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(मुझे गर्व है कि मेरे पिता और बड़े भाई, दोनों ने देश की ओर से युद्ध लड़े। पिता इंडियन एयरफोर्स के अधिकारी के रूप में द्वितीय विश्वयुद्ध में हिस्सा लेने के बाद जीवित रहे। बड़े भाई, मेरे और मंझले भाई राकेश के लिये भैया और फौज के लिए कैप्टन जयन्त मिश्रा, ने 1971 के भारत-पाक युद्ध में पूर्वी पाकिस्तान को जीतकर बांग्लादेश बनाने में भूमिका अदा की और जीवित रहे। किन्तु मिजोरम में मिजो अलगाववादियों और भारतीय सेना के बीच चले संघर्ष में सन् 1982 में हमने उन्हें खो दिया। जाते जाते भैया मुझे जीवन में झूठ का महत्व समझाते गये। उसी सबक की कहानी है यह।)
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झूठ बहुत मूल्यवान होता है। कभी हमारे जीवन में सहायक के रूप में आसानी से सामने आता है और कभी जब जीवन में उसकी बहुत जरूरत होती है तो वह सही समय पर मुंह फेर लेता है। मुझमें यह समझ अपने बड़े भाई को खोने के बाद आयी।
यह 1982 की बात है।
भाई भारतीय फौज के एक युवा कैप्टन थे। वायु सेना के जिस हेलीकॉप्टर में वे पायलट समेत आर्मी और एयरफोर्स के सात अन्य अधिकारियों के साथ एक मिशन पर भारत-बर्मा की सीमा के पास थे, उसे मिज़ो अलगाव वादियों ने रॉकेट से मार गिराया था। कोई जीवित नहीं बचा था।
उन दिनों किसी इमर्जेंसी की स्थिति में भारत में समाचार भेजना और यात्रा कर एक स्थान से दूसरे तक पंहुचना कितना कठिन या आसान था इसकी कल्पना करना मेरे अधिकांश फेसबुक-मित्रों के लिए आसान नहीं है। वे उस काल में या तो छोटे थे या थे ही नहीं।
आधी रात के आसपास घंटी बजने की आवाज हुई तब घर में माँ और पिता ही थे। पिता ने दरवाजा खोला तो देखा भोपाल के सुल्तानिया इन्फैन्ट्री सेन्टर से दो सैन्य अधिकारी आये थे। उन्होंने मेरे भाई के साथ जो घटा था उसकी सूचना पिता को दी। बताया कि यह दुर्घटना सुबह -लगभग 17-18 घंटे पूर्व - बर्मा सीमा से सटे हुए लुंगलेई नामक स्थान के पास हुई थी।
भोपाल के अधिकारियों को यह सूचना लखनऊ से प्राप्त हुईं थी। लखनऊ में सेना के मध्य क्षेत्र का कमान्ड हेडक्वार्टर स्थित है। लखनऊ को यह सूचना आगे बढ़ाने का जिम्मा कलकत्ता स्थित पूर्वी सेना कमान्ड मुख्यालय ने दिया था। कलकत्ता को यह जानकारी सिलचर स्थित डिवीजनल हेडक्वार्टर से प्राप्त हुई थी।
सिलचर असम और मिजोरम की सीमा पर स्थित शहर है। दक्षिण असम का यह क्षेत्र कछार कहलाता है और भारत के इतिहास में इस क्षेत्र का एक अनूठा स्थान है। किन्तु उसकी चर्चा किसी और पोस्ट में। सीधा फोन कनेक्ट होना संभव नहीं हो पाया था क्योंकि उन दिनों भारत में एशियन गेम्स चल रहे थे। भारत में रंगीन टेलीविजन का खास इस मौके के लिए पहली बार पदार्पण हुआ था। सेटेलाइट से प्रसारण तब तक शुरू नहीं हुआ था। टेलिफोन के लिए देश भर में माइक्रोवेव टावर का जो जाल सत्तर के दशक में खड़ा हुआ था उसी का उपयोग टेलिविजन में खेल दिखाने के लिए किया गया था। टेलिफोन सेवाएं कुछ दिनों के लिए वापस बैलगाड़ी युग में जा कर अपनी वापसी की प्रतीक्षा में बैठी थीं।
भारत के पूर्वी-दक्षिणी क्षेत्र में फौज का अंतिम फैमिली स्टेशन सिलचर में ही स्थित था। सिलचर शहर से कुछ ही दूरी पर पश्चिम में बांग्लादेश और दक्षिण में मिजोरम की सीमा था - अब भी है।
मिजोरम आज की तरह उन दिनों भी भारत के नक्शे का हिस्सा हुआ करता था। किन्तु मैदानी हालात कुछ और थे। एक मार्च 1966 को मिज़ो नेशनल आर्मी के सैनिकों ने भारतीय सेना की टुकडिय़ों पर हमला कर मिजोरम की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। तब से वहां भारतीय सेना और मिजो नेशनल फ्रन्ट की सेनाओं के बीच युद्ध की स्थिति थी। गैर-सैन्य भारतीयों के लिए मिजोरम में प्रवेश वर्जित था।
पिता जब तक समाचार सुन कर अंदर पंहुचे, हाई-ब्लड प्रेशर से बीमार चल रही माँ नींद से जाग चुकी थीं। उत्सुक थीं जानने के लिए कि यह बेवक्त की कॉल बेल बजाने वाला कौन था और क्यों आया था। माँ को उन्होंने आश्वस्त किया कि आने वाला गलत पता ढूंढ़ते आ गया था।
पहला झूठ।
सूचना देने वाले अधिकारियों ने कुछ घंटों के बाद फोन किया और पूछते हुए प्रस्ताव रखा कि यदि मेरे माता-पिता अगली रात तक सिलचर पंहुच सकते हैं तो उन्हें दाह-संस्कार करने का अवसर दिया जा सकता है। सिर्फ हां और हूं में बात कर रहे पिता ने पंहुचने की अपनी सूचना दे दी। भाव-मुद्रा से माँ को किसी अनहोनी की आशंका भी न हो इसे सुनिश्चित करते हुए पिता ने सुबह होने की प्रतीक्षा की। घर में अन्य लोगों के आने पर माँ को छोड़ उन्होंने मेरे पास आकर यह सूचना दी। मैं उन दिनों भोपाल के गांधी मेडिकल कॉलेज में एम. डी. का छात्र था और हॉस्टल में रहता था।
पिता जब यह समाचार ले कर हॉस्टल पंहचे तब वे स्वयं कार ड्राईव कर आए थे और पूरी तरह संयत थे। माँ को पीछे छोड़ कर सिलचर जाने का तो प्रश्न ही नहीं था। किन्तु उनके स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए हम ने तय किया कि वहां पंहुचने से पहले उन्हें पूरी सूचना नहीं देंगे। दूसरा - आधा झूठ।
पिता को वापस घर पंहुचा कर मैने बैंक से पैसे निकाले। दोपहर को दिल्ली से भोपाल आकर इंडियन एयरलाइंस की एक फ्लाइट वापस जाती थी। उसकी टिकिट ली। अचानक यात्रा का कारण जानने के बाद एयरलाइंस के मददगार अधिकारियों ने आगे की यात्राओं में सीट आरक्षण करवाने का जिम्मा ले लिया। दिल्ली के समाचार पत्र उसी फ्लाईट से आया करते थे। फ्लाईट में इंडियन एक्सप्रेस अखबार मिला जिसमें मुखपृष्ठ पर एक सिंगल कॉलम समाचार था इस घटना का। शेखर गुप्ता जो आगे चलकर इंडियन एक्सप्रेस के सम्पादक बने और आजकल द प्रिंट के नाम से डिजिटल मीडिया में सक्रिय हैं, उन दिनों गुवाहाटी में इस अखबार के युवा संवाददाता के रूप में पदस्थ थे और उन्ही की बाय-लाईन थी।
दिल्ली पंहुच कर कुछ घंटों की प्रतीक्षा की। कलकत्ता की फ्लाइट मिली और वहां कुछ देर रुकने के बाद सिलचर की। इस फ्लाईट में बगल की सीट वाले यात्री ने जैसे ही अंदर का पृष्ठ पढऩे के लिए अपने हाथ में अखबार खोला, मुखपृष्ठ मेरे चेहरे के सामने आ गया। दिल्ली में जो समाचार सिंगल कॉलम के लायक था वह कलकत्ता के नये नये शुरू हुए टेलीग्राफ अखबार के लिए विस्तारित खबर थी। इसमें मृत सैनिक अधिकारियों के नाम भी शामिल थे। मेरी दूसरी ओर माँ बैठी थीं। सहयात्री समझदार थे। कम शब्दों में समझ गये और अखबार फोल्ड कर मां की नजऱों से बचा लिया।
सिल्चर हवाई अड्डे पर कुछ सैन्य अधिकारी मौजूद थे जिनके साथ देर रात हम तीनों चालीस किलोमीटर दूर 57, माऊंटेन डिविजन के मुख्यालय पंहुचे। इस जीप ड्राईव के दौरान पहली बार हमने माँ के साथ पूरी सच्चाई साझा की। उन्हें बताया कि भाई के गंभीर रूप से घायल वाली जो सूचना हमने उन्हें दी थी वह झूठी थी।
अगली सुबह अंतिम संस्कार की घड़ी जब सामने आ पंहुची तब पहली बार भाई के शव के पास पंहुचने का हमें मौका मिला। माँ साथ आने की स्थिति में नहीं थीं। पिता के साथ मैं पंहुचा था। पूरे फौजी मान सम्मान के साथ तिरंगे से ढंका ताबूत बाहर लाया गया।
मेरे पिता की एयर फोर्स वाली फौजी छवि और रौबदार शख्सियत होने के कारण उनके बारे में हम सब की धारणा रही कि इमोशनली वे परिवार के सबसे मजबूत सदस्य हैं। एक सुबह पहले जिस शांत और संयत भाव से उन्होंने मुझे अपने बड़े बेटे के न रहने की सूचना दी थी उससे यह धारणा पुष्ट ही हुई थी।
तिरंगे पर पड़ी पहली नजर हम दोनों को गौरवान्वित महसूस कराने के लिए पर्याप्त थी। उनके पुत्र और मेरे भाई ने जब अंतिम सांस ली वे वर्दी में थे और देश के लिए ड्यूटी पर थे। मेरे हाथ प्रणाम की मुद्रा में उठ गये और पिता के सेल्यूट की।
किन्तु जब ताबूत पूरा बाहर आया तो वे टूट गये और फूट-फूट कर रो पड़े। कारण शायद मैं समझ पा रहा था। मेरे भाई का कद छह फुट और दो इंच था। उनके साथ साथ हम सब को उनके कद-काठी पर गर्व था। सामने जो ताबूत था वह बमुश्किल पांच साढ़े पांच फुट का था। शव के अवशेष दुर्गम स्थान से अत्यंत मुश्किल परिस्थितियों में शत्रु क्षेत्र से निकालकर लाये गये थे। हम समझते थे।
हम दोनों पूरे रास्ते माँ से झूठ बोलते वहां तक पंहुचे थे। उन्होंने हमारी मजबूरी समझी और ताउम्र कभी शिकायत नहीं की। यहां पिता चाह कर भी झूठ के लिए तरस गये। एक पिता की झूठी तसल्ली के ही खातिर, काश! ताबूत छह-सात फुट का दिख जाता। माँ की तरह वे भी कभी इस झूठ की शिकायत थोड़े ही करते। पर इस बार जब एक झूठ की जरूरत सबसे अधिक थी, वह मदद के लिए सामने नहीं आया। (फेसबुक पोस्ट)
-डॉ. परिवेश मिश्रा