संपादकीय
अफ्रीका के केन्या में एक ईसाई पादरी अपने चर्च के भक्तों के बीच यह दावा करते रहता था कि वह ईसा मसीह है। दावा तो अच्छा था, इसके चलते अंधभक्तों को एक रोजगार मिल गया रहता, और वे इस पादरी के पैरों पर पड़े रहते, लेकिन अफ्रीकी कम पढ़े-लिखे और पिछड़े जरूर दिखते हैं, लेकिन वे अधिक समझदार निकले। उन्होंने यह तय किया कि अगर यह पादरी ईसा मसीह है तब इसे आने वाले ईस्टर त्योहार पर ईसा मसीह की जिंदगी की तरह सूली पर चढ़ा देना चाहिए। और जिस तरह ईसा मसीह उसके तीसरे दिन फिर से जिंदा होकर लोगों के बीच आ जाएंगे। अब उन्होंने इस पादरी से जिद करना शुरू किया कि चूंकि वह ईसा मसीह है, इसलिए उसे सूली पर चढऩे में दिक्कत नहीं होनी चाहिए क्योंकि वह तीन बाद जिंदा होकर लौट आएगा। अब ऐसे में यह पादरी भागकर पुलिस तक गया, और उसने कहा कि उसे अपने मानने वालों से अपनी जान को खतरा है। उसने कहा कि खासकर आने वाली ईस्टर को देखते हुए साल के इस वक्त में वह डरा-सहमा है। केन्या से आई खबरें बताती हैं कि उसके समुदाय के लोग सिर्फ यही चाहते थे कि वह जो दावा करता है उसे साबित करे ताकि वे भी जान सकें कि सच क्या है। इस पादरी के बहुत से मानने वाले हैं, और उसने एक चमत्कार दिखाते हुए कुछ समय पहले शादी के एक समारोह में पानी को चाय में बदल दिया था।
ईश्वरीय, जादुई, और चमत्कारी दावे करने वालों का यही हाल करना चाहिए। इस पादरी के साथ किसी ने हिंसा शुरू भी नहीं की थी, और दहशत में इसके होश ठिकाने आ गए। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में लगातार भारी चर्चा में बने रहने वाला, दावे करने वाला, और लोगों के तौलिए उतारने वाला एक पाखंडी बाबा अभी बुरी तरह उजागर हुआ जब उसका भाई एक पिस्तौल लेकर एक दलित परिवार की शादी में गया, और बजते हुए संगीत का विरोध करते हुए उसने लोगों को गंदी गालियां दीं, धमकाया, और परले दर्जे की दलित प्रताडऩा की। दूसरी तरफ यह बाबा जो कि नाटकीय और जादुई अंदाज में करिश्मे दिखाने का दावा करता है, बीमारियां ठीक करने का दावा करता है, अपने भाई की इस करतूत से अनजान बैठा हुआ था, पूरे वारदात का वीडियो सामने आने के बाद अब भाई गिरफ्तार है, और बाबा की बोलती बंद है। वरना अभी पिछले ही हफ्ते की बात है कि मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और भूतपूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ सारे विवादों के बीच भी जाकर इस बाबा के पैरों पर बैठे थे, और एमपी के गृहमंत्री भी बाबा की चरणरज पाकर धन्य थे। ऐसे ताकतवर बाबा का भांडाफोड़ करने के लिए भी एक वारदात काफी थी, और कुछ तर्कवादियों ने यह सवाल खड़ा कर दिया था कि त्रिकालदर्शी होने का दावा करने वाला यह बाबा अपने ही भाई के जुर्म को नहीं देख पाया, और अपने असर से भाई को ही ऐसा गंदा जुर्म करने से नहीं रोक पाया। लोगों को याद होगा कि एक लडक़ी के साथ बलात्कार के जुर्म में जेल में बंद आसाराम को हिन्दुस्तान की किसी अदालत ने जमानत और पैरोल के लायक भी नहीं पाया। एक दूसरा बाबा, फिल्मी सितारों जैसी नौटंकी से जीने वाला राम-रहीम भी बलात्कार और दूसरी हिंसा के जुर्म में जेल काट रहा है, और सरकार और अदालत की मेहरबानी से बार-बार लंबी-लंबी पैरोल पा रहा है। इसी तरह का एक बाबा रामफल पुलिस कार्रवाई के खिलाफ हिंसा के जुर्म में जेल में पड़ा हुआ है। बहुत से और बाबा या दूसरे पादरी अब तक भांडाफोड़ से बचे हुए हैं, और जेल के बाहर हैं।
लोगों की जिंदगी को इस तरह के धार्मिक पाखंडी जिस हद तक बर्बाद करते हैं, उसके खिलाफ विज्ञान और इंसानियत पर भरोसा रखने वाले लोगों को खड़ा होना चाहिए। लेकिन दिक्कत यह है कि बेंगलुरू से लेकर पुणे तक जो सामाजिक आंदोलनकारी पाखंड के खिलाफ खड़े होते हैं, उन्हें या तो मार डाला जाता है, या अनगिनत मुकदमों में अदालत में घसीट दिया जाता है। सरकारों का हाल यह है कि कई पार्टियों की सरकारें आईं-गईं लेकिन गौरी लंकेश या गोविंद पानसारे के कातिलों का अब तक कुछ पता भी नहीं चला है। अब ऐसे में पड़ोस के पाकिस्तान में होने वाली धर्मान्ध हत्याओं और हिन्दुस्तान में होने वाली ऐसी अंधविश्वासी हत्याओं में फर्क क्या है? दिक्कत यह भी है कि हिन्दुस्तान में अनगिनत नेता, अफसर, जज, और बड़े-बड़े मीडिया मालिक ऐसे ही बड़े-बड़े पाखंडियों के भक्त हैं, और सरकारें वोटरों से इस कदर सहमी रहती हैं कि वे किसी पाखंड के खिलाफ कोई कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं करतीं हैं।
अभी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में पिछले हफ्ते ही अखबारों के पूरे पहले पन्ने पर एक स्वघोषित चमत्कारी बाबा का ईश्तहार छपा जिसमें बड़ी-बड़ी लाइलाज बीमारियों को चमत्कार से ठीक करने का दावा किया गया, इस बाबा की तारीफ में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का बयान छपा, और अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन की तस्वीर छपी, अमरीकी सरकार की सीनेट में इस बाबा के स्वागत का दावा करते हुए गोरे लोगों की एक फोटो छपी, लेकिन पुलिस में शिकायत करने के बावजूद पुलिस ने इस गैरकानूनी दावे के खिलाफ कुछ नहीं किया। दावा करने वाले बाबा को यह भी होश नहीं है कि अमरीकी सरकार अलग है, और वहां की सीनेट अलग है, अमरीका में सरकार की सीनेट जैसी कोई चीज नहीं है। लेकिन पुलिस में शिकायत करने वाले छत्तीसगढ़ के एक अकेले अंधविश्वास-विरोधी आंदोलनकारी डॉ. दिनेश मिश्र ने समय रहते पुलिस को बताया, लेकिन उनकी बात अनसुनी रह गई। पिछले बरस भी इसी बाबा के ऐसे ही पाखंडी कार्यक्रम में इलाज के चमत्कारी दावे के खिलाफ उन्होंने शिकायत की थी, और उस पर उनका बयान लेने पुलिस ने उनसे दस महीने बाद संपर्क किया था, जबकि बाबा का कार्यक्रम चार दिन में निपट चुका था।
हिन्दुस्तान में सरकार हांकने वाली पार्टियां इस कदर अनैतिक हो चुकी हैं कि वोटों के अलावा उन्हें कुछ भी नैतिक नहीं लगता। ऐसे में लोगों को ही अदालतों में जाकर बाबाओं के साथ-साथ उनके चरणों पर पड़े हुए मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को भी उजागर करना चाहिए। जिनकी जिंदगी की सांस वोटों से चलती है, उनसे कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती। उन्हें कटघरे में घसीटने से कम कुछ नहीं किया जा सकता। लेकिन सवाल यह है कि डॉ.दिनेश मिश्र जैसे एक व्यक्ति को प्रदेश के सारे अंधविश्वास से लडऩे का जिम्मा देकर फिर पूरा प्रदेश पाखंडियों के प्रवचन में मंजीरा बजाता रहे, तो इससे बात बननी नहीं है। यह सिलसिला इसलिए खत्म करना चाहिए कि ऐसे बाबा लोगों से संघर्ष की इच्छाशक्ति छीन लेते हैं, उन्हें चमत्कारों में बांध लेते हैं, और यह एक बड़ी वजह रहती है कि सत्ता पर काबिज नेता, और अफसर उन्हें यह पाखंड जारी रखने देते हैं क्योंकि इससे जनता बेअसर होते चलती है, और वह संघर्ष के बजाय एक निरर्थक भक्ति को ही सारा समाधान मान लेती है। सत्ता के ऐसे संरक्षण के खिलाफ और अधिक लोगों को उठ खड़ा होना चाहिए। अफ्रीका के केन्या में जब लोग इस पाखंडी और स्वघोषित ईसा मसीह के खिलाफ उठ खड़े हुए, और उसे सूली पर चढऩे के लिए कहा, तो उसके सारे दावों की हवा निकल गई, और अपनी ही भक्तों को छोडक़र वह पुलिस थाने में जा छुपा। हिन्दुस्तान में भी जगह-जगह ऐसे बाबाओं को घेरकर सवाल होने चाहिए, उनके अवैज्ञानिक और गैरकानूनी चमत्कारी दावों पर उनके खिलाफ रिपोर्ट होनी चाहिए, तब जाकर देश की जनता को अंधविश्वास के शिकंजे से निकाला जा सकेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
आरएसएस से जुड़ी एक संस्था ने गर्भ संस्कार नाम का एक कार्यक्रम शुरू किया है जिसके तहत महिला चिकित्सकों को यह ट्रेनिंग दी जा रही है कि वे किस तरह गर्भवती महिलाओं को भगवान राम, हनुमान, शिवाजी, और स्वतंत्रता सेनानियों के बारे में पढऩे को कहें ताकि बच्चे को गर्भ में ही संस्कार मिल सके। संवर्धिनी न्यास नाम की यह संस्था आरएसएस की महिला ईकाई राष्ट्र सेविका समिति से जुड़ी हुई है, और इसका कहना है कि होने वाले बच्चों में हिन्दू शासकों के गुण आ सकें, इसलिए यह कार्यक्रम चलाया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि इसमें दिल्ली के एम्स की एक डॉक्टर भी शामिल थी जिसका कहना है कि जैसे ही कोई जोड़ा बच्चे के बारे में सोचे, वैसे ही गर्भ संस्कार शुरू कर देना चाहिए। इस कार्यक्रम में शामिल लोगों का दावा है कि गर्भ संस्कार ठीक से किया जाए तो होने वाले बच्चे का डीएनए भी बदला जा सकता है। कार्यक्रम में शामिल डॉक्टरों ने एक से बढक़र एक अवैज्ञानिक बातें कहीं, जो कि जाहिर है उनके डॉक्टर होने से बहुत से लोगों के बीच विश्वसनीय मान ली जाएगी। दिलचस्प बात यह भी है कि अभी दो दिन पहले यह कार्यक्रम जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में किया गया, जहां जेएनयू की विसी शांतिश्री धुलीपुड़ी पंडित इसकी अतिथि बनाई गई थीं, जो कि कार्यक्रम में नहीं पहुंचीं। यह संस्था हर बरस ऐसे एक हजार गर्भ संस्कारी बच्चों का लक्ष्य लेकर चल रही है, और इसका मानना है कि इससे हिन्दुस्तान की पुरानी शान फिर से कायम हो सकेगी।
किसी नस्ल को दूसरी नस्लों से बेहतर बताने का एक सिलसिला हिटलर के समय से दुनिया का इतिहास गढ़ चुका है। अब हिन्दुस्तान के हिन्दुत्व जैसे तबके में जातियों के आधार पर शुद्धता, और श्रेष्ठता की जिद भी आक्रामक होते चल रही है, जो कि नई नहीं है, और मनुवादी जाति व्यवस्था के समय से यह रक्तशुद्धता का काम करती आ रही है। अब इसमें छोटी सी दिक्कत यह है कि अपनी कट्टर धार्मिक सोच, जातिवाद, राष्ट्रवाद, और साम्प्रदायिक नफरत के चलते विज्ञान से जुड़े हुए डॉक्टर भी ऐसी मुहिम में शामिल हो रहे हैं जो कि नफरत को एक अलग विश्वसनीयता देती है। इन संगठनों की सोच को देखें, इनके पूजनीय चरित्रों को देखें, तो यह साफ हो जाता है कि यह किस तरह एक धर्म की श्रेष्ठता, और उस धर्म के भीतर भी सत्ता की ताकत रखने वाली कुछ जातियों की श्रेष्ठता का अभियान है। आज देश में वैज्ञानिक सोच को मार-मारकर खत्म करने का जो सिलसिला पिछले कुछ बरसों से चल रहा है, और सत्ता की राजनीति की मेहरबानी से बहुत हद तक कामयाब भी हो चुका है, उसकी वजह से अब लोग धर्म, पुराण, आध्यात्म, और पुरानी भारतीय तथाकथित संस्कृति के नाम पर किसी भी अवैज्ञानिक बात पर भरोसा करने के लिए एक पैर पर खड़े हैं। यह नौबत एक झूठे आत्मगौरव से संतुष्ट समाज की रचना भी कर रही है, और ऐसी संतुष्टि की वजह से लोगों के लिए अब कोई असल कामयाबी हासिल करना जरूरी भी नहीं रह गया है।
अभी कुछ ही दिन पहले भारतीय मूल के नोबल विजेता वेंकटरमन रामाकृष्णन ने सलाह दी थी कि भारत को मांस पर बहस छोडक़र शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने कहा था कि कौन कैसा मांस खाते हैं इस पर साम्प्रदायिक दुश्मनी पालने के बजाय विज्ञान और तकनीक की शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। उनकी सलाह थी कि अगर भारत इनोवेशन, विज्ञान, और तकनीक में निवेश नहीं करेगा तो वह दुनिया की दौड़ में चीन से पीछे छूट जाएगा। विदेश में बसे हुए रामाकृष्णन को 2009 में नोबल पुरस्कार मिला था। उन्होंने अभी कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में कहा था कि भारत चीन से पहले ही काफी पिछड़ गया है, 50 साल पहले इन दोनों देशों को देखें तो दोनों की तुलना हो सकती थी, तब भारत चीन से थोड़ा बेहतर ही कहा जा सकता था, लेकिन अब नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि आजादी के पहले हिन्दुस्तान में विश्वस्तरीय वैज्ञानिक हुए, और यह सिलसिला आजादी के बाद भी कुछ समय तक नेहरू की वजह से चला जो कि विज्ञान में दिलचस्पी रखते थे, और जिन्होंने उत्कृष्ट संस्थान खड़े किए। अब आज के वैज्ञानिकों की सोच से परे अगर भारत के इतिहास के, और हिन्दुत्ववादियों के सबसे पसंदीदा राष्ट्रवादी विनायक दामोदर सावरकर को देखें, तो उन्होंने खुलकर लिखा था कि गाय पूजनीय नहीं है, गाय सिर्फ एक उपयोगी जानवर है। उन्होंने लिखा था गाय एक ऐसा पशु है जिसके पास मूर्ख से मूर्ख मनुष्य के बराबर भी बुद्धि नहीं होती, गाय को दैवीय कहते हुए मनुष्य से इसे ऊपर मानना मनुष्य का अपमान है। उनका कहना था कि मनुष्य के लिए गाय जब तक उपयोगी है उसकी हत्या नहीं होनी चाहिए, लेकिन जब वह उपयुक्त न रह जाए तब वह हानिकारक हो जाएगी, और उस स्थिति में गोहत्या भी आवश्यक है। आज के भाजपा और संघ परिवार के एक सबसे बड़े राष्ट्रवादी प्रतीक सावरकर का कहना था कि गाय के गले में घंटी बांधना है तो उसी भावना से बांधनी चाहिए जैसे कि कुत्ते के गले में पट्टा बांधा जाता है, भगवान के गले में हार डालने की भावना से यह घंटी नहीं बांधनी चाहिए। उन्होंने कुत्ते के अलावा गधे से भी गाय की तुलना की थी।
अब सवाल यह उठता है कि हिन्दुत्ववादियों में भी एक वैज्ञानिक सोच रखने वाले सावरकर की अच्छी तरह दर्ज लिखी हुई इन बातों की चर्चा पर भी उनके आज के प्रशंसक भडक़ने लगते हैं। और विज्ञान के बैनरतले वे एक ऐसा अंधविश्वास फैला रहे हैं, जिसके बारे में उनका कहना है कि उससे डीएनए भी बदल सकता है। आज जो लोग धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिक नफरत के आधार पर भारत के एक नामौजूद इतिहास पर गर्व करते हुए इस तरह के अभियान को अपनी डॉक्टरी की विश्वसनीयता भी दे रहे हैं, उन्हें कम से कम उस विज्ञान के बारे में भी सोचना चाहिए जिससे वे रोजी-रोटी कमाते हैं, समाज में इज्जत पाते हैं। आज हिन्दुस्तान के लोगों के सामने असल जिंदगी की जो दिक्कतें हैं, उनकी तरफ से ध्यान हटाने के लिए रात-दिन कई तरह के शिगूफे खड़े किए जा रहे हैं। लेकिन दुनिया का इतिहास बताता है कि आज के मुकाबले की दुनिया में वही देश टिक पाएंगे जो कि एक वैज्ञानिक और उदारवादी सोच से आगे बढ़ेंगे। कट्टर और धर्मान्ध सोच लोगों को उनकी अपनी संभावनाओं से कोसों पीछे रखेगी।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बीबीसी की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि हिन्दुस्तानी शहरों में लड़कियों और महिलाओं का घर से निकलना लडक़ों और आदमियों के मुकाबले कितना कम होता है। इनमें अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग तबकों की लड़कियां और महिलाएं हैं, और उनमें से अधिकतर का यह मानना है कि वे सार्वजनिक जगहों पर सुरक्षित महसूस नहीं करतीं। कुछ तो हिन्दुस्तानी समाज में लडक़े और मर्द अपने गैरबराबरी के सामाजिक दर्जे की वजह से भी मनमाने बाहर रह सकते हैं, दूसरा यह कि सेक्स-अपराधों का खतरा भी उन पर नहीं के बराबर रहता है, इसलिए भी वे किसी भी इलाके में, किसी भी वक्त, अकेले भी आ-जा सकते हैं जो कि महिलाओं और लड़कियों के लिए मुमकिन नहीं है। बीबीसी ने यह रिपोर्ट सामाजिक अध्ययन करने वाले कुछ लोगों के निष्कर्षों पर बनाई है, और इसके मुताबिक गोवा ऐसा राज्य है जहां घर से बाहर निकलने वाले महिला और पुरूष बराबर हैं। तमिलनाडु की महिलाएं कारखानों में खूब काम करती हैं, और देश भर में फैक्ट्रियों में काम करने वाली 16 लाख महिलाओं में से तकरीबन आधी तमिलनाडु की हैं। रिपोर्ट यह भी बताती है कि कुछ राज्यों में सरकारी योजनाओं के तहत मुफ्त साइकिल मिलने से भी लड़कियों का घर से निकलना बढ़ा है। दुनिया के बाकी बहुत से देशों में कराए गए ऐसे सर्वे में हिन्दुस्तान ही सबसे पिछड़ा हुआ निकला है, और यहां पर घर से बाहर निकलने वाली महिलाओं का अनुपात सबसे ही कम है।
ऐसे सर्वे और इस रिपोर्ट से परे भी बहुत सी ऐसी बातें हम अपने आसपास देखते हैं जिसकी वजह से लड़कियां और महिलाएं सार्वजनिक जगहों पर अपने को दिक्कत या खतरे में पाती हैं। मर्द तो किसी भी दीवार के किनारे खड़े होकर हल्के हो लेते हैं, और अब तो अंतरराष्ट्रीय विमानों में भी वे साथ के दूसरे पैसेंजरों पर पेशाब करने लगे हैं, इसलिए उन्हें तो कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन हिन्दुस्तानी शहरों में आमतौर पर कई-कई किलोमीटर तक चले जाने पर भी महिलाओं के लिए कोई पखाने या पेशाबघर नहीं रहते, और रहते भी होंगे तो उनके साफ न रहने गारंटी की जा सकती है। यह हाल सार्वजनिक जगहों से परे स्कूल-कॉलेज और दफ्तर-दुकान का भी रहता है, जिनमें से किसी को महिला या लडक़ी के लायक नहीं बनाया जाता है। हिन्दुस्तानी आमतौर पर गंदे रहते हैं, किसी भी सार्वजनिक जगह को अधिक से अधिक बुरी तरह से गंदा करना वे अपना बुनियादी अधिकार समझते हैं, और यहीं से लड़कियों और महिलाओं के लिए दिक्कत शुरू हो जाती है।
दूसरा मामला गुंडे और मुजरिम किस्म के लडक़ों का रहता है जिनकी छेडख़ानी से बचने में लड़कियों को खुद ही जूझना पड़ता है क्योंकि न तो आम हिन्दुस्तानी मुसीबत में पड़ी लडक़ी की मदद में आगे आते, और न ही अधिकतर प्रदेशों में पुलिस ही सार्वजनिक जगहों पर मददगार रहती है। हाल के बरसों में ऐसा कोई दिन नहीं गया जब किसी न किसी शहर से यह खबर नहीं आई कि छेडख़ानी या बलात्कार की शिकायत करने वाली लडक़ी की पुलिस ने कोई मदद नहीं की, और वे ही मुजरिम दुबारा धमकाने पर उतारू हो गए, और बहुत सी लड़कियां और महिलाएं ऐसे में आत्महत्या करती हुई खबरों में आती हैं। डरे-सहमे परिवार मवालियों की राजनीतिक ताकत और उनके बाहुबल के मुकाबले घर पर रहना ठीक समझते हैं, और कम से कम लड़कियों और महिलाओं को तो बिना किसी जरूरी काम के बाहर न निकलने की सलाह देते हैं। योरप तो योरप, अफ्रीका तक के देश हिन्दुस्तान के मुकाबले कई गुना बेहतर हैं जहां महिलाएं पुरूषों की बराबरी से ही बाहर निकलती हैं।
यह भी समझने की जरूरत है कि किसी महिला के बाहर निकलने से उसकी पढ़ाई-लिखाई, ट्रेनिंग, काम करने के दूसरे मौके, आर्थिक आत्मनिर्भरता, और जिंदगी में कामयाबी, ये सब जुड़े रहते हैं। जब किसी के घर की दीवारें ही उसके लिए पूरा आसमान बता दिया जाए, तो उसकी उड़ान आखिर कितनी ऊंची और कितने दूर तक हो सकती है? कोई भी देश अपनी आधी आबादी की संभावनाओं का फायदा उठाए बिना आगे नहीं बढ़ सकता। भारत में महिलाओं को आमतौर पर घरेलू कामकाज में ही झोंक दिया जाता है, और उनकी क्षमताओं का उससे अधिक कोई इस्तेमाल नहीं होता। देश भर के कामगारों में महिलाओं का अनुपात बहुत ही कम है, और जहां पर महिलाएं बराबरी से मेहनत का काम करती हैं, वहां भी उन्हें मर्दों के मुकाबले कम मजदूरी मिलती है।
जो संगठित क्षेत्र के नियमित रोजगार की जगहें हैं, वहां भी महिलाओं को लेकर मैनेजमेंट के मन में हिचक बनी रहती है क्योंकि उन्हें कई महीने का प्रसूति-अवकाश देना पड़ता है, और अब माहवारी के दिनों में भी किसी तरह की रियायत की मांग उठ रही है। चूंकि घर से काम की जगह तक आना-जाना भी रात के वक्त सुरक्षित नहीं रहता, इसलिए महिलाओं से रात की शिफ्ट में काम नहीं लिया जा सकता, और यह भी एक वजह है कि लोग उन्हें काम पर रखना नहीं चाहते हैं। इसके अलावा उन पर पारिवारिक जिम्मेदारियां इतनी अधिक रहती हैं कि बाहर काम करने पर भी हर पारिवारिक दिक्कत का बोझ उन्हीं पर आता है, और मैनेजमेंट यह सोचता है कि महिला कर्मचारी को ऐसी तमाम नौबतों पर अधिक छुट्टी देनी पड़ेगी। इन सब बातों को लेकर लोग महिलाओं को काम पर तब तक नहीं रखते, जब तक कि उन कामों के लिए महिला ही सबसे माकूल न हो।
महिलाओं को आगे बढ़ाने में परिवार से लेकर समाज तक, गांव या शहर-कस्बे के माहौल तक, और हिफाजत की जिम्मेदारी वाली पुलिस तक सबको बहुत काम करना होगा, तब लड़कियां और महिलाएं आत्मविश्वास के साथ बाहर निकलकर अर्थव्यवस्था में बराबरी का योगदान कर पाएंगी। शहरों को अपने सार्वजनिक परिवहन से लेकर ट्रैफिक तक, और सडक़ों की गुंडागर्दी तक सबको देखना होगा, तभी परिवार हिम्मत के साथ अपनी लड़कियों और महिलाओं को बाहर जाने देंगे। पढ़ाई और खेलकूद के संस्थानों को भी यह देखना होगा कि लड़कियों के शोषण के मामले न हों, क्योंकि जुर्म किसी एक लडक़ी के साथ होता है, और उसकी खबरों से हजारों दूसरी लड़कियों का बाहर निकलकर पढऩा या काम करना थम जाता है। समाज के अलग-अलग मंचों पर इस मुद्दे पर बातचीत की जरूरत है ताकि हर इलाके में इससे जुड़ी हुई दिक्कतों और खतरों की शिनाख्त हो सके, उन्हें दूर करने के रास्ते निकाले जा सकें, और देश को लड़कियों के लिए एक अधिक सुरक्षित जगह बनाया जा सके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बाम्बे हाईकोर्ट के एक जज, गौतम पटेल ने अभी एक मामले की सुनवाई करते हुए सरकारी वकील से पूछा कि क्या मुम्बई शहर अपने गरीबों से छुटकारा पाना चाहता है? उन्होंने कहा कि बेघर होना एक वैश्विक समस्या है, ऐसे लोग कम किस्मत वाले हैं, लेकिन वे इंसान तो हैं। जस्टिस गौतम पटेल जस्टिस मीना गोखले के साथ हाईकोर्ट में एक मामले की सुनवाई कर रहे थे। यह मामला बाम्बे हाईकोर्ट के ठीक सामने शहर के एक विख्यात चौराहे फ्लोरा फाउंटेन के इर्द-गिर्द फुटपाथों पर बेघर लोगों के कब्जे को लेकर बाम्बे बार एसोसिएशन की एक याचिका का है जिसमें यह एसोसिएशन फुटपाथों से बेघर लोगों को हटाना चाह रहा है। इस मामले में जस्टिस पटेल ने तल्खी के साथ कहा कि क्या आप उन्हेें फुटपाथों से फेंक देना चाहते हैं? दोनों जजों ने पूछा कि क्या शहर को अपने गरीबों से छुटकारा पा लेना चाहिए? जजों ने कहा कि बेघर लोगों की समस्या चाहे बार एसोसिएशन की फिक्र न हो, यह कम से कम अदालत की फिक्र तो है ही। जजों ने वकीलों को याद दिलाया कि वे लोग भी इंसान हैं, और इस अदालत में उनकी उतनी ही जगह है जितनी कि बार एसोसिएशन की है। बाम्बे हाईकोर्ट में फुटपाथ और सडक़ किनारे कारोबार करने वाले छोटे फेरीवालों का मामला भी चल रहा है, और इन दोनों ही किस्म के तबकों से फुटपाथ पर चलने की जगह घिरती है। लेकिन अदालत ने इन दोनों किस्म के मामलों को जोडक़र सुनना सही नहीं समझा।
हिन्दुस्तान में जगह-जगह शहरी फुटपाथों पर काम करने वाले लोगों के खिलाफ माहौल बनते ही रहता है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में शहर के एकदम बीच के सबसे घने बाजारों में दुकानों के सामने, सडक़ों पर लोग कारोबार कर रहे हैं, वहां से किसी छोटी गाड़ी के निकलने की भी जगह नहीं रह गई है, लेकिन शहर को हांकने वाले नेताओं की मेहरबानी से यह सिलसिला जारी है, और बढ़ते ही चल रहा है। दूसरी तरफ शहर के एक खाली हिस्से में कॉलेजों के सामने खोमचे-ठेले लगाने वाले छोटे-छोटे मजदूर सरीखे कारोबारियों को इन्हीं नेताओं और उनकी म्युनिसिपल के अफसरों ने कई किलोमीटर तक हटाकर फेंक दिया क्योंकि उस इलाके में नेताओं और अफसरों ने मिलकर खानपान का एक नया महंगा बाजार बनाया है, और इस बाजार का कारोबार बढ़ाने के लिए सडक़ किनारे के गरीब ठेलेवालों को बेदखल करना जरूरी था। यह पूरा इलाका कॉलेज, यूनिवर्सिटी, और हॉस्टलों का है, यहां पर दसियों हजार बच्चे इन सैकड़ों ठेलों पर रोज खाते थे, और हजारों लोगों का घर भी उससे चलता था। अब गिने-चुने कुछ दर्जन बड़े कारोबारी वहां महंगी दुकानों को (शायद नाजायज तरीके से) पाएंगे, और महंगे कारोबार के एकाधिकार के लिए गरीबों को उठाकर फेंक दिया गया। यह इलाका स्थानीय विधायक के घर का इलाका है, लेकिन यहां ठेले लगाने वाले लोग शहर के अलग-अलग हिस्सों में रहते हैं, और जाहिर है कि वे इस इलाके के विधायक के वोटर नहीं हैं, इसलिए उनकी फिक्र भी नहीं है।
हमारा मानना है कि अगर छत्तीसगढ़ में कोई जनहित याचिका अदालत तक पहुंचे, और किसी जज को गरीबों के साथ किए गए इस जुल्म को समझाया जा सके, तो इन ठेलेवालों को उठाकर फेंकने वाले कटघरे में रहेंगे। लेकिन छत्तीसगढ़ जैसा राज्य सामाजिक चेतना के मामले में एक मुर्दा राज्य है। यहां के लोग अपने निजी स्वार्थ से परे बहुत कम कुछ करते दिखते हैं। और चुनाव लडक़र जीतने वाले नेताओं को शायद यह भरोसा हो गया है कि वे गरीबों के वोटों से नहीं जीतते, नोट देकर खरीदे गए वोटों से जीतते हैं, इसलिए इस तरह के जुल्म की साजिश पर भी किसी का मुंह नहीं खुलता। एक तरफ शहर में एक के बाद दूसरे खेल के मैदान को काटकर, बांटकर तरह-तरह के बाजार बनाए जा रहे हैं, आसपास की संपन्न बस्तियों के लिए पार्किंग बनाई जा रही है, हर बगीचे और तालाब को कारोबारी जगह बनाया जा रहा है, तालाबों को पाटा जा रहा है, मैदानों को काटा जा रहा है, और इनके खिलाफ अदालत तक जाने की फिक्र और फुर्सत किसी जनसंगठन को नहीं है, जनप्रतिनिधियों को तो है ही नहीं।
ऐसा मुर्दा समाज किसी भी शहर और प्रदेश की मौत का मूक गवाह रहता है। वह हर किस्म के जुल्म और जुर्म होते देखते रहता है, और जब तक उसके अपने मकान-दुकान टूटने की बारी नहीं आती, वह बेफिक्र रहता है। आज छत्तीसगढ़ में, या इस किस्म के दूसरे बहुत से गैरजिम्मेदार प्रदेशों में सरकार, और स्थानीय संस्थाओं की जनविरोधी योजनाओं का विरोध करने के लिए जागरूक नागरिकों के संगठनों की जरूरत है जो कि आने वाली पीढिय़ों के लिए शहर को बचाने के लिए फिक्रमंद हों। निर्वाचित स्थानीय नेता, और सरकार हांक रहे अफसर काली कमाई की योजनाएं बनाने में पूरी तरह भागीदार रहते हैं, और शहरों में बन रही हर योजना की प्राथमिकता यही रहती है कि किस तरह लूटा और खाया जा सकता है।
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के अधिकतर हिस्सों में सडक़ों पर बुरी तरह काबिज कारोबारियों को अनदेखा करके किसी एक खास हिस्से के फुटपाथी ठेलेवालों को जिस तरह फेंका गया है, उसके फैसलों की फाईलें लोगों को निकलवानी चाहिए, और इसके खिलाफ अदालत जाना चाहिए। प्रदेश के किसी एक शहर को लेकर भी अगर हाईकोर्ट का कोई अच्छा फैसला आता है, तो वह बाकी प्रदेश में भी समान स्थितियों पर लागू होगा। यह मौका न्यायपालिका के लिए भी अपनी सामाजिक चेतना के इस्तेमाल का रहेगा, वैसे तो अदालत को खुद होकर भी ऐसे मामले में खबरों के आधार पर जनहित याचिका शुरू कर देनी थी, और राजधानी के म्युनिसिपल के कमाऊ नेताओं और अफसरों से जवाब मांगने थे।
दुनिया में आज सबसे ताकतवर जो चीजें मानी जाती हैं उनमें किसी देश की सरकार रहती है, धर्म रहता है, ईश्वर की धारणा रहती है कि वह सर्वशक्तिमान है, सर्वत्र है, सर्वज्ञ है, और सबकी हिफाजत करता है। हर धर्म लोगों को भरोसा दिलाता है कि ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता, और उनकी जरूरत के वक्त ईश्वर उनके साथ खड़े रहेगा। लेकिन पाकिस्तान से शुरू होकर इटली के समंदर तक पहुंचने वाली एक युवती की कहानी बताती है कि एक मां इन सबसे अधिक ताकतवर रहती है, सरकार से भी, धर्म से भी, और ईश्वर से भी।
यह कहानी बड़ी तकलीफदेह है। पाकिस्तान में दो बहनें मशहूर खिलाड़ी थीं, और राष्ट्रीय टीम तक पहुंची हुई थीं। इनमें से एक शाहिदा रजा थीं जो कि फुटबॉल और हॉकी दोनों में देश और विदेश के कई मुकाबलों तक पहुंची हुई थीं, और इन खेलों में उन्होंने बड़ा नाम भी कमाया था। वे अपनी मेहनत से इन खेलों में आगे बढ़ी थीं, और कई देशों तक मैच खेलने गई हुई थीं। उनका तीन बरस का एक बेटा है जो कि पैदा होने के बाद जल्द ही एक विकलांगता का शिकार हो गया, और कमजोर दिमाग की वजह से उसका चलना-फिरना मुमकिन नहीं रह गया। डॉक्टरों ने कहा कि विदेशों में इसका इलाज मुमकिन है। इसी बात को लेकर शाहिदा योरप जाना चाह रही थी, और वहां जाकर काम करके इलाज के लिए अपने बेटे को बुलाने का सपना देख रही थीं। शाहिदा एक वीजा लेकर तुर्की तक गईं, और वहां से एक गैरकानूनी बोट पर सवार होकर सैकड़ों और लोगों के साथ वे इटली जा रही थीं, और करीब-करीब वहां पहुंच भी गई थीं। इटली के समंदर में नाव डूबने से दो सौ लोगों की मौत का अंदाज है जिसमें 40 पाकिस्तान से थे, और इन्हीं में 27 बरस की शाहिदा भी थीं जो कि देश की सबसे होनहार खिलाडिय़ों में से एक थीं।
एक देश के रूप में पाकिस्तान बड़ा नाकामयाब रहा है क्योंकि वह धर्म पर आधारित देश बना, उसके कानून अपनी ही आबादी के बीच भेदभाव करने वाले बने, और वहां धार्मिक कट्टरता पर बने हुए आतंकी संगठनों ने कानून के ऊपर अपना राज कायम कर लिया। नतीजा यह निकला कि 15 अगस्त 1947 के पहले भारत और पाकिस्तान एक ही जमीन का हिस्सा थे, और हिन्दुस्तान इस पौन सदी में लगातार आगे बढ़ा क्योंकि उसने अभी कुछ बरस पहले तक धार्मिक कट्टरता को बढ़ावा नहीं दिया, धार्मिक आतंकी संगठनों का राज कायम नहीं होने दिया। पाकिस्तान में सरकार इस मामले में नाकामयाब रही। और जहां तक धर्म का सवाल है, तो धर्म तो अपने अधिकतर लोगों को गरीब रखने में भरोसा रखता है क्योंकि उन लोगों को नर्क का डर और स्वर्ग के सपने दिखाकर उन्हें राजा और कारोबारी का गुलाम बनाकर रखा जा सकता है। पाकिस्तान में धर्म ने यह काम बखूबी किया, और अधिकतर आबादी गरीब रह गई, बहुत सी आबादी आधुनिक शिक्षा से दूर रह गई, विज्ञान और टेक्नालॉजी से उसे रूबरू नहीं होने दिया गया क्योंकि ये दोनों ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल उठाते हैं। नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान एक नाकामयाब अर्थव्यवस्था बनकर रह गया, और इसमें वहां धर्म के बोलबाले का बड़ा हाथ रहा। अब बात आती है ईश्वर की, तो ईश्वर की धारणा अपने आपमें अफीम के नशे की तरह रहती है, और इस मामले में भी ईश्वर बुरी तरह नाकामयाब रहा कि उसने अपने सबसे गरीब भक्तों की भी कोई मदद नहीं की, वहां के करोड़ों लोग बाढ़ के शिकार होकर भूखों मरने के करीब आ गए, दसियों लाख लोग बेघर हो गए, और ईश्वर ऊपर बैठा सब देखता रहा, और उसने सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वत्र, इनमें से किसी भी तमगे को नहीं छोड़ा। पाकिस्तान में इस नौजवान खिलाड़ी महिला की इटली के समंदर में इस तरह की मौत ईश्वर की नामौजूदगी, या नाकामयाबी का एक बड़ा सुबूत है।
लेकिन सरकार, धर्म, ईश्वर, इन सबकी असफलता के बीच एक मां कामयाब रही कि जो असंभव किस्म का काम था, वह उसी को पूरा करने के लिए निकल पड़ी थी, और किसी तरह योरप पहुंचकर, वहां कोई काम जुटाकर, इलाज के लिए अपने बच्चों को वहां बुलवाने और उसे पैरों पर खड़ा करने के लिए वह सिर पर कफन बांधकर निकल पड़ी थी। तीन साल के बेटे को पाकिस्तान में लाइलाज मानी गई एक बीमारी से उबारने के लिए उसने अपनी जान दांव पर लगा दी, और एक ओवरलोड बोट पर सवार होकर गैरकानूनी तरीके से वह योरप तक पहुंच ही गई थी कि उसी ऊपर वाले ईश्वर ने जमीन से जरा दूरी पर बोट को डुबा दिया। यह महिला अपनी इस जिंदगी में तो बेटे का इलाज नहीं करा पाई, लेकिन फिर भी वह सरकार, धर्म, और ईश्वर, इन तीनों से बेहतर साबित हुई कि उसने कोई कोशिश बाकी नहीं रख छोड़ी थी। वह अपनी जान भी खतरे में डालकर बेटे के इलाज के लिए एक परदेस पहुंचकर वह तमाम कोशिशें करने वाली थी जो कि उसके देश की सरकार ने नहीं की थी, धर्म ने नहीं की थी, और ईश्वर ने तो जाहिर है कि वह तकलीफ उसके बेटे को दी ही थी।
लोगों को इस एक मामले को देखकर यह अच्छी तरह समझना चाहिए कि किसी देश में किसी धर्म का राज कायम हो जाने पर उस देश के लोगों का, उस धर्म के लोगों का भला नहीं हो जाता। यह भी समझना चाहिए कि धर्म बड़ी-बड़ी बातें करता है, लेकिन अपने भीतर के सबसे दौलतमंद और ताकतवर लोगों को यह नहीं कहता कि वे उसी धर्म के दूसरे गरीब लोगों की मदद करें। और ईश्वर तो दुनिया में होने वाले हर बुरे को देखते हुए बैठे रहता है, और बिना कुछ किए हुए एक नाजायज वाहवाही पाते रहता है। लोगों को यह समझने की जरूरत है कि एक मां इन सबसे ऊपर होती है, वह अपनी जान देकर भी अपने बच्चों को बचाने की कोशिश करती है, और दुनिया की तमाम चीजों में मां से बड़ा सच और कुछ नहीं होता।
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सुप्रीम कोर्ट ने एक शानदार आदेश देकर चुनाव आयोग की नियुक्तियों का तरीका बदल दिया है। अब तक केन्द्र सरकार चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त अपनी मर्जी से नियुक्ति करते आई है, लेकिन अब ये नियुक्तियां प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता, और देश के मुख्य न्यायाधीश की एक कमेटी की सिफारिश से होंगी। पांच जजों की एक संविधानपीठ ने यह फैसला लिया है, और इसे संसद कोई कानून बनाकर ही पलट सकेगी। उल्लेखनीय है कि देश के पिछले एक चुनाव आयुक्त अरूण गोयल को केन्द्र सरकार ने भयानक हड़बड़ी में पिछले बरस उस वक्त नियुक्त किया था जब सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के तरीके बदलने पर सुनवाई चल ही रही थी। यह कुर्सी 5 मई 2022 से खाली थी, लेकिन इस सुनवाई की वजह से 18 नवंबर को केन्द्र सरकार ने अपनी पसंद के इस चुनाव आयुक्त को आनन-फानन नियुक्त कर दिया। अभी इस मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह हैरानी जाहिर की कि गोयल की नियुक्ति जिस बिजली की गति से एक दिन में पूरी की गई वह हक्का-बक्का करने वाली थी। अदालत ने इस फैसले में दर्ज किया कि 18 नवंबर को चुनाव आयुक्त की खाली कुर्सी भरने के लिए मंजूरी मांगी गई थी उसी दिन कार्यरत और रिटायर्ड आईएएस अफसरों का डेटाबेस बनाया गया, चार नामों पर विचार किया गया, दिसंबर में रिटायर होने जा रहे गोयल ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति मांगी, और फिर इसके लिए लगने वाले तीन महीनों के समय से छूट मांगी, प्रधानमंत्री ने छूट दी, और उसी दिन उन्हें चुनाव आयुक्त बना दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने हैरानी जाहिर की कि अगर इस अफसर को नियुक्ति के बारे में पता नहीं था, तो उसने 18 नवंबर को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवेदन कैसे किया था?
इन तमाम जानकारियों को लिखने का मकसद यह है कि आज सुप्रीम कोर्ट को देश के किन हालात को देखते हुए, केन्द्र सरकार के कौन से तौर-तरीकों को देखते हुए यह फैसला देना पड़ा, वह साफ हो सके। जिस वक्त सुप्रीम कोर्ट इस मामले में फैसला कर ही रहा था, उस वक्त जिस आनन-फानन तरीके से गोयल की नियुक्ति की गई उसने केन्द्र सरकार की ऐसी ताकत पर सवाल खड़े कर दिए थे कि सत्तारूढ़ पार्टी को अगले चुनाव में किसी तरह का फायदा देने की ताकत रखने वाले चुनाव आयोग में अगर नियुक्तियां सत्तारूढ़ पार्टी इसी तरह बिना किसी रोक-टोक कर सकेगी तो वह आने वाले चुनावों की निष्पक्षता खत्म करने की गारंटी होगी। हमारा ख्याल है कि सुप्रीम कोर्ट को इस पिछले चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर भी सवाल उठाने थे, और केन्द्र सरकार से अधिक कड़ाई से जवाब-तलब करना था। यह नौबत बदलने की बहुत जरूरत थी, और यह अच्छी बात है कि सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधानपीठ ने यह फैसला लिया है। आज हिन्दुस्तान में संवैधानिक संस्थाओं को केन्द्र सरकार के शिकंजे में लाने का जो निरंतर सिलसिला चल रहा है, वह देश से लोकतंत्र को खत्म करने का पूरा खतरा रखता है। दिलचस्प बात यह है कि अरूण गोयल नाम के जिस अफसर से इस्तीफा लेकर, उसे रातों-रात कुछ घंटों में ही चुनाव आयुक्त बना दिया गया, उसकी वरिष्ठता के 160 ऐसे अफसर थे जो कि उम्र में उनसे छोटे भी थे, और चुनाव आयोग में कार्यकाल पूरा कर सकते थे। ये तमाम बातें बताती हैं कि मोदी सरकार किस अंदाज में एक-एक संवैधानिक कुर्सी, एक-एक संवेदनशील ओहदे पर अपनी पसंद के लोगों को बिठाकर देश में अपनी पसंद का एक लोकतंत्र बना चुकी है। सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा फैसले की ही मिसाल देकर देश में ऐसी दूसरी नियुक्तियों के बारे में भी एक पिटीशन लगानी चाहिए जो कि सरकार से परे रहने वाली कुर्सियों की है, लेकिन जिन्हें सरकार ने अपनी पसंद से भरने का हक बना रखा है। बहुत सी जांच एजेंसियों, और दूसरे पदों पर लोगों को बिठाने, उन्हें हटाने, उनका कार्यकाल बढ़ाने का काम सरकार की मर्जी पर नहीं छोडऩा चाहिए, और जिस तरह सीबीआई के डायरेक्टर के लिए प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता, और देश के मुख्य न्यायाधीश की कमेटी काम करती है, उसी तरह बाकी एजेंसियों की नियुक्तियां भी होनी चाहिए, और देश में इन तमाम जांच एजेंसियों को एक अलग संवैधानिक संस्था के मातहत करना चाहिए, और सरकार से इन्हें अलग करना चाहिए। जिस तरह आज न्यायपालिका या चुनाव आयोग अलग संवैधानिक संस्थाएं हैं, उसी तरह देश की प्रमुख जांच एजेंसियां भी सरकार के सीधे नियंत्रण से परे एक अलग संवैधानिक संस्था के नियंत्रण में होनी चाहिए, उसके प्रति जवाबदेह होने चाहिए। इस ताजा फैसले में संविधानपीठ ने एक बहुत सही बात कही है- एक कमजोर निर्वाचन आयोग घातक परिस्थिति पैदा कर देगा, लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है जब सभी भागीदार चुनाव प्रक्रिया की शुचिता को बनाए रखने के लिए मिलकर काम करें ताकि लोगों की इच्छा सामने आ सके। सरकार के अहसान से दबा व्यक्ति कभी भी खुदमुख्तार होकर काम नहीं कर सकता।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उम्मीद जगाने वाला भी है कि सरकार की मनमानी के खिलाफ अभी भी भारतीय लोकतंत्र में एक काबू की गुंजाइश है। देश की जनता और जनसंगठनों को, राजनीतिक दलों और मीडिया के अब तक बचे हिस्सों को लोकतांत्रिक संभावनाएं टटोलना बंद नहीं करना चाहिए। लोकतंत्र ऐसी स्थितियों के बीच ही एक बार फिर से खड़ा होने की संभावना रखता है, और सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले, और इस रूख से यह उम्मीद जागती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
बहुत पहले किसी नासमझ ने स्कूल का निबंध लिखते हुए एक लाईन गढ़ी थी कि भारत एक कृषिप्रधान देश है, और फिर मानो यह निबंध पढऩे वाले तमाम बच्चों ने बड़े होने तक इसी लाईन को दुहराया, और फिर यह राजनीति में भी काम आने लगी कि भारत एक कृषिप्रधान देश है। आज 21वीं सदी के दूसरे दशक में पहुंचने के बाद गलती समझ में आती है कि भारत कृषिप्रधान नहीं धर्मप्रधान देश है। धर्म से अगर समय बच जाए, तो यह देश कुछ और भी कर लेता है। लेकिन इस देश के धर्मों को एक साथ कोसने या उनकी एक साथ स्तुति करने के बजाय अगर उन्हें अलग-अलग करके देखें, तो बड़ी दिलचस्प तस्वीर सामने आती है। और आज की यह बातचीत इसी तस्वीर पर है जो कि लोग इस मुद्दे को पढऩे के बाद अपनी सहमति या असहमति के साथ अपने तजुर्बे और अपनी पसंद से निष्कर्षों की अपनी तस्वीर बना सकते हैं।
हिन्दुस्तान के अधिकतर हिस्सों में देखें तो धर्म से होने वाला प्रदूषण उस धर्म को मानने वाले लोगों की गिनती से नहीं जुड़ा रहता, वह उस धर्म के लोगों की संपन्नता से जुड़ा रहता है। जिस धर्म के लोग जितने अधिक संपन्न हैं, उनकी तीर्थयात्राएं उतनी लंबी, उतनी महंगी, उतने बार-बार होती हैं, जितना पैसा उनके पास होता है। ऐसे लोगों के धर्मस्थान बड़े-बड़े बनते हैं, बड़े खर्चीले बनते हैं, और धरती पर उनका कार्बन फुटप्रिंट उतना ही बड़ा रहता है, यानी उनसे पर्यावरण को नुकसान उतना ही अधिक होता है। ऐसे धर्म के धार्मिक आयोजन बड़े तामझाम वाले, साधन, सुविधाओं, और सामानों का उतना ही अधिक इस्तेमाल करने वाले होते हैं, और उनमें पहुंचने वाले तमाम लोग अपने साधनों का उतना ही अधिक निजी इस्तेमाल भी करते हैं। इस तरह ऐसे धर्मों का धरती पर, पर्यावरण पर, शहरी सुविधाओं पर, और सार्वजनिक जगहों पर दबाव सबसे अधिक पड़ता है। फिर यह भी है कि संपन्न तबकों के धर्म से जुड़े उत्सव संख्या में अधिक दिन चलते हैं, साल में अधिक बार होते हैं क्योंकि संपन्न लोग रोजी-रोटी कमाने की रोजाना की फिक्र से आजाद रहते हैं, उनके रहे बिना उनके कारोबार चलते रहते हैं, और उनकी टकसाल चलती रहती है। इसलिए ऐसे धर्मों के बड़े लंबे-लंबे प्रवचन होते हैं, कीर्तन होते हैं, कहीं-कहीं तो चार महीने तक धार्मिक आयोजन चलते हैं जो कि आमतौर पर भारत में परंपरागत रूप से बारिश का वक्त होता था क्योंकि इस दौरान लोग खेती में लगे रहते थे, कारोबार मंदा रहता था, और कारोबारी तबका धार्मिक आयोजनों में पूरा वक्त दे सकता था, इसलिए ऐसे ही महीनों में लंबे-लंबे चलने वाले आयोजन भी होते थे। लेकिन बाद के बरसों में जब कारखाने और कारोबार चलाने के लिए मैनेजर, मुनीम, और परिवार के जवान लोग बढऩे लगे, तो फिर लोग बुढ़ापे से पहले ही अधेड़ होने पर भी धार्मिक आयोजनों में वक्त गुजारने लगे। इनमें एक फायदा यह भी होता है कि संपन्न लोगों का जमावड़ा चाहे धर्म के लिए, धर्म के नाम पर हो, उनके बीच कारोबार की बात तो होती ही रहती है।
दूसरी तरफ अगर कोई धर्म गरीब लोगों का धर्म है तो उनके आयोजन गिनती में बहुत कम होते हैं, उनमें तामझाम बहुत कम होता है, उनके उपासना स्थल बहुत छोटे होते हैं, उनमें निर्माण बहुत कम होता है, उनमें तीर्थयात्रा न अधिक होती हैं, न लंबी होती हैं, और न महंगी होती हैं। इस तरह धरती पर पर्यावरण पर प्रति गरीब धर्मालु कार्बन फुटप्रिंट बड़ा छोटा बनता है। जितने गरीब लोग रहेंगे, वे साधन, सुविधाओं, सामानों, और सार्वजनिक जगहों का उतना ही कम इस्तेमाल करते हैं। छत्तीसगढ़ में सतनामी समाज साल में एक बार गुरूघासीदास जयंती मना लेता है, और वह मानो सालभर का पर्याप्त धार्मिक आयोजन रहता है। बौद्ध लोग साल में एक बुद्ध जयंती मना लेते हैं, और मानो वह उनका पर्याप्त धार्मिक आयोजन रहता है। दूसरी तरफ जैन, सिक्ख, हिन्दुओं के भीतर के संपन्न मारवाड़ी तबके अपनी संपन्नता के चलते बड़े-बड़े धार्मिक आयोजन करते हैं, जो कि कई दिन चलते हैं, इनमें भीड़ निजी गाडिय़ों से पहुंचती हैं, इनके लंबे जुलूस निकलते हैं, बड़े-बड़े मैदानों पर इनके कार्यक्रम होते हैं, लंबी तीर्थ होते हैं, और सार्वजनिक जगहों का, सडक़ों और मैदानों का ये संपन्न धर्म अधिक इस्तेमाल भी करते हैं। दूसरी तरफ भारत में सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर भारी उत्साह वाले कई ऐसे धार्मिक कार्यक्रम हैं जिनमें बहुत से धर्मों के लोग जुड़ जाते हैं, और जिनका चरित्र किसी एक धर्म के लोगों की संपन्नता से जुड़ा हुआ नहीं रहता। पूरे बंगाल में दुर्गा पूजा में मुस्लिम समाज बराबरी से शामिल होता है, देश भर में गणेशोत्सव में सभी धर्मों और जातियों के लोग शामिल होते हैं, और होली और दीवाली जैसे त्योहार तो सभी धर्मों के लोग मनाते हैं, लेकिन इनमें और बाकी धार्मिक आयोजनों में फर्क यही है कि इनका चरित्र सांस्कृतिक और सामाजिक अधिक है, और ये किसी धर्म के विशुद्ध धार्मिक कार्यक्रम नहीं हैं।
ये बातें किसी शोध का नतीजा नहीं है, सिर्फ साधारण समझबूझ से सोची गई बातें हैं, और लोग अपने-अपने हिसाब से इन तर्कों के ठीक खिलाफ जाकर भी विश्लेषण कर सकते हैं जिनमें यहां पर लिखे गए तमाम तर्क शायद गलत भी साबित किए जा सकें। लेकिन लोगों को यह सोचना चाहिए कि क्या गरीब का धर्म धरती और पर्यावरण पर उसी तरह कम बोझ डालता है जिस तरह गरीब की जिंदगी धरती का सीमित इस्तेमाल करती है? इसके साथ-साथ यह भी सोचना चाहिए कि तमाम धर्मों के लोग जब शांति और अहिंसा की बात करते हैं, तो उनके धार्मिक आयोजन क्या सचमुच बाकी लोगों के प्रति, सार्वजनिक जीवन के प्रति, शोरगुल और रौशनी की शिकायत न कर पाने वाले पशु-पक्षियों के प्रति अहिंसक हैं? सार्वजनिक सहूलियतों पर अंधाधुंध कब्जा किए बिना जो धार्मिक आयोजन किए न जा सकें, उन्हें यह भी सोचना चाहिए कि क्या इनमें किफायत बरतकर उन पैसों से, उतने वक्त से, उतनी मेहनत से कुछ ऐसा किया जा सकता है जिससे कि ईश्वर की बनाई हुई कही जाने वाली दुनिया को कुछ और बेहतर बनाया जा सके?
फिलहाल अधिक नसीहत देने के बजाय यह विश्लेषण करने की सलाह देना बेहतर है कि लोग अलग-अलग धर्मों के आयोजनों की अर्थव्यवस्था के बारे में सोचें, अपने-अपने धर्म के सार्वजनिक कब्जे के बारे में सोचें, देश-प्रदेश, और शहर के कानूनों को मानने और तोडऩे के बारे में सोचें। किसी समाजशास्त्री के लिए यह एक दिलचस्प अध्ययन का मुद्दा हो सकता है कि किसी धर्म के मानने वाले लोगों की संपन्नता दुनिया को किस तरह प्रभावित करती है। यह भी सोचने की जरूरत है कि किस धर्म के धार्मिक आयोजनों को मीडिया में कितनी जगह मिलती है, और यह जगह क्या उस धर्म के लोगों के विज्ञापनदाता होने से जुड़ी हुई है? क्या विज्ञापन देने वालों के धर्म को खबरों में मजदूरों के धर्म के मुकाबले अनुपातहीन अधिक कवरेज मिलता है? क्या खबरों में जगह किसी धर्म से जुड़े हुए लोगों की गिनती से जुड़ी हुई न होकर उस धर्म के लोगों की कारोबारी ताकत से जुड़़ी होती है? और आखिर में एक दिलचस्प बात और, नियम-कानून तोडऩे की धर्म की ताकत क्या उस धर्म से जुड़े हुए लोगों के वोटों की संख्या से बनती है, या उसके लोगों के नोटों की संख्या से?
अदालतों में चल रहे मुकदमों और उन पर आने वाले फैसलों की खबरों से देश के लोगों को कानून की एक बेहतर समझ बनाने में मदद मिलती है। कानून तो किताबों में लिखे हुए हैं, और कायदे से तो उनकी जरूरत पडऩे पर फीस देकर वकील से काम लिया जा सकता है, लेकिन ऐसी जरूरत पडऩे के पहले रोज की जिंदगी में बेहतर समझ के लिए अदालती खबरों को पढऩा फायदे का हो सकता है। हर बरस हिन्दुस्तान में हजारों ऐसी पुलिस रपट होती हैं जिनमें कोई लडक़ी या महिला किसी नौजवान या आदमी के खिलाफ रिपोर्ट लिखाती है कि उसने शादी का झांसा देकर उससे देहसंबंध बनाए, महीनों या बरसों तक देहसंबंध जारी रहे, और जब उसने किसी और लडक़ी से शादी कर ली, तो धोखा खाने वाली लडक़ी या महिला पुलिस में बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराने पहुंची। अभी छत्तीसगढ़ में एक मामला ऐसा भी आया है जिसमें इसी किस्म की रिपोर्ट एक महिला ने लिखाई, और अदालत में आरोपी के वकील ने यह खुलासा किया कि वह महिला तो पहले से शादीशुदा है, उससे किसी भी तरह के संबंध रखते हुए उसका मुवक्किल उससे शादी का वायदा कैसे कर सकता था। हम अपने महिला-अधिकार समर्थक बहुत से पाठकों की नाराजगी झेलते हुए भी हर बरस एक-दो बार इस मुद्दे पर लिखते हैं कि अगर एक बालिग लडक़ी या महिला किसी के साथ प्रेमसंबंध या देहसंबंध में पड़ती है, और यह रिश्ता शादी में तब्दील नहीं होता है, तो उसे बलात्कार कहना ठीक नहीं है। हर किस्म के संबंध में संबंधों के चलते हुए भी लोगों के विचार बदलते रहते हैं, सगाई के बाद शादी के पहले सगाई टूट जाती है, शादी होने के बाद तलाक हो जाते हैं, तो ऐसे में देहसंबंध के बाद शादी न हो पाने को सीधे-सीधे धोखा देकर बलात्कार करना कह देना सही नहीं होगा। और अगर कानून का ऐसा इस्तेमाल हो सकता है, तो फिर यह भी हो सकता है कि बदला लेने के लिए कई निराश लड़कियां और महिलाएं बिना धोखा खाए भी सिर्फ शादी न हो पाने की वजह से ऐसी रिपोर्ट लिखाने पर आमादा हो जाएं।
ऐसा एक मामला अभी कलकत्ता हाईकोर्ट में आया जिसमें अदालत ने निचली अदालत से बलात्कार की सजा पाए हुए व्यक्ति को इस आधार पर बरी किया कि रिपोर्ट लिखाने वाली महिला 26 बरस की थी, पूरी तरह से परिपक्व थी, और उसने अपनी मर्जी से देहसंबंध बनाए थे, इसलिए यह कहना गलत होगा कि उसने शादी के वायदे की वजह से आरोपी के साथ सेक्स किया था। इस मामले में ऐसे देहसंबंधों के चलते यह महिला गर्भवती हो गई थी, और उसने एक बच्ची को जन्म भी दिया था, लेकिन इसके बाद यह शादी नहीं हुई, और उसने बलात्कार की रिपोर्ट लिखाई थी। हाईकोर्ट ने यह कहा कि अगर देहसंबंध की तारीख पर लडक़ी 18 बरस की हो चुकी है, और यह सेक्स उसकी सहमति से हो रहा है, तो इसके लिए उसके साथी को बलात्कार का गुनहगार नहीं ठहराया जा सकता। अदालत ने माना कि इन दोनों के बीच इन दोनों के घरों में सेक्स होते रहा, जिससे यह साफ होता है कि यह बलात्कार नहीं था। कोर्ट का कहना था कि 26 बरस की महिला ऐसे संबंधों के खतरे समझती हैं, और उसकी सहमति एक सोची-समझी सहमति रहती है।
इसके पहले भी एक-एक करके देश के कई हाईकोर्ट से ऐसे फैसले आए हैं जिनमें जजों ने यह माना है कि प्रेमसंबंधों और देहसंबंधों के बाद शादी न हो पाना बलात्कार मान लेना ठीक नहीं है। हम लगातार इस बात की वकालत करते आ रहे हैं कि शादी के वायदे और शादी के बीच एक बहुत ही जायज वजह भी हो सकती है जिससे कि कोई शादी न करे। और प्रेम या देहसंबंधों में पडऩे वाली लड़कियों या महिलाओं को यह मानकर चलना चाहिए कि ऐसे हर संबंध शादी में तब्दील नहीं होते। एक बालिग की सहमति के साथ यह बात भी मानी जाती है कि वह सोची-विचारी सहमति है, और शादी का वायदा पूरा न होने पर ऐसी सहमति से मुकर जाना ठीक नहीं है। फिर अगर ऐसे देहसंबंध एक बार के हों, तो उन्हें बलात्कार भी कहा जा सकता है, लेकिन जब ऐसे संबंध महीनों और बरसों तक चलते हैं, दर्जनों बार होते हैं, तो उन्हें शादी के वायदे से जोडक़र देखना समाज में एक खतरनाक नौबत खड़ी करना होगा। कानून अगर ऐसी हिफाजत देने लगे तो उससे लड़कियों और महिलाओं में जिम्मेदारी की कमी आने लगेगी, और जो फैसले उन्हें देहसंबंध बनाने के पहले लेने चाहिए, वे अब अदालत जाने की शक्ल में लेने लगेंगीं। एक मोटा अंदाज लगाया जाए तो शायद दस-बीस प्रेमसंबंधों में दो-चार ही शादी में तब्दील होते होंगे, जबकि इससे कई गुना अधिक के बीच देहसंबंध होते होंगे। बालिग लोगों के बीच देहसंबंध इस जिम्मेदार रूख के साथ ही होने चाहिए कि इसके बाद शादी हो भी सकती है, और नहीं भी हो सकती है। कानून के बेजा इस्तेमाल से निचली अदालत में किसी को बलात्कार की सजा दिला भी दी जाए, तो उससे लड़कियों और महिलाओं का कोई भला नहीं होना है। ऐसी सजा की धमकी देकर अगर कोई शादी हो पाती है, तो वह शादी कोई अच्छी जिंदगी नहीं रहेगी। लोगों को जिम्मेदारियां तय करते हुए कानून की मदद से किसी लडक़े या आदमी पर अनुपातहीन जिम्मेदारी डाल देने से बचना चाहिए। ऐसा होने पर लड़कियों और महिलाओं में देहसंबंधों के बाद के खतरे का चौकन्नापन घटते चले जाएगा। ऐसा लगता है कि निचली अदालतों से ऐसे मामलों में सजा देना जिस तरह से चल रहा है, उस हिसाब से सुप्रीम कोर्ट का साफ-साफ ऐसा फैसला आना चाहिए जो पूरे देश पर लागू हो, और अपना वायदा पूरा न कर पाने वाले व्यक्ति को इस तरह सजा मिलना बंद हो सके। जिंदगी में किसी भी तरह के संबंध में वायदे हर बार पूरे नहीं होते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट में एक के बाद एक धार्मिक और साम्प्रदायिक मुद्दों को लेकर याचिका लगाने वाले वहां के एक वकील और भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय की एक ताजा याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया, और उन्हें बड़ा सा एक आईना दिखाया। अश्विनी उपाध्याय पहले भी इस किस्म की बहुत सी याचिकाएं लगा चुके हैं जिनसे देश का साम्प्रदायिक सद्भाव प्रभावित हो सकता है। लेकिन यह पहला मौका था जब दो जजों ने उन्हें सैद्धांतिक आधार पर जमकर फटकार लगाई। अश्विनी उपाध्याय ने अदालत में याचिका लगाई थी कि देश में मुस्लिम आक्रमणकारियों के नाम वाली जितनी जगहें हैं उनके नाम बदलने के लिए एक आयोग गठित किया जाए। उन्होंने राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डन का नाम बदलकर अमृत उद्यान करने की मिसाल दी, और कहा कि आक्रमणकारियों के नामों को बनाए रखना संविधान के तहत नागरिक अधिकारों के खिलाफ है।
यह याचिका खारिज करते हुए दो जज, जस्टिस के.एम. जोसेफ और जस्टिस बीवी नागरत्ना ने कहा-भारत धर्मनिरपेक्ष है, और संविधान की रक्षा करने वाला है, आप अतीत के बारे में चिंतित हैं, और वर्तमान पीढ़ी पर इसका बोझ डालने के लिए इसे खोदते हैं। आप अतीत को चुनिंदा रूप से देख रहे हैं, और आपकी उंगलियां एक विशेष समुदाय पर उठ रही हैं जिसे आप बर्बर कह रहे हैं, क्या आप देश को उबालते रखना चाहते हैं? आप इस याचिका से क्या हासिल करना चाहते हैं, क्या देश में और कोई मुद्दे नहीं हैं? जजों ने कहा- देश अतीत का कैदी नहीं रह सकता, देश को आगे बढऩा चाहिए, और यह अपरिहार्य है, अतीत की घटनाएं वर्तमान और भविष्य को परेशान नहीं कर सकतीं। जजों ने कहा- हिन्दुत्व एक जीवन पद्धति है जिसके कारण भारत ने सभी को आत्मसात कर लिया है, उसी के कारण हम साथ रह पाते हैं, अंग्रेजों की बांटो, और राज करो की नीति ने हमारे समाज में फूट डाल दी है।
इस याचिका में अश्विनी उपाध्याय ने दर्जनों शहरों के नाम, दर्जनों जगहों के नाम गिनाते हुए एक नामकरण आयोग बनाने की मांग की थी ताकि मुस्लिम आक्रमणकारियों से जुड़े नामों को हटाया जाए। इस पर जस्टिस के.एम.जोसेफ ने कहा कि हिन्दुत्व जीने की एक महान शैली है, इसके महत्व को मत घटाइये। उन्होंने कहा कि वे ईसाई हैं, लेकिन वे हिन्दुत्व के प्रशंसक हैं, और इसे पढऩे की कोशिश भी की है, इसकी महानता को समझने की कोशिश की है, इसे किसी और मकसद के लिए इस्तेमाल मत कीजिए। उन्होंने मिसाल दी कि वे जिस केरल से आए हैं वहां हिन्दुओं ने चर्च बनाने के लिए जमीनें दान दी हैं। दोनों जजों ने यह कहा कि हिन्दुस्तान को अतीत का कैदी बनाकर नहीं चला जा सकता। जजों के रूख को देखते हुए याचिकाकर्ता वकील अश्विनी उपाध्याय ने याचिका वापिस लेने की कोशिश की लेकिन जजों ने उसकी इजाजत नहीं दी और वे उसे खारिज करके ही माने। जजों ने कहा कि इस तरह की याचिकाओं से समाज को नहीं तोडऩा चाहिए, कृपया देश को ध्यान में रखें, किसी धर्म को नहीं।
कुछ ही ऐसे मौके रहते हैं जब संसद या बाहर दिए गए किसी भाषण या अदालत के किसी फैसले के शब्दों को ज्यों का त्यों लिख देने की इच्छा होती है कि इस अखबार की अपनी विचारधारा और सोच यही है। यह फैसला ऐसा ही एक फैसला है। अश्विनी उपाध्याय लगातार किसी न किसी मुद्दे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में लगे रहते हैं जिनसे कि धर्म, सम्प्रदाय, या साम्प्रदायिकता जुड़ी रहती है। हमारा ख्याल है कि उनकी इस याचिका में जिस तरह पूरे मुस्लिम समाज को बर्बर लिखा गया है, उससे भी जज विचलित हुए, और उपाध्याय की पुरानी साख भी जजों को याद रही होगी कि वे ऐसे ही मुद्दों को लेकर बार-बार अदालत पहुंचते रहते हैं। जजों का यह रूख तारीफ के काबिल है कि उन्होंने याचिका वापिस लेने की इजाजत नहीं दी, और उसे खारिज ही किया। जजों ने संविधान के बुनियादी मूल्यों को भी गिनाया कि किस तरह भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, और तमाम तबके यहां बराबरी से जीने का हक रखते हैं। ऐसा भी नहीं है कि संविधान के ये मूल तत्व सुप्रीम कोर्ट के इस चर्चित वकील को मालूम नहीं रहे होंगे, लेकिन मुस्लिमों का नामोनिशान मिटा देने की यह याचिका कुछ भारी पड़ी, और इस तरह के नामकरण का मामला अब जब तक किसी बड़ी बेंच के लिए मंजूर न हो, तब तक के लिए तो यह खारिज हो ही चुका है।
इन जजों ने न तो कोई नई बात कही है, और न ही कोई अनोखी बात। उन्होंने संविधान की बुनियादी बातें, और लोकतंत्र की बुनियादी समझ को ही गिनाया है। होना तो यह चाहिए था कि इस देश को हांकने वाले प्रधानमंत्री, और उनकी पसंद से बनाई गईं राष्ट्रपति को ही यह सोचना था कि राष्ट्रपति भवन की मुगल गार्डन का नाम बदलकर अमृत उद्यान रखने से यह खौलता हुआ लाल लावा दूर तक बहते जाएगा। यह मुगल गार्डन मुगलों का बनाया हुआ नहीं था, इसे अंग्रेजों ने बनाया था, लेकिन उद्यान की शैली मुगल उद्यान शैली रहने की वजह से उसका नाम मुगल गार्डन रखा गया था। उस नाम को बदलकर प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली सरकार, और उनकी मनोनीत राष्ट्रपति ने मानो कोई बड़ी कामयाबी हासिल कर ली थी। उसी से उत्साह और हौसला पाकर ऐसी पिटीशन लगी थी, और जजों की की हुई समझदारी की बातों पर सरकार और राष्ट्रपति को भी गौर करना चाहिए। भाजपा के राज वाले उत्तरप्रदेश में यह सिलसिला बेकाबू चल रहा है कि हर उस शहर का नाम बदल दिया जाए जिसमें कुछ भी मुस्लिम, कुछ भी ऊर्दू दिखाई देता है। यह सोच हिन्दुस्तान के भीतर मुस्लिम तबके में एक असुरक्षा पैदा कर रही है, और वे अपने आपको दूसरे दर्जे का नागरिक महसूस कर रहे हैं। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। जो लोग हिन्दुस्तान को एक हिन्दू राष्ट्र बनाने पर आमादा हैं, उन्हें धर्म के आधार पर चलने वाले अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल जैसे बहुत से देशों की हालत देखनी चाहिए। हिन्दुस्तान अगर पिछली पौन सदी में इतना आगे बढ़ पाया है, तो वह सभी समुदायों के योगदान से आगे बढ़ा है, सिर्फ किसी एक धर्म के लोगों के बढ़ाए नहीं बढ़ा है। अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट में ऐसी बदनीयत उजागर हुई, जजों ने भारतीय लोकतंत्र की बुनियादी मजबूती याद दिलाई, और लोगों को देश की संवैधानिक व्यवस्था एक बार फिर सुनाई पड़ी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
दुनिया में कितनी चीजें अटल हो सकती हैं? जितने तलाक हो रहे हैं उन्हें देखते हुए शादियां भी सात जन्म तो दूर, एक जन्म भी अटल रह जाए तो बहुत है, राजनीति में जो लोग हैं वे जिस रफ्तार से पार्टियां बदलते हैं, उनकी प्रतिबद्धता उतनी ही अटल है जितनी कि पारे की बूंद की स्थिरता रहती है। लोगों में ईमानदारी अगर कूट-कूटकर भरी है, तो भी कोई वक्त ऐसा आ सकता है जब उनकी जरूरत बहुत बड़ी हो, और दाम ईमानदारी के मुकाबले बहुत अधिक बड़ा हो, तो फिर वह ईमानदारी भी अटल नहीं रह जाती। प्रेमसंबंधों में कब देहसंबंध शुरू हो जाते हैं, और कब दोनों ही टूट जाते हैं, इसका भी कोई ठिकाना नहीं रहता, और बहुत से मामलों में इसके बाद महिला अदालत भी चली जाती है कि उसके साथ शादी का वायदा करके बलात्कार किया गया था, इसलिए प्रेम और देहसंबंध भी अटल नहीं हैं। लेकिन आज दुनिया में बहुत बड़ी फिक्र बने हुए कई किस्म के जहरीले पदार्थ जरूर अटल हैं जो कि कभी खत्म नहीं होने वाले हैं, जिन्हें फॉरएवर केमिकल्स कहा जाता है, यानी चिरकालिक रसायन। चिर काल का मतलब ही है हमेशा के लिए, और दुनिया में आज हजारों किस्म के ऐसे जहर हैं जो कि कुदरत से लेकर सार्वजनिक जगहों तक, और इंसानों के बदन में इक_ा हो गए हैं, और जो कभी कहीं नहीं जाने वाले हैं, और ये एक बड़ी फिक्र का सामान हैं।
फॉरएवर केमिकल्स यानी पीएफएएस अकेले योरप में ही 17 हजार से ज्यादा जगहों पर पाए गए हैं, और इनमें से दो हजार जगहों को तो हॉटस्पॉट कहा जाता है यानी वहां लोगों के ऐसे जहर को पाने का खतरा बहुत अधिक है। एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि इंसानों के बनाए हुए करीब 45 सौ ऐसे पदार्थ हैं जो फॉरएवर केमिकल्स के दायरे में आते हैं, और ये जानवरों, मछलियों, डेयरी के दूध से लेकर इंसान के बदन और मां के दूध तक फैले हुए हैं। योरप के अलावा अमरीका जैसे कड़े पैमानों वाले देश में 98 फीसदी आबादी के बदन में चिरकालिक रसायन मिले हैं। इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि भारत जैसे लापरवाह और भ्रष्ट देश में प्रदूषण के पैमानों पर कोई भी अमल न होने से यहां के उद्योग और कारोबार किस बड़े पैमाने पर ये रसायन फैला रहे होंगे। भारत जैसे देश में तो जानवरों से अधिक दूध पाने के लिए उन्हें तरह-तरह के इंजेक्शन लगाए जाते हैं, पोल्ट्री उद्योग जरूरत से अधिक एंटीबायोटिक का इस्तेमाल करता है, जानवर घूरों पर खाते हैं, और वहां से कई किस्म का जहर पाते हैं। हिन्दुस्तान जैसे देश में जहरीले सामानों की पैकिंग को नष्ट करने के कोई वैज्ञानिक तरीके नहीं हैं, खेतों में ऐसा अंधाधुंध कीटनाशक इस्तेमाल होता है कि पंजाब के कई इलाकों से कैंसर मरीजों की पूरी रेलगाडिय़ां ही राजस्थान के कैंसर अस्पताल जाती हैं। हिन्दुस्तान के खनिज इलाकों में तरह-तरह का प्रदूषण फैला हुआ है, और सारे खनिज इलाके तरह-तरह के खनिज-आधारित कारखाने भी चलाते हैं, और इन कारखानों में कई तरह के फॉरएवर केमिकल्स का इस्तेमाल होता है। दुनिया में कपड़ा उद्योग में धुलाई या चमड़े को पकाने जैसे काम में जिन रसायनों का इस्तेमाल होता है, उनसे निकले हुए फॉरएवर केमिकल्स नालों से होते हुए सीधे नदी पहुंच जाते हैं, और सरकार का, समाज का उस पर कोई बस नहीं रहता।
अब जो लोग अपने शरीर में पीएफएएस दर्जे के ऐसे जहर लेकर चल रहे हैं, उनमें से बहुत से हो सकता है कि आज खतरनाक स्तर के नीचे हों, लेकिन कब बदन में यह जहर बढक़र खतरनाक स्तर के ऊपर चले जाएगा, इसकी कोई जांच भी हिन्दुस्तान जैसे देश में सुनी भी नहीं जाती हैं। यह जरूर पता लगते रहता है कि खेतों में इस्तेमाल होने वाले कीटनाशक मां के दूध में भी पाए जाते हैं, और उससे होते हुए वे दुधमुंहे बच्चों में भी पहुंच जाते हैं। इसमें कई किस्म के फॉरएवर केमिकल्स भी हैं। लेकिन हम खास हिन्दुस्तान जैसे देश को लेकर जब सोचते हैं तो यह लगता है कि तकरीबन तमाम आबादी किसी भी किस्म के प्रदूषण को लेकर बेफिक्र है क्योंकि उसने दिल्ली जैसी जहरीली हवा में भी जीना सीख लिया है। नतीजा यह है कि बदन में धीरे-धीरे इकट्ठे होने वाले ऐसे खतरे की तरफ से हम सब बेफिक्र रहते हैं क्योंकि इससे लीवर और किडनी को नुकसान हो सकता है, लेकिन वह धीमी रफ्तार से होता है, इनसे कैंसर हो सकता है, लेकिन उसकी शिनाख्त देर से होती है, और यह भी पता नहीं लगता है कि कैंसर किस वजह से हुआ है, इनसे यौन शक्ति कम हो सकती है, लेकिन यौन शक्ति कम होने की और भी कई वजहें हो सकती हैं, और लोग ऐसे जहर से उसे जोडक़र देखना इसलिए नहीं सीख सकते क्योंकि ऐसे जहर की जानकारी भी बहुत कम है। दिक्कत यह है कि शरीर में एक बार पहुंचा हुआ ऐसा जहर शरीर से बहुत धीरे-धीरे बाहर निकलता है, और बहुत से लोगों में यह भी हो सकता है कि जिस रफ्तार से यह बाहर निकलता हो, उससे अधिक रफ्तार से यह भीतर पहुंचता हो, और भीतर इसका स्तर बढ़ते चलता हो। रोज खाने के सामानों, मछली, मांस, दूध, अंडे, और सब्जियों में ये जहर या इस दर्जे के रसायन खतरनाक स्तर पर हो सकते हैं, और हो सकता है कि इससे आने वाली तमाम पीढिय़ों तक पहुंचने वाले डीएनए भी प्रभावित होते हों।
आज दुनिया भर में कारोबारियों के आपराधिक स्तर के गैरजिम्मेदार होने के सुबूत आते ही रहते हैं। बहुत से बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय ब्रांड जहरीले सामान बनाकर उन्हें ग्राहकों के बीच खपाते रहते हैं, और बच्चों पर इस्तेमाल होने वाले पाउडर जैसे आम इस्तेमाल के सामान बनाने वाली एक सबसे बड़ी कंपनी जॉन्सन एंड जॉन्सन अंतरराष्ट्रीय मुकदमे झेल रही है क्योंकि उसके इस सामान से बच्चों को कैंसर होने का खतरा पाया गया है। आज जब योरप और अमरीका जैसे कड़े सुरक्षा पैमानों वाले देश भी हजारों किस्म के चिरकालिक जहर झेल रहे हैं, तो हिन्दुस्तान में तो यह खतरा दर्जनों या सैकड़ों गुना अधिक होगा। आज विज्ञान की समझ रखने वाले लोगों को इसकी और जानकारी तलाश कर उसे हिन्दुस्तानी संदर्भ में सरल भाषा में तैयार करके लोगों के बीच बांटना चाहिए ताकि ऐसे फॉरएवर केमिकल्स को बढ़ाना रोका जा सके। जो लोग विज्ञान पढ़े हुए हैं, उनकी पढ़ाई से समाज को कोई फायदा तब तक नहीं है जब तक वे खतरे के ऐसे संकेतों को आम लोगों की भाषा में लिखकर, कहकर उसे अधिक से अधिक लोगों तक न पहुंचाएं। जो लोग इंटरनेट का मामूली इस्तेमाल भी करना जानते हैं वे फॉरएवर केमिकल्स पर और जानकारी निकाल सकते हैं, और अपनी समझ बढ़ा सकते हैं, आसपास के और लोगों को भी चौकन्ना कर सकते हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
कांग्रेस का रायपुर का यह महाधिवेशन कई मायनों में ऐतिहासिक है। यह गांधी परिवार की सोनिया गांधी का लीडरशिप से संन्यास का मौका भी है, और यह मोटेतौर पर राजनीति से उनकी बाहर रवानगी की शुरुआत भी है। फिर यह इसी परिवार के राहुल गांधी के एक नए व्यक्तित्व के उभरने का मौका भी है। उन्होंने राजनीति में पिछले करीब दो दशक में जो कुछ हासिल किया था, उससे कहीं अधिक उन्होंने डेढ़ सौ दिनों की एक पदयात्रा में हासिल कर लिया है, और अब उन्हें लेकर वंशवाद या नासमझी की कोई बातें प्रासंगिक नहीं रह गई हैं। एक पदयात्रा किस तरह किसी को परिवार के वंशज से उठाकर एक बड़ा नेता, और एक शानदार इंसान बना सकती है, इसकी मिसाल भारत जोड़ो यात्रा से सामने आई है। इसलिए कांग्रेस का यह महाधिवेशन राहुल गांधी के इस नए अवतार के साथ भी हो रहा है। फिर यह इस रौशनी में भी हो रहा है कि एक खुले चुनाव से कांग्रेस अध्यक्ष बनकर आए मल्लिकार्जुन खडग़े आज एक अभूतपूर्व स्वायत्तता से पार्टी चलाते दिख रहे हैं, और पार्टी की सबसे बड़ी कमेटी के चुनाव से गांधी परिवार ने अपने को अलग रखा है। सोनिया गांधी की रवानगी, एक नए अवतार में राहुल गांधी का आगमन, और परिवार के बाहर के एक अध्यक्ष के बीच कांग्रेस पार्टी तीन दिनों तक अपने वर्तमान और भविष्य पर चर्चा कर रही है। तीन राज्यों में ही सत्ता में सिमट गई कांग्रेस के लिए आज का यह इतना बड़ा आयोजन छोटा नहीं है, लेकिन इसमें जिन मुद्दों पर चर्चा हो रही है, क्या सचमुच वही कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती रहेगी?
एक वक्त था जब दस बरस से अधिक वक्त था सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए यूपीए की मुखिया भी थीं, और यूपीए की तमाम पार्टियां उनके साथ आराम से चलती थीं। लेकिन पिछले आठ बरस के मोदी राज ने यूपीए को खत्म कर दिया है, और अब 2024 के लोकसभा चुनाव तक कौन सा गठबंधन मोदी का मुकाबला करने के लिए खड़ा किया जा सकता है, यह सवाल देश के तमाम गैर-एनडीए दलों के सामने खड़ा हुआ है, और खासकर कांग्रेस के सामने, जिसका यह मानना है कि उसके बिना देश में कोई कामयाब विकल्प नहीं बन सकता, और ऐसे विकल्प का मुखिया कांग्रेस से परे किसी और पार्टी का नहीं हो सकता। आज कांग्रेस के सामने अपना घर सम्हालने की चुनौती बहुत बड़ी नहीं है, क्योंकि पार्टी छोडक़र कौन लोग भाजपा में जाएंगे, इसे कांग्रेस तय नहीं कर रही, भाजपा तय कर रही है। लेकिन एक बात जो कांग्रेस के तय करने की है, वह बाकी पार्टियों के साथ तालमेल करने, और अगले प्रधानमंत्री के लिए चेहरा तय करने की है। यह एक ऐसा जटिल मुद्दा है जिस पर आज कांग्रेस पर देश की ऐतिहासिक जिम्मेदारी एक अलग मांग करती है, और कांग्रेस का अपना स्वार्थ, या उसका अपना भविष्य एक अलग रास्ता सुझाता है।
सोनिया गांधी और राहुल गांधी में यह एक बड़ा फर्क है कि सोनिया के मातहत चले यूपीए में तमाम गठबंधन और समर्थक दलों को सहूलियत लगती थी, लेकिन आज राहुल गांधी के साथ कई वजहों से वैसी बात नहीं दिखती है। यह कल्पना करें कि भारत जोड़ो यात्रा अगर सोनिया गांधी ने की होती, तो क्या उन्हें राहुल की भारत जोड़ो यात्रा से बाकी पार्टियों का बहुत अधिक समर्थन नहीं मिला होता? गैरभाजपाई पार्टियों के बीच एक अधिक मान्यता पाना आज कांग्रेस और राहुल गांधी, दोनों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। आज सैद्धांतिक रूप से मोदी सरकार से लडऩे की बात कांग्रेस सरीखी किसी भी पार्टी का एक बड़ा मुद्दा होना स्वाभाविक है, लेकिन इस लड़ाई के लिए एक गठबंधन तैयार करना, कांग्रेस के लिए आज आसान नहीं दिख रहा है। इस एक मुद्दे पर हो सकता है कि कांग्रेस अधिवेशन जैसे मंच से कुछ अधिक तय न कर पाए, लेकिन आज इस अधिवेशन के मौके पर कांग्रेस के बारे में लिखते हुए हमें यही बात सबसे अधिक प्रासंगिक और महत्वपूर्ण लग रही है कि बाकी पार्टियों के साथ कांग्रेस का एक चुनावी तालमेल, गठबंधन, सहमति किस तरह हासिल किए जा सकते हैं। यह चुनौती बड़ी इसलिए भी है कि केन्द्र और राज्यों में, संसद और विधानसभाओं में कांग्रेस की ताकत के मुकाबले क्षेत्रीय पार्टियां इस तरह जगह बना चुकी हैं, कि उनकी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को नाजायज कहना ठीक नहीं है। आज केन्द्र पर सत्तारूढ़ एनडीए के घटक दलों को छोड़ दें, तो बाकी पार्टियों में एनडीए का मुकाबला करने के लिए लीडरशिप का मुद्दा सबसे बड़ा दिख रहा है, राहुल गांधी, नीतीश कुमार, केसीआर, इनमें से कौन ऐसे गठबंधन के मुखिया हो सकते हैं, इस पर तमाम विपक्षी एकता टिकी रहेगी। आज देश में मोदी का मुकाबला करने के लिए महज अपनी पार्टी के लोगों को एक रखना जरूरी नहीं है, बल्कि मोदीविरोधी तमाम पार्टियों के लोगों को एक रखना जरूरी है, और रखने के पहले भी उन्हें एक करना जरूरी है। अब यही देखना होगा कि बाकी पार्टियों में राहुल के प्रति सहमति की जो कमी है, उसे दूर कैसे किया जा सकता है? क्या इसमें कांग्रेसाध्यक्ष खड़ग़े, और सोनिया गांधी भी सहयोग कर सकते हैं? क्या राहुल गांधी बहुत से मुद्दों पर एक कड़ा रूख लेने के बजाय विपक्ष के अधिक मान्यता प्राप्त नेता की तरह एक न्यूनतम आम सहमति वाला रूख भी रख सकते हैं, ऐसे बहुत से सवाल आज देश की राजनीति में खड़े हुए हैं। कांग्रेस अपना यह अधिवेशन को कई तरह की सैद्धांतिक बातों पर, और संगठन के कुछ मुद्दों पर निपटा ही लेगी, लेकिन इसके बाद एक असली संघर्ष सामने खड़े रहेगा कि 2024 के लिए बाकी पार्टियों के साथ एक बेहतर सहमति कैसे तैयार की जाए? और इस बात की कामयाबी से कांग्रेस और राहुल दोनों का भविष्य तय होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
पिछले विधानसभा चुनाव के पहले पंजाब में यह मुद्दा उठा था कि क्या आम आदमी पार्टी खालिस्तान समर्थकों के समर्थन से चुनाव जीतने की कोशिश कर रही है? और वहां आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद से लगातार न सिर्फ पंजाब में, बल्कि हिन्दुस्तान के बाहर भी ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में वहां बसे हुए सिखों के बीच के कुछ तबके खालिस्तान को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। अभी पंजाब के एक पुलिस थाने में ऐसे ही खालिस्तान समर्थकों के हुए एक हथियारबंद आक्रामक हमले, और उसके साथ में पुलिस के आत्मसमर्पण से एक बार फिर पंजाब में खालिस्तान समर्थक हिंसा पनपने का खतरा दिख रहा है। इस ताजा घटना में पुलिस ने खालिस्तान का मुद्दा उठाने वाले अमृतपाल सिंह नाम के एक चर्चित व्यक्ति के करीबी समर्थक को अपहरण और हिंसा के आरोप में गिरफ्तार किया था। और अपने समर्थक को छुड़वाने के लिए ‘वारिस पंजाब दे’ (पंजाब के वारिस) नाम के संगठन के मुखिया अमृतपाल सिंह ने सैकड़ों हथियारबंद समर्थकों के साथ थाने पर हमला किया, और इसके सामने बेबस पुलिस ने यह वायदा किया कि अगले अदालती कामकाज के दिन इस समर्थक को अदालत से छुड़वा दिया जाएगा, तब यह हिंसक भीड़ वहां से टली। और पुलिस ने अपने ही गिरफ्तार किए इस आदमी को अदालत से छुड़वा भी दिया। खबरों में यह भी है कि अमृतपाल सिंह नाम के इस आदमी ने हाल ही में केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह को धमकी दी थी कि उनका हाल पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जैसा होगा। पंजाब के सभी राजनीतिक दलों ने पुलिस थाने पर हुए इस हमले पर फिक्र जाहिर की है, और इसे एक खतरनाक नौबत करार दिया है। आम आदमी पार्टी की राज्य सरकार अभी भीड़ की ताकत के सामने दंडवत बिछी दिख रही है, और आने वाला वक्त पंजाब को राजनीतिक और अलगाववादी हिंसा के दौर में एक बार फिर धकेल सकता है।
पंजाब की मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी के साथ एक दिक्कत यह भी है कि इसके पहले सिर्फ दिल्ली में उसकी सरकार थी, और दिल्ली की सरकार पर पुलिस और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी नहीं रहती है। इसलिए इस पार्टी को अब तक किन्हीं राजनीतिक मुद्दों से नहीं जूझना पड़ा था, और यह मोटेतौर पर म्युनिसिपल जैसा काम करने के तजुर्बे वाली पार्टी थी। पंजाब में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी, और उसके पहले लंबे समय तक सत्ता में रहे अकाली-भाजपा गठबंधन की बुरी सरकारों के जवाब की शक्ल में आम आदमी पार्टी वोटरों द्वारा चुनी गई थी। लेकिन इस पार्टी और इसके नेताओं को पंजाब के पिछले अलगाववादी और आतंकी इतिहास का कोई तजुर्बा नहीं है। नतीजा यह है कि एक नई क्षेत्रीय पार्टी की तरह वह राज्य को सिर्फ प्रशासन चलाने जैसा मानकर चल रही है, और इससे प्रदेश में अलगाववाद का खतरा बढ़ते चल रहा है। आज ऐसा लग रहा है कि दुनिया के कुछ दूसरे देशों में बसे हुए सिखों में से भी कुछ लोग इस खुशफहमी में हैं कि भारत के एक हिस्से को काटकर खालिस्तान बनाया जा सकता है, और वह सिखों का एक धर्मराज्य होगा। इनकी कल्पना में भारत के नक्शे का जो हिस्सा खालिस्तान दिखता है, वह भारत और पाकिस्तान के बीच की जगह है। हिन्दुस्तान एक तो बहुत बड़ा और बहुत ताकतवर देश है, और इससे यह उम्मीद करना एक नासमझी है कि वह किसी दबाव के तहत अपने देश को काटकर एक नया देश बनाने के लिए झुक जाएगा। लेकिन जिन लोगों का अस्तित्व खालिस्तान के मुद्दे को जिंदा रखकर ही चलता है, वे लोग तो कमसमझ लोगों को ऐसे काल्पनिक धर्मराज का सपना दिखाते हुए उन्हें डॉलर और पौंड में दुहते ही रहेंगे। फिर लोगों को यह भी याद रखना चाहिए कि पिछली बार जब खालिस्तान बनाने की खुशफहमी के साथ पंजाब में आतंक फैला था, तो उसके पीछे सरहद पार पाकिस्तान की तरफ से आने वाला बहुत बड़ा समर्थन भी था। आज पाकिस्तान खुद ही दाने-दाने को मोहताज है, हिन्दुस्तानी सरहदें उस दौर के मुकाबले आज अधिक मजबूत हैं, और ऐसे में खालिस्तान का सपना कुछ अलगाववादियों की हसरतों से अधिक कुछ नहीं है। लेकिन पंजाब के घरेलू हालात हिंसक होने में कभी भी देर नहीं लगती है। देश का यह प्रदेश धर्म के नाम पर सबसे पहले उबलने वाला प्रदेश है, और धर्म के अपमान होने की भावना यहां तेजी से फैलाई जा सकती है, तेजी से फैल जाती है। इसलिए पकिस्तान की सरहद से लगा हुआ यह प्रदेश एक लापरवाह सरकार का खतरा नहीं उठा सकता जो कि थाने पर पहुंची भीड़ के सामने अभी बिछ गई थीं। आज पंजाब से परे अगर दिल्ली में भी यह जनभावना और जनधारणा फैली कि आम आदमी पार्टी की सरकार खालिस्तान समर्थकों के सामने समर्पण कर चुकी है, तो शायद दिल्ली में भी केजरीवाल अगला चुनाव नहीं जीत पाएंगे। आज सारे देश में अपनी मौजूदगी बढ़ाने का सपना लिए चलने वाले केजरीवाल और दूसरे आप नेताओं को यह समझना चाहिए कि उनकी असली परख दिल्ली में नहीं हुई थी, वह परख अभी पंजाब में होने जा रही है।
पंजाब में एक तरफ तो खालिस्तान समर्थकों को खुलकर सामने आते हुए देखा जा सकता है, दूसरी तरफ इसी पंजाब में बड़े-बड़े संगठित जुर्म जेलों में बैठे हुए माफिया-सरगना करवा रहे हैं। ऐसे संगठित अपराधों के तमाम सुबूत सामने आ चुके हैं, और पंजाब सरकार इस पर भी काबू नहीं पा सक रही है। यह मौका इस राज्य में अलग-अलग चुनावी हसरत और निशाना रखने वाली पार्टियों की राजनीति का भी है। यह मौका केन्द्र सरकार और पंजाब की राज्य सरकार के बीच तनातनी के खतरे का भी है। ऐसे में पंजाब को धर्मराज बनने से बचाना, उसे अलगाववादियों के शिकंजे से दूर रखना, और सरहद पार से होने वाली तस्करी से आए नशे में डूबी पूरी नौजवान पीढ़ी को बचाने का भी है। इनमें से हर चीज बड़ी चुनौती है, और देखना होगा कि टीवी के इश्तहारों से परे पंजाब की आप सरकार कैसे कामयाब होती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
छत्तीसगढ़ में बीती आधी रात एक सडक़ हादसे में एक परिवार के 11 लोगों की मौत हो गई, और 10 लोग खासे जख्मी होकर अस्पताल में हैं। ये तमाम लोग एक मालवाहक गाड़ी में एक पारिवारिक कार्यक्रम में गए थे, और वापिसी में एक ट्रक ने इन्हें जोरों से टक्कर मारीं, और मौके पर ही 11 लोग मारे गए। सडक़ हादसों में कुछ गिनी-चुनी वजहों से रोजाना अलग-अलग जगहों पर बहुत सी मौतें होती हैं, लेकिन उन पर लिखने की जरूरत तब सूझती है जब मौतें थोक में आती हैं, और खबरें बड़ी बनती हैं। ऐसे हादसे कम मौतों वाले हों, या अधिक वाले, इनमें से अधिकतर के पीछे सरकारी विभागों और गाड़ी चलाने वाले लोगों की बराबरी की जिम्मेदारी रहती है।
ऐसे मौकों पर सरकार को यह सोचना चाहिए कि क्या इन हादसों को किसी तरह कम किया जा सकता है? छत्तीसगढ़ एक खनिज प्रदेश होने के नाते यहां पर कोयला, लोहा, सीमेंट-पत्थर की आवाजाही खासी रहती है, और इसके अलावा धान का बहुत बड़ा कारोबार रहने से भी सडक़ों पर ट्रकें अधिक रहती हैं। इन दोनों बातों के अलावा यह राज्य आधा दर्जन दूसरे राज्यों से घिरा हुआ है, इसलिए भी दूसरे प्रदेशों की गाडिय़ां यहां से होकर गुजरती हैं। लेकिन यह बात तो कोई नई नहीं है, और सडक़ों से लेकर ट्रैफिक और आरटीओ के इंतजाम तक हर विभाग को इसकी जानकारी है। फिर यह जानकारी भी सबको है कि कारोबारी गाडिय़ां बहुत खराब हालत में चलती हैं, उनकी फिटनेस जांचने की दिलचस्पी किसी विभाग को नहीं होती, वे ओवरलोड भी चलती हैं, ड्राइवर बिना नींद पूरी किए या नशे में अंधाधुंध रफ्तार से चलाते रहते हैं, और ट्रैफिक नियमों के लिए लोगों के मन में परले दर्जे की हिकारत है। ये तमाम बातें मिलकर खराब सडक़ों के साथ जुडक़र बहुत बड़ा खतरा बन जाती हैं। इनमें से हर खतरे को एक जिम्मेदार सरकार कम कर सकती है, लेकिन वैध और अवैध कमाई से परे सरकार की दिलचस्पी सुरक्षा और सावधानी में बहुत ही कम दिखती है।
दूसरी तरफ लोग लापरवाह हैं, और पूरे कुनबे को लेकर किसी भी मालवाहक गाड़ी पर सवार होकर रात-बिरात शादी-ब्याह या पूजा-तीर्थ से आते-जाते हैं, कई जगहों पर तो ड्राइवर भी शराब पिए हुए रहते हैं। इस तरह दो अलग-अलग गाडिय़ां दो अलग-अलग नशे में डूबे ड्राइवरों के हाथों आमने-सामने जब आती हैं, तो ऐसा हादसा न होना हैरानी की बात रहती है। अगर पुलिस की जांच और कार्रवाई कड़ी हो, तो भी नशे में गाड़ी चलाना रूक सकता है। ऐसे ड्राइवरों के लाइसेंस अगर निलंबित और रद्द होना शुरू हो जाए, गाडिय़ां जब्त होने लगें, तो फिर ऐसे हादसे भी कम होने लगेंगे। लेकिन कारोबारी मालवाहक गाडिय़ां या मुसाफिर बसें अधिक से अधिक कारोबार करने के चक्कर में अंधाधुंध रफ्तार से सडक़ों को रौंदती हैं, और आए दिन ऐसे हादसे होते हैं, लेकिन किसी ड्राइवर का ड्राइविंग लाइसेंस रद्द होने की बात नहीं आती है।
छत्तीसगढ़ अतिसंपन्नता का शिकार प्रदेश है, और यहां पर बड़ी-बड़ी तेज रफ्तार गाडिय़ां सडक़ों पर अराजकता के साथ दौड़ती हैं। बहुत अधिक पैसा जिनके पास है वे लाखों रूपये की मोटरसाइकिलों के साइलेंसर फाडक़र चलते हैं, बड़ी गाडिय़ों पर अंधाधुंध लाईट और सायरन लगाकर चलते हैं, और ऐसी बातें उनके मिजाज को भी बताती हैं कि वे बाकी नियमों को भी इसी तरह तोड़ते होंगे। किसी भी प्रदेश या शहर में नियम-कानून की इज्जत की शुरुआत सडक़ों से ही होती है, और जिस शहर में सडक़ों पर अराजकता रहती है वहां बाकी की जिंदगी में भी अराजकता रहती है। यही हाल छत्तीसगढ़ का हो रहा है कि यहां सडक़ों पर ट्रैफिक पूरी तरह बेकाबू रहता है, और सरकार के किसी अमले की इसमें दिलचस्पी भी नहीं रहती है। अगर सरकार न करे तो भी जनता के बीच से ऐसा एक सोशल ऑडिट होना चाहिए कि किसी सडक़ हादसे में मौतों की जिम्मेदारी किन बातों पर थी। आज छत्तीसगढ़ में न सरकार इस नजरिए से सडक़ हादसों का विश्लेषण करती, न ही जनता को इसकी कोई खास परवाह लगती कि जो सरकार गाडिय़ों से इतना टैक्स लेती है, वह सडक़ सुरक्षा के मामले में लापरवाह है।
आज टाली जा सकने वाली तमाम मौतों को रोकने की जरूरत है। लोगों से सौ फीसदी जिम्मेदारी की उम्मीद करना गलत है, और आम हिन्दुस्तानी का मिजाज सजा, जुर्माना, या लाठी देखकर ही ठीक से चलने का है। इसलिए सरकार के जुड़े हुए विभागों को जनसंगठनों के साथ मिल-बैठकर सडक़ सुरक्षा बढ़ाने के बारे में सोचना चाहिए। जब छत्तीसगढ़ अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा था तब जिला और संभाग स्तर पर यातायात सुधार समितियां बनती थीं, और उनमें व्यापारी संगठनों से लेकर अखबारों तक के लोग रखे जाते थे, और उनकी सलाह भी सुनी जाती थी। अब वह सिलसिला खत्म हो गया है, और अब इसे सिर्फ अफसरों का काम मान लिया गया है। ऐसे में सडक़ों पर मौतें कभी कम नहीं हो पाएंगीं।
यूक्रेन पर रूस के हमले का एक साल पूरा होने के ठीक पहले अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन अचानक ही यूक्रेन पहुंचे, और वहां खुले में यूक्रेनी राष्ट्रपति के साथ घूमकर तस्वीरें खिंचवाकर उन्होंने एक अलग किस्म का भरोसा जताया है। लेकिन तस्वीरों से परे उनके भाषण ने भी यूक्रेन का साथ देने का पश्चिमी देशों और नाटो देशों का एक वायदा सामने रखा है जो कि इस जंग में आज बहुत मायने रखता है। यह जंग यूक्रेन पर रूस के हमले के साथ शुरू हुई थी, और मास्को का यह अंदाज था कि यह कुछ महीनों में यूक्रेनी सत्ता के साथ-साथ खत्म हो जाएगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं, और यह जंग आज दुनिया की एक महाशक्ति रूस पर भारी पड़ते दिख रही है। यह एक अलग बात है कि पूरी जंग यूक्रेनी जमीन पर लड़ी जा रही है, यूक्रेन बड़ा नुकसान झेल रहा है, उसके कई इलाकों पर रूस का कब्जा हो चुका है, लेकिन यूक्रेन एक असाधारण मनोबल के साथ रूस के खिलाफ डटा हुआ है, और पश्चिमी देश एक अभूतपूर्व और असाधारण एकता दिखाते हुए यूक्रेन का फौजी साथ दे रहे हैं। आज मोर्चे पर लड़ तो यूक्रेनी सैनिक रहे हैं, लेकिन उनका साज-सामान अमरीका और ब्रिटेन से लेकर जर्मनी और दूसरे यूरोपीय देशों से आ रहा है, आते ही जा रहा है। दूसरी तरफ ऐसा माना जा रहा है कि रूस की युद्ध की क्षमता अब कमजोर पड़ रही है, एक तरफ तो पश्चिम के लागू किए गए बहुत कड़े आर्थिक प्रतिबंधों की वजह से रूस की जनता की जिंदगी पर थोड़ा सा फर्क पड़ा है, और थोड़ा सा फर्क रूसी सरकार के खजाने पर भी पड़ा है जिसे कि अपनी फौज पर, भाड़े के सैनिकों पर अंधाधुंध खर्च करना पड़ रहा है। दूसरी तरफ यूक्रेन का साथ देने के लिए तमाम नाटो देश अपना खजाना खोल रहे हैं, और फौजी साज-सामान भेज रहे हैं। इसलिए गैरबराबरी की यह लड़ाई भी रूस पर कई मायनों में भारी पड़ रही है, फिर चाहे उसे आज अपनी जमीन नहीं खोनी पड़ी है।
अब रूस ने यूक्रेन के परमाणु हथियार पाने की आशंका गिनाते हुए अपनी सरहद तक नाटो के पहुंच जाने का तर्क या बहाना गिनाते हुए यह हमला किया था। लेकिन अमरीका से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक, और दुनिया के दर्जनों और देशों ने भी इसे यूक्रेन की स्वायत्तता पर हमला माना है, और संयुक्त राष्ट्र बार-बार रूस के इसे रोकने के लिए कहते भी आ रहा है। आज नौबत यह आ गई है कि इन दोनों देशों के बीच किसी भी तरह की बातचीत मुमकिन नहीं दिख रही है, और रूस एक अंतहीन जंग के लिए डटा हुआ है, और अमरीका और उसके साथी देश यूक्रेन का अंतहीन साथ देने के लिए डटे हुए हैं। दिक्कत यह है कि इस जंग में सीधा-सीधा नुकसान अकेले यूक्रेन का हो रहा है जो कि जमीन खो चुका है, जिसके दसियों हजार लोग मारे गए हैं, और जिसके देश का ढांचा तबाह हो गया है, एक करोड़ से अधिक लोग बेदखल हो चुके हैं। यूक्रेन की बर्बादी के आंकड़े गिन पाना भी आसान नहीं है। ऐसे में उसे रूस के साथ जंग जारी रखने के लिए तो पश्चिम की मदद मिल रही है, लेकिन खुद यूक्रेन के पुनर्निर्माण की जरूरतें पश्चिम से कितनी पूरी होंगी, वह पुनर्निर्माण कब शुरू हो सकेगा, इसमें कुछ भी अभी साफ नहीं है। फिर यह भी है कि योरप और अमरीका की कोई भी मदद किफायत और पारदर्शिता की कई शर्तों के साथ आएगी, जिन्हें यूक्रेन पता नहीं कितना पूरा कर पाएगा।
इन्हीं तमाम बातों के बीच एक बात यह साफ है कि अमरीका और नाटो देश यूक्रेन की फौजी मदद इसलिए भी कर रहे हैं कि वे नाटो देशों के फौजी गठबंधन के चलते हुए रूस के आसपास के अपने सदस्य देशों की हिफाजत को लेकर फिक्रमंद हैं। और इस हिफाजत की गारंटी उसी हालत में हो सकती है जब रूस से लगे हुए कई देश नाटो में शामिल हो जाएं, और नाटो की फौजी क्षमता रूस की सरहदों तक पहुंच जाए। ठीक यही फिक्र रूस इस हमले के पीछे बताता है जिसे वह हमला या जंग कहने से कतराता है, और जिसे वह महज एक फौजी कार्रवाई कहता है। लेकिन शब्दों से परे सच तो यह है कि एक महाशक्ति ने एक छोटे से पड़ोसी पर इतना बड़ा फौजी हमला किया कि जिसका कोई मुकाबला नहीं हो सकता था, लेकिन रूसी फौजी तेवर देखकर उसके खिलाफ दर्जनों देश जिस तरह एकजुट हुए हैं, और उन्होंने जिस हद तक यूक्रेन का साथ दिया है, उसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। नतीजा यह है कि आज यूक्रेन के फौजियों की मौत, उसकी तबाही की कीमत पर रूस कमजोर होते चल रहा है, और यह बात अमरीका और नाटो के बाकी देशों के फौजी फायदे की बात है। अब सवाल यह उठता है कि अपने फौजियों को शामिल किए बिना, इस युद्ध को विश्व युद्ध में तब्दील होने के खतरे से बचाते हुए यूक्रेन का जो साथ दिया जा रहा है, उससे रूस का नुकसान तो जाहिर तौर पर हो रहा है, लेकिन इसकी जो कीमत यूक्रेन चुका रहा है, उसकी भरपाई कैसे होगी? आज यूक्रेन के लोग शरणार्थी होकर दर्जन भर दूसरे देशों में पड़े हुए हैं। यूक्रेन का ढांचा बुरी तरह तबाह हो चुका है, और अगली शायद चौथाई सदी भी यह देश इस नुकसान से उबर नहीं पाएगा। ऐसे में रूस को खोखला करने की हसरत लिए हुए जो लोग यूक्रेन का साथ दे रहे हैं, वे अपने फौजियों की शहादत के बिना सिर्फ खर्च करके यह मकसद हासिल कर रहे हैं। यह एक अलग नैतिक सवाल है कि यूक्रेनी जनता की जिंदगी और देश के कितने नुकसान की कीमत पर रूस का कितना नुकसान जायज कहा जाएगा? आज इस जंग को एक बरस पूरा हो रहा है, और इस मौके पर पूरी दुनिया को यह सोचना चाहिए कि इस तबाही से कैसे उबरा जा सकता है क्योंकि इससे न सिर्फ इन दो देशों का सीधा नुकसान हो रहा है, यूक्रेन का साथ देने वाले देशों का बड़ा खर्च हो रहा है, और इन दोनों देशों से बाहर निकलने वाले अनाज, खाद, पेट्रोलियम की कमी से दुनिया की अर्थव्यवस्था कितनी तबाह हो रही है। ऐसी बहुत सी बातों पर जंग की इस पहली सालगिरह पर लोगों को सोचना चाहिए, और अपने-अपने देशों की सरकारों से सवाल भी करना चाहिए।
वैसे तो भाजपा के राज वाले मध्यप्रदेश का नारा है कि एमपी गजब है, लेकिन यह नारा भाजपा के एक दूसरे राज्य उत्तरप्रदेश पर भी माकूल बैठता है जहां पर एक लोक गायिका नेहा सिंह राठौर को पुलिस ने एक नोटिस दिया है कि उनके पोस्ट किए गए एक गाने को लेकर समाज में दुश्मनी और तनाव की हालत उत्पन्न हुई है इसलिए उस बारे में वे तीन दिन के भीतर स्पष्टीकरण पेश करे। ‘यूपी में का बा’ शब्दों से बने हुए इस गाने में इस लोक गायिका ने उत्तरप्रदेश में आज फैली हुई बदअमनी पर लोकगीतों के तल्ख अंदाज में सीधे सपाट सवाल किए हैं जिनमें सीएम से लेकर डीएम तक से पूछा गया है कि अभी-अभी कानपुर में एक झोपड़ी में जलकर मरी मां-बेटी, और उस पर चलाए गए बुलडोजर पर उनका क्या कहना है। लोगों को यह घटना याद ही होगी कि अभी पिछले ही हफ्ते अतिक्रमण हटाने वाले दस्ते ने जब एक झोपड़ी को हटाने की कोशिश की, तो दहशत में भरी हुई मां-बेटी ने आग लगाकर जान दे दी, या किसी ने उन्हें जलाकर मार डाला, अफसरों ने आग लगने या लगाने के बाद झोपड़ी पर बुलडोजर भी चला दिया। उल्लेखनीय है कि उत्तरप्रदेश में बुलडोजर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पोस्टर लगाकर चलते हैं, और योगी की साख वहां पर बुलडोजर बाबा के रूप में खुद सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी ही फैला रही है। ऐसे में एक लोक गायिका को उसके सवाल भरे गाने पर इस तरह का पुलिस नोटिस देना और लोगों को हैरान कर सकता है, लेकिन जिन लोगों ने उत्तरप्रदेश पुलिस के काम करने के तरीके देखे हैं, उन्हें यह आम बात लग सकती है, फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार मरने, मारने, या गाने में सवाल करने वाले कोई भी गैरहिन्दू नहीं हैं। सत्ता से तीखे लेकिन सौ फीसदी जायज सवाल करने वाली लोक गायिका अपनी सादगी से और अपने सरल तरीकों से पहले भी लोगों को मोह चुकी है, और जाहिर है कि उसकी लोकप्रियता से परेशान योगी सरकार ने पुलिस के हाथों यह कार्रवाई चालू करवाई है। जिस अंदाज में पुलिस की टीम यह नोटिस देने पहुंची थी, और जिस तरह से कई फोन वीडियो बना रहे थे, उससे समझ पड़ रहा था कि सरकार दहशत में है। इस गायिका ने यह सवाल किया है कि राज्य के हालात पर वह सरकार से सवाल नहीं करेगी, तो क्या विपक्षी समाजवादी पार्टी से सवाल करेगी?
पुलिस के किसी थाने की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर जैसी समझ हो सकती है, और योगीराज में पुलिस का जिस तरह से आम इस्तेमाल हो रहा है, उसके मुताबिक ही नेहा सिंह राठौर से पूछा गया है कि उनके गाने से समाज पर पडऩे वाले प्रभाव से वे वाकिफ हैं या नहीं? पुलिस ने इससे समाज में दुश्मनी और तनाव पैदा होने का अपना निष्कर्ष जांच के पहले ही सामने रख दिया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर यह एक बहुत ही घटिया और ओछा हमला है। अभी कुछ दिन पहले ही हमने देश के कुछ दूसरे राज्यों और दूसरे नेताओं के आलोचना के खिलाफ अभियान के बारे में लिखा था, और उन राज्यों की पुलिस की हरकतों को भी धिक्कारा था। लोगों को याद होगा कि भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मध्यप्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा द्वारा फिल्म पठान के खिलाफ छेड़े गए अभियान के संदर्भ में बड़ी कड़ी बात कही थी, और उसके बाद से ही नरोत्तम मिश्रा भी शांत हैं, मीडिया से दूर हैं, फिल्मी विवादों से दूर हैं। लेकिन एक लोक गायिका के सवालों से डरकर योगी सरकार जिस तरह की हरकत कर रही है, वह उसकी मजबूती को खोखला साबित कर रही है। यह लोक गायिका सोशल मीडिया के कई किस्म के प्लेटफॉर्मों पर भारी लोकप्रिय है, और उसकी शोहरत में जो कमी रह गई होगी, वह अब योगी पुलिस ने पूरी कर दी है। हमें इस बात में जरा भी शक नहीं है कि इस लोक गायिका का यह गाना देश की किसी भी अदालत में जुर्म साबित नहीं किया जा सकेगा, लेकिन आज सरकारों की दिलचस्पी किसी जुर्म को साबित करने में नहीं रहती है, बल्कि मुकदमेबाजी में फंसाकर जिंदगी मुश्किल करने में जरूर रहती है। आज देश में बहुत से पत्रकार, बहुत से दूसरे लोग, कलाकार, फिल्मकार इसी तरह मामलों में फंसाए जा रहे हैं, और फिर सरकार अदालतों में उन मामलों को किसी किनारे ही नहीं पहुंचने देती। पूरी तरह बदनीयत से किए जा रहे ऐसे हमले देश के बाकी हास्य कलाकारों को, या बाकी कार्टूनिस्टों को डराने में कामयाब जरूर होते हैं, और सत्ता की नीयत यही रहती है कि असहमति को दहशत से, और पुलिसिया ताकत से कुचल दिया जाए। सत्ता की ऐसी गुंडागर्दी का मुकाबला देश की जनता बेहतर तरीके से कर सकती है, और उसे ऐसे गाने, ऐसे कार्टून, ऐसी खबरें, ऐसे वीडियो या डॉक्यूमेंट्री अधिक से अधिक फैलाने का काम करना चाहिए, ताकि उनका मकसद पूरा किया जा सके। उत्तरप्रदेश सरकार अपनी जितने किस्म की फजीहत करवा सकती थी, उससे कुछ अधिक हद तक फजीहत अब इस एक मामले से होगी। आने वाले दिनों में हो सकता है कि ये आंकड़े सामने आए कि इस एक पुलिस नोटिस से इस लोक गायिका के चाहने वाले सोशल मीडिया पर और कितने बढ़े हैं, और यह बढऩा ही लोकतंत्र की कामयाबी होगी।
हिन्दी फिल्म अभिनेत्री स्वरा भास्कर अपनी फिल्मों से कहीं अधिक अपनी सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता के लिए खबरों में रहती हैं। वे आला दर्जे की अभिनेत्री हैं लेकिन देश में धर्मनिरपेक्षता के लिए वे एक खुली लड़ाई लड़ती हैं, और जेएनयू से निकले अमूमन अच्छे लोगों के मुताबिक वे अपने सिद्धांतों के लिए सडक़ों पर लडऩे से पीछे नहीं रहतीं। ऐसे में एक मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ता से उनकी शादी को लेकर देश के साम्प्रदायिक लोग बुरी तरह घायल हैं। वे तमाम लोग भी जो स्वरा को रात-दिन सोशल मीडिया पर बलात्कार की धमकियां देते थे, उनके बारे में अश्लील और गंदी बातें लिखते थे, उन्हें भी अचानक एक हिन्दू लडक़ी के मुस्लिम से शादी करने पर चोट लगी है। तरह-तरह के लोग तरह-तरह की अपमानजनक बातें लिख रहे हैं और मानो इसी के एक जख्मी ने कर्नाटक में अभी एक ताजा साम्प्रदायिक बयान दिया है।
कर्नाटक के घोर साम्प्रदायिक संगठन श्रीराम सेना को उसकी दूसरी कट्टर बातों के लिए भी जाना जाता है, और कई बरस पहले के वो वीडियो लोगों को याद होंगे जिनमें बेंगलुरू शहर के पब में पहुंची लड़कियों को निकाल-निकालकर मारते हुए इस श्रीराम सेना के नेता-कार्यकर्ता कैमरों पर कैद हुए थे। उस समय से इसके मुखिया प्रमोद मुथालिक खबरों में आए थे, और अब तक वे अपने हिंसक बयानों को लेकर हर कुछ महीनों में अखबारी सुर्खियों में लीज नवीनीकरण करवाते रहते हैं। अभी उन्होंने कर्नाटक के एक सार्वजनिक कार्यक्रम में खुलकर कहा- अगर हमारी एक हिन्दू लडक़ी जाती है, तो हमे दस मुस्लिम लड़कियों को फंसाना चाहिए, और आप ऐसा करते हैं तो श्रीराम सेना आपकी जिम्मेदारी लेगी। उन्होंने ऐसा करने वालों को हिफाजत और रोजगार देने का वायदा किया है। उनके इस बयान का वीडियो चारों तरफ फैला हुआ है। पिछले बरस उन्होंने टीपू सुल्तान का विरोध करते हुए सावरकर के पोस्टर पूरे कर्नाटक में लगाने का अभियान छेड़ा था, और बयान दिया था कि अगर मुस्लिम या कांग्रेस के किसी ने इन पोस्टरों को छुआ तो उनके हाथ काट दिए जाएंगे। पिछले साल का उनका बयान तो सुप्रीम कोर्ट की हेट-स्पीच की चेतावनी के पहले का था, लेकिन अब दस मुस्लिम लड़कियों को फंसाने का यह ताजा साम्प्रदायिक बयान तो सुप्रीम कोर्ट की कई बार दुहराई जा चुकी हेट-स्पीच चेतावनी के बाद का है, और देखना है कि कोई अदालत, कोई अफसर इस पर कार्रवाई करते हैं या नहीं।
सुप्रीम कोर्ट ने अभी कल ही दिल्ली पुलिस से कहा है कि उसने 2021 के दिल्ली हेट-स्पीच केस की चार्जशीट की एफआईआर फाईल करने में पांच महीने क्यों लगाए, और क्या अभी तक उसमें किसी को गिरफ्तार किया गया है? देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ इस बेंच के मुखिया हैं, और यह बेंच एक सामाजिक कार्यकर्ता तुषार गांधी की दाखिल की गई अवमानना याचिका पर सुनवाई कर रही है जिसमें कहा गया है कि उत्तराखंड पुलिस, और दिल्ली पुलिस नफरत के तेजाबी भाषणों के मामलों में कोई कार्रवाई नहीं कर रहे हैं। उल्लेखनीय है कि पुलिस ने इस मामले में नफरती भाषण देने वालों को संदेह का लाभ देने की पूरी कोशिश की, लेकिन अदालत ने उनकी इस हरकत को खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट इस मामले एक कड़ा रूख दिखा रही है, और हो सकता है कि यह रूख बाकी देश के लिए भी एक मिसाल बने। फिलहाल तो अदालत ने इस तरह के नफरती भाषणों के लिए किसी को जेल भेजा नहीं है, इसलिए कर्नाटक में श्रीराम सेना के नफरती नेता फिर से अपने पुराने हिंसक मिजाज वाले साम्प्रदायिक रूख को दोहरा रहे हैं। ऐसे में अदालत को देश के बाकी हिस्सों में डिजिटल सुबूतों पर दर्ज हो रही नफरती और हिंसक बातों को भी कटघरे में लेना चाहिए क्योंकि उत्तराखंड में किसी को सजा हो भी जाए तो उससे कर्नाटक में किसी के सहमने की गुंजाइश कम ही रहती है। लोगों को अपने आसपास सजा दिखने पर ही उन पर इसका असर होता है।
हिन्दुस्तान में साम्प्रदायिक नफरत की बातों पर अगर देश का कोई कानून लागू होता है, तो उस पर सुप्रीम कोर्ट को एक कड़ी और व्यापक मिसाल पेश करने की जरूरत है। जब तक ऐसी मिसालें देश की बाकी अदालतों के लिए मौजूद नहीं रहेंगी, तब तक नफरती लोग कानून के ढीले-ढाले इस्तेमाल का फायदा उठाते रहेंगे। यह सिलसिला पूरी तरह से तोडऩे की जरूरत है, खासकर इसलिए कि आज देश में साम्प्रदायिकता के आधार पर चुनाव जीतने की जुगत में लगी हुई कुछ राजनीतिक ताकतें, और देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने में लगी हुई कुछ गैरचुनावी ताकतें रात-दिन नफरत फैलाने में लगी हुई है। इनकी नफरत के झांसे में सबसे पहले तो इनके अपने बच्चे खुद आ रहे हैं जो कि समझ आने के पहले से घर से ही ऐसी नफरत का नमूना पाते चलते हैं। इसलिए देश को बचाने के लिए यह जरूरी है कि संविधान की मूल भावना, लोकतंत्र, और इंसानियत की तथाकथित बातों को नफरत से बचाया जाए। आज एक बहुत बड़ी जरूरत यह भी आ खड़ी हुई है कि देश में अल्पसंख्यकों को दूसरे धर्मों के लोगों में से साम्प्रदायिक-हमलावर लोगों से बचाया जाए। और यह काम आज चुनाव हार चुकी राजनीतिक ताकतें नहीं कर पा रही हैं, इस काम को फिलहाल तो अदालत को ही करना पड़ेगा जहां पर आज जजों का रूख पहले के मुकाबले थोड़ा सा बेहतर दिख रहा है, साम्प्रदायिकता से परे का दिख रहा है, सरकार के सामने दंडवत हो जाने से अलग दिख रहा है। आज अदालत को तेज रफ्तार से देश की हवा में घुल चुकी साम्प्रदायिक नफरत को साफ करने का काम करना है, और इस काम को करने में जिन राज्यों की पुलिस की बेरूखी दिख रही है, वहां के आला अफसरों को कटघरे में खड़ा भी करना है, उससे कम किसी कार्रवाई से काम नहीं बनेगा।
दुनिया के कई सबसे प्रतिष्ठित अखबारों के रिपोर्टरों ने मिलकर अभी एक सबसे बड़ी सनसनीखेज रिपोर्ट पेश की है जिसमें एक इजराइली कारोबारी को दुनिया के दर्जनों देशों ने चुनाव प्रभावित करने का ठेका लेते पाया गया है। रहस्य के पर्दों में रहने वाला यह इजराइली आखिरकार जाकर शातिर रिपोर्टरों के स्टिंग ऑपरेशन में फंसा, और वह कम्प्यूटर स्क्रीन पर इन रिपोर्टरों को यह बताते हुए कैद हुआ कि वे किस तरह लोगों के ईमेल खातों में घुसपैठ करते हैं, और सोशल मीडिया अकाऊंट्स को प्रभावित करके चुनाव के वक्त माहौल बदलने का काम करते हैं। बरसों से इस इजराइली चुनावी-सुपारी लेने वाले कारोबारी के बारे में चर्चा होती थी, लेकिन वह कभी सामने नहीं आया था, कभी फंसा नहीं था, लेकिन अब वह उजागर हो गया है, और उसने जिन दर्जनों देशों के नाम गिनाए हैं कि उसने वहां के चुनावों को प्रभावित किया है, उनमें भारत का नाम भी है। और उसका यह दावा भी है कि जिन अब तक 31 देशों में उन्होंने चुनाव प्रभावित किए हैं, उनमें से 26 देशों में नतीजे उनके मनमाफिक आए हैं। उन्होंने राजनीतिक दलों, सरकारों, और कारोबारियों से ठेके लेकर जनमत प्रभावित करने के ऐसे बड़े-बड़े साइबर-अभियान चलाए थे।
इस एजेंसी का भांडाफोड़ करने के लिए पत्रकारों के अंतरराष्ट्रीय संगठन, आईसीजे (इंटरनेशनल कन्सोर्र्टिएम ऑफ इंवेस्टीगेटिव जर्नलिस्ट्स, की जिस टीम में काम किया उसमें 30 से ज्यादा मीडिया संस्थानों के पत्रकार जुड़े हुए थे। इन पत्रकारों ने संभावित ग्राहक बनकर इस इजराइली कारोबारी से संपर्क किया था, और नए ग्राहक फंसते देख इस इजराइली ने बारीकी से यह बताया कि वे किस तरह किसी के भी ईमेल अकाऊंट को हैक कर सकते हैं, सोशल मीडिया पर कम्प्यूटर एप्लीकेशनों की मदद से चलाए जाने वाले अनगिनत अकाऊंट से वे किसी पार्टी या उम्मीदवार के पक्ष में या उसके खिलाफ माहौल खड़ा कर सकते हैं। यह इजराइली कारोबारी वहां का रिटायर्ड फौजी या खुफिया अफसर रहा हुआ है, और वह बिना किसी पहचान के, अपना नाम और चेहरा छुपाए हुए इसी तरह के खुफिया अभियान चलाने का कारोबार करता है। लोगों को याद होगा कि दो बरस पहले जब इजराइली फौजी घुसपैठिया सॉफ्टवेयर पेगासस का भांडा फूटा था, तो वह भी पत्रकारों की इसी किस्म की एक टोली की बनाई हुई रिपोर्ट थी, और उसमें इजराइली कंपनी का यह दावा था कि वह सिर्फ सरकारों को ही यह स्पाइवेयर बेचती है। इसके साथ ही रिपोर्ट में यह भी दावा था कि भारत में उसका इस्तेमाल हुआ है। फिर भारत के सुप्रीम कोर्ट तक यह मामला पहुंचने पर अदालत के सामने भारत सरकार ने साफ-साफ यह कहा था कि वह ऐसा कोई हलफनामा नहीं देगी कि उसने पेगासस खरीदा या उसका इस्तेमाल किया है या नहीं। अभी तक सुप्रीम कोर्ट में इसकी जांच चल ही रही है, कि यह दूसरा इजराइली कारोबार सामने आया है जो लोगों के ईमेल अकाऊंट में घुसपैठ तो करता ही है, वह साथ-साथ जनधारणा बनाने, और जनमत को मोडऩे का ठेका भी लेता है ताकि चुनावों को प्रभावित किया जा सके।
पिछले कई बरस से भारत में भी यह फिक्र चल रही है कि सोशल मीडिया पर तमाम वक्त कुछ ताकतें एक खास किस्म के एजेंडा को बढ़ाने का काम कर रही हैं। लेकिन इसके कोई सुबूत सामने नहीं आए थे। यह पहला ऐसा सुबूत दिख रहा है जिसमें यह इजराइली कंपनी साइबर-जुर्म करके चुनावों को प्रभावित करने का ठेका ले रही है, और उसके ग्राहकों की लिस्ट में हिन्दुस्तानी चुनाव की कोई एक ताकत भी है। यह जांच किसी किनारे तक पहुंचे या न पहुंचे, लोगों को इस खतरे को समझने की जरूरत है कि जिस सोशल मीडिया को दुनिया एक बहुत बड़ा लोकतांत्रिक औजार मानकर चलती है, वह लोकतंत्र के खिलाफ एक उतने ही बड़े भाड़े के हथियार की तरह भी इस्तेमाल किया जा सकता है। अगर यह रिपोर्ट सही है, और इजराइली घुसपैठिया कंपनी इजराइल की बहुत सी दूसरी बदनाम निगरानी-कंपनियों की तरह काम करती है, तो हिन्दुस्तान जैसे लोकतंत्र के लिए यह एक बहुत बड़ा खतरा है। हिन्दुस्तान के लिए खतरे को इस हिसाब से समझना चाहिए कि आज इजराइल के पूरे निर्यात का आधा हिस्सा अकेला हिन्दुस्तान खरीदता है। इसके अलावा भारत की आज की सरकार अपनी विदेश नीति में इजराइल के साथ खड़ी हुई है, और फिलीस्तीनियों को भारत का ऐतिहासिक और परंपरागत समर्थन अब तक खत्म हो गया दिखता है। ऐसे में भारत की कुछ ताकतें अगर एक ग्राहक की शक्ल में ऐसे इजराइली कारोबारी को ठेका देती हैं, तो यह बात इजराइल की सरकार और वहां के सारे कारोबार को भी माकूल बैठेगी क्योंकि वह कारोबार को जारी रखने वाली बात होगी। इसलिए भारत में इस पर अधिक बारीकी और चौकन्नेपन से गौर किया जाना चाहिए कि इस देश के किस चुनाव में किस पार्टी या संगठन, सरकार या नेता ने इन्हें जनमत प्रभावित करने की सुपारी दी थी।
सोशल मीडिया अच्छा हो या बुरा, वह अब एक अपरिहार्य ताकत बन चुका है, और किसी भी चुनाव में इसकी ताकत को अनदेखा करना ठीक नहीं होगा। फिर फेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म दुनिया के कई देशों में तरह-तरह की जांच और संसदीय सुनवाई का सामना कर रहे हैं कि वह किस तरह अपने इस्तेमाल करने वाले लोगों की सोच को प्रभावित करने का काम करते आया है। फेसबुक और ट्विटर जैसे अमरीकी कारोबार को अमरीका में ही संसदीय जांच का सामना करना पड़ रहा है कि वे राष्ट्रपति चुनाव को प्रभावित करने, या पिछले राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के उकसावे पर हिंसा को बढ़ाने का काम करते रहे हैं। ऐसे माहौल में हिन्दुस्तान जैसे देश को यह समझना चाहिए कि अब यहां ईवीएम से चुनावी धोखाधड़ी के आरोपों से चिपके रहने से कुछ साबित नहीं होगा। अब सोशल मीडिया के खतरों को समझना होगा, और अनगिनत इजराइली कंपनियों की बदनीयत पर भी नजर रखनी होगी कि वे लोकतंत्रों को किस तरह अपना वफादार ग्राहक बनाने में लगी रहती हैं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भूकम्प से बर्बाद तुर्की से अभी दो-तीन दिन पहले खबर आई थी कि वहां गिरी हुई इमारत के मलबे तले दस दिनों से दबी हुई एक लडक़ी को इतना वक्त सर्द मौसम में गुजार लेने के बाद अभी बचाया जा सका है। दसवें दिन भी दो महिलाओं और दो बच्चों को मलबे से जिंदा निकाला गया था। इसे करिश्मा ही माना जा रहा था, और यह एक विश्व रिकॉर्ड बन गया था कि अभी तीन दिन और गुजरने के बाद तीन लोगों को मलबे के नीचे से और बचा लिया गया है, यानी पिछला रिकॉर्ड तीन दिन भी नहीं टिक पाया। ये लोग भूख-प्यास के बावजूद बिना किसी मदद के, बिना गर्म कपड़ों के जिंदा थे। तुर्की और सीरिया के इस भूकम्प में 46 हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। इसे सदी का इस इलाके का सबसे जानलेवा भूकम्प माना जा रहा है, और लोगों के इस तरह बचने को आस्तिक लोग ऊपरवाले की मेहरबानी मान रहे हैं, और नास्तिक लोग इसे इंसान के जिंदा रहने के जज्बे की एक बड़ी मिसाल।
जो भी हो, तुर्की और सीरिया के इस हाल को देखकर बाकी दुनिया को हौसले की एक बड़ी नसीहत लेने की जरूरत है। दुनिया का हर हिस्सा इतनी बड़ी मुसीबत से नहीं घिरता है। खासकर सीरिया तो बरसों से गृहयुद्ध से घिरा हुआ है, विदेशी हमलों का शिकार है, और कल ही इजराइल ने वहां एक मिसाइल हमला किया जिसमें 15 मौतों की खबर है। इतने किस्म की कुदरती और इंसानी मार कुछ देशों पर पड़ी हुई है, लेकिन वहां लोगों का हौसला है जो कि दस-दस मंजिली इमारतों के दस-बीस फीट ऊंचे रह गए मलबे के नीचे भी जिंदा है। और यह हौसला देखकर उन लोगों को बहुत कुछ सीखना चाहिए जो कि अपनी जिंदगी की अनिश्चितता से, उसकी नाकामयाबी से, उसकी तकलीफों से निराश होकर जिंदगी छोडऩे की सोचते हैं। ऐसा आए दिन हो रहा है, अभी दो दिन पहले ही ये आंकड़े सामने आए कि हिन्दुस्तान में पिछले दो-तीन बरसों में कितने लाख मजदूरों ने खुदकुशी की, कितनी लाख महिलाओं ने जान दे दी, और ऐसे ही कुछ और तबकों के भी आंकड़े सामने आए हैं। कई लोग इसे कोरोना और लॉकडाउन के दौर में सरकार की नाकामी का नतीजा मान रहे हैं, कुछ लोग इसकी जड़ें नोटबंदी और जीएसटी की दिक्कतों से बर्बाद हुए कारोबार में देख रहे हैं, जो भी हो, आम हिन्दुस्तानी की हालत आज किसी इमारत के मलबे में दबे हुए इंसान से बेहतर तो है ही। दुनिया की मिसालों से सरकारों को भी सबक लेना चाहिए, और लोगों को भी। किसी भी मिसाल से इन दोनों के लिए अलग-अलग नसीहतों का मौका रहता है, और सरकारों के लिए भी हम लिखते ही रहते हैं कि देश में धर्मान्धता और कट्टरता को बढ़ाने का नतीजा क्या होता है, इसे समझने के लिए अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसे नाकामयाब लोकतंत्रों की तरफ देखना चाहिए, और अब तक वैसी नौबत में न पहुंचे हुए देशों को वैसी धर्मान्धता, और कट्टरता से बचना चाहिए। लेकिन सरकारों से परे इंसानों के सीखने की बातें भी तमाम नौबतों में रहती हैं। लोगों को बुरे से बुरे वक्त में भी किसी अच्छे की न तो उम्मीद छोडऩी चाहिए, और न ही उसकी कोशिश बंद करनी चाहिए।
जिंदगी की छोटी-छोटी मिसाल भी बड़े-बड़े हौसले दे जाती है। फिलीस्तीन में इजराइली हमले का शिकार एक ऐसा फोटोग्राफर है जिसका बदन बस कमर के ऊपर बचा है, नीचे कुछ भी नहीं है। और वह न सिर्फ जिंदा है, बल्कि पहियों की कुर्सी पर चलते हुए वह फोटोग्राफी का अपना काम भी करता है, और फिलीस्तीन की आजादी की लड़ाई भी लड़ता है। ऐसे और भी लोग हैं जो बिना हाथ-पैर के पैदा हुए हैं, और जो आज दूसरे लोगों को प्रेरणा देने के लिए बड़े-बड़े कार्यक्रमों में मंच पर व्याख्यान देते हैं। एक वक्त कुछ लोग इस बात पर बहस कर रहे थे कि वे तो अंग्रेजी जानते नहीं हैं, और दुनिया घूमने कैसे जा सकते हैं, तो एक समझदार ने उन्हें याद दिलाया कि जो लोग मूक-बधिर होते हैं, न सुन सकते न बोल सकते, क्या वे कहीं जाते ही नहीं हैं? और यह बात भी कई बरस पहले की थी, अब तो आम मोबाइल फोन पर लोग दुनिया की किसी भी देश की जुबान में अनुवाद कर सकते हैं, किसी भी भाषा में पूछे गए सवाल का अपनी भाषा में जवाब देकर उसे मोबाइल फोन की स्क्रीन पर किसी तीसरी या चौथी भाषा में भी दिखा सकते हैं। जरूरत हौसले की थी, और टेक्नालॉजी ने तो वक्त के साथ सारी दिक्कतें दूर कर ही दीं। लेकिन टेक्नालॉजी हौसला नहीं दिला सकती, वह खुद का ही लगता है। लोगों को याद होगा कि कई बरस पहले जब अमरीका के न्यूयॉर्क में मौसम के बदलाव के खतरों पर एक अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम हो रहा था, तो स्वीडन की एक किशोरी, ग्रेटा थनबर्ग, लोगों का ध्यान खींचने के लिए एक बोट पर सवार होकर 35 सौ मील का समुद्री सफर तय करके न्यूयॉर्क पहुंची थी, और तब से लेकर अब तक वह मौसम के बदलाव के मोर्चे पर दुनिया की सबसे लड़ाकू नौजवान सामाजिक कार्यकर्ता बनी हुई है। इस लडक़ी ने अपने मां-बाप से लेकर अपने स्कूल तक, और अपने देश की संसद तक को अपने आंदोलन से मजबूर किया कि वे जीवनशैली में बदलाव लाएं ताकि पर्यावरण बच सके। उसने शुरूआत घर से की, फिर अपना शहर, फिर अपना देश, और फिर समंदर चीरते हुए वह ब्रिटेन से अमरीका पहुंची थी। हिन्दुस्तान में इस टीनएज के तकरीबन तमाम बच्चे पर्यावरण के बजाय अपने मोबाइल फोन के अगले मॉडल में मगन दिखते हैं, और पर्यावरण को बचाना उन्हें सफाई कर्मचारियों और रद्दी बीनने वालों का जिम्मा लगता है। इसलिए न सिर्फ हौसले की, बल्कि जागरूकता की नसीहत लेना भी मुमकिन है, कोई दस मंजिला इमारत के मलबेतले बिना खाए-पिए सर्द मौसम में जिंदा रहने का हौसला दिखा रहे हैं, तो कोई अपने खेलने-खाने के दिनों में दुनिया को बचाने, गैरजिम्मेदार और लापरवाह अमरीकी राष्ट्रपति को आईना दिखाने के लिए समंदर चीरने का हौसला दिखाते हैं, और इन सबसे बाकी दुनिया के सीखने का बहुत कुछ रहता है। ऐसी हर मिसाल पर लोगों को अपने आसपास के लोगों से भी चर्चा करनी चाहिए, और चाहे इनसे कितनी ही शर्मिंदगी क्यों न खड़ी होती हो, लोगों को अपने बच्चों से भी इन मिसालों की चर्चा करनी चाहिए। हो सकता है कि वे फोन पर ऑर्डर किए हुए पीत्जा का इंतजार करते हुए वीडियो गेम खेल रहे हों, लेकिन उन्हें असल जिंदगी की ऐसी करिश्माई लगती घटनाएं जरूर बतानी चाहिए, हो सकता है कि किसी एक बात से उन्हें अपनी बाकी जिंदगी के लिए एक बेहतर रास्ता सूझे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
भयानक भूकम्प से अभी हाल में गुजरे सीरिया में इमारतों का मलबा भी नहीं उठ पाया है, नीचे लाशें बिना कफन दफन हैं जिनकी गिनती भी नहीं हुई है, और शिनाख्त भी नहीं हुई है, और ऐसे सीरिया में आईएसआईएस नाम के इस्लामी आतंकी संगठन ने एक हमला किया है जिसमें 53 लोगों की मौत हो गई है। अगर किसी को उसके धर्म ने कुछ भला सिखाया होता तो वे लोग आज भूकम्प से तबाह लोगों की मदद में लगे रहते, अभी इसी भूकम्प में पड़ोस के टर्की में मलबे के नीचे से दस दिन बाद एक लडक़ी जिंदा निकली है, उससे सबक लेकर सीरिया में भी लोगों को जिंदा निकालने की कोशिश करते, लेकिन उन्हें अभी धर्म के आधार पर आतंकी हमले सूझ रहे हैं। और यह हमला कोई अनोखा नहीं है, अभी हफ्ते भर के भीतर ही ऐसे ही एक दूसरे हमले में इसी आतंकी संगठन ने 16 लोगों को मार डाला था, और दर्जनों का अपहरण कर लिया था। एक दूसरी खबर पाकिस्तान की है जहां प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने अभी ट्वीट किया है कि पाकिस्तान न सिर्फ आतंक को उखाड़ फेंकेगा बल्कि आतंकियों को कानून के कटघरे तक लाकर मौत की सजा दिलवाएगा। उन्होंने लिखा है कि पिछले दो दशक में इस देश ने अपना लहू बहाकर भी आतंक से मुकाबला किया है, और उसने इस दुष्टता को हमेशा के लिए खत्म करने की कसम खाई है। पाक प्रधानमंत्री वहां की कारोबारी राजधानी करांची के पुलिस मुख्यालय पर कल हुए आतंकी हमले के संदर्भ में बोल रहे थे जिसमें चार लोग मारे गए थे, और 14 जख्मी हुए थे। पाकिस्तान के आतंकी संगठन तहरीक-ए-तालिबान (टीटीपी) ने इस हमले की जिम्मेदारी ली है।
जिस सीरिया से हमने आज बात शुरू की है वह सीरिया बरसों से गृहयुद्ध से गुजर रहा है, वहां के कई इलाके सरकारविरोधी विद्रोहियों के कब्जे में है। और वह इलाका भूकम्प में सबसे अधिक तबाह हुआ है। वहां तक अंतरराष्ट्रीय राहत पहुंचने में भी बहुत मुश्किल आई है। और वहां से यह मांग भी उठ रही है कि पड़ोसी टर्की से इस इलाके में राहत आने के लिए और रास्ते खोले जाएं, और सीरिया की सरकार भी इन इलाकों तक आवाजाही खोले। जब देश बरसों से चले आ रहे गृहयुद्ध, और फौजी हवाई हमलों का शिकार रहा है, और आज वहां दसियों हजार लोगों की भूकम्प से मौत का अंदेशा है, तब भी धार्मिक आतंकियों को जानलेवा हमलों के अलावा और कुछ नहीं सूझ रहा है। ऐसा भी नहीं कि धर्म से जुडऩे का मतलब नेक कामों से रिश्ता खत्म हो जाना ही होता है। दुनिया के बहुत से देशों में सिक्ख संगठन राहत पहुंचाने में सबसे आगे रहते हैं, और वे मुसीबत के वक्त अपने गुरुद्वारों को भी दूसरे धर्म के लोगों की प्रार्थना के लिए खोल देते हैं। एक वक्त ऐसा भी था जब सिक्ख धर्म की सत्ता को अपने कब्जे में किए हुए भिंडरावाले ने पंजाब में छांट-छांटकर गैरसिक्खों को अपने आतंकी हत्यारों से निशाना बनवाया था, लेकिन सिक्ख उससे उबर गए हैं, और वे आज दुनिया में राहत पहुंचाने में सबसे आगे शामिल रहते हैं। दूसरी तरफ आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन इस्लाम के नाम पर गृहयुद्ध और भूकम्प से मलबा हुए देश में आतंकी हमले किए जा रहे हैं।
सीरिया, और कुछ ही दूरी पर बसे हुए एक दूसरे मुस्लिम देश पाकिस्तान, इन दोनों में मजहबी आतंकियों को देखें, तो ये अपने-अपने देश की सरकारों के काबू से बाहर हैं, और धर्म के नाम पर ये अपने ही धर्म के लोगों को मार रहे हैं। अभी 20 दिन पहले पाकिस्तान के पेशावर में पुलिस के इलाके की एक मस्जिद में आतंकी आत्मघाती हमला किया गया था जिसमें हमलावर ने पुलिसवर्दी के भीतर विस्फोटकों से लैस होकर नमाज के दौरान धमाका किया, और करीब पांच दर्जन लोग मारे गए थे, और डेढ़ सौ से अधिक जख्मी हुए थे। आज पाकिस्तान में लोगों के खाने को आटा नहीं है, गाडिय़ां चलाने को पेट्रोल नहीं है, बिजली बंद है, और पिछले बरस की बाढ़ से देश की करोड़ों की आबादी अब तक उबर नहीं पाई है, लेकिन धार्मिक आतंकियों को कत्ले-आम सुहा रहा है। मतलब यह कि जिंदगी को बचाने के काम में धर्म की दिलचस्पी बड़ी सीमित रहती है, लेकिन थोक में कत्ल करने में धर्म दौड़ में सबसे आगे रहता है। हकीकत तो यह है कि पिछली सदियों में थोक में हुए अधिकतर कत्ल धर्म के नाम पर, धर्म की वजह से, धर्म के झंडे-डंडे के साथ ही हुए हैं।
दम तोड़ते देशों में मजहबी दहशतगर्दी के कत्ले-आम से बाकी दुनिया के लिए भी कुछ सबक है। एक वक्त जो देश अच्छे-भले चल रहे थे, वहां पर धार्मिक आतंकी संगठन इसलिए पनप और हावी हो पाए कि वहां लोगों के बीच धार्मिक कट्टरता पहले तो धार्मिक रीति-रिवाजों तक थी, बाद में वह कट्टरता में बदली, और फिर उसके बाद उसे हिंसा में तब्दील होने में अधिक वक्त नहीं लगा। दुनिया के जो देश आज वैज्ञानिक सोच खोकर धर्मान्धता के शिकार हो रहे हैं, उन्हें पाकिस्तान और सीरिया जैसे दुनिया के बहुत से देशों का इतिहास देखना चाहिए कि एक वक्त वहां धर्म तो था, लेकिन धार्मिक-आतंकी नहीं थे। धर्म का मिजाज उसे कट्टरता की तरफ ले जाता है, यह कट्टरता उसे हिंसा की तरफ ले जाती है, और यह हिंसा उसे आतंकी बनाकर कामयाब होती है। इसलिए जिन देशों को, जिन लोगों को आज अपना धर्म सुहा रहा है, और जिन्हें अपने धर्म की कट्टरता पर भी उसे तालिबानी बुलाने पर बड़ी आपत्ति होती है, उन्हें यह समझना चाहिए कि यह पहाड़ से लुढक़ती हुई चट्टान सरीखी नौबत है जिसकी रफ्तार बढ़ती चलती है, और जो आखिर में जाकर जानलेवा ही साबित होती है। धर्म को जब भी नफरत से जोड़ा जाता है, किसी दूसरे धर्म के खिलाफ उसे खड़ा किया जाता है, देशों के कानून और संविधान के मुकाबले धर्म को अधिक ऊंचा दर्जा दिया जाता है, तो वहां पर अपने-अपने धर्मों के तालिबान बनाने का रास्ता खोल दिया जाता है, यह मंजिल पाने में वक्त कम या अधिक लग सकता है। समझदार देशों के लिए यह भी समझने की बात है कि जो देश मजहबी आतंक के शिकार हैं, उन देशों की तमाम संभावनाएं इन आतंकियों से जूझने में खत्म हो जाती हैं, उनकी अंतरराष्ट्रीय साख खत्म हो जाती है, उनकी आने वाली कई पीढिय़ां अपनी संभावनाओं को छू नहीं पातीं। इसलिए धर्म नाम के इस खूंखार जानवर को इंसानी लहू चटा-चटाकर इतना इंसानखोर नहीं बना देना चाहिए कि वह स्वर्ग नाम की पाखंडी धारणा को पाने के फेर में अपने ही देश, अपने ही धर्म, अपने ही लोगों को थोक में मारने में लग जाए। धर्म और धार्मिक आतंक के बीच नंगी आंखों से दिखने वाली कोई सीमारेखा नहीं होती है, इनके बीच सलेटी रंग का एक समंदर होता है, जिसमें मामला कहां तक पहुंचा है यह पता नहीं लगता। धर्म की कातिल ताकत को समझने की जरूरत है, और सीरिया से लेकर पाकिस्तान तक, अफगानिस्तान से लेकर कई अफ्रीकी देशों तक लोग धर्म के झंडे लेकर इस ताकत को साबित कर रहे हैं, एक-एक हमले में दर्जनों और सैकड़ों लोगों को मार-मारकर।
मध्यप्रदेश हिन्दुस्तान का बाबाबाड़ा लगता है, जिस तरह मुर्गियों का, गाय-भैंस का, या सुअर का बाड़ा होता है, उसी तरह मध्यप्रदेश बाबाओं का बाड़ा है। इस मामले वह हरियाणा नाम के एक बाबाबाड़ा को टक्कर देता है। राजस्थान में एक बलात्कारी आसाराम का बाड़ा चलता था जिसमें बलात्कार के शिकार भक्तों के परिवार का हाल देखते हुए भी दूसरे भक्त जानवरों की तरह बेदिमाग जुटते थे, और आज भी जुटते हैं। ऐसा ही हरियाणा में कई बलात्कारी और हत्यारे बाबाओं का हाल है जिनकी दुकानें उनके जेल में रहने के बाद भी दूर छत्तीसगढ़ के सरकारी मेलों तक में चल रही हैं, और साबित कर रही हैं कि हत्या या बलात्कार जैसे जुर्म किसी को सरकारी मेले में स्टॉल लगाने से नहीं रोक सकते। ऐसे माहौल में मध्यप्रदेश के कुछ बाबाओं का ऐसा बोलबाला है कि वहां से राजनीति को रास्ता मिलते दिखता है। प्रदेश की दोनों बड़ी पार्टियों के नेता इन बाबाओं के पैरों पर पड़े रहते हैं, और सरकारें अपनी ताकत इनके पांव दबाने में झोंक देती है। हिन्दी के कुछ समाचार चैनल इन बाबाओं की मेहरबानी से रोटी पर लगाने के लिए घी-मक्खन और जैम कमाते हैं, और जिंदगी से निराश आम जनता इन्हीं बाबाओं में अपनी तमाम दिक्कतों का इलाज तलाशती फिरती रहती हैं।
ऐसे ही पाखंडी बाबाओं का बोलबाला मध्यप्रदेश से रिस-रिसकर छत्तीसगढ़ तक में आ जाता है, और यहां पर कुछ कुख्यात भूमाफिया अपनी संदिग्ध कमाई से इन त्रिकालदर्शी बाबाओं के आयोजन करते हैं, जिनमें इन बाबाओं को भक्तों की भीड़ के कपड़ों में लगे दाग का राज भी दिखता है, यह एक अलग बात है कि आयोजक-माफिया का कोई जुर्म उन्हेें नहीं दिखता। मध्यप्रदेश में अभी एक बाबा ने रूद्राक्ष बांटने का एक बखेड़ा खड़ा किया जिसमें लाखों लोग जुट गए, ऐसी भगदड़ मची दस-बीस किलोमीटर तक सडक़ें जाम हो गईं, लेकिन बाबा 30 लाख रूद्राक्ष बांटने पर उतारू रहे, और वहां के मीडिया के मुताबिक जब इस भीड़ में मौत भी हो गई, तो भी यह बाबा राक्षसी हॅंसी के साथ मौत के बारे में कहते रहा कि मौत आनी है तो आएगी ही। सरकार का किसी तरह का कोई काबू इस तरह की भीड़ पर नहीं था क्योंकि तमाम बड़े राजनीतिक दलों के नेता ऐसे हर बाबा के चरणों की धूल पाने पर उतारू रहते हैं, जब तक कि वे बलात्कारी साबित न हो जाएं।
किसी भी बाबा की कामयाबी उस प्रदेश में न सिर्फ वैज्ञानिक सोच की कमी बताती है, बल्कि वह सरकार की नाकामी और लोकतंत्र की असफलता का एक संकेत भी होती है। जहां पर लोग सरकार और अदालत पर भरोसा करते हों, जहां पर जिंदगी की उनकी दिक्कतें निर्वाचित सरकारों से दूर होती हों, वहां पर कोई किसी बाबा के फेर में आखिर पड़ेंगे क्यों? जब सरकारी इलाज किसी काम का नहीं रहता, लोगों में भरोसा पैदा नहीं कर पाता, तब जाकर लोग पाखंडियों के चक्कर में पड़ते हैं, जो अलग-अलग कई किस्म के धर्मों के चोले पहने हुए रहते हैं, और अलग-अलग तरीके से लोगों को धोखा देते हैं। सरकारें भी ये चाहती हैं कि जनता बाबाओं के चक्कर में इस हद तक पड़ी रहें कि वे अपनी जिंदगी की दिक्कतों के लिए, बेइंसाफी के लिए सरकार पर तोहमत लगाने के बजाय अपने ही पिछले जन्मों के गिनाए जा रहे कुछ काल्पनिक कुकर्मों को जिम्मेदार मानें, और सरकार को बरी करें। यह सिलसिला हिन्दुस्तान की आजादी से या लोकतंत्र से शुरू हुआ हो ऐसा भी नहीं है, यह सिलसिला तो कबीलों में तब से शुरू हो गया था जब सरदार ने किसी ओझा को तैयार किया था जो कि लोगों की जिंदगियों की मुश्किलों के लिए कुछ दुष्टात्माओं को जिम्मेदार ठहराता था। वहां से शुरू होकर आधुनिक धर्म को बनाने, ईश्वर की धारणा विकसित करने, और फिर इस धर्म के एक विस्तार के रूप में तरह-तरह के बाबा, पादरी, मौलवी खड़े करने की यह साजिश नाकामयाब राजाओं की एक कामयाबी रही है, जो आज भी जारी है।
चाहे ईसाईयों की चंगाई सभा हो, चाहे जन्नत और जहन्नुम के सपने और डर दिखाकर लोगों को बरगलाने वाली तकरीरें हों, या फिर आज के बाबाओं के आए दिन होने वाले भगवा जलसे हों, इन सबका मकसद सिर्फ यही है कि किस तरह लोगों की दिक्कतों के लिए जिम्मेदारी सरकार पर आने के बजाय उसे लोगों के तथाकथित पाप के सिर मढ़ा जाए, किस तरह चमत्कार को एक इलाज और समाधान बताया जाए, किस तरह लोगों को सरकार की तरफ देखने से रोका जाए, इसी मकसद के साथ राजनीति भी इन बाबाओं को स्थापित करती है, और सरकारें चाहती हैं कि ऐसे बाबा हमेशा बने रहें। सरकारें चाहती हैं कि इस देश से वैज्ञानिक सोच पूरी तरह खत्म हो जाए, और लोग चमत्कारों की चाह में ऐसे दरबारों में सिर हिलाते बैठे रहें, बजाय सडक़ों पर खड़े होकर सरकार से दिक्कतों का इलाज मांगते हुए। इसलिए ये बाबा जब कानून तोड़ते हैं, तो भी सरकारें इन्हें अनदेखा करती हैं। ये जब इलाज के बड़े-बड़े दावे करते हैं, तब भी राज्य वहां लागू चमत्कार-विरोधी कानूनों का इस्तेमाल नहीं करते हैं। मध्यप्रदेश शायद ऐसे बाबा लोगों के मामले में हरियाणा के बाद दूसरे नंबर का राज्य बन गया है, और अब वहां का यह ताजा बाबा अपने बांटे जा रहे रूद्राक्ष के पक्ष में सरकारी विज्ञान प्रयोगशालाओं के प्रमाणपत्र का दावा भी खुलकर कर रहा है, और ऐसा दावा भी सरकार को मजेदार लग रहा है। हो सकता है कि मध्यप्रदेश को देखकर दूसरे प्रदेशों के बाबा भी सरकारी प्रयोगशालाओं के सर्टिफिकेट गिनाने लगें, और देश में विज्ञान की कुछ और हद तक मौत हो जाए।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
हिन्दुस्तानी मीडिया में नफरत फैलाने की अधिकतर जिम्मेदारी टीवी चैनलों के कुछ एंकरों ने उठा रखी है क्योंकि अपनी पुरानी पहचान के मुताबिक टीवी के दर्शकों का अक्ल से अधिक रिश्ता नहीं रह जाता, और उन्हें नफरत बेचना उसी तरह आसान हो जाता है जिस तरह सडक़ किनारे कोई तमाशा दिखाकर मंजन बेचना। हिन्दुस्तान में नफरत के ये सौदागर अच्छी तरह पहचाने हुए हैं, और इन्हें अपने इस काम पर बड़ा फख्र भी दिखता है। इन्हें हिन्दुस्तान की दिक्कतों पर चर्चा के बजाय यहां के मुकाबले पाकिस्तान में महंगा बिकता आटा और पेट्रोल चर्चा के लायक लगता है ताकि हिन्दुस्तानी लोग अपनी दिक्कतों को लेकर किसी बेचैनी से न घिरें। और फिर देश के भीतर, पड़ोसी देशों से, एक धर्म के खिलाफ दूसरे धर्म को खड़ा करके, मोहब्बत की बात करने वाले राहुल गांधी को खिलौनों से खेलने वाला पप्पू साबित करते हुए ये लोग नफरत को दूर-दूर तक और नई ऊंचाईयों तक ले जाने में लगे रहते हैं। ऐसे में अभी सोशल मीडिया पर कांग्रेस के एक नेता के साथ ऐसे दो नफरतजीवी एंकरों की तस्वीरों को पोस्ट करते हुए एक महिला पत्रकार ने लिखा- नफरत के इन सौदागरों को कभी इंटरव्यू न दें, इंटरव्यू देना ही है तो मुझे दे दें, मैं ले लूंगी। उसने आगे लिखा- नफरत, हिंसा, और राष्ट्र की एकता को तोडऩे वालों के सामने आना पाप है।
इससे एक बुनियादी सवाल खड़ा होता है कि क्या जाहिर तौर पर नफरत फैलाने में लगे हुए ऐसे टीवी एंकरों, या मीडिया के दूसरे लोगों से धर्मनिरपेक्ष और अमन-पसंद लोगों को बात नहीं करना चाहिए? यह सवाल दिलचस्प इसलिए भी है कि बड़े कारोबारी मीडिया का मालिकाना हक इन दिनों तरह-तरह के आर्थिक अपराधियों या विवादास्पद कारोबारियों के पास आ गया है। और अगर जाहिर तौर पर इनकी नीयत पल-पल उजागर न भी होती हो, तो भी उनका वह एजेंडा तो रहेगा ही। कभी-कभी उनके सवाल मासूम लग सकते हैं, लेकिन अपना नाखूनों और दांतों के बिना वे आखिर खाएंगे क्या? इसलिए यह तो तय है कि वे या तो हर बातचीत में नफरत को आगे बढ़ाने का अपना एजेंडा लागू करते होंगे, या फिर वे कुछ भले लोगों से भली या बुरी कैसी भी बातें करके उनकी साख का इस्तेमाल अपनी साख को बनाने और बढ़ाने में करते होंगे। टीवी से परे अखबारों में भी कुछ ऐसे होते हैं जो अपनी सारी साम्प्रदायिकता के बीच किसी एक धर्मनिरपेक्ष लेखक का एक कॉलम छापकर उसकी साख को अपनी साख में तब्दील करने का काम करते हैं। तो ऐसे में लिखने वाले लोगों, बहस में शामिल होने वाले लोगों, और इंटरव्यू देने वाले नेताओं या प्रमुख लोगों को क्या करना चाहिए?
वैसे तो जो लोग सार्वजनिक जीवन में हैं, उनके लिए यह कुछ मुश्किल काम ही होता है कि वे किसी भी माइक्रोफोन और कैमरे को मना कर सकें। और ऐसी मनाही का एक मतलब आगे के लिए दुश्मनी भी होता है। लेकिन भारतीय राजनीति में भी कुछ ऐसे लोग रहे हैं जिन्होंने कुछ चैनलों या कुछ अखबारों के लोगों के सवालों का जवाब देने से साफ मना कर दिया। इस वक्त अर्नब गोस्वामी टाईम्स नाऊ चैनल का मुखिया था, और वहां से नफरत फैलाता था, तो कुछ नेताओं ने भरी प्रेस कांफ्रेंस में भी टाईम्स नाऊ के रिपोर्टर के सवालों का जवाब देने से मना कर दिया था। ऐसा करना आसान नहीं रहता है क्योंकि कई बार नफरत से परे काम करने वाले मीडिया के लोग भी अपने नफरतजीवी साथी का साथ देने के लिए गिरोहबंदी पर उतर आते हैं, और नेता को एक पूरा बहिष्कार झेलना पड़ सकता है। फिर यह भी है कि इंटरव्यू देने वाले या प्रेस कांफ्रेंस लेने वाले लोगों का अपना नैतिक मनोबल भी इतना ऊंचा रहना चाहिए कि वे किसी बुरे मीडिया को मुंह पर साफ-साफ मना करने का हौसला रख सकें, और दिखा सकें।
लेकिन बुनियादी बात पर अभी भी चर्चा बाकी है कि ऐसे बदनाम मीडिया के बदनाम लोगों से बात करनी चाहिए या नहीं? इसका जवाब आसान नहीं हो सकता, लेकिन है जरूर। लोग इंटरव्यू दे सकते हैं, सवालों के जवाब दे सकते हैं, लेकिन उनमें से किस जवाब के किस हिस्से को किस तरह से पेश किया जाएगा, यह तो उसी बदनाम मीडिया के बदनाम रिपोर्टर या एंकर के हाथ में रहेगा। इसलिए ऐसे लोगों से बात करना कम खतरनाक नहीं होता है क्योंकि वे लोग वैचारिक रूप से असहमत लोगों से बात करने, उन्हें जगह देने का दिखावा भी करते हैं, और उनकी बातों को कुल मिलाकर तोड़-मरोडक़र अपने एजेंडा के मुताबिक इस्तेमाल भी कर लेते हैं। अगर पांच उंगलियां एक माईक और एक मुंह होने से ही कोई इंटरव्यू लेने के हकदार हो सकते हैं, तो बदनाम मीडिया के बदनाम लोगों के मुकाबले बेहतर साख वाले छोटे मीडिया के अनजान लोगों से भी बात करना बेहतर है।
नेताओं के मुकाबले सडक़ों पर आम जनता अधिक जागरूक रहती हैं क्योंकि उसका दांव पर कम लगा रहता है। वह कई बार कई बदनाम चैनलों के लोगों से बात करने से मना कर देती है, और उन्हें आईना भी दिखाती है कि उनकी किन हरकतों की वजह से वे उनसे बात करना नहीं चाहते। लेकिन वोटों की राजनीति में लगे हुए लोग हर बार इतना खरा-खरा नहीं बोल पाते। बीच-बीच में ऐसा जरूर होता है कि कोई राजनीतिक पार्टी किसी चैनल का कम या अधिक समय तक पूरा बहिष्कार करती है, वहां पर अपने प्रवक्ता नहीं भेजती है, लेकिन धीरे-धीरे फिर बीच का कोई रास्ता निकाला जाता है, और सार्वजनिक जीवन की इस बात को मान लिया जाता है कि राजनीति में कोई स्थाई शत्रु नहीं होते। लेकिन अभी सोशल मीडिया पर यह सवाल उठना एक बड़ा प्रासंगिक मामला है, और इस पर चर्चा जरूर होनी चाहिए। ऐसी चर्चा से नफरतजीवी लोगों में थोड़ी सी बेचैनी होगी क्योंकि सवाल पूछने के उनके पेशेवर एकाधिकार के खिलाफ जाकर दूसरे लोग भी उनसे सवाल कर सकेंगे। और सवाल करने वालों से सवाल न करना कोई शर्त तो हो नहीं सकती। ऐसी जागरूकता से ही नफरत फैलाने वाले लोगों के हौसले पस्त हो सकते हैं। जो उनका बहिष्कार करना चाहें, वह भी ठीक है, और जो उनसे बात करते हुए कुछ असुविधाजनक सवाल करना चाहें, वह भी ठीक है। लेकिन उन्हें स्वाभाविक मीडिया मानकर उनकी नफरत को अनदेखा करना ठीक नहीं है। वरना नफरत पर टिकी हुई मीडिया आज के लिए नवसामान्य हो जाएगी। आज हिन्दुस्तानी लोकतंत्र में कई किस्म की नफरत नवसामान्य हो गई है, लेकिन बदनाम मीडिया को नवसामान्य का दर्जा देना देश में नफरत को और फैलाने से कम कुछ नहीं होगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
देश के एक सबसे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय, जेएनयू, के एक प्राध्यापक सुरजीत मजूमदार अभी ओडिशा में राजधानी के उत्कल विश्वविद्यालय सभागार में एक नागरिक मंच के कार्यक्रम में अंबेडकर पर बोल रहे थे कि कुछ लोगों ने चिल्लाते हुए उन्हें गालियां बकीं, और आयोजकों के साथ धक्का-मुक्की की। प्रोफेसर मजूमदार अंबेडकर के सिद्धांतों और उद्देश्यों पर बात करते हुए प्राकृतिक संसाधनों को कुछ लोगों को सौंपे जाने की बात कह रहे थे, तो यह बात कुछ बाहरी लोगों को नागवार गुजरी। वहां मौजूद लोगों का कहना है कि उन्होंने अडानी जैसे किसी उद्योगपति का नाम नहीं लिया था, लेकिन इस मुद्दे पर बोलना ही कुछ लोगों को गवारा नहीं हुआ, और वे विरोध और धक्का-मुक्की पर उतर आए। इस धक्का-मुक्की में एक स्थानीय प्राध्यापक गिरफ्तार भी हुए हैं, और हमलावरों को दक्षिणपंथी गुटों से जुड़ा बताया गया है।
अब अंबेडकर वैसे भी लोगों को नहीं सुहाते हैं। उनकी बातें संविधान के तहत तो हैं ही, वे बातें सबसे कुचले और वंछित तबकों को हक दिलाने की बातें भी हैं। जिस तरह वे संविधान के लिए अपनी सोच सामने रखते हुए हमेशा ही एक सामाजिक न्याय की वकालत करते रहे, उसकी वजह से वे दलितों के लिए एक प्रेरणा भी बने कि वे जात-पात और छुआछूत मानने वाले हिन्दू समाज को छोडक़र बाहर निकलें, और जात-पात न मानने वाले बौद्ध समाज में जाएं। इस तरह देश के कट्टर हिन्दुओं की नजरों में अंबेडकर इसलिए भी खटकते हैं कि उन्होंने हिन्दू समाज के सबसे निचले कहे जाने वाले तबके, पैरोंतले लगातार कुचले जाने वाले दलितों को हिन्दू समाज से हटा दिया। अब इसके बाद अगर उनकी नसीहत को याद दिलाते हुए कोई जानकार और विद्वान प्रोफेसर प्राकृतिक स्रोतों को लेकर यह फिक्र जाहिर करता है कि ये स्रोत कुछ लोगों को दिए जा रहे हैं, तो इसका एक मतलब यह भी होता है कि वे हिन्दू समाज के भीतर के दलितों के शोषण की चर्चा करते हुए उससे आगे बढक़र आदिवासियों के हक की बात भी कर रहा है, और यह बात हिन्दुत्व के ठेकेदारों, और कारखानेदारों के दलालों, दोनों को खटकने वाली बात है, और आज के हिन्दुस्तान में एक तबका ऐसा खड़ा हो गया है जो कि ये दोनों ही झंडे अपने डंडों पर लगाकर चल रहा है।
जेएनयू जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विश्वविद्यालय के प्रोफेसर को सुनने का ओडिशा में यह गिना-चुना मौका ही रहा होगा। ओडिशा के बारे में लोगों को यह याद रखना चाहिए कि वहां दलितों से बड़ा मुद्दा आदिवासियों का है, और आदिवासियों के जंगल, उनके पहाड़, इन सबको कारखानेदारों को देने के खिलाफ दुनिया का एक सबसे चर्चित आंदोलन ओडिशा में चल रहा है। ऐसे में अभी की इस ताजा घटना को समझने की जरूरत है कि सिर्फ पढ़े-लिखे और समझदार, सोचने वाले लोगों के बीच अगर एक सभागृह में कोई कार्यक्रम हो रहा है, तो वहां पहुंचकर विरोध करना अनायास नहीं हो सकता, और यह विरोध जेएनयू के नाम का भी रहा होगा, और जंगलों पर आदिवासियों के हक की वकालत का भी विरोध रहा होगा। ऐसा लगता है कि विरोध की यह साजिश हमलावर हिन्दुत्ववादियों और कारखानेदारों की तरफ से पहले से गढ़ी गई होगी। क्योंकि हमलावर हिन्दुत्ववादियों को खुद होकर तो जंगलों पर आदिवासियों के हकों की अलग से समझ नहीं है। ऐसा लगता है कि कारखानेदारों के दलालों ने अपने प्राकृतिक समर्थक हिन्दुत्ववादी हमलावरों को साथ लेकर इस कार्यक्रम में यह विरोध किया। यह विरोध अपने आपमें बतलाता है कि आज के हिन्दुस्तान में अंबेडकर की सोच की कितनी जरूरत है, और इस सोच का विरोध करने वाली ताकतें कितने हमलावर तेवरों के साथ मौजूद हैं।
न सिर्फ हिन्दुस्तान में, बल्कि दुनिया के तमाम बड़े जंगलों वाले देशों में कारखानेदार और कारोबारी जिस तेज रफ्तार से और जितनी बड़ी मशीनों के साथ कुदरत पर हमला कर रहे हैं, उसकी भरपाई अगले लाखों बरस तक होने के कोई आसार नहीं रहेंगे। अमेजान के जिन जंगलों से दुनिया भर में बिखरा हुआ कारोबार करने वाली कंपनी अमेजान ने अपना नाम लिया है, अमेजान के उन जंगलों को खत्म करने की पूरी कोशिशें चल रही हैं। यह कुदरत का बड़ा अजीब सा इंतजाम है कि जहां खनिज हैं वहीं पर जंगल हैं, और जहां पर जंगल हैं वहीं पर आदिवासी हैं, और इसलिए आदिवासियों की बेदखली के बिना खनिज निकालना मुमकिन नहीं है। यह हाल हम छत्तीसगढ़ में हसदेव के सबसे घने जंगलों के नीचे से कोयला निकालने की अडानी की हड़बड़ी में भी देख रहे हैं, और दुनिया भर के जंगलों में अलग-अलग कंपनियों के हमलों की शक्ल में भी। ऐसे में अगर अंबेडकर को याद करते हुए कोई विचारक इन हमलों के खतरे गिनाता है, तो आज ऐसे विचारक को ही एक खतरा मानकर उस पर हमले किए जा रहे हैं। इनसे पहली बात तो यही साबित होती है कि आज लोगों के कुदरत पर हक बनाए रखने के लिए अंबेडकर की सोच कितनी जरूरी है। दूसरी बात यह साबित होती है कि हिन्दुस्तान में कारोबारी हमलावर गिरोह सिर्फ राष्ट्रवादी खाल ओढक़र नहीं आते, वे हिन्दुत्ववादी खाल ओढक़र भी आ सकते हैं, आ रहे हैं। अभी जब एक अंतरराष्ट्रीय भांडाफोड़ एजेंसी ने अडानी पर खाता-बही में हेरफेर करके, विदेशी रास्तों से संदिग्ध पैसा लाकर कारोबार को बड़ा दिखाने की तोहमत लगाई, तो रातों-रात अडानी ने इसे हिन्दुस्तान पर हमला करार दिया। और अडानी के बचाव में स्वघोषित हिन्दू सांस्कृतिक संगठन आरएसएस ने झंडा-डंडा उठा लिया। जहां पर साफ-साफ जांच एजेंसियों के हरकत में आने की जरूरत थी, वहां पर तिरंगे झंडे से लेकर भगवा झंडे तक की ढाल खड़ी कर दी गई। इस पूरे सिलसिले को समझने की जरूरत है। और ऐसे सिलसिले को समझाने वाले न रहें, इसलिए भी जेएनयू जैसी जगह को खत्म करने की खुली कोशिश चल रही है। जिस दिन जेएनयू जैसे संस्थानों से उपजी हुई जागरूकता खत्म हो जाएगी, उस दिन हिन्दुस्तान में जल, जंगल, जमीन को बचाने के आंदोलन भी खत्म हो जाएंगे। और देश का एक हमलावर तबका वैसे ही ‘अच्छे दिन’ लाने में लगा हुआ है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
नरेन्द्र मोदी सरकार ने 2015 में स्मार्ट सिटी मिशन शुरू किया था जिसके तहत सौ शहरों को छांटकर उन्हें शहरी सुविधाओं के मामले में बेहतर बनाने का बीड़ा उठाया गया था। अगले महीने मार्च 2023 में इनमें से 22 शहर स्मार्ट होने जा रहे बताए गए हैं, और दावा किया गया है कि इससे वहां के लोगों की जिंदगी बेहतर होगी, और वे एक साफ-सुथरे माहौल में रह सकेंगे। इन शहरों में भोपाल, इंदौर, आगरा, वाराणसी, भुवनेश्वर, चेन्नई, कोयम्बटूर, इरोड़, रांची, सालेम, सूरत, उदयपुर, विशाखापत्तनम, अहमदाबाद, काकीनाड़ा, पुणे, वेल्लूर, पिम्परी-चिंचवाड़ा, मदुरै, अमरावती, तिरुचिरापल्ली, और तंजौर के नाम हैं। अब तक इन शहरों में एक लाख करोड़ रूपये के प्रोजेक्ट पूरे हो चुके हैं, और तकरीबन उतने ही और शुरू किए गए हैं। इसमें आधी रकम केन्द्र सरकार देता है, और आधी रकम राज्य सरकार या स्थानीय म्युनिसिपल की लगती है।
जब यह योजना शुरु हुई थी तब भी हमने इसके खिलाफ लिखा था कि यह निर्वाचित म्युनिसिपलों के अधिकारों में दखल है, और स्मार्ट सिटी का काम करने वाली एक अलग बनाई गई कंपनी उन शहरों के म्युनिसिपलों के प्रति जवाबदेह नहीं रहती हैं जो कि एक असंवैधानिक नौबत है। भारत में केन्द्र, राज्य, और स्थानीय संस्थाओं से परे कुछ नहीं हो सकता, लेकिन स्मार्ट सिटी की पूरी धारणा ही केन्द्र सरकार की सोच पर शहरों को ढालने के लिए राज्यों पर थोपी गई थी, और ‘स्मार्ट’ बनने की हड़बड़ी में राज्य इस बात की अनदेखी कर गए थे कि केन्द्र की सोच पर राज्यों को बराबरी से खर्च करना पड़ रहा है, और उनकी अपनी कल्पनाशीलता की कोई जगह इसमें नहीं है। इसके अलोकतांत्रिक मिजाज को भी अनदेखा किया गया था, और अभी छत्तीसगढ़ के हाईकोर्ट में इसके खिलाफ एक पिटीशन पर सुनवाई हो ही रही है। हम ‘स्मार्ट’ बनने जा रहे ऐसे शहरों का हाल देखें तो इनमें से मध्यप्रदेश का इंदौर बार-बार देश का सबसे साफ शहर घोषित हो रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि मध्यप्रदेश की कारोबारी राजधानी होने की वजह से इंदौर म्युनिसिपल की कमाई अंधाधुंध है, और उतना खर्च करके कोई भी शहर साफ रखा जा सकता है। देश के किसी भी शहर में अगर म्युनिसिपल या वार्ड मेम्बर यह तय कर लें कि उन्हें चारों तरफ से रकम जुटाकर शहर को साफ रखना है, तो शहर की संपन्नता में यह मुमकिन तो है, लेकिन सफाई के ऐसे टापू बाकी प्रदेश के हक को छीनते हैं, और एक स्थानीय वाद को बढ़ावा देते हैं। भारत में ही दक्षिण भारत के कुछ शहरों ने सफाई की योजना इस तरह बनाई है कि उन पर धेला भी खर्च नहीं किया जा रहा है, और कचरे से कमाई की जा रही है। ऐसे में सैकड़ों करोड़ सालाना खर्च करके किसी टैक्स देने वाले शहर को साफ रखना कोई बड़ी चुनौती नहीं है। होना तो यह चाहिए कि कचरे को छांटना और सफाई रखना स्थानीय जनता के मिजाज में लाया जाना चाहिए ताकि उस पर टैक्स का पैसा खर्च न हो। शहरों पर अनुपातहीन खर्च करके उन्हें ‘स्मार्ट’ बनाने की सोच असंतुलित विकास है, और जब निर्वाचित संस्था के काबू से परे ऐसा काम होता है, तो वह पूरी तरह से अलोकतांत्रिक भी रहता है।
जिस तरह राज्यों में डीएमएफ के नाम पर जो जिला खनिज निधि अंधाधुंध बर्बाद करने के लिए कलेक्टरों के हाथ रहती है, उसी तरह ‘स्मार्ट’ सिटी के नाम पर ऐसा अंधाधुंध खर्च म्युनिसिपल कमिश्नरों के हाथ आ जाता है। और उसकी बर्बादी की मिसाल डीएमएफ से कम नहीं है। यह राज्य के नेताओं और अफसरों की मनमर्जी से होने वाली बर्बादी का जश्न रहता है। हमने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में अभी-अभी देखा कि ऐतिहासिक सरकारी खेल मैदान को काटकर किस तरह खाने-पीने का एक बहुत महंगा बाजार स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत बनाया जा रहा है, और फिर मानो उसे आबाद करने के लिए आसपास कई किलोमीटर तक सडक़ किनारे के गरीब ठेलेवालों को हटा दिया गया है कि अगर वे भी खानपान बेचते रहेंगे, तो स्मार्ट सिटी का बनाया महंगा बाजार कैसे चलेगा। कुछ दर्जन नई चमचमाती और बड़ी दुकानों को चलाने के लिए सैकड़ों गरीबों को बेदखल और बेरोजगार कर दिया गया, और इसे स्मार्ट सिटी बनाने के नाम पर किया गया है। यह पूरा सिलसिला अमानवीय भी है, और तानाशाह भी है, क्योंकि बिना किसी तर्कसंगत और न्यायसंगत आधार के बरसों से सडक़ किनारे कारोबार कर रहे छोटे और गरीब लोगों को इस तरह रातों-रात हटा देना एक सरकारी गुंडागर्दी के अलावा कुछ नहीं है। और ऐसा इसलिए किया गया है कि स्मार्ट सिटी योजना के तहत एक अफसर के मातहत सैकड़ों करोड़ खर्चने का जिम्मा और हक दोनों दे दिया गया है। जिस तरह डीएमएफ को कलेक्टरों का पॉकेटमनी कहा जाता है, और उसके तहत होने वाले खर्च के ठेकों और सप्लाई में जमकर भ्रष्टाचार होता है, ठीक वैसा ही शहरों में स्मार्टसिटी के नाम पर चलते रहता है जहां दसियों करोड़ के शौचालय बनते रहते हैं, और करोड़ों के कचरे के डिब्बे लगते रहते हैं, और कोई जवाबदेही नहीं रहती।
जब देश में पंचायत या म्युनिसिपलों की शक्ल में स्थानीय शासन का संवैधानिक इंतजाम है, तो स्मार्ट सिटी के नाम पर यह अफसरशाही शुरू से ही गलत थी, लेकिन मोदी की विरोधी पार्टियों में इसे समझने की फुर्सत नहीं थी। ऐसे खर्च का एक सामाजिक ऑडिट होना चाहिए, और अदालत में इस पूरी सोच को शिकस्त मिलनी चाहिए कि किसी निर्वाचित म्युनिसिपल से अधिक अधिकार किसी एक अफसर को रहे। स्मार्ट सिटी बनाने के नाम पर अंधाधुंध खर्च करके एक अलोकतांत्रिक व्यवस्था चलाना अपने आपमें बेवकूफी है, और यह उम्मीद है कि छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट लोकतंत्र विरोधी इस सोच को रोक पाएगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
सुप्रीम कोर्ट के एक और जज को राज्यपाल बनाया गया है जो अयोध्या में राम मंदिर बनाने, और तीन तलाक को गैरकानूनी करार देने, और नोटबंदी को जायज ठहराने वाली बेंच पर रहे हैं। जज एस.अब्दुल नजीर अभी 4 जनवरी को ही रिटायर हुए थे, और 40 दिन के भीतर उन्हें आन्ध्र का राज्यपाल बना दिया गया है। अयोध्या में मंदिर का फैसला देने वाली पांच जजों की संविधान बेंच के रंजन गोगोई को मोदी सरकार राज्यसभा भेज चुकी है, और अशोक भूषण को एनसीएलटी का अध्यक्ष बना चुकी है। यह बात भी खबरों में आ चुकी है कि अयोध्या पर मंदिर बनाने के ऐतिहासिक फैसले को पांच जजों की बेंच में अशोक भूषण ने ही लिखा था। इन पांच में से एक, डी.वाई.चन्द्रचूड़ चीफ जस्टिस बन चुके हैं। कांग्रेस ने एस.अब्दुल नजीर को राज्यपाल बनाने के फैसले की आलोचना करते हुए कहा है कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमला है। कांग्रेस ने अपने तर्क की वकालत में एक गुजर चुके बड़े भाजपा नेता और सुप्रीम कोर्ट के बड़े वकील रहे, केन्द्रीय कानून मंत्री रहे अरूण जेटली का संसद के एक भाषण का वीडियो पोस्ट किया है जिसमें जेटली कह रहे हैं कि रिटायर होने के ठीक पहले के जजों के फैसले रिटायरमेंट के बाद मिल सकने वाले कामों से जुड़े रहते हैं। यह बात अरूण जेटली ने संसद में कही थी, लेकिन संसद के बाहर भी बहुत से लोगों में यह चर्चा होती रहती है कि जजों को रिटायर होने के बाद क्या ऐसे कोई काम लेने चाहिए जिनमें कोई रिटायर्ड जज होना जरूरी न हो। भारत में ऐसी दर्जनों कुर्सियां तय की गई हैं जिन पर रिटायर्ड हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जजों को ही नियुक्त किया जा सकता है, लेकिन राजभवन वैसी बंदिश की जगह नहीं है, राज्यपाल बनाने के लिए जज होना कहीं जरूरी नहीं है।
हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम जजों और अफसरों के रिटायर होने के बाद उन्हें किसी जगह मनोनीत करने के खिलाफ लगातार लिखते आए हैं। बरसों से हम यह मुद्दा उठाते आए हैं कि किसी भी राज्य में वहां काम कर चुके जज या अफसर को किसी पद पर मनोनीत नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसी आस लगाए हुए लोग रिटायरमेंट के पहले सरकार की मर्जी के काम करने का खतरा रखते हैं। यह सीधे-सीधे हितों के टकराव का एक मामला रहता है, और इससे इंसान बच नहीं सकते हैं। अरूण जेटली ने संसद में इसी इंसानी कमजोरी के बारे में कहा था, और हमने इस बात का विस्तार पिछले दस-बीस बरस में हर बरस एक से अधिक बार किया है कि राज्य से रिटायर हो रहे लोगों को उस राज्य में कोई नियुक्ति न मिले। हम यह देखते ही आए हैं कि बहुत सारी संवैधानिक कुर्सियां सत्ता के साथ गठबंधन में खोखली हो जाती हैं, और ऐसे ओहदों की जिम्मेदारी अहसान चुकाते दम तोड़ देती है।
हिन्दुस्तान में वैसे भी बहुत सारे संवैधानिक आयोग, तरह-तरह के ट्रिब्यूनल, कौंसिल ऐसे हैं जहां पर रिटायर्ड जजों को ही नियुक्त किया जा सकता है। इस बारे में एक दस्तावेज बताता है कि 1950 से अब तक 44 मुख्य न्यायाधीश रिटायरमेंट के बाद कोई न कोई काम मंजूर कर चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट के सौ रिटायर्ड जजों में से 70 ने सरकारी मनोनयन से कोई दूसरा ओहदा संभाला है। कुछ मामलों में तो सुप्रीम कोर्ट के जजों को रिटायर होने के चार महीने पहले भी किसी आयोग में मनोनीत किया जा चुका है। इस बारे में पहले भी जानकार लोग यह बात लिख चुके हैं कि रिटायर होने के तुरंत बाद जजों को ऐसी कुर्सियां मंजूर करना खटकने वाली बात है जहां किसी गैरजज को भी मनोनीत किया जा सकता था। सरकार को सुहाने वाले फैसलों के बाद जब किसी जज को फायदे, सहूलियत, और अहमियत का कोई ओहदा दिया जाता है, तो वह शुकराना अधिक लगता है, और यह एक खतरनाक सिलसिला खड़ा करता है।
हमने राज्यों के स्तर पर तो उस राज्य के रिटायर्ड जज और अफसर से बचने की नसीहत दी ही थी, और यह भी सुझाया था कि राष्ट्रीय स्तर पर एक टैलेंट-पूल बनाना चाहिए जिसमें काम करना चाहने वाले रिटायर्ड लोग अपना नाम दर्ज करा सकें, और फिर दूसरे राज्यों की सरकारें उनमें से नाम छांट सकें। जिस राज्य में पूरी जिंदगी काम किया हो, या हाईकोर्ट में जज रहते हुए सरकार से जुड़े हुए बहुत से मामलों में फैसले दिए हों, उसी राज्य में उसी सरकार से वृद्धावस्था-पुनर्वास की बख्शीश पाना नाजायज है। अब राज्यों के स्तर पर तो दूसरे राज्यों से लोगों को लाना चल सकता है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सुप्रीम कोर्ट जजों को किसी दूसरे देश भेजना तो हो नहीं सकता। फिर भी इतना तो होना ही चाहिए कि जहां रिटायर्ड जज को ही नियुक्त करने की बंदिश न हो, वहां तो रिटायर्ड जजों को बिल्कुल न छुआ जाए, और राजभवन ऐसी ही एक जगह है। लोकतंत्र में सरकार और जजों को न सिर्फ ईमानदार रहना चाहिए, बल्कि उन्हें ईमानदार दिखना भी चाहिए। जहां कोई कानूनी बंदिश न हो, वहां पर ऐसी आजादी का नाजायज फायदा उठाकर यह तर्क देना बेईमानी है कि इस पर कोई कानूनी रोक नहीं है। लोकतंत्र में हर बात कानूनी रोक से काबू में नहीं की जाती है, कुछ गौरवशाली परंपराओं, और कुछ जनभावनाओं का भी ख्याल रखा जाता है। आज अपार, असाधारण, और जरूरत से ज्यादा बहुमत की सरकार कुछ भी कर सकती है, लेकिन उससे उसका हर फैसला लोकतांत्रिक और जायज नहीं हो जाता।
बड़ी अदालतों के फैसलों को नीचे की अदालतों में एक मिसाल की तरह पेश किया जाता है जिसे नजीर कहा जाता है। एस.अब्दुल नजीर ने, और केन्द्र सरकार ने भी देश के सामने एक बहुत खराब नजीर पेश की है। इन दोनों को ऐसा करने का हक है, लेकिन यह देश की लोकतांत्रिक भावनाओं, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, और जनभावनाओं के ठीक खिलाफ काम है, यह एक अच्छी नजीर नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)
चीन में सरकार बड़ी फिक्रमंद है कि अब देश की आबादी गिरना शुरू हो रही है। और अगर इस गिरावट में अलग-अलग उम्र के तबकों का एक संतुलन रहता, तो भी कोई बात नहीं रहती। हालत यह है कि नए बच्चे पैदा होना कम होते जा रहे हैं, और बूढ़ी आबादी टस से मस नहीं हो रही है। जिंदगी बेहतर होने, इलाज बेहतर होने की वजह से बूढ़े और अधिक बूढ़े होते चल रहे हैं, और मौत को धकेलते जा रहे हैं। लेकिन देश में उनका उत्पादक योगदान नहीं रह गया है, और वे या तो अपने परिवार, समाज पर बोझ हैं, या फिर सरकार पर। और सरकार की फिक्र यह है कि नौजवान या कामकाजी लोगों की उत्पादक आबादी का अनुपात गिरना नहीं चाहिए, वरना देश की कमाई कम होगी, और बूढ़ों पर खर्च अधिक होगा।
दरअसल चीन में आधी सदी पहले आबादी पर काबू पाने के लिए परिवारों के बच्चे पैदा करने पर रोक लगाई गई थी। इसमें शहरी इलाकों में शादीशुदा जोड़ों को एक बच्चा, और गांवों में दो बच्चे पैदा करने की छूट थी। इससे अधिक बच्चे पैदा करने पर सजा का इंतजाम था। नतीजा यह हुआ कि इस आधी सदी में लोगों के बच्चे कम हुए, वे बच्चे बिना भाई-बहन के बड़े हुए, और जब उनके मां-बाप बनने की बारी आई, तो उन्हें अपने बच्चों के भाई-बहन की बात न सूझी, न सही लगी। ऐसे में इस आधी सदी के भीतर ही चीन में आबादी बढऩा रूक गया, और इस बरस वहां होने वाली मौतों के साथ उसे जोडक़र देखें तो आबादी अब कम होना शुरू हो रही है।
जैसा कि हिन्दुस्तान में है, जब लोगों को एक ही बच्चा पैदा करना हो, तो अधिक लोग लडक़ा चाहते हैं, और चीन में भी ऐसी सोच रही, और गर्भपात से लोगों ने कन्या शिशु को रोका, और अब वहां आदमियों के मुकाबले शादी के लिए लड़कियां कम हैं, इसलिए भी शादियों में दिक्कत है, लड़कियां मिल नहीं रही हैं। दूसरी बात चीन की आज की अर्थव्यवस्था में एक से अधिक बच्चों को पालना भी बहुत बड़ा आर्थिक दबाव है, और लोग उसे उठाने की हालत में नहीं हैं। इस नौबत को सुलझाने के लिए सरकार वहां अधिक बच्चों पर कुछ किस्म की मदद और रियायत भी दे रही है, या देने जा रही है।
अब अगर चीन में कामकाजी जवानों का अनुपात कायम नहीं रहेगा, और बूढ़ों का अनुपात औसत उम्र बढऩे से बढ़ते चले जाएगा, तो एक बूढ़ा देश कामयाब अर्थव्यवस्था नहीं बन पाएगा। चीन में इस बात को लेकर बड़ी फिक्र हो रही है, लेकिन चीन से परे भी और देशों को अपने बारे में सोचना चाहिए। अब हिन्दुस्तान की बात करें, तो हिन्दुस्तान में आबादी को देश की हर दिक्कत की जड़़ मान लिया गया है। जिस आबादी की चीन को जरूरत लग रही है, वह आबादी हिन्दुस्तान में बेकार और बेरोजगार है, निठल्ली बैठी है। जो आबादी चीन की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ा रही है, और चीन को दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाकर चल रही है, वह आबादी हिन्दुस्तान में अगर बोझ है, तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है? नौजवान कामगारों और कारीगरों की, हुनरमंद लोगों की जो पीढ़ी न सिर्फ देश के भीतर उत्पादक रहती है, बल्कि दुनिया के दूसरे देशों में भी दूर-दूर तक जाकर काम करती है, कमाई करती है, हिन्दुस्तान में आज वह निठल्ली या ठलहा बैठी है। इसकी जिम्मेदारी इस देश और इसके प्रदेशों की सरकारों की है जो कि पूरी नौजवान पीढ़ी को काम के लायक बनाकर, उनके काम के मौके मुहैया कराकर देश को आगे बढ़ा सकती थीं, लेकिन वे बेरोजगारी भत्ता देने को अपनी कामयाबी मान रही हैं। जब आबादी पढ़ी-लिखी होती है, टेक्नालॉजी के काम कर सकती है, सरकार और बाजार मिलकर उसे काम दे सकते हैं, और सब लोग कमा सकते हैं, वहां पर उसे बेरोजगारी भत्ता देना देश-प्रदेश की सरकारों की परले दर्जे की नाकामयाबी है जिससे ऐसे देशों का पूरा भविष्य ही अंधेरे में डूब रहा है।
हिन्दुस्तान और चीन, इन्हीं दो देशों को अगल-बगल रखकर देखें, तो 2023 में चीन में न्यूनतम मजदूरी 268 यूरो है, और हिन्दुस्तान में 55 यूरो। बाकी आंकड़ों को देखें तो चीन की प्रतिव्यक्ति आय 2021 में 12564 डॉलर थी, और उसी वक्त हिन्दुस्तान में यह 2280 डॉलर प्रतिव्यक्ति थी जो कि 5वां हिस्सा भी नहीं थी। इस उत्पादकता को हम चीनी नागरिकों की सरकारी स्वास्थ्य सेवा से जोडक़र देखें, तो वह कुछ बरस पहले हिन्दुस्तानियों के मुकाबले प्रतिव्यक्ति तेरह गुना से अधिक थी। पढ़ाई के मामले में चीन का प्रतिव्यक्ति खर्च हिन्दुस्तान के प्रतिव्यक्ति से करीब सात गुना था। अब आंकड़ों पर अधिक न जाते हुए भी हम नौजवान पीढ़ी के कामकाजी बनने लायक पढ़ाई और स्वास्थ्य सेवा दो पैमानों को जरूर देख रहे हैं, और यह समझ पड़ रहा है कि चीन ने इन दोनों में खूब पूंजीनिवेश किया है, लोगों को हुनरमंद बनाया है, और उन्हें देश की उत्पादकता बढ़ाने वाला बनाया है। वहां की आबादी आधी सदी पहले वहां बोझ थी, और आज वहां पर दौलत बन गई है। कमाई की इस खदान का महत्व चीन को आधी सदी के भीतर समझ आ गया है, और आज वह आबादी बढ़ाते चलना चाह रही है। दूसरी तरफ आबादी को समस्या मानकर बैठे हुए हिन्दुस्तान में लोग आबादी को सिर्फ बेरोजगारी भत्ता देकर उसे खुश रखना चाहते हैं, जो कि देश पर एक बोझ भी है, और जिससे किसी उत्पादकता की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है।
चीन को कोसने के लिए हिन्दुस्तानियों को हजार वजहें मिल सकती हैं, लेकिन चीन से सीखने की वजहें तो चीन में अपनी नौजवान आबादी की इज्जत और जरूरत है, जिससे हिन्दुस्तान की बेरोजगारी भत्ता देने वाली सरकारों को बहुत कुछ सीखना चाहिए। जो देश इतनी बड़ी जमीन रहते हुए, इतनी समुद्री सरहदें रहते हुए, सूरज की इतनी रौशनी और धरती के भीतर इतने खनिज रहते हुए भी अपनी आबादी को बेरोजगारी भत्ता दे, वहां की सरकारों को डूब मरना चाहिए। चीन से दो-दो हाथ कर लेने के राष्ट्रवादी उन्मादी नारों से परे हकीकत यह है कि हिन्दुस्तान के बाजार, दुकानें, और कारखानें चीन से आए सामान के बिना चार दिन नहीं चल सकते, यह एक अलग बात है कि चीन हिन्दुस्तानी बाजार के बिना चार बरस भी चल सकता है।
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