विचार / लेख

लॉकडाउन के दौरान इंटरनेट ना होता, तो क्या होता?
03-Aug-2020 9:51 AM
लॉकडाउन के दौरान इंटरनेट ना होता, तो क्या होता?

-चारु कार्तिकेय

24 मार्च को जब कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने के लिए भारत में लोगों ने अपने घरों के दरवाजे बंद किए थे, उस समय शायद ही किसी ने यह अनुमान लगाया होगा कि कई लोग ये दरवाजे अगले चार महीनों तक नहीं खोल पाएंगे. आम हालात में किसी को 120 दिन घर में बंद करने की कल्पना कीजिए. वो बौरा नहीं जाएगा? हालांकि मैं अभी तक बौराया नहीं हूं. कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगता है. कोई अगर मुझसे पूछे कि बौराने से कैसे बचा रहा, तो मैं समझता हूं इसके तीन कारण हैं - सैलरी का नियमित आते रहना, परिवार का सहारा और इंटरनेट.

यूं तो मैं तालाबंदी के पहले भी इंटरनेट का बहुत इस्तेमाल करता था. वेब पत्रकार होने के नाते, तनख्वाह तो इंटरनेट की बदौलत आती है ही, लेकिन मैं खाली समय में भी इंटरनेट से जुड़ा रहता था. घर और दफ्तर के बीच सफर के दौरान कभी अमेजॉन प्राइम पर कोई सीरीज साथ होती, तो कभी यूट्यूब पर कोई पुरानी फिल्म, कभी किंडल पर कोई किताब तो कभी स्पॉटीफाई पर कोई पॉडकास्ट.

तालाबंदी में इंटरनेट पर निर्भरता और बढ़ गई. घर से बाहर जाना नहीं, दोस्तों-रिश्तेदारों से मिलना नहीं, सिनेमा घर भी बंद पड़े हैं और हाल तक घूमने-फिरने की भी सभी जगहें बंद थीं. ऐसे में कोई दिल को बहलाए भी तो कैसे? दिल को बहलाने और दिमाग को स्थिर रखने के लिए मैंने भी कई लोगों की तरह इंटरनेट का ही सहारा लिया. लेकिन मैंने पाया की इस बार इंटरनेट से जुड़ी मेरी गतिविधियां सिमट गईं.

इंटरनेट पर निर्भरता

पिछले चार महीनों में मैंने ना कोई पॉडकास्ट सुना और ना कोई किताब पढ़ी. दिन भर की आपा-धापी में जो समय खुद के लिए चुरा पाया, उसमें सिर्फ फिल्में और स्ट्रीमिंग सेवाओं पर सीरीज देखीं. पिछले एक महीने से तो एक ही सीरीज से चिपका हुआ हूं. कम्बख्त पीछा ही नहीं छोड़ती. अब जा कर तीसरे और आखरी सीजन पर पहुंचा हूं और उम्मीद कर रहा हूं की हफ्ते भर में इससे पीछा छूटेगा.

कभी कभी मुझे लगता है कि ये इंटरनेट कंपनियों की साजिश है. इस समय तो भारत का टेलीकॉम क्षेत्र इस हाल में है जैसे कोई छेद वाली नाव हो. अब डूबी कि तब डूबी. लेकिन कुछ ही सालों पहले यह क्षेत्र इस कदर फल-फूल रहा था कि जिसकी वजह से लोग आज भी जेबों में 100-200 जीबी डाटा लिए घूम रहे हैं. घर और दफ्तर में वाई-फाई अलग से है. ऐसे में भला कोई स्ट्रीमिंग के अलावा और कुछ क्यों करेगा?

क्या होता अगर मेरे पास इतना इंटरनेट नहीं होता? मुझे ऐसा लगता है कि तब मैं वो किताबें पढ़ता जो या तो लंबे समय से अलमारी की रौनक बढ़ा रही हैं या जिनका ख्याल मेरे जहन में रह रह कर आता है और फिर फिल्म या सीरीज के वजन के नीच दब जाता है. लेकिन ऐसा मुझे सिर्फ लगता है. मैं ऐसा पुख्ता रूप से कह नहीं सकता हूं. इंटरनेट का ना होना अब अकल्पनीय हो गया है, तो ऐसा अगर हो जाए तो क्या होगा, ये संभावनाएं भी कल्पना के परे हैं.

इंटरनेट के बिना

मेरा भाई हाल ही में इस अहसास से गुजरा. वो अफ्रीका के इथियोपिया में रहता है, जहां वैसे भी अच्छा इंटरनेट उपलब्ध नहीं है और उसने खुद को इंटरनेट के चस्के से बचाए रखने के लिए घर पर सीमित इंटरनेट का ही इंतजाम किया हुआ है. इस से उसे काम के बाद इतना खाली समय मिलता है कि वो बागीचे में झूले पर लेट कर धूप सेकता है और एक साथ चार-चार किताबें पढ़ता है. लेकिन हाल ही में उसे अपनी पसंद से नहीं, बल्कि मजबूरन कई हफ्तों तक इंटरनेट से दूर रहना पड़ा.

इथियोपिया में भारी नस्लीय हिंसा फैल गई, जिसमें करीब 350 लोग मारे गए. अफवाहों से और हिंसा ना फैले इस वजह से पूरे देश में इंटरनेट सेवाएं बंद कर दी गईं और वो कई हफ्तों तक बंद रहीं. इस दौरान हमारा उस से संपर्क भी सीमित हो गया. अपने घर में बिना इंटरनेट के बंद वो किसी तरह रोज बस एक बार जरूरी फोन कॉल कर पाता और अपना हाल चाल बता कर फोन रख देता. जान बूझकर जीवन में सीमित इंटरनेट रखने वाला मेरा भाई मजबूरन कई हफ्तों तक इंटरनेट ना मिलने से परेशान हो गया.

वहां भी तालाबंदी और कोरोना वायरस का प्रकोप है, तो दिल बहलाने के लिए घूमने तो कहीं जा नहीं सकता. परिवार से दूर, अकेला और अब इंटरनेट से भी कटा हुआ मेरा भाई बस यही कह पाता है कि कोरोना ने हमारी जिंदगी के कई बहुमूल्य महीने छीन लिए. परिवार और 200 जीबी इंटरनेट से घिरा मैं यह नहीं कह पाता हूं. मैं शुक्रगुजार हूं इंटरनेट का कि उसने इस मुश्किल घड़ी में मेरा साथ दिया, वरना मैं शायद... बौरा भी सकता था.(dw)

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