संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जंकफूड से बर्बाद होती पीढिय़ों को बचाना बहुत आसान तो नहीं है, पर...
08-Feb-2025 4:51 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : जंकफूड से बर्बाद होती पीढिय़ों को बचाना बहुत आसान तो नहीं है, पर...

राज्यसभा में कल इस बात पर बड़ी फिक्र जाहिर की गई कि देश में जंकफूड की खपत बढ़ते चल रही है, और इससे सेहत का बड़ा नुकसान हो रहा है, इससे देश में गैरसंक्रामक रोग बढ़ते चल रहा है। सदन में यह कहा गया कि खाने-पीने के विज्ञापन बच्चों को निशाना बनाते चलते हैं, और उन्हें जंकफूड की लत लगती जा रही है। संसद में यह एक अच्छी बात रही कि हल्ले-गुल्ले और एक-दूसरे के खिलाफ जहर उगलने से परे कुछ समझदारी की बात भी हुई, और भाजपा सांसद सुजीत कुमार ने डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के हवाले से कहा कि 2006 से 2019 के बीच डिब्बा या पैकेटबंद जंकफूड की खपत 40 गुना बढ़ी है। भारत की स्वास्थ्य शोध संस्थान आईसीएमआर के मुताबिक गैरसंचारी रोगों (गैरसंक्रामक) से होने वाली मौतें 1990 में 37.9 फीसदी थीं, जो बढक़र 2016 में 61.8 फीसदी हो गई है।

भारत में खानपान का हाल यह है कि जो पैकेटबंद मीठे-नमकीन सामान पहले शहरों तक सीमित रहते थे, वे हाल के बरसों में गांव-गांव तक पहुंच गए हैं, और जाने-अनजाने सभी किस्म के ब्राँड सडक़ किनारे की दुकानों से लेकर बस्तियों के बीच फुटपाथी दुकानदारों तक बिखरे दिखते हैं। अब मजदूरों के लिए भी यह आसान हो जाता है कि काम के बीच रोते हुए बच्चों को शांत करने के लिए कोई पैकेट खरीदकर दे दिया जाए। नतीजा यह हो रहा है कि अधिक नमक, अधिक शक्कर, और अधिक तेल-घी बच्चों, बड़ों सबके पेट में पहले से कई गुना अधिक जा रहा है, और उनकी आगे की जिंदगी को खराब करने की गारंटी कर रहा है। दूसरी तरफ देश में परंपरागत पान-सुपारी का शौक अब गुटखा-तम्बाकू की तरफ खिसक चुका है, और वह कैंसर में अंधाधुंध बढ़ोत्तरी कर रहा है।

जब हम जंकफूड या फास्टफूड पर किसी तरह की लगाम की बात करते हैं, तो पहली नजर सरकार की तरफ उठती है कि उसे कुछ नियम बनाकर सामानों की पैकिंग पर नमक, शक्कर, और फैट की मात्रा साफ-साफ लिखवानी चाहिए। सरकार से यह उम्मीद भी की जाती है कि वह समाज में जागरूकता लाने की कोशिश करे कि फैक्ट्रियों में बने हुए, और डिब्बा, पैकेट, और बोतल में बंद खाने-पीने के तकरीबन तमाम सामान सेहत के लिए अच्छे नहीं रहते हैं। इसके साथ-साथ सरकार से यह उम्मीद भी की जाती है कि वह रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट, बस अड्डों, स्कूल-कॉलेज के कैंटीन-कैफेटेरिया में जंक का बेहतर विकल्प, अधिक सेहतमंद खान-पान उपलब्ध कराए। आज इनमें से अधिकतर जगहों को ठेकों पर दे दिया गया है, और ठेकेदार कंपनियों के कारोबारी हित में रहता है कि वे जंकफूड, और खासकर महंगा सामान ही वहां पर रखें। आज हालत यह हो गई है कि इन जगहों पर गरीब भी नहीं खा पाते, और जिन्हें सेहत की फिक्र रखनी है, वे भी नहीं खा पाते। और सरकार ने खानपान के कारोबारियों को सब कुछ ऐसे ठेके पर दे दिया है कि उसका मानो कोई बस ही नहीं बचा है।

इससे परे जब हम समाज को देखते हैं, तो खाते-पीते घरों के बच्चों को इसी तरह के खानपान की आदत लग रही है, वे जिन जन्मदिन की पार्टियों में जाते हैं, वहां जंक के अलावा और कोई खानपान नहीं रहता, और घर पर भी इन बच्चों की पहुंच बाजारू डिब्बा-पैकेटबंद चीजों तक पूरे वक्त रहती है। परिवार के अधिकतर लोग काम करने वाले रहते हैं, या फिर टीवी और मोबाइल के साथ जुटे रहते हैं, उनके लिए भी बच्चों को अलग से व्यस्त रखने के लिए इस किस्म का खानपान सहूलियत का सामान रहता है। कोई हैरानी नहीं है कि भारत दुनिया में बच्चों के डायबिटीज की राजधानी बन चुका है। जैसी कि कल संसद में फिक्र जाहिर की गई है, खानपान के इश्तहार बच्चों को निशाना बनाकर बनाए जाते हैं, जो कि दुनिया के बहुत से विकसित देशों में पूरी तरह प्रतिबंधित बात है।

अब बच्चों से परे बड़ों की बात करें, तो हॉस्टल में रहने वाले, दूसरे शहरों में जाकर काम करने वाले, या किसी दाखिला इम्तिहान, नौकरी के मुकाबले की तैयारी करने वाले नौजवानों के लिए भारत के तमाम शहरों में मोबाइल फोन पर ऑर्डर देते ही 15-20 मिनट में मनचाहा खाना पहुंच जाता है, और यह अलग-अलग जगहों से बुलाया जा सकता है, और बाजारू स्वाद की वजह से लोगों को बेहतर लग सकता है। फिर यह भी है कि ऐसे खाने को खत्म करने का भी एक मानसिक दबाव रहता है, और लोग भूख से कुछ अधिक बुलाते हैं, और कुछ या काफी अधिक खाते हैं। नतीजा हर बरस उनके कपड़ों का साईज बढऩे की शक्ल में दिखता है। चूंकि ऐसे लोग आमतौर पर घरेलू रसोई से दूर रहते हैं, इसलिए मनचाहा खाना बुलाना उनके लिए सहूलियत की बात भी रहती है, और मजबूरी की भी।

आज निजी या सरकारी, जितने किस्म के बाजार हैं, उनमें खानपान की विविधता पर कोई काबू नहीं रहता। अब समय आ गया है जब देश और प्रदेश की सरकारों को, और स्थानीय म्युनिसिपलों को भी यह देखना होगा कि हर कुछ दूरी पर सेहतमंद खानपान किस तरह मुहैया कराया जा सकता है? आज तो चाहकर भी लोग सादा खानपान ढूंढ नहीं पाते, कटे हुए फल और सब्जियों के सलाद ढूंढे नहीं मिलते। अब सरकारों को ही खानपान की जागरूकता फैलाने के साथ ही इस तरह के सेहतमंद सामानों की दुकानों के लिए जगह तय करनी चाहिए, और इनकी उपलब्धता की गारंटी करनी चाहिए। इन दोनों तरीकों को एक साथ इस्तेमाल किए बिना बात बन नहीं पाएगी। महज जागरूकता आ जाए, और खरीदकर खाने के लिए सेहतमंद सामान न रहे, तो शायद ही कोई घर पर अपने अकेले के लिए फल-सब्जी काट सकें, या बाहर बिना खाए-पिए रह सकें। लोगों में जागरूकता एक बड़ा धीमा काम है, वह बहुत मेहनत भी मांगता है, और बाजार की चटपटी चीजों के मुकाबले किसी को अंकुरित खाने को कहना, सब्जियों का रस पीने को कहना आसान भी नहीं है। इसलिए लोगों को बाजारू खानपान के, जंकफूड और फास्टफूड के नुकसान अच्छी तरह समझाने होंगे, और सरकार अपने खुद के तमाम अड्डों पर सेहतमंद खानपान की बिक्री का पर्याप्त इंतजाम रखे। शुरूआत के लिए कम से कम इतना तो करना जरूरी है ही।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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