विचार / लेख
-शंभूनाथ
रामायण में बाली और सुग्रीव की कथा है। यह कथा आज की लड़ाइयों और बहसों का सामान्य चरित्र स्पष्ट करने के लिए काफी है। बाली से जो भी लड़ता था उसकी आधी ताकत घटकर बाली के पास चली जाती थी। बाली पहले से अधिक बलशाली हो जाता था।
आज बड़े–बड़े नेता और बुद्धिजीवी सांप्रदायिकता से जितना लड़ते हैं, सांप्रदायिकता उतनी मजबूत हो जाती है। वे जाति का प्रश्न जितना उठाते हैं, उच्च वर्णकेंद्रिक जातिवाद पिछड़ी– दलित जातियों को उतनी आसानी से निगल लेता है। स्त्री विमर्श जितना तीखा होता है, महिलाओं की कलश यात्राएं, प्रवचनों में उनकी भीड़ और उनकी धर्म–प्रवणता उतनी बढ़ जाती है। राष्ट्रवाद का जितना विरोध किया जाता है, राष्ट्रवाद उतना अधिक लोकप्रिय हो जाता है। बाजार के खिलाफ जितना बोलते हैं , बाजार की तानाशाही उतनी बढ़ जाती है। इस ’बाली सिंड्रोम’ को समझना चाहिए।
आज धार्मिक कर्मकांड, जातिवाद, पितृसत्तात्मकता, बहिष्कारपरक राष्ट्रवाद आदि ने उन्हें भी अपनी चपेट में ले लिया है जो इसकी चपेट से काफी बचे हुए थे। आज जो विपक्ष में हैं वे सभी कभी सत्ता में रहते हुए इतने ’पाप’ कर चुके हैं कि घड़ा अभी तक खाली नहीं हुआ है!लोगों को उनके अत्याचार और स्वार्थपूर्ति की बातें याद आ जा रही हैं। बाली क्यों न मजबूत हो!
मुख्य विडंबना यह नहीं है कि उधर फुटबॉल की 11 व्यक्तियों की सुगठित टीम है और इधर 11 के 11 खिलाड़ी ही कैप्टन हैं। मुख्य बात यह है कि हमारे देश का संपूर्ण विपक्ष बौद्धिक विकलांगता का शिकार है। वह तोता की तरह रटे हुए अपने उन्हीं पुराने विचारों की दुनिया में है जो अपना तर्क और अपनी जमीन खो चुके हैं। उसके विचारों में प्राण शेष नहीं है और आम जनता से उसके संबंध में दम नहीं है।
यह हाल फिलहाल सभी रंग के लोकतंत्रवादियों, वामपंथियों और विमर्शकारों का है। इन्होंने दुनिया को पाकर भी खो दिया, बल्कि अंतत: जर्जर होकर ऐसे कठोर हाथों में दुनिया को सौंप दिया है जिन्होंने इसमें आज आग लगा रखी है!
बाली सिंड्रोम अपने पूरे उभार पर है। इस दशा में निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ की इस खास पंक्ति पर ध्यान देने की जरूरत महसूस हो सकती है- ‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना’! पर ऐसी कल्पना करने के लिए सबसे पहले कल्पना करने का साहस चाहिए। और इसके लिए अपने महानताबोध से बाहर निकलकर आत्मनिरीक्षण जरूरी है। आप किसी तानाशाह का मुकाबला केवल चुटकुलों से नहीं कर सकते!
यह युग पुराने घिसे-पिटे विचारों की जगह नए विचारों की मांग करता है और अपने अहंकार से मुक्त होने की मांग करता है। यह अपने देश और दुनिया को फिर से समझने की मांग करता है। यह अपनी बौद्धिक कूपमण्डूकता से बाहर निकलने और अपना चरित्र सुधारने की मांग करता है।
यह युग लोकतंत्रप्रेमियों के बीच सौहार्दपूर्ण संवाद की मांग करता है। अन्यथा बाली से लडऩे का मतलब है हर बार अपना आधा बल उसके पास चला जाना! और ए. आई. के जमाने में बाली से राम भी नहीं छिपे हैं!! फिर, झूठ जिधर है उधर शक्ति!!!