संपादकीय

बाजार व्यवस्था का दुनिया के वामपंथी, समाजवादी, और भी कई तबके विरोध करते हैं, लेकिन उसकी कुछ खूबियों में से एक यह भी है कि जब कारोबारी किसी गिरोहबंदी को नहीं कर पाते, और वे एक-दूसरे के मुकाबले में उतरते हैं, तो उससे कम से कम कुछ समय तक तो फायदा ग्राहकों का होता है। सोशल मीडिया के जितने प्लेटफॉर्म हैं, वे एक-दूसरे से मुकाबला करते ही हैं, लेकिन अब ट्विटर ने अपने इस्तेमाल करने वालों को जिस किस्म की कारोबारी बंदिशों में बांधना शुरू किया था, तो कल ही फेसबुक की कंपनी मेटा ने थ्रेड्स नाम का एक नया प्लेटफॉर्म लांच किया है, जिसमें ट्विटर जैसी अधिकतर खूबियां तो रहेंगी ही, वह इससे कई मायनों में आगे भी रहेगा। दरअसल जब सामने कोई एक मॉडल हो, तो फिर उससे आगे निकलना आसान हो जाता है। और मेटा के तीन प्लेटफॉर्म हैं, फेसबुक, इंस्टाग्राम, और वॉट्सऐप? इसलिए इन तीनों के साथ जोडक़र अगर ट्विटर का कोई विकल्प पेश किया जाएगा, तो उसके इस्तेमाल और उसकी कामयाबी की संभावना भी अधिक रहेगी। इससे ट्विटर का अपने किस्म के प्लेटफॉर्म का एकाधिकार तो टूटता है, लेकिन मेटा का लोगों के सोचने, लिखने, संपर्क करने, इन सब कामों पर एकाधिकार बढ़ जाता है। यह एक अलग किस्म का खतरा है, और दुनिया के कुछ विकसित लोकतंत्रों में फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग सरकारी और अदालती रोक-टोक झेल भी रहे हैं।
अब तक ट्विटर मेटा से अलग एक कंपनी है, लेकिन अगर ट्विटर का एक विकल्प मेटा के पास आ जाता है, तो दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा धीरे-धीरे मेटा का मानसिक गुलाम हो सकता है। उसका स्वतंत्र सोचना-विचारना, अभिव्यक्त करना, यह सब कुछ खत्म हो सकता है। विचारों के प्रवाह की पहाड़ी नदियों को मानो एक जल सुरंग बनाकर एक खास तरफ मोड़ देना, ऐसी कंपनी के लिए बड़ा आसान हो जाएगा, और एक सदी पहले जिन विज्ञान कथा लेखकों ने ब्रेनवॉश करने जैसी बात लिखी थी, वह हकीकत के एकदम करीब पहुंच जाएगी। आज वैसे भी दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा वही पढ़ता और देखता-सुनता है जो कि मार्क जुकरबर्ग दिखाना चाहता है। इसलिए पहली नजर में आज ट्विटर का मुफ्त या सस्ता विकल्प लोगों को अच्छा लग सकता है, हमें भी एलन मस्क जैसे सनकी मालिक की रोजाना लादी जा रही नई-नई शर्तों से परे कोई दूसरा वैसा या उससे अच्छा प्लेटफॉर्म सुहा रहा है, लेकिन सूचना से लेकर निजी जानकारियों तक का जितना बड़ा जमावड़ा मेटा कंपनी के मातहत हो गया है, वह भयानक है। अब एक ही कंपनी के कम्प्यूटर आपके निजी संदेशों की बातों से इश्तहारी मतलब के शब्द निकाल लेंगे, इसके कम्प्यूटर आपकी निजी पसंद-नापसंद जान लेंगे, यह भी जान लेंगे कि आप किन दोस्तों के साथ उठते-बैठते हैं, और उनकी पसंद क्या है, और कारोबार एक नए हमलावर तेवरों के साथ आप पर टूट पड़ेगा। आपको न सिर्फ अपनी पसंद और जरूरत के सामानों के इश्तहार दिखने लगेंगे, बल्कि आपको आपकी अब तक की खरीदी की ताकत के मुताबिक उस दाम के आसपास के सामान दिखेंगे, आपके नंबर के जूते अगर हैं, तो वही दिखेंगे, पसंद का रंग दिखेगा, पास के रेस्त्रां दिखेंगे, और अगर आपका उपवास है, तो आसपास की ऐसी उपवासी थाली का इश्तहार दिखेगा जो कि जोमैटो जैसे घर पहुंच सेवा वाले लोग कुछ मिनटों में पहुंचा देंगे। मतलब यह कि आपकी पसंद और जरूरत के मुताबिक बाजार आपको इस पूरी तरह जकड़ लेगा कि आपकी उससे परे सोचने की ताकत घट जाएगी।
आज भी होता यह है कि लोग जैसे-जैसे अपने मोबाइल फोन और कम्प्यूटर पर, इंटरनेट और तरह-तरह के एप्लीकेशन का इस्तेमाल करते हुए जितने किस्म की इजाजत उनको देते हैं, उनके कम्प्यूटर यह तक दर्ज करते जाते हैं कि आप तीन महीनों के बाद किस दिन खून की जांच कराने जाते हैं, और किस लैब में जाते हैं, इसलिए उसके दो दिन पहले हो सकता है कि किसी और पैथोलॉजी लैब का इश्तहार आपको दिखने लगे। इसका एक बड़ा अच्छा लतीफा काफी समय से इंटरनेट पर घूमता है जिसमें अलग-अलग कारोबार के कम्प्यूटर लोगों की निजी जानकारी का इस्तेमाल करते हुए उन्हें सुझाते रहते हैं कि उनके लिए क्या खाना ठीक है, और क्या खराब है, क्योंकि उनकी ब्लड शूगर पिछली रिपोर्ट में बढ़ी निकली थी, और कपड़ों का नाप भी पिछले दो बरस में बढ़ गया है, इसलिए उन्हें डबल चीज वाला पित्जा नहीं खाना चाहिए।
आज भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के कम्प्यूटर के एल्गोरिद्म यह तय करते हैं कि आपके किन दोस्तों की पोस्ट आपको दिखे, और किसकी नहीं, आपकी पोस्ट किनको दिखे, और किनको नहीं। कुल मिलाकर वे आपका दायरा तय करने लगते हैं कि आपका संपर्क किन लोगों से होना चाहिए, और कौन लोग आपके आसपास दिखाने लायक नहीं हैं। एक तो हर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के कम्प्यूटर अधिक आक्रामक हो रहे हैं, वे अधिक घुसपैठ कर रहे हैं, अधिक ताक-झांक कर रहे हैं। और अब जब ऐसे कई प्लेटफॉर्म एक होकर एक मालिक के तहत आ रहे हैं, तो यह एक किस्म का जाल बन जा रहा है, जिसमें फंसे बिना कोई मछली या मगरमच्छ बच नहीं सकते। हम सोशल मीडिया को लेकर कुछ अधिक बार लिखते हैं क्योंकि लोगों की जिंदगी में इनकी दखल बहुत बढ़ती जा रही है, इसके अलावा दुनिया भर के देशों में लोकतंत्र पर इसका हमला भी बढ़ते जा रहा है। लोगों को याद रहना चाहिए कि कुछ महीने पहले दुनिया के एक सबसे प्रतिष्ठित अखबार गॉर्डियन ने कई दूसरे मीडिया संस्थानों के साथ मिलकर एक भांडाफोड़ किया था कि किस तरह एक इजराइली कंपनी दुनिया भर के लोगों और संस्थानों के ईमेल हैक कर सकती है, किस तरह उनके पक्ष में, और उनके विरोधियों के खिलाफ सोशल मीडिया पर जनमत तैयार कर सकती है। जैसे-जैसे सोशल मीडिया अधिक ताकतवर होते चलेगा, वैसे-वैसे उसके मुकाबले लोकतंत्र की हिफाजत कमजोर होते चलेगी। लोगों को अब सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने से तो नहीं रोका जा सकता, लेकिन लोकतांत्रिक सोच को, उसकी विविधता को ऐसे संगठित, कारोबारी, और षडय़ंत्रकारी हमलों से कैसे बचाया जा सकता है इस बारे में जरूर सोचना चाहिए। हिन्दुस्तान में हम देखते ही हैं कि किस तरह आज कुछ ताकतें नफरत और हिंसा फैलाने के लिए, या किसी के महिमामंडन के लिए सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर रही हैं। यह तो सामने दिख रहा है, लेकिन पर्दे के पीछे और भी क्या-क्या हो रहा होगा यह सोचना मुश्किल है। फिर यह है कि ताकतवर लोगों से असहमत जो लोग हैं, उन पर हमलों के लिए भी इसका इस्तेमाल बड़ा आम हो चुका है। ऐसे में लोगों को यह सोचना चाहिए कि जब गूगल जैसी कंपनी उनकी हर सर्च, हर आवाजाही का पल-पल का हिसाब रखती है, जब मेटा जैसी कंपनी उनके हर निजी संदेश, उनके तमाम संपर्क, और विचारों का, पसंद का हिसाब रखती है, तो फिर वे कारोबार के हाथों शोषण के जाल में फंसे हुए हैं, और ये गिने-चुने कारोबार उन्हें जब चाहें तब कठपुतली की तरह धागों से बांधकर चला सकते हैं। यह तस्वीर आज लोगों को भयानक नहीं लगेगी, लेकिन यह कम भयानक नहीं है, और अधिक दूर भी नहीं है।