संपादकीय
दुनिया में लोगों को ज्ञान और समझ के बीच का फर्क आमतौर पर मालूम नहीं होता। जो जानकारी से लबालब है, उसे समझदार मान लिया जाता है। जबकि यह भी हो सकता है कि किसी ने केबीसी या सामान्य ज्ञान के इम्तिहान के लिए तैयारी की हो, और इतिहास से लेकर विज्ञान तक, क्रिकेट से लेकर अंतरिक्ष तक सब कुछ पढ़ डाला हो जिससे ज्ञान तो बहुत मिल गया हो, लेकिन समझ जरूरी नहीं है कि कुछ भी मिली हो। जिन लोगों को हिन्दी के शब्दों से ठीक से समझ न आ रहा हो, उनके लिए यह बताना ठीक होगा कि नॉलेज जरूरी नहीं है कि विज्डम भी लेकर आए। जिन लोगों ने हिरोशिमा-नागासाकी पर गिराया गया परमाणु बम बनाया था, उनका ज्ञान बहुत था, लेकिन उनके पास यह समझ नहीं थी कि ऐसी तकनीक विकसित करने से बेदिमाग और बद्दिमाग नेताओं के हाथ किस तरह की बेहिसाब ताकत लग जाएगी, और उससे कितनी तबाही हो सकेगी। ये लोग अपनी तकनीकी कामयाबी पर आत्ममुग्ध थे, और किसी ने नहीं सोचा कि इससे दुनिया का विकास नहीं होने जा रहा, विनाश होने जा रहा है।
कुछ-कुछ ऐसा ही कई बार चिकित्सा विज्ञान के साथ भी लगता है। डॉक्टरों ने ऐसी दवाईयां और तकनीक हासिल कर ली हैं कि पहले जिन बीमारियों से जल्दी मौत हो जाती थी, उन पर पार पाया जाता है, और लोग लंबी जिंदगी जीते हैं। बुढ़ापे के बरस बड़े लंबे हो चल रहे हैं। दुनिया के अधिकतर देशों में औसत आबादी बढ़ती चल रही है। और जो तबका इलाज का खर्च उठा सकता है, वह तबका महंगे से महंगा, और आधुनिक इलाज पाकर जिंदगी को लंबा करते चल रहा है। फिर वह लंबाई जरूरी नहीं है कि एक बेहतर जिंदगी भी हो, और बेहतर भी क्यों कहें, अच्छी जिंदगी भी हो। जिंदगी कैसी है, यह बात डॉक्टरी कामयाबी को उतना तय नहीं करती है जितना यह बात करती है कि जिंदगी कितनी लंबी खींची जा सकती है। हम बीच-बीच में ऐसी खबरें पढ़ते हैं कि कुछ लोगों को बरसों तक वेंटिलेटर पर रखा गया, और फिर वे होश में आए बिना ही गुजर गए। बरसों पहले का बेहोश होने के पहले का वह आखिरी दिन उनकी याद में रहा होगा, और वे मशीनों से चल रही सांसों और धडक़न के बावजूद उस याद को दुबारा नहीं सोच पाए होंगे। इन दिनों यह भी लगातार सुनाई पड़ता है कि उम्र के साथ-साथ लोगों को होने वाली कई किस्म की दिमाग से जुड़ी हुई बीमारियां होने लगी हैं, वे सब कुछ भूलने लगे हैं, उनका काबू अपने बदन पर नहीं रह जाता है, और वे खराब हालत में लंबी जिंदगी जीते रह जाते हैं। अब चिकित्सा विज्ञान अनुसंधान और तकनीक से आगे बढ़ा हुआ एक ऐसा विज्ञान है जिसकी अपनी कोई सोच नहीं है, उसकी इलाज की या जिंदगी को ढोने की एक ताकत है, जिसका इस्तेमाल डॉक्टरों को अपनी समझ से करना होता है। और यह समझ लोगों को अपने पेशे की तकनीकी और वैज्ञानिक कामयाबी पर टिके रहने को मजबूर करती है। उनकी समझ यह नहीं सुझा पाती कि बाहरी मदद से किसी बदन को कितना ढोया जाए, किस लागत पर ढोया जाए, और क्या उतनी क्षमता से और कई लोगों को जिंदा रहने में, बेहतर जिंदगी में मदद की जा सकती थी?
लोगों को याद होगा कि किस तरह जब योरप में इटली कोरोना का शिकार हुआ, और अंधाधुंध मामले सामने आने लगे, तो बहुत से अस्पतालों ने यह तय कर लिया कि वेंटिलेटर जैसी सीमित सुविधाओं से उन्हीं जिंदगियों को पहले बचाया जाए जिनकी लंबी जिंदगी बाकी है। कोरोना से तो वे लोग भी संक्रमित थे जो कि बहुत बूढ़े थे, जो कोरोना के पहले भी बहुत बुरी तरह मेडिकल-मदद पर चल रहे थे, और कोरोना के बाद जिनकी जिंदगी बहुत लंबी न होने के आसार थे, उन लोगों पर वेंटिलेटर खर्च नहीं किया गया। बहुत से लोगों को यह बात अमानवीय लग सकती है, कि एक मरीज को बचाया जा सकता था, लेकिन उसे वेंटिलेटर नहीं लगाया गया। लेकिन जिंदगी की हकीकत को देखते हुए समझदारी यही थी कि सीमित वेंटिलेटर से पहले उन्हीं को बचाया जाए जिनके सामने लंबी और सेहतमंद जिंदगी बाकी है, और इटली में डॉक्टरों ने यही किया। दुनिया भर में इक्का-दुक्का ऐसे भी लोग मिले जो बहुत बुजुर्ग हो चुके थे, और उन्होंने खुद होकर वेंटिलेटर और ऑक्सीजन की दौड़ में अपने लोगों को नहीं झोंका, और चैन से गुजर गए।
बहुत से लोग जिनकी संपन्नता इतनी रहती है कि वे कोई भी इलाज खरीद सकते हैं, लेकिन वे अपने लोगों को यह बता चुके रहते हैं कि नौबत आने पर उन्हें कृत्रिम जीवनरक्षक मशीनें न लगाई जाएं क्योंकि उन्हें लगाने का कोई अंत नहीं है, वे मशीनें लोगों को बरसों तक जिंदा रख सकती हैं, बिना होश रहे। इसलिए उससे बेहतर नौबत गुजर जाना है, ताकि परिवार के बाकी लोगों की जिंदगी तबाह न हो। चिकित्सा विज्ञान एक विज्ञान के रूप में बहुत कामयाब है, लेकिन यह सवाल अलग है कि क्या वह समझदारी में भी उतना कामयाब है? या कि अपनी रिसर्च, अपनी बनाई दवा और मशीनें, अपनी बनाई जांच की तकनीक को तौलते हुए वह लोगों को अंतहीन जिंदा रखने में लगे रहता है? वैज्ञानिक नजरिए से तो यह बात समझदारी की लगती है, लेकिन जब दुनिया में बहुत सीमित चिकित्सा सुविधा को देखें, तो लगता है कि क्या चुनिंदा ताकतवर लोग इनका इतना अधिक इस्तेमाल करते रहें कि बहुत से दूसरे जरूरतमंद लोगों को ये हासिल ही न हो सके? यहां पर आकर मरीजों और डॉक्टरों, और मरीजों के परिजनों की भी समझदारी का सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या एक बेबस और अपाहिज सरीखी बहुत लंबी जिंदगी को खींचते चले जाना समझदारी है? यह विज्ञान के हिसाब से मुमकिन है, लेकिन समझ के हिसाब से नाजायज है। इस फर्क को समझने की जरूरत है। ज्ञान हमेशा समझ नहीं होता, और समझ की परख नाजुक मौकों पर होती है, उन मौकों पर लोग अपने खुद के बारे में कोई फैसला करने की हालत मेें नहीं रहते, दूसरों को ही वैसे फैसले लेने पड़ते हैं। इसलिए लोगों को वक्त रहते हुए, अपने इलाज, अपनी सेहत, अपने बदन के अंगदान, देहदान जैसे फैसले कर लेने की समझदारी दिखानी चाहिए।
महाराष्ट्र के एक परिवार की विचलित करने वाली खबर है। वहां पिता को बहला-फुसलाकर एक बेटे ने चार एकड़ जमीन और मकान अपने नाम पर करवा लिया। इसके बाद पिता को तीर्थयात्रा करवाने के बहाने लेकर निकला, और मध्यप्रदेश के देवास स्टेशन पर खाना लाने के बहाने पिता को छोडक़र चले गया। बूढ़ा और कमजोर पिता तीन हफ्ते से अधिक स्टेशन पर ही बैठकर बेटे का इंतजार करते रहा, इसके बाद अफसरों ने उसे ले जाकर एक वृद्धाश्रम में दाखिल करवाया। माता-पिता को तीर्थ करवाने के नाम पर हिन्दी-हिन्दुस्तान के जहन में श्रवण कुमार की कहानी आती है जो कांवर पर अंधे मां-बाप को बिठाकर तीर्थयात्रा पर निकला, और रास्ते में राजा दशरथ ने गलती से श्रवण कुमार पर बाण चला दिया, उसकी वहीं मौत हो गई, और उसके मां-बाप ने दशरथ को श्राप दिया जिसकी वजह से राम को बनवास हुआ और दशरथ ने पुत्र वियोग में प्राण त्याग दिए। एक तरफ यह कहानी है, दूसरी तरफ आज का यह श्रवण कुमार है जो इतने बूढ़े और कमजोर पिता को स्टेशन पर इस तरह छोड़ गया जिस तरह कि लाइलाज बीमारी के शिकार किसी घरेलू जानवर को लोग शहर के पास के किसी जंगल में छोड़ आते हैं। फिर इस श्रवण कुमार ने यह काम सारी दौलत अपने नाम करवाने के बाद किया।
हम पहले भी इस अखबार में यह लिखते रहे हैं कि लोगों को भावनाओं में बहकर अपनी सारी प्रापट्री औलादों के नाम नहीं करनी चाहिए। यह मानकर चलना चाहिए कि उनकी अपनी जिंदगी खासी लंबी हो सकती है, क्योंकि आज दुनिया भर में औसत उम्र बढ़ती चल रही है। फिर यह भी है कि अब महंगे इलाज जगह-जगह उपलब्ध होने लगे हैं, और अधिक उम्र तक जिंदा रहने पर इनमें से कई किस्म के इलाज की जरूरत पड़ सकती है। इसलिए लोगों को अपनी बचत, अपनी दौलत, अपने जिंदा रहने तक अपने काबू में रखनी चाहिए। और अपने जाने के बाद के लिए तो उनके पास यह विकल्प रहता ही है कि वे आल-औलाद के लिए छोड़ जाएं, या फिर समाजसेवा के किसी काम के लिए दे जाएं। जो लोग संतानप्रेम में अपनी मौत के काफी पहले अपनी जमीन-जायदाद, अपनी बचत, सब कुछ बच्चों को दे देते हैं, उनमें से काफी लोगों का वक्त बड़ा मुश्किल गुजरता है। उन्हें बगल से आते-जाते बच्चों का ध्यान खींचने के लिए भी खांसना पड़ता है, तब बच्चों को दिखता है कि बूढ़े मां-बाप अभी बाकी हैं।
और लोगों को यह भी समझना चाहिए कि यह बात उनके बच्चों के भी भले की है कि उन्हें जिम्मेदार बनाए रखने का काम मां-बाप करें। ऐसा करने पर ही उनकी अगली पीढ़ी यह देख पाती है कि चाहे मां-बाप के प्रेम में, या फिर दौलत के लिए, किस तरह मां-बाप की सेवा की जाती है, मां-बाप की फिक्र की जाती है। इससे अगली पीढिय़ों तक भी यह नसीहत मिसाल के तौर पर आगे बढ़ती है, और आज के बुजुर्ग मां-बाप अपने बच्चों के बुढ़ापे के वक्त के लिए अपने पोते-पोती के सामने यह मिसाल रख जाते हैं। हो सकता है कि आज बच्चों को रकम की जरूरत हो, हर किसी को रहती है, खासकर जिनके मां-बाप के पास रकम दिखती रहती है, लेकिन अपने जिंदा रहने के इंतजाम के बाद ही बच्चों की मदद करनी चाहिए, वरना बुढ़ापे में अगर हाथ फैलाने की नौबत आई, तो उस वक्त की बदनामी भी बच्चों के नाम ही लिखाती है। इसलिए उन्हें ईमानदार और जिम्मेदार बनाए रखने का जिम्मा मां-बाप का ही रहता है।
महाराष्ट्र की यह खबर आई थी कि एक दूसरी खबर भी पिछले दो-चार दिनों से सामने खड़ी हुई थी। देश की एक प्रमुख पत्रिका में दशकों तक पत्रकारिता कर चुके एक व्यक्ति ने इंस्टाग्राम पर अपनी 90 बरस की मां की फोटो के साथ लिखा है कि वे अभी अस्पताल से घर लौटी हैं, और देर से सोकर उठती हैं। इस बीच उनका एक बेटा अपने चार साथियों के साथ सुबह-सुबह पहुंचकर बीमार और कमजोर, 90 बरस की मां को नींद से जगाकर, पांव छूते हुए अपनी तस्वीरें खिंचवाने लगा, क्योंकि उसका जन्मदिन था, और उसे सोशल मीडिया पर ऐसी तस्वीरें पोस्ट करके वाहवाही पानी थी। इसके पहले साल भर में बेटे को मां का हालचाल पूछने का वक्त नहीं मिला था, और न ही अस्पताल में ही मां का ख्याल रखने का। उन्होंने लिखा और भी बहुत कुछ है, जो कि बड़ा तकलीफदेह है। जो लोग सार्वजनिक जीवन और राजनीति में हैं, उन्हें अपने या मां-बाप के जन्मदिन पर इस तरह की नौटंकी करने की जरूरत पड़ती है। और लंबे वक्त से यह बात कार्टूनिस्टों के काम भी आती है कि मदर्स डे पर किस तरह ऐसी आल-औलाद साल में एक बार वृद्धाश्रम पहुंचती हैं, और सेल्फी लेकर पोस्ट करती हैं। मां का ऐसा इस्तेमाल बहुत से लोग करते हैं, और ऐसे ही लोग आज इस कलियुग के श्रवण कुमार हैं।
आज यहां इस चर्चा को छेडऩे का मकसद यही है कि लोगों को 80-90 बरस की उम्र तक अपने जिंदा रहने और इलाज की फिक्र पहले करनी चाहिए, उसका पुख्ता इंतजाम रखना चाहिए, और उसके बाद ही आल-औलाद की फिक्र करनी चाहिए जिनके कि हाथ-पैर चलते हों। लोगोंं को यह भी याद रखना चाहिए कि बैंक इन दिनों संपत्ति पर एक रिवर्स मार्टगेज भी करते हैं, जिसमें आपके जिंदा रहने तक आपको हर महीने एक रकम मिलती जाती है, और उसके बाद उस संपत्ति को बेचकर बैंक अपना कर्ज निकाल लेता है, और बाकी रकम वारिसों को दे देता है। ऐसे विकल्प के बारे में भी लोगों को सोचना चाहिए। ये दो घटनाएं जो कि चार दिन के भीतर ही सामने आई हैं, उन्हें देखकर हर किसी को सबक लेना चाहिए, और आल-औलाद भी अगर अपने मां-बाप को सचमुच ही चाहती हैं, तो उन्हें खुद होकर मां-बाप से इसी किस्म की वसीयत भी करवानी चाहिए कि उनसे अगली पीढ़ी को कुछ भी उनके गुजरने के बाद ही मिले।
हैदराबाद की पुलिस ने एक ऐसे नौजवान को गिरफ्तार किया है जिसने देश की करीब आधी आबादी की निजी जानकारियों को जुटाकर इंटरनेट पर बेचने का धंधा चला रखा था। इसमें छात्रों के स्कूल-कॉलेज की जानकारी, जीएसटी, आरटीओ की जानकारी, लोगों के खरीदी, खानपान, ऑनलाईन और मोबाइल से भुगतान जैसी बेहिसाब जानकारी थी। उसने देश के दो दर्जन राज्यों और आठ महानगरों के 65-70 करोड़ लोगों और कारोबार के निजी और गोपनीय डेटा चुराने और बेचने का धंधा चला रखा था। उसके पास ऑनलाईन टैक्सियां इस्तेमाल करने वालों की जानकारी थी, और लाखों सरकारी कर्मचारियों की जानकारी भी। इनमें देश के रक्षा विभाग के कर्मचारियों, बिजली ग्राहकों, शेयर कारोबार के अकाऊंट, बीमा, क्रेडिट कार्ड सबकी जानकारी थी। अब एक अकेला लडक़ा जिसे इन सब जानकारियों के साथ गिरफ्तार किया गया, वह खुलेआम इंटरनेट पर इन्हें बेच भी रहा था। अब सैकड़ों किस्म की ये जानकारियां यह भी बताती हैं कि जो लोग आपकी जानकारी इकट्ठा करते हैं, वे उसे हिफाजत से नहीं रखते। और घर बैठे एक लडक़ा जब इन्हें चुरा ले रहा है, ग्राहक ढूंढकर बेच ले रहा है, तो फिर दुनिया भर में बिखरे हुए पेशेवर हैकर इससे और कितना अधिक काम कर रहे होंगे। अब इस खबर से लोगों को यह सोचना चाहिए कि मोबाइल फोन और कम्प्यूटर पर किसी भी एप्लीकेशन या वेबसाइट के मांगने पर वे जितनी आसानी से अपनी सारी जानकारी दे देते हैं, अपने फोन और कम्प्यूटर पर घुसपैठ की इजाजत दे देते हैं, उसका नुकसान उन्हें कितना हो सकता है। आज झारखंड के जामताड़ा जैसे पेशेवर-जालसाज हो चुके एक गांव-कस्बे का हाल यह है कि वहां के बच्चे-बच्चे ने फोन पर जालसाजी सीख ली है, और वे लोगों के बैंक खातों को दुह लेते हैं। ऐसे में डिजिटल लेनदेन, कारोबार, भुगतान को बढ़ाना तो ठीक है, लेकिन उसके साथ ही आपकी हिफाजत बहुत बुरी तरह खत्म भी हो रही है। अगर एक अकेला लडक़ा देश की आधी आबादी की डिजिटल जानकारी जुटा सकता है, तो फिर पेशेवर हैकर तो उससे हजार गुना अधिक ताकत रखते हैं, और वे तो हो सकता है कि आपकी स्मार्ट टीवी में लगे कैमरे से आपके बेडरूम में लगातार निगरानी भी रख रहे हों।
दुनिया में डिजिटल तकनीक, ऑनलाईन, और कम्प्यूटर-मोबाइल के बिना भी गुजारा नहीं है। लेकिन आज हालत यह है कि अगर आप गूगल मैप जैसे साधारण एप्लीकेशन को गलती से एक इजाजत दे बैठते हैं तो वह आपके पल-पल की लोकेशन को समय सहित दर्ज करते चलता है। हमारे आसपास के कुछ लोगों ने अपने खुद के फोन पर दर्ज अपने ये नक्शे जब देखे हैं, तो वे खुद दहशत में आ गए। और आज अधिकतर लोगों को यह समझ नहीं है, या वे इतने चौकन्ने नहीं हैं कि किस एप्लीकेशन को कौन सी इजाजत देना जरूरी है, और कौन सी नहीं। लोग यह भी अंदाज नहीं लगा पाते हैं कि कौन से मोबाइल ऐप बिल्कुल ही अविश्वसनीय है। भारत सरकार बीच-बीच में कुछ विदेशी एप्लीकेशनों पर रोक लगाती है लेकिन ऐसा होने के पहले वे बरसों तक कारोबार कर चुके होते हैं। आज भारत में जिस टिक-टॉक पर रोक लगे बरसों हो गए हैं, अब जाकर ब्रिटेन और अमरीका जैसे पश्चिमी देश उस पर रोक लगाने की बात सोच रहे हैं।
हमारा ख्याल है कि अपने देश के नागरिकों की हिफाजत के लिए यह जिम्मेदारी सरकार ही उठा सकती है कि वह वहां प्रचलित सभी वेबसाइटों और मोबाइल ऐप जैसी चीजों की सुरक्षा की जांच करे, गैरजरूरी जानकारी मांगने और दर्ज करने वाले लोगों से जवाब मांगे, और अपनी जनता को सार्वजनिक रूप से आगाह भी करे। आज टेक्नालॉजी जिस रफ्तार से छलांग लगाकर आगे बढ़ रही है, उसमें यह बिल्कुल मुमकिन नहीं है कि आम लोग सावधान रह सकें। आज तो खुद सरकार इतनी जगह डिजिटल जानकारी मांगती है, इतने ओटीपी आते हैं, कि उनमें कौन सा सरकार का पूछा हुआ है, और कौन सा किसी जालसाज का, यह अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लोगों को भी समझ नहीं पड़ता है। और फिर हिन्दुस्तान तो ऐसा एक डेटा प्रोटेक्शन कानून बनाने जा रहा है, और अभी कंपनियों और सरकारों द्वारा दर्ज किए गए डेटा की हिफाजत आईटी कानून के तहत आती है। ऐसा सुनाई पड़ता है कि सरकार इसे कड़ा कानून बनाने वाली है, और अगर जुटाई गई जानकारी को कंपनियां हिफाजत से नहीं रखेंगी, तो इस पर उन्हें बड़ा जुर्माना और कड़ी सजा भी हो सकती है। हर दिन लोग अपनी निजी और सार्वजनिक जिंदगी की सैकड़ों-हजारों छोटी-छोटी जानकारियां मोबाइल ऐप से, वेबसाइटों से, और सोशल मीडिया से शेयर करते रहते हैं। इन सबकी इजाजत लोग इनका इस्तेमाल करते हुए खुलकर दे देते हैं, और बाद में उन्हें ही याद नहीं रहता कि वे किस-किसको कौन-कौन सी बात रिकॉर्ड करने की इजाजत दे चुके हैं। आज कहीं पर ईडी, और कहीं पर आईटी के छापों में जो जानकारियां निकल रही हैं, उनमें से बहुत सी जानकारियां लोगों के मोबाइल फोन और तरह-तरह के एप्लीकेशन से निकल रही हैं, जिन्हें लोग यह मानकर चल रहे थे कि वे मिटाई जा चुकी हैं, और उनमें से मिटा कुछ भी नहीं था। वह सबका सब जांच एजेंसियों के हाथ लग गया।
दुनिया की बहुत सी सरकारें चीन जैसे संदिग्ध देश से सावधान होकर चल रही हैं, क्योंकि वहां का एक कानून देश की हर कंपनी को इस बात के लिए मजबूर करता है कि सरकार के मांगने पर उन्हें अपने पास की हर जानकारी देनी होगी। ब्रिटेन-अमरीका यह मानकर चल रहे हैं कि टिक-टॉक जैसा मासूम दिखने वाला एप्लीकेशन लोगों की हजारों जानकारियां दर्ज करते रहता है, और चीनी सरकार उसका विश्लेषण करके इन लोगों के बारे में अनगिनत जानकारी पा सकती है, उसका बेजा इस्तेमाल कर सकती है। अब हिन्दुस्तान के एक नौजवान ने चोरी की हुई जानकारी का यह जखीरा बाजार में पेश करके इस देश के सामने एक बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है कि क्या यहां की कोई भी जानकारी महफूज नहीं है? इस बारे में जनता तो क्या ही सावधान होकर सोच सकेगी, देश की सरकार को ही लोगों की साइबर-हिफाजत करनी होगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
लोकतंत्र में राजनीतिक स्थिरता या राजनीतिक अस्थिरता अधिक होने के अपने-अपने खतरे होते हैं। जहां बहुत अधिक स्थिरता हो जाती है, वहां पर सरकार बददिमाग हो जाती है, और संसदीय बाहुबल से काम करने लगती हैं, उसे जनता की नाराजगी की भी अधिक परवाह नहीं रह जाती क्योंकि पांच बरस में वोट गिरेंगे तो कितने गिरेंगे? दूसरी तरफ राजनीतिक अस्थिरता के अपने नुकसान होते हैं। बाईस बरस पहले देश में तीन नए राज्य बने थे, और इनमें से दो राज्यों में खूब अस्थिरता रही, मुख्यमंत्री बार-बार बदले गए, सरकारें पलटने की नौबत रही, और उसका बड़ा नुकसान हुआ। दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ इन तीनों में से अकेला ऐसा राज्य रहा जहां खूब स्थिरता रही, अब तक की तीनों सरकारों में से किसी को गिराने की नौबत नहीं रही, लेकिन ऐसी स्थिरता के नुकसान भी इस राज्य को देखने मिले, लेकिन आज इन तीनों राज्यों पर चर्चा का मौका नहीं है, एक अलग राज्य पर बात करनी है।
पंजाब को देखें तो वह दो तरह के खतरों से घिरा दिखने लगा है। एक तरफ तो देश के भीतर इस प्रदेश में, और बाहर पश्चिम के कुछ देशों में लगातार खालिस्तानी हलचल शुरू हो गई दिख रही है। आज चाहे वह महज कैमरों के सामने दिखने के लिए कुछ सौ या कुछ हजार लोगों तक सीमित है, लेकिन ऐसे ही लोग हिन्दुस्तान के खालिस्तानी आंदोलन के लिए चंदा भी भेजते हैं। अब खुद पंजाब के भीतर खालिस्तान का मुद्दा उठाने वाले लोग फिर सिर उठाने लगे हैं, और उनकी आक्रामक भीड़ के सामने पंजाब की पुलिस और सरकार अभी बुरी तरह बेबस दिखी हैं। यह नौबत कम खतरनाक नहीं है क्योंकि अभी कुछ ही दशक हुए हैं कि पंजाब आतंक के बहुत लंबे और बहुत खूनी दौर से गुजरा था। अनगिनत जानें गई थीं, और उसी सिलसिले में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या भी हुई थी, और उसके बाद देश भर में जगह-जगह सिक्ख विरोधी दंगे हुए थे जिसमें भी बहुत सी मौतें हुई थीं। पंजाब में देश से अलग एक खालिस्तान बनाने की मांग की पुरानी और गहरी जड़ें हैं, अब अगर जमीन के ऊपर इसका अंकुर फूटते दिख रहा है, तो यह कम फिक्र की बात नहीं है। और इस बात को हम सीधे-सीधे पंजाब की एक अस्थिरता से जोडक़र देख रहे हैं।
लोगों को इस राज्य का ताजा इतिहास देखना चाहिए जब कांग्रेस के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह अपनी ही पार्टी की नजरों की किरकिरी बन गए थे, और पार्टी के मौजूदा नेताओं के मुकाबले वे अपने को अधिक बड़ा भी समझते थे। नतीजा यह हुआ कि तनातनी के एक लंबे दौर के बाद कैप्टन ने कांग्रेस छोड़ी, और घरेलू कलह से जूझ रही पंजाब कांग्रेस बहुत मुश्किल से एक महत्वहीन सा मुख्यमंत्री बना पाई। कांग्रेस में पहले से नेतृत्व का झगड़ा इस प्रदेश को खा रहा था, और वह अगले विधानसभा चुनाव तक जारी रहा, और एक अलग किस्म की राजनीतिक अस्थिरता के ये बरस आम आदमी पार्टी को सरकार बनाने का मौका दे गए। अब आम आदमी पार्टी के साथ एक दिक्कत यह है कि वह पंजाब के पहले सिर्फ एक शहर की पार्टी थी। एक म्युनिसिपल की तरह की दिल्ली में सरकार बनाने और चलाने का मामला किसी दूसरे और बड़े राज्य से बिल्कुल अलग रहता है, और पंजाब में आप के मुख्यमंत्री बिना किसी तजुर्बे के भी थे, खुद पार्टी की कोई राष्ट्रीय सोच नहीं है, और अगर अरविंद केजरीवाल के एक पुराने साथी कुमार विश्वास की बात पर भरोसा किया जाए, तो केजरीवाल पंजाब चुनाव के पहले भी खालिस्तान का जिक्र कर चुके थे कि अगर वहां आप नहीं आई, तो खालिस्तान आ जाएगा। ऐसी तमाम बातों के बीच जिस तरह दिल्ली में इस पार्टी की सरकार भ्रष्टाचार के मामलों से घिरी हुई है, उसी तरह पंजाब में भी इसकी सरकार के मंत्री भ्रष्टाचार में गिरफ्तार हुए, मुख्यमंत्री देश-विदेश में कई मौकों पर बहकते और लडख़ड़ाते दर्ज हुए, और सरकार चलाने की गंभीरता नहीं दिखी। दूसरी तरफ पंजाब में सत्ता और भागीदार दोनों खोने के बाद अकाली दल और भाजपा अलग-अलग बेचैन हैं, और इन सबके बीच खालिस्तानी फिर सिर उठा रहे हैं। वे न सिर्फ सिर उठा रहे हैं, बल्कि हथियार भी उठा रहे हैं, और थाने पर एक किस्म से उनके हमले में पुलिस और सरकार शरणागत हुई दर्ज हुई है।
पंजाब में पिछले तीन-चार बरसों की राजनीतिक स्थिरता के अलावा एक और बात वहां खालिस्तानी सोच को सिर उठाने का मौका दे रही है कि यह पहला मौका है कि पंजाब आम आदमी पार्टी जैसी राजनीतिक-समझविहीन पार्टी की सरकार देख रहा है। वैसे तो अकाली दल भी एक प्रदेश वाला क्षेत्रीय दल है, लेकिन लंबे समय तक एनडीए का हिस्सा रहने से उसमें राष्ट्रीय समझ आई है, और वह खालिस्तान के मुद्दे पर भी आज की पंजाब सरकार जितना और जैसा ढुलमुल नहीं रहा है। आम आदमी पार्टी कभी किसी राष्ट्रीय गठबंधन में नहीं रही, और यह भी एक वजह है कि उसने एक शहर की सरकार चलाते हुए देश के जटिल राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को समझा भी नहीं है। यह अनुभवहीनता पंजाब को चलाने में आड़े आ रही है। एक दिक्कत यह भी है कि देश के भीतर ऐसी अशांति और आतंक की आशंका का बोझ अंत में केन्द्र सरकार पर भी पड़ता है, और आज की मोदी सरकार के साथ केजरीवाल के सांप-नेवले जैसे दिखते संबंध पंजाब के समाधान में रोड़ा भी रहेंगे।
आज जब हिन्दुस्तान के पड़ोस का पाकिस्तान अभूतपूर्व घरेलू दिक्कतें और खतरे देख रहा है, तब वहां की किसी सरकार के लिए भारत में कुछ हरकतें करवाना एक आसान और पसंदीदा काम हो सकता है, और पंजाब ने पहले भी बड़ा लंबा दौर ऐसी ही सरहद पार की दखल का देखा हुआ है। इसलिए आज पंजाब को अधिक गंभीरता से लेने की जरूरत है, और जिस काबिलीयत की जरूरत है, वह आम आदमी पार्टी के पास दिख नहीं रही है। यह एक अलग बात है कि उसे पांच बरस सरकार चलाने का हक वोटरों ने दिया है, लेकिन अगर वहां खालिस्तानी मुद्दे का ऐसा ही हाल रहा, तो अगले राज्य चुनाव तक नौबत बेकाबू भी हो सकती है। आखिर में एक और मुद्दे का जिक्र जरूरी है कि दिल्ली और पंजाब की जेलों में बंद हत्यारों के खूंखार गिरोह जेल के भीतर से, या देश के बाहर से जिस तरह कत्ल करवा रहे हैं, और देश के चर्चित और महत्वपूर्ण लोगों को कत्ल की धमकियां भेज रहे हैं, वह सिलसिला भी पंजाब ने पहले शायद ही कभी देखा हो। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बांग्लादेश में एक अखबार के रिपोर्टर को एक झूठी खबर प्रकाशित करने की तोहमत लगाकर सरकार ने जेल भेज दिया है। यह रिपोर्ट स्वतंत्रता दिवस पर 26 मार्च को प्रकाशित हुई थी जिसमें कई आम नागरिकों की जिंदगी के बारे में उनका कहा हुआ छापा गया था। एक मजदूर की यह बात इसमें छपी थी जिसका कहना था- इस आजादी का क्या मतलब है अगर हम चावल तक भी नहीं खरीद सकते। और इस मजदूर की बात बांग्लादेश में खाने-पीने के सामानों की महंगाई की एक सही तस्वीर थी। लेकिन यह अखबार एक विपक्षी दल का समर्थक है, और इसलिए सरकार ने इसे जनता के बीच असंतोष पैदा करने के लिए दुर्भावनापूर्ण इरादे से तथ्यों को पेश करना बताया है। और यह कार्रवाई एक नागरिक की तरफ से दर्ज करवाई गई शिकायत पर की गई है। अखबार के संपादक और प्रकाशक के खिलाफ भी इस खबर को लेकर कार्रवाई करने की बात बांग्लादेश के कानून मंत्री ने कही है।
सरकारों का अगर बस चले तो वे सबसे पहले अखबारों से छुटकारा पाएं। देश-प्रदेश में विपक्ष के अलावा मुद्दों को उठाने का काम अखबार करता है, और उससे छुटकारा पाने के कई अलग-अलग तरीके अलग-अलग सरकारें ईजाद कर लेती हैं। इनमें यह बांग्लादेशी तरीका सबसे ही रद्दी तरीका है। बेहतर तरीका तो यह होता है कि आलोचक या असहमत अखबार की किसी कमजोर नब्ज को जकडक़र रखा जाए, और उसकी बोलती बंद रखी जाए। हिन्दुस्तान में ऐसी कई मिसालें हैं जिनमें अधिक आक्रामक या कटुआलोचक ईमानदार अखबार के सामने ऐसी स्थितियां पैदा कर दी गईं कि प्रकाशक को वह कारोबार बेचना पड़ा, और उसके बाद नए मालिकान सरकार के हिमायती आए। ऐसा सिर्फ देश में होता है यह जरूरी नहीं है, बहुत से प्रदेशों में ऐसा ही होता है। बांग्लादेश का यह ताजा मामला तो विपक्षी समर्थक अखबार में भी एक बड़ा मासूम मामला दिखता है। आज तो तकरीबन तमाम दुनिया में खाने-पीने की चीजों तक लोगों की पहुंच घटती जा रही है। महंगाई बढ़ रही है, लोग रोजगार खो रहे हैं, गुजारा मुश्किल से हो रहा है। ऐसे में अगर बांग्लादेश जैसे दिक्कत झेल रहे देश में किसी गरीब ने अपनी तकलीफ बताई है, और उस पर अखबार ने रिपोर्ट बनाई है, तो इस पर कार्रवाई शर्मनाक है। इससे बांग्लादेश की एक लोकतंत्र के रूप में इज्जत गिरती है, और आज दुनिया के बहुत से देश ऐसे हैं जो किसी देश के साथ कारोबारी या दूसरे किस्म के रिश्ते बनाते हुए यह भी देखते हैं कि वहां लोकतंत्र का क्या हाल है? लोगों को याद होगा कि भारत के कालीन उद्योग में बड़े पैमाने पर बाल मजदूर होने की वजह से बहुत से सभ्य और विकसित लोकतंत्रों ने हिन्दुस्तानी कालीन खरीदने से मना कर दिया था। आज बांग्लादेश में जितनी कम मजदूरी पर अंतरराष्ट्रीय ब्रांड के कपड़े-जूते बनते हैं, उस मजदूरी को लेकर भी योरप के देशों में बड़ी फिक्र जाहिर की जा रही है, और ऐसे ब्रांड के बहिष्कार की बात भी उठती है।
हम आज की दुनिया में किसी एक देश में अलोकतांत्रिक बातों को उसका घरेलू मामला नहीं मानते, हमारा मानना है कि बाकी दुनिया को भी उस पर बोलने का हक है, जिस तरह बांग्लादेश के इस घरेलू मामले पर बोल रहे हैं, या जिस तरह एक जर्मन मंत्री ने राहुल गांधी के लोकसभा से निष्कासन पर कुछ कहा है, या जिस तरह संयुक्त राष्ट्र और अमरीका भारत के कुछ दूसरे साम्प्रदायिक मामलों पर बोल चुके हैं। दुनिया के देश ऐसे स्वायत्तशासी टापू नहीं हैं कि उन्हें एक-दूसरे को देखने की मनाही हो। लोगों की आवाजाही से लेकर कारोबार तक, और आर्थिक मदद से लेकर कर्ज तक, अनगिनत ऐसे मामले हैं जिनमें तमाम देश एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं। इसलिए कोई देश अपनी प्रेस पर, अपनी जनता पर जुल्म करते हुए बाकी दुनिया को आंखें बंद रखने को नहीं कह सकते। लोग एक-दूसरे के मामलों पर बोलेंगे, और यही एक विश्व समुदाय की पहचान है। जिस तरह एक वक्त गांवों में लोगों का एक-दूसरे पर सामाजिक दबाव होता था, और लोग दूसरों का लिहाज करते हुए, गलत काम करने से झिझकते थे कि लोग टोकेंगे। आज भी हालत वैसी ही है। आज हिन्दुस्तानी अखबारों के संगठनों को भारतीय मामलों के साथ-साथ बांग्लादेश के इस ताजा मामले पर भी बोलना चाहिए। हिन्दुस्तान की सरकार तो शायद ही मुंह खोलेगी, लेकिन हिन्दुस्तान सरकार से परे एक देश भी है, लोकतंत्र भी है, समाज भी है, और एक जुबान भी है। हिन्दुस्तानी लोगों को दूसरे देशों के घरेलू मामलों पर अपनी राय जाहिर करना बंद नहीं करना चाहिए। दुनिया में जहां बेइंसाफी होते दिखे, वहां उसका विरोध करना चाहिए। आज संचार के साधनों और सोशल मीडिया के चलते अमरीकी राष्ट्रपति की किसी घोषणा के अगले ही पल हिन्दुस्तान के गांव में बैठे लोग भी उस पर अपनी राय जाहिर कर सकते हैं, और उसे कोई रोकते भी नहीं हैं। लगातार अंतरराष्ट्रीय मामलों पर बोलने से हो सकता है कि हिन्दुस्तानियों के भीतर अपने ही देश के अखबार को बचाने का हौसला भी जुट जाए। आज तो ईमानदार और मुखर अखबार सरकारों के निशाने पर रहते हैं, और देश की सरकारों की आलोचना में आम जनता को भी खतरा दिखता है। इसलिए बाहर की सरकारों के जुल्म पर बोलने की आदत जारी रखना चाहिए, जिससे धीरे-धीरे अपनी सरकार पर कुछ बोलने की हिम्मत भी किसी दिन आ जाए।
जिस देश-प्रदेश की सरकार जनता की बुनियादी दिक्कतों, और उसकी जायज नाराजगी को भी अखबारों से दूर रखना चाहती है, या अखबारों को उनसे दूर रखना चाहती है, वे उसी तरह चुनाव हार सकती हैं जिस तरह इमरजेंसी में अखबारों को चापलूस बनाकर, उनकी आवाज खत्म करके इंदिरा गांधी हकीकत से दूर रहीं, और चुनाव हार बैठीं। जनता अगर चावल खरीदने की हालत में नहीं हैं, और सरकार यह भी सुनना नहीं चाहती हैं, तो फिर ऐसी भूख को बगावत में बदलने में अधिक वक्त नहीं लगता। हर सरकार को अखबारों को कुचलते हुए ऐसे खतरों को याद रखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के तीन सौ वकीलों ने कानून मंत्री किरण रिजिजू के उस बयान के खिलाफ एक साझा बयान दिया है जिसमें मंत्री ने यह कहा था कि कुछ रिटायर्ड जज एंटी-इंडिया गैंग का हिस्सा बन गए हैं। इन वकीलों ने लिखा है कि सरकार की आलोचना किसी भी शक्ल में न देश की आलोचना होती है, न ही देशविरोधी होती है। उन्होंने लिखा है कि कानून मंत्री रिटायर्ड जजों को धमकी देकर बाकी नागरिकों को यह संदेश देना चाहते हैं कि आलोचना की किसी भी आवाज को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। उन्होंने लिखा- हम कानून मंत्री के बयान की कड़े शब्दों में निंदा करते हैं, एक मंत्री से इस तरह के दादागिरी भरे बयान की उम्मीद नहीं थी। वकीलों ने लिखा कि पूर्व जजों और जिम्मेदार लोगों की अपने अनुभव पर आधारित राय चाहे सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी को पसंद न आए, लेकिन कानून मंत्री को ये अधिकार नहीं है कि वो इस पर अपमानजनक टिप्पणी करें। उल्लेखनीय है कि कानून मंत्री ने कुछ पूर्व जजों को एंटी-इंडिया गैंग का हिस्सा बताने के साथ-साथ यह भी कहा था कि इसके खिलाफ एजेंसियां कानून के दायरे में रहकर कदम उठाएंगी, और जो लोग देश के खिलाफ काम करेंगे उन्हें इसकी कीमत चुकानी होगी।
वैसे तो वकीलों ने अपने बयान में वह काफी कुछ लिख दिया है जो हम अपनी राय के रूप में यहां लिखते, लेकिन फिर भी इस मुद्दे पर लिखने की जरूरत इसलिए है कि कानून मंत्री से परे भी बहुत से मंत्री और एनडीए-भाजपा के बहुत से नेता लगातार इस तरह की जुबान में बोलते हैं। लोकतंत्र में जनता और बाकी लोगों को अपनी राय रखने की जो आजादी मिली हुई है, वह बहुत से लोगों को बुरी तरह खटकती है। जब किसी धर्म, राजनीतिक विचारधारा, या व्यक्ति के प्रति अंधभक्ति से काम किया जा रहा हो, तो वहां कोई न्यायसंगत और तर्कसंगत बात भी पुलाव में कंकड़ की तरह खटकने लगती है। जो लोग इस भक्ति से परे की सोच रखते हैं, वे सत्ता और उसके भागीदारों की आंखों में किरकिरी की तरह चूभते हैं। इसलिए अलग-अलग विचारधाराओं के बहुत से प्रमुख वकीलों ने मिलकर यह साझा बयान बनाया है, और इसका कानूनी वजन चाहे कुछ भी न हो, इसका लोकतांत्रिक वजन बहुत होता है। और यह बयान में ठीक ही याद दिलाया गया है कि सरकार के आलोचक उतने ही देशभक्त होते हैं जितने कि सरकार में बैठे हुए लोग।
लोकतंत्र सिर्फ एक शासनतंत्र नहीं होता, वह एक जीवनतंत्र भी होता है, और वह तानाशाही के मुकाबले सभ्यता का एक बहुत बड़ा विकास भी होता है। जब सभ्यता की फिक्र नहीं रह जाती, तब फिर बहुत सी अलोकतांत्रिक बातें भी कही जाती हैं। हिन्दुस्तान में आज यही हो रहा है। और जब राष्ट्रवादी उन्माद देश के लोगों का एक बड़ा ध्रुवीकरण करने में कामयाब हो गया है, तो फिर उसी को बढ़ाते चलना आसान नुस्खा बन जाता है। जिस तरह खबरों की वेबसाइटों पर जिन खबरों को अधिक हिट्स मिलने लगती हैं, वैसी खबरों को बढ़ावा देते चलना एक कारोबारी समझदारी मानी जाती है, ठीक उसी तरह जब धार्मिक और राष्ट्रवादी उन्माद की हांडी बार-बार चढ़ाना कामयाब होते जा रहा है, तो फिर असहमति के बयान देने वालों को पाकिस्तान भेज देने, टुकड़ा-टुकड़ा गिरोह करार देने, और राष्ट्रविरोधी गैंग कहने का बड़ा आसान हथियार सत्ता-समर्थक लोगों के हाथ लग गया है। इसी सिलसिले के चलते कभी जेएनयू को बदनाम करने की साजिश होती है, और पुलिस की कार्रवाई लोगों को बरसों तक बिना किसी मुकदमे के फैसले के, जेलों में बंद रखती है। दिक्कत यह है कि जब लोगों के दिमाग पर उन्माद हावी रहता है, तब फिर उन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों का महत्व समझ नहीं आता। फिर आज जिस बहुसंख्यक तबके को एक नए किस्म की उन्मादी-आजादी मिली हुई है, उसे यही सबसे बेहतर लोकतंत्र लग रहा है।
कानून मंत्री आज किसी एजेंडा के तहत लगातार सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ कुछ न कुछ बोले जा रहे हैं। यह अदालत को उसकी औकात दिखाने का एक रूख है, और शायद इसके पीछे एनडीए का वह ऐतिहासिक संसदीय बाहुबल भी है जिसके भरोसे वह कई किस्म के संविधान संशोधन करने, या नया कानून बनाने की उम्मीद रखता है। आज राहत की एक बात यही है कि सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश सहित कुछ और न्यायाधीश भी रीढ़ की हड्डी वाले दिख रहे हैं, उनका रूख और उनके फैसले सरकार के किसी विभाग के अफसर की तरह के नहीं हैं, और वे एक स्वतंत्र न्यायपालिका की तरह काम कर रहे हैं। ऐसे में लगता है कि केन्द्र सरकार और कानून मंत्री का तनाव बढ़ते चल रहा है, और इस तनाव के चलते कानून मंत्री लगातार नाजायज बातें कह रहे हैं। देश के वकीलों ने जिम्मेदारी का एक काम किया है, और बाकी तबकों के जागरूक लोगों को भी किसी न किसी तरह जनता के बीच लोकतांत्रिक मूल्यों को गिनाना जारी रखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आरटीआई ने हिन्दुस्तान के लोकतंत्र को कुछ हद तक तो झकझोर कर रख दिया है। सरकारें जिस सामंती अंदाज में चला करती थीं, उनके वे अंदाज अब उनकी लाख कोशिशों के बावजूद उजागर होने लगे हैं। सरकारों के भ्रष्टाचार, सरकारों की मनमानी के बारे में आरटीआई से जो जानकारी निकलती है उसे पहले नौकरशाह अपनी जागीर के स्टाम्प पेपर की तरह कुर्सी की गद्दी के नीचे दबाकर उस पर सवार बैठते थे। लेकिन अब कम से कम कुछ मामलों में आरटीआई काम आने लगी है, और कई मामलों में सरकारें सुप्रीम कोर्ट तक चली जाती हैं कि वे आरटीआई में जानकारी नहीं देंगी। ऐसी ही एक जानकारी असम के वन्यप्राणी विभाग से एक सामाजिक कार्यकर्ता ने निकलवाने में कामयाबी पाई है जिससे पता लगता है कि पिछले राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के काजीरंगा नेशनल पार्क जाने पर उनके इंतजाम में शेर-संरक्षण के मद से एक करोड़ दस लाख रूपये खर्च किए गए थे। यह रकम खर्च करके राष्ट्रपति के लिए रंगरोगन करवाया गया, तम्बू लगाए गए, हवा साफ करने वाले एयर-प्यूरीफायर खरीदे गए, और राष्ट्रपति के लावलश्कर के खाने-पीने का इंतजाम किया गया। यह बात सरकार के अपने रिकॉर्ड से साबित हुई कि टाइगर फाउंडेशन से खर्च इस एक करोड़ दस लाख के अलावा 51 लाख रूपये वन्यप्राणी फंड से भी खर्च किए गए। अब देश में कौन शेर है कौन नहीं, यह तो पता नहीं, लेकिन राष्ट्रपति की खातिरदारी असम सरकार ने शेरों और दूसरे जानवरों को बचाने के फंड से की। असम के शेर-संरक्षण के नियम कहते हैं कि इस फंड का 90 फीसदी हिस्सा पर्यावरण को शेर के अनुकूल रखने, और इस इलाके की ग्रामीण स्तर की कमेटियों को मजबूत करने पर खर्च किया जाएगा ताकि इंसानों का जानवरों से टकराव कम हो। इसके अलावा बचा 10 फीसदी पैसा सोसायटी के एफडी में रखा जाना चाहिए।
अब सवाल यह उठता है कि क्या देश के सबसे बड़े ओहदे पर बैठे हुए मेहमान के लिए असम सरकार के पास खातिरदारी को और कोई पैसा नहीं था? पूरे देश में जगह-जगह नेताओं और अफसरों पर होने वाला खर्च किसी न किसी दूसरे के हक का होता है। कहीं वृक्षारोपण के पैसे से मंत्री और अफसरों, और उनके कुनबों की खातिरदारी का इंतजाम होता है, तो कहीं सुप्रीम कोर्ट की निगरानी वाले कैम्पा मद के सैकड़ों करोड़ रूपये नेताओं और अफसरों की मनमानी के कामों पर खर्च होते हैं। कुछ ऐसा ही जिला खनिज निधि के सैकड़ों करोड़ का होता है, और कलेक्टर अपनी मर्जी से ऐसे काम मंजूर करते हैं जिसमें सबसे मोटी रिश्वत मिल सके। अगर संवैधानिक कुर्सियों पर बैठे हुए बड़े-बड़े लोग देश के किसी हिस्से में जाते हुए महज एक चि_ी लिख दें कि उनके प्रवास के इंतजाम में सौ फीसदी सादगी बरती जाए, कोई रंगरोगन न किया जाए, कोई सडक़ न बनाई जाए, सोफा-पलंग, पर्दे कुछ भी न बदले जाएं, और उन पर किए गए खर्च किस मद से हुए, इसका हिसाब उन्हें दिया जाए, तो ही देश में हर दिन दस-बीस करोड़ रूपये बचने लगेंगे क्योंकि राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री से लेकर राज्यों के मुख्यमंत्रियों तक, और सुप्रीम कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट के जजों तक, सबके इंतजाम में अंधाधुंध, और गैरजरूरी खर्च किया जाता है। यह सिलसिला पूरी तरह अलोकतांत्रिक है, और खत्म होना चाहिए। लोगों को याद होगा कि अभी जब गुजरात के मोरवी में एक झूलता हुआ पूल टूटा और बहुत से लोगों की मौतें हुईं, तो वहां प्रधानमंत्री के पहुंचने के पहले पूरे अस्पताल का रंगरोगन हुआ, रातोंरात सडक़ें बनाई गईं। अगर कोई खर्च होना था तो वह अस्पताल पर होना था, और वह खर्च प्रधानमंत्री प्रवास पर हुआ। यह सिलसिला सामंती भी है, और अमानवीय भी है। देश में गरीबी बहुत है, और आधी आबादी शायद इसलिए जिंदा है कि उसे मुफ्त या लगभग मुफ्त सरकारी राशन मिलता है। स्कूलों में जाने वाले बच्चे इसलिए कुपोषण में गहरे डूबने से बचे हैं कि उन्हें स्कूलों में दोपहर का भोजन मिलता है। मिड-डे-मील की वजह से देश कुपोषण से कुछ हद तक उबर पाया है। ऐसे देश में रेलवे के बड़े अफसरों के दौरे के लिए अंग्रेजों के वक्त से चले आ रहे, सैलून कहे जाने वाले खास डिब्बे जोड़े जाते हैं, जिनका और कोई इस्तेमाल नहीं होता। राष्ट्रपति भवन से लेकर प्रधानमंत्री के नए बन रहे आवास तक, और सुप्रीम कोर्ट-हाईकोर्ट की इमारतों से लेकर भीतर के ढांचों तक हिन्दुस्तान में अलोकतांत्रिक सामंती सिलसिला दिखता है। राज्यों के राजभवनों में पुलिस बैंड और पुलिस की सलामी गारद तैनात रहते हैं, जिनमें दर्जनों पुलिसवाले बर्बाद होते हैं। यह बैंड राज्यपाल के किसी भी कार्यक्रम में पहले और बाद में राष्ट्रगान बजाने के लिए बस में सवार होकर आता-जाता है, और यह मान लिया जाता है कि देश की जनता खुद तो राष्ट्रगान गा ही नहीं सकती। राष्ट्रगान की याद दिलाने के लिए ऐसे सामंती इंतजाम की क्या जरूरत है? और झंडा फहराने और उतारने के लिए एक पूरी सलामी गारद क्यों तैनात की जाती है? राष्ट्रपति के अंगरक्षकों के नाम पर घुड़सवार लोगों का एक पूरा दस्ता क्यों चले आ रहा है? इन पर लाखों रूपये रोज का खर्च होता है, और क्या आज हिन्दुस्तान के राष्ट्रपति इस हिफाजत पर जिंदा हैं?
यह पूरा सिलसिला खत्म करवाने के लिए किसी अदालत जाने का भी कोई फायदा नहीं है क्योंकि बड़ी अदालतों के जज खुद भी एक सामंती जिंदगी जीना पसंद करते हैं। हाईकोर्ट के जज सडक़ से सफर करते हैं, तो उनके सामने सायरन बजाती पुलिस पायलट गाड़ी चलती है, और उनके पीछे भी सुरक्षा गाड़ी या दूसरी गाडिय़ां रहती हैं। अब अपने ही देश-प्रदेश की जनता को सडक़ों पर से धकियाकर अलग करके जो जज सायरन के साये में रफ्तार से कहीं पहुंच जाते हैं, क्या वे किसी की मौत की सजा रोकने की हड़बड़ी में रहते हैं? अगर उनके वक्त की इतनी कीमत है, तो फिर सडक़ों पर से गुजर रहे किसी मजदूर या कारीगर का वक्त भी उनसे अधिक कीमती है क्योंकि उससे उसकी रोज की जिंदा रहने की ताकत जुड़ी हुई है। दूसरों को किनारे धकियाकर मंत्री-मुख्यमंत्री, या कई मामलों में बड़े अफसर भी चलते हैं, और रास्ता देने को मजबूर हुए लोग उन्हें गालियां देते हुए लोकतंत्र पर भरोसा खोते जाते हैं।
असम में राष्ट्रपति की खातिरदारी के इस हिसाब-किताब को देखकर यह समझ पड़ता है कि हर प्रदेश के आरटीआई कार्यकर्ताओं को तैयार रहना चाहिए कि कब किस खास व्यक्ति के आने पर क्या-क्या खर्च किया गया, वह किस मद से आया। सार्वजनिक जगहों पर होने वाले दूसरे किस्म के खर्च का हिसाब-किताब भी निकलवाते रहना चाहिए, और यह भांडा फोड़ते रहना चाहिए कि कितने बरस के भीतर ही फुटपाथ दुबारा बन रहे हैं, दीवारें नई खड़ी हो रही हैं, या सडक़ों को बार-बार बनाया जा रहा है। सत्ता के सामंती मिजाज के साथ जनता के हकों की यह लड़ाई चलती ही रहेगी, और इसमें जनता को थकना नहीं चाहिए, सत्ता को छेकना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका में अब अंधाधुंध गोलीबारी से लोगों को मारना औसतन हर महीने होने वाली वारदात है। आज भी एक छोटी स्कूल में एक महिला हमलावर ने पहुंचकर अंधाधुंध गोलियां चलाईं, उनमें बच्चे-बड़े सात लोग मारे गए। अभी दो दिन पहले इतवार को ही कैलिफोर्निया के गुरुद्वारे में वहीं के दो लोगों के बीच आपस में गोलियां चलीं जिनमें दो लोग बुरी तरह जख्मी हुए। अब अगर अमरीका में होने वाली ऐसी गोलीबारी की खबरें ढूंढें तो इनका कोई अंत नहीं है, और न ही ऐसे हमलों का कोई अंत है। दरअसल वहां पर हथियारों की खरीदी इतनी आसान है कि कोई भी नागरिक दर्जनों हथियार खरीदकर अपने घर पर एक नुमाइश सी लगा सकते हैं, और ऐसे ही लोग कानूनी खरीदे गए हथियारों से सार्वजनिक जगहों पर लोगों को थोक में मार रहे हैं। अमरीका में हथियार बनाने वाले कारखानेदारों की लॉबी इतनी मजबूत है, और वहां की दो में से एक प्रमुख पार्टी, रिपब्लिकन, हथियार खरीदने और रखने की आजादी की इतनी बड़ी वकील है कि वह संसद में निजी हथियारों में कटौती की किसी बात को मंजूरी ही नहीं पाने देती। मौजूदा डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति जो बाइडन लगातार ऐसी हर गोलीबारी के बाद संसद और देश से अपील कर रहे हैं कि हथियारों में कटौती के संविधान संशोधन का साथ दें, लेकिन कारोबारी माफिया इस बात को आगे ही नहीं बढऩे देता। यह पूंजीवादी दुनिया के लिए एक मिसाल है कि कोई कारोबार किस हद तक मतलबपरस्त और जनविरोधी हो सकता है, कि उसके चेहरे पर हर बरस ऐसी हजारों मौतों से भी कोई शिकन न पड़ती हो।
जब तक अमरीका में निजी हथियारों की आजादी की कुछ तस्वीरें न देखें, बाहर के लोगों को यह भरोसा ही नहीं हो सकता कि एक-एक अमरीकी नागरिक किस तरह अपने घर को फौजी बंदूकखाना बनाकर रख सकते हैं। वे ऐसे फौजी दर्जे के हथियार खरीद सकते हैं जो कि निजी सुरक्षा के लिए तभी जरूरी हो सकते हैं, जब किसी दूसरे देश की फौज किसी अमरीकी के घर में घुस जाएं। उससे कम किसी नौबत में ऐसे घातक ऑटोमेटिक हथियारों की जरूरत किसी को नहीं पड़ सकती जो एक मिनट में सैकड़ों गोलियां दागते हों। अमरीका की पूंजीवादी व्यवस्था को लेकर यह बात भी बार-बार लिखी जाती है कि वहां हथियारों के कारखानेदार अमरीकी फिल्मों के मार्फत एक ऐसी हथियार-संस्कृति को बढ़ावा देते हैं जिसे कि आम अमरीकी अपने स्वाभिमान से जोडक़र देखने लगते हैं। हालत यह है कि अमरीका में एक बड़े तबके की सोच को इस तर ढाल दिया गया है कि अधिक से अधिक नागरिकों के पास जब हथियार रहेंगे, तब अमरीका में कोई सत्तापलट नहीं हो सकेगा क्योंकि फौज नागरिकों के हथियारों के सामने टिक नहीं सकेगी। अमरीका जैसे बड़े देश में जब लोगों को देशभक्ति के नाम पर, आजादी को बचाने के नाम पर हथियार बेचने में कामयाबी मिल रही है, तो यह कारोबार इससे अधिक और क्या उम्मीद कर सकता है। दुनिया भर में जहां-जहां लोग अमरीकी फिल्में देखते हैं, उन्हें मालूम है कि वहां की बहुत सारी एक्शन फिल्मों में हथियारों का कैसा ग्लैमर स्थापित किया जाता है, और जब उन्हें खरीदने की पूरी तरह आजादी होती है, तो फिर हॉलीवुड और हथियार, ये दोनों कारोबार एक-दूसरे को बढ़ाते चलते हैं।
यह भी समझने की जरूरत है कि अमरीका में धार्मिक आजादी, विचारों की आजादी, दुनिया भर से आए हुए अलग-अलग नस्लों के लोगों के लिए जितनी जगह है, उसमें स्वाभाविक रूप से कई किस्म का तनाव बने रहता है। ऐसे सामाजिक तनाव से परे एक तनाव यह भी रहता है कि अमरीकी लोग, खासकर नौजवान, परिवार और समाज के खिलाफ कई किस्म की नफरत से भी घिरे रहते हैं, और स्कूल-कॉलेज में होने वाले अधिकतर हमलों के पीछे नस्लवादी, या फिर निजी नफरत का हाथ मिलता है। एक तरफ तो देश के लोग इतने तनावग्रस्त हैं, देश का हाल इतने किस्म के नस्लभेदी और अंतरराष्ट्रीय समुदायों के तनाव से घिरा हुआ है, और फिर घर-घर में अंधाधुंध संख्या में बंदूक-पिस्तौल हैं। 2020 में अमरीका में 45 हजार से अधिक लोग गन की गोलियों से मरे हैं। इनमें 54 फीसदी खुदकुशी में, और 43 फीसदी हत्याओं में मरे हैं। हर दिन अमरीका में गन की गोलियों से औसतन 123 से अधिक लोग मारे गए हैं। इसके बावजूद सरकार कारोबार-माफिया के सामने बेबस है जिसने कि संसद में एक बहुत बड़ा समर्थन जुटा रखा है। हालत यह है कि रिपब्लिकन पार्टी के सम्मेलन देश में जहां कहीं होते हैं, वहां पर हथियारों की प्रदर्शनी लगती है, और उनकी बिक्री होती है। पिछले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप की यह पार्टी हथियार के सौदागर सरीखे काम करती है।
अमरीका की इस घरेलू हिंसा से हिन्दुस्तान का कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि जिस दिन अमरीकी फौजों से किसी भी तरह की प्रत्यक्ष या परोक्ष लड़ाई की नौबत आएगी, आम अमरीकी नागरिक अपने निजी हथियारों को लेकर मोर्चे पर नहीं रहेंगे, लेकिन इससे हिन्दुस्तान समेत तमाम देशों को यह सबक लेने की जरूरत जरूर है कि कोई कारोबार किस तरह राष्ट्रीय हितों को बंधक बनाकर रख सकते हैं। देश के हित एक तरफ धरे रह गए, और नागरिकों को हथियारों का ग्राहक बनाकर यह कारोबार हर दिन करीब सवा सौ मौतें देश में पेश कर रहा है। हर लोकतंत्र को यह देखना चाहिए कि उसके कौन से कारोबार संसद और सरकार को प्रभावित करके, अदालतों में जजों को प्रभावित करके, और मीडिया को खरीदकर जनता की सोच बदल सकते हैं? अगर लोग ठंडे दिल से बैठकर बारीकी से देखेंगे, तो उन्हें हर लोकतंत्र में ऐसे कुछ धंधे दिखाई पड़ेंगे जो कि जनहित के खिलाफ हैं, लेकिन जिनका कोई विरोध नहीं हो सकता है। ऐसे धंधे हर राजनीतिक दल की सरकार को प्रभावित करके चलते हैं, संवैधानिक संस्थाओं को जेब में रखकर चलते हैं, और मीडिया तो अब ऐसे कई धंधे सीधे-सीधे खरीद चुके हैं। बात महज अमरीका की गन लॉबी की नहीं है, बात माफिया अंदाज में काम करने वाले कारोबार की है, और सभी को इसके खतरे समझना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
इराक में दुनिया के एक सबसे खतरनाक माने जाने वाले आतंकी संगठन, इस्लामिक स्टेट, को खत्म करने के लिए 2014-17 में अमरीका की अगुवाई में कुछ देशों की एक फौजी टीम ने जंग लड़ा था, और वहां बड़े पैमाने पर हमले किए थे। अमरीका ने तो बाद में यह मंजूर कर लिया था कि शहरी इलाकों में उसके हवाई हमलों से आतंकियों के साथ-साथ सैकड़ों नागरिक भी मारे गए थे, लेकिन ब्रिटेन इस बात पर अड़ा हुआ था कि उसने एक बिल्कुल परफेक्ट जंग लड़ी थी, और उसमें एक भी नागरिक की मौत नहीं हुई थी। अब एक एनजीओ, एयरवॉर्स, के साथ मिलकर प्रतिष्ठित ब्रिटिश अखबार गार्डियन ने एक जांच रिपोर्ट तैयार की है जो बताती है कि ब्रिटिश हमलों में भी नागरिक मारे गए थे। गार्डियन की रिपोर्टर इराक के मोसुल शहर जाकर वहां ऐसे हमलों में मरे हुए लोगों के परिवारों के बचे हुए लोगों से बात करके लौटी, और सारा खुलासा छापा है। इस रिपोर्ट के बाद अब ऐसे लोगों के परिवारों को ब्रिटेन से एक मुआवजा लेने का हक मिलेगा।
इस बात पर आज लिखा जाना जरूरी इसलिए है कि इस अखबार ने और ब्रिटेन के एक एनजीओ ने अपनी ही फौज के छुपाए गए तथ्यों का भांडाफोड़ करना तय किया, और बेकसूर इराकी जनता के हकों के लिए यह रिपोर्ट तैयार करना अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी माना है। अब इस बात को हिन्दुस्तान में पिछले बरसों में पाकिस्तान पर हुई एयर स्ट्राईक और भारत में पाकिस्तान के करवाए गए कहे जाने वाले आतंकी हमलों के बारे में जो भी जानकारी मांगते हैं उन्हें देश का गद्दार करार देकर पाकिस्तान भेजे जाने का फतवा दिया जाता है, उनके बारे में कहा जाता है कि वे टुकड़ा-टुकड़ा गैंग हैं जो भारत को तबाह करना चाहते हैं। अब ब्रिटेन में यह कोई नई बात नहीं है कि वहां दूसरे देशों में भी की गई फौजी कार्रवाई को लेकर अपनी सरकार से सवाल किए जाएं ताकि सरकार की जवाबदेही रहे, और फौज भी बेकाबू कार्रवाई न करती रहे। लोकतंत्र न तो सस्ती व्यवस्था है, और न ही वह बहुत सहूलियत की व्यवस्था है। फिर एक जिम्मेदार लोकतंत्र महज अपनी सरहदों के भीतर लोकतांत्रिक रहकर खुश नहीं हो लेता, जिम्मेदार लोकतंत्र दुनिया के दूसरे हिस्सों को लेकर भी बात करता है। आज ब्रिटिश पार्लियामेंट में लगातार इस बात पर बहस चल रही है कि दूसरे देशों से वहां बोट से पहुंचने वाले शरणार्थियों के साथ क्या सुलूक किया जाए। यह बहस उन दूसरे देशों से आने वाले लोगों के साथ एक बेहतर और अधिक मानवीय बर्ताव करने के लिए की जा रही है, जबकि ऐसे लोग ब्रिटेन पर पहली नजर में तो बोझ ही बनते हैं। इसके साथ जोडक़र हिन्दुस्तान की इस बात को देखना चाहिए कि यहां पर पड़ोस के लगे हुए म्यांमार से आने वाले, भयानक हिंसा के शिकार रोहिंग्या शरणार्थियों को लेकर देश का क्या रूख है। यह बात भी समझनी चाहिए कि दुनिया में शरणार्थियों के लिए जो अंतरराष्ट्रीय सहमति दर्ज है उस पर भारत के भी दस्तखत हैं, लेकिन पड़ोस के शरणार्थियों के लिए आज यहां कोई जगह और हमदर्दी नहीं हैं।
चूंकि हिन्दुस्तान लगातार यह कहते रहता है कि उसने संसदीय व्यवस्था ब्रिटेन से ली है, इसलिए ब्रिटेन के इन दो उदाहरणों से भी कुछ सीखने की जरूरत है। पहली बात तो यह कि अगर ब्रिटिश फौजें किसी दूसरे देश में जाकर वहां किसी बेकसूर को मारकर आई हैं, तो भी ब्रिटिश मीडिया इंसाफ के लिए उस बात की भी जांच कर रहा है, और यह कोशिश कर रहा है कि ऐसे बेकसूर परिवारों को ब्रिटिश सरकार से मुआवजा मिल सके। दूसरी बात यह भी कि ब्रिटिश फौजों की जवाबदेही तय हो सके, ताकि अगली बार उनसे ऐसी गलती न हो, या वे ऐसा गलत काम न करें। एक उन्मादी राष्ट्रवाद के नाम पर देश की फौज को पवित्र और पूजनीय बनाकर सवालों से परे कर देना उस फौज के भले का भी नहीं रहता, क्योंकि उससे गलतियां और गलत काम होने का खतरा बढ़ते जाता है।
गार्डियन ब्रिटेन का सबसे जिम्मेदार अखबार माना जाता है, और इसने उस वक्त भी सवाल उठाए थे जब देश कोरोना से जूझ रहा था, लॉकडाउन लगा हुआ था, और ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के सरकारी आवास पर उनके साथ काम कर रहे लोगों ने दारू पार्टी की थी। यह दारू पार्टी लॉकडाउन के नियमों के खिलाफ थी, इसलिए जब इसके शुरुआती सुबूत सामने आए, तो लंदन की पुलिस को इसकी जांच दी गई। पुलिस ने प्रधानमंत्री पर जांच के बाद जुर्माना लगाया, और अभी संसद की एक जांच समिति इस नतीजे पर पहुंची है कि इस बारे में संसद में सवाल होने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने झूठ कहा था। एक ऐसा भी खतरा वहां मंडरा रहा है कि अगर संसद की समिति इस पर कड़ी कार्रवाई करती है तो बोरिस जॉनसन का संसदीय-राजनीतिक जीवन खत्म हो सकता है।
लोकतंत्र एक-दूसरे से बेहतर चीजों को सीखने की व्यवस्था है। संसदीय व्यवस्था किसी धर्मग्रंथ की तरह लिखे हुए शब्दों को अंतिम सत्य मान लेने की नहीं रहती, वह तजुर्बों से परंपराओं को कायम करने का नाम रहती है। आज ब्रिटेन या दूसरे लोकतांत्रिक देश जिस पारदर्शिता की तरफ लगातार बढ़ रहे हैं, जिस तरह वहां नेताओं की, सरकार और फौज की, जजों और अफसरों की जवाबदेही रहती है, और बढ़ती चल रही है, उससे हिन्दुस्तान जैसे देश को बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। लंदन पुलिस का छोटा सा अफसर प्रधानमंत्री निवास जाकर इस बात की जांच कर चुका है कि वहां किन तारीखों पर पार्टियां हुईं, उनमें सामाजिक दूरी का पालन हुआ या नहीं हुआ, और प्रधानमंत्री निवास को कुसूरवार पाने पर प्रधानमंत्री को जुर्माना भी सुना दिया। कितने लोकतंत्र ऐसे हैं जो कि ऐसी पारदर्शिता से काम कर सकते हैं?
पूरी दुनिया में फौजों का इतिहास गलतियों, और गलत कामों से भरा हुआ है। जंग और फौजी कार्रवाई के हालात ही ऐसे रहते हैं कि कई बार ऐसा हो जाता है, और कई बार दुश्मन को निपटाने के इरादे से ऐसा कर दिया जाता है। लेकिन अगर इन बातों की जांच न हो, तो उस मुल्क की फौज बेकाबू और अराजक हो जाने का एक खतरा रहता है। इसलिए लोकतांत्रिक देशों को अपने किसी भी संस्थान को ऐसा पवित्र और पूजनीय नहीं बनाना चाहिए कि वहां कोई सवाल करना गद्दारी मान लिया जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ पिछले कुछ मुख्य न्यायाधीशों के मुकाबले अधिक मुखर हैं, और अपनी सोच को खुलकर सामने रखते हैं। उन्होंने अभी सार्वजनिक रूप से यह कहा कि अदालतों को सीलबंद लिफाफों का सिलसिला खत्म करना चाहिए। आमतौर पर जब सरकार किसी मुकदमे में एक हिस्सा होती है, तो वह कई किस्म की जानकारी संवेदनशील बताते हुए उसे सीलबंद लिफाफे में अदालत को पेश करती है। अभी ऐसा ताजा मामला अडानी के खिलाफ जांच को लेकर था, जिसमें सरकार ने अपनी तरफ से जांच टीम के लिए सदस्यों के नाम सुझाए थे लेकिन मुख्य न्यायाधीश ने उस लिफाफे को खोलने से ही इंकार कर दिया था, और साफ किया था कि जनता के बीच पारदर्शिता के लिए यह जरूरी है कि सीलबंद लिफाफों का सिलसिला खत्म किया जाए। उन्होंने यह भी कहा था कि वे सरकार के सुझाए नाम देखना भी नहीं चाहते, क्योंकि उसके बाद वे अगर दूसरे लोगों को भी जांच कमेटी में रखेंगे, तो भी जनता के बीच उसकी विश्वसनीयता नहीं रहेगी। देश की राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ी गोपनीय जानकारी को लेकर भी कभी-कभी सरकार अदालत से बंद कमरे में सुनवाई की मांग करती है ताकि सुनवाई की जानकारी मीडिया के मार्फत जनता तक न पहुंचे।
मुख्य न्यायाधीश का यह रूख बड़ा पारदर्शी और लोकतांत्रिक है। लेकिन इसे एक पखवाड़ा भी नहीं हुआ है कि एक ताजा मामले में अदालत का रूख बदला हुआ नजर आता है। सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व जज पर उनकी एक सहयोगी कर्मचारी ने यौन उत्पीडऩ का आरोप लगाया था। इस पर जब जज ने इसके खिलाफ मानहानि का केस किया, तो इस महिला ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की कि केस को दिल्ली हाईकोर्ट के बजाय किसी और अदालत भेजा जाए क्योंकि दिल्ली हाईकोर्ट के अधिकतर जज इस सुप्रीम कोर्ट जज के साथ काम किए हुए हैं, और वहां उसे इंसाफ की उम्मीद नहीं है। खैर, इसके बाद हुआ यह कि इस जज (अब भूतपूर्व) और इस सहयोगी महिला के बीच किसी तरह का कोई समझौता हुआ, और सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस के.एम.जोसेफ और जस्टिस बीवी नागरत्ना की बेंच ने मामले की पूरी कार्रवाई को सीलबंद करके रिकॉर्ड रूम में रखने का आदेश दिया, और केस को खत्म कर दिया। ऐसे में इस पूर्व जज के वकील ने मांग की कि जब समझौता हो गया है तो सोशल मीडिया को यह आदेश दिया जाए कि वे इस मामले का सारा रिकॉर्ड हटा दें। इस पर जजों ने हैरानी के साथ कहा कि ऐसा आदेश वे कैसे दे सकते हैं क्योंकि मीडिया ने तो वही लिखा है जो खुली अदालत में कहा गया था। हटाने का ऐसा आदेश करना जायज नहीं होगा।
अब यहां पर एक सवाल उठता है कि अगर यह मामला खुली अदालत में ही चल रहा था, और उसकी रिपोर्टिंग मीडिया में हो रही थी, उसमें दिल्ली हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक का वक्त लग रहा था, तो क्या आज दोनों पक्षों के बीच अदालत के बाहर होने वाले किसी समझौते की वजह से केस को बंद करके रिकॉर्ड को सील कर देना ठीक है? यह मामला किसी घर के भीतर शोषण का नहीं है, यह मामला यह सुप्रीम कोर्ट के एक जज का अपनी एक इंटर्न के साथ किए गए बर्ताव का है जिस पर महिला इंटर्न ने यौन उत्पीडऩ की रिपोर्ट लिखाई थी। हम हिन्दुस्तानी कानून के मुताबिक यौन उत्पीडऩ की शिकार महिला की पहचान छुपाए रखने के हिमायती हैं। लेकिन जनता के पैसों से तनख्वाह पाने वाला सुप्रीम कोर्ट के जज सरीखे बड़े ओहदे पर बैठा हुआ आदमी अगर अपनी मातहत के यौन उत्पीडऩ का आरोपी है, तो क्या इस मामले में हुए समझौते की जानकारी उस महिला के नाम बिना जनता के सामने नहीं आनी चाहिए? यह बात हम इसलिए लिख रहे हैं कि यह सुप्रीम कोर्ट जज के अदालती कामकाज से जुड़ी हुई व्यवस्था का मामला है, और इस बारे में जब ऐसी शिकायत हुई थी, तो समझौते का बाद भी जनता को यह मालूम होना चाहिए कि समझौता हुआ क्या है? यह मामला एक आपराधिक बर्ताव का मामला है, और इसे निजी कहकर खत्म कर देना जायज नहीं होगा। इस मामले में अदालत को अगर यह लगता है कि एक समझौता हो गया है, और मामला आगे चलने की जरूरत नहीं है, तो भी जनता को सुप्रीम कोर्ट के अपने जज के खिलाफ दायर किए गए इस मामले में तथ्य जानने का हक है। हमारा ख्याल है कि यौन उत्पीडऩ के मामलों में महिला को तो अपनी शिनाख्त छुपाए रखने का हक है, और यह कानून और मीडिया की जिम्मेदारी भी है। लेकिन जिसके खिलाफ ऐसी शिकायत हुई है, उसे मामले के सीलबंद कर दिए जाने की रियायत क्यों मिलनी चाहिए? क्या सुप्रीम कोर्ट जज की जगह कोई आम आदमी होता, तो भी क्या उसे ऐसी रियायत मिली होती?
एक तरफ तो सीजेआई का रूख सीलबंद लिफाफों के खिलाफ दिखता है, दूसरी तरफ अपने आचरण के लिए संविधान और जनता दोनों के प्रति जवाबदेह, सुप्रीम कोर्ट के एक जज पर लगी इतनी बड़ी तोहमत अदालत के बाहर के किसी रहस्यमय और गोपनीय सौदे या समझौते से अगर हट भी रही है, तो भी वह जनता के सामने आनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के जज को अपने आचरण के लिए संदेह से परे रहना चाहिए। दुनिया में बड़े लोगों को अपना आचरण संदेह से परे रखने के लिए कहा जाता है। लोकतंत्र के पहले भी राजाओं के लिए यह एक आदर्श गिनाया जाता था, और हिन्दुस्तान में राम की कहानियों में जगह-जगह इसकी मिसाल मिलती है। हम सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा या रिटायर्ड किसी भी तरह के जज के कामकाज से जुड़े, ओहदे और दफ्तर से जुड़े ऐसी किसी विवाद को निजी नहीं मानते जिसे लेकर अदालत में एक केस दायर किया जा चुका था। ऐसी अदालती लड़ाई किसी बाहरी, निजी, और गोपनीय समझौते के तहत जजों के सामने तो खत्म हो सकती है, लेकिन इससे जनता के प्रति अदालत और जजों की जवाबदेही खत्म नहीं हो जाती। उस महिला की पहचान गोपनीय बनाए रखने के साथ-साथ इस समझौते को उजागर करना चाहिए, इसे ठीक उसी तरह अदालती कागजात का हिस्सा बनाना चाहिए जिस तरह कोई भी दूसरे मामले रहते हैं, वरना यह अदालतों का अपने आपको पारदर्शिता से परे रखने का काम कहलाएगा जिससे उसकी साख खत्म होगी। यौन उत्पीडऩ का मामला ऐसा नहीं है कि जिसे दफन कर देना किसी जज का हक हो। यहां पर बात हक की नहीं जवाबदेही की है।
सुप्रीम कोर्ट वैसे भी अपनी साख पिछले एक मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर एक मातहत महिला कर्मचारी द्वारा लगाए गए यौन शोषण के आरोपों में बुरी तरह खो चुका है, क्योंकि उसने बंगले पर यौन शोषण के खिलाफ शिकायत की थी, और उसकी सुनवाई करने के लिए खुद रंजन गोगोई जज बनकर बैठे थे। हमारा ख्याल है कि इस किस्म की इससे बुरी मिसाल और कुछ नहीं हो सकती थी। और बाद में यह आरोप भी सामने आए थे कि जिस महिला ने यह आरोप लगाया था, उसके मोबाइल फोन पर पेगासस से घुसपैठ की गई थी। मौजूदा मुख्य न्यायाधीश चन्द्रचूड़ को पारदर्शिता के अपने पैमाने पर खरा उतरना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा का एक वीडियो तैर रहा है जिसमें ग्वालियर की एक निजी यूनिवर्सिटी के कार्यक्रम में भाषण देते हुए उन्होंने कहा कि गांधी के पास कानून की कोई डिग्री नहीं थी, उन्होंने सिर्फ हाईस्कूल डिप्लोमा किया था। उन्होंने यह दावा किया कि वे यह बात सुबूतों के साथ कह रहे हैं। इस बयान पर देश और गांधी के इतिहास के जानकार लोग हॅंस भी रहे हैं, और रो भी रहे हैं। उस वक्त के इंग्लैंड से बैरिस्टर बने मोहनदास करमचंद गांधी दक्षिण अफ्रीका जाकर वकालत करने लगे थे, और वहां पर रंगभेदी, नस्लभेदी भेदभाव से आहत होकर उन्होंने एक आंदोलन छेड़ा था, और हिन्दुस्तान लौटकर स्वतंत्रता की लड़ाई शुरू की थी। गांधी के प्रपौत्र तुषार गांधी का कहना है कि गांधी ने लॉ की डिग्री पाई थी, और यह बात उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी लिखी है। तुषार ने मोदी सरकार के बनाए हुए इस राज्यपाल पर तंज कसते हुए कहा कि जाहिलों को राज्यपाल बना देने का यही नतीजा होता है। गांधी के पास लॉ की डिग्री थी, लेकिन उनके पास एंटायर लॉ डिग्री नहीं थी जैसी कि मोदी के पास एंटायर पोलिटिकल साईंस की डिग्री है। उल्लेखनीय है कि मोदी की डिग्री को लेकर बरसों से यह विवाद चल रहा है कि विश्वविद्यालय उसकी जानकारी क्यों नहीं दे रहा है, और मोदी जिस कोर्स में डिग्री बताते हैं, वह कोर्स तो विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में दिखता भी नहीं है। खैर, वह विवाद एक अलग विवाद है, और मोदी से लेकर स्मृति ईरानी तक बहुत से लोग अपनी डिग्रियों को लेकर खुद जवाबदेह हैं, इसलिए उनके लिए हमें कुछ नहीं कहना है। लेकिन आज जो गांधी नहीं रह गए हैं, और जिनके बारे में इतिहास में दर्ज तथ्यों को भी तोड़-मरोडक़र, या झूठ गढक़र जो अभियान चलाया जा रहा है, उस पर जरूर बात होनी चाहिए।
हाल के बरसों में देश में जिस रफ्तार से भाजपा और संघ परिवार के बड़े-बड़े नेताओं ने गांधी और नेहरू के खिलाफ एक अभियान छेड़ा है, वह बहुत भयानक है। देश के इतिहास में, स्वतंत्रता संग्राम में, आधुनिक भारत के निर्माण में जिन लोगों का अपार योगदान रहा है, उन्हें भाड़े के भोंपुओं के मार्फत रात-दिन कोसना, हिन्दुस्तान में एक अभूतपूर्व घटना है। और यह सिलसिला देश को एक खरे इतिहास से दूर ले जा रहा है, और एक झूठे इतिहास के गौरव में जीने का मौका दे रहा है। आज सोशल मीडिया पर झूठ फैलाने की आजादी के चलते उस ग्वालियर से गांधी की पढ़ाई के बारे में संवैधानिक कुर्सी पर बैठे एक आदमी ने यह नया झूठ शुरू किया है, जिस ग्वालियर से गांधी की हत्या के लिए हथियार निकला था, और जिसके जंगलों में गांधी के हत्यारों ने गोली चलाने का अभ्यास किया था। इसी ग्वालियर के शासक घराने सिंधिया के बारे में सुभद्रा कुमारी चौहान ने देशप्रेम की एक सबसे महान कविता में लिखा है कि किस तरह सिंधिया घराने ने अंग्रेजों का साथ दिया था। अब जहां से गई पिस्तौल ने गांधी की हत्या की थी, आज उसी जगह गांधी पर एक नई गोली दागी जा रही है, ताकि फर्जी डिग्री, या डिग्री के झूठे दावे वाले लोगों की फेहरिस्त में गांधी का भी नाम जोड़ा जा सके, और इस पूरी लिस्ट को एक अलग विश्वसनीयता दिलाई जा सके।
लोकतंत्र में जब मूर्तिभंजन होता है, तो वह मासूम नहीं होता, उसे सोच-समझकर किया जाता है। नेहरू के खिलाफ चल रहा अभियान अपने दम पर एक सीमा तक ही चल सकता था, उसके बाद अब उसे गांधी विरोधी एक अभियान की जरूरत और पड़ेगी, क्योंकि गांधी को बदनाम करने से भी नेहरू की बदनामी कुछ और हद तक बढ़ाई जा सकेगी। इस देश में गोडसे की विचारधारा से उपजी नस्लें लगातार इस अभियान में लगी रहती हैं कि गोडसे को भारत-पाक विभाजन से विचलित एक देशभक्त साबित किया जा सके, और ये लोग गांधी की तस्वीर पर गोलियां दागते हुए अपनी तस्वीर और वीडियो पोस्ट करते रहते हैं। भाजपा की सांसद साध्वी प्रज्ञा ठाकुर सार्वजनिक रूप से खुलेआम गांधी को कोसती हैं, और गोडसे की स्तुति करती हैं, और संसद में बनी रहती हैं, भाजपा में भी। इसलिए भाजपा के नेताओं के कुछ खास मौकों पर राजघाट जाने को इसी संदर्भ में देखना चाहिए कि अपनी पार्टी के भीतर गांधी के हत्यारों के पूजकों के लिए उसके मन में कितना सम्मान है, और कैसे ओहदे उसने इन्हें दे रखे हैं। ऐसे ही एक बहुत बड़े ओहदे पर बैठे हुए मनोज सिन्हा ने बेमौके पर एक बेतुकी बात छेडक़र गांधी पर जो हमला किया है, उसे इस पूरे अभियान के एक हिस्से के रूप में देखना चाहिए। हिन्दुस्तान की आज की जिस पीढ़ी ने गांधी को न देखा है, न आजादी की लड़ाई को भुगता है, उस पीढ़ी को नेहरू और गांधी के खिलाफ बरगलाना कुछ मुश्किल नहीं है। यह पीढ़ी भाड़े के झूठे भोंपुओं की सोशल मीडिया पर कही गई बातों को ज्यों की त्यों मान लेने का सहूलियत का काम करने की आदी है, और इसके बीच देश के इतिहास के सबसे महान लोगों का मूर्तिभंजन करना, और सबसे खराब लोगों को महिमामंडित करना बहुत ही आसान बात है। मनोज सिन्हा गए तो एक निजी यूनिवर्सिटी के कार्यक्रम में थे, लेकिन वहां उन्होंने वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी के दर्जे का भाषण दिया। कोई हैरानी नहीं है कि वे उस जंगल में भी श्रद्धासुमन अर्पित करने गए हों जहां पर गांधी पर गोली चलाने के पहले अभ्यास किया गया था।
देश में नफरत के लिए एक बड़ा बर्दाश्त पैदा किया जा चुका है। और जिस तरह एक धीमा जहर देकर एक वक्त विषकन्याएं तैयार करने की कहानी रहती थी, आज उसी तरह ये नफरतपुरूष तैयार किए गए हैं। नई पीढ़ी नफरतजीवी हो जाए, तो गांधी-नेहरू की विचारधारा के खिलाफ लोगों का चुनाव जीतना एक आसान काम हो जाएगा, और आज उसी इरादे से लगातार तरह-तरह की कोशिशें चल रही हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
राहुल गांधी के बयान पर अदालत का फैसला अच्छा है या बुरा, सही है या गलत, यह बहस तो ऊपरी अदालत से इसके खिलाफ होने जा रही अपील के आने तक चल सकती है। लेकिन उसका कोई मतलब नहीं है। हिन्दुस्तानी राजनीति में राहुल का यह बयान अगर दो बरस कैद के लायक है, तो राष्ट्रीय स्तर के दर्जनों नेताओं को बाकी तमाम जिंदगी जेल में ही काटनी होगी। यह अलग बात है कि अधिक पार्टियां या नेता राजनीतिक और चुनावी बयानों को लेकर इस हद तक नहीं जाते हैं कि वे विपक्षी या विरोधी को कैद दिलवा दी जाए। लेकिन भाजपा और उसके नेता आज जिस आक्रामकता के साथ काम कर रहे हैं, और कांग्रेस और राहुल गांधी से उनके रिश्ते जितने खराब चल रहे हैं, उसके चलते हुए एक चुनावी बयान को यहां तक पहुंचाया गया है। हालत यह है कि जिस आम आदमी पार्टी की सरकार के दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया की सीबीआई और ईडी की गिरफ्तारी पर भी कांग्रेस ने मुंह नहीं खोला था, उसके नेता और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल खुलकर राहुल गांधी के समर्थन में आए हैं, और विपक्षी नेताओं को इस तरह अदालतों में घसीटने के खिलाफ उन्होंने कुछ घंटों के भीतर ही बयान दिया है। और यह बात जाहिर है कि किसी भी राज्य की सरकार, वहां के नेता स्थानीय छोटी अदालतों में ऐसे मामले लगाकर विरोधी को कैद दिलवाने की उम्मीद कर सकते हैं क्योंकि छोटी अदालत का नजरिया किसी मुकदमे में संवैधानिक व्याख्या का नहीं रहता, वे आमतौर पर बहुत सीमित दायरे में सोचती हैं, और बात-बात में सजा देती हैं। छोटी अदालतों से सुनाई गई अधिकतर सजा हाईकोर्ट तक जाकर खारिज भी हो जाती हैं। राहुल के मामले में भी यही होने की उम्मीद है, और इस बीच यह भी सोचने की जरूरत है कि अगर हर नेता को इस तरह अदालत में घसीटा गया, तो कितने लोग बाहर रह जाएंगे?
अभी-अभी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का कुछ बरस पहले का एक वीडियो दिख रहा है जिसमें वे संसद में रेणुका चौधरी की हॅंसी की तुलना रामायण की एक हॅंसी से करते हैं कि रामायण के बाद वैसी हॅंसी अभी सुनाई पड़ी है। यह बात सबको मालूम है कि रामायण में शूर्पनखा की राक्षसी हॅंसी का ही उल्लेख है। इसके अलावा भी नरेन्द्र मोदी कभी शशि थरूर के संदर्भ में सौ करोड़ की गर्लफ्रेंड कहते आए हैं, कभी सोनिया गांधी के संदर्भ में जर्सी गाय, और राहुल के संदर्भ में हाईब्रीड बछड़ा, राजीव गांधी के संदर्भ में करप्ट नंबर-1, जैसी बहुत सी सार्वजनिक टिप्पणियां उनके नाम के साथ जुड़ी हुई हैं, और यह हाल कई पार्टियों के बहुत से नेताओं का रहते ही आया है। अभी-अभी महाराष्ट्र में विधानसभा में एक निर्दलीय विधायक बच्चू कड़ू ने यह प्रस्ताव रखा था कि प्रदेश में आवारा कुत्तों की बढ़ती आबादी पर काबू करने के लिए इन्हें असम भेजा जाए क्योंकि इस पूर्वोत्तर राज्य में स्थानीय लोग कुत्ते खा जाते हैं। इस बात को लेकर असम के मुख्यमंत्री भारी खफा हैं, और उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर यह बयान वापिस लेने और माफी मांगने को कहा है। असम की विधानसभा में इसे लेकर खूब हंगामा हुआ, और यह मांग की गई कि महाराष्ट्र के इस विधायक को सदन में बुलाया जाए, और माफी मंगवाई जाए। लोगों को याद होगा कि जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, तो उनके बारे में विपक्ष ने लगातार-गली-गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है, का नारा लगाया था, जो पूरे चुनाव में चलते रहा। राहुल गांधी के कर्नाटक चुनाव में कहे गए एक वाक्य पर उन्हें गुजरात की एक अदालत से यह सजा हुई है, और उसमें राहुल ने कहा था कि सभी चोरों का सरनेम मोदी क्यों होता है। जाहिर है कि वे नीरव मोदी, ललित मोदी के साथ-साथ नरेन्द्र मोदी की तरफ भी इशारा कर रहे थे, क्योंकि सार्वजनिक राजनीति में इतनी मासूमियत की छूट तो दी नहीं जा सकती कि वे सिर्फ नीरव और ललित की बात कर रहे थे। ऐसे अनगिनत बयान हैं। केन्द्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का एक बयान जिसमें उन्होंने सार्वजनिक सभा के मंच से गोली मारो सालों को किस्म का नारा लगाकर एक समुदाय की तरफ इशारा किया था, और जब मामला अदालत पहुंचा तो जज का विश्लेषण था कि चूंकि उन्होंने हॅंसते-हॅंसते यह बात कही थी, तो इसे हिंसा के लिए उकसावा नहीं माना जा सकता। हिन्दुस्तान में पिछले बरसों में दर्जनों सांसदों और सैकड़ों विधायकों ने, मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों सहित अंधाधुंध हिंसक बयान दिए हैं जिनमें साम्प्रदायिक नफरत और हिंसा के फतवे रहे हैं। लेकिन किसी अदालत से उन्हें कोई सजा नहीं हुई क्योंकि राजनीतिक बयानों की राजनीतिक प्रतिक्रिया को काफी मान लिया गया था। किसी धर्म या समुदाय के सफाए के बयानों पर अगर अदालत का रूख किया जाता, तो उनके मुकाबले तो राहुल का बयान कुछ भी नहीं है। लेकिन जिस अदालत में जो मामला जाता है, वह अदालत तो उसी की सुनवाई करती है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जरूर कई मामलों को जोड़ सकते हैं, लेकिन छोटी अदालतें एक व्यापक नजरिया नहीं अपना सकतीं।
राजनीति में ओछी बातें भी बंद होना चाहिए, और बिना बात के बतंगड़ भी। आज अगर भाजपा विरोधी दूसरी पार्टियां चाहें तो अलग-अलग लोगों से और अलग-अलग समुदायों से बहुत से भाजपा नेताओं के खिलाफ अदालतों में उनके बयानों को लेकर मुकदमे दर्ज करवाए जा सकते हैं, इनसे हो सकता है कि लोग कुछ और सम्हलकर बोलने लगें, लेकिन लोकतंत्र में हर बात के लिए अदालत का रूख ठीक नहीं है। हो सके तो सार्वजनिक जीवन की बातों को जवाबी बातों से ही निपटाना चाहिए। फिर भी अगर कुछ लोग अधिक ही हिंसा और नफरत की बात करते हैं तो उनके खिलाफ जरूर अदालत जाना चाहिए। कांग्रेस के नेता भाजपा के नेताओं के खिलाफ अब अधिक चौकन्ने रह सकते हैं कि अदालत तक जाने का हक सिर्फ गुजरात के एक मोदी सरनेम वाले विधायक का नहीं है, कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं का भी है। और ऐसे मुकदमों का सैलाब लाने के लिए रोज ही खबरों की कतरनें, और वीडियो मौजूद हो रहे हैं।
उत्तरप्रदेश के कानपुर के किसी करौली सरकार नाम के बाबा की खबरें बताती हैं कि वह आश्रम में पहुंचने वाली एक युवती को कद बढ़ाने की उसकी इच्छा पूरी करने के लिए कोई मंत्र सा पढ़ता है, और कहता है कि छह महीने में उसकी ऊंचाई तीन इंच बढ़ जाएगी। यह वीडियो चारों तरफ फैला हुआ ही है कि इस बीच एक डॉक्टर ने पुलिस में रिपोर्ट लिखाई कि इस बाबा के आश्रम में उससे सवाल पूछने पर बाबा ने अपने गुंडों से उसे पिटवाया। सवालों के जवाब में अपने बाहुबलियों से पिटवाना कोई बहुत अनोखा काम बाबाओं के लिए नहीं है। कहीं वे लोगों की पतलून उतरवाने की धमकी देते हैं, कहीं वे श्राप से भस्म कर देने की धमकी देते हैं, बाबा ने इसे सनातन धर्म को नीचा दिखाने की साजिश करार दिया है। शिकायत करने वाला वकील डॉ. सिद्धार्थ चौधरी है, और नाम से समझ पड़ता है कि वह हिन्दू है। दूसरी तरफ कानपुर के एक वकील ने इस बाबा को चुनौती दी है कि उनके बच्चों की बीमारी बाबा अपने चमत्कारों के दावे से ठीक कर दे तो वह अपनी पूरी दौलत बाबा को दान दे देगा। इन खबरों के बीच ऐसे वीडियो आते जा रहे हैं जिनमें यह बाबा कोई मंतर पढक़र चमत्कार से लोगों की बीमारी ठीक करने का नाटक करते दिखता है।
अब छत्तीसगढ़ भी मध्यप्रदेश के ऐसे एक-दो बाबाओं का शिकार पिछले महीनों में हो चुका है। और ऐसे पाखंडी चमत्कारी दावे करने वाले लोगों के खिलाफ कानून बने हुए हैं, लेकिन किसी भी पार्टी की सरकार हो वह इनके भक्तों की नाराजगी से बचने के लिए ऐसे दावों की अनदेखी करती है। दूसरी तरफ धर्म का ही चोला पहने हुए बहुत से तथाकथित साधू-संत अभी-अभी छत्तीसगढ़ में बड़ा डेरा डाल गए हैं, और देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने की मांग कर गए हैं। इनके साथ भी उसी तरह कांग्रेस के बड़े नेता जुड़े हुए थे जिस तरह डेढ़-दो बरस पहले छत्तीसगढ़ में एक ऐसे ही भगवा आयोजन में गांधी को गंदी गालियां बकी गई थीं, उससे भी कांग्रेस के नेता जुड़े हुए थे। अब पुलिस में रिपोर्ट होने पर कांग्रेस की सरकार कोई कार्रवाई कर दे तो कर दे, कांग्रेस के निर्वाचित नेता भी पूरी तरह से ऐसे पाखंडियों के पीछे लगे रहते हैं। मध्यप्रदेश के ही एक ऐसे ‘सरकार’ को छत्तीसगढ़ के ही उस वक्त के सबसे बड़े कांग्रेस नेता, और अविभाजित मध्यप्रदेश के मंत्री ने लाकर यहां बसाया था, तब से उनका कारोबार यहां चल ही रहा है। इसलिए हर किस्म के पाखंड और चमत्कार के साथ, धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता के फतवे देने वाले प्रवचनकर्ताओं के चरणों में कांग्रेसी भी पड़े दिखते हैं। लोगों को याद होगा कि आसाराम नाम के बलात्कारी मुजरिम के एक पैर पर नरेन्द्र मोदी, तो दूसरे पैर पर दिग्विजय सिंह पड़े दिखते थे। अभी भी महीनों से चल रहे विवाद के बाद भी मध्यप्रदेश के एक नौजवान बाबा के पैरों पर वानप्रस्थ की उम्र वाले कांग्रेस नेता कमलनाथ दिखे हैं।
वोटों के चक्कर में अगर अधिक हिन्दू बनने को बेचैन कांग्रेस पार्टी अगर ऐसे बाबाओं को जगह-जगह साख दिलाती रहेगी, तो वह हिन्दुत्व की असली वारिस भाजपा की बी टीम भी नहीं बन पाएगी, सी, डी, या ई टीम शायद बन जाए तो बन जाए। जिनको हिन्दुत्व के नाम पर वोट देना है, वे भला भाजपा को क्यों छोड़ेंगे जिसने कभी हिन्दुत्व नहीं छोड़ा। अब देश भर में अलग-अलग पार्टियों के राज वाले प्रदेशों में ऐसे बाबा कारोबार चला रहे हैं। राजनीतिक दल तो बलात्कारी कैदी राम-रहीम को भी जेल से बार-बार बाहर आने का रास्ता बनाने में लगे रहते हैं। राजनीतिक दलों को ऐसे बाबाओं को अंधभक्तों को अपने वोटर बनाने की हसरत रहती है। कांग्रेस का इतिहास जवाहरलाल नेहरू रहा हुआ है, उसके बाद भी अगर आज वह पाखंडों पर सवार होकर भाजपा को पीटना चाहती है, तो भाजपा के पास ऐसे पाखंडों के अंधभक्तों के अलावा अपने खुद के भक्त भी हैं। इस हथियार से भाजपा का कुछ नहीं बिगाड़ा जा सकता।
देश के कानून को भी इस पर गौर करना चाहिए कि किस तरह लोगों की वैज्ञानिकता को खत्म करके, चमत्कारों का झांसा देकर पेशेवर पाखंडी लोग झांसों की दुकान चला रहे हैं, और उनके खिलाफ मौजूदा कानून के तहत कोई भी कार्रवाई राज्य की सरकारें नहीं कर रही हैं। अब तो वीडियो-सुबूत लोगों के जुर्म साबित करने के लिए आसानी से मौजूद रहते हैं, और देश की किसी न किसी बड़ी अदालत को एक कड़ा रूख दिखाना होगा। जिस देश में जनता तरह-तरह की तकलीफों से घिरी रहती है, जहां उसे सरकार और अदालतों से अधिक उम्मीद नहीं रह जाती, जहां देश का भ्रष्टाचार लोगों को अपनी काबिलीयत से आगे नहीं बढऩे देता, वहां पर लोग अंधविश्वासों में फंस जाते हैं। हिन्दुस्तान ऐसा ही एक देश है। यह सिलसिला खत्म करने के लिए बेंगलुरू से लेकर पुणे तक जिन अंधविश्वास-विरोधियों ने अभियान चलाए, उन्हें मार डाला गया, क्योंकि अंधविश्वास से घिरी जनता से वोट दुहना आसान रहता है। फिर भी छत्तीसगढ़ के डॉ. दिनेश मिश्र की तरह और लोगों को भी आगे आना होगा, जनसंगठनों को मजबूती से पाखंड का विरोध करना होगा, और सरकारों और अदालतों को कार्रवाई के लिए घेरना होगा, तब जाकर देश में वैज्ञानिक सोच को बचा पाना मुमकिन होगा। जहां एक पाखंडी अपने मंतर से पढ़ी-लिखी युवती का कद तीन इंच बढ़ा देने का दावा करे, वहां विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की जरूरत किसे रह जाती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दिल्ली पुलिस ने 6 लोगों को शहर की दीवारों पर पोस्टर चिपकाने के एक मामले में गिरफ्तार किया है। ये पोस्टर जाहिर तौर पर आम आदमी पार्टी के छपवाए हुए दिखते हैं। पोस्टरों पर कहीं आप का नाम नहीं है, लेकिन अब तक की पुलिस जांच में जो सामने आया है उसके मुताबिक ऐसे पोस्टरों से भरी हुई एक वैन जब्त हुई है जो कि आप मुख्यालय से निकली थी, और गिरफ्तार किए गए लोगों से यह पता लगा है कि दो दिन से ऐसे पोस्टर छापकर आप मुख्यालय में पहुंचाए जा रहे थे। इस पोस्टर की जिम्मेदारी लिए बिना इस पार्टी ने ट्विटर पर इस पोस्टर की फोटो के साथ लिखा है कि मोदी सरकार की तानाशाही चरम पर है, इस पोस्टर में ऐसा क्या आपत्तिजनक है जो इसे लगाने पर मोदीजी ने सौ एफआईआर कर दी, प्रधानमंत्री मोदी, आपको शायद पता नहीं पर भारत के एक लोकतांत्रिक देश है, एक पोस्टर से इतना डर क्यों?
अब यह पोस्टर चार शब्दों के हैं, मोदी हटाओ देश बचाओ। दो प्रिटिंग प्रेस को ऐसे 50-50 हजार पोस्टर छापने का ऑर्डर दिया गया था, और इन प्रेस से जुड़े हुए लोगों ने इतवार रात से सोमवार सुबह तक दिल्ली की दीवारों पर ये पोस्टर चिपकाए हैं। ये मामला प्रिटिंग प्रेस के नाम के बिना पोस्टर छापने की वजह से दर्ज किया गया है क्योंकि देश के कानून के मुताबिक किसी भी छपाई पर उसे छपवाने वाले और छापने वाले के नाम होने चाहिए। लोगों को याद होगा कि छोटे-छोटे से पर्चे भी प्रिटिंग प्रेस के नाम सहित ही छपते हैं। ऐसे में एक राजनीतिक मांग या नारे वाले ऐसे पोस्टर छपवाना और उन्हें सार्वजनिक दीवारों पर चिपकाना, यह काम बिना नाम क्यों होना चाहिए था? अरविन्द केजरीवाल की पार्टी को चुनाव लड़ते कई बरस हो गए हैं, और यह पार्टी रात-दिन दिल्ली के लेफ्टिनेंट जनरल से कानूनी लड़ाई में लगी रहती है। अभी इसके दो बड़े नेता जेलों में हैं, और पार्टी रात-दिन वकीलों के साथ जुटी हुई है। ऐसे में एक रजिस्टर्ड राजनीतिक दल को इस मासूमियत का लाभ नहीं दिया जा सकता कि वह पोस्टर छपवाते हुए एक न्यूनतम कानूनी जरूरत को पूरा करना भूल गई थी। वह तो अभी भी जब इस मामले में सौ एफआईआर हो चुकी हैं, और 6 लोग गिरफ्तार हो चुके हैं, तब भी इस पोस्टर की जिम्मेदारी लेने से कन्नी काट रही है। वह प्रधानमंत्री की आलोचना तो कर रही है, उन्हें लोकतंत्र याद दिला रही है, बेनाम पोस्टरों के खिलाफ जुर्म दर्ज होने पर उसे तानाशाही करार दे रही है, लेकिन अपनी खुद की इस हरकत पर बेकसूर लोगों की गिरफ्तारी के बाद भी वह इन पोस्टरों को छपवाने और लगवाने की जिम्मेदारी के मुद्दे पर चुप है। यह तो पुलिस जांच से साबित हो गया है कि इन पोस्टरों के पीछे आम आदमी पार्टी ही है, तो फिर सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता के आंदोलन की उपज यह पार्टी साफ-साफ अपने काम कुबूल क्यों नहीं कर रही है? मोदी से लोकतंत्र की उम्मीद करना, और खुद बेनाम पोस्टर छपवाकर लगवाने का कानूनविरोधी काम करना, इन दोनों को एक साथ करना आम आदमी पार्टी के बस की ही बात दिखती है।
हिन्दुस्तान में राजनीतिक दल चुनावों के वक्त, चुनाव आचार संहिता के चलते चुनाव आयोग के सीधे नियंत्रण में रहते हैं, या कम से कम उनके प्रति हर हद तक जवाबदेह तो रहते ही हैं। लेकिन आचार संहिता से परे भी उनका काम तो एक मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल की हैसियत से ही चलता है, और यह मान्यता उन्हें चुनाव आयोग से ही मिली हुई है, इसलिए अपनी गैरकानूनी हरकतों के लिए उन्हें देश के बाकी कानून के साथ-साथ चुनाव आयोग के प्रति भी जवाबदेह रहना चाहिए, और गैरकानूनी हरकतों की वजह से पार्टियों की मान्यता खत्म करने का इंतजाम भी रहना चाहिए। और यह बात हम सिर्फ आम आदमी पार्टी के इस मासूम नारे वाले गैरकानूनी पोस्टरों के बारे में नहीं कह रहे हैं, बल्कि किसी भी पार्टी के नेता की गैरकानूनी और अलोकतांत्रिक बातों के बारे में भी कह रहे हैं। बहुत से नेता लगातार हिंसा और साम्प्रदायिक नफरत भडक़ाने वाले बयान देते हैं। इनमें से बहुत से लोग राजनीतिक दलों के सांसद और विधायक भी रहते हैं, या मान्यता प्राप्त राजनीतिक संगठन के पदाधिकारी रहते हैं। चूंकि संसद और विधानसभाएं सदन के बाहर अपने सदस्यों के किसी भी आचरण पर कोई कार्रवाई करते नहीं दिखती हैं, न ही उनकी कोई दिलचस्पी दिखती है, ऐसे में चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों से जवाब-तलब करने, उनकी मान्यता निलंबित या खत्म करने का काम करना चाहिए। आज बहुत से लोगों को यह बात इसलिए अलोकतांत्रिक लग सकती है क्योंकि आज देश में चुनाव आयोग की विश्वसनीयता धेले की नहीं रह गई है। ऐसा माना जाता है कि मोदी सरकार ने चुनाव आयोग को सरकार का ही एक विभाग या मंत्रालय बना रखा है। लेकिन हम राजनीतिक दलों के जुर्म, उनकी गुंडागर्दी, और उनके अलोकतांत्रिक कामों को लेकर चुनाव आयोग के प्रति उनकी एक जवाबदेही के हिमायती हैं। अब अगर संवैधानिक संस्थाएं पूरी तरह से पक्षपाती हो जाएं, तो एक अलग बात है, उस हालत में तो बिना ऐसे अधिकार के भी चुनाव आयोग किसी पार्टी को परेशान कर सकता है, लेकिन सामान्य स्थितियों में राजनीतिक दलों की जवाबदेही बढ़ानी चाहिए, और उन्हें सिर्फ देश के आम कानून के भरोसे नहीं छोडऩा चाहिए। वे एक विशेष कानूनी दर्जा प्राप्त मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल हैं, और इस मान्यता के साथ यह बात जुड़ी रहनी चाहिए कि अगर वे सार्वजनिक जगहों पर कोई तोडफ़ोड़ करते हैं, तो चुनाव आयोग भी उनसे जवाब-तलब कर सके, नुकसान की वसूली कर सके। कई लोगों को लग सकता है कि इस काम के लिए तो देश के दूसरे कानून काफी हैं, और चुनाव आयोग को और अधिक अधिकार क्यों दिए जाएं, लेकिन देश के बाकी कानून राजनीतिक दलों की मान्यता से जुड़े हुए नहीं हैं। इसलिए देश में कई तरह के सार्वजनिक जुर्म करने पर कार्रवाई का अधिकार चुनाव आयोग को भी होना चाहिए।
आखिर में इस मुद्दे पर यही लिखना रह गया है कि आम आदमी पार्टी इस तरह के कई शिगूफों, और लोगों से एकतरफा टकराव करने की रणनीति पर चलती आई है। वह कोई आरोप उछालती है, और खिसक लेती है, किसी बात को मुद्दा बनाती है, और उसे सहूलियत के साथ भूल जाती है, वह भ्रष्टाचार विरोध के आंदोलन के साथ अस्तित्व में आई थी, लेकिन आज उसके बड़े-बड़े नेता बड़े-बड़े भ्रष्टाचार के मामलों में गिरफ्तार हैं, और लोगों की हमदर्दी इस पार्टी के साथ घटती दिख रही है। अब यह पार्टी मोदी हटाने का ऐसा नारा तो दीवारों पर लगवा रही है जो देश के बाकी विपक्षी दलों को भी ठीक लगे, लेकिन मोदी के खिलाफ किसी मजबूत विपक्ष की नौबत से वह कतरा भी रही है। इसलिए आज उसका मोदी विरोध का यह महत्वहीन नाटक गैरकानूनी छपाई करवाने का नाटक भी है, ताकि ये पोस्टर और खबरों में आ जाएं। दिल्ली की जनता कई वजहों से केजरीवाल को दुबारा चुन चुकी है, लेकिन धीरे-धीरे करके ऐसे नाटक उजागर होते चलेंगे, और इस पार्टी के लिए मामला आसान नहीं रह जाएगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान के सबसे चर्चित चुनाव-रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने अभी किसी एक टीवी चैनल से बातचीत में अगले आम चुनाव को लेकर अपना जो अंदाज सामने रखा है, वह पूरी तरह से अनोखा तो नहीं है, क्योंकि बहुत से लोग यह मानते हैं कि डॉन को ढूंढने की तरह, मोदी को हराना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। ये शब्द किसी और के कहे हुए नहीं है, और यह हमारी अपनी एक मिसाल है, जो कि अलग-अलग तथ्यों और तर्कों से माकूल साबित होती है। हिन्दुस्तानी चुनावी राजनीति की हकीकत को देखें, तो मोदी को हराने की हसरत एक बड़ी दूर की कौड़ी दिखती है, और वह कौड़ी शायद फूटी हुई भी है। खैर, हम अपनी बात से यह चर्चा शुरू करने के बजाय प्रशांत किशोर की कही बातों पर आएं तो उन्होंने कहा कि विचारधारा के स्तर पर अलग-अलग बंटे होने के कारण विपक्षी एकता 2024 में काम नहीं करेगी। उन्होंने कहा कि विपक्षी एकता केवल दिखावा है, और पार्टियों और नेताओं को एक साथ लाने से ही यह साकार नहीं होगी। प्रशांत किशोर ने कहा अगर भाजपा को चुनौती देना चाहते हैं तो उसकी तीन ताकतों, हिन्दुत्व, राष्ट्रवाद, और कल्याणवाद को समझना होगा, और इनमें से कम से कम दो का मुकाबला किए बिना भाजपा को चुनौती नहीं दे सकते। प्रशांत किशोर ने अपने अब तक की आखिरी राजनीतिक पहल का भी खुलासा किया, और कहा कि कांग्रेस से उनके संपर्क का मकसद कांग्रेस को दुबारा खड़ा करना था, जबकि उनका मकसद चुनाव जीतना था, इसलिए सहमति नहीं हुई।
अब प्रशांत किशोर की बातों को कुछ पल के लिए छोड़ भी दें, तो भी हिन्दुस्तान की हकीकत तो देश के नक्शे पर साफ-साफ लिखी हुई है। शुरूआत देश के उन दो बड़े राज्यों से करें जहां से लोकसभा की सबसे अधिक सीटें आती हैं। उत्तरप्रदेश और बिहार इन दोनों की राजनीति यह कहती है कि इन दोनों जगहों पर कांग्रेस अधिक सीटें जीतने की हालत में नहीं है। बिहार में कांग्रेस कुल एक सीट पर जीती थी, और उसका यही हाल उत्तरप्रदेश में भी था। इन नतीजों के चलते हुए वह बिहार में किसी गठबंधन में भी एक से अधिक सीट शायद ही पाए, और यूपी में तो न सपा न बसपा, कांग्रेस से गठबंधन को कोई भी तैयार नहीं है। ऐसे में कांग्रेस देश भर में अपनी मौजूदगी के दावे पर तो खरी है, लेकिन उसके हाथ में सीटें बहुत कम हैं, और अब से लेकर 2024 के चुनाव तक अगर धरती और आसमान में कुछ उलट-पुलट न हो जाए, तो आज ऐसी कोई वजह नहीं दिखती है कि कांग्रेस की सीटें बढ़ सकें। लेकिन दूसरी तरफ राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस पार्टी एक बड़ी खुशफहमी में जरूर पड़ गई है कि राहुल विपक्ष के इतने बड़े नेता हैं कि विपक्षी एकता का कोई भी गणित राहुल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर ही सुलझाया जा सकेगा। कांग्रेस की यह घरेलू दिक्कत जरूर है कि राहुल से परे किसी और के नाम पर सोचने की कोई गुंजाइश नहीं है, और यह बात हकीकत भी है कि डेढ़ सौ दिनों के इस सफर ने राहुल को अपने ही पदयात्रा के पहले के कद से बहुत बड़ा कर दिया है। इससे एक दिक्कत भी हुई है, राहुल, और उनसे बढक़र उनकी पार्टी को भारत जोड़ो से जो आत्मविश्वास मिला है, उससे कांग्रेस पार्टी अपने आपको विपक्षी मोर्चे का स्वाभाविक मुखिया मानने लगी है, और राहुल को इस मोर्चे का नेता। यह कांग्रेस की पसंद हो सकती है, लेकिन विपक्षी मोर्चे में शामिल होने वाले दलों के लिए यह अगुवाई मंजूर करना आसान भी नहीं है, शायद बिल्कुल भी मुमकिन नहीं है।
देश के एक-एक करके हर राज्य को देखें, तो वहां क्षेत्रीय पार्टियां एक-दूसरे के मुकाबले इस तरह डटी हुई हैं कि भाजपा के अगुवाई वाले गठबंधन, और कांग्रेस के अगुवाई वाले गठबंधन में से किसी भी एक में ऐसी दो क्षेत्रीय पार्टियां जाने की नहीं सोच सकती हैं। यूपी में सपा और बसपा, बंगाल में ममता और वामपंथी, पंजाब में अकाली, कश्मीर में अब्दुल्ला और महबूबा, आंध्र में चंद्राबाबू नायडू और जगन मोहन, तेलंगाना में सत्तारूढ़ टीआरएस पहले ही कांग्रेस और भाजपा दोनों से परे रहने की मुनादी कर चुकी है। अधिकतर जगहों पर क्षेत्रीय पार्टियां आपसी टकराहट की वजह से किसी एक गठबंधन में नहीं जाएंगी, और ऐसे में केन्द्र की ताकत, और एक-एक करके अधिकतर प्रदेशों में सत्ता पर पहुंच चुकी एनडीए के मुकाबले लोगों को जोडऩा तकरीबन नामुमकिन लगता है। अब ऐसे में लोगों को जोडऩे की एक तरकीब हो सकती थी कि कांग्रेस सबसे फैली हुई, सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी होने के बावजूद अगर प्रधानमंत्री पद पर दावा नहीं करती, तो कुछ पार्टियां उसके साथ जुड़ सकती थीं, लेकिन जिस देश में गुजराल और देवेगौड़ा जैसे नेता भी प्रधानमंत्री बन चुके हैं, वहां पर देश के कम से कम आधा दर्जन नेताओं का ऐसा सपना देखने का तो बड़ा जायज हक बनता है। हालात कब किसे ले जाकर प्रधानमंत्री बना दें, इसका ठिकाना नहीं रहता, इसलिए आज ममता से लेकर अखिलेश तक, और नीतीश से लेकर पवार तक, बहुत से लोगों को ऐसा गठबंधन नागवार गुजर सकता है जिसका पीएम-प्रत्याशी अभी से राहुल गांधी को बना दिया जाए।
हमने कुछ अरसा पहले भी इसी जगह पर यह बात लिखी थी कि राहुल और कांग्रेस के सामने आज बड़ी चुनौती कांग्रेस को एक रखना नहीं है, बल्कि विपक्षी एकता की कोशिश करना है। लेकिन यह कोशिश शुरू भी हो, उसके पहले कांग्रेस के कुछ बड़बोले नेता शुरू हो जाते हैं कि कोई भी गठबंधन तभी मुमकिन है, जब राहुल उसके नेता, और पीएम-प्रत्याशी हों। आज जब लोग एक-दूसरे से मिलकर किसी गठबंधन की संभावनाएं टटोल ही रहे हैं, उस वक्त कांग्रेस पार्टी एक पार्टी के रूप में, या उसके नेता राहुल की तरफ से अगर ऐसी बातें करेंगे कि लूडो के खेल में छह आने पर ही गोटी बाहर निकलने जैसी शर्त गठबंधन में राहुल को मुखिया बनाने की रहेगी, तो फिर यह बातचीत का माहौल भी नहीं रहेगा। गठबंधन के मुखिया की बात तो उस वक्त होनी चाहिए जब गठबंधन की पार्टियों की जीती हुई सीटों की लिस्ट सामने रहे। यह बात सही है कि कांग्रेस के लिए यह नौबत बहुत आसान नहीं है, कि वह पार्टी के रूप में अपने को सबसे ऊपर रखे, और राहुल गांधी को नेता बनाने को पहली शर्त रखे, या फिर वह विपक्षी एकता की कोशिश करे। ये दोनों बातें साथ चलते नहीं दिख रही हैं। प्रशांत किशोर के तर्क अलग हो सकते हैं, और हमारे आज के यहां गिनाए गए तर्क कुछ अलग, लेकिन इन दोनों से अंदाज यही बैठता है कि 2024 के चुनाव में मोदी जैसा कोई नहीं के हालात दिख रहे हंै। पार्टियां अपने को बचाने, अपने नेता को बचाने, विपक्ष को बचाने, और भारतीय लोकतंत्र को बचाने के बीच प्राथमिकताएं तय करने में बहुत तंगदिली, और तंगनजरिए का शिकार दिख रही हैं।
हिन्दुस्तान में एक बार फिर कोरोना की सुगबुगाहट सुनाई दे रही है। एक दिन में देश में 5 सौ से अधिक कोरोना पॉजिटिव मिलने से सरकारें चौकन्नी हो गई हैं। सडक़ों पर कुछ लोग, चाहे वे गिनती के ही क्यों न हों, मास्क लगाए दिखने लगे हैं। लेकिन ऐसी कोई वजह नहीं दिखती है कि देश में इसे लेकर किसी दहशत या हड़बड़ी की नौबत हो। कोरोना के पिछले दो अलग-अलग दौर में जिस तरह लाखों लोग मारे गए, और विश्व स्वास्थ्य संगठन का अंदाज दसियों लाख का है, उसके बाद कोरोना के तीसरे दौर में तकरीबन कुछ भी नहीं हुआ। इसकी दो वजहें बताई गईं, एक तो यह कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा टीके ले चुका है, और दूसरी वजह यह कि आबादी के एक बड़े हिस्से को कोरोना हो चुका था, और उसकी वजह से इस वायरस के खिलाफ शरीर में प्रतिरोधक शक्ति विकसित हो चुकी थी, और इस वजह से वायरस का नया हमला उस पर असर नहीं कर रहा था। अब अगर नौबत जरा भी फिक्र की नहीं है, तो फिर इस मुद्दे पर आज लिखा क्यों जा रहा है? आज कोरोना पर लिखने की जरा भी नीयत नहीं है, लेकिन कोरोना के सबक से जिंदगी के दूसरे दायरों में भी कुछ-कुछ सीखा जा सकता है।
हिन्दुस्तान में आज धार्मिक कट्टरता, और साम्प्रदायिकता के वायरस ने तकरीबन तमाम आबादी को संक्रमित कर दिया है। इस तरह से प्रभावित हो चुकी आबादी पर अब और अधिक भडक़ाऊ बातों का असर होते ही नहीं दिखता है। साम्प्रदायिक नफरत लोगों को ध्यान भी नहीं खींचती, वह हिन्दुस्तानी जिंदगी में एक नवसामान्य बात हो गई दिखती है। जब लोग ऐसे चिकने घड़े सरीखे हो जाएं जिन पर साम्प्रदायिक नफरत की फिक्र की बूंद भी न टिक पाए, तो वह एक अलग किस्म की, बड़ी फिक्र की बात रहती है, और आज हिन्दुस्तान उसी से गुजर रहा है। फिर दूसरी बात यह भी है कि जब लोगों की सोच जिंदगी के किसी एक दायरे में तर्कहीन, कुतर्क पर आधारित, अवैज्ञानिक होने लगती है, तो फिर वे जिंदगी के बाकी दायरों में भी उसी दर्जे की सोच रखने लगते हैं। अगर कोई अंधविश्वासी बिना महूरत देखे घर से नहीं निकलते हैं, तो फिर वे किसी ताबीज के झांसे में भी जल्दी आ जाते हैं, वे घर-दुकान का वास्तु सुधरवाने लगते हैं, किसी मंत्र का जाप करना उन्हें ठीक लगने लगता है, और वे निर्मल बाबा सरीखे किसी इंसान के बताए शुक्रवार को काले कुत्ते को पीली रोटी खिलाने के लिए भी घूमते रहते हैं। अंधविश्वास अकेले नहीं आता, वह दोस्तों और सहेलियों के साथ आता है। उसी तरह जिस देश की सोच झूठ पर जिंदा रहने लगती है, वह देश कई किस्म के झूठों पर भरोसा करने लगता है, और उसका कोई अंत नहीं होता। वह पीलिया उतारने के लिए थाली के पानी में खड़ा करके किसी से मंत्र भी पढ़वाने पर भरोसा करने लगता है। वह किसी दरगाह या मंदिर पर होने वाली आत्मा आने की नौटंकी पर भी भरोसा करने लगता है। और इस किस्म के अवैज्ञानिक और अंधविश्वासी संक्रमण की मार से लोगों पर वैज्ञानिकता का असर खत्म हो जाता है। जिन लोगों ने एक पूरी पीढ़ी की जिंदगी विज्ञान पर भरोसा करके एक वैज्ञानिक सोच पाई थी, उन्हें अंधविश्वासी सोच साल भर में अंधविश्वासी बना सकती है। हिन्दुस्तान में आज यही हो रहा है, जिस तरह कोरोना के संक्रमण के बाद अब कोरोना का खतरा ऐसे लोगों पर घट गया है, उसी तरह अंधविश्वास के संक्रमण के बाद अब लोगों पर वैज्ञानिकता का ‘खतरा’ घट चुका है, और लोग तेजी से धार्मिक, जातीय, या सामुदायिक नफरत में घिरने लगे हैं, उन्हें यह समझ ही नहीं पड़ रहा है कि भीड़ की मानसिकता से परे देश की बेहतरी एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में है।
देश की जनता वैज्ञानिक सोच के खिलाफ, लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ एक प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर चुकी है। ऐसे में उसे सार्वजनिक और व्यापक हित की बातें समझाना मुश्किल हो गया है। पहले वह एक धर्म को एक ईकाई मानकर, उसके भीतर के लोगों के भले की ही बात सोच रही है, फिर इस धर्म के भीतर भी अलग-अलग किस्म की आस्था पद्धतियों के भीतर उसकी सोच सिमट रही है। और यह सिलसिला धीरे-धीरे करके एक बहुत ही छोटे और बहुत ही कट्टर दायरे में लोगों को कैद करते जा रहा है। लोकतांत्रिक और वैज्ञानिक सोच कतरों में नहीं आ पाती, उसके लिए लोगों को निर्विवाद रूप से अपनी तमाम सोच को विकसित करना होता है। जिस तरह सडक़ पर चलते किसी इंसान के सिर से लेकर पैर तक, तमाम धड़ को ही एक साथ आगे या पीछे ले जाया जा सकता है, टुकड़ों में नहीं ले जाया जा सकता, उसी तरह लोगों की सोच है, या तो वह पूरी तरह वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक होगी, न्यायसंगत और सरोकारी होगी, या फिर वह अंधविश्वासी और अलोकतांत्रिक होगी, उसे सामाजिक समानता से कुछ भी लेना-देना नहीं होगा।
यह तमाम बात लोगों को कुछ अमूर्त लग सकती है, क्योंकि इसे एक चेहरा देना मुश्किल है, इसे महज समझा जा सकता है। और आज इस बात को समझने की जरूरत जितनी अधिक है, उसके खिलाफ उतनी ही अधिक संगठित साजिश चल रही है कि लोग कहीं वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक सोच की ओर लौट तो नहीं जाएंगे? यह वक्त हिन्दुस्तान में एक बहुत खतरनाक दौर है, और इससे भी अधिक खतरनाक यह है कि लोगों को इस खतरे का अहसास होना खत्म हो चुका है। यह सिलसिला पता नहीं कब थमेगा, थमेगा भी या नहीं, या फिर यह बढ़ते ही चलेगा, दुनिया के उन कुछ देशों की तरह जहां पर कि धर्मान्धता ने लोकतंत्र को भी खत्म कर दिया है। इस हिन्दुस्तान को आज हिन्दू राष्ट्र बनाने के नारे बढ़ते चल रहे हैं, वे फतवों की शक्ल ले रहे हैं, और इससे भी बड़ा खतरा यह है कि बहुत से लोगों को यह बात स्वाभाविक और सही लग रही है, और इसमें उनकी बची-खुची लोकतांत्रिक सोच आड़े भी नहीं आ रही है। सोच का इस हद तक खत्म हो जाना एक बड़ा खतरा है।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आज किस मुद्दे पर लिखा जाए इसे लेकर तलाश जारी थी कि कुछ हैरान करने वाली एक खबर आ गई, और यह तलाश खत्म हुई। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी के घर पर दिल्ली पुलिस के एक बड़े अफसर की अगुवाई में एक टीम पहुंची है जो उनसे उनके एक बयान पर पूछताछ करना चाहती है। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने श्रीनगर में यह कहा था कि कुछ महिलाओं ने उनसे यौन उत्पीडऩ की शिकायत लेकर संपर्क किया था, और उन्होंने यह सुना है कि उन महिलाओं पर अभी भी यौन हमले किए जा रहे हैं। अभी पूछताछ करने पहुंचे अफसरों का कहना है कि पुलिस ने उनसे उन पीडि़त महिलाओं के बारे में जानकारी मांगी है ताकि उन्हें सुरक्षा मुहैया कराई जा सके।
पूछताछ का यह अंदाज कुछ हैरान करता है। किसी एक सांसद ने एक सार्वजनिक कार्यक्रम में अगर यह कहा है कि यौन शोषण की शिकार महिलाओं ने उनसे मिलकर शिकायत की है, तो क्या यह बयान किसी सांसद के घर पुलिस टीम के पहुंचकर बयान लेने के लायक है? या पुलिस महज एक चि_ी लिखकर भी अपने लोगों का वक्त बचा सकती थी? कांग्रेस प्रवक्ता जयराम रमेश ने यह कहा है कि भारत जोड़ो यात्रा को खत्म हुए ही 45 दिन हो चुके हैं। अगर दिल्ली पुलिस को राहुल गांधी के बयान से महिलाओं की सुरक्षा की इतनी फिक्र उपजी थी, तो उसे इतने दिनों में यह पूछताछ कर लेनी थी। यह बात अटपटी है, और इसीलिए आज कांग्रेस और केन्द्र सरकार के बीच, खासकर राहुल गांधी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बीच चल रही एक अभूतपूर्व तनातनी को लेकर पूछताछ का यह तरीका अधिक फिक्र के लायक हो जा रहा है। क्या यह ब्रिटेन प्रवास के दौरान राहुल गांधी द्वारा की गई मोदी सरकार की आलोचना की एक प्रतिक्रिया है? क्या यह कांग्रेस पार्टी की ओर से अडानी को लेकर मोदी से हर दिन सोशल मीडिया पर किए जा रहे सवालों की प्रतिक्रिया है? आज जब तनातनी इतनी अधिक है, तो क्या सरकार चला रहे लोगों को सरकार के तौर-तरीकों को लेकर कुछ अधिक सावधान नहीं रहना था, या फिर तौर-तरीकों का यह प्रदर्शन सोच-समझकर किया जा रहा है, ताकि खिलाफ बयान देने वाले लोगों को सरकार की ताकत का अहसास हो सके?
एक नेता के एक सामान्य बयान का जवाब प्रभावित पार्टी या नेता की ओर से एक सामान्य बयान से भी हो सकता था। लेकिन राहुल के बयान के खिलाफ जिस तरह से संसद को ही कई दिनों से ठप्प कर दिया गया है, जिस तरह से राहुल से माफी मंगवाने पर भाजपा और सत्ता आमादा हैं, वह भी हैरान करता है। अडानी से तो हिन्दुस्तान की अर्थव्यवस्था, जनता के हक की सार्वजनिक संपत्तियां जुड़ी हुई हैं, इसलिए अडानी को लेकर तो अमरीका की संस्था हिंडनबर्ग से लेकर भारतीय अदालतों तक कई जगहों पर सवाल हो रहे हैं, इसलिए किसी को उसका बुरा नहीं मानना चाहिए। लेकिन भारतीय लोकतंत्र की आज की हालत की राहुल की व्याख्या अगर किसी बहाने पुलिस को उनके घर पहुंचा दे रही है, तो यह तरीका अभूतपूर्व और बड़ा ही अटपटा है, और यह निराश करता है कि इस लोकतंत्र में विपक्ष और असहमति अवांछित हो चुके हैं।
फिर यह बात भी हैरान करती है कि सत्ता के साथ-साथ मीडिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा देश की हर दिक्कत के लिए जिस अंदाज में राहुल से सवाल कर रहा है, उससे ऐसा लगता है कि राहुल ही देश के प्रधानमंत्री हैं, और सौ रूपये लीटर डीजल-पेट्रोल से लेकर 11 सौ रूपये के गैस सिलेंडर तक के लिए राहुल ही जिम्मेदार हैं। देश की दिक्कतों और सरकार की नाकामी को लेकर जितने सवाल सरकार से होने चाहिए, उतने सवाल राहुल से किए जा रहे हैं। लोकतंत्र में मीडिया ने हिन्दुस्तान में बहुत पहले से अपने को चौथा खम्भा बना रखा था। अब यह चौथा खम्भा पहले खम्भे के तलुओं को गुदगुदाने में जिस अंदाज में जुटा हुआ है, उससे हैरानी होती है कि क्या असल जिंदगी के कोई स्तंभ एक-दूसरे के पैरों पर पड़े रहकर भी स्तंभ का दर्जा पाने का दावा करते रह सकते हैं? इस मीडिया में जब कभी हिन्दुस्तानी जिंदगी के कुछ असल मुद्दों के सतह पर आ जाने, और छा जाने का खतरा दिखता है, तब-तब योजनाबद्ध तरीके से कुछ ऐसी निहायत गैरजरूरी बातों से गढ़ी हुई खबरों के सैलाब मीडिया में दिखने लगते हैं कि जनता, दिमाग पर जोर डालने से बचने की आदी जनता, उसी में भीग जाती है। यह सिलसिला गैरमुद्दों को असल मुद्दों की तरह पेश करने का है, और ऐसा भी लगता है कि राहुल के घर पुलिस भेजने का यह फैसला खबरों से कुछ दूसरी बातों को पीछे धकेलने का है, और बयान देने वाले नेताओं को चुप रहने की, कम बोलने की नसीहत देने वाला तो है ही। यह लिखते-लिखते ही दिल्ली से राहुल के घर के बाहर पुलिस के पहुंचने और दाखिल होने के जो वीडियो आए हैं, वे और हक्का-बक्का करते हैं। डेढ़-दो दर्जन पुलिसवाले, जिनमें से बहुत से लोग वीडियो रिकॉर्डिंग कर रहे हैं, मानो हरियाणा के संत रामपाल के आश्रम में पुलिस कार्रवाई होने जा रही है, और भीतर से हथियारबंद संघर्ष की आशंका है। एक अहिंसक, सभ्य और विनम्र सांसद से पूछताछ के लिए दिल्ली पुलिस का एक अफसर काफी नहीं होता?
हिन्दुस्तान में आज केन्द्र सरकार, भाजपा, और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से किसी भी किस्म की असहमति, उनमें से किसी की भी आलोचना को देशविरोधी, राष्ट्रविरोधी, और राष्ट्रद्रोही साबित करने की एक दौड़ चल रही है। कल ही केन्द्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने एक बयान दिया है कि देश के कुछ ऐसे भूतपूर्व जज हैं जो भारतविरोधी गिरोह का हिस्सा हैं, जो न्यायपालिका को विपक्षी दलों की तरह सरकार के खिलाफ करने की कोशिश कर रहे हैं, और जो कोई देश के खिलाफ काम करेंगे उन्हें इसके दाम चुकाने होंगे। उनके इस बयान पर देश के एक प्रमुख वकील प्रशांत भूषण ने इसे जजों को धमकी देना कहा है। तो बात सिर्फ राहुल गांधी तक सीमित नहीं है, इस देश में देश की सबसे बड़ी अदालत के रिटायर्ड जज भी अब भारतविरोधी गिरोह का हिस्सा करार दिए जा रहे हैं, क्योंकि वे सरकार के कुछ फैसलों से असहमत हैं। जिस लोकतंत्र में असहमति नाली में फेंक दिए गए अवांछित नवजात शिशु से भी अधिक अवांछित मान ली जाए, वहां नाली में सिर्फ नवजात शिशु की लाश नहीं रहती, वहां वानप्रस्थ आश्रम जाने की उम्र वाले लोकतंत्र की लाश भी रहती है।
आज दो अलग-अलग चीजें हुई हैं, सुबह की पहली खबर यह मिली कि पिछले अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप यूट्यूब और फेसबुक पर वापिस आ गए हैं, और उन्होंने लिखा- ‘आई एम बैक’। और इसके साथ ही उन्होंने अपनी एक चुनावी रैली का वीडियो पोस्ट करके एक किस्म से यह मुनादी कर दी है कि वे दुबारा चुनाव लडऩे जा रहे हैं। 2020 में चुनाव हारने के बाद उनके समर्थकों ने जिस तरह अमरीकी संसद पर हमला बोला था, हिंसा की थी, और अगली सरकार को आने से रोकने की कोशिश की थी, उसके बाद हिंसा को भडक़ाते दिखने वाले ट्रंप के सोशल मीडिया अकाऊंट ब्लाक कर दिए गए थे। अब वे फिर से चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे हैं, और अमरीकी संस्कृति के मुताबिक अच्छे या बुरे हर किस्म के उम्मीदवार को यह हक है कि वोटर तक अपनी बात पहुंचा सके, या वोटर अपने उम्मीदवार की बात सुन सके, इसलिए एक-एक करके तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म नफरत और हिंसा की राजनीति करने वाले ट्रंप के अकाऊंट बहाल करते जा रहे हैं। इस बीच लोगों को याद होगा कि ट्रंप ने अपनी नफरत की सोच को आगे बढ़ाने के लिए ट्विटर के मुकाबले एक नया प्लेटफॉर्म भी शुरू करवाया था, लेकिन वह किसी किनारे नहीं पहुंच पाया। आज की दूसरी खबर यह है कि बिहार के एक यूट्यूबर मनीष कश्यप ने तमिलनाडु में बिहारी मजदूरों पर हमले की झूठी खबरें फैलाकर नफरत और तनाव फैलाने का काम किया था, और इस पर उसके खिलाफ दर्ज मामले में उसने बिहार पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया है। पुलिस उसे चारों तरफ तलाश रही थी, और दोनों राज्यों की पुलिस का यह मानना है कि इस यूट्यूबर ने हमले की फर्जी खबरें फैलाई थीं।
अब अलग-अलग जगहों का कानून सोशल मीडिया पर झूठ, नफरत, और हिंसा फैलाने वाले लोगों के साथ कैसा बर्ताव करता है, यह भी देखने के लायक है क्योंकि भडक़ाने का यह तरीका लगातार अधिक इस्तेमाल हो रहा है, और हिन्दुस्तान में तो बड़े राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े नामी-गिरामी पदाधिकारी इस काम में लगे दिखते हैं, और फिर मानो उन्हें कानून की भी कोई परवाह नहीं रह गई है। दूसरी तरफ लोगों को याद होगा कि कंगना रनौत जैसी चर्चित फिल्म अभिनेत्री नफरत की अपनी पोस्ट के चलते हुए ट्विटर पर ब्लाक की गई थीं। नफरत का यह सिलसिला लोगों की निजी सोच तक सीमित नहीं है, इसे साम्प्रदायिक विचारधाराएं हिन्दुस्तान में लगातार संगठित रूप से, और बहुत से लोगों का अंदाज है कि एक साजिश के तहत लोगों का साइबर-गिरोह खड़ा करके आगे बढ़ाया जा रहा है। यह बात जरूर है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत किसी के मुंह जिंदगी भर के लिए नहीं सिले जा सकते, और कानूनी कार्रवाई के बाद लोगों को एक बार फिर बोलने का हक मिलना चाहिए, लेकिन हिन्दुस्तान में दिक्कत यह है कि नफरत फैलाने वाले किसी सोशल मीडिया मवाली को सजा होते दिखती नहीं है, नतीजा यह होता है कि बाकी नफरतजीवी आम लोगों को भी यह लगता है कि वे जो चाहे पोस्ट कर सकते हैं, और देखादेखी नफरत का यह सैलाब दूर-दूर तक फैलने लगता है।
हिन्दुस्तान में वैसे तो साइबर कानून बड़ा कड़ा बनाया गया है, और उसी के चलते तमिलनाडु में बिहारी मजदूरों पर हमले की झूठी खबर पर बिहार में दर्ज मुकदमे में एक नफरतजीवी यूट्यूबर को पुलिस के सामने हथियार डालने पड़े हैं, लेकिन ऐसी गिरफ्तारी के बाद लोगों को सजा मिलते दिखती नहीं है। पता नहीं मामले-मुकदमे कितने लंबे चलते हैं, सजा की खबरें क्यों नहीं आती हैं, और उनके न आने से बाकी लोग इसी धंधे को आगे बढ़ा रहे हैं। सोशल मीडिया और इंटरनेट-मोबाइल का इस्तेमाल जिस तरह बढ़ गया है, ऐसा लगता है कि देश में साइबर-जुर्मों की सुनवाई के लिए अलग से अदालतों की जरूरत है। इसके साथ-साथ पुलिस या सरकारी वकीलों को भी साइबर तकनीक की बारीकियों को पढ़ाकर ऐसे मुकदमों के लिए तैयार करना चाहिए। इन मामलों में गवाहों की जरूरत नहीं रहती है, और पुख्ता साइबर सुबूत रहते हैं जिन पर तेजी से फैसले तक पहुंचना आसान रहता है, फिर भी ऐसे मामलों में सजा क्यों नहीं हो रही है, इस बारे में सरकारों को सोचना चाहिए।
सोशल मीडिया के नफरत और हिंसा वाले जुर्म से परे और भी बहुत किस्म के साइबर-जुर्म हैं, जो लोगों को बड़ी आर्थिक चोट पहुंचा रहे हैं। लोगों की जिंदगी भर की बचत मोबाइल के एक-दो मैसेज के जवाब देने की गलती करने पर चली जाती है। ऐसे जुर्म इतने संगठित तरीके से किए जा रहे हैं कि हर दिन ऐसे बहुत से मामले उजागर हो रहे हैं। इसके बाद भी मोबाइल फोन, सिमकार्ड, इंटरनेट कनेक्शन के सुबूत रहते हुए भी पुलिस और दूसरी जांच एजेंसियां जुर्म के सिलसिले को क्यों नहीं रोक पाती हैं, यह समझना भी कुछ मुश्किल है। जब तक लोगों को जालसाजी और ठगी का अहसास होता है, और उनमें से कुछ लोग पुलिस तक पहुंच पाते हैं, और मुजरिमों में से कुछ तक पुलिस पहुंच पाती है, तब तक ऐसे जालसाज रात-दिन ऐसे अपराध करने में लगे रहते हैं। हर किस्म के साइबर-जुर्म की बहुत तेजी से जांच, उनकी तेजी से धरपकड़, और मामलों की तेज सुनवाई के लिए साइबर-जागरूकता, साइबर-थानों, और साइबर-अदालतों सबकी जरूरत है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
यह दौर सूचना की सुनामी का दौर है। जिस तरह कई बरस पहले आई समुद्री सुनामी में बहुत से देशों के किनारे तबाह हो गए थे, और अनगिनत मौतें हुई थीं, उसी तरह आज खबरों, सूचनाओं, अफवाहों, और साजिशों की सुनामी आई हुई है, और उस अस्थाई समुद्री सुनामी के मुकाबले यह सुनामी तो स्थाई हो गई है। लोग तरह-तरह के मेडिकल दावे वॉट्सऐप पर पाते हैं, और उसे अंधाधुंध आगे बढ़ाना इस जिम्मेदारी से शुरू कर देते हैं कि मानो वे दुनिया के अकेले डॉक्टर हैं, और पूरी दुनिया को ठीक करके रख देंगे। नतीजा यह होता है कि इनके झांसे में आकर बहुत से लोग डायबिटीज, या किडनी जैसी गंभीर बीमारियों की दवाएं लेना भी बंद करके प्राकृतिक चिकित्सा शुरू कर देते हैं, या घरेलू नुस्खों को आजमाने लगते हैं, जड़ी-बूटियों या आयुर्वेदिक दवाईयों के किसी बेवकूफ के भेजे गए दावों पर अमल करने लगते हैं। बहुत से डॉक्टर इस बात को जानते हैं कि उनके कई मरीज ऐसे झांसों में आकर बुरी हालत में पहुंचकर उनके पास दुबारा आते हैं, और तब तक बहुत सा नुकसान हो चुका रहता है। यह तो बात मेडिकल दावों की हुई, हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में हजार किस्म के दूसरे धर्मान्धता और साम्प्रदायिकता के, राजनीतिक कटुता के, संविधान की बात करने वालों के विरोध के अभियान चलते रहते हैं, और अब अंधभक्तों और अंधविश्वासियों की हालत यह हो गई है कि वे इस तथाकथित सोशल मीडिया को भी मीडिया में आई खबर बताकर आगे बढ़ाते रहते हैं। चूंकि टेक्नालॉजी ने समाचारों और सूचनाओं को आंधी-तूफान की रफ्तार से फैलाना सबको मुहैया करा दिया है, तो अब कहीं किसी के नग्न या अश्लील वीडियो को किसी और का बताकर फैलाना इतना आसान हो गया है, और लोगों में यह काम करने की ‘जिम्मेदारी’ की भावना इतनी बढ़ गई है कि वे देश को बचाने के अंदाज में अफवाहों को फैलाते रहते हैं। और सोशल मीडिया, और सोशल मीडिया के नाम पर पनप चुकी मैसेंजर सर्विसों का मानसिक दबाव मीडिया पर इतना अधिक रहता है कि टीवी चैनल और यहां तक कि अखबार भी ऐसी अफवाहों को आगे बढ़ाने में लग जाते हैं कि सनसनी के गलाकाट मुकाबले में कहीं पीछे न रह जाएं।
अब छत्तीसगढ़ में एक ऐसी अफवाह सोशल मीडिया और मैसेंजर सेवाओं से होते हुए मीडिया कहे जाने वाले टीवी-अखबार में पहुंची हुई है जिससे कि लोगों का अपार नुकसान हो रहा है। आए दिन खबरें आती हैं कि राशन के चावल में प्लास्टिक का चावल खपाया जा रहा है। छोटी-छोटी जगहों से आने वाली ऐसी खबरों पर विधायक भी बयान देने लगे हैं, सरकार से जांच की मांग करने लगे हैं, और बड़े-बड़े शहरों में बैठे बड़े-बड़े संपादक भी प्लास्टिक के चावल की खबरों को छाप रहे हैं। इस बारे में एक नगरपालिका अध्यक्ष रहे, और राईस मिल मालिक विजय गोयल ने गलतफहमी दूर करने की कोशिश की है। उन्होंने यह साफ किया है कि केन्द्र सरकार की एक योजना के तहत कुपोषण और एनीमिया को दूर करने के लिए सरकारी राशन के चावल को फोर्टिफाइड किया गया है। इसके लिए अलग से मिलें बनाई गई हैं जो कि चावल को फोर्टिफाइड करती हैं, उनमें सूक्ष्म पोषक तत्वों को मिलाया जाता है, आयरन विटामिन-20, फोलिक एसिड जैसे तत्व डाले जाते हैं। फिर सरकारी योजना और नियम के तहत तमाम राईस मिलों के लिए यह जरूरी है कि वे अपने मिल किए गए चावल में एक फीसदी ऐसा फोर्टिफाइड चावल मिलाएं ताकि हर घर में पहुंचने वाले चावल में ऐसे दाने मिले हुए रहें।
अब सोशल मीडिया और गैरजिम्मेदार वॉट्सऐप-संदेशों की मेहरबानी से कुछ अलग रंग के हो जाने वाले ऐसे दानों को प्लास्टिक का चावल करार दिया जा रहा है, और बहुत सी महिलाएं इस झांसे में आकर चावल साफ करते हुए ऐसे दानों को निकालकर फेंक देती हैं। सरकार का यह महंगा कार्यक्रम कचरे में चले जा रहा है, और आम लोगों की सेहत को इससे जो फायदा होना था, वह धरा रह जा रहा है। लोगों को यह याद दिलाना जरूरी है कि जिस तरह नमक में आयोडीन मिलाकर लोगों को घेंघारोग से बचाया गया है, उसी तरह ऐसे चावल से लोगों को एनीमिया से लेकर कुपोषण तक से बचाया जा रहा है। अब एक सनसनीखेज खबर बनाने के फेर में लोग और अखबार दोनों ही इस बात को अनदेखा कर दे रहे हैं कि 20-25 रूपये किलो के राशन के चावल में सौ-पचास रूपये किलो वाले प्लास्टिक से दाने बनाकर मिलाने की बेवकूफी कौन करेगा? मिलावट करने वाले लोग अफवाहबाज लोगों जितने बेवकूफ नहीं रहते कि कई गुना अधिक दाम की मिलावट करें।
सरकार को यह चाहिए कि ऐसी अफवाह फैलाने वाले कुछ लोगों पर एक प्रतीकात्मक कार्रवाई करके उसका प्रचार करे ताकि बाकी लोगों की अफवाहबाजी पर रोक लग सके। फिर यह तो जनता में जागरूकता पैदा करने का एक काम है कि वह अफवाहें फैलाने से दूर रहे, और इस काम को कौन करेगा यह जनता के बीच के लोगों को ही तय करना होगा क्योंकि सामाजिक संगठन जिस जागरूकता को मुफ्त में फैला सकते हैं, उस जागरूकता का कोई भी सरकारी अभियान करोड़ों के भ्रष्टाचार की एक संभावना भी बन जाएगा। इस बीच जिसके पास जो मेडिकल दावे आते हैं, उन्हें अपने ही पास खत्म करना शुरू करें, आगे न बढ़ाएं। इसके साथ-साथ अगर वे यह साबित कर सकते हैं कि ये मेडिकल दावे झूठे हैं, तो इस झूठ का भांडाफोड़ जरूर करना चाहिए जैसा कि भारत में इंटरनेट पर कुछ वेबसाइटें लगातार करती हैं। मीडिया और सोशल मीडिया में लगातार झूठ फैलाया जाता है, साजिशन फैलाया जाता है, और उसका खंडन करना जरूरी है, ठीक उसी तरह प्लास्टिक के चावल की अफवाह को खत्म करना भी जरूरी है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
अमरीका में सिएटल वहां का ऐसा पहला शहर बना है जहां पर स्थानीय कानून बनाकर जाति के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध लगाया गया है। म्युनिसिपल की एक निर्वाचित प्रतिनिधि, भारतवंशी क्षमा सावंत ने यह कानून लिखकर सदन में रखा था, और जाति व्यवस्था को शोषण का भी एक पहलू बताया था। भारत की तीन हजार बरस पुरानी जाति व्यवस्था भारतीयों के साथ-साथ उन सब जगहों पर चली जाती है, जहां-जहां वे जाकर बसते हैं। हल्के अंदाज में यह भी कहा जाता है कि हिन्दुस्तानी हिन्दू जहां जाते हैं, वहां जाति व्यवस्था और अचार, इन दो चीजों को ले जाते हैं। ऐसे में अमरीका में भी हिन्दू समुदायों के बीच जाति-आधारित भेदभाव को बड़ा मजबूत माना जाता है, और इसीलिए एक भारतवंशी जनप्रतिनिधि ने वहां यह पहल की। इसके बाद कनाडा में भी एक बड़े स्कूलबोर्ड ने अपने कोर्स के तहत चलने वाले स्कूलों में जातिगत भेदभाव पर रोक लगाई है। क्षमा सावंत राजनीतिक विचारधारा के मुताबिक समाजवादी हैं, और उनका कहना है कि सवर्ण हिन्दू ब्राम्हण समाज हिन्दुस्तान में भी जातिगत भेदभाव करता है, और इन्हीं के साथ-साथ इनके संस्कारों में यह जातिवाद दूसरे देशों तक भी चले जाता है। दिलचस्प बात यह है कि सिएटल के म्युनिसिपल में क्षमा सावंत अकेली भारतवंशी अमरीकी हैं, और उनके इस प्रस्ताव को गंभीरता से मंजूर किया गया। हालांकि अमरीका के एक हिन्दू संगठन ने इसका विरोध करते हुए एक खुली चिट्ठी लिखी है कि हिन्दुओं को उनके मूल देश की वजह से गैरजरूरी निशाना बनाया जा रहा है। उनका तर्क है कि अमरीका में भारतीयों की आबादी बहुत कम है और ऐसे कोई खास सुबूत नहीं है कि उनके बीच बड़े पैमाने पर कोई जातिगत भेदभाव होते हैं। इतिहास में यह दर्ज है कि हिन्दुस्तान में 1948 से ही जातिगत भेदभाव को गैरकानूनी करार दिया गया था।
यह सिलसिला थोड़ा सा हैरान करता है क्योंकि हिन्दुस्तान से अमरीका जाकर बसने वाले लोग एक तो पढ़े-लिखे होते हैं, वे जिंदगी में कामयाब भी होते हैं, और अपनी संपन्नता के बीच उन्हें दूसरे भारतवंशियों के साथ जातिगत भेदभाव करने की कैसे तो फुर्सत मिल पाती है, और कैसे उन्हें आधुनिक कामयाबी में इतना आगे बढऩे के बाद भी हजारों बरस पुरानी इस अमानवीय व्यवस्था की बात सूझती है? लेकिन यह बात वहां बसे हुए सवर्ण हिन्दू तो गलत बताते हैं, लेकिन वहां बसे हुए गैरसवर्ण हिन्दू इसे एक हकीकत बताते हैं, खासकर दलित तबके के लोग। अब इस बात को हिन्दुस्तान के साथ जोडक़र देखें, तो यहां भी हिन्दुओं में सवर्ण तबके को यह लगता है कि जाति व्यवस्था खत्म हो चुकी है, उनमें से बहुतों को तो यह भी लगता है कि अब आरक्षण की भी जरूरत खत्म हो गई है जो कि एक सीमित समय के लिए लागू की गई व्यवस्था थी, और जिसे बाद में बार-बार आगे बढ़ाया गया। दूसरी तरफ जो आरक्षित तबके हैं, उनको यह बात लगती है कि जातिगत भेदभाव सिर चढक़र बोलता है, और न सिर्फ आरक्षण जारी रहना चाहिए, बल्कि भारत में ऊंची अदालतों के जजों के लिए जो आरक्षण व्यवस्था लागू नहीं है, उसे भी लागू करना चाहिए। दिलीप मंडल जैसे बहुत ही आक्रामक और दलित-ओबीसी समुदायों के हिमायती लेखक सोशल मीडिया पर लगातार इस बात को लिखते हैं कि देश के सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट से लेकर हिन्दुस्तान की क्रिकेट टीम तक किस तरह सवर्ण तबका हावी है, और न तो ओबीसी, और न ही दलित आदिवासी को कोई हक मिल पाता है। वे लगातार क्रिकेट नतीजों की मिसाल देते हुए यह बात लिखते हैं कि खराब प्रदर्शन के बावजूद सवर्ण खिलाडिय़ों को किस तरह आगे के मैचों के लिए टीम में रखा जाता है, और ओबीसी या दूसरे गैरसवर्ण खिलाडिय़ों को शानदार प्रदर्शन के बावजूद टीम में मौका नहीं मिलता है, और धीरे-धीरे उनका रिकॉर्ड कमजोर दिखने लगता है। इसी तरह एक पक्षपाती चयन की वजह से कई सवर्ण खिलाडिय़ों को बार-बार मौका मिलता है, और उनके नाम रिकॉर्ड जुड़ते चलते हैं।
अब सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों के लिए आरक्षण लागू नहीं है, लेकिन क्या इसका यह असर नहीं हो रहा है कि जजों में इन समुदायों के लोगों की तकलीफों का अहसास नहीं रहता? हो सकता है कि इन जजों में आरक्षित तबकों के प्रति हमदर्दी हो, लेकिन जैसा कि दलित साहित्य लिखने के मुद्दे पर दलितों की तरफ से कहा जाता है कि सहानुभूति का साहित्य अलग होता है, और अनुभूति का साहित्य अलग। इसलिए बहुत से दलित लेखक इस बात को लेकर हमलावर रहते हैं कि गैरदलितों को दलित जिंदगियों पर साहित्य नहीं लिखना चाहिए। क्या ऐसी ही नौबत दलित मामलों पर, या आदिवासियों के मामलों पर फैसले देने वाले सवर्ण जजों के साथ नहीं आती होंगी कि उन्होंने कभी इन तबकों की जिंदगी को न जिया है, न करीब से देखा है।
जिस अमरीका से हमने आज की यह चर्चा शुरू की है उस अमरीका में भी काले लोगों के बीच से किसी का सुप्रीम कोर्ट का जज बनना बहुत बड़ा मुद्दा रहता है। और वहां पर चूंकि राष्ट्रपति अपनी पसंद के जज का नाम सुझाते हैं, और उनकी लंबी संसदीय-सुनवाई के बाद अमूमन उन्हें जज बना दिया जाता है, इसलिए वहां की दोनों प्रमुख राजनीतिक विचारधाराओं के राष्ट्रपति अपनी-अपनी पसंद से जज मनोनीत करते हैं, और वहां पर राष्ट्रपति, यानी सरकार, की दखल जज बनाने में सबसे अधिक रहती है। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में जजों का कॉलेजियम ही जज चुनता है, और सरकार के हाथ उन्हीं नामों में से अधिकतर को मंजूरी देने, और कुछ को रोक देने की ताकत ही रहती है। इसलिए अब हिन्दुस्तान में जिन तबकों के सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट जज न के बराबर हैं, उन तबकों के लोगों को मौका कैसे मिल सकता है, यह सोचना कॉलेजियम का ही काम है क्योंकि उसने जजों के नाम छांटने को अपना एकाधिकार बना रखा है।
जाति व्यवस्था कमजोर हो रही है, खत्म हो रही है, ऐसी सोच जमीन से जुड़ी हुई बिल्कुल नहीं है। हिन्दुस्तानी हिन्दू जहां-जहां रहते हैं, वहां वे या तो जातिगत भेदभाव को लादते हैं, या उसके शिकार रहते हैं। अमरीका में लोकतांत्रिक मूल्य एक बड़ा मुद्दा रहते हैं, वहां रंगभेद के खिलाफ बहुत कड़ा कानून है, और बहुत बड़े आंदोलन भी चलते हैं। वहां पर आज भारत के हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था के खिलाफ अगर कानूनी जागरूकता खड़ी हुई है, तो वह एक नया संघर्ष जरूर है, लेकिन इस संघर्ष का फायदा हिन्दुस्तान तक कभी न कभी पहुंचेगा। कामयाब देशों और आधुनिक लोकतंत्रों में पहुंचने के बाद हिन्दुस्तानियों का पाखंड खत्म हो जाता हो, वैसा भी नहीं है। आज भी वहां बसे हुए भारतवंशियों का एक तबका भारत के सबसे कट्टर और साम्प्रदायिक आंदोलनों को आगे बढ़ाता है, उनकी मदद करता है। यह पूरा सिलसिला तमाम जगहों पर खत्म होना चाहिए। सिएटल और कनाडा की यह शुरुआत बहुत अच्छी है।
हिन्दुस्तान की एक सबसे बड़ी समाचार वेबसाइट पर एक खबर की हैडिंग है- आपकी गर्लफ्रेंड वॉट्सऐप पर किससे करती है ज्यादा बातें? खुद वॉट्सऐप खोलता है राज, तरीका काफी आसान। इसके साथ की खबर तरीका बताती है कि बॉयफ्रेंड यह मालूम कर सकता है कि उसकी गर्लफ्रेंड सबसे ज्यादा किससे बातें करती हैं। हैडिंग इतनी सनसनीखेज है कि इसे पढऩे वाले लोगों में से तमाम मर्द और लडक़े इसलिए इसे पढ़ लेंगे कि अपनी जिंदगी की महिला या लडक़ी पर निगरानी कैसे रखी जाए, और हो सकता है कि महिलाएं और लड़कियां भी इसे जरूर पढ़ लें कि उनकी जिंदगी के लोग तांक-झांक किस तरह से कर सकते हैं, और उससे अगर बचना है, तो पहले उसके खतरे को तो समझना ही होगा।
अब सवाल यह उठता है कि लाखों रूपये महीने तनख्वाह पाने वाले मीडियाकर्मियों की समझ अगर ऐसी है कि लड़कियों पर ही नजर रखने की जरूरत है, तो फिर हर दिन दसियों लाख लोगों की पढ़ी जाने वाली वेबसाइट का समाज पर ऐसा ही असर होगा। और यह कोई अनोखी बात नहीं है, समाज की पूरी की पूरी भाषा, उसकी पूरी सोच, उसकी समझ, और उसकी हरकतें महिलाओं के खिलाफ हैं। और दिक्कत की एक बात यह भी है कि महिलाओं के खिलाफ महज आदमी नहीं हैं, खुद महिलाएं भी हैं। पिछले एक-दो बरस में दसियों ऐसे वीडियो आए हैं जिनमें नशे या होश में लड़कियां और महिलाएं किसी गरीब चौकीदार या फंस गए लडक़े को पीट रही हैं, और उसे मां-बहन की गालियां दिए जा रही हैं। जिन लड़कियों और महिलाओं में हालात या टोली के चलते इतनी ताकत आ गई है कि वे सार्वजनिक जगहों पर मोबाइल फोन के वीडियो कैमरे के सामने भी जमकर मारपीट कर रही हैं, जमकर गालियां बक रही हैं, लेकिन उनकी गालियां मां-बहनों पर केन्द्रित हैं, उनके ताकतवर हो जाने से, आक्रामक और हमलावर हो जाने से गालियां बाप और भाई के खिलाफ नहीं हैं। अभी कुछ दिन पहले किसी जगह कांग्रेस पार्टी ने किसी अफसर या मंत्री के खिलाफ प्रदर्शन किया तो कमजोरी और निकम्मेपन की तोहमत लगाते हुए उन्हें चूडिय़ां भेंट कीं। यह काम इंदिरा और सोनिया गांधी की पार्टी भी करती है, और वह पार्टी तो करती ही है जो कि सुबह उठते ही पहला नाम भारतमाता का लेती है, और भारतमाता को प्रणाम करने के बाद सोती है। यह देश जहां साल में दो बार नौ दिनों तक देवी की पूजा होती है, जहां पर स्कूलों में सभी धर्मों के बच्चे शायद सौ बरस से भी अधिक से सरस्वती की पूजा करते आए हैं, जहां पर बंगाल में मुस्लिम लोग बराबरी से दुर्गा पूजा में शामिल होते हैं, वहां भी देवी की पहनी जाने वाली चूडिय़ों को राजनीतिक प्रदर्शन में कमजोरी के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
दरअसल हिन्दुस्तानियों की सोच महिलाओं को एक कमजोर तबका मानकर चलने की है, और ऐसी पुरूषवादी सोच की शिकार वे महिलाएं भी हो जाती हैं जो कि अपने आपको बराबरी का मानती हैं, समाज में जिनकी हालत बेहतर है, जिनके हाथ कुछ ताकत है, और जो मर्दों से आगे बढक़र निकलने की हसरत रखती हैं, वैसी महिलाएं भी मर्दानगी के प्रतीकों को ज्यों का त्यों इस्तेमाल करने लगती हैं, और गालियां बकते समय दूसरों की मां-बहन के साथ ऐसी हरकतों का जिक्र करने लगती हैं, जो कि एक महिला होने के नाते उनके लिए मुमकिन भी नहीं है। यह सिलसिला लोग बचपन से देखना शुरू करते हैं, तो यह मरने तक उनके साथ बने रहता है। और हिन्दुस्तानी समाज में गैरबराबरी तो इतनी अधिक है ही कि आज बीबीसी की एक रिपोर्ट है कि हरियाणा के एक गांव में 75 साल बाद अब पहली बार लड़कियों को कॉलेज जाने की इजाजत मिली है। लडक़े पहले से कॉलेज जाते रहते थे, लेकिन रास्ते में उनकी बदमाशियों के चलते लड़कियां कॉलेज नहीं जा पाती थीं, और अब पहली बार एक बाहरी महिला की प्रेरणा से गांव के लोगों ने अपनी लड़कियों को कॉलेज जाने की इजाजत दी है।
महिलाओं के साथ भेदभाव की सोच को कदम-कदम पर कुचलने की जरूरत है। आज सोशल मीडिया की मेहरबानी से लोगों को ऐसे मौके भी मिलते हैं कि हिंसक मर्दानगी का विरोध किया जा सके। लोगों को भाषा, मुहावरों, मिसालों, और गालियों में औरतों पर हमले जहां दिखें, वहां उसका विरोध करना चाहिए। हिन्दुस्तानी संस्कृति और सोच में यह बात इतने गहरे पैठ चुकी है कि लोगों को अब इनमें कोई हिंसा या बेइंसाफी दिखती भी नहीं है। खुद महिलाएं विरोध-प्रदर्शन में चूडिय़ां भेंट करने निकल पड़ती हैं, और सडक़ की लड़ाई में दूसरों की मां-बहन एक करने लगती हैं। इसलिए न सिर्फ मर्दों की सोच को बदलने की जरूरत है, बल्कि औरतों को भी यह समझाने की जरूरत है कि वे अपने पूरे तबके के खिलाफ हिंसा और बेइंसाफी कर रही हैं।
जब कभी भाषा बनी होगी, जाहिर है कि उस पर मर्दों का ही कब्जा रहा होगा, वे ही पहले पढऩे-लिखने वाले रहे होंगे, और उनका एकाधिकार उस पर रहा होगा। इसलिए समाज में लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ चली आ रही बेइंसाफी तमाम कहावतों और मुहावरों में अच्छी तरह दर्ज है। स्कूल की किताबों को देखें तो कमल को घर चलकर पढऩे को कहा जाता है, और विमला को नल पर जल भरने के लिए। बचपन से दिमाग में बैठी हुई यह गैरबराबरी आखिरी तक चलती ही रहती है, और मर्द मरने के बाद अपनी बेटियों के हाथ से जलाया या दफनाया जाना भी बर्दाश्त नहीं करते, और वहां भी बेटे न हों तो दूर के रिश्तेदार मर्दों को मौका मिल जाएगा, लेकिन बेटी या किसी महिला का मौका नहीं मिलेगा। आज इस मुद्दे पर हमारे लिखने का मकसद यही है कि एक प्रमुख वेबसाइट की एक खबर को लेकर चर्चा छेडऩे का मौका मिला है, तो इस पर लिखना हम अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। इस बहाने और कई पहलुओं पर बात हो गई, और लोगों के सोचने का कुछ सामान सामने रखना हो गया। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तान की अदालतों में होने वाले लेटलतीफ इंसाफ की चर्चा तो अक्सर होते ही रहती है, लेकिन अभी जापान से एक ऐसी खबर आई है जो वहां की अदालती रफ्तार के कम से कम एक मामले को लेकर रौंगटे खड़े कर देती है। इवाओ हाकामादा दुनिया में मौत का सबसे लंबे वक्त से इंतजार कर रहा एक कैदी है जिसे कि 1966 में अपने गृहस्वामी के घर को आग लगाकर परिवार के चार लोगों को मार डालने के आरोप में मौत की सजा हुई थी। यह सजा तो दो बरस में ही सुना दी गई थी, लेकिन वह हमेशा से ही यह कहते रहा कि उससे जोर-जुल्म से यह गुनाह कबूलवाया गया था। इसके बाद लगातार अदालतों में उसकी अपील चलती रही, और यह सजा मिलने के 27 बरस बाद सुप्रीम कोर्ट ने दुबारा सुनवाई की उसकी अपील खारिज की। इसके बाद भी उसके वकील अदालतों में लड़ते रहे, और अभी इस सोमवार को टोक्यो हाईकोर्ट ने माना कि इस सजायाफ्ता मुजरिम पर लगाए गए आरोपों में कोई खामी हो सकती है, इसलिए नई डीएनए जांच के मुताबिक मामले की फिर से सुनवाई की जाए। इस पूरे दौर में इवाओ की उससे कुछ ही छोटी बहन लगातार उसकी तरफ से अभियान चलाती रही, और वकील भी करती रही। मौत की सजा के इंतजार में भी उसे उम्र बहुत अधिक हो जाने की वजह से 2014 में घर पर रहने की इजाजत दे दी गई थी, और तब से वह घर बैठे अपनी अपीलों की सुनवाई देखते जा रहा था। उसके करीबी लोगों का कहना है कि करीब 50 बरस की कैद, जिसका अधिकतर हिस्सा कोठरी में अकेले रहना पड़ा, उसने इवाओ की दिमागी हालत पर भी बहुत असर किया है। अब 87 बरस की उम्र में उस पर आधी सदी से भी अधिक पुरानी मौतों या हत्याओं का वह मामला फिर चलने जा रहा है।
इससे एक बात साफ होती है कि हिन्दुस्तान ही नहीं दुनिया में अधिकतर जगहों पर अदालती लड़ाई में खुद के या समर्थकों के पैसों की बड़ी जरूरत होती है। आज हिन्दुस्तान के सुप्रीम कोर्ट में कोई करोड़पति इंसान जिसका अरबों का कारोबार है, वह रातोंरात सुनवाई पा सकता है, लेकिन बहुत गरीब और बेबस लोग इस रफ्तार से अपने खुद के वकील से भी वक्त नहीं पा सकते। अधिकतर गरीब लोग हाईकोर्ट का भी खर्चा नहीं उठा सकते हैं, सुप्रीम कोर्ट तो उनकी पहुंच से बाहर रहता ही है। जापान के जिस मामले को लेकर आज यहां चर्चा की जा रही है उसमें इस बूढ़े की बहन लगातार उसके लिए अभियान चलाती रही, और उन दोनों की जो तस्वीरें दिख रही हैं उनमें वे फटेहाल भी नहीं दिख रहे हैं, जिससे कि जाहिर है कि उनके पास मुकदमेबाजी की ताकत तो रही होगी। अमरीका में मौत की सजा पाने वाले, अमूमन काले या दूसरे अश्वेत लोग, उनकी मदद के लिए बनाए गए संगठनों की मदद पाते हैं, और ऐसे संगठन या ऐसी सोच वाले वकील उनके मामलों को लेकर आखिरी सांस तक दौड़-भाग करते हैं। हिन्दुस्तान के छत्तीसगढ़ के बस्तर में जिन आदिवासियों पर पुलिस नक्सल-समर्थक होने की तोहमत लगाती है, उन्हें अपनी बेगुनाही साबित करना नामुमकिन सा लगता है क्योंकि उनके पास अदालत या वकील का खर्च उठाने की ताकत नहीं रहती। ऐसे में बस्तर में सामाजिक सरोकार से काम करने वाली कुछ महिला वकील लगातार उनकी लड़ाई लडऩे का काम करती हैं, और उन्हीं की मदद से बेकसूर आदिवासियों में से कुछ या कई को राहत मिल पाती है। ऐसे वकीलों से दूसरी मदद यह मिलती है कि उनकी मौजूदगी ही पुलिस और सुरक्षाबलों को अगली ज्यादती करने के वक्त कुछ चौकन्ना रखती है कि ये मामले आगे अदालतों में उठाए जा सकते हैं। यह बिना लिखी, बिना कही चेतावनी रहती है, लेकिन इसका असर होता है।
हिन्दुस्तान की अदालतें पिछले कुछ बरसों में लगातार अच्छी या बुरी वजहों से खबरों में बनी हुई हैं। जजों का चाल-चलन लगातार बुरी खबरें पैदा करता है, लेकिन उन पर चर्चा भी होती रहती है। फिर जजों के वकीलों के साथ टकराव, सरकार का जजों से टकराव, इससे भी संस्थागत कमजोरियां उजागर होती रहती हैं, और इन सभी पहलुओं को अपने में सुधार का मौका मिलता है। लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद पिछली आधी सदी में हिन्दुस्तान की न्याय व्यवस्था में सुधार की तमाम बातें हालात को किसी किनारे नहीं पहुंचा पाई हैं। न तो अदालतों पर से मामलों का बोझ घटा है, न ही फैसलों में कोई रफ्तार आई है, न ही अदालतों का भ्रष्टाचार घटा है। कुल मिलाकर देश में माहौल यह है कि जिसके पास खूब सारा पैसा है, बड़े-बड़े शातिर और कामयाब वकीलों को रखने की ताकत है, उन्हीं की जल्द सुनवाई हो सकती है, या उनकी दिलचस्पी हो तो उनके मामले बरसों तक घिसट सकते हैं। लोगों का यह भी मानना है कि जिनके पास पैसों की ताकत है वे बहुत से रहस्यमय तरीकों से अपने मामलों की सुनवाई ही बरसों तक टलवाने में कामयाब रहते हैं।
अब जापान में जिस कैदी के मामले की दुबारा सुनवाई डीएनए टेक्नालॉजी आने की वजह से सुबूतों को दुबारा परखने के लिए हो रही है, वैसी टेक्नालॉजी हिन्दुस्तानी अदालतों में भी मामलों को दुबारा तौलने में काम आ सकती है, और आम लोगों का यही मानना रहेगा कि जिनके पास सत्ता या पैसों की ताकत होगी वे ऐसी जांच-रिपोर्ट अपनी मर्जी से खरीद सकेंगे, और टेक्नालॉजी से इंसाफ को मदद मिलने के बजाय उसे धक्का मिलेगा। जापान की बात से हमने आज की यह चर्चा शुरू जरूर की है, लेकिन जो बातें हिन्दुस्तानी न्याय व्यवस्था को तबाह करती चली आ रही हैं, उनके बारे में दुबारा सोचने की जरूरत है। कैसे हिन्दुस्तानी न्याय व्यवस्था को सुधारा जा सकता है, बेहतर बनाया जा सकता है, और इंसाफ का हिमायती बनाया जा सकता है, यह सोचना चाहिए। ऐसा भी नहीं कि इस बारे में सोचा नहीं गया है, कई बार भारत सरकार की बनाई हुई कमेटियों की रिपोर्ट भी आई हैं, लेकिन उन पर अमल नहीं हुआ। बेहतर न्याय व्यवस्था के लिए एक असरदार जनआंदोलन की जरूरत है। जापानियों की तो औसत उम्र बहुत अधिक रहती है, इसलिए 87 बरस की उम्र में भी यह आदमी दुबारा पूरा मुकदमा झेलने की खबर सुन पा रहा है, हिन्दुस्तानी गरीब तो 50-60 बरस की उम्र में ही चल बसते हैं, और उनके लिए इंसाफ तो जापान के मुकाबले कुछ अधिक रफ्तार करना होगा।
दुनिया के कामगारों के बीच एक खतरा छाया हुआ दिखता है कि मशीनें उनका काम छीन लेंगी। मशीन मानव, या रोबो तो आंखों से दिखते हैं, इनमें से कुछ-कुछ तो इंसानी बांहों सरीखे मशीनी हाथों वाले भी होते हैं, इनमें से कुछ पहियों पर चलते इंसानों की तरह एयरपोर्ट पर आने-जाने वाले मुसाफिरों को उनकी जरूरत की जानकारी देने का काम भी करते हैं। लेकिन अभी तक रोबो मोटेतौर पर कारखानों के ऐसे काम करते हैं जिनमें इंसानों को खतरा रहता है, या गोदामों में सामान छांटकर पैक करके उसे किसी जगह भेजने के एक सरीखे दुहराव वाले काम करते हैं। अब ताजा खबरों के मुताबिक रोबो अस्पतालों और घरों की सफाई का काम भी करने लगे हैं जिनके लिए कई जगहों पर कामगार मुश्किल से मिलते हैं। अस्पतालों के संक्रामक हिस्सों में कई तरह के काम कर्मचारियों के लिए खतरे के भी रहते हैं, और वहां पर भी रोबो का इस्तेमाल इंसानों को बीमारी से बचाता है। अब दक्षिण कोरिया की राजधानी सोल में रोबो चिकन नाम की एक ऐसी फूडचेन शुरू हुई है जहां पर पकाने का काम रोबो कर रहे हैं, और यह भी माना जा रहा है कि जब किसी ब्रांड के रेस्त्रां चारों तरफ बिखरे हुए हों, तब वहां पकाने के तरीके में कोई फेरबदल सिखाने में लंबा वक्त लग सकता है, लेकिन अगर कम्प्यूटर से चलने वाली ऐसी रोबोटिक मशीनों के हाथों से वहां पकाया जा रहा है, तो फिर किसी एक कम्प्यूटर से इन्हें इंस्ट्रक्शन देकर पल भर में अगले व्यंजन को बदला जा सकता है।
अब पिछले कुछ महीनों से आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आधारित एक वेबसाइट बहुत खबरों में हैं जिसे चैटजीपीटी कहा जाता है। इसमें कोई भी जानकारी पूछने पर, लिखने का सुझाव मांगने पर यह कम्प्यूटर पल भर में आज तक की तमाम कम्प्यूटरीकृत जानकारी में से काम की बातें लेकर एकदम ताजा लिखकर पेश कर देता है। इसकी ताकत का अहसास करने के लिए इसे इस्तेमाल करने से कम में बात समझ में नहीं आएगी। अब अभी तो इस चैटजीपीटी को ही अधिक से अधिक उत्कृष्ट बनाने का काम चल रहा है, लेकिन क्या वह दिन बहुत अधिक दूर है जब इंसानी हुक्म पर काम करने वाले रोबो इस तरह की कृत्रिम बुद्धि का भी इस्तेमाल करके लोगों के हुक्म को इंसानी खूबियों की हद तक पूरा मान सकें? आज एक रोबो का पकाया हुआ खाना उसमें डाली गई व्यंजन-विधि के मुताबिक होगा, लेकिन अलग-अलग इंसानों के स्वाद की अलग-अलग पसंद के मुताबिक इसमें फेरबदल शायद ये रोबो अभी खुद न कर पाए, लेकिन हो सकता है कि बहुत जल्द ही एक ऐसी कृत्रिम बुद्धि इसमें जोड़ी जा सके कि यह लोगों की पसंद से अधिक मिर्च डाल सके, कम तल सके, छोटे टुकड़े कर सके, और उस पर हरा धनिया छिडक़ सके।
लेकिन आज की यह चर्चा महज रोबो तक सीमित नहीं है, यह रोबो से जुड़े इंसानी रोजगारों की बात भी है। ऐसा लगता है कि रोबो बहुत तेजी से इंसानी कामकाज को छीन लेंगे, वे कई किस्म के काम आज भी इंसानों से बेहतर कर रहे हैं, कम देर में, अधिक खूबी के साथ कर रहे हैं, और सस्ते भी पड़ रहे हैं, वे न बीमार पड़ते हैं, न तनख्वाह बढ़ाने की मांग पर हड़ताल करते हैं। इसलिए कुछ किस्म की जगहों में मैनेजमेंट तेजी से रोबो का इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन दुनिया में लाखों किस्म के ऐसे काम हैं, जो उतने दुहराव वाले नहीं हैं जो कि रोबो की खूबी होता है, वे खुद होकर छोटे-छोटे फेरबदल करने के लायक नहीं है, इसलिए वे इंसानों की नौकरियां अगले कई बरस तक तो बहुत धीमी रफ्तार से ही छीनेंगे। अब इस नौबत को एक और बात से जोडक़र देखने की जरूरत है। दक्षिण कोरिया, जहां पर कि रोबो का इस्तेमाल कारखानों के कामगारों में अब दस फीसदी तक पहुंच गया है, जहां पर दुनिया का सबसे अधिक रोबो इस्तेमाल हो रहा है, वहां पर यह एक मजबूरी भी है। दक्षिण कोरिया की आबादी जिस रफ्तार से गिर रही है, वह दुनिया में सबसे अधिक है, और नई जन्मदर वहां दुनिया में सबसे कम है, आबादी बनाए रखने के लिए जितनी होनी चाहिए, उससे बहुत ही कम है। फिर इलाज और बेहतर जिंदगी की वजह से आबादी में बूढ़ों का अनुपात बढ़ते जा रहा है, मतलब यह कि कामगार आबादी का अनुपात भी घटते जा रहा है, गिनती भी घटते जा रही है। ऐसे में बिना मशीनों तो काम चलना नहीं है, यही वजह है कि सबसे तेजी से आबादी और कामगार दोनों खोने वाला यह देश रोबो का अधिक से अधिक इस्तेमाल कर रहा है। लेकिन हिन्दुस्तान जैसे देश को देखें जहां पर कि आबादी अगले कुछ दशक बढ़ती ही चली जानी है, यहां पर कामगार इतने सस्ते हैं, और अधिकतर काम इतने असंगठित हैं कि यहां रोबो का दखल लंबे समय तक गिने-चुने कामों में ही रहेगा।
इससे जुड़ी हुई एक तीसरी बात भी जोडक़र देखने की जरूरत है। अब संपन्न दुनिया में लोग पहले की तरह जानवरों सरीखा काम करना नहीं चाहते। एक-एक करके बहुत से ऐसे संपन्न और विकसित देश होते जा रहे हैं जहां पर बिना रोबो के इस्तेमाल के भी इंसान अब हफ्ते में चार दिन काम कर रहे हैं, और कुछ जगहों पर तो महज तीन दिन। इसका यह मतलब है कि लोगों को अपनी पसंद की जिंदगी जीने के लिए इतना पैसा मिल रहा है कि वे आधे से कम दिन काम करके भी मजे से जी रहे हैं। ऐसे लोगों को अपनी जिंदगी के सुख के लिए ऐसे कई किस्म के इंसानी कामगार लगेंगे जो काम रोबो से नहीं चल सकेगा। इसलिए इंसानों की जरूरत बहुत तेजी से कम होगी, यह डर भी बेबुनियाद लगता है। यह जरूर हो सकता है कि आज जहां पर इंसानों को काम मिला हुआ है, कल वहां से उनका काम मशीनें छीन लें, और इंसानों को कोई दूसरा काम तलाशना पड़े। लेकिन वैसे भी अधिकतर इंसान वक्त और जगह की जरूरत के मुताबिक अलग-अलग किस्म के काम करते भी रहते हैं। एक वक्त बैंकों में काउंटर के पीछे बैठे लोग जो काम करते थे, वह धीरे-धीरे एटीएम पर होने लगे, और अब तो हिन्दुस्तान में छोटे-छोटे से चाय और ठेलेवाले लोग भी मोबाइल फोन से मिलने वाले डिजिटल भुगतान को पाना सीख चुके हैं, मतलब यह कि धीरे-धीरे एटीएम भी बेरोजगार होते जा रहे हैं।
आने वाली दुनिया अगर इंसानों के रोजगार को छीनने वाली होगी, तो उसमें संपन्नता की वजह से लोगों में बढऩे वाली सुख की चाहत पूरी करने के लिए कई किस्म के इंसानी कामगारों की जरूरत बढ़ेगी भी। यह जरूर हो सकता है कि एक एटीएम पर गार्ड की ड्यूटी करने वाले की नौकरी घटेगी, लेकिन कहीं पर एक मालिश करने वाले का रोजगार बढ़ जाएगा। इस तरह का यह तालमेल बदलती हुई दुनिया में लोगों को सीखना पड़ेगा, और आने वाले वक्त किस जगह, किस जुबान को बोलने वाले, किस हुनर के, किस देश के कितने लोगों के रोजगार का रहेगा, यह भी कृत्रिम बुद्धि से लैस कोई रोबो तेजी से निकाल देगा। इस बीच अमरीका का एक आंकड़ा देना जायज होगा, वहां पर आज हुनर वाले रोजगार के लिए कामगार कम हैं, हर हुनरमंद कामगार के लिए दो रोजगार आज मौजूद हैं, और आने वाले बरसों में ऐसे रोजगार और बढऩे जा रहे हैं। मतलब यह कि फिक्र रोजगार की नहीं, अपने हुनर की करनी चाहिए, रोबो अगर कभी काम छीनने आएंगे भी, तो वे सबसे पहले सबसे कमजोर हुनर वाले कामगारों का काम छीनेंगे, बेहतर कामगार तो रोबो के साथ-साथ भी बने ही रहेंगे।
कर्नाटक में अभी वहां के लोकायुक्त के छापे में एक भाजपा विधायक के बेटे को 40 लाख रूपये रिश्वत लेते गिरफ्तार किया गया तो उसके पास से 8 करोड़ रूपये और मिले। यह विधायक कर्नाटक सरकार के एक निगम का अध्यक्ष भी था जो कि वहां मैसूर ब्रांड की चंदन वाले साबुन-अगरबत्ती बनाने का काम करता है, और इसी के कारखानों के लिए कच्चे माल की खरीदी के लिए विधायक का यह बेटा रिश्वत ले रहा था। इसके बाद विधायक ने कहा कि उनका विधानसभा क्षेत्र ऐसे संपन्न लोगों का है कि वहां घर-घर में 5-10 करोड़ रूपये नगद पड़े रहते हैं। देश भर में भाजपा की विरोधी पार्टियों और उनकी सरकारों के लोगों पर लगातार ईडी, आईटी, और सीबीआई के छापे पड़ रहे हैं, इस बीच भाजपा विरोधी पार्टियों को कर्नाटक के विधायक के बेटे का यह रिश्वतकांड जवाबी हमले के लिए एकदम तैयार मामला मिला। फर्क यही था कि केन्द्र सरकार की एजेंसियां सरकार के मातहत काम करती हैं, और कर्नाटक का लोकायुक्त एक अलग संवैधानिक संस्था है, जो कि सरकार से परे काम करता है। इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि केन्द्र सरकार की एजेंसियां भाजपा नेता के खिलाफ भी कार्रवाई करती हैं।
लेकिन आज चर्चा का मुद्दा कुछ और है। किसी सत्तारूढ़ विधायक के बेटे को रिश्वत लेते रंगे हाथों पकडऩा, और उसके घर से करोड़ों की नगदी निकलना छोटा मामला नहीं था, देश भर के लोगों के लिए 8 करोड़ की रकम सपने में देखने के लिए भी बहुत बड़ी होती है। जब चारों तरफ इस मामले की तस्वीरें छपने लगीं, इसके वीडियो सामने आए, तो इतने संपन्न नेता होने के नाते यह भाजपा विधायक एक अदालत गया। और बेंगलुरू की इस जिला अदालत में पिटीशन में गिनाए गए 46 मीडिया संस्थानों पर यह रोक लगा दी कि वे इस विधायक और उसके बेटे के खिलाफ या अपमानजनक कोई भी बात न छापेंगे, न टीवी पर दिखाएंगे, और न ही उस पर कोई बहस आयोजित करेंगे। यह रोक अगली सुनवाई तक के लिए लगाई गई है, और इस लिस्ट में टाईम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, हिन्दू, एनडीटीवी, आजतक, जैसे प्रमुख और बड़े मीडिया संस्थान हैं। इस विधायक ने अदालत से अपील की थी कि ये सारे मीडिया संस्थान जिस तरह ये खबरें दिखा रहे हैं, वह उसकी चरित्र-हत्या के अलावा और कुछ नहीं है। अदालत ने भी इन खबरों को दिखाने के बाद इन पर होने वाली बहसों को विधायक और बेटे की चरित्र-हत्या मान लिया, और कहा कि चूंकि गरिमा के साथ जीवन एक बुनियादी हक है, इसलिए छापने और प्रसारण पर यह रोक लगाई जा रही है। इसके साथ ही अगली सुनवाई सात हफ्ते बाद तय की गई है।
अभी हमारी नजरों के सामने यह नहीं आया है कि इन बड़े मीडिया संस्थानों ने निचली अदालत के इस आदेश के खिलाफ किसी बड़ी अदालत मेें अपील की है या नहीं, लेकिन सवाल यह उठता है कि जाहिर तौर पर 40 लाख रिश्वत लेते हुए पकड़ाने के बाद विधायक-पुत्र से 8 करोड़ की और नगदी बरामद होना क्या जुर्म के प्रारंभिक सुबूतों से कम है? अगर एक संवैधानिक संस्था की ऐसी कार्रवाई और इतनी रकम के बाद भी अगर इन बाप-बेटे को पहली नजर में दोषी नहीं माना जाएगा, तो फिर देश में किसी भी आरोपी को देश की आखिरी अदालत से सजा मिल जाने के पहले तक संदेह का लाभ देना होगा। यह हैरानी की बात है कि एक हफ्ते पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ के एक भूतपूर्व अफसर के मामले में 42 पेज लंबा एक फैसला लिखा जिसमें उसने भ्रष्टाचार से देश और लोकतंत्र को होने वाले खतरों के बारे में बहुत खुलासे से लिखा। और उस फैसले के आने के बाद अब अगर एक जिला अदालत ऐसे खुले भ्रष्टाचार के मामले की खबरों पर रोक लगा रही है, तो यह रोक ऊपर की किसी अदालत में टिकने वाली नहीं दिखती है। इसका मतलब तो यह हो गया कि जो लोग कोई बड़ा वकील करके अदालत तक जा सकते हैं, वहां से अपनी मर्जी का कोई आदेश पा सकते हैं, उनके खिलाफ कुछ छापा या दिखाया नहीं जा सकता। हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी पर बहुत सारे अदालती फैसले आने के बाद अगर आज कोई एक जिला अदालत एक साथ 46 अलग-अलग मालिकाना हकों वाले मीडिया संस्थानों पर एकमुश्त ऐसी रोक लगाती है, तो कानून की ऐसी समझ हक्का-बक्का करती है। कोई एक मीडिया संस्थान तो किसी के खिलाफ दुर्भावना से कोई अभियान चलाए, और उस पर कोई अदालत ऐसी रोक लगाए, वह तो फिर भी समझा जा सकता है, लेकिन चार दर्जन मीडिया संस्थानों पर ऐसी रोक लगाना लोकतंत्र के मखौल के अलावा कुछ नहीं है।
हिन्दुस्तान में यह मानकर चलना चाहिए कि कई किस्म के सत्तारूढ़ भ्रष्टाचार किसी न किसी मीडिया की मेहरबानी से ही उजागर होते हैं, लेकिन सत्ता या पैसों की ताकत वाले लोग लगातार मीडिया पर रोक लगाने के लिए अदालती और गैरकानूनी दबाव बनाते ही रहते हैं। लोगों को याद होगा कि देश की एक सबसे बड़ी पत्रिका के संपादक के लिखे हुए के खिलाफ अडानी ने सौ-सौ करोड़ रूपये के मानहानि के मुकदमे किए थे, और फिर उस पत्रिका को अपने संपादक को हटाना ही पड़ गया, और अडानी के वकीलों ने अदालतों से यह आदेश भी हासिल कर लिया कि यह संपादक (जो कि भूतपूर्व हो चुका था) अडानी के बारे में कुछ न लिखे। दुनिया के जिस लोकतंत्र में मीडिया पर इस किस्म की रोक लगाई जाती है, वहां पर सरकार और कारोबार की संगठित भ्रष्ट भागीदारी बढ़ती ही चली जाती है। यह सिलसिला न सिर्फ थमना चाहिए, बल्कि जिस अदालत ने मीडिया पर ऐसी रोक लगाई है, उसके फैसले का विश्लेषण भी किसी बड़ी अदालत को करना चाहिए। अगर इसी तरह की रोक लोगों को मिलती रही, तो फिर इस देश में किसी ताकतवर के खिलाफ कोई खबर बन ही नहीं सकेगी।
आमतौर पर दुनिया के लोकतंत्रवादी लोग इजराइल को एक देश के रूप में नीची नजरों से देखते हैं क्योंकि यह देश फिलस्तीन की जमीन पर कब्जा करके, वहां के लोगों को बेदखल करके, दुनिया की सबसे बड़ी बेइंसाफी दर्ज करते चले आ रहा है, और इस गुंडे की पीठ पर जिस तरह अमरीका के बीटो का हाथ बना रहता है, उसकी वजह से संयुक्त राष्ट्र संघ भी जुबानी जमाखर्च से अधिक आज तक कुछ नहीं कर पाया है, और इजराइल दुनिया के एक सबसे बड़े मुजरिम की तरह लोकतांत्रिक देशों को नामंजूर बना हुआ है। यह एक अलग बात है कि हिन्दुस्तान के साथ हाल के बरसों में उसके रिश्ते ऐसे मजबूत हुए हैं कि हिन्दुस्तानी सरकार के लोग अपने बच्चों के अक्षर ज्ञान से फिलस्तीन का फ अक्षर हटा देने की सोच रहे हैं। ऐसे में आज अगर इसी इजराइल के भीतर के लोग अपने देश में लोकतंत्र को बचाने के लिए इस अंदाज में सडक़ों पर हैं कि जिसकी किसी ने वहां सपने में भी कल्पना न की होगी, तो यह बात गौर करने लायक है। इजराइल में लोकतंत्र को बचाने के लिए सरकार के खिलाफ आम लोगों के साथ-साथ कौन-कौन और लोग जुड़े हैं, यह देखना हैरान करता है। दुनिया के बाकी तमाम देशों को भी लोकतंत्र खत्म करने की हरकतों के पहले यह सोच लेना चाहिए कि इजराइल जैसे फौलादी फौजी शिकंजे वाले देश में अगर आज सरकारी पायलट प्रधानमंत्री के विमान को उड़ाने से इंकार कर दे रहे हैं, विमान कर्मचारी प्रधानमंत्री के विमान में ड्यूटी से मना कर दे रहे हैं, और इनसे कहीं आगे बढक़र इजराइल की एयरफोर्स के सबसे चुनिंदा लड़ाकू विमान-पायलटों का स्क्वॉड्रन सरकार के खिलाफ विरोध दर्ज करते हुए अगर ट्रेनिंग लेने से मना कर दे रहा है, तो दुनिया के कितने देश ऐसी नौबत का खतरा उठा सकते हैं। इजराइली प्रधानमंत्री सरकारी विमानसेवा के पायलटों और बाकी कर्मचारियों की मनाही का शिकार उस वक्त हुए जब वे इटली के प्रधानमंत्री से मिलने वहां जाने वाले थे। इस इजराइल में किसी ने ऐसे जनआंदोलन की कल्पना भी नहीं की होगी क्योंकि इस देश के लोग दुनिया के सबसे कामयाब कारोबारी हैं, और छोटी सी जमीन से ये पूरी दुनिया में फौजी, खुफिया, सुरक्षा सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर का दुनिया का सबसे बड़ा कारोबार करते हैं। ऐसे व्यस्त कारोबारी देश में अगर लोग सरकार के एक फैसले के खिलाफ इस हद तक सडक़ों पर उतर आए हैं, तो दुनिया के उन तमाम देशों को इससे एक सबक लेना चाहिए जो आज अपनी-अपनी सरहदों में लोकतंत्र को खत्म करने के तरीके ईजाद करने में लगे हुए हैं। लगे हाथों अभी अमरीका के न्यूयॉर्क में सैकड़ों यहूदियों का निकाला हुआ एक जुलूस भी काबिल-ए-जिक्र है जिसमें यह मांग की गई कि जिस तरह इजराइल फिलीस्तीनियों पर जुल्म कर रहा है, अमरीका इजराइल को दी जाने वाली सारी फौजी मदद बंद करे। ये यहूदी लोग इजराइल के ही मूल निवासी हैं, लेकिन अपने देश की सरकार के फिलीस्तीन-विरोधी रूख से असहमत हैं।
अब यह समझने की जरूरत है कि आज इजराइल में इतना बड़ा यह आंदोलन क्यों छिड़ा है? वहां के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हुए हैं, और किसी तरह खींचतान कर उन्होंने अटपटी पार्टियों से मिलकर इजराइल के इतिहास की आज तक की सबसे कट्टरपंथी और दकियानूसी सरकार बनाई है। इसमें ऐसी दक्षिणपंथी पार्टियां शामिल हैं जिनके मन में मानवाधिकारों के लिए हिकारत के अलावा कुछ नहीं है, और जो खुलेआम फतवे देती हैं कि किस तरह फिलीस्तीन का नाम भी दुनिया के नक्शे से मिटा देना चाहिए। ऐसी कट्टरपंथी सरकार ने अभी संविधान में ऐसा संशोधन करना शुरू किया है जिससे अदालतों के ऊपर सरकार का काबू हो जाएगा, और सरकार ही संसद से लेकर अदालत तक इन सबके ऊपर राज करेगी। इजराइल की जनता चाहे वह फिलीस्तीन पर अपने देश के जुल्मों पर मोटेतौर पर चुप रहती आई है, लेकिन अपने देश में लोकतंत्र खत्म होने के इस खतरे को उसने तुरंत भांप लिया है, और लाखों लोग सडक़ों पर निकल आए हैं। किसी भी देश में किसी हड़ताल या सरकारविरोधी आंदोलन में फौज शायद ही कभी शामिल होती हो, और अगर फौज ही सरकार के खिलाफ उठ खड़ी हुई है, तो यह बगावत या सत्तापलट से कुछ ही कदम पीछे की नौबत है। ऐसे में यह देखना अविश्वसनीय लगता है कि इजराइली एयरफोर्स के लड़ाकू पायलटों की तरफ से यह बयान आ रहा है कि वे एक तानाशाह सरकार के लिए काम नहीं करेंगे, और सरकार को यह रूख बता भी दिया गया है। इजराइल के दस भूतपूर्व वायुसेना प्रमुखों ने एक खुली चि_ी में प्रधानमंत्री को देश के संविधान से छेड़छाड़ बंद करने को कहा है, और लिखा है कि इससे राष्ट्रीय सुरक्षा खतरे में पड़ रही है। इजराइल की फौज का एक अहम हिस्सा यूनिट-8200 है जो कि फौज के लिए लुके-छुपे ऑपरेशन करती है, उसकी रिजर्व फोर्स ने भी यह कह दिया है कि उसके लोग ड्यूटी नहीं करेंगे।
इजराइल की मौजूदा सरकार अपने बदनाम प्रधानमंत्री नेतन्याहू की अगुवाई में कुछ महीने पहले ही तमाम घटिया किस्म की पार्टियों के साथ मिलकर सत्ता पर आई है, और अब ऐसे गिरोह ने संविधान में ऐसा संशोधन करना शुरू कर दिया है जिससे जजों की नियुक्ति पर सरकार का पूरा कब्जा हो जाएगा, और संसद के बनाए हुए कानूनों का सुप्रीम कोर्ट कुछ भी नहीं कर पाएगी। सरकार का यह तर्क है कि पिछले चुनाव में वह वोटरों द्वारा चुनी गई है, और उसे संविधान में ऐसे फेरबदल का हक है, लेकिन देश की जनता ने इस तर्क को खारिज कर दिया है कि निर्वाचित होने का मतलब संविधान से छेड़छाड़ का हक होता है। आज वहां चल रहा जनआंदोलन न सिर्फ इजराइल के इतिहास का सबसे बड़ा आंदोलन है, बल्कि किसी भी लोकतांत्रिक देश में सरकार के खिलाफ फौज में मौजूदा लोगों का अपने किस्म का अनोखा आंदोलन है।
हम इजराइल के भीतर के हालात को लेकर अधिक फिक्रमंद नहीं हैं क्योंकि यह देश दुनिया का सबसे जुल्मी देश बना हुआ है, लेकिन हम वहां उठ खड़े हुए इस लोकतांत्रिक आंदोलन को देखकर राहत महसूस कर रहे हैं कि सबसे अधिक मतलबपरस्त दिखते कारोबारी जनता वाले देश में भी लोकतंत्र को एक सीमा से अधिक कुचलने का क्या नतीजा हो सकता है। हम इस जागरूकता को दुनिया के उन बाकी लोकतंत्रों के लिए अहमियत का मानते हैं जहां पर सरकारें संसद और अदालत को काबू में रखने की संभावनाओं पर लार टपका रही हैं। इजराइल की जनता की आज की लोकतांत्रिक जागरूकता बाकी दुनिया के लिए भी एक मिसाल बन सकती है, और जिन देशों में जनता आज मुर्दा बनी हुई है, वहां भी हो सकता है कि लोगों को लोहिया की कही बात याद आए, और उन्हें यह समझ आए कि जिंदा कौमें पांच बरस इंतजार नहीं करतीं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)