भारत में और पाकिस्तान के बंटवारे के वक़्त एक दूसरे से बिछड़ गए भाई मोहम्मद सिद्दीक़ और मोहम्मद सिका ख़ान अब एक दूसरे से एक बार फिर मिल सकेंगे.
नई दिल्ली स्थित पाकिस्तान उच्च आयोग ने सिका ख़ान को उनके भाई से मिलने के लिए वीज़ा जारी कर दिया है.
वीज़ा मिलने के बाद मोहम्मद सिका ख़ान पाकिस्तान में अपने परिजनों से मिलने के लिए वहां जा सकेंगे.
दोनों भाईयों की इसी महीने करतारपुर दरबार साहिब में 74 साल बाद थोड़ी देर के लिए मुलाकात हुई थी.
नई दिल्ली स्थित पाकिस्तानी उच्चायोग ने मोहम्मद सिका ख़ान को वीज़ा जारी किए जाने की सूचना देते हुए बताया कि दोनों भाईयों की कहानी ये बताती है कि करतारपुर साहिब कॉरिडोर को नवंबर, 2019 में खोले जाने से किस तरह से लोग एक दूसरे के क़रीब आ रहे हैं.
पाकिस्तान सरकार के इस फ़ैसले पर खुशी जाहिर करते हुए मोहम्मद सिका के भाई मोहम्मद सिद्दीक़ ने कहा कि वे इमरान ख़ान हुकूमत का शुक्रिया अदा करते हैं. उन्होंने कहा, "हमें बहुत ख़ुशी हुई है. सारे गांव को ख़ुशी हुई है. जिसने भी ये काम में मदद की है, मैं उन सबका एहसानमंद हूँ. हमें इतनी ख़ुशी है कि जब वो आएंगे तो हम ढोल मंगवाएंगे और गांव इकट्ठा होगा."
बिछड़ने का दर्द
पाकिस्तानी उच्चायोग ने बताया, "सिका ख़ान की सीडीए (चार्ज डी अफ़ेयर्स) आफ़ताब हसन ख़ान और उच्चायोग के अन्य अधिकारियों से मुलाकात हुई. उन्होंने सीडीए के सहयोग के लिए शुक्रिया कहा है."
ये दोनों भाई बंटवारे के वक़्त तब बिछड़ गए थे, जब उनका परिवार अफ़रा-तफ़री में जालंधर से पाकिस्तान के लिए रवाना हुआ. उनके पिता की मौत हो गई. सिद्दीक़ अपनी बहन के साथ पाकिस्तान पहुंच गए. सिका ख़ान उर्फ़ हबीब ख़ान अपनी माँ के साथ यहीं रह गए. मां की बाद में मृत्यु हो गई.
उन्हें अभी भी पूरी तरह याद नहीं है कि यह सब कैसे हुआ था. लेकिन करीब 75 साल बाद करतारपुर कॉरिडोर के ज़रिये दोनों भाइयों का मिलन हुआ. ये उन अनगिनत कहानियों में से एक है जिनकी शुरुआत विभाजन से हुई थी.
इससे पहले पाकिस्तान में पंजाब के फ़ैसलाबाद ज़िले के चक 255 के रहने वाले मोहम्मद सिद्दीक़ ने बीबीसी के सहयोगी पत्रकार मोहम्मद ज़ुबैर ख़ान से कहा था, "मैं इमरान ख़ान से कहता हूँ कि वो बिछड़े हुए भाइयों को मिलाने के लिए मेरे भाई मोहम्मद हबीब को पाकिस्तान का वीज़ा दे दें. अगर हम जीवन की अंतिम सांसें एक साथ बिताएंगे, तो शायद अपने माता-पिता और बहन-भाइयों से बिछड़ने का दर्द कम हो सके."
वो छोटी सी मुलाक़ात
करतारपुर में दोनों भाइयों की मुलाक़ात के चश्मदीद गवाह नासिर ढिल्लों का कहना है कि उनका मेल बेहद भावुक कर देने वाला रहा. इस मौक़े पर क़रीब सौ लोग मौजूद थे.
सभी की आंखों में ख़ुशी के आंसू थे. चंद घंटों की मुलाक़ात के बाद जब दोनों भाई एक बार फिर जुदा हो रहे थे तो सबकी आंखें एक बार फिर नम हो गई थी.
दोनों भाइयों के बीच कई वर्षों के बाद पहला संपर्क दो साल पहले हुआ था. दो साल से ऐसा कोई दिन नहीं गुज़रता जब दोनों भाई एक-दूसरे को वीडियो कॉल नहीं करते.
मोहम्मद सिद्दीक़ मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल करना नहीं जानते, लेकिन उनके बच्चे और गांव वाले इस मामले में उनकी मदद करते हैं.
इसी तरह, मोहम्मद हबीब भी मोबाइल फ़ोन का इस्तेमाल नहीं करते लेकिन उनके सिख दोस्त उनकी मदद करते हैं. मोहम्मद हबीब एक सिख परिवार के साथ रहते हैं.
मोहम्मद सिद्दीक़ को अपने परिवार से अलग होने की कहानी अच्छी तरह याद है. उस वक्त उनकी उम्र क़रीब 10 से 12 साल थी. जबकि मोहम्मद हबीब को अपने माता, पिता, भाई-बहन के नाम और जिस इलाक़े में वे अब रहते हैं, वहाँ के लोगों से सुनी हुई बातों के सिवाय कुछ भी याद नहीं है. उस समय उनकी उम्र लगभग डेढ़ दो साल थी.
मोहम्मद सिद्दीक़ बताते हैं कि हमारा गांव जागरावां जालंधर में था.
वो कहते हैं, "मेरे पिता एक ज़मींदार थे. मुझे याद है कि हमारे खेतों में बहुत ख़रबूज़ा लगता था. मुझे अपनी माँ भी याद है."
उन्हें याद है कि उनकी माँ उनके छोटे भाई मोहम्मद हबीब को लेकर फूलवाला में अपने मायके गई थी. उस गाँव का नाम आज भी फूलवाला ही है और यह भारत के बठिंडा जिले में है.
मोहम्मद सिद्दीक़ का कहना है कि विभाजन के बाद आने वाले क़ाफ़िले कुछ जानकारी देते रहते थे.
मोहम्मद सिद्दीक़ कहते हैं, "हमारे ज़माने में पहचान पत्र तो बनते नहीं थे, लेकिन मैं पाकिस्तान की उम्र से 10 से 12 साल बड़ा हूं. जीवन के कई महीने और साल अपने भाई को याद करते हुए बिताए थे. मां की मौत का यक़ीन आ गया था. बहन और पिता के शव देख लिए थे. लेकिन भाई के बारे में ज़िंदगी भर यह यक़ीन रहा कि मेरा भाई जीवित है."
मोहम्मद हबीब अपने बचपन और अतीत के बारे में ज़्यादा बात करने को तैयार नहीं हुए. वो कहते हैं, "बिना माँ बाप के बच्चे के साथ क्या हुआ होगा और क्या होता होगा. मैंने बस अपना जीवन उस गाँव में बिता दिया है जहां मेरी माँ मुझे छोड़ कर मरी थी."
मोहम्मद हबीब इस बारे में भी बात नहीं करते कि उन्होंने शादी क्यों नहीं की, घर क्यों नहीं बसाया, वह सिर्फ़ इतना कहते हैं, "मेरे सरदार दोस्त और फूलवाला के लोग ही मेरे सब कुछ हैं. उन्होंने ही मुझे मेरे भाई से मिलवाया है."
वो बताते हैं, "मेरा दिल हमेशा कहता था कि मेरा भाई ज़िंदा है. मुझे उसको देखने की बहुत चाहत थी. मैं पीरों और फ़क़ीरों के पास भी गया. सबने कहा कि कोशिश करोगे तो भाई मिल जाएगा."
वो कहते हैं, "पूरा गाँव मेरी कहानी जानता है. मैंने अपनी कहानी अपने नंबरदार और अब नंबरदार के बेटे मोहम्मद इशराक़ को सुनाई थी. मोहम्मद इशराक़ आज से क़रीब दो साल पहले नासिर ढिल्लों के साथ मेरे पास आया था. उसने मुझसे सारी बातें पूछ कर, उसे कैमरे में रिकॉर्ड किया और मेरी फ़िल्म चलाई.
"फ़िल्म चलने के कुछ दिनों बाद ही वह और मोहम्मद इशराक़ दोबारा आए. उन्होंने कहा, कि मेरा भाई मिल गया है. उन्होंने मेरे भाई से बात भी कराई थी."
फूलवाला के डॉक्टर जगफ़ीर सिंह कहते हैं कि मोहम्मद हबीब या हबीब ख़ान को हम सब लोग सिका के नाम से जानते हैं. "उनका असली नाम शायद पूरे क्षेत्र में बहुत कम लोगों को पता है. उनमें से मैं भी एक हूं. मैंने अपने बड़ों से शिका की कहानी सुनी थी जबकि ख़ुद शिका भी मुझे कई बार अपनी कहानी सुना चुके थे." (bbc.com)