विचार / लेख

तो मैं इस्लामोफोबिक हुई!
17-Oct-2025 7:25 PM
तो मैं इस्लामोफोबिक हुई!

-अमिता नीरव

इजरायल और फिलिस्तीन पर चल रही गरमागरम बहस के बीच एक सवाल टप से आता है, 'इसका मतलब कि यहूदियों के मसले में हिटलर सही था!'

कितनी सतही समझ है हमारी व्यवस्था की, न्याय, इतिहास, समानता और मानवीय गरिमा की। मन हुआ चुप रह जाऊं, फिर लगा चुप रहना तो गलत समझ विकसित होने का आमंत्रण होगा।

'उस वक्त यहूदी पीड़ित थे, आज वही पीड़क हैं, ये समझना क्या रॉकेट साइंस है?'

कुछ वक्त पहले खाड़ी में बसे एक मित्र ने ये कहकर मुझे चौंका दिया कि, 'होलोकास्ट में यहूदी मारे ही नहीं गए। यदि 60 लाख यहूदी मारे गए तो उनकी कब्रें कहां हैं? उनके वारिस, रिश्तेदार कहां हैं? ये एक अंतरराष्ट्रीय झूठ है।'

कुछ वक्त पहले बहुसंख्यकवाद पर लिखी एक पोस्ट पर मुस्लिम मित्र ऑफेंड हो गए। उनके अनुसार इस्लाम समानता में यकीन करता है इसलिए किसी मुस्लिम देश में अल्पसंख्यकों का दमन नहीं होता है।

उस वक्त मैं इराक में यजीदी समुदाय के संघर्षों और कुर्दों के दमन के बारे में जान रही थी। मैं नादिया मुराद की किताब 'द लास्ट गर्ल' पढ़ रही थी। उस किताब में ISIS द्वारा यजीदियों के दमन के बारे में जाना।

सद्दाम हुसैन के शासन में सभी गैर-अरबी, अल्पसंख्यक और धार्मिक समूहों को अक्सर अपनी पहचान छुपानी पड़ती थी। सद्दाम की तमाम अच्छाइयों पर उनके अल्पसंख्यकों के दमन की खबरें भारी पड़ रही थी।

बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों के दमन की प्रवृत्ति कोई नई बात नहीं है। भारत में मुसलमान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू, अमेरिका में अश्वेत, इराक में कुर्द हो या नब्बे के दशक में बाल्कन देशों का संकट...।

हमारे यहां मुंबई और दक्षिण में हिंदी भाषी, उत्तर में दक्षिण और नॉर्थ ईस्ट के लोगों के साथ होने वाला भेदभाव उसी प्रवृत्ति का संकेत है।

दो दिन से पाकिस्तानी संसद में हिंदू सांसद का भाषण और पाकिस्तानी हिन्दुओं के उत्सव का वीडियो वायरल हो रहा है। हम धर्मनिरपेक्षता की झोंक में हकीकत से मुंह फेर रहे हैं।

खुद पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के दमन को लेकर पत्रकार और बुद्धिजीवी लगातार बहसें कर रहे हैं। तमाम अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इस सिलसिले की खबरें और रिपोर्ट्स छप रही है दिखाई जा रही है।

हकीकत से मुंह मोड़ना असल में समस्या के होने से ही इनकार कर देना है। पाकिस्तान में ही अल्पसंख्यकों से साथ जो हो रहा है उसका संबंध इस्लाम या मुसलमानों से नहीं है।

हमेशा ये समझा कि जैसी जनता होगी वैसी व्यवस्था होगी। भूल गई थी कि हमारी ही परम्परा में 'यथा राजा, तथा प्रजा' कहा गया है। इस बात को समझने में कई साल लगे कि व्यवस्था का विकास सत्ता या ताकत करती है।

तो जैसी सत्ता होगी, व्यवस्था भी वैसी ही होगी। हमने आजादी के बाद सीखा कि अल्पसंख्यकों की सुरक्षा बहुसंख्यकों की जिम्मेदारी है। धीरे धीरे इस सीख पर प्रश्न किए जाने लगे और अंततः हमने इस प्रश्नों को स्वीकार लिया। आज हम भी उन्हीं प्रश्नों की बंदूक से समाज को छलनी करने की जिम्मेदारी ढो रहे हैं।

कैसे हो गया ये सब, कब हुआ और क्यों हो गया? हमारी परम्परा तो वसुधैव कुटुंबकम् की है। हमने तो जाना था कि सत्य एक है और उस तक पहुंचने के रास्ते अनेक... तो कब ये सब घटित हो गया?

तो बात किसी धर्म, विचार, जीवन पद्धति, दर्शन पद्धति पर आकर नहीं ठहरती है। बात उस प्रवृत्ति पर आकर ठहरती है जो ताकत की है, सत्ता की है।

आपकी परंपरा कितने ही सुंदर विचारों को लेकर चलती हो, आपका धर्म कितना ही उदार और समन्वयवादी हो, सत्ता उस सब को धो डालेगी।

सत्ता के सच को, उसके किरदार को समझें। धर्म या समुदाय अच्छे या बुरे नहीं होते वो लोग अच्छे या बुरे होते हैं जो समाज का किसी भी स्तर पर नेतृत्व करते हैं, निर्देशित करते हैं।

उन्हें समझिए, उन पर सवाल कीजिए, उन पर अंकुश लगाइए। सच से सीधे मुठभेड़ कीजिए।


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