बस्तर

‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता
जगदलपुर, 28 जून। गोंचा पर्व के अवसर पर तीनों भगवान जगन्नाथ , बलभद्र और सुभद्रा विग्रहों के साथ मंदिर से बाहर निकले और रथ पर सवार होकर मौसी के घर जनकपुर पहुंचे, ये वो अवसर होता है जब भगवान साल में एक बार अपना रत्न सिंहासन छोडक़र श्रीमंदिर से बाहर निकलते हैं, और अपनी प्रजा का हाल जानते हैं। ये वो क्षण होता है जब भक्त भगवान के नहीं, भगवान भक्तों के दर्शन के लिए निकलते हैं। ये बहुत ही सुंदर भाव है जो भक्त और भगवान के बीच के प्रेम को दर्शाता है।
रथयात्रा तो कई जगह होती है, लेकिन तुपकी, बस्तर गोंचा की खास पहचान हैं। रथयात्रा के दौरान भगवान को तुपकी से सलामी दी जाती है। बस्तर गोंचा इसी अनूठेपन के कारण अलग पहचान है। भगवान जगन्नाथ को भक्त बांस से बनने वाली तुपकी और मालकांगनी के फल (पेंग) से सलामी देते हैं, ये परंपरा सिर्फ बस्तर के जगदलपुर में ही है। आज के दिन पूरे समय इनसे निकलने वाली आवाज़ सुनाई देती है। बस्तर के आसपास के ग्रामीण इसे आज के दिन के लिए तुपकी बना कर बाज़ार में बेचने के लाते हैं। भगवान जगन्नाथ के दर्शन के साथ तुपकी बेचकर कुछ आमदनी भी हो जाती है।
618 साल पहले शुरू रथयात्रा की परंपरा निरंतर रूप से चल रही है। गोंचा पर्व का इस वर्ष 618 वां वर्ष है। हजारों आदिवासी एवं गैर आदिवासी गोंचा में जुटते हैं। जगत स्वामी भगवान जगन्नाथ , बलभद्र ,सुभद्रा जी की प्रतिमाओं एवं विग्रहों को रथारूढ़ कर, बस्तर के राजा कमलचंद भंजदेव द्वारा चांदी के झाड़ू से तीनों रथ के चारों ओर परिक्रमा एवं पूजा अर्चना करके विशाल जनसमूह द्वारा रथ को खींच कर नगर की परिक्रमा कराया गया। इस दौरान रथ सिरहासार में विराजमान किया गया। जिसके बाद वे रथारूढ़ होकर सिरहासार भवन गुंडिचा अपनी मौसी के घर आए। इसी परंपरा को रथयात्रा या गुंडिचा पर्व के नाम से जाना जाता है। बस्तर के स्थानीय बोली में गोंचा पर्व कहा जाता है।
इस दिन प्रसाद स्वरूप गजामूंग का वितरण किया जाता है। इस प्रकार से बस्तर का गोंचा पर्व बस्तर की संस्कृति,एक विरासत को दर्शाता है,यह पर्व लोगों की आस्था से जुड़ा और अभिन्न अंग है, प्रदेश की खुशहाली का प्रतीक है, जिससे सर्वधर्म समभाव के साथ इस पर्व को मनाया जाता है। 360 घर आरण्यक ब्रह्माण् के सदस्यों द्वारा विधि विधान से पूजा अर्चना की गई। इस अवसर पर जनप्रतिनिधि भी गोंचा पर्व में शामिल हुए।