धमतरी

संसार में वस्तु मूल्यवान हो सकता है, लेकिन समय अमूल्य- मनीष सागर
31-Mar-2025 3:19 PM
संसार में वस्तु मूल्यवान हो सकता है, लेकिन समय अमूल्य- मनीष सागर

‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता

धमतरी , 31 मार्च। संत महेंद्र सागर, मनीष सागर, हंसकीर्ति समेत आदि ठाना श्री पार्श्वनाथ जिनालय में विराजमान है। मनीष सागर ने प्रवचन के माध्यम से महा कि आज हम सभी को फिर एक दूसरे से जुडऩे का अवसर मिल है। वास्तव में यह अवसर स्वयं के विकास का है। जिस समय प्रकृति में बदलाव आता है। ठंड के बाद उष्णता बढ़ती है। दिन का समय बढऩे लगता है। चैत्र सुदी एकम के साथ आने वाला चंद्रमा भी प्रतिदिन बढऩे लगेगा। ये सब हमे आत्म विकास के लिए प्रकृति के माध्यम से स्वयं में परिवर्तन लाने के लिए प्रेरित कर रहा है। संसार में वस्तु मूल्यवान हो सकता है, लेकिन समय अमूल्य है।

नए वर्ष के साथ अपने जीवन में भी कुछ परिवर्तन करना है। एक बाह्य परिवर्तन होता है और एक आंतरिक। बाह्य परिवर्तन का काम सदा करते रहते है। लेकिन अब आत्म विकास के लिए आंतरिक परिवर्तन करना है। जीवन में आंतरिक परिवर्तन लाए बिना सिद्ध बुद्ध और मुक्त नहीं हो सकते। बाह्य परिवर्तन संसार को बढ़ाने वाला होता है जबकि आंतरिक परिवर्तन संसार घटाने वाला अर्थात हमें मोक्ष तक पहुंचाने वाला होता है। पुण्योदय से हमें मानव जीवन मिल है। इस मानव जीवन के लिए देवता भी तरसते है। इस नववर्ष में हमें अपने अंदर के उत्साह को आत्म विकास में लगाना है। एक बबूल का पेड़ होता है जो जल्दी विकास कर लेता है जबकि चंदन के पेड़ का विकास धीरे धीरे होता है। इसलिए चंदन का पेड़ कीमती हो जाता है। अर्थात जो स्वयं का विकास अंदर से करता है वह बहुमूल्य बन जाता है और जो अपना विकास केवल बाहर से करता है वह कभी मूल्यवान नहीं बन पाता। बाह्य विकास में सांसारिक सम्पन्नता बढ़ती है, जबकि आंतरिक विकास से संतोष बढ़ता है। आंतरिक विकास में हम सभी परिस्थितियों में अपने भावों को मजबूत करते है। शरीर के प्रति मोह कम करना, अपने गुणों का विकास करना दूसरे के प्रति दया करुणा, क्षमा और सहनशीलता का भाव बढ़ाना यही आंतरिक विकास है। परमात्मा अनासक्ति की साक्षात् मूर्ति है। उन्हें देखकर हमे विचार करना चाहिए। की किस प्रकार परमात्मा ने अपनी आत्मा को तपाकर स्वयं का विकास किया है और पूजनीय बन गए। हम बाह्य विकास में इतना मग्न हो जाते है कि सांसारिक संपत्ति के विकास में कब सद्गुणों का दिवाला निकल जाता है पता ही नहीं चलता। इसलिए हमें कोई भी कार्य करते समय भावों की शुद्धता का ध्यान रखना चाहिए ताकि आत्मा का पतन न हो। बाह्य विकास को हमेशा गौण मानना चाहिए, जबकि आत्मविकास को प्राथमिकता देनी चाहिए।

आज से लगभग 2600 साल पहले भगवान महावीर के शासन में मगध देश के राजा श्रेणिक का शासन था। उनके राज्य में प्रजा अत्यंत प्रसन्न थी। चारों ओर खुशहाली थी।

एक बार जब भगवान महावीर के आगमन का समाचार श्रेणिक राजा ने सुना तो अत्यंत प्रसन्न हो गए। भगवान महावीर जिस दिशा से आ रहे थे उस दिखा कि ओर मुख करके परमात्मा को नमन किया। परमात्मा महावीर श्रेणिक राजा के आदर्श थे। इसी कारण उन्होंने अपना सभी कार्य छोडक़र परमात्मा के स्वागत के लिए चल पड़े। हमें भी अपने जीवन में एक आदर्श पुरुष अवश्य बनाना चाहिए। क्योंकि आदर्श बनाने पर ही लक्ष्य का निर्धारण हो सकता है। और लक्ष्य का निर्धारण ही हमे सफलता दिलाता है। दर्शन लाभ हेतु जाते समय श्रेणिक राजा 5 अभिगम का पालन करते है।

 

परमात्मा के दर्शन के लिए 5 अभिगम का पालन करना चाहिए

पहला सचित का त्याग - स्वयं के सम्मान की वस्तुओं का त्याग करना। दूसरा अचित का विवेक - अचित वस्तु अर्थात परमात्मा को अर्पण करने योग्य वस्तुओं का उपयोग करना चाहिए। तीसरा उत्तरासन धारण करना - बिना सिला हुआ वस्त्र कंधे पर धारण करना। चौथा अंजली बद्ध प्रणाम - दोनों हाथ जोडक़र प्रणाम करना। अर्थात विनय और विवेक पूर्वक प्रणाम करना चाहिए।

प्राणिधान - मन ,वचन और काया की एकाग्रता के साथ परमात्मा का आलंबन।

ये पांचों अभिगम अपने अंदर विनय गुण को बढ़ाने के लिए उपयोगी है। जैसे बीज कितनी भी अच्छी हो माली कितना भी अच्छा हो। लेकिन अगर मिट्टी की उर्वरक क्षमता नष्ट हो गया हो। तो श्रेष्ठ बीज और अच्छे माली का कोई औचित्य नहीं है। इसलिए अपने आत्मा के विकास के लिए जीवन में विनय गुण का होना आवश्यक है।

हम अपने जीवन में शाता, सम्मान और भोग में इतने लिन रहते है कि कभी आत्मा के विकास का ध्यान ही नहीं आता। अपने पूरे जीवन काल में हम कभी अतीत का ध्यान करते रहते है तो कभी भविष्य की चिंता लगी रहती है तो कभी वर्तमान में उलझे रहते है। और ऐसे ही जीवन निकल जाता है। संसार से वैराग्य आए बिना आत्मा के बारे में विचार नहीं आ सकता। परमात्मा और गुरुभगवंतों का सानिध्य और जिनवाणी का श्रवण आत्मविकास का श्रेष्ठ माध्यम है।


अन्य पोस्ट