राजपथ - जनपथ

छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : संचार की गांधीगिरी...
16-Mar-2021 5:42 PM
छत्तीसगढ़ की धड़कन और हलचल पर दैनिक कॉलम : राजपथ-जनपथ : संचार की गांधीगिरी...

संचार की गांधीगिरी...

यह किस्सा रायपुर के मोवा-कांपा एक प्रतिष्ठित निजी स्कूल का है। स्कूल प्रबंधन ने पहले 9वीं और 11वीं की ऑफलाइन परीक्षा कराने का निर्णय लिया था। मगर कोरोना के चलते विद्यार्थी इसके लिए तैयार नहीं हुए, वे ऑनलाइन परीक्षा लेने पर जोर दे रहे थे। विद्यार्थियों ने प्राचार्य से चर्चा करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने बात करने से मना कर दिया। इसके बाद सभी विद्यार्थियों ने एक राय होकर प्राचार्य को फोन करना शुरू किया। 

प्राचार्य और स्कूल स्टॉफ ने विद्यार्थियों का फोन उठाना भी बंद कर दिया। इसके बाद विद्यार्थियों ने रोज मेल भेजना शुरू कर दिया। सैकड़ों की संख्या में मेल भेजा जाने लगा। विद्यार्थियों की जिद थी कि ऑनलाइन परीक्षा हो, और उन्होंने लिखा भी कि ऑफलाइन परीक्षा नहीं देंगे। आखिरकार विद्यार्थियों की जिद के आगे प्रबंधन को झुकना पड़ा, और परीक्षा शुरू होने के चार दिन पहले ऑनलाइन परीक्षा लेने पर सहमति दे दी।

बस नाम ही काफी है!

कई ऐसे मौके आते हैं जब लोगों का नाम उनके पते से बड़ा हो जाता है। रायपुर के एक प्रमुख नेत्ररोग चिकित्सक डॉ. दिनेश मिश्रा लगातार अंधश्रद्धा निवारण में लगे रहते हैं, और इसके लिए छत्तीसगढ़ के बाहर भी दूसरे राज्यों में जाकर वहां लोगों का अंधविश्वास मिटाने का काम करते हैं। जाहिर है कि उनके पास देश भर से चि_ियां आती हैं, फोन आते हैं, लोग अपने सामाजिक बहिष्कार का दर्द बताते हैं, या अंधविश्वास के तहत किसी और किस्म की प्रताडऩा का रोना रोते हैं। अब उनके नाम पर आने वाली चि_ियों का हाल यह हो गया है कि सिर्फ नाम और शहर का नाम लिखा रहे, तो भी डाकिये चि_ी उनके पते पर पहुंचा देते हैं। और कई चि_ियां तो ऐसी पहुंचती हैं जिनमें सिर्फ उनका नाम और संस्था का नाम लिखा है, शहर का नाम भी नहीं लिखा है, दूसरे राज्य से पोस्ट की गई है, तो भी बिना शहर के नाम, बिना पिनकोड के चि_ी डॉ. दिनेश मिश्रा को पहुंच जाती है।

15 दिन से एक भी दिन कम नहीं

कोरोना वैक्सीन की दोनों डोज लगवाने के बाद भी जब जांजगीर कलेक्टर कोरोना संक्रमित हो गये। डब्ल्यूएचओ व स्वास्थ्य विभाग के विशेषज्ञों ने सफाई दी कि कोरोना से बचाव की एंटीबॉडी डेवलप होने में कम से कम 15 दिन लगते हैं। अब एक नया केस इसी तरह से सामने आया है, जिससे यह निष्कर्ष निकलता है कि 15 दिन यानि 15 दिन। उससे एक दिन भी कम नहीं। दरअसल, कोटा ब्लॉक में कार्यरत स्वास्थ्य विभाग की एक वारियर्स ने कोरोना के दोनों डोज लिये। दूसरा डोज उन्होंने 25 फरवरी को लिया, पहला डोज जाहिर है इससे 28 दिन पहले लिया। 12 मार्च को उनकी कोरोना जांच रिपोर्ट पॉजिटिव आ गई। यानि दूसरा डोज लेने के 15 दिन बाद। आरटीपीसीआर से संदेह दूर नहीं हुआ तो एंटिजन टेस्ट भी किया गया। रिपोर्ट नहीं बदली।

अब सवाल उठने लगा कि क्या 15 दिन बीत जाने के बाद भी कोरोना से उनका बचाव नहीं हो सका। इससे उन स्वास्थ्य कर्मचारियों को भी भय सताने लगा जिन्होंने दो डोज समय पर ले लिये। इस पर स्वास्थ्य अधिकारियों का कहना है कि दूसरे डोज के 12वें, 13वें दिन से ही इस केस में महसूस होने लगा था कि तबियत खराब चल रही है। यानि 15 दिन पूरे नहीं हुए थे। जांच रिपोर्ट की तारीख ही आगे की है। इसका मतलब यह है कि कोरोना की वैक्सीन काम करेगी पर 15 दिन बाद ही, उससे पहले बिल्कुल संभावना नहीं। 

कोरोना से सफाई का कोई लेना-देना नहीं

रेल यात्री न केवल बढ़े हुए किराये पर बल्कि साफ-सफाई को लेकर बुरा अनुभव हासिल कर रहे हैं। स्टेशन में ट्रेनों के रुकते ही पहले शौचालय और प्रवेश द्वार पर तैनात सफाई कर्मचारी काम पर लग जाते थे। पर अब ऐसा दिखाई नहीं देगा। किसी बोगी में कचरा पड़ा है तो वह आपकी यात्रा पूरी होने तक आपके साथ ही चलेगा। कोचों की धुलाई कई-कई दिन नहीं हो रही।

मालूम हुआ कि कोरोना संक्रमण के दौर में निजी सफाई कर्मचारियों को जो हटाया गया तो फिर दुबारा वापस नहीं रखा गया। बहाना ट्रेनों की संख्या घटने का बनाया गया था। कम्पनी वैसे भी मामूली वेतन दिया करती हैं, समय पर भी नहीं देती, जिसके चलते कई बार आंदोलन हुए।

अब इन कर्मचारियों को आत्मनिर्भर बना दिया गया है यानि ज्यादातर की सेवायें छीन ली गई। यात्रियों को भी आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया जा रहा है। अपनी बर्थ साफ रखें या फिर कचरा फैलाते हैं तो खुद ही सफाई भी करें। प्रधानमंत्री का जोर स्वच्छता पर है पर रेलवे का रोना यह है कि कोरोना के चलते आमदनी घट गई। बढ़े हुए किराये और रिकॉर्ड माल लदान से भी इसकी इतनी कमाई नहीं हो पा रही है कि सफाई व्यवस्था पहले की तरह फिर बहाल हो। कोरोना से बचाव के लिये स्वच्छता जरूरी है, पर वह प्लेटफॉर्म घुसने वालों का तापमान नापने तक ही सीमित है।

भागीरथी की जलेबी

छत्तीसगढ़ के एक प्रमुख साहित्यकार ने रायपुर की एक पुरानी विख्यात जलेबी-दूकान की यादें ताजा करते हुए आज दोपहर फेसबुक पर लिखा है- भागीरथी की जलेबी  रायपुर की एक पुरानी पहिचान-

रायपुर एक शहर है। अब दो हो गया। इसके भीतर एक और शहर आ गया -नवा रायपुर। पहले वाला पुराना हो गया।

‘भागीरथी की जलेबी’ पुराने शहर की एक पुरानी पहिचान है। इसके साथ मुझ जैसे पुराने किस्म के शौकी  लोगों की जान-पहिचान है। ये जान-पहिचान अब कोई 40-50 बरस पुरानी तो होने ही आयी। तब यह पुरानी दुकान देखने में भी पुरानी दिखती थी, और इसकी गद्दी पर बैठा हुआ भागीरथी भी अपनी पुरानी दुकान की तरह पुराना दिखता था।

उन दिनों हम जैसे चटोर किस्म के लोग रायपुर के अपने कार्यक्रम में ‘भागीरथी’ की जलेबी और दही को जोडक़र यहां आते थे। लेकिन इस बार कोई 40-50 बरस बाद इस दुकान पर आने का मौका मिला।

पुरानी दुकान बिल्कुल नई हो चुकी है, और आज के दिनों के साथ चल रही है। अब तो इसकी जलेबी की ऑनलाइन बुकिंग होने लगी है।और होम डिलीवरी सेवा भी शुरू हो गयी है। यह सब उसके साइनबोर्ड पर लिखा हुआ है। पुरानी दुकान को साइन बोर्ड की जरूरत नहीं थी। लेकिन अब, साइनबोर्ड नहीं होता तो मुझ जैसा पुराना आदमी दुकान को पहिचान भी नहीं पाता।

दुकान जरूर नई हो गयी है।लेकिन जलेबी उन्हीं पुराने दिनों की है। पुराने दिनों वाले अपने उसी स्वाद को सहेजे हुए।

अब भगीरथी की तीसरी पीढ़ी ने इस पुरानी दुकान को सम्हाल लिया है। सुबोध और सुबोध के बेटे ने। दुकान के साथ दुकान के पुराने दिनों को भी। सुबोध ने उन पुराने दिनों के साथ पुरानी जान-पहिचान वाले अपने एक पुराने ग्राहक को भी पहिचान लिया।

उसने मुझे पहले कभी नहीं देखा होगा। लेकिन पुरानी दुकान का पता ढूंढते हुए पहुंचने वाले एक ग्राहक को पहिचान लेने में उसे कोई दिक्कत नहीं हुयी। 

उस समय गरम गरम और रसभरी जलेबियां निकल रही थीं। अपने, उन्हीं दिनों के स्वाद के साथ। मुझे भी भरोसा हो गया कि यह, वही पुरानी दुकान है।

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