विचार / लेख

सोशल मीडिया आखिरकार कितना सोशल ?
28-Oct-2020 12:23 PM
सोशल मीडिया आखिरकार कितना सोशल ?

-डॉ. संजय शुक्ला

सोशल मीडिया प्लेटफार्म फेसबुक के भारत के पब्लिक पॉलिसी डायरेक्टर आंखी दास के फेसबुक से इस्तीफा देने की खबर आज के अखबारों की सुर्खियां बनींं। गौरतलब है कि आंखी दास पिछले कुछ दिनों से देश के विपक्षी सियासी दलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के निशाने पर थीं। इनका आरोप था कि फेसबुक भाजपा नेताओं के हेट स्पीच, आपत्तिजनक सामग्रियों को प्लेटफार्म से हटाने में पक्षपात और कोताही बरत रही है और इसमें आंखी की भूमिका है। इस मामले में वे हाल ही में संसदीय समिति के सामने पेश भी हुई थीं। 

बहरहाल वैश्विक महामारी कोरोना के मौजूदा दौर में जब आम लोगों तक पारंपरिक मीडिया की पहुँच सीमित है और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भूमिका पक्षपातपूर्ण और अतिरंजित हैतब सोशल मीडिया की भूमिका एक बार फिर सवालों के घेरे में है। आम आदमी का संसद माने जाने वाली सोशल मीडिया अब देश के राजनीतिक, सांप्रदायिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सौहार्द्र के लिए अनेक मुसीबतें  खड़ी कर रही है। 

हाल ही मेंं केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट मेंं कहा है कि डिजिटल मीडिया जिसकी पहुंच सोशल मीडिया मेंं काफी तेज है अपने आपत्तिजनक और अश्लील वेब सीरिज, सांप्रदायिक और जातिगत आरक्षण पर केंद्रित कार्यक्रमों के कारण अनियंत्रित है। दूसरी ओर सोशल मीडिया प्लेटफार्म मेंं  वायरल हो रहे अनेक आपत्तिजनक और अश्लील कंटेंट्स , फोटो व मीम, फेक न्यूज, हिंसात्मक गतिविधियों को उकसाने व अशिष्ट आचरण के कारण देश का राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक सौहार्द्र बिगड़ रहा है।  
बहरहाल यह पहला अवसर नहीं है जब सोशल मीडिया के निरंंकुशता पर सरकार और अदालतों ने चिंता जाहिर की हो पहले भी इस मीडिया पर नकेल कसने की कवायद हुई थी लेकिन नतीजा सिफर रहा है। सोशल मीडिया से जुड़े शीर्षस्थ अधिकारी की मानें तो यह मीडिया किसी सुचारू रूप से चल रहे लोकतांत्रिक ढांचे को बहुत हद तक नुकसान पहुंचा सकता है। उपरोक्त तथ्यों की पुष्टि देश में घटित कुछ सांप्रदायिक और जातिवादी हिंसा और राजनीतिक घटनाओं में सोशल मीडिया की भूमिका से होती है। 

गौरतलब है कि इंटरनेट क्रांति के वर्तमान दौर में  सोशल मीडिया का वर्चस्व बड़ी तेजी से बढ़ते जा रहा है, आज हर आयु वर्ग के महिला और पुरुष इस मीडिया से जुड़े हैं लेकिन युवाओं की तदाद काफी ज्यादा है। साल २०१४ की तुलना में अब देश में इंटरनेट यूजर्स की संख्या में १०८ फीसदी और सोशल मीडिया यूजर्स में १५५ फीसदी का इजाफा हुआ है। यह एक ऐसा माध्यम है जिसने दशकों पुराने पारंपरिक मीडिया को पीछे छोड़ दिया है परंतु अब इस मीडिया का नकारात्मक स्वरूप सामने आने लगा है। 

देश की अनेक विपक्षी राजनीतिक पार्टियों ने पहले भी यह आरोप लगाया था कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म फेसबुक और व्हाट्सऐप पर आरोप लगा रहीं हैं कि ये प्लेटफार्म सरकार नियंत्रित और पक्षपाती हैं तथा फेक न्यूज और नफरत फैला रहे हैं। गौरतलब है कि देश में ३४ करोड़ फेसबुक और ४० करोड़ व्हाट्सऐप यूजर्स है, भारत फेसबुक का सबसे बड़ा बाजार है।

गौरतलब है कि कोरोना लॉकडाउन के दौर में  जब लोग घरों में  कैद थे और सोशल मीडिया में अपना ज्यादातर समय बीता रहे हैं तब यह प्लेटफार्म असहनशील और संवेदनहीन समाज की  तस्वीर  पेश कर नफरत बांट  रहा था। बानगी यह कि मार्च महीने में जब देश में कोरोना ने दस्तक दी और तबलीगी जमात के मरकज के आपराधिक गलती की वजह से देश के विभिन्न हिस्सों में संक्रमण फैला तब कतिपय सोशल मीडिया यूजर्स ने समूचे मुस्लिम समुदाय को  अपने निशाने में ले लिया। प्रतिवाद स्वरूप मुस्लिम समाज के कुछ सिरफिरों ने देश के कई शहरों मेंं डॉक्टरों व मेडिकल स्टॉफ के साथ पथराव और बदसलूकी किया। इस घटना को कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता। 

इन घटनाओं से देश की सांप्रदायिक सद्भाव पर प्रभाव पड़ा जबकि देश का एक बड़ा अमन और तरक्की पसंद मुस्लिम तबका इस प्रकार  के गतिविधियों और जमात से इत्तेफाक नहीं रखता। लॉकडाउन के बाद हजारों प्रवासी मजदूरों के भूखे-प्यासे पैदल घर वापसी के दौरान सडक़ हादसों में कई मजदूरोंं के दर्दनाक मौत के बाद सोशल मीडिया में अनेक यूजर्स के संवेदनहीन प्रतिक्रिया और इस मौत के लिए मजदूरों को ही जिम्मेदार ठहराने की वाकये ने निष्ठुरता की पराकाष्ठा ही पार कर दी। 

सोशल मीडिया में असंवेदनशीलता मशहूर फिल्म अभिनेताओं ऋषिकपूर, इरफान खान, सुशांत राजपूत के मौत पर भी देखने को मिली, अनेक यूजर्स द्वारा  संवेदना की जगह ऋषिकपूर को बीफ खाने तो इरफान को मुस्लिम होने की वजह से लानत और उलाहना के शब्द परोसा गए। युवा अभिनेता सुशांत राजपूत के खुदकुशी पर कई यूजर्स ने इसे कायरता पूर्ण हरकत बताते हुए उनके लिए ओछी टिप्पणियां भी पोस्ट की थी।

मौत और बीमारी पर हर्ष मिश्रित पोस्ट का दौर यहीं नहीं थमा बल्कि सप्रसिद्ध शायर डॉ. राहत इंदौरी और सोशल एक्टिविस्ट स्वामी अग्निवेश के मौत के बाद भी इस प्रकार के पोस्ट सोशल मीडिया में देखी गई। सोशल मीडिया में शब्दों और विचारों के मर्यादा राजनेताओं के बीमारी और मौत पर भी टूट रही हैं आलम यह है कि अनेक राजनेताओं के गंभीर रूप से बीमार होने पर विपरीत राजनीतिक विचारधारा के कतिपय यूजर्स द्वारा संवेदना और स्वास्थ्य लाभ के कामना की जगह अशिष्टतापूर्ण व नफरत वाले संवेदनहीन कमेंट्स पोस्ट किए जाते हैं। 

गौरतलब है कि हाल के दिनों सोशल मीडिया में महिलाओं के प्रति असहनशीलता और आपत्तिजनक कन्टेंट में काफी बढ़ोतरी हुई है। सुशांत राजपूत के खुदकुशी के बाद अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती और कंगना रनौत के राजनीतिक मोहरा बनने के बाद इनके साथ-साथ अन्य अभिनेत्रियों के ड्रग्स के नाम पर जिस तरह सोशल मीडिया पर चरित्र हनन जारी है वह महिलाओं के निजता और मर्यादा को भी तार-तार कर रहा है । 

गौरतलब है कि सोशल मीडिया के इसी दुरूपयोग के मद्देनजर डब्ल्यू. डब्ल्यू. डब्ल्यू. के खोजकर्ता टिम बर्नर्स ने कहा था कि च्इंटरनेट नफरत फैलाने वालों का अड्डा बन गया है।

बहरहाल सोशल मीडिया मेंं महापुरूषों, राजनेताओं और अन्य विशिष्ट क्षेत्रों से जुड़े लोगों के बारे मेंं आपत्तिजनक और मिथ्या खबरें फैलाने, परस्पर भला-बुरा कहने व गालीगलौज करने, धर्म विशेष को बदनाम करने, महिलाओं के खिलाफ अशिष्टता की घटनाओं ने अभिव्यक्ति  की आजादी पर भी सवाल खड़ा किया है आखिरकार बुनियादी मुद्दा व्यक्तिगत निजता और मर्यादा का भी है। 

कोरोनाकाल मेंं सोशल मीडिया केवल असहनशीलता और नफरत को ही बढ़ावा नहीं दे रहा बल्कि यह कोरोना संक्रमण  और उपचार से संबंधित गलत जानकारियां भी परोस रहा है जो महामारी के इस दौर में परेशानियां पैदा कर रहा है। यह आभाषी मीडिया पारिवारिक और मित्रता के रिश्तों में भी खलल डाल रहा है, इस मीडिया की बढ़ती लत दांपत्य जीवन पर प्रतिकूल असर डाल रहा है अथवा विवाहेत्तर संबंधों को बढ़ावा दे रहा है जिसकी परिणति तलाक, खुदकुशी, हत्या, अवसाद और नशाखोरी के रूप मेंं सामने आ रहा है। 

विडंबना है कि जो तकनीक हमें दशकों से बिछड़े यार से मिलाती है, नये दोस्त बनाती है आखिरकार वह अपनों से क्यों जुदा कर रही है? इस त्रासदीकाल में बेंगलुरू में घटित सांप्रदायिक हिंसा और आगजनी के लिए सोशल मीडिया पोस्ट ही जवाबदेह रहा है। बहरहाल सोशल मीडिया जब मानव समाज के लिए वरदान की जगह अभिशाप साबित हो रहा है तब इस प्लेटफार्म मेंं टूटती मर्यादा और बढ़ती असहिष्णुता पर विचार आवश्यक है।

दरअसल इसके पृष्ठभूमि मेंं मानवीय और कानूनी परिस्थितियां जिम्मेदार है, राजनीतिक, धार्मिक और जातिगत पूर्वाग्रह से ग्रस्त लोग अपनी प्रतिक्रिया में इतने अमर्यादित हो जाते हैं कि वे शिष्टता की सारी सीमाएं लांघ जाते हैं वह इसे व्यक्तिगत चुुुनौती मानकर असभ्यता और गाली-गलौज तक पहुंच जाते है जिसकी परिणति एकाउंट से अनफ्रेंड होती है। देश मे सोशल मीडिया और इंटरनेट कानून दशकों पुराने हैं जिसमें बदलाव की दरकार है। सोशल मीडिया कंपनियों को यूजर्स के वेरिफिकेशन, निजता, आपत्तिजनक और गाली-गलौज रोकने संबंधी नियमों को सख्त और पारदर्शी बनाना होगा तभी सोशल मीडिया का स्वरूप सोशल होगा।
 ( लेखक शासकीय आयुर्वेद कालेज ,रायपुर में सहायक प्राध्यापक हैं। )

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