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हफ़्ते भर पहले दिवाली मनाने वाला गांव, परंपरा और आस्था वाला करबिन सेमरा
17-Oct-2025 1:35 PM
हफ़्ते भर पहले दिवाली मनाने वाला गांव, परंपरा और आस्था वाला करबिन सेमरा

-स्मिता

गांव की गलियों में आज भी गायों के चलने से धूल उड़ती है। वही गलियाँ, जिन्हें गोबर से लीपकर रोज़ाना साफ-सुथरा कर दिया जाता है। जिन गलियों की ओट में किशोर वय का प्रेम उलाचें मारता है ।

इस बरस भी सामने वाली रामरतीन काकी अपने घर की देहरी पर चढ़कर दिवाली की पुताई कर रही है। मुंह अंधेरे उठकर गायों के रंभाने की आवाज़ के साथ ही त्योहार का मिंजरा सब्ज़ी परोस दिया जाता है।

चूल्हे की आग और धुएं के बीच खपुरी रोटी अब भी धीमी आंच पर ज़िंदगी की तरह सिकती है। दूर तक पसरे अंधियारे में टिमटिमाते दीपक देवारी का आग़ाज़ करते हैं। यही है करबिन सेमरा गांव

आसपास के गांवों में सबसे पहले दिवाली मनाने वाला गांव, जहां देवारी एक सप्ताह पहले ही शुरू हो जाती है।

कुछ गांवों के नामों के पीछे कहानियां होती हैं, तो कुछ लोक आस्थाओं और धार्मिक प्रतीकों के पीछे भी अपने समय की कथाएं छिपी होती हैं। जब ये कहानियां निरंतर पीढ़ियों से दोहराई जाने लगती है तो हमारी परंपरा का हिस्सा बन जाती हैं।

लोक उत्सवों का मूल भाव यही है कि जीवन की एकरसता को तोड़कर उसमें रंग, मिठास, रोशनी और उल्लास भरा जाए — नए परिधान, मिठाई, पूजा और दीपों से सजा संसार।

पर जब हर साल वही त्योहार नीरस लगने लगे, तब क्या किया जाए? तब जरूरत होती है नए अर्थ, नई जगह और नई कहानियों की खोज की — या फिर गांवों में प्रचलित लोककथाओं से रस निकालने की।

यूं भी हमारा देश विविधताओं से भरा है — जहां हर तीस-छत्तीस कोस पर पानी और बोली बदल जाती है, वहीं देवी-देवता, उनकी पूजा पद्धतियां और विश्वास भी।

ऐसी ही एक नई परंपरा और विश्वास की कहानी है धमतरी जिले के करबिन सेमरा गांव की,

जो बालोद और दुर्ग की सीमा पर स्थित है। यह वह इलाका है जहां बालोद जिले से निकलने वाली दो नदियाँ — खारुन और शिवनाथ — अपना दोआब बनाती हैं।

स्थानीय मान्यता के अनुसार, इस गांव को वृहन्नलाओं ने बसाया था, जिन्हें यहां की बोली में “करबिन” कहा जाता है। इसी से गांव का नाम पड़ा करबीन सेमरा। इन किन्नरों की यहां मालगुज़ारी और संपत्ति थी, परंतु कृषि कार्य न करने के कारण वे लगान नहीं चुका पाईं।

और धीरे धीरे। उनकी जमीनें कमाविसदार के नाम हो गईं।

संभावना है कि यह गांव भोंसले वंश के शासनकाल का है, जब मराठा काल में धमतरी क्षेत्र में राजस्व अधिकारी आए थे। जो स्वाभाविक रूप से शिक्षित उच्च समुदाय का प्रतिनिधित्व करते थे ।

उस समय अकाल और दुर्भिक्ष के कारण आदिवासी एवं दलित किसान कर नहीं चुका पाते थे, तो उनकी भूमि इन्हीं उच्च वर्ग के नाम पर चली जाती थी। यही कारण है कि आज भी कुछ गांवों में सवर्णों के पास सैकड़ों एकड़ की मालगुज़ारी मिलती है।

धीरे-धीरे वृहन्नला समुदाय ने अपनी शेष भूमि बेच दी और अन्य जगहों पर बस गए। आज भी कई किन्नर अपने जड़ों को इस गांव से जोड़ते हैं। यही इस गांव के नाम की कहानी है।

यहां के सियान घनश्याम देवांगन बताते हैं —

“मैंने अपने बचपन से ही इस परंपरा को ऐसे ही देखा है। मेरे दादा और परदादा के समय से यह रीति चली आ रही है।”

कहा जाता है कि अकाल, दुर्भिक्ष और गरीबी के दौर में जब लोग ईश्वर की शरण में आए, तब गांव के बैगा को सिरदार देवता ने स्वप्न में कहा —

“अगर तुम लोग चार त्योहार — हरेली, पोला, दीवाली और होली — तिथि से सात दिन पहले मनाओगे, और इन तिथियों पर गुरुवार या शनिवार नहीं आएगा, तो इस गांव में समृद्धि आएगी, फसल अच्छी होगी।”

तब से इस परंपरा का पालन ग्रामवासी करते आ रहे हैं। घनश्याम बताते हैं —

“जब हमारे यहां बहुत गरीबी थी, तब आसपास के गांवों के लोग दिवाली के दिन मिष्ठान और भोजन की आस में सेमरा आते थे। रातभर नाच-गान होता था। तभी से दो दिन ‘नाचा’ आयोजित किया जाने लगा, जो आज भी चलता है।”

आज यह परंपरा धमतरी जिले की सांस्कृतिक पहचान बन चुकी है। देवारी के दिनों में यहां का हर घर मेहमानों से भरा रहता है। स्त्री-पुरुष सब मिलकर खाना बनाते और आगंतुकों का स्वागत करते हैं। कोचई और कुम्हड़ा के मिंजरे की सब्ज़ी, सौंहारी बड़ा, बर्फी — यही यहां के स्थानीय व्यंजन हैं। और रात भर चलता है नाचा — संगीत, हंसी और रौशनी का उत्सव।

"तहूं हमर डहार देवारी मनाए बर आबे न"

सियानहीन खीसें निपोर कर कहती है ,

"टार दाईं तुमन ल मिंजरा सब्जी चूरोय बर नई आवैं "

हमर गाँव कस रौनक तुम्हर शहर म नहीं रहाय"


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