-दिलनवाज़ पाशा
पाकिस्तान, जिन्ना, तालिबान ये शब्द उत्तर प्रदेश की चुनावी बहसों और भाषणों में ख़ूब सुनाई दे रहे हैं. आबादी के लिहाज से भारत के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं. यहीं देश की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक मुसलमान आबादी रहती है.
उत्तर प्रदेश का पाकिस्तान से कोई सीधा संबंध नहीं है. ना ही उत्तर प्रदेश की सीमा पाकिस्तान से लगती है. लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनावी माहौल पर पाकिस्तान और जिन्ना हावी होते जा रहे हैं.
हाल के दिनों में समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सबसे पहले अपने वक्तव्य में पाकिस्तान के संस्थापक और भारत की आज़ादी के आंदोलन में शामिल रहे मोहम्मद अली जिन्ना का ज़िक्र किया. इसके बाद जिन्ना राजनीतिक भाषणों और बहसों के केंद्र में आ गए.
वहीं एक साक्षात्कार के दौरान अखिलेश यादव ने कहा कि 'हमारा नंबर वन दुश्मन पाकिस्तान नहीं है, वो तो भाजपा....' उनका ये बयान भी मीडिया की सुर्ख़ियाँ बन गया.
अखिलेश यादव के इस बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा, "जो जिन्ना से करे प्यार, वो पाकिस्तान से कैसे करे इनकार."
यूपी चुनाव और आज का मुसलमान
यही नहीं बुधवार को उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय के एक राजनीतिक कार्यक्रम में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने कहा, "हमारा आपका नाता तो 650 साल पुराना है. आप भी मुग़लों से लड़े हम भी लड़ रहे हैं."
हाल ही में मुज़फ्फ़रनगर के बीजेपी विधायक और उम्मीदवार विक्रम सिंह सैनी ने एक गांव में चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कहा, "पाकिस्तान की हिम्मत है क्या, जाकर ठोके पाकिस्तान में. अगर पाकिस्तान को इसी तरह ठोकना पीटना चाहते हो और यहां जो देशद्रोही हैं, गद्दार हैं (गाली) रोटी यहां की खा रहे हैं, अगर चाहते हो ऐसे-लोगों की ठुकाई पिटाई होती रहे, गोली (गाली) के घुटनों पर लगती रहे तो कमल के फूल पर बटन दबा देना." - link
हालांकि अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ दिए गए इस बयान के बाद ग्रामीणों ने विक्रम सिंह सैनी को गांव से खदेड़ दिया था और भीड़ के बीच घिरे विधायक को माफ़ी मांगकर भागना पड़ा था.
पाकिस्तान, जिन्ना, मुसलमान पर हो रही बहस
पाकिस्तान, जिन्ना, तालिबान और मुग़ल जैसे शब्द सिर्फ़ राजनीतिक बयानबाज़ी तक सीमित नहीं है बल्कि टीवी चैनलों की बहसें इनसे भरी पड़ी हैं जिससे सवाल उठने लगा है कि क्या ऐसे में ज़मीनी मुद्दे पीछे छूट सकते हैं.
समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता अब्दुल हफ़ीज़ गांधी कहते हैं, "भाजपा विकास की राजनीति करने में विफल रही है, यूपी का विकास नहीं कर सकी है, इसलिए ही ध्रुवीकरण की राजनीति कर रही है."
भारतीय जनता पार्टी इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज करती है. पार्टी प्रवक्ता राकेश त्रिपाठी कहते हैं कि पाकिस्तान की चर्चा और जिन्ना की एंट्री अखिलेश यादव ने ही की है.
वे कहते हैं,"सरदार पटेल की जयंती के दिन पूरा देश राष्ट्रीय एकता दिवस मना रहा था और अखिलेश यादव बिना किसी प्रसंग के जिन्ना का गुणगान कर रहे थे. पाकिस्तान का नाम अखिलेश ले रहे हैं, जिन्ना का नाम अखिलेश ले रहे हैं, उनकी पार्टी के सांसद शफीक़ुर्रहमान बर्क़ तालिबान को स्वतंत्रता आंदोलनकारी कह रहे हैं और आरोप बीजेपी पर लगाया जा रहा है कि हम पाकिस्तान और जिन्ना को चुनाव में ला रहे हैं. हम सिर्फ उनके बयान पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं. ये स्पष्ट है कि चुनाव में पाकिस्तान, जिन्ना और तालिबान का नाम लेकर कौन लाभ लेना चाहता है."
इस पर जवाब देते हुए समाजवादी पार्टी प्रवक्ता अब्दुल हफ़ीज़ गांधी कहते हैं, "जहां तक समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलश यादव के बयान का सवाल है उन्होंने डॉक्टर लोहिया के वक्तव्य के बारे में बात की थी. उनके बयान को प्रसंग से अलग हटकर लिया जा रहा है.
"साक्षात्कार में उनसे चीन के निवेश के बारे में सवाल पूछा गया था. निवर्तमान सीडीएस बिपिन रावत ने भी कहा था कि भारत के लिए बड़ा ख़तरा उत्तरी सीमा यानी चीन की तरफ़ से है. उन्होंने चीन को बड़ा ख़तरा बताया था. अखिलेश यादव ने भी इसी तरह का बयान दिया था, बीजेपी इसका इस्तेमाल प्रोपेगेंडा के लिए कर रही है."
वहीं उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के अल्पसंख्यक मामलों के अध्यक्ष शाहनवाज़ आलम कहते हैं कि चुनाव में पाकिस्तान और जिन्ना का इस्तेमाल सिर्फ़ बीजेपी नहीं कर रही.
आलम कहते हैं, "यदि ध्रुवीकरण होता है तो इससे समाजवादी पार्टी को भी फ़ायदा होगा. सिर्फ़ एक दल करेगा तो ध्रुवीकरण नहीं होगा. अखिलेश ने उसी दिन जिन्ना का नाम लिया जिस दिन प्रियंका गांधी की बड़ी रैली थी. अखिलेश ने कहा कि जिन्ना बहुत सेकुलर और अच्छे आदमी थे. अखिलेश को जिन्ना तो याद आए लेकिन अपनी ही पार्टी के आज़म ख़ान याद नहीं आए."
आलम कहते हैं, "चुनाव को जनता के मुद्दों से काट कर ध्रुवीकृत करने की एक स्पष्ट कोशिश नज़र आती है और ये बीजेपी और समाजवादी पार्टी दोनों कर रही हैं. सपा और भाजपा इसे द्विपक्षीय मुक़ाबला बना देना चाहती है. आमतौर पर लगता है कि धार्मिक ध्रुवीकरण की इस राजनीति में सिर्फ़ भाजपा शामिल है, लेकिन ऐसा नहीं है."
जिस बयान पर हुआ विवाद
अखिलेश यादव ने सरदार वल्लभ भाई पटेल की जयंती और राष्ट्रीय एकता दिवस पर 31 अक्तूबर को हरदोई में दिए बयान में जिन्ना का ज़िक्र किया था. यादव ने कहा था, "सरदार पटेल, भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू और जिन्ना एक ही संस्थान में पढ़कर बैरिस्टर बने थे. उन्होंने भारत के लिए आज़ादी हासिल की. वो किसी संघर्ष से पीछे नहीं हटे. लौह पुरुष सरदार पटेल ने आरएसएस की विचारधारा पर पाबंदी लगा दी थी"
अखिलेश यादव ने अपने बयान में सिर्फ़ एक बार जिन्ना के नाम का इस्तेमाल किया था. लेकिन अब ये शब्द यूपी चुनावों में लगातार सुना जा रहा है.
राजनीतिक विश्लेषक सुनील यादव कहते हैं, "अखिलेश यादव ने अपने वक्तव्य में स्वतंत्रता आंदोलन पर बात करते हुए जिन्ना का नाम भर लिया था जिसे लेकर लगातार बहस की जा रही है. उस छोटी सी बात को खींच कर बड़ा करने की कोशिश की जा रही है. मीडिया की बहसों और सत्तावर्ग के नेताओं के बयानों से ये कोशिश की जा रही है कि चुनाव किसी तरह धार्मिक पिच पर आ जाए."
क्या सोच रहे हैं मुसलमान?
इन बयानों को लेकर अधिकतर मुसलमान नेता ख़ामोश हैं, ना ही इसे लेकर मुस्लिम समुदाय की ओर से कोई विरोध या प्रतिक्रिया हुई है.
वरिष्ठ पत्रकार वसीम अकरम त्यागी मानते हैं कि मुसलमान ध्रुवीकरण की राजनीति से आगे बढ़ चुके हैं.
वो कहते हैं, "उत्तर प्रदेश का मुसलमान इन चुनावों में किसी भी सांप्रदायिक मुद्दों को महत्व नहीं देने जा रहा है. वह समझ चुका है कि भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में वोटों का ध्रुवीकरण तभी संभव होता है जब मुसलमान उस पर प्रतिक्रिया दें. वर्तमान बयानबाज़ी अखिलेश यादव की तरफ से शुरू हुई है, ऐसे में मुसलमानों पर अधिक लाजमी हो जाता है कि वह इस तूफ़ान को चुपचाप गुज़रने दें."
लेकिन जब दिन रात धार्मिक मुद्दों पर बात होगी तो क्या इसका सीधा असर जनता पर नहीं होगा?
इस सवाल पर सुनील यादव कहते हैं, "ऐसा लग रहा है कि जनता इस चुनाव में धर्म से ज्यादा मुद्दों से कनेक्ट हो रही है. जातियों का गठजोड़ भी मज़बूत होता दिख रहा है. पिछले चुनाव में बीजेपी ने जातियों के गठजोड़ से ही चुनाव जीता था. इस बार अखिलेश यादव इसे अपने पक्ष में करने की कोशिशों कर रहे हैं. कहीं ना कहीं सत्तापक्ष को ये लग रहा होगा कि अगर हम जातिगत समीकरणों में या मुद्दों में पिछड़ते हैं तो उसकी भरपाई धार्मिक ध्रुवीकरण से की जा सकती है."
वहीं कांग्रेस से जुड़े शाहनवाज़ आलम कहते हैं, "राजनीतिक दल ऐसी कोशिश करते हैं, समाज का एक तबक़ा है जो इससे प्रभावित भी होता है, मीडिया भी इन्हें अधिक जगह देती है. इस तरह के बयानों से जनता के दिमाग़ पर असर करने की कोशिश ज़रूर होती है, लेकिन हमें लगता है कि अधिकतर लोग मुद्दों के आधार पर ही वोट देते हैं."
क्या पीछे छूट गए हैं मुद्दे?
कोरोना महामारी, इससे जन्मा आर्थिक संकट, बेरोज़गारी, किसान आंदोलन - ये कुछ मुद्दे ऐसे हैं जिनकी चर्चा होती रही है. तो क्या ध्रुवीकरण की राजनीति ने जनता के मुद्दों के दबा दिया है?
समाजवादी पार्टी प्रवक्ता हफ़ीज़ गांधी कहते हैं, "बीजेपी ना बिजली की बढ़ी हुई दरों पर बात करना चाहती है, ना ही बेरोज़गारी की भयावह स्थिति या सड़कों की जर्जर हालत पर बात करना चाहती है. वो महिलाओं के उत्पीड़न पर बात नहीं करना चाहते हैं. बीजेपी के पास कोई मुद्दा नहीं है, इसलिए ही वो धार्मिक ध्रुवीकरण कर रही है."
इन आरोपों को सिरे से ख़ारिज करते हुए बीजेपी प्रवक्ता राकेश त्रिपाठी कहते हैं, "अखिलेश यादव जिन्ना का नाम लेंगे तो क्या हम चुप रहेंगे, हम उन्हें जवाब देंगे ही. वो तालिबान की तुलना भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से करेंगे और हम प्रतिक्रिया भी नहीं करेंगे? "
त्रिपाठी आगे कहते हैं, "समाजवादी जानबूझकर विकास के मुद्दों को पटरी से उतारने के लिए पाकिस्तान और जिन्ना का ज़िक्र करती है. भाजपा ने कभी ऐसा नहीं किया है. समाजवादी पार्टी ने अपने शासनकाल में क़ब्रिस्तानों की चारदीवारी बनवाई लेकिन श्मशान के लिए कुछ नहीं किया. क्या हम ये कहें भी नहीं?"
त्रिपाठी का तर्क है कि बीजेपी का मुद्दा विकास ही है ध्रुवीकरण नहीं. वो कहते हैं, "हम चुनौती देकर ये कह रहे हैं कि विपक्षी दल बिजली के मुद्दे पर हमसे बहस करे, सड़कों, स्वास्थ, शिक्षा के मसले पर बहस करे. हम हर बुनियादी मुद्दे पर बहस करना चाहते हैं लेकिन समाजवादी पार्टी की पोल खुल जाती है क्योंकि हम फ़र्क़ साफ़ दिखाते हैं."
बीजेपी शासनकाल में अल्पसंख्यकों की उपेक्षा के आरोपों को खारिज करते हुए त्रिपाठी कहते हैं, "हम आँकड़ों के साथ ये साबित कर सकते हैं कि अल्पसंख्यकों के साथ कोई भेदभाव नहीं हुआ है. हमारे कार्यकाल में 43 लाख प्रधानमंत्री आवास दिए गए. इनमें 27 प्रतिशत मुसलमानों को दिए गए, ये उनकी आबादी के अनुपात से अधिक हैं. हमने योजनाओं का लाभ देने में मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुपात से अधिक हिस्सेदारी दी है."
मगर जानकार बताते हैं कि यूपी के मुसलमानों ने बीजेपी के प्रति झुकाव नहीं दिखाया है. बीजेपी गठबंधन ने भी अभी तक सिर्फ़ एक ही मुसलमान उम्मीदवार को टिकट दिया है. वसीम अकरम त्यागी मानते हैं कि इस माहौल ने मुसलमानों को समाजवादी पार्टी की तरफ़ धकेल दिया है.
त्यागी कहते हैं, "भारतीय जनता पार्टी ने 80:20 का नारा उछाल कर मुसलमानों को एक बार फिर समाजवादी पार्टी की तरफ धकेलने में भी भूमिका निभाई है. अखिलेश यादव ही चुनाव में गलतियाँ नहीं कर रहे हैं, बल्कि भारतीय जनता पार्टी की तरफ से भी भारी गलतियाँ की जा रही हैं." (bbc.com)