विचार / लेख
-ध्रुव गुप्त
आज हिंदी सिनेमा का संगीत तकनीकी तौर पर समृद्ध ज़रूर हो गया है, लेकिन अपवादों को छोड़ दें तो यह वह संगीत नहीं है जो हमारी भावनाओं, हमारे सुख-दुख से सीधे जुड़ जाया करता है। हमारी पीढ़ी को वे दिन भुलाए नहीं भूलते जब हम ट्रांजि़स्टर लेकर गर्मियों की रात में घर की खुली छत पर और सर्दियों की रात में रजाई में चले जाते थे। आधी रात तक रेडियो सिलोन, विविध भारती और आल इंडिया रेडियो के उर्दू प्रोग्राम में तब फरमाइशी गीतों की जादुई महफि़लें सजती थीं। रफ़ी, मुकेश, लता, तलत, आशा, किशोर कुमार, शमशाद बेगम, मुबारक बेगम, सुरैया के गानों में हम देर तक अपने प्रेम का आकाश और दर्द का बिस्तर तलाशते थे। उस तिलिस्मी माहौल में जब अचानक एक गहरी, गंभीर आवाज़ में न ये चांद होगा न तारे रहेंगे, देखो वो चांद छुपकर करता है क्या इशारें, सुन जा दिल की दास्तां, याद किया दिल ने कहां हो तुम, जाग दर्दे इश्क़ जाग, आ नीलगगन तले प्यार हम करें, तुम पुकार लो तुम्हारा इंतज़ार है, ये नयन डरे डरे, नैन से नैन नाही मिलाओ, छुपा लो यूं दिल में प्यार मेरा, जाने वो कैसे लोग थे, न तुम हमें जानो, बस एक चुप सी लगी है, या दिल की सुनो दुनिया वालों जैसे गीत बजते थे तो मन ख़्यालों और भावनाओं के एक अलग आयाम में टहलने निकल जाता था। यह सात्विक, गहरी और पुरसकून आवाज़ होती थी हिंदी और बंगला फिल्मों के महान गायक, संगीतकार हेमंत कुमार की। यह आवाज आज भी मेरी भावनाओं के सबसे करीब है। आज भी उन्हें सुनते हुए मुझे संगीतकार सलिल चौधरी की यह बात याद आती है - ईश्वर यदि गाता होता तो उसकी आवाज़ बिल्कुल हेमन्त कुमार की तरह ही होती।
अपने सबसे प्रिय गायक हेमंत दा की पुण्यतिथि पर हार्दिक श्रद्धांजलि!