राजपथ - जनपथ
उत्तरप्रदेश की तीन लोकसभा सीटों पर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और उनके एक वरिष्ठ मंत्री मोहम्मद अकबर चुनाव प्रचार करके लौट आए। अमेठी और रायबरेली तो कांग्रेस नेताओं के लिए तीर्थयात्रा जैसी रहती है इसलिए इन दोनों सीटों पर इन दोनों ने अपनी मेहनत भी की, और वहां पर गांव-गांव तक छत्तीसगढ़ के कांग्रेस कार्यकर्ताओं को ड्यूटी पर भी लगाया। लेकिन इसके अलावा एक तीसरी सीट पर भी मेहनत की, बाराबंकी। छत्तीसगढ़ कांग्रेस के प्रभारी पी.एल. पुनिया का बेटा बाराबंकी से चुनाव लड़ रहा है, और यहां पर कुर्मी मतदाता भी खूब हैं, और मुस्लिम मतदाता भी। ऐसे में कुर्मी मुख्यमंत्री और मुस्लिम मंत्री की यह जोड़ी हिट रही क्योंकि दोनों बोलने में भी तेज हैं। वहां भूपेश बघेल को मुस्लिमों के बीच यह भी साफ करना पड़ा कि मोहम्मद अकबर अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री नहीं हैं, बल्कि छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े विभागों के मंत्री हैं जिनमें सस्ता राशन देने वाला विभाग भी शामिल है। दोनों ने सस्ते राशन से लेकर कर्जमाफी तक का सारा श्रेय राहुल गांधी के नीति-निर्देश को दिया, और यह उम्मीद बंधाई कि दिल्ली में राहुल की सरकार बनने पर पूरे देश को इस तरह की मदद मिलेगी। अब उत्तरप्रदेश से लौटने के बाद भूपेश बघेल मध्यप्रदेश में भूतपूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और मौजूदा मुख्यमंत्री कमलनाथ के इलाकों में चुनाव प्रचार करने चले गए हैं। वे अविभाजित मध्यप्रदेश के समय भी दिग्विजय के मंत्री रहे हैं, और उन्हीं के अखाड़े के पहलवान भी हैं। इस चुनाव में प्रदेश के बाहर जिस कांग्रेसी मुख्यमंत्री की सबसे अधिक मांग रही है, वे भूपेश बघेल ही हैं। इसके साथ-साथ अमेठी और रायबरेली की मेहनत भी उनके नाम मजबूती से दर्ज हो गई है। कांग्रेस में इससे अधिक लगता क्या है?
नब्ज ऑटो-टैक्सी में है
पूरे देश में चुनाव की रिपोर्टिंग करते घूमने वाले मीडिया के लोगों को किसी शहर पहुंचते ही नब्ज टटोलने के लिए सबसे पहले टैक्सी या ऑटो के लोग मिलते हैं। इसलिए सरकार को इस तबके को खुश रखना चाहिए। लोगों को याद होगा कि केजरीवाल जब सरकार में आए, तब दिल्ली के सारे ऑटो वाले उनके साथ थे। हालांकि दिल्ली के वोटर को मीडिया से ऐसा कोई लेना-देना नहीं रहता कि बाहर के आए हुए मीडिया के लोग ऑटो-टैक्सी से पूछकर जो लिखें, उसे सुनकर दिल्ली के वोटर वोट डालते हों। लेकिन बाकी हिन्दुस्तान में तो बाहर से जाने वाला मीडिया चुनाव का रहस्य सबसे पहले ऑटो-टैक्सी वालों से ही समझना चाहता है। इसी तरह सड़क के रास्ते जो रिपोर्टर लंबा सफर करते हैं वे ढाबे वालों से बात करते चलते हैं, और हवा का रूख भांपने की कोशिश करते हैं। अभी छत्तीसगढ़ से कुछ रिपोर्टर उत्तरप्रदेश गए थे, और तरह-तरह से परखने के बाद उनका नतीजा यह था कि तकरीबन पूरा प्रदेश गठबंधन के साथ है। गठबंधन यानी सपा-बसपा गठबंधन। इन दोनों की ऐतिहासिक लड़ाई के बाद यह ऐतिहासिक दोस्ती उत्तरप्रदेश के आम वोटर के लिए बहुत ही वजनदार साबित हो रही है। और अगर यह रूख नतीजों को बता रहा है तो उसका मतलब यह है कि भाजपा को योगीराज में खासे बड़े हिस्से में संन्यास पर भेजा जा रहा है।
भूमाफिया बनी पुलिस
छत्तीसगढ़ के बहुत से जिलों में पुलिस जमीन-जायदाद के अघोषित कारोबार में ऐसी लग गई है कि किसी थाने में पोस्टिंग का मोलभाव उस थाना इलाके में जमीनों के सौदों को देखकर तय होता है। जमीनों के कब्जों को लेकर, किसी और झगड़े को लेकर जहां पुलिस की दखल नहीं बनती है वहां पर भी पुलिस की दखल के दाम लगते हैं, जहां भी पुलिस दखल बनती है, वहां पर एफआईआर न लिखने के भी दाम लगते हैं। अभी दुर्ग जिले में कल ही एसपी ने एक थानेदार को सस्पेंड किया। उस पर लंबे समय से एक शिकायत के बावजूद एफआईआर दर्ज न करने की शिकायतें थीं, और वही बात उसे ले डूबी। मुख्यमंत्री का अपना जिला, गृहमंत्री का भी जिला, और भी ताकतवर विधायकों का यह जिला पुलिस में ऐसे कई मामले देख रहा है जिनमें धड़ल्ले से मोलभाव चलते रहता है। अभी एक-दो ऐसे अधिकारियों पर कार्रवाई हुई है लेकिन कुल मिलाकर हाल बुरा ही है। दुर्ग पुलिस का जमीन का एक ऐसा मामला अभी सामने आया है जिसमें एक आदमी ने रिपोर्ट लिखाई, उस पर पुलिस ने सौदा करवाकर, रकम वापिस करवाने की बात तय कर ली, और जब शिकायतकर्ता ने हलफनामा देकर शिकायत वापिस ले ली, तो पुलिस रकम दिलवाने से मुकर गई। नतीजा यह है कि अब शिकायतकर्ता फिर पुलिस में पहुंचा हुआ है कि वह अपना हलफनामा खारिज करवाकर कार्रवाई चाहता है।
रायपुर के एक अखबार में कल ही रिपोर्ट छपी है कि मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के अपने चुनाव क्षेत्र पाटन में पूरी रात शराब की होम-डिलिवरी चलती रहती है। अब यह जाहिर है कि पुलिस के साथ के बिना तो ऐसा हो नहीं सकता। देखना यह है कि बाकी प्रदेश में जमीनों के सौदागर और दलाल बनी हुई पुलिस की रंगदारी के खिलाफ कब कार्रवाई होगी। दरअसल यह प्रदेश ऐसे बड़े-बड़े धाकड़ और ताकतवर पुलिस अफसरों को जमीन के अवैध कारोबार का मुखिया बना हुआ देख चुका है, और उनकी वजह से विभाग के बाकी छोटे अफसरों की धड़क खुली हुई है।
भाजपा के घर में खड़कते बर्तन
सीएम भूपेश बघेल के खिलाफ विवादित बयान से भाजपा विधायक शिवरतन शर्मा ने भले ही पल्ला झाड़ लिया है, लेकिन पार्टी के भीतर इसको लेकर विवाद जारी है। चर्चा है कि पार्टी का संगठन में हावी खेमा चाहता था कि भूपेश के खिलाफ बयान को किसी भी दशा में वापस नहीं लिया जाना चाहिए। भले ही इसके लिए अदालती कार्रवाई का सामना करना पड़े।
सुनते हैं कि पूर्व सीएम डॉ. रमन सिंह ने शिवरतन शर्मा को सलाह दी कि बयान वापस लेने की जरूरत नहीं है। मगर पार्टी का दूसरा खेमा इससे सहमत नहीं था। चर्चा है कि एक पूर्व मंत्री ने रमन सिंह से पूछ लिया कि आपत्तिजनक बयान उन्हीं से जुड़े लोगों के नाम से क्यों जारी होती है? कभी पूर्व विधानसभा अध्यक्ष गौरीशंकर अग्रवाल और राजेश मूणत इस तरह का बयान क्यों नहीं देते। विरोधी खेमे की आक्रामकता को देखकर रमन और बाकी नेताओं को पीछे हटना पड़ा। आनन-फानन में सब कुछ मीडिया विभाग पर थोपकर किसी तरह विवाद का निपटारा करने की कोशिश हुई। मगर, एक खेमा अभी भी मीडिया विभाग में आमूलचूल परिवर्तन के लिए दबाव बनाए हुए हैं। अब लोकसभा चुनाव निपटने के बाद इन सबको लेकर हाईकमान हस्तक्षेप कर सकता है।
जम्मू-कश्मीर राज्य के लेह में एक प्रेस कांफ्रेंस के बाद भाजपा पर यह आरोप लगा कि उसने पत्रकारों को नगदी भरे हुए लिफाफे बांटे। खुद पत्रकारों ने इसकी शिकायत निर्वाचन आयोग से की, और इसकी जांच हो रही है। (लोगों को उम्मीद है कि उस पर भी चुनाव आयोग अपनी वही मशहूर हो चुकी क्लीनचिट देगा)। ऐसे में छत्तीसगढ़ के कुछ बरस पहले की एक ऐसी प्रेस कांफ्रेंस याद पड़ती है जो हुई ही नहीं थी। एक केंद्रीय मंत्री कल्पनाथ राय कोरबा के किसी बिजलीघर दो देखने के लिए आए थे और लौटते में रायपुर की पिकैडली होटल में उनकी पे्रस कांफे्रंस रखी गई थी। उनको आने में देर होती चली गई, लेकिन तब तक छत्तीसगढ़ राज्य बना नहीं था, और केंद्रीय मंत्री का आना इस इलाके के लिए एक बड़ी घटना थी इसलिए मीडिया इंतजार करते बैठे रहा। वे काफी देर से आए और उड़ान का समय हो गया था। आते ही उन्होंने पूछा कि मीडिया को कुछ खाना-पीना मिला या नहीं? इसके बाद अपने बेतकल्लुफ अंदाज में उन्होंने अपने अफसरों से कहा कि इन्हें ठीक से खिलाओ-पिलाओ। फिर उन्होंने साथ के अफसरों की ओर देखा तो बैग से गिफ्ट पैक किए गए सूट के कपड़े निकाले गए, और कल्पनाथ राय ने पत्रकारों को पैकेट थमाए, और कहा कि देर हो रही है वे निकल रहे हैं।
लेह के पत्रकारों ने शिकायत चाहे जो की हो, चाहे किसी वजह से की हो, लेकिन पत्रकारों के बीच तोहफे या नगदी बंटना कोई बहुत नई बात नहीं है। दशकों पहले रायपुर में तबकी कपड़ों की एक मशहूर कंपनी एस कुमार्स की तरफ से एक फैशन परेड रायपुर में की गई थी, और जो विज्ञापन एजेंसी इसकी प्रेस कांफ्रेंस कर रही थी, उसने चुनिंदा रिपोर्टरों को बता दिया था कि वहां सबको सूट के कपड़े दिए जाएंगे। प्रेस कांफ्रेंस की औसत भीड़ से दो गुना भीड़ वहां लग गई थी। पहले भी यही हाल था, और अब भी यही हाल है कि पत्रकारों को तनख्वाह बहुत कम मिलती है, कहीं-कहीं पर मिलती भी नहीं है। ऐसे में यह इस पेशे के साथ जुड़ा हुआ एक छोटा सा फायदा था जो कि उस वक्त रिश्वत नहीं थी। रिश्वत तो वह पिछले चार-पांच चुनावों से हो गई है जब मीडिया मालिक सत्तारूढ़ पार्टी या करोड़पति उम्मीदवार से मोटा पैकेज पाते हैं, न मिलने पर बांह मरोड़कर ले लेते हैं। ऐसे में अधिक असरदार मीडिया में काम करने वाले अधिक असरदार पत्रकारों का भी राजनीतिक दल ख्याल रखने लगे हैं, जो मंजूर करे उसे पैकेज दे दिया जाता है, लेकिन जो मंजूर न करे उससे डरकर रहा जाता है। जिस तरह सरकार, अदालत, समाजसेवा किसी भी दायरे में अच्छे और बुरे दोनों किस्म के लोग हैं, वैसा ही हाल मीडिया का भी है, बाकी धंधों से न बेहतर, न बदतर।
इन्हें देखकर कुछ तो सीखें...
अभी एक तस्वीर खबरों में आई है जिनमें एक नौजवान मतदाता लड़की वोट डालने गई है, और चुनाव अफसर उसके पांव की ऊंगली पर स्याही का निशान लगा रहा है क्योंकि उसके हाथ नहीं है। हाथ नहीं हैं पर हौसला है, अगली सरकार या अपना सांसद चुनने की हसरत है। इसलिए वह बिना हाथों के भी पहुंचकर, कतार में लगकर वोट डालने पहुंची थी, और यह तस्वीर हिन्दुस्तान के उन करोड़ों लोगों के मुंह पर तमाचा है जो साबुत हाथ लिए हुए घर बैठे रहे, वोट डालने नहीं गए।
कुछ ऐसा ही हाल हर सुबह देखने मिलता है जब बहुत से जवान लोग उस वक्त सोकर उठते हैं जब सूरज एक बांस चढ़ चुका होता है, फिर मां-बाप की छाती पर मूंग दलना शुरू करते हैं, और चाय की फरमाईश करते हैं। इनके मुकाबले बहुत से बुजुर्ग लोग सुबह से घूमने निकल जाते हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के अनुपम उद्यान में आज सुबह कांग्रेस के मीडिया-प्रभारी शैलेष नितिन त्रिवेदी को ऐसा एक नजारा देखने मिला जिसमें एक बुजुर्ग महिला छड़ी टेकते हुए वहां पहुंची, और फिर कसरत की एक मशीन के किनारे अपनी छड़ी लिटाकर रखी, और फिर मशीन पर चढ़कर अपने से दो-तीन पीढ़ी छोटी बच्ची के साथ जमकर कसरत करने लगी। इस तस्वीर को देखकर ऐसे लोगों को सोचना चाहिए जो जवानी में पलंग या कुर्सी तोड़ते पड़े रहते हैं, और बुढ़ापे में फिजियोथैरेपी को मजबूर होते हैं।
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सरकार बदलने के बाद भी कुछ निगम-आयोगों में भाजपा के लोग काबिज हैं, जिन्हें हटाने की कोशिश भी चल रही है। मार्कफेड के अध्यक्ष राधाकृष्ण गुप्ता हटाए जा चुके हैं और अब दुग्ध महासंघ अध्यक्ष रसिक परमार का नंबर है। रसिक परमार भी निर्वाचित हैं और उन्हें हटाने के लिए ग्राउंड तैयार किया जा रहा है।
वैसे तो मीडिया जगत से आए रसिक परमार की साख अच्छी है और उन पर भ्रष्टाचार के कोई ठोस आरोप नहीं हैं। लेकिन दुग्ध महासंघ के अफसर जरूर मौज-मस्ती वाले रहे हैं। महासंघ में ऊंचे ओहदे पर रहे एक अफसर ने भाजपा की टिकट से विधानसभा चुनाव की तैयारी भी की थी, लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिल पाई। अफसर ने मतदाताओं को रिझाने के लिए इलाके में दूध-मठा भी बंटवाया था। खैर, रसिक परमार को हटाने के लिए पार्टी नेताओं का दबाव है। उनका कैबिनेट मंत्री का दर्जा वापस लिया जा चुका है। चूंकि लोकसभा का चुनाव चल रहा है और कृषि मंत्री अस्वस्थ हैं। इसलिए इस पर कोई फैसला नहीं हो पाया है। कहा जा रहा है कि महीने के आखिरी तक उनकी सेवाएं वापस ली जा सकती है।
रमन सिंह के पूर्व प्रमुख सचिव अमन सिंह की गिनती देश के ताकतवर नौकरशाहों में होती रही है, लेकिन सरकार बदलते ही अमन सिंह दिक्कत में दिख रहे हैं। सरकार ने उनके खिलाफ शिकायतों की जांच के लिए एसआईटी बनाई थी, जिसमें उन्हें फिलहाल अदालती राहत भी मिल गई है। मगर, कुछ और प्रकरण हैं जिसमें उन्हें थोड़ी-बहुत परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। एक प्रकरण उनकी अमेरिका यात्रा का है, जिसमें वे हार्वर्ड बिजनेस स्कूल के कार्यक्रम में बतौर स्पीकर शामिल हुए थे। इस पूरी यात्रा पर करीब 7 लाख खर्च हुए थे। यह खर्चा एनआरडीए ने वहन किया था। अब इस पूरे खर्च को लेकर एनआरडीए दफ्तर में चर्चा हो रही है।
दस्तावेजों को देखे तो पहली नजर में अमन सिंह कहीं गलत नहीं दिखते हैं। वजह यह है कि खुद जीएडी ने एनआरडीए चेयरमैन की अमेरिका यात्रा और खर्चें की अनुमति दी थी। इसमें प्रथम श्रेणी हवाई यात्रा की विशेष अनुमति भी थी। वैसे तो प्रथम श्रेणी में हवाई यात्रा की पात्रता सिर्फ सीएम को रहती है और तत्कालीन सीएम रमन सिंह की खुद की अमन सिंह के लिए विशेष अनुमति रही है। अब यह भी कहा जा रहा है कि संस्थान ने अतिथि के आने-जाने का खर्च वहन क्यों नहीं किया?
जो लोग अमन सिंह को नजदीक से जानते हैं, वे मानते हैं कि अमन सिंह बहुत बारीक रहे हैं। मुकेश गुप्ता की तरह उनसे शायद ही कोई लापरवाह चूक हुई हो। यह जानकर लोगों को हैरानी होगी कि पिछले पांच साल में अमन सिंह ने किसी फाइल पर दस्तखत नहीं किए। जबकि सबसे ज्यादा गड़बड़ी उनके विभाग में सामने आ रही है, लेकिन इसके लिए वे जिम्मेदार नहीं दिखते हैं। जिस किसी फाइल में भी उनके दस्तखत हैं उनमें विभागीय मंत्री के साथ-साथ उनसे ऊपर के कई अफसरों के दस्तखत हैं। यानी उन्हें किसी गलती के लिए उन्हें अकेले जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। ये अलग बात है कि रमन सरकार में जो कुछ भी अच्छा हुआ, उसका श्रेय बिना कुछ किए अमन को ही मिला। नेता, अफसर हो या फिर पत्रकार, जिस किसी से भी उनकी ठनी, उन्हें पछाड़ कर ही दम लिया। उनकी कार्यशैली पर नजर रखने वाले दावा करते हैं कि अमन को घेर पाना मुश्किल ही नहीं, नामुकिन है।
कॉल रिकॉर्डिंग, जायज-नाजायज?
टेलीफोन पर लोगों से की जा रही बातचीत रिकॉर्ड करना जायज है या नहीं यह कहना अब कुछ मुश्किल हो चला है। एक वक्त था जब लोग अपनी कही बातों के साथ खड़े रहते थे, लेकिन अब खड़े-खड़े मुकर जाते हैं। बिलासपुर हाईकोर्ट में एक बड़े सरकारी वकील ने अभी सरगुजा से आने वाले छत्तीसगढ़ के एक प्रमुख पत्रकार के खिलाफ पुलिस में शिकायत की कि उन्होंने अनिल टुटेजा की जमानत के बारे में पूछताछ करते हुए उन्हें डांटा, और उन्हें धमकाया भी। उन्हें यह बात बुरी लगी है, और इस पर पुलिस कार्रवाई करे। पुलिस पहली नजर में हैरान-परेशान हुई कि किसी को कोई बात बुरी लगी हो तो उसमें पुलिस क्या करे? लेकिन चूंकि बात प्रदेश के एक सबसे बड़े सरकारी वकील की थी, इसलिए पुलिस ने शिकायत में दिए गए फोन नंबर पर फोन करके पत्रकार को चमकाना शुरू किया। लेकिन थाने वाले को अंदाज नहीं था कि सामने ऐसा पत्रकार है जिसकी आए दिन मुख्यमंत्री और मंत्रियों से बात-मुलाकात होती रहती है, और जो कानून की थोड़ी सी समझ भी रखता है। उसने थाने को सलाह दी कि उसे औपचारिक नोटिस भेजा जाए तो वह पूछताछ के लिए पेश होगा। अब बुरे लगने पर तो कोई जुर्म बनता नहीं है, धारा लगती नहीं है, वकील का बयान पुलिस ने लिया नहीं है, ऐसे में नोटिस भेजे तो क्या भेजे?
कहा जा रहा है कि इस पत्रकार ने इस बातचीत के टेलीफोन कॉल को रिकॉर्ड कर लिया था, और पूरी बातचीत में वकील साहब जवाब दे रहे थे, उन्हें कुछ बुरा लगते नहीं दिख रहा था। लेकिन अगर बातचीत रिकॉर्ड नहीं होती तो अमूमन लोग यह मान लेते कि पत्रकार था तो धमकाया ही होगा, और वकील है तो शिकायत सही ही होगी।
अब इस केस को देखें तो लगता है कि कॉल रिकॉर्ड करना जायज है क्योंकि कब कोई किसी कॉल को धमकाने वाला कहने लगे, इसका कोई ठिकाना तो है नहीं। अभी-अभी एक दूसरे मामले में रायपुर की एक सामाजिक कार्यकर्ता महिला ने पुलिस में रिपोर्ट की है कि किस तरह उद्योग विभाग का एक अधिकारी उससे फोन पर नशे में ऊलजलूल बातें कर रहा था, और बात पूरी होने के बाद उस अधिकारी के आसपास के लोग किस तरह शराब पीते हुए आपस में उस महिला के बारे में गंदी और अश्लील बातें कर रहे थे। अब इसकी भी अगर रिकॉर्डिंग नहीं होती, तो यह शिकायत कैसे हो पाती? इसलिए आत्मरक्षा में ऐसी रिकॉर्डिंग अब नाजायज नहीं कही जा सकती।
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जम्मू-कश्मीर के छोटे से जिले लेह के पत्रकारों ने आरोप लगाया है कि भाजपा नेताओं ने लोकसभा चुनाव में अपने पक्ष में माहौल बनाने के लिए पैसा देने की कोशिश की। चुनाव आयोग इसकी पड़ताल कर रहा है। राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव के वक्त पत्रकारों को पैसे देने का चलन-सा है। छत्तीसगढ़ में भी 2013 के विधानसभा में कांग्रेस की एक सूची वायरल हुई थी, जिसमें यह उल्लेख था कि किस पत्रकारों को कितने पैसे दिए गए। जिन पत्रकारों ने पैसे लिए थे, उन्होंने चुपचाप रख लिए, लेकिन सूची में कई नाम ऐसे थे जिन्होंने पैसे नहीं लिए पर उनके नाम के आगे राशि का जिक्र था। ऐसे पत्रकारों ने पार्टी के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष डॉ. चरणदास महंत के समक्ष कड़ी आपत्ति जताई थी, तब मीडिया विभाग संभाल रहे रमेश वल्र्यानी को काफी सफाई देनी पड़ी।
लेन-देन की रिकॉर्डिंग मौजूद है
इस बार के विधानसभा चुनाव में तो बहुत कुछ हुआ। एक राजनीतिक दल ने तो एक मीडिया कंपनी को कुछ पत्रकारों को पैसे देने का जिम्मा सौंपा था। कंपनी के लोग काफी होशियार निकले, उन्होंने चुपचाप रिकॉर्डिंग भी करवा रखी है। ताकि किसी तरह का कम-ज्यादा का आरोप-प्रत्यारोप होने पर सबूत उपलब्ध रहे। लोकसभा चुनाव में प्रदेश भाजपा ने विज्ञापन और मीडिया के लोगों को किसी तरह का व्यवहार देने से खुद को अलग रखा। सुनते हंै कि विधानसभा चुनाव में हार के बाद प्रदेश में इन सब चीजों का हिसाब-किताब रखने वालों पर उंगलियां उठ रही हैं। चर्चा तो यह भी है कि विधानसभा चुनाव में करीब साढ़े 8 करोड़ रूपए बांटे गए थे। यह सब विज्ञापन से अलग था। विरोधी नेता आपसी चर्चा में यह कह रहे हैं कि इसमें काफी हेर-फेर हुई है। और जिम्मेदार लोगों ने पैसे दबा दिए। कई पत्रकारों ने पैसे लेने से मना भी किया, लेकिन छोटे से जिले लेह के पत्रकारों जैसा हौसला नहीं दिखा पाए।
सीएम के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी पर कांग्रेस ने भाजपा विधायक शिवरतन शर्मा को बैन कर दिया है। पार्टी नेता शिवरतन शर्मा के साथ किसी भी टीवी डिबेट में हिस्सा नहीं लेंगे। पिछले कुछ समय से शिवरतन शर्मा, भूपेश सरकार के खिलाफ मुखर हैं। वैसे तो वे भाजपा की गुटीय राजनीति में रमनविरोधी खेमे माने जाते थे, लेकिन सरकार ने जैसे ही रमन-परिवार पर निगाह तिरछी की, तो बचाव में सबसे पहले शिवरतन शर्मा ही आगे आए। वे अब रमन के भरोसेमंद माने जाने लगे हैं।
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि पार्टी ने वर्ष-2013 के विस चुनाव में उन्हें टिकट नहीं देने का फैसला किया था, तब बृजमोहन अग्रवाल के अडऩे की वजह से उन्हें टिकट मिल पाई और चुनाव भी जीत गए। इस बार के विधानसभा चुनाव में भाग्य ने उनका साथ दिया और त्रिकोणीय संघर्ष में फिर बाजी मार गए। इन सफलताओं के बावजूद पार्टी के भीतर उनकी छवि कोई अच्छी नहीं रही है। उनका परिवार चावल कारोबार से जुड़ा है। कुछ साल पहले बलौदाबाजार में चावल-धान घोटाला हुआ था, तो शिवरतन शर्मा निशाने पर रहे।
भाजपा सरकार में उनके परिवार ने काफी आर्थिक तरक्की की। नागरिक आपूर्ति निगम में परिवहन के ठेके में पूर्व विधायक गुरूमुख सिंह होरा परिवार का बहुत लंबे समय से एकाधिकार रहा है, लेकिन शिवरतन के परिवार ने होरा का वर्चस्व तोड़ दिया। भाटापारा में शिवरतन परिवार का डीपीएस स्कूल भी है। वे भाटापारा-बलौदाबाजार जिले में एक बड़ी आर्थिक ताकत बन चुके हैं।
सुनते हैं कि रमन सरकार में मंत्रिमंडल में उन्हें जगह दिलाने के लिए सरोज पाण्डेय ने काफी मेहनत की थी। तब एक प्रमुख नेता ने निजी चर्चाओं में यह कहकर खारिज किया था कि शिवरतन को मंत्रिमंडल में शामिल करने से अच्छा संदेश नहीं जाएगा और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल सकता है। अब जब शिवरतन शर्मा आक्रामक दिख रहे हैं, तो इसकी प्रतिक्रिया भी हो सकती है। फिलहाल तो उनके खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी पर पुलिस में शिकायत दर्ज कराई जा रही है।
बहिष्कार के मुकाबले बहिष्कार
भारतीय जनता पार्टी ने कुछ समय पहले जब कांगे्रस के एक प्रवक्ता विकास तिवारी का टीवी चैनलों पर बहिष्कार घोषित किया, तो कांगे्रस प्रवक्ताओं की लिस्ट में मिलीजुली प्रतिक्रिया रही। एक ही तरह के काम करने वाले लोगों के बीच जाहिर है कि थोड़ी सी खींचतान रहती ही है, और हर टीवी डिबेट के बाद जब दोनों-तीनों पार्टियों के लोग चाय पर गपियाते हैं, तो अपनी-अपनी पार्टी के दूसरों की कमजोरियां भी बांटी जाती हैं। ऐसे में विकास तिवारी का बहिष्कार उन पर भारी पड़ रहा था।
अब जब शिवरतन शर्मा के एक बयान को लेकर कांगे्रस ने पहले जब केवल बयान जारी किया तो विकास तिवारी बेचैन थे। उनकी बेचैनी को देखते हुए पार्टी ने फिर शिवरतन शर्मा का बहिष्कार किया, तो कलेजे में कुछ ठंडक पड़ी।
प्रवक्ताओं की जात क्या है?
एक दिलचस्प बात यह है कि छत्तीसगढ़ में कांगे्रस और भाजपा जैसी दोनों बड़ी पार्टियों के प्रवक्ताओं को टीवी पर देखें, तो दिखता है कि ब्राम्हण या सवर्ण हावी हैं। कांगे्रस की लिस्ट देखें तो राजेन्द्र तिवारी, शैलेष नितिन त्रिवेदी, आरपी सिंह, किरणमयी नायक, विकास तिवारी, रमेश वल्र्यानी जैसे लोग ही टीवी के परदे पर दिखते हैं। दूसरी तरफ भाजपा में सच्चिदानंद उपासने, श्रीचंद सुंदरानी, केदार गुप्ता, संजय श्रीवास्तव, के चेहरे ही टीवी पर दिखते हैं।
कहने के लिए इन पार्टियों की प्रवक्ता-सूची में मुस्लिम, ईसाई, दलित, आदिवासी हो सकते हैं, लेकिन अमूमन वे टीवी पर दिखते नहीं हैं। अब अल्पसंख्यकों और सबसे दबे-कुचले तबकों की जगह पार्टी की ओर से बोलने में ही इतनी कमजोर रखी गई है, तो बहस में इन तबकों के तजुर्बों की भला क्या जगह होती होगी? लेकिन राजनीतिक दलों के लोगों अखबारों के संपादकीय विभाग या न्यूज रूम को भी गिना सकते हैं कि वहां पर भी तो महज ब्राम्हणों का बोलबाला है। मीडिया मालिक अधिकतर मारवाड़ी, और पत्रकार अधिकतर ब्राम्हण!
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लखनऊ के संजय गांधी पीजी अस्पताल में कृषि मंत्री रविन्द्र चौबे का इलाज चल रहा है। यूपी के इस सबसे बड़े अस्पताल का नामकरण प्रदेश सरकार की पहल पर संजय गांधी के नाम पर किया गया था और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इसका उद्घाटन किया। मगर, अस्पताल का सबसे ज्यादा काम मोतीलाल वोरा के गवर्नर रहते हुआ था। वे इस अस्पताल की गवर्निंग काउंसिल के चेयरमैन रहे हैं। पिछले दिनों वे रविन्द्र चौबे को देखने अस्पताल गए तो वहां उन्होंने कांग्रेस नेताओं को बताया कि यहां उन्होंने क्या-क्या काम करवाए हैं।
अस्पताल के चिकित्सक भी उनके योगदान को नहीं भूले हैं। इससे परे वोराजी ने कांग्रेस नेताओं को एक और बात बताई, जो कि कईयों को नहीं मालूम था। वोराजी दुर्ग शहर से आधा दर्जन बार विधायक रहे हैं। जब पहली बार वे विधायक बने तो रविन्द्र चौबे के पिता स्व. देवीप्रसाद चौबे उनके साथ अविभाजित मप्र में विधानसभा के सदस्य थे। बाद में वोराजी, रविन्द्र चौबे की माता कुमारी बाई चौबे के साथ विधानसभा के सदस्य रहे। इसके बाद रविन्द्र चौबे के बड़े भाई प्रदीप चौबे, वोराजी के साथ विधानसभा के सदस्य रहे। बाद में रविन्द्र चौबे, वोराजी के साथ विधायक बने। यानी वोराजी, चौबे परिवार के राजनीति में सक्रिय सभी सदस्यों के साथ विधानसभा में रहे हैं। ये अलग बात है कि पारिवारिक घनिष्ठता के बाद भी चौबे बंधु, कांग्रेस के वोरा विरोधी खेमे से जुड़े रहे हैं। हालांकि उन्होंने कभी भी किसी भी फोरम में वोराजी का विरोध नहीं किया और उनका हमेशा सम्मान ही करते हैं।
इन दो नेताओं से उम्मीद...
केन्द्र में एनडीए की सरकार बनी तो छत्तीसगढ़ के भाजपा प्रभारी रहे जगत प्रकाश नड्डा और धर्मेन्द्र प्रधान पॉवरफुल रहेंगे। दोनों ही राज्यसभा सदस्य हैं और लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ रहे हैं। यही वजह है कि प्रदेश के जो कोई भी भाजपा नेता यूपी और ओडिशा चुनाव प्रचार के लिए जा रहे हैं, वे नड्डा और धर्मेन्द्र प्रधान से जरूर मिल रहे हैं। दोनों ही यहां के छोटे-बड़े नेताओं से परिचित हैं।
सुनते हैं कि सरकार जाने के बाद बड़े भाजपा नेता काम धंधे की तलाश में भी हैं। कई ने पेट्रोल पंप के लिए धर्मेन्द्र प्रधान से जुगाड़ भी लगाया था, लेकिन ऑनलाइन लॉटरी सिस्टम से आबंटन होने के कारण वे मदद नहीं कर पाए। एनडीए की सरकार बनने पर दोनों का फिर से मंत्री बनना तय है। ऐसे में यहां के नेताओं को उम्मीद है कि दोनों ही कारोबार बढ़ाने में मदद करेंगे। ([email protected])
सत्ता के भ्रष्टाचार को देखें तो वह धर्म और जाति से परे का दिखता है। भ्रष्ट लोगों में भला किस जाति के लोग नहीं दिखते! जिन दलित-आदिवासी अफसरों के भ्रष्टाचार की कहानियां सामने आती हैं, उन्हें सुनकर ऊंची कही जाने वाली जातियों के लोगों के मन में हिकारत जागती है कि जिस जात का है उसकी वजह से हजार-पांच सौ रूपए भी रिश्वत ले लेता है। अपने को ऊंचा मानने वाली जाति का यह अहंकार रहता है कि वह कम रिश्वत लेने वालों को कम सामाजिक समझ रखने वाले मूर्ख भी मान लेता है। छत्तीसगढ़ में पिछले दिनों में जैसे-जैसे भ्रष्टाचार सामने आए हैं, उनके पीछे के नेता और अफसर सभी जातियों के हैं, और उससे यह जाहिर होता है कि खानपान चाहे अलग हो, धार्मिक-सामाजिक रीति-रिवाज चाहे अलग हो, बोली अलग हो, लेकिन रूपए को लेकर नीयत कमोबेश एक सरीखी रहती है, और उसमें कोई जाति-धर्म आड़े नहीं आते। इससे लगता है कि रूपए सबसे अधिक धर्मनिरपेक्ष और जातिविहीन होते हैं, जिनसे किसी को परहेज नहीं होता। अब यहां पर एक-एक नेता-अफसर की जात गिनाकर, धर्म गिनाकर भ्रष्टाचार गिनाना जरूरी नहीं है क्योंकि खबरों को देखें तो यह समझ आ जाएगा कि कौन-कौन से ईश्वर, किस-किस जाति के भगवान अपने किन-किन भ्रष्ट लोगों को देखकर खुश हो रहे होंगे। यह बात तो जाहिर है ही कि ईश्वर को सबसे अधिक चढ़ावा सबसे अधिक भ्रष्ट से ही मिलता है जिसे अपने पापों का प्रायश्चित भी करना होता है, और आगे के लिए अधिक कमाई का आशीर्वाद भी लगता है। ऐसे में हर देश-प्रदेश से आए हुए, हर जाति-धर्म के अफसरों के बीच यह एक अनोखी एकता है जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत को एक बनाती है!
फसल बीमा घोटाले को लेकर जिस तरह पिछले मुख्य सचिव अजय सिंह के खिलाफ एक जांच दर्ज करने की तैयारी चल रही है, उससे छत्तीसगढ़ के सहमे हुए अफसरों की रीढ़ की हड्डी में एक बार और सिहरन दौड़ गई है। दरअसल राज्य बनने के बाद से अब तक के इतने बरसों में किसी ने यह सोचा नहीं था कि सरकारी कामकाज को लेकर कोई सरकार इतने सारे अफसरों के खिलाफ इतने आक्रामक तरीके से जांच और मुकदमे शुरू कर देगी। लेकिन सरकार के तेवर वैसे ही आक्रामक बने हुए हैं जैसे पिछले पन्द्रह बरस के विपक्ष में थे। और दूसरी तरफ पन्द्रह बरस की सरकार के अफसरों का हाल यह था कि उनको यह लगना बंद हो गया था कि कभी कोई और सरकार भी आ सकती है।
मंत्रालय में एक आला अफसर का कहना है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई की यही रफ्तार रही, तो पांच बरस का कार्यकाल पूरा होने तक आल इंडिया सर्विस छत्तीसगढ़ में दर्जन भर अफसर खो बैठेगी, नीचे के कई अफसरों को प्रमोशन का मौका मिलेगा, और राज्य को केन्द्र से मांग करनी पड़ेगी कि और अफसर दिए जाएं। दूसरी तरफ राज्य में केन्द्रीय सेवा के अफसरों के दबदबे के खिलाफ कुछ ऐसे वरिष्ठ आईएएस हैं जो मानते हैं कि राज्य को राज्य सेवा के अधिकारियों को ही बढ़ावा देना चाहिए, और अधिक से अधिक जिम्मा उनको देना चाहिए। कुल मिलाकर राज्य बनने के बाद से पहली बार आला अफसरों में मुख्यमंत्री के तेवरों को लेकर, और अपने भविष्य को लेकर इतना गहरा विचार-विमर्श चल रहा है। फिर आपस में इस बात पर शर्त भी लग रही है कि जिन अफसरों को जेल जाने के आसार हैं, वे कब तक जेल चले जाएंगे, या नहीं जाएंगे? आरोपों से घिरे हुए एक अफसर के बारे में कुछ समय पहले तक ऐसी चर्चा थी कि जिस वजह से अजीत जोगी को कांग्रेस के भीतर बार-बार माफी मिल जाती थी, उसी वजह से इस अफसर को भी बख्श दिया जाएगा। लेकिन फिर ईओडब्ल्यू में जब जुर्म दर्ज हो गया, तो वह चर्चा अपने आप खारिज हो गई, और उसके साथ ही यह सवाल भी उठ खड़ा हुआ कि ईश्वर इस बार कांग्रेस में माफी के लिए जोगी का साथ देगा, या नहीं?
बृजमोहन अग्रवाल लखनऊ में केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के चुनाव प्रचार की कमान संभाल रहे हैं। चुनावी सभा में राजनाथ सिंह ने बृजमोहन की कार्यशैली की जमकर प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि बृजमोहन जबसे चुनाव लड़ रहे हैं, उन्हें कभी हार का सामना नहीं करना पड़ा। छत्तीसगढ़ में सरकार नहीं बन पाई, लेकिन एक बात तय थी कि बृजमोहन अग्रवाल अच्छे वोटों से जीतेंगे। राजनाथ ने आगे कहा कि बृजमोहन पार्टी के प्रति निष्ठावान हैं और यही वजह है कि वे यहां पार्टी के प्रचार के लिए आए हैं। इसके बाद सभा में मौजूद लोगों ने जमकर तालियां बजाईं।
बृजमोहन को चुनाव प्रबंधन में माहिर माना जाता है। छत्तीसगढ़ में पार्टी की सरकार रहते कठिन उपचुनावों में उन्हें चुनाव संचालन की जिम्मेदारी दी गई थी और उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में पार्टी उम्मीदवार को जीत दिलाई। प्रदेश से बाहर भी दिग्गज नेता चुनाव प्रचार की कमान उन्हें सौंपते रहे हैं। उन्होंने प्रतिष्ठापूर्ण छिंदवाड़ा लोकसभा उपचुनाव में सुंदरलाल पटवा के चुनाव प्रचार की कमान संभाली थी। उन्हें महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने भी अपने चुनाव में प्रचार के लिए बुलाया था। ये अलग बात है कि इतनी प्रतिभा होते हुए भी प्रदेश भाजपा की राजनीति में संगठन में हावी नेता उन्हें हाशिए पर ढकेलने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं।
मौसम मंत्री भी देखने आए
कृषि मंत्री रविन्द्र चौबे का लखनऊ के अस्पताल में इलाज चल रहा है। उन्हें देखने के लिए सीएम भूपेश बघेल के साथ-साथ सरकार के कई मंत्री पहुंचे। न सिर्फ राज्य के मंत्री बल्कि बाहर के भी अलग-अलग पार्टियों के कई नेता भी उनका कुशलक्षेम पूछने अस्पताल गए। मेल-मुलाकात करने वालों में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और विधि मंत्री बृजेश पाठक भी थे।
बृजेश पाठक को लेकर यहां के नेताओं में उत्सुकता ज्यादा रही। उन्हें उत्तरप्रदेश का मौसम विज्ञानी माना जाता है। यानी बृजेश पाठक जिसकी भी सरकार रही, उसके साथ रहे और उन्हें उस पार्टी में अहम जिम्मेदारी भी मिली। पहले वे बसपा में थे और वे बसपा सरकार में मंत्री रहे। उससे पहले सपा सरकार में मंत्री रहे। बाद में हवा का रूख भांपकर भाजपा में आ गए और चुनाव जीतकर मंत्री का दायित्व संभाल रहे हैं। प्रदेश के नेता उनसे दल बदल के बावजूद प्रभावशाली रहने का गुर जानने की कोशिश करते रहे।
हिंदुस्तान में लोगों को जितनी पुरानी याद है, उसमें अफवाहें फैलाने के लिए बीबीसी का नाम सबसे अधिक लिया जाता था क्योंकि रेडियो बीबीसी को सबसे भरोसेमंद माना जाता था। हिंदुस्तान में हाल के बरसों तक रेडियो पर सरकार का एकाधिकार था, और वैसे में भरोसेमंद खबरों के लिए लोग बीबीसी सुना करते थे। आज भी जब दर्जनों रेडियो-टीवी चैनल हो गए हैं, हजारों प्रमुख समाचार वेबसाईटें हो गई हैं, तब भी बीबीसी का नाम अफवाह फैलाने के लिए दिलचस्प तरीके से लिया जा रहा है।
अभी वॉट्सऐप पर एक संदेश आया जिस पर बीबीसी का एक वेबसाईट लिंक भी दिया हुआ था, और नीचे लिखा गया था कि सीआईए का एक सर्वे बताता है कि भाजपा सीटें खोने जा रही हैं, और 2019 में सरकार नहीं बना सकेगी। इसमें एनडीए और यूपीए की सीटों के अलग-अलग आंकड़ों सहित तमाम पार्टियों के अंदाज भी लिखे गए हैं, और इस पोस्ट में ऊपर और नीचे दोनों तरफ बीबीसी का एक सच्चा लिंक भी पोस्ट किया गया है।
जब इस लिंक पर जाएं तो बीबीसी का पेज खुलता भी है लेकिन जैसा कि किसी भी वेबसाईट के साथ होता है, उस पेज पर किसी खबर को ढूंढना उतना आसान नहीं होता। ऐसे में पहली नजर में आम लोग यह मान लेते हैं कि वेबसाईट तो सही खुल रही है, और जानकारी भी सही ही होगी। लेकिन उस वेबसाईट पर ऐसी कोई जानकारी नहीं है जो कि इस वॉट्सऐप मैसेज में इस लिंक के साथ लिखी गई है। तकरीबन तमाम लोग बिना लिंक खोले भी इस बात पर अपनी पसंद-नापसंद के मुताबिक भरोसा करेंगे, या नहीं करेंगे। जो गिनेचुने लोग लिंक खोलेंगे, वे भी लिंक को सही पाएंगे। आजादी को पौन सदी हो रही है, लेकिन इस देश में अफवाह और झूठ फैलाने के लिए बीबीसी का लेबल आज भी पहली पसंद बना हुआ है।
नेता से जनता ने पूछा
नेता - हाँ. जी
जनता - क्या आप देश को लूट खाओगे ?
नेता - बिल्कुल नहीं.
जनता - हमारे लिए काम करोगे ?
नेता - हाँ. बहुत.
जनता - महगांई बढ़ाओगे ?
नेता - इसके बारे में तो सोचो भी मत
जनता - आप हमें जॉब दिलाने में मदद करोगे ?
नेता - हाँ. बिल्कुल करेंगे.
जनता - क्या आप देश में घोटाला करोगे ?
नेता - पागल हो गए हो क्या बिलकुल नहीं.
जनता - क्या हम आप पर भरोसा कर सकते हैं ?
नेता - हाँ
जनता - नेताजी ...
चुनाव जीतकर नेताजी वापस आये
अब आप, नीचे से ऊपर पढ़ो
समुद्र सिंह के यहां छापेमारी से विशेषकर आबकारी अफसर-कर्मियों में खुशी की लहर है। समुद्र सिंह रिटायर होने के बाद 9 साल तक संविदा पर रहे। रमन सरकार में उनकी हैसियत विभागीय सचिव से कहीं ज्यादा रही है। वे अमर अग्रवाल के बेहद करीबी रहे हैं। समुद्र सिंह को फंड जुटाने में भी माहिर माना जाता रहा है। यही वजह है कि हर कोई उनके आगे नतमस्तक रहा।
सुनते हैं कि समुद्र सिंह के दबाव के चलते ही विभाग में एडिशनल कमिश्नर का पद स्वीकृत नहीं हो पाया था और कई अफसरों का प्रमोशन भी रूका था। अब जब उनके यहां छापेमारी हो रही है, तो उनसे प्रताडि़त अफसर काफी खुश हैं। चर्चा तो यह भी है कि विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा के कई बड़े नेताओं को उनकी वजह से परेशानी का सामना करना पड़ा था।
किस प्रत्याशी के यहां पेटी भेजना है, समुद्र सिंह ने रमन सरकार के रणनीतिकारों के साथ बैठक कर तय की थी। हाल यह रहा कि सत्तारूढ़ पार्टी के ही विरोधी खेमे के कई नेताओं को मतदाताओं को लुभाने के लिए अन्य स्त्रोतों से शराब का इंतजाम करना पड़ा। ईओडब्ल्यू की टीम ने समुद्र सिंह से जुड़ी फाइलें खंगालनी शुरू की है, तो देर सबेर अमर के लिए भी मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। अब एक दिक्कत यह भी है कि समुद्र सिंह के सबसे करीबी रहे एक अफसर जो कि पिछली सरकार में एक बड़ी कमाऊ जगह पर जमे रहे, और जिनका दावा सत्ता से एक रिश्तेदारी का था, वे आज एक बड़े ताकतवर मंत्री के ओएसडी बने बैठे हैं। उस जगह पर रहकर वे एसीबी के छोटे अफसरों को तो प्रभावित करने की हालत में हैं ही। यह भी हैरानी की बात है कि पिछली सरकार के सबसे चहेते और सबसे भ्रष्ट अफसरों में से कुछ किस तरह, कितनी आसानी से नई सरकार में कमाऊ जगहों पर टिके हुए हैं, या एक कमाऊ जगह से दूसरी कमाऊ जगह पर चले गए हैं।
पूर्व कलेक्टर ओपी चौधरी दंतेवाड़ा में जमीन की अदला-बदली के पुराने प्रकरण में फंस गए हैं। प्रकरण की जांच पर ऐसा माना जा रहा था कि सुप्रीम कोर्ट से रोक लगी है। लेकिन अभी सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में लगाई गई एक विशेष याचिका पर अपने पिछले आदेश पर यह स्पष्टीकरण दिया है कि उसने जांच पर कभी रोक नहीं लगाई थी। प्रकरण कुछ इस तरह का है कि चौधरी ने दंतेवाड़ा कलेक्टर रहते कलेक्टोरेट के समीप करीब साढ़े तीन एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था। इसके एवज में भू-स्वामियों को बाजार के समीप जमीन का आबंटन कर दिया गया। अदला-बदली के तहत सौंपी गई जमीन पर दंतेवाड़ा के व्यापारियों के लिए कॉम्पलेक्स का निर्माण प्रस्तावित था। इसकी शिकायत पर स्थानीय लोगों ने हाईकोर्ट में याचिका लगाई। जिस पर हाईकोर्ट ने भ्रष्टाचार की आशंका जताते संबंधित अफसरों के खिलाफ जांच के आदेश जारी किए थे। कोर्ट का फैसला आता तब तक कॉम्पलेक्स का निर्माण हो चुका था और कई व्यापारियों ने कॉम्पलेक्स में दुकानें खरीदी थीं। बाद में कुछ व्यापारी सुप्रीम कोर्ट चले गए और सुप्रीम कोर्ट ने जो आदेश 20 फरवरी 2017 को दिया था, उसे ऐसा मान लिया गया था कि मानो जांच पर सुप्रीम कोर्ट से रोक लग गई। दूसरी तरफ रमन सरकार के इस लाड़ले कलेक्टर को बचाने की कोशिश भी हुई। जांच के लिए पहले रिटायर्ड जज (अब लोकायुक्त) जस्टिस टी पी शर्मा की अध्यक्षता में एक सदस्यीय जांच कमेटी बनाई थी। कमेटी अपना प्रतिवेदन भी नहीं दे पाई थी कि सुप्रीम कोर्ट से रोक का हल्ला हो गया। नौकरी छोड़कर राजनीति में आ चुके ओपी चौधरी की आगे की राह आसान नहीं है क्योंकि सरकार बदल चुकी है। उनके खिलाफ कई और प्रकरण सामने आ रहे हैं। अब जब यह साफ हो गया है कि सुप्रीम कोर्ट से जांच पर रोक कभी लगी ही नहीं थी, तो उनकी मुश्किलें बढ़ सकती है।
निलंबित डीजी मुकेश गुप्ता के लिए गुरुवार का दिन अच्छा नहीं रहा। जिस दफ्तर के कभी मुखिया थे वहां आरोपी की हैसियत से पूछताछ के लिए हाजिर होना पड़ा। गुप्ता रमन सरकार में बेहद ताकतवर रहे, लेकिन सरकार बदलते ही उनके दुर्दिन शुरू हो गए। उनके खिलाफ प्रकरणों की जांच वे ही अफसर कर रहे हैं जो कि उनके करीबी थे। उन्हें पूछताछ के लिए टीआई स्तर के अफसर अलबर्ट कुजूर के सामने हाजिर होना पड़ा।
पूछताछ के दौरान ईओडब्ल्यू के एसपी इंदिरा कल्याण एलेसेला की मौजूदगी पर मुकेश गुप्ता आपत्ति की, लेकिन उनकी आपत्ति अमान्य कर दी गई। चर्चा है कि उन्होंने ज्यादातर सवालों का जवाब नहीं में दिया। उन्होंने अफसर को कोर्ट में घसीटने तक की बात कह दी। इन सबके बावजूद जांच अफसरों पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। पूरे बयान की वीडियो रिकॉर्डिंग भी हुई है। ताकि कोर्ट में यह बताया जा सके कि गुप्ता जांच में किस तरह सहयोग कर रहे हैं। खैर, जांच जैसे-जैसे बढ़ेगी, मुकेश गुप्ता की मुश्किलें बढ़ सकती हैं।
अब सरकार में बैठे कुछ लोगों ने यह नियम खंगालना शुरू किया है कि क्या निलंबित अफसर को सुरक्षा कर्मचारी, सरकारी गाड़ी, और पुलिस का झंडा इस्तेमाल करने की पात्रता है? लोकतंत्र में सरकार ही अगर किसी के खिलाफ हो जाए, तो उसके पास बचने की गुंजाइश कम ही बचती है। फिर भी मुकेश गुप्ता को ऐसा लड़ाकू अफसर माना जाता है जो एसपी रहते हुए भी डीजीपी से झगड़ा मोल ले चुके थे। अविभाजित मध्यप्रदेश में वे उज्जैन के एसपी थे, और वहां प्रवास पर आए डीजीपी के बेटे ने जब एक डीएसपी से बदतमीजी की, तो मुकेश गुप्ता ने एक जूनियर एसपी रहते हुए भी डीजीपी के बेटे को थप्पड़ मारी थी। और उसी का नतीजा था कि उनके खिलाफ जांच कर जो सिलसिला उसी वक्त शुरू हुआ, तो वह आज तक कभी खत्म हुआ ही नहीं। वे एसपी से बढ़ते-बढ़ते इस्पेशल डीजी हो गए, लेकिन पूरी सरकारी नौकरी में एक भी दिन बिना जांच के नहीं गुजरा। इसलिए वे कल जब ईओडब्ल्यू पहुंचे, तो मीडिया के सामने पुराने तेवरों से ही बात की।
भाजपा बड़े भरोसे में है...
प्रदेश में आखिरी चरण के मतदान के रूझानों से भाजपा के रणनीतिकार काफी खुश हैं। पार्टी नेताओं को उम्मीद है कि प्रदेश की 11 सीटों में से कम से कम 6 सीटों पर जीत हासिल होगी। यह सब तब हो रहा है जब पार्टी ने पिछले लोकसभा चुनावों की तुलना में काफी कम खर्च किया। कार्यकर्ताओं ने भी बहुत ज्यादा मेहनत नहीं की, बावजूद इसके मोदी फैक्टर के चलते विशेषकर शहरी इलाकों में भाजपा के पक्ष में एकतरफा माहौल रहा।
दो दिन पहले पार्टी के बड़े नेताओं ने मतदान के बाद नतीजों की संभावनाओं पर लंबी चर्चा की। बैठक में विधानसभा के पराजित प्रत्याशी भी थे। पराजित प्रत्याशियों का दर्द यह था कि विधानसभा चुनाव में जीत के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाए, पैसा पानी की तरह बहाया, फिर भी चुनाव हार गए। लोकसभा चुनाव में किसी तरह का प्रबंधन नहीं किया गया। ज्यादातर प्रत्याशियों को अपने हाल पर छोड़ दिया गया था। बावजूद इसके जीत के आसार दिख रहे हैं। पार्टी नेता इस बात को लेकर एकमत थे कि प्रबंधन के बूते पर चुनाव नहीं जीते जा सकते।
अच्छे दिन आ ही गए...
फेसबुक पर आम हिन्दुस्तानियों को गोरी चमड़ी की एक विदेशी महिला की तरफ से दोस्ती की गुजारिश आए, तो लोग आंखें बंद करके उसे मंजूर करते चलते हैं। इसके साथ-साथ उसकी पोस्ट की हुई एकाध फोटो पर दनादन लाईक भी करते चलते हैं। ऐसी ही एक तस्वीर एक फिरंगी नाम के साथ फेसबुक पर दिखी जिसने इस अखबारनवीस को फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट भेजी थी। उसने अपने आपको छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के दिशा कॉलेज में पढ़ा हुआ बताया है, कांग्रेस से जुड़ा हुआ बताया है, और एक छोटे से शहर, या कस्बे में रहना बताया है।
ऐसे तमाम फर्जी फेसबुक अकाऊंट की तरह इस पर भी महज एक फोटो पोस्ट है, और लोग कूद-कूदकर उसे लाईक कर रहे हैं, उस पर गिने-चुने दो-चार शब्दों वाली अंग्रेजी लिख रहे हैं। मजे की बात यह है कि पहली नजर में ही फर्जी दिखने वाले इस फेसबुक अकाऊंट के 487 दोस्त भी हैं, और जाहिर है कि ये सारे के सारे पुरूष ही हैं। हिन्दुस्तानी आदमियों के बीच विदेशी गोरी महिला बनकर उनको रूझाना, फंसाना सबसे ही आसान है। एक अच्छा चेहरा अगर दोस्ती की गुजारिश भेजे, तो हर किस्म के लोग मान बैठते हैं कि उनके अच्छे दिन आ ही गए हैं...।