संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : केरल और श्रीलंका के दो मामले जो बताते हैं धार्मिक नफरत के नतीजे
14-Jul-2023 4:11 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : केरल और श्रीलंका के  दो मामले जो बताते हैं धार्मिक नफरत के नतीजे

केरल के एक एनआई कोर्ट ने एक प्रोफेसर का हाथ काट डालने वाले आधा दर्जन मुस्लिम लोगों को सजा सुनाई है। अब प्रतिबंधित करार दिए जा चुके इस्लामिक संगठन, पापुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) के इन लोगों ने 2010 में केरल के प्रोफेसर का हाथ काट दिए थे क्योंकि वे मानते थे कि प्रोफेसर ने कॉलेज के एक इम्तिहान में एक सवाल पूछा था और वह सवाल मोहम्मद पैगंबर का अपमान था। ये प्रोफेसर अपने परिवार सहित इतवार को चर्च से घर लौट रहे थे कि रास्ते में सात लोगों ने उन्हें रोककर गाड़ी से उतारा, और उनका दाहिना हाथ काट दिया। यह देखते हुए उनकी पत्नी को ऐसा सदमा लगा कि उसने बाद में आत्महत्या कर ली। अदालत ने इसे एक आतंकी हमला बताया, और आतंक को मानव सभ्यता के लिए एक बड़ा खतरा बताया, और हमलावरों में से तीन को उम्रकैद, और तीन को तीन-तीन बरस की कैद सुनाई। 

अब देखें तो केरल से कुल पांच सौ किलोमीटर दूर के श्रीलंका में धर्मांधता ने एक अलग किस्म का काम किया है। वहां भी धर्मांधता के मामले में एक दूसरे किस्म से पुलिस और अदालत तक मामला पहुंचा है। हुआ यह है कि श्रीलंका में वहां की बौद्ध बहुसंख्यक आबादी का अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय से कुछ टकराव, कुछ तनाव चलते रहता है। ऐसे में वहां एक मुस्लिम डॉक्टर के बारे में यह अफवाह फैलाई गई कि उसने बौद्ध समुदाय की महिलाओं की नसबंदी कर दी ताकि बौद्ध आबादी बढऩा रूक जाए। उस पर चार हजार ऐसी बौद्ध महिलाओं की जानकारी के बिना उनकी नसबंदी करने का आरोप लगाया गया। और बौद्ध-दबाव में काम करने वाली वहां की सरकार ने 2019 में मोहम्मद शफी को आतंकी धाराओं के तहत गिरफ्तार कर लिया। जमानत के पहले साठ दिन उन्हें जेल में रहना पड़ा, और जांच चलने की वजह से उन्हें जबर्दस्ती छुट्टी पर भेज दिया गया। अब चार बरस बाद श्रीलंका के स्वास्थ्य मंत्रालय ने डॉ.शफी के खिलाफ लगाए गए आरोप सिद्ध करने के लिए सुबूत कम होने की वजह बताते हुए उन्हें काम पर वापिस भेज दिया है। 

श्रीलंका में 70 फीसदी आबादी बौद्ध है, 10 फीसदी मुस्लिम हैं। 2019 में वहां चर्चों और पर्यटकों पर इस्लामिक स्टेट के आतंकी हमले हुए थे जिनमें ढाई सौ से ज्यादा मौतें हुई थीं, और इसके बाद श्रीलंका में मुस्लिम विरोधी भावनाएं भडक़ गई थीं, मुस्लिमों पर हमले किए गए थे, उनके घर, दुकान, मस्जिद जला दिए गए थे, और एक मुस्लिम की भीड़त्या भी हुई थी। ऐसे में डॉ.शफी पर यह झूठा आरोप लगाया गया कि उन्होंने महिलाओं का प्रसव कराते हुए उनकी नसबंदी भी कर दी ताकि बौद्ध आबादी बढ़ न सके। कुछ अखबारों ने भी ऐसी खबरें छापीं, और बाद में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। ठीक हिन्दुस्तान की तरह श्रीलंका के टीवी चैनलों पर इसे लेकर बहस चलने लगी, और ठीक हिन्दुस्तान की तरह सोशल मीडिया पर झूठी खबरों ने डॉ.शफी का जीना हराम कर दिया। और ठीक हिन्दुस्तान की तरह वहां बौद्ध लोगों ने उनके परिवार को मारने की धमकी देना शुरू कर दिया, उन्हें घर-शहर छोडऩा पड़ा, बच्चों को स्कूल बदलने पड़े, उनके बैंक खाते जब्त कर लिए गए। बीबीसी की एक रिपोर्ट कहती है कि इसके पहले भी श्रीलंका में कई बार मुसलमानों पर ऐसे आरोप लगाए गए कि वे बौद्ध लोगों की आबादी बढऩा रोकने के लिए उनकी नसबंदी करते हैं, या अपने रेस्त्रां में बौद्ध ग्राहकों के खाने में नसबंदी की गोलियां मिला देते हैं। एक दूसरा दावा किया गया था कि जिन मुसलमानों की कपड़े की दुकानें हैं, वे बौद्ध महिलाओं के भीतरी कपड़ों में नसबंदी वाली जैल लगा देते हैं। बाद में संयुक्त राष्ट्र तक को यह स्पष्टीकरण जारी करना पड़ा था कि ऐसी कोई जैल होती ही नहीं है। श्रीलंका के मीडिया ने भारत के मीडिया के एक बड़े हिस्से की तरह भडक़ाने का काम किया, क्योंकि वह बहुसंख्यक आबादी को नाराज करने का खतरा उठाने की हालत में नहीं था। 

हम इन दो मुद्दों पर आज यहां इसलिए लिख रहे हैं कि धर्म लोगों को किस तरह तर्कहीन और बेवकूफ बना देता है, इसकी ये दोनों बहुत अच्छी मिसालें हैं। और धर्म तो हमेशा ही हिंसक बनाता ही है। केरल में मुस्लिम अराजक संगठन के लोगों ने एक प्रोफेसर का हाथ काट दिया क्योंकि उसका बनाया हुआ एक प्रश्नपत्र उन्हें अपने धर्म का अपमान लग रहा था। केरल हिन्दुस्तान का सबसे पढ़ा-लिखा राज्य है, और लोगों के पास अपनी धार्मिक भावनाओं को लेकर अदालत तक जाने का विकल्प मौजूद था। लेकिन उन्होंने हिंसा तय की, क्योंकि धर्म हिंसा सिखाता है। उन्होंने यह तय किया कि इस्लाम जिस तरह की सजा तय करता है, उस तरह की सजा वे देंगे, और उन्होंने ईशनिंदा के आरोप में प्रोफेसर का हाथ काट दिए। दूसरी तरफ श्रीलंका में बेबुनियाद अफवाहों को लेकर एक समर्पित डॉक्टर की जिंदगी तबाह कर दी गई, उसके परिवार का जीना हराम कर दिया गया, लोगों से चार बरस के लिए एक डॉक्टर छीन लिया गया, उस डॉक्टर के बीवी-बच्चों से सामान्य जिंदगी का हक छीन लिया गया। एक तरफ मुसलमानों ने एक ईसाई प्रोफेसर के साथ हिंसा की, दूसरी तरफ बौद्ध बहुसंख्यक लोगों ने एक मुस्लिम डॉक्टर के साथ यह किया। लोगों को यह समझने की जरूरत है कि धर्मांधता जब बढ़ती है, तो जरूरी नहीं है कि वह किसी एक धर्म के व्यक्ति को ही मारे, वह संक्रामक रोग की तरह दूसरे धर्मों तक भी पहुंचती है, और उनको भी मारती है। धर्मांधता और साम्प्रदायिक हिंसा कुछ बरस पहले दुनिया भर में फैले कोरोना की तरह तेजी से चारों तरफ फैलती हैं, और इनके लिए आमने-सामने संपर्क में आने की जरूरत भी नहीं पड़ती, इन्हें वॉट्सऐप जैसे संदेशों से भी फैलाया जा सकता है। जो लोग आज दुनिया में कहीं भी अपने बाहुबल से किसी एक धर्म का दबदबा कायम करना चाहते हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि इसकी प्रतिक्रिया में दुनिया में कई दूसरी जगहों पर दूसरे धर्मों के लोग उस पहले धर्म के लोगों के साथ ऐसा ही सुलूक कर सकते हैं। धर्म के नाम पर हिंसा का कोई अंत नहीं होता है, और दुनिया में सिर्फ इस्लामी आतंकी संगठन नहीं हैं, अलग-अलग बहुत सी जगहों पर दूसरे धर्मों में भी इसकी प्रतिक्रिया में लोग हिंसा कर रहे हैं, श्रीलंका इसकी एक मिसाल है। अब किसी भी देश की कल्पना की जाए कि धार्मिक उन्माद और नफरत से अगर किसी एक इंसान को घेरकर मारने के लिए सरकार, अदालत, समाज, और चिकित्सा सेवा इन सबकी इतनी तबाही की जा सकती है, तो यह बात याद रखनी चाहिए कि ऐसी हिंसा की जवाबी हिंसा में भी इन तमाम पहलुओं की उतनी ही या उससे अधिक बर्बादी की जा सकती है। यह लोगों को तय करना है कि वे इंसान की तरह रहना चाहते हैं, या धार्मिक आतंकी की तरह लोगों को मारना, खुद मरना, और अपनी आने वाली पीढिय़ों को खतरे में डालना चाहते हैं।   
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