संपादकीय

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रिटायर्ड चीफ जस्टिस डी.वाई.चन्द्रचूड़ जब तक नौकरी में रहे, उनसे जुड़े विवाद कम ही रहे। लेकिन अब एक ऐसे मामले में उनका नाम उलझा है, जो कि सबके मुंह का स्वाद खराब कर रहा है। वे नवंबर 2024 में रिटायर हुए, और अब 8 महीने बाद यह मुद्दा बन रहा है कि मुख्य न्यायाधीश के मकान में वे अब तक बने हुए हैं, और उनसे मकान खाली करवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अब केन्द्र सरकार को लिखा है। इस मामले की जो खबर छपी है उसके मुताबिक चन्द्रचूड़ को कई बार अतिरिक्त समय दिया गया कि वे अपना दूसरा इंतजाम कर लें। लेकिन इसके बाद भी वे कोई इंतजाम नहीं कर सके, और केन्द्र सरकार से उन्हें अगले कुछ महीनों के लिए किराए पर आबंटित मकान का हवाला देते हुए उन्होंने कहा है कि उनकी दोनों बेटियों की विशेष चिकित्सकीय जरूरतें हैं, और उसके मुताबिक इस मकान को तैयार करने में थोड़ा सा समय लग रहा है। यह बात सुनने में बड़ी खराब लग रही है कि कुछ महीनों की पात्रता के बाद कई और महीने सीजेआई के सरकारी बंगले में रहते हुए भी चन्द्रचूड़ अगला इंतजाम नहीं कर पाए थे, और सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़ा है कि उसके कुछ जज गेस्ट हाऊसों में रह रहे हैं, इसलिए उसे तुरंत बंगले की जरूरत है।
हो सकता है कई लोगों को यह बात आम शिष्टाचार के खिलाफ लगे कि रिटायर्ड चीफ जस्टिस को इस तरह नोटिस देकर बंगला खाली करवाया जा रहा है। लेकिन इस मामले को एक दूसरे नजरिए से भी देखने की जरूरत है। चन्द्रचूड़ को यह मालूम था कि वे 10 नवंबर 2024 को रिटायर होंगे, और उसके बाद शायद तीन महीने में उन्हें मकान खाली करना होगा। भारत के मुख्य न्यायाधीश रह चुके व्यक्ति को केन्द्र से मकान आबंटित कराने में बहुत मशक्कत भी नहीं करनी पड़ी होगी। और अपनी बेटियों की खास जरूरतों का भी उनको अहसास रहा ही होगा। ऐसे में अगर वे रिटायर होने के पहले ही ऐसा खाली मकान छांटकर उसे तैयार करवा लेते तो आज ऐसी अप्रिय नौबत नहीं आती, और ऐसी कड़वाहट नहीं फैलती। अगर उनसे पहले भी कुछ जजों ने निर्धारित सीमा से अधिक तक सरकारी मकान रखे थे, तो भी उन्हें कोई अच्छी मिसाल नहीं माना जा सकता, और चन्द्रचूड़ ऐसी नौबत से बच सकते थे। दूसरी तरफ कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा चीफ जस्टिस अपने एक रिटायर्ड सीनियर के प्रति कुछ अतिरिक्त सद्भावना और शिष्टाचार दिखा सकते थे, और कुछ और हफ्ते बर्दाश्त कर सकते थे। नियम तो जाहिर तौर पर चन्द्रचूड़ को एक कमजोर जगह पर खड़ा करते हैं, और इससे बचना ही समझदारी होती।
लेकिन हम इसी अकेली बात पर आज की बात खत्म करना नहीं चाहते। ऐसा बहुत सी जगहों पर होता है कि किसी तारीख का लोगों को पहले से पता होता है, लेकिन उसके मुताबिक तैयारी नहीं की जाती। केन्द्र की प्रतिनियुक्ति से कई अफसर जब राज्य वापिस लौटते हैं, तो राज्य महीनों तक उन्हें कोई पोस्टिंग नहीं देते, जबकि बाकी वक्त ऐसे राज्य अफसर कम होने का रोना रोते रहते हैं। जब कई दिन पहले से पता रहता है कि किस तारीख को कोई अफसर लौटेंगे, तो सरकार उनके मुताबिक काम भी तैयार रख सकती है। महीनों तक विश्वविद्यालयों के कुलपति तय नहीं हो पाते, और संभागीय कमिश्नर को कार्यकारी कुलपति बना दिया जाता है। जबकि कुलपति का कार्यकाल किस तारीख को खत्म होगा, यह तो उसकी नियुक्ति के दिन ही तय रहता है, ऐसे में दो-चार महीने पहले से चयन प्रक्रिया शुरू हो सकती है, और कुलपति की कुर्सी एक दिन भी खाली न रखने का इंतजाम आसानी से हो सकता है। लेकिन हर सरकार ऐसी कुर्सियों को खाली रखती है, और जब सूरज दो बांस चढ़ चुका रहता है, तब वह जागती है, और महीनों से खाली कुर्सी के लिए पसंदीदा इंसान ढूंढती है। प्रदेशों में जो संवैधानिक आयोग अनिवार्य कर दिए गए हैं, उनका मकसद सरकार पर नकेल कसना भी रहता है। इसलिए सूचना आयोग, मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, एसटीएससी आयोग, बाल कल्याण परिषद, तरह-तरह की अपील की संस्थाएं, रेरा, और ऐसी दर्जन भर दूसरी संस्थाओं की कुर्सियां बरसों तक खाली रखी जाती हैं, जबकि उनके खाली होने की तारीख पहले से तय रहती है। नतीजा यह होता है कि ऐसी संवैधानिक संस्थाओं से जनता को जो राहत मिलनी चाहिए, उसकी गुंजाइश खत्म ही हो जाती है। यह एक अलग बात है कि सत्ता जब किसी को मनोनीत करती भी है, तो भी वह अपने ऐसे भरोसेमंद और चहेते को मनोनीत करती है कि वे सत्ता के लिए असुविधा खड़ी न करें, लेकिन वह एक अलग मुद्दा है।
अदालतों के जज हों, अफसर हों, या कि किसी संवैधानिक पद पर मनोनीत लोग हों, किसी भी ओहदे के खाली होने के कुछ हफ्ते पहले से उस पर फैसला कर लिया जाना चाहिए। सरकार में ताकत की कुर्सियों पर बैठे लोगों की सेहत पर तो कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन आम लोगों की जिंदगी कुर्सियों के खाली रहने से प्रभावित होती है। विश्वविद्यालयों में कुलपति न रहने से काम चला रहे कमिश्नर पीएचडी की थीसिस पर परीक्षक बुलाने की फाइल तक दस्तखत नहीं करते, नतीजा यह होता है कि जिन्हें महीनों पहले पीएचडी मिल जानी चाहिए, वे जगह-जगह निकल रही नौकरियों के लिए अर्जी भी नहीं भेज सकते, अपनी किसी गलती के बिना। सूचना के अधिकार जैसे जरूरी हक का इस्तेमाल भी तब ठप्प हो जाता है जब सूचना आयोग में महीनों तक, या बरसों तक कुर्सियां खाली रखी जाती हैं। कहने के लिए भारत सरकार कई तरह के नियम राज्यों को बताती है, कई काम सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की वजह से समय पर करने की बंदिश रहती है, लेकिन राज्य इन सबको अनदेखा करते हुए अपनी मर्जी से काम करते हैं। सरकार के ढांचे का खर्च तो बंधा-बंधाया रहता है, लेकिन लोगों के लोकतांत्रिक अधिकार किनारे धरे रह जाते हैं, बहुत किस्म के सरकारी कामकाज पिछड़ जाते हैं। इसलिए किसी को मकान आबंटित करने से लेकर, खाली करवाने तक, और किसी खाली होने जा रही कुर्सी पर लोगों की नियुक्ति तक का काम समय रहते, कम से कम कुछ हफ्ते पहले करना अनिवार्य होना चाहिए, ताकि जनता को उसका हक मिल सके। ताकतवर लोगों का काम हर हाल में चल जाता है, लेकिन कमजोर जनता के काम पिछड़ जाते हैं।