संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ऐसे घटिया शक्तिमान की खटिया खड़ी क्यों न हो?
11-Aug-2022 3:10 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ऐसे घटिया शक्तिमान की खटिया खड़ी क्यों न हो?

मुम्बई फिल्म उद्योग के एक बहुत ही औसत दर्जे के अभिनेता मुकेश खन्ना का नाम बच्चों के लिए बनाए गए शक्तिमान नाम के एक किरदार से जुड़ा हुआ था, और एक वक्त था जब छत्तीसगढ़ में स्कूलों का जाल बिछाने वाले, और साथ-साथ अखबार चलाने वाले एक जालसाज ने मुकेश खन्ना को ब्रांड एम्बेसडर बनाकर दसियों हजार मध्यमवर्गीय मां-बाप को लूटा था। ऐसे मुकेश खन्ना ने अभी एक गंदा बयान दिया है जिसमें उन्होंने कहा है- कोई भी लडक़ी अगर किसी लडक़े को कहे कि मैं तुम्हारे साथ सेक्स करना चाहती हूं तो वो लडक़ी लडक़ी नहीं है, वो धंधा कर रही है। इस तरह की निर्लज बातें कोई सभ्य समाज की लडक़ी नहीं करेगी, और अगर वो करती है तो वो सभ्य समाज की नहीं है, उसका धंधा है ये, उसकी भागीदार मत बनिये। मुकेश खन्ना के इस बयान का वीडियो सोशल मीडिया पर तैर रहा है, और लोग सोशल मीडिया पर ही उन्हें जमकर धिक्कार भी रहे हैं। इसके अलावा दिल्ली के महिला आयोग ने दिल्ली पुलिस को एक नोटिस भेजकर इस बारे में जानकारी मांगी है, एफआईआर की कॉपी भेजने कहा है, और इस पर की गई कार्रवाई के बारे में बताने कहा है। दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्षा स्वाती मालीवाल ने इस चिट्ठी को ट्वीट करते हुए कहा है कि महिलाओं के खिलाफ आपत्तिजनक बयानों पर एफआईआर दर्ज करवाने हेतु दिल्ली पुलिस को नोटिस जारी किया है।

दरअसल महिलाओं को बर्दाश्त कर पाना आसान बात नहीं होती है। सोशल मीडिया पर कई लोग इस बात को लिखते हैं कि लोगों को कामयाब महिलाएं दूर से तो अच्छी लगती हैं, लेकिन जब उनसे रूबरू सामना होता है, तो मर्द उन्हें पसंद नहीं कर पाते। ऐसा शायद इसलिए भी होता है कि कामयाबी किसी भी महिला में एक आत्मविश्वास पैदा करती है, और महिला का आत्मविश्वास आदमी में हीनभावना पैदा करता ही है। अपने आपको बच्चों के बीच एक आदर्श किरदार की तरह पेश करने वाले इस अभिनेता की बकवास में आदमियों की कोई जगह नहीं है कि अगर कोई आदमी किसी औरत से ऐसी बात कहे तो वह आदमी भी क्या पेशा करने वाला होगा? इक्कीसवीं सदी के दो दशक निकल चुके हैं, लेकिन हिन्दुस्तानी आदमी, और खासे पढ़े-लिखे और सार्वजनिक जीवन के कामयाब लोग, सार्वजनिक रूप से भी अठारहवीं सदी की ऐसी दकियानूसी बात करते हैं।

और मुकेश खन्ना तो फिर भी एक छोटा सा आदमी है, इस देश के कई मुख्यमंत्री और कई केन्द्रीय मंत्री एक से बढक़र एक घटिया और अश्लील बातें महिलाओं के बारे में कहते आए हैं। इनमें यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल सरीखे लोग भी शामिल हैं, और इनको सहूलियत यह भी रहती है कि इनके ऐसे महिलाविरोधी बयानों के बाद भी न तो ये चुनाव हारते, और न ही इनकी पार्टी चुनाव हारती। मतलब यह है कि जनता के एक छोटे और मुखर तबके को ऐसे बयान खटकते हैं, लेकिन ऐसे बयान वोट नहीं बिगाड़ पाते जबकि वोटरों में आधी महिलाएं हैं। जब तक वोटरों की जागरूकता नहीं बढ़ेगी, और महिलाओं के बीच एक तबके के रूप में स्वाभिमान नहीं जागेगा, तब तक महिलाओं के खिलाफ खाप पंचायतों से लेकर देश की संसद और विधानसभाओं तक बकवास चलती रहेगी, और उनके साथ बेइंसाफी जारी रहेगी।

लोगों को खाप पंचायतों की इन बातों को नहीं भूलना चाहिए जो कि लड़कियों के जींस पहनने पर पाबंदी लगाती हैं, उनके मोबाइल फोन रखने पर पाबंदी लगाती हैं। अभी-अभी हिन्दुस्तान के लिए राष्ट्रमंडल खेलों में सोना जीतकर आने वाली निखत जरीन को बॉक्सिंग के कपड़े पहनने के लिए मुस्लिम समाज के भीतर से लगातार चेतावनी दी जाती थी। कुछ ऐसा ही सानिया मिर्जा को भी झेलना पड़ता था। और जब इनकी कामयाबी आसमान पर पहुंची तब जाकर इनके खिलाफ ओछे हमले बंद हुए, वरना इन्हें भी अपने कपड़ों के लिए मर्दों के वैसे ही हमले झेलने पड़ते थे जैसे हमले घर से बाहर निकलने वाली लड़कियों को योगियों और मनोहरलालों के झेलने पड़ते हैं।

दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्षा इन मामलों में जागरूक हैं, और देश की राजधानी में बैठे हुए वे बहुत से मामलों में जागरूकता दिखाती हैं। अगर और योजना आयोग, बाल आयोग, या महिला आयोग अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी पूरी करते, तो बकवास पर कुछ लगाम लग सकती थी। लोगों को याद होगा कि उत्तरप्रदेश के बड़बोले समाजवादी नेता आजम खान ने जब बलात्कार की शिकार बारह बरस की एक बच्ची की शिकायत को राजनीतिक साजिश कहा था, तो सुप्रीम कोर्ट की फटकार पड़ी थी, और इस बड़बोले नेता को अदालत में माफी मांगनी पड़ी थी। हिन्दुस्तान में आज जरूरत ऐसी ही कार्रवाई की है जिससे हिंसक और अश्लील बकवास करने वाले लोगों को अदालत तक घसीटा जा सके, और वहां उनकी जुबान पर लगाम लगाई जा सके।

दूसरा एक और तरीका लोकतांत्रिक जागरूकता वाले सभ्य समाज में हो सकता है, लेकिन उसकी गुंजाइश हिन्दुस्तान में कम ही दिखती है। यहां पर अगर ऐसी गंदगी की बात करने वाले लोगों से जुड़े हुए सभी सामानों का बहिष्कार किया जा सकता, तो भी बहुत से लोगों के होश ठिकाने आ जाते। लेकिन एक तरफ तो पश्चिम के जागरूक देशों में तीसरी दुनिया के देशों में बहुत कम मजदूरी देकर, अमानवीय स्थितियों में बनवाए गए सामानों का बहिष्कार किया जाता है, और वैसे बहिष्कार के असर से सामान बनाने वाले इन देशों में मजदूरों की हालत कुछ सुधरती है। भारत जैसे देश में बाल मजदूरों से बनवाए गए कालीनों का दुनिया के दूसरे देश बहिष्कार करते हैं, लेकिन हिन्दुस्तानी घरों में बाल मजदूरों को बंधुआ बनाकर रखा जाता है, और दफ्तरों और बाजारों में बाल मजदूर चाय पहुंचाते हैं, जिनसे किसी को परहेज नहीं होता। दरअसल इस देश और इसके प्रदेशों में संवैधानिक जिम्मेदारियों के आयोगों में राजनीतिक मनोनयन होने से वहां बैठे लोग अपने राजनीतिक आकाओं को असुविधा का कोई काम नहीं करना चाहते, और इस तरह सुधार की संवैधानिक-संभावना खत्म हो जाती है।

आज जरूरत तो यह भी लगती है कि मानवाधिकार आयोग, बाल आयोग, महिला आयोग, अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग, अल्पसंख्यक आयोग की कुर्सियों पर राजनीतिक मनोनयन खत्म होना चाहिए, और किसी भी राज्य में इन ओहदों पर राज्य के बाहर की एक राष्ट्रीय फेहरिस्त से लोगों को मनोनीत करने का एक संवैधानिक ढांचा खड़ा करना चाहिए। जब तक राजनीति से संवैधानिक पदों को अलग नहीं किया जाएगा, तब तक समाज के कमजोर तबकों के खिलाफ हिंसक बकवास जारी रहेगी। अभी दिल्ली के करीब यूपी में भाजपा के बताए जा रहे एक नेता ने जिस गंदी जुबान में एक महिला को धमकाया, उस पर भारी जनदबाव के चलते पुलिस कार्रवाई तो हुई है, लेकिन उत्तरप्रदेश में कोई महिला आयोग भी है, ऐसा पता नहीं लगा है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए।
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