संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ट्रेन हादसे में सैकड़ों मौतें तो ठीक हैं, रोजाना भी ट्रेनों का हाल भयानक है
03-Jun-2023 3:53 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ट्रेन हादसे में सैकड़ों मौतें तो ठीक हैं, रोजाना भी ट्रेनों का हाल भयानक है

हिन्दुस्तान के ताजा इतिहास का सबसे बुरा रेल हादसा बीती शाम हुआ जब ओडिशा से गुजर रही एक ट्रेन के कई डिब्बे पटरी से उतरे, और वे बगल की पटरी पर जा रही एक दूसरी ट्रेन से जा टकराए, और एक मालगाड़ी इन दोनों से टकराई। नतीजा बहुत ही तकलीफदेह रहा, अब तक 238 मौतों की जानकारी पुख्ता है, और करीब हजार लोग जख्मी हुए हैं। पिछला ऐसा बड़ा हादसा पिछली सदी में 1999 में हुआ था जिसमें 285 लोग मारे गए थे। तब से अब तक इन 25 बरसों में भारत की रेल टेक्नालॉजी में हिफाजत लगातार बढऩे की बात की जाती रही है, और मौजूदा रेलमंत्री ने एक मंच से यह दावा किया था कि भारत की कवच नाम की सुरक्षा तकनीक दुनिया की सबसे अच्छी सुरक्षा तकनीकों के टक्कर की है, और आमने-सामने आती हुई ट्रेनें भी खुद चार सौ मीटर दूर ठहर जाएंगी। उसका वीडियो लोगों ने आज पोस्ट किया है, और रेलमंत्री का यह दावा कल शायद सही साबित नहीं हुआ है। 

हम किसी हादसे की प्रारंभिक जांच के भी पहले उसकी जवाबदेही तय करना नहीं चाहते, लेकिन रेलों का जो हाल है वह आम हिन्दुस्तानी के लिए बहुत बड़ी फिक्र का सामान है। लोगों का जीना मुहाल हो गया है, और गरीब ट्रेनों से भी बाहर हो रहे हैं, और रोजगार से भी। कल की दुर्घटना के सिलसिले में इस अखबार ने जनहित के मुद्दों को लेकर अदालत पहुंचने वाले एक प्रमुख वकील सुदीप श्रीवास्तव से बात की, तो उनका कहना था कि मोदी सरकार की नीतियों की वजह से पटरियों का ढांचा कमजोर हो रहा है, और रेल सुरक्षा बहुत बुरी तरह खतरे में आ चुकी है। उनका कहना है कि कई इंजन जोडक़र बड़ी-बड़ी रेलगाडिय़ां एक साथ चलाई जा रही हैं, जो कि पटरियों की क्षमता से अधिक है, और उनमें वक्त के पहले दरार आ रही है। उनसे हुई बातचीत इस अखबार के यूट्यूब चैनल पर आज हम पोस्ट करेंगे, लेकिन यह बात तो अपनी जगह महीनों से लिखी जा रही है कि किस तरह आम मुसाफिरों को लूटकर सरकार अधिक से अधिक मुनाफाखोरी कर रही है, और छोटे-छोटे स्टेशनों पर रेलगाडिय़ों का रूकना बंद करने से वहां से मजदूरी और रोजगार के लिए आने वाले लोगों की अर्थव्यवस्था तबाह हो गई है, पढऩे के लिए आने वाले छात्र-छात्राओं को शहरों में ही रहना पड़ रहा है, और वहां पर किराया बढ़ रहा है। रेलगाडिय़ों के बारे में भी लगातार यह छपते रहा है कि मोदी सरकार ने किस तरह भाड़ा बढ़ाया है, तत्काल जैसे नियमों को इस तरह बदला है कि ट्रेन के खाली डिब्बों में भी तत्काल से ही टिकट मिल रही है। अलग-अलग सौ किस्मों से लोगों को लूटा जा रहा है, और इस अंदाज में निजीकरण किया जा रहा है कि स्टेशन, ट्रेन, और कमाई की बाकी सुविधाएं सभी कारोबारियों के हाथ चली जाएं। 

हम रेलवे की टेक्नालॉजी के इतने बड़े जानकार नहीं हैं कि हम कल की दुर्घटना के बारे में अधिक अटकल लगा पाएं, लेकिन यह मौका भारत की रेल व्यवस्था के बारे में सोचने का है जहां पर सरकार ने कोयले की आवाजाही को ऐसी प्राथमिकता दे रखी है कि मुसाफिर गाडिय़ां दस-दस, बारह-बारह घंटे लेट होती हैं, स्टेशनों के बाहर खड़ी रहती हैं। ट्रेनों की जगह बताने वाले मोबाइल ऐप ट्रेन शुरू होते ही यह बता देते हैं कि आखिरी स्टेशन तक ट्रेन कितनी लेट होगी, किन स्टेशनों के बीच कितनी लेट होगी। हमें अपनी पूरी याद में पिछले कई दशकों में ट्रेनों की ऐसी बदहाली याद नहीं पड़ती है। दूसरी तरफ ट्रेनों को ही केन्द्र सरकार ने प्रचार का डिंडोरा पीटने का एक जरिया बना रखा है। प्रधानमंत्री खुद आए दिन कहीं न कहीं वंदे भारत नाम के एक नए ट्रेन-ब्रांड को झंडी दिखाते दिखते हैं। अब आम गाडिय़ों को रद्द कर दिया गया, हजारों स्टेशनों पर रूकना बंद कर दिया गया, आम मुसाफिर डिब्बे घटा दिए गए, कमाई देने वाले एसी डिब्बे बढ़ा दिए गए, और मानो इन तमाम तकलीफों को वंदे भारत नाम की एक दीवार उठाकर ट्रंप विजिट के वक्त अहमदाबाद की गरीब बस्तियों की तरह छुपा दिया गया। 

हिन्दुस्तानी रेलगाडिय़ां चौथाई सदी से अधिक से कामयाबी से चल रही थीं, वे बहुत कुछ समय पर चल रही थीं, बिना किसी तामझाम और हंगामे के नई गाडिय़ां समय-समय पर शुरू होती थीं, लेकिन उनके लिए मौजूदा गाडिय़ों को किनारे खड़ा नहीं किया जाता था। आज एशिया का यह सबसे बड़ा उद्योग बहुत बदहाली का शिकार है, और चूंकि यह केन्द्र सरकार का मोनोपोली कारोबार है, इसलिए इसकी बदहाली का कोई इलाज भी नहीं है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए, लेकिन यह समझ नहीं पड़ता है कि पहले यह सिलसिला खत्म होगा, या रेलवे पर सरकारी मालिकाना हक। एक-एक करके तमाम चीजों का जब निजीकरण हो जाएगा, तब कारोबारी जनता से और भी मनमानी उगाही करेंगे। सरकार ने जनकल्याण की अपनी जिम्मेदारी वैसे भी छोड़ दी है, ट्रेनों को मुनाफे का जरिया बनाने के लिए तमाम फैसले लिए जा रहे हैं। बुजुर्गों को मिलने वाली रियायत पहले तो लॉकडाउन और कोरोना के खतरे को गिनाकर रोकी गई थी, और फिर उसे पूरी तरह खत्म कर दिया गया। इसी तरह छोटे स्टेशन, सस्ते डिब्बों के मुसाफिर, छोटी सफर के लोग, इन सबको किस तरह खत्म किया जा सकता है, इस पर सरकार लगी हुई है क्योंकि निजीकरण के लिए सिर्फ मुनाफे वाला हिस्सा बचाकर रखना है। लोगों को इस बारे में हमसे अधिक जानकार लोगों का लिखा हुआ भी पढऩा चाहिए, और अपने अखबार वालों से, अपने निर्वाचित नेताओं से पूछना चाहिए कि वे इन मुद्दों को कितना उठा रहे हैं। लोगों का मानना है कि मायने रखने वाले तमाम लोग अब सिर्फ हवाई सफर करते हैं, इसलिए ट्रेन मुसाफिरों की तकलीफों से सब अपनी नजरें दूर रखते हैं। 

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सुनील से सुनें : रेलवे किस तरह, किस हद तक जनविरोधी...

हिन्दुस्तान के रेल हादसों के इतिहास में यह पहला मौका नहीं है कि इतने अधिक लोग मरे हैं, यह एक अलग बात है कि इस सदी में यह सबसे ही बड़ी दुर्घटना है, अब तक 261 मौतों की खबर है। हादसे की खबर के साथ-साथ वे वीडियो भी तैर रहे हैं कि किस तरह रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव ने यह दावा किया था कि भारतीय रेलवे के पास टक्कर रोकने के लिए कवच नाम की एक ऐसी सुरक्षा प्रणाली है जो कि ट्रेनों को चार सौ मीटर दूर ही रोक देती है। हकीकत यह है कि यह कवच कुल दो फीसदी जगहों पर ही अमल में है, और कल जहां हादसा हुआ वह जगह बिना कवच की थी। इस हादसे के अलावा भी भारतीय रेलवे कौन सी खामियों से गुजर रही है उस पर अदालत में पीआईएल लगाने वाले एक वकील सुदीप श्रीवास्तव से बातचीत में बहुत से मुद्दे सामने आए हैं जिनको सुनना और समझना जरूरी है। इस अखबार ‘छत्तीसगढ़’ के संपादक सुनील कुमार को सुनें न्यूजरूम से।


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