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यह बात है तो लोकल, लेकिन आज के वक्त किसी भी लोकल बात की एक ग्लोबल संभावना भी रहती है, और किसी ग्लोबल बात की लोकल संभावना। शायद इसीलिए बहुत बरस पहले मैंने अपने ब्लॉग का नाम इन दोनों को मिलाकर बने हुए एक शब्द, ग्लोकल पर रखा था। अब अमरीका में चार-चार बरस के लिए सरकार चुनी जाती है, कुछ देशों में पांच बरस के लिए। भारत भी उन्हीं में से है, और यहां केन्द्र, राज्य, म्युनिसिपल, और पंचायत सरकारें पांच-पांच बरस के लिए बनती हैं। माना तो यही जाता है कि जनता के एक बार वोट देने के बाद ये सरकारें पांच बरस तक काम करें, लेकिन राजभवन और विधानसभा अध्यक्ष के दफ्तर 21वीं सदी के ऐसे नए नीलामघर बन गए हैं कि सरकारें कई बार कार्यकाल पूरा नहीं कर पातीं। लेकिन वह एक अलग बहस का मुद्दा हो जाएगा, आज मेरे इर्द-गिर्द छत्तीसगढ़ में जो मुद्दा है, वह तो पांच बरस पूरी चलने वाली सरकारों के साथ भी आने वाली दिक्कत का मुद्दा है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में कल एक सरकारी कॉलेज के विशाल मैदान का बेजा इस्तेमाल करके वहां पर बनाए गए एक खानपान के बाजार को तोड़ दिया गया। इस पर म्युनिसिपल के करोड़ों खर्च हुए थे, और पिछली कांग्रेस सरकार के वक्त भाजपा के स्थानीय विधायक जो कि उस समय भूतपूर्व विधायक थे, वे इसके खिलाफ अड़े हुए थे। कल उन्होंने इसे तुड़वाकर दम लिया। उनकी आपत्ति यह नहीं थी कि एक मैदान के बड़े हिस्से को घेरकर बाजार क्यों बनाया गया, उनकी आपत्ति यह थी कि वहां पर कुछ और बनाया जाना चाहिए था। कांग्रेस और भाजपा की सत्ता के बीच फंसे हुए इस बाजार के कल हट जाने के बाद भी आज यह आवाज कहीं से नहीं आ रही कि खेल के एक मैदान का एक बड़ा हिस्सा काटकर जो पूरी तरह से अनैतिक और गैरकानूनी इस्तेमाल किया गया था, उस इस्तेमाल को ही खत्म किया जाना चाहिए था। जमीन चाहे सरकार की हो, अगर वह मैदान के इस्तेमाल में आ रही है, आधी सदी से उसका यही उपयोग बना हुआ है, तो कोई सरकार भी वहां बाजार नहीं बना सकती। लेकिन हाईकोर्ट तक जाकर किसी ने यह मुद्दा नहीं उठाया। बात अहंकारों के टकराव तक सीमित रह गई कि शहर के किस मैदान को काटकर कौन वहां चौपाटी बनाए, कौन अपने लोगों को दुकानें बांटे, कौन उसका श्रेय ले।
इसी राजधानी रायपुर में प्रदेश का एक सबसे बड़ा जंगला, फौलादी स्काईवॉक सात बरस बाद अब आगे बनना शुरू हो रहा है। उसे भाजपा सरकार के ताकतवर मंत्री रहे राजेश मूणत ने बनवाना शुरू किया था, और वह शहर के कुछ सबसे व्यस्त सडक़-चौराहों पर आवाजाही के लिए हवा में टंगा हुआ पुल सरीखा था। कांग्रेस की भूपेश सरकार पांच बरस तक यही तय नहीं कर पाई थी कि उसे पूरा करना है, या उसे गिराना है। अब भाजपा की सरकार बनी, तो इसी पार्टी की पिछली सरकार का बनवाया हुआ यह ढांचा पूरा करना उसकी जिम्मेदारी भी थी, और इस बार विधायक बन जाने पर भी मंत्री नहीं बनाए गए राजेश मूणत का दबाव भी था। भाजपा के ही पिछले मुख्यमंत्री डॉ.रमन सिंह इस बार विधानसभा अध्यक्ष हैं, और मूणत उन्हीं के करीबी सहयोगी रहे, इसलिए मूणत की प्रतिष्ठा के इस प्रोजेक्ट को पूरा करना सरकार पर एक बड़े दबाव सरीखा था। अब उसके लिए ठेका हो गया है, और काम आगे बढ़ रहा है। हालांकि जानकारों का यह कहना है कि शहर के बीचोंबीच बनने जा रहे इस गैरजरूरी माने जा रहे स्काईवॉक की वजह से शहर के बीच से कभी कोई मेट्रो नहीं जा पाएगी, या कोई फ्लाईओवर नहीं बन पाएगा। उन संभावनाओं को यह फौलादी ढांचा खत्म कर देता है। लेकिन सरकारों की अपनी राजनीतिक पसंद रहती हैं, और लोकतंत्र निर्वाचित सरकारों को कैसे भी फैसले लेने की छूट देता है।
अब जिस तरह शहर में या बाकी प्रदेश में एक सरकार की पसंद, प्रतिष्ठा, और उसके अहंकार के प्रोजेक्ट पांच बरस के बाद अगर दुबारा तय किए जाएंगे, तो प्रदेश में सारे ही निर्माण पुर्जे खोलकर दुबारा कहीं और खड़े करने वाले ही बनाने चाहिए। इमारतों की जगह शामियाने बनाने चाहिए, और लोहे की जगह बांस का इस्तेमाल करना चाहिए। कोई भी सरकार आते ही शुरू के छह महीनों में अपनी पसंद से ऐसे अस्थाई ढांचे खड़े कर ले, पिछले ढांचे खुलवा दे, और इस काम में मनरेगा की मजदूरी भी मंजूर कर दे तो कई लोगों को रोजगार भी मिल जाएगा।
ऐसा लगता है कि जब एक-एक करके कोई सरकार केन्द्र, राज्य, म्युनिसिपल, और वार्ड तक, चार इंजन की सरकार हो जाती है, तो उसमें मुसाफिर डिब्बे लगाने की कोई जरूरत भी नहीं रह जाती। जब चार-चार इंजन की सरकार चल रही है, तो फिर पांच बरस जनता की क्या जरूरत है? वह तो पैदल भी चल सकती है, उसने हजारों किलोमीटर पैदल चलकर दिखाया हुआ भी है। एक रेलगाड़ी में चार इंजनों का असर अब देखने मिल रहा है, जब म्युनिसिपल के फैसलों का जनता से कोई लेना-देना नहीं रह गया। राज्य सरकार और म्युनिसिपल एक ही पार्टी की सरकारों के हैं, इसलिए उनके बीच भी आपस में किसी जवाब-तलब की जरूरत नहीं रह गई है।
कांग्रेस के बीते पांच बरस के शासन में एक-एक तालाब, एक-एक बगीचे, एक-एक मैदान को काट-काटकर उसमें बाजार बना दिए गए, और ऐसे बाजारों को सत्ता पर बैठे लोगों ने कैसी-कैसी कमाई का जरिया बना लिया, यह चर्चा भी हवा में बनी हुई हैं। बहुत से लोग अब इन सार्वजनिक जगहों पर घूमने भी जाना नहीं चाहते, क्योंकि उन्हें बर्बाद कर दिया गया है, और सुप्रीम कोर्ट-हाईकोर्ट के कई फैसले, कई आदेश भी सार्वजनिक जगहों का यह बाजारूकरण नहीं रोक पाए। बहुत अधिक राजनीतिक ताकत बहुत अधिक बददिमागी भी पैदा करती है, और हमने अलग-अलग सरकारों के वक्त अलग-अलग मामलों में इसके पुख्ता सुबूत देखे हैं। इसलिए बहुत अधिक स्थिरता, नीचे से ऊपर तक एक ही पार्टी के राज जैसी बातें हमें जितना भरोसा दिलाती हैं, उससे कहीं अधिक आशंकाओं से भर देती हैं।
किसी पार्टी या नेता की क्या पसंद है, किस सरकार के वक्त क्या किया गया है, ऐसी छोटी बातों पर गौर किए बिना एक बुनियादी बात पर लोगों को सवाल खड़े करने चाहिए कि सार्वजनिक जगह का बेजा इस्तेमाल करने का अधिकार निर्वाचित लोगों, और अफसरों को किसने दिया है? नेता तो पांच बरस के लिए निर्वाचित होते हैं, अफसर तो शायद इससे आधे वक्त के लिए ही किसी कुर्सी पर आते हैं, लेकिन जो लोग प्रदेश और शहर के, गांव-कस्बे के पुराने बाशिंदे हैं, जिनकी पूरी जिंदगी यहीं गुजरी है, उन लोगों की कोई भी राय किसी बड़े सार्वजनिक कार्यक्रम में लेने की जरूरत किसी को नहीं लगती, अगर सत्ता अपने पर उतर आती है तो।
आज हमारी दिक्कत यह है कि एक बेजा इस्तेमाल को हटाकर दूसरे बेजा इस्तेमाल की तैयारी चल रही है, जबकि मैदान से अधिक जायज कोई दूसरा इस्तेमाल हो नहीं सकता था। अगर कोई हाईकोर्ट में ऐसे मामलों को सही तरीके से रखे, तो तालाबों, बगीचों, मैदानों की बाजारू घेराबंदी, उनका कांक्रीटीकरण, उनका बाजारूकरण सब तुड़वा दिया जाएगा। आज जगह-जगह पुराने ऐतिहासिक मैदानों को चारों तरफ से काट-काटकर छोटा कर दिया गया है, सौ-सौ साल पुराने बगीचों के भीतर इमारतें बना दी गईं, और अलग-अलग धर्मों के धर्मस्थल भी। यह पूरा सिलसिला खत्म होना चाहिए। ऐसे जनसंगठनों की जरूरत है जो कि जानकार, और विशेषज्ञों की मदद लेकर सार्वजनिक जगहों के इस्तेमाल पर कानूनी और तकनीकी विश्लेषण लोगों के सामने रख सके, और शहर-कस्बों को हमेशा के लिए बर्बाद होने से बचा सके। आज एक निर्माण टूटने से खाली हुई जगह पर ंदूसरा निर्माण शुरू होने के पहले उस पर अदालती रोक की कोशिश होनी चाहिए।


