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पाकिस्तान में धार्मिक और सियासी संगठन तहरीक-ए-लब्बैक के नेता ख़ादिम हुसैन रिज़वी का 54 साल की उम्र में निधन हो गया है. उनके परिवार के मुताबिक़ वो कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे.
वो पाकिस्तान में ताक़तवर हो रहे ईशनिंदा आंदोलन के चर्चित नेता थे. हाल ही मे उनके हज़ारों समर्थकों ने फ्रांस के ख़िलाफ़ कई बड़े धरने दिए थे.
लेकिन उनके बारे में कुछ साल पहले तक बहुत ज़्यादा मालूम नहीं था.
फिर नवंबर 2017 में उन्होंने एक रैली का नेतृत्व करते हुए रावलपिंडी और इस्लामाबाद के बीच फ़ैज़ाबाद में धरना दिया.
तीन साल बाद नवंबर 2020 में एक बार फिर उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने इसी जगह पर धरना दिया था जो सरकार के साथ एक समझौते के बाद ख़त्म हुआ.
ख़ादिम हुसैन रिज़वी की शुरुआत
लाहौर की एक मस्जिद के इस 54 साल की उम्र के मौलवी ने असली पहचान नवंबर 2017 मे इस्लामाबाद के फ़ैज़ाबाद चौक पर ईशनिंदा क़ानून में बदलाव के ख़िलाफ़ धरना देकर हासिल की थी. उनका ये धरना लंबा लेकिन कामयाब रहा.
इससे पहले वो पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर के क़ातिल मुमताज़ क़ादरी को दी गई मौत की सज़ा के मामले में भी काफ़ी सक्रिय रहे थे और वहीं से उन्होंने अपनी धार्मिक गतिविधियों को सियासत का रंग दिया.
बरेलवी विचारधारा को मानने वाले ख़ादिम हुसैन रिज़वी को मुमताज़ क़ादरी के हक़ में खुलकर बोलने की वजह से पंजाब के बंदोबस्ती विभाग से निकाल दिया गया गया था जिसके बाद सितंबर 2017 में उन्होंने तहरीक-ए-लब्बैक की बुनियाद रखी.
इसी साल सितंबर में लाहौर की नेशनल असेंबली की सीट 120 पर हुए उप-चुनाव में उनकी पार्टी ने सात हज़ार से अधिक वोट हासिल कर सबको हैरत में डाल दिया था.
विशेषज्ञों के मुताबिक़ मुमताज़ क़ादरी को फांसी दिए जाने के बाद से बरेलवी तबक़े के परंपरावादियों ने राजनीति में अधिक सक्रिय भूमिका निभानी शुरू की है.
लेकिन पाकिस्तान में 2012 के बाद से बरेलवी और देवबंदी तबक़े के लोगों के बीच विवाद बढ़ा है और सामुदायिक हिंसा भी देखी गई है.
ख़ादिम हुसैन रिज़वी को साल 2017 के विरोध प्रदर्शनों में सुन्नी संगठनों का भी समर्थन प्राप्त था.
पूर्व प्रधानमंत्री शाहिद ख़ाक़ान अब्बासी की सरकार में फ़ैज़ाबाद धरने को लेकर ये राय थी कि प्रदर्शनकारियों को किसी ना किसी तरह से सेना का समर्थन प्राप्त था.
प्रदर्शनों के अंत में रेंजर्स को प्रदर्शनकारियों के बीच पैसे बांटते हुए देखा गया था जिसे इसी संदर्भ में देखा जाता है.
विश्लेषकों का मानना है कि ख़ादिम हुसैन रिज़वी को भले ही सेना का समर्थन प्राप्त हो या ना हो लेकिन ये साफ़ था कि परंपरावादियों के एक तबक़े में उनका काफ़ी प्रभाव है जो सड़कों पर हुए प्रदर्शनों में दिखा भी था.
वहीं उनके पुराने भाषणों के बारे में कहा गया था कि वो और उनकी पार्टी के वरिष्ठ नेता जिस क़िस्म की ज़बान फ़ौज और अदालत के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करते हैं उससे लगता है कि उन्हें अपनी ताक़त पर हद से ज़्यादा भरोसा हो गया है.
व्हीलचेयर तक सीमित होने के बावजूद ख़ादिम हुसैन रिज़वी पाकिस्तान में ईशनिंदा क़ानून के एक बड़े समर्थक बनकर सामने आए. वो इस क़ानून के ग़लत इस्तेमाल के आरोपों को भी ख़ारिज करते रहे थे.
उनके भाषण भी काफ़ी सख़्त होते थे. पाकिस्तानी मीडिया में उन्हें कवरेज नहीं मिली तो उन्होंने सोशल मीडिया का भरपूर इस्तेमाल किया.
उर्दू और अंग्रेज़ी में उनकी वेबसाइट बनाई गई और सोशल मीडिया पर भी उनके कई अकाउंट बनाए गए.
वो अपने आप को पैग़ंबर-ए-इस्लाम का 'चौकीदार' कहा करते थे.
ख़ादिम हुसैन रिज़वी कहां से थे?
तहरीक के प्रवक्ता एजाज़ अशरफ़ी ने बीबीसी से बात करते हुए बताया था कि ख़ादिम हुसैन रिज़वी का संबंध पंजाब के एटक ज़िले से था. वो हाफ़िज़-ए-क़ुरान होने के अलावा हदीस के भी जानकार थे. वो फ़ारसी भाषा के भी अच्छे ज्ञाता थे.
उनके दो बेटे भी अलग-अलग प्रदर्शनों में शामिल रहे हैं. वो एक सड़क हादसे में घायल होने के बाद विकलांग हो गए थे और बिना सहारे के नहीं चल सकते थे.
उन्होंने झेलम और दाना के धार्मिक मदरसों से क़ुरान की पढ़ाई पूरी की और फिर लाहौर में जामिया निज़ामिया रिज़विया में आगे की पढ़ाई पूरी की. उन पर कई अलग-अलग मामलों में आरोप भी लगाए गए.
एजाज़ अशरफ़ी का कहना है कि उन्हें ऐसे मामलों की संख्या याद नहीं है.
जनवरी 2017 में भी उन्होंने ईशनिंदा के क़ानून के समर्थन में लाहौर में एक रैली निकाली थी जिस पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया था.
मौलाना रिज़वी को गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया गया था. पंजाब की सरकार ने उन्हें अब भी फ़ोर्थ शेड्यूल में रखा हुआ है जिसका मतलब ये है कि उन्हें अपनी यात्राओं के बारे में पुलिस को पहले ही बताना होता था.
आईएसआई की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि ख़ादिम हुसैन रिज़वी की अपने से ऊंचे ओहदे वालों के सामने घिग्घी बंधी रहती है और अपने अधीनस्थों के साथ वो बदतमीज़ी से पेश आते हैं.
ख़ादिम हुसैन रिज़वी को अपनी गतिविधियों के लिए धन कहां से मिलता था ये मालूम नहीं है लेकिन इस्लामाबाद धरने के दौरान उन्होंने ऐलान किया था कि अज्ञात लोग लाखों रुपए उन्हें भेज रहे हैं.
इससे पहले किए गए धरनों के दौरान ऐसी जानकारियां भी थीं कि व्हाट्सएप पर एक नंबर सर्कुलेट हो रहा था जिसके साथ दिए गए संदेश में कहा गया था कि यदि किसी कार्यकर्ता को धरने के दौरान किसी तरह की दिक्क़त आए जैसे मोबाइल में बैलेंस, खाने पीने की ज़रूरत तो इस पर संपर्क किया जा सकता है. इससे लगता है कि उन्हें पाकिस्तान और बाहरी देशों से फ़ंड मिल रहा था.
ख़ादिम हुसैन रिज़वी की कड़वी टिप्पणियों का निशाना महज़ सत्ताधारी ही नहीं बल्कि सामाजिक कार्यकर्ता दिवंगत अब्दुल सत्तार ईधी जैसे लोग भी रहे हैं.
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वो अपने सभाओं में पत्रकारों और ख़ुफ़िया एजेंसियों के लोगों को भी कठोरता से संबोधित करते रहे हैं. वो ऐसे दावे भी करते थे जिन्हें पूरा करना शायद नामुमकिन हो. ऐसा ही एक बयान उन्होंने कराची में दिया था कि 'अगर उनके पास परमाणु बम होता तो वो हॉलैंड को पैग़ंबर का कार्टून बनाने का मुक़ाबला आयोजित करने से पहले ही पूरी तरह बर्बाद कर देते.'
हाल के दिनों में भी उनका एक बयान सोशल मीडिया पर घूम रहा था जिसमें वो कह रहे थे कि एटम बम को बाहर निकालकर इस्तेमाल करो.
व्हीलचेयर पर रहने वाले ख़ादिम हुसैन रिज़वी बरेलवी विचारक थे और पाकिस्तान में उन्हें बरेलवी राजनीति का नया चेहरा माना जा रहा था.
परंपरावादी बरेलवी समुदाय में उन्होंने अपनी अलग पहचान बना ली थी और उनके कहने पर लोग सड़कों पर उतरने को तैयार थे.
भारतीय उपमहाद्वीप में सुन्नी मुसलमान आमतौर पर दो फ़िरक़ों में बंटे हुए हैं. देवबंदी और बरेलवी. दोनों ही नाम उत्तर प्रदेश के दो शहरों देवबंद और बरेली के नाम पर हैं.
दरअसल 20वीं सदी के शुरू में दो धार्मिक नेता मौलाना अशरफ़ अली थानवी (1863-1943) और अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी (1856-1921) ने इस्लामिक क़ानून की अलग-अलग व्याख्या की.
अशरफ़ अली थानवी का संबंध दारुल-उलूम देवबंद मदरसा से था जबकि आला हज़रत अहमद रज़ा ख़ां बरेलवी का संबंध बरेली से था.
बरेलवी विचारधारा के लोग आला हज़रत रज़ा ख़ान बरेलवी के बताए हुए तरीक़े को ज़्यादा सही मानते हैं. बरेली में आला हज़रत रज़ा ख़ान की मज़ार है जो बरेलवी विचारधारा के मानने वालों के लिए एक बड़ा केंद्र है.
बरेलवी इस बात को मानते हैं कि पैग़म्बर मोहम्मद सब कुछ जानते हैं, जो दिखता है वो भी और जो नहीं दिखता है वो भी. वो हर जगह मौजूद हैं और सब कुछ देख रहे हैं. बरेलवी सूफ़ी इस्लाम के अनुयायी हैं और उनके यहां सूफ़ी मज़ारों को काफ़ी महत्व प्राप्त है. (bbc.com)