विचार / लेख

ऐसी किताबें आपके घर में रहनी चाहिए
11-Oct-2020 6:00 PM
ऐसी किताबें आपके घर में रहनी चाहिए

-ओम थानवी

सिरफिरे हत्यारे नाथूराम गोडसे के लम्बे-चौड़े अदालती बयान को संघ परिवार ने ‘मैंने गांधी को क्यों मारा’ शीर्षक से खूब प्रचारित किया है। बयान गोडसे के कुकृत्य-बोध और विक्षिप्त सोच का प्रलाप भर है : ‘गांधीजी की अहिंसा उस शेर की अहिंसा है जो उस समय अहिंसा का पुजारी हो जाता है, जब वह हजारों गायों को खा-पीकर थक जाता है।’

मित्रवर अशोक कुमार पांडे ने अपनी किताब ‘उसने गांधी को क्यों मारा’ (राजकमल प्रकाशन) में गोडसे के प्रलाप को ज़्यादा तवज्जोह दिए बगैर गांधीजी की हत्या के पीछे के फिरकापरस्त सोच और षड्यंत्र की पड़ताल की है। दो अदालती जाँचों के अनेकानेक ब्योरे पेश करते हुए, जिनमें बाद में ‘वीर’ सावरकर को भी हत्या के षड्यंत्र में शरीक पाया गया। उन्होंने विभिन्न संदर्भों, बयानों और उद्धरणों से साबित किया है कि गांधीजी विभाजन के लिए कहीं से जिम्मेदार नहीं थे, न कभी उसके हक़ में रहे।

अनेक जरूरी सवाल लेखक ने संकीर्ण हिंदू संगठनों के सामने रखे हैं : बँटवारे के लिए मजबूर करने वाले जिन्ना पर कभी हमला क्यों नहीं किया? सावरकर ने हिंदू-मुसलमानों को दो अलग राष्ट्र कहा, उनका मुँह क्यों बंद नहीं किया गया? मुसलिम लीग की सरकार में श्यामाप्रसाद मुखर्जी कैसे शामिल हो गए? मुसलिम लीग के साथ हिंदू महासभा कैसे सरकार चला सकी? भारत छोड़ो आंदोलन के दमन में हिंदू महासभा के नेता आगे कैसे थे? वन्दे मातरम् की इतनी बात करते हो, गोडसे और आप्टे वह नारा लगाते हुए क्यों नहीं चढ़े फाँसी पर? वन्दे मातरम् को छोड़ संघ ने अपना न्यारा गीत प्रार्थना के लिए क्यों अपनाया?

कश्मीर के मामले में प्रचारित झूठ और भगत सिंह को बचाने के गांधीजी के प्रयासों के अनेक प्रामाणिक हवालों के साथ पांडे का (उचित) निष्कर्ष है : इस देश को बाँटने का कलंक तुम लोगों (कट्टर हिंदूवादी संगठनों) पर है, या मोहम्मद अली जिन्ना पर?

किताब में तसवीरें भी हैं, हालाँकि उनके विवरण पता नहीं क्यों नहीं दिए हैं। किताब पर विख्यात अमरीकी फ़ोटो-पत्रकार मार्गरेट बर्क-वाइट की लाइफ़ पत्रिका में छपी जानी-मानी तसवीर है; मार्गरेट का श्रेय भी रह गया है। 

गोडसे का नाम मराठी में नथुराम, मराठी-हिंदी में नथूराम और हिंदी में नाथूराम रूढ़ है। यों तो मूल ही प्रमाण होता है, पर जब-तब ‘सुधार’ अधिक प्रचलित हो जाता है। पांडे ने नथूराम लिखा है। मेरा मानना है कि कभी-कभी रूढ़ हुए चलन को भी स्वीकार कर लेना चाहिए; लंदन, मास्को, व्ही. शांताराम, नाथूराम जैसे नामों की वर्तनी पीछे देखते तो वही नहीं, पर चलन को देखते बहुत स्वीकार्य है।
 
जरूरी बात : ऐसी किताबें आपके घर में रहनी चाहिए। मंगा लीजिए, जैसे मैंने मंगाई।


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