संपादकीय
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में दो रात पहले छत्तीसगढ़ महतारी की सडक़ किनारे चबूतरे पर स्थापित प्रतिमा किसी ने तोडक़र गिरा दी। इसे लेकर कुछ छत्तीसगढ़ी संगठनों ने बड़ा उग्र प्रदर्शन किया, कांग्रेस के पिछले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इस मुद्दे को लपककर मौजूदा भाजपा सरकार पर बड़ा हमला किया, और मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने कड़ी जांच और कार्रवाई का भरोसा दिलाया। आज सुबह से उस टूटी प्रतिमा की जगह दूसरी प्रतिमा स्थापित की गई, और पहली खबर यह आई है कि किसी मानसिक विक्षिप्त ने यह प्रतिमा तोड़ दी थी। और भी जगहों पर कई बार ऐसा होता है कि कोई विक्षिप्त, या नशेड़ी व्यक्ति किसी प्रतिमा को नुकसान पहुंचा दे। इन दिनों अधिक प्रचलित हो चले सीसीटीवी कैमरों की मेहरबानी से बहुत से मामले पकड़ में आ जाते हैं, और सुबूत की रिकॉर्डिंग भी मिल जाती है।
आज हम इसी एक मामले को लेकर नहीं लिख रहे हैं, बल्कि देश भर में चारों तरफ कहीं महान व्यक्तियों (महापुरूष लिखना लैंगिक असमानता की बात होगी), कहीं किसी धर्म के आराध्य लोगों की प्रतिमाएं लगी रहती हैं, कहीं सडक़ किनारे पेड़ के नीचे सिंदूर पुते पत्थर भी आस्था के प्रतीक रहते हैं, और इन सबकी कोई हिफाजत तो रहती नहीं है। छत्तीसगढ़ महतारी का प्रतीक अभी कुछ बरस पहले ही बना, और उसका उपयोग शुरू हुआ। लेकिन गांधी और अंबेडकर, इन दोनों की प्रतिमाएं देश भर में शायद देश के ताजा इतिहास के लोगों में सबसे अधिक लगी दिखती हैं। और इन दोनों की प्रतिमाओं पर ही जगह-जगह हमले होते हैं, इन्हें तोड़ा-फोड़ा जाता है, चूंकि गांधी को मानने वाले लोग कोई उग्र या आक्रामक समूह नहीं हैं, इसलिए उनकी प्रतिमा टूटने पर हल्ला नहीं मचता, उसे जोड़-जाडक़र खड़ा कर दिया जाता है। अंबेडकर को मानने वाले लोग अनुसूचित जाति में अधिक हैं, और वे इसे अपनी जाति का अपमान मानते हैं, जो कि रहता भी है, और वे लोग तुरंत ही विरोध करने को एकजुट हो जाते हैं। फिर सडक़ किनारे, पेड़तले कुछ किस्म के ईश्वर अधिक संख्या में चारों तरफ रहते हैं, और जब कभी कोई तनाव खड़ा करना रहता है, उस इलाके की ऐसी आस्था-शिलाएं बड़े काम की साबित होती हैं। और तो और कहीं-कहीं किसी थानेदार को हटाने के लिए भी इस तरह का तनाव खड़ा किया जाता है।
छत्तीसगढ़ में अभी इस बात को लेकर भी थोड़ी सी तनातनी चल रही थी कि रेलवे स्टेशनों और रेलगाडिय़ों में छठ के गीत बज रहे हैं, क्योंकि छठ त्यौहार का मौका है। खासकर कुछ ऐसे संगठन, और लिखने वाले, जो कि उग्र क्षेत्रवाद का झंडा उठाकर चलते हैं, उन्हें इस संगीत से याद पड़ा कि छत्तीसगढ़ी त्यौहारों पर तो ऐसा कुछ बजता नहीं है। फिर यह भी है कि दुनिया में कहीं भी उग्र क्षेत्रवाद दूसरे क्षेत्रों के विरोध पर पनपता है, पलता है, और बढ़ता है। इसलिए एक तरफ यह संगीत, और दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ महतारी की प्रतिमा को तोड़ा जाना, इन दोनों ने मिलकर इस मौके पर देसिया और परदेसिया का फर्क भी बयानों में और सोशल मीडिया पोस्ट पर ला दिया। हालांकि छत्तीसगढ़ महतारी इस राज्य का इस तरह का प्रतीक नहीं है कि जिससे कोई भी तबका, किसी भी प्रदेश के लोग, किसी भी जाति या धर्म के लोग चिढ़ सकें। यह प्रतीक जाति-धर्म से परे का है, और इसके साथ कोई परदेसिया-विरोधी जैसी आक्रामक सोच भी जुड़ी हुई नहीं है। इसलिए इस प्रतिमा को किसी वैचारिक विरोध की वजह से तोड़ा गया हो, ऐसा हमें बिल्कुल नहीं लगा था, और शायद ऐसा ही साबित भी होगा।
लेकिन लगे हाथों क्षेत्रवाद के बारे में सोच लेना जरूरी है। जिस देश में राष्ट्रवाद उग्र होता है, और पूरे देश पर एक साथ आक्रामक तरीके से लादा जाता है, वहां पर अलग-अलग इलाकों में मानो प्रतिक्रिया के रूप में क्षेत्रवाद सिर उठाने लगता है क्योंकि उसे अपने अस्तित्व को साबित करने का एक मौका मिल जाता है। फिर राष्ट्रवाद के नीचे जब अलग-अलग इलाकों में इस तरह स्थानीयतावाद, या क्षेत्रीयतावाद पनपने लगता है, तो वह अपने लिए उसी तरह काल्पनिक और अस्तित्वहीन दुश्मन ढूंढ लेने लगता है जैसा कि राष्ट्रवाद अपने लिए ढूंढ चुका रहता है। राष्ट्रवाद से लेकर क्षेत्रवाद तक ऐसे एक काल्पनिक दुश्मन की जरूरत जरूरी रहती है। इसमें थोड़ी दिक्कत तब आ जाती है जब किसी इलाके के घोर उग्रवादी स्थानीयतावादी लोग अड़ोस-पड़ोस के प्रदेशों से भी आए हुए लोगों के चेहरे काल्पनिक दुश्मन के पुतले पर चिपकाने लगते हैं, और फिर एक ही धर्म या एक ही जाति के भीतर भी अलग-अलग क्षेत्र का मुद्दा अधिक हमलावर होने लगता है। इस तरह किसी देश में राष्ट्रवाद की एक नकारात्मक, आक्रामक, और हिंसक प्रतिक्रिया जगह-जगह देखने मिलती है। दुनिया की बहुत सी संस्कृतियां राष्ट्रवाद के ऐसे नुकसान देख, और झेल चुकी हैं, और राष्ट्रवादी उन्माद के नतीजे में क्षेत्रवाद भी जगह-जगह हावी होता है। लोग बोली और पहरावे को लेकर, खानपान और दुकानों के नाम को लेकर, और सार्वजनिक जगहों पर सफाई और संगीत को लेकर छोटे बच्चों की तरह देखादेखी के मुकाबले में उतर आते हैं, और फिर बालिग लोगों की तरह हमलावर हो जाते हैं।
मानव सभ्यता सीखने का एक बड़ा लंबा सिलसिला रहती है। इससे सीख, सबक, और नसीहत न लेने का मतलब लोगों का उन्हीं किस्म के नुकसानों को एक बार और झेलना रहता है। अब भला हर पीढ़ी अपने लिए चक्के का आविष्कार एक बार फिर करने लगे, तो भला कितनी बर्बादी नहीं होगी? इसी तरह अगर हम सभ्यता के इतिहास में झेले गए नुकसान से कोई सबक नहीं लेंगे, तो उसका मतलब है कि कुछ या कई पीढिय़ों बाद हम उसी नुकसान को एक बार फिर झेलेंगे, बिना कुछ सीखे हुए। किसी देश को यह भी याद रखना चाहिए कि राष्ट्रवादी उन्माद क्षेत्रवादी उन्माद में तो बदलता ही है, लेकिन इसके साथ-साथ वह धर्म और जाति के उन्माद में भी बदल जाता है क्योंकि उसे हर कुछ दिनों में किसी उन्माद के नशे की आदत पड़ चुकी रहती है। जिस तरह नशेड़ी को दिन के एक खास वक्त में नशे की तलब होती है, उसी तरह उन्मादी लोगों को हर कुछ दिनों में अपने हमलावर मिजाज का पेट भरने के लिए कोई एक काल्पनिक दुश्मन लगता है। देश को सोचना चाहिए कि क्या ऐसे राष्ट्र और क्षेत्रवाद देश के भले के हैं?
अब इसके साथ-साथ यह सोचना भी जरूरी है कि शहर, गांव-कस्बे तक बिखरी हुई धार्मिक और सामाजिक प्रतिमाओं का क्या किया जाए? बहुत से मामलों में तो इन प्रतिमाओं के बहाने जिन लोगों को अपने अपमान का मुद्दा उठाने का मौका मिलता है, वैसे लोग भी प्रतिमाओं के नुकसान के पीछे पकड़ाए जा चुके हैं। दूसरों पर तोहमत धरने के लिए लोग अपनी ही आराध्य प्रतिमाओं को जगह-जगह तोड़ते हैं। जब सार्वजनिक जगहों पर प्रतिमाओं की हिफाजत नहीं की जा सकती, तो उन्हें लगाने के पहले यह सोच लेना क्या ठीक नहीं होगा कि चबूतरे पर न सिर्फ प्रतिमा रहेगी, बल्कि तनाव की एक आशंका भी साथ-साथ रहेगी। यह देश जितने किस्म के तनावों में घिरा हुआ है, यह इतनी प्रतिमाओं के अतिरिक्त तनावों को झेल नहीं सकता। प्रतिमाओं को बहुत सुरक्षित जगहों पर, बहुत सीमित संख्या में लगाना चाहिए, जहां चौबीसों घंटे आवाजाही हो, हिफाजत हो, वहीं पर प्रतिमा निर्विवाद रूप से सुरक्षित रह सकती है।


