सुप्रीम कोर्ट ने अभी इस बात हैरानी और फिक्र जाहिर की है कि केन्द्र सरकार की तरफ से देश की 81 करोड़ जनता को मुफ्त राशन कब तक दिया जाता रहेगा? अदालत कोरोना-लॉकडाउन के दौर में प्रवासी मजदूरों की हालत को लेकर खुद ही शुरू किए गए एक मामले की सुनवाई के दौरान देश के एक प्रमुख और चर्चित वकील प्रशांत भूषण के तर्क सुन रही थी, और जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस मनमोहन ने यह सवाल उठाते हुए कहा कि मुफ्त कब तक दिया जा सकता है? इन प्रवासी मजदूरों के लिए रोजगार की संभावनाएं, नौकरियां, और उनकी क्षमता बढ़ाने का काम क्यों नहीं किया जाता। अदालत ने कहा कि 81 करोड़ को मुफ्त राशन का मतलब तो यही हुआ कि सिर्फ करदाताओं को छोड़ दिया गया है, और उनके टैक्स के पैसों से यह किया जा रहा है। एक एनजीओ की तरफ से खड़े हुए प्रशांत भूषण ने इसे जारी रखने की वकालत की, और कहा कि प्रवासी मजदूरों को ई-श्रम पोर्टल पर दर्ज होने के बाद वे जहां रहें वहां राशन मिलना चाहिए। केन्द्र सरकार के वकील और प्रशांत भूषण के बीच इसे लेकर नोंकझोंक होती रही, और केन्द्र के वकील ने कहा कि प्रशांत भूषण सरकार की छवि खराब करने में लगे हैं।
हम इस अदालती मामले को लेकर और अधिक चर्चा करना नहीं चाहते, लेकिन दो और खबरों को इससे जोडक़र एक तस्वीर बताना चाहते हैं। आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने इसी पखवाड़े यह कहा है कि जोड़ों को कम से कम तीन बच्चे पैदा करना चाहिए क्योंकि अभी जनसंख्या वृद्धि दर 2.1 से नीचे जा रही है, और इस दर पर आबादी घटती चली जाती है। आज की जनसंख्या नीति 25 बरस पहले की है, लेकिन अब समाज को जीवित रखने के लिए तीन बच्चे पैदा करने की जरूरत है। एक दूसरी खबर एक लेख की शक्ल में सामने आई है जो पापुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की मुखिया पूनम मटरेजा ने लिखा है। उन्होंने इस सोच को ही गलत बताया कि 2.1 प्रतिशत से कम प्रजनन वाले समाज धरती से गायब हो सकता है। दरअसल भागवत की बात भारत में मुस्लिमों की हिन्दुओं से अधिक जनसंख्या वृद्धि दर होने से उपजी हुई है, और अक्सर ही हिन्दुत्ववादी ऐसे आंकड़े गिनाते हैं कि कितने दशकों या सदियों में मुस्लिम आबादी हिन्दू आबादी से अधिक हो जाएगी। पूनम मटरेजा ने लिखा है कि 2060 के दशक तक भारत की आबादी 170 करोड़ तक पहुंच सकती है, और फिर धीरे-धीरे सदी के अंत तक वह 150 करोड़ तक आ जाएगी। वे पहले भी इस बात को लिख चुकी हैं कि मुस्लिम आबादी बढऩे की ऐसी आशंका बेबुनियाद है कि वह कभी हिन्दू आबादी को पार कर लेगी।
अब हम भागवत के हिन्दू-मुस्लिम आबादी के अनुपात को छोडक़र अगर सुप्रीम कोर्ट की फिक्र की तरफ लौटें, तो यह बात साफ है कि देश में अगर 81 करोड़ लोगों को सरकार की तरफ से राशन मिलने पर ही वे भरपेट खा पा रहे हैं, तो फिर इन 81 करोड़ लोगों की अपनी क्षमता क्या है? क्या आजादी की पौन सदी गुजरने पर भी केन्द्र और राज्य की सरकारें मिलकर भी आबादी को अपना खाना जुटाने लायक नहीं बना पा रही हैं? लोगों को याद होगा कि अभी कुछ हफ्ते पहले आंध्र के मुख्यमंत्री एन.चन्द्राबाबू नायडू ने प्रदेश के लोगों से अपील की थी कि वे दो से अधिक बच्चे पैदा करें क्योंकि राज्य में आबादी बुजुर्ग होती जा रही है, और गांव के गांव जवान लोगों से खाली होते जा रहे हैं। उनका तर्क यह है कि तेलुगु लोग पढ़-लिखकर देश-विदेश में काम के लिए बाहर चले जाते हैं, और राज्य में जवान आबादी नहीं रह जा रही है। अब अगर पूरा देश आंध्र की तरह का हो जाए, तो 81 करोड़ आबादी को मुफ्त राशन नहीं देना पड़ेगा, और भागवत के मुताबिक अगर तीन-तीन बच्चे भी पैदा किए जाएंगे, तो भी वे देश पर बोझ नहीं रहेंगे। अगर आंध्र-तेलंगाना के औसत कामगार को देखें जो कि पूरी दुनिया में जाकर काम कर रहे हैं, तो वे देश के लिए कमाऊ हैं, देश पर बोझ नहीं हैं। दूसरी तरफ देश की औसत कमाई को ही गरीबों की भी कमाई मान लेना नाजायज बात है। अडानी-अंबानी की कमाई को जोडक़र औसत कमाई निकालना मूढ़ अर्थशास्त्रियों के पैमाने हैं, सामाजिक और जमीनी हकीकत यह है कि देश की नीचे की आधी गरीब आबादी की हालत खराब है, वह एक बच्चे का बोझ भी नहीं उठा पा रही है, और यह आबादी अगर भागवत या तोगडिय़ा जैसे लोगों की बात सुनकर तीसरा बच्चा पैदा करने लगेंगी, तो वही एक कटोरी दूध दो के बजाय तीन बच्चों में बंटने लगेगा, और देश में कुपोषण बढ़ते चले जाएगा। बच्चों की पढ़ाई नहीं हो पाएगा, उनका इलाज नहीं हो पाएगा, और इंसानी सहूलियतें उनकी पहुंच से दूर रहेंगी। दो बच्चों को काबिल बनाना, उन्हेें सेहतमंद रखना किसी भी धर्म, जाति, या समाज के लिए अधिक महत्वपूर्ण है, बेहतर है, बजाय तीन-चार बच्चे पैदा करके उन्हें भूखे मारना।
अब इस पूरी बहस में हम इसके सबसे बड़े पहलू पर आते हैं। जिस भारतीय महिला के लिए देश के मर्द तय कर रहे हैं कि उसे दो के बजाय तीन बच्चे पैदा करना चाहिए, वह तो पति और दो बच्चों को खाना खिलाते हुए भी कई बार भूखी सोती है, वह खुद लगातार खून की कमी का शिकार रहती है, और किसी तरह बंधुआ मजदूर की जिंदगी जीते हुए बच्चों, पति, और पति के परिवार को ढोती है। तीसरे बच्चे का मतलब यह होगा कि वह दूर-दूर तक जाकर जो पानी ढोकर लाती है, उसे एक और सदस्य के लिए पानी लाना पड़ेगा, एक और को खिलाने के बाद अगर कुछ बचेगा तो खाना नसीब होगा। और तीसरे बच्चे को पैदा करते हुए उसके गरीब, कमजोर, और जर्जर बदन का क्या हाल होगा इसे पूछे बिना अपने-अपने धर्म के लोगों की गिनती बढ़ाने पर आमादा नेता आबादी बढ़ाने के फतवे देते हैं। सबसे पहले हिन्दुस्तान को अपने नागरिकों को काम देने, रोजगार से लगाने, और उन्हें उत्पादक बनाने की क्षमता विकसित करनी होगी, इसके बाद ही किसी को बच्चे बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिए। 140 में से 81 करोड़ आबादी जहां मुफ्त सरकारी राशन की वजह से जिंदा है, वहां भूखों की भीड़ बढ़ाने के फतवे गैरजिम्मेदारी की बात हैं, चाहे वे किसी भी धर्म के लोग दे रहे हों। इस देश में सबसे कम लोग पारसी धर्म के हैं, लेकिन सबसे अधिक संपन्नता और आर्थिक ताकत उसी समाज के हाथ है। आबादी बढ़ाने के बजाय क्षमता बढ़ाने की सोचें। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)