राजपथ - जनपथ
जनसंपर्क की बदली हवा
सरकार बदलने के बाद जनसंपर्क विभाग के कामकाज में काफी बदलाव देखने को मिला है। आमतौर पर जनसंपर्क विभाग के सचिव-संचालक का पद काफी प्रतिष्ठा और चुनौतीपूर्ण माना जाता है। पिछली सरकार में तो इन पदों पर तैनात अफसरों पर राजनीतिक गतिविधियों में लिप्त रहने और विपक्षी नेताओं की सीडी बनवाने जैसे संगीन आरोप तक लगे थे। विभाग के कई अफसरों के खिलाफ जांच चल रही है। इन सबको देखकर सीएम भूपेश बघेल ने साफ-सुथरी छवि के अफसरों की पोस्टिंग की। अब डीडी सिंह को सरकार के प्रचार-प्रसार का जिम्मा दिया गया है।
डीडी सिंह प्रदेश के उन चुनिंदा अफसरों में से हैं, जो राज्य प्रशासनिक सेवा से भारतीय प्रशासनिक सेवा में आए और केन्द्र सरकार में संयुक्त सचिव पद के लिए सूचीबद्ध हुए हैं। उनकी साख काफी अच्छी है। उनके मातहत संचालक तारण प्रकाश सिन्हा को भी डीडी सिंह की तरह नियम-कायदे पसंद और लो-प्रोफाइल में रहकर काम करने वाला अफसर माना जाता है। छत्तीसगढ़ बनने के बाद यह पहला मौका है कि जनसंपर्क सचिव के पद पर राज्य का ही एक आदिवासी अफसर नियुक्त हुआ है। डीडी सिंह के पहले झारखंड के आदिवासी राजेश सुकुमार टोप्पो इस विभाग के विशेष सचिव और प्रभारी सचिव रहे, लेकिन उनके कार्यकाल का अंत बहुत ही खराब हुआ।
खास बात यह है कि डीडी सिंह और तारण सिन्हा, दोनों ही अफसर छत्तीसगढिय़ा हैं और उनकी अपनी नौकरी का ज्यादा हिस्सा छत्तीसगढ़ में ही गुजरा है। बरसों बाद ऐसा मौका आया है जब मीडिया पर सरकारी तंत्र का कोई दबाव नहीं दिख रहा है। न सिर्फ दोनों बल्कि विभाग के अन्य अफसर पर चुपचाप लो-प्रोफाइल में काम करते दिख रहे हैं। इसका नजारा गणतंत्र दिवस के संवाद दफ्तर के ध्वाजारोहण कार्यक्रम में उस वक्त देखने को मिला, जब संवाद के प्रमुख उमेश मिश्रा ने खुद ध्वजारोहण करने के बजाए सबसे पुरानी महिला सफाईकर्मी से ध्वजारोहण कराकर सामाजिक भागीदारी और बराबरी का संदेश देने की कोशिश की।
बीच में एक समय ऐसा भी आया था जब रमन सिंह के एक जनसंपर्क सचिव अपने और अपने पिता के प्रचार में लगे रहते थे, और मीडिया से विभाग के संबंध सबसे खराब स्तर पर पहुंच गए थे। बाद में जब इस सचिव को गंभीर शिकायतों के चलते जनसंपर्क से हटाया गया, तो साथ-साथ उसका मलाईदार विभाग आबकारी भी चले गया था।
कमाई का जरिया बढ़ा...
जिला स्तर पर सरकारी अफसरों की कमाई के कुछ बंधे-बंधाए जरिये होते हैं। कुछ विभाग ही कमाऊ होते हैं जो विभागीय अफसरों के लिए और उनके ऊपर के अफसरों के लिए नियमित कमाई जुटाते रहते हैं। अब छत्तीसगढ़ में ऐसी कमाई में एक बड़ा इजाफा रेत की खदानों को लेकर हुआ है। सरकार ने रेत खदानों नीलामी की, तो अधिकतर पुराने शराब ठेकेदारों ने अपने लोगों के नाम से लॉटरी डाली, और जगह-जगह उनको खदानें मिल गई हैं। एक वक्त रेत खदान चलाने वाले छोटे लोग रहते थे, लेकिन अब जब कलेक्ट्रेट में यह बात साफ हो गई है कि किन नामों के पीछे कौन से अरबपति भूतपूर्व दारू ठेकेदार हैं, तो रेत से भी अफसरों को दारू जैसी कमाई की उम्मीद बंध गई। खनिज विभाग के अफसर रेत खदानों के एग्रीमेंट के पहले अपना हिस्सा भी रखवा रहे हैं, और अपने से ऊपर वालों का भी। नतीजा यह है कि कारोबार शुरू होने के पहले बड़ा पूंजीनिवेश हुए जा रहा है। एक जिले में कलेक्टर ने इतना बड़ा मुंह फाड़ दिया है कि खदान पाने वाले ने काम छोड़ देना तय किया है। खनिज अफसर अधिक व्यवहारिक रहते हैं, इसलिए वे कमाई का अंदाज लगाकर अपना हिस्सा मांगते हैं। लेकिन बड़े अफसर तो बड़े अफसर रहते हैं। ऐसे एक कलेक्टर को मातहत लोगों ने जाकर कहा कि उनके करीबी, एक दूसरे जिले के कलेक्टर इससे आधा भी नहीं ले रहे हैं, उनसे एक बार समझ तो लीजिए।