संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : 2024 में मोदी का विकल्प न प्रशांत किशोर को मुमकिन दिख रहा है, और न ही हमें..
21-Mar-2023 3:44 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  2024 में मोदी का विकल्प न प्रशांत किशोर को मुमकिन  दिख रहा है, और न ही हमें..

हिन्दुस्तान के सबसे चर्चित चुनाव-रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने अभी किसी एक टीवी चैनल से बातचीत में अगले आम चुनाव को लेकर अपना जो अंदाज सामने रखा है, वह पूरी तरह से अनोखा तो नहीं है, क्योंकि बहुत से लोग यह मानते हैं कि डॉन को ढूंढने की तरह, मोदी को हराना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। ये शब्द किसी और के कहे हुए नहीं है, और यह हमारी अपनी एक मिसाल है, जो कि अलग-अलग तथ्यों और तर्कों से माकूल साबित होती है। हिन्दुस्तानी चुनावी राजनीति की हकीकत को देखें, तो मोदी को हराने की हसरत एक बड़ी दूर की कौड़ी दिखती है, और वह कौड़ी शायद फूटी हुई भी है। खैर, हम अपनी बात से यह चर्चा शुरू करने के बजाय प्रशांत किशोर की कही बातों पर आएं तो उन्होंने कहा कि विचारधारा के स्तर पर अलग-अलग बंटे होने के कारण विपक्षी एकता 2024 में काम नहीं करेगी। उन्होंने कहा कि विपक्षी एकता केवल दिखावा है, और पार्टियों और नेताओं को एक साथ लाने से ही यह साकार नहीं होगी। प्रशांत किशोर ने कहा अगर भाजपा को चुनौती देना चाहते हैं तो उसकी तीन ताकतों, हिन्दुत्व, राष्ट्रवाद, और कल्याणवाद को समझना होगा, और इनमें से कम से कम दो का मुकाबला किए बिना भाजपा को चुनौती नहीं दे सकते। प्रशांत किशोर ने अपने अब तक की आखिरी राजनीतिक पहल का भी खुलासा किया, और कहा कि कांग्रेस से उनके संपर्क का मकसद कांग्रेस को दुबारा खड़ा करना था, जबकि उनका मकसद चुनाव जीतना था, इसलिए सहमति नहीं हुई। 

अब प्रशांत किशोर की बातों को कुछ पल के लिए छोड़ भी दें, तो भी हिन्दुस्तान की हकीकत तो देश के नक्शे पर साफ-साफ लिखी हुई है। शुरूआत देश के उन दो बड़े राज्यों से करें जहां से लोकसभा की सबसे अधिक सीटें आती हैं। उत्तरप्रदेश और बिहार इन दोनों की राजनीति यह कहती है कि इन दोनों जगहों पर कांग्रेस अधिक सीटें जीतने की हालत में नहीं है। बिहार में कांग्रेस कुल एक सीट पर जीती थी, और उसका यही हाल उत्तरप्रदेश में भी था। इन नतीजों के चलते हुए वह बिहार में किसी गठबंधन में भी एक से अधिक सीट शायद ही पाए, और यूपी में तो न सपा न बसपा, कांग्रेस से गठबंधन को कोई भी तैयार नहीं है। ऐसे में कांग्रेस देश भर में अपनी मौजूदगी के दावे पर तो खरी है, लेकिन उसके हाथ में सीटें बहुत कम हैं, और अब से लेकर 2024 के चुनाव तक अगर धरती और आसमान में कुछ उलट-पुलट न हो जाए, तो आज ऐसी कोई वजह नहीं दिखती है कि कांग्रेस की सीटें बढ़ सकें। लेकिन दूसरी तरफ राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से कांग्रेस पार्टी एक बड़ी खुशफहमी में जरूर पड़ गई है कि राहुल विपक्ष के इतने बड़े नेता हैं कि विपक्षी एकता का कोई भी गणित राहुल को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर ही सुलझाया जा सकेगा। कांग्रेस की यह घरेलू दिक्कत जरूर है कि राहुल से परे किसी और के नाम पर सोचने की कोई गुंजाइश नहीं है, और यह बात हकीकत भी है कि डेढ़ सौ दिनों के इस सफर ने राहुल को अपने ही पदयात्रा के पहले के कद से बहुत बड़ा कर दिया है। इससे एक दिक्कत भी हुई है, राहुल, और उनसे बढक़र उनकी पार्टी को भारत जोड़ो से जो आत्मविश्वास मिला है, उससे कांग्रेस पार्टी अपने आपको विपक्षी मोर्चे का स्वाभाविक मुखिया मानने लगी है, और राहुल को इस मोर्चे का नेता। यह कांग्रेस की पसंद हो सकती है, लेकिन विपक्षी मोर्चे में शामिल होने वाले दलों के लिए यह अगुवाई मंजूर करना आसान भी नहीं है, शायद बिल्कुल भी मुमकिन नहीं है।

देश के एक-एक करके हर राज्य को देखें, तो वहां क्षेत्रीय पार्टियां एक-दूसरे के मुकाबले इस तरह डटी हुई हैं कि भाजपा के अगुवाई वाले गठबंधन, और कांग्रेस के अगुवाई वाले गठबंधन में से किसी भी एक में ऐसी दो क्षेत्रीय पार्टियां जाने की नहीं सोच सकती हैं। यूपी में सपा और बसपा, बंगाल में ममता और वामपंथी, पंजाब में अकाली, कश्मीर में अब्दुल्ला और महबूबा, आंध्र में चंद्राबाबू नायडू और जगन मोहन, तेलंगाना में सत्तारूढ़ टीआरएस पहले ही कांग्रेस और भाजपा दोनों से परे रहने की मुनादी कर चुकी है। अधिकतर जगहों पर क्षेत्रीय पार्टियां आपसी टकराहट की वजह से किसी एक गठबंधन में नहीं जाएंगी, और ऐसे में केन्द्र की ताकत, और एक-एक करके अधिकतर प्रदेशों में सत्ता पर पहुंच चुकी एनडीए के मुकाबले लोगों को जोडऩा तकरीबन नामुमकिन लगता है। अब ऐसे में लोगों को जोडऩे की एक तरकीब हो सकती थी कि कांग्रेस सबसे फैली हुई, सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी होने के बावजूद अगर प्रधानमंत्री पद पर दावा नहीं करती, तो कुछ पार्टियां उसके साथ जुड़ सकती थीं, लेकिन जिस देश में गुजराल और देवेगौड़ा जैसे नेता भी प्रधानमंत्री बन चुके हैं, वहां पर देश के कम से कम आधा दर्जन नेताओं का ऐसा सपना देखने का तो बड़ा जायज हक बनता है। हालात कब किसे ले जाकर प्रधानमंत्री बना दें, इसका ठिकाना नहीं रहता, इसलिए आज ममता से लेकर अखिलेश तक, और नीतीश से लेकर पवार तक, बहुत से लोगों को ऐसा गठबंधन नागवार गुजर सकता है जिसका पीएम-प्रत्याशी अभी से राहुल गांधी को बना दिया जाए। 

हमने कुछ अरसा पहले भी इसी जगह पर यह बात लिखी थी कि राहुल और कांग्रेस के सामने आज बड़ी चुनौती कांग्रेस को एक रखना नहीं है, बल्कि विपक्षी एकता की कोशिश करना है। लेकिन यह कोशिश शुरू भी हो, उसके पहले कांग्रेस के कुछ बड़बोले नेता शुरू हो जाते हैं कि कोई भी गठबंधन तभी मुमकिन है, जब राहुल उसके नेता, और पीएम-प्रत्याशी हों। आज जब लोग एक-दूसरे से मिलकर किसी गठबंधन की संभावनाएं टटोल ही रहे हैं, उस वक्त कांग्रेस पार्टी एक पार्टी के रूप में, या उसके नेता राहुल की तरफ से अगर ऐसी बातें करेंगे कि लूडो के खेल में छह आने पर ही गोटी बाहर निकलने जैसी शर्त गठबंधन में राहुल को मुखिया बनाने की रहेगी, तो फिर यह बातचीत का माहौल भी नहीं रहेगा। गठबंधन के मुखिया की बात तो उस वक्त होनी चाहिए जब गठबंधन की पार्टियों की जीती हुई सीटों की लिस्ट सामने रहे। यह बात सही है कि कांग्रेस के लिए यह नौबत बहुत आसान नहीं है, कि वह पार्टी के रूप में अपने को सबसे ऊपर रखे, और राहुल गांधी को नेता बनाने को पहली शर्त रखे, या फिर वह विपक्षी एकता की कोशिश करे। ये दोनों बातें साथ चलते नहीं दिख रही हैं। प्रशांत किशोर के तर्क अलग हो सकते हैं, और हमारे आज के यहां गिनाए गए तर्क कुछ अलग, लेकिन इन दोनों से अंदाज यही बैठता है कि 2024 के चुनाव में मोदी जैसा कोई नहीं के हालात दिख रहे हंै। पार्टियां अपने को बचाने, अपने नेता को बचाने, विपक्ष को बचाने, और भारतीय लोकतंत्र को बचाने के बीच प्राथमिकताएं तय करने में बहुत तंगदिली, और तंगनजरिए का शिकार दिख रही हैं। 

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