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सीताराम येचुरी: भारतीय वामपंथ की नामी शख्सियत का सियासी सफर
13-Sep-2024 2:55 PM
सीताराम येचुरी: भारतीय वामपंथ की  नामी शख्सियत का सियासी सफर

-नीरजा चौधरी

आधी सदी तक कम्युनिस्ट रहने के बावजूद सीताराम येचुरी के बारे में कुछ भी सिद्धांतवादी या हठधर्मी नहीं था। वे हमेशा एक मिलनसार व्यक्तित्व वाले शख्स थे।

उन्होंने 1975 में कम्युनिस्ट पार्टी जॉइन की। इसी साल देश में इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की घोषणा की और येचुरी को जेल जाना पड़ा।

वहां से शुरू हुआ सियासी सफर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बनने तक पहुँचा। वे 2015 से पार्टी की अगुवाई कर रहे थे।

सीताराम 1992 से पार्टी के पोलित ब्यूरो के सदस्य थे। कम्युनिस्ट होते हुए भी वो एक सेंटरिस्ट नेता की तरह थे जिन्हें थोड़ा उदारवादी और बीच का रास्ता अपनाने वाला माना जाता था।

गुरुवार को 72 वर्ष की आयु में दिल्ली के एम्स अस्पताल में एक लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया है।

जब मैं सीताराम येचुरी के बारे में सोचती हूँ तो मेरे मन कई ख़्याल आते हैं। वह एक विद्वान, विचारशील, पढ़े-लिखे, लेखक थे जो लगातार विचारों से जूझते रहते थे।

जब 1977 में उन्होंने दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र संघ का चुनाव जीता तो कैंपस में काफ़ी उथल-पुथल मची हुई थी। उन दिनों में वो जनरल बॉडी मीटिंग बुलाते और भोर तक चर्चाओं का दौर चलता।

एक मंझे हुए स्पीकर की हैसियत से वे अपने सुनने वालों का मूड भांप लेते थे और लगातार ये समझने की कोशिश करते थे कि लोगों को अपने विचारों से सहमत करवाने के लिए उन्हें क्या कहना है।

जब येचुरी जेएनयू के छात्र संघ के अध्यक्ष थे, तब सी राजा मोहन महासचिव हुआ करते थे।

वह कहते हैं, ‘वो जटिल मुद्दों को संभालने की काबिलियत रखते थे और बहुत अच्छें संयोजक थे लेकिन सबसे पहले वो एक ऐसे शख़्स थे जो लोगों का दिल जीतना जानते थे।’

भारत जैसे गरीब और विकासशील देश में उनकी पार्टी कभी भी मुख्यधारा की ताकत नहीं बन पाई। उनकी पार्टी मुख्य रूप से तीन राज्यों केरल, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा को छोडक़र बाकी राज्यों में सफल क्यों नहीं हुई ये अभी तक जारी एक बहस का हिस्सा है। इसके बावजूद येचुरी को केवल समावेशी भारत के लिए प्रतिबद्ध एक प्रमुख वामपंथी नेता के तौर पर ही याद नहीं किया जाएगा।

उन्हें इस देश की राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने वाले लीडर के तौर पर भी याद किए जाएगा। ख़ास तौर पर बीजेपी का विकल्प गढऩे के लिए 1989-2014 के बीच बने कई गठबंधनों में उनकी भूमिका थी।

दोस्तों के बीच ‘सीता’ कहकर पुकारे जाते थे येचुरी

दूसरे सियासी दलों से मतभेद के बावजूद अलग-अलग राजनीतिक दलों से दोस्ती करने में माहिर सीताराम येचुरी को कभी-कभी ‘एक और हरकिशन सिंह सुरजीत’ के रूप में जाना जाता था।

पंजाब से आने वाले सुरजीत 1992 से 2005 तक सीपीएम के जनरल सेक्रेटरी थे। उनके राजनीतिक कौशल और पर्दे के पीछे के कदमों ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को 1989 में कांग्रेस के एक राष्ट्रीय विकल्प के रूप में खड़ा किया था।

सुरजीत ने साल 1996 में तीसरे मोर्चे की सरकार को सत्ता में लाने में मदद की और साल 2004 में एक बार फिर भाजपा को सत्ता से दूर रखने में भूमिका निभाई।

येचुरी अपने दोस्तों और सहयोगियों के बीच में ‘सीता’ नाम से पुकारे जाते थे।

सुरजीत की ही तरह इन्होंने भी 1996 में संयुक्त मोर्चा के बनने में अहम भूमिका निभाई थी। साथ ही 2004 में यूपीए गठबंधन और 2023 में बनने वाले इंडिया गठबंधन को तैयार करने में मदद की।

वो इंडिया गठबंधन जिसने 2024 के चुनाव में बीजेपी को अपने बूते बहुमत तक पहुँचने से रोका।

जब येचुरी ने सुनाया सीपीएम की  ऐतिहासिक गलती वाला कि़स्सा

सीताराम येचुरी ने साल 1996 और 2004 में यूनाइटेड फ्रंड और यूपीए सरकारों के लिए साझा न्यूनतम कार्यक्रम तैयार करने में मदद की।

बाद के सालों में उन्होंने सीपीआई (एम) की उस ‘ऐतिहासिक गलती’ की कहानी सुनाई जो साल 1996 में की गई थी।

उन्होंने याद दिलाया कि आखिर कैसे और क्यों पार्टी ने साल 1996 में कैसे भारत का पहला माक्र्सवादी प्रधानमंत्री बनने देने का मौका गंवा दिया।

उस दौर में बीजेपी संसद में बहुमत हासिल करने में नाकाम रही थी और संयुक्त मोर्चा के नेता सरकार बनाने के लिए तैयार थे और उन्होंने सीपीआई (एम) नेता ज्योति बसु को प्रधानमंत्री के तौर पर नेतृत्व करने के लिए आमंत्रित किया था। लेकिन पार्टी की शीर्ष केंद्रीय समिति ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया, जिसे बाद में बसु ने एक ‘ऐतिहासिक गलती’ के रूप में बताया था।

येचुरी उन तीन चौथाई सदस्यों में शामिल थे जिन्होंने इस कदम का विरोध किया था, लेकिन ये पता नहीं है कि उन्होंने बाद के सालों में अपनी राय बदली थी या नहीं।

लेकिन वो सुरजीत, ज्योति बसु के साथ कर्नाटक भवन पहुंचे थे, जहां पर संयुक्त मोर्चा के नेता जैसे देवगौड़ा, चंद्रबाबू नायडू, लालू यादव बेचैनी से जवाब का इंतजार कर रहे थे।

असहमतियों के बावजूद पार्टी के साथ चले

सीताराम येचुरी ने संसद में भी अपनी छाप छोड़ी। वह 12 सालों तक राज्यसभा में रहे, उन्हें उनके बेहतरीन भाषणों के लिए याद किया जाता है, ऐसे में उन्हें न केवल एक कुशल सांसद के तौर याद किया जाता है, बल्कि बीजेपी के ख़िलाफ़ पार्टियों के बीच फ्लोर पर समन्वय बनाने के लिए भी वो याद किए जाते हैं।

उन्हें वो नियम पता थे, जिनके तहत वे मुद्दा उठाए जा सकते थे, जिन्हें वह उठाना चाहते थे।

जब उनका दूसरा कार्यकाल ख़त्म हुआ तो अलग-अलग दलों के कई सांसदों ने एकजुट होकर चाहा कि उनकी पार्टी उन्हें फिर से नामित कर दे।

पार्टी के एक अनुशासित सिपाही के तौर पर कई बार वह असहमतियों को बावजूद पार्टी के फैसलों के साथ चलते थे। मसलन वे भारत-अमेरिका के बीच परमाणु समझौते के मुद्दे पर मनमोहन सिंह की सरकार से वामपंथी दलों का समर्थन वापस लेने के ख़िलाफ़ थे। ये ऐसा मुद्दा था जिसपर तत्कालीन प्रधानमंत्री अपनी सरकार को ख़तरे में डालने के जोखिम के बावजूद भी आगे बढऩा चाहते थे। अपने सहयोगी और तत्कालीन सीपीएम महासचिव प्रकाश करात से येचुरी के मतभेद भी जगज़ाहिर थे।

करात और येचुरी प्रतिद्वंद्वी होते हुए भी एक-दूसरे के सहयोगी थे। ये दोनों देश की आज़ादी के बाद देखी गई उन कई राजनीतिक जोडिय़ों में से एक थे, जिन्होंने भारत को एक तरह से आकार देने में मदद की। जैसे नेहरू-पटेल, और वाजपेयी-आडवाणी या फिर मोदी और शाह की तरह।

मुश्किल दौर में बने सीपीएम महासचिव

पहले सोनिया और फिर राहुल गांधी से उनका रिश्ता एक दोस्त और मार्गदर्शक जैसा था। राहुल गांधी ने तो येचुरी के साथ घंटों तक देश के भविष्य के लिहाज से गंभीर मुद्दों पर हुई चर्चाओं को याद भी किया।

साल 2004 से लेकर 2014 तक कांग्रेस ने यूपीए सरकार की अगुवाई की और उस दौरान जब भी कांग्रेस और वाम दलों के संबंधों में किसी गतिरोध की आशंका होती, तब सोनिया गांधी येचुरी की ओर मुड़तीं।

सीताराम येचुरी को सीपीआईएम के महासचिव पद की जि़म्मेदारी उस समय सौंपी गईं जब बीजेपी एक ताकतवर प्रधानमंत्री के नेतृत्व में देश पर शासन करने आई थी और देश की राजनीति में बदलाव ला रही थी।

ये ऐसा समय था जब सीपीएम प्रासंगिक बने रहने के लिए संघर्ष कर रही थी। लेकिन सीताराम येचुरी तेज़ी से बीजेपी को चुनौती दे सकने वाले सभी राजनीतिक ताकतों को इंडिया गठबंधन के तौर पर एक साझा मंच पर ला रहे थे।

येचुरी को भारत में विपक्ष को अहम क्षणों में एकजुट करने में उनकी भूमिका के लिए याद किया जाएगा। हालांकि, उनकी भूमिका पर्दे के पीछे अधिक रही।

इसलिए ऐसे समय में जब सीपीएम लंबे समय तक अपना साथ देने वाले कॉमरेड को अंतिम विदाई दे रही है, तब देश भी भारत के इस बेटे को ज़रूर याद करेगा।

एक ऐसी शख़्सियत जिसने देश की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष परंपराओं को बनाए रखने और इस देश के गरीबों को एक नई सुबह देने के लिए काम किया। (www.bbc.com/hindi)


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