं। ऐसा शायद इसलिए है कि हवाई मुसाफिरों की संपन्नता उन्हें रेलगाड़ी के मुसाफिरों के मुकाबले अधिक आक्रामक बना देती हैं, उनकी ताकत भी अधिक रहती है, और मुसीबत पर बचने की उनकी क्षमता भी अधिक रहती है। इस वजह से हवाई जहाजों में ऐसी घटनाएं अधिक दिखाई और सुनाई पड़ती हैं, और ट्रेन के गरीब मुसाफिर जानते हैं कि किसी मुसीबत की नौबत में उनके लिए बचना मुश्किल रहेगा।
दूसरी तरफ हवाई मुसाफिरों में गिनती कम रहने पर भी उसके लोग अधिक बड़े ओहदों पर बैठे हुए रहते हैं, वे अधिक ताकतवर रहते हैं, और उन्हें आम जुबान में अधिक महत्वपूर्ण भी कहा जाता है। इसलिए दर्जनों ट्रेनें रद्द होने की खबर जितनी बड़ी नहीं बनती, उतनी बड़ी खबर एक उड़ान के रद्द होने से बन जाती है, वहां एयरपोर्ट से वीडियो और तस्वीरें भेजने वाले लोग मीडिया में असर रखने वाले रहते हैं, और उनकी तकलीफ मीडिया के सिर चढक़र बोलती है। एक उड़ान की गड़बड़ी से ऐसा माहौल बनने लगता है कि पूरा देश गड़बड़ा गया है, दूसरी तरफ ट्रेनों में डिब्बे घटते जा रहे हैं, ट्रेनें रद्द होती जा रही हैं, उनका कोई वक्त नहीं रह गया है, टिकटों सहित और किस्म की चीजों के रेट बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन मीडिया के लिए एयरपोर्ट और उड़ान अधिक बड़ी खबरें रहती हैं। यह दुनिया का रिवाज ही है कि ताकतवर का दर्द अधिक बड़ा रहता है, और बहुत अधिक ताकतवर के मां-बाप गुजरें, तो भी चापलूस लोग अपना सिर मुंडाने लगते हैं। अब मीडिया के कई लोगों को चापलूस शब्द बुरा लग सकता है, लेकिन जब वर्गहित की बात देखें, तो यह समझ आता है कि मीडिया का वर्ग देश के दलित, शोषित, और गरीब तबके के लोग नहीं हैं, उसका वर्ग विज्ञापनदाता तबका है, और उसी के हितों के लिए मीडिया अधिक फिक्रमंद रहता है।
देश के तमाम सांसदों, और विधायकों को जिस तरह मुफ्त में हवाई सफर का हक हासिल है, उसका भी नतीजा है कि देश और प्रदेश की पंचायतों में जिन मुद्दों को उठना चाहिए, उनमें रेलगाडिय़ों के बारे में अधिक बात नहीं होती है। सत्ता पटरियों पर नहीं चलती, सत्ता महज उड़ती है। न निर्वाचित नेता, और न ही बड़े अफसर, इनमें से कोई ट्रेन का सफर नहीं करते, यही वजह है कि हजारों रेलगाडिय़ां रद्द होने पर भी देश में यह मुद्दा नहीं है, क्योंकि जिस मीडिया को मुद्दे तय करना होता है, वह खुद भी ट्रेन से नहीं चलता, उसके नामी-गिरामी से लेकर आम लोगों तक, तमाम लोग प्लेन से चलते हैं, और उनके लिए वहां का सुख सुख है, और वहां का दुख दुख। इस नौबत को एक दूसरे तरीके से भी देखने की जरूरत है कि देश की संसद और विधानसभाओं में धीरे-धीरे करके जिस तरह करोड़पति और अरबपति भरते चले गए हैं, उसकी वजह से भी अब गरीबों और मध्यमवर्ग के लोगों की दिक्कतों की समझ सदन और विधानसभा में घटती चली गई है। लोकतंत्र का अब यही तौर-तरीका बच गया है, क्योंकि कम संपन्न उम्मीदवारों का टिकट पाना कम हो गया है, जीत पाना तो और भी कम हो गया है। इस हाल में आम लोगों की दिक्कतें कहां तक पहुंचेंगीं, और क्या वे कभी सुलझ भी पाएंगी, यह अंदाज लगा पाना मुश्किल है। फिलहाल उडऩे वाले लोग हवा में धूल होने की शिकायत करते रहें, और पटरियों पर रेंगने वाले बेजुबान लोग चुपचाप मीडिया की बेरुखी देखते रहें।