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मैंने अभी सोशल मीडिया पर आस्तिकों के नाम से यह लिखा कि किसी ईश्वर को मानने वाले लोगों की हरकतें ही इस बात का सुबूत होती हैं कि उनके ईश्वर कैसे हैं, तो इस पर धर्मालु लोगों ने तुरंत ही अपने-अपने ब्रांड जोड़ दिए, और बुरा मानना शुरू कर दिया। मैंने तो एक जेनेरिक दवाई का पर्चा लिखा था, बल्कि दवा का पर्चा भी नहीं लिखा था, मर्ज भर लिखा था, लेकिन लोगों को अपने-अपने धर्म के बारे में अच्छी तरह मालूम रहता है, और यह भी समझ पड़ता है कि किस पल बुरा मानना शुरू करना है। अब किसी डॉक्टर की लिखी जेनेरिक दवा पर कोई मरीज या दवा दुकानदार किसी ब्रांड की दवा छांटें, और फिर उसके खराब निकल जाने पर ब्रांड की तोहमत डॉक्टर पर चिपका दें, यह तो जायज नहीं है। लेकिन धर्म का मुद्दा तो रहता ही ऐसा है, मैंने धार्मिक भावनाओं को हमेशा एक पैर पर तैयार खड़े देखा है, आहत होने के लिए। धार्मिक भावनाओं से नाजुक और कुछ नहीं होता, वे छुईमुई के पत्ते से भी अधिक नाजुक होती हैं, और छूने की जरूरत भी नहीं पड़ती।
इन दिनों मीडिया, और सोशल मीडिया, दोनों की मेहरबानी से अनगिनत वीडियो मिलते रहते हैं जो कि किसी धार्मिक आयोजन में शामिल धर्मालुओं की हिंसा के रहते हैं। किसी धर्म का नाम भी लेने की जरूरत नहीं है, और लोग अपनी-अपनी पसंद, या नापसंद के मुताबिक अच्छे और बुरे धर्म, या कि हमलावर धर्म, और जख्मी धर्म के नाम मेरी बातों में भर सकते हैं। कई वीडियो देखकर दिल दहल रहा है कि धार्मिक उत्तेजना के नशे में झूमते और डोलते लोग लाठियां लिए हुए सडक़ किनारे के किसी फेरीवाले, या कि किसी ऑटो चलाने वाले को घेर रहे हैं, उसे उसके धर्म के बारे में गंदी गालियां दे रहे हैं, और अपने ईश्वर का नाम लेने के लिए, और अधिक जोर से नारा लगाने के लिए उस पर लाठियां तान रहे हैं, उसकी रोजी-रोटी को लाठियां मार रहे हैं। यह सब दिनदहाड़े और खुली सडक़ पर हो रहा है। लोग अपनी पसंद और नापसंद से हमलावर और जख्मी के धर्म के नाम भर सकते हैं, और फिलहाल तो यह जिक्र हिन्दुस्तान का है, लेकिन इसकी तुलना वे अफगानिस्तान के तालिबानों से कर सकते हैं कि वे उनसे कितने कदम पीछे हैं।
मैं यह सोचकर भी कुछ हैरान होता हूं कि जो ईश्वर सर्वत्र, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान माने जाते हैं, वे दस-दस लाठियों से घिरे एक इंसान को अपने धर्म से परे, दूसरे धर्म के ईश्वर के नारे लगवाते देखकर क्या सोचते होंगे? यह बरस कई बार सामने आने वाले नजारे हैं, और ऐसे हर वीडियो पर दहलते दिल से देखते हुए मुझे लगता है कि कभी ईश्वरों को इंटरव्यू करने का मौका मिलेगा, तो पूछूंगा कि लाठी मार-मारकर, जूते मार-मारकर तुम्हारे नारे लगवाया जाना तुम्हें कैसा लगता है? क्या मजा बहुत अधिक आता है, या कुछ तथाकथित इंसानियत बची हुई है कि शर्म भी आती है?
मैं एक तरफ तो देखता हूं कि अलग-अलग धर्मों में अपने खराब होने, पापी और अपराधी होने को लेकर भक्तों में अपराधबोध और आत्मग्लानि को ठूंस-ठूंसकर भरा गया है। मैंने भारत में प्रचलित धर्मों में से अधिक चर्चित तीन धर्मों की कुछ ऐसी मिसालें देकर चैटजीपीटी से कुछ और मिसालें मांगीं, तो उसने पूरा लेख ही लिख देने का प्रस्ताव रखा। मैं हां कहता, तो दस-बीस सेकेंड में ही यह कॉलम पूरा हो जाता, लेकिन मैंने उसे याद दिलाया कि मेरी रोजी-रोटी तो लिखने से ही चलती है, और उसके इतनी मदद करने से तो मेरी कल्पनाशीलता और रचनात्मकता खत्म ही हो जाएगी, फिर मेरे अपने तर्क हैं, वे कहां जाएंगे? इसलिए मैंने चैटजीपीटी से सिर्फ कुछ मिसालें देने को कहा।
मेरे सवाल को उसने बड़ा विचारोत्तेजक माना, और हिन्दू, ईसाई, और मुस्लिम तीनों के बीच प्रचलित पाप, आत्मग्लानि, या अफसोस की मिसालें सामने रखीं। हिन्दू भजनों और आरतियों को मैं बचपन से अपने घर पर, और इलाके के लाउडस्पीकरों पर सुनते आया हूं। किसी देवी-देवता की आरती करने के लिए अपने को खुद को पापी, खलकामी, अधम, पतित अपने कामों को पातक (यानी पाप) कहने का कोई अंत ही नहीं है। शायद ही कोई आरती और भजन अपने आपको कोसे बिना पूरे होते हों। दूसरी तरफ ईसाई धर्म को देखें तो उनमें भी पाप और आत्मग्लानि को औंटाकर, रबड़ी सरीखा बनाकर ठूंस-ठूंसकर भरा गया है। चर्च में एक कन्फेशन चेम्बर ही बना दिया जाता है जो कि डरे-सहमे धर्मालुओं की पाप की स्वीकारोक्ति के लिए रहता है। अपने आपको पापी कहना, मुजरिम कहना, पतित कहना ईसाईयों के बीच एक बड़ी प्रचलित धार्मिक शब्दावली है।
अब भारत में मुसलमानों को देखें, तो इस्लाम में पाप और तौबा (यानी पश्चाताप) की सोच जगह-जगह है। और यह भी माना जाता है कि अगर दिल से तौबा की जाए, तो हर पाप माफी के लायक है। यहां तक कहा गया है कि अगर तुम्हारे पाप आसमान तक पहुंच जाएं, और तुम दिल से तौबा करो, तो अल्लाह माफ कर देगा। अपने पाप मंजूर करने और अल्लाह से माफी की उम्मीद करने की सोच भरी हुई है।
अब जब मिसाल के तौर पर मेरे उठाए हुए इन थीन धर्मों में पाप का बोझ, और प्रायश्चित से उसे कम करने का महत्व है, तो फिर लोग अपने धार्मिक कार्यक्रमों और आयोजनों में इस परले दर्जे की हिंसा कैसे कर पाते हैं? क्या उन्हें यह डर नहीं रहता कि किसी दूसरे ईश्वर के मानने वालों को मार-मारकर अपने ईश्वर का नारा लगवाना, ईश्वर को खुश नहीं करेगा, बल्कि नाराज करेगा? या फिर मुझको तो अधिक यह लगता है कि लोगों को इस बात का बड़ा भरोसा रहता है कि उनकी हिंसा तो अपने ही ईश्वर की वाहवाही के लिए है, उसी का नारा लगवाने के लिए हैं, उससे वह भला क्या नाराज हो जाएगा, वह तो खुश ही होगा, इसलिए किसी पाप या सजा की गुंजाइश नहीं है। ऐसा अपार आत्मविश्वास ही किसी को अपनी धार्मिक तीर्थयात्रा के बीच, आराधना के बीच इतना हिंसक बना सकता है। यह भी लगता है कि धर्म को इतना ढोकर, उठाकर, और पहनकर चलने वाले इन लोगों को धर्म की हकीकत मालूम है, और इसलिए वे पाप-पुण्य की पाखंडी कल्पना से मुक्त भी हैं।
फिलहाल अगर आप किसी भी धर्म को मानने वाले हैं, तो अपने ईश्वर से कुछ सवाल जरूर कीजिएगा। ईश्वर से सवाल करने में कोई बुराई नहीं है, आपने देखा होगा कि अमिताभ बच्चन तो कई फिल्मों में मंदिर के गर्भगृह में जाकर ईश्वर की प्रतिमा के सामने झूमते-लडख़ड़ाते हुए भी ईश्वर से सौ तरह के सवाल कर चुका है, अगर ईश्वर सचमुच होता, और खफा होता, तो आज 82 बरस की उम्र में अमिताभ सबसे कामयाब मनोरंजन-कलाकार नहीं रहता। इसलिए सवाल जरूर पूछिए। ईश्वर से पूछने के लिए आज दुनिया का सबसे बड़ा सवाल फिलीस्तीन के गाजा का है। वहां के लोग अल्लाह को मानने वाले मुस्लिम हैं, इसलिए यह सवाल किसी मस्जिद या दरगाह के सामने से निकलते हुए पूछना कि तेरे रहते 50-60 हजार लोग कैसे मारे गए? हिन्दुस्तान में यहूदियों के उपासना गृह बड़े कम हैं, फिर भी उनका ईश्वर भी सर्वत्र होगा, इसलिए महज एक कल्पना करके उससे भी सवाल करें कि उसके भक्त किस तरह दुनिया में लाखों को लोगों को मार चुके हैं। हिन्दुस्तान में हिन्दू मंदिर तो औसतन आबादी के हर सौ मीटर पर हैं, इसलिए राह चलते कहीं भी रूककर पूछ सकते हैं कि उनके भक्त इतने हिंसक होते हैं, तो तुम्हें क्या लगता है? और अल्लाह से यह भी पूछ सकते हैं कि तुम्हारा नाम लेकर कहीं इस्लामी आतंकी नाबालिग लड़कियों को सेक्स-गुलाम बनाते हैं, अफगानिस्तान में औरत को सिर्फ कैद के लायक मानते हैं, तो तुम्हें क्या लगता है? सवाल पूछने की हिम्मत होनी चाहिए, सवाल ही सवाल हैं। और मैं आपको बता सकता हूं कि इन सवालों के जवाब लिखने को इन ईश्वरों के पास कुछ नहीं है, वे सबके सब इम्तिहान में उत्तरपुस्तिका खाली छोडक़र निकलेंगे। उनकी खाली उत्तरपुस्तिका देखकर फिर आपको आईना देखना चाहिए, और अपनी आस्था के बारे में सोचना चाहिए। फिर मिलते हैं।