संपादकीय
छत्तीसगढ़ के धमतरी में कल एक शादी समारोह में म्यूजिक डीजे पर नाचने के दौरान झगड़ा हुआ, और दो नौजवानों की चाकू के वार से मौत हो गई, और एक गंभीर जख्मी है। डीजे के शोरगुल को लेकर और उसके साथ जुड़ी हुई बाकी तमाम किस्म की अराजकता पर छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट पिछले एक-दो बरस से बड़े कड़े तेवर दिखा रहा है, और राज्य के मुख्य सचिव से एक से अधिक बार इस पर निजी हलफनामा ले चुका है कि लोगों का जीना हराम करने वाला यह शोरगुल कैसे थमेगा? अदालत ने कई किस्म की सख्ती दिखाई है और यह भी कहा है कि इस राज्य के अफसर संगीत के नाम पर इस शोरगुल को रोकना भी नहीं चाहते। अदालत का सरकारी अफसरों के साथ संघर्ष देखें, तो लगता है कि अदालत का कोई बस चल नहीं रहा है, जिस तरह घर में किसी बुजुर्ग की कही हुई बात को बाकी लोग अनसुना करते हों, उसी तरह छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट बोले चले जा रहा है, और अफसरों पर उसका धेले का असर नहीं हो रहा है। शादियों के इस मौसम में पूरे प्रदेश में जगह-जगह न सिर्फ लाउडस्पीकरों को लेकर हाईकोर्ट के हुक्म पैरोंतले रौंदे जा रहे हैं, बल्कि शहर की जिंदगी भी ट्रैफिक जाम में बर्बाद की जा रही है, और शायद ही किसी जगह पुलिस और प्रशासन ने शादी के नाम पर ऐसी अराजकता रोकने की कोशिश भी की हो।
अब सवाल यह उठता है कि अगर बुनियादी कानूनों को लागू करने के लिए पुलिस और प्रशासन के पीछे हाईकोर्ट के जज लाठी लेकर लगे रहें, तो यह अधिक बड़ा अपमान किसका माना जाए? जजों का, या कि अफसरों का? क्या आईएएस-आईपीएस जैसी बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय सेवाओं से आने वाले अफसरों को इतने में तसल्ली हो जाती है कि वे मुख्यमंत्री, राज्यपाल, और हाईकोर्ट जजों के बंगलों को लाउडस्पीकरों की पहुंच से परे रख लेते हैं, अपने घरों में चैन से सो जाते हैं, और बाकी पूरे प्रदेश को अराजक गुंडों के रहमोकरम पर छोड़ देते हैं? हमने इसी प्रदेश में, राज्य बनने के दशकों पहले यह देखा हुआ है कि एक डिप्टी कलेक्टर, और एक डीएसपी रैंक के अफसर पूरे शहर के अवैध कब्जे हटवा देते थे, ट्रैफिक सुधार देते थे, डिप्टी कलेक्टर म्युनिसिपल कमिश्नर अवैध कब्जे तोड़वा देता था। आज छोटी-छोटी कुर्सियों पर आईएएस-आईपीएस बैठे हुए हैं, एक-एक जिले के पांच जिले बन गए हैं, और जहां दो बड़े अफसर रहते थे, वहां अब दर्जन भर से अधिक अफसर अखिल भारतीय सेवाओं के हैं, लेकिन उनका असर खत्म हो गया है। या तो राजनीति इतनी हावी हो गई है कि उसने अफसरों के हाथ बांध दिए हैं, या फिर अफसर ही अपनी महत्व मानी जाने वाली कुर्सियों पर खुद को महफूज बनाकर चलते हैं, और किसी को भी नाराज करना नहीं चाहते। नतीजा यह है कि जनता पीढ़ी-दर-पीढ़ी अराजक होते चल रही है, और उसके मन में नियम-कानून के लिए परले दर्जे की हिकारत मजबूत पैर जमाते जा रही है। अफसरों के दर्जन भर बार चेतावनी जारी करने के बाद भी सडक़ किनारे धंधा करने वाले छोटे-छोटे लाउडस्पीकरों वाले लोग भी जब उनकी बात नहीं सुनते, हाईकोर्ट की चेतावनियों की परवाह नहीं करते, तो यह जाहिर है कि जनता के मन में नियम-कानून का सम्मान पूरी तरह खत्म हो गया है।
यह नौबत देश में ऐसे नियम-कानून होने के मुकाबले अधिक खतरनाक है। अगर नियम-कानून ही न रहे, तो कम से कम जनता उनको तोडऩे की कुसूरवार नहीं रहती है, लेकिन जब छोटी-छोटी बातों को लेकर बड़े-बड़े नियम अदालती फैसलों से लागू होते हैं, और कानून देश को एक अधिक सभ्य जगह बनाने की कोशिश करता है, उस वक्त भी अगर बड़े-बड़े अफसर अपनी छोटी-छोटी रह गई रियासतों में कड़े रूख वाले अदालती फैसलों को भी लागू नहीं करवा पाते, तो यह कानून-व्यवस्था ध्वस्त हो जाने का एक बड़ा सुबूत है। जब जनता कुछ नियम तोडऩे के लिए आजाद रहती है, तो फिर वह चाकू-छुरी लेकर चलने, गाडिय़ों के साइलेंसर फाडक़र चलने को भी अपना हक मान लेती है, और छत्तीसगढ़ के जनजीवन में यह नौबत सिर चढक़र बोल रही है। नमूने के लिए हर जिले की पुलिस ऐसे कुछ लोगों को पकड़ लेती है, लेकिन हकीकत यह है कि उसका अनुपात असल बदअमनी के मुकाबले कुछ भी नहीं है। और दिक्कत यह है कि कानून मानने वाले, शरीफ लोग अधिक तकलीफ पाते हैं क्योंकि उनके मन में यह रंज भी रहता है कि वे हर कानून का पालन करते हैं, लेकिन कानून तोडऩे वालों से तकलीफ झेलते हैं, और सरकार उनकी मदद के लिए मौजूद नहीं हैं, क्योंकि वह तो हाईकोर्ट के सख्त फैसलों को लागू करने के लिए भी मौजूद नहीं है।
हम अगर फिर से तरह-तरह के लाउडस्पीकरों के हल्ले की बात पर लौटें, तो शादियों के इस मौसम में चारों तरफ लोगों ने मनमानी की है, और कई किलोमीटर तक जाने वाले शोरगुल को भी पुलिस-प्रशासन ने नहीं रोका है। अब तो दूर-दूर तक तरह-तरह की रौशनी फेंकने वाले लैम्प बाजारों में खुले बिक रहे हैं, और न इनके इस्तेमाल पर कोई रोक लगाई जा रही, न ही इनकी बिक्री पर। बहुत जाहिर तौर पर ऐसी लाईटें एक गंभीर प्रदूषण पैदा करती हैं, और ट्रैफिक के लिए खतरा खड़ा करती हैं, लेकिन जब तक ये सत्ता पर काबिज कुछ बड़े लोगों के लिए परेशानी का सबब नहीं बनेंगी, तब तक इनको रोकने की जहमत कोई नहीं उठाएंगे। आज तो हालत यह है कि बाजारों में दुकानदार इतने किस्म के लैम्प बाहर लगाकर रखते हैं कि वे चौराहों की ट्रैफिक लाईट का धोखा भी देते हैं, फिर भी इनको रोकने की कोई कोशिश नहीं होती है।
ये तमाम बातें नियमों को इस तरह तोडऩा नहीं है कि कहीं कोई एक ट्रक प्रतिबंधित समय में कहीं घुस गई हो। यह तो नियम-कानून तोडऩे का पूरा का पूरा हाईवे चल रहा है, और कोई रोकथाम नहीं है। अब तो हाईकोर्ट पर भी दया आती है कि उसे कितनी बार कितने लोग जाकर बताएं कि उसकी अवमानना हो रही है। अदालत भी शायद यह समझ चुकी है कि उसके बस में बस अपनी अवमानना कराना ही रह गया है, और वह दूसरे लोगों का आ-आकर यह याद दिलाना नहीं चाहती है। वैसे भी हम अखबार का जिम्मा सार्वजनिक मुद्दों पर खुलकर लिखने जितना मानते हैं, और किसी जर्नलिस्ट के एक्टिविस्ट की तरह अदालत जाने के खिलाफ हैं, इसलिए हम खुद होकर तो अदालत के सामने इस बात को नहीं रखते, लेकिन जिन लोगों ने इन मुद्दों पर जनहित याचिकाएं लगाई थीं, उन्हें जरूर लाउडस्पीकरों और उससे जुड़ी कल की हत्याओं के बारे में अदालत को बताना चाहिए, और यह भी बताना चाहिए कि हाईकोर्ट के जांच कमिश्नर नियुक्त हुए बिना प्रदेश में जनता को जहन्नुम की जिंदगी से कोई नहीं बचा सकते। छोटे-छोटे बच्चों, बीमार लोगों, बूढ़ों, दूसरे प्राणियों, और रात-दिन की शिफ्ट में काम करते हुए आराम की जरूरत वालों की जिंदगी नर्क बनी हुई है, और कानून तोडऩे वालों के लिए यह प्रदेश स्वर्ग बना हुआ है। हाईकोर्ट जजों के रिहायशी इलाके, और अदालत का इलाका लाउडस्पीकरों से मुक्त रखा गया होगा, लेकिन अदालत को प्रदेश भर से इसकी रिपोर्ट जरूर बुलवाना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ पुलिस का एक नया कारनामा हाईकोर्ट की मेहरबानी से उजागर हुआ है। अपने पड़ोसी द्वारा सडक़ पर अपना अहाता बनाने की शिकायत करने के लिए एक रिटायर्ड शिक्षिका और उनकी इंजीनियर बेटी पुलिस थाने पहुंचे थे, पुलिस ने उन्हें ही गिरफ्तार कर लिया, शाम को अदालत में पेश किया, और कानूनी मदद नहीं लेने दी, और बॉंड भरकर जमानत पर रिहा होने का मौका भी नहीं दिया। पुलिस ने इस रिटायर्ड शिक्षिका को थाने में थप्पड़ भी मारे। अब छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली बेंच ने इसे स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन माना है, और इन्हें तीन लाख रूपए मुआवजा देने का आदेश राज्य सरकार को दिया है। जमानत पर रिहाई के पहले मां-बेटी तीस घंटे जेल में रखे गए थे, और उसका यह मुआवजा अब सरकार की जेब से जाने वाला है। यह तो शहर का मामला है, और शिकायकर्ता हाईकोर्ट तक जाने की ताकत रखते थे, लेकिन छत्तीसगढ़ के गांव-देहात और जंगलों में बसे हुए लोग इतने कमजोर रहते हैं कि उनके लिए थाने तक जाना भी मुश्किल रहता है, और अगर किसी कानूनी मदद से वे अदालत तक पहुंच भी पाते हैं, तो कई बार तो उनके मामले खारिज ही हो जाते हैं। हम हाईकोर्ट का यह ताजा फैसला इसलिए भी महत्वपूर्ण मानते हैं कि इसके बाद छत्तीसगढ़ पुलिस को कुछ सबक मिलने के आसार बन सकते हैं। हमारा यह भी ख्याल है कि जो पुलिसवाले इस मामले में जिम्मेदार पाए जाते हैं, उनके खिलाफ विभागीय कार्रवाई भी होनी चाहिए, और पुलिस को यह अक्ल भी मिलनी चाहिए कि शिकायतकर्ता महिलाओं की ऐसी गिरफ्तारी जैसी अराजकता इस प्रदेश में अभी नहीं है। अभी ऐसी कोई इमरजेंसी लगी हुई नहीं है कि पुलिस इतनी मनमानी कर सके, और न ही ये शिकायतकर्ता मां-बेटी पेशेवर मुजरिम हैं जिन्हें कि जेल भेजने की नीयत से इस तरह का इंतजाम किया गया। एक अवैध कब्जा और अवैध निर्माण करने वाले की हिमायती बनकर अगर पुलिस ने शिकायतकर्ता को चुप करवाने की सुपारी उठाई थी, तो इसकी सजा भी उन सबको मिलनी चाहिए जो इसके लिए जिम्मेदार थे। हम हाईकोर्ट के इस कड़े फैसले को किसी संदेह के लायक नहीं मान रहे हैं, और यह फैसला न सिर्फ पुलिस बल्कि दूसरे सरकारी विभागों के लिए भी एक मिसाल बननी चाहिए। हमें सरकारी नियमों की बारीकियां नहीं मालूम हैं लेकिन अगर इन पुलिसवालों की बददिमागी से सरकार को जुर्माना देना है, तो उसकी वसूली भी इन लोगों से होनी चाहिए।
आज हिन्दुस्तान के बहुत से राज्यों में गलत काम करने वालों का ही राज चलता है। जैसा कि इस मामले में हुआ है, अवैध कब्जा और अवैध निर्माण करने वाले को पुलिस से इस दर्जे की गैरकानूनी मदद भी मिली है। अवैध कामों में ही कमाई मोटी रहती है, और ऐसे माफिया का भागीदार बनने के लिए पुलिस और दूसरे सरकारी विभाग सभी उतावले बने रहते हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में ही एक सबसे महंगी रिहायशी कॉलोनी ऐसी है जिसके मालिक ने हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ कोटवार की जमीन अपने घेरे में लेकर कॉलोनी का नक्शा भी पास करा लिया है, और शहर की सबसे महंगे प्लाट भी वहां बेच दिए हैं। जिस-जिस विभाग में इसकी शिकायत हुई, वहां के अफसरों ने भी इस कॉलोनी में जमीनें ले ली, मंत्रियों और नेताओं ने पहले से बहती गंगा में हाथ धो लिए थे। नतीजा यह है कि हर तरह के अवैध काम करने के बाद भी, हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ ऐसी कॉलोनी पनप रही है, और उपकृत आला अफसरों की मेहरबानी से वह अपनी दूसरी कॉलोनियों में भी तरह-तरह के अवैध काम कर रही है। यह किसी एक कारोबारी का हाल नहीं है, और न ही किसी एक कारोबार का, जिनका सरकारी नियमों से कोई भी वास्ता पड़ता है, उन सबके कामों के अवैध दर्जे का यही हाल है। इसलिए ऐसे ताकतवर लोगों के खिलाफ जब कोई शिकायत आती है, तो शिकायतकर्ता को निपटाने के लिए इनकी कॉलोनियों के प्लाट और मकान मालिक बने नेता और अफसर टूट पड़ते हैं। सरकार और कारोबार का यह माफियाई-रिश्ता इतना मजबूत है कि फेविकोल को इसी को अपने इश्तहार में इस्तेमाल करना चाहिए।
फिर पुलिस की बात पर लौटें, तो पुलिस की कोई भी कार्रवाई यह तौल लेने के साथ शुरू होती है कि जिसके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, उससे कमाई की कोई उम्मीद है, या नहीं, उसकी कोई राजनीतिक पहुंच है या नहीं, और अगर राजनीति पहुंच है तो वह सत्तारूढ़ पार्टी में है, या विपक्ष में। जिस तरह हंसों के बारे में कहा जाता है कि वे मोती चुन लेते हैं, उसी तरह हिन्दुस्तानी पुलिस बिना राजनीतिक खतरे वाले मामलों को चुन लेती है, और फिर जिससे कमाई नहीं होने वाली है, उसके खिलाफ कार्रवाई शुरू कर देती है। जिस जांच एजेंसी को बिना पूर्वाग्रह के सच को परखना चाहिए, उसके काम की शुरूआत ही फायदे के एक फैसले पर पहुंच जाने से होती है, और फिर उस फैसले के मुताबिक सुबूत जुटाने का सिलसिला चलता है। यह बात बस्तर जैसे इलाके में, नक्सल प्रभावित जंगल और गांव में आदिवासियों के खिलाफ अक्सर ही इस्तेमाल होती है, और उनके तो मामले भी हाईकोर्ट में जाकर दर्जनों के हिसाब से थोक में खारिज हो जाते हैं। वह एक अलग और लंबा सिलसिला है, इसलिए उसकी चर्चा यहां मुमकिन नहीं है। लेकिन बिलासपुर में एक मां-बेटी को जिस तरह उनकी शिकायत शांत करवाने के लिए, और एक अवैध कब्जा-निर्माण करने वाले का साथ देने के लिए पुलिस ने जिस तरह मां-बेटी को जेल भेजा, वह शहरी छत्तीसगढ़ के लिए भी थोड़ी सी अटपटी बात है, और प्रदेश की भाजपा सरकार के राजनीतिक, और दूसरे संगठनों के लोगों को इस पर ध्यान देना चाहिए कि उनकी सरकार की पुलिस अगर इस तरह मुजरिम-दर्जे का काम कर रही है, तो उसे सुधारा जाना चाहिए। ऐसा न होने पर पुलिस सत्ता को कितने गहरे गड्ढे में गिरा सकती है, यह राज्य में पिछले पांच बरस में अच्छी तरह साबित हो चुका है। प्रदेश की भाजपा सरकार को ऐसे अफसरों से सावधान रहना चाहिए जो कि सत्तारूढ़ नेताओं को तुरंत तो खुश करके रखें, लेकिन पांचवें बरस तक इतने गहरे गड्ढे में डाल दें कि संघ के तमाम लोग मिलकर भी भाजपा को नुकसान से न निकाल सकें। हम इस चर्चा को किसी के राजनीतिक नफे-नुकसान के लिए नहीं कर रहे हैं, हम सिर्फ बेकसूर जनता के लोकतांत्रिक हक के लिए यह बात कर रहे हैं, लेकिन इस मिसाल को देना जरूरी इसलिए है कि सत्तारूढ़ नेता इस एक खतरे को कुछ जल्दी समझ पाते हैं।
ब्रिटेन की खबर है कि प्रधानमंत्री ऋषि सुनक ने दूसरे देशों से आकर ब्रिटेन में काम या कारोबार करने वाले लोगों को उनके अपने देश की कमाई पर मिलने वाली टैक्स छूट को 15 साल से घटाकर 4 साल कर दिया है। उल्लेखनीय है कि ऋषि सुनक की भारतवंशी पत्नी की भारत से होने वाली कमाई पर ब्रिटेन में टैक्स न देने को लेकर पिछले बरस यह परिवार बड़े अप्रिय विवादों में घिरा था, और उसके तुरंत बाद टैक्स कानूनों को चुनौती दिए बिना अक्षता मूर्ति ने नियमों से अधिक टैक्स देने की घोषणा की थी। वे भारत में अपने पिता, नारायण मूर्ति से मिली जायदाद, और अपने खुद के काम की कमाई पर ब्रिटेन में बहुत कम टैक्स दे रही थीं, या टैक्स नहीं दे रही थीं। अब तक वहां के कानून में ऐसा ही प्रावधान था, लेकिन अब इस नए कानून के आने से ब्रिटिश पीएम परिवार पर लगी यह तोहमत भी हट सकेगी। वर्तमान प्रधानमंत्री ऋषि सुनक पहले वित्तमंत्री थे, और वित्तमंत्री रहते हुए उनकी पत्नी टैक्स छूट का जिस तरह फायदा उठा रही थी, उसे ब्रिटिश खजाने के साथ नाइंसाफी बताया गया था। उस शर्मिंदगी से उबरने के लिए ऐसा लगता है कि ऋषि सुनक ने इस नए कानून को बनाने में अधिक दिलचस्पी ली है। अभी तक भारत से जाकर ब्रिटेन में काम या कारोबार करने वाले लोगों को वहां अपनी भारतीय आय पर 15 साल तक टैक्स नहीं देना पड़ता था, और सिर्फ ब्रिटिश कमाई पर टैक्स लगता था। एक खबर बताती है कि पिछले पांच बरस में 83 हजार से अधिक भारतीयों ने ब्रिटिश नागरिकता ली थी, यह एक ऐसी योजना के तहत हुआ था जिसमें अतिसंपन्न लोगों को ब्रिटेन में मोटे पूंजीनिवेश के एवज में तुरंत ही वहां नागरिकता मिल जाती थी। अब इन नए टैक्स नियमों की वजह से ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तानियों में ‘अंग्रेज’ बनने का आकर्षण कुछ कम होगा।
ऋषि सुनक की इस पहल को इस संदर्भ में भी देखना चाहिए कि भारत से किसी तरह का रिश्ता रखने वाले दूसरे देशों के बड़े कारोबारियों या सत्तारूढ़ नेताओं को लेकर भारत में जो एक बावलापन अक्सर ही सतह पर दिखता है, वह किसी काम का नहीं रहता, उसकी कोई जमीन नहीं रहती। भारतीय मूल की मां वाली अमरीकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस को लेकर भारत में यह सनसनी फैली थी कि मानो अब अमरीकी रूख भारत के लिए बदल जाएगा। सच तो यह है कि दुनिया के किसी भी देश से दूसरे देश में पहुंचने वाले लोग जहां रहते हैं, काम करते हैं, राजनीति में आकर सत्ता तक पहुंचते हैं, वे उसी देश के होकर रह जाते हैं। सोनिया गांधी इटली से भारत आकर यहां राजनीति की ऊंचाईयों पर पहुंचीं, लेकिन क्या यूपीए सरकार के दस बरसों में वे इटली के साथ किसी तरह की रियायत कर पाईं? ऐसी ही नौबत कमला हैरिस या ऋषि सुनक की रहती है, या कनाडा में मंत्री बनने वाले बहुत से भारतवंशियों की भी रहती है। उनकी जड़ें, उनके डीएनए जरूर भारत से जुड़े रहते हैं, लेकिन वे अपने वर्तमान देश के ही रहते हैं, वहीं के लिए वफादार रहते हैं। सच तो यह है कि जब अपने जन्म या पुरखों के देश के साथ किसी रियायत का मौका आता है तो ऐसे नेता इसलिए हिचक जाते हैं कि उनके जरा भी नर्म बर्ताव उन पर यह तोहमत लगवा सकता है कि वे अपने पुरखों की जमीन के प्रति पूर्वाग्रह दिखा रहे हैं। इसलिए ईमानदार दिखने के लिए उन्हें कड़ाई कुछ अधिक बरतनी पड़ती है, जैसी कि आज ऋषि सुनक के फैसले से दिखाई पड़ रही है।
आज के वक्त जब दुनिया भर के लोग दूसरे देशों में जाकर वहां बहुत कुछ हासिल करते हैं, उस वक्त उनकी कामयाबी के बाद यह सोच लेना कि उनकी पहली वफादारी अपने जन्म के देश से होगी, बहुत बड़ी खुशफहमी है, और बेईमानी की उम्मीद है। हर किसी को अपने मौजूदा काम, मौजूदा देश, और मौजूदा विचारधारा के प्रति वफादार रहना चाहिए। अपने डीएनए से वफादारी किसी वैज्ञानिक शोध के लिए तो ठीक हो सकती है, लेकिन लोकतंत्र में इसकी कोई जगह नहीं हो सकती। आज अंतरराष्ट्रीय संबंधों में हर किसी को अपने वर्तमान के साथ ईमानदार रहना चाहिए, और तमाम लोग ऐसे रहते भी हैं, तभी वे कामयाब हो पाते हैं। हिन्दुस्तान के लोगों की एक दिक्कत यह भी है कि वे दुनिया भर में बसे हुए भारतवंशियों की कामयाबी को भारत की कामयाबी मान बैठते हैं। ये सारे लोग जो भारत से जाकर अपनी पीढ़ी में या अगली पीढ़ी में कामयाब हुए हैं, वे उन देशों के माहौल की वजह से, और अपनी मेहनत की वजह से कामयाब हुए हैं। हिन्दुस्तान में अगर सफलता की इतनी ही संभावनाएं रहतीं, तो सुंदर पिचई अमरीका जाकर गूगल के मुखिया बनने के बजाय भारत में किसी कंपनी के मुखिया बने होते, या उन्होंने यहां वैसी कोई कंपनी खड़ी कर दी होती। लेकिन चुनावी बॉंड का यह ताजा मामला बताता है कि भारत में कंपनियों को किस तरह के माहौल में काम करना पड़ता है, और उनके आगे बढऩे की संभावनाएं किस तरह कदम-कदम पर घटती जाती हैं। भारत को तो दूसरे देशों में सफल भारतवंशियों को देखकर यह आत्ममंथन करना चाहिए कि उसकी अपनी जमीन पर कारोबार या राजनीति में इतनी खरपतवार क्यों है कि यहां प्रतिभा की फसल ठीक से फल-फूल नहीं पाती। अमरीका या ब्रिटेन जैसे देश में कारोबारी अपनी राजनीतिक विचारधारा को लेकर भी खुलकर सक्रिय रहते हैं, और उन्हें उसका कोई नुकसान भी शायद नहीं उठाना पड़ता। भारत को हर दिन कुछ घंटे आईने के सामने बैठकर यह देखना चाहिए कि इतनी प्रतिभाशाली लोग देश के बाहर जाकर ही प्रतिभा को इस तरह साबित क्यों कर पाते हैं? साथ-साथ दूसरे देशों में भारतवंशियों की कामयाबी का जश्न हिन्दुस्तान की कामयाबी की तरह मनाना बंद भी करना चाहिए, ऐसे झूठे गौरव, और ऐसी असली खुशी के बीच कोई तालमेल नहीं रहता।
अमरीका के एक प्रमुख विश्वविद्यालय, स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक ताजा रिसर्च बताती है कि किस तरह किसी की तारीफ करने पर उन पर एक सकारात्मक असर पड़ता है, और ऐसा ही असर उन लोगों पर भी पड़ता है जो दूसरों की अच्छे कामों की तारीफ करते हैं। इस विश्वविद्यालय ने मनोविज्ञान विभाग की एक रिसर्च से पता लगता है कि तारीफ दोनों तरफ के लोगों का भला करती है। यह शोध करने वाली एक प्रोफेसर का कहना है कि तारीफ लोगों का दिन बना देती है, और करने वाले को कोई लागत भी नहीं आती है। कुछ दूसरे विश्वविद्यालयों के शोधकर्ताओं का भी कुछ ऐसा ही सोचना है जिन्होंने तारीफ के मनोविज्ञान पर गंभीर काम किया है। उनका कहना है कि जिनके काम को दूसरे लोग भी अच्छा समझते हैं, उन्हें और अच्छा करने की प्रेरणा मिलती है। इससे लोगों के मन की यह जिज्ञासा भी शांत होती है जिससे कि वे यह जानना चाहते हैं कि और लोग उनके बारे में क्या सोचते हैं। हिन्दी जुबान में एक बात कई बार कही जाती है- सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग?
यह सचमुच ही लोगों के लिए परेशानी का एक सबब होता है कि उनके किसी काम या उनकी किसी बात पर लोग क्या कहेंगे? जब लोग किसी बात की तारीफ करते हैं, तो यह एक कामयाबी रहती है, और बेहतर करने की प्रेरणा भी इससे मिलती है। घर पर अगर खाना बनाने के लिए तनख्वाह पर किसी को रखा गया है, तो उनकी तारीफ करना जरूरी नहीं रहता, लेकिन कभी उनके पकाए और खिलाए हुए की तारीफ करके देखें तो समझ आएगा कि अगली बार वे ऐसी तारीफ पाने के लिए और क्या-क्या मेहनत करेंगे। यह भी जरूरी नहीं रहता कि लोग दूर के लोगों की, और महज औपचारिकता के लिए तारीफ करें। हम पहले भी कई बार इस बात को लिख चुके हैं कि लोगों को किसी भी व्यक्ति से उनकी दिन की पहली बातचीत नकारात्मक नहीं करना चाहिए। किसी बात के लिए आलोचना भी करनी हो, तो भी पहले तारीफ के लायक कोई बात ढूंढकर चाहे मामूली ही क्यों नहीं, तारीफ करनी चाहिए, और फिर बाद में आलोचना के लायक बात छेडऩी चाहिए। अगर पहले तारीफ की बात कर ली जाए, तो लोग आलोचना को भी बेहतर तरीके से बर्दाश्त कर पाते हैं।
तारीफ कितनी मायने रखती है, यह उन लोगों से बेहतर कोई नहीं जानते जिनकी जिंदगी में कोई अक्सर ही तारीफ करने वाले थे, और किसी वजह से अब नहीं रह गए। उनकी जिंदगी एकाएक वीरान हो जाती है, और जिंदगी से तारीफ एकाएक गायब हो जाने से, उनके काम पर बड़ा बुरा असर पड़ता है। इसलिए समझदारी इसमें है कि जिन लोगों के मन में आपके काम के लिए, आपके लिए सचमुच ही तारीफ है, उन लोगों की कद्र की जाए, उन्हें पास रखा जाए, उनके पास रहा जाए। ऐसा भी नहीं कि इस बात को समझने के लिए मनोवैज्ञानिक या शोधकर्ता ही लगेंगे। आम लोग भी मामूली समझबूझ से इस बात को समझ सकते हैं कि इर्द-गिर्द के लोगों के अच्छे कामकाज के लिए उनकी तारीफ करके किस तरह उनसे बेहतर काम करवाया जा सकता है। दरअसल अधिकतर काम ऐसा रहता है जिसमें आम प्रदर्शन और खास प्रदर्शन दोनों ही एक ही किस्म के लोगों से हासिल किया जा सकता है। अगर एक ही व्यक्ति बेदिली से, अनमने ढंग से कोई काम करे, तो वह बहुत आम दर्जे का हो जाता है, और अगर उसी काम को करते हुए उसके दिमाग में यह रहे कि इसकी वजह से उसे तारीफ भी मिल सकती है, तो उसकी जरा सी अतिरिक्त दिलचस्पी उस आम काम को खास काम में तब्दील भी कर सकती है। जब आप आसपास के किसी के बेहतर काम की तारीफ करते हैं, तो भविष्य में भी उनसे वैसे ही बेहतर प्रदर्शन की एक किस्म से गारंटी भी कर लेते हैं।
हमने पहले भी अलग-अलग कई जगहों पर इस बात को लिखा है कि लोगों को ऐसे लोगों की संगत से बचना चाहिए जिनके दिल-दिमाग में दूसरों के लिए सिर्फ नापसंदगी और आलोचना भरी हुई है, जिन्हें आसपास कुछ भी अच्छा नहीं लगता है, हर कोई बुरे लगते हैं। ऐसे लोगों के इर्द-गिर्द बने रहने से आपको भी पूरी दुनिया बुरी लगने लगती है, और किसी के अच्छे काम भी कभी तारीफ के लायक नहीं लगते हैं। जिंदगी और दुनिया तो वही रहते हैं, सिर्फ आप अपने रूख और नजरिए की वजह से इर्द-गिर्द की हकीकत की इतनी बुरी तस्वीर मन में बना लेते हैं कि पूरे वक्त आपका का बर्ताव एक निंदक का होकर रह जाता है। कबीर ने भी जब यह कहा था कि निंदक नियरे राखिए, तो यह उन लोगों के लिए कहा था जो अपने आसपास आलोचकों को बर्दाश्त करते हैं, और वे लोग अपनी गलतियां तुरंत जान जाते हैं। लेकिन कबीर ने यह बात निंदकों के भले के लिए नहीं कही थी जिन्हें पूरे वक्त किसी न किसी की निंदा सूझती है। कई लोगों का तो हाल यह रहता है कि जब तक दूसरों की निंदा न कर लें, तब तक खाना हजम नहीं होता, यह लगते रहता है कि आज का दिन बेकार गुजर रहा है कि काम की कोई बात ही नहीं हो पाई।
कुल मिलाकर बात यह है कि जिंदगी में अगर जायज जरूरत रहने पर लोगों की आलोचना करनी है, तो वह एक सकारात्मक सुझाव की तरह अधिक रहनी चाहिए, न कि निंदा और भर्त्सना की तरह। और आसपास जाने-पहचाने, या अनजाने, जैसे भी लोग हों, उनकी कोई बात अगर अच्छी लगे, उनका कोई काम अच्छा लगे, तो उनकी तारीफ का कोई मौका नहीं छोडऩा चाहिए। हमने आज की इस चर्चा की शुरूआत तो स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के एक शोध के नतीजे से की है कि किस तरह तारीफ उसके दोनों सिरे के लोगों का भला करती है, लेकिन आगे के निष्कर्ष हमारे खुद के हैं कि लोगों को कम से कम कुछ ऐसे लोग इर्द-गिर्द जरूर रखना चाहिए जिनके मन में उनके लिए, उनके काम के लिए तारीफ है, क्योंकि ऐसे लोग जिंदगी से एकदम से चले जाने पर जिंदगी से एक प्रेरणा ही चली जाती है, और फिर उसकी जगह वैसी कोई दूसरी सकारात्मक चीज नहीं आ पाती है। ऐसे लोगों से बचकर रहें जिनकी जिंदगी का बड़ा हिस्सा ढूंढ-ढूंढकर लोगों की आलोचना करने में गुजर जाता है, तमाम वक्त ऐसी नकारात्मक बातों को सुनने के बाद आपकी अपनी जिंदगी से भी उत्साह जाने लगता है।
हिन्दी फिल्मों की एक लोकप्रिय अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी के पति, राज कुन्द्रा की करीब सौ करोड़ रूपए की संपत्ति ईडी ने जब्त कर ली है। उन पर एक कंपनी के नाम पर लोगों को एक क्रिप्टोकरेंसी, बिटक्वॉइन, का धोखा देने, और हजारों करोड़ की धोखाधड़ी में शामिल होने का आरोप है। इसके पहले भी इस आदमी का नाम पोर्नोग्राफी के मामले में आ चुका है, और उसे जेल जाना पड़ा था। इस बिटक्वॉइन जुर्म में पूंजीनिवेशकों को अंधाधुंध कमाई का झांसा दिया गया था। अब हम हिन्दुस्तान में कई किस्म के ऑनलाईन जुए, सट्टे जैसे धंधों को देखें, तो देश के कुछ सबसे मशहूर फिल्मी सितारे, और क्रिकेट खिलाड़ी उनका इश्तहार करते दिखते हैं। फेसबुक जैसे सोशल मीडिया को देखें तो उस पर देश के बड़े-बड़े उद्योगपतियों, बड़े-बड़े पत्रकारों के झूठे इंटरव्यू बड़े-बड़े अखबारों के झूठे वेबसाइट बनाकर डाले जाते हैं, और फेसबुक ऐसे धोखाधड़ी के इश्तहारों को रोकने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाता। यह संपादकीय लिख रहे संपादक ने ही फेसबुक पर ऐसे दर्जनों झूठे इश्तहारों के खिलाफ टिप्पणी की, लेकिन जिनसे कमाई हो रही है उन जालसाजों को भी बढ़ावा देने में फेसबुक की पूरी दिलचस्पी दिखती है। आधी सदी पहले इस देश में बहुत घटिया किस्म की कई पत्रिकाओं में तांत्रिक अंगूठी जैसे इश्तहार आते थे, जो कि जो मांगोगे वही मिलेगा का दावा करते थे, लेकिन सब जानते-समझते भी इन पत्रिकाओं ने कभी ऐसे इश्तहार नहीं रोके। अभी भारत सरकार ने ऑनलाईन सट्टेबाजी के इश्तहारों पर कानूनी रोक लगाई, उसके बाद भी देश के सबसे बड़े अखबार उस इश्तहार को छापते रहे, उनका कुछ बिगड़ा भी नहीं। आज लोगों के वॉट्सऐप नंबर अचानक क्रिप्टोकरेंसी बाजार में पूंजीनिवेश के नाम पर बनाए गए जालसाज समूहों में जोड़ दिए जाते हैं, और वहां पर दस-बीस नंबरों से यह वाहवाही पोस्ट होते रहती है कि इस समूह में उन्होंने किस रफ्तार से कमाई की है, और वे इस समूह के सलाहकार के कितने अहसानमंद हैं।
लोग सागौन का पेड़ लगाते हैं, और उसे बांस से अधिक रफ्तार से बढ़ते हुए देखना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि साल पूरे होते न होते वे इस सागौन का फर्नीचर भी बना लें। लोगों को अपने पंूजीनिवेश पर अंतरिक्ष छूती कमाई की हसरत रहती है, और वे सामान्य समझबूझ को ताक पर धरकर एक सपने को पूरा होते देखने के लिए जुट जाते हैं। और वह सपना एक दु:स्वप्न साबित होता है, और लोगों का पूंजीनिवेश मिट्टी में मिल जाता है, नाली में बह जाता है। छत्तीसगढ़ इन दिनों दसियों हजार करोड़ रूपए के महादेव सट्टेबाजी ऐप की चर्चा से लदा हुआ है, और हिन्दुस्तान का डिजिटल विकास हर किस्म की साइबर-जालसाजी के लिए सबसे अधिक सहूलियत का साबित हो रहा है। हैरानी की बात यह है कि भारत सरकार के पास किसी साइबर-जुर्म को रोकने के लिए जितने किस्म के औजार हैं, वे इस्तेमाल होते नहीं दिखते, और झारखंड के एक गांव जामताड़ा में तो हर नौजवान ऑनलाईन मुजरिम बन चुके हैं। जगह की इतनी शिनाख्त होने के बावजूद सरकार वहां से रोजाना होने वाली दसियों हजार टेलीफोन कॉल पर कुछ नहीं कर पा रही जो कि सारी की सारी जालसाजी और धोखाधड़ी के लिए होती हैं।
हम अपने आसपास भी लोगों को जालसाजी का शिकार होते देखकर हैरान होते हैं। अभी एक बैंक अफसर को किसी तांत्रिक ने यह झांसा दिया कि वह रात में श्मशान में नोटों की बारिश करवा देगा। और इसके झांसे में बैंक अफसर ने बहुत सा पैसा भी डुबा दिया। अब अगर बैंक अफसर को आसमान से नोटों की बारिश पर भरोसा हो रहा है, तो फिर कम पढ़े-लिखे लोगों को मोबाइल फोन और इंटरनेट के दूसरे औजारों और हथियारों से धोखा देना तो और अधिक आसान ही रहता होगा। यही हो भी रहा है। हैरानी की एक बात यह भी है कि सुब्रत राय सहारा सरीखे धोखेबाज देश भर के करोड़ों लोगों से हजारों करोड़ रूपए इकट्ठे कर लेते हैं, और फिर जेल पहुंच जाने पर भी सुप्रीम कोर्ट से सीधे सौदेबाजी करते हैं कि उन्हें जेल में कारोबारी दर्जे की सहूलियत दी जाए ताकि वे अपनी कंपनी की संपत्ति बेचकर देनदारी चुका सके। देश का सबसे बड़ा धोखेबाज किस तरह देश की सबसे बड़ी अदालत के साथ सौदेबाजी कर सकता है, यह कानून के विश्वविद्यालयों में पढ़ाने के लिए एक शानदार मामला है। अगर आप बहुत ही बड़े धोखेबाज हैं, तो सुप्रीम कोर्ट आपको रियायतें देने के लिए सौदेबाजी में किसी भी हद तक नर्म पड़ सकता है।
हिन्दुस्तान बड़ा ही अजीब देश है। यहां किसी को एक अनजाने कॉल पर यह कहकर धोखा दिया जा सकता है कि वे अगर वीडियो कॉल पर अपने कपड़े उतार दें तो सामने कोई लडक़ी भी अपने कपड़े उतार देगी। हर दिन देश भर में ऐसी कम से कम हजार रिपोर्ट दर्ज हो रही हैं, हर दिन कहीं न कहीं ऐसी खबर छप रही है, लेकिन अच्छे-खासे पढ़े-लिखे, शहरी लोग भी खुशी-खुशी इस झांसे में पड़ते दिखते हैं, और उसके बाद उनके पास के एक-एक पैसे को चूस लेने के लिए ब्लैकमेलर जुट जाते हैं। यह सिलसिला लोगों में तकनीकी और कानूनी जानकारी की कमी का हो न हो, यह लोगों में देह की भूख को आंखों से पूरा करने की अपूरित इच्छाओं का जरूर है। किसी की बदन को देख लेने की हसरत इतनी बड़ी है कि लोग उसके लिए खुद नंगे हो जाने पर आमादा रहते हैं। ऐसे लोगों को भला कौन बचा सकते हैं? और ब्लैकमेलरों के हाथों लुट जाने वाले भी ऐसे लोग आमतौर पर पुलिस के पास जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते।
भारत सरकार और प्रदेशों की सरकारों की नजरों के सामने धोखाधड़ी का यह सिलसिला लगातार जोर-शोर से जारी है, और देश की डिजिटल जागरूकता, जालसाजों के दिनदहाड़े, बीच सडक़ पर खोदे हुए गड्ढे में कूदने पर उतारू रहती है। बहुत से लोग ऐसी धोखाधड़ी में दो नंबर का पैसा भी लगाते होंगे, और इसलिए वे शिकायत करने नहीं जाते। देश की सभी सरकारों और एजेंसियों को कई किस्म की साइबर-जुर्म, और क्रिप्टोकरेंसी जैसे धोखे के खिलाफ बचाव और लोगों की जागरूकता की योजना बनानी चाहिए, वरना सौ मुजरिमों में से एक-दो पकड़ा जाएंगे, और इतना फीसदी ही पैसा भी वापिस मिल सकेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दो अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने स्विटजरलैंड की एक कंपनी, नेस्ले, के भारत में बेचे जा रहे बच्चों के दो उत्पादों में शक्कर की मात्रा अधिक पाई है। खुद स्विटजरलैंड में इस कंपनी के सेरेलॅक और दूध पावडर बिना शक्कर के बेचे जा रहे हैं। इन दो संस्थानों ने एशिया, अफ्रीका, और लैटिन अमरीका में इस कंपनी के प्रोडक्ट बाजार से लिए और बेल्जियम की एक प्रयोगशाला में उनका परीक्षण करवाया। नेस्ले कम कमाई वाले, गरीबी वाले देशों के बच्चों में उन चीजों से मीठे के स्वाद की लत पैदा करता है। इससे मोटापे की बीमारी का खतरा रहता है। छोटे बच्चों के लिए सामानों में शक्कर नहीं रहनी चाहिए, और 2022 से संयुक्त राष्ट्र संघ की एक एजेंसी छोटे बच्चों के इस्तेमाल के सामानों में शक्कर पर प्रतिबंध की मांग कर रहा है। यह तो दो अंतरराष्ट्रीय संगठनों ने यह जांच-पड़ताल की तो यह गड़बड़ी समझ आई। वरना यह कंपनी छोटे बच्चों के खाद्य पदार्थों के बाजार में खासा हिस्सा रखती है, और भारत जैसे कमजोर सरकारी इंतजाम वाले देश में देसी-विदेशी कंपनियां मनमानी करती हैं, और उन पर कोई रोक-टोक नहीं रहती।
पूरा का पूरा बाजार बच्चों के स्वाद को बिगाडऩे, उन्हें चीजों की लत लगाने का तो है ही, और बच्चों को आकर्षित करने के लिए इश्तहारों ने भी बच्चों का ऐसा इस्तेमाल किया जाता है जो कि किसी विकसित देश में नहीं किया जा सकता। कहने के लिए हिन्दुस्तान अपने आपको विकसित देश कहता है, लेकिन हकीकत यह है कि अपने नागरिकों के लिए जितने ग्राहक-हक का ख्याल उसे रखना चाहिए, उसका कोई ठिकाना ही नहीं है, बल्कि सरकार पूरी तरह से कारोबारियों के नाजायज हक की फिक्र में लगी दिखती है। भारत में उपभोक्ता सुरक्षा कानून जरूर बना हुआ है, लेकिन उस पर अमल का हाल यह है कि देसी त्यौहारों पर मिठाइयां और दूसरे सामानों के नमूने बाजार से लिए जाते हैं, और फिर उनकी प्रयोगशाला की रिपोर्ट आने पर एक-एक साल लग जाता है। नतीजा यह होता है कि बाजार में आए हुए सभी सामान जब खत्म हो जाते हैं तब उनमें से कुछ सामानों को लेकर सरकार की कार्रवाई होती है, जो कि घटिया, या मिलावटी सामान खा-पी लेने के महीनों बाद शुरू होती है।
कोई भी देश अपने आपको सिर्फ विकसित कह दे, उससे वह विकसित नहीं हो जाता। वहां पर जनता के हक का सरकार कितना ख्याल रखती है, सबसे कमजोर तबके के बुनियादी हकों की कितनी फिक्र होती है, और खासकर बच्चों के सामान, और खानपान को लेकर सरकार कितनी कड़ाई बरतती है, इससे साबित होता है कि देश कितना विकसित है। भारत में अभी पता चलता है कि पीढिय़ों से यहां इस्तेमाल हो रहे कपड़े और दीवार रंगने के रंग बच्चों के खानपान के रूई जैसे दिखने वाले, और बुड्ढी के बाल कहे जाने वाले सामानों में इस्तेमाल हो रहे हैं जिनसे कैंसर का खतरा अभी घोषित किया गया है।
देश की सबसे बड़ी पर्यावरण-संस्था सीएसई ने अपनी रिपोर्ट में बार-बार यह बताया है कि किस तरह भारतीय बाजार में खानपान के जो सामान है, उनमें नमक, शक्कर, और फैट किस तरह स्वीकृत सीमा से बहुत अधिक रहते हैं, और किस तरह बाजार के पैकेट और डिब्बाबंद सामानों के पोषण तत्वों की जानकारी देते हुए चीजों को छुपाकर लिखा जाता है, या नहीं लिखा जाता है। ऐसी बहुत सी रिपोर्ट बतलाती हैं कि खाने-पीने के सामानों पर जो चेतावनी यही कंपनियां विकसित देशों में अपने पैकेट पर लिखती हैं, उन्हें हिन्दुस्तान में नहीं लिखतीं। मतलब साफ है कि अगर सरकार किसी नियम को लागू करने में कमजोर है, या नियम बने ही नहीं हैं, तो बड़ी कंपनियां जनता की सेहत के लिए किसी भी तरह से जवाबदेह नहीं रहती, और बाजार में ग्राहक से खतरों को छुपाकर, गलत तरीके से इश्तहार करके, उन्हें सामान बेचने और खिलाने-पिलाने तक उसकी दिलचस्पी रहती है। बाजार की हालत देखें तो यह समझ पड़ता है कि खानपान का बाजार, सेहत और इलाज के बाजार को ग्राहक सप्लाई करता है। हम इस बात को सोशल मीडिया पर और इस जगह बार-बार लिखते हैं कि लोगों को बाजार के बने हुए डिब्बाबंद या पैकेटबंद प्रोसेस्ड फूड का इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। लोग अपने घर आने वाले मेहमानों के लिए ऐसे सामान लाकर रख देते हैं क्योंकि इन्हें परोसना आसान रहता है, लेकिन मेहमानों के साथ-साथ घर के बच्चों की लत भी पड़ जाती है, और घर में मौजूद ऐसे पैकेट छुपाना मुमकिन नहीं हो पाता। नतीजा यह होता है कि भारत में पैसेवालों के बच्चों से परे भी, मजदूरों के बच्चों के बीच भी पैकेटबंद प्रोसेस्ड फूड का चलन बढ़ रहा है क्योंकि कामकाजी मां-बाप इन बच्चों के लिए समय पर कुछ पकाने के बजाय पास की दुकान से ऐसे एक-दो पैकेट लेकर उन्हें थमा देना अधिक सहूलियत का काम पाते हैं। नतीजा यह है कि हर आय वर्ग के लोगों में बड़ों के साथ-साथ बच्चों में भी ऐसे खानपान का चलन बहुत बढ़ चुका है।
लोगों को याद होगा कि जब अर्जुन सिंह मानव संसाधन मंत्री थे, उस वक्त उनके मंत्रालय की एक रिपोर्ट हमने इस अखबार में छापी थी कि उनकी बेटी भारत के बिस्किट निर्माताओं के संघ के साथ जाकर देश के स्कूल शिक्षा सचिव से मिली थीं, और इस बात के लिए भरपूर लॉबिंग की थी कि स्कूलों में दोपहर के भोजन की जगह बिस्किट के पैकेट दे दिए जाएं। यह तो उस वक्त सरकार और सुप्रीम कोर्ट के बीच काम कर रहे कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने समय रहते दखल दिया, और दलाली के ऐसे धंधे को रोक दिया था। बाद में जाकर अर्जुन सिंह को फाइल पर यह लिखना पड़ा था कि बिस्किट निर्माताओं के साथ आकर शिक्षा सचिव से मिलने वाली महिला उनकी बेटी थीं, और मंत्रालय के अफसर उनके परिवार के किसी व्यक्ति की बात न सुनें। अब यह सोचने की बात है कि अगर देश के 12 करोड़ से अधिक बच्चे स्कूलों में दोपहर को गर्म ताजा पका हुआ खाना पाते हैं, और वे कारखानों के बिस्किट को रोज दोपहर खाने से बचे हैं, तो यह सरकारों के बचाए नहीं हुआ, उस वक्त सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल से हुआ।
भारत में जनता के अधिकारों का हाल बहुत खराब है। उपभोक्ताओं के हक के लिए काम करने वाले संगठनों को अदालतों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के महंगे वकीलों का सामना करना पड़ता है, और वे किसी मुकदमे को बड़ी मुश्किल से ही जीत पाते हैं। सरकार से लेकर अदालत तक ग्राहक के हकों की कोई जगह नहीं है। लेकिन ग्राहक की जागरूकता और नागरिक के चौकन्नेपन से ही बाजार की साजिशों का भांडाफोड़ हो सकता है, इसलिए इसकी कोशिश कभी खत्म नहीं होनी चाहिए। यह हाल सिर्फ बच्चों के खाद्य पदार्थों का नहीं है, बाजार में बड़ों के बीच लोकप्रिय किए गए कोल्ड ड्रिंक का भी यही हाल है जिनमें भारत में तो शक्कर भर दी जाती है, लेकिन दुनिया के जागरूक देशों में इसे बहुत घटाना पड़ा है।
देश में सरकारी नौकरियों के लिए होने वाले सबसे बड़े इम्तिहान यूपीएससी के नतीजे कल आए, और उनसे निकलकर, आईएएस, आईपीएस, आईएफएस, आईआरएस जैसी कई नौकरियों में लोग पहुंचेंगे। इसे देश में सबसे महत्वपूर्ण इम्तिहान मानना इसलिए जायज है कि इससे चुने गए लोग हिन्दुस्तान की सरकारी नौकरियों में सबसे अधिक ताकत, जिम्मेदारी, और अधिकार की कुर्सियों पर पहुंचते हैं। ऐसा माना जाता है कि देश और प्रदेशों के नेता अपने इलाकों को जितना ढाल सकते हैं, उतने का उतना ये आला अफसर भी कर सकते हैं, या करते हैं। जहां कहीं निर्वाचित जनप्रतिनिधि कमजोर रहते हैं, या कमसमझ रहते हैं, वहां पर ये अफसर हावी भी हो जाते हैं। कायदे से तो लोकतंत्र में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को नीतियां बनाना चाहिए, और अफसरों को उन पर अमल करना चाहिए। लेकिन असल जिंदगी में देखने में यह आता है कि मंत्री बने हुए निर्वाचित जनप्रतिनिधि सरकारी कामकाज के अमल वाले कमाऊ हिस्से में जुट जाते हैं, और नीतियां बनाने के कागजी और सैद्धांतिक कामों को वे अफसरों पर छोड़ देते हैं, और इस तरह लोकतंत्र की दशा और दिशा तय करने में अफसरों का बहुत बड़ा हाथ हो जाता है। यह आदर्श स्थिति तो नहीं है, लेकिन हिन्दुस्तानी लोकतंत्र की आज की हकीकत यही है।
अब इन बड़ी नौकरियों की बात करें जहां तक पहुंचना हर आम हिन्दुस्तानी बच्चे के मन की हसरत रहती है, और वे बचपन से ही कुछ पूछने पर कलेक्टर बनने की बात कहते हैं, इन नौकरियों का हाल खासा बदहाल है, और आजादी के पहले से शुरू हुई भारत में नौकरशाही की इस व्यवस्था पर दुबारा गौर करने की जरूरत भी है। इन बड़ी नौकरियों को पाने वाले लोगों की बात करें, तो करीब आधी सदी से तो हमारा देखा हुआ है ही कि ये अपने आपमें एक कानून बन जाती हैं, और इन पर काबिज अफसर सत्तारूढ़ नेताओं के साथ मिलकर भ्रष्टाचार और लूटपाट की भागीदारी फर्म चलाने लगते हैं। लेकिन चूंकि इन अफसरों के हाथ में सरकारी फाईलें रहती हैं, रिकॉर्ड रहते हैं, और सूचना के अधिकार लागू हो जाने के बावजूद किसी के लिए सूचना जुटा पाना आसान नहीं रहता है, इसलिए इन अफसरों के भयानक बड़े पैमाने के संगठित और व्यापक भ्रष्टाचार को पकड़ पाना भी आसान नहीं रहता। राज्यों में आर्थिक अपराधों की जांच के लिए जो एजेंसी रहती है, या सरकारी भ्रष्टाचार को रोकने के लिए जो एजेंसी बनती है, उसे देखें तो कुछ अपवादों को छोडक़र उसके घेरे में इन अखिल भारतीय सेवाओं के कोई भी लोग नहीं आते। इतने बड़े अफसर तभी फंसते हैं जब सत्तारूढ़ पार्टी बदलती है, या केन्द्र और राज्य में एक बड़ा टकराव होता है, जैसा कि छत्तीसगढ़ के मामले में अभी दोनों चीजें एक साथ हुई हैं, और पिछली कांग्रेस सरकार के पसंदीदा कुछ अफसरों पर इस भाजपा सरकार के तहत कुछ जुर्म दर्ज हुए हैं, लेकिन इस राज्य की मिसाल को भी देखें, तो राज्य बनने से अभी तक किसी भी अखिल भारतीय सेवा के अफसर को इस राज्य में शायद ही कोई सजा हो पाई हो। चौथाई सदी में हजार-पांच सौ अफसर आए-गए होंगे, लेकिन भ्रष्ट लोगों की बहुतायत के बावजूद एक भी व्यक्ति को सजा न मिल पाने से यह पता लगता है कि मौजूदा व्यवस्था में इन बड़े अफसरों को कोई सजा हो पाना आसान नहीं है। देश की सबसे ताकतवर और असाधारण जांच एजेंसी, ईडी, के घेरे में आए इक्का-दुक्का अफसर जेल में हैं, लेकिन अदालतों से सजा मिलने के जो आंकड़े हैं, उन्हें देखें तो इन अफसरों को कैद होने की संभावना शून्य है, और जमानत न मिलने पर जितने वक्त इन्हें जेल में रहना पड़ रहा है, बस वही एक किस्म से इनकी सजा कही जा सकती है। नौकरशाही और बाकी अफसरशाही का जो मॉडल पिछले पांच बरस में छत्तीसगढ़ में सामने आया है, और देश के दूसरे कई प्रदेशों में भी इन आला अफसरों ने अपने सत्तारूढ़ नेताओं को बचाने के लिए कानून से जिस तरह के बड़े-बड़े टकराव लिए हैं, उनसे यह साबित होता है कि ये अखिल भारतीय सेवाएं अब अपनी मौजूदा शक्ल में लोकतंत्र का भला करने लायक नहीं रह गई है। हो सकता है कि यह आज भी देश में मौजूद एक बेहतर सरकारी सेवा-व्यवस्था हो, लेकिन यह अपने आपमें इतनी खराब, भ्रष्ट, बेअसर, और जनकल्याण से कोसों दूर हो चुकी है कि इससे अधिक उम्मीद नहीं की जा सकती। अब चूंकि नई कोई व्यवस्था आने तक गुलाम भारत के समय से चली आ रही यही व्यवस्था जारी रहेगी, और हर बरस इसमें सैकड़ों नए लोग बढ़ते चलेंगे, इसलिए अब यह सोचना चाहिए कि नए आने वाले लोगों की ट्रेनिंग किस तरह की जाए ताकि वे जुर्म की दुनिया बन चुकी इन नौकरियों में पहुंचकर मुजरिम न बनें, और जनकल्याण से जुड़ सकें। दिक्कत यह है कि अधिकतर प्रदेशों में सत्तारूढ़ पार्टियां और उनके नेता सरकारी खजाने को दुह लेना चाहते हैं, और इसमें उन्हें अफसरों के भी भ्रष्ट होने की जरूरत पड़ती है, और अफसर अपने आपको एयर इंडिया के पिछले प्रतीक चिन्ह, सेवा-खातिरी में मौजूद झुके हुए महाराज की तरह पेश रखते हैं। इन नौकरियों में आने वाले नए लोगों को यह भी समझना होगा कि न तो इस देश की निर्वाचित सरकारें कोई अच्छा आदर्श पेश कर पा रही है, न ही उनकी नौकरियों के उनसे पुराने अफसर कोई अच्छी चीज सिखाने की हालत में हैं। नेता और अफसर ये दोनों ही आमतौर पर जेल जाने के लायक रहते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार और जुर्म को छुपाने में पूरी ताकत लगाकर वे किसी सजा को दूर धकेलते रहते हैं।
आज जब यूपीएससी के चुने गए नौजवानों के नाम, उनकी तस्वीरें, और उनके इंटरव्यू चारों तरफ छप रहे हैं, तभी यह अप्रिय चर्चा करना भी जरूरी है ताकि इन नए लोगों को यह ध्यान रहे कि उन्हें अपने सीनियर अफसरों से यह सीखना है कि उन्हें क्या-क्या काम नहीं करने हैं, और क्या-क्या नहीं बनना है। दरअसल इन ताकतवर ओहदों के हाथ इतनी बड़ी कमाई का जरिया रहता है कि मामूली भ्रष्टाचार करके भी एक आईएएस या आईपीएस अपनी नौकरी पूरी करने के पहले सैकड़ों करोड़ रूपए कमा चुके रहते हैं। अब इतने बड़े लालच को किसी से कैसे छुड़ाया जा सकता है, इसका कोई समाधान हमारे पास नहीं है। लेकिन समाधान न हो, तो समस्या पर भी चर्चा न की जाए, ऐसा तो है नहीं, इसलिए हम इस मुद्दे को उठा रहे हैं, और इन बड़ी नौकरियों को पूरा करके जो लोग ईमानदार रहकर निकल चुके हैं, वे लोग शायद इस पर कुछ रौशनी डाल सके कि बेहतरी का रास्ता किधर से होकर निकल सकता है।
पाकिस्तान की एक जेल में बंद एक भारतीय सरबजीत सिंह का जेल के भीतर 2013 में कत्ल कर दिया गया था। सरबजीत पर पाकिस्तान में भारत के लिए जासूसी करने, और बम विस्फोट करने के जुर्म थे, और वह सजा काट रहा था। वहां जिन दो कैदियों पर उसके कत्ल का आरोप था, उसमें से एक, आमिर सरफराज पर अभी पाकिस्तान में घर घुसकर गोलियां चलाई गईं। जेल में सरबजीत के कत्ल से दोनों देशों में तनातनी बढ़ी थी, और अभी जब यह ताजा हमला हुआ तो पाकिस्तान के गृहमंत्री ने प्रेस कांफ्रेंस कर दावा किया कि इसमें मिले सुबूत इसके पीछे भारत का हाथ होने का इशारा करते हैं। उन्होंने कहा कि पहले भी भारत पाकिस्तान में हत्याओं के कुछ मामलों में सीधे तौर पर शामिल रहा है। इसके पहले कनाडा और अमरीका में भारत के खिलाफ गतिविधियां चलाने वाले खालिस्तानी आंदोलनकारियों पर हमलों के पीछे भारत की साजिश की बात इन दोनों ने उठाई थी, और दोनों देशों के साथ भारत के रिश्तों में कुछ कड़वाहट भी आई थी। पहली बार ऐसा लगा था कि भारत दूसरे देशों की जमीन पर भी उन लोगों पर हमले करवा सकता है जिन्हें वह भारत का दुश्मन मानता है। इस पर हमने कुछ अरसा पहले भी लिखा था, लेकिन अब भारत चुनाव के बीच है, और ऐसे में भारत के जासूस समझे जाने वाले सरबजीत के कथित हत्यारों पर जब पाकिस्तान में इस तरह का हमला हुआ है, तो इससे भारत में मौजूदा सरकार पर फिदा एक तबके को एक कामयाबी दिख सकती है।
लेकिन हम राजनीतिक और चुनावी नफे-नुकसान से परे देखें, तो भी कई बार दुनिया के अधिकतर देशों की सरकारें अपने देश के दुश्मन माने जा रहे व्यक्ति को दूसरे देश की जमीन पर भी निपटाते आए हैं। अमरीका और इजराइल सरीखे देशों पर तो यह बहुत बार लागू होता है, जहां की खुफिया एजेंसियां खुद, या भाड़े के हत्यारों से ऐसा करवाती रहती हैं, लेकिन भारत के बारे में आमतौर पर ऐसा नहीं माना जाता था। अब बदले हुए माहौल में भारत अगर दूसरे देश के नागरिकों पर, या हिन्दुस्तानी मुल्क के उन लोगों पर जो कि भारत के खिलाफ खुलकर अभियान चलाते हैं, अगर भारत सरकार हमले करवाती है, तो इसे अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग नजरिए से देखा जाएगा। जिस देश की सरहद में ऐसा हमला होता है, वहां की सरकार तो जाहिर तौर पर भारत के खिलाफ रहेगी क्योंकि उसकी जमीन पर कानून तोड़ा गया है। लेकिन बहुत सी सरकारों पर इसका यह असर भी होगा कि भारत अपने दुश्मनों को छोड़ता नहीं है। बाकी देशों के बीच इसकी प्रतिक्रिया मिलीजुली रहेगी, और जो देश इस तरह की हिंसा या ऐसे जुर्म करवाते रहते हैं, उनकी नजरों में भारत उनकी कतार में शामिल हो गया एक देश गिना जाएगा।
अब सवाल यह उठता है कि इस तरह के कत्ल के पीछे क्या नैतिकता भी आड़े आ सकती है? इस बारे में यह समझना होगा कि दुनिया के अधिकतर देश दो अलग-अलग किस्म के कानूनों पर चलते हैं। कानूनों का एक सेट वे अपने देश के भीतर के लिए रखते हैं, और दूसरे देशों के लिए वे गैरकानूनी तौर-तरीकों का इस्तेमाल करते हैं, जिससे उनकी अपनी अधिकतर आबादी को या तो कोई लेना-देना नहीं रहता है, या उन्हें कोई आपत्ति नहीं रहती है। अधिकतर लोग यह मानते हैं कि दुश्मन को निपटाते हुए किसी कानून को मानने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। चूंकि दूसरे देशों की जमीन पर भारत का कोई कानून लागू नहीं होता है, इसलिए अगर वहां पर उस देश के कानून को चकमा देकर कोई जुर्म करवाया जा सकता है, और अपने देश के दुश्मन को निपटाया जा सकता है, तो इसे लोकतंत्र की जुबान में कोई अनैतिक तो कह सकते हैं, लेकिन इसमें तब तक कुछ गैरकानूनी नहीं है जब तक कि ऐसे कत्ल वाले देश में ऐसे सुबूत न जुट जाएं जो कि कत्ल करवाने वाले देश का हाथ साबित कर सकें। इसलिए दूसरे देश में जाकर हिसाब चुकता करने के पीछे किसी देश को नैतिकता भी आड़े नहीं आती है। फिर दुनिया में जो देश सबसे अधिक लोकतांत्रिक कहे या माने जाते हैं, वैसे देश भी दुनिया भर में बम बरसाते दिखते हैं, वहां जाकर कत्ल करते हैं, सत्ता पलटते हैं, खुद राज करते हैं, और इसे कोई बुरा भी नहीं मानते। पाकिस्तान को बताए बिना अमरीका ने पाकिस्तानी जमीन पर ओसामा-बिन-लादेन के बसे होने का दावा किया, और यह दावा भी तब किया जब उसने फौजी हमला करके लादेन को मार डालने का दावा किया, और उसके बाद ही अपनी फौजी कार्रवाई के बारे में दुनिया को बताया। इस बारे में पाकिस्तान को भी उसने खबर नहीं की। इसलिए जब जिस देश की ताकत रहती है, वे दूसरे देशों में जाकर कई तरह के काम करते हैं, और लोकतंत्र के पहले की जो एक कहावत चली आ रही है, वह आज 21वीं सदी में आधुनिक और सभ्य लोकतंत्रों पर भी लागू होती है कि जिसकी लाठी उसकी भैंस। इसलिए पाकिस्तान में पिछले कुछ महीनों में अगर लगातार भारत के आरोपों से घिरे हुए संदिग्ध और कथित आतंकी एक ही अंदाज में मारे गए हैं, तो पाकिस्तान के आरोपों से परे भारत की सेहत पर इसका कोई असर नहीं पड़ा है, बल्कि भारत में राष्ट्रवादी आंदोलनकारी इसे देश की कामयाबी ही बता रहे हैं, और सरकार इसका कोई खंडन नहीं कर रही है। आज कल्पना करके देखें कि अगर भारत सरकार पाकिस्तान में दाऊद इब्राहिम को खत्म करवाने में कामयाब होती है, तो इसे भारत में एक बड़ी राष्ट्रीय उपलब्धि के रूप में माना जाएगा, फिर पाकिस्तान चाहे जैसी भी दखल की तोहमत लगाता रहे।
यह बात बिल्कुल साफ है कि राष्ट्रीय हितों के सामने आज कोई अंतरराष्ट्रीय हित शायद ही किसी सरकार की प्राथमिकता हों। अधिकतर सरकारें अपने घरेलू चुनावों, घरेलू अर्थव्यवस्था, बेरोजगारी और महंगाई से जूझते हुए विदेशी मोर्चों पर कुछ किस्म की कामयाबी की कोशिश कर सकती हैं जिनसे देश के भीतर वाहवाही मिले। आज किसी विकसित और सभ्य लोकतंत्र में भी गिने-चुने लोग ही ऐसे होंगे जो कि अपनी सरकार के ऐसे गैरकानूनी काम का विरोध करेंगे। यह बात जाहिर है कि नैतिकता अपने देश में अपने लोगों के लिए अलग होती है, और दूसरी जमीन पर दूसरे लोगों के लिए उसका एक बड़ा हल्का संस्करण लागू किया जाता है। इसलिए भारत अपने खिलाफ काम करने वाले लोगों के साथ दुनिया के दूसरे देशों में जो सुलूक करता है, उसे कूटनीति की भाषा में कुछ और कहा जाएगा, नैतिकता की भाषा में कुछ और, और चुनावी भाषा में वह एक बिल्कुल अलग नारा रहेगा।
मध्य-पूर्व के देशों पर एक अलग खतरा मंडरा रहा है। ईरान और इजराइल के बीच बरसों से चली आ रही परोक्ष तनातनी अब आमने-सामने के हमलों में तब्दील हो गई है, और आस-पड़ोस के तमाम देश एक खेमेबंदी में फंसने की नौबत में खड़े हुए हैं। इजराइल पहले से फिलीस्तीनी के खिलाफ जंग छेडक़र बहुत बड़ा जनसंहार करके दुनिया की नजरों में एक युद्ध अपराधी तो बना हुआ ही था, और हालात इतने खराब हो चुके हैं कि इजराइल को दुनिया के इस हिस्से में हर किस्म की शह देने वाला अमरीका भी बेकसूर फिलीस्तीनियों की दसियों हजार की संख्या में मौतों से सहम गया है, और उसने भी इजराइल से बेकसूरों की मौत रोकने को कहा है। इस बीच मानो इजराइल पर परेशानियां कम हों, उसने सीरिया के दमिश्क में ईरानी वाणिज्य दूतावास पर मिसाइल हमला किया, और कुछ दूसरे अफसरों के साथ-साथ ईरान के एक बड़े सीनियर फौजी कमांडर की भी मौत हुई थी। जैसा कि दुनिया भर में माना जाता है, किसी भी देश में किसी दूसरे देश के कूटनीतिक ठिकाने उस दूसरे देश की जमीन ही माने जाते हैं, इसलिए ईरान में इसे अपने पर इजराइली हमला करार दिया, और उसके जवाब में कल सैकड़ों ड्रोन और मिसाइल इजराइल की तरफ रवाना किए जिन्हें इजराइल, अमरीका, और ब्रिटेन की फौजों ने तकरीबन पूरे का पूरा रास्ते में ही खत्म कर दिया। इजराइल की जमीन पर इसका बहुत मामूली सा असर हुआ, लेकिन इस टकराव को लेकर इन दोनों देशों से, और मध्य-पूर्व के इस इलाके से किसी भी तरह का वास्ता रखने वाले देशों में चौकन्नापन दिख रहा है। अमरीका ने अपने पुराने साथी और पिट्ठू इजराइल से यह साफ कर दिया है कि अगर वह ईरान पर जवाबी हमला करेगा, तो उसमें अमरीकी फौज शामिल नहीं होगी। शायद ब्रिटेन का भी यही रूख रहेगा, और ये देश इजराइल पर कोई हमला होने पर तो उसका साथ देंगे, लेकिन उससे परे ईरान पर हमले के लिए नहीं जाएंगे।
अब हम भारत जैसे देश के नजरिए से दुनिया की आज की हालत को देखते हैं, तो एक तरफ भारत का सबसे पुराना देश रूस लंबे समय से यूक्रेन पर हमला करके वहां उलझा हुआ है, और इसने नाटो देशों को भी मजबूर कर दिया है कि वे यूक्रेन का साथ देकर रूस को खोखला करने की कोशिश करें। ऐसे में भारत ने जंग से परे, रूस से लेन-देन जारी रखा है, और उसने पश्चिम के उस आर्थिक बहिष्कार को अनदेखा कर दिया है जिससे नाटो देश रूस को दीवालिया करने का सपना देख रहे थे। भारत में अमरीका और बाकी नाटो देशों के साथ अपने संबंध बिगाड़े बिना रूस के सस्ते तेल का सौदा जारी रखा है, और इस मामले में वह चीन के अलावा दुनिया में रूस का सबसे बड़ा मददगार बना हुआ है। भारत ने रूस और यूक्रेन के बीच सही और गलत की बात उठाए बिना अपने देश के आर्थिक हित देखे हैं कि उसे सस्ता तेल कहां से मिल सकता है। कुछ इसी तरह की नौबत भारत के सामने इजराइल और अमरीका को लेकर आ खड़ी हुई है कि वह इजराइल के कुल निर्यात का सबसे बड़ा आयात करने वाला देश तो है ही, ईरान के साथ भी उसके बहुत अच्छे संबंध हैं। और इस ताजा फौजी तनाव के पहले के कई महीनों से फिलीस्तीन पर जो इजराइली जंगी हमला चल रहा है, उसमें भी भारत ने अब तक अपने को अलग रखा है जो कि भारत की पुरानी परंपरागत विदेश नीति से अलग बात है। ऐसा लग रहा है कि भारत अपनी आज की विदेश नीति में अपने राष्ट्रीय हितों को सबसे ऊपर रख रहा है, और न तो वह किसी ऐतिहासिक परंपरा को जारी रखने के तनाव में है, और न ही वह अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थ बनने के उकसावों और न्यौतों पर ध्यान दे रहा है। उसने अपने आपको किसी भी द्विपक्षीय तनाव में शामिल होने से रोक रखा है, और वह बारीकी से दुनिया के रूख को देख भर रहा है। फिलीस्तीन जैसा जरूरतमंद और मुसीबतजदा देश गांधी के भारत से इससे बेहतर उम्मीद कर रहा होगा, लेकिन भारत ने किसी नैतिक दबाव में अपने वर्तमान हितों को छोडऩे से परहेज किया है। विदेश नीति के बेहतर जानकार लोग यह बता सकेंगे कि भारत का यह रूख अंतरराष्ट्रीय मामलों में उसकी वैश्विक लीडरशिप की किसी भी संभावना को बेहतर या बदतर, क्या करेगा, लेकिन आज का रूख तो दिखता यही है कि भारत अपने राष्ट्रीय हितों से परे के तमाम मामलात से दूर, विश्व समुदाय की किसी भी तरह की अगुवाई से दूर बैठा हुआ है। हम इस रूख के अच्छे या बुरे होने, इससे नफा या नुकसान होने पर नहीं जा रहे हैं, लेकिन फिलीस्तीन के साथ जैसा जुल्म हो रहा है उसे देखते हुए अगर हिन्दुस्तान की चुप्पी नहीं टूट रही है, तो यह विश्व इतिहास में किसी महान देश की तरह तो दर्ज नहीं होगी। नेहरू और इंदिरा को छोड़ भी दें, तो भी गांधी ने अपने पूरे जीवन फिलीस्तीनियों के हक को लेकर जितना लिखा है, वही भारत का ऐतिहासिक रूख था, लेकिन वह आज कायम नहीं रह गया है।
दुनिया में रूसी हमले से शुरू हुई रूस-यूक्रेन की जंग का बड़ा असर देखने मिल रहा है, रूस के जितने खोखले हो जाने की उम्मीद पश्चिम कर रहा था, वैसा तो कुछ भी नहीं हुआ है, बल्कि तीन दिन पहले इकॉनामिस्ट पत्रिका के एक पॉडकास्ट में बताया गया कि रूस की हालत जंग के पहले के मुकाबले बेहतर हो रही है। अमरीका सहित बाकी नाटो देशों का बहुत बड़ा पंूजीनिवेश यूक्रेन की मदद की शक्ल में इस मोर्चे पर हो चुका है, और रूस को खोखला करने का मकसद पूरा भी नहीं हुआ है। दूसरी तरफ मध्य-पूर्व में फिलीस्तीन पर इजराइली फौजी युद्ध-अपराधों से अमरीका सहित कुछ और इजराइल-समर्थक देशों की फजीहत चल ही रही थी। ऐसे में बैठे-ठाले इजराइल ने सीरिया में ईरानी वाणिज्य दूतावास पर हमला करके एक नया बवाल खड़ा कर दिया। अब मध्य-पूर्व के इस इलाके की यह दोहरी तनातनी अमरीका जैसे देश को आगे कितना उलझाएगी, यह अभी साफ नहीं है, लेकिन एक दूसरी बात बड़ी साफ है। रूस-यूक्रेन के वक्त से चीन रूस के साथ मजबूती से बना हुआ है, और अभी शायद वह ईरान के साथ खड़ा रहेगा। जंग में साथ देना एक अलग बात है, लेकिन अगर रूस, फिलीस्तीन, और ईरान, इन सारे मोर्चों पर अगर चीन एक बड़ी, और अमरीका से परे की भूमिका निभाता है, तो यह दुनिया के शक्ति संतुलन में अमरीका के लिए एक परेशानी की बात हो सकती है। यहां पर अभी हम ताइवान जैसे मुद्दे पर चीन और अमरीका के सीधे टकराव की जटिलता को और नहीं जोड़ रहे हैं, लेकिन यह बात साफ है कि इजराइल का हमलावर रूख कुल मिलाकर अमरीका के लिए एक बड़ी दिक्कत खड़ी कर रहा है। आगे ये तमाम टकराव चाहे जहां पहुंचें, भारत अगर इन पर तटस्थ और निरपेक्ष बना रहेगा, वह बीच-बचाव की किसी कोशिश में भी शामिल नहीं रहेगा, तो वह दुनिया में महत्व का एक मौका खोने का खतरा उठाएगा। देखते हैं आगे क्या होता है।
इन दिनों हिन्दुस्तान में चुनावी मौसम चल रहा है। पिछले छह महीने ऐसे ही गुजरे। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को मिनी आम चुनाव कहा जा रहा था, और अब जब आम चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गई है, तो 4 जून के नतीजों के बाद यह समझ पड़ेगा कि क्या इन नतीजों का पांच राज्यों के विधानसभा-नतीजों से कोई मेल बैठ रहा है। फिलहाल भाजपा और उसके सहयोगी दल, कांग्रेस और उसके सहयोगी दल, और इन दोनों गठबंधनों से बाहर की क्षेत्रीय पार्टियां, इन सबके चुनावी घोषणापत्रों का दौर चल रहा है। अलग-अलग किस्म की संभव और असंभव दिखने वाली घोषणाएं की जा रही हैं, और मीडिया भी इनके कवरेज में मगन हो गया है। आखिर पार्टियां अगले पांच बरस के लिए सत्ता में आने पर जनता को जिस किस्म के सपने दिखाती हैं, उनका समाचार-महत्व तो होता ही है।
लेकिन कुछ गैरराजनीतिक संगठनों को चुनावी घोषणापत्रों का सोशल ऑडिट करना चाहिए, और सरकारों के कार्यक्रमों का भी। छत्तीसगढ़ में भाजपा की रमन सिंह सरकार के चलते हर आदिवासी परिवार को गाय बांटने की योजना कुछ महीनों के भीतर ही हवा हो गई थी। इसी तरह खाड़ी के बजाय बाड़ी से आने वाले तेल की रतनजोत की योजना भी काफूर हो गई थी। छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल की पिछली सरकार में पिछले चुनावी वायदे की शराबबंदी होना तो दूर रहा, शराब का हजारों करोड़ का अवैध कारोबार जरूर हो गया। भूपेश सरकार ने नरवा-गरवा-घुरवा-बाड़ी नाम की जो अतिमहत्वाकांक्षी ग्रामीण विकास योजना बनाई थी, उसका कोई इस्तेमाल विधानसभा चुनाव में नहीं किया गया। आज देश में भाजपा घोषणापत्र जारी कर रही है, लेकिन दस बरस के मोदीराज में जो बड़े फैसले लिए गए थे, उसका कोई भी जिक्र पिछले पांच बरस में भी कभी नहीं हो रहा। नोटबंदी को देश के कालेधन पर सर्जिकल स्ट्राईक कहा गया था, और आतंक पर भी। इन दोनों की सेहत पर नोटबंदी से कोई फर्क नहीं पड़ा, और सिर्फ गरीबों की मौत हुई, छोटे कारोबारी बर्बाद हुए, लोगों की महीनों की कमाई मारी गई, बैंकों पर और रिजर्व बैंक पर दसियों हजार करोड़ का बोझ पड़ा, और हासिल आया शून्य। कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि कारोबारियों के पास जितने नकली नोट पड़े हुए थे, वो भी आपाधापी के उस दौर में बैंकों में खपा दिए गए, और नोटबंदी से ऐसे लोगों ने फायदा उठा लिया, और ईमानदार लोग भारी नुकसान में रहे।
चुनाव के वक्त कई किस्म के वायदे किए जाते हैं, उनमें से कुछ पूरे होते हैं, कुछ पूरे नहीं भी होते हैं। लेकिन वायदों से परे पांच बरस सरकार जितने तरह के दूसरे काम करती हैं, उनको चुनाव में क्या कहकर, क्या दिखाकर लोगों के सामने पेश किया जाता है, यह भी देखना चाहिए। चुनावी घोषणापत्र तो पार्टियों के होते हैं, लेकिन पार्टियां अपने आपको सत्ता और विपक्ष में बंटी हुई होती हैं, और सरकार को भी अपने कार्यकाल को लेकर जवाबदेह रहना चाहिए, खासकर सत्तारूढ़ पार्टी को। अगर सरकार चलाते हुए बहुत बड़े-बड़े ऐतिहासिक और नाटकीय फैसले लिए गए, लेकिन उनका नतीजा यह रहा कि उन्हें चुनाव के दौरान गिनाया भी न जा सका, तो यह बात साफ है कि उनसे कोई फायदा नहीं हुआ, बल्कि जनता को वे फैसले याद न आ जाएं, इसकी कोशिश सत्तारूढ़ पार्टी करती रहती है। इसलिए किसी पार्टी के दो घोषणापत्रों की तुलना तो ठीक है, सत्तारूढ़ पार्टी के प्रमुख कार्यक्रमों को अगर चुनावों में छोड़ दिया जा रहा है, तो उन्हें लेकर भी सवाल होने चाहिए।
भारत में जनसंगठनों की जगह एकदम खत्म हो गई है। एक-दो ही ऐसे संगठन हैं जो चुनावों के वक्त उम्मीदवारों की दौलत, पढ़ाई, और उनके जुर्म के इतिहास का विश्लेषण सामने रखते हैं। लेकिन पिछली सरकार के कार्यकाल का एक व्यापक विश्लेषण भी जनता के सामने आना चाहिए, और हिन्दुस्तान में मीडिया तो अब यह काम करता नहीं, कर सकता नहीं, इसलिए किसी जनसंगठनों को ही यह बीड़ा उठाना पड़ेगा। किसी सरकार के दस-दस, बीस-बीस हजार करोड़ के कार्यक्रमों का अगर इतना भी योगदान नहीं रहा कि मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी उन्हें जनता के सामने गिना सके, तो यह जाहिर है कि ऐसे कार्यक्रम बहुत बुरी तरह असफल हुए हो, और चाहे चुनाव आयोग की ऐसी शर्तें न रहे, तो भी जनसंगठनों को जनता के सामने सच्चाई को सही संदर्भों में रखना चाहिए, ताकि उसका फैसला एक जानकार का फैसला हो सके।
देश में आज सूचना का अधिकार कानून तो लागू है, लेकिन उसके चलते हुए भी सूचना न देने पर सरकारी विभाग आमादा रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट और चुनाव आयोग की मेहरबानी से देश में आज पहले के मुकाबले बहुत अधिक जानकारी तक जनता की पहुंच बन गई है। हाल ही में चुुनावी बॉंड को लेकर सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला आया है उससे भी यह बात साबित होती है कि सूचना का अधिकार कितनी अहमियत रखता है, और उसी की वजह से यह साफ हो पाया है कि किस कारोबारी ने किस तारीख पर, कौन सा नोटिस मिलने के बाद, किन पार्टियों को कितना चंदा दिया है, और किस तरह उस कारोबारी के खिलाफ जांच बंद हो गई है। पार्टियों के चुनावी घोषणापत्रों के मुकाबले उनके सत्ता के कार्यकाल की कई दूसरी बातें अधिक अहमियत रखती हैं, और पांच बरस पहले के चुनावी घोषणापत्र से इस बार तुलना करना तक तो ठीक है, लेकिन बाकी बातों का हिसाब भी सार्वजनिक रूप से होना चाहिए।
आज हिन्दुस्तान में किसी भी व्यक्ति के सभ्य होने के पैमानों में से एक यह भी है कि उसके कपड़े कैसे हैं? कपड़े साफ-सुथरा रहना तो जरूरी है, लेकिन इसके साथ-साथ अधिकतर जगहों पर कपड़े प्रेस किए हुए भी रहने की उम्मीद की जाती है। जहां लोगों को बिजली से चलने वाली आयरन नहीं मिलती है, और जहां कोयला जलाकर गर्म की जाने वाली इस्त्री भी नहीं रहती है, वहां भी लोग किसी सपाट तले वाले लोटे में सुलगते कोयले डालकर उससे लोटा गर्म करके कपड़े प्रेस कर लेते हैं। कपड़े प्रेस करना हिन्दुस्तान में सभ्य होने का एक सुबूत माना जाता है। अब आईआईटी मुम्बई के एक प्रोफेसर चेतन सिंह चौहान ने सोशल मीडिया पर यह लिखा है कि एक जोड़ी कपड़े प्रेस करने पर धरती पर करीब दो सौ ग्राम कार्बनडाइऑक्साइड जुड़ जाती है। ऐसे लोग अपने कपड़े तो प्रेस करते हैं, लेकिन इसके लिए बिजली या कोयला जो कुछ भी खर्च करते हैं, और धरती पर जो गर्मी पैदा करते हैं उन सबसे धरती पर प्रदूषण बढ़ता है जिसका भुगतान उनको भी करना पड़ता है जो कि अपनी पसंद से, या अपनी आर्थिक स्थिति की वजह से कपड़े प्रेस नहीं करते, या करवाते हैं। कुछ लोगों में तो कपड़े प्रेस करवाने का दीवानापन इतना रहता है कि वे पर्दे, चादर, तकियागिलाफ, और चड्डी-बनियान तक प्रेस करवाते हैं। जाहिर है कि वे धरती पर बहुत सा ऐसा कार्बन जोड़ते हैं जो गैरजरूरी है।
जो लोग जींस या टी-शर्ट पहनते हैं, वे आमतौर पर कपड़े प्रेस करवाने से बच जाते हैं क्योंकि उन कपड़ों पर आयरन करने की जरूरत ही नहीं रहती है। वैसे तो आयरन करने की जरूरत किसी कपड़े पर नहीं रहती है, लेकिन लोग हिन्दुस्तान जैसे देश में भी ऐसे अंग्रेज बने रहना चाहते हैं कि वे दूसरे शहर सफर पर जाते हुए भी घर पर जिन कपड़ों को प्रेस करवाते हैं, दूसरे शहर पहुंचकर फिर उन्हीं कपड़ों का होटल या किसी दूसरी जगह दुबारा प्रेस करवाते हैं। बिजली की बर्बादी, और हवा में तापमान का बढऩा, ये दोनों बिना जरूरत होते रहते हैं। जींस और टी-शर्ट के साथ एक आसानी यह भी रहती है कि जींस को कुछ दिनों तक बिना धोए पहना जा सकता है, न वह आसानी से गंदी होती, न उसमें किसी सिलवट की दिक्कत रहती। हमारे सरीखे जींस पहनने वाले लोगों को तो यह सहूलियत भी रहती है कि जेब में रूमाल भी न रखा जाए, और खाने-पीने के बाद धुले हुए हाथ जींस पर ही, या उसकी जेबों में हाथ डालकर पोंछ लिए जाएं। कपड़े प्रेस करने सरीखा फैशन अंग्रेजों या दूसरे रईस लोगों ने ही शुरू किया होगा, जिनको दूसरों के शोषण पर जीने की आदत रही होगी। मेहनतकश लोग न कपड़ों पर कलफ की सोच पाते, न कपड़े प्रेस करवाने की। लोगों में इस चलन का दीवानापन इतना है कि वे जींस और टी-शर्ट भी प्रेस करवाते हैं। जींस मोटे कपड़े से बनी वह पतलून है जिसे खदान मजदूरों के लिए बनाया गया था। अब मजदूरों की पोशाक आज दुनिया की सबसे कामयाब फैशन है, और लोग उस पर प्रेस करवाने लगे हैं।
दुनिया में लोगों को ऊर्जा और ईंधन की खपत की कमी के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए क्योंकि जब तक धरती पूरी तरह से सौर ऊर्जा या पनबिजली, पवनचक्कियों से चलने लगेगी, तब तक ही कोयले और डीजल-लकड़ी जैसे ईंधन से चलने वाले बिजलीघर, और कारखाने धरती पर प्रदूषण इतना बढ़ा चुके रहेंगे कि जलवायु परिवर्तन का खतरा बहुत कुछ तबाह कर देगा। अब पाकिस्तान जैसा देश जो कि प्रदूषण में बहुत इजाफा नहीं करता है, उसने भी साल भर पहले वहां जैसी विकराल बाढ़ देखी, और देश का एक बड़ा हिस्सा पूरी तरह तबाह हो गया, वह पाकिस्तान का अपना किया हुआ नहीं था, दुनिया में ऊर्जा और ईंधन का अंधाधुंध इस्तेमाल करने वाले विकसित और पश्चिमी देशों की हवस की वजह से गरीब दुनिया को भी क्लाइमेट चेंज के नुकसान झेलने पड़ रहे हैं। अफ्रीका के कई देश इतना भयानक सूखा झेल रहे हैं कि वहां इंसान और जानवर सबके लिए भुखमरी की नौबत आ गई है। सिर्फ पानी की कमी से लोगों को जानवरों सहित देश छोडक़र जाना पड़ रहा है। और यह नौबत बढ़ती ही चली जा रही है। इस बार की हिन्दुस्तानी गर्मी को लेकर मौसम विभाग की भविष्यवाणी है कि आने वाले महीनों में भयानक गर्मी वाले दिनों की संख्या खासी बढऩे जा रही है, और उन दिनों में भी सबसे अधिक तापमान खासा अधिक बढऩे जा रहा है। मौसम की सबसे बुरी मार दुनिया भर में और अधिक बुरी होती जा रही है, और वह बार-बार हो रही है। मौसम के ऐसे बदलाव के लिए जिम्मेदार इंसानी प्रदूषण में लोगों के कपड़े प्रेस करवाने के शौक की वजह से और इजाफा हो रहा है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
आईआईटी मुम्बई के इस प्रोफेसर की पोस्ट पर किसी ने यह कुतर्क भी किया है कि कल के दिन वे कार्बन बढऩे से रोकने के लिए कपड़े पहनना बंद कर देने की भी वकालत करेंगे, तो उन्होंने यह सुझाव दिया है कि उन्हें ऊर्जा-शिक्षित होने की जरूरत है, और इसके लिए उन्हेंने एक मुफ्त का कोर्स भी डिजाइन किया है। इस वेबसाइट पर उन्होंने बिजली बचाने, कमरों में सूरज की रौशनी बढ़ाने, और मौसम के बदलाव घटाने जैसी बहुत सी बातों का खुलासा करते हुए लोगों को दुनिया को बचाने और बेहतर करने की जानकारी दी है। इस वेबसाइट को हम इस संपादकीय के आखिर में दे रहे हैं, और हम चाहेंगे कि हमारे जिम्मेदार पाठक इस पर जाकर अपनी जानकारी और समझ दोनों बढ़ा सकते हैं। हमारे नियमित पाठक जानते होंगे कि हम कार धोने, या मकान-दुकान के बाहर सडक़ धोने के खिलाफ लिखते और बोलते आए हैं। हमने लोगों के छत पर लगाए जाने वाले बगीचों के खिलाफ भी लिखा है, और बड़े-बड़े लॉन को सींचने के खिलाफ भी। हम कई बार यह वकालत भी कर चुके हैं कि लोगों को अपनी गैरजरूरी चीजें दूसरे जरूरतमंद लोगों को देना चाहिए ताकि धरती पर चीजों का उत्पादन घटे। अभी इंटरनेट पर सामानों की बिक्री वाली कुछ वेबसाइटों ने यह भी किया है कि लोग अगर अपने पुराने कपड़े इन वेबसाइटों पर बेचेंगे, तो ये वेबसाइट उन पर कम कमीशन लेगी।
किसी की शुरू की हुई छोटी सी बात में छिपी बड़ी क्रांति की संभावना भी देखनी चाहिए। ये आईआईटी प्रोफेसर हफ्ते में एक दिन बिना प्रेस के कपड़े पहनने की वकालत कर रहे हैं, लोगों को हर दिन ऐसे ही कपड़े पहनना चाहिए, ताकि धरती बच सके। कपड़ों को प्रेस करना हर किस्म की बर्बादी है, और यह सिलसिला खत्म करने की कोशिश करनी चाहिए।
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भोपाल के राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में करीब 20 करोड़ रूपए के घोटाले के आरोप में कुछ अरसा पहले वहां कुलपति रहे एक प्राध्यापक को पुलिस ने तलाश करते-करते छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में गिरफ्तार किया है। तीन मार्च को उनके खिलाफ जालसाजी का केस दर्ज हुआ, और तब से वे मोबाइल बंद करके फरार थे। एक रिश्तेदार के घर रायपुर में छुपे हुए उन्हें आधी रात पकड़ा गया। कुलपति के अलावा उस वक्त के रजिस्ट्रार और कुछ दूसरे अफसर भी फरार या गिरफ्तार हैं, और एक बैंक मैनेजर भी। ऐसी कुछ दूसरी खबरों को देखें तो कुछ अरसा पहले हैदराबाद में तेलंगाना विश्वविद्यालय के कुलपति को 50 हजार रूपए की नगद रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार किया गया था। पिछले बरस तमिलनाडु में सरकारी फंड की अफरा-तफरी में वहां के कुलपति को गिरफ्तार किया गया था जो कि जाने-माने कृषि विशेषज्ञ भी थे। इनके खिलाफ कर्मचारी संघ ने ही शिकायत दर्ज कराई थी, और कुछ दूसरी शिकायतें भी उनके खिलाफ थीं। अभी भोपाल तकनीकी विश्वविद्यालय के कुलपति की गिरफ्तारी जिस मामले में हुई है, उसमें विश्वविद्यालय के करीब 20 करोड़ रूपए कुछ निजी खातों में डाल दिए गए थे, और गैरकानूनी तरीके से 25-25 करोड़ के चार एफडी बनाए गए थे।
अब अगर भारतीय विश्वविद्यालयों की व्यवस्था देखें, तो कुलपति आमतौर पर पढ़ाई से परे तमाम किस्म की बातों में दिलचस्पी लेते दिखते हैं, खासकर खरीदी और कंस्ट्रक्शन में। ठेकेदारों से कमीशन लेने में कुलपति खुद चेक लेकर घर चले जाते हैं, और वहां पर केलकुलेटर से कमीशन का हिसाब करके, नगद रकम लेकर फिर चेक देते हैं। कहने के लिए उनका दर्जा बड़े-बड़े अफसरों से भी ऊपर रहता है, लेकिन अपनी इसी तरह की हरकतों के चलते हुए वे मंत्रालयों के बाबुओं से भी डरे-सहमे रहते हैं, और कुछ कुलपति हमने ऐसे भी देखे हैं जो राज्यपालों के करीबी निजी सहायकों को हर महीने रिश्वत देते हैं ताकि राजभवन में उनके खिलाफ कुछ हो न सके। विश्वविद्यालयों की व्यवस्था परले दर्जे की भ्रष्ट हो चुकी है, और अगर देश में अब भी कुछ विश्वविद्यालयों की इज्जत बाकी है, तो वह उनके भ्रष्टाचारमुक्त होने की वजह से नहीं है, बल्कि वहां पढ़ाई बहुत अच्छी होने की वजह से है जो कि कुलपति की वजह से नहीं है, बल्कि कुलपति के होने के बावजूद है। विश्वविद्यालयों के कई प्राध्यापक आज भी अपने पढ़ाने को लेकर गौरव पाते हैं, और ऐसे ही लोगों की वजह से हिन्दुस्तान के कुछ गिने-चुने विश्वविद्यालय दुनिया के बेहतर विश्वविद्यालयों की फेहरिस्त में जगह पाते हैं।
भोपाल, हैदराबाद, और तमिलनाडु के कुछ कुलपति तो भ्रष्टाचार में पकड़ा गए हैं, लेकिन अधिकतर कुलपति बच निकलते हैं। पूरा विश्वविद्यालय जानता है कि वे कितने भ्रष्ट हैं, गोपनीय परीक्षा कार्य से लेकर हर किस्म की छपाई तक उनका कमीशन बंधा रहता है, और फिर भी उनके खिलाफ आमतौर पर कार्रवाई नहीं होती। हमने बहुत से विश्वविद्यालय कर्मचारी संघों की शिकायतें देखी हैं जो कि पहली नजर में वजनदार लगती हैं, लेकिन राज्य सरकार और राजभवन दोनों ही ऐसी शिकायतों को अनदेखा करते रहते हैं। इससे कई तरह के सवाल खड़े होते हैं। पहली बात तो यह कि अगर कुलपतियों को ठेकेदारी और सप्लाई का धंधा तय करना है, तो इसके लिए किसी प्राध्यापक को कुलपति बनाने की क्या जरूरत है? किसी भी अच्छे बड़े अफसर को कुलपति बनाया जा सकता है, और कई मौकों पर ऐसा हुआ भी है। अगर कुलपति को शिक्षा की उत्कृष्टता के बजाय खर्च के कामों में ही दिलचस्पी लेनी है, तो एक भूतपूर्व प्राध्यापक के बजाय एक वर्तमान या भूतपूर्व अफसर इस काम में अधिक काबिल हो सकते हैं। कुलपति को तो रूपए-पैसे के, टेंडर-ठेके और सप्लाई के कामों से अपने आपको परे रखकर अकादमिक उत्कृष्टता की कोशिश करनी चाहिए, जो कि अब दिखना बंद हो चुकी है।
यह बात कुछ अटपटी लगती है कि जिन संस्थानों का नाम विश्वविद्यालय है, उनका दायरा सिकुड़ते चल रहा है। जिन प्रदेशों में पहले एक-एक विश्वविद्यालय ही होते थे वहां पर अब दर्जनों विश्वविद्यालय होने लगे हैं, और छत्तीसगढ़ के कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय को देखें तो इसने 20 बरस की अपनी जिंदगी में किसी साल एक हजार से अधिक छात्र नहीं पाए हैं। अब करोड़ों रूपए सालाना खर्च करके अगर असली और कागजी कुल जमा हजार-पांच सौ लोगों को ही पत्रकारिता पढ़ाना है, और इस दर्जे की पढ़ाना है कि वहां से कोई अच्छे पत्रकार न निकल सकें, तो फिर ऐसे विश्वविद्यालयों की जरूरत क्या है? और एक साधारण कॉलेज जितनी ही क्षमता से ऐसे कागजी विश्वविद्यालय चलें, तो इनमें विश्व स्तर की क्या बात है? क्या सरकार के लिए यह बेहतर नहीं होता कि इसे किसी दूसरे मौजूदा विश्वविद्यालय में विलीन कर दिया जाए, और वहां पत्रकारिता का एक विभाग चलाया जाए जो कि प्रशासनिक जिम्मेदारियों से मुक्त होकर सिर्फ पेशेवर पढ़ाई पर ध्यान दे सके?
भारत की उच्च शिक्षा व्यवस्था की हालत भारत की प्राथमिक शिक्षा से जरा भी बेहतर नहीं है। कहने के लिए इस देश की बहुत बड़ी नौजवान कामकाजी फौज को ताकत की तरह गिनाया जाता है, लेकिन यहां के विश्वविद्यालयों से निकलने वाले छात्र-छात्राओं का हाल कहीं भी अंतरराष्ट्रीय स्तर के कामकाज के लायक नहीं रहता। गिने-चुने उत्कृष्ट संस्थान हैं जिनमें सबसे आगे जो जेएनयू है, उसे गद्दार साबित करने में राष्ट्रवादी ताकतें हर दिन 25 घंटे काम करती हैं, और राजस्थान के एक भाजपा विधायक जेएनयू कैम्पस से हर दिन इस्तेमाल किए गए तीन हजार कंडोम ढूंढने का सार्वजनिक दावा करते थे। जो संस्थान दुनिया भर में देश की उत्कृष्टता स्थापित करते हैं, उन्हें देश का दुश्मन साबित करते हुए उसका मनोबल तोड़ा जाता है। एक तरफ किसी मामूली और भ्रष्ट सरकारी अफसर की तरह के कुलपति जो कि राजनीतिक असर से नियुक्त किए जाते हैं, और दूसरी तरफ विश्वविद्यालयों में बढ़ती हुई सरकारी दखल। मानो यह भी काफी नहीं था तो अब कुलपतियों की जमात में अनगिनत लोग परले दर्जे के भ्रष्ट भी होने लगे हैं, और जिस तरह आरटीओ रिश्वत लेते हैं, उसी तरह कुलपति भी रिश्वत लेने लगे हैं। ऐसे में इस देश में उच्च शिक्षा किस किनारे पहुंच सकती है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तानी शहरों में आए दिन, हर धार्मिक त्यौहार, और हर सामाजिक-राजनीतिक आयोजन पर शहर की सडक़ें बंद हो जाना आम बात है। कुछ त्यौहारों पर तो कई-कई दिनों तक यह सिलसिला चलता है, और विसर्जन जैसे कार्यक्रम लगातार दो-तीन दिन तक बिखरे रहते हैं। नतीजा यह होता है कि शहरी जिंदगी अस्त-व्यस्त हो जाती है। चूंकि हिन्दुस्तान में धर्म लोगों का मुख्य कारोबार है, इसलिए लोगों को बेरोजगार किया भी नहीं जा सकता। अगर लोगों को सार्वजनिक-धार्मिक प्रदर्शन से अलग किया जाएगा, तो फिर बेरोजगारी कई गुना हो जाएगी। इसलिए जिस किस्म के भी सुधार की बात करनी है, वह धर्म को छुए बिना ही की जा सकती है, कम से कम आज की हमारी यहां की सलाह इसी किस्म की है।
योरप में आज से कम से कम 25 बरस पहले से रेडियो और टीवी पर ऐसे चैनल मौजूद हैं जो कि किसी शहर की ट्रैफिक, या किसी हाईवे की ट्रैफिक की रिपोर्टिंग करते रहते हैं। कम से कम एक चैनल तो सन् 2000 में हमारा देखा हुआ ऐसा है जिसमें किसी हाईवे के ट्रैफिक जाम को दिखाने के लिए रिपोर्टर और कैमरापर्सन हेलीकॉप्टर से जाकर दर्शकों और श्रोताओं को बताते हैं कि किस हाईवे पर जाम है, और दूसरे वैकल्पिक रास्ते कौन से हैं। हिन्दुस्तान के शहरों को लेकर यही लगता है कि सडक़ों पर गाडिय़ों की भीड़ अंधाधुंध बढ़ चुकी है, गाडिय़ां अंधाधुंध बड़ी भी हो गई हैं, और ऐसे में जब लोग किसी जगह पहुंचकर देखते हैं कि आगे ट्रैफिक बंद है, तो लोगों के वापिस मुडऩे का रास्ता भी नहीं रहता है। कल ही अपने शहर में इस संपादक को दफ्तर से घर, दो किलोमीटर जाने के लिए अलग-अलग ऐसे कई रास्तों से वापिस लौटना पड़ा, और करीब 25 किलोमीटर का चक्कर लगाकर 85 मिनट में यह दो किलोमीटर तय हो पाया। ऐसे में साधारण समझबूझ से भी ट्रैफिक पुलिस इतना कर सकती है कि वॉट्सऐप और टेलीग्राम जैसे लोकप्रिय मैसेंजर पर ब्रॉडकास्ट ग्रुप बना ले, और लोगों से जानकारी पाने के लिए इनसे जुडऩे को कहे। अगर शहर में जगह-जगह ऐसे ट्रैफिक-बंद की जानकारी लोगों को समय रहते मिल जाए, तो लोग धक्के खाने के बजाय सीधे ही लंबे वैकल्पिक और खुले रास्तों से आना-जाना करें, या आना-जाना टाल दें। जो काम 25 बरस पहले योरप रेडियो और टीवी पर कर सकता है, वह काम आज अगर हिन्दुस्तान की पुलिस मुफ्त में मिली हुई मैसेंजर सर्विसों पर नहीं कर सकती, नहीं कर रही, तो इसके पीछे कल्पनाशीलता की कमी है, और काम में उत्साह की कमी है।
वैसे तो शहरी योजना के एक हिस्से के रूप में इस तरह के मैसेंजर समूह बनाना कब से शुरू हो जाना चाहिए था। अब तो ट्रैफिक पुलिस शहर की उन जगहों के नाम भी लिखकर पोस्ट कर सकती है, उनके गूगल मैप लोकेशन पोस्ट कर सकती है जहां पर ट्रैफिक रोका गया है, या जहां पर किसी वजह से ट्रैफिक जाम है। पुलिस कई घंटे पहले से ऐसे समूहों में जानकारी पोस्ट कर सकती है कि कितने बजे से किन जगहों पर ट्रैफिक बंद हो जाएगा, और वहां की तस्वीर या वहां की लोकेशन मिल जाने से लोग धक्के खाने से बच जाएंगे। कायदे की बात तो यह है कि टैक्स लेने वाली सरकार, और स्थानीय पुलिस को लोगों को परेशानी से बचाने के लिए ऐसा मामूली सा काम खुद ही शुरू करना चाहिए था, लेकिन हमारे जैसे साधारण समझबूझ के लोगों को ऐसा रास्ता सुझाना पड़ रहा है।
शासन-प्रशासन, और पुलिस अगर अलग-अलग कामों के लिए अलग-अलग वॉट्सऐप और टेलीग्राम चैनल बनाएं, तो आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपनी जरूरत के मुताबिक इन चैनलों से जुड़ सकता है, और सरकार कभी किसी के लिए खून जुटाने को, तो किसी सडक़ हादसे की हालत में एम्बुलेंस या दूसरी गाडिय़ां बुलवाने को, आग बुझाने में मदद के लिए, या हाथियों की मौजूदगी वाली जगह जाने से रोकने के लिए लोगों को सावधान कर सकती है। संचार के जो आधुनिक और आम साधन हैं, उनका इस्तेमाल पुलिस और प्रशासन, अफसर और नेता, अपने प्रचार के लिए तो सभी कर लेते हैं, लेकिन जनता के काम की जानकारी के लिए इनका बहुत बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है, और वह जरूरी भी है। सडक़ों पर घंटों तक लोग फंसे रहें, इससे जितना डीजल-पेट्रोल बर्बाद होता है, जितना प्रदूषण बढ़ता है, लोगों का वक्त खराब होता है, और लोगों का मानसिक तनाव बढ़ता है। हिन्दुस्तान में ट्रैफिक पुलिस पर काम का बोझ इतना अधिक रहता है कि वह लोगों के मानसिक तनाव की परवाह करने जैसा बारीक काम सोच भी नहीं पाती। हकीकत तो यह है कि निजी गाडिय़ां चलाने वाले बहुत से लोगों में तरह-तरह के तनाव और सेहत की तकलीफें झेलने वाले लोग रहते हैं, और उन्हें इस तरह घंटों तक चारों तरफ दौड़ाना, अनिश्चितता में घेरे रखना, उनके लिए बहुत अधिक तनावपूर्ण हो सकता है। किसी भी जिम्मेदार शासन-प्रशासन को अपने नागरिकों के बुनियादी हक अनदेखे नहीं करने चाहिए। भारत में आज अफसरों की लापरवाही के खिलाफ जनता को किसी तरह की कानूनी राहत नहीं मिल पाती है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि जिम्मेदार ओहदों पर बैठे हुए अफसर अपने इलाकों में नई टेक्नॉलॉजी के इस्तेमाल से परेशानियां घटाने की कोशिश भी न करें।
शहरी-प्रबंधन में यह भी होना चाहिए कि जो रास्ते बंद रहने वाले हैं, उनके वैकल्पिक रास्तों पर से तमाम किस्म के स्थाई और अस्थाई कब्जे और सामान हटा दिए जाने चाहिए ताकि वहां बढऩे वाले ट्रैफिक के लिए रास्ता बन सके। हमने आज तक पुलिस या प्रशासन को ऐसा करते नहीं देखा है, और जो सडक़ें घंटों तक ट्रैफिक जाम में फंसी रहती हैं, वहां भी दुकानों के बाहर दूर तक सामान सजे रहते हैं, और अवैध कब्जा रास्ता रोके रहता है। अफसरों को अपने इलाकों पर अपना हक नजर आता है, उन इलाकों को लेकर अपनी जिम्मेदारी नहीं सूझती है। जिस दिन अफसर अपने इलाके के प्रबंधन को अपनी इज्जत से जोडक़र देखेंगे, वे बहुत सी कमियों और खामियों को दूर कर पाएंगे। हमारे सरीखे साधारण समझ के लोग भी यह देख पा रहे हैं कि अफसरों के क्या-क्या न करने का दाम शहर की जनता चुका रही है। यह बात अफसरों की साख के लिए बहुत खराब है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में कल राजधानी रायपुर से कुछ किलोमीटर दूर एक शराब कारखाने के कर्मचारियों को ड्यूटी से वापिस लेकर आ रही बस रास्ते में एक गहरी खदान में गिर गई, और 40-50 फीट नीचे गिरी बस से 12 लाशें निकाली गई हैं, और दर्जनों मजदूर-कर्मचारी जख्मी हैं। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री ने भी इस घटना पर अफसोस जाहिर किया है। पहली खबर यह बताती है कि बस की हेडलाईट बंद हो गई थी, और ड्राइवर अंधेरी सडक़ पर अंदाज से बस चला रहा था। कारखाने ने मुआवजे और मृतक-परिवारों को नौकरी का वायदा किया है। सरकार ने जांच की घोषणा की है। इतने मेहनतकश लोगों की एक साथ मौत से कायदे से तो प्रदेश की सरकार को हिल जाना चाहिए, और उन तमाम बातों की तुरंत ही कड़ाई से जांच शुरू करनी चाहिए जो कि इस घटना की जिम्मेदार हो सकती हैं। मुसाफिर बसों में अगर हेडलाईट खराब होता है, तो उसकी जगह किसी वैकल्पिक लाईट का अलग से इंतजाम होना चाहिए, लेकिन गाडिय़ों को लेकर यही अकेली बात नहीं है।
हम छत्तीसगढ़ में हर दिन सडक़ों पर कई मौतें देखते हैं। खासकर कारोबारी गाडिय़ां, बस, ट्रक, ऑटो, और दूसरी मालवाहक गाडिय़ां सडक़ के किसी भी नियम का सम्मान किए बिना इतनी मनमानी से चलती हैं कि यह समझ पड़ता है कि इन्हें सरकार के स्तर पर एक बहुत ही संगठित भ्रष्टाचार का संरक्षण मिला हुआ है। अगर आरटीओ और ट्रैफिक का भ्रष्टाचार इतना संगठित नहीं होता, तो क्या वजह है कि गाडिय़ां ओवरलोड चलतीं, मनमानी रफ्तार से चलतीं, और बहुत से मामलों में ड्राइवर नशे में भी रहते। हकीकत तो यह है कि सरकार चाहे जो हो, हमने अविभाजित मध्यप्रदेश के समय से आरटीओ और ट्रैफिक पुलिस को लोगों की जिंदगी बेचते हुए देखा है, और आम जनता बेबस रहती है क्योंकि वह गुंडागर्दी करती किसी कारोबारी गाड़ी को रोक नहीं सकती, उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती, और उसकी शिकायत पर कोई सुनवाई नहीं रहती। यह भी एक बड़ी वजह रहती है कि जब ट्रैफिक पुलिस आम जनता पर हेलमेट जैसे नियम लागू करना चाहती है, तो जनता के मन में पुलिस के लिए हिकारत रहती है, और वह पुलिस की बातों की इज्जत नहीं करती। संगठित भ्रष्टाचार सडक़ यातायात से जुड़े इन दोनों विभागों की साख को खत्म कर चुका है। अविभाजित मध्यप्रदेश में बहुत पहले एक परंपरा थी कि जो डिप्टी कलेक्टर एक बार आरटीओ बन जाते थे, उनका आईएएस में जाना, या कलेक्टर बनना मुश्किल हो जाता था, क्योंकि सरकार में भी सभी लोग यह जान जाते थे कि ये अफसर कितने भ्रष्ट रहे होंगे।
कल की इस सडक़ दुर्घटना में कारखाने की स्टाफ बस के फिटनेस की जांच जब हुई भी होगी, तो महज रिश्वत देकर उसके कागज पूरे हो गए होंगे। मुसाफिर गाडिय़ों का यह हाल बहुत सी जिंदगियों को खतरे में डालता है। अभी कुछ दिन पहले इसी अखबार के संपादक ने रायपुर पुलिस को खबर की थी कि बैटरी से चलने वाले ऑटोरिक्शा रात में भी बिना लाईट जलाए चलते हैं क्योंकि लाईट न जलाने से ऑटोरिक्शा कुछ किलोमीटर ज्यादा चल सकता है। ऑटोरिक्शा ओवरलोड तो रहते ही हैं, वे अब रात में बिना लाईट भी चल रहे हैं, तो इससे जिंदगियों को कितना खतरा हो सकता है। शायद पिछले ही बरस बस्तर में एक स्कूली ऑटोरिक्शा की दुर्घटना में बच्चे बड़ी संख्या में मारे गए थे जितने कि किसी एक ऑटोरिक्शा में कानूनी रूप से बिठाई भी नहीं जा सकते थे। ऑटो में तीन लोगों को बिठाया जा सकता है, और इस दुर्घटना में सात बच्चे मारे गए थे, और दो बच्चे बुरी तरह जख्मी हुआ था। हम शहरों में एक-एक दर्जन बड़े मुसाफिरों को बिठाकर ऑटोरिक्शा आते-जाते देखते हैं जो कि चौराहों पर ट्रैफिक पुलिस के सामने रूके भी रहते हैं। बिना संगठित भ्रष्टाचार के ऐसा जानलेवा जुर्म पुलिस से अनदेखा तो रह नहीं सकता।
आए दिन कहीं न कहीं मुसाफिर बस का एक्सीडेंट होते रहता है, और हर जगह से सुनाई पड़ता है कि बस अंधाधुंध रफ्तार से जा रही थी। निजी बसों में एक-दूसरे से आगे निकलने और मुसाफिर हासिल करने का गलाकाट मुकाबला चलता है, और इसी वजह से अंधाधुंध रफ्तार दिखती है। जब इनकी रफ्तार, इनके प्रेशर हॉर्न, सडक़ों पर इनका थम जाना नहीं रूकता है, तो जनता के मन में पुलिस के किसी भी निर्देश के लिए कोई सम्मान नहीं रह जाता। आरटीओ विभाग भारत के अधिकतर प्रदेशों में सबसे भ्रष्ट विभागों में से एक रहता है, और मध्यप्रदेश के समय से यह वहां से लेकर छत्तीसगढ़ तक संगठित भ्रष्टाचार का अड्डा बना हुआ है। सडक़ों की अधिकतर मौतों को हम इसी काली कमाई का नतीजा मानते हैं। इसके अलावा शहरों में ट्रैफिक विभाग में पोस्टिंग के लिए भी बड़े लेन-देन की परंपरा रही है, और हर महीने भुगतान की भी चर्चा रहती है। ऐसे में सडक़ों पर बेकसूर आम जनता की जिंदगी की नीलामी तो पहले ही लग चुकी रहती है।
हमारा ख्याल है कि इस हादसे को मुख्यमंत्री के स्तर पर इस नजरिए से भी देखा जाना चाहिए कि प्रदेश के भ्रष्टाचार से सडक़ें कैसी खून से सन रही हैं। ऊंचे ओहदों पर बैठे ताकतवर लोग, और समाज में ताकत रखने वाले लोग अपनी बड़ी गाडिय़ों में चलते हैं, और उन्हें हादसों से नुकसान कम पहुंचता है। सडक़ों पर सबसे अधिक दुपहिया वाले मारे जाते हैं, और बाकी लोग मुसाफिर या कारोबारी गाडिय़ों में चलने वाले गरीब लोग। संपन्न और ताकतवर लोगों के मारे जाने की घटनाएं कम होती हैं। इन पर अफसोस जाहिर करके इन्हें इतिहास मान लेना ठीक नहीं है। इतिहास अगर किसी जगह अपने आपको सबसे अधिक दोहराता है, तो वह सडक़ हादसों की शक्ल में। जब तक अब तक के हादसों से सबक नहीं लिया जाएगा, सत्ता इस कमाई का लालच छोड़ नहीं पाएगी, तब तक बेकसूर अकाल मौतें होती ही रहेंगी। हम सडक़ सुरक्षा के बारे में लगातार लिखते हैं, सरकार का एक महकमा इसका अभियान चलाता है, लेकिन सरकार के ही दूसरे महकमे ऐसी कोशिशों पर पानी फेर देते हैं। जनता के बीच के कुछ लोगों को भी यह सोचना चाहिए कि संगठित सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ किस तरह लोगों को जागरूक किया जा सकता है, किस तरह सडक़ों पर भ्रष्टाचार को घेरा जा सकता है, और कहां अदालत की मदद ली जा सकती है। बीती रात जिस घटना में दर्जन भर से अधिक लोग मारे गए हैं, उसकी दंडाधिकारीय जांच की घोषणा हुई है। यह जांच उसी दर्जे का अफसर करेगा जिस दर्जे के अफसर मोटी रकम देकर आरटीओ बनने के चक्कर में पड़े रहते हैं। अब ऐसी जांच से क्या उम्मीद की जा सकती है? सडक़ें आम लोगों के लिए रहती हैं, और अपनी लड़ाई उन्हीं को लडऩी पड़ेगी, जनता के समूह अगर ओवरलोड गाडिय़ों को घेरकर पुलिस को मौके पर बुलाने लगेंगे, तो हो सकता है कि कुछ सुधार हो सके। इसी तरह नियम तोडऩे वाली तमाम गाडिय़ों को घेरकर रोकने की जागरूकता अगर जनता में आएगी, तो ही उनके बच्चे महफूज रह सकते हैं।
एक प्रमुख और प्रतिष्ठित ब्रिटिश अखबार द गार्डियन ने चार दिन पहले एक खोजी रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें उसका कहना था कि पाकिस्तान में भारत सरकार के हुक्म से आतंक के आरोपियों का कत्ल किया गया है। इस अखबार ने भारत और पाकिस्तान के खुफिया सूत्रों के हवाले से यह कहा था कि पाकिस्तान में चुनिंदा लोगों को खत्म करने के पीछे भारत की एक व्यापक रणनीति है जो कि विदेशी जमीन पर भारत के खिलाफ आतंक करने वाले लोगों को निपटा रही है। पिछले कुछ अरसे में कनाडा और अमरीका में भी कुछ ऐसे खालिस्तानी आंदोलनकारियों को अज्ञात हमलावरों ने संदिग्ध तरीके से मारा था, और इसके बाद पाकिस्तान में भी एक-एक करके कई ऐसे लोग मारे गए जो कि भारत में हुई आतंकी घटनाओं से जुड़े बताए जाते हैं। कनाडा की संसद में सरकार की तरफ से यह आरोप लगाया गया था कि उसकी जमीन पर भारत की खुफिया एजेंसियों से जुड़े ऐसा कत्ल हुआ है जिसके विश्वसनीय सूत्र कनाडा की सरकार को मिले हैं। इसे लेकर दोनों देशों के बीच भारी तनातनी भी हो गई थी, और दोनों ने दूसरे देश के दूतावास के लोगों में कमी करवाई, और भारत के छात्रों का कनाडा पढऩे जाना, और भारत के कामगारों का वहां काम करने जाना भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है। अमरीका के साथ भी भारत की ऐसे ही एक हमले को लेकर तनातनी सामने आ चुकी है। गार्डियन की इस ताजा रिपोर्ट को लेकर जब अमरीकी विदेश विभाग के प्रवक्ता से पूछा गया तो उसका कहना था कि वे इन रिपोर्ट को देख रहे हैं, और दोनों पक्षों से बस यही अनुरोध करते हैं कि वे तनाव से बचें, और बातचीत से समाधान ढूंढें। पाकिस्तान इसके पहले पिछले बरस वहां दो अलग-अलग हत्याओं की तोहमत भारत के खुफिया एजेंट्स पर लगा चुका है, और उनके नाम के भी आरोप उसने लगाए थे। पाकिस्तान में ऐसे कई दूसरे लोग छुप गए हैं जिनके बारे में भारत सरकार पाकिस्तान से यह शिकायत करती रही है कि वे भारत में हुई आतंकी घटनाओं के जिम्मेदार हैं।
भारत के ये तेवर हाल के बरसों के ही हैं, इसके पहले भारत का नाम दुनिया के दूसरे देशों में अपने दुश्मन करार दिए गए लोगों को खत्म करवाने जैसे काम के लिए जुड़ा नहीं रहता था। अब तक किसी देश से पुख्ता सुबूत नहीं आए हैं, लेकिन कनाडा और अमरीका ने बड़ी नाराजगी जरूर जाहिर की है। दुनिया में भारत की एक अलग किस्म की छवि इससे बन रही है कि अमरीका या इजराइल अकेले ऐसे देश नहीं है जो कि अपने देश के दुश्मन लोगों को दूसरे देशों में जाकर भी निपटाते हों। भारत सरकार भी ऐसा करने में सक्षम है, और कर रही है, ऐसा एक संदेश बिना शब्दों में कुछ कहे हुए चारों तरफ जा रहा है। सरकार ऐसी किसी बात का खंडन नहीं कर रही है, और देश के भीतर सरकार समर्थक जितने किस्म की ताकतें हैं, वे उन्हें भारत के नए बाहुबलि का शक्ति प्रदर्शन साबित करने में लगी हैं। दूसरे देशों में ऐसी हर हत्या के साथ ही भारत में सत्ता-समर्थक तबके की प्रतिक्रिया सोशल मीडिया पर देखने लायक रहती है, और सरकार इस पर कुछ नहीं कहती, जो कि एक किस्म से मौन सहमति का लक्षण है वाली बात दिखती है।
दुनिया के कई ऐसे देश हैं जो कि अपने दुश्मनों को निपटाने के लिए भाड़े के हत्यारे जुटाकर कत्ल करवाते हैं। कुछ मामलों में कुछ देशों के खुफिया जासूस या फौजी कमांडो भी ऐसा करते हैं, लेकिन आमतौर पर सरकारें दूसरी जमीन पर कत्ल का जिम्मा लेने से बचती हैं। दुनिया के इतिहास का ऐसा सबसे बड़ा कत्ल पाकिस्तान में ओसामा-बिन-लादेन का हुआ था जिसने कि अमरीका के न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की जुड़वां इमारतों को अपने विमानों के हमले से खत्म करवा दिया था। इसके जवाब में बरसों तक तलाश के बाद अमरीका का कहना है कि उसे पाकिस्तान में एक जगह ओसामा-बिन-लादेन का ठिकाना पता लगा, और उसकी फौज ने पाकिस्तान को बताए बिना वहां घुसकर लादेन को मारा, और उसे समंदर में कहीं दफन कर दिया। कहने के लिए पाकिस्तान ने इसे अपने देश की सीमाओं में अमरीकी दखल माना, लेकिन ऐसा लगता है कि वह विरोध एक जुबानी जमाखर्च ही था, और पाकिस्तान की न तो अमरीका का विरोध करने की औकात थी, और न ही उसकी कोई नैतिक ताकत थी कि बरसों से ओसामा के पाकिस्तान में छुपे रहने के बाद वह कुछ भी बोल सके।
अभी यह मामला एक बार फिर गर्म होते इसलिए दिख रहा है कि भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने द गार्डियन की उसी खबर को लेकर पूछे गए सवाल के जवाब में कहा था कि अगर आतंकी भारत में हरकत करके पाकिस्तान भाग जाते हैं, तो भारत पड़ोसी देश में घुसकर उन्हें मारेगा। इसका विरोध करते हुए पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने जवाब दिया था कि भारत की सरकार चुनावी फायदे के लिए ऐसा नफरती बयान दे रही है। पाकिस्तान ने कहा कि यह राजनाथ सिंह का यह बयान पाकिस्तान के अंदर हिन्दुस्तान द्वारा मनमाने ढंग से ‘आतंकवादी’ करार दिए गए नागरिकों की हत्या के बारे में भारत के दोषी होने की मंजूरी है। पाकिस्तान ने कहा कि भारत को उसके गैरकानूनी कामों के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय जवाबदेह ठहराए।
इस बारे में दुनिया में सरकारों द्वारा करवाई जाने वाली हत्याओं की जानकार विशेषज्ञों का कहना है कि दुनिया की नजरों में इससे भारत की नैतिक ताकत कमजोर हुई है। दूसरी तरफ भारत के भीतर जनता के बीच सरकार-प्रशंसकों में इससे गर्व की एक भावना उठ खड़ी हुई है जो कि सत्तारूढ़ भाजपा के चुनावी फायदे की हो सकती है। कुछ विदेशी और कुछ भारतीय जानकारों का यह मानना है कि इससे भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की एक सख्त नेता की छवि बन रही है, और दूसरी तरफ दुनिया के दूसरे देशों को यह संदेश भी जा रहा है कि भारत के खिलाफ आतंकी सोच रखने वाले लोगों को किसी देश में अगर जगह दी जाती है तो भारत उसे बहुत आसानी से नहीं लेगा। अब सरकारों की किसी अधिकृत स्वीकारोक्ति के बिना उन पर तोहमत नहीं लगाई जा सकती, लेकिन भारत के खिलाफ कम से कम दो बड़े, प्रमुख, और महत्वपूर्ण देश, कनाडा, और अमरीका इस मुद्दे को उठा चुके हैं, और इन दोनों ही देशों में संसद या अदालत तक ऐसे मामले जा चुके हैं। भारत को इस बात का भरोसा हो सकता है कि अमरीका जैसे देश जो पूरी दुनिया में ऐसे हमले करवाते रहते हैं, उनका क्या नैतिक हक है कि वे भारत पर लग रही तोहमत को लेकर उसके खिलाफ कुछ करें। दूसरी तरफ पाकिस्तान आज कई मायनों में इतना कमजोर हो गया है कि वह भारत की ऐसी कार्रवाई होने पर भी उसके खिलाफ कुछ करने की हालत में नहीं है। गार्डियन की इस ताजा रिपोर्ट से अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत एक अनैतिक बाहुबलि की तरह दिख रहा है, जिसके विदेशी और घरेलू असर बिल्कुल अलग-अलग हैं।
दुनिया में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को और अधिक विकसित करने के लिए लगातार इसमें दुनिया भर में मौजूद जानकारी डाली जा रही है। दुनिया के प्रमुख लेखकों का साहित्य इसमें डाला जा चुका है, और हर किस्म की मीडिया में मौजूद समाचार, विचार, और ऑडियो-वीडियो भी डाले जा रहे हैं। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस तकनीक ऐसी है कि उसमें जितनी अधिक जानकारी डाली जाएगी, उतनी ही उसकी बुद्धि विकसित होती जाएगी, और उसके नतीजे और उसका काम बेहतर होता जाएगा। यह काम इतनी रफ्तार से चल रहा है कि लोगों के पास अभी इसकी ठीक-ठीक जानकारी नहीं है कि यह कितना खतरनाक हो चुका है। लोगों को आमतौर पर खबर तब लगती है जब विकसित तकनीक पर बने किसी औजार को लोगों के सामने रखा जाता है। उसके पहले तक तो कम्प्यूटर-लैब में मामला कहां तक पहुंचा है इसे कंपनियां खुद भी उजागर नहीं करती हैं।
अभी कुछ अरसा पहले कुछ पश्चिमी देशों के प्रमुख लेखकों ने इस बात पर आपत्ति की थी कि चैट-जीपीटी जैसे एआई औजार किसी के कहे कोई कहानी भी लिख सकते हैं, और उस कहानी की शैली किसी प्रमुख लेखक की शैली सरीखी भी हो सकती है। इसके लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस उन लेखकों के पहले के लिखे साहित्य का इस्तेमाल करता है, और उसी अंदाज में नई कहानी लिख डालता है। लेखकों का कहना है कि उनका अंदाज उनका अपना जिंदगी भर का हासिल है, उसके पीछे उनकी लंबी मेहनत है, और उनकी रचनात्मकता है। अब अगर सिर्फ उनके उपलब्ध साहित्य का इस्तेमाल करके आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस यह सीखता है कि वे कैसे लिखते हैं, और फिर किसी के भी कहे उस तरह से लिखकर धर देता है, तो इससे उन लेखकों के अधिकार छिनते हैं। अभी एक दूसरी रिपोर्ट बताती है कि किस तरह दुनिया की सभी बड़ी कंपनियों ने मीडिया के समाचार-विचार के बाद यूट्यूब पर मौजूद सभी कंटेंट को लिखित शब्दों में बदल डाला, और अपने आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के प्रशिक्षण के लिए उनका इस्तेमाल किया। अमरीका की कुछ ताजा खबरें बताती हैं कि बड़ी-बड़ी कंपनियां इस तरह की चोरी कर रही हैं। यह मामला कुछ उसी किस्म का हुआ कि कोई व्यक्ति अपने बच्चों को ड्राइविंग सिखाने के लिए चोरी की कार इस्तेमाल करे, या किताबों की दुकान से किताबें चुरा लाए। आज दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां इसी अंदाज में काम कर रही हैं। कुछ ऐसा ही हाल फिल्म, संगीत, और दूसरे किस्म की कलात्मक सामग्री को लेकर हो रहा है। पिछले बरस हॉलीवुड में महीनों तक हड़ताल चली थी क्योंकि वहां फिल्म और टीवी स्टूडियो एआई का इस्तेमाल करके कहानियां लिख ले रहे थे, या टीवी सीरियलों के अगले एपिसोड। लंबी चली हड़ताल में बाद में लेखक-कलाकार भी शामिल हो गए थे।
आज भी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल करके लोग फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के लिए अपनी तस्वीरें बना रहे हैं जो कि असल जिंदगी की असलियत से कोसों दूर, लोगों की कल्पनाओं से भी अधिक सुंदर बनी हुई तस्वीरें रहती हैं। ऐसे ही वीडियो भी बनाए जा रहे हैं, और इन सबमें असली दिखने-सुनाई देने वाले ऐसे डीप फेक वीडियो भी हैं जो कि किसी की भी आवाज में कोई भी बात दिखा-सुना देते हैं। अभी कल ही माइक्रोसॉफ्ट ने यह चेतावनी दी है कि चीन एआई का इस्तेमाल करके भारत जैसे देशों में चुनाव को प्रभावित कर सकता है। और बात सिर्फ भारत की नहीं है, 2024 के इस साल में दुनिया के 60 देशों में चुनाव हो रहे हैं, और यहां पर एआई के इस्तेमाल से जनमत को कई तरह से प्रभावित किया जा सकता है, और चुनावों को जीता जा सकता है। जैसा कि दुनिया के और किसी भी महंगे औजार या हथियार के साथ होता है, एआई भी सबसे अधिक संपन्न के हाथ सबसे अधिक विविधता और ताकत के साथ रहेगा, और उसी की जीत की संभावना भी अधिक रहेगी। दुनिया में जहां कहीं भी लोग सोशल मीडिया का अधिक इस्तेमाल करते हैं, वहां पर फेसबुक और इंस्टाग्राम सरीखे प्लेटफॉर्म भाड़े पर उपलब्ध हैं, और एआई के साथ मिलकर ये एक खतरनाक गठजोड़ बन चुके हैं। खुद अमरीका जहां पर कि दुनिया की अधिकतर एआई कंपनियां बसी हुई हैं, वह एक चीनी दखल वाली कंपनी के लोकप्रिय एप्लीकेशन, टिकटॉक को लेकर परेशान हैं कि क्या इसकी सारी जानकारी इस कंपनी से चीन की खुफिया एजेंसियों तक नहीं पहुंच रही हैं, और क्या अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव में टिकटॉक का इस्तेमाल मतदाताओं को प्रभावित करने में नहीं होगा? दोनों ही प्रमुख पार्टियों और प्रत्याशियों के बीच टिकटॉक को लेकर लगातार यह बहस चल ही रही है कि इसे अमरीका में प्रतिबंधित किया जाए या नहीं? पार्टियां इस बात से भी डरी हुई हैं कि नौजवान वोटरों के बहुत बड़े तबके के बीच यह एप्लीकेशन इतना लोकप्रिय है कि इसे बंद करने से उनकी नाराजगी झेलनी पड़ सकती है। इस दहशत में अब तक कोई सरकार अब तक कोई फैसला नहीं पा रही है, और न ही अगले उम्मीदवार इस बारे में साफ-साफ कुछ बोल रहे हैं।
आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की आज की हालत कुछ वैसी ही है जैसा कि हिन्दुस्तान में बहुत धूर्त लोगों के बारे में कहा जाता है कि वे जमीन के ऊपर जितने हैं, उससे दुगुने वे जमीन के नीचे हैं। एआई आज जमीन के ऊपर जितनी खतरनाक दिख रही है, उससे कई गुना अधिक वह जमीन के नीचे है। और अभी तक हमने जितनी बातें की हैं, वे सबकी सब उसे औजार की तरह इस्तेमाल करने की है। जिस दिन एआई खुद एक बुद्धि बन जाएगा, और वह कृत्रिम के दायरे से बाहर आकर असल दिमाग की तरह विकसित होने लगेगा, उस दिन नौबत और खतरनाक हो जाएगी। अभी कल की ही खबर है कि कुछ कंपनियों के ग्राहकों से बातचीत करने वाले एआई-चैटबोट उन्हें सरकारी नियम तोडऩे के रास्ते सिखाने लगे थे। कहीं कोई चैटबोट भावनात्मक होने लगा है, तो कोई किसी को आत्महत्या की प्रेरणा भी दे रहा है। यह मामला बहुत जल्द इतना बेकाबू हो जाएगा कि एआई अगर किसी तरह की सोच अपनी खुद की विकसित कर लेगा, तो उसके मुताबिक वह दुनिया को तबाह करने के लिए इतने किस्म के रास्ते पल भर में ढूंढ लेगा कि उनसे बचाव का जरिया ही इंसानों के बस का नहीं रह जाएगा। कुल मिलाकर एआई पर चर्चा कभी भी पूरी नहीं हो सकती, क्योंकि इन 15 मिनटों में जितनी देर में हमने यह लिखा है, इतनी देर में एआई हमारी कल्पना से भी अधिक छलांग लगा चुकी होगी।
एक खबर है कि एक निजी बैंक के अफसर से एक तथाकथित तांत्रिक ने श्मशान में नोटों की बारिश करवाने के नाम पर ढाई लाख रूपए ठग लिए। यह घटना एक बड़े शहर में हुई, और झांसे में आने वाला व्यक्ति बैंक का अफसर है। किसी आम व्यक्ति को नोटों की बारिश पर भरोसा हो गया होता तो भी समझ आता, बैंक अफसर का ऐसा झांसा खाना बताता है कि लोगों में वैज्ञानिक समझ किस कदर कमजोर हो चुकी है। अभी कल ही पास के एक दूसरे इलाके में झाडफ़ूंक करने वाला एक बैगा पकड़ाया जो कि एक शादीशुदा महिला को उसके घर से जबर्दस्ती ले जाकर उससे बलात्कार कर चुका था। इस तरह के लोगों के हाथों धन और तन लुटवाने वाले लोग कम नहीं रहते, बस यही रहता है कि वे पुलिस रिपोर्ट के लिए सामने नहीं आते हैं कि अब पूरी दुनिया के सामने बेवकूफ भी साबित होने का क्या फायदा?
दुनिया कहां पहुंच चुकी है, लोग अब अपने गुजर चुके माता-पिता की आवाज के कुछ शब्दों की रिकॉर्डिंग को कम्प्यूटर के एआई एप्लीकेशन में डालकर अपनी डाली दूसरी बातें उनकी आवाज में पल भर में पा सकते हैं। इंसान को चांद पर गए 50 बरस हो चुके हैं, और हिन्दुस्तान में लोग कहीं ग्रहों के चक्कर में पड़े हैं, तो कहीं तंत्र-मंत्र के। जिस मंगल ग्रह को लेकर दुनिया भर से अलग-अलग अंतरिक्ष अभियान चल रहे हैं उस मंगल ग्रह का हिन्दुस्तान के हिन्दू समाज में इतना ही योगदान रहता है कि वह किसी लडक़ी या लडक़े के नाम के साथ चिपककर, उनके मंगली होने की चेतावनी देता है, और शादी में अड़ंगा डालता है। इतनी दूर बसा एक ग्रह हिन्दुस्तानी शादियों में सबसे बड़ा अड़ंगा बना हुआ है। अंधविश्वास लोगों के सिर चढक़र बोल रहा है, और विज्ञान और टेक्नॉलॉजी का सारा मजा लेते हुए भी लोग वैज्ञानिक सोच से दूर जा रहे हैं।
सुनने में यह बात कुछ लोगों को बुरी लग सकती है, लेकिन सच्चाई तो यह है कि हिन्दुस्तानी जिंदगी में धर्म का जो बोलबाला बढ़ा है, उसने वैज्ञानिक सोच को खोखला कर दिया है। जैसा कि किसी भी धर्म के मिजाज से जाहिर है, उसका किसी तथ्य और तर्क से कोई लेना-देना नहीं रहता है, बल्कि इन दोनों चीजों को छोड़ देने के बाद ही धर्म का काम शुरू हो पाता है। इसलिए जैसे-जैसे लोगों के दिमाग पर, उनकी जिंदगी में धर्म हावी होते जाता है, वैसे-वैसे वे तर्क, और फिर इंसाफ की बातों को भी छोडऩे लगते हैं, क्योंकि धर्म ने तो इंसाफ को छोडक़र अंधविश्वास पर चलने को ही बढ़ावा दिया जाता है। धर्म में हर किस्म के बुरे काम, और जुर्म से मुक्त हो लेने के लिए तरह-तरह के प्रायश्चित का इंतजाम किया गया है, और कमजोर तबकों को झांसा देने के लिए यह भी समझा दिया जाता है कि इस जन्म में मिल रही तकलीफें पिछले जन्म के बुरे कामों का नतीजा हैं, और इस जन्म में अच्छे काम करने से अगले जन्म में उसका फल मिलेगा। धर्म का यह सिलसिला पूरी दुनिया के तकरीबन हर धर्म में मजबूती से जमा हुआ है, और आस्था के लिए तर्कमुक्त अंधविश्वास की जो जमीन लगती है, उस जमीन पर तांत्रिक और दूसरे करिश्मे दिखाने वाले लोग भी अपनी फसल लेने लगते हैं।
अभी दो दिन पहले ही छत्तीसगढ़ के बड़े-बड़े अखबारों में पहले पन्ने पर पूरे पेज का एक इश्तहार छपा है जिसमें एक किसी बाबा के करिश्मों का जिक्र है, और एक सार्वजनिक कार्यक्रम में सभी के दुखों और रोगों का पल भर में अंत करने का दावा किया गया है। इस बाबा ने दुनिया भर के राष्ट्र प्रमुखों की तस्वीरों को इस इश्तहार में डाल दिया है जिनका कि इस बाबा के किसी दावे से कोई लेना-देना नहीं है। भारत के भी कुछ पिछले और वर्तमान राष्ट्रपतियों के साथ इस बाबा की फोटो है, और तरह-तरह की गंभीर बीमारियों के इलाज का दावा इसमें किया गया है जो कि जादू और चमत्कार के दावों के खिलाफ बने हुए कानून के तहत एक जुर्म है। जगह-जगह विश्व स्वास्थ्य संगठन का जिक्र कर दिया गया है, और कम पढ़े-लिखे लोग, या अधिक पढऩे में दिलचस्पी नहीं रखने वाले लोग यह मान लेंगे कि डब्ल्यूएचओ भी इस बाबा को मानता है। जाहिर तौर पर ही फर्जी दावों वाले ऐसे इश्तहार को न तो छापने में बड़े-बड़े अखबारों को कोई परहेज है, और न ही शासन-प्रशासन को इस भगवा-बाबा पर कार्रवाई में दिलचस्पी है।
धर्म कब अपनी कागजी और किताबी परिभाषा से बाहर निकलकर अंधविश्वास बन जाता है, लोगों को अंधभक्त बना देता है, और तरह-तरह से हिंसक होकर अन्याय का औजार भी बन जाता है, यह पता भी नहीं चलता। हिन्दुस्तान में धर्म, आध्यात्म, धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता, और अंधविश्वास के बीच कोई फासले नहीं रह गए हैं। धर्म और आध्यात्म के नाम पर लोगों को धोखा देने वाला रामदेव नाम का स्वघोषित बाबा अभी सुप्रीम कोर्ट में माफी मांगते खड़ा है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी वह झूठे दावों वाले इश्तहार छपवा रहा था, और बयान दे रहा था। रामदेव और उस सरीखे कई बाबा आयुर्वेद और योग के नाम को भी भुनाने में लगे रहते हैं, और भारत के इतिहास की जो गौरवशाली बातें हो सकती थीं, वे सब बेजा इस्तेमाल का सामान बन चुकी हैं। आसाराम से लेकर राम-रहीम तक अनगिनत बाबा ऐसे हैं जो कि भक्तों से बलात्कार कर रहे हैं, और उनके नाबालिग बच्चों से भी। यह बात समझने की जरूरत है कि जो आसारामों को अपने बच्चे दे देते हैं, वे आसमान से नोटों की बारिश के दावे को सच मानकर अपने लाखों रूपए भी तांत्रिक नाम के जालसाज को दे रहे हैं। यह पूरा सिलसिला देश में लोगों की तर्कशक्ति और वैज्ञानिकता के खत्म होने का एक बड़ा सुबूत है। जिस देश में धर्म ने कर्म की जगह कब्जा कर ली है, और लोगों को परिवार के खाने का इंतजाम करने के बजाय सडक़ किनारे धार्मिक शामियानों में मुफ्त खाना मिल जाना बेहतर लग रहा है, वहां पर तांत्रिक कभी बेरोजगार और भूखे नहीं रह सकते। पता नहीं यह सिलसिला और कहां तक जाएगा।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में कल राज्य की सरकारी बिजली कंपनी के खुले गोदाम में रखे हजारों ट्रांसफार्मरों और दूसरे उपकरणों में आग लग गई। इनमें तेल भी भरा रहता है, इसलिए यह आग बहुत भयानक रही, और आसानी से काबू में नहीं आ पाई। इससे लगा हुआ बहुत बड़ा रिहायशी इलाका भी था, और वहां के लोगों को हटाना पड़ा क्योंकि तेल की इस आग का धुआं इतना भयानक था कि उसके बादलों ने दूर-दूर तक इलाकों को ढंक लिया था। जिस तरह कल दोपहर से आज सुबह तक लगातार आग बुझाना जारी रहा, उससे कई सवाल खड़े होते हैं। और चूंकि यह हाल राजधानी रायपुर का है, और एक सरकारी कंपनी के अपने गोदाम का है, इसलिए इसे एक मिसाल मानकर भविष्य के खतरों के बारे में सोचना चाहिए।
अभी कुछ ही दिन हुए हैं कि फायर ब्रिगेड के मुखिया, प्रदेश के एक सबसे वरिष्ठ आईपीएस अफसर से किसी अखबार ने फायर ब्रिगेड की क्षमता के बारे में पूछा था तो उनका जवाब था कि यहां कर्मचारी नियुक्त करने के लिए राज्य शासन को लिखा गया है, लेकिन अभी तक मंजूरी मिली नहीं है। कुछ अरसा पहले तक फायर ब्रिगेड को नगर निगम चलाती थी, और खबरें बताती हैं कि इनके लिए पर्याप्त कर्मचारी कभी नहीं रहते थे, दमकल के साथ चलने वाले लोग बुजुर्ग हो गए थे, उन्हें ठीक से दिखता नहीं था, फायर ब्रिगेड पुलिस के मातहत करने के बाद भी उसकी क्षमता में कोई इजाफा सरकार ने नहीं किया क्योंकि इसकी जरूरत मुसीबत के वक्त ही पड़ती है, और इससे कोई वोट नहीं मिलते। जिस तरह सरकारों के खुफिया विभाग की नाकामी किसी आतंकी हमले के बाद ही समझ आती है, उसी तरह फायर ब्रिगेड की जरूरत किसी बड़ी अग्नि दुर्घटना के बाद ही समझ आती है। कल तो राजधानी की अपनी दमकल-क्षमता से परे और जगहों की दमकलें भी झोंक दी गई थीं, लेकिन शायद 20 घंटे बाद भी वहां पानी डाला जा रहा था।
अब यह समझने की जरूरत है कि जब कोई शहर 10-20 मंजिला इमारतों वाला होने लगता है, और जिसकी लंबाई-चौड़ाई 10-20 किलोमीटर से ज्यादा फैल जाती है, आबादी 25 लाख से अधिक होने लगती है, जब कोई शहर उद्योग और कारोबार का केन्द्र हो जाता है, और इन वजहों से वहां हजारों बड़े गोदाम हो जाते हैं, तो वहां शहर के अग्नि दुर्घटना के खतरे का अंदाज लगाना, और फिर उसी हिसाब से बचाव की तैयारी करना जरूरी हो जाता है। क्या यह कल्पना की जा सकती है कि कल जब ट्रांसफार्मरों के इस गोदाम में आग लगी, उसी वक्त शहर के किसी दूसरे सिरे पर कोई और बड़ी आग लग गई होती, तो क्या होता? अफसरों ने चारों तरफ से इंतजाम करके इस आग पर तो काबू पा लिया, लेकिन इसके साथ ही दमकल-क्षमता का खोखलापन भी उजागर हो गया।
अब जरा शहर की योजना के बारे में भी बात कर ली जाए। जहां पर तेल से भरे हुए हजारों ट्रांसफार्मर रखे थे, उसके चारों तरफ आबादी बस चुकी है, और ऐसे किसी भी खतरे की नौबत में इन सबकी जिंदगी, या उनकी सेहत खतरे में पडऩी ही थी। इसलिए किसी एक जगह पर इतने अधिक ट्रांसफार्मर रखना भी ठीक नहीं था। सरकारी विभागों को तो कम से कम अपनी नागरिक जिम्मेदारी समझना चाहिए, और ऐसे गोदाम शहर से कुछ दूर बनाने चाहिए थे, और वहां आग बुझाने का अपना इंतजाम भी होना चाहिए था। हमारा ख्याल है कि म्युनिसिपल अपने प्रॉपट्री टैक्स से या राज्य सरकार उद्योगों और कारोबारों से मिलने वाले टैक्स का एक हिस्सा शहर के ट्रैफिक के इंतजाम के लिए दें, एक हिस्सा आग बुझाने की क्षमता बढ़ाने के लिए दें, और शायद उस टैक्स का कुछ हिस्सा जख्मियों को अस्पताल पहुंचाने के लिए भी रखा जाए। वैसे भी जो राज्य खूब कमा रहा है, और खूब खर्च कर रहा है, तो उसमें आपदा प्रबंधन पर खर्च में कटौती नहीं करना चाहिए। इस एक हादसे को लेकर सरकार को अपने खुद के पूरे ढांचे का सुरक्षा ऑडिट करना चाहिए, और प्रदेश के तमाम शहरों के लिए, औद्योगिक क्षेत्रों के लिए आपदा प्रबंधन क्षमता विकसित करनी चाहिए।
आज शहरी विकास और औद्योगिकीकरण के साथ-साथ कई किस्म के खतरे एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं। बड़ी होटलों या मॉल के तहखानों में सैकड़ों गाडिय़ां इकट्ठी रहती हैं, और उनमें अगर आग लग जाए, तो वह अधिक बड़ी तबाही ला सकती है। इसलिए सरकारी हों, या निजी, तमाम किस्म के ढंाचों और एक जगह इकट्ठा लोगों, गाडिय़ों, के लिए हिफाजत के अतिरिक्त इंतजाम करने चाहिए। हम जो कह रहे हैं इसमें कोई अनोखी बात नहीं है, और साधारण शहरी योजना में इन सारी सावधानियों का जिक्र रहता है, लेकिन जब प्रशासन और स्थानीय संस्थाओं पर राजनीतिक दबाव रहता है, तो फिर सारे सुरक्षा-इंतजाम धरे रह जाते हैं। अगर शहरीकरण की योजनाओं पर नियमों को ईमानदारी से लागू किया जाता, तो ऐसे ज्वलनशील ट्रांसफार्मरों का इतना बड़ा जमावड़ा आबादी के इतने बगल में नहीं हो सकता था। अब भी समय है, और इस गोदाम में लोग नहीं थे, आसपास के इलाकों तक भी आग रिहायशी इमारतों तक नहीं पहुंची थी, इसलिए लोगों को नुकसान नहीं हुआ। लेकिन आगे जाकर ऐसा नहीं होगा, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता। इसलिए राज्य सरकार को राज्य स्तर पर सभी सुरक्षा पैमानों पर जांच करनी चाहिए, और जहां पर ऐसे खतरे दिखें, उन्हें दूर भी करना चाहिए। पहली बार लगी ठोकर लापरवाही से भी हो सकती है, लेकिन पहली ठोकर से सबक लेकर कोई कार्रवाई न की जाए, और ऐसी ही अगली ठोकर लगे तो वह गैरजिम्मेदारी का नतीजा ही कहलाती है। सरकार को जनजीवन पर खतरा मंडराने के पहले प्रदेश की सुरक्षा जांच लेनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कांग्रेस पार्टी को एक-एक करके जितने लोग छोडक़र जा रहे हैं, वह डूबते जहाज को छोडक़र कूदकर जाने वाले चूहे करार दिए जा सकते हैं, लेकिन 21वीं सदी की भारतीय चुनावी राजनीति कोई सिद्धांतों का खेल तो है नहीं कि इसमें नीतियों और सिद्धांतों के प्रति प्रतिबद्ध रहा जाए। अब तो यह ऐसा चुनावी खेला हो गया है जिसमें अपने आपको महत्व की किसी जगह पर बनाए रखना ही राजनीति की प्राथमिकता हो गई है। भाजपा में इन दिनों एक लतीफा चल रहा है कि जनसंघ के समय से लगातार पार्टी में बने हुए लोग अब मांग कर रहे हैं कि उम्मीदवार बनाने में उनके लिए एक जनसंघी-आरक्षण कोटा तय किया जाए, क्योंकि अब पार्टी में आधे उम्मीदवार तो कांग्रेस से आए, या लाए हुए लोग दिख रहे हैं। एक खबर में छपा है कि हरियाणा में नवीन जिंदल सहित भाजपा के जो दस उम्मीदवार हैं उनमें से छह पहले कांग्रेस में रहे हुए हैं, और नवीन जिंदल तो शायद उम्मीदवार घोषित होने के 24 घंटे पहले तक कांग्रेस में थे। वैसे कई लोगों का यह भी कहना है कि भाजपा बहुत चतुराई से अपनी पार्टी के सैद्धांतिक मुद्दों को संवैधानिक अमल में लाने के लिए केन्द्र और राज्यों में हर जगह अपनी सरकार बनाने के लिए चुनावी उम्मीदवारों के मामले में सिद्धांतों को किनारे रख रही है। यह बड़ी जंग जीतने के लिए एक छोटी शिकस्त सरीखा मामला है। इसलिए भाजपा आज कांग्रेस से छांट-छांटकर हर ऐसे व्यक्ति को ला रही है जो कि किसी संसदीय सीट को जीतने में पार्टी के काम आए।
लेकिन हमारी आज की बात जहाज छोडक़र कूदने वाले ऐसे लोगों के बारे में नहीं है, और न ही हम डूबते जहाज को छोडक़र कूदने वाले चूहों को गलत मानते, हर किसी को अपनी आत्मरक्षा का न सिर्फ हक रहता है, बल्कि आत्मरक्षा उनकी जिम्मेदारी भी रहती है। आज इस मुद्दे पर लिखने की एक दूसरी ही वजह आ गई है, प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वाड्रा का एक बयान सामने आया है जिसमें वो कह रहे हैं कि अमेठी के लोग चाहते हैं कि वे वहां से राजनीति शुरू करके संसद पहुंचें। पिछले आम चुनाव में अमेठी से राहुल को भाजपा की स्मृति ईरानी ने 55 हजार से अधिक वोटों से हराया था, और अभी भाजपा ने फिर उन्हें उम्मीदवार बनाया है। राहुल गांधी ने केरल के वायनाड से फिर फॉर्म भरा है जहां से वे पिछली बार जीतने की वजह से संसद पहुंच पाए थे। दूसरी तरफ सोनिया गांधी ने लोकसभा चुनाव से सन्यास घोषित कर दिया है, और वे राजस्थान के रास्ते राज्यसभा पहुंच गई है। इस तरह अभी अमेठी और रायबरेली, इन दोनों संसदीय सीटों पर कांग्रेस के कोई उम्मीदवार तय नहीं किए गए हैं, और माना जा रहा है कि सोनिया गांधी की जगह प्रियंका गांधी रायबरेली से चुनाव लड़ सकती हैं। और अगर राहुल गांधी अमेठी से भी नामांकन नहीं भरते हैं, तो फिर उस एक सीट को लेकर रॉबर्ट वाड्रा का जुबानी जमाखर्च कुछ मायने रख सकता है। उनका यह कहना कि पार्टी अगर चाहे तो वे अमेठी से चुनाव लड़ सकते हैं, और वे चाहते हैं कि पहले प्रियंका सांसद बने, और फिर वे भी आ सकते हैं।
देश में कुनबापरस्ती की अनगिनत तोहमतें झेलने वाला सोनिया-परिवार आज अगर कोई और नुकसान पा सकता है, तो उसका नाम रॉबर्ट वाड्रा है। एक बार पहले भी सोनिया के इस दामाद ने एक बयान दिया था जिसमें कहा था कि पहले प्रियंका राजनीति में आएंगी, फिर वे भी आएंगे, और फिर उन्होंने शायद अपने बच्चों का भी नाम लिया था। कांग्रेस संगठन में रॉबर्ट वाड्रा की कोई औपचारिक जगह तो नहीं है, लेकिन पार्टी के तीन सबसे ताकतवर लोगों के सबसे करीबी रिश्तेदार होने के नाते उनकी कही बात का वजन कम नहीं आंका जा सकता। कांग्रेस संगठन की राजनीति के अंदरुनी जानकार लोग संगठन के जटिल मामलों में प्रियंका के साथ-साथ रॉबर्ट वाड्रा का भी नाम लेते हैं। कई प्रदेशों में जमीनों के संदिग्ध बड़े-बड़े कारोबार में रॉबर्ट का नाम लंबे समय से घिरा हुआ है, लेकिन ऐसा माना जाता है कि उन्हें लेकर कांग्रेस और सोनिया परिवार पर गंभीर आरोप लगाने वाली बीजेपी भी यह नहीं चाहती है कि रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ मामलों की जांच पूरी हो जाए। जब तक ऐसी जांच चल रही हैं, तभी तक तोहमतों की संभावनाएं बनी रहती हैं, और रविशंकर प्रसाद की पत्रकारवार्ताओं में जान बाकी रहती है। अब रॉबर्ट वाड्रा मानो इस चुनाव के एक पखवाड़े पहले अपनी राजनीतिक हसरत उजागर करके भाजपा के चेहरे पर मुस्कुराहट ला रहे हैं। परिवारवाद को बड़ा मुद्दा बनाकर चल रही भाजपा को दामाद बाबू का आज बड़ा सहारा मिल रहा है।
रॉबर्ट वाड्रा की इस बयानबाजी से एक पुरानी कहानी याद आती है जिसमें तीन तोतले नौजवानों की शादी न हो पाने से परेशान बाप उन्हें चेतावनी देता है कि तीन लड़कियों का एक पिता उन्हें देखने आ रहा है, और उसके सामने उन्हें विनम्र बने रहना है, मुंह भी नहीं खोलना है, जो बात करनी है वह पिता ही कर लेगा। लड़कियों के पिता के आने पर लडक़ों का पिता अपने बेटों को खूब विनम्र बताता है, और कहता है कि उसकी मौजूदगी में बेटे मुंह भी नहीं खोलते। लड़कियों का पिता बड़ा प्रभावित होता है, लेकिन तभी थाली के पास चूहा दिखता है, और एक लडक़ा उस चूहे के बारे में तुतलाते हुए बोल पड़ता है। दूसरा बेटा बाप को बताने लगता है कि उनके कहे के खिलाफ भाई बोल पड़ा है। और तीसरा बेटा बोल पड़ता है कि दोनों भाई बोल पड़े हैं लेकिन वह अब तक चुप बैठा है। कांग्रेस पार्टी के दामाद का यह बयान कुछ बरस पहले भी आत्मघाती था, आज भी आत्मघाती है। उसके कारोबार से पार्टी को पहले भी कोई साख नहीं मिली, और आज भी पार्टी उसकी तोहमत ही झेलती है। लेकिन जैसा कि किसी भी आम भारतीय परिवार में होता है, दामाद की गलतियों और गलत कामों को ससुराल पक्ष अपने सिर-माथे पर मंजूर कर लेता है, कुछ वैसा ही रॉबर्ट वाड्रा के बयानों से हो रहा है। बाकी लोगों ने तो पार्टी छोडक़र कांग्रेस को नुकसान पहुंचाया है, सोनिया परिवार का दामाद तो पार्टी और घर में बैठे-बैठे ही अपने धंधे, और अपने बयान, दोनों से पार्टी का नुकसान कर रहा है। पता नहीं क्यों उस कहानी के तीन भाईयों की तरह हर किसी को बेमौके पर बेतुकी बात करने का शौक रहता है, अब कांग्रेस पार्टी इस अकेले बयान का पता नहीं कितना नुकसान झेलेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में कुछ बहुत खराब हो चुकी सडक़ों को दुबारा बनाने के लिए टेंडर जारी नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि चुनाव आचार संहिता चल रही है। इस पर राज्य के हाईकोर्ट ने जनहित में ये टेंडर जारी करने का आदेश दिया है, और कहा है कि ऐसे अदालती आदेश पर आचार संहिता लागू नहीं होती। यह बात कुछ चुनिंदा सडक़ों को लेकर जरूर हुई है, लेकिन सरकार और जनता से जुड़े हुए बहुत से ऐसे मामले रहते हैं जो कि जरूरी रहते हैं, लेकिन आचार संहिता का हवाला देकर उनका शुरू होना टलते रहता है। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में विधानसभा चुनाव के छह महीने के भीतर लोकसभा चुनाव होते हैं, और पहले दो महीने, और बाद में ढाई महीने आचार संहिता लगी रहती है, और जनता परेशान होते रहती है।
हमारा ख्याल है कि चुनाव आचार संहिता लगने के बाद सरकार नई घोषणाएं न करे, वहां तक तो ठीक है, लेकिन पहले से मंजूर किए जा चुके कामों के लिए बजट प्रावधान भी है, लेकिन ढाई महीने तक उसका टेंडर नहीं हो सकता, यह देश की पूरी क्षमता को कमजोर करना भी है। निर्माण कार्य करने वाले जो निजी ठेकेदार रहते हैं, उनका भी अपना एक ढांचा रहता है, और अगर काम इस तरह लंबे समय तक रूक जाते हैं, तो बिना उत्पादकता के भी उन्हें अपने साधनों पर खर्च करना पड़ता है। यह बात देश की आर्थिक उत्पादकता के खिलाफ है। दूसरी तरफ काम बंद होने से मजदूरों पर भी फर्क पड़ता है, और वे बेरोजगार हो जाते हैं। इसलिए चुनाव आयोग को केन्द्र और राज्य सरकारों के साथ मिलकर आचार संहिता की रोक-टोक को कम से कम करने का जरिया निकालना चाहिए जिससे देश की आर्थिक गतिविधियां प्रभावित न हों, और जनहित के काम न रूकें।
दूसरी तरफ यह भी लगता है कि चुनाव आचार संहिता के नाम पर अफसर कुछ महीने नेताओं की मर्जी से परे भी कुछ अलोकप्रिय काम कर पाते हैं, और यह हैरानी होती है कि ऐसे कामों के लिए आचार संहिता की कोई जरूरत क्यों होनी चाहिए? सडक़ों पर बेतरतीब लगे गैरकानूनी होर्डिंग हटाने के लिए म्युनिसिपल और पुलिस प्रशासन को आचार संहिता की क्या जरूरत होनी चाहिए? इसी तरह गलत-सलत बनीं नंबर प्लेटों को जब्त करने के लिए आचार संहिता की जरूरत क्यों पडऩी चाहिए? गाडिय़ों के शीशों पर से काली फिल्म निकलवाने के लिए, सायरन या हूटर हटवाने के लिए चुनाव आना क्यों जरूरी होना चाहिए? लेकिन सरकारी विभाग अपने नियमित कामकाज को भी चुनाव आयोग के डंडे से ही क्यों करवा पाते हैं? जबकि इसके लिए उन्हें अलग से किसी अधिकार की जरूरत नहीं रहती। ऐसा लगता है कि आचार संहिता लागू रहने के दौरान, नेताओं की राजनीतिक दखल कुछ घटती है, और पुलिस-प्रशासन को थोड़ी सी हिम्मत मिलती है। यह सिलसिला अलोकतांत्रिक है, और खत्म होना चाहिए। कानून पर अमल के लिए नेताओं का दबदबा, और दखल खत्म होना तो हर वक्त के लिए रहना चाहिए, सिर्फ चुनाव के वक्त क्यों?
हम फिर से अपनी उसी बात पर लौटते हैं, चुनाव आयोग को हर प्रदेश में सरकार के साथ बैठकर यह सोच-विचार करना चाहिए कि आचार संहिता के प्रावधान किस-किस तरह ढीले किए जा सकते हैं। जिन बातों से चुनाव प्रभावित न होते हों, वैसी बातों को छूट देने के तरीके अभी से सोचने चाहिए ताकि अगले चुनाव तक सरकारों के सामने भी यह साफ रहे कि उनके कौन से कामकाज पर चुनाव से फर्क नहीं पड़ेगा। वैसे भी सरकारी कामकाज चुनाव के दौरान इसलिए ठप्प हो जाते हैं क्योंकि शासन-प्रशासन चुनावी तैयारियों को सबसे अधिक प्राथमिकता देते हैं, और बाकी काम चुनाव के बाद के लिए टाल दिए जाते हैं। चुनाव आयोग को यहां भी किफायत बरतनी चाहिए कि उसे मिले हुए तकरीबन असीमित अधिकारों का जरूरत से अधिक इस्तेमाल न हो ऐसे असाधारण अधिकारों की वजह से कई बार अधिकारी खुद होकर ही बहुत सा काम रोक देते हैं, और बहुत सी जनता चुनावी तैयारी के नाम पर रोज के कामकाज से अलग कर देते हैं। इस बार के लोकसभा चुनाव चुनाव आयोग ने करीब ढाई महीने तक खींच दिए हैं। इसके पहले देश में शायद इतना लंबा चुनाव कार्यक्रम और कभी नहीं था। इसे भी सीमित करने के बारे में सोचना चाहिए ताकि आचार संहिता के दिन कम से कम रहें। कुछ लोगों का यह कहना है कि यह सत्तारूढ़ पार्टी को फायदा देने का एक तरीका रहता है कि उसके बड़े नेता इतने लंबे समय तक प्रचार कर सकें, और जितने दिन अलग-अलग जगहों पर मतदान के पहले चुनाव प्रचार बंद रहता है, उन दिनों पर भी बड़े नेता टीवी के मार्फत लोगों तक पहुंच सकें। इस हिसाब से भी बहुत लंबा चुनाव कार्यक्रम ठीक नहीं रहता है। देश की आम गतिविधियां चुनाव कार्यक्रम की वजह से सरकारी दफ्तरों में फंसने लगती हैं।
अभी तक चुनाव आयोग की लागू की गई आचार संहिता से रूकने वाले कामों के खिलाफ सरकारें सुप्रीम कोर्ट तक नहीं गई हैं, इसलिए ऐसे प्रतिबंध बेरोकटोक जारी हैं। ज्यादा अच्छा यही होगा कि चुनाव आयोग खुद अपनी ताकत के तर्कसंगत और न्यायसंगत इस्तेमाल तक सीमित रहे, और अपनी जरूरतों को कम करने, प्रतिबंधों को घटाने के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों से बात भी करे। चुनाव प्रक्रिया का कामयाबी से निपट जाना ही जरूरी नहीं है, उसका कम से कम बाधा बनना भी जरूरी है, और देश की उत्पादकता आयोग की वजह से कम न हो, इसकी तैयारी भी करनी चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
फिलीस्तीन के गाजा पर इजराइली फौजी हमलों को लेकर पूरी दुनिया और संयुक्त राष्ट्र संघ सभी फिक्रमंद हैं, लेकिन अमरीकी शह पर इजराइल की बमबारी जारी है। अस्पतालों को खंडहर बना दिया गया है, और लाशें बिखरी पड़ी हैं। 32 हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, और शायद एक लाख बच्चे जख्मी पड़े हैं। पिछली आधी सदी की यह दुनिया की अपने किस्म की सबसे बड़ी और सबसे बुरी त्रासदी है जिसे इजराइल और अमरीका ने मिलकर खड़ा किया है। अब तक इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रहने वाला हिन्दुस्तान भी अब इस बात को बोलने से नहीं बच पाया कि फिलीस्तीनियों को उनकी अपनी जमीन पर हक नहीं दिया जा रहा है, बेदखल किया जा रहा है। भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ने अभी मलेशिया में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कहा कि इजराइल-फिलीस्तीन मुद्दे के और चाहे जो सही या गलत पहलू हों, सबसे नीचे यह बात कायम है कि फिलीस्तीनियों को उनकी मातृभूमि के हक से वंचित किया जा रहा है।
लेकिन आज हम इस व्यापक मुद्दे पर बात करने के बजाय कल की ताजा घटना पर बात करना चाहते हैं जिसमें गाजा में मानवीय मदद पहुंचा रहे अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवकों पर इजराइली बमबारी में 7 विदेशी वालंटियर मारे गए हैं। इंटरनेशनल फूड चैरिटी संस्था, वल्र्ड सेंट्रल किचन, ने इजराइली सेना को अपना सारा कार्यक्रम बताकर, समय और जगह भी बताकर काम करना शुरू किया था, और वे एक गोदाम से भूखों के लिए खाना लेकर निकल रहे थे, कि इस संस्था के निशान लगी गाडिय़ों पर हमला किया गया, और तीनों गाडिय़ां तबाह कर दी गईं, सात स्वयंसेवकों की लाशें मिल गई हैं। इजराइली प्रधानमंत्री ने भी यह माना है कि उनकी सेना ने बेकसूर लोगों पर हमला किया। इनमें अलग-अलग देशों के लोग हैं, और उनके देशों के प्रधानमंत्रियों ने इस हमले पर बड़ा अफसोस जाहिर किया है। ऑस्ट्रेलिया, पोलैंड, और ब्रिटेन ने इजराइल से फौरन पारदर्शी जांच मांगी है। यह एक अमरीकी स्वयंसेवी संस्था है जो किसी भी तरह की आपदा में लोगों को खाना मुहैया कराती है, और उसने पिछले छह महीनों में गाजा में 4 करोड़ से अधिक फूड पैकेट बांटे हैं, लेकिन अब वह काम जारी रखने के बारे में दुबारा सोच-विचार कर रही है।
यह अमरीकी संस्था है, और अलग-अलग पश्चिमी और यूरोपीय देशों के लोग इसमें काम भी कर रहे थे, इसलिए इन देशों ने अपने एक-एक नागरिक की मौत पर प्रधानमंत्री के स्तर पर बयान जारी किए हैं, और जांच मांगी है। दूसरी तरफ यह समझने की जरूरत है कि छोटे से फिलीस्तीन के एक शहर गाजा में 32 हजार से अधिक लोगों को मार डाला गया है, लेकिन अमरीका जैसा देश इजराइल को बमों और बॉम्बर विमानों की सप्लाई करते ही जा रहा है। यह सिलसिला बताता है कि किस तरह पश्चिमी, गोरे, या विकसित देशों के लिए अपने एक-एक नागरिक की जान कितनी कीमती होती है, और वह अपने देश में कितने राजनीतिक महत्व की भी होती है। दूसरी तरफ फिलीस्तीनियों की पूरी नस्ल ही खत्म की जा रही है, उनके देश को, उनकी मातृभूमि को बमों से मलबे में तब्दील कर दिया गया है, और मलबे के इस ढेर पर शायद गाजा दुबारा कोई शहर बन भी न पाए।
इसी दुनिया में एक आजाद देश फिलीस्तीन को गुलाम बनाकर उसके लोगों की आवाजाही भी इजराइली बंदूकों से काबू की जा रही है, वे दूसरे-तीसरे या चौथे दर्जे के भी नागरिक नहीं रह गए हैं, और बाकी दुनिया अफसोस के जुबानी जमा-खर्च करते हुए अपने काम से लगी हुई है। किस तरह चमड़ी के रंग, धर्म, और राष्ट्रीयता की वजह से एक जिंदगी की कीमत हीरे सरीखी हो जाती है, और दूसरी जिंदगी की कीमत कचरे के एक टुकड़े की तरह! आज अपने एक नागरिक की मौत पर इन बड़े-बड़े देशों के प्रधानमंत्री जांच की मांग कर रहे हैं, और दूसरी तरफ दसियों हजार लोगों को इजराइली बमों और मिसाइलों ने इन कुछ महीनों में मार डाला है, और संयुक्त राष्ट्र यह कह रहा है कि फिलीस्तीन में भुखमरी की नौबत है, लोग खाना न मिलने से मरने के करीब हैं, और इजराइल मदद की रसद की गाडिय़ों को वहां जाने नहीं दे रहा है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ गाजा की भुखमरी के अपने अंदाज को लगातार दुहराने के बाद भी कर कुछ भी नहीं पा रहा है। किस तरह कहने के लिए यह दुनिया सभ्य कहलाती है, और पश्चिम के बड़े-बड़े देश अपने आपको लोकतंत्र कहते हैं, लेकिन क्या लोकतंत्र अपनी जमीन पर अपनी सरकार को चुन लेने भर का नाम रहता है, या कि दुनिया में कहीं और परले दर्जे के जुल्म होने पर उसकी अनदेखी करने का नाम भी लोकतंत्र है? अपने एक नागरिक की मौत पर जिन देशों के प्रधानमंत्री इतने विचलित हो सकते हैं, उन्हें फिलीस्तीन में एक-एक दिन में सैकड़ों मौतों के बारे में भी सोचना चाहिए कि इजराइल को किस कीमत पर इस अंतरराष्ट्रीय गुंडागर्दी की छूट दी जा रही है!
हमारा यह साफ मानना है कि जो देश इजराइल की आलोचना कर रहे हैं, उन तमाम लोगों को इजराइल का आर्थिक बहिष्कार करना चाहिए। यह देश निर्यात पर जिंदा देश है, और अभी कुछ वक्त पहले तक के आंकड़े तो यही बताते थे कि इजराइल के कुल निर्यात का आधे से अधिक आयात अकेला हिन्दुस्तान करता है। आज दुनिया के लोगों को, सरकारों को, और अंतरराष्ट्रीय संगठनों को इजराइल के बहिष्कार के साथ-साथ उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने का फैसला लेना चाहिए। यूक्रेन पर हमला करने वाले रूस पर तो तुरंत ही नाटो देशों ने आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए, लेकिन इजराइल के बारे में इनमें से कोई देश ऐसी जुबान भी नहीं खोल रहे हैं। यह दुनिया में अपने आपका बड़ा लोकतांत्रिक देश होने का दावा करने वाले देशों का पाखंड है जो कि फिलीस्तीन में गिरती हर लाश के साथ और अधिक साबित होते चल रहा है। इन देशों के जो वालंटियर फिलीस्तीन जाकर काम कर रहे थे, वे एक व्यक्ति के रूप में भी अपने देशों की सरकारों से अधिक जिम्मेदार थे जो कि फिलीस्तीनियों की मदद के लिए अपनी जिंदगी खतरे में डालकर काम कर रहे थे। अब इन स्वयंसेवकों की शहादत पर इनकी सरकारें रो रही हैं जो कि 30 हजार फिलीस्तीनियों के बिछ जाने के बाद भी नहीं रो रही थीं। इन सरकारों को अपने इन शहीद हुए नागरिकों से सबक लेना चाहिए, और इजराइल की आर्थिक नाकेबंदी करनी चाहिए। आज दुनिया में दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील सरीखे देश खुलकर इजराइल के खिलाफ खड़े हुए हैं, लेकिन भारत सहित दर्जनों विकसित देश मजे में इजराइल के साथ कारोबार कर रहे हैं, और अमरीका तो फिलीस्तीनियों को थोक में मारने के लिए बम और बमवर्षक विमान भी इजराइल भेज रहा है।
अमरीका के साथ खड़े हुए, या मुंह सिलकर बैठे हुए बड़े-बड़े देशों के नागरिकों को चाहिए कि अपनी सरकारों को झकझोरें कि हर दिन मारे जा रहे दर्जनों फिलीस्तीनी भी उसी तरह इंसान हैं जिस तरह हिटलर के हाथों मारे गए यहूदी इंसान थे। इजराइल यहूदी नस्ल का देश है, उसने खुद ने अभी ताजा इतिहास में हिटलर के हाथों अपने दसियों लाख लोगों को खोया था, लेकिन इन जख्मों से उबरकर आज वह फिलीस्तीन पर हिटलर की तरह के जुल्म कर रहा है, जो कि परले दर्जे की शर्मनाक बात है। इजराइल को धिक्कारने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय को न सिर्फ अपनी चुप्पी तोडऩी पड़ेगी, बल्कि उसे इस गुंडा देश का आर्थिक बहिष्कार भी करना होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
ऐसा एक भी दिन नहीं गुजरता जब हिन्दुस्तान में सैकड़ों जगहों पर गांजा न पकड़ता हो। अकेले छत्तीसगढ़ में हर दिन दर्जनों जगहों पर गांजे से लदी गाडिय़ां पकड़ाती हंै जो कि ओडिशा की तरफ से आकर छत्तीसगढ़ पार करके दूसरे राज्यों तक जाती रहती हैं। गांजे की बोरियां किसी अनाज लदे ट्रक की तरह दिखती हैं, और इससे समझ पड़ता है कि कितनी बड़ी मात्रा में गांजे का बाजार है। देश के अधिकतर प्रदेशों में पुलिस पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं, उसके बावजूद अगर इतना गांजा पकड़ में आ रहा है तो यह जाहिर है कि इससे कई गुना अधिक गांजा रिश्वत देकर बाजार और ग्राहकों तक पहुंचता होगा। अब इस पर आगे चर्चा करने से पहले यह बात करना जरूरी है कि क्या सचमुच ही किसी देश, प्रदेश से नशे को पूरी तरह खत्म किया जा सकता है? भारत में गुजरात, बिहार, और मिजोरम जैसे प्रदेश हैं जहां शराबबंदी है, लेकिन जानकार लोग बताते हैं कि इन प्रदेशों में, खासकर गुजरात और बिहार में मनचाहा ब्रांड पा लेना बड़ा आसान है। दूसरी तरफ जब शराबबंदी या किसी और किस्म की नशाबंदी लागू की जाती है, तो ऐसे देश-प्रदेश में सरकारी अमला बुरी तरह भ्रष्ट भी हो जाता है। इसलिए किसी भी तरह के नशे को बंद करने के साथ-साथ सरकारी अमले पर उसके असर, और जनता के बीच उसके विकल्प के खतरों पर भी सोचना चाहिए।
अभी अमरीका जैसा देश इस बात से बहुत परेशान है कि फेंटानिल नाम की दवा का नशे के लिए इस्तेमाल जिस बुरी तरह बढ़ते जा रहा है, और यह अमरीका में आज सबसे अधिक बिकने और इस्तेमाल होने वाला नशा बन चुका है, और दवा की गोली जैसी शक्ल की वजह से इसकी तस्करी अधिक आसान है, और चीन जैसे देश से इस दवा को बनाने का कच्चा माल निकलता है और नशे के सौदागरों के लिए बदनाम कोलंबिया और मैक्सिको जैसे देशों के रास्ते यह अमरीका पहुंचकर वहां पूरी नौजवान पीढ़ी को बरबाद कर रहा है। ऐसे नशों से मरने वाले लोगों की संख्या हर बरस बढ़ती चली जा रही है और ताजा आंकड़ों के मुताबिक अमरीका में 2021 में 70 हजार से अधिक मौतें इस एक दवा के ओवरडोज से दर्ज हुई हैं। इंसानों की हर नई पीढ़ी, पिछली पीढ़ी के मुकाबले कुछ अधिक नशे वाला सामान जुटाती है, और ऐसे में शराब जैसा परंपरागत नशा पिछड़ जाता है। भारत में भी उत्तर पूर्व के कुछ राज्य, और पंजाब मेें नशे से नौजवान पीढ़ी के बरबाद होने का बुरा हाल है। किसी नशे पर रोकथाम का कानून बनाना आसान रहता है, लेकिन उस पर अमल करना, और उसके अधिक खतरनाक विकल्पों को रोकना अधिक मुश्किल रहता है।
ऐसे में दुनिया के बहुत से देशों में यह बात सामने आ रही है कि गांजे का नशा कम नुकसानदेह रहता है। दुनिया के कुछ सबसे विकसित देश, कनाडा, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया और अमरीका, अपने पूरे-पूरे देश में, या उसके बहुत बड़े हिस्सों में गांजे की नियंत्रित बिक्री, और उसके इस्तेमाल को जुर्म के दर्ज से बाहर कर चुके हैं। इनमें जॉर्जिया, लक्जमबर्ग, माल्टा, मैक्सिको, दक्षिण अफ्रीका, थाईलैंड, उरूग्वे जैसे कई और देश भी हैं जिन्होंने अलग-अलग शर्तों के साथ गांजे का इस्तेमाल कानूनी कर दिया है। सबसे ताजा खबर जर्मनी की है जहां सरकार ने बालिगों को 25 ग्राम गांजा रखने की छूट दे दी है, और हर बालिग को भांग के तीन पौधे उगाने की इजाजत भी। योरप में जर्मनी ऐसी मंजूरी देने वाला सबसे बड़ा देश बन गया है, और कल एक अप्रैल से ही यह मंजूरी लागू हो गई है। वहां के स्वास्थ्य मंत्री ने कहा है कि गांजे के सेवन को वर्जना के दायरे से बाहर कर दिया गया है, अब इससे इसके नशे की आदत घट सकेगी।
लोगों को याद होगा कि भारत में भी अनंतकाल से गांजे का इस्तेमाल चले आ रहा है, और हिंदू मंदिरों, तीर्थस्थानों, और कुंभ सरीखे मेलों में हिंदू साधू खुलेआम चिलम से गांजा पीते दिखते हैं। अभी हम अलग-अलग नशों के मेडिकल और आर्थिक पहलुओं की बारीकी पर जाना नहीं चाहते, लेकिन बाजार व्यवस्था में इतना तो साफ दिखता है कि हिंदुस्तान में शराब सबसे ही संगठित कारोबार है, और इसे धंधे की राजनीति पर पकड़ इतनी मजबूत है कि यह सरकारी नीतियां अपने हिसाब से बनवाते रहता है। इसलिए यह भी हो सकता है कि गांजे का नशा शराब के मुकाबले सस्ता और कम नुकसानदेह हो, लेकिन दारू कंपनियों ने यह माहौल बनाकर रखा हो कि गांजे पर रोक रहनी चाहिए। खुलेआम बिकने वाले गांजे के नशे में हिंसा और जुर्म की खबरें बहुत कम आती हैं, जबकि शराब के नशे में हर दिन कई हत्याएं होती हैं, आत्महत्याएं भी। इसलिए दुनिया के बाकी देशों के तजुर्बे का अध्ययन करके भारत में भी यह तय होना चाहिए कि क्या हिंदू धर्म में हमेशा से सामाजिक मान्यता प्राप्त गांजे को जुर्म के दायरे से बाहर निकालना चाहिए? गांजे से ही कुछ कम नशे वाला भांग अभी भी भारत में बहुत से प्रदेशों में कानूनी रूप से बेचा जाता है, और परिवारों में, मंदिरों में इस पर कोई रोक नहीं रहती है, मंदिरों में तो गांजे पर भी रोक नहीं रहती है। भारतीय परंपरा में भांग भगवान शिव को भी चढ़ाई जाती है, और इसे तनावमुक्त करने वाली चीज माना जाता है। बाद के बरसों में अंग्रेजों ने शराब को तो कानूनी रखा, लेकिन गांजा-भांग को गैरकानूनी ठहरा दिया था। भांग को भोलेबाबा का प्रसाद कहते हुए उसकी पूरी तरह से धार्मिक और सामाजिक मान्यता है।
अब भारत को अंग्रेजी शराब के कारोबार के चंगुल से बाहर निकलकर यह सोचना चाहिए कि चिकित्सा विज्ञान के मुताबिक शराब अधिक नुकसानदेह है, या कि गांजा और भांग? इसके साथ-साथ भारतीय समाज पर शराब का जो आर्थिक बोझ पड़ता है, उसके भी तुलना गांजा या भांग जैसे नशे के साथ करके देखना चाहिए। अगर नशे की इजाजत रहनी ही है, तो फिर शराब के साथ यह खास रियायत क्या इसलिए जारी है कि इसका संगठित कारोबार सरकारों के फैसलों को खरीदने की ताकत रखता है? भारत को मेडिकल, और आर्थिक, इन दोनों पैमानों पर भी गांजा-भांग के बारे में फैसला लेना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कुछ अलग-अलग खबरों को मिलाकर देखने की जरूरत रहती है। अभी पिछले महीने ही दुनिया के एक सबसे बड़े कारोबारी, एलन मस्क ने एक चेतावनी दी कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल जितना बढ़ रहा है, वह रफ्तार आज तक किसी भी टेक्नॉलॉजी की नहीं रही है, और इसकी वजह से दुनिया में बिजली और ट्रांसफार्मरों की कमी अगले बरस, 2025 में ही बहुत बुरी तरह सामने आ जाएगी। एलन मस्क इलेक्ट्रिक कारों की दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी के मालिक भी हैं, और उनसे यह उम्मीद तो की जा सकती है कि वे एक सार्वजनिक कार्यक्रम में जो बात बोल रहे हैं, उसे सोच-समझकर ही सामने रख रहे हैं। अब दूसरी खबर यह है कि छत्तीसगढ़ जिसे कि देश का सबसे बड़ा कोयला सप्लायर माना जाता है, और जहां केन्द्र, राज्य, और निजी कंपनियों के बहुत से बिजलीघर हैं, वहां भी इस प्रदेश का काम अपनी बिजली से पूरा नहीं पड़ रहा है, और उनसे बहुत सारी बिजली दूसरे राज्यों से खरीदनी पड़ रही है। और यह हालत अभी पहली अप्रैल की ही है, और आने वाले कई महीने गर्मियों के रहने वाले हैं, या उमस की वजह से एसी का अधिक इस्तेमाल होना हैं। अब तीसरी बात देश के एक प्रमुख आर्थिक लेखक स्वामीनाथन अंकलेसरिया अय्यर का ताजा कॉलम है जिसमें उन्होंने लिखा है कि ग्रामीण इलाकों में मुफ्त की बिजली के सरकारी वायदे अब खत्म करने का समय आ गया है क्योंकि जैसे-जैसे देश में बैटरी से चलने वाली गाडिय़ां बढ़ेंगी, वैसे-वैसे राज्यों की बिजली खपत बढ़ेगी, और दूसरी तरफ पेट्रोल और डीजल की खपत घटने से सरकार के टैक्स का बड़ा नुकसान भी होगा। ऐसे में मुफ्त बिजली की सोच को खत्म करने का समय उन्होंने बताया है। उन्होंने पंजाब की मिसाल देते हुए लिखा है कि वहां कर्ज का 80 फीसदी हिस्सा जनता को मुफ्त बिजली देने की वजह से है। उन्होंने बैटरी-इलेक्ट्रिक से चलने वाली गाडिय़ों को गिनाया है कि किस तरह वे पेट्रोल-डीजल इस्तेमाल नहीं करतीं, और टैक्स नहीं देतीं, दूसरी तरफ वे बिजली का इस्तेमाल करती हैं जिससे कि इसकी खपत बढ़ते चले जाना है। इसलिए उन्होंने यह सुझाव दिया है कि केन्द्र और राज्य सरकारों को बिजली पर रियायत, या मुफ्त बिजली देना बंद करना चाहिए, वरना हर सरकार दीवालिया होती चली जाएगी। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में कुछ अरसा पहले तक यह मान लिया गया था कि यह जरूरत से अधिक बिजली पैदा करने वाला राज्य है, लेकिन अब ऐसा लग रहा है कि दूसरे राज्यों और निजी कंपनियों से इसे महंगी बिजली खरीदनी पड़ रही है। और बिजली-वितरण की जानकारी रखने वाले यह जानते हैं कि किस तरह एक चौथाई से एक तिहाई तक बिजली या तो चोरी हो जाती है, या किसी और तरह से बर्बाद होती है, जिसका कि कोई बिल नहीं बन सकता।
कुछ अरसा पहले छत्तीसगढ़ के कुछ पत्रकारों के साथ बातचीत में मुख्यमंत्री विष्णु देव साय के सामने यह बात रखी गई थी कि चूंकि राजनीतिक मुकाबले के तहत कांग्रेस और भाजपा दोनों ही किसानों से बहुत ऊंचे दामों पर तकरीबन तमाम धान खरीद रही हैं, इसलिए इस प्रदेश के किसान और किसी फसल के बारे में सोच भी नहीं सकते, और धान के फसल में अंधाधुंध पानी लगता है, और किसानों को मिलने वाली मुफ्त बिजली की वजह से रात-दिन पंप चलाकर किसान खेतों को तालाब की तरह लबालब रखते हैं। इससे एक तरफ तो फसल की विविधता खत्म हो रही है, और फसल पर आधारित कीट-पतंगों से लेकर दूसरे प्राणियों तक की जैविक विविधता भी खत्म हो रही है। इसलिए सिर्फ धान केन्द्रित खेती न तो इस प्रदेश की अर्थव्यवस्था के लिए ठीक है, न जमीन के नीचे के पानी के लिए, और न ही जैव विविधता के लिए। किसान भी आज पूरी तरह सरकारी खरीद के मोहताज हो गए हैं, जो कि उनके लिए भी अच्छी नौबत नहीं है।
सरकारों को यह समझना होगा कि बिजली के उत्पादन को अंतहीन मान लेना ठीक नहीं है, इसी तरह धरती के नीचे के पानी को भी अंतहीन मानना गलत होगा। इसलिए आने वाले वक्त में गाडिय़ों की बैटरियां चार्ज करने बिजली अधिक से अधिक लगेगी, एलन मस्क जैसी भविष्यवाणी को देखें तो एआई के इस्तेमाल से बढऩे वाली बिजली की खपत का तो हिन्दुस्तान में आज किसी को अंदाज भी नहीं है। और चुनावी मुकाबलों में जब राजनीतिक दल एक-दूसरे से आगे बढक़र बिजली की अधिक यूनिटें कोटे में देने की बोली लगाती हैं, तो जाहिर है कि खपत भी बढ़ेगी, और कमाई तो खत्म हो ही जाएगी। भारत सहित दुनिया के अधिकतर देशों में इलेक्ट्रिक-गाडिय़ां बढ़ती चल रही हैं, जैसे-जैसे सार्वजनिक जगहों पर चार्जिंग स्टेशन बढ़ेंगे, इन गाडिय़ों का इस्तेमाल भी बढ़ते रहेगा। इससे प्रदूषण भी कम हो रहा है, इसलिए सरकारें इन पर टैक्स की छूट भी दे रही हैं, और इस वजह से भी इलेक्ट्रिक गाडिय़ां बढ़ती चली जानी है। दूसरी तरफ भारत के संपन्न तबके में संपन्नता बढ़ती जाने से एयरकंडीशनरों का इस्तेमाल बढ़ रहा है जो कि बिजली को प्यासे ऊंट की तरह पीते हैं। अभी कल ही बीबीसी पर एक रिपोर्ट है कि चौथाई सदी बाद दुनिया की 70 फीसदी आबादी शहरों में रहने लगेगी, और जलवायु परिवर्तन के कारण गर्मी को बर्दाश्त करना मुश्किल और महंगा होगा, और इमारतों को ठंडा रखने के लिए बिजली की खपत बढ़ेगी। अब अगर शहरीकरण और बिजली-खपत का लगातार बढऩा दिख रहा है, तो यह भी समझने की जरूरत है कि यह बिजली आएगी कहां से, और किस तरह लोगों की मुफ्त की बिजली के इस्तेमाल की आदत को घटाना जरूरी होते चले जाएगा। आज जब इस बरस दुनिया के 60 देशों में चुनाव होने हैं, तो यह सवाल बड़ा नाजायज लग सकता है, और राजनीतिक दलों को यह माकूल नहीं बैठेगा कि वे लुभावनी बातों से परे कुछ और करें। लेकिन अगर सिर्फ अगले चुनाव की सोचकर ही नेता और पार्टियां फैसले लेंगे, तो देश का भविष्य एक गहरे गड्ढे में और नीचे जाते रहेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ के कवर्धा में पिछले बरस अपने स्कूल की 13 बरस की बच्ची से यौन शोषण करने वाले शिक्षक कुंजबिहारी को जिला अदालत ने 20 साल की कैद सुनाई है। इस अधेड़ शिक्षक ने स्कूली छात्रा को ऑनलाईन पढ़ाने के नाम पर अश्लील वीडियो भेजना शुरू किया, और फिर उसे भावनात्मक कब्जे में लेकर, उसका यौन शोषण किया। हमारा ख्याल है कि देश में हर प्रदेश में हर दिन एक से अधिक ऐसी खबरें छपती हैं जिनमें नाबालिग के यौन शोषण में किसी की गिरफ्तारी दिखती है। दूसरी तरफ हर दिन ऐसी खबर भी दिखती है जिसमें स्कूली बच्चों के यौन शोषण से लेकर स्कूलों में नशे में पहुंचने वाले शिक्षकों पर कार्रवाई होती है, गिरफ्तारी भी होती है। हम यह मानकर चलते हैं कि हर शिक्षक पढ़े-लिखे रहते हैं, और घर या स्कूल में न सही, चायठेले या पानठेले पर तो उनकी पहुंच अखबारों तक रहती है, और वे यह जानते हैं कि किस तरह की हरकत करने पर पुलिस और अदालत की कैसी कार्रवाई होती है। अभी-अभी छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके के एक ऐसे स्कूल के शिक्षक का वीडियो सामने आया है जिसमें वह शराब पिया हुआ स्कूल पहुंचता है, और वहां के बच्चे चप्पलें फेंक-फेंककर उस शिक्षक को मारते हैं, और उसे बचकर मोटरसाइकिल पर भागना पड़ता है। स्कूलों में नशे में पड़े हुए शिक्षकों की तस्वीरें और उनके वीडियो तो आम हैं। अब इस ताजा मामले से यह तरस भी आता है कि स्कूली शिक्षकों में सामान्य समझबूझ भी शून्य सरीखी है, और वह नाबालिग छात्रा के फोन पर अश्लील वीडियो भेजकर भी इस भरोसे में बैठा है कि न तो उसे कोई और देखेंगे, और न ही कोई कार्रवाई होगी। मूर्खता की यह पराकाष्ठा बताती है कि कैसे-कैसे बेअक्ल लोग शिक्षक तो बन गए हैं, लेकिन उनका ध्यान बच्चियों के शोषण पर है। हर महीने ही छत्तीसगढ़ में ऐसे शिक्षक और हेडमास्टर पकड़ा रहे हैं, जो कि बच्चियों का देहशोषण कर रहे हैं। और भारत की आम गरीब बच्चियों की हालत को ध्यान में रखते हुए सोचें तो यह समझ पड़ता है कि शोषण की शिकार दर्जनों बच्चियों में से कोई एक बच्ची ही शिकायत का हौसला कर पाती होगी।
छत्तीसगढ़ के स्कूलों को कई तरह से सुधारने की जरूरत है। राज्य बना तब से अब तक यह देखने में आया है कि सरकार चाहे जो भी रहे, क्लासरूम का फर्नीचर खरीदने में परले दर्जे का भ्रष्टाचार रहता है, और हर स्कूल में एक-दो कमरे ऐसे टूटे हुए फर्नीचर से भरे रहते हैं, जो कि सप्लाई होते ही टूट जाते हैं। भ्रष्टाचार इस दर्जे का संगठित है कि अच्छा फर्नीचर बनाने वाले लोग सरकारी सप्लाई में कहीं टिक ही नहीं सकते। इसके अलावा खेल का सामान, लाइब्रेरी की किताबें, स्कूलों की हर किस्म की खरीदी भ्रष्टाचार से भरी हुई है। और अब तो जिस तरह पिछली भूपेश सरकार की एक सबसे प्रतिष्ठा वाली योजना, आत्मानंद स्कूल का भ्रष्टाचार सामने आ रहा है, वह बताता है कि जब कलेक्टरों के स्तर पर अंधाधुंध और मनमानी स्थानीय फैसले लिए जाते हैं, तो कैसी-कैसी और नई-नई गड़बडिय़ां होती हैं। अभी आत्मानंद स्कूलों की जांच शुरू भी नहीं हुई है जिन पर सरकार के अलग-अलग विभागों का, जिला खनिज निधि का, और उद्योगों के सीएसआर का मनमाना पैसा खर्च किया और करवाया गया है।
दूसरी तरफ स्कूलों में पढ़ाई का हाल इतना बुरा है कि राष्ट्रीय स्तर के जो सर्वे हुए हैं, वे बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में 5वीं में पढ़ रहे बच्चे भी दूसरी कक्षा की पढ़ाई भी करने लायक नहीं हैं। यह तो गनीमत कि सरकारी स्कूलों में दोपहर का भोजन मिलता है, जिसकी वजह से बहुत से गरीब बच्चे स्कूल नहीं छोड़ते हैं, और स्कूलों में दर्ज संख्या अच्छी-खासी दिखती है। लेकिन बहुत सी जगहों पर शिक्षकों ने अपने आपको कहीं भी अटैच करवा लिया है, और अपनी मर्जी के शहरों में रहते हैं। नतीजा यह होता है कि हजारों ऐसी स्कूलें हैं जहां एक-एक शिक्षक पांच-पांच कक्षाएं पढ़ा रहे हैं, और बच्चों का भगवान ही मालिक है। किसी भी पार्टी की सरकार रहती हो, स्कूल शिक्षा विभाग सप्लायरों का पसंदीदा विभाग रहता है क्योंकि सरकारी सप्लाई का घटिया सामान इस्तेमाल करने वाले बच्चे किसी शिकायत करने की समझ भी नहीं रखते हैं। गरीब बच्चों के मां-बाप इसी बात पर खुश रहते हैं कि उनके बच्चों को फीस नहीं देनी पड़ रही, स्कूल का यूनिफॉर्म सरकार दे रही है, दोपहर का भोजन भी वहां मिल रहा है, और किताबों का भी पैसा नहीं देना पड़ता। इन सहूलियतों के बाद मां-बाप पढ़ाई-लिखाई की उत्कृष्टता के बारे में सोचने का तो मानो अधिकार ही खो बैठते हैं। अब ऐसा लगता है कि स्कूल शिक्षामंत्री बृजमोहन अग्रवाल लोकसभा चुनाव जीत सकते हैं, और इस विभाग की जिम्मेदारी किसी और मंत्री पर आ सकती है, तो ऐसे में सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी को यह भी सोचना चाहिए कि क्या स्कूल शिक्षा को भ्रष्टाचार से मुक्त विभाग बनाया जा सकता है? सरकारों से भ्रष्टाचार मुक्त होने की उम्मीद आज के वक्त में शायद देश में कहीं भी बहुत जायज नहीं है, लेकिन आने वाली पीढ़ी की बुनियाद ही भ्रष्टाचार की वजह से कमजोर न हो, ऐसी फिक्र जिन लोगों को हो, उन्हें जरूर इस बारे में सोचना चाहिए।
जहां स्कूली शिक्षक छात्राओं से बलात्कार करते पकड़ाते हों, वहां न पकड़ाने वाले शिक्षकों के बारे में भी सरकार को सोचना चाहिए, और स्कूलों में ऐसी निगरानी समितियां बनानी चाहिए जो कि छात्र-छात्राओं से बात करके शिक्षकों के बारे में जानकारी ले। हो सकता है कि शिकायत बक्से लगाना कारगर हो, या हर स्कूल की दीवार पर ऐसे नंबर लिखे हों जहां फोन करके या संदेश भेजकर शिकायत दर्ज करवाई जा सके। इससे भी बेहतर विकल्प यह होगा कि उस इलाके में काम करने वाले कुछ प्रतिष्ठित और जिम्मेदार जनसंगठनों की मदद ली जाए, और बच्चों का हौसला बढ़ाया जाए कि वे अपने शोषण के खिलाफ शिकायत कर सकें। ऐसा हौसला बढऩे पर बच्चियों की शिकायत अभी कुछ हफ्ते पहले ही सामने आई है। भारत में अगर अगली नौजवान पीढ़ी को बेहतर बनाना है, तो उसकी शुरूआत स्कूलों में सुधार लाकर ही की जा सकती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया के रोमन कैथोलिक समुदाय के सबसे बड़े धर्मगुरू पोप फ्रांसिस ने अभी वेटिकन के मुख्यालय वाले रोम की एक जेल में एक धार्मिक समारोह में 12 महिला कैदियों के पैर धोए, और चूमे। खबरों में कहा गया है कि ये महिलाएं पोप के इस काम से रो पड़ीं। हर बरस आज के दिन इस धार्मिक समारोह से ईसा मसीह द्वारा अपने 12 शिष्यों के पैर धोने की बाइबिल की कहानी को याद किया जाता है, और इसके बाद ईसा मसीह को सूली पर चढ़ा दिया गया था। उसी की याद में पोप हर बरस बीते कल के दिन इस तरह लोगों के पैर धोते हैं। पोप ने इस मौके पर कहा कि इस समारोह का महत्व इसलिए अधिक है क्योंकि इसमें ईसा मसीह ने अपने आपको औरों से नीचे दिखाया और साबित किया था, और सेवा की राह दिखाई थी। लोगों को याद होगा कि हिन्दुस्तान में भी हिन्दू धर्म के कई लोग इस तरह पैर धोने का काम करते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कई सफाई कर्मचारियों के पैर धोते दिखाए जाते हैं, और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में हिन्दुत्ववादी नेता जब ईसाई बने हुए आदिवासियों को हिन्दू बनाते हैं तो पैर धोकर उनकी ऑपरेशन ‘घर वापिसी’ करवाई जाती है। हिन्दू धर्म की कई परंपराओं में लोगों के पैर धोने का रिवाज है, और कहीं दामाद के, तो कहीं लडक़ी के ससुर के पैर धुलते दिखते हैं।
पैर धोने का एक महत्व यह दिखता है कि आमतौर पर लोगों के पैर उनके बदन के बाकी हिस्सों के मुकाबले कुछ गंदे रहते हैं, और अपने हाथों से जब कोई दूसरों के पैर धोते हैं, तो इसे एक किस्म का सम्मान देना माना जाता है। अब सवाल यह उठता है कि पैर धोने के इस दिखावे से किसको क्या हासिल होता है? क्या प्रधानमंत्री के हाथों पैर धुल जाने से सफाईकर्मियों की गटर और नाली में मौतें कम हो गई हैं? क्या ऐसे समारोह के बाद लोगों ने सफाई कर्मचारियों से भेदभाव बंद कर दिया? दुनिया में शायद ही कोई ऐसे धर्म होंगे जो कि जाति, आर्थिक संपन्नता, शिक्षित-अशिक्षित, औरत-मर्द का फर्क न करते हों। पोप जिस ईसाई धर्म के मुखिया हैं वह पश्चिम के विकसित लोकतंत्रों का सबसे प्रमुख धर्म है, लेकिन लोकतंत्र इस धर्म को छू भी नहीं गया है। कोई महिला पोप नहीं बन सकती, ऊपर से लेकर नीचे तक महिलाएं इस धर्म के ढांचे में कभी पुरूष की बराबरी नहीं कर सकतीं। यह धर्म दुनिया में सबसे बड़ी बेइंसाफी पर आंखें मूंदे रहता है, और जंगखोर देशों को कोई नसीहत नहीं देता। यह यूक्रेन पर हमला करने वाले रूस को हमले से नहीं रोकता, बल्कि अभी पोप ने एक सार्वजनिक बयान देकर फौजी हमले से जख्मी यूक्रेन को यह नसीहत दी है कि वह रूसी हमले पर जवाबी कार्रवाई बंद करे, और रूस के साथ समझौता करे। यह कुछ उसी किस्म की बात है कि मुम्बई के किसी कारोबारी को पोप सलाह दें कि वे दाऊद इब्राहिम के खिलाफ करवाई गई रिपोर्ट वापिस ले, और दाऊद को हफ्ता देना शुरू करे। इस पोप ने ईसाई देश अमरीका को नहीं रोका कि वह इजराइल को जो हथियार दे रहा है उससे बेकसूर और तकरीबन निहत्थे फिलीस्तीनी मारे जा रहे हैं। दुनिया में जहां-जहां बड़ी बेइंसाफी में ईसाई देश हमलावर होते हैं, वहां पोप का मुंह नहीं खुलता। और तो और दुनिया भर के अपने चर्चों में पादरियों द्वारा बच्चों के यौन शोषण को देखते हुए भी एक के बाद दूसरे पोप इसकी अनदेखी करते रहे। धर्म का मूल चरित्र शोषण का रहता है, और शायद ही कोई धर्म इससे परे रहता हो।
हमारा यह मानना है कि धर्म जिन लोगों के पांव धोने का दिखावा करता है, वह सिर्फ उन्हें धोखा देता है। अगर धर्म इस पाखंड के बजाय सामाजिक न्याय की बात करे, तो शोषित और दबे-कुचले लोग, अपने गंदे पैरों सहित अधिक खुश और सुखी रह सकते हैं। लेकिन सामाजिक न्याय बहुत मुश्किल काम होगा, और ईसाई धर्म मानने वाले लोग भी पोप की बात सुनकर फौजी हमले बंद नहीं करेंगे, इसलिए पोप भी वैसी कोई नसीहत देकर अपनी जुबान खराब नहीं करते। दूसरे धर्मों का भी यही हाल है। अलग-अलग कई किस्म के धर्मस्थानों में जिस तरह आतंकी पलते हैं, जिस तरह पुजारी बलात्कार करते हैं, महिलाओं को देवदासी बनाकर उनसे देह का धंधा करवाया जाता है, इन सबको देखें तो साफ दिखता है कि न तो किसी ईश्वर, और न ही उसके किसी एजेंट को हिंसा या शोषण से परहेज है। जिस ईश्वर को सर्वत्र, सर्वज्ञ, और सर्वशक्तिमान माना जाता है, उसकी आंखों के सामने बच्चों से बलात्कार होते हैं, और कण-कण में मौजूद ईश्वर उसे देखते रहते हैं। जिसे सर्वशक्तिमान मानकर लोग पूजा-उपासना करते हैं, उसकी शक्ति अपने बलात्कारी भक्तों को रोक नहीं पाती, और न ही बेकसूर बच्चों को बचा पाती है। धर्म का पूरा ढकोसला इसी तरह का है, और किस्से-कहानियों में ईश्वरों की जो अपार शक्ति बताई जाती है, वह असल जिंदगी में सबसे भयानक किस्म की हिंसा को रोकने के काम नहीं आती, और न ही वह दुनिया के खरबपतियों को इतनी समझ दे पाती कि वे दुनिया में भूख से मरते हुए लोगों की मदद करें।
इसलिए चाहे जिस किस्म के रीति-रिवाज के लिए किसी धर्म के लोग जब गरीबों के पांव धोते हैं, पांव चूमते हैं, तो वे उन गरीबों को बेहतर इंसान साबित करने के बजाय अपने आपको अधिक महान इंसान साबित करने में लगे रहते हैं। लोगों को इस धार्मिक पाखंड को समझना चाहिए क्योंकि यह लोगों के शोषण का एक और जरिया रहता है। अधिक विनम्रता, और ओढ़ी हुई महानता शोषकों को और अधिक ताकत दिलाने के लिए इस्तेमाल होती हैं। जब दुनिया के सबसे जलते-सुलगते मुद्दों पर धर्मगुरूओं का मुंह न हिटलर के वक्त खुला, न अमरीका के खिलाफ कभी खुला, और न इजराइल के खिलाफ, वे धर्मगुरू अपने-अपने साम्राज्य में अन्याय और असमानता के शिकार लोगों के पांव धोने का प्रतीकात्मक काम करके शोषण के जाल को मजबूत ही करते हैं। इनकी इस अतिरिक्त विनम्रता में एक हिंसा छुपी होती है, और इस साजिश को समझने की जरूरत है। अगर धर्म ने इंसानों को बराबरा बनाने का काम किया होता, तो आज ताकतवर को कमजोर के पांव धोने का दिखावा नहीं करना पड़ा होता। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)