राजपथ - जनपथ
प्रायोगिक परीक्षाओं के बाद सन्नाटा
कोर्स पूरा हो न हो प्रायोगिक परीक्षाओं की रिपोर्ट तो अच्छी है। माध्यमिक शिक्षा मंडल के पास पहुंचे आंकड़ों के मुताबिक 80 फीसदी स्कूलों में ऑफलाइन मोड पर ली गई प्रायोगिक परीक्षायें पूरी हो गई है। कुछ ही स्कूल बच गये हैं। प्रायोगिक परीक्षायें कोरोना काल से पहले भी औपचारिक हुआ करती थीं। अब तो शिक्षकों ने और भी उदारता बरती। ये मार्कशीट में नंबर सुधारने के काम आयेंगे। स्कूलों को खोलने के निर्देश के बाद भी अधिकांश जगह छात्र सिर्फ प्रायोगिक परीक्षा देने पहुंचे। उसके बाद फिर से सन्नाटा पसरा हुआ है। छात्रों, पालकों की बस ये चिंता है कि ऑनलाइन पढ़ाई जो ठीक से हुई नहीं, उसके बावजूद उन्हें कक्षाओं में मौजूद रहकर ऑफलाइन परीक्षा दिलानी है। पता नहीं क्या रिजल्ट आये।
बड़ी के नाम पर बड़ा घोटाला?
स्कूल शिक्षा विभाग ने सोयाबीन बड़ी की खरीदी के नाम पर बड़ा घोटाला कर दिया। ऐसा आरोप विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष धरमलाल कौशिक ने लगाया। आरोप लगाते हुए उन्होंने यह चूक कर दी कि इसे प्राइवेट कम्पनी से की गई खरीदी बता दी। स्कूल शिक्षा मंत्री ने साफ किया कि किसी निजी कम्पनी से नहीं बल्कि बीज विकास निगम के माध्यम से खरीदी की गई है। दो सवाल रह गये, एक बीज निगम ने खरीदी किससे की, क्या वह प्राइवेट पार्टी थी। दूसरा, जब बाजार में 55-60 रुपये में बड़ी मिल रही है तो 105 रुपये किलो में किस आधार पर खरीदी की गई? जबाब आना बाकी है।
ब्याज के ही 5 हजार करोड़
छत्तीसगढ़ राज्य जब बना था तो इसका पहला बजट सिर्फ 6500 करोड़ रुपये का था और इसी के आसपास लगातार कई वर्षों तक यह चलता रहा। पहले तीन सालों में पेश किये गये बजट में दूसरे राज्यों के मुकाबले स्थापना व्यय कम करीब 34 प्रतिशत, होने को उपलब्धि के तौर पर गिना जाता था। छत्तीसगढ़ को वन, खनिज सम्पदायुक्त राज्य होने के कारण काफी धनी राज्य भी माना गया। बजट का दायरा भी एक लाख करोड़ को पार कर चुका है। पर आज स्थिति यह है कि राज्य सरकार पर 70 हजार करोड़ रुपये के कर्ज का बोझ है। इनमें से 42 हजार करोड़ पिछली सरकार का है तो बाकी कांग्रेस की दुबारा बनी सरकार का। इस राशि के ब्याज में ही 5000 करोड़ रुपये से ज्यादा जा रहे हैं जो दो तीन बड़े विभागों के कुल बजट के बराबर है। विपक्ष की यह चिंता जायज है कि ये कर्ज विकास के किसी काम नहीं लगाये गये, बल्कि लोगों को अनुदान, प्रोत्साहन, राहत बांटने में खर्च किये जा रहे हैं। क्या ग्रामीण अर्थव्यस्था में इस रकम से इतना सुधार हो पायेगा कि वे सरकार का राजस्व बढ़ाने और कर्ज चुकाने में मदद करे?
यह नाम भी घर की बच्ची का !
लोग अपनी गाडिय़ों पर कहीं धर्म का नाम लिखवा लेते हैं, तो कहीं जाति का। डॉक्टर और वकील, सीए और पत्रकार अपने पेशे के निशान गाडिय़ों पर चिपका लेते हैं ताकि उनका जितना असर होना है हो जाए। बहुत से लोग अपने बच्चों के नाम लिखवा लेते हैं जिससे बच्चों के प्रति उनके प्रेम के साथ-साथ उनका धर्म, और कभी-कभी उनकी जाति भी उजागर होती है। ऐसे में अभी एक गाड़ी छत्तीसगढ़ विधानसभा के पास सडक़ पर देखने मिली जो गैस सिलेंडर भरकर ले जा रही थी। गाड़ी का नंबर प्लेट राजस्थान का दिख रहा था, और पीछे तीन नाम लिखे हुए थे, भाटी, भेड़, और बबलु। अब इन नामों को देखकर हैरानी होती है कि क्या किसी बच्ची का नाम भेड़ है, या घर की भेड़ को भी बच्चों की तरह ऐसे पाला जा रहा है कि उसका नाम भी गाड़ी पर लिखवाया गया है!