-स्मिता
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित समाजवाद की अवधारणा आजादी के 75 वर्षो बाद भी आज तक हकीकत में तब्दील होती नजर नहीं आ रही है।
समावेशी विकास के अंतर्गत सबका साथ, सबका विकास के रास्ते में दलित, आदिवासी और कबिलाई लोग किसी बंजर मिटटी की तरह किसी अनगढ़ टीले की तरह बहुत पीछे रह गये हैं। दरअसल ऐसा लगता है कि सभ्य समाज में इनके लिये कोई स्थान नहीं है और न ही इनकी कोई उपयोगिता ही है।

हम अगर गौर से देखें तो आसपास कई ऐसे डेरा (बंजारों का अस्थायी निवास) प्लास्टिक झाड़ फूस के शंकुनुमा घर जैसा दिखाई देने वाले आवास दिख जायेंगे जहां सिर्फ पानी बरसात से छिपने का ठिया ही कहा जा सकता है बाकी समय पेड़ के नीचे लोग खेलते हुए, स्त्रियां जुएं निकालते, पुरुष बीड़ी फूंकते नजर आ जायेंगे।
महासमुंद जिले के तुमगांव से महज 2 किमी की दूरी पर बसा यह डेरा पिछले 25 बरसों से यहीं टिका हुआ है। ऐसा नहीं है कि शासन/प्रशासन की नजर इनपर नहीं पड़ी है, शासन/प्रशासन ने वहां एक सार्वजनिक शौचालय का निर्माण कराया है। बाकी एक कमरे का स्कूल है जो बिजली गिरने से ढह गया है और अपने अवशेषों के साथ वहाँ के लगभग 150 मासूम बच्चों के भविष्य, उनके सपनों की कहानी बयां कर रहा है।
इन मासूम मुस्कानों का दोष महज इतना है कि इनका जन्म ऐसे डेरे में हुआ जहां भरपेट भोजन और पहनने को कपड़े भी किसी चुनौती से कम नहीं, ऐसे में इनकी शिक्षा व अन्य दीगर जरूरत की क्या बात करें।

इस डेरा के रहवासी/बंजारे सांप पालते हैं और गली मोहल्ले में सांप दिखाकर या फिर भीख मांगकर अपनी आजीविका चला रहे हैं।
इन सांपों के बीच पल रहे इन मासूमों का बचपन किस तरह तबाह हो रहा है इसकी बानगी आप कभी भी इन डेरों में जाकर देख सकते हैं।
खुद को आदिवासी गोड़ बताने वाले ये बंजारे सदियों से सांप पकडऩे, उन्हें पालने, सर्पदंश का ईलाज करने के लिए जड़ीबूटी ढूँढने हेतु एक जगह से दूसरी जगह भटकते रहते हैं। लेकिन काफी अरसे से तुमगांव के पास बस गये हैं। जीवन जीने के मूलभूत अधिकारों से वंचित इन डेरा वासियों के पास अन्य आदिवासियों की तरह न तो किसी जगल का आसरा है न ही कोई पृथक संस्कृति। वैसे तो डेरे के लोग स्वयं को शिवभक्त हिंदू बताते हैं और शिवलिंग की पूजा करते हैं।

इनके डेरे के बीच छोटा सा मंदिर बना हुआ है खुद तो प्लास्टिक के झिल्ली के नीचे रहते हैं लेकिन उस छोटे से मंदिर में बकायदा टाईल्स लगा हुआ है।
इनके बच्चों के पास न तो पहनने के लिए पूरे कपड़े है, न ये दांत साफ करना जानते हंै, न नहाते हंै, न ही कंघी ही करते हैं। बाकी आस्था बने रहनी चाहिए इसलिए वहां पूजापाठ कर लेते हैं।
300 लोगों का परिवार यहां रहता है, आपस में ही शादी ब्याह हो जाते हैं और बच्चे पैदा करते चले जा रहे हैं। परिवार नियोजन की कोई जागरूकता नहीं और न ही शासकीय महकमे ने इस दिशा में कोई काम किया। चूंकि यह किसी गांव के निवासी नहीं है, इसलिये किसी ग्राम पंचायत की जिम्मेदारी नहीं है न ही नगरीय प्रशासन की।
राहत की बात बस इतनी सी है कि शासन की ओर से इनके लिए अब पक्के मकान बनाए जा रहे हैं। अब इनका राशनकार्ड बना चुका है जिससे कम से कम चावल तो मिल जाता है।
मूलभूत चिकित्सा सुविधा का लगभग पूर्णत: अभाव है, यहाँ स्त्रियों के मासिक के समय लिये जाने वाले कपड़े, न डिलीवरी के समय कोई विशेषज्ञ, सब राम भरोसे चल रहा है। और उस पर आश्चर्य की बात यह कि शहर से लगे डेरे के बावजूद यहां कोरोना से बीमारी/मृत्यु का प्रतिशत शून्य है।

ऐसे बदतर स्थिति में सामाजिक कार्यकर्ता सुरेश शुक्ला की नजर इस डेरे में पड़ती है। सुरेश शुक्ला निदान नाम की संस्था चलाते हैं, और उन्हांने संकल्प लिया कि इन मासूमों के बचपन को बरबाद होने से बचाकर, उन बच्चों को मुख्यधारा से जोडक़र उनके सपने को आकाश देंगे। सुरेश शुक्ला ने तय किया है कि ये 100 दिनों में बिना किसी शासकीय सहायता के इन डेरों के मासूमों को व्यवहार परिवर्तन की दिशा में करेंगे। एक सप्ताह तक लगातार उनसे बातचीत और प्रोत्साहित करने का सकारात्मक परिणाम धीमे-धीमे नजर आने लगा है।
कल मैंने पूरा दिन उन बच्चों के साथ बिताया। उनसे मित्रतापूर्वक बातचीत किया हमने छोटी-छोटी बातें उन्हें सिखाने की कोशिश की। उन बच्चों का दर्द यह था कि बाहर के लोग उनसे अछूतों सा व्यवहार करते हैं।

सुरेश बताते हैं कि पहले उन्हें स्वच्छ रहने के लिए प्रेरित किया फिर नृत्य-संगीत और खेलकुद-प्रतिस्पर्धा करायी और विजेता बच्चों को कपड़े दिये जिससे कि उन्हें किसी भी प्रकार यह भीख/दया जैसा न लगे।
यह तय है कि सर्प-डेरों की कहानियाँ फिल्म गाईड/कारवों की तरह चकाचौंध से भरी नहीं होती।