राजपथ - जनपथ

छत्तीसगढ़ 11 वां राज्य ना हो जाए?
छत्तीसगढ़ में पूर्णकालिक डीजीपी की नियुक्ति की कवायद चल रही है। तीन माह पहले सरकार ने 92 बैच के अरुण देव गौतम को प्रभारी डीजीपी नियुक्त किया था। बीते तीन महीनों में उनका परफॉर्मेंस बेहतर, और विवादहीन रहा है। वे काम से काम रखने वाले वर्क ओरिएंटेड अफसरों में गिने जाते हैं। इस दौरान एसपी आईजी के तबादले भी हो गए। तीन दिन पहले छत्तीसगढ़ के लिए पूर्णकालिक डीजीपी, या यूं कहें कि गौतम को रेगूलर करने दिल्ली में यूपीएससी ने सलेक्शन कमेटी की बैठक कर ली।
मुख्य सचिव अमिताभ जैन भी शामिल हुए। कमेटी ने डीजीपी के लिए चार आईपीएस अधिकारियों का नाम यूपीएससी को भेजा गया है, इनमें पवनदेव, अरुणदेव गौतम, जीपी सिंह और हिमांशु गुप्ता का नाम शामिल है। गौतम के दूसरे क्रम में होने की वजह से यह बैठक, पैनल की औपचारिकता पूरी करनी पड़ रही है। पीएचक्यू से महानदी भवन के गलियारों में यह भी चर्चा है कि गौतम के रेगुलर होने में कोई अड़चन नहीं है।
डीजीपी चयन का मामला पिछले छह महीने से यूपीएससी में लटका हुआ था। इससे पहले एक बार डीपीसी हुई भी मगर जीपी सिंह की इंट्री के बाद यूपीएससी राज्य सरकार से कई क्वेरियां कर रहता है। इसके बाद ही अंतिम डीपीसी हुई। इसके बाद भी पीएचक्यू के ही अफसर कह रहे हैं कि देश के 10 अन्य राज्यों की तरह छत्तीसगढ़ में भी प्रभारी डीजीपी ही बनाए रखा जा सकता है। इन राज्यों में भाजपा शासित उत्तर प्रदेश भी शामिल हैं। वहां भी डीजीपी प्रशांत कुमार, प्रभारी ही हैं। तो उधर एक मात्र वामपंथ शासित केरल में भी पूर्णकालिक की तलाश जारी है। और विजयन सरकार केंद्र से यूपीएससी के चुने गए पैनल के तीन नामों से असंतुष्ट है ।
संभव है वह इनमें से किसी की नियुक्ति ही न करें। अपनी पसंद के डीजीपी नियुक्त करने पहले तीन अफसरों के रिटायर होने का इंतजार कर रही है । तब तक प्रभारी से काम चलाने तैयार है। छत्तीसगढ़ पुलिस के अफसर बताते हैं कि राज्यों में डीजीपी या मुख्य सचिवों को लेकर यह कवायद, मोदी 2.0 के अंतिम दो तीन वर्षों से देखने में आई है। इसमें दिल्ली की सीधी दखल होने लगी है। ऐसे में भाजपा शासित सरकारों के लिए शीर्षासन आवश्यक है। देखें आगे क्या होता है?
मजबूरी नहीं, शौक है चेतक!
इस तस्वीर में जो ‘चेतक’ खड़ा है, वो एक जमाने की शान होती थी। 80 और 90 के दशक में जब किसी घर के बाहर चेतक खड़ा होता था, तो उस परिवार की हैसियत ऊंची मानी जाती थी।
आज बाजार में सुपरबाइक्स और इलेक्ट्रिक स्कूटर्स की भरमार है, लेकिन कई लोगों का पुरानी गाडिय़ों से मोह नहीं छूटता। सहारा इंडिया के सुब्रत रॉय लोगों का धन लूटने के लिए बदनाम हुए, पर वे पुरानी बजाज स्कूटर को अपने घर कोने पर सजा कर रखते थे। इसी स्कूटर पर पत्नी के साथ घूम-घूम कर उन्होंने बिजनेस बढ़ाया था।
मजबूरी नहीं, शौक है- पीछे लिखा गया है। शायद मालिक सफाई दे रहा है कि पुरानी स्कूटर को देखकर उनकी हैसियत कम करके न आंकी जाए।
सुशासन के लिए वसूली !!
सुशासन तिहार चल रहा है। सीएम विष्णुदेव साय, और सरकार के मंत्री जिलों का दौरा कर रहे हैं, और जनसमस्याओं के निराकरण के लिए यथासंभव तुरंत कार्रवाई भी कर रहे हैं। बेमेतरा जिला सुर्खियों में रहा है। यहां समाधान शिविर में पीएम आवास के लिए वसूली की शिकायत मिलने पर रोजगार सहायक सहित तीन कर्मचारियों को बर्खास्त भी किया गया। अब शिक्षकों से वसूली की एक और शिकायत मिलने पर मिशन समन्वयक, समग्र शिक्षा को पद से हटा दिया गया है।
हुआ यूं कि समन्वयक जिले के शिक्षकों से सुशासन तिहार में कार्यालयीन व्यवस्था के लिए वसूली कर रहे थे। इसकी शिकायत जिला पंचायत सीईओ से हुई। मामले की जांच हुई, तो समन्वयक ने व्यवस्था के लिए राशि लेने की बात मान ली। इस पर तुरंत उन्हें हटाकर मूल पद बेमेतरा के बैजलपुर में व्याख्याता के पद पर भेज दिया गया है। अब सोशल मीडिया पर समन्वयक को निलंबित नहीं करने पर सवाल उठाए जा रहे हैं। यह भी चर्चा है कि जिले के प्रमुख शिक्षा अधिकारियों की सहमति से ही वसूली हो रही थी। ऐसे में अकेले स्कूल समन्वयक को बलि का बकरा बनाया गया है। चाहे कुछ भी हो मामले की काफी चर्चा हो रही है।
बस्तर में दफन के अधिकार की लड़ाई
छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में ईसाई धर्म अपनाने वाले आदिवासी समुदायों को अपने मृत परिजनों का दफन संस्कार करने में जिस प्रकार की सामाजिक, प्रशासनिक और कानूनी बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है, वह केवल एक धार्मिक विवाद नहीं, बल्कि संवैधानिक अधिकारों और मानवीय गरिमा की भी परीक्षा है। हाल ही में बस्तर के कई संगठनों ने एसपी से मिलकर स्थायी कब्रिस्तान की मांग की है। उन्होंने कहा कि विवाद के कारण उन्हें शवों को करकापाल में दफनाना पड़ रहा है। वहां 140 से अधिक शव पहले ही दफनाए जा चुके हैं।
मुद्दा बहुत जटिल है। कई पीडि़त परिवारों को न्याय के लिए हाईकोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक जाना पड़ा है। जनवरी 2025 में छिंदबाड़ा गांव में एक ईसाई पादरी के शव को गांव के कब्रिस्तान में दफनाने की अनुमति नहीं दी गई। बेटे रमेश बघेल को अपने पिता का अंतिम संस्कार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक लड़ाई लड़ी। सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की पीठ में भी मतभेद सामने आया। जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने निजी जमीन पर दफन की अनुमति दी, जबकि जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा ने इसे करकापाल स्थित कब्रिस्तान तक सीमित रखने कहा। इस बीच शव 15 दिनों तक मुर्दाघर में पड़ा रहा, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने दुखद कहा। बीते साह अप्रैल 2024 में छिंदबाहर गांव का मामला भी हाईकोर्ट पहुंचा।
ईश्वर कोर्राम के निधन के बाद उनके बेटे सार्तिक को गांव में दफन की अनुमति नहीं मिली। विरोध के चलते पुलिस और प्रशासन ने तत्काल मदद नहीं की। अंतत: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने हस्तक्षेप किया और सुरक्षा के बाद शव पुश्तैनी जमीन में दफनाया गया। कांकेर की नवंबर 2022 की घटना याद होगी, जिसमें चैतीबाई की कब्र खुदवाकर शव बाहर निकाल दिया गया, यह असहिष्णुता की चरम थी। भीड़ का तर्क था कि ग्राम देवता नाराज हो जाएंगे। एक और पहलू बराबर सामने आता रहा है। बस्तर में अनेक संगठनों और ग्रामीणों का यह दावा रहा है कि ईसाई मिशनरियों द्वारा आदिवासियों को लालच या दबाव में धर्म परिवर्तन कराया गया है। कुछ आदिवासी नेता साफ कहते हैं कि धर्मांतरण करने वालों को मूल धर्म में लौटना होगा, अन्यथा ऐसी घटनाएं होती रहेंगी।
सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे मामलों ने यह दिखा दिया है कि जब सामाजिक सहिष्णुता कमजोर पड़ती है, तो न्याय भी देर से मिलता है। इस परिस्थिति में प्रशासनिक भी निष्क्रिय हो जाता है, राजनीतिक लाभ की कोशिशें होती है और धार्मिक पहचान के नाम पर तनाव बढ़ता है। बस्तर या छत्तीसगढ़ में जहां भी प्रलोभन या दबाव से धर्मांतरण हो रहे हैं, उन पर प्रभावी ढंग से रोक लगनी चाहिए। बिलासपुर में हाल ही में ऐसे मामले की शिकायत पुलिस से की गई थी, लेकिन उसने समय पर एक्शन नहीं लिया। लेकिन यदि किसी ने अपनी मर्जी से आस्था, विश्वास बदल लिया हो तो उन्हें संवैधानिक अधिकारों से वंचित कैसे किया जा सकता है?